Book Title: Mahabharat Samhita Part 03
Author(s): Bhandarkar Oriental Research Institute
Publisher: Bhandarkar Oriental Research Institute
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE MAHABHARATA TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION VOLUME II KARNA., SALYA, SAUPTIKA-, STRI-, AND SANTI-PARVANS अधीतमस्तु जखि नाव PUBLISHED BY THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE POONA 1974 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All rights reserved Printed by Dr. R. N. Dandekar, at the Bhandarkar Institute Press, Poona 4 and Published by Dr. R. N. Dandekar, Hon. Secretary, Bhandarkar Oriental Research Instituto, Poona 4 (India). Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सितपाठात्मिका महाभारत-संहिता तृतीयः खण्डः कर्ण - शस्य - सौप्तिक - स्त्री - शान्ति - पर्वाणि श्रीतम अजलि नाक भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरेण प्रकाशिता पुण्यपत्तनम् शकाब्दाः 1896 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका pp. 1641-1803 1641-1803 1641-1643 1643-1644 1644-1648 1648-1652 1652-1654 1664-1684 1684-1797 1686-1688 1688-1694 1699-1702 1702-1705 1707-1710 8 कर्णपर्व मन्यायाः 1-19 / कर्णवधपर्व 1-19 इतराष्ट्रसंजयसंवादः 1-2 इतराष्ट्रगोकः / संजयवचनम् . पतराष्ट्रजल्पनम् 5 कर्णामिपेकः .. पोडवायुरदिवसः 7-21 सप्तदायुद्धदिवसः 22-67 कास्यसारथ्याभ्युपगमः 21 त्रिपुरवधोपाख्यानम् 25 मद्रककुत्सनम् 27 / / हंसकाकीयोपाख्यानम् 28 माहीकमद्रकमुत्सनम् 10 युधिडिरस्य अर्जुनं प्रति परुषवाक्यम् / इंगम कोषः। कृष्णेन भयोः कृतं सांत्वनम् 16-5. शासनवमः 10-11 कर्णार्जुनयुबम् 15-66 कर्णवधः 17 रणभूमिवर्णनम् 68 शुधिषिरामदः " 1 सत्यपर्व मन्यावाः 1-64 मलयपर्व 1-15 प्रवेशपर्व 17-18 .76 तीर्थयात्रापर्व 29-53 त्रितोपाख्यानम् 15 वन्दाभिषेक: 5-45 चावस्युपाख्यानम् 47 मैगीषम्योपाख्यानम् 19 बरकन्योपाख्यानम् 51 .. गदाबुनपर्व 5-41 दुर्योधनोभङ्गः 57 . बलदेववासुदेवसंवादः 59 होणिसेनापत्याभिषेकः 64 1746-1766 1776-1759 1783-1794 1795-1797 1797-1801 1801-1803 pp. 1804-1930 . 1804-1836 1836-1861 1862-1909 1875-1876 1888-1897 1898-1901 1901-1904 1906-1907 1909-1930 1916-1917 1918-1920 1928-1930 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pp. 1931-1959 - 10 सौप्तिकपर्व अध्यायाः 1-18 74 सौप्तिकपर्व 1-9 कौशिकदर्शनम् 1 शिवस्तुतिः . 79 ऐषीकपर्व 10-14 द्रौपदीपरिदेवितम् 11 ऐषीकोत्सर्गः 13-15 द्रौपदीप्रसादः 15 रुद्रमाहात्म्यम् 17-18 1931-1949 1931-1933 1939-1942 1949-1969 1951-1952 1953-1956 1956-1958 1958-1959 11 स्त्रीपर्व अध्यायाः 1-7 pp. 1960-1987 8. विशोकपर्व 1-8 81 स्त्रीपर्व 9-25 भयोभीमभजनम् 11 उत्तराविलापः 20 82 श्राद्धपर्व 26 83 जलप्रदानिकपर्व 27 . - 1960-1967 1967-1985 1969-1970 1978-1979 1985-1986 1987 pp. 1988-2491 12 शान्तिपर्व अध्यायाः 1-353 44 राजधर्मपर्व 1-128 ऋषिशकुनिसंवादः 11 जनकोपाख्यानम् 18 देवस्थानवाक्यम् 20-21 शङ्खलिखितोपाख्यानम् 24 / हयग्रीवोपाख्यानम् 25 सेनजिद्-वाक्यम् 26 अश्मजनकसंवादः 28 षोडशराजकीयोपाख्यानम् 29 सुवर्णष्ठीव्युपाख्यानम् 31 चार्वाकचरितकथनम् 39 कृष्णनामशतस्तुतिः 43 भीष्मस्तवराजः 47 जामदग्न्योपाख्यानम् 49 इन्द्रमान्धातृसंवादः 64-65 मनुराजकरणोपन्यासः 67 बृहस्पतिकौसल्यसंवादः 68 पुरूरवःपवनसंवादः 73 1988-2160 1998-1999 2007-2008 2009-2010 2012-2013 2013-2014 2014-2016 2017-2019 2019-2024 2026-2028 2037-2038 2040-2041 2044-2046 2047-2050 2071-2075 2076-2077 2077-2080 2085-2086 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलकश्यपसंवादः 74 मुचुकुन्दोपाख्यानम् 75 केकयराजराक्षससंवादः 78 वासुदेवनारदसंवादः 82 कालकवृक्षीयोपाख्यानम् 83 शक्रबृहस्पतिसंवादः 85 उतथ्यगीता 91-92 वामदेवगीता 93-95 इन्द्राम्बरीषसंवादः 99 इन्द्रबृहस्पतिसंवादः 104 कालकवृक्षीयम् 105-107 / म्याघ्रगोमायुसंवादः 112 उष्ट्रशिरोग्रीवकथनम् 113 / / सरित्सागरसंवादः 114 श्वर्षिसंवादः 117-119 वसुहोममान्धातृसंवादः 122 कामन्दाङ्गारिष्ठसंवादः 123 ऋषभसुमित्रसंवादः 125-126 यमगौतमसंवादः 127 45 भापद्धर्मपर्व 129-167 कापण्यानुशासनम् 133 शकुलाख्यानम् 135 मार्जारमूषकसंवादः 136 ब्रह्मदत्तपूजनीसंवादः 137 कणिकशगुंतपसंवादः 138 विश्वामित्रश्वपचसंवादः 139 कपोतलुब्धकसंवादः 141-145 इन्द्रोतशौनकपारिक्षितीयम् 146-148 गृध्रजम्बुकसंवादः 149 शल्मलिपवनसंवादः 150-151 खगोत्पत्तिः 160 कृतघ्नगौतमोपारुषानम् 162-167 6 मोक्षधर्मपर्व 168-353 सेनजिपिङ्गलागीते 168 पितापुत्रसंवादः 169 शम्याकगीता 170 मङ्किगीता 171 प्रहादाजगरसंवादः 172 कश्यपसृगालसंवादः 173 2086-2088 2088-2089 2091-2092 2096-2097 2097-2100 2102 2108-2112 2112-2114 2117-2119 2124-2126 2126-2130 2134-2137 2137-2138 2138-2139 2141-2144 2149-2151 2151 2454-2157 2167-2168 2160-2219 2163 2164-2165 2165-2172 2172-2176 2176-2178 2179-2183 2184-2188 2188-2191 2191-2196 2196-2198 2207-2210 2212-2219 2219-2491 2219-2221 2221-2223 2223-2224 2224-2226 2226-2227 2228-2229 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगुभरद्वाजसंवादः 175-185 . अध्यात्मकथनम् 187 ध्यानयोगः 188 मापकोपाख्यानम् 189-193 मनुवृहस्पतिसंवादः 194-199 केवावमाहात्म्यम् 200 दिक्पालककीर्तनम् 201 विष्णोः वराहरूपम् 202 गुरुशिष्यसंवादः ( वार्ष्णेयाध्यात्मम् ) 201-210 जनकपञ्चशिखसंवादः 211-212 इन्द्रप्रहादसंवादः 215 बलिवासवसंवादः 212-218 चक्रनमुचिसंवादः 219 बलिवासवसंवादः 220 श्रीवासवसंवादा 221 मैगीषम्यासितसंवादः 222 वासुदेवोग्रसेनसंवादः 223 शुकानुप्रश्नः 224-24. (मविकम्पकनारदसंवादे) मृत्यूत्पत्तिः 240-250 तुलाधारजाजलिसंवादा 253-255 विचलनुगीता 257 चिरकारिकोपाख्यानम् 258 सत्यवद्-धुमत्सेनसंवादः 259 कपिलगोसंवादः 260-262 कुण्डधारोपाख्यानम् 263 उन्छवृत्तेः पुरावृत्तम् 264 भारददेवलसंवादः 297 माण्डग्यजनकसंवादः 268 हारीतगीता 219 वृत्रगीता 270-271 वनवधः 272-273 ज्वरोत्पत्तिः 274 नारदसमङ्गसंवादः 275 नारदगाढवसंवादः 276 . भरिएनेमिसगरसंवादः 277 काग्योपाख्यानम् 200 पराशरगीता 279-28. इंससाध्यसंवादः 288 योगकथनम् 289 सांस्यवर्णनम् 290 2230-2241 2243-2245 2245-2246 2246-2254 2254-2260 2261-2263 2263-2264 2264-2265 2266-2274 2274-2278 2279-2280 2281-2285 2286-2287 2287-2291 2291-2294 2294-2295 2295-2296 2296-2321 2321-2324 2326-2332 2332-2333 2333-2336 2336-2337 2337-2343 2343-2345 2345-2346 2347-2349 2349 2349-2369 2350-2355 2366-2359 2359-2361 2362-2363 2363-2365 2365-2366 2366-2368 2368-2379 2379-2382 2382-2384 2384-2388 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) बसिाकराळजवकसंवादः 291-296 भृगुजनकसंवादः 297 बाइवल्यजनकसंवादः 298-301 पञ्चशिखजनकसंवादः 30. सुलभाजनकसंवादः 300 यावकाभ्यायः (द्वैपायनशुकसंवादः) 309 चुक्चरितम् 310-120 मरनारायणीयम् 121-339 महापुरुषस्तवः 325 भगवनामनिर्वचनम् 328 ग्रामणमाहात्म्यमनिषोमीयात्मकम् 329 भगवनामनिर्वचनम् 330 उम्बृत्त्युपाख्यानम् 340-353 2388-2399 2399-2400 2400-2411 2411-2412 2412-2418 2418-2422 2422-2439 2439-2483 2447-2448 2457-2459 2459-2464 2464-2467 2483-2491 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CORRIGENDA read for 9. 1. 9. 2. 360 9. 6. 23 9. 33. 18 9. 55. 13 9. 56. 36 9. 62. 16 9. 69. 15 12. 136. 23deg 12. 137. 81 12. 140. 25deg अलम्बुसम् एतज्ज्ञात्वा रोमहर्षणः रोमहर्षणाः रोमहर्षणम् रोमहर्षणे अलंबुसम् एतच्छ्रुत्वा कोमहर्षणः कोमहर्षणाः लोमहर्षणम् कोमहर्षणे शेते चण्डालः चाण्डाल: पञ्चमम् तस्साबतीक्ष्णभूतानां पश्चकम् तस्मादभीक्ष्णभूतानां Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः खण्डः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णपर्व निष्कर्गोभिर्हिरण्येन वासोभिश्च महाधनैः / वैशंपायन उवाच / . वय॑माना जयाशीर्भिः सूतमागधबन्दिभिः // 12 खतो द्रोणे हते राजन्दुर्योधनमुखा नृपाः / तथैव पाण्डवा राजन्कृतसर्वाह्निकक्रियाः / / पशमुद्विग्नमनसो द्रोणपुत्रमुपागमन् // 1 शिबिरान्निर्ययू राजन्युद्धाय कृतनिश्चयाः // 13 से द्रोणमुपशोचन्तः कश्मलाभिहतौजसः / ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम् / सुपासन्त शोकास्तितः शारद्वतीसुतम् // 2 कुरूणां पाण्डवानां च परस्परवधैषिणाम् // 14 मुहूर्त ते समाश्वास्य हेतुमिः शास्त्रसंमितैः / तयोर्ते दिवसे युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः / वित्र्यागमे महीपालाः स्वानि वेश्मानि भेजिरे // 3 कर्णे सेनापतौ राजन्नभूदद्भुतदर्शनम् // 15 विशेषतः सूतपुत्रो राजा चैव सुयोधनः / ततः शत्रुक्षयं कृत्वा सुमहान्तं रणे वृषः / शासनोऽथ शकुनिर्न निद्रामुपलेभिरे // 4 पश्यतां धार्तराष्ट्राणां फल्गुनेन निपातितः // 16 ते वेश्मस्वपि कौरव्य पृथ्वीशा नाप्नुवन्सुखम् / ततस्तत्संजयः सर्वं गत्वा नागाह्वयं पुरम् / शिन्तयन्तः क्षयं तीव्र निद्रां नैवोपलेभिरे // 5 आचख्यौ धृतराष्ट्राय यद्वृत्तं कुरुजाङ्गले // 17 सहितास्ते निशायां तु दुर्योधननिवेशने / . जनमेजय उवाच / अतिप्रचण्डाद्विद्वेषात्पाण्डवानां महात्मनाम् // 6 आपगेयं हतं श्रुत्वा द्रोणं च समरे परैः / उपत्यूतपरिश्लिष्टां कृष्णामानिन्यिरे सभाम् / यो जगाम परामाति वृद्धो राजाम्बिकासुतः॥ 18 सस्मरन्तोऽन्वतप्यन्त भृशमुद्विग्नचेतसः // 7 स श्रुत्वा निहतं कर्ण दुर्योधनहितैषिणम् / चिन्तयन्तश्च पार्थानां तान्क्लेशान्तकारितान् / कथं द्विजवर प्राणानधारयत दुःखितः // 19 कृच्छ्रेण क्षणदां राजन्निन्युरन्दशतोपमाम् // 8 यस्मिञ्जयाशां पुत्राणाममन्यत स पार्थिवः / लसः प्रभाते विमले स्थिता दिष्टस्य शासने / तस्मिन्हते स कौरव्यः कथं प्राणानधारयत् // 20 माकुरावश्यकं सर्वे विधिदृष्टेन कर्मणा // 9 दुर्मरं बत मन्येऽहं नृणां कृच्छ्रेऽपि वर्तताम् / ते कृत्वावश्यकार्याणि समाश्वस्य च भारत / यत्र कणं हतं श्रुत्वा नात्यजज्जीवितं नृपः // 21 योगमाज्ञापयामासुयुद्धाय च विनिर्ययुः // 10 तथा शांतनवं वृद्धं ब्रह्मन्बाह्निकमेव च / कर्ण सेनापतिं कृत्वा कृतकौतुकमङ्गलाः / द्रोणं च सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च // 22 पाचयित्वा द्विजश्रेष्ठान्दधिपात्रघृताक्षतैः // 11 तथैव चान्यान्सुहृदः पुत्रपौत्रांश्च पातितान् / अ. भा. 206 - 1641 - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 1. 23 ] महाभारते [8. 2. 1 श्रुत्वा यन्नाजहात्प्राणांस्तन्मन्ये दुष्करं द्विज / / 23 | यस्य प्रसादात्कौन्तेया राजपुत्रा महाबलाः / एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण तपोधन। महारथत्वं संप्राप्तास्तथान्ये वसुधाधिपाः // 38 न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्चरितं महत् // 24 तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा धृष्टद्युम्नेन संयुगे। वैशंपायन उवाच।। सत्यसंधं महेष्वासं भृशं मे व्यथितं मनः // 39 हते कर्णे महाराज निशि गावल्गणिस्तदा / त्रैलोक्ये यस्य शास्त्रेषु न पुमान्विद्यते समः / ' दीनो ययौ नागपुरमश्वैर्वातसमैर्जवे // 25 तं द्रोणं निहतं श्रुत्वा किमकुर्वत मामकाः // 40 स हास्तिनपुरं गत्वा भृशमुद्विग्नमानसः / संशप्तकानां च बले पाण्डवेन महात्मना / जगाम धृतराष्ट्रस्य क्षयं प्रक्षीणबान्धवम् // 26 धनंजयेन विक्रम्य गमिते यमसादनम् // 41 स समुद्वीक्ष्य राजानं कश्मलाभिहतौजसम् / / नारायणास्त्रे निहते द्रोणपुत्रस्य धीमतः / ववन्दे प्राञ्जलिर्भूत्वा मूर्धा पादौ नृपस्य ह // 27 हतशेषेष्वनीकेषु किमकुर्वत मामकाः // 42 संपूज्य च यथान्यायं धृतराष्ट्रं महीपतिम् / विप्रद्रुतानहं मन्ये निमग्नः शोकसागरे। हा कष्टमिति चोक्त्वा स ततो वचनमाददे // 28 प्लवमानान्हते द्रोणे सन्ननौकानिवार्णवे // 43 संजयोऽहं क्षितिपते कच्चिदास्ते सुखं भवान् / दुर्योधनस्य कर्णस्य भोजस्य कृतधर्मणः / स्वदोषेणापदं प्राप्य कच्चिन्नाद्य विमुह्यसि // 29 मद्रराजस्य शल्यस्य द्रौणेश्चैव कृपस्य च // 44 हितान्युक्तानि विदुरद्रोणगाङ्गेयकेशवैः / मत्पुत्रशेषस्य तथा तथान्येषां च संजय। . अगृहीतान्यनुस्मृत्य कच्चिन्न कुरुषे व्यथाम् // 30 विप्रकीर्णेष्वनीकेषु मुखवर्णोऽभवत्कथम् // 45 रामनारदकण्वैश्च हितमुक्तं सभातले / एतत्सर्वं यथा वृत्तं तत्त्वं गावल्गणे रणे। नगृहीतमनुस्मृत्य कञ्चिन्न कुरुषे व्यथाम् // 31 आंचक्ष्व पाण्डवेयानां मामकानां च सर्वशः // 46 सुहृदस्त्वद्धिते युक्तान्भीष्मद्रोणमुखान्परैः / संजय उवाच। निहतान्युधि संस्मृत्य कञ्चिन्न कुरुषे व्यथाम् // 32 पाण्डवेयैर्हि यद्वृत्तं कौरवेयेषु मारिष / तमेवंवादिनं राजा सूतपुत्रं कृताञ्जलिम् / तच्छ्रुत्वा मा व्यथां कार्षीर्दिष्टे न व्यथते मनः॥४७ सुदीर्घमभिनिःश्वस्य दुःखात. इदमब्रवीत् // 33 / / यस्मादभावी भावी वा भवेदर्थो नरं प्रति / गाङ्गेये निहते शूरे दिव्यास्त्रवति संजय / अप्राप्तौ तस्य वा प्राप्तौ न कश्चिद्व्यथते बुधः॥४८ द्रोणे च परमेष्वासे भृशं मे व्यथितं मनः // 34 धृतराष्ट्र उवाच / यो रथानां सहस्राणि दंशितानां दशैव हि / न व्यथा शृण्वतः काचिद्विद्यते मम संजय / अहन्यहनि तेजस्वी निजन्ने वसुसंभवः // 35 दिष्टमेतत्पुरा मन्ये कथयस्व यथेच्छकम् // 49 स हतो यज्ञसेनस्य पुत्रेणेह शिखण्डिना। इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि प्रथमोऽध्यायः // 1 // पाण्डवेयाभिगुप्तेन भृशं मे व्यथितं मनः // 36 भार्गवः प्रददौ यस्मै परमास्त्रं महात्मने / संजय उवाच / साक्षाद्रामेण यो बाल्ये धनुर्वेद उपाकृतः // 37 / हते द्रोणे महेष्वासे तव पुत्रा महारथाः / - 1642 - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 2.1] कर्णपर्व [8. 3. 8 बभूवुराश्वस्तमुखा विषण्णा गतचेतसः // 1 शीलवन्तः कृतास्त्राश्च द्रक्ष्यथाद्य परस्परम् // 16 अवाङ्मुखाः शस्त्रभृतः सर्व एव विशां पते / / एवमुक्ते महाराज कर्णो वैकर्तनो नृपः। अप्रेक्षमाणाः शोकार्ता नाभ्यभाषन्परस्परम् // 2 सिंहनादं विनद्योच्चैः प्रायुध्यत महाबलः // 17 वान्दृष्ट्वा व्यथिताकारान्सैन्यानि तव भारत / स सृञ्जयानां सर्वेषां पाञ्चालानां च पश्यताम् / अर्ध्वमेवाभ्यवेक्षन्त दुःखत्रस्तान्यनेकशः // 3 केकयानां विदेहानामकरोत्कदनं महत् // 18 शखाण्येषां च राजेन्द्र शोणिताक्तान्यशेषतः।। तस्येषुधाराः शतशः प्रादुरासशरासनात् / प्राभ्रश्यन्त कराग्रेभ्यो दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम् // 4 / अग्रे पुढे च संसक्ता यथा भ्रमरपतयः // 19 शानि बद्धान्यनिष्टानि लम्बमानानि भारत। - स पीडयित्वा पाञ्चालान्पाण्डवांश्च तरस्विनः / अदृश्यन्त महाराज नक्षत्राणि यथा दिवि // 5 / हत्वा सहस्रशो योधानर्जुनेन निपातितः॥२० तयात स्तिमितं दृष्ट्वा गतसत्त्वमिव स्थितम् / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि स्वं बलं तन्महाराज राजा दुर्योधनोऽब्रवीत् // 6 द्वितीयोऽध्यायः // 2 // भवतां बाहुवीर्यं हि समाश्रित्य मया युधि / पाण्डवेयाः समाहूता युद्धं चेदं प्रवर्तितम् / / 7 वैशंपायन उवाच / तदिदं निहते द्रोणे विषण्णमिव लक्ष्यते। एतच्छ्रुत्वा महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। युध्यमानाश्च समरे योधा वध्यन्ति सर्वतः॥ 8 शोकस्यान्तमपश्यन्वै हतं मत्वा सुयोधनम् / जयो वापि वधो वापि युध्यमानस्य संयुगे। विह्वलः पतितो भूमौ नष्टचेता इव द्विपः // 1 भवेत्किमत्र चित्रं वै युध्यध्वं सर्वतोमुखाः॥९ तस्मिन्निपतिते भूमौ विह्वले राजसत्तमे। पश्यध्वं च महात्मानं कणं वैकर्तनं युधि / आर्तनादो महानासीत्स्त्रीणां भरतसत्तम // 2 प्रचरन्तं महेष्वासं दिव्यैरस्त्रैमहाबलम् / / 10 स शब्दः पृथिवीं सर्वां पूरयामास सर्वशः / यस्य वै युधि संत्रासात्कुन्तीपुत्रो धनंजयः। शोकार्णवे महाघोरे निमग्ना भरतस्त्रियः॥३ निवर्तते सदामर्षात्सिंहाक्षुद्रमृगो यथा // 11 राजानं च समासाद्य गान्धारी भरतर्षभ / येन नागायुतप्राणो भीमसेनो महाबलः / निःसंज्ञा पतिता भूमौ सर्वाण्यन्तःपुराणि च // 4 मानुषेणैव युद्धेन तामवस्थां प्रवेशितः // 12 ततस्ताः संजयो राजन्समाश्वासयदातुराः। येन दिव्यास्त्रविच्छूरो मायावी स घटोत्कचः। मुह्यमानाः सुबहुशो मुञ्चन्त्यो वारि नेत्रजम् // 5 अमोघया रणे शक्त्या निहतो भैरवं नदन् // 13 समाश्वस्ताः स्त्रियस्तास्तु वेपमाना मुहुर्मुहुः। तस्य दुष्पारवीर्यस्य सत्यसंधस्य धीमतः। कदल्य इव वातेन धूयमानाः समन्ततः॥६ बाह्वोर्द्रविणमक्षय्यमद्य द्रक्ष्यथ संयुगे॥ 14 राजानं विदुरश्चापि प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् / द्रोणपुत्रस्य विक्रान्तं राधेयस्यैव चोभयोः / आश्वासयामास तदा सिग्नंस्तोयेन कौरवम् // 7 पाण्डुपाञ्चालसैन्येषु द्रक्ष्यथापि महात्मनोः // 15 / स लब्ध्वा शनकैः संज्ञां ताश्च दृष्ट्वा स्त्रियो नृप। सर्व एव. भवन्तश्च शूराः प्राज्ञाः कुलोद्गताः। उन्मत्त इव राजा स स्थितस्तूष्णीं विशां पते // 8 -1643 - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 3.9] महाभारते [8. 4. 21 ततो ध्यात्वा चिरं कालं निःश्वसंश्च पुनः पुनः। अधं निहत्य सैन्यस्य कर्णो वैकर्तनो हतः॥६ स्वान्पुत्रान्गर्हयामास बहु मेने च पाण्डवान् // 9 विविंशतिर्महाराज राजपुत्रो महाबलः / गर्हयित्वात्मनो बुद्धिं शकुनेः सौबलस्य च। आनर्तयोधाशतशो निहत्य निहतो रणे // 7 ध्यात्वा च सुचिरं कालं वेपमानो मुहुर्मुहुः // 10 अथ पुत्रो विकर्णस्ते क्षत्रव्रतमनुस्मरन् / संस्तभ्य च मनो भूयो राजा धैर्यसमन्वितः। क्षीणवाहायुधः शूरः स्थितोऽभिमुखतः परान् // 8 पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यपृच्छत संजयम् // 11 घोररूपान्परिक्लेशान्दुर्योधनकृतान्बहून्। . यत्त्वया कथितं वाक्यं श्रुतं संजय तन्मया। प्रतिज्ञा स्मरता चैव भीमसेनेन पातितः॥९ कञ्चिदुर्योधनः सूत न गतो वै यमक्षयम् / विन्दानुविन्दावावन्त्यौ राजपुत्रौ महाबलौ। हि संजय तत्त्वेन पुनरुक्तां कथामिमाम् // 12 कृत्वा नसुकरं कर्म गतौ वैवस्वतक्षयम् // 10 एवमुक्तोऽब्रवीत्सूतो राजानं जनमेजय। सिन्धुराष्ट्रमुखानीह दश राष्ट्राणि यस्य वै। हतो वैकर्तनो राजन्सह पुत्रैर्महारथैः / वशे तिष्ठन्ति वीरस्य यः स्थितस्तव शासने // 11 भ्रातृभिश्च महेष्वासैः सूतपुत्रैस्तनुत्यजैः // 13. अक्षौहिणीर्दशैकां च निर्जित्य निशितैः शरैः। दुःशासनश्च निहतः पाण्डवेन यशस्विना। अर्जुनेन हतो राजन्महावीर्यो जयद्रथः / / 12 पीतं च रुधिरं कोपाद्भीमसेनेन संयुगे॥१४ तथा दुर्योधनसुतस्तरस्वी युद्धदुर्मदः। इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि वर्तमानः पितुः शास्त्रे सौभद्रेण निपातितः // 13 - तृतीयोऽध्यायः // 3 // तथा दौःशासनिर्वीरो बाहुशाली रणोत्कटः / द्रौपदेयेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 14 वैशंपायन उवाच / किरातानामधिपतिः सागरानूपवासिनाम् / एतच्छ्रुत्वा महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। देवराजस्य धर्मात्मा प्रियो बहुमतः सखा // 15 अब्रवीत्संजयं सूतं शोकव्याकुलचेतनः // 1 भगदत्तो महीपालः क्षत्रधर्मरतः सदा। दुष्प्रणीतेन मे तात मनसाभिप्लुतात्मनः / धनंजयेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 16 हतं वैकर्तनं श्रुत्वा शोको मर्माणि कृन्तति // 2 तथा कौरवदायादः सौमदत्तिर्महायशाः। कृतास्त्रपरमाः शल्ये दुःखपारं तितीर्षवः / हतो भूरिश्रवा राजशूरः सात्यकिना युधि // 17 कुरूणां सृञ्जयानां च के नु जीवन्ति के मृताः॥३ | श्रुतायुरपि चाम्बष्ठः क्षत्रियाणां धनुर्धरः। संजय उवाच / चरन्नभीतवत्संख्ये निहतः सव्यसाचिना // 18 हतः शांतनवो राजन्दुराधर्षः प्रतापवान् / तव पुत्रः सदा संख्ये कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः। हत्वा पाण्डवयोधानामर्बुद दशभिर्दिनैः॥ 4 दुःशासनो महाराज भीमसेनेन पातितः॥१९ ततो द्रोणो महेष्वासः पाञ्चालानां रथव्रजान्। यस्य राजनगजानीकं बहुसाहस्रमद्भुतम् / निहत्य युधि दुर्धर्षः पश्चाद्रुक्मरथो हतः // 5 सुदक्षिणः स संग्रामे निहतः सव्यसाचिना // 20 हतशिष्टस्य भीष्मेण द्रोणेन च महात्मना। / कोसलानामधिपतिर्हत्वा बहुशतान्परान् / -- 1644 - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 4. 21] कर्णपर्व [8. 4. 50 सौभद्रेण हि विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 21 / शूरसेनाश्च विक्रान्ताः सर्वे युधि निपातिताः // 36 बहुशो योधयित्वा च भीमसेनं महारथः। अभीषाहाः कवचिनः प्रहरन्तो मदोत्कटाः / चित्रसेनस्तव सुतो भीमसेनेन पातितः॥ 22 शिबयश्च रथोदाराः कलिङ्गसहिता हताः॥ 37 मद्रराजात्मजः शूरः परेषां भयवर्धनः / गोकुले नित्यसंवृद्धा युद्धे परमकोविदाः / बसिचर्मधरः श्रीमान्सौभद्रेण निपातितः // 23 / श्रेणयो बहुसाहस्राः संशप्तकगणाश्च ये। समः कर्णस्य समरे यः स कर्णस्य पश्यतः। ते सर्वे पार्थमासाद्य गता वैवस्वतक्षयम् / / 38 वृषसेनो महातेजाः शीघ्रास्त्रः कृतनिश्रयः॥ 24 स्यालौ तव महाराज राजानी वृषकाचलौ / अभिमन्योर्वधं स्मृत्वा प्रतिज्ञामपि चात्मनः। त्वदर्थे संपराक्रान्तौ निहतौ सव्यसाचिना // 39 धनंजयेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 25 उप्रकर्मा महेष्वासो नामतः कर्मतस्तथा। नित्यप्रसक्तवैरो यः पाण्डवैः पृथिवीपतिः / शाल्वराजो महाराज भीमसेनेन पातितः॥४० विश्राव्य वैरं पार्थेन श्रुतायुः स निपातितः॥ 26 ओघवांश्च महाराज बृहन्तः सहितो रणे। शल्यपुत्रस्तु विक्रान्तः सहदेवेन मारिष / पराक्रमन्तौ मित्रार्थे गतौ वैवस्वतक्षयम् // 41 हतो रुक्मरथो राजन्भ्राता मातुलजो युधि // 27 तथैव रथिनां श्रेष्ठः क्षेमधूर्तिर्विशां पते। राजा भगीरथो वृद्धो बृहत्क्षत्रश्च केकयः। निहतो गदया राजन्भीमसेनेन संयुगे // 42 पराक्रमन्तौ विक्रान्ती निहतौ वीर्यवत्तरौ // 28 तथा राजा महेष्वासो जलसंधो महाबलः / भगदत्तसुतो राजन्कृतप्रज्ञो महाबलः / सुमहत्कदनं कृत्वा हतः सात्यकिना रणे // 43 श्येनवञ्चरता संख्ये नकुलेन निपातितः॥२९ अलायुधो राक्षसेन्द्रः खरबन्धुरयानगः / पितामहस्तव तथा बाह्निकः सह बाह्निकैः / घटोत्कचेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 44 भीमसेनेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 30 राधेयाः सूतपुत्राश्च भ्रातरश्च महारथाः / जयत्सेनस्तथा राजञ्जारासंधिर्महाबलः / केकयाः सर्वशश्चापि निहताः सव्यसाचिना // 45 मागधो निहतः संख्ये सौभद्रेण महात्मना // 31 मालवा मद्रकाश्चैव द्रविडाश्चोग्रविक्रमाः / पुत्रस्ते दुर्मुखो राजन्दुःसहश्च महारथः।। यौधेयाश्च ललित्थाश्च क्षुद्रकाश्चाप्युशीनराः // 46 गदया भीमसेनेन निहतौ शूरमानिनौ // 32 मावेल्लकास्तुण्डिकेराः सावित्रीपुत्रकाञ्चलाः / दुर्मर्षणो दुर्विषहो दुर्जयश्च महारथः / प्राच्योदीच्याः प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च मारिष // कृत्वा नसुकरं कर्म गता वैवस्वतक्षयम् // 33 पत्तीनां निहताः संघा हयानामयुतानि च / सचिवो वृषवर्मा ते सूतः परमवीर्यवान् / रथव्रजाश्च निहता हताश्च वरवारणाः // 48 मीमसेनेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 34 सध्वजाः सायुधाः शूराः सवर्माम्बरभूषणाः / नागायुतबलो राजा नागायुतबलो महान् / कालेन महता यत्ताः कुले ये च विवर्धिताः॥४९ सगणः पाण्डुपुत्रेण निहतः सव्यसाचिना // 35 ते हताः समरे राजन्पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा / वसातयो महाराज द्विसाहस्राः प्रहारिणः / अन्ये तथामितबलाः परस्परवधैषिणः // 50 - 1645 - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 4. 51] महाभारते [8. 4. 78 एते चान्ये च बहवो राजानः सगणा रणे। / अशक्नुवद्भिर्बीभत्सुमभिमन्युनिपातितः // 63 हताः सहस्रशो राजन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि / तं कृतं विरथं वीरं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम् / एवमेष क्षयो वृत्तः कर्णार्जुनसमागमे // 51 दौःशासनिर्महाराज सौभद्रं हतवान्रणे // 64 महेन्द्रेण यथा वृत्रो यथा रामेण रावणः / बृहन्तस्तु महेष्वासः कृतास्रो युद्धदुर्मदः / यथा कृष्णेन निहतो मुरो रणनिपातितः। दुःशासनेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 65 कार्तवीर्यश्च रामेण भार्गवेण हतो यथा // 52 मणिमान्दण्डधारश्च राजानौ युद्धदुर्मदौ / सज्ञातिबान्धवः शूरः समरे युद्धदुर्मदः / पराक्रमन्तौ मित्रार्थे द्रोणेन विनिपातितौ // 66 रणे कृत्वा महायुद्धं घोरं त्रैलोक्यविश्रुतम् // 53 अंशुमान्भोजराजस्तु सहसैन्यो महारथः / तथार्जुनेन निहतो द्वैरथे युद्धदुर्मदः / भारद्वाजेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 67 सामात्यबान्धवो राजन्कर्णः प्रहरतां वरः // 54 चित्रायुधश्चित्रयोधी कृत्वा तौ कदनं महत् / जयाशा धार्तराष्ट्राणां वैरस्य च मुखं यतः / / चित्रमार्गेण विक्रम्य कर्णेन निहतौ युधि // 68 तीर्ण तत्पाण्डवै राजन्यत्पुरा नावबुध्यसे // 55 वृकोदरसमो युद्धे दृढः केकयजो युधि / उच्यमानो महाराज बन्धुभिहितकातिभिः / / केकयेनैव विक्रम्य भ्रात्रा भ्राता निपातितः // 69 तदिदं समनुप्राप्तं व्यसनं त्वां महात्ययम् // 56 जनमेजयो गदायोधी पार्वतीयः प्रतापवान् / पुत्राणां राज्यकामानां त्वया राजन्हितैषिणा / दुर्मुखेन महाराज तव पुत्रेण पातितः // 70 अहितानीव चीर्णानि तेषां ते फलमागतम् // 57 रोचमानौ नरव्याघ्रौ रोचमानौ ग्रहाविव / धृतराष्ट्र उवाच। .. द्रोणेन युगपद्राजन्दिव्र संप्रेषितौ शरैः // 71 आख्याता मामकास्तात निहता युधि पाण्डवैः / नृपाश्च प्रतियुध्यन्तः पराक्रान्ता विशां पते। . निहतान्पाण्डवेयानां मामकैब्रूहि संजय // 58 कृत्वा नसुकरं कर्म गता वैवस्वतक्षयम् // 72 ___ संजय उवाच। पुरुजित्कुन्तिभोजश्च मातुलः सव्यसाचिनः / कुन्तयो युधि विक्रान्ता महासत्त्वा महाबलाः। संग्रामनिर्जिताल्लोकान्गमितो द्रोणसायकैः // 73 सानुबन्धाः सहामात्या भीष्मेण युधि पातिताः // अभिभूः काशिराजश्च काशिकैबहुभिर्वृतः / समः किरीटिना संख्ये वीर्येण च बलेन च / वसुदानस्य पुत्रेण न्यासितो देहमाहवे // 74 सत्यजित्सत्यसंधेन द्रोणेन निहतो रणे // 60 अमितौजा युधामन्युरुत्तमौजाश्च वीर्यवान् / तथा विराटद्रुपदौ वृद्धौ सहसुतौ नृपौ। / निहत्य शतशः शूरान्परैर्विनिहतौ रणे / / 75 पराक्रमन्तौ मित्रार्थे द्रोणेन निहतौ रणे // 61 क्षत्रधर्मा च पाश्वाल्यः क्षत्रवर्मा च मारिष / यो बाल एव समरे संमितः सव्यसाचिना / द्रोणेन परमेष्वासो गमितौ यमसादनम् // 76 केशवेन च दुर्धर्षो बलदेवेन चाभिभूः // 62 शिखण्डितनयो युद्धे क्षत्रदेवो युधां पतिः / स एष कदनं कृत्वा महद्रणविशारदः / लक्ष्मणेन हतो राजंस्तव पौत्रेण भारत / / 77 परिवार्य महामात्रैः षड्भिः परमकै रथैः / सुचित्रश्चित्रधर्मा च पितापुत्रौ महारथौ / - 1646 - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 4. 78) 28. A. 98 प्रचरन्तौ महावी? द्रोणेन निहतौ रणे // 78 दृढायुधो दृढमुष्टिदृढेषुः / वार्धक्षेमिर्महाराज कृत्वा कदनमाहवे / स वीर्यवान्द्रोणपुत्रस्तरस्वी पाहिकेन महाराज कौरवेण निपातितः // 79 __ व्यवस्थितो योद्धुकामस्त्वदर्थे // 91 भृष्टकेतुर्महाराज चेदीनां प्रवरो रथः / आनर्तवासी हृदिकात्मजोऽसौ छत्वा नसुकरं कर्म गतो वैवस्वतक्षयम् // 80 महारथः सात्वतानां वरिष्ठः / तथा सत्यधृतिस्तात कृत्वा कदनमाहवे। स्वयं भोजः कृतवर्मा कृतास्त्रो पाण्डवार्थे पराक्रान्तो गमितो यमसादनम् // 81 ___ व्यवस्थितो यो कामस्त्वदर्थे // 92 पुत्रस्तु शिशुपालस्य सुकेतुः पृथिवीपते / शारद्वतो गौतमश्चापि राजनिहत्य शात्रवान्संख्ये द्रोणेन निहतो युधिः // 82 न्महाबलो बहुचित्रास्त्रयोधी। तथा सत्यधृतिर्वीरो मदिराश्वश्च वीर्यवान् / धनुश्चित्रं सुमहद्भारसाहं / सूर्यदत्तश्च विक्रान्तो निहतो द्रोणसायकैः // 83 ___ व्यवस्थितो योत्स्यमानः प्रगृह्य // 93 श्रेणिमांश्च महाराज युध्यमानः पराक्रमी / आर्तायनिः समरे दुष्प्रकम्प्यः कृत्वा नसुकरं कर्म गतो वैवस्वतक्षयम् // 84 सेनाग्रणीः प्रथमस्तावकानाम् / तथैव युधि विक्रान्तो मागधः परवीरहा / स्वस्रेयांस्तान्पाण्डवेयान्विसृज्य भीष्मेण निहतो राजन्युध्यमानः पराक्रमी // 85 सत्यां वाचं तां चिकीर्षुस्तरस्वी // 94 वसुदानश्च कदनं कुर्वाणोऽतीव संयुगे। तेजोवधं सूतपुत्रस्य संख्ये भारद्वाजेन विक्रम्य गमितो यमसादनम् // 86 प्रतिश्रुत्वाजातशत्रोः पुरस्तात् / एते चान्ये च बहवः पाण्डवानां महारथाः। दुराधर्षः शक्रसमानवीर्यः हता द्रोणेन विक्रम्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 87 - शल्यः स्थितो यो कामस्त्वदर्थे // 95 . धृतराष्ट्र उवाच / आजानेयैः सैन्धवैः पार्वतीयैहतप्रवीरे सैन्येऽस्मिन्मामके वदतां वर / नदीजकाम्बोजवनायुबाह्निकैः / अहताब्शंस मे सूत येऽत्र जीवन्ति केचन // 88 गान्धारराजः स्वबलेन युक्तो एतेषु निहतेष्वद्य ये त्वया परिकीर्तिताः। . व्यवस्थितो यो कामस्त्वदर्थे // 96 अहतान्मन्यसे यांस्त्वं तेऽपि स्वर्गजितो मताः // तथा सुतस्ते ज्वलनार्कवर्णं __ संजय उवाच / रथं समास्थाय कुरुप्रवीर। यस्मिन्महास्त्राणि समर्पितानि व्यवस्थितः कुरुमित्रो नरेन्द्र चित्राणि शुभ्राणि चतुर्विधानि / व्यभ्रे सूर्यो भ्राजमानो यथा वै // 97 दिव्यानि राजन्निहितानि चैव दुर्योधनो नागकुलस्य मध्ये द्रोणेन वीरद्विजसत्तमेन // 90 ___ महावीर्यः सह सैन्यप्रवीरैः। महारथः कृतिमान्क्षिप्रहस्तो रथेन जाम्बूनदभूषणेन -1647 - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 8. 4. 98] महाभारते [8. 5.7 व्यवस्थितः समरे योद्धुकामः // 98 यथा महेन्द्रः कुरुराजो जयाय // 105 स राजमध्ये पुरुषप्रवीरो धृतराष्ट्र उवाच / रराज जाम्बूनदचित्रवर्मा। आख्याता जीवमाना ये परेभ्योऽन्ये यथातथम् / पद्मप्रभो वहिरिवाल्पधूमो इतीदमभिगच्छामि व्यक्तमर्थाभिपत्तितः // 106 मेघान्तरे सूर्य इव प्रकाशः // 99 वैशंपायन उवाच / तथा सुषेणोऽप्यसिचर्मपाणि एवं ब्रुवन्नेव तदा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / _ स्तवात्मजः सत्यसेनश्च वीरः / हतप्रवीरं विध्वस्तं किंचिच्छेषं स्वकं बलम् / व्यवस्थितौ चित्रसेनेन साधु श्रुत्वा व्यामोहमगमच्छोकव्याकुलितेन्द्रियः॥१०७ हृष्टात्मानौ समरे योद्धुकामौ // 100 मुह्यमानोऽब्रवीच्चापि मुहूर्तं तिष्ठ संजय / हीनिषेधा भरता राजपुत्रा व्याकुलं मे मनस्तात श्रुत्वा सुमहदप्रियम् / श्चित्रायुधः श्रुतकर्मा जयश्च / नष्टचित्तस्ततः सोऽथ बभूव जगतीपतिः // 108 शलश्च सत्यव्रतदुःशलौ च इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि व्यवस्थिता बलिनो योद्धकामाः // 101 चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ कैतव्यानामधिपः शूरमानी रणे रणे शत्रुहा राजपुत्रः / जनमेजय उवाच। . पत्री हयी नागरथप्रयायी श्रुत्वा कणं हतं युद्धे पुत्रांश्चैवापलायिनः / _व्यवस्थितो यो कामस्त्वदर्थे // 102 नरेन्द्रः किंचिदाश्वस्तो द्विजश्रेष्ठ किमब्रवीत् // 1 वीरः श्रुतायुश्च श्रुतायुधश्च प्राप्तवान्परमं दुःखं पुत्रव्यसनजं महत् / चित्राङ्गदश्चित्रवर्मा स वीरः। तस्मिन्यदुक्तवान्काले तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः // 2 व्यवस्थिता ये तु सैन्ये नराग्र्याः . वैशंपायन उवाच / प्रहारिणो मानिनः सत्यसंधाः // 103 श्रुत्वा कर्णस्य निधनमश्रद्धेयमिवाद्भुतम् / कर्णात्मजः सत्यसेनो महात्मा भूतसंमोहनं भीमं मेरोः पर्यसनं यथा // 3 व्यवस्थितः समरे योद्धुकामः / . चित्तमोहमिवायुक्तं भार्गवस्य महामतेः / अथापरौ कर्णसुतौ वराहो पराजयमिवेन्द्रस्य द्विषद्भयो भीमकर्मणः // 4 व्यवस्थितौ लघुहस्तौ नरेन्द्र। .. दिवः प्रपतनं भानोरुामिव महाद्युतेः / बलं महदुर्भिदमल्पधैर्यैः . संशोषणमिवाचिन्त्यं समुद्रस्याक्षयाम्भसः // 5 समाश्रितौ योत्स्यमानौ त्वदर्थे // 104. महीवियद्दिगीशानां सर्वनाशमिवाद्भुतम् / एतैश्च मुख्यैरपरैश्च राज कर्मणोरिव वैफल्यमुभयोः पुण्यपापयोः // 6 न्योधप्रवीरैरमितप्रभावैः / संचिन्त्य निपुणं बुद्ध्या धृतराष्ट्रो जनेश्वरः / व्यवस्थितो नागकुलस्य मध्ये नेदमस्तीति संचिन्त्य कर्णस्य. निधनं प्रति // 7 - 1648 - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 5.8] कर्णपर्व [8. 5. 36 प्राणिनामेतदात्मत्वात्स्यादपीति विनाशनम् / अरौत्सीत्पार्थिवं क्षत्रमृते कौरवयादवान् // 22 शोकाग्निना दह्यमानो धम्यमान इवाशयः // 8 तं श्रुत्वा निहतं कर्णं द्वैरथे सव्यसाचिना। विध्वस्तात्मा श्वसन्दीनो हा हेत्युक्त्वा सुदुःखितः। शोकार्णवे निमग्नोऽहमप्लवः सागरे यथा // 23 पिललाप महाराज धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः // 9 ईशैर्यद्यहं दुःखैन विनश्यामि संजय / धृतराष्ट्र उवाच / वज्रादृढतरं मन्ये हृदयं मम दुर्भिदम् // 24 संजयाधिरथो वीरः सिंहद्विरदविक्रमः / ज्ञातिसंबन्धिमित्राणामिमं श्रुत्वा पराजयम् / अपभप्रतिमस्कन्धो वृषभाक्षगतिस्वनः // 10 को मदन्यः पुमाल्लोके न जह्यात्सूत जीवितम् / / अषभो वृषभस्येव यो युद्धे न निवर्तते / विषमग्निं प्रपातं वा पर्वताग्रादहं वृणे। शत्रोरपि महेन्द्रस्य वज्रसंहननो युवा / / 11 . न हि शक्ष्यामि दुःखानि सोढुं कष्टानि संजय॥२६ वस्य ज्यातलशब्देन शरवृष्टिरवेण च / संजय उवाच। रथाश्वनरमातङ्गा नावतिष्ठन्ति संयुगे // 12 श्रिया कुलेन यशसा तपसा च श्रुतेन च। समाश्रित्य महाबाहुं द्विषत्संघघ्नमच्युतम् / त्वामद्य सन्तो मन्यन्ते ययातिमिव नाहुषम् / / 27 दुर्योधनोऽकरोद्वैरं पाण्डुपुत्रैर्महाबलैः // 13 श्रुते महर्षिप्रतिमः कृतकृत्योऽसि पार्थिव / म कथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णः पार्थेन संयुगे। पर्यवस्थापयात्मानं मा विषादे मनः कृथाः // 28 निहतः पुरुषव्याघ्रः प्रसह्यासह्यविक्रमः // 14 धृतराष्ट्र उवाच / यो नामन्यत वै नित्यमच्युतं न धनंजयम् / दैवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकम् / न वृष्णीनपि तानन्यान्स्वबाहुबलमाश्रितः // 15 यत्र रामप्रतीकाशः कर्णोऽहन्यत संयुगे // 29 शागाण्डीवधन्वानी सहितावपराजितौ / हत्वा युधिष्ठिरानीकं पाञ्चालानां रथव्रजान् / अहं दिव्याद्रथादेकः पातयिष्यामि संयुगे // 16 प्रताप्य शरवर्षेण दिशः सर्वा महारथः॥ 30 इति यः सततं मन्दमवोचल्लोभमोहितम् / मोहयित्वा रणे पार्थान्वज्रहस्त इवासुरान् / हुर्योधनमपादीनं राज्यकामुकमातुरम् // 17 स कथं निहतः शेते वातरुग्ण इव द्रुमः // 31 पश्चाजैषीदतिबलानमित्रानपि दुर्जयान् / शोकस्यान्तं न पश्यामि समुद्रस्येव विप्लुकाः। गान्धारान्मद्रकान्मत्स्यांस्त्रिगर्तास्तङ्गणाञ्शकान्॥१८ चिन्ता मे वर्धते तीब्रा मुमूर्षा चापि जायते // 32 पाखालांश्च विदेहांश्च कुणिन्दान्काशिकोसलान् / कर्णस्य निधनं श्रुत्वा विजयं फल्गुनस्य च / सुभानणांश्च पुण्डांश्च निषादान्वङ्गकीचकान् // 19 अश्रद्धेयमहं मन्ये वधं कर्णस्य संजय // 33 वत्सान्कलिङ्गांस्तरलानश्मकानृषिकांस्तथा। वज्रसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम / यो जित्वा समरे वीरश्चक्रे बलिभृतः पुरा // 20 यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं कर्ण न दीर्यते // 34 उच्चैःश्रवा वरोऽश्वानां राज्ञां वैश्रवणो वरः। आयुनूनं सुदीर्घ मे विहितं दैवतैः पुरा। वरो महेन्द्रो देवानां कर्णः प्रहरतां वरः / / 21 | यत्र कणं हतं श्रुत्वा जीवामीह सुदुःखितः // 35 यं लब्ध्वा मागधो राजा सान्त्वमानार्थगौरवैः। धिग्जीवितमिदं मेऽद्य सुहृद्धीनस्य संजय / म. भा. 207 -1649 - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 5. 36] महाभारते [ 8. 5. 64 अद्य चाहं दशामेतां गतः संजय गर्हिताम् / जलस्य धारां विहितां दृष्ट्वा तां पाण्डवेन ह। कृपणं वर्तयिष्यामि शोच्यः सर्वस्य मन्दधीः॥३६ अब्रवीत्स महाबाहुस्तात संशाम्य पाण्डवैः // 50 अहमेव पुरा भूत्वा सर्वलोकस्य सत्कृतः। प्रशमाद्धि भवेच्छान्तिर्मदन्तं युद्धमस्तु च। परिभूतः कथं सूत पुनः शक्ष्यामि जीवितुम् / भ्रातृभावेन पृथिवीं भुङ्क्ष पाण्डुसुतैः सह // 51 दुःखात्सुदुःखं व्यसनं प्राप्तवानस्मि संजय // 37 . अकुर्वन्वचनं तस्य नूनं शोचति मे सुतः / तस्माद्भीष्मवधे चैव द्रोणस्य च महात्मनः।। तदिदं समनुप्राप्तं वचनं दीर्घदर्शिनः // 52 नात्र शेषं प्रपश्यामि सूतपुत्रे हते युधि // 38 अहं तु निहतामात्यो हतपुत्रश्च संजय / स हि पारं महानासीत्पुत्राणां मम संजय / द्यूततः कृच्छ्रमापन्नो लूनपक्ष इव द्विजः // 53 युद्धे विनिहतः शूरो विसृजन्सायकान्बहून् // 39 यथा हि शकुनि गृह्य छित्त्वा पक्षौ च संजय / को हिं मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम् / विसर्जयन्ति संहृष्टाः क्रीडमानाः कुमारकाः॥ 54 रथादतिरथो नूनमपतत्सायकार्दितः // 40 छिन्नपक्षतया तस्य गमनं नोपपद्यते / पर्वतस्येव शिखरं वज्रपातविदारितम्। तथाहमपि संप्राप्तो लूनपक्ष इव द्विजः // 55 शयीत पृथिवीं नूनं शोभयन्रुधिरोक्षितः। क्षीणः सर्वार्थहीनश्च निर्बन्धुर्जातिवार्जितः / मातङ्ग इव मत्तेन मातङ्गेन निपातितः // 41 कां दिशं प्रतिपत्स्यामि दीनः शत्रुवशं गतः॥५६ यदलं धार्तराष्ट्राणां पाण्डवानां यतो भयम् / दुर्योधनस्य वृद्ध्यर्थं पृथिवीं योऽजयत्प्रभुः / सोऽर्जुनेन हतः कर्णः प्रतिमानं धनुष्मताम् // 42 / स जितः पाण्डवैः शूरैः समथैर्वीर्यशालिभिः॥५७ स हि वीरो महेष्वासः पुत्राणामभयंकरः। तस्मिन्हते महेष्वासे कर्णे युधि किरीटिना / शेते विनिहतो वीरः शक्रेणेव यथा बलः // 43 के वीराः पर्यवर्तन्त तन्ममाचक्ष्व संजय / / 58 पङ्गोरिवाध्वगमनं दरिद्रस्येव कामितम् / कञ्चिन्नैकः परित्यक्तः पाण्डवैनिहतो रणे / दुर्योधनस्य चाकूतं तृषितस्येव पिप्लुकाः // 44 - उक्तं त्वया पुरा वीर यथा वीरा निपातिताः // 59 अन्यथा चिन्तितं कार्यमन्यथा तत्तु जायते। भीष्ममप्रतियुध्यन्तं शिखण्डी सायकोत्तमैः / अहो नु बलवदेवं कालश्च दुरतिक्रमः॥ 45 पातयामास. समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम् // 60 पलायमानः कृपणं दीनात्मा दीनपौरुषः / तथा द्रौपदिना द्रोणो न्यस्तसर्वायुधो युधि / कञ्चिन्न निहतः सूत पुत्रो दुःशासनो मम // 46 युक्तयोगो महेष्वासः शरैर्बहुभिराचितः / कञ्चिन्न नीचाचरितं कृतवांस्तात संयुगे। निहतः खड्गमुद्यम्य धृष्टद्युम्नेन संजय // 61 कच्चिन्न निहतः शूरो यथा न क्षत्रिया हताः // 47 अन्तरेण हतावेतौ छलेन च विशेषतः / युधिष्ठिरस्य वचनं मा युद्धमिति सर्वदा। अौषमहमेतद्वै भीष्मद्रोणौ निपातितौ // 62 दुर्योधनो नाभ्यगृह्णान्मूढः पथ्यमिवौषधम् // 48 - भीष्मद्रोणौ हि समरे न हन्याद्वज्रभृत्स्वयम् / शरतल्पे शयानेन भीष्मेण सुमहात्मना। न्यायेन युध्यमानौ हि तद्वै सत्यं ब्रवीमि ते॥६३ पानीयं याचितः पार्थः सोऽविध्यन्मेदिनीतलम् // / कणं त्वस्यन्तमस्त्राणि दिव्यानि च बहूनि च। - 1650 - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 5. 64] कर्णपर्व [8. 5. 93 कथमिन्द्रोपमं वीरं मृत्युर्युद्धे समस्पृशत् // 64 मम पुत्रः सभां भार्यां पाण्डूनां नीतवान्बलात्॥ यस्य विद्यत्प्रभां शक्ति दिव्यां कनकभूषणाम् / तत्र चापि सभामध्ये पाण्डवानां च पश्यताम् / प्रायच्छद्विषतां हत्रीं कुण्डलाभ्यां पुरंदरः // 65 दासभार्येति पाञ्चालीमब्रवीत्कुरुसंसदि // 79 बस्य सर्पमुखो दिव्यः शरः कनकभूषणः / यश्च गाण्डीवमुक्तानां स्पर्शमुग्रमचिन्तयन् / मशेत निहतः पत्री चन्दनेष्वरिसूदनः // 66 अपतिसि कृष्णेति ब्रुवन्पार्थानवैक्षत // 80 मीष्मद्रोणमुखान्वीरान्योऽवमन्य महारथान् / यस्य नासीद्भयं पार्थैः सपुत्रैः सजनार्दनैः / जामदग्न्यान्महाघोरं ब्राह्ममत्रमशिक्षत // 67 स्वबाहुबलमाश्रित्य मुहूर्तमपि संजय // 81 बश्च द्रोणमुखान्दृष्ट्वा विमुखानर्दिताशरैः। तस्य नाहं वधं मन्ये देवैरपि सवासवैः / सौभद्रस्य महाबाहुबंधमत्कार्मुकं शरैः // 68 प्रतीपमुपधावद्भिः किं पुनस्तात पाण्डवैः // 82 पश्च नागायुतप्राणं वातरंहसमच्युतम् / / न हि ज्यां स्पृशमानस्य तलने चापि गृहृतः / विरथं भ्रातरं कृत्वा भीमसेनमुपाहसत् // 69 पुमानाधिरथेः कश्चित्प्रमुखे स्थातुमर्हति // 83 सहदेवं च निर्जित्य शरैः संनतपर्वभिः / अपि स्यान्मेदिनी हीना सोमसूर्यप्रभांशुभिः / कृपया विरथं कृत्वा नाहनधर्मवित्तया // 70 न वधः पुरुषेन्द्रस्य समरेष्वपलायिनः // 84 यश्च मायासहस्राणि ध्वंसयित्वा रणोत्कटम् / यदि मन्दः सहायेन भ्रात्रा दुःशासनेन च / घटोत्कचं राक्षसेन्द्रं शकशक्त्याभिजनिवान् // 71 वासुदेवस्य दुर्बुद्धिः प्रत्याख्यानमरोचयत् // 85 एतानि दिवसान्यस्य युद्धे भीतो धनंजयः / स नूनमृषभस्कन्धं दृष्ट्वा कर्णं निपातितम् / नागम? रथं वीरः स कथं निहतो रणे // 72 दुःशासनं च निहतं मन्ये शोचति पुत्रकः // 86 स्थसङ्गो न चेत्तस्य धनुर्वा न व्यशीर्यत / हतं वैकर्तनं श्रुत्वा द्वैरथे सव्यसाचिना / न चेदत्राणि निर्णेशुः स कथं निहतः परैः / / 73 जयतः पाण्डवान्दृष्ट्वा किंस्विदुर्योधनोऽब्रवीत् // 87 को हि शक्तो रणे कर्ण विधुन्वानं महद्धनुः / दुर्मर्षणं हतं श्रुत्वा वृषसेनं च संयुगे / विमुश्चन्तं शरान्घोरान्दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे। प्रभग्नं च बलं दृष्ट्वा वध्यमानं महारथैः // 88 जेतुं पुरुषशार्दूलं शार्दूलमिव वेगितम् / / 74 पराङ्मुखांस्तथा राज्ञः पलायनपरायणान् / ध्रुवं तस्य धनुश्छिन्नं रथो वापि गतो महीम् / विद्रुतारथिनो दृष्ट्वा मन्ये शोचति पुत्रकः // 89 अस्त्राणि वा प्रनष्टानि यथा शंससि मे हतम् / अनेयश्चाभिमानेन बालबुद्धिरमर्षणः / न ह्यन्यदनुपश्यामि कारणं तस्य नाशने // 75 हतोत्साहं बलं दृष्ट्वा किंस्विदुर्योधनोऽब्रवीत् // 90 न हन्यामर्जुनं यावत्तावत्पादौ न धावये / / भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे / इति यस्य महाघोरं व्रतमासीन्महात्मनः / / 76 रुधिरं पीयमानेन किंस्विदुर्योधनोऽब्रवीत् // 91 यस्य भीतो वने नित्यं धर्मराजो युधिष्ठिरः / सह गान्धारराजेन सभायां यदभाषत / त्रयोदश समा निद्रा न लेभे पुरुषर्षभः // 77 कर्णोऽर्जुनं रणे हन्ता हते तस्मिन्किमब्रवीत् // 92 यस्य वीर्यवतो वीर्यं समाश्रित्य महात्मनः / द्यूतं कृत्वा पुरा हृष्टो वश्वयित्वा च पाण्डवान् / - 1651 - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 5.93] . / महाभारते [8. 6. 11 6 शकुनिः सौबलस्तात हते कर्णे किमब्रवीत् // 93 , यस्य बाह्वोर्बलं तुल्यं कुञ्जराणां शतं शतम् // 108 कृतवर्मा महेष्वासः सात्वतानां महारथः। द्रोणे हते च यद्वृत्तं कौरवाणां परैः सह। . कर्णं विनिहतं दृष्ट्वा हार्दिक्यः किमभाषत // 94 संग्रामे नरवीराणां तन्ममाचक्ष्व संजय // 109 ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या यस्य शिक्षामुपासते। यथा च कर्णः कौन्तेयैः सह युद्धमयोजयत् / धनुर्वेदं चिकीर्षन्तो द्रोणपुत्रस्य धीमतः // 95 / यथा च द्विषतां हन्ता रणे शान्तस्तदुच्यताम्॥११० युवा रूपेण संपन्नो दर्शनीयो महायशाः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अश्वत्थामा हते कर्णे किमभाषत संजय // 96 पञ्चमोऽध्यायः // 5 // आचार्यत्वं धनुर्वेदे गतः परमतत्त्ववित् / कृपः शारद्वतस्तात हते कर्णे किमब्रवीत् / 97 - संजय उवाच / मद्रराजो महेष्वासः शल्यः समितिशोभनः / हते द्रोणे महेष्वासे तस्मिन्नहनि भारत / दिष्टं तेन हि तत्सर्वं यथा कर्णो निपातितः॥९८ कृते च मोघसंकल्पे द्रोणपुत्रे महारथे // 1 ये च केचन राजानः पृथिव्यां योद्धुमागताः। द्रवमाणे महाराज कौरवाणां बले तथा / वैकर्तनं हतं दृष्ट्वा किमभाषन्त संजय // 99 / / व्यूह्य पार्थः स्वकं सैन्यमतिष्ठद्धातृभिः सह / / 2 कर्णे तु निहते वीरे रथव्याने नरर्षभे। तमवस्थितमाज्ञाय पुत्रस्ते भरतर्षभ। . किं वो मुखमनीकानामासीत्संजय भागशः॥१०० द्रवञ्च स्वबलं दृष्ट्वा पौरुषेण न्यवारयत् / / 3 मद्रराजः कथं शल्यो नियुक्तो रथिनां वरः / खमनीकमवस्थाप्य बाहुवीर्ये व्यवस्थितः / वैकर्तनस्य सारथ्ये तन्ममाचक्ष्व संजय // 101 युवा च सुचिरं कालं पाण्डवैः सह भारत // 4 केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं सूतपुत्रस्य संयुगे। लब्धलक्षैः परैर्दृष्टैायच्छद्भिश्चिरं तदा। वामं चक्रं ररक्षुर्वा के वा वीरस्य पृष्ठतः // 102 संध्याकालं समासाद्य प्रत्याहारमकारयत् // 5 के कर्णं वाजहुः शूराः के क्षुद्राः प्राद्रवन्भयात् / कृत्वावहारं सैन्यानां प्रविश्य शिबिरं स्वकम् / कथं च वः समेतानां हतः कर्णो महारथः // 103 कुरवोऽऽत्महितं मनं मत्रयांचक्रिरे तदा // 6 पाण्डवाश्च कथं शूराः प्रत्युदीयुर्महारथम् / / पर्यङ्केषु परार्येषु स्पर्ध्यास्तरणवत्सु च / सृजन्तं शरवर्षाणि वारिधारा इवाम्बुदम् // 104 वरासनेषूपविष्टाः सुखशय्यास्विवामराः // 7 स च सर्पमुखो दिव्यो महेषुप्रवरस्तदा। ततो दुर्योधनो राजा साम्ना परमवल्गुना / व्यर्थः कथं समभवत्तन्ममाचक्ष्व संजय // 105 तानाभाष्य महेष्वासान्प्राप्तकालमभाषत // 8 मामकस्यास्य सैन्यस्य हृतोत्सेधस्य संजय / मति मतिमतां श्रेष्ठाः सर्वे प्रब्रूत माचिरम् / अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति // 106 एवं गते तु यत्कार्यं भवेत्कार्यकरं नृपाः // 9 तौ हि वीरौ महेष्वासौ मदर्थे कुरुसत्तमौ। एवमुक्ते नरेन्द्रेण नरसिंहा युयुत्सवः / भीष्मद्रौणौ हतौ श्रुत्वा को न्वर्थो जीवितेन मे // चक्रुर्नानाविधाश्चेष्टाः सिंहासनगतास्तदा // 10 न मृष्यामि च राधेयं हतमाहवशोभिनम् / . तेषां निशम्येङ्गितानि युद्धे प्राणाजुहूषताम् / -1652 - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 6. 11] कर्णपर्व [8. 6. 37 समुद्वीक्ष्य मुखं राज्ञो बालार्कसमवर्चसः / निहताभ्यां प्रधानाभ्यां ताभ्याममितविक्रम / आचार्यपुत्रो मेधावी वाक्यज्ञो वाक्यमाददे // 11 / / त्वत्समं समरे योधं नान्यं पश्यामि चिन्तयन् // रागो योगस्तथा दाक्ष्यं नयश्चेत्यर्थसाधकाः। भवानेव तु नः शक्तो विजयाय न संशयः।। उपायाः पण्डितैः प्रोक्ताः सर्वे दैवसमाश्रिताः॥१२ पूर्व मध्ये च पश्चाच्च तवैव विदितं हि तत् // 27 लोकप्रवीरा येऽस्माकं देवकल्पा महारथाः / स भवान्धुर्यवत्संख्ये धुरमुद्वोढुमर्हसि / नीतिमन्तस्तथा युक्ता दक्षा रक्ताश्च ते हताः // 13 अभिषेचय सेनान्ये स्वयमात्मानमात्मना / / 28 न त्वेव कार्य नैराश्यमस्माभिर्विजयं प्रति / देवतानां यथा स्कन्दः सेनानीः प्रभुरव्ययः / सुनीतैरिह सर्वार्थैर्दैवमप्यनुलोम्यते // 14 तथा भवानिमां सेनां धार्तराष्ट्रीं बिभर्तु मे / ते वयं प्रवरं नृणां सर्वैर्गुणगणैर्युतम् / / जहि शत्रुगणान्सर्वान्महेन्द्र इव दानवान् // 29 'कर्ण सेनापति कृत्वा प्रमथिष्यामहे रिपून // 15 अवस्थितं रणे ज्ञात्वा पाण्डवास्त्वां महारथम् / ततो दुर्योधनः प्रीतः प्रियं श्रुत्वा वचस्तदा।। द्रविष्यन्ति सपाञ्चाला विष्णु दृष्ट्वेव दानवाः / : प्रीतिसंस्कारसंयुक्तं तथ्यमात्महितं शुभम् // 16 तस्मात्त्वं पुरुषव्याघ्र प्रकर्षेथा महाचमूम् // 30 स्वं मनः समवस्थाप्य बाहुवीर्यमुपाश्रितः / भवत्यवस्थिते यत्ते पाण्डवा गतचेतसः / दुर्योधनो महाराज राधेयमिदमब्रवीत् // 17 भविष्यन्ति सहामात्याः पाञ्चालैः सृञ्जयैः सह // कर्ण जानामि ते वीर्यं सौहृदं च परं मयि / यथा ह्यभ्युदितः सूर्यः प्रतपस्वेन तेजसा / तथापि त्वां महाबाहो प्रवक्ष्यामि हितं वचः // 18 व्यपोहति तमस्तीनं तथा शत्रून्व्यपोह नः // 32 भुत्वा यथेष्टं च कुरु वीर यत्तव रोचते / कर्ण उवाच / भिवान्प्राज्ञतमो नित्यं मम चैव परा गतिः / / 19 / उक्तमेतन्मया पूर्वं गान्धारे तव संनिधौ / भीष्मद्रोणावतिरथौ हतौ सेनापती मम / जेष्यामि पाण्डवानराजन्सपुत्रान्सजनार्दनान् // 33 सेनापतिर्भवानस्तु ताभ्यां द्रविणवत्तरः / / 20 / सेनापतिर्भविष्यामि तवाहं नात्र संशयः / बुद्धौ च तौ महेष्वासौ सापेक्षौ च धनंजये। स्थिरो भव महाराज जितान्विद्धि च पाण्डवान् / मानितौ च मया वीरौ राधेय वचनात्तव // 21 संजय उवाच / पितामहत्वं संप्रेक्ष्य पाण्डुपुत्रा महारणे / एवमुक्तो महातेजास्ततो दुर्योधनो नृपः / रक्षितास्तात भीष्मेण दिवसानि दशैव ह // 22 उत्तस्थौ राजभिः सार्धं देवैरिव शतक्रतुः / न्यस्तशस्त्रे च भवति हतो भीष्मः पितामहः / / सेनापत्येन सत्कर्तुं कर्ण स्कन्दमिवामराः // 35 शिखण्डिनं पुरस्कृत्य फल्गुनेन महाहवे // 23 / ततोऽभिपिषिचुस्तूर्ण विधिदृष्टेन कर्मणा / हते तस्मिन्महाभागे शरतल्पगते तदा। दुर्योधनमुखा राजनराजानो विजयैषिणः / त्वयोक्ते पुरुषव्याघ्र द्रोणो ह्यासीत्पुरःसरः / / 24 / शातकौम्भमयैः कुम्भैर्मा हेयैश्चाभिमत्रितैः // 36 तेनापि रक्षिताः पार्थाः शिष्यत्वादिह संयुगे। तोयपूर्णैर्विषाणैश्च द्वीपिखड्गमहर्षभैः / सं चापि निहतो वृद्धो धृष्टद्युम्नेन सत्वरम् / / 25 मणिमुक्तामयैश्चान्यैः पुण्यगन्धैस्तथौषधैः // 37 - 1653 - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 6. 38 ] महाभारते [8. 7. 19 औदुम्बरे समासीनमासने क्षौमसंवृतम् / योगो योगेति सहसा प्रादुरासीन्महास्वनः // 4 शास्त्रदृष्टेन विधिना संभारैश्च सुसंभृतैः // 38 नागानां कल्पमानानां रथानां च वरूथिनाम् / जय पार्थान्सगोविन्दान्सानुगांस्त्वं महाहवे / संनह्यतां पदातीनां वाजिनां च विशां पते // 5 इति तं बन्दिनः प्राहुर्द्विजाश्च भरतर्षभ // 39 क्रोशतां चापि योधानां त्वरितानां परस्परम् / जहि पार्थान्सपाञ्चालान्राधेय विजयाय नः। बभूव तुमुलः शब्दो दिवस्पृक्सुमहांस्तदा // 6 उद्यन्निव सदा भानुस्तमांस्युप्रैर्गभस्तिभिः // 40 ततः श्वेतपताकेन बालार्काकारवाजिना। न ह्यलं त्वद्विसृष्टानां शराणां ते सकेशवाः / / हेमपृष्ठेन धनुषा हस्तिकक्ष्येण केतुना // 7 कृतघ्नाः सूर्यरश्मीनां ज्वलतामिव दर्शने // 41 तूणेन शरपूर्णेन साङ्गदेन वरूथिना। न हि पार्थाः सपाश्चालाः स्थातुं शक्तास्तवाग्रतः / शतघ्नीकिङ्किणीशक्तिशूलतोमरधारिणा // 8 आत्तशस्त्रस्य समरे महेन्द्रस्येव दानवाः // 42 कार्मुकेणोपपन्नेन विमलादित्यवर्चसा / . ." अभिषिक्तस्तु राधेयः प्रभया सोऽमितप्रभः / रथेनातिपताकेन सूतपुत्रो व्यदृश्यत // 9 व्यत्यरिच्यत रूपेण दिवाकर इवापरः // 43 धमन्तं वारिजं तात हेमजालविभूषितम् / सेनापत्येन राधेयमभिषिच्य सुतस्तव / विधुन्वानं महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् // 10 अमन्यत तदात्मानं कृतार्थ कालचोदितः // 44 दृष्ट्वा कर्ण महेष्वासं रथस्थं रथिनां वरम् / / कर्णोऽपि राजन्संप्राप्य सेनापत्यमरिंदमः / भानुमन्तमिवोद्यन्तं तमो घ्नन्तं सहस्रशः // 11 योगमाज्ञापयामास सूर्यस्योदयनं प्रति // 45 . न भीष्मव्यसनं केचिन्नापि द्रोणस्य मारिष / तव पुत्रैर्वृतः कर्णः शुशुभे तत्र भारत / नान्येषां पुरुषव्याघ्र मेनिरे तत्र कौरवाः // 12 देवैरिव यथा स्कन्दः संग्रामे तारकामये // 46 ततस्तु त्वरयन्योधाशङ्खशब्देन मारिष / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णो निष्कासयामास कौरवाणां वरूथिनीम् // 13 षष्ठोऽध्यायः // 6 // व्यूहं व्यूह्य महेष्वासो माकरं शत्रुतापनः / प्रत्युद्ययौ तदा कर्णः पाण्डवान्विजिगीषया // 14 धृतराष्ट्र उवाच / मकरस्य तु तुण्डे वै कर्णो राजन्व्यवस्थितः / / सेनापत्यं तु संप्राप्य कर्णो वैकर्तनस्तदा।। नेत्राभ्यां शकुनिः शूर उलूकश्च महारथः // 15 तथोक्तश्च स्वयं राज्ञा स्निग्धं भ्रातृसमं वचः // 1 द्रोणपुत्रस्तु शिरसि ग्रीवायां सर्वसोदराः। योगमाज्ञाप्य सेनाया आदित्येऽभ्युदिते तदा। मध्ये दुर्योधनो राजा बलेन महता वृतः // 16 अकरोत्कि महाप्राज्ञस्तन्ममाचक्ष्व संजय // 2 वामे पादे तु राजेन्द्र कृतवर्मा व्यवस्थितः / संजय उवाच / नारायणबलैर्युक्तो गोपालैयुद्धदुर्मदः // 17 कर्णस्य मतमाज्ञाय पुत्रस्ते भरतर्षभ / पादे तु दक्षिणे राजन्गौतमः सत्यविक्रमः / योगमाज्ञापयामास नान्दीतूर्यपुरःसरम् // 3 त्रिगर्तेश्च महेष्वासैर्दाक्षिणात्यैश्च संवृतः // 18 महत्यपररात्रे तु तव पुत्रस्य मारिष / अनुपादस्तु यो वामस्तत्र शल्यो व्यवस्थितः। - 1654 - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 7. 19 ] कर्णपर्व [8. 8. 4 महत्या सेनया साधू मद्रदेशसमुत्थया // 19 निहतान्पाण्डवान्मेने तव पुत्रः सहान्वयः // 33 दक्षिणे तु महाराज सुषेणः सत्यसंगरः। तथैव पाण्डवीं सेनां व्यूढां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः / घृतो रथसहस्रैश्च दन्तिनां च शतैस्तथा // 20 धार्तराष्ट्रान्हतान्मने सकर्णान्वै जनाधिप // 34 पुच्छे आस्तां महावीरौ भ्रातरौ पार्थिवौ तदा / ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः / चित्रसेनश्च चित्रश्च महत्या सेनया वृतौ // 21 सहसैवाभ्यहन्यन्त सशब्दाश्च समन्ततः / / 35 ततः प्रयाते राजेन्द्र कर्णे नरवरोत्तमे। सेनयोरुभयो राजन्प्रावाद्यन्त महास्वनाः। धनंजयमभिप्रेक्ष्य धर्मराजोऽब्रवीदिदम् // 22 सिंहनादश्च संजज्ञे शूराणां जयगृद्धिनाम् // 36 पश्य पार्थ महासेनां धार्तराष्ट्रस्य संयुगे। हयहेषितशब्दाश्च वारणानां च बृंहितम् / कर्णेन निर्मितां वीर गुप्तां वीरैर्महारथैः / / 23 रथनेमिस्वनाश्चोग्राः संबभूवुर्जनाधिप // 37 'हसवीरतमा ह्येषा धार्तराष्ट्री महाचमूः। न द्रोणव्यसनं कश्चिजानीते भरतर्षभ / फल्गुशेषा महाबाहो तृणैस्तुल्या मता मम // 24 __दृष्ट्वा कर्णं महेष्वासं मुखे व्यूहस्य दंशितम् // 38 एको पत्र महेष्वासः सूतपुत्रो व्यवस्थितः / उभे सेने महासत्त्वे प्रहृष्टनरकुञ्जरे। सदेवासुरगन्धर्वैः सकिनरमहोरगैः। योद्धकामे स्थिते राजन्हन्तुमन्योन्यमञ्जसा // 39 चराचरैनिभिर्लोकोऽजय्यो रथिनां वरः // 25 तत्र यत्तौ सुसंरब्धौ दृष्ट्वान्योन्यं व्यवस्थितौ। तं हत्वाद्य महाबाहो विजयस्तव फल्गुन / अनीकमध्ये राजेन्द्र रेजतुः कर्णपाण्डवौ // 40 उद्धृतश्च भवेच्छल्यो मम द्वादशवार्षिकः / नृत्यमाने तु ते सेने समेयातां परस्परम् / एवं ज्ञात्वा महाबाहो व्यूहं व्यूह यथेच्छसि॥२६ तयोः पक्षैः प्रपक्षैश्च निर्जग्मुर्वै युयुत्सवः॥ 41 भातुस्तद्वचनं श्रुत्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः / ततः प्रववृते युद्धं नरवारणवाजिनाम् / अर्धचन्द्रेण व्यूहेन प्रत्यव्यूहत तां चमूम् // 27 रथिनां च महाराज अन्योन्यं निघ्नतां दृढम् // 42 घामपार्श्वेऽभवद्राजन्भीमसेनो व्यवस्थितः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि दक्षिणे च महेष्वासो धृष्टद्युम्नो महाबलः // 28 सप्तमोऽध्यायः // 7 // मध्ये व्यूहस्य साक्षात्तु पाण्डवः कृष्णसारथिः। नकुलः सहदेवश्च धर्मराजश्च पृष्ठतः / / 29 संजय उवाच / चक्ररक्षौ तु पाश्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ। ते सेनेऽन्योन्यमासाद्य प्रहृष्टाश्वनरद्विपे। नार्जुनं जहतुर्युद्धे पाल्यमानौ किरीटिना // 30 बृहत्यौ संप्रजह्वाते देवासुरचमूपमे // 1 शेषा नृपतयो वीराः स्थिता व्यूहस्य दंशिताः। ततो गजा रथाश्चाश्वाः पत्तयश्च महाहवे / यथाभावं यथोत्साहं यथासत्त्वं च भारत // 31 संप्रहारं परं चक्रुर्देहपाप्मप्रणाशनम् / / 2 एवमेतन्महाव्यूहं व्यूह्य भारत पाण्डवाः / पूर्णचन्द्रार्कपद्मानां कान्तित्विगन्धतः समैः / तावकाश्च महेष्वासा युद्धायैव मनो दधुः / / 32 उत्तमाङ्गैर्नृसिंहानां नृसिंहास्तस्तरुर्महीम् / / 3 रक्षा व्यूढां तव चमूं सूतपुत्रेण संयुगे। अर्धचन्द्रैस्तथा भल्लैः क्षुरप्रैरसिपट्टिशैः / - 1655 - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 8. 4] महाभारते [8.8. 34 परश्वधैश्चाप्यकृन्तन्नुत्तमाङ्गानि युध्यताम् // 4 करूषाः कोसलाः काश्या मागधाश्चापि दुद्रुवुः // व्यायतायतबाहूनां व्यायतायतबाहुभिः।। तेषां रथाश्च नागाश्च प्रवराश्चापि पत्तयः। . व्यायता बाहवः पेतुश्छिन्नमुष्टयायुधाङ्गदाः॥५ नानाविधरवैर्हृष्टा नृत्यन्ति च हसन्ति च // 20 तैः स्फुरद्भिर्मही भाति रक्ताङ्गुलितलैस्तदा।। तस्य सैन्यस्य महतो महामात्रवरैर्वृतः / गरुडाहतैरुप्रैः पञ्चास्यैरिव पन्नगैः॥ 6 . मध्यं वृकोदरोऽभ्यागात्त्वदीयं नागधूर्गतः / / 21 हयस्यन्दननागेभ्यः पेतुर्वीरा द्विषद्धताः। स नागप्रवरोऽत्युग्रो विधिवत्कल्पितो बभौ / विमानेभ्यो यथा क्षीणे पुण्ये स्वर्गसदस्तथा // 7 उदयाद्रयग्र्यभवनं यथाभ्युदितभास्करम् // 22 गदाभिरन्यैर्गुर्वीभिः परिधैर्मुसलैरपि / तस्यायसं वर्मवरं वररत्नविभूषितम् / पोथिताः शतशः पेतुर्वीरा वीरतरै रणे // 8 तारोद्भासस्य नभसः शारदस्य समत्विषम् // 23 रथा रथैर्विनिहता मत्ता मत्तैर्द्विपैर्द्विपाः / स तोमरप्रासकरश्चारुमौलिः स्वलंकृतः / सादिनः सादिभिश्चैव तस्मिन्परमसंकुले // 9 चरन्मध्यंदिनार्काभस्तेजसा व्यदहद्रिपून् // 24 रथा वररथै गैरश्वारोहाश्च पत्तिभिः / तं दृष्ट्वा द्विरदं दूराक्षेमधूर्तिपिस्थितः / अश्वारोहैः पदाताश्च निहता युधि शेरते / / 10 आह्वयानोऽभिदुद्राव प्रमनाः प्रमनस्तरम् // 25 रथाश्वपत्तयो नागै रथैर्नागाश्च पत्तयः / तयोः समभवद्युद्धं द्विपयोरुग्ररूपयोः / रथपत्तिद्विपाश्चाश्वैर्नृभिश्चाश्वरथद्विपाः // 11 यदृच्छया द्रुमवतोर्महापर्वतयोरिव // 26 रथाश्वेभनराणां च नराश्वेभरथैः कृतम् / संसक्तनागौ तौ वीरौ तोमरैरितरेतरम् / पाणिपादैश्च शस्त्रैश्च रथैश्च कदनं महत् // 12 बलवत्सूर्यरइम्याभैर्भित्त्वा भित्त्वा विनेदतुः // 27 सथा तस्मिन्बले शूरैर्वध्यमाने हतेऽपि च / व्यपसृत्य तु नागाभ्यां मण्डलानि विचेरतुः / अस्मानभ्यागमन्पार्था वृकोदरपुरोगमाः // 13 प्रगृह्य चैव धनुषी जघ्नतु, परस्परम् // 28 धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः। क्ष्वेडितास्फोटितरवैर्वाणशब्दैश्च सर्वशः / सात्यकिश्चेकितानश्च द्रविडैः सैनिकैः सह // 14 तौ जनान्हर्षयित्वा च सिंहनादान्प्रचक्रतुः // 29 भृता वित्तेन महता पाण्ड्याश्चौड़ाः सकेरलाः / समुद्यतकराभ्यां तौ द्विपाभ्यां कृतिनावुभौ / व्यूढोरस्का दीर्घभुजाः प्रांशवः प्रियदर्शनाः // 15 वातोद्भूतपताकाभ्यां युयुधाते महाबलौ // 30 आपीडिनो रक्तदन्ता मत्तमातङ्गविक्रमाः / तावन्योन्यस्य धनुषी छित्त्वान्योन्यं विनेदतुः / नानाविरागवसना गन्धचूर्णावचूर्णिताः // 16 शक्तितोमरवर्षेण प्रावृण्मेघाविवाम्बुभिः // 31 बद्धासयः पाशहस्ता वारणप्रतिवारणाः / क्षेमधूर्तिस्तदा भीमं तोमरेण स्तनान्तरे। समानमृत्यवो राजन्ननीकस्थाः परस्परम् // 17 निर्बिभेद तु वेगेन षद्भिश्चाप्यपरैर्नदन् // 32 कलापिनश्चापहस्ता दीर्घकेशाः प्रियाहवाः / स भीमसेनः शुशुभे तोमरैरङ्गमाश्रितैः / पत्तयः सात्यकेरन्ध्रा घोररूपपराक्रमाः // 18 क्रोधदीप्तवपुर्मेधैः सप्तसप्तिरिवांशुमान् // 33 अथापरे पुनः शूराश्चेदिपाश्चालकेकयाः / ततो भास्करवर्णाभमोगतिमयस्मयम् / - 1656 - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 8. 34 ] कर्णपर्व [8. 9. 17 ससर्ज तोमरं भीमः प्रत्यमित्राय यत्नवान् // 34 कर्णस्य प्रमुखे क्रुद्धा विनिजघ्नुर्महारथाः / / 2 ततः कुलूताधिपतिश्चापमायम्य सायकैः / कर्णो राजन्महाबाहुर्यवधीत्पाण्डवी चमूम् / दशभिस्तोमरं छित्त्वा शक्त्या विव्याध पाण्डवम् // नाराचैरकरश्म्याभैः कर्मारपरिमार्जितैः / / 3 अथ कार्मुकमादाय महाजलदनिस्वनम् / तत्र भारत कर्णेन नाराचैस्ताडिता गजाः / रिपोरभ्यर्दयन्नागमुन्मदः पाण्डवः शरैः / / 36 नेदुः सेदुश्च मम्लुश्च बभ्रमुश्च दिशो दश // 4 स शरौघार्दितो नागो भीमसेनेन संयुगे। वध्यमाने बले तस्मिन्सूतपुत्रेण मारिष / निगृह्यमाणो नातिष्ठद्वातध्वस्त इवाम्बदः // 37 नकुलोऽभ्यद्रवत्तूर्णं सूतपुत्रं महारणे // 5 तमभ्यधावद्विरदं भीमसेनस्य नागराट् / भीमसेनस्तथा द्रौणिं कुर्वाणं कर्म दुष्करम् / महावातेरितं मेघ वातोद्भूत इवाम्बुदः / / 38 विन्दानुविन्दौ कैकेयौ सात्यकिः समवारयत् // 6 संनिवात्मनो नागं क्षेमधूर्तिः प्रयत्नतः / श्रुतकर्माणमायान्तं चित्रसेनो महीपतिः / विव्याधाभिद्रुतं बाणैर्भीमसेनं सकुञ्जरम् / / 39 प्रतिविन्ध्यं तथा चित्रश्चित्रकेतनकार्मुकः // 7 ततः साधुविसृष्टेन क्षुरेण पुरुषर्षभः / दुर्योधनस्तु राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् / छित्त्वा शरासनं शत्रो गमामित्रमार्दयत् // 40 संशप्तकगणान्क्रद्धो अभ्यधावद्धनंजयः॥८ ततः खजाकया भीमं क्षेमधूर्तिः पराभिनत् / धृष्टद्युम्नः कृपं चाथ तस्मिन्वीरवरक्षये। जघान चास्य द्विरदं नाराचैः सर्वमर्मसु / / 41 शिखण्डी कृतवर्माणं समासादयदच्युतम् // 9 पुरा नागस्य पतनादवप्लुत्य स्थितो महीम् / श्रुतकीर्तिस्तथा शल्यं माद्रीपुत्रः सुतं तव / भीमसेनो रिपो गं गदया समपोथयत् // 42 दुःशासनं महाराज सहदेवः प्रतापवान् / / 10 तस्मात्प्रमथितान्नागात्क्षेमधूर्तिमवद्रुतम् / केकयौ सात्यकिं युद्धे शरवर्षेण भास्वता / उद्यतासिमुपायान्तं गदयाहन्वृकोदरः / / 43 सात्यकिः केकयौ चैव छादयामास भारत // 11 स पपात हतः सासिय॑सुः स्वमभितो द्विपम् / तावेनं भ्रातरौ वीरं जन्नतुहृदये भृशम् / वजप्ररुग्णमचलं सिंहो वज्रहतो यथा // 44 विषाणाभ्यां यथा नागौ प्रतिनाग महाहवे // 12 निहतं नृपतिं दृष्ट्वा कुलूतानां यशस्करम्। शरसंभिन्नवर्माणौ तावुभौ भ्रातरौ रणे / प्राद्रवद्वयथिता सेना त्वदीया भरतर्षभ / / 45 सात्यकिं सत्यकर्माणं राजन्विव्यधतुः शरैः // 13 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि तौ सात्यकिर्महाराज प्रहसन्सर्वतोदिशम / . अष्टमोऽध्यायः // 8 // छादयशरवर्षेण वारयामास भारत // 14 वार्यमाणौ ततस्तौ तु शैनेयशरवृष्टिभिः / ___ संजय उवाच। शैनेयस्य रथं तूर्णं छादयामासतुः शरैः // 15 ततः कर्णो महेष्वासः पाण्डवानामनीकिनीम् / / तयोस्तु धनुषी चित्रे छित्त्वा शौरिर्महाहवे / जघान समरे शूरः शरैः संनतपर्वभिः // 1 अथ तौ सायकैस्तीक्ष्णैश्छादयामास दुःसहैः // 16 तथैव पाण्डवा राजंस्तव पुत्रस्य वाहिनीम् / अथान्ये धनुषी मृष्टे प्रगृह्य च महाशरान् / म. भा. 208 -1657 - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 9. 17] महाभारते [8. 10.8 सात्यकि पूरयन्तौ तौ चेरतुर्लघु सुष्टु च // 17 तं चरन्तं महारङ्गे निस्त्रिंशवरधारिणम् / ताभ्यां मुक्ता महाबाणाः कङ्कबर्हिणवाससः। अपहस्तेन चिच्छेद शैनेयस्त्वरयान्वितः // 31 द्योतयन्तो दिशः सर्वाः संपेतुः स्वर्णभूषणाः // 18 सवर्मा केकयो राजन्द्विधा छिन्नो महाहवे। बाणान्धकारमभवत्तयो राजन्महाहवे। निपपात महेष्वासो वज्रनुन्न इवाचलः // 32 अन्योन्यस्य धनुश्चैव चिच्छिदुस्ते महारथाः॥१९ / तं निहत्य रणे शूरः शैनेयो रथसत्तमः / / ततः क्रुद्धो महाराज सात्वतो युद्धदुर्मदः। युधामन्यो रथं तूर्णमारुरोह परंतपः // 33 धनुरन्यत्समादाय सज्यं कृत्वा च संयुगे। ततोऽन्यं रथमास्थाय विधिवत्कल्पितं पुनः। . क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन अनुविन्दशिरोऽहरत् / / 20 केकयानां महत्सैन्यं व्यधमत्सात्यकिः शरैः // 34 तच्छिरो न्यपतद्भूमौ कुण्डलोत्पीडितं महत् / / सा वध्यमाना समरे केकयस्य महाचमूः / शम्बरस्य शिरो यद्वन्निहतस्य महारणे। तमुत्सृज्य रथं शत्रु प्रदुद्रावं दिशो दश // 35 शोषयन्केकयान्सर्वाञ्जगामाशु वसुंधराम् // 21 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि तं दृष्ट्वा निहतं शूरं भ्राता तस्य महारथः / नवमोऽध्यायः॥९॥ सज्यमन्यद्धनुः कृत्वा शैनेयं प्रत्यवारयत् // 22 स शक्त्या सात्यकि विद्धा स्वर्णपुङ्खः शिलाशितैः / संजय उवाच। ननाद बलवन्नादं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् // 23 श्रुतकर्मा महाराज चित्रसेनं महीपतिम् / स सात्यकिं पुनः क्रुद्धः केकयानां महारथः / / आजन्ने समरे क्रुद्धः पश्चाशद्भिः शिलीमुखैः // 1 शरैरग्निशिखाकारैर्बाह्वोरुरसि चार्दयत् // 24 अभिसारस्तु तं राजा नवभिर्निशितैः शरैः। स शरैः क्षतसर्वाङ्गः सात्वतः सत्त्वकोविदः / श्रुतकर्माणमाहत्य सूतं विव्याध पञ्चभिः // 2 रराज समरे राजन्सपत्र इव किंशुकः // 25 श्रुतकर्मा ततः क्रुद्धश्चित्रसेनं चमूमुखे / सात्यकिः समरे विद्धः केकयेन महात्मना / नाराचेन सुतीक्ष्णेन मर्मदेशे समर्दयत् / / 3 केकयं पश्चविंशत्या विव्याध प्रहसन्निव // 26 / एतस्मिन्नन्तरे चैनं श्रुतकीर्तिर्महायशाः / शतचन्द्रचिते गृह्य चर्मणी सुभुजौ तु तौ। नवल्या जगतीपालं छादयामास पत्रिभिः // 4 व्यरोचेतां महारङ्गे निविंशवरधारिणौ / प्रतिलभ्य ततः संज्ञां चित्रसेनो महारथः / यथा देवासुरे युद्धे जम्भशकौ महाबलौ // 27 / धनुश्चिच्छेद भल्लेन तं च विव्याध सप्तभिः // 5 मण्डलानि ततस्तौ च विचरन्ती महारणे। सोऽन्यत्कार्मुकमादाय वेगन्नं रुक्मभूषणम् / अन्योन्यमसिभिस्तूर्ण समाजघ्नतुराहवे // 28 चित्ररूपतरं चक्रे चित्रसेनं शरोर्मिभिः // 6 केकयस्य ततश्चर्म द्विधा चिच्छेद सात्वतः / स शरैश्चित्रितो राजश्चित्रमाल्यधरो युवा / सात्यकेश्च तथैवासौ चर्म चिच्छेद पार्थिवः // 29 / युवेव समशोभत्स गोष्ठीमध्ये स्वलंकृतः // 7 चर्म च्छित्त्वा तु कैकेयस्तारागणशतैर्वृतम् / श्रुतकर्माणमथ वै नाराचेन स्तनान्तरे / चचार मण्डलान्येव गतप्रत्यागतानि च // 30 बिभेद समरे क्रुद्धस्तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् // 8 - 1658 - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 10. 9] कर्णपर्व [8. 10. 36 भुतकर्मापि समरे नाराचेन समर्दितः / प्रतिविन्ध्याय चिक्षेप रुक्मजालविभूषिताम् // 23 सुनाव रुधिरं भूरि गैरिकाम्भ इवाचलः // 9 सा जघान यांस्तस्य सारथिं च महारणे / ततः स रुधिराक्ताङ्गो रुधिरेण कृतच्छविः / रथं प्रमृद्य वेगेन धरणीमन्वपद्यत // 24 माज समरे राजन्सपुष्प इव किंशुकः // 10 एतस्मिन्नेव काले तु रथादाप्लुत्य भारत / भुतकर्मा ततो राजशत्रूणां समभिद्रुतः / शक्तिं चिक्षेप चित्राय स्वर्णघण्टामलंकृताम् // 25 शत्रुसंवरणं कृत्वा द्विधा चिच्छेद कार्मुकम् // 11 तामापतन्ती जग्राह चित्रो राजन्महामनाः / अथैनं छिन्नधन्वानं नाराचानां त्रिभिः शतैः / ततस्तामेव चिक्षेप प्रतिविन्ध्याय भारत // 26 विव्याध भरतश्रेष्ठ श्रुतकर्मा महायशाः // 12 समासाद्य रणे शूरं प्रतिविन्ध्यं महाप्रभा। ततोऽपरेण भल्लेन भृशं तीक्ष्णेन सत्वरः / निर्भिद्य दक्षिणं बाहुं निपपात महीतले / बहार सशिरस्त्राणं शिरस्तस्य महात्मनः / / 13 पतिताभासयच्चैव तं देशमशनिर्यथा // 27 वच्छिरो न्यपतद्भूमौ सुमहच्चित्रवर्मणः / प्रतिविन्ध्यस्ततो राजस्तोमरं हेमभूषितम् / परन्छया यथा चन्द्रभ्युतः स्वर्गान्महीतले / / 14 प्रेषयामास संक्रुद्धश्चित्रस्य वधकाम्यया // 28 राजानं निहतं दृष्ट्वा अभिसारं च मारिष / स तस्य देहावरणं भित्त्वा हृदयमेव च / अभ्यद्रवन्त वेगेन चित्रसेनस्य सैनिकाः // 15 जगाम धरणी तूर्णं महोरग इवाशयम् // 29 ततः क्रुद्धो महेष्वासस्तत्सैन्यं प्राद्रवच्छरैः / स पपात तदा राजस्तोमरेण समाहतः / अन्तकाले यथा क्रुद्धः सर्वभूतानि प्रेतराट् / प्रसार्य विपुलौ बाहू पीनी परिघसंनिभौ // 30 द्रावयन्निषुभिस्तूर्णं श्रुतकर्मा व्यरोचत // 16 / चित्रं संप्रेक्ष्य निहतं तावका रणशोभिनः / प्रतिविन्ध्यस्ततश्चित्रं भित्त्वा पञ्चभिराशुगैः / अभ्यद्रवन्त वेगेन प्रतिविन्ध्यं समन्ततः // 31 सारथि त्रिभिरान द्धजमेकेषुणा ततः // 17 सृजन्तो विविधान्बाणाञ्शतघ्नीश्च सकिङ्किणीः / चित्रो नवभिभल्लैबर्बाह्वोरुरसि चादयत् / त एनं छादयामासुः सूर्यमभ्रगणा इव // 32 खर्णपुजैः शिलाधौतैः कङ्कबर्हिणवाजितैः / / 18 तानपास्य महाबाहुः शरजालेन संयुगे / प्रतिविन्थ्यो धनुस्तस्य छित्त्वा भारत सायकैः / व्यद्रावयत्तव चमू वज्रहस्त इवासुरीम् / / 33 पञ्चभिर्निशितैर्बाणैरथेनं संप्रजनिवान् // 19 / ते वध्यमानाः समरे तावकाः पाण्डवैर्नृप / बतः शक्तिं महाराज हेमदण्डां दुरासदाम् / विप्रकीर्यन्त सहसा वातनुन्ना घना इव / / 34 प्राहिणोत्तव पुत्राय घोरामग्निशिखामिव / / 20 विप्रद्रुते बले तस्मिन्वध्यमाने समन्ततः / समापतन्ती सहसा शक्तिमुल्कामिवाम्बरात् / द्रौणिरेकोऽभ्ययात्तूर्णं भीमसेनं महाबलम् // 35 द्विधा चिच्छेद समरे प्रतिविन्ध्यो हसन्निव // 21 / / ततः समागमो घोरो बभूव सहसा तयोः / सा पपात तदा छिन्ना प्रतिविन्ध्यशरैः शितैः / यथा देवासुरे युद्धे वृत्रवासवयोरभूत् / / 36 युगान्ते सर्वभूतानि त्रासयन्ती यथाशनिः // 22 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि शक्ति तां प्रहतां दृष्ट्वा चित्रो गृह्य महागदाम् / / दशमोध्यायः // 10 // - 1659 -- Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 11. 1] महामारते [ 8. 11. 29 अभूतां तावदृश्यौ च शरजालैः समन्ततः / संजय उवाच / मेघजालैरिव च्छन्नौ गगने चन्द्रभास्करौ // 15 भीमसेनं ततो द्रौणी राजन्विव्याध पत्रिणा।। प्रकाशौ च मुहूर्तेन तत्रैवास्तामरिंदमौ / त्वरया परया युक्तो दर्शयन्नस्त्रलाघवम् // 1 विमुक्तौ मेघजालेन शशिसूर्यौ यथा दिवि // 16 अथैनं पुनराजन्ने नवत्या निशितैः शरैः / अपसव्यं ततश्चक्रे द्रौणिस्तत्र वृकोदरम् / सर्वमर्माणि संप्रेक्ष्य मर्मज्ञो लघुहस्तवत् // 2 किरशरशतैरुप्रैर्धाराभिरिव पर्वतम् // 17 भीमसेनः समाकीर्णो द्रौणिना निशितैः शरैः। न तु तन्ममृषे भीमः शत्रोविजयलक्षणम् / रराज समरे राजरश्मिवानिव भास्करः // 3 प्रतिचक्रे च तं राजन्पाण्डवोऽप्यपसव्यतः // 18 ततः शरसहस्रेण सुप्रयुक्तेन पाण्डवः / मण्डलानां विभागेषु गतप्रत्यागतेषु च / द्रोणपुत्रमवच्छाद्य सिंहनादममुञ्चत // 4 बभूव तुमुलं युद्धं तयोस्तत्र महामृधे // 19 . शरैः शरांस्ततो द्रौणिः संवार्य युधि पाण्डवम् / चरित्वा विविधान्मार्गान्मण्डलं स्थानमेव च।। ललाटेऽभ्यहनद्राजन्नाराचेन स्मयन्निव // 5 शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः // 20 ललाटस्थं ततो बाणं धारयामास पाण्डवः / अन्योन्यस्य वधे यत्नं चक्रतुस्तौ महारथौ / यथा शृङ्गं वने दृप्तः खड्गो धारयते नृप // 6 / ईषतुर्विरथं चैव कर्तुमन्योन्यमाहवे // 21 / / ' ततो द्रौणिं रणे भीमो यतमानं पराक्रमी / ततो द्रौणिर्महास्त्राणि प्रादुश्चक्रे महारथः। त्रिभिर्विव्याध नाराचैर्ललाटे विस्मयन्निव // 7 तान्यखैरेव समरे प्रतिजन्नेऽस्य पाण्डवः // 22 ललाटस्थैस्ततो बाणैर्ब्राह्मणः स व्यरोचत / / ततो घोरं महाराज अस्त्रयुद्धमवर्तत / प्रावृषीव यथा सिक्तस्त्रिशृङ्गः पर्वतोत्तमः // 8 प्रहयुद्धं यथा घोरं प्रजासंहरणे अभूत् // 23 . ततः शरशतैौणिमर्दयामास पाण्डवः / ते बाणाः समसज्जन्त क्षिप्तास्ताभ्यां तु भारत / न चैनं कम्पयामास मातरिश्वेव पर्वतम् // 9 द्योतयन्तो दिशः सर्वास्तञ्च सैन्यं समन्ततः / / 24 तथैव पाण्डवं युद्धे द्रौणिः शरशतैः शितैः / बाणसंघावृतं घोरमाकाशं समपद्यत / नाकम्पयत संहृष्टो वार्योघ इव पर्वतम् // 10 उल्कापातकृतं यद्वत्प्रजानां संक्षये नृप // 25 तावन्योन्यं शरै| रैश्छादयानौ महारथौ। बाणाभिघातात्संजज्ञे तत्र भारत पावकः / रथचर्यागतौ शूरौ शुशुभाते रणोत्कटौ // 11 सविस्फुलिङ्गो दीप्तार्चिः सोऽदहद्वाहिनीद्वयम् // 26 आदित्याविव संदीप्ती लोकक्षयकरावुभौ / तत्र सिद्धा महाराज संपतन्तोऽब्रुवन्वचः / स्वरश्मिभिरिवान्योन्यं तापयन्तौ शरोत्तमैः // 12 अति युद्धानि सर्वाणि युद्धमेतत्तातोऽधिकम् // 27 कृतप्रतिकृते यत्नं कुर्वाणौ च महारणे / सर्वयुद्धानि चैतस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् / कृतप्रतिकृते यत्तं चक्राते तावभीतवत् // 13 | नैतादृशं पुनयुद्धं न भूतं न भविष्यति // 28 व्याघ्राविव च संग्रामे चेरतुस्तौ महारथौ। अहो ज्ञानेन संयुक्तावुभौ चोप्रपराक्रमौ / शरदंष्ट्री दुराधर्षों चापव्यात्तौ भयानकौ // 14 - अहो भीमे बलं भीममेतयोश्च कृतास्त्रता // 29 - 1660 - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 8. 11. 30] कणपत्र [8. 12. 18 बहो वीर्यस्य सारत्वमहो सौष्ठवमेतयोः।। __ अन्येषां च मदीयानां पाण्डवैस्तद्भवीहि मे // 1 सितावेतौ हि समरे कालान्तकयमोपमौ // 30 संजय उवाच / लौ द्वाविव संभूतौ यथा द्वाविव भास्करौ। शृणु राजन्यथावृत्तं संग्रामं ब्रुवतो मम / यमौ वा पुरुषव्याघ्रौ घोररूपाविमौ रणे // 31 वीराणां शत्रुभिः सार्धं देहपाप्मप्रणाशनम् // 2 अयन्ते स्म तदा वाचः सिद्धानां वै मुहुर्मुहुः। पार्थः संशप्तकगणं प्रविश्यार्णवसंनिभम् / सिंहनादश्च संजज्ञे समेतानां दिवौकसाम् / व्यक्षोभयदमित्रांनो महावात इवार्णवम् // 3 बद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च दृष्ट्वा कर्म तयोर्मधे // 32 शिरांस्युन्मथ्य वीराणां शितैर्भल्लैर्धनंजयः / सौ शूरो समरे राजन्परस्परकृतागसौ। पूर्णचन्द्राभवक्त्राणि स्वक्षिभूदशनानि च / पात्परमुदैक्षेतां क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी // 33 संतस्तार क्षितिं क्षिप्रं विनालैनलिनैरिव // 4 बोधरक्तेक्षणौ तौ तु क्रोधात्प्रस्फुरिताधरौ / सुवृत्तानायतान्पुष्टांश्चन्दनागुरुभूषितान् / गोधात्संदष्टदशनौ संदष्टदशनच्छदौ // 34 सायुधान्सतनुत्राणान्पश्चास्योरगसंनिभान् / बन्योन्यं छादयन्तौ स्म शरवृष्ट्या महारथौ। बाहून्क्षुरैरमित्राणां विचकर्तार्जुनो रणे // 5 पराम्बुधारौ समरे शस्त्रविद्युत्प्रकाशिनौ / / 35 धुर्यान्धुर्यतरान्सूतान्ध्वजांश्चापानि सायकान् / सामन्योन्यं ध्वजौ विद्या सारथी च महारथौ। पाणीनरत्नीनसकृद्भल्लैश्चिच्छेद पाण्डवः // 6 भन्योन्यस्य हयान्विद्धवा बिभिदाते परस्परम् // 36 द्विपान्हयान्रथांश्चैव सारोहानर्जुनो रणे। सत: क्रुद्धौ महाराज बाणौ गृह्य महाहवे। शरैरनेकसाहनै राजन्निन्ये यमक्षयम् // 7 मौ चिक्षिपतुस्तूर्णमन्योन्यस्य वधैषिणौ // 37 तं प्रवीरं प्रतीयाता नर्दमाना इवर्षभाः / सायको महाराज द्योतमानौ चमूमुखे। वाशितार्थमभिक्रुद्धा हुंकृत्वा चाभिदुद्रुवुः / भाजनाते समासाद्य वज्रवेगौ दुरासदौ // 38 निघ्नन्तमभिजनस्ते शरैः शृङ्गैरिवर्षभाः // 8. चौ परस्परवेगाच्च शराभ्यां च भृशाहतौ / तस्य तेषां च तद्युद्धमभवल्लोमहर्षणम् / निपेततुर्महावीरौ स्वरथोपस्थयोस्तदा // 39 त्रैलोक्यविजये यादृग्दैत्यानां सह वज्रिणा // 9 सखस्तु सारथित्विा द्रोणपुत्रमचेतनम् / अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः / अपोबाह रणाद्राजन्सर्वक्षत्रस्य पश्यतः // 40 इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं विद्या प्राणान्ररास सः // 10 सबैव पाण्डवं राजन्विह्वलन्तं मुहुर्मुहुः / छिन्नत्रिवेणुचक्राक्षान्हतयोधाश्वसारथीन् / पोवाह रथेनाजी सारथिः शत्रुतापनम् // 41 विध्वस्तायुधतूणीरान्समुन्मथितकेतनान् // 11 / इति श्रीमहाभारते कर्णएनि संछिन्नयोक्त्ररश्मीकान्वित्रिवेणून्विकूबरान् / एकोदशोऽध्यायः॥११॥ विध्वस्तबन्धुरयुगान्विशस्तायुधमण्डलान् / रथान्विशकलीकुर्वन्महाभ्राणीव मारुतः // 12 धृतराष्ट्र उवाच। विस्मापयन्प्रेक्षणीयं द्विषतां भयवर्धनम् / बया संशप्तकैः सार्धमर्जुनस्याभवद्रणः / महारथसहस्रस्य समं कर्मार्जुनोऽकरोत् // 13 - 1661 - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 12. 14 ] महाभारते [ 8. 12. 48 सिद्धदेवर्षिसंघाश्च चारणाश्चैव तुष्टुवुः / . त्रिभिः शरैर्वासुदेवं सहस्रेण च पाण्डवम् // 28 देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवर्षाणि चापतन् / ततः शरसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। . केशवार्जुनयोर्मूर्ध्नि प्राह वाक्चाशरीरिणी // 14 / ससृजे द्रौणिरायस्तः संस्तभ्य च रणेऽर्जुनम् // 29 चन्द्रार्कानिलवह्नीनां कान्तिदीप्तिबलद्युतीः। इषुधेर्धनुषो ज्याया अङ्गुलीभ्यश्च मारिष। : * यौ सदा बिभ्रतुर्वी ताविमौ केशवार्जुनौ // 15 बाह्वोः कराभ्यामुरसो वदनघ्राणनेत्रतः // 30 ब्रह्मेशानाविधाजय्या वीरावेकरथे स्थितौ / कर्णाभ्यां शिरसोऽङ्गेभ्यो लोमवर्त्मभ्य एव च / सर्वभूतवरौ वीरौ नरनारायणावुभौ // 16 रथध्वजेभ्यश्च शरा निष्पेतुर्ब्रह्मवादिनः // 31 इत्येतन्महदाश्चर्यं दृष्ट्वा श्रुत्वा च भारत / शरजालेन महता विद्या केशवपाण्डवौ / अश्वत्थामा सुसंयत्तः कृष्णावभ्यद्रवद्रणे // 17 ननाद मुदितो द्रौणिर्महामेघौघनिस्वनः // 32 अथ पाण्डवमस्यन्तं यमकालान्तकाशरान् / तस्य नानदतः श्रुत्वा पाण्डवोऽच्युतमब्रवीत् / सेषुणा पाणिनाहूय हसन्द्रौणिरथाब्रवीत् // 18 / पश्य माधव दौरात्म्यं द्रोणपुत्रस्य मां प्रति // 33 यदि मां मन्यसे वीर प्राप्तमहमिवातिथिम् / वधप्राप्तौ मन्यते नौ प्रवेश्य शरवेश्मनि / ततः सर्वात्मनाद्य त्वं 'युद्धातिथ्यं प्रयच्छ मे // 19 एषोऽस्य हन्मि संकल्पं शिक्षया च बलेन च // 34 एवमाचार्यपुत्रेण समाहूतो युयुत्सया / अश्वत्थाम्नः शरानस्तांछित्त्वैकैकं त्रिधा त्रिधा / बहु मेनेऽर्जुनोऽऽत्मानमिदं चाह जनार्दनम् // 20 / व्यधमद्भरतश्रेष्ठो नीहारमित्र मारुतः // 35 संशप्तकाश्च मे वध्या द्रौणिराह्वयते च माम् / ततः संशप्तकान्भूयः साश्वसूतरथद्विपान् / यदत्रानन्तरं प्राप्तं प्रशाधि त्वं महाभुज // 21 ध्वजपत्तिगणानुप्रैर्बाणैर्विव्याध पाण्डवः // 36 एवमुक्तोऽवहत्पार्थं कृष्णो द्रोणात्मजान्तिकम् / ये ये ददृशिरे तत्र यद्यद्रूपं यथा यथा / जैत्रेण विधिनाहूतं वायुरिन्द्रमिवाध्वरे // 22 ते ते तत्तच्छरैप्तिं मेनिरेऽऽत्मानमेव च // 3 // तमामध्यैकमनसा केशवो द्रौणिमब्रवीत् / ते गाण्डीवप्रणुदिता नानारूपाः पतत्रिणः। अश्वत्थामन्स्थिरो भूत्वा प्रहराशु सहस्व च // 23 क्रोशे साग्रे स्थितान्नन्ति द्विपांश्च पुरुषारणे // 38 निर्वेष्टुं भर्तृपिण्डं हि कालोऽयमुपजीविनाम् / / भल्लैश्छिन्नाः कराः पेतुः करिणां मदकर्षिणाम् / सूक्ष्मो विवादो विप्राणां स्थूलौ क्षात्रौ जयाजयौ॥ छिन्ना यथा परशुभिः प्रवृद्धाः शरदि द्रुमाः // 39 यां न संक्षमसे मोहादिव्यां पार्थस्य सक्रियाम् / पश्चात्तु शैलवत्पेतुस्ते गजाः सह सादिभिः। तामाप्तुमिच्छन्युध्यस्व स्थिरो भूत्वाद्य पाण्डवम् // वञिवज्रप्रमथिता यथैवाद्रिचयास्तथा // 40 इत्युक्तो वासुदेवेन तथेत्युक्त्वा द्विजोत्तमः / गन्धर्वनगराकाराविधिवत्कल्पितारथान् / विव्याध केशवं षष्ट्या नाराचैरर्जुनं त्रिभिः // 26 विनीतजवनान्युक्तानास्थितान्युद्धदुर्मदान् // 41 तस्यार्जुनः सुसंक्रुद्धनिभिर्भल्लैः शरासनम् / शरैर्विशकलीकुर्वन्नमित्रानभ्यवीवृषत् / चिच्छेदाथान्यदादत्त द्रौणिर्घोरतरं धनुः // 27 अलंकृतानश्वसादीन्पत्तींश्चाहन्धनंजयः // 42 सज्यं कृत्वा निमेषात्तद्विव्याधार्जुनकेशवौ। धनंजययुगान्तार्कः संशप्तकमहार्णवम् / - 1662 - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 12. 43] कर्णपर्व [8. 12. 62 व्यशोषयत दुःशोषं तीत्रैः शरगभस्तिभिः // 43 पाणीन्भुजान्पाणिगतं च शस्त्रम्। पुनद्रौणिमहाशैलं नाराचैः सूर्भसंनिभैः / छत्राणि केतूंस्तुरगानथैषां निर्बिभेद महावेगैस्त्वरन्वज्रीव पर्वतम् // 44 वस्त्राणि माल्यान्यथ भूषणानि // 55 तमाचार्यसुतः क्रुद्धः साश्वयन्तारमाशुगैः / / चर्माणि वर्माणि मनोरथांश्च युयुत्सु शकद्योढुं पार्थस्तानन्तराच्छिनत् / / 45 प्रियाणि सर्वाणि शिरांसि चैव। ततः परमसंक्रुद्धः काण्डकोशानवासृजत् / / . चिच्छेद पार्थो द्विषतां प्रमुक्तैअश्वत्थामाभिरूपाय गृहानतिथये यथा // 46 र्बाणैः स्थितानामपराङ्मुखानाम् // 56 अथ संशप्तकांस्त्यक्त्वा पाण्डवो द्रौणिमभ्ययात् / सुकल्पिताः स्यन्दनवाजिनागाः अपाङ्ग्रेयमिव त्यक्त्वा दाता पातेयमर्थिनम् // 47 ___ समास्थिताः कृतयत्नैर्नृवीरैः। ततः समभवद्युद्धं शुक्राङ्गिरसवर्चसोः / पार्थेरितैर्बाणगणैर्निरस्तानक्षत्रममितो व्योम्नि शुक्राङ्गिरसयोरिव // 48 स्तैरेव सार्धं नृवरैर्निपेतुः // 57 संतापयन्तावन्योन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः / पद्मार्कपूर्णेन्दुसमाननानि लोकत्रासकरावास्तां विमार्गस्थौ ग्रहाविव // 49 किरीटमालामुकुटोत्कटानि / व्रतोऽविध्यद्भुवोर्मध्ये नाराचेनार्जुनो भृशम् / भल्लार्धचन्द्रक्षुरहिंसितानि स तेन विबभौ द्रौणिरूलरश्मिर्यथा रविः // 50 प्रपेतुरुया नृशिरांस्यजस्रम् // 58 अथ कृष्णौ शरशतैरश्वत्थाम्नार्दितौ भृशम् / . अथ द्विपैर्देवपतिद्विपाभैसरश्मिजालनिकरौ युगान्तार्का विवासतुः // 51 वारिदर्पोल्बणमन्युदः / ततोऽर्जुनः सर्वतोधारमत्र कलिङ्गवङ्गाङ्गनिषादवीरा - मवासृजद्वासुदेवाभिगुप्तः / जिघांसवः पाण्डवमभ्यधावन् // 59 द्रौणायनिं चाभ्यहनत्पृषत्कै तेषां द्विपानां विचकर्त पार्थो ..र्वजाग्निवैवस्वतदण्डकल्पैः // 52 ___ वर्माणि मर्माणि करान्नियन्तृन् / स केशवं चार्जुनं चातितेजा ध्वजाः पताकाश्च ततः प्रपेतुविव्याध मर्मस्वतिरौद्रकर्मा / वजाहतानीव गिरेः शिरांसि // 60 बाणैः सुमुक्तैरतितीव्रवेग तेषु प्ररुग्णेषु गुरोस्तनूजं राहतो मृत्युरपि व्यथेत // 53 ___बाणैः किरीटी नवसूर्यवः / द्रौणेरिघुनर्जुनः संनिवार्य प्रच्छादयामास महाभ्रजालै- व्यायच्छतस्तहिगुणैः सुपुखैः / र्वायुः समुद्युक्तमिवांशुमन्तम् // 61 तं साश्वसूतध्वजमेकवीर ततोऽर्जुनेषूनिषुभिर्निरस्य . मावृत्य संशप्तकसैन्यमार्छत् // 54 द्रौणिः शरैरर्जुनवासुदेवौ / धनूंषि बाणानिषुधीर्धनाः प्रच्छादयित्वा दिवि चन्द्रसूर्यो -1663 - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 12. 62 ] . महाभारते [8. 13.8 ननाद सोऽम्भोद इवातपान्ते // 62 / मन्त्रौषधिक्रियादानाधौ देहादिवाहृते // 70 तमर्जुनस्तांश्च पुनस्त्वदीया संशप्तकानभिमुखौ प्रयातौ केशवार्जुनौ / नभ्यर्दितस्तैरविकृत्तशस्त्रैः / वातोद्भूतपताकेन स्यन्दनेनौघनादिना // 71 बाणान्धकारं सहसैव कृत्वा इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि - विव्याध सर्वानिषुभिः सुपुत्रैः // 63 द्वादशोऽध्यायः॥ 12 // नाप्याददत्संदधन्नैव मुश्च___ न्बाणान्रणेऽदृश्यत सव्यसाची / - संजय उवाच / हतांश्च नागांस्तुरगान्पदाती अथोत्तरेण पाण्डूनां सेनायां ध्वनिरुत्थितः / न्संस्यूतदेहान्ददृशू रथांश्च // 64 . रथनागाश्वपत्तीनां दण्डधारेण वध्यताम् // 1 संधाय नाराचवरान्दशाशु निवर्तयित्वा तु रथं केशवोऽर्जुनमब्रवीत् / __द्रौणिस्त्वरन्नेकमिवोत्ससर्ज / वाहयन्नेव तुरगान्गरुडानिलरंहसः // 2 तेषां च पश्चार्जुनमभ्यविध्य मागधोऽथाप्यतिक्रान्तो द्विरदेन प्रमाथिना। __ न्पश्चाच्युतं निर्बिभिदुः सुमुक्ताः // 65 भगदत्तादनवरः शिक्षया च बलेन च // 3 तैराहतौ सर्वमनुष्यमुख्या एनं हत्वा निहन्तासि पुनः संशप्तकानिति / वसृक्क्षरन्तौ धनदेन्द्रकल्पौ। वाक्यान्ते प्रापयत्पार्थं दण्डधारान्तिकं प्रति // 4 समाप्तविद्येन यथाभिभूती स मागधानां प्रवरोऽङ्कुशग्रहो हतौ स्विदेतौ किमु मेनिरेऽन्ये // 66 प्रहेष्वसह्यो विकचो यथा ग्रहः / / अथार्जुनं प्राह दशाईनाथः सपत्नसेनां प्रममाथ दारुणो प्रमाद्यसे किं जहि योधमेतम् / महीं समग्रां विकचो यथा ग्रहः // 5 कुर्याद्धि दोषं समुपेक्षितोऽसौ सुकल्पितं दानवनागसंनिभं ___ कष्टो भवेद्वयाधिरिवाक्रियावान् // 67 महाभ्रसंहादममित्रमर्दनम् / तथेति चोक्त्वाच्युतमप्रमादी रथाश्वमातङ्गगणान्सहस्रशः द्रौणिं प्रयत्नादिषुभिस्ततक्ष। समास्थितो हन्ति शरैर्द्विपानपि // 6 छित्त्वाश्वरश्मींस्तुरगानविध्य रथानधिष्ठाय सवाजिसारथीत्ते तं रणादृहुरतीव दूरम् // 68 रथांश्च पद्भिस्त्वरितो व्यपोथयत् / आवृत्य नेयेष पुनस्तु युद्धं द्विपांश्च पद्भयां चरणैः करेण च पार्थेन साधं मतिमान्विमृश्य / द्विपास्थितो हन्ति स कालचक्रवत् // 7 जानञ्जयं नियतं वृष्णिवीरे नरांश्च कार्णायसवर्मभूषणा___धनंजये चाङ्गिरसां वरिष्ठः // 69 निपात्य साश्वानपि पत्तिभिः सह / प्रतीपकाये तु रणादश्वत्थानि हृते हयैः। व्यपोथयद्दन्तिवरेण शुष्मिणा -1664 - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 13.8] कर्णपर्व [8. 13. 23 सशब्दवत्स्थूलनडान्यथा तथा // 8 * हिमाद्रिकूटप्रतिमेन दन्तिना। अथार्जुनो ज्यातलनेमिनिस्वने हते रणे भ्रातरि दण्ड आव्रजमृदङ्गभेरीबहुशङ्खनादिते। जिघांसुरिन्द्रावरजं धनंजयम् // 16 नराश्वमातङ्गसहस्रनादितै स तोमरैरर्ककरप्रभैस्त्रिभिरथोत्तमेनाभ्यपतहिपोत्तमम् // 9 र्जनार्दनं पञ्चभिरेव चार्जुनम् / ततोऽर्जुनं द्वादशभिः शरोत्तमै समर्पयित्वा विननाद चादयंजनार्दनं षोडशभिः समार्दयत् / स्ततोऽस्य बाहू विचकर्त पाण्डवः // 17 स दण्डधारस्तुरगांस्त्रिभिस्त्रिभि क्षुरप्रकृत्तौ सुभृशं सतोमरौ स्ततो ननाद प्रजहास चासकृत् // 10 ___ च्युताङ्गदौ चन्दनरूषितौ भुजौ / ततोऽस्य पार्थः सगुणेषुकार्मुकं गजात्पतन्ती युगपद्विरेजतु• चकर्त भल्लैर्ध्वजमप्यलंकृतम् / ___ यथाद्रिशृङ्गात्पतितौ महोरगौ // 18 पुननियन्तॄन्सह पादगोप्तृभि अथार्धचन्द्रेण हृतं किरीटिनाः स्ततस्तु चुक्रोध गिरिव्रजेश्वरः // 11 ___पपात दण्डस्य शिरः क्षितिं द्विपात् / खतोऽर्जुनं भिन्नकटेन दन्तिना तच्छोणिताभं निपतद्विरेजे : घनाघनेनानिलतुल्यरंहसा। दिवाकरोऽस्तादिव पश्चिमां दिशम् // 19 अतीव चुक्षोभयिषुर्जनार्दनं अथ द्विपं श्वेतनगाग्रसंनिभं / - धनंजयं चाभिजघान तोमरैः // 12 / - दिवाकरांशुप्रतिमैः शरोत्तमैः / अथास्य बाहू द्विपहस्तसंनिभौ बिभेद पार्थः स पपात नानदशिरश्च पूर्णेन्दुनिभाननं त्रिभिः / न्हिमाद्रिकूटः कुलिशाहतो यथा // 20 धेरैः प्रचिच्छेद सहैव पाण्डव ततोऽपरे तत्प्रतिमा गजोत्तमा स्ततो द्विपं बाणशतैः समार्दयत् // 13 ___ जिगीषवः संयति सव्यसाचिनम् / स पार्थबाणैस्तपनीयभूषणैः तथा कृतास्तेन यथैव तौ द्विपौ समारुचःकाश्चनवर्मभृहिपः / ततः प्रभग्नं सुमहद्रिपोर्बलम् // 21 तथा चकाशे निशि पर्वतो यथा गजा रथाश्वाः पुरुषाश्च संघशः दवाग्निना प्रज्वलितौषधिद्रुमः // 14 परस्परनाः परिपेतुराहवे। स वेदनार्तोऽम्बुदनिस्वनो नदं परस्परप्रस्खलिताः समाहता श्वलन्ध्रमन्प्रस्खलितोऽऽतुरो द्रवन् / भृशं च तत्तत्कुलभाषिणो हताः // 22 पपात रुग्णः सनियन्तृकस्तथा अथार्जुनं स्वे परिवार्य सैनिकाः यथा गिरिर्वज्रनिपातचूर्णितः // 15 ___ पुरंदरं देवगणा इवाब्रुवन् / हिमावदातेन सुवर्णमालिना अभैष्म यस्मान्मरणादिव.प्रजाः मा. 209 -1665 - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 13. 23 ] महाभारते [8. 14. 23 स वीर दिष्ट्या निहतस्त्वया रिपुः // 23 सम्यगस्तैः शरैः सर्वान्सहितानहनदहून // 9 न चेत्परित्रास्य इमाञ्जनान्भया छिन्नत्रिवेणुजोषान्निहतपाणिसारथीन् / द्विषद्भिरेवं बलिभिः प्रपीडितान् / संछिन्नरश्मियोक्त्राक्षान्व्यनुकर्षयुगान्रथान् / तथाभविष्यद्विषतां प्रमोदनं विध्वस्तसर्वसंनाहान्बाणैश्चक्रेऽर्जुनस्त्वरन् // 10 यथा हतेष्वेष्विह नोऽरिषु त्वया // 24 ते रथास्तत्र विध्वस्ताः परार्ध्या भान्त्यनेकशः / इतीव भूयश्च सुहृद्भिरीरिता धनिनामिव वेश्मानि हतान्यन्यनिलाम्बुभिः // 11 निशम्य वाचः सुमनास्ततोऽर्जुनः / द्विपाः संभिन्नमर्माणो वज्राशनिसमैः शरैः। . यथानुरूपं प्रतिपूज्य तं जनं पेतुर्गिर्यप्रवेश्मानि वज्रवाताग्निभिर्यथा // 12 जगाम संशप्तकसंघहा पुनः // 25 सारोहास्तुरगाः पेतुर्बहवोऽर्जुनताडिताः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि निर्जिह्वात्राः क्षितौ क्षीणां रुधिरार्द्राः सुदुर्दशः / / त्रयोदशोऽध्यायः॥ 13 // नराश्वनागा नाराचैः संस्यूताः सव्यसाचिना / बभ्रमुश्चस्खलुः पेतुर्नेदुर्मम्लुश्च मारिष // 14 संजय उवाच। अणकैश्च शिलाधौतैर्वज्राशनिविषोपमैः / प्रत्यागत्य पुनर्जिष्णुरहन्संशप्तकान बहून् / शरैर्निजनिवान्पार्थो महेन्द्र इव दानवान् // 15 वक्रानुवक्रगमनादङ्गारक इव ग्रहः॥ 1 महाहवर्माभरणा नानारूपाम्बरायुधाः / पार्थबाणहता राजन्नराश्वरथकुञ्जराः / / सरथाः सध्वजा वीरा हताः पार्थेन शेरते॥१६ विचेलुर्बभ्रमर्नेदुः पेतुर्मम्लुश्च मारिष // 2 विजिताः पुण्यकर्माणो विशिष्टाभिजनश्रुताः / धुर्य धुर्यतरान्सूतान्रथांश्च परिसंक्षिपन् / गताः शरीरैर्वसुधामूर्जितैः कर्मभिर्दिवम् // 17 पाणीन्पाणिगतं शस्त्रं बाहूनपि शिरांसि च // 3 अथार्जुनरथं वीरास्त्वदीयाः समुपाद्रवन् / भल्लैः क्षुरैरर्धचन्द्रैर्वत्सदन्तैश्च पाण्डवः। नानाजनपदाध्यक्षाः सगणा जातमन्यवः // 18 चिच्छेदामित्रवीराणां समरे प्रतियुध्यताम् // 4 उह्यमाना रथाश्वैस्ते पत्तयश्च जिघांसवः / वाशितार्थे युयुत्सन्तो वृषभा वृषभं यथा। समभ्यधावन्नस्यन्तो विविधं क्षिप्रमायुधम् // 19 आपतन्त्यर्जुनं शूराः शतशोऽथ सहस्रशः // 5 तदायुधमहावर्षं क्षिप्तं योधमहाम्बुदैः / तेषां तस्य च तद्युद्धमभवल्लोमहर्षणम् / व्यधमन्निशितैर्बाणैः क्षिप्रमर्जुनमारुतः // 20 त्रैलोक्यविजये यादृग्दैत्यानां सह वज्रिणा / / 6 साश्वपत्तिद्विपरथं महाशस्त्रौघमप्लवम् / तमविध्यत्रिभिर्बाणैर्दन्दशूकैरिवाहिभिः / सहसा संतितीर्षन्तं पार्थं शस्त्रास्त्रसेतुना // 21 उग्रायुधस्ततस्तस्य शिरः कायादपाहरत् // 7 अथाब्रवीद्वासुदेवः पार्थं किं क्रीडसेऽनघ / तेऽर्जुनं सर्वतः क्रुद्धा नानाशस्त्रैरवीवृषन् / / संशप्तकान्प्रमथ्यैतांस्ततः कर्णवधे त्वर // 22 मरुद्भिः प्रेषिता मेघा हिमवन्तमिवोष्णगे // 8 तथेत्युक्त्वार्जुनः क्षिप्रं शिष्टान्संशप्तकांस्तदा / अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः / आक्षिप्य शस्त्रेण बलादैत्यानिन्द्र इवावधीत् // 23 . . - 1666 - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 14. 24 ] कर्णपर्व [8. 14. 52 आदधत्संदधन्नेषून्दृष्टः कैश्चिद्रणेऽर्जुनः / बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः साङ्गदैः शुभभूषणैः / विमुश्चन्वा शराशीघ्रं दृश्यते स्म हि कैरपि // 24 सतलत्रैः सकेयूरैर्भाति भारत मेदिनी // 39 आश्चर्यमिति गोविन्दो ब्रुवन्नश्वानचोदयत् / साङ्गुलित्रैर्भुजाप्रैश्च विप्रविद्धैरलंकृतैः / हंसांसगौरास्ते सेनां हंसाः सर 'इवाविशन् // 25 हस्तिहस्तोपमैश्छिन्नैरूरुभिश्च तरस्विनाम् // 40 ततः संग्रामभूमि तां वर्तमाने जनक्षये / बद्धचूडामणिवरैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः / अवेक्षमाणो गोविन्दः सव्यसाचिनमब्रवीत् / / 26 निकृत्तवृषभाक्षाणां विराजति वसुंधरा // 41 एष पार्थ महारौद्रो वर्तते भरतक्षयः / कबन्धैः शोणितादिग्धैश्छिन्नगात्रशिरोधरैः / पृथिव्यां पार्थिवानां वै दुर्योधनकृते महान् // 27 भूर्भाति भरतश्रेष्ठ शान्तार्चिभिरिवाग्निभिः / / 42 पश्य भारत चापानि रुक्मपृष्ठानि धन्विनाम् / / रथान्बहुविधान्भग्नान्हेमकिङ्किणिनः शुभान् / महतामपविद्धानि कलापानिषुधीस्तथा // 28 अश्वांश्च बहुधा पश्य शोणितेन परिप्लुतान् // 43 जातरूपमयैः पुकैः शरांश्च नतपर्वणः / योधानां च महाशङ्खान्पाण्डुरांश्च प्रकीर्णकान् / तैलधौतांश्च नाराचान्निर्मुक्तानिव पन्नगान् // 29 निरस्तजिह्वान्मातङ्गाशयानान्पर्वतोपमान् // 44 हस्तिदन्तत्सरून्खड्गाजातरूपपरिष्कृतान् / वैजयन्तीविचित्रांश्च हतांश्च गजयोधिनः / आकीर्णास्तोमरांश्चापांश्चित्रान्हेमविभूषितान् // 30 वारणानां परिस्तोमान्सुयुक्ताम्बरकम्बलान् // 45 वर्माणि चापविद्धानि रुक्मपृष्ठानि भारत। विपाटिता विचित्राश्च रूपचित्राः कुथास्तथा / सुवर्णविकृतान्प्रासाशक्तीः कनकभूपिताः / / 31 भिन्नाश्च बहुधा घण्टाः पतद्भिश्चर्णिता गजैः॥४६ जाम्बूनदमयैः पट्टैर्बद्धाश्च विपुला गदाः / वैडूर्यमणिदण्डांश्च पतितानङ्कशान्भुवि / जातरूपमयीश्चर्टीः पट्टिशान्हेमभूषितान् // 32 बद्धाः सादिध्वजाग्रेषु सुवर्णविकृताः कशाः // 47 दण्डैः कनकचित्रैश्च विप्रविद्धान्परश्वधान् / विचित्रान्मणिचित्रांश्च जातरूपपरिष्कृतान् / 'अयस्कुशान्तान्पतितान्मुसलानि गुरूणि च // 33 अश्वास्तरपरिस्तोमान्राङ्कवान्पतितान्भुवि // 48 / शतनीः पश्य चित्राश्च विपुलान्परिघांस्तथा। चूडामणीन्नरेन्द्राणां विचित्राः काश्चनस्रजः / चक्राणि चापविद्धानि मुद्गरांश्च बहून्रणे // 34 छत्राणि चापविद्धानि चामरव्यजनानि च // 49 नानाविधानि शस्त्राणि प्रगृह्य जयगृद्धिनः / चन्द्रनक्षत्रभासैश्च वदनैश्चारकुण्डलैः / जीवन्त इव लक्ष्यन्ते गतसत्त्वास्तरस्विनः // 35 क्लुप्तश्मश्रुभिरत्यर्थं वीराणां समलंकृतैः / गदाविमथितैर्गात्रैर्मुसलैर्भिन्नमस्तकान् / वदनैः पश्य संछन्नां महीं शोणितकर्दमाम् // 50 गजवाजिरथक्षुण्णान्पश्य योधान्सहस्रशः // 36 सजीवांश्च नरान्पश्य कूजमानान्समन्ततः / मनुष्यगजवाजीनां शरशक्त्यृष्टितोमरैः / उपास्यमानान्बहुभिर्व्यस्तशस्त्रैर्विशां पते // 51 निस्त्रिंशः पट्टिशैः प्रासैनखरैर्लगुडैरपि // 37 ज्ञातिभिः सहितैस्तत्र रोदमानैर्मुहुर्मुहुः / शरीरैर्बहुधा भिन्नैः शोणितौघपरिप्लुतैः / व्युत्क्रान्तानपरान्योधांश्छादयित्वा तरस्विनः / गंतासुभिरमित्रघ्न संवृता रणभूमयः // 38 पुनयुद्धाय गच्छन्ति जयगृद्धाः प्रमन्यवः // 52 - 1667 - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 14. 53] महाभारते [8. 15. 16 अपरे तत्र तत्रैव परिधावन्ति मानिनः / तस्य विस्तरतो ब्रूहि प्रवीरस्याद्य विक्रमम् / ज्ञातिभिः पतितैः शूरैर्याच्यमानास्तथोदकम् / / 53 शिक्षा प्रभावं वीर्यं च प्रमाणं दर्पमेव च // 2 जलार्थ च गताः केचिन्निष्प्राणा बहवोऽर्जुन / संजय उवाच / . संनिवृत्ताश्च ते शूरास्तान्दृष्ट्वैव विचेतसः // 54 द्रोणभीष्मकृपद्रौणिकर्णार्जुनजनार्दनान् / जलं दृष्ट्वा प्रधावन्ति क्रोशमानाः परस्परम् / समाप्तविद्यान्धनुषि श्रेष्ठान्यान्मन्यसे युधि // 3 जलं पीत्वा मृतान्पश्य पिबतोऽन्यांश्च भारत // 55 तुल्यता कर्णभीष्माभ्यामात्मनो येन दृश्यते / परित्यज्य प्रियानन्ये बान्धवान्बान्धवप्रिय / वासुदेवार्जुनाभ्यां च न्यूनतां नात्मनीच्छति // 4 व्युत्क्रान्ताः समदृश्यन्त तत्र तत्र महारणे // 56 स पाण्डयो नृपतिश्रेष्ठः सर्वशस्त्रभृतां वरः / पश्यापरान्नरश्रेष्ठ संदष्टौष्ठपुटान्पुनः / कर्णस्यानीकमवधीत्परिभूत इवान्तकः // 5 भृकुटीकुटिलैर्वक्त्रैः प्रेक्षमाणान्समन्ततः // 57 तदुदीर्णरथाश्वं च पत्तिप्रवरकुञ्जरम् / .. एतत्तवैवानुरूपं कर्मार्जुन महाहवे / कुलालचक्रवद्धान्तं पाण्डयेनाधिष्ठितं बलम् // 6 दिवि वा देवराजस्य त्वया यत्कृतमाहवे // 58 व्यश्वसूतध्वजरथान्विप्रविद्धायुधान्रिपून् / एवं तां दर्शयन्कृष्णो युद्धभूमिं किरीटिने / सम्यगस्तैः शरैः पाण्डयो वायुर्मेघानिवाक्षिपत् / / गच्छन्नेवाशृणोच्छन्दं दुर्योधनबले महत् // 59 द्विरदान्प्रहतप्रोथान्विपताकध्वजायुधान् / शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषान्भेरीपणवमिश्रितान् / / सपादरक्षानवधीद्वत्रेणारीनिवारिहा // 8 रथाश्वगजनादांश्च शस्त्रशब्दांश्च दारुणान् // 60 सशक्तिप्रासतूणीरानश्वारोहान्हयानपि / प्रविश्य तद्बलं कृष्णस्तुरगैर्वातवेगिभिः / पुलिन्दखशबाह्रीकान्निषादान्ध्रकतङ्गणान् // 9 पाण्डयेनाभ्यर्दितां सेनां त्वदीयां वीक्ष्य घिष्ठितः॥ दाक्षिणात्यांश्च भोजांश्च फ्रान्संग्रामकर्कशान् / स हि नानाविधैर्बाणैरिष्वासप्रवरो युधि / विशस्त्रकवचान्बाणैः कृत्वा पाण्डयोऽकरोद्वथसून // न्यहनद्विषतां वातान्गतासूनन्तको यथा // 62 चतुरङ्ग बलं बाणैनिघ्नन्तं पाण्ड्यमाहवे / गजवाजिमनुष्याणां शरीराणि शितैः शरैः / दृष्ट्वा द्रौणिरसंभ्रान्तमसंभ्रान्ततरोऽभ्ययात् / / 11 भित्त्वा प्रहरतां श्रेष्ठो विदेहातूंश्चकार सः / / 63 आभाष्य चैनं मधुरमभि नृत्यन्नभीतवत् / शत्रुप्रवीरैरैस्तानि नानाशस्त्राणि सायकैः / प्राह प्रहरतां श्रेष्ठः स्मितपूर्वं समाह्वयन् // 12 भित्त्वा तानहनत्पाण्ड्यः शत्रूशक्र इवासुरान्॥६४ राजन्कमलपत्राक्ष प्रधानायुधवाहन / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि वज्रसंहननप्रख्य प्रधानबलपौरुष // 13 . चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // मुष्टिश्लिष्टायुधाभ्यां च व्यायताभ्यां महद्धनुः / दोभ्यां विस्फारयन्भासि महाजलदवभृशम् // 1 // धृतराष्ट्र उवाच / शरवर्महावेगैरमित्रानभिवर्षतः। प्रोक्तस्त्वया पूर्वमेव प्रवीरो लोकविश्रुतः। मदन्यं नानुपश्यामि प्रतिवीरं तवाहवे // 15 न त्वस्य कर्म संग्रामे त्वया संजय कीर्तितम् // 1 | रथद्विरदपत्त्यश्वानेकः प्रमथसे बहून् / - 1668 - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 15. 16 ] कर्णपर्व [8. 15. 40 मृगसंघानिवारण्ये विभीर्भीमबलो हरिः // 16 / द्रौणिपर्जन्यमुक्तां तां बाणवृष्टिं सुदुःसहाम् / महता रथघोषेण दिवं भूमिं च नादयन् / / वायव्यास्त्रेण स क्षिप्रं रुवा पाण्ड्यानिलोऽनदत् / / वर्षान्ते सस्यहा पीथो भाभिरापूरयन्निव // 17 तस्य नानदतः केतुं चन्दनागुरुभूषितम् / संस्पृशानः शरांस्तीक्ष्णांस्तूणादाशीविषोपमान / / मलयप्रतिमं द्रौणिश्छित्त्वाश्वांश्चतुरोऽहनत् // 32 मयैवैकेन युध्यस्व त्र्यम्बकेणान्धको यथा // 18 सूतमेकेषुणा हत्वा महाजलदनिस्वनम् / एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा प्रहरेति च ताडितः / धनुश्छित्त्वार्धचन्द्रेण व्यधमत्तिलशो रथम् // 33 कर्णिना द्रोणतनयं विव्याध मलयध्वजः // 19 अस्त्रैरत्राणि संवार्य छित्त्वा सर्वायुधानि च / मर्मभेदिभिरत्युप्रैर्बाणैरग्निशिखोपमैः / प्राप्तमप्यहितं द्रौणिर्न जघान रणेप्सया // 34 स्मयन्नभ्यहनद्रौणिः पाण्ड्यमाचार्यसत्तमः // 20 हतेश्वरो दन्तिवरः सुकल्पितततो नवापरांस्तीक्ष्णान्नाराचान्कङ्कवाससः / ___ स्त्वराभिसृष्टः प्रतिशर्मगो बली / गत्या दशम्या संयुक्तानश्वत्थामा व्यवासृजत् // 21 तमध्यतिष्ठन्मलयेश्वरो महातेषां पञ्चाच्छिनत्पाण्ड्यः पञ्चभिर्निशितैः शरैः। न्यथाद्रिशृङ्गं हरिरुन्नदंस्तथा / / 35 चत्वारोऽभ्याहनन्वाहानाशु ते व्यसवोऽभवन्॥२२ स तोमरं भास्कररश्मिसंनिभं अथ द्रोणसुतस्येपूंस्तांश्छित्त्वा निशितैः शरैः। ___ बलास्त्रसर्गोत्तमयत्नमन्युभिः / धनुज्या विततां पाण्ड्यश्चिच्छेदादित्यवर्चसः // 23 ससर्ज शीघ्रं प्रतिपीडयन्गज विज्यं धनुरथाधिज्यं कृत्वा द्रौणिरमित्रहा / __गुरोः सुतायाद्रिपतीश्वरो नदन // 36 ततः शरसहस्राणि प्रेषयामास पाण्ड्यतः / मणिप्रतानोत्तमवज्रहाटकैइषुसंबाधमाकाशमकरोद्दिश एव च // 24 __रलंकृतं चांशुकमाल्यमौक्तिकैः / ततस्तानस्यतः सर्वान्द्रौणेर्बाणान्महात्मनः / हतोऽस्यसावित्यसकृन्मदा नदजानानोऽप्यक्षयान्पाण्ड्योऽशातयत्पुरुषर्षभः॥२५ __ पराभिनद्रौणिवराङ्गभूषणम् // 37 प्रहितांस्तान्प्रयत्नेन छित्त्वा द्रौणेरिघुनरिः / तदर्कचन्द्रग्रहपावकत्विषं चक्ररक्षौ ततस्तस्य प्राणुदन्निशितैः शरैः / / 26 ___ भृशाभिघातात्पतितं विचूर्णितम् / अथारेर्लाघवं दृष्ट्वा मण्डलीकृतकार्मुकः / महेन्द्रवज्राभिहतं महावनं प्रास्यद्रोणसुतो बाणान्वृष्टिं पूषानुजो यथा // 27 ___ यथाद्रिशृङ्गं धरणीतले तथा // 38 अष्टावष्टगवान्यूहुः शकटानि यदायुधम् / ततः प्रजज्वाल परेण मन्युना अह्नस्तदष्टभागेन द्रौणिश्चिक्षेप मारिष // 28 पदाहतो नागपतियथा तथा। तमन्तकमिव क्रुद्धमन्तकालान्तकोपमम् / समादधे चान्तकदण्डसंनिभाये ये ददृशिरे तत्र विसंज्ञाः प्रायशोऽभवन् // 29 / __ निषूनमित्रान्तकरांश्चतुर्दश // 39 पर्जन्य इव धर्मान्ते वृष्टया साद्रिद्रुमां महीम् / द्विपस्य पादायकरान्स पश्चभिआचार्यपुत्रस्तां सेनां बाणवृष्टयाभ्यवीवृषत् // 30 / / नृपस्य बाहू च शिरोऽथ च त्रिभिः / - 1669 - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 15. 40] महाभारते [8. 16. 20 जघान षड्भिः षड़तूत्तमत्विषः एतच्छ्रुत्वा च दृष्ट्वा च भ्रातुर्पोरं महद्भयम् / स पाण्ड्यराजानुचरान्महारथान् // 40 वाहयाश्वान्हृषीकेश क्षिप्रमित्याह पाण्डवः // 6 सुदीर्घवृत्तौ वरचन्दनोक्षितौ ततः प्रायाषीकेशो रथेनाप्रतियोधिना / . सुवर्णमुक्तामणिवज्रभूषितौ। दारुणश्च पुनस्तत्र प्रादुरासीत्समायमः // 7 भुजौ धरायां पतितौ नृपस्य तौ ततः प्रववृते भूयः संग्रामो राजसत्तम। . विवेष्टतुस्ता_हताविवोरगौ // 41 कर्णस्य पाण्डवानां च यमराष्ट्रविवर्धनः // 8 शिरश्च तत्पूर्णशशिप्रभाननं धनूंषि बाणान्परिघानसितोमरपट्टिशान् / सरोषताम्रायतनेत्रमुन्नसम् / मुसलानि भुशुण्डीश्च शक्तिऋष्टिपरश्वधान् // 9 क्षितौ विबभ्राज पतत्सकुण्डलं गदाः प्रासानसीन्कुन्तान्भिण्डिपालान्महाङ्कशान् / विशाखयोर्मध्यगतः शशी यथा // 42 प्रगृह्य क्षिप्रमापेतुः परस्परजिगीषया // 10 समाप्तविद्यं तु गुरोः सुतं नृपः बाणज्यातलशब्देन द्यां दिशः प्रदिशो वियत् / समाप्तकर्माणमुपेत्य ते सुतः / पृथिवी नेमिघोषेण नादयन्तोऽभ्ययुः परान् // 11 सुहृद्धृतोऽत्यर्थमपूजयन्मुदा तेन शब्देन महता संहृष्टाश्चक्रुराहवम् / / जिते बलौ विष्णुमिवामरेश्वरः // 43 वीरा वीरैर्महाघोरं कलहान्तं तितीर्षवः // 12 . इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ज्यातलनधनुःशब्दाः कुञ्जराणां च बृंहितम् / पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // ताडितानां च पततां निनादः सुमहानभूत् // 13 बाणशब्दांश्च विविधाञ्शूराणामभिगर्जताम् / धृतराष्ट्र उवाच / श्रुत्वा शब्दं भृशं त्रेसुर्जघ्नुर्मम्लुश्च भारत // 14 पाण्डथे हते किमकरोदर्जुनो युधि संजय / तेषां नानद्यतां चैव शस्त्रवृष्टिं च मुश्चताम् / * एकवीरेण कर्णेन द्रावितेषु परेषु च // 1 बहूनाधिरथिः कर्णः प्रममाथ रणेषुभिः // 15 समाप्तविद्यो बलवान्युक्तो वीरश्च पाण्डवः / पञ्च पाश्चालवीराणां रथान्दश च पञ्च च / सर्वभूतेष्वनुज्ञातः शंकरेण महात्मना // 2 साश्वसूतध्वजान्कर्णः शरैर्निन्ये यमक्षयम् // 16 तस्मान्महद्भयं तीव्रममित्रघ्नाद्धनंजयात् / योधमुख्या महावीर्याः पाण्डूनां कर्णमाहवे / स यत्तत्राकरोत्पार्थस्तन्ममाचक्ष्व संजय // 3 शीघ्रास्त्रा दिवमावृत्य परिवत्रुः समन्ततः // 17 संजय उवाच / ततः कर्णो द्विषत्सेनां शरवर्विलोडयन् / हते पाण्डयेऽर्जुन कृष्णस्त्वरन्नाह वचो हितम् / विजगाहेऽण्डजापूर्णां पद्मिनीमिव यूथपः // 18 पश्यातिमान्यं राजानमपयातांश्च पाण्डवान् // 4 द्विषन्मध्यमवस्कन्ध राधेयो धनुरुत्तमम् / अश्वत्थाम्नश्च संकल्पाद्धताः कर्णेन सृञ्जयाः।। विधुन्वानः शितैर्बाणैः शिरांस्युन्मथ्य पातयत् // 1 तथाश्वनरनागानां कृतं च कदनं महत् / / चर्मवर्माणि संछिन्द्य निर्वापमिव देहिनाम् / इत्याचष्ट सुदुर्धर्षो वासुदेवः किरीटिने // 5 विषेहुर्नास्य संपर्क द्वितीयस्य पतत्रिणः // 20 - 1670 - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 16. 21] कर्णपर्व [8. 17.9 वर्मदेहासुमथनैर्धनुषः प्रच्युतैः शरैः। प्रहता हन्यमानाश्च पतिताश्चैव सर्वशः / मौा तलत्रैर्यवधीत्कशया वाजिनो यथा // 21 अश्वारोहाः समासाद्य त्वरिताः पत्तिभिर्हताः / पाण्डुसृञ्जयपाश्चालाशरगोचरमानयत्।। सादिभिः पत्तिसंघाश्च निहता युधि शेरते // 36 ममर्द कर्णस्तरसा सिंहो मृगगणानिव // 22 . मृदितानीव पद्मानि प्रम्लाना इव च स्रजः / ततः पाश्चालपुत्राश्च द्रौपदेयाश्च मारिष / हतानां वदनान्यासन्गात्राणि च महामते // 37 यमौ च युयुधानश्च सहिताः कर्णमभ्ययुः // 23 / रूपाण्यत्यर्थकाम्यानि द्विरदाश्वनृणां नृप / व्यायच्छमानाः सुभृशं कुरुपाण्डवसृञ्जयाः / समुन्नानीव वस्त्राणि प्रापुर्दुर्दर्शतां परम् // 38 प्रियानसूरणे त्यक्त्वा योधा जग्मुः परस्परम् // 24 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि सुसंनद्धाः कवचिनः सशिरस्त्राणभूषणाः / षोडशोऽध्यायः // 16 // गदाभिर्मुसलैश्चान्ये परिधैश्च महारथाः // 25 17 . समभ्यधावन्त भृशं देवा दण्डैरिवोद्यतैः। . __संजय उवाच / नदन्तश्चाह्वयन्तश्च प्रवल्गन्तश्च मारिष // 26 हस्तिभिस्तु महामात्रास्तव पुत्रेण चोदिताः / ततो निजघ्नुरन्योन्यं पेतुश्वाहवताडिताः / धृष्टद्युम्नं जिघांसन्तः क्रुद्धाः पार्षतमभ्ययुः // 1 वमन्तो रुधिरं गात्रैर्विमस्तिष्केक्षणा युधि // 27 प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च प्रवीरा गजयोधिनः / . दन्तपूर्णैः सरुधिरैर्वक्त्रैर्दाडिमसंनिभैः। अङ्गा वङ्गाश्च पुण्डाश्च मागधास्ताम्रलिप्तकाः // 2 जीवन्त इव चाप्येते तस्थुः शस्त्रोपबृंहिताः // 28 मेकलाः कोशला मद्रा दशार्णा निषधास्तथा / परस्परं चाप्यपरे पट्टिशैरसिभिस्तथा। गजयुद्धेषु कुशलाः कलिङ्गैः सह भारत / / 3 शक्तिभिर्भिण्डिपालैश्च नखरप्रासतोमरैः // 29 शरतोमरनाराचैर्वृष्टिमन्त इवाम्बुदाः / ततक्षुश्चिच्छिदुश्चान्ये बिभिदुश्चिक्षिपुस्तथा / सिषिचुस्ते ततः सर्वे पाञ्चालाचलमाहवे // 4. संचकर्तुश्च जन्नुश्च क्रुद्धा निर्बिभिदुश्च ह // 30 तान्समिमर्दिषुर्नागान्पार्ण्यङ्गुष्ठाङ्कशैर्धशम् / पेतुरन्योन्यनिहता व्यसवो रुधिरोक्षिताः।। पोथितान्पार्षतो बाणैर्नाराचैश्चाभ्यवीवृषत् // 5 क्षरन्तः स्वरसं रक्तं प्रकृत्ताश्चन्दना इव // 31 एकैकं दशभिः षभिरष्टाभिरपि भारत / रयै रथा विनिहता हस्तिनश्चापि हस्तिभिः।। द्विरदानभिविव्याध क्षिप्तैर्गिरिनिभाशरैः / नरा नरवरैः पेतुरश्वाश्चाश्वैः सहस्रशः // 32 प्रच्छाद्यमानो द्विरदैर्मेधैरिव दिवाकरः // 6 ध्वजाः शिरांसि च्छत्राणि द्विपहस्ता नृणां भुजाः। पर्यासुः पाण्डुपाञ्चाला नदन्तो निशितायुधाः / क्षुरैर्भल्लार्धचन्द्रश्च छिन्नाः शस्त्राणि तत्यजुः // 33 / तान्नागानभिवर्षन्तो ज्यातत्रीशरनादितैः // 7 नरांश्च नागांश्च रथान्हयान्ममृदुराहवे। नकुलः सहदेवश्च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः / अश्वारोहैर्हताः शूराश्छिन्नहस्ताश्च दन्तिनः // 34 सात्यकिश्च शिखण्डी च चेकितानश्च वीर्यवान् // 8 सपताका ध्वजाः पेतुर्विशीर्णा इव पर्वताः। ते म्लेच्छैः प्रेषिता नागा नरानश्वारथानपि / पत्तिभिश्च समाप्लुत्य द्विरदाः स्यन्दनास्तथा / / 35 / हस्तैराक्षिप्य ममृदुः पद्भिश्चाप्यतिमन्यवः // 9 - 1671 - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 17. 10 ] महाभारते [8. 17. 39 बिभिदुश्च विषाणाप्रैः समाक्षिप्य च चिक्षिपुः / अञ्जोगतिभिरायम्य प्रयत्नाद्धनुरुत्तमम् / विषाणलग्नैश्चाप्यन्ये परिपेतुर्विभीषणाः // 10 नाराचैरहनन्नागान्नकुलः कुरुनन्दन // 25 / प्रमुखे वर्तमानं तु द्विपं वङ्गस्य सात्यकिः / / ततः शैनेयपाश्चाल्यौ द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः / नाराचेनोग्रवेगेन भित्त्वा मर्मण्यपातयत् // 11 शिखण्डी च महानागान्सिषिचुः शरवृष्टिभिः॥२६ तस्यावर्जितनागस्य द्विरदादुत्पतिष्यतः / ते पाण्डुयोधाम्बुधरैः शत्रुद्विरदपर्वताः / नाराचेनाभिनद्वक्षः सोऽपतद्भुवि सात्यकेः // 12 बाणवताः पेतुर्वज्रवरिवाचलाः // 27 पुण्ड्रस्यापततो नागं चलन्तमिव पर्वतम् / एवं हत्वा तव गजांस्ते पाण्डुनरकुञ्जराः / सहदेवः प्रयत्नात्तैर्नाराचैर्व्यहनत्रिभिः / / 13 द्रुतं सेनामवैक्षन्त भिन्नकूलामिवापगाम् // 28 विपताकं वियन्तारं विवर्मध्वजजीवितम् / ते तां सेनामवालोक्य पाण्डुपुत्रस्य सैनिकाः / तं कृत्वा द्विरदं भूयः सहदेवोऽङ्गमभ्यगात् // 14 विक्षोभयित्वा च पुनः कर्णमेवाभिदुद्रुवुः // 29 सहदेवं तु नकुलो वारयित्वाङ्गमार्दयत् / / सहदेवं ततः क्रुद्धं दहन्तं तव वाहिनीम् / नाराचैर्यमदण्डाभैस्त्रिभिर्नागं शतेन च // 15 दुःशासनो महाराज भ्राता भ्रातरमभ्ययात् // 30 दिवाकरकरप्रख्यानङ्गश्चिक्षेप तोमरान् / तौ समेतौ महायुद्धे दृष्ट्वा तत्र नराधिपाः / नकुलाय शतान्यष्टौ त्रिधैकैकं तु सोऽच्छिनत्॥१६ | सिंहनादरवांश्चक्रुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह // 31 . तथार्धचन्द्रेण शिरस्तस्य चिच्छेद पाण्डवः / / ततो भारत क्रुद्धेन तव पुत्रेण धन्विना / स पपात हतो म्लेच्छस्तेनैव सह दन्तिना // 17 पाण्डुपुत्रस्त्रिभिर्बाणैर्वक्षस्यभिहतो बली // 32 आचार्यपुत्रे निहते हस्तिशिक्षाविशारदे / सहदेवस्ततो राजन्नाराचेन तवात्मजम् / अङ्गाः क्रुद्धा महामात्रा नागैर्न कुलमभ्ययुः // 18 विद्धा विव्याध सप्तत्या सारथिं च त्रिभित्रिभिः। चलत्पताकैः प्रमुखैहेमकक्ष्यातनुच्छदैः। दुःशासनस्तदा राजंछित्त्वा चापं महाहवे / मिमर्दिषन्तस्त्वरिताः प्रदीप्तैरिव पर्वतैः // 19 सहदेवं त्रिसप्तत्या बाह्वोरुरसि चार्दयत् // 34 मेकलोत्कलकालिङ्गा निषादास्ताम्रलिप्तकाः। . सहदेवस्ततः क्रुद्धः खड्गं गृह्य महाहवे / शरतोमरवर्षाणि विमुञ्चन्तो जिघांसवः // 20 व्याविध्यत युधां श्रेष्ठः श्रीमांस्तव सुतं प्रति // 3 // तैश्छाद्यमानं नकुलं दिवाकरमिवाम्बुदैः / समार्गणगणं चापं छित्त्वा तस्य महानसिः / परि पेतुः सुसंरब्धाः पाण्डुपाञ्चालसोमकाः // 21 निपपात ततो भूमौ च्युतः सर्प इवाम्बरात् // 3 / ततस्तदभवद्युद्धं रथिनां हस्तिभिः सह। अथान्यद्धनुरादाय सहदेवः प्रतापवान् / सृजतां शरवर्षाणि तोमरांश्च सहस्रशः // 22 दुःशासनाय चिक्षेप बाणमन्तकरं ततः / / 37 नागानां प्रस्फुटुः कुम्भा मर्माणि विविधानि च / तमापतन्तं विशिखं यमदण्डोपमत्विषम् / / दन्ताश्चैवातिविद्धानां नाराचैर्भूषणानि च // 23 खड्न शितधारेण द्विधा चिच्छेद कौरवः // 3 तेषामष्टौ महानागांश्चतुःषष्ट्या सुतेजनैः। तमापतन्तं सहसा निस्त्रिंशं निशितैः शरैः / सहदेवो जघानाशु ते पेतुः सह सादिभिः // 24 / पातयामास समरे सहदेवो हसन्निव // 39 -1672 - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 17. 40] कर्णपर्व [8. 17.69 ततो बाणांश्चतुःषष्टिं तव पुत्रो महारणे / स युध्यस्व मया शक्त्या विनेष्ये दर्पमद्य ते॥५४ सहदेवरथे तूर्णं पातयामास भारत // 40 . इत्युक्त्वा प्राहरत्तूर्णं पाण्डुपुत्राय सूतजः / ताशरान्समरे राजन्वेगेनापततो बहून् / विव्याध चैनं समरे त्रिसप्तत्या शिलीमुखैः // 55 एकैकं पञ्चभिर्बाणैः सहदेवो न्यकृन्तत // 41 नकुलस्तु ततो विद्धः सूतपुत्रेण भारत / स निवार्य महाबाणांस्तव पुत्रेण प्रेषितान् / अशीत्याशीविषप्रख्यैः सूतपुत्रमविध्यत // 56 अथास्मै सुबहून्बाणान्माद्रीपुत्रः समाचिनोत्॥ 42 तस्य कर्णो धनुश्छित्त्वा स्वर्णपुङ्खः शिलाशितैः / ततः क्रुद्धो महाराज सहदेवः प्रतापवान् / त्रिंशता परमेष्वासः शरैः पाण्डवमार्दयत् // 57 समाधत्त शरं घोरं मृत्युकालान्तकोपमम् / ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे / विकृष्य बलवच्चापं तव पुत्राय सोऽसृजत् // 43 आशीविषा यथा नागा भित्त्वा गां सलिलं पपुः // स तं निर्भिद्य वेगेन भित्त्वा च कवचं महत् / अथान्यद्धनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम् / प्राविशद्धरणी राजन्वल्मीकमिव पन्नगः / कर्ण विव्याध विंशत्या सारथिं च त्रिभिः शरैः॥५९ ततः स मुमुहे राजंस्तव पुत्रो महारथः // 44 ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा। मूढं चैनं समालक्ष्य सारथिस्त्वरितो रथम् / क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कर्णस्य धनुरच्छिनत् // 60 अपोवाह भृशं त्रस्तो वध्यमानं शितैः शरैः // 45 अथैनं छिन्नधन्वानं सायकानां शतैत्रिभिः / पराजित्य रणे तं तु पाण्डवः पाण्डुपूर्वज / आजघ्ने प्रहसन्वीरः सर्वलोकमहारथम् // 61 दुर्योधनबलं हृष्टः प्रामथद्वै समन्ततः // 46 कर्णमभ्यर्दितं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रेण मारिष / पिपीलिकापुटं राजन्यथामृगान्नरो रुषा। विस्मयं परमं जम्मू रथिनः सह दैवतैः // 62 तथा सा कौरवी सेना मृदिता तेन भारत // 47 अथान्यद्धनुरादाय को वैकर्तनस्तदा / नकुलं रभसं युद्धे दारयन्तं वरूथिनीम् / नकुलं पञ्चभिर्बाणैर्ज देशे समादयत् // 63 कर्णो वैकर्तनो राजन्वारयामास वै तदा // 48 उरःस्थैरथ तैर्बाणैर्माद्रीपुत्रो व्यरोचत / नकुलश्च तदा कर्ण प्रहसन्निदमब्रवीत् / स्वरश्मिभिरिवादित्यो भुवने विसृजन्प्रभाम् // 64 चिरस्य बत दृष्टोऽहं दैवतैः सौम्यचक्षुषा // 49 नकुलस्तु ततः कर्णं विद्धा सप्तभिरायसैः / यस्य मे त्वं रणे पाप चक्षुर्विषयमागतः / अथास्य धनुषः कोटिं पुनश्चिच्छेद मारिष // 65 त्वं हि मूलमनर्थानां वैरस्य कलहस्य च // 50 सोऽन्यत्कार्मुकमादाय समरे वेगवत्तरम् / त्वहोषात्कुरवः क्षीणाः समासाद्य परस्परम् / नकुलस्य ततो बाणैः सर्वतोऽवारयद्दिशः // 66 त्वामद्य समरे हत्वा कृतकृत्योऽस्मि विज्वरः / / 51 संछाद्यमानः सहसा कर्णचापच्युतैः शरैः / एवमुक्तः प्रत्युवाच नकुलं सूतनन्दनः / चिच्छेद स शरांस्तूर्णं शरैरेव महारथः // 67 सदृशं राजपुत्रस्य धन्विनश्च विशेषतः / / 52 ततो बाणमयं जालं विततं व्योन्यदृश्यंत / प्रहरस्व रणे बाल पश्यामस्तव पौरुषम् / खद्योतानां गणैरेव संपतद्भिर्यथा नभः // 68 . कर्म कृत्वा रणे शूर ततः कथितुमर्हसि // 53 / / तैर्विमुक्तैः शरशतैश्छादितं गगनं तदा / अनुक्त्वा समरे तात शूरा युध्यन्ति शक्तितः / शलभानां यथा वातैस्तद्वदासीत्समाकुलम् // 69 म. भा. 210 -1673 - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 17. 70] . महाभारते [8. 17. 97 ते शरा हेमविकृताः संपतन्तो मुहुर्मुहुः / तथाश्वांश्चतुरश्चास्य चतुर्भिनिशितैः शरैः / श्रेणीकृता अभासन्त हंसाः श्रेणीगता इव // 70 यमस्य सदनं तूर्णं प्रेषयामास भारत // 85 बाणजालावृते व्योम्नि छादिते च दिवाकरे / अथास्य तं रथं तूर्णं तिलशो व्यधमच्छरैः / समसर्पत्ततो भूतं किंचिदेव विशां पते // 71 पताकां चक्ररक्षौ च ध्वजं खड्गं च मारिष / निरुद्धे तत्र मार्गे तु शरसंधैः समन्ततः / शतचन्द्रं ततश्चर्म सर्वोपकरणानि च // 86 व्यरोचतां महाभागौ बालसूर्याविवोदितौ // 72 हताश्वो विरथश्चैव विवर्मा च विशां पते / कर्णचापच्युतैर्बाणैर्वध्यमानास्तु सोमकाः। अवतीर्य रथातूर्णं परिघं गृह्य विष्ठितः // 87 अवालीयन्त राजेन्द्र वेदनार्ताः शरार्दिताः // 73 तमुद्यतं महाघोरं परिघं तस्य सूतजः। . नकुलस्य तथा बाणैर्वध्यमाना चमूस्तव / व्यहनत्सायकै राजशतशोऽथ सहस्रशः // 88 व्यशीर्यत दिशो राजन्वातनुन्ना इवाम्बुदाः // 74 व्यायुधं चैनमालक्ष्य शरैः संनतपर्वभिः / ते सेने वध्यमाने तु ताभ्यां दिव्यैर्महाशरैः। . आर्दयद्बहुशः कर्णो न चैनं समपीडयत् // 89 शरपातमपक्रम्य ततः प्रेक्षकवत्स्थिते // 75 स वध्यमानः समरे कृतास्त्रेण बलीयसा / प्रोत्सारिते जने तस्मिन्कर्णपाण्डवयोः शरैः / प्राद्रवत्सहसा राजन्नकुलो व्याकुलेन्द्रियः // 90 विव्याधाते महात्मानावन्योन्यं शरवृष्टिभिः // 76 तमभिद्रुत्य राधेयः प्रहसन्वै पुनः पुनः / निदर्शयन्तौ त्वस्त्राणि दिव्यानि रणमूर्धनि / सज्यमस्य धनुः कण्ठे सोऽवासृजत भारत // 91 छादयन्तौ च सहसा परस्परवधैषिणौ // 77 ततः स शुशुभे राजन्कण्ठासक्तमहाधनुः / नकुलेन शरा मुक्ताः कङ्कबर्हिणवाससः / परिवेषमनुप्राप्तो यथा स्याद्वयोम्नि चन्द्रमाः / ते तु कर्णमवच्छाद्य व्यतिष्ठन्त यथा परे // 78 यथैव च सितो मेघः शक्रचापेन शोभितः // 92 शरवेश्मप्रविष्टौ तौ ददृशाते न कैश्चन / तमब्रवीत्तदा कर्णो व्यर्थ व्याहृतवानसि / चन्द्रसूर्यौ यथा राजश्छाद्यमानौ जलागमे // 79 वदेदानीं पुनर्हृष्टो वध्यं मां त्वं पुनः पुनः // 93 ततः क्रुद्धो रणे कर्णः कृत्वा घोरतरं वपुः / मा योत्सीगुरुभिः साधं बलवद्भिश्च पाण्डव / पाण्डवं छादयामास समन्ताच्छरवृष्टिभिः // 80 / सदृशैस्तात युध्यस्व व्रीडां मा कुरु पाण्डव / स च्छाद्यमानः समरे सूतपुत्रेण पाण्डवः। ... गृहं वा गच्छ माद्रेय यत्र वा कृष्णफल्गुनौ // 9 // न चकार व्यथां राजन्भास्करो जलदैर्यथा // 81 एवमुक्त्वा महाराज व्यसर्जयत तं ततः / ततः प्रहस्याधिरथिः शरजालानि मारिष। वधप्राप्तं तु तं राजन्नावधीत्सूतनन्दनः / प्रेषयामास समरे शतशोऽथ सहस्रशः // 82 स्मृत्वा कुन्त्या वचो राजंस्तत एनं व्यसर्जयत् // 95 एकच्छायमभूत्सर्वं तस्य बाणैर्महात्मनः। विसृष्टः पाण्डवो राजन्सूतपुत्रेण धन्विना / अभ्रच्छायेव संजज्ञे संपतद्भिः शरोत्तमैः // 83 / व्रीडन्निव जगामाथ युधिष्ठिररथं प्रति // 96 ततः कर्णो महाराज धनुश्छित्त्वा महात्मनः। / आरुरोह रथं चापि सूतपुत्रप्रतापितः / सारथिं पातयामास रथनीडाद्धसन्निव // 84 | निःश्वसन्दुःखसंतप्तः कुम्भे क्षिप्त इवोरगः // 97 - 1674 - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 17. 98] कर्णपर्व [8. 18.4 तं विसृज्य रणे कर्णः पाञ्चालांस्त्वरितो ययौ। / विहीनारथिनस्तत्र धावमानान्समन्ततः / रथेनातिपताकेन चन्द्रवर्णहयेन च // 98 सूर्यपुत्रशरैस्त्रस्तानपश्याम विशां पते // 112 तत्राक्रन्दो महानासीत्पाण्डवानां विशां पते / विशस्त्रांश्च तथैवान्यान्सशस्त्रांश्च बहून्हतान् / दृष्ट्वा सेनापतिं यान्तं पाञ्चालानां रथव्रजान् // 99 तावकाञ्जालसंछन्नानुरोघण्टाविभूषितान् // 113 तत्राकरोन्महाराज कदनं सूतनन्दनः / नानावर्णविचित्राभिः पताकाभिरलंकृतान् / मध्यं गते दिनकरे चक्रवत्प्रचरन्प्रभुः // 100 पदातीनन्वपश्याम धावमानान्समन्ततः // 114 भग्नचकै रथैः केचिच्छिन्नध्वजपताकिभिः / शिरांसि बाहूनूरूंश्च छिन्नानन्यांस्तथा युधि। ससूतैर्हतसूतैश्च भन्नाक्षैश्चैव मारिष / कर्णचापच्युतैर्बाणैरपश्याम विनाकृतान् / / 115 द्वियमाणानपश्याम पाञ्चालानां रथव्रजान् // 101 महान्व्यतिकरो रौद्रो योधानामन्वदृश्यत। तत्र तत्र च संभ्रान्तां विचेरुर्मत्तकुञ्जराः / कर्णसायकनुन्नानां हतानां निशितैः शरैः॥ 116 दवामिना परीताङ्गा यथैव स्युर्महावने // 102 ते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः / भिन्नकुम्भा विरुधिराश्छिन्नहस्ताश्च वारणाः / .. तमेवाभिमुखा यान्ति पतंगा इव पावकम् // 117 मिन्नगात्रवराश्चैव च्छिन्नवालाश्च मारिष / तं दहन्तमनीकानि तत्र तत्र महारथम् / छिन्नाभ्राणीव संपेतुर्वध्यमाना महात्मना // 103 क्षत्रिया वर्जयामासुर्युगान्ताग्निमिवोल्बणम् // 118 अपरे त्रासिता नागा नाराचशततोमरैः / हतशेषास्तु ये वीराः पाञ्चालानां महारथाः। तमेवाभिमुखा यान्ति शलभा इव पावकम् // 104 तान्प्रभग्नान्द्रुतान्कर्णः पृष्ठतो विकिरञ्छरैः / अपरे निष्टनन्तः स्म व्यदृश्यन्त महाद्विपाः / अभ्यधावत तेजस्वी विशीर्णकवचध्वजान् // 119 क्षरन्तः शोणितं गात्रैर्नगा इव जलप्लवम् // 105 तापयामास तान्बाणैः सूतपुत्रो महारथः / उरश्छदैविमुक्ताश्च वालबन्धैश्च वाजिनः / मध्यंदिनमनुप्राप्तो भूतानीव तमोनुदः // 120 राजतैश्च तथा कांस्यैः सौवर्णैश्चैव भूषणैः // 106 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि हीना आस्तरणैश्चैव खलीनैश्च विवर्जिताः / सप्तदशोऽध्यायः // 17 // चामरैश्च कुथाभिश्च तूणीरैः पतितैरपि // 107 निहतैः सादिभिश्चैव शूरैराहवशोभिभिः / संजय उवाच / अपश्याम रणे तत्र भ्राम्यमाणान्हयोत्तमान् // 108 युयुत्सुं तव पुत्रं तु प्राद्रवन्तं महद्बलम् / प्रासैः खङ्गैश्च संस्यूतानृष्टिभिश्च नराधिप / उलूकोऽभ्यपतत्तूर्णं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् // 1 हययोधानपश्याम कञ्चुकोष्णीषधारिणः // 109 युयुत्सुस्तु ततो राजशितधारेण पत्रिणा। स्वान्हेमपरिष्कारान्सुयुक्ताञ्जवनैर्हयैः। उलूकं ताडयामास वज्रणेन्द्र इवाचलम् // 2 भ्रममाणानपश्याम हतेषु रथिषु द्रुतम् // 110 उलूकस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रस्य संयुगे। भनाक्षकूबरान्कांश्चिच्छिन्नचक्रांश्च मारिष / क्षुरप्रेण धनुरिछत्त्वा ताडयामास कर्णिना // 3 विपताकाध्वजांश्चान्याञ्छिन्नेषायुगबन्धुरान् // 111 / तदपास्य धनुश्छिन्नं युयुत्सुर्वेगवत्तरम् / - 1675 - 18 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 18. 4] महाभारते [8. 18. 33 अन्यदादत्त सुमहच्चापं संरक्तलोचनः॥४ लध्वस्त्रश्चित्रयोधी च जितकाशी च संयुगे // 19 शाकुनि च ततः षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ। निवार्य समरे चापि शरांस्तान्निशितैः शरैः / सारथि त्रिभिरानछत्तं च भूयो व्यविध्यत // 5 आजवान सुसंक्रुद्धः सुतसोमं त्रिभिः शरैः // 20 उलूकस्तं तु विंशत्या विवा हेमविभूषितैः।। तस्याश्वान्केतनं सूतं तिलशो व्यधमच्छरैः / अथास्य समरे क्रुद्धो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम् // 6 स्यालस्तव महावीर्यस्ततस्ते चुक्रुशुर्जनाः // 21 स च्छिन्नयष्टिः सुमहाशीर्यमाणो महाध्वजः। हताश्वो विरथश्चैव छिन्नधन्वा च मारिष / पपात प्रमुख राजन्युयुत्सोः काश्चनोज्ज्वलः // 7 धन्वी धनुर्वरं गृह्य रथाद्भूमावतिष्ठत / ध्वजमुन्मथितं दृष्ट्वा युयुत्सुः क्रोधमूर्छितः। व्यसृजत्सायकांश्चैव स्वर्णपुङ्खाशिलाशितान् / 26 उलूकं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे // 8 छादयामासुरथ ते तव स्यालस्य तं रथम् / उलूकस्तस्य भल्लेन तैलधौतेन मारिष। पतंगानामिव वाताः शरव्राता महारथम् // 23 शिरश्चिच्छेद सहसा यन्तुर्भरतसत्तम // 9 रथोपस्थान्समीक्ष्यापि विव्यथे नैव सौबलः / अघान चतुरोऽश्वांश्च तं च विव्याध पश्चभिः। प्रमृद्श्च शरांस्तांस्ताशरवातैर्महायशाः // 24 सोऽतिविद्धो बलवता प्रत्यपायाद्रथान्तरम् // 10 तत्रातुष्यन्त योधाश्च सिद्धाश्चापि दिवि स्थिताः / तं निर्जित्य रणे राजन्नुलूकस्त्वरितो ययौ / सुतसोमस्य तत्कर्म दृष्ट्वाश्रद्धेयमद्भुतम् / पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव विनिघ्नन्निशितैः शरैः॥ 11 रथस्थं नृपतिं तं तु पदातिः सन्नयोधयत् // 25 शतानीकं महाराज श्रुतकर्मा सुतस्तव। . तस्य तीक्ष्णैर्महावेगैर्भल्लैः संनतपर्वभिः / व्यश्वसूतरथं चक्रे निमेषार्धादसंभ्रमम् / / 12 व्यहनत्कार्मुकं राजा तूणीरं चैव सर्वशः // 26 हताश्वे तु रथे तिष्ठशतानीको महाबलः। . स च्छिन्नधन्वा समरे खड्गमुद्यम्य नानदन् / गदां चिक्षेप संक्रुद्धस्तव पुत्रस्य मारिष // 13 वैडूर्योत्पलवर्णाभं हस्तिदन्तमयत्सरुम् // 27 सा कृत्वा स्यन्दनं भस्म हयांश्चैव ससारथीन् / भ्राम्यमाणं ततस्तं तु विमलाम्बरवर्चसम् / पपात धरणी तूर्णं दारयन्तीव भारत // 14 कालोपमं ततो मेने सुतसोमस्य धीमतः // 28 तावुभौ विरथौ वीरौ कुरूणां कीर्तिवर्धनौ। सोऽचरत्सहसा खड्गी मण्डलानि सहस्रशः / अपाक्रमेतां युद्धातौ प्रेक्षमाणौ परस्परम् // 15 / चतुर्विंशन्महाराज शिक्षाबलसमन्वितः // 29 पुत्रस्तु तव संभ्रान्तो विवित्सो रथमाविशत् / सौबलस्तु ततस्तस्य शरांश्चिक्षेप वीर्यवान् / शतानीकोऽपि त्वरितः प्रतिविन्ध्यरथं गतः॥ 16 तानापतत एवाशु चिच्छेद परमासिना // 30 सुतसोमस्तु शकुनि विव्याध निशितैः शरैः / ततः क्रुद्धो महाराज सौबलः परवीरहा / नाकम्पयत संरब्धो वार्योघ इव पर्वतम् // 17 प्राहिणोत्सुतसोमस्य शरानाशीविषोपमान् // 31 सुतसोमस्तु तं दृष्ट्वा पितुरत्यन्तवैरिणम् / चिच्छेद तांश्च खड्नेन शिक्षया च बलेन च। शरैरनेकसाहश्छादयामास भारत // 18 दर्शयल्लाघवं युद्धे तार्क्ष्यवीर्यसमद्युतिः // 32 ताशराशकुनिस्तूर्णं चिच्छेदान्यैः पतत्रिभिः। / तस्य संचरतो राजन्मण्डलावर्तने तदा / - 1676 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 18. 33] कर्णपर्व [8. 18. 61 क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन खड्गं चिच्छेद सुप्रभम् / / 33 गमिष्यत्यद्य पदवीं भारद्वाजस्य संयुगे // 47 स च्छिन्नः सहसा भूमौ निपपात महानसिः। आचार्यः क्षिप्रहस्तश्च विजयी च सदा युधि / अवशस्य स्थितं हस्ते तं खड्गं सत्सरं तदा // 34 अस्त्रवान्वीर्यसंपन्नः क्रोधेन च समन्वितः // 48 छिन्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट् / पार्षतश्च भृशं युद्धे विमुखोऽद्यापि लक्ष्यते / प्राविध्यत ततः शेषं सुतसोमो महारथः // 35 इत्येवं विविधा वाचस्तावकानां परैः सह // 49 स च्छित्त्वा सगुणं चापं रणे तस्य महात्मनः / विनिःश्वस्य ततः क्रुद्धः कृपः शारद्वतो नृप / पपात धरणी तूर्णं स्वर्णवज्रविभूषितः। पार्षतं छादयामास निश्चेष्टं सर्वमर्मसु // 50 सुतसोमस्ततोऽगच्छच्छ्रुतकीर्तेर्महारथम् // 36 स वध्यमानः समरे गौतमेन महात्मना। सौबलोऽपि धनुर्गृह्य घोरमन्यत्सुदुःसहम् / कर्तव्यं न प्रजानाति मोहितः परमाहवे // 51 अभ्ययात्पाण्डवानीकं निघ्नशत्रुगणान्बहून् // 37 तमब्रवीत्ततो यन्ता कच्चिरक्षेमं नु पार्षत / तत्र नादो महानासीत्पाण्डवानां विशां पते / ईदृशं व्यसनं युद्धे न ते दृष्टं कदाचन // 52 सौबलं समरे दृष्ट्वा विचरन्तमभीतवत् / / 38 दैवयोगात्तु ते बाणा नातरन्मर्मभेदिनः / तान्यनीकानि दृप्तानि शस्त्रवन्ति महान्ति च / / प्रेषिता द्विजमुख्येन मर्माण्युद्दिश्य सर्वशः // 53 द्राव्यमाणान्यदृश्यन्त सौबलेन महात्मना // 39 व्यावर्तये तत्र रथं नदीवेगमिवार्णवात् / यथा दैत्यचमू राजन्देवराजो ममर्द ह / अवध्यं ब्राह्मणं मन्ये येन ते विक्रमो हतः // 54 तथैव पाण्डवीं सेनां सौबलेयो व्यनाशयत्॥ 40 धृष्टद्युम्नस्ततो राजशनकैरब्रवीद्वचः / धृष्टद्युम्नं कृपो राजन्वारयामास संयुगे। मुह्यते मे मनस्तात गात्रे स्वेदश्च जायते // 55 यथा दृप्तं वने नागं शरभो वारयेयुधि / / 41 वेपथु च शरीरे मे रोमहर्षं च पश्य वै / निरुद्धः पार्षतस्तेन गौतमेन बलीयसा। वर्जयन्ब्राह्मणं युद्धे शनैर्याहि यतोऽच्युतः // 56 ‘पदात्पदं विचलितुं नाशक्नोत्तत्र भारत // 42 अर्जुनं भीमसेनं वा समरे प्राप्य सारथे / गौतमस्य वपुदृष्ट्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति / क्षेममद्य भवेद्यन्तरिति मे नैष्ठिकी मतिः // 57 वित्रेसुः सर्वभूतानि क्षयं प्राप्तं च मेनिरे // 43 ततः प्रायान्महाराज सारथिस्त्वरयन्हयान् / तत्रावोचन्विमनसो रथिनः सादिनस्तथा। यतो भीमो महेष्वासो युयुधे तव सैनिकैः // 58 द्रोणस्य निधने नूनं संक्रुद्धो द्विपदां वरः // 44 प्रद्रुतं तु रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नस्य मारिष / शारद्वतो महातेजा दिव्यास्त्रविदुदारधीः / किरञ्शरशतान्येव गौतमोऽनुययौ तदा // 59 अपि स्वस्ति भवेदद्य धृष्टद्युम्नस्य गौतमात् / / 45 शङ्ख च पूरयामास मुहुर्मुहुररिंदमः / अपीयं वाहिनी कृत्स्ना मुच्येत महतो भयात् / पार्षतं प्राद्रवद्यन्तं महेन्द्र इव शम्बरम् / / 60 अप्ययं ब्राह्मणः सर्वान्न नो हन्यात्समागतान् // शिखण्डिनं तु समरे भीष्ममृत्युं दुरासदम् / यादृशं दृश्यते रूपमन्तकप्रतिमं भृशम् / हार्दिक्यो वारयामास स्मयन्निव मुहुर्मुहुः // 61 - 1677 - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 18. 62] महाभारते . [8. 19. 12 शिखण्डी च समासाद्य हृदिकानां महारथम् / | प्राद्रवत्पाण्डवी सेना वध्यमाना समन्ततः // 76 पञ्चभिर्निशितैर्भल्लै त्रुदेशे समादयत् // 62 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कृतवर्मा तु संक्रुद्धो भित्त्वा षष्टिभिराशुगैः / अष्टादशोऽध्यायः // 18 // धनुरेकेन चिच्छेद हसनराजन्महारथः // 63 अथान्यद्धनुरादाय द्रुपदस्यात्मजो बली / संजय उवाच / तिष्ठ तिष्ठति संक्रुद्धो हार्दिक्यं प्रत्यभाषत // 64 श्वेताश्वोऽपि महाराज व्यधमत्तावकं बलम् / ततोऽस्य नवतिं बाणान्रुक्मपुङ्खान्सुतेजनान् / यथा वायुः समासाद्य तूलराशिं समन्ततः // 1 प्रेषयामास राजेन्द्र तेऽस्याभ्रश्यन्त वर्मणः // 65 प्रत्युद्ययुस्निगर्तास्तं शिबयः कौरवैः सह / . वितांस्तान्समालक्ष्य पतितांश्च महीतले। शाल्वाः संशप्तकाश्चैव नारायणबलं च यत् / / 2 क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कार्मुकं चिच्छिदे बली // 66 सत्यसेनः सत्यकीर्तिर्मित्रदेवः श्रुतंजयः / अथैनं छिन्नधन्वानं भग्नशृङ्गमिवर्षभम् / सौश्रुतिश्चित्रसेनश्च मित्रवर्मा च भारत // 3 अशीत्या मार्गणैः क्रुद्धो बाह्वोरुरसि चार्दयत् // 67 त्रिगर्तराजः समरे भ्रातृभिः परिवारितः / कृतवर्मा तु संक्रुद्धो मार्गणैः कृतविक्षतः / / / पुत्रैश्चैव महेष्वासै नाशस्त्रधरैयुधि / / 4 धनुरन्यत्समादाय समार्गणगणं प्रभो / ते सृजन्तः शरव्रातान्किरन्तोऽर्जुनमाहवे / शिखण्डिनं बाणवरैः स्कन्धदेशेऽभ्यताडयत् // 68 अभ्यद्रवन्त समरे वार्योघा इव सागरम् // 5 स्कन्धदेशे स्थितैर्बाणैः शिखण्डी च रराज ह। . ते त्वर्जुनं समासाद्य योधाः शतसहस्रशः / शाखाप्रतानैर्विमलैः सुमहान्स यथा द्रुमः // 69 अगच्छन्विलयं सर्वे तायं दृष्ट्वेव पन्नगाः // 6 तावन्योन्यं भृशं विद्धा रुधिरेण समुक्षितौ / ते वध्यमानाः समरे नाजहुः पाण्डवं तदा / अन्योन्यशृङ्गाभिहतो रेजतुर्वृषभाविव / / 70 दह्यमाना यथा राजशलभा इव पावकम् // 7 अन्योन्यस्य वधे यत्नं कुर्वाणौ तौ महारथौ। सत्यसेनस्त्रिभिर्बाणैर्विव्याध युधि पाण्डवम् / रथाभ्यां चेरतुस्तत्र मण्डलानि सहस्रशः / / 71 मित्रदेवत्रिषष्टया च चन्द्रदेवश्च सप्तभिः // 8 कृतवर्मा महाराज पार्षतं निशितैः शरैः। मित्रवर्मा त्रिसप्तत्या सौश्रुतिश्चापि पश्चभिः / रणे विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुखैः शिलाशितैः॥७२ शत्रुजयश्च विंशत्या सुशर्मा नवभिः शरैः // 9 ततोऽस्य समरे बाणं भोजः प्रहरतां वरः। श@जयं च राजानं हत्वा तत्र शिलाशितैः / जीवितान्तकरं घोरं व्यसृजत्त्वरयान्वितः // 73 सौश्रुतेः सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत् / स तेनाभिहतो राजन्मूर्छामाशु समाविशत् / त्वरितश्चन्द्रदेवं च शरैर्निन्ये यमक्षयम् // 10 ध्वजयष्टिं च सहसा शिश्रिये कश्मलावृतः // 74 अथेतरान्महाराज यतमानान्महारथान् / अपोवाह रणात्तं तु सारथी रथिनां वरम् / पञ्चभिः पञ्चभिर्बाणैरेकैकं प्रत्यवारयत् // 11 हार्दिक्यशरसंतप्तं निःश्वसन्तं पुनः पुनः // 75 सत्यसेनस्तु संक्रुद्धस्तोमरं व्यसृजन्महत् / * पराजिते ततः शूरे द्रुपदस्य सुते प्रभो। समुद्दिश्य रणे कृष्णं सिंहनादं ननाद च // 12 - 1678 - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 19. 13 ] कणपत्र [8. 19. 40 स निर्भिद्य भुजं सव्यं माधवस्य महात्मनः / हाराणामथ निष्काणां तनुत्राणां च भारत / अयस्मयो महाचण्डो जगाम धरणीं तदा // 13 छत्राणां व्यजनानां च शिरसां मुकुटैः सह / माधवस्य तु विद्धस्य तोमरेण महारणे / अश्रूयत महाशब्दस्तत्र तत्र विशां पते // 27 प्रतोदः प्रापतद्धस्ताद्रश्मयश्च विशां पते // 14 / सकुण्डलानि स्वक्षीणि पूर्णचन्द्रनिभानि च / स प्रतोदं पुनर्गृह्य रश्मींश्चैव महायशाः / शिरांस्युामदृश्यन्त तारागण इवाम्बरे // 28 वाहयामास तानश्वान्सत्यसेनरथं प्रति // 15 . सुस्रग्वीणि सुवासांसि चन्दनेनोक्षितानि च / विष्वक्सेनं तु निर्भिन्नं प्रेक्ष्य पार्थो धनंजयः / शरीराणि व्यदृश्यन्त हतानां च महीतले। . सत्यसेनं शरैस्तीक्ष्णैर्दारयित्वा महाबलः // 16 गन्धर्वनगराकारं घोरमायोधनं तदा // 29 ततः सुनिशितैर्बाणै राज्ञस्तस्य महच्छिरः / निहतै राजपुत्रैश्च क्षत्रियैश्च महाबलैः / कुण्डलोपचितं कायाञ्चकर्त पृतनान्तरे // 17 हस्तिभिः पतितैश्चैव तुरगैश्चाभवन्मही / तं निहत्य शितैर्बाणैर्मित्रवर्माणमाक्षिपत् / अगम्यमार्गा समरे विशीर्णैरिव पर्वतैः // 30 वत्सदन्तेन तीक्ष्णेन सारथिं चास्य मारिष // 18 नासीच्चक्रपथश्चैव पाण्डवस्य महात्मनः / ततः शरशतैर्भूयः संशप्तकगणान्वशी / निघ्नतः शात्रवान्भल्लैहस्त्यश्वं चामितं महत् // 31 पातयामास संक्रुद्धः शतशोऽथ सहस्रशः // 19 आ तुम्बादवसीदन्ति रथचक्राणि मारिष / ततो रजतपुझेन राज्ञः शीर्ष महात्मनः / रणे विचरतस्तस्य तस्मिंल्लोहितकर्दमे // 32 मित्रदेवस्य चिच्छेद क्षुरप्रेण महायशाः / सीदमानानि चक्राणि समूहुस्तुरगा भृशम् / सुशर्माणं च संक्रुद्धो जत्रुदेशे समादयत् // 20 श्रमेण महता युक्ता मनोमारुतरंहसः // 33 ततः संशप्तकाः सर्वे परिवार्य धनंजयम् / वध्यमानं तु तत्सैन्यं पाण्डुपुत्रेण धन्विना / शस्त्रौधैर्ममृदुः क्रुद्धा नादयन्तो दिशो दश // 21 प्रायशो विमुखं सर्वं नावतिष्ठत संयुगे / / 34 अभ्यर्दितस्तु तैर्जिष्णुः शक्रतुल्यपराक्रमः / . ताञ्जित्वा समरे जिष्णुः संशप्तकगणान्बहून् / ऐन्द्रमस्रममेयात्मा प्रादुश्चक्रे महारथः / रराज स महाराज विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् // 35 वतः शरसहस्राणि प्रादुरासन्विशां पते // 22 / युधिष्ठिरं महाराज विसृजन्तं शरान्बहून् / ध्वजानां छिद्यमानानां कार्मुकाणां च संयुगे। स्वयं दुर्योधनो राजा प्रत्यगृह्णादभीतवत् / / 36 रथानां सपताकानां तूणीराणां शरैः सह // 23 तमापतन्तं सहसा तव पुत्रं महाबलम् / अक्षाणामथ योक्त्राणां चक्राणां रश्मिभिः सह / धर्मराजो द्रुतं विद्धा तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत् // 37 कूबराणां वरूथानां पृषत्कानां च संयुगे // 24 / स च तं प्रतिविव्याध नवभिर्निशितैः शरैः / अश्मनां पततां चैव प्रासानामृष्टिभिः सह / सारथिं चास्य भल्लेन भृशं क्रुद्धोऽभ्यताडयत्॥३८ गदानां परिघाणां च शक्तीनां तोमरैः सह // 25 / ततो युधिष्ठिरो राजा हेमपुङ्खाशिलीमुखान् / शतन्नीनां सचक्राणां भुजानामूरुभिः सह / / दुर्योधनाय चिक्षेप त्रयोदश शिलाशितान् // 39 कण्ठसूत्राङ्गदानां च केयूराणां च मारिप // 26 / चतुर्भिश्चतुरो वाहांस्तस्य हत्वा महारथः / - 1679 - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 19. 40] महाभारते [8. 19. 68 पञ्चमेन शिरः कायात्सारथेस्तु समाक्षिपत् // 40 पादातैराहता नागा विवरेषु समन्ततः / षष्ठेन च ध्वजं राज्ञः सप्तमेन च कार्मुकम् / चक्रुरार्तस्वरं घोरं व्यद्रवन्त दिशो दश // 54 . अष्टमेन तथा खड्गं पातयामास भूतले / पदातीनां तु सहसा प्रद्रुतानां महामृधे / पञ्चभिर्नृपतिं चापि धर्मराजोऽर्दयशम् // 41 उत्सृज्याभरणं तूर्णमवप्लुत्य रणाजिरे // 55 हताश्वात्तु रथात्तस्मादवप्लुत्य सुतस्तव / निमित्तं मन्यमानास्तु परिणम्य महागजाः / उत्तमं व्यसनं प्राप्तो भूमावेव व्यतिष्ठत // 42 जगृहुर्बिभिदुश्चैव चित्राण्याभरणानि च // 56 तं तु कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा कर्णद्रौणिकृपादयः / प्रतिमानेषु कुम्भेषु दन्तवेष्टेषु चापरे / अभ्यवर्तन्त सहिताः परीप्सन्तो नराधिपम् // 43 निगृहीता भृशं नागाः प्रासतोमरशक्तिभिः // 5 // अथ पाण्डुसुताः सर्वे परिवार्य युधिष्ठिरम् / निगृह्य च गदाः केचित्पार्श्वस्थैर्भृशदारुणैः / अभ्ययुः समरे राजंस्ततो युद्धमवर्तत // 44. रथाश्वसादिमिस्तत्र संभिन्ना न्यपतन्भुवि // 58 अथ तूर्यसहस्राणि प्रावाद्यन्त महामृधे / सरथं सादिनं तत्र अपरे तु महागजाः।। क्ष्वेडाः किलकिलाशब्दाः प्रादुरासन्महीपते / भूमावमृद्गन्वेगेन सवर्माणं पताकिनम् // 59 यदभ्यगच्छन्समरे पाञ्चालाः कौरवैः सह // 45 रथं नागाः समासाद्य धुरि गृह्य च मारिष / नरा नरैः समाजग्मुर्वारणा वरवारणैः / व्याक्षिपन्सहसा तत्र घोररूपे महामृधे / / 60 रथाश्च रथिभिः सार्धं हयाश्च हयसादिभिः // 46 नाराचैर्निहतश्चापि निपपात महागजः / द्वंद्वान्यासन्महाराज प्रेक्षणीयानि संयुगे। पर्वतस्येव शिखरं वज्रभग्नं महीतले // 61 विस्मापनान्यचिन्त्यानि शस्त्रवन्त्युत्तमानि च // 47 योधा योधान्समासाद्य मुष्टिभिर्व्यहनन्युधि / अयुध्यन्त महावेगाः परस्परवधैषिणः / केशेष्वन्योन्यमाक्षिप्य चिच्छिदुर्बिभिदुः सह // 6 अन्योन्यं समरे जघ्नुर्योधव्रतमनुष्ठिताः / उद्यम्य च भुजावन्यो निक्षिप्य च महीतले / न हि ते समरं चक्रुः पृष्ठतो वै कथंचन // 48 पदा चोरः समाक्रम्य स्फुरतो व्यहनच्छिरः॥६ मुहूर्तमेव तद्युद्धमासीन्मधुरदर्शनम् / / मृतमन्यो महाराज पद्भयां ताडितवांस्तदा / तत उन्मत्तवद्राजन्निर्मर्यादमवर्तत // 49 जीवतश्च तथैवान्यः शस्त्रं काये न्यमज्जयत् // 6 रथी नागं समासाद्य विचरन्रणमूर्धनि / मुष्टियुद्धं महच्चासीद्योधानां तत्र भारत / प्रेषयामास कालाय शरैः संनतपर्वभिः // 50 तथा केशग्रहश्चोयो बाहुयुद्धं च केवलम् / / 65 नागा ह्यान्समासाद्य विक्षिपन्तो बंहूनथ / समासक्तस्य चान्येन अविज्ञातस्तथापरः / द्रावयामासुरत्युग्रास्तत्र तत्र तदा तदा // 51 जहार समरे प्राणान्नानाशस्त्रैरनेकधा // 66 विद्राव्य च बहूनश्वान्नागा राजन्बलोत्कटाः / संसक्तेषु च योधेषु वर्तमाने च संकुले / विषाणैश्चापरे जघ्नुर्ममृदुश्चापरे भृशम् // 52 कबन्धान्युत्थितानि स्म शतशोऽथ सहस्रशः // 6 साश्वारोहांश्च तुरगान्विषाणैर्बिभिदू रणे।। लोहितैः सिच्यमानानि शस्त्राणि कवचानि च / अपरांश्चिक्षिपुर्वेगात्प्रगृह्यातिबलास्तश्ना // 53 | महारङ्गानुरक्तानि वस्त्राणीव चकाशिरे / / 68 - 1680 - Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 19. 69] कर्णपर्व [8. 20. 19 एवमेतन्महायुद्धं दारुणं भृशसंकुलम् / दुर्योधनस्तु दृष्ट्वा वै धर्मराज युधिष्ठिरम् / उन्मत्तरङ्गप्रतिमं शब्देनापूरयज्जगत् // 69 उवाच सूत त्वरितं याहि याहीति भारत // 6 नैव स्वे न परे राजन्विज्ञायन्ते शरातुराः / अत्र मां प्रापय क्षिप्रं सारथे यत्र पाण्डवः / योद्धव्यमिति युध्यन्ते राजानो जयगृद्धिनः // 70 ध्रियमाणेन छत्रेण राजा राजति दंशितः // 7 स्वान्स्वे जघ्नुर्महाराज परांश्चैव समागतान् / स सूतश्चोदितो राज्ञा राज्ञः स्यन्दनमुत्तमम् / उभयोः सेनयोर्वीरैर्व्याकुलं समपद्यत // 71 युधिष्ठिरस्याभिमुखं प्रेषयामास संयुगे // 8 रथैर्भग्नैर्महाराज वारणैश्च निपातितैः / ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धः प्रमत्त इव सद्गवः / हयैश्च पतितस्तत्र नरैश्च विनिपातितैः / / 72 सारथिं चोदयामास याहि यत्र सुयोधनः // 9 अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा / . तौ समाजग्मतुर्वीरौ भ्रातरौ रथसत्तमौ / क्षणेनासीन्महाराज क्षतंजौघप्रवर्तिनी / / 73 समेत्य च महावीर्यो संनद्धौ युद्धदुर्मदौ / पाञ्चालानवधीत्कर्णस्त्रिगर्ताश्च धनंजयः / ततक्षतुर्महेष्वासौ शरैरन्योन्यमाहवे // 10 भीमसेनः कुरून्राजन्हस्त्यनीकं च सर्वशः // 74 ततो दुर्योधनो राजा धर्मशीलस्य मारिष / एवमेष क्षयो वृत्तः कुरुपाण्डवसेनयोः / शिलाशितेन भल्लेन धनुश्चिच्छेद संयुगे। अपराहे महाराज काङ्क्षन्त्योर्विपुलं जयम् // 75 तं नामृष्यत संक्रुद्धो व्यवसायं युधिष्ठिरः // 11 - इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अपविध्य धनुश्छिन्नं क्रोधसंरक्तलोचनः / एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // अन्यत्कार्मुकमादाय धर्मपुत्रश्चमूमुखे // 12 20 दुर्योधनस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च / धृतराष्ट्र उवाच / अथान्यद्धनुरादाय प्रत्यविध्यत पाण्डवम् // 13 अतितीव्राणि दुःखानि दुःसहानि बहूनि च। तावन्योन्यं सुसंरब्धौ शरवर्षाण्यमुश्चताम् / तपाई संजयाश्रौषं पुत्राणां मम संक्षयम् // 1 सिंहाविव सुसंक्रुद्धौ परस्परजिगीषया // 14 तथा तु मे कथयसे यथा युद्धं तु वर्तते / अन्योन्यं जघ्नतुश्चैव नर्दमानौ वृषाविव / न सन्ति सूत कौरव्या इति मे नैष्ठिकी मतिः // 2 अन्योन्यं प्रेक्षमाणौ च चेरतुस्तौ महारथौ // 15 दुर्योधनस्तु विरथः कृतस्तत्र महारणे / ततः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यं सुकृतव्रणौ / धर्मपुत्रः कथं चक्रे तस्मिन्वा नृपतिः कथम् / / 3 विरेजतुर्महाराज पुष्पिताविव किंशुकौ // 16 अपराहे कथं युद्धमभवल्लोमहर्षणम् / ततो राजन्प्रतिभयान्सिहनादान्मुहुर्मुहुः / तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो ह्यसि संजय / / 4 तलयोश्च तथा शब्दान्धनुषोश्च महाहवे // 17 संजय उवाच / शङ्खशब्दरवांश्चैव चक्रतुस्तौ रथोत्तमौ / संसक्तेषु च सैन्येषु युध्यमानेषु भागशः / अन्योन्यं च महाराज पीडयांचऋतुर्भृशम् // 18 रथमन्यं समास्थाय पुत्रस्तव विशां पते // 5 ततो युधिष्ठिरो राजा तव पुत्रं त्रिभिः शरैः / क्रोधेन महताविष्टः सविषो भुजगो यथा / | आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रवेगो दुरासदः // 19 म.भा. 211 - 1681 - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 20. 20] महाभारते [8. 21.8 21 प्रतिविव्याध तं तूर्णं तव पुत्रो महीपतिम् / / पञ्चभिर्निशितैर्बाणैर्हेमपुङ्खः शिलाशितैः // 20 ततो दुर्योधनो राजा शक्तिं चिक्षेप भारत। सर्वपारशवीं तीक्ष्णां महोल्काप्रतिमां तदा // 21 तामापतन्ती सहसा धर्मराजः शिलाशितैः / त्रिभिश्चिच्छेद सहसा तं च विव्याध सप्तभिः // निपपात ततः साथ हेमदण्डा महाघना / निपतन्ती महोल्केव व्यराजच्छिखिसंनिभा // 23 शाक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा पुत्रस्तव विशां पते। नवभिनिशितैर्भल्लैर्निजघान युधिष्ठिरम् // 24 सोऽतिविद्धो बलवतामग्रणीः शत्रुतापनः / दुर्योधनं समुद्दिश्य बाणं जग्राह सत्वरः // 25 समाधत्त च तं बाणं धनुष्युग्रं महाबलः / चिक्षेप च ततो राजा राज्ञः क्रुद्धः पराक्रमी // 26 स तु बाणः समासाद्य तव पुत्रं महारथम् / व्यमोहयत राजानं धरणीं च जगाम ह // 27 ततो दुर्योधनः क्रुद्धो गदामुद्यम्य वेगितः। विधित्सुः कलहस्यान्तमभिदुद्राव पाण्डवम् // 28 तमालक्ष्योद्यतगदं दण्डहस्तमिवान्तकम् / धर्मराजो महाशक्तिं प्राहिणोत्तव सूनवे / दीप्यमानां महावेगां महोल्का ज्वलितामिव // 29 / रथस्थः स तया विद्धो वर्म भित्त्वा महाहवे। भृशं संविग्नहृदयः पपात च मुमोह च // 30 ततस्त्वरितमागत्य कृतवर्मा तवात्मजम् / प्रत्यपद्यत राजानं मग्नं वै व्यसनार्णवे // 31 भीमोऽपि महतीं गृह्य गदां हेमपरिष्कृताम् / अभिदुद्राव वेगेन कृतवर्माणमाहवे / एवं तदभवद्युद्धं त्वदीयानां परैः सह // 32 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि विंशोऽध्यायः // 20 // संजय उवाच। ततः कणं पुरस्कृत्य त्वदीया युद्धदुर्मदाः / पुनरावृत्य संग्रामं चक्रुर्देवासुरोपमम् // 1 द्विरदरथनराश्वशङ्खशब्दैः परिहृषिता विविधैश्च शस्त्रपातैः / द्विरदरथपदातिसार्थवाहाः परिपतिताभिमुखाः प्रजहिरे ते // 2 शरपरशुवरासिपट्टिशै__रिषुभिरनेकविधैश्च सादिताः / / द्विरदरथहया महाहवे वरपुरुषैः पुरुषाश्च वाहनैः // 3 कमलदिनकरेन्दुसंनिभैः सितदशनैः सुमुखाक्षिनासिकैः / रुचिरमुकुटकुण्डलैर्मही __पुरुषशिरोभिरवस्तृता बभौ // 4 परिघमुसलशक्तितोमरे नखरभुशुण्डिगदाशतैर्वृताः। . द्विरदनरहयाः सहस्रशो रुधिरनदीप्रवहास्तदाभवन् // 5 प्रहतनररथाश्वकुञ्जरं प्रतिभयदर्शनमुल्बणं तदा। तदहितनिहतं बभौ बलं पितृपतिराष्ट्रमिव प्रजाक्षये // 6 अथ तव नरदेव सैनिका स्तव च सुताः सुरसूनुसंनिभाः / अमितबलपुरःसरा रणे कुरुवृषभाः शिनिपुत्रमभ्ययुः // 7 तदतिरुचिरभीममाबभौ पुरुषवराश्वरथद्विपाकुलम् / - 1682 - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 21.8] कर्णपर्व [8. 21. 30 लवणजलसमुद्धतस्वनं गजान्गजप्रयन्तूंश्च वैजयन्त्यायुधध्वजान् / बलममरासुरसैन्यसंनिभम् // 8 .. सादिनोऽश्वांश्च पत्तींश्च शर्निन्ये यमक्षयम् // 17 सुरपतिसमविक्रमस्तत तमन्तकमिव क्रुद्धमनिवार्य महारथम् / त्रिदशवरावरजोपमं युधि / दुर्योधनोऽभ्ययादेको निघ्नन्बाणैः पृथग्विधैः // 18 दिनकरकिरणप्रभैः पृषत्कै तस्यार्जुनो धनुः सूतं केतुमश्वांश्च सायकैः / रवितनयोऽभ्यहनच्छिनिप्रवीरम् / / 9 हत्वा सप्तभिरेकै छत्रं चिच्छेद पत्रिणा // 19 तमपि सरथवाजिसारथिं नवमं च समासाद्य व्यसृजत्प्रतिघातिनम् / शिनिवृषभो विविधैः शरैस्त्वरन् / दुर्योधनायेषुवरं तं द्रौणिः सप्तधाच्छिनत् // 20 मुजगविषसमप्रभै रणे ततो द्रौणेर्धनुश्छित्त्वा हत्वा चाश्ववराशरैः / पुरुषवरं समवास्तृणोत्तदा // 10 कृपस्यापि तथात्युग्रं धनुश्चिच्छेद पाण्डवः / / 21 शिनिवृषभशरप्रपीडितं हार्दिक्यस्य धनुश्छित्त्वा ध्वजं चाश्वं तथावधीत् / - तव सुहृदो वसुषेणमभ्ययुः / दुःशासनस्येषुवरं छित्त्वा राधेयमभ्ययात् // 22 त्वरितमतिरथा रथर्षभं . अथ सात्यकिमुत्सृज्य त्वरन्कोऽर्जुनं त्रिभिः / द्विरदरथाश्वपदातिभिः सह // 11 विद्धा विव्याध विंशत्या कृष्णं पार्थं पुननिभिः // वमुदधिनिभमाद्रवदली अथ सात्यकिरागत्य कर्णं विद्धा शितैः शरैः / त्वरिततरैः समभिद्रुतं परैः। नवत्या नवभिश्चोत्रैः शतेन पुनरार्दयत् // 24 द्रुपदसुतसखस्तदाकरो ततः प्रवीराः पाण्डूनां सर्वे कर्णमपीडयन् / त्पुरुषरथाश्वगजक्षयं महत् // 12 युधामन्युः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः॥२५ अथ पुरुषवरौ कृताह्निको उत्तमौजा युयुत्सुश्च यमौ पार्षत एव च / भवमभिपूज्य यथाविधि प्रभुम् / चेदिकारूषमत्स्यानां केकयानां च यद्बलम् / अरिवधकृतनिश्चयौ द्रुतं चेकितानश्च बलवान्धर्मराजश्च सुव्रतः / / 26 तव बलमर्जुनकेशवौ सृतौ // 13 एते रथाश्वद्विरदैः पत्तिभिश्चोग्रविक्रमैः / जलदनिनदनिस्वनं रथं परिवार्य रणे कर्ण नानाशस्त्रैरवाकिरन् / पवनविधूतपताककेतनम् / भाषन्तो वाग्भिरुग्राभिः सर्वे कर्णवधे वृताः // 27 सितहयमुपयान्तमन्तिक तां शस्त्रवृष्टिं बहुधा छित्त्वा कर्णः शितैः शरैः / हृतमनसो ददृशुस्तदारयः॥ 14 अपोवाह स्म तान्सर्वान्दुमान्भङ्क्त्वेव मारुतः // 28 व विस्फार्य गाण्डीवं रणे नृत्यन्निवार्जुनः / रथिनः समहामात्रान्गजानश्वान्ससादिनः / रसंबाधमकरोत्खं दिशः प्रदिशस्तथा // 15 शरव्रातांश्च संक्रुद्धो निनन्कर्णो व्यदृश्यत // 29 यान्विमानप्रतिमान्सज्जयत्रायुधध्वजान् / तद्वध्यमानं पाण्डूनां बलं कर्णास्त्रतेजसा / सारथींस्तदा बाणैरभ्राणीवानिलोऽवधीत् // 16 / विशस्त्रक्षतदेहं च प्राय आसीत्पराङ्मुखम् // 30 -1683 - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 21. 31] महाभारते [8. 22. 14 अथ कर्णास्त्रमस्त्रेण प्रतिहत्यार्जुनः स्वयम् / पार्थो ह्येकोऽहरद्भद्रामेकश्चाग्निमतर्पयत् / दिशः खं चैव भूमिं च प्रावृणोच्छरवृष्टिभिः // 31 एकश्चेमां महीं जित्वा चक्रे बलिभृतो नृपान् // 2 मुसलानीव निष्पेतुः परिघा इव चेषवः / एको निवातकवचानवधीदिव्यकार्मुकः / शतघ्न्य इव चाप्यन्ये वज्राण्युप्राणि वापरे // 32 एकः किरातरूपेण स्थितं शर्वमयोधयत् // 3 तैर्वध्यमानं तत्सैन्यं सपत्त्यश्वरथद्विपम् / एकोऽभ्यरक्षद्भरतानेको भवमतोषयत् / निमीलिताक्षमत्यर्थमुदभ्राम्यत्समन्ततः // 33 तेनैकेन जिताः सर्वे मदीया उग्रतेजसः / निष्कैवल्यं तदा युद्धं प्रापुरश्वनरद्विपाः / ते न निन्द्याः प्रशस्याश्च यत्ते चक्रुर्ब्रवीहि तत् // 4 वध्यमानाः शरैरन्ये तदा भीताः प्रदुद्रुवुः // 34 संजय उवाच। एवं तेषां तदा युद्धे संसक्तानां जयैषिणाम् / / हताहतविध्वस्ता विवर्मायुधवाहनाः। गिरिमस्तं समासाद्य प्रत्यपद्यत भानुमान् // 35 दीनस्वरा दूयमाना मानिनः शत्रुभिर्जिताः // 5 तमसा च महाराज रजसा च विशेषतः / शिबिरस्थाः पुनर्मत्रं मन्त्रयन्ति स्म कौरवाः / न किंचित्प्रत्यपश्याम शुभं वा यदि वाशुभम् // 36 भग्नदंष्ट्रा हतविषाः पदाक्रान्ता इवोरगाः // 6 ते त्रसन्तो महेष्वासा रात्रियुद्धस्य भारत / तानब्रवीत्ततः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन् / अपयानं ततश्चक्रुः सहिताः सर्ववाजिभिः // 37 / / करं करेणाभिपीड्य प्रेक्षमाणस्तवात्मजम् / / 7 . कौरवेषु च यातेषु तदा राजन्दिनक्षये / यत्तो दृढश्च दक्षश्च धृतिमानर्जुनः सदा। जयं सुमनसः प्राप्य पार्थाः स्वशिबिरं ययुः // 38 स बोधयति चाप्येनं प्राप्तकालमधोक्षजः // 8 वादित्रशब्दैविविधैः सिंहनादैश्च नर्तितैः। सहसास्त्रविसर्गेण वयं तेनाद्य वञ्चिताः / परानवहसन्तश्च स्तुवन्तश्चाच्युतार्जुनौ // 39 श्वस्त्वहं तस्य संकल्पं सर्वं हन्ता महीपते // 9 कृतेऽवहारे तैर्वीरैः सैनिकाः सर्व एव ते। एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽनुजज्ञे नृपोत्तमान् / आशिषः पाण्डवेयेषु प्रायुज्यन्त नरेश्वराः // 40 सुखोषितास्ते रजनी हृष्टा युद्धाय निर्ययुः // 10 ततः कृतेऽवहारे च प्रहृष्टाः कुरुपाण्डवाः / तेऽपश्यन्विहितं व्यूहं धर्मराजेन दुर्जयम् / निशायां शिबिरं गत्वा न्यविशन्त नरेश्वराः // 41 प्रयत्नात्कुरुमुख्येन बृहस्पत्युशनोमतात् // 11 यक्षरक्षःपिशाचाश्च श्वापदानि च संघशः / अथ प्रतीपकर्तारं सततं विजितात्मनाम् / जग्मुरायोधनं घोरं रुद्रस्यानर्तनोपमम् // 42 सस्मार वृषभस्कन्धं कर्णं दुर्योधनस्तदा // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि पुरंदरसमं युद्धे मरुद्गणसमं बले / एकविंशोऽध्यायः // 21 // कार्तवीर्यसमं वीर्ये कर्णं राज्ञोऽगमन्मनः / 22 सूतपुत्रं महेष्वासं बन्धुमात्ययिकेष्विव // 13 धृतराष्ट्र उवाच / धृतराष्ट्र उवाच / स्वेन च्छन्देन नः सर्वान्नावधीद्वयक्तमर्जुनः / / यद्वोऽगमन्मनो मन्दाः कर्णं वैकर्तनं तदा / न ह्यस्य समरे मुच्येतान्तकोऽप्याततायिनः // 1 / अप्यद्राक्षत तं यूयं शीतार्ता इव भास्करम् / / 14 - 1684 - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 22. 15 ] कर्णपर्व [8. 22. 42 कृतेऽवहारे सैन्यानां प्रवृत्ते च रणे पुनः / शृणु सर्वं यथावृत्तं घोरं वैशसमच्युत // 28 कथं वैकर्तनः कर्णस्तत्रायुध्यत संजय। प्रभातायां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात् / कथं च पाण्डवाः सर्वे युयुधुस्तत्र सूतजम् // 15 समेत्य च महाबाहुर्दुर्योधनमभाषत // 29 कर्णो ह्येको महाबाहुर्हन्यात्पार्थान्ससोमकान् / अद्य राजन्समेष्यामि पाण्डवेन यशस्विना / कर्णस्य भुजयोर्वीर्यं शक्रविष्णुसमं मतम् / हनिष्यामि च तं वीरं स वा मां निहनिष्यति // 30 तथास्त्राणि सुघोराणि विक्रमश्च महात्मनः // 16 बहुत्वान्मम कार्याणां तथा पार्थस्य पार्थिव / दुर्योधनं तदा दृष्ट्वा पाण्डवेन भृशार्दितम् / नाभूत्समागमो राजन्मम चैवार्जुनस्य च // 31 पराक्रान्तान्पाण्डुसुतान्दृष्ट्वा चापि महाहवे // 17 इदं तु मे यथाप्रज्ञं शृणु वाक्यं विशां पते / कर्णमाश्रित्य संग्रामे दो दुर्योधने पुनः / अनिहत्य रणे पार्थं नाहमेष्यामि भारत // 32 जेतुमुत्सहते पार्थान्सपुत्रान्सहकेशवान् // 18 हतप्रवीरे सैन्येऽस्मिन्मयि चैव स्थिते युधि / अहो बत महद्दुःखं यत्र पाण्डुसुतारणे / अभियास्यति मां पार्थः शक्रशक्त्या विनाकृतम् // नातरद्रभसः कर्णो देवं नूनं परायणम् / ततः श्रेयस्करं यत्ते तन्निबोध जनेश्वर / अहो द्यूतस्य निष्ठेयं घोरा संप्रति वर्तते // 19 आयुधानां च यद्वीयं द्रव्याणामर्जुनस्य च // 34 अहो दुःखानि तीव्राणि दुर्योधनकृतान्यहम् / कायस्य महतो भेदे लाघवे दूरपातने / सहिष्यामि सुघोराणि शल्यभूतानि संजय // 20 सौष्ठवे चास्त्रयोगे च सव्यसाची न मत्समः॥३५ * सौबलं च तथा तात नीतिमानिति मन्यते // 21 सर्वायुधमहामात्रं विजयं नाम तद्धनुः / युद्धेषु नाम दिव्येषु वर्तमानेषु संजय / इन्द्रार्थमभिकामेन निर्मितं विश्वकर्मणा // 36 अश्रौषं निहतान्पुत्रान्नित्यमेव च निर्जितान् // 22 | येन दैत्यगणाराजञ्जितवान्वै शतक्रतुः / न पाण्डवानां समरे कश्चिदस्ति निवारकः / यस्य घोषेण दैत्यानां विमुह्यन्ति दिशो दश / स्त्रीमध्यमिव गाहन्ति दैवं हि बलवत्तरम् // 23 तद्भार्गवाय प्रायच्छच्छक्रः परमसंमतम् // 37 संजय उवाच। तद्दिव्यं भार्गवो मह्यमददाद्धनुरुत्तमम् / अतिक्रान्तं हि यत्कार्यं पश्चाच्चिन्तयतीति च / येन योत्स्ये महाबाहुमर्जुनं जयतां वरम् / तञ्चास्य न भवेत्कार्यं चिन्तया च विनश्यति // 24 यथेन्द्रः समरे सर्वान्दैतेयान्वै समागतान् // 38 तदिदं तव कार्य तु दूरप्राप्तं विजानता। धनुर्पोरं रामदत्तं गाण्डीवात्तद्विशिष्यते / न कृतं यत्त्वया पूर्व प्राप्ताप्राप्तविचारणे // 25 त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी धनुषा तेन निर्जिता // 39 उक्तोऽसि बहुधा राजन्मा युध्यस्वेति पाण्डवैः।। धनुषो यस्य कर्माणि दिव्यानि प्राह भार्गवः / गृहीषे न च तन्मोहात्पाण्डवेषु विशां पते // 26 / तद्रामो ह्यददान्मह्यं येन योत्स्यामि पाण्डवम् // 40 त्वया पापानि घोराणि समाचीर्णानि पाण्डुषु / अद्य दुर्योधनाहं त्वां नन्दयिष्ये सबान्धवम् / त्वत्कृते वर्तते घोरः पार्थिवानां जनक्षयः // 27 निहत्य समरे वीरमर्जुनं जयतां वरम् / / 41 तत्त्विदानीमतिक्रम्य मा शुचो भरतर्षभ / सपर्वतवनद्वीपा हतद्विड् भूः ससागरा / - 1685 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 22. 42 ] महाभारते [8. 28.1 पुत्रपौत्रप्रतिष्ठा ते भविष्यत्यद्य पार्थिव // 42 एतत्कृतं महाराज त्वयेच्छामि परंतप / नासाध्यं विद्यते मेऽद्य त्वत्प्रियार्थ विशेषतः / एवं कृते कृतं मह्यं सर्वकामैर्भविष्यति // 57 सम्यग्धर्मानुरक्तस्य सिद्धिरात्मवतो यथा // 43 ततो द्रष्टासि समरे यत्करिष्यामि भारत / न हि मां समरे सोढुं स शक्तोऽग्निं तरुर्यथा। सर्वथा पाण्डवान्सर्वाओष्याम्यद्य समागतान् // 58 अवश्यं तु मया वाच्यं येन हीनोऽस्मि फल्गुनात् // दुर्योधन उवाच / ज्या तस्य धनुषो दिव्या तथाक्षय्यौ महेषुधी। सर्वमेतत्करिष्यामि यथा त्वं कर्ण मन्यसे / तस्य दिव्यं धनुः श्रेष्ठं गाण्डीवमजरं युधि // 45 सोपासङ्गा रथाः साश्वा अनुयास्यन्ति सूतज // 59 विजयं च महद्दिव्यं ममापि धनुरुत्तमम् / नाराचान्गार्धपक्षांश्च शकटानि वहन्तु ते / तत्राहमधिकः पार्थाद्धनुषा तेन पार्थिव // 46 अनुयास्याम कर्ण त्वां वयं सर्वे च पार्थिवाः // 60 मया चाभ्यधिको वीरः पाण्डवस्तन्निबोध मे। संजय उवाच / रश्मिग्राहश्च दाशार्हः सर्वलोकनमस्कृतः // 47 एवमुक्त्वा महाराज तव पुत्रः प्रतापवान् / अग्निदत्तश्च वै दिव्यो रथः काञ्चनभूषणः / अभिगम्याब्रवीद्राजा मद्रराजमिदं वचः // 61 अच्छेद्यः सर्वतो वीर वाजिनश्च मनोजवाः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ध्वजश्च दिव्यो द्युतिमान्वानरो विस्मयंकरः // 48 द्वाविंशतितमोऽध्यायः॥२२॥ कृष्णश्च स्रष्टा जगतो रथं तमभिरक्षति / एभिर्द्रव्यैरहं हीनो योद्भुमिच्छामि पाण्डवम् // 49 संजय उवाच / अयं तु सदृशो वीरः शल्यः समितिशोभनः। पुत्रस्तव महाराज मंद्रराजमिदं वचः / सारथ्यं यदि मे कुर्याद्भवस्ते विजयो भवेत् // 50 | विनयेनोपसंगम्य प्रणयाद्वाक्यमब्रवीत् // 1 तस्य मे सारथिः शल्यो भवत्वसुकरः परैः / सत्यव्रत महाभाग द्विषतामघवर्धन / नाराचान्गार्धपत्रांश्च शकटानि वहन्तु मे // 51 / / मद्रेश्वर रणे शूर परसैन्यभयंकर // 2 रथाश्च मुख्या राजेन्द्र युक्ता वाजिभिरुत्तमैः। श्रुतवानसि कर्णस्य ब्रुवतो वदतां वर / आयान्तु पश्चात्सततं मामेव भरतर्षभ // 52 यथा नृपतिसिंहानां मध्ये त्वां वरयत्ययम् / / 3 एवमभ्यधिकः पार्थाद्भविष्यामि गुणैरहम् / तस्मात्पार्थविनाशार्थ हितार्थं मम चैव हि / शल्यो ह्यभ्यधिकः कृष्णादर्जुनादधिको ह्यहम् // 53 सारथ्यं रथिनां श्रेष्ठ सुमनाः कर्तुमर्हसि // 4 यथाश्वहृदयं वेद दाशार्हः परवीरहा / अस्याभीशुग्रहो लोके नान्योऽस्ति भवता समः / तथा शल्योऽपि जानीते हयानां वै महारथः // 54 स पातु सर्वतः कर्णं भवान्ब्रह्मव शंकरम् // 5 बाहुवीर्ये समो नास्ति मद्रराजस्य कश्चन / पार्थस्य सचिवः कृष्णो यथाभीशुग्रहो वरः / तथास्त्रैर्मत्समो नास्ति कश्चिदेव धनुर्धरः // 55 तथा त्वमपि राधेयं सर्वतः परिपालय // 6 तथा शल्यसमो नास्ति हययाने ह कश्चन / / भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णो भवान्भोजश्च वीर्यवान सोऽयमभ्यधिकः पार्थाद्भविष्यति रथो मम // 56 / शकुनिः सौबलो द्रौणिरहमेव च नो बलम् / - 1686 - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 23. 7] कर्णपर्व [8. 23. 34 एषामेव कृतो भागो नवधा पृतनापते // 7 / कुलैश्वर्यश्रुतिबलैईप्तः शल्योऽब्रवीदिदम् // 20 नैव भागोऽत्र भीष्मस्य द्रोणस्य च महात्मनः / / अवमन्यसे मां गान्धारे ध्रुवं मां परिशङ्कसे / ताभ्यामतीत्य तौ भागौ निहता मम शत्रवः // 8 / यन्मां ब्रवीषि विस्रब्धं सारथ्यं क्रियतामिति // 21 वृद्धौ हि तौ नरव्याघौ छलेन निहतौ च तौ। अस्मत्तोऽभ्यधिकं कर्णं मन्यमानः प्रशंससि / कृत्वा नसुकरं कर्म गतौ स्वर्गमितोऽनघ // 9 / न चाहं युधि राधेयं गणये तुल्यमात्मना // 22 तथान्ये पुरुषव्याघ्राः परैर्विनिहता युधि / / आदिश्यतामभ्यधिको ममांशः पृथिवीपते / अस्मदीयाश्च बहवः स्वर्गायोपगता रणे / तमहं समरे हत्वा गमिष्यामि यथागतम् // 23 त्यक्त्वा प्राणान्यथाशक्ति चेष्टाः कृत्वा च पुष्कलाः॥ | अथ वाप्येक एवाहं योत्स्यामि कुरुनन्दन / कर्णो ह्येको महाबाहुरस्मत्प्रियहिते रतः। पश्य वीर्य ममाद्य त्वं संग्रामे दहतो रिपून // 24 भवांश्च पुरुषव्याघ्र सर्वलोकमहारथः। न चाभिकामान्कौरव्य विधाय हृदये पुमान् / तस्मिञ्जयाशा विपुला मम मद्रजनाधिप // 11 अस्मद्विधः प्रवर्तेत मा मा त्वमतिशङ्किथाः // 25 पार्थस्य समरे कृष्णो यथाभीशुवरग्रहः / युधि चाप्यवमानो मे न कर्तव्यः कथंचन / तेन युक्तो रणे पार्थो रक्ष्यमाणश्च पार्थिव / / पश्य हीमौ मम भुजौ वनसंहननोपमौ // 26 यानि कर्माणि कुरुते प्रत्यक्षाणि तथैव ते // 12 धनुः पश्य च मे चित्रं शरांश्चाशीविषोपमान / पूर्व न समरे ह्येवमवधीदर्जुनो रिपून् / रथं पश्य च मे क्लुप्तं सदश्वैर्वातवेगितैः / अहन्यहनि मद्रेश द्रावयन्दृश्यते युधि // 13 गदां च पश्य गान्धारे हेमपट्टविभूषिताम् // 27 भागोऽवशिष्टः कर्णस्य तव चैव महाद्युते / / दारयेयं महीं क्रुद्धो विकिरेयं च पर्वतान् / तं भागं सह कर्णेन युगपन्नाशयाहवे // 144 शोषयेयं समुद्रांश्च तेजसा स्वेन पार्थिव // 28 सूर्यारुणौ यथा दृष्ट्वा तमो नश्यति मारिष / तन्मामेवंविधं जानन्समर्थमरिनिग्रहे / तथा नश्यन्तु कौन्तेयाः सपाञ्चालाः ससृजयाः॥१५ कस्माद्युननि सारथ्ये न्यूनस्याधिरथेनृप / / 29 रयानां प्रवरः कर्णो यन्तॄणां प्रवरो भवान् / न नाम धुरि राजेन्द्र प्रयोक्तुं त्वमिहार्हसि / संनिपातः समो लोके भवतो स्ति कश्चन // 16 न हि पापीयसः श्रेयान्भूत्वा प्रेष्यत्वमुत्सहे // 30 यथा सर्वास्ववस्थासु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम् / यो ह्यभ्युपगतं प्रीत्या गरीयांसं वशे स्थितम् / तथा भवान्परित्रातु कणं वैकर्तनं रणे // 17 वशे पापीयसो धत्ते तत्पापमधरोत्तरम् // 31 त्वया सारथिना ह्येष अप्रधृष्यो भविष्यति / ब्राह्मणा ब्रह्मणा सृष्टा मुखात्क्षत्रमथोरसः। देवतानामपि रणे सशक्राणां महीपते / ऊरुभ्यामसृजद्वैश्याशूद्रान्पझ्यामिति श्रुतिः / किं पुनः पाण्डवेयानां मातिशङ्कीर्वचो मम // 18 तेभ्यो वर्णविशेषाश्च प्रतिलोमानुलोमजाः // 32 दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यः क्रोधसमन्वितः। अथान्योन्यस्य संयोगाचातुर्वर्ण्यस्य भारत / त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा धुन्वन्हस्तौ पुनः पुनः॥१९ / गोप्तारः संग्रहीतारो दातारः क्षत्रियाः स्मृताः॥३३ कोधरक्ते महानेत्रे परिवर्त्य महाभुजः / याजनाध्यापनैर्विप्रा विशुद्धैश्च प्रतिग्रहः / - 1687 - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 23. 34 ] महाभारते [8. 24.6 लोकस्यानुग्रहार्थाय स्थापिता ब्रह्मणा भुवि // 34 | भवानप्यधिकः कृष्णादश्वयाने बले तथा // 49 कृषिश्च पाशुपाल्यं च विशां दानं च सर्वशः।। यथाश्वहृदयं वेद वासुदेवो महामनाः / ब्रह्मक्षत्रविशां शुद्रा विहिताः परिचारकाः // 35 द्विगुणं त्वं तथा वेत्थ मद्रराज न संशयः // 50 ब्रह्मक्षत्रस्य विहिताः सूता वै परिचारकाः / शल्य उवाच। न विशूद्रस्य तत्रैव शृणु वाक्यं ममानघ // 36 यन्मा ब्रवीषि गान्धारे मध्ये सैन्यस्य कौरव / सोऽहं मूर्धावसिक्तः सन्राजर्षिकुलसंभवः / / विशिष्टं देवकीपुत्रात्प्रीतिमानस्म्यहं त्वयि // 51 महारथः समाख्यातः सेव्यः स्तव्यश्च बन्दिनाम् / / एष सारथ्यमातिष्ठे राधेयस्य यशस्विनः / . सोऽहमेतादृशो भूत्वा नेहारिकुलमर्दन / युध्यतः पाण्डवाग्र्येण यथा त्वं वीर मन्यसे // 5 // सूतपुत्रस्य संग्रामे सारथ्यं कर्तुमुत्सहे // 38 समयश्च हि मे वीर कश्चिद्वैकर्तनं प्रति / अवमानमहं प्राप्य न योत्स्यामि कथंचन / उत्सृजेयं यथाश्रद्धमहं वाचोऽस्य संनिधौ॥ 53 आपृच्छय त्वाद्य गान्धारे गमिष्यामि यथागतम् // संजय उवाच / एवमुक्त्वा नरव्याघ्रः शल्यः समितिशोभनः / तथेति राजन्पुत्रस्ते सह कर्णेन भारत / उत्थाय प्रययौ तूर्णं राजमध्यादमर्षितः // 40 अब्रवीन्मद्रराजस्य सुतं भरतसत्तम // 54 प्रणयाद्वहुमानाच्च तं निगृह्य सुतस्तव / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साम सर्वार्थसाधकम् // 41 . त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // यथा शल्य त्वमात्थेदमेवमेतदसंशयम् / अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं निबोध जनेश्वर // 42 दुर्योधन उवाच / न कर्णोऽभ्यधिकस्त्वत्तः शङ्के नैव कथंचन / भूय एव तु मद्रेश यत्ते वक्ष्यामि तच्छृणु। न हि मद्रेश्वरो राजा कुर्याद्यदनृतं भवेत् // 43 यथा पुरा वृत्तमिदं युद्धे देवासुरे विभो // 1 ऋतमेव हि पूर्वास्ते वहन्ति पुरुषोत्तमाः / यदुक्तवान्पितुर्मह्यं मार्कण्डेयो महानृषिः / तस्मादार्तायनिः प्रोक्तो भवानिति मतिर्मम // 44 तदशेषेण ब्रुवतो मम राजर्षिसत्तम / शल्यभूतश्च शत्रूणां यस्मात्त्वं भुवि मानद / / त्वं निबोध न चाप्यत्र कर्तव्या ते विचारणा॥ तस्माच्छल्येति ते नाम कथ्यते पृथिवीपते // 45 देवानामसुराणां च महानासीत्समागमः / यदेव व्याहृतं पूर्वं भवता भूरिदक्षिण / बभूव प्रथमो राजन्संग्रामस्तारकामयः / तदेव कुरु धर्मज्ञ मदर्थं यद्यदुच्यसे // 46 / निर्जिताश्च तदा दैत्या दैवतैरिति नः श्रुतम् / / 3 न च त्वत्तो हि राधेयो न चाहमपि वीर्यवान् / निर्जितेषु च दैत्येषु तारकस्य सुतास्त्रयः / वृणीमस्त्वां हयाग्र्याणां यन्तारमिति संयुगे // 47 ताराक्षः कमलाक्षश्च विद्युन्माली च पार्थिव // 1 यथा ह्यभ्यधिकं कर्णं गुणैस्तात धनंजयात् / तप उग्रं समास्थाय नियमे परमे स्थिताः / वासुदेवादपि त्वां च लोकोऽयमिति मन्यते // 48 तपसा कर्शयामासुदेहान्स्वाञ्शत्रुतापन / / 5 कर्णो ह्यभ्यधिकः पार्थादरेव नरर्षभ / दमेन तपसा चैव नियमेन च पार्थिव / - 1688 - 24 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 6] कर्णपर्व [8. 24. 32 तेषां पितामहः प्रीतो वरदः प्रददौ वरान् // 6 त्रयस्ते दैत्यराजानस्त्रील्लोकानाशु तेजसा / अवध्यत्वं च ते राजन्सर्वभूतेषु सर्वदा / आक्रम्य तस्थुर्वर्षाणां पूगानाम प्रजापतिः // 19 सहिता वरयामासुः सर्वलोकपितामहम् // 7 तेषां दानवमुख्यानां प्रयुतान्यर्बुदानि च / तानब्रवीत्तदा देवो लोकानां प्रभुरीश्वरः / कोट्यश्चाप्रतिवीराणां समाजग्मुस्ततस्ततः / नास्ति सर्वामरत्वं हि निवर्तध्वमतोऽसुराः / महदैश्वर्यमिच्छन्तस्त्रिपुरं दुर्गमाश्रिताः // 20 वरमन्यं वृणीध्वं वै यादृशं संप्ररोचते // 8 सर्वेषां च पुनस्तेषां सर्वयोगवहो मयः। ततस्ते सहिता राजन्संप्रधार्यासकृद्धहु। तमाश्रित्य हि ते सर्वे अवर्तन्ताकुतोभयाः // 21 सर्वलोकेश्वरं वाक्यं प्रणम्यैनमथाब्रुवन् // 9 यो हि यं मनसा कामं दध्यौ त्रिपुरसंश्रयः / अस्माकं त्वं वरं देव प्रयच्छेमं पितामह / तस्मै कामं मयस्तं तं विदधे मायया तदा / / 22 वयं पुराणि त्रीण्येव समास्थाय महीमिमाम् / तारकाक्षसुतश्चासीद्धरि म महाबलः। विचरिष्याम लोकेऽस्मिंस्त्वत्प्रसादपुरस्कृताः // 10 तपस्तेपे परमकं येनातुष्यत्पितामहः // 23 ततो वर्षसहस्रे तु समेष्यामः परस्परम् / स तुष्टमवृणोद्देवं वापी भवतु नः पुरे। एकीभावं गमिष्यन्ति पुराण्येतानि चानघ // 11 | शस्त्रैर्विनिहता यत्र क्षिप्ताः स्युर्बलवत्तराः // 24 समागतानि चैतानि यो हन्याद्भगवंस्तदा। स तु लब्ध्वा वरं वीरस्तारकाक्षसुतो हरिः / एकेषुणा देववरः स नो मृत्युभविष्यति / ससृजे तत्र वापी तां मृतानां जीवनी प्रभो॥२५ एवमस्त्विति तान्देवः प्रत्युक्त्वा प्राविशद्दिवम् // 12 येन रूपेण दैत्यस्तु येन वेषेण चैव ह। ते तु लब्धवराः प्रीताः संप्रधार्य परस्परम् / मृतस्तस्यां परिक्षिप्तस्तादृशेनैव जज्ञिवान् // 26 पुरत्रयविसृष्ट्यर्थं मयं वत्रुर्महासुरम् / तां प्राप्य त्रैपुरस्थास्तु सर्वाल्लोकान्बबाधिरे। विश्वकर्माणमजरं दैत्यदानवपूजितम् // 13 महता तपसा सिद्धाः सुराणां भयवर्धनाः / ततो मयः स्वतपसा चक्रे धीमान्पुराणि ह। न तेषामभवद्राजन्क्षयो युद्धे कथंचन // 27 त्रीणि काश्चनमेकं तु रौप्यं कार्णायसं तथा // 14 ततस्ते लोभमोहाभ्यामभिभूता विचेतसः / काश्चनं दिवि तत्रासीदन्तरिक्षे च राजतम् / निर्दीकाः संस्थितिं सर्वे स्थापितां समलूलुपन् // पायसं चाभवद्भूमौ चक्रस्थं पृथिवीपते // 15 विद्राव्य सगणान्देवांस्तत्र तत्र तदा तदा। एकैकं योजनशतं विस्तारायामसंमितम् / विचेरुः स्वेन कामेन वरदानेन दर्पिताः // 29 गृहाट्टाट्टालकयुतं बृहत्प्राकारतोरणम् / / 16 देवारण्यानि सर्वाणि प्रियाणि च दिवौकसाम् / गुणप्रसवसंबाधमसंबाधमनामयम् / ऋषीणामाश्रमान्पुण्यान्यूपाञ्जनपदांस्तथा। प्रासादैर्विविधैश्चैव द्वारैश्चाप्युपशोभितम् // 17 व्यनाशयन्त मर्यादा दानवा दुष्टचारिणः // 30 पुरेषु चाभवनराजनराजानो वै पृथक्पृथक् / ते देवाः सहिताः सर्वे पितामहमरिंदम / काञ्चनं तारकाक्षस्य चित्रमासीन्महात्मनः। अभिजग्मुस्तदाख्यातुं विप्रकार सुरेतरैः // 31 राजतं कमलाक्षस्य विद्युन्मालिन आयसम् / / 18 / ते तत्त्वं सर्वमाख्याय शिरसाभिप्रणम्य च / -1689 - म.भा. 212 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 32] महामारते [8. 24. 59 वधोपायमपृच्छन्त भगवन्तं पितामहम् // 32 विलोहिताय रुद्राय नीलग्रीवाय शूलिने // 46 श्रुत्वा तद्भगवान्देवो देवानिदमुवाच ह। अमोघाय मृगाक्षाय प्रवरायुधयोधिने / असुराश्च दुरात्मानस्ते चापि विबुधद्विषः। दुर्वारणाय शुक्राय ब्रह्मणे ब्रह्मचारिणे // 47 अपराध्यन्ति सततं ये युष्मान्पीडयन्त्युत // 33 ईशानायाप्रमेयाय नियत्रे चर्मवाससे / अहं हि तुल्यः सर्वेषां भूतानां नात्र संशयः / तपोनित्याय पिङ्गाय व्रतिने कृत्तिवाससे // 48 अधार्मिकास्तु हन्तव्या इत्यहं प्रब्रवीमि वः // 34 कुमारपित्रे त्र्यक्षाय प्रवरायुधधारिणे / / ते यूयं स्थाणुमीशानं जिष्णुमक्लिष्टकारिणम् / / प्रपन्नार्तिविनाशाय ब्रह्मद्विसंघघातिने // 49 योद्धारं वृणुतादित्याः स तान्हन्ता सुरेतरान् // 35 वनस्पतीनां पतये नराणां पतये नमः / इति तस्य वचः श्रुत्वा देवाः शक्रपुरोगमाः / गवां च पतये नित्यं यज्ञानां पतये नमः // 50 ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा वृषाङ्कं शरणं ययुः // 36 / / नमोऽस्तु ते ससैन्याय त्र्यम्बकायोग्रतेजसे / तपः परं समातस्थुर्गृणन्तो ब्रह्म शाश्वतम् / मनोवाकर्मभिर्देव त्वां प्रपन्नान्भजस्व नः // 51 ऋषिभिः सह धर्मज्ञा भवं सर्वात्मना गताः // 37 ततः प्रसन्नो भगवान्स्वागतेनाभिनन्द्य तान् / तुष्टुवुर्वाग्भिराभिर्भयेष्वभयकृत्तमम् / प्रोवाच व्येतु वस्त्रासो ब्रूत किं करवाणि वः // 52 सर्वात्मानं महात्मानं येनाप्तं सर्वमात्मना // 38 पितृदेवर्षिसंघेभ्यो वरे दत्ते महात्मना / तपोविशेषैर्बहुभिर्योगं यो वेद चात्मनः / सत्कृत्य शंकरं प्राह ब्रह्मा लोकहितं वचः // 53 यः सांख्यमात्मनो वेद यस्य चात्मा वशे सदा // तवातिसर्गादेवेश प्राजापत्यमिदं पदम् / ते तं ददृशुरीशानं तेजोराशिमुमापतिम् / मयाधितिष्ठता दत्तो दानवेभ्यो महान्वरः // 54 अनन्यसदृशं लोके व्रतवन्तमकल्मषम् // 40 तानतिक्रान्तमर्यादान्नान्यः संहर्तुमर्हति / एकं च भगवन्तं ते नानारूपमकल्पयन् / त्वामृते भूतभव्येश त्वं ह्येषां प्रत्यरिर्वधे // 55 आत्मनः प्रतिरूपाणि रूपाण्यथ महात्मनि / स त्वं देव प्रपन्नानां याचतां च दिवौकसाम् / परस्परस्य चापश्यन्सर्वे परमविस्मिताः // 41 कुरु प्रसादं देवेश दानवाञ्जहि शूलभृत् // 56 सर्वभूतमयं चेशं तमजं जगतः पतिम् / श्रीभगवानुवाच / देवा ब्रह्मर्षयश्चैव शिरोभिर्धरणीं गताः // 42 तास्वस्तिवाक्येनाभ्यर्च्य समुत्थाप्य च शंकरः / हन्तव्याः शत्रवः सर्वेः युष्माकमिति मे मतिः / न त्वेकोऽहं वधे तेषां समर्थो वै सुरद्विषाम् / / 5 ब्रूत ब्रूतेति भगवान्स्मयमानोऽभ्यभाषत // 43 त्र्यम्बकेणाभ्यनुज्ञातास्ततस्तेऽस्वस्थचेतसः / ते यूयं सहिताः सर्वे मदीयेनास्त्रतेजसा / नमो नमस्तेऽस्तु विभो तत इत्यब्रुवन्भवम् // 44 जयध्वं युधि ताशत्रून्संघातो हि महाबलः // 5 नमो देवातिदेवाय धन्विने चातिमन्यवे / देवा ऊचुः / प्रजापतिमखन्नाय प्रजापतिभिरीड्यसे // 45 / अस्मत्तेजोबलं यावत्तावहिगुणमेव च / नमः स्तुताय स्तुत्याय स्तूयमानाय मृत्यवे / / तेषामिति ह मन्यामो दृष्टतेजोबला हि ते // 5 - 1690 - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 60] कर्णपर्व [8. 24. 86 भगवानुवाच / द्यां युगं युगचर्माणि संवर्तकबलाहकान् // 72 वध्यास्ते सर्वतः पापा ये युष्मास्वपराधिनः / शम्यां धृतिं च मेधां च स्थितिं संनतिमेव च। मम तेजोबलार्धन सर्वांस्तान्नत शात्रवान् // 60 ग्रहनक्षत्रताराभिश्चर्म चित्रं नभस्तलम् / / 73 देवा ऊचुः / सुराम्बुप्रेतवित्तानां पतील्लोकेश्वरान्हयान् / बिभर्तुं तेजसोऽधं ते न शक्ष्यामो महेश्वर / / सिनीवालीमनुमतिं कुहूं राकां च सुव्रताम् / सर्वेषां नो बलार्धेन त्वमेव जहि शात्रवान् // 61 योक्त्राणि चक्रुर्वाहानां रोहकांश्चापि कण्ठकम् // 74 दुर्योधन उवाच। कर्म सत्यं तपोऽर्थश्च विहितास्तत्र रश्मयः / ततस्तथेति देवेशस्तैरुक्तो राजसत्तम / अधिष्ठानं मनस्त्वासीत्परिरथ्यं सरस्वती / / 75 अर्धमादाय सर्वेभ्यस्तेजसाभ्यधिकोऽभवत् // 62 नानावर्णाश्च चित्राश्च पताकाः पवनेरिताः / स तु देवो बलेनासीत्सर्वेभ्यो बलवत्तरः / विद्युदिन्द्रधनुनद्धं रथं दीप्तं व्यदीपयत् // 76 महादेव इति ख्यातस्तदाप्रभृति शंकरः // 63 एवं तस्मिन्महाराज कल्पिते रथसत्तमे। ततोऽब्रवीन्महादेवो धनुर्बाणधरस्त्वहम् / देवैर्मनुजशार्दूल द्विषतामभिमर्दने // 77 हनिष्यामि रथेनाजौ तान्रिपून्वै दिवौकसः // 64 स्वान्यायुधानि मुख्यानि न्यदधाच्छंकरो रथे। ते यूयं मे रथं चैव धनुर्बाणं तथैव च। रथयष्टिं वियत्कृष्टां स्थापयामास गोवृषम् // 78 पश्यध्वं यावदद्यैतान्पातयामि महीतले / / 65 ब्रह्मदण्डः कालदण्डो रुद्रदण्डस्तथा ज्वरः। देवा ऊचुः। परिस्कन्दा रथस्यास्य सर्वतोदिशमुद्यताः॥ 79 मूर्तिसर्वस्वमादाय त्रैलोक्यस्य ततस्ततः।। अथर्वाङ्गिरसावास्तां चक्ररक्षौ महात्मनः। रथं ते कल्पयिष्याम देवेश्वर महौजसम् // 66 ऋग्वेदः सामवेदश्च पुराणं च पुरःसराः // 80 तथैव बुद्ध्या विहितं विश्वकर्मकृतं शुभम् / इतिहासयजुर्वेदौ पृष्ठरक्षौ बभूवतुः। ततो विबुधशार्दूलास्तं रथं समकल्पयन् / / 67 दिव्या वाचश्च विद्याश्च परिपार्श्वचराः कृताः // 81 क्न्धुरं पृथिवीं देवीं विशालपुरमालिनीम् / तोत्रादयश्च राजेन्द्र वषट्कारस्तथैव च। सपर्वतवनद्वीपां चक्रुर्भूतधरां तदा // 68 ॐकारश्च मुखे राजन्नतिशोभाकरोऽभवत् // 82 मन्दरं पर्वतं चाक्षं जङ्घास्तस्य महानदीः / विचित्रमृतुभिः षभिः कृत्वा संवत्सरं धनुः / दिशश्च प्रदिशश्चैव परिवारं रथस्य हि // 69 तस्मान्नृणां कालरात्रिा कृता धनुषोऽजरा // 83 अनुकर्षान्ग्रहान्दीप्तान्वरूथं चापि तारकाः। इषुश्चाप्यभवद्विष्णुर्बलनः सोम एव च। धर्मार्थकामसंयुक्तं त्रिवेणुं चापि बन्धुरम् / अग्नीषोमौ जगत्कृत्स्नं वैष्णवं चोच्यते जगत् // 84 ओषधीविविधास्तत्र नानापुष्पफलोद्गमाः // 70 विष्णुश्चात्मा भगवतो भवस्यामिततेजसः। सूर्याचन्द्रमसौ कृत्वा चक्रे रथवरोत्तमे / तस्माद्धनासंस्पर्श न विषेहुर्हरस्य ते / / 85 पक्षौ पूर्वापरौ तत्र कृते रात्र्यहनी शुभे // 71 तस्मिञ्शरे तिग्ममन्युर्मुमोचाविषहं प्रभुः / दश नागपतीनीषां धृतराष्ट्रमुखान्दृढाम् / भृग्वङ्गिरोमन्युभवं क्रोधाग्निमतिदुःसहम् // 86 - 1691 - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 87] महाभारते [8. 24. 113 स नीललोहितो धूम्रः कृत्तिवासा भयंकरः। स देव युक्तो रथसत्तमो नो आदित्यायुतसंकाशस्तेजोज्वालावृतो ज्वलन् // 87 दुरावरो द्रावणः शात्रवाणाम् / दुश्यावश्यावनो जेता हन्ता ब्रह्मद्विषां हरः। पिनाकपाणिर्विहितोऽत्र योद्धा नित्यं त्राता च हन्ता च धर्माधर्माश्रिताञ्जनान् / विभीषयन्दानवानुद्यतोऽसौ // 102 प्रमाथिभिर्घोररूपैर्भीमोदप्रैर्गणैर्वृतः। तथैव वेदाश्चतुरो हयाग्र्या विभाति भगवान्स्थाणुस्तैरेवात्मगुणैर्वृतः // 89 धरा सशैला च रथो महात्मन् / तस्याङ्गानि समाश्रित्य स्थितं विश्वमिदं जगत् / नक्षत्रवंशोऽनुगतो वरूथे जङ्गमाजङ्गमं राजशुशुभेऽद्भुतदर्शनम् // 90 यस्मिन्योद्धा सारथिनाभिरक्ष्यः // 103 दृष्ट्वा तु तं रथं दिव्यं कवची स शरासनी। तत्र सारथिरेष्टव्यः सर्वैरेतैर्विशेषवान् / बाणमादत्त तं दिव्यं सोमविष्ण्वग्निसंभवम् // 91 तत्प्रतिष्ठो रथो देव हया योद्धा तथैव च / तस्य वाजांस्ततो देवाः कल्पयांचक्रिरे विभोः। कवचानि च शस्त्राणि कार्मुकं च पितामह // 104 पुण्यगन्धवहं राजश्वसनं राजसत्तम / / 92 त्वामृते सारथिं तत्र नान्यं पश्यामहे वयम् / तमास्थाय महादेवस्त्रासयन्दैवतान्यपि। त्वं हि सर्वैर्गुणैर्युक्तो देवताभ्योऽधिकः प्रभो। आरुरोह तदा यत्तः कम्पयन्निव रोदसी // 93 सारथ्ये तूर्णमारोह संयच्छ परमान्हयान् // 105 स शोभमानो वरदः खड्गी बाणी शरासनी / इति ते शिरसा नत्वा त्रिलोकेशं पितामहम् / ' हसन्निवाब्रवीद्देवो सारथिः को भविष्यति // 94 देवाः प्रसादयामासुः सारथ्यायेति नः श्रुतम् / / तमब्रुवन्देवगणा यं भवान्संनियोक्ष्यते। ब्रह्मोवाच / स भविष्यति देवेश सारथिस्ते न संशयः // 95 नात्र किंचिन्मृषा वाक्यं यदुक्तं वो दिवौकसः / तानब्रवीत्पुनर्देवो मत्तः श्रेष्ठतरो हि यः। संयच्छामि हयानेष युध्यतो वै कपर्दिनः // 10 // तं सारथिं कुरुध्वं मे स्वयं संचिन्त्य माचिरम् // 96 ततः स भगवान्देवो लोकस्रष्टा पितामहः / एतच्छत्वा ततो देवा वाक्यमुक्तं महात्मना।। सारथ्ये कल्पितो देवैरीशानस्य महात्मनः // 10 गत्वा पितामहं देवं प्रसाद्यैवं वचोऽब्रुवन् // 97 तस्मिन्नारोहति क्षिप्रं स्यन्दनं लोकपूजिते / देव त्वयेदं कथितं त्रिदशारिनिबर्हणम् / शिरोभिरगमंस्तूर्णं ते हया वातरंहसः // 109 तथा च कृतमस्माभिः प्रसन्नो वृषभध्वजः // 98 महेश्वरे त्वारुहति जानुभ्यामगमन्महीम् // 11 रथश्च विहितोऽस्माभिर्विचित्रायुधसंवृतः / अभीशून्हि त्रिलोकेशः संगृह्य प्रपितामहः / सारथिं तु न जानीमः कः स्यात्तस्मिन्रथोत्तमे॥९९ तानश्वांश्चोदयामास मनोमारुतरंहसः // 111 तस्माद्विधीयतां कश्चित्सारथिर्देवसत्तम / ततोऽधिरूढे वरदे प्रयाते चासुरान्प्रति / सफलां तां गिरं देव कर्तुमर्हसि नो विभो॥१०० साधु साध्विति विश्वेशः स्मयमानोऽभ्यभाषत // एवमस्मासु हि पुरा भगवन्नुक्तवानसि / याहि देव यतो दैत्याश्चोदयाश्वानतन्द्रितः / हितं कर्तास्मि भवतामिति तत्कर्तुमर्हसि // 101 पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य निघ्नतः शात्रवान्रणे // 11 - 1692 - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 114] कर्णपर्व [8. 24. 141 ततस्तांश्चोदयामास वायुवेगसमाञ्जवे / प्रमथ्य हन्यात्कौन्तेयं तथा शीघ्रं विधीयताम् / येन तत्रिपुरं राजन्दैत्यदानवरक्षितम् // 114 त्वयि कर्णश्च राज्यं च वयं चैव प्रतिष्ठिताः // 128 अथाधिज्यं धनुः कृत्वा शर्वः संधाय तं शरम् / इमं चाप्यपरं भूय इतिहासं निबोध मे। युक्त्वा पाशुपतास्त्रेण त्रिपुरं समचिन्तयत् // 115 पितुर्मम सकाशे यं ब्राह्मणः प्राह धर्मवित् // 129 तस्मिन्स्थिते तदा राजन्क्रुद्धे विधृतकार्मुके। श्रुत्वा चैतद्वचश्चित्रं हेतुकार्यार्थसंहितम् / पुराणि तानि कालेन जग्मुरेकत्वतां तदा / / 116 कुरु शल्य विनिश्चित्य मा भूदत्र विचारणा // 130 एकीभावं गते चैव त्रिपुरे समुपागते / भार्गवाणां कुले जातो जमदग्निर्महातपाः / बभूव तुमुलो हर्षो दैवतानां महात्मनाम् // 117 तस्य रामेति विख्यातः पुत्रस्तेजोगुणान्वितः॥१३१ ततो देवगणाः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः / स तीव्र तप आस्थाय प्रसादयितवान्भवम् / जयेति वाचो मुमुचुः संस्तुवन्तो मुदान्विताः // अनहेतोः प्रसन्नात्मा नियतः संयतेन्द्रियः // 132 ततोऽप्रतः प्रादुरभूत्रिपुरं जन्नुषोऽसुरान् / तस्य तुष्टो महादेवो भक्त्या च प्रशमेन च / अनिर्देश्योग्रवपुषो देवस्यासह्यतेजसः // 119 हृद्गतं चास्य विज्ञाय दर्शयामास शंकरः // 133 स तद्विकृष्य भगवान्दिव्यं लोकेश्वरो धनुः / ईश्वर उवाच। त्रैलोक्यसारं तमिधू मुमोच त्रिपुरं प्रति / राम तुष्टोऽस्मि भद्रं ते विदितं मे तवेप्सितम् / तत्सासुरगणं दग्ध्वा प्राक्षिपत्पश्चिमार्णवे // 120 कुरुष्व पूतमात्मानं सर्वमेतदवाप्स्यसि // 134 एवं तत्रिपुरं दग्धं दानवाश्चाप्यशेषतः / दास्यामि ते तदास्त्राणि यदा पूतो भविष्यसि / महेश्वरेण क्रुद्धेन त्रैलोक्यस्य हितैषिणा // 121 अपात्रमसमर्थं च दहन्त्यत्राणि भार्गव // 135 स चात्मक्रोधजो वह्निर्हाहेत्युक्त्वा निवारितः / इत्युक्तो जामदग्न्यस्तु देवदेवेन शूलिना / मा कार्भिस्मसाल्लोकानिति त्र्यक्षोऽब्रवीच्च तम् // प्रत्युवाच महात्मानं शिरसावनतः प्रभुम् // 136 ततः प्रकृतिमापन्ना देवा लोकास्तथर्षयः / यदा जानासि देवेश पात्रं मामस्त्रधारणे / तुष्टुवुर्वाग्भिरर्थ्याभिः स्थाणुमप्रतिमौजसम्॥१२३ तदा शुश्रूषतेऽस्त्राणि भवान्मे दातुमर्हति / / 137 तेऽनुज्ञाता भगवता जग्मुः सर्वे यथागतम् / दुर्योधन उवाच / कृतकामाः प्रसन्नेन प्रजापतिमुखाः सुराः // 124 ततः स तपसा चैव दमेन नियमेन च / यथैव भगवान्ब्रह्मा लोकधाता पितामहः / पूजोपहारबलिभि:ममत्रपुरस्कृतैः // 138 संयच्छ त्वं हयानस्य राधेयस्य महात्मनः // 125 आराधयितवाशर्वं बहून्वर्षगणांस्तदा। त्वं हि कृष्णाच्च कर्णाच्च फल्गुनाच्च विशेषतः। प्रसन्नश्च महादेवो भार्गवस्य महात्मनः // 139 विशिष्टो राजशार्दूल नास्ति तत्र विचारणा // 126 अब्रवीत्तस्य बहुशो गुणान्देव्याः समीपतः / युद्धे ह्ययं रुद्रकल्पस्त्वं च ब्रह्मसमोऽनघ / भक्तिमानेष सततं मयि रामो दृढव्रतः // 140 तस्माच्छक्तौ युवां जेतुं मच्छव॒स्ताविवासुरान् // | एवं तस्य गुणान्प्रीतो बहुशोऽकथयत्प्रभुः / यथा शल्याद्य कर्णोऽयं श्वेताश्वं कृष्णसारथिम् / / देवतानां पितृणां च समक्षमरिसूदनः // 141 -1693 - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 24. 142] महाभारते [8. 25.6 एतस्मिन्नेव काले तु दैत्या आसन्महाबलाः / लब्ध्वा बहुविधानरामः प्रणम्य शिरसा शिवम् // तैस्तदा दर्पमोहान्धैरबाध्यन्त दिवौकसः // 142 अनुज्ञां प्राप्य देवेशाज्जगाम स महातपाः / ततः संभूय विबुधास्तान्हन्तुं कृतनिश्चयाः / / एवमेतत्पुरावृत्तं तदा कथितवानृषिः // 156 चक्रुः शत्रुवधे यत्नं न शेकुर्जेतुमेव ते // 143 भार्गवोऽप्यददात्सर्वं धनुर्वेदं महात्मने / अभिगम्य ततो देवा महेश्वरमथाब्रुवन् / कर्णाय पुरुषव्याघ्र सुप्रीतेनान्तरात्मना // 157 प्रसादयन्तस्तं भक्त्या जहि शत्रुगणानिति॥ 144 वृजिनं हि भवेत्किचिद्यदि कर्णस्य पार्थिव / प्रतिज्ञाय ततो देवो देवतानां रिपुक्षयम् / नास्मै ह्यस्त्राणि दिव्यानि प्रादास्यभृगुनन्दनः / / रामं भार्गवमाहूय सोऽभ्यभाषत शंकरः // 145 नापि सूतकुले जातं कर्णं मन्ये कथंचन / रिपून्भार्गव देवानां जहि सर्वान्समागतान् / देवपुत्रमहं मन्ये क्षत्रियाणां कुलोद्भवम् // 159 लोकानां हितकामार्थं मत्प्रीत्यर्थं तथैव च // 146 सकुण्डलं सकवचं दीर्घबाहुं महारथम् / राम उवाच / कथमादित्यसदृशं मृगी व्याघ्र जनिष्यति // 160 अकृतास्त्रस्य देवेश का शक्तिर्मे महेश्वर / पश्य ह्यस्य भुजौ पीनौ नागराजकरोपमौ / निहन्तुं दानवान्सर्वान्कृताखान्युद्धदुर्मदान् // 147 वक्षः पश्य विशालं च सर्वशत्रुनिबर्हणम् // 161 ईश्वर उवाच / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि गच्छ त्वं मदनुध्यानान्निहनिष्यसि दानवान् / चतुर्विंशोऽध्यायः // 24 // विजित्य च रिपून्सर्वान्गुणान्प्राप्स्यसि पुष्कलान् // दुर्योधन उवाच। दुर्योधन उवाच / एतच्छ्रुत्वा च वचनं प्रतिगृह्य च सर्वशः / / एवं स भगवान्देवः सर्वलोकपितामहः। . रामः कृतस्वस्त्ययनः प्रययौ दानवान्प्रति // 149 / सारथ्यमकरोत्तत्र यत्र रुद्रोऽभवद्रथी // 1 अवधीदेवशāस्तान्मददर्पबलान्वितान् / रथिनाभ्यधिको वीरः कर्तव्यो रथसारथिः / वनाशनिसमस्पर्शीः प्रहारैरेव भार्गवः // 150 तस्मात्त्वं पुरुषव्याघ्र नियच्छ तुरगान्युधि // 2 स दानवैः क्षततनुर्जामदग्यो द्विजोत्तमः / . संजय उवाच / संस्पृष्टः स्थाणुना सद्यो निर्बणः समजायत // 151 ततः शल्यः परिष्वज्य सुतं ते वाक्यमब्रवीत् / / प्रीतश्च भगवान्देवः कर्मणा तेन तस्य वै। दुर्योधनममित्रघ्नः प्रीतो मद्राधिपस्तदा // 3 परान्प्रादाद्ब्रह्मविदे भार्गवाय महात्मने // 152 एवं चेन्मन्यसे राजन्गान्धारे प्रियदर्शन / उक्तश्च देवदेवेन प्रीतियुक्तेन शूलिना। तस्मात्ते यत्प्रियं किंचित्तत्सर्वं करवाण्यहम् // 4 निपातात्तव शस्त्राणां शरीरे याभवद्रुजा // 153 यत्रास्मि भरतश्रेष्ठ योग्यः कर्मणि कर्हि चित् / तया ते मानुषं कर्म व्यपोढं भृगुनन्दन / तत्र सर्वात्मना युक्तो वक्ष्ये कार्यधुरं तव // 5 गृहाणास्त्राणि दिव्यानि मत्सकाशाद्यथेप्सितम् // यत्तु कर्णमहं ब्रूयां हितकामः प्रियाप्रियम् / ततोऽस्त्राणि समस्तानि वरांश्च मनसेप्सितान् / मम तत्क्षमतां सर्वं भवान्कर्णश्च सर्वशः // 6 - 1694 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 25. 7] कर्णपर्व [8. 26. 22 कर्ण उवाच। विधिवत्कल्पितं भर्ने जयेत्युक्त्वा न्यवेदयत् // 7 ईशानस्य यथा ब्रह्मा यथा पार्थस्य केशवः / तं रथं रथिनां श्रेष्ठः कर्णोऽभ्यर्च्य यथाविधि / तथा नित्यं हिते युक्तो मद्रराज भजस्व नः // 7 संपादितं ब्रह्मविदा पूर्वमेव पुरोधसा // 8 शल्य उवाच / कृत्वा प्रदक्षिणं यत्नादुपस्थाय च भास्करम् / आत्मनिन्दात्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः / समीपस्थं मद्रराजं समारोपयदग्रतः // 9 अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम् // 8 ततः कर्णस्य दुर्धर्षं स्यन्दनप्रवरं महत् / यत्तु विद्वन्प्रवक्ष्यामि प्रत्ययार्थमहं तव / आरुरोह महातेजाः शल्यः सिंह इवाचलम् // 10 आत्मनः स्तवसंयुक्तं तन्निबोध यथातथम् // 9 ततः शल्यास्थितं राजन्कर्णः स्वरथमुत्तमम् / अहं शक्रस्य सारथ्ये योग्यो मातलिवत्प्रभो / अध्यतिष्ठयथाम्भोदं विद्युत्वन्तं दिवाकरः // 11 अप्रमादप्रयोगाच्च ज्ञातविद्याचिकित्सितैः // 10 तावेकरथमारूढावादित्याग्निसमत्विषौ। ततः पार्थेन संग्रामे युध्यमानस्य तेऽनघ / व्यभ्राजेतां यथा मेघ सूर्याग्नी सहितौ दिवि // 12 वाहयिष्यामि तुरगान्विज्वरो भव सूतज // 11 संस्तूयमानौ तौ वीरौ तदास्तां द्युतिमत्तरौ / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ऋत्विक्सदस्यैरिन्द्राग्नी हूयमानाविवाध्वरे // 13 - पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // स शल्यसंगृहीताश्वे रथे कर्णः स्थितोऽभवत् / धनुर्विस्फारयन्घोरं परिवेषीव भास्करः // 14 - दुर्योधन उवाच / आस्थितः स रथश्रेष्ठं कर्णः शरगभस्तिमान् / अयं ते कर्ण सारथ्यं मद्रराजः करिष्यति / प्रबभौ पुरुषव्याघ्रो मन्दरस्थ इवांशुमान् // 15 कृष्णादभ्यधिको यन्ता देवेन्द्रस्येव मातलिः // 1 तं रथस्थं महावीरं यान्तं चामिततेजसम् / यथा हरिहयैर्युक्तं संगृह्णाति स मातलिः / दुर्योधनः स्म राधेयमिदं वचनमब्रवीत् // 16 शल्यस्तव तथाद्यायं संयन्ता रथवाजिनाम् // 2 अकृतं द्रोणभीष्माभ्यां दुष्करं कर्म संयुगे / योघे त्वयि रथस्थे च मद्रराजे च सारथौ। कुरुष्वाधिरथे वीर मिषतां सर्वधन्विनाम् / / 17 रथश्रेष्ठो ध्रुवं संख्ये पार्थो नाभिभविष्यति // 3 मनोगतं मम ह्यासीद्भीष्मद्रोणौ महारथौ / संजय उवाच / अर्जुनं भीमसेनं च निहन्ताराविति ध्रुवम् // 18 ततो दुर्योधनो भूयो मद्रराजं तरस्विनम् / ताभ्यां यदकृतं वीर वीरकर्म महामृधे / उवाच राजन्संग्रामे संयच्छन्तं हयोत्तमान् // 4 तत्कर्म कुरु राधेय वज्रपाणिरिवापरः // 19 त्वयामिगुप्तो राधेयो विजेष्यति धनंजयम् / गृहाण धर्मराजं वा जहि वा त्वं धनंजयम् / इत्युक्तो रथमास्थाय तथेति प्राह भारत // 5 भीमसेनं च राधेय माद्रीपुत्रौ यमावपि // 20 शल्येऽभ्युपगते कर्णः सारथिं सुमनोऽब्रवीत् / जयश्च तेऽस्तु भद्रं च प्रयाहि पुरुषर्षभ / खं सूत स्यन्दनं मह्यं कल्पयेत्यसकृत्त्वरन् // 6 पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि कुरु सर्वाणि भस्मसात् / / 21 ततो जैत्रं रथवरं गन्धर्वनगरोपमम् / / ततस्तूर्यसहस्राणि भेरीणामयुतानि च / -1695 - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 26. 22 ] महाभारते [8. 26. 44 वाद्यमानान्यरोचन्त मेघशब्दा यथा दिवि // 22 अपसव्यं तदा चक्रुर्वेदयन्तो महद्भयम् // 35 प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं रथस्थो रथसत्तमः / प्रस्थितस्य च कर्णस्य निपेतुस्तुरगा भुवि / अभ्यभाषत राधेयः शल्यं युद्धविशारदम् // 23 अस्थिवर्ष च पतितमन्तरिक्षाद्भयानकम् // 36 चोदयाश्वान्महाबाहो यावद्धन्मि धनंजयम् / जज्वलुश्चैव शस्त्राणि ध्वजाश्चैव चकम्पिरे / भीमसेनं यमौ चोभी राजानं च युधिष्ठिरम् // 24 अश्रूणि च व्यमुश्चन्त वाहनानि विशां पते // 37 अद्य पश्यतु मे शल्य बाहुवीर्यं धनंजयः / एते चान्ये च बहव उत्पातास्तत्र मारिष / अस्यतः कङ्कपत्राणां सहस्राणि शतानि च // 25 समुत्पेतुर्विनाशाय कौरवाणां सुदारुणाः / / 38 अद्य क्षेप्स्याम्यहं शल्य शरान्परमतेजनान् / न च तान्गणयामासुः सर्वे ते दैवमोहिताः / पाण्डवानां विनाशाय दुर्योधनजयाय च // 26 प्रस्थितं सूतपुत्रं च जयेत्यूचुनरा भुवि / शल्य उवाच। निर्जितान्पाण्डवांश्चैव मेनिरें तव कौरवाः // 39 सूतपुत्र कथं नु त्वं पाण्डवानवमन्यसे / ततो रथस्थः परवीरहन्ता सर्वास्त्रज्ञान्महेष्वासान्सर्वानेव महारथान् // 27 भीष्मद्रोणावात्तवीर्यो निरीक्ष्य / अनिवर्तिनो महाभागानजेयान्सत्यविक्रमान् / समज्वलद्भारत पावकाभो अपि संजनयेयुर्ये भयं साक्षाच्छतक्रतोः // 28 वैकर्तनोऽसौ रथकुञ्जरो वृषः // 40 यदा श्रोष्यसि निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः / स शल्यमाभाष्य जगाद वाक्यं राधेय गाण्डिवस्याजौ तदा नैवं वदिष्यसि // 29 ___ पार्थस्य कर्माप्रतिमं च दृष्ट्वा / संजय उवाच। मानेन दर्पण च दह्यमानः अनादृत्य तु तद्वाक्यं मद्रराजेन भाषितम् / - क्रोधेन दीप्यन्निव निःश्वसित्वा // 41 द्रक्ष्यस्यद्येत्यवोचद्वै शल्यं कर्णो नरेश्वर // 30 नाहं महेन्द्रादपि वज्रपाणेः दृष्ट्वा कणं महेष्वासं युयुत्सुं समवस्थितम् / क्रुद्धाद्विभेम्यात्तधनू रथस्थः / चुक्रुशुः कुरवः सर्वे हृष्टरूपाः परंतप // 31 * दृष्ट्वा तु भीष्मप्रमुखाशयानाततो दुन्दुभिघोषेण भेरीणां निनदेन च / न त्वेव मां स्थिरता संजहाति // 42 बाणशब्दैश्च विविधैर्गर्जितैश्च तरस्विनाम् / महेन्द्रविष्णुप्रतिमावनिन्दितौ निर्ययुस्तावका युद्धे मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 32 रथाश्वनागप्रवरप्रमाथिनौ। प्रयाते तु ततः कर्णे योधेषु मुदितेषु च / अवध्यकल्पौ निहतौ यदा परैचचाल पृथिवी राजन्ररास च सुविस्वरम् // 33 स्ततो ममाद्यापि रणेऽस्ति साध्वसम् // 43 निश्चरन्तो व्यदृश्यन्त सूर्यात्सप्त महाग्रहाः / समीक्ष्य संख्येऽतिबलान्नराधिपैउल्कापातश्च संजज्ञे दिशा दाहस्तथैव च / नराश्वमातङ्गरथाशरैर्हतान् / तथाशन्यश्च संपेतुर्ववुर्वाताश्च दारुणाः // 34 कथं न सर्वानहितान्रणेऽवधीमृगपक्षिगणाश्चैव बहुशः पृतनां तव / न्महास्त्रविद्ाह्मणपुंगवो गुरुः // 44 - 1696 - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 26. 45] कर्णपर्व [8. 26.58 स संस्मरन्द्रोणहवं महाहवे तान्वा हनिष्यामि समेत्य संख्ये ब्रवीमि सत्यं कुरवो निबोधत / ___ यास्यामि वा द्रोणमुखाय मन्ये // 52 न वो मदन्यः प्रसहेद्रणेऽर्जुन न त्वेवाहं न गमिष्यामि मध्यं क्रमागतं मृत्युमिवोग्ररूपिणम् // 45 तेषां शूराणामिति मा शल्य विद्धि / शिक्षा प्रसादश्च बलं धृतिश्च मित्रद्रोहो मर्षणीयो न मेऽयं द्रोणे महास्त्राणि च संनतिश्च / ___ त्यक्त्वा प्राणाननुयास्यामि द्रोणम् / / 53 स चेदगान्मृत्युवशं महात्मा प्राज्ञस्य मूढस्य च जीवितान्ते ___ सर्वानन्यानातुरानद्य मन्ये // 46 प्राणप्रमोक्षोऽन्तकवक्त्रगस्य / नेह ध्रुवं किंचिदपि प्रचिन्त्यं अतो विद्वन्नभियास्यामि पार्थ विदुलॊके कर्मणोऽनित्ययोगात् / दिष्टं न शक्यं व्यतिवर्तितुं वै // 54 सूर्योदये को हि विमुक्तसंशयो कल्याणवृत्तः सततं हि राजगवं कुर्वीताद्य गुरौ निपातिते // 47 न्वैचित्रवीर्यस्य सुतो ममासीत् / न नूनमस्त्राणि बलं पराक्रमः तस्यार्थसिद्धयर्थमहं त्यजामि क्रिया सुनीतं परमायुधानि वा। प्रियान्भोगान्दुस्त्यजं जीवितं च // 55 अलं मनुष्यस्य सुखाय वर्तितुं वैयाघ्रचर्माणमकूजनाक्षं तथा हि युद्धे निहतः परैर्गुरुः // 48 हैमत्रिकोशं रजतत्रिवेणुम् / हुताशनादित्यसमानतेजसं रथप्रबहं तुरगप्रबहैंपराक्रमे विष्णुपुरंदरोपमम् / युक्तं प्रादान्मह्यमिदं हि रामः // 56 नये बृहस्पत्युशनःसमं सदा धनूंषि चित्राणि निरीक्ष्य शल्य . ' न चैनमस्त्रं तदपात्सुदुःसहम् // 49 ___ध्वजं गदां सायकांश्चोग्ररूपान् / संप्रक्रुष्टे रुदितस्त्रीकुमारे असिं च दीप्तं परमायुधं च पराभूते पौरुषे धार्तराष्ट्रे / शङ्ख च शुभ्रं स्वनवन्तमुग्रम् // 57 मया कृत्यमिति जानामि शल्य पताकिनं वज्रनिपातनिस्वनं प्रयाहि तस्माहिषतामनीकम् // 50 सिताश्वयुक्तं शुभतूणशोभितम् / यत्र राजा पाण्डवः सत्यसंधो इमं समास्थाय रथं रथर्षभं ' व्यवस्थितो भीमसेनार्जुनौ च / रणे हनिष्याम्यहमर्जुनं बलात् // 58 वासुदेवः सृञ्जयाः सात्यकिश्च तं चेन्मृत्युः सर्वहरोऽभिरक्षते यमौ च कस्तो विषहेन्मदन्यः // 51 सदाप्रमत्तः समरे पाण्डुपुत्रम् / तस्मारिक्षप्रं मद्रपते प्रयाहि तं वा हनिष्यामि समेत्य युद्धे * रणे पाञ्चालान्पाण्डवान्सृञ्जयांश्च / यास्यामि वा भीष्ममुखो यमाय // 59 भा. 213 - 1697 - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 26. 60] महाभारते [8. 26. 74 यमवरुणकुबेरवासवा वा स्मरसि ननु यदा प्रमोचिताः यदि युगपत्सगणा महाहवे। खचरगणानवजित्य पाण्डवैः // 67 जुगुपिषव इहैत्य पाण्डवं समुदितबलवाहनाः पुनः __ किमु बहुना सह तैर्जयामि तम् // 60 पुरुषवरेण जिताः स्थ गोग्रहे। इति रणरभसस्य कत्थत सगुरुगुरुसुताः सभीष्मकाः स्तदुपनिशम्य वचः स मद्रराट् / किमु न जितः स तदा त्वयार्जुनः॥ 6 अवहसदवमन्य वीर्यवा इदमपरमुपस्थितं पुनन्प्रतिषिषिधे च जगाद चोत्तरम् / / 61 __ स्तव निधनाय सुयुद्धमद्य वै / विरम विरम कर्ण कत्थना यदि न रिपुभयात्पलायसे दतिरभसोऽस्यति चाप्ययुक्तवाक् / समरगतोऽद्य हतोऽसि सूतजं // 69 क च हि नरवरो धनंजयः संजय उवाच / क पुनरिह त्वमुपारमाबुध // 62 इति बहुपरुषं प्रभाषति यदुसदनमुपेन्द्रपालितं ___ प्रमनसि मद्रपतौ रिपुस्तवम् / त्रिदिवमिवामरराजरक्षितम् / / भृशमतिरुषितः परं वृषः प्रसभमिह विलोक्य को हरे कुरुपृतनापतिराह मद्रपम् // 70 त्पुरुषवरावरजामृतेऽर्जुनात् / / 63 त्रिभुवनसृजमीश्वरेश्वरं भवतु भवतु किं विकत्थसे क इह पुमान्भवमाह्वयेधुधि। . ननु मम तस्य च युद्धमुद्यतम् / मृगवधकलहे ऋतेऽर्जुना यदि स जयति मां महाहवे सुरपतिवीर्यसमप्रभाक्तः // 64 तत इदमस्तु सुकत्थितं तव // 71 असुरसुरमहोरगान्नरा एवमस्त्विति मद्रेश उक्त्वा नोत्तरमुक्तवान् / नगरुडपिशाचसयक्षराक्षसान् / याहि मद्रेश चाप्येनं कर्णः प्राह युयुत्सया // 5 इषुभिरजयदग्निगौरवा स रथः प्रययौ शत्रूश्वेताश्वः शल्यसारथिः / स्वभिलषितं च हविर्ददौ जयः // 65 निघ्नन्नमित्रान्समरे तमो नन्सविता यथा // 7 स्मरसि ननु यदा परैर्हतः ततः प्रायात्प्रीतिमान्वै रथेन स च धृतराष्ट्रसुतो विमोक्षितः / वैयाण श्वेतयुजाथ कर्णः। दिनकरज नरोत्तमैर्यदा स चालोक्य ध्वजिनी पाण्डवानां मरुषु बहून्विनिहत्य तानरीन् // 66 धनंजयं त्वरया पर्यपृच्छत् // 74 प्रथममपि पलायिते त्वयि इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि प्रियकलहा धृतराष्ट्रसूनवः / षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ - 1698 - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 27. 1] कर्णपर्व [8. 27. 28 27 दुर्योधनो महाराज प्रहृष्टः सानुगोऽभवत् // 14 संजय उवाच / ततो दुन्दुभिनिर्घोषो मृदङ्गानां च सर्वशः / प्रयानेव तदा कर्णो हर्षयन्वाहिनीं तव / सिंहनादः सवादित्रः कुञ्जराणां च निस्वनः // 15 एकैकं समरे दृष्ट्वा पाण्डवं पर्यपृच्छत // 1 प्रादुरासीत्तदा राजंस्त्वत्सैन्ये भरतर्षभ / यो ममाद्य महात्मानं दर्शयेच्छेतवाहनम् / योधानां संप्रहृष्टानां तथा समभवत्स्वनः // 16 तस्मै दद्यामभिप्रेतं वरं यं मनसेच्छति // 2 तथा प्रहृष्टे सैन्ये तु प्लवमानं महारथम् / स चेत्तदभिमन्येत तस्मै दद्यामहं पुनः / विकत्थमानं समरे राधेयमरिकर्शनम् / शकटं रत्नसंपूर्ण यो मे याद्धनंजयम् // 3 मद्रराजः प्रहस्येदं वचनं प्रत्यभाषत // 17 स चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान् / मा सूतपुत्र मानेन सौवर्णं हस्तिषड्गवम् / अन्यं तस्मै पुनर्दद्यां सौवर्णं हस्तिषड्गवम् // 4 प्रयच्छ पुरुषायाद्य द्रक्ष्यसि त्वं धनंजयम् // 18 तथा तस्मै पुनर्दद्यां स्त्रीणां शतमलंकृतम् / बाल्यादिव त्वं त्यजसि वसु वैश्रवणो यथा / श्यामानां निष्ककण्ठीनां गीतवाद्यविपश्चिताम् // 5 अयत्नेनैव राधेय द्रष्टास्यद्य धनंजयम् // 19 स चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान् / परासृजसि मिथ्या किं किं च त्वं बहु मूढवत् / भन्यं तस्मै वरं दद्यां श्वेतान्पश्चशतान्हयान् // 6 अपात्रदाने ये दोषास्तान्मोहान्नावबुध्यसे / 20 हेमभाण्डपरिच्छन्नान्सुमृष्टमणिकुण्डलान् / यत्प्रवेदयसे वित्तं बहुत्वेन खलु त्वया / सुदान्तानपि चैवाहं दद्यामष्टशतान्परान् / / 7 शक्यं बहुविधैर्यज्ञैर्यष्टुं सूत यजस्व तैः / / 21 रयं च शुभ्रं सौवर्णं दद्यां तस्मै स्वलंकृतम् / यच्च प्रार्थयसे हन्तुं कृष्णौ मोहान्मृषैव तत् / युक्तं परमकाम्बोजैर्यो मे याद्धनंजयम् // 8 न हि शुश्रुम संमर्दे क्रोष्ट्रा सिंहौ निपातिता // 22 अन्यं तस्मै वरं दद्यां कुञ्जराणां शतानि षट् / अप्रार्थितं प्रार्थयसे सुहृदो न हि सन्ति ते / काश्चनैर्विविधैर्भाण्डैराच्छन्नान्हेममालिनः / ये त्वां न वारयन्त्याशु प्रपतन्तं हुताशने // 23 उत्पमानपरान्तेषु विनीतान्हस्तिशिक्षकैः // 9 कालकार्यं न जानीषे कालपक्कोऽस्यसंशयम् / स चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान् / बह्वबद्धमकर्णीयं को हि ब्रूयाज्जिजीविषुः // 24 अन्यं तस्मै वरं दद्यां यमसी कामयेत्स्वयम् // 10 समुद्रतरणं दोभ्या कण्ठे बद्धा यथा शिलाम् / पुत्रदारान्विहारांश्च यदन्यद्वित्तमस्ति मे। गिर्यग्राद्वा निपतनं तादृक्तव चिकीर्षितम् // 25 सब तस्मै पुनर्दद्यां यद्यत्स मनसेच्छति // 11 सहितः सर्वयोधैस्त्वं व्यूढानीकैः सुरक्षितः / / हत्वा च सहितौ कृष्णौ तयोवित्तानि सर्वशः / धनंजयेन युध्यस्व श्रेयश्चेत्प्राप्तुमिच्छसि // 26 तस्मै दद्यामहं यो मे प्रब्रूयात्केशवार्जुनौ // 12 हितार्थ धार्तराष्ट्रस्य ब्रवीमि त्वा न हिंसया / एता वाचः सुबहुशः कर्ण उच्चारयन्युधि / श्रद्धत्स्वैतन्मया प्रोक्तं यदि तेऽस्ति जिजीविषा // 27 दध्मौ सागरसंभूतं सुस्वनं शङ्खमुत्तमम् // 13 कर्ण उवाच / ख वाचः सूतपुत्रस्य तथा युक्ता निशम्य तु / स्ववीर्येऽहं पराश्वस्य प्रार्थयाम्यर्जुनं रणे / - 1699 - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 27. 28 ] महाभारते [ 8. 27. 51 त्वं तु मित्रमुखः शत्रुर्मा भीषयितुमिच्छसि // 28 / ईषादन्तं महानागं प्रभिन्नकरटामुखम् / न मामस्मादभिप्रायात्कश्चिदद्य निवर्तयेत् / शशकाह्वयसे युद्धे कर्ण पार्थं धनंजयम् // 37 अपीन्द्रो वज्रमुद्यम्य किं नु मर्त्यः करिष्यति // 29 बिलस्थं कृष्णसर्प त्वं बाल्यात्काष्ठेन विध्यसि / संजय उवाच / महाविषं पूर्णकोशं यत्पार्थं योद्धुमिच्छसि // 38 इति कर्णस्य वाक्यान्ते शल्यः प्राहोत्तरं वचः / सिंहं केसरिणं क्रुद्धमतिक्रम्याभिनर्दसि / चुकोपयिषुरत्यर्थं कर्ण मद्रेश्वरः पुनः // 30 सृगाल इव मूढत्वान्नासिंहं कर्ण पाण्डवम् / / 39 यदा वै त्वां फल्गुनवेगनुन्ना सुपर्णं पतगश्रेष्ठं वैनतेयं तरस्विनम् / ज्याचोदिता हस्तवता विसृष्टाः / लटेवाह्वयसे पाते कर्ण पार्थ धनंजयम् // 40 अन्वेतारः कङ्कपत्राः शिताग्रा सर्वाम्भोनिलयं भीममूर्मिमन्तं झषायुतम् / स्तदा तप्स्यस्यर्जुनस्याभियोगात् // 31 चन्द्रोदये विवर्तन्तमप्लवः संतितीर्षसि // 41 यदा दिव्यं धनुरादाय पार्थः ऋषभं दुन्दुभिग्रीवं तीक्ष्णशृङ्गं प्रहारिणम् / प्रभासयन्पृतनां सव्यसाची / वत्स आह्वयसे युद्धे कर्ण पाथं धनंजयम् // 42 त्वामर्दयेत निशितैः पृषत्कै महाघोषं महामेघं दर्दुरः प्रतिनर्दसि / स्तदा पश्चात्तप्स्यसे सूतपुत्र / / 32 कामतोयप्रदं लोके नरपर्जन्यमर्जुनम् / / 43 बालश्चन्द्रं मातुरङ्के शयानो यथा च स्वगृहस्थः श्वा व्याघ्रं वनगतं भषेत् / यथा कश्चित्प्रार्थयतेऽपहर्तुम् / तथा त्वं भषसे कर्ण नरव्याघ्र धनंजयम् // 44 तद्वन्मोहाद्यतमानो रथस्थ सृगालोऽपि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन् / स्त्वं प्रार्थयस्यर्जुनमद्य जेतुम् // 33 मन्यते सिंहमात्मानं यावत्सिहं न पश्यति // 45 त्रिशूलमाश्लिष्य सुतीक्ष्णधारं तथा त्वमपि राधेय सिंहमात्मानमिच्छसि / सर्वाणि गात्राणि निघर्षसि त्वम् / अपश्यञ्शत्रुदमनं नरव्याघ्र धनंजयम् // 46 सुतीक्ष्णधारोपमकर्मणा त्वं व्याघ्रं त्वं मन्यसेऽऽत्मानं यावत्कृष्णौ न पश्यसि / युयुत्ससे योऽर्जुनेनाद्य कर्ण // 34 समास्थितावेकरथे सूर्याचन्द्रमसाविव // 47 सिद्धं सिंह केसरिणं बृहन्तं यावद्गाण्डीवनिर्घोषं न शृणोषि महाहवे। बालो मूढः क्षुद्रमृगस्तरस्वी। तावदेव त्वया कर्ण शक्यं वक्तुं यथेच्छसि / 48 समाह्वयेत्तद्वदेतत्तवाद्य रथशब्दधनुःशब्दैर्नादयन्तं दिशो दश / समाह्वानं सूतपुत्रार्जुनस्य // 35 नर्दन्तमिव शार्दूलं दृष्ट्वा क्रोष्टा भविष्यसि // 49 मा सूतपुत्राय राजपुत्रं नित्यमेव सगालस्त्वं नित्यं सिंहो धनंजयः / __ महावीर्य केसरिणं यथैव / वीरप्रद्वेषणान्मूढ नित्यं क्रोष्टेव लक्ष्यसे // 50 वने सृगालः पिशितस्य तृप्तो यथाखुः स्याद्विडालश्च श्वा व्याघ्रश्च बलाबले / मा पार्थमासाद्य विनवयसि त्वम् // 36 यथा सृगालः सिंहश्च यथा च शशकुञ्जरौ॥ 51 - 1700 - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 27. 52] कर्णपर्व [8. 27. 80 यथानृतं च सत्यं च यथा चापि विषामृते। त्वं तु दुष्प्रकृतिर्मूढो महायुद्धेष्वकोविदः / तथा त्वमपि पार्थश्च प्रख्यातावात्मकर्मभिः // 52 / भयावतीर्णः संत्रासादबद्धं बहु भाषसे / / 66 संजय उवाच / संस्तौषि त्वं तु केनापि हेतुना तौ कुदेशज / अधिक्षिप्तस्तु राधेयः शल्येनामिततेजसा / तौ हत्वा समरे हन्ता त्वामद्धा सहबान्धवम् // 67 शल्यमाह सुसंक्रुद्धो वाक्शल्यमवधारयन् // 53 / / पापदेशज दुर्बुद्धे क्षुद्र क्षत्रियपांसन / गुणान्गुणवतः शल्य गुणवान्वेत्ति नागुणः / सुहृद्भूत्वा रिपुः किं मां कृष्णाभ्यां भीषयन्नसि॥६८ त्वं तु नित्यं गुणैर्हीनः किं ज्ञास्यस्यगुणो गुणान् // तौ वा ममाद्य हन्तारौ हन्तास्मि समरे स्थितौ / अर्जुनस्य महास्त्राणि क्रोधं वीर्य धनुः शरान् / नाहं बिभेमि कृष्णाभ्यां विजानन्नात्मनो बलम् // अहं शल्याभिजानामि न त्वं जानासि तत्तथा॥५५ वासुदेवसहस्रं वा फल्गुनानां शतानि च।। एवमेवात्मनो वीर्यमहं वीर्यं च पाण्डवे / अहमेको हनिष्यामि जोषमारस्व कुदेशज // 70 जानन्नेवाह्वये युद्धे शल्य नाग्निं पतंगवत् // 56 / स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च प्रायः क्रीडागता जनाः / अस्ति चायमिषुः शल्य सुपुङ्खो रक्तभोजनः / या गाथाः संप्रगायन्ति कुर्वन्तोऽध्ययनं यथा / एकतूणीशयः पत्री सुधौतः समलंकृतः // 57 ता गाथाः शृणु मे शल्य मद्रकेषु दुरात्मसु // 71 शेते चन्दनपूर्णेन पूजितो बहुलाः समाः / ब्राह्मणैः कथिताः पूर्वं यथावद्राजसंनिधौ / आहेयो विषवानुग्रो नराश्वद्विपसंघहा // 58 श्रुत्वा चैकमना मूढ क्षम वा ब्रूहि वोत्तरम् / / 72 एकवीरो महारौद्रस्तनुत्रास्थिविदारणः / / मित्रधुङ्मद्रको नित्यं यो नो द्वेष्टि स मद्रकः / निर्भिन्द्यां येन रुष्टोऽहमपि मेरुं महागिरिम् / / 59 मद्रके संगतं नास्ति क्षुद्रवाक्ये नराधमे // 73 तमहं जातु नास्येयमन्यस्मिन्फल्गुनाहते / दुरात्मा मद्रको नित्यं नित्यं चानृतिकोऽनृजुः / कृष्णाद्वा देवकीपुत्रात्सत्यं चात्र शृणुष्व मे // 60 यावदन्तं हि दौरात्म्यं मद्रकेष्विति नः श्रुतम् / / 74 तेताहमिषुणा शल्य वासुदेवधनंजयौ। पिता माता च पुत्रश्च श्वश्रश्वशुरमातुलाः / योत्स्ये परमसंक्रुद्धस्तत्कर्म सदृशं मम // 61 जामाता दुहिता भ्राता नप्ता ते ते च बान्धवाः / / सर्वेषां वासुदेवानां कृष्णे लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता / वयस्याभ्यागताश्चान्ये दासीदासं च संगतम् / सर्वेषां पाण्डुपुत्राणां जयः पार्थे प्रतिष्ठितः / पुंभिर्विमिश्रा नार्यश्च ज्ञाताज्ञाताः स्वयेच्छया॥७६ उभयं तत्समासाद्य कोऽतिवर्तितुमर्हति // 62 येषां गृहेषु शिष्टानां सक्तुमन्थाशिनां सदा / तावेतौ पुरुषव्याघ्रौ समेतौ स्यन्दने स्थितौ / पीत्वा सीधुं सगोमांसं नर्दन्ति च हसन्ति च // मामेकमभिसंयातौ सुजातं शल्य पश्य मे // 63 यानि चैवाप्यबद्धानि प्रवर्तन्ते च कामतः / पितृष्वसामातुलजौ भ्रातरावपराजितौ। कामप्रलापिनोऽन्योन्यं तेषु धर्मः कथं भवेत् // 78 मणी सूत्र इव प्रोतौ द्रष्टासि निहतौ मया // 64 मद्रकेषु विलुप्तेषु प्रख्याताशुभकर्मसु / अर्जुने गाण्डिवं कृष्णे चक्रं तार्थ्यकपिध्वजौ। / नापि वैरं न सौहा मद्रकेषु समाचरेत् // 79 मीरूणां त्रासजननौ शल्य हर्षकरौ मम // 65 / मद्रके संगतं नास्ति मद्रको हि सचापलः / - 1701 - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 27. 80] महाभारते [8. 28.2 मद्रकेषु च दुःस्पर्श शौचं गान्धारकेषु च // 80 / तदर्थे हि मम प्राणा यच्च मे विद्यते वसु // 94 राजयाजकयाज्येन नष्टं दत्तं हविर्भवेत् // 81 व्यक्तं त्वमप्युपहितः पाण्डवैः पापदेशज / शुद्रसंस्कारको विप्रो यथा याति पराभवम् / यथा ह्यमित्रवत्सर्वं त्वमस्मासु प्रवर्तसे // 95 तथा ब्रह्मद्विषो नित्यं गच्छन्तीह पराभवम् / / 82 कामं न खलु शक्योऽहं त्वद्विधानां शतैरपि / मद्रके संगतं नास्ति हतं वृश्चिकतो विषम् / संग्रामाद्विमुखः कर्तुं धर्मज्ञ इव नास्तिकैः // 96 आथर्वणेन मत्रेण सर्वा शान्तिः कृता भवेत् // 83 सारङ्ग इव घर्तिः कामं विलप शुष्य च / इति वृश्चिकदष्टस्य नानाविषहतस्य च। नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रवृत्ते व्यवस्थितः // 97 कुर्वन्ति भेषजं प्राज्ञाः सत्यं तच्चापि दृश्यते। तनुत्यजां नृसिंहानामाहवेष्वनिवर्तिनाम् / एवं विद्वञ्जोषमारस्व शृणु चात्रोत्तरं वचः // 84 या गतिर्गुरुणा प्राङ्मे प्रोक्ता रामेण तां स्मर // 98 वासांस्युत्सृज्य नृत्यन्ति स्त्रियो या मद्यमोहिताः। स्वेषां त्राणार्थमुद्युक्तं वधाय द्विषतामपि / मिथुनेऽसंयताश्चापि यथाकामचराश्च ताः। विद्धि मामास्थितं वृत्तं पौरूरवसमुत्तमम् // 99 तासां पुत्रः कथं धर्मं मद्रको वक्तुमर्हति // 85 न तद्भूतं प्रपश्यामि त्रिषु लोकेषु मद्रक / यास्तिष्ठन्त्यः प्रमेहन्ति यथैवोष्ट्रीदशेरके। यो मामस्मादभिप्रायाद्वारयेदिति मे मतिः // 100 तासां विभ्रष्टलज्जानां निर्लज्जानां ततस्ततः। एवं विद्वञ्जोषमारस्व त्रासाकि बहु भाषसे। त्वं पुत्रस्तादृशीनां हि धर्म वक्तुमिहेच्छसि // 86 मा त्वा हत्वा प्रदास्यामि क्रव्याद्भयो मद्रकाधम // सुवीरकं याच्यमाना मद्रका कषति स्फिजौ / मित्रप्रतीक्षया शल्य धार्तराष्ट्रस्य चोभयोः।। अदातुकामा वचनमिदं वदति दारुणम् // 87 अपवादतितिक्षाभिस्त्रिभिरेतैर्हि जीवसि // 102 मा मा सुवीरकं कश्चिद्याचतां दयितो मम / पुनश्चेदीदृशं वाक्यं मद्रराज वदिष्यसि / पुत्रं दद्यां प्रतिपदं न तु दद्यां सुवीरकम् / / 88 शिरस्ते पातयिष्यामि गदया वज्रकल्पया // 103 नार्यो बृहत्यो निर्दीका मद्रकाः कम्बलावृताः। श्रोतारस्त्विदमोह द्रष्टारो वा कुदेशज / घस्मरा नष्टशौचाश्च प्राय इत्यनुशुश्रुम // 89 कर्ण वा जनतुः कृष्णौ कर्णो वापि जघान तौ // 10 // एवमादि मयान्यैर्वा शक्यं वक्तुं भवेद्वहु / एवमुक्त्वा तु राधेयः पुनरेव विशां पते / आ केशाग्रान्नखानाच्च वक्तव्येषु कुवम॑सु // 90 अब्रवीन्मद्रराजानं याहि याहीत्यसंभ्रमम् // 105 मद्रकाः सिन्धुसौवीरा धर्म विद्युः कथं त्विह / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि पापदेशोद्भवा म्लेच्छा धर्माणामविचक्षणाः // 91 सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // एष मुख्यतमो धर्मः क्षत्रियस्येति नः श्रुतम् / / यदाजौ निहतः शेते सद्भिः समभिपूजितः // 92 संजय उवाच / आयुधानां संपराये यन्मुच्येयमहं ततः। | मारिषाधिरथेः श्रुत्वा वचो युद्धाभिनन्दिनः / न मे स प्रथमः कल्पो निधने स्वर्गमिच्छतः॥९३ / शल्योऽब्रवीत्पुनः कणं निदर्शनमुदाहरन् // 1 सोऽहं प्रियः सखा चास्मि धार्तराष्ट्रस्य धीमतः। / यथैव मत्तो मद्येन त्वं तथा न च वा तथा। - 1702 - 28 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 28. 2] कर्णपर्व [8. 28. 30 तथाहं त्वां प्रमाद्यन्तं चिकित्सामि सुहृत्तया // 2 / तान्सोऽभिपत्य जिज्ञासुः क एषां श्रेष्ठभागिति / इमां काकोपमां कर्ण प्रोच्यमानां निबोध मे। उच्छिष्टदर्पितः काको बहूनां दूरपातिनाम् // 17 श्रुत्वा यथेष्टं कुर्यास्त्वं विहीन कुलपांसन // 3 तेषां यं प्रवरं मेने हंसानां दूरपातिनाम् / नाहमात्मनि किंचिद्वै किल्बिषं कर्ण संस्मरे / तमाह्वयत दुर्बुद्धिः पताम इति पक्षिणम् // 18 येन त्वं मां महाबाहो हन्तुमिच्छस्यनागसम् // 4 तच्छ्रुत्वा प्राहसन्हंसा ये तत्रासन्समागताः / अवश्यं तु मया वाच्यं बुध्यतां यदि ते हितम् / भाषतो बहु काकस्य बलिनः पततां वराः / विशेषतो रथस्थेन राज्ञश्चैव हितैषिणा // 5 इदमूचुश्च चक्राङ्गा वचः काकं विहंगमाः // 19 समं च विषमं चैव रथिनश्च बलाबलम् / वयं हंसाश्चरामेमां पृथिवीं मानसौकसः / श्रमः खेदश्च सततं हयानां रथिना सह // 6 पक्षिणां च वयं नित्यं दूरपातेन पूजिताः // 20 आयुधस्य परिज्ञानं रुतं च मृगपक्षिणाम् / कथं नु हंसं बलिनं वज्राङ्गं दूरपातिनम् / भारश्चाप्यतिभारश्च शल्यानां च प्रतिक्रिया // 7 काको भूत्वा निपतने समाह्वयसि दुर्मते / अस्त्रयोगश्च युद्धं च निमित्तानि तथैव च / कथं त्वं पतनं काक सहास्माभिर्ब्रवीषि तत् // 21 सर्वमेतन्मया ज्ञेयं रथस्यास्य कुटुम्बिना। अथ हंसवचो मूढः कुत्सयित्वा पुनः पुनः / अतस्त्वां कथये कर्ण निदर्शनमिदं पुनः / / 8 प्रजगादोत्तरं काकः कत्थनो जातिलाघवात् // 22 वैश्यः किल समुद्रान्ते प्रभूतधनधान्यवान् / शतमेकं च पातानां पतितास्मि न संशयः / यज्वा दानपतिः क्षान्तः स्वकर्मस्थोऽभवच्छुचिः // 9 शतयोजनमेकैकं विचित्रं विविधं तथा // 23 बहुपुत्रः प्रियापत्यः सर्वभूतानुकम्पकः / उड्डीनमवडीनं च प्रडीनं डीनमेव च / राज्ञो धर्मप्रधानस्य राष्ट्रे वसति निर्भयः // 10 निडीनमथ संडीनं तिर्यक्चातिगतानि च // 24 पुत्राणां तस्य बालानां कुमाराणां यशस्विनाम् / विडीनं परिडीनं च पराडीनं सुडीनकम् / * काको बहूनामभवदुच्छिष्टकृतभोजनः // 11 अतिडीनं महाडीनं निडीनं परिडीनकम् // 25 तस्मै सदा प्रयच्छन्ति वैश्यपुत्राः कुमारकाः / गतागतप्रतिगता बह्वीश्च निकुडीनिकाः / मांसोदनं दधि क्षीरं पायसं मधुसर्पिषी // 12 कर्तास्मि मिषतां वोऽद्य ततो द्रक्ष्यथ मे बलम् // स चोच्छिष्टभृतः काको वैश्यपुत्रैः कुमारकैः / एवमुक्ते तु काकेन प्रहस्यैको विहंगमः / सदृशान्पक्षिणो दृप्तः श्रेयसश्चावमन्यते // 13 उवाच हंसस्तं काकं वचनं तन्निबोध मे // 27 अथ हंसाः समुद्रान्ते कदाचिदभिपातिनः / शतमेकं च पातानां त्वं काक पतिता ध्रुवम् / गरुडस्य गतौ तुल्याश्चक्राङ्गा हृष्टचेतसः // 14 एकमेव तु ये पातं विदुः सर्वे विहंगमाः // 28 कुमारकास्ततो हंसान्दृष्ट्वा काकमथाब्रुवन् / तमहं पतिता काक नान्यं जानामि कंचन / भवानेव विशिष्टो हि पतत्रिभ्यो विहंगम // 15 पत त्वमपि रक्ताक्ष येन वा तेन मन्यसे // 29 प्रतार्यमाणस्तु स तैरल्पबुद्धिभिरण्डजः। अथ काकाः प्रजहसुर्ये तत्रासन्समागताः / तद्वचः सत्यमित्येव माद्दाच मन्यते // 16 कथमेकेन पातेन हंसः पातशतं जयेत् // 30 - 1703 - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 28. 31] महाभारते [8. 28. 57 एकेनैव शतस्यैकं पातेनाभिभविष्यति / उज्जिहीर्षुर्निमज्जन्तं स्मरन्सत्पुरुषव्रतम् // 44 हंसस्य पतितं काको बलवानाशुविक्रमः // 31 बहूनि पतनानि त्वमाचक्षाणो मुहुर्मुहुः / प्रपेततुः स्पर्धयाथ ततस्तौ हंसवायसौ / पतस्यव्याहरंश्चेदं न नो गुह्यं प्रभाषसे // 45 एकपाती च चक्राङ्गः काकः पातशतेन च // 32 किं नाम पतनं काक यत्त्वं पतसि सांप्रतम् / पेतिवानथ चक्राङ्गः पेतिवानथ वायसः / जलं स्पृशसि पक्षाभ्यां तुण्डेन च पुनः पुनः // 46 विसिस्मापयिषुः पातैराचक्षाणोऽऽत्मनः क्रियाम् // स पक्षाभ्यां स्पृशन्नार्तस्तुण्डेन जलमर्णवे / अथ काकस्य चित्राणि पतितानीतराणि च / काको दृढं परिश्रान्तः सहसा निपपात ह // 47 दृष्ट्वा प्रमुदिताः काका विनेदुरथ तैः स्वरैः // 34 हंस उवाच। हंसांश्चावहसन्ति स्म प्रावदन्नप्रियाणि च / शतमेकं च पातानां यत्प्रभाषसि वायस / उत्पत्योत्पत्य च प्राहुर्मुहूर्तमिति चेति च // 35 नानाविधानीह पुरा तच्चानृतमिहाद्य ते.॥ 48 वृक्षाग्रेभ्यः स्थलेभ्यश्च निपतन्त्युत्पतन्ति च / काक उवाच / कुर्वाणा विविधारावानाशंसन्तस्तदा जयम् // 36 उच्छिष्टदर्पितो हंस मन्येऽऽत्मानं सुपर्णवत् / हंसस्तु मृदुकेनैव विक्रान्तुमुपचक्रमे / अवमन्य बहूंश्चाहं काकानन्यांश्च पक्षिणः / प्रत्यहीयत काकाच्च मुहूर्तमिव मारिष / / 37 प्राणैर्हस प्रपद्ये त्वां द्वीपान्तं प्रापयस्व माम् // 49 अवमन्य रयं हंसानिदं वचनमब्रवीत् / यद्यहं स्वस्तिमान्हस स्वदेशं प्राप्नुयां पुनः / योऽसावुत्पतितो हंसः सोऽसावेव प्रहीयते // 38 न कंचिदवमन्येयमापदो मां समुद्धर / / 50 अथ हंसः स तच्छ्रुत्वा प्रापतत्पश्चिमां दिशम् / तमेवंवादिनं दीनं विलपन्तमचेतनम् / / उपर्युपरि वेगेन सागरं वरुणालयम् / / 39 काक काकेति वाशन्तं निमज्जन्तं महार्णवे // 51 ततो भीः प्राविशत्काकं तदा तत्र विचेतसम् / तथैत्य वायसं हंसो जलक्लिन्नं सुदुर्दशम् / द्वीपगुमानपश्यन्तं निपतन्तं श्रमान्वितम् / पद्भथामुक्षिप्य वेपन्तं पृष्ठमारोपयच्छनैः // 52 निपतेयं क नु श्रान्त इति तस्मिञ्जलार्णवे // 40 आरोप्य पृष्ठं काकं तं हंसः कर्ण विचेतसम् / अविषयः समुद्रो हि बहुसत्त्वगणालयः / आजगाम पुनीपं स्पर्धया पेततुर्यतः // 53 महाभूतशतोद्भासी नभसोऽपि विशिष्यते // 41 संस्थाप्य तं चापि पुनः समाश्वास्य च खेचरम् / गाम्भीर्याद्धि समुद्रस्य न विशेषः कुलाधम / गतो यथेप्सितं देशं हंसो मन इवाशुगः / / 54 दिगम्बराम्भसां कर्ण समुद्रस्था हि दुर्जयाः। उच्छिष्टभोजनात्काको यथा वैश्यकुले तु सः / विदूरपातात्तोयस्य किं पुनः कर्ण वायसः / / 42 एवं त्वमुच्छिष्टभृतो धार्तराष्ट्रैन संशयः / अथ हंसोऽभ्यतिक्रम्य मुहूर्तमिति चेति च / / सदृशाश्रेयसश्चापि सर्वान्कर्णातिमन्यसे // 55 अवेक्षमाणस्तं काकं नाशक्तीद्वयपसर्पितुम। द्रोणद्रौणिकृपैर्गुतो भीष्मेणान्यैश्च कौरवैः / अतिक्रम्य च चकाङ्गः काकं तं समुदक्षत // 43 / विराटनगरे पार्थमेकं किं नावधीस्तदा / / 56 तं तथा हीयमानं च हंसो दृष्ट्वाब्रवीदिदम् / यत्र व्यस्ताः समस्ताश्च निर्जिताः स्थ किरीटिना। -1704 - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 28. 57 ] कर्णपर्व [8. 29. 10 सगाला इव सिंहेन क ते वीर्यमभूत्तदा // 57 परोक्षभूतं तव तत्तु शल्य // 2 भ्रातरं च हतं दृष्ट्वा निर्जितः सव्यसाचिना। तौ चाप्रधृष्यौ शस्त्रभृतां वरिष्ठी पश्यतां कुरुवीराणां प्रथमं त्वं पलायथाः // 58 व्यपेतभीर्योधयिष्यामि कृष्णौ / तथा द्वैतवने कर्ण गन्धर्वैः समभिद्रुतः / संतापयत्यभ्यधिकं तु रामाकुरून्समग्रानुत्सृज्य प्रथमं त्वं पलायथाः // 59 च्छापोऽद्य मां ब्राह्मणसत्तमाञ्च // 3 हत्वा जित्वा च गन्धर्वाश्चित्रसेनमुखारणे। अवात्सं वै ब्राह्मणच्छद्मनाहं कर्ण दुर्योधनं पार्थः सभाएं सममोचयत् // 60 रामे पुरा दिव्यमस्त्रं चिकीर्षुः / पुनः प्रभावः पार्थस्य पुराणः केशवस्य च / तत्रापि मे देवराजेन विघ्नो कथितः कर्ण रामेण सभायां राजसंसदि // 61 हितार्थिना फल्गुनस्यैव शल्य // 4 सततं च तदोषीर्वचनं द्रोणभीष्मयोः / कृतोऽवभेदेन ममोरुमेत्य अवध्यौ वदतोः कृष्णौ संनिधौ वै महीक्षिताम् // प्रविश्य कीटस्य तनुं विरूपाम् / कियन्तं तत्र वक्ष्यामि येन येन धनंजयः। गुरोर्भयाच्चापि न चेलिवानहं त्वत्तोऽतिरिक्तः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो ब्राह्मणो यथा // तच्चावबुद्धो ददृशे स विप्रः // 5 इदानीमेव द्रष्टासि प्रधने स्यन्दने स्थितौ / पृष्टश्चाहं तमवोचं महर्षि पुत्रं च वसुदेवस्य पाण्डवं च धनंजयम् // 64 सूतोऽहमस्मीति स मां शशाप / देवासुरमनुष्येषु प्रख्यातौ यौ नरर्षभौ / सूतोपधावाप्तमिदं त्वयास्त्रं प्रकाशेनाभिविख्यातौ त्वं तु खद्योतवन्नृषु // 65 न कर्मकाले प्रतिभास्यति त्वाम् // 6 एवं विद्वान्मावमंस्थाः सूतपुत्राच्युतार्जुनौ / अन्यत्र यस्मात्तव मृत्युकालानृसिंहौ तौ नरश्वा त्वं जोषमारस्व विकत्थन // 66 दब्राह्मणे ब्रह्म न हि ध्रुवं स्यात् / . ' इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि तदद्य पर्याप्तमतीव शस्त्रअष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // मस्मिन्संग्रामे तुमुले तात भीमे // 7 29 अपां पतिर्वेगवानप्रमेयो संजय उवाच / निमज्जयिष्यन्निवहान्प्रजानाम् / मद्राधिपस्याधिरथिस्तदैवं महानगं यः कुरुते समुद्र : वचो निशम्याप्रियमप्रतीतः। वेलैव तं वारयत्यप्रमेयम् // 8 उवाच शल्यं विदितं ममैत प्रमुञ्चन्तं बाणसंघानमोघाद्यथाविधावर्जुनवासुदेवौ // 1 न्मर्मच्छिदो वीरहणः सपत्रान् / शौरे रथं वायतोऽर्जुनस्य कुन्तीपुत्रं प्रतियोत्स्यामि युद्धे बलं महास्त्राणि च पाण्डवस्य / ज्याकर्षिणामुत्तममद्य लोके // 9 अहं विजानामि यथावदद्य एवं बलेनातिबलं महाखं 1. भा. 214 - 1705 - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 29. 10] महाभारते [8. 29. 25 समुद्रकल्पं सुदुरापमुग्रम् / तथा विद्वान्योत्स्यमानोऽस्मि तेन // 17 शरौघिणं पार्थिवान्मजयन्तं यः सर्वभूतानि सदेवकानि वेलेव पार्थमिषुभिः संसहिष्ये // 10 प्रस्थेऽजयत्खाण्डवे सव्यसाची / अद्याहवे यस्य न तुल्यमन्यं को जीवितं रक्षमाणो हि तेन ___ मन्ये मनुष्यं धनुराददानम् / युयुत्सते मामृते मानुषोऽन्यः // 18 सुरासुरान्वै युधि यो जयेत अहं तस्य पौरुषं पाण्डवस्य तेनाद्य मे पश्य युद्धं सुघोरम् // 11 बयां हृष्टः समितौ क्षत्रियाणाम् / अतिमानी पाण्डवो युद्धकामो किं त्वं मूर्खः प्रभषन्मूढचेता .. अमानुषैरेष्यति मे महावैः / ___ मामवोचः पौरुषमर्जुनस्य // 19 तस्यास्नमस्त्रैरभिहत्य संख्ये अप्रियो यः परुषो निष्ठुरो हि / शरोत्तमैः पातयिष्यामि पार्थम् // 12 क्षुद्रः क्षेप्ता क्षमिणश्चाक्षमावान् / दिवाकरेणापि समं तपन्तं हन्यामहं तादृशानां शतानि __ समाप्तरश्मि यशसा ज्वलन्तम् / क्षमामि त्वां क्षमया कालयोगात् // 28 तमोनुदं मेघ इवातिमात्रो अवोचस्त्वं पाण्डवार्थेऽप्रियाणि धनंजयं छादयिष्यामि बाणैः // 13 प्रधर्षयन्मां मूढवत्पापकर्मन् / वैश्वानरं धूमशिखं ज्वलन्तं मय्यार्जवे जिह्मगतिहतस्त्वं तेजस्विनं लोकमिमं दहन्तम् / मित्रद्रोही सप्तपदं हि मित्रम् // 21 मेघो भूत्वा शरवर्षैर्यथाग्निं कालस्त्वयं मृत्युमयोऽतिदारुणो तथा पार्थं शमयिष्यामि युद्धे // 14 दुर्योधनो युद्धमुपागमद्यत् / प्रमाथिनं बलवन्तं प्रहारिणं तस्यार्थसिद्धिमभिकाङ्खमाण___ प्रभञ्जनं मातरिश्वानमुग्रम् / स्तमभ्येष्ये यत्र नैकान्त्यमस्ति // 22 युद्धे सहिष्ये हिमवानिवाचलो मित्रं मिदेर्नन्दतेः प्रीयतेर्वा धनंजयं क्रुद्धममृष्यमाणम् // 15 संत्रायतेर्मानद मोदतेर्वा / विशारदं रथमार्गेष्वसक्तं ब्रवीति तच्चामुत विप्रपूर्वाधुर्य नित्यं समरेषु प्रवीरम् / त्तच्चापि सर्वं मम दुर्योधनेऽस्ति // 23 लोके वरं सर्वधनुर्धराणां शत्रुः शदेः शासतेः शायतेर्वा धनंजयं संयुगे संसहिष्ये // 16 ___ शृणातेर्वा श्वयतेर्वापि सर्गे / अद्याहवे यस्य न तुल्यमन्यं उपसर्गाद्वहुधा सूदतेश्च मध्येमनुष्यं धनुराददानम् / प्रायेण सर्वं त्वयि तच्च मह्यम् // 24 सर्वामिमां यः पृथिवीं सहेत दुर्योधनार्थ तव चाप्रियार्थं - 1706 - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 29. 25 ] कर्णपर्व [8.30. 10 यशोर्थमात्मार्थमपीश्वरार्थम् / व्याहृतं यन्मया सूत तत्तथा न तदन्यथा // 37 तस्मादहं पाण्डववासुदेवौ अनृतोक्तं प्रजा हन्यात्ततः पापमवाप्नुयात् / योत्स्ये यत्नात्कर्म तत्पश्य मेऽद्य // 25 तस्माद्धर्माभिरक्षार्थ नानृतं वक्तुमुत्सहे // 38 अस्त्राणि पश्याद्य ममोत्तमानि मा त्वं ब्रह्मगतिं हिंस्याः प्रायश्चित्तं कृतं त्वया। ब्राह्माणि दिव्यान्यथ मानुषाणि / मद्वाक्यं नानृतं लोके कश्चित्कुर्यात्समाप्नुहि // 39 आसादयिष्याम्यहमुग्रवीर्य इत्येतत्ते मया प्रोक्तं क्षिप्तेनापि सुहृत्तया / द्विपोत्तमं मत्तमिवाभिमत्तः // 26 जानामि त्वाधिक्षिपन्तं जोषमारस्वोत्तरं शृणु // 40 अस्त्रं ब्राह्मं मनसा तद्ध्यजय्यं इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि क्षेप्स्ये पायाप्रतिमं जयाय / एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // तेनापि मे नैव मुच्येत युद्धे न चेत्पतेद्विषमे मेऽद्य चक्रम् // 27 संजय उवाच / वैवस्वताद्दण्डहस्ताद्वरुणाद्वापि पाशिनः / ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिंदमम् / सगदाद्वा धनपतेः सवज्राद्वापि वासवात् // 28 अभ्यभाषत राधेयः संनिवार्योत्तरं वचः // 1 नान्यस्मादपि कस्माञ्चिद्विभिमो ह्याततायिनः / यत्त्वं निदर्शनार्थं मां शल्य जल्पितवानसि / इति शल्य विजानीहि यथा नाहं बिभेम्यभीः // नाहं शक्यस्त्वया वाचा विभीषयितुमाहवे // 2 तस्माद्भयं न मे पार्थान्नापि चैव जनार्दनात् / / यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः / अद्य युद्धं हि ताभ्यां मे संपराये भविष्यति // 30 तथापि मे भयं न स्यात्किमु पार्थात्सकेशवात् // 3 श्वभ्रे ते पततां चक्रमिति मे ब्राह्मणोऽवदत् / नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्मात्रेण कथंचन / युध्यमानस्य संग्रामे प्राप्तस्यैकायने भयम् // 31 अन्य जानीहि यः शक्यस्त्वया भीषयितुं रणे॥