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सुशिनी टीका अ०१ सू० २७ पापिनो वेदनाकालनिरूपणम् १०५
टीका-एवम् उक्तरीत्या ते-पापकारिणः, 'पुनरुम्मायसचओरतत्ता' पूर्वकर्मकृतसञ्चयोपततापूर्वकृतानां कर्मणा सञ्चयेन समुपार्जनेन उपतप्ता = सन्ताप प्राप्ताः । निरयग्गिमहग्गिसपलित्ता । नरकाग्निमहाग्निसप्रदीप्ताःनरकण्याग्निः सन्तापकारस्त्वाद् नरकाग्नि', स महाग्निरिव अत्युत्कटत्वात् तेन समदीप्ता सतप्ता ' पाकम्मकारी । पापम्मकारिणः, 'गाढदुक्खमहन्भय' गाहदुःग्वमहाभया गाढेन-निरिटेन दुःखेन महाभया विशालभययुक्ता' ककस' फर्कशां-कठोराम् ' असाय' असाताम्-नसातनामवेदनीयम्र्मोना, 'सारीर' शारीरी 'मानम' मानसीं च दुरिह द्विविधा 'तिव्य' तीनाम् अतिशया 'वेयण' वेदना-पीडा दयन्ति-अनुभवन्ति । कियकालम् ? इत्याह-पहणि' बहूनि 'पलिओषमसागरोवमाणि 'पल्योपमसागरोपमाणि=पल्योपमाणा काल, . अथ सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पापी जीव नरकों में कैसी २ वेदना को कितने कालतक मोगते है-' एव ते ' इत्यादि।
टीकार्थ-(ग्व) इस प्रकार (ते पायकम्मकारी) वे पापकारी जीव (पुत्व कम्मकयसचओवतत्ता) पूर्वकर्म के लिये हुए सचय से अत्यत सतप्त होकर तथा सतापकारी होने से महाग्नि जैसी नरकरूप अग्नि से मनदीप्त होकर (पावारी) पापकारी जीव (गाढ दुक्खमभय ) निविड़दुख से अतिश दुखवाली ऐसी (ककस) कठोरातिकठोर (सरीर) शारिरीक, एव (माणस) मानसिक, (दुविह) दोनो प्रकार की (असाय वेयण) अमाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित (तिव्व वेयण) तीव्र वेदना को (वेदेति) भोगते है ऐसी वेदना को वे कितने काल तक भोगते हैं वह कहते हैं (यहणि पलिओवमसागरोवमाणि) इस तरह
હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે પાપી જીવ નરમા કેવી કેવી વેદનાને सा समय सुधा माग छ “एन ते" त्याह __टीर्थ-"एव" मा प्रभारी "ते पारकम्मकारी" पापा 4 "पुव्वकम्मकयसचओवतत्ता" पूर्व ४२सा ना सययथा अतिशय सतत थईने तथा सताश पाथी महा ममिथी सही थधने, “पावयारी" पापी छ "गाढदुक्समहब्भय " सय ४२ माथी भतिशय हुमपाजी, "कफस" मतिशय ४२, “सारीर" सRs मने “माणस" मानसि " दुविहे" मने प्रा२नी " असाय वेयण" मसात वहनीय उना यथा त्पन्न थयेस " तिव्वं वेयण" तीच वहनान" वेदेति" सागवे मेवी वहनाने तेमाल! समय सुधी लागवे छे ते सूत्रा२ मताले “यहूणि पलिओवमसागरोवमाणि' એ રોતે અનેક પ્રકારની વેદનાને તેઓ ઘણું જ પલ્યોપમ તથા સાગરોપમ प्र-१४