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सुदर्शिनी टीका ० १ ० ४५ दु सरकारनिरूपणम् वीजलतेजोवायु कायदुःखानि 'आमगाइ' अकामकानि-अवाञ्छनीयानि भवन्ति । पुनस्तान्येव विशदयति-' परप्पभोगोटीरणाहि य ' परप्रयोगोदीरणाभिश्च परेपा =स्वभिनाना जनाना य प्रयोगः व्यापारम्तेन उदीरणा =दुःसोत्पादनप्रेरणा स्ताभिः-स्वपयोजनपिरहेऽपि परकथन. नियोजनैरित्यर्थः, तथा-कज्जप्पभोयणेहि य' कार्ययोजनेश्व-आवश्यकमयोजनैश्च । कथम्भूतैरित्याह-'पेस्सपसुनिमित्तभोसहाहारमाइएहिं । मेवपशुनिमित्तौपधादारादिकैः प्रेग्या - भृत्या पशवा=गवादयस्तन्निमित्तानि रोगजुभुक्षादि नित्ति हेतु रानि यानि औषधाहारादीनि ते पृथिव्यादीना हिंमामकारानाह-उपसणण-उपत्यग-पयण-कोहण-पीमणपिट्टण-मज्जण-गालण-आमोडग-सडण-फुडण-भजण-डेयण-तच्छण विलुचण पतझोडण - अग्गिढहणादगाह' उत्खननोत्कथनपचनकुटनपेपणपिट्टनभर्जन गालना मोटनगटनस्फुटनभनन्दनतक्षगविलुञ्चनपानझोटनाग्निदहनाढीनि-तत्र जल, तेज, वायुगायों को जो इस प्रकार के दुःसां होते हैं रे ( अकामगाइ ) उन्हें अवान्छनीय होते है । पाप जीव पाप क्यों करते है-(परप्पओगोदीरणाहि य) अपना प्रयोजन हो तो भी दूसरो से कहने से, तथा (कज्जप्पओयणेहि य ) अपना आवश्यक कार्य से, ये कार्य कौन है ? सो करते है ( पेस्मपसुनिमित्तओसहाहारमाइएहिं ) प्रेप्य-भृत्य, पशुगाय भैंस आदि जानवरों के रोग, बुभुक्ष अदि की निवृत्ति के हेतुभूत औषध, आहार आदि के निमित्त से करते है। हिंसा के प्रकारों को कहते हैं (उरखणण-उकत्यण-पयण-कोहण-पीसण-पिट्टण-भज्जण गालण-आमोटण-सडण-कुडण-भजणन्डेयण-तच्छण-विलुचण-पत ज्झोटण-अग्गिदहणाइयाइ) उत्सनन आदि दुक्खो को एकेन्द्रिय की पर्याय मे प्राप्त होकर पृथिव्यादि जीव बनकर भोगते हैं। कुदाल आदि ते? मने पायुयाने मा पारेमा सोगवा ५ छ ते 'अामगाइ" તેમને અવાજનીય-અપ્રિય હોય છે પાપી જીવ પાપ શા માટે કરે છે? “ ओगोदीरणाहि य" पोताने भाटे ४ प प्रयोग न डाय ते ५५] मीना
पाथी, तथा “नापजोयणेहि य" पोताना आवश्य: जानि ० तेमा पा५ ४२ ते आर्या ४या या छ ? तो सूत्रा२ -" पेस्सपसुनिमित्त ओसहाहारमाइएहि " प्य-ना.२, पशु-आय, लेस माह नपरोना रोग, ભૂખ આદિના નિવારણ માટે, ઔષધ, આહાર આદિને નિમિત્તે તે કાર્ય કરે छ डिमाना प्राछ-" उपसणण-उक्त्यण-पयण-कोट्टण-पोसणपिट्टण-भज्नण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण-मनण-छेयण-तच्छण-बिलु चण-पवझोडण-अगिदहणाइयाइ" ते पापी यो मेन्द्रियनी पर्यायमा पृथिव्याति