४ तस्माद्विभेमि बलवद्ब्राह्मणव्याहृतादहम् / नीचस्य बलमेतावत्पारुष्यं यत्त्वमात्थ माम् / एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः // 32 अशक्तोऽस्मद्गुणान्प्राप्तुं वल्गसे बहु दुर्मते // 5 होमधेन्वा वत्समस्य प्रमत्त इषुणाहनम् / न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मारिष / परन्तमजने शल्य ब्राह्मणात्तपसो निधेः // 33 / / विक्रमार्थमहं जातो यशोथं च तथैव च // 6 षादन्तान्सप्तशतान्दासीदासशतानि च / इदं तु मे त्वमेकाग्रः शृणु मद्रजनाधिप / दतो द्विजमुख्याय प्रसादं न चकार मे // 34 संनिधौ धृतराष्ट्रस्य प्रोच्यमानं मया श्रुतम् // 7 कृष्णानां श्वेतवत्सानां सहस्राणि चतुर्दश। देशांश्च विविधांश्चित्रान्पूर्ववृत्तांश्च पार्थिवान् / भाहरन्न लभे तस्मात्प्रसादं द्विजसत्तमात् // 35 ब्राह्मणाः कथयन्तः स्म धृतराष्ट्रमुपासते // 8 श्रद्धं गेहं सर्वकामैर्यच्च मे वसु किंचन / तत्र वृद्धः पुरावृत्ताः कथाः काश्चिहिजोत्तमः / तत्सर्वमस्मै सत्कृत्य प्रयच्छामि न चेच्छति // 36 बाह्रीकदेशं मद्रांश्च कुत्सयन्वाक्यमब्रवीत् // 9 ततोऽब्रवीन्मा याचन्तमपराद्धं प्रयत्नतः / बहिष्कृता हिमवता गङ्गया च तिरस्कृताः / - 1707 - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 30. 10] महाभारते [8. 30. 39 सरस्वत्या यमुनया कुरुक्षेत्रेण चापि ये // 10 / खलोपहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयसः // 25 पश्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तराश्रिताः / एवं हीनेषु व्रात्येषु बाह्रीकेषु दुरात्मसु / तान्धर्मबाह्यानशुचीन्बाह्रीकान्परिवर्जयेत् // 11 कश्चेतयानो निवसेन्मुहूर्तमपि मानवः // 26 गोवर्धनो नाम वटः सुभाण्डं नाम चत्वरम् / ईदृशा ब्राह्मणेनोक्ता बाह्रीका मोघचारिणः / एतद्राजकुलद्वारमाकुमारः स्मराम्यहम् // 12 येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयोः शुभपापयोः // 27 कार्येणात्यर्थगाढेन बाह्रीकेषूषितं मया / इत्युक्त्वा ब्राह्मणः साधुरुत्तरं पुनरुक्तवान् / ततः एषां समाचारः संवासाद्विदितो मम // 13 बाह्रीकेष्वविनीतेषु प्रोच्यमानं निबोधत // 28 शाकलं नाम नगरमापगा नाम निम्नगा। तत्र स्म राक्षसी गाति सदा कृष्णचतुर्दशीम् / जर्तिका नाम बाह्रीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम् // 14 नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम् // 29 धानागौडासवे पीत्वा गोमांसं लशुनैः सह / / कदा वा घोषिका गाथाः पुनर्गास्यन्ति शाकले / अपूपमांसवाट्यानामाशिनः शीलवर्जिताः // 15 गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं महासवम् // 30 हसन्ति गान्ति नृत्यन्ति स्त्रीभिर्मत्ता विवाससः / गौरीभिः सह नारीभिबृहतीभिः स्खलंकृताः / नगरागारवप्रेषु बहिर्माल्यानुलेपनाः // 16 पलाण्डुगण्डूषयुतान्खादन्ते चैडकान्बहून् // 31 मत्तावगीतैर्विविधैः खरोष्ट्रनिनदोपमैः। वाराहं कौकुटं मांसं गव्यं गार्दभमौष्ट्रकम् / आहुरन्योन्यमुक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कटाः // 17 ऐडं च ये न खादन्ति तेषां जन्म निरर्थकम् // 32 हा हते हा हतेत्येव स्वामिभर्तृहतेति च / इति गायन्ति ये मत्ताः शीधुना शाकलावतः / आक्रोशन्त्यः प्रनृत्यन्ति मन्दाः पर्वस्वसंयताः॥१८ सबालवृद्धाः कूर्दन्तस्तेषु वृत्तं कथं भवेत् // 33 तेषां किलावलिप्तानां निवसन्कुरुजाङ्गले / इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते। . कश्चिद्वाहीकमुख्यानां नातिहृष्टमना जगौ // 19 यदन्योऽप्युक्तवानस्मान्ब्राह्मणः कुरुसंसदि // 34 सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी / पञ्च नद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवनान्यपि / मामनुस्मरती शेते बाह्रीकं कुरुवासिनम् // 20 शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयेरावती तथा / शतद्रुकनदी तीर्खा तां च रम्यामिरावतीम् / चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा बहिर्गताः॥३५ गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलशङ्खाः शुभाः स्त्रियः॥ आरट्टा नाम ते देशा नष्टधर्मान्न तान्व्रजेत् / मनःशिलोज्वलापाङ्गा गौर्यस्त्रिककुदाञ्जनाः / व्रात्यानां दासमीयानां विदेहानामयज्वनाम् // 36 केवलाजिनसंवीताः कूर्दन्त्यः प्रियदर्शनाः // 22 न देवाः प्रतिगृह्णन्ति पितरो ब्राह्मणास्तथा / मृदङ्गानकशङ्खानां मर्दलानां च निस्वनैः।। तेषां प्रनष्टधर्माणां बाह्रीकानामिति श्रुतिः // 37 खरोष्ट्राश्वतरैश्चैव मत्ता यास्यामहे सुखम् // 23 ब्राह्मणेन तथा प्रोक्तं विदुषा साधुसंसदि / शमीपीलुकरीराणां वनेषु सुखवमसु / काष्ठकुण्डेषु बाह्रीका मृण्मयेषु च भुञ्जते। ' अपूपान्सक्तुपिण्डीश्च खादन्तो मथितान्विताः // 24 सक्तुवाट्यावलिप्तेषु श्वादिलीढेषु निघृणाः // 38 पथिषु प्रबला भूत्वा कदासमृदितेऽध्वनि।। | आविकं चौष्ट्रिकं चैव क्षीरं गार्दभमेव च / - 1708 - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 30. 39] कर्णपर्व [8. 30. 66 तद्विकारांश्च बाह्रीकाः खादन्ति च पिबन्ति च // द्विजो भूत्वा च तत्रैव पुनर्दासोऽपि जायते // 54 पुत्रसंकरिणो जाल्माः सर्वान्नक्षीरभोजनाः। भवत्येकः कुले विप्रः शिष्टान्ये कामचारिणः / आरट्टा नाम बाह्रीका वर्जनीया विपश्चिता // 40 गान्धारा मद्रकाश्चैव बाह्रीकाः केऽप्यचेतसः // 55 उत शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते / / एतन्मया श्रुतं तत्र धर्मसंकरकारकम् / यदन्योऽप्युक्तवान्सभ्यो ब्राह्मणः कुरुसंसदि // 41 कृत्स्नामटित्वा पृथिवीं बाह्रीकेषु विपर्ययः // 56 युगंधरे पयः पीत्वा प्रोष्य चाप्यच्युतस्थले। उत शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते। तद्वद्भूतिलये स्नात्वा कथं स्वर्गं गमिष्यति // 42 यदप्यन्योऽब्रवीद्वाक्यं बाह्रीकानां विकुत्सितम् // पश्च नद्यो वहन्त्येता यत्र निःसृत्य पर्वतात् / / सती पुरा हृता काचिदारट्टा किल दस्युभिः / आरट्टा नाम बाह्रीका न तेष्वार्यो द्वयहं वसेत् // अधर्मतश्वोपयाता सा तानभ्यशपत्ततः // 58 बहिश्च नाम ह्रीकश्च विपाशायां पिशाचकौ।। बाला बन्धुमतीं यन्मामधर्मेणोपगच्छथ / तयोरपत्यं बाह्रीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः // 44 तस्मान्नार्यो भविष्यन्ति बन्धक्यो वै कुलेषु वः / कारस्करान्महिषकान्कलिङ्गान्कीकटाटवीन् / न चैवास्मात्प्रमोक्ष्यध्वं घोरात्पापानराधमाः॥ 59 कर्कोटकान्वीरकांश्च दुर्धर्मांश्च विवर्जयेत् // 45 कुरवः सहपाश्चालाः शाल्वा मत्स्याः सनैमिषाः / इति तीर्थानुसारं राक्षसी काचिदब्रवीत् / कोसलाः काशयोऽङ्गाश्च कलिङ्गा मगधास्तथा // 60 एकरात्रा शमीगेहे महोलूखलमेखला // 46 चेदयश्च महाभागा धर्म जानन्ति शाश्वतम् / आरट्टा नाम ते देशा बाह्रीका नाम ते जनाः / नानादेशेषु सन्तश्च प्रायो बाह्या लयाहते // 61 घसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो विकुत्सिताः॥४७ आ मत्स्येभ्यः कुरुपाञ्चालदेश्या उत शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते। ___ आ नैमिषाञ्चेदयो ये विशिष्टाः / एच्यमानं मया सम्यक्तदेकाग्रमनाः शृणु // 48 धर्म पुराणमुपजीवन्ति सन्तो ब्राह्मणः शिल्पिनो गेहमभ्यगच्छत्पुरातिथिः / ___ मद्रानृते पश्चनदांश्च जिह्मान् // 62 माचारं तत्र संप्रेक्ष्य प्रीतः शिल्पिनमब्रवीत् // 49 एवं विद्वन्धर्मकथांश्च राजपया हिमवतः शृङ्गमेकेनाध्युषितं चिरम् / ____ स्तूष्णीभूतो जडवच्छल्य भूयाः। प्ष्टाश्च बहवो देशा नानाधर्मसमाकुलाः // 50 त्वं तस्य गोप्ता च जनस्य राजा न च केन च धर्मेण विरुध्यन्ते प्रजा इमाः। षड्भागहर्ता शुभदुष्कृतस्य // 63 सर्वे हि तेऽब्रुवन्धर्म यथोक्तं वेदपारगैः // 51 अथ वा दुष्कृतस्य त्वं हर्ता तेषामरक्षिता / घटता तु सदा देशान्नानाधर्मसमाकुलान् / रक्षिता पुण्यभागाजा प्रजानां त्वं त्वपुण्यभाक् / / प्रागच्छता महाराज बाह्रीकेषु निशामितम् // 52 / पूज्यमाने पुरा धर्मे सर्वदेशेषु शाश्वते / त्रैव ब्राह्मणो भूत्वा ततो भवति क्षत्रियः / धर्म पाञ्चनदं दृष्ट्वा धिगित्याह पितामहः // 65 श्यः शूद्रश्च बाह्रीकस्ततो भवति नापितः // 53 व्रात्यानां दाशमीयानां कृतेऽप्यशुभकर्मणाम् / / शापितश्च ततो भूत्वा पुनर्भवति ब्राह्मणः / इति पाश्चनदं धर्ममवमेने पितामहः / - 1709 - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 30. 66] महाभारते [8. 31.1 स्वधर्मस्थेषु वर्णेषु सोऽप्येतं नाभिपूजयेत् // 66 ध्रुवः सर्वाणि भूतानि विष्णुर्लोकाञ्जनार्दनः // 78 उत शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते / इङ्गितज्ञाश्च मगधाः प्रेक्षितज्ञाश्च कोसलाः / कल्माषपादः सरसि निमज्जनराक्षसोऽब्रवीत् // 67 अर्धोक्ताः कुरुपाञ्चालाः शाल्वाः कृत्स्नानुशासनाः। क्षत्रियस्य मलं भैक्षं ब्राह्मणस्यानृतं मलम् / पार्वतीयाश्च विषमा यथैव गिरयस्तथा // 79 मलं पृथिव्या बाह्रीकाः स्त्रीणां मद्रस्त्रियो मलम् // सर्वज्ञा यवना राजशूराश्चैव विशेषतः / निमज्जमानमुद्धृत्य कश्चिद्राजा निशाचरम् / म्लेच्छाः स्वसंज्ञानियता नानुक्त इतरो जनः॥८० अपृच्छत्तेन चाख्यातं प्रोक्तवान्यन्निबोध तत् // 69 प्रतिरब्धास्तु बाह्रीका न च केचन मद्रकाः / मानुषाणां मलं म्लेच्छा म्लेच्छानां मौष्टिका मलम् / स त्वमेतादृशः शल्य नोत्तरं वक्तुमर्हसि // 81 मौष्टिकानां मलं शण्डाः शण्डानां राजयाजकाः // एतज्ज्ञात्वा जोषमारस्व प्रतीपं मा स्म वै कृथाः / राजयाजकयाज्यानां मद्रकाणां च यन्मलम् / स त्वां पूर्वमहं हत्वा हनिष्ये केशवार्जुनौ // 82 तद्भवेद्वै तव मलं यद्यस्मान्न विमुश्चसि // 71 शल्य उवाच / इति रक्षोपसृष्टेषु विषवीर्यहतेषु च / आतुराणां परित्यागः स्वदारसुतविक्रयः। राक्षसं भेषजं प्रोक्तं संसिद्धं वचनोत्तरम् / / 72 अङ्गेषु वर्तते कर्ण येषामधिपतिर्भवान् // 83 ब्राह्मं पाञ्चाला कौरवेयाः स्वधर्मः रथातिरथसंख्यायां यत्त्वा भीष्मस्तदाब्रवीत् / सत्यं मत्स्याः शूरसेनाश्च यज्ञः / तान्विदित्वात्मनो दोषान्निर्मन्युभव मा क्रुधः // 85 प्राच्या दासा वृषला दाक्षिणात्याः सर्वत्र ब्राह्मणाः सन्ति सन्ति सर्वत्र क्षत्रियाः / स्तेना बाह्रीकाः संकरा वै सुराष्ट्राः // 73 वैश्याः शूद्रास्तथा कर्ण स्त्रियः साध्व्यश्च सुव्रताः। कृतघ्नता परवित्तापहारः रमन्ते चोपहासेन पुरुषाः पुरुषैः सह / सुरापानं गुरुदारावमशः / अन्योन्यमवतक्षन्तो देशे देशे समैथुनाः // 86 येषां धर्मस्तान्प्रति नात्यधर्म परवाच्येषु निपुणः सर्वो भवति सर्वदा / आरट्टकान्पाञ्चनदान्धिगस्तु // 74 आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि विमुह्यति // 8 // आ पाञ्चालेभ्यः कुरवो नैमिषाश्च . संजय उवाच। मत्स्याश्चैवाप्यथ जानन्ति धर्मम्। कर्णोऽपि नोत्तरं प्राह शल्योऽप्यभिमुखः परान् / कलिङ्गकाश्चाङ्गका मागधाश्च पुनः प्रहस्य राधेयः पुनर्याहीत्यचोदयत् // 88 शिष्टान्धर्मानुपजीवन्ति वृद्धाः // 75 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि प्राची दिशं श्रिता देवा जातवेदःपुरोगमाः। त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥ दक्षिणां पितरो गुप्तां यमेन शुभकर्मणा // 76 प्रतीची वरुणः पाति पालयन्नसुरान्बली / संजय उवाच / उदीची भगवान्सोमो ब्रह्मण्यो ब्राह्मणैः सह // 77 | ततः परानीकभिदं व्यूहमप्रतिमं परैः / रक्षःपिशाचान्हिमवान्गुह्यकान्गन्धमादनः / / समीक्ष्य कर्णः पार्थानां धृष्टद्युम्नाभिरक्षितम् // 1 - 1710 - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 31. 2] कर्णपर्व [8. 31. 29 प्रक्यौ रथघोषेण सिंहनादरवेण च / निदेशात्सूतपुत्रस्य सरथाः साश्वपत्तयः / पादित्राणां च निनदैः कम्पयन्निव मेदिनीम् // 2 आह्वयन्तोऽर्जुनं तस्थुः केशवं च महाबलम् // 16 पमान इव क्रोधायुद्धशौण्डः परंतपः / मध्येसेनामुखं कर्णो व्यवातिष्ठत दंशितः / प्रतिव्यूह्य महातेजा यथावद्भरतर्षभ // 3 चित्रवर्माङ्गदः स्रग्वी पालयन्ध्वजिनीमुखम् // 17 व्यधमत्पाण्डवीं सेनामासुरीं मघवानिव / रक्ष्यमाणः सुसंरब्धैः पुत्रैः शस्त्रभृतां वरः / युधिष्ठिरं चाभिभवन्नसपव्यं चकार ह // 4 वाहिनीप्रमुखं वीरः संप्रकर्षन्नशोभत // 18 धृतराष्ट्र उवाच / अयोरनिर्महाबाहुः सूर्यवैश्वानरद्युतिः / फयं संजय राधेयः प्रत्यव्यूहत पाण्डवान् / महाद्विपस्कन्धगतः पिङ्गलः प्रियदर्शनः / रख्युम्नमुखान्वीरान्भीमसेनाभिरक्षितान् / / 5 .. दुःशासनो वृतः सैन्यैः स्थितो व्यूहस्य पृष्ठतः // 19 के च प्रपक्षी पक्षौ वा मम सैन्यस्य संजय। तमन्वयान्महाराज स्वयं दुर्योधनो नृपः / विभज्य यथान्यायं कथं वा समवस्थिताः // 6 चित्राश्वैश्चित्रसंनाहैः सोदर्यैरभिरक्षितः // 20 कयं पाण्डुसुताश्चापि प्रत्यव्यूहन्त मामकान् / रक्ष्यमाणो महावीर्यैः सहितैर्मद्रकेकयैः / अयं चैतन्महायुद्धं प्रावर्तत सुदारुणम् / / 7 अशोभत महाराज देवैरिव शतक्रतुः // 21 के च बीभत्सुरभवद्यत्कर्णोऽयाधुधिष्ठिरम् / अश्वत्थामा कुरूणां च ये प्रवीरा महारथाः / जो पर्जुनस्य सांनिध्ये शक्तोऽभ्येतुं युधिष्ठिरम् // 8 नित्यमत्ताश्च मातङ्गाः शूरैर्लेच्छैरधिष्ठिताः / सर्वभूतानि यो ह्येकः खाण्डवे जितवान्पुरा / अन्वयुस्तद्रथानीकं क्षरन्त इव तोयदाः // 22 समन्यत्र राधेयात्प्रतियुध्ये जिजीविषुः // 9 ते ध्वजैर्वैजयन्तीभिर्बलद्भिः परमायुधैः / संजय उवाच / सादिभिश्चास्थिता रेजु मवन्त इवाचलाः // 23 घणु व्यूहस्य रचनामर्जुनश्च यथा गतः / तेषां पदातिनागानां पादरक्षाः सहस्रशः / परिदाय नृपं तेभ्यः संग्रामश्चाभवद्यथा // 10 पट्टिशासिधराः शूरा बभूवुरनिवर्तिनः // 24 इमः शारद्वतो राजन्मागधश्च तरस्विनः / सादिभिः स्यन्दनै गैरधिकं समलंकृतैः / सात्वतः कृतवर्मा च दक्षिणं पक्षमाश्रिताः // 11 स व्यूहराजो विबभौ देवासुरचमूपमः // 25 तेषां प्रपक्षे शकुनिस्लूकश्च महारथः / बार्हस्पत्यः सुविहितो नायकेन विपश्चिता। सादिभिर्विमलप्रासैस्तवानीकमरक्षताम् // 12 नृत्यतीव महाव्यूहः परेषामादधद्भयम् // 26 गान्धारिभिरसंभ्रान्तैः पार्वतीयैश्च दुर्जयैः / तस्य पक्षप्रपक्षेभ्यो निष्पतन्ति युयुत्सवः / शलभानामिव बातैः पिशाचैरिव दुर्दृशैः // 13 पत्त्यश्वरथमातङ्गाः प्रावृषीव बलाहकाः // 27 चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि रथानामनिवर्तिनाम् / ततः सेनामुखे कर्णं दृष्ट्वा राजा युधिष्ठिरः / संशप्तका युद्धशौण्डा वामं पार्श्वमपालयन् // 14 धनंजयममित्रघ्नमेकवीरमुवाच ह // 28 समुञ्चितास्तव सुतैः कृष्णार्जुनजिघांसवः / पश्यार्जुन महाव्यूहं कर्णेन विहितं रणे / तेषां प्रपक्षः काम्बोजाः शकाश्च यवनैः सह // 15 / युक्तं पक्षैः प्रपक्षैश्च सेनानीकं प्रकाशते // 29 - 171l - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 31. 30] महाभारते [8. 31. 57 तदेतद्वै समालोक्य प्रत्यमित्रं महद्बलम् / स्थितानभिमुखान्योरानन्योन्यमभिभाषतः // 43 यथा नाभिभवत्यस्मांस्तथा नीतिर्विधीयताम् // 30 सिताश्चाश्वाः समायुक्तास्तव कर्ण महारथे। एवमुक्तोऽर्जुनो राज्ञा प्राञ्जलिनुपमब्रवीत् / प्रदराः प्रज्वलन्त्येते ध्वजश्चैव प्रकम्पते // 44 यथा भवानाह तथा तत्सर्वं न तदन्यथा // 31 उदीर्यतो हयान्पश्य महाकायान्महाजवान् / यस्त्वस्य विहितो घातस्तं करिष्यामि भारत / प्लवमानान्दर्शनीयानाकाशे गरुडानिव // 45 प्रधानवध एवास्य विनाशस्तं करोम्यहम् // 32 ध्रुवमेषु निमित्तेषु भूमिमावृत्य पार्थिवाः / युधिष्ठिर उवाच / स्वप्स्यन्ति निहताः कर्ण शतशोऽथ सहस्रशः // 46 तस्मात्त्वमेव राधेयं भीमसेनः सुयोधनम् / शङ्खानां तुमुलः शब्दः श्रूयते लोमहर्षणः / वृषसेनं च नकुलः सहदेवोऽपि सौबलम् // 33 आनकानां च राधेय मृदङ्गानां च सर्वशः // 45 दुःशासनं शतानीको हार्दिक्यं शिनिपुंगवः / बाणशब्दान्बहुविधान्नराश्वरथनिस्वनान् / धृष्टद्युम्नस्तथा द्रौणिं स्वयं यास्याम्यहं कृपम् // 34 ज्यातलनेषुशब्दांश्च शृणु कर्ण महात्मनाम् // 48 द्रौपदेया धार्तराष्ट्राञ्शिष्टान्सह शिखण्डिना। हेमरूप्यप्रमृष्टानां वाससां शिल्पिनिर्मिताः / ते ते च तांस्तानहितानस्माकं नन्तु मामकाः // 35 नानावर्णा रथे भान्ति श्वसनेन प्रकम्पिताः // 49 संजय उवाच / सहेमचन्द्रतारार्काः पताकाः किङ्किणीयुताः। . इत्युक्तो धर्मराजेन तथेत्युक्त्वा धनंजयः / पश्य कर्णार्जुनस्यैताः सौदामिन्य इवाम्बुदे // 50 व्यादिदेश स्वसैन्यानि स्वयं चागाच्चमूमुखम् // 36 ध्वजाः कणकणायन्ते वातेनाभिसमीरिताः। अथ तं रथमायान्तं दृष्ट्वात्यद्भुतदर्शनम् / सपताका रथाश्चापि पाञ्चालानां महात्मनाम् // 51 उवाचाधिरथिं शल्यः पुनस्तं युद्धदुर्मदम् // 37 नागाश्वरथपत्त्यौघांस्तावकान्समभिन्नतः / अयं स रथ आयाति श्वेताश्वः कृष्णसारथिः / ध्वजाग्रं दृश्यते त्वस्य ज्याशब्दश्चापि श्रयते // 52 निघ्नन्नमित्रान्कौन्तेयो यं यं त्वं परिपृच्छसि // 38 अद्य द्रष्टासि तं वीरं श्वेताश्वं कृष्णसारथिम् / श्रूयते तुमुलः शब्दो रथनेमिस्वनो महान् / निघ्नन्तं शात्रवान्संख्ये यं कर्ण परिपृच्छसि // 53 एष रेणुः समुद्भूतो दिवमावृत्य तिष्ठति // 39 अद्य तौ पुरुषव्याघौ लोहिताक्षौ परंतपौ।। चक्रनेमिप्रणुन्ना च कम्पते कर्ण मेदिनी / वासुदेवार्जुनौ कर्ण द्रष्टास्येकरथस्थितौ // 54 प्रवात्येष महावायुरभितस्तव वाहिनीम् / सारथिर्यस्य वार्ष्णेयो गाण्डीवं यस्य कार्मुकम् / क्रव्यादा व्याहरन्त्येते मृगाः कुर्वन्ति भैरवम् // 40 तं चेद्धन्तासि राधेय त्वं नो राजा भविष्यसि // 55 पश्य कर्ण महाघोरं भयदं लोमहर्षणम् / एष संशप्तकाहूतस्तानेवाभिमुखो गतः / कबन्धं मेघसंकाशं भानुमावृत्य संस्थितम् // 41 करोति कदनं चैषां संग्रामे द्विषतां बली / पश्य यूथैर्बहुविधैर्मंगाणां सर्वतोदिशम् / इति ब्रुवाणं मद्रेशं कर्णः प्राहातिमन्युमान् // 56 बलिभिदृप्तशार्दूलैरादित्योऽभिनिरीक्ष्यते // 42 / पश्य संशप्तकैः क्रुद्धैः सर्वतः समभिद्रुतः / पश्य कङ्कांश्च गृध्रांश्च समवेतान्सहस्रशः। एष सूर्य इवाम्भोदैश्छन्नः पार्थो न दृश्यते / - 1712 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 31. 57 ] कर्णपर्व [8. 32. 16 एतदन्तोऽर्जुनः शल्य निमग्नः शोकसागरे // 57 / एतद्विस्तरतो युद्धं प्रवहि कुशलो ह्यसि / शल्य उवाच / न हि तृप्यामि वीराणां शृण्वानो विक्रमान्रणे॥२ वरुणं कोऽम्भसा हन्यादिन्धनेन च पावकम् / संजय उवाच। को वानिलं निगृह्णीयात्पिबेद्वा को महार्णवम् // 58 तत्स्थाने समवस्थाप्य प्रत्यमित्रं महाबलम् / ईपमहं मन्ये पार्थस्य युधि निग्रहम् / अव्यूहतार्जुनो व्यूहं पुत्रस्य तव दुर्नये // 3 न हि शक्योऽर्जुनो जेतुं सेन्द्रैः सर्वैः सुरासुरैः // तत्सादिनागकलिलं पदातिरथसंकुलम् / अथैवं परितोषस्ते वाचोक्त्वा सुमना भव / / धृष्टद्युम्नमुखैयूंढमशोभत महद्बलम् // 4 न स शक्यो युधा जेतुमन्यं कुरु मनोरथम् // 60 पारावतसवर्णाश्वश्चन्द्रादित्यसमद्युतिः / बाहुभ्यामुद्धरेद्भूमिं दहेक्रुद्ध इमाः प्रजाः / पार्षतः प्रबभौ धन्वी कालो विग्रहवानिव // 5 . पातयेत्रिदिवाद्देवान्योऽर्जुनं समरे जयेत् // 61 पार्षतं त्वभि संतस्थुद्रौपदेया युयुत्सवः / पश्य कुन्तीसुतं वीरं भीममक्लिष्टकारिणम् / सानुगा भीमवपुषश्चन्द्रं तारागणा इव // 6 प्रभासन्तं महाबाहुं स्थितं मेरुमिवाचलम् // 62 अथ व्यूढेष्वनीकेषु प्रेक्ष्य संशप्तकारणे / अमर्षी नित्यसंरब्धश्चिरं वैरमनुस्मरन् / क्रुद्धोऽर्जुनोऽभिदुद्राव व्याक्षिपन्गाण्डिवं धनुः // 7 एष भीमो जयप्रेप्सुयुधि तिष्ठति वीर्यवान् // 63 अथ संशप्तकाः पार्थमभ्यधावन्वधैषिणः / एष धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः / / विजये कृतसंकल्पा मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 8 तिष्ठत्यसुकरः संख्ये परैः परपुरंजयः // 64 तदश्वसंघबहुलं मत्तनागरथाकुलम् / एतौ च पुरुषव्याघ्रावश्विनाविव सोदरौ / पत्तिमच्छूरवीरौघैर्दुतमर्जुनमाद्रवत् // 9 नकुलः सहदेवश्च तिष्ठतो युधि दुर्जयौ // 65 / / स संप्रहारस्तुमुलस्तेषामासीकिरीटिना / दृश्यन्त एते कार्णेयाः पञ्च पश्चाचला इव / / तस्यैव नः श्रुतो यादृङिवातकवचैः सह // 10 व्यवस्थिता योत्स्यमानाः सर्वेऽर्जुनसमा युधि // 66 स्थानश्वान्ध्वजान्नागान्पत्तीरथपतीनपि / एते द्रुपदपुत्रांश्च धृष्टद्युम्नपुरोगमाः / इषून्धनूंषि खड्गांश्च चक्राणि च परश्वधान् // 11 हीनाः सत्यजिता वीरास्तिष्ठन्ति परमौजसः // 67 सायुधानुद्यतान्बाहूनुद्यतान्यायुधानि च / इति संवदतोरेव तयोः पुरुषसिंहयोः / चिच्छेद द्विषतां पार्थः शिरांसि च सहस्रशः // 12 ते सेने समसज्जेतां गङ्गायमुनवद्धशम् / / 68 तस्मिन्सैन्ये महावर्ते पातालावर्तसंनिभे / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि निमग्नं तं रथं मत्वा नेदुः संशप्तका मुदा // 13 एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // स पुरस्तादरीन्हत्वा पश्चार्धेनोत्तरेण च / दक्षिणेन च बीभत्सुः क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव // 14 धृतराष्ट्र उवाच / अथ पाश्चालचेदीनां सृञ्जयानां च मारिष / तथा व्यूढेष्वनीकेषु संसक्तेषु च संजय। त्वदीयैः सह संग्राम आसीत्परमदारुणः // 15 संशप्तकान्कथं पार्थो गतः कर्णश्च पाण्डवान् / / 1 / कृपश्च कृतवर्मा च शकुनिश्चापि सौबलः / म.भा. 215 -1713 .. 32 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 32. 16 ] महाभारते [8. 32. 45 हृष्टसेनाः सुसंरब्धा रथानीकैः प्रहारिणः // 16 यानि चाप्लवसत्त्वानि प्रायस्तानि मृतानि च // 30 कोसलैः काशिमत्स्यैश्च कारूषैः केकयैरपि। अथ कर्णो भृशं क्रुद्धः शीघ्रमस्त्रमुदीरयन् / शूरसेनैः शूरवीरैयुयुधुर्युद्धदुर्मदाः // 17 जघान पाण्डवीं सेनामासुरीं मघवानिव // 31 तेषामन्तकरं युद्धं देहपाप्मप्रणाशनम् / स पाण्डवरथांस्तूणं प्रविश्य विसृजशरान् / शूद्रविक्षत्रवीराणां धर्म्य स्वयं यशस्करम् // 18 प्रभद्रकाणां प्रवरानहनत्सप्तसप्ततिम् // 32 दुर्योधनोऽपि सहितो भ्रातृभिर्भरतर्षभ / ततः सुपुलैर्निशितै रथश्रेष्ठो रथेषुभिः / गुप्तः कुरुप्रवीरैश्च मद्राणां च महारथैः // 19 अवधीत्पञ्चविंशत्या पाञ्चालान्पश्चविंशतिम् // 33 पाण्डवैः सहपाश्चालैश्चेदिभिः सात्यकेन च। सुवर्णपुङ्खाराचैः परकायविदारणैः / युध्यमानं रणे कर्ण कुरुवीरोऽभ्यपालयत् // 20 चेदिकानवधीद्वीरः शतशोऽथ सहस्रशः // 34 कर्णोऽपि निशितैर्बाणैर्विनिहत्य महाचमूम् / तं तथा समरे कर्म कुर्वाणमतिमानुषम् / प्रमृद्य च रथश्रेष्ठान्युधिष्ठिरमपीडयत् // 21 परिवत्रुमहाराज पाञ्चालानां रथव्रजाः // 35 विपत्रायुधदेहासून्कृत्वा शत्रून्सहस्रशः / ततः संधाय विशिखान्पश्च भारत दुःसहान् / युक्त्वा स्वर्गयशोभ्यां च स्वेभ्यो मुदमुदावहत् // पाञ्चालानवधीत्पश्च कर्णो वैकर्तनो वृषः // 36 धृतराष्ट्र उवाच / भानुदेवं चित्रसेनं सेनाबिन्दुं च भारत / यत्तत्प्रविश्य पार्थानां सेनां कुर्वञ्जनक्षयम् / तपनं शूरसेनं च पाञ्चालानवधीद्रणे // 37 . कर्णो राजानमभ्यर्च्छत्तन्ममाचक्ष्व संजय // 23 पाञ्चालेषु च शूरेषु वध्यमानेषु सायकैः / के च प्रवीराः पार्थानां युधि कर्णमवारयन् / / हाहाकारो महानासीत्पाञ्चालानां महाहवे // 38 कांश्च प्रमथ्याधिरथियुधिष्ठिरमपीडयत् // 24 तेषां संकीर्यमाणानां हाहाकारकृता दिशः। ___संजय उवाच। पुनरेव च तान्कर्णो जघानाशु पतत्रिभिः // 39 धृष्टद्युम्नमुखान्पार्थान्दृष्ट्वा कर्णो व्यवस्थितान् / / चक्ररक्षौ तु कर्णस्य पुत्रौ मारिष दुर्जयो / समभ्यधावत्त्वरितः पाञ्चालाशत्रुकर्शनः // 25 सुषेणः सत्यसेनश्च त्यक्त्वा प्राणानयुध्यताम् // 40 तं तूर्णमभिधावन्तं पाञ्चाला जितकाशिनः / पृष्ठगोपस्तु कर्णस्य ज्येष्ठः पुत्रो महारथः / प्रत्युद्ययुमहाराज हंसा इव महार्णवम् // 26 वृषसेनः स्वयं कर्णं पृष्ठतः पर्यपालयत् // 41 ततः शङ्खसहस्राणां निस्वनो हृदयंगमः। धृष्टद्युम्नः सात्यकिश्च द्रौपदेया वृकोदरः / प्रादुरासीदुभयतो भेरीशब्दश्च दारुणः // 27 जनमेजयः शिखण्डी च प्रवीराश्च प्रभद्रकाः // 42 नानावादित्रनादश्च द्विपाश्वरथनिस्वनः / चेदिकेकयपाञ्चाला यमौ मत्स्याश्च दंशिताः / सिंहनादश्च वीराणामभवदारुणस्तदा // 28 समभ्यधावन्राधेयं जिघांसन्तः प्रहारिणः // 43 साद्रिद्रुमार्णवा भूमिः सवाताम्बुदमम्बरम् / न एनं विविधैः शस्त्रैः शरधाराभिरेव च / सार्केन्दुग्रहनक्षत्रा द्यौश्व व्यक्तं व्यघूर्णत // 29 / अभ्यवर्षन्विमृद्न्तः प्रावृषीवाम्बुदा गिरिम् // 44 अति भूतानि तं शब्द मेनिरेऽति च विव्यथुः।। पितरं तु परीप्सन्तः कर्णपुत्राः प्रहारिणः / - 1714 - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 32. 45 ] कर्णपर्व [8. 32.73 त्वदीयाश्चापरे राजन्वीरा वीरानवारयन् // 45 | आजघ्ने सारथिं चास्य सुषेणं च ततत्रिभिः / / सुषेणो भीमसेनस्य छित्त्वा भल्लेन कार्मुकम् / चिच्छेद चास्य सुदृढं धनुर्भल्लैत्रिभित्रिधा // 60 नाराचैः सप्तभिर्विद्या हृदि भीमं ननाद ह // 46 / अथान्यद्धनुरादाय सुषेणः क्रोधमूर्छितः / अथान्यद्धनुरादाय सुदृढं भीमविक्रमः / अविध्यन्नकुलं षष्टया सहदेवं च सप्तभिः // 61 सज्यं वृकोदरः कृत्वा सुषेणस्याच्छिनद्धनुः // 47 तद्युद्धं सुमहद्बोरमासीद्देवासुरोपमम् / विव्याध चैनं नवभिः क्रुद्धो नृत्यन्निवेषुभिः / निघ्नतां सायकैस्तूर्णमन्योन्यस्य वधं प्रति // 62 कर्ण च तूर्णं विव्याध त्रिसप्तत्या शितैः शरैः।। 48 सात्यकिवृषसेनस्य हत्वा सूतं त्रिभिः शरैः / सत्यसेनं च दशभिः साश्वसूतध्वजायुधम् / धनुश्चिच्छेद भल्लेन जघानाश्वांश्च सप्तभिः / पश्यतां सुहृदां मध्ये कर्णपुत्रमपातयत् // 49 ध्वजमेकेषुणोन्मथ्य त्रिभिस्तं हृद्यताडयत् // 63 क्षुरप्रणुन्नं तत्तस्य शिरश्चन्द्रनिभाननम् / / अथावसन्नः स्वरथे मुहूर्तात्पुनरुत्थितः / शुभदर्शनमेवासीन्नालभ्रष्टमिवाम्बुजम् // 50 अथो जिघांसुः शैनेयं खड्गचर्मभृदभ्ययात् // 64 हत्वा कर्णसुतं भीमस्तावकान्पुनरार्दयत् / तस्य चाप्लवतः शीघ्रं वृषसेनस्य सात्यकिः / कृपहार्दिक्ययोगिछत्त्वा चापे तावप्यथार्दयत् // 51 वराहकर्णैर्दशभिरविध्यदसिचर्मणी // 65 दुःशासनं त्रिभिर्विद्धा शकुनि षभिरायसैः। दुःशासनस्तु तं दृष्ट्वा विरथं व्यायुधं कृतम् / उलूकं च पतत्रिं च चकार विरथावुभौ // 52 आरोप्य स्वरथे तूर्णमपोवाह रथान्तरम् // 66 हे सुषेण हतोऽसीति ब्रुवन्नादत्त सायकम् / अथान्यं रथमास्थाय वृषसेनो महारथः / तमस्य कर्णश्चिच्छेद त्रिभिश्चैनमताडयत् // 53 कर्णस्य युधि दुर्धर्षः पुनः पृष्ठमपालयत् // 67 अथान्यमपि जग्राह सुपर्वाणं सुतेजनम् / दुःशासनं तु शैनेयो नवैर्नवभिराशुगैः / सुषेणायासृजद्भीमस्तमप्यस्याच्छिनद्वृषः // 54 विसूताश्वरथं कृत्वा ललाटे त्रिभिरार्पयत् // 68 पुनः कर्णस्त्रिसप्तत्या भीमसेनं रथेषुभिः / स त्वन्यं रथमास्थाय विधिवत्कल्पितं पुनः / पुत्रं परीप्सन्विव्याध क्रूरं क्रूरैर्जिघांसया // 55 युयुधे पाण्डुभिः साधं कर्णस्याप्याययन्बलम् // 69 सुषेणस्तु धनुर्गृह्य भारसाधनमुत्तमम् / धृष्टद्युम्नस्ततः कर्णमविध्यद्दशभिः शरैः / नकुलं पञ्चभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्दयत् // 56 / द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या युयुधानस्तु सप्तभिः // 70 नकुलस्तं तु विंशत्या विद्या भारसहै द्वैः / भीमसेनश्चतुःषष्ट्या सहदेवश्च पञ्चभिः / ननाद बलवन्नादं कर्णस्य भयमादधत् // 57 नकुलस्त्रिंशता बाणैः शतानीकश्च सप्तभिः / तं सुषेणो महाराज विवा दशभिराशुगैः / शिखण्डी दशभिर्वीरो धर्मराजः शतेन तु // 71 चिच्छेद च धनुः शीघ्रं क्षुरप्रेण महारथः // 58 / / एते चान्ये च राजेन्द्र प्रवीरा जयगृद्धिनः / अथान्यद्धनुरादाय नकुलः क्रोधमूर्छितः। अभ्यर्दयन्महेष्वासं सूतपुत्रं महामृधे // 72 सुषेणं बहुभिर्बाणैर्वारयामास संयुगे // 59 / / तान्सूतपुते विशिखैर्दशभिर्दशभिः शितैः / स तु बाणैर्दिशो राजन्नाच्छाद्य परवीरहा। रथे चारु चरन्वीरः प्रत्यविध्यदरिदमः // 73 - 1715 - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 32. 74] महाभारते [8. 33. 16 तत्रास्त्रवीर्यं कर्णस्य लाघवं च महात्मनः / / निचकर्त शिरांस्येषां बाहूनूरूंश्च सर्वशः। अपश्याम महाराज तदद्भुतमिवाभवत् // 74 ते हता वसुधां पेतुर्भग्नाश्चान्ये विदुद्रुवुः // 3 न ह्याददानं ददृशुः संदधानं च सायकान् / द्रविडान्ध्रनिषादास्तु पुनः सात्यकिचोदिताः / विमुश्चन्तं च संरम्भाद्ददृशुस्ते महारथम् // 75 अभ्यर्दयञ्जिघांसन्तः पत्तयः कर्णमाहवे // 4 द्यौर्वियद्भर्दिशश्चाशु प्रणुन्ना निशितैः शरैः। ते विबाहुशिरस्त्राणाः प्रहताः कर्णसायकैः। अरुणाभ्रावृताकारं तस्मिन्देशे बभौ वियत् // 76 पेतुः पृथिव्यां युगपच्छिन्नं शालवनं यथा // 5 नृत्यन्निव हि राधेयश्चापहस्तः प्रतापवान् / एवं योधशतान्याजौ सहस्राण्ययुतानि च / यैर्विद्धः प्रत्यविध्यत्तानेकैकं त्रिगुणैः शरैः // 77 हतानीयुर्महीं देहेर्यशसापूरयन्दिशः // 6 दशभिर्दशभिश्चैनान्पुनर्विद्या ननाद ह / अथ वैकर्तनं कर्णं रणे क्रुद्धमिवान्तकम् / साश्वसूतध्वजच्छत्रास्ततस्ते विवरं ददुः // 78 रुरुधुः पाण्डुपाञ्चाला व्याधि मन्त्रौषधैरिव // 7 तान्प्रमृद्गन्महेष्वासान्राधेयः शरवृष्टिभिः / स तान्प्रमृद्याभ्यपतत्पुनरेव युधिष्ठिरम् / राजानीकमसंबाधं प्राविशच्छत्रुकर्शनः // 79 मौषधिक्रियातीतो व्याधिरत्युल्बणो यथा // 8 स रथांत्रिशतान्हत्वा चेदीनामनिवर्तिनाम् / स राजगृद्धिभी रुद्धः पाण्डुपाञ्चालकेकयैः / राधेयो निशितैर्बाणैस्ततोऽभ्याछंद्युधिष्ठिरम् // 80 नाशकत्तानतिक्रान्तुं मृत्युब्रह्मविदो यथा // 9 ततस्ते पाण्डवा राजशिखण्डी च ससात्यकिः / ततो युधिष्ठिरः कर्णमदूरस्थं निवारितम् / राधेयात्परिरक्षन्तो राजानं पर्यवारयन् // 81 अब्रवीत्परवीरनः क्रोधसंरक्तलोचनः // 10 तथैव तावकाः सर्वे कणं दुर्वारणं रणे / कर्ण कर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्र वचः शृणु। यत्ताः सेनामहेष्वासाः पर्यरक्षन्त सर्वशः // 82 सदा स्पर्धसि संग्रामे फल्गुनेन यशस्विना / / नानावादित्रघोषाश्च प्रादुरासन्विशां पते / तथास्मान्बाधसे नित्यं धार्तराष्ट्रमते स्थितः // 11 सिंहनादश्च संजज्ञे शराणामनिवर्तिनाम // 83 यदलं यच्च ते वीर्यं प्रद्वेषो यश्च पाण्डुषु / ततः पुनः समाजग्मुरभीताः कुरुपाण्डवाः। तत्सर्वं दर्शयस्वाद्य पौरुषं महदास्थितः / युधिष्ठिरमुखाः पार्थाः सूतपुत्रमुखा वयम् // 84 युद्धश्रद्धां स तेऽद्याहं विनेष्यामि महाहवे // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि एवमुक्त्वा महाराज कणं पाण्डुसुतस्तदा / द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 // सुवर्णपुखैर्दशभिर्विव्याधायस्मयैः शितैः // 13 तं सूतपुत्रो नवभिः प्रत्यविध्यदरिंदमः / संजय उवाच / वत्सदन्तैर्महेष्वासः प्रहसन्निव भारत // 14 विदार्य कर्णस्तां सेनां धर्मराजमुपाद्रवत् / ततः क्षुराभ्यां पाञ्चाल्यौ चक्ररक्षौ महात्मनः / रथहस्त्यश्वपत्तीनां सहस्रैः परिवारितः // 1 जघान समरे शूरः शरैः संनतपर्वभिः // 15 नानायुधसहस्राणि प्रेषितान्यरिभिर्वृषः / तावुभौ धर्मराजस्य प्रवीरौ परिपार्श्वतः। छित्त्वा बाणशतैरुङ्गस्तानविध्यदसंभ्रमः // 2 रथाभ्याशे चकाशेते चन्द्रस्येव पुनर्वसू॥ 16 -1716 33 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. 33. 11] कर्णपर्व [8. 33. 44 युधिष्ठिरः पुनः कर्णमविध्यत्रिंशता शरैः / | स विवर्मा शरैः पार्थो रुधिरेण समुक्षितः / सुषेणं सत्यसेनं च त्रिभित्रिभिरताडयत् // 17 / क्रुद्धः सर्वायसी शक्ति चिक्षेपाधिरथिं प्रति // 31 शल्यं नवत्या विव्याध त्रिसप्तत्या च सूतजम् / तां ज्वलन्तीमिवाकाशे शरैश्चिच्छेद सप्तभिः / तांश्चास्य गोप्तन्विव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः // 18 सा छिन्ना भूमिमपतन्महेष्वासस्य सायकैः // 32 ततः प्रहस्याधिरथिर्विधुन्वानः स कार्मुकम् / ततो बाह्वोर्ललाटे च हृदि चैव युधिष्ठिरः / भित्त्वा भल्लेन राजानं विद्धा षष्ट्यानदन्मुदा // 19 चतुर्भिस्तोमरैः कर्णं ताडयित्वा मुदानदत् // 33 ततः प्रवीराः पाण्डूनामभ्यधावन्युधिष्ठिरम् / उद्भिन्नरुधिरः कर्णः क्रुद्धः सर्प इव श्वसन् / सूतपुत्रात्परीप्सन्तः कर्णमभ्यर्दयशरैः // 20 ध्वजं चिच्छेद भल्लेन त्रिभिर्विव्याध पाण्डवम् / सात्यकिश्चेकितानश्च युयुत्सुः पाण्ड्य एव च। . इषुधी चास्य चिच्छेद रथं च तिलशोऽच्छिनत् / / धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः // 21 एवं पार्थो व्यपायात्स निहतप्राष्टिसारथिः / यमौ च भीमसेनश्च शिशुपालस्य चात्मजः / अशक्नुवन्प्रमुखतः स्थातुं कर्णस्य दुर्मनाः // 35 कारूषा मत्स्यशेषाश्च केकयाः काशिकोसलाः / तमभिद्रुत्य राधेयः स्कन्धं संस्पृश्य पाणिना / एते च त्वरिता वीरा वसुषेणमवारयन् // 22 अब्रवीत्प्रहसनराजन्कुत्सयन्निव पाण्डवम् // 36 जनमेजयश्च पाश्वाल्यः कर्ण विव्याध सायकैः / कथं नाम कुले जातः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः / वराहकाराचैर्नालीकैर्निशितैः शरैः / प्रजह्यात्समरे शत्रून्प्राणान्रक्षन्महाहवे // 37 वत्सदन्तैर्विपाठैश्च क्षुरप्रैश्चटकामुखैः // 23 / न भवान्क्षत्रधर्मेषु कुशलोऽसीति मे मतिः / नानाप्रहरणैश्चोत्रै रथहस्त्यश्वसादिनः / ब्राह्मे बले भवान्युक्तः स्वाध्याये यज्ञकर्मणि // 38 सर्वतोऽभ्याद्रवन्कर्णं परिवार्य जिघांसया // 24 मा स्म युध्यस्व कौन्तेय मा च वीरान्समासदः / स पाण्डवानां प्रवरैः सर्वतः समभिद्रुतः / मा चैनानप्रियं ब्रूहि मा च व्रज महारणम् // 39 उदैत्यद्भाह्ममस्त्रं शरैः संपूरयन्दिशः // 25 एवमुक्त्वा ततः पार्थं विसृज्य च महाबलः / ततः शरमहाज्वालो वीर्योष्मा कर्णपावकः / न्यहनत्पाण्डवीं सेनां वज्रहस्त इवासुरीम् / निर्दहन्पाण्डववनं चारु पर्यचरद्रणे // 26 / / ततः प्रायाद्रुतं राजन्त्रीडन्निव जनेश्वरः // 40 : स संवार्य महास्त्राणि महेष्वासो महात्मनाम् / अथ प्रयान्तं राजानमन्वयुस्ते तदाच्युतम् / प्रहस्य पुरुषेन्द्रस्य शरैश्चिच्छेद कार्मुकम् // 27 चेदिपाण्डवपाश्चालाः सात्यकिश्च महारथः / ततः संधाय नवतिं निमेषान्नतपर्वणाम् / द्रौपदेयास्तथा शूरा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 41 बिभेद कवचं राज्ञो रणे कर्णः शितैः शरैः // 28 ततो युधिष्ठिरानीकं दृष्ट्वा कर्णः पराङ्मुखम् / तद्वर्म हेमविकृतं रराज निपतत्तदा / कुरुभिः सहितो वीरैः पृष्ठगैः पृष्ठमन्वयात् // 42 सविद्युदभ्रं सवितुः शिष्टं वातहतं यथा // 29 शङ्खभेरीनिनादैश्च कार्मुकाणां च निस्वनैः / तदनं पुरुषेन्द्रस्य भ्रष्टवर्म व्यरोचत / बभूव धार्तराष्ट्राणां सिंहनादरवस्तदा // 43 रत्नैरलंकृतं दिव्यैर्व्यभ्रं निशि यथा नभः // 30 / युधिष्ठिरस्तु कौरव्य रथमारुह्य सत्वरः / - 1717 - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 33. 44 ] महाभारते [8. 33. 76 श्रुतकीर्तेर्महाराज दृष्टवान्कर्णविक्रमम् // 44 सैन्ये च रजसा व्याप्ते स्वे स्वाञ्जनः परे परान्॥ 59 काल्यमानं बलं दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / कचाकचि बभौ युद्धं दन्तादन्ति नखानखि / तान्योधानब्रवीत्क्रुद्धो हतैनं वै सहस्रशः // 45 मुष्टियुद्धं नियुद्धं च देहपाप्मविनाशनम् // 60 ततो राज्ञाभ्यनुज्ञाताः पाण्डवानां महारथाः / तथा वर्तति संग्रामे गजवाजिजनक्षये / भीमसेनमुखाः सर्वे पुत्रांस्ते प्रत्युपाद्रवन् // 46 नराश्वगजदेहेभ्यः प्रसृता लोहितापगा / अभवत्तुमुलः शब्दो योधानां तत्र भारत। नराश्वगजदेहान्सा व्युवाह पतितान्बहून् // 61 हत्यश्वरथपत्तीनां शस्त्राणां च ततस्ततः // 47 नराश्वगजसंबाधे नराश्वगजसादिनाम् / उत्तिष्ठत प्रहरत प्रैताभिपततेति च / लोहितोदा महाघोरा नदी लोहितकर्दमा। . इति ब्रुवाणा अन्योन्यं जन्नुर्योधा रणाजिरे // 48 नराश्वगजदेहान्सा वहन्ती भीरुभीषणी // 62 अभ्रच्छायेव तत्रासीच्छरवृष्टिभिरम्बरे / तस्याः परमपारं च व्रजन्ति विजयैषिणः / समावृत्तैर्नरवरैर्निनद्भिरितरेतरम् // 49 गाधेन च प्लवन्तश्च निमज्योन्मज्य चापरे // 63 विपताकाध्वजच्छत्रा व्यश्वसूतायुधा रणे / ते तु लोहितदिग्धाङ्गा रक्तवर्मायुधाम्बराः / व्यङ्गाङ्गावयवाः पेतुः क्षितौ क्षीणा हतेश्वराः // 50 सस्नुस्तस्यां पपुश्वासृङ्मम्लुश्च भरतर्षभ // 64 प्रवराणीव शैलानां शिखराणि द्विपोत्तमाः / सारोहा निहताः पेतुर्वज्रभिन्ना इवाद्रयः // 51 रथानश्वानरान्नागानायुधाभरणानि च / छिन्नभिन्नविपर्यस्तैर्वर्मालंकारविग्रहः / वसनान्यथ वर्माणि हन्यमानान्हतानपि / भूमि खं द्यां दिशश्चैव प्रायः पश्याम लोहितम्॥६५ सारोहास्तुरगाः पेतुर्हतवीराः सहस्रशः // 52 विप्रविद्धायुधाङ्गाश्च द्विरदाश्वरथैर्हताः / लोहितस्य तु गन्धेन स्पर्शेन च रसेन च। प्रतिवीरैश्च संमर्दे पत्तिसंघाः सहस्रशः // 53 . रूपेण चातिरिक्तेन शब्देन च विसर्पता / विशालायतताम्राक्षैः पद्मेन्दुसदृशाननैः / विषादः सुमहानासीत्प्रायः सैन्यस्य भारत // 66 शिरोभियुद्धशौण्डानां सर्वतः संस्तृता मही // 54 तत्तु विप्रहतं सैन्यं भीमसेनमुखैस्तव / तथा तु वितते व्योम्नि निस्वनं शुश्रुवुर्जनाः। भूयः समाद्रवन्वीराः सात्यकिप्रमुखा रथाः // 67 विमानैरप्सरःसंधैर्गीतवादित्रनिस्वनैः // 55 तेषामापततां वेगमविषह्य महात्मनाम् / हतान्कृत्तानभिमुखान्वीरान्वीरैः सहस्रशः / पुत्राणां ते महत्सैन्यमासीद्राजन्पराङ्मुखम् // 68 आरोप्यारोप्य गच्छन्ति विमानेष्वप्सरोगणाः // 56 तत्प्रकीर्णरथाश्वेभं नरवाजिसमाकुलम् / तदृष्ट्वा महदाश्वयं प्रत्यक्षं स्वर्गलिप्सया। विध्वस्तचर्मकवचं प्रविद्धायुधकार्मुकम् // 69 . प्रहृष्टमनसः शूराः क्षिप्रं जग्मुः परस्परम् // 57 व्यद्रवत्तावकं सैन्यं लोड्यमानं समन्ततः / रथिनो रथिभिः सार्धं चित्रं युयुधुराहवे। सिंहार्दितं महारण्ये यथा गजकुलं तथा // 70 पत्तयः पत्तिभिर्नागा नागैः सह हयैर्हयाः // 58 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि एवं प्रवृत्ते संग्रामे गजवाजिजनक्षये / त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥ -1718 - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 34.1] कर्णपर्व [8. 34. 26 - 34 त्रैलोक्यस्य समस्तस्य शक्तः क्रुद्धो निवारणे। संजय उवाच। बिभर्ति यादृशं रूपं कालाग्निसदृशं शुभम् // 14 वानभिद्रवतो दृष्ट्वा पाण्डवांस्तावकं बलम् / इति ब्रुवति राधेयं मद्राणामीश्वरे नृप / कोशतस्तव पुत्रस्य न स्म राजन्न्यवर्तत // 1 अभ्यवर्तत वै कर्ण क्रोधदीप्तो वृकोदरः // 15 ततः पक्षात्प्रपक्षाच्च प्रपक्षैश्चापि दक्षिणात् / तथागतं तु संप्रेक्ष्य भीमं युद्धाभिनन्दिनम् / सदस्तशस्त्राः कुरवो भीममभ्यद्रवन्रणे / / 2 अब्रवीद्वचनं शल्यं राधेयः प्रहसन्निव // 16 कर्णोऽपि दृष्ट्वा द्रवतो धार्तराष्ट्रान्पराङ्मुखान् / यदुक्तं वचनं मेऽद्य त्वया मद्रजनेश्वर / हंसवर्णान्हयात्र्यांस्तान्प्रैषीधन वृकोदरः॥ 3 भीमसेनं प्रति विभो तत्सत्यं नात्र संशयः // 17 ते प्रेषिता महाराज शल्येनाहवशोभिना / एष शूरश्च वीरश्च क्रोधनश्च वृकोदरः / मीमसेनरथं प्राप्य समसज्जन्त वाजिनः // 4 निरपेक्षः शरीरे च प्राणतश्च बलाधिकः // 18 का कर्ण समायान्तं भीमः क्रोधसमन्वितः / अज्ञातवासं वसता विराटनगरे तदा। मतिं दधे विनाशाय कर्णस्य भरतर्षभ // 5 द्रौपद्याः प्रियकामेन केवलं बाहुसंश्रयात् / सोऽब्रवीत्सात्यकि वीरं धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् / गूढभावं समाश्रित्य कीचकः सगणो हतः॥ 19 एनं रक्षत राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / सोऽद्य संग्रामशिरसि संनद्धः क्रोधमूर्छितः / संशयान्महतो मुक्तं कथंचित्प्रेक्षतो मम // 6 किंकरोद्यतदण्डेन मृत्युनापि जेद्रणम् // 20 अग्रतो मे कृतो राजा छिन्नसर्वपरिच्छदः / चिरकालाभिलपितो ममायं तु मनोरथः / दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थं राधेयेन दुरात्मना / / 7 अर्जुनं समरे हन्यां मां वा हन्याद्धनंजयः / अन्तमद्य करिष्यामि तस्य दुःखस्य पार्षत / स मे कदाचिद्यैव भवेद्भीमसमागमात् / / 21 हन्ता वास्मि रणे कर्णं स वा मां निहनिष्यति / निहते भीमसेने तु यदि वा विरथीकृते / संप्रामेण सुघोरेण सत्यमेतद्रवीमि वः // 8 अभियास्यति मां पार्थस्तन्मे साधु भविष्यति / राजानमद्य भवतां न्यासभूतं ददामि वै / अत्र यन्मन्यसे प्राप्तं तच्छीघ्रं संप्रधारय // 22 अस्य संरक्षणे सर्वे यतध्वं विगतज्वराः // 9 एतच्छ्रुत्वा तु वचनं राधेयस्य महात्मनः / एवमुक्त्वा महाबाहुः प्रायादाधिरथिं प्रति / उवाच वचनं शल्यः सूतपुत्रं तथागतम् // 23 सिंहनादेन महता सर्वाः संनादयन्दिशः // 10 अभियासि महाबाहो भीमसेनं महाबलम् / एमा त्वरितमायान्तं भीमं युद्धाभिनन्दिनम् / निरस्य भीमसेनं तु ततः प्राप्स्यसि फल्गुनम् // 24 सूतपुत्रमथोवाच मद्राणामीश्वरो विभुः // 11 / / यस्ते कामोऽभिलपितश्चिरात्प्रभृति हृद्गतः / / पश्य कर्ण महाबाहुं क्रुद्धं पाण्डवनन्दनम् / / स वै संपत्स्यते कर्ण सत्यमेतद्भवीमि ते // 25 पीर्घकालार्जितं क्रोधं मोक्तुकामं त्वयि ध्रुवम् // 12 एवमुक्ते ततः कर्णः शल्यं पुनरभाषत / दृशं नास्य रूपं मे दृष्टपूर्वं कदाचन / हन्ताहमर्जुनं संख्ये मां वा हन्ता धनंजयः / अभिमन्यौ हते कर्ण राक्षसे वा घटोत्कचे // 13 / युद्धे मनः समाधाय याहि याहीत्यचोदयत् / / 26 - 1719 - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 34. 27 ] महाभारते [8. 35.9 ततः प्रायाद्रथेनाशु शल्यस्तत्र विशां पते। स भीमसेनाभिहतो सूतपुत्रः कुरूद्वह / यत्र भीमो महेष्वासो व्यद्रावयत वाहिनीम् // 27 निषसाद रथोपस्थे विसंज्ञः पृतनापतिः // 40 ततस्तूर्यनिनादश्च भेरीणां च महास्वनः / ततो मद्राधिपो दृष्ट्वा विसंज्ञं सूतनन्दनम् / उदतिष्ठत राजेन्द्र कर्णभीमसमागमे // 28 अपोवाह रथेनाजौ कर्णमाहवशोभिनम् // 41 भीमसेनोऽथ संक्रुद्धस्तव सैन्यं दुरासदम् / ततः पराजिते कर्णे धार्तराष्ट्रीं महाचमूम् / नाराचैर्विमलैस्तीक्ष्णैर्दिशः प्राद्रावयद्बली // 29 व्यद्रावयद्भीमसेनो यथेन्द्रो दानवीं चमूम् // 42 स संनिपातस्तुमुलो भीमरूपो विशां पते / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि आसीद्रौद्रो महाराज कर्णपाण्डवयोमधे / चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३४॥ ततो मुहूर्ताद्राजेन्द्र पाण्डवः कर्णमाद्रवत् // 30 तमापतन्तं संप्रेक्ष्य कर्णो वैकर्तनो वृषः / धृतराष्ट्र उवाच / .. आजघानोरसि क्रुद्धो नाराचेन स्तनान्तरे / सुदुष्करमिदं कर्म कृतं भीमेन संजय / पुनश्चैनममेयात्मा शरवर्षैरवाकिरत् // 31 येन कर्णो महाबाहू रथोपस्थे निपातितः // 1 स विद्धः सूतपुत्रेण छादयामास पत्रिभिः / कर्णो ह्येको रणे हन्ता सृञ्जयान्पाण्डवैः सह / विव्याध निशितैः कर्णं नवभिनतपर्वभिः // 32 इति दुर्योधनः सूत प्राब्रवीन्मां मुहुर्मुहुः // 2 तस्य कर्णो धनुर्मध्ये द्विधा चिच्छेद पत्रिणा। पराजितं तु राधेयं दृष्ट्वा भीमेन संयुगे। अथ तं छिन्नधन्वानमभ्यविध्यत्स्तनान्तरे। ततः परं किमकरोत्पुत्रो दुर्योधनो मम // 3 नाराचेन सुतीक्ष्णेन सर्वावरणभेदिना // 33 संजय उवाच / सोऽन्यत्कार्मुकमादाय सूतपुत्रं वृकोदरः / विभ्रान्तं प्रेक्ष्य राधेयं सूतपुत्रं महाहवे। राजन्मर्मसु मर्मज्ञो विवा सुनिशितैः शरैः / महत्या सेनया राजन्सोदर्यान्समभाषत // 4 ननाद बलवन्नादं कम्पयन्निव रोदसी // 34 शीघ्रं गच्छत भद्रं वो राधेयं परिरक्षत / तं कर्णः पञ्चविंशत्या नाराचानां समादयत् / भीमसेनभयागाधे मजन्तं व्यसनार्णवे / / 5 मदोत्कटं वने दृप्तमुल्काभिरिव कुञ्जरम् // 35 ते तु राज्ञा समादिष्टा भीमसेनजिघांसवः / ततः सायकभिन्नाङ्गः पाण्डवः क्रोधमूर्छितः / अभ्यवर्तन्त संक्रुद्धाः पतंगा इव पावकम् // 6 संरम्भामर्षताम्राक्षः सूतपुत्रवधेच्छया // 36 श्रुतायुर्दुर्धरः क्राथो विवित्सुर्विकटः समः / स कार्मुके महावेगं भारसाधनमुत्तमम् / निषङ्गी कवची पाशी तथा नन्दोपनन्दकौ // 7 गिरीणामपि भेत्तारं सायकं समयोजयत् // 37 दुष्प्रधर्षः सुबाहुश्च वातवेगसुवर्चसौ। विकृष्य बलवच्चापमा कर्णादतिमारुतिः / धनुर्माहो दुर्मदश्च तथा सत्त्वसमः सहः // 8 तं मुमोच महेष्वासः क्रुद्धः कर्णजिघांसया // 38 एते रथैः परिवृता वीर्यवन्तो महाबलाः / स विसृष्टो बलवता बाणो वज्राशनिस्वनः / भीमसेनं समासाद्य समन्तात्पर्यवारयन् / अदारयद्रणे कर्णं वज्रवेग इवाचलम् // 39 ते व्यमुखशरवातान्नानालिङ्गान्समन्ततः // 9 -1720 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 35. 10] [8. 35. 38 स तैरभ्यद्यमानस्तु भीमसेनो महाबलः / विरथो भरतश्रेष्ठः प्रहसन्ननिलोपमः / तेषामापततां क्षिप्रं सुतानां ते नराधिप / गदाहस्तो महाबाहुरपतत्स्यन्दनोत्तमात् // 24 स्थैः पश्चाशता साधं पञ्चाशन्न्यहनद्रथान् // 10 नागासप्तशतान्राजन्नीषादन्तान्प्रहारिणः / विवित्सोस्तु ततः क्रुद्धो भल्लेनापाहरच्छिरः / व्यधमत्सहसा भीमः क्रुद्धरूपः परंतपः // 25 सकुण्डलशिरस्त्राणं पूर्णचन्द्रोपमं तदा / दन्तवेष्टेषु नेत्रेषु कुम्भेषु स कटेषु च / भीमेन च महाराज स पपात हतो भुवि // 11 मर्मस्वपि च मर्मज्ञो निनदन्व्यधमभृशम् // 26 तं दृष्ट्वा निहतं शूरं भ्रातरः सर्वतः प्रभो। ततस्ते प्राद्रवन्भीताः प्रतीपं प्रहिताः पुनः / अभ्यद्रवन्त समरे भीमं भीमपराक्रमम् // 12 महामात्रैस्तमावत्रुर्मेघा इव दिवाकरम् // 27 ततोऽपराभ्यां भल्लाभ्यां पुत्रयोस्ते महाहवे / तान्स सप्तशतान्नागान्सारोहायुधकेतनान् / जहार समरे प्राणान्भीमो भीमपराक्रमः // 13 भूमिष्ठो गदया जघ्ने शरन्मेघानिवानिलः // 28 तौ धरामन्वपद्येतां वातरुग्णाविव द्रुमौ / ततः सुबलपुत्रस्य नागानतिबलान्पुनः / विकटश्च समश्चोभी देवगर्भसमौ नृप // 14 पोथयामास कौन्तेयो द्वापञ्चाशतमाहवे // 29 ततस्तु त्वरितो भीमः क्राथं निन्ये यमक्षयम् / तथा रथशतं साग्रं पत्तींश्च शतशोऽपरान् / नाराचेन सुतीक्ष्णेन स हतो न्यपतद्भुवि // 15 न्यहनत्पाण्डवो युद्धे तापयंस्तव वाहिनीम् // 30 हाहाकारस्ततस्तीव्रः संबभूव जनेश्वर / प्रताप्यमानं सूर्येण भीमेन च महात्मना / वध्यमानेषु ते राजस्तदा पुत्रेषु धन्विषु // 16 तव सैन्यं संचुकोच चर्म वह्निगतं यथा // 31 तेषां संलुलिते सैन्ये भीमसेनो महाबलः। ते भीमभयसंत्रस्तास्तावका भरतर्षभ / नन्दोपनन्दी समरे प्रापयद्यमसादनम् // 17 विहाय समरे भीमं दुद्रुवुर्वै दिशो दश // 32 ततस्ते प्राद्रवन्भीताः पुत्रास्ते विह्वलीकृताः। रथाः पञ्चशताश्चान्ये हादिनश्चर्मवर्मिणः / भीमसेनं रणे दृष्ट्वा कालान्तकयमोपमम् / / 18 भीममभ्यद्रवंस्तूर्णं शरपूगैः समन्ततः // 33 पुत्रांस्ते निहतान्दृष्ट्वा सूतपुत्रो महामनाः / तान्ससूतरथान्सर्वान्सपताकाध्वजायुधान् / हंसवर्णान्हयान्भूयः प्राहिणोद्यत्र पाण्डवः // 19 पोथयामास गदया भीमो विष्णुरिवासुरान् // 34 ते प्रेषिता महाराज मद्रराजेन वाजिनः / ततः शकुनिनिर्दिष्टाः सादिनः शूरसंमताः / मीमसेनरथं प्राप्य समसज्जन्त वेगिताः // 20 त्रिसाहस्रा ययुर्भीमं शक्त्यष्टिप्रासपाणयः // 35 स संनिपातस्तुमुलो घोररूपो विशां पते / तान्प्रत्युद्गम्य यवनानश्वारोहान्वरारिहा / आसीद्रौद्रो महाराज कर्णपाण्डवयोर्मधे // 21 विचरन्विविधान्मार्गान्धातयामास पोथयन् // 36 दृष्ट्वा मम महाराज तौ समेतौ महारथौ / तेषामासीन्महाशब्दस्ताडितानां च सर्वशः / आसीद्बुद्धिः कथं नूनमेतदद्य भविष्यति // 22 असिभिश्छिद्यमानानां नडानामिव भारत // 37 ततो मुहूर्ताद्राजेन्द्र नातिकृच्छ्राद्धसन्निव / एवं सुबलपुत्रस्य त्रिसाहस्रान्हयोत्तमान् / विरथं भीमकर्माणं भीमं कर्णश्चकार ह // 23 / हत्वान्यं रथमास्थाय क्रुद्धो राधेयमभ्ययात् // 38 म. भा. 216 -1721 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 35. 39 ] महाभारते [8. 36.5 कर्णोऽपि समरे राजन्धर्मपुत्रमरिंदमम् / गर्जतां सागरौघाणां यथा स्यान्निस्वनो महान् // 53 शरैः प्रच्छादयामास सारथिं चाप्यपातयत् // 39 ते तु सेने समासाद्य वेगवत्यौ परस्परम् / ततः संप्रद्रुतं संख्ये रथं दृष्ट्वा महारथः / एकीभावमनुप्राप्ते नद्याविव समागमे // 54 अन्वधावत्किरन्बाणैः कङ्कपत्रैरजिह्मगैः // 40 ततः प्रववृते युद्धं घोररूपं विशां पते / राजानमभि धावन्तं शरैरावृत्य रोदसी। कुरूणां पाण्डवानां च लिप्सतां सुमहद्यशः // 55 क्रुद्धः प्रच्छादयामास शरजालेन मारुतिः // 41 कुरूणां गर्जतां तत्र अविच्छेदकृता गिरः / संनिवृत्तस्ततस्तूर्णं राधेयः शत्रुकर्शनः / / श्रूयन्ते विविधा राजन्नामान्युद्दिश्य भारत // 56 भीमं प्रच्छादयामास समन्तान्निशितैः शरैः // 42 यस्य यद्धि रणे न्यङ्ग पितृतो मातृतोऽपि वा। भीमसेनरथव्यग्रं कर्णं भारत सात्यकिः / कर्मतः शीलतो वापि स तच्छ्रावयते युधि // 5 // अभ्यर्दयदमेयात्मा पाणिग्रहणकारणात् / तान्दृष्ट्वा समरे शूरांस्त यानान्परस्परम् / अभ्यवर्तत कर्णस्तमर्दितोऽपि शरैर्भृशम् // 43 अभवन्मे मती राजन्नैषामस्तीति जीवितम् // 5. तावन्योन्यं समासाद्य वृषभौ सर्वधन्विनाम् / तेषां दृष्ट्वा तु क्रुद्धानां वपूंष्यमिततेजसाम् / विसृजन्तौ शरांश्चित्रान्विभ्राजेतां मनस्विनौ // 44 अभवन्मे भयं तीव्र कथमेतद्भविष्यति // 59 ताभ्यां वियति राजेन्द्र विततं भीमदर्शनम् / / ततस्ते पाण्डवा राजन्कौरवाश्च महारथाः / क्रौश्चपृष्ठारुणं रौद्रं बाणजालं व्यदृश्यत // 45 ततक्षुः सायकैस्तीक्ष्णैनिघ्नन्तो हि परस्परम् // 6 नैव सूर्यप्रभा खं वा न दिशः प्रदिशः कुतः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि / प्राज्ञासिष्म वयं ताभ्यां शरैमुक्तैः सहस्रशः॥४६ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः / / 35 // मध्याह्ने तपतो राजन्भास्करस्य महाप्रभाः। हृताः सर्वाः शरौघैस्तैः कर्णमाधवयोस्तदा // 47 संजय उवाच / सौबलं कृतवर्माणं द्रौणिमाधिरथिं कृपम् / क्षत्रियास्ते महाराज परस्परवधैषिणः / संसक्तान्पाण्डवैदृष्ट्वा निवृत्ताः कुरवः पुनः // 48 अन्योन्यं समरे जघ्नुः कृतवैराः परस्परम् // 1 तेषामापततां शब्दस्तीव्र आसीद्विशां पते / रथौघाश्च हयौघाश्च नरौघाश्च समन्ततः / उद्भूतानां यथा वृष्टया सागराणां भयावहः // 49 गजौघाश्च महाराज संसक्ताः स्म परस्परम् // 2 ते सेने भृशसंविग्ने दृष्ट्वान्योन्यं महारणे / गदानां परिघाणां च कणपानां च सर्पताम् / हर्षेण महता युक्ते परिगृह्य परस्परम् // 50 प्रासानां भिण्डिपालानां भुशुण्डीनां च सर्वशः। ततः प्रववृते युद्धं मध्यं प्राप्ते दिवाकरे / संपातं चान्वपश्याम संग्रामे भृशदारुणे / यादृशं न कदाचिद्धि दृष्टपूर्वं न च श्रुतम् // 51 शलभा इव संपेतुः समन्ताच्छरवृष्टयः // 4 बलौघस्तु समासाद्य बलौघं सहसा रणे। नागा नागान्समासाद्य व्यधमन्त परस्परम् / उपासर्पत वेगेन जलौघ इव सागरम् // 52 हया हयांश्च समरे रथिनो रथिनस्तथा / आसीन्निनादः सुमहान्बलौघानां परस्परम् / पत्तयः पत्तिसंधैश्च हयसंधैईयास्तथा // 5 -1722 - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 36.6] कणपत्र [8. 36. 35 पत्तयो रथमातङ्गान्रथा हस्यश्वमेव च। निषेदुश्चैव मम्लुश्च बभ्रमुश्च दिशो दश // 20 नागाश्च समरे व्यङ्गं ममृदुः शीघ्रगा नृप // 6 अपरे कृष्यमाणाश्च विवेष्टन्तो महीतले / पततां तत्र शूराणां क्रोशतां च परस्परम् / भावान्बहुविधांश्चक्रस्ताडिताः शरतोमरैः // 21 घोरमायोधनं जज्ञे पशूनां वैशसं यथा // 7 नरास्तु निहता भूमौ कूजन्तस्तत्र मारिष / रुधिरेण समास्तीर्णा भाति भारत मेदिनी / दृष्ट्वा च बान्धवानन्ये पितृनन्ये पितामहान् // 22 शक्रगोपगणाकीर्णा प्रावृषीव यथा धरा // 8 धावमानान्परांश्चैव दृष्ट्वान्ये तत्र भारत / यथा वा वासती शुक्ले महारजनरञ्जिते / गोत्रनामानि ख्यातानि शशंसुरितरेतरम् // 23 विभृयायुवतिः श्यामा तद्वदासीद्वसुंधरा / तेषां छिन्ना महाराज भुजाः कनकभूषणाः / मांसशोणितचित्रेव शातकौम्भमयीव च // 9 उद्वेष्टन्ते विवेष्टन्ते पतन्ते चोत्पतन्ति च // 24 छिन्नानां चोत्तमाङ्गानां बाहूनां चोरुभिः सह / निपतन्ति तथा भूमौ स्फुरन्ति च सहस्रशः / कुण्डलानां प्रविद्धानां भूषणानां च भारत // 10 वेगांश्चान्ये रणे चक्रुः स्फुरन्त इव पन्नगाः // 25 निष्काणामधिसूत्राणां शरीराणां च धन्विनाम् / ते भुजा भोगिभोगाभाश्चन्दनाक्ता विशां पते / वर्मणां सपताकानां संघास्तत्रापतन्भुवि // 11 / / लोहितार्दा भृशं रेजुस्तपनीयध्वजा इव // 26 गजान्गजाः समासाद्य विषाणाप्रैरदारयन् / वर्तमाने तथा घोरे संकुले सर्वतोदिशम् / विषाणाभिहतास्ते च भ्राजन्ते द्विरदा यथा // 12 अविज्ञाताः स्म युध्यन्ते विनिघ्नन्तः परस्परम् // 27 रुधिरेणावसिक्ताङ्गा गैरिकप्रस्रवा इव / भौमेन रजसा कीर्णे शस्त्रसंपातसंकुले / यथा भ्राजन्ति स्यन्दन्तः पर्वता धातुमण्डिताः // नैव स्वे न परे राजन्व्यज्ञायन्त तमोवृते // 28 तोमरान्गजिभिर्मुक्तान्प्रतीपानास्थितान्बहून् / तथा तदभवद्युद्धं घोररूपं भयानकम् / हस्तैर्विचेरुस्ते नागा बभञ्जुश्चापरे तथा // 14 शोणितोदा महानद्यः प्रसञस्तत्र चासकृत् // 29 नाराचैश्छिन्नवर्माणो भ्राजन्ते स्म गजोत्तमाः / शीर्षपाषाणसंछन्नाः केशशैवलशाद्वलाः / हिमागमे महाराज व्यभ्रा इव महीधराः // 15 अस्थिसंघातसंकीर्णा धनुःशरवरोत्तमाः // 30 शरैः कनकपुखैस्तु चिता रेजुर्गजोत्तमाः। मांसकर्दमपङ्काश्च शोणितौघाः सुदारुणाः / उल्काभिः संप्रदीप्तायाः पर्वता इव मारिष // 16 नदीः प्रवर्तयामासुर्यमराष्ट्रविवर्धनीः // 31 केचिदभ्याहता नागा नागैर्नगनिभा भुवि / ता नद्यो घोररूपाश्च नयन्त्यो यमसादनम् / निपेतुः समरे तस्मिन्पक्षवन्त इवाद्रयः // 17 अवगाढा मजयन्त्यः क्षत्रस्याजनयन्भयम् // 32 अपरे प्राद्रवन्नागाः शल्यार्ता व्रणपीडिताः / क्रव्यादानां नरव्याघ्र नर्दतां तत्र तत्र ह / प्रतिमानैश्च कुम्भैश्च पेतुरुव्या महाहवे // 18 घोरमायोधनं जज्ञे प्रेतराजपुरोपमम् // 33 निषेदुः सिंहवच्चान्ये नदन्तो भैरवान्रवान् / उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः / मम्लुश्च बहवो राजश्चकूजुश्चापरे तथा // 19 / नृत्यन्ति वै भूतगणाः संतृप्ता मांसशोणितैः // 34 याश्च निहता बाणैः स्वर्णभाण्डपरिच्छदाः। पीत्वा च शोणितं तत्र वसां पीत्वा च भारत / - 1728 - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 36. 35] महाभारते [8. 37. 21 मेदोमज्जावसातृप्तास्तृप्ता मांसस्य चैव हि। ततोऽपरेण भल्लेन केतुं विव्याध मारिष // 7 धावमानाश्च दृश्यन्ते काकगृध्रबलास्तथा // 35 स वानरवरो राजन्विश्वकर्मकृतो महान् / शूरास्तु समरे राजन्भयं त्यक्त्वा सुदुस्त्यजम् / ननाद सुमहन्नादं भीषयन्यै ननदं च // 8 योधव्रतसमाख्याताश्चक्रुः कर्माण्यभीतवत् // 36 कपेस्तु निनदं श्रुत्वा संत्रस्ता तव वाहिनी / शरशक्तिसमाकीर्णे क्रव्यादगणसंकुले / भयं विपुलमादाय निश्चेष्टा समपद्यत // 9 व्यचरन्त गणैः शूराः ख्यापयन्तः स्वपौरुषम् // 37 ततः सा शुशुभे सेना निश्चेष्टावस्थिता नृप / अन्योन्यं श्रावयन्ति स्म नामगोत्राणि भारत / नानापुष्पसमाकीणं यथा चैत्ररथं वनम् // 10 पितृनामानि च रणे गोत्रनामानि चाभितः // 38 प्रतिलभ्य ततः संज्ञां योधास्ते कुरुसत्तम / . श्रावयन्तो हि बहवस्तत्र योधा विशां पते / अर्जुनं सिषिचुर्बाणैः पर्वतं जलदा इव / अन्योन्यमवमृद्गन्तः शक्तितोमरपट्टिशैः // 39 परिवत्रुस्तदा सर्वे पाण्डवस्य महारथम् // 11 धर्तमाने तदा युद्धे घोररूपे सुदारुणे। ते हयारथचक्रे च रथेषाश्चापि भारत / व्यषीदत्कौरवी सेना भिन्ना नौरिव सागरे // 40 निगृह्य बलवत्तर्ण सिंहनादमथानदन // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अपरे जगृहुश्चैव केशवस्य महाभुजौ / षट्त्रिंशोऽध्यायः // 36 // पार्थमन्ये महाराज रथस्थं जगृहुर्मुदा // 13 . केशवस्तु तदा बाहू विधुन्वरणमूर्धनि / . संजय उवाच। पातयामास तान्सर्वान्दुष्टहस्तीव हस्तिनः // 14 वर्तमाने तदा युद्धे क्षत्रियाणां निमज्जने / ततः क्रुद्धो रणे पार्थः संवृतस्तैर्महारथैः / गाण्डीवस्य महान्घोषः शुश्रुवे युधि मारिष // 1 निगृहीतं रथं दृष्ट्वा केशवं चाप्यभिद्रुतम् / / संशप्तकानां कदनमकरोद्यत्र पाण्डवः / रथारूढांश्च सुबहून्पदातींश्चाप्यपातयत् / / 15 कोसलानां तथा राजन्नारायणबलस्य च // 2 आसन्नांश्च ततो योधाशरैरासन्नयोधिभिः / संशप्तकास्तु समरे शरवृष्टिं समन्ततः / च्यावयामास समरे केशवं चेदमब्रवीत् // 16 अपातयन्पार्थमूर्ध्नि जयगृद्धाः प्रमन्यवः // 3 पश्य कृष्ण महाबाहो संशप्तकगणान्मया। तां वृष्टिं सहसा राजंस्तरसा धारयन्प्रभुः / कुर्वाणान्दारुणं कर्म वध्यमानान्सहस्रशः // 17 व्यगाहत रणे पार्थो विनिनरथिनां वरः // 4 रथबन्धमिमं घोरं पृथिव्यां नास्ति कश्चन / निगृह्य तु रथानीकं कङ्कपत्रैः शिलाशितैः / यः सहेत पुमाल्लोके मदन्यो यदुपुंगव // 18 आससाद रणे पार्थः सुशर्माणं महारथम् // 5 इत्येवमुक्त्वा बीभत्सुर्देवदत्तमथाधमत् / स तस्य शरवर्षाणि ववर्ष रथिनां वरः / पाञ्चजन्यं च कृष्णोऽपि पूरयन्निव रोदसी // 19 तथा संशप्तकाश्चैव पार्थस्य समरे स्थिताः // 6 तं तु शङ्खस्वनं श्रुत्वा संशप्तकवरूथिनी / सुशर्मा तु ततः पार्थं विद्धा नवभिराशुगैः। संचचाल महाराज वित्रस्ता चाभवद्भशम् // 20 जनार्दनं त्रिभिर्बाणैरभ्यहन्दक्षिणे भुजे। पदबन्धं ततश्चक्रे पाण्डवः परवीरहा / - 1724 - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 37. 21] कर्णपर्व [8. 38.9 नागमस्त्रं महाराज संप्रोदीर्य मुहुर्मुहुः // 21 हन्यमानमपश्यंश्च निश्चेष्टाः स्म पराक्रमे // 34 यानुद्दिश्य रणे पार्थः पदबन्धं चकार ह / अयुतं तत्र योधानां हत्वा पाण्डुसुतो रणे / ते बद्धाः पदबन्धेन पाण्डवेन महात्मना / व्यभ्राजत रणे राजन्विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् // 35 निश्चेष्टा अभवन्राजन्नश्मसारमया इव // 22 चतुर्दश सहस्राणि यानि शिष्टानि भारत / निश्चेष्टांस्तु ततो योधानवधीत्पाण्डुनन्दनः / रथानामयुतं चैव त्रिसाहस्राश्च दन्तिनः // 36 यथेन्द्रः समरे दैत्यांस्तारकस्य वधे पुरा // 23 ततः संशप्तका भूयः परिवर्धनंजयम् / ते वध्यमानाः समरे मुमुचुस्तं रथोत्तमम् / मर्तव्यमिति निश्चित्य जयं वापि निवर्तनम् // 37 आयुधानि च सर्वाणि विस्रष्टुमुपचक्रमुः / / 24 तत्र युद्धं महद्धथासीत्तावकानां विशां पते / ततः सुशर्मा राजेन्द्र गृहीतां वीक्ष्य वाहिनीम् / शूरेण बलिना सार्धं पाण्डवेन किरीटिना // 38 सौपर्णमस्त्रं त्वरितः प्रादुश्चक्रे महारथः // 25 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ततः सुपर्णाः संपेतुर्भक्षयन्तो भुजंगमान् / सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // ते वै विदुद्रुवुर्नागा दृष्ट्वा तान्खचरान्नृप // 26 38 वभौ बलं तद्विमुक्तं पदबन्धाद्विशां पते / संजय उवाच। मेघवृन्दाद्यथा मुक्तो भास्करस्तापयन्प्रजाः // 27 कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सूतपुत्रश्च मारिष / विप्रमुक्तास्तु ते योधाः फल्गुनस्य रथं प्रति / उलूकः सौबलश्चैव राजा च सह सोदरैः // 1 ससजुर्बाणसंघांश्च शस्त्रसंघांश्च मारिष // 28 सीदमानां चमूं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रभयार्दिताम् / तो महास्त्रमयीं वृष्टिं संछिद्य शरवृष्टिभिः / समुन्जिहीर्षवेगेन भिन्नां नावमिवार्णवे // 2 व्यवातिष्ठत्ततो योधान्वासविः परवीरहा // 29 ततो युद्धमतीवासीन्मुहूर्तमिव भारत / सुशर्मा तु ततो राजन्बाणेनानतपर्वणा / भीरूणां त्रासजननं शूराणां हर्षवर्धनम् // 3 अर्जुनं हृदये विद्धा विव्याधान्यैत्रिभिः शरैः।। कृपेण शरवर्षाणि विप्रमुक्तानि संयुगे। स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत् // 30 सृञ्जयाः शातयामासुः शलभानां व्रजा इव // 4 प्रतिलभ्य ततः संज्ञां श्वेताश्वः कृष्णसारथिः। शिखण्डी तु ततः क्रुद्धो गौतमं त्वरितो ययौ / ऐन्द्रमस्रममेयात्मा प्रादुश्चक्रे त्वरान्वितः। ववर्ष शरवर्षाणि समन्तादेव ब्राह्मणे // 5 ततो बाणसहस्राणि समुत्पन्नानि मारिष // 31 कृपस्तु शरवर्षं तद्विनिहत्य महास्त्रवित् / सर्वदिक्षु व्यदृश्यन्त सूदयन्तो नृप द्विपान् / शिखण्डिनं रणे क्रुद्धो विव्याध दशभिः शरैः // 6 हयान्रथांश्च समरे शस्त्रैः शतसहस्रशः // 32 ततः शिखण्डी कुपितः शरैः सप्तभिराहवे / पध्यमाने ततः सैन्ये विपुला भीः समाविशत् / कृपं विव्याध सुभृशं कङ्कपत्रैरजिह्मगैः // 7 संशप्तकगणानां च गोपालानां च भारत / ततः कृपः शरैस्तीक्ष्णैः सोऽतिविद्धो महारथः / न हि कश्चित्पुमांस्तत्र योऽर्जुनं प्रत्ययुध्यत // 33 / व्यश्वसूतरथं चक्रे पार्षतं तु द्विजोत्तमः // 8 पश्यतां तत्र वीराणामहन्यत महद्बलम् / हताश्वात्तु ततो यानादवप्लुत्य महारथः / - 1725 - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 38. 9] महाभारत [8. 38. 39 चर्मखड्ने च संगृह्य सत्वरं ब्राह्मणं ययौ // 9 विद्धा विव्याध सप्तत्या पुनश्चैनं त्रिभिः शरैः॥२४ तमापतन्तं सहसा शरैः संनतपर्वभिः / अथास्य सशरं चापं पुनश्चिच्छेद मारिष / छादयामास समरे तदद्भुतमिवाभवत् // 10 सारथिं च शरेणास्य भृशं मर्मण्यताडयत् // 25 तत्राद्भुतमपश्याम शिलानां प्लवनं यथा / गौतमस्तु ततः क्रुद्धो धनुर्गृह्य नवं दृढम् / निश्चेष्टो यद्रणे राजशिखण्डी समतिष्ठत // 11 सुकेतुं त्रिंशता बाणैः सर्वमर्मस्वताडयत् // 26 कृपेण छादितं दृष्ट्वा नृपोत्तम शिखण्डिनम् / स विह्वलितसर्वाङ्गः प्रचचाल रथोत्तमे / प्रत्युद्ययौ कृपं तूर्णं धृष्टद्युम्नो महारथः // 12 भूमिचाले यथा वृक्षश्चलत्याकम्पितो भृशम् // 2 // धृष्टद्यन्नं ततो यान्तं शारद्वतरथं प्रति / चलतस्तस्य कायात्तु शिरो ज्वलितकुण्डलम् / प्रतिजग्राह वेगेन कृतवर्मा महारथः // 16 सोष्णीषं सशिरस्त्राणं क्षुरप्रेणान्वपातयत् // 28 युधिष्ठिरमथायान्तं शारद्वतरथं प्रति / तच्छिरः प्रापतद्भूमौ श्येनाहृतमिवामिषम् / सपुत्र सहसेनं च द्रोणपुत्रो न्यवारयत् // 14 ततोऽस्य कायो वसुधां पश्चात्प्राप तदा च्युतः // 2 नकुलं सहदेवं च त्वरमाणौ महारथौ / तस्मिन्हते महाराज त्रस्तास्तस्य पदानुगाः। प्रतिजग्राह ते पुत्रः शरवर्षेण वारयन् // 15 गौतमं समरे त्यक्त्वा दुद्रुवुस्ते दिशो दश // 30 भीमसेनं करूषांश्च केकयान्सहसृञ्जयान् / धृष्टद्युम्नं तु समरे संनिवार्य महाबलः। कर्णो वैकर्तनो युद्धे वारयामास भारत // 16 कृतवर्माब्रवीद्धृष्टस्तिष्ठ तिष्ठेति पार्षतम् / / 31 शिखण्डिनस्ततो बाणान्कृपः शारद्वतो युधि / तदभूत्तुमुलं युद्धं वृष्णिपार्षतयो रणे / प्राहिणोत्त्वरया युक्तो दिधनुरिव मारिष // 17 आमिषार्थे यथा युद्धं श्येनयोद्धयोर्नृप // 32 ताशरान्प्रेषितांस्तेन समन्ताद्धेमभूषणान् / धृष्टद्युम्नस्तु समरे हार्दिक्यं नवभिः शरैः। / चिच्छेद खड्गमाविध्य भ्रामयंश्च पुनः पुनः॥१८ आजघानोरसि क्रुद्धः पीडयन्हृदिकात्मजम् / / 33 शतचन्द्रं ततश्चर्म गौतमः पार्षतस्य ह / कृतवर्मा तु समरे पार्षतेन दृढाहतः। व्यधमत्सायकैस्तूर्णं तत उच्चुक्रुशुर्जनाः // 19 पार्षतं सरथं साश्वं छादयामास सायकैः // 34 स विचर्मा महाराज खड्गपाणिरुपाद्रवत् / सरथश्छादितो राजन्धृष्टद्युम्नो न दृश्यते / कृपस्य वशमापन्नो मृत्योरास्यमिवातुरः // 20 मेधैरिव परिच्छन्नो भास्करो जलदागमे // 35 शारद्वतशरैर्ग्रस्तं क्लिश्यमानं महाबलम् / विधूय तं बाणगणं शरैः कनकभूषणैः / चित्रकेतुसुतो राजन्सुकेतुस्त्वरितो ययौ // 21 व्यरोचत रणे राजन्धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः // 36 विकिरन्ब्राह्मणं युद्धे बहुभिर्निशितैः शरैः / ततस्तु पार्षतः क्रुद्धः शस्त्रवृष्टिं सुदारुणाम् / अभ्यापतदमेयात्मा गौतमस्य रथं प्रति // 22 कृतवर्माणमासाद्य व्यसृजत्पृतनापतिः // 37 दृष्ट्वाविषयं तं युद्धे ब्राह्मणं चरितव्रतम्। तामापतन्ती सहसा शस्त्रवृष्टिं निरन्तराम् / अपयातस्ततस्तूर्णं शिखण्डी राजसत्तम // 23 शरैरनेकसाहस्रैर्हार्दिक्यो व्यधमाधि // 38 सुकेतुस्तु ततो राजन्गौतमं नवभिः शरैः। / दृष्ट्वा तु दारितां युद्धे शस्त्रवृष्टिं दुरुत्तराम् / - 1726 - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 38. 39 ] कर्णपर्व [8. 39. 23 39 कृतवर्माणमभ्येत्य वारयामास पार्षतः॥३९ / वध्यमाने ततः सैन्ये द्रौपदेया महारथाः। सारथिं चास्य तरसा प्राहिणोद्यमसादनम्।। सात्यकिधर्मराजश्च पाञ्चालाश्चापि संगताः / भल्लेन शितधारेण स हतः प्रापतद्रथात् // 40 त्यक्त्वा मृत्युभयं घोरं द्रौणायनिमुपाद्रवन् // 10 धृष्टद्युम्नस्तु बलवाञ्जित्वा शत्रु महारथम् / सात्यकिः पञ्चविंशत्या द्रौणिं विद्धा शिलीमुखैः / कौरवान्समरे तूर्णं वारयामास सायकैः // 41 पुनर्विव्याध नाराचैः सप्तभिः स्वर्णभूषितैः // 11 ततस्ते तावका योधा धृष्टद्युम्नमुपाद्रवन् / युधिष्ठिरत्रिसप्तत्या प्रतिविन्ध्यश्च सप्तभिः / सिंहनादरवं कृत्वा ततो युद्धमवर्तत // 42 श्रुतकर्मा त्रिभिर्बाणैः श्रुतकीर्तिस्तु सप्तभिः // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि सुतसोमश्च नवभिः शतानीकश्च सप्तभिः / अष्टत्रिंशोऽध्यायः // 38 // अन्ये च बहवः शूरा विव्यधुस्तं समन्ततः // 13 सोऽतिक्रुद्धस्ततो राजन्नाशीविष इव श्वसन् / संजय उवाच / सात्यकिं पञ्चविंशत्या प्राविध्यत शिलाशितैः // 14 द्रौणियुधिष्ठिरं दृष्ट्वा शैनेयेनाभिरक्षितम् / श्रुतकीर्तिं च नवभिः सुतसोमं च पञ्चभिः / द्रौपदेयैस्तथा शूरैरभ्यवर्तत हृष्टवत् // 1 अष्टभिः श्रुतकर्माणं प्रतिविन्ध्यं त्रिभिः शरैः। किरन्निषुगणान्घोरान्स्वर्णपुजाशिलाशितान् / शतानीकं च नवभिर्धर्मपुत्रं च सप्तभिः // 15 दर्शयन्विविधान्मार्गाशिक्षार्थ लघुहस्तवत् // 2 अथेतरांस्ततः शूरान्द्वाभ्यां द्वाभ्यामताडयत् / ततः खं पूरयामास शरैर्दिव्यास्त्रमत्रितैः / श्रुतकीर्तेस्तथा चापं चिच्छेद निशितैः शरैः // 16 युधिष्ठिरं च समरे पर्यवारयदस्त्रवित् // 3 अथान्यद्धनुरादाय श्रुतकीर्तिमहारथः / द्रौणायनिशरच्छन्नं न प्राज्ञायत किंचन / द्रौणायनिं त्रिभिर्विद्धा विव्याधान्यैः शितैः शरैः॥ बाणभूतमभूत्सर्वमायोधनशिरो हि तत् // 4 ततो द्रौणिर्महाराज शरवर्षेण भारत / बाणजालं दिविष्ठं तत्स्वर्णजालविभूषितम्। छादयामास तत्सैन्यं समन्ताच्च शरैर्नृपान् // 18 शुशुभे भरतश्रेष्ठ वितानमिव विष्ठितम् // 5 ततः पुनरमेयात्मा धर्मराजस्य कार्मुकम् / तेन छन्ने रणे राजन्बाणजालेन भास्वता / द्रौणिश्चिच्छेद विहसन्विव्याध च शरैत्रिभिः॥१९ अभ्रच्छायेव संजज्ञे बाणरुद्ध नभस्तले // 6 ततो धर्मसुतो राजन्प्रगृह्यान्यन्महद्धनुः। तत्राश्चर्यमपश्याम बाणभूते तथाविधे / द्रौणिं विव्याध सप्तत्या बाह्वोरुरसि चादयत् // 21 न स्म संपतते भूमौ दृष्ट्वा द्रौणेः पराक्रमम् // 7 सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो द्रौणेः प्रहरतो रणे। लाघवं द्रोणपुत्रस्य दृष्ट्वा तत्र महारथाः। अर्धचन्द्रेण तीक्ष्णेन धनुपिछत्त्वानदद्धशम् // 21 व्यस्मयन्त महाराज न चैनं प्रतिवीक्षितुम् / छिन्नधन्वा ततो द्रौणिः शक्त्या शक्तिमतां वरः। शेकुस्ते सर्वराजानस्तपन्तमिव भास्करम् / / 8 सारथिं पातयामास शैनेयस्य रथाद्रुतम् // 22 सात्यकिर्यतमानस्तु धर्मराजश्च पाण्डवः / अथान्यद्धनुरादाय द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / तथेतराणि सैन्यानि न स्म चक्रुः पराक्रमम् // 9 / शैनेयं शरवर्षेण छादयामास भारत // 23 21727 - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 39. 24] महाभारते [8. 40. 13 तस्याश्वाः प्रद्रुताः संख्ये पतिते रथसारथौ। प्रययौ तावकं सैन्यं युक्तः क्रूराय कर्मणे // 38 तत्र तत्रैव धावन्तः समदृश्यन्त भारत // 24 / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि युधिष्ठिरपुरोगास्ते द्रौणिं शस्त्रभृतां वरम् / एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः // 39 // अभ्यवर्षन्त वेगेन विसृजन्तः शिताशरान् // 25 आगच्छमानांस्तान्दृष्ट्वा रौद्ररूपान्परंतपः / संजय उवाच। प्रहसन्प्रतिजग्राह द्रोणपुत्रो महारणे // 26 भीमसेनं सपाञ्चाल्यं चेदिकेकयसंवृतम् / ततः शरशतज्वाल: सेनाकक्षं महारथः। वैकर्तनः स्वयं रुद्धा वारयामास सायकैः // 1 द्रौणिर्ददाह समरे कक्षमग्निर्यथा वने // 27 ततस्तु चेदिकारूषान्सृञ्जयांश्च महारथान् / तलं पाण्डुपुत्रस्य द्रोणपुत्रप्रतापितम् / कर्णो जघान संक्रुद्धो भीमसेनस्य पश्यतः॥२ चुक्षुभे भरतश्रेष्ठ तिमिनेव नदीमुखम् // 28 भीमसेनस्ततः कर्ण विहाय रथसत्तमम् / दृष्ट्वा ते च महाराज द्रोणपुत्रपराक्रमम् / प्रययौ कौरवं सैन्यं कक्षमग्निरिव ज्वलन् // 3 निहतान्मेनिरे सर्वान्पाण्डून्द्रोणसुतेन वै // 29 सूतपुत्रोऽपि समरे पाश्चालान्केकयांस्तथा। युधिष्ठिरस्तु त्वरितो द्रौणिं श्लिष्य महारथम् / सृञ्जयांश्च महेष्वासान्निजघान सहस्रशः॥४ अब्रवीद्रोणपुत्रं तु रोषामर्षसमन्वितः // 30 संशप्तकेषु पार्थश्च कौरवेषु वृकोदरः। नैव नाम तव प्रीतिनैव नाम कृतज्ञता। पाश्चालेषु तथा कर्णः क्षयं चक्रुर्महारथाः॥५ यतस्त्वं पुरुषव्याघ्र मामेवाद्य जिघांससि // 31 ते क्षत्रिया दह्यमानास्त्रिभिस्तैः पावकोपमैः। ब्राह्मणेन तपः कार्यं दानमध्ययनं तथा / जग्मुर्विनाशं समरे राजन्दुर्मत्रिते तव / / 6 क्षत्रियेण धनुर्नाम्यं स भवान्ब्राह्मणब्रुवः // 32 ततो दुर्योधनः क्रुद्धो नकुलं नवभिः शरैः। विव्याध भरतश्रेष्ठ चतुरश्चास्य वाजिनः // 7 मिषतस्ते महाबाहो जेष्यामि युधि कौरवान् / ततः पुनरमेयात्मा तव पुत्रो जनाधिपः / कुरुष्व समरे कर्म ब्रह्मबन्धुरसि ध्रुवम् // 33 क्षुरेण सहदेवस्य ध्वजं चिच्छेद काश्चनम् // 8 एवमुक्तो महाराज द्रोणपुत्रः स्मयन्निव / नकुलस्तु ततः क्रुद्धस्तव पुत्रं त्रिसप्तभिः / युक्तत्वं तच्च संचिन्त्य नोत्तरं किंचिदब्रवीत् // 34 जघान समरे राजन्सहदेवश्च पञ्चभिः // 9 // अनुक्त्वा च ततः किंचिच्छरवर्षेण पाण्डवम् / तावुभौ भरतश्रेष्ठी श्रेष्ठी सर्वधनुष्मताम्। छादयामास समरे क्रुद्धोऽन्तक इव प्रजाः // 35 / विव्याधोरसि संक्रुद्धः पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः॥ संछाद्यमानस्तु तदा द्रोणपुत्रेण मारिष / ततोऽपराभ्यां भल्लाभ्यां धनुषी समकृन्तत / पार्थोऽपयातः शीघ्रं वै विहाय महतीं चमूम् // 36 यमयोः प्रहसनराजन्विव्याधैव च सप्तभिः / / 11 अपयाते ततस्तस्मिन्धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे। तावन्ये धनुषी श्रेष्ठे शक्रचापनिभे शुभे। द्रोणपुत्रः स्थितो राजन्प्रत्यादेशान्महात्मनः / / 37 / प्रगृह्य रेजतुः शूरौ देवपुत्रसमौ युधि // 12 ततो युधिष्ठिरो राजा त्यक्त्वा द्रौणि महाहवे। / ततस्तौ रभसौ युद्धे भ्रातरौ भ्रातरं नृप। -1728 - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 40. 13] कर्णपर्व [8. 40. 43 शरैर्ववर्षतुर्थोरैर्महामेघौ यथाचलम् // 13 विविशुर्वसुधां वेगात्कङ्कबहिणवाससः // 28 ततः क्रुद्धो महाराज तव पुत्रो महारथः / सोऽतिविद्धो महाराज पुत्रस्तेऽतिव्यराजत / पाण्डुपुत्रौ महेष्वासौ वारयामास पत्रिभिः // 14 वसन्ते पुष्पशबल: सपुष्प इव किंशुकः // 29 धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते युधि भारत। स छिन्नवर्मा नाराचैः प्रहारैर्जर्जरच्छविः / सायकाश्चैव दृश्यन्ते निश्चरन्तः समन्ततः // 15 धृष्टद्युम्नस्य भल्लेन क्रुद्धश्चिच्छेद कार्मुकम् // 30 तस्य सायकसंछन्नौ चकाशेतां च पाण्डवौ / अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महीपतिः / मेघच्छन्नौ यथा व्योम्नि चन्द्रसूर्यौ हतप्रभौ // 16 सायकैर्दशभी राजन्भ्रुवोर्मध्ये समार्दयत् // 31 ते तु बाणा महाराज हेमपुङ्खाः शिलाशिताः। तस्य तेऽशोभयन्वक्त्रं कर्मारपरिमार्जिताः / आच्छादयन्दिशः सर्वाः सूर्यस्येवांशवस्तदा // 17 प्रफुलं चम्पकं यद्वद्धमरा मधुलिप्सवः // 32 बाणभूते ततस्तस्मिन्संछन्ने च नभस्तले। तदपास्य धनुश्छिन्नं धृष्टद्युम्नो महामनाः / यमाभ्यां ददृशे रूपं कालान्तकयमोपमम् // 18 अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भल्लांश्च षोडश // 33 पराक्रमं तु तं दृष्ट्वा तव सूनोर्महारथाः। ततो दुर्योधनस्याश्वान्हत्वा सूतं च पञ्चभिः / मृत्योरुपान्तिकं प्राप्ती माद्रीपुत्रौ स्म मेनिरे॥ 19 धनुश्चिच्छेद भल्लेन जातरूपपरिष्कृतम् // 34 ततः सेनापती राजन्पाण्डवस्य महात्मनः / रथं सोपस्करं छत्रं शक्तिं खड्गं गदां ध्वजम् / पार्षतः प्रययौ तत्र यत्र राजा सुयोधनः // 20 भल्लैश्चिच्छेद नवभिः पुत्रस्य तव पार्षतः // 35 माद्रीपुत्रौ ततः शूरौ व्यतिक्रम्य महारथौ / तपनीयाङ्गदं चित्रं नागं मणिमयं शुभम् / धृष्टद्युम्नस्तव सुतं ताडयामास सायकैः // 21 ध्वजं कुरुपतेश्छिन्नं ददृशुः सर्वपार्थिवाः // 36 तमविध्यदमेयात्मा तव पुत्रोऽत्यमर्षणः / दुर्योधनं तु विरथं छिन्नसर्वायुधं रणे / पाञ्चाल्यं पञ्चविंशत्या प्रहस्य पुरुषर्षभ // 22 भ्रातरः पर्यरक्षन्त सोदर्या भरतर्षभ // 37 ततः पुनरमेयात्मा पुत्रस्ते पृथिवीपते / तमारोप्य रथे राजन्दण्डधारो जनाधिपम् / विद्धा ननाद पाञ्चाल्यं षष्ट्या पश्चभिरेव च // 23 अपोवाह च संभ्रान्तो धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः // 38 अथास्य सशरं चापं हस्तावापं च मारिष / कर्णस्तु सात्यकि जित्वा राजगृद्धी महाबलः। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन राजा चिच्छेद संयुगे // 24 / / द्रोणहन्तारमुग्रेषु ससाराभिमुखं रणे // 39 तदपास्य धनुश्छिन्नं पाञ्चाल्यः शत्रुकर्शनः / तं पृष्ठतोऽभ्ययात्तर्ण शैनेयो वितुदशरैः / अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भारसहं नवम् // 25 वारणं जघनोपान्ते विषाणाभ्यामिव द्विपः // 40 प्रज्वलन्निव वेगेन संरम्भाद्रुधिरेक्षणः / स भारत महानासीद्योधानां सुमहात्मनाम् / अशोभत महेष्वासो धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः // 26 कर्णपार्षतयोर्मध्ये त्वदीयानां महारणः // 41 स पश्चदश नाराचाश्वसतः पनगानिव / न पाण्डवानां नास्माकं योधः कश्चित्पराङ्मखः / जिघांसुर्भरतश्रेष्ठं धृष्टद्युम्नो व्यवासृजत् // 27 प्रत्यदृश्यत यत्कर्णः पाञ्चालांस्त्वरितो ययौ // 42 ते वर्म हेमविकृतं भित्त्वा राज्ञः शिलाशिताः। / तस्मिन्क्षणे नरश्रेष्ठ गजवाजिनरक्षयः / म.भा. 217 -1729 - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 40. 43] महाभारते [8. 40.78 प्रादुरासीदुभयतो राजन्मध्यंगतेऽहनि // 43 पाञ्चालानां तथा मध्ये कर्णोऽचरदभीतवत् // 5 पाश्चालास्तु महाराज त्वरिता विजिगीषवः / यथा मृगगणांनस्तान्सिंहो द्रावयते दिशः सर्वतोऽभ्यद्रवन्कणं पतत्रिण इव द्रुमम् // 44 पाञ्चालानां रथवातान्कर्णो द्रावयते तथा // 59 तेषामाधिरथिः क्रुद्धो यतमानान्मनस्विनः / सिंहास्यं च यथा प्राप्य न जीवन्ति मृगाः कचित् विचिन्वन्नेव बाणाप्रैः समासादयदप्रतः // 45 तथा कर्णमनुप्राप्य न जीवन्ति महारथाः // 60 व्याघ्रकेतुं सुशर्माणं शङ्कं चोग्रं धनंजयम् / वैश्वानरं यथा दीप्तं दह्यन्ते प्राप्य वै जनाः / शुक्लं च रोचमानं च सिंहसेनं च दुर्जयम् // 46 कर्णाग्निना रणे तद्वदग्धा भारत सृञ्जयाः // 61 ते वीरा रथवेगेन परिवब्रुनरोत्तमम् / कर्णेन चेदिष्वेकेन पाञ्चालेषु च भारत / . सृजन्तं सायकान्क्रुद्धं कर्णमाहवशोभिनम् // 47 विश्राव्य नाम निहता बहवः शूरसंमताः // 62 युध्यमानांस्तु ताशूरान्मनुजेन्द्रः प्रतापवान् / मम चासीन्मनुष्येन्द्र दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम् / अष्टाभिरष्टौ राधेयो न्यहनन्निशितैः शरैः // 48 नैकोऽप्याधिरर्जीवन्पाञ्चाल्यो मोक्ष्यते युधि / अथापरान्महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् / पाञ्चालान्विधमन्संख्ये सूतपुत्रः प्रतापवान् / जघान बहुसाहस्रान्योधान्युद्धविशारदः // 49 अभ्यधावत संक्रुद्धो धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् // 64 विष्णुं च विष्णुकर्माणं देवापिं भद्रमेव च। धृष्टद्युम्नश्च राजानं द्रौपदेयाश्च मारिष। . दण्डं च समरे राजंश्चित्रं चित्रायुधं हरिम् // 50 परिवठरमित्रघ्नं शतशश्चापरे जनाः // 65 सिंहकेतुं रोचमानं शलभं च महारथम् / शिखण्डी सहदेवश्च नकुलो नाकुलिस्तथा / निजघान सुसंक्रुद्धश्चेदीनां च महारथान् // 51 जनमेजयः शिनेर्नप्ता बहवश्च प्रभद्रकाः // 66 तेषामाददतः प्राणानासीदाधिरथेवपुः / एते पुरोगमा भूत्वा धृष्टद्युम्नस्य संयुगे। शोणिताभ्युक्षिताङ्गस्य रुद्रस्येवोर्जितं महत् // 52 कर्णमस्यन्तमिष्वस्त्रैर्विचेरुरमितौजसः / / 67 तत्र भारत कर्णेन मातङ्गास्ताडिताः शरैः / तांस्तत्राधिरथिः संख्ये चेदिपाञ्चालपाण्डवान् / सर्वतोऽभ्यद्रवन्भीताः कुर्वन्तो महदाकुलम् // 53 एको बहूनभ्यपतद्गरुत्मान्पन्नगानिव // 68 निपेतुरु| समरे कर्णसायकपीडिताः / भीमसेनस्तु संक्रुद्धः कुरून्मद्रान्सकेकयान् / कुर्वन्तो विविधान्नादान्वज्रनुन्ना इवाचलाः // 54 एकः संख्ये महेष्वासो योधयन्बह्वशोभत // 69 गजवाजिमनुष्यैश्च निपतद्भिः समन्ततः / तत्र मर्मसु भीमेन नाराचैस्ताडिता गजाः / रथैश्चावगतैर्मार्गे पर्यस्तीर्यत मेदिनी // 55 प्रपतन्तो हतारोहाः कम्पयन्ति स्म मेदिनीम् // 7 नैव भीष्मो न च द्रोणो नाप्यन्ये युधि तावकाः। वाजिनश्च हतारोहाः पत्तयश्च गतासवः / चक्रुः स्म तादृशं कर्म यादृशं वै कृतं रणे // 56 शेरते युधि निर्भिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु // 71 सूतपुत्रेण नागेषु रथेषु च हयेषु च / सहस्रशश्च रथिनः पतिताः पतितायुधाः / नरेषु च नरव्याघ्र कृतं स्म कदनं महत् // 57 अक्षताः समदृश्यन्त भीमाद्भीता गतासवः // 7 मृगमध्ये यथा सिंहो दृश्यते निर्भयश्चरन् / / रथिभिर्वाजिभिः सूतैः पत्तिभिश्च तथा गजैः। - 1730 - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 40. 73] कर्णपर्व [8. 40. 101. भीमसेनशरच्छिन्नैरास्तीर्णा वसुधाभवत् // 73 / तौ विदार्य महासेनां प्रविष्टौ केशवार्जुनौ / तत्स्तम्भितमिवातिष्ठद्भीमसेनबलार्दितम् / | क्रुद्धौ संरम्भरक्ताक्षौ व्यभ्राजेतां महाद्युती // 88 दुर्योधनबलं राजन्निरुत्साहं कृतव्रणम् // 74 युद्धशौण्डौ समाहूतावरिभिस्तौ रणाध्वरम् / निश्चेष्टं तुमुले दीनं बभौ तस्मिन्महारणे।। यज्वभिर्विधिनाहूतौ मखे देवाविवाश्विनौ // 89 प्रसन्नसलिलः काले यथा स्यात्सागरो नृप // 75 क्रुद्धौ तौ तु नरव्याघ्रौ वेगवन्तौ बभूवतुः / मन्युवीर्यबलोपेतं बलात्पर्यवरोपितम् / तलशब्देन रुषितौ यथा नागौ महाहवे // 90 अभवत्तव पुत्रस्य तत्सैन्यमिषुभिस्तदा। विगाहन्स रथानीकमश्वसंघांश्च फल्गुनः / रुधिरौघपरिक्लिन्नं रुधिराई बभूव ह // 76 व्यचरत्पृतनामध्ये पाशहस्त इवान्तकः // 91 सूतपुत्रो रणे क्रुद्धः पाण्डवानामनीकिनीम् / तं दृष्ट्वा युधि विक्रान्तं सेनायां तव भारत / मीमसेनः कुरूंश्चापि द्रावयन्बह्वशोभत // 77 संशप्तकगणान्भूयः पुत्रस्ते समचोदयत् // 92 वर्तमाने तथा रौद्रे संग्रामेऽद्भुतदर्शने / ततो रथसहस्रेण द्विरदानां त्रिभिः शतैः / निहत्य पृतनामध्ये संशप्तकगणान्बहून् // 78 चतुर्दशसहस्रैश्च तुरगाणां महाहवे // 93 अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो वासुदेवमथाब्रवीत् / द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां पदातीनां च धन्विनाम् / प्रभग्नं बलमेतद्धि योत्स्यमानं जनार्दन // 79 शूराणां नामलब्धानां विदितानां समन्ततः / एते धावन्ति सगणाः संशप्तकमहारथाः / अभ्यवर्तन्त तौ वीरौ छादयन्तो महारथाः॥ 94 अपारयन्तो मद्वाणान्सिहशब्दान्मृगा इव // 80 स छाद्यमानः समरे शरैः परबलार्दनः / दीर्यते च महत्सैन्यं सृञ्जयानां महारणे / दर्शयन्रौद्रमात्मानं पाशहस्त इवान्तकः / इस्तिकक्ष्यो ह्यसौ कृष्ण केतुः कर्णस्य धीमतः / निघ्नन्संशप्तकान्पार्थः प्रेक्षणीयतरोऽभवत् // 95 रश्यते राजसैन्यस्य मध्ये विचरतो मुहुः // 81 ततो विद्युत्प्रभैर्बाणैः कार्तस्वरविभूषितैः / न च कर्ण रणे शक्ता जेतुमन्ये महारथाः / निरन्तरमिवाकाशमासीन्नुन्नैः किरीटिना // 96 जानीते हि भवान्कर्णं वीर्यवन्तं पराक्रमे // 82 किरीटिभुजनिर्मुक्तैः संपतद्भिर्महाशरैः / पत्र याहि यतः कर्णो द्रावयत्येष नो बलम् // 83 समाच्छन्नं बभौ सर्वं काद्रवेयैरिव प्रभो // 97 बर्जयित्वा रणे याहि सूतपुत्रं महारथम् / रुक्मपुङ्खान्प्रसन्नापाशरान्संनतपर्वणः / प्रमो मा बाधते कृष्ण यथा वा तव रोचते॥८४ अदर्शयदमेयात्मा दिक्षु सर्वासु पाण्डवः // 98 एतच्छ्रुत्वा महाराज गोविन्दः प्रहसन्निव / हत्वा दश सहस्राणि पार्थिवानां महारथः / अब्रवीदर्जुनं तूर्णं कौरवाञ्जहि पाण्डव // 85 संशप्तकानां कौन्तेयः प्रपक्षं त्वरितोऽभ्ययात् // 99 इतस्तव महत्सैन्यं गोविन्दप्रेरिता हयाः / प्रपक्षं स समासाद्य पार्थः काम्बोजरक्षितम् / सवर्णाः प्रविविशुर्वहन्तः कृष्णपाण्डवौ // 86 प्रममाथ बलाद्वाणैर्दानवानिव वासवः // 100 केशवप्रहितैरश्वैः श्वेतैः काञ्चनभूषणैः।। प्रचिच्छेदाशु भल्लैश्च द्विषतामाततायिनाम् / प्रविशद्भिस्तव बलं चतुर्दिशमभिद्यत // 87 शस्त्रपाणींस्तथा बाहूंस्तथापि च शिरांस्युत // 101. - 1731 - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 40. 102 ] महाभारते [8. 40. 128 अङ्गाङ्गावयवैश्छिन्नैर्व्यायुधास्तेऽपतन्क्षितौ / न मया तादृशो राजन्दृष्टपूर्वः पराक्रमः। विष्वग्वाताभिसंभग्ना बहुशाखा इव द्रुमाः // 102 संजज्ञे यादृशो द्रौणेः कृष्णौ संछादयिष्यतः // हस्त्यश्वरथपत्तीनां व्रातान्निघ्नन्तमर्जुनम् / द्रौणेस्तु धनुषः शब्दमहितत्रासनं रणे। सुदक्षिणादवरजः शरवृष्ट्याभ्यवीवृषत् // 103 अश्रौषं बहुशो राजन्सिहस्य नदतो यथा // 110 अस्यास्यतोऽर्धचन्द्राभ्यां स बाहू परिघोपमौ। ज्या चास्य चरतो युद्धे सव्यदक्षिणमस्यतः / पूर्णचन्द्राभवक्त्रं च क्षुरेणाभ्यहनच्छिरः॥ 104 विद्युदम्बुदमध्यस्था भ्राजमानेव साभवत् // 118 स पपात ततो वाहात्स्वलोहितपरिस्रवः / स तथा क्षिप्रकारी च दृढहस्तश्च पाण्डवः / मनःशिलागिरेः शृङ्गं वज्रेणेवावदारितम् // 105 संमोहं परमं गत्वा प्रेक्षत द्रोणजं ततः // 119 सुदक्षिणादवरजं काम्बोजं ददृशुर्हतम् / स विक्रमं हृतं मेने आत्मनः सुमहात्मना। प्रांशुं कमलपत्राक्षमत्यर्थं प्रियदर्शनम् / तथास्य समरे राजन्वपुरासीसुदुर्दृशम् // 120 काश्चनस्तम्भसंकाशं भिन्नं हेमगिरिं यथा // 106 द्रौणिपाण्डवयोरेवं वर्तमाने महारणे। ततोऽभवत्पुनयुद्धं घोरमद्भुतदर्शनम्। वर्धमाने च राजेन्द्र द्रोणपुत्रे महाबले। नानावस्थाश्च योधानां बभूवुस्तत्र युध्यताम् // 107 हीयमाने च कौन्तेये कृष्णं रोषः समभ्ययात् // एतेष्वावर्जितैरश्वैः काम्बोजैर्यवनैः शकैः / स रोषान्निःश्वसनराजन्निर्दहन्निव चक्षुषा। शोणिताक्तैस्तदा रक्तं सर्वमासीद्विशां पते // 108 द्रौणि ह्यपश्यत्संग्रामे फल्गुनं च मुहुर्मुहुः // 122 रथै रथाश्वसूतैश्च हतारोहैश्च वाजिभिः / ततः क्रुद्धोऽब्रवीत्कृष्णः पार्थ सप्रणयं तदा। द्विरदैश्च हतारोहैमहामात्रैर्हतद्विपैः / अत्यद्भुतमिदं पार्थ तव पश्यामि संयुगे। अन्योन्येन महाराज कृतो घोरो जनक्षयः // 109 अतिशेते हि यत्र त्वा द्रोणपुत्रोऽद्य भारत // 123 तस्मिन्प्रपक्षे पक्षे च वध्यमाने महात्मना। कञ्चित्ते गाण्डिवं हस्ते रथे तिष्ठसि चार्जुन / अर्जुनं जयतां श्रेष्ठं त्वरितो द्रौणिराययौ // 110 कञ्चित्कुशलिनौ बाहू कच्चिद्वीर्यं तदेव ते // 124 विधुन्वानो महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् / एवमुक्तस्तु कृष्णेन क्षिप्त्वा भल्लांश्चतुर्दश / आददानः शरान्घोरान्स्वरश्मीनिव भास्करः॥१११ त्वरमाणस्त्वराकाले द्रौणेर्धनुरथाच्छिनत् / तैः पतद्भिर्महाराज द्रौणिमुक्तैः समन्ततः / ध्वजं छत्रं पताकां च रथं शक्ति गदां तथा॥१२५ संछादितौ रथस्थौ तावुभौ कृष्णधनंजयौ // 112 जत्रुदेशे च सुभृशं वत्सदन्तैरताडयत्। ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्भारद्वाजः प्रतापवान् / स मूच्छा परमां गत्वा ध्वजयष्टिं समाश्रितः // 126 निश्चेष्टौ तावुभौ चक्रे युद्धे माधवपाण्डवौ // 113 तं विसंज्ञं महाराज किरीटिभयपीडितम् / हाहाकृतमभूत्सर्व जङ्गमं स्थावरं तथा / अपोवाह रणात्सूतो रक्षमाणो धनंजयात् / / 127 चराचरस्य गोप्तारौ दृष्ट्वा संछादितौ शरैः // 114 एतस्मिन्नेव काले तु विजयः शत्रुतापनः / सिद्धचारणसंघाश्च संपेतुर्वै समन्ततः। न्यवधीत्तावकं सैन्यं शतशोऽथ सहस्रशः। चिन्तयन्तो भवेदद्य लोकानां स्वस्त्यपीत्यह॥ 115 / पश्यतस्तव पुत्रस्य तस्य वीरस्य भारत // 128 - 1732 - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 40. 129 ] कर्णपर्व [8. 42. 15 एवमेष क्षयो वृत्तस्तावकानां परैः सह / कर्णस्य पाण्डवानां च यमराष्ट्रविवर्धनः // 2 करो विशसनो घोरो राजन्दुर्मश्रिते तव // 129 तस्मिन्प्रवृत्ते संग्रामे तुमुले शोणितोदके। संशप्तकांश्च कौन्तेयः कुरूंश्चापि वृकोदरः। संशप्तकेषु शूरेषु किंचिच्छिष्टेषु भारत // 3 वसुषेणं च पाश्चालः कृत्स्नेन व्यधमद्रणे // 130 धृष्टद्युम्नो महाराज सहितः सर्वराजभिः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि कर्णमेवाभिदुद्राव पाण्डवाश्च महारथाः // 4 चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥ 40 // आगच्छमानांस्तान्संख्ये प्रहृष्टान्विजयैषिणः / दधारैको रणे कर्णो जलौघानिव पर्वतः // 5 संजय उवाच / तमासाद्य तु ते कणं व्यशीर्यन्त महारथाः। त्वरमाणः पुनः कृष्णः पार्थमभ्यवदच्छनैः। यथाचलं समासाद्य जलौघाः सर्वतोदिशम् / पश्य कौरव्य राजानमपयातांश्च पाण्डवान् // 1 तयोरासीन्महाराज संग्रामो लोमहर्षणः // 6 कर्ण पश्य महारङ्गे ज्वलन्तमिव पावकम् / धृष्टद्युम्नस्तु राधेयं शरेण नतपर्वणा / असौ भीमो महेष्वासः संनिवृत्तो रणं प्रति // 2 ताडयामास संक्रुद्धस्तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत् // 7 तमेतेऽनु निवर्तन्ते धृष्टद्युम्नपुरोगमाः। विजयं तु धनुःश्रेष्ठं विधुन्वानो महारथः / पाञ्चालानां सृञ्जयानां पाण्डवानां च यन्मुखम् / पार्षतस्य धनुश्छित्त्वा शरानाशीविषोपमान / निवृत्तैश्च तथा पार्भग्नं शत्रुबलं महत् // 3 ताडयामास संक्रुद्धः पार्षतं नवभिः शरैः // 8 कौरवान्द्रवतो ह्येष कर्णो धारयतेऽर्जुन / ते वर्म हेमविकृतं भित्त्वा तस्य महात्मनः / अन्तकप्रतिमो वेगे शक्रतुल्यपराक्रमः॥४ शोणिताक्ता व्यराजन्त शक्रगोपा इवानघ // 9 असौ गच्छति कौरव्य द्रौणिरत्रभृतां वरः। तदपास्य धनुश्छिन्नं धृष्टद्युम्नो महारथः / उमेष प्रद्रुतः संख्ये धृष्टद्युम्नो महारथः // 5 अन्यद्धनुरुपादाय शरांश्चाशीविषोपमान / सर्व व्याचष्ट दुर्धर्षो वासुदेवः किरीटिने / कर्ण विव्याध सप्तत्या शरैः संनतपर्वभिः // 10 ततो राजन्प्रादुरासीन्महाघोरो महारणः // 6 तथैव राजन्कर्णोऽपि पार्षतं शत्रुतापनम् / सिंहनादरवाश्चात्र प्रादुरासन्समागमे / द्रोणशत्रु महेष्वासो विव्याध निशितैः शरैः // 11 उभयोः सेनयो राजन्मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 7 तस्य कर्णो महाराज शरं कनकभूषणम् / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि प्रेषयामास संक्रुद्धो मृत्युदण्डमिवापरम् // 12 एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // तमापतन्तं सहसा घोररूपं विशां पते / चिच्छेद सप्तधा राजशैनेयः कृतहस्तवत् // 13 संजय उवाच / दृष्ट्वा विनिहितं बाणं शरैः कर्णो विशां पते / ततः पुनः समाजग्मुरभीताः कुरुसञ्जयाः / / सात्यकिं शरवर्षेण समन्तात्पर्यवारयत् // 14 युधिष्ठिरमुखाः पार्था वैकर्तनमुखा वयम् // 1 / विव्याध चैनं समरे नाराचैस्तत्र सप्तभिः / ततः प्रववृते भीमः संग्रामो लोमहर्षणः / तं प्रत्यविध्यच्छैनेयः शरैर्हेमविभूषितैः // 15 - 1733 - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 42. 16] महाभारते [8. 42. 40 ततो युद्धमतीवासीञ्चक्षुःश्रोत्रभयावहम् / / निशितेनाथ बाणेन द्रौणिं विव्याध पार्षतः // 28 राजन्घोरं च चित्रं च प्रेक्षणीयं समन्ततः // 16 ततो द्रौणिः सुसंक्रुद्धः शरैः संनतपर्वमिः। सर्वेषां तत्र भूतानां लोमहर्षो व्यजायत / प्राच्छादयदिशो राजन्धृष्टद्युम्नस्य संयुगे // 29 तदृष्ट्वा समरे कर्म कर्णशैनेययोनृप // 17 नैवान्तरिक्षं न दिशो नैव योधाः समन्ततः / एतस्मिन्नन्तरे द्रौणिरभ्ययात्सुमहाबलम् / दृश्यन्ते वै महाराज शरैश्छन्नाः सहस्रशः // 30 पार्षतं शत्रुदमनं शत्रुवीर्यासुनाशनम् // 18 तथैव पार्षतो राजन्द्रौणिमाहवशोभिनम् / अभ्यभाषत संक्रुद्धो द्रौणिर्दूरे धनंजये / शरैः संछादयामास सूतपुत्रस्य पश्यतः // 31 तिष्ठ तिष्ठाद्य ब्रह्मघ्न न मे जीवन्विमोक्ष्यसे / 19 राधेयोऽपि महाराज पाञ्चालान्सह पाण्डवैः / इत्युक्त्वा सुभृशं वीरः शीघ्रकृन्निशितैः शरैः। द्रौपदेयान्युधामन्युं सात्यकिं च महारथम् / पार्षतं छादयामास घोररूपैः सुतेजनैः। एकः स वारयामास प्रेक्षणीयः समन्ततः // 32 यतमानं परं शक्त्या यतमानो महारथः // 20 धृष्टद्युम्नोऽपि समरे द्रौणेश्चिच्छेद कार्मुकम् / यथा हि समरे द्रौणिः पार्षतं वीक्ष्य मारिष / तदपास्य धनुश्छिन्नमन्यदादत्त कार्मुकम् / तथा द्रौणिं रणे दृष्ट्वा पार्षतः परवीरहा / वेगवत्समरे घोरं शरांश्चाशीविषोपमान् // 33 नातिहृष्टमना भूत्वा मन्यते मृत्युमात्मनः // 21 स पार्षतस्य राजेन्द्र धनुः शक्तिं गदां ध्वजम् / द्रौणिस्तु दृष्ट्वा राजेन्द्र धृष्टद्युम्नं रणे स्थितम् / हयान्सूतं रथं चैव निमेषाद्वयधमच्छरैः / / 34 क्रोधेन निःश्वसन्वीरः पार्षतं समुपाद्रवत् / स छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः / तावन्योन्यं तु दृष्ट्वैव संरम्भं जग्मतुः परम् // 22 खड्गमादत्त विपुलं शतचन्द्रं च भानुमत् // 35 अथाब्रवीन्महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / द्रौणिस्तदपि राजेन्द्र भल्लैः क्षिप्रं महारथः / . धृष्टद्युम्नं समीपस्थं त्वरमाणो विशां पते / चिच्छेद समरे वीरः क्षिप्रहस्तो दृढायुधः / पाश्वालापसदाद्य त्वां प्रेषयिष्यामि मृत्यवे // 23 रथादनवरूढस्य तदद्भुतमिवाभवत् // 36 पापं हि यत्त्वया कर्म घ्नता द्रोणं पुरा कृतम् / / धृष्टद्युम्नं तु विरथं हताश्वं छिन्नकार्मुकम् / अद्य त्वा पत्स्यते तद्वै यथा ह्यकुशलं तथा // 24 शरैश्च बहुधा विद्धमस्त्रैश्च शकलीकृतम् / अरक्ष्यमाणः पार्थेन यदि तिष्ठसि संयुगे। नातरद्भरतश्रेष्ठ यतमानो महारथः // 37 नापक्रमसि वा मूढ सत्यमेतद्रवीमि ते // 25 तस्यान्तमिषुभी राजन्यदा द्रौणिर्न जग्मिवान् / एवमुक्तः प्रत्युवाच धृष्टद्युम्नः प्रतापवान् / अथ त्यक्त्वा धनुर्वीरः पार्षतं त्वरितोऽन्वगात् // प्रतिवाक्यं स एवासिर्मामको दास्यते तव / आसीदाद्रवतो राजन्वेगस्तस्य महात्मनः / येनैव ते पितुर्दत्तं यतमानस्य संयुगे // 26 / गरुडस्येव पततो जिघृक्षोः पन्नगोत्तमम् // 39 यदि तावन्मया द्रोणो निहतो ब्राह्मणब्रुवः / एतस्मिन्नेव काले तु माधवोऽर्जुनमब्रवीत् / त्वामिदानी कथं युद्धे न हनिष्यामि विक्रमात्॥२७ पश्य पार्थ यथा द्रौणिः पार्षतस्य वधं प्रति / एवमुक्त्वा महाराज सेनापतिरमर्षणः / यत्नं करोति विपुलं हन्याच्चैनमसंशयम् // 40 -- 1734 - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 42. 41] कर्णपर्व [8. 43. 10 तं मोचय महाबाहो पार्षतं शत्रुतापनम् / मोक्षितं पार्षतं दृष्ट्वा द्रोणपुत्रं च पीडितम् // 54 द्रौणेरास्यमनुप्राप्तं मृत्योरास्यगतं यथा // 41 वादित्राणि च दिव्यानि प्रावाद्यन्त सहस्रशः / एवमुक्त्वा महाराज वासुदेवः प्रतापवान् / सिंहनादश्च संजज्ञे दृष्ट्वा घोरं महाद्भुतम् // 55 प्रेषयत्तत्र तुरगान्यत्र द्रौणिर्व्यवस्थितः // 42 एवं कृत्वाब्रवीत्पार्थो वासुदेवं धनंजयः / ते हयाश्चन्द्रसंकाशाः केशवेन प्रचोदिताः / याहि संशप्तकान्कृष्ण कार्यमेतत्परं मम // 56 पिबन्त इव तद्वयोम जग्मुद्रौणिरथं प्रति // 43 ततः प्रयातो दाशार्हः श्रुत्वा पाण्डवभाषितम दृष्ट्वायान्तौ महावीर्यावुभौ कृष्णधनंजयौ / रथेनातिपताकेन मनोमारुतरंहसा / / 57 धृष्टद्युम्नवधे राजंश्चके यत्नं महाबलः // 44 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि विकृष्यमाणं दृष्ट्वैव धृष्टद्युम्नं जनेश्वर। . द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // शरांश्चिक्षेप वै पार्थो द्रौणिं प्रति महाबलः // 45 ते शरा हेमविकृता गाण्डीवप्रेषिता भृशम् / संजय उवाच / द्रौणिमासाद्य विविशुर्वल्मीकमिव पन्नगाः // 46 एतस्मिन्नन्तरे कृष्णः पार्थं वचनमब्रवीत् / स विध्वस्तैः शरैघो रैद्रोणपुत्रः प्रतापवान् / दर्शयन्निव कौन्तेयं धर्मराज युधिष्ठिरम् // 1 रथमारुरुहे वीरो धनंजयशरार्दितः। एष पाण्डव ते भ्राता धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः / / प्रगृह्य च धनुः श्रेष्ठं पार्थं विव्याध सायकैः // 47 जिघांसुभिर्महेष्वासैद्रुतं पार्थानुसर्यते // 2 एतस्मिन्नन्तरे वीरः सहदेवो जनाधिप / तथानुयान्ति संरब्धाः पाञ्चाला युद्धदुर्मदाः / अपोवाह रथेनाजौ पार्षतं शत्रुतापनम् // 48 युधिष्ठिरं महात्मानं परीप्सन्तो महाजवाः // 3 अर्जुनोऽपि महाराज द्रौणि विव्याध पत्रिभिः / एष दुर्योधनः पार्थ रथानीकेन दंशितः / तं द्रोणपुत्रः संक्रुद्धो बाह्वोरुरसि चादयत् // 49 राजा सर्वस्य लोकस्य राजानमनुधावति // 4 कोधितस्तु रणे पार्थो नाराचं कालसंमितम् / / जिघांसुः पुरुषव्याघ्रं भ्रातृभिः सहितो बली / द्रोणपुत्राय चिक्षेप कालदण्डमिवापरम् / आशीविषसमस्पशैः सर्वयुद्धविशारदैः॥ 5 स ब्राह्मणस्यांसदेशे निपपात महाद्युतिः // 50 एते जिघृक्षवो यान्ति द्विपाश्वरथपत्तयः / स विह्वलो महाराज शरवेगेन संयुगे। युधिष्ठिरं धार्तराष्ट्रा रत्नोत्तममिवार्थिनः // 6 निषसाद रथोपस्थे वैक्लव्यं च परं ययौ // 51 पश्य सात्वतभीमाभ्यां निरुद्धाधिष्ठितः प्रभुः / ततः कर्णो महाराज व्याक्षिपद्विजयं धनुः / / जिहीर्षवोऽमृतं दैत्याः शक्राग्निभ्यामिवावशाः // 7 अर्जुनं समरे क्रुद्धः प्रेक्षमाणो मुहुर्मुहुः / एते बहुत्वात्त्वरिताः पुनर्गच्छन्ति पाण्डवम् / टैरथं चापि पार्थेन कामयानो महारणे // 52 समुद्रमिव वार्योघाः प्रावृष्ट्वाले महारथाः // 8 तं तु हित्वा हतं वीरं सारथिः शत्रुकर्शनम् / नदन्तः सिंहनादांश्च धमन्तश्चापि वारिजान् / अपोवाह रथेनाजी त्वरमाणो रणाजिरात् / / 53 बलवन्तो महेष्वासा विधुन्वन्तो धनूंषि च // 9 अथोत्क्रुष्टं महाराज पाञ्चालैर्जितकाशिभिः / / मृत्योर्मुखगतं मन्ये कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / - 1735 - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 43. 10] महाभारते [ 8. 43. 39 हुतममौ च भद्रं ते दुर्योधनवशं गतम् // 10 पाञ्चालानां च सर्वेषां चेदीनां चैव भारत // 24 यथायुक्तमनीकं हि धार्तराष्ट्रस्य पाण्डव / एष कर्णो रणे पार्थ पाण्डवानामनीकिनीम् / नास्य शक्रोऽपि मुच्येत संप्राप्तो बाणगोचरम् // 11 शरैर्विध्वंसयति वै नलिनीमिव कुञ्जरः // 25 दुर्योधनस्य शूरस्य द्रौणेः शारद्वतस्य च / एते द्रवन्ति रथिनस्त्वदीयाः पाण्डुनन्दन / कर्णस्य चेषुवेगो वै पर्वतानपि दारयेत् // 12 पश्य पश्य यथा पार्थ गच्छन्त्येते महारथाः // 26 // दुर्योधनस्य शूरस्य शरौघाशीघ्रमस्यतः / एते भारत मातङ्गाः कर्णेनाभिहता रणे। संक्रुद्धस्यान्तकस्येव को वेगं संसहेद्रणे // 13 आर्तनादान्विकुर्वाणा विद्रवन्ति दिशो दश // 27 कर्णेन च कृतो राजा विमुखः शत्रुतापनः / रथानां द्रवतां वृन्दं पश्य पार्थ समन्ततः / बलवाल्लघुहस्तश्च कृती युद्धविशारदः // 14 द्राव्यमाणं रणे चैव कर्णेनामित्रकर्शिना // 28 राधेयः पाण्डवश्रेष्ठं शक्तः पीडयितुं रणे। हस्तिकक्ष्यां रणे पश्य चरन्तीं तत्र तत्र.ह / सहितो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः शूरो महात्मभिः // 15 रथस्थं सूतपुत्रस्य केतुं केतमतां वर // 29 तस्यैवं युध्यमानस्य संग्रामे संयतात्मनः / असौ धावति राधेयो भीमसेनरथं प्रति / अन्यैरपि च पार्थस्य हृतं वर्म महारथैः // 16 किरशरशतानीव विनिम्नंस्तव वाहिनीम् // 30 . उपवासकृशो राजा भृशं भरतसत्तम / एतान्पश्य च पाञ्चालान्द्राव्यमाणान्महात्मना / ब्राह्मे बले स्थितो ह्येष न क्षत्रेऽतिबले विभो // 17 शक्रेणेव यथा दैत्यान्हन्यमानान्महाहवे // 31 न जीवति महाराजो मन्ये पार्थ युधिष्ठिरः। एष कर्णो रणे जित्वा पाश्चालान्पाण्डुसृञ्जयान् / यद्भीमसेनः सहते सिंहनादममर्षणः // 18 दिशो विप्रेक्षते सर्वास्त्वदर्थमिति मे मतिः // 32 नर्दतां धार्तराष्ट्राणां पुनः पुनररिंदम / पश्य पार्थ धनुः श्रेष्ठं विकर्षन्साधु शोभते। . धमतां च महाशङ्खान्संग्रामे जितकाशिनाम् // 19 शत्रूञ्जित्वा यथा शक्रो देवसंधैः समावृतः // 33 युधिष्ठिरं पाण्डवेयं हतेति भरतर्षभ / एते नदन्ति कौरव्या दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम् / संचोदयत्यसौ कर्णो धार्तराष्ट्रान्महाबलान् // 20 त्रासयन्तो रणे पार्थान्सृञ्जयांश्च सहस्रशः // 34 स्थूणाकर्णेन्द्रजालेन पार्थ पाशुपतेन च / एष सर्वात्मना पाण्डूंस्त्रासयित्वा महारणे / प्रच्छादयन्तो राजानमनुयान्ति महारथाः / अभिभाषति राधेयः सर्वसैन्यानि मानदः // 35 आतुरो मे मतो राजा संनिषेव्यश्च भारत // 21 अभिद्रवत गच्छध्वं द्रुतं द्रवत कौरवाः / यथैनमनुवर्तन्ते पाञ्चालाः सह पाण्डवैः / / यथा जीवन्न वः कश्चिन्मुच्यते युधि सृञ्जयः // 36 त्वरमाणास्त्वराकाले सर्वशस्त्रभृतां वराः / तथा कुरुत संयत्ता वयं यास्याम पृष्ठतः / मज्जन्तमिव पाताले बलिनोऽप्युज्जिहीर्षवः // 22 एवमुक्त्वा ययावेष पृष्ठतो विकिरशरैः // 37 न केतुर्दश्यते राज्ञः कर्णेन निहतः शरैः / पश्य कणं रणे पार्थ श्वेतच्छविविराजितम् / पश्यतोर्यमयोः पार्थ सात्यकेश्च शिखण्डिनः॥२३ / उदयं पर्वतं यद्वच्छोभयन्वै दिवाकरः // 38 धृष्टद्युम्नस्य भीमस्य शतानीकस्य वा विभो। | पूर्णचन्द्रनिकाशेन मूर्ध्नि छत्रेण भारत / - 1736 - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 43. 39 ] कर्णपर्व [8. 43. 67 धियमाणेन समरे तथा शतशलाकिना // 39 भीमसेनेन कौन्तेय पाञ्चालैश्च महात्मभिः॥ 53 एष त्वां प्रेक्षते कर्णः सकटाक्षो विशां पते। सेना हि धार्तराष्ट्रस्य विमुखा चाभवद्रणात् / उत्तमं यत्नमास्थाय ध्रुवमेष्यति संयुगे // 40 विप्रधावति वेगेन भीमस्य निहता शरैः // 54 पश्य ह्येनं महाबाहो विधुन्वानं महद्धनुः / विपन्नसस्येव मही रुधिरेण समुक्षिता। शरांश्चाशीविषाकारान्विसृजन्तं महाबलम् // 41 भारती भरतश्रेष्ठ सेना कृपणदर्शना / / 55 असौ निवृत्तो राधेयो दृश्यते वानरध्वज। निवृत्तं पश्य कौन्तेय भीमसेनं युधां पतिम् / वधाय चात्मनोऽभ्येति दीपस्य शलभो यथा॥४२ आशीविषमिव क्रुद्धं तस्माद्रवति वाहिनी // 56 कर्णमेकाकिनं दृष्ट्वा रथानीकेन भारत। पीतरक्तासितसितास्ताराचन्द्रार्कमण्डिताः / रिरक्षिषुः सुसंयत्तो धार्तराष्ट्रोऽभिवर्तते // 43 पताका विप्रकीर्यन्ते छत्राण्येतानि चार्जुन // 57 सर्वैः सहेभिर्दुष्टात्मा वध्य एष प्रयत्नतः / सौवर्णा राजताश्चैव तैजसाश्च पृथग्विधाः / वया यशश्च राज्यं च सुखं चोत्तममिच्छता॥४४ केतवो विनिपात्यन्ते हत्यश्वं विप्रकीर्यते // 58 मात्मानं च कृतात्मानं समीक्ष्य भरतर्षभ / रथेभ्यः प्रपतन्त्येते रथिनो विगतासवः। तागसं च राधेयं धर्मात्मनि युधिष्ठिरे // 45 नानावगैर्हता बाणैः पाञ्चालैरपलायिभिः // 59 प्रतिपद्यस्व राधेयं प्राप्तकालमनन्तरम्। निर्मनुष्यान्गजानश्वान्रथांश्चैव धनंजय / आयां युद्धे मतिं कृत्वा प्रत्येहि रथयूथपम् // 46 समाद्रवन्ति पाश्चाला धार्तराष्ट्रांस्तर स्विनः // 60 पच ह्येतानि मुख्यानां रथानां रथसत्तम / मृद्गन्ति च नरव्याघ्रा भीमसेनव्यपाश्रयात्। शतान्यायान्ति वेगेन बलिनां भीमतेजसाम् // 47 बलं परेषां दुर्धर्षं त्यक्त्वा प्राणानरिंदम // 61 पन्न नागसहस्राणि द्विगुणा वाजिनस्तथा / एते नदन्ति पाञ्चाला धमन्त्यपि च वारिजान् / अमिसंहत्य कौन्तेय पदातिप्रयुतानि च। अभिद्रवन्ति च रणे निघ्नन्तः सायकैः परान् // 62 अन्योन्यरक्षितं वीर बलं त्वामभिवर्तते // 48 पश्य स्वर्गस्य माहात्म्यं पाञ्चाला हि परंतप / सूतपुत्रे महेष्वासे दर्शयात्मानमात्मना। धार्तराष्ट्रान्विनिम्नन्ति क्रुद्धाः सिंहा इव द्विपान् / उत्तमं यत्नमास्थाच प्रत्येहि भरतर्षभ / / 49 सर्वतश्चाभिपन्नैषा धार्तराष्ट्री महाचमूः / असौ कर्णः सुसंरब्धः पाञ्चालानभिधावति / पाश्चालैर्मानसादेत्य हंसैगङ्गेव वेगितैः // 64 फेतुमस्य हि पश्यामि धृष्टद्युम्नरथं पति। सुभृशं च पराक्रान्ताः पाञ्चालानां निवारणे। समुच्छेत्स्यति पाञ्चालानिति मन्ये परंतप // 50 / कृपकर्णादयो वीरा ऋषभाणामिवर्षभाः // 65 आचक्षे ते प्रियं पार्थ तदेवं भरतर्षभ। सुनिमग्नांश्च भीमास्त्रैर्धार्तराष्ट्रान्महारथान् / राजा जीवति कौरव्यो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / / 51 धृष्टद्युम्नमुखा वीरा नन्ति शत्रून्सहस्रशः / असौ भीमो महाबाहुः संनिवृत्तश्चमूमुखे। विषण्णभूयिष्ठरथा धार्तराष्ट्री महाचमः // 66 वृतः सृञ्जयसैन्येन सात्यकेन च भारत // 52 / / पश्य भीमेन नाराचैश्छिन्ना नागाः पतन्त्यमी / वघ्यन्त एते समरे कौरवा निशितैः शरैः। वज्रिवज्राहतानीव शिखराणि महीभृताम् // 67 म. भा. 218 - 1737 - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 43. 68] महाभारते [ 8. 44. 15 भीमसेनस्य निर्विद्धा बाणैः संनतपर्वभिः / वध्यमाने बले चापि मामके पाण्डुसृञ्जयैः // 1 स्वान्यनीकानि मृद्गन्तो द्रवन्त्येते महागजाः // 68 द्रवमाणे बलौघे च निराक्रन्दे मुहुर्मुहुः / नाभिजानासि भीमस्य सिंहनादं दुरुत्सहम् / किमकुर्वन्त कुरवस्तन्ममाचक्ष्व संजय // 2 नदतोऽर्जुन संग्रामे वीरस्य जितकाशिनः // 69 संजय उवाच। एष नैषादिरभ्येति द्विपमुख्येन पाण्डवम् / दृष्ट्वा भीमं महाबाहुं सूतपुत्रः प्रतापवान् / जिघांसुस्तोमरैः क्रुद्धो दण्डपाणिरिवान्तकः // 70 क्रोधरक्तेक्षणो राजन्भीमसेनमुपाद्रवत् // 3 सतोमरावस्य भुजौ छिन्नौ भीमेन गर्जतः / तावकं च बलं दृष्ट्वा भीमसेनात्पराङ्मुखम् / तीक्ष्णैरग्निशिखाप्रख्यैर्नाराचैर्दशभिर्हतः // 71 यत्नेन महता राजन्पर्यवस्थापयद्बली // 4 हत्वैनं पुनरायाति नागानन्यान्प्रहारिणः / व्यवस्थाप्य महाबाहुस्तव पुत्रस्य वाहिनीम् / पश्य नीलाम्बुदनिभान्महामात्रैरधिष्ठितान् / प्रत्युद्ययौ तदा कर्णः पाण्डवान्युद्धदुर्मदान् // 5 शक्तितोमरसंकाशैर्विनिघ्नन्तं वृकोदरम् // 72 प्रत्युद्ययुस्तु राधेयं पाण्डवानां महारथाः / सप्त सप्त च नागांस्तान्वैजयन्तीश्च सध्वजाः / धुन्वानाः कार्मुकाण्याजौ विक्षिपन्तश्च सायकान् निहत्य निशितैर्बाणैश्छिन्नाः पार्थाग्रजेन ते / भीमसेनः शिनेर्नप्ता शिखण्डी जनमेजयः / दशभिर्दशभिश्चैको नाराचैर्निहतो गजः // 73 धृष्टद्युम्नश्च बलवान्सर्वे चापि प्रभद्रकाः // 7 न चासौ धार्तराष्ट्राणां श्रूयते निनदस्तथा / पाश्चालाश्च नरव्याघ्राः समन्तात्तव वाहिनीम् / पुरंदरसमे क्रुद्धे निवृत्ते भरतर्षभे // 74 अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धाः समरे जितकाशिनः // 8 अक्षौहिण्यस्तथा तिस्रो धार्तराष्ट्रस्य संहताः / तथैव तावका राजन्पाण्डवानामनीकिनीम् / क्रुद्धेन नरसिंहेन भीमसेनेन वारिताः // 75 अभ्यद्रवन्त त्वरिता जिघांसन्तो महारथाः // 9 संजय उवाच / रथनागाश्वकलिलं पत्तिध्वजसमाकुलम् / भीमसेनेन तत्कर्म कृतं दृष्ट्वा सुदुष्करम् / बभूव पुरुषव्याघ्र सैन्यमद्भुतदर्शनम् // 10 अर्जुनो व्यधमच्छिष्टानहितान्निशितैः शरैः // 76 शिखण्डी च ययौ कणं धृष्टद्युम्नः सुतं तव / ते वध्यमानाः समरे संशप्तकगणाः प्रभो। दुःशासनं महाराज महत्या सेनया वृतम् // 11 शक्रस्यातिथितां गत्वा विशोका ह्यभवन्मुदा // 77 नकुलो वृषसेनं च चित्रसेनं युधिष्ठिरः / पार्थश्च पुरुषव्याघ्रः शरैः संनतपर्वभिः / उलूकं समरे राजन्सहदेवः समभ्ययात् // 12 जघान धार्तराष्ट्रस्य चतुर्विधबलां चमूम् // 78 सात्यकिः शकुनि चापि भीमसेनश्च कौरवान् / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अर्जुनं च रणे यत्तं द्रोणपुत्रो महारथः // 13 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // युधामन्युं महेष्वासं गौतमोऽभ्यपतद्रणे / कृतवर्मा च बलवानुत्तमौजसमाद्रवत् // 14 धृतराष्ट्र उवाच / भीमसेनः कुरून्सर्वान्पुत्रांश्च तव मारिष / निवृत्ते भीमसेने च पाण्डवे च युधिष्ठिरे। सहानीकान्महाबाहुरेक एवाभ्यवारयत् // 15 - 1738 - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 44. 16 ] कर्णपर्व [8. 44. 44 शिखण्डी च ततः कर्ण विचरन्तमभीतवत् / अथान्यद्धनुरादाय पुत्रस्ते भरतर्षभ / मीष्महन्ता महाराज वारयामास पत्रिभिः // 16 धृष्टद्युम्नं शरव्रातैः समन्तात्पर्यवारयत् // 31 प्रतिरब्धस्ततः कर्णो रोषात्प्रस्फुरिताधरः / तव पुत्रस्य ते दृष्ट्वा विक्रमं तं महात्मनः / शिखण्डिनं त्रिभिर्बाणैर्भुवोर्मध्ये व्यताडयत् // 17 व्यहसन्त रणे योधाः सिद्धाश्चाप्सरसां गणाः // धारयंस्तु स तान्बाणाशिखण्डी बह्वशोभत / ततः प्रववृत्ते युद्धं तावकानां परैः सह / राजतः पर्वतो यद्वत्रिभिः शृङ्गैः समन्वितः // 18 घोरं प्राणभृतां काले घोररूपं परंतप // 33 सोऽतिविद्धो महेष्वासः सूतपुत्रेण संयुगे। नकुलं वृषसेनस्तु विद्धा पञ्चभिरायसैः / कर्ण विव्याध समरे नवत्या निशितैः शरैः // 19 / पितुः समीपे तिष्ठन्तं त्रिभिरन्यैरविध्यत // 34 तस्य कर्णो हयान्हत्वा सारथिं च त्रिभिः शरैः / नकुलस्तु ततः क्रुद्धो वृषसेनं स्मयन्निव / सन्ममाथ ध्वजं चास्य क्षुरप्रेण महारथः // 20 नाराचेन सुतीक्ष्णेन विव्याध हृदये दृढम् // 35 हताश्वात्तु ततो यानादवप्लुत्य महारथः / सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुकर्शनः / शक्तिं चिक्षेप कर्णाय संक्रुद्धः शत्रुतापनः // 21 शत्रु विव्याध विंशत्या स च तं पञ्चभिः शरैः।।३६ तां छित्त्वा समरे कर्णस्त्रिभिर्भारत सायकैः / ततः शरसहस्रेण तावुभौ पुरुषर्षभौ / शिखण्डिनमथाविध्यन्नवभिर्निशितैः शरैः // 22 अन्योन्यमाच्छादयतामथाभज्यत वाहिनी // 37 कर्णचापच्युतान्बाणान्वर्जयंस्तु नरोत्तमः।। दृष्ट्वा तु प्रद्रुतां सेनां धार्तराष्ट्रस्य सूतजः / अपयातस्ततस्तूर्णं शिखण्डी जयतां वरः // 23 निवारयामास बलादनुपत्य विशां पते / ततः कर्णो महाराज पाण्डुसैन्यान्यशातयत् / निवृत्ते तु ततः कर्णे नकुलः कौरवान्ययौ // 38 तूलराशिं समासाद्य यथा वायुर्महाजवः // 24 कर्णपुत्रस्तु समरे हित्वा नकुलमेव तु / धृष्टद्युम्नो महाराज तव पुत्रेण पीडितः। जुगोप चक्रं त्वरितं राधेयस्यैव मारिष // 39 दःशासनं त्रिभिर्बाणैरभ्यविध्यत्स्तनान्तरे // 25 उलूकस्तु रणे क्रुद्धः सहदेवेन वारितः / तस्य दुःशासनो बाहुँ सव्यं विव्याध मारिष / तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा सहदेवः प्रतापवान् / शितेन रुक्मपुझेन भल्लेन नतपर्वणा // 26 सारथिं प्रेषयामास यमस्य सदनं प्रति // 40 धृष्टद्युम्नस्तु निर्विद्धः शरं घोरममर्षणः / दुःशासनाय संक्रुद्वः प्रेषयामास भारत // 27 उलूकस्तु ततो यानादवप्लुत्य विशां पते / आपतन्तं महावेगं धृष्टद्युम्नसमीरितम् / त्रिगर्तानां बलं पूर्ण जगाम पितृनन्दनः // 41 शरैश्चिच्छेद पुत्ररते त्रिभिरेव विशां पते // 28 सात्यकिः शकुनि विद्धा विंशत्या निशितैः शरैः / अथापरैः सप्तदशैभल्लैः कनकभूषणैः / / ध्वजं चिच्छेद भल्लेन सौबलस्य हसन्निव // 42 धृष्टद्युम्नं समासाद्य बाह्वोरुरसि चार्दयत् // 29 सौबलस्तस्य समरे क्रुद्धो राजन्प्रतापवान् / ततः स पार्षतः क्रु द्वो धनुश्चिच्छेद मारिष / विदार्य कवचं भूयो ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्।।४३ क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन तत उचुक्रुशुर्जनाः // 30 | अथैनं निशितैर्बाणैः सात्यकिः प्रत्यविध्यत। - 1739 - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 44. 44] महाभारते [8. 45. 14 सारथिं च महाराज त्रिभिरेव समार्दयत् / अथास्य वाहांस्त्वरितः शरैर्निन्ये यमक्षयम् // 44 संजय उवाच / ततोऽवप्लुत्य सहसा शकुनिर्भरतर्षभ / द्रौणिस्तु रथवंशेन महता परिवारितः / आरुरोह रथं तूर्णमुलूकस्य महारथः। आपतत्सहसा राजन्यत्र राजा व्यवस्थितः // 1 अपोवाहाथ शीघ्रं स शैनेयायुद्धशालिनः // 45 तमापतन्तं सहसा शूरः शौरिसहायवान् / सात्यकिस्तु रणे राजस्तावकानामनीकिनीम् / दधार सहसा पार्थो वेलेव मकरालयम् // 2 अभिदुद्राव वेगेन ततोऽनीकमभिद्यत // 46 ततः क्रुद्धो महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / शैनेयशरनुन्नं तु ततः सैन्यं विशां पते / अर्जुनं वासुदेवं च छादयामास पत्रिभिः // 3 भेजे दश दिशस्तूर्णं न्यपतञ्च गतासुवत् // 47 अवच्छन्नौ ततः कृष्णौ दृष्ट्वा तत्र महारथाः / भीमसेनं तव सुतो वारयामास संयुगे / विस्मयं परमं गत्वा प्रेक्षन्त कुरवस्तदा // .4 तं तु भीमो मुहूर्तेन व्यश्वसूतरथध्वजम् / अर्जुनस्तु ततो दिव्यमस्रं चक्रे हसन्निव / चक्रे लोकेश्वरं तत्र तेनातुष्यन्त चारणाः॥ 48 तदत्रं ब्राह्मणो युद्धे वारयामास भारत // 5 यद्यद्धि व्याक्षिपद्युद्धे पाण्डवोऽस्त्रं जिघांसया / ततोऽपायान्नपस्तत्र भीमसेनस्य गोचरात् / तत्तदत्रं महेष्वासो द्रोणपुत्रो व्यशातयत् // 6 कुरुसैन्यं ततः सर्वं भीमसेनमुपाद्रवत् / अस्त्रयुद्धे ततो राजन्वर्तमाने भयावहे / सत्र रावो महानासीद्भीममेकं जिघांसताम् // 49 अपश्याम रणे द्रौणि व्यात्ताननमिवान्तकम् // 7 युधामन्युः कृपं विद्ध्वा धनुरस्याशु चिच्छिदे / स दिशो विदिशश्चैव छांदयित्वा विजिह्मगैः / अथान्यद्धनुरादाय कृपः शस्त्रभृतां वरः // 50 वासुदेवं त्रिभिर्बाणैरविध्यदक्षिणे भुजे // 8 युधामन्योर्ध्व सूतं छत्रं चापातयरिक्षतौ / ततोऽर्जुनो हयान्हत्वा सर्वांस्तस्य महात्मनः / ततोऽपायाद्रथेनैव युधामन्युर्महारथः // 51 चकार समरे भूमिं शोणितौघतरङ्गिणीम् // 9 उत्तमौजास्तु हार्दिक्यं शरैर्भीमपराक्रमम् / निहता रथिनः पेतुः पार्थचापच्युतैः शरैः / छादयामास सहसा मेघो वृष्ट्या यथाचलम् // 52 हयाश्च पर्यधावन्त मुक्तयोक्त्रास्ततस्ततः // 10 तद्युद्धं सुमहच्चासीद्घोररूपं परंतप / / तदृष्ट्वा कर्म पार्थस्य द्रौणिराहवशोभिनः / यादृशं न मया युद्धं दृष्टपूर्वं विशां पते // 53 अवाकिरद्रणे कृष्णं समन्तान्निशितैः शरैः // 11 कृतवर्मा ततो राजन्नुत्तमौजसमाहवे / ततोऽर्जुनं महाराज द्रौणिरायम्य पत्रिणा। हृदि विव्याध स तदा रथोपस्थ उपाविशत् // 54 वक्षोदेशे समासाद्य ताडयामास संयुगे // 12 सारथिस्तमपोवाह रथेन रथिनां वरम् / सोऽतिविद्धो रणे तेन द्रोणपुत्रेण भारत / ततस्तु सत्वरं राजन्पाण्डुसैन्यमुपाद्रवत् // 55 आदत्त परिघं घोरं द्रौणेश्चैनमवाक्षिपत् // 13 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि तमापतन्तं परिघं कार्तस्वरविभूषितम् / चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ 44 // द्रौणिश्चिच्छेद सहसा तत उच्चुक्रुशुर्जनाः // 14 - 1740 - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 45. 15 ] कर्णपर्व [8. 45. 42 सोऽनेकधापतद्भूमौ भारद्वाजस्य सायकैः / सहस्राणि च योधानां त्वामेव पुरुषर्षभ / विशीर्णः पर्वतो राजन्यथा स्यान्मातरिश्वना // 15 क्रोशन्ति समरे वीर द्राव्यमाणानि पाण्डवैः // 30 ततोऽर्जुनो रणे द्रौणिं विव्याध दशभिः शरैः / एतच्छ्रुत्वा तु राधेयो दुर्योधनवचो महत् / सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपाहरत् // 16 मद्रराजमिदं वाक्यमब्रवीत्सूतनन्दनः // 31 स संगृह्य स्वयं वाहाकृष्णौ प्राच्छादयच्छरैः / पश्य मे भुजयोर्वीर्यमस्त्राणां च जनेश्वर / तत्राद्भुतमपश्याम द्रौणेराशु पराक्रमम् // 17 अद्य हन्मि रणे सर्वान्पाञ्चालान्पाण्डुभिः सह / अयच्छत्तुरगान्यच्च फल्गुनं चाप्ययोधयत् / / वाहयाश्वान्नरव्याघ्र भद्रेणैव जनेश्वर / / 32 सदस्य समरे राजन्सर्वे योधा अपूजयन् // 18 एवमुक्त्वा महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् / यदा त्वमस्यत रणे द्रोणपुत्रेण फल्गुनः / प्रगृह्य विजयं वीरो धनुःश्रेष्ठं पुरातनम् / ततो रश्मीन्रथाश्वानां क्षुरप्रैश्विच्छिदे जयः // 12 सज्यं कृत्वा महाराज संमृज्य च पुनः पुनः // 33 प्राद्रवंस्तुरगास्ते तु शरवेगप्रबाधिताः / संनिवार्य च योधान्स्वान्सत्येन शपथेन च / ततोऽभून्निनदो भूयस्तव सैन्यस्य भारत // 20 प्रायोजयदमेयात्मा भार्गवाखं महाबलः // 34 पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा तव सैन्यमुपाद्रवन् / ततो राजन्सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च / समन्तान्निशितान्बाणान्विमुञ्चन्तो जयैषिणः // 21 कोटिशश्च शरास्तीक्ष्णा निरगच्छन्महामृधे / / 35 पाण्डवैस्तु महाराज धार्तराष्ट्री महाचमूः / ज्वलितैस्तैर्महाघोरैः कङ्कबहिणवाजितैः / पुनः पुनरथो वीरैरभज्यत जयोद्धतैः // 22 संछन्ना पाण्डवी सेना न प्राज्ञायत किंचन // 36 पश्यतां ते महाराज पुत्राणां चित्रयोधिनाम् / हाहाकारो महानासीत्पाञ्चालानां विशां पते / शकुनेः सौबलेयस्य कर्णस्य च महात्मनः // 23 पीडितानां बलवता भार्गवास्त्रेण संयुगे // 37 वार्यमाणा महासेना पुत्रैस्तव जनेश्वर / निपतद्भिर्गजै राजन्नरैश्चापि सहस्रशः / नावतिष्ठत संग्रामे ताड्यमाना समन्ततः // 24 रथैश्चापि नरव्याघ्र हयैश्चापि समन्ततः // 38 ततो योधैर्महाराज पलायद्भिस्ततस्ततः / प्राकम्पत मही राजनिहतैस्तैस्ततस्ततः / अभवद्वयाकुलं भीतैः पुत्राणां ते महद्बलम् // 25 व्याकुलं सर्वमभवत्पाण्डवानां महदलम् // 39 तिष्ठ तिष्ठेति सततं सूतपुत्रस्य जल्पतः / कर्णरत्वेको युधां श्रेष्ठो विधूम इव पावकः / नावतिष्ठत सा सेना वध्यमाना महात्मभिः // 26 दहशत्रून्नरव्याघ्र शुशुभे स परंतपः / / 40 अथोत्क्रुष्टं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः / ते वध्यमानाः कर्णेन पाञ्चालाश्चेदिभिः सह / वार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा द्रवमाणं समन्ततः / / 27 तत्र तत्र व्यमुह्यन्त वनदाहे यथा द्विपाः / तो दुर्योधनः कर्णमब्रवीत्प्रणयादिव / चुक्रुशुस्ते नरव्याघ्र यथाप्राग्वा नरोत्तमाः // 41 श्य कर्ण यथा सेना पाण्डवैरर्दिता भृशम् // 28 / तेषां तु क्रोशतां श्रुत्वा भीतानां रणमूर्धनि / वयि तिष्ठति संत्रासात्पलायति समन्ततः। धावतां च दिशो राजन्धित्रस्तानां समन्ततः / तज्ज्ञात्वा महाबाहो कुरु प्राप्तमरिंदम // 29 आर्तनादो महांस्तत्र प्रेतानामिव संप्लवे // 42 - 1141 - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 45. 43] महाभारते [8. 45: 63 वध्यमानांस्तु तान्दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष। शूराशूरो हर्षयन्सव्यसाची। वित्रेसुः सर्वभूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि // 43 ' पूर्वापदानैः प्रथितैः प्रशंसते वध्यमानाः समरे सूतपुत्रेण सृञ्जयाः / स्थिरांश्चकारात्मरथाननीके // 56 अर्जुनं वासुदेवं च व्याक्रोशन्त मुहुर्मुहुः / अपश्यमानस्तु किरीटमाली प्रेतराजपुरे यद्वत्प्रेतराजं विचेतसः // 44 युधि ज्येष्ठं भ्रातरमाजमीढम् / .. अथाब्रवीद्वासुदेवं कुन्तीपुत्रो धनंजयः। .. उवाच भीमं तरसाभ्युपेत्य भार्गवास्त्रं महाघोरं दृष्ट्वा तत्र समीरितम् // 45 राज्ञः प्रवृत्तिस्त्विह केति राजन् // 50 पश्य कृष्ण महाबाहो भार्गवास्त्रस्य विक्रमम् / भीम उवाच / नैतदत्रं हि समरे शक्यं हन्तुं कथंचन // 46 अपयात इतो राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / सूतपुत्रं च संरब्धं पश्य कृष्ण महारणे / कर्णबाणविभुमाङ्गो यदि जीवेत्कथंचन // 58 अन्तकप्रतिमं वीरं कुर्वाणं कर्म दारुणम् // 47 अर्जुन उवाच। सुतीक्ष्णं चोदयन्नश्वान्प्रेक्षते मां मुहुर्मुहुः / तस्माद्भवाशीघ्रमितः प्रयातु न च पश्यामि समरे कर्णस्य प्रपलायितम् // 48 __ राज्ञः प्रवृत्त्यै कुरुसत्तमस्य। जीवन्प्राप्नोति पुरुषः संख्ये जयपराजयौ। नूनं हि विद्धोऽतिभृशं पृषकैः जितस्य तु हृषीकेश वध एव कुतो जयः // 49 कर्णेन राजा शिबिरं गतोऽसौ // 59 ततो जनार्दनः प्रायादृष्टुमिच्छन्युधिष्ठिरम् / यः संप्रहारे निशि संप्रवृत्ते श्रमेण ग्राहयिष्यंश्च कर्ण युद्धेन मारिष // 50 द्रोणेन विद्धोऽतिभृशं तरखी। अर्जुनं चाब्रवीत्कृष्णो भृशं राजा परिक्षतः। तस्थौ च तत्रापि जयप्रतीक्षो तमाश्वास्य कुरुश्रेष्ठ ततः कर्णं हनिष्यसि // 51 ___ द्रोणेन यावन्न हतः किलासीत् // 60 ततो धनंजयो द्रष्टुं राजानं बाणपीडितम् / स संशयं गमितः पाण्डवाग्र्यः रथेन प्रययौ क्षिप्रं संग्रामे केशवाज्ञय // 52 . संख्येऽद्य कर्णेन महानुभावः / गच्छन्नेव तु कौन्तेयो धर्मराजदिदृक्षया / ज्ञातुं प्रयाह्याशु तमद्य भीम सैन्यमालोकयामास नापश्यत्तत्र चाग्रजम् // 53 - स्थास्याम्यहं शत्रुगणान्निरुध्य // 61 युद्धं कृत्वा तु कौन्तेयो द्रोणपुत्रेण भारत / भीम उवाच। दुःसहं वज्रिणा संख्ये पराजिग्ये भृगोः सुतम् // त्वमेव जानीहि महानुभाव / दौणिं पराजित्य ततोग्रधन्वा ___ राज्ञः प्रवृत्तिं भरतर्षभस्य / - कृत्वा महढुष्करमार्यकर्म / अहं हि यद्यर्जुन यामि तत्र आलोकयामास ततः स्वसैन्यं वक्ष्यन्ति मां भीत इति प्रवीराः // 62 . धनंजयः शत्रुभिरप्रधृष्यः // 55 ततोऽब्रवीदर्जुनो भीमसेनं स युध्यमानः पृतनामुखस्था संशप्तकाः प्रत्यनीकं स्थिता मे / - 1742 - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 45. 63] कर्णपर्व [8. 64. 12 एतानहत्वा न मया तु शक्य हर्षगद्गदया वाचा प्रीतः प्राह परंतपौ // 73 मितोऽपयातुं रिपुसंघगोष्ठात् // 63 / / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अथाब्रवीदर्जुन भीमसेनः पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥ खवीर्यमाश्रित्य कुरुप्रवीर। संशप्तकान्प्रतियोत्स्यामि संख्ये __ संजय उवाच। सर्वानहं याहि धनंजयेति // 64 महासत्त्वौ तु तौ दृष्ट्वा सहितौ केशवार्जुनौ / तद्भीमसेनस्य वचो निशम्य हतमाधिरथिं मेने संख्ये गाण्डीवधन्वना // 1 सुदुर्वचं भ्रातुरमित्रमध्ये / तावभ्यनन्दत्कौन्तेयः साम्ना परमवल्गुना / दृष्टुं कुरुश्रेष्ठमभिप्रयातुं स्मितपूर्वममित्रघ्नः पूजयन्भरतर्षभ / / 2 प्रोवाच वृष्णिप्रवरं तदानीम् // 65 युधिष्ठिर उवाच / पोदयाश्वान्हृषीकेश विगाय॑तं रथार्णवम् / स्वागतं देवकीपुत्र स्वागतं ते धनंजय / अजातशत्रु राजानं द्रष्टुमिच्छामि केशव // 66 प्रियं मे दर्शनं बाढं युवयोरच्युतार्जुनौ // 3 ततो हयान्सर्वदाशार्हमुख्यः अक्षताभ्यामरिष्टाभ्यां कथं युध्य महारथम् / प्राचोदयद्भीममुवाच चेदम् / आशीविषसमं युद्धे सर्वशस्त्रविशारदम् // 4 नैतञ्चित्रं तव कर्माद्य वीर अग्रगं धार्तराष्ट्राणां सर्वेषां शर्म वर्म च / यास्यामहे जहि भीमारिसंघान् // 67 रक्षितं वृषसेनेन सुषेणेन च धन्विना / / 5 अनुज्ञातं महावीर्यं रामेणास्त्रेषु दुर्जयम् / ततो ययौ हृषीकेशो यत्र राजा युधिष्ठिरः / त्रातारं धार्तराष्ट्राणां गन्तारं वाहिनीमुखे // 6 शीघ्राच्छीघ्रतरं राजन्वाजिभिर्गरुडोपमैः // 68 हन्तारमरिसैन्यानाममित्रगणमर्दनम् / प्रत्यनीके व्यवस्थाप्य भीमसेनमरिंदमम् / दुर्योधनहिते युक्तमस्मद्युद्धाय चोद्यतम् // 7 संदिश्य चैव राजेन्द्र युद्धं प्रति वृकोदरम् // 69 अप्रधृष्यं महायुद्धे देवैरपि सवासवैः / ततस्तु गत्वा पुरुषप्रवीरौ अनलानिलयोस्तुल्यं तेजसा च बलेन च // 8 राजानमासाद्य शयानमेकम् / पातालमिव गम्भीरं सुहृदानन्दवर्धनम् / स्थादुभौ प्रत्यवरुह्य तस्मा अन्तकाभममित्राणां कणं हत्वा महाहवे। - द्ववन्दतुर्धर्मराजस्य पादौ / 70 दिष्ट्या युवामनुप्राप्तौ जित्वासुरमिवामरौ // 9 सौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रौ क्षेमिणौ पुरुषर्षभ / तेन युद्धमदीनेन मया ह्यद्याच्युतार्जुनौ / मुदाभ्युपगतौ कृष्णावश्विनाविव वासवम् // 71 / कुपितेनान्तकेनेव प्रजाः सर्वा जिघांसता // 10 सावभ्यनन्दद्राजा हि विवस्वानश्विनाविव / तेन केतुश्च मे छिन्नो हतौ च पार्णिसारथी / हते महासुरे जम्भे शक्रविष्णू यथा गुरुः // 72 / हतवाहः कृतश्चास्मि युयुधानस्य पश्यतः // 11 मन्यमानो हतं कर्ण धर्मराजो युधिष्ठिरः। धृष्टद्युम्नस्य यमयोर्वीरस्य च शिखण्डिनः / -.17.43 - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 46. 12 ] महाभारते [8. 46. 36 पश्यतां द्रौपदेयानां पाञ्चालानां च सर्वशः // 12 सदा त्वदर्थं राधेयः स कथं निहतस्त्वया // 27 एताञ्जित्वा महावीर्यान्कर्णः शत्रुगणान्बहून् / धृतराष्ट्रो हि योधेषु सर्वेष्वेव सदार्जुन / जितवान्मां महाबाहो यतमानं महारणे // 13 तव मृत्युं रणे कर्णं मन्यते पुरुषर्षभः // 28 अनुसृत्य च मां युद्धे परुषाण्युक्तवान्बहु / स त्वया पुरुषव्याघ्र कथं युद्धे निषूदितः / तत्र तत्र युधां श्रेष्ठः परिभूय न संशयः // 14 तन्ममाचक्ष्व बीभत्सो यथा कर्णो हतस्त्वया॥२९ भीमसेनप्रभावात्तु यजीवामि धनंजय। सोत्सेधमस्य च शिरः पश्यतां सुहृदां हृतम् / बहुनात्र किमुक्तेन नाहं तत्सोढुमुत्सहे // 15 त्वया पुरुषशार्दूल शार्दूलेन यथा रुरोः // 30 त्रयोदशाहं वर्षाणि यस्माद्भीतो धनंजय / यः पर्युपासीत्प्रदिशो दिशश्च न स्म निद्रा लभे रात्रौ न चाहनि सुखं क्वचित्॥१६ ___ त्वां सूतपुत्रः समरे परीप्सन् / तस्य द्वेषेण संयुक्तः परिदये धनंजय / दित्सुः कर्णः समरे हस्तिपूगं आत्मनो मरणं जानन्वाध्रीणस इव द्विपः // 17 ___स हीदानी कङ्कपत्रैः सुतीक्ष्णैः // 31 यस्यायमगमत्कालश्चिन्तयानस्य मे विभो। त्वया रणे निहतः सूतपुत्रः कथं शक्यो मया कर्णो युद्धे क्षपयितुं भवेत् // 18 कच्चिच्छेते भूमितले दुरात्मा। जाप्रत्स्वपंश्च कौन्तेय कर्णमेव सदा ह्यहम् / कञ्चित्प्रियं मे परमं त्वयाद्य पश्यामि तत्र तत्रैव कर्णभूतमिदं जगत् // 19 ___ कृतं रणे सूतपुत्रं निहत्य // 32. यत्र यत्र हि गच्छामि कर्णाद्भीतो धनंजय / यः सर्वतः पर्यपतत्त्वदर्थे तत्र तत्र हि पश्यामि कर्णमेवाग्रतः स्थितम् // 20 मदान्वितो गर्वितः सूतपुत्रः। सोऽहं तेनैव वीरेण समरेष्वपलायिना। स शूरमानी समरे समेत्य सहयः सरथः पार्थ जित्वा जीवन्विसर्जितः // 21 कञ्चित्त्वया निहतः संयुगेऽद्य // 33 को नु मे जीवितेनार्थो राज्येनार्थोऽथ वा पुनः / रौक्मं रथं हस्तिवरैश्च युक्तं ममैवं धिकृतस्येह कर्णेनाहवशोमिना // 22 ___ रथं दित्सुर्यः परेभ्यस्त्वदर्थे / न प्राप्तपूर्वं यद्भीष्मात्कृपाद्रोणाच्च संयुगे।। सदा रणे स्पर्धते यः स पापः तत्प्राप्तमद्य मे युद्धे सूतपुत्रान्महारथात् // 23 ___ कञ्चित्त्वया निहतस्तात युद्धे // 34 तत्त्वा पृच्छामि कौन्तेय यथा ह्यकुशलस्तथा / योऽसौ नित्यं शूरमदेन मत्तो तन्ममाचक्ष्व कार्येन यथा कर्णस्त्वया हतः॥२४ _ विकत्थते संसदि कौरवाणाम् / शक्रवीर्यसमो युद्धे यमतुल्यपराक्रमः / प्रियोऽत्यर्थ तस्य सुयोधनस्य / रामतुल्यस्तथास्त्रे यः स कथं वै निषूदितः // 25 कञ्चित्स पापो निहतस्त्वयाद्य // 35 महारथः समाख्यातः सर्वयुद्धविशारदः / कञ्चित्समागम्य धनुःप्रमुक्तैधनुर्धराणां प्रवरः सर्वेषामेकपूरुषः / / 26 स्त्वत्प्रेषितैलॊहिताविहंगैः। पूजितो धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण विशां पते। शेतेऽद्य पापः स विभिन्नगात्रः - 1744 - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. 36] कर्णपर्व [8. 47.2 कञ्चिद्भग्नो धार्तराष्ट्रस्य बाहुः // 36 नवेक्षते कर्णसमाश्रयेण / योऽसौ सदा श्लाघते राजमध्ये कञ्चित्त्वया सोऽद्य समाश्रयोऽस्य दुर्योधनं हर्पयन्दर्पपूर्णः / भग्नः पराक्रम्य सुयोधनस्य // 44 अहं हन्ता फल्गुनस्येति मोहा यो नः पुरा षण्ढतिलानवोच'कञ्चिद्धतस्तस्य न वै तथा रथः // 37 ___त्सभामध्ये पार्थिवानां समक्षम् / / नाहं पादौ धावयिष्ये कदाचि स दुर्मतिः कच्चिदुपेत्य संख्ये ___ द्यावस्थितः पार्थ इत्यल्पबुद्धिः / त्वया हतः सूतपुत्रोऽत्यमर्षी // 45 व्रतं तस्यैतत्सर्वदा शक्रसूनो यः सूतपुत्रः प्रहसन्दुरात्मा कञ्चित्त्वया निहतः सोऽद्य कर्णः // 38 पुराब्रवीन्निर्जितां सौबलेन। योऽसौ कृष्णामब्रवीढुष्टबुद्धिः स्वयं प्रसह्यानय याज्ञसेनी.. कर्णः सभायां कुरुवीरमध्ये / मपीह कच्चित्स हतस्त्वयाद्य // 46 किं पाण्डवांस्त्वं न जहासि कृष्णे यः शस्त्रभृच्छ्रेष्ठतमं पृथिव्यां सुदुर्बलान्पतितान्हीनसत्त्वान् // 39 __पितामहं व्याक्षिपदल्पचेताः। यत्तत्कर्णः प्रत्यजानात्त्वदर्थे संख्यायमानोऽर्धरथः स कच्चिनाहत्वाहं सह कृष्णेन पार्थम् / त्त्वया हतोऽद्याधिरथिर्दुरात्मा // 47 इहोपयातेति स पापबुद्धिः अमर्षणं निकृतिसमीरणेरितं कञ्चिच्छेते शरसंभिन्नगात्रः // 40 हृदि श्रितं ज्वलनमिमं सदा मम / कञ्चित्संग्रामे विदितो वा तदायं हतो मया सोऽद्य समेत्य पापधीसमागमः सृञ्जयकौरवाणाम् / रिति ब्रुवन्प्रशमय मेऽद्य फल्गुन // 48 अनावस्थामीहशी प्रापितोऽहं इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि . कच्चित्त्वया सोऽद्य हतः समेत्य // 41 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 46 // कच्चित्त्वया तस्य सुमन्दबुद्धे 47 गाण्डीवमुक्तैर्विशिखै लद्भिः / संजय उवाच / सकुण्डलं भानुमदुत्तमाङ्गं तद्धर्मशीलस्य वचो निशम्य कायात्प्रकृत्तं युधि सव्यसाचिन् // 42 राज्ञः क्रुद्धस्याधिरथौ महात्मा। यत्तन्मया बाणसमर्पितेन उवाच दुर्धर्षमदीनसत्त्वं ध्यातोऽसि कर्णस्य वधाय वीर। युधिष्ठिरं जिष्णुरनन्तवीर्यः // 1 तन्मे त्वया कच्चिदमोघमद्य संशप्तकैयुध्यमानस्य मेऽद्य ध्यातं कृतं कर्णनिपातनेन // 43 सेनाप्रयायी कुरुसैन्यस्य राजन्। यद्दपपूर्णः स सुयोधनोऽस्मा आशीविषाभान्खगमान्प्रमुञ्चम.भा. 219 - 1745 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 47. 2] महाभारते [8. 48.2 न्द्रौणिः पुरस्तात्सहसा व्यतिष्ठत् // 2 प्रभद्रकाः कर्णमभि द्रवन्ति / दृष्ट्वा रथं मेघनिभं ममेम मृत्योरास्यं व्यात्तमिवान्वपद्यमम्बष्ठसेना मरणे व्यतिष्ठत् / न्प्रभद्रकाः कर्णमासाद्य राजन् // 10 तेषामहं पश्च शतानि हत्वा आयाहि पश्याद्य युयुत्समानं ततो द्रौणिमगमं पार्थिवाग्य // 3 मां सूतपुत्रं च वृतौ जयाय। . सतोऽपरान्बाणसंघाननेका षट्साहस्रा भारत राजपुत्राः नाकर्णपूर्णायतविप्रमुक्तान् / स्वर्गाय लोकाय रथा निमग्नाः॥११ ससर्ज शिक्षास्त्रबलप्रयत्नै समेत्याहं सूतपुत्रेण संख्ये स्तथा यथा प्रावृषि कालमेघः॥४ __वृत्रेण वज्रीव नरेन्द्रमुख्य / नैवाददानं न च संदधानं योस्ये भृशं भारत सूतपुत्रजानीमहे कतरेणास्यतीति / मस्मिन्संग्रामे यदि वै दृश्यतेऽद्य // 1: वामेन वा यदि वा दक्षिणेन कर्ण न चेदद्य निहन्मि राज__स द्रोणपुत्रः समरे पर्यवर्तत् // 5 न्सबान्धवं युध्यमानं प्रसह्य / अविध्यन्मां पञ्चभिद्रोणपुत्रः प्रतिश्रुत्याकुर्वतां वै गतिर्या शितैः शरैः पञ्चभिर्वासुदेवम् / ___ कष्टां गच्छेयं तामहं राजसिंह // 13 अहं तु तं त्रिंशता वज्रकल्पैः आमत्रये त्वां ब्रहि जयं रणे मे __समार्दयं निमिषस्यान्तरेण // 6 पुरा भीमं धार्तराष्ट्रा ग्रसन्ते। स विक्षरन्रुधिरं सर्वगात्रै सौति हनिष्यामि नरेन्द्रसिंह स्थानीकं सूतसूनोर्विवेश / सैन्यं तथा शत्रुगणांश्च सर्वान् // 14 मयाभिभूतः सैनिकानां प्रबर्हा इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि नसावपश्यन्रुधिरेण प्रदिग्धान् // 7 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः // 47 // ततोऽभिभूतं युधि वीक्ष्य सैन्यं 48 विध्वस्तयोधं द्रुतवाजिनागम् / संजय उवाच। पञ्चाशता रथमुख्यैः समेतः श्रुत्वा कर्ण कल्यमुदारवीय कर्णस्त्वरन्मामुपायात्प्रमाथी // 8 ___ क्रुद्धः पार्थः फल्गुनस्यामितौजाः / तान्सूदयित्वाहमपास्य कर्ण धनंजय वाक्यमुवाच चेदं द्रष्टुं भवन्तं त्वरयाभियातः। युधिष्ठिरः कर्णशराभितप्तः // 1 सर्वे पाश्चाला ह्युद्विजन्ते स्म कर्णा इदं यदि द्वैतवने ह्यवक्ष्यः ___ द्गन्धाद्गावः केसरिणो यथैव // 9 ___ कर्णं योद्धं न प्रसहे नृपेति / महाझषस्येव मुखं प्रपन्नाः वयं तदा प्राप्तकालानि सर्वे -1746 - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 48. 2] कणपत्र [8. 49.1 वृत्तान्युपैष्याम तदैव पार्थ // 2 जातोऽदितेर्विष्णुरिवारिहन्ता / मयि प्रतिश्रुत्य वधं हि तस्य स्वेषां जयाय द्विषतां वधाय बलस्य चाप्तस्य तथैव वीर। ख्यातोऽमितौजाः कुलतन्तुकर्ता // 10 आनीय नः शत्रुमध्यं स कस्मा इत्यन्तरिक्षे शतशृङ्गमूर्ध्नि . समुत्क्षिप्य स्थण्डिले प्रत्यपिष्टाः // 3 तपस्विनां शृण्वतां वागुवाच / अन्वाशिष्म वयमर्जुन त्वयि एवंविधं त्वां तच्च नाभूत्तवाद्य यियासवो बहु कल्याणमिष्टम् / देवा हि नूनमनृतं वदन्ति // 11 सन्नः सर्वं विफलं राजपुत्र तथापरेषामृषिसत्तमानां ___ फलार्थिनां निचुल इवातिपुष्पः // 4 श्रुत्वा गिरं पूजयतां सदैव / प्रच्छादितं बडिशमिवामिषेण न संनतिं प्रैमि सुयोधनस्य प्रच्छादितो गवय इवापवाचा। न त्वा जानाम्याधिरथेर्भयार्तम् // 12 अनर्थकं मे दर्शितवानसि त्वं त्वष्ट्रा कृतं वाहमकूजनाक्षं . राज्यार्थिनो राज्यरूपं विनाशम् // 5 शुभं समास्थाय कपिध्वजं त्वम् / यत्तत्पृथां वागुवाचान्तरिक्ष खगं गृहीत्वा हेमचित्रं समिद्धं / सप्ताहजाते त्वयि मन्दबुद्धौ / धनुश्चेदं गाण्डिवं तालमात्रम् / * जातः पुत्रो वासवविक्रमोऽयं स केशवेनोह्यमानः कथं नु सर्वाञ्शूराञ्शात्रवाओष्यतीति // 6 कर्णाद्भीतो व्यपयातोऽसि पार्थ / / 13 अयं जेता खाण्डवे देवसंघा धनुश्चैतत्केशवाय प्रदाय ___ सर्वाणि भूतान्यपि चोत्तमौजाः / ___ यन्ताभविष्यस्त्वं रणे चेदुरात्मन् / अयं जेता मद्रकलिङ्गकेकया ततोऽहनिष्यत्केशवः कर्णमुग्रं नयं कुरून्हन्ति च राजमध्ये // 7 मरुत्पतिवत्रमिवात्तवज्रः // 14 . अस्मात्परो न भविता धनुर्धरो मासेऽपतिष्यः पञ्चमे त्वं प्रकृच्छ्रे न वै भूतः कश्चन जातु जेता। ___न वा गर्भोऽप्यभविष्यः पृथायाः / इच्छन्नार्यः सर्वभूतानि कुर्या तत्ते श्रमो राजपुत्राभविष्यद्वशे वशी सर्वसमाप्तविद्यः // 8 न संग्रामादपयातुं दुरात्मन् // 15 कान्या शशाङ्कस्य जवेन वायोः इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि स्थैर्येण मेरोः क्षमया पृथिव्याः। भष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥४८॥ सूर्यस्य भासा धनदस्य लक्ष्म्या शौर्येण शक्रस्य बलेन विष्णोः // 9 संजय उवाच / तुल्यो महात्मा तव कुन्ति पुत्रो युधिष्ठिरेणैवमुक्तः कौन्तेयः श्वेतवाहनः / - 1747 - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 49. 1] महाभारते [8. 49. 28 असिं जग्राह संक्रुद्धो जिघांसुर्भरतर्षभम् // 1 / न हि धर्मविभागज्ञः कुर्यादेवं धनंजय // 14 तस्य कोपं समुद्वीक्ष्य चित्तज्ञः केशवस्तदा / अकार्याणां च कार्याणां संयोगं यः करोति वै / उवाच किमिदं पार्थ गृहीतः खड्ग इत्युत // 2 कार्याणामक्रियाणां च स पार्थ पुरुषाधमः // 15 नेह पश्यामि योद्धव्यं तव किंचिद्धनंजय / अनुसृत्य तु ये धर्म कवयः समुपस्थिताः / ते ध्वस्ता धार्तराष्ट्रा हि सर्वे भीमेन धीमता // 3 समासविस्तरविदां न तेषां वेत्थ निश्चयम् // 16 अपयातोऽसि कौन्तेय राजा द्रष्टव्य इत्यपि / अनिश्चयज्ञो हि नरः कार्याकार्यविनिश्चये / स राजा भवता दृष्टः कुशली च युधिष्ठिरः // 4 अवशो मुह्यते पार्थ यथा त्वं मूढ एव तु // 17 सं दृष्ट्वा नृपशार्दू शार्दूलसमविक्रमम् / न हि कार्यमकार्य वा सुखं ज्ञातुं कथंचन / हर्षकाले तु संप्राप्ते कस्मात्त्वा मन्युराविशत् // 5 श्रुतेन ज्ञायते सर्व तच्च त्वं नावबुध्यसे // 18 न तं पश्यामि कौन्तेय यस्ते वध्यो भवेदिह / अविज्ञानाद्भवान्यच्च धर्म रक्षति धर्मवित् / कस्माद्भवान्महाखड्गं परिगृह्णाति सत्वरम् // 6 / प्राणिनां हि वधं पार्थ धार्मिको नावबुध्यते // 19 तत्त्वा पृच्छामि कौन्तेय किमिदं ते चिकीर्षितम् / प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम / परामृशसि यत्क्रुद्धः खड्गमद्भुतविक्रम // 7 अनृतं तु भवेद्वाच्यं न च हिंस्यात्कथंचन // 20 एवमुक्तस्तु कृष्णेन प्रेक्षमाणो युधिष्ठिरम् / / स कथं भ्रातरं ज्येष्ठं राजानं धर्मकोविदम् / अर्जुनः प्राह गोविन्दं क्रुद्धः सर्प इव श्वसन // 8 हन्याद्भवान्नरश्रेष्ठ प्राकृतोऽन्यः पुमानिव // 21 दद गाण्डीवमन्यस्मा इति मां योऽभिचोदयेत् / अयुध्यमानस्य वधस्तथाशस्त्रस्य भारत / छिन्द्यामहं शिरस्तस्य इत्युपांशुव्रतं मम // 9 पराङ्मुखस्य द्रवतः शरणं वाभिगच्छतः / तदुक्तोऽहमदीनात्मन्राज्ञामितपराक्रम / कृताञ्जलेः प्रपन्नस्य न वधः पूज्यते बुधैः / / 22. समक्षं तव गोविन्द न तत्क्षन्तुमिहोत्सहे // 10 त्वया चैव व्रतं पार्थ बालेनैव कृतं पुरा। तस्मादेनं वधिष्यामि राजानं धर्मभीरुकम् / तस्मादधर्मसंयुक्तं मौढ्यात्कर्म व्यवस्यसि // 23 प्रतिज्ञा पालयिष्यामि हत्वेमं नरसत्तमम् / स गुरुं पार्थ कस्मात्त्वं हन्या धर्ममनुस्मरन् / एतदर्थं मया खड्गो गृहीतो यदुनन्दन // 11 असंप्रधार्य धर्माणां गतिं सूक्ष्मां दुरन्वयाम् // 24 सोऽहं युधिष्ठिरं हत्वा सत्येऽप्यानृण्यतां गतः / / इदं धर्मरहस्यं च वक्ष्यामि भरतर्षभ / विशोको विज्वरश्चापि भविष्यामि जनार्दन // 12 / यद्यात्तव भीष्मो वा धर्मज्ञो वा युधिष्ठिरः // 25 किं वा त्वं मन्यसे प्राप्तमस्मिन्काले समुत्थिते / विदुरो वा तथा क्षत्ता कुन्ती वापि यशस्विनी / त्वमस्य जगतस्तात वेत्थ सर्वं गतागतम् / तत्ते वक्ष्यामि तत्त्वेन तन्निबोध धनंजय // 26 तत्तथा प्रकरिष्यामि यथा मां वक्ष्यते भवान।। 13 सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम् / कृष्ण उवाच / तत्त्वेनैतत्सुदुर्जेयं यस्य सत्यमनुष्ठितम् // 27 इदानीं पार्थ जानामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया। भवेत्सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत् / अकाले पुरुषव्याघ्र संरम्भक्रिययानया। सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत् // 28 - 1748 - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 49. 29 ] कर्णपर्व [8. 49.55 प्राणात्यये विवाहे च वक्तव्यमनृतं भवेत् / अथ दस्युभयात्केचित्तदा तद्वनमाविशन् / यत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत् // 29 | दस्यवोऽपि गताः क्रूरा व्यमार्गन्त प्रयत्नतः // 43 तादृशं पश्यते बालो यस्य सत्यमनुष्ठितम् / अथ कौशिकमभ्येत्य प्राहुस्तं सत्यवादिनम् / सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित् / / 30 कतमेन पथा याता भगवन्बहवो जनाः / किमाश्चयं कृतप्रज्ञः पुरुषोऽपि सुदारुणः / सत्येन पृष्टः प्रब्रूहि यदि तान्वेत्थ शंस नः // 44 सुमहत्प्राप्नुयात्पुण्यं बलाकोऽन्धवधादिव // 31 स पृष्टः कौशिकः सत्यं वचनं तानुवाच ह / किमाश्चर्य पुनर्मूढो धर्मकामोऽप्यपण्डितः / बहुवृक्षलतागुल्ममेतद्वनमुपाश्रिताः / सुमहत्प्राप्नुयात्पापमापगामिव कौशिकः // 32 ततस्ते तान्समासाद्य क्रूरा जन्नुरिति श्रुतिः // 45 ___अर्जुन उवाच / तेनाधर्मेण महता वाग्दुरुक्तेन कौशिकः / माचक्ष्व भगवन्नेतद्यथा विद्यामहं तथा / गतः सुकष्टं नरकं सूक्ष्मधर्मेष्वकोविदः / बलाकान्धाभिसंबद्धं नदीनां कौशिकस्य च // 33 अप्रभूतश्रुतो मूढो धर्माणामविभागवित् // 46 कृष्ण उवाच / वृद्धानपृष्ट्वा संदेहं महच्छ्रभ्रमितोऽर्हति / भगव्याधोऽभवत्कश्चिद्वलाको नाम भारत। तत्र ते लक्षणोद्देशः कश्चिदेव भविष्यति // 47 यात्रार्थ पुत्रदारस्य मृगान्हन्ति न कामतः // 34 दुष्करं परमज्ञानं तāणात्र व्यवस्यति / सोऽन्धौ च मातापितरौ बिभर्त्यन्यांश्च संश्रितान्। श्रुतिधर्म इति ोके वदन्ति बहवो जनाः // 48 खधर्मनिरतो नित्यं सत्यवागनसूयकः // 35 न त्वेतत्प्रतिसूयामि न हि सर्व विधीयते / सकदाचिन्मृगाल्लिँप्सुर्नान्वविन्दप्रयत्नवान् / प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् // 49 अथापश्यत्स पीतोदं श्वापदं घ्राणचक्षुषम् // 36 धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयति प्रजाः / घदृष्टपूर्वमपि तत्सत्त्वं तेन हतं तदा / यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः॥५० अन्वेव च ततो व्योम्नः पुष्पवर्षमवापतत् // 37 येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो जना इच्छन्ति कर्हिचित् / अप्सरोगीतवादित्रैर्नादितं च मनोरमम् / अकूजनेन चेन्मोक्षो नात्र कूजेत्कथंचन // 51 विमानमागमत्स्वर्गान्मृगव्याधनिनीषया // 38 अवश्यं कूजितव्यं वा शङ्करन्वाप्यकूजतः / / उद्भूतं सर्वभूतानामभावाय किलार्जुन / श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम् // 52 तपस्तत्वा वरं प्राप्तं कृतमन्धं स्वयंभुवा // 39 प्राणात्यये विवाहे वा सर्वज्ञातिधनक्षये / तद्धत्वा सर्वभूतानामभावकृतनिश्चयम् / नर्मण्यभिप्रवृत्ते वा प्रवक्तव्यं मृषा भवेत् / ततो बलाकः स्वरगादेवं धर्मः सुदुर्विदः // 40 अधर्म नात्र पश्यन्ति धर्मतत्त्वार्थदर्शिनः // 53 कौशिकोऽप्यभवद्विप्रस्तपस्वी न बहुश्रुतः / यः स्तेनैः सह संबन्धान्मुच्यते शपथैरपि / नदीनां संगमे ग्रामाददूरे स किलावसत् // 41 श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं तत्सत्यमविचारितम् // 54 सत्यं मया सदा वाच्यमिति तस्याभवद्गतम् / / न च तेभ्यो धनं देयं शक्ये सति कथंचन / सत्यवादीति विख्यातः स तदासीद्धनंजय // 42 | पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत् / - 1749 - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 49. 55] महाभारते [8. 49.78 तस्माद्धर्मार्थमनृतमुक्त्वा नानृतवाग्भवेत् // 55 तस्मात्पार्थ त्वां परुषाण्यवोचएष ते लक्षणोद्देशः समुद्दिष्टो यथाविधि / कर्णे द्यूतं ह्यद्य रणे निबद्धम् // 64 एतच्छ्रुत्वा ब्रूहि पार्थ यदि वध्यो युधिष्ठिरः // 56 तस्मिन्हते कुरवो निर्जिताः स्युअर्जुन उवाच / रेवंबुद्धिः पार्थिवो धर्मपुत्रः / यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महामतिः / यदावमानं लभते महान्तं हितं चैव यथास्माकं तथैतद्वचनं तव // 57 तदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः // 65 भवान्मातृसमोऽस्माकं तथा पितृसमोऽपि च / तन्मानितः पार्थिवोऽयं सदैव गतिश्च परमा कृष्ण तेन ते वाक्यमद्भुतम् // 58 त्वया सभीमेन तथा यमाभ्याम् / न हि ते त्रिषु लोकेषु विद्यतेऽविदितं कचित् / वृद्धैश्च लोके पुरुषप्रवीरैतस्माद्भवान्परं धर्म वेद सर्व तथातथम् // 59 स्तस्यावमानं कलया त्वं प्रयुङ्खः / / 66 अवध्यं पाण्डवं मन्ये धर्मराज युधिष्ठिरम् / त्वमित्यत्रभवन्तं त्वं ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम् / तस्मिन्समयसंयोगे ब्रूहि किंचिदनुग्रहम् / त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवति भारत // 67 इदं चापरमत्रैव शृणु हृत्स्थं विवक्षितम् // 60 एवमाचर कौन्तेय धर्मराजे युधिष्ठिरे / जानासि दाशार्ह मम व्रतं त्वं अधर्मयुक्तं संयोगं कुरुष्वैवं कुरूद्वह // 68 यो मां ब्रूयात्कश्चन मानुषेषु / अथर्वाङ्गिरसी ह्येषा श्रुतीनामुत्तमा श्रुतिः / अन्यस्मै त्वं गाण्डिवं देहि पार्थ अविचार्यैव कार्यैषा श्रेयःकामैनरैः सदा // 69 यस्त्वत्तोऽभविता वा विशिष्टः // 61 वधो ह्ययं पाण्डव धर्मराज्ञहन्यामहं केशव तं प्रसह्य स्त्वत्तो युक्तो वेत्स्यते चैवमेषः / भीमो हन्यात्तूबरकेति चोक्तः / ततोऽस्य पादावभिवाद्य पश्चातन्मे राजा प्रोक्तवांस्ते समक्षं च्छमं ब्रूयाः सान्त्वपूर्वं च पार्थम् // 70 धनुर्देहीत्यसकृद्वष्णिसिंह // 62 भ्राता प्राज्ञस्तव कोपं न जातु तं हत्वा चेत्केशव जीवलोके ___ कुर्याद्राजा कंचन पाण्डवेयः। स्थाता कालं नाहमप्यल्पमात्रम् / मुक्तोऽनृताद्धातृवधाच्च पार्थ सा च प्रतिज्ञा मम लोकप्रबुद्धा हृष्टः कणं त्वं जहि सूतपुत्रम् // 71 भवेत्सत्या धर्मभृतां वरिष्ठ / संजय उवाच / यथा जीवेत्पाण्डवोऽहं च कृष्ण इत्येवमुक्तस्तु जनार्दनेन तथा बुद्धिं दातुमद्यार्हसि त्वम् // 63 पार्थः प्रशस्याथ सुहृद्वधं तम् / वासुदेव उवाच / ततोऽब्रवीदर्जुनो धर्मराजराजा श्रान्तो जगतो विक्षतश्च ___ मनुक्तपूर्व परुषं प्रसह्य // 72 कर्णेन संख्ये निशितैर्बाणसंधैः। मा त्वं राजन्व्याहर व्याहरत्सु -1750 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 49. 73] कर्णपर्व [8. 49.88 न तिष्ठसे क्रोशमात्रे रणार्धे / महाहवे मेघ इवाम्बुधाराः // 80 भीमस्तु मामर्हति गर्हणाय बलं तु वाचि द्विजसत्तमानां यो युध्यते सर्वयोधप्रवीरः // 73 क्षात्रं बुधा बाहुबलं वदन्ति / काले हि शत्रून्प्रतिपीड्य संख्ये त्वं वाग्बलो भारत निष्ठुरश्च हत्वा च शूरान्पृथिवीपतींस्तान्। त्वमेव मां वेत्सि यथाविधोऽहम् // 81 यः कुञ्जराणामधिकं सहस्रं यतामि नित्यं तव कर्तुमिष्टं हत्वानदत्तुमुलं सिंहनादम् // 74 दारैः सुतैर्जीवितेनात्मना च / सुदुष्करं कर्म करोति वीरः एवं च मां वाग्विशिखैर्निहंसि कर्तुं यथा नाहसि त्वं कदाचित् / त्वत्तः सुखं न वयं विद्म किंचित् // 82 रथादवप्लुत्य गदां परामृशं अवामंस्था मां द्रौपदीतल्पसंस्थो स्तया निहन्त्यश्वनरद्विपारणे // 75 महारथान्प्रतिहन्मि त्वदर्थे / वरासिना वाजिरथाश्वकुञ्जरां तेनातिशङ्की भारत निष्ठुरोऽसि स्तथा रथाङ्गैर्धनुषा च हन्त्यरीन् / त्वत्तः सुखं नाभिजानामि किंचित् // 83 प्रमृद्य पद्भयामहितान्निहन्ति यः प्रोक्तः स्वयं सत्यसंधेन मृत्यु: पुनश्च दोभ्यां शतमन्युविक्रमः // 76 स्तव प्रियार्थ नरदेव युद्धे / महाबलो वैश्रवणान्तकोपमः वीरः शिखण्डी द्रौपदोऽसौ महात्मा प्रसह्य हन्ता द्विषतां यथार्हम् / __मयाभिगुप्तेन हतश्च तेन / / 84 स भीमसेनोऽर्हति गर्हणां मे न चाभिनन्दामि तवाधिराज्यं न त्वं नित्यं रक्ष्यसे यः सुहृद्भिः // 77 ___ यतस्त्वमक्षेष्वहिताय सक्तः / महारथान्नागवरान्हयांश्च स्वयं कृत्वा पापमनार्यजुष्ट' पदातिमुख्यानपि च प्रमथ्य। ___ मेभिर्युद्धे तर्तुमिच्छस्यरीस्तु // 85 एको भीमो धार्तराष्ट्रषु मनः अक्षेषु दोषा बहवो विधर्माः . स मामुपालब्धुमरिंदमोऽर्हति // 78 ___ श्रुतास्त्वया सहदेवोऽब्रवीद्यान् / कलिङ्गवङ्गाङ्गनिषादमागधा तान्नैषि संततुमसाधुजुष्टान्सदामदान्नीलबलाहकोपमान / न्येन स्म सर्वे निरयं प्रपन्नाः // 86 निहन्ति यः शत्रुगणाननेकशः | त्वं देविता त्वत्कृते राज्यनाशस माभिवक्तुं प्रभवत्यनागसम् // 79 स्त्वत्संभवं व्यसनं नो नरेन्द्र / सुयुक्तमास्थाय रथं हि काले मास्मान्क्रूरैर्वाक्प्रतोदैस्तुद त्वं धनुर्विकर्षशरपूर्णमुष्टिः / भूयो राजन्कोपयन्नल्पभाग्यान् // 87 सजत्यसौ शरवर्षाणि वीरो एता वाचः परुषाः सव्यसाची .- 1751 - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 49. 88 ] महाभारते [8. 49. 102 स्थिरप्रज्ञं श्रावयित्वा ततक्ष / न मादृशं युद्धगतं जयन्ति // 95 तदानुतेपे सुरराजपुत्रो हता उदीच्या निहताः प्रतीच्याः ___ विनिःश्वसंश्चाप्यसिमुद्बर्ह // 88 प्राच्या निरस्ता दाक्षिणात्या विशस्ताः / तमाह कृष्णः किमिदं पुनर्भवा संशप्तकानां किंचिदेवावशिष्टं न्विकोशमाकाशनिभं करोत्यसिम् / सर्वस्य सैन्यस्य हतं मयार्धम् // 96 प्रवहि सत्यं पुनरुत्तरं विधे शेते मया निहता भारती च वचः प्रवक्ष्याम्यहमर्थसिद्धये // 89 चमू राजन्देवचमूप्रकाशा। इत्येव पृष्टः पुरुषोत्तमेन ये नास्त्रज्ञास्तानहं हन्मि शस्त्रैसुदुःखितः केशवमाह वाक्यम् / स्तस्माल्लोकं नेह करोमि भस्मसात् // 9 अहं हनिष्ये स्वशरीरमेव इत्येवमुक्त्वा पुनराह पार्थो __ प्रसह्य येनाहितमाचरं वै // 90 युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम् / निशम्य तत्पार्थवचोऽब्रवीदिदं अप्यपुत्रा तेन राधा भवित्री धनंजयं धर्मभृतां वरिष्ठः / कुन्ती मया वा तदृतं विद्धि राजन् / प्रब्रूहि पार्थ स्वगुणानिहाल्मन प्रसीद राजन्क्षम यन्मयोक्तं स्तथा स्वहादं भवतीह सद्यः // 91 काले भवान्वेत्स्यति तन्नमस्ते // 98 तथास्तु कृष्णेत्यभिनन्द्य वाक्यं प्रसाद्य राजानममित्रसाई धनंजयः प्राह धनुर्विनाम्य / स्थितोऽब्रवीच्चैनमभिप्रपन्नः / युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठं याम्येष भीमं समरात्प्रमोक्तुं शृणुष्व राजनिति शक्रसूनुः // 92 __ सर्वात्मना सूतपुत्रं च हन्तुम् // 99 न मादृशोऽन्यो नरदेव विद्यते तव प्रियार्थं मम जीवितं हि धनुर्धरो देवमृते पिनाकिनम्। ___ब्रवीमि सत्यं तदवेहि राजन् / अहं हि तेनानुमतो महात्मना इति प्रायादुपसंगृह्य पादौ क्षणेन हन्यां सचराचरं जगत् // 93 समुत्थितो दीप्ततेजाः किरीटी। मया हि राजन्सदिगीश्वरा दिशो नेदं चिरात्क्षिप्रमिदं भविष्यविजित्य सर्वा भवतः कृता वशे। त्यावर्ततेऽसावभियामि चैनम् // 100 स राजसूयश्च समाप्तदक्षिणः एतच्छ्रुत्वा पाण्डवो धर्मराजो ___ सभा च दिव्या भवतो ममौजसा // 94 ___ भ्रातुर्वाक्यं परुषं फल्गुनस्य / / पाणौ पृषत्का लिखिता ममेमे उत्थाय तस्माच्छयनादुवाच धनुश्च संख्ये विततं सबाणम् / पाथं ततो दुःखपरीतचेताः // 101 पादौ च मे सशरौ सहध्वजौ कृतं मया पार्थ यथा न साधु - 1752 - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 49. 102 ] कर्णपर्व [8. 50. 6 येन प्राप्तं व्यसनं वः सुघोरम् / राधेयस्याद्य पापस्य भूमिः पास्यति शोणितम् / तस्माच्छिरश्छिन्द्धि ममेदमद्य सत्यं ते प्रतिजानामि हतं विद्धयद्य सूतजम् / कुलान्तकस्याधमपूरुषस्य // 102 यस्येच्छसि वधं तस्य गतमेवाद्य जीवितम् // 112 पापस्य पापव्यसनान्वितस्य इति कृष्णवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / विमूढबुद्धेरलसस्य भीरोः। ससंभ्रमं हृषीकेशमुत्थाप्य प्रणतं तदा / वृद्धावमन्तुः परुषस्य चैव कृताञ्जलिमिदं वाक्यमुवाचानन्तरं वचः // 113 किं ते चिरं मामनुवृत्य रूक्षम् // 103 एवमेतद्यथात्थ त्वमस्त्येषोऽतिक्रमो मम / गच्छाम्यहं वनमेवाद्य पापः अनुनीतोऽस्मि गोविन्द तारितश्चाद्य माधव / सुखं भवान्वर्ततां मद्विहीनः / मोक्षिता व्यसनाद्बोराद्वयमद्य त्वयाच्युत // 114 योग्यो राजा भीमसेनो महात्मा भवन्तं नाथमासाद्य आवां व्यसनसागरात् / क्लीबस्य वा मम किं राज्यकृत्यम् // 104 घोरादद्य समुत्तीर्णावुभावज्ञानमोहितौ // 115 न चास्मि शक्तः परुषाणि सोढुं त्वद्बुद्धिप्लवमासाद्य दुःखशोकार्णवाद्वयम् / पुनस्तवमानि रुषान्वितस्य / समुत्तीर्णाः सहामात्याः सनाथाः स्म त्वयाच्युत // भीमोऽस्तु राजा मम जीवितेन इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि . किं कार्यमद्यावमतस्य वीर // 105 एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥ 49 // इत्येवमुक्त्वा सहसोत्पपात राजा ततस्तच्छंयनं विहाय। संजय उवाच / इयेष निर्गन्तुमथो वनाय इति स्म कृष्णवचनात्प्रत्युच्चार्य युधिष्ठिरम् / तं वासुदेवः प्रणतोऽभ्युवाच // 106 बभूव विमनाः पार्थः किंचित्कृत्वेव पातकम् // 1 राजन्विदितमेतत्ते यथा गाण्डीवधन्वनः / ततोऽब्रवीद्वासुदेवः प्रहसन्निव पाण्डवम् / प्रतिज्ञा सत्यसंधस्य गाण्डीवं प्रति विश्रुता // 187 कथं नाम भवेदेतद्यदि त्वं पार्थ धर्मजम् / याद्य एवं गाण्डीवं देह्यन्यस्मै त्यमित्युत / असिना तीक्ष्णधारेण हन्या धर्मे व्यवस्थितम् // 2 सवध्योऽस्य पुमाल्लोके त्वया चोक्तोऽयमीदृशम्॥ त्वमित्युक्त्वैव राजानमेवं कश्मलमाविशः / अतः सत्यां प्रतिज्ञां तां पार्थेन परिरक्षता / हत्वा तु नृपतिं पार्थ अकरिष्यः किमुत्तरम् / मच्छन्दादवमानोऽयं कृतस्तव महीपते / एवं सुदुर्विदो धर्मो मन्दप्रज्ञैर्विशेषतः // 3 गुरूणामवमानो हि वध इत्यभिधीयते // 109 स भवान्धर्मभीरुत्वाद्भवमैष्यन्महत्तमः / तस्मात्त्वं वै महाबाहो मम पार्थस्य चोभयोः / नरकं घोररूपं च भ्रातुर्येष्ठस्य वै वधात् // 4 व्यतिक्रममिमं राजन्संक्षमस्वार्जुनं प्रति // 110 स त्वं धर्मभृतां श्रेष्ठं राजानं धर्मसंहितम् / शरणं त्वां महाराज प्रपन्नौ स्व उभावपि / प्रसादय कुरुश्रेष्ठमेतदत्र मतं मम // 5 भन्तुमर्हसि मे राजन्प्रणतस्याभियाचतः / / 111 / प्रसाद्य भक्त्या राजानं प्रीतं चैव युधिष्ठिरम् / म.भा. 220 - 1753 - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 50. 6] महाभारते [8. 50. 32 प्रयामस्त्वरिता योद्धं सूतपुत्ररथं प्रति // 6 अद्य कर्णं रणे कृष्ण सूदयिष्ये न संशयः / हत्वा सुदुर्जयं कर्णं त्वमद्य निशितैः शरैः / तदनुध्याहि भद्रं ते वधं तस्य दुरात्मनः // 20 विपुलां प्रीतिमाधत्स्व धर्मपुत्रस्य मानद // 7 एवमुक्तोऽब्रवीत्पार्थ केशवो राजसत्तम / एतदत्र महाबाहो प्राप्तकालं मतं मम / शक्तोऽस्मि भरतश्रेष्ठ यत्नं कर्तुं यथाबलम् // 21 एवं कृते कृतं चैव तव कार्य भविष्यति // 8 एवं चापि हि मे कामो नित्यमेव महारथ / ततोऽर्जुनो महाराज लज्जया वै समन्वितः। कथं भवारणे कणं निहन्यादिति मे मतिः // 22 धर्मराजस्य चरणौ प्रपेदे शिरसानघ // 9 भूयश्चोवाच मतिमान्माधवो धर्मनन्दनम् / उवाच भरतश्रेष्ठ प्रसीदेति पुनः पुनः / युधिष्ठिरेमं बीभत्सुं त्वं सान्त्वयितुमर्हसि / क्षमस्व राजन्यत्प्रोक्तं धर्मकामेन भीरुणा // 10 अनुज्ञातुं च कर्णस्य वधायाद्य दुरात्मनः // 23 पादयोः पतितं दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / श्रुत्वा ह्ययमहं चैव त्वां कर्णशरपीडितम् / धनंजयममित्रघ्नं रुदन्तं भरतर्षभ // 11 प्रवृत्तिं ज्ञातुमायाताविह पाण्डवनन्दन // 24 उत्थाप्य भ्रातरं राजा धर्मराजो धनंजयम् / दिष्टयासि राजन्निरुजो दिष्टया न ग्रहणं गतः / समाश्लिष्य च सस्नेहं प्ररुरोद महीपतिः // 12 परिसान्त्वय बीभत्सुं जयमाशाधि चानघ // 25 रुदित्वा तु चिरं कालं भ्रातरौ सुमहाद्युती / युधिष्ठिर उवाच / कृतशौचौ नरव्याघ्रौ प्रीतिमन्तौ बभूवतुः // 13 एह्येहि पार्थ बीभत्सो मां परिष्वज पाण्डव / तत आश्लिष्य स प्रेम्णा मूर्ध्नि चाघ्राय पाण्डवम् / वक्तव्यमुक्तोऽस्म्यहितं त्वया क्षान्तं च तन्मया // 26 प्रीत्या परमया युक्तः प्रस्मयंश्चाब्रवीज्जयम् // 14 अहं त्वामनुजानामि- जहि कर्णं धनंजय / कर्णेन मे महाबाहो सर्वसैन्यस्य पश्यतः / मन्युं च मा कृथाः पार्थ यन्मयोक्तोऽसि दारुणम्॥ कवचं च ध्वजश्चैव धनुः शक्तिर्हया गदा / संजय उवाच। शरैः कृत्ता महेष्वास यतमानस्य संयुगे // 15 ततो धनंजयो राजशिरसा प्रणतस्तदा / सोऽहं ज्ञात्वा रणे तस्य कर्म दृष्ट्वा च फल्गुन / पादौ जग्राह पाणिभ्यां भ्रातुर्येष्ठस्य मारिष // 28 व्यवसीदामि दुःखेन न च मे जीवितं प्रियम् // समुत्थाप्य ततो राजा परिष्वज्य च पीडितम् / तमद्य यदि वै वीर न हनिष्यसि सूतजम् / मू[पाघ्राय चैवैनमिदं पुनरुवाच ह // 29 प्राणानेव परित्यक्ष्ये जीवितार्थो हि को मम // 17 धनंजय महाबाहो मानितोऽस्मि दृढं त्वया। एवमुक्तः प्रत्युवाच विजयो भरतर्षभ / माहात्म्यं विजयं चैव भूयः प्राप्नुहि शाश्वतम् // 30 सत्येन ते शपे राजन्प्रसादेन तवैव च / ___ अर्जुन उवाच / भीमेन च नरश्रेष्ठ यमाभ्यां च महीपते // 18 अद्य तं पापकर्माणं सानुबन्धं रणे शरैः / यथाद्य समरे कणं हनिष्यामि हतोऽथ वा / | नयाभ्यन्तं समासाद्य राधेयं बलगर्वितम् // 31 महीतले पतिष्यामि सत्येनायुधमालभे // 19 येन त्वं पीडितो बाणै ढमायम्य कार्मुकम् / / एवमाभाष्य राजानमब्रवीन्माधवं वचः। तस्याद्य कर्मणः कर्णः फलं प्राप्स्यति दारुणम् // 32 - 1754 - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 50. 38 ] कर्णपर्व [8. 50. 60 अद्य त्वामहमेष्यामि कणं हत्वा महीपते / निमित्तानि च धन्यानि पार्थस्य प्रशशंसिरे। सभाजयितुमाक्रन्दादिति सत्यं ब्रवीमि ते // 33 विनाशमरिसैन्यानां कर्णस्य च वधं तथा // 46 नाहत्वा विनिवर्तेऽहं कर्णमद्य रणाजिरात् / प्रयातस्याथ पार्थस्य महान्स्वेदो व्यजायत / इति सत्येन ते पादौ स्पृशामि जगतीपते // 34 चिन्ता च विपुला जज्ञे कथं न्वेतद्भविष्यति // 47 संजय उवाच / ततो गाण्डीवधन्वानमब्रवीन्मधुसूदनः। प्रसाद्य धर्मराजानं प्रहृष्टेनान्तरात्मना / दृष्ट्वा पार्थं तदायस्तं चिन्तापरिगतं तदा // 48 पार्थः प्रोवाच गोविन्दं सूतपुत्रवधोद्यतः / / 35 गाण्डीवधन्वन्संग्रामे ये त्वया धनुषा जिताः / कल्प्यतां च रथो भूयो युज्यन्तां च हयोत्तमाः / न तेषां मानुषो जेता त्वदन्य इह विद्यते // 49 पायुधानि च सर्वाणि सज्यन्तां वै महारथे // 36 दृष्टा हि बहवः शूराः शक्रतुल्यपराक्रमाः / पावृताश्च तुरगाः शिक्षिताश्चाश्वसादिनः। त्वां प्राप्य समरे वीरं ये गताः परमां गतिम् // 50 रथोपकरणैः सर्वैरुपायान्तु त्वरान्विताः // 37 को हि द्रोणं च भीष्मं च भगदत्तं च मारिष / एवमुक्ते महाराज फल्गुनेन महात्मना / विन्दानुविन्दावावन्त्यो काम्बोजं च सुदक्षिणम् // उवाच दारुकं कृष्णः कुरु सर्वं यथाब्रवीत् / श्रुतायुषं महावीर्यमच्युतायुवमेव च।। अर्जुनो भरतश्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् / / 38 प्रत्युद्गम्य भवेत्क्षेमी यो न स्यात्त्वमिव क्षमी // 52 प्राप्तस्त्वथ कृष्णेन दारुको राजसत्तम / तव ह्यस्त्राणि दिव्यानि लाघवं बलमेव च / योजयामास स रथं वैयाघ्रं शत्रुतापनम् // 39 वेधः पातश्च लक्षश्च योगश्चैव तवार्जुन। युक्तं तु रथमास्थाय दारुकेण महात्मना। असंमोहश्च युद्वेषु विज्ञानस्य च संनतिः // 53 आपृच्छय धर्मराजानं ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च। भवान्देवासुरान्सर्वान्हन्यात्सहचराचरान् / समङ्गलस्वस्त्ययनमारुरोह रथोत्तमम् / / 40 पृथिव्यां हि रणे पार्थ न योद्धा त्वत्समः पुमान् // 54 तस्य राजा महाप्राज्ञो धर्मराजो युधिष्ठिरः। धनुर्ग्रहा हि ये केचित्क्षत्रिया युद्धदुर्मदाः / आशिषोऽयुत परमा युक्ताः कर्णवधं प्रति // 41 आ देवात्त्वत्समं तेषां न पश्यामि शृणोमि वा / / तं प्रयान्तं महेष्वासं दृष्ट्वा भूतानि भारत। ब्रह्मणा च प्रजाः सृष्टा गाण्डीवं च महाद्भुतम् / निहतं मेनिरे कर्ण पाण्डवेन महात्मना // 42 येन त्वं युध्यसे पार्थ तस्मान्नास्ति त्वया समः // 56 बभूवुर्विमलाः सर्वा दिशो राजन्समन्ततः। अवश्यं तु मया वाच्यं यत्पथ्यं तव पाण्डव / पाषाश्च शतपत्राश्च क्रौञ्चाश्चैव जनेश्वर / मावसंस्था महाबाहो कर्णमाहवशोभिनम् / / 57 प्रदक्षिणमकुर्वन्त तदा वै पाण्डुनन्दनम् // 43 कर्णो हि बलवान्धृष्टः कृतास्त्रश्च महारथः / बहवः पक्षिणो राजन्पुनामानः शुभाः शिवाः / कृती च चित्रयोधी च देशे काले च कोविदः // 58 त्वरयन्तोऽर्जुनं युद्धे हृष्टरूपा ववाशिरे / / 44 तेजसा वह्निसदृशो वायुवेगसमो जवे। कङ्का गृध्रा वडाश्चैव वायसाश्च विशां पते।। अन्तकप्रतिमः क्रोधे सिंहसंहननो बली // 59 अप्रतस्तस्य गच्छन्ति भक्ष्यहेतोभयानकाः // 45 / अयोरनिर्महाबाहुयूंढोरस्कः सुदुर्जयः / - 1755 - Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 50. 60] महाभारते [8. 51. 21 अतिमानी च शूरश्च प्रवीरः प्रियदर्शनः // 60 अन्यत्र पाण्डवान्युद्धे त्वया गुप्तान्महारथान् // 7 सर्योधगुणैर्युक्तो मित्राणामभयंकरः / त्वं हि शक्तो रणे जेतुं ससुरासुरमानुषान् / सततं पाण्डवद्वेषी धार्तराष्ट्रहिते रतः // 61 त्रीललोकान्सममुद्युक्तान्कि पुनः कौरवं बलम् // 8 सर्वैरवध्यो राधेयो देवैरपि सवासवैः / भगदत्तं हि राजानं कोऽन्यः शक्तस्त्वया विना / ऋते त्वामिति मे बुद्धिस्त्वमद्य जहि सूतजम् // 62 जेतुं पुरुषशार्दूल योऽपि स्याद्वासवोपमः // 9 देवैरपि हि संयत्तैर्बिभ्रद्भिर्मासशोणितम् / तथेमां विपुलां सेनां गुप्तां पार्थ त्वयानघ / अशक्यः समरे जेतुं सर्वैरपि युयुत्सुभिः // 63 न शेकुः पार्थिवाः सर्वे चक्षुर्भिरभिवीक्षितुम् // 10 दुरात्मानं पापमतिं नृशंसं तथैव सततं पार्थ रक्षिताभ्यां त्वया रणे। दुष्टप्रज्ञं पाण्डवेयेषु नित्यम् / धृष्टद्युम्नशिखण्डिभ्यां भीष्मद्रोणौ निपातितौ // 11 हीनस्वार्थ पाण्डवेयैविरोधे को हि शक्तो रणे पार्थ पाञ्चालानां महारथौ / हत्वा कर्ण धिष्ठितार्थो भवाद्य // 64 भीष्मद्रोणौ युधा जेतुं शक्रतुल्यपराक्रमौ // 12 वीरं मन्यत आत्मानं येन पापः सुयोधनः / को हि शांतनवं संख्ये द्रोणं वैकर्तनं कृपम् / तमद्य मूलं पापानां जय सौतिं धनंजय // 65 द्रौणिं च सौमदत्तिं च कृतवर्माणमेव च / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि सैन्धवं मद्रराजं च राजानं च सुयोधनम् // 13. पञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 50 // वीरान्कृतास्त्रान्समरे सर्वानेवानुवर्तिनः। . अक्षौहिणीपतीनुग्रान्संरब्धान्युद्धदुर्मदान् // 14 संजय उवाच। श्रेण्यश्च बहुलाः क्षीणाः प्रदीर्णाश्वरथद्विपाः / ततः पुनरमेयात्मा केशवोऽर्जुनमब्रवीत् / नानाजनपदाश्चोग्राः क्षत्रियाणाममर्षिणाम् // 15 कृतसंकल्पमायस्तं वधे कर्णस्य सर्वशः // 1 गोवासदासमीयानां वसातीनां च भारत / अद्य सप्तदशाहानि वर्तमानस्य भारत / व्रात्यानां वाटधानानां भोजानां चापि मानिनाम् / / विनाशस्यातिघोरस्य नरवारणवाजिनाम् // 2 / उदीर्णाश्च महासेना ब्रह्मक्षत्रस्य भारत / भूत्वा हि विपुला सेना तावकानां परैः सह / त्वां समासाद्य निधनं गताः साश्वरथद्विपाः // 17 अन्योन्यं समरे प्राप्य किंचिच्छेषा विशां पते // 3 उग्राश्च क्रूरकर्माणस्तुखारा यवनाः खशाः / भूत्वा हि कौरवाः पार्थ प्रभूतगजवाजिनः / दार्वाभिसारा दरदाः शका रमठतङ्गणाः // 18 स्वां वै शत्रु समासाद्य विनष्टा रणमूर्धनि // 4 अन्ध्रकाश्च पुलिन्दाश्च किराताश्चोग्रविक्रमाः / एते च सर्वे पाञ्चालाः सृञ्जयाश्च सहान्वयाः। म्लेच्छाश्च पार्वतीयाश्च सागरानूपवासिनः / त्वां समासाद्य दुर्धर्षं पाण्डवाश्च व्यवस्थिताः॥५ संरम्भिणो युद्धशौण्डा बलिनो दृब्धपाणयः // 19 पाश्चालैः पाण्डवैर्मत्स्यैः कारूषैश्चेदिकेकयैः / एते सुयोधनस्यार्थे संरब्धाः कुरुभिः सह / त्वया गुप्तैरमित्रघ्न कृतः शत्रुगणक्षयः // 6 न शक्या युधि निर्जेतुं त्वदन्येन परंतप // 20 को हि शक्तो रणे जेतुं कौरवांस्तात संगतान्। | धार्तराष्ट्रमुदग्रं हि व्यूढं दृष्ट्वा महाबलम् / - 1756 - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 51. 21] कर्णपर्व [8. 51. 49 यस्य त्वं न भवेत्राता प्रतीयात्को नु मानवः // 21 / स तु विद्राव्य समरे पाण्डवान्सृञ्जयानपि / तत्सागरमिवोद्भूतं रजसा संवृतं बलम् / एक एव रणे भीष्म एकवीरत्वमागतः // 35 विदार्य पाण्डवैः क्रुद्वैस्त्वया गुप्तैर्हतं विभो // 22 तं शिखण्डी समासाद्य त्वया गुप्तो महारथम् / मागधानामधिपतिर्जयत्सेनो महाबलः / जघान पुरुषव्याघ्रं शरैः संनतपर्वभिः // 36 अद्य सप्तैव चाहानि हतः संख्येऽभिमन्युना // 23 स एष पतितः शेते शरतल्पे पितामहः / ततो दश सहस्राणि गजानां भीमकर्मणाम् / त्वां प्राप्य पुरुषव्याघ्र गृध्रः प्राप्येव वायसम्॥३७ जघान गदया भीमस्तस्य राज्ञः परिच्छदम् / द्रोणः पञ्च दिनान्युग्रो विधम्य रिपुवाहिनीः / ततोऽन्येऽपि हता नागा रथाश्च शतशो बलात्॥२४ कृत्वा व्यूह महायुद्धे पातयित्वा महारथान् // 38 तदेवं समरे तात वर्तमाने महाभये / जयद्रथस्य समरे कृत्वा रक्षां महारथः / मीमसेनं समासाद्य त्वां चं पाण्डव कौरवाः / अन्तकप्रतिमश्चोग्रां रात्रिं युद्धादहत्प्रजाः // 39 सवाजिरथनागाश्च मृत्युलोकमितो गताः // 25 अद्येति द्वे दिने वीरो भारद्वाजः प्रतापवान् / तथा सेनामुखे तत्र निहते पार्थ पाण्डवैः / धृष्टद्युम्नं समासाद्य स गतः परमां गतिम् // 40 भीष्मः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि मारिष // 26 यदि चैव परान्युद्धे सूतपुत्रमुखान्रथान् / स चेदिकाशिपाञ्चालान्करूपान्मत्स्यकेकयान् / नावारयिष्यः संग्रामे न स्म द्रोणो व्यनवयत // 41 रैः प्रच्छाद्य निधनमनयत्परुषास्त्रवित् // 27 भवता तु बलं सर्व धार्तराष्ट्रस्य वारितम् / तस्य चापच्युतैर्बाणैः परदेहविदारणैः / ततो द्रोणो हतो युद्धे पार्षतेन धनंजय // 42 पूर्णमाकाशमभवद्रुक्मपुखैरजिह्मगैः // 28 क इवान्यो रणे कुर्यात्त्वदन्यः क्षत्रियो युधि / गत्या दशम्या ते गत्वा जन्नुर्वा जिरथद्विपान् / / यादृशं ते कृतं पार्थ जयद्रथवधं प्रति // 43 हत्वा नव गतीर्दुष्टाः स बाणान्व्यायतोऽमुचत् // निवार्य सेनां महतीं हत्वा शूरांश्च पार्थिवान् / दिनानि दश भीष्मेण निन्नता तावकं बलम् / / निहतः सैन्धवो राजा त्वयास्त्रबलतेजसा // 44 घ्न्याः कृता रथोपस्था हताश्च गजवाजिनः // 30 आश्चर्यं सिन्धुराजस्य वधं जानन्ति पार्थिवाः / दर्शयित्वात्मनो रूपं रुद्रोपेन्द्रसमं युधि / अनाश्चर्यं हि तत्त्वत्तस्त्वं हि पार्थ महारथः // 45 पाण्डवानामनीकानि प्रविगाह्य व्यशातयत् // 31 त्वां हि प्राप्य रणे क्षत्रमेकाहादिति भारत / विनिघ्नन्पृथिवीपालांचेदिपाश्चालकेकयान् / तप्यमानमसंयुक्तं न भवेदिति मे मतिः // 46 व्यदहत्पाण्डवीं सेनां नराश्वगजसंकुलाम् // 32 सेयं पार्थ चमूर्घोरा धार्तराष्ट्रस्य संयुगे। मज्जन्तमप्लवे मन्दमुजिहीर्षः सुयोधनम् / हता ससर्ववीरा हि भीष्मद्रोणौ यदा हतौ // 47 तथा चरन्तं समरे तपन्तमिव भास्करम् / शीर्णप्रवरयोधाद्य हतवाजिनरद्विपा। न शेकुः सृञ्जया द्रष्टुं तथैवान्ये महीक्षितः // 33 / हीना सूर्येन्दुनक्षत्रैद्यौरिवाभाति भारती // 48 विचरन्तं तथा तं तु संग्रामे जितकाशिनम् / विध्वस्ता हि रणे पार्थ सेनेयं भीमविक्रमात् / सर्वोद्योगेन सहसा पाण्डवाः समुपाद्रवन् // 34 / आसुरीव पुरा सेना शक्रस्येव पराक्रमैः // 49 - 1757 - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 51. 50] महाभारते [8. 51. 79 तेषां हतावशिष्टास्तु पश्च सन्ति महारथाः।। वासुदेवं सराजानं विजेष्यामि महारणे // 64 अश्वत्थामा कृतवर्मा कर्णो मद्राधिपः कृपः / 50 प्रोत्साहयन्दुरात्मानं धार्तराष्ट्र सुदुर्मतिः / तांस्त्वमद्य नरव्याघ्र हत्वा पञ्च महारथान् / समितो गर्जते कर्णस्तमद्य जहि भारत // 65 हतामित्रः प्रयच्छोर्वी राज्ञः सद्वीपपत्तनाम् // 51 यच्च युष्मासु पापं वै धार्तराष्ट्रः प्रयुक्तवान् / साकाशजलपातालां सपर्वतमहावनाम् / तत्र सर्वत्र दुष्टात्मा कर्णः पापमतिर्मुखम् // 66 प्राप्नोत्वमितवीर्यश्रीरद्य पार्थो वसुंधराम् // 52 यच्च तद्धार्तराष्ट्राणां क्रूरैः षभिर्महारथैः / एतां पुरा विष्णुरिव हत्वा दैतेयदानवान् / अपश्यं निहतं वीरं सौभद्रमृषभेक्षणम् // 67 प्रयच्छ मेदिनीं राज्ञे शक्रायेव यथा हरिः // 53 | द्रोणद्रौणिकृपान्वीरान्कम्पयन्तो महारथान् / अद्य मोदन्तु पाश्चाला निहतेष्वरिषु त्वया / निर्मनुष्यांश्च मातङ्गान्विरथांश्च महारथान् // 68 विष्णुना निहतेष्वेव दानवेयेषु देवताः // 54 व्यश्वारोहांश्च तुरगान्पत्तीन्व्यायुधजीवितान् / यदि वा द्विपदां श्रेष्ठ द्रोणं मानयतो गुरुम् / / कुर्वन्तमृषभस्कन्धं कुरुवृष्णियशस्करम् // 69 अश्वत्थाग्नि कृपा तेऽस्ति कृपे चाचार्यगौरवात्॥५५ विधमन्तमनीकानि व्यथयन्तं महारथान् / अत्यन्तोपचितान्वा त्वं मानयन्भ्रातृबान्धवान् / मनुष्यवाजिमातङ्गान्प्रहिण्वन्तं यमक्षयम् // 70 कृतवर्माणमासाद्य न नेष्यसि यमक्षयम् // 56 शरैः सौभद्रमायस्तं दहन्तमिव वाहिनीम। भ्रातरं मातुरासाद्य शल्यं मद्रजनाधिपम् / तन्मे दहति गात्राणि सखे सत्येन ते शपे // 71 यदि त्वमरविन्दाक्ष दयावान्न जिघांससि // 57 यत्तत्रापि च दुष्टात्मा कर्णोऽभ्यद्रुह्यत प्रभो। इमं पापमति क्षुद्रमत्यन्तं पाण्डवान्प्रति / अशक्नुवंश्चाभिमन्योः कर्णः स्थातुं रणेऽग्रतः // 72 कर्णमद्य नरश्रेष्ठ जह्याशु निशितैः शरैः // 58 सौभद्रशरनिर्भिन्नो विसंज्ञः शोणितोक्षितः / एतत्ते सुकृतं कर्म नात्र किंचिन्न युज्यते / निःश्वसन्क्रोधसंदीप्तो विमुखः सायकार्दितः // 73 वयमप्यत्र जानीमो नात्र दोषोऽस्ति कश्चन // 59 अपयानकृतोत्साहो निराशश्चापि जीविते / दहने यत्सपुत्राया निशि मातुस्तवानघ / तस्थौ सुविह्वलः संख्ये प्रहारजनितश्रमः // 74 द्यूतार्थे यच्च युष्मासु प्रावर्तत सुयोधनः / अथ द्रोणस्य समरे तत्कालसदृशं तदा / तत्र सर्वत्र दुष्टात्मा कर्णो मूलमिहार्जुन // 60 श्रुत्या कर्णो वचः क्रूरं ततश्चिच्छेद कार्मुकम् // 75 कर्णाद्धि मन्यते त्रागं नित्यमेव सुयोधनः / ततश्छिन्नायुधं तेन रणे पञ्च महारथाः / ततो मामपि संरब्धो निग्रहीतुं प्रचक्रमे // 61 स चैव निकृतिप्रज्ञः प्रावधीच्छरवृष्टिभिः // 76 स्थिरा बुद्धिर्नरेन्द्रस्य धार्तराष्ट्रस्य मानद / यच्च कर्णोऽब्रवीत्कृष्णां सभायां परुषं वचः / कर्णः पार्थान्रणे सर्वान्विजेष्यति न संशयः // 62 प्रमुख पाण्डवेयानां कुरूणां च नृशंसवत् // 77 कर्णमाश्रित्य कौन्तेय धार्तराष्ट्रेण विग्रहः / विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः / रोचितो भवता साधं जानतापि बलं तव // 63 पतिमन्यं पृथुश्रोणि वृणीष्व मितभाषिणि // 78 कर्णो हि भाषते नित्यमहं पार्थान्समागतान् / लेखाभ्र धृतराष्ट्रस्य दासी भूत्वा निवेशनम् / - 1758 - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 51. 79] कर्णपर्व [ 8.51. 109 प्रविशारालपक्ष्माक्षि न सन्ति पतयस्तव // 79 श्रूयते निनदो घोरस्त्वद्वन्धूनां परंतप // 94 इत्युक्तवानधर्मज्ञस्तदा परमदुर्मतिः / न त्वेव भीताः पाञ्चालाः कथंचित्स्युः पराङ्मुखाः। पाप: पापं वचः कर्णः शृण्वतस्तव भारत // 80 न हि मृत्युं महेष्वासा गणयन्ति महारथाः / / 95 संस्य पापस्य तद्वाक्यं सुवर्णविकृताः शराः / यः एकः पाण्डवीं सेनां शरौघैः समवेष्टयत् / श्मयन्तु शिलाधौतास्त्वयास्ता जीवितच्छिदः / / 81 तं समासाद्य पाञ्चाला भीष्मं नासन्पराङ्मुखाः॥९६ गानि चान्यानि दुष्टात्मा पापानि कृतवांस्त्वयि / तथा ज्वलन्तमस्त्राग्निं गुरुं सर्वधनुष्मताम् / तान्यद्य जीवितं चास्य शमयन्तु शरास्तव / / 82 निर्दहन्तं समारोहन्दुर्धर्षं द्रोणमोजसा // 97 गाण्डीवप्रहितान्घोरानद्य गात्रैः स्पृशशरान् / / ते नित्यमुदिता जेतुं युद्धे शत्रूनरिंदमाः / कर्णः स्मरतु दुष्टात्मा वचनं द्रोणभीष्मयोः / / 83 न जात्वाधिरथे ताः पाञ्चालाः स्युः पराङ्मुखाः॥ सुवर्णपुङ्खा नाराचाः शत्रुघ्ना वैद्युतप्रभाः। तेषामापततां शूरः पाञ्चालानां तरस्विनाम् / त्वयास्तास्तस्य मर्माणि भित्त्वा पास्यन्ति शोणितम् / / आदत्तेऽसूशरैः कर्णः पतंगानामियानलः // 99 अप्रास्त्वद्भुजनिर्मुक्ता मर्म भित्त्या शिताः शराः / तांस्तथाभिमुखान्वीरान्मित्रार्थे त्यक्तजीवितान् / अद्य कर्ण महावेगा: प्रेषयन्तु यमक्षयम् // 85 क्षयं नयति राधेयः पाञ्चालाशतशो रणे // 100 भद्य हाहाकृता दीना विषण्णास्त्वच्छरार्दिताः। अस्त्रं हि रामात्कर्णेन भार्गवादृषिसत्तमात् / प्रपतन्तं रथात्कर्ण पश्यन्तु वसुधाधिपाः // 86 यदुपात्तं पुरा घोरं तस्य रूपमुदीर्यते // 101 अद्य स्वशोणिते मग्नं शयानं पतितं भुवि / तापनं सर्वसैन्यानां घोररूपं सुदारुणम् / अपविद्धायुधं कर्ण पश्यन्तु सुहृदो निजाः / / 87 समावृत्य महासेनां ज्वलति स्वेन तेजसा // 102 हस्तिकक्ष्यो महानस्य भल्लेनोन्मथितस्त्वया / एते चरन्ति संग्रामे कर्णचापच्युताः शराः / प्रकम्पमानः पततु भूमावाधिरथेर्ध्वजः / / 88 भ्रमराणामिव बातास्तापयन्तः स्म तावकान् // 103 त्वया शरशतैश्छिन्नं रथं हेमविभूषितम् / एते चरन्ति पाञ्चाला दिक्षु सर्वासु भारत / हतयोधं समुत्सृज्य भीतः शल्यः पलायताम् / / 89 कर्णास्त्रं समरे प्राप्य दुर्निवारमनात्मभिः // 104 ततः सुयोधनो दृष्ट्वा हतमाधिरथिं त्वया / एष भीमो दृढक्रोधो वृतः पार्थ समन्ततः / निराशो जीविते त्वद्य राज्ये चैव धनंजय // 90 सृञ्जयर्योधयन्कर्ण पीड्यते स्म शितैः शरैः॥१०५ एते द्रवन्ति पाञ्चाला वध्यमानाः शितैः शरैः। पाण्डवान्सृञ्जयांश्चैव पाञ्चालांश्चैव भारत / कर्णेन भरतश्रेष्ठ पाण्डवानुजिहीर्षवः // 91 हन्यादुपेक्षितः कर्णो रोगो देहमिवाततः // 106 पाञ्चालान्द्रौपदेयांश्च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ / नान्यं त्वत्तोऽभिपश्यामि योधं यौधिष्ठिरे बले। घृष्टद्युम्नतनूजांश्च शतानीकं च नाकुलिम् // 92 यः समासाद्य राधेयं स्वस्तिमानाव्रजेद्गृहम् // 107 नकुलं सहदेवं च दुर्मुखं जनमेजयम्। तमद्य निशितैर्बाणैर्निहत्य भरतर्षभ / सुवर्माणं सात्यकिं च विद्धि कर्णवशं गतान् // 93 यथाप्रतिज्ञं पार्थ त्वं कृत्वा कीर्तिमवाप्न हि // 108 अभ्याहतानां कर्णेन पाञ्चालानां महारणे / त्वं हि शक्तो रणे जेतुं सकर्णानपि कौरवान् / - 1759 - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 51. 109 ] महाभारते [8. 52. 28 नान्यो युधि युधां श्रेष्ठ सत्यमेतद्रवीमि ते // 109 | स्मरतां तव वाक्यानि शमं प्रति जनेश्वरः // 12 एतत्कृत्वा महत्कर्म हत्वा कर्णं महारथम् / अद्यासौ सौबलः कृष्ण ग्लहं जानातु वै शरान् / कृतार्थः सफलः पार्थ सुखी भव नरोत्तम // 110 दुरोदरं च गाण्डीवं मण्डलं च रथं मम // 13 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि योऽसौ रणे नरं नान्यं पृथिव्यामभिमन्यते / एकपञ्चाशोऽध्यायः // 51 // तस्याद्य सूतपुत्रस्य भूमिः पास्यति शोणितम् / 52 गाण्डीवसृष्टा दास्यन्ति कर्णस्य परमां गतिम् / / 14 संजय उवाच। अद्य तप्स्यति राधेयः पाञ्चालीं यत्तदाब्रवीत् / स केशवस्य बीभत्सुः श्रुत्वा भारत भाषितम् / सभामध्ये वचः क्रूरं कुत्सयन्पाण्डवान्प्रति // 15 विशोकः संप्रहृष्टश्च क्षणेन समपद्यत // 1 ये वै षण्ढतिलास्तत्र भवितारोऽद्य ते तिलाः / ततो ज्यामनुमृज्याशु व्याक्षिपद्गाण्डिवं धनुः / हते वैकर्तने कणे सूतपुत्रे दुरात्मनि // 16 दधे कर्णविनाशाय केशवं चाभ्यभाषत // 2 अहं वः पाण्डुपुत्रेभ्यस्त्रास्यामीति यदब्रवीत् / . त्वया नाथेन गोविन्द ध्रुव एष जयो मम / / अनृतं तत्करिष्यन्ति मामका निशिताः शराः॥१७ प्रसन्नो यस्य मेऽद्य त्वं भूतभव्यभवत्प्रभुः // 3 हन्ताहं पाण्डवान्सर्वान्सपुत्रानिति योऽब्रवीत् / त्वत्सहायो ह्यहं कृष्ण त्रीलोकान्वै समागतान् / तमद्य कणं हन्तास्मि मिषतां सर्वधन्विनाम् // 18 प्रापयेयं परं लोकं किमु कर्ण महारणे // 4 यस्य वीर्ये समाश्वस्य धार्तराष्ट्रो बृहन्मनाः / पश्यामि द्रवती सेनां पाञ्चालानां जनार्दन / अवामन्यत दुर्बुद्धिर्नित्यमस्मान्दुरात्मवान् / पश्यामि कणं समरे विचरन्तमभीतवत् // 5 तमद्य कर्ण राधेयं हन्तास्मि मधुसूदन // 19 भार्गवास्त्रं च पश्यामि विचरन्तं समन्ततः / अद्य कर्णे हते कृष्ण धार्तराष्ट्राः सराजकाः। . सृष्टं कर्णेन वार्ष्णेय शक्रेणेव महाशनिम् // 6 विद्रवन्तु दिशो भीताः सिंहवस्ता मृगा इव // 20 अयं खलु स संग्रामो यत्र कृष्ण मया कृतम् / अद्य दुर्योधनो राजा पृथिवीमन्ववेक्षताम् / कथयिष्यन्ति भूतानि यावद्भमिर्धरिष्यति // 7 हते कर्णे मया संख्ये सपुत्रे ससुहृज्जने // 21 अद्य कृष्ण विकर्णा मे कर्णं नेष्यन्ति मृत्यवे / अद्य कणं हतं दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः / गाण्डीवमुक्ताः क्षिण्वन्तो मम हस्तप्रचोदिताः // 8 जानातु मां रणे कृष्ण प्रवरं सर्वधन्विनाम् // 22 अद्य राजा धृतराष्ट्रः स्वां बुद्धिमवमंस्यते / अद्याहमनृणः कृष्ण भविष्यामि धनुर्भृताम् / दुर्योधनमराज्याहँ यया राज्येऽभ्यषेचयत् / / 9 / / क्रोधस्य च कुरूणां च शराणां गाण्डिवस्य च // 23 अद्य राज्यात्सुखाच्चैव श्रियो राष्ट्रात्तथा पुरात् / अद्य दुःखमहं मोक्ष्ये त्रयोदशसमार्जितम् / पुत्रेभ्यश्च महाबाहो धृतराष्ट्रो वियोक्ष्यते // 10 हत्वा कर्णं रणे कृष्ण शम्बरं मघवानिव // 24 अद्य दुर्योधनो राजा जीविताच्च निराशकः / / अद्य कर्णे हते युद्धे सोमकानां महारथाः / भविष्यति हते कर्णे कृष्ण सत्यं ब्रवीमि ते // 11 / कृतं कायं च मन्यन्तां मित्रकार्येप्सवो युधि // 25 अद्य दृष्ट्वा मया कर्णं शरैर्विशकलीकृतम् / न जाने च कथं प्रीतिः शैनेयस्याद्य माधव / - 1760 - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 38. 28 ] कर्णपर्व [8. 53.8 अविष्यति हते कर्णे मयि चापि जयाधिके // 26 गर्जन्ति भेरीनिनदोन्मुखानि गई हस्वा रणे कर्ण पुत्रं चास्य महारथम् / मेधैर्यथा मेघगणास्तपान्ते // 1 प्रीति दास्यामि भीमस्य यमयोः सात्यकेरपि // 27 महागजाभ्राकुलमत्रतोयं पष्टद्युम्नशिखण्डिभ्यां पाञ्चालानां च माधव / ____वादित्रनेमीतलशब्दवच्च / अचानृण्यं गमिष्यामि हत्वा कर्णं महारणे // 28 हिरण्यचित्रायुधवैद्युतं च पथ पश्यन्तु संग्रामे धनंजयममर्षणम् / महारथैरावृतशब्दवच्च // 2 पुण्यन्तं कौरवान्संख्ये पातयन्तं च सूतजम् / तद्भीमवेगं रुधिरौघवाहि प्रवत्सकाशे वक्ष्ये च पुनरेवात्मसंस्तवम् / / 29 __ खड्गाकुलं क्षत्रियजीववाहि / धनुर्वेदे मत्समो नास्ति लोके अनार्तवं क्रूरमनिष्टवर्ष पराक्रमे वा मम कोऽस्ति तुल्यः। बभूव तत्संहरणं प्रजानाम् // 3 को वाप्यन्यो मत्समोऽस्ति क्षमायां रथान्ससूतान्सहयान्गजांश्च तथा क्रोधे सदृशोऽन्यो न मेऽस्ति // 30 ___ सर्वानरीन्मृत्युवशं शरौघैः। अहं धनुष्मानसुरान्सुरांश्च निन्ये हयांश्चैव तथा ससादीसर्वाणि भूतानि च संगतानि / पदातिसंघांश्च तथैव पार्थः // 4 खबाहुवीर्याद्गमये पराभवं कृपः शिखण्डी च रणे समेतौ मत्पौरुषं विद्धि परः परेभ्यः // 31 दुर्योधनं सात्यकिरभ्यगच्छत् / शरार्चिषा गाण्डिवेनाहमेकः श्रुतश्रवा द्रोणसुतेन सार्धं * सर्वान्कुरून्बाह्निकांश्चाभिपत्य / युधामन्युश्चित्रसेनेन चापि // 5 हिमात्यये कक्षगतो यथाग्नि कर्णस्य पुत्रस्तु रथी सुषेणं स्तथा दहेयं सगणान्प्रसह्य // 32 समागतः सृञ्जयांश्चोत्तमौजाः / पाणौ पृषत्का लिखिता ममैते गान्धारराजं सहदेवः क्षुधार्ता धनुश्च सव्ये निहितं सबाणम् / ___ महर्षभं सिंह इवाभ्यधावत् // 6 पादौ च मे सरथौ सध्वजौ च शतानीको नाकुलिः कर्णपुत्रं न मादृशं युद्धगतं जयन्ति // 33 युवा युवानं वृषसेनं शरौघैः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि समार्दयत्कर्णसुतश्च वीरः द्विपञ्चाशोऽध्यायः॥५२॥ पाश्चालेयं शरवर्षैरनेकैः // 7 53 रथर्षभः कृतवर्माणमा - संजय उवाच। न्माद्रीपुत्रो नकुलश्चित्रयोधी। तेषामनीकानि बृहवजानि पाञ्चालानामधिपो याज्ञसेनिः रणे समृद्धानि समागतानि / सेनापतिं कर्णमाछेत्ससैन्यम् // 8 अ.भा. 221 - 1761 - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 53.9] महाभारते [8. 54.8 दुःशासनो भारत भारती च महाभये सारथिमित्युवाच संशप्तकानां पृतना समृद्धा। भीमश्चमूं वारयन्धार्तराष्ट्रीम् / भीमं रणे शस्त्रभृतां वरिष्ठं त्वं सारथे याहि जवेन वाहैतदा समार्च्छत्तमसह्यवेगम् // 9 नयाम्येतान्धार्तराष्ट्रान्यमाय // 1 कर्णात्मजं तत्र जघान शूर संचोदितो भीमसेनेन चैवं स्तथाच्छिनच्चोत्तमौजाः प्रसह्य / स सारथिः पुत्रबलं त्वदीयम् / तस्योत्तमाङ्गं निपपात भूमौ प्रायात्ततः सारथिरुपवेगो निनादयद्गां निनदेन खं च // 10 ___ यतो भीमस्तद्वलं गन्तुमैच्छत् // 2 सुषेणशीर्ष पतितं पृथिव्यां ततोऽपरे नागरथाश्वपत्तिभिः विलोक्य कर्णोऽथ तदातरूपः / प्रत्युद्ययुः कुरवस्तं समन्तात् / . क्रोधाद्धयांस्तस्य रथं ध्वजं च भीमस्य वाहाय्यमुदारवेगं बाणैः सुधारैर्निशितैर्यकृन्तत् // 11 __ समन्ततो बाणगणैर्निजन्नुः // 3 स तूत्तमौजा निशितैः पृषत्कै ततः शरानापततो महात्मा .. . विव्याध खड्गेन च भाखरेण / चिच्छेद बाणैस्तपनीयपुकैः / / पाणि हयांश्चैव कृपस्य हत्वा ते वै निपेतुस्तपनीयपुजा शिखण्डिवाहं स ततोऽभ्यरोहत् // 12 ___ द्विधा त्रिधा भीमशरैनिकृत्ताः॥४ कृपं तु दृष्ट्वा विरथं रथस्थो ततो राजन्नागरथाश्वयूनां नैच्छच्छरैस्ताडयितुं शिखण्डी। - भीमाहतानां तव राजमध्ये। तं द्रौणिरावार्य रथं कृपं स्म घोरो निनादः प्रबभौ नरेन्द्र समुज्जहे पङ्कगतां यथा गाम् // 13 वाहतानामिव पर्वतानाम् // 5 हिरण्यवर्मा निशितैः पृषत्कै - ते वध्यमानाश्च नरेन्द्रमुख्या स्तवात्मजानामनिलात्मजो वै / निर्भिन्ना वै भीमसेनप्रवेकैः / अतापयत्सैन्यमतीव भीमः भीमं समन्तात्समरेऽध्यरोहकाले शुचौ मध्यगतो यथार्कः // 14 न्वृक्षं शकुन्ता इव पुष्पहेतोः // 6 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ततोऽभिपातं तव सैन्यमध्ये त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥५३॥ : प्रादुश्चक्रे वेगमिवात्तवेगः। यथान्तकाले क्षपयन्दिधक्षुसंजय उवाच। भूतान्तकृत्काल इवात्तदण्डः // 7 अथ त्विदानीं तुमुले विमर्दै तस्यातिवेगस्य रणेऽतिवेगं द्विषद्भिरेको बहुभिः समावृतः। नाशक्नुवन्धारयितुं त्वदीयाः। -1762 - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 54. 8] कर्णपर्व [8. 54. 22 व्यात्ताननस्यापततो यथैव क्षुराश्च भल्लाश्च तथायुताख्याः / ___ कालस्य काले हरतः प्रजा वै // 8 नाराचानां द्वे सहस्रे तु वीर ततो बलं भारत भारतानां त्रीण्येव च प्रदराणां च पार्थ // 15 प्रदह्यमानं समरे महात्मन् / अत्यायुधं पाण्डवेयावशिष्टं भीतं दिशोऽकीर्यत भीमनुन्नं न यद्वहेच्छकटं षङ्गवीयम् / ___ महानिलेनाभ्रगणो यथैव // 9 एतद्विद्वन्मुश्च सहस्रशोऽपि ततो धीमान्सारथिमब्रवीद्वली गदासिबाहुद्रविणं च तेऽस्ति // 16 स भीमसेनः पुनरेव हृष्टः / भीम उवाच। सूताभिजानीहि परान्स्वकान्वा सूताद्येमं पश्य भीमप्रमुक्तैः स्थान्ध्वजांश्चापततः समेतान् / __संभिन्दद्भिः पार्थिवानाशुवेगैः / युध्यन्नहं नाभिजानामि किंचि उप्रैर्बाणैराहवं घोररूपं 'मा सैन्यं स्वं छादयिष्ये पृषकैः // 10 ___ नष्टादित्यं मृत्युलोकेन तुल्यम् // 17 अरीन्विशोकाभिनिरीक्ष्य सर्वतो अद्यैव तद्विदितं पार्थिवानां मनस्तु चिन्ता प्रदुनोति मे भृशम् / __ भविष्यति आकुमारं च सूत / राजातुरो नागमद्यत्किरीटी निमनो वा समरे भीमसेन . बहूनि दुःखान्यभिजातोऽस्मि सूत // 11 ___ एकः कुरून्वा समरे विजेता // 18 एतदुःखं सारथे धर्मराजो सर्वे संख्ये कुरवो निष्पतन्तु - यन्मां हित्वा यातवाञ्शत्रुमध्ये / मां वा लोकाः कीर्तयन्याकुमारम् / नैनं जीवन्नापि जानाम्यजीव सर्वानेकस्तानहं पातयिष्ये . .न्बीभत्सुं वा तन्ममाद्यातिदुःखम् // 12 ते वा सर्वे भीमसेनं तुदन्तु // 19 सोऽहं द्विषत्सैन्यमुदग्रकल्पं आशास्तारः कर्म चाप्युत्तमं वा विनाशयिष्ये परमप्रतीतः / तन्मे देवाः केवलं साधयन्तु। एतान्निहत्याजिमध्ये समेता आयात्विहाद्यार्जुनः शत्रुघाती न्प्रीतो भविष्यामि सह त्वयाद्य // 13 शकस्तूर्णं यज्ञ इवोपहूतः // 20 सर्वास्तूणीरान्मार्गणान्वान्ववेक्ष्य ईक्षस्वैतां भारती दीर्यमाणाकिं शिष्टं स्यात्सायकानां रथे मे / मेते कस्माद्विद्रवन्ते नरेन्द्राः। का वा जातिः किं प्रमाणं च तेषां व्यक्तं धीमान्सव्यसाची नराग्यः ज्ञात्वा व्यक्तं तन्ममाचक्ष्व सूत // 14 सैन्यं ह्येतच्छादयत्याशु बाणैः // 21 विशोक उवाच। पश्य ध्वजांश्च द्रवतो विशोक पण्मार्गणानामयुतानि वीर नागान्हयान्पत्तिसंघांश्च संख्ये। - 1763 - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 54. 22] महाभारते [8. 55.7 स्थान्विशीर्णाञ्शरशक्तिताडिता भीम उवाच / न्पश्यस्वैतारथिनश्चैव सूत // 22 ददामि ते ग्रामवरांश्चतुर्दश आपूर्यते कौरवी चाप्यभीक्ष्णं प्रियाख्याने सारथे सुप्रसन्नः। सेना ह्यसौ सुभृशं हन्यमाना / दासीशतं चापि रथांश्च विंशति धनंजयस्याशनितुल्यवेगै यदर्जुनं वेदयसे विशोक // 29 प्रेस्ता शरैर्बर्हिसुवर्णवाजैः // 23 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि एते द्रवन्ति स्म रथाश्वनागाः चतुःपञ्चाशोऽध्यायः // 54 // पदातिसंघानवमर्दयन्तः। संमुह्यमानाः कौरवाः सर्व एव संजय उवाच / द्रवन्ति नागा इव दावभीताः / श्रुत्वा च रथनिर्घोष सिंहनादं च संयुगे। हाहाकृताश्चैव रणे विशोक अर्जुनः प्राह गोविन्दं शीघ्रं चोदय वाजिनः // मुञ्चन्ति नादान्विपुलान्गजेन्द्राः // 24 अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा गोविन्दोऽर्जुनमब्रवीत् / विशोक उवाच। एष गच्छामि सुक्षिप्रं यत्र भीमो व्यवस्थितः // आयान्तमश्वैर्हिमशङ्खवणैः सर्वे कामाः पाण्डव ते समृद्धाः ___ कपिध्वजो दृश्यते हस्तिसैन्ये / __सुवर्णमुक्तामणिजालनद्धैः। जम्भं जिघांसुं प्रगृहीतवत्रं नीलाद्धनाद्विद्युतमुच्चरन्तीं जयाय देवेन्द्रमिवोग्रमन्युम् // 3 तथापश्यं विस्फुरद्वै धनुस्तत् // 25 रथाश्वमातङ्गपदातिसंघा कपियसौ वीक्ष्यते सर्वतो वै बाणस्वनैर्नेमिखुरस्वनैश्च / ध्वजाग्रमारुह्य धनंजयस्य / संनादयन्तो वसुधां दिशश्च दिवाकराभो मणिरेष दिव्यो __ क्रुद्धा नृसिंहा जयमभ्युदीयुः // 4 विभ्राजते चैव किरीटसंस्थः // 26 तेषां च पार्थस्य महत्तदासीपार्श्वे भीमं पाण्डुराभ्रप्रकाशं देहासुपाप्मक्षपणं सुयुद्धम् / पश्येमं त्वं देवदत्तं सुघोषम् / त्रैलोक्यहेतोरसुरैर्यथासीअभीशुहस्तस्य जनार्दनस्य देवस्य विष्णोर्जयतां वरस्य // 5 विगाहमानस्य चमूं परेषाम् // 27 तैरस्तमुच्चावचमायुधौघरविप्रभं वज्रनाभं क्षुरान्तं मेकः प्रचिच्छेद किरीटमाली / पार्श्वे स्थितं पश्य जनार्दनस्य / क्षुरार्धचन्द्रनिशितैश्च बाणैः चक्रं यशो वर्धयत्केशवस्य शिरांसि तेषां बहुधा च बाहून् // 6 सदार्चितं यदुभिः पश्य वीर // 28 / छत्राणि वालव्यजनानि केतू - 1764 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 55.7] कर्णपर्व [8. 55. 33 नश्वारथान्पत्तिगणान्द्विपांश्च / अर्जुनं समभित्यज्य दुद्रुवु दिशो भयात् / / 19 ते पेतुरुन्या बहुधा विरूपा तेषां शब्दो महानासीद्रवतां वाहिनीमुखे। वातप्रभग्नानि यथा वनानि // 7 महौघस्येव भद्रं ते गिरिमासाद्य दीर्यतः // 20 सुवर्णजालावतता महागजाः तां तु सेनां भृशं विद्धा द्रावयित्वार्जुनः शरैः। सवैजयन्तीध्वजयोधकल्पिताः / प्रायादभिमुखः पार्थः सूतानीकानि मारिष // 21 सुवर्णपु?रिषुभिः समाचिता तस्य शब्दो महानासीत्परानभिमुखस्य वै / श्चकाशिरे प्रज्वलिता यथाचलाः // 8 गरुडस्येव पततः पन्नगार्थे यथा पुरा // 22 विदार्य नागांश्च रथांश्च वाजिनः तं तु शब्दमभिश्रुत्य भीमसेनो महाबलः / शरोत्तमैर्वासववज्रसंनिभैः। बभूव परमप्रीतः पार्थदर्शनलालसः // 23 द्रुतं ययौ कर्णजिघांसयां तथा श्रुत्वैव पार्थमायान्तं भीमसेनः प्रतापवान् / यथा मरुत्वान्बलभेदने पुरा // 9 त्यक्त्वा प्राणान्महाराज सेनां तव ममर्द ह // 24 ततः स पुरुषव्याघ्रः सूतसैन्यमरिंदम / स वायुवेगप्रतिमो वायुवेगसमो जवे / प्रविवेश महाबाहुर्मकरः सागरं यथा // 10 वायुवद्वयचरहीमो वायुपुत्रः प्रतापवान् // 25 सं दृष्ट्वा तावका राजन्रथपत्तिसमन्विताः / तेनाधमाना राजेन्द्र सेना तव विशां पते। गजाश्वसादिवहुलाः पाण्डवं समुपाद्रवन् // 11 व्यभ्राम्यत महाराज भिन्ना नौरिव सागरे॥ 26 सन्नाभिद्रवतां पार्थमारावः सुमहानभूत् / तां तु सेनां तदा भीमो दर्शयन्पाणिलाघवम् / सागरस्येव मत्तस्य यथा स्यात्सलिलस्वनः // 12 शरैरवचकताः प्रेषयिष्यन्यमक्षयम् // 27 ते तु तं पुरुषव्याघ्रं व्याघ्रा इव महारथाः / तत्र भारत भीमस्य बलं दृष्ट्वातिमानुषम् / अभ्यद्रवन्त संग्रामे त्यक्त्वा प्राणकृतं भयम् // 13 व्यत्रस्यन्त रणे योधाः कालस्येव युगक्षये // 28 तेषामापततां तत्र शरवर्षाणि मुञ्चताम् / तथार्दितान्भीमबलान्भीमसेनेन भारत / अर्जुनो व्यधमत्सैन्यं महावातो घनानिव // 14 दृष्ट्वा दुर्योधनो राजा इदं वचनमब्रवीत् // 29 तेऽर्जुनं सहिता भूत्वा रथवंशैः प्रहारिणः / सैनिकान्स महेष्वासो योधांश्च भरतर्षभ। अभियाय महेष्वासा विव्यधुनिशितैः शरैः॥१५ समादिशद्रणे सर्वान्हत भीममिति स्म ह। ततोऽर्जुनः सहस्राणि रथवारणवाजिनाम् / तस्मिन्हते हतं मन्ये सर्वसैन्यमशेषतः // 30 प्रेषयामास विशिखैर्यमस्य सदनं प्रति // 16 प्रतिगृह्य च तामाज्ञां तव पुत्रस्य पार्थिवाः / ते वध्यमानाः समरे पार्थचापच्युतैः शरैः। भीमं प्रच्छादयामासुः शरवर्षैः समन्ततः // 31 तत्र तत्र स्म लीयन्ते भये जाते महारथाः॥ 17 गजाश्च बहुला राजन्नराश्च जयगृद्धिनः। तेषां चतुःशतान्वीरान्यतमानान्महारथान् / रथा हयाश्च राजेन्द्र परिवर्वृकोदरम् // 32 अर्जुनो निशितैर्बाणैरनयद्यमसादनम् // 18 स तैः परिवृतः शूरैः शूरो राजन्समन्ततः / ते वध्यमानाः समरे नानालिङ्गैः शितैः शरैः। शुशुभे भरतश्रेष्ठ नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः // 33 - 1765 - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 55. 34 ] महाभारते [8. 55. 62 स रराज तथा संख्ये दर्शनीयो नरोत्तमः। प्रेषयामास नाराचान्रुक्मपुङ्खाशिलाशितान् // 48 निर्विशेषं महाराज यथा हि विजयस्तथा // 34 वर्म मित्त्वा तु सौवर्ण बाणास्तस्य महात्मनः / तत्र ते पार्थिवाः सर्वे शरवृष्टीः समासृजन् / न्यमज्जन्त महाराज कङ्कबर्हिणवाससः // 49 क्रोधरक्तेक्षणाः क्रूरा हन्तुकामा वृकोदरम् // 35 सोऽतिविद्धो रणे भीमः शरं हेमविभूषितम् / स विदार्य महासेनां शरैः संनतपर्वभिः / प्रेषयामास सहसा सौबलं प्रति भारत // 50 निश्चक्राम रणाद्भीमो मत्स्यो जालादिवाम्भसि॥३६ तमायान्तं शरं घोरं शकुनिः शत्रुतापनः / हत्वा दश सहस्राणि गजानामनिवर्तिनाम् / चिच्छेद शतधा राजन्कृतहस्तो महाबलः // 51 नृणां शतसहस्रे द्वे द्वे शते चैव भारत // 37 तस्मिन्निपतिते भूमौ भीमः क्रुद्धो विशां पते / पञ्च चाश्वसहस्राणि रथानां शतमेव च / धनुश्चिच्छेद भल्लेन सौबलस्य हसन्निव // 52 हत्वा प्रास्यन्दयद्भीमो नदी शोणितकर्दमाम् // 38 तदपास्य धनुश्छिन्नं सौबलेयः प्रतापवान् / शोणितोदां रथावर्ती हस्तिग्राहसमाकुलाम् / अन्यदादत्त वेगेन धनुर्भल्लांश्च षोडश // 53 नरमीनामश्वनक्रां केशशैवलशाद्वलाम् // 39 तैस्तस्य तु महाराज भल्लैः संनतपर्वभिः / संछिन्नभुजनागेन्द्रां बहुरत्नापहारिणीम् / चतुर्भिः सारथिं ह्याछीमं पञ्चभिरेव च // 5 // ऊरुपाहां मज्जपङ्का शीर्षोपलसमाकुलाम् // 40 ध्वजमेकेन चिच्छेद छत्रं द्वाभ्यां विशां पते। . धनुष्काशां शरावापां गदापरिघकेतनाम् / चतुर्भिश्चतुरो वाहान्विव्याध सुबलात्मजः // 55 योधवातवतीं संख्ये वहन्तीं यमसादनम् // 41 ततः क्रुद्धो महाराज भीमसेनः प्रतापवान् / क्षणेन पुरुषव्याघ्रः प्रावर्तयत निम्नगाम् / शक्ति चिक्षेप समरे रुक्मदण्डामयस्मयीम् / / 56 यथा वैतरणीमुना दुस्तरामकृतात्मभिः // 42 सा भीमभुजनिर्मुक्ता नागजिह्वेव चश्चला / यतो यतः पाण्डवेयः प्रवृत्तो रथसत्तमः / निपपात रथे तूर्णं सौबलस्य महात्मनः // 57 ततस्ततोऽपातयत योधाशतसहस्रशः॥ 43 ततस्तामेव संगृह्य शक्तिं कनकभूषणाम् / एवं दृष्ट्वा कृतं कर्म भीमसेनेन संयुगे / भीमसेनाय चिक्षेप क्रुद्धरूपो विशां पते // 58 दुर्योधनो महाराज शकुनि वाक्यमब्रवीत् // 44 सा निर्भिद्य भुजं सव्यं पाण्डवस्य महात्मनः / जय मातुल संग्रामे भीमसेनं महाबलम् / अस्मिञ्जिते जितं मन्ये पाण्डवेयं महाबलम् / / 45 पपात च ततो भूमौ यथा विद्युन्नभच्युता // 56 अथोत्क्रुष्टं महाराज धार्तराष्ट्रः समन्ततः / ततः प्रायान्महाराज सौबलेयः प्रतापवान् / रणाय महते युक्तो भ्रातृभिः परिवारितः // 46 न तु तं ममृषे भीमः सिंहनादं तरविनाम् // 60 स समासाद्य संग्रामे भीमं भीमपराक्रमम् / स संगृह्य धनुः सज्यं त्वरमाणो महारथः / वारयामास तं वीरो वेलेव मकरालयम् / भुहूर्तादिव राजेन्द्र छादयामास सायकैः / स न्यवर्तत तं भीमो वार्यमाणः शितैः शरैः॥४७ सौबलस्य बलं संख्ये त्यक्त्वात्मानं महाबलः // 61 शकुनिस्तस्य राजेन्द्र वामे पार्श्वे स्तनान्तरे। | तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा सूतं चैव विशां पते / - 1766 - Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 55. 62] कर्णपर्व [8.56. 18 बजं चिच्छेद भल्लेन त्वरमाणः पराक्रमी // 62 हताश्वं रथमुत्सृज्य त्वरमाणो नरोत्तमः / धृतराष्ट्र उवाच / तस्थौ विस्फारयंश्चापं क्रोधरक्तेक्षणः श्वसन् / ततो भन्नेषु सैन्येषु भीमसेनेन संयुगे। रैश्च बहुधा राजन्भीममार्च्छत्समन्ततः // 63 दुर्योधनोऽब्रवीकि नु सौबलो वापि संजय // 1 प्रतिहत्य तु वेगेन भीमसेनः प्रतापवान् / कर्णो वा जयतां श्रेष्ठो योधा वा मामका युधि / अनुश्चिच्छेद संक्रुद्धो विव्याध च शितैः शरैः // कृपो वा कृतवर्मा च द्रौणिर्दुःशासनोऽपि वा // 2 सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुकर्शनः / अत्यद्भुतमिदं मन्ये पाण्डवेयस्य विक्रमम् / . निपपात ततो भूमौ किंचित्प्राणो नराधिप // 65 यथाप्रतिज्ञं योधानां राधेयः कृतवानपि // 3 ततस्तं विह्वलं ज्ञात्वा पुत्रस्तव विशां पते / कुरूणामपि सर्वेषां कर्णः शत्रुनिषूदनः / अपोवाह रथेनाजी भीमसेनस्य पश्यतः // 66 शर्म वर्म प्रतिष्ठा च जीविताशा च संजय // 4 रयस्थे तु नरव्याघ्र धार्तराष्ट्राः पराङ्मुखाः / / तत्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा कौन्तेयेनामितौजसा / प्रदुद्रुवुर्दिशो भीता भीमाजाते महाभये // 67 राधेयानामधिरथः कर्णः किमकरोद्युधि // 5 पुत्रा वा मम दुर्धर्षा राजानो वा महारथाः / सौबले निर्जिते राजन्भीमसेनेन धन्विना / एतन्मे सर्वमाचक्ष्व कुशलो ह्यसि संजय // 6 : भयेन महता भग्नः पुत्रो दुर्योधनस्तव / संजय उवाच / अपायाज्जवनैरश्वैः सापेक्षो मातुलं प्रति // 68 अपराह्ने महाराज सूतपुत्रः प्रतापवान् / पराङ्मुखं तु राजानं दृष्ट्वा सैन्यानि भारत / जघान सोमकान्सर्वान्भीमसेनस्य पश्यतः / विप्रजग्मुः समुत्सृज्य द्वैरथानि समन्ततः // 69 भीमोऽप्यतिबलः सैन्यं धार्तराष्ट्रं व्यपोथयत् // 7 तान्दृष्ट्वातिरथान्सर्वान्धार्तराष्ट्रान्पराङ्मुखान् / द्राव्यमाणं बलं दृष्ट्वा भीमसेनेन धीमता। जवेनाभ्यपतद्भीमः किरशरशतान्बहून् // 70 यन्तारमब्रवीत्कर्णः पाञ्चालानेव मा वह // 8 ते वध्यमाना भीमेन धार्तराष्ट्राः पराङ्मुखाः / मद्रराजस्ततः शल्यः श्वेतानश्वान्महाजवान् / कर्णमासाद्य समरे स्थिता राजन्समन्ततः / प्राहिणोच्चेदिपाञ्चालान्करूषांश्च महाबलः // 9 स हि तेषां महावीर्यो द्वीपोऽभूत्सुमहाबलः // 71 प्रविश्य च स तां सेनां शल्यः परबलार्दनः / भिन्ननौका यथा राजन्द्वीपमासाद्य निर्वृताः। न्ययच्छत्तुरगान्हृष्टो यत्र यत्रैच्छदग्रणीः // 10 भवन्ति पुरुषव्याघ्र नाविकाः कालपर्यये // 72 / तं रथं मेघसंकाशं वैयाघ्रपरिवारणम् / प्रथा कर्ण समासाद्य तावका भरतर्षभ / संदृश्य पाण्डुपाञ्चालास्त्रस्ता आसन्विशां पते // 11 समाश्वस्ताः स्थिता राजन्संप्रहृष्टाः परस्परम् / ततो रथस्य निनदः प्रादुरासीन्महारणे / समाजग्मुश्च युद्धाय मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 73 / पर्जन्यसमनिर्घोषः पर्वतस्येव दीर्यतः // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि ततः शरशतैस्तीक्ष्णैः कर्णोऽप्याकर्णनिःसृतैः / पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // | जघान पाण्डवबलं शतशोऽथ सहस्रशः // 13. - 1767 - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 56. 14 ] महाभारते [8. 56. 41 तं तथा समरे कर्म कुर्वाणमतिमानुषम् / तत्र भारत कर्णस्य लाघवेन महात्मनः / परिवत्रुर्महेष्वासाः पाण्डवानां महारथाः // 14 तुतुषुर्देवताः सर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः // 27 तं शिखण्डी च भीमश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः / अपूजयन्महेष्वासा धार्तराष्ट्रा नरोत्तमम् / नकुलः सहदेवश्च द्रौपदेयाः ससात्यकाः / कर्ण रथवरश्रेष्ठं श्रेष्ठं सर्वधनुष्मताम् // 28 परिवर्जिघांसन्तो राधेयं शरवृष्टिभिः // 15 ततः कर्णो महाराज ददाह रिपुवाहिनीम् / सात्यकिस्तु ततः कर्ण विंशत्या निशितैः शरैः। कक्षमिद्धो यथा वह्निर्निदाघे ज्वलितो महान् // 29 अताडयद्रणे शूरो जत्रुदेशे नरोत्तमः // 16 ते वध्यमानाः कर्णेन पाण्डवेयास्ततस्ततः / शिखण्डी पञ्चविंशत्या धृष्टद्युम्नश्च पञ्चभिः / प्राद्रवन्त रणे भीताः कणं दृष्ट्वा महाबलम् // 30 द्रौपदेयाश्चतुःषष्ट्या सहदेवश्च सप्तभिः / तत्राक्रन्दो महानासीत्पाञ्चालानां महारणे / नकुलश्च शतेनाजौ कर्णं विव्याध सायकैः // 17 वध्यतां सायकैस्तीक्ष्णैः कर्णचापवरच्युतैः // 31 भीमसेनस्तु राधेयं नवत्या नतपर्वणाम् / तेन शब्देन वित्रस्ता पाण्डवानां महाचमूः / विव्याध समरे क्रुद्धो जवुदेशे महाबलः // 18 / कर्णमेकं रणे योधं मेनिरे तत्र शात्रवाः // 32 ततः प्रहस्याधिरथिर्विक्षिपन्धनुरुत्तमम् / तत्राद्भुतं परं चक्रे राधेयः शत्रुकर्शनः / मुमोच निशितान्बाणान्पीडयन्सुमहाबलः। यदेकं पाण्डवाः सर्वे न शेकुरभिवीक्षितुम् // 33 तान्प्रत्यविध्यद्राधेयः पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः // 19 यथौघः पर्वतश्रेष्ठमासाद्याभिप्रदीर्यते / सात्यकेस्तु धनुश्छित्त्वा ध्वजं च पुरुषर्षभः / / तथा तत्पाण्डवं सैन्यं कर्णमासाद्य दीर्यते // 34 अथैनं नवभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे // 20 कर्णोऽपि समरे राजन्धिधूमोऽग्निरिव ज्वलन् / भीमसेनस्तु तं क्रुद्धो विव्याध त्रिंशता शरैः। दहंस्तस्थौ महाबाहुः पाण्डवानां महाचमूम् // 35 सारथिं च त्रिभिर्बाणैराजघान परंतपः // 21 शिरांसि च महाराज कर्णाश्चञ्चलकुण्डलान् / विरथान्द्रौपदेयांश्च चकार पुरुषर्षभः / बाहूंश्च वीरो वीराणां चिच्छेद लघु चेषुभिः // 36 अक्ष्णोनिमेषमात्रेण तदद्भुतमिवाभवत् // 22 हस्तिदन्तान्त्सरून्खड्गान्ध्वजाशक्तीहयान्गजान् / विमुखीकृत्य तान्सर्वाशरैः संनतपर्वभिः। रथांश्च विविधान्राजन्पताका व्यजनानि च // 37 पाञ्चालानहनच्छूरश्चेदीनां च महारथान् // 23 अक्षेषायुगयोक्त्राणि चक्राणि विविधानि च / ते वध्यमानाः समरे चेदिमत्स्या विशां पते।। चिच्छेद शतधा कर्णो योधव्रतमनुष्ठितः // 38 कर्णमेकमभिद्रुत्य शरसंधैः समादयन् / तत्र भारत कर्णेन निहतैर्गजवाजिभिः / ताञ्जघान शितैर्बाणैः सूतपुत्रो महारथः // 24 / / अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा // 39 एतदत्यद्भुतं कर्णे दृष्टवानस्मि भारत / विषमं च समं चैव हतैरश्वपदातिभिः / यदेकः समरे शूरान्सूतपुत्रः प्रतापवान् // 25 . रथैश्च कुञ्जरैश्चैव न प्राज्ञायत किंचन // 40 यतमानान्परं शक्त्यायोधयत्तांश्च धन्विनः / नापि स्वे न परे योधाः प्राज्ञायन्त परस्परम् / पाण्डवेयान्महाराज शरैर्वारितवारणे // 26 घोरे शरान्धकारे तु कर्णाने च विजृम्भिते॥४१ - 1768 - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 56. 42] कर्णपर्व [8. 57.9 पत्रेयचापनिर्मुक्तैः शरैः काञ्चनभूषितैः। कर्णपुत्रौ च राजेन्द्र भ्रातरौ सत्यविक्रमौ / संछादिता महाराज यतमाना महारथाः // 42 अनाशयेतां बलिनः पाञ्चालान्वै ततस्ततः / ते पाण्डवेयाः समरे कर्णेन स्म पुनः पुनः / तत्र युद्धं तदा ह्यासीत्क्रूरं विशसनं महत् // 56 अभज्यन्त महाराज यतमाना महारथाः // 43 तथैव पाण्डवाः शूरा धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ / मृगसंघान्यथा क्रुद्धः सिंहो द्रावयते वने / द्रौपदेयाश्च संक्रुद्धा अभ्यनस्तावकं बलम् // 57 कर्णस्तु समरे योधांस्तत्र तत्र महायशाः / एवमेष क्षयो वृत्तः पाण्डवानां ततस्ततः / फालयामास तत्सैन्यं यथा पशुगणान्वृकः / / 44 तावकानामपि रणे भीमं प्राप्य महाबलम् // 58 दृष्ट्वा तु पाण्डवीं सेनां धार्तराष्ट्राः पराङ्मुखीम् / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि अभिजग्मुर्महेष्वासा रुवन्तो भैरवान्रवान् // 45 षट्पञ्चाशोऽध्यायः // 56 // दुर्योधनो हि राजेन्द्र मुदा. परमया युतः / 57 पादयामास संहृष्टो नानावाद्यानि सर्वशः // 46 संजय उवाच / पाञ्चालापि महेष्वासा भग्ना भग्ना नरोत्तमाः / / अर्जुनस्तु महाराज कृत्वा सैन्यं पृथग्विधम् / न्यवर्तन्त यथा शूरा मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 47 सूतपुत्रं सुसंरब्धं दृष्ट्वा चैव महारणे // 1 ताग्निवृत्तान्रणे शूरान्राधेयः शत्रुतापनः / शोणितोदां महीं कृत्वा मांसमजास्थिवाहिनीम् / भनेकशो महाराज बभञ्ज पुरुषर्षभः // 48 वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत्पुरुषर्षभ // 2 तत्र भारत कर्णेन पाञ्चाला विंशती रथाः / एष केतू रणे कृष्ण सूतपुत्रस्य दृश्यते / निहताः सादयः क्रोधाचेदयश्च परःशताः // 49 भीमसेनादयश्चैते योधयन्ति महारथान् / कृत्वा शून्यान्रथोपस्थान्याजिपृष्ठांश्च भारत / एते द्रवन्ति पाञ्चालाः कर्णात्रस्ता जनार्दन // 3 निर्मनुष्यान्गजस्कन्धान्पादातांश्चैव विद्रुतान् // 50 एष दुर्योधनो राजा श्वेतच्छत्रेण भास्वता। मादित्य इव मध्याह्ने दुर्निरीक्ष्यः परंतपः / कर्णेन भग्नान्पाञ्चालान्द्रावयन्बहु शोभते // 4 कालान्तकवपुः क्रूरः सूतपुत्रश्चचार ह // 51 कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्चैव महाबलः / सवमेतान्महाराज नरवाजिरथद्विपान् / एते रक्षन्ति राजानं सूतपुत्रेण रक्षिताः / हत्वा तस्थौ महेष्वासः कर्णोऽरिगणसूदनः // 52 अवध्यमानास्तेऽस्माभिर्घातयिष्यन्ति सोमकान् // 5 यथा भूतगणान्हत्वा कालस्तिष्ठेन्महाबलः / एष शल्यो रथोपस्थे रश्मिसंचारकोविदः। तथा स सोमकान्हत्वा तस्थावेको महारथः // 53 सूतपुत्ररथं कृष्ण वाहयन्बहु शोभते // 6 बन्नाद्भुतमपश्याम पाञ्चालानां पराक्रमम् / तत्र मे बुद्धिरुत्पन्ना वाहयात्र महारथम् / बध्यमानापि कर्णेन नाजहू रणमूर्धनि // 54 नाहत्वा समरे कणं निवर्तिष्ये कथंचन // 7 राजा दुःशासनश्चैव कृपः शारद्वतस्तथा / राधेयोऽप्यन्यथा पार्थान्सृञ्जयांश्च महारथान् / अश्वत्थामा कृतवर्मा शकुनिश्चापि सौबलः / निःशेषान्समरे कुर्यात्पश्यतोनौ जनार्दन // 8 न्यहनन्पाण्डवीं सेनां शतशोऽथ सहस्रशः // 55 / ततः प्रायाद्रथेनाशु केशवस्तव वाहिनीम् / म. भा. 222 - 1769 - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 57.9] महाभारते [8. 57.37 कर्ण प्रति महेष्वासं द्वैरथे सव्यसाचिना // 9 एक एवाभियाति त्वां पश्य साफल्यमात्मनः // 24 प्रयातश्च महाबाहुः पाण्डवानुज्ञया हरिः। त्वं हि कृष्णौ रणे शक्तः संसाधयितुमाहवे। आश्वासयन्रथेनैव पाण्डुसैन्यानि सर्वशः // 10 तवैष भारो राधेय प्रत्युद्याहि धनंजयम् // 25 रथघोषः स संग्रामे पाण्डवेयस्य संबभौ। त्वं कृतो ह्येव भीष्मेण द्रोणद्रौणिकृपैरपि / वासवाशनितुल्यस्य महौघस्येव मारिष // 11 सव्यसाचिप्रतिरथस्तं निवर्तय पाण्डवम् // 26 महता रथघोषेण पाण्डवः सत्यविक्रमः / लेलिहानं यथा सर्प गर्जन्तमृषभं यथा। अभ्ययादप्रमेयात्मा विजयस्तव वाहिनीम् // 12 लयस्थितं यथा व्याघ्र जहि कर्ण धनंजयम् // 27 तमायान्तं समीक्ष्यैव श्वेताश्वं कृष्णसारथिम् / एते द्रवन्ति समरे धार्तराष्ट्रा महारथाः / मद्रराजोऽब्रवीत्कणं केतुं दृष्ट्वा महात्मनः // 13 अर्जुनस्य भयात्तूर्ण निरपेक्षा जनाधिपाः // 28 अयं स रथ आयाति श्वेताश्वः कृष्णसारथिः / द्रवतामथ तेषां तु युधि नान्योऽस्ति मानवः / निघ्नन्नमित्रान्समरे यं कर्ण परिपृच्छसि // 14 भयहा यो भवेद्वीर त्वामृते सूतनन्दन // 29 एष तिष्ठति कौन्तेयः संस्पृशन्गाण्डिवं धनुः। एते त्वां कुरवः सर्वे द्वीपमासाद्य संयुगे। तं हनिष्यसि चेदद्य तन्नः श्रेयो भविष्यति // 15 विष्ठिताः पुरुषव्याघ्र त्वत्तः शरणकाङ्क्षिणः // 30 एषा विदीर्यते सेना धार्तराष्ट्री समन्ततः। वैदेहाम्बष्ठकाम्बोजास्तथा नग्नजितस्त्वया। अर्जुनस्य भयात्तूर्णं निघ्नतः शात्रवान्बहून् // 16 गान्धाराश्च यया धृत्या जिताः संख्ये सुदुर्जयाः॥ वर्जयन्सर्वसैन्यानि त्वरते हि धनंजयः। तां धृतिं कुरु राधेय ततः प्रत्येहि पाण्डवम् / त्वदर्थमिति मन्येऽहं यथास्योदीयते वपुः // 17 वासुदेवं च वार्ष्णेयं प्रीयमाणं किरीटिना // 32 न ह्यवस्थाप्यते पार्थो युयुत्सुः केनचित्सह।। कर्ण उवाच / त्वामृते क्रोधदीप्तो हि पीड्यमाने वृकोदरे॥ 18 प्रकृतिस्थो हि मे शल्य इदानीं संमतस्तथा। विरथं धर्मराजं च दृष्ट्वा सुदृढविक्षतम् / प्रतिभासि महाबाहो विभीश्चैव धनंजयात् // 33 शिखण्डिनं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् // 19 पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य शिक्षितस्य च पश्य मे। द्रौपदेयान्युधामन्युमुत्तमौजसमेव च।। एकोऽद्य निहनिष्यामि पाण्डवानां महाचमूम् // 34 नकुलं सहदेवं च भ्रातरौ द्वौ समीक्ष्य च // 20 कृष्णौ च पुरुषव्याघ्रौ तच्च सत्यं ब्रवीमि ते। सहसैकरथः पार्थस्त्वामभ्येति परंतप / नाहत्वा युधि तौ वीरावपयास्य कथंचन // 35 क्रोधरक्तेक्षणः क्रुद्धो जिघांसुः सर्वधन्विनाम् // 21 स्वप्स्ये वा निहतस्ताभ्यामसत्यो हि रणे जयः। त्वरितोऽभिपतत्यस्मात्यक्त्वा सैन्यान्यसंशयम्। कृतार्थो वा भविष्यामि हत्वा तावथ वा हतः॥३६ त्वं कर्ण प्रतियाह्येनं नास्त्यन्यो हि धनुर्धरः // 22 नैतादृशो जातु बभूव लोके न तं पश्यामि लोकेऽस्मिंस्त्वत्तोऽप्यन्यं धनुर्धरम् / / रथोत्तमो यावदनुश्रुतं नः / अर्जुनं समरे क्रुद्धं यो वेलामिव धारयेत् // 23 तमीदृशं प्रतियोत्स्यामि पार्थ न चास्य रक्षां पश्यामि पृष्ठतो न च पार्श्वतः। महाहवे पश्य च पौरुषं मे // 37 - 1770 - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 37. 38] कर्णपर्व [8. 57. 51 रथे चरत्येष रथप्रवीरः यैस्ताञ्जघानाशु रणे नृसिंहाशीघैर्हयैः कौरवराजपुत्रः। न्स कालखञ्जानसुरान्समेतान् // 45 स वाद्य मां नेष्यति कृच्छ्रमेत तथा विराटस्य पुरे समेताकर्णस्यान्तादेतदन्ताः स्थ सर्वे // 38 ___ सर्वानस्मानेकरथेन जित्वा / अस्वेदिनौ राजपुत्रस्य हस्ता जहार तद्गोधनमाजिमध्ये ववेपिनौ जातकिणौ बृहन्तौ। वस्त्राणि चादत्त महारथेभ्यः // 46 दृढायुधः कृतिमान्क्षिप्रहस्तो तमीदृशं वीर्यगुणोपपन्नं न पाण्डवेयेन समोऽस्ति योधः / / 39 ___ कृष्णद्वितीयं वरये रणाय / गृह्णात्यनेकानपि कङ्कपत्रा अनन्तवीर्येण च केशवेन नेकं यथा तान्क्षितिपान्प्रमथ्य। नारायणेनाप्रतिमेन गुप्तम् // 47 ते क्रोशमात्रं निपतन्त्यमोघाः वर्षायुतैर्यस्य गुणा न शक्या कस्तेन योधोऽस्ति समः पृथिव्याम् // 40 ___ वक्तुं समेतैरपि सर्वलोकैः / अतोषयत्पाण्डवेयो हुताशं महात्मनः शङ्खचक्रासिपाणेकृष्णद्वितीयोऽतिरथस्तरस्वी। विष्योर्जिष्णोर्वसुदेवात्मजस्य। लेभे चक्रं यत्र कृष्णो महात्मा भयं मे वै जायते साध्वसं च धनुर्गाण्डीवं पाण्डवः सव्यसाची // 41 / दृष्ट्वा कृष्णावेकरथे समेतौ // 48 श्वेताश्वयुक्तं च सुघोषमग्र्यं उभौ हि शूरौ कृतिनौ दृढास्त्री - रथं महाबाहुरदीनसत्त्वः / __महारथौ संहननोपपन्नौ / महेषुधी चाक्षयौ दिव्यरूपौ एतादृशौ फल्गुनवासुदेवो शस्त्राणि दिव्यानि च हव्यवाहात् // 42 कोऽन्यः प्रतीयान्महते नु शल्य // 49 तथेन्द्रलोके निजघान दैत्या एतावहं युधि वा पातयिष्ये नसंख्येयान्कालकेयांश्च सर्वान् / मां वा कृष्णौ निहनिष्यतोऽद्य / लेभे शहं देवदत्तं स्म तत्र इति ब्रुवशल्यममित्रहन्ता को नाम तेनाभ्यधिकः पृथिव्याम् // 43 ___ कर्णो रणे मेघ इवोन्ननाद // 50 महादेवं तोषयामास चैव अभ्येत्य पुत्रेण तवाभिनन्दितः साक्षात्सुयुद्वेन महानुभावः / __ समेत्य चोवाच कुरुप्रवीरान् / लेभे ततः पाशुपतं सुघोरं कृपं च भोजं च महाभुजावुभौ त्रैलोक्यसंहारकरं महास्त्रम् // 44 तथैव गान्धारनृपं सहानुजम् / पृथक्पृथग्लोकपालाः समेता गुरोः सुतं चावरजं तथात्मनः ददुर्घत्राण्यप्रमेयाणि यस्य / पदातिनोऽथ द्विपसादिनोऽन्यान् // 51 - 1771 -- Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 57. 52] महाभारते [ 8. 57.65 निन्धताभिद्रवताच्युतार्जुनौ तथा तु तत्तत्स्फुरदात्तकार्मुकं श्रमेण संयोजयताशु सर्वतः / त्रिभिः शरैर्यन्तृशिरः क्षुरेण / यथा भवद्भिर्मुशविक्षतावुभौ यांश्चतुर्भिश्चतुरस्त्रिभिर्ध्वज सुखेन हन्यामहमद्य भूमिपाः // 52 धनंजयो द्रौणिरथान्न्यपातयत् // 59 तथेति चोक्त्वा त्वरिताः स्म तेऽर्जुनं स रोषपूर्णोऽशनिवनहाटकैजिघांसवो वीरतमाः समभ्ययुः / रलंकृतं तक्षकभोगवर्चसम् / नदीनदान्भूरिजलो महार्णवो सुबन्धनं कार्मुकमन्यदाददे यथा तथा तान्समरेऽर्जुनोऽग्रसत् // 53 यथा महाहिप्रवरं गिरेस्तथा // 60 न संदधानो न तथा शरोत्तमा स्वमायुधं चोपविकीर्य भूतले प्रमुश्चमानो रिपुभिः प्रदृश्यते / धनुश्च कृत्वा सगुणं गुणाधिकः / धनंजयस्तस्य शरैश्च दारिता समानयानावजितौ नरोत्तमौ हताश्च पेतुर्नरवाजिकुञ्जराः // 54 शरोत्तमैौणिरविध्यदन्तिकात् // 61 शराषिं गाण्डिवचारुमण्डलं कृपश्च भोजश्च तथात्मजश्व ते / __ युगान्तसूर्यप्रतिमानतेजसम् / तमोनुदं वारिधरा इवापतन् / न कौरवाः शेकुरुदीक्षितुं जयं कृपस्य पार्थः सशरं शरासनं ___ यथा रविं व्याधितचक्षुषो जनाः // 55 हयान्ध्वजं सारथिमेव पत्रिभिः // 62 तमभ्यधावद्विसृजशरान्कृप शरैः प्रचिच्छेद तघात्मजस्य स्तथैव भोजस्तव चात्मजः स्वयम् / ___ध्वजं धनुश्च प्रचकर्त नर्दतः। जिघांसुभिस्तान्कुशलैः शरोत्तमा जघान चाश्वान्कृतवर्मणः शुभान्महाहवे संजवितान्प्रयत्नतः / ध्वजं च चिच्छेद ततः प्रतापवान् // 63 शरैः प्रचिच्छेद च पाण्डवस्त्वर सवाजिसूतेष्वसनान्सकेतना__ पराभिनद्वक्षसि च त्रिभित्रिभिः // 56 ___ अघान नागाश्वरथांस्त्वरंश्च सः। स गाण्डिवाभ्यायतपूर्णमण्डल ततः प्रकीर्णं सुमहद्बलं तव स्तपरिपूनर्जुनभास्करो बभौ। __प्रदारितं सेतुरिवाम्भसा यथा। शरोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगो। ततोऽर्जुनस्याशु रथेन केशव__ यथैव सूर्यः परिवेषगस्तथा // 57 ___ श्चकार शत्रूनपसव्यमातुरान् // 64 अथाग्र्यबाणैर्दशभिर्धनंजयं ततः प्रयान्तं त्वरितं धनंजयं परामिनद्रोणसुतोऽच्युतं त्रिभिः / शतक्रतुं वृत्रनिजनुषं यथा। चतुर्भिरश्वांश्चतुरः कपि तथा समन्वधावन्पुनरुच्छ्रितैर्ध्वजै शरैः स नाराचवरैरवाकिरत् // 58 रथैः सुयुक्तैरपरे युयुत्सवः // 65 - 1772 - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 57. 66] कर्णपर्व [8. 58. 19 अथाभिसृत्य प्रतिवाय तानरी छिन्नगात्रैर्विकवचैर्विशिरस्कैः समन्ततः / न्धनंजयस्याभि रथं महारथाः। पतितैश्च पतद्भिश्च योधैरासीत्समावृतम् // 6 शिखण्डिशैनेययमाः शितैः शरै धनंजयशराभ्यस्तैः स्यन्दनाश्वनरद्विपैः / विदारयन्तो व्यनदन्सुभैरवम् // 66 रणभूमिरभूद्राजन्महावैतरणी यथा // 7 ततोऽमिजन्नुः कुपिताः परस्परं ईषाचक्राक्षभङ्गैश्च व्यश्वैः साश्वेश्च युध्यताम् / शरैस्तदाञ्जोगतिभिः सुतेजनैः। ससूतैर्हतसूतैश्च रथैः स्तीर्णाभवन्मही // 8 कुरुप्रवीराः सह सृञ्जयैर्यथा सुवर्णवर्मसंनाहैर्योधैः कनकभूषणैः / ___ सुराः पुरा देववरैरयोधयन् // 67 आस्थिताः कृतवर्माणो भद्रा नित्यमदा द्विपाः / जयेप्सवः स्वर्गमनाय चोत्सुकाः क्रुद्धाः क्रुद्धैर्महामात्रैः प्रेषितार्जुनमभ्ययुः // 9 पतन्ति नागाश्वरथाः परंतप / चतुःशताः शरवर्षैताः पेतुः किरीटिना / जगणुरुच्चैबलवच्च विव्यधुः / पर्यस्तानीव शृङ्गाणि ससत्त्वानि महागिरेः॥१० शरैः सुमुक्तैरितरेतरं पृथक् // 68 धनंजयशराभ्यस्तैः स्तीर्णा भूर्वरवारणैः / शरान्धकारे तु महात्मभिः कृते अभिपेदेऽर्जुनरथो घनान्भिन्दन्निवांशुमान् // 11 महामृधे योधवरैः परस्परम् / हतैर्गजमनुष्याश्वैर्भग्नैश्च बहुधा रथैः / बमुर्दशाशा न दिवं च पार्थिव विशस्त्रपत्रकवचैयुद्धशौण्डैर्गतासुभिः / प्रभा च सूर्यस्य तमोवृताभवत् // 69 अपविद्धायुधैर्मार्गः स्तीर्णोऽभूत्फल्गुनेन वै // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि व्यस्फूर्जयच्च गाण्डीवं सुमहद्भरवस्वनम् / सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // घोरो वज्रविनिष्पेषः स्तनयित्नोरिवाम्बरे // 13 ततः प्रादीर्यत चमूर्धनंजयशराहता। ... संजय उवाच / महावातसमाविद्धा महानौरिव सागरे // 14 राजन्कुरूणां प्रवरैर्बलैर्भीममभिद्रुतम् / नानारूपाः प्रहरणाः शरा गाण्डीवचोदिताः / मअन्तमिव कौन्तेयमुजिहीर्षर्धनंजयः // 1 अलातोल्काशनिप्रख्यास्तव सैन्यं विनिर्दहन् // 15 विमृद्य सूतपुत्रस्य सेनां भारत सायकैः / महागिरौ वेणुवनं निशि प्रज्वलितं यथा / प्राहिणोन्मृत्युलोकाय परवीरान्धनंजयः // 2 / तथा तव महत्सैन्यं प्रास्फुरच्छरपीडितम् // 16 ततोऽस्याम्बरमावृत्य शरजालानि भागशः / संपिष्टदग्धविध्वस्तं तव सैन्यं किरीटिना। अदृश्यन्त तथान्ये च निघ्नन्तस्तव वाहिनीम् // 3 हतं प्रविहतं बाणैः सर्वतः प्रद्रुतं दिशः // 17 स पक्षिसंघाचरितमाकाशं पूरयशरैः / / महावने मृगगणा दावाग्निग्रसिता यथा / धनंजयो महाराज कुरूणामन्तकोऽभवत् // 4 / कुरवः पर्यवर्तन्त निर्दग्धाः सव्यसाचिना // 18 ततो भलैः क्षुरप्रैश्च नाराचैर्निर्मलैरपि / उत्सृज्य हि महाबाहुं भीमसेनं तदा रणे / गात्राणि प्राक्षिणोत्पार्थः शिरांसि च चकर्त ह॥५ / बलं कुरूणामुद्विग्नं सर्वमासीत्पराङ्मुखम् // 19 -1773 - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 58. 20] महाभारते [8.59. 18 ततः कुरुषु भग्नेषु बीभत्सुरपराजितः / त्वरमाणांस्तु तान्सर्वान्ससूतेष्वसनध्वजान् / भीमसेनं समासाद्य मुहूर्त सोऽभ्यवर्तत // 20 जघान नवतिं वीरानर्जुनो निशितैः शरैः // 4 समागम्य स भीमेन मत्रयित्वा च फल्गुनः / / तेऽपतन्त हता बाणैर्नानारूपैः किरीटिना / विशल्यमरुजं चास्मै कथयित्वा युधिष्ठिरम् // 21 सविमाना यथा सिद्धाः स्वर्गात्पुण्यक्षये तथा // 5 भीमसेनाभ्यनुज्ञातस्ततः प्रायाद्धनंजयः / ततः सरथनागाश्वाः कुरवः कुरुसत्तम / नादयरथघोषेण पृथिवीं द्यां च भारत // 22 . निर्भया भरतश्रेष्ठमभ्यवर्तन्त फल्गुनम् // 6 ततः परिवृतो भीमैर्दशभिः शत्रुपुंगवैः / तदायस्तममुक्तास्त्रमुदीर्णवरवारणम् / दुःशासनादवरजैस्तव पुत्रैर्धनंजयः // 23 पुत्राणां ते महत्सैन्यं समरौत्सीद्धनंजयः // 7 ते तमभ्यर्दयन्बाणैरुल्काभिरिव कुञ्जरम् / शक्त्य॒ष्टितोमरप्रासैर्गदानिस्त्रिंशसायकैः / / आततेष्वसनाः क्ररा नृत्यन्त इव भारत // 24 प्राच्छादयन्महेष्वासाः कुरवः कुरुनन्दनम् // 8 अपसव्यांस्तु तांश्चक्रे रथेन मधुसूदनः / / तां कुरूणां प्रविततां शस्त्रवृष्टिं समुद्यताम् / ततस्ते प्राद्रवशूराः पराङ्मुखरथेऽर्जुने // 25 व्यधमत्पाण्डवो बाणैस्तमः सूर्य इवांशुभिः // 9 तेषामापततां केतून्रथांश्चापानि सायकान् / ततो म्लेच्छाः स्थितैर्मत्तैस्त्रयोदशशतैर्गजैः / नाराचैरर्धचन्द्रश्च क्षिप्रं पार्थो न्यपातयत् // 26 पार्श्वतोऽभ्यहनन्पार्थ तव पुत्रस्य शासनात् // 10 अथान्यैर्दशभिर्भल्लैः शिरांस्येषां न्यपातयत् / कर्णिनालीकनाराचैस्तोमरैः प्रासशक्तिभिः / . सेषसंरक्तनेत्राणि संदष्टौष्ठानि भूतले / कम्पनैर्भिण्डिपालैश्च रथस्थं पार्थमार्दयन् // 11 तानि वक्त्राणि विबभुयॊग्नि तारागणा इव // 27 तामस्त्रवृष्टिं प्रहितां द्विपस्थैर्यवनैः स्मयन् / तांस्तु भल्लैर्महावेगैर्दशभिर्दश कौरवान् / चिच्छेद निशितैर्भल्लैरर्धचन्द्रैश्च फल्गुनः // 12 रुक्माङ्गदान्रुक्मपुङ्खैर्विवा प्रायादमित्रहा // 28 अथ तान्द्विरदान्सर्वान्नानालिङ्गैर्महाशरैः / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि सपताकान्सहारोहान्गिरीन्वर्जेरिवाभिनत् // 13 अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥५८॥ ते हेमपुङ्खैरिषुभिराचिता हेममालिनः / हताः पेतुर्महानागाः साग्निज्वाला इवाद्रयः // 11 संजय उवाच। ततो गाण्डीवनिर्घोषो महानासीद्विशां पते / तं तु यान्तं महावेगैरश्वैः कपिवरध्वजम् / / स्तनतां कूजतां चैव मनुष्यगजवाजिनाम् // 15 युद्धायाभ्यद्रवन्वीराः कुरूणां नवती रथाः / कुञ्जराश्च हता राजन्प्राद्रवंस्ते समन्ततः / परिवर्नरव्याघ्रा नरव्याघ्रं रणेऽर्जुनम् // 1 अश्वाश्च पर्यधावन्त हतारोहा दिशो दश // 16 कृष्णः श्वेतान्महावेगानश्वान्कनकभूषणान् / रथा हीना महाराज रथिभिर्वाजिभिस्तथा। . मुक्ताजालप्रतिच्छन्नान्प्रेषीत्कर्णरथं प्रति // 2 गन्धर्वनगराकारा दृश्यन्ते स्म सहस्रशः // 17 ततः कर्णरथं यान्तमरीन्नन्तं धनंजयम् / / अश्वारोहा महाराज धावमानास्ततस्ततः / / बाणवषैरभिनन्तः संशप्तकरथा ययुः // 3 तत्र तत्रैव दृश्यन्ते पतिताः पार्थसायकैः // 18 - 1774 -- Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 59. 19] कर्णपर्व [8. 60.1 तस्मिन्क्षणे पाण्डवस्य बाह्वोर्बलमदृश्यत / अविषां तु पार्थस्य शरसंपातमाहवे / यत्सादिनो वारणांश्च रथांश्चैकोऽजयाधि // 19 मत्वा न्यवर्तन्कुरवो जिता गाण्डीवधन्वना // 34 ततख्यङ्गेण महता बलेन भरतर्षभ / ते हित्वा समरे पार्थं वध्यमानाश्च सायकैः / पमा परिवृतं राजन्भीमसेनः किरीटिनम् // 20 प्रदुद्रुवुर्दिशो भीताश्चक्रुशुश्चापि सूतजम् // 35 हतावशेषानुत्सृज्य त्वदीयान्कतिचिद्रथान् / अभ्यद्रवत तान्पार्थः किरशरशतान्बहून् / जवेनाभ्यद्रवद्राजन्धनंजयरथं प्रति / / 21 हर्षयन्पाण्डवान्योधान्भीमसेनपुरोगमान् // 36 ततस्तत्प्राद्रवत्सैन्यं हतभूयिष्ठमातुरम् / पुत्रास्तु ते महाराज जग्मुः कर्णरथं प्रति / दृष्ट्वा यदर्जुनं भीमो जगाम भ्रातरं प्रति // 22 अगाधे मजतां तेषां द्वीपः कर्णोऽभवत्तदा // 37 हतावशिष्टांस्तुरगानर्जुनेन महाजबान / कुरवो हि महाराज निर्विषाः पन्नगा इव / मीमो व्यधमदभ्रान्तो गदापाणिर्महाहवे // 23 कर्णमेवोपलीयन्त भयाद्गाण्डीवधन्वनः // 38 कालरात्रिमिवात्युग्रां नरनागाश्वभोजनाम् / यथा सर्वाणि भूतानि मृत्योर्भीतानि भारत / प्राकाराट्टपुरद्वारदारणीमतिदारुणाम् // 24 धर्ममेवोपलीयन्ते कर्मवन्ति हि यानि च // 39 ततो गदां नृनागाश्वेष्वाशु भीमो व्यवासृजत् / तथा कर्ण महेष्वासं पुत्रास्तव नराधिप / सा जघान बहूनश्वानश्वारोहांश्च मारिष // 25 उपालीयन्त संत्रासात्पाण्डवस्य महात्मनः // 40 कांस्यायसतनुत्रांस्तान्नरानश्वांश्च पाण्डवः / ताशोणितपरिक्लिन्नान्विषमस्थाशरातुरान् / पोथयामास गदया सशब्दं तेऽपतन्हताः // 26 मा भैप्टेत्यब्रवीत्कर्णो ह्यभितो मामितेति च // 41 हत्वा तु तद्गजानीकं भीमसेनो महाबलः / संभग्नं हि बलं दृष्ट्वा बलात्पार्थेन तावकम् / पुनः स्वरथमास्थाय पृष्ठतोऽर्जुनमन्वगात् // 27 धनुर्विस्फारयन्कर्णस्तस्थौ शत्रुजिघांसया / हतं पराङ्मुखप्रायं निरुत्साहं परं बलम् / पाश्चालान्पुनराधावत्पश्यतः सव्यसाचिनः // 42 व्यालम्बत महाराज प्रायशः शस्त्रवेष्टितम् // 28 ततः क्षणेन क्षितिपाः क्षतजप्रतिमेक्षणाः / विलम्बमानं तत्सैन्यमप्रगल्भमवस्थितम् / कर्ण ववधुर्बाणौधैर्यथा मेघा महीधरम् // 43 दृष्ट्वा प्राच्छादयद्वाणैरर्जुनः प्राणतापनैः // 29 ततः शरसहस्राणि कर्णमुक्तानि मारिष / ततः कुरूणामभवदार्तनादो महामृधे। व्ययोजयन्त पाञ्चालान्प्राणैः प्राणभृतां वर // 44 रथाश्वनागासुहरैर्वध्यतामर्जुनेषुभिः // 30 ततो रणो महानासीत्पाञ्चालानां विशां पते / हाहाकृतं भृशं तस्थौ लीयमानं परस्परम् / वध्यतां सूतपुत्रेण मित्रार्थेऽमित्रघातिनाम् // 45 बलातचक्रवत्सैन्यं तदाभ्रमत तावकम् // 31 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि आदीप्तं तव तत्सैन्यं शरैश्छिन्नतनुच्छदम् / एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // आसीत्स्वशोणितल्लिन्नं फुल्लाशोकवनं यथा // 32 60 तदृष्ट्वा कुरवस्तत्र विक्रान्तं सव्यसाचिनः / संजय उवाच। निराशाः समपद्यन्त सर्वे कर्णस्य जीविते // 33 - ततः कर्णः कुरुषु प्रद्रुतेषु --1775 - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 60. 1] সন্ধানে [8. 60. 18 वरूथिना श्वेतहयेन राजन् / पाञ्चालपुत्रान्व्यधमत्सूतपुत्रो महेषुभिर्वात इवाभ्रसंघान् // 1 सूतं रथादञ्जलिकेन पात्य जघान चाश्वाञ्जनमेजयस्य / शतानीकं सुतसोमं च भल्लै-- वाकिरद्धनुषी चाप्यकृन्तत् // 2 धृष्टद्युम्नं निर्बिभेदाथ षड्भि र्जघान चाश्वं दक्षिणं तस्य संख्ये / हत्वा चाश्वान्सात्यकः सूतपुत्रः __ कैकेयपुत्रं न्यवधीद्विशोकम् // 3 तमभ्यधावन्निहते कुमारे कैकेयसेनापतिस्पधन्वा। शरैर्विभिन्नं भृशमुग्रवेगैः कर्णात्मजं सोऽभ्यहनत्सुषेणम् // 4 तस्यार्धचन्द्रनिभिरुच्चकर्त प्रसह्य बाहू च शिरश्च कर्णः / स स्यन्दनाद्गामपतद्गतासुः परश्वधैः शाल इवावरुग्णः // 5 हताश्वमञ्जोगतिभिः सुषेणः ___शिनिप्रवीरं निशितैः पृषकैः / प्रच्छाद्य नृत्यन्निव सौतिपुत्रः शैनेयबाणाभिहतः पपात // 6 पुत्रे हते क्रोधपरीतचेताः __ कर्णः शिनीनामृषभं जिघांसुः / हतोऽसि शैनेय इति ब्रुवन्स व्यवासृजद्वाणममित्रसाहम् // 7 स तस्य चिच्छेद शरं शिखण्डी त्रिभिस्त्रिभिश्च प्रतुतोद कर्णम् / शिखण्डिनः कार्मुकं स ध्वजं च च्छित्त्वा शराभ्यामहनत्सुजातम् // 8 शिखण्डिनं षड्भिरविध्यदुनो दान्तो धार्टद्युम्नशिरश्चकर्त। अथाभिनत्सुतसोमं शरेण स संशितेनाधिरथिर्महात्मा // 9 अथाक्रन्दे तुमुले वर्तमाने धार्टद्युम्ने निहते तत्र कृष्णः / अपाञ्चाल्यं क्रियते याहि पार्थ कणं जहीत्यब्रवीद्राजसिंह // 10 ततः प्रहस्याशु नरप्रवीरो रथं रथेनाधिरथेजगाम / भये तेषां त्राणमिच्छन्सुबाहु रभ्याहतानां रथयूथपेन // 11 विस्फार्य गाण्डीवमथोग्रघोषं ज्यया समाहत्य तले भृशं च / बाणान्धकारं सहसैव कृत्वा जघान नायाश्वरथान्नरांश्च // 12 तं भीमसेनोऽनु ययौ रथेन ___ पृष्ठे रक्षन्पाण्डवमेकवीरम् / तौ राजपुत्रौ त्वरितौ रथाभ्यां .. कर्णाय यातावरिभिर्विमुक्तौ // 13 अत्रान्तरे सुमहत्सूतपुत्र श्चके युद्धं सोमकान्संप्रमृद्गन् / रथाश्वमातङ्गगणाञ्जघान प्रच्छादयामास दिशः शरैश्च // 1.4 तमुत्तमौजा जनमेजयश्च क्रुद्धौ युधामन्युशिखण्डिनौ च। कर्ण विनेदुः सहिताः पृषत्कैः संमर्दमानाः सह पार्षतेन // 15 ते पञ्च पाञ्चालरथाः सुरूपै-1276-- Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 60. 16 ] कर्णपर्व [8. 60. 