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प्रमागरणसूत्र चिन्मनुष्यत्वमपि चेत्माप्नुयुस्तथाप्यधन्या एस जायन्ते इत्येतदाह-'जे पियें'त्यादि।
मूलम्-जे विय इह माणुसत्तणं आगया कह वि नरगा उज्वटिया अधन्ना ते विय दीसति पायसो विकयविगलरूवा खुजा बडभा य वामणा य पहिरा काणा कुटा पगुला विगल य मूया य मम्मणा य अधयगा य चखुधिणिया संचिल्लया वाहिरोगपीलिय अप्पाउय-सस्थवज्झबाला कुलक्खणुकिन्नदेहा दुबल कुसघयण-कुप्पमाण कुसंठिया कुरुवा किविणा य हीणा हीणसत्ता निच्चं सोरखपरिवजिया असुहदुस्खभागी परगाओ इह सावसेसकम्मा उठ्वटिया समाणा ॥ सू०४६॥
टीमा-'जेविय' येऽपि च-ये केचित् माणिन 'नरगा' नरकाद 'उबटिया' उद्वर्तिताः प्रत्यारत्ताः निस्मृता इत्यर्थ. 'कहिं गि' कथमपि-महताफप्टेन अनन्तजन्ममरणानामनन्त खमनुभूयेत्यर्थ., मनुष्यलोके 'माणुसत्तणे" मनुष्यत्व ' आगया' आगता प्राप्ता. 'तेपि य' तेऽपि च 'अपना' अपन्याः -निन्दनीयाः 'पायसो' प्रायशो बाहुल्येन, प्रायशो ग्रहण तीर्थङ्करादि-व्योवृत्त्य
को भी प्राप्त कर लें तो वहा भी वे खरान अवस्था में ही रहते हैं, इस बात को समझाते ह-(जे वि य ) इत्यादि ।
टीकार्थ-(जे वि य) जो कितनेक प्राणी (नरगा) नरक से (उन्वटिया) निकलकर (कहिं वि) कथमपि-कुछ, पुण्य के उदय से (इ) इस मनुष्यलोक मे (मानुसत्तण) मनुष्य पर्याय को ( आगया) प्राप्त कर लेते हैं (ते चि पायसो अधना ) प्रायः करके वे यहाँ (पायसो) शब्द तीर्थकर आदि की निवृत्ति के लिये आया है। (अधना) निंदनीय होते થાય તો ત્યાં તે પણ તેઓ ખરાબ હાલતમાં જ રહે છે, તે વાત હવે સૂર४६२ समावे-"जे पिय" ध्या
- जे विय" २ मा प्राणाया" नरगा" न२४माथी " उव्य हिया" नीजान “ कहिं वि" था। पुन्यना ध्यथी " इह " 21 मनुष्य सभा “माणुसत्तण" भनु पर्याय " आगया " प्रात ७२ छ "ते नि पायतो" प्राय शन ते मडीया " अधना " निहनीय होय छ “पायसो" २४ तीर्थ ४२ महिनी नितिने भाटे भूयो छ "-विक्रय