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सूत्रस्थान - अं० १.
( १९ )
प्रीणनंबृंहणंवृष्यं मेध्यंबल्यंमनस्करम् । जीवनीयंश्रमहरंश्वासकासनिबर्हणम् ॥ १०५ ॥ हन्तिशोणितपित्तञ्च सन्धानंविहतस्यच । सर्वप्राणभृतांसात्म्यंशमनंशोधनं तथा ॥ १०६ ॥ तृष्णानंदीपनीयं चश्रेष्टक्षीणक्षतेषुच । पाण्डुरोगेऽम्लपित्तेचशोगुल्मेतथोदरे॥ १०७॥अतीसारज्वरेदाहेश्वयथैौचविधीयते ॥ योनिशुक्र प्रदोषेषुमूत्रेष्वप्रसरेषुच ॥ १०८ ॥ पुरीषेग्रथितेपथ्यं वातपित्तविकारिणाम् । नस्याले पावगाहेषुवम नास्थापनेषुच ॥ ॥ १०९ ॥ विरेचनेस्नेह ने चपयः सर्वत्रयुज्यते । यथाक्रमंक्षीरगुणानेकैकस्य पृथक्पृथक् ॥ ११० ॥ अन्नपानादिकेऽध्याये भूयो वक्ष्याम्यशेषतः ॥ १११ ॥
अव दूधोंका और उनके गुण कर्म का कथन करते हैं । भेड, बकरी, गौ, भैंस, ऊँटनी, हथंनी, घोडी, स्त्री इन आठोंके दूध-मीठे, चिकने, शीतल, स्तनोंमें दूध चढानेवाले, पालनकर्त्ता, मांसवर्द्धक, वीर्यजनक, बुद्धि, बल, मनको ताकत देनेवाले, जीवनकर्ता, श्रमहर्ता श्वासकासनाशक, रक्तपित्तके हरनेवाले, संधानकर्ता ( टूटे स्थानको जोडनेवाले), संपूर्ण प्राणियोंको सात्म्य, दोषोंको शमन और शोधन करनेवाले, तृषानाशक, दीपनीय हैं और क्षतक्षीणमें अत्यंन्त पथ्य हैं तथा पाण्डुरोग, अम्लपित्त, शोष, गुल्म, उदररोग, अतिसार, ज्वर, दाह, सूजन, योनि-. दोष, शुक्रदोष, मूत्ररोग, मलकी गांठसी बंधना, इनमें पथ्य हैं और वात पित्तके रोगियोंको हितकर्ता हैं, इनका प्रयोग- नस्य, लेप, अवगाहन, वूमन, आस्थापन, विरेचन, स्नेहन इन कर्मोंमें किया जाता है । इस प्रकार सामान्यतासे दूधोंके गुणोंका वर्णन कर दिया है । आगे अन्नपानादिवर्णनाध्यायमें सबके गुणों का अलग २ वर्णन किया जायगा ॥ १०३ - १११ ॥
ar और थूहर के दूध के गुण ।
अथापरेत्रयो वृक्षाः पृथग्ये फलमूलिभिः । स्नुह्यर्काश्मन्तकास्तेपामिदंकर्म्म पृथक्पृथक् ॥ वमनेऽश्मन्तकविद्यात्स्नुहीक्षीरं विरेचने ॥ ११२ ॥
अब फलप्रधान व मूलप्रधान वृक्षसे अन्य तीन वृक्षोंका वर्णन करते हैं। वह यह है - १ थोहर, २ आक, ३ अश्मंतक ( कोविदार ) इनमें अश्मंतक वमन करानेमें, थोहरका दूध रेचन कराने में ॥ ११२ ॥