31 (कर्तनं कर्णमभिद्रवन्तः / स्तवात्मजं ज्येष्ठमविध्यदष्टभिः // 23 तस्माद्रथाच्यावयितुं न शेकु कृपोऽथ भोजश्च तवात्मजस्तथा धैर्यास्कृतात्मानमिवेन्द्रियाणि // 16 स्वयं च कर्णो निशितैरताडयत् / तेषां धनूंषि ध्वजवाजिसूता स तैश्चतुर्भियुयुधे यदूत्तमो स्तूणं पताकाश्च निकृत्य बाणैः / _ दिगीश्वरैर्दैत्यपतियथा तथा // 24 तान्पश्चभिः स त्वहनत्यूपत्कैः समानतेनेष्वसनेन कूजता कर्णस्ततः सिंह इवोन्ननाद // 17 भृशाततेनामितबाणवर्षिणा। तस्यास्यतस्तानभिनिघ्नतश्च बभूव दुर्धर्षतरः स सात्यकिः ज्याबाणहस्तस्य धनुःस्वनेन / शरन्नभोमध्यगतो यथा रविः / / 25 साद्रिद्रुमा स्यात्पृथिवी विशीर्णा पुनः समासाद्य स्थान्सुदंशिताः इत्येव मत्वा जनता व्यषीदत् // 18 शिनिप्रवीरं जुगुपुः परंतपाः / स शक्रचापप्रतिमेन धन्वना समेत्य पाश्चालरथा महारणे भृशाततेनाधिरथिः शरान्सृजन् / मरुद्गणाः शक्रमिवारिनिग्रहे // 26 बभौ रणे दीप्तमरीचिमण्डलो ततोऽभवद्युद्धमतीव दारुणं यथांशुमाली परिवेषवांस्तथा // 19 तवाहितानां तव सैनिकैः सह / शिखण्डिनं द्वादशभिः पराभिन रथाश्वमातङ्गविनाशनं तथा च्छितैः शरैः षड्भिरथोत्तमौजसम् / ___ यथा सुराणामसुरैः पुराभवत् // 27 त्रिभियुधामन्युमविध्यदाशुगै रथद्विपा वाजिपदातयोऽपि वा त्रिभित्रिभिः सोमकपार्षतात्मजौ // 20 भ्रमन्ति नानाविधशस्त्रवेष्टिताः। पराजिताः पञ्च महारथास्तु ते परस्परेणाभिहताश्च चस्खलु___ महाहवे सूतसुतेन मारिष। विनेदुरार्ता व्यसवोऽपतन्त च // 28 निरुद्यमास्तस्थुरमित्रमर्दना तथा गते भीममभीस्तवात्मजः यथेन्द्रियार्थात्मवता पराजिताः // 21 ___ ससार राजावरजः किरशरैः / निमज्जतस्तानथ कर्णसागरे तमभ्यधावत्त्वरितो वृकोदरो विपन्ननावो वणिजो यथार्णवे। महारुरुं सिंह इवाभिपेतिवान् // 29 उद्दधिरे नौभिरिवाणवाद्रथैः ततस्तयोयुद्धमतीतमानुषं सुकल्पितैपिदिजाः स्वमातुलान् // 22 प्रदीव्यतोः प्राणदुरोदरेऽभवत् / ततः शिनीनामृषभः शितैः शरै परस्परेणाभिनिविष्टरोषयो_निकृत्य कर्णप्रहितानिषून्बहून् / रुदप्रयोः शम्बरशक्रयोर्यथा // 30 विदार्य कर्ण निशितैरयस्मयै शरैः शरीरान्तकरैः सुतेजनमं, भा. 223 - 1777 - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 60. 31] महाभारते [8. 61. 11 61 - र्निजनतुस्तावितरेतरं भृशम् / विचेष्टमानो भृशवेदनातः // 4 सकृत्प्रभिन्नाविव वाशितान्तरे ततः स्मृत्वा भीमसेनस्तरस्वी महागजौ मन्मथसक्तचेतसौ // 31 सापत्नकं यत्प्रयुक्तं सुतैस्ते / तवात्मजस्याथ वृकोदरस्त्वर रथादवप्लुत्य गतः स भूमौ न्धनुः क्षुराभ्यां ध्वजमेव चाच्छिनत् / यत्नेन तस्मिन्प्रणिधाय चक्षुः // 5 . ललाटमप्यस्य बिभेद पत्रिणा असिं समुद्धृत्य शितं सुधारं शिरश्च कायात्प्रजहार सारथः // 32 कण्ठे समाक्रम्य च वेपमानम् / स राजपुत्रोऽन्यदवाप्य कार्मुकं उत्कृत्य वक्षः पतितस्य भूमावृकोदरं द्वादशभिः पराभिनत् / वथापिवच्छोणितमस्य कोष्णम् / स्वयं नियच्छंस्तुरगानजिह्मगैः आस्वाद्य चास्वाद्य च वीक्षमाणः शरैश्च भीमं पुनरभ्यवीवृषत् // 33 क्रुद्धोऽतिवेलं प्रजगाद वाक्यम् // 6 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि स्तन्यस्य मातुर्मधुसर्पिषो वा षष्टितमोऽध्यायः // 6 // माध्वीकपानस्य च सत्कृतस्य / दिव्यस्य वा तोयरसस्य पानासंजय उवाच। त्पयोदधिभ्यां मथिताच्च मुख्यात् / तत्राकरोद्दुष्करं राजपुत्रो सर्वेभ्य एवाभ्याधेको रसोऽयं ___ दुःशासनस्तुमुले युध्यमानः / ___ मतो ममाद्याहितलोहितस्य // 7 चिच्छेद भीमस्य धनुः क्षुरेण एवं ब्रुवाणं पुनराद्रवन्तषभिः शरैः सारथिमप्यविध्यत् // 1 मास्वाद्य वल्गन्तमतिप्रहृष्टम् / ततोऽभिनद्बहुभिः क्षिप्रमेव ये भीमसेनं ददृशुस्तदानीं वरेषुभिर्भीमसेनं महात्मा। भयेन तेऽपि व्यथिता निपेतुः // 8 स विक्षरन्नाग इव प्रभिन्नो ये चापि तत्रापतिता मनुष्यागदामस्मै तुमुले प्राहिणोद्वै // 2 . स्तेषां करेभ्यः पतितं च शस्त्रम् / तयाहरद्दश धन्वन्तराणि भयाञ्च संचुक्रुशुरुच्चकैस्ते दुःशासनं भीमसेनः प्रसह्य / निमीलिताक्षा ददृशुश्च तन्न // 9 तया हतः पतितो वेपमानो ये तत्र भीमं ददृशुः समन्ता___ दुःशासनो गदया वेगवत्या // 3 दौःशासनं तद्रुधिरं पिबन्तम् / हयाः ससूताश्च हता नरेन्द्र सर्वे पलायन्त भयाभिपन्ना चूर्णीकृतश्चास्य रथः पतन्या। नायं मनुष्य इति भाषमाणाः // 10 विध्वस्तवर्माभरणाम्बरस्र शृण्वतां लोकवीराणामिदं वचनमब्रवीत् / - 1778 - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 61. 11] कर्णपर्व [8.62. 17 व ते रुधिरं कण्ठात्पिबामि पुरुषाधम / भीमसेनं महाबाहुं मार्गणैः समवारयन् // 3 हीदानीं सुसंरब्धः पुनगारिति गौरिति // 11 स वार्यमाणो विशिखैः समन्तात्तैर्महारथैः / प्रमाणकोट्यां शयनं कालकूटस्य भोजनम् / भीमः क्रोधाभिरक्ताक्षः क्रुद्धः काल इवाबभौ // 4 शनं चाहिभिः कष्टं दाहं च जतुवेश्मनि // 12 तांस्तु भल्लैर्महावेगैर्दशभिर्दशभिः शितैः / पतेन राज्यहरणमरण्ये वसतिश्च या। रुक्माङ्गदो रुक्मपुङ्खैः पार्थो निन्ये यमक्षयम् // 5 वाणि च संग्रामेष्वसुखानि च वेश्मनि // 13 हतेषु तेषु वीरेषु प्रदुद्राव बलं तव / खान्येतानि जानीमो न सुखानि कदाचन / पश्यतः सूतपुत्रस्य पाण्डवस्य भयादितम् // 6 धृतराष्ट्रस्य दौरात्म्यात्सपुत्रस्य सदा वयम् // 14 ततः कर्णो महाराज प्रविवेश महारणम् / इत्युक्त्वा वचनं राजञ्जयं प्राप्य वृकोदरः / . दृष्ट्वा भीमस्य विक्रान्तमन्तकस्य प्रजास्विव // 7 पुनराह महाराज स्मयंस्तौ केशवार्जुनौ // 15 तस्य त्वाकारभावज्ञः शल्यः समितिशोभनः / दुःशासने यद्रणे संश्रुतं मे उवाच वचनं कणं प्राप्तकालमरिंदम / तद्वै सर्वं कृतमोह वीरौ / मा व्यथां कुरु राधेय नैतत्त्वय्युपपद्यते / / 8 अद्यैव दास्याम्यपरं द्वितीयं एते द्रवन्ति राजानो भीमसेनभयार्दिताः / दुर्योधनं यज्ञपशु विशस्य / दुर्योधनश्च संमूढो भ्रातृव्यसनदुःखितः // 9 शिरो मृदित्वा च पदा दुरात्मनः दुःशासनस्य रुधिरे पीयमाने महात्मना / * शान्ति लप्स्ये कौरवाणां समक्षम् // 16 व्यापन्नचेतसश्चैव शोकोपहतमन्यवः // 10 एतावदुक्त्वा वचनं प्रहृष्टो दुर्योधनमुपासन्ते परिवार्य समन्ततः / ननाद चोच्चै रुधिरागात्रः। कृपप्रभृतयः कर्ण हतशेषाश्च सोदराः // 11 ननर्त चैवातिबलो महात्मा पाण्डवा लब्धलक्षाश्च धनंजयपुरोगमाः। * 'वृत्रं निहत्येव सहस्रनेत्रः // 17 त्वामेवाभिमुखाः शूरा युद्धाय समुपास्थिताः // 12 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि स त्वं पुरुषशार्दूल पौरुषे महति स्थितः / एकषष्टितमोऽध्यायः // 61 // क्षत्रधर्म पुरस्कृत्य प्रत्युद्याहि धनंजयम् / / 13 भारो हि धार्तराष्ट्रेण त्वयि सर्वः समर्पितः / संजय उवाच / तमुट्ठह महाबाहो यथाशक्ति यथाबलम् / शासने तु निहते पुत्रास्तव महारथाः / जये स्याद्विपुला कीर्तिर्भुवः स्वर्गः पराजये // 14 हाक्रोधविषा वीराः समरेष्वपलायिनः / वृषसेनश्च राधेय संक्रुद्धस्तनयस्तव / श राजन्महावीर्या भीमं प्राच्छादयशरैः // 1 त्वयि मोहसमापन्ने पाण्डवानभिधावति // 15 वची निषङ्गी पाशी दण्डधारो धनुर्धरः। एतच्छ्रुत्वा तु वचनं शल्यस्यामिततेजसः / प्रलोलुपः शलः संधो वातवेगसुवर्चसौ // 2 हृदि मानुष्यकं भावं चक्रे युद्धाय सुस्थिरम् // 16 ते समेत्य सहिता भ्रातृव्यसनकर्शिताः। ___ ततः क्रुद्धो वृषसेनोऽभ्यधाव - 1779 -: Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 62. 17 ] महाभारते [8. 62. 32 'दातस्थिवांसं स्वरथं हतारिम् / यथाश्वमेधे पशवः शमित्रा // 24 घृकोदरं कालमिवात्तदण्डं द्विसाहस्रा विदिता युद्धशौण्डा . गदाहस्तं पोथमानं त्वदीयान् // 17 नानादेश्याः सुभृताः सत्यसंधाः। तमभ्यधावन्नकुलः प्रवीरो एकेन शीघ्रं नकुलेन कृत्ताः ___ रोषादमित्रं प्रतुदन्पृषत्कैः / सारेप्सुनेवोत्तमचन्दनास्ते // 25 कर्णस्य पुत्र समरे प्रहृष्टं तमापतन्तं नकुलं सोऽभिपत्य जिष्णुर्जिघांसुर्मघवेव जम्भम् // 18 समन्ततः सायकैरभ्यविध्यत् / ततो ध्वजं स्फाटिकचित्रकम्बु स तुद्यमानो नकुलः पृषत्कैचिच्छेद वीरो नकुलः क्षुरेण / विव्याध वीरं स चुकोप विद्धः // 26 कर्णात्मजस्येष्वसनं च चित्रं तं कर्णपुत्रो विधमन्तमेकं भल्लेन जाम्बूनदपट्टनद्धम् // 19 नराश्वमातङ्गरथप्रवेकान् / अथान्यदादाय धनुः सुशीघ्र क्रीडन्तमष्टादशभिः पृषत्कैकर्णात्मजः पाण्डवमभ्यविध्यत् / विव्याध वीरं स चुकोप विद्धः // 27 दिव्यैर्महात्रैर्नकुलं महात्रो ततोऽभ्यधावत्समरे जिघांसुः दुःशासनस्यापचितिं यियासुः // 20 कर्णात्मजं पाण्डुसुतो नृवीरः। ततः क्रुद्धो नकुलस्तं महात्मा तस्येषुभिर्व्यधमत्कर्णपुत्रो शरैर्महोल्काप्रतिमैरविध्यत् / महारणे चर्म सहस्रतारम् / / 28 दिव्यैरस्त्रैरभ्यविध्यच्च सोऽपि तस्यायसं निशितं तीक्ष्णधारकर्णस्य पुत्रो नकुलं कृतास्त्रः // 21 मसिं विकोशं गुरुभारसाहम् / कर्णस्य पुत्रो नकुलस्य राज द्विषच्छरीरापहरं सुघोरन्सर्वानश्वानक्षिणोदुत्तमात्रैः / माधुन्वतः सर्पमिवोग्ररूपम् // 29 बनायुजान्सुकुमारस्य शुभ्रा क्षिप्रं शरैः षभिरमित्रसाहनलंकृताञ्जातरूपेण शीघ्रान् // 22 श्वकर्त खड्गं निशितैः सुधारैः / ततो हताश्वादवरुह्य याना पुनश्च पीतैर्निशितैः पृषत्कैः दादाय चर्म रुचिरं चाष्टचन्द्रम् / स्तनान्तरे गाढमथाभ्यविध्यत् // 30 आकाशसंकाशमसिं गृहीत्वा स भीमसेनस्य रथं हताश्वो पोप्लूयमानः खगवच्चचार // 23 माद्रीसुतः कर्णसुताभितप्तः / ततोऽन्तरिक्षे नृवराश्वनागां आपुप्लवे सिंह इवाचलायं श्चिच्छेद मार्गान्विचरन्विचित्रान् / संप्रेक्षमाणस्य धनंजयस्य // 31 ते प्रापतन्नसिना गां विशस्ता नकुलमथ विदित्वा छिन्नबाणासनासिं - 1780 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 62. 32 ] कर्णपर्व [8. 62. 47 विरथमरिशरार्तं कर्णपुत्रास्त्रभग्नम् / न्परांश्च बाणासनपाणयोऽभ्ययुः // 39 पवनधुतपताका ह्रादिनो वलिगताश्वा अथाभवद्युद्धमतीव दारुणं वरपुरुषनियत्तास्ते रथाः शीघ्रमीयुः // 32 __पुनः कुरूणां सह पाण्डुसृञ्जयैः / द्रुपदसुतवरिष्ठाः पञ्च शैनेयषष्ठा शरासिशक्त्यष्टिगदापरश्वधैद्रुपददुहितृपुत्राः पञ्च चामित्रसाहाः / नराश्वनागासुहरं भृशाकुलम् // 40 द्विरदरथनराश्वान्सूदयन्तस्त्वदीया रथाश्वमातङ्गपदातिभिस्ततः न्भुजगपतिनिकाशैर्मागणैरात्तशस्त्राः॥ 33 परस्परं विप्रहतापतन्क्षितौ / अथ तव रथमुख्यास्तान्प्रतीयुस्त्वरन्तो यथा सविद्युत्स्तनिता बलाहकाः हृदिकसुतकृषौ च द्रौणिदुर्योधनौ च।। समास्थिता दिग्भ्य इवोग्रमारुतैः // 41 शकुनिशुकवृकाश्च क्राथदेवावृधौ च ततः शतानीकहतान्महागजांद्विरदजलदघोषैः स्यन्दनैः कार्मुकैश्च // 34 ___ स्तथा रथान्पत्तिगणांश्च तावकान् / तव नरवरवर्यास्तान्दशैकं च वीरा जघान भोजश्च हयानथापतप्रवरशरवरात्र्यैस्ताडयन्तोऽभ्यरुन्धन् / __ विशस्त्रकृत्ताः कृतवर्मणा द्विपाः // 42 नवजलदसवर्णैर्हस्तिभिस्तानुदीयु अथापरे द्रौणिशराहता द्विपागिरिशिखरनिकाशैर्भीमवेगैः कुणिन्दाः / / स्त्रयः ससर्वायुधयोधकेतवः / सुकल्पिता हैमवता मदोत्कटा निपेतुरुया व्यसवः प्रपातितारणामिकामैः कृतिभिः समास्थिताः। स्तथा यथा वज्रहता महाचलाः // 43 सुवर्णजालावतता बभुर्गजा कुणिन्दराजावरजादनन्तरः स्तथा यथा वै जलदाः सविद्युतः // 36 स्तनान्तरे पत्रिवरैरताडयत् / * कुणिन्दपुत्रो दशभिर्महायसैः तवात्मजं तस्य तवात्मजः शरैः कृपं ससूताश्वमपीडयदृशम् / शितैः शरीरं विभिदे द्विपं च तम् // 44 ततः शरद्वत्सुतसायकहतः स नागराजः सह राजसूनुना सहैव नागेन पपात भूतले // 37 पपात रक्तं बहु सर्वतः क्षरन् / कुणिन्दपुत्रावरजस्तु तोमरै शचीशवज्रप्रहतोऽम्बुदागमे दिवाकरांशुप्रतिमैरयस्मयैः। यथा जलं गैरिकपर्वतस्तथा // 45 रथं च विक्षोभ्य ननाद नर्दत कुणिन्दपुत्रप्रहितोऽपरद्विपः स्ततोऽस्य गान्धारपतिः शिरोऽहरत् // 38 __शुकं ससूताश्वरथं व्यपोथयत् / ततः कुणिन्देषु हतेषु तेष्वथ ततोऽपतत्क्राथशराभिदारितः प्रहृष्टरूपास्तव ते महारथाः। ___ सहेश्वरो वज्रहतो यथा गिरिः // 46 भृशं प्रदध्मुर्लवणाम्बुसंभवा रथी द्विपस्थेन हतोऽपतच्छरैः - 1781 - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 62. 47 ] महाभारते [8. 62.64 क्राथाधिपः पर्वतजेन दुर्जयः। हुतोऽयमनाविति तं तु मेनिरे // 54 स वाजिसूतेष्वसनस्तथापत ततः किरीटी परवीरघाती द्यथा महावातहतो महाद्रुमः // 47 हताश्वमालोक्य नरप्रवीरम् / वृको द्विपस्थं गिरिराजवासिनं तमभ्यधावद्वृषसेनमाहवे भृशं शरैर्द्वादशभिः पराभिनत् / स सूतजस्य प्रमुखे स्थितं तदा // 55 ततो वृकं साश्वरथं महाजवं तमापतन्तं नरवीरमुग्रं त्वरंश्चतुर्भिश्चरणे व्यपोथयत् // 48 ___महाहवे बाणसहस्रधारिणम् / स नागराजः सनियन्तृकोऽपत अभ्यापतत्कर्णसुतो महारथो ___पराहतो बधुसुतेषुभिर्भृशम् / यथैव चेन्द्रं नमुचिः पुरातने // 56 स चापि देवावृधसूनुरर्दितः ततोऽद्भुतेनैकशतेन पार्थ___ पपात नुन्नः सहदेवसूनुना // 49 __ शरैर्विद्धा सूतपुत्रस्य पुत्रः / विषाणपोत्रापरगात्रघातिना ननाद नादं सुमहानुभावो गजेन हन्तुं शकुनेः कुणिन्दजः / विद्वेव शक्रं नमुचिः पुरा वै // 57 जगाम वेगेन भृशार्दयंश्च तं पुनः स पार्थं वृषसेन उप्रैततोऽस्य गान्धारपतिः शिरोऽहरत् // 50 बर्बाणैरविध्यद्भुजमूलमध्ये। ततः शतानीकहता महागजा तथैव कृष्णं नवभिः समार्दयहया रथाः पत्तिगणाश्च तावकाः। सुनश्च पार्थ दशभिः शिताः // 58 सुपर्णवाताहता यथा नगा ततः किरीटी रणमूर्ध्नि कोपास्तथा गता गामवशा विचूर्णिताः // 51 त्कृत्वा विशाखां भ्रुकुटि ललाटे / ततोऽभ्यविध्यद्बहुभिः शितैः शरैः मुमोच बाणान्विशिखान्महात्मा कुणिन्दपुत्रो नकुलात्मजं स्मयन् / वधाय राजन्सूतपुत्रस्य संख्ये // 59 ततोऽस्य कायान्निचकत नाकुलिः विव्याध चैनं दशभिः पृषत्कै___ शिरः क्षुरेणाम्बुजसंनिभाननम् // 52 मर्मस्वसक्तं प्रसभं किरीटी। ततः शतानीकमविध्यदाशुगै चिच्छेद चास्येष्वसनं भुजौ च ___ त्रिभिः शितैः कर्णसुतोऽर्जुनं त्रिभिः / क्षुरैश्चतुर्भिः शिर एव चोग्रैः // 60 त्रिभिश्च भीमं नकुलं च सप्तभि स पार्थबाणाभिहतः पपात जनार्दनं द्वादशभिश्च सायकैः // 53 ... रथाद्विबाहुर्विशिरा धरायाम् / तदस्य कर्मातिमनुष्यकर्मणः सुपुष्पितः पर्णधरोऽतिकायो - समीक्ष्य हृष्टाः कुरवोऽभ्यपूजयन् / ___ पातेरितः शाल इवाद्रिशृङ्गात् // 61 पराक्रमज्ञास्तु धनंजयस्य ते तं प्रेक्ष्य बाणाभिहतं पतन्तं - 1782 - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 62. 62] कर्णपर्व [8. 63. 27 . 63 रथात्सुतं सूतजः क्षिप्रकारी। बाहुघोषाश्च वीराणां कर्णार्जुनसमागमे // 12 रथं रथेनाशु जगाम वेगा तौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघौ रथस्थौ रथिनां वरौ / किरीटिनः पुत्रवधाभितप्तः // 62 प्रगृहीतमहाचापौ शरशक्तिगदायुधौ // 13 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि वर्मिणौ बद्धनिस्विंशी श्वेताश्वौ शङ्खशोभिनौ / द्विषष्टितमोऽध्यायः // 62 // तूणीरवरसंपन्नौ द्वावपि स्म सुदर्शनी // 14 रक्तचन्दनदिग्धाङ्गौ समदी वृषभाविव / संजय उवाच / आशीविषसमप्रख्यौ यमकालान्तकोपमौ // 15 वृषसेनं हतं दृष्ट्वा शोकामर्षसमन्वितः। इन्द्रवृत्राविव क्रुद्धौ सूर्याचन्द्रमसप्रभौ / मुक्त्वा शोकोद्भवं वारि नेत्राभ्यां सहसा वृषः॥ 1 महाग्रहाविव क्रौ युगान्ते समुपस्थितौ // 16 रथेन कर्णस्तेजस्वी जगामाभिमुखो रिपून् / देवगौं देवसमौ देवतुल्यौ च रूपतः / युद्धायामर्षताम्राक्षः समाहूय धनंजयम् // 2 समेतौ पुरुषव्याघौ प्रेक्ष्य कर्णधनंजयौ // 17 तौ रथौ सूर्यसंकाशी वैयाघ्रपरिवारणौ / उभौ वरायुधधरावुभौ रणकृतश्रमौ / समेतौ ददृशुस्तत्र द्वाविवाको समागतौ // 3 उभौ च बाहुशब्देन नादयन्तौ नभस्तलम् // 18 श्वेताश्वौ पुरुषादित्यावास्थितांवरिमर्दनौ / उभौ विश्रुतकर्माणौ पौरुषेण बलेन च / शुभाते महात्मानौ चन्द्रादित्यौ यथा दिवि // 4 / उभौ च सदृशौ युद्धे शम्बरामरराजयोः // 19 को दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुः सर्वभूतानि मारिष।। कार्तवीर्यसमौ युद्धे तथा दाशरथेः समौ। त्रैलोक्यविजये यत्ताविन्द्रवैरोचनाविव // 5 विष्णुवीर्यसमौ वीर्ये तथा भवसमौ युधि // 20 रथज्यातलनिर्झदैर्वाणशङ्खरवैरपि / उभी श्वेतहयौ राजन्रथप्रवरवाहिनौ / सौ रथावभिधावन्तौ समालोक्य महीक्षिताम् / / 6 सारथी प्रवरौ चैव तयोरास्तां महाबलौ // 21 बजौ च दृष्ट्वा संसक्तौ विस्मयः समपद्यत।। तौ तु दृष्ट्वा महाराज राजमानौ महारथौ। इस्तिकन्यां च कर्णस्य वानरं च किरीटिनः // 7 सिद्धचारणसंघानां विस्मयः समपद्यत // 22 तौ रथौ संप्रसक्तौ च दृष्ट्वा भारत पार्थिवाः / धार्तराष्ट्रास्ततः कर्णं सबला भरतर्षभ / सिंहनादरवांश्चक्रुः साधुवादांश्च पुष्कलान् // 8 परिवत्रुर्महात्मानं क्षिप्रमाहवशोभिनम् // 23 मुत्वा तु द्वैरथं ताभ्यां तत्र योधाः समन्ततः / तथैव पाण्डवा हृष्टा धृष्टद्युम्नपुरोगमाः। पर्बाहुवलं चैव तथा चेलवलं महत् // 9 परिवत्रुर्महात्मानं पार्थमप्रतिमं युधि // 24 आजग्मुः कुरवस्तत्र वादित्रानुगतास्तदा / तावकानां रणे कर्णो ग्लह आसीद्विशां पते। कर्ण प्रहर्षयन्तश्च शङ्खान्दध्मुश्च पुष्कलान् // 10 तथैव पाण्डवेयानां ग्लहः पार्थोऽभवद्युधि // 25 उथैव पाण्डवाः सर्वे हर्षयन्तो धनंजयम् / त एव सभ्यास्तत्रासन्प्रेक्षकाश्चाभवन्स्म ते। सूर्यशङ्खनिनादेन दिशः सर्वा व्यनादयन् // 11 तत्रैषां ग्लहमानानां ध्रुवौ जयपराजयौ // 26 स्वेडितास्फोटितोत्क्रुष्टैस्तुमुलं सर्वतोऽभवत् / / ताभ्यां द्यूतं समायत्तं विजयायेतराय वा। - 1783 - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 63. 27 ] महाभारते [8. 63. 55 - अस्माकं पाण्डवानां च स्थितानां रणमूर्धनि // 27 देवब्रह्मनृपर्षीणां गणाः पाण्डवतोऽभवन् / तौ तु स्थितौ महाराज समरे युद्धशालिनौ / तुम्बुरुप्रमुखा राजन्गन्धर्वाश्च यतोऽर्जुनः // 41 अन्योन्यं प्रतिसंरब्धावन्योन्यस्य जयैषिणौ // 28 प्रावेयाः सह मौनेयैर्गन्धर्वाप्सरसां गणाः / तावुभौ प्रजिहीर्येतामिन्द्रवृत्राविवाभितः / ईहामृगव्याडमृगैर्द्विपाश्च स्थपत्तिभिः // 42 भीमरूपधरावास्तां महाधूमाविव ग्रहौ // 29 उह्यमानास्तथा मेधैर्वायुना च मनीषिणः / ततोऽन्तरिक्षे साक्षेपा विवादा भरतर्षभ। दिदृक्षवः समाजग्मुः कर्णार्जुनसमागमम् // 43 मिथो भेदाश्च भूतानामासन्कर्णार्जुनान्तरे। देवदानवगन्धर्वा नागा यक्षाः पतत्रिणः / व्याश्रयन्त दिशो भिन्नाः सर्वलोकाश्च मारिष // 30 महर्षयो वेदविदः पितरश्च स्वधाभुजः॥ 44 देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः। तपो विद्यास्तथौषध्यो नानारूपाम्बरत्विषः / प्रतिपक्षप्रहं चक्रुः कर्णार्जुनसमागमे // 31 अन्तरिक्षे महाराज विनदन्तोऽवतस्थिरे // 45 द्यौरासीत्कर्णतो व्यग्रा सनक्षत्रा विशां पते। ब्रह्मा ब्रह्मर्षिभिः साधं प्रजापतिभिरेव च / भूमिर्विशाला पार्थस्य माता पुत्रस्य भारत // 32 भवेनावस्थितो यानं दिव्यं तं देशमभ्ययात् // 46 सरितः सागराश्चैव गिरयश्च नरोत्तम / दृष्ट्वा प्रजापतिं देवाः स्वयंभुवमुपागमन् / वृक्षाश्चौषधयस्तत्र व्याश्रयन्त किरीटिनम् // 33 समोऽस्तु देव विजय एतयोर्नरसिंहयोः // 47 असुरा यातुधानाश्च गुह्यकाश्च परंतप / तदुपश्रुत्य मघवा प्रणिपत्य पितामहम् / कर्णतः समपद्यन्त खेचराणि वयांसि च // 34 कर्णार्जुनविनाशेन मा नश्यत्वखिलं जगत् // 48 रत्नानि निधयः सर्वे वेदाश्चाख्यानपञ्चमाः / स्वयंभो ब्रूहि तद्वाक्यं समोऽस्तु विजयोऽनयोः / सोपवेदोपनिषदः सरहस्याः ससंग्रहाः // 35 तत्तथास्तु नमस्तेऽस्तु प्रसीद भगवन्मम // 49 / वासुकिश्चित्रसेनश्च तक्षकश्चोपतक्षकः / ब्रह्मेशानावथो वाक्यमूचतुत्रिदशेश्वरम् / पर्वताश्च तथा सर्वे काद्रवेयाश्च सान्वयाः / विजयो ध्रुव एवास्तु विजयस्य महात्मनः॥५० विषवन्तो महारोषा नागाश्चार्जुनतोऽभवन् // 36 मनस्वी बलवाशूरः कृतास्त्रश्च तपोधनः / ऐरावताः सौरभेया वैशालेयाश्च भोगिनः / बिभर्ति च महातेजा धनुर्वेदमशेषतः॥ 51 एतेऽभवन्नर्जुनतः क्षुद्रसर्पास्तु कर्णतः // 37 अतिक्रमेच्च माहात्म्याद्दिष्टमेतस्य पर्ययात् / ईहामृगा व्याडमृगा मङ्गल्याश्च मृगद्विजाः।। अतिक्रान्ते च लोकानामभावो नियतो भवेत् // 5 // पार्थस्य विजयं राजन्सर्व एवाभिसंश्रिताः // 38 न विद्यते व्यवस्थानं कृष्णयोः क्रुद्धयोः क्वचित् / वसवो मरुतः साध्या रुद्रा विश्वेऽश्विनौ तथा। स्रष्टारौ ह्यसतश्चोभौ सतश्च पुरुषर्षभौ // 53 अग्निरिन्द्रश्च सोमश्च पवनश्च दिशो दश। नरनारायणावेतौ पुराणावृषिसत्तमौ / धनंजयमुपाजग्मुरादित्याः कर्णतोऽभवन् // 39 अनियत्ती नियन्तारावभीतौ स्म परंतपौ // 54 देवास्तु पितृभिः साधं सगणार्जुनतोऽभवन् / कर्णो लोकानयं मुख्यान्प्राप्नोतु पुरुषर्षभः / यमो वैश्रवणश्चैव वरुणश्च यतोऽर्जुनः॥४० / वीरो वैकर्तनः शूरो विजयस्त्वस्तु कृष्णयोः // 5 // - 1784 - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 63. 56] कर्णपर्व [8. 63. 82 वसूनां च सलोकत्वं मरुतां वा समाप्नुयात्।। प्रकुर्वाते ध्वजौ युद्धं प्रत्यहेषन्हयान्हयाः // 70 सहितो द्रोणभीष्माभ्यां नाकलोके महीयताम्॥५६ अविध्यत्पुण्डरीकाक्षः शल्यं नयनसायकैः / इत्युक्तो देवदेवाभ्यां सहस्राक्षोऽब्रवीद्वचः। स चापि पुण्डरीकाक्षं तथैवाभिसमैक्षत // 71 आमत्य सर्वभूतानि ब्रह्मेशानानुशासनात् / / 57 तत्राजयद्वासुदेवः शल्यं नयनसायकैः / भुतं भवद्भिर्यत्प्रोक्तं भगवद्भयां जगद्धितम् / कर्णं चाप्यजयदृष्ट्या कुन्तीपुत्रो धनंजयः॥ 72 तत्तथा नान्यथा तद्धि तिष्ठध्वं गतमन्यवः॥ 58 अथाब्रवीत्सूतपुत्रः शल्यमाभाष्य सस्मितम् / इति श्रुत्वेन्द्रवचनं सर्वभूतानि मारिष। यदि पार्थो रणे हन्यादद्य मामिह कर्हिचित् / विस्मितान्यभवनराजन्पूजयांचक्रिरे च तत् / / 59 किमुत्तरं तदा ते स्यात्सखे सत्यं ब्रवीहि मे // 73 व्यसृजंश्च सुगन्धीनि नानारूपाणि खात्तथा। शल्य उवाच / पुष्पवर्षाणि विबुधा देवतूर्याण्यवादयन् / / 60 यदि कर्ण रणे हन्यादद्य त्वां श्वेतवाहनः / विटक्षवश्वाप्रतिमं द्वैरथं नरसिंहयोः / उभावेकरथेनाहं हन्यां माधवपाण्डवौ // 74 देवदानवगन्धर्वाः सर्व एवावतस्थिरे। संजय उवाच / त्यौ च तौ श्वेतहयौ युक्तकेतू महास्वनौ // 61 एवमेव तु गोविन्दमर्जुनः प्रत्यभाषत / समागता लोकवीराः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् / तं प्रहस्याब्रवीत्कृष्णः पार्थं परमिदं वचः // 75 वासुदेवार्जुनौ वीरौ कर्णशल्यौ च भारत // 62 पतेदिवाकरः स्थानाच्छीर्येतानेकधा क्षितिः / सद्गीरुसंत्रासकर युद्धं समभवत्तदा। शैत्यमग्निरियान्न त्वा कर्णो हन्याद्धनंजयम् // 76 अन्योन्यस्पर्धिनोर्वीर्ये शक्रशम्बरबोरिव / / 63 यदि त्वेवं कथंचित्स्याल्लोकपर्यसनं यथा / तयोर्ध्वजौ वीतमालो शुशुभाते रथस्थितौ / हन्यां कणं तथा शल्यं बाहुभ्यामेव संयुगे // 77 पृथग्रुपौ समार्छन्तौ क्रोधं युद्धे परस्परम् // 64 इति कृष्णवचः श्रुत्वा प्रहसन्कपिकेतनः / कर्णस्याशीविषनिभा रत्नसारवती दृढा। अर्जुनः प्रत्युवाचेदं कृष्णमक्लिष्टकारिणम् / पुरंदरधनुःप्रख्या हस्तिकक्ष्या व्यराजत // 65 ममाप्येतावपर्याप्तौ कर्णशल्यौ जनार्दन // 78 कपिश्रेष्ठस्तु पार्थस्य व्यादितास्यो भयंकरः। सपताकाध्वजं कणं सशल्यरथवाजिनम् / मीषयन्नेव दंष्ट्राभिदुर्निरीक्ष्यो रविर्यथा // 66 सच्छत्रकवचं चैव सशक्तिशरकार्मुकम् // 79 युद्धाभिलाषुको भूत्वा ध्वजो गाण्डीवधन्वनः / द्रष्टास्यद्य शरैः कर्णं रणे कृत्तमनेकधा / कर्णध्वजमुपातिष्ठत्सोऽवधीदभिनर्दयन् / / 67 अद्यैनं सरथं साश्वं सशक्तिकवचायुधम् / उत्पत्य च महावेगः कक्ष्यामभ्यहनत्कपिः। न हि मे शाम्यते वैरं कृष्णां यत्प्राहसत्पुरा // 80 नखैश्च दशनैश्चैव गरुडः पन्नगं यथा // 68 अद्य द्रष्टासि गोविन्द कर्णमुन्मथितं मया / सुकिङ्किणीकाभरणा कालपाशोपमायसी। वारणेनेव मत्तेन पुष्पितं जगतीरुहम् // 81 अभ्यद्रवत्सुसंवा नागकक्ष्या महाकपिम् / / 69 अद्य ता मधुरा वाचः श्रोतासि मधुसूदन / उभयोरुत्तमे युद्धे द्वैरथे द्यूत आहृते। अद्याभिमन्युजननीमनृणः सान्त्वयिष्यसि / म.भा. 224 - 1785 - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 63. 82] महाभारते [8.64. 14 कुन्ती पितृष्वसारं च संप्रहृष्टो जनार्दन // 82 स्तमोनुदौ खे प्रसृता इवांशवः // 6 अद्य बाष्पमुखीं कृष्णां सान्त्वयिष्यसि माधव / ततोऽस्त्रमस्त्रेण परस्परस्य तौ वाग्भिश्चामृतकल्पाभिर्धर्मराज युधिष्ठिरम् // 83 विधूय वाताविव पूर्वपश्चिमौ / इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि घनान्धकारे वितते तमोनुदौ त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥ 13 // यथोदितौ तद्वदतीव रेजतुः॥ 7 64 न चाभिमन्तव्यमिति प्रचोदिताः संजय उवाच। परे त्वदीयाश्च तदावतस्थिरे। तद्देवनागासुरसिद्धसंधै महारथौ तौ परिवार्य सर्वतः / र्गन्धर्वयक्षाप्सरसां च संधैः / सुरासुरा वासवशम्बराविव // 8 ब्रह्मर्षिराजर्षिसुपर्णजुष्टं मृदङ्गभेरीपणवानकस्वनैबभौ वियद्विस्मयनीयरूपम् // 1 निनादिते भारत शङ्खनिस्वनैः / नानद्यमानं निनदैर्मनोझै ससिंहनादौ बभतुनरोत्तमौ वादित्रगीतस्तुतिभिश्च नृत्तैः / __ शशाङ्कसूर्याविव मेघसंप्लवे // 9 सर्वेऽन्तरिक्षे ददृशुर्मनुष्याः महाधनुर्मण्डलमध्यगावुभौ खस्थांश्च तान्विस्मयनीयरूपान् // 2 सुवर्चसौ बाणसहस्ररश्मिनौ। ततः प्रहृष्टाः कुरुपाण्डुयोधा दिधक्षमाणौ सचराचरं जगवादित्रपत्रायुधसिंहनादैः। युगास्तसूर्याविव दुःसही रणे // 10 निनादयन्तो वसुधां दिशश्च उभावजेयावहितान्तकावुभौ वनेन सर्वे द्विषतो निजः // 3 जिघांसतुस्तौ कृतिनौ परस्परम् / नानाश्वमातङ्गरथायुताकुलं महाहवे वीरवरौ समीयतुवरासिशक्त्यृष्टिनिपातदुःसहम् / यथेन्द्रजम्भाविव कर्णपाण्डवौ // 11 अमीरुजुष्टं हतदेहसंकुलं ततो महास्त्राणि महाधनुर्धरौ रणाजिरं लोहितरक्तमाबभौ // 4 विमुश्चमानाविषुभिर्भयानकैः / तथा प्रवृत्तेऽस्त्रभृतां पराभवे नराश्वनागानमितौ निजघ्नतुः धनंजयश्चाधिरथिश्च सायकैः / ___ परस्परं जन्नतुरुत्तमेषुभिः // 12 दिशश्च सैन्यं च शितैरजिह्मगैः ततो विसस्रुः पुनरर्दिताः शरैपरस्परं प्रोणुवतुः स्म दंशितौ // 5 नरोत्तमाभ्यां कुरुपाण्डवाश्रयाः / ततस्त्वदीयाश्च परे च सायकैः सनागपत्त्यश्वरथा दिशो गताकृतेऽन्धकारे विविदुर्न किंचन। स्तथा यथा सिंहभयाद्वनौकसः // 13 भयात्तु तावेव रथौ समाश्रयं ततस्तु दुर्योधनभोजसौबलाः -1786 - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 64. 14 ] कर्णपर्व [8. 64. 28 कृपश्च शारद्वतसूनुना सह / महारथाः पश्च धनंजयाच्युतौ शरैः शरीरान्तकरैरताडयन् // 14 धनूंषि तेषामिषुधीन्हयान्ध्वजा रथांश्च सूतांश्च धनंजयः शरैः। समं च चिच्छेद पराभिनच ता शरोत्तमैदशभिश्च सूतजम् // 15 अथाभ्यधावंस्त्वरिताः शतं रथाः शतं च नागार्जुनमाततायिनः / शकास्तुखारा यवनाश्च सादिनः सहैव काम्बोजवरैर्जिघांसवः // 16 वरायुधान्पाणिगतान्करैः सह क्षुरैन्यकृन्तस्त्वरिताः शिरांसि च / हयांश्च नागांश्च रथांश्च युध्यतां धनंजयः शत्रुगणं तमक्षिणोत् // 17 खतोऽन्तरिक्षे सुरतूर्यनिस्वनाः ससाधुवादा हृषितैः समीरिताः / निपेतुरप्युत्तमपुष्पवृष्टयः सुरूपगन्धाः पवनेरिताः शिवाः // 18 तदद्भुतं देवमनुष्यसाक्षिक समीक्ष्य भूतानि विसिष्मियुनूप / तवात्मजः सूतसुतश्च न व्यथा न विस्मयं जग्मतुरेकनिश्चयौ // 19 अथाब्रवीद्रोणसुतस्तवात्मज करं करेण प्रतिपीड्य सान्त्वयन् / प्रसीद दुर्योधन शाम्य पाण्डवै रलं विरोधेन धिगस्तु विग्रहम् // 20 हतो गुरुर्ब्रह्मसमो महास्त्रवि त्तथैव भीष्मप्रमुखा नरर्षभाः। अहं त्ववध्यो मम चापि मातुलः -1787 प्रशाधि राज्यं सह पाण्डवैश्विरम् // 21 धनंजयः स्थास्यति वारितो मया ___ जनार्दनो नैव विरोधमिच्छति / युधिष्ठिरो भूतहिते सदा रतो वृकोदरस्तद्वशगस्तथा यमौ // 22 त्वया च पाथैश्च परस्परेण प्रजाः शिवं प्राप्नुयुरिच्छति त्वयि / व्रजन्तु शेषाः स्वपुराणि पार्थिवा निवृत्तवैराश्च भवन्तु सैनिकाः / / 23 न चेद्वचः श्रोष्यसि मे नराधिप ध्रुवं प्रतप्तासि हतोऽरिभिर्युधि / इदं च दृष्टं जगता सह त्वया ___ कृतं यदेकेन किरीटमालिना। यथा न कुर्याद्वलभिन्न चान्तको न च प्रचेता भगवान्न यक्षराट् // 24 अतोऽपि भूयांश्च गुणैर्धनंजयः स चाभिपत्स्यत्यखिलं वचो मम / तवानुयात्रां च तथा करिष्यति प्रसीद राजञ्जगतः शमाय वै // 25 ममापि मानः परमः सदा त्वयि ब्रवीम्यतस्त्वां परमाच्च सौहृदात् / निवारयिष्यामि हि कर्णमप्यहं यदा भवान्सप्रणयो भविष्यति // 26 वदन्ति मित्रं सहजं विचक्षणा स्तथैव साना च धनेन चार्जितम् / प्रतापतश्चोपनतं चतुर्विधं तदस्ति सर्वं स्वयि पाण्डवेषु च // 27 निसर्गतस्ते तव वीर बान्धवाः पुनश्च साम्ना च समाप्नुहि स्थिरम् / त्वयि प्रसन्ने यदि मित्रतामियु- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 64. 28 ] महाभारते [8. 65. 10 ध्रुवं नरेन्द्रेन्द्र तथा त्वमाचर // 28 स एवमुक्तः सुहृदा वचो हितं विचिन्त्य निःश्वस्य च दुर्मनाब्रवीत् / यथा भवानाह सखे तथैव त न्ममापि च ज्ञापयतो वचः शृणु // 29 निहत्य दुःशासनमुक्तवान्बहु __ प्रसह्य शार्दूलवदेष दुर्मतिः / वृकोदरस्तद्धृदये मम स्थितं न तत्परोक्षं भवतः कुतः शमः // 30 / न चापि कर्णं गुरुपुत्र संस्तवा दुपारमेत्यर्हसि वक्तुमच्युत / श्रमेण युक्तो महताद्य फल्गुन स्तमेष कर्णः प्रसभं हनिष्यति // 31 समेवमुक्त्वाभ्यनुनीय चासक त्तवात्मजः स्वाननुशास्ति सैनिकान् / समानताभिद्रवताहितानिमा न्सबाणशब्दान्किमु जोषमास्यते // 32 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 6 // बलाहकेनेव यथा बलाहको यदृच्छया वा गिरिणा गिरिर्यथा / तथा धनुातलनेमिनिस्वनौ ____ समीयतुस्ताविषुवर्षवर्षिणौ // 3 प्रवृद्धशृङ्गद्रुमवीरुदोषधी प्रवृद्धनानाविधपर्वतौकसौ। यथाचलौ वा गलितौ महाबलौ तथा महास्नैरितरेतरं नतः // 4 स संनिपातस्तु तयोर्महानभू सुरेशवैरोचनयोर्यथा पुरा। .. शरैर्विभुमाङ्गनियन्तृवाहनः सुदुःसहोऽन्यः पटुशोणितोदकः // 5 प्रभूतपद्मोत्पलमत्स्यकच्छपौ ___ महादौ पक्षिगणानुनादितौ / सुसंनिकृष्टावनिलोद्धतौ यथा ___ तथा रथौ तौ ध्वजिनौ समीयतुः // 6 उभौ महेन्द्रस्य समानविक्रमा वुभौ महेन्द्रप्रतिमौ महारथौ। महेन्द्रवनप्रतिमैश्च सायकै__ महेन्द्रवृत्राविव संप्रजह्रतुः // 7 . सनागपत्त्यश्वरथे उभे बले विचित्रवर्णाभरणाम्बरस्रजे। चकम्पतुश्चोन्नमतः स्म विस्मया द्वियद्गताश्चार्जुनकर्णसंयुगे // 8 भुजाः सवज्राङ्गुलयः समुच्छ्रिताः ससिंहनादा हृषितैर्दिदृक्षुभिः / यदार्जुनं मत्तमिव द्विपो द्विपं समभ्ययादाधिरथिर्जिघांसया // 9. अभ्यक्रोशन्सोमकास्तत्र पार्थं त्वरस्व याह्यर्जुन विध्य कर्णम् / - संजय उवाच। तौ शङ्खभेरीनिनदे समृद्धे ___ समीयतुः श्वेतहयौ नराग्यौ। बैकर्तनः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च दुर्मत्रिते तव पुत्रस्य राजन् // 1 यथा गजौ हैमवतौ प्रभिन्नौ ___ प्रगृह्य दन्ताविव वाशितार्थे / तथा समाजग्मतुरुप्रवेगौ धनंजयश्चाधिरथिश्च वीरौ // 2 - 1788 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 65. 10] कर्णपर्व [8. 65. 24 छिन्द्ध्यस्य मूर्धानमलं चिरेण कर्ण पुरस्कृत्य विदुर्हि सर्वे श्रद्धां च राज्याद्धृतराष्ट्रसूनोः // 10 ___ त्वदनमस्त्रैर्विनिपात्यमानम् // 17 तथास्माकं बहवस्तत्र योधाः यया धृत्या निहतं तामसास्त्रं कर्ण तदा याहि याहीत्यवोचन् / युगे युगे राक्षसाश्चापि घोराः / अर्जुनं कर्ण ततः सचीराः दम्भोद्भवाश्चासुराश्चाहवेषु पुनर्वनं यान्तु चिराय पार्थाः // 11 __ तया धृत्या त्वं जहि सूतपुत्रम् // 18 वतः कर्णः प्रथमं तत्र पार्थं अनेन वास्य क्षुरनेमिनाद्य ___ महेषुभिर्दशभिः पर्यविध्यत् / संछिन्द्धि मूर्धानमरेः प्रसह्य / समर्जुनः प्रत्यविध्यच्छिताग्रैः मया निसृष्टेन सुदर्शनेन ___ कक्षान्तरे दशभिरतीव क्रुद्धः // 12 ___ वज्रेण शक्रो नमुचेरिवारेः॥ 19 परस्परं तौ विशिखैः सुतीक्ष्णै- .. किरातरूपी भगवान्यया च . स्ततक्षतुः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च / त्वया महत्या परितोषितोऽभूत् / परस्परस्यान्तरेप्सू विमर्दै तां त्वं धृति वीर पुनर्गृहीत्वा सुभीममभ्याययतुः प्रहृष्टौ // 13 सहानुबन्धं जहि सूतपुत्रम् // 20 अमृष्यमाणश्च महाविमर्दे ततो महीं सागरमेखलां त्वं - तत्राक्रुध्यद्भीमसेनो महात्मा / सपत्तनां ग्रामवती समृद्धाम् / अथाब्रवीत्पाणिना पाणिमान्न प्रयच्छ राज्ञे निहतारिसंघां ___ संदष्टौष्ठो नृत्यति वादयन्निव / यशश्च पार्थातुलमाप्नुहि त्वम् // 21 कयं नु त्वां सूतपुत्रः किरीटि संचोदितो भीमजनार्दनाभ्यां . महेषुभिर्दशभिरविध्यदग्रे // 14 स्मृत्वा तदात्मानमवेक्ष्य सत्त्वम् / यया धृत्या सर्वभूतान्यजैषी महात्मनश्चागमने विदित्वा सिं ददवह्नये खाण्डवे त्वम् / प्रयोजनं केशवमित्युवाच // 22 तया धृत्या सूतपुत्रं जहि त्व प्रादुष्करोम्येष महास्त्रमुग्रं महं वैनं गदया पोथयिष्ये // 15 ___शिवाय लोकस्य वधाय सौतेः / अथाब्रवीद्वासुदेवोऽपि पार्थं तन्मेऽनुजानातु भवान्सुराश्च * दृष्ट्वा रथेषून्प्रतिहन्यमानान् / ब्रह्मा भवो ब्रह्मविदश्च सर्वे // 23 अमीमदत्सर्वथा तेऽद्य कर्णो इत्यूचिवान्ब्राह्ममसह्यमत्रं ___ ह्यौरवाणि किमिदं किरीटिन् // 16 प्रादुश्चक्रे मनसा संविधेयम् / स वीर किं मुह्यसि नावधीयसे ततो दिशश्च प्रदिशश्च सर्वाः नदन्त्येते कुरवः संप्रहृष्टाः। ____समावृणोत्सायकै रितेजाः। - 1789 - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 65. 24 ] महाभारत [ 8. 65. 38 ससर्ज बाणान्भरतर्षभोऽपि कर्ण च पार्थं च नियम्य वाहा___ शतंशतानेकवदाशुवेगान् // 24 न्खस्था महीस्थाश्च जनावतस्थुः / / 31 वैकर्तनेनापि तथाजिमध्ये ततो धनुर्ला सहसातिकृष्टा सहस्रशो बाणगणा विसृष्टाः / ___ सुघोषमाच्छिद्यत पाण्डवस्य / . ते घोषिणः पाण्डवमभ्युपेयुः तस्मिन्क्षणे सूतपुत्रस्तु पार्थ पर्जन्यमुक्ता इव वारिधाराः // 25 ___ समाचिनोक्षुद्रकाणां शतेन // 32 स भीमसेनं च जनार्दनं च निर्मुक्तसर्पप्रतिमैश्च तीक्ष्णकिरीटिनं चाप्यमनुष्यकर्मा। ___स्तैलप्रधौतैः खगपत्रवाजैः / त्रिभिस्त्रिभिर्भीमबलो निहत्य षष्टया नाराचैर्वासुदेवं बिभेद ननाद घोरं महता स्वरेण // 26 तदन्तरं सोमकाः प्राद्रवन्त // 33 स कर्णबाणाभिहतः किरीटी ततो धनुामवधम्य शीघ्र भीमं तथा प्रेक्ष्य जनार्दनं च। शरानस्तानाधिरथेविधम्य / अमृष्यमाणः पुनरेव पार्थः सुसंरब्धः कर्णशरक्षताङ्गो शरान्दशाष्टौ च समुद्बई // 27 रणे पार्थः सोमकान्प्रत्यगृह्णात् / सुषेणमेकेन शरेण विद्धा न पक्षिणः संपतन्त्यन्तरिक्ष शल्यं चतुर्भिस्त्रिभिरेव कर्णम् / क्षेपीयसास्त्रेण कृतेऽन्धकारे // 34 ततः सुमुक्तैर्दशभिर्जघान शल्यं च पार्थों दशभिः पृषत्कै___सभापतिं काञ्चनवर्मनद्धम् // 28 ____भृशं तनुत्रे प्रहसन्नविध्यत् / स राजपुत्रो विशिरा विबाहु ततः कर्ण द्वादशभिः सुमुक्तैविवाजिसूतो विधनुर्विकेतुः / विवा पुनः सप्तभिरभ्यविध्यत् // 35 ततो रथापादपतत्प्रभमः स पार्थबाणासनवेगनुन्नैपरश्वधैः शाल इवाभिकृत्तः // 29 ढाहतः पत्रिभिरुपवेगैः। पुनश्च कर्णं त्रिभिरष्टभिश्च विभिन्नगात्रः क्षतजोक्षिताङ्गः द्वाभ्यां चतुर्भिर्दशभिश्च विद्धा। कर्णो बभौ रुद्र इवाततेषुः // 36 चतुःशतान्द्विरदान्सायुधीया ततत्रिभिश्च त्रिदशाधिपोपमं न्हत्वा रथानष्टशतं जघान / शरैर्बिभेदाधिरथिर्धनंजयम् / सहस्रमश्वांश्च पुनश्च सादी शरांस्तु पञ्च ज्वलितानिवोरगानष्टौ सहस्राणि च पत्तिवीरान् // 30 प्रवीरयामास जिघांसुरच्युते // 37 दृष्ट्वाजिमुख्यावथ युध्यमानौ ते वर्म भित्त्वा पुरुषोत्तमस्य दिदृक्षवः शूरवरावरिनौ। सुवर्णचित्रं न्यपतन्सुमुक्ताः। - 1790 - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 85. 38] कर्णपर्व [8. 66.6 बेगेन गामाविविशुः सुवेगाः न विव्यथे भारत तत्र कर्णः स्नात्वा च कर्णाभिमुखाः प्रतीयुः // 38 प्रतीपमेवार्जुनमभ्यधावत् // 45 वान्पञ्चभल्लैस्त्वरितैः सुमुक्तै इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि निधा त्रिधैकैकमथोच्चकर्त। पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // धनंजयस्ते न्यपतन्पृथिव्यां महाहयस्तक्षकपुत्रपक्षाः // 39 बतः प्रजज्वाल किरीटमाली संजय उवाच / . क्रोधेन कक्षं प्रदहन्निवाग्निः / ततोऽपयाताः शरपातमात्रस कर्णमाकर्णविकृष्टसृष्टैः ___ मवस्थिताः कुरवो भिन्नसेनाः / शरैः शरीरान्तकरैवलद्भिः। विद्युत्प्रकाशं ददृशुः समन्ताधर्मस्वविध्यत्स चचाल दुःखा द्धनंजयास्त्रं समुदीर्यमाणम् // 1 द्वैर्यात्तु तस्थावतिमात्रधैर्यः // 40 तदर्जुनास्त्रं असते स्म वीराततः शरौघैः प्रदिशो दिशश्च न्वियत्तथाकाशमनन्तघोषम् / रविप्रभा कर्णरथश्च राजन् / क्रुद्धेन पार्थेन तदाशु सृष्टं अदृश्य आसीत्कुपिते धनंजये वधाय कर्णस्य महाविमर्दे // 2 तुषारनीहारवृतं यथा नभः // 41 रामादुपात्तेन महामहिम्ना म चक्ररक्षानथ पादरक्षा आथर्वणेनारिविनाशनेन / न्पुरःसरान्पृष्ठगोपांश्च सर्वान् / तदर्जुनास्त्रं व्यधमदहन्तं दुर्योधनेनानुमतानरिना पार्थं च बाणैर्निशितैर्निजन्ने // 3 न्समुच्चितान्सुरथान्सारभूतान् // 42 ततो विमर्दः सुमहान्बभूव शिसाहस्रान्समरे सव्यसाची तस्यार्जुनस्याधिरथेश्च राजन् / कुरुप्रवीरानृषभः कुरूणाम् / अन्योन्यमासादयतोः पृषत्कैरणेन सर्वान्सरथाश्वसूता विषाणघातैर्द्विपयोरियोग्रैः॥४ निनाय राजन्क्षयमेकवीरः // 43 ततो रिपुम्नं समधत्त कर्णः अथापलायन्त विहाय कर्ण सुसंशितं सर्पमुखं ज्वलन्तम् / तवात्मजाः कुरवश्वावशिष्टाः / रौद्रं शरं संयति सुप्रधौतं इवानवाकीर्य शरक्षतांश्च पाथार्थमत्यर्थचिराय गुप्तम् // 5 लालप्यमानांस्तनयान्पितॄश्च // 44 सदार्चितं चन्दनचूर्णशायिनं स सर्वतः प्रेक्ष्य दिशो विशून्या सुवर्णनालीशयनं महाविषम् / भयावदीर्णैः कुरुभिर्विहीनः / प्रदीप्तमैरावतवंशसंभवं - 1791 - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 66.6] महाभारते [8. 66. 23 शिरो जिहीपुयुधि फल्गुनस्य // 6 पिनाकपाशाशनिसायकोत्तमैः / तमब्रवीन्मद्रराजो महात्मा सुरोत्तमैरप्यविषयमर्दितुं वैकर्तनं प्रेक्ष्य हि संहितेषुम् / प्रसह्य नागेन जहार यद्वृषः // 15 न कर्ण ग्रीवामिषुरेष प्राप्स्यते तदुत्तमेषून्मथितं विषाग्निना संलक्ष्य संधत्स्व शरं शिरोघ्नम् / / 7 प्रदीप्तमर्चिष्मदभिक्षिति प्रियम् / अथाब्रवीत्क्रोधसंरक्तनेत्रः पपात पार्थस्य किरीटमुत्तमं कर्णः शल्यं संधितेषुः प्रसह्य / दिवाकरोऽस्तादिव पर्वताज्वलन् // 16 न संधत्ते द्विः शरं शल्य कर्णो ततः किरीटं बहुरत्नमण्डितं न मादृशाः शाठ्ययुक्ता भवन्ति // 8 ___जहार नागोऽर्जुनमूर्धतो बलात् / तथैवमुक्त्वा विससर्ज तं शरं गिरेः सुजाताङ्करपुष्पितद्रुमं बलाहकं वर्षघनाभिपूजितम् / महेन्द्रवज्रः शिखरं यथोत्तमम् // 17 हतोऽसि वै फल्गुन इत्यवोच मही वियद्दयौः सलिलानि वायुना त्ततस्त्वरन्नूर्जितमुत्ससर्ज // 9 यथा विभिन्नानि विभान्ति भारत / संधीयमानं भुजगं दृष्ट्वा कर्णेन माधवः / तथैव शब्दो भुवनेष्वभूत्तदा आक्रम्य स्यन्दनं पद्भ्यां बलेन बलिनां वरः // 10 जना व्यवस्यन्व्यथिताश्च चस्खलुः॥ अवगाढे रथे भूमौ जानुभ्यामगमन्हयाः / ततः समुद्रथ्य सितेन वाससा ततः शरः सोऽभ्यहनकिरीटं तस्य धीमतः / / 11 स्वमूर्धजानव्यथितः स्थितोऽर्जुनः / अथार्जुनस्योत्तमगात्रभूषणं विभाति संपूर्णमरीचिभास्वता धरावियद्दयोसलिलेषु विश्रुतम् / शिरोगतेनोदयपर्वतो यथा // 19 बलानसर्गोत्तमयत्नमन्युभिः बलाहकः कर्णभुजेरितस्ततो ___ शरेण मूर्ध्नः स जहार सूतजः // 12 ___ हुताशनार्कप्रतिमद्युतिर्महान् / दिवाकरेन्दुज्वलनग्रहत्विषं महोरगः कृतवैरोऽर्जुनेन सुवर्णमुक्तामणिजालभूषितम् / किरीटमासाद्य समुत्पपात // 20 पुरंदराथं तपसा प्रयत्नतः तमब्रवीद्विद्धि कृतागसं मे स्वयं कृतं यद्भुवनस्य सूनुना // 13 ___ कृष्णाद्य मातुर्वधजातवैरम् / महार्हरूपं द्विषतां भयंकर ततः कृष्णः पार्थमुवाच संख्ये विभाति चात्यर्थसुखं सुगन्धि तत् / ____ महोरगं कृतवैरं जहि त्वम् // 21 निजनुषे देवरिपून्सुरेश्वरः स एवमुक्तो मधुसूदनेन स्वयं ददौ यत्सुमनाः किरीटिने // 14 गाण्डीवधन्वा रिपुषूप्रधन्वा / हराम्बुपाखण्डलवित्तगोप्तृभिः उवाच को न्वेष ममाद्य नागः - 1792 - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 66. 22] कर्णपर्व [8.66. 37 स्वयं य आगाद्गरुडस्य वक्त्रम् // 22 विभिद्य कर्णोऽभ्यनदजहास च // 29 कृष्ण उवाच / तमस्य हर्ष ममृषे न पाण्डवो बिभेद मर्माणि ततोऽस्य मर्मवित् / पोऽसौ त्वया खाण्डवे चित्रभानु परं शरैः पत्रिभिरिन्द्रविक्रम__संतर्पयानेन धनुर्धरेण / __ स्तथा यथेन्द्रो बलमोजसाहनत् // 30 यद्गतो बाणनिकृत्तदेहो ततः शराणां नवतीनवार्जुनः बनेकरूपो निहतास्य माता // 23 ससर्ज कर्णेऽन्तकदण्डसंनिभाः / ततस्तु जिष्णुः परिहृत्य शेषां शरै शायस्ततनुः प्रविव्यथे ___श्चिच्छेद षभिर्निशितैः सुधारैः / तथा यथा वज्रविदारितोऽचलः // 31 जागं वियत्तिर्यगिवोत्पतन्तं मणिप्रवेकोत्तमवज्रहाटकैस छिन्नगात्रो निपपात भूमौ // 24 रलंकृतं चास्य वराङ्गभूषणम् / तस्मिन्मुहूर्ते दशभिः पृषकैः प्रसिद्धमुर्त्यां निपपात पत्रिभिशिलाशितैर्बहिणवाजितैश्च / र्धनंजयेनोत्तमकुण्डलेऽपि च // 32 वेव्याध कर्णः पुरुषप्रवीरं महाधनं शिल्पिवरैः प्रयत्नतः धनंजय तिर्यगवेक्षमाणम् // 25 कृतं यदस्योत्तमवर्म भास्वरम् / तोऽर्जुनो द्वादशभिर्विमुक्तै सुदीर्घकालेन तदस्य पाण्डवः राकर्णमुक्तैर्निशितैः समर्प्य / क्षणेन बाणैर्बहुधा व्यशातयत् // 33 नाराचमाशीविषतुल्यवेग स तं विवर्माणमथोत्तमेषुभिः माकर्णपूर्णायतमुत्ससर्ज // 26 शरैश्चतुर्भिः कुपितः पराभिनत् / स चित्रवर्मेषुवरो विदार्य स विव्यथेऽत्यर्थमरिप्रहारितो प्राणान्निरस्यन्निव साधु मुक्तः / यथातुरः पित्तकफानिलव्रणैः // 34 कर्णस्य पीत्वा रुधिरं विवेश महाधनुर्मण्डलनिःसृतैः शितैः वसुंधरां शोणितवाजदिग्धः // 27 __क्रियाप्रयत्नाहितैर्बलेन च / ततो वृषो बाणनिपातकोपितो ततक्ष कर्ण बहुभिः शरोत्तमैमहोरगो दण्डविघट्टितो यथा / बिभेद मर्मस्वपि चार्जुनस्त्वरन् // 35 तथाशुकारी व्यसृजच्छरोत्तमा दृढाहतः पत्रिभिरुपवेगैः महाविषः सर्प इवोत्तमं विषम् // 28 पार्थेन कर्णो विविधैः शितात्रैः / जनार्दनं द्वादशभिः पराभिन बभौ गिरिगैरिकधातुरक्तः .. नवैर्नवत्या च शरैस्तथार्जुनम् / क्षरन्प्रपातैरिव रक्तमम्भः // 36 शरेण घोरेण पुनश्च पाण्डवं साश्वं तु कर्णं सरथं किरीटी बा. 225 - 1793 - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 66. 37 ] महाभारते [8. 66. 58 समाचिनोद्भारत वत्सदन्तैः / विचाल्यमानोऽर्जुनशस्त्रपातैः / प्रच्छादयामास दिशश्च बाणैः मर्माभिघाताच्छलितः क्रियासु सर्वप्रयत्नात्तपनीयपुखैः // 37 पुनः पुनर्धर्ममगर्हदाजौ // 44 स वत्सदन्तैः पृथुपीनवक्षाः ततः शरैर्भीमतैरैरविध्यत्रिभिराहवे / ___ समाचितः स्माधिरथिर्विभाति / हस्ते कर्णस्तदा पार्थमभ्यविध्यच्च सप्तभिः // 45 सुपुष्पिताशोकपलाशशाल्मलि ततोऽर्जुनः सप्तदश तिग्मतेजानजिह्मगान् / र्यथाचलः स्पन्दनचन्दनायुतः // 38 इन्द्राशनिसमान्घोरानसृजत्पावकोपमान् // 46 शरैः शरीरे बहुधा समर्पितै निर्भिद्य ते भीमवेगा न्यपतन्पृथिवीतले / विभाति कर्णः समरे विशां पते / कम्पितात्मा तथा कर्णः शक्त्या चेष्टामदर्शयत् // 4 महीरुहैराचितसानुकन्दरो बलेनाथ स संस्तभ्य ब्रह्मास्त्रं समुदैरयत् / यथा महेन्द्रः शुभकर्णिकारवान् // 39 ऐन्द्रास्त्रमर्जुनश्चापि तदृष्ट्वाभिन्यमत्रयत् // 48 स बाणसंघान्धनुषा व्यवासृज गाण्डीवं ज्यां च बाणांश्च अनुमच्य धनंजयः। विभाति कर्णः शरजालरश्मिवान् / असृजच्छरवर्षाणि वर्षाणीव पुरंदरः / / 49 सलोहितो रक्तगभस्तिमण्डलो ततस्तेजोमया बाणा रथात्पार्थस्य निःसृताः / दिवाकरोऽस्ताभिमुखो यथा तथा // 40 प्रादुरासन्महावीर्याः कर्णस्य रथमन्तिकात् // 5 बाह्वन्तरादाधिरथेविमुक्ता तान्कर्णस्त्वग्रतोऽभ्यस्तान्मोघांश्चक्रे महारथः / ___ बाणान्महाहीनिव दीप्यमानान् / ततोऽब्रवीद्वृष्णिवीरस्तस्मिन्नस्त्रे विनाशिते // 51 व्यध्वंसयन्नर्जुनबाहुमुक्ताः विसृजास्त्रं परं पार्थ राधेयो ग्रसते शरान् / . शराः समासाद्य दिशः शितायाः // 41 ब्रह्मास्त्रमर्जुनश्चापि संमत्र्याथ प्रयोजयत् // 52 ततश्चक्रमपतत्तस्य भूमौ छादयित्वा ततो बाणैः कर्णं प्रभ्राम्य चार्जुनः / ___स विह्वलः समरे सूतपुत्रः / तस्य कर्णः शरैः क्रुद्धश्चिच्छेद ज्यां सुतेजनैः॥५ घूर्णे रथे ब्राह्मणस्याभिशापा ततो ज्यामवधायान्यामनुमृज्य च पाण्डवः / ___ द्रामादुपात्तेऽप्रतिभाति चास्ने // 42 शरैरवाकिरत्कणं दीप्यमानैः सहस्रशः // 54 अमृष्यमाणो व्यसनानि तानि तस्य ज्याच्छेदनं कर्णो ज्यावधानं च संयुगे। हस्तौ विधुन्वन्स विगर्हमाणः / नान्वबुध्यत शीघ्रत्वात्तदद्भुतमिवाभवत् // 55 धर्मप्रधानानभिपाति धर्म अप्रैरस्त्राणि राधेयः प्रत्यहन्सव्यसाचिनः / इत्यब्रुवन्धर्मविदः सदैव / चक्रे चाभ्यधिकं पार्थात्स्ववीर्य प्रतिदर्शयन् // 5 ममापि निम्नोऽद्य न पाति भक्ता ततः कृष्णोऽर्जुनं दृष्ट्वा कर्णास्त्रेणाभिपीडितम् / न्मन्ये न नित्यं परिपाति धर्मः // 43 अभ्यस्येत्यब्रवीत्पार्थमातिष्ठास्त्रमनुत्तमम् // 57 एवं ब्रुवन्प्रस्खलिताश्वसूतो ततोऽन्यमग्निसदृशं शरं सर्पविषोपमम् / - 1794 - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 66. 58 ] कर्णपर्व [8. 67. 14 अश्मसारमयं दिव्यमनुमन्य धनंजयः // 58 यदा सभायां कौन्तेयमनक्षज्ञं युधिष्ठिरम् / रौद्रमस्त्रं समादाय क्षेप्तुकामः किरीटवान् / अक्षज्ञः शकुनिर्जेता तदा धर्मः क ते गतः // 3 ततोऽप्रसन्मही चक्रं राधेयस्य महामृधे // 59 यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम् / प्रस्तचक्रस्तु राधेयः कोपादश्रूण्यवर्तयत् / सभायां प्राहसः कर्ण क ते धर्मस्तदा गतः // 4 सोऽब्रवीदर्जुनं चापि मुहूर्त क्षम पाण्डव // 60 राज्यलुब्धः पुनः कर्ण समाह्वयसि पाण्डवम् / मध्ये चक्रमवग्रस्तं दृष्ट्वा देवादिदं मम / गान्धारराजमाश्रित्य क ते धर्मस्तदा गतः // 5 पार्थ कापुरुषाचीर्णमभिसंधिं विवर्जय // 61 एवमुक्ते तु राधेये वासुदेवेन पाण्डवम् / प्रकीर्णकेशे विमुखे ब्राह्मणे च कृताञ्जली / मन्युरभ्याविशत्तीव्रः स्मृत्वा तत्तद्धनंजयम् // 6 शरणागते न्यस्तशस्त्रे तथा व्यसनगेऽर्जन // 62 तस्य क्रोधेन सर्वेभ्यः स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः / अबाणे भ्रष्टकवचे भ्रष्टभग्नायुधे तथा / प्रादुरासन्महाराज तदद्भुतमिवाभवत् // 7 न शूराः प्रहरन्त्याजौ न राज्ञे पार्थिवास्तथा। तं समीक्ष्य ततः कर्णो ब्रह्मास्त्रेण धनंजयम् / त्वं च शूरोऽसि कौन्तेय तस्मात्क्षम मुहूर्तकम् // 63 अभ्यवर्षपुनर्यत्नमकरोद्रथसर्जने। यावच्चक्रमिदं भूमेरुद्धरामि धनंजय / तदनमस्त्रेणावार्य प्रजहारास्य पाण्डवः // 8 न मां रथस्थो भूमिष्ठमसज हन्तुमर्हसि / ततोऽन्यदत्रं कौन्तेयो दयितं जातवेदसः / न वासुदेवात्त्वत्तो वा पाण्डवेय बिभेम्यहम् // 64 मुमोच कर्णमुद्दिश्य तत्प्रजज्वाल वै भृशम् // 9 त्वं हि क्षत्रियदायादो महाकुलविवर्धनः / वारुणेन ततः कर्णः शमयामास पावकम् / स्मृत्वा धर्मोपदेशं त्वं मुहूर्त क्षम पाण्डव // 65 जीमूतैश्च दिशः सर्वाश्चक्रे तिमिरदुर्दिनाः // 10 इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि पाण्डवेयस्त्वसंभ्रान्तो वायव्यास्त्रेण वीर्यवान् / . षट्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // अपोवाह तदाभ्राणि राधेयस्य प्रपश्यतः // 11 तं हस्तिकक्ष्याप्रवरं च बाणैः सुवर्णमुक्तामणिवमृष्टम् / संजय उवाच। कालप्रयत्नोत्तमशिल्पियत्नैः अथाब्रवीद्वासुदेवो रथस्थो कृतं सुरूपं वितमस्कमुच्चैः // 12 राधेय दिष्ट्या स्मरसीह धर्मम् / ऊर्जस्करं तव सैन्यस्य नित्यप्रायेण नीचा व्यसनेषु मना ___ ममित्रवित्रासनमीड्यरूपम् / - निदन्ति दैवं कुकृतं न तत्तत् // 1 विख्यातमादित्यसमस्य लोके यद्रौपदीमेकवस्त्रां सभाया त्विषा समं पावकभानुचन्द्रैः // 13 मानाय्य त्वं चैव सुयोधनश्च / ततः क्षुरेणाधिरथेः किरीटी दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च सुवर्णपुखेन शितेन यत्तः / . न ते कर्ण प्रत्यभात्तत्र धर्मः // 2 / श्रिया ज्वलन्तं ध्वजमुन्ममाथ - 1795 - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 67. 14] महाभारते [8. 67. 29 महारथस्याधिरथेर्महात्मा // 14 अयं शरो मे विजयावहोऽस्तु / यशश्च धर्मश्च जयश्च मारिष जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभावः - प्रियाणि सर्वाणि च तेन केतुना / कर्ण समाप्ति नयतां यमाय // 22 तदा कुरूणां हृदयानि चापत तेनेषुवर्येण किरीटमाली - न्बभूव हाहेति च निस्वनो महान् // 15 प्रहृष्टरूपो विजयावहेन / अथ त्वरन्कर्णवधाय पाण्डवो जिघांसुरर्केन्दुसमप्रभेण महेन्द्रवज्रानलदण्डसंनिभम् / चक्रे विषक्तं रिपुमाततायी // 23 आदत्त पार्थोऽञ्जलिकं निषङ्गा तदुद्यतादित्यसमानवर्चसं त्सहस्ररश्मेरिव रश्मिमुत्तमम् // 16 शरन्नभोमध्यगभास्करोपमम् / मर्मच्छिदं शोणितमांसदिग्धं वराङ्गमुामपतच्चमूपते-. वैश्वानरार्कप्रतिमं महार्हम् / दिवाकरोऽस्तादिव रक्तमण्डलः // 24 नराश्वनागासुहरं व्यरत्न तदस्य देही सततं सुखोदितं षड्वाजमञ्जोगतिमुग्रवेगम् // 17 स्वरूपमत्यर्थमुदारकर्मणः। . सहस्रनेत्राशनितुल्यतेजसं परेण कृच्छ्रेण शरीरमत्यजसमानक्रव्यादमिवातिदुःसहम् / द्गृहं महीव ससङ्गमीश्वरः // 25 पिनाकनारायणचक्रसंनिभं शरैर्विभुनं व्यसु तद्विवर्मणः . भयंकरं प्राणभृतां विनाशनम् // 18 पपात कर्णस्य शरीरमुच्छ्रितम् / युक्त्वा महात्रेण परेण मत्रवि स्रवद्वणं गैरिकतोयविस्रवं द्विकृष्य गाण्डीवमुवाच सस्वनम् / गिरेर्यथा वनहतं शिरस्तथा // 26 अयं महास्रोऽप्रतिमो धृतः शरः देहात्तु कर्णस्य निपातितस्य शरीरभिच्चासुहरश्च दुर्हृदः // 19 तेजो दीप्तं खं विगाह्याचिरेण / तपोऽस्ति तप्तं गुरवश्च तोषिता तदद्भुतं सर्वमनुष्ययोधाः ___ मया यदिष्टं सुहृदां तथा श्रुतम् / पश्यन्ति राजनिहते स्म कर्णे // 27 अनेन सत्येन निहन्त्वयं शरः तं सोमकाः प्रेक्ष्य हतं शयानं सुदंशितः कर्णमरिं ममाजितः // 20 प्रीता नादं सह सैन्यैरकुर्वन् / इत्यूचिवांस्तं स मुमोच बाणं तूर्याणि चाजघ्नुरतीव हृष्टा धनंजयः कर्णवधाय घोरम् / __वासांसि चैवादुधुवुर्भुजांश्च / कृत्यामथर्वाङ्गिरसीमिवोग्रां बलान्विताश्चाप्यपरे ह्यनृत्यदीप्तामसह्यां युधि मृत्युनापि // 21 नन्योन्यमाश्लिष्य नदन्त ऊचुः / / 28 ब्रुवन्किरीटी तमतिप्रहृष्टो दृष्ट्वा तु कर्ण भुवि निष्टनन्तं - 1796 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.67. 29 ] कर्णपर्व [8. 68.7 68 हतं रथात्सायकेनावभिन्नम् / महानिलेनाग्निमिवापविद्धं संजय उवाच / यज्ञावसाने शयने निशान्ते // 29 शरैराचितसर्वाङ्गः शोणितौघपरिप्लुतः / शल्यस्तु कर्णार्जुनयोर्विमर्दे विभाति देहः कर्णस्य स्वरश्मिभिरिवांशुमान् // 30 बलानि दृष्ट्वा मृदितानि बाणैः / दुर्योधनं यान्तमवेक्षमाणो प्रताप्य सेनामामित्री दीप्तैः शरगभस्तिभिः / बलिनार्जुनकालेन नीतोऽस्तं कर्णभास्करः // 31 ___ संदर्शयद्भारत युद्धभूमिम् // 1 निपातितस्यन्दनवाजिनागं अस्तं गच्छन्यथादित्यः प्रभामादाय गच्छति / ___ दृष्ट्वा बलं तद्धतसूतपुत्रम् / एवं जीवितमादाय कर्णस्येषुर्जगाम ह // 32 दुर्योधनोऽश्रुप्रतिपूर्णनेत्रो अपराहे पराह्वस्य सूतपुत्रस्य मारिष। ___ मुहुर्मुहुर्त्यश्वसदार्तरूपः // 2 छिन्नमञ्जलिकेनाजी सोत्सेधमपतच्छिरः // 33 कर्णं तु शूरं पतितं पृथिव्यां उपर्युपरि सैन्यानां तस्य शत्रोस्तदञ्जसा / __ शराचितं शोणितदिग्धगात्रम् / / शिरः कर्णस्य सोत्सेधमिषुः सोऽपाहरद्रुतम् // 34 यदृच्छया सूर्यमिवावनिस्थं - संजय उवाच / दिदृक्षवः संपरिवार्य तस्थुः // 3 प्रहृष्टवित्रस्तविषण्णविस्मृताकर्ण तु शूरं पतितं पृथिव्यां ___ स्तथापरे शोकगता इवाभवन् / शराचितं शोणितदिग्धगात्रम् / / परे त्वदीयाश्च परस्परेण दृष्ट्वा शयानं भुवि मद्रराज यथा यथैषां प्रकृतिस्तथाभवन् // 4 श्छिन्नध्वजेनापययौ रथेन // 35 प्रविद्धवर्माभरणाम्बरायुधं कर्णे हते कुरवः प्राद्रवन्त धनंजयेनाभिहतं हतौजसम् / . भयार्दिता गाढविद्धाश्च संख्ये। निशम्य कर्णं कुरवः प्रदुद्रुवुअवेक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य ईतर्षभा गाव इवाकुलाकुलाः // 5 ध्वजं महान्तं वपुषा ज्वलन्तम् // 36 कृत्वा विमर्दै भृशमर्जुनेन सहस्रनेत्रप्रतिमानकर्मणः ___ कर्णं हतं केसरिणेव नागम् / सहस्रपत्रप्रतिमाननं शुभम् / दृष्ट्वा शयानं भुवि मद्रराजो सहस्ररश्मिर्दिनसंक्षये यथा भीतोऽपसर्पत्सरथः सुशीघ्रम् // 6 तथापतत्तस्य शिरो वसुंधराम् // 37 . मद्राधिपश्चापि विमूढचेताइति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि - स्तूर्णं रथेनापहृतध्वजेन / . सप्तपष्टितमोऽध्यायः // 17 // // दुर्योधनस्यान्तिकमेत्य शीघ्रं -1797 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 68.7] महाभारते [8. 68.21 - संभाष्य दुःखार्तमुवाच वाक्यम् // 7 सकृत्प्रविद्धैः शरविद्धमर्मभिः / विशीर्णनागाश्वरथप्रवीरं तैर्विह्वलद्भिश्च गतासुभिश्च बलं त्वदीयं यमराष्ट्रकल्पम् / प्रध्वस्तयत्रायुधवर्मयोधैः // 15 अन्योन्यमासाद्य हतं महद्भि वनापविद्वैरिव चाचलेन्द्रनराश्वनागैर्गिरिकूटकल्पैः // 8 विभिन्नपाषाणमृगद्रुमौषधैः। नैतादृशं भारत युद्धमासी प्रविद्धघण्टाङ्कुशतोमरध्वजैः द्यथाद्य कर्णार्जुनयोर्बभूव / सहेममालै रुधिरौघसंप्लुतैः // 16 प्रस्तौ हि कर्णेन समेत्य कृष्णा शरावभिन्नैः पतितैश्च वाजिभिः ___ वन्ये च सर्वे तव शत्रवो ये // 9 __ श्वसद्भिरन्यैः क्षतजं वमद्भिः। दैवं तु यत्तत्स्ववशं प्रवृत्तं दीनैः स्तनद्भिः परिवृत्तनेत्रै- ... तत्पाण्डवान्पाति हिनस्ति चास्मान् / मही दशद्भिः कृपणं नदद्भिः // 17 तवार्थसिद्ध्यर्थकरा हि सर्वे तथापविद्धैर्गजवाजियोधैप्रसह्य वीरा निहता द्विषद्भिः // 10 मन्दासुभिश्चैव गतासुभिश्च / कुबेरवैवस्वतवासवानां नराश्वनागैश्च रथैश्च मर्दितैतुल्यप्रभावाम्बुपतेश्च वीराः। मही महावैतरणीव दुईशा // 18 वीर्येण शौर्येण बलेन चैव गजैनिकृत्तापरहस्तगात्रैतैस्तैश्च युक्ता विपुलैर्गुणौधैः // 11 रुद्वेपमानैः पतितैः पृथिव्याम् / अवध्यकल्पा निहता नरेन्द्रा यशस्विभिर्नागरथाश्वयोधिभिः स्तवार्थकामा युधि पाण्डवेयैः। पदातिभिश्चाभिमुखेहतैः परैः। तन्मा शुचो भारत दिष्टमेत विशीर्णवर्माभरणाम्बरायुधै___ पर्यायसिद्धिर्न सदास्ति सिद्धिः // 12 - वृता निशान्तैरिव पावकैर्मही // 19 एतद्वचो मद्रपतेर्निशम्य शरप्रहाराभिहतैर्महाबलै___चापनीतं मनसा निरीक्ष्य / रवेक्ष्यमाणैः पतितैः सहस्रशः। दुर्योधनो दीनमना विसंज्ञः प्रनष्टसंज्ञैः पुनरुच्छ्रसद्भिपुनः पुनय॑श्वसदार्तरूपः // 13 मही बभूवानुगतैरिवाग्निभिः / तं ध्यानमूकं कृपणं भृशार्त दिवश्युतैर्भूरतिदीप्तिमद्भि___ मार्तायनिर्दीनमुवाच वाक्यम् / __नक्तं ग्रहैौरमलेव दीप्तैः // 20 पश्येदमुग्रं नरवाजिनागै शरास्तु कर्णार्जुनबाहुमुक्ता ___ रायोधनं वीरहतैः प्रपन्नम् // 14 विदार्य नागाश्वमनुष्यदेहान्। महीधराभैः पतितैर्महागजैः प्राणान्निरस्याशु महीमतीयु- 1798 - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 88. 21] कर्णपर्व [8. 68. 36 महोरगा वासमिवाभितोऽत्रैः // 21 हतैर्मनुष्याश्वगजैश्च संख्ये शरावभिन्नैश्च रथैबभूव / धनंजयस्याधिरथेश्च मार्गे गजैरगम्या वसुधातिदुर्गा // 22 स्थैर्वरेषून्मथितैश्च योधैः संस्यूतसूताश्ववरायुधध्वजैः / विशीर्णशस्वैर्विनिकृत्तबन्धुरै निकृत्तचक्राक्षयुगत्रिवेणुभिः // 23 विमुक्तयत्रैर्निहतैरयस्मयै हतानुषङ्गैर्विनिषङ्गबन्धुरैः। प्रभमनीडैमणिहेममण्डितैः स्तृता मही द्यौरिव शारदैर्घनैः // 24 विकृष्यमाणैर्जवनैरलंकृतै हतेश्वरैराजिरथैः सुकल्पितैः। मनुष्यमातङ्गरथाश्वराशिभि द्रुतं व्रजन्तो बहुधा विचूर्णिताः // 25 सहेमपट्टाः परिघाः परश्वधाः कडङ्गरायोमुसलानि पट्टिशाः / पेतुश्च खड्गा विमला विकोशा गदाश्च जाम्बूनदपट्टबद्धाः // 26 चापानि रुक्माङ्गदभूषणानि शराश्च कार्तस्वरचित्रपुङ्खाः / ऋष्ट्यश्च पीता विमला विकोशाः * प्रासाः सखगाः कनकावभासाः // 27 छत्राणि वालव्यजनानि शङ्खाः स्रजश्व पुष्पोत्तमहेमचित्राः। कुथाः पताकाम्बरवेष्टिताश्च किरीटमाला मुकुटाश्च शुभ्राः // 28 प्रकीर्णका विप्रकीर्णाः कुथाश्च - 1799 प्रधानमुक्तातरलाश्च हाराः। आपीडकेयूरवराङ्गदानि प्रैवेयनिष्काः ससुवर्णसूत्राः // 29 मण्युत्तमा वज्रसुवर्णमुक्ता रत्नानि चोच्चावचमङ्गलानि / गात्राणि चात्यन्तसुखोचितानि __ शिरांसि चेन्दुप्रतिमाननानि // 30 देहांश्च भोगांश्च परिच्छदांश्च त्यक्त्वा मनोज्ञानि सुखानि चापि / स्वधर्मनिष्ठां महतीमवाप्य __व्याप्तांश्च लोकान्यशसा समीयुः // 31 इत्येवमुक्त्वा विरराम शल्यो दुर्योधनः शोकपरीतचेताः / हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाण आर्तो विसंज्ञो भृशमश्रुनेत्रः // 32 तं द्रोणपुत्रप्रमुखा नरेन्द्राः सर्वे समाश्वास्य सह प्रयान्ति / निरीक्षमाणा मुहुरर्जुनस्य ध्वजं महान्तं यशसा ज्वलन्तम् // 33 नराश्वमातङ्गशरीरजेन रक्तेन सिक्ता रुधिरेण भूमिः / रक्ताम्बरस्रक्तपनीययोगा नारी प्रकाशा इव सर्वगम्या // 34 प्रच्छन्नरूपा रुधिरेण राज नौद्रे मुहूर्तेऽतिविराजमानाः / नैवावतस्थुः कुरवः समीक्ष्य प्रव्राजिता देवलोकाश्च सर्वे // 35 वधेन कर्णस्य सुदुःखितास्ते ___ हा कर्ण हा कर्ण इति ब्रुवाणाः / द्रुतं प्रयाताः शिबिराणि राज- Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 68. 36] महाभारते [8. 68.58 न्दिवाकरं रक्तमवेक्षमाणाः // 36 हते स्म कर्णे सरितो न स्रवन्ति गाण्डीवमुक्तैस्तु सुवपद्धैः जगाम चास्तं कलुषो दिवाकरः / शितैः शरैः शोणितदिग्धवाजैः / प्रहश्च तिर्यग्ज्वलितार्कवर्णो शरैश्चिताङ्गो भुवि भाति कर्णो यमस्य पुत्रोऽभ्युदियाय राजन् // 47 हतोऽपि सन्सूर्य इवांशुमाली // 37 नभः पफालाथ ननाद चोर्वी कर्णस्य देहं रुधिरावसिक्तं ववुश्व वाताः परुषातिवेलम् / . - भक्तानुकम्पी भगवान्विवस्वान् / दिशः सधूमाश्च भृशं प्रजज्वलुस्पृष्ट्वा करैलॊहितरक्तरूपः महार्णवाश्चक्षुभिरे च सस्वनाः // 48 सिष्णासुरभ्येति परं समुद्रम् // 38 सकाननाः साद्रिचयाश्चकम्पुः इतीव संचिन्त्य सुरर्षिसंघाः - प्रविव्यथुर्भूतगणाश्च मारिष / संप्रस्थिता यान्ति यथानिकेतम् / बृहस्पती रोहिणी संप्रपीड्य संचिन्तयित्वा च जना विस बभूव चन्द्रार्कसमानवर्णः // 49 यथासुखं खं च महीतलं च // 39 हते कर्णे न दिशो विप्रजजुतद्भुतं प्राणभृतां भयंकर ___ स्तमोवृता द्यौर्विचचाल भूमिः / निशम्य युद्धं कुरुवीरमुख्ययोः / पपात चोल्का ज्वलनप्रकाशा धनंजयस्याधिरथेश्च विस्मिताः निशाचराश्चाप्यभवन्प्रहृष्टाः // 50 प्रशंसमानाः प्रययुस्तदा जनाः॥ 40 शशिप्रकाशाननमर्जुनो यदा शरैः संकृत्तवर्माणं वीरं विशसने हतम् / क्षुरेण कर्णस्य शिरो न्यपातयत् / गतासुमपि राधेयं नैव लक्ष्मीळमुश्चत // 41 अथान्तरिक्षे दिवि चेह चासकनानाभरणवानराजन्मृष्टजाम्बूनदाङ्गदः / द्वभूव हाहेति जनस्य निस्वनः // 51 हतो वैकर्तनः शेते पादपोऽङ्कुरवानिव // 42 स देवगन्धर्वमनुष्यपूजितं कनकोत्तमसंकाशः प्रदीप्त इव पावकः / निहत्य कर्ण रिपुमाहवेऽर्जुनः / सपुत्रः पुरुषव्याघ्रः संशान्तः पार्थतेजसा। रराज पार्थः परमेण तेजसा प्रताप्य पाण्डवानराजन्पाञ्चालांश्चास्त्रतेजसा // 43 __वृत्रं निहत्येव सहस्रलोचनः // 52 ददानीत्येव योऽवोचन्न नास्तीत्यर्थितोऽर्थिभिः / ततो रथेनाम्बुवृन्दनादिनाः सद्भिः सदा सत्पुरुषः स हतो द्वैरथे वृषः // 44 शरन्नभोमध्यगभास्करत्विषा। यस्य ब्राह्मणसात्सर्वमात्मार्थं न महात्मनः / पताकिना भीमनिनादकेतुना नादेयं ब्राह्मणेष्वासीद्यस्य स्वमपि जीवितम् // 45 हिमेन्दुशङ्खस्फटिकावभासिना। सदा नृणां प्रियो दाता प्रियदानो दिवं गतः / सुवर्णमुक्तामणिवज्रविद्रुमैआदाय तव पुत्राणां जयाशां शर्म वर्म च // 46 / रलंकृतेनाप्रतिमानरंहसा // 53 -1800 - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ 68. 54 ] कर्णपर्व [8. 69.8 अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥ 68 // नरोत्तमौ पाण्डवकेशिमर्दना तमो निहत्याभ्युदितौ यथामलो वुदाहितावग्निदिवाकरोपमौ। शशाङ्कसूर्याविव रश्मिमालिनौ // 61 रणाजिरे वीतभयौ विरेजतुः विहाय तान्बाणगणानथागतौ समानयानाविव विष्णुवासवौ // 54 सुहृद्धृतावप्रतिमानविक्रमौ। ततो धनातलनेमिनिस्वनैः सुखं प्रविष्टौ शिबिरं स्वमीश्वरौ प्रसह्य कृत्वा च रिपून्हतप्रभान् / सदस्यहूताविव वासवाच्युतौ / / 62 संसाधयित्वैव कुरूशरौघैः सदेवगन्धर्वमनुष्यचारणैकपिध्वजः पक्षिवरध्वजश्च / महर्षिभिर्यक्षमहोरगैरपि / प्रसह्य शङ्खौ धमतुः सुघोषी जयाभिवृद्ध्या परयाभिपूजितौ मनास्यरीणामवसादयन्तौ // 55 निहत्य कणं परमाहवे तदा // 63 सुवर्णजालावततौ महास्वनौ इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि हिमावदातौ परिगृह्य पाणिभिः / चुचुम्बतुः शङ्खवरौ नृणां वरौ वराननाभ्यां युगपञ्च दध्मतुः // 56 जन्यस्य निर्धेपो देवदत्तस्य चोभयोः / संजय उवाच। विवीमन्तरिक्षं च द्यामपश्चाप्यपूरयत् / / 57 तथा निपातिते कर्णे तव सैन्ये च विद्रुते / तौ शङ्खशब्देन निनादयन्ती आश्लिष्य पार्थ दाशार्हो हर्षाद्वचनमब्रवीत् // 1 वनानि शैलान्सरितो दिशश्च / हतो बलभिदा वृत्रस्त्वया कर्णो धनंजय / वित्रासयन्तौ तव पुत्रसेनां वधं वै कर्णवृत्राभ्यां कथयिष्यन्ति मानवाः // 2 .' 'युधिष्ठिरं नन्दयतः स्म वीरौ // 58 वज्रिणा निहतो वृत्रः संयुगे भूरितेजसा / ततः प्रयाताः कुरवो जवेन त्वया तु निहतः कर्णो धनुषा निशितैः शरैः॥ 3 - श्रुत्वैव शङ्खस्वनमीर्यमाणम् / - तमिमं विक्रमं लोके प्रथितं ते यशोवहम् / "विहाय मद्राधिपतिं पति च निवेदयावः कौन्तेय धर्मराजाय धीमते // 4 . दुर्योधनं भारत भारतानाम् // 59 वधं कर्णस्य संग्रामे दीर्घकालचिकीर्षितम् / महाहवे तं बहु शोभमानं निवेद्य धर्मराजस्य त्वमानृण्यं गमिष्यसि // 5 ___ धनंजयं भूतगणाः समेताः। तथेत्युक्ते केशवस्तु पार्थेन यदुपुंगवः / तदान्वमोदन्त जनार्दनं च पर्यवर्तयदव्यग्रो रथं रथवरस्य तम् // 6 . प्रभाकरावभ्युदितौ यथैव // 60 धृष्टद्युम्नं युधामन्युं माद्रीपुत्रौ वृकोदरम् / समाचितौ कर्णशरैः परंतपा युयुधानं च गोविन्द इदं वचनमब्रवीत् // 7 वुभौ व्यभातां समरेऽच्युतार्जुनौ / परानभिमुखा यत्तास्तिष्ठध्वं भद्रमस्तु वः / [.मा. 226 - 1801 - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 69. 8] महाभारते [8. 69. 37 यावदावेद्यते राज्ञे हतः कर्णोऽर्जुनेन वै // 8 कथामेतां महाबाहो दिव्यामकथयत्प्रभुः // 23 स तैः शूरैरनुज्ञातो ययौ राजनिवेशनम् / तव कृष्ण प्रभावेण गाण्डीवेन धनंजयः / पार्थमादाय गोविन्दो ददर्श च युधिष्ठिरम् // 9 जयत्यभिमुखाशत्रून्न चासीद्विमुखः क्वचित्॥२४ शयानं राजशार्दूलं काञ्चने शयनोत्तमे / जयश्चैव ध्रुवोऽस्माकं न त्वस्माकं पराजयः / अगृहीतां च चरणौ मुदितौ पार्थिवस्य तौ // 10 यदा त्वं युधि पार्थस्य सारथ्यमुपजग्मिवान् // 25 तयोः प्रहर्षमालक्ष्य प्रहारांश्चातिमानुषान् / एवमुक्त्वा महाराज तं रथं हेमभूषितम् / राधेयं निहतं मत्वा समुत्तस्थौ युधिष्ठिरः // 11 दन्तवर्णैर्हयैर्युक्तं कालवालैर्महारथः // 26 ततोऽस्मै तद्यथावृत्तं वासुदेवः प्रियंवदः / आस्थाय पुरुषव्याघ्रः स्वबलेनाभिसंवृतः / कथयामास कर्णस्य निधनं यदुनन्दनः // 12 कृष्णार्जुनाभ्यां वीराभ्यामनुमन्य ततः प्रियम् // 25 ईषदुत्स्मयमानस्तु कृष्णो राजानमब्रवीत् / आगतो बहुवृत्तान्तं द्रष्टुमायोधनं तदा। युधिष्ठिरं हतामित्रं कृताञ्जलिरथाच्युतः // 13 आभाषमाणस्तौ वीरावभौ माधवफल्गुनौ // 28 दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च पाण्डवश्च वृकोदरः / स ददर्श रणे कर्णं शयानं पुरुषर्षभम् / त्वं चापि कुशली राजन्माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 14 गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैः सर्वतः शकलीकृतम् // 29 मुक्ता वीरक्षयादस्मात्संग्रामाल्लोमहर्षणात् / / सपुत्रं निहतं दृष्ट्वा कर्ण राजा युधिष्ठिरः। क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि पार्थिव // 15 प्रशशंस नरव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ // 30 हतो वैकर्तनः क्रूरः सूतपुत्रो महाबलः / अद्य राजास्मि गोविन्द पृथिव्यां भ्रातृभिः सह / दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र दिष्टया वर्धसि पाण्डव॥१६ त्वया नाथेन वीरेण विदुषा परिपालितः // 31 यः स द्यूतजितां कृष्णां प्राहसत्पुरुषाधमः / / हतं दृष्ट्वा नरव्याघ्रं राधेयमभिमानिनम् / तस्याद्य सूतपुत्रस्य भूमिः पिबति शोणितम् // 17 निराशोऽद्य दुरात्मासौ धार्तराष्ट्रो भविष्यति। शेतेऽसौ शरदीर्णाङ्गः शत्रुस्ते कुरुपुंगव / जीविताच्चापि राज्याच हते कर्णे महारथे // 32 तं पश्य पुरुषव्याघ्र विभिन्नं बहुधा शरैः // 18 त्वत्प्रसादाद्वयं चैव कृतार्थाः पुरुषर्षभ / युधिष्ठिरस्तु दाशार्ह प्रहृष्टः प्रत्यपूजयत् / त्वं च गाण्डीवधन्वा च विजयी यदुनन्दन / दिष्टया दिष्टयेति राजेन्द्र प्रीत्या चेदमुवाच ह॥१९ दिष्टया जयसि गोविन्द दिष्ट्या कर्णो निपातितः॥ नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दन / एवं स बहुशो हृष्टः प्रशशंस जनार्दनम् / त्वया सारथिना पार्थो यत्कुर्यादद्य पौरुषम् // 20 अर्जुनं चापि राजेन्द्र धर्मराजो युधिष्ठिरः // 34 प्रगृह्य च कुरुश्रेष्ठः साङ्गदं दक्षिणं भुजम् / ततो भीमप्रभृतिभिः सर्वैश्च भ्रातृभिवृतम् / उवाच धर्मभृत्पार्थ उभौ तौ केशवार्जुनौ // 21 / वर्धयन्ति स्म राजानं हर्षयुक्ता महारथाः // 35 नरनारायणौ देवौ कथितौ नारदेन ह। नकुलः सहदेवश्च पाण्डवश्च वृकोदरः / धर्मसंस्थापने युक्तौ पुराणौ पुरुषोत्तमौ // 22 सात्यकिश्च महाराज वृष्णीनां प्रवरो रथः // 36 असकृच्चापि मेधावी कृष्णद्वैपायनो मम / धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च पाण्डुपाश्चालसृञ्जयाः / - 1802 - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 69.37] कर्णपर्व [8. 69. 43 पूजयन्ति स्म कौन्तेयं निहते सूतनन्दने // 37 ते वर्धयित्वा नृपतिं पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम् / जितकाशिनो लब्धलक्षा युद्धशौण्डाः प्रहारिणः।।३८ स्तुवन्तः स्तवयुक्ताभिर्वाग्भिः कृष्णौ परंतपौ / जग्मुः स्वशिबिरायैव मुदा युक्ता महारथाः // 39 एवमेष क्षयो वृत्तः सुमहाल्लोमहर्षणः / तव दुर्मत्रिते राजन्नतीतं किं नु शोचसि // 40 वैशंपायन उवाच। श्रुत्वा तदप्रियं राजन्धृतराष्ट्रो महीपतिः / पपात भूमौ निश्चेष्टः कौरव्यः परमार्तिवान् / तथा सत्यव्रता देवी गान्धारी धर्मदर्शिनी // 41 तं प्रत्यगृहाद्विदुरो नृपतिं संजयस्तथा / पर्याश्वासयतश्चैवं तावुभावेव भूमिपम् // 42 तथैवोत्थापयामासुर्गान्धारी राजयोषितः / ताभ्यामाश्वासितो राजा तूष्णीमासीद्विचेतनः॥४३ इति श्रीमहाभारते कर्णपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥ 69 // // समाप्तं कर्णपर्व // - 1803 - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्यपर्व ततो दुर्योधनो राजा हतबन्धू रणाजिरात् / जनमेजय उवाच / अपसृत्य हृदं घोरं विवेश रिपुजाद्भयात् // 11 अथापराह्ने तस्याह्नः परिवार्य महारथैः / एवं निपातिते कर्णे समरे सव्यसाचिना / हृदादाहूय योगेन भीमसेनेन पातितः // 12 अल्पावशिष्टाः कुरवः किमकुर्वत वै द्विज // 1 / तस्मिन्हते महेष्वासे हतशिष्टास्त्रयो रथाः / उदीर्यमाणं च बलं दृष्ट्वा राजा सुयोधनः / संरभान्निशि राजेन्द्र जन्नुः पाञ्चालसैनिकान् // 1 पाण्डवैः प्राप्तकालं च किं प्रापद्यत कौरवः // 2 ततः पूर्वाह्नसमये शिविरादेत्य संजयः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तदाचक्ष्व द्विजोत्तम / प्रविवेश पुरीं दीनो दुःखशोकसमन्वितः // 14 न हि तृप्यामि पूषां शृण्वानश्चरितं महत् // 3 प्रविश्य च पुरं तूर्णं भुजावुच्छ्रित्य दुःखितः। वैशंपायन उवाच / वेपमानस्ततो राज्ञः प्रविवेश निवेशनम् // 15 ततः कर्णे हते राजन्धार्तराष्ट्रः सुयोधनः। रुरोद च नरव्याघ्र हा राजनिति दुःखितः / भृशं शोकार्णवे मग्नो निराशः सर्वतोऽभवत् // 4 अहो बत विविग्नाः स्म निधनेन महात्मनः॥१ हा कर्ण हा कर्ण इति शोचमानः पुनः पुनः / अहो सुबलवान्कालो गतिश्च परमा तथा / कृच्छ्रात्स्वशिबिरं प्रायाद्धतशेषैर्नृपैः सह // 5 शक्रतुल्यबलाः सर्वे यत्रावध्यन्त पार्थिवाः // 17 स समाश्वास्यमानोऽपि हेतुभिः शास्त्रनिश्चितैः / दृष्ट्वैव च पुरो राजञ्जनः सर्वः स संजयम् / राजभि लभच्छर्म सूतपुत्रवधं स्मरन् // 6 प्ररुरोद भृशोद्विग्नो हा राजनिति सस्वरम् // 18 स दैवं बलवन्मत्वा भवितव्यं च पार्थिवः / आकुमारं नरव्याघ्र तत्पुरं वै समन्ततः / संग्रामे निश्चयं कृत्वा पुनयुद्धाय निर्ययौ // 7 आर्तनादं महच्चक्रे श्रुत्वा विनिहतं नृपम् // 19 शल्यं सेनापतिं कृत्वा विधिवद्राजपुंगवः / धावतश्चाप्यपश्यच्च तत्र त्रीन्पुरुषर्षभान् / रणाय निर्ययौ राजा हतशेषैर्नृपैः सह // 8 नष्टचित्तानिवोन्मत्ताञ्शोकेन भृशपीडितान् // 2 ततः सुतुमुलं युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः / तथा स विह्वलः सूतः प्रविश्य नृपतिक्षयम् / बभूव भरतश्रेष्ठ देवासुररणोपमम् // 9 ददर्श नृपतिश्रेष्ठं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् // 21 ततः शल्यो महाराज कृत्वा कदनमाहवे / दृष्ट्वा चासीनमनघं समन्तात्परिवारितम् / पाण्डुसैन्यस्य मध्याह्ने धर्मराजेन पातितः // 10 / स्नुषाभिर्भरतश्रेष्ठ गान्धार्या विदुरेण च // 22 -1804 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 1. 23 ] शल्यपर्व [9. 1. 49 वान्यैश्च सुहृद्भिश्च ज्ञातिभिश्च हितैषिभिः।। कालेन निहतं सर्वं जगद्वै भरतर्षभ / तमेव चार्थं ध्यायन्तं कर्णस्य निधनं प्रति // 23 दुर्योधनं वै पुरतः कृत्वा वैरस्य भारत // 36 रखनेवाब्रवीद्वाक्यं राजानं जनमेजय / एतच्छ्रुत्वा वचः क्रूरं धृतराष्ट्रो जनेश्वरः / जातिहृष्टमनाः सूतो बाष्पसंदिग्धया गिरा // 24 निपपात महाराज गतसत्त्वो महीतले // 37 इंजयोऽहं. नरव्याघ्र नमस्ते भरतर्षभ। तस्मिन्निपतिते भूमौ विदुरोऽपि महायशाः / द्राधिपो हतः शल्यः शकुनिः सौबलस्तथा / निपपात महाराज राजव्यसनकर्शितः // 38 मलूकः पुरुषव्याघ्र कैतव्यो दृढविक्रमः // 25 गान्धारी च नृपश्रेष्ठ सर्वाश्च कुरुयोषितः / संशप्तका हताः सर्वे काम्बोजाश्च शकैः सह / / पतिताः सहसा भूमौ श्रुत्वा क्रूरं वचश्च ताः // 39 म्लेच्छाश्च पार्वतीयाश्च यवनाश्च निपातिताः // 26 निःसंज्ञं पतितं भूमौ तदासीद्राजमण्डलम् / प्राच्या हता महाराज दाक्षिणात्याश्च सर्वशः / प्रलापयुक्ता महती कथा न्यस्ता पटे यथा // 40 उदीच्या निहताः सर्वे प्रतीच्याश्च नराधिप / कृच्छ्रेण तु ततो राजा धृतराष्ट्रो महीपतिः / राजानो राजपुत्राश्च सर्वतो निहता नृप / / 27 शनैरलभत प्राणान्पुत्रव्यसनकर्शितः // 41 दुर्योधनो हतो राजन्यथोक्तं पाण्डवेन च। लब्ध्वा तु स नृपः संज्ञां वेपमानः सुदुःखितः। मनसक्थो महाराज शेते पांसुषु रूषितः / / 28 उदीक्ष्य च दिशः सर्वाः क्षत्तारं वाक्यमब्रवीत् // पृष्टद्युम्नो हतो राजशिखण्डी चापराजितः / विद्वन्क्षत्तर्महाप्राज्ञ त्वं गतिर्भरतर्षभ। उत्तमौजा युधामन्युस्तथा राजन्प्रभद्रकाः // 29 ममानाथस्य सुभृशं पुत्रींनस्य सर्वशः / पाञ्चालाश्च नरव्याघ्राश्चेदयश्च निषूदिताः / एवमुक्त्वा ततो भूयो विसंज्ञो निपपात ह // 43 तव पुत्रा हताः सर्वे द्रौपदेयाश्च भारत / तं तथा पतितं दृष्ट्वा बान्धवा येऽस्य केचन / वर्णपुत्रो हतः शूरो वृषसेनो महाबलः // 30 शीतैस्ते सिषिचुस्तोयैर्विव्यजुर्व्यजनैरपि // 44 गरा विनिहताः सर्वे गजाश्च विनिपातिताः / स तु दीर्पण कालेन प्रत्याश्वस्तो महीपतिः / थिनश्च नरव्याघ्र हयाश्च निहता युधि / / 31 तूष्णीं दध्यौ महीपालः पुत्रव्यसनकर्शितः / चिच्छेषं च शिबिरं तावकानां कृतं विभो। निःश्वसञ्जिमग इव कुम्भक्षिप्तो विशां पते // 45 गण्डवानां च शूराणां समासाद्य परस्परम् // 32 संजयोऽप्यरुदत्तत्र दृष्ट्वा राजानमातुरम् / प्रयः स्त्रीशेषमभवज्जगत्कालेन मोहितम् / तथा सर्वाः स्त्रियश्चैव गान्धारी च यशस्विनी // 46 साप्त पाण्डवतः शेषा धार्तराष्ट्रास्तथा त्रयः // 33 ततो दीर्पण कालेन विदुरं वाक्यमब्रवीत् / / चैव भ्रातरः पञ्च वासुदेवोऽथ सात्यकिः / धृतराष्ट्रो नरव्याघ्रो मुह्यमानो मुहुर्मुहुः // 47 पश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्च जयतां वरः // 34 गच्छन्तु योषितः सर्वा गान्धारी च यशस्विनी / वाप्येते महाराज रथिनो नृपसत्तम / तथेमे सुहृदः सर्वे भ्रश्यते मे मनो भृशम् // 48 पक्षौहिणीनां सर्वासां समेतानां जनेश्वर / एवमुक्तस्ततः क्षत्ता ताः स्त्रियो भरतर्षभ / ते शेषा महाराज सर्वेऽन्ये निधनं गताः // 35 / विसर्जयामास शनैर्वेपमानः पुनः पुनः॥ 49 - 1805 - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 1. 50] महाभारते [9. 2. 25 निश्चक्रमुस्ततः सर्वास्ताः स्त्रियो भरतर्षभ / सा कृपा सा च ते प्रीतिः सा च राजन्सुमानिता / सुहृदश्च ततः सर्वे दृष्ट्वा राजानमातुरम् // 50 कथं विनिहतः पार्थैः संयुगेष्वपराजितः // 11. ततो नरपतिं तत्र लब्धसंज्ञं परंतप / कथं त्वं पृथिवीपालान्मुक्त्वा तात समागतान् / अवेक्ष्य संजयो दीनो रोदमानं भृशातुरम् // 51 शेषे विनिहतो भूमौ प्राकृतः कुनृपो यथा // 12 प्राञ्जलिनिःश्वसन्तं च तं नरेन्द्रं मुहुर्मुहुः / को नु मामुत्थितं काल्ये तात तातेति वक्ष्यति / समाश्वासयत क्षत्ता वचसा मधुरेण ह // 52 महाराजेति सततं लोकनाथेति चासकृत् // 13 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि परिष्वज्य च मां कण्ठे स्नेहेनाक्लिन्नलोचनः / प्रथमोऽध्यायः॥१॥ अनुशाधीति कौरव्य तत्साधु वद मे वचः // 14 ननु नामाहमश्रौषं वचनं तव पुत्रक / वैशंपायन उवाच / भूयसी मम पृथ्वीयं यथा पार्थस्य नो तथा॥१५ विसृष्टास्वथ नारीषु धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / भगदत्तः कृपः शल्य आवन्त्योऽथ जयद्रथः / विललाप महाराज दुःखाहुःखतरं गतः // 1 भूरिश्रवाः सोमदत्तो महाराजोऽथ बाहिकः // 16 सधूममिव निःश्वस्य करौ धुन्वन्पुनः पुनः / अश्वत्थामा च भोजश्च मागधश्च महाबलः / विचिन्त्य च महाराज ततो वचनमब्रवीत् // 2 बृहद्बलश्च काशीशः शकुनिश्चापि सौबलः // 17 . अहो बत महद्दुःखं यदहं पाण्डवारणे / म्लेच्छाश्च बहुसाहस्राः शकाश्च यवनैः सह / क्षेमिणश्चाव्ययांश्चैव त्वत्तः सूत शृणोमि वै // 3 सुदक्षिणश्च काम्बोजस्त्रिगर्ताधिपतिस्तथा // 18 वनसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम / भीष्मः पितामहश्चैव भारद्वाजोऽथ गौतमः / यच्छ्रुत्वा निहतान्पुत्रान्दीयते न सहस्रधा // 4 श्रुतायुश्चाच्युतायुश्च शतायुश्चापि वीर्यवान् // 19 चिन्तयित्वा वचस्तेषां बालक्रीडां च संजय / जलसंधोऽथायशृङ्गी राक्षसश्चाप्यलायुधः / अद्य श्रुत्वा हतान्पुत्रान्भृशं मे दीर्यते मनः // 5 अलंबुसो महाबाहुः सुबाहुश्च महारथः // 20 अन्धत्वाद्यदि तेषां तु न मे रूपनिदर्शनम् / एते चान्ये च बहवो राजानो राजसत्तम / पुत्रस्नेहकृता प्रीतिर्नित्यमेतेषु धारिता // 6 मदर्थमद्यताः सर्वे प्राणांस्त्यक्त्वा रणे प्रभो॥ 21 बालभावमतिक्रान्तान्यौवनस्थांश्च तानहम् / येषां मध्ये स्थितो युद्धे भ्रातृभिः परिवारितः / मध्यप्राप्तांस्तथा श्रुत्वा हृष्ट आसं तथानघ // 7 योधयिष्याम्यहं पार्थान्पाञ्चालांश्चैव सर्वशः // 22 तानद्य निहताश्रुत्वा हृतैश्वर्यान्हतौजसः / चेदींश्च नृपशार्दूल द्रौपदेयांश्च संयुगे। न लभे वै क्वचिच्छान्ति पुत्राधिभिरभिप्लुतः // 8 . सात्यकिं कुन्तिभोजं च राक्षसं च घटोत्कचम्॥२३ एोहि पुत्र राजेन्द्र ममानाथस्य सांप्रतम् / एकोऽप्येषां महाराज समर्थः संनिवारणे / त्वया हीनो महाबाहो का नु यास्याम्यहं गतिम्॥९ / समरे पाण्डवेयानां संक्रुद्धो ह्यभिधावताम् / गतिर्भूत्वा महाराज ज्ञातीनां सुहृदां तथा।। किं पुनः सहिता वीराः कृतवैराश्च पाण्डवैः // 24 अन्धं वृद्धं च मां वीर विहाय क नु गच्छसि // 10 अथ वा सर्व एवैते पाण्डवस्यानुयायिभिः / - 1806 - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 2. 25]] शल्यपर्व [9. 2. 54 योत्स्यन्ति सह राजेन्द्र हनिष्यन्ति च तान्मृधे // 25 / पुत्राश्च मे विनिहताः पौत्राश्चैव महाबलाः / कर्णत्वेको मया सार्धं निहनिष्यति पाण्डवान् / / वयस्या भ्रातरश्चैव किमन्यद्भागधेयतः / / 40 ततो नृपतयो वीराः स्थास्यन्ति मम शासने // 26 भागधेयसमायुक्तो ध्रुवमुत्पद्यते नरः / यश्च तेषां प्रणेता वै वासुदेवो महाबलः / / यश्च भाग्यसमायुक्तः स शुभं प्राप्नुयान्नरः / / 41 न स संनह्यते राजनिति मामब्रवीद्वचः // 27 अहं वियुक्तः स्वैर्भाग्यैः पुत्रैश्चैवेह संजय / तस्याहं वदतः सूत बहुशो मम संनिधौ। कथमद्य भविष्यामि वृद्धः शत्रुवशं गतः // 42 युक्तितो ह्यनुपश्यामि निहतान्पाण्डवान्मृधे / / 28 / नान्यदत्र परं मन्ये वनवासाइते प्रभो / तेषां मध्ये स्थिता यत्र हन्यन्ते मम पुत्रकाः। सोऽहं वनं गमिष्यामि निर्बन्धुर्जातिसंक्षये // 43 व्यायच्छमानाः समरे किमन्यद्भागधेयतः // 29 / न हि मेऽन्यद्भवेच्छेयो वनाभ्युपगमादृते / मीष्मश्च निहतो यत्र लोकनाथः प्रतापवान् / इमामवस्थां प्राप्तस्य लूनपक्षस्य संजय // 44 शिखण्डिनं समासाद्य मृगेन्द्र इव जम्बुकम् / / 30 दुर्योधनो हतो यत्र शल्यश्च निहतो युधि / द्रोणश्च ब्राह्मणो यत्र सर्वशस्त्रास्त्रपारगः / दुःशासनो विशस्तश्च विकर्णश्च महाबलः // 45 निहतः पाण्डवैः संख्ये किमन्यद्भागधेयतः // 31 / / कथं हि भीमसेनस्य श्रोष्येऽहं शब्दमुत्तमम् / भूरिश्रवा हतो यत्र सोमदत्तश्च संयुगे / एकेन समरे येन हतं पुत्रशतं मम / / 46 बाह्रीकश्च महाराज किमन्यद्भागधेयतः / / 32 असकृद्वदतस्तस्य दुर्योधनवधेन च / सुदक्षिणो हतो यत्र जलसंधश्च कौरवः / दुःखशोकाभिसंतप्तो न श्रोष्ये परुषा गिरः // 47 श्रुतायुश्चाच्युतायुश्च किमन्यद्भागधेयतः // 33 एवं स शोकसंतप्तः पार्थिवो हतबान्धवः / बृहद्बलो हतो यत्र मागधश्च महाबलः / मुहुर्मुहुर्मुह्यमानः पुत्राधिभिरभिप्लुतः // 48 आवन्यो निहतो यत्र त्रिगर्तश्च जनाधिपः / विलप्य सुचिरं कालं धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / संशप्तकाश्च बहवः किमन्यद्भागधेयतः // 34 दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य चिन्तयित्वा पराभवम् // 49 अलंबुसस्तथा राजनराक्षसश्चाप्यलायुधः / दुःखेन महता राजा संतप्तो भरतर्षभ / आर्यशृङ्गश्च निहतः किमन्यद्भागधेयतः // 35 पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यपृच्छद्यथातथम् // 50 नारायणा हता यत्र गोपाला युद्धदुर्मदाः / भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा सूतपुत्रं च पातितम् / म्लेच्छाश्च बहुसाहस्राः किमन्यद्भागधेयतः // 36 सेनापति प्रणेतारं किमकुर्वत मामकाः // 51 शकुनिः सौबलो यत्र कैतव्यश्च महाबलः / / यं यं सेनाप्रणेतारं युधि कुर्वन्ति मामकाः / निहतः सबलो वीरः किमन्यद्भागधेयतः // 37 अचिरेणेव कालेन तं तं निम्नन्ति पाण्डवाः // 52 राजानो राजपुत्राश्च शूराः परिघबाहवः / रणमूर्ध्नि हतो भीष्मः पश्यतां वः किरीटिना। निहता बहवो यत्र किमन्यद्भागधेयतः // 38 एवमेव हतो द्रोणः सर्वेषामेव पश्यताम् / / 53 नानादेशसमावृत्ताः क्षत्रिया यत्र संजय / एवमेव हतः कर्णः सतपत्रः प्रतापवान / निहताः समरे सर्वे किमन्यद्भागधेयतः // 39 / सराजकानां सर्वेषां पश्यतां वः किरीटिना // 54 - 1807 - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 2. 55 ] महाभारते [9. 3. 17 पूर्वमेवाहमुक्तो वै विदुरेण महात्मना / विमुखे तव पुत्रे तु शोकोपहतचेतसि / दुर्योधनापराधेन प्रजेयं विनशिष्यति // 55 भृशोद्विमेषु सैन्येषु दृष्ट्वा पार्थस्य विक्रमम् // 3 केचिन्न सम्यक्पश्यन्ति मूढाः सम्यक्तथापरे / ध्यायमानेषु सैन्येषु दुःखं प्राप्तेषु भारत / तदिदं मम मूढस्य तथाभूतं वचः स्म ह // 56 बलानां मध्यमानानां श्रुत्वा निनदमुत्तमम् // 4 यदब्रवीन्मे धर्मात्मा विदुरो दीर्घदर्शिवान् / अभिज्ञानं नरेन्द्राणां विकृतं प्रेक्ष्य संयुगे। तत्तथा समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः // 57 पतितान्रथनीडांश्च रथांश्चापि महात्मनाम् / / 5 दैवोपहतचित्तेन यन्मयापकृतं पुरा / रणे विनिहतान्नागान्दृष्ट्वा पत्तींश्च मारिष। अनयस्य फलं तस्य ब्रूहि गावल्गणे पुनः॥ 58 आयोधनं चातिघोरं रुद्रस्याक्रीडसंनिभम् // 6 . को वा मुखमनीकानामासीत्कर्णे निपातिते / अप्रख्यातिं गतानां तु राज्ञां शतसहस्रशः / अर्जुनं वासुदेवं च को वा प्रत्युद्ययौ रथी॥ 59 कृपाविष्टः कृपो राजन्वयःशीलसमन्वितः // 7 केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं मद्रराजस्य संयुगे / अब्रवीत्तत्र तेजस्वी सोऽभिसृत्य जनाधिपम् / वामं च यो कामस्य के वा वीरस्य पृष्ठतः // 60 दुर्योधनं मन्युवशाद्वचनं वचनक्षमः / / 8 कथं च वः समेतानां मद्रराजो महाबलः / दुर्योधन निबोधेदं यत्त्वा वक्ष्यामि कौरव / निहतः पाण्डवैः संख्ये पुत्रो वा मम संजय // 61 श्रुत्वा कुरु महाराज यदि ते रोचतेऽनघ // 9 ब्रूहि सर्वं यथातत्त्वं भरतानां महाक्षयम् / न युद्धधर्माच्छ्रेयान्वै पन्था राजेन्द्र विद्यते / यथा च निहतः संख्ये पुत्रो दुर्योधनो मम॥६२ यं समाश्रित्य युध्यन्ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ // 1 // पाञ्चालाश्च यथा सर्वे निहताः सपदानुगाः / / पुत्रो भ्राता पिता चैव स्वस्रेयो मातुलस्तथा। धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपद्याः पञ्च चात्मजाः॥६३ संबन्धिबान्धवाश्चैव योध्या वै क्षत्रजीविना // 1 / पाण्डवाश्च यथा मुक्तास्तथोभी सात्वतौ युधि / वधे चैव परो धर्मस्तथाधर्मः पलायने / कृपश्च कृतवर्मा च भारद्वाजस्य चात्मजः // 64 ते स्म घोरां समापन्ना जीविका जीवितार्थिनः // 1 // यद्यथा यादृशं चैव युद्धं वृत्तं च सांप्रतम् / तत्र त्वां प्रतिवक्ष्यामि किंचिदेव हितं वचः / अखिलं श्रोतुमिच्छामि कुशलो ह्यसि संजय // 65 हते भीष्मे च द्रोणे च कर्णे चैव महारथे // 15 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि जयद्रथे च निहते तव भ्रातृषु चानघ / द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ लक्ष्मणे तव पुत्रे च किं शेषं पर्युपास्महे // 14 येषु भारं समासज्य राज्ये मतिमकुर्महि / संजय उवाच / ते संत्यज्य तनूर्याताः शूरा ब्रह्मविदां गतिम् // 10 शृणु राजन्नवहितो यथा वृत्तो महान्क्षयः / वयं त्विह विनाभूता गुणवद्भिर्महारथैः / कुरूणां पाण्डवानां च समासाद्य परस्परम् // 1 कृपणं वर्तयिष्याम पातयित्वा नृपान्बहून् // 16 निहते सूतपुत्रे तु पाण्डवेन महात्मना / सर्वैरपि च जीवद्भिर्बीभत्सुरपराजितः / विद्रुतेषु च सैन्येषु समानीतेषु चासकृत् // 2 कृष्णनेत्रो महाबाहुर्देवैरपि दुरासदः // 17 - 1808 - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 3. 18] शल्यपर्व [9. 3. 46 इन्द्रकार्मुकवज्राभमिन्द्रकेतुमिवोच्छ्रितम् / सर्वान्विक्रम्य मिषतो लोकांश्चाक्रम्य मूर्धनि / वानरं केतुमासाद्य संचचाल महाचमूः // 18 जयद्रथो हतो राजन्कि नु शेषमुपास्महे // 32 सिंहनादेन भीमस्य पाश्चजन्यस्वनेन च / को वेह स पुमानस्ति यो विजेष्यति पाण्डवम् / गाण्डीवस्य च निर्घोषात्संहृष्यन्ति मनांसि नः॥१९ तस्य चास्त्राणि दिव्यानि विविधानि महात्मनः। चरन्तीव महाविद्युन्मुष्णन्ती नयनप्रभाम् / गाण्डीवस्य च निर्घोषो वीर्याणि हरते हि नः।। 33 अलातमिव चाविद्धं गाण्डीवं समदृश्यत // 20 नष्टचन्द्रा यथा रात्रिः सेनेयं हतनायका / जाम्बूनदविचित्रं च धूयमानं महद्धनुः / नागभग्नद्रुमा शुष्का नदीवाकुलतां गता // 34 रश्यते दिक्षु सर्वासु विद्युदभ्रघनेष्विव // 21 ध्वजिन्यां हतनेत्रायां यथेष्टं श्वेतवाहनः / उह्यमानश्च कृष्णेन वायुनेव बलाहकः / चरिष्यति महाबाहुः कक्षेऽग्निरिव संज्वलन् // 35 तावकं तद्बलं राजन्नर्जुनोऽस्रविदां वरः / / सात्यकेश्चैव यो वेगो भीमसेनस्य चोभयोः / गहनं शिशिरे कक्षं ददाहाग्निरियोत्थितः // 22 दारयेत गिरीन्सर्वाञ्शोषयेत च सागरान् // 36 गाहमानमनीकानि महेन्द्रसदृशप्रभम् / उवाच वाक्यं यद्भीमः सभामध्ये विशां पते / धनंजयमपश्याम चतुर्दन्तमिव द्विपम् / / 23 कृतं तत्सकलं तेन भूयश्चैव करिष्यति // 37 विक्षोभयन्तं सेनां ते त्रासयन्तं च पार्थिवान् / प्रमुखस्थे तदा कर्णे बलं पाण्डवरक्षितम् / धनंजयमपश्याम नलिनीमिव कुञ्जरम् // 24 दुरासदं तथा गुप्तं गूढं गाण्डीवधन्वना // 38 त्रासयन्तं तथा योधान्धनुर्घोषेण पाण्डवम् / युष्माभिस्तानि चीर्णानि यान्यसाधूनि साधुषु / भूय एनमपश्याम सिंहं मृगगणा इव // 25 अकारणकृतान्येव तेषां वः फलमागतम् // 39 सर्वलोकमहेष्वासौ वृषभौ सर्वधन्विनाम् / आत्मनोऽर्थे त्वया लोको यत्नतः सर्व आहृतः / आमुक्तकवचौ कृष्णौ लोकमध्ये विरेजतुः // 26 स ते संशयितस्तात आत्मा च भरतर्षभ // 40 अद्य सप्तदशाहानि वर्तमानस्य भारत / रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम् / संग्रामस्यातिघोरस्य वध्यतां चाभितो युधि // 27 भिन्ने हि भाजने तात दिशो गच्छति तद्गतम्॥४१ वायुनेव विधूतानि तवानीकानि सर्वशः / हीयमानेन वै संधिः पर्येष्टव्यः समेन च / शरदम्भोदजालानि व्यशीर्यन्त समन्ततः // 28 विग्रहो वर्धमानेन नीतिरेषा बृहस्पतेः 42 तां नावमिव पर्यस्ता भ्रान्तवातां महार्णवे / ते वयं पाण्डुपुत्रेभ्यो हीनाः स्वबलशक्तितः / तब सेना महाराज सव्यसाची व्यकम्पयत् // 29 अत्र ते पाण्डवैः सार्धं संधिं मन्ये क्षमं प्रभो // 43 क नु ते सूतपुत्रोऽभूत्क नु द्रोणः सहानुगः।। न जानीते हि यः श्रेयः श्रेयसश्चावमन्यते / अहं क च क चात्मा ते हार्दिक्यश्च तथा क नु / स क्षिप्रं भ्रश्यते राज्यान्न च श्रेयोऽनुविन्दति // 44 दुःशासनश्च भ्राता ते भ्रातृभिः सहितः क नु॥३० प्रणिपत्य हि राजानं राज्यं यदि लभेमहि / बाणगोचरसंप्राप्तं प्रेक्ष्य चैव जयद्रथम् / श्रेयः स्यान्न तु मौढ्येन राजन्गन्तुं पराभवम् // 45 संबन्धिनस्ते भ्रातृ॑श्च सहायान्मातुलांस्तथा // 31 / वैचित्रवीर्यवचनात्कृपाशीलो युधिष्ठिरः / म. भा. 220 - 1809 - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 3. 46 ] महाभारते [9. 4. 22 विनियुञ्जीत राज्ये त्वां गोविन्दवचनेन च // 46 प्रलब्धश्च हृषीकेशस्तच्च कर्म विरोधितम् / यद्याद्धि हृषीकेशो राजानमपराजितम् / स च मे वचनं ब्रह्मन्कथमेवाभिमस्यते // 8 अर्जुनं भीमसेनं च सर्वं कुर्युरसंशयम् // 47 विललाप हि यत्कृष्णा सभामध्ये समेयुषी। नातिक्रमिष्यते कृष्णो वचनं कौरवस्य ह / न तन्मर्षयते कृष्णो न राज्यहरणं तथा // 9 धृतराष्ट्रस्य मन्येऽहं नापि कृष्णस्य पाण्डवः // 48 एकप्राणावुभौ कृष्णावन्योन्यं प्रति संहतौ / एतत्क्षममहं मन्ये तव पार्थैरविग्रहम् / पुरा यच्छ्रुतमेवासीदद्य पश्यामि तत्प्रभो // 10 न त्वा ब्रवीमि कार्पण्यान्न प्राणपरिरक्षणात्।। खस्रीयं च हतं श्रुत्वा दुःखं स्वपिति केशवः / पथ्यं राजन्ब्रवीमि त्वां तत्परासुः स्मरिष्यसि // 49 कृतागसो वयं तस्य स मदर्थं कथं क्षमेत् // 11 इति वृद्धो विलप्यैतत्कृपः शारद्वतो वचः / / अभिमन्योर्विनाशेन न शर्म लभतेऽर्जुनः / दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य शुशोच च मुमोह च // 50 स कथं मद्धिते यत्नं प्रकरिष्यति याचितः // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि मध्यमः पाण्डवस्तीक्ष्णो भीमसेनो महाबलः। तृतीयोऽध्यायः // 3 // प्रतिज्ञातं च तेनोग्रं स भज्येत न संनमेत् / / 13 उभौ तौ बद्धनिस्त्रिंशावुभौ चाबद्धकङ्कटौ / संजय उवाच / कृतवैरावुभौ वीरौ यमावपि यमोपमौ // 14 एवमुक्तस्ततो राजा गौतमेन यशस्विना। धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च कृतवैरौ मया सह / निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च तूष्णीमासीद्विशां पते // 1 तौ कथं मद्धिते यत्नं प्रकुर्यातां द्विजोत्तम // 15 ततो मुहूर्तं स ध्यात्वा धार्तराष्ट्रो महामनाः / दुःशासनेन यत्कृष्णा एकवस्त्रा रजस्वला / कृपं शारद्वतं वाक्यमित्युवाच परंतपः // 2 परिक्लिष्टा सभामध्ये सर्वलोकस्य पश्यतः // 16 यत्किचित्सुहृदा वाच्यं तत्सर्वं श्रावितो ह्यहम् / तथा विवसनां दीनां स्मरन्त्यद्यापि पाण्डवाः / कृतं च भवता सर्व प्राणान्संत्यज्य युध्यता // 3 न निवारयितुं शक्याः संग्रामात्ते परंतपाः // 10 गाहमानमनीकानि युध्यमानं महारथैः / यदा च द्रौपदी कृष्णा मद्विनाशाय दुःखिता। पाण्डवैरतितेजोभिर्लोकस्त्वामनुदृष्टवान् // 4 उग्रं तेपे तपः कृष्णा भर्तृणामर्थसिद्धये / सुहृदा यदिदं वाच्यं भवता श्रावितो ह्यहम् / स्थण्डिले नित्यदा शेते यावद्वैरस्य यातना // 18 न मां प्रीणाति तत्सर्वं मुमूर्षोरिव भेषजम् // 5 निक्षिप्य मानं दपं च वासुदेवसहोदरा / हेतुकारणसंयुक्तं हितं वचनमुत्तमम् / कृष्णायाः प्रेष्यवद्भूत्वा शुश्रूषां कुरुते सदा // 19 उच्यमानं महाबाहो न मे विप्राय रोचते // 6 / इति सर्व समुन्नद्धं न निर्वाति कथंचन / राज्याद्विनिकृतोऽस्माभिः कथं सोऽस्मासु विश्वसेत् / अभिमन्योर्विनाशेन स संधेयः कथं मया // 20 अक्षयूते च नृपतिर्जितोऽस्माभिर्महाधनः / कथं च नाम भुक्त्वेमां पृथिवीं सागराम्बराम् / स कथं मम वाक्यानि श्रद्दध्याद्भूय एव तु // 7 पाण्डवानां प्रसादेन भुञ्जीयां राज्यमल्पकम् // 21 तथा दौत्येन संप्राप्तः कृष्णः पार्थहिते रतः। / उपर्युपरि राज्ञां वै ज्वलितो.भास्करो यथा। - 1810 - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 4. 22 ] शल्यपर्व [9. 4. 50 युधिष्ठिरं कथं पश्चादनुयास्यामि दासवत् // 22 / अपि तैः संगतं मागं वयमप्यारुहेमहि // 37 कयं भुक्त्वा स्वयं भोगान्दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान् / पितामहेन वृद्धेन तथाचार्येण धीमता। कृपणं वर्तयिष्यामि कृपणैः सह जीविकाम् // 23 जयद्रथेन कर्णेन तथा दुःशासनेन च // 38 नाभ्यसूयामि ते वाक्यमुक्तं स्निग्धं हितं त्वया। घटमाना मदर्थेऽस्मिन्हताः शूरा जनाधिपाः / न तु संधिमहं मन्ये प्राप्तकालं कथंचन // 24 शेरते लोहिताक्ताङ्गाः पृथिव्यां शरविक्षताः // 39 सुनीतमनुपश्यामि सुयुद्धेन परंतप / उत्तमास्त्रविदः शूरा यथोक्तक्रतुयाजिनः / नायं क्लीबयितुं कालः संयोद्धं काल एव नः // 25 त्यक्त्वा प्राणान्यथान्यायमिन्द्रसद्मसु धिष्ठिताः॥४० इष्टं मे बहुभिर्यज्ञैर्दत्ता विप्रेषु दक्षिणाः। . तैस्त्वयं रचितः पन्था दुर्गमो हि पुनर्भवेत् / प्राप्ताः क्रमश्रुता वेदाः शत्रूणां मूर्ध्नि च स्थितम् / / संपतद्भिर्महावेगैरितो याद्भिश्च सद्गतिम् // 41 / मृत्या मे सुभृतास्तात दीनश्चाभ्युद्धृतो जनः / ये मदर्थे हताः शूरास्तेषां कृतमनुस्मरन् / यातानि परराष्ट्राणि स्वराष्ट्रमनुपालितम् // 27 ऋणं तत्प्रतिमुश्चानो न राज्ये मन आदधे // 42 मुक्ताश्च विविधा भोगास्त्रिवर्गः सेवितो मया। पातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातृनथ पितामहान् / पितॄणां गतमानृण्यं क्षत्रधर्मस्य चोभयोः // 28 जीवितं यदि रक्षेयं लोको मां गर्हयेवम् // 43 न ध्रुवं सुखमस्तीह कुतो राज्यं कुतो यशः / / कीदृशं च भवेद्राज्यं मम हीनस्य बन्धुभिः / रह कीर्तिर्विधातव्या सा च युद्धेन नान्यथा // 29 सखिभिश्च सुहृद्भिश्च प्रणिपत्य च पाण्डवम् // 44 गृहे यत्क्षत्रियस्यापि निधनं तद्विगर्हितम् / सोऽहमेतादृशं कृत्वा जगतोऽस्य पराभवम् / अधर्मः सुमहानेष यच्छय्यामरणं गृहे // 30 सुयुद्धेन ततः स्वर्गं प्राप्स्यामि न तदन्यथा // 45 अरण्ये यो विमुञ्चेत संग्रामे वा तनुं नरः / एवं दुर्योधनेनोक्तं सर्वे संपूज्य तद्वचः / तूनाहृत्य महतो महिमानं स गच्छति // 31 साधु साध्विति राजानं क्षत्रियाः संबभापिरे॥४६ कृपणं विलपन्ना” जरयाभिपरिप्लुतः / पराजयमशोचन्तः कृतचित्ताश्च विक्रमे / नियते रुदतां मध्ये ज्ञातीनां न स पूरुषः / / 32 सर्वे सुनिश्चिता यो मुद्ग्रमनसोऽभवन् // 47 यक्त्वा तु विविधान्भोगान्प्राप्तानां परमां गतिम् / ततो वाहान्समाश्वास्य सर्वे युद्धाभिनन्दिनः / अपीदानीं सुयुद्धेन गच्छेयं सत्सलोकताम् // 33 ऊने द्वियोजने गत्वा प्रत्यतिष्ठन्त कौरवाः // 48 शूराणामार्यवृत्तानां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् / आकाशे विद्रुमे पुण्ये प्रस्थे हिमवतः शुभे। धीमतां सत्यसंधानां सर्वेषां ऋतुयाजिनाम् // 34 अरुणां सरस्वतीं प्राप्य पपुः सस्नुश्च तज्जलम् // 49 शस्त्रावभृथमाप्तानां ध्रुवं वासस्त्रिविष्टपे / तव पुत्राः कृतोत्साहाः पर्यवर्तन्त ते ततः / मुदा नूनं प्रपश्यन्ति शुभ्रा ह्यप्सरसां गणाः // 35 पर्यवस्थाप्य चात्मानमन्योन्येन पुनस्तदा / पश्यन्ति नूनं पितरः पूजिताञ्शक्रसंसदि / सर्वे राजन्न्यवर्तन्त क्षत्रियाः कालचोदिताः // 50 अप्सरोभिः परिवृतान्मोदमानांस्त्रिविष्टपे // 36 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि न्थानममरैर्यातं शुरैश्चैवानिवर्तिभिः / चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ - 1811 - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 5. 1] महाभारते [9. 5.26 आराध्य त्र्यम्बकं यत्नाद्रतैरुप्रैर्महातपाः / संजय उवाच। अयोनिजायामुत्पन्नो द्रोणेनायोनिजेन यः // 15 अथ हैमवते प्रस्थे स्थित्वा युद्धाभिनन्दिनः / तमप्रतिमकर्माणं रूपेनासदृशं भुवि / सर्व एव महाराज योधास्तत्र समागताः // 1 पारगं सर्वविद्यानां गुणार्णवमनिन्दितम् / शल्यश्च चित्रसेनश्च शकुनिश्च महारथः / तमभ्येत्यात्मजस्तुभ्यमश्वत्थामानमब्रवीत् // 16 अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः // 2 यं पुरस्कृत्य सहिता युधि जेष्याम पाण्डवान् / सुषेणोऽरिष्टसेनश्च धृतसेनश्च वीर्यवान् / गुरुपुत्रोऽद्य सर्वेषामस्माकं परमा गतिः / जयत्सेनश्च राजानस्ते रात्रिमुषितास्ततः // 3 भवांस्तस्मान्नियोगात्ते कोऽस्तु सेनापतिर्मम // 15 रणे कर्णे हते वीरे त्रासिता जितकाशिभिः / द्रौणिरुवाच / नालभशर्म ते पुत्रा हिमवन्तमृते गिरिम् // 4 / / अयं कुलेन वीर्येन तेजसा यशसा श्रिया। तेऽब्रुवन्सहितास्तत्र राजानं सैन्यसंनिधौ। सर्वैर्गुणैः समुदितः शल्यो नोऽस्तु चमूपतिः॥१८ कृतयत्ना रणे राजन्संपूज्य विधिवत्तदा // 5 भागिनेयान्निजांस्त्यक्त्वा कृतज्ञोऽस्मानुपागतः। कृत्वा सेनाप्रणेतारं परांस्त्वं योद्धमर्हसि / महासेनो महाबाहुर्महासेन इवापरः // 19 येनाभिगुप्ताः संग्रामे जयेमासुहृदो वयम् // 6 एनं सेनापतिं कृत्वा नृपतिं नृपसत्तम / ततो दुर्योधनः स्थित्वा रथे रथवरोत्तमम् / शक्यः प्राप्तुं जयोऽस्माभिर्देवैः स्कन्दमिवाजितम्॥ सर्वयुद्धविभागज्ञमन्तकप्रतिमं युधि // 7 तथोक्ते द्रोणपुत्रेण सर्व एव नराधिपाः / स्वङ्गं प्रच्छन्नशिरसं कम्बुग्रीवं प्रियंवदम् / परिवार्य स्थिताः शल्यं जयशब्दांश्च चक्रिरे। व्याकोशपद्माभिमुखं व्याघ्रास्यं मेरुगौरवम् // 8 युद्धाय च मतिं चक्रुरावेशं च परं ययुः // 21 स्थाणोवृषस्य सदृशं स्कन्धनेत्रगतिस्वरैः / / ततो दुर्योधनः शल्यं भूमौ स्थित्वा रथे स्थितम् / पुष्टश्लिष्टायतभुजं सुविस्तीर्णघनोरसम् // 9 उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा रामभीष्मसमं रणे // 22 जवे बले च सदृशमरुणानुजवातयोः / अयं स कालः संप्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल / आदित्यस्य त्विषा तुल्यं बुद्ध्या चोशनसा समम्॥ यत्र मित्रममित्रं वा परीक्षन्ते बुधा जनाः // 23 कान्तिरूपमुखैश्वर्यैत्रिभिश्चन्द्रमसोपमम् / स भवानस्तु नः शूरः प्रणेता वाहिनीमुखे / काश्चनोपलसंघातैः सदृशं श्लिष्टसंधिकम् // 11 रणं च याते भवति पाण्डवा मन्दचेतसः / सुवृत्तोरुकटीजङ्घ सुपादं स्वङ्गुलीनखम् / भविष्यन्ति सहामात्याः पाश्चालाश्च निरुद्यमाः॥२४ स्मृत्वा स्मृत्वैव च गुणान्धात्रा यत्नाद्विनिर्मितम्॥१२ शल्य उवाच / सर्वलक्षणसंपन्नं निपुणं श्रुतिसागरम् / यत्तु मां मन्यसे राजन्कुरुराज करोमि तत् / . जेतारं तरसारीणामजेयं शत्रुभिर्बलात् // 13 त्वत्प्रियार्थं हि मे सर्व प्राणा राज्यं धनानि च // 25 दशाङ्गं यश्चतुष्पादमिध्वस्त्रं वेद तत्त्वतः / दुर्योधन उवाच / साङ्गांश्च चतुरो वेदान्सम्यगाख्यानपश्चमान् // 14 / सेनापत्येन वरये त्वामहं मातुलातुलम् / - 1812 - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 5. 26 ] शल्यपर्व [9. 6. 23 सोऽस्मान्पाहि युधां श्रेष्ठ स्कन्दो देवानिवाहवे॥२६ / एवं संस्तूयमानस्तु मद्राणामधिपो बली / अभिषिच्यस्व राजेन्द्र देवानामिव पावकिः। हर्ष प्राप तदा वीरो दुरापमकृतात्मभिः // 10 जहि शत्रूरणे वीर महेन्द्रो दानवानिव // 27 शल्य उवाच / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि अद्यैवाहं रणे सर्वान्पाञ्चालान्सह पाण्डवैः / पञ्चमोऽध्यायः // 5 // निहनिष्यामि राजेन्द्र स्वर्ग यास्यामि वा हतः॥११ अद्य पश्यन्तु मां लोका विचरन्तमभीतवत् / संजय उवाच / अद्य पाण्डुसुताः सर्वे वासुदेवः ससात्यकिः // 12 एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञो मद्रराजः प्रतापवान् / पाञ्चालाश्चेदयश्चैव द्रौपदेयाश्च सर्वशः / दुर्योधनं तदा राजन्वाक्यमेतदुवाच ह // 1. धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च सर्वे चापि प्रभद्रकाः॥१३ दुर्योधन महाबाहो शृणु वाक्यविदां वर / विक्रमं मम पश्यन्तु धनुषश्च महद्बलम् / यावेतौ मन्यसे कृष्णौ रथस्थौ रथिनां वरौ / लाघवं चास्त्रवीर्यं च भुजयोश्च बलं युधि // 14 न मे तुल्यावुभावेतौ बाहुवीर्ये कथंचन // 2 अद्य पश्यन्तु मे पार्थाः सिद्धाश्च सह चारणैः / उद्यतां पृथिवीं सर्वां ससुरासुरमानवाम् / यादृशं मे बलं बाह्वोः संपदस्रेषु या च मे // 15 योधयेयं रणमुखे संक्रुद्धः किमु पाण्डवान् / अद्य मे विक्रमं दृष्ट्वा पाण्डवानां महारथाः / विजेध्ये च रणे पार्थान्सोमकांश्च समागतान् // 3 प्रतीकारपरा भूत्वा चेष्टन्तां विविधाः क्रियाः॥१६ अहं सेनाप्रणेता ते भविष्यामि न संशयः / अद्य सैन्यानि पाण्डूनां द्रावयिष्ये समन्ततः / तं च व्यूहं विधास्यामि न तरिष्यन्ति यं परे। द्रोणभीष्मावति विभो सूतपुत्रं च संयुगे / इति सत्यं ब्रवीम्येष दुर्योधन न संशयः // 4 विचरिष्ये रणे युध्यन्प्रियार्थं तव कौरव // 17 एवमुक्तस्ततो राजा मद्राधिपतिमञ्जसा / संजय उवाच / अभ्यषिश्चत सेनाया मध्ये भरतसत्तम / अभिषिक्ते तदा शल्ये तव सैन्येषु मानद / विधिना शास्त्रदृष्टेन हृष्टरूपो विशां पते // 5 न कर्णव्यसनं किंचिन्मेनिरे तत्र भारत // 18 अभिषिक्ते ततस्तस्मिन्सिहनादो महानभूत् / हृष्टाः सुमनसश्चैव बभूवुस्तत्र सैनिकाः। तब सैन्येष्ववाद्यन्त वादित्राणि च भारत // 6 मेनिरे निहतान्पार्थान्मद्रराजवशं गतान् // 19 दृष्टाश्चासंस्तदा योधा मद्रकाश्च महारथाः / प्रहर्ष प्राप्य सेना तु तावकी भरतर्षभ। तुष्टुवुश्चैव राजानं शल्यमाहवशोभिनम् // 7 तां रात्रिं सुखिनी सुप्ता स्वस्थचित्तेव साभवत् // 20 जय राजंश्चिरं जीव जहि शत्रून्समागतान् / सैन्यस्य तव तं शब्दं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः / तव बाहुबलं प्राप्य धार्तराष्ट्रा महाबलाः / वार्ष्णेयमब्रवीद्वाक्यं सर्वक्षत्रस्य शृण्वतः // 21 निखिलां पृथिवीं सर्वां प्रशासन्तु हतद्विषः // 8 मद्रराजः कृतः शल्यो धार्तराष्ट्रेण माधव / त्वं हि शक्तो रणे जेतुं ससुरासुरमानवान् / सेनापतिर्महेष्वासः सर्वसैन्येषु पूजितः // 22 मर्त्यधर्माण इह तु किमु सोमकसृञ्जयान् // 9 / एतच्छ्रुत्वा यथाभूतं कुरु माधव यत्क्षमम् / - 1813 - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 6. 23] महाभारते [9.7.8 भवान्नेता च गोप्ता च विधत्स्व यदनन्तरम् / / 23 तदर्शय रणे सर्व जहि चैनं महारथम् // 3. तमब्रवीन्महाराज वासुदेवो जनाधिपम् / / एतावदुक्त्वा वचनं केशवः परवीरहा / आत्यनिमहं जाने यथातत्त्वेन भारत // 24 जगाम शिबिरं सायं पूज्यमानोऽथ पाण्डवैः // 38 वीर्यवांश्च महातेजा महात्मा च विशेषतः / केशवे तु तदा याते धर्मराजो युधिष्ठिरः / कृती च चित्रयोधी च संयुक्तो लाघवेन च // 25 | विसृज्य सर्वान्भ्रातूंश्च पाश्चालानथ सोमकान् / यादृग्भीष्मस्तथा द्रोणो यादृक्कर्णश्च संयुगे। सुष्वाप रजनी तां तु विशल्य इव कुञ्जरः // 39 तादृशस्तद्विशिष्टो वा मद्रराजो मतो मम // 26 ते च सर्वे महेष्वासाः पाञ्चालाः पाण्डवास्तथा। युध्यमानस्य तस्याजौ चिन्तयन्नेव भारत / कर्णस्म निधने हृष्टाः सुषुपुस्तां निशां तदा // 40 योद्धारं नाधिगच्छामि तुल्यरूपं जनाधिप // 27 गतज्वरं महेष्वासं तीर्णपारं महारथम् / शिखण्ड्यर्जुनभीमानां सात्वतस्य च भारत / बभूव पाण्डवेयानां सैन्यं प्रमुदितं निशि / धृष्टद्यम्नस्य च तथा बलेनाभ्यधिको रणे // 28 सतपत्रस्य निधने जयं लब्ध्वा च मारिष // 41 मद्रराजो महाराज सिंहद्विरदविक्रमः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि विचरिष्यत्यभीः काले कालः क्रुद्धः प्रजास्विव // 29 षष्ठोऽध्यायः // 6 // तस्याद्य न प्रपश्यामि प्रतियोद्धारमाहवे। त्वामृते पुरुषव्याघ्र शार्दूलसमविक्रमम् // 30 संजय उवाच / सदेवलोके कृत्स्नेऽस्मिन्नान्यस्त्वत्तः पुमान्भवेत् / व्यतीतायां रजन्यां तु राजा दुर्योधनस्तदा / मद्रराजं रणे क्रुद्धं यो हन्यात्कुरुनन्दन / अब्रवीत्तावकान्सर्वान्संनह्यन्तां महारथाः // 1 अहन्यहनि युध्यन्तं क्षोभयन्तं बलं तव / / 31 राज्ञस्तु मतमाज्ञाय समनह्यत सा चमूः / तस्माजहि रणे शल्यं मघवानिव शम्बरम् / अयोजयन्रथांस्तूर्णं पर्यधावंस्तथापरे / 2 अतिपश्चादसौ वीरो धार्तराष्ट्रेण सत्कृतः // 32 अकल्प्यन्त च मातङ्गाः समनह्यन्त पत्तयः। . तवैव हि जयो नूनं हते मद्रेश्वरे युधि / हयानास्तरणोपेतांश्चक्रुरन्ये सहस्रशः // 3 तस्मिन्हते हतं सर्वं धार्तराष्ट्रबलं महत् // 33 वादित्राणां च निनदः प्रादुरासीद्विशां पते / एतच्छ्रुत्वा महाराज वचनं मम सांप्रतम् / बोधनार्थं हि योधानां सैन्यानां चाप्युदीर्यताम् // 4 प्रत्युद्याहि रणे पार्थ मद्रराजं महाबलम् / ततो बलानि सर्वाणि सेनाशिष्टानि भारत / जहि चैनं महाबाहो वासवो नमुचिं यथा // 34 संनद्धान्येव ददृशुर्मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 5 न चैवात्र दया कार्या मातुलोऽयं ममेति वै / शल्यं सेनापति कृत्वा मद्रराजं महारथाः। क्षत्रधर्म पुरस्कृत्य जहि मद्रजनेश्वरम् // 35 प्रविभज्य बलं सर्वमनीकेषु व्यवस्थिताः // 6 भीष्मद्रोणार्णवं तीर्खा कर्णपातालसंभवम् / ततः सर्वे समागम्य पुत्रेण तव सैनिकाः / मा निमज्जस्व सगणः शल्यमासाद्य गोष्पदम् // 36 / कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिः शल्योऽथ सौबलः // . यच्च ते तपसो वीर्यं यच्च क्षात्रं बलं तव / अन्ये च पार्थिवाः शेषाः समयं चक्रिरे तदा / - 1814 - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.7.8] शल्यपर्व [9. 7. 36 न न एकेन योद्धव्यं कथंचिदपि पाण्डवैः / / 8 रथप्रवरमास्थाय सैन्धवाश्वं महारथः / यो ह्येकः पाण्डवैर्युध्येद्यो वा युध्यन्तमुत्सृजेत् / तस्य सीता महाराज रथस्थाशोभयद्रथम् // 21 स पञ्चभिर्भवेद्युक्तः पातकैः सोपपातकैः / / स तेन संवृतो वीरो रथेनामित्रकर्शनः। अन्योन्यं परिरक्षद्भिर्योद्धव्यं सहितैश्च नः // 9 तस्थौ शूरो महाराज पुत्राणां ते भयप्रणुत् // 22 एवं ते समयं कृत्वा सर्वे तत्र महारथाः / प्रयाणे मद्रराजोऽभून्मुखं व्यूहस्य दंशितः / मद्रराजं पुरस्कृत्य तूर्णमभ्यद्रवन्परान् // 10 मद्रकैः सहितो वीरैः कर्णपुत्रैश्च दुर्जयैः / / 23 तथैव पाण्डवा राजन्व्यूह्य सैन्यं महारणे / सव्येऽभूत्कृतवर्मा च त्रिगतैः परिवारितः / अभ्ययुः कौरवान्सर्वान्योत्स्यमानाः समन्ततः॥११ गौतमो दक्षिणे पार्श्व शकैश्च यवनैः सह // 24 उद्बलं भरतश्रेष्ठ क्षुब्धार्णवसमस्वनम् / . अश्वत्थामा पृष्ठतोऽभूत्काम्बोजैः परिवारितः / समुद्भूतार्णवाकारमुद्धृतरथकुञ्जरम् // 12 दुर्योधनोऽभवन्मध्ये रक्षितः कुरुपुंगवैः / / 25 धृतराष्ट्र उवाच / हयानीकेन महता सौबलश्चापि संवृतः / द्रोणस्य भीष्मस्य च वै राधेयस्य च मे श्रुतम्। प्रययौ सर्वसैन्येन कैतव्यश्च महारथः // 26 पातनं शंस मे भूयः शल्यस्याथ सुतस्य मे // 13 पाण्डवाश्च महेष्वासा व्यूह्य सैन्यमरिंदमाः। कथं रणे हतः शल्यो धर्मराजेन संजय / त्रिधा भूत्वा महाराज तव सैन्यमुपाद्रवन् // 27 मीमेन च महाबाहुः पुत्रो दुर्योधनो मम // 14 धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च सात्यकिश्च महारथः / संजय उवाच / शल्यस्य वाहिनीं तूर्णमभिदुद्रुवुराहवे / / 28 अयं मनुष्यदेहानां रथनागाश्वसंक्षयम् / ततो युधिष्ठिरो राजा स्वेनानीकेन संवृतः / शृणु राजस्थिरो भूत्वा संग्रामं शंसतो मम // 15 शल्यमेवाभिदुद्राव जिघांसुभरतर्षभ / / 29 पाशा बलवती राजन्पुत्राणां तेऽभवत्तदा / हार्दिक्यं तु महेष्वासमर्जुनः शत्रुपूगहा / हते भीष्मे च द्रोणे च सूतपुत्रे च पातिते / संशप्तकगणांश्चैव वेगतोऽभिविदुद्रुवे // 30 शल्यः पार्थान्रणे सर्वानिहनिष्यति मारिष // 16 गौतमं भीमसेनो वै सोमकाश्च महारथाः / तामाशां हृदये कृत्वा समाश्वास्य च भारत / अभ्यद्रवन्त राजेन्द्र जिघांसन्तः परान्युधि // 31 मद्रराजं च समरे समाश्रित्य महारथम् / माद्रीपुत्रौ तु शकुनिमुलूकं च महारथौ। नाथवन्तमथात्मानममन्यत सुतस्तव // 17 ससैन्यौ सहसेनौ तावुपतस्थतुराहवे / / 32 यदा कर्णे हते पार्थाः सिंहनादं प्रचक्रिरे / तथैवायुतशो योधास्तावकाः पाण्डवारणे / तदा राजन्धार्तराष्ट्रानाविवेश महद्भयम् // 18 अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धा विविधायुधपाणयः // 33 तान्समाश्वास्य तु तदा मद्रराजः प्रतापवान् / धृतराष्ट्र उवाच / ज्यूह्य व्यूह महाराज सर्वतोभद्रमृद्धिमत् // 19 हते भीष्मे महेष्वासे द्रोणे कर्णे महारथे / प्रत्युद्यातो रणे पार्थान्मद्रराजः प्रतापवान् / कुरुष्वल्पावशिष्टेषु पाण्डवेषु च संयुगे // 34 विधुन्वन्कार्मुकं चित्रं भारघ्नं वेगवस्तरम् / / 20 / सुसंरब्धेषु पार्थेषु पराक्रान्तेषु संजय / - 1815 - Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 7. 35] महाभारते [9. 8. 18 मामकानां परेषां च किं शिष्टमभवद्बलम् // 35 अश्रूयत यथा काले जलदानां नभस्तले // 3 संजय उवाच। नागैरभ्याहताः केचित्सरथा रथिनोऽपतन् / यथा वयं परे राजन्युद्धाय समवस्थिताः / व्यद्रवन्त रणे वीरा द्राव्यमाणा मदोत्कटैः // 4 यावच्चासीद्बलं शिष्टं संग्रामे तन्निबोध मे // 36 हयौघान्पादरक्षांश्च रथिनस्तत्र शिक्षिताः / एकादश सहस्राणि रथानां भरतर्षभ / शरैः संप्रेषयामासुः परलोकाय भारत // 5 . दश दन्तिसहस्राणि सप्त चैव शतानि च // 37 सादिनः शिक्षिता राजन्परिवार्य महारथान् / पूर्णे शतसहस्र द्वे हयानां भरतर्षभ / विचरन्तो रणेऽभ्यनन्प्रासशक्त्यष्टिभिस्तथा // 6 नरकोट्यस्तथा तिस्रो बलमेतत्तवाभवत् // 38 धन्विनः पुरुषाः केचित्संनिवार्य महारथान् / रथानां षट्सहस्राणि षट्सहस्राश्च कुञ्जराः / एकं बहव आसाद्य प्रेषयेयुर्यमक्षयम् // 7 दश चाश्वसहस्राणि पत्तिकोटी च भारत // 39 | नागं रथवरांश्चान्ये परिवार्य महारथाः / . एतद्बलं पाण्डवानामभवच्छेषमाहवे। सोत्तरायुधिनं जघ्नुर्द्रवमाणा महारवम् // 8 एत एव समाजग्मुर्युद्धाय भरतर्षभ / / 40 तथा च रथिनं क्रुद्धं विकिरन्तं शरान्बहून् / एवं विभज्य राजेन्द्र मद्रराजमते स्थिताः / नागा जन्नुर्महाराज परिवार्य समन्ततः // 9 पाण्डवान्प्रत्युदीयाम जयगृद्धाः प्रमन्यवः // 41 नागो नागमभिद्रुत्य रथी च रथिनं रणे। तथैव पाण्डवाः शूराः समरे जितकाशिनः / शक्तितोमरनाराचैर्निजन्नुस्तत्र तत्र ह // 10 . उपयाता नरव्याघ्राः पाञ्चालाश्च यशस्विनः // 42 पादातानवमृद्गन्तो रथवारणवाजिनः / एवमेते बलौघेन परस्परवधैषिणः / / रणमध्ये व्यदृश्यन्त कुर्वन्तो महदाकुलम् // 11 उपयाता नरव्याघ्राः पूर्वां संध्यां प्रति प्रभो // 43 हयाश्च पर्यधावन्त चामरैरुपशोभिताः। ततः प्रववृते युद्धं घोररूपं भयानकम् / हंसा हिमवतः प्रस्थे पिबन्त इव मेदिनीम् // 12 तावकानां परेषां च निघ्नतामितरेतरम् // 44 तेषां तु वाजिनां भूमिः खुरैश्चित्रा विशां पते / अशोभत यथा नारी करजक्षतविक्षता // 13 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि वाजिनां खुरशब्देन रथनेमिस्वनेन च / सप्तमोऽध्यायः॥७॥ पत्तीनां चापि शब्देन नागानां बृंहितेन च // 14 वादित्राणां च घोषेण शङ्खानां निस्वनेन च। . संजय उवाच / अभवन्नादिता भूमिर्निर्घातैरिव भारत // 15 ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां भयवर्धनम् / धनुषां कूजमानानां निस्विंशानां च दीप्यताम् / सृञ्जयैः सह राजेन्द्र घोरं देवासुरोपमम् // 1 कवचानां प्रभाभिश्च न प्राज्ञायत किंचन / / 16 नरा रथा गजौघाश्च सादिनश्च सहस्रशः / बहवो बाहवश्छिन्ना नागराजकरोपमाः / वाजिनश्च पराक्रान्ताः समाजग्मुः परस्परम् // 2- उद्वेष्टन्ते विवेष्टन्ते वेगं कुर्वन्ति दारुणम् // 17 नागानां भीमरूपाणां द्रवतां निस्वनो महान् / | शिरसां च महाराज पततां वसुधातले। - 1816 - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 8. 18] शल्यपर्व [9. 8.46 व्युतानामिव तालेभ्यः फलानां श्रूयते स्वनः // 18 तेरुर्वाहननौभिस्ते शूराः परिघबाहवः // 33 शिरोभिः पतितैाति रुधिरावसुंधरा / / वर्तमाने तथा युद्ध निर्मयदि विशां पते / तपनीयनिभैः काले नलिनैरिव भारत // 19 चतुरङ्गक्षये घोरे पूर्वं देवासुरोपमे // 34 वृत्तनयनैस्तैस्तु गतसत्त्वैः सुविक्षतैः / अक्रोशन्बान्धवानन्ये तत्र तत्र परंतप / ज्यभ्राजत महाराज पुण्डरीकैरिवावृता // 20 क्रोशद्भिर्बान्धवैश्वान्ये भयार्ता न निवर्तिरे // 35 बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः सकेयूरैर्महाधनैः / निर्मर्यादे तथा युद्धे वर्तमाने भयानके / पतितै ति राजेन्द्र मही शक्रध्वजैरिव // 21 अर्जुनो भीमसेनश्च मोहयांचक्रतुः परान् // 36 अरुभिश्च नरेन्द्राणां विनिकृत्तैर्महाहवे। सा वध्यमाना महती सेना तव जनाधिप / हस्तिहस्तोपमैरन्यैः संवृतं तद्रणाङ्गणम् // 22 .. अमुह्यत्तत्र तत्रैव योषिन्मदवशादिव // 37 कबन्धशतसंकीर्णं छत्रचामरशोभितम् / मोहयित्वा च तां सेनां भीमसेनधनंजयौ / सेनावनं तच्छुशुभे वनं पुष्पाचितं यथा // 23 दध्मतुर्वारिजौ तत्र सिंहनादं च नेदतुः // 38 तत्र योधा महाराज विचरन्तो ह्यभीतवत् / श्रुत्वैव तु महाशब्दं धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ / दृश्यन्ते रुधिराक्ताङ्गाः पुष्पिता इव किंशुकाः॥२४ धर्मराजं पुरस्कृत्य मद्रराजमभिद्रुतौ // 39 मातङ्गाश्चाप्यदृश्यन्त शरतोमरपीडिताः / तत्राश्चर्यमपश्याम घोररूपं विशां पते / पतन्तस्तत्र तत्रैव छिन्नाभ्रसदृशा रणे // 25 शल्येन संगताः शूरा ययुध्यन्त भागशः // 40 मजानीकं महाराज वध्यमानं महात्मभिः / माद्रीपुत्रौ सरभसौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ / व्यदीर्यत दिशः सर्वा वातनुन्ना घना इव // 26 अभ्ययातां त्वरायुक्तौ जिगीषन्तौ बलं तव // 41 से गजा घनसंकाशाः पेतुरुर्त्यां समन्ततः / ततो न्यवर्तत बलं तावकं भरतर्षभ / वनरुग्णा इव बभुः पर्वता युगसंक्षये // 27 शरैः प्रणुन्नं बहुधा पाण्डवैर्जितकाशिभिः // 42 हयानां सादिभिः सार्धं पतितानां महीतले / वध्यमाना चमूः सा तु पुत्राणां प्रेक्षतां तव / राशयः संप्रदृश्यन्ते गिरिमात्रास्ततस्ततः // 28 भेजे दिशो महाराज प्रणुन्ना दृढधन्विभिः / संजज्ञे रणभूमौ तु परलोकवहा नदी / हाहाकारो महाञ्जज्ञे योधानां तव भारत // 43 शोणितोदा रथावर्ता ध्वजवृक्षास्थिशर्करा // 29 तिष्ठ तिष्ठेति वागासीद्वावितानां महात्मनाम् / भुजनका धनुःस्रोता हस्तिशैला हयोपला / क्षत्रियाणां तदान्योन्यं संयुगे जयमिच्छताम् / मेदोमज्जाकर्दमिनी छत्रहंसा गदोडुपा / / 30 आद्रवन्नेव भग्नास्ते पाण्डवैस्तव सैनिकाः // 44 कवचोष्णीपसंछन्ना पताकारुचिरद्रुमा। त्यक्त्वा युद्धे प्रियान्पुत्रान्भ्रातृनथ पितामहान् / चक्रचक्रावलीजुष्टा त्रिवेणूदण्डकावृता // 31 मातुलान्भागिनेयांश्च तथा संबन्धिबान्धवान् // 45 शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धिनी / हयान्द्विपांस्त्वरयन्तो योधा जग्मुः समन्ततः / प्रावर्तत नदी रौद्रा कुरुसृञ्जयसंकुला // 32 आत्मत्राणकृतोत्साहास्तावका भरतर्षभ // 46 तां नदी पितृलोकाय वहन्तीमतिभैरवाम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि अष्टमोऽध्यायः // 8 // म.भा. 228 -1817 - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.9.1] महाभारते [9. 9. 28 तथा ध्वजं सारथिं च त्रिभिस्त्रिभिरपातयत्॥११ संजय उवाच। स शत्रुभुजनिर्मुक्तैर्ललाटस्थैस्त्रिभिः शरैः। तत्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा मद्रराजः प्रतापवान् / नकुलः शुशुभे राजस्त्रिशृङ्ग इव पर्वतः // 15 उवाच सारथि तूंर्णं चोदयाश्वान्महाजवान् // 1 स छिन्नधन्वा विरथः खड्गमादाय चर्म च / . एष तिष्ठति वै राजा पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।। रथादवातरद्वीरः शैलाग्रादिव केसरी // 16 छत्रेण ध्रियमाणेन पाण्डुरेण विराजता // 2 पद्भधामापततस्तस्य शरवृष्टिमवासृजत् / अत्र मां प्रापय क्षिप्रं पश्य मे सारथे बलम् / / नकुलोऽप्यग्रसत्तां वै चर्मणा लघुविक्रमः // 17 न समर्था हि मे पार्थाः स्थातुमद्य पुरो युधि // 3 चित्रसेनरथं प्राप्य चित्रयोधी जितश्रमः / एवमुक्तस्ततः प्रायान्मद्रराजस्य सारथिः। आरुरोह महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यतः // 18 यत्र राजा सत्यसंधो धर्मराजो युधिष्ठिरः // 4 सकुण्डलं समुकुटं सुनसं स्वायतेक्षणम् / आपतन्तं च सहसा पाण्डवानां महदलम् / चित्रसेनशिरः कायादपाहरत पाण्डवः / दधारको रणे शल्यो वेलेवोद्वृत्तमर्णवम् // 5 स पपात रथोपस्थादिवाकरसमप्रभः // 19 पाण्डवानां बलौघस्तु शल्यमासाद्य मारिष / चित्रसेनं विशस्तं तु दृष्टया तत्र महारथाः / व्यतिष्ठत तदा युद्धे सिन्धोर्वेग इवाचलम् // 6 साधुवादस्वनांश्चक्रुः सिंहनादांश्च पुष्कलान् // 20 मद्रराजं तु समरे दृष्ट्वा युद्धाय विष्टितम् / विशस्तं भ्रातरं दृष्ट्वा कर्णपुत्रौ महारथौ। कुरवः संन्यवर्तन्त मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् / / 7 सुषेणः सत्यसेनश्च मुञ्चन्तौ निशिताशरान् // 21 तेषु राजन्निवृत्तेषु व्यूढानीकेषु भागशः / ततोऽभ्यधावतां तूर्णं पाण्डवं रथिनां वरम् / प्रावर्तत महारौद्रः संग्रामः शोणितोदकः / जिघांसन्तौ यथा नागं व्याघ्रौ राजन्महावने // 22 समाईच्चित्रसेनेन नकुलो युद्धदुर्मदः // 8 तावभ्यधावतां तीक्ष्णो द्वावप्येनं महारथम् / तौ परस्परमासाद्य चित्रकार्मुकधारिणौ / शरौघान्सम्यगस्यन्तौ .जीमूतौ सलिलं यथा // 23 मेघाविव यथोद्वृत्तौ दक्षिणोत्तरवर्षिणौ // 9 स शरैः सर्वतो विद्धः प्रहृष्ट इव पाण्डवः / शरतोयैः सिषिचतुस्तौ परस्परमाहवे / अन्यत्कार्मुकमादाय रथमारुह्य वीर्यवान् / नान्तरं तत्र पश्यामि पाण्डवस्येतरस्य वा॥ 10 अतिष्ठत रणे वीरः क्रुद्धरूप इवान्तकः // 24 उभौ कृतास्रौ बलिनौ रथचर्याविशारदौ / तस्य तौ भ्रातरौ राजशरैः संनतपर्वभिः / परस्परवधे यत्तौ छिद्रान्वेषणतत्परौ // 11 रथं विशकलीकर्तुं समारब्धौ विशां पते // 25 चित्रसेनस्तु भल्लेन पीतेन निशितेन च / ततः प्रहस्य नकुलश्चतुर्भिश्चतुरो रणे / नकुलस्य महाराज मुष्टिदेशेऽच्छिनद्धनुः // 12 जघान निशितैस्तीक्ष्णैः सत्यसेनस्य वाजिनः // 26 अथैनं छिन्नधन्वानं रुक्मपुङ्खः शिलाशितैः / ततः संधाय नाराचं रुक्मपुङ्ख शिलाशितम् / त्रिभिः शरैरसंभ्रान्तो ललाटे वै समर्पयत् / / 13 / धनुश्चिच्छेद राजेन्द्र सत्यसेनस्य पाण्डवः // 27 हयांश्चास्य शरैस्तीक्ष्णैः प्रेषयामास मृत्यवे / अथान्यं रथमास्थाय धनुरादाय चापरम् / - 1818 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 9. 28 ] शल्यपर्व [9.9. 57 सत्यसेनः सुषेणश्च पाण्डवं पर्यधावताम् // 28 तावुभौ शरवर्षाभ्यां समासाद्य परस्परम् / अविध्यत्तावसंभ्रान्तौ माद्रीपुत्रः प्रतापवान् / परस्परवधे यत्नं चक्रतुः सुमहारथौ // 43 द्वाभ्यां द्वाभ्यां महाराज शराभ्यां रणमूर्धनि // 29 / सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवं विशिखैत्रिभिः / सुषेणस्तु ततः क्रुद्धः पाण्डवस्य महद्धनुः / सुतसोमं च विंशत्या बाह्वोरुरसि चार्पयत् // 44 चिच्छेद प्रहसन्युद्धे क्षुरप्रेण महारथः // 30 ततः क्रुद्धो महाराज नकुलः परवीरहा। अथान्यद्धनुरादाय नकुलः क्रोधमूर्छितः / शरैस्तस्य दिशः सर्वाश्छादयामास वीर्यवान् // 45 सुषेणं पश्चभिर्विद्या ध्वजमेकेन चिच्छिदे / / 31 / ततो गृहीत्वा तीक्ष्णाग्रमर्धचन्द्रं सुतेजनम् / सत्यसेनस्य च धनुर्हस्तावापं च मारिष / / स वेगयुक्तं चिक्षेप कर्णपुत्रस्य संयुगे // 46 चिच्छेद तरसा युद्धे तत उच्चुक्रुशुर्जनाः // 32 तस्य तेन शिरः कायाजहार नृपसत्तम / अथान्यद्धनुरादाय वेगन्नं भारसाधनम् / पश्यतां सर्वसैन्यानां तदद्भुतमिवाभवत् // 47 शरैः संछादयामास समन्तात्पाण्डुनन्दनम् // 33 स हतः प्रापतद्राजन्नकुलेन महात्मना / संनिवार्य तु तान्बाणान्नकुलः परवीरहा / नदीवेगादिवारुग्णस्तीरजः पादपो महान् // 48 सत्यसेनं सुषेणं च द्वाभ्यां द्वाभ्यामविध्यत // 34 कर्णपुत्रवधं दृष्ट्वा नकुलस्य च विक्रमम् / तावेनं प्रत्यविध्येतां पृथक्पृथगजिह्मगैः / प्रदुद्राव भयात्सेना तावकी भरतर्षभ // 49 सारथिं चास्य राजेन्द्र शरैर्विव्यधतुः शितैः // 35 तां तु सेना महाराज मद्रराजः प्रतापवान् / सत्यसेनो रथेषां तु नकुलस्य धनुस्तथा / अपालयद्रणे शूरः सेनापतिररिंदमः // 50 / पृथक्शराभ्यां चिच्छेद कृतहस्तः प्रतापवान् // 36 विभीस्तस्थौ महाराज व्यवस्थाप्य च वाहिनीम् / स स्थेऽतिरथस्तिष्ठन्रथशक्तिं परामृशत् / सिंहनादं भृशं कृत्वा धनुःशब्दं च दारुणम् / / 51 वर्णदण्डामकुण्ठायां तैलधौता सुनिर्मलाम् // 37 तावकाः समरे राजरक्षिता दृढधन्वना / लेलिहानामिव विभो नागकन्या महाविषाम् / प्रत्युद्ययुररातींस्ते समन्ताद्विगतव्यथाः // 52 समुद्यम्य च चिक्षेप सत्यसेनस्य संयुगे // 38 मद्रराजं महेष्वासं परिवार्य समन्ततः / सा तस्य हृदयं संख्ये बिभेद शतधा नृप। स्थिता राजन्महासेना योद्भुकामाः समन्ततः // 53 स पपात रथाद्भूमौ गतसत्त्वोऽल्पचेतनः // 39 सात्यकिर्भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा सुषेणः क्रोधमूर्छितः।। युधिष्ठिरं पुरस्कृत्य ह्रीनिषेधमरिंदमम् // 54 . अभ्यवर्षच्छरैस्तूर्ण पदातिं पाण्डुनन्दनम् // 40 परिवार्य रणे वीराः सिंहनादं प्रचक्रिरे। नकुलं विरथं दृष्ट्वा द्रौपदेयो महाबलः / बाणशब्दरवांश्चोग्रान्क्ष्वेडांश्च विविधान्दधुः // 55 सुतसोमोऽभिदुद्राव परीप्सन्पितरं रणे // 41 तथैव तावकाः सर्वे मद्राधिपतिमञ्जसा। तोऽधिरुह्य नकुलः सुतसोमस्य तं रथम् / परिवार्य सुसंरब्धाः पुनर्युद्वमरोचयन् // 56 शुशुभे भरतश्रेष्ठो गिरिस्थ इव केसरी / ततः प्रववृते युद्धं भीरूणां भयवर्धनम् / सोऽन्यत्कार्मुकमादाय सुषेणं समयोधयत् // 42 / तावकानां परेषां च मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 57 - 1819 - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 9. 58 ] महाभारते. [9. 10. 19 यथा देवासुरं युद्धं पूर्वमासीद्विशां पते / संग्रामे घोररूपे तु यमराष्ट्रविवर्धने // 5 अभीतानां तथा राजन्यमराष्ट्रविवर्धनम् // 58 पाण्डवास्तावकं सैन्यं व्यधमन्निशितैः शरैः / ततः कपिध्वजो राजन्हत्वा संशप्तकारणे / तथैव तावका योधा जन्नुः पाण्डवसैनिकान् // 6 अभ्यद्रवत तां सेनां कौरवी पाण्डुनन्दनः // 59 तस्मिंस्तथा वर्तमाने युद्धे भीरुभयावहे / तथैव पाण्डवाः शेषा धृष्टद्युम्नपुरोगमाः / पूर्वाह्ने चैव संप्राप्ते भास्करोदयनं प्रति // 7 अभ्यधावन्त तां सेनां विसृजन्तः शिताशरान॥६० लब्धलक्षाः परे राजरक्षिताश्च महात्मना / पाण्डवैरवकीर्णानां संमोहः समजायत / अयोधयंस्तव बलं मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 8 न च जझुरनीकानि दिशो वा प्रदिशस्तथा // 61 बलिभिः पाण्डवैदृप्तैलब्धलक्षैः प्रहारिभिः / आपूर्यमाणा निशितैः शरैः पाण्डवचोदितैः।। कौरव्यसीदत्पृतना मृगीवाग्निसमाकुला // 9 हतप्रवीरा विध्वस्ता कीर्यमाणा समन्ततः / तां दृष्ट्वा सीदती सेनां पङ्के गामिव दुर्बलाम् / कौरव्यवध्यत चमूः पाण्डुपुत्रैर्महारथैः // 62 / / उज्जिहीर्षस्तदा शल्यः प्रायात्पाण्डुचमं प्रति // 10 तथैव पाण्डवी सेना शरै राजन्समन्ततः / मद्रराजस्तु संक्रुद्धो गृहीत्वा धनुरुत्तमम् / रणेऽहन्यत पुत्रैस्ते शतशोऽथ सहस्रशः / / 63 अभ्यद्रवत संग्रामें पाण्डवानाततायिनः // 11 ते सेने भृशसंतप्ते वध्यमाने परस्परम् / पाण्डवाश्च महाराज समरे जितकाशिनः / व्याकुले समपद्येतां वर्षासु सरिताविव // 64 मद्रराजं समासाद्य विव्यधुनिशितैः शरैः // 12 आविवेश ततस्तीव्र तावकानां महद्भयम् / ततः शरशतैस्तीक्ष्णैर्मद्रराजो महाबलः / पाण्डवानां च राजेन्द्र तथाभूते महाहवे // 65 अर्दयामास तां सेनां धर्मराजस्य पश्यतः // 15 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि प्रादुरासंस्ततो राजन्नानारूपाण्यनेकशः / नवमोऽध्यायः // 9 // चचाल शब्दं कुर्वाणा मही चापि सपर्वता // 14 सदण्डशूला दीप्तायाः शीर्यमाणाः समन्ततः / संजय उवाच / उल्का भूमि दिवः पेतुराहत्य रविमण्डलम् // 15 तस्मिन्विलुलिते सैन्ये वध्यमाने परस्परम् / मृगाश्च महिषाश्चापि पक्षिणश्च विशां पते / द्रवमाणेषु योधेषु निनदत्सु च दन्तिषु // 1 अपसव्यं तदा चक्रुः सेनां ते बहुशो नृप // 16 कूजतां स्तनतां चैव पदातीनां महाहवे / ततस्तद्युद्धमत्युग्रमभवत्संघचारिणाम् / विद्रुतेषु महाराज हयेषु बहुधा तदा // 2 तथा सर्वाण्यनीकानि संनिपत्य जनाधिप / प्रक्षये दारुणे जाते संहारे सर्वदेहिनाम् / अभ्ययुः कौरवा राजन्पाण्डवानामनीकिनीम् // 15 नानाशस्त्रसमावापे व्यतिषक्तरथद्विपे॥३ शल्यस्तु शरवर्षेण वर्षन्निव सहस्रदृक् / हर्षणे युद्धशौण्डानां भीरूणां भयवर्धने / अभ्यवर्षददीनात्मा कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् // 18 गाहमानेषु योधेषु परस्परवधैषिषु // 4 भीमसेनं शरैश्चापि रुक्मपुत्रैः शिलाशितैः / प्राणादाने महाघोरे वर्तमाने दुरोदरे / द्रौपदेयांस्तथा सर्वान्माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 19 - 1820 - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ He. 10. 20] शल्यपर्व [9. 10. 47 पष्टद्युम्नं च शैनेयं शिखण्डिनमथापि च / बाणवर्षेण महता क्रुद्धरूपमवारयत् // 33 एकैकं दशभिर्बाणैर्विव्याध च महाबलः / धृष्टद्युम्नं कृपः क्रुद्धो बाणवरैरपीडयत् / सखोऽसृजद्वाणवर्ष धर्मान्ते मघवानिव // 20 द्रौपदेयांश्च शकुनिर्यमौ च द्रौणिरभ्ययात् // 34 ततः प्रभद्रका राजन्सोमकाश्च सहस्रशः / दुर्योधनो युधां श्रेष्ठावाहवे केशवार्जुनौ / पतिताः पात्यमानाश्च दृश्यन्ते शल्यसायकैः // 21 समभ्ययादुप्रतेजाः शरैश्चाभ्यहनद्बली // 35 भ्रमराणामिव वाताः शलभानामिव व्रजाः। एवं द्वंद्वशतान्यासंस्त्वदीयानां परैः सह / गादिन्य इव मेघेभ्यः शल्यस्य न्यपतञ्शराः // 22 घोररूपाणि चित्राणि तत्र तत्र विशां पते // 36 द्विरदास्तुरगाश्चार्ताः पत्तयो रथिनस्तथा। ऋश्यवर्णाञ्जघानाश्वान्भोजो भीमस्य संयुगे / शल्यस्य बाणैर्यपतन्बभ्रमुर्व्यनदंस्तथा // 23 सोऽवतीर्य रथोपस्थाद्धताश्वः पाण्डुनन्दनः / आविष्ट इव मद्रेशो मन्युना पौरुषेण च / कालो दण्डमिवोद्यम्य गदापाणिरयुध्यत // 37 प्राच्छादयदरीन्संख्ये कालसृष्ट इवान्तकः। प्रमुख सहदेवस्य जघानाश्वांश्च मद्रराट् / विनर्दमानो मद्रेशो मेघह्रादो महाबलः // 24 ततः शल्यस्य तनयं सहदेवोऽसिनावधीत् // 38 सा वध्यमाना शल्येन पाण्डवानामनीकिनी। गौतमः पुनराचार्यो धृष्टद्युम्नमयोधयत् / अजातशत्रु कौन्तेयमभ्यधावद्युधिष्ठिरम् // 25 असंभ्रान्तमसंभ्रान्तो यत्नवान्यत्नवत्तरम् // 39 तां समर्प्य ततः संख्ये लघुहस्तः शितैः शरैः / द्रौपदेयांस्तथा वीरानेकैकं दशभिः शरैः / शरवर्षेण महता युधिष्ठिरमपीडयत् // 26 अविध्यदाचार्यसुतो नातिक्रुद्धः स्मयन्निव // 40 तमापतन्तं पत्त्यश्वैः क्रुद्धो राजा युधिष्ठिरः। शल्योऽपि राजन्संक्रुद्धो निघ्नन्सोमकपाण्डवान् / अवारयच्छरैस्तीक्ष्णैर्मत्तं द्विपमिवाङ्कशैः // 27 पुनरेव शितैर्बाणैर्युधिष्ठिरमपीडयत् // 41 तस्य शल्यः शरं घोरं मुमोचाशीविषोपमम् / / तस्य भीमो रणे क्रुद्धः संदष्टदशनच्छदः / सोऽभ्यविध्यन्महात्मानं वेगेनाभ्यपतञ्च गाम् // 28 विनाशायाभिसंधाय गदामादत्त वीर्यवान् // 42 ततो वृकोदरः क्रुद्धः शल्यं विव्याध सप्तभिः / यमदण्डप्रतीकाशां कालरात्रिमिवोद्यताम् / पञ्चभिः सहदेवस्तु नकुलो दशभिः शरैः // 29 गजवाजिमनुष्याणां प्राणान्तकरणीमपि // 43 द्रौपदेयाश्च शत्रुघ्नं शूरमार्तायनिं शरैः। हेमपट्टपरिक्षिप्तामुल्कां प्रज्वलितामिव / अभ्यवर्षन्महाभागं मेघा इव महीधरम् // 30 शैक्यां व्यालीमिवात्युग्रां वज्रकल्पामयस्मयीम्॥४४ ततो दृष्ट्वा तुद्यमानं शल्यं पार्थैः समन्ततः / चन्दनागुरुपङ्काक्तां प्रमदामीप्सितामिव / कृतवर्मा कृपश्चैव संक्रुद्धावभ्यधावताम् / / 31 वसामेदोसृगादिग्धां जिह्वां वैवस्वतीमिव // 45 उलूकश्च पतत्री च शकुनिश्चापि सौबलः / पटुघण्टारवशतां वासवीमशनीमिव / मयमानश्च शनकैरश्वत्थामा महारथः / निर्मुक्ताशीविषाकारां पृक्तां गजमदैरपि // 46 व पुत्राश्च कात्स्न्येन जुगुपुः शल्यमाहवे // 32 त्रासनी रिपुसैन्यानां स्वसैन्यपरिहर्षिणीम् / भीमसेनं त्रिभिर्विद्धा कृतवर्मा शिलीमुखैः / / मनुष्यलोके विख्यातां गिरिशृङ्गविदारिणीम् // 4 // - 1821 - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 10. 48 ] महाभारते [9. 11. 19 यया कैलासभवने महेश्वरसखं बली / सिंहनादश्च संजज्ञे शूराणां हर्षवर्धनः // 4 . आह्वयामास कौन्तेयः संक्रुद्धमलकाधिपम् // 48 प्रेक्षन्तः सर्वतस्तौ हि योधा योधमहाद्विपौ। यया मायाविनो दृप्तान्सुबहून्धनदालये / तावकाश्च परे चैव साधु साध्वित्यथाब्रुवन् // 5 जघान गुह्यकान्क्रुद्धो मन्दारार्थे महाबलः / न हि मद्राधिपादन्यो रामाद्वा यदुनन्दनात् / / निवार्यमाणो बहुभिर्दोपद्याः प्रियमास्थितः // 49 सोढुमुत्सहते वेगं भीमसेनस्य संयुगे // 6 तां वज्रमणिरत्नौघामष्टाभिं वनगौरवाम् / तथा मद्राधिपस्यापि गदावेगं महात्मनः / समुद्यम्य महाबाहुः शल्यमभ्यद्रवद्रणे // 50 सोढुमुत्सहते नान्यो योधो युधि वृकोदरात् // 7 गदया युद्धकुशलस्तया दारुणनादया / तौ वृषाविव नर्दन्तौ मण्डलानि विचेरतुः / पोथयामास शल्यस्य चतुरोऽश्वान्महाजवान् / / 51 आवलिगतौ गदाहस्तौ मद्रराजवृकोदरौ // 8 ततः शल्यो रणे क्रुद्धः पीने वक्षसि तोमरम् / मण्डलावर्तमार्गेषु गदाविहरणेषु च / निचखान नदन्वीरो वर्म भित्त्वा च सोऽभ्यगात्॥ निर्विशेषमभूद्युद्धं तयोः पुरुषसिंयोः // 9 वृकोदरस्त्वसंभ्रातस्तमेवोद्धृत्य तोमरम् / तप्तहेममयैः शुभैर्बभूव भयवर्धनी / यन्तारं मद्रराजस्य निर्बिभेद ततो हृदि // 53 अग्निज्वालैरिवाविद्धा पट्टैः शल्यस्य सा गदा // 10 स भिन्नवर्मा रुधिरं वमन्वित्रस्तमानसः / तथैव चरतो मार्गान्मण्डलेषु महात्मनः। / पपाताभिमुखो दीनो मद्रराजरत्वपाक्रमत् // 54 विद्युदभ्रप्रतीकाशा भीमस्य शुशुभे गदा // 11 कृतप्रतिकृतं दृष्ट्वा शल्यो विस्मितमानसः / ताडिता मद्रराजेन भीमस्य गदया गदा / गदामाश्रित्य धीरात्मा प्रत्यमित्रमवैक्षत / / 55 दीप्यमानेव वै राजन्ससृजे पावकार्चिषः // 12 ततः सुमनसः पार्था भीमसेनमपूजयन् / तथा भीमेन शल्यस्य ताडिता गदया गदा / तदृष्ट्वा कर्म संग्रामे घोरमक्लिष्टकर्मणः / / 56 अङ्गारवर्षं मुमुचे तदद्भुतमिवाभवत् // 13 : / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि दन्तैरिव महानांगौ शृङ्गैरिव महर्षभौ / दशमोऽध्यायः॥ 10 // तोत्रैरिव तदान्योन्यं गंदाग्राभ्यां निजघ्नतुः // 14 तौ गदानिहतैर्गात्रैः क्षणेन रुधिरोक्षितौ / संजय उवाच / प्रेक्षणीयतरावास्तां पुष्पिताविव किंशुकौ // 15 पतितं प्रेक्ष्य यन्तारं शल्यः सर्वायसीं गदाम् / गदया मद्रराजेन सव्यदक्षिणमाहतः / आदाय तरसा राजंस्तस्थौ गिरिरिवाचलः // 1 भीमसेनो महाबाहुर्न चचालाचलो यथा // 16 तं दीप्तमिव कालाग्निं पाशहस्तमिवान्तकम् / तथा भीमगदावेगैस्ताड्यमानो मुहुर्मुहुः / सशृङ्गमिव कैलासं सवज्रमिव वासवम् // 2 शल्यो न विव्यथे राजन्दन्तिनेवाहतो गिरिः // 1 // सशूलमिव हर्यक्षं वने मत्तमिव द्विपम् / शुश्रुवे दिक्षु सर्वासु तयोः पुरुषसिंहयोः / जवेनाभ्यपतद्भीमः प्रगृह्य महतीं गदाम् // 3 | गदानिपातसंहादो वज्रयोरिव निस्वनः // 18 ततः शङ्खप्रणादश्च तूर्याणां च सहस्रशः। | निवृत्य तु महावीरों समुच्छ्रितगदावुभौ / - 1822 - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 11. 19] शल्यपर्व [8. 11. 49 पुनरन्तरमार्गस्थी मण्डलानि विचेरतुः // 19 अयोधयन्धर्मराजं मद्रराजपुरस्कृताः // 34 अथाभ्येत्य पदान्यष्टौ संनिपातोऽभवत्तयोः / भारद्वाजस्य हन्तारं भूरिवीर्यपराक्रमम् / प्रधम्य लोहदण्डाभ्यामतिमानुषकर्मणोः // 20 दुर्योधनो महाराज धृष्टद्युम्नमयोधयत् // 35 प्रार्थयानौ तदान्योऽन्यं मण्डलानि विचेरतुः / त्रिसाहस्रा रथा राजंस्तव पुत्रेण चोदिताः / क्रियाविशेषं कृतिनौ दर्शयामासतुस्तदा // 21 अयोधयन्त विजयं द्रोणपुत्रपुरस्कृताः // 36 (बथोद्यम्य गदे घोरे सशृङ्गाविव पर्वतौ / विजये धृतसंकल्पाः समभित्यक्तजीविताः / सावाजघ्नतुरन्योन्यं यथा भूमिचलेऽचलौ // 22 प्राविशंस्तावका राजन्हंसा इव महत्सरः // 37 तौ परस्परवेगाच्च गदाभ्यां च भृशाहतौ / ततो युद्धमभूद्वोरं परस्परवधैषिणाम् / युगपत्पेततुर्वीरावुभाविन्द्रध्वजाविव // 23 . अन्योन्यवधसंयुक्तमन्योन्यप्रीतिवर्धनम् // 38 उभयोः सेनयोर्वीरास्तदा हाहाकृतोऽभवन् / / तस्मिन्प्रवृत्ते संग्रामे राजन्वीरवरक्षये / सृशं मर्मण्यभिहतावुभावास्तां सुविह्वलौ // 24 अनिलेनेरितं घोरमुत्तस्थौ पार्थिवं रजः / / 39 ततः सगदमारोप्य मद्राणामृषभं रथे / श्रवणान्नामधेयानां पाण्डवानां च कीर्तनात् / अपोवाह कृपः शल्यं तूर्णमायोधनादपि // 25 परस्परं विजानीमो ये चायुध्यन्नभीतवत् // 40 श्रीबवद्विह्वलत्वात्तु निमेषात्पुनरुत्थितः। तद्रजः पुरुषव्याघ्र शोणितेन प्रशामितम् / भीमसेनो गदापाणिः समाह्वयत मद्रपम् // 26 दिशश्च विमला जजस्तस्मिन्रजसि शामिते // 41 ततस्तु तावकाः शूरा नानाशस्त्रसमायुताः / तथा प्रवृत्ते संग्रामे घोररूपे भयानके / नानावादित्रशब्देन पाण्डुसेनामयोधयन् // 27 तावकानां परेषां च नासीत्कश्चित्पराङ्मुखः // 42 मुजावुच्छ्रित्य शस्त्रं च शब्देन महता ततः / ब्रह्मलोकपरा भूत्वा प्रार्थयन्तो जयं युधि। अभ्यद्रवन्महाराज दुर्योधनपुरोगमाः // 28 सुयुद्धेन पराक्रान्ता नराः स्वर्गमभीप्सवः // 43 तदनीकमभिप्रेक्ष्य ततस्ते पाण्डुनन्दनाः / भर्तृपिण्डविमोक्षार्थं भर्तृकार्यविनिश्चिताः / प्रययुः सिंहनादेन दुर्योधनवधेप्सया // 29 स्वर्गसंसक्तमनसो योधा युयुधिरे तदा // 44 वेषामापततां तूणं पुत्रस्ते भरतर्षभ / नानारूपाणि शस्त्राणि विसृजन्तो महारथाः / गसेन चेकितानं वै विव्याध हृदये भृशम् // 30 अन्योन्यमभिगर्जन्तः प्रहरन्तः परस्परम् // 45 उ पपात रथोपस्थे तव पुत्रेण ताडितः / हत विध्यत गृह्णीत प्रहरध्वं निकृन्तत / धिरौघपरिक्लिन्नः प्रविश्य विपुलं तमः // 31 इति स्म वाचः श्रूयन्ते तव तेषां च वै बले // 46 रेकितानं हतं दृष्ट्वा पाण्डवानां महारथाः। ततः शल्यो महाराज धर्मराज युधिष्ठिरम् / -सक्तमभ्यवर्षन्त शरवर्षाणि भागशः // 32 / विव्याध निशितैर्बाणैर्हन्तुकामो महारथम् // 47 तावकानामनीकेषु पाण्डवा जितकाशिनः / तस्य पार्थो महाराज नाराचान्यै चतुर्दश / व्यचरन्त महाराज प्रेक्षणीयाः समन्ततः // 33 मर्माण्युद्दिश्य मर्मज्ञो निचखान हसन्निव // 48 कृपश्च कृतवर्मा च सौबलश्च महाबलः / तं वार्य पाण्डवं बागैर्हन्तुकामो महायशाः। .. - 1823 - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 11. 49 ] महाभारते [9. 12. 11 विव्याध समरे क्रुद्धो बहुभिः कङ्कपत्रिभिः // 49 / बभूव हृतविक्रान्तो जम्भो वृत्रहणा यथा // 63 अथ भूयो महाराज शरेण नतपर्वणा। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि युधिष्ठिरं समाजन्ने सर्वसैन्यस्य पश्यतः // 50 एकादशोऽध्यायः // 11 // धर्मराजोऽपि संक्रुद्धो मद्रराजं महायशाः। विव्याध निशितैर्बाणैः कङ्कबर्हिणवाजितैः // 51 संजय उवाच। चन्द्रसेनं च सप्तत्या सूतं च नवभिः शरैः / पीडिते धर्मराजे तु मद्रराजेन मारिष। द्रुमसेनं चतुःषष्ट्या निजघान महारथः // 52 सात्यकिर्भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / चक्ररक्षे हते शल्यः पाण्डवेन महात्मना / परिवार्य रथैः शल्यं पीडयामासुराहवे // 1 .. निजघान ततो राजंश्चेदीन्वै पञ्चविंशतिम् / / 53 तमेकं बहुभिदृष्ट्वा पीड्यमानं महारथैः / साधुवादो महाञ्जज्ञे सिद्धाश्चासन्प्रहर्षिताः / सात्यकिं पञ्चविंशत्या भीमसेनं च पञ्चभिः / आश्चर्यमित्यभाषन्त मुनयश्चापि संगताः // 2 माद्रीपुत्रौ शतेनाजौ विव्याध निशितैः शरैः // 54 भीमसेनो रणे शल्यं शल्यभूतं पराक्रमे / एवं विचरतस्तस्य संग्रामे राजसत्तम / एकेन विद्धा बाणेन पुनर्विव्याध सप्तभिः / / 3 संप्रेषयच्छितान्पार्थः शरानाशीविषोपमान् // 55 सात्यकिश्च शतेनैनं धर्मपुत्रपरीप्सया। ध्वजाग्रं चास्य समरे कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / मद्रेश्वरमवाकीर्य सिंहनादमथानदत् // 4 : प्रमुखे वर्तमानस्य भल्लेनापहरद्रथात् / / 56 नकुलः पञ्चभिश्चैनं सहदेवश्च सप्तभिः / पाण्डुपुत्रेण वै तस्य केतुं छिन्नं महात्मना / विद्या तं तु ततस्तूर्णं पुनर्विव्याध सप्तभिः // 5 निपतन्तमपश्याम गिरिशृङ्गमिवाहतम् / / 57 स तु शूरो रणे यत्तः पीडितस्तैर्महारथैः / ध्वजं निपतितं दृष्ट्वा पाण्डवं च व्यवस्थितम् / विकृष्य कार्मुकं घोरं वेगन्नं भारसाधनम् / / 6 संक्रुद्धो मद्रराजोऽभूच्छरवर्षं मुमोच ह // 58 सात्यकिं पञ्चविंशत्या शल्यो विव्याध मारिष / शल्यः सायकवर्षेण पर्जन्य इव वृष्टिमान् / भीमसेनं त्रिसप्तत्या नकुलं सप्तभिस्तथा // 7 अभ्यवर्षदमेयात्मा क्षत्रियं क्षत्रियर्षभः // 59 ततः सविशिखं चापं सहदेवस्य धन्विनः / सात्यकि भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / छित्त्वा भल्लेन समरे विव्याधैनं त्रिसप्तभिः // 8 एकैकं पञ्चभिर्विद्धा युधिष्ठिरमपीडयत् // 60 सहदेवस्तु समरे मातुलं भूरिवर्चसम् / सज्यमन्यद्धनुः कृत्वा पञ्चभिः समताडयत् / ततो बाणमयं जालं विततं पाण्डवोरसि / / शरैराशीविषाकारैर्व्वलज्वलनसंनिभैः // 9 अपश्याम महाराज मेघजालमिवोद्गतम् // 61 सारथिं चास्य समरे शरेणानतपर्वणा / तस्य शल्यो रणे क्रुद्धो बागः संनतपर्वभिः / विव्याध भृशसंक्रुद्धस्तं च भूयस्त्रिभिः शरैः॥ 1 दिशः प्रच्छादयामास प्रदिशश्च महारथः // 62 भीमसेनस्त्रिसप्तत्या सात्यकिर्नवभिः शरैः। ततो युधिष्ठिरो राजा बाणजालेन पीडितः / धर्मराजस्तथा षष्ट्या गात्रे शल्यं समर्पयत् // 15 - 1824 - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 12. 12 ] शल्यपर्व [9. 12. 40 ततः शल्यो महाराज निर्विद्धस्तैर्महारथैः / ततः शल्यो महाराज सर्वांस्तान्दशभिः शरैः। सुस्राव रुधिरं गात्रैगैरिकं पर्वतो यथा // 12 विव्याध सुभृशं क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपान् // 26 तांश्च सर्वान्महेष्वासान्पश्चभिः पञ्चभिः शरैः। ते वार्यमाणाः समरे मद्रराज्ञा महारथाः। विव्याध तरसा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत् // 13 न शेकुः प्रमुखे स्थातुं तस्य शत्रुनिषूदनाः // 27 ततोऽपरेण भल्लेन धर्मपुत्रस्य मारिष / ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा शल्यस्य विक्रमम् / धनुश्चिच्छेद समरे सज्यं स सुमहारथः // 14 निहतान्पाण्डवान्मेने पाञ्चालानथ सृञ्जयान् // 28 अथान्यद्धनुरादाय धर्मपुत्रो महारथः। ततो राजन्महाबाहुर्भीमसेनः प्रतापवान् / साश्वसूतध्वजरथं शल्यं प्राच्छादयच्छरैः // 15 संत्यज्य मनसा प्राणान्मद्राधिपमयोधयत् // 29 स च्छाद्यमानः समरे धर्मपुत्रस्य सायकैः / नकुलः सहदेवश्च सात्यकिश्च महारथः / युधिष्ठिरमथाविध्यदशभिर्निशितैः शरैः // 16 / परिवार्य तदा शल्यं समन्ताद्व्यकिरशरैः // 30 सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो धर्मपुत्रे शरादिते। , स चतुर्भिर्महेष्वासैः पाण्डवानां महारथैः / मद्राणामधिपं शूरं शरौघैः समवारयत् // 17 वृतस्तान्योधयामास मद्रराजः प्रतापवान् / / 31 स सात्यकः प्रचिच्छेद.क्षुरप्रेण महद्धनुः / तस्य धर्मसुतो राजन्क्षुरप्रेण महाहवे। भीमसेनमुखांस्तांश्च त्रिभित्रिभिरताडयत् // 18 चक्ररक्षं जघानाशु मद्रराजस्य पार्थिव // 32 तस्य क्रुद्धो महाराज सात्यकिः सत्यविक्रमः / तस्मिंस्तु निहते शूरे चक्ररक्षे महारथे। तोमरं प्रेषयामास स्वर्णदण्डं महाधनम् // 19 मद्रराजोऽतिबलवान्सैनिकानास्तृणोच्छरैः // 33 भीमसेनोऽथ नाराचं ज्वलन्तमिव पन्नगम् / समाच्छन्नांस्ततस्तांस्तु राजन्वीक्ष्य स सैनिकान् / नकुलः समरे शक्तिं सहदेवो गदां शुभाम् / चिन्तयामास समरे धर्मराजो युधिष्ठिरः // 34 धर्मराजः शतघ्नीं तु जिघांसुः शल्यमाहवे // 20 कथं नु न भवेत्सत्यं तन्माधववचो महत् / ताबापतत एवाशु पश्चानां वै भुजच्युतान् / न हि क्रुद्धो रणे राजा क्षपयेत बलं मम // 35 सात्यकिप्रहितं शल्यो भल्लैश्चिच्छेद तोमरम् // 21 ततः सरथनागाश्वाः पाण्डवाः पाण्डुपूर्वज / मीमेन प्रहितं चापि शरं कनकभूषणम् / मद्रेश्वरं समासेदुः पीडयन्तः समन्ततः // 36 द्विधा चिच्छेद समरे कृतहस्तः प्रतापवान् // 22 नानाशस्त्रौघबहुलां शस्त्रवृष्टिं समुत्थिताम् / नकुलप्रेषितां शक्तिं हेमदण्डां भयावहाम् / व्यधमत्समरे राजन्महाभ्राणीव मारुतः // 37 गदां च सहदेवेन शरौघैः समवारयत् // 23 ततः कनकपुङ्खां तां शल्यक्षिप्तां वियद्गताम् / शराभ्यां च शतघ्नीं तां राज्ञश्चिच्छेद भारत। शरवृष्टिमपश्याम शलभानामिवाततिम् // 38 पश्यतां पाण्डुपुत्राणां सिंहनादं ननाद च।। ते शरा मद्रराजेन प्रेषिता रणमूर्धनि / नामृष्यत्तं तु शैनेयः शत्रोविजयमाहवे // 24 संपतन्तः स्म दृश्यन्ते शलभानां व्रजा इव // 39 अथान्यद्धनुरादाय सात्यकिः क्रोधमूर्छितः। मद्रराजधनुर्मुक्तैः शरैः कनकभूषणैः / द्वाभ्यां मद्रेश्वरं विद्धा सारथिं च त्रिभिः शरैः॥२५ / निरन्तरमिवाकाशं संबभूव जनाधिप // 40 . म. भा. 229 - 1825 - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 12. 41] महाभारते [9. 13. 22 न पाण्डवानां नास्माकं तत्र कश्चिद्व्यदृश्यत / नैतादृशं दृष्टपूर्व राजन्नैव च नः श्रुतम् / बाणान्धकारे महति कृते तत्र महाभये // 41 यादृशं तत्र पार्थस्य तावकाः संप्रचक्रिरे // 8 मद्रराजेन बलिना लाघवाच्छरवृष्टिभिः / स रथः सर्वतो भाति चित्रपुखैः शितैः शरैः / लोड्यमानं तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां बलार्णवम् / उल्काशतैः संप्रदीप्तं विमानमिव भूतले // 9 विस्मयं परमं जग्मुर्देवगन्धर्वदानवाः // 42 ततोऽर्जुनो महाराज शरैः संनतपर्वभिः / स तु तान्सर्वतो यत्ताशरैः संपीड्य मारिष / अवाकिरत्तां पृतनां मेघो वृष्ट्या. यथाचलम् // 10 धर्मराजमवच्छाद्य सिंहवद्वथनदन्मुहुः // 43 ते वध्यमानाः समरे पार्थनामाङ्कितैः शरैः / ते छन्नाः समरे तेन पाण्डवानां महारथाः। पार्थभूतममन्यन्त प्रेक्षमाणास्तथाविधम् // 11 न शेकुस्तं तदा युद्धे प्रत्युद्यातुं महारथम् // 44 ततोऽद्भुतशरज्वालो धनुःशब्दानिलो महान् / धर्मराजपुरोगास्तु भीमसेनमुखा रथाः / सेनेन्धनं ददाहाशु तावकं पार्थपावकः / / 12 न जहुः समरे शूरं शल्यमाहवशोभिनम् // 45 चक्राणां पततां चैव युगानां च धरातले / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तूणीराणां पताकानां ध्वजानां च रथैः सह // 13 द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ ईषाणामनुकर्षाणां त्रिवेणूनां च भारत / अक्षाणामथ योक्त्राणां प्रतोदानां च सर्वशः // 14 संजय उवाच। शिरसां पततां चैव कुण्डलोष्णीषधारिणाम् / अर्जुनो द्रौणिना विद्धो युद्धे बहुभिरायसैः। भुजानां च महाराज स्कन्धानां च समन्ततः॥ 15 तस्य चानुचरैः शूरैत्रिगर्तानां महारथैः / छत्राणां व्यजनैः सार्धं मुकुटानां च राशयः / द्रौणिं विव्याध समरे त्रिभिरेव शिलीमुखैः // 1 समदृश्यन्त पार्थस्य रथमार्गेषु भारत // 16 / तथेतरान्महेष्वासान्द्वाभ्यां द्वाभ्यां धनंजयः / अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा / भूयश्चैव महाबाहुः शरवर्षैरवाकिरत् // 2 बभूव भरतश्रेष्ठ रुद्रस्याक्रीडनं यथा / शरकण्टकितास्ते तु तावका भरतर्षभ / भीरूणां त्रासजननी शूराणां हर्षवर्धनी // 17 न जहुः समरे पार्थं वध्यमानाः शितैः शरैः // 3 / हत्वा तु समरे पार्थः सहस्रे द्वे परंतप / तेऽर्जुनं रथवंशेन द्रोणपुत्रपुरोगमाः / रथानां सवरूथानां विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् // 18 अयोधयन्त समरे परिवार्य महारथाः // 4 यथा हि भगवानग्निर्जगद्दग्ध्वा चराचरम् / तैस्तु क्षिप्ताः शरा राजन्कार्तस्वरविभूषिताः / विधूमो दृश्यते राजंस्तथा पार्थो महारथः // 19 अर्जुनस्य रथोपस्थं पूरयामासुरञ्जसा // 5 द्रौणिस्तु समरे दृष्ट्वा पाण्डवस्य पराक्रमम् / तथा कृष्णौ महेष्वासौ वृषभौ सर्वधन्विनाम् / रथेनातिपताकेन पाण्डवं प्रत्यवारयत् // 20 शरैर्वीक्ष्य वितुन्नाङ्गो प्रहृष्टौ युद्धदुर्मदौ // 6 तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ श्वेताश्वौ धन्विनां वरौ। कूबरं रथचक्राणि ईषा योकत्राणि चाभिभो। समीयतुस्तदा तूर्णं परस्परवधैषिणौ // 21 युगं चैवानुकर्षं च शरभूतमभूत्तदा // 7 तयोरासीन्महाराज बाणवर्ष सुदारुणम् / - 1826 - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 13. 22] शल्यपर्व [9. 14.3 जीमूतानां यथा वृष्टिस्तपान्ते भरतर्षभ // 22 / ज्वलनाशीविषनिभैः शरैश्चैनमवाकिरत् // 36 अन्योन्यस्पर्धिनौ तौ तु शरैः संनतपर्वभिः / सुरथं तु ततः क्रुद्धमापतन्तं महारथम् / ततक्षतुर्मधेऽन्योन्यं शृङ्गाभ्यां वृषभाविव // 23 चुकोप समरे द्रौणिर्दण्डाहत इवोरगः // 37 तयोर्युद्धं महाराज चिरं सममिवाभवत् / त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा सृक्किणी परिलेलिहन् / अस्त्राणां संगमश्चैव घोरस्तत्राभवन्महान् // 24 उद्वीक्ष्य सुरथं रोषाद्धनामवमृज्य च / सतोऽर्जुनं द्वादशभी रुक्मपुखैः सुतेजनैः।। मुमोच तीक्ष्णं नाराचं यमदण्डसमद्युतिम् // 38 वासुदेवं च दशभिद्रौणिर्विव्याध भारत // 25 स तस्य हृदयं भित्त्वा प्रविवेशातिवेगतः / ततः प्रहस्य बीभत्सुर्व्याक्षिपद्गाण्डिवं धनुः। शक्राशनिरिवोत्सृष्टा विदार्य धरणीतलम् // 39 मानयित्वा मुहूर्तं च गुरुपुत्रं महाहवे // 26 . ततस्तं पतितं भूमौ नाराचेन समाहतम् / व्यश्वसूतरथं चक्रे सव्यसाची महारथः / वत्रेणेव यथा शृङ्गं पर्वतस्य महाधनम् // 40 मूदुपूर्व ततश्चैनं त्रिभिर्विव्याध सायकैः / / 27 तस्मिंस्तु निहते वीरे द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / हताश्वे तु रथे तिष्ठन्द्रोणपुत्रस्त्वयस्मयम् / आरुरोह रथं तूर्णं तमेव रथिनां वरः // 41 मुसलं पाण्डुपुत्राय चिक्षेप परिघोपमम् / / 28 ततः सज्जो महाराज द्रौणिराहवदुर्मदः / तमापतन्तं सहसा हेमपट्टविभूषितम् / अर्जुनं योधयामास संशप्तकवृतो रणे // 42 चिच्छेद सप्तधा वीरः पार्थः शत्रुनिबर्हणः // 29 तत्र युद्धं महच्चासीदर्जुनस्य परैः सह। सच्छिन्नं मुसलं दृष्ट्वा द्रौणिः परमकोपनः / मध्यंदिनगते सूर्ये यमराष्ट्रविवर्धनम् // 43 आददे परिघं घोरं नगेन्द्रशिखरोपमम् / तत्राश्चर्यमपश्याम दृष्ट्वा तेषां पराक्रमम् / चिक्षेप चैव पार्थाय द्रौणियुद्धविशारदः // 30 / यदेको युगपद्वीरान्समयोधयदर्जुनः // 44 घमन्तकमिव क्रुद्धं परिघं प्रेक्ष्य पाण्डवः / विमर्दस्तु महानासीदर्जुनस्य परैः सह / अर्जुनस्त्वरितो जन्ने पञ्चभिः सायकोत्तमैः // 31 शतक्रतोर्यथा पूर्व महत्या दैत्यसेनया // 45 स च्छिन्नः पतितो भूमौ पार्थबाणैर्महाहवे।। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि पारयन्पृथिवीन्द्राणां मनः शब्देन भारत // 32 / त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ ततोऽपरैत्रिभिर्वाणैद्राणिं विव्याध पाण्डवः / सोऽतिविद्धो बलवता पार्थेन सुमहाबलः / न संभ्रान्तस्तदा द्रौणिः पौरुषे स्वे व्यवस्थितः॥३३ संजय उवाच। सुधर्मा तु ततो राजन्भारद्वाजं महारथम् / दुर्योधनो महाराज धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः / अवाकिरच्छरबातैः सर्वक्षत्रस्य पश्यतः // 34 चक्रतुः सुमहाद्धं शरशक्तिसमाकुलम् // 1 ततस्तु सुरथोऽप्याजो पाञ्चालानां महारथः / तयोरासन्महाराज शरधाराः सहस्रशः / रथेन मेघघोषेण द्रौणिमेवाभ्यधावत / / 35 अम्बुदानां यथा काले जलधाराः समन्ततः // 2 विकर्षन्वै धनुः श्रेष्ठं सर्वभारसहं दृढम् / राजा तु पार्षतं विद्धा शरैः पञ्चभिरायसैः / = 1827 - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 14. 3] महाभारत [9. 14. 31 द्रोणहन्तारमुग्रेषुः पुनर्विव्याध सप्तभिः // 3 युधिष्ठिरं त्रिभिर्विद्धवा भीमसेनं च सप्तभिः / धृष्टद्युम्नस्तु समरे बलवान्हढविक्रमः / सात्यकिं च शतेनाजौ सहदेवं त्रिभिः शरैः // 18 सप्तत्या विशिखानां वै दुर्योधनमपीडयत् // 4 ततस्तु सशरं चापं नकुलस्य महात्मनः / पीडितं प्रेक्ष्य राजानं सोदर्या भरतर्षभ / मद्रेश्वरः क्षुरप्रेण तदा चिच्छेद मारिष / महत्या सेनया सार्धं परिवत्रुः स्म पार्षतम् // 5 तदशीर्यत विच्छिन्नं धनुः शल्यस्य सायकैः // 19 स तैः परिवृतः शूरैः सर्वतोऽतिरथैर्भृशम् / अथान्यद्धनुरादाय माद्रीपुत्रो महारथः / / व्यचरत्समरे राजन्दर्शयन्हस्तलाघवम् // 6 मद्रराजरथं तूर्णं पूरयामास पत्रिभिः // 20 शिखण्डी कृतवर्माणं गौतमं च महारथम् / युधिष्ठिरस्तु मद्रेशं सहदेवश्च मारिष / प्रभद्रकैः समायुक्तो योधयामास धन्विनौ // 7 दशभिर्दशभिर्बाणैरुरस्येनमविध्यताम् // 21 तत्रापि सुमहद्युद्धं घोररूपं विशां पते / भीमसेनस्ततः षष्ट्या सात्यकिर्नवभिः शरैः / प्राणान्संत्यजतां युद्धे प्राणद्यूताभिदेवने // 8 / मद्रराजमभिद्रुत्य जनतुः कङ्कपत्रिभिः // 22 शल्यस्तु शरवर्षाणि विमुञ्चन्सर्वतोदिशम् / मद्रराजस्ततः क्रुद्धः सात्यकिं नवभिः शरैः / पाण्डवान्पीडयामास ससात्यकिवृकोदरान् // 9 विव्याध भूयः सप्तत्या शराणां नतपर्वणाम् // 2 // तथोभौ च यमौ युद्धे यमतुल्यपराक्रमौ / अथास्य सशरं चापं मुष्टौ चिच्छेद मारिष / योधयामास राजेन्द्र वीर्येण च बलेन च // 10 हयांश्च चतुरः संख्ये प्रेषयामास मृत्यवे // 24 शल्यसायकनुन्नानां पाण्डवानां महामृधे / विरथं सात्यकिं कृत्वा मद्रराजो महाबलः / त्रातारं नाध्यगच्छन्त केचित्तत्र महारथाः // 11 विशिखानां शतेनैनमाजघान समन्ततः // 25 ततस्तु नकुलः शूरो धर्मराजे प्रपीडिते। माद्रीपुत्रौ तु संरब्धौ भीमसेनं च पाण्डवम् / अभिदुद्राव वेगेन मातुलं माद्रिनन्दनः // 12 युधिष्ठिरं च कौरव्य विव्याध दशभिः शरैः // 26 संछाद्य समरे शल्यं नकुलः परवीरहा / तत्राद्भुतमपश्याम मद्रराजस्य पौरुषम् / विव्याध चैनं दशभिः स्मयमानः स्तनान्तरे // 13 यदेनं सहिताः पार्था नाभ्यवर्तन्त संयुगे // 27 सर्वपारशवैर्बाणैः कर्मारपरिमार्जितैः / अथान्यं रथमास्थाय सात्यकिः सत्यविक्रमः / स्वर्णपुङः शिलाधौतैर्धनुर्यन्त्रप्रचोदितैः // 14 पीडितान्पाण्डवान्दृष्ट्वा मद्रराजवशं गतान् / शल्यस्तु पीडितस्तेन स्वस्रीयेण महात्मना / अभिदुद्राव वेगेन मद्राणामधिपं बली // 28 नकुलं पीडयामास पत्रिभिर्नतपर्वभिः // 15 आपतन्तं रथं तस्य शल्यः समितिशोभनः / ततो युधिष्ठिरो राजा भीमसेनोऽथ सात्यकिः / प्रत्युद्ययौ रथेनैव मत्तो मत्तमिव द्विपम् // 29 सहदेवश्च माद्रेयो मद्रराजमुपाद्रवन् // 16 स संनिपातस्तुमुलो बभूवाद्भुतदर्शनः / तानापतत एवाशु पूरयानान्रथस्वनैः / सात्यकेश्चैव शूरस्य मद्राणामधिपस्य च / दिशश्च प्रदिशश्चैव कम्पयानांश्च मेदिनीम् / / यादृशो वै पुरा वृत्तः शम्बरामरराजयोः // 30 प्रतिजग्राह समरे सेनापतिरमित्रजित् // 17 सात्यकिः प्रेक्ष्य समरे मद्रराजं व्यवस्थितम् / - 1828 - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 14. 31] शल्यपर्व [9. 15. 17 - विव्याध दशभिर्बाणैस्तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत् // 31 / निवार्यमाणा भीमेन पश्यतोः कृष्णपार्थयोः // 3 मद्रराजस्तु सुभृशं विद्धस्तेन महात्मना / ततो धनंजयः क्रुद्धः कृपं सह पदानुगैः / सात्यकिं प्रतिविव्याध चित्रपुः शितैः शरैः // 32 अवाकिरच्छरौघेण कृतवर्माणमेव च // 4 ततः पार्था महेष्वासाः सात्वताभिसृतं नृपम् / शकुनि सहदेवस्तु सहसैन्यमवारयत् / अभ्यद्रवन्रथैस्तूर्णं मातुलं वधकाम्यया // 33 नकुलः पार्श्वतः स्थित्वा मद्रराजमवैक्षत // 5 तत आसीत्परामर्दस्तुमुलः शोणितोदकः / द्रौपदेया नरेन्द्रांश्च भूयिष्ठं समवारयन् / शूराणां युध्यमानानां सिंहानामिव नर्दताम् // 34 / द्रोणपुत्रं च पाञ्चाल्यः शिखण्डी समवारयत् // 6 तेषामासीन्महाराज व्यतिक्षेपः परस्परम् / . भीमसेनस्तु राजानं गदापाणिरवारयत् / सिंहानामामिषेप्सूनां कूजतामिव संयुगे // 35 शल्यं तु सह सैन्येन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥ तेषां बाणसहस्रौघैराकीर्णा वसुधाभवत् / ततः समभवद्युद्धं संसक्तं तत्र तत्र ह / अन्तरिक्षं च सहसा बाणभूतमभूत्तदा // 36 तावकानां परेषां च संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् // 8 शरान्धकार बहुधा कृतं तत्र समन्ततः / तत्र पश्यामहे कर्म शल्यस्यातिमहद्रणे / अभ्रच्छायेव संजज्ञे शरैर्मुक्तैर्महात्मभिः // 37 यदेकः सर्वसैन्यानि पाण्डवानामयुध्यत // 9 तत्र राजशरैर्मुक्तैर्निर्मुक्तैरिव पन्नगैः / व्यदृश्यत तदा शल्यो युधिष्ठिरसमीपतः / स्वर्णपुङः प्रकाशद्भिर्व्यरोचन्त दिशस्तथा // 38 रणे चन्द्रमसोऽभ्याशे शनैश्चर इव ग्रहः // 10 तत्राद्भुतं परं चक्रे शल्यः शत्रुनिबर्हणः / पीडयित्वा तु राजानं शरैराशीविषोपमैः / यदेकः समरे शूरो योधयामास वै बहून् // 39 अभ्यधावत्पुनर्भीमं शरवर्षैरवाकिरत् // 11 मद्रराजभुजोत्सृष्टैः कङ्कबर्हिणवाजितैः / तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा तथैव च कृतानताम् / संपतद्भिः शरैोरैवाकीर्यत मेदिनी // 40 अपूजयन्ननीकानि परेषां तावकानि च // 12 तत्र शल्यरथं राजन्विचरन्तं महाहवे / पीड्यमानास्तु शल्येन पाण्डवा भृशविक्षताः / अपश्याम यथा पूर्व शक्रस्यासुरसंक्षये // 41 प्राद्रवन्त रणं हित्वा क्रोशमाने युधिष्ठिरे // 13 - इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि वध्यमानेष्वनीकेषु मद्रराजेन पाण्डवः / चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // अमर्षवशमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः / ततः पौरुषमास्थाय मद्रराजमपीडयत् // 14 संजय उवाच / जयो वास्तु वधो वेति कृतबुद्धिर्महारथः / ततः सैन्यास्तव विभो मद्रराजपुरस्कृताः / समाहूयाब्रवीत्सर्वान्भ्रान्कृष्णं च माधवम् // 15 पुनरभ्यद्रवन्पार्थान्वेगेन महता रणे // 1 भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च ये चान्ये पृथिवीक्षितः / पीडितास्तावकाः सर्वे प्रधावन्तो रणोत्कटाः / कौरवार्थे पराक्रान्ताः संग्रामे निधनं गताः // 16 क्षणेनैव च पार्थांस्ते बहुत्वात्समलोडयन् // 2 यथाभागं यथोत्साहं भवन्तः कृतपौरुषाः / ते वध्यमानाः कुरुभिः पाण्डवा नावतस्थिरे।। भागोऽवशिष्ट एकोऽयं मम शल्यो महारथः // 17 - 1829 - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 15. 18 ] महाभारते [9. 15. 47 सोऽहमद्य युधा जेतुमाशंसे मद्रकेश्वरम् / तथैव कुरुराजोऽपि प्रगृह्य रुचिरं धनुः / तत्र यन्मानसं मह्यं तत्सर्वं निगदामि वः // 18 द्रोणोपदेशान्विविधान्दर्शयानो महामनाः // 33 चक्ररक्षाविमौ शूरौ मम माद्रवतीसुतौ / ववर्ष शरवर्षाणि चित्रं लघु च सुष्टु च / अजेयौ वासवेनापि समरे वीरसंमतौ // 19 न चास्य विवरं कश्चिद्ददर्श चरतो रणे // 34 साध्विमौ मातुलं युद्धे क्षत्रधर्मपुरस्कृतौ। तावुभौ विविधैर्बाणैस्ततक्षाते परस्परम् / मदर्थं प्रतियुध्येतां मानाही सत्यसंगरौ // 20 शार्दूलावामिषप्रेप्सू पराक्रान्ताविवाहवे // 35 मां वा शल्यो रणे हन्ता तं वाहं भद्रमस्तु वः / भीमस्तु तव पुत्रेण रणशौण्डेन संगतः / इति सत्यामिमां वाणी लोकवीरा निबोधत // 21 पाञ्चाल्यः सात्यकिश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / योत्स्येऽहं मातुलेनाद्य क्षत्रधर्मेण पार्थिवाः / शकुनिप्रमुखान्वीरान्प्रत्यगृह्णन्समन्ततः // 36 स्वयं समभिसंधाय विजयायेतराय वा // 22 तदासीत्तुमुलं युद्धं पुनरेव जयैषिणाम् / . तस्य मेऽभ्यधिकं शस्त्रं सर्वोपकरणानि च / / तावकानां परेषां च राजन्दुर्मत्रिते तव // 37 संयुञ्जन्तु रणे क्षिप्रं शास्त्रवद्रथयोजकाः॥ 23 दुर्योधनस्तु भीमस्य शरेणानतपर्वणा। शैनेयो दक्षिणं चक्रं धृष्टद्युम्नस्तथोत्तरम् / / चिच्छेदादिश्य संग्रामे ध्वजं हेमविभूषितम् // 38 पृष्ठगोपो भवत्वद्य मम पार्थो धनंजयः // 24 सकिङ्किणीकजालेन महता चारुदर्शनः / पुरःसरो ममाद्यास्तु भीमः शस्त्रभृतां वरः / पपात रुचिरः सिंहो भीमसेनस्य नानदन् // 39 एवमभ्यधिकः शल्याद्भविष्यामि महामृधे // 25 पुनश्चास्य धनुश्चित्रं गजराजकरोपमम् / एवमुक्तास्तथा चक्रुः सर्वे राज्ञः प्रियैषिणः।। क्षुरेण शितधारेण प्रचकर्त नराधिपः // 40 ततः प्रहर्षः सैन्यानां पुनरासीत्तदा नृप // 26 स च्छिन्नधन्वा तेजस्वी रथशक्त्या सुतं तव / पाञ्चालानां सोमकानां मत्स्यानां च विशेषतः / बिभेदोरसि विक्रम्य स रथोपस्थ आविशत् // 41 प्रतिज्ञां तां च संग्रामे धर्मराजस्य पूरयन् // 27 तस्मिन्मोहमनुप्राप्ते पुनरेव वृकोदरः / / ततः शङ्खांश्च भेरीश्च शतशश्चैव पुष्करान् / यन्तुरेव शिरः कायात्क्षुरप्रेणाहरत्तदा // 42 अवादयन्त पाञ्चालाः सिंहनादांश्च नेदिरे // 28 हतसूता हयास्तस्य रथमादाय भारत / तेऽभ्यधावन्त संरब्धा मद्रराजं तरस्विनः / व्यंद्रवन्त दिशो राजन्हाहाकारस्तदाभवत् // 43 महता हर्षजेनाथ नादेन कुरुपुंगवाः // 29 तमभ्यधावत्राणार्थं द्रोणपुत्रो महारथः / हादेन गजघण्टानां शङ्खानां निनदेन च / कृपश्च कृतवर्मा च पुत्रं तेऽभिपरीप्सवः // 44 सूर्यशब्देन महता नादयन्तश्च मेदिनीम् // 30 तस्मिन्विलुलिते सैन्ये त्रस्तास्तस्य पदानुगाः / तान्प्रत्यगृह्णात्पुत्रस्ते मद्रराजश्च वीर्यवान् / गाण्डीवधन्वा विस्फार्य धनुस्तानहनच्छरैः // 45 महामेघानिव बहूशैलावस्तोदयावुभौ // 31 युधिष्ठिरस्तु मद्रेशमभ्यधावदमर्षितः / शल्यस्तु समरश्नाधी धर्मराजमरिंदमम् / स्वयं संचोदयन्नश्वान्दन्तवर्णान्मनोजवान् // 46 ववर्ष शरवर्षेण वर्षेण मघवानिव // 32 तत्राद्भुतमपश्याम कुन्तीपुत्रे युधिष्ठिरे / -1830 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 15. 47 ] शल्यपर्व [9. 16.7 पुरा भूत्वा मृदुर्दान्तो यत्तदा दारुणोऽभवत् // 47 अथास्य निजघानाश्वांश्चतुरो नतपर्वभिः / वेवृताक्षश्च कौन्तेयो वेपमानश्च मन्युना / द्वाभ्यामथ शिताग्राभ्यामुभौ च पार्णिसारथी // 63 चेच्छेद योधान्निशितैः शरैः शतसहस्रशः // 48 ततोऽस्य दीप्यमानेन पीतेन निशितेन च / यो या प्रत्युद्ययौ सेनां तां तां ज्येष्ठः स पाण्डवः / प्रमुखे वर्तमानस्य भल्लेनापाहरद्धजम् / रैरपातयद्राजन्गिरीन्वरिवोत्तमैः / / 49 ततः प्रभग्नं तत्सैन्यं दौर्योधनमरिंदम // 64 शाश्वसूतध्वजरथान्रथिनः पातयन्बहून् / ततो मद्राधिपं द्रौणिरभ्यधावत्तथाकृतम् / आक्रीडदेको बलवान्पवनस्तोयदानिव // 50 आरोप्य चैनं स्वरथं त्वरमाणः प्रदुद्रुवे // 65 पाश्वारोहांश्च तुरगान्पत्तींश्चैव सहस्रशः। मुहूर्तमिव तौ गत्वा नर्दमाने युधिष्ठिरे / व्यपोथयत संग्रामे क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव // 51 स्थित्वा ततो मद्रपतिरन्यं स्यन्दनमास्थितः // 66 शून्यमायोधनं कृत्वा शरवर्षेः समन्ततः / विधिवत्कल्पितं शुभ्रं महाम्बुदनिनादिनम् / अभ्यद्रवत मद्रेशं तिष्ठ शल्येति चाब्रवीत् // 52 सज्जयत्रोपकरणं द्विषतां लोमहर्षणम् // 67 तस्य तच्चरितं दृष्ट्वा संग्रामे भीमकर्मणः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि चित्रेसुस्तावकाः सर्वे शल्यस्त्वेनं समभ्ययात् // 53 पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // उतस्तौ तु सुसंरब्धौ प्रध्माप्य सलिलोद्भवौ / तमाहूय तदान्योन्यं भर्त्सयन्तौ समीयतुः // 54 संजय उवाच / शल्यस्तु शरवर्षेण युधिष्ठिरमवाकिरत् / अथान्यद्धनुरादाय बलवद्वेगवत्तरम् / मद्रराजं च कौन्तेयः शरवर्षैरवाकिरत् // 55 युधिष्ठिरं मद्रपतिर्विद्या सिंह इवानदत् // 1 व्यदृश्येतां तदा राजन्कङ्कपत्रिभिराहवे / ततः स शरवर्षेण पर्जन्य इव वृष्टिमान् / उद्भिन्नरुधिरौ शूरौ मद्रराजयुधिष्ठिरौ // 56 अभ्यवर्षदमेयात्मा क्षत्रियान्क्षत्रियर्षभः // 2 पुष्पिताविव रेजाते वने शल्मलिकिंशुको / सात्यकिं दशभिर्विद्धा भीमसेनं त्रिभिः शरैः / दीप्यमानौ महात्मानौ प्राणयोयुद्धदुर्मदौ // 57 / / सहदेवं त्रिभिर्विद्धा युधिष्ठिरमपीडयत् // 3 दृष्ट्वा सर्वाणि सैन्यानि नाध्यवस्यंस्तयोर्जयम् / / तांस्तानन्यान्महेष्वासान्साश्वान्सरथकुञ्जरान् / हत्वा मद्राधिपं पार्थो भोक्ष्यतेऽद्य वसुंधराम् // 58 कुञ्जरान्कुञ्जरारोहानश्वानश्वप्रयायिनः / शल्यो वा पाण्डवं हत्वा दद्यादुर्योधनाय गाम् / रथांश्च रथिभिः साधं जघान रथिनां वरः // 4 इतीव निश्चयो नाभूद्योधानां तत्र भारत / / 59 बाहूंश्चिच्छेद च तथा सायुधान्केतनानि च / प्रदक्षिणमभूत्सर्वं धर्मराजस्य युध्यतः // 60 चकार च महीं योधैः स्तीर्णां वेदी कुशैरिव // 5 ततः शरशतं शल्यो मुमोचाशु युधिष्ठिरे / तथा तमरिसैन्यानि घ्नन्तं मृत्युमिवान्तकम् / धनुश्चास्य शिताग्रेण बाणेन निरकृन्तत // 61 परिवर्भृशं क्रुद्धाः पाण्डुपाञ्चालसोमकाः // 6 सोऽन्यत्कार्मुकमादाय शल्यं शरशतैत्रिभिः / ___ तं भीमसेनश्च शिनेश्च नप्ता अविध्यत्कार्मुकं चास्य क्षुरेण निरकृन्तत // 62 / माद्रयाश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ। - 1831 - Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 16.7] महाभारते [9. 16. 22 न समागतं भीमबलेन राज्ञा तौ चेरतुर्व्याघ्रशिशुप्रकाशौ पर्यापुरन्योन्यमथाह्वयन्तः // 7 __महावनेष्वामिषगृद्धिनाविव / ततस्तु शूराः समरे नरेन्द्र विषाणिनौ नागवराविवोभी मद्रेश्वरं प्राप्य युधां वरिष्ठम् / ततक्षतुः संयुगजातदौ // 15 आवार्य चैनं समरे नृवीरा ततस्तु मद्राधिपतिर्महात्मा __जनुः शरैः पत्रिभिरुपवेगैः // 8 युधिष्ठिरं भीमबलं प्रसा। संरक्षितो भीमसेनेन राजा विव्याध वीरं हृदयेऽतिवेगं माद्रीसुताभ्यामथ माधवेन / शरेण सूर्याग्निसमप्रभेण // 16 . मद्राधिपं पत्रिभिरुपवेगैः ततोऽतिविद्धोऽथ युधिष्ठिरोऽपि स्तनान्तरे धर्मसुतो निजघ्ने // 9 सुसंप्रयुक्तन शरेण राजन् / ततो रणे तावकानां रथौघाः जघान मद्राधिपतिं महात्मा __ समीक्ष्य मद्राधिपतिं शरार्तम् / ___ मुदं च लेभे ऋषभः कुरूणाम् // 17 पर्यावत्रुः प्रवराः सर्वशश्च ततो मुहूर्तादिव पार्थिवेन्द्रो ___ दुर्योधनस्यानुमते समन्तात् // 10 लब्ध्वा संज्ञां क्रोधसंरक्तनेत्रः / ततो द्रुतं मद्रजनाधिपो रणे शतेन पार्थ त्वरितो जघान युधिष्ठिरं सप्तभिरभ्यविध्यत् / ___ सहस्रनेत्रप्रतिमप्रभावः / / 18 तं चापि पार्थो नवभिः पृषकै त्वरंस्ततो धर्मसुतो महात्मा विव्याध राजंस्तुमुले महात्मा // 11 शल्यस्य क्रुद्धो नवभिः पृषत्कैः / / आकर्णपूर्णायतसंप्रयुक्तैः भित्त्वा झुरस्तपनीयं च वर्म शरैस्तदा संयति तैलधौतैः / जघान षनिस्त्वपरैः पृषत्कैः // 19 अन्योन्यमाच्छादयतां महारथौ ततस्तु मद्राधिपतिः प्रहृष्टो मद्राधिपश्चापि युधिष्ठिरश्च // 12 धनुर्विकृष्य व्यसृजत्पृषत्कान् / ततस्तु तूर्णं समरे महारथौ द्वाभ्यां क्षुराभ्यां च तथैव राज्ञपरस्परस्यान्तरमीक्षमाणौ। __श्चिच्छेद चापं कुरुपुंगवस्य // 20 शरैर्भृशं विव्यधतुर्नृपोत्तमौ नवं ततोऽन्यत्समरे प्रगृह्य ____ महाबलौ शत्रुभिरप्रधृष्यौ // 13 राजा धनुर्घोरतरं महात्मा। तयोर्धनातलनिस्वनो महा शल्यं तु विद्धा निशितैः समन्तान्महेन्द्रवज्राशनितुल्यनिस्वनः / ___ द्यथा महेन्द्रो नमुचिं शिताग्रैः // 21 परस्परं बाणगणैर्महात्मनः ततस्तु शल्यो नवभिः पृषत्कैप्रवर्षतोर्मद्रपपाण्डुवीरयोः // 14 भीमस्य राज्ञश्च युधिष्ठिरस्य / - 1832 - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 18. 22] शल्यपर्व [9. 18.37 निकृत्य रोक्मे पटुवर्मणी तयो तं चापि राजानमथोत्पतन्तं विदारयामास भुजौ महात्मा // 22 क्रुद्धं यथैवान्तकमापतन्तम् / ततोऽपरेण ज्वलितार्कतेजसा धृष्टद्युम्नो द्रौपदेयाः शिखण्डी क्षुरेण राज्ञो धनुरुन्ममाथ। शिनेश्च नप्ता सहसा परीयुः // 30 कृपश्च तस्यैव जघान सूतं अथास्य चर्माप्रतिमं न्यकृन्तषभिः शरैः सोऽभिमुखं पपात // 23 द्भीमो महात्मा दशभिः पृषत्कैः / मद्राधिपश्चापि युधिष्ठिरस्य खड्गं च भल्लैर्निचकर्त मुष्टौ शरैश्चतुर्भिर्निजघान वाहान्। . नदन्प्रहृष्टस्तव सैन्यमध्ये // 31 वाहांश्च हत्वा व्यकरोन्महात्मा तत्कर्म भीमस्य समीक्ष्य हृष्टायोधक्षयं धर्मसुतस्य राज्ञः // 24 स्ते पाण्डवानां प्रवरा रथौघाः / तथा कृते राजनि भीमसेनो. नादं च चक्रुर्भृशमुत्स्मयन्तः * मद्राधिपस्याशु ततो महात्मा। ___ शङ्खांश्च दध्मुः शशिसंनिकाशान् / / 32 छित्त्वा धनुर्वेगवता शरेण तेनाथ शब्देन विभीषणेन द्वाभ्यामविध्यत्सुभृशं नरेन्द्रम् // 25 ___तवाभितप्तं बलमप्रहृष्टम् / अथापरेणास्य जहार यन्तुः स्वेदाभिभूतं रुधिरोक्षिताङ्गं ____ कायाच्छिरः संनहनीयमध्यात् / विसंज्ञकल्पं च तथा विषण्णम् // 33 जघान चाश्वांश्चतुरः स शीघ्र स मद्रराजः सहसावकीर्णो तथा भृशं कुपितो भीमसेनः // 26 भीमाग्रगैः पाण्डवयोधमुख्यैः / तमग्रणीः सर्वधनुर्धराणा युधिष्ठिरस्याभिमुखं जवेन मेकं चरन्तं समरेऽतिवेगम् / सिंहो यथा मृगहेतोः प्रयातः // 34 भीमः शतेन व्यकिरच्छराणां स धर्मराजो निहताश्वसूतं माद्रीपुत्रः सहदेवस्तथैव // 27 क्रोधेन दीप्तज्वलनप्रकाशम् / तैः सायकैर्मोहितं वीक्ष्य शल्यं दृष्ट्वा तु मद्राधिपतिं स तूर्णं भीमः शरैरस्य चकर्त वर्म / __ समभ्यधावत्तमरिं बलेन // 35 ‘स भीमसेनेन निकृत्तवर्मा गोविन्दवाक्यं त्वरितं विचिन्त्य मद्राधिपश्चर्म सहस्रतारम् // 28 दधे मतिं शल्यविनाशनाय / प्रगृह्य खड्गं च रथान्महात्मा स धर्मराजो निहताश्वसूते प्रस्कन्द्य कुन्तीसुतमभ्यधावत् / रथे तिष्ठ-शक्तिमेवाभिकाङ्कन // 36 छित्त्वा रथेषां नकुलस्य सोऽथ तच्चापि शल्यस्य निशम्य कर्म युधिष्ठिरं भीमबलोऽभ्यधावत् // 29 / महात्मनो भागमथावशिष्टम् / .भा. 230 - 1833 - Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. 16. 37] महाभारते [9. 16.52 स्मृत्वा मनः शल्यवधे यतात्मा ... घण्टापताकामणिवत्रभाज यथोक्तमिन्द्रावरजस्य चक्रे॥ 37 वैडूर्यचित्रां तपनीयदण्डाम् / स धर्मराजो मणिहेमदण्डां त्वष्ट्रा प्रयत्नान्नियमेन क्लुप्तां जग्राह शक्ति कनकप्रकाशाम् / ___ ब्रह्मद्विषामन्तकरीममोघाम् // 45 नेत्रे च दीप्ते सहसा विवृत्य बलप्रयत्नादधिरूढवेगां __मद्राधिपं क्रुद्धमना निरैक्षत् // 38 __ मत्रैश्च घोरैरभिमत्रयित्वा। . निरीक्षितो वै नरदेव राज्ञा ससर्ज मार्गेण च तां परेण पूतात्मना निर्दृतकल्मषेण। वधाय मद्राधिपतेस्तदानीम् // 46 अभून्न यद्भस्मसान्मद्रराज हतोऽस्यसावित्यभिगर्जमानो __ स्तदद्भुतं मे प्रतिभाति राजन् // 39 ___ रुद्रोऽन्तकायान्तकरं यथेषुम् / .. ततस्तु शक्तिं रुचिरोपदण्डां प्रसार्य बाहुं सुदृढं सुपाणिं ___ मणिप्रवालोज्ज्वलितां प्रदीप्ताम् / ___ क्रोधेन नृत्यन्निव धर्मराजः // 47 चिक्षेप वेगात्सुभृशं महात्मा तां सर्वशक्त्या प्रहितां स शक्तिं मद्राधिपाय प्रवरः कुरूणाम् // 40 __ युधिष्ठिरेणाप्रतिवार्यवीर्याम् / दीप्तामथैनां महता बलेन प्रतिग्रहायाभिननद शल्यः सविस्फुलिङ्गां सहसा पतन्तीम् / सम्यग्घुतामग्निरिवाज्यधाराम् // 48 प्रेक्षन्त सर्वे कुरवः समेता सा तस्य मर्माणि विदार्य शुभ्रयथा युगान्ते महतीमिवोल्काम् // 41 मुरो विशालं च तथैव वर्म / तां कालरात्रीमिव पाशहस्तां विवेश गां तोयमिवाप्रसक्ता .. यमस्य धात्रीमिव चोग्ररूपाम् / यशो विशालं नृपतेर्दहन्ती // 49 सब्रह्मदण्डप्रतिमाममोघां नासाक्षिकर्णास्यविनिःसृतेन ससर्ज यत्तो युधि धर्मराजः // 42 प्रस्यन्दता च व्रणसंभवेन / गन्धस्रगग्र्यासनपानभोजन संसिक्तगात्रो रुधिरेण सोऽभूरभ्यर्चितां पाण्डुसुतैः प्रयत्नात् / क्रौञ्चो यथा स्कन्दहतो महाद्रिः // 50 संवर्तकाग्निप्रतिमां ज्वलन्ती प्रसार्य बाहू स रथाद्गतो गां __ कृत्यामथर्वाङ्गिरसीमिवोग्राम् // 43 ___ संछिन्नवर्मा कुरुनन्दनेन। ईशानहेतोः प्रतिनिर्मितां तां महेन्द्रवाहप्रतिमो महात्मा त्वष्ट्रा रिपूणामसुदेहभक्षाम् / वाहतं शृङ्गमिवाचलस्य // 51 भूम्यन्तरिक्षादिजलाशयानि बाहू प्रसार्याभिमुखो धर्मराजस्य मद्रराट् / प्रसह्य भूतानि निहन्तुमीशाम् // 44 / ततो निपतितो भूमाविन्द्रध्वज इवोच्छ्रितः // 52 - 1834 - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 16. 53] शल्यपर्व [8. 16. 81 % 3D %3 स तथा भिन्नसर्वाङ्गो रुधिरेण समुक्षितः / वित्रेसुः पाण्डवभयाद्रजोध्वस्तास्तथा भृशम् // 66 प्रत्युद्गत इव प्रेम्णा भूम्या स नरपुंगवः // 53 तांस्तथा भज्यतनस्तान्कौरवान्भरतर्षभ / प्रियया कान्तया कान्तः पतमान इवोरसि / / शिनेर्नता किरन्बाणैरभ्यवर्तत सात्यकिः // 67 . चिरं भुक्त्वा वसुमती प्रियां कान्तामिव प्रभुः / तमायान्तं महेष्वासमप्रसह्यं दुरासदम् / सर्वैरङ्गैः समाश्लिष्य प्रसुप्त इव सोऽभवत् // 54 / हार्दिक्यस्त्वरितो राजन्प्रत्यगृहादभीतवत् // 68 धर्म्य धर्मात्मना युद्धे निहतो धर्मसूनुना। तौ समेतौ महात्मानौ वार्ष्णेयावपराजितौ।। सम्यग्घुत इव स्विष्टः प्रशान्तोऽग्निरिवाध्वरे // 55 हार्दिक्यः सात्यकिश्चैव सिंहाविव मदोत्कटौ // 69 शक्त्या विभिन्नहृदयं विप्रविद्धायुधध्वजम् / इषुभिर्विमलाभासैश्छादयन्तौ परस्परम् / संशान्तमपि मद्रेशं लक्ष्मीनैव व्यमुञ्चत // 56 अर्चिभिरिव सूर्यस्य दिवाकरसमप्रभौ // 70 . ततो युधिष्ठिरश्चापमादायेन्द्रधनुष्प्रभम् / चापमार्गबलोद्भूतान्मार्गणान्वृष्णिसिंहयोः / व्यधमहिषतः संख्ये खगराडिव पन्नगान् / आकाशे समपश्याम पतंगानिव शीघ्रगान् // 71 देहासूनिशितैर्भल्लै रिपूणां नाशयन्क्षणात् // 57 सात्यकि दशभिर्विद्धा हयांश्चास्य त्रिभिः शरैः / ततः पार्थस्य बाणौघेरावृताः सैनिकास्तव / चापमेकेन चिच्छेद हार्दिक्यो नतपर्वणा // 72 निमीलिताक्षाः क्षिण्वन्तो भृशमन्योन्यमर्दिताः। तन्निकृत्तं धनुः श्रेष्ठमपास्य शिनिपुंगवः / संन्यस्तकवचा देहैर्विपत्रायुधजीविताः // 58 अन्यदादत्त वेगेन वेगवत्तरमायुधम् // 73 ततः शल्ये निपतिते मद्रराजानुजो युवा / तदादाय धनुः श्रेष्ठं वरिष्ठः सर्वधन्विनाम् / भ्रातुः सर्वैर्गुणैस्तुल्यो रथी पाण्डवमभ्ययात् // 59 हार्दिक्यं दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे // 74 विव्याध च नरश्रेष्ठो नाराचैब भिस्त्वरन् / ततो रथं युगेषां च छित्त्वा भल्लैः सुसंयतैः / हतस्यापचितिं भ्रातुश्चिकीर्षुयुद्धदुर्मदः // 60 अश्वांस्तस्यावधीत्तूर्णमुभौ च पाणिसारथी // 75 तं विव्याधाशुगैः पड्भिर्धर्मराजस्त्वरन्निव / मद्रराजे हते राजन्विरथे कृतवर्मणि / कार्मुकं चास्य चिच्छेद क्षुराभ्यां ध्वजमेव च // 61 दुर्योधनबलं सर्वं पुनरासीत्पराङ्मुखम् // 76 ततोऽस्य दीप्यमानेन सुदृढेन शितेन च / तत्परे नावबुध्यन्त सैन्येन रजसा वृते / प्रमुखे वर्तमानस्य भल्लेनापाहरच्छिरः // 62 बलं तु हतभूयिष्ठं तत्तदासीत्पराङ्मुखम् // 77 सकुण्डलं तद्ददृशे पतमानं शिरो रथात् / ततो मुहूर्तात्तेऽपश्यन्रजो भोमं समुत्थितम् / पुण्यक्षयमिव प्राप्य पतन्तं स्वर्गवासिनम् // 63 विविधैः शोणितस्रावैः प्रशान्तं पुरुषर्षभ // 78 तस्यापकृष्टशीर्षं तच्छरीरं पतितं रथात् / ततो दुर्योधनो दृष्ट्वा भग्नं स्वबलमन्तिकात् / रुधिरेणावसिक्ताङ्गं दृष्ट्वा सैन्यमभज्यत // 64 जवेनापततः पार्थानेकः सर्वानवारयत् // 79 विचित्रकवचे तस्मिन्हते मद्रनृपानुजे / पाण्डवान्सरथान्दृष्ट्वा धृष्टद्युम्न च पार्षतम् / हाहाकारं विकुर्वाणाः कुरवो विप्रदुद्रुवुः // 65 | आनतं च दुराधर्ष शितैर्बाणैरवाकिरत् / 80 शल्यानुजं हतं दृष्ट्वा तावकारत्यक्तजीविताः। तं परे नाभ्यवर्तन्त मा मृत्युमिवागतम् / / - 1835 -- Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 16. 81] महाभारते [9. 17. 18 अथान्यं रथमास्थाय हार्दिक्योऽपि न्यवर्तत // 81 / ते तु शूरा महाराज कृतचित्ताः स्म योधने / सतो युधिष्ठिरो राजा त्वरमाणो महारथः / धनुःशब्दं महत्कृत्वा सहायुध्यन्त पाण्डवैः // 4 चतुर्भिनिजघानाश्वान्पत्रिभिः कृतवर्मणः / श्रुत्वा तु निहतं शल्यं धर्मपुत्रं च पीडितम् / विव्याध गौतमं चापि षड्भिर्भल्लैः सुतेजनैः॥ 82 मद्रराजप्रिये युक्तैर्मद्रकाणां महारथैः // 5 अश्वत्थामा ततो राज्ञा हताश्वं विरथीकृतम् / आजगाम ततः पार्थो गाण्डीवं विक्षिपन्धनुः / समपोवाह हार्दिक्यं स्वरथेन युधिष्ठिरात् // 83 पूरयन्रथघोषेण दिशः सर्वा महारथः // 6 ततः शारद्वतोऽष्टाभिः प्रत्यविध्यधुधिष्ठिरम् / ततोऽर्जुनश्च भीमश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / विव्याध चाश्वान्निशितैस्तस्याष्टाभिः शिलीमुखैः // सात्यकिश्च नरव्याघ्रो द्रौपदेयाश्च सर्वशः // 7 एवमेतन्महाराज युद्धशेषमवर्तत / धृष्टद्यम्नः शिखण्डी च पाश्चालाः सह सोमकैः / तव दुर्मत्रिते राजन्सहपुत्रस्य भारत // 85 युधिष्ठिरं परीप्सन्तः समन्तात्पर्यवारयन् // 8 - तस्मिन्महेष्वासवरे विशस्ते ते समन्तात्परिवृताः पाण्डवैः पुरुषर्षभाः / संग्राममध्ये कुरुपुंगवेन / क्षोभयन्ति स्म तां सेनां मकराः सागरं यथा // 9 पार्थाः समेताः परमप्रहृष्टाः पुरोवातेन गङ्गेव क्षोभ्यमाना महानदी / शङ्खान्प्रदध्मुर्हतमीक्ष्य शल्यम् // 86 अक्षोभ्यत तदा राजन्पाण्डूनां ध्वजिनी पुनः // 10 युधिष्ठिरं च प्रशशंसुराजौ प्रस्कन्ध सेनां महतीं त्यक्तात्मानो महारथाः / ___पुरा सुरा वृत्रवधे यथेन्द्रम् / वृक्षानिव महावाताः कम्पयन्ति स्म तावकाः // 11 - चक्रुश्च नानाविधवाद्यशब्दा बहवश्चक्रुशुस्तत्र क स राजा युधिष्ठिरः / न्निनादयन्तो वसुधां समन्तात् / / 87 भ्रातरो वास्य ते शूरा दृश्यन्ते नेह केचन // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि पाञ्चालानां महावीर्याः शिखण्डी च महारथः / षोडशोऽध्यायः // 16 // धृष्टद्युम्नोऽथ शैनेयो द्रौपदेयाश्च सर्वशः // 13 // समाप्तं शल्यवधपर्व // एवं तान्वादिनः शूरान्द्रौपदेया महारथाः / अभ्यनन्युयुधानश्च मद्रराजपदानुगान् // 14 संजय उवाच / चक्रैर्विमथितैः केचित्केचिच्छिन्नैर्महाध्वजैः / शल्ये तु निहते राजन्मद्रराजपदानुगाः / प्रत्यदृश्यन्त समरे तावका निहताः परैः // 15 रथाः सप्तशता वीरा निर्ययुर्महतो बलात् // 1 आलोक्य पाण्डवान्युद्धे योधा राजन्समन्ततः / दुर्योधनस्तु द्विरदमारुह्याचलसंनिभम् / वार्यमाणा ययुर्वेगात्तव पुत्रेण भारत // 16 छत्रेण ध्रियमाणेन वीज्यमानश्च चामरैः। दुर्योधनस्तु तान्वीरान्वारयामास सान्त्वयन्। : न गन्तव्यं न गन्तव्यमिति मद्रानवारयत् // 2 न चास्य शासनं कश्चित्तत्र चक्रे महारथः // 15 दुर्योधनेन ते वीरा वार्यमाणाः पुनः पुनः / / ततो गान्धारराजस्य पुत्रः शकुनिरब्रवीत्। युधिष्ठिरं जिघांसन्तः पाण्डूनां प्राविशन्बलम् // 3 / दुर्योधनं महाराज वचनं वचनक्षमः // 18 / - 1836 - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 17. 19 ] शल्यपर्व [9. 18.4 के नः संप्रेक्षमाणानां मद्राणां हन्यते बलम् / वातायमानैस्तुरगैर्युगासक्तैस्तुरंगमैः। न युक्तमेतत्समरे त्वयि तिष्ठति भारत // 19 अदृश्यन्त महाराज योधास्तत्र रणाजिरे // 32 पहितैर्नाम योद्धव्यमित्येष समयः कृतः / भग्नचक्रारथान्केचिदवहंस्तुरगा रणे / अथ कस्मात्परानेव नतो मर्षयसे नृप // 20 रथा केचिदादाय दिशो दश विबभ्रमुः / दुर्योधन उवाच / तत्र तत्र च दृश्यन्ते योक्त्रैः श्लिष्टाः स्म वाजिनः // रथिनः पतमानाश्च व्यदृश्यन्त नरोत्तम / ार्यमाणा मया पूर्व नैते चक्रुर्वचो मम / इते हि निहताः सर्वे प्रस्कन्नाः पाण्डवाहिनीम् // 21 | गगनात्प्रच्युताः सिद्धाः पुण्यानामिव संक्षये // 34 निहतेषु च शूरेषु मद्रराजानुगेषु च / शकुनिरुवाच / अस्मानापततश्चापि दृष्ट्वा पार्था महारथाः // 35 भर्तुः शासनं वीरा रणे कुर्वन्त्यमर्षिताः / अभ्यवर्तन्त वेगेन जयगृध्राः प्रहारिणः / प्रलं क्रोर्बु तथैतेषां नायं काल उपेक्षितुम् // 22 | बाणशब्दरवान्कृत्वा विमिश्राशङ्खनिस्वनैः // 36 रामः सर्वेऽत्र संभूय सवाजिरथकुञ्जराः / अस्मांस्तु पुनरासाद्य लब्धलक्षाः प्रहारिणः / रित्रातुं महेष्वासान्मद्रराजपदानुगान् // 23 शरासनानि धुन्वानाः सिंहनादान्प्रचुक्रुशुः // 37 भन्योन्यं परिरक्षामो यत्नेन महता नृप / ततो हतमभिप्रेक्ष्य मद्रराजबलं महत् / एवं सर्वेऽनुसंचिन्त्य प्रययुर्यत्र सैनिकाः // 24 मद्रराजं च समरे दृष्ट्वा शूरं निपातितम् / संजय उवाच / दुर्योधनबलं सर्वं पुनरासीत्पराङ्मुखम् // 38 . स्वमुक्तस्ततो राजा बलेन महता वृतः। वध्यमानं महाराज पाण्डवैर्जितकाशिभिः / त्ययौ सिंहनादेन कम्पयन्वै वसुंधराम् // 25 दिशो भेजेऽथ संभ्रान्तं त्रासितं दृढधन्विभिः॥३९ इत विध्यत गृह्णीत प्रहरध्वं निकृन्तत / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि त्यासीत्तुमुलः शब्दस्तव सैन्यस्य भारत // 26 सप्तदशोऽध्यायः // 17 // मण्डवास्तु रणे दृष्ट्वा मद्रराजपदानुगान् / पहितानभ्यवर्तन्त गुल्ममास्थाय मध्यमम् // 27 संजय उवाच / हे मुहूर्ताद्रणे वीरा हस्ताहस्तं विशां पते / पातिते युधि दुर्धर्षे मद्रराजे महारथे / निहताः प्रत्यदृश्यन्त मद्रराजपदानुगाः // 28 तावकास्तव पुत्राश्च प्रायशो विमुखाभवन् // 1 ततो नः संप्रयातानां हतामित्रास्तरस्विनः / वणिजो नावि भिन्नायां यथागाधेऽप्लवेऽर्णवे / दृष्टाः किलकिलाशब्दमकुर्वन्सहिताः परे // 29 अपारे पारमिच्छन्तो हते शूरे महात्मनि // 2 अथोत्थितानि रुण्डानि समदृश्यन्त सर्वशः / मद्रराजे महाराज वित्रस्ताः शरविक्षताः / पपात महती चोल्का मध्येनादित्यमण्डलम् // 30 अनाथा नाथमिच्छन्तो मृगाः सिंहार्दिता इव // 3 स्थैर्भग्नैर्युगाक्षैश्च निहतैश्च महारथैः। वृषा यथा भनशृङ्गाः शीर्णदन्ता गजा इव / अश्वैर्निपतितैश्चैव संछन्नाभूद्वसुंधरा // 31 मध्याह्ने प्रत्यपायाम निर्जिता धर्मसूनुना // 4 - 1837 - सजय Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 18.5] महाभारत [9. 18. 32 न संधातुमनीकानि न च राजन्पराक्रमे। अद्यार्जुनधनुर्घोषं घोरं जानातु संयुगे // 18 आसीद्बुद्धिर्हते शल्ये तव योधस्य कस्यचित् // 5 / अस्त्राणां च बलं सर्ब बाह्वोश्च बलमाहवे। भीष्मे द्रोणे च निहते सूतपुत्रे च भारत / अद्य ज्ञास्यति भीमस्य बलं घोरं महात्मनः // 19 यहुःखं तव योधानां भयं चासीद्विशां पते / हते दुर्योधने युद्धे शक्रेणेवासुरे मये। तद्भयं स च नः शोको भूय एवाभ्यवर्तत // 6 यत्कृतं भीमसेनेन दुःशासनवधे तदा / निराशाश्च जये तस्मिन्हते शल्ये महारथे / नान्यः कर्तास्ति लोके तहते भीमं महाबलम् // 20 हतप्रवीरा विध्वस्ता विकृत्ताश्च शितैः शरैः / जानीतामद्य ज्येष्ठस्य पाण्डवस्य पराक्रमम् / मद्रराजे हते राजन्योधास्ते प्राद्रवन्भयात् // 7 मद्रराजं हतं श्रुत्वा देवैरपि सुदुःसहम् // 21 अश्वानन्ये गजानन्ये रथानन्ये महारथाः / अद्य ज्ञास्यति संग्रामे माद्रीपुत्रौ महाबलौ / आरुह्य जवसंपन्नाः पादाताः प्रादवन्भयात // 8 निहते सौबले शूरे गान्धारेषु च सर्वशः // 22 द्विसाहस्राश्च मातङ्गा गिरिरूपाः प्रहारिणः / कथं तेषां जयो न स्याद्येषां योद्धा धनंजयः / संप्राद्रवन्हते शल्ये अङ्कुशाङ्गुष्ठचोदिताः / / 9 / सात्यकिर्भीमसेनश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः / / 23 ते रणाद्भरतश्रेष्ठ तावकाः प्राद्रवन्दिशः।। द्रौपद्यास्तनयाः पञ्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। धावन्तश्चाप्यदृश्यन्त श्वसमानाः शरातुराः / / 10 शिखण्डी च महेष्वासो राजा चैव युधिष्ठिरः // 24 तान्प्रभग्नान्द्रुतान्दृष्ट्वा हतोत्साहान्पराजितान् / येषां च जगतां नाथो नाथः कृष्णो जनार्दनः / अभ्यद्रवन्त पाश्चालाः पाण्डवाश्च जयैषिणः // 11 कथं तेषां जयो न स्यायेषां धर्मो व्यपाश्रयः // 25 बाणशब्दरवश्वापि सिंहनादश्च पुष्कलः / / भीष्मं द्रोणं च कर्ण च मद्रराजानमेव च।। शङ्खशब्दश्च शूराणां दारुणः समपद्यत // 12 तथान्यान्नपतीन्वीराज्शतशोऽथ सहस्रशः // 26 दृष्ट्वा तु कौरवं सैन्यं भयत्रस्तं प्रविद्रुतम् / कोऽन्यः शक्तो रणे जेतुमृते पार्थं युधिष्ठिरम् / अन्योन्यं समभाषन्त पाश्चालाः पाण्डवैः सह // 13 यस्य नाथो हृषीकेशः सदा धर्मयशोनिधिः // 27 अद्य राजा सत्यधृतिर्जितामित्रो युधिष्ठिरः / इत्येवं वदमानास्ते हर्षेण महता युताः / अद्य दुर्योधनो हीनो दीप्तया नृपतिश्रिया // 14 प्रभग्नांस्तावकान्राजन्सृञ्जयाः पृष्ठतोऽन्वयुः 28. अद्य श्रुत्वा हतं पुत्रं धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। धनंजयो रथानीकमभ्यवर्तत वीर्यवान् / निःसंज्ञः पतितो भूमौ किल्बिषं प्रतिपद्यताम् // 15 माद्रीपुत्रौ च शकुनि सात्यकिश्च महारथः // 29 अद्य जानातु कौन्तेयं समर्थं सर्वधन्विनाम् / / तान्प्रेक्ष्य द्रवतः सर्वान्भीमसेनभयार्दितान् / अद्यात्मानं च दुर्मेधा गर्हयिष्यति पापकृत् / दुर्योधनस्तदा सूतमब्रवीदुत्स्मयन्निव // 30 अद्य क्षत्तुर्वचः सत्यं स्मरतां ब्रुवतो हितम् // 16 न मातिक्रमते पार्थो धनुष्पाणिमवस्थितम् / / अद्यप्रभृति पार्थांश्च प्रेष्यभूत उपाचरन् / जघने सर्वसैन्यानां ममाश्वान्प्रतिपादय // 31 विजानातु नृयो दुःखं यत्प्राप्तं पाण्डुनन्दनैः॥ 17 | जघने युध्यमानं हि कौन्तेयो मां धनंजयः। अद्य कृष्णस्य माहात्म्यं जानातु स महीपतिः। / नोत्सहेताभ्यतिक्रान्तुं वेलामिव महोदधिः // 32 - 1838 - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 18. 33 ] शल्यपर्व [9. 18. 61 पश्य सैन्यं महत्सूत पाण्डवैः समभिद्रुतम् / एकविंशतिसाहस्रान्पदातीनवपोथयत् // 47 सैन्यरेणुं समुद्भूतं पश्यस्वैनं समन्ततः // 33 हत्वा तत्पुरुषानीकं भीमः सत्यपराक्रमः / सिंहनादांश्च बहुशः शृणु घोरान्भयानकान् / धृष्टद्युम्नं पुरस्कृत्य नचिरात्प्रत्यदृश्यत / / 48 तस्माद्याहि शनैः सूत जघनं परिपालय // 34 पादाता निहता भूमौ शिश्यिरे रुधिरोक्षिताः / मयि स्थिते च समरे निरुद्धेषु च पाण्डुषु / संभग्ना इव वातेन कर्णिकाराः सुपुष्पिताः // 49 पुनरावर्तते तूर्णं मामकं बलमोजसा // 35 नानापुष्पस्रजोपेता नानाकुण्डलधारिणः / तच्छ्रुत्वा तव पुत्रस्य शूराग्यसदृशं वचः / नानाजात्या हतास्तत्र नानादेशसमागताः // 50 सारथिहेमसंछन्नाशनैरश्वानचोदयत् // 36 . पताकाध्वजसंछन्नं पदातीनां महद्बलम् / गजाश्वरथिभिहींनास्त्यक्तात्मानः पदातयः / निकृत्तं विबभौ तत्र घोररूपं भयानकम् // 51 एकविंशतिसाहस्राः संयुगायावतस्थिरे // 37 युधिष्ठिरपुरोगास्तु सर्वसैन्यमहारथाः / नानादेशसमुद्भूता नानारजितवाससः / अभ्यधावन्महात्मानं पुत्रं दुर्योधनं तव // 52 अवस्थितास्तदा योधाः प्रार्थयन्तो महद्यशः // 38 ते सर्वे तावकान्दृष्ट्वा महेष्वासान्पराङ्मुखान् / तेषामापततां तत्र संहृष्टानां परस्परम् / नाभ्यवर्तन्त ते पुत्रं वेलेव मकरालयम् // 53 संमर्दः सुमहाञ्जज्ञे घोररूपो भयानकः // 39 तदद्भुतमपश्याम तव पुत्रस्य पौरुषम् / भीमसेनं तदा राजन्धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् / यदेकं सहिताः पार्था न शेकुरतिवर्तितुम् // 54 बलेन चतुरङ्गेण नानादेश्या न्यवारयन् // 40 नातिदूरापयातं तु कृतबुद्धि पलायने / भीममेवाभ्यवर्तन्त रणेऽन्ये तु पदातयः / दुर्योधनः स्वकं सैन्यमब्रवीशविक्षतम् // 55 प्रक्ष्वेड्यारफोट्य संहृष्टा वीरलोकं यियासवः॥४१ / न तं देशं प्रपश्यामि पृथिव्यां पर्वतेषु वा / भासाद्य भीमसेनं तु संरब्धा युद्धदुर्मदाः / यत्र यातान्न वो हन्युः पाण्डवाः किं सृतेन वः॥५६ धार्तराष्ट्रा विनेदुर्हि नान्यां चाकथयन्कथाम् / अल्पं च बलमेतेषां कृष्णौ च भृशविक्षतौ / परिवार्य रणे भीमं निजन्नुस्ते समन्ततः // 42 यदि सर्वेऽत्र तिष्ठामो ध्रुवो नो विजयो भवेत्॥५७ प्स वध्यमानः समरे पदातिगणसंवृतः। विप्रयातांस्तु वो भिन्नान्पाण्डवाः कृतकिल्बिषान् / न चचाल रथोपस्थे मैनाक इव पर्वतः // 43 अनुसृत्य हनिष्यन्ति श्रेयो नः समरे स्थितम् // 58 ते तु क्रुद्धा महाराज पाण्डवस्य महारथम् / शृणुध्वं क्षत्रियाः सर्वे यावन्तः स्थ समागताः / निप्रहीतुं प्रचक्रुर्हि योधांश्चान्यानवारयन् 44 यदा शूरं च भीरं च मारयत्यन्तकः सदा / अक्रुध्यत रणे भीमस्तैस्तदा पर्यवस्थितैः / को नु मूढो न युध्येत पुरुषः क्षत्रियब्रुवः // 59 सोऽवतीर्य रथात्तूणं पदातिः समवस्थितः // 45 श्रेयो नो भीमसेनस्य क्रुद्धस्य प्रमुखे स्थितम् / जातरूपपरिच्छन्नां प्रगृह्य महतीं गदाम् / सुखः सांग्रामिको मृत्युः क्षत्रधर्मेण युध्यताम् / प्रवधीत्तावकान्योधान्दण्डपाणिरिवान्तकः // 46 जित्वेह सुखमाप्नोति हतः प्रेत्य महत्फलम् // 60 थाश्वद्विपहीनांस्तु तान्भीमो गया बली। न युद्धधर्माच्छ्रेयान्वै पन्थाः स्वर्गस्य कौरवाः। - 1839 - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 18. 61] महाभारते [9. 19. 18 संजय उवाच / अचिरेण जिताल्लोकान्हतो युद्धे समभुते // 61 यथा पुरा वज्रधरस्य दैत्याः // 5 श्रुत्वा तु वचनं तस्य पूजयित्वा च पार्थिवाः / ते पाण्डवाः सोमकाः सृञ्जयाश्च पुनरेवान्ववर्तन्त पाण्डवानाततायिनः // 62 तमेव नागं ददृशुः समन्तात् / तानापतत एवाश व्यूढानीकाः प्रहारिणः / सहस्रशो वै विचरन्तमेकं प्रत्युद्ययुस्तदा पार्था जयगृध्राः प्रहारिणः // 63 यथा महेन्द्रस्य गज समीपे // 6 धनंजयो रथेनाजावभ्यवर्तत वीर्यवान् / संद्राव्यमाणं तु बलं परेषां विश्रुतं त्रिषु लोकेषु गाण्डीवं विक्षिपन्धनुः॥ 64 परीतकल्पं विबभौ समन्तात् / माद्रीपुत्रौ च शकुनि सात्यकिश्च महाबलः / नैवावतस्थे समरे भृशं भयाजवेनाभ्यपतन्हृष्टा यतो वै तावकं बलम् // 65 द्विमर्दमानं तु परस्परं तदा // 7 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ततः प्रभन्ना सहसा महाचमूः अष्टादशोऽध्यायः // 18 // सा पाण्डवी तेन नराधिपेन / दिशश्चतस्रः सहसा प्रधाविता गजेन्द्रवेगं तमपारयन्ती // 8 संनिवृत्ते बलौघे तु शाल्वो म्लेच्छगणाधिपः / दृष्ट्वा च तां वेगवता प्रभग्नां अभ्यवर्तत संक्रुद्धः पाण्डूनां सुमहद्बलम् // 1 सर्वे त्वदीया युधि योधमुख्याः / आस्थाय सुमहानागं प्रभिन्नं पर्वतोपमम् / अपूजयंस्तत्र नराधिपं तं दृप्तमैरावतप्रख्यममित्रगणमर्दनम् // 2 दध्मुश्च शङ्खाशशिसंनिकाशान् // 9 योऽसौ महाभद्रकुलप्रसूतः श्रुत्वा निनादं त्वथ कौरवाणां सुपूजितो धार्तराष्ट्रेण नित्यम् / हर्षाद्विमुक्तं सह शङ्खशब्दैः। सुकल्पितः शास्त्रविनिश्चयज्ञैः सेनापतिः पाण्डवसृञ्जयानां ___ सदोपवाह्यः समरेषु राजन् // 3 . पाश्चालपुत्रो न ममर्ष रोषात् // 10 तमास्थितो राजवरो बभूव ततस्तु तं वै द्विरदं महात्मा ___ यथोदयस्थः सविता क्षपान्ते / प्रत्युद्ययौ त्वरमाणो जयाय / स तेन नागप्रवरेण राज जम्भो यथा शक्रसमागमे वै नभ्युद्ययौ पाण्डुसुतान्समन्तात् / नागेन्द्रमैरावणमिन्द्रवाह्यम् // 11 शितैः पृषकैर्विददार चापि तमापतन्तं सहसा तु दृष्ट्वा महेन्द्रवज्रप्रतिमैः सुघोरैः // 4 पाश्चालराज युधि राजसिंहः / ततः शरान्वै सृजतो महारणे तं वै द्विपं प्रेषयामास तूर्ण योधांश्च राजन्नयतो यमाय / वधाय राजन्द्रुपदात्मजस्य // 12 नास्यान्तरं ददृशुः स्वे परे वा स तं द्विपं सहसाभ्यापतन्त- 1840 - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 19. 13] शल्यपर्व [9. 20. 1 मविध्यदर्कप्रतिमैः पृषकैः। प्रदुद्रुवुस्तत्र ततस्तु सर्वे // 20 कर्मारधौतैर्निशितैर्वलद्भि तत्कर्म शाल्वस्य समीक्ष्य सर्वे राचमुख्यैत्रिभिरुपवेगैः // 13 पाश्चालमत्स्या नृप सृञ्जयाश्च / ततोऽपरान्पश्च शितान्महात्मा हाहाकारैर्नादयन्तः स्म युद्धे नाराचमुख्यान्विससर्ज कुम्भे। द्विपं समन्ताद्रुरुधुनराग्र्याः // 21 स तैस्तु विद्धः परमद्विपो रणे पाश्चालराजस्त्वरितस्तु शूरो तदा परावृत्य भृशं प्रदुद्रुवे // 14 गदां प्रगृह्याचलशृङ्गकल्पाम् / तं नागराजं सहसा प्रणुन्नं असंभ्रमं भारत शत्रुघाती विद्राव्यमाणं च निगृह्य शाल्वः / . जवेन वीरोऽनुससार नागम् // 22 तोत्राङ्कुशैः प्रेषयामासं तूर्णं ततोऽथ नागं धरणीधराभं .. पाञ्चालराजस्य रथं प्रदिश्य // 15 मदं स्रवन्तं जलदप्रकाशम् / दृष्ट्वापतन्तं सहसा तु नागं गदां समाविध्य भृशं जघान धृष्टद्युम्नः स्वरथाच्छीघ्रमेव / पाञ्चालराजस्य सुतस्तरस्वी // 23 गदा प्रगृह्याशु जवेन वीरो स भिन्नकुम्भः सहसा विनद्य भूमिं प्रपन्नो भयविह्वलाङ्गः // 16 मुखात्प्रभूतं क्षतजं विमुञ्चन् / स तं रथं हेमविभूषिताङ्गं पपात नागो धरणीधराभः सावं ससूतं सहसा विमृद्य। क्षितिप्रकम्पाञ्चलितो यथाद्रिः // 24 उत्क्षिप्य हस्तेन तदा महाद्विपो निपात्यमाने तु तदा गजेन्द्रे विपोथयामास वसुंधरातले // 17 हाहाकृते तव पुत्रस्य सैन्ये / पाश्चालराजस्य सुतं स दृष्ट्वा स शाल्वराजस्य शिनिप्रवीरो तदार्दितं नागवरेण तेन / ___ जहार भल्लेन शिरः शितेन // 25 तमभ्यधावत्सहसा जवेन हृतोत्तमाङ्गो युधि सात्वतेन भीमः शिखण्डी च शिनेश्च नप्ता // 18 पपात भूमौ सह नागराज्ञा / शरैश्च वेगं सहसा निगृह्य यथाद्रिशृङ्गं सुमहत्प्रणुन्नं तस्याभितोऽभ्यापततो गजस्य / वत्रेण देवाधिपचोदितेन // 26 स संगृहीतो रथिभिर्गजो वै इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि __ चचाल तैर्वार्यमाणश्च संख्ये // 19 एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // ततः पृषत्कान्प्रववर्ष राजा ___ सूर्यो यथा रश्मिजालं समन्तात् / संजय उवाच / तेनाशुगैर्वध्यमाना रथौघाः / तस्मिंस्तु निहते शूरे शाल्वे समितिशोभने / म. भा. 231 - 1841 - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 20. 1] महाभारते [9. 20. 30 तवाभज्यदलं वेगाद्वातेनेव महाद्रुमः // 1 अष्टाभिः कृतवर्माणमविध्यत्परमेषुभिः // 16 तत्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा कृतवर्मा महारथः / ततः पूर्णायतोत्सृष्टैः कृतवर्मा शिलाशितैः। दधार समरे शूरः शत्रुसैन्यं महाबलः // 2 सात्यकिं त्रिभिराहत्य धनुरेकेन चिच्छिदे // 17 संनिवृत्तास्तु ते शूरा दृष्ट्वा सात्वतमाहवे / निकृत्तं तद्धनुःश्रेष्ठमपास्य शिनिपुंगवः / शैलोपमं स्थितं राजन्कीर्यमाणं शरैयुधि // 3 अन्यदादत्त वेगेन शैनेयः सशरं धनुः // 18 ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां पाण्डवैः सह / तदादाय धनुःश्रेष्ठं वरिष्ठः सर्वधन्विनाम् / निवृत्तानां महाराज मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 4 आरोप्य च महावीर्यो महाबुद्धिर्महाबलः // 19 तत्राश्चर्यमभूयुद्धं सात्वतस्य परैः सह / अमृष्यमाणो धनुषश्छेदनं कृतवर्मणा / यदेको वारयामास पाण्डुसेनां दुरासदाम् // 5 कुपितोऽतिरथः शीघ्रं कृतवर्माणमभ्ययात् // 20 तेषामन्योन्यसुहृदां कृते कर्मणि दुष्करे। ततः सुनिशितैर्बाणैर्दशभिः शिनिपुंगवः / / सिंहनादः प्रहृष्टानां दिवःस्पृक्सुमहानभूत् // 6 जघान सूतमश्वांश्च ध्वजं च कृतवर्मणः // 21 तेन शब्देन वित्रस्तान्पाञ्चालान्भरतर्षभ / ततो राजन्महेष्वासः कृतवर्मा महारथः / शिनेर्नप्ता महाबाहुरन्वपद्यत सात्यकिः // 7 हताश्वसूतं संप्रेक्ष्य रथं हेमपरिष्कृतम् // 22 स समासाद्य राजानं क्षेमधूर्तिं महाबलम् / रोषेण महताविष्टः शूलमुद्यम्य मारिष / सप्तभिर्निशितैर्बाणैरनयद्यमसादनम् // 8 चिक्षेप भुजवेगेन जिघांसुः शिनिपुंगवम् // 23 तमायान्तं महाबाहुं प्रवपन्तं शिताशरान् / तच्छूलं सात्वतो ह्याजौ निर्भिद्य निशितैः शरैः / जवेनाभ्यपतद्धीमान्हार्दिक्यः शिनिपुंगवम् // 9 चूर्णितं पातयामास मोहयन्निव माधवम् / तौ सिंहाविव नर्दन्तौ धन्विनौ रथिनां वरौ। ततोऽपरेण भल्लेन हृद्येनं समताडयत् // 24 अन्योन्यमभ्यधावेतां शस्त्रप्रवरधारिणौ // 10 स युद्धे युयुधानेन हताश्वो हतसारथिः / पाण्डवाः सह पाञ्चालैर्योधाश्चान्ये नृपोत्तमाः / कृतवर्मा कृतास्त्रेण धरणीमन्वपद्यत / / 25 प्रेक्षकाः समपद्यन्त तयोः पुरुषसिंहयोः // 11 तस्मिन्सात्यकिना वीरे द्वैरथे विरथीकृते / नाराचैर्वत्सदन्तैश्च वृष्ण्यन्धकमहारथौ। समपद्यत सर्वेषां सैन्यानां सुमहद्भयम् // 26 अभिजघ्नतुरन्योन्यं प्रहृष्टाविव कुञ्जरौ // 12 पुत्रस्य तव चात्यर्थं विषादः समपद्यत / चरन्तौ विविधान्मार्गान्हार्दिक्यशिनिपुंगवौ / हतसूते हताश्वे च विरथे कृतवर्मणि / / 27 मुहुरन्तर्दधाते तो बाणवृष्ट्या परस्परम् // 13 / / हताश्वं च समालक्ष्य हतसूतमरिंदमम् / चापवेगबलोद्भूतान्मार्गणान्वृष्णिसिंहयोः / अभ्यधावत्कृपो राजञ्जिघांसुः शिनिपुंगवम् // 28 आकाशे समपश्याम पतंगानिव शीघ्रगान् / / 14 / तमारोप्य रथोपस्थे मिषतां सर्वधन्विनाम् / तमेकं सत्यकर्माणमासाद्य हृदिकात्मजः / अपोवाह महाबाहुस्तूर्णमायोधनादपि // 29 अविध्यन्निशितैर्बाणैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् // 15 / शैनेयेऽधिष्ठिते राजविरथे स दीर्घबाहुः संक्रुद्धस्तोत्रादित इव द्विपः। दुर्योधनबलं सर्वं पुनरासीत्पराङ्मुखम् // 30 - 1842 - णि / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 20. 31] शल्यपर्व [9. 21. 20 तत्परे नावबुध्यन्त सैन्येन रजसावृते / तत्राद्भुतमपश्याम तव पुत्रस्य विक्रमम् / तावकाः प्रद्रुता राजन्दुर्योधनमृते नृपम् // 31 यदेकं सहिताः पार्था नात्यवर्तन्त भारत // 8 दुर्योधनस्तु संप्रेक्ष्य भग्नं स्वबलमन्तिकात् / युधिष्ठिरं शतेनाजी विव्याध भरतर्षभ / जवेनाभ्यपतत्तर्ण सर्वांश्चैको न्यवारयत्॥ 32 भीमसेनं च सप्तत्या सहदेवं च सप्तभिः // 9 पाण्डूंश्च सर्वान्संक्रुद्धो धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् / नकुलं च चतुःषष्ट्या धृष्टद्युम्नं च पञ्चभिः / शिखण्डिनं द्रौपदेयान्पाञ्चालानां च ये गणाः // 33 सप्तभिर्दोपदेयांश्च त्रिभिर्विव्याध सात्यकिम् / केकयान्सोमकांश्चैव पाञ्चालांश्चैव मारिष / धनुश्चिच्छेद भल्लेन सहदेवस्य मारिष // 10 असंभ्रमं दुराधर्षः शितैरभैरवारयत् // 34 तदपास्य धनुश्छिन्नं माद्रीपुत्रः प्रतापवान् / अतिष्ठदाहवे यत्तः पुत्रस्तव महाबलः / अभ्यधावत राजानं प्रगृह्यान्यन्महद्धनुः / यथा यज्ञे महानग्निर्मत्रपूतः प्रकाशयन् // 35 ततो दुर्योधनं संख्ये विव्याध दशभिः शरैः॥११ तं परे नाभ्यवर्तन्त मा मृत्युमिवाहवे / नकुलश्च ततो वीरो राजानं नवभिः शरैः / अथान्यं रथमास्थाय हार्दिक्यः समपद्यत // 36 घोररूपैर्महेष्वासो विव्याध च ननाद च // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि सात्यकिश्चापि राजानं शरेणानतपर्वणा / विंशोऽध्यायः // 20 // द्रौपदेयात्रिसप्तत्या धर्मराजश्च सप्तभिः / अशीत्या भीमसेनश्च शरै राजानमार्दयत् // 13 संजय उवाच / समन्तात्कीर्यमाणस्तु बाणसंधैर्महात्मभिः / पुत्रस्तु ते महाराज रथस्थो रथिनां वरः।। न चचाल महाराज सर्वसैन्यस्य पश्यतः // 14 दुरुत्सहो बभौ युद्धे यथा रुद्रः प्रतापवान् // 1 लाघवं सौष्ठवं चापि वीर्यं चैव महात्मनः / तस्य बाणसहस्रेस्तु प्रच्छन्ना ह्यभवन्मही / अति सर्वाणि भूतानि ददृशुः सर्वमानवाः // 15 परांश्च सिषिचे बाणैर्धाराभिरिव पर्वतान् // 2 धार्तराष्ट्रास्तु राजेन्द्र यात्वा तु स्वल्पमन्तरम् / न च सोऽस्ति पुमान्कश्चित्पाण्डवानां महाहवे / अपश्यमाना राजानं पर्यवर्तन्त दंशिताः // 16 हयो गजो रथो वापि योऽस्य बाणैरविक्षतः // 3 तेषामापततां घोरस्तुमुलः समजायत / यं यं हि समरे योधं प्रपश्यामि विशां पते / क्षुब्धस्य हि समुद्रस्य प्रावृद्धाले यथा निशि // 17 स स बाणैश्चितोऽभूद्वै पुत्रेण तव भारत // 4 समासाद्य रणे ते तु राजानमपराजितम् / यथा सैन्येन रजसा समुद्भूतेन वाहिनी / प्रत्युद्ययुर्महेष्वासाः पाण्डवानाततायिनः // 18 प्रत्यदृश्यत संछन्ना तथा बाणैर्महात्मनः // 5 भीमसेनं रणे क्रुद्धं द्रोणपुत्रो न्यवारयत् / बाणभूतामपश्याम पृथिवीं पृथिवीपते / ततो बाणैर्महाराज प्रमुक्तैः सर्वतोदिशम् / दुर्योधनेन प्रकृतां क्षिप्रहस्तेन धन्विना // 6 नाज्ञायन्त रणे वीरा न दिशः प्रदिशस्तथा // 19 तेषु योधसहस्रेषु तावकेषु परेषु च / तावुभौ क्रूरकर्माणावुभौ भारत दुःसहौ / एको दुर्योधनो ह्यासीत्पुमानिति मतिर्मम // 7 / घोररूपमयुध्येतां कृतप्रतिकृतैषिणौ / - 1843 - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 21. 20] महाभारते [9. 22.1 त्रासयन्तौ जगत्सर्वं ज्याक्षेपविहतत्वचौ // 20 स च तान्प्रतिसंरब्धः प्रत्ययोधयदाहवे // 34 शकुनिस्तु रणे वीरो युधिष्ठिरमपीडयत् / एवं चित्रमभूद्युद्धं तस्य तैः सह भारत / तस्याश्वांश्चतुरो हत्वा सुबलस्य सुतो विभुः / उत्थायोत्थाय हि यथा देहिनामिन्द्रियैर्विभो॥३५ नादं चकार बलवान्सर्वसैन्यानि कम्पयन् // 21 नराश्चैव नरैः साधं दन्तिनो दन्तिभिस्तथा। . एतस्मिन्नन्तरे वीरं राजानमपराजितम् / हया हयैः समासक्ता रथिनो रथिभिस्तथा / अपोवाह रथेनाजौ सहदेवः प्रतापवान् // 22 संकुलं चाभवद्भूयो घोररूपं विशां पते // 36 अथान्यं रथमास्थाय धर्मराजो युधिष्ठिरः / इदं चित्रमिदं घोरमिदं रौद्रमिति प्रभो। शकुनि नवभिर्विद्या पुनर्विव्याध पञ्चभिः / युद्धान्यासन्महाराज घोराणि च बहूनि च // 37. ननाद च महानादं प्रवरः सर्वधन्विनाम् // 23 ते समासाद्य समरे परस्परमरिंदमाः / तद्युद्धमभवच्चित्रं घोररूपं च मारिष / विव्यधुश्चैव जन्नुश्च समासाद्य महाहवे // 38 ईक्षितृप्रीतिजननं सिद्धचारणसेवितम् // 24 तेषां शस्त्रसमुद्भूतं रजस्तीत्रमदृश्यत / उलूकस्तु महेष्वासं नकुलं युद्धदुर्मदम् / प्रवातेनोद्धतं राजन्धावद्भिश्चाश्वसादिभिः // 39 अभ्यद्रवदमेयात्मा शरवर्षेः समन्ततः // 25 रथनेमिसमुद्भूतं निःश्वासैश्चापि दन्तिनाम् / तथैव नकुलः शूरः सौबलस्य सुतं रणे / रजः संध्याभ्रकपिलं दिवाकरपथं ययौ // 40 शरवर्षेण महता समन्तात्पर्यवारयत् // 26 रजसा तेन संपृक्ते भास्करे निष्प्रभीकृते। : तौ तत्र समरे वीरौ कुलपुत्रौ महारथौ / संछादिताभवद्भूमिस्ते च शूरा महारथाः // 41 योधयन्तावपश्येतां परस्परकृतागसौ // 27 मुहूर्तादिव संवृत्तं नीरजस्कं समन्ततः / तथैव कृतवर्मा तु शैनेयं शत्रुतापनम् / वीरशोणितसिक्तायां भूमौ भरतसत्तम / योधयन्शुशुभे राजन्बलं शक्र इवाहवे // 28 उपाशाम्यत्ततस्तीव्र तद्रजो घोरदर्शनम् // 42 दुर्योधनो धनुश्छित्त्वा धृष्टद्युम्नस्य संयुगे / ततोऽपश्यं महाराज द्वंद्वयुद्धानि भारत / अथैनं छिन्नधन्वानं विव्याध निशितैः शरैः // 29 यथाप्राग्यं यथाज्येष्ठं मध्याह्ने वै सुदारुणे / धृष्टद्युम्नोऽपि समरे प्रगृह्य परमायुधम् / वर्मणां तत्र राजेन्द्र व्यदृश्यन्तोज्वलाः प्रभाः॥४३ राजानं योधयामास पश्यतां सर्वधन्विनाम् // 30 शब्दः सुतुमुलः संख्ये शराणां पततामभूत् / तयोर्युद्धं महच्चासीत्संग्रामे भरतर्षभ / महावेणुवनस्येव दह्यमानस्य सर्वतः // 44 प्रभिन्नयोर्यथा सक्तं मत्तयोर्वरहस्तिनोः // 31 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि गौतमस्तु रणे क्रुद्धो द्रौपदेयान्महाबलान् / एकविंशोऽध्यायः // 21 // विव्याध बहुभिः शूरः शरैः संनतपर्वभिः // 32 तस्य तैरभवद्युद्धमिन्द्रियैरिव देहिनः / संजय उवाच। घोररूपमसंवार्य निर्मर्यादमतीव च // 33 वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे भयानके / ते च तं पीडयामासुरिन्द्रियाणीव बालिशम्। / अभज्यत बलं तत्र तव पुत्रस्य पाण्डवैः // 1 - 1844 - 22 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 22. 2] शल्यपर्व [9. 22. 30 तांस्तु यत्नेन महता संनिवार्य महारथान् / वध्यमानेषु योधेषु तावकेष्वितरेषु च // 16 पुत्रस्ते योधयामास पाण्डवानामनीकिनीम् // 2 निनदत्सु च योधेषु शङ्खवर्यैश्च पूरितैः / निवृत्ताः सहसा योधास्तव पुत्रप्रियैषिणः / | उत्कृष्टैः सिंहनादैश्च गर्जितेन च धन्विनाम् // 1. संनिवृत्तेषु तेष्वेवं युद्धमासीत्सुदारुणम् // 3 अतिप्रवृद्धे युद्धे च छिद्यमानेषु मर्मसु / तावकानां परेषां च देवासुररणोपमम् / धावमानेषु योधेषु जयगृद्धिषु मारिष // 18 परेषां तव सैन्ये च नासीत्कश्चित्पराङ्मुखः॥४ संहारे सर्वतो जाते पृथिव्यां शोकसंभवे / अनुमानेन युध्यन्ते संज्ञाभिश्च परस्परम् / बबीनामुत्तमस्त्रीणां सीमन्तोद्धरणे तथा // 19 तेषां क्षयो महानासीद्युध्यतामितरेतरम् / / 5 / निर्मर्यादे तथा युद्धे वर्तमाने सुदारुणे / , ततो युधिष्ठिरो राजा क्रोधेन महता युतः। . प्रादुरासन्विनाशाय तदोत्पाताः सुदारुणाः / जिगीषमाणः संग्रामे धार्तराष्ट्रान्सराजकान् // 6 चचाल शब्दं कुर्वाणा सपर्वतवना मही // 20 त्रिभिः शारद्वतं विद्या रुक्मपुखैः शिलाशितैः / सदण्डाः सोल्मुका राजशीर्यमाणाः समन्ततः / चतुर्भिर्निजघानाश्वान्कल्याणान्कृतवर्मणः // 7 उल्काः पेतुर्दिवो भूमावाहत्य रविमण्डलम् // 21 अश्वत्थामा तु हार्दिक्यमपोवाह यशस्विनम् / विष्वग्वाताः प्रादुरासन्नीचैः शर्करवर्षिणः / अथ शारद्वतोऽष्टाभिः प्रत्यविध्यधुधिष्ठिरम् / / 8 अश्रूणि मुमुचुर्नागा वेपथुश्चास्पृशभृशम् // 22 ततो दुर्योधनो राजा रथान्सप्तशतान्रणे / एतान्घोराननादृत्य समुत्पातान्सुदारुणान् / प्रेषयद्यत्र राजासौ धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः // 9 पुनयुद्धाय संमय क्षत्रियास्तस्थुरव्यथाः / ते रथा रथिभियुक्ता मनोमारुतरंहसः। रमणीये कुरुक्षेत्रे पुण्ये स्वर्गं यियासवः // 23 अभ्यद्रवन्त संग्रामे कौन्तेयस्य रथं प्रति // 10 ततो गान्धारराजस्य पुत्रः शकुनिरप्रवीत् / ते समन्तान्महाराज परिवार्य युधिष्ठिरम् / युध्यध्वमग्रतो यावत्पृष्ठतो हन्मि पाण्डवान् // 24 अदृश्यं सायकैश्चक्रुर्मेघा इव दिवाकरम् // 11 ततो नः संप्रयातानां मद्रयोधास्तरस्विनः / नामृष्यन्त सुसंरब्धाः शिखण्डिप्रमुखा रथाः / हृष्टाः किलकिलाशब्दमकुर्वन्तापरे तथा // 25 स्थैरग्र्यजवैयुक्तैः किङ्किणीजालसंवृतैः / अस्मांस्तु पुनरासाद्य लब्धलक्षा दुरासदाः / आजग्मुरभिरक्षन्तः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् // 12 शरासनानि धुन्वन्तः शरवर्षैरवाकिरन् // 26 ततः प्रववृते रौद्रः संग्रामः शोणितोदकः / ततो हतं परैस्तत्र मद्रराजबलं तदा। पाण्डवानां कुरूणां च यमराष्ट्रविवर्धनः // 13 दुर्योधनबलं दृष्ट्वा पुनरासीत्पराङ्मुखम् / / 27 रथान्सप्तशतान्हत्वा कुरूणामाततायिनाम् / गान्धारराजस्तु पुनर्वाक्यमाह ततो बली / पाण्डवाः सह पाश्चालैः पुनरेवाभ्यवारयन् // 14 निवर्तध्वमधर्मज्ञा युध्यध्वं किं सृतेन वः // 28 तत्र युद्धं महच्चासीत्तव पुत्रस्य पाण्डवैः। अनीकं दशसाहस्रमश्वानां भरतर्षभ / न च नस्तादृशं दृष्टं नैव चापि परिश्रुतम् // 15 आसीद्गान्धारराजस्य विमलप्रासयोधिनाम् // 29 वर्तमाने तथा युद्धे निर्मर्यादे समन्ततः / बलेन तेन विक्रम्य वर्तमाने जनक्षये। - 1845 - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 22. 30] महाभारते [9. 22. 58 पृष्टतः पाण्डवानीकमभ्यन्ननिशितैः शरैः // 30 शलभानामिवाकाशे तदा भरतसत्तम // 45 तदभ्रमिव वातेन क्षिप्यमाणं समन्ततः / / रुधिरोक्षितसर्वाङ्गा विप्रविद्धैर्नियन्तृभिः / अभज्यत महाराज पाण्डूनां सुमहद्बलम् // 31 हयाः परिपतन्ति स्म शतशोऽथ सहस्रशः // 46 ततो युधिष्ठिरः प्रेक्ष्य भग्नं स्वबलमन्तिकात् / अन्योन्यपरिपिष्टाश्च समासाद्य परस्परम् / अभ्यचोदयदव्यग्रः सहदेवं महाबलम् // 32 अविक्षताः स्म दृश्यन्ते वमन्तो रुधिरं मुखैः // 40 असौ सुबलपुत्रो नो जघनं पीड्य दंशितः / / ततोऽभवत्तमो घोरं सैन्येन रजसा वृते / सेनां निसूदयत्येष पश्य पाण्डव दुर्मतिम् // 33 तानपाक्रमतोऽद्राक्षं तस्माद्देशादरिंदमान् / गच्छ त्वं द्रौपदेयाश्च शकुनि सौबलं जहि / अश्वानराजन्मनुष्यांश्च रजसा संवृते सति // 48 रथानीकमहं रक्ष्ये पाञ्चालसहितोऽनघ // 34 / भूमौ निपतिताश्चान्ये वमन्तो रुधिरं बहु / गच्छन्तु कुञ्जराः सर्वे वाजिनश्च सह त्वया / / केशाकेशिसमालग्ना न शेकुश्चेष्टितुं जनाः // 49 पादाताश्च त्रिसाहस्राः शकुनि सौबलं जहि // 35 / अन्योन्यमश्वपृष्ठेभ्यो विकर्षन्तो महाबलाः / ततो गजाः सप्तशताश्चापपाणिभिरास्थिताः। मल्ला इव समासाद्य निजरितरेतरम् / पञ्च चाश्वसहस्राणि सहदेवश्च वीर्यवान् // 36 अश्वैश्च व्यपकृष्यन्त बहवोऽत्र गतासवः // 50 पादाताश्च त्रिसाहस्रा द्रौपदेयाश्च सर्वशः / भूमौ निपतिताश्चान्ये बहवो विजयैषिणः / रणे ह्यभ्यद्रवंस्ते तु शकुनि युद्धदुर्मदम् // 37 तत्र तत्र व्यदृश्यन्त पुरुषाः शूरमानिनः // 51 ततस्तु सौबलो राजन्नभ्यतिक्रम्य पाण्डवान् / रक्तोक्षितैश्छिन्नभुजैरपकृष्टशिरोरुहैः। जघान पृष्ठतः सेनां जयगृध्रः प्रतापवान् // 38 व्यदृश्यत मही कीर्णा शतशोऽथ सहस्रशः // 52 अश्वारोहास्तु संरब्धाः पाण्डवानां तरविनाम् / दूरं न शक्यं तत्रासीद्गन्तुमश्वेन केनचित् / प्राविशन्सौबलानीकमभ्यतिक्रम्य तान्रथान् // 39 साश्वारोहैर्हतैरश्वैरावृते वसुधातले // 53 ते तत्र सादिनः शूराः सौबलस्य महद्वलम् / रुधिरोक्षितसंनाहैरात्तशस्त्रैरुदायुधैः / गजमध्येऽवतिष्ठन्तः शरवर्षैरवाकिरन् // 40 नानाप्रहरणैरैः परस्परवधैषिभिः / तदुद्यतगदाप्रासमकापुरुषसेवितम् / सुसंनिकृष्टैः संग्रामे हतभूयिष्ठलैनिकैः // 54 प्रावर्तत महाद्धं राजन्दुर्मत्रिते तव / / 41 स मुहूर्तं ततो युवा सौबलोऽथ विशां पते / उपारमन्त ज्याशब्दाः प्रेक्षका रथिनोऽभवन / षट्सहर्हयैः शिष्टेरपायाच्छकुनिस्ततः // 55 न हि स्वेषां परेषां वा विशेषः प्रत्यदृश्यत // 42 तथैव पाण्डवानीकं रुधिरेण समुक्षितम् / शूरबाहुविसृष्टानां शक्तीनां भरतर्षभ / षट्सहस्रैर्हयैः शिष्टैरपायाच्छ्रान्तवाहनम् // 56 ज्योतिषामिव संपातमपश्यन्कुरुपाण्डवाः // 43 अश्वारोहास्तु पाण्डूनामब्रुवन्रुधिरोक्षिताः।। ऋष्टिभिर्विमलाभिश्च तत्र तत्र विशां पते / सुसंनिकृष्टाः संग्रामे भूयिष्ठं त्यक्तजीविताः // 57 संपतन्तीभिराकाशमावृतं बह्वशोभत // 44 नेह शक्यं रथैर्योद्धं कुत एव महागजैः / प्रासानां पततां राजरूपमासीत्समन्ततः / रथानेव रथा यान्तु कुञ्जराः कुञ्जरानपि // 58 - 1846 - Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 22. 59 ] शल्यपर्व [9. 22. 88 पतियातो हि शकुनिः स्वमनीकमवस्थितः / / जनुः परान्स्वकांश्चैव प्राप्तान्प्राप्ताननन्तरान् // 73 न पुनः सौबलो राजा युद्धमभ्यागमिष्यति // 59 बहवश्च गतप्राणाः क्षत्रिया जयगृद्धिनः / सतस्तु द्रौपदेयाश्च ते च मत्ता महाद्विपाः / भूमावभ्यपतन्राजशरवृष्टिभिरावृताः // 74 प्रययुर्यत्र पाश्चाल्यो धृष्टद्युम्नो महारथः // 60 वृकगृध्रशृगालानां तुमुले मोदनेऽहनि / सहदेवोऽपि कौरव्य रजोमेघे समुत्थिते। आसीद्वलक्षयो घोरस्तव पुत्रस्य पश्यतः // 75 एकाकी प्रययौ तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः // 61 नराश्वकायसंछन्ना भूमिरासीद्विशां पते / ततस्तेषु प्रयातेषु शकुनिः सौबलः पुनः / रुधिरोदकचित्रा च भीरूणां भयवर्धिनी // 76 पार्श्वतोऽभ्यहनत्क्रुद्धो धृष्टद्युम्नस्य वाहिनीम् // 62 असिभिः पट्टिशैः शूलैस्तक्षमाणाः पुनः पुनः / तत्पुनस्तुमुलं युद्धं प्राणांस्त्यक्त्वाभ्यवर्तत / तावकाः पाण्डवाश्चैव नाभ्यवर्तन्त भारत // 77 तावकानां परेषां च परस्परवधैषिणाम् // 63 / / प्रहरन्तो यथाशक्ति यावत्प्राणस्य धारणम् / ते ह्यन्योन्यमवेक्षन्त तस्मिन्वीरसमागमे / योधाः परिपतन्ति स्म वमन्तो रुधिरं व्रणैः / / 78 योधाः पर्यपतनराजशतशोऽथ सहस्रशः // 64 शिरो गृहीत्वा केशेषु कबन्धः समदृश्यत / असिभिश्छिद्यमानानां शिरसां, लोकसंक्षये / उद्यम्य निशितं खङ्गं रुधिरेण समुक्षितम् // 79 प्रादुरासीन्महाशब्दस्तालानां पततामिव // 65 अथोत्थितेषु बहुषु कबन्धेषु जनाधिप / विमुक्तानां शरीराणां भिन्नानां पततां भुवि / तथा रुधिरगन्धेन योधाः कश्मलमाविशन् // 80 सायुधानां च बाहूनामूरूणां च विशां पते / मन्दीभूते ततः शब्दे पाण्डवानां महद्बलम् / आसीत्कटकटाशब्दः सुमहाल्लोमहर्षणः // 66 अल्पावशिष्टैस्तुरगैरभ्यवर्तत सौबलः / / 81 निघ्नन्तो निशितैः शस्त्रैर्धातॄन्पुत्रान्सखीनपि / ततोऽभ्यधावंस्त्वरिताः पाण्डवा जयगृद्धिनः / योधाः परिपतन्ति स्म यथामिषकृते खगाः 67 पदातयश्च नागाश्च सादिनश्चोद्यतायुधाः // 82 अन्योन्यं प्रतिसंरब्धाः समासाद्य परस्परम् / कोष्टकीकृत्य चाप्येनं परिक्षिप्य च सर्वशः / अहं पूर्वमहं पूर्वमिति न्यन्नन्सहस्रशः // 68 शस्त्रैर्नानाविधैर्जयुद्धपारं तितीर्षवः // 83 संघातैरासनभ्रष्टैरश्वारोहैर्गतासुभिः / त्वदीयास्तांस्तु संप्रेक्ष्य सर्वतः समभिद्रुतान् / हयाः परिपतन्ति स्म शतशोऽथ सहस्रशः // 69 साश्वपत्तिद्विपरथाः पाण्डवानभिदुद्रुवुः / / 84 स्फुरतां प्रतिपिष्टानामश्वानां शीघ्रसारिणाम् / केचित्पदातयः पद्भिर्मुष्टिभिश्च परस्परम् / स्तनतां च मनुष्याणां संनद्धानां विशां पते / / 70 निजघ्नुः समरे शूराः क्षीणशस्त्रास्ततोऽपतन् // 85 शक्त्यष्टिप्रासशब्दश्च तुमुलः समजायत / रथेभ्यो रथिनः पेतुर्द्विपेभ्यो हस्तिसादिनः / भिन्दतां परमर्माणि राजन्दुर्मत्रिते तव / / 71 विमानेभ्य इव भ्रष्टाः सिद्धाः पुण्यक्षयाद्यथा // 86 श्रमाभिभूताः संरब्धाः श्रान्तवाहाः पिपासिताः / एवमन्योन्यमायस्ता योधा जन्नुर्महामृधे / विक्षताश्च शितैः शस्त्रैरभ्यवर्तन्त तावकाः // 72 पितृन्भ्रातॄन्वयस्यांश्च पुत्रानपि तथापरे // 87 मत्ता रुधिरगन्धेन बहवोऽत्र विचेतसः / एवमासीदमर्यादं युद्धं भरतसत्तम / - 1847 - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 22. 88 ] महाभारते [9. 23. 27 प्रासासिबाणकलिले वर्तमाने सुदारुणे // 88 शरासनानि धुन्वानाः सिंहनादं प्रचक्रिरे // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ततो ज्यातलनिर्घोषः पुनरासीद्विशां पते। द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // प्रादुरासीच्छराणां च सुमुक्तानां सुदारुणः // 13 23 तान्समीपगतान्दृष्ट्वा जवेनोद्यतकामुकान। . संजय उवाच / उवाच देवकीपुत्रं कुन्तीपुत्रो धनंजयः // 14 तस्मिशब्दे मृदौ जाते पाण्डवैर्निहते बले / चोदयाश्वानसंभ्रान्तः प्रविशैतद्वलार्णवम् / अश्वैः सप्तशतैः शिष्टैरुपावर्तत सौबलः // 1 अन्तमद्य गमिष्यामि शत्रूणां निशितैः शरैः।। 15 स यात्वा वाहिनीं तूर्णमब्रवीत्त्वरयन्युधि / अष्टादश दिनान्यद्य युद्धस्यास्य जनार्दन। . युध्यध्वमिति संहृष्टाः पुनः पुनररिंदमः / वर्तमानस्य महतः समासाद्य परस्परम् // 16 अपृच्छत्क्षत्रियांस्तत्र क नु राजा महारथः // 2 अनन्तकल्पा ध्वजिनी भूत्वा ह्येषां महात्मनाम् / शकुनेस्तु वचः श्रुत्वा त ऊचुर्भरतर्षभ / क्षयमद्य गता युद्धे पश्य दैवं यथाविधम् // 17 असौ तिष्ठति कौरव्यो रणमध्ये महारथः // 3 समुद्रकल्पं तु बलं धार्तराष्ट्रस्य माधव / यत्रतत्सुमहच्छत्रं पूर्णचन्द्रसमप्रभम् / अस्मानासाद्य संजातं गोष्पदोपममच्युत // 18 यत्रैते सतलत्राणा रथास्तिष्ठन्ति दंशिताः // 4 हते भीष्मे च संदध्याच्छिवं स्यादिह माधव। यत्रैष शब्दस्तुमुलः पर्जन्यनिनदोपमः / न च तत्कृतवान्मूढो धार्तराष्ट्रः सुबालिशः // 19 तत्र गच्छ द्रुतं राजंस्ततो द्रक्ष्यसि कौरवम् // 5 उक्तं भीष्मेण यद्वाक्यं हितं पथ्यं च माधव / एवमुक्तस्तु तैः शूरैः शकुनिः सौबलस्तदा / तच्चापि नासौ कृतवान्वीतबुद्धिः सुयोधनः / / 20 प्रययौ तत्र यत्रासौ पुत्रस्तव नराधिप / तस्मिंस्तु पतिते भीष्मे प्रच्युते पृथिवीतले / सर्वतः संवृतो वीरैः समरेष्वनिवर्तिभिः // 6 न जाने कारणं किं नु येन युद्धमवर्तत // 21 ततो दुर्योधनं दृष्ट्वा रथानीके व्यवस्थितम् / मूढांस्तु सर्वथा मन्ये धार्तराष्ट्रान्सुबालिशान् / सरथांस्तावकान्सर्वान्हर्षयशकुनिस्ततः / / 7 पतिते शंतनोः पुत्रे येऽकार्पः संयुगं पुनः // 22 दुर्योधनमिदं वाक्यं हृष्टरूपो विशां पते / अनन्तरं च निहते द्रोणे ब्रह्मविदां वरे। कृतकार्यमिवात्मानं मन्यमानोऽब्रवीन्नृपम् // 8 राधेये च विकणे च नैवाशाम्यत वैशसम् // 23 जहि राजरथानीकमश्वाः सर्वे जिता मया / अल्पावशिष्टे सैन्येऽस्मिन्सूतपुत्रे च पातिते / नात्यक्त्वा जीवितं संख्ये शक्यो जेतुं युधिष्ठिरः॥९ / सपुत्रे वै नरव्याघ्र नैवाशाम्यत वैशसम् // 24 हते तस्मिन्रथानीके पाण्डवेनाभिपालिते। श्रुतायुषि हते शूरे जलसंधे च पौरवे / गजानेतान्हनिष्यामः पदातींश्चेतरांस्तथा // 10 श्रुतायुधे च नृपतौ नैवाशाम्यत वैशसम् // 25 श्रुत्वा तु वचनं तस्य तावका जयगृद्धिनः। भूरिश्रवसि शल्ये च शाल्वे चैव जनार्दन / जवेनाभ्यपतन्हृष्टाः पाण्डवानामनीकिनीम् // 11 / आवन्त्येषु च वीरेषु नैवाशाम्यत वैशसम् / / 26 सर्वे विवृततूणीराः प्रगृहीतशरासनाः। जयद्रथे च निहते राक्षसे चाप्यलायुधे / - 1848 - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 23. 27] शल्यपर्व [9. 23. 55 बाहिके सोमदत्ते च नैवाशाम्यत वैशसम् // 27 अवामन्यत दुर्बुद्धिर्भुवं नाशमुखे स्थितः // 41 भगदत्ते हते शूरे काम्बोजे च सुदक्षिणे / उक्तं हि बहुभिः सिद्धैर्जातमात्रे सुयोधने / दुःशासने च निहते नैवाशाम्यत वैशसम् // 28 एनं प्राप्य दुरात्मानं क्षयं क्षत्रं गमिष्यति // 42 दृष्ट्वा च निहताशूरान्पृथङ्माण्डलिकानृपान् / तदिदं वचनं तेषां निरुक्तं वै जनार्दन / बलिनश्च रणे कृष्ण नैवाशाम्यत वैशसम् // 29 क्षयं याता हि राजानो दुर्योधनकृते भृशम् // 43 अक्षौहिणीपतीन्दृष्ट्वा भीमसेनेन पातितान् / सोऽद्य सर्वान्रणे योधान्निहनिष्यामि माधव / मोहाद्वा यदि वा लोभान्नैवाशाम्यत वैशसम् // 30 क्षत्रियेषु हतेष्वाशु शून्ये च शिबिरे कृते // 44 को नु राजकुले जातः कौरवेयो विशेषतः / वधाय चात्मनोऽस्माभिः संयुगं रोचयिष्यति / निरर्थकं महद्वैरं कुर्यादन्यः सुयोधनात् // 3.1 तदन्तं हि भवेद्वैरमनुमानेन माधव // 45 गुणतोऽभ्यधिकं ज्ञात्वा बलतः शौर्यतोऽपि वा। एवं पश्यामि वार्ष्णेय चिन्तयन्प्रज्ञया स्वया / अमूढः को नु युध्येत जानन्प्राज्ञो हिताहितम् // 32 विदुरस्य च वाक्येन चेष्टया च दुरात्मनः // 46 यन्न तस्य मनो ह्यासीत्त्वयोक्तस्य हितं वचः / / संयाहि भारती वीर यावद्धन्मि शितैः शरैः / प्रशमे पाण्डवैः साधं सोऽन्यस्य शृणुयात्कथम्॥३३ दुर्योधनं दुरात्मानं वाहिनीं चास्य संयुगे // 47 येन शांतनवो भीष्मो द्रोणो विदुर एव च। क्षेममद्य करिष्यामि धर्मराजस्य माधव / प्रत्याख्याताः शमस्यार्थे किं नु तस्याद्य भेषजम् // 34 हत्वैतदुर्बलं सैन्यं धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः // 48 मौयाद्येन पिता वृद्धः प्रत्याख्यातो जनार्दन / संजय उवाच। तथा माता हितं वाक्यं भाषमाणा हितैषिणी। अभीशुहस्तो दाशार्हस्तथोक्तः सव्यसाचिना / प्रत्याख्याता ह्यसत्कृत्य स कस्मै रोचयेद्वचः॥३५ / तद्बलौघममित्राणामभीतः प्राविशद्रणे // 49 फुलान्तकरणो व्यक्तं जात एष जनार्दन / शरासनवरं घोरं शक्तिकण्टकसंवृतम् / तथास्य दृश्यते चेष्टा नीतिश्चैव विशां पते / गदापरिघपन्थानं रथनागमहाद्रुमम् // 50 नैष दास्यति नो राज्यमिति मे मतिरच्युत / / 36 हयपत्तिलताकीर्णं गाहमानो महायशाः / उक्तोऽहं बहुशस्तात विदुरेण महात्मना / व्यचरत्तत्र गोविन्दो रथेनातिपताकिना // 51 न जीवन्दास्यते भागं धार्तराष्ट्रः कथंचन // 37 ते हयाः पाण्डुरा राजन्वहन्तोऽर्जुनमाहवे / यावत्प्राणा धमिष्यन्ति धार्तराष्ट्रस्य मानद / दिक्षु सर्वास्वदृश्यन्त दाशार्हेण प्रचोदिताः // 52 तावद्युष्मास्वपापेषु प्रचरिष्यति पातकम् // 38 ततः प्रायाद्रथेनाजौ सव्यसाची परंतपः / न स युक्तोऽन्यथा जेतुमृते युद्धेन माधव / किरशरशतांस्तीक्ष्णान्वारिधारा इवाम्बुदः // 53 इत्यब्रवीत्सदा मां हि विदुरः सत्यदर्शनः // 39 प्रादुरासीन्महाशब्दः शराणां नतपर्वणाम् / तत्सर्वमद्य जानामि व्यवसायं दुरात्मनः / इषुभिश्छाद्यमानानां समरे सव्यसाचिना // 54 यदुक्तं वचनं तेन विदुरेण महात्मना // 40 असज्जन्तस्तनुत्रेषु शरौघाः प्रापतन्भुवि / यो हि श्रुत्वा वचः पथ्यं जामदग्याद्यथातथम् / इन्द्राशनिसमस्पर्शा गाण्डीवप्रेषिताः शराः // 55 म. भा. 232 - 1849 - Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 23. 56] महाभारते [9. 24. 14 24 नरान्नागान्समाहत्य हयांश्चापि विशां पते / अपतन्त रणे बाणाः पतंगा इव घोषिणः // 56 संजय उवाच / आसीत्सर्वमवच्छन्नं गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। अस्यतां यतमानानां शूराणामनिवर्तिनाम् / न प्राज्ञायन्त समरे दिशो वा प्रदिशोऽपि वा // 57 / संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः // 1 सर्वमासीजगत्पूर्ण पार्थनामाङ्कितैः शरैः। इन्द्राशनिसमस्पर्शानविषह्यान्महौजसः / रुक्मपुङ्खस्तैलधौतैः कर्मारपरिमार्जितैः // 58 / विसृजन्दृश्यते बाणान्धारा मुञ्चन्निवाम्बुदः // 2 ते दह्यमानाः पार्थेन पावकेनेव कुञ्जराः।। तत्सैन्यं भरतश्रेष्ठ वध्यमानं किरीटिना / समासीदन्त कौरव्या वध्यमानाः शितैः शरैः // 59 / संप्रदुद्राव संग्रामात्तव पुत्रस्य पश्यतः // 3 शरचापधरः पार्थः प्रज्वलन्निव भारत / हतधुर्या रथाः केचिद्धतसूतास्तथापरे / ददाह समरे योधान्कक्षमग्निरिव ज्वलन् // 60 भन्नाक्षयुगचक्रेषाः केचिदासन्विशां पते // 4 यथा वनान्ते वनपैर्विसृष्टः अन्येषां सायकाः क्षीणास्तथान्ये शरपीडिताः / ___ कक्षं दहेत्कृष्णगतिः सघोषः। अक्षता युगपत्केचित्प्राद्रवन्भयपीडिताः // 5 भूरिद्रुमं शुष्कलतावितानं केचित्पुत्रानुपादाय हतभूयिष्ठवाहनाः / भृशं समृद्धो ज्वलनः प्रतापी // 61 विचुक्रुशुः पितॄनन्ये सहायानपरे पुनः // 6 एवं स नाराचगणप्रतापी बान्धवांश्च नरव्याघ्र भ्रातृन्संबन्धिनस्तथा / शरार्चिरुच्चावचतिग्मतेजाः। दुद्रुवुः केचिदुत्सृज्य तत्र तत्र विशां पते // 7 ददाह सर्वां तव पुत्रसेना बहवोऽत्र भृशं विद्धा मुह्यमाना महारथाः / ममृष्यमाणस्तरसा तरस्वी // 62 निष्टनन्तः स्म दृश्यन्ते पार्थबाणहता नराः // 8 तस्येषवः प्राणहराः सुमुक्ता तानन्ये रथमारोप्य समाश्वास्य मुहूर्तकम् / नासजन्वै वर्मसु रुक्मपुङ्खाः / विश्रान्ताश्च वितृष्णाश्च पुनयुद्धाय जग्मिरे // 9 न च द्वितीयं प्रमुमोच बाणं तानपास्य गताः केचित्पुनरेव युयुत्सवः / नरे हये वा परमद्विपे वा // 63 कुर्वन्तस्तव पुत्रस्य शासनं युद्धदुर्मदाः // 10 अनेकरूपाकृतिभिर्हि बाणै पानीयमपरे पीत्वा पर्याश्वास्य च वाहनम् / महारथानीकमनुप्रविश्य। वर्माणि च समारोप्य केचिद्भरतसत्तम // 11 स एव एकस्तव पुत्रसेनां समाश्वास्यापरे भ्रातृन्निक्षिप्य शिबिरेऽपि च / जघान दैत्यानिव वज्रपाणिः // 64 पुत्रानन्ये पितॄनन्ये पुनयुद्धमरोचयन् // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि सज्जयित्वा रथान्केचिद्यथामुख्यं विशां पते। आप्लुत्य पाण्डवानीकं पुनयुद्धमरोचयन् // 13 त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // ते शूराः किङ्किणीजालैः समाच्छन्ना बभासिरे। त्रैलोक्यविजये युक्ता यथा-दैतेयदानवाः॥ 14 - 1850 - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 24. 15] शल्यपर्व [9. 24. 41 आगम्य सहसा केचिद्रथैः स्वर्णविभूषितैः / तमुद्यतगदं दृष्ट्वा पाण्डवानां महारथम् / पाण्डवानामनीकेषु धृष्टद्युम्नमयोधयन् // 15 वित्रेसुस्तावकाः सैन्याः शकृन्मूत्रं प्रसुवुः / धृष्टद्युम्नोऽपि पाश्चाल्यः शिखण्डी च महारथः / आविग्नं च बलं सर्व गदाहस्ते वृकोदरे // 29 नाकुलिश्च शतानीको स्थानीकमयोधयन् // 16 गदया भीमसेनेन भिन्नकुम्भारजस्वलान् / पाञ्चाल्यस्तु ततः क्रुद्धः सैन्येन महता वृतः / धावमानानपश्याम कुञ्जरान्पर्वतोपमान // 30 अभ्यद्रवत्सुसंरब्धस्तावकान्हन्तुमुद्यतः // 17 प्रधाव्य कुञ्जरास्ते तु भीमसेनगदाहताः / ततस्त्वापततस्तस्य तव पुत्रो जनाधिप। पेतुरार्तस्वरं कृत्वा छिन्नपक्षा इवाद्रयः // 31 वाणसंघाननेकान्वै प्रेषयामास भारत // 18 तान्भिन्नकुम्भान्सुबहून्द्रवमाणानितस्ततः / धृष्टद्युम्नस्ततो राजंस्तव पुत्रेण धन्विना / पतमानांश्च संप्रेक्ष्य वित्रेसुस्तव सैनिकाः // 32 नाराचैर्बहुभिः क्षिप्रं बाह्वोरुरसि चार्पितः / / 19 युधिष्ठिरोऽपि संक्रुद्धो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / सोऽतिविद्धो महेष्वासस्तोत्रादित इव द्विपः / गृध्रपक्षैः शितैर्बाणैर्जन. गजयोधिनः // 33 : तस्याश्वांश्चतुरो बाणैः प्रेषयामास मृत्यवे / धृष्टद्युम्नस्तु समरे पराजित्य नराधिपम् / / सारथेश्चास्य भल्लेन शिरः कायादपाहरत् // 20 अपक्रान्ते तव सुते हयपृष्ठं समाश्रिते // 34 ततो दुर्योधनो राजा पृष्ठमारुह्य वाजिनः / दृष्ट्वा च पाण्डवान्सर्वान्कुञ्जरैः परिवारितान् / अपाक्रामद्धतरथो नातिदूरमरिंदमः // 21 धृष्टद्युम्नो महाराज सह सर्वैः प्रभद्रकैः / दृष्ट्वा तु हतविक्रान्तं स्वमनीकं महाबलः / पुत्रः पाञ्चालराजस्य जिघांसुः कुञ्जरान्ययौ॥ 35 तव पुत्रो महाराज प्रययौ यत्र सौबलः / / 22 अदृष्ट्वा तु रथानीके दुर्योधनमरिंदमम् / रातो रथेषु भन्नेषु त्रिसाहस्रा महाद्विपाः / / अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः / पाण्डवान्रथिनः पञ्च समन्तात्पर्यवारयन् // 23 अपृच्छन्क्षत्रियांस्तत्र क नु दुर्योधनो गतः // 36 ते वृताः समरे पञ्च गजानीकेन भारत / अपश्यमाना राजानं वर्तमाने जनक्षये / अशोभन्त नरव्याघ्रा ग्रहा व्याप्ता घनैरिव // 24 मन्वाना निहतं तत्र तव पुत्रं महारथाः / ततोऽर्जुनो महाराज लब्धलक्षो महाभुजः / विषण्णवदना भूत्वा पर्यपृच्छन्त ते सुतम् / / 37 विनिर्ययो रथेनैव श्वेताश्वः कृष्णसारथिः // 25 आहुः केचिद्धते सूते प्रयातो यत्र सौबलः / तैः समन्तात्परिवृतः कुञ्जरैः पर्वतोपमैः / अपरे त्वब्रुवंस्तत्र क्षत्रिया भृशविक्षताः // 38 / नाराचैर्विमलैस्तीक्ष्णेर्गजानीकमपोथयत् // 26 दुर्योधनेन किं कार्यं द्रक्ष्यध्वं यदि जीवति / तत्रैकबाणनिहतानपश्याम महागजान् / युध्यध्वं सहिताः सर्वे किं वो राजा करिष्यति॥३९ पतितान्पात्यमानांश्च विभिन्नान्सव्यसाचिना // 27 ते क्षत्रियाः क्षतैर्गात्रैर्हतभूयिष्ठवाहनाः / मीमसेनस्तु तान्दृष्ट्वा नागान्मत्तगजोपमः / शरैः संपीड्यमानाश्च नातिव्यक्तमिवाब्रुवन् // 40 करेण गृह्य महतीं गदामभ्यपतद्बली। इदं सर्वं बलं हन्मो येन स्म परिवारिताः / अवप्लुत्य रथात्तर्ण दण्डपाणिरिवान्तकः // 28 एते सर्वे गजान्हत्वा उपयान्ति स्म पाण्डवाः॥ 41 - 1851 - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 24. 42] महाभारते [9. 25. 10 श्रुत्वा तु वचनं तेषामश्वत्थामा महाबलः / अपश्यन्तो रथानीके दुर्योधनमरिंदमम् / हित्वा पाश्चालराजस्य तदनीकं दुरुत्सहम् // 42 राजानं मृगयामासुस्तव पुत्रं महारथम् // 55 कृपश्च कृतवर्मा च प्रययुर्यत्र सौबलः / परित्यज्य च पाश्चालं प्रयाता यत्र सौबलः / रथानीकं परित्यज्य शूराः सुदृढधन्विनः // 43 राज्ञोऽदर्शनसंविग्ना वर्तमाने जनक्षये // 56 ततस्तेषु प्रयातेषु धृष्टद्युम्नपुरोगमाः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि आययुः पाण्डवा राजन्विनिघ्नन्तः स्म तावकान्॥४४ चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ दृष्ट्वा तु तानापततः संप्रहृष्टान्महारथान् / पराक्रान्तांस्ततो वीरान्निराशाजीविते तदा / संजय उवाच / विवर्णमुखभूयिष्ठमभवत्तावकं बलम् // 45 गजानीके हते तस्मिन्पाण्डुपुत्रेण भारत / परिक्षीणायुधान्दृष्ट्वा तानहं परिवारितान् / वध्यमाने बले चैव भीमसेनेन संयुगे // 1 राजन्बलेन द्व्यङ्गेन त्यक्त्वा जीवितमात्मनः॥ 46 चरन्तं च तथा दृष्ट्वा भीमसेनमरिंदमम् / आत्मनापञ्चमोऽयुध्यं पाञ्चालस्य बलेन ह / दण्डहस्तं यथा क्रुद्धमन्तकं प्राणहारिणम् // 2 तस्मिन्देशे व्यवस्थाप्य यत्र शारद्वतः स्थितः // 47 समेत्य समरे राजन्हतशेषाः सुतास्तव / संप्रयुद्धा वयं पञ्च किरीटिशरपीडिताः / अदृश्यमाने कौरव्ये पुत्रे दुर्योधने तव / धृष्टद्युम्नं महानीकं तत्र नोऽभूद्रणो महान् / सोदर्याः सहिता भूत्वा भीमसेनमुपाद्रवन् // 3 जितास्तेन वयं सर्वे व्यपयाम रणात्ततः // 48 दुर्मर्षणो महाराज जैत्रो भूरिबलो रविः / अथापश्यं सात्यकिं तमुपायान्तं महारथम् / इत्येते सहिता भूत्वा तव पुत्राः समन्ततः / रथैश्चतुःशतैर्वीरो मां चाभ्यद्रवदाहवे // 49 भीमसेनमभिद्रुत्य रुरुधुः सर्वतोदिशम् // 4 धृष्टद्युम्नादहं मुक्तः कथंचिच्छ्रान्तवाहनः / ततो भीमो महाराज स्वरथं पुनरास्थितः / पतितो माधवानीकं दुष्कृती नरकं यथा / मुमोच निशितान्बाणान्पुत्राणां तव मर्मसु // 5 तत्र युद्धमभूद्बोरं मुहूर्तमतिदारुणम् // 50 ते कीर्यमाणा भीमेन पुत्रास्तव महारणे / सात्यकिस्तु महाबाहुर्मम हत्वा परिच्छदम् / भीमसेनमपासेधन्प्रवणादिव कुञ्जरम् // 6 जीवग्राहमगृह्णान्मां मूर्छितं पतितं भुवि // 51 ततः क्रुद्धो रणे भीमः शिरो दुर्मर्षणस्य ह / ततो मुहूर्तादिव तद्गजानीकमवध्यत / क्षुरप्रेण प्रमथ्याशु पातयामास भूतले // 7 गदया भीमसेनेन नाराचैरर्जुनेन च // 52 ततोऽपरेण भल्लेन सर्वावरणभेदिना / प्रतिपिष्टैर्महानागैः समन्तात्पर्वतोपमैः / श्रुतान्तमवधीद्भीमस्तव पुत्रं महारथः // 8 नातिप्रसिद्धेव गतिः पाण्डवानामजायत // 53 जयत्सेनं ततो विद्धा नाराचेन हसन्निव / रथमार्गास्ततश्चक्रे भीमसेनो महाबलः / पातयामास कौरव्यं रथोपस्थादरिंदमः / पाण्डवानां महाराज व्यपकर्षन्महागजान् // 54 स पपात रथाद्राजन्भूमौ तूर्णं ममार च // 9 अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः। श्रुतर्वा तु ततो भीमं क्रुद्धो विव्याध मारिष / - 1852 - Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 25. 10] शल्यपर्व [9. 25. 37 शतेन गृध्रवाजानां शराणां नतपर्वणाम् // 10 भीमः संचुक्षुभे क्रुद्धः पर्वणीव महोदधिः // 24 ततः क्रुद्धो रणे भीमो जैत्रं भूरिबलं रविम् / ततो भीमो रुषाविष्टः पुत्रस्य तव मारिष / श्रीनेतांत्रिभिरानछद्विषाग्निप्रतिमैः शरैः॥ 11 सारथिं चतुरश्चाश्वान्बाणैर्निन्ये यमक्षयम् // 25 ते हता न्यपतन्भूमौ स्यन्दनेभ्यो महारथाः / विरथं तं समालक्ष्य विशिखैर्लोमवाहिभिः / वसन्ते पुष्पशबला निकृत्ता इव किंशुकाः // 12 अवाकिरदमेयात्मा दर्शयन्पाणिलाघवम् // 26 ततोऽपरेण तीक्ष्णेन नाराचेन परंतपः / श्रुतर्वा विरथो राजन्नाददे खड्गचर्मणी / दुर्विमोचनमाहत्य प्रेषयामास मृत्यवे // 13 अथास्याददतः खड्गं शतचन्द्रं च भानुमत् / स हतः प्रापतद्भूमौ स्वरथाद्रथिनां वरः / क्षुरप्रेण शिरः कायात्पातयामास पाण्डवः // 27 गिरेस्तु कूटजो भग्नो मारुतेनेव पादपः // 14 छिन्नोत्तमाङ्गस्य ततः क्षुरप्रेण महात्मनः / दुष्प्रधर्षं ततश्चैव सुजातं च सुतौ तव / पपात कायः स रथाद्वसुधामनुनादयन् / / 28 एकैकं न्यवधीत्संख्ये द्वाभ्यां द्वाभ्यां चमूमुखे / तस्मिन्निपतिते वीरे तावका भयमोहिताः / तौ शिलीमुखविद्धाङ्गौ पेततू रथसत्तमौ // 15 ततो यतन्तमपरमभिवीक्ष्य सुतं तव / अभ्यद्रवन्त संग्रामे भीमसेनं युयुत्सवः // 29 भल्लेन युधि विव्याध भीमो दुर्विषहं रणे। तानापतत एवाशु हतशेषाद्वलार्णवात् / स पपात हतो वाहात्पश्यतां सर्वधन्विनाम् // 16 दंशितः प्रतिजग्राह भीमसेनः प्रतापवान् / दृष्ट्वा तु निहतान्भ्रातृन्हूनेकेन संयुगे / ते तु तं वै समासाद्य परिवत्रुः समन्ततः / / 30 अमर्षवशमापन्नः श्रुतर्वा भीममभ्ययात् // 17 ततस्तु संवतो भीमस्तावकैर्निशितैः शरैः / विक्षिपन्सुमहच्चापं कार्तस्वरविभूषितम् / पीडयामास तान्सन्सिहस्राक्ष इवासुरान् // 31 वेसृजन्सायकांश्चैव विषाग्निप्रतिमान्बहून् // 18 ततः पञ्चशतान्हत्वा सवस्थान्महारथान् / तु राजन्धनुश्छित्त्वा पाण्डवस्य महामृधे / जघान कुञ्जरानीकं पुनः सप्तशतं युधि // 32 पथैनं छिन्नधन्वानं विंशत्या समवाकिरत् // 19 हत्वा दश सहस्राणि पत्तीनां परमेषुभिः / तोऽन्यद्धनुरादाय भीमसेनो महारथः / वाजिनां च शतान्यष्टौ पाण्डवः स्म विराजते // 33 वाकिरत्तव सुतं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् // 20 भीमसेनस्तु कौन्तेयो हत्वा युद्धे सुतांस्तव / महदासीत्तयोयुद्धं चित्ररूपं भयानकम् / मेने कृतार्थमात्मानं सफलं जन्म च प्रभो // 34 यादृशं समरे पूर्वं जम्भवासवयोरभूत् // 21 तं तथा युध्यमानं च विनिघ्नन्तं च तावकान् / तयोस्तत्र शरैर्मुक्तैर्यमदण्डनिभैः शुभैः / समाच्छन्ना धरा सर्वा खं च सर्वा दिशस्तथा।।२२ | ईक्षितुं नोत्सहन्ते स्म तव सैन्यानि भारत // 35 ततः श्रुतर्वा संक्रुद्धो धनुरायम्य सायकैः / विद्राव्य तु कुरून्सर्वांस्तांश्च हत्वा पदानुगान् / भीमसेनं रणे राजन्बाह्वोरुरसि चार्पयत् // 23 / दोभ्या शब्दं ततश्चक्रे त्रासयानो महाद्विपान् // 36 सोऽतिविद्धो महाराज तव पुत्रेण धन्विना / / हतभूयिष्ठयोधा तु तव सेना विशां पते / - 1853 - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 25. 37] महाभारते [9. 26. 26 किंचिच्छेषा महाराज कृपणा समपद्यत // 37 धृतराष्ट्रसुताः सर्वे हता भीमेन मानद / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि यावेतावास्थितौ कृष्ण तावद्य न भविष्यतः // 13 पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // हतो भीष्मो हतो द्रोणः कर्णो वैकर्तनो हतः / मद्रराजो हतः शल्यो हतः कृष्ण जयद्रथः // 14 संजय उवाच। हयाः पञ्चशताः शिष्टाः शकुनेः सौबलस्य च / दुर्योधनो महाराज सुदर्शश्चापि ते सुतः। रथानां तु शते शिष्टे द्वे एव तु जनार्दन / हतशेषौ तदा संख्ये वाजिमध्ये व्यवस्थितौ // 1 दन्तिनां च शतं सायं त्रिसाहस्राः पदातयः // 15 ततो दुर्योधनं दृष्ट्वा वाजिमध्ये व्यवस्थितम् / अश्वत्थामा कृपश्चैव त्रिगर्ताधिपतिस्तथा / उवाच देवकीपुत्रः कुन्तीपुत्रं धनंजयम् // 2 उलूकः शकुनिश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः // 16 शत्रवो हतभूयिष्ठा ज्ञातयः परिपालिताः / एतद्वलमभूच्छेषं धार्तराष्ट्रस्य माधव / . ' गृहीत्वा संजयं चासो निवृत्तः शिनिपुंगवः // 3 मोक्षो न नूनं कालाद्धि विद्यते भुवि कस्यचित् // 17 परिश्रान्तश्च नकुलः सहदेवश्च भारत / तथा विनिहते सैन्ये पश्य दुर्योधनं स्थितम् / योधयित्वा रणे पापान्धार्तराष्ट्रपदानुगान् // 4 अद्याह्ना हि महाराजो हतामित्रो भविष्यति // 18 सुयोधनमभित्यज्य त्रय एते व्यवस्थिताः / न हि मे मोक्ष्यते कश्चित्परेषामिति चिन्तये / कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्चैव महारथः // 5 ये त्वद्य समरं कृष्ण न हास्यन्ति रणोत्कटाः / असौ तिष्ठति पाञ्चाल्यः श्रिया परमया युतः / तान्दै सर्वान्हनिष्यामि यद्यपि स्युरमानुषाः // 19 दुर्योधनबलं हत्वा सह सर्वैः प्रभद्रकैः // 6 अद्य युद्धे सुसंक्रुद्वो दीर्घ राज्ञः प्रजागरम् / असौ दुर्योधनः पार्थ वाजिमध्ये व्यवस्थितः / अपनेष्यामि गान्धारं पातयित्वा शितैः शरैः॥२० छत्रेण ध्रियमाणेन प्रेक्षमाणो मुहर्मुहः // 7 निकृत्या वै दुराचारो यानि रत्नानि सौबलः / प्रतिव्यूह्य बलं सर्वं रणमध्ये व्यवस्थितः / सभायामहरयूते पुनस्तान्याहराम्यहम् // 21 एनं हत्वा शितैर्बाणैः कृतकृत्यो भविष्यसि // 8 अद्य ता अपि वेत्स्यन्ति सर्वा नागपुर स्त्रियः / गजानीकं हतं दृष्ट्वा त्वां च प्राप्तमरिंदम / श्रुत्वा पतींश्च पुत्रांश्च पाण्डवैर्निहतान्युधि // 22 यावन्न विद्रवन्त्येते तावजहि सुयोधनम् // 9 समाप्तमद्य वै कर्म सर्वं कृष्ण भविष्यति / यातु कश्चित्तु पाञ्चाल्यं क्षिप्रमागम्यतामिति / अद्य दुर्योधनो दीप्तां श्रियं प्राणांश्च त्यक्ष्यति // 23 परिश्रान्तबलस्तात नैष मुच्येत किल्बिषी // 10 नापयाति भयात्कृष्ण संग्रामाद्यदि चेन्मम / तव हत्वा बलं सर्व संग्रामे धृतराष्ट्रजः / निहतं विद्धि वार्ष्णेय धार्तराष्ट्र सुबालिशम् // 24 जितान्पाण्डुसुतान्मत्वा रूपं धारयते महत् // 11 मम ह्येतदशक्तं वै वाजिवृन्दमरिंदम / निहतं स्वबलं दृष्ट्वा पीडितं चापि पाण्डवैः / सोढुं ज्यातलनिर्घोष याहि यावन्निहन्म्यहम् // 25 ध्रुवमेष्यति संग्रामे वधायैवात्मनो नृपः // 12 / एवमुक्तस्तु दाशाहैः पाण्डवेन यशस्विना / एवमुक्तः फल्गुनस्तु कृष्णं वचनमब्रवीत् / / अचोदयद्धयान्राजन्दुर्योधनवलं प्रति // 26 - 1854 - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 26. 27 ] शल्यपर्व [9. 26. 54 तदनीकमभिप्रेक्ष्य त्रयः सज्जा महारथाः।। तमर्जुनः पृषत्कानां शतेन भरतर्षभ / भीमसेनोऽर्जुनश्चैव सहदेवश्च मारिष / पूरयित्वा ततो वाहान्न्यहनत्तस्य धन्विनः // 41 प्रययुः सिंहनादेन दुर्योधनजिघांसया // 27 ततः शरं समादाय यमदण्डोपमं शितम् / तान्प्रेक्ष्य सहितान्सञ्जिवेनोद्यतकाच्कान् / / सुशर्माणं समुद्दिश्य चिक्षेपाशु हसन्निव // 42 सौबलोऽभ्यद्रवयुद्धे पाण्डवानाततायिनः // 28 स शरः प्रेषितस्तेन क्रोधीप्तेन धन्विना / सुदर्शनस्तव सुतो भीमसेनं समभ्ययात् / सुशर्माणं समासाद्य विभेद हृदयं रणे // 43 सुशर्मा शकुनिश्चैव युयुधाते किरीटिना / स गतासुमहाराज पपात धरणीतले / सहदेवं तव सुतो हयपृष्टगतोऽभ्ययात् // 29 नन्दयन्पाण्डवान्सर्वान्व्यथयंश्चापि तावकान् // 44 ततो ह्ययत्नतः क्षिप्रं तव पुत्रो जनाधिप / . सुशर्माणं रणे हत्वा पुत्रानस्य महारथान् / प्रासेन सहदेवस्य शिरसि प्राहरशम् / / 30 सप्त चाष्टौ च त्रिंशच्च सायकैरनयरक्षयम् // 45 सोपाविशद्रथोपस्थे तव पुत्रेण ताडितः / / ततोऽस्य निशितैर्बाणैः सर्वान्हत्वा पदानुगान् / रुधिराप्लुतसर्वाङ्ग आशीविष इव श्वसन् // 31 अभ्यगाद्भारती सेनां हतशेषां महारथः // 46 प्रतिलभ्य ततः संज्ञां सहदेवो विशां पते / दुर्योधनं शरैरतीक्ष्णैः संक्रुद्धः समवाकिरत् // 32 भीमस्तु समरे क्रुद्धः पुत्रं तव जनाधिप / पार्थोऽपि युधि विक्रम्य कुन्तीपुत्रो धनंजयः / सुदर्शनमदृश्यं तं शरैश्चके हसन्निव // 47 शूराणामश्वपृष्ठेभ्यः शिरांसि निचकत ह // 33 ततोऽस्य प्रहसन्क्रुद्धः शिरः कायादपाहरत् / तदनीकं तदा पार्थो व्यधमद्बहुभिः शरैः / क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन स हतः प्रापतद्भुवि // 48 पातयित्वा हयान्सर्वास्त्रिगर्तानां रथान्ययौ // 34 तस्मिंस्तु निहते वीरे ततस्तस्य पदानुगाः / ततस्ते सहिता भूत्वा त्रिगर्तानां महारथाः / परिवत्रू रणे भीमं किरन्तो विशिखाशितान्॥ 49 अर्जुनं. वासुदेवं च शरवर्षैरवाकिरन् // 35 ततस्तु निशितैर्बाणैस्तदनीकं वृकोदरः / सत्यकर्माणमाक्षिप्य क्षुरप्रेण महायशाः / इन्द्राशनिसमस्पर्शीः समन्तात्पर्यवाकिरत् / ततोऽस्य स्यन्दनस्येषां चिच्छिदे पाण्डुनन्दनः॥३६ ततः क्षणेन तद्भीमो न्यहनद्भरतर्षभ // 50 शिलाशितेन च विभो क्षुरप्रेण महायशाः / तेषु तूत्साद्यमानेषु सेनाध्यक्षा महाबलाः / शिरश्चिच्छेद प्रहसंस्तप्तकुण्डलभूषणम् / / 37 भीमसेनं समासाद्य ततोऽयुध्यन्त भारत / सत्येषुमथ चादत्त योधानां मिषतां ततः / तांस्तु सर्वाशरैोरैरैवाकिरत पाण्डवः // 51 यथा सिंहो वने राजन्मृगं परिबुभुक्षितः / 38 तथैव तावका राजन्पाण्डवेयान्महारथान् / तं निहत्य ततः पार्थः सुशर्माणं त्रिभिः शरैः।। शरवर्षेण महता समन्तात्पर्यवारयन् // 52 विद्धा तानहनत्सर्वान्रथान्रुक्मविभूषितान् // 39 व्याकुलं तदभूत्सर्वं पाण्डवानां परैः सह / ततस्तु प्रत्वरन्पार्थो दीर्घकालं सुसंभृतम् / तावकानां च समरे पाण्डवेयैर्युयुत्सताम् // 53 मुञ्चन्क्रोधविषं तीक्ष्णं प्रस्थलाधिपतिं प्रति // 40 तत्र योधास्तदा पेतुः परस्परसमाहताः। .. - 1855 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 26. 54 ] महाभारते [9. 27. 25 27 उभयोः सेनयो राजन्संशोचन्तः स्म बान्धवान्॥५४ / भुजैश्छिन्नैर्महाराज नागराजकरोपमैः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि साङ्गदैः सतनुश्च सासिप्रासपरश्वधैः // 12 षड्विंशोऽध्यायः॥ 26 // कबन्धैरुत्थितैश्छिन्नैर्नृत्यद्भिश्चापरैर्युधि / क्रव्यादगणसंकीर्णा घोराभूत्पृथिवी विभो // 13 संजय उवाच / अल्पावशिष्टे सैन्ये तु कौरवेयान्महाहवे / तस्मिन्प्रवृत्ते संग्रामे नरवाजिगजक्षये / प्रहृष्टाः पाण्डवा भूत्वा निन्यिरे यमसादनम् // 14 शकुनिः सौबलो राजन्सहदेवं समभ्ययात् // 1 एतस्मिन्नन्तरे शूरः सौबलेयः प्रतापवान् / ततोऽस्यापततस्तूर्णं सहदेवः प्रतापवान् / प्रासेन सहदेवस्य शिरसि प्राहरभृशम् / शरौघान्प्रेषयामास पतंगानिव शीघ्रगान् / स विह्वलो महाराज रथोपस्थ उपाविशत् // 15 उलूकश्च रणे भीमं विव्याध दशभिः शरैः // 2 सहदेवं तथा दृष्ट्वा भीमसेनः प्रतापवान् / शकुनिस्तु महाराज भीमं विद्धा त्रिभिः शरैः / सर्वसेन्यानि संक्रुद्धो वारयामास भारत // 16 . सायकानां नवत्या वै सहदेवमवाकिरत् // 3 निर्बिभेद च नाराचैः शतशोऽथ सहस्रशः / ते शूराः समरे राजन्समासाद्य परस्परम् / विनिर्भिद्याकरोच्चैव सिंहनादमरिंदम // 17 विव्यधुनिशितैर्बाणैः कङ्कबर्हिणवाजितः / तेन शब्देन वित्रस्ताः सर्वे सहयवारणाः / / स्वर्णपुङः शिलाधौतैरा कर्णात्प्रहितः शरैः // 4 प्राढवन्सहसा भीताः शकुनेश्च पदानुगाः॥१८ तेषां चापभुजोत्सृष्टा शरवृष्टिर्विशां पते / प्रभग्नानथ तान्दृष्ट्वा राजा दुर्योधनोऽब्रवीत् / आच्छादयदिशः सर्वा धाराभिरिव तोयदः // 5 निवर्तध्वमधर्मज्ञा युध्यध्वं किं सृतेन वः // 19 ततः क्रुद्धो रणे भीमः सहदेवश्च भारत / इह कीर्तिं समाधाय प्रेत्य लोकान्समश्नुते।।। चेरतुः कदनं संख्ये कुर्वन्तौ सुमहाबलौ // 6 प्राणाञ्जहाति यो वीरो युधि पृष्ठमदर्शयन् // 20 ताभ्यां शरशतैश्छन्नं तद्बलं तव भारत / एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सौबलस्य पदानुगाः / अन्धकारमिवाकाशमभवत्तत्र तत्र ह // 7 पाण्डवानभ्यवर्तन्त मृत्युं कृत्वा निवर्तनम् // 21 अश्वैर्विपरिधावद्भिः शरच्छन्नैर्विशां पते / द्रवद्भिस्तत्र राजेन्द्र कृतः शब्दोऽतिदारुणः / तत्र तत्र कृतो मार्गो विकर्षद्भिर्हतान्बहून् // 8 क्षुब्धसागरसंकाशः क्षुभितः सर्वतोऽभवत् // 22 निहतानां हयानां च सहैव हययोधिभिः / तांस्तदापततो दृष्ट्वा सौबलस्य पदानुगान् / वर्मभिर्विनिकृत्तैश्च प्रासैश्छिन्नैश्च मारिष / प्रत्युद्ययुमहाराज पाण्डवा विजये वृताः // 23 संछन्ना पृथिवी जज्ञे कुसुमैः शबला इव // 9 प्रत्याश्वस्य च दुर्धर्षः सहदेवो विशां पते / योधास्तत्र महाराज समासाद्य परस्परम् / शकुनि दशभिर्विद्या हयांश्चास्य त्रिभिः शरैः। व्यचरन्त रणे क्रुद्धा विनिघ्नन्तः परस्परम् / / 10 धनुश्चिच्छेद च शरैः सौबलस्य हसन्निव // 24 उद्वृत्तनयनै रोपात्संदष्टौष्ठपुटैर्मुखैः। अथान्यद्धनुरादाय शकुनियुद्धदुर्मदः / सकुण्डलैर्मही छन्ना पद्मकिञ्जल्कसंनिभैः॥ 11 विव्याध नकुलं षष्ट्या भीमसेनं च सप्तभिः // 25 -1856 - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 27. 26 ] शल्यपर्व [9. 27.54 उलूकोऽपि महाराज भीमं विव्याध सप्तभिः / दुद्रुवुस्तावकाः सर्वे भये जाते ससौबलाः // 40 सहदेवं च सप्तत्या परीप्सन्पितरं रणे // 26 अथोत्क्रुष्टं महद्ध्यासीत्पाण्डवैर्जितकाशिभिः / तं भीमसेनः समरे विव्याध निशितैः शरैः / धार्तराष्ट्रास्ततः सर्वे प्रायशो विमुखाभवन् // 41 शकुनिं च चतुःषष्ट्या पार्श्वस्थांश्च त्रिभित्रिभिः // 27 तान्वै विमनसो दृष्ट्वा माद्रीपुत्रः प्रतापवान् / ते हन्यमाना भीमेन नाराचैस्तैलपायितैः / शरैरनेकसाहस्रैर्वारयामास संयुगे // 42 सहदेवं रणे क्रुद्धाश्छादयशरवृष्टिभिः / ततो गान्धारकैगुप्तं पृष्टैरश्वैर्जये धृतम् / पर्वतं वारिधाराभिः सविद्युत इवाम्बुदाः // 28 आससाद रणे यान्तं सहदेवोऽथ सौबलम् // 43 ततोऽस्यापततः शूरः सहदेवः प्रतापवान् / . खमंशमवशिष्टं स संस्मृत्य शकुनि नृप / उलूकस्य महाराज भल्लेनापाहरच्छिरः / / 29 रथेन काञ्चनाङ्गेन सहदेवः समभ्ययात् / स जगाम रथाद्भूमि सहदेवेन पातितः। अधिज्यं बलवत्कृत्वा व्याक्षिपन्सुमहद्धनुः // 44 रुधिराप्लुतसर्वाङ्गो नन्दयन्पाण्डवान्युधि // 30 स सौबलमभिद्रुत्य गृध्रपत्रैः शिलाशितैः / पुत्रं तु निहतं दृष्ट्वा शकुनिस्तत्र भारत / भृशमभ्यहनत्क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम् // 45 साश्रुकण्ठो विनिःश्वस्य क्षत्तुर्वाक्यमनुस्मरन् // 31 उवाच चैनं मेधावी निगृह्य स्मारयन्निव / चिन्तयित्वा मुहूर्तं स बाष्पपूर्णक्षणः श्वसन् / क्षत्रधर्मे स्थितो भूत्वा युध्यस्व पुरुषो भव // 46 सहदेवं समासाद्य त्रिभिर्विव्याध सायकैः // 32 यत्तदा हृष्यसे मूढ ग्लहन्नक्षैः सभातले / तानपास्य शरान्मुक्ताञ्शरसंधैः प्रतापवान् / फलमद्य प्रपद्यस्व कर्मणस्तस्य दुर्मते // 47 सहदेवो महाराज धनुश्चिच्छेद संयुगे // 33 निहस्तास्ते दुरात्मानो येऽस्मानवहसन्पुरा / छिन्ने धनुषि राजेन्द्र शकुनिः सौबलस्तदा। दुर्योधनः कुलाङ्गारः शिष्टस्त्वं तस्य मातुलः // 48 प्रगृह्य विपुलं खड्गं सहदेवाय प्राहिणोत् / / 34 अद्य ते विहनिष्यामि क्षुरेणोन्मथितं शिरः। तमापतन्तं सहसा घोररूपं विशां पते / वृक्षात्फलमिवोद्धृत्य लगुडेन प्रमाथिना // 49 द्विधा चिच्छेद समरे सौबलस्य हसन्निव // 35 एवमुक्त्वा महाराज सहदेवो महाबलः / असि दृष्ट्वा द्विधा छिन्नं प्रगृह्य महतीं गदाम् / संक्रुद्धो नरशार्दूलो वेगेनाभिजगाम ह // 50 प्राहिणोत्सहदेवाय सा मोघा न्यपतद्भुवि // 36 अभिगम्य तु दुर्धर्षः सहदेवो युधां पतिः / ततः शक्तिं महाघोरां कालरात्रिमिवोद्यताम् / / विकृष्य बलवच्चापं क्रोधेन प्रहसन्निव // 51 प्रेषयामास संक्रुद्धः पाण्डवं प्रति सौबलः // 37 शकुनि दशभिर्विद्या चतुर्भिश्चास्य वाजिनः / तामापतन्ती सहसा शरैः काञ्चनभूषणैः / छत्रं ध्वजं धनुश्चास्य छित्त्वा सिंह इवानदत् // 52 विधा चिच्छेद समरे सहदेवो हसन्निव // 38 छिन्नध्वजधनुश्छत्रः सहदेवेन सौबलः / सा पपात त्रिधा छिन्ना भूमौ कनकभूषणा। ततो विद्धश्च बहुभिः सर्वमर्मसु सायकैः // 53 शीर्यमाणा यथा दीप्ता गगनाद्वै शतदा // 39 / ततो भूयो महाराज सहदेवः प्रतापवान् / शक्ति विनिहतां दृष्ट्वा सौबलं च भयादितम् / शकुनेः प्रेषयामास शरवृष्टिं दुरासदाम् // 54 - 1857 - म.भा. 233 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 27. 55] महाभारते [9. 28. 19 28 ततस्तु क्रुद्धः सुबलस्य पुत्रो शङ्खान्प्रदध्मुः समरे प्रहृष्टाः माद्रीसुतं सहदेवं विमर्दे। सकेशवाः सैनिकान्हर्षयन्तः // 62 प्रासेन जाम्बूनदभूषणेन तं चापि सर्वे प्रतिपूजयन्तो जिघांसुरेकोऽभिपपात शीघ्रम् // 55 __हृष्टा ब्रुवाणाः सहदेवमाजौ। माद्रीसुतस्तस्य समुद्यतं तं दिष्ट्या हतो नैकृतिको दुरात्मा प्रासं सुवृत्तौ च भुजौ रणाग्रे। सहात्मजो वीर रणे त्वयेति // 63 भल्लैत्रिभिर्युगपत्संचकर्त इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ननाद चोच्चैस्तरसाजिमध्ये // 56 सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // तस्याशुकारी सुसमाहितेन सुवर्णपुखेन दृढायसेन। संजय उवाच / भल्लेन सर्वावरणातिगेन ततः क्रुद्धा महाराज सौबलस्य पदानुगाः / शिरः शरीरात्प्रममाथ भूयः // 57 त्यक्त्वा जीवितमाक्रन्दे पाण्डवान्पर्यवारयन् // 1 शरेण कार्तस्वरभूषितेन तानर्जुनः प्रत्यगृह्णात्सहदेवजये धृतः। दिवाकराभेन सुसंशितेन / भीमसेनश्च तेजस्वी क्रुद्धाशीविषदर्शनः // 2 हृतोत्तमाङ्गो युधि पाण्डवेन शक्त्यष्टिप्रासहस्तानां सहदेवं जिघांसताम् / पपात भूमौ सुबलस्य पुत्रः // 58 संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः / / 3 स तच्छिरो वेगवता शरेण प्रगृहीतायुधान्बाहून्योधानामभिधावताम् / सुवर्णपुखेन शिलाशितेन / भल्लैश्चिच्छेद बीभत्सुः शिरांस्यपि हयानपि // 4 प्रावेरयत्कुपितः पाण्डुपुत्रो ते हताः प्रत्यपद्यन्त वसुधां विगतासवः / यत्तत्कुरूणामनयस्य मूलम् // 59 त्वरिता लोकवीरेण प्रहताः सव्यसाचिना // 5 हृतोत्तमाङ्गं शकुनि समीक्ष्य ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा स्वबलसंक्षयम् / भूमौ शयानं रुधिरागात्रम् / हतशेषान्समानीय ऋद्धो रथशतान्विभो // 6 योधास्त्वदीया भयनष्टसत्त्वा कुञ्जरांश्च हयांश्चैव पादातांश्च परंतप / दिशः प्रजग्मुः प्रगृहीतशस्त्राः॥ 60 उवाच सहितान्सन्धिार्तराष्ट्र इदं वचः // 7 विप्रद्रुताः शुष्कमुखा विसंज्ञा समासाद्य रणे सर्वान्पाण्डवान्ससुहृद्गणान् / गाण्डीवघोषेण समाहताश्च / पाश्चाल्यं चापि सबलं हत्वा शीघ्रं निवर्तत // 8 भयार्दिता भग्नरथाश्वनागाः तस्य ते शिरसा गृह्य वचनं युद्धदुर्मदाः / पदातयश्चैव सधार्तराष्ट्राः // 61 प्रत्युद्ययू रणे पार्थांस्तव पुत्रस्य शासनात् // 9 ततो रथाच्छकुनि पातयित्वा तानभ्यापततः शीघ्रं हतशेषान्महारणे / मुदान्विता भारत पाण्डवेयाः। शरैराशीविषाकारैः पाण्डवाः समवाकिरन् // 10 - 1858 - Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 28. 11] शल्यपर्व [9. 28.38 तत्सैन्यं भरतश्रेष्ठ मुहूर्तेन महात्मभिः / नापश्यत्समरे कंचित्सहायं रथिनां वरः // 23 अवध्यत रणं प्राप्य त्रातारं नाभ्यविन्दत। नर्दमानान्परांश्चैव स्वबलस्य च संक्षयम् / प्रतिष्ठमानं तु भयान्नावतिष्ठत दंशितम् // 11 हतं स्वहयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद्भयात् // 24 अश्वैर्विपरिधावद्भिः सैन्येन रजसा वृते / एकादशचमूभर्ता पुत्रो दुर्योधनस्तव / न प्राज्ञायन्त समरे दिशश्च प्रदिशस्तथा // 12 गदामादाय तेजस्वी पदातिः प्रस्थितो ह्रदम् // 25 वतस्तु पाण्डवानीकान्निःसृत्य बहवो जनाः / नातिदूरं ततो गत्वा पद्भयामेव नराधिपः / अभ्यन्नंस्तावकान्युद्धे मुहूर्तादिव भारत / सस्मार वचनं क्षत्तुर्धर्मशीलस्य धीमतः // 26 उतो निःशेषमभवत्तत्सैन्यं तव भारत // 13 इदं नूनं महाप्राज्ञो विदुरो दृष्टवान्पुरा / अक्षौहिण्यः समेतास्तु तव पुत्रस्य भारत। . महद्वैशसमस्माकं क्षत्रियाणां च संयुगे // 27 एकादश हता युद्धे ताः प्रभो पाण्डुसृञ्जयैः / / 14 एवं विचिन्तयानस्तु प्रविविक्षुह्रदं नृपः / नेषु राजसहस्रेषु तावकेषु महात्मसु / दुःखसंतप्तहृदयो दृष्ट्वा राजन्बलक्षयम् // 28 रको दुर्योधनो राजन्नदृश्यत भृशं क्षतः // 15 पाण्डवाश्च महाराज धृष्टद्युम्नपुरोगमाः / तो वीक्ष्य दिशः सर्वा दृष्ट्वा शून्यां च मेदिनीम् / अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तव राजन्बलं प्रति // 29 हीनः सर्वयोधैश्च पाण्डवान्वीक्ष्य संयुगे // 16 शक्त्यष्टिप्रासहस्तानां बलानामभिगर्जताम् / दितान्सर्वसिद्धार्थान्नर्दमानान्समन्ततः / संकल्पमकरोन्मोघं गाण्डीवेन धनंजयः // 30 णशब्दरवांश्चैव श्रुत्वा तेषां महात्मनाम् // 17 तान्हत्वा निशितैर्बाणैः सामात्यान्सह बन्धुभिः / योधनो महाराज कश्मलेनाभिसंवृतः / रथे श्वेतहये तिष्ठन्नर्जुनो बह्वशोभत // 31 पयाने मनश्चक्रे विहीनबलवाहनः / / 18 | सुबलस्य हते पुत्रे सवाजिरथकुञ्जरे / धृतराष्ट्र उवाच / महावनमिव छिन्नमभवत्तावकं बलम् // 32 . हते मामके सैन्ये निःशेषे शिबिरे कृते / अनेकशतसाहस्रे बले दुर्योधनस्य ह / ण्डवानां बलं सूत किं नु शेषमभूत्तदा / नान्यो महारथो राजञ्जीवमानो व्यदृश्यत // 33 तन्मे पृच्छतो ब्रूहि कुशलो ह्यसि संजय // 19 द्रोणपुत्रादृते वीरात्तथैव कृतवर्मणः / च दुर्योधनो मन्दः कृतवांस्तनयो मम / कृपाच्च गौतमाद्राजन्पार्थिवाच्च तवात्मजात् / / 34 लक्षयं तथा दृष्ट्वा स एकः पृथिवीपतिः // 20 धृष्टद्युम्नस्तु मां दृष्ट्वा हसन्सात्यकिमब्रवीत् / संजय उवाच / किमनेन गृहीतेन नानेनार्थोऽस्ति जीवता // 35 थानां द्वे सहस्रे तु सप्त नागशतानि च। धृष्टद्युम्नवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता महारथः / श्व चाश्वसहस्राणि पत्तीनां च शतं शताः // 21 उद्यम्य निशितं खड्गं हन्तुं मामुद्यतस्तदा // 36 तच्छेषमभूद्राजन्पाण्डवानां महद्बलम् / तमागम्य महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / रिगृह्य हि ययुद्धे धृष्टद्युम्नो व्यवस्थितः // 22 मुच्यतां संजयो जीवन्न हन्तव्यः कथंचन // 37 काकी भरतश्रेष्ठ ततो दुर्योधनो नृपः / द्वैपायनवचः श्रुत्वा शिनेनप्ता कृताञ्जलिः / - 1859 - Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 28. 38 ] महाभारते [9. 28.67 ततो मामनवीन्मुक्त्वा स्वस्ति संजय साधय // 38 अपश्यं सहितानेकस्तं देशं समुपेयुषः // 53 अनुज्ञातस्त्वहं तेन न्यस्तवर्मा निरायुधः / कृपं शारद्वतं वीरं द्रौणिं च रथिनां वरम् / . प्रातिष्ठं येन नगरं सायाह्ने रुधिरोक्षितः // 39 भोजं च कृतवर्माणं सहिताशरविक्षतान् // 54 क्रोशमात्रमपक्रान्तं गदापाणिमवस्थितम् / ते सर्वे मामभिप्रेक्ष्य तूर्णमश्वानचोदयन् / एकं दुर्योधनं राजन्नपश्यं भृशविक्षतम् // 40 उपयाय च मामूचुर्दिष्ट्या जीवसि संजय // 55 स तु मामश्रुपूर्णाक्षो नाशक्नोदभिवीक्षितुम् / अपृच्छंश्चैव मां सर्वे पुत्रं तव जनाधिपम् / उपप्रैक्षत मां दृष्ट्वा तदा दीनमवस्थितम् // 41 कञ्चिदुर्योधनो राजा स नो जीवति संजय / / 56 तं चाहमपि शोचन्तं दृष्ट्वैकाकिनमाहवे / आख्यातवानहं तेभ्यस्तदा कुशलिनं नृपम् / मुहूर्त नाशकं वक्तुं किंचिदुःखपरिप्लुतः // 42 तच्चैव सर्वमाचक्षं यन्मां दुर्योधनोऽब्रवीत् / ततोऽस्मै तदहं सर्वमुक्तवान्ग्रहणं तदा। ह्रदं चैवाहमाचष्ट यं प्रविष्टों नराधिपः / / 57 द्वैपायनप्रसादाच्च जीवतो मोक्षमाहवे // 43 अश्वत्थामा तु तद्राजन्निशम्य वचनं मम / मुहूर्तमिव च ध्यात्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम् / तं हृदं विपुलं प्रेक्ष्य करुणं पर्यदेवयत् // 58 भ्रातृ॑श्च सर्वसैन्यानि पर्यपृच्छत मां ततः // 44 अहो धिङ स जानाति जीवतोऽस्मान्नराधिपः / तस्मै तदहमाचक्षं सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान् / पर्याप्ता हि वयं तेन सह योधयितुं परान् // 59 भ्रातृ॑श्च निहतान्सर्वान्सैन्यं च विनिपातितम्॥४५ ते तु तत्र चिरं कालं विलप्य च महारथाः / त्रयः किल रथाः शिष्टास्तावकानां नराधिप। प्राद्रवरथिनां श्रेष्ठा दृष्ट्वा पाण्डुसुतारणे // 60 इति प्रस्थानकाले मां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् // 46 ते तु मां रथमारोप्य कृपस्य सुपरिष्कृतम् / स दीर्घमिव निःश्वस्य विप्रेक्ष्य च पुनः पुनः / सेनानिवेशमाजग्मुईतशेषास्त्रयो रथाः // 61 / अंसे मां पाणिना स्पृष्ट्वा पुत्रस्ते पर्यभाषत // 47 तत्र गुल्माः परित्रस्ताः सूर्ये चास्तमिते सति / त्वदन्यो नेह संग्रामे कश्चिज्जीवति संजय / / सर्वे विचुक्रुशुः श्रुत्वा पुत्राणां तव संक्षयम् / / 62 द्वितीयं नेह पश्यामि ससहायाश्च पाण्डवाः॥४८ ततो वृद्धा महाराज योषितां रक्षिणो नराः। याः संजय राजानं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् / . राजदारानुपादाय प्रययुनगरं प्रति // 63 दुर्योधनस्तव सुतः प्रविष्टो ह्रदमित्युत // 49 तत्र विक्रोशतीनां च रुदतीनां च सर्वशः / सुहृद्भिस्तादृशैीनः पुत्रैर्धातृभिरेव च / प्रादुरासीन्महाशब्दः श्रुत्वा तद्वलसंक्षयम् // 64 पाण्डवैश्च हृते राज्ये को नु जीवति मादृशः // 50 ततस्ता योषितो राजन्क्रन्दन्त्यो वै मुहुर्मुहुः / आचक्षेथाः सर्वमिदं मां च मुक्तं महाहवात् / कुरर्य इव शब्देन नादयन्त्यो महीतलम् // 65 अस्मिंस्तोयहदे सुप्तं जीवन्तं भृशविक्षतम् // 51 आजघ्नुः करजैश्चापि पाणिभिश्च शिरांस्युत / एवमुक्त्वा महाराज प्राविशत्तं हृदं नृपः। लुलुवुश्च तदा केशान्क्रोशन्त्यस्तत्र तत्र ह // 66 अस्तम्भयत तोयं च मायया मनुजाधिपः // 52 हाहाकारविनादिन्यो विनिघ्नन्त्य उरांसि च / तस्मिन्ह्रदं प्रविष्टे तु त्रीरथारुश्रान्तवाहनान् / / क्रोशन्त्यस्तत्र रुरुदुः क्रन्दमाना विशां पते // 67 - 1860 - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 28. 68 ] शल्यपर्व [9. 28. 92 ततो दुर्योधनामात्याः साश्रुकण्ठा भृशातुराः। असंभावितवांश्चापि राजदारान्पुरं प्रति // 81 राजदारानुपादाय प्रययुनगरं प्रति // 68 तैश्चैव सहितः क्षिप्रमस्तं गच्छति भास्करे। वेत्रजर्झरहस्ताश्च द्वाराध्यक्षा विशां पते। प्रविष्टो हास्तिनपुरं बाष्पकण्ठोऽश्रुलोचनः // 82 शयनीयानि शुभ्राणि स्पर्ध्यास्तरणवन्ति च / अपश्यत महाप्राज्ञं विदुरं साश्रुलोचनम् / समादाय ययुस्तूर्णं नगरं दाररक्षिणः // 69 राज्ञः समीपान्निष्क्रान्तं शोकोपहतचेतसम् // 83 आस्थायाश्वतरीयुक्तान्स्यन्दनानपरे जनाः / तमब्रवीत्सत्यधृतिः प्रणतं त्वग्रतः स्थितम् / / स्वान्स्वान्दारानुपादाय प्रययुनगरं प्रति // 70 अस्मिन्कुरुक्षये वृत्ते दिष्ट्या त्वं पुत्र जीवसि॥ 84 अदृष्टपूर्वा या नार्यो भास्करेणापि वेश्मसु / विना राज्ञः प्रवेशाद्वै किमसि त्वमिहागतः / दहशुस्ता महाराज जना यान्तीः पुरं प्रति // 71 एतन्मे कारणं सर्वं विस्तरेण निवेदय // 85 ताः स्त्रियो भरतश्रेष्ठ सौकुमार्यसमन्विताः / युयुत्सुरुवाच / प्रययुनगरं तूर्णं हतस्वजनबान्धवाः // 72 निहते शकुनौ तात सज्ञातिसुतबान्धवे। था गोपालाविपालेभ्यो द्रवन्तो नगरं प्रति / हतशेषपरीवारो राजा दुर्योधनस्ततः / ययुर्मनुष्याः संभ्रान्ता भीमसेनभयार्दिताः // 73 स्वकं स हयमुत्सृज्य प्राङ्मुखः प्राद्रवद्भयात् // 86 अपि चैषां भयं तीव्र पार्थेभ्योऽभूत्सुदारुणम् / अपक्रान्ते तु नृपतौ स्कन्धावारनिवेशनात् / प्रेक्षमाणास्तदान्योन्यमाधावन्नगरं प्रति // 74 भयव्याकुलितं सर्वं प्राद्रवन्नगरं प्रति // 87 तस्मिंस्तदा वर्तमाने विद्रवे भृशदारुणे। ततो राज्ञः कलत्राणि भ्रातृणां चास्य सर्वशः / पुयुत्सुः शोकसंमूढः प्राप्तकालमचिन्तयत् / / 75 वाहनेषु समारोप्य रुयध्यक्षाः प्राद्रवन्भयात् // 88 जेतो दुर्योधनः संख्ये पाण्डवैर्भीमविक्रमैः / ततोऽहं समनुज्ञाप्य राजानं सहकेशवम् / कादशचमूभर्ता भ्रातरश्चास्य सूदिताः / प्रविष्टो हास्तिनपुरं रक्षलोकाद्धि वाच्यताम् // 89 ताश्च कुरवः सर्वे भीष्मद्रोणपुरःसराः / / 76 एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वैश्यापुत्रेण भाषितम् / महमेको विमुक्तस्तु भाग्ययोगाद्यदृच्छया / प्राप्तकालमिति ज्ञात्वा विदुरः सर्वधर्मवित् / वेद्वत्तानि च सर्वाणि शिबिराणि समन्ततः // 77 अपूजयदमेयात्मा युयुत्सुं वाक्यकोविदम् // 90 दुर्योधनस्य सचिवा ये केचिदवशेषिताः / प्राप्तकालमिदं सर्वं भवतो भरतक्षये / जिदारानुपादाय व्यधावन्नगरं प्रति // 78 अद्य त्वमिह विश्रान्तः श्वोऽभिगन्ता युधिष्ठिरम।।९१ आप्तकालमहं मन्ये प्रवेशं तैः सहाभिभो। एतावदुक्त्वा वचनं विदुरः सर्वधर्मवित् / (धिष्ठिरमनुज्ञाप्य भीमसेनं तथैव च // 79 युयुत्सुं समनुज्ञाप्य प्रविवेश नृपक्षयम् / तमर्थं महाबाहुरुभयोः स न्यवेदयत् / युयुत्सुरपि तां रात्रिं स्वगृहे न्यवसत्तदा // 92 स्य प्रीतोऽभवद्राजा नित्यं करुणवेदिता। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि रिष्वज्य महाबाहुर्वैश्यापुत्रं व्यसर्जयत् // 80 अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // तः स रथमास्थाय द्रुतमश्वानचोदयत् / // समाप्तं हृदप्रवेशपर्व॥ - 1861 - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 29. 1] महाभारते [9.29.27 दुर्योधन उवाच / धृतराष्ट्र उवाच। दिष्टया पश्यामि वो मुक्तानीदृशात्पुरुषक्षयात् / हतेषु सर्वसैन्येषु पाण्डुपुत्रै रणाजिरे / पाण्डुकौरवसंमर्दान्जीवमानान्नरर्षभान // 14 मम सैन्यावशिष्टास्ते किमकुर्वत संजय // 1 विजेष्यामो वयं सर्वे विश्रान्ता विगतक्लमाः। कृतवर्मा कृपश्चैव द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान् / भवन्तश्च परिश्रान्ता वयं च भृशविक्षताः / दुर्योधनश्च मन्दात्मा राजा किमकरोत्तदा // 2 उदीर्णं च बलं तेषां तेन युद्धं न रोचये // 15 संजय उवाच / न त्वेतदद्भुतं वीरा यद्वो महदिदं मनः। संप्राद्रवत्सु दारेषु क्षत्रियाणां महात्मनाम् / अस्मासु च परा भक्तिर्न तु कालः पराक्रमे // 16 विद्रुते शिबिरे शून्ये भृशोद्विग्नास्त्रयो रथाः // 3 विश्रम्यैकां निशामद्य भवद्भिः सहितो रणे / निशम्य पाण्डुपुत्राणां तदा विजयिनां स्वनम् / प्रतियोत्स्याम्यहं शत्रूश्वो न मेऽस्यत्र संशयः॥१५ विद्रुतं शिबिरं दृष्ट्वा सायाह्ने राजगृद्धिनः। संजय उवाच / स्थानं नारोचयंस्तत्र ततस्ते ह्रदमभ्ययुः // 4 एवमुक्तोऽब्रवीद्रौणी राजानं युद्धदुर्मदम् / युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो रणे / उत्तिष्ठ राजन्भद्रं ते विजेष्यामो रणे परान् // 18 हृष्टः पर्यपतद्राजन्दुर्योधनवधेप्सया // 5 इष्टापूर्तेन दानेन सत्येन च जपेन च / मार्गमाणास्तु संक्रुद्धास्तव पुत्रं जयैषिणः / शपे राजन्यथा ह्यद्य निहनिष्यामि सोमकान् // 19 यत्नतोऽन्वेषमाणास्तु नैवापश्यञ्जनाधिपम् // 6 मा स्म यज्ञकृतां प्रीतिं प्राप्नुयां सज्जनोचिताम् / स हि तीव्रण वेगेन गदापाणिरपाक्रमत् / यदीमा रजनी व्युष्टां न निहन्मि परान्रणे // 20 तं ह्रदं प्राविशच्चापि विष्टभ्यापः स्वमायया // 7 नाहत्वा सर्वपाञ्चालान्विमोक्ष्ये कवचं विभो।' यदा तु पाण्डवाः सर्वे सुपरिश्रान्तवाहनाः / इति सत्यं ब्रवीम्येतत्तन्मे शृणु जनाधिप / 21 ततः स्वशिबिरं प्राप्य व्यतिष्ठन्सहसैनिकाः // 8 तेषु संभाषमाणेषु व्याधास्तं देशमाययुः / ततः कृपश्च द्रौणिश्च कृतवर्मा च सात्वतः / मांसभारपरिश्रान्ताः पानीयाथं यहच्छया // 22 संनिविष्टेषु पार्थेषु प्रयातास्तं हृदं शनैः // 9 ते हि नित्यं महाराज भीमसेनस्य लुब्धकाः / ते तं हृदं समासाद्य यत्र शेते जनाधिपः / मांसभारानुपाज भक्त्या परमया विभो // 23 अभ्यभाषन्त दुर्धर्षं राजानं सुप्तमम्भसि // 10 ते तत्र विष्ठितास्तेषां सर्वं तद्वचनं रहः / राजन्नुत्तिष्ठ युध्यस्व सहास्माभियुधिष्ठिरम् / दुर्योधनवचश्चैव शुश्रुवुः संगता मिथः // 24 जित्वा वा पृथिवीं भुन हतो वा स्वर्गमाप्नुहि // 11 तेऽपि सर्वे महेष्वासा अयुद्धार्थिनि कौरवे / तेषामपि बलं सर्वं हतं दुर्योधन त्वया। निर्बन्धं परमं चक्रुस्तदा वै युद्धकाङ्गिणः // 25 प्रतिरब्धाश्च भूयिष्ठं ये शिष्टास्तत्र सैनिकाः // 12 / तांस्तथा समुदीक्ष्याथ कौरवाणां महारथान् / न ते वेगं विपहितुं शक्तास्तव विशां पते / अयुद्धमनसं चैव राजानं स्थितमम्भसि // 26 अस्माभिरभिगुप्तस्य तस्मादुत्तिष्ठ भारत // 13 / तेषां श्रुत्वा च संवादं राज्ञश्र सलिले सतः / -1862 - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 29. 27 ] शल्यपर्व [9. 29. 56 व्याधाभ्यजाननराजेन्द्र सलिलस्थं सुयोधनम् // 27 धर्मराजाय तत्सर्वमाचचक्षे परंतपः / / 42 ते पूर्व पाण्डुपुत्रेण पृष्टा ह्यासन्सुतं तव / असौ दुर्योधनो राजन्विज्ञातो मम लुब्धकैः / यदृच्छोपगतास्तत्र राजानं परिमार्गिताः // 28 संस्तभ्य सलिलं शेते यस्यार्थे परितप्यसे // 43 ततस्ते पाण्डुपुत्रस्य स्मृत्वा तद्भाषितं तदा / तद्वचो भीमसेनस्य प्रियं श्रुत्वा विशां पते / अन्योन्यमब्रुवराजन्मृगव्याधाः शनैरिदम् // 29 अजातशत्रुः कौन्तेयो हृष्टोऽभूत्सह सोदरैः॥ 44 दुर्योधनं ख्यापयामो धनं दास्यति पाण्डवः / / तं च श्रुत्वा महेष्वासं प्रविष्टं सलिलह्रदम् / सुव्यक्तमिति नः ख्यातो हदे दुर्योधनो नृपः॥ 30 क्षिप्रमेव ततोऽगच्छत्पुरस्कृत्य जनार्दनम् / / 45 तस्माद्गच्छामहे सर्वे यत्र राजा युधिष्ठिरः। . ततः किलकिलाशब्दः प्रादुरासीद्विशां पते / आख्यातुं सलिले सुप्तं दुर्योधनममर्षणम् // 31 पाण्डवानां प्रहृष्टानां पाञ्चालानां च सर्वशः॥४६ धृतराष्ट्रात्मजं तस्मै भीमसेनाय धीमते / / सिंहनादांस्ततश्चक्रुः क्ष्वेडांश्च भरतर्षभ / शयानं सलिले सर्वे कथयामो धनु ते // 32 त्वरिताः क्षत्रिया राजजग्मुद्वैपायनं ह्रदम् // 47 स नो दास्यति सुप्रीतो धनानि बहुलान्युत / ज्ञातः पापो धार्तराष्ट्रो दृष्टश्चेत्यसकृद्रणे / किं नो मांसेन शुष्केण परिक्लिष्टेन शोषिणा / / 33 प्राक्रोशन्सोमकास्तत्र हृष्टरूपाः समन्ततः // 48 एवमुक्त्वा ततो व्याधाः संप्रहृष्टा धनार्थिनः / तेषामाशु प्रयातानां स्थानां तत्र वेगिनाम् / मांसभारानुपादाय प्रययुः शिबिरं प्रति / / 34 बभूव तुमुलः शब्दो दिवस्पृक्पृथिवीपते // 49 पाण्डवाश्च महाराज लब्धलक्षाः प्रहारिणः / दुर्योधनं परीप्सन्तस्तत्र तत्र युधिष्ठिरम् / अपश्यमानाः समरे दुर्योधनमवस्थितम् / / 35 अन्वयुस्त्वरितास्ते वै राजानं श्रान्तवाहनाः // 50 निकृतेस्तस्य पापस्य ते पारं गमनेप्सवः / अर्जुनो भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / चारान्संप्रेषयामासुः समन्तात्तद्रणाजिरम् // 36 धृष्टद्युम्नश्च पाश्चाल्यः शिखण्डी चापराजितः॥५१ आगम्य तु ततः सर्वे नष्टं दुर्योधनं नृपम् / उत्तमौजा युधामन्युः सात्यकिश्वापराजितः / न्यवेदयन्त सहिता धर्मराजस्य सैनिकाः // 37 पाञ्चालानां च ये शिष्टा द्रौपदेयाश्च भारत / तेषां तद्वचनं श्रुत्वा चाराणां भरतर्षभ / हयाश्च सर्वे नागाश्च शतशश्च पदातयः // 52 चिन्तामभ्यगमत्तीनां निशश्वास च पार्थिवः // 38 / ततः प्राप्तो महाराज धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / अथ स्थितानां पाण्डूनां दीनानां भरतर्षभ / द्वैपायनहदं ख्यातं यत्र दुर्योधनोऽभवत् // 53 तस्माद्देशादपक्रम्य त्वरिता लुब्धका विभो // 39 शीतामलजलं हृद्यं द्वितीयमिव सागरम् / आजग्मुः शिबिरं हृष्टा दृष्ट्वा दुर्योधनं नृपम् / मायया सलिलं स्तभ्य यत्राभूत्ते सुतः स्थितः // 54 धार्यमाणाः प्रविष्टाश्च भीमसेनस्य पश्यतः // 40 अत्यद्भुतेन विधिना दैवयोगेन भारत / ते तु पाण्डवमासाद्य भीमसेनं महाबलम् / सलिलान्तर्गतः शेते दुर्दर्शः कस्यचित्प्रभो। तस्मै तत्सर्वमाचख्युर्यद्वृत्तं यच्च वै श्रुतम् / / 41 मानुषस्य मनुष्येन्द्र गदाहस्तो जनाधिपः / / 55 ततो वृकोदरो राजन्दत्त्वा तेषां धनं बहु / ततो दुर्योधनो राजा सलिलान्तर्गतो वसन् / - 1863 - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 29. 56] महाभारते [9. 30. 15 शुश्रुवे तुमुलं शब्दं जलदोपमनिःस्वनम् // 56 पश्येमा धार्तराष्ट्रेण मायामप्सु प्रयोजिताम् / युधिष्ठिरस्तु राजेन्द्र हृदं तं सह सोदरैः। विष्टभ्य सलिलं शेते नास्य मानुषतो भयम् // 3 आजगाम महाराज तव पुत्रवधाय वै // 57 दैवी मायामिमां कृत्वा सलिलान्तर्गतो ह्ययम् / महता शङ्खनादेन रथनेमिस्वनेन च / निकृत्या निकृतिप्रज्ञो न मे जीवन्धिमोक्ष्यते // 4 उद्धन्वंश्च महारेणु कम्पयंश्चापि मेदिनीम् // 58 यद्यस्य समरे साह्यं कुरुते वज्रभृत्स्वयम् / यौधिष्ठिरस्य सैन्यस्य श्रुत्वा शब्दं महारथाः / तथाप्येनं हतं युद्धे लोको द्रक्ष्यति माधव // 5 कृतवर्मा कृपो द्रौणी राजानमिदमब्रुवन् // 59 श्रीवासुदेव उवाच / इमे ह्यायान्ति संहृष्टाः पाण्डवा जितकाशिनः / मायाविन इमां मायां मायया जहि भारत / अपयास्यामहे तावदनुजानातु नो भवान् // 60 मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद्युधिष्ठिर // 6 दुर्योधनस्तु तच्छ्रुत्वा तेषां तत्र यशस्विनाम् / / क्रियाभ्युपायैर्बहुलैर्मायामप्सु प्रयोज्य ह / तथेत्युक्त्वा ह्रदं तं वै माययास्तम्भयत्प्रभो // 61 जहि त्वं भरतश्रेष्ठ पापात्मानं सुयोधनम् / / 7 ते त्वनुज्ञाप्य राजानं भृशं शोकपरायणाः / क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण निहता दैत्यदानवाः / जग्मुर्दूरं महाराज कृपप्रभृतयो रथाः // 62 क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्बलिर्बद्धो महात्मना // 8 ते गत्वा दूरमध्वानं न्यग्रोधं प्रेक्ष्य मारिष / क्रियाभ्युपायैः पूर्वं हि हिरण्याक्षो महासुरः / न्यविशन्त भृशं श्रान्ताश्चिन्तयन्तो नृपं प्रति // 63 हिरण्यकशिपुश्चैव क्रिययैव निषूदितौ / विष्टभ्य सलिलं सुप्तो धार्तराष्ट्रो महाबलः / वृत्रश्च निहतो राजन्क्रिययैव न संशयः // 9 पाण्डवाश्चापि संप्राप्तास्तं देशं युद्धमीप्सवः // 64 तथा पौलस्त्यतनयो रावणो नाम राक्षसः। कथं नु युद्धं भविता कथं राजा भविष्यति / रामेण निहतो राजन्सानुबन्धः सहानुगः / कथं नु पाण्डवा राजन्प्रतिपत्स्यन्ति कौरवम् // 65 क्रियया योगमास्थाय तथा त्वमपि विक्रम // 10 इत्येवं चिन्तयन्तस्ते रथेभ्योऽश्वान्विमुच्य ह / क्रियाभ्युपायैर्निहतो मया राजन्पुरातने / तत्रासांचक्रिरे राजन्कृपप्रभृतयो रथाः // 66 तारकश्च महादैत्यो विप्रचित्तिश्च वीर्यवान् // 11 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि वातापिरिल्वलश्चैव त्रिशिराश्च तथा विभो। एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // सुन्दोपसुन्दावसुरौ क्रिययैव निषूदितौ // 12 क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण त्रिदिवं भुज्यते विभो / संजय उवाच। क्रिया बलवती राजन्नान्यत्किंचिद्युधिष्ठिर // 13 ततस्तेष्वपयातेषु रथेषु त्रिषु पाण्डवाः / दैत्याश्च दानवाश्चैव राक्षसाः पार्थिवास्तथा / तं हृदं प्रत्यपद्यन्त यत्र दुर्योधनोऽभवत् // 1 क्रियाभ्युपायैर्निहताः क्रियां तस्मात्समाचर // 14 आसाद्य च कुरुश्रेष्ठ तदा द्वैपायनढ्दम् / संजय उवाच। स्तम्भितं धार्तराष्ट्रेण दृष्ट्वा तं सलिलाशयम् / इत्युक्तो वासुदेवेन पाण्डवः संशितव्रतः / वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत्कुरुनन्दनः // 2 जलस्थं तं महाराज तव पुत्रं महाबलम् / - 1864 - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 30. 15] शल्यपर्व [9. 30. 43 अभ्यभाषत कौन्तेयः प्रहसन्निव भारत // 15 / / कथं हि त्वद्विधो मोहाद्रोचयेत पलायनम् // 30 सुयोधन किमर्थोऽयमारम्भोऽप्सु कृतस्त्वया। क्क ते तत्पौरुषं यातं क च मानः सुयोधन। सर्व क्षत्रं घातयित्वा स्वकुलं च विशां पते // 16 क च विक्रान्तता याता क च विस्फूर्जितं महत् // 31 जलाशयं प्रविष्टोऽद्य वाञ्छञ्जीवितमात्मनः। क ते कृतास्त्रता याता किं च शेषे जलाशये / उत्तिष्ठ राजन्युध्यस्व सहास्माभिः सुयोधन // 17 / स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व क्षत्रधर्मेण भारत // 32 स च दर्पो नरश्रेष्ठ स च मानः क ते गतः / / | अस्मान्वा त्वं पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम् / यस्त्वं संस्तभ्य सलिलं भीतो राजन्व्यवस्थितः॥१८ अथ वा निहतोऽस्माभिर्भूमौ स्वप्स्यसि भारत // 33 सर्वे त्वां शूर इत्येव जना जल्पन्ति संसदि। एष ते प्रथमो धर्मः सृष्टो धात्रा महात्मना / व्यर्थ तद्भवतो मन्ये शौर्य सलिलशायिनः // 19 तं कुरुष्व यथातथ्यं राजा भव महारथ // 34 उत्तिष्ठ राजन्युध्यस्व क्षत्रियोऽसि कुलोद्भवः / दुर्योधन उवाच / कौरवेयो विशेषेण कुले जन्म च संस्मर / 20 नैतच्चित्रं महाराज यद्भीः प्राणिनमाविशेत् / स कथं कौरवे वंशे प्रशंसञ्जन्म चात्मनः / न च प्राणभयाद्भीतो व्यपयातोऽस्मि भारत // 35 युद्धाद्भीतस्ततस्तोयं प्रविश्य प्रतितिष्ठसि // 21 अरथश्चानिषङ्गी च निहतः पाणिसारथिः / अयुद्धमव्यवस्थानं नैष धर्मः सनातनः / एकश्चाप्यगणः संख्ये प्रत्याश्वासमरोचयम् // 36 अनार्यजुष्टमस्वयं रणे राजन्पलायनम् // 22 न प्राणहेतोर्न भयान्न विषादाद्विशां पते / कथं पारमगत्वा हि युद्धे त्वं वै जिजीविषुः / इदमम्भः प्रविष्टोऽस्मि श्रमात्त्विदमनुष्ठितम् // 37 इमान्निपतितान्दृष्ट्वा पुत्रान्भ्रातृन्धिद्वंस्तथा / / 23 त्वं चाश्वसिहि कौन्तेय ये चाप्यनुगतास्तव / संबन्धिनो वयस्यांश्च मातुलान्बान्धवांस्तथा। अहमुत्थाय वः सर्वान्प्रतियोत्स्यामि संयुगे // 38 घातयित्वा कथं तात हृदे तिष्ठसि सांप्रतम् // 24 युधिष्ठिर उवाच / शूरमानी न शूरस्त्वं मिथ्या वदसि भारत / शूरोऽहमिति दुर्बुद्धे सर्वलोकस्य शृण्वतः // 25 आश्वस्ता एव सर्वे स्म चिरं त्वां मृगयामहे / न हि शूराः पलायन्ते शत्रून्दृष्ट्वा कथंचन / तदिदानी समुत्तिष्ठ युध्यस्वेह सुयोधन // 39 बेहि वा त्वं यया धृत्या शूर त्यजसि संगरम् // 26 हत्वा वा समरे पार्थान्स्फीतं राज्यमवाप्नुहि / स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व विनीय भयमात्मनः।। निहतो वा रणेऽस्माभिर्वीरलोकमवाप्स्यसि // 40 घातयित्वा सर्वसैन्यं भ्रातूंश्चैव सुयोधन // 27 दुर्योधन उवाच / नेदानीं जीविते बुद्धिः कार्या धर्मचिकीर्षया / / | यदर्थं राज्यमिच्छामि कुरूणां कुरुनन्दन / क्षत्रधर्ममपाश्रित्य त्वद्विर्धन सुयोधन / / 28 त इमै निहताः सर्वे भ्रातरी मै जनश्वर // 41 यत्तत्कर्णमुपाश्रित्य शकुनिं चापि सौबलम् / / क्षीणरत्नां च पृथिवीं हतक्षत्रियपुंगवाम् / अमर्त्य इव संमोहात्त्वमात्मानं न बुद्धवान् // 29 / नाभ्युत्सहाम्यहं भोक्तुं विधवामिव योषितम् // 42 तत्पापं सुमहत्कृत्वा प्रतियुध्यस्व भारत / | अद्यापि त्वहमाशंसे त्वां विजेतुं युधिष्ठिर / म. भा. 234 - 1865 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 30. 43] महाभारते [9. 31.1 भक्त्वा पाञ्चालपाण्डूनामुत्साहं भरतर्षभ // 43 / न त्वमद्य महीं दातुमीशः कौरवनन्दन / न त्विदानीमहं मन्ये कार्य युद्धेन कर्हिचित् / आच्छेत्तुं वा बलाद्राजन्स कथं दातुमिच्छसि / द्रोणे कर्णे च संशान्ते निहते च पितामहे // 44 मां तु निर्जित्य संग्रामे पालयेमां वसुंधराम् // 58 अस्त्विदानीमियं राजन्केवला पृथिवी तव / सूच्यप्रेणापि यद्भूमेरपि ध्रीयेत भारत / असहायो हि को राजा राज्यमिच्छेत्प्रशासितुम्॥४५ तन्मात्रमपि नो मह्यं न ददाति पुरा भवान् // 59 सुहृदस्तादृशान्हित्वा पुत्रान्भ्रातृन्पितॄनपि / स कथं पृथिवीमेतां प्रददासि विशां पते / भवद्भिश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः // 46 सूच्यग्रं नात्यजः पूर्व स कथं त्यजसि क्षितिम् // 60 अहं वनं गमिष्यामि ह्यजिनैः प्रतिवासितः / एवमैश्वर्यमासाद्य प्रशास्य पृथिवीमिमाम् / रतिर्हि नास्ति मे राज्ये हतपक्षस्य भारत // 47 को हि मूढो व्यवस्येत शत्रोतुं वसुंधराम् // 61 हतबान्धवभूयिष्ठा हताश्वा हतकुञ्जरा / त्वं तु केवलमौख्येण विमूढो नावबुध्यसे / एषा ते पृथिवी राजन्भुनां विगतज्वरः // 48 पृथिवीं दातुकामोऽपि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे // 62 वनमेव गमिष्यामि वसानो मृगचर्मणी / अस्मान्वा त्वं पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम् / न हि मे निर्जितस्यास्ति जीवितेऽद्य स्पृहा विभो।।४९ अथ वा निहतोऽस्माभिज लोकाननुत्तमान् // 63 गच्छ त्वं भुङ्क्ष राजेन्द्र पृथिवीं निहतेश्वराम् / / आवयोर्जीवतो राजन्मयि च त्वयि च ध्रुवम् / हतयोधां नष्टरत्नां क्षीणवप्रां यथासुखम् // 50 संशयः सर्वभूतानां विजये नो भविष्यति // 64 युधिष्ठिर उवाच / जीवितं तव दुष्प्रज्ञ मयि संप्रति वर्तते / आप्रिलापान्मा तात सलिलस्थः प्रभाषथाः / जीवयेयं त्वहं कामं न तु त्वं जीवितुं क्षमः // 65 नैतन्मनसि मे राजन्वाशितं शकुनेरिव // 51 दहने हि कृतो यत्नस्त्वयास्मासु विशेषतः / यदि चापि समर्थः स्यास्त्वं दानाय सुयोधन / आशीविषैर्विषैश्चापि जले चापि प्रवेशनैः / नाहमिच्छेयमवनि त्वया दत्तां प्रशासितुम् // 52 त्वया विनिकृता राजनराज्यस्य हरणेन च // 66 अधर्मेण न गृह्णीयां त्वया दत्तां महीमिमाम् / / एतस्मात्कारणात्पाप जीवितं ते न विद्यते / न हि धर्मः स्मृतो राजन्क्षत्रियस्य प्रतिग्रहः // 53 उत्तिष्ठोत्तिष्ठ युध्यस्व तत्ते श्रेयो भविष्यति // 67 त्वया दत्ता न चेच्छेयं पृथिवीमखिलामहम् / __संजय उवाच / त्वां तु युद्धे विनिर्जित्य भोक्तास्मि वसुधामिमाम।।५४ एवं तु विविधा वाचो जययुक्ताः पुनः पुनः / अनीश्वरश्च पृथिवीं कथं त्वं दातुमिच्छसि / कीर्तयन्ति स्म ते वीरास्तत्र तत्र जनाधिप // 68 त्वयेयं पृथिवी राजन्कि न दत्ता तदैव हि // 55 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि धर्मतो याचमानानां शमार्थं च कुलस्य नः / त्रिंशोऽध्यायः // 30 // वार्ष्णेयं प्रथमं राजन्प्रत्याख्याय महाबलम् // 56 किमिदानीं ददासि त्वं को हि ते चित्तविभ्रमः / धृतराष्ट्र उवाच / अभियुक्तस्तु को राजा दातुमिच्छेद्धि मेदिनीम् // 57 / एवं संतय॑मानस्तु मम पुत्रो महीपतिः / - 1866 - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 31. 1] शल्यपर्व [9. 31. 29 प्रकृत्या मन्युमान्वीरः कथमासीत्परंतपः // 1 अहमुत्थाय वः सर्वान्प्रतियोत्स्यामि संयुगे। न हि संतर्जना तेन श्रुतपूर्वा कदाचन / अन्वंशाभ्यागतान्सर्वानृतून्संवत्सरो यथा // 16 राजभावेन मान्यश्च सर्वलोकस्य सोऽभवत् // 2 अद्य वः सरथान्साश्वानशस्त्रो विरथोऽपि सन् / इयं च पृथिवी सर्वा सम्लेच्छाटविका भृशम् / नक्षत्राणीव सर्वाणि सविता रात्रिसंक्षये / प्रसादाद्भियते यस्य प्रत्यक्षं तव संजय // 3 तेजसा नाशयिष्यामि स्थिरीभवत पाण्डवाः // 17 स तथा तय॑मानस्तु पाण्डुपुत्रैर्विशेषतः। अद्यानृण्यं गमिष्यामि क्षत्रियाणां यशस्विनाम् / विहीनश्च स्वकै त्यैर्निर्जने चावृतो भृशम् // 4. बाह्रीकद्रोणभीष्माणां कर्णस्य च महात्मनः // 18 मुत्वा स कटुका वाचो जययुक्ताः पुनः पुनः। जयद्रथस्य शूरस्य भगदत्तस्य चोभयोः / किमब्रवीत्पाण्डवेयांस्तन्ममाचक्ष्व संजय // 5 मद्रराजस्य शल्यस्य भूरिश्रवस एव च // 19 संजय उवाच / पुत्राणां भरतश्रेष्ठ शकुनेः सौबलस्य च / हय॑मानस्तदा राजन्नदकस्थस्तवात्मजः। मित्राणां सुहृदां चैव बान्धवानां तथैव च // 20 युधिष्ठिरेण राजेन्द्र भ्रातृभिः सहितेन ह // 6 आनृण्यमद्य गच्छामि हत्वा त्वां भ्रातृभिः सह / श्रुत्वा स कटुका वाचो विषमस्थो जनाधिपः / एतावदुक्त्वा वचनं विरराम जनाधिपः // 21 दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य सलिलस्थः पुनः पुनः // 7 युधिष्ठिर उवाच / सलिलान्तर्गतो राजा धुन्वन्हस्तौ पुनः पुनः / दिष्ट्या त्वमपि जानी क्षत्रधर्म सुयोधन / मनश्चकार युद्धाय राजानं चाभ्यभाषत // 8 दिष्टया ते वर्तते बुद्धिर्युद्धायैव महाभुज // 22 यूयं ससुहृदः पार्थाः सर्वे सरथवाहनाः / दिष्टया शूरोऽसि कौरव्य दिष्ट्या जानासि संगरम् / अहमेकः परियूनो विरथो हतवाहनः // 9 यस्त्वमेको हि नः सर्वान्संयुगे योद्धुमिच्छसि // 23 पात्तशस्त्रै रथगतैर्बहुभिः परिवारितः / एक एकेन संगम्य यत्ते संमतमायुधम् / कथमेकः पदातिः सन्नशस्त्रो योद्धमुत्सहे॥१० तत्त्वमादाय युध्यस्व प्रेक्षकास्ते वयं स्थिताः // 24 एकैकेन तु मां यूयं योधयध्वं युधिष्ठिर। अयमिष्टं च ते कामं वीर भूयो ददाम्यहम् / नोको बहुभिरिन्ाय्यं योधयितुं युधि // 11 / हत्वैकं भवतो राज्यं हतो वा स्वर्गमाप्नुहि // 25 विशेषतो विकवचः श्रान्तश्चापः समाश्रितः / दुर्योधन उवाच / सुशं विक्षतगात्रश्च श्रान्तवाहनसैनिकः // 12 एकश्चेद्यो माक्रन्दे वरोऽद्य मम दीयते / न मे त्वत्तो भयं राजन्न च पार्थाद्वृकोदरात् / आयुधानामियं चापि वृता त्वत्संमते गदा / / 26 फल्गुनाद्वासुदेवाद्वा पाश्चालेभ्योऽथ वा पुनः // 13 भ्रातृणां भवतामेकः शक्यं मां योऽभिमन्यते / यमाभ्यां युयुधानाहा ये चान्ये तव सैनिकाः। पदातिर्गदया संख्ये स युध्यतु मया सह // 27 एकः सर्वानहं क्रुद्धो न तान्योद्धमिहोत्सहे // 14 वृत्तानि रथयुद्धानि विचित्राणि पदे पदे / धर्ममूला सतां कीर्तिमनुष्याणां जनाधिप / इदमेकं गदायुद्धं भवत्वद्याद्भुतं महत् // 28 धर्म चैवेह कीर्तिं च पालयन्प्रब्रवीम्यहम् // 15 / अन्नानामपि पर्यायं कर्तुमिच्छन्ति मानवाः / - 1867 - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 31. 29 ] महाभारते [9. 31. 54 युद्धानामपि पर्यायो भवत्वनुमते तव // 29 उद्धृत्य नयने क्रुद्धो दिधक्षुरिव पाण्डवान् / / 42 गदया त्वां महाबाहो विजेष्यामि सहानुजम् / त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा संदष्टदशनच्छदः / पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव ये चान्ये तव सैनिकाः॥३० प्रत्युवाच ततस्तान्वै पाण्डवान्सहकेशवान् // 43 युधिष्ठिर उवाच / अवहासस्य वोऽस्याद्य प्रतिवक्तास्मि पाण्डवाः / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गान्धारे मां योधय सुयोधन / गमिष्यथ हताः सद्यः सपाश्चाला यमक्षयम् // 44 एक एकेन संगम्य संयुगे गदया बली // 31 उत्थितस्तु जलात्तस्मात्पुत्रो दुर्योधनस्तव / पुरुषो भव गान्धारे युध्यस्व सुसमाहितः / अतिष्ठत गदापाणी रुधिरेण समुक्षितः / / 45 अद्य ते जीवितं नास्ति यद्यपि त्वं मनोजवः // 32 तस्य शोणितदिग्धस्य सलिलेन समुक्षितम् / - संजय उवाच / शरीरं स्म तदा भाति स्रवन्निव महीधरः // 46 एतत्स नरशार्दूलो नामृष्यत तवात्मजः / तमुद्यतगदं वीरं मेनिरे तत्र पाण्डवाः / सलिलान्तर्गतः श्वभ्रे महानाग इव श्वसन् // 33 वैवस्वतमिव क्रुद्धं किंकरोद्यतपाणिनम् // 47 तथासौ वाक्प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः / स मेघनिनदो हर्षान्नदन्निव च गोवृषः / वाचं न ममृषे धीमानुत्तमाश्वः कशामिव // 34 आजुहाव ततः पार्थान्गदया युधि वीर्यवान् // 48 संक्षोभ्य सलिलं वेगाद्दामादाय वीर्यवान् / दुर्योधन उवाच / अद्रिसारमयीं गुर्वी काञ्चनाङ्गदभूषणाम् / एकैकेन च मां यूयमासीदत युधिष्ठिर / अन्तर्जलात्समुत्तस्थौ नागेन्द्र इव निःश्वसन् // 35 न ह्येको बहुभिाय्यो वीर योधयितुं युधि // 49 स भित्त्वा स्तम्भितं तोयं स्कन्धे कृत्वायसीं गदाम् / न्यस्तवर्मा विशेषेण श्रान्तश्चाप्सु परिप्लुतः। उदतिष्ठत पुत्रस्ते प्रतपरश्मिमानिव // 36 भृशं विक्षतगात्रश्च हतवाहनसैनिकः // 50 ततः शैक्यायसीं गुर्वी जातरूपपरिष्कृताम् / गदां परामृशद्धीमान्धार्तराष्ट्रो महाबलः // 37 युधिष्ठिर उवाच / गदाहस्तं तु तं दृष्ट्वा सशृङ्गमिव पर्वतम् / नाभूदियं तव प्रज्ञा कथमेवं सुयोधन / प्रजानामिव संक्रुद्धं शूलपाणिमवस्थितम् / यदाभिमन्युं बहवो जन्नुयुधि महारथाः / / 51 सगदो भारतो भाति प्रतपन्भास्करो यथा // 38 आमुश्च कवचं वीर मूर्धजान्यमयस्व च / तमुत्तीर्णं महाबाहुं गदाहस्तमरिंदमम् / यच्चान्यदपि ते नास्ति तदप्यादत्स्व भारत / मेनिरे सर्वभूतानि दण्डहस्तमिवान्तकम् // 39 इममेकं च ते कामं वीर भूयो ददाम्यहम् // 52 वज्रहस्तं यथा शक्रं शूलहस्तं यथा हरम् / पश्वानां पाण्डवेयानां येन यो मिहेच्छसि / ददृशुः सर्वपाञ्चालाः पुत्रं तव जनाधिप // 40 तं हत्वा वै भवानराजा हतो वा स्वर्गमाप्नुहि / तमुत्तीर्ण तु संप्रेक्ष्य समहृष्यन्त सर्वशः / ऋते च जीविताद्वीर युद्धे किं कुर्म ते प्रियम् / / 53 पाञ्चालाः पाण्डवेयाश्च तेऽन्योन्यस्य तलान्ददुः॥४१ संजय उवाच। अवहासं तु तं मत्वा पुत्रो दुर्योधनस्तव / | ततस्तव सुतो राजन्वर्म जग्राहं काञ्चनम् / - 1868 - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 31. 54 ] शल्यपर्व [9. 32. 20 विचित्रं च शिरस्त्राणं जाम्बूनदपरिष्कृतम् // 54 तदिदं द्यूतमारब्धं पुनरेव यथा पुरा / सोऽवबद्धशिरस्त्राणः शुभकाश्चनवर्मभृत् / विषमं शकुनेश्चैव तव चैव विशां पते // 7 राज राजन्पुत्रस्ते काञ्चनः शैलराडिव // 55 बली भीमः समर्थश्च कृती राजा सुयोधनः / संनद्धः स गदी राजन्सज्जः संग्राममूर्धनि / बलवान्वा कृती वेति कृती राजन्विशिष्यते // 8 अब्रवीत्पाण्डवान्सर्वान्पुत्रो दुर्योधनस्तव // 56 सोऽयं राजंस्त्वया शत्रुः समे पथि निवेशितः / भातॄणां भवतामेको युध्यतां गदया मया / न्यस्तश्चात्मा सुविषमे कृच्छ्रमापादिता वयम् // 9 सहदेवेन वा योत्स्ये भीमेन नकुलेन वा / / 57 . | को नु सर्वान्विनिर्जित्य शत्रूनेकेन वैरिणा / अथ वा फल्गुनेनाद्य त्वया वा भरतर्षभ / पणित्वा चैकपाणेन रोचयेदेवमाहवम् // 10 योत्स्येऽहं संगरं प्राप्य विजेष्ये च रणाजिरे // 58 न हि पश्यामि तं लोके गदाहस्तं नरोत्तमम् / अहमद्य गमिष्यामि वैरस्यान्तं सुदुर्गमम् / युध्येहुर्योधनं संख्ये कृतित्वाद्धि विशेषयेत् // 11 गदया पुरुषव्याघ्र हेमपट्टविनद्वया // 59 फल्गुनं वा भवन्तं वा माद्रीपुत्रावथापि वा। गदायुद्धे न मे कश्चित्सदृशोऽस्तीति चिन्तय / न समर्थानहं मन्ये गदाहस्तस्य संयुगे // 12 गदया वो हनिष्यामि सर्वानेव समागतान् / स कथं वदसे शत्रु युध्यस्व गदयेति ह / गृहातु स गदा यो वै युध्यतेऽद्य मया सह // 60 एकं च नो निहत्याजौ भव राजेति भारत // 13 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि वृकोदरं समासाद्य संशयो विजये हि नः / एकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ न्यायतो युध्यमानानां कृती ह्येष महाबलः // 14 રૂર भीम उवाच / संजय उवाच / मधुसूदन मा कार्षीविषादं यदुनन्दन / एवं दुर्योधने राजन्गर्जमाने मुहुर्मुहुः / अद्य पारं गमिष्यामि वैरस्य भृशदुर्गमम् // 15 युधिष्ठिरस्य संक्रुद्धो वासुदेवोऽब्रवीदिदम् // 1 अहं सुयोधनं संख्ये हनिष्यामि न संशयः। यदि नाम ह्ययं युद्धे वरयेत्त्वां युधिष्ठिर / विजयो वै ध्रुवं कृष्ण धर्मराजस्य दृश्यते // 16 अर्जुनं नकुलं वापि सहदेवमथापि वा // 2 अध्यर्धेन गुणेनेयं गदा गुरुतरी मम / किमिदं साहसं राजंस्त्वया व्याहृतमीदृशम् / न तथा धार्तराष्ट्रस्य मा कार्षीधिव व्यथाम् // 17 एकमेव निहत्याजौ भव राजा कुरुष्विति // 3 सामरानपि लोकांस्त्रीन्नानाशस्त्रधरान्युधि / एतेन हि कृता योग्या वर्षाणीह त्रयोदश / योधयेयं रणे हृष्टः किमुताद्य सुयोधनम् // 18 आयसे पुरुषे राजन्भीमसेनजिघांसया // 4 संजय उवाच / कथं नाम भवेत्कार्यमस्माभिर्भरतर्षभ / तथा संभाषमाणं तु वासुदेवो वृकोदरम् / साहसं कृतवांस्त्वं तु ह्यनुक्रोशान्नपोत्तम // 5 हृष्टः संपूजयामास वचनं चेदमब्रवीत् // 19 नान्यमस्यानुपश्यामि प्रतियोद्धारमाहवे। त्वामाश्रित्य महाबाहो धर्मराजो युधिष्ठिरः। ऋते वृकोदरात्पार्थात्स च नातिकृतश्रमः // 6 निहतारिः स्वकां दीप्तां श्रियं प्राप्तो न संशयः॥२० - 1869 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 32. 21] महाभारते [9. 32. 50 त्वया विनिहताः सर्वे धृतराष्ट्रसुता रणे। तमुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गिणम् / राजानो राजपुत्राश्च नागाश्च विनिपातिताः // 21 | भीमसेनस्तदा राजन्दुर्योधनमथाब्रवीत् // 36 कलिङ्गा मागधाः प्राच्या गान्धाराः कुरवस्तथा। राज्ञापि धृतराष्ट्रेण त्वया चास्मासु यत्कृतम् / त्वामासाद्य महायुद्धे निहताः पाण्डुनन्दन / / 22 स्मर तदुष्कृतं कर्म यद्वृत्तं वारणावते // 37 हत्वा दुर्योधनं चापि प्रयच्छो: ससागराम् / द्रौपदी च परिक्लिष्टा सभामध्ये रजस्वला / धर्मराजाय कौन्तेय यथा विष्णुः शचीपतेः // 23 द्यूते यद्विजितो राजा शकुनेबुद्धिनिश्चयात् // 38 त्वां च प्राप्य रणे पापो धार्तराष्ट्रो विनश्यति / यानि चान्यानि दुष्टात्मन्पापानि कृतवानसि / त्वमस्य सक्थिनी भक्त्वा प्रतिज्ञा पारयिष्यसि // अनागःसु च पार्थेषु तस्य पश्य महत्फलम् // 39 यत्नेन तु सदा पार्थ योद्धव्यो धृतराष्ट्रजः। त्वत्कृते निहतः शेते शरतल्पे महायशाः / कृती च बलवांश्चैव युद्धशौण्डश्च नित्यदा // 25 गाङ्गेयो भरतश्रेष्ठः सर्वेषां नः पितामहः // 40 ततस्तु सात्यकी राजन्पूजयामास पाण्डवम् / हतो द्रोणश्च कर्णश्च हतः शल्यः प्रतापवान् / विविधाभिश्च तं वाग्भिः पूजयामास माधवः // 26 वैरस्य चादिकर्तासौ शकुनिनिहतो युधि // 41 पाञ्चालाः पाण्डवेयाश्च धर्मराजपुरोगमाः / / भ्रातरस्ते हताः शूराः पुत्राश्च सहसैनिकाः / तद्वचो भीमसेनस्य सर्व एवाभ्यपूजयन् / / 27 राजानश्च हताः शूराः समरेष्वनिवर्तिनः // 42 ततो भीमबलो भीमो युधिष्ठिरमथाब्रवीत् / एते चान्ये च निहता बहवः क्षत्रियर्षभाः / सञ्जयैः सह तिष्ठन्तं तपन्तमिव भास्करम् // 28 प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः // 43 अहमेतेन संगम्य संयुगे योद्धमुत्सहे। अवशिष्टस्त्वमेवैकः कुलघ्नोऽधमपूरुषः / न हि शक्तो रणे जेतुं मामेष पुरुषाधमः // 29 त्वामप्यद्य हनिष्यामि गदया नात्र संशयः // 44 अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निहितं हृदये भृशम् / अद्य तेऽहं रणे दपं सर्वं नाशयिता नृप / सुयोधने धार्तराष्ट्रे खाण्डवेऽग्निमिवार्जुनः // 30 राज्याशां विपुलां राजन्पाण्डवेषु च दुष्कृतम् // 45 शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम् / दुर्योधन उवाच। निहत्य गदया पापमद्य राजन्सुखी भव // 31 किं कत्थितेन बहुधा युध्यस्खाद्य मया सह / अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रतिमोक्ष्ये तवानघ / अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां वृकोदर // 46 प्राणाश्रियं च राज्यं च मोक्ष्यतेऽद्य सुयोधनः।।३२ किं न पश्यसि मां पाप गदायुद्धे व्यवस्थितम् / राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं मया हतम् / हिमवच्छिखराकारां प्रगृह्य महतीं गदाम् // 47 स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम् // 33 गदिनं कोऽद्य मां पाप जेतुमुत्सहते रिपुः / इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठो गदामुद्यम्य वीर्यवान् / न्यायतो युध्यमानस्य देवेष्वपि पुरंदरः // 48 उदतिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन् / / 34 मा वृथा गर्ज कौन्तेय शारदाभ्रमिवाजलम् / तमेकाकिनमासाद्य धार्तराष्ट्र महाबलम् / / दर्शयस्व बलं युद्धे यावत्तत्तेऽद्य विद्यते // 49 नियूथमिव मातङ्गं समहृष्यन्त पाण्डवाः // 35 / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पाञ्चालाः सहसृञ्जयाः / - 1870 - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 32. 50] शल्यपर्व [9. 34. 4 सर्वे संपूजयामासुस्तद्वचो विजिगीषवः // 50 एवमूचुर्महात्मानं रौहिणेयं नराधिपाः // 10 तं मत्तमिव मातङ्गं तलशब्देन मानवाः / / / परिष्वज्य तदा रामः पाण्डवान्सृञ्जयानपि / भूयः संहर्षयामासू राजन्दुर्योधनं नृपम् // 51 अपृच्छत्कुशलं सर्वान्पाण्डवांश्चामितौजसः / हन्ति कुञ्जरास्तत्र हया हेपन्ति चासकृत् / तथैव ते समासाद्य पप्रच्छुस्तमनामयम् // 11 शस्त्राणि संप्रदीप्यन्ते पाण्डवानां जयैषिणाम् // 52 प्रत्यभ्यर्च्य हली सर्वान्क्षत्रियांश्च महामनाः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि कृत्वा कुशलसंयुक्तां संविदं च यथावयः // 12 द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 // जनार्दनं सात्यकिं च प्रेम्णा स परिषस्वजे / मूर्ध्नि चैतावुपाघ्राय कुशलं पर्यपृच्छत // 13 संजय उवाच / तौ चैनं विधिवद्राजन्पूजयामासतुर्गुरुम् / तस्मिन्युद्धे महाराज संप्रवृत्ते सुदारुणे। ब्रह्माणमिव देवेशमिन्द्रोपेन्द्रौ मुदा युतौ // 14 उपविष्टेषु सर्वेषु पाण्डवेषु महात्मसु // 1 ततोऽब्रवीद्धर्मसुतो रौहिणेयमरिंदमम् / ततस्तालध्वजो रामस्तयोर्युद्ध उपस्थिते / इदं भ्रात्रोर्महायुद्धं पश्य रामेति भारत // 15 श्रुत्वा तच्छिष्ययो राजन्नाजगाम हलायुधः // 2 / तेषां मध्ये महाबाहुः श्रीमान्केशवपूर्वजः / तं दृष्ट्वा परमप्रीताः पूजयित्वा नराधिपाः / न्यविशत्परमप्रीतः पूज्यमानो महारथैः / / 16 शिष्ययोः कौशलं युद्धे पश्य रामेति चाब्रुवन् // 3 स बभौ राजमध्यस्थो नीलवासाः सितप्रभः / अब्रवीञ्च तदा रामो दृष्ट्वा कृष्णं च पाण्डवम् / दिवीव नक्षत्रगणैः परिकीर्णो निशाकरः // 17 दुर्योधनं च कौरव्यं गदापाणिमवस्थितम् // 4 ततस्तयोः संनिपातस्तुमुलो लोमहर्षणः / चत्वारिंशदहान्यद्य द्वे च मे निःसृतस्य वै / आसीदन्तकरो राजन्वैरस्य तव पुत्रयोः // 18 पुष्येण संप्रयातोऽस्मि श्रवणे पुनरागतः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि शिष्ययोर्वे गदायुद्धं द्रष्टुकामोऽस्मि माधव / / 5 त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥ ततो युधिष्ठिरो राजा परिष्वज्य हलायुधम् / खागतं कुशलं चास्मै पर्यपृच्छयथातथम् // 6 जनमेजय उवाच। कृष्णौ चापि महेष्वासावभिवाद्य हलायुधम् / पूर्वमेव यदा रामस्तस्मिन्युद्ध उपस्थिते / सस्वजाते परिप्रीतौ प्रियमाणौ यशस्विनौ // 7 आमय केशवं यातो वृष्णिभिः सहितः प्रभुः // 1 माद्रीपुत्रौ तथा शूरौ द्रौपद्याः पञ्च चात्मजाः / साहाय्यं धार्तराष्ट्रस्य न च कर्तास्मि केशव / अभिवाद्य स्थिता राजनरौहिणेयं महाबलम् // 8 न चैव पाण्डुपुत्राणां गमिष्यामि यथागतम् // 2 भीमसेनोऽथ बलवान्पुत्रस्तव जनाधिप / एवमुक्त्वा तदा रामो यातः शत्रुनिबर्हणः / तथैव चोधतगदौ पूजयामासतुर्बलम् // 9 तस्य चागमनं भूयो ब्रह्मशंसितुमर्हसि // 3 खागतेन च ते तत्र प्रतिपूज्य पुनः पुनः / आख्याहि मे विस्तरतः कथं राम उपस्थितः / पश्य युद्धं महाबाहो इति ते राममब्रुवन् / कथं च दृष्टवान्युद्धं कुशलो ह्यसि सत्तम // 4 . . - 1871 - 34 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 34. 5] महाभारते [9. 34. 29 वैशंपायन उवाच / प्रतिस्रोतः सरस्वत्या गच्छध्वं शीघ्रगामिनः / उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु / ऋत्विजश्चानयध्वं वै शतशश्च द्विजर्षभान् // 17 प्रेषितो धृतराष्ट्रस्य समीपं मधुसूदनः / एवं संदिश्य तु प्रेष्यान्बलदेवो महाबलः / शमं प्रति महाबाहो हितार्थं सर्वदेहिनाम् // 5 तीर्थयात्रां ययौ राजन्कुरूणां वैशसे तदा / स गत्वा हास्तिनपुरं धृतराष्ट्रं समेत्य च / सरस्वती प्रतिस्रोतः समुद्रादभिजग्मिवान् // 18 उक्तवान्वचनं तथ्यं हितं चैव विशेषतः।। ऋत्विग्भिश्च सुहृद्भिश्च तथान्यैर्द्विजसत्तमैः / न च तत्कृतवान्राजा यथाख्यातं हि ते पुरा // 6 रथैर्गजैस्तथाश्वैश्व प्रेष्यैश्च भरतर्षभ / अनवाप्य शमं तत्र कृष्णः पुरुषसत्तमः / गोखरोष्ट्रप्रयु तैश्च यानैश्च बहुभिर्वृतः // 19 आगच्छत महाबाहुरुपप्लव्यं जनाधिप // 7 श्रान्तानां क्लान्तवपुषां शिशूनां विपुलायुषाम् / ततः प्रत्यागतः कृष्णो धार्तराष्ट्रविसर्जितः। तानि यानानि देशेषु प्रतीक्ष्यन्ते स्म भारत / अक्रियायां नरव्याघ्र पाण्डवानिदमब्रवीत् / / 8 बुभुक्षितानामर्थाय क्लृप्तमन्नं समन्ततः / 20 न कुर्वन्ति वचो मह्यं कुरवः कालचोदिताः। यो यो यत्र द्विजो भोक्तुं कामं कामयते तदा। निर्गच्छध्वं पाण्डवेयाः पुष्येण सहिता मया // 9 तस्य तस्य तु तत्रैवमुपजस्तदा नृप / / 21 ततो विभज्यमानेषु बलेषु बलिनां वरः। तत्र स्थिता नरा राजनरौहिणेयस्य शासनात् / प्रोवाच भ्रातरं कृष्णं रोहिणेयो महामनाः // 10 भक्ष्यपेयस्य कुर्वन्ति राशींस्तत्र समन्ततः // 22 तेषामपि महाबाहो साहाय्यं मधुसूदन / वासांसि च महा णि पर्यास्तरणानि च। क्रियतामिति तत्कृष्गो नास्य चक्रे वचस्तदा // 11 पूजार्थं तत्र क्लुप्तानि विप्राणां सुखमिच्छताम्॥२३ ततो मन्युपरीतात्मा जगाम यदुनन्दनः / यत्र यः स्वपते विप्रः क्षत्रियो वापि भारत / तीर्थयात्रां हलधरः सरस्वत्यां महायशाः / तत्र तत्र तु तस्यैव सर्वं क्लृप्तम दृश्यत // 24 मैत्रे नक्षत्रयोगे स्म सहितः सर्वयादवैः // 12 यथासुखं जनः सर्वस्तिष्ठते याति वा तदा / आश्रयामास भोजस्तु दुर्योधनमरिंदमः / यातुकामस्य यानानि पानानि तृषितस्य च // 25 युयुधानेन सहितो वासुदेवस्तु पाण्डवान् // 13 बुभुक्षितस्य चान्नानि स्वादूनि भरतर्षभ / रौहिणेये गते शूरे पुष्येण मधुसूदनः / उपज नैरास्तत्र वस्त्राण्याभरणानि च // 26 पाण्डवेयान्पुरस्कृत्य ययावभिमुखः कुरून् / / 14 स पन्थाः प्रबभौ राजन्सर्वस्यैव सुखावहः / गच्छन्नेव पथिस्थस्तु रामः प्रेष्यानुवाच ह। स्वर्गोपमस्तदा वीर नराणां तत्र गच्छताम् // 27 संभारांस्तीर्थयात्रायां सर्वोपकरणानि च / नित्यप्रमुदितोपेतः स्वादुभक्षः शुभान्वितः / आनयध्वं द्वारकाया अग्नीन्वै याजकांस्तथा // 15 विपण्यापणपण्यानां नानाजनशतैर्वृतः / सुवर्ण रजतं चैव धेनूर्वासांसि वाजिनः / नानाद्रुमलतोपेतो नानारत्नविभूषितः // 28 कुञ्जरांश्च रथांश्चैव खरोष्ट्रं वाहनानि च / ततो महात्मा नियमे स्थितात्मा क्षिप्रमानीयतां सर्वं तीर्थहेतोः परिच्छदम् / / 16 / पुण्येषु तीर्थषु वसूनि राजन् / - 1872 - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 34. 29 ] शल्यपर्व [9. 34. 50 ददौ द्विजेभ्यः क्रतुदक्षिणाश्च जनमेजय उवाच / यदुप्रवीरो हलभृत्प्रतीतः // 29 किमर्थं भगवान्सोमो यक्ष्मणा समगृह्यत / दोग्ध्रीश्च धेनूश्च सहस्रशो वै कथं च तीर्थप्रवरे तस्मिंश्चन्द्रो न्यमज्जत // 38 सुवाससः काञ्चनबद्धशृङ्गीः / कथमाप्लुत्य तस्मिंस्तु पुनराप्यायितः शशी / हयांश्च नानाविधदेशजाता एतन्मे सर्वमाचक्ष्व विस्तरेण महामुने // 39 न्यानानि दासीश्च तथा द्विजेभ्यः // 30 वैशंपायन उवाच / रत्नानि मुक्तामणिविद्रुमं च दक्षस्य तनया यास्ताः प्रादुरासन्विशां पते / शृङ्गीसुवर्ण रजतं च शुभ्रम् / स सप्तविंशतिं कन्या दक्षः सोमाय वै ददौ // 40 अयस्मयं ताम्रमयं च भाण्डं नक्षत्रयोगनिरताः संख्यानार्थं च भारत / - ददौ द्विजातियवरेषु. रामः // 31 पल्यो वै तस्य राजेन्द्र सोमस्य शुभलक्षणाः // 41 एवं स वित्तं प्रददौ महात्मा तास्तु सर्वा विशालाक्ष्यो रूपेणाप्रतिमा भुवि / सरस्वतीतीर्थवरेषु भूरि / अत्यरिच्यत तासां तु रोहिणी रूपसंपदा // 42 ययौ क्रमेणाप्रतिमप्रभाव ततस्तस्यां स भगवान्प्रीतिं चक्रे निशाकरः / स्ततः कुरुक्षेत्रमुदारवृत्तः // 32 सास्य हृद्या बभूवाथ तस्मात्तां बुभुजे सदा॥ 43 . जनमेजय उवाच। पुरा हि सोमो राजेन्द्र रोहिण्यामवसच्चिरम् / अरस्वतानां तीर्थानां गुणोत्पत्ति वदस्व मे / ततोऽस्य कुपितान्यासन्नक्षत्राणि महात्मनः // 44 लं च द्विपदां श्रेष्ठ कर्मनिवृत्तिमेव च // 33 ता गत्वा पितरं प्राहुः प्रजापतिमतन्द्रिताः / स्वाक्रमं च भगवस्तीर्थानामनुपूर्वशः / सोमो वसति नास्मासु रोहिणी भजते सदा // 45 छन्ब्रह्मविदां श्रेष्ठ परं कौतूहलं हि मे // 34 / ता वयं सहिताः सर्वास्त्वत्सकाशे प्रजेश्वर / वैशंपायन उवाच / वत्स्यामो नियताहारास्तपश्चरणतत्पराः // 46 जीर्थानां विस्तरं राजन्गुणोत्पत्तिं च सर्वशः / श्रुत्वा तासां तु वचनं दक्षः सोममथाब्रवीत् / योच्यमानां शृणु वै पुण्या राजेन्द्र कृत्स्नशः॥३५ समं वर्तस्व भार्यासु मा त्वाधर्मो महान्स्पृशेत् // 47 पूर्व महाराज यदुप्रवीर ताश्च सर्वाब्रवीद्दक्षो गच्छध्वं सोममन्तिकात् / ऋत्विक्सुहृद्विप्रगणैश्च सार्धम् / समं वत्स्यति सर्वासु चन्द्रमा मम शासनात् // 48 पुण्यं प्रभासं समुपाजगाम विसृष्टास्तास्तदा जग्मुः शीतांशुभवनं तदा / -- यत्रोडुराड्यक्ष्मणा क्लिश्यमानः // 36 तथापि सोमो भगवान्पुनरेव महीपते / विमुक्तशापः पुनराप्य तेजः रोहिणी निवसत्येव प्रीयमाणो मुहुर्मुहुः // 49 सर्वं जगद्भासयते नरेन्द्र / ततस्ताः सहिताः सर्वा भूयः पितरमब्रुवन् / एवं तु तीर्थप्रवरं पृथिव्यां तव शुश्रूषणे युक्ता वत्स्यामो हि तवाश्रमे / प्रभासनात्तस्य ततः प्रभासः // 37 / सोमो वसति नास्मासु नाकरोद्वचनं तव // 50 अ. भा. 235 - 1873 - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 34. 51] महाभारते [9. 34.79 तासां तद्वचनं श्रुत्वा दक्षः सोममथाब्रवीत् / एवमुक्तस्तदा चिन्त्य प्राह वाक्यं प्रजापतिः / समं वर्तस्व भार्यासु मा त्वां शप्स्ये विरोचन॥५१ नैतच्छक्यं मम वचो व्यावर्तयितुमन्यथा / अनादृत्य तु तद्वाक्यं दक्षस्य भगवाञ्शशी / हेतुना तु महाभागा निवर्तिष्यति केनचित्॥६६ रोहिण्या सार्धमवसत्ततस्ताः कुपिताः पुनः // 52 समं वर्ततु सर्वासु शशी भार्यासु नित्यशः / गत्वा च पितरं प्राहुः प्रणम्य शिरसा तदा।। सरस्वत्या वरे तीर्थे उन्मज्जशशलक्षणः / सोमो वसति नास्मासु तस्मान्नः शरणं भव // 53 | पुनर्वर्धिष्यते देवास्तद्वै सत्यं वचो मम // 67 रोहिण्यामेव भगवन्सदा वसति चन्द्रमाः। मासाधं च क्षयं सोमो नित्यमेव गमिष्यति / तस्मान्नस्त्राहि सर्वा वै यथा नः सोम आविशेत्॥५४ मासाधं च सदा वृद्धि सत्यमेतद्वचो मम // 68 तच्छ्रुत्वा भगवान्क्रुद्धो यक्ष्माणं पृथिवीपते / सरस्वतीं ततः सोमो जगाम ऋषिशासनात् / ससर्ज रोषात्सोमाय स चोडुपतिमाविशत् // 55 प्रभासं परमं तीर्थं सरस्वत्या जगाम ह // 69 स यक्ष्मणाभिभूतात्माक्षीयताहरहः शशी / अमावास्यां महातेजास्तत्रोन्मजन्महाद्युतिः / यत्नं चाप्यकरोद्राजन्मोक्षार्थं तस्य यक्ष्मणः // 56 लोकान्प्रभासयामास शीतांशुत्वमवाप च // 70 इष्ट्वेष्टिभिर्महाराज विविधाभिर्निशाकरः / देवाश्च सर्वे राजेन्द्र प्रभासं प्राप्य पुष्कलम् / न चामुच्यत शापाद्वै क्षयं चैवाभ्यगच्छत // 57 सोमेन सहिता भूत्वा दक्षस्य प्रमुखेऽभवन् // 71 क्षीयमाणे ततः सोमे ओषध्यो न प्रजज्ञिरे।। ततः प्रजापतिः सर्वा विससर्जाथ देवताः / निरास्वादरसाः सर्वा हतवीर्याश्च सर्वशः // 58 सोमं च भगवान्प्रीतो भूयो वचनमब्रवीत् / / 72 ओषधीनां क्षये जाते प्राणिनामपि संक्षयः / मावसंस्थाः स्त्रियः पुत्र मा च विप्रान्कदाचन / कृशाश्चासन्प्रजाः सर्वाः क्षीयमाणे निशाकरे // 59 गच्छ युक्तः सदा भूत्वा कुरु वै शासनं मम // 73 ततो देवाः समागम्य सोममूचुर्महीपते। स विसृष्टो महाराज जगामाथ स्वमालयम् / किमिदं भवतो रूपमीदृशं न प्रकाशते // 60 प्रजाश्च मुदिता भूत्वा भोजने च यथा पुरा // 74 कारणं ब्रूहि नः सर्वं येनेदं ते महद्भयम् / एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा शप्तो निशाकरः / श्रुत्वा तु वचनं त्वत्तो विधास्यामस्ततो वयम् // 61 प्रभासं च यथा तीर्थ तीर्थानां प्रवरं ह्यभूत् // 75 एवमुक्तः प्रत्युवाच सर्वांस्ताञ्शशलक्षणः / अमावास्यां महाराज नित्यशः शशलक्षणः / शापं च कारणं चैव यक्ष्माणं च तथात्मनः // 62 स्नात्वा ह्याप्यायते श्रीमान्प्रभासे तीर्थ उत्तमे // 76 देवास्तस्य वचः श्रुत्वा गत्वा दक्षमथाब्रुवन् / अतश्चैनं प्रजानन्ति प्रभासमिति भूमिप / प्रसीद भगवन्सोमे शापश्चैष निवर्त्यताम् // 63 प्रभां हि परमां लेभे तस्मिन्नन्मज्य चन्द्रमाः // 77 असौ हि चन्द्रमाः क्षीणः किंचिच्छेषो हि लक्ष्यते / ततस्तु चमसोद्भेदमच्युतस्त्वगमली। क्षयाच्चैवास्य देवेश प्रजाश्चापि गताः क्षयम् // 64 चमसोद्भेद इत्येवं यं जनाः कथयन्त्युत // 78 वीरुदोषधयश्चैव बीजानि विविधानि च / तत्र दत्त्वा च दानानि विशिष्टानि हलायुधः / तथा वयं लोकगुरो प्रसादं कर्तुमर्हसि // 65 / उषित्वा रजनीमेकां स्नात्वा च विधिवत्तदा // 79 - 1874 - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 34. 80] शल्यपर्व [9. 35. 25 35 उदपानमथागच्छत्त्वरावान्केशवाप्रजः / जगाम भगवान्स्थानमनुरूपमिवात्मनः // 10 आयं स्वस्त्ययनं चैव तत्रावाप्य महत्फलम् / / 80 राजानस्तस्य ये पूर्वे याज्या ह्यासन्महात्मनः / स्निग्धत्वादोषधीनां च भूमेश्च जनमेजय / ते सर्वे स्वर्गते तस्मिंस्तस्य पुत्रानपूजयन् // 11 जानन्ति सिद्धा राजेन्द्र नष्टामपि सरस्वतीम् // 81 तेषां तु कर्मणा राजंस्तथैवाध्ययनेन च / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि त्रितः स श्रेष्ठतां प्राप यथैवास्य पिता तथा // 12 - चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // तं स्म सर्वे महाभागा मुनयः पुण्यलक्षणाः / अपूजयन्महाभागं तथा विद्वत्तयैव तु // 13 कदाचिद्धि ततो राजन्भ्रातरावेकतद्वितौ / वैशंपायन उवाच / यज्ञार्थ चक्रतुश्चित्तं धनार्थं च विशेषतः // 14 तस्मान्नदीगतं चापि उदपानं यशस्विनः / / तयोश्चिन्ता समभवत्रितं गृह्य परंतप / त्रितस्य च महाराज जगामाथ हलायुधः // 1 याज्यान्सर्वानुपादाय प्रतिगृह्य पशूस्ततः / / 15 तत्र दत्त्वा बहु द्रव्यं पूजयित्वा तथा द्विजान् / सोमं पास्यामहे हृष्टाः प्राप्य यज्ञं महाफलम् / उपस्पृश्य च तत्रैव प्रहृष्टो मुसलायुधः / / 2 चक्रुश्चैव महाराज भ्रातरस्त्रय एव ह // 16 तत्र धर्मपरो ह्यासीत्रितः स सुमहातपाः / तथा तु ते परिक्रम्य याज्यान्सर्वान्पशून्प्रति / कूपे च वसता तेन सोमः पीतो महात्मना // 3 याजयित्वा ततो याज्याल्लब्ध्वा च सुबहून्पशून् // 17 तत्र चैनं समुत्सृज्य भ्रातरौ जग्मतुर्ग्रहान् / याज्येन कर्मणा तेन प्रतिगृह्य विधानतः / ततस्तो वै शशापाथ त्रितो ब्राह्मणसत्तमः॥४ प्राची दिशं महात्मान आजग्मुस्ते महर्षयः // 18 __जनमेजय उवाच / त्रितस्तेषां महाराज पुरस्ताद्याति हृष्टवत् / उदपानं कथं ब्रह्मन्कथं च सुमहातपाः / एकतश्च द्वितश्चैव पृष्ठतः कालयन्पशून् // 19 पतितः किं च संत्यक्तो भ्रातृभ्यां द्विजसत्तमः // 5 तयोश्चिन्ता समभवदृष्ट्वा पशुगणं महत् / कूपे कथं च हित्वैनं भ्रातरौ जग्मतुर्ग्रहान्। कथं न स्युरिमा गाव आवाभ्यां वै विना त्रितम्॥२० एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन्यदि श्राव्यं हि मन्यसे / 6 तावन्योन्यं समाभाष्य एकतश्च द्वितश्च ह / वैशंपायन उवाच / यदूचतुर्मिथः पापौ तन्निबोध जनेश्वर // 21 आसन्पूर्वयुगे राजन्मुनयो भ्रातरस्त्रयः / त्रितो यज्ञेषु कुशलस्त्रितो वेदेषु निष्ठितः / एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चादित्यसंनिभाः // 7 अन्यास्त्रितो बहुतरा गावः समुपलप्स्यते // 22 सर्वे प्रजापतिसमाः प्रजावन्तस्तथैव च / तदावां सहितौ भूत्वा गाः प्रकाल्य व्रजावहे। ब्रह्मलोकजितः सर्वे तपसा ब्रह्मवादिनः // 8 त्रितोऽपि गच्छतां काममावाभ्यां वै विनाकृतः // तेषां तु तपसा प्रीतो नियमेन दमेन च / तेषामागच्छतां रात्रौ पथिस्थाने वृकोऽभवत् / अभवद्गौतमो नित्यं पिता धर्मरतः सदा // 9 तथा कूपोऽविदूरेऽभूत्सरस्वत्यास्तटे महान् // 24 स तु दीर्पण कालेन तेषां प्रीतिमवाप्य च / अथ त्रितो वृकं दृष्ट्वा पथि तिष्ठन्तमग्रतः / - 1875 - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 35. 25 ] महाभारते [9. 35.53 तद्भयादपसर्पन्वै तस्मिन्कूपे पपात ह / प्रययुस्तत्र यत्रासौ त्रितयज्ञः प्रवर्तते // 39 अगाधे सुमहाघोरे सर्वभूतभयंकरे // 25 ते तत्र गत्वा विबुधास्तं कूपं यत्र स त्रितः / त्रितस्ततो महाभागः कूपस्थी मुनिसत्तमः / ददृशुस्तं महात्मानं दीक्षितं यज्ञकर्मसु // 40 आर्तनादं ततश्चक्रे तौ तु शुश्रुवतुर्मुनी // 26 / दृष्ट्वा चैनं महात्मानं श्रिया परमया युतम् / तं ज्ञात्वा पतितं कूपे भ्रातरावेकतद्वितौ / ऊचुश्चाथ महाभागं प्राप्ता भागार्थिनो वयम् // 41 वृकत्रासाच्च लोभाच समुत्सृज्य प्रजग्मतुः / / 27 अथाब्रवीदृषिर्देवान्पश्यध्वं मां दिवौकसः / भ्रातृभ्यां पशुलुब्धाभ्यामुत्सृष्टः स महातपाः। अस्मिन्प्रतिभये कूपे निमग्नं नष्टचेतसम् // 42 उदपाने महाराज निर्जले पांसुसंवृते / / 28 ततस्त्रितो महाराज भागांस्तेषां यथाविधि / त्रित आत्मानमालक्ष्य कूपे वीरुत्तृणावृते / मत्रयुक्तान्समददात्ते च प्रीतास्तदाभवन् // 43 निमग्नं भरतश्रेष्ठ पापकृन्नरके यथा // 29 ततो यथाविधि प्राप्तान्भागान्प्राप्य दिवौकसः / बुद्ध्या ह्यगणयत्प्राज्ञो मृत्योर्भीतो ह्यसोमपः / प्रीतात्मानो ददुस्तस्मै वरान्यान्मनसेच्छति // 44 सोमः कथं नु पातव्य इहस्थेन मया भवेत् // 30 / स तु वने वरं देवांस्त्रातुमर्हथ मामितः / स एवमनुसंचिन्त्य तस्मिन्क्रपे महातपाः / / यश्चेहोपस्पृशेत्कूपे स सोमपगतिं लभेत् // 45 ददर्श वीरुधं तत्र लम्बमानां यदृच्छया // 31 तत्र चोर्मिमती राजन्नुत्पपात सरस्वती / पांसुग्रस्ते ततः कूपे विचिन्त्य सलिलं मुनिः।। तयोत्क्षिप्तस्त्रितस्तस्थौ पूजयंत्रिदिवौकसः // 46 अग्नीन्संकल्पयामास होत्रे चात्मानमेव च // 32 / तथेति चोक्त्वा विबुधा जग्मू राजन्यथागतम् / ततस्तां वीरुधं सोमं संकल्प्य सुमहातपाः। त्रितश्चाप्यगमत्प्रीतः स्वमेव निलयं तदा / / 47 ऋचो यजूंषि सामानि मनसा चिन्तयन्मुनिः।। क्रुद्धः स तु समासाद्य तावृषी भ्रातरौ तदा / प्रावाणः शर्कराः कृत्वा प्रचक्रेऽभिषवं नृप // 33 उवाच परुषं वाक्यं शशाप च महातपाः // 48 आज्यं च सलिलं चक्रे भागांश्च त्रिदिवौकसाम्। पशुलुब्धौ युवां यस्मान्मामुत्सृज्य प्रधावितौ / सोमस्याभिषवं कृत्वा चकार तुमुलं ध्वनिम् // 34 तस्माद्रूपेण तेषां वै दंष्ट्रिणामभितश्चरौ // 49 स चाविशदिवं राजन्स्वरः शैक्षत्रितस्य वै / भवितारौ मया शप्तौ पापेनानेन कर्मणा / समवाप च तं यज्ञं यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः // 35 / / प्रसवश्चैव युवयोर्गोलाकॅलक्षवानराः // 50 वर्तमाने तथा यज्ञे त्रितस्य सुमहात्मनः / इत्युक्ते तु तदा तेन क्षणादेव विशां पते / आविग्नं त्रिदिवं सर्व कारणं च न बुध्यते // 36 तथाभूतावदृश्येतां वचनात्सत्यवादिनः // 51 ततः सुतुमुलं शब्दं शुश्रावाथ बृहस्पतिः / तत्राप्यमितविक्रान्तः स्पृष्ट्वा तोयं हलायुधः / श्रुत्वा चैवाब्रवीद्देवान्सर्वान्देवपुरोहितः // 37 दत्त्वा च विविधान्दायान्पूजयित्वा च वै द्विजान॥ त्रितस्य वर्तते यज्ञस्तत्र गच्छामहे सुराः / उदपानं च तं दृष्ट्वा प्रशस्य च पुनः पुनः / स हि क्रुद्धः सृजेदन्यान्देवानपि महातपाः // 38 नदीगतमदीनात्मा प्राप्तो विनशनं तदा // 53 तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सहिताः सर्वदेवताः। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः // 35 // -1876 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 36. 1] शल्यपर्व [9. 36. 28 36 यत्र गर्गेण वृद्धेन तपसा भावितात्मना। वैशंपायन उवाच। कालज्ञानगतिश्चैव ज्योतिषां च व्यतिक्रमः // 15 ततो विनशनं राजन्नाजगाम हलायुधः / उत्पाता दारुणाश्चैव शुभाश्च जनमेजय / शूद्रामीरान्प्रति द्वेषाद्यत्र नष्टा सरस्वती // 1 सरस्वत्याः शुभे तीर्थे विहिता वै महात्मना / यस्मात्सा भरतश्रेष्ठ द्वेषान्नष्टा सरस्वती / तस्य नाम्ना च तत्तीथं गर्गस्रोत इति स्मृतम् // 16 तस्मात्तदृषयो नित्यं प्राहुर्विनशनेति ह // 2 तत्र गर्ग महाभागमृषयः सुव्रता नृप / तच्चाप्युपस्पृश्य बलः सरस्वत्यां महाबलः / उपासांचक्रिरे नित्यं कालज्ञानं प्रति प्रभो॥ 17 सुभूमिकं ततोऽगच्छत्सरस्वत्यास्तटे वरे // 3 . तत्र गत्वा महाराज बलः श्वेतानुलेपनः / तत्र चाप्सरसः शुभ्रा नित्यकालमतन्द्रिताः / विधिवद्धि धनं दत्त्वा मुनीनां भावितात्मनाम्॥१८ क्रीडाभिर्विमलाभिश्च क्रीडन्ति विमलाननाः // 4 उच्चावचांस्तथा भक्ष्यान्द्विजेभ्यो विप्रदाय सः / तत्र देवाः सगन्धर्वा मासि मासि जनेश्वर।। नीलवासास्ततोऽगच्छच्छङ्घतीर्थं महायशाः // 19 अभिगच्छन्ति तत्तीर्थं पुण्यं ब्राह्मणसेवितम् // 5 तत्रापश्यन्महाशङ्ख महामेरुमिवोच्छ्रितम् / तत्रादृश्यन्त गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः / श्वेतपर्वतसंकाशमृषिसंधैर्निषेवितम् / समेत्य सहिता राजन्यथाप्राप्तं यथासुखम् // 6 सरस्वत्यास्तटे जातं नगं तालध्वजो बली // 20 तत्र मोदन्ति देवाश्च पितरश्च सवीरुधः / यक्षा विद्याधराश्चैव राक्षसाश्वामितौजसः / पुण्यैः पुष्पैः सदा दिव्यैः कीर्यमाणाः पुनः पुनः॥७ पिशाचाश्वामितबला यत्र सिद्धाः सहस्रशः // 21 आक्रीडभूमिः सा राजस्तासामप्सरसां शुभा। ते सर्वे ह्यशनं त्यक्त्वा फलं तस्य वनस्पतेः / सुभूमिकेति विख्याता सरस्वत्यास्तटे वरे // 8 व्रतैश्च नियमैश्चैव काले काले स्म भुञ्जते // 22 तत्र स्नात्वा च दत्त्वा च वसु विप्रेषु माधवः / / प्राप्तैश्च नियमैस्तैस्तैर्विचरन्तः पृथक्पृथक् / श्रुत्वा गीतं च तदिव्यं वादित्राणां च निःस्वनम्॥९ अदृश्यमाना मनुजैर्व्यचरन्पुरुषर्षभ // 23 छायाश्च विपुला दृष्ट्वा देवगन्धर्वरक्षसाम् / एवं ख्यातो नरपते लोकेऽस्मिन्स वनस्पतिः / गन्धर्वाणां ततस्तीर्थमागच्छद्रोहिणीसुतः // 10 तत्र तीर्थं सरस्वत्याः पावनं लोकविश्रुतम् // 24 विश्वावसुमुखास्तत्र गन्धर्वास्तपसान्विताः / तस्मिंश्च यदुशार्दूलो दत्त्वा तीर्थे यशस्विनाम् / वृत्तवादित्रगीतं च कुर्वन्ति सुमनोरमम् // 11 ताम्रायसानि भाण्डानि वस्त्राणि विविधानि च // 25 तत्र दत्त्वा हलधरो विप्रेभ्यो विविधं वसु / पूजयित्वा द्विजांश्चैव पूजितश्च तपोधनैः / अजाविकं गोखरोष्ट्रं सुवर्ण रजतं तथा // 12 पुण्यं द्वैतवनं राजन्नाजगाम हलायुधः // 26 भोजयित्वा द्विजान्कामैः संतर्घ्य च महाधनैः / तत्र गत्वा मुनीन्दृष्ट्वा नानावेषधरान्बलः / प्रययौ सहितो विप्रैः स्तूयमानश्च माधवः // 13 आप्लुत्य सलिले चापि पूजयामास वै द्विजान्॥२७ तस्माद्गन्धर्वतीर्थाच्च महाबाहुररिंदमः। तथैव दत्त्वा विप्रेभ्यः परिभोगान्सुपुष्कलान् / गर्गस्रोतो महातीर्थमाजगामैककुण्डली // 14 / / ततः प्रायाद्बलो राजन्दक्षिणेन सरस्वतीम् // 28 - 1877 - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 36. 29 ] महाभारते [9. 36.55 गत्वा चैव महाबाहुर्नातिदूरं महायशाः / ऋषीणां बहुलत्वात्तु सरस्वत्या विशां पते / धर्मात्मा नागधन्वानं तीर्थमागमदच्युतः // 29 तीर्थानि नगरायन्ते कूले वै दक्षिणे तदा // 41 यत्र पन्नगराजस्य वासुकेः संनिवेशनम् / समन्तपञ्चकं यावत्तावत्ते द्विजसत्तमाः / महायुतेर्महाराज बहुमिः पन्नगैर्वृतम् / तीर्थलोभाग्नरव्याघ्र नद्यास्तीरं समाश्रिताः // 42 यत्रासन्नृषयः सिद्धाः सहस्राणि चतुर्दश // 30 जुह्वतां तत्र तेषां तु मुनीनां भावितात्मनाम् / यत्र देवाः समागम्य वासुकिं पन्नगोत्तमम् / स्वाध्यायेनापि महता बभूवुः पूरिता दिशः // 43 सर्वपन्नगराजानमभ्यषिश्चन्यथाविधि / अग्निहोत्रैस्ततस्तेषां हूयमानैर्महात्मनाम् / पन्नगेभ्यो भयं तत्र विद्यते न स्म कौरव // 31 अशोभत सरिच्छेष्ठा दीप्यमानैः समन्ततः // 44 तत्रापि विधिवदत्त्वा विप्रेभ्यो रत्नसंचयान् / / वालखिल्या महाराज अइमकटाश्च तापसाः। प्रायात्प्राची दिशं राजन्दीप्यमानः स्वतेजसा / / 32 दन्तोलूखलिनश्चान्ये संप्रक्षालास्तथापरे // 45 आप्लुत्य बहुशो हृष्टस्तेषु तीर्थेषु लागली / वायुभक्षा जलाहाराः पर्णभक्षाश्च तापसाः / दत्त्वा वसु द्विजातिभ्यो जगामाति तपस्विनः // 33 | नानानियमयुक्ताश्च तथा स्थण्डिलशायिनः // 46 तत्रस्थानृषिसंघांस्तानभिवाद्य हलायुधः / आसन्वै मुनयस्तत्र सरस्वत्याः समीपतः / ततो रामोऽगमत्तीर्थमृषिभिः सेवितं महत् // 34 शोभयन्तः सरच्छेष्ठां गङ्गामिव दिवौकसः // 40 यत्र भूयो निववृते प्राङ्मुखा वै सरस्वती / ततः पश्चात्समापेतुर्ऋषयः सत्रयाजिनः / ऋषीणां नैमिषेयाणामवेक्षार्थ महात्मनाम् // 35 तेऽवकाशं न ददृशुः कुरुक्षेत्रे महाव्रताः // 48 निवृत्तां तां सरिच्छ्रेष्ठां तत्र दृष्ट्वा तु लागली / ततो यज्ञोपवीतैस्ते तत्तीर्थ निर्मिमाय वै / बभूव विस्मितो राजन्बलः श्वेतानुलेपनः // 36 जुहुवुश्चाग्निहोत्राणि चक्रुश्च विविधाः क्रियाः // 49 जनमेजय उवाच / ततस्तमृषिसंघातं निराशं चिन्तयान्वितम् / कस्मात्सरस्वती ब्रह्मन्निवृत्ता प्राङ्मुखी ततः / दर्शयामास राजेन्द्र तेषामर्थे सरस्वती // 50 व्याख्यातुमेतदिच्छामि सर्वमध्वर्युसत्तम // 37 ततः कुञ्जान्बहून्कृत्वा संनिवृत्ता सरिद्वरा / कस्मिंश्च कारणे तत्र विस्मितो यदुनन्दनः / / ऋषीणां पुण्यतपसां कारुण्याजनमेजय // 51 विनिवृत्ता सरिच्छेष्ठा कथमेतद्विजोत्तम // 38 ततो निवृत्य राजेन्द्र तेषामर्थे सरस्वती / वैशंपायन उवाच / भूयः प्रतीच्यभिमुखी सुस्राव सरितां वरा // 52 पूर्व कृतयुगे राजन्नैमिषेयास्तपस्विनः / अमोघा गमनं कृत्वा तेषां भूयो व्रजाम्यहम् / वर्तमाने सुबहुले सत्रे द्वादशवार्षिके / इत्यद्भुतं महच्चक्रे ततो राजन्महानदी // 53 ऋषयो बहवो राजंस्तत्र संप्रतिपेदिरे // 39 एवं स कुञ्जो राजेन्द्र नैमिषेय इति स्मृतः / उषित्वा च महाभागास्तस्मिन्सत्रे यथाविधि / कुरुक्षेत्रे कुरुश्रेष्ठ कुरुष्व महतीः क्रियाः // 54 निवृत्ते नैमिषेये वै सत्रे द्वादशवार्षिके / तत्र कुञ्जान्बहून्दृष्ट्वा संनिवृत्तां च तां नदीम् / आजग्मुर्ऋषयस्तत्र बहवस्तीर्थकारणात् // 40 बभूव विस्मयस्तत्र रामस्याथ महात्मनः // 55 - 1878 - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 36. 56] शल्यपर्व [9. 37. 17 उपस्पृश्य तु तत्रापि विधिवद्यदुनन्दनः / सरस्वती ओघवती सुवेणुर्विमलोदका // 4 दत्त्वा दायान्द्विजातिभ्यो भाण्डानि विविधानि च / पितामहस्य महतो वर्तमाने महीतले / भक्ष्यं पेयं च विविधं ब्राह्मणान्प्रत्यपादयत् / / 56 वितते यज्ञवाटे वै समेतेषु द्विजातिषु / / 5 ततः प्रायाद्बलो राजन्पूज्यमानो द्विजातिभिः / पुण्याहघोषैर्विमलैर्वेदानां निनदैस्तथा / सरस्वतीतीर्थवरं नानाद्विजगणायुतम् / / 57 देवेषु चैव व्यग्रेषु तस्मिन्यज्ञविधौ तदा // 6 पदरेमुदकाश्मयप्लक्षाश्वत्थविभीतकैः / तत्र चैव महाराज दीक्षिते प्रपितामहे / पनसैश्च पलाशैश्च करीरैः पीलुभिस्तथा // 58 यजतस्तत्र सत्रेण सर्वकामसमृद्धिना // 7 सरस्वतीतीररुहेर्बन्धनैः स्यन्दनैस्तथा / मनसा चिन्तिता ह्या धर्मार्थकुशलैस्तदा / परूषकवनैश्चैव बिल्वैरानातकैस्तथा // 59 उपतिष्ठन्ति राजेन्द्र द्विजातींस्तत्र तत्र ह // 8 अतिमुक्तकषण्डैश्च पारिजातैश्च शोभितम् / जगुश्च तत्र गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः। कदलीवनभूयिष्ठमिष्टं कान्तं मनोरमम् // 60 वादित्राणि च दिव्यानि वादयामासुरञ्जसा // 9 वाय्वम्बुफलपर्णादैर्दन्तोलूखलिकैरपि / तस्य यज्ञस्य संपत्त्या तुतुषुर्देवता अपि / तथाश्मकुट्टैर्वानेसुनिभिर्बहुभिर्वृतम् // 61 / / विस्मयं परमं जग्मुः किमु मानुषयोनयः // 10 स्वाध्यायघोषसंघुष्टं मृगयूथशताकुलम् / वर्तमाने तथा यज्ञे पुष्करस्थे पितामहे / अहिंधर्मपरमैनुभिरत्यन्तसेवितम् // 62 अब्रुवन्नषयो राजन्नायं यज्ञो महाफलः / सप्तसारस्वतं तीर्थमाजगाम हलायुधः / न दृश्यते सरिच्छेष्ठा यस्मादिह सरस्वती // 11 यत्र मङ्कणकः सिद्धस्तपस्तेपे महामुनिः // 63 तच्छ्रुत्वा भगवान्प्रीतः सस्माराथ सरस्वतीम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि पितामहेन यजता आहूता पुष्करेषु वै / षत्रिंशोऽध्यायः // 36 // सुप्रभा नाम राजेन्द्र नाम्ना तत्र सरस्वती // 12 तां दृष्ट्वा मुनयस्तुष्टा वेगयुक्तां सरस्वतीम् / पितामहं मानयन्ती ऋतुं ते बहु मेनिरे // 13 जनमेजय उवाच। एवमेषा सरिच्छ्रेष्ठा पुष्करेषु सरस्वती / सप्तसारस्वतं कस्मात्कश्च मङ्कणको मुनिः / पितामहार्थं संभूता तुष्ट्यर्थं च मनीषिणाम् // 14 कथं सिद्धश्च भगवान्कश्चास्य नियमोऽभवत् / / 1 नैमिषे मुनयो राजन्समागम्य समासते / कस्य वंशे समुत्पन्नः किं चाधीतं द्विजोत्तम / तत्र चित्राः कथा ह्यासन्वेदं प्रति जनेश्वर // 15 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विधिवहिजसत्तम // 2 तत्र ते मुनयो ह्यासन्नानास्वाध्यायवेदिनः / वैशंपायन उवाच ते समागम्य मुनयः सस्मरुधैं सरस्वतीम् // 16 राजन्सप्त सरस्वत्यो याभिाप्तमिदं जगत् / सा तु ध्याता महाराज ऋषिभिः सत्रयाजिभिः / पाहूता बलवद्भिर्हि तत्र तत्र सरस्वती // 3 समागतानां राजेन्द्र सहायार्थ महात्मनाम् / सुप्रभा काश्चनाक्षी च विशाला मानसहदा / आजगाम महाभागा तत्र पुण्या सरस्वती // 17 - 1879 - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 37. 18] महाभारते [9. 37. 42 नैमिषे काञ्चनाक्षी तु मुनीनां सत्रयाजिनाम् / तद्रेतः स तु जग्राह कलशे वै महातपाः। आगता सरितां श्रेष्ठा तत्र भारत पूजिता // 18 सप्तधा प्रविभागं तु कलशस्थं जगाम ह। गयस्य यजमानस्य गयेष्वेव महाक्रतुम् / तवर्षयः सप्त जाता जज्ञिरे मरुतां गणाः // 31 आहूता सरितां श्रेष्ठा गययज्ञे सरस्वती // 19 वायुवेगो वायुबलो वायुहा वायुमण्डलः / विशालां तु गयेष्वाहुर्ऋषयः संशितव्रताः / वायुज्वालो वायुरेता वायुचक्रश्च वीर्यवान् / सरित्सा हिमवत्पार्धात्प्रसूता शीघ्रगामिनी // 20 एवमेते समुत्पन्ना मरुतां जनयिष्णवः // 32 औद्दालकेस्तथा यज्ञे यजतस्तत्र भारत / इदमन्यच्च राजेन्द्र शृण्वाश्चर्यतरं भुवि / समेते सर्वतः स्फीते मुनीनां मण्डले तदा // 21 महर्षेश्चरितं यादृक्त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् // 33 उत्तरे कोसलाभागे पुण्ये राजन्महात्मनः / पुरा मङ्कणकः सिद्धः कुशाग्रेणेति नः श्रुतम् / औद्दालकेन यजता पूर्व ध्याता सरस्वती // 22 / क्षतः किल करे राजस्तस्य शाकरसोऽस्रवत् / आजगाम सरिच्छ्रेष्ठा तं देशमृषिकारणात् / स वै शाकरसं दृष्ट्वा हर्षाविष्टः प्रनृत्तवान् // 34 पूज्यमाना मुनिगणैर्वल्कलाजिनसंवृतैः / ततस्तस्मिन्प्रनृत्ते वै स्थावरं जङ्गमं च यत् / मनोह्रदेति विख्याता सा हि तैर्मनसा हृता // 23 प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम् // 35 सुवेणुर्ऋषभद्वीपे पुण्ये राजर्षिसेविते / ब्रह्मादिभिः सुरै राजन्नृषिभिश्च तपोधनैः / कुरोश्च यजमानस्य कुरुक्षेत्रे महात्मनः / विज्ञप्तो वै महादेव ऋषेरर्थे नराधिप। . आजगाम महाभागा सरिच्छ्रेष्ठा सरस्वती // 24 नायं नृत्येद्यथा देव तथा त्वं कर्तुमर्हसि // 36 ओघवत्यपि राजेन्द्र वसिष्ठेन महात्मना / ततो देवो मुनि दृष्ट्वा हर्षा विष्टमतीव ह / समाहूता कुरुक्षेत्रे दिव्यतोया सरस्वती // 25 / सुराणां हितकामार्थं महादेवोऽभ्यभाषत // 37 दक्षेण यजता चापि गङ्गाद्वारे सरस्वती / भो भो ब्राह्मण धर्मज्ञ किमर्थं नरिनति वै / विमलोदा भगवती ब्रह्मणा यजता पुनः। हर्षस्थानं किमर्थं वै तवेदं मुनिसत्तम / / समाहूता ययौ तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ // 26 तपस्विनो धर्मपथे स्थितस्य द्विजसत्तम / / 38 एकीभूतास्ततस्तास्तु तस्मिंस्तीर्थे समागताः / . ऋषिरुवाच / सप्तसारस्वतं तीर्थं ततस्तत्प्रथितं भुवि // 27 किं न पश्यसि मे ब्रह्मन्कराच्छाकरसं स्रुतम् / इति सप्त सरस्वत्यो नामतः परिकीर्तिताः / यं दृष्ट्वा वै प्रनृत्तोऽहं हर्षेण महता विभो // 39 सप्तसारस्वतं चैव तीर्थं पुण्यं तथा स्मृतम् // 28 तं प्रहस्याब्रवीद्देवो मुनिं रागेण मोहितम् / शृणु मङ्कणकस्यापि कौमारब्रह्मचारिणः / अहं न विस्मयं विप्र गच्छामीति प्रपश्य माम् // 40 आपगामवगाढस्य राजन्प्रक्रीडितं महत् / / 29 / एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं महादेवेन धीमता। दृष्ट्वा यदृच्छया तत्र स्त्रियमम्भसि भारत। अमुल्यप्रेण राजेन्द्र स्वाङ्गुष्ठस्ताडितोऽभवत् // 41 स्नायन्तीं रुचिरापाङ्गी दिग्वाससमनिन्दिताम् / ततो भस्म क्षताद्राजन्निर्गतं हिमसंनिभम् / सरस्वत्यां महाराज चस्कन्दे वीर्यमम्भसि // 30 / तदृष्ट्वा वीडितो राजन्स मुनिः पादयोर्गतः // 42 - 1880 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 37. 43] शल्यपर्व [9. 38. 16 ऋषिरुवाच / तत औशनसं तीर्थमाजगाम हलायुधः / नान्यं देवादहं मन्ये रुद्रात्परतरं महत् / कपालमोचनं नाम यत्र मुक्तो महामुनिः // 4 सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृक् // 43 महता शिरसा राजन्प्रस्तजङ्घो महोदरः / त्वया सृष्टमिदं विश्वं वदन्तीह मनीषिणः / राक्षसस्य महाराज रामक्षिप्तस्य वै पुरा // 5 त्वामेव सर्व विशति पुनरेव युगक्षये // 44 तत्र पूर्व तपस्तप्तं काव्येन सुमहात्मना / देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया। यत्रास्य नीतिरखिला प्रादुर्भूता महात्मनः / त्वयि सर्वे स्म दृश्यन्ते सुरा ब्रह्मादयोऽनघ // 45 तत्रस्थश्चिन्तयामास दैत्यदानवविग्रहम् // 6 सर्वस्त्वमसि देवानां कर्ता कारयिता च ह / तत्प्राप्य च बलो राजस्तीर्थप्रवरमुत्तमम् / त्वत्प्रसादात्सुराः सर्वे मोदन्तीहाकुतोभयाः // 46 विधिवद्धि ददौ वित्तं ब्राह्मणानां महात्मनाम् // 7 एवं स्तुत्वा महादेवं स ऋषिः प्रणतोऽब्रवीत् / जनमेजय उवाच / भगवंस्त्वत्प्रसादाद्वै तपो मे न क्षरेदिति // 47 कपालमोचनं ब्रह्मन्कथं यत्र महामुनिः / ततो देवः प्रीतमनास्तमृषि पुनरब्रवीत् / मुक्तः कथं चास्य शिरो लग्नं केन च हेतुना // 8 तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात्सहस्रधा / वैशंपायन उवाच / आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया सार्धमहं सदा // 48 सप्तसारस्वते चास्मिन्यो मामर्चिष्यते नरः / पुरा वै दण्डकारण्ये राघवेण महात्मना। त तस्य दुर्लभं किंचिद्भवितेह परत्र च / वसता राजशार्दूल राक्षसास्तत्र हिंसिताः // 9 सारस्वतं च लोकं ते गमिष्यन्ति न संशयः // 49 जनस्थाने शिरश्छिन्नं राक्षसस्य दुरात्मनः / एतन्मङ्कणकस्यापि चरितं भूरितेजसः / क्षुरेण शितधारेण तत्पपात महावने // 10 स हि पुत्रः सजन्यायामुत्पन्नो मातरिश्वना // 50 महोदरस्य तल्लग्नं जङ्घायां वै यदृच्छया। वने विचरतो राजन्नस्थि भित्त्वास्फुरत्तदा // 11 * इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि स तेन लग्नेन तदा द्विजातिर्न शशाक ह / सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // अभिगन्तुं महाप्राज्ञस्तीर्थान्यायतनानि च // 12 स पूतिना विस्रवता वेदना” महामुनिः / वैशंपायन उवाच / जगाम सर्वतीर्थानि पृथिव्यामिति नः श्रुतम् // 13 उषित्वा तत्र रामस्तु संपूज्याश्रमवासिनः। स गत्वा सरितः सर्वाः समुद्रांश्च महातपाः / तथा मङ्कणके प्रीतिं शुभां चक्रे हलायुधः // 1 कथयामास तत्सर्वमृषीणां भावितात्मनाम् // 14 दत्त्वा दानं द्विजातिभ्यो रजनी तामुपोष्य च। आप्लुतः सर्वतीर्थेषु न च मोक्षमवाप्तवान् / पूजितो मुनिसंघैश्च प्रातरुत्थाय लागली // 2 स तु शुश्राव विप्रेन्द्रो मुनीनां वचनं महत् // 15 अनुज्ञाप्य मुनीन्सर्वान्स्पृष्ट्वा तोयं च भारत। सरस्वत्यास्तीर्थवरं ख्यातमौशनसं तदा / प्रययौ त्वरितो रामस्तीर्थहेतोर्महाबलः // 3 / सर्वपापप्रशमनं सिद्धक्षेत्रमनुत्तमम् // 16 म. भा. 236 - 1881 - 38 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 38. 17 ] महाभारते [9. 39.9 स तु गत्वा ततस्तत्र तीर्थमौशनसं द्विजः / ससर्ज यत्र भगवाल्लोकालोकपितामहः / तत औशनसे तीर्थे तस्योपस्पृशतस्तदा / यत्राष्टिषेणः कौरव्य ब्राह्मण्यं संशितव्रतः / तच्छिरश्चरणं मुक्त्वा पपातान्तर्जले तदा // 17 तपसा महता राजन्प्राप्तवानृषिसत्तमः // 31 ततः स विरुजो राजपूतात्मा वीतकल्मषः। सिन्धुद्वीपश्च राजर्षिर्देवापिश्च महातपाः / आजगामाश्रमं प्रीतः कृतकृत्यो महोदरः // 18 / ब्राह्मण्यं लब्धवान्यत्र विश्वामित्रो महामुनिः / सोऽथ गत्वाश्रमं पुण्यं विप्रमुक्तो महातपाः / / महातपस्वी भगवानुमतेजा महातपाः // 32 / कथयामास तत्सर्वमृषीणां भावितात्मनाम् // 19 तत्राजगाम बलवान्बलभद्रः प्रतापवान् // 33 . ते श्रुत्वा वचनं तस्य ततस्तीर्थस्य मानद / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि कपालमोचनमिति नाम चक्रुः समागताः // 20 अष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ तत्र दत्त्वा बहून्दायान्विप्रान्संपूज्य माधवः / जगाम वृष्णिप्रवरो रुषङ्गोराश्रमं तदा // 21 यत्र तप्तं तपो घोरमार्टिषेणेन भारत / जनमेजय उवाच / ब्राह्मण्यं लब्धवांस्तत्र विश्वामित्रो महामुनिः // 22 कथमार्टिषेणो भगवान्विपुलं तप्तवास्तपः / ततो हलधरः श्रीमान्ब्राह्मणैः परिवारितः / सिन्धुद्वीपः कथं चापि ब्राह्मण्यं लब्धवांस्तदा // 1 जगाम यत्र राजेन्द्र रुषगुस्तनुमत्यजत् // 23 देवापिश्च कथं ब्रह्मन्विश्वामित्रश्च सत्तम।। रुषङ्गाह्मणो वृद्धस्तपोनित्यश्च भारत / तन्ममाचक्ष्व भगवन्परं कौतूहलं हि मे // 2 देहन्यासे कृतमना विचिन्त्य बहुधा बहु // 24 वैशंपायन उवाच / ततः सर्वानुपादाय तनयान्वै महातपाः / पुरा कृतयुगे राजन्नाष्टिषेणो द्विजोत्तमः / रुषङ्गुरब्रवीत्तत्र नयध्वं मा पृथूदकम् / / 25 / वसन्गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः // 3 विज्ञायातीतवयसं रुषङ्गु ते तपोधनाः / तस्य राजन्गुरुकुले वसतो नित्यमेव ह / तं वै तीर्थमुपानिन्युः सरस्वत्यास्तपोधनम् // 26 समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशां पते // 4 स तैः पुत्रैस्तदा धीमानानीतो वै सरस्वतीम् / स निर्विण्णस्ततो राजस्तपरतेपे महातपाः / पुण्यां तीर्थशतोपेतां विप्रसंधैर्निषेविताम् // 27 ततो वै तपसा तेन प्राप्य वेदाननुत्तमान् // 5 स तत्र विधिना राजन्नाप्लुतः सुमहातपाः। स विद्वान्वेदयुक्तश्च सिद्धश्चाप्यषिसत्तमः / ज्ञात्वा तीर्थगुणांश्चैव प्राहेदमृषिसत्तमः / तत्र तीर्थे वरान्प्रादात्रीनेव सुमहातपाः // 6 . सुप्रीतः पुरुषव्याघ्र सर्वान्पुत्रानुपासतः // 28 अस्मिस्तीर्थे महानद्या अद्यप्रभृति मानवः / सरस्वत्युत्तरे तीरे यस्त्यजेदात्मनस्तनुम् / आप्लुतो वाजिमेधस्य फलं प्राप्नोति पुष्कलम् // 7 पृथूदके जप्यपरो नैनं श्वोमरणं तपेत् // 29 अद्यप्रभृति नैवात्र भयं व्यालाद्भविष्यति / तत्राप्लुत्य स धर्मात्मा उपस्पृश्य हलायुधः / अपि चाल्पेन यत्नेन फलं प्राप्स्यति पुष्कलम्॥८ दत्त्वा चैव बहून्दायान्विप्राणां विप्रवत्सलः // 30 / एवमुक्त्वा महातेजा जगाम त्रिदिवं मुनिः / - 1882 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 39. 9] शल्यपर्व [9. 40. 4 एवं सिद्धः स भगवानाष्टिषेणः प्रतापवान् // 9 जलाहारो वायुभक्षः पर्णाहारश्च सोऽभवत् / तस्मिन्नेव तदा तीर्थे सिन्धुद्वीपः प्रतापवान् / तथा स्थण्डिलशायी च ये चान्ये नियमाः पृथक्॥२४ देवापिश्च महाराज ब्राह्मण्यं प्रापतुर्महत् // 10 असकृत्तस्य देवास्तु व्रतविघ्नं प्रचक्रिरे / तथा च कौशिकस्तात तपोनित्यो जितेन्द्रियः / न चास्य नियमाद्बुद्धिरपयाति महात्मनः // 25 तपसा वै सुतप्तेन ब्राह्मणत्वमवाप्तवान् // 11 ततः परेण यत्नेन तप्त्वा बहुविधं तपः / गाधिर्नाम महानासीत्क्षत्रियः प्रथितो भुवि / तेजसा भास्कराकारो गाधिजः समपद्यत // 26 तस्य पुत्रोऽभवद्राजन्विश्वामित्रः प्रतापवान् // 12 तपसा तु तथा युक्तं विश्वामित्रं पितामहः / स राजा कौशिकस्तात महायोग्यभवत्किल / अमन्यत महातेजा वरदो वरमस्य तत् // 27 स पुत्रमभिषिच्याथ विश्वामित्रं महातपाः // 13 स तु वने वरं राजन्स्यामहं ब्राह्मणस्त्विति / इन्यासे मनश्चक्रे तमूचुः प्रणताः प्रजाः / तथेति चाब्रवीद्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः / / 28 न गन्तव्यं महाप्राज्ञ त्राहि चास्मान्महाभयात्॥१४ / स लब्ध्वा तपसोग्रेण ब्राह्मणत्वं महायशाः / एवमुक्तः प्रत्युवाच ततो गाधिः प्रजास्तदा। विचचार महीं कृत्स्नां कृतकामः सुरोपमः // 29 विश्वस्य जगतो गोप्ता भविष्यति सुतो मम // 15 तस्मिंस्तीर्थवरे रामः प्रदाय विविधं वसु / इत्युक्त्वा तु ततो गाधिविश्वामित्रं निवेश्य च। / पयस्विनीस्तथा धेनूर्यानानि शयनानि च // 30 जगाम त्रिदिवं राजन्विश्वामित्रोऽभवन्नृपः। तथा वस्त्राण्यलंकारं भक्ष्यं पेयं च शोभनम् / न च शक्नोति पृथिवीं यत्नवानपि रक्षितुम् / / 16 अददान्मुदितो राजन्पूजयित्वा द्विजोत्तमान् / / 31 खतः शुश्राव राजा स राक्षसेभ्यो महाभयम् / / ययौ राजंस्ततो रामो बकस्याश्रममन्तिकात् / निर्ययौ नगराचापि चतुरङ्गबलान्वितः // 17 / यत्र तेपे तपस्तीव्र दाल्भ्यो बक इति श्रुतिः // 32 स गत्वा दूरमध्वानं वसिष्ठाश्रममभ्ययात् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तस्य ते सैनिका राजंश्चक्रुस्तत्रानयान्बहून् // 18 एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥ ततस्तु भगवान्विप्रो वसिष्ठोऽऽश्रममभ्ययात् / ददृशे च ततः सर्वं भज्यमानं महावनम् // 19 वैशंपायन उवाच। तस्य क्रुद्धो महाराज वसिष्ठो मुनिसत्तमः / ब्रह्मयोनिभिराकीर्णं जगाम यदुनन्दनः / खजस्व शबरान्घोरानिति स्वां गामुवाच ह // 20 यत्र दाल्भ्यो बको राजन्पश्वर्थं सुमहातपाः / तथोक्ता सासृजद्धेनुः पुरुषान्धोरदर्शनान् / जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं वैचित्रवीर्यणः // 1 ते च तद्बलमासाद्य बभञ्जः सर्वतोदिशम् // 21 तपसा घोररूपेण कर्शयन्देहमात्मनः / तदृष्ट्वा विद्रुतं सैन्यं विश्वामित्रस्तु गाधिजः। क्रोधेन महताविष्टो धर्मात्मा वै प्रतापवान् // 2 तपः परं मन्यमानस्तपस्येव मनो दधे // 22 पुरा हि नैमिषेयाणां सत्रे द्वादशवार्षिके / सोऽस्मिस्तीर्थवरे राजन्सरस्वत्याः समाहितः / वृत्ते विश्वजितोऽन्ते वै पाञ्चालानृषयोऽगमन् // 3 नियमैश्वोपवासैश्च कर्शयन्देहमात्मनः // 23 / तत्रेश्वरमयाचन्त दक्षिणार्थं मनीषिणः / - 1883 - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 40. 4] महाभारते [9. 40. 32 बलान्वितान्वत्सतरान्निाधीनेकविंशतिम् // 4 तेन ते हूयमानस्य राष्ट्रस्यास्य क्षयो महान् / तानब्रवीद्वको वृद्धो विभजध्वं पशुनिति / तस्यैतत्तपसः कर्म येन ते ह्यनयो महान् / पशूनेतानहं त्यक्त्वा भिक्षिष्ये राजसत्तमम् // 5 अपां कुञ्ज सरस्वत्यास्तं प्रसादय पार्थिव // 19 एवमुक्त्वा ततो राजन्नृषीन्सर्वान्प्रतापवान् / सरस्वतीं ततो गत्वा स राजा बकमब्रवीत् / जगाम धृतराष्ट्रस्य भवनं ब्राह्मणोत्तमः // 6 निपत्य शिरसा भूमौ प्राञ्जलिर्भरतर्षभ // 20 स समीपगतो भूत्वा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् / / प्रसादये त्वा भगवन्नपराधं क्षमस्व मे। अयाचत पशून्दाल्भ्यः स चैनं रुषितोऽब्रवीत् // 7 मम दीनस्य लुब्धस्य मौर्येण हतचेतसः / यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तम / त्वं गतिस्त्वं च मे नाथः प्रसादं कर्तुमर्हसि // 21 एतान्पशून्नय क्षिप्रं ब्रह्मबन्धो यदीच्छसि // 8 तं तथा विलपन्तं तु शोकोपहतचेतसम्। ऋषिस्त्वथ वचः श्रुत्वा चिन्तयामास धर्मवित् / दृष्ट्वा तस्य कृपा जज्ञे राष्ट्रं तच्च व्यमोचयत् // 22 अहो बत नृशंसं वै वाक्यमुक्तोऽस्मि संसदि // 9 ऋषिः प्रसन्नस्तस्याभूत्संरम्भं च विहाय सः। चिन्तयित्वा मुहूर्तं च रोषाविष्टो द्विजोत्तमः / मोक्षार्थं तस्य राष्ट्रस्य जुहाव पुनराहुतिम् // 23 मति चक्रे विनाशाय धृतराष्ट्रस्य भूपतेः // 10 मोक्षयित्वा ततो राष्ट्र प्रतिगृह्य पशून्बहून् / स उत्कृत्य मृतानां वै मांसानि द्विजसत्तमः / हृष्टात्मा नैमिषारण्यं जगाम पुनरेव ह // 24 जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्र नरपतेः पुरा // 11 धृतराष्ट्रोऽपि धर्मात्मा स्वस्थचेता महामनाः / अवकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम् / स्वमेव नगरं राजा प्रतिपेदे महर्द्धिमत् // 25 बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमास्थितः / तत्र तीर्थे महाराज बृहस्पतिरुदारधीः / स तैरेव जुहावास्य राष्ट्र मांसैर्महातपाः // 12 असुराणामभावाय भावाय च दिवौकसाम् // 26 तस्मिंस्तु विधिवत्सत्रे संप्रवृत्ते सुदारुणे। मांसैरपि जुहावेष्टिमक्षीयन्त ततोऽसुराः / अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव // 13 / दैवतैरपि संभग्ना जितकाशिभिराहवे // 27 छिद्यमानं यथानन्तं वनं परशुना विभो। तत्रापि विधिवद्दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यो महायशाः / बभूवापहतं तच्चाप्यवकीर्णमचेतनम् // 14 वाजिनः कुञ्जरांश्चैव रथांश्चाश्वतरीयुतान् // 28 दृष्ट्वा तदवकीर्णं तु राष्ट्रं स मनुजाधिपः / रत्नानि च महार्हाणि धनं धान्यं च पुष्कलम् / बभूव दुर्मना राजंश्चिन्तयामास च प्रभुः // 15 ययौ तीर्थं महाबाहुर्यायातं पृथिवीपते // 29 मोक्षार्थमकरोद्यत्नं ब्राह्मणैः सहितः पुरा / यत्र यज्ञे ययातेस्तु महाराज सरस्वती / अथासौ पार्थिवः खिन्नस्ते च विप्रास्तदा नृप // 16 सर्पिः पयश्च सुस्राव नाहुषस्य महात्मनः / / 30 यदा चापि न शक्नोति राष्ट्रं मोचयितुं नृप। तत्रेष्ट्वा पुरुषव्याघ्रो ययातिः पृथिवीपतिः / अथ वैप्राश्निकांस्तत्र पप्रच्छ जनमेजय // 17 आक्रामदूचं मुदितो लेभे लोकांश्च पुष्कलान् // 31 ततो वैप्राश्निकाः प्राहुः पशुविप्रकृतस्त्वया / / ययातेर्यजमानस्य यत्र राजन्सरस्वती / मांसैरभिजुहोतीति तव राष्ट्र मुनिर्बकः // 18 / प्रसृता प्रददौ कामान्ब्राह्मणानां महात्मनाम् // 32 - 1884 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 40. 33] शल्यपर्व [9. 41. 22 यत्र यत्र हि यो विप्रो यान्यान्कामानभीप्सति / विश्वामित्रवसिष्ठौ तावहन्यहनि भारत / तत्र तत्र सरिच्छेष्ठा ससर्ज सुबहून्रसान् // 33 स्पर्धा तपःकृतां तीव्रां चक्रतुस्तौ तपोधनौ // 9 तत्र देवाः सगन्धर्वाः प्रीता यज्ञस्य संपदा। तत्राप्यधिकसंतापो विश्वामित्रो महामुनिः / विस्मिता मानुषाश्चासन्दृष्ट्वा तां यज्ञसंपदम् // 34 दृष्ट्वा तेजो वसिष्ठस्य चिन्तामभिजगाम ह / ततस्तालकेतुर्महाधर्मसेतु तस्य बुद्धिरियं ह्यासीद्धर्मनित्यस्य भारत // 10 महात्मा कृतात्मा महादाननित्यः / इयं सरस्वती तूर्णं मत्समीपं तपोधनम् / वसिष्ठापवाहं महाभीमवेगं आनयिष्यति वेगेन वसिष्ठं जपतां वरम् / धृतात्मा जितात्मा समभ्याजगाम / / 35 इहागतं द्विजश्रेष्ठं हनिष्यामि न संशयः // 11 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि एवं निश्चित्य भगवान्विश्वामित्रो महामुनिः / चत्वारिंशोऽध्यायः॥ 40 // सस्मार सरितां श्रेष्ठां क्रोधसंरक्तलोचनः // 12 41 सा ध्याता मुनिना तेन व्याकुलत्वं जगाम ह / जज्ञे चैनं महावीर्यं महाकोपं च भामिनी // 13 __ जनमेजय उवाच / ततः एनं वेपमाना विवर्णा प्राञ्जलिस्तदा / वसिष्ठस्यापवाहो वै भीमवेगः कथं नु सः / उपतस्थे मुनिवरं विश्वामित्रं सरस्वती // 14 किमर्थं च सरिच्छ्रेष्ठा तमृषि प्रत्यवाहयत् // 1 हतवीरा यथा नारी साभवदुःखिता भृशम् / केन चास्याभवद्वैरं कारणं किं च तत्प्रभो। हि किं करवाणीति प्रोवाच मुनिसत्तमम् // 15 शंस पृष्टो महाप्राज्ञ न हि तृप्यामि कथ्यताम् // 2 तामुवाच मुनिः क्रुद्धो वसिष्ठं शीघ्रमानय / वैशंपायन उवाच / यावदेनं निहन्म्यद्य तच्छ्रुत्वा व्यथिता नदी // 16 विश्वामित्रस्य चैवर्षेर्वसिष्ठस्य च भारत / साञ्जलिं तु ततः कृत्वा पुण्डरीकनिभेक्षणा। सुशं वैरमभूद्राजस्तपःस्पर्धाकृतं महत् // 3 विव्यथे सुविरूढेव लता वायुसमीरिता // 17 आश्रमो वै वसिष्ठस्य स्थाणुतीर्थेऽभवन्महान् / तथागतां तु तां दृष्ट्वा वेपमानां कृताञ्जलिम् / पूर्वतः पश्चिमश्चासीद्विश्वामित्रस्य धीमतः // 4 विश्वामित्रोऽब्रवीत्क्रुद्धो वसिष्ठं शीघ्रमानय // 18 यत्र स्थाणुर्महाराज तप्तवान्सुमहत्तपः / ततो भीता सरिच्छेष्ठा चिन्तयामास भारत / यत्रास्य कर्म तद्बोरं प्रवदन्ति मनीषिणः // 5 उभयोः शापयोर्भीता कथमेतद्भविष्यति // 19 यत्रेष्ट्वा भगवान्स्थाणुः पूजयित्वा सरस्वतीम् / साभिगम्य वसिष्ठं तु इममर्थमचोदयत् / स्थापयामास तत्तीर्थ स्थाणुतीर्थमिति प्रभो // 6 यदुक्ता सरितां श्रेष्ठा विश्वामित्रेण धीमता // 20 तत्र सर्वे सुराः स्कन्दमभ्यषिञ्चन्नराधिप। उभयोः शापयोर्भीता वेपमाना पुनः पुनः / सेनापत्येन महता सुरारिविनिबर्हणम् // 7 चिन्तयित्वा महाशापमृषिवित्रासिता भृशम् // 21 तस्मिन्सरस्वतीतीर्थे विश्वामित्रो महामुनिः / तां कृशां च विवर्णां च दृष्ट्वा चिन्तासमन्विताम् / पसिष्ठं चालयामास तपसोग्रेण तच्छृणु // 8 उवाच राजन्धर्मात्मा वसिष्ठो द्विपदां वरः // 22 - 1885 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 41. 23] महाभारते [9. 42.90 वाह्यात्मानं सरिच्छेष्ठे वह मां शीघ्रगामिनी / / शोणितं वह कल्याणि रक्षोग्रामणिसंमतम् // 36 विश्वामित्रः शपेद्धि त्वां मा कृथास्त्वं विचारणाम् // | ततः सरस्वती शप्ता विश्वामित्रेण धीमता / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृपाशीलस्य सा सरित् / अवहच्छोणितोन्मिश्रं तोयं संवत्सरं तदा // 37 चिन्तयामास कौरव्य किं कृतं सुकृतं भवेत् // 24 अथर्षयश्च देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा। तस्याश्चिन्ता समुत्पन्ना वसिष्ठो मय्यतीव हि। सरस्वती तथा दृष्ट्वा बभूवुर्भृशदुःखिताः // 38 कृतवान्हि दयां नित्यं तस्य कार्य हितं मया // 25 एवं वसिष्ठापवाहो लोके ख्यातो जनाधिप / अथ कूले स्वके राजञ्जपन्तमृषिसत्तमम् / आगच्छच्च पुनर्माग स्वमेव सरितां वरा // 39 जुह्वानं कौशिकं प्रेक्ष्य सरस्वत्यभ्यचिन्तयत् // 26 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि इदमन्तरमित्येव ततः सा सरितां वरा / एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // कूलापहारमकरोत्स्वेन वेगेन सा सरित् // 27 तेन कूलापहारेण मैत्रावरुणिरौह्यत / वैशंपायन उवाच। उह्यमानश्च तुष्टाव तदा राजन्सरस्वतीम् // 28 सा शप्ता तेन क्रुद्धेन विश्वामित्रेण धीमता / पितामहस्य सरसः प्रवृत्तासि सरस्वति / तस्मिंस्तीर्थवरे शुभ्रे शोणितं समुपावहत् // 1 व्याप्तं चेदं जगत्सर्वं तवैवाम्भोभिरुत्तमैः // 29 अथाजग्मुस्ततो राजनराक्षसास्तत्र भारत / त्वमेवाकाशगा देवि मेघेषूत्सृजसे पयः / / तत्र ते शोणितं सर्वे पिबन्तः सुखमासते // 2 सर्वाश्चापस्त्वमेवेति त्वत्तो वयमधीमहे / / 30 तृप्ताश्च सुभृशं तेन सुखिता विगतज्वराः / पुष्टिद्युतिस्तथा कीर्तिः सिद्धिर्वृद्धिरुमा तथा। नृत्यन्तश्च हसन्तश्च यथा स्वर्गजितस्तथा // 3 त्वमेव बाणी स्वाहा त्वं त्वय्यायत्तमिदं जगत् / कस्यचित्त्वथ कालस्य ऋषयः सतपोधनाः / त्वमेव सर्वभूतेषु वससीह चतुर्विधा / 31 तीर्थयात्रां समाजग्मुः सरस्वत्यां महीपते // 4 एवं सरस्वती राजस्तूयमाना महर्षिणा / तेषु सर्वेषु तीर्थेषु आप्लुत्य मुनिपुंगवाः / वेगेनोवाह तं विप्रं विश्वामित्राश्रमं प्रति / प्राप्य प्रीतिं परां चापि तपोलुब्धा विशारदाः / न्यवेदयत चाभीक्ष्णं विश्वामित्राय तं मुनिम् // 32 प्रययुर्हि ततो राजन्येन तीर्थं हि तत्तथा // 5 तमानीतं सरस्वत्या दृष्ट्वा कोपसमन्वितः / अथागम्य महाभागास्तत्तीर्थं दारुणं तदा / अथान्वेषत्प्रहरणं वसिष्ठान्तकरं तदा // 33 / / दृष्ट्वा तोयं सरस्वत्याः शोणितेन परिप्लुतम् / तं तु क्रुद्धमभिप्रेक्ष्य ब्रह्महत्याभयान्नदी। पीयमानं च रक्षोभिर्बहुभिर्नृपसत्तम // 6 अपोवाह वसिष्ठं तु प्राची दिशमतन्द्रिता। तान्दृष्ट्वा राक्षसान्राजन्मुनयः संशितव्रताः / उभयोः कुर्वती वाक्यं वञ्चयित्वा तु गाधिजम्॥३४ | परित्राणे सरस्वत्याः परं यत्नं प्रचक्रिरे // 7 ततोऽपवाहितं दृष्ट्वा वसिष्ठमृषिसत्तमम् / ते तु सर्वे महाभागाः समागम्य महाव्रताः / अब्रवीदथ संक्रुद्धो विश्वामित्रो ह्यमर्षणः // 35 / आहूय सरितां श्रेष्ठामिदं वचनमब्रुवन् // 8 यस्मान्मा त्वं सरिच्छ्रेष्ठे वञ्चयित्वा पुनर्गता। | कारणं ब्रूहि कल्याणि किमर्थं ले ह्रदो ह्ययम् / - 1886 - Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 42.9] शल्यपर्व [9. 42. 35 एवमाकुलतां यातः श्रुत्वा पास्यामहे वयम् // 9 / राक्षसान्नमसौ भुङ्क्ते यो भुङ्क्ते ह्यन्नमीदृशम् // 22 ततः सा सर्वमाचष्ट यथावृत्तं प्रवेपती। शोधयित्वा ततस्तीर्थमृषयस्ते तपोधनाः / दुःखितामथ तां दृष्ट्वा त ऊचुवै तपोधनाः // 10 मोक्षार्थं राक्षसानां च नदीं तां प्रत्यचोदयन् // 23 कारणं श्रुतमस्माभिः शापश्चैव श्रुतोऽनघे / महर्षीणां मतं ज्ञात्वा ततः सा सरितां वरा।। करिष्यन्ति तु यत्प्राप्तं सर्व एव तपोधनाः 11 अरुणामानयामास स्वां तनुं पुरुषर्षभ // 24 एवमुक्त्वा सरिच्छेष्ठामूचुस्तेऽथ परस्परम् / / तस्यां ते राक्षसाः स्नात्वा तनूस्त्यक्त्वा दिवं गताः। विमोचयामहे सर्वे शापादेतां सरस्वतीम् // 12 अरुणायां महाराज ब्रह्महत्यापहा हि सा // 25 तेषां तु वचनादेव प्रकृतिस्था सरस्वती। . एतमर्थमभिज्ञाय देवराजः शतक्रतुः / प्रसन्नसलिला जज्ञे यथा पूर्वं तथैव हि / तस्मिंस्तीर्थवरे स्नात्वा विमुक्तः पाप्मना किल // 26 विमुक्ता च सरिच्छ्रेष्ठा विबभौ सा यथा पुरा॥१३ जनमेजय उवाच। दृष्ट्वा तोयं सरस्वत्या मुनिभिस्तैस्तथा कृतम् / कृताञ्जलीस्ततो राजनराक्षसाः क्षुधयार्दिताः / किमर्थं भगवाञ्शको ब्रह्महत्यामवाप्तवान् / कथमस्मिंश्च तीर्थे वै आप्लुत्याकल्मषोऽभवत् // 27 ऊचुस्तान्वै मुनीन्सर्वान्कृपायुक्तान्पुनः पुनः // 14 वयं हि क्षुधिताश्चैव धर्माद्धीनाश्च शाश्वतात् / वैशंपायन उवाच / न च नः कामकारोऽयं यद्वयं पापकारिणः // 15 / शृणुष्वैतदुपाख्यानं यथावृत्तं जनेश्वर / युष्माकं चाप्रसादेन दुष्कृतेन च कर्मणा / यथा बिभेद समयं नमुचेर्वासवः पुरा // 28 पक्षोऽयं वर्धतेऽस्माकं यतः स्म ब्रह्मराक्षसाः // 16 नमुचिर्वासवाद्भीतः सूर्यरश्मि समाविशत् / एवं हि वैश्यशूद्राणां क्षत्रियाणां तथैव च। तेनेन्द्रः सख्यमकरोत्समयं चेदमब्रवीत् // 29 ये ब्राह्मणान्प्रद्विषन्ति ते भवन्तीह राक्षसाः // 17 नाट्टैण त्वा न शुष्केण न रात्रौ नापि वाहनि / आचार्यमृत्विजं चैव गुरुं वृद्धजनं तथा / वधिष्याम्यसुरश्रेष्ठ सखे सत्येन ते शपे // 30 प्राणिनो येऽवमन्यन्ते ते भवन्तीह राक्षसाः / एवं स कृत्वा समयं सृष्ट्वा नीहारमीश्वरः / योषितां चैव पापानां योनिदोषेण वर्धते // 18 चिच्छेदास्य शिरो राजन्नपां फेनेन वासवः // 31 तत्कुरुध्वमिहास्माकं कारुण्यं द्विजसत्तमाः / तच्छिरो नमुचेश्छिन्नं पृष्ठतः शक्रमन्वयात् / शक्ता भवन्तः सर्वेषां लोकानामपि तारणे // 19 हे मित्रहन्पाप इति ब्रुवाणं शक्रमन्तिकात् / / 32 तेषां ते मुनयः श्रुत्वा तुष्टुवुस्तां महानदीम् / एवं स शिरसा तेन चोद्यमानः पुनः पुनः / / मोक्षार्थ रक्षसां तेपामूचुः प्रयतमानसाः // 20 पितामहाय संतप्त एतमर्थं न्यवेदयत् / / 33 . क्षुतकीटावपन्नं च यच्चोच्छिष्टाशितं भवेत् / / तमब्रवील्लोकगुरुररुणायां यथाविधि / केशावपन्नमाधूतमारुग्णमपि यद्भवेत् / इष्ट्वोपस्पृश देवेन्द्र ब्रह्महत्यापहा हि सा // 34 श्वभिः संस्पृष्टमन्नं च भागोऽसौ रक्षसामिह // 21 / इत्युक्तः स सरस्वत्याः कुञ्जे वै जनमेजय / तस्माज्ज्ञात्वा सदा विद्वानेतान्यन्नानि वर्जयेत्। इष्ट्वा यथावदलभिदरुणायामुपास्पृशत् // 35 - 1887 - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 42. 36 ] महाभारते [9. 43. 18 स मुक्तः पाप्मना तेन ब्रह्महत्याकृतेन ह / वैशंपायन उवाच / जगाम संहृष्टमनास्त्रिदिवं त्रिदशेश्वरः // 36 कुरुवंशस्य सदृशमिदं कौतूहलं तव / शिरस्तञ्चापि नमुचेस्तत्रैवाप्लुत्य भारत / हर्षमुत्पादयत्येतद्वचो मे जनमेजय / / 4 लोकान्कामदुघान्प्राप्तमक्षयान्राजसत्तम // 37 हन्त ते कथयिष्यामि शृण्वानस्य जनाधिप / तत्राप्युपस्पृश्य बलो महात्मा अभिषेकं कुमारस्य प्रभावं च महात्मनः // 5 दत्त्वा च दानानि पृथग्विधानि। तेजो माहेश्वरं स्कन्नमग्नौ प्रपतितं पुरा / अवाप्य धर्म परमार्यकर्मा तत्सर्वभक्षो भगवान्नाशकद्दग्धुमक्षयम् // 6 जगाम सोमस्य महत्स तीर्थम् // 38 तेनासीदति तेजस्वी दीप्तिमान्हव्यवाहनः / यत्रायजद्राजसूयेन सोमः न चैव धारयामास गर्भ तेजोमयं तदा // 7 साक्षात्पुरा विधिवत्पार्थिवेन्द्र। स गङ्गामभिसंगम्य नियोगाद्ब्रह्मणः प्रभुः / अत्रिीमान्विप्रमुख्यो बभूव गर्भमाहितवान्दिव्यं भास्करोपमतेजसम् // 8 होता यस्मिन्क्रतुमुख्ये महात्मा // 39 अथ गङ्गापि तं गर्भमसहन्ती विधारणे / यस्यान्तेऽभूत्सुमहान्दानवानां उत्ससर्ज गिरौ रम्ये हिमवत्यमरार्चिते // 9 दैतेयानां राक्षसानां च देवैः / स तत्र ववृधे लोकानावृत्य ज्वलनात्मजः / स संग्रामस्तारकाख्यः सुतीव्रो ददृशुर्खलनाकारं तं गर्भमथ कृत्तिकाः // 10 यत्र स्कन्दस्तारकाख्यं जघान // 40 शरस्तम्बे महात्मानमनलात्मजमीश्वरम् / सेनापत्यं लब्धवान्देवतानां ममायमिति ताः सर्वाः पुत्रार्थिन्योऽभिचक्रमुः॥११ महासेनो यत्र दैत्यान्तकर्ता। तासां विदित्वा भावं तं मातृणां भगवान्प्रभुः / साक्षाच्चात्र न्यवसत्कार्तिकेयः प्रस्नुतानां पयः षड्भिर्वदनैरपिबत्तदा // 12 सदा कुमारो यत्र स प्लक्षराजः // 41 तं प्रभावं समालक्ष्य तस्य बालस्य कृत्तिकाः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि परं विस्मयमापन्ना देव्यो दिव्यवपुर्धराः // 13 द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // यत्रोत्सृष्टः स भगवान्गङ्गया गिरिमूर्धनि / स शैलः काश्चनः सर्वः संबभौ कुरुसत्तम // 15 जनमेजय उवाच / वर्धता चैव गर्भेण पृथिवी तेन रञ्जिता / सरस्वत्याः प्रभावोऽयमुक्तस्ते द्विजसत्तम / अतश्च सर्वे संवृत्ता गिरयः काश्चनाकराः // 15 कुमारस्याभिषेकं तु ब्रह्मन्व्याख्यातुमर्हसि / / 1 कुमारश्च महावीर्यः कार्तिकेय इति स्मृतः / यस्मिन्काले च देशे च यथा च वदतां वर / गाङ्गेयः पूर्वमभवन्महायोगबलान्वितः // 16 यश्चाभिषिक्तो भगवान्विधिना येन च प्रभुः // 2 | व वीर्यण च समन्वितः। स्कन्दो यथा च दैत्यानामकरोत्कदनं महत् / | ववृधेऽतीव राजेन्द्र चन्द्रवत्प्रियदर्शनः // 17 तथा मे सर्वमाचक्ष्व परं कौतूहलं हि मे // 3 / स तस्मिन्काश्चने दिव्ये शरस्तम्बे श्रिया वृतः / - 1888 - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 48. 18] शल्यपर्व [9. 43. 47 स्तूयमानस्तदा शेते गन्धर्वैमुनिभिस्तथा // 18 स तु बालोऽपि भगवान्महायोगबलान्वितः / तथैनमन्वनृत्यन्त देवकन्याः सहस्रशः / अभ्याजगाम देवेशं शूलहस्तं पिनाकिनम् // 33 दिव्यवादिनृत्तज्ञाः स्तुवन्त्यश्चारुदर्शनाः // 19 तमात्रजन्तमालक्ष्य शिवस्यासीन्मनोगतम् / अन्वास्ते च नदी देवं गङ्गा वै सरितां वरा। युगपच्छैलपुत्र्याश्च गङ्गायाः पावकस्य च // 34 दधार पृथिवी चैनं बिभ्रती रूपमुत्तमम् / / 20 किं नु पूर्वमयं बालो गौरवादभ्युपैष्यति / बातकर्मादिकास्तस्य क्रियाश्चके बृहस्पतिः / अपि मामिति सर्वेषां तेषामासीन्मनोगतम् / / 35 वेदश्चैनं चतुमूर्तिरुपतस्थे कृताञ्जलिः / / 21 तेषामेतमभिप्रायं चतुर्णामुपलक्ष्य सः। धनुर्वेदश्चतुष्पादः शस्त्रग्रामः ससंग्रहः / युगपद्योगमास्थाय ससर्ज विविधास्तनूः / / 36 तनैनं समुपातिष्ठत्साक्षाद्वाणी च केवला // 22 ततोऽभवञ्चतुर्मूर्तिः क्षणेन भगवान्प्रभुः / स ददर्श महावीर्यं देवदेवमुमापतिम् / स्कन्दः शाखो विशाखश्च नैगमेषश्च पृष्ठतः // 37 शैलपुत्र्या सहासीनं भूतसंघशतैर्वृतम् / / 23 एवं स कृत्वा ह्यात्मानं चतुर्धा भगवान्प्रभुः / निकाया भूतसंघानां परमाद्भुतदर्शनाः / यतो रुद्रस्ततः स्कन्दो जगामाद्भुतदर्शनः / / 38 वेकृता विकृताकारा विकृताभरणध्वजाः // 24 | विशाखस्तु ययो येन देवी गिरिवरात्मजा। प्रिसिंहक्षवदना विडालमकराननाः / शाखो ययौ च भगवान्वायुमूर्तिविभावसुम् / देशमुखाश्चान्ये गजोष्ट्रवदनास्तथा / / 25 नैगमेषोऽगमद्गङ्गां कुमारः पावकप्रभः // 39 कवदनाः केचिद्गृध्रगोमायुदर्शनाः / / सर्वे भास्वरदेहास्ते चत्वारः समरूपिणः / कौश्चपारावतनिभैर्वदनै रावैरपि / / 26 तान्समभ्ययुरव्यग्रास्तदद्भुतमिवाभवत् / / 40 श्वाविच्छल्यकगोधानां खरैडकगवां तथा / हाहाकारो महानासीदेवदानवरक्षसाम् / सदृशानि वपूंष्यन्ये तत्र तत्र व्यधारयन् / / 27 तदृष्ट्वा महदाश्चर्यमद्भुतं लोमहर्षणम् // 41 केचिच्छैलाम्बुप्रख्याश्चकालातगदायुधाः / ततो रुद्रश्च देवी च पावकश्च पितामहम् / केचिदञ्जनपुञ्जाभाः केचिच्छेताचलप्रभाः // 28 गङ्गया सहिताः सर्वे प्रणिपेतुर्जगत्पतिम् // 42 साप्त मातृगणाश्चैव समाजग्मुर्विशां पते / प्रणिपत्य ततस्ते तु विधिवद्राजपुंगव / साध्या विश्वेऽथ मरुतो वसवः पितरस्तथा // 29 इदमूचुर्वचो राजन्कार्तिकेयप्रियेप्सया // 43 रुद्रादित्यास्तथा सिद्धा भुजगा दानवाः खगाः / अस्य बालस्य भगवन्नाधिपत्यं यथेप्सितम। ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवान्सपुत्रः सह विष्णुना / / 30 अस्मत्प्रियार्थं देवेश सदृशं दातुमर्हसि // 44 शकस्तथाभ्ययाद्रष्टुं कुमारवरमच्युतम् / ततः स भगवान्धीमान्सर्वलोकपितामहः / नारदप्रमुखाश्चापि देवगन्धर्वसत्तमाः / / 31 मनसा चिन्तयामास किमयं लभतामिति / / 45 देवर्षयश्च सिद्धाश्च बृहस्पतिपुरोगमाः / ऐश्वर्याणि हि सर्वाणि देवगन्धर्वरक्षसाम् / ऋभवो नाम वरदा देवानामपि देवताः / भूतयक्षविहंगानां पन्नगानां च सर्वशः / / 46 तेऽपि तत्र समाजग्मुर्यामा धामाश्च सर्वशः // 32 / पूर्वमेवादिदेशासौ निकायेषु महात्मनाम् / - 1889 - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 43. 47] महाभारते [9. 44. 20 समर्थं च तमैश्वर्ये महामतिरमन्यत // 47 / / भृगुभिश्वाङ्गिरोभिश्च यतिभिश्च महात्मभिः / ततो मुहूर्तं स ध्यात्वा देवानां श्रेयसि स्थितः / सर्वैर्विद्याधरैः पुण्यैर्योगसिद्धैस्तथा वृतः // 8 सेनापत्यं ददौ तस्मै सर्वभूतेषु भारत // 48 पितामहः पुलस्त्यश्च पुलहश्च महातपाः / सर्वदेवनिकायानां ये राजानः परिश्रुताः। अङ्गिराः कश्यपोऽत्रिश्च मरीचि/गुरेव च // 9 तान्सर्वान्व्यादिदेशास्मै सर्वभूतपितामहः // 49 ऋतुर्हरः प्रचेताश्च मनुर्दक्षस्तथैव च / ततः कुमारमादाय देवा ब्रह्मपुरोगमाः / ऋतवश्व ग्रहाश्चैव ज्योतींषि च विशां पते // 10 अभिषेकार्थमाजग्मुः शैलेन्द्र सहितास्ततः // 50 मूर्तिमत्यश्च सरितो वेदाश्चैव सनातनाः / पुण्यां हैमवती देवीं सरिच्छ्रेष्ठां सरस्वतीम् / समुद्राश्च हृदाश्चैव तीर्थानि विविधानि च / समन्तपञ्चके या वै त्रिषु लोकेषु विश्रुता // 51 पृथिवी द्यौर्दिशश्चैव पादपाश्च जनाधिप // 11 तत्र तीरे सरस्वत्याः पुण्ये सर्वगुणान्विते / अदितिर्देवमाता च ह्रीः श्रीः स्वाहा सरस्वती / निषेदुर्देवगन्धर्वाः सर्वे संपूर्णमानसाः // 52 उमा शची सिनीवाली तथा चानुमतिः कुहूः। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि राका च धिषणा चैव पत्न्यश्चान्या दिवौकसाम् // 12 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // हिमवांश्चैव विन्ध्यश्च मेरुश्चानेकशृङ्गवान् / ऐरावतः सानुचरः कलाः काष्ठास्तथैव च / . . वैशंपायन उवाच / मासार्धमासा ऋतवस्तथा राज्यहनी नृप // 13 ततोऽभिषेकसंभारान्सर्वान्संभृत्य शास्त्रतः / उच्चैःश्रवा हयश्रेष्ठो नागराजश्च वामनः / बृहस्पतिः समिद्धेऽग्नौ जुहावाज्यं यथाविधि // 1 अरुणो गरुडश्चैव वृक्षाश्चौषधिभिः सह // 14 ततो हिमवता दत्ते मणिप्रवरशोभिते / धर्मश्च भगवान्देवः समाजग्मुर्हि संगताः / दिव्यरत्नाचिते दिव्ये निषण्णः परमासने // 2 कालो यमश्च मृत्युश्च यमस्यानुचराश्च ये // 15 सर्वमङ्गलसंभारैर्विधिमत्रपुरस्कृतम् / बहुलत्वाच्च नोक्ता ये विविधा देवतागणाः / आभिषेचनिक द्रव्यं गृहीत्वा देवतागणाः // 3 ते कुमाराभिषेकार्थं समाजग्मुस्ततस्ततः // 16 इन्द्राविष्णू महावीयौ सूर्याचन्द्रमसौ तथा। जगृहुस्ते तदा राजन्सर्व एव दिवौकसः / धाता चैव विधाता च तथा चैवानिलानलौ // 4 आभिषेचनिकं भाण्डं मङ्गलानि च सर्वशः // 17 पूष्णा भगेनार्यम्णा च अंशेन च विवस्वता / दिव्यसंभारसंयुक्तैः कलशैः काश्चनैर्नृप। रुद्रश्च सहितो धीमान्मित्रेण वरुणेन च // 5 सरस्वतीभिः पुण्याभिर्दिव्यतोयाभिरेव तु // 18 रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यां च वृतः प्रभुः / अभ्यषिश्चन्कुमारं वै संप्रहृष्टा दिवौकसः / विश्वेदेवैर्मरुद्भिश्च साध्यैश्च पितृभिः सह // 6 सेनापति महात्मानमसुराणां भयावहम् // 19 गन्धर्वैरप्सरोभिश्च यक्षराक्षसपन्नगैः। पुरा यथा महाराज वरुणं वै जलेश्वरम् / देवर्षिभिरसंख्येयैस्तथा ब्रह्मर्षिभिर्वरैः // 7 तथाभ्यषिश्चद्भगवान्ब्रह्मा लोकपितामहः / वैखानसैर्वालखिल्यैर्वाय्वाहारैर्मरीचिपैः / | कश्यपश्च महातेजा ये चान्ये नानुकीर्तिताः // 20 - 1890 - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 44. 21] शल्यपर्व [9. 44. 48 स्मै ब्रह्मा ददौ प्रीतो बलिनो वातरंहसः / स्कन्दाय ददतुः प्रीतावश्विनौ भरतर्षभ // 34 कामवीर्यधरान्सिद्धान्महापारिषदान्प्रभुः // 21 कुन्दनं कुसुमं चैव कुमुदं च महायशाः / नन्दिषेणं लोहिताक्षं घण्टाकर्णं च संमतम् / / डम्बराडम्बरौ चैव ददौ धाता महात्मने // 35 चतुर्थमस्यानुचरं ख्यातं कुमुदमालिनम् // 22 वक्रानुवक्रौ बलिनौ मेषवक्त्रौ बलोत्कटौ / ततः स्थाणुं महावेगं महापारिषदं क्रतुम् / / ददौ त्वष्टा महामायौ स्कन्दायानुचरौ वरौ॥३६ मायाशतधरं कामं कामवीर्यबलान्वितम् / सुव्रतं सत्यसंधं च ददौ मित्रो महात्मने / ददौ स्कन्दाय राजेन्द्र सुरारिविनिबर्हणम् / / 23 / / कुमाराय महात्मानौ तपोविद्याधरौ प्रभुः // 37 स हि देवासुरे युद्धे दैत्यानां भीमकर्मणाम् / . सुदर्शनीयौ वरदौ त्रिषु लोकेषु विश्रुतौ / जघान दोभ्यां संक्रुद्धः प्रयुतानि चतुर्दश // 24 सुप्रभं च महात्मानं शुभकर्माणमेव च / तथा देवा ददुस्तस्मै सेनां नैर्ऋतसंकुलाम् / ' कार्तिकेयाय संप्रादाद्विधाता लोकविश्रुतौ // 38 देवशत्रुक्षयकरीमजय्यां विश्वरूपिणीम् // 25 / पालितकं कालिकं च महामायाविनावुभौ / जयशब्दं ततश्चक्रुर्देवाः सर्वे सवासवाः / पूषा च पार्षदौ प्रादात्कार्तिकेयाय भारत // 39 गन्धर्वयक्षरक्षांसि मुनयः पितरस्तथा // 26 बलं चातिबलं चैव महावक्त्रौ महाबलौ / यमः प्रादादनुचरौ यमकालोपमावुभौ / प्रददौ कार्तिकेयाय वायुर्भरतसत्तम // 40 उन्माथं च प्रमाथं च महावी? महायुती // 27 घसं चातिघसं चैव तिमिवक्त्रौ महाबलौ। सुभ्राजो भास्करश्चैव यौ तौ सूर्यानुयायिनौ।। प्रददौ कार्तिकेयाय वरुणः सत्यसंगरः // 41 तौ सूर्यः कार्तिकेयाय ददौ प्रीतः प्रतापवान् // 28 सुवर्चसं महात्मानं तथैवाप्यतिवर्चसम् / कैलासशृङ्गसंकाशौ श्वेतमाल्यानुलेपनौ। हिमवान्प्रददौ राजन्हुताशनसुताय वै // 42 सोमोऽप्यनुचरौ प्रादान्मणि सुमणिमेव च // 29 काञ्चनं च महात्मानं मेघमालिनमेव च / ज्वालाजिद्धं तथा ज्योतिरात्मजाय हुताशनः / ददावनुचरौ मेरुरग्निपुत्राय भारत // 43 ददावनुचरो शूरौ परसैन्यप्रमाथिनौ // 30 स्थिरं चातिस्थिरं चैव मेरुरेवापरौ ददौ / परिघं च वटं चैव भीमं च सुमहाबलम् / महात्मनेऽग्निपुत्राय महाबलपराक्रमौ // 44 दहतिं दहनं चैव प्रचण्डौ वीर्यसंमतौ / उच्छ्रितं चातिशृङ्गं च महापाषाणयोधिनौ। अंशोऽप्यनुचरान्पञ्च ददौ स्कन्दाय धीमते // 31 प्रददावग्निपुत्राय विन्ध्यः पारिषदावुभौ // 45 उत्क्रोशं पङ्कजं चैव वज्रदण्डधरावुभौ / संग्रहं विग्रहं चैव समुद्रोऽपि गदाधरौ। ददावनलपुत्राय वासवः परवीरहा / प्रददावग्निपुत्राय महापारिषदावुभौ // 46 तौ हि शत्रून्महेन्द्रस्य जनतुः समरे बहून् // 32 / उन्मादं पुष्पदन्तं च शङ्ककर्णं तथैव च। चक्रं विक्रमकं चैव संक्रमं च महाबलम् / प्रददावग्निपुत्राय पार्वती शुभदर्शना // 47 स्कन्दाय त्रीननुचरान्ददौ विष्णुर्महायशाः // 33 / जयं महाजयं चैव नागौ ज्वलनसूनवे / वर्धनं नन्दनं चैव सर्वविद्याविशारदौ / प्रददौ पुरुषव्याघ्र वासुकिः पन्नगेश्वरः // 48 - 1891 - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 44. 49 ] महाभारते [9. 44. 78 एवं साध्याश्च रुद्राश्च वसवः पितरस्तथा / कालकण्ठः प्रभासश्च तथा कुम्भाण्डकोऽपरः / सागराः सरितश्चैव गिरयश्च महाबलाः // 49 कालकाक्षः सितश्चैव भूतलोन्मथनस्तथा / / 64 ददुः सेनागणाध्यक्षाशूलपट्टिशधारिणः / यज्ञवाहः प्रवाहश्च देवयाजी च सोमपः / दिव्यपहरणोपेतान्नानावेषविभूषितान् // 50 सजालश्च महातेजाः ऋथक्राथौ च भारत // 65 शृणु नामानि चान्येषां येऽन्ये स्कन्दस्य सैनिकाः / तुहनश्च तुहानश्च चित्रदेवश्च वीर्यवान् / विविधायुधसंपन्नाश्चित्राभरणवर्मिणः // 51 मधुरः सुप्रसादश्च किरीटी च महाबलः // 66 शङ्कुकर्णो निकुम्भश्च पद्मः कुमुद एव च / वसनो मधुवर्णश्च कलशोदर एव च / अनन्तो द्वादशभुजस्तथा कृष्णोपकृष्णकौ // 52 धमन्तो मन्मथकरः सूचीवक्त्रश्च वीर्यवान् // 67 द्रोणश्रवाः कपिस्कन्धः काञ्चनाक्षो जलंधमः / श्वेतवक्त्रः सुवक्त्रश्च चारुक्क्त्रश्च पाण्डुरः / अक्षसंतर्जनो राजन्कुनदीकस्तमोभ्रकृत् // 53 दण्डबाहुः सुबाहुश्च रजः कोकिलकस्तथा / / 68 एकाक्षो द्वादशाक्षश्च तथैवैकजटः प्रभुः / अचलः कनकाक्षश्च बालानामयिकः प्रभुः / सहस्रबाहुर्विकटो व्याघ्राक्षः क्षितिकम्पनः // 54 संचारकः कोकनदो गृध्रवक्त्रश्च जम्बुकः / / 62 पुण्यनामा सुनामा च सुवक्त्रः प्रियदर्शनः / लोहाशवक्त्रो जठरः कुम्भवक्त्रश्च कुण्डकः / परिश्रुतः कोकनदः प्रियमाल्यानुलेपनः / / 55 मद्गुग्रीवश्च कृष्णौजा हंसवक्त्रश्च चन्द्रभाः // 70 अजोदरो गजशिराः स्कन्धाक्षः शतलोचनः / पाणिकूर्मा च शम्बूकः पञ्चवक्त्रश्च शिक्षकः / ज्वालाजिह्वः करालश्च सितकेशो जटी हरिः // 56 चाषवक्त्रश्च जम्बूकः शाकवक्त्रश्च कुण्डकः // 71 चतुर्दष्ट्रोऽष्टजिह्वश्च मेघनादः पृथुश्रवाः / योगयुक्ता महात्मानः सततं ब्राह्मणप्रियाः / विद्युदक्षो धनुर्वक्त्रो जठरो मारुताशनः / / 57 पैतामहा महात्मानो महापारिषदाश्च ह / उदराक्षो झषाक्षश्च वज्रनाभो वसुप्रभः / यौवनस्थाश्च बालाश्च वृद्धाश्च जनमेजय // 72 समुद्रवेगो राजेन्द्र शैलकम्पी तथैव च // 58 सहस्रशः पारिषदाः कुमारमुपतस्थिरे / पुत्रमेषः प्रवाहश्च तथा नन्दोपनन्दको / वक्त्रैर्नानाविधैर्ये तु शृणु ताञ्जनमेजय // 73 धूम्रः श्वेतः कलिङ्गश्च सिद्धार्थो वरदस्तथा // 59 कूर्मकुक्कुटवक्त्राश्च शशोलूकमुखास्तथा / प्रियकश्चैव नन्दश्च गोनन्दश्च प्रतापवान् / खरोष्ट्रवदनाश्चैव वराहवदनास्तथा // 74 आनन्दश्च प्रमोदश्च स्वस्तिको ध्रुवकस्तथा // 60 मनुष्यमेषवक्त्राश्च सृगालवदनास्तथा / क्षेमवापः सुजातश्च सिद्धयात्रश्च भारत / भीमा मकरवक्त्राश्च शिंशुमारमुखास्तथा // 75 गोव्रजः कनकापीडो महापारिषदेश्वरः // 61 मार्जारशशवक्त्राश्च दीर्घवक्त्राश्च भारत / गायनो हसनश्चैव बाणः खड्गश्च वीर्यवान् / नकुलोलूकवक्त्राश्च श्ववक्त्राश्च तथापरे // 76 वैताली चातिताली च तथा कतिकवातिकौ // 62 आखुबभ्रुकवक्त्राश्च मयूरवदनास्तथा / हंसजः पङ्कदिग्धाङ्गः समुद्रोन्मादनश्च ह। मत्स्यमेषाननाश्चान्ये अजाविमहिषाननाः // 77 रणोत्कटः प्रहासश्च श्वेतशीर्षश्च नन्दकः // 63 / ऋक्षशार्दूलवक्त्राश्च द्वीपिसिंहाननास्तथा / -1892 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 44. 78 ] शल्यपर्व [9. 44. 107 मीमा गजाननाश्चैव तथा नक्रमुखाः परे // 78 कुब्जाश्च दीर्घजङ्घाश्च हस्तिकर्णशिरोधराः // 93 गरुडाननाः खड्गमुखा वृककाकमुखास्तथा / हस्तिनासाः कूर्मनासा वृकनासास्तथापरे / गोखरोष्ट्रमुखाश्चान्ये वृषदंशमुखास्तथा // 79 दीर्घोष्ठा दीर्घ जिह्वाश्च विकराला ह्यधोमुखाः // 94 महाजठरपादाङ्गास्तारकाक्षाश्च भारत / महादंष्ट्रा ह्रस्वदंष्ट्राश्चतुर्दष्ट्रास्तथापरे / पारावतमुखाश्चान्ये तथा वृषमुखाः परे // 80 वारणेन्द्रनिभाश्चान्ये भीमा राजन्सहस्रशः // 95 कोकिलावदनाश्चान्ये श्येनतित्तिरिकाननाः / / सुविभक्तशरीराश्च दीप्तिमन्तः स्वलंकृताः / कलासमुखाश्चैव विरजोम्बरधारिणः // 81 पिङ्गाक्षाः शङ्कुकर्णाश्च वक्रनासाश्च भारत // 96 व्यालवक्त्राः शूलमुखाश्चण्डवक्त्राः शताननाः / पृथुदंष्ट्रा महादंष्ट्राः स्थूलौष्ठा हरिमूर्धजाः / आशीविषाश्चीरधरा गोनासावरणास्तथा / / 82 नानापादौष्ठदंष्ट्राश्च नानाहस्तशिरोधराः / स्थूलोदराः कृशाङ्गाश्च स्थूलाङ्गाश्च कृशोदराः / / नानावर्मभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत // 97 हस्खग्रीवा महाकर्णा नानाव्यालविभूषिताः // 83 कुशला देशभाषासु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः / गजेन्द्रचर्मवसनास्तथा कृष्णाजिनाम्बराः / / हृष्टाः परिपतन्ति स्म महापारिषदास्तथा // 98 स्कन्धेमुखा महाराज तथा युदरतोमुखाः // 84 दीर्घग्रीवा दीर्घनखा दीर्घपादशिरोभुजाः / पृष्ठेमुखा हनुमुखास्तथा जङ्घामुखा अपि / पिङ्गाक्षा नीलकण्ठाश्च लम्बकर्णाश्च भारत // 99 पार्थाननाश्च बहवो नानादेशमुखास्तथा / / 85 वृकोदरनिभाश्चैव केचिदञ्जनसंनिभाः / तथा कीटपतंगानां सदृशास्या गणेश्वराः / / श्वेताङ्गा लोहितग्रीवाः पिङ्गाक्षाश्च तथापरे / नानाव्यालमुखाश्चान्ये बहुबाहुशिरोधराः // 86 कल्माषा बहवो राजश्चित्रवर्णाश्च भारत // 100 नानावृक्षभुजाः केचित्कटिशीर्षास्तथापरे / चामरापीडकनिभाः श्वेतलोहितराजयः / भुजंगभोगवदना नानागुल्मनिवासिनः // 87 नानावर्णाः सवर्णाश्च मयूरसदृशप्रभाः // 101 चीरसंवृतगात्राश्च तथा फलकवाससः / पुनः प्रहरणान्येषां कीर्त्यमानानि मे शृणु / नानावेषधराश्चैव चर्मवासस एव च // 88 शेषैः कृतं पारिषदैरायुधानां परिग्रहम् / / 102 उष्णीषिणो मुकुटिनः कम्बुग्रीवाः सुवर्चसः / पाशोद्यतकराः केचिद्व्यादितास्याः खराननाः / किरीटिनः पञ्चशिखास्तथा कठिनमूर्धजाः // 89 पृथ्वक्षा नीलकण्ठाश्च तथा परिघबाहवः // 103 त्रिशिखा द्विशिखाश्चैव तथा सप्तशिखाः परे / शतघ्नीचक्रहस्ताश्च तथा मुसलपाणयः / शिखण्डिनो मुकुटिनो मुण्डाश्च जटिलास्तथा // 90 शूलासिहस्ताश्च तथा महाकाया महाबलाः // 104 चित्रमाल्यधराः केचित्केचिद्रोमाननास्तथा / गदाभुशुण्डिहस्ताश्च तथा तोमरपाणयः / दिव्यमाल्याम्बरधराः सततं प्रिय विग्रहाः // 91 असिमुद्गरहस्ताश्च दण्डहस्ताश्च भारत // 105 कृष्णा निर्मासवक्त्राश्च दीर्घपृष्ठा निरूदराः / आयुधैर्विविधैोरैर्महात्मानो महाजवाः / स्थूलपृष्ठा ह्रस्वपृष्ठाः प्रलम्बोदरमेहनाः / / 92 महाबला महावेगा महापारिषदास्तथा // 106 महाभुजा ह्रस्वभुजा ह्रस्वगात्राश्च वामनाः। अभिषेकं कुमारस्य दृष्ट्वा हृष्टा रणप्रियाः / - 1893 - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 44. 107] महाभारते [9. 45. 24 घण्टाजालपिनद्धाङ्गा ननृतुस्ते महौजसः / / 107 / नृत्यप्रिया च राजेन्द्र शतोलूखलमेखला // 10 एते चान्ये च बहवो महापारिषदा नृप / शतघण्टा शतानन्दा भगनन्दा च भामिनी / उपतस्थुमहात्मानं कार्तिकेयं यशस्विनम् // 108 वपुष्मती चन्द्रशीता भद्रकाली च भारत // 11 दिव्याश्चाप्यान्तरिक्षाश्च पार्थिवाश्चानिलोपमाः / संकारिका निष्कुटिका भ्रमा चत्वरवासिनी / व्यादिष्टा दैवतैः शूराः स्कन्दस्यानुचराभवन् / / 109 सुमङ्गला स्वस्तिमती वृद्धिकामा जयप्रिया // 12 तादृशानां सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च / धनदा सुप्रसादा च भवदा च जलेश्वरी / अभिषिक्तं महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे / / 110 एडी भेडी समेडी च वेतालजननी तथा। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि कण्डूतिः कालिका चैव देवमित्रा च भारत // 15 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः // 44 // लम्बसी केतकी चैव चित्रसेना तथा बला।' कुक्कुटिका शङ्खनिका तथा जर्जरिका नृप // 14 वैशंपायन उवाच / कुण्डारिका कोकलिका कण्डरा च शतोदरी। शृणु मातृगणान्राजन्कुमारानुचरानिमान् / उत्क्राथिनी जरेणा च महावेगा च कङ्कणा // 15 कीर्त्यमानान्मया वीर सपत्नगणसूदनान् // 1 मनोजवा कण्टकिनी प्रघसा पूतना तथा / यशस्विनीनां मातृणां शृणु नामानि भारत / खशया चुर्युटिर्वामा क्रोशनाथ तडित्प्रभा // 16 याभिर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः कल्याणीभिश्चराचराः // 2 मण्डोदरी च तुण्डा च कोटरा मेघवासिनी / प्रभावती विशालाक्षी पलिता गोनसी तथा / सुभगा लम्बिनी लम्बा वसुचूडा विकत्थनी // 17 श्रीमती बहला चैव तथैव बहपुत्रिका // 3 ऊर्ध्ववेणीधरा चैव पिङ्गाक्षी लोहमेखला / अप्सुजाता च गोपाली बृहदम्बालिका तथा / पृथुवक्त्रा मधुरिका मधुकुम्भा तथैव च // 18. जयावती मालतिका ध्रुवरत्ना भयंकरी // 4 पक्षालिका मन्थनिका जरायुर्जर्जरानना। वसुदामा सुदामा च विशोका नन्दिनी तथा। ख्याता दहदहां चैव तथा धमधमा नृप // 19 एकचूडा महाचूडा चक्रनेमिश्च भारत // 5 खण्डखण्डा च राजेन्द्र पूषणा मणिकुण्डला / उत्तेजनी जयत्सेना कमलाक्ष्यथ शोभना / अमोचा चैव कौरव्य तथा लम्बपयोधरा // 20 शत्रुजया तथा चैव क्रोधना शलभी खरी // 6 वेणुवीणाधरा चैव पिङ्गाक्षी लोहमेखला / माधवी शुभवक्त्रा च तीर्थनेमिश्च भारत / शशोलूकमुखी कृष्णा खरजङ्घा महाजवा // 21 गीतप्रिया च कल्याणी कद्रुला चामिताशना // 7 शिशुमारमुखी श्वेता लोहिताक्षी विभीषणा / मेघस्वना भोगवती सुभ्रूश्च कनकावती / जटालिका कामचरी दीर्घजिह्वा बलोत्कटा // 22 अलाताक्षी वीर्यवती विद्युजिह्वा च भारत // 8 कालेडिका वामनिका मुकुटा चैव भारत / पद्मावती सुनक्षत्रा कन्दरा बहुयोजना। लोहिताक्षी महाकाया हरिपिण्डी च भूमिप // 23 संतानिका च कौरव्य कमला च महाबला // 9 / एकाक्षरा सुकुसुमा कृष्णकर्णी च भारत / सुदामा बहुदामा च सुप्रभा च यशस्विनी। क्षुरकी चतुष्कर्णी कर्णप्रावरणा तथा // 24 - 1894 - Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 45. 25] शल्यपर्व [9. 45. 52 चतुष्पथनिकेता च गोकर्णी महिषानना / नानाभरणधारिण्यो नानामाल्याम्बरास्तथा / खरकर्णी महाकर्णी भेरीस्वनमहास्वना // 25 नानाविचित्रवेषाश्च नानाभाषास्तथैव च // 39 शजकुम्भस्वना चैव भङ्गदा च महाबला / एते चान्ये च बहवो गणाः शत्रुभयंकराः / गणा च सुगणा चैव तथाभीत्यथ कामदा // 26 अनुजग्मुर्महात्मानं त्रिदशेन्द्रस्य संमते // 40 चतुष्पथरता चैव भूतितीर्थान्यगोचरा / ततः शक्त्यस्त्रमददद्भगवान्पाकशासनः / पशुदा वित्तदा चैव सुखदा च महायशाः / गुहाय राजशार्दूल विनाशाय सुरद्विषाम् // 41 पयोदा गोमहिषदा सुविषाणा च भारत / / 27 महास्वनां महाघण्टां द्योतमानां सितप्रभाम् / प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा च रोचमाना सुरोचना। तरुणादित्यवर्णां च पताकां भरतर्षभ // 42 गोकर्णी च सुकर्णी च ससिरा स्थेरिका तथा। ददौ पशुपतिस्तस्मै सर्वभूतमहाचमूम् / एकचक्रा मेघरवा मेघमाला विरोचना / / 28 उग्रां नानाप्रहरणां तपोवीर्यबलान्विताम् // 43 एताश्चान्याश्च बहवो मातरो भरतर्षभ / विष्णुर्ददौ वैजयन्ती मालां बलविवर्धिनीम् / कार्तिकेयानुयायिन्यो नानारूपाः सहस्रशः // 29 / उमा ददौ चारजसी वाससी सूर्यसप्रभे // 44 दीर्घनख्यो दीर्घदन्त्यो दीर्घतुण्ड्यश्च भारत / गङ्गा कमण्डलुं दिव्यममृतोद्भवमुत्तमम् / सरला मधुराश्चैव यौवनस्थाः स्वलंकृताः। ददौ प्रीत्या कुमाराय दण्डं चैव बृहस्पतिः // 45 माहात्म्येन च संयुक्ताः कामरूपधरास्तथा। गरुडो दयितं पुत्रं मयूरं चित्रबर्हिणम् / निर्मासगाच्यः श्वेताश्च तथा काश्चनसंनिभाः॥३१ | अरुणस्ताम्रचूडं च प्रददौ चरणायुधम् // 46 कृष्णमेघनिभाश्चान्या धूम्राश्च भरतर्षभ / पाशं तु वरुणो राजा बलवीर्यसमन्वितम् / अरुणाभा महाभागा दीघकेश्यः सिताम्बराः॥ 32 कृष्णाजिनं तथा ब्रह्मा ब्रह्मण्याय ददौ प्रभुः / ऊर्ध्ववेणीधराश्चैव पिङ्गाक्ष्यो लम्बमेखलाः / समरेषु जयं चैव प्रददौ लोकभावनः // 47 लम्बोदर्यो लम्बकर्णास्तथा लम्बपयोधराः // 33 सेनापत्यमनुप्राप्य स्कन्दो देवगणस्य ह / ताम्राक्ष्यस्ताम्रवर्णाश्च हर्यक्ष्यश्च तथापराः / शुशुभे ज्वलितोऽर्चिष्मान्द्वितीय इव पावकः / वरदाः कामचारिण्यो नित्यप्रमुदितास्तथा // 34 ततः पारिषदैश्चैव मातृभिश्च समन्वितः // 48 याम्यो रौद्रयस्तथा सौम्याः कौबेर्योऽथ महाबलाः / सा सेना नैर्ऋती भीमा सघण्टोच्छ्रितकेतना। वारुण्योऽथ च माहेन्द्रयस्तथाग्नेय्यः परंतप // 35 सभेरीशङ्खमुरजा सायुधा सपताकिनी / वायव्यश्चाथ कौमार्यो ब्रायश्च भरतर्षभ। शारदी द्यौरिवाभाति ज्योतिभिरुपशोभिता // 49 रूपेणाप्सरसां तुल्या जवे वायुसमास्तथा // 36 ततो देवनिकायास्ते भूतसेनागणास्तथा / परपुष्टोपमा वाक्ये तथा धनदोपमाः / वादयामासुरव्यग्रा भेरीशङ्खांश्च पुष्कलान् / / 50 शक्रवीर्योपमाश्चैव दीप्त्या वह्निसमास्तथा // 37 पटहाञ्झर्झरांश्चैव कृकंचान्गोविषाणिकान् / वृक्षचत्वरवासिन्यश्चतुष्पथनिकेतनाः। आडम्बरान्गोमुखांश्च डिण्डिमांश्च महास्वनान् // 51 गुहाश्मशानवासिन्यः शैलप्रस्रवणालयाः // 38 / तुष्टुवुस्ते कुमारं च सर्वे देवाः सवासवाः / - 1895 - Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 45. 52] महाभारते [9. 45.79 जगुश्च देवगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः // 52 त्रिपादं चायुतशतैर्ज घान दशभिर्वृतम् // 65 ततः प्रीतो महासेनस्त्रिदशेभ्यो वरं ददौ / हृदोदरं निखर्वैश्च वृतं दशभिरीश्वरः / रिपून्हन्तास्मि समरे ये वो वधचिकीर्षवः // 53 जघानानुचरैः सार्धं विविधायुधपाणिभिः // 66 प्रतिगृह्य वरं देवास्तस्माद्विबुधसत्तमात् / तत्राकुर्वन्त विपुलं नादं वध्यत्सु शत्रुषु / प्रीतात्मानो महात्मानो मेनिरे निहतान्रिपून // 54 कुमारानुचरा राजन्पूरयन्तो दिशो दश // 67 सर्वेषां भूतसंघानां हर्षान्नादः समुत्थितः / / शक्त्यत्रस्य तु राजेन्द्र ततोऽचिभिः समन्ततः / अपूरयत लोकांस्त्रीन्वरे दत्ते महात्मना // 55 दग्धाः सहस्रशो दैत्या नादैः स्कन्दस्य चापरे // 68 स निर्ययौ महासेनो महत्या सेनया वृतः / पताकयावधूताश्च हताः केचित्सुरद्विषः / वधाय युधि दैत्यानां रक्षार्थं च दिवौकसाम् // 56 केचिदण्टारवत्रस्ता निपेतुर्वसुधातले / व्यवसायो जयो धर्मः सिद्धिलक्ष्मीधृतिः स्मृतिः / केचित्प्रहरणैश्छिन्ना विनिपेतुर्गतासवः / / 69 महासेनस्य सैन्यानामग्रे जग्मुनराधिप / / 57 एवं सुरद्विषोऽनेकान्बलवानाततायिनः / स तया भीमया देवः शूलमुद्गरहस्तया / जघान समरे वीरः कार्तिकेयो महाबलः // 70 गदामुसलनाराचशक्तितोमरहस्तया। बाणो नामाथ दैतेयो बलेः पुत्रो महाबलः / दृप्तसिंहनिनादिन्या विनय प्रययौ गुहः // 58 क्रौञ्च पर्वतमासाद्य देवसंघानबाधत // 71 तं दृष्ट्वा सर्वदैतेया राक्षसा दानवास्तथा / तमभ्ययान्महासेनः सुरशत्रुमुदारधीः / . व्यद्रवन्त दिशः सर्वा भयोद्विग्नाः समन्ततः / स कार्तिकेयस्य भयात्क्रौञ्चं शरणमेयिवान् // 72 अभ्यद्रवन्त देवास्तान्विविधायुधपाणयः / / 59 ततः क्रौञ्चं महामन्युः क्रौञ्चनादनिनादितम् / दृष्ट्वा च स ततः क्रुद्धः स्कन्दस्तेजोबलान्वितः / शक्त्या बिभेद भगवान्कार्तिकेयोऽग्निदत्तया // 73 शक्त्यत्रं भगवान्भीमं पुनः पुनरवासृजत् / सशालस्कन्धसरलं त्रस्तवानरवारणम् / आदधञ्चात्मनस्तेजो हविषेद्ध इवानलः // 60 पुलिनत्रस्तविहगं विनिष्पतितपन्नगम् // 74 अभ्यस्यमाने शक्त्यस्त्रे स्कन्देनामिततेजसा। गोलाङ्गुलर्भसंघेश्च द्रवद्भिरनुनादितम् / उल्काज्वाला महाराज पपात वसुधातले // 61 कुरङ्गगतिनिषिमुद्धान्तसृमराचितम् / / 75 संहादयन्तश्च तथा निर्घाताश्चापतन्क्षितौ / विनिष्पतद्भिः शरभैः सिंहैश्च सहसा द्रुतैः / यथान्तकालसमये सुघोराः स्युस्तथा नृप / / 62 शोच्यामपि दशां प्राप्तो रराजैव स पर्वतः // 76 क्षिप्ता ह्येका तथा शक्तिः सुघोरानलसूनुना। विद्याधराः समुत्पेतुस्तस्य शृङ्गनिवासिनः / ततः कोट्यो विनिष्पेतुः शक्तीनां भरतर्षभ / / 63 किंनराश्च समुद्विग्नाः शक्तिपातरवोद्धताः / / 77 स शक्त्यस्त्रेण संग्रामे जघान भगवान्प्रभुः / ततो दैत्या विनिष्पेतुः शतशोऽथ सहस्रशः / दैत्येन्द्रं तारकं नाम महाबलपराक्रमम् / प्रदीप्तात्पर्वतश्रेष्ठाद्विचित्राभरणस्रजः / / 78 वृतं दैत्यायु चिरिबलिभिदशभिर्नृप / / 64 तान्निजन्नुरतिक्रम्य कुमारानुचरा मृधे / महिषं चाष्टभिः पौवृतं संख्ये निजन्निवान् / बिभेद शक्त्या कोयं च पावकिः परवीरहा // 79 - 1896 - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 45. 80] शल्यपर्व [9. 46. 11 बहुधा चैकधा चैव कृत्वात्मानं महात्मना। हृष्टः प्रीतमनाश्चैव ह्यभवन्माधवोत्तमः // 94 शक्तिः क्षिप्ता रणे तस्य पाणिमेति पुनः पुनः // 80 एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि / एवंप्रभावो भगवानतो भूयश्च पावकिः / यथाभिषिक्तो भगवान्स्कन्दो देवैः समागतैः॥ 95 अश्वस्तेन विनिर्भिन्नो दैत्याश्च शतशो हताः॥ 81 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ततः स भगवान्देवो निहत्य विबुधद्विषः / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 15 // सभाज्यमानो विबुधैः परं हर्षमवाप ह // 82 ततो दुन्दुभयो राजन्नेदुः शङ्खाश्च भारत / जनमजेय उवाच / मुमुचुर्देवयोषाश्च पुष्पवर्षमनुत्तमम् // 83 / अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मश्रुतवानस्मि तत्त्वतः / दिव्यगन्धमुपादाय ववौ पुण्यश्च मारुतः / अभिषेकं कुमारस्य विस्तरेण यथाविधि // 1 गन्धर्वास्तुष्टुवुश्चैनं यज्वानश्च महर्षयः / / 84 यच्छ्रुत्वा पूतमात्मानं विजानामि तपोधन / केचिदेनं व्यवस्यन्ति पितामहसुतं प्रभुम् / प्रहृष्टानि च रोमाणि प्रसन्नं च मनो मम // 2 सनत्कुमारं सर्वेषां ब्रह्मयोनि तमग्रजम् // 85 अभिषेकं कुमारस्य दैत्यानां च वधं तथा / केचिन्महेश्वरतं केचित्पुत्रं विभावसोः / श्रुत्वा मे परमा प्रीतिर्भूयः कौतूहलं हि मे // 3 उमायाः कृत्तिकानां च गङ्गायाश्च वदन्त्युत // 86 अपां पतिः कथं ह्यस्मिन्नभिषिक्तः सुरासुरैः। एकधा च द्विधा चैव चतुर्धा च महाबलम् / तन्मे बेहि महाप्राज्ञ कुशलो ह्यसि सत्तम // 4 चोगिनामीश्वरं देवं शतशोऽथ सहस्रशः // 87 वैशंपायन उवाच / एतत्ते कथितं राजन्कार्तिकेयाभिषेचनम् / शृणु राजन्निदं चित्रं पूर्वकल्पे यथातथम् / शृणु चैव सरस्वत्यास्तीर्थवंशस्य पुण्यताम् // 88 आदी कृतयुगे तस्मिन्वर्तमाने यथाविधि / बभूव तीर्थप्रवरं हतेषु सुरशत्रुषु / वरुणं देवताः सर्वाः समेत्येदमथाब्रुवन् // 5 कुमारेण महाराज त्रिविष्टपमिवापरम् / / 89 यथास्मान्सुरराट् शक्रो भयेभ्यः पाति सर्वदा / ऐश्वर्याणि च तत्रस्थो ददावीशः पृथक्पृथक् / तथा त्वमपि सर्वासां सरितां वै पतिर्भव // 6 तदा नैर्ऋतमुख्येभ्यस्त्रैलोक्ये पावकात्मजः // 90 वासश्च ते सदा देव सागरे मकरालये। एवं स भगवांस्तस्मिंस्तीर्थे दैत्यकुलान्तकः / समुद्रोऽयं तव वशे भविष्यति नदीपतिः // 7 अभिषिक्तो महाराज देवसेनापतिः सुरैः // 91 सोमेन सार्धं च तव हानिवृद्धी भविष्यतः। औजसं नाम तत्तीर्थं यत्र पूर्वमपां पतिः / एवमस्त्विति तान्देवान्वरुणो वाक्यमब्रवीत् // 8 अभिषिक्तः सुरगणैर्वरुणो भरतर्षभ / 92 समागम्य ततः सर्वे वरुणं सागरालयम् / तस्मिस्तीर्थवरे स्नात्वा स्कन्दं चाभ्यर्च्य लागली / अपां पतिं प्रचक्रुर्हि विधिदृष्टेन कर्मणा // 9 ब्राह्मणेभ्यो ददौ रुक्मं वासांस्याभरणानि च // 93 | अभिषिच्य ततो देवा वरुणं यादसां पतिम् / उषित्वा रजनी तत्र माधवः परवीरहा। जग्मुः स्वान्येव स्थानानि पूजयित्वा जलेश्वरम् // 10 पूज्य तीर्थवरं तच्च स्पृष्ट्वा तोयं च लागली। अभिषिक्तस्ततो देवैर्वरुणोऽपि महायशाः / म. भा. 238 - 1897 - Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 46. 11] महाभारते [9. 47.5 सरितः सागरांश्चैव नदांश्चैव सरांसि च / तत्रस्थमेव तं राजन्धनानि निधयस्तथा / पालयामास विधिना यथा देवाशतक्रतुः // 11 उपतस्थुर्नरश्रेष्ठ तत्तीर्थं लागली ततः / ततस्तत्राप्युपस्पृश्य दत्त्वा च विविधं वसु / गत्वा स्नात्वा च विधिवद्ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ॥२३ अग्नितीर्थं महाप्राज्ञः स जगाम प्रलम्बहा / ददृशे तत्र तत्स्थानं कौबेरे काननोत्तमे / नष्टो न दृश्यते यत्र शभीगर्भे हुताशनः // 12 पुरा यत्र तपस्तप्तं विपुलं सुमहात्मना / / 24 लोकालोकविनाशे च प्रादुर्भूते तदानघ / / यत्र राज्ञा कुबेरेण वरा लब्धाश्च पुष्कलाः / उपतस्थुमहात्मानं सर्वलोकपितामहम् // 13 धनाधिपत्यं सख्यं च रुद्रेणामिततेजसा // 25 अग्निः प्रनष्टो भगवान्कारणं च न विद्महे / सुरत्वं लोकपालत्वं पुत्रं च नलकूबरम् / सर्वलोकक्षयो मा भूसंपादयतु नोऽनलम् // 14 यत्र लेभे महाबाहो धनाधिपतिरञ्जसा // 26 जनमेजय उवाच / अभिषिक्तश्च तत्रैव समागम्य मरुद्गणैः / / किमर्थं भगवानग्निः प्रनष्टो लोकभावनः / वाहनं चास्य तद्दत्तं हंसयुक्तं मनोरमम् / विज्ञातश्च कथं देवैस्तन्ममाचक्ष्व तत्त्वतः // 15 विमानं पुष्पकं दिव्यं नैर्ऋतैश्वर्यमेव च // 27 वैशंपायन उवाच। तत्राप्लुत्य बलो राजन्दत्त्वा दायांश्च पुष्कलान् / भृगोः शापाभृशं भीतो जातवेदाः प्रतापवान् / जगाम त्वरितो रामस्तीर्थं श्वेतानुलेपनः // 28 शमीगर्भमथासाद्य ननाश भगवांस्ततः // 16 निषेवितं सर्वसत्त्वैर्नाम्ना बदरपाचनम् / प्रनष्टे तु तदा वह्नौ देवाः सर्वे सवासवाः।। नानतुकवनोपेतं सदापुष्पफलं शुभम् // 29 अन्वेषन्त तदा नष्टं ज्वलनं भृशदुःखिताः // 17 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ततोऽग्नितीर्थमासाद्य शमीगर्भस्थमेव हि / षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ 46 // ददृशुर्बलनं तत्र वसमानं यथाविधि // 18 देवाः सर्वे नरव्याघ्र बृहस्पतिपुरोगमाः / वैशंपायन उवाच / ज्वलनं तं समासाद्य प्रीताभूवन्सवासवाः / ततस्तीर्थवरं रामो ययौ बदरपाचनम् / पुनर्यथागतं जग्मुः सर्वभक्षश्च सोऽभवत् // 19 तपस्विसिद्धचरितं यत्र कन्या धृतव्रता // 1 भृगोः शापान्महीपाल यदुक्तं ब्रह्मवादिना / भरद्वाजस्य दुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि / तत्राप्याप्लुत्य मतिमान्ब्रह्मयोनि जगाम ह // 20 सुचावती नाम विभो कुमारी ब्रह्मचारिणी॥ 2 ससर्ज भगवान्यत्र सर्वलोकपितामहः / तपश्चचार सात्युग्रं नियमैर्बहुभिर्नृप / तत्राप्लुत्य ततो ब्रह्मा सह देवैः प्रभुः पुरा। भर्ता मे देवराजः स्यादिति निश्चित्य भामिनी // 3 ससर्ज चान्नानि तथा देवतानां यथाविधि // 21 समास्तस्या व्यतिक्रान्ता बह्वयः कुरुकुलोद्वह / तत्र स्नात्वा च दत्त्वा च वसूनि विविधानि च।। चरन्त्या नियमांस्तांस्तान्त्रीभिस्तीव्रान्सुदुश्वरान् / / 4 कौबेरं प्रययौ तीथं तत्र तप्त्वा महत्तपः / / तस्यास्तु तेन वृत्तेन तपसा च विशां पते / धनाधिपत्यं संप्राप्तो राजन्नैलबिलः प्रभुः // 22 / भक्त्या च भगवान्प्रीतः परया पाकशासनः // 5 - 1898 - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 47.6] शल्यपर्व [9. 47. 34 भाजगामाश्रमं तस्यास्त्रिदशाधिपतिः प्रभुः / तस्याः पचन्त्याः सुमहान्कालोऽगात्पुरुषर्षभ / आस्थाय रूपं विप्रर्वसिष्ठस्य महात्मनः // 6 न च स्म तान्यपच्यन्त दिनं च क्षयमभ्यगात्॥२० सा तं दृष्ट्वोप्रतपसं वसिष्ठं तपतां वरम् / हुताशनेन दग्धश्च यस्तस्याः काष्ठसंचयः / आचारैर्मुनिभिईष्टैः पूजयामास भारत // 7 अकाष्ठमग्निं सा दृष्ट्वा स्वशरीरमथादहत् // 21 उवाच नियमज्ञा च कल्याणी सा प्रियंवदा / पादौ प्रक्षिप्य सा पूर्व पावके चारुदर्शना / भगवन्मुनिशार्दूल किमाज्ञापयसि प्रभो // 8 दग्धौ दग्धौ पुनः पादावुपावर्तयतानघा / / 22 सर्वमद्य यथाशक्ति तव दास्यामि सुव्रत / चरणौ दह्यमानौ च नाचिन्तयदनिन्दिता / शक्रभक्त्या तु ते पाणिं न दास्यामि कथंचन // 9 दुःखं कमलपत्राक्षी महर्षेः प्रियकाम्यया // 23 व्रतैश्च नियमैश्चैव तपसा च तपोधन / अथ तत्कर्म दृष्ट्वास्याः प्रीतस्त्रिभुवनेश्वरः / शक्रस्तोषयितव्यो वै मया त्रिभुवनेश्वरः // 10 ततः संदर्शयामास कन्यायै रूपमात्मनः // 24 इत्युक्तो भगवान्देवः स्मयन्निव निरीक्ष्य ताम् / उवाच च सुरश्रेष्ठस्तां कन्यां सुदृढव्रताम् / उवाच नियमज्ञां तां सान्त्वयन्निव भारत // 11 प्रीतोऽस्मि ते शुभे भक्त्या तपसा नियमेन च // 25 उग्रं तपश्चरसि वै विदिता मेऽसि सुव्रते / तस्माद्योऽभिमतः कामः स ते संपत्स्यते शुभे / यदर्थमयमारम्भस्तव कल्याणि हृद्गतः // 12 देहं त्यक्त्वा महाभागे त्रिदिवे मयि वत्स्यसि // 26 तञ्च सर्वं यथाभूतं भविष्यति वरानने / इदं च ते तीर्थवरं स्थिरं लोके भविष्यति / तपसा लभ्यते सर्वं सर्वं तपसि तिष्ठति // 13 सर्वपापापहं सुभ्र नाम्ना बदरपाचनम् / यानि स्थानानि दिव्यानि विबुधानां शुभानने / विख्यातं त्रिषु लोकेषु ब्रह्मर्षिभिरभिप्लुतम् // 27 तपसा तानि प्राप्यानि तपोमूलं महत्सुखम् / / 14 अस्मिन्खलु महाभागे शुभे तीर्थवरे पुरा / इह कृत्वा तपो घोरं देहं संन्यस्य मानवाः / त्यक्त्वा सप्तर्षयो जग्मुहिमवन्तमरुन्धतीम् // 28 देवत्वं यान्ति कल्याणि शृणु चेदं वचो मम / / 15 ततस्ते वै महाभागा गत्वा तत्र सुसंशिताः / पचस्वैतानि सुभगे बदराणि शुभवते / वृत्त्यर्थं फलमूलानि समाहर्तुं ययुः किल // 29 पचेत्युक्त्वा स भगवाञ्जगाम बलसूदनः // 16 . तेषां वृत्त्यर्थिनां तत्र वसतां हिमवद्वने / आमच्य तां तु कल्याणी ततो जप्यं जजाप सः / अनावृष्टिरनुप्राप्ता तदा द्वादशवार्षिकी // 30 अविदूरे ततस्तस्मादाश्रमात्तीर्थ उत्तमे / ते कृत्वा चाश्रमं तत्र न्यवसन्त तपस्विनः / इन्द्रतीर्थ महाराज त्रिषु लोकेषु विश्रुते // 17 अरुन्धत्यपि कल्याणी तपोनित्याभवत्तदा // 31 तस्या जिज्ञासनार्थं स भगवान्पाकशासनः / अरुन्धती ततो दृष्ट्वा तीव्र नियममास्थिताम् / बदराणामपचनं चकार विबुधाधिपः // 18 अथागमत्रिनयनः सुप्रीतो वरदस्तदा // 32 ततः सा प्रयता राजन्वाग्यता विगतलमा / ब्रामं रूपं ततः कृत्वा महादेवो महायशाः / तत्परा शुचिसंवीता पावके समधियत् / तामभ्येत्याब्रवीद्देवो भिक्षामिच्छाम्यहं शुभे // 33 अपचद्राजशार्दूल बदराणि महाव्रता // 19 प्रत्युवाचः ततः सा तं ब्राह्मणं चारुदर्शना / - 1899 - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 47. 34 ] महाभारते [9. 47.61 क्षीणोऽन्नसंचयो विप्र बदराणीह भक्षय / / विशेषो हि त्वया भद्रे व्रते ह्यस्मिन्समर्पितः / ततोऽब्रवीन्महादेवः पचस्वैतानि सुव्रते // 34 तथा चेदं ददाम्यद्य नियमेन सुतोषितः // 48 इत्युक्ता सापचत्तानि ब्राह्मणप्रियकाम्यया / विशेषं तव कल्याणि प्रयच्छामि वरं वरे। अधिश्रित्य समिद्धेऽग्नौ बदराणि यशस्विनी // 35 अरुन्धत्या वरस्तस्या यो दत्तो वै महात्मना // 49 दिव्या मनोरमाः पुण्याः कथाः शुश्राव सा तदा / तस्य चाहं प्रसादेन तव कल्याणि तेजसा / अतीता सा त्वनावृष्टि?रा द्वादशवार्षिकी // 36 प्रवक्ष्याम्यपरं भूयो वरमत्र यथाविधि // 50 अनश्नन्त्याः पचन्त्याश्च शृण्वन्त्याश्च कथाः शुभाः / यस्त्वेका रजनी तीर्थे वत्स्यते सुसमाहितः। अहःसमः स तस्यास्तु कालोऽतीतः सुदारुणः॥३७ स स्नात्वा प्राप्स्यते लोकान्देहन्यासाञ्च दुर्लभान् // ततस्ते मुनयः प्राप्ताः फलान्यादाय पर्वतात् / / इत्युक्त्वा भगवान्देवः सहस्राक्षः प्रतापवान् / ततः स भगवान्प्रीतः प्रोवाचारुन्धतीं तदा // 38 स्रुचावतीं ततः पुण्यां जगाम त्रिदिवं पुनः / / 52 उपसर्पस्व धर्मज्ञे यथापूर्वमिमानुषीन् / गते वज्रधरे राजंस्तत्र वर्ष पपात ह / प्रीतोऽस्मि तव धर्मज्ञे तपसा नियमेन च // 39 पुष्पाणां भरतश्रेष्ठ दिव्यानां दिव्यगन्धिनाम्॥ 53 ततः संदर्शयामास स्वरूपं भगवान्हरः / नेदुर्दुन्दुभयश्चापि समन्तात्सुमहास्वनाः / ततोऽब्रवीत्तदा तेभ्यस्तस्यास्तचरितं महत् // 40 मारुतश्च ववौ युक्त्या पुण्यगन्धो विशां पते // 54 भवद्भिर्हिमवत्पृष्ठे यत्तपः समुपार्जितम् / उत्सृज्य तु शुभं देहं जगामेन्द्रस्य भार्यताम् / अस्याश्च यत्तपो विप्रा न समं तन्मतं मम // 41 तपसोग्रेण सा लब्ध्वा तेन रेमे सहाच्युत / / 55 अनया हि तपस्विन्या तपस्तप्तं सुदुश्चरम् / जनमेजय उवाच / अनश्नन्त्या पचन्त्या च समा द्वादश पारिताः // 42 का तस्या भगवन्माता क संवृद्धा च शोभना। ततः प्रोवाच भगवांस्तामेवारुन्धती पुनः / श्रोतुमिच्छाम्यहं ब्रह्मन्परं कौतूहलं हि मे // 56 वरं वृष्णीष्व कल्याणि यत्तेऽभिलषितं हृदि // 43 वैशंपायन उवाच / साब्रवीत्पृथुताम्राक्षी देवं सप्तर्षिसंसदि / भारद्वाजस्य विप्रर्षेः स्कन्नं रेतो महात्मनः / भगवान्यदि मे प्रीतस्तीर्थ स्यादिदमुत्तमम् / दृष्ट्वाप्सरसमायान्तीं घृताची पृथुलोचनाम् // 57 सिद्धदेवर्षिदयितं नाम्ना बदरपाचनम् // 44 स तु जग्राह तद्रेतः करेण जपतां वरः / तथास्मिन्देवदेवेश त्रिरात्रमुषितः शुचिः। तदावपत्पर्णपुटे तत्र सा संभवच्छुभा // 58 प्राप्नुयादुपवासेन फलं द्वादशवार्षिकम् / तस्यास्तु जातकर्मादि कृत्वा सर्वं तपोधनः / एवमस्त्विति तां चोक्त्वा हरो यातस्तदा दिवम्॥ 45 नाम चास्याः स कृतवान्भारद्वाजो महामुनिः॥ 59 ऋषयो विस्मयं जग्मुस्तां दृष्ट्वा चाप्यरुन्धतीम् / सुचावतीति धर्मात्मा तदर्षिगणसंसदि / अश्रान्तां चाविवर्णां च क्षुत्पिपासासहां सतीम्॥४६ स च तामाश्रमे न्यस्य जगाम हिमवद्वनम् // 60 एवं सिद्धिः परा प्राप्ता अरुन्धत्या विशुद्धया। तत्राप्युपस्पृश्य महानुभावो यथा त्वया महाभागे मदर्थं संशितव्रते // 47 / वसूनि दत्त्वा च महाद्विजेभ्यः / - 1900 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I. 4. 611 शल्पपर्व 19.49.1 जगाम तीर्थ सुसमाहितात्मा तत्र निर्जित्य संग्रामे मानुषान्दैवतांस्तथा / शक्रस्य वृष्णिप्रवरस्तदानीम् / / 61 वरं क्रतुं समाजढे वरुणः परवीरहा // 12 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तस्मिन्क्रतुवरे वृत्ते संग्रामः समजायत / सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः // 7 // देवानां दानवानां च त्रैलोक्यस्य क्षयावहः // 13 राजसूये ऋतुश्रेष्ठे निवृत्ते जनमेजय / वैशंपायन उवाच / जायते सुमहाघोरः संग्रामः क्षत्रियान्प्रति // 14 इन्द्रतीर्थं ततो गत्वा यदूनां प्रवरो बली। सीरायुधस्तदा रामस्तस्मिंस्तीर्थवरे तदा / विप्रेभ्यो धनरत्नानि ददौ स्नात्वा यथाविधि // 1 तत्र स्नात्वा च दत्त्वा च द्विजेभ्यो वसु माधवः।।१५ तत्र ह्यमरराजोऽसावीजे ऋतुशतेन ह / वनमाली ततो हृष्टः स्तूयमानो द्विजातिभिः / बृहस्पतेश्च देवेशः प्रददौ विपुलं धनम् // 2 तस्मादादित्यतीर्थं च जगाम कमलेक्षणः // 16 निरर्गलान्सजारूथ्यान्सर्वान्विविधदक्षिणान् / यत्रेष्ट्वा भगवाझ्योतिर्भास्करो राजसत्तम / आजहार क्रतूंस्तत्र यथोक्तान्वेदपारगैः // 3 ज्योतिषामाधिपत्यं च प्रभावं चाभ्यपद्यत // 17 तान्क्रतून्भरतश्रेष्ठ शतकृत्वो महाद्युतिः / तस्या नद्यास्तु तीरे वै सर्वे देवाः सवासवाः / पूरयामास विधिवत्ततः ख्यातः शतक्रतुः // 4 विश्वेदेवाः समरुतो गन्धर्वाप्सरसश्च ह // 18 तस्य नाम्ना च तत्तीर्थं शिवं पुण्यं सनातनम् / द्वैपायनः शुकश्चैव कृष्णश्च मधुसूदनः / इन्द्रतीर्थमिति ख्यातं सर्वपापप्रमोचनम् // 5 यक्षाश्च राक्षसाश्चैव पिशाचाश्च विशां पते / / 19 उपस्पृश्य च तत्रापि विधिवन्मुसलायुधः / एते चान्ये च बहवो योगसिद्धाः सहस्रशः / ब्राह्मणान्पूजयित्वा च पानाच्छादनभोजनैः / तस्मिंस्तीर्थे सरस्वत्याः शिवे पुण्ये परंतप // 20 शुभं तीर्थवरं तस्माद्रामतीथं जगाम ह // 6 तत्र हत्वा पुरा विष्णुरसुरौ मरुकैटभौ / यत्र रामो महाभागो भार्गवः सुमहातपाः। आप्लुतो भरतश्रेष्ठ तीर्थप्रवर उत्तमे // 21 असकृत्पृथिवीं सर्वां हतक्षत्रियपुंगवाम् // 7 द्वैपायनश्च धर्मात्मा तत्रैवाप्लुत्य भारत / उपाध्यायं पुरस्कृत्य कश्यपं मुनिसत्तमम् / संप्राप्तः परमं योगं सिद्धिं च परमां गतः // 22 अयजद्वाजपेयेन सोऽश्वमेधशतेन च / असितो देवलश्चैव तस्मिन्नेव महातपाः / प्रददौ दक्षिणार्थं च पृथिवीं वै ससागराम् // 8 परमं योगमास्थाय ऋषिर्योगमवाप्तवान् // 23 रामो दत्त्वा धनं तत्र द्विजेभ्यो जनमेजय / / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि उपरपृश्य यथान्यायं पूजयित्वा तथा द्विजान् // 9 अष्टचत्वारिंशोऽधायः॥१८॥ पुण्ये तीर्थे शुभे देशे वसु दत्त्वा शुभाननः / मुनींश्चैवाभिवाद्याथ यमुनातीर्थमागमत् / / 10 वैशंपायन उवाच यत्रानयामास तदा राजसूयं महीपते / तस्मिन्नेव तु धर्मात्मा वसति स्म तपोधनः / पुत्रोऽदितेर्महाभागो वरुणो वै सितप्रभः // 11 / गार्हस्थ्यं धर्ममास्थाय असितो देवलः पुरा // 1 - 1901 - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 49. 2] महाभारते [9. 49. 30 धर्मनित्यः शुचिर्दान्तो न्यस्तदण्डो महातपाः। इत्येवं चिन्तयामास महर्षिरसितस्तदा / कर्मणा मनसा वाचा समः सर्वेषु जन्तुषु // 2 स्नात्वा समुद्रे विधिवच्छुचिर्जप्यं जजाप ह // 17 अक्रोधनो महाराज तुल्यनिन्दाप्रियाप्रियः / कृतजप्याह्निकः श्रीमानाश्रमं च जगाम ह। काश्चने लोष्टके चैव समदर्शी महातपाः // 3 कलशं जलपूर्ण वै गृहीत्वा जनमेजय // 18 / देवताः पूजयन्नित्यमतिथींश्च द्विजैः सह / ततः स प्रविशन्नेव स्वमाश्रमपदं मुनिः। ब्रह्मचर्यरतो नित्यं सदा धर्मपरायणः // 4 आसीनमाश्रमे तत्र जैगीषव्यमपश्यत // 19 ततोऽभ्येत्य महाराज योगमास्थाय भिक्षुकः। न व्याहरति चैवैनं जैगीषव्यः कथंचन / जैगीषव्यो मुनि/मांस्तस्मिंस्तीर्थे समाहितः / / 5 काष्ठभूतोऽऽश्रमपदे वसति स्म महातपाः // 20 देवलस्याश्रमे राजन्न्यवसत्स महाद्युतिः। तं दृष्ट्वा चाप्लुतं तोये सागरे सागरोपमम् / योगनित्यो महाराज सिद्धिं प्राप्तो महातपाः // 6 प्रविष्टमाश्रमं चापि पूर्वमेव ददर्श सः // 21 तं तत्र वसमानं तु जैगीषव्यं महामुनिम् / असितो देवलो राजंश्चिन्तयामास बुद्धिमान् / देवलो दर्शयन्नेव नैवायुञ्जत धर्मतः // 7 दृष्टः प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम् // 22 एवं तयोर्महाराज दीर्घकालो व्यतिक्रमत् / / चिन्तयामास राजेन्द्र तदा स मुनिसत्तमः। जैगीषव्यं मुनि चैव न ददर्शाथ देवलः // 8 मया दृष्टः समुद्रे च आश्रमे च कथं त्वयम् // 23 आहारकाले मतिमान्परिव्राड् जनमेजय / एवं विगणयन्नेव स मुनिमत्रपारगः / उपातिष्ठत धर्मज्ञो भैक्षकाले स देवलम् // 9 उत्पपाताश्रमात्तस्मादन्तरिक्षं विशां पते / स दृष्ट्वा भिक्षुरूपेण प्राप्तं तत्र महामुनिम् / जिज्ञासार्थं तदा भिक्षो गीषव्यस्य देवलः // 24 गौरवं परमं चक्रे प्रीतिं च विपुलां तथा // 10 सोऽन्तरिक्षचरान्सिद्धान्समपश्यत्समाहितान् / . देवलस्तु यथाशक्ति पूजयामास भारत / जैगीषव्यं च तैः सिद्धैः पूज्यमानमपश्यत // 25 ऋषिदृष्टेन विधिना समा बह्वयः समाहितः॥११ ततोऽसितः सुसंरब्धो व्यवसायी दृढव्रतः। . कदाचित्तस्य नृपते देवलस्य महात्मनः / अपश्यद्वै दिवं यान्तं जैगीषव्यं स देवलः // 2 // चिन्ता सुमहती जाता मुनिं दृष्ट्वा महाद्युतिम् / / 12 तस्माच्च पितृलोकं तं व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत / समास्तु समतिक्रान्ता बह्वयः पूजयतो मम / / पितृलोकाच्च तं यान्तं याम्यं लोकमपश्यत // 27 न चायमलसो भिक्षुरभ्यभाषत किंचन / / 13 तस्मादपि समुत्पत्य सोमलोकमभिष्टुतम् / एवं विगणयन्नेव स जगाम महोदधिम् / व्रजन्तमन्वपश्यत्स जैगीषव्यं महामुनिम् // 28 अन्तरिक्षचरः श्रीमान्कलशं गृह्य देवलः // 14 लोकान्समुत्पतन्तं च शुभानेकान्तयाजिनाम् / गच्छन्नेव स धर्मात्मा समुद्रं सरितां पतिम् / ततोऽग्निहोत्रिणां लोकांस्तेभ्यश्चाप्युत्पपात ह॥२१ जैगीषव्यं ततोऽपश्यद्गतं प्रागेव भारत // 15 दर्श च पौर्णमासं च ये यजन्ति तपोधनाः। . ततः सविस्मयश्चिन्तां जगामाथासितः प्रभुः। तेभ्यः स ददृशे धीमालोकेभ्यः पशुयाजिनाम् / कथं भिक्षुरयं प्राप्तः समुद्रे स्नात एव च // 16 / व्रजन्तं लोकममलमपश्यद्देवपूजितम् // 30 . - 1902 - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 49. 31] शल्यपर्व [9. 49. 59 चातुर्मास्यैर्बहुविधैर्यजन्ते ये तपोधनाः / सिद्धा ऊचुः। तेषां स्थानं तथा यान्तं तथाग्निष्टोमयाजिनाम् // 31 शृणु देवल भूतार्थं शंसतां नो दृढव्रत / अग्निष्टुतेन च तथा ये यजन्ति तपोधनाः / जैगीषव्यो गतो लोकं शाश्वतं ब्रह्मणोऽव्ययम् // 46 तत्स्थानमनुसंप्राप्तमन्वपश्यत देवलः // 32 स श्रुत्वा वचनं तेषां सिद्धानां ब्रह्मसत्रिणाम् / वाजपेयं क्रतुवरं तथा बहुसुवर्णकम् / असितो देवलस्तूर्णमुत्पपात पपात च // 47 आहरन्ति महाप्राज्ञास्तेषां लोकेष्वपश्यत // 33 / ततः सिद्धास्त ऊचुर्हि देवलं पुनरेव ह। यजन्ते पुण्डरीकेण राजसूयेन चैव ये। न देवल गतिस्तत्र तव गन्तुं तपोधन / तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः / / 34 ब्रह्मणः सदनं विप्र जैगीषव्यो यदाप्तवान् / / 48 अश्वमेधं ऋतुवरं नरमेधं तथैव च। . तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सिद्धानां देवलः पुनः / आहरन्ति नरश्रेष्ठास्तेषां लोकेष्वपश्यत // 35 आनुपूर्येण लोकांस्तान्सर्वानवततार ह // 49 सर्वमेधं च दुष्प्रापं तथा सौत्रामणिं च ये / स्वमाश्रमपदं पुण्यमाजगाम पतंगवत् / तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः // 36 प्रविशन्नेव चापश्यज्जैगीषव्यं स देवलः // 50 द्वादशाहैश्च सत्रैर्ये यजन्ते विविधैर्नृप / ततो बुद्ध्या व्यगणयद्देवलो धर्मयुक्तया। तेषां लोकेष्वपश्यच्च जैगीषव्यं स देवलः // 37 दृष्ट्वा प्रभावं तपसो जैगीषव्यस्य योगजम् // 51 मित्रावरुणयोर्लोकानादित्यानां तथैव च / ततोऽब्रवीन्महात्मानं जैगीषव्यं स देवलः / सलोकतामनुप्राप्तमपश्यत ततोऽसितः // 38 विनयावनतो राजन्नुपसर्प्य महामुनिम् / रुद्राणां च वसूनां च स्थानं यच्च बृहस्पतेः। मोक्षधर्म समास्थातुमिच्छेयं भगवन्नहम् // 52 तानि सर्वाण्यतीतं च समपश्यत्ततोऽसितः // 39 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा उपदेशं चकार सः / आरुह्य च गवां लोकं प्रयान्तं ब्रह्मसत्रिणाम् / / विधिं च योगस्य परं कार्याकार्यं च शास्त्रतः॥५३ लोकानपश्यद्गच्छन्तं जैगीषव्यं ततोऽसितः // 40 संन्यासकृतबुद्धिं तं ततो दृष्ट्वा महातपाः / त्रीलोकानपरान्विप्रमुत्पतन्तं स्वतेजसा। सर्वाश्चास्य क्रियाश्चक्रे विधिदृष्टेन कर्मणा // 54 पतिव्रतानां लोकांश्च व्रजन्तं सोऽन्वपश्यत // 41 संन्यासकृतबुद्धिं तं भूतानि पितृभिः सह / ततो मुनिवरं भूयो जैगीषव्यमथासितः / ततो दृष्ट्वा प्ररुरुदुः कोऽस्मान्संविभजिष्यति // 55 नान्वपश्यत योगस्थमन्तर्हितमरिंदम // 42 देवलस्तु वचः श्रुत्वा भूतानां करुणं तथा। सोऽचिन्तयन्महाभागो जैगीषव्यस्य देवलः / दिशो दश व्याहरतां मोक्षं त्यक्तुं मनो दधे // 56 प्रभाव सुव्रतत्वं च सिद्धि योगस्य चातुलाम् // 43 ततस्तु फलमूलानि पवित्राणि च भारत / असितोऽपृच्छत तदा सिद्धाल्लोकेषु सत्तमान् / पुष्पाण्योषधयश्चैव रोरूयन्ते सहस्रशः // 57 प्रयतः प्राञ्जलिर्भूत्वा धीरस्तान्ब्रह्मसत्रिणः // 44 पुनर्नो देवलः क्षुद्रो नूनं छेत्स्यति दुर्मतिः / जैगीषव्यं न पश्यामि तं शंसत महौजसम् / अभयं सर्वभूतेभ्यो यो दत्त्वा नावबुध्यते // 58 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे // 45 / ततो भूयो व्यगणयत्स्वबुद्ध्या मुनिसत्तमः / - 1903 - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 49. 59] महाभारते [9. 50. 19 मोक्षे गार्हस्थ्यधर्मे वा किं नु श्रेयस्करं भवेत् / / 59 / दधीच इति विख्यातो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः॥ 5 इति निश्चित्य मनसा देवलो राजसत्तम / तस्यातितपसः शक्रो बिभेति सततं विभो। त्यक्त्वा गार्हस्थ्यधर्म स मोक्षधर्ममरोचयत् // 60 न स लोभयितुं शक्यः फलैर्बहुविधैरपि // 6 एवमादीनि संचिन्त्य देवलो निश्चयात्ततः / प्रलोभनाथ तस्याथ प्राहिणोत्पाकशासनः / प्राप्तवान्परमां सिद्धिं परं योगं च भारत // 61 दिव्यामप्सरसं पुण्यां दर्शनीयामलम्बुसाम् // 7 ततो देवाः समागम्य बृहस्पतिपुरोगमाः / तस्य तर्पयतो देवान्सरस्वत्यां महात्मनः / / जैगीषव्यं तपश्चास्य प्रशंसन्ति तपस्विनः // 62 समीपतो महाराज सोपातिष्ठत भामिनी // 8 अथाब्रवीदृषिवरो देवान् नारदस्तदा / तां दिव्यवपुषं दृष्ट्वा तस्य वितात्मनः / जैगीषव्ये तपो नास्ति विस्मापयति योऽसितम्॥६३ रेतः स्कन्नं सरस्वत्यां तत्सा जग्राह निम्नगा // 9 तमेवंवादिनं धीरं प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः / कुक्षौ चाप्यदधदृष्ट्वा तद्रेतः पुरुषर्षभ / . मैवमित्येव शंसन्तो जैगीषव्यं महामुनिम् // 64 सा दधार च तं गर्भ पुत्रहेतोर्महानदी // 10 तत्राप्युपस्पृश्य ततो महात्मा सुषुवे चापि समये पुत्रं सा सरितां वरा / दत्त्वा च वित्तं हलभृहिजेभ्यः / जगाम पुत्रमादाय तमृषि प्रति च प्रभो // 11 अवाप्य धर्म परमार्यकर्मा ऋषिसंसदि तं दृष्ट्वा सा नदी मुनिसत्तमम् / जगाम सोमस्य महत्स तीर्थम् // 65 ततः प्रोवाच राजेन्द्र ददती पुत्रमस्य तम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि ब्रह्मर्षे तव पुत्रोऽयं त्वद्भक्त्या धारितो मया // 12 एकोनपञ्चाशोऽध्यायः // 49 // दृष्ट्वा तेऽप्सरसं रेतो यत्स्कन्नं प्रागलम्बुसाम् / तत्कुक्षिणा वै ब्रह्मर्षे त्वद्भक्त्या धृतवत्यहम् // 13 वैशंपायन उवाच / न विनाशमिदं गच्छेत्त्वत्तेज इति निश्चयात् / यत्रेजिवानुडुपती राजसूयेन भारत / प्रतिगृह्णीय पुत्रं स्वं मया दत्तमनिन्दितम् // 14 तस्मिन्वृत्ते महानासीत्संग्रामस्तारकामयः // 1 इत्युक्तः प्रतिजग्राह प्रीतिं चावाप उत्तमाम् / तत्राप्युपस्पृश्य बलो दत्त्वा दानानि चात्मवान् / मञवच्चोपजिघ्रत्तं मूनि प्रेम्णा द्विजोत्तमः // 15 सारस्वतस्य धर्मात्मा मुनेस्तीथं जगाम ह // 2 परिष्वज्य चिरं कालं तदा भरतसत्तम / यत्र द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां द्विजोत्तमान् / सरस्वत्यै वरं प्रादास्त्रीयमाणो महामुनिः // 16 : वेदानध्यापयामास पुरा सारस्वतो मुनिः // 3 विश्वे देवाः सपितरो गन्धर्वाप्सरसां गणाः / जनमेजय उवाच / तृप्तिं यास्यन्ति सुभगे तय॑माणास्तवाम्भसा // 15 कथं द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां तपोधनः / इत्युक्त्वा स तु तुष्टाव वचोभिर्वै महानदीम् / वेदानध्यापयामास पुरा सारस्वतो मुनिः // 4 प्रीतः परमहृष्टात्मा यथावच्छृणु पार्थिव // 18 वैशंपायन उवाच। प्रसृतासि महाभागे सरसो ब्रह्मणः पुरा / आसीत्पूर्व महाराज मुनिर्धीमान्महातपाः / जानन्ति त्वां सरिच्छ्रेष्ठे मुनयः संशितव्रताः॥१९ - 1904 - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 50. 20] शल्यपर्व [9. 50. 47 अम प्रियकरी चापि सततं प्रियदर्शने / भृशं क्रोधविसृष्टेन ब्रह्मतेजोभवेन च / तस्मात्सारस्वतः पुत्रो महांस्ते वरवर्णिनि / 20 दैत्यदानववीराणां जघान नवतीनव // 33 तवैव नाम्ना प्रथितः पुत्रस्ते लोकभावनः / अथ काले व्यतिक्रान्ते महत्यतिभयंकरे / सारस्वत इति ख्यातो भविष्यति महातपाः / / 21 अनावृष्टिरनुप्राप्ता राजन्द्वादशवार्षिकी // 34 एष द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां द्विजर्षभान् / तस्यां द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां महर्षयः / सारस्वतो महाभागे वेदानध्यापयिष्यति // 22 वृत्त्यर्थं प्राद्रवन्राजन्क्षुधार्ताः सर्वतोदिशम् // 35 पुण्याभ्यश्च सरियस्त्वं सदा पुण्यतमा शुभे। दिग्भ्यस्तान्प्रद्रुतान्दृष्ट्वा मुनिः सारस्वतस्तदा / भविष्यसि महाभागे मत्प्रसादात्सरस्वति // 23 / गमनाय मतिं चक्रे तं प्रोवाच सरस्वती // 36 एवं सा संस्तुता तेन वरं लब्ध्वा महानदी। . न गन्तव्यमितः पुत्र तवाहारमह सदा / पुत्रमादाय मुदिता जगाम भरतर्षभ // 24 दास्यामि मत्स्यप्रवरानुष्यतामिह भारत // 37 एतस्मिन्नेव काले तु विरोधे देवदानवैः / इत्युक्तस्तर्पयामास स पितृन्देवतास्तथा / शक्रः प्रहरणान्वेषी लोकांस्त्रीन्विचचार ह // 25 आहारमकरोन्नित्यं प्राणान्वेदांश्च धारयन् // 38 चोपलेभे भगवाञ्शक्रः प्रहरणं तदा / अथ तस्यामतीतायामनावृष्टयां महर्षयः / द्वै तेषां भवेद्योग्यं वधाय विबुधद्विषाम् // 26 अन्योन्यं परिपप्रच्छुः पुनः स्वाध्यायकारणात् // 39 खतोऽब्रवीत्सुराञ्शको न मे शक्या महासुराः / तेषां क्षुधापरीतानां नष्टा वेदा विधावताम् / प्रतेऽस्थिभिर्दधीचस्य निहन्तुं त्रिदशद्विषः // 27 सर्वेषामेव राजेन्द्र न कश्चित्प्रतिभानवान् // 40 तस्माद्गत्वा ऋषिश्रेष्ठो याच्यतां सुरसत्तमाः। अथ कश्चिदृषिस्तेषां सारस्वतमुपेयिवान् / / दधीचास्थीनि देहीति तैर्वधिष्यामहे रिपून // 28 कुर्वाणं संशितात्मानं स्वाध्यायमृषिसत्तमम् // 41 स देवैर्या चितोऽस्थीनि यत्नादृषिवरस्तदा / स गत्वाचष्ट तेभ्यश्च सारस्वतमतिप्रभम् / प्राणत्यागं कुरुष्वेति चकारैवाविचारयन् / स्वाध्यायममरप्रख्यं कुर्वाणं विजने जने // 42 स लोकानक्षयान्प्राप्तो देवप्रियकरस्तदा // 29 ततः सर्वे समाजग्मुस्तत्र राजन्महर्षयः / तस्यास्थिभिरथो शक्रः संप्रहृष्टमनास्तदा / सारस्वतं मुनिश्रेष्ठमिदमूचुः समागताः // 43 कारयामास दिव्यानि नानाप्रहरणान्युत / अस्मानध्यापयस्वेति तानुवाच ततो मुनिः। षत्राणि चक्राणि गदा गुरुदण्डांश्च पुष्कलान् // 30 . शिष्यत्वमुपगच्छध्वं विधिवद्भो ममेत्युत // 44 स हि तीव्रेण तपसा संभृतः परमर्षिणा। ततोऽब्रवीदृषिगणो बालस्त्वमसि पुत्रक / प्रजापतिसुतेनाथ भृगुणा लोकभावनः // 31 स तानाह न मे धर्मो नश्येदिति पुनर्मुनीन् // 45 अतिकायः स तेजस्वी लोकसारविनिर्मितः / यो ह्यधर्मेण विब्रयागृह्णीयाद्वाप्यधर्मतः / जज्ञे शैलगुरुः प्रांशुमहिम्ना प्रथितः प्रभुः / म्रियतां तावुभौ क्षिप्रं स्यातां वा वैरिणावुभौ // 46 नित्यमुद्विजते चास्य तेजसा पाकशासनः // 32 न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः / तेन वज्रेण भगवान्मत्रयुक्तेन भारत / | ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् // 47 . भा. 239 - 1905 - Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 50. 48 ] महाभारते [9. 51. 21 एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य मुनयस्ते विधानतः / आत्मनः सदृशं सा तु भर्तारं नान्वपश्यत // 7 तस्माद्वेदाननुप्राप्य पुनर्धर्म प्रचक्रिरे // 48 ततः सा तपसोग्रेण पीडयित्वात्मनस्तनुम् / षष्टिर्मुनिसहस्राणि शिष्यत्वं प्रतिपेदिरे। पितृदेवार्चनरता बभूव विजने वने // 8 सारस्वतस्य विप्रर्वेदस्वाध्यायकारणात् / / 49 सात्मानं मन्यमानापि कृतकृत्यं श्रमान्विता / मुष्टिं मुष्टिं ततः सर्वे दर्भाणां तेऽभ्युपाहरन् / वार्द्धकेन च राजेन्द्र तपसा चैव कर्शिता // 9 तस्यासनार्थं विप्रर्षेर्वालस्यापि वशे स्थिताः // 50 सा नाशकद्यदा गन्तुं पदात्पदमपि स्वयम् / तत्रापि दत्त्वा वसु रौहिणेयो चकार गमने बुद्धिं परलोकाय वै तदा // 10 महाबलः केशवपूर्वजोऽथ / मोक्तुकामां तु तां दृष्ट्वा शरीरं नारदोऽब्रवीत् / जगाम तीर्थं मुदितः क्रमेण असंस्कृतायाः कन्यायाः कुतो लोकास्तवानघे॥११ ख्यातं महद्वृद्धकन्या स्म यत्र // 51 एवं हि श्रुतमस्माभिर्देवलोके महाव्रते।' इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तपः परमकं प्राप्तं न तु लोकास्त्वया जिताः // 12 पञ्चाशोऽध्यायः // 5 // तन्नारदवचः श्रुत्वा साब्रवीदृषिसंसदि / तपसोऽधं प्रयच्छामि पाणिग्राहस्य सत्तमाः॥१३ इत्युक्ते चास्या जग्राह पाणिं गालवसंभवः / जनमेजय उवाच / ऋषिः प्राक्शृङ्गवान्नाम समयं चेदमब्रवीत् // 14 कथं कुमारी भगवंस्तपोयुक्ता ह्यभूत्पुरा / समयेन तवाद्याहं पाणिं प्रक्ष्यामि शोभने / किमर्थं च तपस्तेपे को वास्या नियमोऽभवत् // 1 यद्येकरात्रं वस्तव्यं त्वया सह मयेति ह // 15 सुदुष्करमिदं ब्रह्मस्त्वत्तः श्रुतमनुत्तमम् / / तथेति सा प्रतिश्रुत्य तस्मै पाणिं ददौ तदा / आख्याहि तत्त्वमखिलं यथा तपसि सा स्थिता // 2 चक्रे च पाणिग्रहणं तस्योद्वाहं च गालविः // 16 वैशंपायन उवाच / सा रात्रावभवद्राजस्तरुणी देववर्णिनी। ऋषिरासीन्महावीर्यः कुणिर्गार्यो महायशाः / दिव्याभरणवत्रा च दिव्यनगनुलेपना / / 17 स तप्त्वा विपुलं राजंस्तपो वै तपतां वरः / तां दृष्ट्वा गालविः प्रीतो दीपयन्तीमिवात्मना। मानसीं स सुतां सुधं समुत्पादितवान्विभुः // 3 उवास च क्षपामेकां प्रभाते साब्रवीच्च तम् / / 18 तां च दृष्ट्वा भृशं प्रीतः कुणिर्गार्यो महायशाः / यस्त्वया समयो विप्र कृतो मे तपतां वर / जगाम त्रिदिवं राजन्संत्यज्येह कलेवरम् // 4 तेनोषितास्मि भद्रं ते स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्॥१९ सुभ्रः सा ह्यथ कल्याणी पुण्डरीकनिभेक्षणा / सानुज्ञाताब्रवीद्भूयो योऽस्मिस्तीर्थे समाहितः / महता तपसोग्रेण कृत्वाश्रममनिन्दिता // 5 वत्स्यते रजनीमेकां तर्पयित्वा दिवौकसः // 20 उपवासैः पूजयन्ती पितॄन्देवांश्च सा पुरा / चत्वारिंशतमष्टौ च द्वे चाष्टौ सम्यगाचरेत् / तस्यास्तु तपसोग्रेण महान्कालोऽत्यगानृप // 6 यो ब्रह्मचर्यं वर्षाणि फलं तस्य लभेत सः / सा पित्रा दीयमानापि भर्ने नैच्छदनिन्दिता।। एवमुक्त्वा ततः साध्वी देहं त्यक्त्वा दिवं गता॥२१ - 1906 - Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 51. 22] शल्यपर्व [9. 52. 18 विषिरप्यभवदीनस्तस्या रूपं विचिन्तयन् / अभ्येत्य शक्रस्त्रिदिवात्पर्यपृच्छत कारणम् // 4 समयेन तपोऽधं च कृच्छ्रात्प्रतिगृहीतवान् // 22 / किमिदं वर्तते राजन्प्रयत्नेन परेण च / राधयित्वा तदात्मानं तस्याः स गतिमन्वयात् / / राजर्षे किमभिप्रेतं येनेयं कृष्यते क्षितिः // 5 दुःखितो भरतश्रेष्ठ तस्या रूपबलात्कृतः / कुरुरुवाच / एतत्ते वृद्धकन्याया व्याख्यातं चरितं महत् // 23 इह ये पुरुषाः क्षेत्रे मरिष्यन्ति शतक्रतो / वनस्थश्चापि शुश्राव हतं शल्यं हलायुधः / ते गमिष्यन्ति सुकृताल्लोकान्पापविवर्जितान् // 6 पत्रापि दत्त्वा दानानि द्विजातिभ्यः परंतप / अवहस्य ततः शक्रो जगाम त्रिदिवं प्रभुः / पशोच शल्यं संग्रामे निहतं पाण्डवैस्तदा / / 24 . राजर्षिरप्यनिर्विण्णः कर्षत्येव वसुंधराम् / / 7 समन्तपञ्चकद्वारात्ततो निष्क्रम्य माधवः / आगम्यागम्य चैवैनं भूयो भूयोऽवहस्य च / प्रच्छर्षिगणान्रामः कुरुक्षेत्रस्य यत्फलम् / / 25 शतक्रतुरनिर्विण्णं पृष्ट्वा पृष्ट्वा जगाम ह // 8 से पृष्टा यदुसिंहेन कुरुक्षेत्रफलं विभो। . यदा तु तपसोग्रेण चकर्ष वसुधां नृपः / तमाचख्युर्महात्मानस्तस्मै सर्वं यथातथम् / / 26 ततः शक्रोऽब्रवीद्देवान्राजर्षेर्यच्चिकीर्षितम् // 9 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तच्छ्रुत्वा चाब्रुवन्देवाः सहस्राक्षमिदं वचः / एकपञ्चाशोऽध्यायः॥५१॥ वरेण च्छन्द्यतां शक्र राजर्षिर्य दि शक्यते // 10 यदि ह्यत्र प्रमीता वै स्वर्ग गच्छन्ति मानवाः / अस्माननिष्ट्वा क्रतुभिर्भागो नो न भविष्यति // 11 ऋषय ऊचुः / आगम्य च ततः शक्रस्तदा राजर्षिमब्रवीत् / प्रजापतेरुत्तरवेदिरुच्यते अलं खेदेन भवतः क्रियतां वचनं मम // 12 सनातना राम समन्तपश्वकम् / मानवा ये निराहारा देहं त्यक्ष्यन्त्यतन्द्रिताः / समीजिरे यत्र पुरा दिवौकसो युधि वा निहताः सम्यगपि तिर्यग्गता नृप // 13 रेण सत्रेण महावरप्रदाः // 1 ते स्वर्गभाजो राजेन्द्र भवन्त्विति महामते / पुरा च राजर्षिवरेण धीमता तथास्त्विति ततो राजा कुरुः शक्रमुवाच ह // 14 __ बहूनि वर्षाण्यमितेन तेजसा / ततस्तमभ्यनुज्ञाप्य प्रहृष्टेनान्तरात्मना / प्रकृष्टमेतत्कुरुणा महात्मना जगाम त्रिदिवं भूयः क्षिप्रं बलनिषूदनः // 15 ततः कुरुक्षेत्रमितीह पप्रथे // 2 एवमेतद्यदुश्रेष्ठ कृष्टं राजर्षिणा पुरा / राम उवाच / शक्रेण चाप्यनुज्ञातं पुण्यं प्राणान्विमुञ्चताम् // 16 किमर्थं कुरुणा कृष्टं क्षेत्रमेतन्महात्मना / अपि चात्र स्वयं शक्रो जगौ गाथां सुराधिपः / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं कथ्यमानं तपोधनाः // 3 कुरुक्षेत्रे निबद्धां वै तां शृणुष्व हलायुध // 17 ऋषय ऊचुः / पांसवोऽपि कुरुक्षेत्राद्वायुना समुदीरिताः / पुरा किल कुरुं राम कृषन्तं सततोत्थितम् / अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम् / / 18 - 1907 - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 52. 19 ] महाभारते [9. 53. 20 सुरर्षभा ब्राह्मणसत्तमाश्च सा तु प्राप्य परं योगं गता स्वर्गमनुत्तमम् / तथा नृगाद्या नरदेवमुख्याः / भुक्त्वाश्रमेऽश्वमेधस्य फलं फलवतां शुभा। इष्ट्वा महाहैः ऋतुभिर्नृसिंह गता स्वर्ग महाभागा पूजिता नियतात्मभिः // 8 संन्यस्य देहान्सुगतिं प्रपन्नाः // 19 अभिगम्याश्रमं पुण्यं दृष्ट्वा च यदुपुंगवः / तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं ऋषींस्तानभिवाद्याथ पार्श्वे हिमवतोऽच्युतः / रामहदानां च मचक्रुकस्य / स्कन्धावाराणि सर्वाणि निवारुरुहेऽचलम् // 9 एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं नातिदूरं ततो गत्वा नगं तालध्वजो बली / प्रजापतेरुत्तरवेदिरुच्यते // 20 पुण्यं तीर्थवरं दृष्ट्वा विस्मयं परमं गतः // 10 शिवं महत्पुण्यमिदं दिवौकसां प्रभवं च सरस्वत्याः प्लक्षप्रस्रवणं बलः / सुसंमतं स्वर्गगुणैः समन्वितम् / संप्राप्तः कारपचनं तीर्थप्रवरमुत्तमम् // .11 अतश्च सर्वेऽपि वसुंधराधिपा हलायुधस्तत्र चापि दत्त्वा दानं महाबलः / हता गमिष्यन्ति महात्मनां गतिम् // 21 आप्लुतः सलिले शीते तस्माच्चापि जगाम ह / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि आश्रमं परमप्रीतो मित्रस्य वरुणस्य च // 12 / द्विपञ्चाशोऽध्यायः॥५२॥ इन्द्रोऽग्निर्यमा चैव यत्र प्राक्प्रीतिमाप्नुवन् / 53 तं देशं कारपचनाद्यमुनायां जगाम ह॥ 13 वैशंपायन उवाच / स्नात्वा तत्रापि धर्मात्मा परां तुष्टिमवाप्य च / कुरुक्षेत्रं ततो दृष्ट्वा दत्त्वा दायांश्च सात्वतः / ऋषिभिश्चैव सिद्धैश्च सहितो वै महाबलः / आश्रमं सुमहद्दिव्यमगमजनमेजय // 1 उपविष्टः कथाः शुभ्राः शुश्राव यदुपुंगवः // 14 . मधूकाम्रवनोपेतं प्लक्षन्यग्रोधसंकुलम् / तथा तु तिष्ठतां तेषां नारदो भगवानृषिः / चिरिबिल्वयुतं पुण्यं पनसार्जुनसंकुलम् // 2 आजगामाथ तें देशं यत्र रामो व्यवस्थितः // 15 तं दृष्ट्वा यादवश्रेष्ठः प्रवरं पुण्यलक्षणम् / जटामण्डलसंवीतः स्वर्णचीरी महातपाः / पप्रच्छ तानृषीन्सन्किस्याश्रमवरस्त्वयम् // 3 हेमदण्डधरो राजन्कमण्डलुधरस्तथा // 16 ते तु सर्वे महात्मानमूचू राजन्हलायुधम् / / कच्छपी सुखशब्दां तां गृह्य वीणां मनोरमाम् / शृणु विस्तरतो राम यस्यायं पूर्वमाश्रमः // 4 नृत्ये गीते च कुशलो देवब्राह्मणपूजितः // 17 अत्र विष्णुः पुरा देवस्तप्तवांस्तप उत्तमम् / प्रकर्ता कलहानां च नित्यं च कलहप्रियः / अत्रास्य विधिवद्यज्ञाः सर्वे वृत्ताः सनातनाः // 5 तं देशमगमद्यत्र श्रीमान्रामो व्यवस्थितः // 18 अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा कौमारब्रह्मचारिणी। प्रत्युत्थाय तु ते सर्वे पूजयित्वा यतव्रतम् / योगयुक्ता दिवं याता तपःसिद्धा तपस्विनी // 6 देवर्षि पर्यपृच्छन्त यथावृत्तं कुरून्प्रति // 19 बभूव श्रीमती राजशाण्डिल्यस्य महात्मनः / ततोऽस्याकथयद्राजन्नारदः सर्वधर्मवित् / सुता धृतव्रता साध्वी नियता ब्रह्मचारिणी // 7 सर्वमेव यथावृत्तमतीतं कुरुसंक्षयम् // 20 - 1908 - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 53. 21] शल्यपर्व [9. 54.5 ततोऽब्रवीद्रौहिणेयो नारदं दीनया गिरा। विप्राणां संनिधौ श्लोकमगायदिदमच्युतः // 33 किमवस्थं तु तत्क्षत्रं ये च तत्राभवन्नपाः // 21 सरस्वतीवाससमा कुतो रतिः भुतमेतन्मया पूर्व सर्वमेव तपोधन / ___ सरस्वतीवाससमाः कुतो गुणाः / विस्तरश्रवणे जातं कौतूहलमतीव मे // 22 सरस्वतीं प्राप्य दिवं गता जनाः नारद उवाच / सदा स्मरिष्यन्ति नदीं सरस्वतीम् // 34 पूर्वमेव हतो भीष्मो द्रोणः सिन्धुपतिस्तथा।। सरस्वती सर्वनदीपु पुण्या हतो वैकर्तनः कर्णः पुत्राश्चास्य महारथाः // 23 सरस्वती लोकसुखावहा सदा / भूरिश्रवा रौहिणेय मद्रराजश्च वीर्यवान् / सरस्वतीं प्राप्य जनाः सुदुष्कृताः एते चान्ये च बहवस्तत्र तत्र महाबलाः / / 24 सदा न शोचन्ति परत्र चेह च // 35 प्रियान्प्राणान्परित्यज्य प्रियार्थ कौरवस्य वै। ततो मुहुर्मुहुः प्रीत्या प्रेक्षमाणः सरस्वतीम् / राजानो राजपुत्राश्च समरेष्वनिवर्तिनः / / 25 हयैर्युक्तं रथं शुभ्रमातिष्ठत परंतपः // 36 बहतांस्तु महाबाहो शृणु मे तत्र माधव / स शीघ्रगामिना तेन रथेन यदुपुंगवः / धार्तराष्ट्रबले शेषाः कृपो भोजश्च वीर्यवान्। दिदृक्षुरभिसंप्राप्तः शिष्ययुद्धमुपस्थितम् / / 37 अश्वत्थामा च विक्रान्तो भग्नसैन्या दिशो गताः॥२६ इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि दुर्योधनो हते सैन्ये प्रद्रुतेषु कृपादिषु / त्रिपञ्चाशोऽध्यायः // 53 // इदं द्वैपायनं नाम विवेश भृशदुःखितः / 27 // समाप्तं तीर्थयात्रापर्व // शयानं धार्तराष्ट्रं तु स्तम्भिते सलिले तदा / पाण्डवाः सह कृष्णेन वाग्भिरुग्राभिरादयन् / / 28 स तुद्यमानो बलवान्वाग्मी राम समन्ततः / वैशंपायन उवाच / उत्थितः प्राग्नदाद्वीरः प्रगृह्य महतीं गदाम् // 29 एवं तदभवाद्धं तुमुलं जनमेजय / स चाप्युपगतो युद्धं भीमेन सह सांप्रतम् / यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् // 1 भविष्यति च तत्सद्यस्तयो राम सुदारुणम् // 30 रामं संनिहितं दृष्ट्वा गदायुद्ध उपस्थिते / यदि कौतूहलं तेऽस्ति व्रज माधव मा चिरम् / मम पुत्रः कथं भीमं प्रत्ययुध्यत संजय // 2 पश्य युद्धं महाघोरं शिष्ययोर्यदि मन्यसे // 31 संजय उवाच / वैशंपायन उवाच / रामसांनिध्यमासाद्य पुत्रो दुर्योधनस्तव / नारदस्य वचः श्रुत्वा तानभ्यर्च्य द्विजर्षभान् / / युद्धकामो महाबाहुः समदृष्यत वीर्यवान् // 3 सर्वान्विसर्जयामास ये तेनाभ्यागताः सह / दृष्ट्वा लाङ्गलिनं राजा प्रत्युत्थाय च भारत / गम्यतां द्वारकां चेति सोऽन्वशानुयायिनः॥३२ प्रीत्या परमया युक्तो युधिष्ठिरमथाब्रवीत् // 4 सोऽवतीर्याचलश्रेष्ठात्प्लक्षप्रस्रवणाच्छुभात् / / समन्तपञ्चकं क्षिप्रमिलो याम विशां पते / ततः प्रीतमना रामः श्रुत्वा तीर्थफलं महत् / प्रथितोत्तरवेदी सा देवलोके प्रजापतेः // 5 - 1909 - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 54.6] महाभारत [9. 54. 35 तस्मिन्महापुण्यतमे त्रैलोक्यस्य सनातने / भीमसेनमभिप्रेक्ष्य गजो गजमिवाह्वयत् // 20 संग्रामे निधनं प्राप्य ध्रुवं स्वर्गो भविष्यति // 6 | अद्रिसारमयी भीमस्तथैवादाय वीर्यवान् / तथेत्युक्त्वा महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / आह्वयामास नृपति सिंहः सिंहं यथा वने // 21 समन्तपञ्चकं वीरः प्रायादभिमुखः प्रभुः / / 7 तावुद्यतगदापाणी दुर्योधनवृकोदरौ। ततो दुर्योधनो राजा प्रगृह्य महतीं गदाम् / संयुगे स्म प्रकाशेते गिरी सशिखराविव // 22 पझ्याममर्षा युतिमानगच्छत्पाण्डवैः सह // 8 तावुभावभिसंक्रुद्धावुभौ भीमपराक्रमौ। . तथा यान्तं गदाहस्तं वर्मणा चापि दंशितम् / उभौ शिष्यौ गदायुद्धे रौहिणेयस्य धीमतः // 23 अन्तरिक्षगता देवाः साधु साध्वित्यपूजयन् / उभौ सदृशकर्माणौ यमवासवयोरिव / वातिकाश्च नरा येऽत्र दृष्ट्वा ते हर्षमागताः // 9 तथा सदृशकर्माणौ वरुणस्य महाबलौ // 24 स पाण्डवैः परिवृतः कुरुराजस्तवात्मजः / वासुदेवस्य रामस्य तथा वैश्रवणस्य च / मत्तस्येव गजेन्द्रस्य गतिमास्थाय सोऽव्रजत् / / 10 सदृशौ तौ महाराज मधुकैटभयोयुधि // 25 ततः शङ्खनिनादेन भेरीणां च महास्वनैः / उभौ सदृशकर्माणौ रणे सुन्दोपसुन्दयोः / सिंहनादैश्च शूराणां दिशः सर्वाः प्रपूरिताः // 11 तथैव कालस्य समौ मृत्योश्चैव परंतपौ // 26 प्रतीच्यभिमुखं देशं यथोद्दिष्टं सुतेन ते / अन्योन्यमभिधावन्तौ मत्ताविव महाद्विपौ। गत्वा च तैः परिक्षिप्तं समन्तात्सर्वतोदिशम् // 12 वाशितासंगमे दृप्तौ शरदीव मदोत्कटौ // 27 दक्षिणेन सरस्वत्याः स्वयनं तीर्थमुत्तमम् / मत्ताविव जिगीषन्तौ मातङ्गौ भरतर्षभी। तस्मिन्देशे त्वनिरिणे तत्र युद्धमरोचयन् // 13 उभी क्रोधविषं दीप्तं वमन्तावुरगाविव // 28 ततो भीमो महाकोटिं गदां गृह्याथ वर्मभृत् / अन्योन्यमभिसंरब्धौ प्रेक्षमाणावरिंदमौ। बिभ्रद्रूपं महाराज सदृशं हि गरुत्मतः // 14 उभौ भरतशार्दूलो विक्रमेण समन्विता // 29 अवबद्धशिरस्त्राणः संख्ये काञ्चनवर्मभृत् / सिंहाविव दुराधर्षों गदायुद्धे परंतपौ / रराज राजन्पुत्रस्ते काञ्चनः शैलराडिव // 15 नखदंष्ट्रायुधौ वीरौ व्याघ्राविव दुरुत्सहौ // 30 वर्मभ्यां संवृतौ वीरौ भीमदुर्योधनावुभौ / प्रजासंहरणे क्षुब्धौ समुद्राविव दुस्तरौ / संयुगे च प्रकाशेते संरब्धाविव कुञ्जरौ // 16 लोहिताङ्गाविव क्रुद्धौ प्रतपन्तौ महारथौ // 31 रणमण्डलमध्यस्थौ भ्रातरो तो नरर्षभौ / रश्मिमन्तौ महात्मानौ दीप्तिमन्तौ महाबलौ / अशोभेतां महाराज चन्द्रसूर्या विवोदितौ // 17 ददृशाते कुरुश्रेष्ठी कालसूर्या विवोदितौ // 32 तावन्योन्यं निरीक्षेतां क्रुद्धाविव महाद्विपौ।। व्याघ्राविव सुसंरब्धौ गर्जन्ताविव तोयदौ / दहन्तौ लोचनै राजन्परस्परवधैषिणौ // 18 / / जहषाते महाबाहू सिंहौ केसरिणाविव / / 33 संप्रहृष्टमना राजन्गदामादाय कौरवः / गजाविव सुसंरब्धौ ज्वलिताविव पावको / सृक्किणी संलिहनराजन्क्रोधरक्तेक्षणः श्वसन् // 19 / ददृशुस्तौ महात्मानौ सशृङ्गाविव पर्वतौ // 34 ततो दुर्योधनो राजा गदामादाय वीर्यवान्। / रोषात्प्रस्फुरमाणोष्ठी निरीक्षन्तो परस्परम् / - 1910 - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 54. 35] शल्यपर्व [9. 55. 18 तौ समेतौ महात्मानौ गदाहस्तौ नरोत्तमौ // 35 गदामुद्यम्य यो याति किमन्यद्भागधेयतः // 4 भी परमसंहृष्टावुभौ परमसंमतौ। | अहो दुःखं महत्प्राप्तं पुत्रेण मम संजय / / सदश्वाविव हेषन्तौ बृहन्ताविव कुञ्जरौ // 36 / / एवमुक्त्वा स दुःखार्तो विरराम जनाधिपः // 5 वृषभाविव गर्जन्तौ दुर्योधनवृकोदरौ। संजय उवाच / दैत्याविव बलोन्मत्तौ रेजतुस्तौ नरोत्तमौ // 37 स मेघनिनदो हर्षाद्विनदन्निव गोवृषः / ततो दुर्योधनो राजन्निदमाह युधिष्ठिरम् / आजुहाव ततः पार्थं युद्धाय युधि वीर्यवान् // 6 सञ्जयैः सह तिष्ठन्तं तपन्तमिव भास्करम् // 38 भीममाह्वयमाने तु कुरुराजे महात्मनि / इदं व्यवसितं युद्धं मम भीमस्य चोभयोः / प्रादुरासन्सुघोराणि रूपाणि विविधान्युत // 7 उपोपविष्टाः पश्यध्वं विमदं नृपसत्तमाः // 39 ववुर्वाताः सनिर्घाताः पांसुवर्षं पपात च / ततः समुपविष्टं तत्सुमहद्राजमण्डलम् / बभूवुश्च दिशः सर्वास्तिमिरेण समावृताः / / 8 विराजमानं ददृशे दिवीवादित्यमण्डलम् // 40 महास्वनाः सनिर्घातास्तुमुला लोमहर्षणाः / तेषां मध्ये महाबाहुः श्रीमान्केशवपूर्वजः / .. पेतुस्तथोल्काः शतशः स्फोटयन्त्यो नभस्तलम् // 9 उपविष्टो महाराज पूज्यमानः समन्ततः // 41 राहुश्चाग्रसदादित्यमपर्वणि विशां पते / शुशुभे राजमध्यस्थो नीलवासाः सितप्रभः / चकम्पे च महाकम्पं पृथिवी सवनद्रुमा // 10 क्षत्रैरिव संपूर्णा वृता निशि निशाकरः / / 42 रूझाश्च वाताः प्रक्चुचिः शरवाद / तथा तु महाराज गदाहस्तौ दुरासदौ। गिरीणां शिखराण्येव न्यपतन्त महीतले // 11 न्योन्यं वाग्भिरुग्राभिस्तक्षमाणौ व्यवस्थितौ // 43 मृगा बहुविधाकाराः संपतन्ति दिशो दश / अप्रियाणि ततोऽन्योन्यमुक्त्वा तौ कुरुपुंगवौ। दीप्ताः शिवाश्चाप्यनदन्घोररूपाः सुदारुणाः॥ 12 उदीक्षन्तौ स्थितौ वीरौ वृत्रशक्राविवाहवे // 44 निर्घाताश्च महाघोरा बभूवुर्ले महर्षणाः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि दीप्तायां दिशि राजेन्द्र मृगाश्चाशुभवादिनः // 13 चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः // 54 // उदपानगताश्चापो व्यवर्धन्त समन्ततः / अशरीरा महानादाः श्रूयन्ते स्म तदा नृप // 14 वैशंपायन उवाच। एवमादीनि दृष्ट्वाथ निमित्तानि वृकोदरः / ततो वाग्युद्धमभवत्तुमुलं जनमेजय / उवाच भ्रातरं ज्येष्ठं धर्मराज युधिष्ठिरम् // 15 यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् / / 1 नैष शक्तो रणे जेतुं मन्दात्मा मां सुयोधनः / धिगस्तु खलु मानुष्यं यस्य निष्ठेयमीदृशी / अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निगूढं हृदये चिरम् / एकादशचमूभर्ता यत्र पुत्रो ममाभिभूः // 2 सुयोधने कौरवेन्द्रे खाण्डवे पावको यथा // 16 आज्ञाप्य सर्वान्नृपतीन्भुक्त्वा चेमां वसुंधराम् / शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम् / गदामादाय वेगेन पदातिः प्रस्थितो रणम् // 3 / निहत्य गदया पापमिमं कुरुकुलाधमम् / / 17 भूत्वा हि जगतो नाथो ह्यनाथ इव मे सुतः। अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रतिमोक्ष्याम्यहं त्वयि / -1911 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 55. 18] महाभारते [9. 56.1 हत्वेमं पापकर्माणं गदया रणमूर्धनि // 18 प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः / अद्यास्य शतधा देहं भिनद्मि गदयानया। भ्रातरस्ते हताः सर्वे शूरा विक्रान्तयोधिनः // 33 नायं प्रवेष्टा नगरं पुनर्वारणसाह्वयम् // 19 एते चान्ये च बहवो निहतास्त्वत्कृते नृपाः। . सर्पोत्सर्गस्य शयने विषदानस्य भोजने / त्वामद्य निहनिष्यामि गदया नात्र संशयः // 34 प्रमाणकोट्यां पातस्य दाहस्य जतुवेश्मनि / 20 इत्येवमुच्चै राजेन्द्र भाषमाणं वृकोदरम् / सभायामवहासस्य सर्वस्वहरणस्य च / उवाच वीतभी राजन्पुत्रस्ते सत्यविक्रमः // 35 वर्षमज्ञातवासस्य वनवासस्य चानघ / 21 किं कत्थितेन बहुधा युध्यस्व त्वं वृकोदर / अद्यान्तमेषां दुःखानां गन्ता भरतसत्तम / अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां कुलाधम // 36 एकाह्रा विनिहत्येमं भविष्याम्यात्मनोऽनृणः // 22 नैव दुर्योधनः क्षुद्र केनचित्त्वद्विधेन वै / अद्यायुर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेरकृतात्मनः / शक्यस्त्रासयितुं वाचा यथान्यः प्राकृतो नरः // 37 समाप्तं भरतश्रेष्ठ मातापित्रोश्च दर्शनम् // 23 चिरकालेप्सितं दिष्ट्या हृदयस्थमिदं मम / अद्यायं कुरुराजस्य शंतनोः कुलपांसनः / त्वया सह गदायुद्धं त्रिदशैरुपपादितम् // 38 प्राणाश्रियं च राज्यं च त्यक्त्वा शेष्यति भूतले॥२४ किं वाचा बहुनोक्तेन कत्थितेन च दुर्मते / राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं मया हतम् / वाणी संपद्यतामेषा कर्मणा मा चिरं कृथाः // 39 स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम् // 25 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्व एवाभ्यपूजयन् / . इत्युक्त्वा राजशार्दूल गदामादाय वीर्यवान् / राजानः सोमकाश्चैव ये तत्रासन्समागताः // 40 अवातिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन् // 26 ततः संपूजितः सर्वैः संप्रहृष्टतनूरुहः / तमुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गिणम् / भूयो धीरं मनश्चक्रे युद्धाय कुरुनन्दनः // 41 भीमसेनः पुनः दो दुर्योधनमुवाच ह // 27 तं मत्तमिव मातङ्गं तलतालैनराधिपाः / राज्ञश्च धृतराष्ट्रस्य तथा त्वमपि चात्मनः / भूयः संहर्षयांचक्रुदुर्योधनममर्षणम् // 42 स्मर तदुष्कृतं कर्म यद्वृत्तं वारणावते // 28 तं महात्मा महात्मानं गदामुद्यम्य पाण्डवः / द्रौपदी च परिक्लिष्टा सभायां यद्रजस्वला। अभिदुद्राव वेगेन धार्तराष्ट्रं वृकोदरः // 43 द्यूते च वश्चितो राजा यत्त्वया सौबलेन च // 29 / बृंहन्ति कुञ्जरास्तत्र हया हेषन्ति चासकृत् / वने दुःखं च यत्प्राप्तमस्माभिस्त्वत्कृतं महत् / / शस्त्राणि चाप्यदीप्यन्त पाण्डवानां जयैषिणाम् // विराटनगरे चैव योन्यन्तरगतैरिव / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि तत्सर्वं यातयाम्यद्य दिष्ट्या दृष्टोऽसि दुर्मते // 30 पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // त्वत्कृतेऽसौ हतः शेते शरतल्पे प्रतापवान् / गाङ्गेयो रथिनां श्रेष्ठो निहतो याज्ञसेनिना // 31 संजय उवाच। हतो द्रोणश्च कर्णश्च तथा शल्यः प्रतापवान् / ततो दुर्योधनो दृष्ट्वा भीमसेनं तथागतम् / वैराग्नेरादिकर्ता च शकुनिः सौबलो हतः / / 32 / प्रत्युद्ययावदीनात्मा वेगेन महता नदन् // 1 - 1912 - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 56. 2] शल्यपर्व [9. 56. 31 समापेततुरानद्य शृङ्गिणौ वृषभाविव / अचरद्भीमसेनस्तु मार्गान्बहुविधांस्तथा / महानिर्घातघोषश्च संप्रहारस्तयोरभूत् / / 2 मण्डलानि विचित्राणि स्थानानि विविधानि च // 17 अभवञ्च तयोयुद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् / गोमूत्रिकाणि चित्राणि गतप्रत्यागतानि च / जिगीषतोयुधान्योन्यमिन्द्रप्रह्रादयोरिव // 3 परिमोक्षं प्रहाराणां वर्जनं परिधावनम् // 18 रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ गदाहस्तौ मनस्विनौ / अभिद्रवणमाक्षेपमवस्थानं सविग्रहम् / ददृशाते महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ // 4 परावर्तनसंवर्तमवप्लुतमथाप्लुतम् / तथा तस्मिन्महायुद्धे वर्तमाने सुदारुणे। उपन्यस्तमपन्यस्तं गदायुद्धविशारदौ // 19 खद्योतसंधैरिव खं दर्शनीयं व्यरोचत / 5 एवं तौ विचरन्तौ तु न्यन्नतां वै परस्परम् / तथा तस्मिन्वर्तमाने संकुले तुमुले भृशम् / . वश्चयन्तौ पुनश्चैव चेरतुः कुरुसत्तमौ // 20 उभावपि परिश्रान्तौ युध्यमानावरिंदमौ // 6 विक्रीडन्तौ सुबलिनौ मण्डलानि प्रचेरतुः / तो मुहूर्त समाश्वस्य पुनरेव परंतपौं। गदाहस्तौ ततस्तौ तु मण्डलावस्थितौ बली // 21 अभ्यहारयतां तत्र संप्रगृह्य गदे शुभे // 7 दक्षिणं मण्डलं राजन्धार्तराष्ट्रोऽभ्यवर्तत / सौ तु दृष्ट्वा महावी? समाश्वस्तौ नरर्षभो / सव्यं तु मण्डलं तत्र भीमसेनोऽभ्यवर्तत // 22 बलिनी वारणौ यद्वद्वाशितार्थे मदोत्कटौ // 8 तथा तु चरतस्तस्य भीमस्य रणमूर्धनि / अपारवीयौ संप्रेक्ष्य प्रगृहीतगदावुभौ / दुर्योधनो महाराज पार्श्वदेशेऽभ्यताडयत् // 23 विस्मयं परमं जग्मुर्देवगन्धर्वदानवाः / / 9 आहतस्तु तदा भीमस्तव पुत्रेण भारत / प्रगृहीतगदौ दृष्ट्वा दुर्योधनवृकोदरौ / आविध्यत गदा गुर्वी प्रहारं तमचिन्तयन् // 24 संशयः सर्वभूतानां विजये समपद्यत // 10 इन्द्राशनिसमां घोरां यमदण्डमिवोद्यताम् / समागम्य ततो भूयो भ्रातरौ बलिनां वरौ / ददृशुस्ते महाराज भीमसेनस्य तां गदाम् // 25 अन्योन्यस्यान्तरप्रेप्सू प्रचक्रातेऽन्तरं प्रति // 11 आविध्यन्तं गदां दृष्ट्वा भीमसेनं तवात्मजः / / यमदण्डोपमा गुर्वीमिन्द्राशनिमिवोद्यताम् / समुद्यम्य गदां घोरां प्रत्यविध्यदरिंदमः // 26 ददृशुः प्रेक्षका राजन्रौद्री विशसनी गदाम् // 12 गदामारुतवेगेन तव पुत्रस्य भारत / आविध्यतो गदां तस्य भीमसेनस्य संयुगे / शब्द आसीत्सुतुमुलस्तेजश्च समजायत // 27 शब्दः सुतुमुलो घोरो मुहूर्तं समपद्यत // 13 स चरन्विविधान्मार्गान्मण्डलानि च भागशः / आविध्यन्तमभिप्रेक्ष्य धार्तराष्ट्रोऽथ पाण्डवम् / समशोभत तेजस्वी भूयो भीमात्सुयोधनः / / 28 गदामलघुवेगां तां विस्मितः संबभूव ह // 14 आविद्धा सर्ववेगेन भीमेन महती गदा / चरंश्च विविधान्मार्गान्मण्डलानि च भारत / सधूमं सार्चिषं चाग्निं मुमोचोग्रा महास्वना // 29 अशोभत तदा वीरो भूय एव वृकोदरः // 15 आधूतां भीमसेनेन गदां दृष्ट्वा सुयोधनः / तौ परस्परमासाद्य यत्तावन्योन्यरक्षणे / अद्रिसारमयीं गुर्वीमाविध्यन्बह्वशोभत // 30 मार्जाराविव भक्षार्थे ततक्षाते मुहुर्मुहुः // 16 गदामारुतवेगं हि दृष्ट्वा तस्य महात्मनः / म.भा. 240 - 1913 - Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 56. 31] महाभारते [9. 56. 60 भयं विवेश पाण्डून्वै सर्वानेव ससोमकान् // 31 गदानिपातं प्रज्ञाय भीमसेनमवश्चयत् // 46 तौ दर्शयन्तौ समरे युद्धक्रीडां समन्ततः / वञ्चयित्वा तथा भीमं गदया कुरुसत्तमः / गदाभ्यां सहसान्योन्यमाजघ्नतुररिंदमौ // 32 ताडयामास संक्रुद्धो वक्षोदेशे महाबलः // 47 तौ परस्परमासाद्य दंष्ट्राभ्यां द्विरदौ यथा / गदयाभिहतो भीमो मुह्यमानो महारणे। . अशोभेतां महाराज शोणितेन परिप्लुतौ / / 33 नाभ्यमन्यत कर्तव्यं पुत्रेणाभ्याहतस्तव // 48 एवं तदभवद्युद्धं घोररूपमसंवृतम् / / तस्मिंस्तथा वर्तमाने राजन्सोमकपाण्डवाः / परिवृत्तेऽहनि क्रूरं वृत्रवासवयोरिव / / 34 भृशोपहतसंकल्पा नहृष्टमनसोऽभवन् // 49 दृष्ट्वा व्यवस्थितं भीमं तव पुत्रो महाबलः / स तु तेन प्रहारेण मातङ्ग इव रोषितः / चरंश्चित्रतरान्मार्गान्कौन्तेयमभिदुद्रुवे // 35 हस्तिवद्धस्तिसंकाशमभिदुद्राव ते सुतम् // 50 तस्य भीमो महावेगां जाम्बूनदपरिष्कृताम् / ततस्तु रभसो भीमो गदया तनयं तय / अभिक्रुद्धस्य क्रुद्धस्तु ताडयामास तां गदाम् // 36 अभिदुद्राव वेगेन सिंहो वनगजं यथा / / 51 सविस्फुलिङ्गो नि दस्तयोस्तत्राभिघातजः / उपसृत्य तु राजानं गदामोक्षविशारदः / प्रादुरासीन्महाराज सृष्टयोर्वज्रयोरिव // 37 आविध्यत गदां राजन्समुद्दिश्य सुतं तव // 52 वेगवत्या तया तत्र भीमसेनप्रमुक्तया / अताडयद्भीमसेनः पार्श्वे दुर्योधनं तदा / निपतन्या महाराज पृथिवी समकम्पत // 38 स विह्वलः प्रहारेण जानुभ्यामगमन्महीम् / / 53 तां नामृष्यत कौरव्यो गदां प्रतिहतां रणे / तस्मिंस्तु भरतश्रेष्ठ जानुभ्यामवनी गते / मत्तो द्विप इव क्रुद्धः प्रतिकुञ्जरदर्शनात् / / 39 उदतिष्ठत्ततो नादः सृञ्जयानां जगत्पते // 54 स सव्यं मण्डलं राजन्नुभ्राम्य कृतनिश्चयः / तेषां तु निनदं श्रुत्वा सृञ्जयानां नरर्षभः / आजन्ने मूर्ध्नि कौन्तेयं गदया भीमवेगया // 40 अमर्षाद्भरतश्रेष्ठ पुत्रस्ते समकुप्यत // 55 तया त्वभिहतो भीमः पुत्रेण तव पाण्डवः / उत्थाय तु महाबाहुः क्रुद्धो नाग इव श्वसन् / नाकम्पत महाराज तदद्भुतमिवाभवत् // 41 दिधक्षन्निव नेत्राभ्यां भीमसेनमवैक्षत || 56 आश्चर्यं चापि तद्राजन्सर्वसैन्यान्यपूजयन् / ततः स भरतश्रेष्ठो गदापाणिरभिद्रवत् / यद्गदाभिहतो भीमो नाकम्पत पदात्पदम् // 42 प्रमथिष्यन्निव शिरो भीमसेनस्य संयुगे // 57 ततो गुरुतरां दीप्तां गदां हेमपरिष्कृताम् / / स महात्मा महात्मानं भीमं भीमपराक्रमः / दुर्योधनाय व्यसृजद्भीमो भीमपराक्रमः // 43 अताडयच्छङ्खदेशे स चचालाचलोपमः // 58 तं प्रहारमसंभ्रान्तो लाघवेन महाबलः / स भूयः शुशुभे पार्थस्ताडितो गदया रणे। मोघं दुर्योधनश्चक्रे तत्राभूद्विस्मयो महान् // 44 उद्भिन्नरुधिरो राजन्प्रभिन्न इव कुञ्जरः // 59 सा तु मोघा गदा राजन्पतन्ती भीमचोदिता / __ततो गदां वीरहणीमयस्मयीं . चालयामास पृथिवीं महानिर्घातनिस्वना // 45 ___प्रगृह्य वज्राशनितुल्यनिस्वनाम् / आस्थाय कौशिकान्मार्गानुत्पतन्स पुनः पुनः। अताडयच्छत्रुममित्रकर्शमो -1914- . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 56. 60] शल्यपर्व [9. 57. 12 बलेन विक्रम्य धनंजयाग्रजः // 60 स भीमसेनाभिहतस्तवात्मजः संजय उवाच / पपात संकम्पितदेहबन्धनः / समुदीर्णं ततो दृष्ट्वा संग्रामं कुरुमुख्ययोः / सुपुष्पितो मारुतवेगताडितो अथाब्रवीदर्जुनस्तु वासुदेवं यशस्विनम् // 1 महावने साल इवावपूर्णितः // 61 अनयोरियोयुद्धे को ज्यायान्भवतो मतः / ततः प्रणेदुर्जहषुश्च पाण्डवाः कस्य वा को गुणो भूयानेतद्वद जनार्दन // 2 समीक्ष्य पुत्रं पतितं क्षितौ तव / ततः सुतस्ते प्रतिलभ्य चेतना वासुदेव उवाच / समुत्पपात द्विरदो यथा हृदात् // 62 उपदेशोऽनयोस्तुल्यो भीमस्तु बलवत्तरः / स पार्थिवो नित्यममर्षितस्तदा / कृतयत्नतरस्त्वेष धार्तराष्ट्रो वृकोदरात् // 3 महारथः शिक्षितवत्परिभ्रमन् / भीमसेनस्तु धर्मेण युध्यमानो न जेष्यति / अताडयत्पाण्डवमग्रतः स्थितं अन्यायेन तु युध्यन्वै हन्यादेष सुयोधनम् // 4 स विह्वलाङ्गो जगतीमुपास्पृशत् // 63 मायया निर्जिता देवैरसुरा इति नः श्रुतम् / . स सिंहनादान्विननाद कौरवो विरोचनश्च शक्रेण मायया निर्जितः सखे / . निपात्य भूमौ युधि भीममोजसा / मायया चाक्षिपत्तेजो वृत्रस्य बलसूदनः // 5 बिभेद चैवाशनितुल्यतेजसा प्रतिज्ञातं तु भीमेन द्यूतकाले धनंजय / गदानिपातेन शरीररक्षणम् // 64 ऊरू भेत्स्यामि ते संख्ये गदयेति सुयोधनम् // 6 ततोऽन्तरिक्षे निनदो महानभू सोऽयं प्रतिज्ञां तां चापि पारयित्वारिकर्शनः / __ दिवौकसामप्सरसां च नेदुषाम् / मायाविनं च राजानं माययैव निकृन्ततु // 7 पपात चोच्चैरमरप्रवेरितं यद्येष बलमास्थाय न्यायेन प्रहरिष्यति / / विचित्रपुष्पोत्करवर्षमुत्तमम् // 65 विषमस्थस्ततो राजा भविष्यति युधिष्ठिरः // 8 ततः परानाविशदुत्तमं भयं पुनरेव च वक्ष्यामि पाण्डवेदं निबोध मे। - समीक्ष्य भूमौ पतितं नरोत्तमम् / धर्मराजापराधेन भयं नः पुनरागतम् // 9 अहीयमानं च बलेन कौरवं कृत्वा हि सुमहत्कर्म हत्वा भीष्ममुखान्कुरून् / .. निशम्य भेदं च दृढस्य वर्मणः // 66 जयः प्राप्तो यशश्चाग्यं वैरं च प्रतियातितम् / ततो मुहूर्ता दुपलभ्य चेतना तदेवं विजयः प्राप्तः पुनः संशयितः कृतः॥ 10 प्रमृज्य वक्त्रं रुधिराईमात्मनः / अबुद्धिरेषा महती धर्मराजस्य पाण्डव / धृतिं समालम्ब्य विवृत्तलोचनो यदेकविजये युद्धं पणितं कृतमीदृशम् / बलेन संस्तभ्य वृकोदरः स्थितः / / 67 / सुयोधनः कृती वीर एकायनगतस्तथा // 11 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः // 56 // | अपि चोशनसा गीतः श्रूयतेऽयं पुरातनः / - 1915 - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 57. 12] महाभारते [ 9. 57. 42 श्लोकस्तत्त्वार्थसहितस्तन्मे निगदतः शृणु / / 12 उभावपि परिश्रान्तौ युध्यमानावरिंदमौ / / 27 पुनरावर्तमानानां भग्नानां जीवितैषिणाम् / / तौ मुहूर्त समाश्वस्य पुनरेव परंतपो / भेतव्यमरिशेषाणामेकायनगता हि ते // 13 अभ्यहारयतां क्रुद्धौ प्रगृह्य महती गदे // 28 सुयोधनमिमं भग्नं हतसैन्यं हृदं गतम् / तयोः समभवद्युद्धं घोररूपमसंवृतम् / पराजितं वनप्रेप्सुं निराशं राज्यलम्भने // 14 गदानिपातै राजेन्द्र तक्षतोवै परस्परम् / / 29 को न्वेष संयुगे प्राज्ञः पुनद्वंद्वे समाह्वयेत् / व्यायामप्रद्रुतौ तौ तु वृषभाक्षौ तरस्विनौ / अपि वो निर्जितं राज्यं न हरेत सुयोधनः // 15 अन्योन्यं जघ्नतुर्वीरौ पङ्कस्थौ महिषाविव // 30 यस्त्रयोदशवर्षाणि गदया कृतनिश्रमः / जर्जरीकृतसर्वाङ्गौ रुधिरेणामिसंप्लुतौ / चरत्यूचं च तिर्यक्च भीमसेनजिघांसया // 16 ददृशाते हिमवति पुष्पिताविव किंशुकौ // 31 एवं चेन्न महाबाहुरन्यायेन हनिष्यति / दुर्योधनेन पार्थस्तु विवरे संप्रदर्शिते / एष वः कौरवो राजा धार्तराष्ट्रो भविष्यति // 17 ईषदुत्स्मयमानस्तु सहसा प्रससार ह / / 32 धनंजयस्तु श्रुत्वैतत्केशवस्य महात्मनः / तमभ्याशगतं प्राज्ञो रणे प्रेक्ष्य वृकोदरः / प्रेक्षतो भीमसेनस्य हस्तेनोरुमताडयत् // 18 अवाक्षिपद्गदां तस्मै वेगेन महता बली // 33 गृह्य संज्ञां ततो भीमो गदया व्यचरद्रणे / अवक्षेपं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्तव विशां पते / मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च // 19 अपासर्पत्ततः स्थानात्सा मोघा न्यपतद्भुवि // 34 दक्षिणं मण्डलं सव्यं गोमूत्रकमथापि च / मोक्षयित्वा प्रहारं तं सुतस्तव स संभ्रमात् / व्यचरत्पाण्डवो राजन्नर संमोहयन्निव / / 20 भीमसेनं च गदया प्राहरत्कुरुसत्तमः // 35 तथैव तव पुत्रोपि गदामार्गविशारदः / तस्य विष्यन्दमानेन रुधिरेणामितौजसः / व्यचरल्लघु चित्रं च भीमसेनजिघांसया // 21 प्रहारगुरुपाताच्च मूर्छव समजायत // 36 आधुन्वन्तौ गदे घोरे चन्दनागरुरूषिते / दुर्योधनस्तं न वेद पीडितं पाण्डवं रणे / वैरस्यान्तं परीप्सन्तौ रणे क्रुद्धाविवान्तकौ // 22 धारयामास भीमोऽपि शरीरमतिपीडितम् / / 37 अन्योन्यं तौ जिघांसन्तौ प्रवीरौ पुरुषर्षभौ। अमन्यत स्थितं ह्येनं प्रहरिष्यन्तमाहवे। युयुधाते गरुत्मन्तौ यथा नागामिषैषिणौ // 23 अतो न प्राहरत्तस्मै पुनरेव तवात्मजः // 38 मण्डलानि विचित्राणि चरतोपभीमयोः / ततो मुहूर्तमाश्वस्य दुर्योधनमवस्थितम् / गदासंपातजास्तत्र प्रजनुः पावकार्चिषः // 24 वेगेनाभ्यद्रवद्राजन्भीमसेनः प्रतापवान् // 39 समं प्रहरतोस्तत्र शूरयोर्बलिनोर्मधे / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य संरब्धममितौजसम् / क्षुब्धयोर्वायुना राजन्द्वयोरिव समुद्रयोः // 25 मोघमस्य प्रहारं तं चिकीर्षभरतर्षभ // 40 तयोः प्रहरतोस्तुल्यं मत्तकुञ्जरयोरिव / अवस्थाने मतिं कृत्वा पुत्रस्तव महामनाः / गदानिर्घातसंहादः प्रहाराणामजायत // 26 इयेषोत्पतितुं राजश्छलयिष्यन्वृकोदरम् / / 41 तस्मिंस्तदा संप्रहारे दारुणे संकुले भृशम् / / अबुध्यद्भीमसेनस्तद्राज्ञस्तस्य चिकीर्षितम् / - 1916 - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 57. 42] शल्यपर्व [9. 58.9 अथास्य समभिद्रुत्य समुत्क्रम्य च सिंहवत् // 42 दृष्ट्वा तानद्भुतोत्पातान्पाञ्चालाः पाण्डवैः सह / सत्या वश्चयतो राजन्पुनरेवोत्पतिष्यतः / आविग्नमनसः सर्वे बभूवुर्भरतर्षभ // 57 ऊरुभ्यां प्राहिणोद्राजन्गदां वेगेन पाण्डवः // 43 ययुर्देवा यथाकामं गन्धर्वाप्सरसस्तथा / सा वननिष्पेषसमा प्रहिता भीमकर्मणा / कथयन्तोऽद्भुतं युद्धं सुतयोस्तव भारत // 58 अरू दुर्योधनस्याथ बभञ्ज प्रियदर्शनौ // 44 तथैव सिद्धा राजेन्द्र तथा वातिकचारणाः / स पपात नरव्याघ्रो वसुधामनुनादयन् / नरसिंही प्रशंसन्तो विप्रजग्मुर्यथागतम् // 59 भग्नोरुीमसेनेन पुत्रस्तव महीपते // 45 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि बवुर्वाताः सनिर्घाताः पांसुवर्षं पपात च / सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // चचाल पृथिवी चापि सवृक्षक्षुपपर्वता // 46 तस्मिन्निपतिते वीरे पत्यौ सर्वमहीक्षिताम् / संजय उवाच। महास्वना पुनर्दीप्ता सनिर्घाता भयंकरी / तं पातितं ततो दृष्ट्वा महाशालमिवोद्गतम् / पपात चोल्का महती पतिते पृथिवीपतौ // 47 प्रहृष्टमनसः सर्वे बभूवुस्तत्र पाण्डवाः // 1 तथा शोणितवर्ष च पांसुवर्षं च भारत / उन्मत्तमिव मातङ्गं सिंहेन विनिपातितम् / ववर्ष मघवांस्तत्र तव पुत्रे निपातिते // 48 ददृशुर्दृष्टरोमाणः सर्वे ते चापि सोमकाः // 2 यक्षाणां राक्षसानां च पिशाचानां तथैव च / ततो दुर्योधनं हत्वा भीमसेनः प्रतापवान् / अन्तरिक्षे महानादः श्रूयते भरतर्षभ // 49 पतितं कौरवेन्द्रं तमुपगम्येदमब्रवीत् // 3 तेन शब्देन घोरेण मृगाणामथ पक्षिणाम् / गौौरिति पुरा मन्द द्रौपदीमेकवाससम् / जज्ञे घोरतमः शब्दो बहूनां सर्वतोदिशम् // 50 यत्सभायां हसन्नस्मांस्तदा वससि दुर्मते / ये तत्र वाजिनः शेषा गजाश्च मनुजैः सह / तस्यावहासस्य फलमद्य त्वं समवाप्नुहि // 4 मुमुचुस्ते महानादं तव पुत्रे निपातिते // 51 एवमुक्त्वा स वामेन पदा मौलिमुपास्पृशत् / भेरीशङ्खमृदङ्गानामभवच्च वनो महान् / शिरश्च राजसिंहस्य पादेन समलोडयत् // 5 अन्तर्भूमिगतश्चैव तव पुत्रे निपातिते // 52 तथैव क्रोधसंरक्तो भीमः परबलार्दनः / बहुपादैर्बहुभुजैः कबन्धै|रदर्शनैः। पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं यत्तच्छृणु नराधिप // 6 नृत्यद्भिर्भयदैाप्ता दिशस्तत्राभवन्नृप // 53 येऽस्मान्पुरोऽपनृत्यन्त पुनर्गौरिति गौरिति / ध्वजवन्तोऽस्त्रवन्तश्च शस्त्रवन्तस्तथैव च / तान्वयं प्रतिनृत्यामः पुनर्गौरिति गौरिति // 7 प्राकम्पन्त ततो राजंस्तव पुत्रे निपातिते // 54 नास्माकं निकृतिर्वह्नि क्षयूतं न वञ्चना / हृदाः कूपाश्च रुधिरमुढेमुर्नृपसत्तम / स्वबाहुबलमाश्रित्य प्रबाधामो वयं रिपून // 8 नद्यश्च सुमहावेगाः प्रतिस्रोतोवहाभवन् // 55 सोऽवाप्य वैरस्य परस्य पारं पुल्लिङ्गा इव नार्यस्तु स्त्रीलिङ्गाः पुरुषाभवन् / / वृकोदरः प्राह शनैः प्रहस्य / दुर्योधने तदा राजन्पतिते तनये तव // 56 युधिधिरं केशवसृञ्जयांश्च - 1917 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 58. 9] महाभारते [9. 59.8 धनंजयं माद्रवतीसुतौ च // 9 प्राप्तवानसि यल्लोभान्मदाद्वाल्याच्च भारत // 20 रजस्वलां द्रौपदीमानयन्ये घातयित्वा वयस्यांश्च भ्रातृनथ पितॄस्तथा / ये चाप्यकुर्वन्त सदस्यवस्त्राम् / पुत्रान्पौत्रांस्तथाचास्तितोऽसि निधनं गतः // 21 तान्पश्यध्वं पाण्डवैर्धार्तराष्ट्रा तवापराधादस्माभिर्धातरस्ते महारथाः / रणे हतांस्तपसा याज्ञसेन्याः // 10 निहता ज्ञातयश्चान्ये दिष्टं मन्ये दुरत्ययम् // 22 ये नः पुरा पण्डतिलानवोच स्नुषाश्च प्रस्नुषाश्चैव धृतराष्ट्रस्य विह्वलाः। ___ न्क्रूरा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्राः / गर्हयिष्यन्ति नो नूनं विधवाः शोककर्शिताः // 23 ते नो हताः सगणाः सानुबन्धाः एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निशश्वास स पार्थिवः / कामं स्वर्ग नरकं वा व्रजामः // 11 विललाप चिरं चापि धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः // 24 पुनश्च राज्ञः पतितस्य भूमौ इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि स तां गदां स्कन्धगतां निरीक्ष्य / __ अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥ 58 // वामेन पादेन शिरः प्रमृद्य दुर्योधनं नैकृतिकेत्यवोचत् // 12 धृतराष्ट्र उवाच / हृष्टेन राजन्कुरुपार्थिवस्य अधर्मेण हतं दृष्ट्वा राजानं माधवोत्तमः / क्षुद्रात्मना भीमसेनेन पादम् / किमब्रवीत्तदा सूत बलदेवो महाबलः // 1 . दृष्ट्वा कृतं मूर्धनि नाभ्यनन्द गदायुद्धविशेषज्ञो गदायुद्धविशारदः / न्धर्मात्मानः सोमकानां प्रबर्हाः // 13 / कृतवान्रौहिणेयो यत्तन्ममाचक्ष्व संजय // 2 तव पुत्रं तथा हत्वा कत्थमानं वृकोदरम् / नृत्यमानं च बहुशो धर्मराजोऽब्रवीदिदम् // 14 संजय उवाच / मा शिरोऽस्य पदा मर्दीर्मा धर्मस्तेऽत्यगान्महान् / शिरस्यभिहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन ते सुतम् / राजा ज्ञातिहतश्चायं नैतन्न्याय्यं तवानघ // 15 रामः प्रहरतां श्रेष्ठचक्रोध बलवद्बली // 3 विध्वस्तोऽयं हतामात्यो हतभ्राता हतप्रजः / ततो मध्ये नरेन्द्राणामूर्ध्वबाहुर्हलायुधः / उत्सन्नपिण्डो भ्राता च नैतन्न्याय्यं कृतं त्वया॥.१६ कुर्वन्नार्तस्वरं घोरं धिग्धिग्भीमेत्युवाच ह // 4 धार्मिको भीमसेनोऽसावित्याहुस्त्वां पुरा जनाः / अहो धिग्यदधो नाभेः प्रहृतं शुद्धविक्रमे / स कस्माद्भीमसेन त्वं राजानमधितिष्ठसि // 17 नैतदृष्टं गदायुद्धे कृतवान्यद्वृकोदरः // 5 दृष्ट्वा दुर्योधनं राजा कुन्तीपुत्रस्तथागतम् / / अधो नाभ्या न हन्तव्यमिति शास्त्रस्य निश्चयः / नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यामिदं वचनमब्रवीत् // 18 अयं त्वशास्त्रविन्मूढः स्वच्छन्दात्संप्रवर्तते // 6 नूनमेतद्बलवता धात्रादिष्टं महात्मना / तम्य तत्तद्भुवाणस्य रोषः समभवन्महान् / यद्वयं त्वां जिघांसामस्त्वं चास्मान्कुरुसत्तम // 19 ततो लाङ्गलमुद्यम्य भीममभ्यद्रवद्बली // 7 आत्मनो ह्यपराधेन महद्व्यसनमीदृशम् / / तस्योर्ध्वबाहोः सदृशं रूपमासीन्महात्मनः / -1918 - Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 59.8] शल्यपर्व [9. 59.34 बहुधातुविचित्रस्य श्वेतस्येव महागिरेः // 8 प्राप्तं कलियुगं विद्धि प्रतिज्ञां पाण्डवस्य च / तमुत्पतन्तं जग्राह केशवो विनयानतः।। आनृण्यं यातु वैरस्य प्रतिज्ञायाश्च पाण्डवः / / 21 बाहुभ्यां पीनवृत्ताभ्यां प्रयत्नाद्बलवद्बली // 9 संजय उवाच / / सितासितौ यदुवरौ शुशुभातेऽधिकं ततः / / धर्मच्छलमपि श्रुत्वा केशवात्स विशां पते / नभोगतौ यथा राजंश्चन्द्रसूर्यो दिनक्षये // 10 नैव प्रीतमना रामो. वचनं प्राह संसदि // 22 उवाच चैनं संरब्धं शमयन्निव केशवः / / हत्वाधर्मेण राजानं धर्मात्मानं सुयोधनम् / आत्मवृद्धिर्मित्रवृद्धिर्मित्रमित्रोदयस्तथा। जिह्मयोधीति लोकेऽस्मिन्ख्याति यास्यति पाण्डवः॥ विपरीतं द्विषत्स्वेतत्पड़िधा वृद्धिरात्मनः // 11 दुर्योधनोऽपि धर्मात्मा गतिं यास्यति शाश्वतीम् / आत्मन्यपि च मित्रेषु विपरीतं यदा भवेत् / . ऋजुयोधी हतो राजा धार्तराष्ट्रो नराधिपः // 24 तदा विद्यान्मनोज्यानिमाशु शान्तिकरो भवेत् / / 12 / युद्धदीक्षां प्रविश्याजौ रणयज्ञं वितत्य च / / अस्माकं सहजं मित्रं पाण्डवाः शुद्धपौरुषाः / हुत्वात्मानममित्राग्नौ प्राप चावभृथं यशः // 25 खकाः पितृष्वसुः पुत्रास्ते परैर्निकृता भृशम् // 13 इत्युक्त्वा रथमास्थाय रौहिणेयः प्रतापवान् / प्रतिज्ञापारणं धर्मः क्षत्रियस्येति वेत्थ ह। श्वेताभ्रशिखराकारः प्रययौ द्वारकां प्रति / / 26 सुयोधनस्य गदया भतास्म्यूरू महाहवे / पाश्चालाश्च सवार्ष्णेयाः पाण्डवाश्च विशां पते / इति पूर्व प्रतिज्ञातं भीमेन हि सभातले // 14 रामे द्वारवती याते नातिप्रमनसोऽभवन् / 27 मैत्रेयेणाभिशप्तश्च पूर्वमेव महर्षिणा। ततो युधिष्ठिरं दीनं चिन्तापरमधोमुखम् / ऊरू भेत्स्यति ते भीमो गदयेति परंतप / शोकोपहतसंकल्पं वासुदेवोऽब्रवीदिदम् / / 28 अतो दोषं न पश्यामि मा क्रुधस्त्वं प्रलम्बहन् // 15 धर्मराज किमर्थं त्वमधर्ममनुमन्यसे / यौनैर्हार्दैश्च संबन्धैः संबद्धाः स्मेह पाण्डवैः / / हतबन्धोर्यदेतस्य पतितस्य विचेतसः // 29 तेषां वृद्ध्याभिवृद्धिों मा क्रुधः पुरुषर्षभ // 16 दुर्योधनस्य भीमेन मृद्यमानं शिरः पदा / राम उवाच / उपप्रेक्षसि कस्मात्त्वं धर्मज्ञः सन्नराधिप // 30 धर्मः सुचरितः सद्भिः सह द्वाभ्यां नियच्छति / युधिष्ठिर उवाच / अर्थश्चात्यर्थलुब्धस्य कामश्चातिप्रसङ्गिनः // 17 न ममैतत्प्रियं कृष्ण यद्राजानं वृकोदरः / धर्मार्थो धर्मकामौ च कामार्थो चाप्यपीडयन् / पदा मूर्ध्यस्पृशत्क्रोधान्न च हृष्ये कुलक्षये // 31 धर्मार्थकामान्योऽभ्येति सोऽत्यन्तं सुखमश्नुते // 18 निकृत्या निकृता नित्यं धृतराष्ट्रसुतैर्वयम् / तदिदं व्याकुलं सर्वं कृतं धर्मस्य पीडनात् / बहूनि परुषाण्युक्त्वा वनं प्रस्थापिताः स्म ह / / 32 भीमसेनेन गोविन्द कामं त्वं तु यथात्थ माम् // 19 भीमसेनस्य तहुःखमतीव हृदि वर्तते / वासुदेव उवाच। इति संचिन्त्य वार्ष्णेय मयैतत्समुपेक्षितम् // 33 भरोषणो हि धर्मात्मा सततं धर्मवत्सलः / तस्माद्धत्वाकृतप्रज्ञं लुब्धं कामवशानुगम् / भवान्प्रख्यायते लोके तस्मात्संशाम्य मा क्रुधः // 20 / लभतां पाण्डवः कामं धर्मेऽधर्मेऽपि वा कृते // 34 -1919 - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 59. 35] महाभारते [9. 60. 18 संजय उवाच। संजय उवाच / इत्युक्ते धर्मराजेन वासुदेवोऽब्रवीदिदम् / हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे। काममस्त्वेवमिति वै कृच्छ्राद्यदुकुलोद्वहः // 35 सिंहेनेव महाराज मत्तं वनगजं वने // 2 . इत्युक्तो वासुदेवेन भीमप्रियहितैषिणा / प्रहृष्टमनसस्तत्र कृष्णेन सह पाण्डवाः / अन्वमोदत तत्सर्वं यद्भीमेन कृतं युधि // 36 पाश्चालाः सृञ्जयाश्चैव निहते कुरुनन्दने // 3 भीमसेनोऽपि हत्वाजौ तव पुत्रममर्षणः / आविध्यन्नुत्तरीयाणि सिंहनादांश्च नेदिरे / अभिवाद्याग्रतः स्थित्वा संप्रहृष्टः कृताञ्जलिः // 37 नैतान्हर्षसमाविष्टानियं सेहे वसुंधरा // 4 प्रोवाच सुमहातेजा धर्मराज युधिष्ठिरम् / धनूंष्यन्ये व्याक्षिपन्त ज्याश्चाप्यन्ये तथाक्षिपन् / हर्षादुत्फुल्लनयनो जितकाशी विशां पते / / 38 दध्मुरन्ये महाशङ्खानन्ये जघ्नुश्च दुन्दुभीः // 5 तवाद्य पृथिवी राजन्क्षेमा निहतकण्टका / चिक्रीडुश्च तथैवान्ये जहसुश्च तवाहिताः / अब्रुवंश्वासकृद्वीरा भीमसेनमिदं वचः // 6 तां प्रशाधि महाराज स्वधर्ममनुपालयन् // 39 यस्तु कर्तास्य वैरस्य निकृत्या निकृतिप्रियः / / दुष्करं भवता कर्म रणेऽद्य सुमहत्कृतम् / कौरवेन्द्र रणे हत्वा गदयातिकृतश्रमम् // 7 सोऽयं विनिहतः शेते पृथिव्यां पृथिवीपते // 40 इन्द्रेणेव हि वृत्रस्य वधं परमसंयुगे। दुःशासनप्रभृतयः सर्वे ते चोग्रवादिनः / त्वया कृतममन्यन्त शत्रोर्वधमिमं जनाः // 8 राधेयः शकुनिश्चापि निहतास्तव शत्रवः / / 41 चरन्तं विविधान्मार्गान्मण्डलानि च सर्वशः / सेयं रत्नसमाकीर्णा मही सवनपर्वता / दुर्योधनमिमं शूरं कोऽन्यो हन्याद्वृकोदरात् // 9 उपावृत्ता महाराज त्वामद्य निहतद्विषम् // 42 वैरस्य च गतः पारं त्वमिहान्यैः सुदुर्गमम् / युधिष्ठिर उवाच / अशक्यमेतदन्येन संपादयितुमीदृशम् // 10 गतं वरस्य निधनं हतो राजा सुयोधनः / कुञ्जरेणेव मत्तेन वीर संग्राममूर्धनि / कृष्णस्य मतमास्थाय विजितेयं वसुंधरा / / 43 दुर्योधनशिरो दिष्ट्या पादेन मृदितं त्वया // 11 दिष्ट्या गतस्त्वमानृण्यं मातुः कोपस्य चोभयोः / सिंहेन महिषस्येव कृत्वा संगरमद्भुतम् / दिष्ट्या जयसि दुर्धर्ष दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः॥४४ दुःशासनस्य रुधिरं दिष्टया पीतं त्वयानघ / 12 ये विप्रकुर्वन्राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि मूर्ध्नि तेषां कृतः पादो दिष्ट्या ते स्वेन कर्मणा // 13 एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥ 59 // अमित्राणामधिष्ठानाद्वधादुर्योधनस्य च / भीम दिष्टया पृथिव्यां ते प्रथितं सुमहद्यशः // 14 धृतराष्ट्र उवाच। एवं नूनं हते वृत्रे शक्रं नन्दन्ति बन्दिनः / हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे / तथा त्वां निहतामित्रं वयं नन्दाम भारत // 15 पाण्डवाः सृञ्जयाश्चैव किमकुर्वत संजय // 1 - दुर्योधनवधे यानि रोमाणि हृषितानि नः / - 1920 - 60 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.60. 16 ] शल्यपर्व [9. 60. 44 अद्यापि न विहृष्यन्ति तानि तद्विद्धि भारत / अश्वत्थाम्नः सनामानं हत्वा नागं सुदुर्मते / इत्यब्रुवन्भीमसेनं वातिकास्तत्र संगताः // 16 आचार्यो न्यासितः शस्त्रं किं तन्न विदितं मम।।३१ तान्हृष्टान्पुरुषव्याघ्रान्पाञ्चालान्पाण्डवैः सह / स चानेन नृशंसेन धृष्टद्युम्नेन वीर्यवान् / ब्रुवतः सदृशं तत्र प्रोवाच मधुसूदनः // 17 पात्यमानस्त्वया दृष्टो न चैनं त्वमवारयः // 32 नन्याय्यं निहतः शत्रुभूयो हन्तुं जनाधिपाः / वधार्थं पाण्डुपुत्रस्य याचितां शक्तिमेव च / असकृद्वाग्भिरुग्राभिर्निहतो ह्येष मन्दधीः // 18 घटोत्कचे व्यंसयथाः कस्त्वत्तः पापकृत्तमः // 33 वैष हतः पापो यदैव निरपत्रपः / छिन्नबाहुः प्रायगतस्तथा भूरिश्रवा बली / लुब्धः पापसहायश्च सुहृदां शासनातिगः // 19 त्वया निसृष्टेन हतः शैनेयेन दुरास्मना // 34 बहुशो विदुरद्रोणकृपगाङ्गेयसृञ्जयैः / कुर्वाणश्चोत्तमं कर्म कर्णः पार्थजिगीषया। पाण्डुभ्यः प्रोच्यमानोऽपि पित्र्यमंशं न दत्तवान् // व्यसनेनाश्वसेनस्य पन्नगेन्द्रसुतस्य वै // 35 नैष योग्योऽद्य मित्रं वा शत्रुर्वा पुरुषाधमः / पुनश्च पतिते चक्रे व्यसनातः पराजितः / किमनेनातिनुन्नेन वाग्भिः काष्ठसधर्मणा // 21 पातितः समरे कर्णश्चक्रव्यग्रोऽग्रणीनृणाम् // 36 रथेष्वारोहत क्षिप्रं गच्छामो वसुधाधिपाः / यदि मां चापि कर्णं च भीष्मद्रोणौ च संयुगे। दिष्टया हतोऽयं पापात्मा सामात्यज्ञातिबान्धवः॥२२ ऋजुना प्रतियुध्येथा न ते स्याद्विजयो ध्रुवम् // 37 इति श्रुत्वा त्वधिक्षेपं कृष्णाहुर्योधनो नृपः / त्वया पुनरनार्येण जिह्ममार्गेण पार्थिवाः। अमर्षवशमापन्न उदतिष्ठद्विशां पते // 23 स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो वयं चान्ये च घातिताः // 38 स्फिग्देशेनोपविष्टः स दोभ्यां विष्टभ्य मेदिनीम् / दृष्टिं भ्रूसंकटां कृत्वा वासुदेवे न्यपातयत् // 24 वासुदेव उवाच। अर्धोन्नतशरीरस्य रूपमासीन्नृपस्य तत् / हतस्त्वमसि गान्धारे सभ्रातृसुतबान्धवः / क्रुद्धस्याशीविषस्येव च्छिन्नपुच्छस्य भारत // 25 सगणः ससुहृच्चैव पापमार्गमनुष्ठितः // 39 प्राणान्तकरणी घोरां वेदनामविचिन्तयन् / तवैव दुष्कृतैर्वीरौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ। दुर्योधनो वासुदेवं वाग्भिरुग्राभिरार्दयत् // 26 कर्णश्च निहतः संख्ये तव शीलानुवर्तकः // 40 कंसदासस्य दायाद न ते लज्जास्त्यनेन वै / याच्यमानो मया मूढ पित्र्यमंशं न दित्ससि / अधर्मेण गदायुद्धे यदहं विनिपातितः / / 27 / पाण्डवेभ्यः स्वराज्याधु लोभाच्छकुनिनिश्चयात् // ऊरू भिन्धीति भीमस्य स्मृति मिथ्या प्रयच्छता। विषं ते भीमसेनाय दत्तं सर्वे च पाण्डवाः / किं न विज्ञातमेतन्मे यदर्जुनमवोचथाः // 28 प्रदीपिता जतुगृहे मात्रा सह सुदुर्मते // 42 घातयित्वा महीपालानृजुयुद्वान्सहस्रशः / सभायां याज्ञसेनी च कृष्टा द्यूते रजस्वला / जिलैरुपायैर्बहुभिर्न ते लज्जा न ते घृणा // 29 तदैव तावदुष्टात्मन्वध्यस्त्वं निरपत्रपः // 43 अहन्यहनि शूराणां कुर्वाणः कदनं महत् / / अनक्षज्ञं च धर्मज्ञं सौबलेनाक्षवेदिना / शिखण्डिनं पुरस्कृत्य घातितस्ते पितामहः // 30 निकृत्या यत्पराजैषीस्तस्मादसि हतो रणे // 44 म. भा. 241 - 1921 - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 60. 45 ] महाभारते [9. 61.5 जयद्रथेन पापेन यत्कृष्णा क्लेशिता वने / अन्यथा पाण्डवेयानां नाभविष्यज्जयः कचित् // 58 यातेषु मृगयां तेषु तृणबिन्दोरथाश्रमे // 45 ते हि सर्वे महात्मानश्चत्वारोऽतिरथा भुवि / अभिमन्युश्च यद्बाल एको बहुभिराहवे / न शक्या धर्मतो हन्तुं लोकपालैरपि स्वयम् // 59 त्वदोषैनिहतः पाप तस्मादसि हतो रणे // 46 तथैवायं गदापाणिर्धार्तराष्ट्रो गतक्लमः। . दुर्योधन उवाच / न शक्यो धर्मतो हन्तुं कालेनापीह दण्डिना // 60 अधीतं विधिवद्दत्तं भूः प्रशास्ता ससागरा। न च वो हृदि कर्तव्यं यदयं घातितो नृपः। मूर्ध्नि स्थितममित्राणां को नु स्वन्ततरो मया // 47 मिथ्यावध्यास्तथोपायैर्बहवः शत्रवोऽधिकाः // 61 यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुपश्यताम् / पूर्वैरनुगतो मार्गो देवैरसुरघातिभिः / / तदिदं निधनं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया // 48 सद्भिश्चानुगतः पन्थाः स सर्वैरनुगम्यते // 62 देवार्हा मानुषा भोगाः प्राप्ता असुलभा नृपैः / कृतकृत्याः स्म सायाह्ने निवासं रोचयामहे / ऐश्वर्य चोत्तमं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया // 49 साश्वनागरथाः सर्वे विश्रमामो नराधिपाः // 63 ससुहृत्सानुबन्धश्च स्वर्गं गन्ताहमच्युत। वासुदेववचः श्रुत्वा तदानीं पाण्डवैः सह / यूयं विहतसंकल्पाः शोचन्तो वर्तयिष्यथ // 50 पाश्चाला भृशसंहृष्टा विनेदुः सिंहसंघवत् // 64 ततः प्राध्मापयशङ्खान्पाञ्चजन्यं च माधवः / . संजय उवाच / हृष्टा दुर्योधनं दृष्ट्वा निहतं पुरुषर्षभाः // 65 अस्य वाक्यस्य निधने कुरुराजस्य भारत। इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि अपतत्सुमहद्वर्ष पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम् // 51 षष्टितमोऽध्यायः // 6 // अवादयन्त गन्धर्वा जगुश्चाप्सरसां गणाः / सिद्धाश्च मुमुचुर्वाचः साधु साध्विति भारत // 52 ववौ च सुरभिर्वायुः पुण्यगन्धो मृदुः सुखः / संजय उवाच। व्यराजतामलं चैव नभो वैडूर्यसंनिभम् // 53 ततस्ते प्रययुः सर्वे निवासाय महीक्षितः / अत्यद्भुतानि ते दृष्ट्वा वासुदेवपुरोगमाः / शङ्खान्प्रध्मापयन्तो वै हृष्टाः परिघबाहवः // 1 दुर्योधनस्य पूजां च दृष्ट्वा व्रीडामुपागमन् // 54 पाण्डवान्गच्छतश्चापि शिबिरं नो विशां पते। हतांश्चाधर्मतः श्रुत्वा शोकार्ताः शुशुचुर्हि ते। महेष्वासोऽन्वगात्पश्चायुयुत्सुः सात्यकिस्तथा // 2 भीष्मं द्रोणं तथा कर्ण भूरिश्रवसमेव च / / 55 धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाश्च सर्वशः / तांस्तु चिन्तापरान्दृष्ट्वा पाण्डवान्दीनचेतसः। सर्वे चान्ये महेष्वासा ययुः स्वशिबिराण्युत // 3 प्रोवाचेदं वचः कृष्णो मेघदुन्दुभिनिस्वनः // 56 - ततस्ते प्राविशन्पार्था हतत्विट्वं हतेश्वरम् / नैष शक्योऽतिशीघ्रास्त्रस्ते च सर्वे महारथाः। | दुर्योधनस्य शिबिरं रङ्गवद्विसृते जने // 4 ऋजुयुद्धेन विक्रान्ता हन्तुं युष्माभिराहवे // 57 गतोत्सवं पुरमिव हृतनागमिव ह्रदम् / उपाया विहिता ह्येते मया तस्मान्नराधिपाः। स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठं वृद्धामात्यैरधिष्ठितम् // 5 - 1922 - Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 61. 6 ] शल्यपर्व [9. 61. 32 त्रैतान्पर्युपातिष्ठन्दुर्योधनपुरःसराः। संजय उवाच / कृताञ्जलिपुटा राजन्काषायमलिनाम्बराः // 6 ईषदुत्स्मयमानश्च भगवान्केशवोऽरिहा / शिबिरं समनुप्राप्य कुरुराजस्य पाण्डवाः / परिष्वज्य च राजानं युधिष्ठिरमभाषत // 20 अवतेरुमहाराज रथेभ्यो रथसत्तमाः // 7 दिष्टया जयसि कौन्तेय दिष्टया ते शत्रवो जिताः / खतो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः / दिष्टया गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः॥२१ स्थितः प्रियहिते नित्यमतीव भरतर्षभ // 8 त्वं चापि कुशली राजन्माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / अवरोपय गाण्डीवमक्षय्यौ च महेषुधी। मुक्ता वीरक्षयादस्मात्संग्रामान्निहतद्विषः / अथाहमवरोक्ष्यामि पश्चाद्भरतसत्तम // 9 क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि भारत // 22 वयं चैवावरोह त्वमेतच्छ्रेयस्तवानघ / उपयातमुपप्लव्यं सह गाण्डीवधन्वना। सञ्चाकरोत्तथा वीरः पाण्डुपुत्रो धनंजयः // 10 आनीय मधुपर्क मां यत्पुरा त्वमवोचथाः // 23 अथ पश्चात्ततः कृष्णो रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम्। एष भ्राता सखा चैव तव कृष्ण धनंजयः / अवारोहत मेधावी रथाद्गाण्डीवधन्वनः // 11 रक्षितव्यो महाबाहो सर्वास्वापत्स्विति प्रभो। प्रथावतीर्णे भूतानामीश्वरे सुमहात्मनि / तव चैवं ब्रुवाणस्य तथेत्येवाहमब्रुवम् // 24 पिरन्तर्दधे दिव्यो ध्वजो गाण्डीवधन्वनः // 12 स सव्यसाची गुप्तस्ते विजयी च नरेश्वर / / जदग्धो द्रोणकर्णाभ्यां दिव्यैरस्त्रैर्महारथः। भ्रातृभिः सह राजेन्द्र शूरः सत्यपराक्रमः / प्रथ दीप्तोऽग्निना ह्याशु प्रजज्वाल महीपते // 13 मुक्तो वीरक्षयादस्मात्संग्रामाल्लोमहर्षणात् // 25 तोपासङ्गः सरश्मिश्च साश्वः सयुगबन्धुरः / एवमुक्तस्तु कृष्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः / स्मीभूतोऽपतद्भूमौ रथो गाण्डीवधन्वनः // 14 हृष्टरोमा महाराज प्रत्युवाच जनार्दनम् // 26 | तथा भस्मभूतं तु दृष्ट्वा पाण्डुसुताः प्रभो। प्रमुक्तं द्रोणकर्णाभ्यां ब्रह्मास्त्रमरिमर्दन / भवन्विस्मिता राजन्नर्जुनश्चेदमब्रवीत् // 15 कस्त्वदन्यः सहेत्साक्षादपि वत्री पुरंदरः // 27 ताञ्जलिः सप्रणयं प्रणिपत्याभिवाद्य च / भवतस्तु प्रसादेन संग्रामे बहवो जिताः / गोविन्द कस्माद्भगवरथो दग्धोऽयमग्निना // 16 | महारणगतः पार्थो यच्च नासीत्पराङ्मखः // 28 केमेतन्महदाश्चर्यमभवद्यदुनन्दन / तथैव च महाबाहो पर्यायैर्बहुभिर्मया / न्मे ब्रूहि महाबाहो श्रोतव्यं यदि मन्यसे // 17 कर्मणामनुसंतानं तेजसश्च गतिः शुभा // 29 उपप्लव्ये महर्षि कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / वासुदेव उवाच / यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः॥३० अस्त्रैर्बहुविधैर्दग्धः पूर्वमेवायमर्जुन / इत्येवमुक्ते ते वीराः शिबिरं तव भारत / मदधिष्ठितत्वात्समरे न विशीर्णः परंतप // 18 प्रविश्य प्रत्यपद्यन्त कोशरत्नर्द्धिसंचयान् // 31 इदानीं तु विशीर्णोऽयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा। रजतं जातरूपं च मणीनथ च मौक्तिकान् / मया विमुक्तः कौन्तेय त्वय्यद्य कृतकर्मणि // 19 / भूषणान्यथ मुख्यानि कम्बलान्यजिनानि च / - 1923 - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 61. 32] महाभारते 19.62. 18 दासीदासमसंख्येयं राज्योपकरणानि च // 32 किं नु तत्कारणं ब्रह्मन्येन कृष्णो गतः पुनः // 4 ते प्राप्य धनमक्षय्यं त्वदीयं भरतर्षभ। न चैतत्कारणं ब्रह्मन्नरूपं वै प्रतिभाति मे। उदक्रोशन्महेष्वासा नरेन्द्र विजितारयः // 33 यत्रागमदमेयात्मा स्वयमेव जनार्दनः // 5 ते तु वीराः समाश्वस्य वाहनान्यवमुच्य च। तत्त्वतो वै समाचक्ष्व सर्वमध्वर्युसत्तम / अतिष्ठन्त मुहुः सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा // 34 यच्चात्र कारणं ब्रह्मन्कार्यस्यास्य विनिश्चये // 6 अथाब्रवीन्महाराज वासुदेवो महायशाः / वैशंपायन उवाच / अस्माभिर्मङ्गलार्थाय वस्तव्यं शिबिरादहिः // 35 तथेत्युक्त्वा च ते सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा। त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो यन्मां पृच्छसि पार्थिव / . वासुदेवेन सहिता मङ्गलार्थं ययुर्बहिः // 36 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यथावद्भरतर्षभ // 7 ते समासाद्य सरितं पुण्यामोघवतीं नृप / / हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे / न्यवसन्नथ तां रात्रिं पाण्डवा हतशत्रवः // 37 व्युत्क्रम्य समयं राजन्धार्तराष्ट्रं महाबलम् // 8 ततः संप्रेषयामासुर्यावं नागसाह्वयम् / अन्यायेन हतं दृष्ट्वा गदायुद्धेन भारत / स च प्रायाजवेनाशु वासुदेवः प्रतापवान् / युधिष्ठिरं महाराज महद्भयमथाविशत् // 9 दारुकं रथमारोप्य येन राजाम्बिकासुतः // 38 चिन्तयानो महाभागां गान्धारी तपसान्विताम् / तमूचुः संप्रयास्यन्तं सैन्यसुग्रीववाहनम् / घोरेण तपसा युक्तां त्रैलोक्यमपि सा दहेत् // 10 प्रत्याश्वासय गान्धारी हतपुत्रां यशस्विनीम् // 39 तस्य चिन्तयमानस्य बुद्धिः समभवत्तदा / स प्रायात्पाण्डवैरुक्तस्तत्पुरं सात्वतां वरः / गान्धार्याः क्रोधदीप्तायाः पूर्व प्रशमनं भवेत् // 11 आससादयिषुः क्षिप्रं गान्धारी निहतात्मजाम् // 40 सा हि पुत्रवधं श्रुत्वा कृतमस्मामिरीदृशम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि मानसेनाग्निना क्रुद्धा भस्मसान्नः करिष्यति // 12 एकषष्टितमोऽध्यायः // 61 // कथं दुःखमिदं तीव्र गान्धारी प्रसहिष्यति / श्रुत्वा विनिहतं पुत्रं छलेनाजिह्मयोधिनम् // 13 एवं विचिन्त्य बहुधा भयशोकसमन्वितः / जनमेजय उवाच। वासुदेवमिदं वाक्यं धर्मराजोऽभ्यभाषत / 14 किमर्थं राजशार्दूलो धर्मराजो युधिष्ठिरः / तव प्रसादागोविन्द राज्यं निहतकण्टकम् / गान्धार्याः प्रेषयामास वासुदेवं परंतपम् // 1 अप्राप्यं मनसापीह प्राप्तमस्माभिरच्युत // 15 यदा पूर्वं गतः कृष्णः शमार्थं कौरवान्प्रति। प्रत्यक्षं मे महाबाहो संग्रामे लोमहर्षणे / न च तं लब्धवान्कामं ततो युद्धमभूदिदम् // 2 / विमर्दः सुमहान्प्राप्तस्त्वया यादवनन्दन // 16 निहतेषु तु योधेषु हते दुर्योधने तथा। त्वया देवासुरे युद्धे वधार्थममरद्विषाम् / पृथिव्यां पाण्डवेयस्य निःसपत्ने कृते युधि // 3 / यथा साह्यं पुरा दत्तं हताश्च विबुधद्विषः // 17 विद्रुते शिबिरे शून्ये प्राप्ते यशसि चोत्तमे / साह्यं तथा महाबाहो दत्तमस्माकमच्युत / - 1924 - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 62. 18 ] शल्यपर्व [9. 62. 47 सारथ्येन च वार्ष्णेय भवता यद्धृता वयम् // 18 / विदितो धृतराष्ट्रस्य सोऽवतीर्य रथोत्तमात् // 33 यदि न त्वं भवेन्नाथः फल्गुनस्य महारणे / अभ्यगच्छददीनात्मा धृतराष्ट्रनिवेशनम् / कथं शक्यो रणे जेतुं भवेदेष बलार्णवः // 19 पूर्व चाभिगतं तत्र सोऽपश्यदृषिसत्तमम् // 34 गदाप्रहारा विपुलाः परिधैश्चापि ताडनम् / / पादौ प्रपीड्य कृष्णस्य राज्ञश्चापि जनार्दनः / शक्तिमिर्भिण्डिपालैश्च तोमरैः सपरश्वधैः // 20 / अभ्यवादयदव्यग्रो गान्धारी चापि केशवः // 35 वाचश्च परुषाः प्राप्तास्त्वया ह्यस्मद्धितैषिणा। ततस्तु यादवश्रेष्ठो धृतराष्ट्रमधोक्षजः / ताश्च ते सफलाः सर्वा हते दुर्योधनेऽच्युत // 21 पाणिमालम्ब्य राज्ञः स सस्वरं प्ररुरोद ह // 36 गान्धार्या हि महाबाहो क्रोधं बुध्यस्य माधव / स मुहूर्तमिवोत्सृज्य बाष्पं शोकसमुद्भवम् / सा हि नित्यं महाभागा तपसोग्रेण कर्शिता // 22 प्रक्षाल्य वारिणा नेत्रे आचम्य च यथाविधि / पुत्रपौत्रवधं श्रुत्वा ध्रुवं नः संप्रधक्ष्यति / उवाच प्रश्रितं वाक्यं धृतराष्ट्रमरिंदमः // 37 तस्याः प्रसादनं वीर प्राप्तकालं मतं मम // 23 न तेऽस्त्यविदितं किंचिद्भूतभव्यस्य भारत / कश्च तां क्रोधदीप्ताक्षी पुत्रव्यसनकर्शिताम् / कालस्य च यथा वृत्तं तत्ते सुविदितं प्रभो // 38 दीक्षितुं पुरुषः शक्तस्त्वामृते. पुरुषोत्तम // 24 यदिदं पाण्डवैः सर्वैस्तव चित्तानुरोधिभिः / पत्र मे गमनं प्राप्तं रोचते तव माधव / कथं कुलक्षयो न स्यात्तथा क्षत्रस्य भारत // 39 गान्धार्याः क्रोधदीप्तायाः प्रशमार्थमरिंदम // 25 भ्रातृभिः समयं कृत्वा क्षान्तवान्धर्मवत्सलः / त्वं हि कर्ता विकर्ता च लोकानां प्रभवाप्ययः। द्यूतच्छलजितैः शक्तैर्वनवासोऽभ्युपागतः // 40 हेतुकारणसंयुक्तैर्वाक्यैः कालसमीरितैः // 26 अज्ञातवासचर्या च नानावेशसमावृतैः / क्षिप्रमेव महाप्राज्ञ गान्धारी शमयिष्यसि / अन्ये च बहवः क्लेशास्त्वशक्तैरिव नित्यदा // 41 पितामहश्च भगवान्कृष्णस्तत्र भविष्यति // 27 मया च स्वयमागम्य युद्धकाल उपस्थिते / सर्वथा ते महाबाहो गान्धार्याः क्रोधनाशनम् / सर्वलोकस्य सांनिध्ये ग्रामांस्त्वं पञ्च याचितः॥४२ फर्तव्यं सात्वतश्रेष्ठ पाण्डवानां हितैषिणा // 28 त्वया कालोपसृष्टेन लोभतो नापवर्जिताः / धर्मराजस्य वचनं श्रुत्वा यदुकुलोद्वहः / तवापराधान्नपते सर्व क्षत्रं क्षयं गतम् // 43 मामय दारुकं प्राह रथः सजो विधीयताम्॥२९ भीष्मेण सोमदत्तेन बाह्निकेन कृपेण च। केशवस्य वचः श्रुत्वा त्वरमाणोऽथ दारुकः / द्रोणेन च सपुत्रेण विदुरेण च धीमता / न्यवेदयद्रथं सज्जं केशवाय महात्मने // 30 याचितस्त्वं शमं नित्यं न च तत्कृतवानसि // 44 तं रथं यादवश्रेष्ठः समारुह्य परंतपः / / कालोपहतचित्तो हि सर्वो मुह्यति भारत / जगाम हास्तिनपुरं त्वरितः केशवो विभुः / / 31 यथा मूढो भवान्पूर्वमस्मिन्नर्थे समुद्यते // 45 ततः प्रायान्महाराज माधवो भगवान्रथी / किमन्यत्कालयोगाद्धि दिष्टमेव परायणम् / नागासाह्वयमासाद्य प्रविवेश च वीर्यवान् // 32 / मा च दोषं महाराज पाण्डवेषु निवेशय // 46 प्रविश्य नगरं वीरो रथघोषेण नादयन् / / अल्पोऽप्यतिक्रमो नास्ति पाण्डवानां महात्मनाम् / - 1925 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 62. 47 ] महाभारते [9. 62.73 धर्मतो न्यायतश्चैव स्नेहतश्च परंतप // 47 एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि केशव / / 61 एतत्सर्वं तु विज्ञाय आत्मदोषकृतं फलम् / आधिभिर्दह्यमानाया मतिः संचलिता मम / असूयां पाण्डुपुत्रेषु न भवान्कर्तुमर्हति / / 48 सा मे व्यवस्थिता श्रुत्वा तव वाक्यं जनार्दन // 62 कुलं वंशश्च पिण्डश्च यच्च पुत्रकृतं फलम् / राज्ञस्त्वन्धस्य वृद्धस्य हतपुत्रस्य केशव / गान्धार्यास्तव चैवाद्य पाण्डवेषु प्रतिष्ठितम् / / 49 त्वं गतिः सह तैर्वीरैः पाण्डवैर्द्विपदां वर // 63 एतत्सर्वमनुध्यात्वा आत्मनश्च व्यतिक्रमम् / एतावदुक्त्वा वचनं मुखं प्रच्छाद्य वाससा। शिवेन पाण्डवान्ध्याहि नमस्ते भरतर्षभ // 50 पुत्रशोकाभिसंतप्ता गान्धारी प्ररुरोद ह // 64 जानासि च महाबाहो धर्मराजस्य या त्वयि / तत एनां महाबाहुः केशवः शोककर्शिताम् / भक्तिर्भरतशार्दूल स्नेहश्चापि स्वभावतः // 51 हेतुकारणसंयुक्तैर्वाक्यैराश्वासयत्प्रभुः // 65 एतच्च कदनं कृत्वा शत्रूणामपकारिणाम् / समाश्वास्य च गान्धारी धृतराष्ट्रं च माधवः / दह्यते स्म दिवारानं न च शर्माधिगच्छति // 52 द्रौणेः संकल्पितं भावमन्वबुध्यत केशवः // 66 त्वां चैव नरशार्दुल गान्धारी च यशस्विनीम् / ततस्त्वरित उत्थाय पादौ मूळ प्रणम्य च / स शोचन्भरतश्रेष्ठ न शान्तिमधिगच्छति / / 53 द्वैपायनस्य राजेन्द्र ततः कौरवमब्रवीत् // 67 ह्रिया च परयाविष्टो भवन्तं नाधिगच्छति / / आपृच्छे त्वां कुरुश्रेष्ठ मा च शोके मनः कृथाः / पुत्रशोकाभिसंतप्तं बुद्धिव्याकुलितेन्द्रियम् / / 54 द्रौणेः पापोऽस्त्यभिप्रायस्तेनास्मि सहसोत्थितः / एवमुक्त्वा महाराज धृतराष्ट्रं यदूत्तमः / पाण्डवानां वधे रात्रौ बुद्धिस्तेन प्रदर्शिता // 68 उवाच परमं वाक्यं गान्धारी शोककर्शिताम् / / 55 एतच्छ्रुत्वा तु वचनं गान्धार्या सहितोऽब्रवीत् / सौबलेयि निबोध त्वं यत्त्वां वक्ष्यामि सुव्रते / धृतराष्ट्रो महाबाहुः केशवं केशिसूदनम् // 69 त्वत्समा नास्ति लोकेऽस्मिन्नद्य सीमन्तिनी शुभे॥ शीघ्रं गच्छ महाबाहो पाण्डवान्परिपालय / जानामि च यथा राज्ञि सभायां मम संनिधौ। भूयस्त्वया समेष्यामि क्षिप्रमेव जनार्दन / धर्मार्थसहितं वाक्यमुभयोः पक्षयोर्हितम् / प्रायात्ततस्तु त्वरितो दारुकेण सहाच्युतः // 70 उक्तवत्यसि कल्याणि न च ते तनयैः श्रुतम् // 57 | वासुदेवे गते राजन्धृतराष्ट्र जनेश्वरम् / दुर्योधनस्त्वया चोक्तो जयार्थी परुषं वचः।। आश्वासयदमेयात्मा व्यासो लोकनमस्कृतः // 7 // शृणु मूढ वचो मह्यं यतो धर्मस्ततो जयः // 58 | वासुदेवोऽपि धर्मात्मा कृतकृत्यो जगाम ह / तदिदं समनुप्राप्तं तव वाक्यं नृपात्मजे। / शिबिरं हास्तिनपुरादिक्षुः पाण्डवान्नृप / / 72 एवं विदित्वा कल्याणि मा स्म शोके मनः कृथाः।। आगम्य शिबिरं रात्रौ सोऽभ्यगच्छत पाण्डवान् / पाण्डवानां विनाशाय मा ते बुद्धिः कदाचन // 59 / तच्च तेभ्यः समाख्याय सहितस्तैः समाविशत्॥७३ शक्ता चासि महाभागे पृथिवीं सचराचराम् / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः // 62 // चक्षुषा क्रोधीप्तेन निर्दग्धुं तपसो बलात् // 60 वासुदेववचः श्रुत्वा गान्धारी वाक्यमब्रवीत् / - 1926 - Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 63. 1] शल्यपर्व [9. 63. 28 63 को वा समयभेत्तारं बुधः संमन्तुमर्हति // 13 अधर्मेण जयं लब्ध्वा को नु हृष्येत पण्डितः / धृतराष्ट्र उवाच। यथा संहृष्यते पापः पाण्डुपुत्रो वृकोदरः // 14 अधिष्ठितः पदा मूर्ध्नि भग्नसक्थो महीं गतः / किं नु चित्रमतस्त्वद्य भनसक्थस्य यन्मम / शौटीरमानी पुत्रो मे कान्यभाषत संजय // 1 क्रुद्धेन भीमसेनेन पादेन मृदितं शिरः // 15 अत्यर्थ कोपनो राजा जातवैरश्च पाण्डुषु / प्रतपन्तं श्रिया जुष्टं वर्तमानं च बन्धुषु / व्यसनं परमं प्राप्तः किमाह परमाहवे // 2 एवं कुर्यान्नरो यो हि स वै संजय पूजितः // 16 संजय उवाच / अभिज्ञा क्षत्रधर्मस्य मम माता पिता च मे / शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तं नराधिप। . तौ हि संजय दुःखार्ती विज्ञाप्यौ वचनान्मम // 17 राज्ञा यदुक्तं भग्नेन तस्मिन्व्यसन आगते // 3 इष्टं भृत्या भृताः सम्यग्भूः प्रशास्ता ससागरा / भनसक्थो नृपो राजन्पांसुना सोऽवगुण्ठितः / मूर्ध्नि स्थितममित्राणां जीवतामेव संजय // 18 यमयन्मूर्धजांस्तत्र वीक्ष्य चैव दिशो दश // 4 दत्ता दाया यथाशक्ति मित्राणां च प्रियं कृतम् / केशान्नियम्य यत्नेन निःश्वसन्नुरगो यथा। अमित्रा बाधिताः सर्वे को नु स्वन्ततरो मया // 19 संरम्भाश्रुपरीताभ्यां नेत्राभ्यामभिवीक्ष्य माम् // 5 यातानि परराष्ट्राणि नृपा भुक्ताश्च दासवत् / बाहू धरण्यां निष्पिष्य मुहुर्मत्त इव द्विपः / प्रियेभ्यः प्रकृतं साधु को नु स्वन्ततरो मया // 20 प्रकीर्णान्मूर्धजान्धुन्वन्दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् / मानिता बान्धवाः सर्वे मान्यः संपूजितो जनः / गर्हयन्पाण्डवं ज्येष्ठं निःश्वस्येदमथाब्रवीत् // 6 त्रितयं सेवितं सर्वं को नु स्वन्ततरो मया // 21 भीष्मे शांतनवे नाथे कर्णे चास्त्रभृतां वरे / आज्ञप्तं नृपमुख्येषु मानः प्राप्तः सुदुर्लभः / गौतमे शकुनौ चापि द्रोणे चास्त्रभृतां वरे // 7 आजानेयैस्तथा यातं को नु स्वन्ततरो मया // 22 अश्वत्थानि तथा शल्ये शूरे च कृतवर्मणि / अधीतं विधिवदत्तं प्राप्तमायुर्निरामयम् / इमामवस्थां प्राप्तोऽस्मि कालो हि दुरतिक्रमः॥ 8 स्वधर्मेण जिता लोकाः को नु स्वन्ततरो मया // 23 एकादशचमूभर्ता सोऽहमेतां दशां गतः / दिष्टया नाहं जितः संख्ये परान्प्रेष्यवदाश्रितः / कालं प्राप्य महाबाहो न कश्चिदतिवर्तते // 9 दिष्टया मे विपुला लक्ष्मीमते त्वन्यं गता विभो॥२४ आख्यातव्यं मदीयानां येऽस्मिञ्जीवन्ति संगरे / यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुतिष्ठताम् / यथाहं भीमसेनेन व्युत्क्रम्य समयं हतः // 10 निधनं तन्मया प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया // 25 बहूनि सुनृशंसानि कृतानि खलु पाण्डवैः / दिष्टया नाहं परावृत्तो वैरात्प्राकृतवज्जितः / भूरिश्रवसि कर्णे च भीष्मे द्रोणे च श्रीमति // 11 | दिष्टया न विमति कांचिद्भजित्वा तु पराजितः // 26 इदं चाकीर्तिजं कर्म नृशंसैः पाण्डवैः कृतम् / सुप्तं वाथ प्रमत्तं वा यथा हन्याद्विषेण वा / येन ते सत्सु निर्वेदं गमिष्यन्तीति मे मतिः // 12 / एवं व्युत्क्रान्तधर्मेण व्युत्क्रम्य समयं हतः // 27 का प्रीतिः सत्त्वयुक्तस्य कृत्वोपधिकृतं जयम् / अश्वत्थामा महाभागः कृतवर्मा च सात्वतः। - 1927 - Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 63. 28 ] महाभारते [9. 64. 11 कृपः शारद्वतश्चैव वक्तव्या वचनान्मम // 28 ध्यात्वा च सुचिरं कालं जग्मुरार्ता यथागतम् // 43 अधर्मेण प्रवृत्तानां पाण्डवानामनेकशः / इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि विश्वासं समयनानां न यूयं गन्तुमर्हथ // 29 त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥ 6 // वातिकांश्चाब्रवीद्राजा पुत्रस्ते सत्यविक्रमः / अधर्माद्भीमसेनेन निहतोऽहं यथा रणे // 30 सोऽहं द्रोणं स्वर्गगतं शल्यकर्णावुभौ तथा / संजय उवाच / वृषसेनं महावीर्यं शकुनि चापि सौबलम् // 31 / वातिकानां सकाशात्तु श्रुत्वा दुर्योधनं हतम् / जलसंधं महावीर्यं भगदत्तं च पार्थिवम् / हतशिष्टास्ततो राजन्कौरवाणां महारथाः // 1 सौमदत्तिं महेष्वासं सैन्धवं च जयद्रथम् // 32 विनिर्भिन्नाः शितैर्वाणैर्गदातोमरशक्तिभिः / दुःशासनपुरोगांश्च भ्रातृनात्मसमांस्तथा / अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः / दौःशासनिं च विक्रान्तं लक्ष्मणं चात्मजावुभौ // 33 त्वरिता जवनैरश्वरायोधनमुपागमन् // 2 एतांश्चान्यांश्च सुबहून्मदीयांश्च सहस्रशः / तत्रापश्यन्महात्मानं धार्तराष्ट्र निपातितम् / पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि सार्थहीन इवाध्वगः // 34 प्रभग्नं वायुवेगेन महाशालं यथा वने // 3 कथं भ्रातृन्हताञ्श्रुत्वा भर्तारं च स्वसा मम। भूमौ विवेष्टमानं तं रुधिरेण समुक्षितम् / . -रोरूयमाणा दुःखार्ता दुःशला सा भविष्यति // 35 महागजमिवारण्ये व्याधेन विनिपातितम् // 4 स्नुषाभिः प्रस्नुषाभिश्च वृद्धो राजा पिता मम। विवर्तमानं बहुशो रुधिरौघपरिप्लुतम् / गान्धारीसहितः क्रोशन्कां गतिं प्रतिपत्स्यते // 36 यदृच्छया निपतितं चक्रमादित्यगोचरम् // 5 नूनं लक्ष्मणमातापि हतपुत्रा हतेश्वरा / महावातसमुत्थेन संशुष्कमिव सागरम् / विनाशं यास्यति क्षिप्रं कल्याणी पृथुलोचना // 37 पूर्णचन्द्रमिव व्योम्नि तुषारावृतमण्डलम् // 6 यदि जानाति चार्वाकः परित्रावाग्विशारदः / रेणुध्वस्तं दीर्घभुजं. मातङ्गसमविक्रमम् / / करिष्यति महाभागो ध्रुवं सोऽपचितिं मम // 38 / वृतं भूतगणैरैः क्रव्यादैश्च समन्ततः / समन्तपञ्चके पुण्ये त्रिषु लोकेषु विश्रुते / यथा धनं लिप्समानै त्यैर्नृपतिसत्तमम् // 7 अहं निधनमासाद्य लोकान्प्राप्स्यामि शाश्वतान् // 39 भृकुटीकृतवक्त्रान्तं क्रोधादुद्वृत्तचक्षुषम् / ततो जनसहस्राणि बाष्पपूर्णानि मारिष / सामर्ष तं नरव्याघ्रं व्याघ्रं निपतितं यथा // 8 प्रलापं नृपतेः श्रुत्वा विद्रवन्ति दिशो दश // 40 ते तु दृष्ट्वा महेष्वासा भूतले पतितं नृपम् / ससागरवना घोरा पृथिवी सचराचरा। मोहमभ्यागमन्सर्वे कृपप्रभृतयो रथाः // 9 चचालाथ सनिर्हादा दिशश्चैवाविलाभवन् // 41 अवतीर्य रथेभ्यस्तु प्राद्रवनराजसंनिधौ / ते द्रोणपुत्रमासाद्य यथावृत्तं न्यवेदयन् / दुर्योधनं च संप्रेक्ष्य सर्वे भूमावुपाविशन् // 10 व्यवहारं गदायुद्धे पार्थिवस्य च घातनम् // 42 ततो द्रौणिर्महाराज बाष्पपूर्णेक्षणः श्वसन् / तदाख्याय ततः सर्वे द्रोणपुत्रस्य भारत / उवाच भरतश्रेष्ठं सर्वलोकेश्वरेश्वरम् / / 11 - 1928 - Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 64. 12 ] शल्यपर्व [9. 64. 39 न नूनं विद्यतेऽसह्यं मानुष्ये किंचिदेव हि / मा भवन्तोऽनुतप्यन्तां सौहृदान्निधनेन मे / यत्र त्वं पुरुषव्याघ्र शेषे पांसुषु रूषितः / / 12 यदि वेदाः प्रमाणं वो जिता लोका मयाक्षयाः॥२७ भूत्वा हि नृपतिः पूर्वं समाज्ञाप्य च मेदिनीम् / मन्यमानः प्रभावं च कृष्णस्यामिततेजसः / कथमेकोऽद्य राजेन्द्र तिष्ठसे निर्जने वने // 13 तेन न च्यावितश्चाहं क्षत्रधर्मात्स्वनुष्ठितात् // 28 दुःशासनं न पश्यामि नापि कर्ण महारथम् / स मया समनुप्राप्तो नास्मि शोच्यः कथंचन / नापि तान्सुहृदः सर्वान्किमिदं भरतर्षभ // 14 कृतं भवद्भिः सदृशमनुरूपमिवात्मनः / दुःखं नूनं कृतान्तस्य गतिं ज्ञातुं कथंचन / यतितं विजये नित्यं दैवं तु दुरतिक्रमम् // 29 लोकानां च भवान्यत्र शेषे पांसुषु रूषितः // 15 एतावदुक्त्वा वचनं बाष्पव्याकुललोचनः / एष मूर्धावसिक्तानामग्रे गत्वा परंतपः / . तूष्णीं बभूव राजेन्द्र रुजासौ विह्वलो भृशम् // 30 प्रतणं ग्रसते पांसुं पश्य कालस्य पर्ययम् // 16 तथा तु दृष्ट्वा राजानं बाष्पशोकसमन्वितम् / क ते तदमलं छत्रं व्यजनं क च पार्थिव / द्रौणिः क्रोधेन जज्वाल यथा वह्निर्जगत्क्षये // 31 सा च ते महती सेना क गता पार्थिवोत्तम // 17 स तु क्रोधसमाविष्टः पाणौ पाणिं निपीड्य च / दुर्विज्ञेया गतिर्नूनं कार्याणां कारणान्तरे / | बाष्पविह्वल या वाचा राजानमिदमब्रवीत् // 32 यद्वै लोकगुरुर्भूत्वा भवानेतां दशां गतः / / 18 पिता मे निहतः क्षुद्रः सुनृशंसेन कर्मणा / अध्रुवा सर्वमत्र्येषु ध्रुवं श्रीरुपलक्ष्यते / न तथा तेन तप्यामि यथा राजंस्त्वयाद्य वै // 33 भवतो व्यसनं दृष्ट्वा शक्रविस्पर्धिनो भृशम् // 19 शृणु चेदं वचो मह्यं सत्येन वदतः प्रभो / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दुःखितस्य विशेषतः / / इष्टापूर्तेन दानेन धर्मेण सुकृतेन च // 34 उवाच राजन्पुत्रस्ते प्राप्तकालमिदं वचः // 20 अद्याहं सर्वपाञ्चालान्वासुदेवस्य पश्यतः / विमृज्य नेत्रे पाणिभ्यां शोकजं बाष्पमुत्सृजन् / सर्वोपायैर्हि नेष्यामि प्रेतराजनिवेशनम् / कृपादीन्स तदा वीरान्सर्वानेव नराधिपः // 21 अनुज्ञां तु महाराज भवान्मे दातुमर्हति // 35 ईदृशो मर्त्यधर्मोऽयं धात्रा निर्दिष्ट उच्यते / इति श्रुत्वा तु वचनं द्रोणपुत्रस्य कौरवः / विनाशः सर्वभूतानां कालपर्यायकारितः // 22 मनसः प्रीतिजननं कृपं वचनमब्रवीत् / सोऽयं मां समनुप्राप्तः प्रत्यक्षं भवतां हि यः / आचार्य शीघ्रं कलशं जलपूर्ण समानय // 36 पृथिवीं पालयित्वाहमेतां निष्ठामुपागतः // 23 स तद्वचनमाज्ञाय राज्ञो ब्राह्मणसत्तमः / दिष्ट्या नाहं परावृत्तो युद्धे कस्यांचिदापदि / कलशं पूर्णमादाय राज्ञोऽन्तिकमुपागमत् // 37 दिष्टयाहं निहतः पापैश्छलेनैव विशेषतः // 24 तमब्रवीन्महाराज पुत्रस्तव विशां पते / उत्साहश्च कृतो नित्यं मया दिष्ट्या युयुत्सता। ममाज्ञया द्विजश्रेष्ठ द्रोणपुत्रोऽभिषिच्यताम् / दिष्टया चास्मि हतो युद्धे निहतज्ञातिबान्धवः // 25 सेनापत्येन भद्रं ते मम चेदिच्छसि प्रियम्॥ 38 दिष्ट्या च वोऽहं पश्यामि मुक्तानस्माजनक्षयात्। राज्ञो नियोगाद्योद्धव्यं ब्राह्मणेन विशेषतः / खस्तियुक्तांश्च कल्यांश्च तन्मे प्रियमनुत्तमम् / / 26 / वर्तता क्षत्रधर्मेण ह्येवं धर्मविदो विदुः // 39 म.भा. 242 - 1929 - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 64. 40 ] महाभारते [9. 64. 43 राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा कृपः शारद्वतस्ततः / द्रौणि राज्ञो नियोगेन सेनापत्येऽभ्यषेचयत् // 40 सोऽभिषिक्तो महाराज परिष्वज्य नृपोत्तमम् / / प्रययौ सिंहनादेन दिशः सर्वा विनादयन् // 41 दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र शोणितौघपरिप्लुतः / तां निशां प्रतिपेदेऽथ सर्वभूतभयावहाम् // 42 अपक्रम्य तु ते तूर्णं तस्मादायोधनान्नृप / शोकसंविनमनसश्चिन्ताध्यानपराभवन् // 43 इति श्रीमहाभारते शल्यपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 6 // // समाप्तं गदायुद्धपर्व // // समाप्तं शल्यपर्व // - 1980 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौप्तिकपर्व कथं हि वृद्धमिथुनं हतपुत्रं भविष्यति / न ह्यहं पाण्डवेयस्य विषये वस्तुमुत्सहे // 11 संजय उवाच / कथं राज्ञः पिता भूत्वा स्वयं राजा च संजय / ततस्ते सहिता वीराः प्रयाता दक्षिणामुखाः / प्रेष्यभूतः प्रवर्तेयं पाण्डवेयस्य शासनात् // 12 उपास्तमयवेलायां शिबिराभ्याशमागताः // 1 आज्ञाप्य पृथिवीं सां स्थित्वा मूर्ध्नि च संजय / विमुच्य वाहांस्त्वरिता भीताः समभवंस्तदा / कथमद्य भविष्यामि प्रेष्यभूतो दुरन्तकृत् // 13 गहनं देशमासाद्य प्रच्छन्ना न्यविशन्त ते // 2 कथं भीमस्य वाक्यानि श्रोतुं शक्ष्यामि संजय / सेनानिवेशमभितो नातिदूरमवस्थिताः / येन पुत्रशतं पूर्णमेकेन निहतं मम // 14 निकृत्ता निशितैः शस्त्रैः समन्तात्क्षतविक्षताः॥३ कृतं सत्यं वचस्तस्य विदुरस्य महात्मनः / दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य पाण्डवानन्वचिन्तयन् / अकुर्वता वचस्तेन मम पुत्रेण संजय // 15 श्रुत्वा च निनदं घोरं पाण्डवानां जयैषिणाम् // 4 अधर्मेण हते तात पुत्रे दुर्योधने मम / अनुसारभयाद्भीताः प्राङ्मुखाः प्राद्रवन्पुनः / कृतवर्मा कृपो द्रौणिः किमकुर्वत संजय // 16 ते मुहूर्त ततो गत्वा श्रान्तवाहाः पिपासिताः // 5 संजय उवाच / नामृष्यन्त महेष्वासाः क्रोधामर्षवशं गताः / गत्वा तु तावका राजन्नातिदूरमवस्थिताः / राज्ञो वधेन संतप्ता मुहूर्तं समवस्थिताः // 6 अपश्यन्त वनं घोरं नानाद्रुमलताकुलम् // 17 धृतराष्ट्र उवाच / ते मुहूर्तं तु विश्रम्य लब्धतोयैहयोत्तमैः / अश्रद्धेयमिदं कर्म कृतं भीमेन संजय / सूर्यास्तमयवेलायामासेदुः सुमहद्वनम् // 18 यत्स नागायुतप्राणः पुत्रो मम निपातितः / / 7 नानामृगगणैर्जुष्टं नानापक्षिसमाकुलम् / अवध्यः सर्वभूतानां वज्रसंहननो युवा / नानाद्रुमलताच्छन्नं नानाव्यालनिषेवितम् // 19 पाण्डवैः समरे पुत्रो निहतो मम संजय // 8 नानातोयसमाकीर्णं तडागैरुपशोभितम् / न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं गावल्गणे नरैः / पद्मिनीशतसंछन्नं नीलोत्पलसमायुतम् // 20 यत्समेत्य रणे पाथैः पुत्रो मम निपातितः // 9 प्रविश्य तद्वनं घोरं वीक्षमाणाः समन्ततः / अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय / / शाखासहस्रसंछन्नं न्यग्रोधं ददृशुंस्ततः / / 21 हतं पुत्रशतं श्रुत्वा यन्न दीर्णं सहस्रधा // 10 उपेत्य तु तदा राजन्न्यग्रोधं ते महारथाः / - 1931 - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 1. 22] महाभारते [10. 1. 50 % 3D % 3D% 3D1 C 3D.LE+ ददृशुर्द्विपदां श्रेष्ठाः श्रेष्टं तं वै वनस्पतिम् / / 22 महास्वनं महाकायं हर्यक्षं बभ्रुपिङ्गलम् / तेऽवतीर्य रथेभ्यस्तु विप्रमुच्य च वाजिनः / सुदीर्घघोणानखरं सुपर्णमिव वेगिनम् / / 37 उपस्पृश्य यथान्यायं संध्यामन्वासत प्रभो॥२३ सोऽथ शब्दं मृदं कृत्वा लीयमान इवाण्डजः / ततोऽस्तं पर्वतश्रेष्ठमनुप्राप्ते दिवाकरे / न्यग्रोधस्य ततः शाखां प्रार्थयामास भारत // 38 सर्वस्य जगतो धात्री शर्वरी समपद्यत // 24 संनिपत्य तु शाखायां न्यग्रोधस्य विहंगमः / ग्रहनक्षत्रताराभिः प्रकीर्णाभिरलंकृतम् / सुप्ताञ्जघान सुबहून्वायसान्वायसान्तकः // 39 नभोऽशुकमिवाभाति प्रेक्षणीयं समन्ततः // 25 केषांचिदच्छिनत्पक्षाशिरांसि च चकत ह / ईषच्चापि प्रवल्गन्ति ये सत्त्वा रात्रिचारिणः / चरणांश्चैव केषांचिद्वभञ्ज चरणायुधः / / 40 दिवाचराश्च ये सत्त्वास्ते निद्रावशमागताः // 26 क्षणेनाहन्स बलवान्येऽस्य दृष्टिपथे स्थिताः / रात्रिंचराणां सत्त्वानां निनादोऽभूत्सुदारुणः / / तेषां शरीरावयवैः शरीरैश्च विशां पते / .. क्रव्यादाश्च प्रमुदिता घोरा प्राप्ता च शर्वरी // 27 न्यग्रोधमण्डलं सर्व संछन्नं सर्वतोऽभवत् // 41 तस्मिन्रात्रिमुखे घोरे दुःखशोकसमन्विताः / तांस्तु हत्या ततः काकान्कौशिको मुदितोऽभवत् / कृतवर्मा कृपो द्रौणिरुपोपविविशुः समम् // 28 प्रतिकृत्य यथाकामं शत्रूणां शत्रुसूदनः // 42 तत्रोपविष्टाः शोचन्तो न्यग्रोधस्य समन्ततः / तदृष्ट्वा सोपधं कर्म कौशिकेन कृतं निशि / तमेवार्थमतिक्रान्तं कुरुपाण्डवयोः क्षयम् // 29 तद्भावकृतसंकल्पो द्रौणिरेको व्यचिन्तयत् / / 43 निद्रया च परीताङ्गा निषेदुर्धरणीतले / उपदेशः कृतोऽनेन पक्षिणा मम संयुगे / श्रमेण सुदृढं युक्ता विक्षता विविधैः शरैः॥३० शत्रूणां क्षपणे युक्तः प्राप्तकालश्च मे मतः // 44 ततो निद्रावशं प्राप्तौ कृपभोजौ महारथौ / नाद्य शक्या मया हन्तुं पाण्डवा जितकाशिनः / सुखोचितावदुःखाही निषण्णौ धरणीतले। बलवन्तः कृतोत्साहा लब्धलक्षाः प्रहारिणः / तौ तु सुप्तौ महाराज श्रमशोकसमन्वितौ // 31 राज्ञः सकाशे तेषां च प्रतिज्ञातो वधो मया // 45 क्रोधामर्षमशं प्राप्तो द्रोणपुत्रस्तु भारत / पतंगानिसमां वृत्तिमास्थायात्मविनाशिनीम् / नैव स्म स जगामाथ निद्रां सर्प इव श्वसन // 32 न्यायतो युध्यमानस्य प्राणत्यागो न संशयः / न लेभे स तु निद्रां वै दह्यमानोऽतिमन्युना / छद्मना तु भवेत्सिद्धिः शत्रूणां च क्षयो महान् // 46 वीक्षांचक्रे महाबाहुस्तद्वनं घोरदर्शनम् // 33 तत्र संशयितादाद्योऽर्थो निःसंशयो भवेत् / वीक्षमाणो वनोद्देशं नानासत्त्वैर्निषेवितम् / तं जना बहु मन्यन्ते येऽर्थशास्त्रविशारदाः // 47 अपश्यत महाबाहुन्यग्रोधं वायसायुतम् // 34 यच्चाप्यत्र भवेद्वाच्यं गर्हितं लोकनिन्दितम् / तत्र काकसहस्राणि तां निशां पर्यणामयन् / कर्तव्यं तन्मनुष्येण क्षत्रधर्मेण वर्तता // 48 सुखं स्वपन्तः कौरव्य पृथक्पृथगपाश्रयाः // 35 निन्दितानि च सर्वाणि कुत्सितानि पदे पदे / सुप्तेषु तेषु काकेषु विस्तब्धेषु समन्ततः / सोपधानि कृतान्येव पाण्डवैरकृतात्मभिः // 49 सोऽपश्यत्सहसायान्तमुलूकं घोरदर्शनम् // 36 / अस्मिन्नर्थे पुरा गीतौ श्रूयेते धर्मचिन्तकैः / - 1932 - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 1. 50 ] सौप्तिकपर्व | 10. 2. 12 लोकौ न्यायमवेक्षद्भिस्तत्त्वार्थ तत्त्वदर्शिभिः // 50 / यथा हस्येदशी निष्ठा कृते कार्येऽपि दुष्करे / / 65 परिश्रान्ते विदीर्णे च भुञ्जाने चापि शत्रुभिः।। भवतोस्तु यदि प्रज्ञा न मोहादपचीयते / प्रस्थाने च प्रवेशे च प्रहर्तव्यं रिपोर्बलम् // 51 / व्यापन्नेऽस्मिन्महत्यर्थे यन्नः श्रेयस्तदुच्यताम् / / 66 निद्रामिर्धरात्रे च तथा नष्टप्रणायकम् / इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि मिन्नयोधं बलं यच्च द्विधा युक्तं च यद्भवेत् // 52 प्रथमोऽध्यायः॥१॥ इत्येवं निश्चयं चक्रे सुप्तानां युधि मारणे / पाण्डूनां सह पाश्चालैोणपुत्रः प्रतापवान् // 53 कृप उवाच / स रां मतिमास्थाय विनिश्चित्य मुहुर्मुहुः / / श्रुतं ते वचनं सर्वं हेतुयुक्तं मया विभो / सुप्तौ प्राबोधयत्तौ तु मातुलं भोजमेव च // 54 ममापि तु वचः किंचिच्छृणुष्वाद्य महाभुज // 1 नोत्तरं प्रतिपेदे च तत्र युक्तं ट्ठिया वृतः। आबद्धा मानुषाः सर्वे निबन्धाः कर्मणोर्द्वयोः / स मुहूर्तमिव ध्यात्वा बाष्पविह्वलमब्रवीत् / / 55 दैवे पुरुषकारे च परं ताभ्यां न विद्यते // 2 इतो दुर्योधनो राजा एकवीरो महाबलः / न हि देवेन सिध्यन्ति कर्माण्येकेन सत्तम / यस्यार्थे वैरमस्माभिरासक्तं पाण्डवैः सह // 56 न चापि कर्मणेकेन द्वाभ्यां सिद्धिस्तु योगतः // 3 एकाकी बहुभिः क्षुदैराहवे शुद्धविक्रमः / ताभ्यामुभाभ्यां सर्वार्था निबद्धा ह्यधमोत्तमाः / पातितो भीमसेनेन एकादशचमूपतिः // 57 प्रवृत्ताश्चैव दृश्यन्ते निवृत्ताश्चैव सर्वशः // 4 वृकोदरेण क्षुद्रेण सुनृशंसमिदं कृतम् / पर्जन्यः पर्वते वर्षन्किं नु साधयते फलम् / मूर्धाभिषिक्तस्य शिरः पादेन परिमृद्गता / / 58 कृष्ट क्षेत्रे तथावर्षन्कि नु साधयते फलम् // 5 विनर्दन्ति स्म पाञ्चालाः क्ष्वेडन्ति च हसन्ति च / उत्थानं चाप्यदेवस्य ह्यनुत्थानस्य दैवतम् / धमन्ति शङ्खाञ्शतशो हृष्टा नन्ति च दुन्दुभीन् // 59 व्यर्थं भवति सर्वत्र पूर्व कस्तत्र निश्चयः // 6 पादिवघोषस्तुमुलो विमिश्रः शङ्खनिस्वनैः / प्रवृष्टे च यथा देवे सम्यक्क्षेत्रे च कर्षिते / अनिलेनेरितो घोरो दिशः पूरयतीव हि // 60 बीजं महागुणं भूयात्तथा सिद्धिर्हि मानुषी // 7 अश्वानां हेषमाणानां गजानां चैव बुंहताम् / तयोर्दैवं विनिश्चित्य स्ववशेनैव वर्तते / सिंहनादश्च शूराणां श्रूयते सुमहानयम् // 61 प्राज्ञाः पुरुषकारं तु घटन्ते दाक्ष्यमास्थिताः // 8 दिशं प्राची समाश्रित्य हृष्टानां गर्जतां भृशम् / ताभ्यां सर्वे हि कार्यार्था मनुष्याणां नरर्षभ / त्यनेमिस्वनाश्चैव श्रूयन्ते लोमहर्षणाः / / 62 विचेष्टन्तश्च दृश्यन्ते निवृत्ताश्च तथैव हि // 9 पाण्डवैर्धार्तराष्ट्राणां यदिदं कदनं कृतम् / कृतः पुरुषकारः सन्सोऽपि दैवेन सिध्यति / बयमेव त्रयः शिष्टास्तस्मिन्महति वैशसे // 63 तथास्य कर्मणः कर्तुरभिनिर्वर्तते फलम् // 10 केचिन्नागशतप्राणाः केचित्सर्वास्त्रकोविदाः / उत्थानं तु मनुष्याणां दक्षाणां दैववर्जितम् / निहताः पाण्डवेयैः स्म मन्ये कालस्य पर्ययम् // 64 अफलं दृश्यते लोके सम्यगप्युपपादितम् // 11 खमेतेन भाव्यं हि नूनं कार्येण तत्त्वतः / | तत्रालसा मनुष्याणां ये भवन्त्यमनस्विनः / - 1933 - Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 2. 12] महाभारते [ 10. 3.6 उत्थानं ते विगर्हन्ति प्राज्ञानां तन्न रोचते // 12 / पूर्वमप्यतिदुःशीलो न दैन्यं कर्तुमर्हति / प्रायशो हि कृतं कर्म अफलं दृश्यते भुवि / तपत्यर्थे विपन्ने हि मित्राणामकृतं वचः // 27 अकृत्वा च पुनर्दुःखं कर्म दृश्येन्महाफलम् // 13 अन्वावर्तामहि वयं यत्तु तं पापपूरुषम् / चेष्टामकुर्वल्लभते यदि किंचिद्यदृच्छया / अस्मानप्यनयस्तस्मात्प्राप्तोऽयं दारुणो महान् // 21 यो वा न लभते कृत्वा दुर्दशौ तावुभावपि // 14 अनेन तु ममाद्यापि व्यसनेनोपतापिता। शक्नोति जीवितुं दक्षो नालसः सुखमेधते / बुद्धिश्चिन्तयतः किंचित्स्वं श्रेयो नावबुध्यते // 2 दृश्यन्ते जीवलोकेऽस्मिन्दक्षाः प्रायो हितैषिणः॥१५ मुह्यता तु मनुष्येण प्रष्टव्याः सुहृदो बुधाः। यदि दक्षः समारम्भात्कर्मणां नाश्नुते फलम् / ते च पृष्टा यथा ब्रयुस्तत्कर्तव्यं तथा भवेत् // 3 // नास्य वाच्यं भवेत्किचित्तत्त्वं चाप्यधिगच्छति॥१६ ते वयं धृतराष्ट्रं च गान्धारी च समेत्य ह। अकृत्वा कर्म यो लोके फलं विन्दति विष्टितः। / उपपृच्छामहे गत्वा विदुरं च महामतिम् // 31 स तु वक्तव्यतां याति द्वेष्यो भवति प्रायशः / / 17 ते पृष्टाश्च वदेयुर्यच्छ्रेयो नः समनन्तरम् / एवमेतदनादृत्य वर्तते यस्त्वतोऽन्यथा / तदस्माभिः पुनः कार्यमिति मे नैष्ठिकी मतिः॥३॥ स करोत्यात्मनोऽनर्थान्नैष बुद्धिमतां नयः॥ 18 अनारम्भात्तु कार्याणां नार्थः संपद्यते क्वचित् / हीनं पुरुषकारेण यदा दैवेन वा पुनः / कृते पुरुषकारे च येषां कार्य न सिध्यति / कारणाभ्यामथैताभ्यामुत्थानमफलं भवेत् / दैवेनोपहतास्ते तु नात्र कार्या विचारणा // 33 हीनं पुरुषकारेण कर्म त्विह न सिध्यति // 19 ___ इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि दैवतेभ्यो नमस्कृत्य यस्त्वर्थान्सम्यगीहते / द्वितीयोऽध्यायः // 2 // दक्षो दाक्षिण्यसंपन्नो न स मोघं विहन्यते // 20 सम्यगीहा पुनरियं यो वृद्धानुपसेवते / संजय उवाच / आपृच्छति च यच्छ्रेयः करोति च हितं वचः // 21 कृपस्य वचनं श्रुत्वा धर्मार्थसहितं शुभम् / उत्थायोत्थाय हि सदा प्रष्टव्या वृद्धसंमताः। अश्वत्थामा महाराज दुःखशोकसमन्वितः // 1 तेऽस्य योगे परं मूलं तन्मूला सिद्धिरुच्यते // 22 दह्यमानस्तु शोकेन प्रदीप्तेनाग्निना यथा / वृद्धानां वचनं श्रुत्वा यो ह्युत्थानं प्रयोजयेत् / / रं मनस्ततः कृत्वा तावुभौ प्रत्यभाषत // 2 उत्थानस्य फलं सम्यक्तदा स लभतेऽचिरात // 23 पुरुषे पुरुषे बुद्धिः सा सा भवति शोभना। . रागात्क्रोधाद्भयाल्लोभाद्योऽर्थानीहेत मानवः / तुष्यन्ति च पृथक्सर्वे प्रज्ञया ते स्वया स्वया // अनीशश्चावमानी च स शीघ्रं भ्रश्यते श्रियः // 24 सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम् / सोऽयं दुर्योधनेनार्थो लुब्धेनादीर्घदर्शिना। | सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति // 4 असमर्थ्य समारब्धो मूढत्वादविचिन्तितः // 25 / सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता। हितबुद्धीननादृत्य संमत्र्यासाधुभिः सह / परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत् // वार्यमाणोऽकरोद्वैरं पाण्डवैर्गुणवत्तरैः // 26 / कारणान्तरयोगेन योगे येषां समा मतिः / - 1934 3 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 3. 6] सौप्तिकपर्व [10. 3. 35 तेऽन्योन्येन च तुष्यन्ति बहु मन्यन्ति चासकृत्॥६ / मन्दभाग्यतयास्म्येतं क्षत्रधर्ममनुष्ठितः // 21 तस्यैव तु मनुष्यस्य सा सा बुद्धिस्तदा तदा। क्षत्रधर्म विदित्वाहं यदि ब्राह्मण्यसंश्रितम् / फालयोगविपर्यासं प्राप्यान्योन्यं विपद्यते // 7 प्रकुर्यां सुमहत्कर्म न मे तत्साधु संमतम् // 22 अचिन्त्यत्वाद्धि चित्तानां मनुष्याणां विशेषतः / धारयित्वा धनुर्दिव्यं दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे / चित्तवैकल्यमासाद्य सा सा बुद्धिः प्रजायते // 8 / पितरं निहतं दृष्ट्वा किं नु वक्ष्यामि संसदि // 23 स्था हि वैद्यः कुशलो ज्ञात्वा व्याधि यथाविधि / सोऽहमद्य यथाकामं क्षत्रधर्ममुपास्य तम् / मेषजं कुरुते योगात्प्रशमार्थमिहाभिभो // 9 गन्तास्मि पदवीं राज्ञः पितुश्चापि महाद्युतेः // 24 एवं कार्यस्य योगार्थ बुद्धिं कुर्वन्ति मानवाः / अद्य स्वप्स्यन्ति पाञ्चाला विश्वस्ता जितकाशिनः / नया हि स्वया युक्तास्तां च निन्दन्ति मानवाः॥१० विमुक्तयुग्यकवचा हर्षेण च समन्विताः / धन्यया यौवने मो बुद्ध्या भवति मोहितः / / वयं जिता मताश्चैषां श्रान्ता व्यायमनेन च // 25 मध्येऽन्यया जरायां तु सोऽन्यां रोचयते मतिम्॥११ तेषां निशि प्रसुप्तानां स्वस्थानां शिबिरे स्वके / व्यसनं वा पुनर्घोरं समृद्धिं वापि तादृशीम् / अवस्कन्दं करिष्यामि शिविरस्याद्य दुष्करम् // 26 अषाप्य पुरुषो भोज कुरुते बुद्धिवैकृतम् // 12 / तानवस्कन्ध शिबिरे प्रेतभूतान्विचेतसः / एकस्मिन्नेव पुरुषे सा सा बुद्धिस्तदा तदा / सूदयिष्यामि विक्रम्य मघवानिव दानवान् // 27 भवत्यनित्यप्रज्ञत्वात्सा तस्यैव न रोचते // 13 अद्य तान्सहितान्सर्वान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान् / निश्चित्य तु यथाप्रज्ञं यां मतिं साधु पश्यति / सूदयिष्यामि विक्रम्य कक्षं दीप्त इवानलः / तस्यां प्रकुरुते भावं सा तस्योद्योगकारिका / 14 / निहत्य चैव पाश्चालाशान्ति लब्धास्मि सत्तम // 28 सर्वो हि पुरुषो भोज साध्वेतदिति निश्चितः / पाश्चालेषु चरिष्यामि सूदयन्नद्य संयुगे / कर्तुमारभते प्रीतो मरणादिषु कर्मसु // 15 पिनाकपाणिः संक्रुद्धः स्वयं रुद्रः पशुष्विव // 29 सर्वे हि युक्तिं विज्ञाय प्रज्ञां चापि स्वकां नराः / अद्याहं सर्वपाश्चालान्निहत्य च निकृत्य च / चेष्टन्ते विविधाश्चेष्टा हितमित्येव जानते // 16 अर्दयिष्यामि संक्रुद्धो रणे पाण्डुसुतांस्तथा // 30 उपजाता व्यसनजा येयमद्य मतिर्मम / अद्याहं सर्वपाश्चालैः कृत्वा भूमिं शरीरिणीम् / गुवयोस्तां प्रवक्ष्यामि मम शोकविनाशिनीम् // 17 प्रहृत्यैकैकशस्तेभ्यो भविष्याम्यनृणः पितुः // 31 प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा कर्म तासु विधाय च। दुर्योधनस्य कर्णस्य भीष्मसैन्धवयोरपि / वणे वर्णे समाधत्त एकैकं गुणवत्तरम् // 18 गमयिष्यामि पाञ्चालान्पदवीमद्य दुर्गमाम् // 32 प्राह्मणे दममव्यग्रं क्षत्रिये तेज उत्तमम् / अद्य पाञ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नस्य वै निशि / दाक्ष्यं वैश्ये च शूद्रे च सर्ववर्णानुकूलताम् // 19 विरात्रे प्रमथिष्यामि पशोरिव शिरो बलात् // 33 अदान्तो ब्राह्मणोऽसाधुनिस्तेजाः क्षत्रियोऽधमः / / अद्य पाञ्चालपाण्डूनां शयितानात्मजान्निशि / अदक्षो निन्द्यते वैश्यः शूद्रश्च प्रतिकूलवान् // 20 खगेन निशितेनाजौ प्रमथिष्यामि गौतम // 34 सोऽस्मि जातः कुले श्रेष्ठे ब्राह्मणानां सुपूजिते / अद्य पाश्चालसेनां तां निहत्य निशि सौप्तिके / - 1935 - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 3. 35 ] महाभारते [ 10. 4. 27 कृतकृत्यः सुखी चैव भविष्यामि महामते // 35 रथिनं त्वरया यान्तं रथावास्थाय दंशितौ // 12 इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि स गत्वा शिबिरं तेषां नाम विश्राव्य चाहवे। - तृतीयोऽध्यायः // 3 // ततः कर्तासि शत्रूणां युध्यतां कदनं महत् // 13 कृत्वा च कदनं तेषां प्रभाते विमलेऽहनि / कृप उवाच / विहरस्व यथा शक्रः सूदयित्वा महासुरान् // 14 दिष्ट्या ते प्रतिकर्तव्ये मतिर्जातेयमच्युत / त्वं हि शक्तो रणे जेतुं पाञ्चालानां वरूथिनीम् / न त्वा वारयितुं शक्तो वज्रपाणिरपि स्वयम् // 1 दैत्यसेनामिव क्रुद्धः सर्वदानवसूदनः // 15 अनुयास्यावहे त्वां तु प्रभाते सहितावुभौ / मया त्वां सहितं संख्ये गुप्तं च कृतवर्मणा / अद्य रात्रौ विश्रमस्व विमुक्तकवचध्वजः // 2 न सहेत विभुः साक्षाद्वज्रपाणिरपि स्वयम् // 1 // अहं त्वामनुयास्यामि कृतवर्मा च सात्वतः।। न चाहं समरे तात कृतवर्मा तथैव च / परानभिमुखं यान्तं रथावास्थाय दंशितौ // 3 / अनिर्जित्य रणे पाण्डून्व्यपयास्याव कर्हि चित् // 1 // आवाभ्यां सहितः शत्रूश्वोऽसि हन्ता समागमे / हत्वा च समरे क्षुद्रान्पाञ्चालान्पाण्डुभिः सह / विक्रम्य रथिनां श्रेष्ठ पाञ्चालान्सपदानुगान् // 4 निवर्तिष्यामहे सर्वे हता वा स्वर्गगा वयम् // 16 शक्तस्त्वमसि विक्रान्तुं विश्रमस्व निशामिमाम्।। सर्वोपायैः सहायास्ते प्रभाते वयमेव हि / चिरं ते जाग्रतस्तात स्वप तावन्निशामिमाम् / / 5 सत्यमेतन्महाबाहो प्रब्रवीमि तवानघ // 19 विश्रान्तश्च विनिद्रश्च स्वस्थचित्तश्च मानद / एवमुक्तस्ततो द्रौणिर्मातुलेन हितं वचः / समेत्य समरे शत्रून्वधिष्यसि न संशयः // 6 अब्रवीन्मातुलं राजन्क्रोधादुहृत्य लोचने / 20 न हि त्वा रथिनां श्रेष्ठ प्रगृहीतवरायुधम् / आतुरस्य कुतो निद्रा नरस्यामर्षितस्य च / जेतुमुत्सहते कश्चिदपि देवेषु पावकिः // 7 अर्थांश्चिन्तयतश्चापि कामयानस्य वा पुनः // 21 कृपेण सहितं यान्तं युक्तं च कृतवर्मणा / तदिदं समनुप्राप्तं पश्य मेऽद्य चतुष्टयम् / को द्रौणिं युधि संरब्धं योधयेदपि देवराट् // 8 यस्य भागश्चतुर्थो मे स्वप्नमहाय नाशयेत् // 22 ते वयं परिविश्रान्ता विनिद्रा विगतज्वराः / किं नाम दुःखं लोकेऽस्मिन्पितुर्वधमनुस्मरन् / प्रभातायां रजन्यां वै निहनिष्याम शात्रवान् // 9 हृदयं निर्दहन्मेऽद्य रात्र्यहानि न शाम्यति // 21 तव ह्यत्राणि दिव्यानि मम चैव न संशयः / / यथा च निहतः पापैः पिता मम विशेषतः। सात्वतोऽपि महेष्वासो नित्यं युद्धेषु कोविदः॥१० प्रत्यक्षमपि ते सर्व तन्मे मर्माणि कृन्तति // 24 ते वयं सहितास्तात सर्वाशत्रून्समागतान् / कथं हि मादृशो लोके मुहूर्तमपि जीवति / / प्रसह्य समरे हत्वा प्रीतिं प्राप्स्याम पुष्कलाम् / / द्रोणो हतेति यद्वाचः पाञ्चालानां शृणोम्यहम् // 25 विश्रमस्व त्वमव्यग्रः स्वप चेमां निशां सुखम् / / 11 धृष्टद्युम्नमहत्वाजौ नाहं जीवितुमुत्सहे। अहं च कृतवर्मा च प्रयान्तं त्वां नरोत्तम / स मे पितृवधाद्वध्यः पाञ्चाला ये च संगताः // 26 अनुयास्याव सहितौ धन्विनौ परतापिनौ / विलापो भग्नसक्थस्य यस्तु राज्ञो मया श्रुतः / - 1936 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 4. 27 ] सौप्तिकपर्व [10. 5. 20 स पुनर्हृदयं कस्य क्रूरस्यापि न निर्दहेत् / / 27 तथैव सुहृदा शक्यो नशक्यस्त्ववसीदति // 6 कस्य ह्यकरुणस्यापि नेत्राभ्यामश्रु नानाजेत् / तथैव सुहृदं प्राशं कुर्वाणं कर्म पापकम् / नृपतेर्भग्नसक्थस्य श्रुत्वा ताहग्वचः पुनः॥ 28 प्राज्ञाः संप्रतिषेधन्ते यथाशक्ति पुनः पुनः // 7 यश्चायं मित्रपक्षो मे मयि जीवति निर्जितः / स कल्याणे मतिं कृत्वा नियम्यात्मानमात्मना / शोकं मे वर्धयत्येष वारिवेग इवार्णवम् / कुरु मे वचनं तात येन पश्चान्न तप्यसे // 8 एकाग्रमनसो मेऽद्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् / / 29 / न वधः पूज्यते लोके सुप्तानामिह धर्मतः / वासुदेवार्जुनाभ्यां हि तानहं परिरक्षितान् / तथैव न्यस्तशस्त्राणां विमुक्तरथवाजिनाम् // 9 अविषह्यतमान्मन्ये महेन्द्रेणापि मातुल / / 30 ये च ब्रूयुस्तवास्मीति ये च स्युः शरणागताः / न चास्मि शक्यः संयन्तुमस्मात्कार्यात्कथंचन। . . विमुक्तमूर्धजा ये च ये चापि हतवाहनाः / / 10 न तं पश्यामि लोकेऽस्मिन्यो मां कार्यान्निवर्तयेत् / अद्य स्वप्स्यन्ति पाञ्चाला विमुक्तकवचा विभो / इति मे निश्चिता बुद्धिरेषा साधुमता च मे // 31 विश्वस्ता रजनी सर्वे प्रेता इव विचेतसः // 11 पातिकैः कथ्यमानस्तु मित्राणां मे पराभवः / / यस्तेषां तदवस्थानां द्रुह्येत पुरुषोऽनृजुः / / पाण्डवानां च विजयो हृदयं दहतीव मे // 32 व्यक्तं स नरके मज्जेदगाधे विपुलेऽप्लवे // 12 अहं तु कदनं कृत्वा शत्रूणामद्य सौप्तिके। सर्वास्त्रविदुषां लोके श्रेष्ठस्त्वमसि विश्रुतः / तो विश्रमिता चैव स्वप्ता च विगतज्वरः // 33 न च ते जातु लोकेऽस्मिन्सुसूक्ष्ममपि किल्बिषम् / / ' इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि त्वं पुनः सूर्यसंकाशः श्वोभूत उदिते रवौ / . चतुर्थोऽध्यायः // 4 // प्रकाशे सर्वभूतानां विजेता युधि शात्रवान् // 14 असंभावितरूपं हि त्वयि कर्म विगर्हितम् / कृप उवाच / शुक्ले रक्तमिव न्यस्तं भवेदिति मतिर्मम // 15 श्रषुरपि दुर्मेधाः पुरुषोऽनियतेन्द्रियः / __ अश्वत्थामोवाच / नालं वेदयितुं कृत्स्नौ धर्मार्थाविति मे मतिः // 1 / एवमेतद्यथात्थ त्वमनुशास्मीह मातुल / तथैव तावन्मेधावी विनयं यो न शिक्षति / तैस्तु पूर्वमयं सेतुः शतधा विदलीकृतः // 16 न च किंचन जानाति सोऽपि धर्मार्थनिश्चयम्॥२ प्रत्यक्षं भूमिपालानां भवतां चापि संनिधौ। शुश्रूषुस्त्वेव मेधावी पुरुषो नियतेन्द्रियः / न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः // 17 जानीयादागमान्सर्वान्ग्राह्यं च न विरोधयेत् / / 3 / कर्णश्च पतिते चक्रे रथस्य रथिनां वरः / अनेयस्त्ववमानी यो दुरात्मा पापपूरुषः / उत्तमे व्यसने सन्नो हतो गाण्डीवधन्वना // 18 दिष्टमुत्सृज्य कल्याणं करोति बहुपापकम् // 4 तथा शांतनवो भीष्मो न्यस्तशस्त्रो निरायुधः / नाथवन्तं तु सुहृदः प्रतिषेधन्ति पातकात् / शिखण्डिनं पुरस्कृत्य हतो गाण्डीवधन्वना / / 19 निवर्तते तु लक्ष्मीवान्नालक्ष्मीवान्निवर्तते / / 5 / भूरिश्रवा महेष्वासस्तथा प्रायगतो रणे। पथा ह्युच्चावचैर्वाक्यैः क्षिप्तचित्तो नियम्यते / क्रोशतां भूमिपालानां युयुधानेन पातितः // 20 म. भा. 243 - 1937 - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 5. 21] महाभारते [10. 6.9 दुर्योधनश्च भीमेन समेत्य गदया मृधे / समास्थाय प्रतीक्षेतां रथवयौं परंतपौ // 35 पश्यतां भूमिपालानामधर्मेण निपातितः / / 21 / / इत्युक्त्वा रथमास्थाय प्रायादभिमुखः परान् / एकाकी बहुभिस्तत्र परिवार्य महारथैः / तमन्वगात्कृपो राजन्कृतवर्मा च सात्वतः॥ 36 अधर्मेण नरव्याघ्रो भीमसेनेन पातितः // 22 / ते प्रयाता व्यरोचन्त परानभिमुखास्त्रयः / विलापो भग्नसक्थस्य यो मे राज्ञः परिश्रुतः / हूयमाना यथा यज्ञे समिद्धा हव्यवाहनाः // 30 वार्त्तिकानां कथयतां स मे मर्माणि कृन्तति // 23 / ययुश्च शिबिरं तेषां संप्रसुप्तजनं विभो / एवमधार्मिकाः पापाः पाञ्चाला भिन्नसेतवः। द्वारदेशं तु संप्राप्य द्रौणिस्तस्थौ रथोत्तमे / / 38 तानेवं भिन्नमर्यादान्कि भवान्न विगर्हति // 24 इति महाभारते सौप्तिकपर्वणि पितृहन्तृनहं हत्वा पाञ्चालान्निशि सौप्तिके / पञ्चमोऽध्यायः // 5 // काम कीटः पतंगो वा जन्म प्राप्य भवामि वै॥२५ त्वरे चाहमनेनाद्य यदिदं मे चिकीर्षितम। धृतराष्ट्र उवाच। तस्य मे त्वरमाणस्य कुतो निद्रा कुतः सुखम् / / 26 द्वारदेशे ततो द्रौणिमवस्थितमवेक्ष्य तौ। न स जातः पुमाललोके कश्चिन्न च भविष्यति / यो मे व्यावर्तयेदेतां वधे तेषां कृतां मतिम् / / 27 अकुर्वतां भोजकृपौ कि संजय बदस्व मे // 1 संजय उवाच। -संजय उवाच / एवमुक्त्वा महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / कृतवर्माणमामय कृपं च स महारथम् / एकान्ते योजयित्वाश्वान्प्रायादभिमुखः परान् // 28 द्रौणिर्मन्युपरीतात्मा शिबिरद्वारमासदत् // 2 तमब्रूतां महात्मानौ भोजशारद्वतावुभौ / तत्र भूतं महाकायं चन्द्रार्कसदृशद्युतिम् / किमयं स्यन्दनो युक्तः किं च कार्य चिकीर्षितम् // 29 सोऽपश्यद्वारमावृत्य तिष्ठन्तं लोमहर्षणम् // 3 एकसाथ प्रयातौ स्वस्त्वया सह नरर्षभ / वसानं चर्म वैयाघ्र महारुधिरविस्रवम् / समदुःखसुखौ चैव नावां शङ्कितुमर्हसि // 30 / कृष्णाजिनोत्तरासङ्गं नागयज्ञोपवीतिनम् // 4 अश्वत्थामा तु संक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन् / बाहुभिः स्वायतैः पीनैर्नानाप्रहरणोद्यतैः / ताभ्यां तथ्यं तदाचख्यौ यदस्यात्मचिकीर्षितम् // 31 बद्धाङ्गदमहासर्प ज्वालामालाकुलाननम् // 5 हत्वा शतसहस्राणि योधानां निशितैः शरैः। दंष्ट्राकरालवदनं व्यादितास्यं भयावहम् / न्यस्तशस्त्रो मम पिता धृष्टद्युम्नेन पातितः // 32 नयनानां सहस्रैश्च विचित्रैरभिभूषितम् // 6 तं तथैव हनिष्यामि न्यस्तवर्माणमद्य वै / नैव तस्य वपुः शक्यं प्रवक्तुं वेष एव वा / पुत्रं पाश्चालराजस्य पापं पापेन कर्मणा // 33 / / सर्वथा तु तदालक्ष्य स्फुटेयुरपि पर्वताः // 7 कथं च निहतः पापः पाञ्चालः पशुवन्मया। तस्यास्यान्नासिकाभ्यां च श्रवणाभ्यां च सर्वशः / शस्त्राहवजितां लोकान्प्राप्नुयादिति मे मतिः // 34 तेभ्यश्चाक्षिसहस्रेभ्यः प्रादुरासन्महार्चिषः // 8 क्षिप्रं संनद्धकवचौ सखगावात्तकार्मुकौ / तथा तेजोमरीचिभ्यः शङ्खचक्रगदाधराः / - 1938 - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 6.9] सौप्तिकपर्व [10.7.2 प्रादुरासन्हषीकेशाः शतशोऽथ सहस्रशः // 9 यदुद्यम्य महत्कृत्यं भयादपि निवर्तते // 24 तदत्यद्भुतमालोक्य भूतं लोकभयंकरम् / अशक्यं चैव कः कर्तुं शक्तः शक्तिबलादिह / द्रौणिरव्यथितो दिव्यैरस्त्रवषैरवाकिरत् // 10 न हि दैवाद्गरीयो वै मानुषं कर्म कथ्यते // 25 द्रौणिमुक्ताशरांस्तांस्तु तद्भूतं महदग्रसत् / / मानुषं कुर्वतः कर्म यदि दैवान्न सिध्यति / उदधेरिव वार्योघान्पावको वडवामुखः // 11 स पथः प्रच्युतो धाद्विपदं प्रतिपद्यते // 26 अश्वत्थामा तु संप्रेक्ष्य ताशरौघानिरर्थकान् / प्रतिघातं ह्यविज्ञातं प्रवदन्ति मनीषिणः / / रथशक्तिं मुमोचास्मै दीप्तामग्निशिखामिव // 12 यदारभ्य क्रियां कांचिद्भयादिह निवर्तते // 27' सा तदाहत्य दीप्ताया रथशक्तिरशीयत / . तदिदं दुष्प्रणीतेन भयं मां समुपस्थितम् / युगान्ते सूर्यमाहत्य महोल्केव दिवश्युता / / 13 न हि द्रोणसुतः संख्ये निवर्तेत कथंचन // 28 अथ हेमत्सरं दिव्यं खड्गमाकाशवर्चसम् / इदं च सुमहद्भूतं दैवदण्डमिवोद्यतम् / कोशात्समुद्बबर्दाशु बिलादीप्तमिवोरगम् // 14 / न चैतदभिजानामि चिन्तयन्नपि सर्वथा // 29 ततः खड्गवरं धीमान्भूताय प्राहिणोत्तदा / ध्रुवं येयमधर्मे मे प्रवृत्ता कलुषा मतिः / स तदासाद्य भूतं वै विलयं तूलवद्ययौ // 15 तस्याः फलमिदं घोरं प्रतिघाताय दृश्यते // 30 ततः स कुपितो द्रौणिरिन्द्रकेतुनिभां गदाम् / तदिदं दैवविहितं मम संख्ये निवर्तनम् / ज्वलन्तीं प्राहिणोत्तस्मै भूतं तामपि चाग्रसत् // 16 / नान्यत्र दैवादुद्यन्तुमिह शक्यं कथंचन // 31 ततः सर्वायुधाभावे वीक्षमाणस्ततस्ततः / सोऽहमद्य महादेवं प्रपद्ये शरणं प्रभुम् / अपश्यत्कृतमाकाशमनाकाशं जनार्दनैः // 17 दैवदण्डमिमं घोरं स हि मे नाशयिष्यति // 32 तदद्भुततमं दृष्ट्वा द्रोणपुत्रो निरायुधः / कपर्दिनं प्रपद्याथ देवदेवमुमापतिम् / अब्रवीदभिसंतप्तः कृपवाक्यमनुस्मरन् // 18 कपालमालिनं रुद्रं भगनेत्रहरं हरम् // 33 ब्रुवतामप्रियं पथ्यं सुहृदां न शृणोति यः / स हि देवोऽत्यगाद्देवांस्तपसा विक्रमेण च / स शोचत्यापदं प्राप्य यथाहमतिवर्त्य तौ // 19 तस्माच्छरणमभ्येष्ये गिरिशं शूलपाणिनम् / / 34 शास्त्रदृष्टानवध्यान्यः समतीत्य जिघांसति। इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि स पथः प्रच्युतो धाकुपथं प्रतिपद्यते // 20 षष्ठोऽध्यायः // 6 // गोब्राह्मणनृपस्त्रीषु सख्युर्मातुर्गुरोस्तथा / वृद्धबालजडान्धेषु सुप्तभीतोत्थितेषु च // 21 संजय उवाच / मत्तोन्मत्तप्रमत्तेषु न शस्त्राण्युपधारयेत् / स एवं चिन्तयित्वा तु द्रोणपुत्रो विशां पते / इत्येवं गुरुभिः पूर्वमुपदिष्टं नृणां सदा // 22 अवतीर्य रथोपस्थाद्दध्यौ संप्रयतः स्थितः / / 1 सोऽहमुत्क्रम्य पन्थानं शास्त्रदृष्टं सनातनम् / द्रौणिरुवाच / अमार्गेणैवमारभ्य घोरामापदमागतः / / 23 उग्रं स्थाणुं शिवं रुद्रं शर्वमीशानमीश्वरम् / तां चापदं घोरतरां प्रवदन्ति मनीषिणः / | गिरिशं वरदं देवं भवं भावनमव्ययम् // 2 - 1939 - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 7.3] महाभारते [ 10. 7. 32 शितिकण्ठमजं शक्रं कथं ऋतुहरं हरम् / दार्वाघाटमुखाश्चैव चाषवक्त्राश्च भारत / विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् // 3 कूर्मनक्रमुखाश्चैव शिशुमारमुखास्तथा // 18 श्मशानवासिनं दृप्तं महागणपतिं प्रभुम् / महामकरवक्त्राश्च तिमिवक्त्रास्तथैव च / खट्टाङ्गधारिणं मुण्डं जटिलं ब्रह्मचारिणम् // 4 हरिवक्त्राः क्रौञ्चमुखाः कपोतेभमुखास्तथा // 19 मनसाप्यसुचिन्त्येन दुष्करेणाल्पचेतसा।। पारावतमुखाश्चैव मद्गुवक्त्रास्तथैव च / / सोऽहमात्मोपहारेण यक्ष्ये त्रिपुरघातिनम् // 5 पाणिकर्णाः सहस्राक्षास्तथैव च शतोदराः // 20 स्तुतं स्तुत्यं स्तूयमानममोघं चर्मवाससम् / निर्मासाः कोकवक्त्राश्च श्येनवक्त्राश्च भारत / विलोहितं नीलकण्ठमपृक्तं दुर्निवारणम् / / 6 तथैवाशिरसो राजन्नृक्षवक्त्राश्च भीषणाः // 21 शुक्रं विश्वसृजं ब्रह्म ब्रह्मचारिणमेव च / प्रदीप्तनेत्रजिह्वाश्च ज्वालावक्त्रास्तथैव च। व्रतवन्तं तपोनित्यमनन्तं तपतां गतिम् / / 7 मेषवक्त्रास्तथैवान्ये तथा छागमुखा नृप.॥ 22 बहुरूपं गणाध्यक्षं त्र्यक्षं पारिषदप्रियम् / शङ्खाभाः शङ्खवक्त्राश्च शङ्खकर्णास्तथैव च। गणाध्यक्षेक्षितमुखं गौरीहृदयवल्लभम् // 8 शङ्खमालापरिकराः शङ्खध्वनिसमस्वनाः // 23 कुमारपितरं पिङ्गं गोवृषोत्तमवाहनम् / जटाधराः पञ्चशिखास्तथा मुण्डाः कृशोदराः / तनुवाससमत्युग्रमुमाभूषणतत्परम् // 9 चतुर्दष्ट्राश्चतुर्जिह्वाः शङ्कुकर्णाः किरीटिनः / / 24 परं परेभ्यः परमं परं यस्मान्न विद्यते / मौलीधराश्च राजेन्द्र तथाकुञ्चितमूर्धजाः / इष्वस्त्रोत्तमभर्तारं दिगन्तं चैव दक्षिणम् // 10 उष्णीषिणो मुकुटिनश्चारुवक्त्राः खलंकृताः // 25 हिरण्यकवचं देवं चन्द्रमौलिविभूषितम् / पद्मोत्पलापीडधरास्तथा कुमुदधारिणः / प्रपद्ये शरणं देवं परमेण समाधिना // 11 माहात्म्येन च संयुक्ताः शतशोऽथ सहस्रशः // 26 इमां चाप्यापदं घोरां तराम्यद्य सुदुस्तराम् / शतघ्नीचक्रहस्ताश्च तथा मुसलपाणयः / सर्वभूतोपहारेण यक्ष्येऽहं शुचिना शुचिम् // 12 भुशुण्डीपाशहस्ताश्च गदाहस्ताश्च भारत // 27 इति तस्य व्यवसितं ज्ञात्वा त्यागात्मकं मनः / / पृष्ठेषु बद्धेषुधयश्चित्रबाणा रणोत्कटाः / पुरस्तात्काञ्चनी वेदिः प्रादुरासीन्महात्मनः // 13 सध्वजाः सपताकाश्च सघण्टाः सपरश्वधाः॥ 28 तस्यां वेद्यां तदा राजंश्चित्रभानुरजायत / महापाशोद्यतकरास्तथा लगुडपाणयः / द्यां दिशो विदिशः खं च ज्वालाभिरभिपूरयन्॥१४ स्थूणाहस्ताः खगहस्ताः सोच्छ्रितकिरीटिनः / दीप्तास्यनयनाश्चात्र नैकपादशिरोभुजाः / महासर्पाङ्गदधराश्चित्राभरणधारिणः / / 29 द्विपशैलप्रतीकाशाः प्रादुरासन्महाननाः // 15 रजोध्वस्ताः पङ्कदिग्धाः सर्वे शुक्लाम्बरस्रजः / श्ववराहोष्ट्ररूपाश्च हयगोमायुगोमुखाः / नीलाङ्गाः कमलाङ्गाश्च मुण्डवक्त्रास्तथैव च // 30 ऋक्षमारिवदना व्याघ्रद्वीपिमुखास्तथा // 16 भेरीशङ्खमृदङ्गास्ते झर्झरानकगोमुखान् / काकवक्त्राः प्लवमुखाः शुकवक्त्रास्तथैव च।। अवादयन्पारिषदाः प्रहृष्टाः कनकप्रभाः // 31 महाजगरवक्त्राश्च हंसवक्त्राः सितप्रभाः // 17 / गायमानास्तथैवान्ये नृत्यमानास्तथापरे / - 1940 - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 7. 32] सौप्तिकपर्व [10. 7. 61 जयन्तः प्लवन्तश्च वल्गन्तश्च महाबलाः // 32 भावन्तो जवनाश्चण्डाः पवनोद्भूतमूर्धजाः / मत्ता इव महानागा विनदन्तो मुहुर्मुहुः 33 मुमीमा घोररूपाश्च शूलपट्टिशपाणयः / नानाविरागवसनाश्चित्रमाल्यानुलेपनाः / / 34 रत्नचित्राङ्गदधराः समुद्यतकरास्तथा / इन्तारो द्विषतां शूराः प्रसह्यासह्यविक्रमाः // 35 / पातारोऽसृग्वसाद्यानां मांसात्रकृतभोजनाः। चूडालाः कर्णिकालाश्च प्रकृशाः पिठरोदराः // 36 अतिहखातिदीर्घाश्च प्रबलाश्चातिभैरवाः / विकटाः काललम्बोष्ठा बृहच्छेफास्थिपिण्डिकाः // 37 महार्हनानामुकुटा मुण्डाश्च जटिलाः परे। सार्केन्दुग्रहनक्षत्रां द्यां कुर्युर्ये महीतले // 38 छत्सहेरंश्च ये हन्तुं भूतग्रामं चतुर्विधम् / ये च वीतभया नित्यं हरस्य भ्रुकुटीभटाः // 39 कामकारकराः सिद्धास्त्रैलोक्यस्येश्वरेश्वराः / नित्यानन्दप्रमुदिता वागीशा वीतमत्सराः // 40 प्राप्याष्टगुणमैश्वर्यं ये न यान्ति च विस्मयम् / येषां विस्मयते नित्यं भगवान्कर्मभिर्हरः // 41 मनोवाकर्मभिर्भक्तैर्नित्यमाराधितश्च यैः। मनोवाकर्मभिर्भक्तान्पाति पुत्रानिवौरसान् / / 42 पिबन्तोऽसृग्वसास्त्वन्ये क्रुद्धा ब्रह्मद्विषां सदा / चतुर्विंशात्मकं सोमं ये पिबन्ति च नित्यदा // 43 श्रुतेन ब्रह्मचर्येण तपसा च दमेन च / ये समाराध्य शूलाङ्कं भवसायुज्यमागताः // 44 येरात्मभूतैर्भगवान्पार्वत्या च महेश्वरः / सह भूतगणान्भुङ्क्ते भूतभव्यभवत्प्रभुः // 45 नानाविचित्रहसितक्ष्वेडितोत्क्रुष्टगर्जितैः। संनादयन्तस्ते विश्वमश्वत्थामानमभ्ययुः / / 46 संस्तुवन्तो महादेवं भाः कुर्वाणाः सुवर्चसः। विवर्धयिषवो द्रौणेर्महिमानं महात्मनः // 47 जिज्ञासमानास्तत्तेजः सौप्तिकं च दिदृक्षवः / भीमोग्रपरिघालातशूलपट्टिशपाणयः / घोररूपाः समाजग्मुर्भूतसंघाः समन्ततः // 48 जनयेयुर्भयं ये स्म त्रैलोक्यस्यापि दर्शनात् / तान्प्रेक्षमाणोऽपि व्यथां न चकार महाबलः // 49 अथ द्रौणिर्धनुष्पाणिवद्धगोधाङ्गुलित्रवान् / स्वयमेवात्मनात्मानमुपहारमुपाहरत् // 50 धनूंषि समिधस्तत्र पवित्राणि शिताः शराः / हविरात्मवतश्चात्मा तस्मिन्भारत कर्मणि // 51 ततः सौम्येन मन्त्रेण द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / उपहारं महामन्युरथात्मानमुपाहरत् // 52 तं रुद्रं रोद्रकर्माणं रौद्रैः कर्मभिरच्युतम् / अभिष्टुत्य महात्मानमित्युवाच कृताञ्जलिः // 53 इममात्मानमद्याहं जातमाङ्गिरसे कुले / अग्नौ जुहोमि भगवन्प्रतिगृह्णीष्व मां बलिम् // 54 भवद्भक्त्या महादेव परमेण समाधिना / अस्यामापदि विश्वात्मन्नुपाकुर्मि तवाग्रतः / / 55 त्वयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चासि वै / गुणानां हि प्रधानानामेकत्वं त्वयि तिष्ठति // 56 सर्वभूताशय विभो हविर्भूतमुपस्थितम् / प्रतिगृहाण मां देव यद्यशक्याः परे मया // 57 इत्युक्त्वा द्रौणिरास्थाय तां वेदी दीप्तपावकाम् / संत्यक्तात्मा समारुह्य कृष्णवर्त्मन्युपाविशत् // 58 तमूर्ध्वबाहुं निश्चेष्टं दृष्ट्वा हविरुपस्थितम् / अब्रवीद्भगवान्साक्षान्महादेवो हसन्निव // 59 सत्यशौचार्जवत्यागैस्तपसा नियमेन च / क्षान्त्या भक्त्या च धृत्या च बुद्ध्या च वचसा तथा / यथावदहमाराद्धः कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा / तस्मादिष्टतमः कृष्णादन्यो मम न विद्यते // 61 - 1941 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 7. 62] महाभारते [10. 8.21 कुर्वता तस्य संमानं त्वां च जिज्ञासता मया। अहं प्रवेक्ष्ये शिबिरं चरिष्यामि च कालवत् / पाश्चालाः सहसा गुप्ता मायाश्च बहुशः कृताः॥६२ यथा न कश्चिदपि मे जीवन्मुच्येत मानवः // 8 कृतस्तस्यैष संमानः पाञ्चालारक्षता मया। इत्युक्त्वा प्राविशद्रोणिः पार्थानां शिबिरं महत् / अभिभूतास्तु कालेन नैषामद्यास्ति जीवितम् // 63 अद्वारेणाभ्यवस्कन्ध विहाय भयमात्मनः // 9 एवमुक्त्वा महेष्वासं भगवानात्मनस्तनुम् / स प्रविश्य महाबाहुरुद्देशज्ञश्च तस्य ह / आविवेश ददौ चास्मै विमलं खड्गमुत्तमम् // 64 धृष्टद्युम्नस्य निलयं शनकैरभ्युपागमत् // 10 अथाविष्टो भगवता भूयो जज्बाल तेजसा / ते तु कृत्वा महत्कर्म श्रान्ताश्च बलवद्रणे / वर्मवांश्चाभवयुद्धे देवसृष्टेन तेजसा // 65 प्रसुप्ता वै सुविश्वस्ता स्वसैन्यपरिवारिताः // 11 तमदृश्यानि भूतानि रक्षांसि च समाद्रवन् / अथ प्रविश्य तद्वेश्म धृष्टद्युम्नस्य भारत / अभितः शत्रुशिविरं यान्तं साक्षादिवेश्वरम् / / 66 पाञ्चाल्यं शयने द्रौणिरपश्यत्सुप्तमन्तिकात् // 12 इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि क्षौमावदाते महति स्पर्ध्यास्तरणसंवृते / सप्तमोऽध्यायः॥ 7 // माल्यप्रवरसंयुक्ते धूपैश्चूणैश्च वासिते // 13 तं शयानं महात्मानं विस्रब्धमकुतोभयम् / प्राबोधयत पादेन शयनस्थं महीपते // 14 धृतराष्ट्र उवाच / स बुद्धा चरणस्पर्शमुत्थाय रणदुर्मदः / तथा प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महारथे / अभ्यजानदमेयात्मा द्रोणपुत्रं महारथम् // 15 कच्चित्कृपश्च भोजश्च भया? न न्यवर्तताम् // 1 तमुत्पतन्तं शयनादश्वत्थामा महाबलः / कञ्चिन्न वारिता क्षुद्रौ रक्षिभि।पलक्षितौ / केशेष्वालम्ब्य पाणिभ्यां निष्पिपेष महीतले // 16 असह्यमिति वा मत्वा न निवृत्ती महारथौ // 2 स बलात्तेन निष्पिष्टः साध्वसेन च भारत / कच्चित्प्रमथ्य शिबिरं हत्वा सोमकपाण्डवान् / निद्रया चैव पाञ्चाल्यो नाशकचेष्टितुं तदा // 1 // दुर्योधनस्य पदवीं गतौ परमिकां रणे // 3 तमाक्रम्य पदा राजन्कण्ठे चोरसि चोभयोः / पाञ्चालैर्वा विनिहतौ कच्चिन्नास्वपतां क्षितौ / नदन्तं विस्फुरन्तं च पशुमारममारयत् // 18 कञ्चित्ताभ्यां कृतं कर्म तन्ममाचक्ष्व संजय // 4 तुदन्नखैस्तु स द्रौगि नातिव्यक्तमुदाहरत् / संजय उवाच / आचार्यपुत्र शस्त्रेण जहि मा मा चिरं कृथाः। तस्मिन्प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महात्मनि / त्वत्कृते सुकृताल्लोकान्गच्छेयं द्विपदां वर // 19 कृपश्च कृतवर्मा च शिबिरद्वार्यतिष्ठताम् // 5 तस्याव्यक्तां तु तां वाचं संश्रुत्य द्रौणिरब्रवीत् / अश्वत्थामा तु तौ दृष्ट्वा यत्नवन्तौ महारथौ / आचार्यघातिनां लोका न सन्ति कुलपांसन / प्रहृष्टः शनकै राजन्निदं वचनमब्रवीत् / / 6 तस्माच्छस्त्रेण निधनं न त्वमर्हसि दुर्मते // 20 यत्तौ भवन्तौ पर्याप्तौ सर्वक्षत्रस्य नाशने / एवं बुवाणस्तं वीरं सिंहो मत्तमिव द्विपम् / किं पुनर्योधशेषस्य प्रसुप्तस्य विशेषतः // 7 मर्मस्वभ्यवधीत्क्रुद्धः पादाष्टीलैः सुदारुणैः // 21 - 1942 - Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 8. 22] सौप्तिकपर्व [10. 8. 50 तस्य वीरस्य शब्देन मार्यमाणस्य वेश्मनि / स्फुरतो वेपमानांश्च शमितेव पशून्मखे // 36 अबुध्यन्त महाराज स्त्रियो ये चास्य रक्षिणः / / 22 ततो निस्त्रिंशमादाय जघानान्यान्पृथग्जनान् / ते दृष्ट्वा वर्मवन्तं तमतिमानुषविक्रमम् / भागशो विचरन्मार्गानसियुद्धविशारदः // 37 भूतमेव व्यवस्यन्तो न स्म प्रव्याहरन्भयात् / / 23 / तथैव गुल्मे संप्रेक्ष्य शयानान्मध्यगौल्मिकान् / तं तु तेनाभ्युपायेन गमयित्वा यमक्षयम् / श्रान्तान्यस्तायुधान्सर्वान्क्षणेनैव व्यपोथयत् / / 38 अध्यतिष्ठत्स तेजस्वी रथं प्राप्य सुदर्शनम् // 24 योधानश्वान्द्विपांश्चैव प्राच्छिनत्स वरासिना। स तस्य भवनाद्राजनिष्क्रम्यानादयन्दिशः / रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः कालसृष्ट इवान्तकः // 39 रथेन शिबिरं प्रायाजिघांसुर्विषतो बली // 25 विस्फुरद्भिश्च तैौणिर्निस्त्रिंशस्योद्यमेन च / अपक्रान्ते ततस्तस्मिन्द्रोणपुत्रे महारथे / आक्षेपेण तथैवासेत्रिधा रक्तोक्षितोऽभवत् // 40 सह तै रक्षिभिः सर्वैः प्रणेदुर्योषितस्तदा // 26 तस्य लोहितसिक्तस्य दीप्तखड्गस्य युध्यतः / राजानं निहतं दृष्ट्वा भृशं शोकपरायणाः / अमानुष इवाकारो बभौ परमभीषणः // 41 व्याक्रोशन्क्षत्रियाः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य भारत / / 27 ये त्वजाग्रत कौरव्य तेऽपि शब्देन मोहिताः / तासां तु तेन शब्देन समीपे क्षत्रियर्षभाः।। निरीक्ष्यमाणा अन्योन्यं द्रौणिं दृष्ट्वा प्रविव्यथुः।।४२ क्षिप्रं च समनह्यन्त किमेतदिति चाब्रुवन् // 28 तद्रूपं तस्य ते दृष्ट्वा क्षत्रियाः शत्रुकर्शनाः / स्त्रियस्तु राजन्वित्रस्ता भारद्वाजं निरीक्ष्य तम् / राक्षसं मन्यमानास्तं नयनानि न्यमीलयन् // 43 अब्रुवन्दीनकण्ठेन क्षिप्रमाद्रवतेति वै / / 29 स घोररूपो व्यचरत्कालवच्छिबिरे ततः / राक्षसो वा मनुष्यो वा नैनं जानीमहे वयम् / अपश्यद्रौपदीपुत्रानवशिष्टांश्च सोमकान् // 44 हत्वा पाश्चालराजं यो रथमारुह्य तिष्ठति // 30 तेन शब्देन वित्रस्ता धनुर्हस्ता महारथाः / ततस्ते योधभुख्यास्तं सहसा पर्यवारयन् / धृष्टद्युम्नं हतं श्रुत्वा द्रौपदेया विशां पते / स तानापनतः सर्वान्रुद्रास्त्रेण व्यपोथयत् // 31 अवाकिरशरवातैर्भारद्वाजमभीतवत् // 45 धृष्टद्युम्नं च हत्वा स तांश्चैवास्य पदानुगान् / ततस्तेन निनादेन संप्रबुद्धाः प्रभद्रकाः / अपश्यच्छयने सुप्तमुत्तमौजसमन्ति के // 32 शिलीमुखैः शिखण्डी च द्रोणपुत्रं समादयन् // 46 तमप्याक्रम्य पादेन कण्ठे चोरसि चौजसा / भारद्वाजस्तु तान्दृष्ट्वा शरवर्षाणि वर्षतः / तथैव मारयामास विनर्दन्तमरिंदमम् // 33 ननाद बलवन्नादं जिघांसुस्तान्सुदुर्जयान् // 47 युधामन्युस्तु संप्राप्तो मत्वा तं रक्षसा हतम् / ततः परमसंक्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन् / गदामुद्यम्य वेगेन हृदि द्रौणिमताडयत् / / 34 अवरुह्य रथोपस्थात्त्वरमाणोऽभिदुद्रुवे / / 48 तमभिद्रुत्य जग्राह क्षितौ चैनमपातयत् / सहस्रचन्द्रं विपुलं गृहीत्वा चर्म संयुगे। विस्फुरन्तं च पशुवत्तथैवैनममारयत् / / 35 खड्गं च विपुलं दिव्यं जातरूपपरिष्कृतम् / तथा स वीरो हत्वा तं ततोऽन्यान्समुपाद्रवत् / द्रौपदेयानभिद्रुत्य खङ्गेन व्यचरद्वली / / 49 संसुप्तानेव राजेन्द्र तत्र तत्र महारथान् / ततः स नरशार्दूलः प्रतिविन्ध्यं तमाहवे / - 1943 - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 8. 50 ] महाभारते [ 10. 8.78 कुक्षिदेशेऽवधीद्राजन्स हतो न्यपतद्भुवि // 50 रक्ताम्बरधरामेकां पाशहस्तां शिखण्डिनीम् // 64 प्रासेन विद्धा द्रौणि तु सुतसोमः प्रतापवान् / ददृशुः कालरात्रि ते स्मयमानामवस्थिताम् / पुनश्चासिं समुद्यम्य द्रोणपुत्रमुपाद्रवत // 51 नराश्वकुञ्जरान्पाशैर्बद्धा घोरैः प्रतस्थुषीम् / सुतसोमस्य सासिं तु बाहुं छित्त्वा नरर्षभः / हरन्ती विविधान्प्रेतान्पाशबद्धान्विमूर्धजान् // 65 पुनरभ्यहनत्पार्श्व स भिन्नहृदयोऽपतत् // 52 स्वप्ने सुप्तान्नयन्ती तां रात्रिध्वन्यासु मारिष / नाकुलिस्तु शतानीको रथचक्रेण वीर्यवान् / ददृशुर्योधमुख्यास्ते नन्तं द्रौणिं च नित्यदा // 66 दोामुक्षिप्य वेगेन वक्षस्येनमताडयत् // 53 यतः प्रवृत्तः संग्रामः कुरुपाण्डवसेनयोः / अताडयच्छतानीकं मुक्तचक्रं द्विजस्तु सः / ततःप्रभृति तां कृत्यामपश्यन्द्रौणिमेव च // 67 स विह्वलो ययौ भूमिं ततोऽस्यापाहरच्छिरः // 54 तांस्तु दैवहतान्पूर्व पश्चाद्रौणियपातयत् / श्रुतकर्मा तु परिघं गृहीत्वा समताडयत् / त्रासयन्सर्वभूतानि विनदन्भैरवान्रवान् // 68 अभिद्रुत्य ततो द्रौणि सव्ये स फलके भृशम् / / 55 तदनुस्मृत्य ते वीरा दर्शनं पौर्वकालिकम् / स तु तं श्रुतकर्माणमास्ये जप्ने वरासिना / इदं तदित्यमन्यन्त देवेनोपनिपीडिताः // 69 स हतो न्यपतद्भूमौ विमूढो विकृताननः / / 56 ततस्तेन निनादेन प्रत्यबुध्यन्त धन्विनः / तेन शब्देन वीरस्तु श्रुतकीर्तिमहाधनुः / शिबिरे पाण्डवेयानां शतशोऽथ सहस्रशः // 70 अश्वत्थामानमासाद्य शरवर्षैरवाकिरत् / / 57 सोऽच्छिनत्कस्यचित्पादौ जघनं चैव कस्यचित् / तस्यापि शरवर्षाणि चर्मणा प्रतिवार्य सः / कांश्चिद्विभेद पार्श्वेषु कालसृष्ट इवान्तकः // 71 सकुण्डलं शिरः कायाद्धाजमानमपाहरत् / / 58 अत्युमप्रतिपिष्टैश्च नदद्भिश्च भृशातुरैः / ततो भीष्मनिहन्ता तं सह सर्वैः प्रभद्रकैः / गजाश्वमथितैश्चान्यैर्मही कीर्णाभवत्प्रभो // 72 अहनत्सर्वतो वीरं नानाप्रहरणैबली। क्रोशतां किमिदं कोऽयं किं शब्दः किं नु किं कृतम्। शिलीमुखेन चाप्येनं भ्रयोर्मध्ये समादयत् // 59 एवं तेषां तदा द्रौणिरन्तकः समपद्यत / / 73 स तु क्रोधसमाविष्टो द्रोणपुत्रो महाबलः। अपेतशस्त्रसंनाहान्संरब्धान्पाण्डुसञ्जयान् / शिखण्डिनं समासाद्य द्विधा चिच्छेद सोऽसिना॥ प्राहिणोन्मृत्युलोकाय द्रौणिः प्रहरतां वरः / / 74 शिखण्डिनं ततो हत्वा क्रोधाविष्टः परंतपः / ततस्तच्छस्त्रवित्रस्ता उत्पतन्तो भयातुराः / प्रभद्रकगणान्सर्वानभिदुद्राव वेगवान् / निद्रान्धा नष्टसंज्ञाश्च तत्र तत्र निलिलियरे / / 75 यच्च शिष्टं विराटस्य बलं तच्च समाद्रवत् / / 61 ऊरुस्तम्भगृहीताश्च कश्मलाभिहतौजसः / द्रुपदस्य च पुत्राणां पौत्राणां सुहृदामपि / विनदन्तो भृशं त्रस्ताः संन्यपेषन्परस्परम् / / 76 चकार कदनं घोरं दृष्ट्वा दृष्ट्वा महाबलः / / 62 ततो रथं पुनद्रौणिरास्थितो भीमनिस्वनम् / अन्यानन्यांश्च पुरुषानभिसृत्याभिसृत्य च / धनुष्पाणिः शरैरन्यान्प्रेषयद्वै यमक्षयम् / / 77 न्यकृन्तदसिना द्रौणिरसिमार्गविशारदः // 63 पुनरुत्पततः कांश्चिद्दरादपि नरोत्तमान् / काली रक्तास्यनयनां रक्तमाल्यानुलेपनाम् / शूरान्संपततश्चान्यान्कालरात्र्यै न्यवेदयत् / / 78 - 1944 - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 8. 79] सौप्तिकपर्व [10. 8. 108 तथैव स्यन्दनाग्रेण प्रमथन्स विधावति / न्यपातयन्त च परान्पातयित्वा तथापिषन् // 93 शिरवर्षश्च विविधैरवर्षच्छात्रवांस्ततः // 79 विचेतसः सनिद्राश्च तमसा चावृता नराः / पुनश्च सुविचित्रेण शतचन्द्रेण चर्मणा / जन्नुः स्वानेव तत्राथ कालेनाभिप्रचोदिताः॥ 94 तेन चाकाशवर्णेन तदाचरत सोऽसिना // 80 त्यक्त्वा द्वाराणि च द्वाःस्थास्तथा गुल्मांश्च गौल्मिकाः। तथा स शिबिरं तेषां द्रौणिराहवदुर्मदः। प्राद्रवन्त यथाशक्ति कांदिशीका विचेतसः // 95 व्यक्षोभयत राजेन्द्र महाहृदमिव द्विपः // 81 विप्रनष्टाश्च तेऽन्योन्यं नाजानन्त तदा विभो। उत्पेतुस्तेन शब्देन योधा राजन्विचेतसः / क्रोशन्तस्तात पुत्रेति दैवोपहतचेतसः // 96 निद्रार्ताश्च भयार्ताश्च व्यधावन्त ततस्ततः // 82 पलायतां दिशस्तेषां स्वानप्युत्सृज्य बान्धवान् / विस्वरं चक्रुशुश्चान्ये बह्वबद्धं तथावदन् / गोत्रनामभिरन्योन्यमाक्रन्दन्त ततो जनाः // 97 न च स्म प्रतिपद्यन्ते शस्त्राणि, वसनानि च // 83 हाहाकारं च कुर्वाणाः पृथिव्यां शेरते परे / विमुक्तकेशाश्चाप्यन्ये नाभ्यजानन्परस्परम् / तान्बुद्धा रणमत्तोऽसौ द्रोणपुत्रो व्यपोथयत् / / 98 सस्पतन्तः परे भीताः केचित्तत्र तथाभ्रमन् / तत्रापरे वध्यमाना मुहुर्मुहुरचेतसः / पुरीषमसृजन्केचित्केचिन्मूत्रं प्रसुवुः // 84 शिबिरान्निष्पतन्ति स्म क्षत्रिया भयपीडिताः // 99 बन्धनानि च राजेन्द्र संछिद्य तुरगा द्विपाः / तांस्तु निष्पततस्त्रस्ताशिबिराज्जीवितैषिणः / समं पर्यपतंश्चान्ये कुर्वन्तो महदाकुलम् / / 85 कृतवर्मा कृपश्चैव द्वारदेशे निजघ्नतुः // 100 सत्र केचिन्नरा भीता व्यलीयन्त महीतले। विशस्वयत्रकवचान्मुक्तकेशान्कृताञ्जलीन् / तथैव तान्निपतितानपिषन्गजवाजिनः // 86 वेपमानान्क्षितौ भीतान्नैव कांश्चिदमुञ्चताम् / / 101 तस्मिंस्तथा वर्तमाने रक्षांसि पुरुषर्षभ / नामुच्यत तयोः कश्चिन्निष्क्रान्तः शिबिरादहिः। मानि व्यनदन्नुञ्चैर्मुदा भरतसत्तम // 87 कृपस्य च महाराज हार्दिक्यस्य च दुर्मतेः // 102 स शब्दः प्रेरितो राजन्भूतसंधैर्मुदा युतैः / भूयश्चैव चिकीर्षन्तौ द्रोणपुत्रस्य तौ प्रियम् / अपूरयदिशः सर्वा दिवं चापि महास्वनः // 88 त्रिषु देशेषु ददतुः शिबिरस्य हुताशनम् // 103 तेषामार्तस्वरं श्रुत्वा वित्रस्ता गजवाजिनः / ततः प्रकाशे शिबिरे खड्नेन पितृनन्दनः / मुक्ताः पर्यपतन्राजन्मृद्गन्तः शिबिरे जनम् // 89 अश्वत्थामा महाराज व्यचरत्कृतहस्तवत् // 104 तैस्तत्र परिधावद्भिश्चरणोदीरितं रजः / कांश्चिदापततो वीरानपरांश्च प्रधावतः / अकरोच्छिबिरे तेषां रजन्यां द्विगुणं तमः // 90 व्ययोजयत खड्गेन प्राणैर्द्विजवरो नरान् // 105 तस्मिंस्तमसि संजाते प्रमूढाः सर्वतो जनाः / कांश्चिद्योधान्स खड्नेन मध्ये संछिद्य वीर्यवान् / नाजानन्पितरः पुत्रान्भ्रातृन्भ्रातर एव च // 91 अपातयद्रोणसुतः संरब्धस्तिलकाण्डवत् // 106 गजा गजानतिक्रम्य निर्मनुष्या हया हयान् / विनदद्भिभृशायस्तैनराश्वद्विरदोत्तमैः / अताडयंस्तथाभऑस्तथामृद्गंश्च भारत / / 92 पतितैरभवत्कीर्णा मेदिनी भरतर्षभ // 107 ते भग्नाः प्रपतन्तश्च निघ्नन्तश्च परस्परम् / | मानुषाणां सहस्रेषु हतेषु पतितेषु च / म.भा. 244 - 1945 - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 8. 108 ] महाभारते [10. 8. 137 उदतिष्ठन्कबन्धानि बहून्युत्थाय चापतन् // 108 / अन्योन्यं संपरिष्वज्य शयानान्द्रवतोऽपरान् / सायुधान्साङ्गदान्बाहून्निचकर्त शिरांसि च / संलीनान्युध्यमानांश्च सर्वान्द्रौणिरपोथयत् // 123 हस्तिहस्तोपमानूरून्हस्तान्पादांश्च भारत / / 109 दह्यमाना हुताशेन वध्यमानाश्च तेन ते / पृष्ठच्छिन्नाशिरश्छिन्नान्पार्श्वच्छिन्नांस्तथापरान् / परस्परं तदा योधा अनयन्यमसादनम् / / 124 समासाद्याकरोद्रौणिः कांश्चिच्चापि पराङ्मुखान् // तस्या रजन्यास्त्वर्धन पाण्डवानां महद्वलम् / मध्यकायान्नरानन्यांश्चिच्छेदान्यांश्च कर्णतः / गमयामास राजेन्द्र द्रौणिर्यमनिवेशनम् // 125 अंसदेशे निहत्यान्यान्काये प्रावेशयच्छिरः॥ 111 निशाचराणां सत्त्वानां सा रात्रिहर्षवर्धिनी / एवं विचरतस्तस्य निघ्नतः सुबहून्नरान् / आसीन्नरगजाश्वानां रौद्री क्षयकरी भृशम् // 126 तमसा रजनी घोरा बभौ दारुणदर्शना // 112 तत्रादृश्यन्त रक्षांसि पिशाचाश्च पृथग्विधाः / किंचित्प्राणैश्च पुरुषैर्हतैश्चान्यैः सहस्रशः / खादन्तो नरमांसानि पिबन्तः शोणितानि च॥१२५ बहुना च गजाश्वेन भूरभूद्भीमदर्शना // 113 करालाः पिङ्गला रौद्राः शैलदन्ता रजस्वलाः / यक्षरक्षःसमाकीर्णे रथाश्वद्विपदारुणे / जटिला दीर्घसक्थाश्च पञ्चपादा महोदराः // 128 क्रुद्धेन द्रोणपुत्रेण संछिन्नाः प्रापतन्भुवि // 114 पश्चादङ्गुलयो रूक्षा विरूपा भैरवस्वनाः / मातृरन्ये पितॄनन्ये भ्रातॄनन्ये विचुक्रुशुः / घटजानवोऽतिह्रस्वाश्च नीलकण्ठा विभीषणाः // केचिदूचुर्न तत्क्रुद्धैर्धातराष्ट्रैः कृतं रणे // 115 सपुत्रदाराः सुकरा दुर्दर्शनसुनिघृणाः / यत्कृतं नः प्रसुप्तानां रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः / विविधानि च रूपाणि तत्रादृश्यन्त रक्षसाम्॥१३० असांनिध्याद्धि पार्थानामिदं नः कदनं कृतम् // पीत्वा च शोणितं हृष्टाः प्रानृत्यन्गणशोऽपरे / न देवासुरगन्धर्वैन यक्षैर्न च राक्षसैः / इदं वरमिदं मेध्यमिदं स्वाद्विति चाब्रुवन् / / 131 शक्यो विजेतुं कौन्तेयो गोप्ता यस्य जनार्दनः॥११७ मेदोमज्जास्थिरक्तानां वसानां च भृशाशिताः / ब्रह्मण्यः सत्यवाग्दान्तः सर्वभूतानुकम्पकः / / परमांसानि खादन्तः क्रव्यादा मांसजीविनः॥१३: न च सुप्तं प्रमत्तं वा न्यस्तशस्त्रं कृताञ्जलिम् / / वसां चाप्यपरे पीत्वा पर्यधावन्विकुक्षिलाः / धावन्तं मुक्तकेशं वा हन्ति पार्थो धनंजयः॥ 118 नानावक्त्रास्तथा रौद्राः क्रव्यादाः पिशिताशिनः // तदिदं नः कृतं घोरं रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः। अयुतानि च तत्रासन्प्रयुतान्यर्बुदानि च / इति लालप्यमानाः स्म शेरते बहवो जनाः // 119 रक्षसां घोररूपाणां महतां क्रूरकर्मणाम् // 134 स्तनतां च मनुष्याणामपरेषां च कूजताम् / मुदिताना वितृप्तानां तस्मिन्महति वैशसे / ततो मुहूर्तात्प्राशाम्यत्स शब्दस्तुमुलो महान् // 120 समेतानि बहून्यासन्भूतानि च जनाधिप / / 135 शोणितव्यतिषिक्तायां वसुधायां च भूमिप। प्रत्यूषकाले शिबिरात्प्रतिगन्तुमियेष सः। तद्रजस्तुमुलं घोरं क्षणेनान्तरधीयत // 121 नृशोणितावसिक्तस्य द्रौणेरासीदसित्सरुः / संवेष्टमानानुद्विग्नान्निरुत्साहान्सहस्रशः / पाणिना सह संश्लिष्ट एकीभूत इव प्रभो॥ 136 न्यपातयन्नरान्क्रुद्धः पशून्पशुपतिर्यथा // 122 स निःशेषानरीन्कृत्वा विरराज जनक्षये / - 1946 - Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 8. 137] सौप्तिकपर्व [10. 9. 10 युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावकः // 137 सोमका मत्स्यशेषाश्च सर्वे विनिहता मया // 150 यथाप्रतिज्ञं तत्कर्म कृत्वा द्रौणायनिः प्रभो। इदानीं कृतकृत्याः स्म याम तत्रैव माचिरम् / दुर्गमां पदवीं कृत्वा पितुरासीद्गतज्वरः // 138 यदि जीवति नो राजा तस्मै शंसामहे प्रियम् // यथैव संसुप्तजने शिबिरे प्राविशन्निशि / इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि तथैव हत्वा निःशब्दे निश्चक्राम नरर्षभः // 139 अष्टमोऽध्यायः॥८॥ निष्क्रम्य शिबिरात्तस्मात्ताभ्यां संगम्य वीर्यवान् / आचख्यौ कर्म तत्सर्वं हृष्टः संहर्षयन्विभो॥१४० संजय उवाच। शावप्याचख्यतुस्तस्मै प्रियं प्रियकरौ तदा / ते हत्वा सर्वपाञ्चालान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः / पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव विनिकृत्तान्सहस्रशः / अगच्छन्सहितास्तत्र यत्र दुर्योधनो हतः // 1 प्रीत्या चोचैरुदक्रोशंस्तथैवास्फोटयंस्तलान् // 141 गत्वा चैनमपश्यंस्ते किंचित्प्राणं नराधिपम् / एवंविधा हि सा रात्रिः सोमकानां जनक्षये / ततो रथेभ्यः प्रस्कन्ध परिवत्रुस्तवात्मजम् // 2 प्रसुप्तानां प्रमत्तानामासीत्सुभृशदारुणा / / 142 तं भग्नसक्थं राजेन्द्र कृच्छ्रप्राणमचेतसम् / असंशयं हि कालस्य पर्यायो दुरतिक्रमः / वमन्तं रुधिरं वक्त्रादपश्यन्वसुधातले // 3 सादृशा निहता यत्र कृत्वास्माकं जनक्षयम् // 143 वृतं समन्ताद्बहुभिः श्वापदै?रदर्शनैः / धृतराष्ट्र उवाच / शालावृकगणश्चैव भक्षयिष्यद्भिरन्तिकात् // 4 प्रागेव सुमहत्कर्म द्रौणिरेतन्महारथः / निवारयन्तं कृच्छ्रात्ताश्वापदान्संचिखादिषून / माकरोदीदृशं कस्मान्मत्पुत्रविजये धृतः // 144 विवेष्टमानं मह्यां च सुभृशं गाढवेदनम् // 5 पथ कस्माद्धते क्षत्रे कर्मेदं कृतवान सौ। तं शयानं महात्मानं भूमौ स्वरुधिरोक्षितम् / द्रोणपुत्रो महेष्वासस्तन्मे शंसितुमर्हसि // 145 हतशिष्टास्त्रयो वीराः शोकार्ताः पर्यवारयन् / संजय उवाच / अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः // 6 शेषां नूनं भयान्नासौ कृतवान्कुरुनन्दन / तैत्रिभिः शोणितादिग्धैर्निःश्वसद्भिर्महारथैः / असांनिध्याद्धि पार्थानां केशवस्य च धीमतः // 146 शुशुभे संवृतो राजा वेदी त्रिभिरिवाग्निभिः // 7 मात्यकेश्चापि कर्मेदं द्रोणपुत्रेण साधितम् / ते तं शयानं संप्रेक्ष्य राजानमतथोचितम् / न हि तेषां समक्षं तान्हन्यादपि मरुत्पतिः // 147 अविषह्येन दुःखेन ततस्ते रुरुदुस्त्रयः // 8 एतदीदृशकं वृत्तं राजन्सुप्तजने विभो / ततस्ते रुधिरं हस्तैर्मुखान्निर्मृज्य तस्य ह / सतो जनक्षयं कृत्वा पाण्डवानां महात्ययम् / विष्ट्या दिष्टयेति चान्योन्यं समेत्योचुर्महारथाः // रणे राज्ञः शयानस्य कृपणं पर्यदेवयन् // 9 पर्यध्वजत्ततो द्रौणिस्ताभ्यां च प्रतिनन्दितः / कृप उवाच / इदं हर्षाच्च सुमहदाददे वाक्यमुत्तमम् // 149 न दैवस्यातिभारोऽस्ति यदयं रुधिरोक्षितः / पावाला निहताः सर्वे द्रौपदेयाश्च सर्वशः / / एकादशचमूभर्ता शेते दुर्योधनो हतः / / 10 - 1947 - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 10. 9. 11] महाभारत [ 10. 9. 39 पश्य चामीकराभस्य चामीकरविभूषिताम् / यावत्स्थास्यन्ति भूतानि निकृत्या ह्यसि पातितः॥२५ गदां गदाप्रियस्येमा समीपे पतितां भुवि // 11 ननु रामोऽब्रवीद्राजंस्त्वां सदा यदुनन्दनः / इयमेनं गदा शूरं न जहाति रणे रणे।। दुर्योधनसमो नास्ति गदया इति वीर्यवान् // 26 स्वर्गायापि व्रजन्तं हि न जहाति यशस्विनम् // 12 श्लाघते त्वां हि वार्ष्णेयो राजन्संसत्सु भारत / पश्येमां सह वीरेण जाम्बूनदविभूषिताम् / सुशिष्यो मम कौरव्यो गदायुद्ध इति प्रभो // 27 शयानां शयने धर्मे भार्यां प्रीतिमतीमिव // 13 यां गतिं क्षत्रियस्याहुः प्रशस्तां परमर्षयः / यो वै मूर्धावसिक्तानामग्रे यातः परंतपः / हतस्याभिमुखस्याजौ प्राप्तस्त्वमसि तां गतिम् // 28 स हतो ग्रसते पांसून्पश्य कालस्य पर्ययम् // 14 दुर्योधन न शोचामि त्वामहं पुरुषर्षभ / येनाजी निहता भूमावशेरत पुरा द्विषः / हतपुत्रां न शोचामि गान्धारी पितरं च ते / स भूमौ निहतः शेते कुरुराजः परैरयम् / / 15 भिक्षुको विचरिष्येते शोचन्तौ पृथिवीमिमाम् // 29 भयान्नमन्ति राजानो यस्य स्म शतसंघशः / धिगस्तु कृष्णं वार्ष्णेयमर्जुनं चापि दुर्मतिम् / स वीरशयने शेते क्रव्याद्भिः परिवारितः // 16 धर्मज्ञमानिनौ यो त्वां वध्यमानमुपेक्षताम् // 30 उपासत नृपाः पूर्वमर्थहेतोर्यमीश्वरम् / पाण्डवाश्चापि ते सर्वे किं वक्ष्यन्ति नराधिपान्। धिक्सद्यो निहतः शेते पश्य कालस्य पर्ययम् // 17 कथं दुर्योधनोऽस्माभिर्हत इत्यनपत्रपाः // 31 . . संजय उवाच / धन्यस्त्वमसि गान्धारे यस्त्वमायोधने हतः / तं शयानं नृपश्रेष्ठं ततो भरतसत्तम / / प्रयातोऽभिमुखः शत्रून्धर्मेण पुरुषर्षभ // 32 अश्वत्थामा समालोक्य करुणं पर्यदेवयत् // 18 हतपुत्रा हि गान्धारी निहतज्ञातिबान्धवा / आहुस्त्वां राजशार्दूल मुख्यं सर्वधनुष्मताम् / / प्रज्ञाचक्षुश्च दुर्धर्षः कां गतिं प्रतिपत्स्यते // 33 धनाध्यक्षोपमं युद्धे शिष्यं संकर्षणस्य ह // 19 धिगस्तु कृतवर्माणं मां कृपं च महारथम् / कथं विवरमद्राक्षीद्भीमसेनस्तवानघ / ये वयं न गताः स्वर्गं त्वां पुरस्कृत्य पार्थिवम् // 34 बलिनः कृतिनो नित्यं स च पापात्मवान्नृप // 20 दातारं सर्वकामानां रक्षितारं प्रजाहितम् / कालो नूनं महाराज लोकेऽस्मिन्बलवत्तरः।। यद्वयं नानुगच्छामस्त्वां धिगस्मान्नराधमान् // 35 पश्यामो निहतं त्वां चेद्भीमसेनेन संयुगे // 21 कृपस्य तव वीर्येण मम चैव पितुश्च मे / कथं त्वां सर्वधर्मज्ञं क्षुद्रः पापो वृकोदरः / सभृत्यानां नरव्याघ्र रत्नवन्ति गृहाणि च // 36 निकृत्या हतवान्मन्दो नूनं कालो दुरत्ययः // 22 भवत्प्रसादादस्माभिः समित्रैः सहबान्धवैः / धर्मयुद्धे ह्यधर्मेण समाहूयौजसा मृधे / अवाप्ताः क्रतवो मुख्या बहवो भूरिदक्षिणाः // 37 गदया भीमसेनेन निर्भिन्ने सक्थिनी तव // 23 कुतश्चापीदृशं सार्थमुपलप्स्यामहे वयम् / अधर्मेण हतस्याजी मृद्यमानं पदा शिरः / यादृशेन पुरस्कृत्य त्वं गतः सर्वपार्थिवान् // 38 यदुपेक्षितवान्क्षुद्रो धिक्तमस्तु युधिष्ठिरम् // 24 वयमेव त्रयो राजन्गच्छन्तं परमां गतिम् / युद्धेष्वपवदिष्यन्ति योधा नूनं वृकोदरम् / यद्वै त्वां नानुगच्छामस्तेन तप्स्यामहे वयम् // 39 - 1948 - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 9. 40] सौप्तिकपर्व [10. 10.7 त्वत्स्वर्गहीना हीनार्थाः स्मरन्तः सुकृतस्य ते। स्वस्ति प्राप्नुत भद्रं वः स्वर्गे नः संगमः पुनः / किं नाम तद्भवेत्कर्म येन त्वानुव्रजेम वै // 40 इत्येवमुक्त्वा तूष्णीं स कुरुराजो महामनाः / दुःखं नूनं कुरुश्रेष्ठ चरिष्यामो महीमिमाम् / प्राणानुदसृजद्वीरः सुहृदां शोकमादधत् // 55 हीनानां नस्त्वया राजन्कुतः शान्तिः कुतः सुखम् // तथेति ते परिष्वक्ताः परिष्वज्य च तं नृपम् / गत्वैतांस्तु महाराज समेत्य त्वं महारथान् / पुनः पुनः प्रेक्षमाणाः स्वकानारुरुहू रथान् // 56 यथाश्रेष्ठं यथाज्येष्ठं पूजयेर्वचनान्मम // 42 इत्येवं तव पुत्रस्य निशम्य करुणां गिरम् / आचार्य पूजयित्वा च केतुं सर्वधनुष्मताम् / प्रत्यूषकाले शोकार्तः प्राधावं नगरं प्रति // 57 हतं मयाद्य शंसेथा धृष्टद्युम्नं नराधिप / / 43 . तव पुत्रे गते स्वर्ग शोकार्तस्य ममानघ / परिष्वजेथा राजानं बाह्निकं सुमहारथम् / ऋषिदत्तं प्रनष्टं तद्दिव्यदर्शित्वमद्य वै // 58 सैन्धवं सोमदत्तं च भूरिश्रवसमेव च // 44 वैशंपायन उवाच। तथा पूर्वगतानन्यान्स्वर्गं पार्थिवसत्तमान् / इति श्रुत्वा स नृपतिः पुत्रज्ञातिवधं तदा / अस्मद्वाक्यात्परिष्वज्य पृच्छेथास्त्वमनामयम् / / 45 निःश्वस्य दीर्घमुष्णं च ततश्चिन्तापरोऽभवत् / / 59 इत्येवमुक्त्वा राजानं भग्नसक्थमचेतसम्। इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि अश्वत्थामा समुद्वीक्ष्य पुनर्वचनमब्रवीत् // 46 नवमोऽध्यायः // 9 // दुर्योधन जीवसि चेद्वाचं श्रोत्रसुखां शृणु / समाप्तं सौप्तिकपर्व // सप्त पाण्डवतः शेषा धार्तराष्ट्रास्त्रयो वयम् // 47 ते चैव भ्रातरः पञ्च वासुदेवोऽथ सात्यकिः / वैशंपायन उवाच / अहं च कृतवर्मा च कृपः शारद्वतस्तथा // 48 तस्यां राव्यां व्यतीतायां धृष्टद्युम्नस्य सारथिः / द्रौपदेया हताः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः / शशंस धर्मराजाय सौप्तिके कदनं कृतम् // 1 पाश्वाला निहताः सर्वे मत्स्यशेषं च भारत // 49 द्रौपदेया महाराज द्रुपदस्यात्मजैः सह / कृते प्रतिकृतं पश्य हतपुत्रा हि पाण्डवाः / प्रमत्ता निशि विश्वस्ताः स्वपन्तः शिबिरे स्वके // 2 सौप्तिके शिबिरं तेषां हतं सनरवाहनम् / / 50 कृतवर्मणा नृशंसेन गौतमेन कृपेण च / मया च पापकर्मासौ धृष्टद्युम्नो महीपते / अश्वत्थाम्ना च पापेन हतं वः शिबिरं निशि // 3 प्रविश्य शिबिरं रात्रौ पशुमारेण मारितः / / 51 एतैर्नरगजाश्वानां प्रासशक्तिपरश्वधैः / दुर्योधनस्तु तां वाचं निशम्य मनसः प्रियाम् / / सहस्राणि निकृन्तद्भिनि:शेषं ते बलं कृतम् // 4 प्रतिलभ्य पुनश्चेत इदं वचनमब्रवीत् // 52 छिद्यमानस्य महतो वनस्येव परश्वधैः / न मेऽकरोत्तद्गाङ्गेयो न कर्णो न च ते पिता। शुश्रुवे सुमहाशब्दो बलस्य तव भारत // 5 यत्त्वया कृपभोजाभ्यां सहितेनाद्य मे कृतम् / / 53 - अहमेकोऽवशिष्टस्तु तस्मात्सैन्यान्महीपते / स चेत्सेनापतिः क्षुद्रो हतः सार्धं शिखण्डिना / | मुक्तः कथंचिद्धर्मात्मन्व्यग्रस्य कृतवर्मणः / / 6 तेन मन्ये मघवता सममात्मानमद्य वै // 54 / तच्छ्रुत्वा वाक्यमशिवं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / - 1949 - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 10. 7] महाभारते [10. 10. 26 पपात मह्यां दुर्धर्षः पुत्रशोकसमन्वितः // 7 त्त्यजन्त्यनाश्च समाविशन्ति // 19 तं पतन्तमभिक्रम्य परिजग्राह सात्यकिः / ध्वजोत्तमायोच्छ्रितधूमकेतुं भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 8 शराषिं कोपमहासमीरम् / लब्धचेतास्तु कौन्तेयः शोकविह्वलया गिरा। महाधनुातलनेमिघोषं जित्वा शत्रूञ्जितः पश्चात्पर्यदेवयदातुरः // 9 तनुत्रनानाविधशस्त्रहोमम् // 20 दुर्विदा गतिरर्थानामपि ये दिव्यचक्षुषः / महाचमूकक्षवराभिपन्नं जीयमाना जयन्त्यन्ये जयमाना वयं जिताः // 10 ___ महाहवे भीष्ममहादवाग्निम् / हत्वा भ्रातृन्वयस्यांश्च पितृन्पुत्रान्सुहृद्गणान् / ये सेहुरात्तायतशस्त्रवेगं बन्धूनमात्यान्पौत्रांश्च जित्वा सर्वाञ्जिता वयम्॥११ ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् // 21 अनर्थो ह्यर्थसंकाशस्तथार्थोऽनर्थदर्शनः / न हि प्रमत्तेन नरेण लभ्या जयोऽयमजयाकारो जयस्तस्मात्पराजयः // 12 विद्या तपः श्रीविपुलं यशो वा। यं जित्वा तप्यते पश्चादापन्न इव दुर्मतिः / पश्याप्रमादेन निहत्य शत्रूकथं मन्येत विजयं ततो जिततरः परैः // 13 न्सर्वान्महेन्द्रं सुखमेधमानम् // 22 येषामर्थाय पापस्य धिग्जयस्य सुहृद्वधे / इन्द्रोपमान्पार्थिवपुत्रपौत्रानिर्जितैरप्रमत्तैर्हि विजिता जितकाशिनः // 14 पश्याविशेषेण हतान्प्रमादात् / कर्णिनालीकदंष्ट्रस्य खगजिह्वस्य संयुगे। तीर्खा समुद्रं वणिजः समृद्धाः चापव्यात्तस्य रौद्रस्य ज्यातलस्वननादिनः / / 15 __ सन्नाः कुनद्यामिव हेलमानाः / क्रुद्धस्य नरसिंहस्य संग्रामेष्वपलायिनः / अमर्षितैर्ये निहताः शयाना ये व्यमुच्यन्त कर्णस्य प्रमादात्त इमे हताः॥ 16 निःसंशयं ते त्रिदिवं प्रपन्नाः / / 23 रथह्रदं शरवर्षोमिमन्तं कृष्णां नु शोचामि कथं न साध्वीं __रत्नाचितं वाहनराजियुक्तम् / ... शोकार्णवे साद्य विनङ्ख्यतीति / शक्त्यष्टिमीनध्वजनागनकं भ्रातृ॑श्च पुत्रांश्च हतान्निशम्य शरासनावर्तमहेषुफेनम् // 17 ___ पाञ्चालराजं पितरं च वृद्धम् / संग्रामचन्द्रोदयवेगवेलं ध्रुवं विसंज्ञा पतिता पृथिव्यां द्रोणार्णवं ज्यातलनेमिघोषम् / सा शेष्यते शोककृशाङ्गयष्टिः // 24 ये तेरुरुच्चावचशस्त्रनौभि तच्छोकजं दुःखमपारयन्ती स्ते राजपुत्रा निहताः प्रमादात् // 18 कथं भविष्यत्युचिता सुखानाम् / न हि प्रमादात्परमोऽस्ति कश्चि पुत्रक्षयभ्रातृवधप्रणुन्ना द्वधो नराणामिह जीवलोके / प्रदह्यमानेव हुताशनेन // 25 प्रमत्तमर्था हि नरं समन्ता इत्येवमातः परिदेवयन्स. - 1950 - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 10. 26 ] सौप्तिकपर्व [10. 11. 19 राजा कुरूणां नकुलं बभाषे / नकुलः कृष्णया सार्धमुपायात्परमार्तया // 4 गच्छानयनामिह मन्दभाग्यां उपप्लव्यगता सा तु श्रुत्वा सुमहदप्रियम् / समातृपक्षामिति राजपुत्रीम् // 26 तदा विनाशं पुत्राणां सर्वेषां व्यथिताभवत् // 5 माद्रीसुतस्तत्परिगृह्य वाक्यं कम्पमानेव कदली वातेनाभिसमीरिता / धर्मेण धर्मप्रतिमस्य राज्ञः। कृष्णा राजानमासाद्य शोकार्ता न्यपतद्भुवि // 6 ययौ रथेनालयमाशु देव्याः बभूव वदनं तस्याः सहसा शोककर्शितम् / पाश्चालराजस्य च यत्र दाराः // 27 फुल्लपद्मपलाशाक्ष्यास्तमोध्वस्त इवांशुमान् // 7 प्रस्थाप्य माद्रीसुतमाजमीढः ततस्तां पतितां दृष्ट्वा संरम्भी सत्यविक्रमः / शोकार्दितस्तैः सहितः सुहृद्भिः। बाहुभ्यां परिजग्राह समुपेत्य वृकोदरः // 8 रोरूयमाणः प्रययौ सुताना सा समाश्वासिता तेन भीमसेनेन भामिनी / मायोधनं भूतगणानुकीर्णम् // 28 रुदती पाण्डवं कृष्णा सहभ्रातरमब्रवीत् // 9 स तत्प्रविश्याशिवमुग्ररूपं दिष्ट्या राजंस्त्वमद्येमामखिला भोक्ष्यसे महीम् / ददर्श पुत्रान्सुहृदः सखींश्च / आत्मजान्क्षत्रधर्मेण संप्रदाय यमाय वै // 10 भूमौ शयानान्रुधिरागात्रा दिष्ट्या त्वं पार्थ कुशली मत्तमातङ्गगामिनम् / विभिन्नभग्नापहृतोत्तमाङ्गान् // 29 अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां सौभद्रं न स्मरिष्यसि॥११ स तांस्तु दृष्ट्वा भृशमार्तरूपो आत्मजास्तेन धर्मेण श्रुत्वा शूरान्निपातितान् / युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः / उपप्लव्ये मया साधं दिष्ट्या त्वं न स्मरिष्यसि // 12 उच्चैः प्रचुक्रोश च कौरवाग्र्यः प्रसुप्तानां वधं श्रुत्वा द्रौणिना पापकर्मणा / पपात चोव्यां सगणो विसंज्ञः // 30 शोकस्तपति मां पार्थ हुताशन इवाशयम् // 13 इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि तस्य पापकृतो द्रौणेर्न चेदद्य त्वया मृधे / ... दशमोऽध्यायः // 10 // ह्रियते सानुबन्धस्य युधि विक्रम्य जीवितम् // 14 इहैव प्रायमासिष्ये तन्निबोधत पाण्डवाः / वैशंपायन उवाच / न चेत्फलमवाप्नोति द्रौणिः पापस्य कर्मणः // 15 स दृष्ट्वा निहतान्संख्ये पुत्रान्भ्रातॄन्सखींस्तथा। एवमुक्त्वा ततः कृष्णा पाण्डवं प्रत्युपाविशत् / महादुःखपरीतात्मा बभूव जनमेजय // 1 युधिष्ठिरं याज्ञसेनी धर्मराजं यशस्विनी // 16 ततस्तस्य महाशोकः प्रादुरासीन्महात्मनः / दृष्ट्वोपविष्टां राजर्षिः पाण्डवो महिषीं प्रियाम् / स्मरतः पुत्रपौत्राणां भ्रातृणां स्वजनस्य ह // 2 प्रत्युवाच स धर्मात्मा द्रौपदी चारुदर्शनाम् // 17 तमश्रुपरिपूर्णाक्षं वेपमानमचेतसम् / धम्यं धर्मेण धर्मज्ञे प्राप्तास्ते निधनं शुभे / सुहृदो भृशसंविनाः सान्त्वयांचक्रिरे तदा // 3 / पुत्रास्ते भ्रातरश्चैव तान्न शोचितुमर्हसि // 18 ततस्तस्मिन्क्षणे काल्ये रथेनादित्यवर्चसा / | द्रोणपुत्रः स कल्याणि वनं दूरमितो गतः / - 1951 - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 11. 19 ] महाभारते [ 10. 12. 14 तस्य त्वं पातनं संख्ये कथं ज्ञास्यसि शोभने / 19 द्रौपद्युवाच / वैशंपायन उवाच / द्रोणपुत्रस्य सहजो मणिः शिरसि मे श्रुतः। तस्मिन्प्रयाते दुर्धर्षे यदूनामृषभस्ततः / निहत्य संख्ये तं पापं पश्येयं मणिमाहृतम् / / अब्रवीत्पुण्डरीकाक्षः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् // 1 राजशिरसि तं कृत्वा जीवेयमिति मे मतिः // 20 एष पाण्डव ते भ्राता पुत्रशोकमपारयन् / वैशंपायन उवाच। जिघांसुद्रौणिमाक्रन्दे याति भारत भारतः // 2 इत्युक्त्वा पाण्डवं कृष्णा राजानं चारुदर्शना / भीमः प्रियस्ते सर्वेभ्यो भ्रातृभ्यो भरतर्षभ / भीमसेनमथाभ्येत्य कुपिता वाक्यमब्रवीत् // 21 तं कृच्छ्रगतमद्य त्वं कस्मान्नाभ्यवपद्यसे // 3 त्रातुमर्हसि मां भीम क्षत्रधर्ममनुस्मरन् / यत्तदाचष्ट पुत्राय द्रोणः परपुरंजयः / जहि तं पापकर्माणं शम्बरं मघवानिव / अत्रं ब्रह्मशिरो नाम दहेद्यत्पृथिवीमपि // 4 न हि ते विक्रमे तुल्यः पुमानस्तीह कश्चन / / 22 तन्महात्मा महाभागः केतुः सर्वधनुष्मताम् / श्रुतं तत्सर्वलोकेषु परमव्यसने यथा / प्रत्यपादयदाचार्यः प्रीयमाणो धनंजयम् / / 5 द्वीपोऽभूस्त्वं हि पार्थानां नगरे वारणावते / तत्पुत्रोऽस्यैवमेवैनमन्वयाचदमर्षणः / हिडिम्बदर्शने चैव तथा त्वमभवो गतिः // 23 ततः प्रोवाच पुत्राय नातिहृष्टमना इव / / 6 तथा विराटनगरे कीचकेन भृशार्दिताम् / विदितं चापलं ह्यासीदात्मजस्य महात्मनः / मामप्युद्धृतवान्कृच्छ्रात्पौलोमी मघवानिव / / 24 सर्वधर्मविदाचार्यो नान्विषत्सततं सुतम् // 7 यथैतान्यकृथाः पार्थ महाकर्माणि वै पुरा।। परमापद्गतेनापि न स्म तात त्वया रणे / तथा द्रौणिममित्रन्न विनिहत्य सुखी भव / / 25 इदमस्त्रं प्रयोक्तव्यं मानुषेषु विशेषतः // 8 तस्या बहुविधं दुःखान्निशम्य परिदेवितम् / इत्युक्तवान्गुरुः पुत्रं द्रोणः पश्चादथोक्तवान् / नामर्षयत कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः // 26 न त्वं जातु सतां मार्गे स्थातेति पुरुषर्षभ // 9 स काश्चनविचित्राङ्गमारुरोह महारथम् / स तदाज्ञाय दुष्टात्मा पितुर्वचनमप्रियम् / आदाय रुचिरं चित्रं समार्गणगुणं धनुः // 27 निराशः सर्वकल्याणैः शोचन्पर्यपतन्महीम् // 10 नकुलं सारथिं कृत्वा द्रोणपुत्रवधे वृतः / ततस्तदा कुरुश्रेष्ठ वनस्थे त्वयि भारत / विस्फार्य सशरं चापं तूर्णमश्वानचोदयत् / / 28 अवसहारकामेत्य वृष्णिभिः परमार्चितः // 11. ते हयाः पुरुषव्याघ्र चोदिता वातरंहसः / स कदाचित्समुद्रान्ते वसन्द्वारवतीमनु / वेगेन त्वरिता जग्मुर्हरयः शीघ्रगामिनः // 29 एक एकं समागम्य मामुवाच हसन्निव // 12 शिबिरात्स्वादहीत्वा स रथस्य पदमच्यतः। यत्तदुग्रं तपः कृष्ण चरन्सत्यपराक्रमः / द्रोणपुत्ररथस्याशु ययौ मार्गेण वीर्यवान् / / 30 अगस्त्याद्भारताचार्यः प्रत्यपद्यत मे पिता / / 13 इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम देवगन्धर्वपूजितम् / एकादशोऽध्यायः // 11 // तदद्य मयि दाशार्ह यथा पितरि मे तथा // 14 - 1952 - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 12. 15 ] सौप्तिकपर्व [10. 13.1 अस्मत्तस्तदुपादाय दिव्यमस्रं यदूत्तम / ब्रह्मचर्य महद्धोरं ची| द्वादशवार्षिकम् / ममाप्यत्रं प्रयच्छ त्वं चक्रं रिपुहरं रणे // 15 हिमवत्पार्श्वमभ्येत्य यो मया तपसार्चितः // 29 स राजन्प्रीयमाणेन मयाप्युक्तः कृताञ्जलिः / समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योऽन्वजायत / याचमानः प्रयत्नेन मत्तोऽयं भरतर्षभ // 16 सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम मे सुतः // 30 देवदानवगन्धर्वमनुष्यपतगोरगाः / तेनाप्येतन्महदिव्यं चक्रमप्रतिमं मम / न समा मम वीर्यस्य शतांशेनापि पिण्डिताः॥१७ न प्रार्थितमभून्मूढ यदिदं प्रार्थितं त्वया // 31 इदं धनुरियं शक्तिरिदं चक्रमियं गदा / रामेणातिबलेनैतन्नोक्तपूर्वं कदाचन / यद्यदिच्छसि चेदा मत्तस्तत्तद्ददानि ते // 18 न गदेन न साम्बेन यदिदं प्रार्थितं त्वया // 32 यच्छनोषि समुद्यन्तुं प्रयोक्तुमपि वा रणे। द्वारकावासिभिश्चान्यैर्वृष्ण्यन्धकमहारथैः / तद्गृहाण विनास्त्रेण यन्मे दातुमभीप्ससि // 19 नोक्तपूर्वमिदं जातु यदिदं प्रार्थितं त्वया // 33 स सुनाभं सहस्रारं वज्रनाभमयस्मयम् / भारताचार्यपुत्रः सन्मानितः सर्वयादवैः / बने चक्रं महाबाहो स्पर्धमानो मया सह // 20 चक्रेण रथिनां श्रेष्ठ किं नु तात युयुत्ससे // 34 गृहाण चक्रमित्युक्तो मया तु तदनन्तरम् / एवमुक्तो मया द्रौणिर्मामिदं प्रत्युवाच ह / जमाहोपेत्य सहसा चक्रं सव्येन पाणिना / प्रयुज्य भवते पूजां योत्स्ये कृष्ण त्वयेत्युत // 35 न चैतदशकस्थानात्संचालयितुमच्युत // 21 ततस्ते प्रार्थितं चक्रं देवदानवपूजितम् / अथ तद्दक्षिणेनापि ग्रहीतुमुपचक्रमे / अजेयः स्यामिति विभो सत्यमेतद्ब्रवीमि ते // 36 सर्वयत्नेन तेनापि गृह्णन्नैतदकल्पयत् // 22 त्वत्तोऽहं दुर्लभं काममनवाप्यैव केशव / ततः सर्वबलेनापि यच्चैतन्न शशाक सः / प्रतियास्यामि गोविन्द शिवेनाभिवदस्व माम् // 37 उद्धत वा चालयितुं द्रौणिः परमदुर्मनाः / एतत्सुनाभं वृष्णीनामृषभेण त्वया धृतम् / कृत्वा यत्नं परं श्रान्तः स न्यवर्तत भारत // 23 चक्रमप्रतिचक्रेण भुवि नान्योऽभिपद्यते // 38 निवृत्तमथ तं तस्मादभिप्रायाद्विचेतसम् / एतावदुक्त्वा द्रौणिर्मा युग्यमश्वान्धनानि च / अहमामव्य सुस्निग्धमश्वत्थामानमब्रुवम् // 24 आदायोपययौ बालो रत्नानि विविधानि च // 39 यः स देवमनुष्येषु प्रमाणं परमं गतः / स संरम्भी दुरात्मा च चपलः क्रूर एव च / गाण्डीवधन्वा श्वेताश्वः कपिप्रवरकेतनः // 25 वेद चास्त्रं ब्रह्मशिरस्तस्माद्रक्ष्यो वृकोदरः // 40 यः साक्षाद्देवदेवेशं शितिकण्ठमुमापतिम् / / इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि द्वंद्वयुद्धे पराजिष्णुस्तोषयामास शंकरम् // 26 द्वादशोऽध्यायः // 12 // यस्मात्प्रियतरो नास्ति ममान्यः पुरुषो भुवि / 13 नादेयं यस्य मे किंचिदपि दाराः सुतास्तथा // 27 वैशंपायन उवाच। तेनापि सुहृदा ब्रह्मन्पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा / एवमुक्त्वा युधां श्रेष्ठः सर्वयादवनन्दनः / नोक्तपूर्वमिदं वाक्यं यत्त्वं मामभिभाषसे // 28 / सर्वायुधवरोपेतमारुरोह महारथम् / अ. भा. 245 - 1953 - Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 13. 1] महाभारते [ 10. 14.7 भीमसेनो महाबाहुस्तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत् // 15 स. दृष्ट्वा भीमधन्वानं प्रगृहीतशरासनम् / भ्रातरौ पृष्ठतश्चास्य जनार्दनरथे स्थितौ। व्यथितात्माभवद्रोणिः प्राप्तं चेदममन्यत // 16 स तदिव्यमदीनात्मा परमास्त्रमचिन्तयत्। जग्राह च स चैषीकां द्रौणिः सव्येन पाणिना। स तामापदमासाद्य दिव्यमस्त्रमुदीरयत् // 17 अमृष्यमाणस्ताञ्शूरान्दिव्यायुधधरान्स्थितान् / अपाण्डवायेति रुषा व्यसृजदारुणं वचः // 18 इत्युक्त्वा राजशार्दूल द्रोणपुत्रः प्रतापवान् / सर्वलोकप्रमोहाथ तदस्खं प्रमुमोच ह // 19 ततस्तस्यामिषीकायां पावकः समजायत / प्रधक्ष्यन्निव लोकांस्त्रीन्कालान्तकयमोपमः // 20 इति श्रीमहाभारते सौतिकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // युक्तं परमकाम्बोजैस्तुरगैर्हेममालिभिः // 1 आदित्योदयवर्णस्य धुरं रथवरस्य तु / दक्षिणामवहत्सैन्यः सुग्रीवः सव्यतोऽवहत् / पाणिवाहौ तु तस्यास्तां मेघपुष्पबलाहकौ // 2 विश्वकर्मकृता दिव्या नानारत्नविभूषिता। उच्छितेव रथे माया ध्वजयष्टिरदृश्यत // 3 वैनतेयः स्थितस्तस्यां प्रभामण्डलरश्मिवान् / तस्य सत्यवतः केतुर्भुजगारिरदृश्यत // 4 अन्वारोहद्धृषीकेशः केतुः सर्वधनुष्मताम्। अर्जुनः सत्यकर्मा च कुरुराजो युधिष्ठिरः // 5 अशोभेतां महात्मानौ दाशार्हमभितः स्थितौ / रथस्थं शार्ङ्गधन्वानमश्विनाविव वासवम् / / 6 तावुपारोप्य दाशार्हः स्पन्दनं लोकपूजितम् / प्रतोदेन जवोपेतान्परमाश्वानचोदयत् // 7 ते हयाः सहसोत्पेतुगृहीत्वा स्यन्दनोत्तमम् / आस्थितं पाण्डवेयाभ्यां यदूनामृषभेण च // 8 वहतां शार्ङ्गधन्वानमश्वानां शीघ्रगामिनाम् / प्रादुरासीन्महाशब्दः पक्षिणां पतितामिव / / 9 / / ते समार्छन्नरव्याघ्राः क्षणेन भरतर्षभ / भीमसेनं महेष्वासं समनुद्रुत्य वेगिताः // 10 क्रोधदीप्तं तु कौन्तेयं द्विषदर्थे समुद्यतम् / / नाशक्नुवन्वारयितुं समेत्यापि महारथाः // 11 स तेषां प्रेक्षतामेव श्रीमतां दृढधन्विनाम् / / ययौ भागीरथीकच्छं हरिभि शवेगितैः / यत्र स्म श्रूयते द्रौणिः पुत्रहन्ता महात्मनाम् / / 12 स ददर्श महात्मानमुदकान्ते यशस्विनम् / कृष्णद्वैपायनं व्यासमासीनमृषिभिः सह // 13 तं चैव क्रूरकर्माणं घृताक्तं कुशचीरिणम् / रजसा ध्वस्तकेशान्तं ददर्श द्रौणिमन्तिके / / 14 तमभ्यधावत्कौन्तेयः प्रगृह्य सशरं धनुः / वैशंपायन उवाच / इङ्गितेनैव दाशार्हस्तमभिप्रायमादितः / द्रौणेबुवा महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत // 1 अर्जुनार्जुन यदिव्यमस्त्रं ते हृदि वर्तते / द्रोणोपदिष्टं तस्यायं कालः संप्रति पाण्डव // 2 भ्रातृणामात्मनश्चैव परित्राणाय भारत।। विसृजैतत्त्वमप्याजावस्त्रमस्त्रनिवारणम् / / 3 / केशवेनैवमुक्तस्तु पाण्डवः परवीरहा। अवातरद्रथात्तर्ण प्रगृह्य सशरं धनुः // 4 पूर्वमाचार्यपुत्राय ततोऽनन्तरमात्मने / भ्रातृभ्यश्चैव सर्वेभ्यः स्वस्तीत्युक्त्वा परंतपः // 5 देवताभ्यो नमस्कृत्य गुरुभ्यश्चैव सर्वशः / उत्ससर्ज शिवं ध्यायन्नस्त्रमस्त्रेण शाम्यताम् // 6 ततस्तदत्रं सहसा सृष्टं गाण्डीवधन्वना / - 1954 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 14.7] सौप्तिकपर्व [10. 15. 18 अजज्वाल महार्चिष्मद्युगान्तानलसंनिभम् // 7 पापकर्मा ध्रुवं द्रौणिः प्रधक्ष्यत्यत्रतेजसा // 3 सियैव द्रोणपुत्रस्य तदत्रं तिग्मतेजसः / अत्र यद्धितमस्माकं लोकानां चैव सर्वथा / अजज्वाल महाज्वालं तेजोमण्डलसंवृतम् // 8 भवन्तौ देवसंकाशी तथा संहर्तुमर्हतः // 4 निर्धाता बहवश्चासन्पेतुरुल्काः सहस्रशः / इत्युक्त्वा संजहारास्त्रं पुनरेव धनंजयः। महद्भयं च भूतानां सर्वेषां समजायत // 9 संहारो दुष्करस्तस्य देवैरपि हि संयुगे // 5 . सशब्दमभवद्वयोम ज्वालामालाकुलं भृशम् / विसृष्टस्य रणे तस्य परमास्त्रस्य संग्रहे। पचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा // 10 न शक्तः पाण्डवादन्यः साक्षादपि शतक्रतुः / / 6 / ते अस्त्रे तेजसा लोकांस्तापयन्ती व्यवस्थिते / / ब्रह्मतेजोभवं तद्धि विसृष्टमकृतात्मना / महर्षी सहितो तत्र दर्शयामासतुस्तदा // 11 / न शक्यमावर्तयितुं ब्रह्मचारिव्रताहते // 7 नारदः स च धर्मात्मा भरतान् पितामहः / अचीर्णब्रह्मचर्यो यः सृष्ट्वावर्तयते पुनः / उमौ शमयितुं वीरौ भारद्वाजधनंजयौ / / 12 तदत्रं सानुबन्धस्य मूर्धानं तस्य कृन्तति // 8. तौ मुनी सर्वधर्मज्ञौ सर्वभूतहितैषिणी / ब्रह्मचारी व्रती चापि दुरवापमवाप्य तत् / / दीप्तयोरस्त्रयोर्मध्ये स्थितौ परमतेजसौ // 13 परमव्यसनार्तोऽपि नार्जुनोऽस्त्रं व्यमुश्चत // 9 तदन्तरमनाधृष्यावुपगम्य यशस्विनौ / सत्यव्रतधरः शूरो ब्रह्मचारी च पाण्डवः / भास्तामृषिवरौ तत्र ज्वलिताविव पावको // 14 गुरुवर्ती च तेनास्त्रं संजहारार्जुनः पुनः // 10 प्राणभृद्भिरनाधृष्यो देवदानवसंमती।। द्रौणिरप्यथ संप्रेक्ष्य तावृषी पुरतः स्थितो / अत्रतेजः शमयितुं लोकानां हितकाम्यया // 15 न शशाक पुनर्घोरमस्त्रं संहर्तुमाहवे // 11 ऋषी ऊचतुः। अशक्तः प्रतिसंहारे परमारूस्य संयुगे / द्रौणिर्दीनमना राजन्द्वैपायनमभाषत / / 12 नानाशस्त्रविदः पूर्वे येऽप्यतीता महारथाः / उत्तमव्यसनार्तेन प्राणत्राणमभीप्सुना। नैतदत्रं मनुष्येषु तैः प्रयुक्तं कथंचन // 16 मयैतदस्त्रमुत्सृष्टं भीमसेनभयान्मुने // 13 इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि अधर्मश्च कृतोऽनेन धार्तराष्ट्रं जिघांसता / चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // मिथ्याचारेण भगवन्भीमसेनेन संयुगे // 14 अतः सृष्टमिदं ब्रह्मन्मयास्त्रमकृतात्मना / वैशंपायन उवाच / तस्य भूयोऽद्य संहारं कर्तुं नाहमिहोत्सहे // 15 दृष्ट्वैव नरशार्दूलस्तावग्निसमतेजसौ। विसृष्टं हि मया दिव्यमेतदत्रं दुरासदम् / संजहार शरं दिव्यं त्वरमाणो धनंजयः // 1 अपाण्डवायेति मुने वह्नितेजोऽनुमत्र्य वै // 16 उवाच वदतां श्रेष्ठस्तावृषी प्राञ्जलिस्तदा।। तदिदं पाण्डवेयानामन्तकायाभिसंहितम् / प्रयुक्तमत्रमस्त्रेण शाम्यतामिति वै मया // 2 अद्य पाण्डुसुतान्सर्वाञ्जीविताद्धंशयिष्यति // 17 संहृते परमास्त्रेऽस्मिन्सर्वानस्मानशेषतः। कृतं पापमिदं ब्रह्मन्रोषाविष्टेन चेतसा / - 1955 - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 15. 18] महाभारते [10. 16.9 वधमाशास्य पार्थानां मयास्त्रं सृजता रणे // 18 व्यास उवाच / व्यास उवाच / एवं कुरु न चान्या ते बुद्धिः कार्या कदाचन / अस्त्रं ब्रह्मशिरस्तात विद्वान्पार्थो धनंजयः / गर्भेषु पाण्डवेयानां विसृज्यैतदुपारम // 32 उत्सृष्टवान्न रोषेण न वधाय तवाहवे // 19 वैशंपायन उवाच / अस्त्रमस्त्रेण तु रणे तव संशमयिष्यता / ततः परममत्रं तदश्वत्थामा भृशातुरः। विसृष्टमर्जुनेनेदं पुनश्च प्रतिसंहृतम् // 20 द्वैपायनवचः श्रुत्वा गर्भेषु प्रमुमोच ह // 33 ब्रह्मास्त्रमप्यवाप्यैतदुपदेशापितुस्तव / इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि क्षत्रधर्मान्महाबाहु कम्पत धनंजयः // 21 पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // एवं धृतिमतः साधोः सर्वास्त्रविदुषः सतः / सभ्रातृबन्धोः कस्मात्त्वं वधमस्य चिकीर्षसि // 22 अस्त्रं ब्रह्मशिरो यत्र परमात्रेण वध्यते / वैशंपायन उवाच / समा द्वादश पर्जन्यस्तद्राष्ट्र नाभिवर्षति // 23 तदाज्ञाय हृषीकेशो विसृष्टं पापकर्मणा / एतदर्थं महाबाहुः शक्तिमानपि पाण्डवः / हृष्यमाण इदं वाक्यं द्रौणि प्रत्यब्रवीत्तदा // 1 न विहन्त्येतदत्रं ते प्रजाहितचिकीर्षया // 24 विराटस्य सुतां पूर्वं स्नुषां गाण्डीवधन्वनः / पाण्डवास्त्वं च राष्ट्रं च सदा संरक्ष्यमेव नः / उपप्लव्यगतां दृष्ट्वा व्रतवान्ब्राह्मणोऽब्रवीत् // 2' तस्मात्संहर दिव्यं त्वमसमेतन्महाभुज // 25 परिक्षीणेषु कुरुषु पुत्रस्तव जनिष्यति / अरोषस्तव चैवास्तु पार्थाः सन्तु निरामयाः / एतदस्य परिक्षित्त्वं गर्भस्थस्य भविष्यति // 3 न ह्यधर्मेण राजर्षिः पाण्डवो जेतुमिच्छति // 26 तस्य तद्वचनं साधोः सत्यमेव भविष्यति / मणिं चैतं प्रयच्छैभ्यो यस्ते शिरसि तिष्ठति। परिक्षिद्भविता ह्येषां पुनवंशकरः सुतः // 4 एतदादाय ते प्राणान्प्रतिदास्यन्ति पाण्डवाः // 27 एवं ब्रुवाणं गोविन्दं सात्वतप्रवरं तदा / द्रौणिरुवाच / द्रौणिः परमसंरब्धः प्रत्युवाचेदमुत्तरम् // 5 पाण्डवैर्यानि रत्नानि यच्चान्यत्कौरवैर्धनम् / नैतदेवं यथात्थ त्वं पक्षपातेन केशव / अवाप्तानीह तेभ्योऽयं मणिर्मम विशिष्यते // 28 वचनं पुण्डरीकाक्ष न च मद्वाक्यमन्यथा // 6 यमाबध्य भयं नास्ति शस्त्रव्याधिक्षुधाश्रयम् / / पतिष्यत्येतदत्रं हि गर्भे तस्या मयोद्यतम् / देवेभ्यो दानवेभ्यो वा नागेभ्यो वा कथंचन // 29 विराटदुहितुः कृष्ण यां त्वं रक्षितुमिच्छसि // 7 न च रक्षोगणभयं न तस्करभयं तथा / वासुदेव उवाच / एवंवीर्यो मणिरयं न मे त्याज्यः कथंचन // 30 अमोघः परमात्रस्य पातस्तस्य भविष्यति / यत्तु मे भगवानाह तन्मे कार्यमनन्तरम् / स तु गर्भो मृतो जातो दीर्घमायुरवाप्स्यति // 8 अयं मणिरयं चाहमिषीका निपतिष्यति / त्वां तु कापुरुषं पापं विदुः सर्वे मनीषिणः / गर्भेषु पाण्डवेयानाममोघं चैतदुद्यतम् // 31 असकृत्पापकर्माणं बालजीवितघातकम् // 9. - 1956 - Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 16. 10] सौप्तिकपर्व [10. 16. 35 तस्मात्त्वमस्य पापस्य कर्मणः फलमाप्नुहि / | ततस्ते पुरुषव्याघ्राः सदश्वरनिलोपमैः / श्रीणि वर्षसहस्राणि चरिष्यसि महीमिमाम् / अभ्ययुः सहदाशार्हाः शिबिरं पुनरेव ह // 22 अप्रामवन्कचित्कांचित्संविदं जातु केनचित् // 10 अवतीर्य रथाभ्यां तु त्वरमाणा महारथाः / निर्जनानसहायस्त्वं देशान्प्रविचरिष्यसि / ददृशुद्रौपदी कृष्णमार्तामार्ततराः स्वयम् // 23 भवित्री न हि ते क्षुद्र जनमध्येषु संस्थितिः // 11 तामुपेत्य निरानन्दा दुःखशोकसमन्विताम् / पूयशोणितगन्धी च दुर्गकान्तारसंश्रयः / परिवार्य व्यतिष्ठन्त पाण्डवाः सहकेशवाः // 24 विचरिष्यसि पापात्मन्सर्वव्याधिसमन्वितः // 12 ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातो भीमसेनो महाबलः / षयः प्राप्य परिक्षित्तु वेदव्रतमवाप्य च। प्रददौ तु मणिं दिव्यं वचनं चेदमब्रवीत् // 25 कृपाच्छारद्वताद्वीरः सर्वास्त्राण्युपलप्स्यते // 13 अयं भद्रे तव मणिः पुत्रहन्ता जितः स ते। विदित्वा परमास्त्राणि क्षत्रधर्मव्रते स्थितः / उत्तिष्ठ शोकमुत्सृज्य क्षत्रधर्ममनुस्मर / / 26 पष्टिं वर्षाणि धर्मात्मा वसुधां पालयिष्यति // 14 प्रयाणे वासुदेवस्य शमार्थमसितेक्षणे / इतश्चोर्ध्वं महाबाहुः कुरुराजो भविष्यति / यान्युक्तानि त्वया भीरु वाक्यानि मधुघातिनः // 27 परिक्षिन्नाम नृपतिर्मिषतस्ते सुदुर्मते। नैव मे पतयः सन्ति न पुत्रा भ्रातरो न च / पश्य मे तपसो वीर्यं सत्यस्य च नराधम / / 15 नैव त्वमपि गोविन्द शममिच्छति राजनि // 28 व्यास उवाच / उक्तवत्यसि धीराणि वाक्यानि पुरुषोत्तमम् / क्षत्रधर्मानुरूपाणि तानि संस्मर्तुमर्हसि // 29 यस्मादनादृत्य कृतं त्वयास्मान्कर्म दारुणम् / ब्राह्मणस्य सतश्चैव यस्मात्ते वृत्तमीदृशम् // 16 हतो दुर्योधनः पापो राज्यस्य परिपन्थकः / तस्माद्यद्देवकीपुत्र उक्तवानुत्तमं वचः / दुःशासनस्य रुधिरं पीतं विस्फुरतो मया // 30 असंशयं ते तद्भावि क्षुद्रकर्मन्त्रजाश्वितः // 17 वैरस्य गतमानृण्यं न स्म वाच्या विवक्षताम् / जित्वा मुक्तो द्रोणपुत्रो ब्राह्मण्याद्गौरवेण च // 31 - अश्वत्थामोवाच / यशोऽस्य पातितं देवि शरीरं त्ववशेषितम् / सहैव भवता ब्रह्मन्स्थास्यामि पुरुषेष्वहम् / वियोजितश्च मणिना न्यासितश्चायुधं भुवि / / 32 सत्यवागस्तु भगवानयं च पुरुषोत्तमः / / 18 द्रौपद्युवाच। वैशंपायन उवाच। केवलानृण्यमाप्तास्मि गुरुपुत्रो गुरुर्मम / प्रदायांथ मणि द्रौणिः पाण्डवानां महात्मनाम् / शिरस्येतं मणिं राजा प्रतिबध्नातु भारत // 33 जगाम विमनास्तेषां सर्वेषां पश्यतां वनम् // 19 वैशंपायन उवाच / पाण्डवाश्चापि गोविन्दं पुरस्कृत्य हतद्विषः / तं गृहीत्वा ततो राजा शिरस्येवाकरोत्तदा / कृष्णद्वैपायनं चैव नारदं च महामुनिम् // 20 गुरोरुच्छिष्टमित्येव द्रौपद्या वचनादपि // 34 द्रोणपुत्रस्य सहजं मणिमादाय सत्वराः / ततो दिव्यं मणिवरं शिरसा धारयन्प्रभुः / द्रौपदीमभ्यधावन्त प्रायोपेतां मनस्विनीम् // 21 / शुशुभे स महाराजः सचन्द्र इव पर्वतः // 35 - 1957 - Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 16. 36 ] महाभारते [10. 17. 26 उत्तस्थौ पुत्रशोकार्ता ततः कृष्णा मनस्विनी / स्रष्टारं सर्वभूतानां ससर्ज मनसापरम् // 12 कृष्णं चापि महाबाहुं पर्यपृच्छत धर्मराट् // 36 सोऽब्रवीत्पितरं दृष्ट्वा गिरिशं मग्नमम्भसि / इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि यदि मे नाग्रजस्त्वन्यस्ततः स्रक्ष्याम्यहं प्रजाः // 13 षोडशोऽध्यायः॥१६॥ तमब्रवीत्पिता नास्ति त्वदन्यः पुरुषोऽग्रजः / स्थाणुरेष जले मग्नो विस्रब्धः कुरु वै कृतिम्॥१४ वैशंपायन उवाच / स भूतान्यसृजत्सप्त दक्षादींस्तु प्रजापतीत् / हतेषु सर्वसैन्येषु सौप्तिके ते रथैत्रिभिः / यैरिमं व्यकरोत्सर्वं भूतग्रामं चतुर्विधम् // 15 शोचन्युधिष्ठिरो राजा दाशार्हमिदमब्रवीत् // 1 ताः सृष्टमात्राः क्षुधिताः प्रजाः सर्वाः प्रजापतिन् / कथं नु कृष्ण पापेन क्षुद्रेणाक्लिष्टकर्मणा / बिभक्षयिषवो राजन्सहसा प्राद्रवंस्तदा // 16 द्रौणिना निहताः सर्वे मम पुत्रा महारथाः // 2 स भक्ष्यमाणस्त्राणार्थी पितामहमुपाद्रवत् / तथा कृतास्त्रा विक्रान्ताः सहस्रशतयोधिनः / आभ्यो मां भगवान्पातु वृत्तिरासां विधीयताम्॥१७ द्रुपदस्यात्मजाश्चैव द्रोणपुत्रेण पातिताः // 3 ततस्ताभ्यो ददावन्नमोषधीः स्थावराणि च / यस्य द्रोणो महेष्वासो न प्रादादाहवे मुखम् / जङ्गमानि च भूतानि दुर्बलानि बलीयसाम् / / 18 तं जन्ने रथिनां श्रेष्ठं धृष्टद्युम्नं कथं नु सः // 4 विहितान्नाः प्रजास्तास्तु जग्मुस्तुष्टा यथागतम् / किं नु तेन कृतं कर्म तथायुक्तं नरर्षभ। ततो ववृधिरे राजन्प्रीतिमत्यः स्वयोनिषु // 19 यदेकः शिबिरं सर्वमवधीन्नो गुरोः सुतः // 5 भूतग्रामे विवृद्धे तु तुष्टे लोकगुरावपि / वासुदेव उवाच / उदतिष्ठजलाज्येष्ठः प्रजाश्चेमा ददर्श सः // 20 नूनं स देवदेवानामीश्वरेश्वरमव्ययम् / बहुरूपाः प्रजा दृष्ट्वा विवृद्धाः स्वेन तेजसा। . जगाम शरणं द्रौणिरेकस्तेनावधीदहून् // 6 चुक्रोध भगवान्रुद्रो लिङ्गं स्वं चाप्यविध्यत // 21 प्रसन्नो हि महादेवो दद्यादमरतामपि / तत्प्रविद्धं तदा भूमौ तथैव प्रत्यतिष्ठत / वीर्यं च गिरिशो दद्याद्यनेन्द्रमपि शातयेत् // 7 तमुवाचाव्ययो ब्रह्मा वचोभिः शमयन्निव // 22 वेदाहं हि महादेवं तत्त्वेन भरतर्षभ / किं कृतं सलिले शर्व चिरकालं स्थितेन ते / यानि चास्य पुराणानि कर्माणि विविधान्युत // 8 किमर्थं चैतदुत्पाट्य भूमौ लिङ्गं प्रवेरितम् // 23 आदिरेष हि भूतानां मध्यमन्तश्च भारत / सोऽब्रवीज्जातसंरम्भस्तदा लोकगुरुर्गुरुम् / विचेष्टते जगचेदं सर्वमस्यैव कर्मणा // 9 प्रजाः सृष्टाः परेणेमाः किं करिष्याम्यनेन वै // 24 एवं सिसृक्षुर्भूतानि ददर्श प्रथमं विभुः / तपसाधिगतं चान्नं प्रजार्थं मे पितामह / पितामहोऽब्रवीच्चैनं भूतानि सृज माचिरम् // 10 / ओषध्यः परिवर्तेरन्यथैव सततं प्रजाः // 25 हरिकेशस्तथेत्युक्त्वा भूतानां दोषदर्शिवान् / एवमुक्त्वा तु संक्रुद्धो जगाम विमना भवः / दीर्घकालं तपस्तेपे मनोऽम्भसि महातपाः // 11 / गिरेर्मुञ्जवतः पादं तपस्तप्तुं महातपाः // 26 सुमहान्तं ततः कालं प्रतीक्ष्यैनं पितामहः। इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः // 17 // - 1958 - Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 18. 1] सौप्तिकपर्व [10. 18. 26 स तु तेनैव रूपेण दिवं प्राप्य व्यरोचत / वासुदेव उवाच। अन्वीयमानो रुद्रेण युधिष्ठिर नभस्तले // 14 ततो देवयुगेऽतीते देवा वै समकल्पयन् / अपक्रान्ते ततो यज्ञे संज्ञा न प्रत्यभात्सुरान् / / यज्ञं वेदप्रमाणेन विधिवद्यष्टुमीप्सवः // 1 नष्टसंज्ञेषु देवेषु न प्रज्ञायत किंचन // 15 कल्पयामासुरव्यग्रा देशान्यज्ञोचितास्ततः / त्र्यम्बकः सवितुर्बाहू भगस्य नयने तथा / भागार्हा देवताश्चैव यज्ञियं द्रव्यमेव च // 2 पूष्णश्च दशनान्क्रुद्धो धनुष्कोट्या व्यशातयत् // 16 ता वै रुद्रमजानन्त्यो याथातथ्येन देवताः। प्राद्रवन्त ततो देवा यज्ञाङ्गानि च सर्वशः / नाकल्पयन्त देवस्य स्थाणो गं नराधिप // 3 केचित्तत्रैव घूर्णन्तो गतासव इवाभवन् // 17 सोऽकल्प्यमाने भागे तु कृत्तिवासा मखेऽमरैः / स तु विद्राव्य तत्सर्वं शितिकण्ठोऽवहस्य च / तरसा भागमन्विच्छन्धनुरादौ ससर्ज ह // 4 अवष्टभ्य धनुष्कोटि रुरोध विबुधांस्ततः // 18 लोकयज्ञः क्रियायज्ञो गृहयज्ञः सनातनः / ततो वागमरैरुक्ता ज्यां तस्य धनुषोऽच्छिनत् / पञ्चभूतमयो यज्ञो नृयज्ञश्चैव पञ्चमः / / 5 अथ तत्सहसा राजश्छिन्नज्यं विस्फुरद्धनुः // 19 लोकयज्ञेन यज्ञैषी कपर्दी विदधे धनुः। ततो विधनुषं देवा देवश्रेष्ठमुपागमन् / धनुः सृष्टमभूत्तस्य पञ्चकिष्कुप्रमाणतः // 6 शरणं सह यज्ञेन प्रसादं चाकरोत्प्रभुः / / 20 वषट्कारोऽभवज्या तु धनुषस्तस्य भारत / ततः प्रसन्नो भगवान्प्रास्यत्कोपं जलाशये / यज्ञाङ्गानि च चत्वारि तस्य संहननेऽभवन् / / 7 स जलं पावको भूत्वा शोषयत्यनिशं प्रभो // 21 ततः क्रुद्धो महादेवस्तदुपादाय कार्मुकम् / भगस्य नयने चैव बाहू च सवितुस्तथा।। आजगामाथ तत्रैव यत्र देवाः समीजिरे // 8 प्रादात्पूष्णश्च दशनान्पुनर्यज्ञं च पाण्डव // 22. तमात्तकार्मुकं दृष्ट्वा ब्रह्मचारिणमव्ययम् / ततः सर्वमिदं स्वस्थं बभूव पुनरेव ह। विव्यथे पृथिवी देवी पर्वताश्च चकम्पिरे // 9 सर्वाणि च हवींष्यस्य देवा भागमकल्पयन् // 23 न ववौ पवनश्चैव नाग्निर्जज्वाल चैधितः / तस्मिन्क्रुद्धेऽभवत्सर्वमस्वस्थं भुवनं विभो। व्यभ्रमच्चापि संविग्नं दिवि नक्षत्रमण्डलम् / / 10 प्रसन्ने च पुनः स्वस्थं स प्रसन्नोऽस्य वीर्यवान् // 24 न बभी भास्करश्चापि सोमः श्रीमुक्तमण्डलः / ततस्ते निहताः सर्वे तव पुत्रा महारथाः / तिमिरेणाकुलं सर्वमाकाशं चाभवद्वतम् // 11 अन्ये च बहवः शूराः पाञ्चालाश्च सहानुगाः // 25 अभिभूतास्ततो देवा विषयान्न प्रजज्ञिरे / न तन्मनसि कर्तव्यं न हि तद्रौणिना कृतम् / . न प्रत्यभाच्च यज्ञस्तान्वेदा बभ्रंशिरे तदा // 12 / महादेवप्रसादः स कुरु कार्यमनन्तरम् // 26 ततः स यज्ञं रौद्रेण विव्याध हृदि पत्रिणा। इति श्रीमहाभारते सौप्तिकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः // 18 अपक्रान्तस्ततो यज्ञो मृगो भूत्वा सपावकः // 13 // समाप्तं ऐषीकपर्व // // समाप्तं सौप्तिकपर्व // - 1959 - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीपर्व पपात भुवि दुर्धर्षो वाताहत इव द्रुमः // 9 जनमेजय उवाच / धृतराष्ट्र उवाच। हते दुर्योधने चैव हते सैन्ये च सर्वशः / हतपुत्रो हतामात्यो हतसर्वसुहृज्जनः / धृतराष्ट्रो महाराजः श्रुत्वा किमकरोन्मुने // 1 दुःखं नूनं भविष्यामि विचरन्पृथिवीमिमाम् // 10 तथैव कौरवो राजा धर्मपुत्रो महामनाः / किं नु बन्धुविहीनस्य जीवितेन ममाद्य वै / कृपप्रभृतयश्चैव किमकुर्वत ते त्रयः / / 2 लूनपक्षस्य इव मे जराजीर्णस्य पक्षिणः // 11 अश्वत्थाम्नः श्रुतं कर्म शापश्चान्योन्यकारितः / हृतराज्यो हतसुहृद्धतचक्षुश्च वै तथा / वृत्तान्तमुत्तरं ब्रूहि यदभाषत संजयः // 3 न भ्राजिष्ये महाप्राज्ञ क्षीणरश्मिरिवांशुमान् // 12 वैशंपायन उवाच / न कृतं सुहृदो वाक्यं जामदग्न्यस्य जल्पतः / हते पुत्रशते दीनं छिन्नशाखमिव द्रुमम् / नारदस्य च देवर्षेः कृष्णद्वैपायनस्य च // 13 . पुत्रशोकाभिसंतप्तं धृतराष्ट्रं महीपतिम् // 4 सभामध्ये तु कृष्णेन यच्छ्रेयोऽभिहितं मम / ध्यानमूकत्वमापन्नं चिन्तया समभिप्लुतम् / अलं वैरेण ते राजन्पुत्रः संगृह्यतामिति // 14 अभिगम्य महाप्राज्ञः संजयो वाक्यमब्रवीत् // 5 तञ्च वाक्यमकृत्वाहं भृशं तप्यामि दुर्मतिः / किं शोचसि महाराज नास्ति शोके सहायता / न हि श्रोतास्मि भीष्मस्य धर्मयुक्तं प्रभाषितम् // 15 अक्षौहिण्यो हताश्चाष्टौ दश चैव विशां पते / दुर्योधनस्य च तथा वृषभस्येव नर्दतः / निर्जनेयं वसुमती शून्या संप्रति केवला // 6 दुःशासनवधं श्रुत्वा कर्णस्य च विपर्ययम् / नानादिग्भ्यः समागम्य नानादेश्या नराधिपाः / द्रोणसूर्योपरागं च हृदयं मे विदीयते // 16 सहितास्तव पुत्रेण सर्वे वै निधनं गताः // 7 न स्मराम्यात्मनः किंचित्पुरा संजय दुष्कृतम् / पितॄणां पुत्रपौत्राणां ज्ञातीनां सुहृदां तथा / यस्येदं फलमोह मया मूढेन भुज्यते // 17 गुरूणां चानुपूर्येण प्रेतकार्याणि कारय // 8 नूनं ह्यपकृतं किंचिन्मया पूर्वेषु जन्मसु / वैशंपायन उवाच येन मां दुःखभागेषु धाता कर्मसु युक्तवान् // 18 तच्छ्रुत्वा करुणं वाक्यं पुत्रपौत्रवधार्दितः / परिणामश्च वयसः सर्वबन्धुक्षयश्च मे / - 1960 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 1. 19 ] स्त्रीपर्व [11. 2.7 सुहृन्मित्रविनाशश्च दैवयोगादुपागतः / स्वयमुत्पादयित्वाग्निं वस्त्रेण परिवेष्टयेत् / कोऽन्योऽस्ति दुःखिततरो मया लोके पुमानिह // 19 दह्यमानो मनस्तापं भजते न स पण्डितः // 32 तन्मामद्यैव पश्यन्तु पाण्डवाः संशितव्रतम् / त्वयैव ससुतेनायं वाक्यवायुसमीरितः / विवृतं ब्रह्मलोकस्य दीर्घमध्वानमास्थितम् // 20 लोभाज्येन च संसिक्तो ज्वलितः पार्थपावकः // 33 वैशंपायन उवाच / तस्मिन्समिद्धे पतिताः शलभा इव ते सुताः / तस्य लालप्यमानस्यं बहुशोकं विचिन्वतः / तान्केशवार्चिर्निर्दग्धान्न त्वं शोचितुमर्हसि // 34 शोकापहं नरेन्द्रस्य संजयो वाक्यमब्रवीत् / / 21 यञ्चाश्रुपातकलिलं वदनं वहसे नृप / शोकं राजन्व्यपनुद श्रुतास्ते वेदनिश्चयाः / अशास्त्रदृष्टमेतद्धि न प्रशंसन्ति पण्डिताः // 35 शास्त्रागमाश्च विविधा वृद्धेभ्यो नृपसत्तम / विस्फुलिङ्गा इव ह्येतान्दहन्ति किल मानवान् / सञ्जये पुत्रशोकाते यदूचुर्मुनयः पुरा // 22 जहीहि मन्यु बुद्ध्या वै धारयात्मानमात्मना // 36 तथा यौवनजं दर्पमास्थिते ते सुते नृप / एवमाश्वासितस्तेन संजयेन महात्मना / न त्वया सुहृदां वाक्यं ब्रुवतामवधारितम् / विदुरो भूय एवाह बुद्धिपूर्व परंतप // 37 स्वार्थश्च न कृतः कश्चिल्लुब्धेन फलगृद्धिना // 23 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि तव दुःशासनो मन्त्री राधेयश्च दुरात्मवान् / प्रथमोऽध्यायः // 1 // शकुनिश्चैव दुष्टात्मा चित्रसेनश्च दुर्मतिः / शल्यश्च येन वै सर्व शल्यभूतं कृतं जगत् // 24 वैशंपायन उवाच / कुरुवृद्धस्य भीष्मस्य गान्धार्या विदुरस्य च / ततोऽमृतसमैर्वाक्यैर्हादयन्पुरुषर्षभम् / न कृतं वचनं तेन तव पुत्रेण भारत // 25 वैचित्रवीर्यं विदुरो यदुवाच निबोध तत् // 1 न धर्मः सत्कृतः कश्चिन्नित्यं युद्धमिति ब्रुवन् / विदुर उवाच / क्षपिताः क्षत्रियाः सर्वे शत्रूणां वर्धितं यशः // 26 उत्तिष्ठ राजन्कि शेषे धारयात्मानमात्मना। मध्यस्थो हि त्वमप्यासीन क्षमं किंचिदुक्तवान् / स्थिरजङ्गममर्त्यानां सर्वेषामेष निर्णयः // 2 धूर्धरेण त्वया भारस्तुलया न समं धृतः // 27 सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। नादावेव मनुष्येण वर्तितव्यं यथा क्षमम् / / संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम् // 3 स्था नातीतमर्थं वै पश्चात्तापेन युज्यते / / 28 यदा शूरं च भीरं च यमः कर्षति भारत / पुत्रगृद्ध्या त्वया राजन्प्रियं तस्य चिकीर्षता।। तत्कि न योत्स्यन्ति हि ते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ॥४ श्चात्तापमिदं प्राप्तं न त्वं शोचितुमईसि // 29 अयुध्यमानो म्रियते युध्यमानश्च जीवति / राधु यः केवलं दृष्ट्वा प्रपातं नानुपश्यति। कालं प्राप्य महाराज न कश्चिदतिवर्तते / / 5 ज भ्रष्टो मधुलोभेन शोचत्येव यथा भवान् // 30 / न चाप्येतान्हतान्युद्धे राजशोचितुमर्हसि / प्रर्थान्न शोचन्प्राप्नोति न शोचन्विन्दते सुखम् / / | प्रमाणं यदि शास्त्राणि गतास्ते परमां गतिम् // 6 न शोचश्रियमाप्नोति न शोचन्विन्दते परम् // 31 / सर्वे स्वाध्यायवन्तो हि सर्वे च चरितव्रताः। I. भा. 246 - 1961 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 2.7] महाभारते [11. 3. 11 सर्वे चाभिमुखाः क्षीणास्तत्र का परिदेवना // 7 शयानं चानुशयति तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति / अदर्शनादापतिताः पुनश्चादर्शनं गताः। अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम् // 22 न ते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना // 8 यस्यां यस्यामवस्थायां यत्करोति शुभाशुभम् / हतोऽपि लभते स्वर्ग हत्वा च लभते यशः / तस्यां तस्यामवस्थायां तत्तत्फलमुपाभुते / / 23 उभयं नो बहुगुणं नास्ति निष्फलता रणे // 9 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि तेषां कामदुघाल्लोकानिन्द्रः संकल्पयिष्यति / द्वितीयोऽध्यायः // 2 // इन्द्रस्यातिथयो ह्येते भवन्ति पुरुषर्षभ // 10 न यज्ञैर्दक्षिणावद्भिर्न तपोभिर्न विद्यया / धृतराष्ट्र उवाच / स्वर्ग यान्ति तथा मा यथा शूरा रणे हताः // 11 सुभाषितैर्महाप्राज्ञ शोकोऽयं विगतो मम / मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च / भूय एव तु वाक्यानि श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः // 1 संसारेष्वनुभूतानि कस्य ते कस्य वा वयम् / / 12 अनिष्टानां च संसर्गादिष्टानां च विवर्जनात् / शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च / कथं हि मानसैर्दुःखैः प्रमुच्यन्तेऽत्र पण्डिताः // 1 दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 13 विदुर उवाच / न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम। यतो यतो मनो दुःखात्सुखाद्वापि प्रमुच्यते। न मध्यस्थः क्वचित्कालः सर्वं कालः प्रकर्षति॥१४ / ततस्ततः शमं लब्ध्वा सुगति विन्दते बुधः // 3 अनित्यं जीवितं रूपं यौवनं द्रव्यसंचयः / अशाश्वतमिदं सर्वं चिन्त्यमानं नरर्षभ। आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येदेषु न पण्डितः / / 15 / कदलीसंनिभो लोकः सारो ह्यस्य न विद्यते // 1 न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हसि / गृहाण्येव हि मानामाहुदेहानि पण्डिताः। ..; अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य न विवर्तते // 16 कालेन विनियुज्यन्ते सत्त्वमेकं तु शोभनम् // 5 अशोचन्प्रतिकुर्वीत यदि पश्येत्पराक्रमम् / यथा जीर्णमजीणं वा वस्त्रं त्यक्त्वा तु वै नरः / भैषज्यमेतदुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् / अन्यद्रोचयते वस्त्रमेवं देहाः शरीरिणाम् / / 6 चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि विवर्धते // 17 / वैचित्रवीर्य वासं हि दुःखं वा यदि वा सुखम् / अनिष्टसंप्रयोगाच्च विप्रयोगाप्रियस्य च / * प्राप्नुवन्तीह भूतानि स्वकृतेनैव कर्मणा // 7 मनुष्या मानसैर्दुःखैयुज्यन्ते येऽल्पबुद्धयः // 18 / कर्मणा प्राप्यते स्वर्ग सुखं दुःखं च भारत। नार्थो न धर्मो न सुखं यदेतदनुशोचसि। ततो वहति तं भारमवशः स्वक्शोऽपि वा // 8 न च नापैति कार्यार्थात्रिवर्गाच्चैव भ्रश्यते // 19 यथा च मृन्मयं भाण्डं चक्रारूढं विपद्यते / अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकी नराः।। किंचित्प्रक्रियमाणं वा कृतमात्रमथापि वा // 9 असंतुष्टाः प्रमुह्यन्ति संतोषं यान्ति पण्डिताः॥२० / छिन्नं वाप्यवरोप्यन्तमवतीर्णमथापि वा। प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः / आर्द्र वाप्यथ वा शुष्कं पच्यमानमथापि वा // 10 एतज्ज्ञानस्य सामर्थ्य न बालैः समतामियात् / / 21 अवतार्यमाणमा पाकादुद्धृतं वापि भारत। . - 1962 - Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 3. 11] स्त्रीपर्व [11. 5. 3 अथ वा परिभुज्यन्तमेवं देहाः शरीरिणाम् // 11 / ततः प्राप्तोत्तरे काले व्याधयश्चापि तं तथा। गर्भस्थो वा प्रसूतो वाप्यथ वा दिवसान्तरः।। उपसर्पन्ति जीवन्तं बध्यमानं स्वकर्मभिः // 7 अर्धमासगतो वापि मासमात्रगतोऽपि वा // 12 बद्धमिन्द्रियपाशैस्तं सङ्गस्वादुभिरातुरम् / संवत्सरगतो वापि द्विसंवत्सर एव वा। व्यसनान्युपवर्तन्ते विविधानि नराधिप / यौवनस्थोऽपि मध्यस्थो वृद्धो वापि विपद्यते // 13 बध्यमानश्च तैर्भूयो नैव तृप्तिमुपैति सः // 8 प्राकर्मभिस्तु भूतानि भवन्ति न भवन्ति च। अयं न बुध्यते तावद्यमलोकमथागतम् / एवं सांसिद्धिके लोके किमर्थमनुतप्यसे / 14 यमदूतैर्विकृष्यंश्च मृत्यु कालेन गच्छति // 9 यथा च सलिले राजन्क्रीडार्थमनुसंचरन् / वाग्धीनस्य च यन्मात्रमिष्टानिष्टं कृतं मुखे / उन्मज्जेच्च निमज्जेच्च किंचित्सत्त्वं नराधिप // 15. भूय एवात्मनात्मानं बध्यमानमुपेक्षते // 10 एवं संसारगहनादुन्मज्जननिमज्जनात् / अहो विनिकृतो लोको लोभेन च वशीकृतः / कर्मभोगेन बध्यन्तः क्लिश्यन्ते येऽल्पबुद्धयः // 16 लोभक्रोधमदोन्मत्तो नात्मानमवबुध्यते // 11 ये तु प्राज्ञाः स्थिताः सत्ये संसारान्तगवेषिणः / कुलीनत्वेन रमते दुष्कुलीनान्विकुत्सयन् / समागमज्ञा भूतानां ते यान्ति ,परमां गतिम् // 17 धनदर्पण दृप्तश्च दरिद्रान्परिकुत्सयन् // 12 ___ इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि मूर्खानिति परानाह नात्मानं समवेक्षते / तृतीयोऽध्यायः // 3 // शिक्षां क्षिपति चान्येषां नात्मानं शास्तुमिच्छति / / अध्रुवे जीवलोकेऽस्मिन्यो धर्ममनुपालयन् / धृतराष्ट्र उवाच / जन्मप्रभृति वर्तेत प्राप्नुयात्परमां गतिम् // 14 कथं संसारगहनं विज्ञेयं वदतां वर / एवं सर्व विदित्वा वै यस्तत्त्वमनुवर्तते / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वमाख्याहि पृच्छतः // 1 / स प्रमोक्षाय लभते पन्थानं मनुजाधिप // 15 ... विदुर उवाच / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि जन्मप्रभृति भूतानां क्रियाः सर्वाः शृणु प्रभो। चतुर्थोऽध्यायः // 4 // पूर्वमेवेह कलले वसते किंचिदन्तरम् // 2 ततः स पञ्चमेऽतीते मासे मांसं प्रकल्पयेत् / धृतराष्ट्र उवाच / ततः सर्वाङ्गसंपूर्णो गर्भो मासे प्रजायते // 3 यदिदं धर्मगहनं बुद्ध्या समनुगम्यते / अमेध्यमध्ये वसति मांसशोणितलेपने / एतद्विस्तरशः सर्वं बुद्धिमार्ग प्रशंस मे // 1 ततस्तु वायुवेगेन ऊर्ध्वपादो ह्यधःशिराः // 4 विदुर उवाच / पोनिद्वारमुपागम्य बहून्लेशान्समृच्छति / अत्र ते वर्तयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे / पोनिसंपीडनाच्चैव पूर्वकर्मभिरन्वितः // 5 यथा संसारगहनं वदन्ति परमर्षयः // 2 तस्मान्मुक्तः स संसारादन्यान्पश्यत्युपद्रवान् / कश्चिन्महति संसारे वर्तमानो द्विजः किल / महास्तमुपसर्पन्ति सारमेया इवामिषम् // 6 वनं दुर्गमनुप्राप्तो महत्क्रव्यादसंकुलम् // 3 - 1963 - Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 5. 4] महाभारते [11. 6.7 सिंहव्याघ्रगजाकारैरतिघोरैर्महाशनैः / अभीप्सति च तां नित्यमतृप्तः स पुनः पुनः / समन्तात्संपरिक्षिप्तं मृत्योरपि भयप्रदम् // 4 न चास्य जीविते राजनिर्वेदः समजायत // 18 तदस्य दृष्ट्वा हृदयमुद्वेगमगमत्परम् / तत्रैव च मनुष्यस्य जीविताशा प्रतिष्ठिता / अभ्युच्छ्यश्च रोम्णां वै विक्रियाश्च परंतप // 5 कृष्णाः श्वेताश्च तं वृक्षं कुट्टयन्ति स्म मूषकाः॥१९ स तद्वनं व्यनुसरन्विप्रधावन्नितस्ततः / व्यालैश्च वनदुर्गान्ते स्त्रिया च परमोग्रया। वीक्षमाणो दिशः सर्वाः शरणं व भवेदिति // 6 कूपाधस्ताच्च नागेन वीनाहे कुञ्जरेण च // 20 स तेषां छिद्रमन्विच्छन्द्रुतो भयपीडितः / वृक्षप्रपाताच्च भयं मूषकेभ्यश्च पञ्चमम् / न च निर्याति वै दूरं न च तैर्विप्रयुज्यते // 7 मधुलोभान्मधुकरैः षष्ठमाहुर्महद्भयम् // 21 . अथापश्यद्वनं घोरं समन्ताद्वागुरावृतम् / एवं स वसते तत्र क्षिप्तः संसारसागरे। बाहुभ्यां संपरिष्वक्तं स्त्रिया परमघोरया // 8 न चैव जीविताशायां निर्वेदमुपगच्छति // 22 पञ्चशीर्षधरै गैः शैलैरिव समुन्नतैः / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि नभःस्पृशैर्महावृक्षैः परिक्षिप्तं महावनम् / / 9 - पञ्चमोऽध्यायः // 5 // वनमध्ये च तत्राभूदुदपानः समावृतः / वल्लीभिस्तृणछन्नाभिगूढाभिरभिसंवृतः / / 10 पपात स द्विजस्तत्र निगूढे सलिलाशये / धृतराष्ट्र उवाच / विलग्नश्चाभवत्तस्मिल्लतासंतानसंकटे / / 11 अहो खलु महदुःखं कृच्छ्रवासं वसत्यसौ / पनसस्य यथा जातं वृन्तबद्धं महाफलम् / कथं तस्य रतिस्तत्र तुष्टिर्वा वदतां वर / / 1 स तथा लम्बते तत्र ऊर्ध्वपादो ह्यधःशिराः // 12 स देशः क्व नु यत्रासौ वसते धर्मसंकटे / अथ तत्रापि चान्योऽस्य भूयो जात उपद्रवः / कथं वा स विमुच्येत नरस्तस्मान्महाभयात् // 2 कूपवीनाहवेलायामपश्यत महागजम् / / 13 एतन्मे सर्वमाचक्ष्व साधु चेष्टामहे तथा / षड्वक्त्रं कृष्णशबलं द्विषकपदचारिणम् / कृपा मे महती जाता तस्याभ्युद्धरणेन हि // 3 क्रमेण परिसर्पन्तं वल्लीवृक्षसमावृतम् // 14 . विदुर उवाच। तस्य चापि प्रशाखासु वृक्षशाखावलम्बिनः / उपमानमिदं राजन्मोक्षविद्भिरुदाहृतम् / नानारूपा मधुकरा घोररूपा भयावहाः / / सुगति विन्दते येन परलोकेषु मानवः // 4 आसते मधु संभृत्य पूर्वमेव निकेतजाः // 15 यत्तदुच्यति कान्तारं महत्संसार एव सः / भूयो भूयः समीहन्ते मधूनि भरतर्षभ / वनं दुर्ग हि यत्त्वेतत्संसारगहनं हि तत् // 5 स्वादनीयानि भूतानां न कुर्बालोऽपि तृप्यते // 16 ये च ते कथिता व्याला व्याधयस्ते प्रकीर्तिताः। तेषां मधूनां बहुधा धारा प्रस्रवते सदा। या सा नारी बृहत्काया अधितिष्ठति तत्र वै / तां लम्बमानः स पुमान्धारां पिबति सर्वदा।। तामाहुस्तु जरां प्राज्ञा वर्णरूपविनाशिनीम् // 6 न चास्य तृष्णा विरता पिबमानस्य संकटे // 17 / यस्तत्र कूपो नृपते स तु देहः शरीरिणाम् / - 1964 - तामा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 6.7] स्त्रीपर्व [11. 7. 20 यस्तत्र वसतेऽधस्तान्महाहिः काल एव सः / चराणां स्थावराणां च गृध्येत्तत्र न पण्डितः // 6 अन्तकः सर्वभूतानां देहिनां सर्वहार्यसौ॥ . शारीरा मानसाश्चैव मानां ये तु व्याधयः / कूपमध्ये च या जाता वल्ली यत्र स मानवः / प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च ते व्यालाः कथिता बुधैः // 7 प्रताने लम्बते सा तु जीविताशा शरीरिणाम् // 8 क्लिश्यमानाश्च तैर्नित्यं हन्यमानाश्च भारत / स यस्तु कूपवीनाहे तं वृक्षं परिसर्पति / / स्वकर्मभिर्महाव्यालैनॊद्विजन्त्यल्पबुद्धयः // 8 षड्वक्त्रः कुञ्जरो राजन्स तु संवत्सरः स्मृतः / अथापि तैर्विमुच्येत व्याधिभिः पुरुषो नृप / मुखानि ऋतवो मासाः पादा द्वादश कीर्तिताः // 9 आवृणोत्येव तं पश्चाज्जरा रूपविनाशिनी // 9 ये तु वृक्षं निकृन्तन्ति मूषकाः सततोत्थिताः। .. शब्दरूपरसस्पजर्गन्धैश्च विविधैरपि / राज्यहानि तु तान्याहुभूतानां परिचिन्तकाः / / मज्जमानं महापड्के निरालम्बे समन्ततः // 10 ये ते मधुकरास्तत्र कामास्ते परिकीर्तिताः // 10 संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रसंधयः / यास्तु ता बहुशो धाराः स्रवन्ति मधुनिस्रवम् / / क्रमेणास्य प्रलुम्पन्ति रूपमायुस्तथैव च // 11 तांस्तु कामरसान्विद्याद्यत्र मन्जन्ति मानवाः // 11 एते कालस्य निधयो नैताञ्जानन्ति दुर्बुधाः / एवं संसारचक्रस्य परिवृत्ति स्म ये विदुः। अत्राभिलिखितान्याहुः सर्वभूतानि कर्मणा // 12 ते वै संसारचक्रस्य पाशांश्छिन्दन्ति वै बुधाः॥१२ रथं शरीरं भूतानां सत्त्वमाहुस्तु सारथिम् / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि इन्द्रियाणि हयानाहुः कर्मबुद्धिश्च रश्मयः // 13 षष्ठोऽध्यायः॥६॥ तेषां हयानां यो वेगं धावतामनुधावति / स तु संसारचक्रेऽस्मिंश्चक्रवत्परिवर्तते // 14 धृतराष्ट्र उवाच / यस्तान्यमयते बुद्ध्या स यन्ता न निवर्तते / अहोऽभिहितमाख्यानं भवता तत्त्वदर्शिना।। याम्यमाहू रथं ह्येनं मुह्यन्ते येन दुर्बुधाः // 15 भूय एव तु मे हर्षः श्रोतुं वागमृतं तव // 1 | स चैतत्यानते राजन्यत्त्वं प्राप्तो नराधिप / विदुर उवाच। राज्यनाशं सुन्नाशं सुतनाशं च भारत // 16 शृणु भूयः प्रवक्ष्यामि मार्गस्यैतस्य विस्तरम् / / अनुतर्षुलमेवैतदुःखं भवति भारत / यच्छ्रुत्वा विप्रमुच्यन्ते संसारेभ्यो विचक्षणाः॥२ साधुः परमदुःण्यानां दुःखभैषज्यमाचरेत् // 17 यथा तु पुरुषो राजन्दीर्घमध्वानमास्थितः / न विक्रमो न चाप्यों न मित्रं न सुहृज्जनः। कचित्कचिच्छ्रमात्स्थाता कुरुते वासमेव वा॥ 3 तथोन्मोचयते दुःखाद्यथात्मा स्थिरसंयमः // 18 एवं संसारपर्याये गर्भवासेषु भारत / तस्मान्मैत्रं समास्थाय शीलमापद्य भारत / कुर्वन्ति दुर्बुधा वासं मुच्यन्ते तत्र पण्डिताः // 4 | दमस्यागोऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः // 19 तस्मादध्वानमेवैतमाहुः शास्त्रविदो जनाः। शीलरश्मिसमायुक्ते स्थितो यो मानसे रथे। . यत्तु संसारगहनं वनमाहुर्मनीषिणः // 5 त्यक्त्वा मृत्युभयं राजन्ब्रह्मलोकं स गच्छति // 20 सोऽयं लोकसमावर्तो मानां भरतर्षभ। / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि सप्तमोऽध्यायः // ' - 1965 - . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 8. 1] महाभारते [11. 8. 20 जीविते मरणान्ते च कस्माच्छोचसि भारत // 14 वैशंपायन उवाच / प्रत्यक्षं तव राजेन्द्र वैरस्यास्य समुद्भवः। .. विदुरस्य तु तद्वाक्यं निशम्य कुरुसत्तमः / पुत्रं ते कारणं कृत्वा कालयोगेन कारितः // 15 पुत्रशोकाभिसंतप्तः पपात भुवि मूर्छितः // 1 / / अवश्यं भवितव्ये च कुरूणां वैशसे नृप। तं तथा पतितं भूमौ निःसंज्ञं प्रेक्ष्य बान्धवाः / कस्माच्छोचसि ताशूरान्गतान्परमिकां गतिम् // 16 कृष्णद्वैपायनश्चैव क्षत्ता च विदुरस्तथा // 2 जानता च महावाहो विदुरेण महात्मना / संजयः सुहृदश्चान्ये द्वाःस्था ये चास्य संमताः / यतितं सर्वयत्नेन शमं प्रति जनेश्वर // 17 जलेन सुखशीतेन तालवृन्तैश्च भारत // 3 न च दैवकृतो मार्गः शक्यो भूतेन केनचित् / पस्पृशुश्च करैर्गात्रं वीजमानाश्च यत्नतः / घटतापि चिरं कालं नियन्तुमिति मे मतिः // 18 अन्वासन्सुचिरं कालं धृतराष्ट्र तथागतम् // 4 देवतानां हि यत्कार्यं मया प्रत्यक्षतः श्रुतम् / अथ दीर्घस्य कालस्य लब्धसंज्ञो महीपतिः / तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि कथं स्थैर्य भवेत्तव // 19 विललाप चिरं कालं पुत्राधिभिरभिप्लुतः // 5 पुराहं त्वरितो यातः सभामैन्द्री जितक्लमः / धिगस्तु खलु मानुष्यं मानुष्ये च परिग्रहम् / अपश्यं तत्र च तदा समवेतान्दिवौकसः / यतोमूलानि दुःखानि संभवन्ति मुहुर्मुहुः / / 6 नारदप्रमुखांश्चापि सर्वान्देवऋषींस्तथा // 20 पुत्रनाशेऽर्थनाशे च ज्ञातिसंबन्धिनामपि / तत्र चापि मया दृष्टा पृथिवी पृथिवीपते / प्राप्यते सुमहदुःखं विषाग्निप्रतिमं विभो // 7 कार्यार्थमुपसंप्राप्ता देवतानां समीपतः // 21 येन दह्यन्ति गात्राणि येन प्रज्ञा विनश्यति / उपगम्य तदा धात्री देवानाह समागतान् / / येनाभिभूतः पुरुषो मरणं बहु मन्यते // 8 यत्कार्यं मम युष्माभिर्ब्रह्मणः सदने तदा / तदिदं व्यसनं प्राप्तं मया भाग्यविपर्ययात् / प्रतिज्ञातं महाभागास्तच्छीघ्रं संविधीयताम् // 22 तञ्चैवाहं करिष्यामि अद्यैव द्विजसत्तम // 9 तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा विष्णुर्लोकनमस्कृतः / इत्युक्त्वा तु महात्मानं पितरं ब्रह्मवित्तमम् / उवाच प्रहसन्वाक्यं पृथिवी देवसंसदि // 23 धृतराष्ट्रोऽभवन्मूढः शोकं च परमं गतः / धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां यस्तु ज्येष्ठः शतस्य वै / अभूच तूष्णीं राजासौ ध्यायमानो महीपते // 10 दुर्योधन इति ख्यातः स ते कार्य करिष्यति / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनः प्रभुः / तं च प्राप्य महीपालं कृतकृत्या भविष्यसि // 24 पुत्रशोकाभिसंतप्तं पुत्रं वचनमब्रवीत् // 11 // तस्यार्थे पृथिवीपालाः कुरुक्षेत्रे समागताः। धृतराष्ट्र महाबाहो यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु। अन्योन्यं घातयिष्यन्ति दृढैः शस्त्रैः प्रहारिणः॥२५ श्रुतवानसि मेधावी धर्मार्थकुशलस्तथा // 12 ततस्ते भविता देवि भारस्य युधि नाशनम् / न तेऽस्त्यविदितं किंचिद्वेदितव्यं परंतप / गच्छ शीघ्रं स्वकं स्थानं लोकान्धारय शोभने // 26 अनित्यतां हि मानां विजानासि न संशयः // 13 / स एष ते सुतो राजल्लोकसंहारकारणात् / अध्रुवे जीवलोके च स्थाने वाशाश्वते सति / / कलेरंशः समुत्पन्नो गान्धार्या जठरे नृप // 27 -1966 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 8. 28 ] स्त्रीपर्व [11. 9.6 अमर्षी चपलश्चापि क्रोधनो दुष्प्रसाधनः / पाण्डवानां च कारुण्यात्प्राणान्धारय भारत // 42 देवयोगात्समुत्पन्ना भ्रातरश्चास्य तादृशाः / / 28 एवं ते वर्तमानस्य लोके कीर्तिर्भविष्यति / शकुनिर्मातुलश्चैव कर्णश्च परमः सखा / धर्मश्च सुमहांस्तात तप्तं स्याच्च तपश्चिरात् // 43 समुत्पन्ना विनाशार्थं पृथिव्यां सहिता नृपाः / पुत्रशोकसमुत्पन्नं हुताशं ज्वलितं यथा / एतमर्थ महाबाहो नारदो वेद तत्त्वतः // 29 प्रज्ञाम्भसा महाराज निर्वापय सदा सदा // 44 आत्मापराधात्पुत्रास्ते विनष्टाः पृथिवीपते / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासस्यामिततेजसः। मा ताब्शोचस्व राजेन्द्र न हि शोकेऽस्ति कारणम् // मुहूर्तं समनुध्याय धृतराष्ट्रोऽभ्यभाषत // 45 न हि ते पाण्डवाः स्वल्पमपराध्यन्ति भारत / . महता शोकजालेन प्रणुन्नोऽस्मि द्विजोत्तम / पुत्रास्तव दुरात्मानो यैरियं घातिता मही // 31 नात्मानमवबुध्यामि मुह्यमानो मुहुर्मुहुः / / 46 नारदेन च भद्रं ते पूर्वमेव न संशयः / इदं तु वचनं श्रुत्वा तव देवनियोगजम् / युधिष्ठिरस्य समितौ राजसूये निवेदितम् / / 32 धारयिष्याम्यहं प्राणान्यतिष्ये च नशोचितुम्॥ 47 पाण्डवाः कौरवाश्चैव समासाद्य परस्परम् / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासः सत्यवतीसुताः / न भविष्यन्ति कौन्तेय यत्ते कृत्यं तदाचर // 33 धृतराष्ट्रस्य राजेन्द्र तत्रैवान्तरधीयत // 48 नारदस्य वचः श्रुत्वा तदाशोचन्त पाण्डवाः / / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि एतत्ते सर्वमाख्यातं देवगुह्यं सनातनम् // 34 अष्टमोऽध्यायः // 8 // कथं ते शोकनाशः स्यात्प्राणेषु च दया प्रभो। // समाप्तं विशोकपर्व / / नेहश्च पाण्डुपुत्रेषु ज्ञात्वा दैवकृतं विधिम् // 35 एष चार्थो महाबाहो पूर्वमेव मया श्रुतः / जनमेजय उवाच / कथितो धर्मराजस्य राजसूये ऋतूत्तमे // 36 गते भगवति व्यासे धृतराष्ट्रो महीपतिः / यतितं धर्मपुत्रेण मया गुह्ये निवेदिते / किमचेष्टत विप्रर्षे तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 1 अविग्रहे कौरवाणां दैवं तु बलवत्तरम् // 37 वैशंपायन उवाच / अनतिक्रमणीयो हि विधी राजन्कथंचन / एतच्छ्रुत्वा नरश्रेष्ठ चिरं ध्यात्वा त्वचेतनः / कृतान्तस्य हि भूतेन स्थावरेण त्रसेन च // 38 संजयं योजयेत्युक्त्वा विदुरं प्रत्यभाषत // 2 भवान्कर्मपरो यत्र बुद्धिश्रेष्ठश्च भारत / क्षिप्रमानय गान्धारी सर्वाश्च भरतस्त्रियः / मुह्यते प्राणिनां ज्ञात्वा गतिं चागतिमेव च // 39 वधू कुन्तीमुपादाय याश्चान्यास्तत्र योषितः / / 3 त्वां तु शोकेन संतप्तं मुह्यमानं मुहुर्मुहुः / एवमुक्त्वा स धर्मात्मा विदुरं धर्मवित्तमम् / ज्ञात्वा युधिष्ठिरो राजा प्राणानपि परित्यजेत् / / 40 शोकविप्रहतज्ञानो यानमेवान्वपद्यत / / 4 कृपालुनित्यशो वीरस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि / गान्धारी चैव शोकार्ता भर्तुर्वचनचोदिता / स कथं त्वयि राजेन्द्र कृपां वै न करिष्यति // 41 सह कुन्त्या यतो राजा सह स्त्रीभिरुपाद्रवत् // 5 मम चैव नियोगेन विधेश्चाप्यनिवर्तनात् / ताः समासाद्य राजानं भृशं शोकसमन्विताः / - 1967 - Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 9. 6] महाभारते [11. 10. 18 आमयान्योन्यमीयुः स्म भृशमुचक्रुशुस्ततः // 6 | प्राक्रोशन्त महाराज स्वनुरक्तास्तदा भृशम् // 21 ताः समाश्वासयत्क्षत्ता ताभ्यश्चार्ततरः स्वयम् / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि अश्रुकण्ठीः समारोप्य ततोऽसौ निर्ययौ पुरात् / / 7 नवमोऽध्यायः // 9 // ततः प्रणादः संजज्ञे सर्वेषु कुरुवेश्मसु / आकुमारं पुरं सर्वमभवच्छोककर्शितम् // 8 वैशंपायन उवाच / अदृष्टपूर्वा या नार्यः पुरा देवगणैरपि / क्रोशमात्रं ततो गत्वा ददृशुस्तान्महारथान् / पृथग्जनेन दृश्यन्त तास्तदा निहतेश्वराः // 9 शारद्वतं कृपं द्रौणिं कृतवर्माणमेव च // 1 प्रकीर्य केशान्सुशुभान्भूषणान्यवमुच्य च / ते तु दृष्ट्वैव राजानं प्रज्ञाचक्षुषभीश्वरम् / एकवस्त्रधरा नायः परिपेतुरनाथवत् // 10 अश्रुकण्ठा विनिःश्वस्य रुदन्तभिदमब्रुवन् // 2 श्वेतपर्वतरूपेभ्यो गृहेभ्यस्तास्त्वपाक्रमन् / पुत्रस्तव महाराज कृत्वा कर्म सुदुष्करम् / गुहाभ्य इव शैलानां पृषत्यो हतयूथपाः // 11 गतः सानुचरो राजशकलोकं महीपतिः // 3 तान्युदीर्णानि नारीणां तदा वृन्दान्यनेकशः / दुर्योधनबलान्मुक्ता वयमेव त्रयो रथाः / शोकान्यिद्रवनराजन्किशोरीणामिवाङ्गने // 12 सर्वमन्यत्परिक्षीणं सैन्यं ते भरतर्षभ // 4 प्रगृह्य बाहून्क्रोशन्त्यः पुत्रान्भ्रातृन्पितॄनपि / इत्येवमुक्स्वा राजानं कृपः शारद्वतस्तदा / दर्शयन्तीव ता ह स्म युगान्ते लोकसंक्षयम् // 13 गान्धारी पुत्रशोकार्तामिदं वचनमब्रवीत् // 5 विलपन्त्यो रुदन्त्यश्च धावमानास्ततस्ततः / अभीता युध्यमानास्ते घ्नन्तः शत्रुगणान्बहून् / शोकेनाभ्याहतज्ञानाः कर्तव्यं न प्रजज्ञिरे / / 14 वीरकर्माणि कुर्वाणाः पुत्रास्ते निधनं गताः // 6 व्रीडां जग्मुः पुरा याः स्म सखीनामपि योषितः / ध्रुवं संप्राप्य लोकांस्ते निर्मलाशस्त्रनिर्जितान् / ता एकवस्त्रा निर्लज्जाः श्वश्रूणां पुरतोऽभवन् // 15 भास्वरं देहमास्थाय विहरन्त्यमरा इव // 7 परस्परं सुसूक्ष्मेषु शोकेष्वाश्वासयन्स्म याः / न हि कश्चिद्धि शूराणां युध्यमानः पराङ्मुखः / ताः शोकविह्वला राजन्नुपक्षन्त परस्परम् // 16 शस्त्रेण निधनं प्राप्तो न च कश्चित्कृताञ्जलिः॥ 8 ताभिः परिवृतो राजा रुदतीभिः सहस्रशः / एतां तां क्षत्रियस्याहुः पुराणां परमां गतिम् / निर्ययौ नगरादीनस्तूर्णमायोधनं प्रति // 17 शस्त्रेण निधनं संख्ये तान्न शोचितुमर्हसि // 9 शिल्पिनो वणिजो वैश्याः सर्वकर्मोपजीविनः / न चापि शत्रवस्तेषामृध्यन्ते राज्ञि पाण्डवाः / ते पार्थिवं पुरस्कृत्य निर्ययुनगरादहिः // 18 शृणु यत्कृतमस्माभिरश्वत्थामपुरोगमैः // 10 तासां विक्रोशमानानामार्तानां कुरुसंक्षये। अधर्मेण हतं श्रुत्वा भीमसेनेन ते सुतम् / प्रादुरासीन्महाशब्दो व्यथयन्भुवनान्युत // 19 सुप्तं शिबिरमाविश्य पाण्डूनां कदनं कृतम् // 11 युगान्तकाले संप्राप्ते भूतानां दह्यतामिव / पाश्चाला निहताः सर्वे धृष्टद्युम्नपुरोगमाः / अभावः स्यादयं प्राप्त इति भूतानि मेनिरे // 20 द्रुपदस्यात्मजाश्चैव द्रौपदेयाश्च पातिताः // 12 भृशमुद्विग्नमनसस्ते पौराः कुरुसंक्षये / तथा विशसनं कृत्वा पुत्रशत्रुगणस्य ते / - 1968 - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 10. 18] स्त्रीपर्व [11. 11. 18 प्राद्रवाम रणे स्थातुं न हि शक्यामहे त्रयः // 13 / युयुधानेन च तथा तथैव च युयुत्सुना // 3 ते हि शूरा महेष्वासाः क्षिप्रमेष्यन्ति पाण्डवाः। तमन्वगात्सुदुःखार्ता द्रौपदी शोककर्शिता / अमर्षवशमापन्ना वैरं प्रतिजिहीर्षवः // 14 / सह पाश्चालयोषिद्भिर्यास्तत्रासन्समागताः॥ 4 निहतानात्मजाश्रुत्वा प्रमत्तान्पुरुषर्षभाः। स गङ्गामनु वृन्दानि स्त्रीणां भरतसत्तम / निनीषन्तः पदं शूराः क्षिप्रमेव यशस्विनि // 15 कुररीणामिवार्तानां क्रोशन्तीनां ददर्श ह // 5 पाण्डूनां किल्बिषं कृत्वा संस्थातुं नोत्सहामहे / / ताभिः परिवृतो राजा रुदतीभिः सहस्रशः / अनुजानीहि नो राज्ञि मा च शोके मनः कृथाः // ऊर्ध्वबाहुभिरार्ता भिर्बुवतीभिः प्रियाप्रिये // 6 राजंस्त्वमनुजानीहि धैर्यमातिष्ठ चोत्तमम् / / क नु धर्मज्ञता राज्ञः क नु साद्यानृशंसता / निष्टान्तं पश्य चापि त्वं क्षत्रधर्मं च केवलम् // 17 यदावधीपितॄन्ध्रातॄन्गुरून्पुत्रान्सखीनपि // 7 इत्येवमुक्त्वा राजानं कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम् / घातयित्वा कथं द्रोणं भीष्मं चापि पितामहम् / कृपश्च कृतवर्मा च द्रोणपुत्रश्च भारत // 18 मनस्तेऽभून्महाबाहो हत्वा चापि जयद्रथम् // 8 अवेक्षमाणा राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् / किं नु राज्येन ते कार्यं पितॄन्भ्रातृनपश्यतः / / गङ्गामनु महात्मानस्तूर्णमश्वानचोदयन् // 19 अभिमन्युं च दुर्धर्षं द्रौपदेयांश्च भारत // 9 अपक्रम्य तु ते राजन्सर्व एव महारथाः / अतीत्य ता महाबाहुः क्रोशन्तीः कुररीरिव / आमचयान्योन्यमुद्विग्नास्त्रिधा ते प्रययुस्ततः // 20 ववन्दे पितरं ज्येष्ठं धर्मराजो युधिष्ठिरः / / 10 जगाम हास्तिनपुरं कृपः शारद्वतस्तदा / ततोऽभिवाद्य पितरं धर्मेणामित्रकर्शनाः / स्वमेव राष्ट्र हार्दिक्यो द्रौणिासाश्रमं ययौ // 21 न्यवेदयन्त नामानि पाण्डवास्तेऽपि सर्वशः // 11 एवं ते प्रययुर्वीरा वीक्षमाणाः परस्परम् / तमात्मजान्तकरणं पिता पुत्रवधार्दितः / भयार्ताः पाण्डपत्राणामागस्क्रत्वा महात्मनाम // 22 अप्रीयमाणः शोकातः पाण्डवं परिषस्वजे // 12 समेत्य वीरा राजानं तदा त्वनुदिते रवौ / धर्मराजं परिष्वज्य सान्त्वयित्वा च भारत / विप्रजग्मुर्महाराज यथेच्छकमरिंदमाः / / 23 दुष्टात्मा भीममन्वेच्छद्दिधक्षुरिव पावकः // 13 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स कोपपावकस्तस्य शोकवायुसमीरितः / दशमोऽध्यायः // 10 // भीमसेनमयं दावं दिधक्षुरिव दृश्यते // 14 तस्य संकल्पमाज्ञाय भीमं प्रत्यशुभं हरिः / वैशंपायन उवाच / भीममाक्षिप्य पाणिभ्यां प्रददौ भीममायसम् // 15 हतेषु सर्वसैन्येषु धर्मराजो युधिष्ठिरः / प्रागेव तु महाबुद्धिर्बुद्ध्वा तस्येङ्गितं हरिः / शुश्रुवे पितरं वृद्धं निर्यातं गजसाह्वयात् // 1 संविधानं महाप्राज्ञस्तत्र चक्रे जनार्दनः // 16 सोऽभ्ययात्पुत्रशोकार्तः पुत्रशोकपरिप्लुतम् / तं तु गृह्मैव पाणिभ्यां भीमसेनमयस्मयम् / शोचमानो महाराज भ्रातृभिः सहितस्तदा // 2 बभञ्ज बलवानराजा मन्यमानो वृकोदरम् // 17 अन्वीयमानो वीरेण दाशार्हेण महात्मना / नागायुतबलप्राणः स राजा भीममायसम् / म.भा. 240 - 1969 - 11 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 11. 18] महाभारते [ 11. 12. 15 भक्त्वा विमथितोरस्कः सुस्राव रुधिरं मुखात्॥ कृतशौचं पुनश्चैनं प्रोवाच मधुसूदनः // 1 ततः पपात मेदिन्यां तथैव रुधिरोक्षितः / राजन्नधीता वेदास्ते शास्त्राणि विविधानि च / प्रपुष्पिताग्रशिखरः पारिजात इव द्रुमः // 19 / श्रुतानि च पुराणानि राजधर्माश्च केवलाः // 2 पर्यगृह्णत तं विद्वान्सूतो गावल्गणिस्तदा / एवं विद्वान्महाप्राज्ञ नाकार्षीर्वचनं तदा। मैवमित्यब्रवीच्चैनं शमयन्सान्त्वयन्निव // 20 पाण्डवानधिकाञ्जानन्बले शौर्ये च कौरव // 3 स तु कोपं समुत्सृज्य गतमन्युर्महामनाः / राजा हि यः स्थिरप्रज्ञः स्वयं दोषानवेक्षते / हा हा भीमेति चुक्रोश भूयः शोकसमन्वितः // 21 देशकालविभागं च परं श्रेयः स विन्दति // 4 तं विदित्वा गतक्रोधं भीमसेनवधार्दितम् / उच्यमानं च यः श्रेयो गृहीते नो हिताहिते। वासुदेवो वरः पुंसामिदं वचनमब्रवीत् // 22 आपदं समनुप्राप्य स शोचत्यनये स्थितः // 5 मा शुचो धृतराष्ट्र त्वं नैष भीमस्त्वया हतः / ततोऽन्यवृत्तमात्मानं समवेक्षस्व भारत / आयसी प्रतिमा ह्येषा त्वया राजन्निपातिता // 23 राजंस्त्वं ह्यविधेयात्मा दुर्योधनवशे स्थितः // 6 त्वां क्रोधवशमापन्नं विदित्वा भरतर्षभ / आत्मापराधादायस्तस्तत्कि भीमं जिघांससि / मयापकृष्टः कौन्तेयो मृत्योर्दष्ट्रान्तरं गतः // 24 तस्मात्संयच्छ कोपं त्वं स्वमनुस्मृत्य दुष्कृतम् // " न हि ते राजशार्दूल बले तुल्योऽस्ति कश्चन / यस्तु तां स्पर्धया क्षुद्रः पाञ्चालीमानयत्सभाम् / कः सहेत महाबाहो बाह्वोर्निग्रहणं नरः // 25 स हतो भीमसेनेन वैरं प्रतिचिकीर्षता // 8 यथान्तकमनुप्राप्य जीवन्कश्चिन्न मुच्यते / / आत्मनोऽतिक्रमं पश्य पुत्रस्य च दुरात्मनः / एवं बाह्वन्तरं प्राप्य तव जीवेन्न कश्चन // 26 यदनागसि पाडूनां परित्यागः परंतप // 9 तस्मात्पुत्रेण या सा ते प्रतिमा कारितायसी / एवमुक्तः स कृष्णेन सर्वं सत्यं जनाधिप / भीमस्य सेयं कौरव्य तवैवोपहृता मया // 27 उवाच देवकीपुत्रं धृतराष्ट्रो महीपतिः // 10 पुत्रशोकाभिसंतापाद्धर्मादपहृतं मनः / एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव / तव राजेन्द्र तेन त्वं भीमसेनं जिघांससि // 28 पुत्रस्नेहस्तु धर्मात्मन्धैर्यान्मां समचालयत् // 11 न च ते तत्क्षमं राजन्हन्यास्त्वं यद्वृकोदरम् / दिष्टया तु पुरुषव्याघ्रो बलवान्सत्यविक्रमः / न हि पुत्रा महाराज जीवेयुस्ते कथंचन // 29 त्वद्गुप्तो नागमत्कृष्ण भीमो बाह्वन्तरं मम // 12 तस्माद्यत्कृतमस्माभिर्मन्यमानैः क्षमं प्रति / इदानीं त्वहमेकायो गतमन्युर्गतज्वरः। अनुमन्यस्व तत्सर्वं मा च शोके मनः कृथाः // 30 मध्यमं पाण्डवं वीरं स्पष्टुमिच्छामि केशव // 13 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि हतेषु पार्थिवेन्द्रेषु पुत्रेषु निहतेषु च / एकादशोऽध्यायः // 11 // पाण्डुपुत्रेषु मे शर्म प्रीतिश्चाप्यवतिष्ठते // 14 ___ ततः स भीमं च धनंजयं च वैशंपायन उवाच / __माद्रथाश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ / तत एनमुपातिष्ठः शौचा) परिचारकाः / पस्पर्श गात्रैः प्ररुदत्सुगात्रा- 1970 - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 12. 15] स्त्रीपर्व [11. 14.6 नाश्वास्य कल्याणमुवाच चैनान् // 15 यथैव कुन्या कौन्तेया रक्षितव्यास्तथा मया / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि यथैव धृतराष्ट्रेण रक्षितव्यास्तथा मया // 13 द्वादशोऽध्यायः // 12 // दुर्योधनापराधेन शकुनेः सौबलस्य च / कर्णदुःशासनाभ्यां च वृत्तोऽयं कुरुसंक्षयः // 14 वैशंपायन उवाच / नापराध्यति बीभत्सुन च पार्थो वृकोदरः / धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातास्ततस्ते कुरुपुंगवाः / नकुलः सहदेवो वा नैव जातु युधिष्ठिरः // 15 अभ्ययुर्धातरः सर्वे गान्धारी सहकेशवाः // 1 युध्यमाना हि कौरव्याः कृन्तमानाः परस्परम् / ततो ज्ञात्वा हतामित्रं धर्मराज युधिष्ठिरम् / निहताः सहिताश्चान्यैस्तत्र नास्यप्रियं मम // 16 गान्धारी पुत्रशोकार्ता शप्तुमैच्छदनिन्दिता // 2 यत्तु कर्माकरोद्भीमो वासुदेवस्य पश्यतः। तस्याः पापमभिप्रायं विदित्या पाण्डवान्प्रति / दुर्योधनं समाहूय गदायुद्ध महामनाः // 17 ऋषिः सत्यवतीपुत्रः प्रागेव समबुध्यत / / 3 शिक्षयाभ्यधिकं ज्ञात्वा चरन्तं बहुधा रणे। स गङ्गायामुपस्पृश्य पुण्यगन्धं पयः शुचि / अधो नाभ्यां प्रहृतवांस्तन्मे कोपमवर्धयत् // 18 तं देशमुपसंपेदे परमपिर्मनोजवः // 4 कथं नु धर्म धर्मज्ञैः समुद्दिष्टं महात्मभिः / दिव्येन चक्षुषा पश्यन्मनसानुद्धतेन च / त्यजेयुराहवे शूराः प्राणहेतोः कथंचन // 19 सर्वप्राणभृतां भावं स तत्र समबुध्यत / / 5 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि स स्नुषामब्रवीत्काले कल्यवादी महातपाः / त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // शापकालमवाक्षिप्य शमकालमुदीरयन् / / 6 न कोपः पाण्डवे कार्यो गान्धारि शममाप्नुहि / वैशंपायन उवाच। जो निगृह्यतामेतच्छृणु चेदं वचो मम / / 7 तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भीमसेनोऽथ भीतवत् / उक्तास्यष्टादशाहानि पुत्रेण जयमिच्छता / गान्धारी प्रत्युवाचेदं वचः सानुनयं तदा // 1 शिवमाशास्स्व मे मातयुध्यमानस्य शत्रुभिः // 8 अधर्मो यदि वा धर्मस्त्रासात्तत्र मया कृतः / सा तथा याच्यमाना त्वं काले काले जयैषिणा / आत्मानं त्रातुकामेन तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि // 2 उक्तवत्यसि गान्धारि यतो धर्मस्ततो जयः // 9 न हि युद्धेन पुत्रस्ते धर्मेण स महाबलः / न चाप्यतीतां गान्धारि वाचं ते वितथामहम् / शक्यः केनचिदुद्यन्तुमतो विषममाचरम् // 3 स्मरामि भाषमाणायास्तथा प्रणिहिता ह्यसि // 10 सैन्यस्यैकोऽवशिष्टोऽयं गदायुद्धे च वीर्यवान् / सा त्वं धर्म परिस्मृत्य वाचा चोक्त्वा मनस्विनि। मां हत्वा न हरेद्राज्यमिति चैतत्कृतं मया // 4 कोपं संयच्छ गान्धारि मैवं भूः सत्यवादिनि // 11 राजपुत्री च पाञ्चालीमेकवस्त्रां रजस्वलाम् / गान्धार्युवाच / भवत्या विदितं सर्वमुक्तवान्यत्सुतस्तव / / 5 भगवन्नाभ्यसूयामि नैतानिच्छामि नश्यतः।। सुयोधनमसंगृह्य न शक्या भूः ससागरा / पुत्रशोकेन तु बलान्मनो विह्वलतीव मे // 12 / केवला भोक्तुमस्माभिरतश्चैतत्कृतं मया // 6 - 1971 - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 14. 7] महाभारते [11. 15. 10 तञ्चाप्यप्रियमस्माकं पुत्रस्ते समुपाचरत् / कस्मान्न शेषयः कंचिद्येनाल्पमपराधितम् // 20 द्रौपद्या यत्सभामध्ये सव्यमूरुमदर्शयत् // 7 संतानमावयोस्तात वृद्धयोहतराज्ययोः / तत्रैव वध्यः सोऽस्माकं दुराचारोऽम्ब ते सुतः / कथमन्धद्वयस्यास्य यष्टिरेका न वर्जिता // 21 धर्मराजाज्ञया चैव स्थिताः स्म समये तदा // 8 शेषे ह्यवस्थिते तात पुत्राणामन्तके त्वयि / वैरमुद्भुक्षितं राज्ञि पुत्रेण तव तन्महत् / न मे दुःखं भवेदेतद्यदि त्वं धर्ममाचरः // 22 क्लेशिताश्च वने नित्यं तत एतत्कृतं मया // 9 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि वैरस्यास्य गतः पारं हत्वा दुर्योधनं रणे। __चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // राज्यं युधिष्ठिरः प्राप्तो वयं च गतमन्यवः // 10 गान्धार्युवाच / वैशंपायन उवाच। न तस्यैष वधस्तात यत्प्रशंससि मे सुतम् / एवमुक्त्वा तु गान्धारी युधिष्ठिरमपृच्छत / कृतवांश्चापि तत्सर्वं यदिदं भाषसे मयि // 11 क स राजेति सक्रोधा पुत्रपौत्रवधार्दिता // 1 हताश्वे नकुले यत्तद्वृषसेनेन भारत / तामभ्यगच्छद्राजेन्द्रो वेपमानः कृताञ्जलिः / अपिबः शोणितं संख्ये दुःशासनशरीरजम् // 12 युधिष्ठिर इदं चैनां मधुरं वाक्यमब्रवीत् // 2 सद्भिर्विगर्हितं घोरमनार्यजनसेवितम् / पुत्रहन्ता नृशंसोऽहं तव देवि युधिष्ठिरः / क्रूरं कर्माकरोः कस्मात्तदयुक्तं वृकोदर // 13 / शापार्हः पृथिवीनाशे हेतुभूतः शपस्व माम् // 3 भीमसेन उवाच। न हि मे जीवितेनार्थो न राज्येन धनेन वा। अन्यस्यापि न पातव्यं रुधिरं किं पुनः स्वकम् / तादृशान्सुहृदो हत्वा मूढस्यास्य सुहब्रुहः॥ 4 यथैवात्मा तथा भ्राता विशेषो नास्ति कश्चन॥१४ तमेवंवादिनं भीतं संनिकर्षगतं तदा / रुधिरं न व्यतिक्रामद्दन्तोष्ठं मेऽम्ब मा शुचः।। नोवाच किंचिद्गान्धारी नि:श्वासपरमा भृशम् // 5 वैवस्वतस्तु तद्वेद हस्तौ मे रुधिरोक्षितौ // 15 / तस्यावनतदेहस्य पादयोर्निपतिष्यतः / हताश्वं नकुलं दृष्ट्वा वृषसेनेन संयुगे।। युधिष्ठिरस्य नृपतेधर्मज्ञा धर्मदर्शिनी / भ्रातृणां संप्रहृष्टानां त्रासः संजनितो मया // 16 अङ्गुल्यप्राणि ददृशे देवी पट्टान्तरेण सा // 6 केशपक्षपरामर्श द्रौपद्या द्यूतकारिते / ततः स कुनखीभूतो दर्शनीयनखो नृपः / क्रोधाद्यब्रुवं चाहं तच्च मे हृदि वर्तते // 17 तं दृष्ट्वा चार्जुनोऽगच्छद्वासुदेवस्य पृष्ठतः // 7 क्षत्रधर्माच्युतो राज्ञि भवेयं शाश्वतीः समाः / एवं संचेष्टमानांस्तानितश्चेतश्च भारत / प्रतिज्ञां तामनिस्तीर्य ततस्तत्कृतवानहम् // 18 गान्धारी विगतक्रोधा सान्त्वयामास मातृवत् // 8 न मामर्हसि गान्धारि दोषेण परिशङ्कितुम् / तया ते समनुज्ञाता मातरं वीरमातरम् / अनिगृह्य पुरा पुत्रानस्मास्वनपकारिषु // 19 अभ्यगच्छन्त सहिताः पृथां पृथुलवक्षसः॥९ गान्धार्युवाच / चिरस्य दृष्ट्वा पुत्रान्सा पुत्राधिभिरभिप्लुता / वृद्धस्यास्य शतं पुत्रान्निध्नंस्त्वमपराजितः / बाष्पमाहारयदेवी वस्त्रेणावृत्य वै मुखम् // 10 - 1972 - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 15. 11] स्त्रीपर्व [11. 16. 16 ततो बाष्पं समुत्सृज्य सह पुत्रैस्तथा पृथा / पतिव्रता महाभागा समानव्रतचारिणी / अपश्यदेताशस्त्रौधैर्बहुधा परिविक्षतान् // 11 उप्रेण तपसा युक्ता सततं सत्यवादिनी // 2 सा तानेकैकशः पुत्रान्संस्पृशन्ती पुनः पुनः। वरदानेन कृष्णस्य महर्षेः पुण्यकर्मणः / अन्वशोचत दुःखार्ता द्रौपदी च हतात्मजाम् / दिव्यज्ञानबलोपेता विविधं पर्यदेवयत् // 3 रुदतीमथ पाञ्चालीं ददर्श पतितां भुवि // 12 ददर्श सा बुद्धिमती दूरादपि यथान्तिके / द्रौपद्युवाच / रणाजिरं नृवीराणामद्भुतं लोमहर्षणम् // 4 आर्ये पौत्राः क ते सर्वे सौभद्रसहिता गताः। अस्थिकेशपरिस्तीणं शोणितौघपरिप्लुतम् / न त्वां तेऽद्याभिगच्छन्ति चिरदृष्टां तपस्विनीम् / शरीरैर्बहुसाहविनिकीर्णं समन्ततः // 5 किं नु राज्येन वै कार्य विहीनायाः सुतैर्मम // 13 गजाश्वरथयोधानामावृतं रुधिरा विलैः / वैशंपायन उवाच / शरीरैशिरस्कैश्च विदेहैश्च शिरोगणैः // 6 तां समाश्वासयामास पृथा पृथुललोचना / गजाश्वनरवीराणां निःसत्त्वैरभिसंवृतम् / उत्थाप्य याज्ञसेनी तु रुदतीं शोककर्शिताम् // 14 सृगालबडकाकोलकङ्ककाकनिषेवितम् // 7 तयैव सहिता चापि पुत्रैरनुगता पृथा / रक्षसां पुरुषादानां मोदनं कुरराकुलम् / अभ्यगच्छत गान्धारीमार्तामार्ततरा स्वयम् // 15 अशिवाभिः शिवाभिश्च नादितं गृध्रसेवितम् // 8 तामुवाचाथ गान्धारी सह वध्वा यशस्विनीम् / ततो व्यासाभ्यनुज्ञातो धृतराष्ट्रो महीपतिः / मैवं पुत्रीति शोकार्ता पश्य मामपि दुःखिताम् // पाण्डुपुत्राश्च ते सर्वे युधिष्ठिरपुरोगमाः // 9 मन्ये लोकविनाशोऽयं कालपर्यायचोदितः / वासुदेवं पुरस्कृत्य हतबन्धुं च पार्थिवम् / अवश्यभावी संप्राप्तः स्वभावाल्लोमहर्षणः // 17 कुरुस्त्रियः समासाद्य जग्मुरायोधनं प्रति // 10 इदं तत्समनुप्राप्तं विदुरस्य वचो महत् / समासाद्य कुरुक्षेत्रं ताः स्त्रियो निहतेश्वराः / असिद्धानुनये कृष्णे यदुवाच महामतिः // 18 अपश्यन्त हतांस्तत्र पुत्रान्भ्रातृन्पितॄन्पतीन् // 11 तस्मिन्नपरिहार्येऽर्थे व्यतीते च विशेषतः / क्रव्यादैर्भक्ष्यमाणान्वै गोमायुबडवायसैः / मा शुचो न हि शोच्यास्ते संग्रामे निधनं गताः॥१९ भूतैः पिशाचै रक्षोभिर्विविधेश्च निशाचरैः // 12 यथैव त्वं तथैवाहं को वा माश्वासयिष्यति / रुद्राक्रीडनिभं दृष्ट्वा तदा विशसनं स्त्रियः / ममैव ह्यपराधेन कुलमग्र्यं विनाशितम् // 20 महार्हे भ्योऽथ यानेभ्यो विक्रोशन्त्यो निपेतिरे // 13 इति श्रीमहाभारते स्रीपर्वणि अदृष्टपूर्वं पश्यन्त्यो दुःखार्ता भरतस्त्रियः / पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // शरीरेष्वस्खलन्नन्या न्यपतंश्चापरा भुवि // 14 श्रान्तानां चाप्यनाथानां नासीत्काचन चेतना / वैशंपायन उवाच। पाश्चालकुरुयोषाणां कृपणं तदभून्महत् // 15 एवमुक्त्वा तु गान्धारी कुरूणामाविकर्तनम् / / दुःखोपहतचित्ताभिः समन्तादनुनादितम् / अपश्यत्तत्र तिष्ठन्ती सर्वं दिव्येन चक्षुषा // 1 / दृष्वायोधनमत्युग्रं धर्मज्ञा सुबलात्मजा // 16 - 1973 - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 16. 17 ] महाभारते [11. 16. 46 ततः सा पुण्डरीकाक्षमामत्र्य पुरुषोत्तमम् / बन्दिभिः सततं काले स्तुवद्भिरभिनन्दिताः / कुरूणां वैशसं दृष्ट्वा दुःखाद्वचनमब्रवीत् // 17 शिवानामशिवा घोराः शृण्वन्ति विविधा गिरः॥३२ पश्यैताः पुण्डरीकाक्ष स्नुषा मे निहतेश्वराः / ये पुरा शेरते वीराः शयनेषु यशखिनः / प्रकीर्णकेशाः क्रोशन्तीः कुररीरिव माधव // 18 चन्दनागुरुदिग्धाङ्गास्तेऽद्य पांसुषु शेरते // 33 अमूस्त्वभिसमागम्य स्मरन्त्यो भरतर्षभान् / तेषामाभरणान्येते गृध्रगोमायुवायसाः / पृथगेवाभ्यधावन्त पुत्रान्भ्रातृन्पितॄन्पतीन् // 19 आक्षिपन्त्यशिवा घोरा विनदन्तः पुनः पुनः // 34 वीरसूभिर्महाबाहो हतपुत्राभिरावृतम् / चापानि विशिखान्पीतान्निस्त्रिंशान्विमला गदाः। क्वचिच्च वीरपत्नीभिर्हतवीराभिराकुलम् / / 20 युद्धाभिमानिनः प्रीता जीवन्त इव बिभ्रति / / 35 शोभितं पुरुषव्याङ्ग्रीष्मकर्णाभिमन्युभिः / सुरूपवर्णा बहवः क्रव्यादैरवघट्टिताः। द्रोणद्रुपदशल्यैश्च ज्वलद्भिरिव पावकैः // 21 ऋषभप्रतिरूपाक्षाः शेरते हरितस्रजः // 36 काश्चनैः कवचैर्निष्कर्मणिभिश्च महात्मनाम् / अपरे पुनरालिङ्गय गदाः परिघबाहवः / अङ्गदैर्हस्तकेयूरैः स्रग्भिश्च समलंकृतम् // 22 शेरतेऽभिमुखाः शूरा दयिता इव योषितः // 37 वीरबाहुविसृष्टाभिः शक्तिभिः परिधैरपि / बिभ्रतः कवचान्यन्ये विमलान्यायुधानि च। खङ्गैश्च विमलैस्तीक्ष्णैः सशरैश्च शरासनैः // 23 न धर्षयन्ति ऋयादा जीवन्तीति जनार्दन // 38 क्रव्यादसंधैर्मुदितै स्तिष्ठद्भिः सहितैः क्वचित् / क्रव्यादैः कृष्यमाणानामपरेषां महात्मनाम् / कचिदाक्रीडमानैश्च शयानैरपरैः क्वचित् // 24 / शातकौम्भ्यः स्रजश्चित्रा विप्रकीर्णाः समन्ततः॥३९ एतदेवंविधं वीर संपश्यायोधनं विभो। एते गोमायवो भीमा निहतानां यशस्विनाम् / पश्यमाना च दह्यामि शोकेनाहं जनार्दन // 25 कण्ठान्तरगतान्हारानाक्षिपन्ति सहस्रशः // 40 पाञ्चालानां कुरूणां च विनाशं मधुसूदन / सर्वेष्वपररात्रेषु याननन्दन्त बन्दिनः / पश्चानामिव भूतानां नाहं वधमचिन्तयम् // 26 स्तुतिभिश्च परार्ध्याभिरुपचारैश्च शिक्षिताः // 41 तान्सुपर्णाश्च गृध्राश्च निष्कर्षन्त्यसृगुक्षितान् / तानिमाः परिदेवन्ति दुःखार्ताः परमाङ्गनाः / निगृह्य कवचेषूत्रा भक्षयन्ति सहस्रशः / / 27 कृपणं वृष्णिश दूंछ दुःखशोकार्दिता भृशम् // 42 जयद्रथस्य कर्णस्य तथैव द्रोणभीष्मयोः / रक्तोत्पलवनानीव विभान्ति रुचिराणि वै / अभिमन्योर्विनाशं च कश्चिन्तयितुमर्हति // 28 मुखानि परमस्त्रीणां परिशुष्काणि केशव // 43 अवध्यकल्पान्निहतान्दृष्ट्वाहं मधुसूदन / रुदितोपरता ह्येता ध्यायन्त्यः संपरिप्लुताः / गृध्रकङ्कवडश्येनश्वसृगालादनीकृतान् // 29 कुरुस्त्रियोऽभिगच्छन्ति तेन तेनैव दुःखिताः॥४४ अमर्षवशमापन्नान्दुर्योधनवशे स्थितान् / एतान्यादित्यवर्णानि तपनीयनिभानि च / पश्येमान्पुरुषव्याघ्रान्संशान्तान्पावकानिव // 30 रोषरोदनताम्राणि वक्त्राणि कुरुयोषिताम् / / 45 शयनान्युचिताः सर्वे मृदूनि विमलानि च / आसामपरिपूर्णार्थं निशम्य परिदेवितम् / विपन्नास्तेऽद्य वसुधां विवृतामधिशेरते // 31 / इतरेतरसंक्रन्दान्न विजानन्ति.योषितः // 46 - 1974 - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 16. 47] स्त्रीपर्व [11. 17. 13 एता दीर्घमिवोछस्य विक्रुश्य च विलप्य च / विस्पन्दमाना दुःखेन वीरा जहति जीवितम् // 47 वैशंपायन उवाच बयो दृष्ट्वा शरीराणि क्रोशन्ति विलपन्ति च / ततो दुर्योधनं दृष्ट्वा गान्धारी शोककर्शिता / पाणिभिश्चापरा नन्ति शिरांसि मृदुपाणयः // 48 / सहसा न्यपतद्भूमौ छिन्नेव कदली वने // 1 शिरोभिः पतितैर्ह स्तैः सर्वाङ्गैयूथशः कृतैः / / सा तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां विक्रुश्य च पुनः पुनः / इतरेतरसंपृक्तैराकीर्णा भाति मेदिनी // 49 / दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य शयानं रुधिरोक्षितम् // 2 विशिरस्कानथो कायान्दृष्ट्वा घोराभिनन्दिनः / परिष्वज्य च गान्धारी कृपणं पर्यदेवयत् / मुह्यन्त्यनुचिता नार्यो विदेहानि शिरांसि च // 50 हा हा पुत्रेति शोकार्ता विललापाकुलेन्द्रिया // 3 शिरः कायेन संधाय प्रेक्षमाणा विचेतसः। सुगूढजत्रु विपुलं हारनिष्कनिषेवितम् / अपश्यन्त्यो परं तत्र नेदमस्येति दुःखिताः / / 51 वारिणा नेत्रजेनोरः सिञ्चन्ती शोकतापिता / बाहूरुचरणानन्यान्विशिखोन्मथितान्पृथक् / समीपस्थं हृषीकेशमिदं वचनमब्रवीत् // 4 संदधत्योऽसुखाविष्टा मूर्छन्त्येताः पुनः पुनः॥ 52 उपस्थितेऽस्मिन्संग्रामे ज्ञातीनां संक्षये विभो / उत्कृत्तशिरसश्चान्यान्विजग्धान्मृगपक्षिभिः / / मामयं प्राह वार्ष्णेय प्राञ्जलिर्नृपसत्तमः / दृष्ट्वा काश्चिन्न जानन्ति भर्तृन्भरतयोषितः / / 53 अस्मिज्ञातिसमुद्धर्षे जयमम्बा ब्रवीतु मे / / 5 पाणिभिश्चापरा नन्ति शिरांसि मधुसूदन / इत्युक्ते जानती सर्वमहं स्वं व्यसनागमम् / प्रेक्ष्य भ्रातृन्पितॄन्पुत्रान्पतींश्च निहतान्परैः / / 54 अब्रुवं पुरुषव्याघ्र यतो धर्मस्ततो जयः॥ 6 पाहुभिश्च सखङ्गैश्च शिरोभिश्च सकुण्डलैः / / यथा न युध्यमानस्त्वं संप्रमुह्यसि पुत्रक / अगम्यकल्पा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा // 55 ध्रुवं शास्रजिताल्लोकान्प्राप्तास्यमरवद्विभो // 7 न दुःखेषूचिताः पूर्व दुःखं गाहन्त्यनिन्दिताः। इत्येवमब्रुवं पूर्व नैनं शोचामि वै प्रभो। भ्रातृभिः पितृभिः पुत्रैरुपकीर्णां वसुंधराम् // 56 धृतराष्ट्रं तु शोचामि कृपणं हतबान्धवम् // 8 यूथानीव किशोरीणां सुकेशीनां जनार्दन / अमर्षणं युधां श्रेष्ठं कृतास्त्रं युद्धदुर्मदम् / नुषाणां धृतराष्ट्रस्य पश्य वृन्दान्यनेकशः // 57 शयानं वीरशयने पश्य माधव मे सुतम् / / 9 अतो दुःखतरं किं नु केशव प्रतिभाति मे। योऽयं मूर्धावसिक्तानामग्रे याति परंतपः / पदिमाः कुर्वते सर्वा रूपमुच्चावचं स्त्रियः // 58 सोऽयं पांसुषु शेतेऽद्य पश्य कालस्य पर्ययम्॥१० नूनमाचरितं पापं मया पूर्वेषु जन्मसु / ध्रुवं दुर्योधनो वीरो गतिं नसुलभां गतः / पा पश्यामि हतान्पुत्रान्पौत्रान्भ्रातूंश्च केशव / तथा ह्यभिमुखः शेते शयने वीरसेविते // 11 एवमार्ता विलपती ददर्श निहतं सुतम् // 59 यं पुरा पर्युपासीना रमयन्ति महीक्षितः / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि महीतलस्थं निहतं गृध्रास्तं पर्युपासते // 12 यं पुरा व्यजनैरग्र्यैरुपवीजन्ति योषितः। तमद्य पक्षव्यजनैरुपवीजन्ति पक्षिणः // 13 - 1975 - षोडशोऽध्यायः // 16 // Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 17. 14 ] महाभारते [11. 18. 11 एष शेते महाबाहुर्बलवान्सत्यविक्रमः / पुण्डरीकनिभा भाति पुण्डरीकान्तरप्रभा। सिंहेनेव द्विपः संख्ये भीमसेनेन पातितः // 14 मुखं विमृज्य पुत्रस्य भर्तुश्चैव तपस्विनी // 29 पश्य दुर्योधनं कृष्ण शयानं रुधिरोक्षितम् / यदि चाप्यागमाः सन्ति यदि वा श्रुतयस्तथा / निहतं भीमसेनेन गदामुद्यम्य भारत // 15 ध्रुवं लोकानवाप्तोऽयं नृपो बाहुबलार्जितान् // 30 अक्षौहिणीमहाबाहुर्दश चैकां च केशव / इति महाभारते स्त्रीपर्वणि अनयद्यः पुरा संख्ये सोऽनयान्निधनं गतः // 16 सप्तदशोऽध्यायः // 17 // एष दुर्योधनः शेते महेष्वासो महारथः / शार्दूल इव सिंहेन भीमसेनेन पातितः // 17 गान्धायुवाच / विदुरं ह्यवमन्यैष पितरं चैव मन्दभाक् / पश्य माधव पुत्रान्मे शतसंख्याञ्जितलमान् / बालो वृद्धावमानेन मन्दो मृत्युवशं गतः // 18 / गदया भीमसेनेन भूयिष्ठं निहतारिणे // 1 निःसपत्ना मही यस्य त्रयोदश समाः स्थिता। इदं दुःखतरं मेऽद्य यदिमा मुक्तमूर्धजाः / स शेते निहतो भूमौ पुत्रो मे पृथिवीपतिः // 19 हतपुत्रा रणे बालाः परिधावन्ति मे स्नुषाः // 2 अपश्यं कृष्ण पृथिवीं धार्तराष्ट्रानुशासनात् / प्रासादतलचारिण्यश्चरणैर्भूषणान्वितैः / पूर्णां हस्तिगवाश्वस्य वार्ष्णेय न तु तच्चिरम् // 20 आपन्ना यत्स्पृशन्तीमा रुधिराद्री वसुंधराम् // 3 तामेवाद्य महाबाहो पश्याम्यन्यानुशासनात् / गृध्रानुत्सारयन्त्यश्च गोमायून्वायसांस्तथा / हीनां हस्तिगवाश्वेन किं नु जीवामि माधव // 21 शोकेनार्ता विघूर्णन्त्यो मत्ता इव चरन्त्युत // 4 इदं कृच्छ्रतरं पश्य पुत्रस्यापि वधान्मम / एषान्या त्वनवद्याङ्गी करसंमितमध्यमा / यदिमां पर्युपासन्ते हताशूरारणे स्त्रियः // 22 घोरं तद्वैशसं दृष्ट्वा निपतत्यतिदुःखिता // 5 . प्रकीर्णकेशां सुश्रोणी दुर्योधनभुजाङ्कगाम् / दृष्ट्वा मे पार्थिवसुतामेता लक्ष्मणमातरम् / रुक्मवेदीनिभां पश्य कृष्ण लक्ष्मणमातरम् / / 23 राजपुत्रीं महाबाहो मनो न व्युपशाम्यति // 6 नूनमेषा पुरा बाला जीवमाने महाभुजे। भ्रातृ॑श्चान्याः पतींश्चान्याः पुत्रांश्च निहतान्भुवि / भुजावाश्रित्य रमते सुभुजस्य मनस्विनी / / 24 दृष्ट्वा परिपतन्त्येताः प्रगृह्य सुभुजा भुजान् // 7 कथं तु शतधा नेदं हृदयं मम दीर्यते / मध्यमानां तु नारीणां वृद्धानां चापराजित / पश्यन्त्या निहतं पुत्रं पुत्रेण सहितं रणे / / 25 आक्रन्दं हतबन्धूनां दारुणे वैशसे शृणु // 8 पुत्रं रुधिरसंसिक्तमुपजिघ्रत्यनिन्दिता / रथनीडानि देहांश्च हतानां गजवाजिनाम् / दुर्योधनं तु वामोरूः पाणिना परिमार्जति // 26 आश्रिताः श्रममोहार्ताः स्थिताः पश्य महाबल // 9 किं नु शोचति भर्तारं पुत्रं चैषा मनस्विनी।। अन्या चापहृतं कायाच्चारकुण्डलमुन्नसम् / तथा ह्यवस्थिता भाति पुत्रं चाप्यभिवीक्ष्य सा॥२७ स्वस्य बन्धोः शिरः कृष्ण गृहीत्वा पश्य तिष्ठति // 10 स्वशिरः पञ्चशाखाभ्यामभिहत्यायतेक्षणा / / पूर्वजातिकृतं पापं मन्ये नाल्पमिवानघ / पतत्युरसि वीरस्य कुरुराजस्य माधव / / 28 एताभिरवनद्याभिर्मया चैवाल्पमेधया // 11 - 1976 - Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 18. 12] स्त्रीपर्व [11. 19. 11 तदिदं धर्मराजेन यातितं नो जनार्दन / एष दुःशासनः शेते विक्षिप्य विपुलौ भुजौ। न हि नाशोऽस्ति वार्ष्णेय कर्मणोः शुभपापयोः॥१२ निहतो भीमसेनेन सिंहेनेव महर्षभः // 27 प्रत्यप्रवयसः पश्य दर्शनीयकुचोदराः / अत्यर्थमकरोद्रौद्र भीमसेनोऽत्यमर्षणः / कुलेषु जाता ह्रीमत्यः कृष्णपक्ष्माक्षिमूर्धजाः // 13 दुःशासनस्य यत्क्रुद्धोऽपिबच्छोणितमाहवे // 28 इंसगद्गदभाषिण्यो दुःखशोकप्रमोहिताः / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि सारस्य इव वाशन्त्यः पतिताः पश्य माधव // 14 अष्टादशोऽध्यायः॥ 18 // फुल्लपद्मप्रकाशानि पुण्डरीकाक्ष योषिताम् / अनवद्यानि वक्त्राणि तपत्यसुखरश्मिवान् // 15 ईर्पूणां मम पुत्राणां वासुदेवावरोधनम् / गान्धार्युवाच / मत्तमातङ्गदर्पाणां पश्यन्त्यद्य पृथग्जनाः // 16 एष माधव पुत्रो मे विकर्णः प्राज्ञसंमतः / शतचन्द्राणि चर्माणि ध्वजांश्चादित्यसंनिभान् / भूमौ विनिहतः शेते भीमेन शतधा कृतः // 1 रोक्माणि चैव वर्माणि निष्कानपि च काश्चनान्॥ गजमध्यगतः शेते विकर्णो मधुसूदन / शीर्षत्राणानि चैतानि पुत्राणां मे महीतले / नीलमेघपरिक्षिप्तः शरदीव दिवाकरः // 2 पश्य दीप्तानि गोविन्द पावकान्सुहुतानिव / / 18 अस्य चापग्रहेणैष पाणिः कृतकिणो महान् / एष दुःशासनः शेते शूरेणामित्रघातिना। कथंचिच्छिद्यते गृधैरत्तुकामैस्तलत्रवान् // 3 पीलशोणितसर्वाङ्गो भीमसेनेन पातितः // 19 अस्य भार्यामिषप्रेप्सून्गृध्रानेतांस्तपस्विनी / गदया वीरघातिन्या पश्य माधव मे सुतम् / वारयत्यनिशं बाला न च शक्नोति माधव // 4 घुतक्लेशाननुस्मृत्य द्रौपद्या चोदितेन च // 20 युवा वृन्दारकः शूरो विकर्णः पुरुषर्षभ / उक्ता ह्यनेन पाञ्चाली सभायां द्यूतनिर्जिता। सुखोचितः सुखार्हश्च शेते पांसुषु माधव // 5 प्रेयं चिकीर्षता भ्रातुः कर्णस्य च जनार्दन // 21 कर्णिनालीकनाराचैभिन्नमर्माणमाहवे / हैव सहदेवेन नकुलेनार्जुनेन च / अद्यापि न जहात्येनं लक्ष्मीर्भरतसत्तमम् // 6 सभार्यासि पाश्चालि क्षिप्रं प्रविश नो गृहान् // 22 एष संग्रामशूरेण प्रतिज्ञा पालयिष्यता / तोऽहमब्रुवं कृष्ण तदा दुर्योधनं नृपम् / दुर्मुखोऽभिमुखः शेते हतोऽरिगणहा रणे // 7 मृत्युपाशपरिक्षिप्तं शकुनि पुत्र वर्जय // 23 तस्यैतद्वदनं कृष्ण श्वापदैरर्धभक्षितम् / नेबोधैनं सुदुर्बुद्धिं मातुलं कलहप्रियम् / विभात्यभ्यधिकं तात सप्तम्यामिव चन्द्रमाः॥ 8 क्षेप्रमेनं परित्यज्य पुत्र शाम्यस्व पाण्डवैः / / 24 शूरस्य हि रणे कृष्ण यस्याननमथेदृशम् / / बुध्यसे त्वं दुर्बुद्धे भीमसेनममर्षणम् / स कथं निहतोऽमित्रैः पांसून्प्रसति मे सुतः॥९ आकाराचैस्तुदंस्तीक्ष्णैरुल्काभिरिव कुञ्जरम् // 25 / यस्याहवमुखे सौम्य स्थाता नैवोपपद्यते / नेष रभसः क्रूरो वाक्शल्यानवधारयन् / स कथं दुर्मुखोऽमित्रैर्हतो विबुधलोकजित् // 10 त्ससर्ज विषं तेषु सर्पो गोवृषभेष्विव // 26 चित्रसेनं हतं भूमौ शयानं मधुसूदन / 1. भा. 248 - 1977 - Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 19. 11] महाभारते [11. 20. 17 धार्तराष्ट्रमिमं पश्य प्रतिमानं धनुष्मताम् // 11 तस्योपलक्षये कृष्ण कागैरमिततेजसः।। तं चित्रमाल्याभरणं युवत्यः शोककर्शिताः / अभिमन्योहतस्यापि प्रभा नैवोपशाम्यति // 3 क्रव्यादसंघैः सहिता रुदन्त्यः पर्युपासते // 12 एषा विराटदुहिता स्नुषा गाण्डीवधन्वनः / स्त्रीणां रुदितनिर्घोषः श्वापदानां च गर्जितम् / आर्ता बाला पतिं वीरं शोच्या शोचत्यनिन्दिता // चित्ररूपमिदं कृष्ण विचित्रं प्रतिभाति मे // 13 तमेषा हि समासाय भार्या भर्तारमन्तिके / युवा वृन्दारको नित्यं प्रवरखीनिषेवितः / विराटदुहिता कृष्ण पाणिना परिमार्जति // 5 विविंशतिरसौ शेते ध्वस्तः पांसुषु माधव / / 14 तस्य वक्त्रमुपान्नाय सौभद्रस्य यशस्विनी। शरसंकृत्तवर्माणं वीरं विशसने हतम् / विबुद्धकमलाकारं कम्बुवृत्तशिरोधरम् // 6 परिवार्यासते गृध्राः परिविंशा विविंशतिम् // 15 काम्यरूपवती चैषा परिष्वजति भामिनी / प्रविश्य समरे वीरः पाण्डवानामनीकिनीम्।। लजमाना पुरेवैनं माध्वीकमदमूर्छिता / / 7 आविश्य शयने शेते पुनः सत्पुरुषोचितम् // 16 तस्य क्षतजसंदिग्धं जातरूपपरिष्कृतम् / स्मितोपपन्नं सुनसं सुभ्र ताराधिपोपमम् / विमुच्य कवचं कृष्ण शरीरमभिवीक्षते // 8 अतीव शुभ्रं वदनं पश्य कृष्ण विविंशतेः // 17 अवेक्षमाणा तं बाला कृष्ण त्वाममिभाषते / यं स्म तं पर्युपासन्ते वसुं वासवयोषितः / अयं ते पुण्डरीकाक्ष सदृशाक्षो निपातितः // 9 क्रीडन्तमिव गन्धर्व देवकन्याः सहस्रशः // 18 बले वीर्ये च सदृशस्तेजसा चैव तेऽनघ / हन्तारं वीरसेनानां शूरं समितिशोभनम् / रूपेण च तवात्यर्थं शेते भुवि निपातितः // 10 निबर्हणममित्राणां दुःसहं विषहेत कः // 19 अत्यन्तसुकुमारस्य राङ्कवाजिनशायिनः / दुःसहस्यैतदाभाति शरीरं संवृतं शरैः / कञ्चिदय शरीरं ते भूमौ न परितप्यते // 11 // गिरिरात्मरुहैः फुल्लैः कर्णिकारैरिवावृतः // 20 मातङ्गभुजवाणौ ज्याक्षेपकठिनत्वचौ / शातकौम्भ्या स्रजा भाति कवचेन च भास्वता / काश्चनाङ्गदिनौ शेषे निक्षिप्य विपुलौ भुजौ // 1 अग्मिनेव गिरिः श्वेतो गतासुरपि दुःसहः // 21 व्यायम्य बहुधा नूनं सुखसुप्तः श्रमादिव / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि एवं विलपतीमाता न हि मामभिभाषसे // 13 एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // आर्यामार्य सुभद्रां त्वमिमांश्च त्रिदशोपमान / पितॄन्मां चैव दुःखातां विहाय क्क गमिष्यसि // तस्य शोणितसंदिग्धान्केशानुन्नाम्य पाणिना / गान्धार्युवाच / उत्सङ्गे वक्त्रमाधाय जीवन्तमिव पृच्छति / अध्यर्धगुणमाहुर्य बले शौर्ये च माधव / स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः // 15 पित्रा त्वया च दाशार्ह दृतं सिंहमिवोस्कटम् // 1 कथं त्वां रणमध्यस्थं जन्नुरेते महारथाः / यो बिभेद चमूमेको मम पुत्रस्य दुर्भिदाम् / / धिगस्तु क्रूरकर्तृस्तान्कृपकर्णजयद्रथान् // 16 स भूत्वा मृत्युरन्येषां स्वयं मृत्युवशं गतः / / 2 / द्रोणद्रौणायनी चोभा यैरसि व्यसनीकृतः / - 1978 - 2. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 20. 17 ] स्त्रीपर्व [11. 21. 11 रथर्षभाणां सर्वेषां कथमासीत्तदा मनः // 17 / उत्तरं चाभिमन्युं च काम्बोजं च सुदक्षिणम् / बालं त्वां परिवार्यकं मम दुःखाय जनुषाम् / शिशूनेतान्हतान्पश्य लक्ष्मणं च सुदर्शनम् / कथं नु पाण्डवानां च पाञ्चालानां च पश्यताम् / / आयोधनशिरोमध्ये शयानं पश्य माधव // 32 स्वं वीर निधनं प्राप्तो नाथवान्सन्ननाथवत् // 18 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि दृष्ट्वा बहुभिराक्रन्दे निहतं त्वामनाथवत् / विंशतितमोऽध्यायः // 20 // वीरः पुरुषशार्दूलः कथं जीवति पाण्डवः // 19 न राज्यलाभो विपुलः शत्रूणां वा पराभवः / प्रीतिं दास्यति पार्थानां त्वामृते पुष्करेक्षण // 20 गान्धार्युवाच / तव शस्त्रजिताल्लोकान्धर्मेण च दमेन च / एष वैकर्तनः शेते महेष्वासो महारथः / क्षिप्रमन्वागमिष्यामि तत्र मां प्रतिपालय // 21 ज्वलितानलवत्संख्ये संशान्तः पार्थतेजसा // 1 दुर्मरं पुनरप्राप्ते काले भवति केनचित् / / पश्य वैकर्तनं कर्णं निहत्यातिरथान्बहून् / यदहं त्वां रणे दृष्ट्वा हतं जीवामि दुर्भगा // 22 शोणितौघपरीताङ्गं शयानं पतितं भुवि // 2 कामिदानी नरव्याघ्र लक्ष्णया स्मितया गिरा / अमर्षी दीर्घरोषश्च महेष्वासो महारथः / पितृलोके समेत्यान्यां मामिवामत्रयिष्यसि // 23 रणे विनिहतः शेते शूरो गाण्डीवधन्वना // 3 नूनमप्सरसां स्वर्गे मनांसि प्रमथिष्यसि / यं स्म पाण्डवसंत्रासान्मम पुत्रा महारथाः / परमेण च रूपेण गिरा च स्मितपूर्वया // 24 प्रायुध्यन्त पुरस्कृत्य मातङ्गा इव यूथपम् // 4 प्राप्य पुण्यकृताल्लोकानप्सरोभिः समेयिवान् / शार्दूलमिव सिंहेन समरे सव्यसाचिना। सौभद्र विहरन्काले स्मरेथाः सुकृतानि मे // 25 मातङ्गमिव मत्तेन मातङ्गेन निपातितम् // 5 एतावानिह संवासो विहितस्ते मया सह / समेताः पुरुषव्याघ्र निहतं शूरमाहवे / षण्मासान्सप्तमे मासि त्वं वीर निधनं गतः॥ 26 प्रकीर्णमूर्धजाः पन्यो रुदत्यः पर्युपासते // 6 इत्युक्तवचनामेतामपकर्षन्ति दुःखिताम् / उद्विग्नः सततं यस्माद्धर्मराजो युधिष्ठिरः / उत्तरां मोघसंकल्पां मत्स्यराजकुलस्त्रियः // 27 त्रयोदश समा निद्रां चिन्तयन्नाध्यगच्छत // 7 उत्तरामपकृष्यनामार्तामार्ततराः स्वयम् / अनाधृष्यः परैर्युद्धे शत्रुभिर्मघवानिव / विराटं निहतं दृष्ट्वा क्रोशन्ति विलपन्ति च // 28 युगान्ताग्निरिवार्चिष्मान्हिमवानिव च स्थिरः // 8 द्रोणास्त्रशरसंकृत्तं शयानं रुधिरोक्षितम् / स भूत्वा शरणं वीरो धार्तराष्ट्रस्य माधव / विराटं वितुदन्त्येते गृध्रगोमायुवायसाः // 29 / भूमौ विनिहतः शेते वातरुग्ण इव द्रुमः // 9 वितुद्यमानं विहगैविराटमसितेक्षणाः / पश्य कर्णस्य पत्नीं त्वं वृषसेनस्य मातरम् / न शक्नुवन्ति विवशा निवर्तयितुमातुराः // 30 लालप्यमानां करुणं रुदतीं पतितां भुवि // 10 आसामातपतप्तानामायासेन च योषिताम / आचार्यशापोऽनुगतो ध्रुवं त्वां अमेण च विवर्णानां रूपाणां विगतं वपुः // 31 / यदग्रसच्चक्रमियं धरा ते। - 1979 -- Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 21. 11] महाभारते [ 11. 22. 18 ततः शरेणापहृतं शिरस्ते सोमस्येवाभिपूर्णस्य पौर्णमास्यां समुद्यतः // 6 धनंजयेनाहवे शत्रुमध्ये // 11 पुत्रशोकाभितप्तेन प्रतिज्ञा परिरक्षता / अहो धिगेषा पतिता विसंज्ञा पाकशासनिना संख्ये वार्द्धक्षत्रिनिपातितः // 7 समीक्ष्य जाम्बूनदबद्धनिष्कम् / एकादश चमूर्जित्वा रक्ष्यमाणं महात्मना। कर्ण महाबाहुमदीनसत्त्वं सत्यं चिकीर्षता पश्य हतमेनं जयद्रथम् // 8 सुषेणमाता रुदती भृशार्ता // 12 सिन्धुसौवीरभर्तारं दर्पपूर्ण मनस्विनम् / अल्पावशेषो हि कृतो महात्मा भक्षयन्ति शिवा गृघ्ना जनार्दन जयद्रथम् // 9 शरीरभक्षैः परिभक्षयद्भिः / संरक्ष्यमाणं भार्याभिरनुरक्ताभिरच्युत। . द्रष्टुं न संप्रीतिकरः शशीव भषन्तो व्यपकर्षन्ति गहनं निम्नमन्तिकात् // 10 कृष्णस्य पक्षस्य चतुर्दशाहे // 13 सावर्तमाना पतिता पृथिव्या तमेताः पर्युपासन्ते रक्षमाणा महाभुजम् / मुत्थाय दीना पुनरेव चैषा। सिन्धुसौवीरगान्धारकाम्बोजयवनस्त्रियः // 11 कर्णस्य वक्त्रं परिजिघ्रमाणा यदा कृष्णामुपादाय प्राद्रवत्केकयैः सह / / रोख्यते पुत्रवधाभितप्ता // 14 तदैव वध्यः पाण्डूनां जनार्दन जयद्रथः // 12 दुःशलां मानयद्भिस्तु यदा मुक्तो जयद्रथः / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि एकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥ कथमद्य न तां कृष्ण मानयन्ति स्म ते पुनः // 13 सैषा मम सुता बाला. विलपन्ती सुदुःखिता। 22 प्रमापयति चात्मानमाक्रोशति च पाण्डवान् / / 14. गान्धार्युवाच / किं नु दुःखतरं कृष्ण परं मम भविष्यति / आवन्त्यं भीमसेनेन भक्षयन्ति निपातितम् / यत्सुता विधवा बाला स्नुषाश्च निहतेश्वराः // 15 गृध्रमोमायवः शूरं बहुबन्धमबन्धुवत् // 1 अहो धिग्दुःशलां पश्य वीतशोकभयामिव / तं पश्य कदनं कृत्वा शत्रूणां मधुसूदन / शिरो भर्तुरनासाद्य धावमानामितस्ततः // 16 शयानं वीरशयने रुधिरेण समुक्षितम् / / 2 वारयामास यः सर्वान्पाण्डवान्पुत्रगृद्धिनः / तं सृगालाश्च कङ्काश्च क्रव्यादाश्च पृथग्विधाः / स हत्वा विपुलाः सेनाः स्वयं मृत्युवशं गतः // 17 तेन तेन विकर्षन्ति पश्य कालस्य पर्ययम् // 3 तं मत्तमिव मातङ्गं वीरं परमदुर्जयम् / शयानं वीरशयने वीरमाक्रन्दसारिणम् / परिवार्य रुदन्त्येताः स्त्रियश्चन्द्रोपमाननाः // 18 आवन्त्यमभितो नार्यो रुदत्यः पर्युपासते // 4 प्रातिपीयं महेष्वासं हतं भल्लेन बाह्निकम् / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // प्रसुप्तमिव शार्दूलं पश्य कृष्ण मनस्विनम् // 5 अतीव मुखवर्णोऽस्य निहतस्यापि शोभते / - 1980 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11.28. 1] स्त्रीपर्व [11. 23. 29 23 स एष निहतः शेते भीष्मो भीष्मकृदाहवे // 14 गान्धार्युवाच / पश्य शांतनवं कृष्ण शयानं सूर्यवर्चसम् / युगान्त इव कालेन पातितं सूर्यमम्बरात् // 15 एष शल्यो हतः शेते साक्षान्नकुलमातुलः / एष तत्वा रणे शत्रू-शस्त्रतापेन वीर्यवान् / धर्मज्ञेन सता तात धर्मराजेन संयुगे॥ 1 नरसूर्योऽस्तमभ्येति सूर्योऽस्तमिव केशव // 16 पस्त्वया स्पर्धते नित्यं सर्वत्र पुरुषर्षभ / शरतल्पगतं वीरं धर्मे देवापिना समम् / स एष निहतः शेते मद्रराजो महारथः // 2 शयानं वीरशयने पश्य शूरनिषेविते // 17 घेन संगृह्णता तात रथमाधिरधि / कर्णिनालीकनाराचैरास्तीर्य शयनोत्तमम् / यार्थ पाण्डुपुत्राणां तथा तेजोवधः कृतः // 3 आविश्य शेते भगवान्स्कन्दः शरवणं यथा // 18 अहो धिक्पश्य शल्यस्य पूर्णचन्द्रसुदर्शनम् / अतूलपूर्ण गाङ्गेयस्त्रिभिर्बाणैः समन्वितम् / मुखं पद्मपलाशाक्षं वडेरादष्टमव्रणम् // 4 उपधायोपधानाग्यं दत्तं गाण्डीवधन्वना // 19 एषा चामीकराभस्य तप्तकाञ्चनमप्रभा / पालयानः पितुः शास्त्रमूर्ध्वरेता महायशाः / भास्याद्विनिःसृता जिह्वा भक्ष्यते कृष्ण पक्षिभिः॥ एष शांतनवः शेते माधवाप्रतिमो युधि / 20 युधिष्ठिरेण निहतं शल्यं समितिशोभनम् / धर्मात्मा तात धर्मज्ञः पारंपर्येण निर्णये / रुदन्त्यः पर्युपासन्ते मद्रराजकुलस्त्रियः // 6 अमर्त्य इव मर्त्यः सन्नेष प्राणानधारयत् // 21 एताः सुसूक्ष्मवसना मद्रराजं नरर्षभम् / नास्ति युद्धे कृती कश्चिन्न विद्वान्न पराक्रमी / ोशन्त्यभिसमासाद्य क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभम् // 7 यत्र शांतनवो भीष्मः शेतेऽद्य निहतः परैः / / 22 शल्यं निपतितं नार्यः परिवार्याभितः स्थिताः। स्वयमेतेन शूरेण पृच्छयमानेन पाण्डवैः / पाशिता गृष्टयः पङ्के परिमग्नमिवर्षभम् // 8 धर्मज्ञेनाहवे मृत्युराख्यातः सत्यवादिना // 23 बल्यं शरणदं शूरं पश्यैनं रथसत्तमम् / प्रनष्टः कुरुवंशश्व पुनर्येन समुद्धृतः / शयानं वीरशयने शरैर्विशकलीकृतम् / / 9 स गतः कुरुभिः सार्धं महाबुद्धिः पराभवम् // 24 एष शैलालयो राजा भगदत्तः प्रतापवान् / धर्मेषु कुरवः कं नु परिप्रक्ष्यन्ति माधव / गजाङ्कशधरः श्रेष्ठः शेते भुवि निपातितः / / 10 / गते देवव्रते स्वर्ग देवकल्पे नरर्षभे // 25 बस रुक्ममयी माला शिरस्येषा विराजते।। अर्जुनस्य विनेतारमाचार्य सात्यकेस्तथा / यापदैर्भक्ष्यमाणस्य शोभयन्तीव मूर्धजान् // 11 तं पश्य पतितं द्रोणं कुरूणां गुरुसत्तमम् // 26 एतेन किल पार्थस्य युद्धमासीत्सुदारुणम् / अस्त्रं चतुर्विधं वेद यथैव त्रिदशेश्वरः / लोमहर्षणमत्युग्रं शक्रस्य बलिना यथा // 12 भार्गवो वा महावीर्यस्तथा द्रोणोऽपि माधव // 27 बोधयित्वा महाबाहुरेष पार्थं धनंजयम् / / यस्य प्रसादाद्वीभत्सुः पाण्डवः कर्म दुष्करम् / संशयं गमयित्वा च कुन्तीपुत्रेण पातितः // 13 चकार स हतः शेते नैनमस्त्राण्यपालयन् // 28 अन्य नास्ति समो लोके शौर्ये वीर्ये च कश्चन / यं पुरोधाय कुरव आह्वयन्ति स्म पाण्डवान् / - 1981 - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 23. 29 ] महाभारते [11. 24. 1 सोऽयं शस्त्रभृतां श्रेष्ठो द्रोणः शस्त्रैः पृथकृतः॥२९ 24 यस्य निर्दहतः सेनां गतिरग्नेरिवाभवत् / गान्धार्युवाच / स भूमौ निहतः शेते शान्तार्चिरिव पावकः // 30 सोमदत्तसुतं पश्य युयुधानेन पातितम् / धनुर्मुष्टिरशीर्णश्च हस्तावापश्च माधव / वितुद्यमानं विहगैर्बहुभिर्माधवान्तिके // 1 द्रोणस्य निहतस्यापि दृश्यते जीवतो यथा // 31 पुत्रशोकाभिसंतप्तः सोमदत्तो जनार्दन / वेदा यस्माञ्च चत्वारः सर्वास्त्राणि च केशव / युयुधानं महेष्वासं गर्हयन्निव दृश्यते // 2 अनपेतानि वै शूराद्यथैवादौ प्रजापतेः // 32 असौ तु भूरिश्रवसो माता शोकपरिप्लुता। आश्वासयति भर्तारं सोमदत्तमनिन्दिता // 3 वन्दनार्हाविमौ तस्य बन्दिभिर्वन्दितौ शुभौ / गोमायवो विकर्षन्ति पादौ शिष्यशतार्चितौ // 33 दिष्ट्या नेदं महाराज दारुणं भरतक्षयम् / कुरुसंक्रन्दनं घोरं युगान्तमनुपश्यसि // 4 द्रोणं द्रुपदपुत्रेण निहतं मधुसूदन / दिष्ट्या यूपध्वजं वीरं पुत्रं भूरिसहस्रदम् / कृपी कृपणमन्वास्ते दुःखोपहतचेतना // 34 अनेकक्रतुयज्वानं निहतं नाद्य पश्यसि // 5 तां पश्य रुदतीमाता मुक्तकेशीमधोमुखीम् / दिष्ट्या स्नुषाणामाक्रन्दे घोरं विलपितं बहु / हतं पतिमुपासन्तीं द्रोणं शस्त्रभृतां वरम् // 35 न शृणोषि महाराज सारसीनामिवार्णवे / / 6 बाणैर्भिन्नतनुत्राणं धृष्टद्युम्नेन केशव / एकवस्त्रानुसंबीताः प्रकीर्णासितमूर्धजाः। उपास्ते वै मृधे द्रोणं जटिला ब्रह्मचारिणी // 36 स्नुषास्ते परिधावन्ति हतापत्या हतेश्वराः // 7 प्रेतकृत्ये च यतते कृपी कृपणमातुरा / श्वापदैर्भक्ष्यमाणं त्वमहो दिष्ट्या न पश्यसि / हतस्य समरे भर्तुः सुकुमारी यशस्विनी // 37 छिन्नबाहुं नरव्याघ्रमर्जुनेन निपातितम् // 8 अग्नीनाहृत्य विधिवञ्चितां प्रज्वाल्य सर्वशः / शलं विनिहतं संख्ये भूरिश्रवसमेव च। द्रोणमाधाय गायन्ति त्रीणि सामानि सामगाः // 38 स्नुषाश्च विधवाः सर्वा दिष्ट्या नाद्येह पश्यसि // किरन्ति च चितामेते जटिला ब्रह्मचारिणः / / दिष्टया तत्काञ्चनं छत्रं यूपकेतोर्महात्मनः / धनुर्भिः शक्तिभिश्चैव रथनीडैश्च माधव // 39 विनिकीणं रथोपस्थे सौमदत्तेर्न पश्यसि // 10 शस्त्रैश्च विविधैरन्यैर्धक्ष्यन्ते भूरितेजसम् / अमूस्तु भूरिश्रवसो भार्याः सात्यकिना हतम् / त एते द्रोणमाधाय शंसन्ति च रुदन्ति च // 40 परिवार्यानुशोचन्ति भर्तारमसितेक्षणाः // 11 सामभित्रिभिरन्तःस्थैरनुशंसन्ति चापरे / एता विलप्य बहुलं भर्तृशोकेन कर्शिताः / अग्नावग्निमिवाधाय द्रोणं हुत्वा हुताशने // 41 पतन्त्यभिमुखा भूमो कृपणं बत केशव // 12 गच्छन्त्यभिमुखा गङ्गां द्रोणशिष्या द्विजातयः / बीभत्सुरतिबीभत्सं कर्मेदमकरोत्कथम् / अपसव्यां चितिं कृत्वा पुरस्कृत्य कृपी तदा // 42 प्रमत्तस्य यदच्छेत्सीद्वाहुं शूरस्य यज्वनः // 13 इति महाभारते स्त्रीपणि ततः पापतरं कर्म कृतवानपि सात्यकिः / योविंशोऽध्यायः॥ 23 // यस्मात्प्रायोपविष्टस्य प्राहात्सिंशितात्मनः // 14 - 1982 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 24. 15 ] स्त्रीपर्व [11. 25. 14 एको द्वाभ्यां हतः शेषे त्वमधर्मेण धार्मिकः / इति यूपध्वजस्यैताः स्त्रियः क्रोशन्ति माधव // 15 गान्धार्युवाच / भार्या यूपध्वजस्यैषा करसंमितमध्यमा / काम्बोज पश्य दुर्धर्ष काम्बोजास्तरणोचितम् / .. कृत्वोत्सङ्गे भुजं भर्तुः कृपणं पर्यदेवयत् // 16 / शयानमृषभस्कन्धं हतं पांसुषु माधव // 1 अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः / यस्य क्षतजसंदिग्धौ बाहू चन्दनरूषितौ। .. नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः // 17 / अवेक्ष्य कृपणं भार्या विलपत्यतिदुःखिता // 2 . वासुदेवस्य सांनिध्ये पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा / इमौ तौ परिघप्रख्यौ बाहू शुभतलाङ्गुली। . युध्यतः समरेऽन्येन प्रमत्तस्य निपातितः / / 18 ययोर्विवरमापन्नां न रतिर्मा पुराजहत् // 3 किं नु वक्ष्यसि संसत्सु कथासु च जनार्दन / कां गतिं नु गमिष्यामि त्वया हीना जनेश्वर / अर्जुनस्य महत्कर्म स्वयं वा स- किरीटवान् // 19 दूरबन्धुरनाथेव अतीव मधुरस्वरा // 4 इत्येवं गर्हयित्वैषा तूष्णीमास्ते वराङ्गना। आतपे क्लाम्यमानानां विविधानामिव स्रजाम् / तामेतामनुशोचन्ति सपत्न्यः स्वामिव स्नुषाम् / / 20 क्लान्तानामपि नारीणां न श्रीहति वै तनुम् // 5 गान्धारराजः शकुनिर्बलवान्सत्यविक्रमः / शयानमभितः शूरं कालिङ्गं मधुसूदन / निहतः सहदेवेन भागिनेयेन मातुलः // 21 पश्य दीप्ताङ्गदयुगप्रतिबद्धमहाभुजम् // 6 यः पुरा हेमदण्डाभ्यां व्यजनाभ्यां स्म वीज्यते / मागधानामधिपतिं जयत्सेनं जनार्दन / स एष पक्षिभिः पक्षैः शयान उपवीज्यते // 22 परिवार्य प्ररुदिता मागध्यः पश्य योषितः // 7 यः स्म रूपाणि कुरुते शतशोऽथ सहस्रशः / आसामायतनेत्राणां सुस्वराणां जनार्दन / तस्य मायाविनो माया दग्धाः पाण्डवतेजसा // 23 मनःश्रुतिहरो नादो मनो मोहयतीव मे // 8 मायया निकृतिप्रज्ञो जितवान्यो युधिष्ठिरम् / प्रकीर्णसर्वाभरणा रुदन्त्यः शोककर्शिताः / सभायां विपुलं राज्यं स पुनर्जीवितं जितः / / 24 स्वास्तीर्णशयनोपेता मागध्यः शेरते भुवि // 9 शकुन्ताः शकुनि कृष्ण समन्तात्पर्युपासते / कोसलानामधिपतिं राजपुत्रं बृहद्बलम् / कितवं मम पुत्राणां विनाशायोपशिक्षितम् // 25 भर्तारं परिवार्यताः पृथक्प्ररुदिताः स्त्रियः // 10 एतेनैतन्महद्वैरं प्रसक्तं पाण्डवैः सह / अस्य गात्रगतान्बाणान्काणिबाहुबलार्पितान् / वधाय मम पुत्राणामात्मनः सगणस्य च // 26 उद्धरन्त्यसुखाविष्टा मूर्छमानाः पुनः पुनः // 11 यथैव मम पुत्राणां लोकाः शस्त्रजिताः प्रभो। आसां सर्वानवद्यानामातपेन परिश्रमात् / एवमस्यापि दुर्बुद्धेर्लोकाः शस्त्रेण वै जिताः / / 27 प्रम्लाननलिनाभानि भान्ति वक्त्राणि माधव // 12 कथं च नायं तत्रापि पुत्रान्मे भ्रातृभिः सह / द्रोणेन निहताः शूराः शेरते रुचिराङ्गदाः / विरोधयेहजुप्रज्ञाननृजुर्मधुसूदन // 28 द्रोणेनाभिमुखाः सर्वे भ्रातरः पञ्च केकयाः॥१३ - इति महाभारते स्त्रीपर्वणि तप्तकाञ्चनवर्माणस्ताम्रध्वजरथस्रजः / चतुर्विशोऽध्यायः // 24 // भासयन्ति महीं भासा ज्वलिता इव पावकाः॥ 14 - 1983 - Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 25. 15] महाभारते [11. 25.42 द्रोणेन द्रुपदं संख्ये पश्य माधव पातितम् / | ये हन्युः शस्त्रवेगेन देवानपि नरर्षभाः॥ 29 महाद्विपमिवारण्ये सिंहेन महता हतम् / 15 त इमे निहताः संख्ये पश्य कालस्य पर्ययम् / पाश्चालराज्ञो विपुलं पुण्डरीकाक्ष पाण्डुरम् / नातिभारोऽस्ति देवस्य ध्रुवं माधव कश्चन / आतपत्रं समाभाति शरदीव दिवाकरः // 16 यदिमे निहताः शूराः क्षत्रियैः क्षत्रियर्षभाः॥३० एतास्तु द्रुपदं वृद्धं स्नुषा भार्याश्च दुःखिताः। तदैव निहताः कृष्ण मम पुत्रास्तरस्विनः / दग्ध्वा गच्छन्ति पाश्चाल्यं राजानमपसव्यतः॥१७ यदैवाकृतकामस्त्वमुपप्लव्यं गतः पुनः / / 31 धृष्टकेतुं महेष्वासं चेदिपुंगवमङ्गनाः / शंतनोश्चैव पुत्रेण प्राज्ञेन विदुरेण च / द्रोणेन निहतं शूरं हरन्ति हृतचेतसः // 18 तदैवोक्तास्मि मा स्नेहं कुरुष्वात्मसुतेष्विति // 32 द्रोणास्त्रमभिहत्यैष विमर्दे मधुसूदन / तयोर्न दर्शनं तात मिथ्या भवितुमर्हति / महेष्वासो हतः शेते नद्या हृत इव द्रुमः / / 19 / अचिरेणैव मे पुत्रा भस्मीभूता जनार्दन // 33 एष चेदिपतिः शूरो धृष्टकेतुर्महारथः / वैशंपायन उवाच / शेते विनिहतः संख्ये हत्वा शत्रून्सहस्रशः // 20 इत्युक्त्वा न्यपतभूमौ गान्धारी शोककर्शिता / वितुद्यमानं विहगैस्तं भार्याः प्रत्युपस्थिताः / दुःखोपहतविज्ञाना धैर्यमुत्सृज्य भारत // 34 चेदिराजं हृषीकेश हतं सबलबान्धवम् / / 21 / ततः कोपपरीताङ्गी पुत्रशोकपरिप्लुता / दाशा_पुत्रजं वीरं शयानं सत्यविक्रमम् / जगाम शौरि दोषेण गान्धारी व्यथितेन्द्रिया // 35 आरोप्याङ्के रुदन्त्येताश्चेदिराजवराङ्गनाः // 22 गान्धायुवाच / अस्य पुत्रं हृषीकेश सुवक्त्रं चारुकुण्डलम् / पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च द्रुग्धाः कृष्ण परस्परम् / द्रोणेन समरे पश्य निकृत्तं बहुधा शरैः // 23 उपेक्षिता विनश्यन्तरत्वया कस्माजनार्दन // 36 पितरं नूनमाजिस्थं युध्यमानं परैः सह / शक्तेन बहुभृत्येन विपुले तिष्ठता बले / नाजहात्पृष्ठनो वीरमद्यापि मधुसूदन / / 24 उभयत्र समर्थेन श्रुतवाक्येन चैव ह // 37 एवं ममापि पुत्रस्य पुत्रः पितरमन्वगात् / इच्छतोपेक्षितो नाशः कुरूणां मधुसूदन / दुर्योधनं महाबाहो लक्ष्मणः परवीरहा // 25 यस्मात्त्वया महाबाहो फलं तस्मादवानहि // 38 विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पतितौ पश्य माधव / पतिशुश्रूषया यन्मे तपः किंचिदुपार्जितम् / हिमान्ते पुष्पिती शालौ मरुता गलिताविव // 26 तेन त्वां दुरवापात्मशप्स्ये चक्रगदाधर // 39 काश्चनाङ्गदवर्माणौ बाणखड्गधनुर्धरौ। यस्मात्परस्परं नन्तो ज्ञातयः कुरुपाण्डवाः / ऋषभप्रतिरूपाक्षौ शयानौ विमल न जौ // 27 उपेक्षितास्ते गोविन्द तस्माज्ज्ञातीन्वधिष्यसि // 40 अवध्याः पाण्डवाः कृष्ण सर्व एव त्वया सह।। त्वमप्युपस्थिते वर्षे षट्त्रिंशे मधुसूदन / ये मुक्ता द्रोणभीष्माभ्यां कर्णाद्वै कर्तनात्कृपात्॥२८ | हतज्ञातिर्हतामात्यो हतपुत्रो वनेचरः / दुर्योधनाद्रोणसुतासैन्धवाञ्च महारथात् / कुत्सितेनाभ्युपायेन निधनं समवाप्स्यसि // 41 सोमदत्ताद्विकर्णाच्च शूराच्च कृतवर्मणः / तवाप्येवं हतसुता निहतज्ञातिबान्धवाः / -1984 - Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 25. 42] स्त्रीपर्व [11. 26. 18 त्रियः परिपतिष्यन्ति यथैता भरतस्त्रियः // 42 तूष्णीं बभूव गान्धारी शोकव्याकुललोचना // 6 वैशंपायन उवाच। धृतराष्ट्रस्तु राजर्षिर्निगृह्याबुद्धिजं तमः। तच्छ्रुत्वा वचनं घोरं वासुदेवो महामनाः / पर्यपृच्छत धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिरम् // 7 उवाच देवीं गान्धारीमीषदभ्युत्स्मयन्निव // 43 जीवतां परिमाणज्ञः सैन्यानामसि पाण्डव / संहर्ता वृष्णिचक्रस्य नान्यो मद्विद्यते शुभे। हतानां यदि जानीषे परिमाणं वदस्व मे // 8 जानेऽहमेतदप्येवं चीणं चरसि क्षत्रिये // 44 युधिष्ठिर उवाच / अवध्यास्ते नरैरन्यैरपि वा देवदानवैः / दशायुतानामयुतं सहस्राणि च विंशतिः / परस्परकृतं नाशमतः प्राप्स्यन्ति यादवाः // 45 / कोट्यः षष्टिश्च षट् चैव येऽस्मिन्राजमृधे हताः॥९ इत्युक्तवति दाशार्हे पाण्डवास्त्रस्तचेतसः। अलक्ष्याणां तु वीराणां सहस्राणि चतुर्दश। बभूवुर्घशसंविग्ना निराशाश्चापि जीविते // 46 दश चान्यानि राजेन्द्र शतं षष्टिश्च पञ्च च // 10 इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि धृतराष्ट्र उवाच / पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // युधिष्ठिर गतिं का ते गताः पुरुषसत्तमाः। // समाप्तं स्त्रीपर्व // आचक्ष्व मे महाबाहो सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः॥११ युधिष्ठिर उवाच / वासुदेव उवाच / यै तानि शरीराणि हृष्टैः परमसंयुगे। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गान्धारि मा च शोके मनः कृथाः। देवराजसमाल्लोकान्गतास्ते सत्यविक्रमाः // 12 तवैव ह्यपराधेन कुरवो निधनं गताः // 1 ये त्वहृष्टेन मनसा मर्तव्यमिति भारत / या त्वं पुत्रं दुरात्मानमीघुमत्यन्तमानिनम् / युध्यमाना हताः संख्ये ते गन्धर्वैः समागताः॥१३ दुर्योधनं पुरस्कृत्य दुष्कृतं साधु मन्यसे // 2 ये तु संग्रामभूमिष्ठा याचमानाः पराङ्मुखाः / निष्ठरं वैरपरुषं वृद्धानां शासनातिगम् / शस्त्रेण निधनं प्राप्ता गतास्ते गुह्यकान्प्रति // 14 कथमात्मकृतं दोषं मय्याधातुमिहेच्छसि // 3 पीड्यमानाः परैर्ये तु हीयमाना निरायुधाः। सृतं वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति / ह्रीनिषेधा महात्मानः परानभिमुखा रणे // 15 दुःखेन लभते दुःखं द्वावनौँ प्रपद्यते // 4 छिद्यमानाः शितैः शस्त्रैः क्षत्रधर्मपरायणाः। तपोर्थीयं ब्राह्मणी धत्त गर्भ गतास्ते ब्रह्मसदनं हता वीराः सुवर्चसः // 16 गौर्वोढारं धावितारं तुरंगी। ये तत्र निहता राजन्नन्तरायोधनं प्रति / शूद्रा दासं पशुपालं तु वैश्या / यथाकथंचित्ते राजन्संप्राप्ता उत्तरान्कुरून् // 17 वधार्थीयं त्वद्विधा राजपुत्री // 5 धृतराष्ट्र उवाच। वैशंपायन उवाच / केन ज्ञानबलेनैवं पुत्र पश्यसि सिद्धवत् / मुछाला कालुदेवस्य एलरुलं योऽप्रियम् / तन्मे व्रत महाबाहो श्रोतव्यं यदि वै मया // 18 4. भा. 249 - 1985 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 26. 19] महाभारते [11. 26. 44 युधिष्ठिर उवाच / जयद्रथं च राजानमभिमन्युं च भारत / निदेशाद्भवतः पूर्वं वने विचरता मया। दौःशासनि लक्ष्मणं च धृष्टकेतुं च पार्थिवम्।।३२ तीर्थयात्राप्रसङ्गेन संप्राप्तोऽयमनुग्रहः / / 19 बृहन्तं सोमदत्तं च सृञ्जयांश्च शताधिकान् / देवर्षिर्लोमशो दृष्टस्ततः प्राप्तोऽस्म्यनुस्मृतिम् / राजानं क्षेमधन्वानं विराटद्रुपदौ तथा / / 33 दिव्यं चक्षुरपि प्राप्तं ज्ञानयोगेन वै पुरा // 20 शिखण्डिनं च पाञ्चाल्यं धृष्टद्युम्नं च पार्षतम् / धृतराष्ट्र उवाच / युधामन्युं च विक्रान्तमुत्तमौजसमेव च // 34 कौसल्यं द्रौपदेयांश्च शकुनि चापि सौबलम् / येऽत्रानाथा जनस्यास्य सनाथा ये च भारत / कञ्चित्तेषां शरीराराणि धक्ष्यन्ति विधिपूर्वकम् // 21 अचलं वृषकं चैव भगदत्तं च पार्थिवम् // 35 कर्णं वैकर्तनं चैव सहपुत्रममर्षणम् / न येषां सन्ति कर्तारो न च येऽत्राहिताग्नयः। केकयांश्च महेष्वासांस्त्रिगतश्चि महारथान् // 36 वयं च कस्य कुर्यामो बहुत्वात्तात कर्मणः // 22 घटोत्कचं राक्षसेन्द्र बकभ्रातरमेव च / यान्सुपर्णाश्च गृध्राश्च विकर्षन्ति ततस्ततः / अलम्बुसं च राजानं जलसंधं च पार्थिवम् // 37 तेषां तु कर्मणा लोका भविष्यन्ति युधिष्ठिर // 23 अन्यांश्च पार्थिवान्राजञ्शतशोऽथ सहस्रशः / वैशंपायन उवाच / घृतधाराहुतैर्दीप्तैः पावकैः समदाहयन् // 38 एवमुक्तो महाप्राज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / पितृमेधाश्च केषांचिदवर्तन्त महात्मनाम् / आदिदेश सुधर्माणं धौम्यं सूतं च संजयम् // 24 सामभिश्चाप्यगायन्त तेऽन्वशोच्यन्त चामरैः॥३९ विदुरं च महाबुद्धिं युयुत्सुं चैव कौरवम् / साम्नामृचां च नादेम स्त्रीणां च रुदितस्वनैः / इन्द्रसेनमुखांश्चैव भृत्यान्सूतांश्च सर्वशः / / 25 / कश्मलं सर्वभूतानां निशायां समपद्यत // 40 भवन्तः कारयन्त्वेषां प्रेतकार्याणि सर्वशः / ते विधूमाः प्रदीप्ताश्च दीप्यमानाश्च पावकाः / यथा चानाथवत्किंचिच्छरीरं न विनश्यति // 26 नभसीवान्वदृश्यन्त ग्रहास्तन्वभ्रसंवृताः // 41 शासनाद्धर्मराजस्य क्षत्ता सूतश्च संजयः / ये चाप्यनाथास्तत्रासन्नानादेशसमागताः / सुधर्मा धौम्यसहित इन्द्रसेनादयस्तथा // 27 तांश्च सर्वान्समानाय्य राशीन्कृत्वा सहस्रशः // 42 चन्दनागुरुकाष्ठानि तथा कालीयकान्युत / चित्वा दारुभिरव्यग्रः प्रभूतैः स्नेहतापितैः / घृतं तैलं च गन्धांश्च क्षौमाणि वसनानि च॥२८ दाहयामास विदुरो धर्मराजस्य शासनात् // 43 समाहृत्य महार्हाणि दारूणां चैव संचयान / कारयित्वा क्रियास्तेषां कुरुराजो युधिष्ठिरः / रथांश्च मृदितांस्तत्र नानाप्रहरणानि च // 29 धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य गङ्गामभिमुखोऽगमत् // 44 चिताः कृत्वा प्रयत्नेन यथामुख्यानराधिपान् / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि दाहयामासुरव्यग्रा विधिदृष्टेन कर्मणा // 30 पड्विंशोऽध्यायः // 26 // दुर्योधनं च राजानं भ्रातृ॑श्वास्य शताधिकान् / // श्राद्धपर्व समाप्तम् // शल्यं शलं च राजानं भूरिश्रवसमेव च // 31 -1986 - Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. 27. 1] स्त्रीपर्व [11. 27. 24 27 उवाच मातरं वीरो निःश्वसन्निव पन्नगः // 13 वैशंपायन उवाच। यस्येषुपातमासाद्य नान्यस्तिष्ठेद्वनंजयात् / ते समासाद्य गङ्गां तु शिवां पुण्यजनोचिताम् / कथं पुत्रो भवत्यां स देवगर्भः पुराभवत् // 14 इदिनी वप्रसंपन्नां महानूपां महावनाम् // 1 यस्य बाहुप्रतापेन तापिताः सर्वतो वयम् / भूषणान्युत्तरीयाणि वेष्टनान्यवमुच्य च / तमग्निमिव वस्त्रेण कथं छादितवत्यसि / ततः पितॄणां पौत्राणां भ्रातृणां स्वजनस्य च // 2 यस्य बाहुबलं घोरं धार्तराष्ट्ररुपासितम् // 15 पुत्राणामार्यकाणां च पतीनां च कुरुस्त्रियः / नान्यः कुन्तीसुतात्कर्णादगृह्णाद्रथिनां रथी। उदकं चक्रिरे सर्वा रुदन्त्यो भृशदुःखिताः। स नः प्रथमजो भ्राता सर्वशस्त्रभृतां वरः / सुहृदां चापि धर्मज्ञाः प्रचक्रुः सलिलक्रियाः // 3 असूत तं भवत्यो कथमद्भुतविक्रमम् // 16 उदके क्रियमाणे तु वीराणां वीरपत्निभिः। . अहो भवत्या मन्त्रस्य पिधानेन वयं हताः / सूपतीर्थाभवद्गङ्गा भूयो विप्रसंसार च // 4 निधनेन हि कर्णस्य पीडिताः स्म सबान्धवाः // 17 तन्महोदधिसंकाशं निरानन्दमनुत्सवम् / अभिमन्योविनाशेन द्रौपदेयवधेन च। वीरपत्नीभिराकीणं गङ्गातीरमशोभत / / 5 पाञ्चालानां च नाशेन कुरूणां पतनेन च // 18 ततः कुन्ती महाराज सहसा शोककर्शिता / ततः शतगुणं दुःखमिदं मामस्पृशभृशम् / रुदती मन्दया वाचा पुत्रान्वचनमब्रवीत् // 6 कर्णमेवानुशोचन्हि दह्याम्यग्नाविवाहितः // 19 यः स शूरो महेष्वासो रथयूथपयूथपः / न हि स्म किंचिदप्राप्यं भवेदपि दिवि स्थितम् / अर्जुनेन हतः संख्ये वीरलक्षणलक्षितः // 7 न च स्म वैशसं घोरं कौरवान्तकरं भवेत् // 20 यं सूतपुत्रं मन्यध्वं राधेयमिति पाण्डवाः / एवं विलप्य बहुलं धर्मराजो युधिष्ठिरः / यो व्यराजच्चमूमध्ये दिवाकर इव प्रभुः // 8 विनदशनकै राजंश्चकारास्योदकं प्रभुः // 21 प्रत्ययुध्यत यः सर्वान्पुरा वः सपदानुगान् / ततो विनेदुः सहसा स्त्रीपुंसास्तत्र सर्वशः / दुर्योधनबलं सर्वं यः प्रकर्षन्व्यरोचत // 9 अभितो ये स्थितास्तत्र तस्मिन्नुदककर्मणि // 22 यस्य नास्ति समो वीर्ये पृथिव्यामपि कश्चन / तत आनाययामास कर्णस्य सपरिच्छदम् / सत्यसंधस्य शूरस्य संग्रामेष्वपलायिनः // 10 स्त्रियः कुरुपतिर्धीमान्भ्रातुः प्रेम्णा युधिष्ठिरः // 23 कुरुध्वमुदकं तस्य भ्रातुरक्लिष्टकर्मणः / स ताभिः सह धर्मात्मा प्रेतकृत्यमनन्तरम् / स हि वः पूर्वजो भ्राता भास्करान्मय्यजायत / फुण्डली कवची शूरो दिवाकरसमप्रभः // 11 कृत्वोत्ततार गङ्गायाः सलिलादाकुलेन्द्रियः / / 24 श्रुत्वा तु पाण्डवाः सर्वे मातुर्वचनमप्रियम् / इति श्रीमहाभारते स्त्रीपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // कर्णमेवानुशोचन्त भूयश्वार्ततराभवन् // 12 // समाप्तं जलप्रदानिकपर्व // ततः स पुरुषव्याघ्रः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / // समाप्त स्त्रीपर्व // // समाप्तं स्त्रीपर्व // - 1987 - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिपर्व वैशंपायन उवाच / कञ्चिच्च निहतामित्रः प्रीणासि सुहृदो नृप / कृतोदकास्ते सुहृदां सर्वेषां पाण्डुनन्दनाः / कञ्चिच्छ्रियमिमां प्राप्य न त्वां शोकः प्रबाधते॥१२ विदुरो धृतराष्ट्रश्च सर्वाश्च भरतस्त्रियः // 1 युधिष्ठिर उवाच / . तत्र ते सुमहात्मानो न्यवसन्कुरुनन्दनाः / विजितेयं मही कृत्स्ना कृष्णबाहुबलाश्रयात् / शौचं निवर्तयिष्यन्तो मासमेकं बहिः पुरात् // 2 ब्राह्मणानां प्रसादेन भीमार्जुनबलेन च // 13 कृतोदकं तु राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / इदं तु मे महदुःखं वर्तते हृदि नित्यदा / अभिजग्मुर्महात्मानः सिद्धा ब्रह्मर्षिसत्तमाः // 3 कृत्वा ज्ञातिक्षयमिमं महान्तं लोभकारितम् // 14 द्वैपायनो नारदश्च देवलश्च महानृषिः / सौभद्रं द्रौपदेयांश्च घातयित्वा प्रियान्सुतान् / देवस्थानश्च कण्वश्च तेषां शिष्याश्च सत्तमाः // 4 जयोऽयमजयाकारो भगवन्प्रतिभाति मे // 15 अन्ये च वेदविद्वांसः कृतप्रज्ञा द्विजातयः / किं नु वक्ष्यति वार्ष्णेयी वधूर्मे मधुसूदनम् / गृहस्थाः स्नातकाः सर्वे ददृशुः कुरुसत्तमम् // 5 द्वारकावासिनी कृष्णमितः प्रतिगतं हरिम् // 16 अभिगम्य महात्मानः पूजिताश्च यथाविधि / द्रौपदी हतपुत्रेयं कृपणा हतबान्धवा / आसनेषु महार्हेषु विविशुस्ते महर्षयः // 6 अस्मत्प्रियहिते युक्ता भूयः पीडयतीव माम् // 17 प्रतिगृह्म ततः पूजां तत्कालसदृशीं तदा / इदमन्यच्च भगवन्यत्त्वां वक्ष्यामि नारद / पर्युपासन्यथान्यायं परिवार्य युधिष्ठिरम् // 7 मन्त्रसंवरणेनास्मि कुन्त्या दुःखेन योजितः // 18 पुण्ये भागीरथीतीरे शोकव्याकुलचेतसम् / योऽसौ नागायुतबलो लोकेऽप्रतिरथो रणे / आश्वासयन्तो राजानं विप्राः शतसहस्रशः // 8 सिंहखेलगति/मान्घृणी दान्तो यतव्रतः // 19 नारदस्त्वब्रवीत्काले धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / / आश्रयो धार्तराष्ट्राणां मानी तीक्ष्णपराक्रमः / विचार्य मुनिभिः सार्धं तत्कालसदृशं वचः॥ 9 अमर्षी नित्यसंरम्भी क्षेप्तास्माकं रणे रणे // 20 भवतो बाहुवीर्येण प्रसादान्माधवस्य च / शीघ्रास्त्रश्चित्रयोधी च कृती चाद्भुतविक्रमः / जितेयमवनिः कृत्स्ना धर्मेण च युधिष्ठिर // 10 / गूढोत्पन्नः सुतः कुन्त्या भ्रातास्माकं च सोदरः॥२१ दिष्टया मुक्ताः स्म संग्रामादस्माल्लोकभयंकरात् / तोयकर्मणि यं कुन्ती कथयामास सूर्यजम् / क्षत्रधर्मरतश्चापि कञ्चिन्मोदसि पाण्डव // 11 / पुत्रं सर्वगुणोपेतमवकीर्ण जले पुरा // 22 - 1988 - Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 1. 23 ] शान्तिपर्व [12. 2.6 यं सूतपुत्रं लोकोऽयं राधेयं चाप्यमन्यत / तेन मे दूयतेऽतीव हृदयं भ्रातृघातिनः / स ज्येष्ठपुत्रः कुन्त्या वै भ्रातास्माकं च मातृजः॥२३ कर्णार्जुनसहायोऽहं जयेयमपि वासवम् // 38 अजानता मया संख्ये राज्यलुब्धेन घातितः।। सभायां क्लिश्यमानस्य धार्तराष्ट्रर्दुरात्मभिः / तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानलः // 24 सहसोत्पतितः क्रोधः कर्णं दृष्ट्वा प्रशाम्यति // 39 न हि तं वेद पार्थोऽपि भ्रातरं श्वेतवाहनः / यदा ह्यस्य गिरो रूक्षाः शृणोमि कटुकोदयाः। नाहं न भीमो न यमौ स त्वस्मान्वेद सुव्रतः // 25 सभायां गदतो छूते दुर्योधनहितैषिणः // 40 गता किल पृथा तस्य सकाशमिति नः श्रुतम्। तदा नश्यति मे क्रोधः पादौ तस्य निरीक्ष्य ह / अस्माकं शमकामा वै त्वं च पुत्रो ममेत्यथ // 26 कुन्त्या हि सदृशौ पादौ कर्णस्येति मतिर्मम // 41 पृथाया न कृतः कामस्तेन चापि महात्मना / सादृश्यहेतुमन्विच्छन्पृथायास्तव चैव ह / अतिपश्चादिदं मातर्यवोचदिति नः श्रुतम् // 27 कारणं नाधिगच्छामि कथंचिदपि चिन्तयन् // 42 न हि शक्ष्याम्यहं त्यक्तुं नृपं दुर्योधनं रणे / कथं नु तस्य संग्रामे पृथिवी चक्रमग्रसत् / अनार्य च नृशंसं च कृतघ्नं च हि मे भवेत् // 28 कथं च शप्तो भ्राता मे तत्त्वं वक्तुमिहार्हसि // 43 युधिष्ठिरेण संधिं च यदि कुर्या मते तव / श्रोतुमिच्छामि भगवस्त्वत्तः सर्वं यथातथम् / मीतो रणे श्वेतवाहादिति मां मंस्यते जनः / / 29 / भवान्हि सर्वविद्विद्वाल्लोके वेद कृताकृतम् // 44 सोऽहं निर्जित्य समरे विजयं सहकेशवम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि संधास्ये धर्मपुत्रेण पश्चादिति च सोऽब्रवीत् // 30 प्रथमोऽध्यायः // 1 // तमवोचत्किल पृथा पुनः पृथुलवक्षसम् / चतुर्णामभयं देहि कामं युध्यस्व फल्गुनम् // 31 वैशंपायन उवाच। सोऽब्रवीन्मातरं धीमान्वेपमानः कृताञ्जलिः। स एवमुक्तस्तु मुनिर्नारदो वदतां वरः / प्राप्तान्विषह्यांश्चतुरो न हनिष्यामि ते सुतान् // 32 कथयामास तत्सर्वं यथा शप्तः स सूतजः // 1 पश्चैव हि सुता मातर्भविष्यन्ति हि ते ध्रुवम्। एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत / सकर्णा वा हते पार्थे सार्जुना वा हते मयि // 33 न कर्णार्जुनयोः किंचिदविषह्यं भवेद्रणे // 2 तं पुत्रगृद्धिनी भूयो माता पुत्रमथाब्रवीत्।। गुह्यमेतत्तु देवानां कथयिष्यामि ते नृप / भ्रातॄणां स्वस्ति कुर्वीथा येषां स्वस्ति चिकीर्षसि // 34 तन्निबोध महाराज यथा वृत्तमिदं पुरा // 3 तमेवमुक्त्वा तु पृथा विसृज्योपययौ गृहान् / क्षत्रं स्वर्ग कथं गच्छेच्छस्त्रपूतमिति प्रभो। सोऽर्जुनेन हतो वीरो भ्राता भ्रात्रा सहोदरः॥३५ संघर्षजननस्तस्मात्कन्यागर्भो विनिर्मितः // 4 न चैव विवृतो मत्रः पृथायास्तस्य वा मुने। स बालस्तेजसा युक्तः सूतपुत्रत्वमागतः / अथ शूरो महेष्वासः पार्थनासौ निपातितः // 36 / चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठे धनुर्वेदं गुरौ तव // 5 अहं त्वज्ञासिषं पश्चात्स्वसोदयं द्विजोत्तम / स बलं भीमसेनस्य फल्गुनस्य च लाघवम् / पूर्व भ्रातरं कणं पृथाया वचनात्प्रभो // 37 / बुद्धिं च तव राजेन्द्र यमयोविनयं तथा // 6 - 1989 - 2 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 2.7] महाभारते [12. 3.5 सख्यं च वासुदेवेन बाल्ये गाण्डीवधन्वनः / अबुद्धिपूर्व भगवन्धेनुरेषा हता तव / प्रजानामनुरागं च चिन्तयानो व्यदह्यत // 7 मया तत्र प्रसादं मे कुरुष्वेति पुनः पुनः // 22 स सख्यमगमद्वाल्ये राज्ञा दुर्योधनेन वै / तं स विप्रोऽब्रवीत्क्रुद्धो वाचा निर्भर्त्सयन्निव / युष्माभिर्नित्यसंद्विष्टो दैवाचापि स्वभावतः // 8 दुराचार वधार्हस्त्वं फलं प्राप्नुहि दुर्मते // 23 विद्याधिकमथालक्ष्य धनुर्वेदे धनंजयम् / येन विस्पर्धसे नित्यं यदर्थं घटसेऽनिशम् / द्रोणं रहस्युपागम्य कर्णो वचनमब्रवीत् // 9 युध्यतस्तेन ते पाप भूमिश्चक्रं प्रसिष्यति // 24 ब्रह्मास्त्रं वेत्तुमिच्छामि सरहस्यनिवर्तनम् / ततश्चक्रे महीग्रस्ते मूर्धानं ते विचेतसः / अर्जुनेन समो युद्धे भवेयमिति मे मतिः // 10 पातयिष्यति विक्रम्य शत्रुर्गच्छ नराधम // 25 समः पुत्रेषु च स्नेहः शिष्येषु च तव ध्रुवम् / / यथेयं गौर्हता मूढ प्रमत्तेन त्वया मम / त्वत्प्रसादान्न मां युरकृतास्त्रं विचक्षणाः // 11 प्रमत्तस्यैवमेवान्यः शिरस्ते पातयिष्यति // 26 द्रोणस्तथोक्तः कर्णेन सापेक्षः फल्गुनं प्रति / / ततः प्रसादयामास पुनस्तं द्विजसत्तमम् / दौरात्म्यं चापि कर्णस्य विदित्वा तमुवाच ह // 12 गोभिर्धनैश्च रत्नैश्च स चैनं पुनरब्रवीत् / / 27 ब्रह्मास्त्रं ब्राह्मणो विद्याद्यथावच्चरितव्रतः / नेदं मद्याहृतं कुर्यात्सर्वलोकोऽपि वै मृषा / क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात्कथंचन // 13 गच्छ वा तिष्ठ वा यद्वा कार्यं ते तत्समाचार // 2 // इत्युक्तोऽङ्गिरसां श्रेष्ठमामत्र्य प्रतिपूज्य च। इत्युक्तो ब्राह्मणेनाथ कर्णो दैन्यादधोमुखः / जगाम सहसा रामं महेन्द्र पर्वतं प्रति // 14 राममभ्यागमद्भीतस्तदेव मनसा स्मरन् // 29 स तु राममुपागम्य शिरसाभिप्रणम्य च / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ब्राह्मणो भार्गवोऽस्मीति गौरवेणाभ्यगच्छत // 15 द्वितीयोऽध्यायः // 2 // रामस्तं प्रतिजग्राह पृष्ट्वा गोत्रादि सर्वशः / उष्यतां स्वागतं चेति प्रीतिमांश्चाभवद्भशम् // 16 - नारद उवाच। तत्र कर्णस्य वसतो महेन्द्रे पर्वतोत्तमे / कर्णस्य बाहुवीर्येण प्रश्रयेण दमेन च / गन्धर्व राक्षसैयक्षैर्देवैश्वासीत्समागमः // 17 तुतोष भृगुशार्दूलो गुरुशुश्रूषया तथा // 1 स तत्रेष्वस्त्रमकरोगुश्रेष्ठायथाविधि / तस्मै स विधिवत्कृत्स्नं ब्रह्मास्त्रं सनिवर्तनम् / प्रियश्चाभवदत्यर्थं देवगन्धर्वरक्षसाम् // 18 प्रोवाचाखिलमव्यग्रं तपस्वी सुतपस्विने // 2 स कदाचित्समुद्रान्ते विचरन्नाश्रमान्तिके / विदितात्रस्ततः कर्णो रममाणोऽऽश्रमे भृगोः। एकः खड्गधनुष्पाणिः परिचक्राम सूतजः // 19 चकार वै धनुर्वेदे यत्नमद्भुतविक्रमः // 3 सोऽग्निहोत्रप्रसक्तस्य कस्यचिद्ब्रह्मवादिनः।। ततः कदाचिद्रामस्तु चरन्नाश्रममन्तिकात् / जघानाज्ञानतः पार्थ होमधेनुं यदृच्छया // 20 कर्णेन सहितो धीमानुपवासेन कर्शितः // 4 तदज्ञानकृतं मत्वा ब्राह्मणाय न्यवेदयत् / सुष्वाप जामदग्यो वै विस्रम्भोत्पन्नसौहृदः / कर्णः प्रसादयंश्चैनमिदमित्यब्रवीद्वचः // 21 / कर्णस्योत्सङ्ग आधाय शिरः क्लान्तमना गुरुः / / - 1990 - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 3. 6] शान्तिपर्व [12. 3. 33 अथ कृमिः श्लेष्ममयो मांसशोणितभोजनः / अब्रवीत्तु स मां क्रोधात्तव पूर्वपितामहः / दारुणो दारुणस्पर्शः कर्णस्याभ्याशमागमत् // 6 मूत्रश्लेष्माशनः पाप निरयं प्रतिपत्स्यसे / 21 स तस्योरुमथासाद्य विभेद रुधिराशनः / शापस्यान्तो भवेद्ब्रह्मन्नित्येवं तमथाब्रुवम् / न चैनमशकरक्षेप्तुं हन्तुं वापि गुरोर्भयात् // 7 भविता भार्गवे राम इति मामब्रवीभृगुः // 22 संदश्यमानोऽपि तथा कृमिणा तेन भारत / सोऽहमेतां गतिं प्राप्तो यथा नकुशलं तथा / गुरुप्रबोधशङ्की च तमुपैक्षत सूतजः // 8 त्वया साधो समागम्य विमुक्तः पापयोनितः // 23 कर्णस्तु वेदनां धैर्यादसह्यां विनिगृह्य ताम् / एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ययौ रामं महासुरः / अकम्पन्नव्यथंश्चैव धारयामास भार्गवम् // 9 रामः कर्णं तु सक्रोधमिदं वचनमब्रवीत् // 24 यदा तु रुधिरेणाङ्गे परिस्पृष्टो भृगूद्वहः / / अतिदुःखमिदं मूढ न जातु ब्राह्मणः सहेत् / तदाबुध्यत तेजस्वी संतप्तश्चेदमब्रवीत् // 10 क्षत्रियस्यैव ते धैर्यं कामया सत्यमुच्यताम् // 25 अहोऽस्म्यशुचितां प्राप्तः किमिदं क्रियते त्वया / तमुवाच ततः कर्णः शापभीतः प्रसादयन् / कथयस्व भयं त्यक्त्वा याथातथ्यमिदं मम // 11 ब्रह्मक्षत्रान्तरे सूतं जातं मां विद्धि भार्गव // 26 तस्य कर्णस्तदाचष्ट कृमिणा परिभक्षणम् / ददर्श रामस्तं चापि कृमि सूकरसंनिभम् // 12 राधेयः कर्ण इति मां प्रवदन्ति जना भुवि / प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन्नस्त्रलुब्धस्य भार्गव // 27 अष्टपादं तीक्ष्णदंष्ट्र सूचीभिरिव संवृतम् / रोमभिः संनिरुद्धाङ्गमलकं नाम नामतः // 13 पिता गुरुर्न संदेहो वेदविद्याप्रदः प्रभुः / स दृष्टमात्रो रामेण कृमिः प्राणानवासृजत् / अतो भार्गव इत्युक्तं मया गोत्रं तवान्तिके / / 28 तस्मिन्नेवासक्संल्लिन्ने तदद्भुतमिवाभवत् // 14 तमुवाच भृगुश्रेष्ठः सरोषः प्रहसन्निव / ततोऽन्तरिक्षे ददृशे विश्वरूपः करालवान् / भूमौ निपतितं दीनं वेषमानं कृताञ्जलिम् // 29 राक्षसो लोहितग्रीवः कृष्णाङ्गो मेघवाहनः // 15 यस्मान्मिथ्योपचरितो अस्त्रलोभादिह त्वया। तस्मादेतद्धि ते मूढ ब्रह्मास्त्रं प्रतिभास्यति // 30 स रामं प्राञ्जलिभूत्वा बभाषे पूर्णमानसः। स्वस्ति ते भृगुशार्दूल गमिष्यामि यथागतम् // 16 अन्यत्र वधकालात्ते सदृशेन समेयुपः / मोक्षितो नरकादस्मि भवता मुनिसत्तम / अब्राह्मणे न हि ब्रह्म ध्रुवं तिष्ठेत्कदाचन // 31 भद्रं च तेऽस्तु नन्दिश्च प्रियं मे भवता कृतम्॥१७ गच्छेदानीं न ते स्थानमनृतस्येह विद्यते / तमुवाच महाबाहुर्जामदग्न्यः प्रतापवान् / न त्वया सदृशो युद्धे भविता क्षत्रियो भुवि // 32 कस्त्वं कस्माच नरकं प्रतिपन्नो ब्रवीहि तत् // 18 / एवमुक्तस्तु रामेण न्यायेनोपजगाम सः / सोऽब्रवीदहमासं प्राग्गृत्सो नाम महासुरः / दुर्योधनमुपागम्य कृतास्रोऽसीति चाब्रवीत् // 33 पुरा देवयुगे तात भृगोस्तुल्यवया इव // 19 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सोऽहं भृगोः सुदयितां भार्यामपहरं बलात् / तृतीयोऽध्यायः॥३॥ महर्षेरभिशापेन कृमिभूतोऽपतं भुवि / / 20 - 1991 - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 4. 1] महाभारते [12. 5.6 ततो विमर्दः सुमहान्राज्ञामासीद्युधिष्ठिर / नारद उवाच / संनह्यतां तनुत्राणि रथान्योजयतामपि // 15 कर्णस्तु समवाप्यैतदत्रं भार्गवनन्दनात् / तेऽभ्यधावन्त संक्रुद्धाः कर्णदुर्योधनावुभौ / दुर्योधनेन सहितो मुमुदे भरतर्षभ // 1 शरवर्षाणि मुश्चन्तो मेघाः पर्वतयोरिव // 16 ततः कदाचिद्राजानः समाजग्मुः स्वयंवरे / कर्णस्तेषामापततामेकैकेन क्षुरेण ह। कलिङ्गविषये राजनराज्ञश्चित्राङ्गदस्य च // 2 धनूंषि सशरावापान्यपातयत भूतले // 17 श्रीमद्राजपुरं नाम नगरं तत्र भारत / ततो विधनुषः कांश्चित्कांश्चिदुद्यतकार्मुकान् / राजानः शतशस्तत्र कन्यार्थं समुपागमन् // 3 कांश्चिदुद्वहतो बाणान्रथशक्तिगदास्तथा // 18 श्रुत्वा दुर्योधनस्तत्र समेतान्सर्वपार्थिवान् / लाघवादाकुलीकृत्य कर्णः प्रहरतां वरः / रथेन काश्चनाङ्गेन कर्णेन सहितो ययौ॥ 4 हतसूतांश्च भूयिष्टानवजिग्ये नराधिपान् // 19 ततः स्वयंवरे तस्मिन्संप्रवृत्ते महोत्सवे। ते स्वयं त्वरयन्तोऽश्वान्याहि याहीति वादिनः। समापेतुर्नृपतयः कन्यार्थे नृपसत्तम / / 5 व्यषेयुस्ते रणं हित्वा राजानो भग्नमानसाः // 20 शिशुपालो जरासंधो भीष्मको वक्र एव च।। दुर्योधनस्तु कर्णेन पाल्यमानोऽभ्ययात्तदा / कपोतरोमा नीलश्च रुक्मी च दृढविक्रमः // 6 हृष्टः कन्यामुपादाय नगरं नागरााह्वयम् // 21 सगालश्च महाराज स्त्रीराज्याधिपतिश्च यः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अशोकः शतधन्वा च भोजो वीरश्च नामतः / / 7 चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ एते चान्ये च बहवो दक्षिणां दिशमाश्रिताः / म्लेच्छाचार्याश्च राजानः प्राच्योदीच्याश्च भारत॥८ नारद उवाच। काञ्चनाङ्गदिनः सर्वे बद्धजाम्बूनदस्रजः। आविष्कृतबलं कणं ज्ञात्वा राजा तु मागधः / सर्वे भास्वरदेहाश्च व्याघ्रा इव मदोत्कटाः / / 9 आह्वयद्वैरथेनाजी जरासंधो महीपतिः // 1 ततः समुपविष्टेषु तेषु राजसु भारत / तयोः समभवद्युद्धं दिव्यास्त्रविदुषोर्द्वयोः / विवेश रङ्गं सा कन्या धात्रीवर्षधरान्विता // 10 युधि नानाप्रहरणैरन्योन्यमभिवर्षतोः // 2 ततः संश्राव्यमाणेषु राज्ञां नामसु भारत / क्षीणबाणौ विधनुषौ भग्नखड्गौ महीं गतौ / अत्यकामद्धार्तराष्ट्र सा कन्या वरवर्णिनी // 11 बाहुभिः समसञ्जेतामुभावपि बलान्वितौ // 3 दुर्योधनस्तु कौरव्यो नामर्षयत लङ्कनम् / बाहुकण्टकयुद्धेन तस्य कर्णोऽथ युध्यतः / प्रत्यषेधच्च तां कन्यामसत्कृत्य नराधिपान् // 12 बिभेद संधिं देहस्य जरया श्लेषितस्य ह // 4 स वीर्यमदमत्तत्वाद्भीष्मद्रोणावुपाश्रितः / स विकारं शरीरस्य दृष्ट्वा नृपतिरात्मनः / रथमारोप्य तां कन्यामाजुहाव नराधिपान् / / 13 / प्रीतोऽस्मीत्यब्रवीत्कणं वैरमुत्सृज्य भारत // 5 तमन्वयाद्रथी खड्गी बद्धगोधामुलित्रवान् / प्रीत्या ददौ स कर्णाय मालिनी नगरीमथ / कर्णः शस्त्रभृतां श्रेष्ठः पृष्ठतः पुरुषर्षभ // 14 / अङ्गेषु नरशार्दूल स राजासीत्सपत्नजित् // 6 - 1992 - Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 5.7] शान्तिपर्व [12. 7.5 पालयामास चम्पां तु कर्णः परबलार्दनः / यतितः स मया पूर्वं भ्राव्यं ज्ञापयितुं तव / दुर्योधनस्यानुमते तवापि विदितं तथा // 7 भास्करेण च देवेन पित्रा धर्मभृतां वर // 5 एवं शस्त्रप्रतापेन प्रथितः सोऽभवक्षितौ। यद्वाच्यं हितकामेन सुहृदा भूतिमिच्छता / त्वद्धितार्थ सुरेन्द्रेण भिक्षितो वर्मकुण्डले // 8 तथा दिवाकरेणोक्तः स्वप्नान्ते मम चाग्रतः // 6 स दिव्ये सहजे प्रादात्कुण्डले परमार्चिते। न चैनमशकद्भानुरहं वा स्नेहकारणैः / सहजं कवचं चैव मोहितो देवमायया // 9 पुरा प्रत्यनुनेतुं वा नेतुं वाप्येकतां त्वया // 7 विमुक्तः कुण्डलाभ्यां च सहजेन च वर्मणा / ततः कालपरीतः स वैरस्योद्धक्षणे रतः। निहतो विजयेनाजौ वासुदेवस्य पश्यतः // 10 / प्रतीपकारी युष्माकमिति चोपेक्षितो मया // 8 ब्राह्मणस्याभिशापेन रामस्य च महात्मनः / इत्युक्तो धर्मराजस्तु मात्रा बाष्पाकुलेक्षणः / कुन्त्याश्च वरदानेन मायया च शतक्रतोः // 11. उवाच वाक्यं धर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः // 9 भीष्मावमानात्संख्यायां स्थानामर्धकीर्तनात् / भवत्या गूढमत्रत्वात्पीडितोऽस्मीत्युवाच ताम् / शल्यात्तेजोवधाच्चापि वासुदेवनयेन च // 12 शशाप च महातेजाः सर्वलोकेषु च स्त्रियः / रुद्रस्य देवराजस्य यमस्य वरुणस्य च / न गुह्यं धारयिष्यन्तीत्यतिदुःखसमन्वितः // 10 कुबेरद्रोणयोश्चैव कृपस्य च महात्मनः // 13 स राजा पुत्रपौत्राणां संबन्धिसुहृदां तथा / अस्त्राणि दिव्यान्यादाय युधि गाण्डीवधन्वना / स्मरन्नुद्विग्नहृदयो बभूवास्वस्थचेतनः // 11 हतो वैकर्तनः कर्णो दिवाकरसमद्युतिः // 14 ततः शोकपरीतात्मा सधूम इव पावकः / एवं शप्तस्तव भ्राता बहुभिश्चापि वश्चितः। निर्वेदमकरोद्धीमानराजा संतापपीडितः // 12 न शोच्यः स नरव्याघ्रो युद्धे हि निधनं गतः // 15 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि षष्ठोऽध्यायः॥६॥ पञ्चमोऽध्यायः // 5 // वैशंपायन उवाच / वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः / एतावदुक्त्वा देवर्षिविरराम स नारदः। शुशोच दुःखसंतप्तः स्मृत्वा कणं महारथम् // 1 युधिष्ठिरस्तु राजर्षिर्दध्यौ शोकपरिप्लुतः // 1 आविष्टो दुःखशोकाभ्यां निःश्वसंश्च पुनः पुनः / तं दीनमनसं वीरमधोवदनमातुरम् / दृष्ट्वार्जुनमुवाचेदं वचनं शोककर्शितः // 2 निःश्वसन्तं यथा नागं पर्यश्रुनयनं तथा // 2 यद्भक्षमाचरिष्याम वृष्ण्यन्धकपुरे वयम् / कुन्ती शोकपरीताङ्गी दुःखोपहतचेतना। ज्ञातीन्निष्पुरुषान्कृत्वा नेमां प्राप्स्याम दुर्गतिम् / / 3 अब्रवीन्मधुराभाषा काले वचनमर्थवत् / / 3 अमित्रा नः समृद्धार्था वृत्तार्थाः कुरवः किल / युधिष्ठिर महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि / आत्मानमात्मना हत्वा किं धर्मफलमाप्नुमः // 4 जहि शोकं महाप्राज्ञ शृणु चेदं वचो मम // 4 / धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलमौरसम् / म. भा. 250 -1993 - Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 7.5] महाभारते [12: 7. 33 धिगस्त्वमर्षं येनेमामापदं गमिता वयम् // 5 / पाञ्चालानां कुरूणां च हता एव हि येऽहताः / साधु क्षमा दमः शौचमवैरोध्यममत्सरः / ते वयं त्वधमाल्लोकान्प्रपद्येम स्वकर्मभिः // 20 अहिंसा सत्यवचनं नित्यानि वनचारिणाम् // 6 वयमेवास्य लोकस्य विनाशे कारणं स्मृताः / वयं तु लोभान्मोहाच्च स्तम्भं मानं च संश्रिताः / धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण निकृत्या प्रत्यपत्स्महि // 21 इमामवस्थामापन्ना राज्यलेशबुभुक्षया // 7 सदैव निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा मायोपजीवनः / त्रैलोक्यस्यापि राज्येन नास्मान्कश्चित्प्रहर्षयेत् / मिथ्यावृत्तः स सततमस्मास्वनपकारिषु / / 22 बान्धवान्निहतान्दृष्ट्वा पृथिव्यामामिषैषिणः / / 8 अंशकामा वयं ते च न चास्माभिर्न नैर्जितम् / ते वयं पृथिवीहेतोरवध्यान्पृथिवीसमान / न तैभुक्तेयमवनिर्न नार्यो गीतवादितम् // 23 संपरित्यज्य जीवामो हीनार्था हतबान्धवाः // 9 / नामात्यसमिती कथ्यं न च श्रुतवतां श्रुतम् / आमिषे गृध्यमानानामशुनां नः शुनामिव। न रत्नानि पराानि न भून द्रविणागमः // 24 आमिषं चैव नो नष्टमामिषस्य च भोजिनः // 10 ऋद्धिमस्मासु तां दृष्ट्वा विव! हरिणः कृशः / न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः / धृतराष्ट्रस्य नृपतेः सौबलेन निवेदितः / / 25 न गवाश्वेन सर्वेण ते त्याज्या य इमे हताः // 11 तं पिता पुत्रगृद्धित्वादनुभेनेऽनये स्थितम् / संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधामर्षसमन्विताः / अनवेक्ष्यैष पितरं गाङ्गेयं विदुरं तथा / मृत्युयानं समारुह्य गता वैवस्वतक्षयम् // 12 असंशयं धृतराष्ट्रो यथैवाहं तथा गतः / / 26 बहु कल्याणमिच्छन्त ईहन्ते पितरः सुतान् / अनियम्याशुचिं लब्धं पुत्रं कामशानुगम् / तपसा ब्रह्मचर्येण वन्दनेन तितिक्षया // 13 पतितो यशसो दीप्ताद्वातयित्वा सहोदरान् // 27 उपवासैस्तथेज्याभिव्रतकौतुकमङ्गलैः / इमौ वृद्धौ च शोकाग्नी प्रक्षिप्य स सुयोधनः / लभन्ते मातरो गर्भास्तान्मासान्दश बिभ्रति // 14 अस्मत्प्रद्वेषसंयुक्तः पापबुद्धिः सदैव हि / / 28 यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि / को हि बन्धुः कुलीनः संस्तथा बलात्सुहृज्जने / संभाविता जातबलास्ते दार्यदि नः सुखम् / / यथासावुत्तवान्क्षुद्रो युयुत्सुर्वृष्णिसंनिधौ / / 29 इह चामुत्र चैवेति कृपणाः फलहेतुकाः // 15 . आत्मनो हि वयं दोषाद्विनष्टाः शाश्वतीः समाः / तासामयं समारम्भो निवृत्तः केवलोऽफलः / / प्रदहन्तो दिशः सर्वास्तेजसा भास्करा इव // 30 यदासां निहताः पुत्रा युवानो मृष्टकुण्डलाः // 16 सोऽस्माकं वैरपुरुषो दुर्मनिग्रहं गतः / अभुक्त्वा पार्थिवान्भोगानृणान्यनवदाय च / दुर्योधनकृते ह्येतत्कुलं नो विनिपातितम् / पितृभ्यो देवताभ्यश्च गता वैवस्वतक्षयम् // 17 अवध्यानां वधं कृत्वा लोके प्राप्ताः स्म वाच्यताम् // यदैषामङ्ग पितरौ जातौ काममयाविव / कुलस्थास्यान्तकरणं दुर्मतिं पापकारिणम् / संजातबलरूपेषु तदैव निहता नृपाः / / 18 राजा राष्ट्रेश्वरं कृत्वा धृतराष्ट्रोऽद्य शोचति // 32 संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधहर्षासमञ्जसाः। हताः शूराः कृतं पापं विषयः स्वो विनाशितः / न ते जन्मफलं किंचिद्भोक्तारो जातु कर्हि चित् // 19 / हत्वा नो विगतो मन्युः शोको मां रुन्धयत्ययम् // 33 - 1994 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12.7.341 शान्तिपर्व [ 12. 8. 20 धनंजय कृतं पापं कल्याणेनोपहन्यते / यो ह्याजिजीविषेद्भक्ष्यं कर्मणा नैव केनचित् / त्यागवांश्च पुनः पापं नालं कर्तुमिति श्रुतिः // 34 समारम्भान्बुभूषेत हतस्वस्तिरकिंचनः / त्यागवाञ्जन्ममरणे नाप्नोतीति श्रुतिर्यदा / सर्वलोकेषु विख्यातो न पुत्रपशुसंहितः // 6 प्राप्तवमा कृतमतिब्रह्म संपद्यते तदा // 35 कापाली नृप पापिष्ठां वृत्तिमास्थाय जीवतः / स धनंजय निहूँद्वो मुनिऑनसमन्वितः / संत्यज्य राज्यमृद्धं ते लोकोऽयं किं वदिष्यति // 7 वनमामत्र्य वः सर्वान्गमिष्यामि परंतप // 36 सर्वारम्भान्समुत्सृज्य हतस्वस्तिरकिंचनः / न हि कृत्स्नतमो धर्मः शक्यः प्राप्नुमिति श्रुतिः। . कस्मादाशंससे भैक्ष्यं चर्तुं प्राकृतवत्प्रभो / / 8 परिग्रहवता तन्मे प्रत्यक्षमरिसूदन // 37 अस्मिन्राजकुले जातो जित्वा कृत्स्नां वसुंधराम् / मया निसृष्टं पापं हि परिग्रहमभीप्सता। धर्मार्थावखिलौ हित्वा वनं मौढ्यात्प्रतिष्ठसे / / 9 जन्मक्षयनिमित्तं च शक्यं प्राप्नुमिति श्रुतिः / / 38 यदीमानि हवींषीह विमथिष्यन्त्यसाधवः / स परिग्रहमुत्सृज्य कृत्स्नं राज्यं तथैव च / भवता विप्रहीणानि प्राप्तं त्वामेव किल्बिषम् // 10 गमिष्यामि विनिर्मुक्तो विशोको विज्वरस्तथा।। 39 आकिंचन्यमनाशास्यमिति वै नहुषोऽब्रवीत् / प्रशाधि त्वमिमामुर्वी क्षेमां निहतकण्टकाम् / कृत्या नृशंसा ह्यधने धिगस्त्वधनतामिह // 11 न ममार्थोऽस्ति राज्येन न भोगैर्वा कुरूत्तम // 40 अश्वस्तनमृषीणां हि विद्यते वेद तद्भवान् / एतावदुक्त्वा वचनं धर्मराजो युधिष्ठिरः / / यं विमं धर्ममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते // 12 व्युपारमत्ततः पार्थः कनीयान्प्रत्यभाषत // 41 धर्म संहरते तस्य धनं हरति यस्य यः / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ह्रियमाणे धने राजन्वयं कस्य क्षमेमहि // 13 सप्तमोऽध्यायः॥ 7 // अभिशस्तवत्प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वतः स्थितम् / दारिद्रयं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति // 14 * वैशंपायन उवाच / पतितः शोच्यते राजन्निर्धनश्चापि शोच्यते / अथार्जुन उवाचेदमधिक्षिप्त इवाक्षमी / विशेषं नाधिगच्छामि पतितस्याधनस्य च // 15 अभिनीततरं वाक्यं दृढवादपराक्रमः // 1 अर्थेभ्यो हि विवृद्धेभ्यः संभृतेभ्यस्ततस्ततः / दर्शयन्नैन्द्रिरात्मानमुरमुग्रपराक्रमः। . क्रियाः सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः // 16 स्मयमानो महातेजाः सृक्किणी संलिहन्मुहुः // 2 अर्थाद्धर्मश्च कामश्च स्वर्गश्चैव नराधिप / अहो दुःखमहो कृच्छ्रमहो वैक्लव्यमुत्तमम् / प्राणयात्रा हि लोकस्य विनार्थं न प्रसिध्यति // 17 पत्कृत्वामानुषं कर्म त्यजेथाः श्रियमुत्तमाम् // 3 अर्थेन हि विहीनस्य पुरुषस्याल्पमेधसः / शत्रून्हत्वा महीं लब्ध्वा स्वधर्मेणोपपादिताम् / व्युच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा॥१८ इतामित्रः कथं सर्वं त्यजेथा बुद्धिलाघवात् // 4 यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः / कीबस्य हि कुतो राज्यं दीर्घसूत्रस्य वा पुनः / यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥ किमर्थं च महीपालानवधीः क्रोधमूर्छितः // 5 / अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विवित्सता / - 1995 - Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 8. 20] महाभारते [12. 9. 11 अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः // 20 उपेत्य तस्यावभृथं पूताः सर्वे भवन्ति ते // 35 धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः क्रोधः श्रुतं दमः / विश्वरूपो महादेवः सर्वमेधे महामखे / अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप // 21 जुहाव सर्वभूतानि तथैवात्मानमात्मना // 36 धनात्कुलं प्रभवति धनाद्धर्मः प्रवर्तते / शाश्वतोऽयं भूतिपथो नास्यान्तमनुशुश्रुम / नाधनस्यात्ययं लोको न परः पुरुषोत्तम // 22 महान्दाशरथः पन्था मा राजन्कापथं गमः॥३७ नाधनो धर्मकृत्यानि यथावदनुतिष्ठति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धनाद्धि धर्मः स्रवति शैलाद्गिरिनदी यथा // 23 . अष्टमोऽध्यायः // 8 // यः कृशाश्वः कृशगवः कृशभृत्यः कृशातिथिः / स वै राजन्कृशो नाम न शरीरकृशः कृशः // 24 युधिष्ठिर उवाच / अवेक्षस्व यथान्यायं पश्य देवासुरं यथा / मुहूर्तं तावदेकाग्रो मनःश्रोत्रेऽन्तरात्मनि / राजन्किमन्यज्ज्ञातीनां वधादृध्यन्ति देवताः // 25 धारयित्वापि ते श्रुत्वा रोचतां वचनं मम // 1 न चेद्धर्तव्यमन्यस्य कथं तद्धर्ममारभेत् / सार्थगम्यमहं मार्ग न जातु त्वत्कृते पुनः / एतावानेव वेदेषु निश्चयः कविभिः कृतः // 26 गच्छेयं तद्गमिष्यामि हित्वा ग्राम्यसुखान्युत // 2 अध्येतव्या त्रयी विद्या भवितव्यं विपश्चिता। क्षेम्यश्चैकाकिना गम्यः पन्थाः कोऽस्तीति पृच्छ मामा सर्वथा धनमाहार्य यष्टव्यं चापि यत्नतः // 27 अथ वा नेच्छसि प्रष्टुमपृच्छन्नपि मे शृणु // 3 द्रोहाद्देवैरवाप्तानि दिवि स्थानानि सर्वशः। हित्वा ग्राम्यसुखाचारं तप्यमानो महत्तपः / इति देवा व्यवसिता वेदवादाश्च शाश्वताः // 28 अरण्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मृगैः सह // 4 अधीयन्ते तपस्यन्ति यजन्ते याजयन्ति च। जुह्वानोऽग्निं यथाकालमुभौ कालावुपस्पृशन् / कृत्स्नं तदेव च श्रेयो यदप्याददतेऽन्यतः // 29 कृशः परिमिताहारश्चर्मचीरजटाधरः // 5 न पश्यामोऽनपहृतं धनं किंचित्कचिद्वयम् / शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमक्षमः / एवमेव हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम् // 30 तपसा विधिद्दष्टेन शरीरमुपशोषयन् // 6 जित्वा ममत्वं ब्रुवते पुत्रा इव पितुर्धने / मनःकर्णसुखा नित्यं शृण्वन्नुच्चावचा गिरः / राजर्षयो जितस्वर्गा धर्मो ह्येषां निगद्यते // 31 मुदितानामरण्येषु वसतां मृगपक्षिणाम् // 7 यथैव पूर्णादुदधेः स्यन्दन्त्यापो दिशो दश / आजिघ्रन्पेशलान्गन्धान्फुल्लानां वृक्षवीरुधाम् / एवं राजकुलाद्वित्तं पृथिवीं प्रतितिष्ठति // 32 नानारूपान्वने पश्यरमणीयान्वनौकसः / / 8 आसीदियं दिलीपस्य नृगस्य नहुषस्य च / वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनः / अम्बरीषस्य मान्धातुः पृथिवी सा त्वयि स्थिता // नाप्रियाण्याचरिष्यामि किं पुनर्ग्रामवासिनाम् // 9 स त्वां द्रव्यमयो यज्ञः संप्राप्तः सर्वदक्षिणः / / एकान्तशीली विमृशन्पक्कापक्केन वर्तयन् / तं चेन्न यजसे राजन्प्राप्तस्त्वं देवकिल्बिषम् // 34 पितृन्देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् // 10 येषां राजाश्वमेधेन यजते दक्षिणावता। एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् / - 1996 - Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 9. 11] शान्तिपर्व [12. 10.2 सेवमानः प्रतीक्षिष्ये देहस्यास्य समापनम् // 11 सर्वास्ताः समभित्यज्य निमेषादिव्यवस्थितः // 26 अथ वैकोऽहमेकाहमेकैकस्मिन्वनस्पतौ / तेषु नित्यमसक्तश्च त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः / चरन्भैक्ष्यं मुनिर्मुण्डः क्षपयिष्ये कलेवरम् // 12 सुपरित्यक्तसंकल्पः सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः // 27 पांसुभिः समवच्छन्नः शून्यागारप्रतिश्रयः / विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः / वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः // 13 न वशे कस्यचित्तिष्ठन्सधर्मा मातरिश्वनः / / 28 न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः / वीतरागश्चरन्नेवं तुष्टिं प्राप्स्यामि शाश्वतीम् / / निराशीनिर्ममो भूत्वा निद्वंद्वो निष्परिग्रहः // 14 / तृष्णया हि महत्पापमज्ञानादस्मि कारितः॥२९ आत्मारामः प्रसन्नात्मा जडान्धबधिराकृतिः / कुशलाकुशलान्येके कृत्वा कर्माणि मानवाः / अकुर्वाणः परैः कांचित्संविदं जातु केनचित्॥ 15 कार्यकारणसंश्लिष्टं स्वजनं नाम बिभ्रति // 30 जङ्गमाजङ्गमान्सन्निविहिंसंश्चतुर्विधान् / आयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्रायं कलेवरम् / प्रजाः सर्वाः स्वधर्मस्थाः समः प्राणभृतः प्रति॥१६ प्रतिगृह्णाति तत्पापं कर्तुः कर्मफलं हि तत् // 31 न चाप्यवहसन्कंचिन्न कुर्वन्भ्रुकुटी कचित् / एवं संसारचक्रेऽस्मिन्व्याविद्धे रथचक्रवत् / प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वेन्द्रियसुसंयतः // 17 समेति भूतग्रामोऽयं भूतग्रामेण कार्यवान् // 32 अपृच्छन्कस्यचिन्मार्ग व्रजन्येनैव केनचित् / जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरुपद्रुतम् / न देशं न दिशं कांचिद्गन्तुमिच्छन्विशेषतः // 18 असारमिममस्वन्तं संसारं त्यजतः सुखम् // 33 गमने निरपेक्षश्च पश्चादनवलोकयन् / दिवः पतत्सु देवेषु स्थानेभ्यश्च महर्षिषु / ऋजुः प्रणिहितो गच्छंस्त्रसस्थावरवर्जकः // 19 को हि नाम भवेनार्थी भवेत्कारणतत्त्ववित् // 34 स्वभावस्तु प्रयात्यग्रे प्रभवन्त्यशनान्यपि / कृत्वा हि विविधं कर्म तत्तद्विविधलक्षणम् / द्वंद्वानि च विरुद्धानि तानि सर्वाण्यचिन्तयन् / / 20 पार्थिवैर्नृपतिः स्वल्पैः कारणैरेव बध्यते // 35 अल्पं वास्वादु वा भोज्यं पूर्वालाभेन जातुचित् / तस्मात्प्रज्ञामृतमिदं चिरान्मां प्रत्युपस्थितम् / अन्येष्वपि चरींलाभमलामे सप्त पूरयन् // 21 तत्प्राप्य प्रार्थये स्थानमव्ययं शाश्वतं ध्रुवम् // 36 विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।। एतया सततं वृत्त्या चरन्नेवंप्रकारया / अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके // 22 देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः // 30 एककालं चरन्भेक्ष्यं गृहे द्वे चैव पञ्च च। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स्पृहापाशान्विमुच्याहं चरिष्यामि महीमिमाम् // 23 नवमोऽध्यायः // 9 // न जिजीविषुवत्किचिन्न मुमूर्षुवदाचरन् / जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन्न च द्विषन् // 24 भीम उवाच / वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः। श्रोत्रियस्येव ते राजन्मन्दकस्याविपश्चितः / नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः // 25 - अनुवाकहता बुद्धि षा तत्त्वार्थदर्शिनी // 1 याः काश्विजीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः। आलस्ये कृतचित्तस्य राजधर्मानसूयतः / - 1997 - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 102] महाभारते [12. 11.2 विनाशे धार्तराष्ट्राणां किं फलं भरतर्षभ // 2 जरयाभिपरीतेन शत्रुभिव्यंसितेन च // 17 क्षमानुकम्पा कारुण्यमानृशंस्यं न विद्यते / तस्मादिह कृतप्रज्ञा-त्यागं न परिचक्षते / क्षात्रमाचरतो मार्गमपि बन्धोस्त्वदन्तरे // 3 धर्मव्यतिक्रमं चेदं मन्यन्ते सूक्ष्मदर्शिनः // 18 यदीमां भवतो बुद्धि विद्याम वयमीहशीम् / कथं तस्मात्समुत्पन्नस्तन्निष्ठस्तदुपाश्रयः। शस्त्रं नैव ग्रहीष्याभो न वधिष्याम कंचन // 4 तदेव निन्दन्नासीत श्रद्धा वान्यत्र गृह्यते // 19 भैक्ष्यमेवाचरिष्याम शरीरस्या रिमोक्षणात् / श्रिया विहीरधर्नास्तिकैः संप्रवर्तितम् / न चेदं दारुणं युद्धमभविष्यन्महीक्षिताम् // 5 वेदवादस्य विज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् // 20 प्राणस्यान्नमिदं सर्वमिति वै कवयो विदुः।। शक्यं तु मौण्ड्यमास्थाय बिभ्रतात्मानमात्मना / स्थावरं जङ्गा चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् / / 6 धर्मच्छद्म समास्थाय आसितुं न तु जीवितुम् // 21 आददानस्य चेद्राज्यं ये केचित्परिपन्थिनः / शक्यं पुनररण्येषु सुखमेकेन जीवितुम् / ' हन्तव्यास्त इति प्राज्ञाः क्षत्रधर्मविदो विदुः // 7 अबिभ्रता पुत्रपौत्रान्देवर्षीनतिथीन्पितॄन् // 22 ते सदोषा हतास्माभी राज्यस्य परिपन्थिनः / नेमे मृगाः स्वर्गजितो न वराहा न पक्षिणः / तान्हत्वा भुङ्क्ष धर्मेण युधिष्ठिर महीमिमाम // 8 अर्थतेन प्रकारेण पुण्यमाहुर्न ताञ्जनाः // 23 यथा हि पुरुषः खात्या कूपमत्राप्य चोदकम् / / यदि संन्यासतः सिद्धिं राजन्कश्चिदवाप्नुयात् / पङ्कदिग्धो निवर्तत कर्मदं नस्तथोपमम् / / 5 पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः // 24 यथारुह्य महावृक्षमपहृत्य ततो मधु / एते हि नित्यसंन्यासा दृश्यन्ते निरुपद्रवाः / अप्राश्य निधनं गच्छेत्कर्मेदं नस्तथोपमम् // 10 अपरिग्रहवन्तश्च सततं चात्मचारिणः // 25 यथा महान्तमध्वानमाशया पुरुषः पतन् / अथ चेदात्मभाग्येषु नान्येषां सिद्धिमश्नुते / स निराशो निवर्तत कर्मेदं नस्तथोपमम् // 11 तस्मात्कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः / / 26 यथा शत्रून्घातयित्वा पुरुषः कुरुसत्तम / औदकाः सृष्टयश्चैव जन्तवः सिद्धिमाप्नुयुः / आत्मानं घातयेत्पश्चात्कर्मेदं नस्तथाविधम् / / 12 येषामात्मैव भर्तव्यो नान्यः कश्चन विद्यते // 27 यथान्नं क्षुधितो लब्ध्वा न भुञ्जीत यदृच्छया। अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत् / कामी च कामिनी लब्ध्वा कर्मेदं नस्तथाविधम्॥१३ / तस्मात्कमैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः // 28 वयमेवात्र गर्जा हि ये वयं मन्दचेतसः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि त्वां राजन्ननुगच्छामो ज्येष्ठोऽयमिति भारत // 14 दशमोऽध्यायः // 10 // वयं हि बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः / क्लीबस्य वाक्ये तिष्ठामो यथैवाशक्तयस्तथा // 15 अर्जुन उवाच / अगतीन्कागतीनस्मान्नष्टार्थानर्थसिद्धये / अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / कथं वै नानुपदयेयुर्जनाः पश्यन्ति यादृशम् / / 16 तापसैः सह संवादं शक्रस्य भरतर्षभ // 1 आपत्काले हि संन्यासः कर्तव्य इति शिष्यते। / केचिद्गृहान्परित्यज्य वनमभ्यगमन्द्विजाः / - 1998 - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 11. 2] शान्तिपर्व [12. 11. 28 अजातश्मश्रवो मन्दाः कुले जाताः प्रवव्रजुः // 2 मासार्धमासा ऋतव आदित्यशशितारकम् // 14 धर्मोऽयमिति मन्वाना ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिताः।। ईहन्ते सर्वभूतानि तदृतं कर्मसङ्गिनाम् / त्यक्त्वा गृहान्पिढेश्चैव तानिन्द्रोऽन्वऋपायत // 3 सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यमयमेवाश्रमो महान / / 15 तानाबभाषे भगवान्पक्षी भूत्वा हिरण्मयः / अथ ये कर्म निन्दन्तो मनुष्याः कापथं गताः / सुदुष्करं मनुष्यैश्च यत्कृतं विघसाशिभिः // 4 / मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते // 16 पुण्यं च बत कमैषां प्रशस्तं चैव जीवितम् / देववंशान्पितृवंशान्ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान् / संसिद्धास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ता धर्मपरायणाः // 5 संत्यज्य मूढा वर्तन्ते ततो यान्त्यश्रुतीपथम् // 17 ऋषय ऊचुः। एतद्वोऽस्तु तपो युक्तं ददानीत्यपिचोदितम् / अहो बतायं शकुनिर्विघसाशान्प्रशंसति / तस्मात्तद्ध्यवसतस्तपस्वि तप उच्यते // 18 अस्मान्नूनमयं शास्ति वयं च विघसाशिनः // 6 देववंशान्पितृवंशान्ब्रह्मवंशांश्च शाश्वतान् / शकुनिरुवाच / संविभज्य गुरोश्चर्यां तद्वै दुष्करमुच्यते // 19 नाहं युष्मान्प्रशंसामि पङ्कदिग्धान्रजस्वलान् / देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूति परमां गताः / उच्छिष्टभोजिनो मन्दानन्ये वै विघसाशिनः // 7 तस्माद्गार्हस्थ्यमुद्वोढुं दुष्करं प्रब्रवीमि वः // 20 ऋषय ऊचुः / तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन संशयः / इदं श्रेयः परमिति वयमेवाभ्युपास्महे / कुटुम्बविधिनानेन यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् // 21 शकुने ब्रूहि यच्छ्रेयो भृशं वै श्रद्दधाम ते // 8 एतद्विदुस्तपो विप्रा द्वंद्वातीता विमत्सराः / शकुनिरुवाच / तस्माद्वनं मध्यमं च लोकेषु तप उच्यते // 22 यदि मां नाभिशङ्कध्वं विभज्यात्मानमात्मना / दुराधर्षं पदं चैव गच्छन्ति विघसाशिनः / ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं हितं वचः॥ 9 सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुम्बे यथाविधि // 23 ऋषय ऊचुः। दत्त्वातिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यः स्वजनस्य च / शृणुमस्ते वचस्तात पन्थानो विदितास्तव / अवशिष्टानि येऽअन्ति तानाहुर्विघसाशिनः // 24 नियोगे चैव धर्मात्मन्स्थातुमिच्छाम शाधि नः / / 10 तस्मात्स्वधर्ममास्थाय सुव्रताः सत्यवादिनः / शकुनिरुधाच। लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवन्त्यनुपस्कृताः // 25 चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां काञ्चनं वरम् / / त्रिदिवं प्राप्य शक्रस्य स्वर्गलोके विमत्सराः / शब्दानां प्रवरो मत्रो ब्राह्मणो द्विपदां वरः // 11 वसन्ति शाश्वतीवर्षा जना दुष्करकारिणः // 26 मनोऽयं जातकर्मादि ब्राह्मणस्य विधीयते / ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा तस्य धर्मार्थसहितम् / जीवतो यो यथाकालं श्मशाननिधनादिति / / 12 उत्सृज्य नास्तिकगतिं गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रिताः॥२७ कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वयः पन्थास्त्वनुत्तमः / / तस्मात्त्वमपि दुर्धर्ष धैर्यमालम्ब्य शाश्वतम् / अथ सर्वाणि कर्माणि मन्त्रसिद्धानि चक्षते // 13 प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्ना हतामित्रां नरोत्तम // 28 आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥११॥ - 1999 - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 12. 1] महाभारते [ 12. 12.28 12 अथैनं मृत्युपाशेन कण्ठे बध्नाति मृत्युराट् // 14 वैशंपायन उवाच / अभिमानकृतं कर्म नैतत्फलवदुच्यते / अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नकुलो वाक्यमत्रवीत् / त्यागयुक्तं महाराज सर्वमेव महाफलम् // 15 राजानमभिसंप्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरम् / / 1 शमो दमस्तपो दानं सत्यं शौचमथार्जवम् / / अनुरुध्य महाप्राज्ञो भ्रातुश्चित्तमरिंदमः / यज्ञो धृतिश्च धर्मश्च नित्यमाणे विधिः स्मृतः॥१६ व्यूढोरस्को महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता // 2 पितृदेवातिथिकृते समारम्भोऽत्र शस्यते / विशाखयूपे देवानां सर्वेषामनियश्चिताः।। अत्रैव हि महाराज त्रिवर्गः केवलं फलम् // 17 तस्माद्विद्धि महाराज देवान्कर्मपथि स्थितान् // 3 एतस्मिन्वर्तमानस्य विधौ विप्रनिषेविते / अनास्तिकानास्तिकानां प्राणदाः पितरश्च ये / त्यागिनः प्रसृतस्येह नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् // 18 तेऽपि कमैव कुर्वन्ति विधि पश्यस्व पार्थिव।। असृजद्धि प्रजा राजन्प्रजापतिरकल्मषः / वेदवादापविद्धांस्तु तान्विद्धि भृशनास्तिकान् // 4 मां यक्ष्यन्तीति शान्तात्मा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः // 19 न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रः सर्वेषु कर्मसु / वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थं च तथौषधीः / देवयानेन नाकस्य पृष्टमाप्नोति भारत / / 5 पशुंश्चैव तथा मध्यान्यज्ञार्थानि हवींषि च // 20 अत्याश्रमानयं सर्वानित्याहुर्वेदनिश्चयाः। गृहस्थाश्रमिणस्तच्च यज्ञकर्म विरोधकम् / ब्राह्मणाः श्रुतिसंपन्नास्तान्निबोध जनाधिप // 6 तस्माद्गार्हस्थ्यमेवेह दुष्करं दुर्लभं तथा // 21 वित्तानि धर्मलब्धानि ऋतुमुख्येष्ववासृजन् / तत्संप्राप्य गृहस्था ये पशुधान्यसमन्विताः / कृतात्मसु महाराज स वै त्यागी स्मृतो नरः / / 7 न यजन्ते महाराज शाश्वतं तेषु किल्बिषम् // 21 अनवेक्ष्य सुखादानं तथैवोचं प्रतिष्ठितः / स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथापरे / आत्मत्यागी महाराज स त्यागी तामसः प्रभो॥ अथापरे महायज्ञान्मनसैव वितन्वते / / 23 अनिकेतः परिपतन्वृक्षमूलाश्रयो मुनिः / एवं दानसमाधानं मार्गमातिष्ठतो नृप / अपाचकः सदा योगी स त्यागी पार्थ भिक्षुकः // द्विजातेब्रह्मभूतस्य स्पृहयन्ति दिवौकसः // 24 क्रोधहर्षावनादृत्य पैशुन्यं च विशां पते / स रत्नानि विचित्राणि संभृतानि ततस्ततः / विप्रो वेदानधीते यः स त्यागी गुरुपूजकः / / 10 मखेष्वनभिसंत्यज्य नास्तिक्यमभिजल्पसि। आश्रमांस्तुलया सर्वान्धृतानाहुर्मनीषिणः / कुटुम्बमास्थिते त्यागं न पश्यामि नराधिप // 25 एकतस्ते त्रयो राजन्गृहस्थाश्रम एकतः / / 11 / राजसूयाश्वमेधेषु सर्वमेधेषु वा पुनः / समीक्षते तु योऽर्थं वै कामं स्वर्ग च भारत। ये चान्ये क्रतवस्तात ब्राह्मणैरभिपूजिताः / अयं पन्था महर्षीणामियं लोकविदां गतिः // 12 तैर्यजस्व महाराज शक्रो देवपतिर्यथा // 26 इति यः कुरुते भावं स त्यागी भरतर्षभ / राज्ञः प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुष्यताम् / न यः परित्यज्य गृहान्वनमेति विमूढवत् // 13 / अशरण्यः प्रजानां यः स राजा कलिरुच्यते // 2 // यदा कामान्समीक्षेत धर्मवैतंसिकोऽनृजुः। अश्वान्गाश्चैव दासीश्च करेणूश्च स्वलंकृताः / -2000 - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 12. 28 ] शान्तिपर्व [12. 14.3 प्रामाञ्जनपदांश्चैव क्षेत्राणि च गृहाणि च // 28 अप्रदाय द्विजातिभ्यो मात्सर्याविष्टचेतसः / वयं ते राजकलयो भविष्यामो विशां पते // 29 अदातारोऽशरण्याश्च राजकिल्बिषभागिनः। दुःखानामेव भोक्तारो न सुखानां कदाचन // 30 अनिष्ट्वा च महायज्ञैरकृत्वा च पितृस्वधाम् / तीर्थेष्वनभिसंत्यज्य प्रव्रजिष्यसि चेदथ / / 31 छिन्नाभ्रमिव गन्तासि विलयं मारुतेरितम् / लोकयोरुभयोर्धष्टो ह्यन्तराले व्यवस्थितः // 32 अन्तर्बहिश्च यत्किचिन्मनोव्यासङ्गकारकम् / परित्यज्य भवेत्त्यागी न यो हित्वा प्रतिष्ठते // 33 एतस्मिन्वर्तमानस्य विधौ विप्रनिषेविते / ब्राह्मणस्य महाराज नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित् // 34 निहत्य शत्रूस्तरसा समृद्धा शको यथा दैत्यबलानि संख्ये / कः पार्थ शोचेन्निरतः स्वधर्मे - पूर्वैः स्मृते पार्थिव शिष्टजुष्टे // 35 क्षात्रेण धर्मेण पराक्रमेण जित्वा महीं मन्त्रविद्भ्यः प्रदाय / नाकस्य पृष्ठेऽसि नरेन्द्र गन्ता न शोचितव्यं भवताद्य पार्थ // 36 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्वादशोऽध्यायः // 12 // यो धर्मो यत्सुखं वा स्यात्सुहृदां तत्तथास्तु नः // 3 व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युरुयक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् / ममेति च भवेन्मृत्युन ममेति च शाश्वतम् // 4 ब्रह्ममृत्यू च तौ राजन्नात्मन्येव समाश्रितौ / अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् // 5 अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत / भित्त्वा शरीरं भूतानां न हिंसा प्रतिपत्स्यते // 6 अथापि च सहोत्पत्तिः सत्त्वस्य प्रलयस्तथा / नष्टे शरीरे नष्टं स्याद्वृथा च स्यात्क्रियापथः // 7 तस्मादेकान्तमुत्सृज्य पूर्वैः पूर्वतरैश्च यः / पन्था निषेवितः सद्भिः स निषेव्यो विजानता // 8 लब्ध्वापि पृथिवीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम् / न भुङ्क्ते यो नृपः सम्यङिष्फलं तस्य जीवितम्॥९ अथ वा वसतो राजन्वने वन्येन जीवतः / द्रव्येषु यस्य ममता मृत्योरास्ये स वर्तते // 10 बाह्याभ्यन्तरभूतानां स्वभावं पश्य भारत / ये तु पश्यन्ति तद्भावं मुच्यन्ते महतो भयात् // 11 भवान्पिता भवान्माता भवान्भ्राता भवान्गुरुः / दुःखप्रलापानार्तस्य तस्मान्मे क्षन्तुमर्हसि // 12 तथ्यं वा यदि वातथ्यं यन्मयैतत्प्रभाषितम् / तद्विद्धि पृथिवीपाल भक्त्या भरतसत्तम // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रयोदशोऽध्यायः॥ 13 // सहदेव उवाच। वैशंपायन उवाच / न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत। अव्याहरति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे / शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा // 1 / भ्रातॄणां ब्रुवतां तांस्तान्विविधान्वेदनिश्चयान् // 1 बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृध्यतः। महाभिजनसंपन्ना श्रीमत्यायतलोचना / यो धर्मो यत्सुखं वा स्याद्विषतां तत्तथास्तु नः // 2 अभ्यभाषत राजेन्द्र द्रौपदी योषितां वरा // 2 शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य पृथिवीमनुशासतः / आसीनमृषभं राज्ञां भ्रातृभिः परिवारितम् / म. भा. 251 - 2001 - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 14. 3] महाभारते [12. 14. 33 सिंहशार्दूलसदृशैरिणैरिव यूथपम् // 3 त्वयेयं पृथिवी लब्धा नोत्कोचेन तथाप्युत // 18 अभिमानवती नित्यं विशेषेण युधिष्ठिरे / यत्तद्लममित्राणां तथा वीरसमुद्यतम् / लालिता सततं राज्ञा धर्मज्ञा धर्मदर्शिनी // 4 हस्त्यश्वरथसंपन्नं त्रिभिर महत्तरम् // 19 आमत्रय विपुलश्रोणी साम्ना परमवल्गुना / रक्षितं द्रोणकर्णाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च / भर्तारमभिसंप्रेक्ष्य ततो वचनमब्रवीत् // 5 तत्त्वया निहतं वीर तस्माद्भुत वसुंधराम् / / 20 इमे ते भ्रातरः पार्थ शुष्यन्त स्तोकका इव / जम्बूद्वीपो महाराज नानाजनपदायुतः।। वावाश्यमानास्तिष्ठन्ति न चैनानभिनन्दसे // 6 त्वया पुरुषशार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो // 21 नन्दयैतान्महाराज मत्तानिव महाद्विपान् / जम्बूद्वीपेन सदृशः क्रौञ्चद्वीपो नराधिप / उपपन्नेन वाक्येन सततं दुःखभागिनः // 7 अपरेण महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया // 22 कथं द्वैतवने राजन्पूर्वमुक्त्वा तथा वचः / क्रौञ्चद्वीपेन सदृशः शाकद्वीपो नराधिप / भ्रातृनेतान्स्म सहिताशीतवातातपादितान् // 8 पूर्वेण तु महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया // 23 वयं दुर्योधनं हत्वा मृधे भोक्ष्याम मेदिनीम् / उत्तरेण महामेरोः शाकद्वीपेन संमितः / संपूर्णां सर्वकामानामाहवे विजयैषिणः // 9 भद्राश्वः पुरुषव्याघ्र दण्डेन मृदितस्त्वया // 24 विरथांश्च रथान्कृत्वा निहत्य च महागजान् / द्वीपाश्च सान्तरद्वीपा नानाजनपदालयाः / संस्तीर्य च रथैर्भूमि ससादिभिररिंदमाः॥ 10 विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितास्त्वया // 25 यजतां विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः / एतान्यप्रतिमानि त्वं कृत्वा कर्माणि भारत / वनवासकृतं दुःखं भविष्यति सुखाय नः // 11 न प्रीयसे महाराज पूज्यमानो द्विजातिभिः // 26 इत्येतानेवमुक्त्वा त्वं स्वयं धर्मभृतां वर / स त्वं भ्रातृनिमान्दृष्ट्वा प्रतिनन्दस्व भारत / कथमद्य पुनर्वीर विनिहंसि मनांस्युत // 12 ऋषभानिव संमत्तान्गजेन्द्रानूर्जितानिव // 27 न क्लीबो वसुधां भुङ्क्ते न लीबो धनमश्नुते / अमरप्रतिमाः सर्वे शत्रुसाहाः परंतपाः / न क्लीबस्य गृहे पुत्रा मत्स्याः पङ्क इवासते॥ 13 एकोऽपि हि सुखायैषां क्षमः स्यादिति मे मतिः॥२८ नादण्डः क्षत्रियो भाति नादण्डो भूतिमश्रुते।। किं पुनः पुरुषव्याघ्राः पतयो मे नरर्षभाः / नादण्डस्य प्रजा राज्ञः सुखमेधन्ति भारत // 14 समस्तानीन्द्रियाणीव शरीरस्य विचेष्टने // 29 मित्रता सर्वभूतेषु दानमध्ययनं तपः / अनृतं माब्रवीच्छ्रशूः सर्वज्ञा सर्वदर्शिनी / ब्राह्मणस्यैष धर्मः स्यान्न राज्ञो राजसत्तम // 15 युधिष्ठिरस्त्वां पाञ्चालि सुखे धास्यत्यनुत्तमे // 30 असतां प्रतिषेधश्च सतां च परिपालयन् / हत्वा राजसहस्राणि बहून्याशुपराक्रमः / एष राज्ञां परो धर्मः समरे चापलायनम् // 16 तद्वयर्थं संप्रपश्यामि मोहात्तव जनाधिप / 31 यस्मिन्क्षमा च क्रोधश्च दानादाने भयाभये / येषामुन्मत्तको ज्येष्ठः सर्वे तस्योपचारिणः / निग्रहानुग्रहौ चोभौ स वै धर्मविदुच्यते // 17 तवोन्मादेन राजेन्द्र सोन्मादाः सर्वपाण्डवाः॥३२ न श्रुतेन न दानेन न सान्त्वेन न चेज्यया। यदि हि स्युरनुन्मत्ता भ्रातरस्ते जनाधिप। - 2002 - Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 14. 33] शान्तिपर्व [12. 15. 21 बद्धा त्वां नास्तिकैः सार्धं प्रशासेयुर्वसुंधराम्॥३३ / दण्डस्यैव भयादेके न खादन्ति परस्परम् / कुरुते मूढमेवं हि यः श्रेयो नाधिगच्छति / अन्धे तमसि मजेयुर्यदि दण्डो न पालयेत् // 7 धूपैरञ्जनयोगैश्च नस्यकर्मभिरेव च / यस्माददान्तान्दमयत्यशिष्टान्दण्डयत्यपि / भेषजैः स चिकित्स्यः स्याद्य उन्मार्गेण गच्छति // 34 दमनाद्दण्डनाच्चैव तस्माद्दण्डं विदुर्बुधाः // 8 साहं सर्वाधमा लोके स्त्रीणां भरतसत्तम / वाचि दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम् / तथा विनिकृतामित्रैर्याहमिच्छामि जीवितुम // 35 दानदण्डः स्मृतो वैश्यो निर्दण्डः शूद्र उच्यते // 9 एतेषां यतमानानामुत्पद्यन्ते तु संपदः। असंमोहाय मानामर्थसंरक्षणाय च / त्वं तु सर्वां महीं लब्ध्वा कुरुषे स्वयमापदम् // 36 मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा विशां पते॥१० यथास्तां संमतौ राज्ञां पृथिव्यां राजसत्तमौ। यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति सूनृतः / मान्धाता चाम्बरीषश्च तथा राजविराजसे // 37 प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति // 11 प्रशाधि पृथिवीं देवीं प्रजा धर्मेण पालयन् / ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ मिक्षकः / सपर्वतवनद्वीपां मा राजन्विमना भव // 38 दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः // 12 यजस्व विविधैर्यज्ञैर्जुह्वन्नग्नीन्प्रयच्छ च / नाभीतो यजते राजन्नाभीतो दातुमिच्छति / पुराणि भोगान्वासांसि द्विजातिभ्यो नृपोत्तम // 39 नाभीतः पुरुषः कश्चित्समये स्थातुमिच्छति // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम् / चतुर्दशोऽध्यायः॥ 14 // नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् // 14 नाघ्नतः कीर्तिरस्तीह न वित्तं न पुनः प्रजाः / वैशंपायन उवाच / इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत // 15 याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत् / / य एव देवा हन्तारस्ताल्लोकोऽर्चयते भृशम् / अनुमान्य महाबाहुं ज्येष्ठं भ्रातरमीश्वरम् // 1 हन्ता रुद्रस्तथा स्कन्दः शक्रोऽग्निवरुणो यमः॥१६ दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति / हन्ता कालस्तथा वायुम॒त्युर्वैश्रवणो रविः / दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः // 2 वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवाश्च भारत // 17 धर्म संरक्षते दण्डस्तथैवार्थ नराधिप / एतान्देवान्नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः / कामं संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गो दण्ड उच्यते // 3 न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथंचन // 18 दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते / मध्यस्थान्सर्वभूतेषु दान्ताशमपरायणान् / एतद्विद्वन्नपादत्स्व स्वभावं पश्य लौकिकम् // 4 यजन्ते मानवाः केचित्प्रशान्ताः सर्वकर्मसु // 19 राजदण्डभयादेके पापाः पापं न कुर्वते / न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कंचिदहिंसया। यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि // 5 सत्त्वैः सत्त्वानि जीवन्ति दुर्बलैर्बलवत्तराः // 20 परस्परभयादेके पापाः पापं न कुर्वते / नकुलो मूषकानत्ति बिडालो नकुलं तथा / एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् // 6 / बिडालमत्ति श्वा राजश्वानं व्यालमृगस्तथा // 21 - 2003 - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 15. 22] महाभारते [ 12. 15. 50 तानत्ति पुरुषः सर्वान्पश्य धर्मो यथागतः / यदि दण्डान्न बिभ्येयुर्वयांसि श्वापदानि च / प्राणस्यान्नमिदं सर्वं जङ्गमं स्थावरं च यत् // 22 / अद्युः पशून्मनुष्यांश्च यज्ञार्थानि हवींषि च // 36 विधानं देवविहितं तत्र विद्वान्न मुह्यति / न ब्रह्मचार्यधीयीत कल्याणी गौन दुह्यते / यथा सृष्टोऽसि राजेन्द्र तथा भवितुमर्हसि // 23 न कन्योद्वहनं गच्छेद्यदि दण्डो न पालयेत् // 37 विनीतक्रोधहर्षा हि मन्दा वनमुपाश्रिताः / विश्वलोपः प्रवर्तेत भिद्येरन्सर्वसेतवः / विना वधं न कुर्वन्ति तापसाः प्राणयापनम् // 24 ममत्वं न प्रजानीयुर्यदि दण्डो न पालयेत् // 38 उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च।। न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः / न च कश्चिन्न तान्हन्ति किमन्यत्प्राणयापनात् // 25 विधिवदक्षिणावन्ति यदि दण्डो न पालयेत् // 39 सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित् / / चरेयुर्नाश्रमे धर्म यथोक्तं विधिमाश्रिताः / पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात्स्कन्धपर्ययः॥२६ | न विद्यां प्राप्नुयात्कश्चिद्यदि दण्डो न पालयेत् // 40 ग्रामान्निष्क्रम्य मुनयो विगतक्रोधमत्सराः। न चोष्ट्रा न बलीवर्दा नाश्वाश्वतरगर्दभाः / वने कुटुम्बधर्माणो दृश्यन्ते परिमोहिताः // 27 युक्ता वहेयुर्यानानि यदि दण्डो न पालयेत् // 41 भूमिं भित्त्वौषधीश्छित्त्वा वृक्षादीनण्डजान्पशून् / न प्रेष्या वचनं कुर्युर्न बालो जातु कर्हिचित् / मनुष्यास्तन्वते यज्ञांस्ते स्वर्ग प्राप्नुवन्ति च // 28 तिष्ठेपितृमते धर्मे यदि दण्डो न पालयेत् / / 42 दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः। दण्डे स्थिताः प्रजाः सर्वा भयं दण्डं विदुर्बुधाः / कौन्तेय सर्वभूतानां तत्र मे नास्ति संशयः // 29 दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं च प्रतिष्ठितः॥४३ दण्डश्चेन्न भवेल्लोके व्यनशिष्यन्निमाः प्रजाः। न तत्र कूटं पापं वा वश्चना वापि दृश्यते / शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः // 30 यत्र दण्डः सुविहितश्चरत्यरिविनाशनः // 44 सत्यं चेदं ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं हविः श्वा प्रपिबेद्धृष्टो दण्डश्चेन्नोधतो भवेत् / दण्डः प्रजा रक्षति साधु नीतः / हरेत्काकः पुरोडाशं यदि दण्डो न पालयेत् // 45 पश्याग्नयश्च प्रतिशाम्यन्त्यभीताः यदिदं धर्मतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः / संतर्जिता दण्डभयाज्ज्वलन्ति // 31 कार्यस्तत्र न शोको वै भुन भोगान्यजस्व च // 46 अन्धं तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किंचन / सुखेन धर्मं श्रीमन्तश्चरन्ति शुचिवाससः / दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विभजन्साध्वसाधुनी // 32 संवसन्तः प्रियैर्दारै खानाश्चान्नमुत्तमम् // 47 येऽपि संभिन्नमर्यादा नास्तिका वेदनिन्दकाः।। अर्थे सर्वे समारम्भाः समायत्ता न संशयः / तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनोपनिपीडिताः // 33 स च दण्डे समायत्तः पश्य दण्डस्य गौरवम् // 48 सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः।। लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् / दण्डस्य हि भयादीतो भोगायेह प्रकल्पते // 34 / अहिंसा साधुहिंसेति श्रेयान्धर्मपरिग्रहः // 49 चातुर्वर्ण्याप्रमोहाय सुनीतनयनाय च / नात्यन्तगुणवान्कश्चिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणः / / दण्डो विधात्रा विहितो धर्मार्थावभिरक्षितुम् // 35 / उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु च // 50 -2004 - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 15. 51] शान्तिपर्व [12. 16. 20 पशूनां वृषणं छित्त्वा ततो मिन्दन्ति नस्तकान् / / आगतिश्च गतिश्चैव लोकस्य विदिता तव / कृषन्ति बहवो भारान्बध्नन्ति दमयन्ति च // 51 आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्यविदितं प्रभो॥६ एवं पर्याकुले लोके विपथे जर्जरीकृते / एवं गते महाराज राज्यं प्रति जनाधिप / तैस्तैायैर्महाराज पुराणं धर्ममाचर / / 52 हेतुमत्र प्रवक्ष्यामि तदिहैकमनाः शृणु // 7 यज देहि प्रजा रक्ष धर्म समनुपालय / द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा / अमित्रालहि कौन्तेय मित्राणि परिपालय // 53 परस्परं तयोर्जन्म निद्वंद्वं नोपलभ्यते // 8 मा च ते निघ्नतः शत्रून्मन्युभवतु भारत / शारीराज्जायते व्याधिर्मानसो नात्र संशयः / न तत्र किल्बिषं किंचित्कर्तुर्भवति भारत // 54 मानसाज्जायते व्याधिः शारीर इति निश्चयः // 9 आततायी हि यो हन्यादाततायिनमागतम् / . शारीरमानसे दुःखे योऽतीते अनुशोचति / न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमृच्छति // 55 दुःखेन लभते दुःखं द्वावनौँ प्रपद्यते // 10 अवध्यः सर्वभूतानामन्तरात्मा न संशयः / शीतोष्णे चैव वायुश्च त्रयः शारीरजा गुणाः / भवध्ये चात्मनि कथं वध्यो भवति केनचित् / / 56 तेषां गुणानां साम्यं च तदाहुः स्वस्थलक्षणम् // 11 यथा हि पुरुषः शालां पुनः संप्रविशेन्नवाम् / / तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते / एवं जीवः शरीराणि तानि तानि प्रपद्यते // 57 उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं प्रबाध्यते // 12 देहान्पुराणानुत्सृज्य नवान्संप्रतिपद्यते / सत्त्वं रजस्तमश्चैव मानसाः स्युख्यो गुणाः / एवं मृत्युमुखं प्राहुर्ये जनास्तत्त्वदर्शिनः // 58 हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कश्चित्सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति / पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // कश्चिदुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति // 14 स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी च सुखस्य च / वैशंपायन उवाच / न दुःखी सुखजातस्य न सुखी दुःखजस्य वा // 15 अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः / स्मर्तुमर्हसि कौरव्य दिष्टं तु बलवत्तरम् / धैर्यमास्थाय तेजस्वी ज्येष्ठं भातरमब्रवीत् // 1 अथ वा ते स्वभावोऽयं येन पार्थिव कृष्यसे // 16 राजन्विदितधर्मोऽसि न तेऽस्यविदितं भुवि / दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम् / पशिक्षाम ते वृत्तं सदैव न च शक्नुमः / / 2 / / मिषतां पाण्डुपुत्राणां न तस्य स्मर्तुमर्हसि // 17 . न वक्ष्यामि न वक्ष्यामीत्येवं मे मनसि स्थितम् / प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च निवासनम् / अतिदुःखात्तु वक्ष्यामि तन्निबोध जनाधिप // 3 महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमर्हसि // 18 भवतस्तु प्रमोहेन सर्व संशयितं कृतम् / जटासुरात्परिक्लेशं चित्रसेनेन चाहवम् / विक्लवत्वं च नः प्राप्तमबलत्वं तथैव च // 4 सैन्धवाञ्च परिश्लेशं कथं विस्मृतवानसि / यं हि राजा लोकस्य सर्वशास्त्रविशारदः / पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधम् // 19 मोहमापद्यते दैन्याद्यथा कुपुरुषस्तथा // 5 यञ्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम / -2005 - Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 16. 20] महाभारते [12. 17.1 मनसैकेन ते युद्धमिदं घोरमुपस्थितम् / 20 योगक्षेमौ च राष्ट्रस्य धर्माधर्मों त्वयि स्थितौ / यत्र नास्ति शरैः कार्य न मित्रैर्न च बन्धुभिः / मुच्यस्व महतो भारात्त्यागमेवाभिसंश्रय / / 7 आत्मनैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् // 21 एकोदरकृते व्याघ्रः करोति विघसं बहु / तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे प्राणान्यदि ह मोक्ष्यसे / तमन्येऽप्युपजीवन्ति मन्दवेगंचरा मृगाः // 8 अन्यं देहं समास्थाय पुनस्तेनैव योत्स्यसे // 22 विषयान्प्रतिसंहृत्य संन्यासं कुरुते यतिः / तस्मादद्यैव गन्तव्यं युद्धस्य भरतर्षभ। न च तुष्यन्ति राजानः पश्य बुद्ध्यन्तरं यथा // 9 एतज्जित्वा महाराज कृतकृत्यो भविष्यसि // 23 पत्राहारैरश्मकुट्टैर्दन्तोलूखलिकैस्तथा / एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम् / / अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च तैरयं नरको जितः // 10 पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् // 24 यश्चेमां वसुधां कृत्स्ना प्रशासेदखिलां नृपः / दिष्ट्या दुर्योधनः पापो निहतः सानुगो युधि / तुल्याश्मकाञ्चनो यश्च स कृतार्थो न पार्थिवः॥ 11 द्रौपद्याः केशपक्षस्य दिष्ट्या त्वं पदवीं गतः // 25 संकल्पेषु निरारम्भो निराशो निर्ममो भव / यजस्व वाजिमेधेन विधिवदक्षिणावता। विशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाव्ययम् / / 12 वयं ते किंकराः पार्थ वासुदेवश्च वीर्यवान् / / 26 निरामिषा न शोचन्ति शोचसि त्वं किमामिषम्। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि परित्यज्यामिषं सर्वं मृषावादात्प्रमोक्ष्यसे // 13. षोडशोऽध्यायः // 16 // पन्थानौ पितृयानश्च देवयानश्च विश्रुतौ / ईजानाः पितृयानेन देवयानेन मोक्षिणः // 14 युधिष्ठिर उवाच / तपसा ब्रह्मचर्येण स्वाध्यायेन च पाविताः / असंतोषः प्रमादश्च मदो रागोऽप्रशान्तता। विमुच्य देहान्वै भान्ति मृत्योरविषयं गताः // 15 बलं मोहोऽभिमानश्च उद्वेगश्चापि सर्वशः // 1 आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथामिषम् / एभिः पाप्मभिराविष्टो राज्यं त्वमभिकाङ्कसि / ताभ्यां विमुक्तः पाशाभ्यां पदमाप्नोति तत्परम्॥१६ निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तः सुसुखी भव // 2 अपि गाथामिमां गीतां जनकेन वदन्त्युत / य इमामखिलां भूमि शिष्यादेको महीपतिः / निर्द्वद्वेन विमुक्तेन मोक्षं समनुपश्यता // 17 तस्याप्युदरमेवैकं किमिदं त्वं प्रशंससि // 3 अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन। नाह्रा पूरयितुं शक्या न मासेन नरर्षभ / मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन // 18 अपूर्यां पूरयन्निच्छामायुषापि न शक्नुयात् // 4 प्रज्ञाप्रासादमारुह्य नशोच्याशोचतो जनान् / यथेद्धः प्रज्वलत्यग्निरसमिद्धः प्रशाम्यति / जगतीस्थानिवाद्रिस्थो मन्दबुद्धीनवेक्षते // 19 अल्पाहारतया त्वग्निं शमयौदर्यमुत्थितम् / दृश्यं पश्यति यः पश्यन्स चक्षुष्मान्स बुद्धिमान् / जयोदरं पृथिव्या ते श्रेयो निर्जितया जितम् // 5 / अज्ञातानां च विज्ञानात्संबोधाद्बुद्धिरुच्यते // 20 मानुषान्कामभोगांस्त्वमैश्वर्यं च प्रशंससि।। यस्तु वाचं विजानाति बहुमानमियात्स वै / अभोगिनोऽबलाश्चैव यान्ति स्थानमनुत्तमम् // 6 ब्रह्मभावप्रसूतानां वैद्यानां भावितात्मनाम् // 21 -2006 - Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 17. 22 ] शान्तिपर्व [12. 18. 25 18 यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति / श्रियं हित्वा प्रदीप्तां त्वं श्ववत्संप्रति वीक्ष्यसे / तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा // 22 अपुत्रा जननी तेऽद्य कौसल्या चापतिस्त्वया // 12 ते जनानां गतिं यान्ति नाविद्वांसोऽल्पचेतसः। अशीतिधर्मकामास्त्वां क्षत्रियाः पर्युपासते / नाबुद्धयो नातपसः सर्वं बुद्धौ प्रतिष्ठितम् // 23 त्वदाशामभिकाङ्क्षन्त्यः कृपणाः फलहेतुकाः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ताश्च त्वं विफलाः कुर्वन्काल्लोकान्नु गमिष्यसि / सप्तदशोऽध्यायः // 17 // राजन्संशयिते मोक्षे परतत्रेषु देहिषु // 14 नैव तेऽस्ति परो लोको नापरः पापकर्मणः / वैशंपायन उवाच / धान्दारान्परित्यज्य यस्त्वमिच्छसि जीवितुम् // तूष्णींभूतं तु राजानं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत् / / स्रजो गन्धानलंकारान्वासांसि विविधानि च / संतप्तः शोकदुःखाभ्यां राज्ञो वाक्शल्यपीडितः॥१ किमर्थमभिसंत्यज्य परिव्रजसि निष्क्रियः // 16 कथयन्ति पुरावृत्तमितिहासमिमं जनाः। निपानं सर्वभूतानां भूत्वा त्वं पावनं महत् / विदेहराज्ञः संवादं भार्यया सह भारत // 2 आढयो वनस्पतिर्भूत्वा सोऽद्यान्यापर्युपाससे॥१७ उत्सृज्य राज्यं भैक्षार्थं कृतबुद्धिं जनेश्वरम् / खादन्ति हस्तिनं न्यासे क्रव्यादा बहवोऽप्युत / विदेहराजं महिषी दुःखिता प्रत्यभाषत // 3 बहवः कृमयश्चैव किं पुनस्त्वामनर्थकम् // 18 धनान्यपत्यं मित्राणि रत्नानि विविधानि च / य इमां कुण्डिकां भिन्द्यात्रिविष्टब्धं च ते हरेत् / पन्थानं पावनं हित्वा जनको मौण्ड्यमास्थितः॥ 4 वासश्चापहरेत्तस्मिन्कथं ते मानसं भवेत् // 19 तं ददर्श प्रिया भार्या भैक्ष्यवृत्तिमकिंचनम् / यस्त्वयं सर्वमुत्सृज्य धानामुष्टिपरिग्रहः / धानामुष्टिमुपासीनं निरीहं गतमत्सरम् // 5 यदानेन समं सर्व किमिदं मम दीयते / तमुवाच समागम्य भर्तारमकुतोभयम् / धानामुष्टिरिहार्थश्चेत्प्रतिज्ञा ते विनश्यति // 20 क्रुद्धा मनस्विनी भार्या विविक्ते हेतुमद्वचः // 6 का वाहं तव को मे त्वं कोऽद्य ते मय्यनुग्रहः / कथमुत्सृज्य राज्यं स्वं धनधान्यसमाचितम् / प्रशाधि पृथिवीं राजन्यत्र तेऽनुग्रहो भवेत् / कापाली वृत्तिमास्थाय धानामुष्टिर्वनेऽचरः // 7 प्रासादं शयनं यानं वासांस्याभरणानि च / / 21 प्रतिज्ञा तेऽन्यथा राजन्विचेष्टा चान्यथा तव / श्रिया निराशेरधनत्यक्तमित्रैरकिंचनैः / यद्राज्यं महदुत्सृज्य स्वल्पे तुष्यसि पार्थिव // 8 सौखिकैः संभृतानन्यः संत्यजसि किं नु तत्॥२२ नैतेनातिथयो राजन्देवर्षिपितरस्तथा / योऽत्यन्तं प्रतिगृह्णीयाद्यश्च दद्यात्सदैव हि / शक्यमद्य त्वया भर्तुं मोघस्तेऽयं परिश्रमः // 9 तयोस्त्वमन्तरं विद्धि श्रेयांस्ताभ्यां क उच्यते // 23 देवतातिथिभिश्चैव पितृभिश्चैव पार्थिव / सदैव याचमानेषु सत्सु दम्भविवर्जिषु / सर्वैरेतैः परित्यक्तः परिव्रजसि निष्क्रियः / / 10 एतेषु दक्षिणा दत्ता दावाग्नाविव दुर्हतम् // 24 यस्त्वं त्रैविद्यवृद्धानां ब्राह्मणानां सहस्रशः / जातवेदा यथा राजन्नादग्ध्वैवोपशाम्यति / भर्ता भूत्वा च लोकस्य सोऽद्यान्य तिमिच्छसि॥ / सदैव याचमानो वै तथा शाम्यति न द्विजः॥२५ -2007 - Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 18. 26 ] महाभारते [ 12. 19. 14 सतां च वेदा अन्नं च लोकेऽस्मिन्प्रकृतिधुवा / न चेदाता भवेदाता कुतः स्युमोक्षकाङ्गिणः // 26 युधिष्ठिर उवाच / अन्नाद्गृहस्था लोकेऽस्मिन्भिक्षवस्तत एव च। वेदाहं तात शास्त्राणि अपराणि पराणि च / . अन्नात्प्राणः प्रभवति अन्नदः प्राणदो भवेत् / / 27 उभयं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च // 1 गृहस्थेभ्योऽभिनिवृत्ता गृहस्थानेव संश्रिताः / आकुलानि च शास्त्राणि हेतुमिश्चित्रितानि च / प्रभवं च प्रतिष्ठां च दान्ता निन्दन्त आसते // 28 निश्चयश्चैव यन्मात्रो वेदाहं तं यथाविधि // 2 त्यागान्न भिक्षुकं विद्यान्न मौण्ड्यान्न च याचनात् / त्वं तु केवलमस्त्रज्ञो वीरव्रतमनुष्ठितः / ऋजुस्तु योऽर्थं त्यजति तं सुखं विद्धि भिक्षुकम्॥२९ शास्त्रार्थ तत्त्वतो गन्तुं न समर्थः कथंचन // 3 असक्तः सक्तवद्गच्छन्निःसङ्गो मुक्तबन्धनः।। शास्त्रार्थसूक्ष्मदर्शी यो धर्मनिश्चयकोविदः / समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते॥३० तेनाप्येवं न वाच्योऽहं यदि धर्म प्रपश्यसि // 4 परिव्रजन्ति दानार्थं मुण्डाः काषायवाससः / / भ्रातृसौहृदमास्थाय यदुक्तं वचनं त्वया / सिता बहुविधैः पाशैः संचिन्वन्तो वृथामिषम्॥३१ न्याय्यं युक्तं च कौन्तेय प्रीतोऽहं तेन तेऽर्जुन॥५ त्रयीं च नाम वार्ता च त्यक्त्वा पुत्रांस्त्यजन्ति ये। युद्धधर्मेषु सर्वेषु क्रियाणां नैपुणेषु च / त्रिविष्टब्धं च वासश्च प्रतिगृह्णन्त्यबुद्धयः // 32 न त्वया सदृशः कश्चित्रिषु लोकेषु विद्यते // 6 अनिष्कषाये काषायमीहार्थमिति विद्धि तत् / धर्मसूक्ष्मं तु यद्वाक्यं तत्र दुष्प्रतरं त्वया / धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्त्यर्थमिति मे मतिः / / 33 धनंजय न मे बुद्धिमभिशङ्कितुमर्हसि // 7 काषायैरजिनैश्चीरैर्नग्नान्मुण्डाञ्जटाधरान् / युद्धशास्त्रविदेव त्वं न वृद्धाः सेवितास्त्वया / बिभ्रत्साधून्महाराज जय लोकाञ्जितेन्द्रियः // 34 समासविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम् // 8 अग्याधेयानि गुर्वर्थान्क्रतून्सपशुदक्षिणान् / तपरत्यागो विधिरिति निश्चयस्तात धीमताम् / परं परं ज्याय एषां सैषा नैःश्रेयसी गतिः // 9 ददात्यहरहः पूर्व को नु धर्मतरस्ततः / / 35 न वेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति / तत्त्वज्ञो जनको राजा लोकेऽस्मिन्निति गीयते / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा नैतत्प्रधानतः // 10 सोऽप्यासीन्मोहसंपन्नो मा मोहवशमन्वगाः / / 36 तपःस्वाध्यायशीला हि दृश्यन्ते धार्मिका जनाः / एवं धर्ममनुक्रान्तं सदा दानपरैर्नरैः / ऋषयस्तपसा युक्ता येषां लोकाः सनातनाः // 11 आनृशंस्यगुणोपेतैः कामक्रोधविवर्जिताः // 37 अजातश्मश्रवो धीरास्तथान्ये वनवासिनः / पालयन्तः प्रजाश्चैव दानमुत्तममास्थिताः / अनन्ता अधना एव स्वाध्यायेन दिवं गताः // 12 इष्टाललोकानवाप्स्यामो ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः // 38 उत्तरेण तु पन्थानमार्या विषयनिग्रहात् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अबुद्धिजं तमस्त्यक्त्वा लोकांस्त्यागवतां गताः॥१३ अष्टादशोऽध्यायः॥ 18 // दक्षिणेन तु पन्थानं यं भास्वन्तं प्रपश्यसि / एते क्रियावतां लोका ये श्मशानानि भेजिरे // 14 - 2008 - Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 19. 15 ] शान्तिपर्व [12. 20. 13 अनिर्देश्या गतिः सा तु यां प्रपश्यन्ति मोक्षिणः / यद्वचः फल्गुनेनोक्तं न ज्यायोऽस्ति धनादिति / तस्मात्त्यागः प्रधानेष्टः स तु दुःखः प्रवेदितुम् // 15 अत्र ते वर्तयिष्यामि तदेकानमनाः शृणु // 2 अनुसत्य तु शास्त्राणि कवयः समवस्थिताः। अजातशत्रो धर्मेण कृत्स्ना ते वसुधा जिता / अपीह स्यादपीह स्यात्सारासारदिदृक्षया // 16 तां जित्वा न वृथा राजंस्त्वं परित्यक्तुमर्हसि // 3 वेदवादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च। चतुष्पदी हि निःश्रेणी कर्मण्येषा प्रतिष्ठिता। विपाट्य कदलीस्कन्धं सारं दद्दशिरे न ते // 17 तां क्रमेण महाबाहो यथावजय पार्थिव // 4 अथैकान्तव्युदासेन शरीरे पञ्चभौतिके। तस्मात्पार्थ महायज्ञैर्यजस्व बहुदक्षिणैः / इच्छाद्वेषसमायुक्तमात्मानं प्राहुरिङ्गितैः / / 18 .. स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथापरे // 5 अग्राह्यश्चक्षुषा सोऽपि अनिर्देश्यं च तद्राि / कर्मनिष्ठांस्तु बुध्येथास्तपोनिष्ठांश्च भारत / कर्महेतुपुरस्कारं भूतेषु परिवर्तते // 19 वैखानसानां राजेन्द्र वचनं श्रूयते यथा // 6 कल्याणगोचरं कृत्वा मनस्तृष्णां निगृह्य च / ईहते धनहेतोर्यस्तस्यानीहा गरीयसी / कर्मसंततिमुत्सृज्य स्यान्निरालम्बनः सुखी // 20 भूयान्दोषः प्रवर्धेत यस्तं धनमपाश्रयेत् // 7 अस्मिन्नेवं सूक्ष्मगम्ये मार्गे सद्भिर्निषेविते / कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति धनकारणात् / कथमर्थमनाढ्यमर्जुन त्वं प्रशंससि / / 21 धनेन तृषितोऽबुद्ध्या भ्रूणहत्यां न बुध्यते // 8 पूर्वशास्त्रविदो ह्येवं जनाः पश्यन्ति भारत / अनर्हते यद्ददाति न ददाति यदर्हते / क्रियासु निरता नित्यं दाने यज्ञे च कर्मणि // 22 अनर्हाएपरिज्ञानादानधर्मोऽपि दुष्करः॥ 9 भवन्ति सुदुरावर्ता हेतुमन्तोऽपि पण्डिताः / यज्ञाय सृष्टानि धनानि धात्रा दृढपूर्वश्रुता मूढा नैतदस्तीति वादिनः / / 23 ___ यष्टादिष्टः पुरुषो रक्षिता च / अमृतस्यावमन्तारो वक्तारो जनसंसदि / तस्मात्सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं परन्ति वसुधां कृत्स्नां वावदूका बहुश्रुताः // 24 धनं ततोऽनन्तर एव कामः // 10 यान्वयं नाभिजानीमः कस्ताज्ञातुमिहार्हति / यज्ञैरिन्द्रो विविधैरन्नवद्भिएवं प्राज्ञान्सतश्चापि महतः शास्त्रवित्तमान् // 25 र्देवान्सर्वानभ्ययान्महौजाः। तपसा महदाप्नोति बुद्ध्या वै विन्दते महत् / तेनेन्द्रत्वं प्राप्य विभ्राजतेऽसौ त्यागेन सुखमाप्नोति सदा कौन्तेय धर्मवित् / / 26 तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि महादेवः सर्वमेधे महात्मा एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // __ हुत्वात्मानं देवदेवो विभूतः / 20 विश्वाल्लोकान्व्याप्य विष्टभ्य कीर्त्या वैशंपायन उवाच / ___ विरोचते द्युतिमान्कृत्तिवासाः // 12 तस्मिन्वाक्यान्तरे वक्ता देवस्थानो महातपाः। आविक्षितः पार्थिवो वै मरुत्तः अभिनीततरं वाक्यमित्युवाच युधिष्ठिरम् // 1 स्वृद्ध्या मर्यो योऽजयदेवराजम् / . मा. 252 -2009 - Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 20. 13] महाभारते [12. 22.3 यज्ञे यस्य श्रीः स्वयं संनिविष्टा अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्मः स सतां मतः // 10 यस्मिन्भाण्डं काञ्चनं सर्वमासीत् // 13 अद्रोहः सत्यवचनं संविभागो धृतिः क्षमा / हरिश्चन्द्रः पार्थिवेन्द्रः श्रुतस्ते प्रजनः स्वेषु दारेषु मार्दवं हीरचापलम् / / 11 यज्ञैरिष्ट्वा पुण्यकृट्ठीतशोकः / धनं धर्मप्रधानेष्टं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् / ऋद्ध्या शक्रं योऽजयन्मानुषः सं तस्मादेवं प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालय / / 12 स्तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम् // 14 यो हि राज्ये स्थितः शश्वद्वशी तुल्यप्रियाप्रियः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजशास्त्रार्थतत्त्ववित् // 13 विंशतितमोऽध्यायः // 20 // असाधुनिग्रहरतः साधूनां प्रग्रहे रतः / धर्मे वर्त्मनि संस्थाप्य प्रजा वर्तेत धर्मवित् // 11 देवस्थान उवाच / पुत्रसंक्रामितश्रीस्तु वने वन्येन वर्तयन् / अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / विधिना श्रामणेनैव कुर्यात्कालमतन्द्रितः // 15 इन्द्रेण समये पृष्टो यदुवाच बृहस्पतिः // 1 य एवं वर्तते राजा राजधर्मविनिश्चितः / संतोषो वै स्वर्गतमः संतोषः परमं सुखम् / तस्यायं च परश्चैव लोकः स्यात्सफलो नृप / तुष्टेन किंचित्परतः सुसम्यक्परितिष्ठति / / 2 निर्वाणं तु सुदुष्पारं बहुविघ्नं च मे मतम् // 16 यदा संहरते कामान्कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः / एवं धर्ममनुक्रान्ताः सत्यदानतपःपराः। . तदात्मज्योतिरात्मैव स्वात्मनैव प्रसीदति // 3 आनृशंस्यगुणैर्युक्ताः कामक्रोधविवर्जिताः // 17 न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न विभ्यति / प्रजानां पालने युक्ता दममुत्तममास्थिताः / कामद्वेषौ च जयति तदात्मानं प्रपश्यति // 4 गोब्राह्मणार्थं युद्धेन संप्राप्ता गतिमुत्तमाम // 18 यदासौ सर्वभूतानां न क्रुध्यति न दुष्यति / एवं रुद्राः सवसवस्तथादित्याः परंतप / कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // 5 साध्या राजर्षिसंघाश्च धर्ममेतं समाश्रिताः / एवं कौन्तेय भूतानि तं तं धर्म तथा तथा / अप्रमत्तास्ततः स्वर्ग प्राप्ताः पुण्यैः स्वकर्मभिः॥१९ तदा तदा प्रपश्यन्ति तस्माद्बुध्यस्व भारत / / 6 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अन्ये शमं प्रशंसन्ति व्यायाममपरे तथा / एकविंशोऽध्यायः // 21 // नैकं न चापरं केचिदुभयं च तथापरे // 7 22 यज्ञमेके प्रशंसन्ति संन्यासमपरे जनाः / वैशंपायन उवाच / दानमेके प्रशंसन्ति केचिदेव प्रतिग्रहम् / तस्मिन्वाक्यान्तरे वाक्यं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत् / केचित्सर्वं परित्यज्य तूष्णीं ध्यायन्त आसते॥ 8 - विषण्णमनसं ज्येष्ठमिदं भ्रातरमीश्वरम् // 1 राज्यमे के प्रशंसन्ति सर्वेषां परिपालनम् / क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ प्राप्य राज्यमनुत्तमम् / हत्वा भित्त्वा च छित्त्वा च केचिदेकान्तशीलिनः॥ / जित्वा चारीन्नरश्रेष्ठ तप्यते किं भवान्भृशम् // 2 एतत्सर्वं समालोक्य बुधानामेष निश्चयः। क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं स्मृतम् / -2010 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 22. 3] शान्तिपर्व [ 12. 23. 16 विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर // 3 नोवाच किंचित्कौरव्यस्ततो द्वैपायनोऽब्रवीत् // 1 ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्यधर्मविधिः स्मृतः। बीभत्सोर्वचनं सम्यक्सत्यमेतद्युधिष्ठिर / क्षत्रियाणां च विहितं संग्रामे निधनं विभो॥४ शास्त्रदृष्टः परो धर्मः स्मृतो गार्हस्थ्य आश्रमः // 2 क्षत्रधर्मो महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृतः। ' खधर्मं चर धर्मज्ञ यथाशास्त्रं यथाविधि / वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे // 5 न हि गार्हस्थ्यमुत्सृज्य तवारण्यं विधीयते // 3 ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन्क्षत्रधर्मेण तिष्ठतः / गृहस्थं हि सदा देवाः पितर ऋषयस्तथा। प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसंस्थितम् // 6 | भृत्याश्चैवोपजीवन्ति तान्भजस्व महीपते // 4 . . न त्यागो न पुनर्याच्या न तपो मनुजेश्वर / वयांसि पशवश्चैव भूतानि च महीपते / क्षत्रियस्य विधीयन्ते न परस्वोपजीवनम् // 7 गृहस्थैरेव धार्यन्ते तस्माज्येष्ठाश्रमो गृही // 5 स भवान्सर्वधर्मज्ञः सर्वात्मा भरतर्षभ। सोऽयं चतुर्णामेतेषामाश्रमाणां दुराचरः / राजा मनीषी निपुणो लोके दृष्टपरावरः // 8 तं चराविमनाः पार्थ दुश्चरं दुर्बलेन्द्रियैः // 6 त्यक्त्वा संतापजं शोकं दंशितो भव कर्मणि / वेदज्ञानं च ते कृत्स्नं तपश्च चरितं महत् / क्षत्रियस्य विशेषेण हृदयं वसंहतम् // 9 . पितृपैतामहे राज्ये धुरमुद्वोढुमर्हसि // 7 जित्वारीन्क्षत्रधर्मेण प्राप्य राज्यमंकण्टकम् / तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्षमिन्द्रियनिग्रहः / विजितात्मा मनुष्येन्द्र यज्ञदानपरो भव // 10 ध्यानमेकान्तशीलत्वं तुष्टिीनं च शक्तितः / / 8 इन्द्रो वै ब्रह्मणः पुत्रः कर्मणा क्षत्रियोऽभवत् / ब्राह्मणानां महाराज चेष्टाः संसिद्धिकारिकाः। . ज्ञातीनां पापवृत्तीनां जघान नवतीनव // 11 क्षत्रियाणां च वक्ष्यामि तवापि विदितं पुनः // 9 तञ्चास्य कर्म पूज्यं हि प्रशस्यं च विशां पते / यज्ञो विद्या समुत्थानमसंतोषः श्रियं प्रति / तेन चेन्द्रत्वमापेदे देवानामिति नः श्रुतम् // 12 दण्डधारणमत्युग्रं प्रजानां परिपालनम् // 10 स त्वं यज्ञैर्महाराज यजस्व बहुदक्षिणैः / वेदज्ञानं तथा कृत्स्नं तपः सुचरितं तथा। . यथैवेन्द्रो मनुष्येन्द्र चिराय विगतज्वरः // 13 द्रविणोपार्जनं भूरि पात्रेषु प्रतिपादनम् // 11 मा त्वमेवंगते किंचित्क्षत्रियर्षभ शोचिथाः / एतानि राज्ञां कर्माणि सुकृतानि विशां पते / गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूताः परां गतिम् // 14 इमं लोकममुं लोकं साधयन्तीति नः श्रुतम् // 12 भवितव्यं तथा तच्च यद्वृत्तं भरतर्षभ / तेषां ज्यायस्तु कौन्तेय दण्डधारणमुच्यते / दिष्टं हि राजशार्दूल न शक्यमतिवर्तितुम् / / 15 बलं हि क्षत्रिये नित्यं बले दण्डः समाहितः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एताश्चेष्टाः क्षत्रियाणां राजन्संसिद्धिकारिकाः / द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // अपि गाथामिमां चापि बृहस्पतिरभाषत // 14 वैशंपायन उवाच / भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव / 23 राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् // 15 . एवमुक्तस्तु कौन्तेयो गुडाकेशेन भारत / सुद्युम्नश्चापि राजर्षिः श्रूयते दण्डधारणात् / - 2011 - Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 23. 16 ] महाभारते [ 12. 24.24 प्राप्तवान्परमां सिद्धिं दक्षः प्राचेतसो यथा // 16 सुद्युम्नस्त्वन्तपालेभ्यः श्रुत्वा लिखितमागतम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अभ्यगच्छत्सहामात्यः पद्भ्यामेव नरेश्वरः // 12 त्रयोविंशोऽध्यायः॥ 23 // तमब्रवीत्समागत्य स राजा ब्रह्मवित्तमम् / किमागमनमाचक्ष्व भगवन्कृतमेव तत् // 13 युधिष्ठिर उवाच। एवमुक्तः स विप्रर्षिः सुगुम्नमिदमब्रवीत् / भगवन्कर्मणा केन सुद्युम्नो वसुधाधिपः / प्रतिश्रौषि करिष्येति श्रुत्वा तत्कर्तुमर्हसि // 14 संसिद्धिं परमां प्राप्तः श्रोतुमिच्छामि तं नृपम् // 1 अनिसृष्टानि गुरुणा फलानि पुरुषर्षभ / व्यास उवाच / भक्षितानि मया राजंस्तत्र मां शाधि माचिरम् // 10 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सुद्युम्न उवाच / शङ्खश्च लिखितश्चास्तां भ्रातरौ संयतव्रतौ // 2 प्रमाणं चेन्मतो राजा भवतो दण्डधारणे। तयोरावसथावास्तां रमणीयौ पृथक्पृथक् / / अनुज्ञायामपि तथा हेतुः स्याब्राह्मणर्षभ // 16 नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैरुपेतौ बाहुदामनु // 3 स भवानभ्यनुज्ञातः शुचिकर्मा महाव्रतः / ततः कदाचिल्लिखितः शङ्खस्याश्रममागमत् / ब्रूहि कामानतोऽन्यांस्त्वं करिष्यामि हि ते वचः॥१॥ यदृच्छयापि शङ्खोऽथ निष्क्रान्तोऽभवदाश्रमात् // 4 व्यास उवाच / सोऽभिगम्याश्रमं भ्रातुः शङ्खस्य लिखितस्तदा / छन्द्यमानोऽपि ब्रह्मर्षिः पार्थिवेन महात्मना / फलानि शातयामास सम्यक्परिणतान्युत // 5 नान्यं वै वरयामास तस्माद्दण्डाहते वरम् // 18 तान्युपादाय विस्रब्धो भक्षयामास स द्विजः / ततः स पृथिवीपालो लिखितस्य महात्मनः / तस्मिंश्च भक्षयत्येव शङ्खोऽप्याश्रममागमत् // 6 करौ प्रच्छेदयामास धृतदण्डो जगाम सः // 19 भक्षयन्तं तु तं दृष्ट्वा शङ्खो भ्रातरमब्रवीत् / स गत्वा भ्रातरं शङ्खमार्तरूपोऽब्रवीदिदम् / कुतः फलान्यवाप्तानि हेतुना केन खादसि // 7 धृतदण्डस्य दुर्बुद्धर्भगवन्क्षन्तुमर्हसि / / 20 सोऽब्रवीद्धातरं ज्येष्ठमुपस्पृश्याभिवाद्य च / शङ्ख उवाच। इत एव गृहीतानि मयेति प्रहसन्निव // 8 न कुप्ये तव धर्मज्ञ न च दूषयसे मम / तमब्रवीत्तदा शङ्खस्तीव्रकोपसमन्वितः / धर्मस्तु ते व्यतिक्रान्तस्ततस्ते निष्कृतिः कृता // 2 स्तेयं त्वया कृतमिदं फलान्याददता स्वयम् / स गत्वा बाहुदां शीघ्रं तर्पयस्व यथाविधि / गच्छ राजानमासाद्य स्वकर्म प्रथयस्व वै // 9 देवान्पितॄनृषींश्चैव मा चाधर्मे मनः कृथाः // 2 अदत्तादानमेवेदं कृतं पार्थिवसत्तम / व्यास उवाच / स्तेनं मां त्वं विदित्वा च स्वधर्ममनुपालय / / | तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शङ्खस्य लिखितस्तदा / शीघ्रं धारय चौरस्य मम दण्डं नराधिप // 10 अवगाह्यापगां पुण्यामुदकार्धं प्रचक्रमे // 23 इत्युक्तस्तस्य वचनात्सुद्युम्नं वसुधाधिपम् / प्रादुरास्तां ततस्तस्य करो जलजसंनिभौ / अभ्यगच्छन्महाबाहो लिखितः संशितव्रतः // 11 / ततः स विस्मितो भ्रातुर्दर्शयामास तौ करौ // 2 // -2012 - Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 24. 25 ] शान्तिपर्व [ 12. 25. 20 ततस्तमब्रवीच्छङ्खस्तपसेदं कृतं मया / आनृण्यं गच्छ कौन्तेय ततः स्वगं गमिष्यसि // 6 मा च तेऽत्र विशङ्का भूदैवमेव विधीयते // 25 सर्वमेधाश्वमेधाभ्यां यजस्व कुरुनन्दन / लिखित उवाच / ततः पश्चान्महाराज गमिष्यसि परां गतिम् // . किं नु नाहं त्वया पूतः पूर्वमेव महाद्युते / भ्रातृ॑श्च सर्वान्क्रतुभिः संयोज्य बहुदक्षिणैः / यस्य ते तपसो वीर्यमीदृशं द्विजसत्तम / / 26 संप्राप्तः कीर्तिमतुलां पाण्डवेय भविष्यसि // 8 शङ्ख उवाच / विद्म ते पुरुषव्याघ्र वचनं कुरुनन्दन / एवमेतन्मया कार्य नाहं दण्डधरस्तव / शृणु मच्च यथा कुर्वन्धर्मान्न च्यवते नृपः // 9 स च पूतो नरपतिस्त्वं चापि पितृभिः सह // 27 आददानस्य च धनं निग्रहं च युधिष्ठिर / व्यास उवाच / समानं धर्मकुशलाः स्थापयन्ति नरेश्वर // 10 स राजा पाण्डवश्रेष्ठ श्रेष्ठो वै तेन कर्मणा। देशकालप्रतीक्षे यो दस्योर्दर्शयते नृपः / प्राप्तवान्परमां सिद्धि दक्षः प्राचेतसो यथा // 28 शास्त्रजां बुद्धिमास्थाय नैनसा स हि युज्यते // 11 एष धर्मः क्षत्रियाणां प्रजानां परिपालनम् / आदाय बलिषड्भागं यो राष्ट्र नाभिरक्षति / उत्पथेऽस्मिन्महाराज मा च शोके मनः कृथाः॥२९ प्रतिगृह्णाति तत्पापं चतुर्थांशेन पार्थिवः // 12 भ्रातुरस्य हितं वाक्यं शृणु धर्मज्ञसत्तम / निबोध च यथातिष्ठन्धर्मान्न च्यवते नृपः / दण्ड एव हि राजेन्द्र क्षत्रधर्मो न मुण्डनम् // 30 निग्रहाद्धर्मशास्त्राणामनुरुध्यन्नपेतभीः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कामक्रोधावनाहत्य पितेव समदर्शनः // 13 चतुर्विशोऽध्यायः // 24 // देवेनोपहते राजा कर्मकाले महाद्युते / प्रमादयति तत्कर्म न तत्राहुरतिक्रमम् // 14 वैशंपायन उवाच / तरसा बुद्धिपूर्वं वा निग्राह्या एव शत्रवः / पुनरेव महर्षिस्तं कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / पापैः सह न संदध्याद्राष्ट्रं पण्यं न कारयेत् // 15 अजातशत्रु कौन्तेयमिदं वचनमर्थवत् // 1 शूराश्चार्याश्च सत्कार्या विद्वांसश्च युधिष्ठिर / अरण्ये वसतां तात भ्रातॄणां ते तपस्विनाम् / गोमतो धनिनश्चैव परिपाल्या विशेषतः // 16 मनोरथा महाराज ये तत्रासन्युधिष्ठिर // 2 व्यवहारेषु धर्येषु नियोज्याश्च बहुश्रुताः / तानिमे भरतश्रेष्ठ प्राप्नुवन्तु महारथाः / गुणयुक्तेऽपि नैकस्मिन्विश्वस्याञ्च विचक्षणः // 17 प्रशाधि पृथिवीं पार्थ ययातिरिव नाहुषः // 3 अरक्षिता दुर्विनीतो मानी स्तब्धोऽभ्यसूयकः / अरण्ये दुःखवसतिरनुभूता तपस्विभिः। एनसा युज्यते राजा दुर्दान्त इति चोच्यते // 18 दुःखस्यान्ते नरव्याघ्राः सुखं त्वनुभवन्त्विमे // 4 येऽरक्ष्यमाणा हीयन्ते दैवेनोपहते नृपे / धर्ममर्थं च कामं च भ्रातृभिः सह भारत। / तस्करैश्चापि हन्यन्ते सर्वं तद्राजकिल्बिषम् // 19 अनुभूय ततः पश्चात्प्रस्थातासि विशां पते // 5 सुमत्रिते सुनीते च विधिवञ्चोपपादिते / अतिथीनां च पितॄणां देवतानां च भारत। | पौरुषे कर्मणि कृते नास्त्यधर्मो युधिष्ठिर // 20 -2013 - Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 25. 211 महाभारते [ 12. 26.5 विपयन्ते समारम्भाः सिध्यन्त्यपि च दैवतः। / विद्वांस्त्यागी श्रद्दधानः कृतज्ञकृते पुरुषकारे तु नैनः स्पृशति पार्थिवम् // 21 __त्यक्त्वा लोकं मानुषं कर्म कृत्वा / भत्र ते राजशार्दूल वर्तयिष्ये कथामिमाम् / मेधाविनां विदुषां संमतानां यद्वृत्तं पूर्वराजर्हयग्रीवस्य पार्थिव // 22 तनुत्यजां लोकमाक्रम्य राजा // 30 / शत्रून्हत्वा हतस्याजौ शूरस्याक्लिष्टकर्मणः / सम्यग्वेदान्प्राप्य शास्त्राण्यधीय भसहायस्य धीरस्य निर्जितस्य युधिष्ठिर / / 23 सम्यग्राष्ट्रं पालयित्वा महात्मा। . यत्कर्म वै निग्रहे शात्रवाणां चातुवयं स्थापयित्वा स्वधर्मे योगश्चाग्र्यः पालने मानवानाम् / वाजिग्रीवो मोदते देवलोके // 31 . कृत्वा कर्म प्राप्य कीर्तिं सुयुद्धे जित्वा संग्रामान्पालयित्वा प्रजाश्च वाजिग्रीवो मोदते देवलोके // 24 सोमं पीत्वा तर्पयित्वा द्विजाग्र्यान् / . संत्यक्तात्मा समरेष्वाततायी युक्त्या दण्डं धारयित्वा प्रजानां शस्वैश्छिन्नो दस्युभिरर्धमानः / युद्धे क्षीणो मोदते देवलोके // 32 अश्वग्रीवः कर्मशीलो महात्मा वृत्तं यस्य श्लाघनीयं मनुष्याः संसिद्धात्मा मोदते देवलोके // 25 सन्तो विद्वांसश्चाईयन्त्यर्हणीयाः / धनुषूपो रशना ज्या शरः स्र स्वर्ग जित्वा वीरलोकांश्च गत्वा __ क्वः खड्गो रुधिरं यत्र चाज्यम् / सिद्धि प्राप्तः पुण्यकीर्तिमहात्मा // 33 रथो वेदी कामगो युद्धमग्नि इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्चातुहंत्रिं चतुरो वाजिमुख्याः // 26 पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // हुत्वा तस्मिन्यज्ञवह्नावथारी 26 ___ पापान्मुक्तो राजसिंहस्तरस्वी। वैशंपायन उवाच / प्राणान्हुत्वा चावभृथे रणे स द्वैपायनवचः श्रुत्वा कुपिते च धनंजये। - वाजिनीवो मोदते देवलोके // 27 व्यासमामय कौन्तेयः प्रत्युवाच युधिष्ठिरः // 1 राष्ट्र रक्षन्बुद्धिपूर्वं नयेन न पार्थिवमिदं राज्यं न च भोगाः पृथग्विधाः / ___ संत्यक्तात्मा यज्ञशीलो महात्मा / प्रीणयन्ति मनो मेऽद्य शोको मां नर्दयत्ययम् // सर्वाल्लोकान्व्याप्य कीा मनस्वी श्रुत्वा च वीरहीनानामपुत्राणां च योषिताम् / ___ वाजिग्रीयो मोदते देवलोके // 28 परिदेवयमानानां शान्ति नोपलभे मुने // 3 दैवी सिद्धि मानुषीं दण्डनीति इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो योगविदां वरः। . योगन्यायैः पालयित्वा महीं च / युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं धर्मज्ञो वेदपारगः // 4 तस्माद्राजा धर्मशीलो महात्मा न कर्मणा लभ्यते चिन्तया वा हयग्रीवो मोदते स्वर्गलोके // 29 नाप्यस्य दाता पुरुषस्य कश्चित् / - 2014 - Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 26. 5] शान्तिपर्व [12. 26. 27 पर्याययोगाद्विहितं विधात्रा अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ___ कालेन सर्वं लभते मनुष्यः // 5 गीतं राज्ञा सेनजिता दुःखार्तेन युधिष्ठिर // 13 न बुद्धिशास्त्राध्ययनेन शक्यं सर्वानेवैष पर्यायो मान्स्पृशति दुस्तरः। प्राप्तुं विशेषैर्मनुजैरकाले। कालेन परिपक्का हि म्रियन्ते सर्वमानवाः // 14. मूर्योऽपि प्राप्नोति कदाचिदर्था घ्नन्ति चान्यान्नरा राजस्तानप्यन्ये नरास्तथा। कालो हि कार्य प्रति निर्विशेषः // 6 संज्ञैषा लौकिकी राजन्न हिनस्ति न हन्यते // 15 नाभूतिकाले च फलं ददाति हन्तीति मन्यते कश्चिन्न हन्तीत्यपि चापरे / शिल्पं न मत्राश्च तथौषधानि / स्वभावतस्तु नियतौ भूतानां प्रभवाप्ययौ // 16 तान्येव कालेन समाहितानि नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते / . सिध्यन्ति चेष्यन्ति च भूतकाले // 7 अहो कष्टमिति ध्यायशोकस्यापचितिं चरेत्॥१७ कालेन शीघ्राः प्रविवान्ति वाताः स किं शोचसि मूढः सञ्शोच्यः किमनुशोचसि / ____ कालेन वृष्टिर्जलदानुपैति / पश्य दुःखेषु दुःखानि भयेषु च भयान्यपि // 18 कालेन पद्मोत्पलवजलं च . आत्मापि चायं न मम सर्वापि पृथिवी मम / कालेन पुष्यन्ति नगा वनेषु // 8 यथा मम तथान्येषामिति पश्यन्न मुह्यति // 19 कालेन कृष्णाश्च सिताश्च रात्र्यः शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च / ___ कालेन चन्द्रः परिपूर्णबिम्बः / दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 20 नाकालतः पुष्पफलं नगानां एवमेतानि कालेन प्रियद्वेष्याणि भागशः / नाकालवेगाः सरितो वहन्ति // 9 जीवेषु परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च / / 21 नाकालमत्ताः खगपन्नगाश्च दुःखमेवास्ति न सुखं तस्मात्तदुपलभ्यते / मृगद्विपाः शैलमहाग्रहाश्च / सृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम् // 22 नाकालतः स्त्रीषु भवन्ति गर्भा सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् / नायान्त्यकाले शिशिरोष्णवर्षाः // 10 न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम् // 23 नाकालतो म्रियते जायते वा सुखमन्ते हि दुःखानां दुःखमन्ते सुखस्य च / नाकालतो व्याहरते च बालः / तस्मादेतद्वयं जह्याद्य इच्छेच्छाश्वतं सुखम् // 24 नाकालतो यौवनमभ्युपैति यनिमित्तं भवेच्छोकस्तापो वा दुःखमूर्छितः। नाकालतो रोहति बीजमुप्तम् // 11 आयासो वापि यन्मूलस्तदेकाङ्गमपि त्यजेत् // 25 नाकालतो भानुरुपैति योगं सुखं वा यदि या दुःखं प्रियं वा यदि वाप्रियम् / * नाकालतोऽस्तं गिरिमभ्युपैति / प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः // 26 नाकालतो वर्धते हीयते च ईषदप्यङ्ग दाराणां पुत्राणां वा चराप्रियम् / चन्द्रः समुद्रश्च महोमिमाली // 12 / ततो ज्ञास्यसि कः कस्य केन वा कथमेव वा॥२७ -2015 - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 26. 28 ] महाभारते [12. 27. 14 27 ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः। त एव सुखमेधन्ते मध्यः क्लेशेन युज्यते // 28 युधिष्ठिर उवाच / इत्यब्रवीन्महाप्राज्ञो युधिष्ठिर स सेनजित् / / अभिमन्यौ हते वाले द्रौपद्यास्तनयेषु च / परावरज्ञो लोकस्य धर्मवित्सुखदुःखवित् // 29 धृष्टद्युम्ने विराटे च द्रुपदे च महीपतौ // 1 सुखी परस्य यो दुःखे न जातु स सुखी भवेत् / वसुषेणे च धर्मज्ञे धृष्टकेतौ च पार्थिवे / दुःखानां हि क्षयो नास्ति जायते ह्यपरात्परम् / / 30 तथान्येषु नरेन्द्रेषु नानादेश्येषु संयुगे // 2 सुखं च दुःखं च भवाभवौ च | न विमुश्चति मां शोको ज्ञातिघातिनमातुरम् / लाभालाभौ मरणं जीवितं च / राज्यकामुकमत्युग्रं स्ववंशोच्छेदकारकम् // 3 पर्यायशः सर्वमिह स्पृशन्ति यस्याङ्के क्रीडमानेन मया वै परिवर्तितम् / तस्माद्धीरो नैव हृष्येन्न कुप्येत् // 31 स मया राज्यलुब्धेन गाङ्गेयो विनिपातितः // 4 दीक्षां यज्ञे पालनं युद्धमाहु यदा ह्येनं विघूर्णन्तमपश्यं पार्थसायकैः।। योगं राष्ट्रे दण्डनीत्या च सम्यक् / कम्पमानं यथा वनः प्रेक्षमाणं शिखण्डिनम् // 5 वित्तत्यागं दक्षिणानां च यज्ञे जीणं सिंहमिव प्रांशुं नरसिंह पितामहम् / सम्यग्ज्ञानं पावनानीति विद्यात् // 32 कीर्यमाणं शरैस्तीक्ष्णैर्दृष्ट्वा मे व्यथितं मनः // 6 रक्षनराष्ट्र बुद्धिपूर्वं नयेन प्राङ्मुखं सीदमानं च रथादपच्युतं शरैः। संत्यक्तात्मा यज्ञशीलो महात्मा। घूर्णमानं यथा शैलं तदा मे कश्मलोऽभवत् / / सर्वाल्लोकान्धर्ममूर्त्या चरंश्चा यः स बाणधनुष्पाणियोधयामास भार्गवम् / प्यूज़ देहान्मोदते देवलोके / / 33 बहून्यहानि कौरव्यः कुरुक्षेत्रे महामृधे // 8 . जित्वा संग्रामान्पालयित्वा च राष्ट्र समेतं पार्थिव क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः / सोमं पीत्वा वर्धयित्वा प्रजाश्च / कन्यार्थमाह्वयद्वीरो रथेनैकेन संयुगे // 9 युक्त्या दण्डं धारयित्वा प्रजानां / येन चोप्रायुधो राजा चक्रवर्ती दुरासदः / युद्धे क्षीणो मोदते देवलोके / / 34 दग्धः शस्त्रप्रतापेन स मया युधि घातितः॥१॥ सम्यग्वेदान्प्राप्य शास्त्राण्यधीत्य स्वयं मृत्यु रक्षमाणः पाञ्चाल्यं यः शिखण्डिनम्। सम्यग्राष्ट्रं पालयित्वा च राजा। न बाणैः पातयामास सोऽर्जुनेन निपातितः // 1 // चातुर्वण्य स्थापयित्वा स्वधर्मे यदैनं पतितं भूमावपश्यं रुधिरोक्षितम् / पूतात्मा वै मोदते देवलोके // 35 तदैवाविशदत्युग्रो ज्वरो मे मुनिसत्तम // 12 यस्य वृत्तं नमस्यन्ति स्वर्गस्थस्यापि मानवाः / येन संवर्धिता बाला येन स्म परिरक्षिताः / पौरजानपदामात्याः स राजा राजसत्तमः // 36 स मया राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अल्पकालस्य राज्यस्य कृते मूढेन घातितः // 1 // षड्विंशोऽध्यायः // 26 // आचार्यश्च महेष्वासः सर्वपार्थिवपूजितः / - 2016 - Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 27. 14 ] शान्तिपर्व [ 12. 28.6 28 अभिगम्य रणे मिथ्या पापेनोक्तः सुतं प्रति / / 14 / संयोगा विप्रयोगाश्च जालानां प्राणिनां भुवम् / तन्मे दहति गात्राणि यन्मां गुरुरभाषत / बुद्बुदा इव तोयेषु भवन्ति न भवन्ति च // 28 सत्यवाक्यो हि राजरत्वं यदि जीवति मे सुतः। सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः / सत्यं मा मर्शयन्विप्रो मयि तत्परिपृष्टवान् / / 15 संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम॥२९ कुञ्जरं चान्तरं कृत्वा निथ्योपचरितं मया। सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयम् / सुभृशं राज्यलुब्धेन पापेन गुरुवातिना // 16 / भूतिः श्रीहतिः सिद्धि दक्षे निवसन्त्युत // 30 सत्यकञ्चकमारथाय मयोलो गुरुराहवे / नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय दुहृदः / अश्वत्थामा हत इति कुञ्जरे विनिपातिते। न च प्रज्ञालमर्थेभ्यो न सुखेभ्योऽयलं धनम् // 31 कान्नु लोकान्गमिष्यामि कृत्वा तत्कर्म दारुणम् / / 17 यथा सृष्टोऽसि कौन्तेय धात्रा कर्मसु तत्कुरु / अघातयं च यत्कणं समरेष्वपलायिनम् / अत एव हि सिद्धिस्ते नेशस्त्वमात्मना नृप // 32 ज्येष्ठं भ्रातरमत्युत्रं को मत्तः पापकृतमः // 18 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अभिमन्यु च यद्वालं जातं सिंहमिवादिषु / सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // प्रावेशयमहं लुब्धो वाहिनी द्रोणपालिताम् // 19 तदाप्रभृति बीभत्सुं न शक्नोमि निरीक्षितुम् / वैशंपायन उवाच कृष्णं च पुण्डरीकाक्षं किल्बिपी भ्रूणहा यथा / / 20 ज्ञातिशोकाभितप्तस्य प्राणानभ्युत्सिसृक्षतः / द्रौपदी चाप्यदुःखाही पञ्चपुत्रविनाकृताम् / ज्येष्ठस्य पाण्डुपुत्रस्य व्यासः शोकमपानुदत् // 1 शोचामि पृथिवीं हीनां पश्चमिः पर्वौरिव // 21 व्यास उवाच। सोऽहमागस्करः पापः पृथिवीनाशकारकः / आसीन एवमेवेदं शोषयिष्ये कलेवरम् / / 22 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्रायोपविष्टं जानीध्वमद्य मां गुरुघातिनम् / अश्मगीतं नरव्याघ्र तन्निबोध युधिष्ठिर // 2 जातिध्वन्यास्वपि यथा न भवेयं कुलान्तकृत् // 23 अश्मानं ब्राह्मणं प्राज्ञ वैदेहो जनको नृपः / न भोक्ष्ये न च पानीयमुपयोक्ष्ये कथंचन / संशयं परिपप्रच्छ दुःखशोकपरिप्लुतः // 3 शोषयिष्ये प्रियान्प्राणानिहस्थोऽहं तपोधन / / 24 जनक उवाच / यथेष्टं गम्यतां काममनुजाने प्रसाद्य वः / आगमे यदि वापाये ज्ञातीनां द्रविणस्य च / सर्वे मामनुजानीत त्यक्ष्यामीदं कलेवरम् / / 25 नरेण प्रतिपत्तव्यं कल्याणं कथमिच्छता // 4 वैशंपायन उवाच / ___ अश्मोवाच / तमेवंवादिनं पार्थ बन्धुशोकेन बिलम् / उत्पन्नमिममात्मानं नरस्यानन्तरं ततः / मैवमित्यब्रवीद्र्यासो निगृह्य मुनिसत्तमः / / 26 / तानि तान्यभिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च // 5 अतिवेलं महाराज न शोक कतुमर्हसि / तेषामन्यतरापत्तौ यद्यदेवोपसेवते / पुनरुक्तं प्रवक्ष्यामि दियमेतदिति प्रभो // 27 तत्तद्धि चेतनामस्य हरत्यभ्रमिवानिलः // 6 म.भा. 253 - 2017 - Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 28.7] महाभारते [12. 28. 36 अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः / वैद्याश्चाप्यातुराः सन्ति बलवन्तः सुदुर्बलाः। इत्येवं हेतुभिस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रसिच्यति // 7 स्त्रीमन्तश्च तथा षण्ढा विचित्रः कालपर्ययः // 22 स प्रसिक्तमना भोगान्विसृज्य पितृसंचितान् / कुले जन्म तथा वीर्यमारोग्यं धैर्यमेव च। . परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते // 8 / सौभाग्यमुपभोगश्च भवितव्येन लभ्यते // 23 तमतिक्रान्तमर्यादमाददानमसांप्रतम् / सन्ति पुत्राः सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम् / प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः // 9 बहूनामिच्छतां नास्ति समृद्धानां विचेष्टताम् // 24 ये च विंशतिवर्षा वा त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः / व्याधिरग्निर्जलं शस्त्रं बुभुक्षा श्वापदं विषम् / परेण ते वर्षशतान्न भविष्यन्ति पार्थिव // 10 रज्वा च मरणं जन्तोरुच्चाञ्च पतनं तथा // 25 तेषां परमदुःखानां बुद्ध्या भेषजमादिशेत् / निर्याणं यस्य यद्दिष्टं तेन गच्छति हेतुना / सर्वप्राणभृतां वृत्तं प्रेक्षमाणस्ततस्ततः // 11 दृश्यते नाभ्यतिक्रामन्नतिक्रान्तो न वा. पुनः / / 26 मानसानां पुनर्योनिर्दुःखानां चित्तविभ्रमः / दृश्यते हि युवैवेह विनश्यन्वसुमान्नरः / अनिष्टोपनिपातो वा तृतीयं नोपपद्यते // 12 दरिद्रश्च परिक्लिष्टः शतवर्षी जनाधिप / / 27 एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम् / / अकिंचनाश्च दृश्यन्ते पुरुषाश्चिरजीविनः / विविधान्युपवर्तन्ते तथा सांस्पर्शकानि च // 13 समृद्धे च कुले जाता विनश्यन्ति पतंगवत // 28 जरामृत्यू ह भूतानि खादितारौ वृकाविव / प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते / बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि // 14 काष्ठान्यपि हि जीर्यन्ते दरिद्राणां नराधिप // 29 न कश्चिजात्वतिक्रामेजरामृत्यू ह मानवः / अहमेतत्करोमीति मन्यते कालचोदितः / अपि सागरपर्यन्तां विजित्येमां वसुंधराम् // 15 यद्यदिष्टमसंतोषादुरात्मा पापमाचरन् / / 30 सुखं वा यदि वा दुःखं भूतानां पर्युपस्थितम् / स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं प्रसङ्गान्निन्दिता बुधैः / प्राप्तव्यमवशैः सर्व परिहारो न विद्यते // 16 दृश्यन्ते चापि बहवः संप्रसक्ता बहुश्रुताः // 31 पूर्वे वयसि मध्ये वाप्युत्तमे वा नराधिप / इति कालेन सर्वार्थानीप्सितानीप्सितानि च। अवर्जनीयास्तेऽर्था वै काश्रिताश्च ततोऽन्यथा // 17 स्पृशन्ति सर्वभूतानि निमित्तं नोपलभ्यते // 32 सुप्रियैर्विप्रयोगश्च संप्रयोगस्तथाप्रियैः / वायुमाकाशमग्निं च चन्द्रादित्यावहःक्षपे / अर्थानी सुखं दुःखं विधानमनुवर्तते // 18 / ज्योतींषि सरितः शैलान्कः करोति बिभर्ति वा // 3 // प्रादुर्भावश्च भूतानां देहन्यासस्तथैव च। शीतमुष्णं तथा वर्ष कालेन परिवर्तते / प्राप्तिव्यायामयोगश्च सर्वमेतत्प्रतिष्ठितम् // 19 एवमेव मनुष्याणां सुखदुःखे नरर्षभ // 34 गन्धवर्णरसस्पर्शा निवर्तन्ते स्वभावतः / नौषधानि न शास्त्राणि न होमा न पुनर्जपाः / तथैव सुखदुःखानि विधानमनुवर्तते // 20 त्रायन्ते मृत्युनोपेतं जरया वापि मानवम् // 35 आसनं शयनं यानमुत्थानं पानभोजनम् / यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ / नियतं सर्वभूतानां कालेनैव भवन्त्युत॥२१ समेत्य च व्यतीयातां तद्वद्भूतसमागमः // 36 -2018 - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 28. 37 ] शान्तिपर्व [ 12. 29. 1 ये चापि पुरुषैः स्त्रीभिर्गीतवाद्यैरुपस्थिताः / अपि स्वेन शरीरेण किमुतान्येन केनचित् // 51 ये चानाथाः परान्नादाः कालस्तेषु समक्रियः // 37 / क नु तेऽद्य पिता राजन्क नु तेऽद्य पितामहः / मातृपितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च / न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वां पश्यन्ति तेऽपि च // संसारेष्वनुभूतानि कस्य ते कस्य वा वयम् / / 38 न ह्येव पुरुषो द्रष्टा स्वर्गस्य नरकस्य वा। नैवास्य कश्चिद्भविता नायं भवति कस्यचित् / आगमस्तु सतां चक्षुर्नृपते तमिहाचर // 53 पथि संगतमेवेदं दारबन्धुसुहृद्णैः // 39 चरितब्रह्मचर्यो हि प्रजायेत यजेत च / कासं कास्मि गमिष्यामि को न्वहं किमिहास्थितः। पितृदेवमहर्षीणामानृण्यायानसूयकः // 54 कस्मात्कमनुशोचेयमित्येवं स्थापयेन्मनः / / - स यज्ञशीलः प्रजने निविष्टः भनित्ये प्रियसंवासे संसारे चक्रवद्गतौ // 40 प्रारब्रह्मचारी प्रविभक्तपक्षः। न दृष्टपूर्व प्रत्यक्षं परलोकं विदुर्बुधाः / आराधयन्स्वर्गमिमं च लोकं आगमांस्त्वनतिक्रम्य श्रद्धातव्यं बुभूषता // 41 परं च मुक्त्वा हृदयव्यलीकम् // 55 कुर्वीत पितृदैवत्यं धर्माणि च समाचरेत् / सम्यग्घि धर्म चरतो नृपस्य यजेश्च विद्वान्विधिवत्रिवर्ग चाप्यनुव्रजेत् // 42 द्रव्याणि चाप्याहरतो यथावत् / संनिमज्जजगदिदं गम्भीरें कालसागरे / प्रवृत्तचक्रस्य यशोऽभिवर्धते जरामृत्युमहाग्राहे न कश्चिदवबुध्यते // 43 सर्वेषु लोकेषु चराचरेषु // 56 आयुर्वेदमधीयानाः केवलं सपरिग्रहम् / / . व्यास उवाच। दृश्यन्ते बहवो वैद्या व्याधिभिः समभिप्लुताः॥४४ इत्येवमाज्ञाय विदेहराजो ते पिबन्तः कषायांश्च सीषि विविधानि च / वाक्यं समग्रं परिपूर्णहेतुः। न मृत्युमतिवर्तन्ते वेलामिव महोदधिः // 45 अश्मानमामध्य विशुद्धबुद्धिरसायनविदश्चैव सुप्रयुक्तरसायनाः / र्ययौ गृहं स्वं प्रति शान्तशोकः // 57 दृश्यन्ते जरया भमा नगा नागैरिवोत्तमैः // 46 तथा त्वमप्यच्युत मुश्च शोकतथैव तपसोपेताः स्वाध्यायाभ्यसने रताः / मुत्तिष्ठ शक्रोपम हर्षमेहि। दातारो यज्ञशीलाश्च न तरन्ति जरान्तकौ // 47 क्षात्रेण धर्मेण मही जिता ते न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः समाः। ____तां भुञ्ज कुन्तीसुत मा विषादीः // 58 जातानां सर्वभूतानां न पक्षा न पुनः क्षपाः॥४८ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सोऽयं विपुलमध्वानं कालेन ध्रुवमध्रुवः / अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥ नरोऽवशः समभ्येति सर्वभूतनिषेवितम् // 49 29 देहो वा जीवतोऽभ्येति जीवो वाभ्येति देहतः। वैशंपायन उवाच / पथि संगतमेवेदं दारैरन्यैश्च बन्धुभिः // 50 अव्याहरति कौन्तेये धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे / नायमत्यन्तसंवासो लभ्यते जातु केनचित्। गुडाकेशो हृषीकेशमभ्यभाषत पाण्डवः // 1 - 2019 - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 29. 2] महाभारते [ 12. 29. 30 ज्ञातिशोकाभिसंतप्तो धर्मराजः परंतपः / देवा विश्वसृजो राज्ञो यज्ञमीयुर्महात्मनः // 16 एष शोकार्णवे मग्नस्तमाश्वासय माधव // 2 यः स्पर्धामनयच्छकं देवराजं शतक्रतुम् / सर्वे स्म ते संशयिताः पुनरेव जनार्दन / शक्रप्रियैषी यं विद्वान्प्रत्याचष्ट बृहस्पतिः / अस्य शोकं महाबाहो प्रणाशयितुमर्हसि // 3 संवर्ता याजयामास यं पीडार्थ बृहस्पतेः॥ 17 एवमुक्तस्तु गोविन्दो विजयेन महात्मना / यस्मिन्प्रशासति सतां नृपतौ नृपसत्तम / पर्यवर्तत राजानं पुण्डरीकेक्षणोऽच्युतः // 4 अकृष्टपच्या पृथिवी विबभौ चेत्यमालिनी // 18 अनतिक्रमणीयो हि धर्मराजस्य केशवः / आविक्षितस्य वै सत्रे विश्वे देवाः सभासदः / बाल्यात्प्रभृति गोविन्दः प्रीत्या चाभ्यधिकोऽर्जुनात्।। मरुतः परिवेष्टारः साध्याश्चासन्महात्मनः // 19 संप्रगृह्य महाबाहुर्भुजं चन्दनभूपितम् / मरुद्गणा मरुत्तस्य यत्सोममपिबन्त ते / शैलस्तम्भोपमं शौरिरुवाचाभिविनोदयन् // 6 देवान्मनुष्यान्गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः // 20 शुशुभे वदनं तस्य सुदंष्ट्रं चारुलोचनम् / स चेन्ममार सृञ्जय चतुभद्रतरस्त्यया / व्याकोशमिव विस्पष्टं पद्मं सूर्यविबोधितम् // 7 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 21 मा कृथाः पुरुषव्याघ्र शोकं त्वं गात्रशोषणम् / [2] सुहोत्रं चेद्वैतिथिनं मृतं सृञ्जय शुश्रुम / न हि ते सुलभा भूयो ये हतास्मिन्रणाजिरे // 8 यस्मै हिरण्यं ववृषे मघवान्परिवत्सरम् / / 22 स्वप्नलब्धा यथा लाभा वितथाः प्रतिबोधने / सत्यनामा वसुमती यं प्राप्यासीजनाधिप / एवं ते क्षत्रिया राजन्ये व्यतीता महारणे // 9 हिरण्यमवहन्नयस्तस्मिञ्जनपदेश्वरे / / 23 सर्वे ह्यभिमुखाः शूरा विगता रणशोभिनः। कूर्मान्कर्कटकान्नक्रान्मकराशिशुकानपि / नैषां कश्चित्पृष्ठतो वा पलायन्वापि पातितः // 10 नदीष्वपातयद्राजन्मघवा लोकपूजितः / / 24 सर्वे त्यक्त्वात्मनः प्राणान्युद्धा वीरा महाहवे / हैरण्यापतितान्दृष्ट्वा मत्स्यान्मकरकच्छपान् / शस्त्रपूता दिवं प्राप्ता न ताशोचितुर्हसि // 11 सहस्रशोऽथ शतशस्ततोऽस्मयत वेतिथिः // 25 अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तद्धिरण्यमपर्यन्तमावृत्तं कुरुजाङ्गले / सृञ्जयं पुत्रशोकात यथायं प्राह नारदः // 12 ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समाहितः // 26 सुखदुःखैरहं त्वं च प्रजाः सर्वाश्च सृञ्जय / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / अविमुक्तं चरिष्यामस्तत्र का परिदेवना / / 13 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः / महाभाग्यं परं राज्ञां कीर्त्यमानं मया शृणु। अदक्षिणमयज्वानं श्वैत्य संशाम्य मा शुचः // 2 // गच्छावधानं नृपते ततो दुःखं प्रहास्यसि // 14 [3] अङ्गं बृहद्रथं चैव मृतं शुश्रुम सृञ्जय / मृतान्महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव तु महीपतीन् / यः सहस्रं सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत् // 28 श्रुत्वापनय संतापं शृणु विस्तरशश्च मे // 15 सहस्रं च सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः / [1] आविक्षितं मरुत्तं मे मृतं सृञ्जय शुश्रुहि / ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत् // 29 यस्य सेन्द्राः सवरुणा बृहस्पतिपुरोगमाः / / शतं शतसहस्राणां वृषाणां हेममालिनाम् / - 2020 - Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 29. 301 शान्तिपर्व [12. 29. 59 पुनः / गवां सहस्रानुचरं दक्षिणामत्यकालयत् // 30 सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ // 44 अङ्गस्य यजमानस्य तदा विष्णुपदे गिरौ। स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः // 31 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 45 यस्य यज्ञेषु राजेन्द्र शतसंख्येषु वै पुनः / [6] रामं दाशरथिं चैव मृतं शुश्रुम सृञ्जय / देवान्मनुष्यान्गन्धर्वानत्यरिच्यन्त दक्षिणाः // 32 / योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानिवौरसान् // 46 न जातो जनिता चान्यः पुमान्यस्तत्प्रदास्यति / विधवा यस्य विषये नानाथाः काश्चनाभवन् / यदङ्गः प्रददौ वित्तं सोमसंस्थासु सप्तसु // 33 सर्वस्यासीपितृसमो रामो राज्यं यदान्वशात्॥४७ स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / कालवर्षाश्च पर्जन्याः सस्यानि रसवन्ति च / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 34 नित्यं सुभिक्षमेवासीद्रामे राज्यं प्रशासति // 48 [4] शिबिमौशीनरं चैव मृतं शुश्रुम सृञ्जय / प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नानर्थे पावकोऽदहत् / य इमां पृथिवीं कृत्स्नां चर्मवत्समवेष्टयत् / / 35 न व्यालजं भयं चासीद्रामे राज्यं प्रशासति // 49 महता रथघोषेण पृथिवीमनुनादयन् / आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिकाः / एकच्छत्रां महीं चक्रे जैत्रेणेकरथेन यः // 36 अरोगाः सर्वसिद्धार्थाः प्रजा रामे प्रशासति // 50 यावदद्य गवाश्वं स्यादारण्यैः पशुभिः सह / नान्योन्येन विवादोऽभूत्स्त्रीणामपि कुतो नृणाम् / तावतीः प्रददौ गाः स शिबिरौशीनरोऽध्वरे // 37 धर्मनित्याः प्रजाश्चासन्रामे राज्यं प्रशासति // 51 नोद्यन्तारं धुरं तस्य कंचिन्मेने प्रजापतिः / नित्यपुष्पफलाश्चैव पादपा निरुपद्रवाः / न भूतं न भविष्यन्तं सर्वराजसु भारत। सर्वा द्रोणदुघा गावो रामे राज्यं प्रशासति // 52 अन्यत्रौशीनराच्छैब्याद्राजर्षरिन्द्रविक्रमात् // 38 / स चतुर्दश वर्षाणि वने प्रोष्य महातपाः / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / दशाश्वमेधाञ्जारूथ्यानाजहार निरर्गलान् // 53 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः / श्यामो युवा लोहिताक्षो मत्तवारणविक्रमः / अदक्षिणमयज्वानं तं धै संशाम्य मा शुचः // 39 दश वर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् // 54 [5] भरतं चैव दौःपन्ति मृतं सृञ्जय शुश्रुम / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। शाकुन्तलिं महेष्वासं भूरिद्रविणतेजसम् // 40 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 55 यो बद्धा त्रिंशतो ह्यश्वान्देवेभ्यो रमुनामनु / [7] भगीरथं च राजानं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / सरस्वती विंशतिं च गङ्गामनु चतुर्दश // 41 यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः // 56 अश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च / असुराणां सहस्राणि बहूनि सुरसत्तमः / इष्टवान्स महातेजा दौःषन्तिर्भरतः पुरा // 42 अजयद्वाहुवीर्येण भगवान्पाकशासनः / / 57 भरतस्य महत्कर्म सर्वराजसु पार्थिवाः / यः सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः / खं. मा इव बाहुभ्यां नानुगन्तुमशक्नुवन् // 43 / ईजानो वितेते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत् // 58 परं सहस्राद्यो बद्धा हयान्वेदी विचित्य च। / सर्वा रथगताः कन्या रथाः सर्वे चतुर्युजः / -2021 -- Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 29. 59] महाभारते [12. 29. 89 रथे रथे शतं नागाः पद्मिनो हेममालिनः // 59 यं देवा मरुतो गर्भ पितुः पार्शदपाहरन् // 74 सहस्रमश्वा एकैकं हस्तिनं पृष्ठतोऽन्वयुः / संवृद्धो युवनाश्वस्य जठरे यो महात्मनः / गवां सहस्रमश्वेऽश्वे सहस्रं गव्यजाविकम् // 60 पृषदाज्योद्भवः श्रीमांत्रिलोकविजयी नृप // 75 उपहरे निवसतो यस्याङ्के निषसाद ह / यं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देवरूपिणम् / गङ्गा भागीरथी तस्मादुर्वशी ह्यभवत्पुरा // 61 अन्योन्यमब्रुवन्देवाः कमयं धास्यतीति वै // 76 भूरिदक्षिणमिक्ष्वाकुं यजमानं भगीरथम् / मामेव धास्यतीत्येवमिन्द्रो अभ्यवपद्यत / . त्रिलोकपथगा गङ्गा दुहितृत्वमुपेयुषी / / 62 मांधातेति ततस्तस्य नाम चक्रे शतक्रतुः // 77 . स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / ततस्तु पयसो धारां पुष्टिहेतोर्महात्मनः / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 63 तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत् // 78 [8] दिलीपं चैवैलविलं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / तं पिबन्पाणिमिन्द्रस्य समामह्ना व्यवर्धत / यस्य कर्माणि भूरीणि कथयन्ति द्विजातयः॥ 64 स आसीहादशसमो द्वादशाहेन पार्थिव // 79 इमां वै वसुसंपन्नां वसुधां वसुधाधिपः / तमियं पृथिवी सर्वा एकाला समपद्यत / ददौ तस्मिन्महायज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समाहितः / / 65 धर्मात्मानं महात्मानं शूरमिन्द्रसमं युधि // 80 तस्येह यजमानस्य यज्ञे यज्ञे पुरोहितः / य आगारं हि नृपति मरुत्तमसितं गयम। सहस्रं वारणान्हैमान्दक्षिणामत्यकालयत् / / 66 अङ्गं बृहद्रथं चैव मांधाता समरेऽजयत् // 81 यस्य यज्ञे महानासीयूपः श्रीमान्हिरण्मयः / / यौवनाश्वो यदाङ्गारं समरे समयोधयत् / तं देवाः कर्म कुर्वाणाः शक्रज्येष्ठा उपाश्रयन् // 67 विस्फारैर्धनुषो देवा द्यौरभेदीति मेनिरे // 82 चषालो यस्य सौवर्णस्तस्मिन्यूपे हिरण्मये / यतः सूर्य उदेति स्म यत्र च प्रतितिष्ठति / ननृतुर्देवगन्धर्वाः षट्सहस्राणि सप्तधा / / 68 सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मांधातुः क्षेत्रमुच्यते // 83 अवादयत्तत्र वीणां मध्ये विश्वावसुः स्वयम् / अश्वमेधशतेनेष्ट्वा राजसूयशतेन च / सर्वभूतान्यमन्यन्त मम वादयतीत्ययम् // 69 अददाद्रोहितान्मत्स्यान्ब्राह्मणेभ्यो महीपतिः // 84 एतद्राज्ञो दिलीपस्य राजानो नानुचक्रिरे / हैरण्यान्योजनोत्सेधानायतान्दशयोजनम् / यत्त्रियो हेमसंपन्नाः पथि मत्ताः स्म शेरते // 70 अतिरिक्तान्द्विजातिभ्यो व्यभजन्नितरे जनाः // 85 राजानमुग्रधन्वानं दिलीपं सत्यवादिनम् / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / येऽपश्यन्सुमहात्मानं तेऽपि स्वर्गजितो नराः // 71 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 86 त्रयः शब्दा न जीर्यन्ते दिलीपस्य निवेशने। [10] यथातिं नाहुषं चैव मृतं शुश्रुम सृञ्जय / स्वाध्यायघोषो ज्याघोषो दीयतामिति चैव हि // 72 / य इमां पृथिवीं सर्वां विजित्य सहसागराम् // 87 स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / शम्यापातेनाभ्यतीयाद्वेदीभिश्चित्रयन्नृप / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 73 / ईजानः क्रतुभिः पुण्यैः पर्यगच्छद्वसुंधराम् // 88 [9] मांधातारं यौवनाश्वं मृतं शुश्रुम सृञ्जय। / इष्ट्वा ऋतुसहस्रेण वाजिमेधशतेन च / - 2022 - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 29. 89] शान्तिपर्व [12. 29. 118 तर्पयामास देवेन्द्र त्रिभिः काञ्चनपर्दतैः // 89 / यः स वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत् / / 104 व्यूढे देवासुरे युद्धे हत्वा दैतेयदानवान् / यस्मै वह्निर्वरान्प्रादात्ततो वन्ने वरान्गयः / व्यभजत्पृथिवीं कृत्स्ना ययातिनहुपात्मजः / / 90 ददतो मेऽक्षा चास्तु धर्मे श्रद्धा च वर्धताम् / / 105 अन्तेषु पुत्राग्निक्षिप्य यदुद्रुक्षुपुरोगमान् / मनो मे रमतां सत्ये त्वत्प्रसादाद्भुताशन / पूरुंराज्येऽभिषिच्य स्वे सदारः प्रस्थितो वनम्॥९१ लेभे च कामांस्तान्सर्वान्पावकादिति नः श्रुतम् / / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / दर्शन पौर्णमासेन चातुर्मास्यैः पुनः पुनः / पुत्रात्पुण्यतरचैव मा पुत्रमनुतप्यथाः / / 92 अयजत्स महातेजाः सहसं परिवत्सरान् / / 107 [11] अम्बरीषं च नाभागं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / शतं गवां सहस्राणि शतमश्वशतानि च / यं प्रजा वजिरे पुण्यं गोप्तारं नृपसत्तम / / 93 उत्थायोत्थाय वै प्रादात्सहस्रं परिवत्सरान् // 108 यः सहस्रं सहस्राणां राज्ञामयुत याजिनाम् / / तर्पयामास सोमेन देवान्वितैर्द्विजानपि / ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः समाहितः॥ 94 पिन्स्वधाभिः कामैश्च स्त्रियः स्वाः पुरुषर्षभ / नैतत्पूर्व जनाश्चर्न करिष्यन्ति चापरे / सौवर्णां पृथिवीं कृत्वा दशव्यामां द्विरायताम् / इत्यम्बरीषं नाभागमन्वमोदन्त दक्षिणाः // 95 दक्षिणामदराजा वाजिमेधमहामखे // 110 शतं राजसहस्राणि शतं राजशतानि च / यावत्यः सिकता राजन्गङ्गायाः पुरुषर्षभ / सर्वेऽश्वमेधैरीजानारतेऽभ्ययुदक्षिणायनम् // 96 तावतीरेव गाः प्रादादामूर्तरयसो गयः // 111 स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतररत्वया / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 97 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 112 [12] शशबिन्दु चैत्ररथं मृतं शुश्रुम सञ्जय / [14] रन्तिदेवं च साङ्कृत्यं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / यस्य भार्यासहस्राणां शतमासीन्महात्मनः // 98 सम्यगाराध्य यः शक्रं वरं लेभे महायशाः॥११३ सहस्रं तु सहस्राणां यस्यासशाशबिन्दवः / अन्नं च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि / हिरण्यकवचाः सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विनः // 59 श्रद्धा च नो मा व्यगमन्मा च याचिष्म कंचन / / शतं कन्या राजपुत्रमेकैकं पृष्ठतोऽन्वयुः / उपातिष्ठन्त पशवः स्वयं तं संशितव्रतम् / कन्यां कन्यां शतं नागा नागं नागं शतं रथाः॥१०० ग्राम्यारण्या महात्मानं रन्तिदेवं यशस्विनम् // 115 रथं रथं शतं चाश्वा देशजा हेममालिनः / महानदी चर्मराशेरुक्लेदात्सुये यतः / अश्वमश्वं शतं गावो गां गां तद्वदजाविकम् / / 101 ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी / / 116 एतद्धनमपर्यन्तमश्वमेधे महामखे। ब्राह्मणेभ्यो ददौ निष्कान्सदसि प्रतते नृपः / शशबिन्दुमहाराज ब्राह्मणेभ्यः समादिशत् / / 102 तुभ्यं तुभ्यं निष्कमिति यत्राक्रोशन्ति वै द्विजाः / स चेन्ममार सृश्य चतुर्भद्रतरस्त्वया / सहस्रं तुभ्यमित्युक्त्वा ब्राह्मणान्स्म प्रपश्ते॥११७ पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 103 | अन्वाहार्योपकरणं द्रव्योपकरणं च यन् / 13] गयमामूर्तरयसं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / घटाः स्थाल्यः कटाहाश्च पाच्यश्च पिठरा अपि / - 2023 - Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 29. 118 ] महाभारते [12. 29. 141 न तत्किंचिदसौवर्णं रन्तिदेवस्य धीमतः // 118 यथाभिकाममवसन्क्षेत्रेषु च गृहेषु च // 133 साङ्कृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमवसद्गृहे / आपः संस्तम्भिरे यस्य समुद्रस्य यियासतः / आलभ्यन्त शतं गावः सहस्राणि च विंशतिः // 119 सरितश्चानुदीर्यन्त ध्वजसङ्गश्च नाभवत् // 134 तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः / / हैरण्यांस्त्रिनलोत्सेधान्पर्वतानेकविंशतिम् / सूपभूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य मांसं यथा पुरा // 120 ब्राह्मणेभ्यो ददौ राजा योऽश्वमेधे महामखे॥१३५ स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः / / 121 / / पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 136 [15] सगरं च महात्मानं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / किं वै तूष्णीं ध्यायसि सृञ्जय त्वं ऐक्ष्वाकं पुरुषव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम् / / 122 ___ न मे राजन्वाचमिमां शृणोषि / षष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तं पृष्ठतोऽन्वयुः। न चेन्मोघं विप्रलप्तं मयेदं .. नक्षत्रराजं वर्षान्ते व्यभ्रे ज्योतिर्गणा इव / / 123 पथ्यं मुमूर्षोरिव सम्यगुक्तम् // 137 एकच्छत्रा मही यस्य प्रणता ह्यभवत्पुरा / सृञ्जय उवाच। योऽश्वमेधसहस्रेण तर्पयामास देवताः // 124 शृणोमि ते नारद वाचमेतां . यः प्रादात्काश्चनस्तम्भं प्रासादं सर्वकाञ्चनम् / विचित्रार्थी स्रजमिव पुण्यगन्धाम्। . पूर्ण पद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् // 125 राजर्षीणां पुण्यकृतां महात्मनां द्विजातिभ्योऽनुरूपेभ्यः कामानुच्चावचांस्तथा।। ___ कीर्त्या युक्तां शोकनिर्णाशनार्थम् // 138 यस्यादेशेन तद्विन्तं व्यभजन्त द्विजातयः // 126 न ते मोघं विप्रलप्तं महर्षे खानयामास यः कोपात्पृथिवीं सागराङ्किताम् / दृष्ट्वैव त्वां नारदाहं विशोकः / यस्य नाम्ना समुद्रश्च सागरत्वमुपागतः // 127 शुश्रूषे ते वचनं ब्रह्मवादिस चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया / न ते तृप्याम्यमृतस्येव पानात् // 139 पुत्रात्पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः // 128 अमोघदर्शिन्मम चेत्प्रसाद [16] राजानं च पृथु वैन्यं मृतं शुश्रुम सृञ्जय / ___सुताघदग्धस्य विभो प्रकुर्याः / यमभ्यषिश्चन्संभूय महारण्ये महर्षयः // 129 मृतस्य संजीवनमद्य मे स्याप्रथयिष्यति वै लोकान्पृथुरित्येव शब्दितः / ___ त्तव प्रसादात्सुतसंगमश्च // 140 क्षताच्च नस्त्रायतीति स तस्मात्क्षत्रियः स्मृतः॥१३० नारद उवाच। पृथु वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन् / यस्ते पुत्रो दयितोऽयं वियातः ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत // 131 स्वर्णष्टीवी यमदात्पर्वतस्ते / अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु / पुनस्ते तं पुत्रमहं ददामि सर्वा द्रोणदुघा गावो वैन्यस्यासन्प्रशासतः / / 132 हिरण्यनाभं वर्षसहस्रिणं च // 141 अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या अकुतोभयाः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः / -2024 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 30. 1] शान्तिपर्व [12. 30. 27 परमं सौम्य इत्युक्तस्ताभ्यां राजा शशास ताम् / युधिष्ठिर उवाच / कन्ये विप्रावुपचर देववपितृवच्च ह // 13 स कथं काश्चनष्ठीवी सृञ्जयस्य सुतोऽभवत् / सा तु कन्या तथेत्युक्त्वा पितरं धर्मचारिणी / पर्वतेन किमर्थं च दत्तः केन ममार च // 1 यथानिदेशं राज्ञस्तौ सत्कृत्योपचचार ह // 14 यदा वर्षसहस्रायुस्तदा भवति मानवः / तस्यास्तथोपचारेण रूपेणाप्रतिमेन च / कथमप्राप्तकौमारः सृञ्जयस्य सुतो मृतः // 2 नारदं हृच्छयस्तूर्णं सहसैवान्वपद्यत // 15 उताहो नाममात्रं वै सुवर्णष्ठीविनोऽभवत् / ववृधे च ततस्तस्य हृदि कामो महात्मनः / तध्यं वा काञ्चनष्ठीवीत्येतदिच्छामि वेदितुम् // 3 यथा शुक्लस्य पक्षस्य प्रवृत्तावुडुराट्छनैः // 16 वासुदेव उवाच / न च तं भागिनेयाय पर्वताय महात्मने / अत्र ते कथयिष्यामि यथा वृत्तं जनेश्वर। शशंस मन्मथं तीव्र व्रीडमानः स धर्मवित् // 17 नारदः पर्वतश्चैव प्रागृषी लोकपूजितौ // 4 तपसा चेङ्गितेनाथ पर्वतोऽथ बुबोध तत् / मातुलो भागिनेयश्च देवलोकादिहागतौ / कामात नारदं क्रुद्धः शशापैनं ततो भृशम् // 18 विहर्तुकामौ संप्रीत्या मानुष्येषु पुरा प्रभू // 5 कृत्वा समयमव्यग्रो भवान्वै सहितो मया / हवि:पवित्रभोज्येन देवभोज्येन चैव ह। यो भवेद्धदि संकल्पः शुभो वा यदि वाशुभः॥ 19 नारदो मातुलश्चैव भागिनेयश्च पर्वतः // 6 अन्योन्यस्य स आख्येय इति तद्वै मृषा कृतम् / तावुभौ तपसोपेताववनीतलचारिणौ / भवता वचनं ब्रह्मस्तस्मादेतद्वदाम्यहम् // 20 भुञ्जानौ मानुषान्भोगान्यथावत्पर्यधावताम् / / 7 न हि काम प्रवर्तन्तं भवानाचष्ट मे पुरा / प्रीतिमन्तौ मुदा युक्तौ समयं तत्र चक्रतुः / सुकुमारू कुमार्यां ते तस्मादेष शपाम्यहम् // 21 यो भवेद्धृदि संकल्पः शुभो वा यदि वाशुभः / ब्रह्मवादी गुरुयस्मात्तपस्वी ब्राह्मणश्च सन् / अन्योन्यस्य स आख्येयो मृषा शापोऽन्यथा भवेत् // अकार्षीः समयभ्रंशमावाभ्यां यः कृतो मिथः॥२२ तौ तथेति प्रतिज्ञाय महर्षी लोकपूजितौ / शप्स्ये तस्मात्सुसंक्रुद्धो भवन्तं तं निबोध मे / सृजयं श्वैत्यमभ्येत्य राजानमिदमूचतुः // 9 सुकुमारी च ते भार्या भविष्यति न संशयः॥२३ आवां भवति वत्स्यावः कंचित्कालं हिताय ते / वानरं चैव कन्या त्वां विवाहात्प्रभृति प्रभो / यथावत्पृथिवीपाल आवयोः प्रगुणीभव / संद्रक्ष्यन्ति नराश्चान्ये स्वरूपेण विनाकृतम् // 24 तथेति कृत्वा तौ राजा सत्कृत्योपचचार ह // 10 स तद्वाक्यं तु विज्ञाय नारदः पर्वतात्तदा / ततः कदाचित्तौ राजा महात्मानौ तथागतौ / अशपत्तमपि क्रोधाद्भागिनेयं स मातुलः // 25 अब्रवीत्परमप्रीतः सुतेयं वरवर्णिनी // 11 / तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च / एकैव मम कन्यैषा युवा परिचरिष्यति / युक्तोऽपि धर्मनित्यश्च न स्वर्गवासमाप्स्यसि // 26 वर्शनीयानवद्याङ्गी शीलवृत्तसमन्विता / तौ तु शप्त्वा भृशं क्रुद्धौ परस्परममर्षणौ / सुकुमारी कुमारी च पद्मकिञ्जल्कसंनिभा // 12 / प्रतिजग्मतुरन्योन्यं क्रुद्धाविव गजोत्तमौ // 27 म. भा. 254 - 2025 - Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 30. 28 ] महाभारते [12. 31. 12 31 पर्वतः पृथिवीं कृत्स्ना विचचार महामुनिः / प्रत्यक्षकर्मा सर्वस्य नारदोऽयं महानृषिः / पूज्यमानो यथान्यायं तेजसा स्वेन भारत // 28 एष वक्ष्यति वै पृष्ठो यथा वृत्तं नरोत्तम // 42 अथ तामलभत्कन्यां नारदः सृञ्जयात्मजाम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्मेण धर्मप्रवरः सुकुमारीमनिन्दिताम् / / 29 त्रिंशोऽध्यायः // 30 // सा तु कन्या यथाशापं नारदं तं ददर्श ह / पाणिग्रहणमत्राणां प्रयोगादेव वानरम् // 30 वैशंपायन उवाच / सुकुमारी च देवर्षि वानरप्रतिमाननम् / ततो राजा पाण्डुसुतो नारदं प्रत्यभाषत / नैवावमन्यत तदा प्रीतिमत्येव चाभवत् // 31 भगवश्रोतुमिच्छामि सुवर्णष्ठीविसंभवम् // 1 उपतस्थे च भर्तारं न चान्यं मनसाप्यगात् / एवमुक्तः स च मुनिर्धर्मराजेन नारदः / देवं मुनिं वा यक्षं वा पतित्वे पतिवत्सला // 32 आचचक्षे यथा वृत्तं सुवर्णष्ठीविनं प्रति // .2 ततः कदाचिद्भगवान्पर्वतोऽनुससार ह। एवमेतन्महाराज यथायं केशवोऽब्रवीत् / वनं विरहितं किंचित्तत्रापश्यत्स नारदम् / / 33 कार्यस्यास्य तु यच्छेषं तत्ते वक्ष्यामि पृच्छतः॥३ ततोऽभिवाद्य प्रोवाच नारदं पर्वतस्तदा / अहं च पर्वतश्चैव स्वस्रीयो मे महामुनिः / भवान्प्रसादं कुरुतां स्वर्गादेशाय मे प्रभो // 34 वस्तुकामावभिगतौ सृञ्जयं जयतां वरम् // 4 तमुवाच ततो दृष्ट्वा पर्वतं नारदस्तदा / तत्र संपूजितौ तेन विधिदृष्टेन कर्मणा / कृताञ्जलिमुपासीनं दीनं दीनतरः स्वयम् // 35 सर्वकामैः सुविहितौ निवसावोऽस्य वेश्मनि // 5 त्वयाहं प्रथमं शप्तो वानरस्त्वं भविष्यसि / व्यतिक्रान्तासु वर्षासु समये गमनस्य च / इत्युक्तेन मया पश्चाच्छप्तस्त्वमपि मत्सरात् / / पर्वतो मामुवाचेदं काले वचनमर्थवत् // 6 अद्यप्रभृति वै वासं स्वर्गे नावाप्स्यसीति ह // 36 आवामस्य नरेन्द्रस्य गृहे परमपूजितौ / तव नैतद्धि सदृशं पुत्रस्थाने हि मे भवान् / / उषितौ समये ब्रह्मंश्चिन्त्यतामत्र सांप्रतम् // 7 निवर्तयेतां तौ शापमन्योऽन्येन तदा मुनी // 37 ततोऽहमब्रुवं राजन्पर्वतं शुभदर्शनम् / श्रीसमृद्धं तदा दृष्ट्वा नारदं देवरूपिणम् / सर्वमेतत्त्वयि विभो भागिनेयोपपद्यते // 8 सुकुमारी प्रदुद्राव परपत्यभिशङ्कया // 38 वरेण छन्द्यतां राजा लभतां यद्यदिच्छति / तां पर्वतस्ततो दृष्ट्वा प्रद्रवन्तीमनिन्दिताम् / आवयोस्तपसा सिद्धि प्राप्नोतु यदि मन्यसे // 9 अब्रवीत्तव भतॆष नात्र कार्या विचारणा // 39 तत आहूय राजानं सृञ्जयं शुभदर्शनम् / ऋषिः परमधर्मात्मा नारदो भगवान्प्रभुः / पर्वतोऽनुमतं वाक्यमुवाच मुनिपुंगवः // 10 तवैवाभेद्यहृदयो मा ते भूदत्र संशयः // 40 प्रीतौ वो नृप सत्कारैस्तव ह्यार्जवसंभृतैः / सानुनीता बहुविधं पर्वतेन महात्मना / आवाभ्यामभ्यनुज्ञातो वरं नृवर चिन्तय // 11 शापदोषं च तं भर्तुः श्रुत्वा स्वां प्रकृतिं गता। देवानामविहिंसायां यद्भवेन्मानुषक्षमम् / पर्वतोऽथ ययौ स्वर्गं नारदोऽथ ययौ गृहान् // 41 / तद्गृहाण महाराज पूजा) नौ मतो भवान् // 12 -2026 - Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 31. 13 ] शान्तिपर्व [ 12. 31. 39 सृञ्जय उवाच / तदद्भुततमं लोके पप्रथे कुरुसत्तम / प्रीती भवन्तौ यदि मे कृतमेतावता मम / / बुबुधे तच्च देवेन्द्रो वरदानं महात्मनोः // 25 एष एव परो लाभो निवृत्तो मे महाफलः // 13 / ततस्त्वभिभवाद्भीतो बृहस्पतिमते स्थितः / नारद उवाच। कुमारस्यान्तरप्रेक्षी बभूव बलवृत्रहा // 26 तमेवंवादिनं भूयः पर्वतः प्रत्यभाषत / चोदयामास वज्रं स दिव्यास्त्रं मूर्तिसंस्थितम् / वृणीष्व राजन्संकल्पो यस्ते हृदि चिरं स्थितः॥१४ व्याघ्रो भूत्वा जहीमं त्वं राजपुत्रमिति प्रभो॥२७ विवृद्धः किल वीर्येण मामेषोऽभिभविष्यति / सृञ्जय उवाच / अभीप्सामि सुतं वीरं वीर्यवन्तं दृढव्रतम् / सृञ्जयस्य सुतो वज्र यथैनं पर्वतो ददौ // 28 आयुष्मन्तं महाभागं देवराजसमद्युतिम् // 15 एवमुक्तस्तु शक्रेण वज्रः परपुरंजयः / पर्वत उवाच / कुमारस्यान्तरप्रेक्षी नित्यमेवान्वपद्यत // 29 सृञ्जयोऽपि सुतं प्राप्य देवराजसमद्युतिम् / भविष्यत्येष ते कामो न त्वायुष्मान्भविष्यति / हृष्टः सान्तःपुरो राजा वननित्योऽभवत्तदा // 30 देवराजाभिभूत्यर्थं संकल्पो ह्येष ते हृदि // 16 ततो भागीरथीतीरे कदाचिद्वननिर्झरे / सुवर्णष्ठीवनाच्चैव स्वर्णष्ठीवी भविष्यति / धात्रीद्वितीयो बालः स क्रीडार्थं पर्यधावत // 31 रक्ष्यश्च देवराजात्स देवराजसमद्युतिः // 17 पञ्चवर्षकदेशीयो बालो नागेन्द्रविक्रमः / नारद उवाच / सहसोत्पतितं व्याघ्रमाससाद महाबलः / / 32 तच्छ्रुत्वा सृञ्जयो वाक्यं पर्वतस्य महात्मनः / तेन चैव विनिष्पिष्टो वेपमानो नृपात्मजः / प्रसादयामास तदा नैतदेवं भवेदिति // 18 व्यसुः पपात मेदिन्यां ततो धात्री विचुक्रुशे // 33 आयुष्मान्मे भवेत्पुत्रो भवतस्तपसा मुने / हत्वा तु राजपुत्रं स तत्रैवान्तरधीयत / न च तं पर्वतः किंचिदुवाचेन्द्रव्यपेक्षया // 19 शार्दूलो देवराजस्य माययान्तर्हितस्तदा // 34 तमहं नृपतिं दीनमब्रुवं पुनरेव तु। धात्र्यास्तु निनदं श्रुत्वा रुदत्याः परमार्तवत् / स्मर्तव्योऽहं महाराज दर्शयिष्यामि ते स्मृतः॥२० अभ्यधावत तं देशं स्वयमेव महीपतिः // 35 अहं ते दयितं पुत्रं प्रेतराजवशं गतम् / स ददर्श गतासुं तं शयानं पीतशोणितम् / पुनस्यामि तद्रूपं मा शुचः पृथिवीपते // 21 कुमारं विगतानन्दं निशाकरमिव च्युतम् // 36 एवमुक्त्वा तु नृपतिं प्रयातौ स्वो यथेप्सितम् / स तमुत्सङ्गमारोप्य परिपीडितवक्षसम् / सञ्जयश्च यथाकामं प्रविवेश स्वमन्दिरम् // 22 पुत्रं रुधिरसंसिक्तं पर्यदेवयदातुरः // 37 सञ्जयस्याथ राजर्षेः कस्मिंश्चित्कालपर्यये। ततस्ता मातरस्तस्य रुदन्त्यः शोककर्शिताः / जज्ञे पुत्रो महावीर्यस्तेजसा प्रज्वलन्निव // 23 अभ्यधावन्त तं देशं यत्र राजा स सृञ्जयः // 38 ववृधे स यथाकालं सरसीव महोत्पलम् / ततः स राजा सस्मार मामन्तर्गतमानसः / बभूव काश्चनष्ठीवी यथार्थं नाम तस्य तत् // 24 / तच्चाहं चिन्तितं ज्ञात्वा गतवांस्तस्य दर्शनम् // 39 - 2027 - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 31. 40] महाभारते [ 12. 32. 18 स मयैतानि वाक्यानि श्रावितः शोकलालसः / प्रमाणमप्रमाणं यः कुर्यान्मोहवशं गतः / यानि ते यदुवीरेण कथितानि महीपते // 40 भृत्यो वा यदि वा पुत्रस्तपस्वी वापि कश्चन / संजीवितश्चापि मया वासवानुमते तदा / पापान्सर्वैरुपायैस्तानियच्छेद्वातयेत वा // 6 भवितव्यं तथा तच्च न तच्छक्यमतोऽन्यथा // 41 अतोऽन्यथा वर्तमानो राजा प्राप्नोति किल्बिषम् / अत ऊर्ध्वं कुमारः स स्वर्णष्ठीवी महायशाः / / धर्म विनश्यमानं हि यो न रक्षेत्स धर्महा // . चित्तं प्रसादयामास पितुर्मातुश्च वीर्यवान् // 42 ते त्वया धर्महन्तारो निहताः सपदानुगाः।। कारयामास राज्यं स पितरि स्वर्गते विभुः। स्वधर्मे वर्तमानस्त्वं किं नु शोचसि पाण्डव / वर्षाणामेकशतवत्सहस्रं भीमविक्रमः // 43 राजा हि हन्याइद्याच्च प्रजा रक्षेच्च धर्मतः // 8. तत इष्ट्वा महायज्ञैर्बहुभिर्भूरिदक्षिणैः / युधिष्ठिर उवाच। तर्पयामास देवांश्च पितॄश्चैव महाद्युतिः / / 44 न तेऽभिशक्के वचनं यद्भवीषि तपोधन / उत्पाद्य च बहून्पुत्रान्कुलसंतानकारिणः / / अपरोक्षो हि ते धर्मः सर्वधर्मभृतां वर // 9 कालेन महता राजन्कालधर्ममुपेयिवान् // 45 मया ह्यवध्या बहवो घातिता राज्यकारणात् / स त्वं राजेन्द्र संजातं शोकमेतन्निवर्तय / तान्यकार्याणि मे ब्रह्मन्दहन्ति च तपन्ति च // 10 यथा त्वां केशवः प्राह व्यासश्च सुमहातपाः // 46 व्यास उवाच / पितृपैतामहं राज्यमास्थाय धुरमुट्ठह / ईश्वरो वा भवेत्कर्ता पुरुषो वापि भारत / इष्ट्वा पुण्यैर्महायज्ञैरिष्टाल्लोकानवाप्स्यसि // 47 हठो वा वर्तते लोके कर्मजं वा फलं स्मृतम् // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ईश्वरेण नियुक्ता हि साध्वसाधु च पार्थिव / एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // कुर्वन्ति पुरुषाः कर्म फलमीश्वरगामि तत् // 12 32 यथा हि पुरुषश्छिन्द्यादृक्षं परशुना वने / वैशंपायन उवाच / छेत्तुरेव भवेत्पापं परशोर्न कथंचन // 13 तूष्णीभूतं तु राजानं शोचमानं युधिष्ठिरम् / अथ वा तदुपादानात्प्राप्नुयुः कर्मणः फलम् / तपस्वी धर्मतत्त्वज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् // 1 दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते // 14 प्रजानां पालनं धर्मो राज्ञां राजीवलोचन / न चैतदिष्टं कौन्तेय यदन्येन फलं कृतम् / धर्मः प्रमाणं लोकस्य नित्यं धर्मानुवर्तनम् // 2 प्राप्नुयादिति तस्माच्च ईश्वरे तन्निवेशय // 15 अनुतिष्ठस्व वै राजन्पितृपैतामहं पदम् / अथ वा पुरुषः कर्ता कर्मणोः शुभपापयोः / ब्राह्मणेषु च यो धर्मः स नित्यो वेदनिश्चितः॥३ न परं विद्यते तस्मादेवमन्यच्छुभं कुरु // 16 तत्प्रमाणं प्रमाणानां शाश्वतं भरतर्षभ / न हि कश्चित्कचिद्राजन्दिष्टात्प्रतिनिवर्तते। तस्य धर्मस्य कृत्स्नस्य क्षत्रियः परिरक्षिता // 4 / दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते // 17 . तथा यः प्रतिहन्त्यस्य शासनं विषये नरः / यदि वा मन्यसे राजन्हठे लोकं प्रतिष्ठितम् / स बाहुभ्यां विनिग्राह्यो लोकयात्राविघातकः // 5 / एवमप्यशुभं कर्म न भूतं न भविष्यति // 18 - 2028 - Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 32. 19] शान्तिपर्व [12. 34. 8 अथाभिपत्तिर्लोकस्य कर्तव्या शुभपापयोः / अस्मानन्तकरान्धोरान्पाण्डवान्वृष्णिसंहितान् / मभिपन्नतमं लोके राज्ञामुद्यतदण्डनम् // 19 आक्रोशन्त्यः कृशा दीना निपतन्त्यश्च भूतले // 8 अथापि लोके कर्माणि समावर्तन्त भारत / अपश्यन्त्यः पितृन्भ्रातृन्पतीन्पुत्रांश्च योषितः / शुभाशुभफलं चेमे प्राप्नुवन्तीति मे मतिः // 20 त्यक्त्वा प्राणान्प्रियान्सर्वा गमिष्यन्ति यमक्षयम्॥९ एवं सत्यं शुभादेशं कर्मणस्तत्फलं ध्रुवम् / वत्सलत्याहिजश्रेष्ठ तत्र मे नास्ति संशयः / यज तद्राजशार्दूल मैवं शोके मनः कृथाः // 21 व्यक्तं सौक्ष्म्याच धर्मस्य प्राप्स्यामः स्त्रीवधं वयम् // खधर्मे वर्तमानस्य सापवादेऽपि भारत / ते वयं सुहृदो हत्वा कृत्वा पापमनन्तकम् / एवमात्मपरित्यागस्तव राजन्न शोभनः // 22 नरके निपतिष्यामो ह्यधःशिरस एव च // 11 विहितानीह कौन्तेय प्रायश्चित्तानि कर्मिणाम् / . शरीराणि विमोक्ष्यामस्तपसोग्रेण सत्तम / शरीरवांस्तानि कुर्यादशरीरः पराभवेत् / / 23 आश्रमांश्च विशेषांस्त्वं ममाचक्ष्व पितामह // 12 तद्राजञ्जीवमानस्त्वं प्रायश्चित्तं चरिष्यसि / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रायश्चित्तमकृत्वा तु प्रेत्य तप्तासि भारत // 24 त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः // 33 // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 // वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा द्वैपायनस्तदा / युधिष्ठिर उवाच / समीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या ऋषिः प्रोवाच पाण्डवम्॥१ हताः पुत्राश्च पौत्राश्च भ्रातरः पितरस्तथा / मा विषादं कृथा राजन्क्षत्रधर्ममनुस्मर / धशुरा गुरवश्चैव मातुलाः सपितामहाः // 1 स्वधर्मेण हता ह्येते क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ // 2 क्षत्रियाश्च महात्मानः संबन्धिसुहृदस्तथा / काङ्क्षमाणाः श्रियं कृत्स्नां पृथिव्यां च महद्यशः / यस्या ज्ञातयश्चैव भ्रातरश्च पितामह // 2 कृतान्तविधिसंयुक्ताः कालेन निधनं गताः // 3 वश्च मनुष्येन्द्रा नानादेशसमागताः / न त्वं हन्ता न भीमोऽपि नार्जुनो न यमावपि / तिता राज्यलुब्धेन मयैकेन पितामह // 3 कालः पर्यायधर्मेण प्राणानादत्त देहिनाम् // 4 स्तादृशानहं हत्वा धर्मनित्यान्महीक्षितः / न यस्य मातापितरौ नानुग्राह्योऽस्ति कश्चन / असकृत्सोमपान्वीरान्कि प्राप्स्यामि तपोधन / / 4 कर्मसाक्षी प्रजानां यस्तेन कालेन संहृताः // 5 दह्याम्यनिशमद्याहं चिन्तयानः पुनः पुनः / हेतुमात्रमिदं तस्य कालस्य पुरुषर्षभ / हीनां पार्थिवसिंहैस्तैः श्रीमद्भिः पृथिवीमिमाम् // 5 यद्धन्ति भूतैर्भूतानि तदस्मै रूपमैश्वरम् // 6 दृष्ट्वा ज्ञातिवधं घोरं हतांश्च शतशः परान् / कर्ममूात्मकं विद्धि साक्षिणं शुभपापयोः / कोटिशश्च नरानन्यान्परितप्ये पितामह // 6 सुखदुःखगुणोदक कालं कालफलप्रदम् // 7 का नु तासां वरस्त्रीणामवस्थाद्य भविष्यति / तेषामपि महाबाहो कर्माणि परिचिन्तय / विहीनानां स्वतनयैः पतिभिर्धाभिस्तथा // 7 / विनाशहेतुकारित्वे यैस्ते कालवशं गताः // 8 -2029 - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 34. 9] महाभारते [12. 34. 36 आत्मनश्च विजानीहि नियमव्रतशीलताम् / तस्मिंस्तत्कलुषं सर्व समाप्तमिति शब्दितम् / यदा त्वमीदृशं कर्म विधिनाक्रम्य कारितः // 9 प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति हासो वा पापकर्मणः॥२४ त्वष्ट्रेव विहितं यत्रं यथा स्थापयितुर्वशे / त्वं तु शुक्लाभिजातीयः परदोषेण कारितः / कर्मणा कालयुक्तेन तथेदं भ्राम्यते जगत् // 10 / अनिच्छमानः कर्मेदं कृत्वा च परितप्यसे // 25 पुरुषस्य हि दृष्ट्वेमामुत्पत्तिमनिमित्ततः / अश्वमेधो महायज्ञः प्रायश्चित्तमुदाहृतम् / यदृच्छया विनाशं च शोकहर्षावनर्थकौ // 11 तमाहर महाराज विपाप्मैवं भविष्यसि // 26 व्यलीकं चापि यत्त्वत्र चित्तवैतंसिकं तव / मरुद्भिः सह जित्वारीन्मघवान्पाकशासनः / तदर्थमिष्यते राजन्प्रायश्चित्तं तदाचर // 12 एकैकं ऋतुमाहृत्य शतकृत्वः शतक्रतुः // 27 इदं च श्रूयते पार्थ युद्धे देवासुरे पुरा। पूतपाप्मा जितस्वर्गो लोकान्प्राप्य सुखोदयान् / असुरा भ्रातरो ज्येष्ठा देवाश्चापि यवीयसः // 13 मरुद्गणवृतः शक्रः शुशुभे भासयन्दिशः // 28 तेषामपि श्रीनिमित्तं महानासीत्समुच्छ्रयः / स्वर्गलोके महीयन्तमप्सरोभिः शचीपतिम् / . युद्धं वर्षसहस्राणि द्वात्रिंशदभवकिल // 14 ऋषयः पर्युपासन्ते देवाश्च विबुधेश्वरम् // 29 एकार्णवां महीं कृत्वा रुधिरेण परिप्लुताम् / / सोऽयं त्वमिह संक्रान्तो विक्रमेण वसुंधराम् / जन्नुर्दैत्यांस्तदा देवास्त्रिदिवं चैव लेभिरे // 15 निर्जिताश्च महीपाला विक्रमेण त्वयानघ // 30 तथैव पृथिवीं लब्ध्वा ब्राह्मणा वेदपारगाः / तेषां पुराणि राष्ट्राणि गत्वा राजन्सुहृद्वृतः / संश्रिता दानवानां वै साह्यार्थे दर्पमोहिताः // 16 भ्रातृन्पुत्रांश्च पौत्रांश्च स्वे स्वे राज्येऽभिषेचय॥३१ शालावृका इति ख्यातास्त्रिषु लोकेषु भारत / / बालानपि च गर्भस्थान्सान्त्वानि समुदाचरन् / अष्टाशीतिसहस्राणि ते चापि विबुधैर्हताः // 17 रञ्जयन्प्रकृतीः सर्वाः परिपाहि वसुंधराम् // 31 धर्मव्युच्छित्तिमिच्छन्तो येऽधर्मस्य प्रवर्तकाः।। कुमारो नास्ति येषां च कन्यास्तत्राभिषेचय।। हन्तव्यास्ते दुरात्मानो देवैर्दैत्या इवोल्बणाः // 18 कामाशयो हि स्त्रीवर्गः शोकमेवं प्रहास्यति // 3 // एकं हत्वा यदि कुले शिष्टानां स्यादनामयम् / / एवमाश्वासनं कृत्वा सर्वराष्ट्रेषु भारत / कुलं हत्वाथ राष्ट्रं वा न तद्वृत्तोपघातकम् // 19 यजस्व वाजिमेधेन यथेन्द्रो विजयी पुरा // 3 // अधर्मरूपो धर्मो हि कश्चिदस्ति नराधिप।। अशोच्यास्ते महात्मानः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ / धर्मश्चाधर्मरूपोऽस्ति तच्च ज्ञेयं विपश्चिता // 20 स्वकर्मभिर्गता नाशं कृतान्तबलमोहिताः // 35 तस्मात्संस्तम्भयात्मानं श्रुतवानसि पाण्डव / अवाप्तः क्षत्रधर्मस्ते राज्यं प्राप्तमकल्मषम् / देवैः पूर्वगतं मार्गमनुयातोऽसि भारत // 21 चरस्व धर्म कौन्तेय श्रेयान्यः प्रेत्य भाविकः // 3 // न हीदृशा गमिष्यन्ति नरकं पाण्डवर्षभ / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भ्रातृनाश्वासयैतांस्त्वं सुहृदश्च परंतप // 22 चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // यो हि पापसमारम्भे कार्ये तद्भावभावितः / कुर्वन्नपि तथैव स्यात्कृत्वा च निरपत्रपः // 23 -2030 - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 35. 1] शान्तिपर्व [ 12. 35. 29 35 अप्रजायन्नधर्मेण भवत्याधर्मिको जनः // 14 युधिष्ठिर उवाच / उक्तान्येतानि कर्माणि विस्तरेणेतरेण च / कानि कृत्वेह कर्माणि प्रायश्चित्तीयते नरः / / यानि कुर्वन्नकुवंश्च प्रायश्चित्तीयते जनः // 15 किं कृत्वा चैव मुच्येत तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 | एतान्येव तु कर्माणि क्रियमाणानि मानवान् / व्यास उवाच / येषु येषु निमित्तेषु न लिम्पन्न्यथ तच्छणु // 16 अकुर्वन्विहितं कर्म प्रतिषिद्धानि चाचरन् / प्रगृह्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे। प्रायश्चित्तीयते ह्येवं नरो मिथ्या च वर्तयन् // 2 जिघांसन्तं निहत्याजौ न तेन ब्रह्महा भवेत् // 17 सूर्येणाभ्युदितो यश्च ब्रह्मचारी भवत्युत।। अपि चाप्यत्र कौन्तेय मत्रो वेदेषु पठ्यते / तथा सूर्याभिनिर्मुक्तः कुनखी श्यावदन्नपि // 3 वेदप्रमाणविहितं तं धर्म प्रब्रवीमि ते // 18 परिवित्तिः परिवेत्ता ब्रह्मोझो यश्च कुत्सकः / अपेतं ब्राह्मणं वृत्ताद्यो हन्यादाततायिनम् / विधिषूपतिस्तथा यः स्यादग्रेदिधिषुरेव च // 4 न तेन ब्रह्महा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमृच्छति // 19 अवकीर्णी भवेद्यश्च द्विजातिवधकस्तथा।। प्राणात्यये तथाज्ञानादाचरन्मदिरामपि / अतीर्थे ब्रह्मणत्यागी तीर्थे चाप्रतिपादकः // 5 अचोदितो धर्मपरः पुनः संस्कारमर्हति // 20 प्रामयाजी च कौन्तेय राज्ञश्च परिविक्रयी / एतत्ते सर्वमाख्यातं कौन्तेयाभक्ष्यभक्षणम् / शुद्रस्त्रीवधको यश्च पूर्वः पूर्वस्तु गर्हितः // 6 प्रायश्चित्तविधानेन सर्वमेतेन शुध्यति // 21 पृथापशुसमालम्भी वनदाहस्य कारकः / गुरुतल्पं हि गुर्वर्थे न दूषयति मानवम् / अन्तेनोपचर्ता च प्रतिरोद्धा गुरोस्तथा // 7 उद्दालकः श्वेतकेतुं जनयामास शिष्यतः // 22 ययामीनपविध्येत तथैव ब्रह्मविक्रयी / स्तेयं कुर्वस्तु गुर्वर्थमापत्सु न निबध्यते / एतान्येनांसि सर्वाणि व्युत्क्रान्तसमयश्च यः // 8 बहुशः कामकारेण न चेद्यः संप्रवर्तते // 23 धकार्याण्यपि वक्ष्यामि यानि तानि निबोध मे। अन्यत्र ब्राह्मणस्वेभ्य आददानो न दुष्यति / लोकवेदविरुद्धानि तान्येकानमनाः शृणु // 9 स्वयमप्राशिता यश्च न स पापेन लिप्यते // 24 खधर्मस्य परित्यागः परधर्मस्य च क्रिया। प्राणत्राणेऽनृतं वाच्यमात्मनो वा परस्य वा। अयाज्ययाजनं चैव तथाभक्ष्यस्य भक्षणम् // 10 गुर्वर्थे स्त्रीषु चैव स्याद्विवाहकरणेषु च // 25 शरणागतसंत्यागो भृत्यस्याभरणं तथा / . नावर्तते व्रतं स्वप्ने शुक्रमोक्षे कथंचन। . रसानां विक्रयश्चापि तिर्यग्योनिवधस्तथा // 11 / / आज्यहोमः समिद्धेऽग्नौ प्रायश्चित्तं विधीयते // 26 भाधानादीनि कर्माणि शक्तिमान्न करोति यः।। पारिवित्त्यं च पतिते नास्ति प्रव्रजिते तथा / अप्रयच्छंश्च सर्वाणि नित्यं देयानि भारत / / 12 भिक्षिते पारदार्यं च न तद्धर्मस्य दूषकम् // 27 दक्षिणानामदानं च ब्राह्मणस्वाभिमर्शनम् / वृथापशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत् / सर्वाण्येतान्यकार्याणि प्राहुर्धर्मविदो जनाः // 13 / अनुग्रहः पशूनां हि संस्कारो विधिचोदितः / / 28 पित्रा विभजते पुत्रो यश्च स्याद्गुरुतल्पगः। / अनर्हे ब्राह्मणे दत्तमज्ञानात्तत्र दूषकम् / - 2031 - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 35. 29 ] महाभारते [ 12. 36. 24 % 3D 36 सकारणं तथा तीर्थेऽतीर्थे वा प्रतिपादनम् / / 29 / गोसहस्रं सवत्सानां दोग्ध्रीणां प्राणसंशये। स्त्रियस्तथापचारिण्यो निष्कृतिः स्याददूषिका। साधुभ्यो वै दरिद्रेभ्यो दत्त्वा मुच्येत किल्बिषात्॥ अपि सा पूयते तेन न तु भर्ता टुट्यो / 30 शतं तै यस्तु काम्बोजान्ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। तत्त्वं ज्ञात्वा तु सोमस्य विक्रयः स्याददूषकः / नियतेभ्यो महीपाल स च पापात्प्रमुच्यते // 11 असमर्थस्य भृत्यस्य विसर्गः स्याददोषयान् / / मनोरथं तु यो दद्यादेकस्मा अपि भारत / वनदाहो गवामर्थे क्रियमाणो न दूषकः / / 31 न कीर्तयेत दत्त्वा यः स च पापात्प्रमुच्यते // 12 उक्तान्येतानि कर्माणि यानि कुर्वन्न दुष्यति / सुरापानं सकृत्पीत्वा योऽग्निवर्णां पिबेहिजः / प्रायश्चित्तानि वक्ष्यामि विस्तरेणैव भारत / / 32 स पावयत्यथात्मानमिह लोके परत्र च // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मेरुप्रपातं प्रपतवलनं वा समाविशन् / पञ्चविंशोऽध्यायः // 35 // महाप्रस्थानमातिष्ठन्मुच्यते सर्वकिल्विषैः // 14 बृहस्पतिसवेनेष्ट्वा सुरापो ब्राह्मणः पुनः / व्यास आच। समितिं ब्राह्मणैर्गच्छेदिति वै ब्राह्मणी श्रुतिः // 15 तपसा कर्मभिश्चैव प्रदानेन च भारत / भूमिप्रदानं कुर्याद्यः सुरां पीत्वा चिमत्सरः। पुनाति पापं पुरुषः पूनश्शेन्न प्रवर्तते // 1 पुनर्न च पिबेद्राजन्संस्कृतः शुध्यते नरः / / 16 एककालं तु भुञ्जानश्चरन्भेक्षं स्वकर्मकृत् / गुरुतल्पी शिलां तप्तामायसीमधिसंविशेत् / कपालपाणिः खटाङ्गी ब्रह्मचारी सदोत्थितः / / 2 पाणावाधाय वा शेर्फ प्रव्रजेदूर्ध्वदर्शनः / / 17 अनसयुरधःशायी कर्म लोके प्रकाशयन् / शरीरस्य विमोक्षेण मुच्यते कर्मणोऽशुभात् / पूर्णैर्द्वादशभित्रमहा विमुच्यते / / 3 / / कर्मभ्यो विप्रमुच्यन्ते यत्ताः संवत्सरं स्त्रियः / / 18 षभिवः कृच्छ्रजी ब्रह्महा पूयते नरः / महाप्रतं चरेद्यस्तु दद्यात्सर्वस्वमेव तु / मासे मासे समझतु विभिवः प्रमुच्यते / / 4 गुर्वर्थे वा हतो युद्धे स मुच्येत्कर्मणोऽशुभात् // 19 संवत्सरेण मासाशी पूयते नात्र संशयः / / अनृतेनोपचर्ता च प्रतिरोद्धा गुरोस्तथा / तथैवोपरमरा जनस्वल्पेनापि प्रमुच्यते / / 5 उपहृत्य प्रियं तस्मै तस्मात्पापात्प्रमुच्यते // 20 क्रतुना चाश्वमेवेन पूयते नात्र संशयः / अवकीर्णिनिमित्तं तु ब्रह्महत्या र चरेन। ये चास्यावश्ये सान्ति केचिदेवंविधा नराः / / 6 खरचर्मवासाः षण्मासं तथा मुच्येत किल्बिषात्॥ ते सर्वे पूतपाप्मानो भवन्तीति परा श्रुतिः / परदारापहारी च परस्यापहरन्वसु / ब्राह्मणार्थे हलो युद्धे मुच्यते ब्रह्महत्यया // 7 संवत्सरं व्रती भूत्वा तथा मुच्येत किल्बिषात्॥ 22 गवां शतसहसं तु पानेभ्यः प्रतिपादयन् / स्तेयं तु यस्यापहरेत्तस्मै दद्यात्समं वसु / ब्रह्महा विप्रमुच्येत सर्वपापेभ्य एव च // 8 विविधेनाभ्युपायेन तेन मुच्येत किल्बिषात् / / 25 कपिलानां सहाराणा को ददात्पञ्चविंशतिम। कृच्छ्राहादशरात्रेण स्वभ्यस्तेन दशावरम् / दोग्ध्रीणां स च पापेभ्यः सर्वभ्यो विप्रमुच्यते // 9 परिवेत्ता भवेत्पूतः परिवित्तिश्च भारत // 24 -2032 - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 36. 25 ] शान्तिपर्व [12. 37.6 निवेश्यं तु भवेत्तेन सदा तारयिता पितॄन / भक्ष्याभक्ष्येषु सर्वेषु वाच्यावाच्ये तथैव च / न तु स्त्रिया भवेदोषो न तु सा तेन लिप्यते // 25 अज्ञानज्ञानयो राजन्विहितान्यनुजानते / / 40 भजने तुना शुद्धं चातुर्मास्यं विधीयते / जानता तु कृतं पापं गुरु सर्वं भवत्युत / स्त्रियस्तेन विशुध्यन्ति इति धर्भविदो विदुः / / 26 / अज्ञानात्स्खलिते दोषे प्रायश्चित्तं विधीयते // 41 स्त्रियस्त्वाशभित्ताः पापै!पगम्या हि जानता। शक्यते विधिना पापं यथोक्तेन व्यपोहितुम् / रजसा ता विशुध्यन्ते भस्मना भाजनं यथा।। 27 आस्तिके श्रद्दधाने तु विधिरेष विधीयते / / 42 चतुष्पात्सकलो धर्मी ब्राहाणानां विधीयते / नास्तिकाश्रद्दधानेषु पुरुषेषु कदाचन / पादावकृष्टो राजन्ये तथा धर्म विधीयते / / 28 / दम्भदोषप्रधानेषु विधिरेष न दृश्यते // 43 तथा वैश्ये च शूद्रे च पादः पादो विधीयते / शिष्टाचारश्च शिष्टश्च धर्म धर्मभृतां वर / विद्यादेवंविधेनैषां गुरुलाघवनिश्चयम् / / 25 / सेवितव्यो नरव्याघ्र प्रेत्य चेह सुखार्थिना // 44 तिर्यग्योनिवधं कृत्वा द्रुमांछित्त्वेतरान्बहून / / स राजन्मोक्षासे पापात्तेन पूर्वेण हेतुना / त्रिरात्रं वायुभक्षः स्यात्कर्म च प्रथयेन्नरः / / 30 त्राणार्थ वा वर्धनैषामथ वा नृपकर्मणा / / 45 अगम्यागमने राजन्प्रायश्चित्वं विधीयते / अथ वा ते घृणा काचितलायश्चिन्दं चरिष्यसि / आईवस्त्रण पज्मासं विहाय भस्मशायिना // 31 मा त्वेवानाजुष्टेन कर्ममा निधनं गमः / / 46 रष एव तु सर्वेपामकार्याणां विधिर्भवेत् / इति श्रीमहाभारलेशान्तिपर्वणि ब्राह्मणोक्तेन विधिना दृष्टान्तागमहेतुभिः / / 32 षत्रिंशोऽध्यायः // 36 // सावित्रीमप्यधीयानः शुचौ देशे मिताशनः / 37 अहिंस्रोऽमन्दकोऽजल्पन्मुच्यते सर्वकिल्पेिः // 33 वैशंपायन उवाच / प्रहःसु सततं तिष्ठेदभ्याकाशं निशि स्वपेत् / एवमुक्तो भगवता धर्मराजो युधिष्ठिरः / रह्ननिर्निशायाश्च सवासा जलमाविशेत् // 34 चिन्तयित्वा मुहूर्त तु प्रत्युवाच तपोधनम् // 1 शीशूद्रपतितांश्चापि नाभिभाषेद्रतान्वितः / किं भक्ष्यं किमभक्ष्यं च किं च देयं प्रशस्यते / जपान्यज्ञानतः कृत्वा मुच्येदेवंबतो द्विजः // 35 किं च पात्रमपात्रं वा तन्मे ब्रूहि पितामह / / 2 भाशुभफलं प्रेत्य लभते भूतसाक्षिकः / व्यास उवाच / गतिरिच्येत्तयोयत्तु तत्कर्ता लभते फलम् / / 36 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / स्माहानेन तपसा कर्मणा च शुभं फलम् / सिद्धानां चैव संवादं मनोश्चैव प्रजापतेः // 3 वर्धयेदशुभं कृत्वा यथा स्यादतिरेकवान // 37 / सिद्धास्तपोव्रतपराः समागम्य पुरा विभुम् / कुर्याच्छुभानि कर्माणि निमित्ते पापकर्मणाम् / धर्म पप्रच्छुरासीनमादिकाले प्रजापतिम् // 4 दद्यान्नित्यं च वित्तानि तथा मुच्येत किल्बिषात्।।३८ / कथमन्नं कथं दानं कथमध्ययनं तपः / अनुरूपं हि पापस्य प्रायश्चित्तमुदाहृतम् / कार्याकार्यं च नः सर्वं शंस वै त्वं प्रजापते // 5 महापातकवज तु प्रायश्चित्तं विधीयते // 39 - तैरेवमुक्तो भगवान्मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् / अ.भा. 255 - 2033 - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 37. 6] महाभारते [12. 37. 35 शुश्रूषध्वं यथावृत्तं धर्मं व्याससमासतः // 6 मानुषीणां मृगीणां च न पिबेदाह्मणः पयः // 20 अदत्तस्यानुपादानं दानमध्ययनं तपः / प्रेतान्नं सूतिकान्नं च यञ्च किंचिदनिर्दशम् / अहिंसा सत्यमक्रोधः क्षमेज्या धर्मलक्षणम् // 7 अभोज्यं चाप्यपेयं च धेन्वा दुग्धमनिर्दशम् // 21 य एव धर्मः सोऽधोऽदेशेऽकाले प्रतिष्ठितः। तक्ष्णश्चर्मावकर्तुश्च पुंश्वल्या रजकस्य च / आदानमनृतं हिंसा धर्मो व्यावस्थिकः स्मृतः // 8 चिकित्सकस्य यच्चान्नमभोज्यं रक्षिणस्तथा // 22 द्विविधौ चाप्युभावती धर्माधर्मी विजानताम्।। गणप्रामाभिशस्तानां रङ्गास्त्रीजीविनश्च ये। अप्रवृत्तिः प्रवृत्तिश्च द्वैविध्यं लोकवेदयोः // 9 परिवित्तिनपुंसां च बन्दिसूतविदां तथा // 23 अप्रवृत्तेरमय॑त्वं मलत्वं कर्मणः फलम् / / वार्यमाणाहृतं चान्नं शुक्तं पयुषितं च यत् / . अशुभस्याशुभं विद्याच्छुभस्य शुभमेव च // 10 सुरानुगतमुच्छिष्टमभोज्यं शेषितं च यत् // 24 एतयोश्चोभयोः स्यातां शुभाशुभतया तथा / पिष्टमांसेक्षुशाकानां विकाराः पयसस्तथा। दैवं च देवयुक्तं च प्राणश्च प्रलयश्च ह / / 11 सक्तुधानाकरम्भाश्च नोपभोज्याश्चिरस्थिताः // 25 अप्रेक्षापूर्वकरणादशुभानां शुभं फलम् / पायसं कृसरं मांसमपूपाश्च वृथा कृताः। ऊर्ध्वं भवति संदेहादिह दृष्टार्थमेव वा / अभोज्याश्चाप्यभक्ष्या ब्राह्मणैहमेधिभिः // 26 अप्रेक्षापूर्वकरणास्रायश्चित्तं विधीयते // 12 देवान्पितॄन्मनुष्यांश्च मुनीन्गृह्याश्च देवताः / क्रोधमोहकृते चैव दृष्टान्तागमहेतुभिः / पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थो भोक्तुमर्हति // 27 शरीराणामुपल्लेशो मनसश्च श्रियाप्रिये / यथा प्रव्रजितो भिक्षुर्गृहस्थः स्वगृहे वसेत् / तदौषधैश्च मन्त्रैश्च प्रायश्चित्तैश्च शाम्यति // 13 एवंवृत्तः प्रियैर्दारैः संवसन्धर्ममाप्नुयात् / / 28 जातिश्रेण्यधिवासानां कुलधर्माश्च सर्वतः। न दद्याद्यशसे दानं न भयानोपकारिणे / वर्जयेन्न हि तं धर्मं येषां धर्मो न विद्यते // 14 न नृत्तगीतशीलेषु हासकेषु च धार्मिकः / / 29 दश वा वेदशास्त्रज्ञास्त्रयो वा धर्मपाठकाः। न मत्ते नैव चोन्मत्ते न स्तेने न चिकित्सके। यद्भयुः कार्य उत्पन्ने स धर्मो धर्मसंशये // 15 न वाग्घीने विवणे वा नाङ्गहीने न वामने // 30 अरुणा मृत्तिका चैव तथा चैव पिपीलकाः। न. दुर्जने दौष्कुले वा व्रतैर्वा यो न संस्कृतः / श्लेष्मातकस्तथा विप्रेरभक्ष्यं विषमेव च // 16 अश्रोत्रिये मृतं दानं ब्राह्मणेऽब्रह्मवादिनि / / 31 अभक्ष्या ब्राह्मणैर्मत्स्याः शकलैये विवर्जिताः / असम्यक्चैव यद्दत्तमसम्यक्च प्रतिग्रहः / चतुष्पात्कच्छपादन्यो मण्डूका जलजाश्च ये // 17 उभयोः स्यादनाय दातुरादातुरेव च // 32 भासा हंसाः सुपर्णाश्च चक्रवाका बकाः प्लवाः / / यथा खदिरमालम्ब्य शिलां वाप्यर्णवं तरन् / कङ्को मद्गुश्च गृध्राश्च काकोलूकं तथैव च / / 18 मज्जते मज्जते तद्वदाता यश्च प्रतीच्छकः // 33 क्रव्यादाः पक्षिणः सर्वे चतुष्पादाश्च दंष्ट्रिणः / काष्टैरायथा वह्निरुपस्तीर्णो न दीयते / येषां चोभयतो दन्ताश्चतुर्दष्ट्राश्च सर्वशः // 19 तपःस्वाध्यायचारित्रैरेवं हीनः प्रतिग्रही / / 34 एडकाश्वखरोष्ट्रीणां सूतिकानां गवामपि / कपाले यद्वदापः स्युः श्वहतो वा यथा पयः / -2034 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 37. 35] शान्तिपर्व [ 12. 38. 19 आश्रयस्थानदोषेण वृत्तहीने तथा श्रुतम् // 35 वैशंपायन उवाच / निर्मत्रो निर्वतो यः स्यादशास्त्रज्ञोऽनसूयकः / तमुवाच महातेजा व्यासो वेदविदां वरः / अनुक्रोशात्प्रदातव्यं दीनेष्वेवं नरेष्वपि // 36 नारदं समभिप्रेक्ष्य सर्व जानन्पुरातनम् // 5 न वै देयमनुक्रोशादीनायाप्यपकारिणे / श्रोतुमिच्छसि चेद्धर्मानखिलेन युधिष्ठिर / आप्ताचरितमित्येव धर्म इत्येव वा पुनः / / 37 प्रैहि भीष्मं महाबाहो वृद्धं कुरुपितामहम् // 6 निष्कारणं स्म तद्दत्तं ब्राह्मणे धर्मवर्जिते / स ते सर्वरहस्येषु संशयान्मनसि स्थितान् / भवेदपात्रदोषेण न मेऽत्रास्ति विचारणा // 38 छेत्ता भागीरथीपुत्रः सर्वज्ञः सर्वधर्मवित् // 7 यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। . जनयामास यं देवी दिव्या त्रिपथगा नदी / ब्राह्मणश्चानधीयानत्रयस्ते नामधारकाः // 39 साक्षाद्ददर्श यो देवान्सर्वाञ्शक्रपुरोगमान् // 8 यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। बृहस्पतिपुरोगांश्च देवर्षीनसकृत्प्रभुः / शकुनिर्वाप्यपक्षः स्यान्निर्मत्रो ब्राह्मणस्तथा // 40 तोषयित्वोपचारेण राजनीतिमधीतवान् // 9 प्रामधान्यं यथा शून्यं यथा कूपश्च निर्जलः / उशना वेद यच्छास्त्रं देवासुरगुरुर्द्विजः / यथा हुतमनग्नौ च तथैव स्यान्निराकृतौ // 41 तच्च सर्व सवैयाख्यं प्राप्तवान्कुरुसत्तमः // 10 देवतानां पितृणां च हव्यकव्यविनाशनः / भार्गवाच्च्यवनाच्चापि वेदानगोपहितान् / शत्रुरर्थहरो मूर्खा न लोकान्प्राप्तुमर्हति // 42 प्रतिपेदे महाबुद्धिर्वसिष्ठाच्च यतव्रतात् / / 11 एतत्ते कथितं सर्वं यथा वृत्तं युधिष्ठिर / पितामहसुतं ज्येष्ठं कुमारं दीप्ततेजसम् / समासेन महद्धयेतच्छ्रोतव्यं भरतर्षभ // 43 अध्यात्मगतितत्त्वज्ञमुपाशिक्षत यः पुरा // 12 मार्कण्डेयमुखात्कृस्नं यतिधर्ममवाप्तवान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // रामादत्राणि शकाच्च प्राप्तवान्भरतर्षभ / 13 मृत्युरात्मेच्छया यस्य जातस्य मनुजेष्वपि / .38 तथानपत्यस्य सतः पुण्यलोका दिवि श्रुताः // 14 युधिष्ठिर उवाच / यस्य ब्रह्मर्षयः पुण्याः नित्यमासन्सभासदः / श्रोतुमिच्छामि भगवन्विस्तरेण महामुने / यस्य नाविदितं किंचिज्ज्ञानज्ञेयेषु विद्यते // 15 राजधर्मान्द्विजश्रेष्ठ चातुर्वर्ण्यस्य चाखिलान् // 1 स ते वक्ष्यति धर्मज्ञः सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्ववित् / आपत्सु च यथा नीतिर्विधातव्या महीक्षिता। तमभ्येहि पुरा प्राणान्स विमुञ्चति धर्मवित् // 16 धर्म्यमालम्ब्य पन्थानं विजयेयं कथं महीम् // 2 एवमुक्तस्तु कौन्तेयो दीर्घप्रज्ञो महाधुतिः। प्रायश्चित्तकथा ह्येषा भक्ष्याभक्ष्यविवर्धिता। उवाच वदतां श्रेष्ठ व्यासं सत्यवतीसुतम् // 17 कौतूहलानुप्रवणा हर्ष जनयतीव मे // 3 वैशसं सुमहत्कृत्वा ज्ञातीनां लोमहर्षणम् / धर्मचर्या च राज्यं च नित्यमेव विरुध्यते / आगस्कृत्सर्वलोकस्य पृथिवीनाशकारकः // 18 येन मुह्यति मे चेतश्चिन्तयानस्य नित्यशः // 4 : | घातयित्वा तमेवाजौ छलेनाजिह्मयोधिनम् / -2035 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 38. 19 ] महाभारते [ 12. 38. 49 उपसंप्रष्टुमर्हामि तमहं केन हेतुना // 19 अर्जुनः पाण्डुरं छत्रं धारयामास भानुमत् // 34 ततस्तं नृपतिश्रेष्ठं चातुर्वर्ण्यहितेप्सया / ध्रियमाणं तु तच्छत्रं पाण्डुरं तस्य मूर्धनि / पुनराह महाबाहुर्यदुश्रेष्ठो महाद्युतिः // 20 शुशुभे तारकाराजसितमभ्रमिवाम्बरे // 35 नेदानीमतिनिर्बन्धं शोके कर्तुमिहार्हसि / चामरव्यजने चास्य वीरौ जगृहतुस्तदा / यदाह भगवान्व्यासस्तत्कुरुष्व नृपोत्तम // 21 चन्द्ररश्मिप्रभे शुभ्रे माद्रीपुत्रावलंकृते // 36 ब्राह्मणास्त्वां महाबाहो भ्रातरश्च महौजसः। ते पञ्च रथमास्थाय भ्रातरः समलंकृताः / पर्जन्यमिव धर्मार्ता आशंसाना उपासते / / 22 भूतानीव समस्तानि राजन्ददृशिरे तदा / / 37 हतशिष्टाश्च राजानः कृत्स्नं चैव समागतम् / आस्थाय तु रथं शुभ्रं युक्तमश्वैर्महाजवैः / चातुर्वर्ण्य महाराज राष्ट्रं ते कुरुजाङ्गलम् // 23 अन्वयात्पृष्ठतो राजन्युयुत्सुः पाण्डवाग्रजम् // 38 प्रियार्थमपि चैतेषां ब्राह्मणानां महात्मनाम् / रथं हेममयं शुभ्रं सैन्यसुग्रीवयोजितम् / नियोगादस्य च गुरोर्व्यासस्यामिततेजसः // 24 सह सात्यकिना कृष्णः समास्थायान्वयात्कुरून्॥३९ सुहृदां चास्मदादीनां द्रौपद्याश्च परंतप / नरयानेन तु ज्येष्ठः पिता पार्थस्य भारत / कुरु प्रियममित्रघ्न लोकस्य च हितं कुरु // 25 अग्रतो धर्मराजस्य गान्धारीसहितो ययौ // 40 एवमुक्तस्तु कृष्णेन राजा राजीवलोचनः / कुरुस्त्रियश्च ताः सर्वाः कुन्ती कृष्णा च द्रौपदी। हितार्थं सर्वलोकस्य समुत्तस्थौ महातपाः // 26 यानैरुञ्चावचैर्जग्मुर्विदुरेण पुरस्कृताः // 41 सोऽनुनीतो नरव्याघ्रो विष्टरश्रवसा स्वयम् / ततो रथाश्च बहुला नागाश्च समलंकृताः। द्वैपायनेन च तथा देवस्थानेन जिष्णुना // 27 पादाताश्च याश्च पृष्ठतः समनुजन् / / 42 एतैश्चान्यैश्च बहुभिरनुनीतो युधिष्ठिरः / ततो वैतालिकैः सूतैर्मागधैश्च सुभापितैः। व्यजहान्मानसं दुःखं संतापं च महामनाः // 28 स्तूयमानो ययौ राजा नगरं नागसाह्वयम् // 43 श्रुतवाक्यः श्रुतनिधिः श्रुतश्रव्यविशारदः / तत्प्रयागं महाबाहोर्बभूवाप्रतिमं भुवि / व्यवस्य मनसः शान्तिमगच्छत्पाण्डुनन्दनः // 29 आकुलाकुलमुत्सृष्टं हृष्टपुष्टजनान्वितम् // 44 स तैः परिवृतो राजा नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः। अभियाने तु पार्थस्य नरैर्नगरवासिभिः / धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य स्वपुरं प्रविवेश ह // 30 नगरं राजमार्गश्च यथावत्समलंकृतम् // 45 प्रविविक्षुः स धर्मज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / पाण्डुरेण च माल्येन पताकाभिश्च वेदिभिः / अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च सहस्रशः // 31 संवृतो राजमार्गश्च धूपनैश्च सुधूपितः // 46 ततो रथं नवं शुभं कम्बलाजिनसंवृतम् / अथ चूर्णैश्च गन्धानां नानापुष्पैः प्रियङ्गुभिः / युक्तं षोडशभिर्गाभिः पाण्डुरैः शुभलक्षणैः // 32 माल्यदामभिरासक्तै राजवेश्माभिसंवृतम् // 47 मन्त्रैरभ्यर्चितः पुण्यैः स्तूयमानो महर्षिभिः / कुम्भाश्च नगरद्वारि वारिपूर्णा दृढा नवाः / आरुरोह यथा देवः सोमोऽमृतमयं रथम् / / 33 कन्याः सुमनसश्छागाः स्थापितास्तत्र तत्र ह // 48 जग्राह रश्मीन्कौन्तेयो भीमो भीमपराक्रमः / तथा स्वलं कृतद्वारं नगरं पाण्डुनन्दनः / -2036 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 38. 49 ] शान्तिपर्व [12. 39. 27 स्तूयमानः शुभैक्यैिः प्रविवेश सुहृद्धृतः // 49 / प्रविश्य भवनं राजा देवराजगृहोपमम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्रुत्वा विजयसंयुक्तं रथात्पश्चादवातरत् // 13 अष्टाविंशोऽध्यायः॥३८॥ प्रविश्याभ्यन्तरं श्रीमान्दैवतान्यभिगम्य च / पूजयामास रत्नैश्च गन्धैर्माल्येश्च सर्वशः // 14 निश्चक्राम ततः श्रीमान्पुनरेव महायशाः / वैशंपायन उवाच। ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानुपस्थितान् // 15 प्रवेशने तु पार्थानां जनस्य पुरवासिनः / स संवृतस्तदा विरैराशीर्वादविवक्षुभिः / दिदृक्षणां सहस्राणि समाजग्मुर्बहून्यथ // 1 . शुशुभे विमलश्चन्द्रस्तारागणवृतो यथा // 16 स राजमार्गः शुशुभे समलंकृतचत्वरः / तान्स संपूजयामास कौन्तेयो विधिवहिजान् / यथा चन्द्रोदये राजन्वर्धमानो महोदधिः // 2 धौम्यं गुरुं पुरस्कृत्य ज्येष्ठं पितरमेव च // 17 गृहाणि राजमार्गे तु रत्नवन्ति बृहन्ति च। सुमनोमोदकै रत्नैर्हिरण्येन च भूरिणा। प्राकम्पन्तेव भारेण स्त्रीणां पूर्णानि भारत // 3 गोभिर्वस्त्रैश्च राजेन्द्र विविधैश्च किमिच्छकैः // 18 ताः शनैरिव सव्रीडं प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम् / ततः पुण्याहघोषोऽभूद्दिवं स्तब्ध्वेव भारत / भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 4 सुहृदां हर्षजननः पुण्यः श्रुतिसुखावहः / / 19 धन्या त्वमसि पाश्चालि या त्वं पुरुषसत्तमान् / हंसवन्नेदुपां राजन्द्विजानां तत्र भारती / उपतिष्ठसि कल्याणि महर्षीनिव गौतमी / / 5 शुश्रुवे वेदविदुषां पुष्कलार्थपदाक्षरा / / 20 तव कर्माण्यमोघानि व्रतचर्या च भामिनि / ततो दुन्दुभिनिर्घोषः शङ्खानां च मनोरमः / इति कृष्णां महाराज प्रशशंसुस्तदा स्त्रियः // 6 जयं प्रवदतां तत्र स्वनः प्रादुरभून्नप // 21 प्रशंसावचनैस्तासां मिथःशब्दैश्च भारत / निःशब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः / प्रीतिजैश्च तदा शब्दैः पुरमासीत्समाकुलम् // 7 राजानं ब्राह्मणच्छद्मा चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत्॥२२ तमतीत्य यथायुक्तं राजमार्ग युधिष्ठिरः / तत्र दुर्योधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः / अलंकृतं शोभमानमुपायाद्राजवेश्म ह // 8 सांख्यः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः॥ ततः प्रकृतयः सर्वाः पौरजानपदास्तथा / वृतः सर्वैस्तदा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः / उचुः कथाः कर्णसुखाः समुपेत्य ततस्ततः // 9 परंसहस्र राजेन्द्र तपोनियमसंस्थितैः // 24 दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र शत्रूशत्रुनिसूदन / / स दुष्टः पापमाशंसन्पाण्डवानां महात्मनाम् / दिष्टया राज्यं पुनः प्राप्तं धर्मेण च बलेन च // 10 अनामन्त्रयैव तान्वितांस्तमुवाच महीपतिम् // 25 भव नस्त्वं महाराज राजेह शरदां शतम् / इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि / प्रजाः पालय धर्मेण यथेन्द्रस्त्रिदिवं नृप // 11 धिग्भवन्तं कुनृपतिं ज्ञातिघातिनमस्तु वै // 26 एवं राजकुलद्वारि मङ्गलैरभिपूजितः। किं ते राज्येन कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसंक्षयम् / आशीर्वादान्द्विजैरुक्तान्प्रतिगृह्य समन्ततः // 12 घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम् // 27 -2037 - Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 39. 28 ] महाभारते [12. 40.3 इति ते वै द्विजाः श्रुत्वा तस्य घोरम्य रक्षसः। / छन्द्यमानो वरेणाथ ब्रह्मणा स पुनः पुनः / विव्यथुश्चक्रुशुश्चैव तस्य वाक्यप्रधर्षिताः // 28 अभयं सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत // 40 . ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे स च राजा युधिष्ठिरः / द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद्वरममुत्तमम् / वीडिताः परमोद्विग्नास्तूष्णीमासन्विशां पते // 29 अभयं सर्वभूतेभ्यस्ततस्तस्मै जगत्प्रभुः // 41 युधिष्ठिर उवाच / स तु लब्धवरः पापो देवानमितविक्रमः / प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः। राक्षसस्तापयामास तीव्रकर्मा महाबलः // 42 प्रत्यापन्नं व्यसनिनं न मां धिक्कर्तुमर्हथ // 30 ततो देवाः समेत्याथ ब्रह्माणमिदमब्रुवन् / वैशंपायन उवाच / वधाय रक्षसस्तस्य बलविप्रकृतास्तदा // 43 ततो राजन्ब्राह्मणास्ते सर्व एव विशां पते / तानुवाचाव्ययो देवो विहितं तत्र वै मया। ऊचुतद्वचोऽस्माकं श्रीरस्तु तव पार्थिव // 31 यथास्य भविता मृत्युरचिरेणैव भारत // 44 जजुश्चैव महात्मानस्ततस्तं ज्ञानचक्षुषा / राजा दुर्योधनो नाम सखास्य भविता नृप / ब्राह्मणा वेदविद्वांसस्तपोभिर्विमलीकृताः / / 32 तस्य स्नेहावबद्धोऽसौ ब्राह्मणानवमंस्यते // 45 तत्रैनं रुषिता विप्रा विप्रकारप्रधर्षिताः / ब्राह्मणा ऊचुः। धक्ष्यन्ति वाग्बलाः पापं ततो नाशं गमिष्यति॥४ एष दुर्योधनसखा चार्वाको नाम राक्षसः / स एष निहतः शेते ब्रह्मदण्डेन राक्षसः / परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति // 33 चार्वाको नृपतिश्रेष्ठ मा शुचो भरतर्षभ // 47 न वयं बम धर्मात्मन्व्येतु ते भयमीदृशम् / हतास्ते क्षत्रधर्मेण ज्ञातयस्तव पार्थिव / उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह / / 34 स्वर्गताश्च महात्मानो वीराः क्षत्रियपुंगवाः // 4. वैशंपायन उवाच / स त्वमातिष्ठ कल्याणं मा ते भूद्ग्लानिरच्युत / ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे हुंकारैः क्रोधमूर्छिताः / शत्रूञ्जहि प्रजा रक्ष द्विजांश्च प्रतिपालय // 49 निर्भर्त्सयन्तः शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम् // 35 ___ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स पपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम् / / एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥ महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्करवानिव // 36 40 पूजिताश्च ययुर्विप्रा राजानमभिनन्द्य तम् / वैशंपायन उवाच। राजा च हर्षमापेदे पाण्डवः ससुहजनः // 37 ततः कुन्तीसुतो राजा गतमन्युर्गतज्वरः / वासुदेव उवाच / काञ्चने प्राङ्मुखो हृष्टो न्यषीदत्परमासने // 1 ब्राह्मणास्तात लोकेऽस्मिन्नर्चनीयाः सदा मम।। तमेवाभिमुखौ पीठे सेव्यास्तरणसंवृते / एते भूमिचरा देवा वाग्विषाः सुप्रसादकाः // 38 सात्यकिर्वासुदेवश्च निषीदतुररिंदमौ // 2 पुरा कृतयुगे तात चार्वाको नाम राक्षसः / मध्ये कृत्वा तु राजानं भीमसेनार्जुनावुभौ / तपस्तेपे महाबाहो बदाँ बहुवत्सरम् // 39 / निषीदतुर्महात्मानौ श्लक्ष्णयोर्मणिपीठयोः // 3 - 2038 - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 40. 4] शान्तिपर्व [12. 41.8 दान्ते शय्यासने शुभ्रे जाम्बूनदविभूषिते / हंसा इव च नर्दन्तः प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम् // 18 पृथापि सहदेवेन सहास्ते नकुलेन च // 4 युधिष्ठिर महाबाहो दिष्ट्या जयसि पाण्डव / सुधर्मा विदुरो धौम्यो धृतराष्ट्रश्च कौरवः / दिष्टया स्वधर्म प्राप्तोऽसि विक्रमेण महाद्युते // 19 निषेदुर्बलनाकारेष्वासनेषु पृथक्पृथक् / / 5 दिष्टया गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः / युयुत्सुः संजयश्चैव गान्धारी च यशस्विनी / त्वं चापि कुशली राजन्माद्रीपुत्रौ च पाण्डवो // 20 धृतराष्ट्रो यतो राजा ततः सर्व उपाविशन् // 6 मुक्ता वीरक्षयादस्मात्संग्रामान्निहतद्विषः / तत्रोपविष्टो धर्मात्मा श्वेताः सुमनसोऽस्पृशत् / . क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि पाण्डव // 21 खस्तिकानक्षतान्भूमिं सुवर्ण रजतं मणीन् / // 7 ततः प्रत्यर्चितः सद्भिर्धर्मराजो युधिष्ठिरः / ततः प्रकृतयः सर्वाः पुरस्कृत्य पुरोहितम् / प्रतिपेदे महद्राज्यं सुहृद्भिः सह भारत / / 22 ददृशुर्धर्मराजानमादाय बहु मङ्गलम् / / 8 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पृथिवीं च सुवर्णं च रत्नानि विविधानि च। चत्वारिंशोऽध्यायः // 40 // आभिषेचनिक भाण्डं सर्वसंभारसंभृतम् // 9 काश्चनौदुम्बरास्तत्र राजताः पृथिवीमयाः / वैशंपायन उवाच / पूर्णकुम्भाः सुमनसो लाजा बहीषि गोरसाः // 10 प्रकृतीनां तु तद्वाक्यं देशकालोपसंहितम् / शमीपलाशपुंनागाः समिधो मधुसर्पिषी। श्रुत्वा युधिष्ठिरो राजाथोत्तरं प्रत्यभाषत // 1 स्रुव औदुम्बरः शङ्खास्तथा हेमविभूषिताः // 11 धन्याः पाण्डुसुता लोके येषां ब्राह्मणपुंगवाः / दाशार्हेणाभ्यनुज्ञातस्तत्र धौम्यः पुरोहितः / तथ्यान्वाप्यथ वातथ्यान्गुणानाहुः समागताः // 2 प्रागुदक्प्रवणां वेदी लक्षणेनोपलिप्य ह // 12 अनुग्राह्या वयं नूनं भवतामिति मे मतिः / व्याघ्रचर्मोत्तरे श्लक्ष्णे सर्वतोभद्र आसने / यत्रैवं गुणसंपन्नानस्मान्ब्रूथ विमत्सराः // 3 दृद्रपादप्रतिष्ठाने हुताशनसमत्विषि // 13 धृतराष्ट्रो महाराजः पिता नो दैवतं परम् / उपवेश्य महात्मानं कृष्णां च द्रुपदात्मजाम् / शासनेऽस्य प्रिये चैव स्थेयं मत्प्रियकातिभिः // 4 जुहाव पावकं धीमान्विधिमश्रपुरस्कृतम् // 14 एतदर्थ हि जीवामि कृत्वा ज्ञातिवधं महत् / अभ्यषिश्चत्पतिं पृथ्व्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। अस्य शुश्रूषणं कायं मया नित्यमतन्द्रिणा // 5 धृतराष्ट्रश्च राजर्षिः सर्वाः प्रकृतयस्तथा // 15 यदि चाहमनुग्राह्यो भवतां सुहृदां ततः / ततोऽनुवादयामासुः पणवानकदुन्दुभीः / धृतराष्ट्रे यथापूर्व वृत्तिं वर्तितुमर्हथ // 6 धर्मराजोऽपि तत्सर्वं प्रतिजग्राह धर्मतः / / 16 एष नाथो हि जगतो भवतां च मया सह / पूजयामास तांश्चापि विधिवद्भूरिदक्षिणः / / अस्यैव पृथिवी कृत्स्ना पाण्डवाः सर्व एव च / ततो निष्कसहस्रेण ब्राह्मणान्स्वस्ति वाचयत् / एतन्मनसि कर्तव्यं भवद्भिर्वचनं मम // 7 वेदाध्ययनसंपन्नाशीलवृत्तसमन्वितान् // 17 अनुगम्य च राजानं यथेष्टं गम्यतामिति / ते प्रीता ब्राह्मणा राजन्स्वस्त्यूचुर्जयमेव च। पौरजानपदान्सर्वान्विसृज्य कुरुनन्दनः / - 2039 - Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 41. 8] महाभारते [12. 43.3 यौवराज्येन कौरव्यो भीमसेनमयोजयत् / / 8 युधिष्ठिरस्तु कर्णस्य द्रोणस्य च महात्मनः / मत्रे च निश्चये चैव पाडण्यस्य च चिन्तने / धृष्टद्युम्नाभिमन्युभ्यां हैडिम्बस्य च रक्षसः // 3 विदुरं बुद्धिसंपन्नं प्रीतिमान्यै समादिशत् // 9 विराटप्रभृतीनां च सुहृदामुपकारिणाम् / कृताकृतपरिज्ञाने तथायव्ययचिन्तने / द्रुपदद्रौपदेयानां द्रौपद्या सहितो ददौ / / 4 संजयं योजयामास ऋद्धमृद्धैर्गुणैर्युतम् // 10 ब्राह्मणानां सहस्राणि पृथगेकैकमुद्दिशन् / बलस्य परिमाणे च भक्तवेतनयोस्तथा / धनैश्च वस्त्रै रत्नश्च गोभिश्च समतर्पयत् // 5 नकुलं व्यादिशद्राजा कर्मिणामन्यवेक्षणे // 11 ये चान्ये पृथिवीपाला येषां नास्ति सुहृजनः / परचक्रोपरोधे च दृप्तानां चावमर्दने / उद्दिश्योद्दिश्य तेषां च चक्रे राजौर्ध्वदैहिकम् // 6 युधिष्ठिरो महाराजः फल्गुनं व्यादिदेश ह // 12 सभाः प्रपाश्च विविधास्तडागानि च पाण्डवः / द्विजानां वेदकार्येषु कार्येष्वन्येषु चैव हि। सुहृदां कारयामास सर्वेषामौर्ध्वदैहिकम् / / 7 धौम्यं पुरोधसां श्रेष्ठं व्यादिदेश परंतपः // 13 स तेषामनृणो भूत्वा गत्वा लोकेष्ववाच्यताम् / सहदेवं समीपस्थं नित्यमेव समादिशत् / कृतकृत्योऽभवद्राजा प्रजा धर्मेण पालयन् // 8 तेन गोप्यो हि नृपतिः सर्वावस्थो विशां पते // 14 / धृतराष्ट्र यथापूर्व गान्धारी विदुरं तथा। यान्यानमन्यद्योग्यांश्च येषु येष्विह कर्मसु / सर्वांश्च कौरवामात्यान्भृत्यांश्च समपूजयत् / / 9 तांस्तांस्तेष्वेव युयुजे प्रीयमाणो महीपतिः 15 याश्च तत्र स्त्रियः काश्चिद्धतवीरा हतात्मजाः / विदुरं संजयं चैव युयुत्सुं च महामतिम / सर्वास्ताः कौरवो राजा संपूज्यापालयद्भणी // 10 अब्रवीत्परवीरनो धर्मात्मा धर्मवत्सलः // 16 दीनान्धकृपणानां च गृहाच्छादनभोजनः / उत्थायोत्थाय यत्कार्यमस्य राज्ञः पितुर्मम / आनृशंस्यपरो राजा चकारानुग्रहं प्रभुः // 11 सर्व भवद्भिः कर्तव्यमप्रमत्तैथातथम् // 17 स विजित्य महीं कृत्स्नामान्ण्यं प्राप्य वैरिषु / पौरजानपदानां च यानि कार्याणि नित्यशः / निःसपत्नः सुखी राजा विजहार युधिष्ठिरः // 12 राजानं समनुज्ञाप्य तानि कार्याणि धर्मतः / / 18 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // કર वैशंपायन उवाच / वैशंपायन उवाच। अभिषिक्तो महाप्राज्ञो राज्यं प्राप्य युधिष्ठिरः / ततो युधिष्ठिरो राजा ज्ञातीनां ये हता मृधे / दाशार्ह पुण्डरीकाक्षमुवाच प्राञ्जलिः शुचिः // 1 श्राद्धानि कारयामास तेषां पृथगुदारधीः // 1 तव कृष्ण प्रसादेन नयेन च वलेन च / धृतराष्ट्रो ददो राजा पुत्राणामौलदेहिकम् / बुद्ध्या च यदुशार्दूल तथा विक्रमणेन च // 2 सर्वकामगुणोपेतमन्नं गाश्च धनानि च / पुनः प्राप्तमिदं राज्यं पितृपैतामहं मया। रत्नानि च विचित्राणि महार्हाणि महायशाः // 2 नमस्ते पुण्डरीकाक्ष पुनः पुनररिंदम // 3 -2040 - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 43. 4] शान्तिपर्व [ 12. 44. 12 त्वामेकमाहुः पुरुषं त्वामाहुः सात्वतां पतिम् / तमभ्यनन्दद्भारतं पुष्कलाभिनामभिस्त्वां बहुविधेः स्तुवन्ति परमर्षयः // 4 ग्भियेष्ठं पाण्डवं यादवायः // 17 विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसंभव / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम // 5 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 43 // अदित्याः सप्तरात्रं तु पुराणे गर्भतां गतः / पृश्निगर्भस्त्वमेवैकस्त्रियुगं त्वां वदन्त्यपि // 6 वैशंपायन उवाच / शुचिश्रवा हृषीकेशो घृताचिस उच्यसे / ततो विसर्जयामास सर्वाः प्रकृतयो नृपः / त्रिचक्षुः शंभुरेकस्त्वं विभुर्दामोदरोऽपि च // 7 विविशुश्चाभ्यनुज्ञाता यथास्वानि गृहाणि च // 1 वराहोऽग्निबृहद्भानुवृषणस्तार्क्ष्यलक्षणः / . ततो युधिष्ठिरो राजा भीमं भीमपराक्रमम् / अनीकसाहः पुरुषः शिपिविष्ट उरुक्रमः // 8 सान्त्वयन्नब्रवीद्धीमानर्जुनं यमजौ तथा // 2 वाचिष्ठ उग्रः सेनानीः सत्यो वाजसंनिर्गुहः / शत्रुभिर्विविधैः शस्त्रैः कृत्तदेहा महारणे / अच्युत,यावनोऽरीणां संकृतिर्विकृतिवृषः // 9 श्रान्ता भवन्तः सुभृशं तापिताः शोकमन्युभिः॥ 3 कृतवा त्वमेवाद्रिद्देषगर्भो वृषाकपिः / अरण्ये दुःखवसतीर्मत्कृते पुरुषोत्तमाः / सिन्धुक्षिमिस्त्रिककुत्रिधामा त्रिवृदच्युतः // 10 भवद्भिरनुभूताश्च यथा कुपुरुषैस्तथा / / 4 सम्राडिराट् स्वरादेव सुरराड धर्मदो भवः / यथासुखं यथाजोषं जयोऽयमनुभूयताम् / विभुर्भूरभिभूः कृष्णः कृष्णवर्मा त्वमेव च // 11 विश्रान्ताल्लब्धविज्ञानाश्वः समेतास्मि वः पुनः॥५ विष्टकृद्भिषगावर्तः कपिलस्त्वं च वामनः / / ततो दुर्योधनगृहं प्रासादैरुपशोभितम् / यज्ञो ध्रुवः पतंगश्च जयत्सेनस्त्यमुच्यसे / / 12 / | बहुरत्नसमाकीर्णं दासीदाससमाकुलम् // 6 शिखण्डी नहुषो बधर्दिवस्पृरत्वं पुनर्वसुः / धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातं भ्रात्रा दत्तं वृकोदरः / सुबभ्ररक्षो रुक्मस्त्वं सुषेणो दुन्दुभिस्तथा // 13 प्रतिपेदे महाबाहुर्मन्दरं मघवानिव // 7 गमस्तिनेमिः श्रीपद्मं पुष्करं पुष्पधारणः / यथा दुर्योधनगृहं तथा दुःशासनस्य च / ऋभुर्विभुः सर्वसूक्ष्मस्त्वं सावित्रं च पठ्यसे // 14 - प्रासादमालासंयुक्तं हेमतोरणभूषितम् // 8 अम्भोनिधिस्त्वं ब्रह्म त्वं पवित्रं धाम धन्व च। दासीदाससुसंपूर्ण प्रभूतधनधान्यवत् / हिरण्यगर्भ त्वामाहुः स्वधा स्वाहा च केशव // 15 प्रतिपेदे महाबाहुरर्जुनो राजशासनात् // 9 योनिस्त्वमस्य प्रलयश्च कृष्ण दुर्मर्षणस्य भवनं दुःशासनगृहाद्वरम् / त्वमेवेदं सृजसि विश्वमग्रे। कुबेरभवनप्रख्यं मणिहेमविभूषितम् // 10 विश्वं चेदं त्वद्वशे विश्वयोने नकुलाय वराहय कर्शिताय महावने / नमोऽस्तु ते शाङ्गचक्रासिपाणे // 16 ददौ प्रीतो महाराज धर्मराजो युधिष्ठिरः // 11 एवं स्तुनो धर्मराजेन कृष्णः दुर्मुखस्य च वेश्माग्र्यं श्रीमत्कनकभूषितम् / सभामध्ये प्रीतिमान्पुष्कराक्षः / पूर्ण पद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसंकुलम् // 12 - 2041 .भा. 256 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 44. 13] महाभारते [ 12. 46. 1 प्रददौ सहदेवाय सततं प्रियकारिणे / भक्षान्नपानैर्विविधैर्वासोभिः शयनासनैः / मुमुदे तञ्च लब्ध्वा स कैलासं धनदो यथा // 13 सर्वान्संतोषयामास संश्रितान्ददतां वरः // 9 युयुत्सुर्विदुरश्चैव संजयश्च महाद्युतिः / लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम / सुधर्मा चैव धौम्यश्च यथास्वं जग्मुरालयान् // 14 युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायशाः // 10 सह सात्यकिना शौरिरर्जुनस्य निवेशनम् / धृतराष्ट्राय तद्राज्यं गान्धायै विदुराय च। विवेश पुरुषव्याघ्रो व्याघ्रो गिरिगुहामिव // 15 निवेद्य स्वस्थवद्राजन्नास्ते राजा युधिष्ठिरः // 11 तत्र भक्षान्नपानैस्ते समुपेताः सुखोषिताः / तथा सर्व स नगरं प्रसाद्य जनमेजय / सुखप्रबुद्धा राजानमुपतस्थुर्युधिष्ठिरम् // 16 वासुदेवं महात्मानमभ्यगच्छत्कृताञ्जलिः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि . ततो महति पर्यके मणिकाश्चनभूषिते / चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः // 44 // ददर्श कृष्णमासीनं नीलं मेराविवाम्बुदम् // 13 जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम् / पीतकौशेयसंवीतं हेनीवोपहितं मणिम् // 14 जनमजेय उवाच / कौस्तुभेन उरःस्थेन मणिनाभिविराजितम् / प्राप्य राज्यं महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः / उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाप्तकिरीटिनम् / यदन्यदकरोद्विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि // 1 भगवान्वा हृषीकेशस्त्रैलोक्यस्य परो गुरुः / नौपम्यं विद्यते यस्य त्रिषु लोकेषु किंचन // 15 सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णु पुरुषविग्रहम् / ऋषे यदकरोद्वीरस्तञ्च व्याख्यातुमर्हसि // 2 उवाच मधुराभाषः स्मितपूर्वमिदं तदा // 16 वैशंपायन उवाच / सुखेन ते निशा कच्चिद्वयुष्टा बुद्धिमतां वर / शृणु राजेन्द्र तत्त्वेन कीर्त्यमानं मयानघ / कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत // 15 वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः // 3 तव ह्याश्रित्य तां देवीं बुद्धिं बुद्धिमतां वर / प्राप्य राज्यं महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः / वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता // 18 चातुर्वण्यं यथायोगं स्वे स्वे धर्मे न्यवेशयत् // 4 भवत्प्रसादाद्भगवंत्रिलोकगतिविक्रम / ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम् / जयः प्राप्तो यशश्चाग्र्यं न च धर्माच्च्युता वयम् // 19 सहस्रनिष्कमेकैकं वाचयामास पाण्डवः // 5 तं तथा भाषमाणं तु धर्मराज युधिष्ठिरम् / तथानुजीविनो भृत्यान्संश्रितानतिथीनपि / नोवाच भगवान्किचिद्ध्यानमेवान्वपद्यत // 20 कामैः संतर्पयामास कृपणांस्तर्ककानपि // 6 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पुरोहिताय धौम्याय प्रादायुतशः स गाः / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 45 // धनं सुवर्ण रजतं वासांसि विविधानि च // 7 कृपाय च महाराज गुरुवृत्तिमवर्तत / युधिष्ठिर उवाच। विदुराय च धर्मात्मा पूजां चक्रे यतव्रतः / / 8 / किमिदं परमाश्चर्यं ध्यायस्यमितविक्रम / -2042 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 46. 11 शान्तिपर्व [12. 46. 30 कञ्चिल्लोकत्रयस्यास्य स्वस्ति लोकपरायण // 1 / दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान् / चतुर्थ ध्यानमार्ग त्वमालम्ब्य पुरुषोत्तम / सागांश्च चतुरो वेदांस्तमस्मि मनसा गतः // 16 अपक्रान्तो यतो देव तेन मे विस्मितं मनः // 2 रामस्य दयितं शिष्यं जामदग्यस्य पाण्डव / निगृहीतो हि वायुस्ते पञ्चकर्मा शरीरगः / आधारं सर्वविद्यानां तमस्मि मनसा गतः // 17 इन्द्रियाणि च सर्वाणि मनसि स्थापितानि ते // 3 एकीकृत्येन्द्रियग्रामं मनः संयम्य मेधया / इन्द्रियाणि मनश्चैव बुद्धौ संवेशितानि ते। शरणं मामुपागच्छत्ततो मे तद्गतं मनः // 18 सर्वश्चैव गणो देव क्षेत्रज्ञे ते निवेशितः // 4 / स हि भूतं च भव्यं च भवच्च पुरुषर्षभ / नेङ्गन्ति तव रोमाणि स्थिरा बुद्धिस्तथा मनः / वेत्ति धर्मभृतां श्रेष्ठस्ततो मे तद्गतं मनः // 19 स्थाणुकुड्यशिलाभूतो निरीहश्चासि माधव // 5 तस्मिन्हि पुरुषव्याघ्र कर्मभिः स्वैर्दिवं गते / यथा दीपो निवातस्थो निरिङ्गो ज्वलतेऽच्युत / भविष्यति मही पार्थ नष्टचन्द्रेव शर्वरी // 20 तथासि भगवन्देव निश्चलो दृढनिश्चयः // 6 तद्युधिष्ठिर गाङ्गेयं भीष्मं भीमपराक्रमम् / यदि श्रोतुमिहार्हामि न रहस्यं च ते यदि / अभिगम्योपसंगृह्य पृच्छ यत्ते मनोगतम् // 21 छिन्धि मे संशयं देव प्रपन्नायाभियाचते // 7 चातुर्वेद्यं चातुर्होत्रं चातुराश्रम्यमेव च / त्वं हि कर्ता विकर्ता च त्वं क्षरं चाक्षरं च हि / चातुर्वर्ण्यस्य धर्मं च पृच्छैनं पृथिवीपते // 22 अनादिनिधनश्चाद्यस्त्वमेव पुरुषोत्तम // 8 तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरंधरे। त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय शिरसा प्रणताय च / ज्ञानान्यल्पीभविष्यन्ति तस्मात्त्वां चोदयाम्यहम् // ध्यानस्यास्य यथातत्त्वं ब्रूहि धर्मभृतां वर // 9 तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथ्यं वचनमुत्तमम् / वैशंपायन उवाच / साश्रुकण्ठः स धर्मज्ञो जनार्दनमुवाच ह // 24 ततः स्वगोचरे न्यस्य मनो बुद्धीन्द्रियाणि च / यद्भवानाह भीष्मस्य प्रभाव प्रति माधव / स्मितपूर्वमुवाचेदं भगवान्वासवानुजः // 10 तथा तन्नात्र संदेहो विद्यते मम मानद // 25 शरतल्पगतो भीष्मः शाम्यन्निव हुताशनः / महाभाग्यं हि भीष्मस्य प्रभावश्च महात्मनः / मां ध्याति पुरुषव्याघ्रस्ततो मे तद्गतं मनः // 11 श्रुतं मया कथयतां ब्राह्मणानां महात्मनाम् // 26 यस्य ज्यातलनिषि विस्फूर्जितमिवाशनेः / भवांश्च कर्ता लोकानां यद्भवीत्यरिसूदन / न सहेदेवराजोऽपि तमस्मि मनसा गतः // 12 तथा तदनभिध्येयं वाक्यं यादवनन्दन // 27 येनाभिद्रुत्य तरसा समस्तं राजमण्डलम् / यतस्त्वनुग्रहकृता बुद्धिस्ते मयि माधव / ऊढास्तिस्रः पुरा कन्यास्तमस्मि मनसा गताः॥१३ त्वामग्रतः पुरस्कृत्य भीष्मं पश्यामहे वयम् // 28 त्रयोविंशतिरात्रं यो योधयामास भार्गवम् / आवृत्ते भगवत्यर्के स हि लोकान्गमिष्यति / न च रामेण निस्तीर्णस्तमस्मि मनसा गतः // 14 | त्वद्दर्शनं महाबाहो तस्मादहति कौरवः // 29 यं गङ्गा गर्भविधिना धारयामास पार्थिवम् / तव ह्याद्यस्य देवस्य क्षरस्यैवाक्षरस्य च / वसिष्ठशिष्यं तं तात मनसास्मि गतो नृप // 15 / दर्शनं तस्य लाभः स्यात्त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः // 30 - 2043 - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 46. 31] महाभारते [12. 47. 20 श्रुत्वैतद्धर्मराजस्य वचनं मधुसूदनः / देवस्थानेन वात्स्येन तथाश्मकसुमन्तुना // 5 पार्श्वस्थं सात्यकि प्राह रथो मे युज्यतामिति // 31 एतैश्चान्यैर्मुनिगणर्महाभागैर्महात्मभिः / सात्यकिस्तूपनिष्क्रम्य केशवस्य समीपतः / श्रद्धादमपुरस्कारैवृतश्चन्द्र इव ग्रहैः // 6 दारुकं प्राह कृष्णस्य युज्यतां रथ इत्युत // 32 भीष्मस्तु पुरुषव्याघ्रः कर्मणा मनसा गिरा। स सात्यकेराशु वचो निशम्य शरतल्पगतः कृष्णं प्रदध्यौ प्राञ्जलिः स्थितः / / 7 रथोत्तमं काश्चनभूषिताङ्गम् / स्वरेण पुष्टनादेन तुष्टाव मधुसूदनम्। .. मसारगल्वर्कमयैर्विभङ्गै योगेश्वरं पद्मनाभं विष्णुं जिष्णुं जगत्पतिम् // 8 विभूषितं हेमपिनद्धचक्रम् // 33 कृताञ्जलिः शुचिर्भूत्वा वाग्विदां प्रवरः प्रभुम् / दिवाकरांशुप्रभमाशुगामिनं भीष्मः परमधर्मात्मा वासुदेवमथास्तुवत् / / 9 विचित्रनानामणिरत्नभूषितम्। आरिराधयिषुः कृष्णं वाचं जिगमिषामि याम् / नवोदितं सूर्यमिव प्रतापिनं तया व्याससमासिन्या प्रीयतां पुरुषोत्तमः / / 10 विचित्रताय॑ध्वजिनं पताकिनम् // 34 शुचिः शुचिषदं हसं तत्परः परमेष्ठिनम् / सुग्रीवसैन्यप्रमुखैर्वराश्व युक्त्वा सर्वात्मनात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम् // 11 मनोजवैः काञ्चनभूषिताः। यस्मिन्विश्वानि भूतानि तिष्ठन्ति च विशन्ति च / सुयुक्तमावेदयदच्युताय गुणभूतानि भूतेशे सूत्रे मणिगणा इव // 12 ___कृताञ्जलिर्दारुको राजसिंह // 35 यस्मिन्नित्ये तते तन्तौ दृढे स्रगिव तिष्ठति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सदसदथितं विश्वं विश्वाङ्गे विश्वकर्मणि // 13 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 46 // हरिं सहस्रशिरसं सहस्रचरणेक्षणम् / प्राहुर्नारायणं देवं यं विश्वस्य परायणम् // 14 जनमेजय उवाच / अणीयसामणीयांसं स्थविष्ठं च स्थवीयसाम् / शरतल्पे शयानस्तु भरतानां पितामहः। गरीयसां गरिष्ठं च श्रेष्ठं च श्रेयसामपि // 15 कथमुत्सृष्टवान्देहं कं च योगमधारयत् // 1 यं वाकेष्वनुवाकेषु निवत्सूपनिषत्सु च / वैशंपायन उवाच / गृणन्ति सत्यकर्माणं सत्यं सत्येषु सामसु / / 16 शृणुष्वावहितो राजशुचिर्भूत्वा समाहितः / चतुर्भिश्चतुरात्मानं सत्त्वस्थं सात्वतां पतिम् / भीष्मस्य कुरुशार्दूल देहोत्सर्ग महात्मनः // 2 यं दिव्यैर्देवमर्चन्ति गुखैः परमनामभिः // 17 निवृत्तमात्रे त्वयन उत्तरे वै दिवाकरे। यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् / समावेशयदात्मानमात्मन्येव समाहितः / / 3 भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त दीप्तमग्निमिवारणिः // 18 विकीर्णाशुरिवादित्यो भीष्मः शरशतैश्चितः / / यमनन्यो व्यपेताशीरात्मानं वीतकल्मषम् / शिश्ये परमया लक्ष्म्या वृतो ब्राह्मणसत्तमैः // 4 इष्ट्वानन्त्याय गोविन्दं पश्यत्यात्मन्यवस्थितम् / / 19 व्यासेन वेदश्रवसा नारदेन सुरर्षिणा। पुराणे पुरुषः प्रोक्तो ब्रह्मा प्रोक्तो युगादिषु / - 2044 - Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 47. 20 ] शान्तिपर्व [12. 47. 50 - - क्षये संकर्षणः प्रोक्तस्तमुपास्यमुपास्महे // 20 ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः।।३५ अतिवाबिन्द्रकर्माणमतिसूर्याग्मितेजसम् / अपुण्यपुण्योपरमे यं पुनर्भवनिर्भयाः / अतिबुद्धीन्द्रियात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम् // 21 शान्ताः संन्यासिनो यान्ति तस्मै मोक्षात्मने नमः / / यं वै विश्वस्य कर्तारं जगतस्तस्थुषां पतिम् / योऽसौ युगसहस्रान्ते प्रदीप्तार्चिविभावसुः / वदन्ति जगतोऽध्यक्षमक्षरं परमं पदम् / / 22 संभक्षयति भूतानि तस्मै घोरात्मने नमः // 37 हिरण्यवर्ण यं गर्भमदितिदैत्यनाशनम् / संभक्ष्य सर्वभूतानि कृत्वा चैकार्णवं जगत् / एकं द्वादशधा जज्ञे तस्मै सूर्यात्मने नमः // 23 बालः स्वपिति यश्चैकस्तस्मै मायात्मने नमः // 38 शुक्ले देवान्पित्तृत्कृष्णे तर्पयत्यमृतेन यः। सहस्रशिरसे तस्मै पुरुषायामितात्मने / यश्च राजा द्विजातीनां तस्मै सोमात्मने नमः॥२४ चतुःसमुद्रपर्याययोगनिद्रात्मने नमः // 39 महतस्तमसः पारे पुरुषं ज्वलनद्युतिम् / अजस्य नाभावध्येकं यस्मिन्विश्वं प्रतिष्ठितम् / यं ज्ञात्मा मृत्युमत्येति तस्मै ज्ञेयात्मने नमः // 25 पुष्करं पुष्कराक्षस्य तस्मै पद्मात्मने नमः / / 40 यं बृहन्तं बृहत्युक्थे यमग्नौ यं महाध्वरे / यस्य केशेषु जीमूता नद्यः सर्वाङ्गसंधिषु / यं विप्रसंघा गायन्ति तस्मै वेदात्मने नमः // 26 कुक्षौ समुद्राश्चत्वारस्तस्मै तोयात्मने नमः // 41 ऋग्यजुःसामधामानं दशार्धहविराकृतिम् / युगेष्वावर्तते योऽशैदिनर्वयनहायनैः / यं सप्ततन्तुं तन्वन्ति तस्मै यज्ञात्मने नमः / / 27 सर्गप्रलययोः कर्ता तस्मैः कालात्मने नमः // 42 यः सुपर्णो यजुर्नाम छन्दोगात्रनिवृच्छिराः / ब्रह्म वक्त्रं भुजौ क्षत्रं कृत्स्नमूरूदरं विशः / स्थतरबृहत्यक्षस्तस्मै स्तोत्रात्मने नमः // 28 पादौ यस्याश्रिताः शूद्रास्तस्मै वर्णात्मने नमः॥४३ पः सहस्रसवे सत्रे जज्ञे विश्वसृजामृषिः / यस्याग्निरास्यं द्यौमूर्धा खं नाभिश्चरणौ क्षितिः / हेरण्यवर्णः शकुनिस्तस्मै हंसात्मने नमः // 29 सूर्यश्चक्षुर्दिशः श्रोत्रे तस्मै लोकात्मने नमः // 44 पदाङ्गं संधिपर्वाणं स्वरव्यञ्जनलक्षणम् / विषये वर्तमानानां यं तं वैशेषिकैर्गुणैः / पमाहुरक्षरं नित्यं तस्मै वागात्मने नमः // 30 प्राहुर्विषयगोतारं तस्मै गोप्वात्मने नमः // 45 पश्चिनोति सतां सेतुमृतेनामृतयोनिना / अन्नपानेन्धनमयो रसप्राणविवर्धनः / धर्मार्थव्यवहाराङ्गैस्तस्मै सत्यात्मने नमः // 31 यो धारयति भूतानि तस्मै प्राणात्मने नमः // 46 यं पृथग्धर्मचरणाः पृथग्धर्मफलैषिणः / परः कालात्परो यज्ञात्परः सदसतोश्च यः / पृथग्धमैः समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नमः // 32 अनादिरादिविश्वस्य तस्मै विश्वात्मने नमः // 47 यं तं व्यक्तस्थमव्यक्तं विचिन्वन्ति महर्षयः। यो मोहयति भूतानि स्नेहरागानुबन्धनैः / क्षेत्रे क्षेत्रज्ञमासीनं तस्मे क्षेत्रात्मने नमः / / 33 सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै मोहात्मने नमः // 48 यं गात्मानमात्मस्थं वृतं षोडशभिगुणैः / आत्मज्ञानमिदं ज्ञानं ज्ञात्वा पश्चस्ववस्थितम् / पाहुः सप्तदशं सांख्यास्तस्मै सांख्यात्मने नमः / / 34 यं ज्ञानिनोऽधिगच्छन्ति तस्मै ज्ञानात्मने नमः॥४९ विनिद्रा जितश्वासाः सत्त्वस्थाः संयतेन्द्रियाः।। अप्रमेयशरीराय सर्वतोऽनन्तचक्षुषे / -2045 - Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 47. 50 महाभारते [12. 48.5 अपारपरिमेयाय तस्मै चिन्त्यात्मने नमः // 50 त्रैकाल्यदर्शनं ज्ञानं दिव्यं दातुं ययौ हरिः॥ 65 जटिने दण्डिने नित्यं लम्बोदरशरीरिणे / तस्मिन्नुपरते शब्दे ततस्ते ब्रह्मवादिनः / कमण्डलुनिषङ्गाय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः // 51 भीष्मं वाग्भिर्बाष्पकण्ठास्तमानचुमहामतिम् // 66 शूलिने त्रिदशेशाय त्र्यम्बकाय महात्मने / ते स्तुवन्तश्च विप्राग्र्याः केशवं पुरुषोत्तमम् / भस्मदिग्धोर्ध्वलिङ्गाय तस्मै रुद्रात्मने नमः / / 52 भीष्मं च शनकैः सर्वे प्रशशंसुः पुनः पुनः॥ 6 // पञ्चभूतात्मभूताय भूतादिनिधनात्मने। विदित्वा भक्तियोगं तु भीष्मस्य पुरुषोत्तमः / अक्रोधद्रोहमोहाय तस्मै शान्तात्मने नमः / / 53 सहसोत्थाय संहृष्टो यानमेवान्वपद्यत // 68 यस्मिन्सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं सर्वतश्च यः / केशवः सात्यकिश्चैव रथेनैकेन जग्मतुः / यश्च सर्वमयो नित्यं तस्मै सर्वात्मने नमः // 54 अपरेण महात्मानौ युधिष्ठिरधनंजयौ // 69 विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसंभव / भीमसेनो यमौ चोभौ रथमेकं समास्थितौ / अपवर्गोऽसि भूतानां पश्चानां परतः स्थितः // 55 कृपो युयुत्सुः सूतश्च संजयश्चापरं रथम् // 70 नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु / ते रथैर्नगराकारैः प्रयाताः पुरुषर्षभाः / नमस्ते दिक्षु सर्वासु त्वं हि सर्वपरायणम् // 56 / नेमिघोषेण महता कम्पयन्तो वसुंधराम् / / 71 नमस्ते भगवन्विष्णो लोकानां प्रभवाप्यय। ततो गिरः पुरुषवरस्तवान्विता त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः // 57 ___ द्विजेरिताः पथि सुमनाः स शुश्रुवे / तेन पश्यामि ते दिव्यान्भावान्हि त्रिषु वर्त्मसु / कृताञ्जलिं प्रणतमथापरं जनं तच्च पश्यामि तत्त्वेन यत्ते रूपं सनातनम् // 58 स केशिहा मुदितमनाभ्यनन्दत / / 72 दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भ्यां देवी वसुंधरा।। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विक्रमेण त्रयो लोकाः पुरुषोऽसि सनातनः॥५९ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥ अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम् / ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम् // 60 वैशंपायन उवाच। यथा विष्णुमयं सत्यं यथा विष्णुमयं हविः। ततः स च हृषीकेशः स च राजा युधिष्ठिरः / यथा विष्णुमयं सर्वं पाप्मा मे नश्यतां तथा // 61 कृपादयश्च ते सर्वे चत्वारः पाण्डवाश्च ह // 1 त्वां प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे / रथैस्ते नगराकारैः पताकाध्वजशोभितैः / यच्छेयः पुण्डरीकाक्ष तद्धयायस्व सुरोत्तम // 62 ययुराशु कुरुक्षेत्रं वाजिभिः शीघ्रगामिभिः // 2 इति विद्यातपोयोनिरयोनिर्विष्णुरीडितः / तेऽवतीय कुरुक्षेत्र केशमजास्थिसंकुलम् / वाग्यज्ञेनार्चितो देवः प्रीयतां मे जनार्दनः // 63 देहन्यासः कृतो यत्र क्षत्रियस्तैर्महात्मभिः // 3 एतावदुक्त्वा वचनं भीष्मस्तद्गतमानसः / गजाश्वदेहास्थिचयैः पर्वतैरिव संचितम् / नम इत्येव कृष्णाय प्रणाममकरोत्तदा / / 64 नरशीर्षकपालैश्च शबैरिव समाचितम् // 4 अभिगम्य तु योगेन भक्ति भीष्मस्य माधवः / / चितासहर्निचितं वर्मशस्त्रसमाकुलम् / -2046 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 48.5] शान्तिपर्व [12. 49. 16 आपानभूमि कालस्य तदा भुक्तोज्झितामिव // 5 / महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च // 1 भूतसंघानुचरितं रक्षोगणनिषेवितम् / / यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः / पश्यन्तस्ते कुरुक्षेत्रं ययुराशु महारथाः // 6 उद्भूता राजवंशेषु ये भूयो भारते हताः // 2 गच्छन्नेव महाबाहुः सर्वयादवनन्दनः / जहोरजकुस्तनयो बल्लवस्तस्य चात्मजः / युधिष्ठिराय प्रोवाच जामदग्यत्स्य विक्रमम् / / 7 कुशिको नाम धर्मज्ञस्तस्य पुत्रो महीपतिः // 3 अमी रामदाः पञ्च दृश्यन्ते पार्थ दूरतः / उग्रं तपः समातिष्टत्सहस्राक्षसमो भुवि / येषु संतर्पयामास पूर्वान्क्षत्रियशोणितैः // 8 पुत्रं लभेयमजितं त्रिलोकेश्वरमित्युत // 4 त्रिःसप्तकृत्वो वसुधां कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः / तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरंदरः / इहेदानीं ततो रामः कर्मणो विरराम ह // 9 समर्थः पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत // 5 युधिष्ठिर उवाच / पुत्रत्वमगमद्राजस्तस्य लोकेश्वरेश्वरः / त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया तदा / गाधिर्नामाभवत्पुत्रः कौशिकः पाकशासनः // 6 रामेणेति यदात्थ त्यभत्र मे संशयो महान् / / 10 तस्य कन्याभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती प्रभो। क्षत्रबीजं यदा दग्धं रामेण यदुपुंगव / तां गाधिः कविपुत्राय सो काय ददौ प्रभुः // 7 कथं भूयः समुत्पत्तिः क्षत्रस्यामितविक्रम // 11 ततः प्रीतस्तु कौन्तेय भार्गवः कुरुनन्दन / महात्मना भगवता रामेण यदुपुंगव / पुत्रार्थे श्रपयामास चलं गाधेस्तथैव च // 8 कथमुत्सादितं क्षत्रं कथं वृद्धिं पुनर्गतम् / / 12 आहूय चाह तां भार्यामृचीको भार्गवस्तदा / महाभारतयुद्धे हि कोटिशः क्षत्रिया हताः। उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्राप्ययं तव / / 9 तथाभूच्च मही कीर्णा क्षत्रियैर्वदतां वर // 13 तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्पभः / एवं मे छिन्धि वार्ष्णेय संशयं तायकेतन / अजय्यः क्षत्रियोंके क्षत्रियर्षभसूदनः // 10 आगमो हि परः कृष्ण त्वत्तो नो वासवानुज // 14 तवापि पुत्रं कल्याणि धृतिमन्तं तपोन्वितम् / वैशंपायन उवाच / शमात्मकं द्विजश्रेष्ठं चरुरेष विधास्यति // 11 ततो व्रजन्नेव गदाग्रजः प्रभुः इत्येवमुक्त्वा तां भार्यामृचीको भृगुनन्दनः / शशंस तस्मै निखिलेन तत्त्वतः। तपस्यभिरतो धीमाञ्जगामारण्यमेव ह // 12 युधिष्ठिरायाप्रतिमौजसे तदा एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः / यथाभवत्क्षत्रियसंकुला मही // 15 गाधिः सदारः संप्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा / अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः // 48 // भर्तुर्वाक्यादथाव्यग्रा मात्रे हृष्टा न्यवेदयत् // 14 माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ। . वासुदेव उवाच / तस्याश्चरुमथाज्ञातमात्मसंस्थं चकार ह // 15 शृणु कौन्तेय रामस्य मया यावत्परिश्रुतम् / अथ सत्यवती गर्भ क्षत्रियान्तकरं तदा / - 2047 - Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 49. 16 ] महाभारते [ 12. 49. 42 धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम् // 16 / प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम् // 28 तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन वै ततः / आर्चीको जनयामास जमदग्निः सुदारुणम् / अब्रवीद्राजशार्दूल स्वां भार्यां घरवर्णिनीम् // 17 सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदे च पारगम् / / मात्रासि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना। रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम् // 29 जनिष्यते हि ते पुत्रः क्रूरकर्मा महाबलः // 18 एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली / जनिष्यते हि ते भ्राता ब्रह्मभूतस्तपोधनः / अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयान्वयः // 30 विश्वं हि ब्रह्म तपसा मया तत्र समर्पितम् // 19 / ददाह पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपत्तनाम् / सैवमुक्ता महाभागा भर्ना सत्यवती तदा। स्वबाह्वस्त्रबलेनाजौ धर्मेण परमेण च // 31 पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम् // 20 तृषितेन स कौरव्य भिक्षितश्चित्रभानुना / नार्दोऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः / सहस्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्नये // 32 ब्राह्मणापसदं पुत्रं प्राप्स्यसीति महामुने / / 21 प्रामान्पुराणि घोषांश्च पत्तनानि च वीर्यवान् / ऋचीक उवाच / जज्वाल तस्य बाणैस्तु चित्रभानुर्दिधक्षया // 33 नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि / स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेन महातपाः / उग्रकर्मा भवेत्पुत्रश्चनर्माता च कारणम् // 22 ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानथ वनानि च // 34 सत्यवत्युवाच / स शून्यमाश्रमारण्यं वरुणस्यात्मजस्य तत् / इच्छल्लोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनर्मम / ददाह पवनेनेद्धश्चित्रभानुः सहैहयः // 35 शमात्मकमृणु पुत्रं लभेयं जपतां वर // 23 आपवस्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत / ऋचीक उवाच / दग्धेऽऽश्रमे महाराज कार्तवीर्येण वीर्यवान् // 36 नोक्तपूर्व मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं वचः / त्वया न वर्जितं मोहाद्यस्माद्वनमिदं मम / किमुताग्निं समाधाय मन्त्रवच्चरसाधने // 24 दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते छेत्स्यतेऽर्जुन // 35 सत्यवत्युवाच / अर्जुनस्तु महाराज बली नित्यं शमात्मकः / काममेवं भवेत्पौत्रो ममेह तव चैव ह। ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत / / 38 शमात्मकमृनुं पुत्रं लभेयं जपतां वर / / 25 तस्य पुत्राः सुबलिनः शापेनासन्पितुर्वधे / ऋचीक उवाच / निमित्तमवलिप्ता वै नृशंसाश्चैव नित्यदा // 35 पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे वा वरवर्णिनि / जमदग्निधेन्वास्ते वत्समानिन्युभरतर्षभ / यथा त्वयोक्तं तु वचस्तथा भद्रे भविष्यति // 26 अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हैहयेन्द्रस्य धीमतः // 40 वासुदेव उवाच। ततोऽर्जुनस्य बाहूंस्तु छित्त्वा वै पौरुषान्वितः। ततः सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम् / तं रुवन्तं ततो वत्सं जामदग्न्यः स्वमाश्रमम् / तपस्यभिरतं शान्तं जमदग्निं शमात्मकम् // 27 / प्रत्यानयत राजेन्द्र तेषामन्तःपुरात्प्रभुः // 41 विश्वामित्रं च दायादं गाधिः कुशिकनन्दनः / 'अर्जुनस्य सुतास्ते तु संभूयाबुद्धयस्तदा / - 2048 - Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 49. 42] शान्तिपर्व [ 12. 49.72 गत्वाश्रममसंबुद्धं जमदग्नेर्महात्मनः // 42 सुप्रग्रहवता राजश्रीमान्वाक्यमथाब्रवीत् / / 57 अपातयन्त भल्लाः शिरः कायान्नराधिप / गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने / समित्कुशार्थ रामस्य निर्गतस्य महात्मनः / / 43 न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हि चित् / / 58 ततः पितृवधामर्षाद्रामः परममन्युमान् / ततः शूर्पारकं देशं सागरस्तस्य निर्ममे / निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्य महीं शस्त्रमगृहृत // 44 संत्रासाज्जामदग्न्यस्य सोऽपरान्तं महीतलम् // 59 ततः स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान् / / कश्यपस्तु महाराज प्रतिगृह्य महीमिमाम् / विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान्पौत्रांश्च सर्वशः / / 45 कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविवेश महावनम् // 60 स हैहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान / ततः शूदाश्च वैश्याश्च यथास्वैरप्रचारिणः / चकार भार्गवो राजन्महीं शोणितकर्दमाम् / / 46 अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ // 61 स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम् / अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः / कृपया परयाविष्टो वनमेव जगाम ह / / 47 बाध्यन्ते न च वित्तेषु प्रभुत्वमिह कस्यचित् // 62 ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचिन् / ततः कालेन पृथिवी प्रविवेश रसातलम् / क्षोभं संप्राप्तवांस्तीव्र प्रकृत्या कोपनः प्रभुः // 48 अरक्ष्यमाणा विधिवत्क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः // 63 विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः / ऊरुणा धारयामास कश्यपः पृथिवीं ततः / परावसुर्महाराज क्षिवाह जनसंसदि / / 49 निमज्जन्ती तदा राजस्तेनोर्वीति मही स्मृता // 64 ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तः समागताः / रक्षिणश्च समुद्दिश्य प्रायाचत्पृथिवी तदा / प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते / / 50 प्रसाद्य कश्यपं देवी क्षत्रियान्याहुशालिनः // 65 मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि / सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ता नृषु क्षत्रियपुंगवाः / भयात्क्षत्रियवीराणां पर्व समुपाश्रितः / / 51 हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने // 66 स पुनः क्षत्रियशनैः पृथिवीमनुसंतताम् / अस्ति पौरवदायादो विडूरथसुतः प्रभो। परावसोस्तदा श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः // 52 ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्येव पर्वते // 67 ततो ये क्षत्रिया राजशतशस्तेन जीविताः / तथानुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा / ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन् / / 53 पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः // 68 स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप / सर्वकर्माणि कुरुते तस्यर्षेः शूद्रवद्धि सः। गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदा // 54 / सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स मां रक्षतु पार्थिव // 69 जातं जातं स गर्भ तु पुनरेव जघान ह। शिवः पुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः / अरशंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः // 55 वने संरक्षितो गोभिः सोऽभिरक्षतु मां मुने // 70 त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः / / प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महायशाः / दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः / / 56 वत्सैः संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः // 71 क्षत्रियाणां तु शेषार्थ करेणोद्दिश्य कश्यपः / दधिवाहनपौत्रस्तु पुत्रो दिविरथस्य ह / प.भा. 257 - 2049 - Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 49. 72] महाभारते [ 12. 50. 18 अङ्गः स गौतमेनापि गङ्गाकूलेऽभिरक्षितः // 72 . अहो धन्यो हि लोकोऽयं सभाग्याश्च नरा भुवि / बृहद्रथो महाबाहुर्भुवि भूतिपुरस्कृतः / यत्र कर्मेदृशं धयं द्विजेन कृतमच्युत // 4 गोलाङ्गलैर्महाभागो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः // 73 तथा यान्तौ तदा तात तावच्युतयुधिष्ठिौ / मरुत्तस्यान्ववाये तु क्षत्रियास्तुर्वसोत्रयः / जग्मतुर्यत्र गाङ्गेयः शरतल्पगतः प्रभुः // 5 मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः // 74 / ततस्ते ददृशुर्भीष्मं शरप्रस्तरशायिनम् / एते क्षत्रियदायादास्तत्र तत्र परिश्रुताः। स्वरश्मिजालसंवीतं सायंसूर्यमिवानलम् // 6 सम्यङ्मामभिरक्षन्तु ततः स्थास्यामि निश्चला।। 75 | उपास्यमानं मुनिभिर्देवैरिव शतक्रतुम् / एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः / देशे परमधर्मिष्ठे नदीमोघवतीमनु / / 7 मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा // 76 दूरादेव तमालोक्य कृष्णो राजा च धर्मराट् / तेषामपचितिश्चैव मया कार्या न संशयः / चत्वारः पाण्डवाश्चैव ते च शारद्वतादयः / / 8 न ह्यहं कामये नित्यमविक्रान्तेन रक्षणम् // 77 / अवस्कन्द्याथ वाहेभ्यः संयम्य प्रचलं मनः / ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः। एकीकृत्येन्द्रियग्राममुपतस्थुमहामुनीन् / / 9 अभ्यषिश्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान् // 78 अभिवाद्य च गोविन्दः सात्यकिस्ते च कौरवाः / तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः / व्यासादीस्तानृषीन्पश्चाद्गाङ्गेयमुपत स्थिरे / / 10 एवमेतत्पुरा वृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्डव // 79 तपोवृद्धिं ततः पृष्ट्वा गाङ्गेयं यदुकौरवाः / . वैशंपायन उवाच / परिवार्य ततः सर्वे निषेदुः पुरुषर्षभाः // 11 एवं ब्रुवन्नेव यदुप्रवीरो ततो निशम्य गाङ्गेयं शाम्यमानमिवानलम् / ___ युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम् / किंचिद्दीनमना भीष्ममिति होवाच केशवः // 12 रथेन तेनाशु ययौ यथार्को कञ्चिज्ज्ञानानि ते राजन्प्रसन्नानि यथा पुरा / विशन्प्रभाभिर्भगवांत्रिलोकम् // 80 कच्चिदव्याकुला चैव बुद्धिस्ते वदतां वर // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि शराभिघातदुःखात्ते कच्चिदानं न दूयते / एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४९॥ मानसादपि दुःखाद्धि शारीरं बलवत्तरम् / / 14 वरदानापितुः कामं छन्दमृत्युरसि प्रभो / वैशंपायन उवाच / शंतनोधर्मशीलस्य न त्वेतच्छमकारणम // 15 ततो रामस्य तत्कर्म श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः। सुसूक्ष्मोऽपीह देहे वै शल्यो जनयते रुजम् / विस्मयं परमं गत्वा प्रत्युवाच जनार्दनम् // 1 किं पुनः शरसंघातैश्चितस्य तव भारत // 16 अहो रामस्य वार्ष्णेय शक्रस्येव महात्मनः / काम नैतत्तवाख्येयं प्राणिनां प्रभवाप्ययौ / विक्रमो येन वसुधा क्रोधान्निःक्षत्रिया कृता // 2 भवान्ह्यपदिशेच्छ्रेयो देवानामपि भारत / / 17 गोभिः समुद्रेण तथा गोलाङ्गुलर्भवानरैः। यद्धि भूतं भविष्यच्च भवञ्च पुरुषर्षभ / गुप्ता रामभयोद्विग्नाः क्षत्रियाणां कुलोद्वहाः // 3 सर्वं तज्ज्ञानवृद्धस्य तव पाणाविवाहितम् // 18 -2050 - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 50. 19 } शान्तिपर्व [12. 51.9 संसारश्चैव भूतानां धर्मस्य च फलोदयः / इतिहासपुराणं च कान्येन विदितं तव / विदितस्ते महाप्राज्ञ त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः / / 19 धर्मशास्त्रं च सकलं नित्यं मनसि ते स्थितम् // 34 त्यां हि राज्ये स्थितं स्फीते समग्राङ्गमरोगिणम् / ये च केचन लोकेऽस्मिन्नर्थाः संशयकारकाः। स्त्रीसहस्रैः परिवृतं पश्यामीहोर्ध्वरेतसम् / / 20 तेषां छेत्ता नास्ति लोके त्वदन्यः पुरुषर्षभ // 35 ऋते शांतनवादीष्मात्रिषु लोकेषु पार्थिव / स पाण्डवेयस्य मनःसमुत्थितं सत्यसंधान्महावीर्याच्छूराद्धमैकतत्परात् // 21 नरेन्द्र शोकं व्यपकर्ष मेधया / मृत्युमावार्य तरसा शरप्रस्तरशायिनः / भवद्विधा ह्युत्तमबुद्धिविस्तरा निसर्गप्रभवं किंचिन्न च तातानुशुश्रुम / / 22 विमुह्यमानस्य जनस्य शान्तये // 36 सत्ये तपसि दाने च यज्ञाधिकरणे तथा। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धनुर्वेदे च वेदे च नित्यं चैवान्ववेक्षणे // 23 पञ्चाशोऽध्यायः॥५०॥ अनृशंसं शुचिं दान्तं सर्वभूतहिते रतम् / महारथं त्वत्सदृशं न कंचिदनुशुश्रुम // 24 वैशंपायन उवाच। त्वं हि देवान्सगन्धर्वान्ससुरासुरराक्षसान् / श्रुत्वा तु वचनं भीष्मो वासुदेवस्य धीमतः / शक्त एकरथेनैव विजेतुं नात्र संशयः // 25 किंचिदुन्नाम्य वदनं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् // 1 त्वं हि भीष्म महाबाहो वसूनां वासवोपमः। नमस्ते भगवन्विष्णो लोकानां निधनोद्भव / नित्यं विप्रैः समाख्यातो नवमोऽनवमो गुणैः // 26 | त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः // 2 अहं हि त्वाभिजानामि यस्त्वं पुरुषसत्तम। विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसंभव / त्रिदशेष्वपि विख्यातः स्वशक्त्या सुमहाबलः // 27 अपवर्गोऽसि भूतानां पञ्चानां परतः स्थितः // 3 मनुष्येषु मनुष्येन्द्र न दृष्टो न च मे श्रुतः। नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतत्रिषु / भवतो यो गुणैस्तुल्यः पृथिव्यां पुरुषः क्वचित्॥२८ योगेश्वर नमस्तेऽस्तु त्वं हि सर्वपरायणम् // 4 त्वं हि सर्वैर्गुणै राजन्देवानप्यतिरिच्यसे / मत्संश्रितं यदात्थ त्वं वचः पुरुषसत्तम / तपसा हि भवाशक्तः स्रष्टुं लोकांश्चराचरान् // 29 तेन पश्यामि ते दिव्यान्भावान्हि त्रिषु वर्त्मसु // 5 तदस्य तप्यमानस्य ज्ञातीनां संक्षयेण वै / तच्च पश्यामि तत्त्वेन यत्ते रूपं सनातनम् / ज्येष्ठस्य पाण्डुपुत्रस्य शोकं भीष्म व्यपानुद // 30 सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः // 6 ये हि धर्माः समाख्याताश्चातुर्वर्ण्यस्य भारत / दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भयां देवी वसुंधरा / चातुराश्रम्यसंसृष्टास्ते सर्वे विदितास्तव // 31 दिशो भुजौ रविश्चक्षुर्वीर्ये शक्रः प्रतिष्ठितः // 7 चातुर्वेद्ये च ये प्रोक्ताश्चातुर्होत्रे च भारत / अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम् / सांख्ये योगे च नियता ये च धर्माः सनातनाः // 32 | वपुर्यनुमिमीमस्ते मेघस्येव सविद्युतः // 8 चातुर्वर्ण्यन यश्चैको धर्मो न स्म विरुध्यते / त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे। सेव्यमानः स चैवाद्यो गाङ्गेय विदितस्तव // 33 / यच्छेयः पुण्डरीकाक्ष तद्धयायस्व सुरोत्तम // 9 -2051 - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 51. 10] महाभारते [12. 52. 14 वासुदेव उवाच / यतः खलु परा भक्तिर्मयि ते पुरुषर्षभ / वैशंपायन उवाच / ततो वपुर्मया दिव्यं तव राजन्प्रदर्शितम् // 10 ततः कृष्णस्य तद्वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम् / न ह्यभक्ताय राजेन्द्र भक्तायानृजवे न च / | श्रुत्वा शांतनवो भीष्मः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः // 1 दर्शयाम्यहमात्मानं न चादान्ताय भारत // 11 लोकनाथ महाबाहो शिव नारायणाच्युत / भवांस्तु मम भक्तश्च नित्यं चार्जवमास्थितः / तव वाक्यमभिश्रुत्य हर्षेणास्मि परिप्लुतः / / 2 दमे तपसि सत्ये च दाने च निरतः शुचिः // 12 किं चाहमभिधास्यामि वाक्पते तव संनिधौ / अहंस्त्वं भीष्म मां द्रष्टुं तपसा स्वेन पार्थिव / यदा वाचोगतं सर्वं तव वाचि समाहितम् // 3 तव ह्युपस्थिता लोका येभ्यो नावर्तते पुनः // 13 यद्धि किंचित्कृतं लोके कर्तव्यं क्रियते च यत् / पञ्चाशतं षटु कुरुप्रवीर त्वत्तस्तन्निःसृतं देव लोका बुद्धिमया हि ते // 4 शेषं दिनानां तव जीवितस्य / कथयेद्देवलोकं यो देवराजसमीपतः / ततः शुभैः कर्मफलोदयस्त्वं धर्मकामार्थशास्त्राणां सोऽर्थान्वयात्तवाग्रतः // 5 समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम् / / 14 शराभिघाताद्व्यथितं मनो मे मधुसूदन / एते हि देवा वसवो विमाना- . गात्राणि चावसीदन्ति न च बुद्धिः प्रसीदति // 6 न्यास्थाय सर्वे ज्वलिताग्निकल्पाः / न च मे प्रतिभा काचिदस्ति किंचित्पभाषितुम् / अन्तर्हितास्त्वां प्रतिपालयन्ति पीड्यमानस्य गोविन्द विषानलसमैः शरैः / / 7 काष्ठां प्रपद्यन्तमुदक्पतंगम् // 15 बलं मेधा प्रजरति प्राणाः सत्वरयन्ति च / व्यावृत्तमात्रे भगवत्युदीची मर्माणि परितप्यन्ते भ्रान्तं चेतस्तथैव च // 8 . सूर्ये दिशं कालवशात्प्रपन्ने / दौर्बल्यात्सजते वाङ्मे स कथं वक्तुमुत्सहे / गन्तासि लोकान्पुरुषप्रवीर साधु मे वं प्रसीदस्व दाशार्ह कुलनन्दन // 9 नावर्तते यानुपलभ्य विद्वान् // 16 तत्क्षमस्व महाबाहो न बयां किंचिदच्युत / अमुं च लोकं त्वयि भीष्म याते त्वत्संनिधौ च सीदेत वाचस्पतिरपि ब्रुवन् / / 10 ज्ञानानि नङ्ख्यन्यखिलेन वीर / न दिशः संप्रजानामि नाकाशं न च मेदिनीम् / अतः स्म सर्वे त्वयि संनिकर्ष केवलं तव वीर्येण तिष्ठामि मधुसूदन // 11 समागता धर्मविवेचनाय // 17 स्वयमेव प्रभो तस्माद्धर्मराजस्य यद्धितम् / तज्ज्ञातिशोकोपहतश्रुताय तद्भवीह्याशु सर्वेषामागमानां त्वमागमः // 12 सत्याभिसंधाय युधिष्ठिराय। कथं त्वयि स्थिते लोके शाश्वते लोककर्तरि / प्रब्रूहि धर्मार्थसमाधियुक्त प्रबेयान्मद्विधः कश्चिद्गुरौ शिष्य इव स्थिते // 13 मयं वचोऽस्यापनुदास्य शोकम् // 18 वासुदेव उवाच। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः॥ / उपपन्नमिदं वाक्यं कौरवाणां धुरंधरे / -2052 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 52. 14 ] शान्तिपर्व [12. 53.3 महावीर्ये महासत्त्वे स्थिते सर्वार्थदर्शिनि // 14 / | ततस्ते धर्मनिरताः सम्यक्तैरभिपूजिताः। यच्च मामात्थ गाङ्गेय बाणघातरुजं प्रति / श्वः समेष्याम इत्युक्त्वा यथेष्टं त्वरिता ययुः // 29 गृहाणात्र वरं भीष्म मत्प्रसादकृतं विभो // 15 तथैवामय गाङ्गेयं केशवस्ते च पाण्डवाः / न ते ग्लानिन ते मूर्छा न दाहो न च ते रुजा। प्रदक्षिणमुपावृत्य रथानारुरुहुः शुभान् // 30 प्रभविष्यन्ति गाङ्गेय क्षुत्पिपासे न चाप्युत // 16 ततो रथैः काञ्चनदन्तकूबरैज्ञानानि च समप्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ / महीधराभैः समदैश्च दन्तिभिः / न च ते क्वचिदासक्तिर्बुद्धेः प्रादुर्भविष्यति // 17 हयैः सुपर्णैरिव चाशुगामिभिः / सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति / पदातिभिश्चात्तशरासनादिभिः // 31 रजस्तमोभ्यां रहितं घनैर्मुक्त इवोडुराट् // 18 ययौ रथानां पुरतो हि सा चमूयद्यच्च धर्मसंयुक्तमर्थयुक्तमथापि वा। स्तथैव पश्चादतिमात्रसारिणी / चिन्तयिष्यसि तत्राग्र्या बुद्धिस्तव भविष्यति // 19 पुरश्च पश्चाच्च यथा महानदी इमं च राजशार्दूल भूतग्रामं चतुर्विधम् / पुरझवन्तं गिरिमेत्य नर्मदा // 32 चक्षुर्दिव्यं समाश्रित्य द्रक्ष्यस्यमितविक्रम // 20 ततः पुरस्ताद्भगवानिशाकरः चतुर्विधं प्रजाजालं संयुक्तो ज्ञानचक्षुषा / समुत्थितस्तामभिहर्षयश्चमूम् / भीष्मं द्रक्ष्यसि तत्त्वेन जले मीन इवामले॥२१ दिवाकरापीतरसास्तथौषधीः वैशंपायन उवाच / पुनः स्वकेनैव गुणेन योजयन् // 33 ततस्ते व्याससहिताः सर्व एव महर्षयः / ततः पुरं सुरपुरसंनिभद्युति ऋग्यजुःसामसंयुक्तैर्वचोभिः कृष्णमर्चयन् // 22 प्रविश्य ते यदुवृषपाण्डवास्तदा / ततः सर्वार्तवं दिव्यं पुष्पवर्ष नभस्तलात् / यथोचितान्भवनवरान्समाविशपपात यत्र वार्ष्णेयः सगाङ्गेयः सपाण्डवः // 23 श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव // 34 वादित्राणि च दिव्यानि जगुश्चाप्सरसां गणाः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न चाहितमनिष्टं वा किंचित्तत्र व्यदृश्यत / / 24 द्विपञ्चाशोऽध्यायः // 52 // ववौ शिवः सुखो वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः। शान्तायां दिशि शान्ताश्च प्रावदन्मृगपक्षिणः // 25 वैशंपायन उवाच ततो मुहूर्ताद्भगवान्सहस्रांशुर्दिवाकरः। ततः प्रविश्य भवनं प्रसुप्तो मधुसूदनः / दहन्वनमिवैकान्ते प्रतीच्या प्रत्यहश्यत / / 26 याममात्रावशेषायां यामिन्यां प्रत्यबुध्यत // 1 ततो महर्षयः सर्वे समुत्थाय जनार्दनम् / स ध्यानपथमाश्रित्य सर्वज्ञानानि माधवः / मीष्ममामन्त्रयांचक्रू राजानं च युधिष्ठिरम् // 27 / अवलोक्य ततः पश्चाद्दध्यौ ब्रह्म सनातनम् // 2 ततः प्रणाममकरोत्केशवः पाण्डवस्तथा। ततः श्रुतिपुराणज्ञाः शिक्षिता रक्तकण्ठिनः / सात्यकिः संजयश्चैव स च शारद्वतः कृपः // 28 / अस्तुवन्विश्वकर्मा अस्तुवन्विश्वकर्माणं वासुदेवं प्रजापतिम् // 3 -2053 - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 53. 4] महाभारते [12. 54.3 पठन्ति पाणिस्वनिकास्तथा गायन्ति गायनाः / ततो युधिष्ठिरो राजा यमौ भीमार्जुनावपि / शङ्खानकमृदङ्गांश्च प्रवाद्यन्त सहस्रशः // 4 भूतानीव समस्तानि ययुः कृष्णनिवेशनम् // 18 वीणापणववेणूनां स्वनश्चातिमनोरमः / आगच्छत्स्वथ कृष्गोऽपि पाण्डवेषु महात्मसु / प्रहास इव विस्तीर्णः शुश्रुवे तस्य वेश्मनः / / 5 शैनेयसहितो धीमान्रथमेवान्वपद्यत / / 19 तथा युधिष्ठिरस्यापि राज्ञो मङ्गलसंहिताः / रथस्थाः संविदं कृत्वा सुखां पृष्ट्वा च शर्वरीम् / उच्चमधुरा वाचो गीतवादित्रसंहिताः // 6 मेघघोषै रथवरैः प्रययुस्ते महारथाः // 20 तत उत्थाय दाशाईः स्नातः प्राञ्जलिरच्युतः / मेघपुष्पं बलाहं च सैन्यं सुश्रीवमेव च / जप्त्वा गुह्यं महाबाहुरग्नीनाश्रित्य तस्थिवान् / / 7 दारुकश्चोदयामास वासुदेवस्य वाजिनः // 21 ततः सहस्रं विप्राणां चतुर्वेदविदां तथा / ते हया वासुदेवस्य दारुकेण प्रचोदिताः / गवां सहस्रेणैकैकं वाचयामास माधवः // 8 गां खुराप्रैस्तथा राजलॅलिखन्तः प्रययुस्तदा / / 22 मङ्गलालम्भनं कृत्वा आत्मानमवलोक्य च।। ते ग्रसन्त इवाकाशं वेगवन्तो महाबलाः / आदर्श विमले कृष्णस्ततः सात्यकिमब्रवीत् / / 9 / क्षेत्रं धर्मस्य कृत्स्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरन् / / 23 गच्छ शैनेय जानीहि गत्वा राजनिवेशनम् / ततो ययुर्यत्र भीष्मः शरतल्पगतः प्रभुः / अपि सज्जो महातेजा भीष्मं द्रष्टुं युधिष्ठिरः // 10 आस्ते ब्रह्मर्षिभिः साधं ब्रह्मा देवगणैर्यथा // 24 ततः कृष्णस्य वचनात्सात्यकिस्त्वरितो ययौ / ततोऽवतीर्य गोविन्दो रथात्स च युधिष्ठिरः / उपगम्य च राजानं युधिष्ठिरमुवाच ह // 11 भीमो गाण्डीवधन्वा च यमौ सात्यकिरेव च / युक्तो रथवरो राजन्वासुदेवस्य धीमतः / ऋषीनभ्यर्चयामासुः करानुद्यम्य दक्षिणान् / / 25 समीपमापगेयस्य प्रयास्यति जनार्दनः // 12 स तैः परिवृतो राजा नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः / भवत्प्रतीक्षः कृष्णोऽसौ धर्मराज महाद्यते / अभ्याजगाम गाङ्गेयं ब्रह्माणमिव वासवः // 26 यदत्रानन्तरं कृत्यं तद्भवान्कर्तुमर्हति // 13 शरतल्पे शयानं तमादित्यं पतितं यथा / युधिष्ठिर उवाच / ददर्श स महाबाहुर्भयादागतसाध्वसः // 27 युज्यतां मे रथवरः फल्गुनाप्रतिमद्युते।। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न सैनिकैश्च यातव्यं यास्यामो वयमेव हि // 14 / / त्रिपञ्चाशोऽध्यायः // 53 // न च पीडयितव्यो मे भीष्मो धर्मभृतां वरः।। अतः पुरःसराश्चापि निवर्तन्तु धनंजय // 15 जनमेजय उवाच / अद्यप्रभृति गाङ्गेयः परं गुह्यं प्रवक्ष्यति / | धर्मात्मनि महासत्त्वे सत्यसंधे जितात्मनि / ततो नेच्छामि कौन्तेय पृथग्जनसमागमम् // 16 / देवव्रते महाभागे शरतल्पगतेऽच्युते // 1 वैशंपायन उवाच / शयाने वीरशयने भीष्मे शंतनुनन्दने / तद्वाक्यमाकर्ण्य तथा कुन्तीपुत्रो धनंजयः। गाङ्गेये पुरुषव्याने पाण्डवैः पर्युपस्थिते // 2 युक्तं रथवरं तस्मा आचचक्षे नरर्षभ // 17 काः कथाः समवर्तन्त तस्मिन्वीरसमागमे / -2054 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 54. 3] शान्तिपर्व .. [ 12. 54. 30 हतेषु सर्वसैन्येषु तन्मे शंस महामुने // 3 भीष्म उवाच / वैशंपायन उवाच / दमो मोहः श्रमश्चैव क्लमो ग्लानिस्तथा रुजा / तव प्रसादाद्गोविन्द सद्यो व्यपगतानघ // 17 शरतल्पगते भीष्मे कौरवाणां धुरंधरे / यच्च भूतं भविष्यच्च भवच्च परमाते / आजग्मुर्ऋषयः सिद्धा नारदप्रमुखा नृप // 4 तत्सर्वमनुपश्यामि पाणौ फलमिवाहितम् / / 18 हतशिष्टाश्च राजामो युधिष्ठिरपुरोगमाः / वेदोक्ताश्चैव ये धर्मा वेदान्तनिहिताश्च ये। धृतराष्ट्रश्च कृष्णश्च भीमार्जुनयमास्तथा // 5 तान्सन्सिंप्रपश्यामि वरदानात्तवाच्युत // 19 तेऽभिगम्य महात्मानो भरतानां पितामहम् / शिष्टैश्च धर्मो यः प्रोक्तः स च मे हृदि वर्तते / अन्वशोचन्त गाङ्गेयमादित्यं पतितं यथा // 6 देशजातिकुलानां च धर्मज्ञोऽस्मि जनार्दन // 20 मुहूर्तमिव च ध्यात्वा नारदो देवदर्शनः / चतुर्वाश्रमधर्मेषु योऽर्थः स च हृदि स्थितः / उवाच पाण्डवान्सर्वान्हतशिष्टांश्च पार्थिवान् // 7 राजधर्माश्च सकलानवगच्छामि केशव // 21 प्राप्तकालं च आचक्षे भीष्मोऽयमनुयुज्यताम् / यत्र यत्र च वक्तव्यं तद्वक्ष्यामि जनार्दन / अस्तमेति हि गाङ्गेयो आनुमानिव भारत // 8 तव प्रसादाद्धि शुभा मनो मे बुद्धिराविशत् // 22 अयं प्राणानुत्सिसक्षुस्तं सर्वेऽभ्येत्य पृच्छत / युवेव चास्मि संवृत्तस्त्वदनुध्यानबृंहितः / कृत्स्नान्हि विविधान्धर्माश्चातुर्वर्ण्यस्य वेत्त्ययम् // 9 वक्तुं श्रेयः समर्थोऽस्मि त्वत्प्रसादाजनार्दन // 23 एष वृद्धः पुरा लोकान्संप्राप्तोति तनुत्यजाम् / / स्वयं किमर्थं तु भवाश्रेयो न प्राह पाण्डवम् / तं शीघ्रमनुयुञ्जध्वं संशयान्मनसि स्थितान् / / 10 किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव / / 24 एवमुक्ता नारदेन भीष्ममीयुनराधिपाः / वासुदेव उवाच / प्रष्टुं चाशक्नुवन्तस्ते वीक्षांचक्रुः परस्परम् // 11 यशसः श्रेयसश्चैव मूलं मां विद्धि कौरव / अथोवाच हृषीकेशं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः / मत्तः सर्वेऽभिनिर्वृत्ता भावाः सदसदात्मकाः // 25 नान्यस्त्वदेवकीपुत्र शक्तः प्रष्टुं पितामहम् // 12 शीतांशुश्चन्द्र इत्युक्ते को लोके विस्मयिष्यति / प्रव्याहरय दुर्धर्ष त्वमग्रे मधुसूदन / तथैव यशसा पूणे मयि को विस्मयिष्यति // 26 त्वं हि नस्तात सर्वेषां सर्वधर्मविदुत्तमः / / 13 आधेयं तु मया भूयो यशस्तव महायुते / एवमुक्तः पाण्डवेन भगवान्केशवस्तदा / ततो मे विपुला बुद्धिस्त्वयि भीष्म समाहिता॥२७ अभिगम्य दुराधर्षं प्रव्याहारयदच्युतः 14 यावद्धि पृथिवीपाल पृथिवी स्थास्यते ध्रुवा। वासुदेव उवाच / तावत्तवाक्षया कीर्तिर्लोकाननु चरिष्यति / / 28 कञ्चित्सुखेन रजनी व्युष्टा ते राजसत्तम / यच्च त्वं वक्ष्यसे भीष्म पाण्डवायानुपृच्छते / विस्पष्टलक्षणा बुद्धिः कच्चिच्चोपस्थिता तव / / 15 वेदप्रवादा इव ते स्थास्यन्ति वसुधातले / / 29 कञ्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रतिभान्ति च तेऽनघ / यश्चैतेन प्रमाणेन योक्ष्यत्यात्मानमात्मना / न ग्लायते च हृदयं न च ते व्याकुलं मनः // 16 / स फलं सर्वपुण्यानां प्रेत्य चानुभविष्यति // 30 -2055 - Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 54. 31] महाभारते [12. 55. 17 एतस्मात्कारणाद्भीष्म मतिर्दिव्या मया हि ते। यस्य नास्ति समः कश्चित्स मां पृच्छतु पाण्डवः // 4 दत्ता यशो विप्रथेत कथं भूयस्तवेति ह // 31 / / धृतिर्दमो ब्रह्मचर्य क्षमा धर्मश्च नित्यदा। यावद्धि प्रथते लोके पुरुषस्य यशो भुवि / यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः // 5 तावत्तस्याक्षयं स्थानं भवतीति विनिश्चितम् // 32 सत्यं दानं तपः शौचं शान्तिर्दाक्ष्यमसंभ्रमः। राजानो हतशिष्टास्त्वां राजन्नभित आसते / यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः // 6 धर्माननुयुयुक्षन्तस्तेभ्यः प्रब्रूहि भारत / / 33 यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात् / भवान्हि वयसा वृद्धः श्रुताचारसमन्वितः / कुर्यादधर्म धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः // . कुशलो राजधर्माणां पूर्वेषामपराश्च ये // 34 संबन्धिनोऽतिथीभृत्यान्संश्रितोपाश्रितांश्च यः। जन्मप्रभृति ते कश्चिद्वृजिनं न ददर्श ह / संमानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः॥ 8 ज्ञातारमनुधर्माणां त्वां विदुः सर्वपार्थिवाः // 35 / सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः / तेभ्यः पितेव पुत्रेभ्यो राजन्ब्रूहि परं नयम् / यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः // 9 ऋषयश्च हि देवाश्च त्वया नित्यमुपासिताः / / 36 इज्याध्ययननित्यश्च धर्मे च निरतः सदा / तस्माद्वक्तव्यमेवेह त्वया पश्याम्यशेषतः / / शान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः // 10 धर्माशुश्रूषमाणेभ्यः पृष्टेन च सता पुनः॥ 37 वासुदेव उवाच / वक्तव्यं विदुषा चेति धर्ममाहुर्मनीषिणः / लज्जया परयोपेतो धर्मात्मा स युधिष्ठिरः / अप्रतिब्रुवतः कष्टो दोषो हि भवति प्रभो // 38 अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति / / 11 तस्मात्पुत्रैश्च पौत्रैश्च धर्मान्पृष्टः सनातनान् / लोकस्य कदनं कृत्वा लोकनाथो विशां पते / विद्वाञ्जिज्ञासमानस्त्वं प्रबेहि भरतर्षभ / / 39 अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पूज्यान्मान्यांश्च भक्तांश्च गुरून्संबन्धिबान्धवान् / चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥ 54 // अर्ध्याह्ननिषुभिर्हत्वा भवन्तं नोपसर्पति // 13 . वैशंपायन उवाच / भीष्म उवाच / अथाब्रवीन्महातेजा वाक्यं कौरवनन्दनः / ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः / हन्त धर्मान्प्रवक्ष्यामि दृढे वाङ्मनसी मम / क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम् // 14 तव प्रसादाद्गोविन्द भूतात्मा ह्यसि शाश्वतः // 1 पितृन्पितामहान्पुत्रान्गुरून्संबन्धिंबान्धवान् / / युधिष्ठिरस्तु मां राजा धर्मान्समनुपृच्छतु / मिथ्याप्रवृत्तान्यः संख्ये निहन्याद्धर्म एव सः॥ 15 एवं प्रीतो भविष्यामि धर्मान्वक्ष्यामि चानघ / 2 समयत्यागिनो लुब्धान्गुरूनपि च केशव / यस्मिन्राजर्षभे जाते धर्मात्मनि महात्मनि / निहन्ति समरे पापान्क्षत्रियो यः स धर्मवित् // 16 अहृष्यन्नषयः सर्वे स मां पृच्छतु पाण्डवः / / 3 आहूतेन रणे नित्यं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना / सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम् / धयं स्वयं च लोक्यं च युद्धं हि मनुरब्रवीत् // 17 -2056 - Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 55. 18] शान्तिपर्व [12. 56. 24 वैशंपायन उवाच / भीष्म उवाच। एवमुक्तस्तु भीष्मेण धर्मराजो युधिष्ठिरः।। नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे / विनीतवदुपागम्य तस्थौ संदर्शनेऽग्रतः // 18 ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान्॥१० शृणु कात्स्न्येन मत्तस्त्वं राजधर्मान्युधिष्ठिर। अथास्य पादौ जग्राह भीष्मश्चाभिननन्द तम् / मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय निषीदेत्यब्रवीत्तदा // 19 निरुच्यमानान्नियतो यच्चान्यदभिवाञ्छसि // 11 तमुवाचाथ गाङ्गेय ऋषभः सर्वधन्विनाम् / आदावेव कुरुश्रेष्ठ राज्ञा रञ्जनकाम्यया। पृच्छ मां तात विस्रब्धं मा भैरत्वं कुरुसत्तम // 20 देवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथाविधि // 12 दैवतान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणांश्च कुरूद्वह / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आनृण्यं याति धर्मस्य लोकेन च स मान्यते // 13 पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // उत्थाने च सदा पुत्र प्रयतेथा युधिष्ठिर / न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थप्रसिद्धये // 14 वैशंपायन उवाच / साधारणं द्वयं ह्येतदैवमुत्थानमेव च / प्रणिपत्य हृषीकेशमभिवाद्य पितामहम् / पौरुषं हि परं मन्ये दैवं निश्चित्यमुच्यते // 15 अनुमान्य गुरून्सर्वान्पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः / / 1 विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथाः। राज्यं वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः / घटते विनयस्तात राज्ञामेष नयः परः // 16 महान्तमेतं भारं च मन्ये तद्भूहि पार्थिव // 2 न हि सत्याहते किंचिद्राज्ञां वै सिद्धिकारणम् / राजधर्मान्विशेषेण कथयस्व पितामह / सत्ये हि राजा निरतः प्रेत्य चेह हि नन्दति // 17 सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्माः परायणम् / 3 ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम् / त्रिवर्गोऽत्र समासक्तो राजधर्मेषु कौरव / तथा राज्ञः परं सत्यान्नान्यद्विश्वासकारणम् // 18 मोक्षधर्मश्च विस्पष्टः सकलोऽत्र समाहितः // 4 गुणवाशीलवान्दान्तो मृदुर्धर्यो जितेन्द्रियः / यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कशो यथा। सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः॥१९ नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम् // 5 आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन / अत्र वै संप्रमूढे तु धर्मे राजर्षिसेविते / पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च // 20 लोकस्य संस्था न भवेत्सर्वं च व्याकुलं भवेत् // 6 मृदुर्हि राजा सततं लङ्घयो भवति सर्वशः / उदयन्हि यथा सूर्यो नाशयत्यासुरं तमः / तीक्ष्णाचोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचर // 21 राजधर्मास्तथालोक्यामाक्षिपन्त्यशुभां गतिम् // 7 अदण्ड्याश्चैव ते नित्यं विप्राः स्युर्ददतां वर / उदने राजधर्माणामर्थतत्त्वं पितामह / भूतमेतत्परं लोके ब्राह्मणा नाम भारत // 22 प्रवहि भरतश्रेष्ठ त्वं हि बुद्धिमतां वरः // 8 मनुना चापि राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना / आगमश्च परस्त्वत्तः सर्वेषां नः परंतपः / धर्मेषु स्वेषु कौरव्य हृदि तौ कर्तुमर्हसि // 23 भवन्तं हि परं बुद्धौ वासुदेवोऽभिमन्यते // 9 / अद्भयोऽग्निब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् / 5. भा. 258 - 2057 - Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 56. 24 ] महाभारते [ 12. 56. 54 तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति // 24 / हस्तियन्ता गजस्येव शिर एवारुरुक्षति / / 39 अयो हन्ति यदाश्मानमग्निश्चापोऽभिपद्यते। तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो वापि भवेन्नपः / ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रयः // 25 वसन्तेऽर्क इत्र श्रीमान शीतो न च घर्गदः / / 40 एतज्ज्ञात्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजाः। प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्योपदेशतः / भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति शमान्विताः // 26 परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव सर्वदा // 41 एवं चैव नरव्याघ्र लोकतन्त्रविघातकाः। व्यसनानि च सर्वाणि त्यजेथा भूरिदक्षिण / निग्राह्या एव सततं बाहभ्यां ये स्यरीहशाः // 27 न चैव न प्रयुञ्जीत सङ्गं तु परिवर्जयेत् / / 42 श्लोकौ चोशनसा गीतौ पुरा तात महर्षिणा / नित्यं हि व्यसनी लोके परिभूतो भवत्युत / तौ निबोध महाप्राज्ञ त्वमेकाग्रमना नृप // 28 उद्वेजयति लोकं चाप्यतिद्वेषी महीपतिः / / 43 उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे। भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहधर्मिणा / निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नरेश्वरः // 29 कारणं च महाराज शृणु येनेदमिष्यते // 44 विनश्यमानं धर्म हि यो रक्षति स धर्मवित् / यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम् / न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमृच्छति // 30 गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाप्यसंशयम् // 45 एवं चैव नरश्रेष्ठ रक्ष्या एव द्विजातयः / वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ नित्यं धर्मानुवर्तिना। . स्वपराद्धानपि हि तान्विषयान्ते समुत्सृजेत् // 31 स्वं प्रियं समभित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत् // 46 अभिशस्तमपि ह्येषां कृपायीत विशां पते / न संत्याज्यं च ते धैर्य कदाचिदपि पाण्डव / ब्रह्मन्ने गुरुतल्पे च भ्रूणहत्ये तथैव च // 32 धीरस्य स्पष्टदण्डस्य न ह्याज्ञा प्रतिहन्यते // 47 राजद्विष्टे च विप्रस्य विषयान्ते विसर्जनम् / परिहासश्च भृत्यैस्ते न नित्यं वदतां वर / विधीयते न शारीरं भयमेषां कदाचन // 33 कर्तव्यो राजशार्दूल दोषमत्र हि मे शृणु / / 48 दयिताश्च नरास्ते स्युर्नित्यं पुरुषसत्तम / अवमन्यन्ति भर्तारं संहर्षा दुपजीविनः / न कोशः परमो ह्यन्यो राज्ञां पुरुषसंचयात् // 34 स्वे स्थाने न च तिष्ठन्ति लङ्घयन्ति हि तद्वचः॥४॥ दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः / प्रेष्यमाणा विकल्पन्ते गुह्यं चाप्यनुयुञ्जते / सर्वेषु तेषु मन्यन्ते नरदुर्ग सुदुस्तरम् // 35 अयाच्यं चैव याचन्तेऽभोज्यान्याहारयन्ति च / / 50 तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्य विपश्चिता / क्रुध्यन्ति परिदीप्यन्ति भूमिमध्यासतेऽस्य च / धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः॥३६ उत्कोचैर्वश्चनाभिश्च कार्याण्यनुविहन्ति च // 51 न च क्षान्तेन ते भाव्यं नित्यं पुरुषसत्तम। जर्जरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिरूपकैः / अधर्यो हि मृदू राजा क्षमावानिव कुञ्जरः / / 37 स्त्रीरक्षिभिश्च सज्जन्ते तुल्यवेषा भवन्ति च // 52 बार्हस्पत्ये च शास्त्रे वै श्लोका विनियताः पुरा।। वातं च ष्ठीवनं चैव कुर्वते चास्य संनिधौ / अस्मिन्नर्थे महाराज तन्मे निगदतः शृणु // 38 निर्लज्जा नरशार्दूल व्याहरन्ति च तद्वचः / / 53 क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेजनः / हयं वा दन्तिनं वापि रथं नृपतिसंमतम् / - 2058 - Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 56 54] शान्तिपर्व [ 12. 57. 21 अधिरोहन्त्यनादृत्य हर्षले पार्थिवे मृदौ / / 54 राज्याधिकारे राजेन्द्र बृहस्पतिमतः पुरा // 6 इदं ते दुष्करं राजन्निदं ते दुर्विचेष्टितम् / गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः / इत्येवं सुहदो नाम ब्रवन्ति परिषद्गताः / 55 उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते // 7 क्रुद्धे चास्मिन्हसन्त्येव न च हृष्यन्ति पूजिताः / बाहोः पुत्रेण राज्ञा च सगरेणेह धीमता। संघर्षशीलाश्च सदा भवन्त्यन्योन्यकारणात् // 56 असमञ्जाः सुतो ज्येष्ठस्यक्तः पौरहितैषिणा // 8 विस्रंसयन्ति मनं च विवृण्वन्ति च दुष्कृतम् / असमञ्जाः सरय्वां प्राक्पौराणां बालकान्नप। लीलया चैव कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्य शासनम् / न्यमन्जयदतः पित्रा निर्भत्स्य स विवासितः // 9 अलंकरणभोज्यं च तथा स्नानानुलेपनम् // 57 ऋषिणोद्दालकेनापि श्वेतकेतुर्महातपाः / हेलमाना नरव्याघ्र स्वस्थास्तस्योपशृण्यते / मिथ्या विधानुपचरन्संत्यक्तो दयितः सुतः // 10 निन्दन्ति स्वानधीकारान्संत्यजन्ति च भारत // 58 लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः / न वृत्त्या परितुष्यन्ति राजदेयं. हरन्ति च / सत्यस्य रक्षणं चैव व्यवहारस्य चार्जवम् // 11 क्रीडितुं तेन चेच्छन्ति ससूत्रेणेव पक्षिणा / न हिंस्यात्परवित्तानि देयं काले च दापयेत् / अस्मत्प्रणेयो राजेति लोके वैव बदन्त्युत // 59 विक्रान्तः सत्यवाक्क्षान्तो नृपो न चलते पथः // 12 एते चैवापरे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत / गुप्तमन्त्रो जितक्रोधो शास्त्रार्थगतनिश्चयः / नृपतौ मार्दवोपेते हर्पले च युधिष्ठिर / / 60 धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च सततं रतः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वगि त्रय्या संवृतरन्ध्रश्च राजा भवितुमर्हति / षट्पञ्चाशोऽध्यायः // 56 // वृजिनस्य नरेन्द्राणां नान्यत्संवरणात्परम् // 14 चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता। भीम उवाच / धर्मसंकररक्षा हि राज्ञां धर्मः सनातनः // 15 नित्योयुक्तेन वे राज्ञा भवितव्यं युधिष्ठिर / न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं न विश्वसेत् / प्रशाम्यते च राजा हि नारीवोधमवर्जितः // 1 षामुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्ध्यावलोकयेत् // 16 भगवानुशना चाह लोकमत्र विशां पते / द्विछिद्रदर्शी नृपतिनित्यमेव प्रशस्यते / तमिहैकमना राजन्गदतस्त्वं निबोध मे // 2 त्रिवर्गविदितार्थश्च युक्तचारोपधिश्च यः // 17 द्वावेतौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव / / कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः / राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् / / 3 वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः // 18 तदेतन्नरशार्दूल हृदि त्वं कर्तुमर्हसि / अभृतानां भवेद्भर्ता भृतानां चान्ववेक्षकः / संधेयानपि संधत्स्व विरोध्यांश्च विरोधय // 4 / नृपतिः सुमुखश्च स्यास्मितपूर्वाभिभाषिता॥ 19 सप्ताङ्गे यश्च ते राज्ये वैपरीत्यं समाचरेत् / उपासिता च वृद्धानां जिततन्द्रीरलोलुपः / गुरुर्वा यदि वा भित्रं प्रतिहन्तव्य एव सः // 5 / सतां वृत्ते स्थितमतिः सन्तो ह्याचारदर्शिनः / / 20 मरुत्तेन हि राज्ञायं गीतः श्लोकः पुरातनः। न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात्कदाचन / - 2059 -- 57 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 57. 21] महाभारते [12. 58.4 असद्भयस्तु समादद्यात्सद्भयः संप्रतिपादयेत्॥ 21 विषये दानरुचयो नरा यस्य स पार्थिवः / / 36 स्वयं प्रहर्तादाता च वश्यात्मा वश्यसाधनः। न यस्य कूटकपटं न माया न च मत्सरः / काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च // 22 / विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मः सनातनः // 37 शूरान्भक्तानसंहार्यान्कुले जातानरोगिणः / यः सत्करोति ज्ञानानि नेयः पौरहिते रतः / शिष्टाशिष्टाभिसंबन्धान्मानिनो नावमानिनः // 23 / सतां धर्मानुगस्त्यागी स राजा राज्यमर्हति / / 38 विद्याविदो लोकविदः परलोकान्ववेक्षकान् / यस्य चारश्च मन्त्रश्च नित्यं चैव कृताकृते / धर्मेषु निरतान्साधूनचलानचलानिव // 24 न ज्ञायते हि रिपुभिः स राजा राज्यमर्हति // 39 सहायान्सततं कुर्याद्राजा भूतिपुरस्कृतः / श्लोकश्चायं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना / तैस्तुल्यश्च भवेद्भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाधिकः // 25 आख्याते रामचरिते नृपतिं प्रति भारत / / 40 प्रत्यक्षा च परोक्षा च वृत्तिश्चास्य भवेत्सदा। राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्यां ततो धनम् / एवं कृत्वा नरेन्द्रो हि न खेदमिह विन्दति / / 26 राजन्यसति लोकस्य कुतो भाया कुतो धनम् / / 41 सर्वातिशङ्की नृपतिर्यश्च सर्वहरो भवेत् / / तद्राजनराजसिंहानां नान्यो धर्मः सनातनः / स क्षिप्रमनृजुर्लुब्धः स्वजनेनैव बाध्यते // 27 ऋते रक्षा सुविस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारणम् // 42 शुचिस्तु पृथिवीपालो लोकचित्तग्रहे रतः / प्राचेतसेन मनुना श्लोकी चेमावुदाहृतौं / न पतत्यरिभिर्ग्रस्त: पतितश्चावतिष्ठते // 28 राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाः शृणु / / 43 अक्रोधनोऽथाव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः / षडेतान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे / / राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव // 29 अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् // 44 प्राज्ञो न्यायगुणोपेतः पररन्ध्रेषु तत्परः / अरक्षितारं राजानं भायर्यां चाप्रियवादिनीम् / सुदर्शः सर्ववर्णानां नयापनयवित्तथा // 30 प्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम् / / 45 क्षिप्रकारी जितक्रोधः सुप्रसादो महामनाः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अरोगप्रकृतियुक्तः क्रियावानविकत्थनः // 31 सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // आरब्धान्येव कार्याणि न पर्यवसितानि च / यस्य राज्ञः प्रदृश्यन्ते स राजा राजसत्तमः / / 32 भीष्म उवाच / पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः / एतत्ते राजधर्माणां नवनीतं युधिष्ठिर / निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः / / 33 बृहस्पतिर्हि भगवान्नान्यं धर्म प्रशंसति // 1 अगूढविभवा यस्य पौरा राष्ट्रनिवासिनः / विशालाक्षश्च भगवान्काव्यश्चैव महातपाः / नयापनयवेत्तारः स राजा राजसत्तमः // 34 सहस्राक्षो महेन्द्रश्च तथा प्राचेतसो मनुः / / 2 स्वकर्मनिरता यस्य जना विषयवासिनः / भरद्वाजश्च भगवांस्तथा गौरशिरा मुनिः / असंघातरता दान्ताः पाल्यमाना यथाविधि / / 35 / राजशास्त्रप्रणेतारो ब्रह्मण्या ब्रह्मवादिनः // 3 वश्या नेया विनीताश्च न च संघर्षशीलिनः। / रक्षामेव प्रशंसन्ति धर्मं धर्मभृतां वर / -2060 - Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 58. 4] शान्तिपर्व [12. 58. 30 राज्ञां राजीवताम्राक्ष साधनं चात्र वै शृणु / / 4 हृदि यच्चास्य जिह्म स्यात्कारणार्थं च यद्भवेत्॥१९ चारश्च प्रणिधिश्चैव काले दानममत्सरः / यच्चास्य कार्यं वृजिनमार्जवेनैव धार्यते / युक्त्यादानं न चादानमयोगेन युधिष्ठिर // 5 दम्भनार्थाय लोकस्य धर्मिष्ठामाचरेस्क्रियाम् // 20 सतां संग्रहणं शौर्य दाक्ष्यं सत्यं प्रजाहितम् / राज्यं हि सुमहत्तत्रं दुर्धार्यमकृतात्मभिः / अनार्जवैराजवैश्च शत्रुपक्षस्य भेदनम् // 6 न शक्यं मृदुना वोढुमाघातस्थानमुत्तमम् / / 21 साधूनामपरित्यागः कुलीनानां च धारणम् / राज्यं सर्वामिषं नित्यमार्ज वेनेह धार्यते / निचयश्च निचेयानां सेवा बुद्धिमतामपि // 7 तस्मान्मिश्रेण सततं वर्तितव्यं युधिष्ठिर // 22 बलानां हर्षणं नित्यं प्रजानामन्यवेक्षणम् / यद्यप्यस्य विपत्तिः स्याद्रक्षमाणस्य वै प्रजाः / कार्येष्वखेदः कोशस्य तथैव च विवर्धनम् // 8 सोऽप्यस्य विपुलो धर्म एवंवृत्ता हि भूमिपाः // 23 पुरगुप्तिरविश्वासः पौरसंघातभेदनम् / एष ते राजधर्माणां लेशः समनुवर्णितः / केतनानां च जीर्णानामवेक्षा चैव सीदताम् / / 9 भूयस्ते यत्र संदेहस्तब्रूहि वदतां वर // 24 द्विविधस्य च दण्डस्य प्रयोगः कालचोदितः / वैशंपायन उवाच / अरिमध्यस्थमित्राणां यथानच्चान्ववेक्षणम् / / 10 ततो व्यासश्च भगवान्देवस्थानोऽश्मना सह / उपजापश्च भृत्यानामात्मनः परदर्शनात् / वासुदेवः कृपश्चैव सात्यकिः संजयस्तथा // 25 अविश्वासः स्वयं चैव परस्याश्वासनं तथा // 11 / साधु साध्विति संहृष्टाः पुष्यमाणैरिवाननैः / / नीतिधर्मानुसरणं नित्यमुत्थानमेव च / अस्तुवंस्ते नरव्याघ्र भीष्मं धर्मभृतां वरम् // 26 रिपूणामनवज्ञानं नित्यं चानार्यवर्जनम् // 12 / ततो दीनमना भीष्ममुवाच कुरुसत्तमः / उत्थानं हि नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभाषत / नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पादौ तस्य शनैः स्पृशन्॥२७ राजधर्मस्य यन्मूलं श्लोकांश्चात्र निबोध मे / / 13 / श्व इदानीं स्वसंदेहं प्रक्ष्यामि त्वा पितामह / उत्थानेनामृतं लब्धमुत्थानेनासुरा हताः। उपैति सविताप्यस्तं रसमापीय पार्थिवम् // 28 उत्थानेन महेन्द्रेण श्रेष्ठयं प्राप्तं दिवीह च // 14 ततो द्विजातीनभिवाद्य केशवः उत्थानधीरः पुरुषो वाग्धीरानधितिष्ठति / कृपश्च ते चैव युधिष्ठिरादयः / उत्थानधीरं वाग्धीरा रमयन्त उपासते // 15 प्रदक्षिणीकृत्य महानदीसुतं उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि नित्यशः / ___ ततो रथानारुरहुर्मुदा युताः // 29 धर्षणीयो रिपूणां स्याद्भुजंग इव निर्विषः / / 16 दृषद्वतीं चाप्यवगाह्य सुवताः न च शत्रुरवज्ञेयो दुर्बलोऽपि बलीयसा / कृतोदकार्याः कृतजप्यमङ्गलाः / अल्पोऽपि हि दहत्यग्निर्विषमल्पं हिनस्ति च // 17 उपास्य संध्यां विधिवत्परंतपाएकाश्वेनापि संभूतः शत्रुर्दुर्गसमाश्रितः / स्ततः पुरं ते विविशुर्गजाह्वयम् // 30 तं तं तापयते देशमपि राज्ञः समृद्धिनः // 18 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राज्ञो रहस्यं यद्वाक्यं जयार्थं लोकसंग्रहः / अष्टपञ्चाशोऽध्यायः // 58 // - 2061 - Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 59.1] महाभारते [12. 59. 29 धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति च परस्परम् // 14 वैशंपायन उवाच / पालयानास्तथान्योन्यं नरा धर्मेण भारत / ततः काल्यं समुत्थाय कृतपौर्वाहिकक्रियाः / खेदं परममाजग्मुस्ततस्तान्मोह आविशत् // 15 ययुस्ते नगराकारै रथैः पाण्डवयादवाः // 1 ते मोहवशमापन्ना मानवा मनुजर्षभ / प्रपद्य च कुरुक्षेत्रं भीष्ममासाद्य चानघम् / प्रतिपत्तिविमोहाच धर्मस्तेषामनीनशत् / / 16 सुखां च रजनी पृष्ट्वा गाङ्गेयं रथिनां वरम् / / 2 नष्टायां प्रतिपत्तौ तु मोहवश्या नरास्तदा / व्यासादीनभिवायन्सर्वैस्तैश्चाभिनन्दिताः / लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भारतसत्तम // 17 निषेदुरभितो भीष्मं परिवार्य समन्ततः / / 3 अप्राप्तस्याभिमशं तु कुर्वन्तो मनुजास्ततः / ततो राजा महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः / कामो नामापरस्तत्र समपद्यत वै प्रभो // 18 अब्रवीत्पाञ्जलिर्भीष्मं प्रतिपूज्याभिवाद्य च // 4 तांस्तु कामवशं प्राप्तारागो नाम समस्पृशत् / य एष राजा-राजेति शब्दश्चरति भारत / रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्य युधिष्ठिर // 19 कथमेष समुत्पन्नस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 5 अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च / . तुल्यपाणिशिरोग्रीवस्तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मकः / भक्ष्याभक्ष्यं च राजेन्द्र दोषादोषं च नात्यजन्॥२० तुल्यदुःखसुखात्मा च तुल्यपृष्ठभुजोदरः 6 विप्लुते नरलोकेऽस्मिंस्ततो ब्रह्म ननाश ह / तुल्यशुक्रास्थिमजश्च तुल्यमांसासृगेव च / नाशाच्च ब्रह्मणो राजन्धर्मो नाशमथागमत् / / 21 निःश्वासोच्छ्रासतुल्यश्च तुल्यप्राणशरीरवान् // 7 / नष्टे ब्रह्मणि धर्मे च देवाखासमथागमन् / समानजन्ममरणः समः सर्वगुणैर्नृणाम् / ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययुः // 22 विशिष्टबुद्धीशूरांश्च कथमेकोऽधितिष्ठति // 8 प्रपद्य भगवन्तं ते देवा लोकपितामहम् / कथमेको महीं कृत्स्नां वीरशूरार्यसंकुलाम् / ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे दुःखशोकभयार्दिताः // 23 रक्षत्यपि च लोकोऽस्य प्रसादमभिवाञ्छति / / 9 भगवन्नरलोकस्थं नष्टं ब्रह्म सनातनम् / एकस्य च प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति / लोभमोहादिभि वैस्ततो नो भयमाविशत् // 25 व्याकुलेसाकुलः सजा भवतीति विनिश्चयः // 18 ब्रह्मणश्च प्रणाशेन धर्मोऽप्यनशदीश्वर / एतदिच्छाम्यहं सर्व तत्त्वेन भरतर्षभ / / ततः स्म समतां याता मत्यैत्रिभुवनेश्वर // 25 श्रोतुं तन्मे यथातत्त्वं प्रब्रूहि वदतां वर // 11 अधो हि वर्षमस्माकं मास्तूलप्रवर्षिणः। नैतत्कारणमल्यं हि भविष्यति विशां पते / क्रियाव्युपरमात्तेषां ततोऽगच्छामः संशयम् // 25 यदेकस्मिञ्जगत्सर्वं देववद्याति संनतिम् // 12 अत्र निःश्रेयसं यन्नस्तद्ध्यायख पितामह / भीष्म उवाच / त्वत्प्रभावसमुत्थोऽसौ प्रभावो नो विनश्यति // 27 नियतस्त्वं नरश्रेष्ठ शृणु सर्वमशेषतः / तानुवाच सुरान्सर्वान्स्वयंभूभंगवांस्ततः / यथा राज्यं समुत्पन्नमादी कृतयुगेऽभवत् // 13 / श्रेयोऽहं चिन्तयिष्यामि व्येतु वो भीः सुरर्षभाः।।२८ नैव राज्यं न राजासीन दण्डो न च दण्डिकः। / ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम् / / - 2062 - Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 59. 29] शान्तिपर्व [12. 59.59 यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवानुवर्णितः // 29 आत्मरक्षणमाश्वासः स्पशानां चान्यवेक्षणम् // 44 त्रिवर्ग इति विख्यातो गण एष स्वयंभुवा / कल्पना विविधाश्चापि नृनागरथवाजिनाम् / चतुर्थो मोक्ष इत्येव पृथगर्थः पृथग्गणः / / 30 व्यूहाश्च विविधाभिख्या विचित्रं युद्धकौशलम् // मोक्षस्यापि त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सत्त्वं रजस्तमः / उत्पाताश्च निपाताश्च सुयुद्धं सुपलायनम् / स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः // 31 शस्त्राणां पायनज्ञानं तथैव भरतर्षभ / 46 आत्मा देशश्च कालश्चाप्युपायाः कृत्यमेव च / बलव्यसनमुक्तं च तथैव बलहर्षणम् / सहायाः कारणं चैव षड्वर्गो नीतिजः स्मृतः // 32 पीडनास्कन्दकालश्च भयकालश्च पाण्डव // 47 त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ / तथा खातविधानं च योगसंचार एव च। दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः / / 33 चौराटव्यबलैश्चोग्रैः परराष्ट्रस्य पीडनम् // 48 अमात्यरक्षाप्रणिधी राजपुत्रस्य रक्षणम् / अग्निदैगरदैश्चैव प्रतिरूपकचारकैः / चारश्च विविधोपायः प्रणिधिश्च पृथग्विधः // 34 श्रेणिमुख्योपजापेन वीरुधश्छेदनेन च // 49 साम चोपप्रदानं च भेदो दण्डश्च पाण्डव / दूषणेन च नागानामाशङ्काजननेन च / / उपेक्षा पश्चमी चात्र कालन्येन समुदाहृता // 35 | आरोधनेन भक्तस्य पथश्चोपार्जनेन च / / 50 मन्त्रश्च वर्णितः कृत्स्नस्तथा भेदार्थ एव च / सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य ह्रासवृद्धिसमञ्जसम् / विभ्रंशश्चैव मन्त्रस्य सिद्ध्यसिद्ध्योश्च यत्फलम् / / 36 दूतसामर्थ्ययोगश्च राष्ट्रस्य च विवर्धनम् // 51 संधिश्च विविधाभिख्यो हीनो मध्यस्तथोत्तमः / अरिमध्यस्थमित्राणां सम्यक्चोक्तं प्रपञ्चनम् / भयसत्कारवित्ताख्यः कात्न्येन परिवर्णितः // 37 अवमर्दः प्रतीघातस्तथैव च बलीयसाम् // 52 यात्राकालाश्च चत्वारस्त्रिवर्गस्य च विस्तरः / व्यवहारः सुसूक्ष्मश्च तथा कण्टकशोधनम् / विजयो धर्मयुक्तश्च तथार्थविजयश्च ह // 38 शमो व्यायामयोगश्च योगो द्रव्यस्य संचयः // 53 भासुरश्चैव विजयस्तथा कार्येन वर्णितः / अभृतानां च भरणं भृतानां चान्ववेक्षणम् / लक्षणं पञ्चवर्गस्य त्रिविधं चात्र वर्णितम् / / 39 अर्थकाले प्रदानं च ब्यसनेष्वप्रसङ्गिता // 54 प्रकाशश्चाप्रकाशश्च दण्डोऽथ परिशब्दितः / / तथा राजगुणाश्चैव सेनापतिगुणाश्च ये। प्रकाशोऽष्टविधस्तत्र गुह्यस्तु बहुविस्तरः // 40 कारणस्य च कर्तुश्च गुणदोषास्तथैव च // 55 रथा नागा हयाश्चैव पादाताश्चैव पाण्डव / दुष्टेङ्गितं च विविधं वृत्तिश्चैवानुजीविनाम् / विष्टि वश्चराश्चैव देशिकाः पथि चाष्टकम् / / 41 / शङ्कितत्वं च सर्वस्य प्रमादस्य च वर्जनम् // 56 अङ्गान्येतानि कौरव्य प्रकाशानि बलस्य तु। अलब्धलिप्सा लब्धस्य तथैव च विवर्धनम् / जङ्गमाजङ्गमाश्चोक्ताञ्चूर्णयोगा विषादयः // 42 / प्रदानं च विवृद्धस्य पात्रेभ्यो विधिवत्तथा // 57 स्पर्शे चाभ्यवहार्ये चाप्युपांशुविविधः स्मृतः / विसर्गोऽर्थस्य धर्मार्थमार्थं कामहेतुना / अरिमित्रमुदासीन इत्येतेऽप्यनुवर्णिताः / / 43 चतुर्थो व्यसनाघाते तथैवात्रानुवर्णितः / / 58 कृत्स्ना मार्गगुणाश्चैव तथा भूमिगुणाश्च ह / | क्रोधजानि तथोप्राणि कामजानि तथैव च / -2063 - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 59. 59 ] महाभारते [ 12. 59. 89 दशोक्तानि कुरुश्रेष्ठ व्यसनान्यत्र चैव ह // 59 / तत्सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽनुवर्णितम् // 74 मृगयाक्षास्तथा पानं स्त्रियश्च भरतर्षभ / एतत्कृत्वा शुभं शास्त्रं ततः स भगवान्प्रभुः / कामजान्याहुराचार्याः प्रोक्तानीह स्वयंभुवा // 60 देवानुवाच संहृष्टः सर्वाञ्शक्रपुरोगमान् // 75 वाक्पारुष्यं तथोग्रत्वं दण्डपारुष्यमेव च / उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च। आत्मनो निग्रहस्त्यागोऽथार्थदूषणमेव च // 61 नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषा प्रभाविता // 76 यत्राणि विविधान्येव क्रियास्तेषां च वर्णिताः / दण्डेन सहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका / अवमर्दः प्रतीघातः केतनानां च भञ्जनम् // 62 निग्रहानुग्रहरता लोकाननु चरिष्यति // 77 चैत्यद्रुमाणामामर्दो रोधःकर्मान्तनाशनम् / दण्डेन नीयते चेयं दण्डं नयति चाप्युत / अपस्करोऽथ गमनं तथोपास्या च वर्णिता // 63 दण्डनीतिरिति प्रोक्ता त्रील्लोकाननुवर्तते // 78 पणवानकशङ्खानां भेरीणां च युधां वर / षाङ्गुण्यगुणसारैषा स्थास्यत्यग्रे महात्मसु / उपार्जनं च द्रव्याणां परमर्म च तानि षट् // 64 महत्त्वात्तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा / / 79 . लब्धस्य च प्रशमनं सतां चैव हि पूजनम् / नयचारश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम् / विद्वद्भिरेकीभावश्च प्रातमविधिज्ञता / / 65 आगमश्च पुराणानां महर्षीणां च संभवः // 80 मङ्गलालम्भनं चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया। तीर्थवंशश्च वंशश्च नक्षत्राणां युधिष्ठिर। आहारयोजनं चैव नित्यमास्तिक्यमेव च / / 66 / सकलं चातुराश्रम्यं चातुर्होत्रं तथैव च // 81. एकेन च यथोत्थेयं सत्यत्वं मधुरा गिरः / चातुर्वयं तथैवात्र चातुर्वेद्यं च वर्णितम् / उत्सवानां समाजानां क्रियाः केतनजास्तथा // 67 इतिहासोपवेदाश्च न्यायः कृत्स्नश्च वर्णितः // 82 प्रत्यक्षा च परोक्षा च सर्वाधिकरणेषु च / तपो ज्ञानमहिंसा च सत्यासत्ये नयः परः। वृत्तिर्भरतशार्दूल नित्यं चैवान्यवेक्षणम् / / 68 वृद्धोपसेवा दानं च शौचमुत्थानमेव च // 83 अदण्ड्यत्वं च विप्राणां युक्त्या दण्डनिपातनम् / सर्वभूतानुकम्पा च सर्वमत्रोपवर्णितम् / अनुजीविस्वजातिभ्यो गुणेषु परिरक्षणम् // 69 भुवि वाचोगतं यच्च तच्च सर्व समर्पितम् / / 84 रक्षणं चैव पौराणां स्वराष्ट्रस्य विवर्धनम् / / तस्मिन्पैतामहे शास्त्रे पाण्डवैतदसंशयम् / मण्डलस्था च या चिन्ता राजन्द्वादशराजिका॥७० धर्मार्थकाममोक्षाश्च सकला ह्यत्र शब्दिताः // 85 द्वासप्ततिमतिश्चैव प्रोक्ता या च स्वयंभुवा / ततस्तां भगवान्नीतिं पूर्वं जग्राह शंकरः / देशजातिकुलानां च धर्माः समनुवर्णिताः // 71 बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः // 86 धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चात्रानुवर्णितः। युगानामायुषो ह्रासं विज्ञाय भगवाशिवः / उपायश्चार्थलिप्सा च विविधा भूरिदक्षिणाः / / 72 | संचिक्षेप ततः शास्त्रं महार्थं ब्रह्मणा कृतम् // 87 मूलकर्मक्रिया चात्र माया योगश्च वर्णितः / वैशालाक्षमिति प्रोक्तं तदिन्द्रः प्रत्यपद्यत / दूषणं स्रोतसामत्र वर्णितं च स्थिराम्भसाम् / / 73 दशाध्यायसहस्राणि सुब्रह्मण्यो महातपाः / / 88 यै]रुपायैर्लोकश्च न चलेदार्यवर्त्मनः / भगवानपि तच्छास्त्रं संचिक्षेप पुरंदरः / -2064 - Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 59. 89 ] शान्तिपर्व [12. 59. 119 सहस्रैः पञ्चभिस्तात यदुक्तं बाहुदन्तकम् // 89 / ततः पुरुष उत्पन्नो रूपेणेन्द्र इवापरः // 104 अध्यायानां सहस्रेस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः / कवची बद्धनिस्त्रिंशः सशरः सशरासनः / संचिक्षेपेश्वरो बुद्ध्या बार्हस्पत्यं तदुच्यते // 90 वेदवेदाङ्गविञ्चैव धनुर्वेदे च पारगः // 105 अध्यायानां सहस्रेण काव्यः संक्षेपमब्रवीत् / तं दण्डनीतिः सकला श्रिता राजन्नरोत्तमम् / तच्छास्त्रममितप्रज्ञो योगाचार्यो महातपाः // 91 ततः स प्राञ्जलि(न्यो महर्षीस्तानुवाच ह // 106 एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः / सुसूक्ष्मा मे समुत्पन्ना बुद्धिर्धर्मार्थदर्शिनी / संक्षिप्तमायुर्विज्ञाय मानां ह्रासि पाण्डव // 92 अनया किं मया कार्य तन्मे तत्त्वेन शंसत // 107 अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम् / यन्मां भवन्तो वक्ष्यन्ति कार्यमर्थसमन्वितम् / एको योऽर्हति मर्तेभ्यः श्रेष्ठयं तं वै समादिश // तदहं वै करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा // 108 तथा संचिन्त्य भगवान्देवों नारायणः प्रभुः / तमूचुरथ देवास्ते ते चैव परमर्षयः / तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम् // 94 नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्कः समाचर // 109 विरजास्तु महाभाग विभुत्वं भुवि नैच्छत / प्रियाप्रिये परित्यज्य समः सर्वेषु जन्तुषु / न्यासायैवाभवबुद्धिः प्रणीवा तस्य पाण्डव // 95 कामक्रोधौ च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः॥११० कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत्सोऽपि पश्चातिगोऽभवत् / यश्च धर्मात्प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः / कर्दमस्तस्य च सुतः सोऽप्यतप्यन्महत्तपः // 96 निग्राह्यस्ते स बाहुभ्यां शश्वद्धर्ममवेक्षतः॥ 111 प्रजापतेः कर्दमस्य अनङ्गो नाम वै सुतः। प्रतिज्ञां चाधिरोहख मनसा कर्मणा गिरा। प्रजानां रक्षिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः // 97 पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत्॥११२ अनङ्गपुत्रोऽतिबलो नीतिमानधिगम्य वै / यश्चात्र धर्मनीत्युक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः / अभिपेदे महीराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत् / / 98 तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन // 113 मृत्योस्तु दुहिता राजन्सुनीथा नाम मानसी / अदण्ड्या मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीष्व चाभिभो। प्रख्याता त्रिषु लोकेषु या सा वेनमजीजनत् // 99 लोकं च संकरात्कृत्स्नात्रातास्मीति परंतप // 114 तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम् / वैन्यस्ततस्तानुवाच देवानृषिपुरोगमान् / मन्त्रपूतैः कुशैर्जनुर्ऋषयो ब्रह्मवादिनः // 100 ब्राह्मणा मे सहायाश्चेदेवमस्तु सुरर्षभाः // 115 ममन्थुर्दक्षिणं चोरुमृषयस्तस्य मत्रतः / एवमस्त्विति वैन्यस्तु तैरुक्तो ब्रह्मवादिभिः / ततोऽस्य विकृतो जज्ञे ह्रस्वाङ्गः पुरुषो भुवि॥१०१ पुरोधाश्चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः // 116 दग्धस्थाणुप्रतीकाशो रक्ताक्षः कृष्णमूर्धजः / मश्रिणो वालखिल्यास्तु सारस्वत्यो गणो ह्यभूत् / निषीदेत्येवमूचुस्तमृषयो ब्रह्मवादिनः // 102 महर्षिभगवान्गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत् // 117 तस्मान्निषादाः संभूताः कराः शैलवनाश्रयाः / आत्मनाष्टम इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु / ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाः शतसहस्रशः॥ / उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वी सूतमागधौ // 118 भूयोऽस्य दक्षिणं पाणिं ममन्थुस्ते महर्षयः। | समतां वसुधायाश्च स सम्यगुपपादयत् / अ. भा. 259 - 2065 - Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 59. 119] महाभारते [12. 60.5 वैषम्यं हि परं भूमेरासीदिति ह नः श्रुतम् // 119 / श्रियः सकाशादर्थश्च जातो धर्मेण पाण्डव / स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधैः सह। अथ धर्मस्तथैवार्थः श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता॥१३४ ऋषिभिश्च प्रजापाल्ये ब्रह्मणा चाभिषेचितः॥१२० सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम् / तं साक्षात्पृथिवी भेजे रत्नान्यादाय पाण्डव। पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिवशानुगः // 135 सागरः सरितां भर्ता हिमवांश्चाचलोत्तमः // 121 महत्त्वेन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि / शक्रश्च धनमक्षय्यं प्रादात्तस्य युधिष्ठिर / बुद्धथा भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति // रुक्मं चापि महामेरुः स्वयं कनकपर्वतः // 122 स्थापनामथ देवानां न कश्चिदतिवर्तते / यक्षराक्षसभर्ता च भगवान्नरवाहनः / तिष्ठत्येकस्य च वशे तं चेदनुविधीयते // 137 धर्मे चार्थे च कामे च समर्थं प्रददौ धनम् // 123 / शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते / हया रथाश्च नागाश्च कोटिशः पुरुषास्तथा। तुल्यस्यैकस्य यस्यायं लोको वचसि तिष्ठति // 138 प्रादुर्बभूवुर्वैन्यस्य चिन्तनादेव पाण्डव / यो ह्यस्य मुखमद्राक्षीत्सोम्य सोऽस्य वशानुगः / न जरा न च दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयस्तथा // 124 / सुभगं चार्थवन्तं च रूपवन्तं च पश्यति / / 139 सरीसृपेभ्यः स्तेनेभ्यो न चान्योन्यात्कदाचन / ततो जगति राजेन्द्र सततं शब्दितं बुधैः / भयमुत्पद्यते तत्र तस्य राज्ञोऽभिरक्षणात् // 125 देवाश्च नरदेवाश्च तुल्या इति विशां पते / / 140 तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि दश सप्त च। एतत्ते सर्वमाख्यातं महत्त्वं प्रति राजसु / यक्षराक्षसनागैश्चापीप्सितं यस्य यस्य यत् // 126 / कार्येन भरतश्रेष्ठ किमन्यदिह वर्तताम् / / 141 तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि रञ्जिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्दयते॥१२७ एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // ब्राह्मणानां क्षतत्राणात्ततः क्षत्रिय उच्यते / प्रथिता धनतश्चेयं पृथिवी साधुभिः स्मृता // 128 वैशंपायन उवाच / स्थापनं चाकरोद्विष्णुः स्वयमेव सतातनः / ततः पुनः स गाङ्गेयमभिवाद्य पितामहम् / नातिवर्तिष्यते कश्चिद्राजंस्त्वामिति पार्थिव // 129 / प्राञ्जलिनियतो भूत्वा पर्यपृच्छाधिष्ठिरः // 1 तपसा भगवान्विष्णुराविवेश च भूमिपम् / के धर्माः सर्ववर्णानां चातुर्वर्ण्यस्य के पृथक् / देववन्नरदेवानां नमते यजगन्नृप // 130 चतुर्णामाश्रमाणां च राजधर्माश्च के मताः // 2 दण्डनीत्या च सततं रक्षितं तं नरेश्वर / केन स्विद्वर्धते राष्ट्र राजा केन विवर्धते / नाधर्षयत्ततः कश्चिच्चारनित्याच्च दर्शनात् // 131 केन पौराश्च भृत्याश्च वर्धन्ते भरतर्षभ // 3 आत्मना करणैश्चैव समस्येह महीक्षितः / कोशं दण्डं च दुर्गं च सहायान्मत्रिणस्तथा / को हेतुर्यद्वशे तिष्ठेल्लोको दैवाहते गुणात् // 132 / ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान्कीदृशान्वर्जयेन्नृपः // 4 विष्णोर्ललाटात्कमलं सौवर्णमभवत्तदा / केषु विश्वसितव्यं स्याद्राज्ञां कस्यांचिदापदि / श्रीः संभूता यतो देवी पत्नी धर्मस्य धीमतः / / 133 / कुतो वात्मा दृढो रक्ष्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 5 - 2066 - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 60. 6] शान्तिपर्व [ 12. 60. 34 भीष्म उवाच / कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादैन्द्रो राजन्य उच्यते // 20 नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे / वैश्यस्यापीह यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत / ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्वा धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान् // 6 दानमध्ययनं यज्ञः शौचेन धनसंचयः // 21 अक्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा तथा। षितृवत्पालयेद्वैश्यो युक्तः सर्वपशूनिह / प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च / / 7 विकर्म तद्भवेदन्यत्कर्म यद्यत्समाचरेत् / आर्जवं भृत्यभरगं नौते सार्ववर्णिकाः / रक्षया स हि तेषां वै महत्सुखमवाप्नुयात् // 22 ब्राह्मणस्य तु यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि केवलम् / / 8 प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् / दममेव महाराज धर्ममाहुः पुरातनम् / ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः // 23 खाध्यायोऽध्यापनं चैव तत्र कर्म समाप्यते // 9 तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् / तं चेद्वित्तमुपागच्छेद्वर्तमानं स्वकर्मणि / षण्णामेकां पिबेद्धेनुं शताच्च मिथुनं हरेत् // 24 अकुर्वाणं विकर्माणि शान्तं प्रज्ञानतर्पितम् // 10 लये च सप्तमो भागस्तथा शृङ्गे कला खुरे / कुर्वीतापत्यसंतानमथो दद्याद्यजेत च / सस्यस्य सर्वबीजानामेषा सांवत्सरी भृतिः॥ 25 संविभज्य हि भोक्तव्यं धनं सद्भिरितीष्यते // 11 न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति / परिनिष्ठितकार्यस्तु स्वाध्यायेनैव ब्राह्मणः / वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथंचन / / 26 कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते // 12 शूद्रस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत / क्षत्रियस्यापि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत / प्रजापतिर्हि वर्णानां दासं शूद्रमकल्पयन् // 27 दद्याद्राजा न याचेत यजेत न तु याजयेत् // 13 तस्माच्छूद्रस्य वर्णानां परिचर्या विधीयते / नाध्यापयेदधीयीत प्रजाश्च परिपालयेत् / तेषां शुश्रूषणाच्चैव महत्सुखमवाप्नुयात् // 28 नित्योद्युक्तो दस्युवधे रणे कुर्यात्पराक्रमम् // 14 शूद्र एतान्परिचरेत्रीन्वर्णाननसूयकः / ये च ऋतुभिरीजानाः श्रुतवन्तश्च भूमिपाः / संचयांश्च न कुर्वीत जातु शूद्रः कथंचन // 29 य एवाहवजेतारस्त एषां लोकजित्तमाः // 15 पापीयान्हि धनं लब्ध्वा वशे कुर्याद्रीयसः / अविक्षतेन देहेन समरायो निवर्तते / राज्ञा वा समनुज्ञातः कामं कुर्वीत धार्मिकः // 30 क्षत्रियो नास्य तत्कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः // 16 तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् / वधं हि क्षत्रबन्धूनां धर्ममाहुः प्रधानतः। अवश्यभरणीयो हि वर्णानां शद्र उच्यते // 31 नास्य कृत्यतमं किंचिदन्यदस्युनिबर्हणात् / / 17 छत्रं वेष्टनमौशीरमुपानद्वथजनानि च / दानमध्ययनं यज्ञो योगः क्षेमो विधीयते / यातयामानि देयानि शूद्राय परिचारिणे // 32 तस्माद्राज्ञा विशेषेण योद्धव्यं धर्ममीप्सता // 18 / अधार्याणि विशीर्णानि वसनानि द्विजातिभिः / स्वेषु धर्मेष्ववस्थाप्य प्रजाः सर्वा महीपतिः। शूद्रायैव विधेयानि तस्य धर्मधनं हि तत् // 33 धर्मेण सर्वकृत्यानि समनिष्ठानि कारयेत् // 19 / यश्च कश्चिद्विजातीनां शूद्रः शुश्रूषुराव्रजेत् / परिनिष्ठितकार्यः स्यान्नृपतिः परिपालनात् / | कल्प्यां तस्य तु तेनाहुवृत्तिं धर्मविदो जनाः / -2067 - Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 60. 34] महाभारते [12. 61.6 देयः पिण्डोऽनपेताय भर्तव्यो वृद्धदुर्बलौ // 34 अत्र गाथा यज्ञगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः / शूद्रेण च न हातव्यो भर्ता कस्यांचिदापदि / / वैखानसानां राजेन्द्र मुनीनां यष्टुमिच्छताम् // 46 अतिरेकेण भर्तव्यो भर्ता द्रव्यपरिक्षये। उदितेऽनुदिते वापि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः / न हि स्वमस्ति शुद्रस्य भर्तृहार्यधनो ह्यसौ // 35 वहिं जुहोति धर्मेण श्रद्धा वै कारणं महत् // 47 उक्तस्त्रयाणां वर्णानां यज्ञस्नय्यैव भारत / यत्स्कन्नमस्य तत्पूर्व यदस्कन्नं तदुत्तरम् / .' स्वाहाकारनमस्कारौ मत्रः शूद्रे विधीयते // 36 बहूनि यज्ञरूपाणि नानाकर्मफलानि च // 48 ताभ्यां शूद्रः पाकयज्ञैर्यजेत व्रतवान्स्वयम् / तानि यः संविजानाति ज्ञाननिश्चयनिश्चितः / पूर्णपात्रमयीमाहुः पाकयज्ञस्य दक्षिणाम् // 37 द्विजातिः श्रद्धयोपेतः स यष्टुं पुरुषोऽर्हति // 49 शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ / स्तेनो वा यदि वा पापो यदि वा पापकृत्तमः / ऐन्द्रानेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम् // 38 यष्टुमिच्छति यज्ञं यः साधुमेव वदन्ति तम् // 50 अतो हि सर्ववर्णानां श्रद्धायज्ञो विधीयते / ऋषयस्तं प्रशंसन्ति साधु चैतदसंशयम् / दैवतं हि महच्छ्रद्धा पवित्रं यजतां च यत् // 39 सर्वथा सर्ववर्णैर्हि यष्टव्यमिति निश्चयः / दैवतं परमं विप्राः स्वेन स्वेन परस्परम् / न हि यज्ञसमं किंचित्रिषु लोकेषु विद्यते // 51 अयजन्निह सत्रैस्ते तैस्तैः कामैः सनातनैः // 40 / तस्माद्यष्टव्यमित्याहुः पुरुषेणानसूयता / संसृष्टा ब्राह्मणैरेव त्रिषु वर्णेषु सृष्टयः / श्रद्धापवित्रमाश्रित्य यथाशक्ति प्रयच्छता // 52 देवानामपि ये देवा यद्भयुस्ते परं हि तत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तस्माद्वर्णैः सर्वयज्ञाः संसृज्यन्ते न काम्यया // 41 षष्टितमोऽध्यायः // 6 // ऋग्यजुःसामवित्पूज्यो नित्यं स्यादेववहिजः / अनृग्यजुरसामा तु प्राजापत्य उपद्रवः / / 42 भीष्म उवाच / यज्ञो मनीषया तात सर्ववर्णेषु भारत / आश्रमाणां महाबाहो शृणु सत्यपराक्रम / नास्य यज्ञहनो देवा ईहन्ते नेतरे जनाः / चतुर्णामिह वर्णानां कर्माणि च युधिष्ठिर // 1 तस्मात्सर्वेषु वर्णेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते // 43 वानप्रस्थं भैक्षचयाँ गार्हस्थ्यं च महाश्रमम् / स्वं दैवतं ब्राह्मणाः स्वेन नित्यं ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्राह्मणैर्वृतम् // 2 परान्वर्णानयजन्नेवमासीत् / जटाकरणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च / आरोचिता नः सुमहान्स धर्मः आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदमधीत्य च // 3 ___सृष्टो ब्रह्मणा त्रिषु वर्णेषु दृष्टः // 44 सदारो वाप्यदारो वा आत्मवान्संयतेन्द्रियः / तस्माद्वर्णा ऋजवो जातिधर्माः वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत्कृतकृत्यो गृहाश्रमात् // 4 संसृज्यन्ते तस्य विपाक एषः / तत्रारण्यकशास्त्रानि समधीत्य स धर्मवित् / एकं साम यजुरेकमृगेका ऊर्ध्वरेताः प्रजायित्वा गच्छत्यक्षरसात्मताम् // 5 विप्रश्चैकोऽनिश्चयस्तेषु दृष्टः // 45 / एतान्येव निमित्तानि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् / - 2068 - Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 61. 6] शान्तिपर्व [12. 62.4 कर्तव्यानीह विप्रेण राजन्नादौ विपश्चिता // 6 गार्हस्थ्यमध्यावसते यथावत् / चरितब्रह्मचर्यस्य ब्राह्मणस्य विशां पते / गृहस्थवृत्तिं प्रविशोध्य सम्यभैक्षचर्यास्वधीकारः प्रशस्त इह मोक्षिणः // 7 / क्स्वर्गे विशुद्धं फलमाप्नुते सः // 16 यत्रास्तमितशायी स्यान्निरग्निरनिकेतनः। तस्य देहपरित्यागादिष्टाः कामाक्षया मताः / यथोपलब्धजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः / / 8 / आनन्त्यायोपतिष्ठन्ति सर्वतोक्षिशिरोमुखाः // 17 निराशीः स्यात्सर्वसमो निर्भोगो निर्विकारवान् / / खादन्नेको जपन्नेकः सर्पन्नेको युधिष्ठिर।। विप्रः क्षेमाश्रमं प्राप्तो गच्छत्यक्षरसात्मताम् / / 9 एकस्मिन्नेव आचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान् // 18 अधीत्य वेदान्कृतसर्वकृत्यः ब्रह्मचारी व्रती नित्यं नित्यं दीक्षापरो वशी / __संतानमुत्पाद्य सुखानि भुक्त्वा / अविचार्य तथा वेदं कृत्यं कुर्वन्वसेत्सदा // 19 समाहितः प्रचरेदुश्चरं तं शुश्रूषां सततं कुर्वन्गुरोः संप्रणमेत च / गार्हस्थ्यधर्म मुनिधर्मदृष्टम् // 10 / षट्कर्मस्वनिवृत्तश्च नप्रवृत्तश्च सर्वशः / 20 स्वदारतुष्ट ऋतुकालगामी न चरत्यधिकारेण सेवितं द्विषतो न च / नियोगसेवी नशठो नजिह्मः / एषोऽऽश्रमपदस्तात ब्रह्मचारिण इष्यते // 21 मिताशनो देवपरः कृतज्ञः इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि . सत्यो मृदुश्चानृशंसः क्षमावान् // 11 एकषष्टितमोऽध्यायः॥ 61 // दान्तो विधेयो हव्यकव्येऽप्रमत्तो अन्नस्य दाता सततं द्विजेभ्यः / अमत्सरी सर्वलिङ्गिप्रदाता युधिष्ठिर उवाच / वैताननित्यश्च गृहाश्रमी स्यात् / / 12 शिवान्सुखान्महोदर्कानहिंस्राल्लोकसंमतान् / अथात्र नारायणगीतमाहु ब्रूहि धर्मान्सुखोपायान्मद्विधानां सुखावहान् // 1 महर्षयस्तात महानुभावाः / भीष्म उवाच / महार्थमत्यर्थतपःप्रयुक्तं ब्राह्मणस्येह चत्वार आश्रमा विहिताः प्रभो। तदुच्यमानं हि मया निबोध // 13 वर्णास्ताननुवर्तन्ते त्रयो भरतसत्तम / / 2 सत्यार्जवं चातिथिपूजनं च उक्तानि कर्माणि बहूनि राजधर्मस्तथार्थश्च रतिश्च दारे। स्वाणि राजन्यपरायणानि। निषेवितव्यानि सुखानि लोके नेमानि दृष्टान्तविधौ स्मृतानि ह्यस्मिन्परे चैव मतं ममैतत् // 14 क्षात्रे हि सर्वं विहितं यथावत् // 3 भरणं पुत्रदाराणां वेदानां पारणं तथा / क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः सतां तमाश्रमं श्रेष्ठं वदन्ति परमर्षयः // 15 शौद्राणि कर्माणि च ब्राह्मणः सन् / एवं हि यो ब्राह्मणो यज्ञशीलो अस्मिल्लोके निन्दितो मन्दचेताः - 2069 - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 62. 4] महाभारते [12. 63. 18 परे च लोके निरयं प्रयाति // 4 ग्रामप्रैष्यो यश्च भवेद्विकर्मा // 4 या संज्ञा विहिता लोके दासे शुनि वृके पशौ / जपन्वेदानजपंश्चापि राजविकर्मणि स्थिते विप्रे तां संज्ञां कुरु पाण्डव / / 5 न्समः शरैर्दासवच्चापि भोज्यः / षटूर्मसंप्रवृत्तस्य आश्रमेषु चतुर्वपि / एते सर्वे शूद्रसमा भवन्ति सर्वधर्मोपपन्नस्य संभूतस्य कृतात्मनः // 6 राजन्नेतान्वर्जयेद्देवकृत्ये // 5 ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च / निर्मर्यादे चाशने क्रूरवृत्तौ . निराशिषो वदान्यस्य लोका ह्यक्षरसंज्ञिताः // 7 हिंसात्मके त्यक्तधर्मस्ववृत्ते / यो यस्मिन्कुरुते कर्म यादृशं येन यत्र च / हव्यं कव्यं यानि चान्यानि राजतादृशं तादृशेनैव स गुणं प्रतिपद्यते // 8 न्देयान्यदेयानि भवन्ति तस्मिन् // 6 वृद्धथा कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च / तस्माद्धर्मो विहितो ब्राह्मणस्य वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यायगणितं महत् // 9 दमः शौचं चार्जवं चापि राजन् / कालसंचोदितः कालः कालपर्यायनिश्चितः / तथा विप्रस्याश्रमाः सर्व एव उत्तमाधममध्यानि कर्माणि कुरुतेऽवशः // 10 ___पुरा राजन्ब्रह्मणा वै निसृष्टाः // 7 अन्तवन्ति प्रदानानि पुरा श्रेयस्कराणि च / यः स्याद्दान्तः सोमप आर्यशीलः स्वकर्मनिरतो लोको ह्यक्षरः सर्वतोमुखः // 11 ___ सानुकोशः सर्वसहो निराशीः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ऋजुर्मूदुरनृशंसः क्षमावाद्विषष्टितमोऽध्यायः॥ 62 // ___ न्स वै विप्रो नेतरः पापकर्मा // 8 शूद्रं वैश्यं राजपुत्रं च राजभीष्म उवाच / ल्लोकाः सर्वे संश्रिता धर्मकामाः। ज्याकर्षणं शत्रुनिबर्हणं च तस्माद्वर्णाञ्जातिधर्मेषु सक्ता- कृषिर्वणिज्या पशुपालनं च / . न्मत्वा विष्णु¥च्छति पाण्डुपुत्र // 9 शुश्रूषणं चापि तथार्थहेतो लोके चेदं सर्वलोकस्य न स्यारकार्यमेतत्परमं द्विजस्य // 1 - चातुर्वर्ण्य वेदवादाश्च न स्युः / सेव्यं तु ब्रह्मपर्म गृहस्थेन मनीषिणा / सर्वाश्चज्याः सर्वलोकक्रियाश्च कृतकृत्यस्य चारण्ये वासो विप्रस्य शस्यते // 2 सद्यः सर्वे चाश्रमस्था न वै स्युः // 10 राजप्रैष्यं कृषिधनं जीवनं च वणिज्यया / यश्च त्रयाणां वर्णानामिच्छेदाश्रमसेवनम् / कर्तुमाश्रमदृष्टांश्च धर्मास्ताञ्शृणु पाण्डव // 11 शूद्रो राजन्भवति ब्रह्मबन्धु शुश्रूषाकृतकृत्यस्य कृतसंतानकर्मणः / १श्चारित्र्यो यश्च धर्मादपेतः / अभ्यनुज्ञाप्य राजानं शूद्रस्य जगतीपते // 12 वृषलीपतिः पिशुनो नर्तकश्च अल्पान्तरगतस्यापि दशधर्मगतस्य वा / -2070 - Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 63. 13 ] शान्तिपर्व [12. 64.4 आश्रमा विहिताः सर्वे वर्जयित्वा निराशिषम् // 13 धर्मानन्यान्धर्मविदो मनुष्याः / भैक्षचाँ न तु प्राहुस्तस्य तद्धर्मचारिणः / महाश्रयं बहुकल्याणरूपं तथा वैश्यस्य राजेन्द्र राजपुत्रस्य चैप हि // 14 __क्षात्रं धर्मं नेतरं प्राहुरार्याः // 26 कृतकृत्यो वयोतीतो राज्ञः कृतपरिश्रमः / सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः वैश्यो गच्छेदनुज्ञाती नृपेणाश्रममण्डलम् // 15 __सर्वे धर्माः पाल्यमाना भवन्ति / वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्राणि चानघ / सर्वत्यागो राजधर्मेषु राज। संतानादीनि कर्माणि कृत्वा सोमं निषेव्य च // 16 ___ स्त्यागे चाहुर्धर्ममत्र्यं पुराणम् / / 27 . पालयित्वा प्रजाः सर्वा धर्मेण वदतां वर / मजेत्रयी दण्डनीतौ हतायां राजसूयाश्वमेधादीन्मखानन्यांस्तथैव च // 17 ___ सर्वे धर्मा न भवेयुर्विरुद्धाः / समानीय यथापाठं विप्रेभ्यो दत्तदक्षिणः / सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां गताः स्युः संग्रामे विजयं प्राप्य तथाल्पं यदि वा बहु // 18 ___ क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे // 28 स्थापयित्वा प्रजापालं पुत्रं राज्ये च पाण्डव / सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दृष्टाः अन्यगोत्रं प्रशस्तं वा क्षत्रियं क्षत्रियर्षभ // 19 ___ सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः / अर्चयित्वा पितॄन्सम्यपितृयज्ञैर्यथाविधि / सर्वे योगा राजधर्मेषु चोक्ताः देवान्यज्ञैर्ऋषीन्वेदैरर्चित्वा चैव यत्नतः // 20 ___ सर्वे लोका राजधर्मान्प्रविष्टाः // 29 अन्तकाले च संप्राप्ते य इच्छेदाश्रमान्तरम् / यथा जीवाः प्रकृतौ वध्यमाना आनुपूर्व्याश्रमानराजन्गत्वा सिद्धिमवाप्नुयात् // 21 धर्माश्रितानामुपपीडनाय / राजर्षित्वेन राजेन्द्र भैक्षचर्याध्वसेवया / एवं धर्मा राजधर्मेवियुक्ताः अपेतगृहधर्मोऽपि चरेज्जीवितकाम्यया // 22 सर्वावस्थं नाद्रियन्ते स्वधर्मम् // 30 न चैतन्नैष्ठिकं कर्म त्रयाणां भरतर्षभ / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चतुर्णा राजशार्दूल प्राहुराश्रमवासिनाम् // 23 त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 63 // बह्वायत्तं क्षत्रियैर्मानवानां लोकश्रेष्ठं धर्ममासेवमानैः / भीष्म उवाच / सर्वे धर्माः सोपधर्मास्त्रयाणां चातुराश्रम्यधर्माश्च जातिधर्माश्च पाण्डव / राज्ञो धर्मादिति वेदाच्छृणोमि // 24 लोकपालोत्तराश्चैव क्षात्रे धर्मे व्यवस्थिताः / / 1 यथा राजन्हस्तिपदे वदन्ति सर्वाण्येतानि धर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम / संलीयन्ते सर्वसत्त्वोद्भवानि / निराशिषो जीवलोके क्षात्रे धर्मे व्यवस्थिताः // 2 एवं धर्मान्राजधर्मेषु सर्वा अप्रत्यक्षं बहुद्वारं धर्ममाश्रमवासिनाम् / न्सर्वावस्थं संप्रलीनान्निबोध // 25 प्ररूपयन्ति तद्भावमागमैरेप शाश्वतम् / / 3 अल्पाश्रयानल्पफलान्वदन्ति अपरे वचनैः पुण्यैर्वा दिनो लोकनिश्चयम् / -2071 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 64. 4] महाभारते [12. 64.28 अनिश्चयज्ञा धर्माणामदृष्टान्ते परे रताः // 4 नारायणं ह्यादिदेवं पुराणम् // 15 प्रत्यक्षसुखभूयिष्ठमात्मसाक्षिकमच्छलम् / नासौ देवो विश्वरूपो मयापि सर्वलोकहितं धर्म क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् // 5 शक्यो द्रष्टुं ब्रह्मणा वापि साक्षात् / / धर्माश्रमव्यवसिनां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर।। येऽन्ये कामास्तव राजन्हृदिस्था यथा त्रयाणां वर्णानां संख्यातोपश्रुतिः पुरा / दास्यामि तांस्त्वं हि मर्येषु राजा // 16 राजधर्मेष्वनुपमा लोक्या सुचरितैरिह // 6 सत्ये स्थितो धर्मपरो जितेन्द्रियः उदाहृतं ते राजेन्द्र यथा विष्णुं महौजसम् / शूरो दृढं प्रीतिरतः सुराणाम् / सर्वभूतेश्वरं देवं प्रभु नारायणं पुरा। बुद्धथा भक्त्या चोत्तमश्रद्धया च जग्मुः सुबहवः शूरा राजानो दण्डनीतये // 7 ततस्तेऽहं दद्मि वरं यथेष्टम् // 17 एकैकमात्मनः कर्म तुलयित्वाश्रमे पुरा / मान्धातोवाच / / राजानः पर्युपातिष्ठन्दृष्टान्तवचने स्थिताः // 8 असंशयं भगवन्नादिदेवं साध्या देवा वसवश्वाश्विनौ च द्रक्ष्याम्यहं शिरसाहं प्रसाद्य / रुद्राश्च विश्वे मरुतां गणाश्च / त्यक्त्वा भोगान्धर्मकामो ह्यरण्यसृष्टाः पुरा आदिदेवेन देवा मिच्छे गन्तुं सत्पथं लोकजुष्टम् // 18 क्षात्रे धर्मे वर्तयन्ते च सिद्धाः // 9 मात्राद्धर्माद्विपुलादप्रमेयाअत्र ते वर्तयिष्यामि धर्ममर्थविनिश्चयम् / ल्लोकाः प्राप्ताः स्थापितं स्वं यशश्च / निर्मर्यादे वर्तमाने दानवैकायने कृते / धर्मो योऽसावादिदेवात्प्रवृत्तो बभूव राजा राजेन्द्र मान्धाता नाम वीर्यवान् // 10 लोकज्येष्ठस्तं न जानामि कर्तुम् // 19 पुरा वसुमतीपालो यज्ञं चक्रे दिदृक्षया / इन्द्र उवाच / अनादिमध्यनिधनं देवं नारायणं प्रति // 11 असैनिकोऽधर्मपरश्चरेथाः स राजा राजशार्दूल मान्धाता परमेष्ठिनः / . परां गति लप्स्यसे चाप्रमत्तः / जग्राह शिरसा पादौ यज्ञे विष्णोर्महात्मनः // 12 क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात्प्रवृत्तः दर्शयामास तं विष्णू रूपमास्थाय वासवम् / पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः // 20 स पार्थिवैर्वृतः सद्भिरर्चयामास तं प्रभुम् / / 13 शेषाः सृष्टा ह्यन्तवन्तो ह्यनन्ताः तस्य पार्थिवसंघस्य तस्य चैव महात्मनः / सुप्रस्थानाः क्षत्रधर्माविशिष्टाः / संवादोऽयं महानासीद्विष्णुं प्रति महाद्युते // 14 अस्मिन्धर्मे सर्वधर्माः प्रविष्टाइन्द्र उवाच / स्तस्माद्धर्म श्रेष्ठमिमं वदन्ति // 21 किमिष्यते धर्मभृतां वरिष्ठ कर्मणा वै पुरा देवा ऋषयश्चामितौजसः / यद्छुकामोऽसि तमप्रमेयम् / त्राताः सर्वे प्रमथ्यारीन्क्षत्रधर्मेण विष्णुना // 22 अनन्तमायामितसत्त्ववीर्य ___ यदि ह्यसौ भगवान्नाहनिष्य- 2072 - Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 64. 23] शान्तिपर्व [ 12. 65.8 . द्रिपून्सर्वान्वसुमानप्रमेयः / पाल्यो युष्माभिर्लोकसिंहैरुदारै विपर्यये स्यादभावः प्रजानाम् // 1 न ब्राह्मणा न च लोकादिकर्ता न सद्धर्मा नादिधर्मा भवेयुः // 23 भुवः संस्कारं राजसंस्कारयोगइमामुर्वी न जयेद्विक्रमेण __मभैक्षचर्यां पालनं च प्रजानाम् / देवश्रेष्ठोऽसौ पुरा चेदमेयः / विद्याद्राजा सर्वभूतानुकम्पां चातुर्वण्यं चातुराश्रम्यधर्माः देहत्यागं चाहवे धर्ममत्र्यम् // 2 __ सर्वे न स्युब्रह्मणो वै विनाशात् // 24 . त्यागं श्रेष्ठं मुनयो वै वदन्ति दृष्टा धर्माः शतधा शाश्वतेन सर्वश्रेष्ठो यः शरीरं त्यजेत / क्षात्रेण धर्मेण पुनः प्रवृत्ताः। नित्यं त्यक्तं राजधर्मेषु सर्व युगे युगे ह्यादिधर्माः प्रवृत्ता ___ प्रत्यक्षं ते भूमिपालाः सदैते // 3 ___ लोकज्येष्ठं क्षत्रधर्म वदन्ति / / 25 बहुश्रुत्या गुरुशुश्रूषया वा आत्मत्यागः सर्वभूतानुकम्पा परस्य वा संहननाद्वदन्ति / / - लोकज्ञानं मोक्षणं पालनं च / नित्यं धर्म क्षत्रियो ब्रह्मचारी विषण्णानां मोक्षणं पीडितानां __ चरेदेको ह्याश्रमं धर्मकामः // 4 क्षात्रे धर्मे विद्यते पार्थिवानाम् // 26 सामान्यार्थे व्यवहारे प्रवृत्ते निर्मर्यादाः काममन्युप्रवृत्ता प्रियाप्रिये वर्जयन्नेव यत्नात् / चातुर्वर्ण्यस्थापनात्पालनाच्च भीता राज्ञो नाधिगच्छन्ति पापम् / शिष्टाश्चान्ये सर्वधर्मोपपन्नाः तैस्तैर्योगैर्नियमैरौरसैश्च // 5 सर्वोद्योगैराश्रमं धर्ममाहुः - साध्वाचाराः साधु धर्मं चरन्ति // 27 त्रिवत्परिपाल्यानि लिङ्गधर्मेण पार्थिवैः / _क्षात्रं ज्येष्ठं सर्वधर्मोपपन्नम् / गोके भूतानि सर्वाणि विचरन्ति न संशयः // 28 स्वं स्वं धर्म ये न चरन्ति वर्णा स्तांस्तान्धर्मानयथावद्वदन्ति // 6 उर्वधर्मपरं क्षत्रं लोकज्येष्ठं सनातनम् / श्वदक्षरपर्यन्तमक्षरं सर्वतोमुखम् // 29 निर्मर्यादे नित्यमर्थे विनष्टा नाहुस्तान्वै पशुभूतान्मनुष्यान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथा नीतिं गमयत्यर्थलोभा.... चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 64 // च्छ्रेयांस्तस्मादाश्रमः क्षत्रधर्मः // 7 त्रैविद्यानां या गतिर्ब्राह्मणानां इन्द्र उवाच। __यश्चैवोक्तोऽथाश्रमो ब्राह्मणानाम् / एवंवीर्यः सर्वधर्मोपपन्नः एतत्कर्म ब्राह्मणस्याहुरग्र्यक्षात्रः श्रेष्ठः सर्वधर्मेषु धर्मः। मन्यत्कुर्वशूद्रवच्छत्रवध्यः // 8 1.मा. 260 - 2073 - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 65. 9] महाभारते [ 12. 65. 34 चातुराश्रम्यधर्माश्च वेदधर्माश्च पार्थिव / एतान्येवंप्रकाराणि विहितानि पुरानघ / ब्राह्मणेनानुगन्तव्या नान्यो विद्यात्कथंचन // 9 सर्वलोकस्य कर्माणि कर्तव्यानीह पार्थिव / / 22 अम्यथा वर्तमानस्य न सा वृत्तिः प्रकल्प्यते / मान्धातोवाच / कर्मणा व्यज्यते धर्मो यथैव श्वा तथैव सः॥१० दृश्यन्ते मानवा लोके सर्ववर्णेषु दस्यवः। .. यो विकर्मस्थितो विप्रो न स सन्मानमर्हति / लिङ्गान्तरे वर्तमाना आश्रमेषु चतुर्वपि // 23 कर्मस्वनुपयुञ्जानमविश्वास्यं हि तं विदुः // 11 इन्द्र उवाच / एते धर्माः सर्ववर्णाश्च वीरैरुत्क्रष्टव्याः क्षत्रियैरेष धर्मः। विनष्टायां दण्डनीतौ राजधर्मे निराकृते। तस्माज्येष्ठा राजधर्मा न चान्ये संप्रमुह्यन्ति भूतानि राजदौरात्म्यतो नृप // 24 वीर्यज्येष्ठा वीरधर्मा मता ये // 12 असंख्याता भविष्यन्ति भिक्षवो लिङ्गिनस्तथा / मान्धातोवाच / आश्रमाणां विकल्पाश्च निवृत्तेऽस्मिन्कृते युगे // 25 अशृण्वानाः पुराणानां धर्माणां प्रवरा गतीः / यवनाः किराता गान्धाराश्वीनाः शबरबर्बराः / उत्पथं प्रतिपत्स्यन्ते काममन्युसमीरिताः / / 26 शकास्तुषाराः कह्वाश्च पह्नवाश्चान्ध्रमद्रकाः // 13 ओडाः पुलिन्दा रमठाः काचा म्लेच्छाश्च सर्वशः। यदा निवर्त्यते पापो दण्डनीत्या महात्मभिः / तदा धर्मो न चलते सद्भूतः शाश्वतः परः / / 27 ब्रह्मक्षत्रप्रसूताश्च वैश्याः शूद्राश्च मानवाः // 14 कथं धर्म चरेयुस्ते सर्वे विषयवासिनः / परलोकगुरुं चैव राजानं योऽवमन्यते। . . मद्विधैश्च कथं स्थाप्याः सर्वे ते दस्युजीविनः // 15 न तस्य दत्तं न हुतं न श्राद्धं फलति कचित् // 28 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं भगवंस्तद्भवीहि मे। मानुषाणामधिपति देवभूतं सनातनम् / त्वं बन्धुभूतो ह्यस्माकं क्षत्रियाणां सुरेश्वर // 16 देवाश्च बहु मन्यन्ते धर्मकामं नरेश्वरम् / / 29 प्रजापतिर्हि भगवान्यः सर्वमसृजज्जगत् / इन्द्र उवाच / मातापित्रोर्हि कर्तव्या शुश्रूषा सर्वदस्युभिः / स प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं धर्माणां क्षत्रमिच्छति // 30 आचार्यगुरुशुश्रूषा तथैवाश्रमवासिनाम् // 17 प्रवृत्तस्य हि धर्मस्य बुद्ध्या यः स्मरते गतिम् / भूमिपालानां च शुश्रूषा कर्तव्या सर्वदस्युभिः / समे मान्यश्च पूज्यश्च तत्र क्षत्रं प्रतिष्ठितम् // 31 वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते // 18 भीष्म उवाच / पितृयज्ञास्तथा कूपाः प्रपाश्च शयनानि च / एवमुक्त्वा स भगवान्मरुद्गणवृतः प्रभुः / दानानि च यथाकालं द्विजेषु दयुरेव ते // 19 जगाम भवनं विष्णुरक्षरं परमं पदम् / / 32 अहिंसा सत्यमक्रोधो वृत्तिदायानुपालनम् / एवं प्रवर्तिते धर्मे पुरा सुचरितेऽनघ / भरणं पुत्रदाराणां शौचमद्रोह एव च // 20 कः क्षत्रमवमन्येत चेतनावान्बहुश्रुतः // 33 दक्षिणा सर्वयज्ञानां दातव्या भूतिमिच्छता। अन्यायेन प्रवृत्तानि निवृत्तानि तथैव / पाकयज्ञा महाश्चि कर्तव्याः सर्वदस्युभिः / / 21 / अन्तरा विलयं यान्ति यथा पृथि विचक्षुषः // 34 - 2074 - Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 65. 35] शान्तिपर्व [12. 66. 26 आदौ प्रवर्तिते चक्रे तथैवादिपरायणे / वानप्रस्थेषु विप्रेषु त्रैविद्येषु च भारत / वर्तस्व पुरुषव्याघ्र संविजानामि तेऽनघ // 35 प्रयच्छतोऽर्थान्विपुलान्वन्याश्रमपदं भवेत् // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तस्य भारत / पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ आनृशंस्यप्रवृत्तस्य सर्वावस्थं पदं भवेत् // 13 बालवृद्धेषु कौरव्य सर्वावस्थं युधिष्ठिर / युधिष्ठिर उवाच / अनुक्रोशं विदधतः सर्वावस्थं पदं भवेत् // 14 बलात्कृतेषु भूतेषु परित्राणं कुरूद्वह / श्रुता मे कथिताः पूर्वैश्चत्वारो मानवाश्रमाः। शरणागतेषु कौरव्य कुर्वन्गार्हस्थ्यमावसेत् // 15 व्याख्यानमेषामाचक्ष्व पृच्छतो मे पितामह // 1 चराचराणां भूतानां रक्षामपि च सर्वशः / भीष्म उवाच / यथार्हपूजां च सदा कुर्वन्गार्हस्थ्यमावसेत् // 16 विदिताः सर्व एवेह धर्मास्तव युधिष्ठिर। ज्येष्ठानुज्येष्ठपत्नीनां भ्रातॄणां पुत्रनतृणाम् / यथा मम महाबाहो विदिताः साधुसंमताः // 2 निग्रहानुग्रहौ पार्थ गार्हस्थ्यमिति तत्तपः // 17 यत्त लिङ्गान्तरगतं पृच्छसे मां युधिष्ठिर / साधूनामर्चनीयानां प्रजासु विदितात्मनाम् / धर्म धर्मभृतां श्रेष्ठ तन्निबोध नराधिप // 3 पालनं पुरुषव्याघ्र गृहाश्रमपदं भवेत् // 18 सर्वाण्येतानि कौन्तेय विद्यन्ते मनुजर्षभ / आश्रमस्थानि सर्वाणि यस्तु वेश्मनि भारत / साध्वाचारप्रवृत्तानां चातुराश्रम्यकर्मणाम् // 4 आददीतेह भोज्येन तद्गार्हस्थ्यं युधिष्ठिर // 19 अकामद्वेषयुक्तस्य दण्डनीत्या युधिष्ठिर / यः स्थितः पुरुषो धर्मे धात्रा सृष्टे यथार्थवत् / समेक्षिणश्च भूतेषु भैक्षाश्रमपदं भवेत् / / 5 आश्रमाणां स सर्वेषां फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् // 20 वेत्त्यादानविसर्ग यो निग्रहानुग्रहौ तथा / यस्मिन्न नश्यन्ति गुणाः कौन्तेय पुरुषे सदा। यथोक्तवृत्तेर्वीरस्य क्षेमाश्रमपदं भवेत् / / 6 आश्रमस्थं तमप्याहुर्नरश्रेष्ठं युधिष्ठिर // 21 शातिसंबन्धिमित्राणि व्यापन्नानि युधिष्ठिर / स्थानमानं वयोमानं कुलमानं तथैव च / समभ्युद्धरमाणस्य दीक्षाश्रमपदं भवेत् // 7 कुर्वन्वसति सर्वेषु ह्याश्रमेषु युधिष्ठिर // 22 आह्निकं भूतयज्ञांश्च पितृयज्ञांश्च मानुषान् / देशधर्मांश्च कौन्तेय कुलधर्मास्तथैव च / कुर्वतः पार्थ विपुलान्वन्याश्रमपदं भवेत् // 8 पालयन्पुरुषव्याघ्र राजा सर्वाश्रमी भवेत् // 23 पालनात्सर्वभूतानां स्वराष्ट्रपरिपालनात् / काले विभूतिं भूतानामुपहारांस्तथैव च / दीक्षा बहुविधा राज्ञो वन्याश्रमपदं भवेत् // 9 अर्हयन्पुरुषव्याघ्र साधूनामाश्रमे वसेत् // 24 वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाथाचार्यपूजनम् / दशधर्मगतश्चापि यो धर्म प्रत्यवेक्षते। तथोपाध्यायशुश्रूषा ब्रह्माश्रमपदं भवेत् / / 10 सर्वलोकस्य कौन्तेय राजा भवति सोऽऽश्रमी // 25 अजिह्ममशठं मार्ग सेवमानस्य भारत। ये धर्मकुशला लोके धर्म कुर्वन्ति साधवः / सर्वदा सर्वभूतेषु ब्रह्माश्रमपदं भवेत् // 11 / पालिता यस्य विषये पादोंऽशस्तस्य भूपतेः // 26 - 2075 - Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 66. 27 ] महाभारते [12. 67. 11 धर्मारामान्धर्मपरान्ये न रक्षन्ति मानवान् / अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवोऽभिभवन्ति च // 2 पार्थिवाः पुरुषव्याघ्र तेषां पापं हरन्ति ते // 27 अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न व्यवतिष्ठते / ये च रक्षासहायाः स्युः पार्थिवानां युधिष्ठिर / परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम् // 3 ते चैवांशहराः सर्वे धर्मे परकृतेऽनघ // 28 इन्द्रमेनं प्रवृणुते यद्राजानमितिः श्रुतिः / सर्वाश्रमपदे ह्याहुर्गार्हस्थ्यं दीप्तनिर्णयम् / यथैवेन्द्रस्तथा राजा संपूज्यो भूतिमिच्छता // 4 पावनं पुरुषव्याघ्र यं वयं पर्युपास्महे // 29 / नाराजकेषु राष्ट्रेषु वस्तव्यमिति वैदिकम् / .. आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः / / नाराजकेषु राष्ट्रेषु हव्यमग्निर्वहत्यपि // 5 न्यस्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य लभते सुखम्॥३० अथ चेदभिवर्तेत राज्यार्थी बलवत्तरः / धर्मोत्थिता सत्त्ववीर्या धर्मसेतुवटाकरा / अराजकानि राष्ट्राणि हतराजानि वा पुनः // 6 त्यागवाताध्वगा शीघ्रा नौस्त्वा संतारयिष्यति॥३१ प्रत्युद्गम्याभिपूज्यः स्यादेतदत्र सुमत्रितम् / . यदा निवृत्तः सर्वस्मात्कामो योऽस्य हृदि स्थितः / न हि पापात्पापतरमस्ति किंचिदराजकात् // 7 तदा भवति सत्त्वस्थस्ततो ब्रह्म समश्नुते // 32 स चेत्समनुपश्येत समग्रं कुशलं भवेत् / सुप्रसन्नस्तु भावेन योगेन च नराधिप / बलवान्हि प्रकुपितः कुर्यान्निःशेषतामपि // 8 धर्म पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसे पालने रतः / / 33 भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा। वेदाध्ययनशीलानां विप्राणां साधुकर्मणाम् / सुदुहा या तु भवति नैव तां क्लेशयन्त्युत // 9 पालने यत्नमातिष्ठ सर्वलोकस्य चानघ // 34 यदतप्तं प्रणमति न तत्संतापयन्त्युत / वने चरति यो धर्ममाश्रमेषु च भारत / यच्च स्वयं नतं दारु न लत्सनामयन्त्यपि // 10 रक्षया तच्छतगुणं धर्म प्राप्नोति पार्थिवः // 35 एतयोपमया धीरः संनमेत बलीयसे / एष ते विविधो धर्मः पाण्डवश्रेष्ठ कीर्तितः / इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे // 11 अनुतिष्ठ त्वमेनं वै पूर्वैर्दृष्टं सनातनम् // 36 तस्माद्राजैव कर्तव्यः सततं भूतिमिच्छता / चातुराश्रम्यमेकाग्रः चातुर्वर्ण्य च पाण्डव / न धनार्थो न दारार्थस्तेषां येषामराजकम् // 12 धर्म पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसे पालने रतः // 37 प्रीयते हि हरन्पापः परवित्तमराज के। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यदास्य उद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति // 13 षट्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // पापा अपि तदा क्षेमं न लभन्ते कदाचन / 67 एकस्य हि द्वौ हरतो द्वयोश्च बहवोऽपरे // 14 युधिष्ठिर उवाच / अदासः क्रियते दासो ह्रियन्ते च बलास्त्रियः / चातुराश्रम्य उक्तोऽत्र चातुर्वर्ण्यस्तथैव च / एतस्मात्कारणाद्देवाः प्रजापालान्प्रचक्रिरे // 15 राष्ट्रस्य यत्कृत्यतमं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः / भीष्म उवाच / शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः // 16 राष्ट्रस्यैतत्कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम् / अराजकाः प्रजाः पूर्व विनेशुरिति नः श्रुतम् / - 2076 - Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 67. 17] शान्तिपर्व [ 12. 68.4 परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान् // 17 अपतत्रसिरे सर्वे स्वधर्मे च दधुर्मनः // 30 ताः समेत्य ततश्चक्रुः समयानिति नः श्रुतम् / / ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान् / वाक्ऋरो दण्डपरुषो यश्च स्यात्पारदारिकः / शमयन्सर्वतः पापान्स्वकर्मसु च योजयन् // 31 यश्च नस्वमथादद्यात्त्याज्या नस्तादृशा इति // 18 एवं ये भूतिमिच्छेयुः पृथिव्यां मानवाः क्वचित् / विश्वासनार्थं वर्णानां सर्वेषामविशेषतः / कुयू राजानमेवाग्रे प्रजानुग्रहकारणात् // 32 तास्तथा समयं कृत्वा समये नावतस्थिरे // 19 नमस्येयुश्च तं भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा / सहितास्तास्तदा जग्मुरसुखार्ताः पितामहम् / / देवा इव सहस्राक्षं प्रजा राजानमन्तिके // 33 अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश // 20 सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहु मन्यते / यं पूजयेम संभूय यश्च नः परिपालयेत् / . स्वजनेन त्ववज्ञानं परे परिभवन्त्युत // 34 ताभ्यो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः॥२१ राज्ञः परैः परिभवः सर्वेषामसुखावहः / मनुरुवाच / तस्माच्छत्रं च पत्रं च वासांस्याभरणानि च // 35 बिभेमि कर्मणः क्रूराद्राज्यं हि भृशदुष्करम् / भोजनान्यथ पानानि राज्ञे दार्गृहाणि च / विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तिषु नित्यदा // 22 आसनानि च शय्याश्च सर्वोपकरणानि च // 36 भीष्म उवाच / गुप्तात्मा स्याहुराधर्षः स्मितपूर्वाभिभाषिता / तमब्रुवन्प्रजा मा भैः कर्मणैनो गमिष्यति / आभाषितश्च मधुरं प्रतिभाषेत मानवान् // 37 पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथैव च / कृतज्ञो दृढभक्तिः स्यात्संविभागी जितेन्द्रियः / धान्यस्य दशमं भागं दास्यामः कोशवर्धनम् // 23 ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु चर्जु च वल्गु च // 38 मुख्येन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्याः प्रधानतः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवताः // 24 सप्तषष्टितमोऽध्यायः // 6 // स त्वं जातबलो राजन्दुष्प्रधर्षः प्रतापवान् / 68 सुखे धास्यसि नः सर्वान्कुबेर इव नैर्ऋतान् / / 25 युधिष्ठिर उवाच। यं च धर्म चरिष्यन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः। | किमाहुर्दैवतं विप्रा राजानं भरतर्षभ / चतुर्थ तस्य धर्मस्य त्वत्संस्थं नो भविष्यति // 26. मनुष्याणामधिपतिं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 तेन धर्मेण महता सुखलब्धेन भावितः / भीष्म उवाच / पाह्यस्मान्सर्वतो राजन्देवानिव शतक्रतुः / / 27 / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / विजयायाशु निर्याहि प्रतपरश्मिमानिव / बृहस्पति वसुमना यथा पप्रच्छ भारत // 2 मानं विधम शत्रूणां धर्मो जयतु नः सदा // 28 / राजा वसुमना नाम कौसल्यो धीमतां वरः / स निर्ययौ महातेजा बलेन महता वृतः / महर्षि परिपप्रच्छ कृतप्रज्ञो बृहस्पतिम् // 3 महाभिजनसंपन्नस्तेजसा प्रज्वलन्निव // 29 सर्व वैनयिकं कृत्वा विनयज्ञो बृहस्पतेः / तस्य तां महिमां दृष्ट्वा महेन्द्रस्येव देवताः / / दक्षिणानन्तरो भूत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम् // 4 -2077 - Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 68.5] महाभारते [12. 68. 34 विधिं पप्रच्छ राज्यस्य सर्वभूतहिते रतः / अन्तश्चाकाशमेव स्याल्लोकोऽयं दस्युसाद्भवेत् / प्रजानां हितमन्विच्छन्धर्ममूलं विशां पते // 5 पतेच्च नरकं घोरं यदि राजा न पालयेत् // 20 केन भूतानि वर्धन्ते क्षयं गच्छन्ति केन च / न योनिपोषो वर्तेत न कृषिन वणिक्पथः / कमर्चन्तो महाप्राज्ञ सुखमत्यन्तमाप्नुयुः // 6 मजेद्धर्मस्त्रयी न स्याद्यदि राजा न पालयेत् // 21 इति पृष्टो महाराज्ञा कौसल्येनामितौजसा। न यज्ञाः संप्रवर्तेरन्विधिवत्स्वाप्तदक्षिणाः / राजसत्कारमव्यग्रः शशंसास्मै बृहस्पतिः // 7 न विवाहाः समाजा वा यदि राजा न पालयेत् // राजमूलो महाराज धर्मो लोकस्य लक्ष्यते / न वृषाः संप्रवर्तेरन्न मध्येरंश्च गर्गराः। . प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम् // 8 घोषाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत् // 23 राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीणं समुत्सुकम् / त्रस्तमुद्विग्नहृदयं हाहाभूतमचेतनम् / प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते // 9 क्षणेन विनशेत्सर्वं यदि राजा न पालयेत् // 21 यथा ह्यनुदये राजन्भूतानि शशिसूर्ययोः / न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः / अन्धे तमसि मज्जेयुरपश्यन्तः परस्परम् / / 10 / विधिवद्दक्षिणावन्ति यदि राजा न पालयेत् // 20 यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहंगमाः / ब्राह्मणाश्चतुरो वेदान्नाधीयेरंस्तपस्विनः / विहरेयुर्यथाकाममभिसृत्य पुनः पुनः / / 11 विद्यास्नातास्तपःस्नाता यदि राजा न पालयेत्॥२॥ विमथ्यातिक्रमेरंश्च विषह्यापि परस्परम् / हस्तो हस्तं स मुष्णीयाद्भिद्येरन्सर्वसेतवः / अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः // 12 भयातं विद्रवेत्सर्वं यदि राजा न पालयेत् // 27 एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः / न लभेद्धर्मसंश्लेषं हतविप्रहतो जनः / अन्धे तमसि मजेयुरगोपाः पशवो यथा // 13 कर्ता स्वेच्छेन्द्रियो गच्छेद्यदि राजा न पालयेत् / हरेयुर्बलवन्तो हि दुर्बलानां परिग्रहान् / अनयाः संप्रवरर्तेन्भवेद्वै वर्णसंकरः / हन्युक्यच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत् // 14 दुर्भिक्षमाविशेद्राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत् // 29 यानं वस्त्रमलंकारारत्नानि विविधानि च / विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते। हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत् // 15 मनुष्या रक्षिता राज्ञा समन्तादकुतोभयाः // 30 ममेदमिति लोकेऽस्मिन्न भवेत्संपरिग्रहः / नाक्रुष्टं सहते कश्चित्कुतो हस्तस्य लङ्घनम् / विश्वलोपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत् // 16 | यदि राजा मनुष्येषु त्राता भवति धार्मिकः // 3 // मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम् / स्त्रियश्चापुरुषा मार्ग सर्वालंकारभूषिताः / क्लिनीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत् // 17 निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदा रक्षति भूमिपः // 32 पतेद्बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु / धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम् / अधर्मः प्रगृहीतः स्याद्यदि राजा न पालयेत् // 18 अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः // 3 // वधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत् / यजन्ते च त्रयो वर्णा महायज्ञैः पृथग्विधैः / / ममत्वं च न विन्देयुर्यदि राजा न पालयेत् // 19 / युक्ताश्चाधीयते शास्त्रं यदा रक्षति भूमिपः // 3 // - 2078 - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 68. 35] शान्तिपर्व [ 12. 68. 61 वार्तामूलो ह्ययं लोकस्त्रय्या वै धार्यते सदा। कुर्यात्कृष्णगतिः शेषं ज्वलितोऽनिलसारथिः / तत्सर्वं वर्तते सम्यग्यदा रक्षति भूमिपः // 35 | न तु राज्ञाभिपन्नस्य शेषं कचन विद्यते // 50 यदा राजा धुरं श्रेष्ठामादाय वहति प्रजाः / तस्य सर्वाणि रक्ष्याणि दूरतः परिवर्जयेत् / महता बलयोगेन तदा लोकः प्रसीदति / / 36 / मृत्योरिव जुगुप्सेत राजस्वहरणान्नरः // 51 यस्याभावे च भूतानामभावः स्यात्समन्ततः / नश्येदभिमृशन्सद्यो मृगः कूटमिव स्पृशन् / भावे च भावो नित्यः स्यात्कस्तं न प्रतिपूजयेत् // आत्मस्वमिव संरक्षेद्राजस्वमिह बुद्धिमान् // 52 तस्य यो वहते भारं सर्वलोकसुखावहम् / महान्तं नरकं घोरमप्रतिष्ठमचेतसः / तिष्ठेत्प्रियहिते राज्ञ उभौ लोकौ हि यो जयेत् // पतन्ति चिररात्राय राजवित्तापहारिणः // 53 यस्तस्य पुरुषः पापं मनसाप्यनुचिन्तयेत् / .. राजा भोजो विराट् सम्राट क्षत्रियो भूपतिर्नृपः / असंशयमिह क्लिष्टः प्रेत्यापि नरकं पतेत् / / 39 य एवं स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमिच्छति // 54 न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः / तस्माद्बभूषुर्नियतो जितात्मा संयतेन्द्रियः / महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति // 40 मेधावी स्मृतिमान्दक्षः संश्रयेत महीपतिम् // 55 कुरुते पञ्च रूपाणि कालयुक्तानि यः सदा। कृतज्ञं प्राज्ञमक्षुद्रं दृढभक्तिं जितेन्द्रियम् / भवत्यग्निस्तथादित्यो मृत्युर्वेश्रवणो यमः / / 41 धर्मनित्यं स्थितं स्थित्यां मत्रिणं पूजयेन्नपः / / 56 यदा ह्यासीदतः पापान्दहत्युप्रेण तेजसा / मिथ्योपचरितो राजा तदा भवति पावकः / / 42 दृढभक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम् / यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः / / शूरमक्षुद्रकर्माणं निषिद्धजनमाश्रयेत् // 57 क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः // 43 राजा प्रगल्भं पुरुषं करोति अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणोति शतशो नरान् / ___ राजा कृशं बृहयते मनुष्यम / राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि सपुत्रपौत्रान्सामात्यांस्तदा भवति सोऽन्तकः॥४४ यदा त्वधार्मिकान्सास्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति / राजाभ्युपेतं सुखिनं करोति // 58 धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा / / 45 राजा प्रजानां हृदयं गरीयो यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः / गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च / आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणाम् // यमाश्रिता लोकमिमं परं च श्रियं ददाति कस्मैचित्कस्माञ्चिदपकर्षति / जयन्ति सम्यक्पुरुषा नरेन्द्रम् / / 59 तदा वैश्रवणो राजल्लोके भवति भूमिपः / / 47 नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनी नास्यापवादे स्थातव्यं दक्षेणाक्लिष्टकर्मणा / दमेन सत्येन च सौहदेन। धर्म्यमाकाङ्क्षता लाभमीश्वरस्यानसूयता / / 48 महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशान हि राज्ञः प्रतीपानि कुर्वन्सुखमवाप्नुयात् / त्रिविष्टपे स्थानमुपैति सत्कृतम / / 60 पुत्रो भ्राता वयस्यो वा यद्यप्यात्मसमो भवेत् // 49 / स एवमुक्तो गुरुणा कौसल्यो राजसत्तमः / -2079 - Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 68. 61] महाभारते [12. 69. 26 प्रयत्नात्कृतवान्वीरः प्रजानां परिपालनम् // 61 एवं विहन्याच्चारेण परचारं विचक्षणः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चारेण विहितं सर्वं हतं भवति पाण्डव // 13 अष्टषष्टितमोऽध्यायः // 68 // यदा तु हीनं नृपतिर्विद्यादात्मानमात्मना / अमात्यैः सह संमय कुर्यात्संधिं बलीयसा // 14 युधिष्ठिर उवाच / अज्ञायमानो हीनत्वे कुर्यात्संधि परेण वै। पार्थिवेन विशेषेण किं कार्यमवशिष्यते। लिप्सुर्वा कंचिदेवार्थ त्वरमाणो विचक्षणः // 15 कथं रक्ष्यो जनपदः कथं रक्ष्याश्च शत्रवः // 1 गुणवन्तो महोत्साहा धर्मज्ञाः साधवश्च ये। कथं चारं प्रयुञ्जीत वर्णान्विश्वासयेत्कथम् / संदधीत नृपस्तैश्च राष्ट्र धर्मेण पालयन् // 16 कथं भृत्यान्कथं दारान्कथं पुत्रांश्च भारत // 2 उच्छिद्यमानमात्मानं ज्ञात्वा राजा महामतिः / भीष्म उवाच / पूर्वापकारिणो हन्यालोकद्विष्टांश्च सर्वशः // 17 राजवृत्तं महाराज शृणुष्वावहितोऽखिलम् / यो नोपकर्तुं शक्नोति नापकर्तुं महीपतिः / यत्कार्य पार्थिवेनादौ पार्थिवप्रकृतेन वा // 3 अशक्यरूपश्चोद्धर्तुमुपेक्ष्यस्तादृशो भवेत् // 18 आत्मा जेयः सदा राज्ञा ततो जेयाश्च शत्रवः / यात्रां यायादविज्ञातमनाक्रन्दमनन्तरम् / अजितात्मा नरपतिर्विजयेत कथं रिपून // 4 व्यासक्तं च प्रमत्तं च दुर्बलं च विचक्षणः // 19 एतावानात्मविजयः पञ्चवर्गविनिग्रहः / यात्रामाज्ञापयेद्वीरः कल्यपुष्टबली सुखी / जितेन्द्रियो नरपतिर्बाधितुं शक्नुयादरीन् // 5 पूर्वं कृत्वा विधानं च यात्रायां नगरे तथा // 20 न्यसेत गुल्मान्दुर्गेषु संधौ च कुरुनन्दन / न च वश्यो भवेदस्य नृपो यद्यपि वीर्यवान् / नगरोपवने चैव पुरोद्यानेषु चैव ह // 6 हीनश्च बलवीर्याभ्यां कर्शयंस्तं परावसेत् // 21 संस्थानेषु च सर्वेषु पुरेषु नगरस्य च / राष्ट्रं च पीडयेत्तस्य शस्त्राग्निविषमूर्छनैः / मध्ये च नरशार्दूल तथा राजनिवेशने // 7 अमात्यवल्लभानां च विवादास्तस्य कारयेत् / प्रणिधींश्च ततः कुर्याज्जडान्धबधिराकृतीन् / वर्जनीयं सदा युद्धं राज्यकामेन धीमता // 22 पुंसः परीक्षितान्प्राज्ञान्क्षुत्पिपासातपक्षमान् // 8 उपायैत्रिभिरादानमर्थस्याह बृहस्पतिः / अमात्येषु च सर्वेषु मित्रेषु त्रिविधेषु च / सान्त्वेनानुप्रदानेन भेदेन च नराधिप / पुत्रेषु च महाराज प्रणिदध्यात्समाहितः // 9 / यमर्थं शक्नुयात्प्राप्तुं तेन तुष्येद्धि पण्डितः // 23 पुरे जनपदे चैव तथा सामन्तराजसु। आददीत बलिं चैव प्रजाभ्यः कुरुनन्दन / यथा न विद्युरन्योन्यं प्रणिधेयास्तथा हि ते / / 10 षड्भागममितप्रज्ञस्तासामेवाभिगुप्तये // 24 चारांश्च विद्यात्प्रहितान्परेण भरतर्षभ / दशधर्मगतेभ्यो यद्वसु बह्वल्पमेव च / आपणेषु विहारेषु समवायेषु भिक्षुषु // 11 तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै // 25 आरामेषु तथोद्याने पण्डितानां समागमे / यथा पुत्रास्तथा पौरा द्रष्टव्यास्ते न संशयः / वेशेषु चत्वरे चैव सभास्वावसथेषु च // 12 / भक्तिश्चैषां प्रकर्तव्या व्यवहारे प्रदर्शिते // 26 - 2080 - Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 69. 27 ] शान्तिपर्व [12. 69. 56 सुतं च स्थापयेद्राजा प्राज्ञं सर्वार्थदर्शिनं / / कडङ्गद्वारकाणि स्युरुच्छासार्थे पुरस्य ह / व्यवहारेषु सततं तत्र राज्यं व्यवस्थितम् // 27 तेषां च द्वारवद्गुप्तिः कार्या सर्वात्मना भवेत् // 42 आकरे लवणे शुल्के तरे नागवने तथा / द्वारेषु च गुरूण्येव यत्राणि स्थापयेत्सदा / न्यसेदमात्यान्नपतिः स्वाप्तान्वा पुरुषान्हितान् // 28 आरोपयेच्छतन्नीश्च स्वाधीनानि च कारयेत् // 43 सम्यग्दण्डधरो नित्यं राजा धर्ममवाप्नुयात् / / काष्ठानि चाभिहार्याणि तथा कूपांश्च खानयेत् / नृपस्य सततं दण्डः सम्यग्धर्मे प्रशस्यते // 29 संशोधयेत्तथा कूपान्कृतान्पूर्वं पयोर्थिभिः // 44 वेदवेदाङ्गवित्प्राज्ञः सुतपस्वी नृपो भवेत् / तृणच्छन्नानि वेश्मानि पङ्केनापि प्रलेपयेत् / दानशीलश्च सततं यज्ञशीलश्च भारत / / 30 / निर्हरेच्च तृणं मासे चैत्रे वह्निभयात्पुरः // 45 एते गुणाः समस्ताः स्युनृपस्य सततं स्थिराः / नक्तमेव च भक्तानि पाचयेत नराधिपः / क्रियालोपे तु नृपतेः कुतः स्वर्गः कुतो यशः // 31 न दिवाग्निचलेद्नेहे वर्जयित्वाग्निहोत्रिकम् // 46 चदा तु पीडितो राजा भवेद्राज्ञा बलीयसा। कर्मारारिष्टशालासु ज्वलेदग्निः समाहितः / विधा स्वाक्रन्द्य मित्राणि विधानमुपकल्पयेत् // 32 गृहाणि च प्रविश्याथ विधेयः स्याद्धताशनः // 47 घोषान्यसेत मार्गेषु प्रामानुत्थापयेदपि / महादण्डश्च तस्य स्याद्यस्याग्निवै दिवा भवेत् / प्रवेशयेच्च तान्सर्वाशाखानगरकेष्वपि / / 33 / प्रघोषयेदथैवं च रक्षणार्थं पुरस्य वै // 48 ये गुप्ताश्चैव दुर्गाश्च देशास्तेषु प्रवेशयेत् / भिक्षुकांश्चाक्रिकांश्चैव क्षीबोन्मत्तान्कुशीलवान् / धनिनो बलमुख्यांश्च सान्त्वयित्वा पुनः पुनः // 34 बाह्यान्कुर्यान्नरश्रेष्ठ दोषाय स्युर्हि तेऽन्यथा // 49 सस्याभिहारं कुर्याच्च स्वयमेव नराधिपः / चत्वरेषु च तीर्थेषु सभास्वावसथेषु च / असंभवे प्रवेशस्य दाहयेदग्निना भृशम् // 35 यथार्हवर्णं प्रणिधिं कुर्यात्सर्वत्र पार्थिवः // 50 क्षेत्रस्थेषु च सस्येषु शत्रोरुपजपेन्नरान् / विशालानराजमार्गाश्च कारयेत नराधिपः / विनाशयेद्वा सर्वस्वं बलेनाथ स्वकेन वै // 36 प्रपाश्च विपणीश्चैव यथोद्देशं समादिशेत् // 51 नदीषु मार्गेषु सदा संक्रमानवसादयेत् / भाण्डागारायुधागारान्धान्यागारांश्च सर्वशः / जलं निस्रावयेत्सर्वमनिस्राव्यं च दूषयेत् // 37 अश्वागारान्गजागारान्बलाधिकरणानि च // 52 तदात्वेनायतीभिश्च विवदन्भूम्यनन्तरम् / परिखाश्चैव कौरव्य प्रतोली: संकटानि च / प्रतीघातः परस्याजी मित्रकालेऽप्युपस्थिते // 38 न जातु कश्चित्पश्येत्तु गुह्यमेतद्युधिष्ठिर // 53 दुर्गाणां चाभितो राजा मूलच्छेदं प्रकारयेत् / अथ संनिचयं कुर्याद्राजा परबलादितः / सर्वेषां क्षुद्रवृक्षाणां चैत्यवृक्षान्विवर्जयेत् / / 39 तैलं मधु घृतं सस्यमौषधानि च सर्वशः // 54 वृद्धानां च वृक्षाणां शाखाः प्रच्छेदयेत्तथा। अङ्गारकुशमुञ्जानां पलाशशरपर्णिनाम् / त्यानां सर्वथा वर्ण्यमपि पत्रस्य पातनम् / / 40 / यवसेन्धनदिग्धानां कारयेत च संचयान् // 55 कण्ठीः कारयेत्सम्यगाकाशजननीस्तथा / आयुधानां च सर्वेषां शक्त्यष्टिपासवर्मणाम् / पापूरयेच्च परिखाः स्थाणुनक्रझपाकुलाः // 41 / संचयानेवमादीनां कारयेत नराधिपः // 56 .. मा. 261 - 2031 - Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 69. 57] महाभारते [12. 70. 12 औषधानि च सर्वाणि मूलानि च फलानि च। अपालिताः प्रजा यस्य सर्वा धर्मविनाकृताः // 7 // चतुर्विधांश्च वैद्यान्वै संगृह्णीयाद्विशेषतः // 57 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नटाश्च नर्तकाश्चैव मल्ला मायाविनस्तथा। एकोनसप्ततितमोऽध्यायः // 69 // शोभयेयुः पुरवरं मोदयेयुश्च सर्वशः // 58 7. यतः शङ्का भवेच्चापि भृत्यतो वापि मश्रितः / युधिष्ठिर उवाच / पौरेभ्यो नृपतेर्वापि स्वाधीनान्कारयेत तान् / / 59 दण्डनीतिश्च राजा च समस्तौ तावुभावपि / कृते कर्मणि राजेन्द्र पूजयेद्धनसंचयैः / कस्य किं कुर्वतः सिद्धथै तन्मे ब्रूहि पितामह / / मानेन च यथार्हेण सान्त्वेन विविधेन च // 60 भीष्म उवाच / निर्वेदयित्वा तु परं हत्वा वा कुरुनन्दन / महाभाग्यं दण्डनीत्याः सिद्धैः शब्दैः सहेतुकैः / गतानृण्यो भवेद्राजा यथा शास्त्रेषु दर्शितम् // 61 शृणु मे शंसतो राजन्यथावदिह भारत // 2 राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चापि निबोध मे। दण्डनीतिः स्वधर्मेभ्यश्चातुर्वर्ण्य नियच्छति / आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि // 62 प्रयुक्ता स्वामिना सम्यगधर्मेभ्यश्च यच्छति // 3 तथा जनपदश्चैव पुरं च कुरुनन्दन / चातुर्वर्ण्य स्वधर्मस्थे मर्यादानामसंकरे / एतत्सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः // 63 दण्डनीतिकृते क्षेमे प्रजानामकुतोभये // 4 सोमे प्रयत्नं कुर्वन्ति त्रयो वर्णा यथाविधि / षामुण्यं च त्रिवर्ग च त्रिवर्गमपरं तथा / तस्माद्देवमनुष्याणां सुखं विद्धि समाहितम् // 5 यो वेत्ति पुरुषव्याघ्र स भुनक्ति महीमिमाम्॥६४ कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम् / षाङ्गण्यमिति यत्प्रोक्तं तन्निबोध युधिष्ठिर / इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम् / / संधायासनमित्येव यात्रासंधानमेव च // 65 दण्डनीत्या यदा राजा सम्यक्कास्न्येन वर्तते / विगृह्यासनमित्येव यात्रा संपरिगृह्य च / तदा कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्तते / / 7 द्वैधीभावस्तथान्येषां संश्रयोऽथ परस्य च // 66 भवेत्कृतयुगे धर्मो नाधर्मो विद्यते क्वचित् / त्रिवर्गश्चापि यः प्रोक्तस्तमिहैकमनाः शृणु। सर्वेषामेव वर्णानां नाधर्मे रमते मनः / / 8 क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गमपरं तथा // 67 योगक्षेमाः प्रवर्तन्ते प्रजानां नात्र संशयः / धर्मश्चार्थश्च कामश्च सेवितव्योऽथ कालतः / वैदिकानि च कर्माणि भवन्त्यविगुणान्युत // 9 धर्मेण हि महीपालश्चिरं पालयते महीम् // 68 ऋतवश्च सुखाः सर्वे भवन्त्युत निरामयाः / अस्मिन्नर्थे च यौ श्लोकौ गीतावङ्गिरसा स्वयम् / प्रसीदन्ति नराणां च स्वरवर्णमनांसि च // 10 यादवीपुत्र भद्रं ते श्रोतुमर्हसि तावपि // 69 / व्याधयो न भवन्त्यत्र नाल्पायुर्दश्यते नरः / कृत्वा सर्वाणि कार्याणि सम्यक्संपाल्य मेदिनीम् / विधवा न भवन्त्यत्र नृशंसो नाभिजायते // 11 पालयित्वा तथा पौरान्परत्र सुखमेधते // 70 अकृष्टपच्या पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा / किं तस्य तपसा राज्ञः किं च तस्याध्वरैरपि। / त्वक्पत्रफलमूलानि वीर्यवन्ति भवन्ति च // 12 - 2082 - Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 70. 13 ] शान्तिपर्व [ 12. 71.7 नाधर्मो विद्यते तत्र धर्म एव तु केवलः / ततो वसति दुष्कर्मा नरके शाश्वतीः समाः / इति कार्तयुगानेतान्गुणान्विद्धि युधिष्ठिर // 13 प्रजानां कल्मषे मग्नोऽकीर्तिं पापं च विन्दति // 28 दण्डनीत्या यदा राजा त्रीनंशाननुवर्तते / दण्डनीतिं पुरस्कृत्य विजानन्क्षत्रियः सदा / चतुर्थमंशमुत्सृज्य तदा त्रेता प्रवर्तते // 14 अनवाप्तं च लिप्सेत लब्धं च परिपालयेत् // 29 अशुभस्य चतुर्थांशस्त्रीनंशाननुवर्तते / लोकस्य सीमन्तकरी मर्यादा लोकभावनी / कृष्टपच्यैव पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा // 15 सम्यङ्गीता दण्डनीतिर्यथा माता यथा पिता // 30 अधं त्यक्त्वा यदा राजा नीत्यर्धमनुवर्तते। . यस्यां भवन्ति भूतानि तद्विद्धि भरतर्षभ / ततस्तु द्वापरं नाम स कालः संप्रवर्तते // 16 एष एव परो धर्मो यद्राजा दण्डनीतिमान् // 31 अशुभस्य तदा अधं द्वावंशावनुवर्तते / / तस्मात्कौरव्य धर्मेण प्रजाः पालय नीतिमान् / कृष्टपच्यैव पृथिवी भवत्यल्पफला तथा // 17 एवंवृत्तः प्रजा रक्षन्स्वर्ग जेतासि दुर्जयम् // 32 दण्डनीति परित्यज्य यदा कात्न्येन भूमिपः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रजा क्लिश्नात्ययोगेन प्रविश्यति तदा कलिः॥१८ सप्ततितमोऽध्यायः // 7 // कलावधर्मो भूयिष्ठं धर्मो भवति तु क्वचित् / / 71 सर्वेषामेव वर्णानां स्वधर्माच्यवते मनः // 19 युधिष्ठिर उवाच / शुद्रा भैक्षेण जीवन्ति ब्राह्मणाः परिचर्यया / योगक्षेमस्य नाशश्च वर्तते वर्णसंकरः // 20 केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वर्तमानो महीपतिः / वैदिकानि च कर्माणि भवन्ति विगुणान्युत / सुखेनार्थान्सुखोदर्कानिह च प्रेत्य चाप्नुयात् // 1 ऋतवो नसुखाः सर्वे भवन्त्यामयिनस्तथा // 21 भीष्म उवाच / इसन्ति च मनुष्याणां स्वरवर्णमनांस्युत / इयं गुणानां षट्त्रिंशत्षट्त्रिंशद्गुणसंयुता / व्याधयश्च भवन्त्यत्र म्रियन्ते चागतायुषः // 22 यान्गुणांस्तु गुणोपेतः कुर्वन्गुणमवाप्नुयात् // 2 विधवाश्च भवन्त्यत्र नृशंसा जायते प्रजा / चरेद्धर्मानकटुको मुञ्चेत्स्नेहं न नास्तिकः / कचिद्वर्षति पर्जन्यः कचित्सस्यं प्ररोहति // 23 अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत्काममनुद्धतः // 3 रसाः सर्वे क्षयं यान्ति यदा नेच्छति भूमिपः / प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः / प्रजाः संरक्षितुं सम्यग्दण्डनीतिसमाहितः // 24 / दाता नापात्रवर्षी स्यात्प्रगल्भः स्यादनिष्टुरः // 4 राजा कृतयुगस्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। संदधीत न चानायैर्विगृह्णीयान्न बन्धुभिः / युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम् // 25 नानाप्तैः कारयेच्चारं कुर्यात्कार्यमपीडया // 5 कृतस्य करणाद्राजा स्वर्गमत्यन्तमनुते / अर्थान्यान्न चासत्सु गुणान्यान्न चात्मनः / त्रेतायाः करणाद्राजा स्वर्गं नात्यन्तमश्नुते // 26 आदद्यान्न च साधुभ्यो नासत्पुरुषमाश्रयेत् // 6 प्रवर्तनाद्वापरस्य यथाभागमुपाते। नापरीक्ष्य नयेद्दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत् / कले प्रवर्तनाद्राजा पापमत्यन्तमनुते // 27 विसृजेन्न च लुब्धेभ्यो विश्वसेन्नापकारिषु // 7 -2083 - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 71.8] महाभारते [12. 72. 19 अनीऍगुप्तदारः स्यान्चोक्षः स्यादघृणी नृपः / / अथ सर्वाणि कुर्वीथाः कार्याणि सपुरोहितः // 4 स्त्रियं सेवेत नात्यर्थं मृष्टं भुञ्जीत नाहितम् // 8 / धर्मकार्याणि निर्वयं मङ्गलानि प्रयुज्य च / अस्तब्धः पूजयेन्मान्यान्गुरून्सेवेदमायया। ब्राह्मणान्वाचयेथास्त्वमर्थसिद्धिजयाशिषः // 5 अर्चेद्देवान्नदम्भेन श्रियमिच्छेदकुत्सिताम् // 9 / आर्जवेन च संपन्नो धृत्या बुद्धथा च भारत / सेवेत प्रणयं हित्वा दक्षः स्यान्न त्वकालवित् / अर्थार्थं परिगृह्णीयात्कामक्रोधौ च वर्जयेत् // 6 सान्त्वयेन च भोगार्थमनुगृह्णन्न चाक्षिपेत् // 10 कामक्रोधौ पुरस्कृत्य योऽथ राजानुतिष्ठति / प्रहरेन्न त्वविज्ञाय हत्वा शत्रून शेषयेत् / न स धर्म न चाप्यर्थं परिगृह्णाति बालिशः // 7 क्रोधं कुर्यान्न चाकस्मान्मृदुः स्यान्नापकारिषु // 11 मा स्म लुब्धांश्च मूर्खाश्च कामे चार्थेषु यूयुजः / एवं चरस्व राज्यस्थो यदि श्रेय इहेच्छसि / अलुब्धान्बुद्धिसंपन्नान्सर्वकर्मसु योजयेत् // 8 अतोऽन्यथा नरपतिर्भयमृच्छत्यनुत्तमम् // 12 मूर्यो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः / इति सर्वान्गुणानेतान्यथोक्तान्योऽनुवर्तते। प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन कामद्वेषसमन्वितः // 9 अनुभूयेह भद्राणि प्रेत्य स्वर्गे महीयते // 13 बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम् / वैशंपायन उवाच / शास्त्रनीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम् // 10 इदं वचः शांतनवस्य शुश्रुवा दापयित्वा करं धयं राष्ट्रं नित्यं यथाविधि। . ___ न्युधिष्ठिरः पाण्डवमुख्यसंवृतः / अशेषान्कल्पयेद्राजा योगक्षेमानतन्द्रितः // 11 तदा ववन्दे च पितामहं नृपो गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम् / यथोक्तमेतच्च चकार बुद्धिमान् // 14 अकामद्वेषसंयुक्तमनुरज्यन्ति मानवाः / / 12 मा स्माधर्मेण लाभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्मार्थावध्रुवौ तस्य योऽपशास्त्रपरो भवेत् // 13 एकसप्ततितमोऽध्यायः // 71 // अपशास्त्रपरो राजा संचयान्नाधिगच्छति / ___72 अस्थाने चास्य तद्वित्तं सर्वमेव विनश्यति // 15 युधिष्ठिर उवाच / अर्थमूलोऽपहिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः / कथं राजा प्रजा रक्षन्नाधिबन्धेन युज्यते / करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात्संपीडयन्प्रजाः // 15 धर्मे च नापराध्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 ऊधश्छिन्द्याद्धि यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत्पयः / भीष्म उवाच / एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न विवर्धते // 16 . समासेनैव ते तात धर्मान्वक्ष्यामि निश्वितान् / / यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते तु स नित्यं लभते पयः / विस्तरेण हि धर्माणां न जात्वन्तमवाप्नुयात् // 2 एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम् // 17 धर्मनिष्ठाञ्श्रुतवतो वेदव्रतसमाहितात् / अथ राष्ट्रमुपायेन भुज्यमानं सुरक्षितम् / अर्चितान्वासथास्त्वं गृहे गुणवतो द्विजान् // 3 / जनयत्यतुलां नित्यं कोशवृद्धिं युधिष्ठिर // 18 प्रत्युत्थायोपसंगृह्य चरणावभिवाद्य च / दोग्धि धान्यं हिरण्यं च प्रजा राज्ञि सुरक्षिता / - 2084 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 72. 19 ] शान्तिपर्व [12. 73. 10 नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः॥१९ / इन्द्रं तर्पय सोमेन कामैश्च सुहृदो जनान् // 33 मालाकारोपमो राजन्भव माङ्गारिकोपमः। / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तथा युक्तश्चिरं राष्ट्रं भोक्तुं शक्यसि पालयन् // 20 द्विसप्ततितमोऽध्यायः // 72 // परचक्राभियानेन यदि ते स्याद्धनक्षयः / 73 अथ साम्नैव लिप्सेथा धनमब्राह्मणेषु यत् / / 21 भीष्म उवाच। मा स्म ते ब्राह्मणं दृष्ट्वा धनस्थं प्रचलेन्मनः / य एव तु सतो रक्षेदसतश्च निबर्हयेत् / अन्त्यायामप्यवस्थायां किमु स्फीतस्य भारत // 22 स एव राजा कर्तव्यो राजनराजपुरोहितः॥१ धनानि तेभ्यो दद्यास्त्वं यथाशक्ति यथार्हतः।। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सान्त्वयन्परिरक्षंश्च स्वर्गमाप्स्यसि दुर्जयम् / / 23 पुरूरवस ऐलस्य संवादं मातरिश्वनः // 2 एवं धर्मेण वृत्तेन प्रजास्त्वं परिपालयन् / ऐल उवाच / स्वन्तं पुण्यं यशोवन्तं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन // 24 कुतः स्विद्भाह्मणो जातो वर्णाश्चापि कुतस्त्रयः / धर्मेण व्यवहारेण प्रजाः पालय पाण्डव / कस्माच्च भवति श्रेयानेतद्वायो विचक्ष्व मे // 3 युधिष्ठिर तथा युक्तो नाधिबन्धेन योक्ष्यसे // 25 वायुरुषाच। एष एव परो धर्मो यद्राजा रक्षते प्रजाः / ब्रह्मणो मुखतः सृष्टो ब्राह्मणो राजसत्तम। भूतानां हि यथा धर्मे रक्षणं च परा दया // 26 बाहुभ्यां क्षत्रियः सृष्ट ऊरुभ्यां वैश्य उच्यते // 4 तस्मादेवं परं धर्म मन्यन्ते धर्मकोविदाः / वर्णानां परिचर्यार्थं त्रयाणां पुरुषर्षभ / यद्राजा रक्षणे युक्तो भूतेषु कुरुते दयाम् // 27 वर्णश्चतुर्थः पश्चात्तु पद्भयां शूद्रो विनिर्मितः // 5 यदह्ना कुरुते पापमरक्षन्भयतः प्रजाः। ब्राह्मणो जातमात्रस्तु पृथिवीमन्वजायत / राजा वर्षसहस्रेण तस्यान्तमधिगच्छति // 28 ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये // 6 यदह्ना कुरुते पुण्यं प्रजा धर्मेण पालयन् / ततः पृथिव्या गोप्तारं क्षत्रियं दण्डधारिणम् / दश वर्षसहस्राणि तस्य भुङ्क्ते फलं दिवि // 29 द्वितीयं वर्णमकरोत्प्रजानामनुगुप्तये // 7 खिष्टिः स्वधीतिः सुतपा लोकाञ्जयति यावतः। वैश्यस्तु धनधान्येन त्रीन्वर्णान्विभृयादिमान् / क्षणेन तानवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् // 30 शूद्रो ह्येनान्परिचरेदिति ब्रह्मानुशासनम् // 8 एवं धर्म प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालयन् / ऐल उवाच / इह पुण्यफलं लब्ध्वा नाधिबन्धेन योक्ष्यसे // 31 द्विजस्य क्षत्रबन्धोर्वा कस्येयं पृथिवी भवेत् / स्वर्गलोके च महतीं श्रियं प्राप्स्यसि पाण्डव / / धर्मतः सह वित्तेन सम्यग्वायो प्रचक्ष्व मे // 9 असंभवश्च धर्माणामीदृशानामराजसु / वायुरुवाच। तस्माद्राजैव नान्योऽस्ति यो महत्फलमाप्नुयात्॥३२ - विप्रस्य सर्वमेवैतद्यत्किचिजगतीगतम् / स राज्यमृद्धिमत्प्राप्य धर्मेण परिपालयन् / ज्येष्ठेनाभिजनेनेह तद्धर्मकुशला विदुः // 10 -2085 - Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 73. 11] महाभारते [12. 74.9 74 स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते खं ददाति च। इन्द्रो राजा यमो राजा धर्मो राजा तथैव च / गुरुर्हि सर्ववर्णानां ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च वै द्विजः // 11 / राजा बिभर्ति रूपाणि राज्ञा सर्वमिदं धृतम् // 26 पत्यभावे यथा स्त्री हि देवरं कुरुते पतिम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आनन्तर्यात्तथा क्षत्रं पृथिवी कुरुते पतिम् // 12 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः // 73 // एष ते प्रथमः कल्प आपद्यन्यो भवेदतः / यदि स्वर्गे परं स्थानं धर्मतः परिमार्गसि // 13 भीष्म उवाच / यः कश्चिद्विजयेद्भूमिं ब्राह्मणाय निवेदयेत् / राज्ञा पुरोहितः कार्यो भवेद्विद्वान्बहुश्रुतः।। श्रुतवृत्तोपपन्नाय धर्मज्ञाय तपस्विने // 14 उभौ समीक्ष्य धर्मार्थावप्रमेयावनन्तरम् // 1 . स्वधर्मपरितृप्ताय यो न वित्तपरो भवेत् / धर्मात्मा धर्मविद्येषां राज्ञां राजन्पुरोहितः। यो राजानं नयेद्बुद्धया सर्वतः परिपूर्णया // 15 राजा चैवंगुणो येषां कुशलं तेषु सर्वशः // 2 ब्राह्मणो हि कुले जातः कृतप्रज्ञो विनीतवाक। उभौ प्रजा वर्धयतो देवान्पूर्वान्परान्पितॄन् / श्रेयो नयति राजानं ब्रुवंश्चित्रां सरस्वतीम् // 16 यौ समेयास्थितौ धर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ // 3 राजा चरति यं धर्मं ब्राह्मणेन निदर्शितम् / परस्परस्य सुहृदौ संमतौ समचेतसौ। शुश्रूषुरनहंवादी क्षत्रधर्मव्रते स्थितः // 17 ब्रह्मक्षत्रस्य संमानात्प्रजाः सुखमवाप्नुयुः // 4 तावता स कृतप्रज्ञश्चिरं यशसि तिष्ठति / विमाननात्तयोरेव प्रजा नश्येयुरेव ह। : तस्य धर्मस्य सर्वस्य भागी राजपुरोहितः // 18 ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां धर्माणां मूलमुच्यते // 5 एवमेव प्रजाः सर्वा राजानमभिसंश्रिताः। अत्राप्युदाहरन्तीमभितिहासं पुरातनम् / सम्यग्वृत्ताः स्वधर्मस्था न कुतश्चिद्भयान्विताः // 19 ऐलकश्यपसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर // 6 राष्ट्र चरन्ति यं धर्मं राज्ञा साध्वभिरक्षिताः। - ऐल उवाच / चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भागं स विन्दति // 20 यदा हि ब्रह्म प्रजहाति क्षत्रं देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः / क्षत्रं यदा प्रजहाति ब्रह्म / यज्ञमेवोपजीवन्ति नास्ति चेष्टमराजके / / 21 अन्वग्बलं कतमेऽस्मिन्भजन्ते इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा / तथाबल्यं कतमेऽस्मिन्वियन्ति // 7 राजन्येवास्य धर्मस्य योगक्षेमः प्रतिष्ठितः // 22 कश्यप उवाच। छायायामप्सु वायौ च सुखमुष्णेऽधिगच्छति / व्युद्धं राष्ट्र भवति क्षत्रियस्य अग्नौ वाससि सूर्ये च सुखं शीतेऽधिगच्छति // 23 ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुध्यते ह / शब्दे स्पर्शे रसे रूपे गन्धे च रमते मनः / अन्वग्बलं दस्यवस्तद्भजन्तेतेषु भोगेषु सर्वेषु नभीतो लभते सुखम् // 24 ऽबल्यं तथा तत्र वियन्ति सन्तः // 8 अभयस्यैव यो दाता तस्यैव सुमहत्फलम्। ' नैषामुक्षा वर्धते नोत उस्रा न हि प्राणसमं दानं त्रिषु लोकेषु विद्यते // 25 न गर्गरो मथ्यते नो यजन्ते। -2086 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 74.9] [12. 74.23 शान्तिपर्व नैषां पुत्रा वेदमधीयते च ऐल उवाच। ___ यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति // 9 कुतो रुद्रः कीदृशो वापि रुद्रः नैषामुक्षा वर्धते जातु गेहे ___ सत्त्वैः सत्त्वं दृश्यते वध्यमानम् / नाधीयते सप्रजा नो यजन्ते। एतद्विद्वन्कश्यप मे प्रचक्ष्व अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति यतो रुद्रो जायते देव एषः // 18 ___ ये ब्राह्मणाः क्षत्रियान्संत्यजन्ति // 10 कश्यप उवाच / एतौ हि नित्यसंयुक्तावितरेतरधारणे / आत्मा रुद्रो हृदये मानवानां क्षत्रं हि ब्रह्मणो योनिर्योनिः क्षत्रस्य च द्विजाः॥११ ___ स्वं खं देहं परदेहं च हन्ति / उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ वातोत्पातैः सदृशं रुद्रमाहु___ संप्रापतुर्महतीं श्रीप्रतिष्ठाम् / वैर्जीमूतैः सदृशं रूपमस्य // 19 तयोः संधिर्भिद्यते चेत्पुराण ऐल उवाच / स्ततः सर्वं भवति हि संप्रमूढम् // 12 न वै वातं परिवृणोति कश्चिनात्र प्लवं लभते पारगामी न्न जीमूतो वर्षति नैव दावः / . महागाधे नौरिव संप्रणुन्ना / तथायुक्तो दृश्यते मानवेषु - चातुर्वयं भवति च संप्रमूढं कामद्वेषाद्वध्यते मुच्यते च // 20 ततः प्रजा क्षयसंस्था भवन्ति // 13 __ कश्यप उवाच / ब्रह्मवृक्षो रक्ष्यमाणो मधु हेम च वर्षति / यथैकगेहे जातवेदाः प्रदीप्तः अरक्ष्यमाणः सततमश्रु पापं च वर्षति // 14 अब्रह्मचारी चरणादपेतो ___ कृत्स्नं ग्रामं प्रदहेत्स त्वरावान् / विमोहनं कुरुते देव एष ...यदा ब्रह्मा ब्रह्मणि त्राणमिच्छेत् / आश्चर्यशो वर्षति तत्र देव ततः सर्वं स्पृश्यते पुण्यपापैः // 21 -स्तत्राभीक्ष्णं दुःसहाश्चाविशन्ति // 15 ऐल उवाच / स्त्रियं हत्वा ब्राह्मणं वापि पापः यदि दण्डः स्पृशते पुण्यभाज सभायां यत्र लभतेऽनुवादम् / ___ पापैः पापे क्रियमाणेऽविशेषात् / राज्ञः सकाशे न बिभेति चापि कस्य हेतोः सुकृतं नाम कुर्या। ततो भयं जायते क्षत्रियस्य // 16 दुष्कृतं वा कस्य हेतोर्न कुर्यात् // 22 पापैः पापे क्रियमाणेऽतिवेलं ___ कश्यप उवाच / ततो रुद्रो जायते देव एषः। असंत्यागात्पापकृतामपापां पापैः पापाः संजनयन्ति रुद्रं स्तुल्यो दण्डः स्पृश्यते मिश्रभावात् / / ततः सर्वान्साध्वसाधून्हिनस्ति // 17 / शुष्केणाई दह्यते मिश्रभावा -2087 - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 74. 23 ] महाभारते [ 12. 75. 18 न मिश्रः स्यात्पापकृद्भिः कथंचित् // 23 ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतो ब्रह्म वर्धते // 32 ऐल उवाच / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि साध्वसाधुन्धारयतीह भूमिः चतुःसप्ततितमोऽध्यायः // 7 // साध्वसाधूंस्तापयतीह सूर्यः। साध्वसाधून्वातयतीह वायु भीष्म उवाच / रापस्तथा साध्वसाधून्वहन्ति // 24 योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते / कश्यप उवाच / योगक्षेमश्च राज्ञोऽपि समायत्तः पुरोहिते // 1 एवमस्मिन्वर्तते लोक एव यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत / नामुत्रैवं वर्तते राजपुत्र / दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद्राष्ट्रं सुखमेधते // 2 प्रेत्यैतयोरन्तरवान्विशेषो अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / . यो वै पुण्यं चरते यश्च पापम् // 25 मुचुकुन्दस्य संवादं राज्ञो वैश्रवणस्य च // 3 पुण्यस्य लोको मधुमान्घृतार्चि मुचुकुन्दो विजित्येमां पृथिवीं पृथिवीपतिः / हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः / जिज्ञासमानः स्वबलमभ्ययादलकाधिपम् // 4 तत्र प्रेत्य मोदते ब्रह्मचारी ततो वैश्रवणो राजा रक्षांसि समवासृजत् / न तत्र मृत्युनं जरा नोत दुःखम् // 26 ते बलान्यवमृद्गन्तः प्राचरंस्तस्य नैताः // 5 पापस्य लोको निरयोऽप्रकाशो स हन्यमाने सैन्ये स्वे मुचुकुन्दो नराधिपः / नित्यं दुःखः शोकभूयिष्ठ एव / गर्हयामास विद्वांसं पुरोहितमरिंदमः // 6 तत्रात्मानं शोचते पापकर्मा तत उग्रं तपस्तप्त्वा वसिष्ठो ब्रह्मवित्तमः / बह्वीः समाः प्रपतन्नप्रतिष्ठः // 27 रक्षांस्यपावधीत्तत्र पन्थानं चाप्यविन्दत // 7 मिथो भेदाब्राह्मणक्षत्रियाणां ततो वैश्रवणो राजा मुचुकुन्दमदर्शयत् / प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति / वध्यमानेषु सैन्येषु वचनं चेदमब्रवीत् // 8 एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह विद्वा त्वत्तो हि बलिनः पूर्व राजानः सपुरोहिताः / न्पुरोहितो नैकविद्यो नृपेण / / 28 न चैवं समवर्तस्ते यथा त्वमिह वर्तसे // 9 तं चैवान्वभिषिच्येत तथा धर्मो विधीयते / ते खल्वपि कृतास्त्राश्च बलवन्तश्च भूमिपाः। अग्र्यो हि ब्राह्मणः प्रोक्तः सर्वस्यैवेह धर्मतः // 29 आगम्य पर्युपासन्ते मामीशं सुखदुःखयोः // 10 पूर्व हि ब्राह्मणाः सृष्टा इति धर्मविदो विदुः। यद्यस्ति बाहुवीयं ते तदर्शयितुमर्हसि। ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं सर्वं यदुत्तरम् / / 30 किं ब्राह्मणबलेन त्वमतिमात्रं प्रवर्तसे // 11 तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताप्रभुक् / मुचुकुन्दस्ततः क्रुद्धः प्रत्युवाच धनेश्वरम् / सर्व श्रेष्ठं वरिष्ठं च निवेद्यं तस्य धर्मतः // 31 न्यायपूर्वमसंरब्धमसंभ्रान्तमिदं वचः // 12 अवश्यमेतत्कर्तव्यं राज्ञा बलवतापि हि / ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टमेकयोनि स्वयंभुवा / - 2088 - Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 75. 13] शान्तिपर्व [12. 76. 16 पृथग्बलविधानं च तल्लोकं परिरक्षति // 13 उपवासतपःशीलः प्रजानां पालने रतः // 2 तपोमत्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम् / सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयेत् / अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् // 14 उत्थानेनाप्रमादेन पूजयेञ्चैव धार्मिकान् // 3 ताभ्यां संभूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम् / राज्ञा हि पूजितो धर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते / तथा च मां प्रवर्तन्तं गर्हयस्यलकाधिप // 15 यद्यदाचरते राजा तत्प्रजानां हि रोचते // 4 ततोऽब्रवीद्वैश्रवणो राजानं सपुरोहितम्। नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु / नाहं राज्यमगिर्दिष्टं कस्मैचिद्विदधाम्युत / / 16 निहन्यात्सर्वतो दस्यून्न कामात्कस्यचिरक्षमेत् // 5 नाच्छिन्दे चापि निर्दिष्टमिति जानीहि पार्थिव / यं हि धर्म चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः / प्रशाधि पृथिवीं वीर मद्दत्तामखिलामिमाम् // 17 चतुर्थ तस्य धर्मस्य राजा भारत विन्दति // 6 मुचुकुन्द उवाच / यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदर्चति / नाहं राज्यं भवदत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव / राजा चतुर्थभाक्तस्य प्रजा धर्मेण पालयन् // 7 बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्नीयामिति कामये // 18 यद्राष्ट्रेऽकुशलं किंचिद्राज्ञोऽरक्षयतः प्रजाः। भीष्म उवाच / चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति // 8 अप्याहुः सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः / ततो वैश्रवणो राजा विस्मयं परमं ययौ। कर्मणः पृथिवीपाल नृशंसोऽनृतवागपि / क्षत्रधर्मे स्थितं दृष्ट्वा मुचुकुन्दमसंभ्रमम // 19 तादृशात्किल्बिषाद्राजा शृणु येन प्रमुच्यते // 9 ततो राजा मुचुकुन्दः सोऽन्वशासद्वसुंधराम् / प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद्धनं चोरैहृतं यदि / बाहवीर्यार्जितां सम्यक्क्षत्रधर्ममनवतः // 20 स्वकोशात्तत्प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवता // 10 एवं यो ब्रह्मविद्राजा ब्रह्मपूर्व प्रवर्तते / जयत्यविजितामु: यशश्व महदभुते // 21 सर्ववर्णैः सदा रक्ष्यं ब्रह्मस्वं ब्राह्मणास्तथा / न स्थेयं विषये तेषु योऽपकुर्याहिजातिषु // 11 नित्योदको ब्राह्मणः स्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः / तयोहि सर्वमायत्तं यत्किचिजगतीगतम् / / 22 ब्रह्मस्वे रक्ष्यमाणे हि सर्वं भवति रक्षितम् / तेषां प्रसादे निर्वृत्ते कृतकृत्यो भवेन्नृपः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पर्जन्यभिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः। पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः // 75 // नरास्तमुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम् // 13 ____ 76 न हि कामात्मना राज्ञा सततं शठबुद्धिना / युधिष्ठिर उवाच / नृशंसेनातिलुब्धेन शक्याः पालयितुं प्रजाः // 14 यया वृत्त्या महीपालो विवर्धयति मानवान् / युधिष्ठिर उवाच। पुण्यांश्च लोकाञ्जयति तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 नाहं राज्यसुखान्वेषी राज्यमिच्छाम्यपि क्षणम् / भीष्म उवाच / धर्मार्थं रोचये राज्यं धर्मश्चात्र न विद्यते // 15 दानशीलो भवेद्राजा यज्ञशीलश्च भारत / / तदलं मम राज्येन यत्र धर्मो न विद्यते / म. भा. 262 -2089 - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 76. 16 ] महाभारते [12. 77.4 वनमेव गमिष्यामि तस्माद्धर्मचिकीर्षया // 16 / / दानेनान्यं बलेनान्यमन्यं सूनृतया गिरा। तत्र मेध्येष्वरण्येषु न्यस्तदण्डो जितेन्द्रियः / सर्वतः परिगृह्णीयाद्राज्यं प्राप्येह धार्मिकः // 31 धर्ममाराधयिष्यामि मुनिर्मूलफलाशनः // 17 यं हि वैद्याः कुले जाता अवृत्तिभयपीडिताः / भीष्म उवाच / प्राप्य तृप्ताः प्रतिष्ठन्ति धर्मः कोऽभ्यधिकस्ततः॥३: वेदाहं तव या बुद्धिरानृशंस्यगुणैव सा। युधिष्ठिर उवाच। न च शुद्धानृशंस्येन शक्यं महदुपासितुम् // 18 किं न्वतः परमं स्वयं का न्यतः प्रीतिरुत्तमा / अपि तु त्वा मृदुं दान्तमत्यार्यमतिधार्मिकम् / किं न्वतः परमैश्वर्यं ब्रूहि मे यदि मन्यसे // 3 क्लीबं धर्मघृणायुक्तं न लोको बहु मन्यते // 19 राजधर्मानवेक्षस्व पितृपैतामहोचितान् / भीष्म उवाच। नैतद्राज्ञामथो वृत्तं यथा त्वं स्थातुमिच्छसि // 20 यस्मिन्प्रतिष्ठिताः सम्यक्क्षेमं विन्दन्ति तत्क्षणम् / न हि वैक्लव्यसंसृष्टमानृशंस्यमिहास्थितः / स स्वर्गजित्तमोऽस्माकं सत्यमेतद्रवीमि ते // 34 त्वमेव प्रीतिमांस्तस्मात्कुरूणां कुरुसत्तम / प्रजापालनसंभूतं प्राप्ता धर्मफलं ह्यसि // 21 / / न ह्येतामाशिष पाण्डुन च कुन्त्यन्वयाचत / / भव राजा जय स्वर्ग सतो रक्षासतो जहि // 3 न चैतां प्राज्ञतां तात यया चरसि मेधया // 22 अनु त्वा तात जीवन्तु सुहृदः साधुभिः सह। शौर्य बलं च सत्त्वं च पिता तब सदाब्रवीत् / पर्जन्यमिव भूतानि स्वादुद्रुममिवाण्डजाः // 36 माहात्म्यं बलमौदार्य तव कुन्त्यन्वयाचत // 23 धृष्टं शूरं प्रहर्तारमनृशंसं जितेन्द्रियम् / नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यमुभे मानुषदैवते / वत्सलं संविभक्तारमनु जीवन्तु त्वां जनाः // 3 पुढेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च // 24 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि दानमध्ययनं यज्ञः प्रजानां परिपालनम् / षट्सप्ततितमोऽध्यायः // 76 // धर्ममेतमधर्म वा जन्मनैवाभ्यजायिथाः // 25 काले धुरि नियुक्तानां वहतां भार आहिते / युधिष्ठिर उवाच / सीदतामपि कौन्तेय न कीर्तिरवसीदति // 26 स्वकर्मण्यपरे युक्तास्तथैवान्ये विकर्मणि / समन्ततो विनियतो वहत्यस्खलितो हि यः। तेषां विशेषमाचक्ष्व ब्राह्मणानां पितामह // 1 निर्दोषकर्मवचनासिद्धिः कर्मण एव सा // 27 भीष्म उवाच / नैकान्तविनिपातेन विचचारेह कश्चन। विद्यालक्षणसंपन्नाः सर्वत्राम्नायदर्शिनः / धर्मी गृही वा राजा वा ब्रह्मचार्यथ वा पुनः // 28 एते ब्रह्मसमा राजन्ब्राह्मणाः परिकीर्तिताः // 2 अल्पं तु साधुभूयिष्ठं यत्कर्मोदारमेव तत् / ऋत्विगाचार्यसंपन्नाः स्वेषु कर्मस्ववस्थिताः / कृतमेवाकृताच्छ्रेयो न पापीयोऽस्त्यकर्मणः // 29 / एते देवसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत // 3 यदा कुलीनो धर्मज्ञः प्राप्नोत्यैश्वर्यमुत्तमम् / ऋत्विक्पुरोहितो मत्री दूतोऽथार्थानुशासकः / योगक्षेमस्तदा राजन्कुशलायैव कल्पते // 30 / एते क्षत्रसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत // 4 -2090 - Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 77. 5] शान्तिपर्व [12. 78. 17 अश्वारोहा गजारोहा रथिनोऽथ पदातयः / इति राज्ञां पुरावृत्तमभिजल्पन्ति साधवः // 3 एते वैश्यसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत // 5 यस्य स्म विषये राज्ञः स्तेनो भवति वै द्विजः / जन्मकर्मविहीना ये कदर्या ब्रह्मबन्धवः / राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते किल्बिषं नृप // 4 एते शूद्रसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत // 6 अभिशस्तमिवात्मानं मन्यन्ते तेन कर्मणा। अश्रोत्रियाः सर्व एव सर्वे चानाहिताग्नयः / तस्माद्राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणानन्वपालयन् // 5 तान्सन्धिार्मिको राजा बलिं विष्टिं च कारयेत् // अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / आह्वायका देवलका नक्षत्रग्रामयाजकाः / गीतं केकयराजेन ह्रियमाणेन रक्षसा // 6 एते ब्राह्मणचण्डाला महापथिकपञ्चमाः // 8 केकयानामधिपतिं रक्षो जग्राह दारुणम् / एतेभ्यो बलिमादद्याद्धीनकोशो महीपतिः / स्वाध्यायेनान्वितं राजन्नरण्ये संशितव्रतम् // 7 ऋते ब्रह्मसमेभ्यश्च देवकल्पेभ्य एव च // 9 राजोवाच / अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम् / न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः / ब्राह्मणानां च ये केचिद्विकर्मस्था भवन्त्युत // 10 नानाहिताग्नि यज्वा मामकान्तरमाविशः // 8 विकर्मस्थास्तु नोपेक्ष्या जातु राज्ञा कथंचन।। न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान्नावती नाप्यसोमपः / नियम्याः संविभज्याश्च धर्मानुग्रहकाम्यया // 11 नानाहिताग्निर्विषये मामकान्तरमाविशः // 9 यस्य स्म विषये राज्ञः स्तेनो भवति वै द्विजः। नानाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते विषये मम / राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते तद्विदो जनाः / / 12 / अधीते नाव्रती कश्चिन्मामकान्तरमाविशः // 10 अवृत्त्या यो भवेत्स्तेनो वेदवित्स्नातकस्तथा। अधीयतेऽध्यापयन्ति यजन्ते याजयन्ति च / राजन्स राज्ञा भर्तव्य इति धर्मविदो विदुः // 13 / ददति प्रतिगृह्णन्ति षट्सु कर्मस्ववस्थिताः // 11 स चेन्नो परिवर्तेत कृतवृत्तिः परंतप / पूजिताः संविभक्ताश्च मृदवः सत्यवादिनः / ततो निर्वासनीयः स्यात्तस्माद्देशात्सबान्धवः // 14 ब्राह्मणा मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मविशारदाः / सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥ 77 // नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते न च याजकाः // 13 ब्राह्मणान्परिरक्षन्ति संग्रामेष्वपलायिनः / युधिष्ठिर उवाच। क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः // 14 केषां राजा प्रभवति वित्तस्य भरतर्षभ / कृषिगोरक्षवाणिज्यमुपजीवन्त्यमायया / कया च वृत्त्या वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अप्रमत्ताः क्रियावन्तः सुव्रताः सत्यवादिनः // 15 भीष्म उवाच। संविभागं दमं शौचं सौहृदं च व्यपाश्रिताः / अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम् / मम वैश्याः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः // 16 ब्राह्मणानां च ये केचिद्विकर्मस्था भवन्त्युत // 2 त्रीन्वर्णाननुतिष्ठन्ति यथावदनसूयकाः / विकर्मस्थाश्च नोपेक्ष्या विप्रा राज्ञा कथंचन।। मम शूद्राः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः // 17 -2091 - 78 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 78. 18 ] महाभारते [12. 79.6 कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम् / न रक्षोभ्यो भयं तेषां कुत एव तु मानुषात् // 30 संविभक्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः // 18 / येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्मबलं बलम् / कुलदेशादिधर्माणां प्रथितानां यथाविधि / प्रियातिथ्यास्तथा दारास्ते वै स्वर्गजितो नराः // 31 अव्युच्छेत्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः // 19 भीष्म उवाच / तपस्विनो मे विषये पूजिताः परिपालिताः। तस्माद्विजातीरक्षेत ते हि रक्षन्ति रक्षिताः / संविभक्ताश्च सत्कृत्य मामकान्तरमाविशः / / 20 / आशीरेषां भवेद्राज्ञां राष्ट्रं सम्यक्प्रवर्धते // 32 नासंविभज्य भोक्तास्मि न विशामि परस्त्रियम् / तस्माद्राज्ञा विशेषेण विकर्मस्था द्विजातयः / / स्वतत्रो जातु न क्रीडे मामकान्तरमाविशः // 21 नियम्याः संविभज्याश्च प्रजानुग्रहकारणात् // 33 नाब्रह्मचारी भिक्षावान्भिक्षुब्रह्मचारिकः / / य एवं वर्तते राजा पौरजानपदेष्विह / अनृत्विजं हुतं नास्ति मामकान्तरमाविशः // 22 अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् / / 34 नावजानाम्यहं वृद्धान्न वैद्यान्न तपस्विनः / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राष्ट्रे स्वपति जागर्मि मामकान्तरमाविशः // 23 ___अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥ 78 // वेदाध्ययनसंपन्नस्तपस्वी सर्वधर्मवित् / स्वामी सर्वस्य राज्यस्य श्रीमान्मम पुरोहितः॥ 24 युधिष्ठिर उवाच / दानेन दिव्यानभिवाञ्छामि लोका व्याख्याता क्षत्रधर्मेण वृत्तिरापत्सु भारत / न्सत्येनाथो ब्राह्मणानां च गुप्त्या / कथंचिद्वैश्यधर्मेण जीवेद्वा ब्राह्मणो न वा // 1 शुश्रूषया चापि गुरूनुमि ___ भीष्म उवाच / न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः // 25 अशक्तः क्षत्रधर्मेण वैश्यधर्मेण वर्तयेत् / न मे राष्ट्र विधवा ब्रह्मबन्धु कृषिगोरक्षमास्थाय व्यसने वृत्तिसंक्षये // 2 न ब्राह्मणः कृपणो नोत चोरः। युधिष्ठिर उवाच / न पारजायी न च पापकर्मा ___ न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः // 26 कानि पण्यानि विक्रीणन्स्वर्गलोकान्न हीयते / न मे शस्त्रैरनिर्भिन्नमङ्गे व्यङ्गुलमन्तरम् / ब्राह्मणो वैश्यधर्मेण वर्तयन्भरतर्षभ // 3 धर्मार्थं युध्यमानस्य मामकान्तरमाविशः // 27 भीष्म उवाच / गोब्राह्मणे च यज्ञे च नित्यं स्वस्त्ययनं मम / सुरा लवणमित्येव तिलान्केसरिणः पशून् / आशासते जना राष्ट्रे मामकान्तरमाविशः // 28 ऋषभान्मधु मांसं च कृतान्नं च युधिष्ठिर // 4 राक्षस उवाच / सर्वास्ववस्थास्वेतानि ब्राह्मणः परिवर्जयेत् / यस्मात्सर्वास्ववस्थासु धर्ममेवान्यवेक्षसे / एतेषां विक्रयात्तात ब्राह्मणो नरकं व्रजेत् // 5 तस्मात्प्राप्नुहि कैकेय गृहान्स्वस्ति व्रजाम्यहम् // 29 / अजोऽग्निर्वरुणो मेपः सूर्योऽश्वः पृथिवी विराट् / येषां गोब्राह्मणा रक्ष्याः प्रजा रक्ष्याश्च केकय / धेनुर्यज्ञश्च सोमश्च न विक्रेयाः कथंचन // 6 - 2092 - Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 79.7] शान्तिपर्व [ 12. 79. 33 पक्केनामस्य निमयं न प्रशंसन्ति साधवः / ___ भीष्म उवाच / निमयेत्पकमामेन भोजनार्थाय भारत // 7 तपसा ब्रह्मचर्येण शस्त्रेण च बलेन च / वयं सिद्धमशिष्यामो भवान्साधयतामिदम् / अमायया मायया च नियन्तव्यं तदा भवेत् // 20 एवं समीक्ष्य निमयन्नाधर्मोऽस्ति कदाचन / / 8 क्षत्रस्याभिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणेषु विशेषतः / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा धर्मः पुरातनः / ब्रह्मैव संनियन्तृ स्यात्क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् // 21 व्यवहारप्रवृत्तानां तन्निबोध युधिष्ठिर // 9 अभ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् / भवतेऽहं ददानीदं भवानेतत्प्रयच्छतु / / तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति // 22 रुचिते वर्तते धर्मो न बलात्संप्रवर्तते // 10 यदा छिनत्त्ययोऽश्मानमग्निश्चापोऽभिपद्यते / इत्येवं संप्रवर्तन्त व्यवहाराः पुरातनाः / क्षत्रं च ब्राह्मणं द्वेष्टि तदा शाम्यन्ति ते त्रयः / / 23 ऋषीणामितरेषां च साधु चेदमसंशयम् // 11 तस्माद्ब्रह्मणि शाम्यन्ति क्षत्रियाणां युधिष्ठिर / युधिष्ठिर उवाच। समुदीर्णान्यजेयानि तेजांसि च बलानि च // 24 अथ तात यदा सर्वाः शसमाददते प्रजाः / ब्रह्मवीर्ये मृदूभूते क्षत्रवीर्ये च दुर्बले / व्युत्क्रामन्ति स्वधर्मेभ्यः क्षत्रस्य क्षीयते बलम् // 12 दुष्टेषु सर्ववर्णेषु ब्राह्मणान्प्रति सर्वशः // 25 राजा त्राता न लोके स्यातिक तदा स्यात्परायणम् / ये तत्र युद्धं कुर्वन्ति त्यक्त्वा जीवितमात्मनः / एतन्मे संशयं ब्रूहि विस्तरेण पितामह // 13 ब्राह्मणान्परिरक्षन्तो धर्ममात्मानमेव च // 26 मनस्विनो मन्युमन्तः पुण्यलोका भवन्ति ते / भीष्म उवाच / ब्राह्मणार्थं हि सर्वेषां शस्त्रग्रहणमिष्यते // 27 दानेन तपसा यज्ञैरद्रोहेण दमेन च। अति स्विष्टस्वधीतानां लोकानति तपस्विनाम् / ब्राह्मणप्रमुखा वर्णाः क्षेममिच्छेयुरात्मनः // 14 अनाशकाग्योर्विशतां शूरा यान्ति परां गतिम् / तेषां ये वेदबलिनस्त उत्थाय समन्ततः / एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्म विदुर्जनाः // 28 राज्ञो बलं वर्धयेयुर्महेन्द्रस्येव देवताः // 15 तेभ्यो नमश्च भद्रं च ये शरीराणि जुह्वति / राज्ञो हि क्षीयमाणस्य ब्रह्मेवाहुः परायणम / ब्रह्मद्विपो नियच्छन्तस्तेषां नोऽस्तु सलोकता। तस्माद्ब्रह्मबलेनैव समुत्थेयं विजानता // 16 ब्रह्मलोकजितः स्वान्वीरांस्तान्मनुरब्रवीत् / / 29 यदा तु विजयी राजा क्षेमं राष्ट्रेऽभिसंदधेत् / यथाश्वमेधावभृथे नाताः पूता भवन्त्युत / तदा वर्णा यथाधर्ममाविशेयुः स्वकर्मसु // 17 दुष्कृतः सुकृतश्चैव तथा शस्त्रहता रणे // 30 उन्मर्यादे प्रवृत्ते तु दस्युभिः संकरे कृते / / भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्माधर्मावुभावपि / सर्वे वर्णा न दुष्येयुः शस्त्रवन्तो युधिष्ठिर // 18 कारणाद्देशकालस्य देशकालः स तादृशः // 31 युधिष्ठिर उवाच / मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो जयन्ति स्वर्गमुत्तमम् / अथ चेत्सर्वतः क्षत्रं प्रदुष्येद्ब्राह्मणान्प्रति / धाः पापानि कुर्वन्तो गच्छन्ति परमां गतिम् // 32 कस्तस्य ब्राह्मणनाता को धर्मः किं परायणम् // 19 / ब्राह्मणस्त्रिपु कालेषु शस्त्रं गृह्णन्न दुष्यति / -2093 - Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 79. 33 ] महाभारते [12. 80. 14 %3 आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्गस्य नियमेषु च // 33 भीष्म उवाच / युधिष्ठिर उवाच / प्रतिकर्म पुराचार ऋत्विजां स्म विधीयते / अभ्युत्थिते दस्युबले क्षत्रार्थे वर्णसंकरे। आदी छन्दांसि विज्ञाय द्विजानां श्रुतमेव च // संप्रमूढेषु वर्णेषु यद्यन्योऽभिभवेदली // 34 ये त्वेकरतयो नित्यं धीरा नाप्रियवादिनः / ब्राह्मणो यदि वा वैश्यः शूद्रो वा राजसत्तम।। परस्परस्य सुहृदः संमताः समदर्शिनः // 3 . दस्युभ्योऽथ प्रजा रक्षेद्दण्डं धर्मेण धारयन् // 35 येष्वानृशंस्यं सत्यं चाप्यहिंसा तप आर्जवम् / कार्यं कुर्यान्न वा कुर्यात्संवार्यो वा भवेन्न वा। अद्रोहो नाभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः॥ न स्म शस्त्रं ग्रहीतव्यमन्यत्र क्षत्रबन्धुतः // 36 ह्रीमान्सत्यधृतिर्दान्तो भूतानामविहिंसकः / अकामद्वेषसंयुक्तस्त्रिभिः शुक्लैः समन्वितः // 5 भीष्म उवाच / अहिंसको ज्ञानतृप्तः स ब्रह्मासनमर्हति / अपारे यो भवेत्पारमप्लवे यः प्लवो भवेत् / एते महर्विजस्तात सर्वे मान्या यथातथम् // 6 शूद्रो वा यदि वाप्यन्यः सर्वथा मानमर्हति // 37 युधिष्ठिर उवाच। यमाश्रित्य नरा राजन्वर्तयेयुर्यथासुखम् / यदिदं वेदवचनं दक्षिणासु विधीयते / अनाथाः पाल्यमाना वै दस्युमिः परिपीडिताः॥३८ / इदं देयमिदं देयं न क्वचिद्वयवतिष्ठते // 7 तमेव पूजयेरंस्ते प्रीत्या स्वमिव बान्धवम् / नेदं प्रति धनं शास्त्रमापद्धर्ममशास्त्रतः / महद्ध्यभीक्ष्णं कौरव्य कर्ता सन्मानमर्हति // 39 आज्ञा शास्त्रस्य घोरेयं न शक्ति समवेक्षते // 8 किमुक्ष्णावहता कृत्यं किं धेन्वा चाप्यदुग्धया। श्रद्धामारभ्य यष्टव्यमित्येषा वैदिकी श्रुतिः / वन्ध्यया भायया कोऽर्थः कोऽर्थो राज्ञाप्यरक्षता // मिथ्योपेतस्य यज्ञस्य किमु श्रद्धा करिष्यति // 9 यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः / भीष्म उवाच / यथा ह्यनेत्रः शकटः पथि क्षेत्रं यथोषरम् // 41 न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया / एवं ब्रह्मानधीयानं राजा यश्च न रक्षिता / कश्चिन्महदवाप्नोति मा ते भूद्बुद्धिरीदृशी // 10 न वर्षति च यो मेघः सर्व एते निरर्थकाः // 42 यज्ञाङ्गं दक्षिणास्तात वेदानां परिबृंहणम् / नित्यं यस्तु सतो रक्षेदसतश्च निबर्हयेत् / न मत्रा दक्षिणाहीनास्तारयन्ति कथंचन // 11 स एव राजा कर्तव्यस्तेन सर्वमिदं धृतम् // 43 शक्तिस्तु पूर्णपात्रेण संमितानवमा भवेत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अवश्यं तात यष्टव्यं त्रिभिर्वर्णैर्यथाविधि // 12 ___ एकोनाशीतितमोऽध्यायः // 79 // सोमो राजा ब्राह्मणानामित्येषा वैदिकी श्रुतिः / तं च विक्रेतुमिच्छन्ति न वृथा वृत्तिरिष्यते / युधिष्ठिर उवाच / तेन क्रीतेन धर्मेण ततो यज्ञः प्रतायते // 13 कसमुत्थाः कथंशीला ऋत्विजः स्युः पितामह / इत्येवं धर्मतः ख्यातमृषिभिर्धर्मवादिभिः। कथंविधाश्च राजेन्द्र तद्रूहि वदतां वर // 1 . पुमान्यज्ञश्च सोमञ्च न्यायवृत्तो यथा भवेत् / -2094 - Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 80. 14 ] शान्तिपर्व [12. 81.21 अन्यायवृत्तः पुरुषो न परस्य न चात्मनः // 14 सर्वे नित्यं शङ्कितव्याः प्रत्यक्षं कार्यमात्मनः // 6 शरीरं यज्ञपात्राणि इत्येषा श्रूयते श्रुतिः / न हि राज्ञा प्रमादो वै कर्तव्यो मित्ररक्षणे / तानि सम्यक्प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम् // 15 / प्रमादिनं हि राजानं लोकाः परिभवन्त्युत // 7 तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येषा परमा श्रुतिः / असाधुः साधुतामेति साधुर्भवति दारुणः / तत्ते तपः प्रवक्ष्यामि विद्वंस्तदपि मे शृणु // 16 अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति // 8 अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा / अनित्यचित्तः पुरुषस्तस्मिन्को जातु विश्वसेत् / एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् // 17 तस्मात्प्रधानं यत्कार्य प्रत्यक्षं तत्समाचरेत् // 9 अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चातिलङ्घनम् / एकान्तेन हि विश्वासः कृत्समो धर्मार्थनाशकः / अव्यवस्था च सर्वत्र तद्वै नाशनमात्मनः // 18 अविश्वासश्च सर्वत्र मृत्युना न विशिष्यते // 10 निबोध दशहोतॄणां विधानं पार्थ यादृशम् / अकालमृत्युर्विश्वासो विश्वसन्हि विपद्यते / चित्तिः स्रुक्चित्तमाज्यं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम् / / 19 यस्मिन्करोति विश्वासमिच्छतस्तस्य जीवति // 11 सर्व जिह्म मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम् / तस्माद्विश्वसितव्यं च शङ्कितव्यं च केषुचित् / एतावाञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति // 20 एषा नीतिगतिस्तात लक्ष्मीश्चैव सनातनी // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यं मन्येत ममाभावादिममर्थागमः स्पृशेत् / अशीतितमोऽध्यायः॥८॥ नित्यं तस्माच्छङ्कितव्यममित्रं तं विदुर्बुधाः // 13 यस्य क्षेत्रादप्युदकं क्षेत्रमन्यस्य गच्छति / न तत्रानिच्छतस्तस्य भिद्येरन्सर्वसेतवः // 14 युधिष्ठिर उवाच। तथैवात्युदकाद्भीतस्तस्य भेदनमिच्छति / यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम् / यमेवंलक्षणं विद्यात्तममित्रं विनिर्दिशेत् // 15 पुरुषेणासहायेन किमु राज्यं पितामह // 1 यः समृद्धया न तुष्येत क्षये दीनतरो भवेत् / किंशीलः किंसमाचारों राज्ञोऽर्थसचिवो भवेत् / एतदुत्तममित्रस्य निमित्तमभिचक्षते // 16 कीदृशे विश्वसेद्राजा कीदृशे नापि विश्वसेत् // 2 यं मन्येत ममाभावादस्याभावो भवेदिति / भीष्म उवाच / तस्मिन्कुर्वीत विश्वासं यथा पितरि वै तथा // 17 चतुर्विधानि मित्राणि राज्ञां राजन्भवन्त्युत। तं शक्त्या वर्धमानश्च सर्वतः परिबृंहयेत् / सहार्थो भजमानश्च सहजः कृत्रिमस्तथा // 3 नित्यं क्षताद्वारयति यो धर्मेष्वपि कर्मसु // 18 धर्मात्मा पश्चमं मित्रं स तु नैकस्य न द्वयोः। क्षतागीतं विजानीयादुत्तमं भित्रलक्षणम् / यतो धर्मस्ततो वा स्यान्मध्यस्थो वा ततो भवेत्।।४ / ये तस्य क्षतमिच्छन्ति ते तस्य रिपवः स्मृताः // 19 यस्तस्यार्थो न रोचेत न तं तस्य प्रकाशयेत् / व्यसनान्नित्यभीतोऽसौ समृद्धयामेव तृप्यते / धर्माधर्मेण राजानश्चरन्ति विजिगीषवः / / 5 यत्स्यादेवंविधं मित्रं तदात्मसममुच्यते // 20 चतुर्णा मध्यमौ श्रेष्ठौ नित्यं शङ्कयौ तथापरौ। / रूपवर्णस्वरोपेतस्तितिक्षुरनसूयकः / - 2095 - Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 81. 21] महाभारते [12. 82.6 कुलीनः शीलसंपन्नः स ते स्यात्प्रत्यनन्तरः // 21 / तेषु सन्ति गुणाश्चैव नैर्गुण्यं तेषु लक्ष्यते // 36 मेधावी स्मृतिमान्दक्षः प्रकृत्या चानृशंसवान् / नाज्ञातिरनुगृह्णाति नाज्ञातिर्दिग्धमस्यति। . यो मानितोऽमानितो वा न-संदूप्येत्कदाचन // 22 उभयं ज्ञातिलोकेषु दृश्यते साध्वसाधु च // 37 ऋत्विग्वा यदि वाचार्यः सखा वात्यन्तसंस्तुतः / तान्मानयेत्पूजयेच्च नित्यं वाचा च कर्मणा / गृहे वसेदमात्यस्ते यः स्यात्परमपूजितः // 23 कुर्याच्च प्रियमेतेभ्यो नाप्रियं किंचिदाचरेत् // 38 स ते विद्यात्परं मन्त्रं प्रकृतिं चार्थधर्मयोः / विश्वस्तवदविश्वस्तस्तेषु वर्तेत सर्वदा।। विश्वासस्ते भवेत्तत्र यथा पितरि वै तथा // 24 / न हि दोषो गुणो वेति निस्पृक्तस्तेषु दृश्यते // 39 नैव द्वौ न त्रयः कार्या न मृष्येरन्परस्परम् / तस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्याप्रमादिनः / एकार्थादेव भूतानां भेदो भवति सर्वदा // 25 अमित्राः संप्रसीदन्ति तथा मित्रीभवन्त्यपि // 40 कीर्तिप्रधानो यश्च स्याद्यश्च स्यात्समये स्थितः / / य एवं वर्तते नित्यं ज्ञातिसंबन्धिमण्डले / समर्थान्यश्च न द्वेष्टि समर्थान्कुरुते च यः // 26 / मित्रेष्वमित्रेष्वैश्वर्ये चिरं यशसि तिष्ठति // 41 यो न कामाद्भयाल्लोभात्क्रोधाद्वा धर्ममुत्सृजेत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि दक्षः पर्याप्तवचनः स ते स्यात्प्रत्यनन्तरः // 27 एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥ शूरश्चार्यश्च विद्वांश्च प्रतिपत्तिविशारदः / 82 कुलीनः शीलसंपन्नस्तितिक्षुरनसूयकः // 28 युधिष्ठिर उवाच / एते ह्यमात्याः कर्तव्याः सर्वकर्मस्ववस्थिताः / एवमग्राह्यके तस्मिज्ञातिसंबन्धिमण्डले / पूजिताः संविभक्ताश्च सुसहायाः स्वनुष्ठिताः॥२९ मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते // 1 कृत्स्नमेते विनिक्षिप्ताः प्रतिरूपेषु कर्मसु / युक्ता महत्सु कार्येषु श्रेयांस्युत्पादयन्ति च // 30 भीष्म उवाच / एते कर्माणि कुर्वन्ति स्पर्धमाना मिथः सदा / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अनुतिष्ठन्ति चैवार्थानाचक्षाणाः परस्परम् // 31 वासुदेवस्य संवादं सुरर्षे रदस्य च // 2 ज्ञातिभ्यश्चैव बिभ्येथा मृत्योरिव यतः सदा। .. वासुदेव उवाच / उपराजेव राजधूि ज्ञातिर्न सहते सदा // 32 नासुहृत्परमं मन्त्रं नारदार्हति वेदितुम् / ऋजोर्मदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः / अपण्डितो वापि सुहृत्पण्डितो वापि नात्मवान् // 3 नान्यो ज्ञातेर्महाबाहो विनाशमभिनन्दति / / 33 स ते सौहृदमास्थाय किंचिद्वक्ष्यामि नारद / अज्ञातिता नातिसुखा नावज्ञेयास्त्वतः परम् / कृत्स्नां च बुद्धिं संप्रेक्ष्य संपृच्छे त्रिदिवंगम // 4 अज्ञातिमन्तं पुरुषं परे परिभवन्त्युत // 34 दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम् / निकृतस्य नरैरन्यैातिरेव परायणम् / अर्धभोक्तास्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे // 5 नान्यैनिकारं सहते ज्ञातेमा॑तिः कदाचन // 35 अरणीमग्निकामो वा मनाति हृदयं मम / आत्मानमेव जानाति विकृतं बान्धवैरपि / वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा // 6 -2096 - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 82.7] शान्तिपर्व [12. 83.2 बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे / नारद उवाच / रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद // 7 शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षा दम आर्जवम् / अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरासदाः / / यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् // 21 नित्योत्थानेन संपन्ना नारदान्धकवृष्णयः // 8 ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटूनि च लघूनि च / यस्य न स्युन वै स स्याद्यस्य स्युः कृच्छ्रमेव तत् / गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्व मनांसि च // 22 द्वाभ्यां निवारितो नित्यं वृणोम्येकतरं न च // 9 नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान् / स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः / / महतीं धुरमादत्ते तामुद्यम्योरसा वह // 23 यस्य वापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः॥१० सर्व एव गुरुं भारमनड्वान्वहते समे। सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामुने। दुर्गे प्रतीकः सुगवो भारं वहति दुर्वहम् // 24 एकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्यापराजयम् // 11 भेदाद्विनाशः संघानां संघमुख्योऽसि केशव / ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयतः सदा / यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं संघस्तथा कुरु // 25 वक्तुमर्हसि यछ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा // 12 नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् / नारद उवाच / नान्यत्र धनसंत्यागाद्गणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते // 26 आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ह / धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षोद्भावनं शुभम् / प्रादुर्भवन्ति वार्णेय स्वकृता यदि वान्यतः // 13 ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु // 27 सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत्कृच्छ्रा स्वकर्मजा। आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो। अङ्करभोजप्रभवाः सर्वे ह्येते तदन्वयाः / / 14 पाड्गुण्यस्य विधानेन यात्रायानविधौ तथा // 28 अर्थहेतोर्हि कामाद्वाद्वारा बीभत्सयापि वा / माधवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः / आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् / / 15 त्वय्यासक्ता महाबाहो लोका लोकेश्वराश्च ये // 29 कृतमूलमिदानीं तज्जातशब्दं सहायवत् / उपासते हि तद्बुद्धिमृषयश्चापि माधव / न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव त्यया // 16 त्वं गुरुः सर्वभूतानां जानीषे त्वं गतागतम् / पभ्रूप्रसेनयो राज्यं नाप्तुं शक्यं कथंचन / त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठमेधन्ते ज्ञातिनः सुखम् // 30 ज्ञातिभेदभयात्कृष्ण त्वया चापि विशेषतः // 17 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तञ्चेत्सिध्येत्प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम् / द्वयशीतितमोऽध्यायः॥ 82 // महाक्षयव्ययं वा स्याद्विनाशो वा पुनर्भवेत् // 18 अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा। भीष्म उवाच / जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृज्यानुमृज्य च // 19 एषा प्रथमतो वृत्तिद्धितीयां शृणु भारत / वासुदेव उवाच।। यः कश्चिजनयेदर्थं राज्ञा रक्ष्यः स मानवः // 1 अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम् / द्वियमाणममात्येन भृतो वा यदि वाभृतः / येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च // 20 / यो राजकोशं नश्यन्तमाचक्षीत युधिष्ठिर // 2 अ. भा. 263 -2097 - Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 83. 3] महाभारते [12. 83. 31 श्रोतव्यं तस्य च रहो रक्ष्यश्चामात्यतो भवेत् / मित्रार्थमभिसंतप्तो भक्त्या सर्वात्मना गतः / अमात्या ह्युपहन्तारं भूयिष्टं नन्ति भारत // 3 अयं तवार्थ हरते यो ब्रूयादक्षमान्धितः // 18 राजकोशस्य गोप्तारं राजकोशविलोपकाः / / संबुबोधयिषुर्मित्रं सदश्वमिव सारथिः / समेत्य सर्वे बाधन्ते स विनश्यत्यरक्षितः // 4 अतिमन्युप्रसक्तो हि प्रसज्य हितकारणम् // 19 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तथाविधस्य सुहृदः क्षन्तव्यं संविजानता / मुनिः कालकवृक्षीयः कौसल्यं यदुवाच ह // 5 ऐश्वर्यमिच्छता नित्यं पुरुषेण बुभूवता // 20 कोसलानामाधिपत्यं संप्राप्ते क्षेमदर्शिनि / तं राजा प्रत्युवाचेदं यन्मा किंचिद्भवान्वदेत् / मुनिः कालकवृक्षीय आजगामेति नः श्रुतम् // 6 कस्मादहं न क्षमेयमाकान्नात्मनो हितम् // 21 स काकं पञ्जरे बद्धा विषयं क्षेमदर्शिनः / ब्राह्मण प्रतिजानीहि प्रब्रूहि यदि चेच्छसि / पूर्व पर्यचरद्युक्तः प्रवृत्त्यर्थी पुनः पुनः / / 7 करिष्यामि हि ते वाक्यं यान्मां विप्र वक्ष्यसि // 22 अधीये वायसी विद्यां शंसन्ति मम वायसाः। मुनिरुचाच / / अनागतमतीतं च यच्च संप्रति वर्तते // 8 ज्ञात्वा नयानपायांश्च भृत्यतस्ते भयानि च / इति राष्ट्र परिपतन्बहुशः पुरुषैः सह / भक्त्या वृत्तिं समाख्यातुं भवतोऽन्तिकमागमम्।।२३ सर्वेषां राजयुक्तानां दुष्कृतं परिपृष्टवान् // 9 प्रागेवोक्तश्च दोषोऽयमाचार्यनृपसेविनाम् / स बुद्धा तस्य राष्ट्रस्य व्यवसायं हि सर्वशः। अगतीकगतिर्खेषा या राज्ञा सह जीविका // 24 राजयुक्तापचारांश्च सर्वान्बुद्ध्वा ततस्ततः // 10 आशीविषैश्च तस्याहुः संगमं यस्य राजभिः / तमेव काकमादाय राजानं द्रष्टुमागमत् / बहुमित्राश्च राजानो,बह्वमित्रास्तथैव च // 25 सर्वज्ञोऽस्मीति वचनं ब्रुवाणः संशितव्रतः // 11 तेभ्यः सर्वेभ्य एवाहुर्भयं राजोपसेविनाम् / स स्म कौसल्यमागम्य राजामात्यमलंकृतम् / / अथैषामेकतो राजन्मुहूर्तादेव भीर्भवेत् // 26 प्राह काकस्य वचनादमुत्रेदं त्वया कृतम् // 12 नैकान्तेनाप्रमादो हि कर्तुं शक्यो महीपतौ। असौ चासौ च जानीते राजकोशस्त्वया हृतः। न तु प्रमादः कर्तव्यः कथंचिद्भूतिमिच्छता // 2 // एवमाख्याति काकोऽयं तच्छीघ्रमनुगम्यताम् // 13 प्रमादाद्धि स्खलेद्राजा स्खलिते नास्ति जीवितम् / तथान्यानपि स प्राह राजकोशहरान्सदा। अग्निं दीप्तमिवासीदेद्राजानमुपशिक्षितः // 28 न चास्य वचनं किंचिदकृतं श्रूयते क्वचित् // 14 आशीविषमिव क्रुद्धं प्रभुं प्राणधनेश्वरम् / तेन विप्रकृताः सर्वे राजयुक्ताः कुरूद्वह / यत्नेनोपचरेन्नित्यं नाहमस्मीति मानवः // 29 तमतिक्रम्य सुप्तस्य निशि काकमपोथयन् // 15 दुर्व्याहृताच्छङ्कमानो दुष्कृताहुरधिष्ठितात् / वायसं तु विनिर्भिन्नं दृष्ट्वा बाणेन पञ्जरे। दुरासिता जितादिङ्गितादङ्गचेष्टितात् // 30 पूर्वाहे ब्राह्मणो वाक्यं क्षेमदर्शिनमब्रवीत् // 16 देवतेव हि सर्वार्थान्कुर्याद्राजा प्रसादितः / राजस्त्वामभयं याचे प्रभु प्राणधनेश्वरम् / वैश्वानर इव क्रुद्धः समूलमपि निर्दहेत् / अनुज्ञातस्त्वया ब्रूयां वचनं त्वत्पुरो हितम् // 17 // इति राजन्मयः प्राह चर्तते च तथैव तत् // 31 -2098 - Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 83. 32 शान्तिपर्व [12. 83. 58 अथ भूयांसमेवार्थं करिष्यामि पुनः पुनः। दुर्गतीर्था बृहत्कूला करीरीवेत्रसंयुता / ददात्यस्मद्विधोऽमात्यो बुद्धिसाहाय्यमापदि // 32 नदी मधुरपानीया यथा राजंस्तथा भवान् / वायसश्चैव मे राजन्नन्तकायाभिसंहितः / श्वगृध्रगोमायुयुतो राजहंससमो ह्यसि // 46 न च मेऽत्र भवान्गर्यो न च येषां भवान्प्रियः / यथाश्रित्य महावृक्षं कक्षः संवर्धते महान् / हिताहितांस्तु बुध्येथा मा परोक्षमतिर्भव // 33 ततस्तं संवृणोत्येव तमतीत्य च वर्धते // 47 ये त्वादानपरा एव वसन्ति भवतो गृहे / तेनैवोपेन्धनो नूनं दावो दहति दारुणः / अभूतिकामा भूतानां तादृशेर्मेऽभिसंहितम् // 34 तथोपमा ह्यमात्यास्ते राजस्तान्परिशोधय // 48 ये वा भवद्विनाशेन राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम् / भवतैव कृता राजन्भवता परिपालिताः। अन्तरैरभिसंधाय राजन्सिध्यन्ति नान्यथा // 35 भवन्तं पर्यवज्ञाय जिघांसन्ति भवत्प्रियम् // 49 तेषामहं भयाद्राजन्गमिष्याम्यन्यमाश्रमम् / उषितं शङ्कमानेन प्रमादं परिरक्षता / तैर्हि मे संधितो बाणः काके निपतितः प्रभो // 36 अन्तःसर्प इवागारे वीरपल्या इवालये। छद्मना मम काकश्च गमितो यमसादनम् / शीलं जिज्ञासमानेन राज्ञश्च सहजीविना // 50 दृष्टं हतन्मया राजस्तपोदीर्घण चक्षुषा / / 37 कञ्चिजितेन्द्रियो राजा कञ्चिदभ्यन्तरा जिताः। बहुनक्रझषग्राहां तिमिंगलगणायुताम् / कच्चिदेषां प्रियो राजा कच्चिद्राज्ञः प्रियाः प्रजाः।।५१ काकेन बडिशेनेमामतापं त्वामहं नदीम् // 38 जिज्ञासुरिह संप्राप्तस्तवाहं राजसत्तम / स्थाण्वश्मकण्ट कवतीं व्याघ्रसिंहगजाकुलाम् / तस्य मे रोचसे राजन्क्षुधितस्येव भोजनम् // 52 दुरासदां दुष्प्रवेशां गुहां हैमवतीमिव / / 39 अमात्या मे न रोचन्ते वितृष्णस्य यथोदकम् / अग्निना तामसं दुर्ग नौभिराप्यं च गम्यते / भवतोऽर्थकृदित्येव मयि दोषो हि तैः कृतः / राजदुर्गावतरणे नोपायं पण्डिता विदुः // 40 विद्यते कारणं नान्यदिति मे नात्र संशयः // 53 गहनं भवतो राज्यमन्धकारतमोवृतम् / न हि तेषामहं द्रुग्धस्तत्तेषां दोषवद्गतम् / नेह विश्वसितुं शक्यं भवतापि कुतो मया // 41 अरेहि दुर्हताद्भेयं भग्नपृष्ठादिवोरगात् // 54 अतो नायं शुभो वासस्तुल्ये सदसती इह / राजोवाच / वधो ह्येवात्र सुकृते दुष्कृते न च संशयः // 42 भूयसा परिबहेण सत्कारेण च भूयसा / न्यायतो दुष्कृते घातः सुकृते स्यात्कथं वधः / पूजितो ब्राह्मणश्रेष्ठ भूयो वस गृहे मम // 55 नेह युक्तं चिरं स्थातुं जवेनातो ब्रजेद्बुधः // 43 ये त्वां ब्राह्मण नेच्छन्ति न ते वत्स्यन्ति मे गृहे। सीता नाम नदी राजन्प्लुवो यस्यां निमज्जति / / भवतैव हि तज्ज्ञेयं यदिदानीमनन्तरम् // 56 तथोपमामिमां मन्ये वागुरां सर्वघातिनीम् // 44 / यथा स्यादुष्कृतो दण्डो यथा च सुकृतं कृतम् / मधुप्रपातो हि भवान्भोजनं विपसंयुतम् / तथा समीक्ष्य भगवश्रेयसे विनियुद्ध माम् // 57 असतामिव ते भावो वर्तते न सतामिव / मुनिरुवाच / आशीविषैः परिवृतः कूपस्त्वमिव पार्थिव // 45 / अदर्शयन्निमं दोषमेकैकं दुर्बलं कुरु / -2099 - Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F12. 83. 58 ] महाभारते [12. 84. 18 ततः कारणमाज्ञाय पुरुषं पुरुषं जहि // 58 प्रसन्नं ह्यप्रसन्नं वा पीडितं हृतमेव वा। एकदोषा हि बहवो मृद्गीयुरपि कण्टकान् / आवर्तयति भूयिष्ठं तदेको ह्यनुपालितः / / 4 मत्रभेदभयाद्राजस्तस्मादेतद्रवीमि ते // 59 कुलीना देशजाः प्राज्ञा रूपवन्तो बहुश्रुताः / वयं तु ब्राह्मणा नाम मृदुदण्डाः कृपालवः / / प्रगल्भाश्चानुरक्ताश्च ते तव स्युः परिच्छदाः // 5 स्वस्ति चेच्छामि भवतः परेषां च यथात्मनः॥६० दौष्कुलेयाश्च लुब्धाश्च नृशंसा निरपत्रपाः / राजन्नात्मानमाचक्षे संबन्धी भवतो ह्यहम् / ते त्वां तात निषेवेयुर्यावदाकपाणयः // 6 मुनिः कालकवृक्षीय इत्येवमभिसंज्ञितः // 61 . अर्थमाना_सत्कारै गैरुच्चावचैः प्रियान् / पितुः सखा च भवतः संमतः सत्यसंगरः / यानर्थभाजो मन्येथास्ते ते स्युः सुखभागिनः॥७ व्यापन्ने भवतो राज्ये राजन्पितरि संस्थिते // 62 अभिन्नवृत्ता विद्वांसः सद्वृत्ताश्चरितव्रताः / सर्वकामान्परित्यज्य तपस्तप्तं तदा मया। न त्वां नित्यार्थिनो जारक्षुद्राः सत्यवादिनः // 8 स्नेहात्त्वां प्रब्रवीम्येतन्मा भूयो विभ्रमेदिति // 63 अनार्या ये न जानन्ति समयं मन्दचेतसः / उभे दृष्ट्वा दुःखसुखे राज्यं प्राप्य यदृच्छया / / तेभ्यः प्रतिजुगुप्सेथा जानीयाः समयच्युतान् // 9 राज्येनामात्यसंस्थेन कथं राजन्प्रमाद्यसि // 64 नैकमिच्छेद्गणं हित्वा स्याञ्चदन्यतरग्रहः / - भीष्म उवाच / यस्त्वेको बहुभिः श्रेयान्कामं तेन गणं त्यजेत् // 10 ततो राजकुले नान्दी संजज्ञे भूयसी पुनः / श्रेयसो लक्षणं ह्येतद्विक्रमो यस्य दृश्यते / पुरोहितकुले चैव संप्राप्ते ब्राह्मणर्षभे // 65 कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात्समये यश्च तिष्ठति // 11 एकच्छत्रां महीं कृत्वा कौसल्याय यशस्विने / समर्थान्पूजयेद्यश्च नास्पध्र्यैः स्पर्धते च यः / मुनिः कालकवृक्षीय ईजे ऋतुभिरुत्तमैः // 66 न च कामाद्भयात्क्रोधाल्लोभाद्वा धर्ममुत्सृजेत् // 12 हितं तद्वचनं श्रुत्वा कौसल्योऽन्वशिषन्महीम् / अमानी सत्यवाक्शक्तो जितात्मा मान्यमानिता। तथा च कृतवानराजा यथोक्तं तेन भारत / / 67 स ते मन्त्रसहायः स्यात्सर्वावस्थं परीक्षितः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कुलीनः सत्यसंपन्नस्तितिक्षुर्दक्ष आत्मवान् / ज्यशीतितमोऽध्यायः॥ 83 // शूरः कृतज्ञः सत्यश्च श्रेयसः पार्थ लक्षणम् // 14 तस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्य विजानतः / भीष्म उवाच। अमित्राः संप्रसीदन्ति ततो मित्रीभवन्त्यपि // 15 हीनिषेधाः सदा सन्तः सत्यार्जवसमन्विताः / / अत ऊर्ध्वममात्यानां परीक्षेत गुणागुणान् / शक्ताः कथयितुं सम्यक्ते तव स्युः सभासदः // 1 संयतात्मा कृतप्रज्ञो भूतिकामश्च भूमिपः // 16 अत्याढ्यांश्चातिशूरांश्च ब्राह्मणांश्च बहुश्रुतान् / संबद्धाः पुरुषैराप्तैरभिजातैः स्वदेशजैः / सुसंतुष्टांश्च कौन्तेय महोत्साहांश्च कर्मसु // 2 अहायैरव्यभीचारैः सर्वतः सुपरीक्षितैः // 17 एतान्सहायालॅलिप्सेथाः सर्वास्वापत्सु भारत। योधाः स्रीवास्तथा मौलास्तथैवान्येऽप्यवस्कृताः / कुलीनः पूजितो नित्यं न हि शक्ति निगृहति // 3 / कर्तव्या भूतिकामेन पुरुषेण बुभूषता // 18 -2100 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 84. 19 ] शान्तिपर्व [12. 84. 48 येषां वैनयिकी बुद्धिः प्रकृता चैव शोभना / योऽमित्रैः सह संबद्धो न पौरान्बहु मन्यते / तेजो धैर्य क्षमा शौचमनुरागः स्थितिधृतिः // 19 / स सुहृत्तादृशो राज्ञो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति // 34 परीक्षितगुणान्नित्यं प्रौढभावान्धुरंधरान् / अविद्वानशुचिः स्तब्धः शत्रुसेवी विकत्थनः / पञ्चोपधाव्यतीतांश्च कुर्याद्राजार्थकारिणः // 20 / स सुहृत्क्रोधनो लुब्धो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति // 35 पर्याप्तवचनान्वीरान्प्रतिपत्तिविशारदान् / आगन्तुश्चानुरक्तोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः / कुलीनान्सत्यसंपन्नानिङ्गितज्ञाननिष्ठुरान् // 21 सत्कृतः संविभक्तो वा न मन्त्रं श्रोतुमर्हति // 36 देशकालविधानज्ञान्भर्तृकार्यहितैषिणः / यस्त्वल्पेनापि कार्येण सकृदाक्षारितो भवेत् / नित्यमर्थेषु सर्वेषु राजा कुर्वीत मत्रिणः // 22 पुनरन्यैर्गुणैर्युक्तो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति // 37 हीनतेजा ह्यसंहृष्टो नैव जातु व्यवस्यति / कृतप्रज्ञश्च मेधावी बुधो जानपदः शुचिः / अवश्यं जनयत्येव सर्वकर्मसु संशयान् / / 23 सर्वकर्मसु यः शुद्धः स मत्रं श्रोतुमर्हति // 38 एवमल्पश्रुतो मन्त्री कल्याणाभिजनोऽप्युत / ज्ञानविज्ञानसंपन्नः प्रकृतिज्ञः परात्मनोः / धर्मार्थकामयुक्तोऽपि नालं मत्रं परीक्षितुम् // 24 सुहृदात्मसमो राज्ञः स मत्रं श्रोतुमर्हति // 39 तथैवानभिजातोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः / सत्यवाक्शीलसंपन्नो गम्भीरः सत्रपो मृदुः। अनायक इवाचक्षुर्मुह्यत्यूह्येषु कर्मसु // 25 पितृपैतामहो यः स्यात्स मत्रं श्रोतुमर्हति // 40 यो वा ह्यस्थिरसंकल्पो बुद्धिमानागतागमः / संतुष्टः संमतः सत्यः शौटीरो द्वेष्यपापकः / उपायज्ञोऽपि नालं स कर्म यापयितुं चिरम् / / 26 मन्त्रविकालविच्छूरः स मनं श्रोतुमर्हति // 41 केवलात्पुनराचारात्कर्मणो नोपपद्यते / सर्वलोकं समं शक्तः सान्त्वेन कुरुते वशे / परिमझे विशेषाणामश्रुतस्येह दुर्मतेः // 27 तस्मै मत्रः प्रयोक्तव्यो दण्डमाधित्सता नृप // 42 मश्रिण्यननुरक्ते तु विश्वासो न हि विद्यते / पौरजानपदा यस्मिन्विश्वासं धर्मतो गताः / तस्मादननुरक्ताय नैव मत्रं प्रकाशयेत् // 28 योद्धा नयविपश्चिच्च स मनं श्रोतुमर्हति // 43 व्यथयेद्धि स राजानं मत्रिभिः सहितोऽनृजुः / तस्मात्सर्वैर्गुणैरेतैरुपपन्नाः सुपूजिताः। मारुतोपहतच्छिद्रेः प्रविश्याग्निरिव द्रुमम् // 29 मत्रिणः प्रकृतिज्ञाः स्युस्यवरा महदीप्सवः // 44 संक्रध्यत्येकदा स्वामी स्थानाच्चैवापकर्षति / स्वासु प्रकृतिषु छिद्रं लक्षयेरन्परस्य च / वाचा क्षिपति संरब्धस्ततः पश्चात्प्रसीदति // 30 मत्रिणो मन्त्रमूलं हि राज्ञो राष्ट्रं विवर्धते // 45 तानि तान्यनुरक्तेन शक्यान्यनुतितिक्षितुम् / नास्य छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेषु परमन्वियात् / मत्रिणां च भवेत्क्रोधो विस्फूर्जितमिवाशनेः // 31 गूहेत्कर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः // 46 यस्तु संहरते तानि भर्तुः प्रियचिकीर्षया। मन्त्रग्राहा हि राज्यस्य मत्रिणो ये मनीषिणः / समानसुखदुःखं तं पृच्छेदर्थेषु मानवम् / / 32 मन्त्रसंहननो राजा मन्त्राङ्गानीतरो जनः // 47 अनृजुस्त्वनुरक्तोऽपि संपन्नश्चेतरैर्गुणैः / राज्यं प्रणिधिमूलं हि मन्त्रसारं प्रचक्षते / राज्ञः प्रज्ञानयुक्तोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति // 33 . स्वामिनं त्वनुवर्तन्ति वृत्त्यर्थमिह मन्त्रिणः // 48 -2101 - Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 84. 49 ] महाभारते [12. 86.2 स विनीय मदक्रोधौ मानमीयां च निवृतः / प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत् // 2 नित्यं पञ्चोपधातीतैर्मत्रयेत्सह मत्रिभिः // 49 ____ बृहस्पतिरुवाच / तेषां त्रयाणां विविधं विमर्श सान्त्वमेकपदं शक्र पुरुषः सम्यगाचरन् / बुध्येत चित्तं विनिवेश्य तत्र / प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत् // 3 स्वनिश्चयं तं परनिश्चयं च एतदेकपदं शक्र सर्वलोकसुखावहम् / निवेदयेदुत्तरमन्त्रकाले // 50 आचरन्सर्वभूतेषु प्रियो भवति सर्वदा // 4 धर्मार्थकामज्ञमुपेत्य पृच्छे यो हि नाभाषते किंचित्सततं भृकुटीमुखः / द्युक्तो गुरुं ब्राह्मणमुत्तमार्थम् / द्वेष्यो भवति भूतानां स सान्त्वमिह नाचरन् / 5 निष्ठा कृता तेन यदा सह स्या यस्तु पूर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते / तं तत्र मार्ग प्रणयेदसक्तम् / / 51 स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति // 6 एवं सदा मनयितव्यमाहु दानमेव हि सर्वत्र सान्त्वेनानभिजल्पितम् / ये मत्रतत्त्वार्थविनिश्चयज्ञाः / न प्रीणयति भूतानि निर्व्यञ्जनमिवाशनम् / / 7 तस्मात्त्वमेवं प्रणयेः सदैव अदाता ह्यपि भूतानां मधुरामीरयन्गिरम् / मत्रं प्रजासंग्रहणे समर्थम् // 52 सर्वलोकमिमं शक्र सान्त्वेन कुरुते वशे // 8 न वामनाः कुब्ज कृशा न खञ्जा तस्मात्सान्त्वं प्रकर्तव्यं दण्डमाधित्सतामिह / नान्धा जडाः स्त्री न नपुंसकं च / फलं च जनयत्येवं न चास्योद्विजते जनः // 9 न चात्र तिर्यङ पुरो न पश्चा सुकृतस्य हि सान्त्वस्य श्लक्ष्णस्य मधुरस्य च / नोज़ न चाधः प्रचरेत कश्चित् // 53 सम्यगासेव्यमानस्य तुल्यं जातु न विद्यते // 10 आरुह्य वातायनमेव शून्यं भीष्म उवाच। स्थलं प्रकाशं कुशकाशहीनम् / इत्युक्तः कृतवान्सर्वं तथा शक्रः पुरोधसा / वागणदोषान्परिहत्य मन्त्रं तथा त्वमपि कौन्तेय सम्यगेतत्समाचर // 11 ___ संमत्रयेत्कार्यमहीनकालम् // 54 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ चतुरशीतितमोऽध्यायः // 84 // युधिष्ठिर उवाच / भीष्म उवाच / कथं स्विदिह राजेन्द्र पालयन्पार्थिवः प्रजाः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्रति धर्म विशेषेण कीर्तिमाप्नोति शाश्वतीम् // 1 बृहस्पतेश्च संवादं शक्रस्य च युधिष्ठिर // 1 भीष्म उवाच / शक्र उवाच / व्यवहारेण शुद्धेन प्रजापालनतत्परः / किं विदेकपदं ब्रह्मन्पुरुषः सम्यगाचरन् / | प्राप्य धर्मं च कीर्ति च लोकावाप्नेत्युभौ शुचिः // 2 -2102 - Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 86. 3] शान्तिपर्व [ 12. 86. 31 युधिष्ठिर उवाच / बलात्कृतानां बलिभिः कृपणं बहु जल्पताम् / कीदृशं व्यवहारं तु कैश्च व्यवहरेन्नृपः / नाथो वै भूमिपो नित्यमनाथानां नृणां भवेत् // 17 एतत्पृष्टो महाप्राज्ञ यथावद्वक्तुमर्हसि // 3 ततः साक्षिवलं साधु द्वैधे वादकृतं भवेत् / ये चैते पूर्वकथिता गुणास्ते पुरुषं प्रति / असाक्षिकमनाथं वा परीक्ष्यं तद्विशेषतः // 18 नैकस्मिन्पुरुषे ह्येते विद्यन्त इति मे मतिः // 4 अपराधानुरूपं च दण्डं पापेषु पातयेत् / भीष्म उवाच / उद्वेजयेद्धनैर्ऋद्धान्दरिद्रान्वधबन्धनैः / / 29 एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि बुद्धिमान / / विनयैरपि दुर्वृत्तान्प्रहारैरपि पार्थिवः / दुर्लभः पुरुषः कश्चिदेभिर्गुणगणैर्युतः // 5 . सान्त्वेनोपप्रदानेन शिष्टांश्च परिपालयेत् // 20 किं तु संक्षेपतः शीलं प्रयत्ने नेह दुर्लभम् / राज्ञो वधं चिकीर्षेद्यस्तस्य चित्रो वधो भवेत् / वक्ष्यापि तु यथामात्यान्यादृशांश्च करिष्यसि // 6 आजीवकस्य स्तेनस्य वर्णसंकरकस्य च // 21 चतुरो ब्राह्मणान्वैद्यान्प्रगल्भान्सात्त्विकाञ्शुचीन् / सम्यक्प्रणयतो दण्डं भूमिपस्य विशां पते / त्रींश्च शुद्रान्विनीतांश्च शुचीन्कर्मणि पूर्वके // 7 युक्तस्य वा नास्त्यधर्मो धर्म एवेह शाश्वतः // 22 अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं चरेत् / कामकारेण दण्डं तु यः कुर्यादविचक्षणः / पश्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम् // 8 स इहाकीर्तिसंयुक्तो मृतो नरकमाप्नुयात् // 23 मतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शनम् / न परस्य श्रवादेव परेषां दण्डमर्पयेत् / कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम् // 9 आगमानुगमं कृत्वा बध्नीयान्मोक्षयेत वा // 24 विवर्जितानां व्यसनैः सुघोरैः सप्तभिभृशम् / न तु हन्यान्नृपो जातु दूतं कस्यांचिदापदि / अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत // 10 दूतस्य हन्ता निरयमाविशेत्सचिवैः सह // 25 ततः संप्रेषयेद्राष्ट्रे राष्ट्रायाथ च दर्शयेत् / यथोक्तवादिनं दूतं क्षत्रधर्मरतो नृपः / अनेन व्यवहारेण द्रष्टव्यास्ते प्रजाः सदा // 11 यो हन्यात्पितरस्तस्य भ्रूणहत्यामवाप्नुयुः // 26 न चापि गूढं कार्य ते ग्राह्यं कार्योपघातकम् / / कुलीनः शीलसंपन्नो वाग्मी दक्षः प्रियंवदः / कार्ये खलु विपन्ने त्वां सोऽधर्मस्तांश्च पीडयेत् // 12 यथोक्तवादी स्मृतिमान्दूतः स्यात्सप्तभिर्गुणैः / / 27 विद्रवेञ्चैव राष्ट्रं ते श्येनात्पक्षिगणा इव / एतैरेव गुणैर्युक्तः प्रतीहारोऽस्य रक्षिता / परिस्रवेच्च सततं नौर्विशीर्णेव सागरे // 13 शिरोरक्षश्च भवति गुणैरेतैः समन्वितः // 28 प्रजाः पालयतोऽसम्यगधर्मेणेह भूपतेः / धर्मार्थशास्त्रतत्त्वज्ञः संधिविग्रहको भवेत् / हादं भयं संभवति स्वर्गश्चास्य विरुध्यते // 14 / / मतिमान्धृतिमान्धीमारहस्यविनिगूहिता // 29 अथ योऽधर्मतः पाति राजामात्योऽथ वात्मजः / कुलीनः सत्यसंपन्नः शक्तोऽमात्यः प्रशंसितः / धर्मासने नियुक्तः सन्धर्ममूलं नरर्षभ / / 15 एतैरेव गुणैर्युक्तस्तथा सेनापतिर्भवेत् // 30 कार्येष्वधिकृताः सभ्यगकुर्वन्तो नृपानुगाः।। व्यूहयत्रायुधीयानां तत्त्वज्ञो विक्रमान्वितः / आत्मानं पुरतः कृत्वा यान्त्यधः सहपार्थिवाः // 16 / वर्षशीतोष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित् // 31 -2103 - Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 86. 32] महाभारते [12. 87. 26 विश्वासयेत्परांश्चैव विश्वसेन्न तु कस्यचित्। पुरे जनपदे चैव सर्वदोषान्निवर्तयेत् // 11 पुढेष्वपि हि राजेन्द्र विश्वासो न प्रशस्यते // 32 भाण्डागारायुधागारं प्रयत्नेनाभिवर्धयेत् / एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु तवाख्यातं मयानघ / निचयान्वर्धयेत्सर्वांस्तथा यत्रगदागदान // 12 अविश्वासो नरेन्द्राणां गुह्यं परममुच्यते // 33 काष्ठलोहतुषाङ्गारदारशृङ्गास्थिवैणवान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मज्जास्नेहवसाक्षौद्रमौषधग्राममेव च // 13 षडशीतितमोऽध्यायः // 86 // शणं सर्जरसं धान्यमायुधानि शरांस्तथा / धर्म मायु तथा वेत्रं मुञ्जबल्वजधन्वनान् // 14 युधिष्ठिर उवाच / आशयानोदपानाश्च प्रभूतसलिला वराः / कथंविधं पुरं राजा स्वयमावस्तुमर्हति / निरोद्धव्याः सदा राज्ञा क्षीरिणश्च महीरुहाः // 15 कृतं वा कारयित्वा वा तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 सत्कृताश्च प्रयत्नेन आचार्यविक्पुरोहिताः / भीष्म उवाच / महेष्वासाः स्थपतयः सांवत्सरचिकित्सकाः // 16 यत्र कौन्तेय वस्तव्यं सपुत्रभ्रातृबन्धुना / प्राज्ञा मेधाविनो दान्ता दक्षाः शूरा बहुश्रुताः / न्याय्यं तत्र परिप्रष्टुं गुप्तिं वृत्तिं च भारत // 2 कुलीनाः सत्त्वसंपन्ना युक्ताः सर्वेषु कर्मसु // 17 तस्मात्ते वर्तयिष्यामि दुर्गकर्म विशेषतः / पूजयेद्धार्मिकानराजा निगृहीयादधार्मिकान् / श्रुत्वा तथा विधातव्यमनुष्ठेयं च यत्नतः / / 3 नियुख्याच प्रयत्नेन सर्ववर्णान्स्वकर्मसु // 18 षड्विधं दुर्गमास्थाय पुराण्यथ निवेशयेत् / बाह्यमाभ्यन्तरं चैव पौरजानपदं जनम् / सर्वसंपत्प्रधानं यद्वाहुल्यं वापि संभवेत् / / 4 चारैः सुविदितं कृत्वा,ततः कर्म प्रयोजयेत् // 19 धन्वदुर्ग महीदुर्ग गिरिदुर्ग तथैव च / चारान्मत्रं च कोशं च मत्रं चैव विशेषतः / मनुष्यदुर्गमब्दुर्ग वनदुर्गं च तानि षट् // 5 अनुतिष्ठेत्स्वयं राजा सर्व ह्यत्र प्रतिष्ठितम् // 20 यत्पुरं दुर्गसंपन्नं धान्यायुधसमन्वितम् / उदासीनारिमित्राणां सर्वमेव चिकीर्षितम् / दृढप्राकारपरिखं हस्त्यश्वरथसंकुलम् // 6 पुरे जनपदे चैव ज्ञातव्यं चारचक्षुषा // 21 विद्वांसः शिल्पिनो यत्र निचयाश्च सुसंचिताः / ततस्तथा विधातव्यं सर्वमेवाप्रमादतः / धार्मिकश्च जनो यत्र दाक्ष्यमुत्तममास्थितः / / 7 भक्तान्पूजयता नित्यं द्विषतश्च निगृह्णता // 22 ऊर्जस्विनरनागाश्वं चत्वरापणशोभितम् / यष्टव्यं क्रतुभिनित्यं दातव्यं चाप्यपीडया / प्रसिद्धव्यवहारं च प्रशान्तमकुतोभयम् // 8 प्रजानां रक्षणं कार्य न कार्य कर्म गर्हितम् // 23 सुप्रभं सानुनादं च सुप्रशस्तनिवेशनम् / कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च योषिताम् / शूराढ्यजनसंपन्नं ब्रह्मघोषानुनादितम् // 9 योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत् // 24 समाजोत्सवसंपन्नं सदापूजितदैवतम। आश्रमेषु यथाकालं चेलभाजनभोजनम् / वश्यामात्यबलो राजा तत्पुरं स्वयमावसेत् / / 10 सदैवोपहरेद्राजा सत्कृत्यानवमन्य च // 25 तत्र कोशं बलं मित्रं व्यवहारं च वर्धयेत् / | आत्मानं सर्वकार्याणि तापसे राज्यमेव च / -2104 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 87. 26 ] शान्तिपर्व [12. 88. 19 निवेदयेत्प्रयत्नेन तिष्ठेत्प्रह्वश्च सर्वदा // 26 ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेव निवेदयेत् // 5 सर्वार्थत्यागिनं राजा कुले जातं बहुश्रुतम् / यानि ग्रामीणभोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपानुयात् / पूजयेत्तादृशं दृष्ट्वा शयनासनभोजनैः // 27 दशपस्तेन भर्तव्यस्तेनापि द्विगुणाधिपः // 6 तस्मिन्कुर्वीत विश्वासं राजा कस्यांचिदापदि।। ग्रामं ग्रामशताध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कृतः / तापसेषु हि विश्वासमपि कुर्वन्ति दस्यवः / / 28 / महान्तं भरतश्रेष्ठ सुस्फीतजनसंकुलम् / तस्मिन्निधीनादधीत प्रज्ञां पर्याददीत च। तत्र ह्यनेकमायत्तं राज्ञो भवति भारत // 7 न चाप्यभीक्ष्णं सेवेत भृशं वा प्रतिपूजयेत् // 29 शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमम् / अन्यः कार्यः स्वराष्ट्रेषु परराष्ट्रेषु चापरः / / धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रिय उद्यतः // 8 अटवीष्वपरः कार्यः सामन्तनगरेषु च // 30 तथा यद्वामकृत्यं स्याद्वामिकृत्यं च ते स्वयम् / तेषु सत्कारसंस्कारान्संविभागांश्च कारयेत् / धर्मज्ञः सचिवः कश्चित्तत्प्रपश्येदतन्द्रितः // 9 परराष्ट्राटवीस्थेषु यथा स्वविषये तथा // 31 नगरे नगरे च स्यादेकः सर्वार्थचिन्तकः / ते कस्यांचिदवस्थायां शरणं शरणार्थिने। उच्चैःस्थाने घोररूपो नक्षत्राणामिव ग्रहः / राजे दद्यर्यथाकामं तापसाः संशितव्रताः // 32 भवेत्स तान्परिकामेत्सर्वानेव सदा स्वयम् // 10 एष ते लक्षणोद्देशः संक्षेपेण प्रकीर्तितः / विक्रमं क्रयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम् / यादृशं नगरं राजा स्वयमावस्तुमर्हति // 33 योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजः कारयेत्करान् // 11 उत्पत्तिं दानवृत्तिं च शिल्पं संप्रेक्ष्य चासकृत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥ 87 // शिल्पप्रतिकरानेव शिल्पिनः प्रति कारयेत् // 12 उच्चावचकरा न्याय्याः पूर्वराज्ञां युधिष्ठिर / यथा यथा न हीयेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः // 13 युधिष्ठिर उवाच / फलं कर्म च संप्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत् / राष्ट्रगुप्तिं च मे राजन्राष्ट्रस्यैव च संग्रहम् / फलं कर्म च निर्हेतुं न कश्चित्संप्रवर्तयेत् // 14 सम्यग्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ // 1 यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ। भीष्म उवाच / समवेक्ष्य तथा राज्ञा प्रणेयाः सततं कराः // 15 राष्ट्रगुप्तिं च ते सम्यग्राष्ट्रस्यैव च संग्रहम् / नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां वापि तृष्णया / हन्त सर्व प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाः शृणु // 2 ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा संप्रीतिदर्शनः // 16 प्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्राम्यस्तथापरः / प्रद्विष्यन्ति परिख्यातं राजानमतिखादनम् / द्विगुणायाः शतस्यैवं सहस्रस्य च कारयेत् // 3 प्रद्विष्टस्य कुतः श्रेयः संप्रियो लभते प्रियम् // 17 प्रामे यान्प्रामदोषांश्च ग्रामिकः परिपालयेत् / वत्सौपम्येन दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना। तान्ब्रयाद्दशपायासौ स तु विंशतिपाय वै // 4 भृतो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत // 18 सोऽपि विंशत्यधिपतिर्वृत्तं जानपदे जने / न कर्म कुरुते वत्सो भृशं दुग्धो युधिष्ठिर / प.भा. 264 -2105 - Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 88. 19] महाभारते [12. 89.8 राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत् / / 19 तस्मात्तेषु विशेषेण मृदुपूर्व समाचरेत् // 34 यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिगृह्य स्वयं नृपः / सान्त्वनं रक्षणं दानमवस्था चाप्यभीक्ष्णशः / संजातमुपजीवन्स लभते सुमहत्फलम् // 20 गोमिनां पार्थ कर्तव्यं संविभागाः प्रियाणि च // 35 आपदर्थ हि निचयानराजान इह चिन्वते / / अजस्रमुपयोक्तव्यं फलं गोमिषु सर्वतः / राष्ट्रं च कोशभूतं स्यात्कोशो वेश्मगतस्तथा // 21 प्रभावयति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषि तथा // 36 पौरजानपदान्सर्वान्संश्रितोपाश्रितांस्तथा / तस्माद्गोमिषु यत्नेन प्रीतिं कुर्याद्विचक्षणः / यथाशक्त्यनुकम्पेत सर्वानभ्यन्तरानपि // 22 दयावानप्रमत्तश्च करान्संप्रणयन्मृदून् // 37 बाह्यं जनं भेदयित्वा भोक्तव्यो मध्यमः सुखम् / सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं तात गोमिभिः / एवं न संप्रकुप्यन्ते जनाः सुखितदुःखिताः॥२३ / न ह्यतः सदृशं किंचिद्धनमस्ति युधिष्ठिर // 38 प्रागेव तु करादानमनुभाष्य पुनः पुनः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि संनिपत्य स्वविषये भयं राष्ट्र प्रदर्शयेत् // 24 ___ अष्टाशीतितमोऽध्यायः // 8 // इयमापत्समुत्पन्ना परचक्रभयं महत् / अपि नान्ताय कल्पेत वेणोरिव फलागमः // 25 अरयो मे समुत्थाय बहुभिर्दस्युभिः सह / युधिष्ठिर उवाच / इदमात्मवधायैव राष्ट्रमिच्छन्ति बाधितुम् // 26 / यदा राजा समर्थोऽपि कोशार्थी स्यान्महामते / अस्यामापदि घोरायां संप्राप्ते दारुणे भये। कथं प्रवर्तेत तदा तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 परित्राणाय भवतां प्रार्थयिष्ये धनानि वः // 27 भीष्म उवाच / प्रतिदास्ये च भवतां सर्वं चाहं भयक्षये। यथादेशं यथाकालमपि चैव यथाबलम् / नारयः प्रतिदास्यन्ति यद्धरेयुर्बलादितः // 28 अनुशिष्यात्प्रजा राजा धर्मार्थी तद्धिते रतः॥२ कलत्रमादितः कृत्वा नश्येत्स्वं स्वयमेव हि / यथा तासां च मन्येत श्रेय आत्मन एव च / अपि चेत्पुत्रदारार्थमर्थसंचय इष्यते // 29 तथा धाणि सर्वाणि राजा राष्ट्र प्रवर्तयेत् // 3 नन्दामि वः प्रभावेन पुत्राणामिव चोदये / मधुदोहं दुहेद्राष्ट्र भ्रमरान्न विपातयेत् / यथाशक्त्यनुगृह्णामि राष्ट्रस्यापीडया च वः // 30 वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकुट्टयेत् // 4 आपत्स्वेव च वोढव्यं भवद्भिः सद्गवैरिव / जलौकावत्पिबेद्राष्ट्रं मृदुनैव नराधिप / न वः प्रियतरं कार्यं धनं कस्यांचिदापदि // 31 व्याघ्रीव च हरेत्पुत्रमदष्ट्वा मा पतेदिति / / 5 इति वाचा मधुरया श्लक्ष्णया सोपचारया। अल्पेनाल्पेन देयेन वर्धमानं प्रदापयेत् / स्वरश्मीनभ्यवसृजेद्युगमादाय कालवित् // 32 ततो भूयस्ततो भूयः कामं वृद्धिं समाचरेत् // 6 प्रचारं भृत्यभरणं व्ययं गोग्रामतो भयम् / दमयन्निव दम्यानां शश्वद्भारं प्रवर्धयेत् / योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य गोमिनः कारयेत्करान् // 33 मृदुपूर्व प्रयत्नेन पाशानभ्यवहारयेत् // 7 उपेक्षिता हि नश्येयुर्गोमिनोऽरण्यवासिनः / / सकृत्पाशावकीर्णास्ते न भविष्यन्ति दुर्दमाः / -2106 - Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 89.8] शान्तिपर्व [ 12. 90.6 उचितेनेव भोक्तव्यास्ते भविष्यन्ति यत्नतः // 8 / कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यच्चान्यत्किंचिदीदृशम् / तस्मात्सर्वसमारम्भो दुर्लभः पुरुषव्रजः / पुरुषैः कारयेत्कर्म बहुभिः सह कर्मिमिः // 23 यथामुख्यान्सान्त्वयित्वा भोक्तव्य इतरो जनः // 9 नरश्चेत्कृषिगोरक्ष्यं वाणिज्यं चाप्यनुष्ठितः / ततस्तान्भेदयित्वाथ परस्परविवक्षितान् / संशयं लभते किंत्तित्तेन राजा विगीते // 24 भुञ्जीत सान्त्वयित्वैव यथासुखमयत्नतः // 10 धनिनः पूजयेन्नित्यं यानाच्छादनभोजनैः / न चास्थाने न चाकाले करानेभ्योऽनुपातयेत् / वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं पूजाः सह मयेति ह // 25 आनुपूर्येण सान्त्वेन यथाकालं यथाविधि // 11 / अङ्गमेतन्महद्राज्ञां धनिनो नाम भारत / उपायान्प्रब्रवीम्येतान्न मे माया विवक्षिता / ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः // 26 अनुपायेन दमयन्प्रकोपयति वाजिनः / / 12 / प्राज्ञः शूरो धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च। पानागाराणि वेशाश्च वेशधापणिकास्तथा / तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चाभिरक्षति // 27 कुशीलवाः सकितवा ये चान्ये केचिदीदृशाः // 13 / तस्मादेतेषु सर्वेषु प्रीतिमान्भव पार्थिव / नियम्याः सर्व एवैते ये राष्ट्रस्योपघातकाः / सत्यमार्जवमक्रोधमानृशंस्यं च पालय // 28 एते राष्ट्र हि तिष्ठन्तो बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः // 14 एवं दण्डं च कोशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसे / न केनचिद्याचितव्यः कश्चिकिचिदनापदि / सत्यार्जवपरो राजन्मित्रकोशसमन्वितः // 29 इति व्यवस्था भूतानां पुरस्तान्मनुना कृता // 15 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वे तथा न जीवेयुर्न कुयुः कर्म चेदिह / एकोननवतितमोऽध्यायः // 89 // सर्व एव त्रयो लोका न भवेयुरसंशयम् // 16 प्रभुनियमने राजा य एतान्न नियच्छति / भीष्म उवाच / भुङ्क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागामेति श्रुतिः / वनस्पतीन्भक्ष्यफलान्न छिन्युर्वषये तव / तथा कृतस्य धर्मस्य चतुर्भागमुपाश्नुते // 17 ब्राह्मणानां मूलफलं धर्म्यमाहुर्मनीषिणः // 1 स्थानान्येतानि संगम्य प्रसझे भूतिनाशनः।। ब्राह्मणेभ्योऽतिरिक्तं च भुञ्जीरन्नितरे जनाः / कामप्रसक्तः पुरुषः किपकार्य विवर्जयेत् / / 18 न ब्राह्मणोपरोधेन हरेदन्यः कथंचन // 2 आपधेव तु याचेन्येषां नास्ति परिग्रहः।। विप्रश्चेत्त्यागमातिष्ठेदाख्यायावृत्तिकर्शितः / दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रोशायार्थिना // 19 | परिकल्प्यास्य वृत्तिः स्यात्सदारस्य नराधिप // 3 मा ते राष्ट्रे याचनका मा ते भूयुश्च दस्यवः / स चेन्नोपनिवर्तेत वाच्यो ब्राह्मणसंसदि / इष्टादातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः // 20 कस्मिन्निदानी मर्यादामयं लोकः करिष्यति // 4 / ये भूतान्यनुगृहन्ति वर्धयन्ति च ये प्रजाः।। असंशयं निवर्तेत न चेद्वक्ष्यत्यतः परम् / ते ते राष्ट्रे प्रवर्तन्तां मा भूतानामभावकाः // 21 / पूर्व परोक्षं कर्तव्यमेतत्कौन्तेय शासनम् // 5 दण्ड्यास्ते च महाराज धनादानप्रयोजनाः। आहुरेतजना ब्रह्मन्न चैतच्छ्रद्दधाम्यहम् / प्रयोगं कारयेयुस्तान्यथा बलिकरांस्तथा // 22 / निमत्यश्च भवेद्भोगैरवृत्त्या चेत्तदाचरेत् // 6 52107 - Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 90.7] महाभारते [ 12.91.8 कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम् / एतेभ्यश्चाप्रमत्तः स्यात्सदा यत्तो युधिष्ठिर / ऊवं चैव त्रयी विद्या सा भूतान्भावयत्युत // 7 भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः // 21 तस्यां प्रयतमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः / कञ्चित्ते वणिजो राष्ट्रे नोद्विजन्ते करार्दिताः / दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत् // 8 क्रीणन्तो बहु वाल्पेन कान्तारकृतनिश्रमाः / / 22 शत्रूञ्जहि प्रजा रक्ष यजस्व क्रतुभिर्नृप / कञ्चित्कृषिकरा राष्ट्रं न जहत्यतिपीडिताः / युध्यस्व समरे वीरो भूत्वा कौरवनन्दन // 9 ये वहन्ति धुरं राज्ञां संभरन्तीतरानपि // 23 संरक्ष्यान्पालयेद्राजा यः स राजार्यकृत्तमः / / इतो दत्तेन जीवन्ति देवा पितृगणास्तथा। ये केचित्तान्न रक्षन्ति तैरर्थो नास्ति कश्चन // 10 मनुष्योरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा // 24 . सदैव राज्ञा बोद्धव्यं सर्वलोकायुधिष्ठिर / एषा ते राष्ट्रवृत्तिश्च राष्ट्रगुप्तिश्च भारत / तस्माद्धेतोर्हि भुञ्जीत मनुष्यानेव मानवः // 11 एतमेवार्थमाश्रित्य भूयो वक्ष्यामि पाण्डव / / 25 अन्तरेभ्यः परान्रक्षन्परेभ्यः पुनरन्तरान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि परान्परेभ्यः स्वान्स्वेभ्यः सर्वान्पालय नित्यदा॥१२ नवतितमोऽध्यायः // 9 // आत्मानं सर्वतो रक्षनराजा रक्षेत मेदिनीम् / आत्ममूलमिदं सर्वमाहुर्हि विदुषो जनाः // 13 भीष्म उवाच / किं छिद्रं कोऽनुषङ्गो मे किं वास्त्यविनिपातितम् / यानङ्गिराः क्षत्रधर्मानुतथ्यो ब्रह्मवित्तमः। . कुतो मामास्रवेदोष इति नित्यं विचिन्तयेत् // 14 मान्धात्रे यौवनाश्वाय प्रीतिमानभ्यभाषत // 1 गुप्तैश्चारैरनुमतैः पृथिवीमनुचारयेत् / स यथानुशशासैनमुतथ्यो ब्रह्मवित्तमः / सुनीतं यदि मे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः / तत्ते सर्वं प्रवक्ष्यामि निखिलेन युधिष्ठिर // 2 कच्चिद्रोचेजनपदे कच्चिद्राष्ट्रे च मे यशः // 15 उतथ्य उवाच / धर्मज्ञानां धृतिमतां संग्रामेष्वपलायिनाम् / धर्माय राजा भवति न कामकरणाय तु / राष्ट्रं च येऽनुजीवन्ति ये च राज्ञोऽनुजीविनः // 16 / मान्धातरेवं जानीहि राजा लोकस्य रक्षिता // 3 अमात्यानां च सर्वेषां मध्यस्थानां च सर्वशः / राजा चरति वै धर्मं देवत्वायैव गच्छति / ये च त्वाभिप्रशंसेयुर्निन्देयुरथ वा पुनः / न चेद्धर्म स चरति नरकायैव गच्छति // 4 सर्वान्सुपरिणीतांस्तान्कारयेत युधिष्ठिर // 17 धर्मे तिष्ठन्ति भूतानि धर्मो राजनि तिष्ठति / एकान्तेन हि सर्वेषां न शक्यं तात रोचितुम् / / तं राजा साधु यः शास्ति स राजा पृथिवीपतिः / / 5 मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत // 18 / राजा परमधर्मात्मा लक्ष्मीवान्पाप उच्यते / तुल्यबाहुबलानां च गुणैरपि निषेविनाम् / देवाश्च गहां गच्छन्ति धर्मो नास्तीति चोच्यते // 6 कथं स्यादधिकः कश्चित्स तु भुञ्जीत मानवान्॥१९ / अधर्मे वर्तमानानामर्थसिद्धिः प्रदृश्यते / ये चरा ह्यचरानशुरदंष्ट्रान्दष्ट्रिणस्तथा। तदेव मङ्गलं सर्वं लोकः समनुवर्तते // 7 आशीविषा इव क्रुद्धा भुजगा भुजगानिव // 20 / उच्छिद्यते धर्मवृत्तमधर्मो वर्तते महान् / -2108 - Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 91. 8] शान्तिपर्व [12. 91. 38 भयमाहुर्दिवारानं यदा पापो न वार्यते // 8 तस्माद्बुध्यस्व मान्धातर्मा त्वा जह्यात्प्रतापिनी // 23 न वेदाननुवर्तन्ति व्रतवन्तो द्विजातयः / / दो नाम श्रियः पुत्रो जज्ञेऽधर्मादिति श्रुतिः / न यज्ञांस्तन्वते विप्रा यदा पापो न वार्यते // 9 तेन देवासुरा राजन्नीताः सुबहुशो वशम् // 24 वध्यानामिह सर्वेषां मनो भवति विह्वलम् / राजर्षयश्च बहवस्तस्माद्बुध्यस्व पार्थिव / मनुष्याणां महाराज यदा पापो न वार्यते // 10 राजा भवति तं जित्वा दासस्तेन पराजितः॥ 25 उभौ लोकावभिप्रेक्ष्य राजानमृषयः स्वयम् / स यथा दर्पसहितमधर्म नानुसेवते / असृजन्सुमहद्भूतमयं धर्मो भविष्यति // 11 तथा वर्तस्व मान्धातश्चिरं चेत्स्थातुमिच्छसि // 26 यस्मिन्धर्मो विराजेत तं राजानं प्रचक्षते / मत्तात्प्रमत्तात्पोगण्डादुन्मत्ताच्च विशेषतः / यस्मिन्विलीयते धर्मस्तं देवा वृषलं विदुः // 12 तदभ्यासादुपावर्तादहितानां च सेवनात् / / 27 वृषो हि भगवान्धर्मो यस्तस्य कुरुते ह्यलम् / / निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः / वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्म न लोपयेत् // 13 पर्वताद्विषमादुर्गाद्धस्तिनोऽश्वात्सरीसृपात् / / 28 धर्मे वर्धति वर्धन्ति सर्वभूतानि सर्वदा।। एतेभ्यो नित्ययत्तः स्यान्नक्तं चर्यां च वर्जयेत् / तस्मिन्हसति हीयन्ते तस्माद्धर्मं प्रवर्धयेत् // 14 अत्यायं चातिमानं च दम्भं क्रोधं च वर्जयेत् // 29 धनात्स्रवति धर्मो हि धारणाद्वेति निश्चयः / अविज्ञातासु च स्त्रीषु क्लीबासु स्वैरिणीषु च / अकार्याणां मनुष्येन्द्र स सीमान्तकरः स्मृतः // 15 / परभार्यासु कन्यासु नाचरेन्मैथुनं नृपः // 30 प्रभवार्थं हि भूतानां धर्मः सृष्टः स्वयंभुवा / कुलेषु पापरक्षांसि जायन्ते वर्णसंकरात् / तस्मात्प्रवर्धयेद्धर्म प्रजानुग्रहकारणात् / / 16 अपुमांसोऽङ्गहीनाश्च स्थूलजिह्वा विचेतसः॥ 31 तस्माद्धि राजशार्दूल धर्मः श्रेष्ठ इति स्मृतः / एते चान्ये च जायन्ते यदा राजा प्रमाद्यति / स राजा यः प्रजाः शास्ति साधुकृत्पुरुषर्षभः / / 17 | तस्माद्राज्ञा विशेषेण वर्तितव्यं प्रजाहिते // 32 कामकोधावनादृत्य धर्ममेवानुपालयेत् / क्षत्रियस्य प्रमत्तस्य दोषः संजायते महान् / धर्मः श्रेयस्करतमो राज्ञां भरतसत्तम // 18 अधर्माः संप्रवर्तन्ते प्रजासंकरकारकाः // 33 धर्मस्य ब्राह्मणा योनिस्तस्मात्तान्पूजयेत्सदा / अशीते विद्यते शीतं शीते शीतं न विद्यते / ब्राह्मणानां च मान्धातः कामान्कुर्यादमत्सरी // 19 अवृष्टिरतिवृष्टिश्च व्याधिश्चाविशति प्रजाः // 34 तेषां ह्यकामकरणाद्राज्ञः संजायते भयम् / नक्षत्राण्युपतिष्ठन्ति ग्रहा घोरास्तथापरे / मित्राणि च न वर्धन्ते तथामित्रीभवन्त्यपि // 20 उत्पाताश्चात्र दृश्यन्ते बहवो राजनाशनाः // 35 ब्राह्मणान्यै तदासूयाद्यदा वैरोचनो बलिः। अरक्षितात्मा यो राजा प्रजाश्चापि न रक्षति / अथास्माच्छ्रीरपाक्रामद्यास्मिन्नासीत्प्रतापिनी // 21 / प्रजाश्च तस्य क्षीयन्ते ताश्च सोऽनु विनश्यति // 36 ततस्तस्मादपक्रम्य सागच्छत्पाकशासनम् / द्वावाददाते ोकस्य द्वयोश्च बहवोऽपरे / अथ सोऽन्वतपत्पश्चाच्छ्रियं दृष्ट्वा पुरंदरे // 22 / कुमार्यः संप्रलुप्यन्ते तदाहुनृपदूषणम् // 37 एतत्फलमसूयाया अभिमानस्य चाभिभो। ममैतदिति नैकस्य मनुष्येष्ववतिष्ठते / -2109 - Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 91. 38] महाभारते [12. 92. 26 त्यक्त्वा धर्मं यदा राजा प्रमादमनुतिष्ठति // 38 अविषयतमं मन्ये मा स्म दुर्यलमासदः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि दुर्बलांस्तात बुध्येथा नित्यमेवाविमानितान् / एकनवतितमोऽध्यायः // 91 // मा त्वां दुर्बलचढूंषि प्रदहेयुः सबान्धवम् // 14 न हि दुर्बलदग्धस्य कुले किंचित्प्ररोहति। . उतथ्य उवाच। आमूलं निर्दहत्येव मा स्म दुर्बलमासदः // 15 कालवर्षी च पर्जन्यो धर्मचारी च पार्थिवः / अबलं वै बलाच्छ्रेयो यच्चातिषलवद्वलम् / संपद्यदैषा भवति सा बिभर्ति सुखं प्रजाः // 1 बलस्याबलदग्धस्य न किंचिदवशिष्यते // 16 यो न जानाति निहन्तुं वस्त्राणां रजको मलम् / विमानितो हतोत्क्रुष्टस्त्रातारं चेन्न विन्दति / रक्तानि वा शोधयितुं यथा नास्ति तथैव सः // 2 अमानुषकृतस्तत्र दण्डो हन्ति नराधिपम् // 17 एवमेव द्विजेन्द्राणां क्षत्रियाणां विशामपि / मा स्म तात.बले स्थेया बाधिष्ठा मापि. दुर्बलम् / शूद्राश्चतुर्णां वर्णानां नानाकर्मस्ववस्थिताः // 3 / मा त्वा दुर्बलचक्षूषि धक्ष्यन्त्यग्निरिवाश्रयम् // 18 कर्म शूद्रे कृषिर्वैश्ये दण्डनीतिश्च राजनि। यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि रोदताम् / ब्रह्मचर्यं तपो मन्त्राः सत्यं चापि द्विजातिषु / / 4 / तानि पुत्रान्पशून्नन्ति तेषां मिथ्याभिशासताम्॥१९ तेषां यः क्षत्रियो वेद वस्त्राणामिव शोधनम्। यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पौत्रेषु नप्तषु / शीलदोषान्विनिहन्तुं स पिता स प्रजापतिः // 5 | न हि पापं कृतं कर्म सद्यः फलति गौरिव // 20 कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्च भरतर्षभ / यत्राबलो वध्यमानस्त्रातारं नाधिगच्छति / राजवृत्तानि सर्वाणि राजैव युगमुच्यते // 6 महान्दैवकृतस्तत्र दण्डः पतति दारुणः // 21 चातुर्वर्ण्य तथा वेदाश्चातुराश्रम्यमेव च / युक्ता यदा जानपदा भिक्षन्ते ब्राह्मणा इव / सर्व प्रमुह्यते ह्येतद्यदा राजा प्रमाद्यति // 7 अभीक्ष्णं भिक्षुदोषेण राजानं नन्ति तादृशाः // 22 राजैव कर्ता भूतानां राजैव च विनाशकः / / राज्ञो यदा जनपदे बहवो राजपूरुषाः / धर्मात्मा यः स कर्ता स्यादधर्मात्मा विनाशकः // 8 अनयेनोपवर्तन्ते तद्राज्ञः किल्बिषं महत् // 23 राज्ञो भार्याश्च पुत्राच बान्धवाः सुहृदस्तथा।। यदा युक्ता नयन्त्यर्थान्कामादर्थवशेन वा / समेत्य सर्वे शोचन्ति यदा राजा प्रमाद्यति // 9 कृपणं याचमानानां तद्राज्ञो वैशसं महत् // 24 हस्तिनोऽश्वाश्च गावश्चाप्युष्टाश्वतरगर्दभाः। महावृक्षो जायते वर्धते च अधर्मवृत्ते नृपतौ सर्व सीदन्ति पार्थिव // 10 तं चैव भूतानि समाश्रयन्ति / दुर्बलाथ बलं सृष्टं धात्रा मान्धातरुच्यते / यदा वृक्षश्छिद्यते दह्यते वा अबलं तन्महद्भूतं यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् // 11 ___ तदाश्रया अनिकेता भवन्ति // 25 यच्च भूतं स भजते भूता ये च तदन्वयाः / यदा राष्ट्र धर्ममग्र्यं चरन्ति अधर्मस्थे हि नृपतौ सर्वे सीदन्ति पार्थिव // 12 संस्कारं वा राजगुणं ब्रुवाणाः / दुर्बलस्य हि यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च / तैरेवाधर्मश्चरितो धर्ममोहा-2110 - Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 92. 26 ] शान्तिपर्व [ 12. 92. 54 तूर्णं जह्यात्सुकृतं दुष्कृतं च // 26 यदा सम्यक्प्रगृह्णाति स राज्ञो धर्म उच्यते // 39 यत्र पापा ज्ञायमानाश्चरन्ति यमो यच्छति भूतानि सर्वाण्येवाविशेषतः / सतां कलिविन्दति तत्र राज्ञः / तस्य राज्ञानुकर्तव्यं यन्तव्या विधिवत्प्रजाः // 40 यदा राजा शास्ति नरान्नशिष्या सहस्राक्षेण राजा हि सर्व एवोपमीयते / न तद्राज्यं वर्धते भूमिपाल // 27 स पश्यति हि यं धर्म स धर्मः पुरुषर्षभ / 41 यश्चामात्यं मानयित्वा यथार्ह अप्रमादेन शिक्षेथाः क्षमां बुद्धिं धृति मतिम् / मने च युद्धे च नृपो नियुझ्यात् / भूतानां सत्त्वजिज्ञासां साध्वसाधु च सर्वदा // 42 प्रवर्धते तस्य राष्ट्र नृपस्य . संग्रहः सर्वभूतानां दानं च मधुरा च वाक् / भुङ्क्ते महीं चाप्यखिलां चिराय // 28 पौरजानपदाश्चैव गोप्तव्याः स्वा यथा प्रजाः // 43 अत्रापि सुकृतं कर्म वाचं चैव सुभाषिताम् / न जात्वदक्षो नृपतिः प्रजाः शक्नोति रक्षितुम् / समीक्ष्य पूजयनराजा धर्म प्राप्नोत्यनुत्तमम् // 29 भारो हि सुमहांस्तात राज्यं नाम सुदुष्करम् // 44 संविभज्य यदा भुङ्क्ते न चान्यानवमन्यते। तद्दण्डविन्नृपः प्राज्ञः शूरः शक्नोति रक्षितुम् / निहन्ति बलिनं दृप्तं स राज्ञो धर्म उच्यते // 30 न हि शक्यमदण्डेन क्लीबेनाबुद्धिनापि वा // 45 त्रायते हि यदा सर्व वाचा कायेन कर्मणा। अभिरूपैः कुले जातैर्दक्षैभक्तैर्बहुश्रुतैः। पुत्रस्यापि न मृष्येच्च स राज्ञो धर्म उच्यते // 31 / सर्वा बुद्धीः परीक्षेथास्तापसाश्रमिणामपि // 46 यदा शारणिकानराजा पुत्रवत्परिरक्षति / ततस्त्वं सर्वभूतानां धर्म वेत्स्यसि वै परम् / भिनत्ति न च मर्यादां स राज्ञो धर्म उच्यते // 32 स्वदेशे परदेशे वा न ते धर्मो विनश्यति // 47 यदाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्यजते श्रद्धयान्वितः / धर्मश्चार्थश्च कामश्च धर्म एवोत्तरो भवेत् / कामद्वेषावनादृत्य स राज्ञो धर्म उच्यते // 33 अस्मिल्लोके परे चैव धर्मवित्सुखमेधते // 48 कृपणानाथवृद्धानां यदाश्रु व्यपमार्टि वै / त्यजन्ति दारान्प्राणांश्च मनुष्याः प्रतिपूजिताः / हर्ष संजनयन्नृणां स राज्ञो धर्म उच्यते // 34 संग्रहश्चैव भूतानां दानं च मधुरा च वाक् // 49 विवर्धयति मित्राणि तथारीश्चापकर्षति / अप्रमादश्च शौचं च तात भूतिकरं महत् / संपूजयति साधूंश्च स राज्ञो धर्म उच्यते // 35 एतेभ्यश्चैव मान्धातः सततं मा प्रमादिथाः // 50 सत्यं पालयति प्राप्त्या नित्यं भूमिं प्रयच्छति / अप्रमत्तो भवेद्राजा छिद्रदर्शी परात्मनोः / पूजयत्यतिथीभृत्यान्स राज्ञो धर्म उच्यते // 36 नास्य छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेषु परमन्वियात् // 51 निग्रहानुप्रहौ चोभौ यत्र स्यातां प्रतिष्ठितौ।। एतद्वृत्तं वासवस्य यमस्य वरुणस्य च / अस्मिल्लोके परे चैव राजा तत्प्राप्नुते फलम् // 37 राजर्षीणां च सर्वेषां तत्त्वमप्यनुपालय // 52 यमो राजा धार्मिकाणां मान्धातः परमेश्वरः / तत्कुरुष्व महाराज वृत्तं राजर्षिसेवितम् / संयच्छन्भवति प्राणान्नसंयच्छंस्तु पापकः // 38 आतिष्ठ दिव्यं पन्थानमह्नाय भरतर्षभ / / 53 ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान्सत्कृत्यानवमन्य च / धर्मवृत्तं हि राजानं प्रेत्य चेह च भारत / -2111 - Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 92. 54 ] महाभारते [ 12.94.3 देवर्षिपितृगन्धर्वाः कीर्तयन्त्यमितौजसः // 54 / / अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः / भीष्म उवाच / अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति // 10 स एवमुक्तो मान्धाता तेनोतथ्येन भारत / अथाददानः कल्याणमनसूयुर्जितेन्द्रियः / कृतवानविशङ्कस्तदेकः प्राप च मेदिनीम् / / 55 वर्धते मतिमानराजा स्रोतोभिरिव सागरः // 11 भवानपि तथा सभ्यङ्मान्धातेव महीपतिः / न पूर्णोऽस्मीति मन्येत धर्मतः कामतोऽर्थतः / धर्म कृत्वा महीं रक्षन्स्वर्गे स्थानमवाप्स्यसि // 56 बुद्धितो मित्रतश्चापि सततं वसुधाधिपः // 12 एतेष्वेव हि सर्वेषु लोकयात्रा प्रतिष्ठिता / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एतानि शृण्वल्लभते यशः कीर्ति श्रियः प्रजाः॥१३ द्विनवतितमोऽध्यायः // 92 // एवं यो धर्मसंरम्भी धर्मार्थपरिचिन्तकः / अर्थान्समीक्ष्यारभते स ध्रुवं महदभुते // . 14 युधिष्ठिर उवाच / अदाता ह्यनतिस्नेहो दण्डेनावर्तयन्प्रजाः / कथं धर्मे स्थातुमिच्छन्राजा वर्तेत धार्मिकः / साहसप्रकृती राजा क्षिप्रमेव विनश्यति // 15 पृच्छामि त्वा कुरुश्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अथ पापं कृतं बुद्ध्या न च पश्यत्यबुद्धिमान् / भीष्म उवाच / अकीर्त्यापि समायुक्तो मृतो नरकमश्नुते // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अथ मानयितुर्दातुः शुक्लस्य रसवेदिनः / गीतं दृष्टार्थतत्त्वेन वामदेवेन धीमता // 2 व्यसनं स्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः // 15 राजा वसुमना नाम कौसल्यो बलवाञ्शुचिः / यस्य नास्ति गुरुर्धर्मे न चान्याननुपृच्छति। .. महर्षि परिपप्रच्छ वामदेवं यशस्विनम् // 3 सुखतत्रोऽर्थलाभेषु न चिरं महदभुते // 18 धर्मार्थसहितं वाक्यं भगवन्ननुशाधि माम् / गुरुप्रधानो धर्मेषु स्वयमर्थान्ववेक्षिता / येन वृत्तेन वै तिष्ठन्न च्यवेयं स्वधर्मतः // 4 धर्मप्रधानो लोकेषु सुचिरं महदभुते // 19 तमब्रवीद्वामदेवस्तपस्वी जपतां वरः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि हेमवर्णमुपासीनं ययातिमिव नाहुषम् // 5 त्रिनवतितमोऽध्यायः // 93 // धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद्विद्यते परम् / धर्मे स्थिता हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम् // 6 वामदेव उवाच / अर्थसिद्धेः परं धर्मं मन्यते यो महीपतिः।। यत्राधर्म प्रणयते दुर्बले बलवत्तरः / ऋतां च कुरुते बुद्धिं स धर्मेण विरोचते // 7 तां वृत्तिमुपजीवन्ति ये भवन्ति तदन्वयाः // 1 अधर्मदर्शी यो राजा बलादेव प्रवर्तते / / राजानमनुवर्तन्ते तं पापाभिप्रवर्तकम् / क्षिप्रमेवापयातोऽस्मादुभौ प्रथममध्यमौ // 8 अविनीतमनुष्यं तत्क्षिप्रं राष्ट्रं विनश्यति // 2 असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा। यद्वृत्तिमुपजीवन्ति प्रकृतिस्थस्य मानवाः / सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति // 9 तदेव विषमस्थस्य स्वजनोऽपि.न मृष्यते // 3 -2112 - Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 94. 4] शान्तिपर्व [ 12. 94. 33 साहसप्रकृतिर्यत्र कुरुते किंचिदुल्बणम् / / ये केचिद्भमिपतयस्तान्सर्वानन्ववेक्षयेत् / अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति / / 4 सुहृद्भिरनभिख्यातैस्तेन राजा न रिष्यते // 19 योऽत्यन्ताचरितां वृत्तिं क्षत्रियो नानुवर्तते / अपकृत्य बलस्थस्य दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत् / जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः॥ 5 श्येनानुचरितैर्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः // 20 द्विषन्तं कृतकर्माणं गृहीत्वा नृपती रणे। दृढमूलस्त्वदुष्टात्मा विदित्वा बलमात्मनः / यो न मानयते द्वेषात्क्षत्रधर्मादपैति सः // 6 अबलानभियुञ्जीत न तु ये बलवत्तराः // 21 शक्तः स्यात्सुमुखो राजा कुर्यात्कारुण्यमापदि / विक्रमेण महीं लब्ध्वा प्रजा धर्मेण पालयन् / प्रियो भवति भूतानां न च विभ्रश्यते श्रियः // 7 आहवे निधनं कुर्याद्राजा धर्मपरायणः // 22 ... अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत् / मरणान्तमिदं सर्वं नेह किंचिदनामयम् / नचिरेण प्रियः स स्याद्योऽप्रियः प्रियमाचरेत् // 8 तस्माद्धर्मे स्थितो राजा प्रजा धर्मेण पालयेत् // 23 मृषावादं परिहरेत्कुर्यात्प्रियमयाचितः / रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम् / न च कामान्न संरम्भान्न द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत् // 9 / मत्रचिन्त्यं सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही॥ 24 नापत्रपेत प्रश्नेषु नाभिभव्यां गिरं सृजेत् / एतानि यस्य गुप्तानि स राजा राजसत्तम / न त्वरेत न चासूयेत्तथा संगृह्यते परः // 10 सततं वर्तमानोऽत्र राजा भुङ्क्ते महीमिमाम् // 25 प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत् / नैतान्येकेन शक्यानि सातत्येनान्ववेक्षितुम् / न मुह्येदर्थकृच्छ्रेषु प्रजाहितमनुस्मरन् / 11 एतेष्वाप्तान्प्रतिष्ठाप्य राजा भुक्ते महीं चिरम् // 26 यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतो वसुधाधिपः / दातारं संविभक्तारं मार्दवोपगतं शुचिम् / तस्य कर्माणि सिध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया॥१२ असंत्यक्तमनुष्यं च तं जनाः कुर्वते प्रियम् // 27 निवृत्तं प्रतिकूलेभ्यो वर्तमानमनुप्रिये / यस्तु निःश्रेयसं ज्ञात्वा ज्ञानं तत्प्रतिपद्यते / भक्तं भजेत नृपतिस्तद्वै वृत्तं सतामिह // 13 आत्मनो मतमुत्सृज्य तं लोकोऽनुविधीयते // 28 अप्रकीर्गेन्द्रियं प्राज्ञमत्यन्तानुगतं शुचिम् / योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते / शक्तं चैवानुरक्तं च युद्ध्यान्महति कर्मणि // 14 शृणोति प्रतिकूलानि विमना नचिरादिय / / 29 एवमेव गुणैर्युक्तो यो न रज्यति भूमिपम् / अग्राम्यचरितां बुद्धिमत्यन्तं यो न बुध्यते / भर्तुरर्थेष्वसूयन्तं न तं युञ्जीत कर्मणि // 15 जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः // 30 मूढमैन्द्रियकं लुब्धमनार्यचरितं शठम् / मुख्यानमात्यान्यो हित्वा निहीनान्कुरुते प्रियान् / अनतीतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम् // 16 स वै व्यसनमासाद्य गाधमार्तो न विन्दति // 31 यक्तोपात्तं मद्यरतं यतस्त्रीमृगयापरम् / यः कल्याणगुणाज्ञातीन्द्वेषान्नैवाभिमन्यते / कार्ये महति यो युञ्ज्याद्धीयते स नृपः श्रियः॥१७ अदृढात्मा दृढक्रोधो नास्यार्थो रमतेऽन्तिके // 32 रक्षितात्मा तु यो राजा रक्ष्यान्यश्चानुरक्षति / अथ यो गुणसंपन्नान्हृदयस्याप्रियानपि / प्रजाश्च तस्य वर्धन्ते ध्रुवं च महदश्रुते / / 18 / प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति // 33 म. भा, 265 -2113 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 94. 34 ] महाभारते [ 12. 96.6 नाकाले प्रणयेदर्थान्नाप्रिये जातु संज्वरेत् / न वै द्विषन्तः क्षीयन्ते राज्ञो नित्यमपि नतः / प्रिये नातिभृशं हृष्येाज्येतारोग्यकर्मणि // 34 क्रोधं नियन्तुं यो वेद तस्य द्वेष्टा न विद्यते // 9 के मानुरक्ता राजान के भयात्समुपाश्रिताः। यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद्बुधः / मध्यस्थदोषाः के चैषामिति नित्यं विचिन्तयेत् // यत्कल्याणमभिध्यायेत्तत्रात्मानं नियोजयेत् / / 10 न जातु बलवान्भूत्वा दुर्बले विश्वसेत्त्वचित् / नैनमन्येऽवजानन्ति नात्मना परितप्यते / भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः // 36 कृत्यशेषेण यो राजा सुखान्यनुबुभूषति // 11 अपि सर्वैर्गुणैर्युक्तं भर्तारं प्रियवादिनम् / इदंवृत्तं मनुष्येषु वर्तते यो महीपतिः / अभिद्रुह्यति पापात्मा तस्माद्धि विभिषेजनात्॥३७ उभौ लोकौ विनिर्जित्य विजये संप्रतिष्ठते // 12 एतां राजोपनिषदं ययातिः स्माह नाहुषः। भीष्म उवाच / मनुष्यविजये युक्तो हन्ति शत्रूननुत्तमान् // 38 इत्युक्तो वामदेवेन सर्वं तत्कृतवान्नपः। . . इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तथा कुर्वस्त्वमप्येतौ लोको जेता न संशयः // 13 चतुर्नवतितमोऽध्यायः // 94 // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः॥९५॥ . वामदेव उवाच / अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद्वसुधाधिपः / युधिष्ठिर उवाच। जघन्यमाहुर्विजयं यो युद्धेन नराधिप // 1 अथ यो विजिगीषेत क्षत्रियः क्षत्रियं युधि / न चाप्यलब्धं लिप्सेत मूले नातिदृढे सति / कस्तस्य धो विजय एतत्पृष्टो ब्रवीहि मे // 1 न हि दुर्बलमूलस्य राज्ञो लाभो विधीयते // 2 भीष्म उवाच / यस्य स्फीतो जनपदः संपन्नः प्रियराजकः / संतुष्टपुष्टसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः // 3 / ससहायोऽसहायो वा राष्ट्रमागम्य भूमिपः / यस्य योधाः सुसंतुष्टाः सान्त्विताः सूपधास्थिताः / ब्रयादहं वो राजेति रक्षिष्यामि च वः सदा // 2 अल्पेनापि स दण्डेन महीं जयति भूमिपः // 4 मम धयं बलिं दत्त किं वा मां प्रतिपत्स्यथ / पौरजानपदा यस्य स्वनुरक्ताः सुपूजिताः / ते चेत्तमागतं तत्र वृणुयुः कुशलं भवेत् // 3 सधना धान्यवन्तश्च दृढमूलः स पार्थिवः // 5 ते चेदक्षत्रियाः सन्तो विरुध्येयुः कथंचन / प्रभावकालावधिको यदा मन्येत चात्मनः। सर्वोपायनियन्तव्या विकर्मस्था नराधिप // 4 तदा लिप्सेत मेधावी परभूमि धनान्युत // 6 अशक्तं क्षत्रियं मत्वा शस्त्रं गृह्णात्यथापरः / भोगेष्वदयमानस्य भूतेषु च दद्यावतः / त्राणायाप्यसमथं तं मन्यमानमतीव च // 5 वर्धते त्वरमाणस्य विषयो रक्षितात्मनः // 7 युधिष्ठिर उवाच / तक्षत्यात्मानमेवैष वनं परशुना यथा / अथ यः क्षत्रियो राजा क्षत्रियं प्रत्युपाव्रजेत् / यः सम्यग्वर्तमानेषु स्वेषु मिथ्या प्रवर्तते // 8 / कथं स प्रतियोद्धव्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 6 -2114 - Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 96.7] शान्तिपर्व [12. 97. 11 भीष्म उवाच / ततः समूलो ह्रियते नदीकूलादिव द्रुमः / नासंनद्धो नाकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे। अथैनमभिनिन्दन्ति भिन्नं कुम्भमिवाश्मनि / एक एकेन वाच्यश्च विसृजस्व क्षिपामि च // 7 तस्माद्धर्मेण विजयं कामं लिप्सेत भूमिपः // 21 स चेत्संनद्ध आगच्छेत्संनद्धव्यं ततो भवेत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स चेत्ससैन्य आगच्छेत्ससैन्यस्तमथाह्वयेत् // 8 षण्णवतितमोऽध्यायः // 96 // स चेन्निकृत्या युध्येत निकृत्या तं प्रयोधयेत् / अथ चेद्धर्मतो युध्येद्धर्मेणैव निवारयेत् // 9 भीष्म उवाच / नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद्रथिनं रथी। . नाधर्मेण महीं जेतुं लिप्सेत जगतीपतिः / व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च // 10 अधर्मविजयं लब्ध्वा कोऽनुमन्येत भूमिपः // 1 नेषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम् / अधर्मयुक्तो विजयो ह्यध्रुवोऽस्वर्य एव च / जयार्थमेव योद्धव्यं न क्रुध्येदजिघांसतः // 11 सादयत्येष राजानं महीं च भरतर्षभ // 2 साधूनां तु मिथोभेदात्साधुश्चेद्वयसनी भवेत् / विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम् / सव्रणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथंचन // 12 कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न विहिंसयेत् // 3 भग्नशस्त्रो विपन्नाश्वश्छिन्नज्यो हतवाहनः / / बलेनावजितो यश्च न तं युध्येत भूमिपः / चिकित्स्यः स्यात्स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहान्भवेत् / संवत्सरं विप्रणयेत्तस्माज्जातः पुनर्भवेत् // 4 निव्रणोऽपि च भोक्तव्यं एष धर्मः सनातनः // 13 नाक्सिंवत्सरात्कन्या स्प्रष्टव्या विक्रमाहृता / तस्माद्धर्मेण योद्धव्यं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् / एवमेव धनं सर्वं यच्चान्यत्सहसाहृतम् // 5 सत्सु नित्यं सतां धर्मस्तमास्थाय न नाशयेत् // 14 न तु वन्ध्यं धनं तिष्ठेत्पिबेयुाह्मणाः पयः / यो वै जयत्यधर्मेण क्षत्रियो वर्धमानकः। युञ्जीरन्वाप्यनडुहः क्षन्तव्यं वा तदा भवेत् // 6 आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः // 15 राज्ञा राजैव योद्धव्यस्तथा धर्मो विधीयते / कर्म चैतदसाधूनामसाधु साधुना जयेत् / नान्यो राजानमभ्यसेदराजन्यः कथंचन // 7 धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा // 16 अनीकयोः संहतयोर्यदीयाब्राह्मणोऽन्तरा / नाधर्मश्चरितो राजन्सद्यः फलति गौरिव / शान्तिमिच्छन्नुभयतो न योद्धव्यं तदा भवेत् / मूलान्यस्य प्रशाखाश्च दहन्समनुगच्छति // 17 मर्यादां शाश्वती भिन्द्याब्राह्मणं योऽभिलक्षयेत् // 8 पापेन कर्मणः वित्तं लब्ध्वा पापः प्रहृष्यति / अथ चेल्लङ्घयेदेनां मर्यादा क्षत्रियब्रुवः / स वर्धमानः स्तेयेन पापः पापे प्रसजति // 18 अप्रशस्यस्तदूर्ध्व स्यादनादेयश्च संसदि // 9 न धर्मोऽस्तीति मन्वानः शुचीनवहसन्निव / | या तु धर्मविलोपेन मर्यादाभेदनेन च / अश्रद्दधानभावाच्च विनाशमुपगच्छति / / 19 तां वृत्ति नानुवर्तेत विजिगीषुर्महीपतिः / स बद्धो वारुणैः पाशैरमर्त्य इव मन्यते / धर्मलब्धाद्धि विजयात्को लाभोऽभ्यधिको भवेत् // महादतिरिवाध्मातः स्वकृतेन विवर्धते // 20 / सहसा नाम्य भूतानि क्षिप्रमेव प्रसादयेत् / -2115 - Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 97. 11] महाभारते [12. 98. 15 सान्त्वेन भोगदानेन स राज्ञां परमो नयः // 11 / अभियाने च युद्धे च राजा हन्ति महाजनम् // 1 भुज्यमाना ह्ययोगेन स्वराष्ट्रादभितापिताः। अथ स्म कर्मणा येन लोकाञ्जयति पार्थिवः / अमित्रान्पर्युपासीरन्व्यसनौघप्रतीक्षिणः // 12 विद्वञ्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ // 2 अमित्रोपग्रहं चास्य ते कुर्युः क्षिप्रमापदि / भीष्म उवाच / संदुष्टाः सर्वतो राजनराजव्यसनकाङ्किणः // 13 निग्रहेण च पापानां साधूनां प्रग्रहेण च / नामित्रो विनिकर्तव्यो नातिच्छेद्यः कथंचन। यज्ञैर्दानैश्च राजानो भवन्ति शुचयोऽमलाः // 3 जीवितं ह्यप्यतिच्छिन्नः संत्यजत्येकदा नरः // 14 उपरुन्धन्ति राजानो भूतानि विजयार्थिनः / अल्पेनापि हि संयुक्तस्तुष्यत्येवापराधिकः / त एव विजयं प्राप्य वर्धयन्ति पुनः प्रजाः // 4 शुद्धं जीवितमेवापि तादृशो बहु मन्यते // 15 / / अपविध्यन्ति पापानि दानयज्ञतपोबलैः / यस्य स्फीतो जनपदः संपन्नः प्रियराजकः / अनुग्रहेण भूतानां पुण्यमेषां प्रवर्धते / / 5 संतुष्टभृत्यसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः // 16 यथैव क्षेत्रनिर्दाता निर्दन्वै क्षेत्रमेकदा / ऋत्विक्पुरोहिताचार्या ये चान्ये श्रुतसंमताः। हिनस्ति कक्षं धान्यं च न च धान्यं विनश्यति // 6 पूजार्हाः पूजिता यस्य स वै लोकजिदुच्यते // 17 एवं शस्त्राणि मुञ्चन्तो घ्नन्ति वध्यानथैकदा / एतेनैव च वृत्तेन महीं प्राप सुरोत्तमः / तस्यैषा निष्कृतिः कृत्स्ना भूतानां भावनं पुनः।। 7 अन्वेव चैन्द्र विजयं व्यजिगीषन्त पार्थिवाः // 18 यो भूतानि धनज्यानाद्वधात्क्लेशाच्च रक्षति / भूमिवर्ज पुरं राजा जित्वा राजानमाहवे / दस्युभ्यः प्राणदानात्स धनदः सुखदो विराट् / / 8 अमृताश्चौषधीः शश्वदाजहार प्रतर्दनः // 19 स सर्वयज्ञैरीजानो राजाथाभयदक्षिणैः / अग्निहोत्राण्यग्निशेषं हविर्भाजनमेव च / अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् / / 9 / आजहार दिवोदासस्ततो विप्रकृतोऽभवत् / / 20 ब्राह्मणार्थे समुत्पन्ने योऽभिनिःसृत्य युध्यते / सराजकानि राष्ट्राणि नाभागो दक्षिणां ददौ / आत्मानं यूपमुच्छ्रित्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः / / 10 अन्यत्र श्रोत्रियस्वाच्च तापसस्वाच्च भारत // 21 अभीतो विकिरशत्रून्प्रतिगृह्णशरांस्तथा / उच्चावचानि वृत्तानि धर्मज्ञानां युधिष्ठिर / न तस्मात्रिदशाः श्रेयो भुधि पश्यन्ति किंचन // 11 आसन्राज्ञां पुराणानां सर्वं तन्मम रोचते / / 22 तस्य यावन्ति शस्त्राणि त्वचं भिन्दन्ति संयुगे। सर्वविद्यातिरेकाद्वा जयमिच्छेन्महीपतिः / तावतः सोऽश्रुते लोकान्सर्वकामदुहोऽक्षयान् // 12 न मायया न दम्भेन य इच्छेद्भुतिमात्मनः // 23 न तस्य रुधिरं गात्रादावेधेभ्यः प्रवर्तते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स ह तेनैव रक्तेन सर्वपापैः प्रमुच्यते // 13 सप्तनवतितमोऽध्यायः // 97 // यानि दुःखानि सहते व्रणानामभितापने / न ततोऽस्ति तपो भूय इति धर्मविदो विदुः॥१४ युधिष्ठिर उवाच / पृष्ठतो भीरवः संख्ये वर्तन्तेऽधमपूरुषाः / क्षत्रधर्मान्न पापीयान्धर्मोऽस्ति भरतर्षभ / शूराच्छरणमिच्छन्तः पर्जन्यादिव जीवनम् // 15 -2116 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 98. 16] शान्तिपर्व [ 12. 99. 11 99 यदि शूरस्तथा क्षेमे प्रतिरक्षेत्तथा भये / सो योधः परं त्यक्तुमाविष्टस्त्यक्तजीवितः / प्रतिरूपं जनाः कुर्युर्न च तद्वर्तते तथा // 16 प्राप्नोतीन्द्रस्य सालोक्यं शूरः पृष्ठमदर्शयन् // 31 यदि ते कृतमाज्ञाय नमस्कुर्युः सदैव तम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि युक्तं न्याय्यं च कुर्युस्ते न च तद्वर्तते तथा // 17 अष्टनवतितमोऽध्यायः // 98 // पुरुषाणां समानानां दृश्यते महदन्तरम् / संग्रामेऽनीकवेलायामुत्क्रुष्टेऽभिपतत्सु च // 18 युधिष्ठिर उवाच / पतत्यभिमुखः शूरः परान्भीरुः पलायते / के लोका युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम् / आस्थायास्वय॑मध्वानं सहायान्विषमे त्यजन् / / 19 भवन्ति निधनं प्राप्य तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 मा स्म तांस्तादृशांस्तात जनिष्ठाः पुरुषाधमान् / ये सहायान्रणे हित्वा स्वस्तिमन्तो गृहान्ययुः // 20 भीष्म उवाच / अस्वस्ति तेभ्यः कुर्वन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / त्यागेन यः सहायानां स्वान्प्राणांस्त्रातुमिच्छति // 21 अम्बरीषस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर // 2 तं हन्युः काष्ठलोष्टैर्वा दहेयुर्वा कटाग्निना। अम्बरीषो हि नाभागः स्वर्ग गत्वा सुदुर्लभम् / पशुवन्मारयेयुर्वा क्षत्रिया ये स्युरीदृशाः / / 22 ददर्श सुरलोकस्थं शक्रेण सचिवं सह // 3 अधर्मः क्षत्रियस्यैष यच्छय्यामरणं भवेत् / सर्वतेजोमयं दिव्यं विमानवरमास्थितम् / विसृजम्श्लेष्मपित्तानि कृपणं परिदेवयन् / / 23 उपर्युपरि गच्छन्तं स्वं वै सेनापति प्रभुम् // 4 अविक्षतेन देहेन प्रलयं योऽधिगच्छति / स दृष्ट्वोपरि गच्छन्तं सेनापतिमुदारधीः / क्षत्रियो नास्य तत्कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः // 24 ऋद्धिं दृष्ट्वा सुदेवस्य विस्मितः प्राह वासवम् // 5 न गृहे मरणं तात क्षत्रियाणां प्रशस्यते / सागरान्तां महीं कृत्स्नामनुशिष्य यथाविधि / शौटीराणामशौटीरमधयं कृपणं च तत् / / 25 चातुर्वर्ण्य यथाशास्त्रं प्रवृत्तो धर्मकाम्यया // 6 इदं दुःखमहो कष्टं पापीय इति निष्टनन् / ब्रह्मचर्येण घोरेण आचार्यकुलसेवया। प्रतिध्वस्तमुखः पूतिरमात्यान्बहु शोचयन् // 26 वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्रं च केवलम् // 7 अरोगाणां स्पृहयते मुहुर्मृत्युमपीच्छति / अतिथीनन्नपानेन पितॄश्च स्वधया तथा / वीरो दृप्तोऽभिमानी च नेदृशं मृत्युमर्हति // 27 / / ऋषीन्स्वाध्यायदीक्षाभिर्देवान्यज्ञैरनुत्तमैः // 8 रणेषु कदनं कृत्वा ज्ञातिभिः परिवारितः। क्षत्रधर्मे स्थितो भूत्वा यथाशास्त्रं यथाविधि / तीक्ष्णैः शस्त्रैः सुबिक्लिष्टः क्षत्रियो मृत्युमर्हति // 28 उदीक्षमाणः पृतनां जयामि युधि वासव // 9 शूरो हि सत्यमन्युभ्यामाविष्टो युध्यते भृशम् / देवराज सुवोऽयं मम सेनापतिः पुरा / कृत्यमानानि गात्राणि परैनैवावबुध्यते // 29 आसीद्योधः प्रशान्तात्मा सोऽयं कस्मादतीव माम्॥ स संख्ये निधनं प्राप्य प्रशस्तं लोकपूजितम् / नानेन क्रतुभिर्मुख्यैरिष्टं नैव द्विजातयः / खधर्म विपुलं प्राप्य शक्रस्यैति सलोकताम् // 30 | तर्पिता विधिवच्छक सोऽयं कस्मादतीव माम् // 11 - 2117 - Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 99. 12 ] महाभारते [ 12. 99. 39 इन्द्र उवाच / इडोपहूतं क्रोशन्ति कुञ्जरा अङ्कशेरिताः / एतस्य विततस्तात सुदेवस्य बभूव ह / व्याघुष्टतलनादेन वषट्कारेण पार्थिव / संग्रामयज्ञः सुमहान्यश्चान्यो युध्यते नरः / / 12 उद्गाता तव संग्रामे त्रिसामा दुन्दुभिः स्मृतः // 25 संनद्धो दीक्षितः सर्वो योधः प्राप्य चमूमुखम् / ब्रह्मस्वे ह्रियमाणे यः प्रियां युद्धे तनुं त्यजेत् / युद्धयज्ञाधिकारस्थो भवतीति विनिश्चयः // 13 आत्मानं यूपमुछित्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः // 26 अम्बरीष उवाच / / भर्तुरर्थे तु यः शूरो विक्रमेद्वाहिनीमुखे / कानि यज्ञे हवींष्यत्र किमाज्यं का च दक्षिणा। भयान्न च निवर्तेत तस्य लोका यथा मम // 27 ऋत्विजश्चात्र के प्रोक्तास्तन्मे ब्रूहि शतक्रतो // 14 नीलचन्द्राकृतैः खड्गबहुभिः परिघोपमैः / इन्द्र उवाच / यस्य वेदिपस्तीर्णा तस्य लोका यथा मम // 28 ऋत्विजः कुञ्जरास्तत्र वाजिनोऽध्वर्यवस्तथा।। यस्तु नावेक्षते कंचित्सहायं विजये स्थितः / हवींषि परमांसानि रुधिरं त्वाज्यमेव च // 15 विगाह्य वाहिनीमध्यं तस्य लोका यथा मम // 29 सृगालगृध्रकाकोलाः सदस्यास्तत्र सत्रिणः / यम्य तोमरसंघाटा भेरीमण्डूककच्छपा / आज्यशेषं पिबन्त्येते हविः प्राश्नन्ति चाध्वरे // 16 वीरास्थिशर्करा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा // 30 प्रासतोमरसंघाताः खड्गशक्तिपरश्वधाः / असिचर्मप्लवा सिन्धुः केशशैवलशाद्वला / ज्वलन्तो निशिताः पीताः सुचस्तस्याथ सत्रिणः।।१७ अश्वनागरथैश्चैव संभिन्नैः कृतसंक्रमा / / 31 चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायावदारणः / पताकाध्वजवानीरा हतवाहनवाहिनी। ऋजुः सुनिशितः पीतः सायकोऽस्य सुवो महान् // शोणितोदा सुसंपूर्णा दुस्तरा पारगैनरैः // 32 द्वीपिचविनद्धश्च नागदन्तकृतत्सरुः / हतनागमहानका परलोकवहाशिवा / हस्तिहस्तगतः खड्गः स्फ्यो भवेत्तस्य संयुगे॥१९ ऋष्टिखड्गध्वजानूका गृध्रकङ्कवडप्लवा // 33 ज्वलितैर्निशितैः पीतैः प्रासशक्तिपरश्वधैः / पुरुषादानुचरिता भीरूणां कश्मलावहा / शैक्यायसमयैस्तीक्ष्णैरभिघातो भवेद्वसु // 20 नदी योधमहायज्ञे तदस्यावभृथं स्मृतम् // 34 आवेगाद्यत्तु रुधिरं संग्रामे स्यन्दने भुवि / / वेदी यस्य त्वमित्राणां शिरोभिरवकीर्यते / सास्य पूर्णाहुतिहोत्रे समृद्धा सर्वकामधुक् // 21 / अश्वस्कन्धैर्गजस्कन्धैस्तस्य लोका यथा मम // 35 छिन्धि भिन्धीति यस्यैतच्छ्रयते वाहिनीमुखे / पत्नीशाला कृता यस्य परेषां वाहिनीमुखम् / सामानि सामगास्तस्य गायन्ति यमसादने // 22 हविर्धानं स्ववाहिन्यस्तदस्याहुर्मनीषिणः // 36 हविर्धानं तु नस्याहुः परेषां वाहिनीमुखम् / सदश्चान्तरयोधाग्निराग्नीध्रश्चोत्तरां दिशम् / कुञ्जराणां हयानां च वर्मिणां च समुच्चयः।। शत्रुसेनाकलत्रस्य सर्वलोकानदूरतः // 37 अग्निः श्येनचितो नाम तस्य यज्ञे विधीयते // 23 / यदा तूभयतो व्यूहो भवत्याकाशमग्रतः। उत्तिष्ठति कबन्धोऽत्र सहस्र निहते तु यः। सास्य वेदी तथा यज्ञे नित्यं वेदास्त्रयोऽग्नयः // 38 स यूपस्तस्य शूरस्य खादिरोऽष्टाश्रिरुच्यते // 24 / यस्तु योधः परावृत्तः संत्रस्तो हन्यते परैः / -2118 - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 99. 39] शान्तिपर्व [12. 100. 16 अप्रतिष्ठं स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः // 39 यज्ञोपवीती संग्रामे जनको मैथिलो यथा / यस्य शोणितवेगेन नदी स्यात्समभिप्लुता / योधानुद्धर्षयामास तन्निबोध युधिष्ठिर // 2 केशमांसास्थिसंकीर्णा स गच्छेत्परमां गतिम् // 40 जनको मैथिलो राजा महात्मा सर्वतत्त्ववित् / यस्तु सेनापतिं हत्वा तद्यानमधिरोहति / योधान्स्वान्दर्शयामास स्वर्ग नरकमेव च // 3 स विष्णुविक्रमकामी बृहस्पतिसमः क्रतुः // 41 अभीतानामिमे लोका भास्वन्तो हन्त पश्यत / नायकं वा प्रमाणं वा यो वा स्यात्तत्र पूजितः / / पूर्णा गन्धर्वकन्याभिः सर्वकामदुहोऽक्षयाः // 4 जीवनाहं निगृह्णाति तस्य लोका यथा मम // 42 इमे पलायमानानां नरकाः प्रत्युपस्थिताः / आहवे निहतं शूरं न शोचेत कदाचन। / अकीर्तिः शाश्वती चैव पतितव्यमनन्तरम् // 5 अशोच्यो हि हतः शूरः स्वर्गलोके महीयते // 43 तान्दृष्ट्वारीन्विजयतो भूत्वा संत्यागबुद्धयः / न ह्यन्नं नोदकं तस्य न स्नानं नाप्यशौचकम् / नरकस्याप्रतिष्ठस्य मा भूत वशवर्तिनः // 6 हतस्य कर्तुमिच्छन्ति तस्य लोकाशृणुष्व मे // 44 त्यागमूलं हि शूराणां स्वर्गद्वारमनुत्तमम् / पराप्सरःसहस्राणि शरमायोधने हतम / / इत्युक्तास्ते नृपतिना योधाः परपुरंजय / / 7 त्वरमाणा हि धावन्ति मम भर्ता भवेदिति // 45 व्यजयन्त रणे शत्रून्हर्षयन्तो जनेश्वरम् / एतत्तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः / तस्मादात्मवता नित्यं स्थातव्यं रणमूर्धनि // 8 चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धे न पलायते // 46 गजानां रथिनो मध्ये रथानामनु सादिनः / वृद्धं बलं न हन्तव्यं नैव स्त्री न च वै द्विजः / सादिनामन्तरा स्थाप्यं पादातमिह दंशितम् // 9 तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत् // 47 य एवं व्यूहते राजा स नित्यं जयते द्विषः / अहं वृत्रं बलं पाकं शतमायं विरोचनम् / तस्मादेवं विधातव्यं नित्यमेव युधिष्ठिर // 10 दुरावार्य च नमुचिं नैकमायं च शम्बरम् // 48 सर्वे सुकृतमिच्छन्तः सुयुद्धेनातिमन्यवः / विप्रचित्तिं च दैतेयं दनोः पुत्रांश्च सर्वशः / / क्षोभयेयुरनीकानि सागरं मकरा इव // 11 प्रह्लादं च निहत्याजौ ततो देवाधिपोऽभवम् // 49 हर्षयेयुर्विषण्णांश्च व्यवस्थाप्य परस्परम् / . भीष्म उवाच / जितां च भूमि रक्षेत भग्नान्नात्यनुसारयेत् // 12 इत्येतच्छक्रवचनं निशम्य प्रतिगृह्य च। पुनरावर्तमानानां निराशानां च जीविते / योधानामात्मनः सिद्धिमम्बरीषोऽभिपन्नवान् / / 50 न वेगः सुसहो राजस्तस्मान्नात्यनुसारयेत् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्राद्रवतां भयात् / एकोनशततमोऽध्यायः॥ 99 // तस्मात्पलायमानानां कुर्यान्नात्यनुसारणम् // 14 100 चराणामचरा ह्यन्नमदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि / भीष्म उवाच / अपाणयः पाणिमतामन्नं शूरस्य कातराः // 15 अत्राप्युदाहरतीममितिहासं पुरातनम् / समानपृष्ठोदरपाणिपादाः प्रतर्दनो मैथिलश्च संग्रामं यत्र चक्रतुः // 1 ___ पश्चाच्छूरं भीरवोऽनुव्रजन्ति / - 2119 - Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 100. 16] महाभारते [12. 101. 22 अतो भयार्ताः प्रणिपत्य भूयः अभिनीतानि शस्त्राणि योधाश्च कृतनिश्रमाः॥ 8 कृत्वाञ्जलीनुपतिष्ठन्ति शूरान् // 16 चैत्र्यां वा मार्गशीयां वा सेनायोगः प्रशस्यते / शूरवाहुषु लोकोऽयं लम्बते पुत्रवत्सदा / पक्कसस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तथा // 9 तस्मात्सर्वास्ववस्थासु शूरः संमानमर्हति // 17 नैवातिशीतो नात्युष्णः कालो भवति भारत / न हि शौर्यात्परं किंचित्रिषु लोकेषु विद्यते / / तस्मात्तदा योजयेत परेषां व्यसनेषु वा। शूरः सर्व पालयति सर्वं शूरे प्रतिष्ठितम् // 18 एतेषु योगाः सेनायाः प्रशस्ताः परवाधने // 10 जलवांस्तृणवान्मार्गः समो गम्यः प्रशस्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि शततमोऽध्यायः // 10 // चारैर्हि विहिताभ्यासः कुशलैर्वनगोचरैः // 11 नव्यारण्यैर्न शक्येत गन्तुं मृगगणैरिव / तस्मात्सर्वासु सेनासु योजयन्ति जयार्थिनः // 12 युधिष्ठिर उवाच / आवासस्तोयवान्दुर्गः पर्याकाशः प्रशस्यते / यथा जयार्थिनः सेनां नयन्ति भरतर्षभ / परेषामुपसर्पाणां प्रतिषेधस्तथा भवेत् // 13 ईषद्धर्म प्रपीड्यापि तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 आकाशं तु वनाभ्याशे मन्यन्ते गुणवत्तरम् / भीष्म उवाच / बहुभिर्गुणजातैस्तु ये युद्धकुशला जनाः // 14 सत्येन हि स्थिता धर्मा उपपत्त्या तथापरे / उपन्यासोऽपसर्पाणां पदातीनां च गृहनम् / साध्वाचारतया केचित्तथैवोपयिका अपि / अथ शत्रुप्रतीघातमापदर्थं परायणम् // 15 उपायधर्मान्वक्ष्यामि सिद्धार्थानर्थधर्मयोः // 2 सप्तर्षीन्पृष्ठतः कृत्वा युध्येरनचला इव / निर्मर्यादा दस्यवस्तु भवन्ति परिपन्थिनः / अनेन विधिना राजञ्जिगीषेतापि दुर्जयान् / / 16 तेषां प्रतिविघातार्थं प्रवक्ष्याम्यथ नैगमम् / यतो वायुर्यतः सूर्यो यतः शुक्रस्ततो जयः।। कार्याणां संप्रसिद्ध्यर्थं तानुपायान्निबोध मे // 3 पूर्व पूर्व ज्याय एषां संनिपाते युधिष्ठिर // 17 उभे प्रज्ञे वेदितव्ये ऋज्वी वक्रा च भारत / अकर्दमामनुदकाममर्यादामलोष्टकाम् / जानन्वक्रां न सेवेत प्रतिबाधेत चागताम् / / 4 अश्वभूमि प्रशंसन्ति ये युद्धकुशला जनाः // 18 अमित्रा एव राजानं भेदेनोपचरन्त्युत / समा निरुदकाकाशा रथभूमिः प्रशस्यते / तां राजां निकृतिं जानन्यथामित्रान्प्रबाधते // 5 नीचद्रुमा महाकक्षा सोदका हस्तियोधिनाम् // 19 गजानां पार्श्वचर्माणि गोवृषाजगराणि च। बहुदुर्गा महावृक्षा वेत्रवेणुभिरास्तृता। शल्यकङ्कटलोहानि तनुत्राणि मतानि च // 6 पदातीनां क्षमा भूमिः पर्वतोपवनानि च // 20 शितपीतानि शस्त्राणि संनाहाः पीतलोहिताः / पदातिबहुला सेना दृढा भवति भारत / नानारञ्जनरक्ताः स्युः पताकाः केतवश्च ते // 7 रथाश्वबहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते // 21 ऋष्टयस्तोमराः खड्गा निशिताश्च परश्वधाः / / पदातिनागबहुला प्रावृट्काले प्रशस्यते / / फलकान्यथ चर्माणि प्रतिकल्प्यान्यनेकशः / गुणानेतान्प्रसंख्याय देशकालौ प्रयोजयेत् // 22 --2120 - शः। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 101. 23 ] शान्तिपर्व [ 12. 102. 2 एवं संचिन्त्य यो याति तिथिनक्षत्रपूजितः। सा भीरूणां परान्याति शूरस्तामधिगच्छति // 37 विजयं लभते नित्यं सेनां सम्यक्प्रयोजयन् // 23 ते वयं स्वर्गमिच्छन्तः संग्रामे त्यक्तजीविताः / प्रसुनांस्तृषिताश्रान्तान्प्रकीर्णान्नाभिघातयेत्। जयन्तो वध्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सद्गतिम् // 38 मोक्षे प्रयाणे चलने पानभोजनकालयोः // 24 एवं संशप्तशपथाः समभित्यक्तजीविताः / अतिक्षिप्तान्व्यतिक्षिप्तान्विहतान्प्रतनूकृतान् / अमित्रवाहिनीं वीराः संप्रगाहन्त्यभीरवः // 39 सुविसम्भान्कृतारम्भानुपन्यासप्रतापितान् / अग्रतः पुरुषानीकमसिचर्मवतां भवेत् / बहिश्चरानुपन्यासान्कृत्वा वेश्मानुसारिणः // 25 पृष्ठतः शकटानीकं कलत्रं मध्यतस्तथा // 40 पारंपर्यागते द्वारे ये केचिदनुवर्तिनः / परेषां प्रतिघातार्थ पदातीनां च गृहनम् / परिचर्यावरोद्धारो ये च केचन वल्गिनः // 26 अपि ह्यस्मिन्परे गृद्धा भवेयुर्ये पुरोगमाः // 41 अनीकं ये प्रभिन्दन्ति भिन्नं ये स्थगयन्ति च / ये पुरस्तादभिमताः सत्त्ववन्तो मनस्विनः / समानाशनपानास्ते कार्या द्विगुणवेतनाः / / 27 ते पूर्वमभिवर्तेरस्तानन्वगितरे जनाः // 42 दशाधिपतयः कार्याः शताधिपतयस्तथा।। अपि चोद्धर्षणं कार्य भीरूणामपि यत्नतः / तेषां सहस्राधिपतिं कुर्याच्छ्रमतन्द्रितम् // 28 स्कन्धदर्शनमात्रं तु तिष्ठेयुर्वा समीपतः // 43 यथामुख्यं संनिपात्य वक्तव्याः स्म शपामहे / संहतान्योधयेदल्पान्कामं विस्तारयेद्बहून् / यथा जयार्थं संग्रामे न जह्याम परस्परम् // 29 सूचीमुखमनीकं स्यादल्पानां बहुभिः सह // 44 इहैव ते निवर्तन्तां ये नः केचन भीरवः / संप्रयुद्धे प्रहृष्टे वा सत्यं वा यदि वानृतम् / न घातयेयुः प्रदरं कुर्वाणास्तुमुले सति // 30 प्रगृह्य बाहून्क्रोशेत भग्ना भग्नाः परा इति // 45 आत्मानं च स्वपक्षं च पलायन्हन्ति संयुगे। आगतं नो मित्रबलं प्रहरध्वमभीतवत् / द्रव्यनाशो वधोऽकीर्तिरयशश्च पलायने / / 31 शब्दवन्तोऽनुधावेयुः कुर्वन्तो भैरवं रवम् // 46 अमनोज्ञासुखा वाचः पुरुषस्य पलायतः / क्ष्वेडाः किलकिलाः शङ्खाः क्रकचा गोविषाणिकान् / प्रतिस्पन्दौष्ठदन्तस्य न्यस्तसर्वायुधस्य च // 32 भेरीमृदङ्गपणवान्नादयेयुश्च कुञ्जरान् // 47 हित्वा पलायमानस्य सहायान्प्राणसंशये / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अमित्रैरनुबद्धस्य द्विषतामस्तु नस्तथा // 33 एकाधिकशततमोऽध्यायः // 101 // मनुष्यापसदा ह्येते ये भवन्ति पराङ्मुखाः / राशिवर्धनमात्रास्ते नैव ते प्रेत्य नो इह // 34 युधिष्ठिर उवाच / अमित्रा हृष्टमनसः प्रत्युद्यान्ति पलायिनम् / किंशीलाः किंसमुत्थानाः कथंरूपाश्च भारत / जयिनं सुहृदस्तात वन्दनैर्मङ्गलेन च // 35 किंसंनाहाः कथंशस्त्रा जनाः स्युः संयुगे नृप // 1 यस्य स्म व्यसने राजन्ननुमोदन्ति शत्रवः / भीष्म उवाच / तदसह्यतरं दुःखमहं मन्ये वधादपि // 36 / यथाचरितमेवात्र शस्त्रपत्रं विधीयते / श्रियं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च / / / आचारादेव पुरुषस्तथा कर्मसु वर्तते // 2 म. भा. 266 -2121 - 102 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 102. 3] महाभारते [12. 103.0 गान्धाराः सिन्धुमौवीरा नखरप्रासयोधिनः / उग्रस्वना मन्युमन्तो युद्धेष्वारावसारिणः / आभीरवः सुबलिनस्तद्बलं सर्वपारगम् // 3 अधर्मज्ञावलिप्ताश्च घोरा रौद्रप्रदर्शिनः // 18 . सर्वशस्त्रेषु कुशलाः सत्त्ववन्तो घुशीनराः / त्यक्तात्मानः सर्व एते अन्त्यजा ह्यनिवर्तिनः / प्राच्या मातङ्गयुद्धेषु कुशलाः शठयोधिनः // 4 पुरस्कार्याः सदा सैन्ये हन्यन्ते नन्ति चापि ते॥१९ तथा यवनकाम्बोजा मथुरामभितश्च ये / अधार्मिका भिन्नवृत्ताः साध्वेवैषां पराभवः / एते नियुद्धकुशला दाक्षिणात्यासिचर्मिणः // 5 एवमेव प्रकुप्यन्ति राज्ञोऽप्येते ह्यभीक्ष्णशः // 20 सर्वत्र शूरा जायन्ते महासत्त्वा महाबलाः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्राय एष समुद्दिष्टो लक्षणानि तु मे शृणु // 6 द्वयधिकशततमोऽध्यायः // 102 // सिंहशार्दूलवाड़ेत्राः सिंहशार्दूलगामिनः / 103 पारावतकुलिङ्गाक्षाः सर्वे शूराः प्रमाथिनः // 7 युधिष्ठिर उवाच / मृगस्वरा द्वीपिनेत्रा ऋषभाक्षास्तथापरे / जैच्या वा कानि रूपाणि भवन्ति पुरुषर्षभ / प्रवादिनः सुचण्डाश्च क्रोधिनः किंनरीस्वनाः // 8 | पृतनायाः प्रशस्तानि तानीहेच्छामि वेदितुम् // 1 मेघस्वनाः क्रुद्धमुखाः केचित्करभनिस्वनाः / भीष्म उवाच / जिह्मनासानुजङ्घाश्च दूरगा दूरपातिनः // 9 जैच्या वा यानि रूपाणि भवन्ति पुरुषर्षभ / बिडालकुब्जास्तनवस्तनुकेशास्तनुत्वचः / पृतनायाः प्रशस्तानि तानि वक्ष्यामि सर्वशः // 2 शूराश्चपलचित्ताश्च ते भवन्ति दुरासदाः // 10 दैवं पूर्व विकुरुते मानुषे कालचोदिते / गोधानिमीलिताः केचिन्मृदुप्रकृतयोऽपि च / तद्विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ज्ञानदीपेण चक्षुषा // 3 तुरंगगतिनिर्घोषास्ते नराः पारयिष्णवः // 11 प्रायश्चित्तविधिं चात्र जपहोमाश्च तद्विदः। सुसंहताः प्रतनवो व्यूढोरस्काः सुसंस्थिताः। मङ्गलानि च कुर्वन्तः शमयन्त्यहितान्यपि // 4 प्रवादितेन नृत्यन्ति हृष्यन्ति कलहेषु च // 12 उदीर्णमनसो योधा वाहनानि च भारत / गम्भीराक्षा निःसृताक्षाः पिङ्गला भृकुटीमुखाः / यस्यां भवन्ति सेनायां ध्रुवं तस्यां जयं वदेत् // 5 नकुलाक्षास्तथा चैव सर्वे शूरास्तनुत्यजः // 13 अन्वेनां वायवो वान्ति तथैवेन्द्रधनूंषि च / जिह्माक्षाः प्रललाटाश्च निर्मांसहनवोऽपि च / अनुप्लवन्ते मेघाश्च तथादित्यस्य रश्मयः // 6 वक्रबाहङ्गलीसक्ताः कृशा धमनिसंतताः // 14 गोमायवश्चानुलोमा वडा गृध्राश्च सर्वशः / प्रविशन्त्यतिवेगेन संपरायेऽभ्युपस्थिते / आचरेयुर्यदा सेनां तदा सिद्धिरनुत्तमा // 7 वारणा इव संमत्तास्ते भवन्ति दुरासदाः // 15 प्रसन्नभाः पावक ऊर्ध्वरश्मिः दीप्तस्फुटितकेशान्ताः स्थूलपार्श्वहनूमुखाः / ___ प्रदक्षिणावर्तशिखो विधूमः / उन्नतांसाः पृथुग्रीवा विकटाः स्थूलपिण्डिकाः।। 16 पुण्या गन्धाश्चाहुतीनां प्रवान्ति उद्वृत्ताश्चैव सुग्रीवा विनता विहगा इव / जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः // 8 पिण्डशीर्षा हिवक्त्राश्च वृषदंशमुखा इव // 17 गम्भीरशब्दाश्च महास्वनाश्च. -2122 - Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 103. 9.] शान्तिपर्व [12. 103. 34 शङ्खाश्च भेर्यश्च नदन्ति यत्र / उदारसारा महती रुरुसंघोपमा चमः // 19 युयुत्सवश्वाप्रतीपा भवन्ति परस्परज्ञाः संहृष्टास्स्यक्तप्राणाः सुनिश्चिताः / जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः // 9 अपि पश्चाशतिः शूरा मृद्गन्ति परवाहिनीम् // 20 इष्टा मृगाः पृष्ठतो वामतश्च अथ वा पश्च षट् सप्त सहिताः कृतनिश्चयाः। संप्रस्थितानां च गमिष्यतां च / कुलीनाः पूजिताः सम्यग्विजयन्तीह शात्रवान् // 21 जिघांसतां दक्षिणाः सिद्धिमाहु संनिपातो न गन्तव्यः शक्ये सति कथंचन / ये त्वग्रतस्ते प्रतिषेधयन्ति // 10 सान्त्वभेदप्रदानानां युद्धमुत्तरमुच्यते // 22 मङ्गल्यशब्दाः शकुना वदन्ति संसर्पणाद्धि सेनायां भयं भीरून्प्रबाधते / हंसाः क्रौश्वाः शतपत्राश्च चाषाः / वनादिव प्रज्वलितादियं क नु पतिष्यति // 23 हृष्टा योधाः सत्त्ववन्तो भवन्ति अभिप्रयातां समितिं ज्ञात्वा ये प्रतियान्त्यथ / जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः // 11 तेषां स्पन्दन्ति गात्राणि योधानां विषयस्य च॥२४ शस्त्रैः पत्रैः कवचैः केतुभिश्च विषयो व्यथते राजन्सर्वः सस्थाणुजङ्गमः / ___ सुभानुभिर्मुखवणैश्च यूनाम् / शस्त्रप्रतापतप्तानां मज्जा सीदति देहिनाम् / / 25 भ्राजिष्मती दुष्प्रतिप्रेक्षणीया तेषां सान्त्वं करमिश्रं प्रणेतव्यं पुनः पुनः / येषां चमूस्तेऽभिभवन्ति शत्रून् // 12 संपीड्यमाना हि परे योगमायान्ति सर्वशः // 26 शुश्रूषवश्वानभिमानिनश्च अन्तराणां च भेदार्थ चारानभ्यवचारयेत् / ____ परस्परं सौहृदमास्थिताश्च / यश्च तस्मात्परो राजा तेन संधिः प्रशस्यते // 27 येषां योधाः शौचमनुष्ठिताश्च न हि तस्यान्यथा पीडा शक्या कर्तुं तथाविधा। जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः // 13 यथा सार्धममित्रेण सर्वतः प्रतिबाधनम् // 28 शब्दाः स्पर्शास्तथा गन्धा विचरन्ति मनःप्रियाः। क्षमा वै साधुमाया हि न हि साध्वक्षमा सदा / धैर्य चाविशते योधान्विजयस्य मुखं तु तत् // 14 क्षमायाश्चाक्षमायाश्च विद्धि पार्थ प्रयोजनम् // 29 इष्टो वामः प्रविष्टस्य दक्षिणः प्रविविक्षतः / विजित्य क्षममाणस्य यशो राज्ञोऽभिवर्धते / पश्चात्संसाधयत्यर्थं पुरस्तात्प्रतिषेधति // 15 महापराधा ह्यप्यस्मिन्विश्वसन्ति हि शत्रवः // 30 संभृत्य महतीं सेनां चतुरङ्गां युधिष्ठिर / मन्यते कर्शयित्वा तु क्षमा साध्विति शम्बरः / साम्नैवावर्तने पूर्व प्रयतेथास्ततो युधि // 16 असंतप्तं तु यहारु प्रत्येति प्रकृतिं पुनः // 31 जघन्य एष विजयो याद्धं नाम भारत / नैतत्प्रशंसन्त्याचार्या न च साधु निदर्शनम् / यादृच्छिको युधि जयो दैवो वेति विचारणम् // 17 अक्लेशेनाविनाशेन नियन्तव्याः स्वपुत्रवत् // 32 अपामिव महावेगवस्ता मृगगणा इव / द्वेष्यो भवति भूतानामुग्रो राजा युधिष्ठिर / दुर्निर्यितमा चैव प्रभग्ना महती चमूः // 18 मृदुमप्यवमन्यन्ते तस्मादुभयभाग्भवेत् // 33 भामा इत्येव भज्यन्ते विद्वांसोऽपि नकारणम् / प्रहरिष्यन्प्रियं ब्रूयात्प्रहरन्नपि भारत / -2123 - Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 103. 34] महाभारते | 12. 104. 19 प्रहृत्य च कृपायेत शोचन्निव रुदन्निव // 34 ततो धर्मार्थकामानां कुशलः प्रतिभानवान् / न मे प्रियं यत्स हतः संप्राहैवं पुरो वचः। राजधर्मविधानज्ञः प्रत्युवाच पुरंदरम् // 6 न चकर्थ च मे वाक्यमुच्यमानः पुनः पुनः // 35 न जातु कलहेनेच्छेन्नियन्तुमपकारिणः / अहो जीवितमाकाङ्के नेदृशो वधमर्हति / बालसंसेवितं ह्येतद्यदमर्षो यदक्षमा / सुदुर्लभाः सुपुरुषाः संग्रामेष्वपलायिनः // 36 न शत्रुर्विवृतः कार्यो वधमस्याभिकाश्ता // 7 कृतं ममाप्रियं तेन येनायं निहतो मृधे। क्रोधं बलममषं च नियम्यात्मजमात्मनि / इति वाचा वदन्हन्तॄन्पूजयेत रहोगतः // 37 / अमित्रमुपसेवेत विश्वस्तवदविश्वसन् // 8 हन्तॄणां चाहतानां च यत्कुर्युरपराधिनः / प्रियमेव वदेन्नित्यं नाप्रियं किंचिदाचरेत् / क्रोशेबाहुं प्रगृह्यापि चिकीर्षञ्जनसंग्रहम् // 38 विरमेच्छुष्कवैरेभ्यः कण्ठायासं च वर्जयेत् // 9 एवं सर्वाखवस्थासु सान्त्वपूर्व समाचरन् / यथा वैतंसिको युक्तो द्विजानां सदृशस्वनः / प्रियो भवति भूतानां धर्मज्ञो वीतभीनृपः // 39 तान्द्विजान्कुरुते वश्यांस्तथा युक्तो महीपतिः / विश्वासं चात्र गच्छन्ति सर्वभूतानि भारत। वशं चोपनयेच्छन्निहन्याच्च पुरंदर // 10 विश्वस्तः शक्यते भोक्तुं यथाकाममुपस्थितः॥४० न नित्यं परिभूयारीन्सुखं स्वपिति वासव / तस्माद्विश्वासयेद्राजा सर्वभूतान्यमायया / जागर्येव च दुष्टात्मा संकरेऽग्निरिवोत्थितः // 11 सर्वतः परिरक्षेच्च यो महीं भोक्तुमिच्छति // 41 न संनिपातः कर्तव्यः सामान्ये विजये सति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विश्वास्यैवोपसंन्यास्यो वशे कृत्वा रिपुः प्रभो॥१२ त्र्यधिकशततमोऽध्यायः // 103 // संप्रधार्य सहामात्यैर्मत्रविद्भिर्महात्मभिः / उपेक्षमाणोऽवज्ञाते हृदयेनापराजितः // 13 युधिष्ठिर उवाच / अथास्य प्रहरेत्काले किंचिद्विचलिते पदे / कथं मृदौ कथं तीक्ष्णे महापक्षे च पार्थिव / दण्डं च दूषयेदस्य पुरुषैराप्तकारिभिः // 14 अरौ वर्तेत नृपतिस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 आदिमध्यावसानज्ञः प्रच्छन्नं च विचारयेत् / भीष्म उवाच / बलानि दूपयेदस्य जानंश्चैव प्रमाणतः // 15 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भेदेनोपप्रदानेन संसृजन्नौषधैस्तथा / बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर // 2 न त्वेव चेलसंसर्ग रचयेदरिभिः सह // 16 बृहस्पति देवपतिरभिवाद्य कृताञ्जलिः / दीर्घकालमपि क्षान्त्वा विहन्यादेव शात्रवान् / उपसंगम्य पप्रच्छ वासवः परवीरहा / / 3 कालाकाङ्क्षी यामयेच्च यथा विस्रम्भमाप्नुयुः // 17 अहितेषु कथं ब्रह्मन्वर्तयेयमतन्द्रितः। न सद्योऽरीन्विनिहन्यादृष्टस्य विजयोऽज्वरः। असमुच्छिद्य चैवेनान्नियच्छेयमुपायतः // 4 न यः शल्यं घट्टयति नवं च कुरुते व्रणम् // 18 सेनयोय॑तिषङ्गेण जयः साधारणो भवेत् / प्राप्ते च प्रहरेत्काले न स संवर्तते पुनः / किं कुर्वाणं न मां जह्याज्ज्वलिता श्रीः प्रतापिनी // हन्तुकामस्य देवेन्द्र पुरुषस्य रिपुं प्रति // 19 -2124 104 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 104. 20] शान्तिपर्व [12. 104. 44 यः कालो हि व्यतिक्रामेत्पुरुषं कालकाङ्क्षिणम् / न बहूनभियुञ्जीत योगपद्येन शात्रवान् / दुर्लभः स पुनः कालः कालधर्मचिकीर्षुणा // 20 / साम्ना दानेन भेदेन दण्डेन च पुरंदर / / 35 और्जरथ्यं विजयेदेवं संगृहन्साधुसंमतान् / एकैकमेषां निष्पिषशिष्टेषु निपुणं चरेत् / कालेन साधयेन्नित्यं नाप्राप्तेऽभिनिपीडयेत् / / 21 न च शक्तोऽपि मेधावी सर्वानेवारभेन्नृपः // 36 विहाय कामं क्रोधं च तथाहंकारमेव च / यदा स्यान्महती सेना हयनागरथाकुला / युक्तो विवरमन्विच्छेदहितानां पुरंदर / / 22 / पदातियत्रबहुला स्वनुरक्ता षडङ्गिनी // 37 मार्दवं दण्ड आलस्यं प्रमादश्च सुरोत्तम / यदा बहुविधां वृद्धिं मन्यते प्रतिलोमतः / मायाश्च विविधाः शक्र साधयन्त्यविचक्षणम् // 23 / तदा विवृत्य प्रहरेदस्यूनामविचारयन् // 38 निहत्यैतानि चत्वारि मायां प्रतिविधाय च / न साम दण्डोपनिषत्प्रशस्यते ततः शक्नोति शत्रूणां प्रहर्तुमविचारयन् // 24 ___न मार्दवं शत्रुषु यात्रिकं सदा / यदैवैकेन शक्येत गुह्यं कर्तुं तदाचरेत् / स सस्यघातो न च संकरक्रिया यच्छन्ति सचिवा गुह्यं मिथो विद्रावयन्त्यपि / / 25 न चापि भूयः प्रकृतेर्विचारणा // 39 अशक्यमिति कृत्वा वा ततोऽन्यैः संविदं चरेत् / मायाविभेदानुपसर्जनानि ब्रह्मदण्डमदृष्टेषु दृष्टेषु चतुरङ्गिणीम् // 26 पापं तथैव स्पशसंप्रयोगात् / भेदं च प्रथमं युञ्जयात्तूष्णींदण्डं तथैव च / / आप्तैर्मनुष्यरुपचारयेत काले प्रयोजयेद्राजा तस्मिंस्तस्मिस्तदा तदा // 27 __पुरेषु राष्ट्रेषु च संप्रयुक्तः // 40 प्रणिपातं च गच्छेत काले शत्रोर्बलीयसः। पुराणि चैषामनुसृत्य भूमिपाः युक्तोऽस्य वधमन्विच्छेदप्रमत्तः प्रमाद्यतः // 28 पुरेषु भोगान्निखिलानिहाजयन् / प्रणिपातेन दानेन वाचा मधुरया ब्रुवन् / पुरेषु नीति विहितां यथाविधि अमित्रमुपसेवेत न तु जातु विशङ्कयेत् // 29 प्रयोजयन्तो बलवृत्रसूदन // 41 स्थानानि शङ्कितानां च नित्यमेव विवर्जयेत् / प्रदाय गूढानि वसूनि नाम न च तेष्वाश्वसेदुग्ध्वा जाग्रतीह निराकृताः // 30 प्रच्छिद्य भोगानवधाय च स्वान् / न ह्यतो दुष्करं कर्म किंचिदस्ति सुरोत्तम / दुष्टाः स्वदोषैरिति कीर्तयित्वा यथा विविधवृत्तानामैश्वर्यममराधिप // 31 ___ पुरेषु राष्ट्रेषु च योजयन्ति // 42 तथा विविधशीलानामपि संभव उच्यते / तथैव चान्यै रतिशास्त्रवेदिभिः यतेत योगमास्थाय मित्रामित्रानवारयन् / / 32 स्वलंकृतैः शास्त्रविधानदृष्टिभिः / मृदुमप्यवमन्यन्ते तीक्ष्णादुद्विजते जनः / सुशिक्षितैर्भाध्यकथाविशारदैः मातीक्ष्णो मामृदुभूस्त्वं तीक्ष्णो भव मृदुर्भव // 33 परेषु कृत्यानुपधारयस्व // 43 यथा वन वेगवति सर्वतःसंप्लुतोदके। इन्द्र उवाच / नित्यं विवरणाद्वाधस्तथा राज्यं प्रमाद्यतः // 34 / कानि लिङ्गानि दुष्टस्य भवन्ति द्विजसत्तम / -2125 - Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 104. 44 ] महाभारते [12. 105. 17 कथं दुष्टं विजानीयादेतत्पृष्टो ब्रवीहि मे // 44 / क्षेमदर्श नृपसुतं यत्र क्षीणबलं पुरा / बृहस्पतिरुवाच। मुनिः कालकवृक्षीय आजगामेति नः श्रुतम् / परोक्षमगुणानाह सद्गुणानभ्यसूयति / तं पप्रच्छोपसंगृह्य कृच्छ्रामापदमास्थितः // 3 परैर्वा कीर्त्यमानेषु तूष्णीमास्ते पराङ्मुखः // 45 अर्थेषु भागी पुरुषः ईहमानः पुनः पुनः। तूष्णींभावेऽपि हि ज्ञानं न चेद्भवति कारणम् / अलब्ध्वा मद्विधो राज्यं ब्रह्मन्कि कर्तुमर्हति // 4 विश्वासमोष्ठसंदंशं शिरसश्च प्रकम्पनम् // 46 / / अन्यत्र मरणात्स्तेयादन्यत्र परसंश्रयात् / करोत्यभीक्ष्णं संसृष्टमसंसृष्टश्च भाषते / क्षुद्रादन्यत्र चाचारात्तन्ममाचक्ष्व सत्तम / / 5 अदृष्टितो विकुरुते दृष्ट्वा वा नाभिभाषते / / 47 व्याधिना चाभिपन्नस्य मानसेनेतरेण वा / पृथगेत्य समश्नाति नेदमद्य यथाविधि / बहुश्रुतः कृतप्रज्ञस्त्वद्विधः शरणं भवेत् // 6 .. आसने शयने याने भावा लक्ष्या विशेषतः // 48 निर्विद्य हि नरः कामान्नियम्य सुखमेधते / आतिराते प्रिये प्रीतिरेतावन्मित्रलक्षणम् / त्यक्त्वा प्रीतिं च शोकं च लब्ध्वाप्रीतिमयं वसु॥७ विपरीतं तु बोद्धव्यमरिलक्षणमेव तत् // 49 सुखमर्थाश्रयं येषामनुशोचामि तानहम् / एतान्येवं यथोक्तानि बुध्येथास्त्रिदशाधिप। मम ह्यर्थाः सुबहवो नष्टाः स्वप्न इवागताः // 8 पुरुषाणां प्रदुष्टानां स्वभावो बलवत्तरः // 50 दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽस्त्यिजन्ति ये / इति दुष्टस्य विज्ञानमुक्तं ते सुरसत्तम / वयं त्वेनान्परित्यक्तुमसतोऽपि न शक्नुमः / / 9 निशाम्य शास्त्रतत्त्वार्थं यथावदमरेश्वर // 51 इमामवस्थां संप्राप्तं दीनमात श्रियच्युतम् / भीष्म उवाच / यदन्यत्सुखमस्तीह तद्ब्रह्मन्ननुशाधि माम् // 10 स तद्वचः शत्रुनिबर्हणे रत कौसल्येनैवमुक्तस्तु राजपुत्रेण धीमता। स्तथा चकारावितथं बृहस्पतेः। मुनिः कालकवृक्षीयः प्रत्युवाच महाद्युतिः // 11 चचार काले विजयाय चारिहा / पुरस्तादेव ते बुद्धिरियं कार्यो विजानतः / वशं च शत्रूननयत्पुरंदरः // 52 अनित्यं सर्वमेवेदमहं च मम चास्ति यत् // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यत्किचिन्मन्यसेऽस्तीति सर्वं नास्तीति विद्धि तत् / चतुरधिकशततमोऽध्यायः // 10 // एवं न व्यथते प्राज्ञः कृच्छ्रामप्यापदं गतः // 13 यद्धि भूतं भविष्यच्च ध्रुवं तन्न भविष्यति / युधिष्ठिर उवाच / एवं विदितवेद्यस्त्वमधर्मेभ्यः प्रमोक्ष्यसे // 14 . धार्मिकोऽर्थानसंप्राप्य राजामात्यैः प्रबाधितः। यच्च पूर्वे समाहारे यच्च पूर्वतरे परे / च्युतः कोशाच्च दण्डाच्च सुखमिच्छन्कथं चरेत् // 1 सर्वं तन्नास्ति तञ्चैव तज्ज्ञात्वा कोऽनुसंज्वरेत् // 15 भीष्म उवाच / भूत्वा च न भवत्येतदभूत्वा च भवत्यपि / अत्रायं क्षेमदर्शीयमितिहासोऽनुगीयते / शोके न ह्यस्ति सामर्थ्य शोकं कुर्यात्कथं नरः // 16 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर // 2 / क नु तेऽद्य पिता राजन्क नु तेऽद्य पितामहः / -2126 - Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 105. 17] शान्तिपर्व [12. 105. 44 न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वा पश्यन्ति तेऽपि च // 17 धातारं गर्हते नित्यं लब्धार्थांश्च न मृष्यते // 30 आत्मनोऽध्रुवतां पश्यंस्तांस्त्वं किमनुशोचसि। अनर्हानपि चैवान्यान्मन्यते श्रीमतो जनान् / बुद्ध्या चैवानुबुध्यस्व ध्रुवं हि न भविष्यसि / / 18 एतस्मात्कारणादेतदुःखं भूयोऽनुवर्तते // 31 . अहं च त्वं च नृपते शत्रवः सुहृदश्च ते / ईर्ष्यातिच्छेदसंपन्ना राजन्पुरुषमानिनः / अवश्यं न भविष्यामः सर्वं च न भविष्यति॥१९ / कश्चित्त्वं न तथा प्राज्ञ मत्सरी कोसलाधिप // 34 ये तु विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः / सहस्व श्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा / अर्वागेव हि ते सर्वे मरिष्यन्ति शरच्छतात् // 20 अन्यत्रापि सती लक्ष्मी कुशला भुञ्जते जनाः / अपि चेन्महतो वित्ताद्विप्रमुच्येत पूरुषः / अभिविष्यन्दते श्रीहि सत्यपि द्विषतो जनात् // 33 नैतन्ममेति तन्मत्वा कुर्वीत प्रियमात्मनः // 21 श्रियं च पुत्रपौत्रं च मनुष्या धर्मचारिणः / अनागतं यन्न ममेति विद्या त्यागधर्मविदो वीराः स्वयमेव त्यजन्त्युत // 34 दतिक्रान्तं यन्न ममेति विद्यात् / बहु संकसुकं दृष्ट्वा विवित्सासाधनेन च / दिष्टं बलीय इति मन्यमाना तथान्ये संत्यजन्त्येनं मत्वा परमदुर्लभम् // 35 स्ते पण्डितास्तत्सतां स्थानमाहुः // 22 त्वं पुनः प्राज्ञरूपः सन्कृपणं परितप्यसे / अनाढ्याश्चापि जीवन्ति राज्यं चाप्यनुशासते। अकाम्यान्कामयानोऽर्थान्पराचीनानुपद्रुतान् // 36 बुद्धिपौरुषसंपन्नास्त्वया तुल्याधिका जनाः // 23 तां बुद्धिमुपजिज्ञासुस्त्वमेवैनान्परित्यज / न च त्वमिव शोचन्ति तस्मात्त्वमपि मा शुचः। अनर्थांश्चार्थरूपेण अर्थांश्चानर्थरूपतः / / 37 किं नु त्वं तैर्न वै श्रेयांस्तुल्यो वा बुद्धिपौरुषैः / / 24 अर्थायैव हि केषांचिद्धननाशो भवत्युत / राजपुत्र उवाच / अनन्यं तं सुखं मत्वा श्रियमन्यः परीक्षते // 38 यादृच्छिकं ममासीत्तद्राज्यमित्येव चिन्तये / रममाणः श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते / वियते सर्वमेवेदं कालेन महता द्विज // 25 तथा तस्येहमानस्य समारम्भो विनश्यति // 39 तस्यैवं ह्रियमाणस्य स्रोतसेव तपोधन / / कृच्छाल्लब्धमभिप्रेतं यदा कौसल्य नश्यति / फलमेतत्प्रपश्यामि यथालब्धेन वर्तये // 26 तदा निर्विद्यते सोऽर्थात्परिभग्नक्रमो नरः // 40 मुनिरुवाच / धर्ममेकेऽभिपद्यन्ते कल्याणाभिजना नराः / अनागतमतीतं च यथा तथ्यविनिश्चयात् / परत्र सुखमिच्छन्तो निर्विद्येयुश्च लौकिकात् // 41 नानुशोचसि कौसल्य सर्वार्थेषु तथा भव // 27 जीवितं संत्यजन्त्येके धनलोभपरा नराः / अवाप्यान्कामयस्वार्थान्नानवाप्यान्कदाचन / न जीवितार्थ मन्यन्ते पुरुषा हि धनादृते / / 42 प्रत्युत्पन्नाननुभवन्मा शुचस्त्वमनागतान् // 28 / पश्य तेषां कृपणतां पश्य तेषामबुद्धिताम् / यथा लब्धोपपन्नार्थस्तथा कौसल्य रस्यसे / अध्रुवे जीविते मोहादर्थतृष्णामुपाश्रिताः // 43 कञ्चिच्छुद्धस्वभावेन श्रिया हीनो न शोचसि // 29 संचये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते / पुरस्ताद्भूतपूर्वत्वाद्धीनभाग्यो हि दुर्मतिः / संयोगे विप्रयोगान्ते को नु विप्रणयेन्मनः // 44 -- 2127 - Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 105. 45 ] महाभारते [ 12. 106. 16 धनं वा पुरुषं राजन्पुरुषो वा पुनर्धनम् / यद्येतद्रोचते राजन्पुनर्ब्रहि ब्रवीमि ते // 3 अवश्यं प्रजहात्येतत्तद्विद्वान्कोऽनुसंज्वरेत् // 45 राजपुत्र उवाच।। अन्येषामपि नश्यन्ति सुहृदश्च धनानि च / ब्रवीतु भगवान्नीतिमुपपन्नोऽस्म्यहं प्रभो। पश्य बुद्ध्या मनुष्याणां राजन्नापदमात्मनः / अमोघमिदमद्यास्तु त्वया सह समागतम् // 4. नियच्छ यच्छ संयच्छ इन्द्रियाणि मनो गिरम्॥४६ मुनिरुवाच / प्रतिषिद्धानवाप्येषु दुर्लभेष्वहितेषु च / हित्वा स्तम्भं च मानं च क्रोधहर्षों भयं तथा / प्रतिकृष्टेषु भावेषु व्यतिकृष्टेष्वसंभवे / प्रत्यमित्रं निषेवस्व प्रणिपत्य कृताञ्जलिः // 5 प्रज्ञानतृप्तो विक्रान्तस्त्वद्विधो नानुशोचति // 47 तमुत्तमेन शौचेन कर्मणा चाभिराधय / अल्पमिच्छन्नचपलो मृदुर्दान्तः सुसंशितः।। दातुमर्हति ते वृत्तिं वैदेहः सत्यसंगरः // 6 ब्रह्मचर्योपपन्नश्च त्वद्विधो नैव मुह्यति // 48 प्रमाणं सर्वभूतेषु प्रग्रहं च गमिष्यसि / . ' न त्वेव जाल्मी कापाली वृत्तिमेषितुमर्हसि / ततः सहायान्सोत्साहाललप्स्यसेऽव्यसनाशचीन॥ नृशंसवृत्तिं पापिष्ठां दुःखां कापुरुषोचिताम् // 49 वर्तमानः स्वशास्त्रे वै संयतात्मा जितेन्द्रियः / अपि मूलफलाजीवो रमस्वैको महावने / अभ्युद्धरति चात्मानं प्रसादयति च प्रजाः // 8 वाग्यतः संगृहीतात्मा सर्वभूतदयान्वितः // 50 तेनैव त्वं धृतिमता श्रीमता चाभिसत्कृतः / सदृशं पण्डितस्यैतदीषादन्तेन दन्तिना / प्रमाणं सर्वभूतेषु गत्वा प्रग्रहणं महत् // 9 : यदेको रमतेऽरण्ये यच्चाप्यल्पेन तुष्यति // 51 ततः सुहृद्धलं लब्ध्वा मत्रयित्वा सुमश्रितम् / महाह्रदः संक्षुभित आत्मनैव प्रसीदति। अन्तरैर्भेदयित्वारीन्बिल्वं बिल्वेन शातय / एतदेवंगतस्याहं सुखं पश्यामि केवलम् // 52 परैर्वा संविदं कृत्वा बलमप्यस्य घातय // 10 असंभवे श्रियो राजन्हीनस्य सचिवादिभिः / अलभ्या ये शुभा भावाः स्त्रियश्चाच्छादनानि च / दैवे प्रतिनिविष्टे च किं श्रेयो मन्यते भवान् // 53 शय्यासनानि यानानि महार्हाणि गृहाणि च // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पक्षिणो मृगजातानि रसा गन्धाः फलानि च / पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः॥ 105 // तेष्वेव सज्जयेथास्त्वं यथा नश्येत्स्वयं परः // 12 106 यद्येव प्रतिषेद्धव्यो यापेक्षणमर्हति / मुनिरुवाच / न जातु विवृतः कार्यः शत्रुर्विनयमिच्छता // 13 अथ चेत्पौरुषं किंचित्क्षत्रियात्मनि पश्यसि / वसस्व परमामित्रविषये प्राज्ञसंमते / ब्रवीमि हन्त ते नीति राज्यस्य प्रतिपत्तये // 1 भजस्व श्वेतकाकीर्मित्राधममनर्थकैः / / 14 तां चेच्छक्ष्यस्यनुष्ठातुं कर्म चैव करिष्यसि / आरम्भांश्चास्य महतो दुष्करांस्त्वं प्रयोजय / शृणु सर्वमशेषेण यत्त्वां वक्ष्यामि तत्त्वतः // 2 नदीबन्धविरोधांश्च बलवद्भिर्विरुध्यताम् // 15 आचरिष्यसि चेत्कर्म महतोऽर्थानवाप्स्यसि / / उद्यानानि महार्हाणि शयनान्यासनानि च / राज्यं राज्यस्य मत्रं वा महती वा पुनः श्रियम् / / प्रतिभोगसुखेनैव कोशमस्य विरेन्चय / / 16 -2128 - Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 106. 17 ] शान्तिपर्व [12. 107. 18 यज्ञदानप्रशंसास्मै ब्राह्मणेष्वनुवर्ण्यताम् / उभयोरेव वामर्थे यतिष्ये तव तस्य च / ते त्वत्प्रियं करिष्यन्ति तं चेष्यन्ति वृका इव // 17 संश्लेषं वा करिष्यामि शाश्वतं ह्यनपायिनम् // 5 असंशयं पुण्यशीलः प्राप्नोति परमां गतिम् / / त्वादृशं हि कुले जातमनृशंसं बहुश्रुतम् / त्रिविष्टपे पुण्यतमं स्थानं प्राप्नोति पार्थिवः / अमात्यं को न कुर्वीत राज्यप्रणयकोविदम् // 6 कोशक्षये त्वमित्राणां वशं कौसल्य गच्छति // 18 यस्त्वं प्रव्रजितो राज्याद्व्यसनं चोत्तमं गतः / उभयत्र प्रसक्तस्य धर्मे चाधर्म एव च / आनृशंस्येन वृत्तेन क्षत्रियेच्छसि जीवितुम् // 7 बलार्थमूलं व्युच्छिद्येत्तेन नन्दन्ति शत्रवः // 19 आगन्ता मद्गृहं तात वैदेहः सत्यसंगरः। निन्द्यास्य मानुषं कर्म दैवमस्योपवर्णय / / यथाहं तं नियोक्ष्यामि तत्करिष्यत्यसंशयम् // 8 असंशयं दैवपरः क्षिप्रमेव विनश्यति // 20 भीष्म उवाच / याजयैनं विश्वजिता सर्वस्वेन वियुज्यताम् / तत आहूय वैदेहं मुनिर्वचनमब्रवीत् / ततो गच्छत्वसिद्धार्थः पीड्यमानो महाजनम् // 21 अयं राजकुले जातो विदिताभ्यन्तरो मम // 9 त्यागधर्मविदं मुण्डं कंचिदस्योपवर्णय / आदर्श इव शुद्धात्मा शारदश्चन्द्रमा इव / अपि त्यागं बुभूषेत कच्चिद्गच्छेदनामयम् // 22 नास्मिन्पश्यामि वृजिनं सर्वतो मे परीक्षितः॥१० सिद्धेनौषधयोगेन सर्वशत्रुविनाशिना / तेन ते संधिरेवास्तु विश्वसास्मिन्यथा मयि / नागानश्वान्मनुष्यांश्च कृतकैरुपघातय // 23 न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुममित्रहन् // 11 एते चान्ये च बहवो दम्भयोगाः सुनिश्चिताः / अमात्यः शूर एव स्याद्बुद्धिसंपन्न एव च / शक्या विषहता कतुं नक्लीबेन नृपात्मज // 24 ताभ्यां चैव भयं राज्ञः पश्य राज्यस्य योजनम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्मात्मनां कचिल्लोके नान्यास्ति गतिरीदृशी // 12 षडधिकशततमोऽध्यायः // 106 // कृतात्मा राजपुत्रोऽयं सतां मार्गमनुष्ठितः / 107 सुसंगृहीतस्त्वेवैष त्वया धर्मपुरोगमः / राजपुत्र उवाच / संसेव्यमानः शत्रूस्ते गृह्णीयान्महतो गणान् // 13 न निकृत्या न दम्भेन ब्रह्मन्निच्छामि जीवितुम् / यद्ययं प्रतियुध्येत्त्वां स्वकर्म क्षत्रियस्य तत् / नाधर्मयुक्तानिच्छेयमर्थान्सुमहतोऽप्यहम् // 1 जिगीषमाणस्त्वां युद्धे पितृपैतामहे पदे // 14 पुरस्तादेव भगवन्मयैतदपवर्जितम् / त्वं चापि प्रतियुध्येथा विजिगीषुव्रते स्थितः / येन मां नाभिशङ्केत यद्वा कृत्स्नं हितं भवेत् // 2 अयुद्धैव नियोगान्मे वशे वैदेह ते स्थितः // 15 आनृशंस्येन धर्मेण लोके ह्यस्मिजिजीविषुः / स त्वं धर्ममवेक्षस्व त्यक्त्वाधर्ममसांप्रतम् / नाहमेतदलं कर्तुं नैतन्मय्युपपद्यते // 3 न हि कामान्न च द्रोहात्स्वधर्म हातुमर्हसि // 16 मुनिरुवाच / नैव नित्यं जयस्तात नैव नित्यं पराजयः / उपपन्नस्त्वमेतेन यथा क्षत्रिय भाषसे / तस्माद्भोजयितव्यश्च भोक्तव्यश्च परो जनः // 17 प्रकृत्या ह्युपपन्नोऽसि बुद्धया चाद्भुतदर्शन // 4 / आत्मन्येव हि संदृश्यावुभौ जयपराजयौ / प. मा. 267 -2129 - Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 108. 18 ] महाभारते [12. 108. 18 निःशेषकारिणां तात निःशेषकरणाद्भयम् // 18 मध्यमस्य च तुष्ट्यर्थं यथा स्थेयं विवर्धता // 4 इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं वचनं ब्राह्मणर्षभम् / क्षीणसंग्रहवृत्तिश्च यथावत्संप्रकीर्तिता / अभिपूज्याभिसत्कृत्य पूजार्हमनुमान्य च // 19 लघुनादेशरूपेण ग्रन्थयोगेन भारत // 5 यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयाद्बहुश्रुतः / विजिगीषोस्तथा वृत्तमुक्तं चैव तथैव ते / श्रेयस्कामो यथा यादुभयोर्यक्षमं भवेत् // 20 गणानां वृत्तिमिच्छामि श्रोतुं मतिमतां वर // 6 तथा वचनमुक्तोऽसि करिष्यामि च तत्तथा / यथा गणाः प्रवर्धन्ते न भिद्यन्ते च भारत / एतद्धि परमं श्रेयो न मेऽत्रास्ति विचारणा // 21 अरीन्हि विजिगीषन्ते सुहृदः प्राप्नुवन्ति च // 7 ततः कौसल्यमाहूय वैदेहो वाक्यमब्रवीत् / / भेदमूलो विनाशो हि गणानामुपलभ्यते। . धर्मतो नीतितश्चैव बलेन च जितो मया // 22 / मन्त्रसंवरणं दुःखं बहूनामिति मे मतिः // 8 सोऽहं त्वया त्वात्मगुणैर्जितः पार्थिवसत्तम / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं निखिलेन परंतप / ' आत्मानमनवज्ञाय जितवद्वर्ततां भवान् // 23 यथा च ते न भिद्यरंस्तच्च मे ब्रूहि पार्थिव // 9 नावमन्ये च ते बुद्धिं नावमन्ये च पौरुषम् / - भीष्म उवाच / नावमन्ये जयामीति जितवद्वर्ततां भवान् // 24 गणानां च कुलानां च राज्ञां च भरतर्षभ / यथावत्पूजितो राजन्गृहं गन्तासि मे गृहात् / / वैरसंदीपनावेतौ लोभामौ जनाधिप // 10 ततः संपूज्य तौ विप्रं विश्वस्तौ जग्मतुर्ग्रहान्॥२५ लोभमेको हि वृणुते ततोऽमर्षमनन्तरम् / : वैदेहस्त्वथ कौसल्यं प्रवेश्य गृहमञ्जसा / तौ क्षयव्ययसंयुक्तावन्योन्यजनिताश्रयौ // 11 पाद्यार्थ्यमधुपस्तं पूजाहं प्रत्यपूजयत् // 26 चारमन्त्रबलादानैः सामदामविभेदनैः / ददौ दुहितरं चास्मै रत्नानि विविधानि च / क्षयव्ययभयोपायैः कर्शयन्तीतरेतरम् // 12 एष राज्ञां परो धर्मः सह्यौ जयपराजयौ // 27 तत्र दानेन भिद्यन्ते गणाः संघातवृत्तयः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भिन्ना विमनसः सर्वे गच्छन्त्यरिवशं भयात् // 13 सप्ताधिकशततमोऽध्यायः // 107 // भेदाद्गणा विनश्यन्ति भिन्नाः सूपजपाः परैः / 108 तस्मात्संघातयोगेषु प्रयतेरन्गणाः सदा // 14 युधिष्ठिर उवाच / अर्था ह्येवाधिगम्यन्ते संघातबलपौरुषात् / ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप / बाह्याश्च मैत्री कुर्वन्ति तेषु संघातवृत्तिषु // 15 धर्मो वृत्तं च वृत्तिश्च वृत्त्युपायफलानि च // 1 ज्ञानवृद्धान्प्रशंसन्तः शुश्रूषन्तः परस्परम् / राज्ञां वृत्तं च कोशश्च कोशसंजननं महत् / विनिवृत्ताभिसंधानाः सुखमेधन्ति सर्वशः // 16 अमात्यगुणवृद्धिश्च प्रकृतीनां च वर्धनम् // 2 धर्मिष्ठान्व्यवहारांश्च स्थापयन्तश्च शास्त्रतः / पाडण्यगुणकल्पश्च सेनानीतिस्तथैव च / यथावत्संप्रवर्तन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः // 17 दुष्टस्य च परिज्ञानमदुष्टस्य च लक्षणम् // 3 पुत्रान्भ्रातृन्निगृहन्तो विनये च सदा रताः / समहीनाधिकानां च यथावल्लक्षणोच्चयः / विनीतांश्च प्रगृह्णन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः // 18 -2130 - Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 108. 19] शान्तिपर्व [12. 109. 18 109 चारमन्त्रविधानेषु कोशसंनिचयेषु च / नित्ययुक्ता महाबाहो वर्धन्ते सर्वतो गणाः // 19 युधिष्ठिर उवाच / प्राज्ञाशूरान्महेष्वासान्कर्मसु स्थिरपौरुषान् / महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत / मानयन्तः सदा युक्ता विवर्धन्ते गणा नृप / 20 किं स्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं मतम् // 1 द्रव्यवन्तश्च शूराश्च शस्त्रज्ञाः शास्त्रपारगाः। किं कायं सर्वधर्माणां गरीयो भवतो मतम् / कृच्छ्रास्वापत्सु संमूढान्गणानुत्तारयन्ति ते // 21 यथायं पुरुषो धर्ममिह च प्रेत्य चाप्नुयात् // 2 क्रोधो भेदो भयो दण्डः कर्शनं निग्रहो वधः / भीष्म उवाच / नयन्त्यरिवशं सद्यो गणान्भरतसत्तम / / 22 मातापित्रोगुरूणां च पूजा बहुमता मम / तस्मान्मानयितव्यास्ते गणमुख्याः प्रधानतः / अत्र युक्तो नरो लोकान्यशश्च महदश्रुते // 3 लोकयात्रा समायत्ता भूयसी तेषु पार्थिव // 23 यदेते ह्यभिजानीयुः कर्म तात सुपूजिताः / मात्रगुप्तिः प्रधानेषु चारश्चामित्रकर्शन / धयं धर्मविरुद्धं वा तत्कर्तव्यं युधिष्ठिर // 4 न गणाः कृत्स्नशो मत्रं श्रोतुमर्हन्ति भारत // 24 न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं प्रकल्पयेत् / गणमुख्यैस्तु संभूय कार्य गणहितं मिथः / यमेतेऽभ्यनुजानीयुः स धर्म इति निश्चयः // 5 पृथग्गणस्य भिन्नस्य विमंतस्य ततोऽन्यथा। एत एव त्रयो लोका एत एवाश्रमास्त्रयः / अर्थाः प्रत्यवसीदन्ति तथाना भवन्ति च // 25 एत एव त्रयो वेदा एत एव त्रयोऽग्नयः // 6 तेषामन्योन्यभिन्नानां स्वशक्तिमनुतिष्ठताम् / पिता ह्यग्निर्गार्हपत्यो माताग्निदक्षिणः स्मृतः। निग्रहः पण्डितैः कार्यः क्षिप्रमेव प्रधानतः // 26 गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी // 7 फुलेषु कलहा जाताः कुलवृद्धरुपेक्षिताः / त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रील्लोकानवजेष्यसि / गोत्रस्य राजन्कुर्वन्ति गणसंभेदकारिकाम् // 27 पितृवृत्त्या विमं लोकं मातृवृत्त्या तथापरम् / आभ्यन्तरं भयं रक्ष्यं सुरक्ष्यं बाह्यतो भयम् / ब्रह्मलोकं गुरोर्वृत्त्या नित्यमेव चरिष्यसि // 8 अभ्यन्तराद्भयं जालं सद्यो मूलं निकृन्तति // 28 सम्यगेतेषु वर्तस्व त्रिषु लोकेषु भारत / अकस्मात्क्रोधलोभाद्वा मोहाद्वापि स्वभावजात् / यशः प्राप्स्यसि भद्रं ते धर्म च सुमहाफलम् // 9 अन्योन्यं नाभिभाषन्ते तत्पराभवलक्षणम् // 29 नैतानतिशयेज्जातु नात्यश्नीयान्न दूषयेत् / जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथा / नित्यं परिचरेञ्चैव तद्वै सुकृतमुत्तमम् / न तु शौर्येण बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः // 30 कीर्तिं पुण्यं यशो लोकान्प्राप्स्यसे च जनाधिप॥१० भेदाञ्चैव प्रमादाच्च नाम्यन्ते रिपुभिर्गणाः / सर्वे तस्यादृता लोका यस्यैते त्रय आताः / तस्मात्संघातमेवाहुर्गणानां शरणं महत् // 31 अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः॥११ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नैवायं न परो लोकस्तस्य चैव परंतप / अष्टाधिकशततमोऽध्यायः // 108 // अमानिता नित्यमेव यस्यैते गुरवस्त्रयः // 12 न चास्मिन्न परे लोके यशस्तस्य प्रकाशते / - 2131 - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 109. 18] महाभारते [12. 110.6 - न चान्यदपि कल्याणं पारनं समुदाहृतम् // 13 / न केनचन वृत्तेन ह्यवज्ञेयो गुरुभवेत् / तेभ्य एव तु तत्सर्वं कृत्यया विसृजाम्यहम् / न च माता न च पिता तादृशो यादृशो गुरुः॥ 24 तदासीन्मे शतगुणं सहस्रगुणमेव च / न तेऽवमानमर्हन्ति न च ते दूषयन्ति तम् / तस्मान्मे संप्रकाशन्ते त्रयो लोका युधिष्ठिर // 14 गुरूणामेव सत्कारं विदुर्देवाः सहर्षिभिः // 25 दशैव तु सदाचार्यः श्रोत्रियानतिरिच्यते / उपाध्यायं पितरं मातरं च दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान्पिता दश // 15 येऽभिद्रुह्यन्ति मनसा कर्मणा वा / पितृन्दश तु मातैका सर्वां वा पृथिवीमपि / तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं गुरुत्वेनाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः / तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके // 26 गुर्गरीयान्पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः // 16 मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य स्त्रीनस्य पिशुनस्य च / उभौ हि मातापितरौ जन्मनि व्युपयुज्यतः / चतुर्णा वयमेतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुमः // 27 शरीरमेतौ सृजतः पिता माता च भारत / एतत्सर्वमतिदेशेन सृष्टं आचार्यशिष्टा या जातिः सा दिव्या साजरामरा।।१७ ___ यत्कर्तव्यं पुरुषेणेह लोके। अवध्या हि सदा माता पिता चाप्यपकारिणौ / एतच्छ्रयो नान्यदस्माद्विशिष्टं न संदुष्यति तत्कृत्वा न च ते दूषयन्ति तम् / सर्वान्धर्माननुसृत्यैतदुक्तम् // 28 धर्माय यतमानानां विदुर्देवाः सहर्षिभिः // 18 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि य आवृणोत्यवितथेन कर्णा नवाधिकशततमोऽध्यायः // 109 // ___ वृतं ब्रुवन्नमृतं संप्रयच्छन् / तं वै मन्ये पितरं मातरं च युधिष्ठिर उवाच / . तस्मै न द्रुह्येत्कृतमस्य जानन् // 19 कथं धर्मे स्थातुमिच्छन्नरो वर्तेत भारत / विद्यां श्रुत्वा ये गुरुं नाद्रियन्ते विद्वञ्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ // 1 - प्रत्यासन्नं मनसा कर्मणा वा / सत्यं चैवानृतं चोभे लोकानावृत्य तिष्ठतः / यथैव ते गुरभिर्भावनीया तयोः किमाचरेद्राजन्पुरुषो धर्मनिश्चितः // 2 स्तथा तेषां गुरवोऽप्यर्चनीयाः // 20 किं स्वित्सत्यं किमनृतं किं स्विद्धयं सनातनम् / तस्मात्पूजयितव्याश्च संविभज्याश्च यत्नतः।। कस्मिन्काले वदेत्सत्यं कस्मिन्कालेऽनृतं वदेत् // 3 गुरवोऽर्चयितव्याश्च पुराणं धर्ममिच्छता // 21 भीष्म उवाच / येन प्रीताश्च पितरस्तेन प्रीतः पितामहः / सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम् / प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता // 22 यद्भूलोके सुदुर्जातं तत्ते वक्ष्यामि भारत // 4 येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद्ब्रह्म पूजितम् / भवेत्सत्यं न वक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत् / मातृतः पितृतश्चैव तस्मात्पूज्यतमो गुरुः / यत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं वाप्यनृतं भवेत् // 5 ऋषयश्च हि देवाय प्रीयन्ते पितृभिः सह // 23 / तादृशे मुह्यते बालो यत्र सत्यमनिष्टितम् / -2132 - Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 110. 6 ] शान्तिपर्व [12. 111.4 सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित् // 6 / सर्वोपायनिहन्तव्यः पापो निकृतिजीवनः // 20 अप्यनार्योऽकृतप्रज्ञः पुरुषोऽपि सुदारुणः / धनमित्येव पापानां सर्वेषामिह निश्चयः / सुमहत्प्राप्नुयात्पुण्यं बलाकोऽन्धवधादिव // 7 येऽविषह्या ह्यसंभोज्या निकृत्या पतनं गताः॥२१ किमाश्चयं च यन्मूढो धर्मकामोऽप्यधर्मवित् / च्युता देवमनुष्येभ्यो यथा प्रेतास्तथैव ते। सुमहत्प्राप्नुयात्पापं गङ्गायामिव कौशिकः // 8 धनादानाहुःखतरं जीविताद्विप्रयोजनम् // 22 तादृशोऽयमनुप्रश्नो यत्र धर्मः सुदुर्वचः।। अयं वो रोचतां धर्म इति वाच्यः प्रयत्नतः / दुष्करः प्रतिसंख्यातुं तर्केणात्र व्यवस्यति // 9 न कश्चिदस्ति पापानां धर्म इत्येष निश्चयः॥ 23 प्रभावार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् / / तथागतं च यो हन्यान्नासौ पापेन लिप्यते / यत्स्यादहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः // 10 स्वकर्मणा हतं हन्ति हत एव स हन्यते / धारणाद्धर्म इत्याहुर्धर्मेण विधृताः प्रजाः। तेषु यः समयं कश्चित्कुर्वीत हतबुद्धिषु // 24 यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः // 11 यथा काकश्च गृध्रश्च तथैवोपधिजीविनः / श्रुतिधर्म इति ह्येके नेत्याहुरपरे जनाः / ऊवं देहविमोक्षान्ते भवन्त्येतासु योनिषु // 25 न तु तत्प्रत्यसूयामो न हि सर्व विधीयते // 12 यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्ययेऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धनमिच्छन्ति कर्हिचित् / स्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः / तेभ्यस्तन्न तदाख्येयं स धर्म इति निश्चयः // 13 मायाचारो मायया वर्तितव्यः अकूजनेन चेन्मोक्षो नात्र कूजेत्कथंचन / साध्वाचारः साधुना प्रत्यदेयः // 26 अवश्यं कूजितव्यं वा शङ्करन्वाप्यकूजनात् // 14 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम् / दशाधिकशततमोऽध्यायः // 110 // यः पापैः सह संबन्धान्मुच्यते शपथादिति // 15 न च तेभ्यो धनं देयं शक्ये सति कथंचन / / पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत् // 16 युधिष्ठिर उवाच। खशरीरोपरोधेन वरमादातुमिच्छतः / क्लिश्यमानेषु भूतेषु तैस्तै वैस्ततस्ततः / सत्यसंप्रतिपत्त्यर्थं ये ब्रूयुः साक्षिणः कचित् / दुर्गाण्यतितरेयेन तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अनुक्त्वा तत्र तद्वाच्यं सर्वे तेऽनृतवादिनः // 17 भीष्म उवाच / प्राणात्यये विवाहे च वक्तव्यमनृतं भवेत्। आश्रमेषु यथोक्तेषु यथोक्तं ये द्विजातयः / अर्थस्य रक्षणार्थाय परेषां धर्मकारणात् / वर्तन्ते संयतात्मानो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 2 परेषां धर्ममाकाश्नीचः स्याद्धर्मभिक्षुकः // 18 / ये दम्भान्न जपन्ति स्म येषां वृत्तिश्च संवृता / प्रतिश्रुत्य तु दातव्यं श्वःकार्यस्तु बलात्कृतः। विषयांश्च निगृह्णन्ति दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 3 यः कश्चिद्धर्मसमयात्प्रच्युतोऽधर्ममास्थितः // 19 वासयन्त्यतिथीन्नित्यं नित्यं ये चानसूयकाः / शठः स्वधर्ममुत्सृज्य तमिच्छेदुपजीवितुम् / / नित्यं स्वाध्यायशीलाश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥४ -2133 - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 111. 5] महाभारते [12. 112.3 मातापित्रोश्च ये वृत्ति वर्तन्ते धर्मकोविदाः / ये क्रोधं नैव कुर्वन्ति क्रुद्धान्संशमयन्ति च / वर्जयन्ति दिवास्वप्नं दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 5 न च कुप्यन्ति भृत्येभ्यो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 20 स्वेषु दारेषु वर्तन्ते न्यायवृत्तेष्वृतावृतौ। मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह मानवाः / अग्निहोत्रपराः सन्तो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 6 जन्मप्रभृति मद्यं च दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 21 ये न लोभान्नयन्त्यर्थान्राजानो रजसावृताः / यात्रार्थ भोजनं येषां संतानार्थं च मैथुनम् / विषयान्परिरक्षन्तो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 7 वाक्सत्यवचनार्थाय दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 22 आहवेषु च ये शूरास्त्यक्त्वा मरणजं भयम् / ईश्वरं सर्वभूतानां जगतः प्रभवाप्ययम् / धर्मेण जयमिच्छन्तो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 8 भक्ता नारायणं ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 23 ये पापानि न कुर्वन्ति कर्मणा मनसा गिरा। य एष रक्तपद्माक्षः पीतवासा महाभुजः / निक्षिप्तदण्डा भूतेषु दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 9 सुहद्धाता च मित्रं च संबन्धी च तवाच्युतः॥२४ ये वदन्तीह सत्यानि प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते / य इमान्सकलाललोकांश्चर्मवत्परिवेष्टयेत् / प्रमाणभूता भूतानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 10 इच्छन्प्रभुरचिन्त्यात्मा गोविन्दः पुरुषोत्तमः // 25 अनध्यायेषु ये विप्राः स्वाध्यायं नैव कुर्वते / स्थितः प्रियहिते जिष्णोः स एव पुरुषर्षभ / तपोनित्याः सुतपसो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 11 राजंस्तव च दुर्धर्षो वैकुण्ठः पुरुषोत्तमः // 26 कर्माण्यकुहकार्थानि येषां वाचश्च सूनृताः / य एनं संश्रयन्तीह भक्त्या नारायणं हरिम् / येषामर्थाश्च साध्वर्था दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 12 ते तरन्तीह दुर्गाणि न मेत्राऽस्ति विचारणा // 27 ये तपश्च तपस्यन्ति कौमारब्रह्मचारिणः / दुर्गातितरणं ये च पठन्ति श्रावयन्ति च / विद्यावेदव्रतस्नाता दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 13 पाठयन्ति च विप्रेभ्यो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 28 ये च संशान्तरजसः संशान्ततमसश्च ये। इति कृत्यसमुद्देशः कीर्तितस्ते मयानघ / सत्ये स्थिता महात्मानो दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 14 संतरेयेन दुर्गाणि परत्रेह च मानवः // 29 येषां न कश्चित्रसति त्रसन्ति न च कस्यचित् / ___ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि येषामात्मसमो लोको दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 15 एकादशाधिकशततमोऽध्यायः // 111 // परश्रिया न तप्यन्ते ये सन्तः पुरुषर्षभाः। . 112 प्राम्यादन्नान्निवृत्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 16 युधिष्ठिर उवाच / सर्वान्देवान्नमस्यन्ति सन्धिाश्च शृण्वते / असौम्याः सौम्यरूपेण सौम्याश्चासौम्यदर्शिनः / ये श्रद्दधाना दान्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 17 / ईदृशान्पुरुषांस्तात कथं विद्यामहे वयम् // 1 ये न मानितमिच्छन्ति मानयन्ति च ये परम् / भीष्म उवाच / मान्यमाना न मन्यन्ते दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 18 / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ये श्राद्धानि च कुर्वन्ति तिथ्यां तिथ्यां प्रजार्थिनः। व्याघ्रगोमायुसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर // 2 सुविशुद्धेन मनसा दुर्गाण्थतितरन्ति ते // 19 / पुरिकायां पुरि पुरा श्रीमत्यां पौरेको नृपः / -2134 - Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 112. 3] शान्तिपर्व [12. 112. 33 परहिंसारुचिः क्रूरो बभूव पुरुषाधमः // 3 वियन्तामीप्सिता भोगाः परिहार्याश्च पुष्कलाः॥१८ स त्वायुषि परिक्षीणे जगामानीप्सितां गतिम् / तीक्ष्णा वयमिति ख्याता भवतो ज्ञापयामहे / गोमायुत्वं च संप्राप्तो दूषितः पूर्वकर्मणा // 4 मृदुपूर्व घातिनस्ते श्रेयश्चाधिगमिष्यति // 19 संस्मृत्य पूर्वजाति स निर्वेदं परमं गतः / अथ संपूज्य तद्वाक्यं मृगेन्द्रस्य महात्मनः / न भक्षयति मांसानि परैरुपहृतान्यपि // 5 गोमायुः प्रश्रितं वाक्यं बभाषे किंचिदानतः // 20 अहिंस्रः सर्वभूतेषु सत्यवाक्सुदृढव्रतः / सदृशं मृगराजैतत्तव वाक्यं मदन्तरे। चकार च यथाकाममाहारं पतितैः फलैः // 6 यत्सहायान्मृगयसे धर्मार्थकुशलाञ्शुचीन् // 21 श्मशाने तस्य चावासो गोमायोः संमतोऽभवत् / न शक्यमनमात्येन महत्त्वमनुशासितुम् / जन्मभूम्यनुरोधाच्च नान्यद्वासमरोचयत् // 7 दुष्टामात्येन वा वीर शरीरपरिपन्थिना // 22 तस्य शौचममृष्यन्तः सर्वे ते सहजातयः / सहायाननुरक्तांस्तु यतेतानुपसंहितान् / चालयन्ति स्म तां बुद्धिं वचनैः प्रश्रयोत्तरैः // 8 परस्परमसंघुष्टान्विजिगीषूनलोलुपान् // 23 वसन्पितृवने रौद्रे शौचं लप्सितुमिच्छसि / / तानतीतोपधान्प्राज्ञान्हिते युक्तान्मनस्विनः / इयं विप्रतिपत्तिस्ते यदा त्वं पिशिताशनः // 9 पूजयेथा महाभागान्यथाचार्यान्यथा पितृन् // 24 तत्समो वा भवास्माभिर्भक्ष्यान्दास्यामहे वयम् / न त्वेवं मम संतोषाद्रोचतेऽन्यन्मृगाधिप / भुत शौचं परित्यज्य यद्धि भुक्तं तदस्ति ते // 10 न कामये सुखान्भोगानेश्वयं वा त्वदाश्रयम् // 25 इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रत्युवाच समाहितः / न योक्ष्यति हि मे शीलं तव भृत्यैः पुरातनैः / मधुरैः प्रश्रितैर्वाक्यहेतुमद्भिरनिष्ठुरैः // 11 ते त्वां विभेदयिष्यन्ति दुःखशीला मदन्तरे // 26 अप्रमाणं प्रसूतिर्मे शीलतः क्रियते कुलम् / संश्रयः श्लाघनीयस्त्वमन्येषामपि भास्वताम् / प्रार्थयिष्ये तु तत्कर्म येन विस्तीर्यते यशः // 12 कृतात्मा सुमहाभागः पापकेष्वप्यदारुणः // 27 श्मशाने यदि वासो मे समाधिर्मे निशाम्यताम् / दीर्घदर्शी महोत्साहः स्थूललक्ष्यो महाबलः / आत्मा फलति कर्माणि नाश्रमो धर्मलक्षणम् // 13 कृती चामोधकर्तासि भाव्यैश्च समलंकृतः // 28 आश्रमे यो द्विजं हन्यानां वा दद्यादनाश्रमे। किं तु स्वेनास्मि संतुष्टो दुःखा वृत्तिरनुष्ठिता / किं नु तत्पातकं न स्यात्तद्वा दत्तं वृथा भवेत् // 14 सेवायाश्चापि नाभिज्ञः स्वच्छन्देन वनेचरः // 29 भवन्तः सर्वलोभेन केवलं भक्षणे रताः / राजोपक्रोशदोषाश्च सर्वे संश्रयवासिनाम् / अनुबन्धे तु ये दोषास्तान्न पश्यन्ति मोहिताः॥१५ वनचर्या च निःसङ्गा निर्भया निरवग्रहा / / 30 अप्रत्ययकृतां ग_मर्थापनयदूषिताम् / नृपेणाहूयमानस्य यत्तिष्ठति भयं हृदि / इह चामुत्र चानिष्टां तस्माद्वृत्तिं न रोचये // 16 न तत्तिष्ठति तुष्टानां वने मूलफलाशिनाम् // 31 तं शुचिं पण्डितं मत्वा शार्दूलः ख्यातविक्रमः / / पानीयं वा निरायासं स्वाद्वन्नं वा भयोत्तरम् / कृत्वात्मसदृशां पूजां साचिव्येऽवर्धयत्स्वयम् // 17 विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निवृतिः // 32 सौम्य विज्ञातरूपस्त्वं गच्छ यात्रां मया सह / | अपराधैर्न तावन्तो भृत्याः शिष्टा नराधिपैः / -2135 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 112. 33] महाभारते [12. 112.62 उपघातैर्यथा भृत्या दूषिता निधनं गताः // 33 / / मृगराजेन चाज्ञप्तं मृग्यतां चोर इत्युत // 48 यदि त्वेतन्मया कार्य मृगेन्द्रो यदि मन्यते। कृतकैश्चापि तन्मांसं मृगेन्द्रायोपवर्णितम् / समयं कृतमिच्छामि वर्तितव्यं यथा मयि // 34 सचिवेनोपनीतं ते विदुषा प्राज्ञमानिना // 49 मदीया माननीयास्ते श्रोतव्यं च हितं वचः।। सरोषस्त्वथ शार्दूलः श्रुत्वा गोमायुचापलम् / कल्पिता या च ते वृत्तिः सा भवेत्तव सुस्थिरा // 35 बभूवामर्षितो राजा वधं चास्याभ्यरोचयत् // 50 न मत्रयेयमन्यैस्ते सचिवैः सह कर्हि चित् / / छिद्रं तु तस्य तदृष्ट्वा प्रोचुस्ते पूर्वमत्रिणः / नीतिमन्तः परीप्सन्तो वृथा ब्रूयुः परे मयि // 36 सर्वेषामेव सोऽस्माकं वृत्तिभङ्गेषु वर्तते // 51 एक एकेन संगम्य रहो बयां हितं तव / इदं चास्येदृशं कर्म वाल्लभ्येन तु रक्ष्यते / न च ते ज्ञातिकार्येषु प्रष्टव्योऽहं हिताहिते // 37 / श्रुतश्च स्वामिना पूर्व यादृशो नैव तादृशः // 52 मया संमन्य पश्चाच्च न हिंस्याः सचिवास्त्वया। वाङ्मात्रेणैव धर्मिष्ठः स्वभावेन तु दारुणः / मदीयानां च कुपितो मा त्वं दण्डं निपातयेः॥ 38 धर्मच्छद्मा ह्ययं पापो वृथाचारपरिग्रहः / एवमस्त्विति तेनासौ मृगेन्द्रेणाभिपूजितः / कार्यार्थं भोजनार्थेषु व्रतेषु कृतवाश्रमम् // 53 प्राप्तवान्मतिसाचिव्यं गोमायुर्व्याघ्रयोनितः // 39 मांसापनयनं ज्ञात्वा व्याघ्रस्तेषां तु तद्वचः / तं तथा सत्कृतं दृष्ट्वा युज्यमानं च कर्मणि / आज्ञापयामास तदा गोमायुर्वध्यतामिति // 54 प्राद्विषन्कृतसंघाताः पूर्वभृत्या मुहुर्मुहुः // 40 शार्दूलवचनं श्रुत्वा शार्दूलजननी ततः। मित्रबुद्ध्या च गोमायुं सान्त्वयित्वा प्रवेश्य च। मृगराजं हितैर्वाक्यैः संबोधयितुमागमत् // 55 दोषेषु समतां नेतुमैच्छन्नशुभबुद्धयः // 41 पुत्र नैतत्त्वया ग्राह्यं कपटारम्भसंवृतम् / अन्यथा ह्युचिताः पूर्वं परद्रव्यापहारिणः / कर्मसंघर्षजैर्दोषैर्दुष्यत्यशुचिभिः शुचिः // 56 . अशक्ताः किंचिदादातुं द्रव्यं गोमायुयत्रिताः // 42 नोच्छ्रितं सहते कश्चित्प्रक्रिया वैरकारिका / व्युत्थानं चात्र काङ्क्षद्भिः कथाभिः प्रविलोभ्यते। शुचेरपि हि युक्तस्य दोष एव निपात्यते // 57 धनेन महता चैव बुद्धिरस्य विलोभ्यते // 43 लुब्धानां शुचयो द्वेष्याः कातराणां तरखिनः / न चापि स महाप्राज्ञस्तस्माद्धैर्याञ्चचाल ह। मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या दरिद्राणां महाधनाः / अथास्य समयं कृत्वा विनाशाय स्थिताः परे॥४४ अधार्मिकाणां धर्मिष्ठा विरूपाणां सुरूपकाः // 58 ईप्सितं च मृगेन्द्रस्य मांसं यत्तत्र संस्कृतम् / / बहवः पण्डिता लुब्धाः सर्वे मायोपजीविनः / अपनीयं स्वयं तद्धि तैयस्तं तत्र वेश्मनि // 45 कुर्युर्दोषमदोषस्य बृहस्पतिमतेरपि // 59 यदर्थ चाप्यपहृतं येन यच्चैव मत्रितम् / शून्यात्तच्च गृहान्मांसं यदद्यापहृतं तव / तस्य तद्विदितं सर्व कारणार्थं च मर्षितम् // 46 नेच्छते दीयमानं च साधु तावद्विमृश्यताम् // 60 समयोऽयं कृतस्तेन साचिव्यमुपगच्छता। असत्याः सत्यसंकाशाः सत्याश्चासत्यदर्शिनः। नोपघातस्त्वया ग्राह्यो राजन्मैत्रीमिहेच्छता // 47 दृश्यन्ते विविधा भावास्तेषु युक्तं परीक्षणम् // 61 भोजने चोपहर्तव्ये तन्मांसं न स्म दृश्यते। | तलवदृश्यते व्योम खद्योतो हव्यवाडिव / -2136 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 112. 62] शान्तिपर्व [ 12. 113. 3 न चैवास्ति तलं व्योम्नि न खद्योते हुताशनः॥६२ कृतं च समयं भित्त्वा त्वयाहमवमानितः // 77 तस्मात्प्रत्यक्षदृष्टोऽपि युक्तमर्थः परीक्षितुम् / प्रथमं यः समाख्यातः शीलवानिति संसदि / परीक्ष्य ज्ञापयन्ह्यान्न पश्चात्परितप्यते // 63 न वाच्यं तस्य वैगुण्यं प्रतिज्ञां परिरक्षता // 78 न दुष्करमिदं पुत्र यत्प्रभुर्घातयेत्परम् / एवं चावमतस्येह विश्शसं किं प्रयास्यसि / श्लाघनीया च वर्या च लोके प्रभवतां क्षमा // 64 त्वयि चैव ह्यविश्वासे ममोद्वेगो भविष्यति // 79 स्थापितोऽयं पुत्र त्वया सामन्तेष्वधि विश्रुतः / / शङ्कितस्त्वमहं भीतः परे छिद्रानुदर्शिनः / दुःखेनासाद्यते पात्रं धार्यतामेष ते सुहृत् // 65 अस्निग्धाश्चैव दुस्तोषाः कर्म चैतद्वहुच्छलम् // 80 दूषितं परदोषैर्हि गृह्णीते योऽन्यथा शुचिम् / / दुःखेन श्लेष्यते भिन्नं श्लिष्टं दुःखेन भिद्यते / स्वयं संदूषितामात्यः क्षिप्रमेव विनश्यति // 66 भिन्नलिष्टा तु या प्रीतिर्न सा स्नेहेन वर्तते // 81 तस्मादथारिसंघातागोमायोः कश्चिदागतः / कश्चिदेव हि भीतस्तु दृश्यते न परात्मनोः / धर्मात्मा तेन चाख्यातं यथैतत्कपटं कृतम् // 67 कार्यापेक्षा हि वर्तन्ते भावाः स्निग्धास्तु दुर्लभाः // ततो विज्ञातचारित्रः सत्कृत्य स विमोक्षितः।। सुदुःखं पुरुषज्ञानं चित्तं ह्येषां चलाचलम् / / परिष्वक्तश्च सस्नेहं मृगेन्द्रेण पुनः पुनः // 68 समर्थो वाप्यशक्तो वा शतेष्वेकोऽधिगम्यते // 83 अनुज्ञाप्य मृगेन्द्रं तु गोमायुर्नीतिशास्त्रवित् / अकस्मात्प्रक्रिया नृणामकस्माच्चापकर्षणम् / तेनामर्षेण संतप्तः प्रायमासितुमैच्छत // 69 शुभाशुभे महत्त्वं च प्रकर्तुं बुद्धिलाघवात् // 84 शार्दूलस्तत्र गोमायुं स्नेहाप्रसुतलोचनः / एवं बहुविधं सान्त्वमुक्त्वा धर्मार्थहेतुमत् / अवारयत्स धर्मिष्ठं पूजया प्रतिपूजयन् // 70 प्रसादयित्वा राजानं गोमायुर्वनमभ्यगात् // 85 तं स गोमायुरालोक्य स्नेहादागतसंभ्रमम् / अगृह्यानुनयं तस्य मृगेन्द्रस्य स बुद्धिमान् / बभाषे प्रणतो वाक्यं बाष्पगद्गदया गिरा // 71 गोमायुः प्रायमासीनस्त्यक्त्वा देहं दिवं ययौ॥८६ पूजितोऽहं त्वया पूर्व पश्चाच्चैव विमानितः / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि परेषामास्पदं नीतो वस्तुं नार्हाम्यहं त्वयि / / 72 द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः // 112 // वसंतुष्टाशयुताः स्थानान्मानात्प्रत्यवरोपिताः। स्वयं चोपहृता भृत्या ये चाप्युपहृताः परैः // 73 परिक्षीणाश्च लुब्धाश्च क्रूराः काराभितापिताः।। युधिष्ठिर उवाच / हृतस्वा मानिनो ये च त्यक्तोपात्ता महेप्सवः॥७४ किं पार्थिवेन कर्तव्यं किं च कृत्वा सुखी भवेत् / संतापिताश्च ये केचिद्व्यसनौघप्रतीक्षिणः / तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वं धर्मभृतां वर // 1 अन्तर्हिताः सोपहिताः सर्वे ते परसाधनाः // 75 ___भीष्म उवाच / अवमानेन युक्तस्य स्थापितस्य च मे पुनः / हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि शृणु कार्यैकनिश्चयम् / कथं यास्यसि विश्वासमहमेष्यामि वा पुनः / / 76 / यथा राज्ञेह कर्तव्यं यच्च कृत्वा सुखी भवेत् // 2 समर्थ इति संगृह्य स्थापयित्वा परीक्ष्य च। / न त्वेवं वर्तितव्यं स्म यथेदमनुशुश्रुमः / म.भा. 268 - 2137 - Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 113. 3] महाभारते [ 12. 114.7 उष्ट्रस्य सुमहद्वृत्तं तन्निबोध युधिष्ठिर // 3 वर्तस्व बुद्धिमूलं हि विजयं मनुरब्रवीत् // 17 जातिस्मरो महानुष्ट्रः प्राजापत्ययुगोद्भवः / बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत / तपः सुमहदातिष्ठदरण्ये संशितव्रतः॥४ तानि जङ्घाजघन्यानि भारप्रत्यवराणि च // 18 तपसस्तस्य चान्ते वै प्रीतिमानभवत्प्रभुः / राज्यं तिष्ठति दक्षस्य संगृहीतेन्द्रियस्य च / परेण छन्दयामास ततश्चैनं पितामहः // 5 गुप्तमन्त्रश्रुतवतः सुसहायस्य चानघ // 19 उष्ट्र उवाच / परीक्ष्यकारिणोऽर्थाश्च तिष्ठन्तीह युधिष्ठिर / भगवंस्त्वत्प्रसादान्मे दीर्घा ग्रीवा भवेदियम् / सहाययुक्तेन मही कृत्स्ना शक्या प्रशासितुम् // 20 योजनानां शतं साग्रं या गच्छेच्चरितुं विभो // 6 इदं हि सद्भिः कथितं विधिज्ञैः भीष्म उवाच / ___पुरा महेन्द्रप्रतिमप्रभाव / एवमस्त्विति चोक्तः स वरदेन महात्मना / मयापि चोक्तं तव शास्त्रदृष्ट्या .. प्रतिलभ्य वरं श्रेष्टं ययावुष्ट्रः स्वकं वनम् // 7 त्वमत्र युक्तः प्रचरस्व राजन् // 21 स चकार तदालस्यं वरदानात्स दुर्मतिः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न चैच्छच्चरितुं गन्तुं दुरात्मा कालमोहितः // 8 त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः // 113 // स कदाचित्प्रसार्यैवं तां ग्रीवां शतयोजनाम् / चचाराश्रान्तहृदयो वातश्चागात्ततो महान् // 9 युधिष्ठिर उवाच / स गुहायां शिरोग्रीवं निधाय पशुरात्मनः / राजा राज्यमनुप्राप्य दुर्बलो भरतर्षभ / आस्ताथ वर्षमभ्यागात्सुमहत्प्लावयजगत् // 10 अमित्रस्यातिवृद्धस्य कथं, तिष्ठेदसाधनः // 1 . अथ शीतपरीताङ्गो जम्बुकः क्षुच्छ्रमान्वितः / . भीष्म उवाच / सदारस्तां गुहामाशु प्रविवेश जलार्दितः // 11 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / स दृष्ट्वा मांसजीवी तु सुभृशं क्षुच्छ्रमान्वितः / सरितां चैव संवाद सागरस्य च भारत // 2 अभक्षयत्ततो ग्रीवामुष्ट्रस्य भरतर्षभ // 12 / सुरारिनिलयः शश्वत्सागरः सरितां पतिः / यदा त्वबुध्यतात्मानं भक्ष्यमाणं स वै पशुः / पप्रच्छ सरितः सर्वाः संशयं जातमात्मनः // 3 तदा संकोचने यत्नमकरोभृशदुःखितः // 13 समूलशाखान्पश्यामि निहतांश्छायिनो द्रुमान् / यावदूर्ध्वमधश्चैव ग्रीवां संक्षिपते पशुः / युष्माभिरिह पूर्णाभिरन्यास्तत्र न वेतसम् // 4 तावत्तेन सदारेण जम्बुकेन स भक्षितः // 14 अकायश्चाल्पसारश्च वेतसः कूलजश्च वः / स हत्वा भक्षयित्वा च जम्बुकोष्ट्रं ततस्तदा / अवज्ञाय नशक्यो वा किंचिद्वा तेन वा कृतम् // 5 विगते वातवर्षे च निश्चक्राम गुहामुखात् / / 15 तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वासामेव वो मतम् / एवं दुर्बुद्धिना प्राप्तमुष्ट्रेण निधनं तदा / यथा कूलानि चेमानि भित्त्वा नानीयते वशम् // 6 आलस्यस्य क्रमात्पश्य महद्दोषमुपागतम् / / 16 ततः प्राह नदी गङ्गा वाक्यमुत्तरमर्थवत् / त्वमप्येतं विधिं त्यक्त्वा योगेन नियतेन्द्रियः। / हेतुमद्राहकं चैव सागरं सरितां पतिम् // 7 -2138 - Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 114. 8 शान्तिपर्व [12. 115. 18 तिष्ठन्त्येते यथास्थानं नगा ह्येकनिकेतनाः / श्लाघन्नश्लाघनीयेन कर्मणा निरपत्रपः / ततस्त्यजन्ति तत्स्थानं प्रातिलोभ्यादचेतसः॥ 8 उपेक्षितव्यो दान्तेन तादृशः पुरुषाधमः // 6 वेतसो वेगमायान्तं दृष्ट्वा नमति नेतरः / यद्यद्भूयादल्पमतिस्तत्तदस्य सहेत्सदा / स च वेगेऽभ्यतिक्रान्ते स्थानमासाद्य तिष्ठति // 9 प्राकृतो हि प्रशंसन्वा निन्दन्वा किं करिष्यति / कालज्ञः समयज्ञश्च सदा वश्यश्च नोद्रुमः। वने काक इवाबुद्धिर्वाशमानो निरर्थकम् // 7 अनुलोमस्तथास्तब्धस्तेन नाभ्येति वेतसः // 10 यदि वाग्भिः प्रयोगः स्यात्प्रयोगे पापकर्मणः / मारुतोदकवेगेन ये नमन्त्युन्नमन्ति च / वागेवार्थो भवेत्तस्य न ह्येवार्थो जिघांसतः // 8 ओषध्यः पादपा गुल्मा न ते यान्ति पराभवम् // 11 निषेकं विपरीतं स आचष्टे वृत्तचेष्टया / यो हि शत्रोर्विवृद्धस्य प्रभोर्वधविनाशने / मयूर इव कौपीनं नृत्यन्संदर्शयन्निव // 9 पूर्वं न सहते वेगं क्षिप्रमेव स नश्यति // 12 यस्यावाच्यं न लोकेऽस्ति नाकार्य वापि किंचन / सारासारं बलं वीर्यमात्मनो द्विषतश्च यः। वाचं तेन न संदध्याच्छुचिः संक्लिष्टकर्मणा // 10 जानन्विचरति प्राज्ञो न स याति पराभवम् / / 13 प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षं तु विनिन्दकः / एवमेव यदा विद्वान्मन्येतातिबलं रिपुम् / स मानवः श्ववल्लोके नष्टलोकपरायणः // 11 संश्रयेद्वैतसीं वृत्तिमेवं प्रज्ञानलक्षणम् / / 14 तादृग्जनशतस्यापि यद्ददाति जुहोति च / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि परोक्षेणापवादेन तन्नाशयति स क्षणात् / / 12 चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः // 114 // तस्मात्प्राज्ञो नरः सद्यस्तादृशं पापचेतसम् / 115 वर्जयेत्साधुभिर्वज्यं सारमेयामिषं यथा // 13 युधिष्ठिर उवाच / परिवादं ब्रुवाणो हि दुरात्मा वै महात्मने / विद्वान्मूर्खप्रगल्भेन मृदुस्तीक्ष्णेन भारत / प्रकाशयति दोषान्स्वान्सर्पः फणमिवोच्छ्रितम् // 14 आक्रुश्यमानः सदसि कथं कुर्यादरिंदम // 1 तं स्वकर्माणि कुर्वाणं प्रतिकतुं य इच्छति / भीष्म उवाच / भस्मकूट इवाबुद्धिः खरो रजसि मज्जति // 15 श्रूयतां पृथिवीपाल यथैषोऽर्थोऽनुगीयते / मनुष्यशालावृकमप्रशान्तं सदा सुचेताः सहते नरस्येहाल्पचेतसः // 2 जनापवादे सततं निविष्टम् / अरुष्यन्ऋश्यमानस्य सुकृतं नाम विन्दति / मातङ्गमुन्मत्तमिवोन्नदन्तं दुष्कृतं चात्मनो मर्षी रुष्यत्येवापमार्टि वै // 3 त्यजेत तं श्वानमिवातिरौद्रम् // 16 टिट्टिभं तमुपेक्षेत वाशमानमिवातुरम् / अधीरजुष्टे पथि वर्तमान लोकविद्वेषमापन्नो निष्फलं प्रतिपद्यते // 4 दमादपेतं विनयाञ्च पापम् / इति स श्लाघते नित्यं तेन पापेन कर्मणा / अरिव्रतं नित्यमभूतिकामं इदमुक्तो मया कश्चित्संमतो जनसंसदि / धिगस्तु तं पापमतिं मनुष्यम् // 17 स तत्र वीडितः शुष्को मृतकल्पोऽवतिष्ठति // 5 / प्रत्युच्यमानस्तु हि भूय एभि -2139 - Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "12. 115. 18] महाभारते [12. 116. 22 निशाम्य मा भूस्त्वमथार्तरूपः / बृहस्पतिसमो बुद्ध्या भवाशंसितुमर्हति // 8 उच्चस्य नीचेन हि संप्रयोगं शंसिता पुरुषव्याघ्र त्वं नः कुलहिते रतः / / विगर्हयन्ति स्थिरबुद्धयो ये // 18 क्षत्ता चैव पटुप्रज्ञो यो नः शंसति सर्वदा॥९ क्रुद्धो दशार्धेन हि ताडयेद्वा त्वत्तः कुलहितं वाक्यं श्रुत्वा राज्यहितोदयम् / ___ स पांसुभिर्वापकिरेत्तुषैर्वा / अमृतस्याव्ययस्येव तृप्तः स्वप्स्याम्यहं सुखम् // 10 विवृत्य दन्तांश्च विभीषयेद्वा कीदृशाः संनिकर्षस्था भृत्याः स्युर्वा गुणान्विताः। सिद्धं हि मूर्खे कुपिते नृशंसे // 19 कीदृशैः किंकुलीनैर्वा सह यात्रा विधीयते // 11 विगर्हणां परमदुरात्मना कृतां न ह्येको भृत्यरहितो राजा भवति रक्षिता / सहेत यः संसदि दुर्जनान्नरः / राज्यं चेदं जनः सर्वस्तत्कुलीनोऽभिशंसति // 12 पठेदिदं चापि निदर्शनं सदा न हि प्रशास्तुं राज्यं हि शक्यमेकेन भारत / न वाङ्मयं स लभति किंचिदप्रियम् // 20 असहायवता तात नैवार्थाः केचिदप्युत / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि लब्धुं लब्ध्वा चापि सदा रक्षितुं भरतर्षभ // 13 पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 115 // __ भीष्म उवाच / यस्य भृत्यजनः सर्वो ज्ञानविज्ञानकोविदः / युधिष्ठिर उवाच / हितैषी कुलजः स्निग्धः स राज्यफलमश्नुते // 14 पितामह महाप्राज्ञ संशयो मे महानयम् / मन्त्रिणो यस्य कुलजा असंहार्याः सहोषिताः / स च्छेत्तव्यस्त्वया राजन्भवान्कुलकरो हि नः // 1 | नृपतेर्मतिदाः सन्ति संबन्धज्ञानकोविदाः // 15 पुरुषाणामयं तात दुर्वृत्तानां दुरात्मनाम् / / अनागतविधातारः कालज्ञानविशारदाः / / कथितो वाक्यसंचारस्ततो विज्ञापयामि ते // 2 अतिक्रान्तमशोचन्तः स राज्यफलमश्रुते / / 16 यद्धितं राज्यतत्रस्य कुलस्य च सुखोदयम् / समदुःखसुखा यस्य सहायाः सत्यकारिणः। आयत्यां च तदात्वे च क्षेमवृद्धिकरं च यत् // 3 अर्थचिन्तापरा यस्य स राज्यफलमभुते / / 17 पुत्रपौत्राभिरामं च राष्ट्रवृद्धिकरं च यत् / यस्य नार्ता जनपदः संनिकर्षगतः सदा / अन्नपाने शरीरे च हितं यत्तद्रवीहि मे // 4 अक्षुद्रः सत्पथालम्बी स राज्यफलभाग्भवेत् / / 18 अभिषि तो हि यो राजा राज्यस्थो मित्रसंवृतः / कोशाक्षपटलं यस्य कोशवृद्धिकरैर्जनैः / असुहृत्समुपेतो वा स कथं रञ्जयेत्प्रजाः // 5 आप्तैस्तुष्टैश्च सततं धार्यते स नृपोत्तमः // 19 यो ह्यसत्प्रग्रहरतिः स्नेहरागवलात्कृतः / कोष्ठागारमसंहाराप्तैः संचयतत्परैः / इन्द्रियाणामनीशत्वादसज्जनबुभूषकः // 6 पात्रभूतैरलुब्धैश्च पाल्यमानं गुणीभवेत् // 20 तस्य भृत्या विगुणतां यान्ति सर्वे कुलोद्गताः। व्यवहारश्च नगरे यस्य कर्मफलोदयः / न च भृत्यफलैरथैः स राजा संप्रयुज्यते // 7 दृश्यते शङ्खलिखितः स धर्मफलभाग्भवेत् // 21 एतान्मे संशयस्थस्य राजधर्मान्सुदुर्लभान् / संगृहीतमनुष्यश्च यो राजा राजधर्मवित् / - 2140 - Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 116. 22] शान्तिपर्व [12. 117. 26 षड्वगं प्रतिगृह्णन्स धर्मात्फलमुपाभुते // 22 प्रोवाच श्वा मुनि तत्र यत्तच्छृणु महामते // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्वशत्रुर्भगवन्नत्र द्वीपी मां हन्तुमिच्छति / षोडशाधिकशततमोऽध्यायः // 116 // त्वत्प्रसादाद्भयं न स्यात्तस्मान्मम महामुने / / 14 मुनिरुवाच / भीष्म उवाच / न भयं द्वीपिनः कार्य मृत्युतस्ते कथंचन / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / एष श्वरूपरहितो द्वीपी भवसि पुत्रक / / 15 निदर्शनकरं लोके सज्जनाचरितं सदा // 1 भीष्म उवाच / अस्यैवार्थस्य सदृशं यच्छ्रतं मे तपोवने / ततः श्वा द्वीपितां नीतो जाम्बूनदनिभाकृतिः / जामदग्न्यस्य रामस्य यदुक्तमृषिसत्तमैः // 2 . चित्राङ्गो विस्फुरन्हृष्टो वने वसति निर्भयः // 16 वने महति कस्मिंश्चिदमनुष्यनिषेविते / ततोऽभ्ययान्महारौद्रो व्यादितास्यः क्षुधान्वितः / ऋषिमूलफलाहारो नियतो नियतेन्द्रियः / / 3 द्वीपिनं लेलिहद्वक्त्रो व्याघ्रो रुधिरलालसः // 17 दीक्षादमपरः शान्तः स्वाध्यायपरमः शुचिः / व्याघ्रं दृष्ट्वा क्षुधाभग्नं दंष्ट्रिणं वनगोचरम् / उपवासविशुद्धात्मा सततं सत्पथे स्थितः // 4 द्वीपी जीवितरक्षार्थमृषि शरणमेयिवान् // 18 तस्य संदृश्य सद्भावमुपविष्टस्य धीमतः / ततः संवासजं स्नेहमृषिणा कुर्वता सदा। सर्वसत्त्वाः समीपस्था भवन्ति वनचारिणः / / 5 / स द्वीपी व्याघ्रतां नीतो रिपुभिर्बलवत्तरः / सिंहव्याघ्राः सशरभा मत्ताश्चैव महागजाः / / ततो दृष्ट्वा स शार्दूलो नाभ्यहस्तं विशां पते // 19 द्वीपिनः खड्गभल्लूका ये चान्ये भीमदर्शनाः // 6 स तु श्वा व्याघ्रतां प्राप्य बलवान्पिशिताशनः / ते सुखप्रश्नदाः सर्वे भवन्ति क्षतजाशनाः / न मूलफलभोगेषु स्पृहामप्यकरोत्तदा / / 20 तस्यर्षेः शिष्यवच्चैव न्यग्भूताः प्रियकारिणः / / 7 यथा मृगपतिर्नित्यं प्रकाङ्कति वनौकसः / दत्त्वा च ते सुखप्रश्नं सर्वे यान्ति यथागतम / तथैव स महाराज व्याघ्रः समभवत्तदा // 21 प्राम्यत्वेकः पशुस्तत्र नाजहाच्छा महामुनिम् / / 8 व्याघस्तूटजमूलस्थस्तृप्तः सुप्तो हतैर्मगैः / भक्तोऽनुरक्तः सततमुपवासकृशोऽबलः / नागश्चागात्तमुद्देशं मत्तो मेघ इवोत्थितः // 22 फलमूलोत्कराहारः शान्तः शिष्टाकृतियथा // 9 प्रभिन्नकरटः प्रांशुः पद्मी विततमस्तकः / तस्यर्षेरुपविष्टस्य पादमूले महामुनेः / सुविषाणो महाकायो मेघगम्भीरनिस्वनः // 23 मनुष्यवद्गतो भावः स्नेहबद्धोऽभवद्भुशम् // 10 तं दृष्ट्वा कुञ्जरं मत्तमायान्तं मदगर्वितम् / ततोऽभ्ययान्महावीर्यो द्वीपी क्षतजभोजनः / व्याघ्रो हस्तिभयात्रस्तस्तमृषि शरणं ययौ // 24 श्वार्थमत्यन्तसंदुष्टः क्रूरः काल इवान्तकः // 11 ततोऽनयत्कुञ्जरतां तं व्याघ्रमृषिसत्तमः / लेलिह्यमानस्तृषितः पुच्छास्फोटनतत्परः / महामेघोपमं दृष्ट्वा तं स भीतोऽभवद्गजः // 25 व्यादितास्यः क्षुधाभग्नः पार्थयानस्तदामिषम् // 12 ततः कमलपण्डानि शल्लकीगहनानि च / तं दृष्ट्वा क्रूरमायान्तं जीवितार्थी नराधिप / व्यचरत्स मुदा युक्तः पद्मरेणुविभूषितः // 26 22141 - Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 117. 27 ] महाभारते [12. 118. 10 कदाचिद्रममाणस्य हस्तिनः सुमुखं तदा / व्याघ्रो नागो मदपटुर्नागः सिंहत्वमाप्तवान् // 4 // ऋषेस्तस्योटजस्थस्य कालोऽगच्छन्निशानिशम् // 27 / सिंहोऽतिबलसंयुक्तो भूयः शरभतां गतः / अथाजगाम तं देश केसरी केसरारुणः / मया स्नेहपरीतेन न विमृष्टः कुलान्वयः // 42 गिरिकन्दरजो भीमः सिंहो नागकुलान्तकः / / 28 / यस्मादेवमपापं मां पाप हिंसितुमिच्छसि। तं दृष्ट्वा सिंहमायान्तं नागः सिंहभयाकुलः / तस्मात्स्वयोनिमापन्नः श्वैव त्वं हि भविष्यसि // 4 ऋषिं शरणमापेदे वेपमानो भयातुरः // 29 ततो मुनिजनद्वेषाद्दुष्टात्मा श्वाकृतोऽबुधः / ततः स सिंहतां नीतो नागेन्द्रो मुनिना तदा / ऋषिणा शरभः शप्तः स्वं रूपं पुनराप्तवान् // 44 वन्यं नागणयसिंहं तुल्यजातिसमन्वयात् // 30 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि दृष्ट्वा च सोऽनशत्सिंहो वन्यो भीसन्नवाग्बलः / सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 117 स चाश्रमेऽवसत्सिंहस्तस्मिन्नेव वने सुखी // 31 न त्वन्ये क्षुद्रपशवस्तपोवननिवासिनः / __ भीष्म उवाच। व्यदृश्यन्त भयत्रस्ता जीविताकाङ्गिणः सदा॥३२ / स श्वा प्रकृतिमापन्नः परं दैन्यमुपागमत् / कदाचित्कालयोगेन सर्वप्राणिविहिंसकः। ऋषिणा हुंकृतः पापस्तपोवनबहिष्कृतः // 1 बलवान्क्षतजाहारो नानासत्त्वभयंकरः // 33 एवं राज्ञा मतिमता विदित्वा शीलशौचताम् / अष्टपादू चरणः शरभो वनगोचरः / आर्जवं प्रकृतिं सत्त्वं कुलं वृत्तं श्रुतं दमम् // 2 तं सिंहं हन्तुमागच्छन्मुनेस्तस्य निवेशनम् / / 34 / अनुक्रोशं बलं वीर्यं भावं संप्रशमं क्षमाम् / तं मुनिः शरभं चक्रे बलोत्कटमरिंदम / भृत्या ये यत्र योग्याः स्युस्तत्र स्थाप्याः सुशिक्षिताः ततः स शरभो वन्यो मुने शरभमग्रतः / नापरीक्ष्य महीपालः प्रकर्तुं भृत्यमर्हति / दृष्ट्वा बलिनमत्युग्रं द्रुतं संप्राद्रवद्भयात् // 35 अकुलीननराकीर्णो न राजा सुखमेधते // 4 स एवं शरभस्थाने न्यस्तो वै मुनिना तदा / कुलजः प्रकृतो राजा तत्कुलीनतया सदा / मुनेः पार्श्वगतो नित्यं शारभ्यं सुखमाप्तवान् // 36 न पापे कुरुते बुद्धिं निन्द्यमानोऽप्यनागसि // ततः शरभसंत्रस्ताः सर्वे मृगगणा वनात् / अकुलीनस्तु पुरुषः प्रकृतः साधुसंक्षयात् / दिशः संप्राद्रवन्राजन्भयाजीवितकाङ्क्षिणः // 37 / दुर्लभैश्वर्यता प्राप्तो निन्दितः शत्रुतां व्रजेत् // / शरभोऽप्यतिसंदुष्टो नित्यं प्राणिवधे रतः / कुलीनं शिक्षितं प्राज्ञं ज्ञानविज्ञानकोविदम् / फलमूलाशनं शान्तं नैच्छत्स पिशिताशनः // 38 सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं सहिष्णुं देशजं तथा // 7 ततो रुधिरतर्षेण बलिना शरभोऽन्वितः। कृतज्ञं बलवन्तं च क्षान्तं दान्तं जितेन्द्रियम् / इयेष तं मुनि हन्तुमकृतज्ञः श्वयोनिजः // 39 | अलुब्धं लब्धसंतुष्टं स्वामिमित्रबुभूषकम् // 8 ततस्तेन तपःशक्त्या विदितो ज्ञानचक्षुषा / सचिवं देशकालज्ञं सर्वसंग्रहणे रतम् / विज्ञाय च महाप्राज्ञो मुनिः श्वानं तमुक्तवान् // 40 | सत्कृतं युक्तमनसं हितैषिणमतन्द्रितम् // 9 श्वा त्वं द्वीपित्वमापन्नो द्वीपी व्याघ्रत्वमागतः। / युक्ताचारं स्वविषये संधिविग्रहकोविदम् / -2142 - Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 12. 118. 10] शान्तिपर्व [12. 119. 10 राज्ञनिवर्गवेत्तारं पौरजानपदप्रियम् // 10 धर्मशास्त्रसमायुक्ताः पदातिजनसंयुताः // 25 खातकव्यूहतत्त्वज्ञं बलहर्षणकोविदम् / अर्थमानविवृद्धाश्च रथचर्याविशारदाः / इङ्गिताकारतत्त्वज्ञं यात्रायानविशारदम् // 11 इष्वस्त्रकुशला यस्य तस्येयं नृपतेर्मही // 26 हस्तिशिक्षासु तत्त्वज्ञमहंकारविवर्जितम् / सर्वसंग्रहणे युक्तो नृपो भवति यः सदा / प्रगल्भं दक्षिणं दान्तं बलिनं युक्तकारिणम् / / 12 उत्थानशीलो मित्रादयः स राजा राजसत्तमः // 27 चोक्षं चोक्षजनाकीर्ण सुवेषं सुखदर्शनम् / शक्या अश्वसहस्रेण वीरारोहेण भारत / नायकं नीतिकुशलं गुणषष्ट्या समन्वितम् / / 13 / संगृहीतमनुष्येण कृत्स्ना जेतुं वसुंधरा // 28 अस्तब्धं प्रश्रितं शक्तं मृदुवादिनमेव च। . इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धीरं श्लक्ष्णं महद्धिं च देशकालोपपादकम् // 14 अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 118 // सचिवं यः प्रकुरुते न चैनमवमन्यते / तस्य विस्तीर्यते राज्यं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव // 15 भीष्म उवाच / एतैरेव गुणैर्युक्तो राजा शास्त्रविशारदः / एवं शुनासमान्भृत्यान्स्वस्थाने यो नराधिपः / एष्टव्यो धर्मपरमः प्रजापालनतत्परः // 16 / नियोजयति कृत्येषु स राज्यफलमश्नुते // 1 धीरो मर्षी शुचिः शीघ्रः काले पुरुषकारवित् / न श्वा स्वस्थानमुत्क्रम्य प्रमाणमभि सत्कृतः / शुश्रषुः श्रुतवासश्रोता ऊहापोहविशारदः // 17 आरोप्यः श्वा स्वकात्स्थानादुत्क्रम्यान्यत्प्रपद्यते // 2 मेधावी धारणायुक्तो यथान्यायोपपादकः / स्वजातिकुलसंपन्नाः स्वेषु कर्मस्ववस्थिताः / दान्तः सदा प्रियाभाषी क्षमावांश्च विपर्यये // 18 प्रकर्तव्या बुधा भृत्या नास्थाने प्रक्रिया क्षमा // 3 दानाच्छेदे स्वयंकारी सुद्वारः सुखदर्शनः / अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति / आर्तहस्तप्रदो नित्यमाप्तंमन्यो नये रतः // 19 स भृत्यगुणसंपन्नं राजा फलमुपाभुते // 4 नाहंवादी. न निद्वंद्वो न यत्किचनकारकः / शरभः शरभस्थाने सिंहः सिंह इवोर्जितः / कृते कर्मण्यमोघानां कर्ता भृत्यजनप्रियः // 20 व्याघ्रो व्याघ्र इव स्थाप्यो द्वीपी द्वीपी यथा तथा // 5 संगृहीतजनोऽस्तब्धः प्रसन्नवदनः सदा / कर्मस्विहानुरूपेषु न्यस्या भृत्या यथाविधि / / दाता भृत्यजनावेक्षी न क्रोधी सुमहामनाः // 21 प्रतिलोमं न भृत्यास्ते स्थाप्याः कर्मफलैषिणा // 6 युक्तदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासकः / यः प्रमाणमतिक्रम्य प्रतिलोमं नराधिपः / चारनेत्रः परावेक्षी धर्मार्थकुशलः सदा // 22 भृत्यान्स्थापयतेऽबुद्धिर्न स रञ्जयते प्रजाः // 7 राजा गुणशताकीर्ण एष्टव्यस्तादृशो भवेत् / न बालिशा न च क्षुद्रा न चाप्रतिमितेन्द्रियाः / योधाश्चैव मनुष्येन्द्र सर्वैर्गुणगणैर्वृताः // 23 नाकुलीना नरा पार्श्वे स्थाप्या राज्ञा हितैषिणा // 8 अन्वेष्टव्याः सुपुरुषाः सहाया राज्यधारणाः / साधवः कुशलाः शूरा ज्ञानवन्तोऽनसूयकाः / न विमानयितव्याश्च राज्ञा वृद्धिमभीप्सता // 24 अक्षुद्राः शुचयो दक्षा नराः स्युः पारिपार्श्वकाः // 9 योधाः समरशौटीराः कृतज्ञाः शस्त्रकोविदाः। / न्यग्भूतास्तत्पराः क्षान्ताश्चौक्षाः प्रकृतिजाः शुभाः। -2143 - Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 119. 10] महाभारते [ 12. 120. 16 स्वे स्वे स्थानेऽपरिक्रष्टास्ते स्यू राज्ञो बहिश्चराः॥१० भीष्म उवाच / सिंहस्य सततं पार्श्वे सिंह एव जनो भवेत् / / रक्षणं सर्वभूतानामिति क्षत्रे परं मतम् / असिंहः सिंहसहितः सिंहबल्लभते फलम् // 11 / तद्यथा रक्षणं कुर्यात्तथा शृणु महीपते // 3 यस्तु सिंहः श्वभिः कीर्णः सिंहकर्मफले रतः / / यथा बर्हाणि चित्राणि बिभर्ति भुजगाशनः / न स सिंहफलं भोक्तुं शक्तः श्वभिरुपासितः // 12 तथा बहुविधं राजा रूपं कुर्वीत धर्मवित् // 4 एवमेतैर्मनुष्येन्द्र शूरैः प्राज्ञैर्बहुश्रुतैः / तैक्ष्ण्यं जिह्मत्वमादान्त्यं सत्यमार्जवमेव च / कुलीनैः सह शक्येत कृत्स्नां जेतुं वसुंधराम् // 13 मध्यस्थः सत्त्वमातिष्ठंस्तथा वै सुखमृच्छति // 5 नावैद्यो नानृजुः पार्श्वे नाविद्यो नामहाधनः / यस्मिन्नथें हितं यत्स्यात्तद्वर्ण रूपमाविशेत् / संग्राह्यो वसुधापालै त्यो भृत्यवतां वर // 14 बहुरूपस्य राज्ञो हि सूक्ष्मोऽप्यर्थो न सीदति // 6 बाणवद्विसृता यान्ति स्वामिकार्यपरा जनाः / / नित्यं रक्षितमन्त्रः स्याद्यथा मूकः शरच्छिखी / ये भृत्याः पार्थिवहितास्तेषां सान्त्वं प्रयोजयेत् // 15 श्लक्ष्णाक्षरतनुः श्रीमान्भवेच्छास्त्रविशारदः // 7 कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः / / आपहारेषु यत्तः स्याजलप्रस्रवणेष्विव / कोशमूला हि राजानः कोशमूलकरो भव // 16 शैलवर्षोदकानीव द्विजान्सिद्धान्समाश्रयेत् // 8 कोष्ठागारं च ते नित्यं स्फीतं धान्यैः सुसंचितम् / अर्थकामः शिखां राजा कुर्याद्धर्मध्वजोपमाम् / सदास्तु सत्सु संन्यस्तं धनधान्यपरो भव // 17 नित्यमुद्यतदण्डः स्यादाचरेच्चाप्रमादतः / नित्ययुक्ताश्च ते भृत्या भवन्तु रणकोविदाः / / लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा वृक्षावृक्षमिवाप्लवन् // 9 वाजिनां च प्रयोगेषु वैशारद्यमिहेष्यते // 18 मृजावान्स्यात्स्वयूथ्येषु,भावानि चरणैः क्षिपेत् / ज्ञातिबन्धुजनावेक्षी मित्रसंबन्धिसंवृतः / जातपक्षः परिस्पन्देद्रक्षेद्वैकल्यमात्मनः // 10 पौरकार्यहितान्वेषी भव कौरवनन्दन // 19 दोषान्विवृणुयाच्छत्रोः परपक्षान्विधूनयेत् / एषा ते नैष्ठिकी बुद्धिः प्रज्ञा चाभिहिता मया। काननेष्विव पुष्पाणि बहीवार्थान्समाचरेत् // 1 श्वा ते निदर्शनं तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 20 उच्छ्रितानाश्रयेत्स्फीतान्नरेन्द्रानचलोपमान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्रयेच्छायामविज्ञातां गुप्तं शरणमाश्रयेत् // 12 एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 119 // प्रावृषीवासितग्रीवो मज्जेत निशि निर्जने / मायूरेण गुणेनैव स्त्रीभिश्चालक्षितश्चरेत् / 120 न जह्याच्च तनुत्राणं रक्षेदात्मानमात्मना // 13 युधिष्ठिर उवाच / चारभूमिष्वभिगमान्पाशांश्च परिवर्जयेत् / / राजवृत्तान्यनेकानि त्वया प्रोक्तानि भारत / पीडयेच्चापि तां भूमिं प्रणश्येद्गहने पुनः // 14 पूर्वैः पूर्वनियुक्तानि राजधर्मार्थवेदिभिः // 1 हन्यात्क्रुद्धानतिविषान्ये जिह्मगतयोऽहितान् / तदेव विस्तरेणोक्तं पूर्वैर्दष्टं सतां मतम् / नाश्रयेद्वालबर्हाणि सन्निवासानि वासयेत् // 1 प्रणयं राजधर्माणां प्रब्रूहि भरतर्षभ / / 2 / सदा बर्हिनिभः कामं प्रसक्तिकृतमाचरेत् / -2144 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 120. 16 ] शान्तिपर्व [ 12. 120. 39 सर्वतश्चाददेत्प्रज्ञा पतंगान्गहनेष्विव / गुप्तात्मा गुप्तराष्ट्रश्च स राजा राजधर्मवित् // 29 एवं मयूरवद्राजा स्वराष्ट्र परिपालयेत् // 16 नित्यं राष्ट्रमवेक्षेत गोभिः सूर्य इवोत्पतन् / आत्मवृद्धिकरी नीतिं विदधीत विचक्षणः / चारांश्च नचरान्विद्यात्तथा बुद्धया न संज्वरेत् // आत्मसंयमनं बुद्ध्या परबुद्धयावतारणम् / कालप्राप्तमुपादद्यान्नाथ राजा प्रसूचयेत् / बुद्धया चात्मगुणप्राप्तिरेतच्छास्त्रनिदर्शनम् // 17 अहन्यहनि संदुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान् // 31 परं चाश्वासयेत्साम्ना स्वशक्ति चोपलक्षयेत् / यथा क्रमेण पुष्पेभ्यश्चिनोति मधु षट्पदः / आत्मनः परिमर्शन बुद्धिं बुद्धया विचारयेत् / तथा द्रव्यमुपादाय राजा कुर्वीत संचयम् // 32 सान्त्वयोगमतिः प्राज्ञः कार्याकार्यविचारकः // 18 यद्धि गुप्तावशिष्टं स्यात्तद्धितं धर्मकामयोः / निगूढबुद्धिीरः स्याद्वक्तव्ये वक्ष्यते तथा। संचयानुविसर्गी स्याद्राजा शास्त्रविदात्मवान् // 33 संनिकृष्टां कथां प्राज्ञो यदि बुद्धया बृहस्पतिः / नाल्पमर्थं परिभवेन्नावमन्येत शात्रवान् / स्वभावमेष्यते तप्तं कृष्णायसमिवोदके // 19 बुद्धयावबुध्येदात्मानं न चाबुद्धिषु विश्वसेत् // 34 अनुयुञ्जीत कृत्यानि सर्वाण्येव महीपतिः। धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरग्र्या आगमैरुपदिष्टानि स्वस्य चैव परस्य च // 20 धैर्य शौर्य देशकालोऽप्रमादः। क्षुद्रं कुरं तथा प्राज्ञं शूरं चार्थविशारदम् / स्वल्पस्य वा महतो वापि वृद्धौ स्वकर्मणि नियुञ्जीत ये चान्ये वचनाधिकाः // 21 धनत्यैतान्यष्ट समिन्धनानि // 35 अप्यदृष्ट्वा नियुक्तानि अनुरूपेषु कर्मसु / अग्निस्तोको वर्धते ह्याज्यसिक्तो सर्वांस्ताननुवर्तेत स्वरांस्तत्रीरिवायता // 22 बीजं चैकं बहुसाहस्रमेति / धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत् / क्षयोदयौ विपुलौ संनिशाम्य ममायमिति राजा यः स पर्वत इवाचलः // 23 तस्मादल्पं नावमन्येत विद्वान् // 36 व्यवसायं. समाधाय सूर्यो रश्मिमिवायताम् / बालोऽबालः स्थविरो वा रिपुर्यः धर्ममेवाभिरक्षेत कृत्वा तुल्ये प्रियाप्रिये // 24 ___सदा प्रमत्तं पुरुषं निहन्यात्। कुलप्रकृतिदेशानां धर्मज्ञान्मृदुभाषिणः / कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत मध्ये वयसि निदीषान्हिते युक्ताञ्जितेन्द्रियान् // ___कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्टः // 37 अलुब्धाशिक्षितान्दान्तान्धर्मेषु परिनिष्ठितान् / हरेत्कीर्तिं धर्ममस्योपरुन्ध्यास्थापयेत्सर्वकार्येषु राजा धर्मार्थरक्षिणः // 26 ___ दर्थे दीर्घ वीर्यमस्योपहन्यात् / एतेनैव प्रकारेण कृत्यानामागतिं गतिम् / रिपुढेष्टा दुर्बलो वा बली वा युक्तः समनुतिष्ठेत तुष्टश्चारैरुपस्कृतः // 27 ___ तस्माच्छत्रौ नैव हेडेद्यतात्मा // 38 अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षिणः / क्षयं शत्रोः संचयं पालनं चाआत्मप्रत्ययकोशस्य वसुधैव वसुंधरा // 28 / प्युभौ चार्थों सहितौ धर्मकामौ / व्यक्तश्चानुग्रहो यस्य यथार्थश्चापि निग्रहः / / अतश्चान्यन्मतिमान्संदधीत म, भा. 269 -2145 - Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 120. 39 ] महाभारते [12. 120. 54 तस्माद्राजा बुद्धिमन्तं श्रयेत // 39 आरम्भान्द्विषतां प्राज्ञः सर्वानांस्तु सूदयेत् // 47 बुद्धिर्दीप्ता बलवन्तं हिनस्ति धर्मान्वितेषु विज्ञातो मत्री गुप्तश्च पाण्डव / बलं बुद्धथा वर्धते पाल्यमानम् / आप्तो राजन्कुलीनश्च पर्याप्तो राज्यसंग्रहे // 48 शत्रुर्बुद्धया सीदते वर्धमानो विधिप्रवृत्तान्नरदेवधर्मा___ बुद्धेः पश्चात्कर्म यत्तत्प्रशस्तम् // 40 ___ नुक्तान्समासेन निबोध बुद्धया। सर्वान्कामान्कामयानो हि धीरः इमान्विदध्याद्यनुसृत्य यो वै सत्त्वेनाल्पेनाप्लुतो हीनदेहः / राजा महीं पालयितुं स शक्तः // 49 यथात्मानं प्रार्थयतेऽर्थमानैः अनीतिजं यद्यविधानजं सुखं श्रेयःपात्रं पूरयते ह्यनल्पम् // 41 हठप्रणीतं विविधं प्रदृश्यते। तस्माद्राजा प्रगृहीतः परेषु न विद्यते तस्य गतिर्महीपतेमूलं लक्ष्म्याः सर्वतोऽभ्याददीत / न विद्यते राष्ट्रजमुत्तमं सुखम् // 50 दीर्घ कालमपि संपीड्यमानो धनैर्विशिष्टान्मतिशीलपूजिताविद्युत्संपातमिव मानोर्जितः स्यात् / / 42 न्गुणोपपन्नान्युधि दृष्टविक्रमान् / विद्या तपो वा विपुलं धनं वा गुणेषु दृष्टानचिरादिहात्मवा-- सर्वमेतद्व्यवसायेन शक्यम् / __ न्सतोऽभिसंधाय निहन्ति शात्रवान् / / 51 ब्रह्म यत्तं निवसति देहवत्सु पश्येदुपायान्विविधैः क्रियापथैतस्माद्विद्याद्वयवसायं प्रभूतम् // 43 न चानुपायेन मतिं निवेशयेत् / यत्रासते मतिमन्तो मनस्विनः श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं शको विष्णुर्यत्र सरस्वती च। / न दोषदर्शी पुरुषः समश्नुते // 52 वसन्ति भूतानि च यत्र नित्यं प्रीतिप्रवृत्तौ विनिवर्तने तथा ___ तस्माद्विद्वान्नावमन्येत देहम् // 44 .. सुहृत्सु विज्ञाय निवृत्य चोभयोः / लुब्धं हन्यात्संप्रदानेन नित्यं यदेव मित्रं गुरुभारमावहेलुब्धस्तृप्तिं परवित्तस्य नैति / - त्तदेव सुस्निग्धमुदाहरेद्बुधः // 53 सर्वो लुब्धः कर्मगुणोपभोगे एतान्मयोक्तांस्तव राजधर्मा__ योऽथैींनो धर्मकामौ जहाति // 45 नृणां च गुप्तौ मतिमादधत्स्व / धनं भोज्यं पुत्रदारं समृद्धिं अवाप्स्यसे पुण्यफलं सुखेन सर्वो लुब्धः प्रार्थयते परेषाम् / सर्वो हि लोकोत्तमधर्ममूलः // 54 लुब्धे दोषाः संभवन्तीह सर्वे इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तस्माद्राजा न प्रगृह्णीत लुब्धान् // 46 विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 120 // संदर्शने सत्पुरुषं जघन्यमपि चोदयेत् / -2146 - Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 121. 1] शान्तिपर्व [12. 121. 27 दण्डात्रिवर्गः सततं सुप्रणीतात्प्रवर्तते / युधिष्ठिर उवाच। देवं हि परमो दण्डो रूपतोऽग्निरिवोच्छिखः // 13 अयं पितामहेनोक्तो राजधर्मः सनातनः / नीलोत्पलदलश्यामश्चतुर्दष्ट्रश्चतुर्भुजः / ईश्वरश्च महादण्डो दण्डे सर्व प्रतिष्ठितम् // 1 अष्टपान्नैकनयनः शङ्ककोर्ध्वरोमवान् // 14 देवतानामृषीणां च पितॄणां च महात्मनाम् / जटी द्विजिह्वस्ताम्रास्यो मृगराजतनुच्छदः। यक्षरक्षःपिशाचानां मानां च विशेषतः // 2 एतद्रूपं बिभर्युनं दण्डो नित्यं दुरावरः // 15 सर्वेषां प्राणिनां लोके तिर्यक्ष्वपि निवासिनाम् / असिर्गदा धनुः शक्तिस्त्रिशूलं मुद्गरः शरः / सर्वव्यापी महातेजा दण्डः श्रेयानिति प्रभो // 3 मुसलं परशुश्चक्र प्रासो दण्डष्टितोमराः // 16 इत्येतदुक्तं भवता सर्वं दण्ड्यं चराचरम् / सर्वप्रहरणीयानि सन्ति यानीह कानिचित् / दृश्यते लोकमासक्तं ससुरासुरमानुषम् / / 4 दण्ड एव हि सर्वात्मा लोके चरति मूर्तिमान् // एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तत्त्वेन भरतर्षभ / भिन्दंश्छिन्दन्रुजन्कृन्तन्दारयन्पाटयंस्तथा / को दण्डः कीदृशो दण्डः किंरूपः किंपरायणः // 5 घातयन्नभिधावंश्च दण्ड एव चरत्युत // 18 किमात्मकः कथंभूतः कतिमूर्तिः कथंप्रभुः / / असिर्विशसनो धर्मस्तीक्ष्णवा दुरासदः / जागर्ति स कथं दण्डः प्रजास्ववहितात्मकः // 6 श्रीगर्भो विजयः शास्ता व्यवहारः प्रजागरः // 19 कश्च पूर्वापरमिदं जागर्ति परिपालयन् / शास्त्रं ब्राह्मणमन्त्रश्च शास्ता प्राग्वचनं गतः / कश्च विज्ञायते पूर्व कोऽपरो दण्डसंज्ञितः / / धर्मपालोऽक्षरो देवः सत्यगो नित्यगो ग्रहः // 20 किंसंस्थश्च भवेद्दण्डः का चास्य गतिरिष्यते // 7 असङ्गो रुद्रतनयो मनुज्येष्ठः शिवंकरः। भीष्म उवाच / नामान्येतानि दण्डस्य कीर्तितानि युधिष्ठिर // 21 शृणु कौरव्य यो दण्डो व्यवहार्यो यथा च सः। दण्डो हि भगवान्विष्णुर्यज्ञो नारायणः प्रभुः / यस्मिन्हि सर्वमायत्तं स दण्ड इह केवलः // 8 शश्वद्रूपं महद्विभ्रन्महापुरुष उच्यते // 22 धर्मस्याख्या महाराज व्यवहार इतीष्यते। यथोक्ता ब्रह्मकन्येति लक्ष्मीर्नीतिः सरस्वती / तस्य लोपः कथं न स्याल्लोकेष्ववहितात्मनः / दण्डनीतिर्जगद्धात्री दण्डो हि बहुविग्रहः // 23 इत्यर्थ व्यवहारस्य व्यवहारत्वभिष्यते // 9 अर्थानौँ सुखं दुःखं धर्माधर्मों बलाबले / अपि चैतत्पुरा राजन्मनुना प्रोक्तमादितः / दौर्भाग्यं भागधेयं च पुण्यापुण्ये गुणागुणौ // 24 सुप्रणीतेन दण्डेन प्रियाप्रियसमात्मना / कामाकामावृतुर्मासः शर्वरी दिवसः क्षणः / प्रजा रक्षति यः सम्यग्धर्म एव स केवलः // 10 अप्रसादः प्रसादश्च हर्षः क्रोधः शमो दमः // 25 अथोक्तमेतद्वचनं प्रागेव मनुना पुरा / दैवं पुरुषकारश्च मोक्षामोक्षौ भयाभये / जन्म चोक्तं वसिष्ठेन ब्रह्मणो वचनं महत् // 11 हिंसाहिंसे तपो यज्ञः संयमोऽथ विषाविषम् // 26 प्रागिदं वचनं प्रोक्तमतः प्राग्वचनं विदुः।। अन्तश्चादिश्च मध्यं च कृत्यानां च प्रपञ्चनम् / व्यवहारस्य चाख्यानाद्व्यवहार इहोच्यते // 12 / मदः प्रमादो दर्पश्च दम्भो धैर्य नयानयौ // 27 -2147 - Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 121. 28] महाभारते [12. 121. 55 अशक्तिः शक्तिरित्येव मानस्तम्भौ व्ययाव्ययौ। / हस्तिनोऽश्वा रथाः पत्ति वो विष्टिस्तथैव च / विनयश्च विसर्गश्च कालाकालौ च भारत // 28 दैशिकाश्चारकाश्चैव तदष्टाङ्गं बलं स्मृतम् // 43. अनृतं ज्ञाज्ञता सत्यं श्रद्धाश्रद्धे तथैव च। . अष्टाङ्गस्य तु युक्तस्य हस्तिनो हस्तियायिनः / क्लीबता व्यवसायश्च लाभालाभौ जयाजयौ // 29 अश्वारोहाः पदाताश्च मत्रिणो रसदाश्च ये // 44 तीक्ष्णता मृदुता मृत्युरागमानागमौ तथा / भिक्षुकाः प्राविवाकाश्च मौहूर्ता दैवचिन्तकाः / विराद्विश्चैव राद्धिश्च कार्याकार्ये बलाबले // 30 कोशो मित्राणि धान्यं च सर्वोपकरणानि च // 45 असूया चानसूया च धर्माधर्मों तथैव च। सप्तप्रकृति चाष्टाङ्गं शरीरमिह यद्विदुः। अपत्रपानपत्रपे ह्रीश्च संपद्विपञ्च ह // 31 राज्यस्य दण्ड एवाङ्गं दण्डः प्रभव एव च // 46 तेजः कर्मणि पाण्डित्यं वाक्शक्तिस्तत्त्वबुद्धिता / ईश्वरेण प्रयत्नेन धारणे क्षत्रियस्य हि / एवं दण्डस्य कौरव्य लोकेऽस्मिन्बहुरूपता // 32 दण्डो दत्तः समानात्मा दण्डो हीदं सनातनम् / न स्याद्यदीह दण्डो वै प्रमथेयुः परस्परम् / राज्ञां पूज्यतमो नान्यो यथाधर्मप्रदर्शनः // 47 भयाद्दण्डस्य चान्योन्यं नन्ति नैव युधिष्ठिर // 33 ब्रह्मणा लोकरक्षार्थं स्वधर्मस्थापनाय च / दण्डेन रक्ष्यमाणा हि राजन्नहरहः प्रजाः / भर्तृप्रत्यय उत्पन्नो व्यवहारस्तथापरः / राजानं वर्धयन्तीह तस्माद्दण्डः परायणम् / 34 तस्माद्यः सहितो दृष्टो भर्तृप्रत्ययलक्षणः // 48 व्यवस्थापयति क्षिप्रमिमं लोकं नरेश्वर / व्यवहारस्तु वेदात्मा वेदप्रत्यय उच्यते / सत्ये व्यवस्थितो धर्मो ब्राह्मणेष्ववतिष्ठते // 35 मौलश्च नरशार्दूल शास्त्रोक्तश्च तथापरः // 49 धर्मयुक्ता द्विजाः श्रेष्ठा वेदयुक्ता भवन्ति च / / उक्तो यश्चापि दण्डोऽसौ ,भर्तृप्रत्ययलक्षणः / बभूव यज्ञो वेदेभ्यो यज्ञः प्रीणाति देवताः // 36 ज्ञेयो न स नरेन्द्रस्थो दण्डप्रत्यय एव च // 50 प्रीताश्च देवता नित्यमिन्द्रे परिददत्युत / दण्डप्रत्ययदृष्टोऽपि व्यवहारात्मकः स्मृतः / अन्नं ददाति शक्रश्चाप्यनुगृह्णन्निमाः प्रजाः // 37 व्यवहारः स्मृतो यश्च स वेदबिषयात्मकः // 51 प्राणाश्च सर्वभूतानां नित्यमन्ने प्रतिष्ठिताः / यश्च वेदप्रसूतात्मा स धर्मो गुणदर्शकः / तस्मात्प्रजाः प्रतिष्ठन्ते दण्डो जागर्ति तासु च // 38 धर्मप्रत्यय उत्पन्नो यथाधर्मः कृतात्मभिः // 52 एवंप्रयोजनश्चैव दण्डः क्षत्रियतां गतः / व्यवहारः प्रजागोप्ता ब्रह्मदिष्टो युधिष्ठिर / रक्षन्प्रजाः प्रजागर्ति नित्यं सुविहितोऽक्षरः // 39 त्रीन्धारयति लोकान्वै सत्यात्मा भूतिवर्धनः // 53 ईश्वरः पुरुषः प्राणः सत्त्वं वित्तं प्रजापतिः / यश्च दण्डः स दृष्टो नो व्यवहारः सनातनः / भूतात्मा जीव इत्येव नामभिः प्रोच्यतेऽष्टभिः।। 40 व्यवहारश्च यो दृष्टः स धर्म इति नः श्रुतः / अद्दण्ड एवास्मै ध्रुवमैश्वर्यमेव च / यश्च वेदः स वै धर्मो यश्च धर्मः स सत्पथः // 54 बले नयश्च संयुक्तः सदा पञ्चविधात्मकः // 41 / ब्रह्मा प्रजापतिः पूर्व बभूवाथ पितामहः / कुलबाहुधनामात्याः प्रज्ञा चोक्ता बलानि च / लोकानां स हि सर्वेषां ससुरासुररक्षसाम् / आहार्य चाष्टकैव्यैर्बलमन्याधिष्ठिर // 42 समनुष्योरगवतां कर्ता चैव स भूतकृत् // 55 -2148 - Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 121. 56] शान्तिपर्व [12. 122. 26 ततो नो व्यवहारोऽयं भर्तृप्रत्ययलक्षणः / / तदहं श्रोतुमिच्छामि दण्ड उत्पद्यते कथम् / तस्मादिदमवोचाम व्यवहारनिदर्शनम् // 56 किं वापि पूर्व जागर्ति किं वा परममुच्यते // 12 माता पिता च भ्राता च भार्या चाथ पुरोहितः / | कथं क्षत्रियसंस्थश्च दण्डः संप्रत्यवस्थितः / नादण्ड्यो विद्यते राज्ञां यः स्वधर्मे न तिष्ठति // 57 ब्रूहि मे सुमहाप्राज्ञ ददाम्याचार्यवेतनम् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि वसुहोम उवाच। एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 121 // शृणु राजन्यथा दण्डः संभूतो लोकसंग्रहः / प्रजाविनयरक्षार्थं धर्मस्यात्मा सनातनः // 14 भीष्म उवाच / ब्रह्मा यियक्षुर्भगवान्सर्वलोकपितामहः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ऋत्विजं नात्मना तुल्यं ददर्शेति हि नः श्रुतम् // 15 अङ्गेषु राजा द्युतिमान्वसुहोम इति श्रुतः // 1 स गर्भ शिरसा देवो वर्षपूगानधारयत् / स राजा धर्मनित्यः सन्सह पन्या महातपाः / पूर्णे वर्षसहस्रे तु स गर्भः क्षुवतोऽपतत् // 16 मुञ्जपृष्ठं जगामाथ देवर्षिगणपूजितम् // 2 स क्षुपो नाम संभूतः प्रजापतिररिंदम / तत्र शृङ्गे हिमवतो मेरौ कनकपर्वते / ऋत्विगासीत्तदा राजन्यज्ञे तस्य महात्मनः // 17 यत्र मुञ्जवटे रामो जटाहरणमादिशत् // 3 तस्मिन्प्रवृत्ते सत्रे तु ब्रह्मणः पार्थिवर्षभ / तदाप्रभृति राजेन्द्र ऋषिभिः संशितव्रतैः / हृष्टरूपप्रचारत्वाद्दण्डः सोऽन्तर्हितोऽभवत् // 18 मुञ्जपृष्ठ इति प्रोक्तः स देशो रुद्रसेवितः // 4 तस्मिन्नन्तर्हिते चाथ प्रजानां संकरोऽभवत् / स तत्र बहुभिर्युक्तः सदा श्रुतिमयैर्गुणैः / नैव कार्य न चाकार्य भोज्याभोज्यं न विद्यते॥१९ ब्राह्मणानामनुमतो देवर्षिसदृशोऽभवत् // 5 पेयापेयं कुतः सिद्धिर्हिसन्ति च परस्परम् / तं कदाचिददीनात्मा सखा शक्रस्य मानितः / गम्यागम्यं तदा नासीत्परस्त्रं स्वं च वै समम् // 20 अभ्यागच्छन्महीपालो मान्धाता शत्रुकर्शनः // 6 परस्परं विलुम्पन्ते सारमेया इवामिषम् / सोऽभिसृत्य तु मान्धाता वसुहोमं नराधिपम् / अबलं बलिनो जन्नुर्निमर्यादमवर्तत // 21 दृष्ट्वा प्रकृष्टं तपसा विनयेनाभ्यतिष्ठत // 7 ततः पितामहो विष्णुं भगवन्तं सनातनम् / वसुहोमोऽपि राज्ञो वै गामयं च न्यवेदयत् / संपूज्य वरदं देवं महादेवमथाब्रवीत् // 22 अष्टाङ्गस्य च राज्यस्य पप्रच्छ कुशलं तदा // 8 अत्र साध्वनुकम्पां वै कर्तुमर्हसि केवलम् / सद्भिराचरितं पूर्व यथावदनुयायिनम् / संकरो न भवेदन यथा वै तद्विधीयताम् // 23 अपृच्छद्वसुहोमस्तं राजन्कि करवाणि ते // 9 ततः स भगवान्ध्यात्वा चिरं शूलजटाधरः / सोऽब्रवीत्परमप्रीतो मान्धाता राजसत्तमम् / आत्मानमात्मना दण्डमसृजदेवसत्तमः // 24 वसुहोमं महाप्राज्ञमासीनं कुरुनन्दन // 10 तस्माच्च धर्मचरणां नीतिं देवीं सरस्वतीम् / बृहस्पतेर्मतं राजन्नधीतं सकलं त्वया / असृजद्दण्डनीतिः सा त्रिषु लोकेषु विश्रुता // 25 तथैवौशनसं शास्त्रं विज्ञातं ते नराधिप // 11 / भूयः स भगवान्ध्यात्वा चिरं शुलवरायुधः। -2149 - Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 122. 26 ] महाभारते [ 12. 122. 54 तस्य तस्य निकायस्य चकारैकैकमीश्वरम् // 26 / व्यङ्गत्वं च शरीरस्य वधो वा नाल्पकारणात् / देवानामीश्वरं चक्रे देवं दशशतेक्षणम् / शरीरपीडास्तास्तास्तु देहत्यागो विवासनम् // 41 यमं वैवस्वतं चापि पितॄणामकरोत्पतिम् // 27 आनुपूर्व्या च दण्डोऽसौ प्रजा जागर्ति पालयन् / धनानां रक्षसां चापि कुबेरमपि चेश्वरम् / / इन्द्रो जागर्ति भगवानिन्द्रादग्निर्विभावसुः // 42 पर्वतानां पतिं मेरुं सरितां च महोदधिम् // 28 अग्नेर्जागर्ति वरुणो वरुणाञ्च प्रजापतिः। .' अपां राज्ये सुराणां च विदधे वरुणं प्रभुम् / प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकः // 43 मृत्युं प्राणेश्वरमथो तेजसां च हुताशनम् // 29 धर्माच्च ब्रह्मणः पुत्रो व्यवसायः सनातनः। रुद्राणामपि चेशानं गोतारं विदधे प्रभुः / / व्यवसायात्ततस्तेजो जागर्ति परिपालयन् // 44 महात्मानं महादेवं विशालाक्षं सनातनम् // 30 ओषध्यस्तेजसस्तस्मादोषधिभ्यश्च पर्वताः / वसिष्ठमीशं विप्राणां वसूनां जातवेदसम् / पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणात्तथा // 45 तेजसां भास्करं चक्रे नक्षत्राणां निशाकरम् / / 31 जागर्ति निर्ऋतिर्देवी ज्योतींषि निर्ऋतेरपि / वीरुधामंशुमन्तं च भूतानां च प्रभुं वरम् / वेदाः प्रतिष्ठा ज्योतिर्यस्ततो हयशिराः प्रभुः // 4 // कुमारं द्वादशभुजं स्कन्दं राजानमादिशत् / / 32 ब्रह्मा पितामहस्तस्माज्जागर्ति प्रभुरव्ययः / कालं सर्वेशमकरोत्संहारविनयात्मकम् / पितामहान्महादेवो जागर्ति भगवाशिवः // 47 मृत्योश्चतुर्विभागस्य दुःखस्य च सुखस्य च // 33 विश्वेदेवाः शिवाच्चापि विश्वेभ्यश्च तथर्षयः / ईश्वरः सर्वदेहस्तु राजराजो धनाधिपः / ऋषिभ्यो भगवान्सोमः सोमाद्देवाः सनातनाः॥४८ सर्वेषामेव रुद्राणां शूलपाणिरिति श्रुतिः / / 34 देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय / तमेकं ब्रह्मणः पुत्रमनुजातं क्षुपं ददौ / ब्राह्मणेभ्यश्च राजन्या लोकारक्षन्ति धर्मतः / प्रजानामधिपं श्रेष्ठं सर्वधर्मभृतामपि // 35 स्थावरं जङ्गमं चैव क्षत्रियेभ्यः सनातनम् // 49 महादेवस्ततस्तस्मिन्वृत्ते यज्ञे यथाविधि। प्रजा जाग्रति लोकेऽस्मिन्दण्डो जागर्ति तासु च। दण्डं धर्मस्य गोप्तारं विष्णवे सत्कृतं ददौ // 36 सर्वसंक्षेपको दण्डः पितामहसमः प्रभुः // 50 विष्णुरङ्गिरसे प्रादादङ्गिरा मुनिसत्तमः / जागर्ति कालः पूर्वं च मध्ये चान्ते च भारत / प्रादादिन्द्रमरीचिभ्यां मरीचिर्भूगवे ददौ // 37 ईश्वरः सर्वलोकस्य महादेवः प्रजापतिः // 51 भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु तं दण्डं धर्मसंहितम् / / देवदेवः शिवः शर्वो जागर्ति सततं प्रभुः। ऋषयो लोकपालेभ्यो लोकपालाः क्षुपाय च // 38 कपर्दी शंकरो रुद्रो भवः स्थाणुरुमापतिः // 52 क्षुपस्तु मनवे प्रादादादित्यतनयाय च / इत्येष दण्डो विख्यात आदौ मध्ये तथावरे। पुत्रेभ्यः श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात् / भूमिपालो यथान्यायं वर्तेतानेन धर्मवित् // 53 तं ददौ सूर्यपुत्रस्तु मनुवै रक्षणात्मकम् // 39 भीष्म उवाच / विभज्य दण्डः कर्तव्यो धर्मेण न यदृच्छया। इतीदं वसुहोमस्य शृणुयाद्यो मतं नरः / दुर्वाचा निग्रहो बन्धो हिरण्यं बाह्यतःक्रिया // 40 / श्रुत्वा च सम्यग्वतेत स कामानाप्नुयान्नपः // 54 -2150 - Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 122. 55 ] शान्तिपर्व [12. 123. 24 123 इति ते सर्वमाख्यातं यो दण्डो मनुजर्षभ / प्रत्यासन्नस्य तस्यर्षे किं स्यात्पापप्रणाशनम् // 12 नियन्ता सर्वलोकस्य धर्माक्रान्तस्य भारत // 55 अधर्मो धर्म इति ह योऽज्ञानादाचरेदिह / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तं चापि प्रथितं लोके कथं राजा निवर्तयेत् // 13 द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 122 // कामन्द उवाच / यो धर्मार्थों समुत्सृज्य काममेवानुवर्तते / युधिष्ठिर उवाच / स धर्मार्थपरित्यागात्प्रज्ञानाशमिहार्छति // 14 तात धर्मार्थकामानां श्रोतुमिच्छामि निश्चयम् / प्रज्ञाप्रणाशको मोहस्तथा धर्मार्थनाशकः / लोकयात्रा हि कात्स्येन त्रिष्वेतेषु प्रतिष्ठिता // 1 तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते // 15 धर्मार्थकामाः किंमूलास्त्रयाणां प्रभवश्व कः / . दुराचारान्यदा राजा प्रदुष्टान्न नियच्छति / अन्योन्यं चानुषजन्ते वर्तन्ते च पृथक्पृथक् // 2 तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव // 16 ___ भीष्म उवाच / तं प्रजा नानुवर्तन्ते ब्राह्मणा न च साधवः / यदा ते स्युः सुमनसो लोकसंस्थार्थनिश्चये / ततः संक्षयमाप्नोति तथा वध्यत्वमेति च // 17 कालप्रभवसंस्थासु सजन्ते च त्रयस्तदा // 3 अपध्वस्तस्त्ववमतो दुःखं जीवति जीवितम् / धर्ममूलस्तु देहोऽर्थः कामोऽर्थफलमुच्यते / जीवेच्च यदपध्वस्तस्तच्छुद्धं मरणं भवेत् // 18 संकल्पमूलास्ते सर्वे संकल्पो विषयात्मकः // 4 अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य च निबर्हणम् / विषयाश्चैव कार्येन सर्व आहारसिद्धये / सेवितव्या त्रयी विद्या सत्कारो ब्राह्मणेषु च // 19 मूलमेतत्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते // 5 महामना भवेद्धर्मे विवहेच्च महाकुले / धर्मः शरीरसंगुप्तिर्धर्मार्थं चार्थ इष्यते / ब्राह्मणांश्चापि सेवेत क्षमायुक्तान्मनस्विनः // 20 कामो रतिफलश्चात्र सर्वे चैते रजस्वलाः // 6 जपेदुदकशीलः स्यात्सुमुखो नान्यदास्थितः / संनिकृष्टांश्चरेदेनान्न चैनान्मनसा त्यजेत् / धर्मान्वितान्संप्रविशेदहिः कृत्वैव दुष्कृतीन् // 21 विमुक्तस्तमसा सर्वान्धर्मादीन्कामनैष्ठिकान् // 7 प्रसादयेन्मधुरया वाचाप्यथ च कर्मणा / श्रेष्ठबुद्धिस्त्रिवर्गस्य यदयं प्राग्रुयात्क्षणात् / इत्यस्मीति वदेन्नित्यं परेषां कीर्तयन्गुणान् // 22 बुद्ध्या बुध्येदिहार्थे न तदहा तु निकृष्टया // 8 अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत् / अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य निगृहनम् / पापान्यपि च कृच्छ्राणि शमयेन्नात्र संशयः // 23 संप्रमोदमलः कामो भूयः स्वगुणवर्तितः // 9 / गुरवोऽपि परं धर्मं यद्भूयुस्तत्तथा कुरु / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / गुरूणां हि प्रसादाद्धि श्रेयः परमवाप्स्यसि // 24 कामन्दस्य च संवादमङ्गारिष्ठस्य चोभयोः // 10 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कामन्दमृषिमासीनमभिवाद्य नराधिपः / त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 123 // अङ्गारिष्ठोऽथ पप्रच्छ कृत्वा समयपर्ययम् // 11 यः पापं कुरुते राजा काममोहबलात्कृतः / -2151 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 124. 1] महाभारते [ 12. 124. 26 124 धृतराष्ट्र उवाच / युधिष्ठिर उवाच। यदीच्छसि श्रियं तात यादृशीं तां युधिष्ठिरे / इमे जना नरश्रेष्ठ प्रशंसन्ति सदा भुवि / विशिष्टां वा नरव्याघ्र शीलवान्भव पुत्रक // 14 धर्मस्य शीलमेवादौ ततो मे संशयो महान् // 1 शीलेन हि त्रयो लोकाः शक्या जेतुं न संशयः / यदि तच्छक्यमस्माभिर्ज्ञातुं धर्मभृतां वर / न हि किंचिदसाध्यं वै लोके शीलवतां भवेत् // 15 श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं यथैतदुपलभ्यते // 2 एकरात्रेण मान्धाता व्यहेण जनमेजयः। कथं नु प्राप्यते शीलं श्रोतुमिच्छामि भारत / सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिवान् // 16 किंलक्षणं च तत्प्रोक्तं ब्रूहि मे वदतां वर // 3 एते हि पार्थिवाः सर्वे शीलवन्तो दमान्विताः / भीष्म उवाच / अतस्तेषां गुणक्रीता वसुधा स्वयमागमत् // 17 पुरा दुर्योधनेनेह धृतराष्ट्राय मानद / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / आख्यातं तप्यमानेन श्रियं दृष्ट्वा तथागताम् // 4 नारदेन पुरा प्रोक्तं शीलमाश्रित्य भारत // 18 इन्द्रप्रस्थे महाराज तव सभ्रातृकस्य ह / प्रह्लादेन हृतं राज्यं महेन्द्रस्य महात्मनः / सभायां चावहसनं तत्सर्वं शृणु भारत // 5 शीलमाश्रित्य दैत्येन त्रैलोक्यं च वशीकृतम् // 19 भवतस्तां सभां दृष्ट्वा समृद्धिं चाप्यनुत्तमाम् / ततो बृहस्पतिं शक्रः प्राञ्जलिः समुपस्थितः / दुर्योधनस्तदासीनः सर्वं पित्रे न्यवेदयत् // 6 उवाच च महाप्राज्ञः श्रेय इच्छामि वेदितुम् // 20 श्रुत्वा च धृतराष्ट्रोऽपि दुर्योधनवचस्तदा। ततो बृहस्पतिस्तस्मै ज्ञानं नैःश्रेयसं परम् / अब्रवीत्कर्णसहितं दुर्योधनमिदं वचः / / 7 कथयामास भगवान्देवेन्द्राय कुरूद्वह // 21 किमर्थं तप्यसे पुत्र श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः / एतावच्छ्रेय इत्येव बृहस्पतिरभाषत / श्रुत्वा त्वामनुनेष्यामि यदि सम्यग्भविष्यसि // 8 इन्द्रस्तु भूयः पप्रच्छ क विशेषो भवेदिति // 22 यथा त्वं महदैश्वर्यं प्राप्तः परपुरंजय / बृहस्पतिरुवाच / किंकरा भ्रातरः सर्वे मित्राः संबन्धिनस्तथा // 9 आच्छादयसि प्रावारानभासि पिशितोदनम् / विशेषोऽस्ति महांस्तात भार्गवस्य महात्मनः / आजानेया वहन्ति त्वां कस्माच्छोचसि पुत्रक // 10 तत्रागमय भद्रं ते भूय एव पुरंदर // 23 दुर्योधन उवाच / धृतराष्ट्र उवाच / दश तानि सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम् / आत्मनस्तु ततः श्रेयो भार्गवात्सुमहायशाः / भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने // 11 ज्ञानमागमयत्प्रीत्या पुनः स परमद्युतिः // 24 दृष्ट्वा च तां सभा दिव्यां दिव्यपुष्पफलान्विताम् / तेनापि समनुज्ञातो भार्गवेण महात्मना / अश्वांस्तित्तिरकल्मषारत्नानि विविधानि च // 12 / श्रेयोऽस्तीति पुनर्भूयः शुक्रमाह शतक्रतुः // 25 दृष्ट्वा तां पाण्डवेयानामृद्धिमिन्द्रोपमा शुभाम् / / भार्गवस्त्वाह धर्मज्ञः प्रहादस्य महात्मनः / अमित्राणां सुमहतीमनुशोचामि मानद / / 13 | ज्ञानमस्ति विशेषेण ततो हृष्टश्च सोऽभवत् // 26 -2152 - Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 124. 27 ] शान्तिपर्व [ 12. 124. 53 स ततो ब्राह्मणो भूत्वा प्रहादं पाकशासनः / ब्राह्मण उवाच। सूत्वा प्रोवाच मेधावी श्रेय इच्छामि वेदितुम् // 27 / यदि राजन्प्रसन्नस्त्वं मम चेच्छसि चेद्धितम् / प्रह्लादस्त्वब्रवीद्विप्रं क्षणो नास्ति द्विजर्षभ / भवतः शीलमिच्छामि प्राप्तुमेष वरो मम // 41 त्रैलोक्यराज्ये सक्तस्य ततो नोपदिशामि ते // 28 धृतराष्ट्र उवाच / ब्राह्मणस्त्वब्रवीद्वाक्यं कस्मिन्काले क्षगो भवेत् / ततः प्रीतश्च दैत्येन्द्रो भयं चास्याभवन्महत् / ततोपदिष्टमिच्छामि यद्यत्कार्यान्तरं भवेत् // 29 वरे प्रदिष्टे विप्रेण नाल्पतेजायमित्युत // 42 ततः प्रीतोऽभवद्राजा प्रह्लादो ब्रह्मवादिने / एवमस्त्विति तं प्राह प्रह्लादो विस्मितस्तदा / तथेत्युक्त्वा शुभे काले ज्ञानतत्त्वं ददौ तदा // 30 उपाकृत्य तु विप्राय वरं दुःखान्वितोऽभवत्॥ 43 ब्राह्मणोऽपि यथान्यायं गुरुवृत्तिमनुत्तमाम् / दत्ते वरे गते विप्रे चिन्तासीन्महती ततः / चकार सर्वभावेन यद्वत्स मनसेच्छति / / 31 प्रहादस्य महाराज निश्चयं न च जग्मिवान् // 44 वृष्टश्च तेन बहुशः प्राप्तं कथमरिंदम / तस्य चिन्तयतस्तात छायाभूतं महायुते / त्रैलोक्यराज्यं धर्मज्ञ कारणं तद्भवीहि मे // 32 तेजो विग्रहवत्तात शरीरमजहात्तदा // 45 प्रहाद उवाच / तमपृच्छन्महाकायं प्रहादः को भवानिति / नासूयामि द्विजश्रेष्ठ राजास्मीति कदाचन / / प्रत्याह ननु शीलोऽस्मि त्यक्तो गच्छाम्यहं त्वया॥४६ कव्यानि वदतां तात संयच्छामि वहामि च // 33 तस्मिन्द्विजवरे राजन्वत्स्याम्यहमनिन्दितम् / ते विस्रब्धाः प्रभाषन्ते संयच्छन्ति च मां सदा। योऽसौ शिष्यत्वमागम्य त्वयि नित्यं समाहितः / ते मा कव्यपदे सक्तं शुश्रूषुमनसूयकम् / / 34 इत्युक्त्वान्तर्हितं तद्वै शक्रं चावविशत्प्रभो // 47 धर्मात्मानं जितक्रोधं संयतं संयतेन्द्रियम् / तस्मिंस्तेजसि याते तु तादृपस्ततोऽपरः / समाचिन्वन्ति शास्तारः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः॥३५ शरीरान्निःसृतस्तस्य को भवानिति चाब्रवीत् // 48 सोऽहं वागापिष्टानां रसानामवलेहिता / धर्म प्रह्लाद मां विद्धि यत्रासौ द्विजसत्तमः / स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः // 36 तत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतः शीलं ततो ह्यहम् // 49 एतत्पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम् / ततोऽपरो महाराज प्रज्वलन्निव तेजसा / यद्ब्राह्मणमुखे कव्यमेतच्छ्रुत्वा प्रवर्तते // 37 शरीरान्निःसृतस्तस्य प्रहादस्य महात्मनः // 50 धृतराष्ट्र उवाच / को भवानिति पृष्ठश्च तमाह स महाद्युतिः / एतावच्छ्रेय इत्याह प्रह्लादो ब्रह्मवादिनम् / सत्यमस्म्यसुरेन्द्राग्र्य यास्येऽहं धर्ममन्विह // 51 शुश्रूषितस्तेन तदा दैत्येन्द्रो वाक्यमब्रवीत् // 38 तस्मिन्ननुगते धर्म पुरुष पुरुषोऽपरः / यथावद्गुरुवृत्त्या ते प्रीतोऽस्मि द्विजसत्तम।। निश्चक्राम ततस्तस्मात्पृष्टश्चाह महात्मना / वरं वृणीष्व भद्रं ते प्रदातास्मि न संशयः // 39 / वृत्तं प्रह्लाद मां विद्धि यतः सत्यं ततो ह्यहम् // 52 कृतमित्येव दैत्येन्द्रमुवाच स च वै द्विजः / तस्मिन्गते महाश्वेतः शरीरात्तस्य निर्ययौ। प्रह्लादस्त्वब्रवीत्प्रीतो गृह्यतां वर इत्युत / / 40 पृष्टश्चाह बलं विद्धि यतो वृत्तमहं ततः / म. भा. 270 -2153 - Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 124. 53] महाभारते [12. 125.9 इत्युक्त्वा च ययौ तत्र यतो वृत्तं नराधिप // 53 यद्यप्यशीला नृपते प्राप्नुवन्ति क्वचिच्छ्रियम् / ततः प्रभामयी देवी शरीरात्तस्य निर्ययौ। न भुञ्जते चिरं तात समूलाश्च पतन्ति ते // 67 तामपृच्छत्स दैत्येन्द्रः सा श्रीरित्येवमब्रवीत् // 54 एतद्विदित्वा तत्त्वेन शीलवान्भव पुत्रक / उषितास्मि सुखं वीर त्वयि सत्यपराक्रमे / यदीच्छसि श्रियं तात सुविशिष्टां युधिष्ठिरात् // 68 त्वया त्यक्ता गमिष्यामि बलं यत्र ततो ह्यहम् // 55 भीष्म उवाच / ततो भयं प्रादुरासीत्प्रहादस्य महात्मनः / एतत्कथितवान्पुत्रे धृतराष्ट्रो नराधिप / अपृच्छत च तां भूयः क यासि कमलालये // 56 / एतत्कुरुष्व कौन्तेय ततः प्राप्स्यसि तत्फलम् // 69 त्वं हि सत्यव्रता देवी लोकस्य परमेश्वरी / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कश्चासौ ब्राह्मणश्रेष्ठस्तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् // 57 चतुर्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 124 // श्रीरुवाच / 125 . . स शक्रो ब्रह्मचारी च यस्त्वया चोपशिक्षितः / युधिष्ठिर उवाच। त्रैलोक्ये ते यदैश्वर्यं तत्तेनापहृतं प्रभो // 58 / शीलं प्रधानं पुरुषे कथितं ते पितामह / शीलेन हि त्वया लोकाः सर्वे धर्मज्ञ निर्जिताः / कथमाशा समुत्पन्ना या च सा तद्वदस्व मे // 1 तद्विज्ञाय महेन्द्रेण तव शीलं हृतं प्रभो // 59 संशयो मे महानेष समुत्पन्नः पितामह / धर्मः सत्यं तथा वृत्तं बलं चैव तथा ह्यहम् / / छेत्ता च तस्य नान्योऽस्ति त्वत्तः परपुरंजय // 2 शीलमूला महाप्राज्ञ सदा नास्त्यत्र संशयः // 60 पितामहाशा महती ममासीद्धि सुयोधने / भीष्म उवाच / प्राप्ते युद्धे तु यद्युक्तं तत्कर्तायमिति प्रभो॥ 3 एवमुक्त्वा गता तु श्रीस्ते च सर्वे युधिष्ठिर / सर्वस्याशा सुमहती पुरुषस्योपजायते / दुर्योधनस्तु पितरं भूय एवाब्रवीदिदम् // 61 तस्यां विहन्यमानायां दुःखो मृत्युरसंशयम् // 4 शीलस्य तत्त्वमिच्छामि वेत्तुं कौरवनन्दन / सोऽहं हताशो दुर्बुद्धिः कृतस्तेन दुरात्मना / प्राप्यते च यथा शीलं तमुपायं वदस्व मे / / 62 धार्तराष्ट्रेण राजेन्द्र पश्य मन्दात्मतां मम // 5 धृतराष्ट्र उवाच / आशां महत्तरां मन्ये पर्वतादपि सद्रुमात् / सोपायं पूर्वमुद्दिष्टं प्रह्लादेन महात्मना / आकाशादपि वा राजन्नप्रमेयैव वा पुनः // 6 संक्षेपतस्तु शीलस्य शृणु प्राप्तिं नराधिप / / 63 एषा चैव कुरुश्रेष्ठ दुर्विचिन्त्या सुदुर्लभा / अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। दुर्लभत्वाच्च पश्यामि किमन्यहुर्लभं ततः // 7 अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत्प्रशस्यते // 64 भीष्म उवाच / यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम् / अत्र ते वर्तयिष्यामि युधिष्ठिर निबोध तत् / अपत्रपेत वा येन न तत्कुर्यात्कथंचन // 65 इतिहासं सुमित्रस्य निवृत्तमृषभस्य च // 8 तत्तु कर्म तथा कुर्याद्येन श्लाघेत संसदि / सुमित्रो नाम राजर्षिहहयो मृगयां गतः / एतच्छीलं समासेन कथितं कुरुसत्तम / 66 / ससार स मृगं विद्या बाणेन नतपर्वणा // 9 -2154 - Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 125. 10] शान्तिपर्व [12. 126. 1 स मृगो बाणमादाय ययावमितविक्रमः / आचख्यौ तद्यथान्यायं परिचयां च भारत // 24 स च राजा बली तूर्ण ससार मृगमन्तिकात्॥१० हैहयानां कुले जातः सुमित्रो मित्रनन्दनः / ततो निम्नं स्थलं चैव स मृगोऽद्रवदाशुगः / चरामि मृगयूथानि निघ्नन्बाणैः सहस्रशः / मुहूर्तमेव राजेन्द्र समेन स पथागमत् // 11 बलेन महता गुप्तः सामात्यः सावरोधनः // 25 ततः स राजा तारुण्यादौरसेन बलेन च। मृगस्तु विद्धो बाणेन मया सरति शल्यवान् / ससार बाणासनभृत्सखड्गो हंसवत्तदा // 12 तं द्रवन्तमनु प्राप्तो वनमेतद्यदृच्छया / तीर्खा नदान्नदीश्चैव पल्वलानि वनानि च / भवत्सकाशे नष्टश्रीहताशः श्रमकर्शितः // 26 अतिक्रम्याभ्यतिक्रम्य ससारैव वने चरन् / 13 किं नु दुःखमतोऽन्यद्वै यदहं श्रमकर्शितः / स तु कामान्मृगो राजन्नासाद्यासाद्य तं नृपम् / भवतामाश्रमं प्राप्तो हताशो नष्टलक्षणः // 27 पुनरभ्येति जवनो जवेन महता ततः // 14 न राज्यलक्षणत्यागो न पुरस्य तपोधनाः / स तस्य बाणैर्बहुभिः समभ्यस्तो वनेचरः / दुःखं करोति तत्तीवं यथाशा विहता मम // 28 प्रक्रीडग्निव राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् // 15 हिमवान्वा महाशैलः समुद्रो वा महोदधिः / पुनश्च जवमास्थाय जवनो मृगयूथपः / महत्त्वान्नान्वपद्यतां रोदस्योरन्तरं यथा / अतीत्यातीत्य राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् // 16 आशायास्तपसि श्रेष्टास्तथा नान्तमहं गतः // 29 तस्य मर्मच्छिदं घोरं सुमित्रोऽमित्रकर्शनः / भवतां विदितं सर्वं सर्वज्ञा हि तपोधनाः / समादाय शरश्रेष्ठं कार्मुकान्निरवासृजत् // 17 / / भवन्तः सुमहाभागास्तस्मात्प्रक्ष्यामि संशयम् // 30 ततो गव्यूतिमात्रेण मृगयूथपयूथपः / आशावान्पुरुषो यः स्यादन्तरिक्षमथापि वा / तस्य बाणपथं त्यक्त्वा तस्थिवान्प्रहसन्निव // 18 किं नु ज्यायस्तरं लोके महत्त्वात्प्रतिभाति वः / तस्मिन्निपतिते वाणे भूमौ प्रज्वलिते ततः / एतदिच्छामि तत्त्वेन श्रोतुं किमिह दुर्लभम् // 31 प्रविवेश महारण्यं मृगो राजाप्यथाद्रवत् // 19 यदि गुह्यं तपोनित्या न वो ब्रूतेह माचिरम् / प्रविश्य तु महारण्यं तापसानामथाश्रमम् / न हि गुह्यमतः श्रोतुमिच्छामि द्विजपुंगवाः // 32 आससाद ततो राजा श्रान्तश्चोपाविशत्पुनः // 20 भवत्तपोविघातो वा येन स्थाद्विरमे ततः / तं कार्मुकधरं दृष्ट्वा श्रमात क्षुधितं तदा। यदि वास्ति कथायोगो योऽयं प्रश्नो मयेरितः॥३३ समेत्य ऋषयस्तस्मिन्पूजां चक्रुर्यथाविधि // 21 एतत्कारणसामग्र्यं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। ऋषयो राजशार्दूलमपृच्छन्वं प्रयोजनम् / भवन्तो हि तपोनित्या ब्रूयुरेतत्समाहिताः // 34 केन भद्रमुखार्थेन संप्राप्तोऽसि तपोवनम् / / 22 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशो धन्वी बाणी नरेश्वर / पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 125 // एतदिच्छाम विज्ञातुं कुतः प्राप्तोऽसि मानद। 126 कस्मिन्कुले हि जातस्त्वं किं नामासि ब्रवीहि नः।।२३ भीष्म उवाच / ततः स राजा सर्वेभ्यो द्विजेभ्यः पुरुषर्षभ। / ततस्तेषां समस्तानामृषीणाभृषिसत्तमः / -2155 - Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 126. 1] महाभारते [12. 126. 30 D ऋषभो नाम विप्रर्षिः स्मयन्निव ततोऽब्रवीत् // 1 एकः पुत्रो महारण्ये नष्ट इत्यसकृत्तदा // 16 पुराहं राजशार्दूल तीर्थान्यनुचरन्प्रभो / दुर्लभः स मया द्रष्टुमाशा च महती मम / समासादितवान्दिव्यं नरनारायणाश्रमम् // 2 तया परीतगात्रोऽहं मुमूर्षुर्नात्र संशयः // 17 यत्र सा बदरी रम्या हृदो वैहायसस्तथा। . एतच्छ्रुत्वा स भगवांस्तनुर्मुनिवरोत्तमः / यत्र चाश्वशिरा राजन्वेदान्पठति शाश्वतान् // 3 अवाक्शिरा ध्यानपरो मुहूर्तमिव तस्थिवान् // 18 तस्मिन्सरसि कृत्वाहं विधिवतर्पणं पुरा / तमनुध्यान्तमालक्ष्य राजा परमदुर्मनाः / पितॄणां देवतानां च ततोऽऽश्रममियां तदा // 4 उवाच वाक्यं दीनात्मा मन्दं मन्दमिवासकृत् // 19 रेमाते यत्र तौ नित्यं नरनारायणावृषी / दुर्लभं किं नु विप्रर्षे आशायाश्चैव किं भवेत् / अदूरादाश्रमं कंचिद्वासार्थमगमं ततः // 5 ब्रवीतु भगवानेतद्यदि गुह्यं न तन्मयि // 20 / ततश्चीराजिनधरं कृशमुच्चमतीव च / महर्षिभगवांस्तेन पूर्वमासीद्विमानितः / . अद्राक्षमृषिमायान्तं तनुं नाम तपोनिधिम् / / 6 बालिशा बुद्धिमास्थाय मन्दभाग्यतयात्मनः // 21 अन्यैर्नरैर्महाबाहो वपुषाष्टगुणान्वितम् / अर्थयन्कलशं राजन्काञ्चनं वल्कलानि च। कृशता चापि राजर्षे न दृष्टा तादृशी कचित् // 7 निर्विण्णः स तु विप्रर्षिनिराशः समपद्यत // 22 शरीरमपि राजेन्द्र तस्य कानिष्ठिकासमम् / एवमुक्त्वाभिवाद्याथ तमृषि लोकपूजितम् / ग्रीवा बाहू तथा पादौ केशाश्चाद्भुतदर्शनाः // 8 श्रान्तो न्यषीदद्धर्मात्मा यथा त्वं नरसत्तम // 23. शिरः कायानुरूपं च कर्णौ नेत्रे तथैव च। अयं ततः समानीय पाद्यं चैव महानृषिः / तस्य वाक्चैव चेष्टा स सामान्ये राजसत्तम / / 9 आरण्यकेन विधिना राज्ञे सर्व न्यवेदयत् // 24 दृष्ट्वाहं तं कृशं विप्रं भीतः परमदुर्मनाः / ततस्ते मुनयः सर्वे परिवार्य नरर्षभम् / पादौ तस्याभिवाद्याथ स्थितः प्राञ्जलिरप्रतः // 10 उपाविशन्पुरस्कृत्य सप्तर्षय इव ध्रुवम् // 25 निवेद्य नाम गोत्रं च पितरं च नरर्षभ / अपृच्छंश्चैव ते तत्र राजानमपराजितम् / प्रदिष्टे चासने तेन शनैरहमुपाविशम् / / 11 प्रयोजनमिदं सर्वमाश्रमस्य प्रवेशनम् / / 26 ततः स कथयामास कथा धर्मार्थसंहिताः / . राजोवाच / ऋषिमध्ये महाराज तत्र धर्मभृतां वरः // 12 वीरद्युम्न इति ख्यातो राजाहं दिक्षु विश्रुतः / तस्मिंस्तु कथयत्येव राजा राजीवलोचनः / भूरिद्युम्नं सुतं नष्टमन्वेष्टुं वनमागतः // 27 उपायाज्जवनैरश्वैः सबलः सावरोधनः // 13 एकपुत्रः स विप्राय बाल एव च सोऽनघ / स्मरन्पुत्रमरण्ये वै नष्टं परमदुमनाः / न दृश्यते वने चास्मिंस्तमन्वेष्टुं चराम्यहम् // 28 भूरिद्युम्नपिता धीमान्रघुश्रेष्ठो महायशाः // 14 ऋषभ उवाच / इह द्रक्ष्यामि तं पुत्रं द्रक्ष्यामीहेति पार्थिवः / एवमुक्ते तु वचने राज्ञा मुनिरधोमुखः / एवमाशाकृतो राजंश्चरन्वनमिदं पुरा // 15 तूष्णीमेवाभवत्तत्र न च प्रत्युक्तवान्नृपम् // 29 दर्लभः स मया दृष्टं ननं परमधार्मिकः। स हि तेन पुरा विप्रो राज्ञा नात्यर्थमानितः। . -2156 - Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 126. 30] शान्तिपर्व [12. 127.1 आशाकृशं च राजेन्द्र तपो दीर्घ समास्थितः // 30 ऋषभ उवाच / प्रतिग्रहमहं राज्ञां न करिष्ये कथंचन / एतच्छ्रुत्वा ततो राजन्स राजा सावरोधनः / अन्येषां चैव वर्णानामिति कृत्वा धियं तदा // 31 - संस्पृश्य पादौ शिरसा निपपात द्विजर्षभे // 43 . आशा हि पुरुषं बालं लालापयति तस्थुषी / राजोवाच / तामहं व्यपनेष्यामि इति कृत्वा व्यवस्थितः // 32 / प्रसादये त्वा भगवन्पुत्रेणेच्छामि संगतिम् / राजोवाच / वृणीष्व च वरं विप्र यमिच्छसि यथाविधि // 44 आशायाः किं कृशत्वं च किं चेह भुवि दुर्लभम् / ऋषभ उवाच। ब्रवीतु भगवानेतत्त्वं हि धर्मार्थदर्शिवान् // 33 अब्रवीच्च हि तं वाक्यं राजा राजीवलोचनः / ऋषभ उवाच / सत्यमेतद्यथा विप्र त्वयोक्तं नास्त्यतो मृषा // 45 ततः प्रहस्य भगवांस्तनुर्धर्मभृतां वरः / ततः संस्मृत्य तत्सर्व स्मारयिष्यन्निवाब्रवीत् / पुत्रमस्यानयत्क्षिप्रं तपसा च श्रुतेन च // 46 राजानं भगवान्विप्रस्ततः कृशतनुस्तनुः // 34 तं समानाय्य पुत्रं तु तदोपालभ्य पार्थिवम् / कृशत्वे न समं राजन्नाशाया विद्यते नृप। आत्मानं दर्शयामास धर्म धर्मभृतां वरः // 47 तस्या वै दुर्लभत्वात्तु प्रार्थिताः पार्थिवा मया // 35 संदर्शयित्वा चात्मानं दिव्यमद्भुतदर्शनम् / राजोवाच / विपाप्मा विगतक्रोधश्चचार वनमन्तिकात् // 48 कृशाकृशे मया ब्रह्मन्गृहीते वचनात्तव / / एतदृष्टं मया राजंस्ततश्च वचनं श्रुतम् / दुर्लभत्वं च तस्यैव वेदवाक्यमिव द्विज // 36 आशामपनयस्वाशु ततः कृशतरीमिमाम् // 49 संशयस्तु महाप्राज्ञ संजातो हृदये मम। भीष्म उवाच / तन्मे सत्तम तत्त्वेन वक्तुमर्हसि पृच्छतः // 37 / - स तत्रोक्तो महाराज ऋषभेण महात्मना / त्वत्तः कृशतरं किं नु ब्रवीतु भगवानिदम् / सुमित्रोऽपनयत्क्षिप्रमाशां कृशतरी तदा // 50 यदि गुह्यं न ते विप्र लोकेऽस्मिन्कि नु दुर्लभम्॥३८ एवं त्वमपि कौन्तेय श्रुत्वा वाणीमिमां मम / - कृशतनुरुवाच। स्थिरो भव यथा राजन्हिमवानचलोत्तमः // 51 दुर्लभोऽप्यथ वा नास्ति योऽर्थी धृतिमवाप्नुयात् / त्वं हि द्रष्टा च श्रोता च कृच्छ्रेष्वर्थकृतेष्विह / सुदुर्लभतरस्तात योऽर्थिनं नावमन्यते // 39 / / श्रुत्वा मम महाराज न संतप्तुमिहार्हसि // 52 संश्रुत्य नोपक्रियते परं शक्त्या यथार्हतः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सक्ता या सर्वभूतेषु साशा कृशतरी मया // 40 षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 126 // एकपुत्रः पिता पुत्रे नष्टे वा प्रोषिते तथा / 127 प्रवृत्ति यो न जानाति साशा कृशतरी मया // 41 युधिष्ठिर उवाच / प्रसवे चैव नारीणां वृद्धानां पुत्रकारिता। | नामृतस्येव पर्याप्तिर्ममास्ति ब्रुवति त्वयि / तथा नरेन्द्र धनिनामाशा कृशतरी मया // 42 / तस्मात्कथय भूयस्त्वं धर्ममेव पितामह // 1 -2157 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 127. 2] महाभारते [ 12. 128. 16 भीष्म उवाच / परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / असंविहितराष्ट्रस्य देशकालावजानतः // 3 गौतमस्य च संवादं यमस्य च महात्मनः // 2 अप्राप्यं च भवेत्सान्त्वं भेदो वाप्यतिपीडनात् / पारियात्रगिरि प्राप्य गौतमस्याश्रमो महान् / जीवितं चार्थहेतोर्वा तत्र किं सुकृतं भवेत् // 4 उवास गौतमो यत्र कालं तदपि मे शृणु // 3 भीष्म उवाच / षष्टिं वर्षसहस्राणि सोऽतप्यद्गौतमस्तपः / गुह्यं मा धर्ममप्राक्षीरतीव भरतर्षभ। तमुप्रतपसं युक्तं तपसा भावितं मुनिम् // 4 अपृष्टो नोत्सहे वक्तुं धर्ममेनं युधिष्ठिर // 5 उपयातो नरव्याघ्र लोकपालो यमस्तदा / धर्मो ह्यणीयान्वचनाद्बुद्धेश्च भरतर्षभ / तमपश्यत्सुतपसमृषि वै गौतमं मुनिम् // 5 श्रुत्वोपास्य सदाचारैः साधुर्भवति स क्वचित् // 6 स तं विदित्वा ब्रह्मर्षिर्यममागतमोजसा / कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्याढ्यो न वा पुनः / प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा उपसृप्तस्तपोधनः // 6 तादृशोऽयमनुप्रश्नः स व्यवस्यस्त्वया धिया // 7 तं धर्मराजो दृष्ट्वैव नमस्कृत्य नरर्षभम् / उपायं धर्मबहुलं यात्रार्थ शृणु भारत / न्यमन्त्रयत धर्मेण क्रियतां किमिति ब्रुवन् // 7 नाहमेतादृशं धर्म बुभूषे धर्मकारणात् / ___ गौतम उवाच / दुःखादान इहाव्येषु स्यात्तु पश्चात्क्षमो मतः॥ 8 मातापितृभ्यामानृण्यं किं कृत्वा समवाप्नुयात् / अनुगम्य गतीनां च सर्वासामेव निश्चयम् / यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते / कथं च लोकानश्नाति पुरुषो दुर्लभाञ्शुभान् / / 8 तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते // 9 यम उवाच। अविज्ञानादयोगश्च पुरुषस्योपजायते / तपःशौचवता नित्यं सत्यधर्मरतेन च। अविज्ञानादयोगो हि योगो भूतिकरः पुनः // 10 मातापित्रोरहरहः पूजनं कार्यमञ्जसा // 9 अशङ्कमानो वचनमनसूयुरिदं शृणु / अश्वमेधैश्च यष्टव्यं बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः / राज्ञः कोशक्षयादेव जायते बलसंक्षयः // 11 तेन लोकानुपानाति पुरुषोऽद्भुतदर्शनान् // 10 कोशं संजनयेद्राजा निर्जलेभ्यो यथा जलम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कालं प्राप्यानुगृह्णीयादेष धर्मोऽत्र सांप्रतम् // 12 सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 127 // उपायधर्म प्राप्यैनं पूर्वैराचरितं जनैः / 128 अन्यो धर्मः समर्थानामापत्स्वन्यश्च भारत // 13 युधिष्ठिर उवाच। प्राक्कोशः प्रोच्यते धर्मो बुद्धिर्धर्माद्रीयसी। मित्रैः प्रहीयमाणस्य बह्वमित्रस्य का गतिः।। धर्म प्राप्य न्यायवृत्तिमबलीयान्न विन्दति // 14 राज्ञः संक्षीणकोशस्य बलहीनस्य भारत // 1 यस्माद्धनस्योपपत्तिरेकान्तेन न विद्यते। दुष्टामात्यसहायस्य स्रुतमत्रस्य सर्वतः / तस्मादापद्यधर्मोऽपि श्रूयते धर्मलक्षणः // 15 राज्यात्प्रच्यवमानस्य गतिमन्यामपश्यतः // 2 / अधर्मो जायते यस्मिन्निति वै कवयो विदुः / -2158 - Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 128. 16 ] शान्तिपर्व [12. 128. 45 अनन्तरः क्षत्रियस्य इति वै विचिकित्ससे / / 16 / / राष्ट्रेण राजा व्यसने परिरक्ष्यस्तथा भवेत् // 31 यथास्य धर्मो न ग्लायेन्नेयाच्छत्रुवशं यथा। कोशं दण्डं बलं मित्रं यदन्यदपि संचितम् / तत्कर्तव्यमिहेत्याहु त्मानमवसादयेत् // 17 न कुर्वीतान्तरं राष्ट्र राजा परिगते क्षुधा / 32 सन्नात्मा नैव धर्मस्य न परस्य न चात्मनः / बीजं भक्तेन संपाद्यमिति धर्मविदो विदुः / सर्वोपायरुज्जिहीर्षेदात्मानमिति निश्चयः // 18 अत्रैतच्छम्बरस्याहुमहामायस्य दर्शनम् // 33 तत्र धर्मविदां तात निश्चयो धर्मनैपुणे / धिक्तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रे यस्यावसीदति / उद्यमो जीवनं क्षत्रे बाहुवीर्यादिति श्रुतिः / / 19 अवृत्त्यान्त्यमनुष्योऽपि यो वै वेद शिबेर्वचः // 34 क्षत्रियो वृत्तिसंरोधे कस्य नादातुमर्हति / राज्ञः कोशबलं मूलं कोशमूलं पुनर्बलम् / अन्यत्र तापसस्वाच्च ब्राह्मणस्वाच्च भारत // 20 तन्मूलं सर्वधर्माणां धर्ममूलाः पुनः प्रजाः // 35 यथा वै ब्राह्मणः सीदन्नयाज्यमपि याजयेत् / नान्यानपीडयित्वेह कोशः शक्यः कुतो बलम् / अभोज्यान्नानि चाश्नीयात्तथेदं नात्र संशयः // 21 तदर्थं पीडयित्वा च दोषं न प्राप्तुमर्हति / / 36 पीडितस्य किमद्वारमुत्पथो निधृतस्य वा। अकार्यमपि यज्ञार्थं क्रियते यज्ञकर्मसु / अद्वारतः प्रद्रवति यदा भवति पीडितः // 22 एतस्मात्कारणाद्राजा न दोषं प्राप्तुमर्हति // 37 तस्य कोशबलज्यान्या सर्वलोकपराभवः / अर्थार्थमन्यद्भवति विपरीतमथापरम् / भैक्षचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका // 23 अनर्थार्थमथाप्यन्यत्तत्सर्वं ह्यर्थलक्षणम् / स्वधर्मानन्तरा वृत्तिर्यान्याननुपजीवतः / एवं बुद्ध्या संप्रपश्येन्मेधावी कार्यनिश्चयम् / / 38 वहतः प्रथमं कल्पमनुकल्पेन जीवनम् / / 24 यज्ञार्थमन्यद्भवति यज्ञे नार्थस्तथापरः। आपद्गतेन धर्माणामन्यायेनोपजीवनम् / यज्ञस्यार्थार्थमेवान्यत्तत्सर्वं यज्ञसाधनम् / / 39 अपि ह्येतद्ब्राह्मणेषु दृष्टं वृत्तिपरिक्षये // 25 उपमामत्र वक्ष्यामि धर्मतत्त्वप्रकाशिनीम् / क्षत्रिये संशयः कः स्यादित्येतन्निश्चितं सदा। यूपं छिन्दन्ति यज्ञार्थ तत्र ये परिपन्थिनः॥ 40 आददीत विशिष्टेभ्यो नावसीदेत्कथंचन / / 26 द्रुमाः केचन सामन्ता ध्रुवं छिन्दन्ति तानपि / हन्तारं रक्षितारं च प्रजानां क्षत्रियं विदुः। ते चापि निपतन्तोऽन्यान्निघ्नन्ति च वनस्पतीन् // 41 तस्मात्संरक्षता कार्यमादानं क्षत्रबन्धुना / / 27 एवं कोशस्य महतो ये नराः परिपन्थिनः / अन्यत्र राजन्हिसाया वृत्तिर्नेहास्ति कस्यचित् / तानहत्वा न पश्यामि सिद्धिमत्र परंतप // 42 अप्यरण्यसमुत्थस्य एकस्य चरतो मुनेः / / 28 धनेन जयते लोकावुभौ परमिमं तथा / न शङ्खलिखितां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम् / सत्यं च धर्मवचनं यथा नास्त्यधनस्तथा // 43 विशेषतः कुरुश्रेष्ठ प्रजापालनमीप्सता // 29 सर्वोपायराददीत धनं यज्ञप्रयोजनम् / परस्पराभिसंरक्षा राज्ञा राष्ट्रेण चापदि / न तुल्यदोषः स्यादेवं कार्याकार्येषु भारत // 44 नित्यमेवेह कर्तव्या एष धर्मः सनातनः / / 30 नेतौ संभवतो राजन्कथंचिदपि भारत / राजा राष्ट्रं यथापत्सु द्रव्यौघैः परिरक्षति / न ह्यरण्येषु पश्यामि धनवृद्धानहं कचित् // 45 -2159 - Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 128. 46 ] महाभारते [12. 130.5 129 यदिदं दृश्यते वित्तं पृथिव्यामिह किंचन / अवरोधाज्जुगुप्सेत का सपत्नधने दया / ममेदं स्यान्ममेदं स्यादित्ययं काश्ते जनः // 46 न त्वेवात्मा प्रदातव्यः शक्ये सति कथंचन // 8 न च राज्यसमो धर्मः कश्चिदस्ति परंतप / युधिष्ठिर उवाच / धर्म शंसन्ति ते राज्ञामापदर्थमितोऽन्यथा // 47 आभ्यन्तरे प्रकुपिते बाह्ये चोपनिपीडिते। दानेन कर्मणा चान्ये तपसान्ये तपस्विनः / क्षीणे कोशे झुते मत्रे किं कार्यमवशिष्यते // 9 बुद्ध्या दाक्ष्येण चाप्यन्ये चिन्वन्ति धनसंचयान् // __भीष्म उवाच / अधनं दुर्बलं प्राहुर्धनेन बलवान्भवेत् / क्षिप्रं वा संधिकामः स्यात्क्षिप्रं वा तीक्ष्णविक्रमः / सर्व धनवतः प्राप्यं सर्वं तरति कोशवान् / पदापनयनं क्षिप्रमेतावत्सांपरायिकम् // 10 कोशाद्धर्मश्च कामश्च परो लोकस्तथाप्ययम् // 49 अनुरक्तेन पुष्टेन हृष्टेन जगतीपते।। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अल्पेनापि हि सैन्येन महीं जयति पार्थिवः // 11 अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 128 // हतो वा दिवमारोहेद्विजयी क्षितिमावसेत् / ॥समाप्तं राजधर्मपर्व // युद्धे तु संत्यजन्प्राणाशक्रस्यैति सलोकताम् // 12 सर्वलोकागमं कृत्वा मृदुत्वं गन्तुमेव च / युधिष्ठिर उवाच। विश्वासाद्विनयं कुर्याद्वयवस्येद्वाप्युपानहौ // 13 क्षीणस्य दीर्घसूत्रस्य सानुक्रोशस्य बन्धुषु / अपक्रमितुमिच्छेद्वा यथाकामं तु सान्त्वयेत् / विरक्तपौरराष्ट्रस्य निद्रव्यनिचयस्य च // 1 विलिङ्गमित्वा मित्रेण ततः स्वयमुपक्रमेत् // 14 परिशङ्कितमुख्यस्य स्रुतमन्त्रस्य भारत / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि असंभावितमित्रस्य भिन्नामात्यस्य सर्वशः / / 2 एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 129 // परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा / आपन्नचेतसो ब्रूहि किं कार्यमवशिष्यते // 3 युधिष्ठिर उवाच / ___भीष्म उवाच / हीने परमके धर्मे सर्वलोकातिलचिनि / बाह्यश्चेद्विजिगीषुः स्याद्धर्मार्थकुशलः शुचिः / सर्वस्मिन्दस्युसाद्भुते पृथिव्यामुपजीवने // 1 जवेन संधिं कुर्वीत पूर्वान्पूर्वान्धिमोक्षयन् // 4 केनास्मिन्ब्राह्मणो जीवेजघन्ये काल आगते / अधर्मविजिगीषुश्चेद्बलवान्पापनिश्चयः। असंत्यजन्पुत्रपौत्राननुक्रोशात्पितामह // 2 आत्मनः संनिरोधेन संधिं तेनाभियोजयेत् // 5 भीष्म उवाच / अपास्य राजधानी वा तरेदन्येन वापदम् / विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं तथागते / तद्भावभावे द्रव्याणि जीवन्पुनरुपार्जयेत् // 6 सर्वं साध्वर्थमेवेदमसाध्वर्थं न किंचन // 3 यास्तु स्युः केवलत्यागाच्छक्यास्तरितुमापदः / असाधुभ्यो निरादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति / कस्तत्राधिकमात्मानं संत्यजेदर्थधर्मवित् // 7 आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृत्स्नधर्मविदेव सः // 4 -2160 - Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 130. 5] शान्तिपर्व [ 12. 131. 10 सुरोपेणात्मनो राजनराज्ये स्थितिमकोपयन / यश्चतुर्गुणसंपन्नं धर्म वेद स धर्मवित् / अदत्तमप्याददीत दातुर्वित्तं ममेति वा // 5 अहेरिव हि धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम् // 19 विज्ञानवलपूतो यो वर्तते निन्दितेष्वपि / यथा मृगस्य विद्धस्य मृगव्याधः पदं नयेत् / वृत्तविज्ञानवान्धीरः कस्तं किं वक्तुमर्हसि // 6 कक्षे रुधिरपातेन तथा धर्मपदं नयेत् / / 20 येषां बल कृता वृत्तिनॆषामन्याभिरोचते / एवं सद्भिविनीतेन पथा गन्तव्यमच्युत / तेजसाभिप्रवर्धन्ते बलवन्तो युधिष्ठिर // 7 राजर्षीणां वृत्तमेतदवगच्छ युधिष्ठिर // 21 यदेव प्रकृतं शास्त्रमविशेषेण विन्दति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तदेव मध्याः सेवन्ते मेधावी चाप्यथोत्तरम् / / 8 त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 130 // ऋत्यिकपुरोहिताचार्यान्सत्कृतैरभिपूजितान् / न ब्राह्मणान्यातयेत दोषान्प्राप्नोति यातयन् // 9 भीष्म उवाच। एतत्प्रमाणं लोकस्य चक्षुरेतत्सनातनम् / स्वराष्ट्रात्परराष्ट्राच्च कोशं संजनयेनन्नपः / तत्प्रमाणोऽवगाहेत तेन तत्साध्वसाधु वा // 10 कोशाद्धि धर्मः कौन्तेय राज्यमूलः प्रवर्तते // 1 बहूनि प्रामवास्तव्या रोषाद्र्युः परस्परम् / तस्मात्संजनयेत्कोशं संहृत्य परिपालयेत् / न तेषां बचनाद्राजा सत्कुर्याद्यातयेत वा // 11 परिपाल्यानुगृह्णीयादेष धर्मः सनातनः // 2 न वाच्यः परिवादो वै न श्रोतव्यः कथंचन / न कोशः शुद्धशौचेन न नृशंसेन जायते / कर्णावेव पिधातव्यौ प्रस्थेयं वा ततोऽन्यतः // 12 पदं मध्यममास्थाय कोशसंग्रहणं चरेत् // 3 न वै सतां वृत्तमेतत्परिवादो न पैशुनम् / अबलस्य कुतः कोशो ह्यकोशस्य कुतो बलम् / गुणानामेव वक्तारः सन्तः सत्सु युधिष्ठिर // 13 अबलस्य कुतो राज्यमराज्ञः श्रीः कुतो भवेत् // 4 यथा समधुरौ दम्यौ सुदान्तौ साधुवाहिनौ / उच्चैवृत्तः श्रियो हानिर्यथैव मरणं तथा / घुरमुद्यम्य वहतस्तथा वर्तेत वै नृपः / / तस्मात्कोशं बलं मित्राण्यथ राजा विवर्धयेत् // 5 यथा यथास्य वहतः सहायाः स्युस्तथापरे // 14 हीनकोशं हि राजानमवजानन्ति मानवाः / पाचारमेव मन्यन्ते गरीयो धर्मलक्षणम् / न चास्याल्पेन तुष्यन्ति कार्यमभ्युत्सहन्ति च // 6 अपरे नैवमिच्छन्ति ये शङ्खलिखितप्रियाः / श्रियो हि कारणाद्राजा सस्त्रियां लभते पराम् / मार्दवादथ लोभाद्वा ते ब्रूयुर्वाक्यमीदृशम् // 15 सास्य गृहति पापानि वासो गुह्यमिव स्त्रियाः // 7 पार्षमप्यत्र पश्यन्ति विकर्मस्थस्य यापनम् / ऋद्धिमस्यानुवर्तन्ते पुरा विप्रकृता जनाः / न चार्षात्सदृशं किंचित्प्रमाणं विद्यते क्वचित् // 16 शालावृका इवाजलं जिघांसूनिव विन्दति / देवा अपि विकर्मस्थं यातयन्ति नराधमम् / ईदृशस्य कुतो राज्ञः सुखं भरतसत्तम // 8 व्याजेन विन्दन्वित्तं हि धर्मात्तु परिहीयते // 17 उद्यच्छेदेव न ग्लायेदुद्यमो ह्येव पौरुषम् / सर्वतः सत्कृतः सद्भिभूतित्रभवकारणैः / अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित् // 9 हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं व्यवस्यति // 18 / अप्यरण्यं समाश्रित्य चरेर्दस्युगणैः सह / मा. 251 -216! - Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 131. 10] महाभारते [12. 132. 15 न त्वेवोद्धृतमर्यादैर्दस्युभिः सहितश्चरेत् / श्रियं बलममात्यांश्च बलवानिह विन्दति // 3 दस्यूनां सुलभा सेना रौद्रकर्मसु भारत // 10 यो ह्यनाढ्यः स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम् / एकान्तेन ह्यमर्यादात्सर्वोऽप्युद्विजते जनः। बह्वपथ्यं बलवति न किंचित्रायते भयात् // 4 दस्यवोऽप्युपशङ्कन्ते निरनुक्रोशकारिणः // 11 उभौ सत्याधिकारौ तौ त्रायेते महतो भयात् / स्थापयेदेव मर्यादां जनचित्तप्रसादिनीम् / अति धर्माद्वलं मन्ये बलाद्धर्मः प्रवर्तते // 5 अल्पाप्यथेह मर्यादा लोके भवति पूजिता // 12 / बले प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जङ्गमः / नायं लोकोऽस्ति न पर इति व्यवसितो जनः। / धूमो वायोरिव वशं बलं धर्मोऽनुवर्तते // 6 नालं गन्तुं च विश्वासं नास्तिके भयशङ्किनि // 13 अनीश्वरे बलं धर्मो द्रुमं वल्लीव संश्रिता / यथा सद्भिः परादानमहिंसा दस्युभिस्तथा / वश्यो बलवतां धर्मः सुखं भोगवतांमिव / अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु // 14 नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वं बलवतां शुचि // 7 अयुध्यमानस्य वधो दारामर्शः कृतघ्नता / दुराचारः क्षीणबलः परिमाणं नियच्छति / ब्रह्मवित्तस्य चादानं निःशेषकरणं तथा / अथ तस्मादुद्विजते सर्वो लोको वृकादिव / / 8 स्त्रिया मोषः परिस्थानं दस्युष्वेतद्विगर्हितम् // 15 अपध्वस्तो ह्यवमतो दुःखं जीवति जीवितम् / स एष एव भवति दस्युरेतानि वर्जयन् / जीवितं यदवक्षिप्तं यथैव मरणं तथा // 9 अभिसंदधते ये न विनाशायास्य भारत / यदेनमाहुः पापेन चारित्रेण विनिक्षतम् / नशेषमेवोपालभ्य न कुर्वन्तीति निश्चयः // 16 स भृशं तप्यतेऽनेन वाक्शल्येन परिक्षतः // 10 तस्मात्सशेषं कर्तव्यं स्वाधीनमपि दस्युभिः। अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिमोक्षणे / न बलस्थोऽहमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् // 17 | त्रयीं विद्यां निषेवेत तथोपासीत स द्विजान् // 11 सशेषकारिणस्तात शेषं पश्यन्ति सर्वतः / प्रसादयेन्मधुरया वाचाप्यथ च कर्मणा / निःशेषकारिणो नित्यमशेषकरणाद्भयम् // 18 महामनाश्चैव भवेद्विवहेच्च महाकुले // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इत्यस्मीति वदेदेवं परेषां कीर्तयन्गुणान् / एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 131 // जपेदुदकशीलः स्यात्पेशलो नातिजल्पनः // 13 ब्रह्मक्षत्रं संप्रविशेद्वहु कृत्वा सुदुष्करम् / भीष्म उवाच / उच्यमानोऽपि लोकेन बहु तत्तदचिन्तयन् // 14 अत्र कर्मान्तवचनं कीर्तयन्ति पुराविदः / अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतों भवेत् / प्रत्यक्षावेव धर्मार्थो क्षत्रियस्य विजानतः / सुखं वित्तं च भुञ्जीत वृत्तेनैतेन गोपयेत् / तत्र न व्यवधातव्यं परोक्षा धर्मयापना // 1 लोके च लभते पूजां परत्र च महाफलम् // 15 अधर्मो धर्म इत्येतद्यथा वृकपदं तथा। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्माधर्मफले जातु न ददर्शह कश्चन // 2 द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // // 132 बुभूषेदलवानेव सर्व बलवतो वशे / -2162 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 133. 1] शान्तिपर्व [12. 133. 26 133 सर्वथा स्त्री न हन्तव्या सर्वसत्त्वेषु युध्यता। भीष्म उवाच / नित्यं गोब्राह्मणे स्वस्ति योद्धव्यं च तदर्थतः // 14 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सस्यं च नापहन्तव्यं सीरविघ्नं च मा कृथाः / यथा दस्युः समर्यादः प्रेत्यभावे न नश्यति / / 1 / पूज्यन्ते यत्र देवाश्च पितरोऽतिथयस्तथा // 15 प्रहर्ता मतिमाशूरः श्रुतवाननृशंसवान् / सर्वभूतेष्वपि च वै ब्राह्मणो मोक्षमर्हति / रक्षन्नक्षयिणं धर्म ब्रह्मण्यो गुरुपूजकः // 2 कार्या चापचितिस्तेषां सर्वस्वेनापि या भवेत् // 16 निषाद्यां क्षत्रियाज्जातः क्षत्रधर्मानुपालकः / यस्य ह्येते संप्ररुष्टा मत्रयन्ति पराभवम् / कापव्यो नाम नैषादिर्दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान् // 3 न तस्य त्रिषु लोकेषु त्राता भवति कश्चन // 17 अरण्ये सायपूर्वाह्ने मृगयूथप्रकोपिता। यो ब्राह्मणान्परिभवेद्विनाशं वापि रोचयेत् / विधिज्ञो मृगजातीनां निपानानां च कोविदः // 4 सूर्योदय इवावश्यं ध्रुवं तस्य पराभवः // 18 सर्वकाननदेशज्ञः पारियात्रचरः सदा / इहैव फलमासीनः प्रत्याकाङ्क्षति शक्तितः / धर्मज्ञः सर्वभूतानाममोघेषुढढायुधः // 5 ये ये नो न प्रदास्यन्ति तांस्तान्सेनाभियास्यति॥१९ अप्यनेकशताः सेना एक एव जिगाय सः / शिष्ट्यथं विहितो दण्डो न वधार्थ विनिश्चयः / स वृद्धावन्धपितरौ महारण्येऽभ्यपूजयत् // 6 ये च शिष्टान्प्रबाधन्ते धर्मस्तेषां वधः स्मृतः // 20 मधुमांसैर्मूलफलैरन्नरुच्चावचैरपि / ये हि राष्ट्रोपरोधेन वृत्ति कुर्वन्ति केचन / सत्कृत्य भोजयामास सम्यक्परिचचार च // 7 तदेव तेऽनु मीयन्ते कुणपं कृमयो यथा // 21 आरण्यकान्प्रव्रजितान्ब्राह्मणान्परिपालयन् / ये पुनर्धर्मशास्त्रेण वर्तेरन्निह दस्यवः / अपि तेभ्यो मृगान्हत्वा निनाय च महावने // 8 अपि ते दस्यवो भूत्वा क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः / / 22 ये स्म न प्रतिगृह्णन्ति दस्युभोजनशङ्कया / भीष्म उवाच / तेषामासज्य गेहेषु काल्य एव स गच्छति // 9 तत्सर्वमुपचक्रुरते कापव्यस्यानुशासनम् / तं बहूनि सहस्राणि ग्रामणित्वेऽभिवविरे।। वृत्तिं च लेभिरे सर्वे पापेभ्यश्चाप्युपारमन् // 23 निर्मर्यादानि दस्यूनां निरनुक्रोशकारिणाम् / / 10 कापव्यः कर्मणा तेन महतीं सिद्धिमाप्तवान् / दस्यव ऊचुः। साधूनामाचरन्क्षेमं दस्यून्पापान्निवर्तयन् // 24 मुहूर्तदेशकालज्ञ प्राज्ञ शीलहढायुध / इदं कापव्यचरितं यो नित्यमनुकीर्तयेत् / प्रामणीभव नो मुख्यः सर्वेषामेव संमतः / / 11 / नारण्येभ्यः स भूतेभ्यो भयमार्छत्कदाचन // 25 यथा यथा वक्ष्यसि नः करिष्यामस्तथा तथा। भयं तस्य न मर्येभ्यो नामर्येभ्यः कथंचन / पालयास्मान्यथान्यायं यथा माता यथा पिता // 12 न सतो नासतो राजन्स ह्यरण्येषु गोपतिः // 26 कापव्य उवाच। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मा वधीस्त्वं स्त्रियं भीरं मा शिशुं मा तपस्विनम् / यात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 133 // नायुध्यमानो हन्तव्यो न च ग्राह्या बलास्नियः॥१३ - 2163 - Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 134. 1] महाभारते [ 12. 135. 17 134 भीष्म उवाच / अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। येन मार्गेण राजानः कोशं संजनयन्ति च // 1 न धनं यज्ञशीलानां हार्य देवस्वमेव तत् / दस्यूनां निष्क्रियाणां च क्षत्रियो हर्तुमर्हति // 2 इमाः प्रजाः क्षत्रियाणां रक्ष्याश्चाद्याश्च भारत / धनं हि क्षत्रियस्येह द्वितीयस्य न विद्यते // 3 तदस्य स्यारालार्थ वा धनं यज्ञार्थमेव वा। अभोग्या ह्योषधीश्छित्त्वा भोग्या एव पचन्त्युत // 4 यो वै न देवान्न पितृन्न मान्हविषार्चति / आनन्तिकां तां धनितामाहुर्वेदविदो जनाः॥ 5 हरेतविणं राजन्धार्मिकः पृथिवीपतिः / न हि तत्प्रीणयेल्लोकान्न कोशं तद्विधं नृप // 6 असाधुभ्यो निरादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति / आत्मानं संक्रमं कृत्वा मन्ये धर्मविदेव सः // 7 औद्भिज्जा जन्तवः केचिद्युक्तवाचो यथा तथा / अनिष्टतः संभवन्ति तथायज्ञः प्रतायते // 8 यथैव दंशमशकं यथा चाण्डपिपीलिकम् / सैव वृत्तिरयज्ञेषु तथा धर्मो विधीयते // 9 यथा ह्यकस्माद्भवति भूमौ पांसुतृणोलपम् / तथैवेह भवेद्धर्मः सूक्ष्मः सूक्ष्मतरोऽपि च // 10 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 134 // 135 भीष्म उवाच / अत्रैव चेदमव्यग्रः शृण्वाख्यानमनुत्तमम् / दीर्घसूत्रं समाश्रित्य कार्याकार्यविनिश्चये // 1 नातिगाधे जलस्थाये सुहृदः शकुलारयः। प्रभूतमत्स्ये कौन्तेय बभूवुः सहचारिणः // 2 अत्रैकः प्राप्तकालज्ञो दीर्घदर्शी तथापरः / दीर्घसूत्रश्च तत्रैकत्रयाणां जलचारिणाम् // 3 कदाचित्तज्जलस्थायं मत्स्यबन्धाः समन्ततः / निःस्रावयामासुरथो निम्नेषु विविधैर्मुखैः // 4 प्रक्षीयमाणं तं बुद्ध्वा जलस्थायं भयागमे। अब्रवीदीर्घदर्शी तु तावुभौ सुहृदौ तदा // 5. इयमापत्समुत्पन्ना सर्वेषां सलिलौकसाम् / शीघ्रमन्यत्र गच्छामः पन्था यावन्न दुष्यति // 6 अनागतमनर्थ हि सुनयैर्यः प्रबाधते / न स संशयमाप्नोति रोचतां वां व्रजामहे // 5 दीर्घसूत्रस्तु यस्तत्र सोऽब्रवीत्सम्यगुच्यते / न तु कार्या त्वरा यावदिति मे निश्चिता मतिः।। 8 अथ संप्रतिपत्तिज्ञः प्राब्रवीदीर्घदर्शिनम् / प्राप्ते काले न मे किंचिन्न्यायतः परिहास्यते // 9 एवमुक्तो निराक्रामदीर्घदर्शी महामतिः / जगाम स्रोतसैकेन गम्भीरसलिलाशयम् // 10 ततः प्रस्रुततोयं तं समीक्ष्य सलिलाशयम् / बबन्धुर्विविधैर्योगैर्मत्म्यान्मत्स्योपजीविनः // 11 विलोड्यमाने तस्मिंस्तु स्रुततोये जलाशये / अगच्छद्रहणं तत्र दीर्घसूत्रः सहापरैः // 12 उद्दानं क्रियमाणं च मत्स्यांनां वीक्ष्य रज्जुभिः / प्रविश्यान्तरमन्येषामप्रसत्प्रतिपत्तिमान् // 13 ग्रस्तमेव तदुद्दानं गृहीत्वास्त तथैव सः / सर्वानेव तु तांस्तत्र ते विदुर्मथिता इति // 14 ततः प्रक्षाल्यमानेषु मत्स्येषु विमले जले / त्यक्त्वा रज्जु विमुक्तोऽभूच्छीघ्रं संप्रतिपत्तिमान॥ .. दीर्घसूत्रस्तु मन्दात्मा हीनबुद्धिरचेतनः / मरणं प्राप्तवान्मूढो यथैवोपहतेन्द्रियः // 16 एवं प्राप्ततमं कालं यो मोहान्नावबुध्यते / स विनश्यति वै क्षिप्रं दीर्घसूत्रो यथा झषः // 17 -2164 - Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 135. 18 ] शान्तिपर्व [ 12. 136. 22 आदौ न कुरुते श्रेयः कुशलोऽस्मीति यः पुमान् / प्रज्ञातलक्षणे राजन्नमित्रे मित्रतां गते / स संशयमवाप्नोति यथा संप्रतिपत्तिमान् // 18 कथं नु पुरुषः कुर्यात्किं वा कृत्वा सुखी भवेत् // 8 अनागतविधानं तु यो नरः कुरुते क्षमम् / विग्रहं केन वा कुर्यात्संधिं वा केन योजयेत् / श्रेयः प्राप्नोति सोऽत्यर्थ दीर्घदर्शी यथा ह्यसौ // 19 कथं वा शत्रुमध्यस्थो वर्तेताबलवानिति // 9 कलाः काष्ठा मुहूर्ताश्च दिना नाड्यः क्षणा लवाः। एतद्वै सर्वकृत्यानां परं कृत्यं परंतप / / पक्षा मासाश्च ऋतवस्तुल्याः संवत्सराणि च // 20 नैतस्य कश्चिद्वक्तास्ति श्रोता चापि सुदुर्लभः // 1. पृथिवी देश इत्युक्तः कालः स च न दृश्यते।। ऋते शांतनवाद्भीष्मात्सत्यसंधाजितेन्द्रियात् / अभिप्रेतार्थसिद्धयर्थं न्यायतो यश्च तत्तथा // 21 तदन्विष्य महाबाहो सर्वमेतद्वदस्व मे // 11 एतौ धर्मार्थशास्त्रेषु मोक्षशास्त्रेषु चर्षिभिः / भीष्म उवाच / प्रधानाविति निर्दिष्टौ कामेशाभिमतौ नृणाम् // 22 त्वयुक्तोऽयमनुप्रश्नो युधिष्ठिर गुणोदयः / परीक्ष्यकारी युक्तस्तु सम्यक्समुपपादयेत् / शृणु मे पुत्र कात्स्न्येन गुह्यमापत्सु भारत // 12 देशकालावभिप्रेतौ ताभ्यां फलमवाप्नुयात् / / 23 अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपक्षण सामर्थ्ययोगात्कार्याणां तद्गत्या हि सदा गतिः॥१३ पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 135 // तस्माद्विश्वसितव्यं च विग्रहं च समाचरेत् / देशं कालं च विज्ञाय कार्याकार्यविनिश्चये // 14 युधिष्ठिर उवाच / संधातव्यं बुधैर्नित्यं व्यवस्यं च हितार्थिभिः / सर्वत्र बुद्धिः कथिता श्रेष्ठा ते भरतर्षभ / अमित्रैरपि संधेयं प्राणा रक्ष्याश्च भारत // 15 अनागता तथोत्पन्ना दीर्घसूत्रा विनाशिनी // 1 यो ह्यमित्रैनरो नित्यं न संध्यादपण्डितः / तदिच्छामि परां बुद्धिं श्रोतुं भरतसत्तम / न सोऽर्थमाप्नुयात्किचित्फलान्यपि च भारत // 16 यथा राजन्न मुह्येत शत्रुभिः परिवारितः // 2 यस्त्वमित्रेण संधत्ते मित्रेण च विरुध्यते / धर्मार्थकुशल प्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / अर्थयुक्तिं समालोक्य सुमहद्विन्दते फलम् // 17 पृच्छामि त्वा कुरुश्रेष्ठ तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 3 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / शत्रुमिबहुभिस्तो यथा वर्तेत पार्थिवः / मार्जारस्य च संवादं न्यग्रोधे मूषकस्य च // 18 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वमेव यथाविधि // 4 वने महति कस्मिंश्चिन्यग्रोधः सुमहानभूत् / विषमस्थं हि राजानं शत्रवः परिपन्थिनः / लताजालपरिच्छन्नो नानाद्विजगणायुतः // 19 बहवोऽप्येकमुद्धर्तुं यतन्ते पूर्वतापिताः // 5 स्कन्धवान्मेघसंकाशः शीतच्छायो मनोरमः / सर्वतः प्रार्थ्यमानेन दुर्बलेन महाबलैः / वैरन्त्यमभितो जातस्तालमृगाकुलः // 20 एकेनैवासहायेन शक्यं स्थातुं कथं भवेत् // 6 तस्य मूलं समाश्रित्य कृत्वा शतमुखं बिलम् / कथं मित्रमरिं चैव विन्देत भरतर्षभ / वसति स्म महाप्राज्ञः पलितो नाम मूषकः // 21 चेष्टितव्यं कथं चाथ शत्रोमित्रस्य चान्तरे // 7 शाखाश्च तस्य संश्रित्य वसति स्म सुखं पुरः। -2165 - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 22] महाभारते [12. 136. 51 लोमशो नाम मार्जारः पक्षिसत्त्वावसादकः // 22 / उलूकश्चेह तिष्ठन्तं मार्जारः पाशसंक्षयात् / / 37 तत्र चागत्य चाण्डालो वैरन्त्यकृतकेतनः। न त्वेवास्मद्विधः प्राज्ञः संमोहं गन्तुमर्हति / अयोजयत्तमुन्माथं नित्यमस्तं गते रवौ // 23 करिष्ये जीविते यत्नं यावदुच्छ्रासनिग्रहम् // 38 तत्र स्नायुमयान्पाशान्यथावत्संनिधाय सः। न हि बुद्धयान्विताः प्राज्ञा नीतिशास्त्रविशारदाः / गृहं गत्वा सुखं शेते प्रभातामेति शर्वरीम् // 24 / संभ्रमन्यापदं प्राप्य महतोऽर्थानवाप्य च // 39 तत्र स्म नित्यं वध्यन्ते नक्तं बहुविधा मृगाः। न त्वन्यामिह मार्जाराद्गतिं पश्यामि सांप्रतम् / कदाचित्तत्र मार्जारस्त्वप्रमत्तोऽप्यवध्यत // 25 विषमस्थो ह्ययं जन्तुः कृत्यं चास्य महन्मया // 40 तस्मिन्बद्धे महाप्राज्ञः शत्रौ नित्याततायिनि / जीवितार्थी कथं त्वद्य प्रार्थितः शत्रुभित्रिभिः / तं कालं पलितो ज्ञात्वा विचचार सुनिर्भयः // 26 तस्मादिममहं शत्रु मार्जारं संश्रयामि वै // 41 तेनानुचरता तस्मिन्वने विश्वस्तचारिणा / क्षत्रविद्यां समाश्रित्य हितमस्योपधारये। भक्षं विचरमाणेन नचिरादृष्टमामिषम् // 27 येनेमं शत्रुसंघातं मतिपूर्वेण वश्चये // 42 स तमुन्माथमारुह्य तदामिषमभक्षयत् / अयमत्यन्तशत्रुमें वैषम्यं परमं गतः / तस्योपरि सपत्नस्य बद्धस्य मनसा हसन् // 28 मूढो ग्राहयितुं स्वार्थ संगत्या यदि शक्यते // 43 आमिषे त प्रसक्तः स कदाचिदवलोकयन् / कदाचिद्व्यसनं प्राप्य संधिं कुर्यान्मया सह / अपश्यदपरं घोरमात्मनः शत्रुमागतम् // 29 बलिना संनिविष्टस्य शत्रोरपि परिग्रहः / शरप्रसूनसंकाशं महीविवरशायिनम् / कार्य इत्याहुराचार्या विषमे जीवितार्थिना // 44 नकुलं हरिकं नाम चपलं ताम्रलोचनम् / / 30 श्रेयान्हि पण्डितः शत्रुर्न च मित्रमपण्डितम् / . तेन मूषकगन्धेन त्वरमाणमुपागतम् / मम ह्यमित्रे मार्जारे जीवितं संप्रतिष्ठितम् // 45 भक्षार्थं लेलिहद्वक्त्रं भूमावूर्ध्वमुखं स्थितम् // 31 हन्तैनं संप्रवक्ष्यामि हेतुमात्माभिरक्षणे / शाखागतमरिं चान्यदपश्यत्कोटरालयम् / अपीदानीमयं शत्रुः संगत्या पण्डितो भवेत् // 46 उलूकं चन्द्रकं नाम तीक्ष्णतुण्डं क्षपाचरम् // 32 ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः संधिविग्रहकालवित् / गतस्य विषयं तस्य नकुलोलूकयोस्तदा / सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं मार्जार मूषकोऽब्रवीत् // 4 // अथास्यासीदियं चिन्ता तत्प्राप्य सुमहद्भयम् // 33 सौहृदेनाभिभाषे त्वा कञ्चिन्मार्जार जीवसि / आपद्यस्यां सुकष्टायां मरणे समुपस्थिते / जीवितं हि तवेच्छामि श्रेयः साधारणं हि नौ // 48 समन्ताद्भय उत्पन्ने कथं कार्य हितैषिणा // 34 न ते सौम्य विषत्तव्यं जीविष्यसि यथा पुरा। स तथा सर्वतो रुद्धः सर्वत्र समदर्शनः / अहं त्वामुद्धरिष्यामि प्राणाञ्जह्यां हि ते कृते // 49 अभवद्भयसंतप्तश्चक्रे चेमां परां गतिम् // 35 अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र पुष्कलः प्रतिभाति माम् / आपद्विनाशभूयिष्ठा शतकीयं च जीवितम् / येन शक्यस्त्वया मोक्षः प्राप्तुं श्रेयो यथा मया // 50 समन्तसंशया चेयमस्मानापदुपस्थिता // 36 मया युपायो दृष्टोऽयं विचार्य मतिमात्मनः / गतं हि सहसा भूमिं नकुलो मां समानुयात्। | आत्मार्थं च त्वदर्थं च श्रेयः साधारणं हि नो॥५१ -2166 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 52]] शान्तिपर्व [12. 136. 81 इदं हि नकुलोलूकं पापबुद्ध्यभितः स्थितम् / अहं हि दृढमापन्नस्त्वमापन्नतरो मया। न धर्षयति मार्जार तेन मे स्वस्ति सांप्रतम् // 52 द्वयोरापन्नयोः संधिः क्रियतां मा विचारय // 67 कूजंश्चपलनेत्रोऽयं कौशिको मां निरीक्षते / विधत्स्व प्राप्तकालं यत्कार्य सिध्यतु चावयोः / नगशाखाग्रहस्तिष्ठंस्तस्याहं भृशमुद्विजे // 53 मयि कृच्छ्राद्विनिर्मुक्ते न विनयति ते कृतम् // 68 सतां साप्तपदं सख्यं सवासो मेऽसि पण्डितः / न्यस्तमानोऽस्मि भक्तोऽस्मि शिष्यस्त्वद्धितकृत्तथा। सांवास्यकं करिष्यामि नास्ति ते मृत्युतो भयम् // 54 निदेशवशवर्ती च भवन्तं शरणं गतः // 69 न हि शक्नोषि मार्जार पाशं छेत्तुं विना मया। इत्येवमुक्तः पलितो मार्जारं वशमागतम् / अहं छेत्स्यामि ते पाशं यदि मां त्वं न हिंससि // 55 वाक्यं हितमुवाचेदमभिनीतार्थमर्थवत् // 70 त्वमाश्रितो नगस्याग्रं मूलं त्वहमुपाश्रितः। उदारं यद्भवानाह नैतच्चित्रं भवद्विधे / चिरोषिताविहावां वै वृक्षेऽस्मिन्विदितं हि ते // 56 विदितो यस्तु मार्गो मे हितार्थं शृणु तं मम // 71 यस्मिन्नाश्वसते कश्चिद्यश्च नाश्वसते क्वचित् / / अहं त्वानुप्रवेक्ष्यामि नकुलान्मे महद्भयम् / न तो धीराः प्रशंसन्ति नित्यमुद्विग्नचेतसौ // 57 त्रायस्व मां मा वधीश्च शक्तोऽस्मि तव मोक्षणे // 72 तस्माद्विवर्धतां प्रीतिः सत्या संगतिरस्तु नौ।। उलूकाञ्चैव मां रक्ष क्षुद्रः प्रार्थयते हि माम् / कालातीतमपार्थं हि न प्रशंसंति पण्डिताः // 58 अहं छेत्स्यामि ते पाशान्सखे सत्येन ते शपे // 73 अर्थयुक्तिमिमां तावद्यथाभूतां निशामय / तद्वचः संगतं श्रुत्वा लोमशो युक्तमर्थवत् / तव जीवितमिच्छामि त्वं ममेच्छसि जीवितम् // 59 हर्षादुद्वीक्ष्य पलितं स्वागतेनाभ्यपूजयत् // 74 कश्चित्तरति काष्ठेन सुगम्भीरां महानदीम् / / स तं संपूज्य पलितं मार्जारः सौहृदे स्थितः / स तारयति तत्काष्ठं स च काष्ठेन तार्यते // 60 सुविचिन्त्याब्रवीद्धीरः प्रीतस्त्वरित एव हि // 75 ईदृशो नौ समायोगो भविष्यति सुनिस्तरः / / क्षिप्रमागच्छ भद्रं ते त्वं मे प्राणसमः सखा / अहं त्वां तारयिष्यामि त्वं च मां तारयिष्यसि।।६१ तव प्राज्ञ प्रसादाद्धि क्षिप्रं प्राप्स्यामि जीवितम्॥७६ एवमुक्त्वा तु पलितस्तदर्थमुभयोहितम् / यद्यदेवंगतेनाद्य शक्यं कर्तुं मया तव / हेतुमद्रहणीयं च कालाकाङ्क्षी व्यपैक्षत // 62 तदाज्ञापय कर्ताहं संधिरेवास्तु नौ सखे // 77 अथ सुव्याहृतं तस्य श्रुत्वा शत्रुर्विचक्षणः / अस्मात्ते संशयान्मुक्तः समित्रगणबान्धवः / हेतुमगृहणीयार्थ मार्जारो वाक्यमब्रवीत् / / 63 सर्वकार्याणि कर्ताहं प्रियाणि च हितानि च // 78 बुद्धिमान्वाक्यसंपन्नस्तद्वाक्यमनुवर्णयन् / मुक्तश्च व्यसनादस्मात्सौम्याहमपि नाम ते / तामवस्थामवेक्ष्यान्त्यां साम्नैव प्रत्यपूजयत् / / 64 प्रीतिमुत्पादयेयं च प्रतिकर्तुं च शक्नुयाम् // 79 ततस्तीक्ष्णाग्रदशनो वैडूर्यमणिलोचनः / ग्राहयित्वा तु यं स्वार्थं मार्जारं मूषकस्तदा / मूषकं मन्दमुद्वीक्ष्य मार्जारो लोमशोऽब्रवीत् // 65 प्रविवेश सुविस्रब्धः सम्यगांश्चचार ह // 80 नन्दामि सौम्य भद्रं ते यो मां जीवन्तमिच्छसि / / एवमाश्वासितो विद्वान्मार्जारेण स मूषकः / श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय / 66 / मार्जारोरसि विस्रब्धः सुष्वाप पितृमातृवत् // 81 -2167 - Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 82] महाभारते [12. 136. 111 लीनं तु तस्य गात्रेषु मार्जारस्याथ मूषकम् / तथैव त्वरमाणेन त्वया कार्य हितं मम / तौ दृष्ट्वा नकुलोलूको निराशौ जग्मतुर्गृहान् // 82 यत्नं कुरु महाप्राज्ञ यथा स्वस्त्यावयोर्भवेत् // 97 लीनस्तु तस्य गात्रेषु पलितो देशकालवित् / अथ वा पूर्ववैरं त्वं स्मरन्कालं विकर्षसि / चिच्छेद पाशान्नृपते कालाकाङ्की शनैः शनैः // 83 पश्य दुष्कृतकर्मत्वं व्यक्तमायुःक्षयो मम // 98 अथ बन्धपरिच्छिष्टो मार्जारो वीक्ष्य मूषकम् / यञ्च किंचिन्मयाज्ञानात्पुरस्ताद्विप्रियं कृतम / छिन्दन्तं वै तदा पाशानत्वरन्तं त्वरान्वितः // 84 न तन्मनसि कर्तव्यं क्षमये त्वां प्रसीद मे // 99 तमत्वरन्तं पलितं पाशानां छेदने तदा। तमेवंवादिनं प्राज्ञः शास्त्रविद्बुद्धिसंमतः / संचोदयितुमारेभे मार्जारो मूषकं तदा // 85 उवाचेदं वचः श्रेष्ठं मार्जार मूषकस्तदा // 100 किं सौम्य नाभित्वरसे किं कृतार्थोऽवमन्यसे।। श्रुतं मे तव मार्जार स्वमथं परिगृहृतः / छिन्धि पाशानमित्रघ्न पुरा श्वपच एति सः // 86 / ममापि त्वं विजानीहि स्वमर्थं परिगृह्णतः // 101 इत्युक्तस्त्वरता तेन मतिमान्पलितोऽब्रवीत् / यन्मित्रं भीतवत्साध्यं यन्मित्रं भयसंहितम् / मार्जारमकृतप्रज्ञं वश्यमात्महितं वचः / / 87 सुरक्षितं ततः कार्य पाणिः सर्पमुखादिव // 102 तूष्णीं भव न ते सौम्य त्वरा कार्या न संभ्रमः / कृत्वा बलवता संधिमात्मानं यो न रक्षति / वयमेवात्र कालज्ञा न कालः परिहास्यते // 88 अपथ्यमिव तद्भुक्तं तस्यानाय कल्पते / / 103 अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुं नार्थाय कल्पते। न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचित्सुहृत् / तदेव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते // 89 अर्थैरर्था निबध्यन्ते गर्जेर्वनगजा इव // 104 अकालविप्रमुक्तान्मे त्वत्त एवं भयं भवेत् / न हि कश्चित्कृते कार्ये कर्तारं समवेक्षते / तस्मात्कालं प्रतीक्षस्व किमिति त्वरसे सखे // 90 तस्मात्सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्॥१०५ यावत्पश्यामि चण्डालमायान्तं शस्त्रपाणिनम् / तस्मिन्कालेऽपि च भवान्दिवाकीर्तिभयान्वितः / ततश्छेत्स्यामि ते पाशं प्राप्ते साधारणे भये // 91 . मम न ग्रहणे शक्तः पलायनपरायणः // 106 तस्मिन्काले प्रमुक्तस्त्वं तरुमेवाधिरोहसि। छिन्नं तु तन्तुबाहुल्यं तन्तुरेकोऽवशेषितः / न हि ते जीवितादन्यत्किचित्कृत्यं भविष्यति // 92 छेत्स्याम्यहं तदप्याशु निर्वृतो भव लोमश // 107 ततो भवत्यतिक्रान्ते त्रस्ते भीते च लोमश / तयोः संवदतोरेवं तथैवापन्नयोर्द्वयोः / अहं बिलं प्रवेक्ष्यामि भवाशाखां गमिष्यति / / 93 क्षयं जगाम सा रात्रिर्लेमशं चाविशद्भयम् // 108 एवमुक्तस्तु मार्जारो मूषकेणात्मनो हितम् / ततः प्रभातसमये विकृतः कृष्णपिङ्गलः / वचनं वाक्यतत्त्वज्ञो जीवितार्थी महामतिः // 94 स्थूलस्फिग्विकचो रूक्षः श्वचक्रपरिवारितः // 109 अथात्मकृत्यत्वरितः सम्यक्प्रश्रयमाचरन् / शङ्कुकर्णो महावक्त्रः पलितो घोरदर्शनः / उवाच लोमशो वाक्यं मूपकं चिरकारिणम् // 55 / परिघो नाम चण्डालः शस्त्रपाणिरदृश्यत // 110 न ह्येवं मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वन्ति साधवः / तं दृष्ट्वा यमदूताभं मार्जारस्रस्तचेतनः / यथा त्वं मोक्षितः कृच्छ्रात्त्वरमाणेन वै मया // 96 / उवाच पलितं भीतः किमिदानीं करिष्यसि // 111 --2168 -- Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 112] शान्तिपर्व [12. 136. 141 अथ चापि सुसंत्रस्तौ तं दृष्ट्वा घोरदर्शनम् / न तेऽस्ति भयमस्मत्तो जीवितेनात्मनः शपे // 126 क्षणेन नकुलोलूको नैराश्यं जग्मतुस्तदा // 112 बुद्धथा त्वमुशनाः साक्षाद्वले त्वधिकृता वयम् / बलिनौ मतिमन्तौ च संघातं चाप्युपागतौ / / त्वन्मत्रबलयुक्तो हि विन्देत जयमेव ह // 127 अशक्यौ सुनयात्तस्मात्संप्रधर्षयितुं बलात् // 113 एवमुक्तः परं सान्त्वं मार्जारेण स मूषकः / कार्यार्थं कृतसंधी तौ दृष्ट्वा मार्जारमूपको / उवाच परमार्थज्ञः श्लक्ष्णमात्महितं वचः॥ 128 उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुः स्वं स्वमालयम् // 114 यद्भवानाह तत्सर्वं मया ते लोमश श्रुतम् / ततश्चिच्छेद तं तन्तुं मार्जारस्य स मूषकः / ममापि तावद्वतः शृणु यत्प्रतिभाति माम् // 129 विप्रमुक्तोऽथ मार्जारस्तमेवाभ्यपतद्रुमम् // 115 वेदितव्यानि मित्राणि बोद्धव्याश्चापि शत्रवः / स च तस्माद्भयान्मुक्तो मुक्तो घोरेण शत्रुणा / एतत्सुसूक्ष्मं लोकेऽस्मिन्दृश्यते प्राज्ञसंमतम् // 130 बिलं विवेश पलितः शाखां भेजे च लोमशः / / 116 शत्रुरूपाश्च सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः / उन्माथमप्यथादाय चण्डालो वीक्ष्य सर्वशः / सान्त्वितास्ते न बुध्यन्ते रागलोभवशं गताः // 131 विहताशः क्षणेनाथ तस्मादेशादपाक्रमत् / नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते / जगाम च स्वभवनं चण्डालो भरतर्षभ // 117 सामर्थ्ययोगाजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा // 132 ततस्तस्माद्भयान्मुक्तो दुर्लभं प्राप्य जीवितम् / यो यस्मिञ्जीवति स्वार्थ पश्येत्तावत्स जीवति / बिलस्थं पादपारस्थः पलितं लोमशोऽब्रवीत् / / 118 स तस्य तावन्मित्रं स्याद्यावन्न स्याद्विपर्ययः // 133 अकृत्वा संविदं कांचित्सहसाहमुपप्लुतः / नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम् / कृतज्ञं कृतकल्याणं कच्चिन्मां नाभिशङ्कसे // 119 अर्थयुक्त्या हि जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा॥१३४ गत्वा च मम विश्वासं दत्त्वा च मम जीवितम् / / मित्रं च शत्रुतामेति कस्मिंश्चित्कालपर्यये / मित्रोपभोगसमये किं त्वं नैवोपसर्पसि // 120 शत्रुश्च मित्रतामेति स्वार्थो हि बलवत्तरः // 135 कृत्वा हि पूर्व मित्राणि यः पश्चान्नानुतिष्ठति / यो विश्वसति मित्रेषु न चाश्वसति शत्रुषु / न स मित्राणि लभते कृच्छ्रास्वापत्सु दुर्मतिः // 121 अर्थयुक्तिमविज्ञाय चलितं तस्य जीवितम् // 136 तत्कृतोऽहं त्वया मित्रं सामर्थ्यादात्मनः सखे / अर्थयुक्तिमविज्ञाय यः शुभे कुरुते मतिम् / स मां मित्रत्वनापन्नमुपभोक्तुं त्वमहसि // 122 मित्रे वा यदि वा शत्रौ तस्यापि चलिता मतिः // 137 यानि मे सन्ति मित्राणि ये च मे सन्ति बान्धवाः / न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् / सर्वे त्वां पूजयिष्यन्ति शिष्या गुरुमिव प्रियम् // विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति // 138 अहं च पूजयिष्ये त्वां समित्रगणबान्धवम् / अर्थयुक्त्या हि दृश्यन्ते पिता माता सुतास्तथा / जीवितस्य प्रदातारं कृतज्ञः को न पूजयेत् // 124 / मातुला भागिनेयाश्च तथा संबन्धिबान्धवाः॥१३९ ईश्वरो मे भवानस्तु शरीरस्य गृहस्य च / / पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् / अर्थानां चैव सर्वेषामनुशास्ता च मे भव // 125 - लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम् // अमात्यो मे भव प्राज्ञ पितेव हि प्रशाधि माम्। / तं मन्ये निकृतिप्रज्ञं यो मोक्षं प्रत्यनन्तरम् / म. भा. 272 -2169 - Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 186. 141] महाभारते [12. 136. 171 कृत्यं मृगयसे कर्तुं सुखोपायमसंशयम् // 141 तत्कृत्यमभिनिर्वृत्तं प्रकृतिः शत्रुतां गता // 156 अस्मिन्निलय एव त्वं न्यग्रोधादवतारितः / सोऽहमेवं प्रणीतानि ज्ञात्वा शास्त्राणि तत्त्वतः। ' पूर्व निविष्टमुन्माथं चपलत्वान्न बुद्धवान् // 142 प्रविशेयं कथं पाशं त्वत्कृतं तद्वदस्व मे // 157 आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति / त्वद्वीर्येण विमुक्तोऽहं मट्ठीर्येण तथा भवान् / तस्मात्सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम्॥१४३ अन्योन्यानुग्रहे वृत्ते नास्ति भूयः समागमः।।१५८ ब्रबीति मधुरं कंचित्प्रियो मे ह भवानिति / त्वं हि सौम्य कृतार्थोऽद्य निर्वृत्तास्तथा वयम् / तन्मिथ्याकरणं सर्वं विस्तरेणापि मे शृणु // 144 न तेऽस्त्यन्यन्मया कृत्यं किंचिदन्यत्र भक्षणात् // कारणात्प्रियतामेति द्वेष्यो भवति कारणात् / अहमन्नं भवान्भोक्ता दुर्बलोऽहं भवान्बली। अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्कम्यचित्प्रियः // नावयोर्विद्यते संधिनियुक्ते विषमे बले / / 160 सख्यं सोदरयोर्धात्रोर्दम्पत्योर्वा परस्परम् / संमन्येऽहं तव प्रज्ञां यन्मोक्षात्प्रत्यनन्तरम् / / कस्यचिन्नाभिजानामि प्रीति निष्कारणामिह // 146 भक्ष्यं मृगयसे नूनं सुखोपायमसंशयम् // 161 यद्यपि भ्रातरः क्रुद्धा भार्या वा कारणान्तरे। भक्ष्यार्थमेव बद्धस्त्वं स मुक्तः प्रसृतः क्षुधा। स्वभावतस्ते प्रीयन्ते नेतरः प्रीयते जनः // 147 शास्त्रज्ञमभिसंधाय नूनं भक्षयिताद्य माम् / / 162 प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः / जानामि क्षुधितं हि त्वामाहारसमयश्च ते / मत्रहोमजपैरन्यः कार्यार्थ प्रीयते जनः // 148 स त्वं मामभिसंधाय भक्ष्यं मृगयसे पुनः // 163 उत्पन्ने कारणे प्रीतिर्नास्ति नौ कारणान्तरे।। यच्चापि पुत्रदारं स्वं तत्संनिसृजसे मयि / प्रध्वस्ते कारणस्थाने सा प्रीतिर्विनिवर्तते // 149 शुश्रूषां नाम मे कर्तुं सखे मम न तत्क्षमम् // 164 किं नु तत्कारणं मन्ये येनाहं भवतः प्रियः / त्वया मां सहितं दृष्ट्वा प्रिया भार्या सुताश्च ये। अन्यत्राभ्यवहारार्थत्तत्रापि च बुधा वयम् // 150 कस्मान्मां ते न खादेयुहृष्टाः प्रणयिनस्त्वयि // 165 कालो हेतुं विकुरुते स्वार्थस्तमनुवर्तते / नाहं त्वया समेष्यामि वृत्तो हेतुः समागमे / स्वार्थ प्राज्ञोऽभिजानाति ग्राझं लोकोऽनुवर्तते // शिवं ध्यायस्व मेऽत्रस्थः सुकृतं स्मयते यदि॥१६६ न त्वीदृशं त्वया वाच्यं विदुषि स्वार्थपण्डिते।। शत्रोरन्नाद्यभूतः सन्कृिष्टस्य क्षुधितस्य च / अकालेऽविषमस्थस्य स्वार्थहेतुरयं तव // 152 भक्ष्यं मृगयमाणस्य कः प्राज्ञो विषयं व्रजेत् / / 167 तस्मान्नाहं चले स्वार्थात्सुस्थितः संधिविग्रहे। स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि दूरादपि तवोद्विजे। अभ्राणामिव रूपाणि विकुर्वन्ति क्षणे क्षणे // 153 नाहं त्वया समेष्यामि निवृतो भव लोमश॥१६८ अद्यैव हि रिपुर्भूत्वा पुनरद्यैव सौहृदम् / बलवत्संनिकर्षो हि न कदाचित्प्रशस्यते / पुनश्च रिपुरद्यैव युक्तीनां पश्य चापलम् // 154 प्रशान्तादपि मे प्राज्ञ भेतव्यं बलिनः सदा // 169 आसीत्तावत्तु मैत्री नौ यावद्धेतुरभूत्पुरा। यदि त्वर्थेन मे कार्यं ब्रूहि किं करवाणि ते। सा गता सह तेनैव कालयुक्तेन हेतुना // 155 कामं सर्वं प्रदास्यामि न त्वात्मानं कदाचन // 170 वं हि मेऽत्यन्ततः शत्रुः सामर्थ्यान्मित्रतां गतः। आत्मार्थे संततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनं तथा / -2170 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 171] शान्तिपर्व [12. 136. 201 अपि सर्वस्वमुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मना / / 171 द्रव्याणि संततिश्चैव सर्वं भवति जीवतः // 186 ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रेऽपि तिष्ठताम् / संक्षेपो नीतिशास्त्राणामविश्वासः परो मतः / दृष्टा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिति नः श्रुतम् // 172 नृषु तस्मादविश्वासः पुष्कलं हितमात्मनः // 187 न त्वात्मनः संप्रदानं धनरत्नवदिष्यते / वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुभिर्दुर्बला अपि / आत्मा तु सर्वतो रक्ष्यो दारैरपि धनैरपि // 173 विश्वस्तास्त्वाशु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः // 188 आत्मरक्षिततन्त्राणां सुपरीक्षितकारिणाम् / त्वद्विधेभ्यो मया ह्यात्मा रक्ष्यो मार्जार सर्वदा। आपदो नोपपद्यन्ते पुरुषाणां स्वदोषजाः // 174 रक्ष त्वमपि चात्मानं चण्डालाजातिकिल्बिषात् // शत्रून्सम्यग्विजानन्ति दुर्बला ये बलीयसः। स तस्य ब्रुवतस्त्वेवं संत्रासाजातसाध्वसः / तेषां न चाल्यते बुद्धिरात्मार्थं कृतनिश्चया // 175 स्वबिलं हि जवेनाशु मार्जारः प्रययौ ततः॥१९० इत्यभिव्यक्तमेवासौ पलितेनावभर्सितः / ततः शास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिसामर्थ्यमात्मनः / मार्जारो व्रीडितो भूत्वा मूषकं वाक्यमब्रवीत्॥१७६ विश्राव्य पलितः प्राज्ञो बिलमन्यजगाम ह॥१९१ संमन्येऽहं तव प्रज्ञा यस्त्वं मम हिते रतः / एवं प्रज्ञावता बुद्ध्या दुर्बलेन महाबलाः। उक्तवानर्थतत्त्वेन मया संभिन्नदर्शनः // 177 एकेन बहवोऽमित्राः पलितेनाभिसंधिताः॥ 192 न तु मामन्यथा साधो त्वं विज्ञातुमिहार्हसि / अरिणापि समर्थन संधिं कुर्वीत पण्डितः / प्राणप्रदानजं त्वत्तो मम सौहृदमागतम् // 178 मूषकश्च बिडालश्च मुक्तावन्योन्यसंश्रयात् // 193 धर्मज्ञोऽस्मि गुणज्ञोऽस्मि कृतज्ञोऽस्मि विशेषतः / इत्येष क्षत्रधर्मस्य मया मार्गोऽनुदर्शितः / मित्रेषु वत्सलश्चास्मि त्वद्विधेषु विशेषतः // 179 विस्तरेण महीपाल संक्षेपेण पुनः शृणु // 194 तन्मामेवंगते साधो न यावयितुमर्हसि / अन्योन्यकृतवैरौ तु चक्रतुः प्रीतिमुत्तमाम् / त्वया हि याव्यमानोऽहं प्राणाञ्जह्यां सबान्धवः // अन्योन्यमभिसंधातुमभूञ्चैव तयोर्मतिः // 195 धिक्शब्दो हि बुधैर्दृष्टो मद्विधेषु मनस्विषु / तत्र प्राज्ञोऽभिसंधत्ते सम्यग्बुद्धिबलाश्रयात् / मरणं धर्मतत्त्वज्ञ न मां शङ्कितुमर्हसि // 181 अभिसंधीयते प्राज्ञः प्रमादादपि चाबुधैः / / 196 इति संस्तूयमानो हि मार्जारेण स मूषकः / / तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् / मनसा भावगम्भीरं मारिं वाक्यमब्रवीत्॥१८२ न ह्यप्रमत्तश्चलति चलितो वा विनश्यति // 197 साधुभवान्श्रुतार्थोऽस्मि प्रीयते न च विश्वसे / कालेन रिपुणा संधिः काले मित्रेण विग्रहः / संस्तवैर्वा धनौघेर्वा नाहं शक्यः पुनस्त्वया // 183 कार्य इत्येव तत्त्वज्ञाः प्राहुर्नित्यं युधिष्ठिर // 198 न ह्यमित्रवशं यान्ति प्राज्ञा निष्कारणं सखे। एवं मत्वा महाराज शास्त्रार्थमभिगम्य च। अस्मिन्नर्थे च गाथे द्वे निबोधोशनसा कृते // 184 अभियुक्तोऽप्रमत्तश्च प्राग्भयाद्भीतवच्चरेत् // 199 शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधिं बलीयसा / भीतवत्संविधिः कार्यः प्रतिसंधिस्तथैव च।। समाहितश्चरेद्युक्त्या कृतार्थश्च न विश्वसेत् // 185 भयादुत्पद्यते बुद्धिरप्रमत्ताभियोगजा // 200 तस्मात्सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मनः / न भयं विद्यते राजन्भीतस्यानागते भये / -2171 - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 136. 201] महाभारते [ 12. 137. 15 अमीतस्य तु विनम्भात्सुमहज्जायते भयम्॥२०१ / कथं वै नाश्वसनराजा शत्रूञ्जयति पार्थिव // 2 न भीरुरिति चात्यन्तं मनोऽदेयः कथंचन। एतन्मे संशयं छिन्धि मनो मे संप्रमुह्यति / अविज्ञानाद्धि विज्ञाते गच्छेदास्पदर्शिषु // 202 अविश्वासकथामेतामुपश्रुत्य पितामह // 3 तस्मादभीतवद्भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् / भीष्म उवाच / कार्याणां गुरुतां बुवा नानृतं किंचिदाचरेत् // 203 शृणु कौन्तेय यो वृत्तो ब्रह्मदत्तनिवेशने / एवमेतन्मया प्रोक्तमितिहासं युधिष्ठिर। पूजन्या सह संवादो ब्रह्मदत्तस्य पार्थिव // 4 श्रुत्वा त्वं सुहृदां मध्ये यथावत्समुपाचर // 204 काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य अन्तःपुरनिवासिनी। उपलभ्य मतिं चाग्र्यामरिमित्रान्तरं तथा / पूजनी नाम शकुनी दीर्घकालं सहोषिता / / 5 संधिविग्रहकालं च मोक्षोपायं तथापदि // 205 रुतज्ञा सर्वभूतानां यथा वै जीवजीवकः / शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधि वलीयसा। सर्वज्ञा सर्वधर्मज्ञा तिर्यग्योनिग़तापि सा // 6 समागमं चरेद्युक्त्या कृतार्थो न च विश्वसेत्॥२०६ अभिप्रजाता सा तत्र पुत्रमेकं सुवर्चसम् / अविरुद्धां त्रिवर्गेण नीतिमेतां युधिष्ठिर। समकालं च राज्ञोऽपि देव्याः पुत्रो व्यजायत // 7 अभ्युत्तिष्ठ श्रुतादस्माद्भूयस्त्वं रञ्जयन्प्रजाः // 207 समुद्रतीरं गत्वा सा त्वाजहार फलद्वयम् / ब्राश्चणैश्चापि ते साधू यात्रा भवतु पाण्डव / पुष्ट्यर्थं च स्वपुत्रस्य राजपुत्रस्य चैव ह // 8 ब्राह्मणा हि परं श्रेयो दिवि चेह च भारत // 208 फलमेकं सुतायादाद्राजपुत्राय चापरम् / एते धर्मस्य वेत्तारः कृतज्ञाः सततं प्रभो। अमृतास्वादसदृशं बलतेजोविवर्धनम् / पूजिताः शुभकर्माणः पूर्वजित्या नराधिप / 209 तत्रागच्छत्परां वृद्धि राजपुत्रः फलाशनात् // 9 राज्यं श्रेयः परं राजन्यशः कीर्ति च लप्स्यसे / धाच्या हस्तगतश्चापि तेनाक्रीडत पक्षिणा / कुलस्य संततिं चैव यथान्यायं यथाक्रमम् // 210 शून्ये तु तमुपादाय पक्षिणं समजातकम् / द्वयोरिमं भारत संधिविग्रह हत्वा ततः स राजेन्द्र धाच्या हस्तमुपागमत् // 10 सुभाषितं बुद्धिविशेषकारितम् / अथ सा शकुनी राजन्नागमत्फलहारिका / तथान्यवेक्ष्य क्षितिपेन सर्वदा अपश्यन्निहतं पुत्रं तेन बालेन भूतले // 11 निषेवितव्यं नृप शत्रुमण्डले // 211 बाष्पपूर्णमुखी दीना दृष्ट्वा सा तु हतं सुतम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पूजनी दुःखसंतप्ता रुदती वाक्यमब्रवीत् // 12 षत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 136 // क्षत्रिये संगतं नास्ति न प्रीतिर्न च सौहृदम् / 137 कारणे संभजन्तीह कृतार्थाः संत्यजन्ति च // 13 __ युधिष्ठिर उवाच / क्षत्रियेषु न विश्वासः कार्यः सर्वोपघातिषु / उक्तो मत्रो महाबाहो न विश्वासोऽस्ति शत्रुषु / अपकृत्यापि सततं सान्त्वयन्ति निरर्थकम् // 14 कथं हि राजा वर्तेत यदि सर्वत्र नाश्वसेत् // 1 अहमस्य करोम्यद्य सदृशीं वैरयातनाम् / विश्वासाद्धि परं राज्ञो राजन्नुत्पद्यते भयम् / | कृतघ्नस्य नृशंसस्य भृशं विश्वासघातिनः // 15 -2172 - Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 137. 16 ] शान्तिपर्व [12. 137. 40 सहसंजातवृद्धस्य तथैव सहभोजिनः / पूर्व संमानना यत्र पश्चाच्चैव विमानना / शरणागतस्य च वधत्रिविधं ह्यस्य किल्बिषम् // 16 जह्यात्तं सत्त्ववान्यासं संमानितविमानितः // 29 इत्युक्त्वा चरणाभ्यां तु नेत्रे नृपसुत्तस्य सा। उषितास्मि तवागारे दीर्घकालमहिंसिता। मित्त्वा स्वस्था तत इदं पूजनी वाक्यमब्रवीत्॥१. स्व व्रजाम्यहम् // 30 इच्छयैव कृतं पापं सद्य एवोपसर्पति / ब्रह्मदत्त उवाच / कृतप्रतिक्रियं तेषां न नश्यति शुभाशुभम् // 18 यत्कृते प्रतिकुर्याद्वै न स तत्रापराध्नुयात् / पापं कर्म कृतं किंचिन्न तस्मिन्यदि विद्यते / __ अनृणस्तेन भवति वस पूजनि मा गमः // 31 निपात्यतेऽस्य पुत्रेषु न चेत्पौत्रेषु नप्तृषु // 19 ___ पूजन्युवाच / ब्रह्मदत्त उवाच / न कृतस्य न कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः। अस्ति वै कृतमस्माभिरस्ति प्रतिकृतं त्वया। हृदयं तत्र जानाति कर्तुश्चैव कृतस्य च // 32 उभयं तत्समीभूतं वस पूजनि मा गमः // 20 ब्रह्मदत्त उवाच / पूजन्युवाच / कृतस्य चैव कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः / सकृत्कृतापराधस्य तत्रैव परिलम्बतः / वैरस्योपशमो दृष्टः पापं नोपावते पुनः // 33 न तद्बुधाः प्रशंसन्ति श्रेयस्तत्रापसर्पणम् // 21 पूजन्युवाच / सान्त्वे प्रयुक्ते नृपते कृतवैरे न विश्वसेत् / नास्ति वैरमुपक्रान्तं सान्त्वितोऽस्मीति नाश्वसेत् / क्षिप्रं प्रबध्यते मूढो न हि वैरं प्रशाम्यति // 22 विश्वासाद्वध्यते बालस्तस्माच्छ्रेयो ह्यदर्शनम् // 34 अन्योन्यं कृतवैराणां पुत्रपौत्रं निगच्छति / तरसा ये न शक्यन्ते शस्त्रैः सुनिशितैरपि / पुत्रपौत्रे विनष्टे तु परलोकं निगच्छति // 23 / साम्ना ते विनिगृह्यन्ते गजा इव करेणुभिः // 35 सर्वेषां कृतवैराणामविश्वासः सुखावहः / ब्रह्मदत्त उवाच। एकान्ततो न विश्वासः कार्यो विश्वासघातकः // 24 संवासाज्जायते स्नेहो जीवितान्तकरेष्वपि / न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् / | अन्योन्यस्य च विश्वासः श्वपचेन शुनो यथा // 36 कामं विश्वासयेदन्यान्परेषां तु न विश्वसेत् / / 25 अन्योन्यकृतवैराणां संवासान्मृदुतां गतम् / माता पिता बान्धवानां वरिष्ठौ नैव तिष्ठति तद्वैरं पुष्करस्थमिवोदकम् // 37 भार्या जरा बीजमात्रं तु पुत्रः। पूजन्युवाच / भ्राता शत्रुः क्लिन्नपाणिर्वयस्य वैरं पञ्चसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः / * आत्मा ह्येकः सुखदुःखस्य वेत्ता // 26 स्त्रीकृतं वास्तुजं वारजं ससपत्नापराधजम् // 38 अन्योन्यकृतवैराणां न संधिरुपपद्यते।। तत्र दाता निहन्तव्यः क्षत्रियेण विशेषतः / सच हेतुरतिक्रान्तो यदर्थमहमावसम् // 27 प्रकाशं वाप्रकाशं वा बुद्धा देशबलादिकम् // 39 जितस्यार्थमानाभ्यां जन्तोः पूर्वापकारिणः / / कृतवैरे न विश्वासः कार्यस्त्विह सुहृद्यपि / वेतो भवत्यविश्वस्तं पूर्व त्रासयते बलात् // 28 / छन्नं संतिष्ठते वैरं गूढोऽग्निरिव दारुषु // 40 - 2173 - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 137. 41 ] महाभारते [ 12. 137. 69 न वित्तेन न पारुष्यैर्न सान्त्वेन न च श्रुतैः। अहं हि पुत्रशोकेन कृतपापा तवात्मजे। वैराग्निः शाम्यते राजन्नौर्वाग्निरिव सागरे // 41 / / तथा त्वया प्रहर्तव्यं मयि तत्त्वं च मे शृणु // 55 न हि वैराग्निरुद्भूतः कर्म वाप्यपराधजम्। भक्षार्थ क्रीडनार्थ वा नरा वाञ्छन्ति पक्षिणः / शाम्यत्यदग्ध्वा नृपते विना ह्येकतरक्षयात् // 42 / तृतीयो नास्ति संयोगो वधबन्धाहते क्षमः // 56 सत्कृतस्यार्थमानाभ्यां स्यात्तु पूर्वापकारिणः / वधबन्धभयादेके मोक्षतत्रमुपागताः / नैव शान्तिन विश्वासः कर्म त्रासयते बलात् // 43 मरणोत्पातजं दुःखमाहुर्धर्मविदो जनाः // 57 नैवापकारे कस्मिंश्चिदहं त्वयि तथा भवान् / सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वस्य दयिताः सुताः / विश्वासादुषिता पूर्वं नेदानीं विश्वसाम्यहम् // 44 दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् // 58 ब्रह्मदत्त उवाच / दुःखं जरा ब्रह्मदत्त दुःखमर्थविपर्ययः। कालेन क्रियते कार्य तथैव विविधाः क्रियाः। दुःखं चानिष्टसंवासो दुःखमिष्टवियोगजम् // 59 कालेनैव प्रवर्तन्ते कः कस्येहापराध्यति // 45 / / वैरबन्धकृतं दुःखं हिंसाजं स्त्रीकृतं तथा / तुल्यं चोभे प्रवर्तेते मरणं जन्म चैव ह / दुःखं सुखेन सततं जनाद्विपरिवर्तते // 60 . कार्यते चैव कालेन तन्निमित्तं हि जीवति // 46 न दुःखं परदुःखे वै केचिदाहुरबुद्धयः। बध्यन्ते युगपत्केचिदेकैकस्य न चापरे / यो दुःखं नाभिजानाति स जल्पति महाजने // 61 कालो दहति भूतानि संप्राप्याग्निरिवेन्धनम् // 47 यस्तु शोचति दुःखार्तः स कथं वक्तुमुत्सहेत् / नाहं प्रमाणं नैव त्वमन्योन्यकरणे शुभे / रसज्ञः सर्वदुःखस्य यथात्मनि तथा परे // 62 कालो नित्यमुपाधत्ते सुखं दुःखं च देहिनाम् // 48 यत्कृतं ते मया राजंस्त्वया च मम यत्कृतम् / एवं वसेह सस्नेहा यथाकालमहिंसिता / न तद्वर्षशतैः शक्यं व्यपोहितुमरिंदम् // 63 यत्कृतं तच्च मे क्षान्तं त्वं चैव क्षम पूजनि // 49 आवयोः कृतमन्योन्यं तत्र संधिर्न विद्यते / पूजन्युवाच / स्मृत्वा स्मृत्वा हि ते पुत्रं नवं वैरं भविष्यति // 6 // यदि कालः प्रमाणं ते न वैरं कस्यचिद्भवेत् / वैरमन्तिकमासज्य यः प्रीतिं कर्तुमिच्छति / कस्मात्त्वपचितिं यान्ति बान्धवा बान्धवे हते // 50 मृन्मयस्येव भग्नस्य तस्य संधिर्न विद्यते // 65 कस्माद्देवासुराः पूर्वमन्योन्यमभिजग्निरे। निश्चितश्चार्थशास्त्रज्ञैरविश्वासः सुखोदयः / यदि कालेन निर्याणं सुखदुःखे भवाभवौ // 51 उशनाश्चाथ गाथे द्वे प्रह्रादायाब्रवीत्पुरा // 66 भिषजो भेषजं कर्तुं कस्मादिच्छन्ति रोगिणे।। ये वैरिणः श्रद्दधते सत्ये सत्येतरेऽपि वा। यदि कालेन पच्यन्ते भेषजैः किं प्रयोजनम् // 52 ते श्रद्दधाना वध्यन्ते मधु शुष्कतृणैर्यथा // 67 प्रलापः क्रियते कस्मात्सुमहाशोकमूर्च्छितैः / न हि वैराणि शाम्यन्ति कुलेष्वा दशमायुगात्। यदि कालः प्रमाणं ते कस्माद्धर्मोऽस्ति कर्तृषु // 53 आख्यातारश्च विद्यन्ते कुले चेद्विद्यते पुमान् // 68 तव पुत्रो ममापत्यं हतवान्हिसितो मया। उपगुह्य हि वैराणि सान्त्वयन्ति नराधिपाः / अनन्तरं त्वया चाहं बन्धनीया महीपते // 54 / अथैनं प्रतिपिंषन्ति पूर्ण घटमिवाश्मनि // 69 -2174 - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 137. 70] शान्तिपर्व [12. 137.97 सदा न विश्वसेद्राजन्पापं कृत्वेह कस्यचित् / नित्यं बुद्धिमतो ह्यर्थः स्वल्पकोऽपि विवर्धते / अपकृत्य परेषां हि विश्वासाहुःखमनुते // 70 दाक्ष्येण कुरुते कर्म संयमात्प्रतितिष्टति / / 84 ब्रह्मदत्त उवाच / गृहस्नेहावबद्धानां नराणामल्पमेधसाम् / नाविश्वासाच्चिन्वतेऽर्थान्नेहन्ते चापि किंचन / कुस्त्री खादति मांसानि माघमा सेगवामिव // 85 भयादेकतरान्नित्यं मृतकल्पा भवन्ति च / / 71 गृहं क्षेत्राणि मित्राणि स्वदेश इति चापरे / पूजन्युवाच। इत्येवमवसीदन्ति नरा बुद्धिविपर्यये // 86 यस्येह व्रणिनौ पादौ पद्भ्यां च परिसर्पति / उत्पतेत्सरुजाद्देशाद्व्याधिदुर्भिक्षपीडितात् / क्षण्येते तस्य तौ पादौ सुगुप्तमभिधावतः // 72 अन्यत्र वस्तुं गच्छेद्वा वसेद्वा नित्यमानितः // 87 नेत्राभ्यां सरुजाभ्यां यः प्रतिवातमुदीक्षते / / तस्मादन्यत्र यास्यामि वस्तुं नाहमिहोत्सहे / तस्य वायुरुजात्यर्थं नेत्रयोर्भवति ध्रुवम् / / 73 कृतमेतदनाहार्य तव पुत्रेण पार्थिव // 88 दुष्टं पन्थानमाश्रित्य यो मोहादभिपद्यते / कुभार्यां च कुपुत्रं च कुराजानं कुसौहृदम् / आत्मनो बलमज्ञात्वा तदन्तं तस्य जीवितम् / / 74 कुसंबन्धं कुदेशं च दूरतः परिवर्जयेत् // 89 यस्तु वर्षमविज्ञाय क्षेत्रं कृषति मानवः / कुमित्रे नास्ति विश्वासः कुभार्यायां कुतो रतिः / हीनं पुरुषकारेण सस्यं नैवाप्नुते पुनः // 75 कुराज्ये निवृतिर्नास्ति कुदेशे न प्रजीव्यते // 90 यश्च तिक्तं कषायं वाप्यास्वादविधुरं हितम् / कुमित्रे संगतं नास्ति नित्यमस्थिरसौहृदे / आहारं कुरुते नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते // 76 अवमानः कुसंबन्धे भवत्यर्थविपर्यये // 91 पथ्यं भुक्त्वा नरो लोभाद्योऽन्यदनाति भोजनम्। सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृतिः / परिणाममविज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम् // 77 / / तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते // 92 दैव पुरुषकारश्च स्थितावन्योन्यसंश्रयात् / यत्र नास्ति बलात्कारः स राजा तीव्रशासनः / उदात्तानां कर्म तत्रं दैवं क्लीबा उपासते / / 78 न चैव ह्यभिसंबन्धो दरिद्रं यो बुभूषति // 93 कर्म चात्महितं कार्य तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु। भार्या देशोऽथ मित्राणि पुत्रसंबन्धिबान्धवाः / प्रस्यतेऽकर्मशीलस्तु सदानथै रकिंचनः // 79 एतत्सर्वं गुणवति धर्मनेत्रे महीपतौ // 94 तस्मात्संशयितेऽप्यर्थे कार्य एव पराक्रमः। अधर्मज्ञस्य विलयं प्रजा गच्छन्त्यनिग्रहात् / सर्वस्वमपि संत्यज्य कार्यमात्महितं नरैः // 80 राजा मूलं त्रिवर्गस्य अप्रमत्तोऽनुपालयन् // 95 विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च बलं धैर्य च पञ्चकम् / बलिषड्भागमुद्धृत्य बलिं तमुपयोजयेत् / मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्तीह यैर्बुधाः // 81 / न रक्षति प्रजाः सम्यग्यः स पार्थिवतस्करः // 96 निवेशनं च कुप्यं च क्षेत्रं भार्या सुहृज्जनः। दत्त्वाभयं यः स्वयमेव राजा एतान्युपचितान्याहुः सर्वत्र लभते पुमान् // 82 __ न तत्प्रमाणं कुरुते यथावत् / सर्वत्र रमते प्राज्ञः सर्वत्र च विरोचते / स सर्वलोकादुपलभ्य पापन विभीषयते कंचिद्भीषितो न बिभेति च // 83 | मधर्मबुद्धिर्निरयं प्रयाति / / 97 - 2175 - Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 137. 98] महाभारते [12. 138. 15 दत्त्वाभयं यः स्म राजा प्रमाणं कुरुते सदा। | दस्युभिः पीड्यमाने च कथं स्थेयं पितामह // 1 स सर्वसुखकृज्ज्ञेयः प्रजा धर्मेण पालयन् // 98 भीष्म उवाच / पिता माता गुरुगोप्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः / / हन्त ते कथयिष्यामि नीतिमापत्सु भारत / सप्त राज्ञो गुणानेतान्मनुराह प्रजापतिः / / 99 उत्सृज्यापि घृणां काले यथा वर्तेत भूमिपः // 2 पिता हि राजा राष्ट्रस्य प्रजानां योऽनुकम्पकः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तस्मिन्मिथ्याप्रणीते हि तिर्यग्गच्छति मानवः / भरद्वाजस्य संवादं राज्ञः शद्युतपस्य च // 3 संभावयति मातेव दीनमभ्यवपद्यते / राजा शत्रुतपो नाम सौवीराणां महारथः। दहत्यनिरिवानिष्टान्यमयन्भवते यमः // 101 कणिकमुपसंगम्य पप्रच्छार्थविनिश्चयम् // 4 इष्टेषु विसृजत्यर्थान्कुबेर इव कामदः / अलब्धस्य कथं लिप्सा लब्धं केन विवर्धते / गुरुर्धर्मोपदेशेन गोप्ता च परिपालनात् // 102 वर्धितं पालयेत्केन पालितं प्रणयेत्कथम् // .5 यस्तु रञ्जयते राजा पौरजानपदान्गुणैः / तस्मै विनिश्चयार्थं स परिपृष्टार्थनिश्चयः / न तस्य भ्रश्यते राज्यं गुणधर्मानुपालनात् / / 103 उवाच ब्राह्मणो वाक्यमिदं हेतुमदुत्तरम् // 6 स्वयं समुपजानन्हि पौरजानपद क्रियाः / नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः / स सुखं मोदते भूप इहलोके परत्र च // 104 अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी च परेषां विवरानुगः // 7 नित्योद्विग्नाः प्रजा यस्य करभारप्रपीडिताः / नित्यमुद्यतदण्डस्य मृशमुद्विजते जनः / / अनर्थैर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम् // 105 तस्मात्सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्ररोधयेत् // 8 प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम् / एवमेव प्रशंसन्ति पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः / स सर्वयज्ञफलभायाजा लोके महीयते // 106 तस्माच्चतुष्टये तस्मिन्प्रधानो दण्ड उच्यते // 9 . षलिना विग्रहो राजन्न कथंचित्प्रशस्यते / छिन्नमूले ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविंनो हताः। बलिना विगृहीतस्य कुतो राज्यं कुतः सुखम्॥१०७ कथं हि शाखास्तिष्ठेयुश्छिन्नमूले वनस्पतौ // 10 भीष्म उवाच / मूलमेवादितश्छिन्द्यात्परपक्षस्य पण्डितः / सैवमुक्त्वा शकुनिका ब्रह्मदत्तं नराधिपम् / ततः सहायान्पक्षं च सर्वमेवानुसारयेत् // 11 राजानं समनुज्ञाप्य जगामाथेप्सितां दिशम् // 108 सुमत्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम् / एतत्ते ब्रह्मदत्तस्य पूजन्या सह भाषितम् / आपदां पदकालेषु कुर्वीत न विचारयेत् // 12 मयोक्तं भरतश्रेष्ठ किमन्यच्छोतुमिच्छसि // 109 वाड्मात्रेण विनीतः स्यादृदयेन यथा क्षुरः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्लक्ष्णपूर्वाभिभाषी च कामक्रोधौ विवर्जयेत् // 15 सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 137 // सपत्नसहिते कार्ये कृत्वा संधिं न विश्वसेत् / अपक्रामेत्ततः क्षिप्रं कृतकार्यो विचक्षणः // 14 युधिष्ठिर उवाच। शत्रु च मित्ररूपेण सान्त्वेनैवामिसान्त्वयेत् / युगक्षयात्परिक्षीणे धर्मे लोके च भारत / नित्यशश्चोद्विजेत्तस्मात्सर्पाद्वेश्मगतादिव // 15 -2176 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 138. 16 ] शान्तिपर्व [12. 138. 45 यस्य बुद्धिं परिभवेत्तमतीतेन सान्त्वयेत् / / स मृत्युमुपगृह्यारते गर्भमश्वतरी यथा // 30 अनागतेन दुष्प्रज्ञं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम् // 16 सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान्स्याहुरारुहः / अञ्जलिं शपथं सान्त्वं प्रणम्य शिरसा वदेत् / आमः स्यात्पक्कसंकाशो न च शीर्येत कस्यचित् // अश्रुप्रपातनं चैव कर्तव्यं भूतिमिच्छता // 17 आशां कालवतीं कुर्यात्तां न विघ्नेन योजयेत् / वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्ययः / विघ्रं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं चापि हेतुतः // 32 अथैनमागते काले भिन्द्याद्भटमिवाश्मनि // 18 भीतवत्संविधातव्यं यावद्भयमनागतम् / मुहूर्तमपि राजेन्द्र तिन्दुकालातवज्वलेत् / आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत् // 33 न तुषाग्निरिवानर्चिधूमायेत नरश्चिरम् // 19 न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति / नानर्थकेनार्थवत्त्वं कृतघ्नेन समाचरेत् / . संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति // 34 अर्थे तु शक्यते भोक्तुं कृतंकार्योऽवमन्यते / अनागतं विजानीयाद्यच्छेद्भयमुपस्थितम् / तस्मात्सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्॥२० पुनर्वृद्धिक्षयात्किंचिदभिवृत्तं निशामयेत् // 35 कोकिलस्य वराहस्य मेरोः शून्यस्य वेश्मनः।। प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम् / व्याडस्य भक्तिचित्रस्य यच्छ्रेष्ठं तत्समाचरेत् // 21 अनागतसुखाशा च नैष बुद्धिमतां नयः // 36 उत्थायोत्थाय गच्छेच नित्ययुक्तो रिपोर्गृहान् / योऽरिणा सह संधाय सुखं स्वपिति विश्वसन् / कुशलं चापि पृच्छेत यद्यप्यकुशलं भवेत् // 22 | स वृक्षाग्रप्रसुप्तो वा पतितः प्रतिबुध्यते // 37 नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्न क्लीबा न च मानिनः / कर्मणा येन तेनेह मृदुना दारुणेन वा। न च लोकरवागीता न च शश्वत्प्रतीक्षिणः // 23 उद्धरेदीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत् // 38 नास्य छिद्रं परो विद्याद्विद्याच्छिद्रं परस्य तु / ये सपत्नाः सपत्नानां सर्वांस्तानपवत्सयेत् / गृहेत्कर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः / / 24 आत्मनश्चापि बोद्धव्याश्चाराः प्रणिहिताः परैः॥३९ बकवञ्चिन्तयेदान्सिहवञ्च पराक्रमेत् / चारः सुविहितः कार्य आत्मनोऽथ परस्य च / वृकवच्चावलुम्पेत शशवञ्च विनिष्पतेत् // 25 पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्र प्रवेशयेत् // 40 पानमक्षास्तथा नार्यो मृगया गीतवादितम् / उद्यानेषु विहारेषु प्रपास्वावसथेषु च / एतानि युक्त्या सेवेत प्रसङ्गो ह्यत्र दोषवान् // 26 पानागारेषु वेशेषु तीर्थेषु च सभासु च // 41 कुर्यात्तणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम। धर्माभिचारिणः पापाश्वारा लोकस्य कण्टकाः / अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि संश्रयेत् // 27 समागच्छन्ति तान्बुवा नियच्छेच्छमयेदपि // 42 देशं कालं समासाद्य विक्रमेत विचक्षणः / / न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नापि विश्वसेत् / देशकालाभ्यतीतो हि विक्रमो निष्फलो भवेत् / / 28 विश्वस्तं भयमन्वेति नापरीक्ष्य च विश्वसेत् // 43 कालाकाली संप्रधार्य बलाबलमथात्मनः / विश्वासयित्वा तु परं तत्त्वभूतेन हेतुना / परस्परबलं ज्ञात्वा तथात्मानं नियोजयेत् / / 29 अथास्य प्रहरेत्काले किंचिद्विचलिते पदे // 44 दण्डेनोपनतं शत्रु यो राजा न नियच्छति / अशङ्कथमपि शङ्केत नित्यं शङ्केत शङ्कितात् / म.भा. 273 -2177 - Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 138. 45] महाभारते [ 12. 138. 70 भयं हि शङ्किताज्जातं समूलमपि कृन्तति // 45 नासम्यकृतकारी स्यादप्रमत्तः सदा भवेत् / अवधानेन मौनेन काषायेण जटाजिनैः / कण्टकोऽपि हि दुश्छिन्नो विकारं कुरुते चिरम् // विश्वासयित्वा द्वेष्टारमवलुम्पेद्यथा वृकः // 46 वधेन च मनुष्याणां मार्गाणां दूषणेन च / पुत्रो वा यदि वा भ्राता पिता वा यदि वा सुहृत् / आकराणां विनाशैश्च परराष्ट्रं विनाशयेत् // 61 अर्थस्य विघ्नं कुर्वाणा हन्तव्या भूतिवर्धनाः // 47 गृध्रदृष्टिर्बकालीनः श्वचेष्टः सिंहविक्रमः / गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः / अनुद्विग्नः काकशङ्की भुजंगचरितं चरेत् / / 62 उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शासनम् // 48 श्रेणिमुख्योपजापेषु वल्लभानुनयेषु च। / प्रत्युत्थानामिवादाभ्यां संप्रदानेन कस्यचित् / / अमात्यान्परिरक्षेत भेदसंघातयोरपि // 63 . प्रतिपुष्कलघाती स्यात्तीक्ष्णतुण्ड इव द्विजः // 49 मृदुरित्यवमन्यन्ते तीक्ष्ण इत्युद्विजन्ति च। नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम् / / तीक्ष्णकाले च तीक्ष्णः स्यान्मृदुकाले मृदुर्भवेत् // नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति परमां श्रियम् // 50 मृदुना सुमृदुं हन्ति मृदुना हन्ति दारुणम् / नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते / नासाध्यं मृदुना किंचित्तस्मात्तीक्ष्णतरं मृदु // 65 सामर्थ्ययोगाजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा // 51 काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः / अमित्रं नैव मुश्चेत ब्रुवन्तं करुणान्यपि / न साधयति कृत्यानि शबूंश्चैवाधितिष्ठति / / 66 दुःखं तत्र न कुर्वीत हन्यात्पूर्वापकारिणम् // 52 पण्डितेन विरुद्धः सन्दूरेऽस्मीति न विश्वसेत् / संग्रहानुग्रहे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता / दी| बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः॥६७ निग्रहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता // 53 न तत्तरेद्यस्य न पारमुत्तरेप्रहरिष्यन्प्रियं ब्रूयात्प्रहृत्यापि प्रियोत्तरम् / न तद्धरेद्यत्पुनराहरेत्परः / अपि चास्य शिरश्छित्त्वा रुद्याच्छोचेदथापि वा।।५४ न तत्खनेद्यस्य न मूलमुत्खनेनिमश्रयेत सान्त्वेन संमानेन तितिक्षया / न तं हन्याद्यस्य शिरो न पातयेत् // 68 आशाकारणमित्येतत्कर्तव्यं भूतिमिच्छता // 55 इतीदमुक्तं वृजिनाभिसंहितं न शुष्कवैरं कुर्वीत न बाहुभ्यां नदी तरेत् / न चैतदेवं पुरुषः समाचरेत् / अपार्थकमनायुष्यं गोविषाणस्य भक्षणम् / परप्रयुक्तं तु कथं निशामयेदन्ताश्च परिघृष्यन्ते रसश्चापि न लभ्यते // 56 ___ दतो मयोक्तं भवतो हितार्थिना // 69 त्रिवर्गे त्रिविधा पीडानुबन्धात्रय एव च / यथावदुक्तं वचनं हितं तदा अनुबन्धवधौ ज्ञात्वा पीडां हि परिवर्जयेत् // 57 निशम्य विप्रेण सुवीरराष्ट्रियः / ऋणशेषोऽग्निशेषश्च शत्रुशेषस्तथैव च / तथाकरोद्वाक्यमदीनचेतनः पुनः पुनर्विवर्धेत स्वल्पोऽप्यनिवारितः // 58 श्रियं च दीप्तां बुभुजे सबान्धवः / / 70 वर्धमानमृणं तिष्ठत्परिभूताश्च शत्रवः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आवहन्त्यनयं तीव्र व्याधयश्चाप्युपेक्षिताः // 59 / अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 138 // -2178 - Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 139. 1] शान्तिपर्व [ 12. 139. 29 139 त्रेतानिर्मोक्षसमये द्वापरप्रतिपादने // 14 युधिष्ठिर उवाच / न ववर्ष सहस्राक्षः प्रतिलोमोऽभवद्गुरुः / हीने परमके धर्मे सर्वलोकातिलचिनि / जगाम दक्षिणं मागं सोमो व्यावृत्तलक्षणः // 15 अधर्मे धर्मतां नीते धर्मे चाधर्मतां गते // 1 नावश्यायोऽपि राज्यन्ते कुत एवाभ्रराजयः / मर्यादासु प्रभिन्नासु क्षुभिते धर्मनिश्चये। नद्यः संक्षिप्ततोयौघाः कचिदन्तर्गताभवन् // 16 राजभिः पीडिते लोके चोरैर्वापि विशां पते // 2 सरांसि सरितश्चैव कूपाः प्रस्रवणानि च / सर्वाश्रमेषु मूढेषु कर्मसूपहतेषु च / हतत्विट्वान्यलक्ष्यन्त निसर्गादेवकारितात् // 17 कामान्मोहाच्च लोभाच्च भयं पश्यत्सु भारत // 3 उपशुष्कजलस्थाया विनिवृत्तसभाप्रपा / अविश्वस्तेषु सर्वेषु नित्यभीतेषु पार्थिव / निवृत्तयज्ञस्वाध्याया निर्वषट्कारमङ्गला // 18 निकृत्या हन्यमानेषु वश्चयत्सु परस्परम् // 4 उत्सन्नकृषिगोरक्ष्या निवृत्तविपणापणा। संप्रदीप्तेषु देशेषु ब्राह्मण्ये चाभिपीडिते। निवृत्तपूगसमया संप्रनष्टमहोत्सवा // 19 अवर्षति च पर्जन्ये मिथो भेदे समुत्थिते / / 5 अस्थिकङ्कालसंकीर्णा हाहाभूतजनाकुला / सर्वस्मिन्दस्युसाद्भते पृथिव्यामुपजीवने / शून्यभूयिष्ठनगरा दग्धग्रामनिवेशना // 20 केन स्विद्राह्मणो जीवेजघन्ये काल आगते // 6 कचिच्चोरैः क्वचिच्छौः क्वचिद्राजभिरातुरैः / अतित्यक्षुः पुत्रपौत्राननुक्रोशान्नराधिप / परस्परभयाच्चैव शून्यभूयिष्ठनिर्जना // 21 कथमापत्सु वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह / / 7 गतदैवतसंकल्पा वृद्धबालविनाकृता / कथं च राजा वर्तेत लोके कलुषतां गते / गोजाविमहिषैीना परस्परहराहरा // 22 कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेत परंतप // 8 हतविप्रा हतारक्षा प्रनष्टौषधिसंचया। भीष्म उवाच / श्यावभूतनरप्राया बभूव वसुधा तदा // 23 राजमूला महाराज योगक्षेमसुवृष्टयः / तस्मिन्प्रतिभये काले क्षीणे धर्मे युधिष्ठिर / प्रजासु व्याधयश्चैव मरणं च भयानि च // 9 बभ्रमुः क्षुधिता माः खादन्तः स्म परस्परम् // कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्च भरतर्षभ / ऋषयो नियमांस्त्यक्त्वा परित्यक्ताग्निदेवताः / राजमूलानि सर्वाणि मम नास्त्यत्र संशयः // 10 आश्रमान्संपरित्यज्य पर्यधावन्नितस्ततः // 25 तस्मिंस्त्वभ्यागते काले प्रजानां दोषकारके / विश्वामित्रोऽथ भगवान्महर्षिरनिकेतनः। विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं तदा भवेत् // 11 / / क्षुधा परिगतो धीमान्समन्तात्पर्यधावत // 26 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / स कदाचित्परिपतञ्श्वपचानां निवेशनम् / विश्वामित्रस्य संवादं चण्डालस्य च पक्कणे // 12 / हिंस्राणां प्राणिहन्तॄणामाससाद वने कचित् // 27 त्रेताद्वापरयोः संधौ पुरा दैवविधिक्रमात् / विभिन्नकलशाकीर्णं श्वचर्माच्छादनायुतम् / अनावृष्टिरभूद्वोरा राजन्द्वादशवार्षिकी // 13 वराहखरभग्नास्थिकपालघटसंकुलम् / / 28 प्रजानामभिवृद्धानां युगान्ते पर्युपस्थिते / मृतचेलपरिस्तीग निर्माल्यकृतभूषणम् / -2179 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 139. 29 ] महाभारते [ 12. 139. 59 सर्पनिर्मोकमालाभिः कृतचिह्नकुटीमठम् // 29 / सहसाभ्यागतभयः सोद्वेगस्तेन कर्मणा // 44 उलूकपक्षध्वजिभिर्देवतायतनैर्वृतम् / चण्डालस्तद्वचः श्रुत्वा महर्षे वितात्मनः। . लोहघण्टापरिष्कारं श्वयूथपरिवारितम् / / 30 शयनादुपसंभ्रान्त इयेषोत्पतितुं ततः // 45 तत्प्रविश्य क्षुधाविष्टो गाधेः पुत्रो महानृषिः।। स विसृज्याश्रु नेत्राभ्यां बहुमानात्कृताञ्जलिः / आहारान्वेषणे युक्तः परं यत्नं समास्थितः // 31 उवाच कौशिकं रात्रौ ब्रह्मन्कि ते चिकीर्षितम् // न च क्वचिदविन्दत्स भिक्षमाणोऽपि कौशिकः / / विश्वामित्रस्तु मातङ्गमुवाच परिसान्त्वयन् / मांसमन्नं मूलफलमन्यद्वा तत्र किंचन / / 32 क्षुधितोऽहं गतप्राणो हरिष्यामि श्वजाघनीम् // 47 अहो कृच्छं मया प्राप्तमिति निश्चित्य कौशिकः / / अवसीदन्ति मे प्राणाः स्मृतिमें नश्यति क्षुधा। पपात भूमौ दौर्बल्यात्तस्मिंश्चण्डालपक्कणे // 33 स्वधर्म बुध्यमानोऽपि हरिष्यामि श्वजाघनीम् // 48 चिन्तयामास स मुनिः किं नु मे सुकृतं भवेत् / अटन्भैक्षं न विन्दामि यदा युष्माकमालये / कथं वृथा न मृत्युः स्यादिति पार्थिवसत्तम / / 34 तदा बुद्धिः कृता पापे हरिष्यामि श्वजाघनीम्॥४९ स ददर्श श्वमांसस्य कुतन्तीं विततां मुनिः। तृषितः कलुषं पाता नास्ति हीरशनार्थिनः / चण्डालस्य गृहे राजन्सद्यः शस्त्रहतस्य च / / 35 / / क्षुद्धर्मं दूषयत्यत्र हरिष्यामि श्वजाघनीम् // 50 स चिन्तयामास तदा स्तेयं कार्यमितो मया / अग्निर्मुखं पुरोधाश्च देवानां शुचिपाद्विभुः / न हीदानीमुपायोऽन्यो विद्यते प्राणधारणे // 36 यथा स सर्वभुग्ब्रह्मा तथा मां विद्धि धर्मतः॥ 51 आपत्सु विहितं स्तेयं विशिष्टसमहीनतः / तमुवाच स चण्डालो महर्षे शृणु मे वचः / परं परं भवेत्पूर्वमस्तेयमिति निश्चयः // 37 श्रुत्वा तथा समातिष्ठ यथा धर्मान्न हीयसे // 52 हीनादादेयमादौ स्यात्समानात्तदनन्तरम् / मृगाणामधर्म श्वान प्रवदन्ति मनीषिणः / असंभवादाददीत विशिष्टादपि धार्मिकात् // 38 . तस्याप्यधम उद्देशः शरीरस्योरुजाघनी // 53 सोऽहमन्तावसानानां हरमाणः परिग्रहात् / नेदं सम्यग्व्यवसितं महर्षे कर्म वैकृतम् / न स्तेयदोषं पश्यामि हरिष्यामेतदामिषम् // 39 चण्डालस्वस्य हरणमभक्ष्यस्य विशेषतः // 54 एतां बुद्धिं समास्थाय विश्वामित्रो महामुनिः / साध्वन्यमनुपश्य त्वमुपायं प्राणधारणे / तस्मिन्देशे प्रसुष्वाप पतितो यत्र भारत // 40 न मांसलोभात्तपसो नाशस्ते स्यान्महामुने / / 55 स विगाढां निशां दृष्ट्वा सुप्ते चण्डालपक्कणे / जानतोऽविहितो मार्गो न कार्यो धर्मसंकरः / शनैरुत्थाय भगवान्प्रविवेश कुटीमठम् / / 41 मा स्म धर्म परित्याक्षीस्त्वं हि धर्मविदुत्तमः // 56 स सुप्त एव चण्डालः श्लेष्मापिहितलोचनः / विश्वामित्रस्ततो राजन्नित्युक्तो भरतर्षभ / परिभिन्नस्वरो रूक्ष उवाचाप्रियदर्शनः // 42 क्षुधातः प्रत्युवाचेदं पुनरेव महामुनिः // 57 कः कुतन्तीं घट्टयति सुप्ते चण्डालपक्कणे / निराहारस्य सुमहान्मम कालोऽभिधावतः / जागर्मि नावसुप्तोऽस्मि हतोऽसीति च दारुणः॥४३ - न विद्यतेऽभ्युपायश्च कश्चिन्मे प्राणधारणे // 58 विश्वामित्रोऽहमित्येव सहसा तमुवाच सः। येन तेन विशेषेण कर्मणा येन.केनचित् / -2180 - Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 139. 59 ] शान्तिपर्व [12. 139. 76 अभ्युज्जीवेत्सीदमानः समर्थो धर्ममाचरेत् // 59 / परां मेध्याशनादेतां भक्ष्यां मन्ये श्वजाघनीम् // 69 ऐन्द्रो धर्मः क्षत्रियाणां ब्राह्मणानामथाग्निकः / श्वपच उवाच / ब्रह्मवह्निर्मम बलं भक्ष्यामि समयं क्षुधा // 60 असता यत्समाचीणं न स धर्मः सनातनः / यथा यथा वै जीवेद्धि तत्कर्तव्यमपीडया। नावृत्तमनुकार्य वै मा छलेनानृतं कृथाः // 70 जीवितं मरणाच्छ्रेयो जीवन्धर्ममवाघुयात् // 61 विश्वामित्र उवाच / सोऽहं जीवितमाकान्नभक्षस्यापि भक्षणम् / न पातकं नावमतमृषिः सन्कर्तुमर्हति / व्यवस्ये बुद्धिपूर्व वै तद्भवाननुमन्यताम् / / 62 समौ च श्वमृगौ मन्ये तस्माद्भक्ष्या श्वजाघनी॥ जीवन्धर्म चरिष्यामि प्रणोत्स्याम्यशुभानि च / श्वपच उवाच। तपोभिर्विद्यया चैव ज्योतीषीव महत्तमः // 63 यद्ब्राह्मणार्थे कृतमर्थितेन श्वपच उवाच / तेनर्षिणा तच्च भक्ष्याधिकारम् / नैतत्वादन्प्राप्स्यसे प्राणमन्यं स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति नायुर्दीर्घ नामृतस्येव तृप्तिम् / सर्वैरुपायैर्हि स रक्षितव्यः // 72 भिक्षामन्यां भिक्ष मा ते मनोऽस्तु विश्वामित्र उवाच / श्वभक्षणे श्वा ह्यभक्षो द्विजानाम् / / 64 मित्रं च मे ब्राह्मणश्चायमात्मा विश्वामित्र उवाच / प्रियश्च मे पूज्यतमश्च लोके / न दुर्भिक्षे सुलभं मांसमन्य तं भर्तुकामोऽहमिमां हनिष्ये च्छपाक नान्नं न च मेऽस्ति वित्तम् / नृशंसानामीदृशानां न बिभ्ये // 73 क्षुधार्तश्चाहमगतिनिराशः श्वपच उवाच / श्वमांसे चास्मिन्षसान्साधु मन्ये // 65 कामं नरा जीवितं संत्यजन्ति .. श्वपच उवाच / न चाभक्ष्यैः प्रतिकुर्वन्ति तत्र / पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रस्य वै द्विज / सर्वान्कामान्प्राप्नुवन्तीह विद्वयदि शास्त्रं प्रमाणं ते माभक्ष्ये मानसं कृथाः // 66 प्रियस्व कामं सहितः क्षुधा वै // 74 विश्वामित्र उवाच / विश्वामित्र उवाच / अगस्त्येनासुरो जग्धो वातापिः क्षुधितेन वै / स्थाने तावत्संशयः प्रेत्यभावे अहमापगतः क्षुब्धो भक्षयिष्ये श्वजाघनीम् // 67 निःसंशयं कर्मणां वा विनाशः / __ श्वपच उवाच / अहं पुनर्वर्त इत्याशयात्मा भिक्षामन्यामाहरेति न चैतत्कर्तुमर्हसि / मूलं रक्षन्भक्षयिष्याम्यभक्ष्यम् // 75 न नूनं कार्यमेतद्वै हर कामं श्वजाघनीम् // 68 बुद्धयात्मके व्यस्तमस्तीति तुष्टो विश्वामित्र उवाच / मोहादेकत्वं यथा चर्म चक्षुः / शिष्टा वै कारणं धर्मे तद्वृत्तमनुवर्तये / यद्यप्येनःसंशयादाचरामि -2181 - Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 139. 76] महाभारते [ 12. 139.98 नाहं भविष्यामि यथा त्वमेव / / 76 कार्यो न्यायैर्नित्यमत्रापवादः। श्वपच उवाच / यस्मिन्न हिंसा नानृते वाक्यलेशो पतनीयमिदं दुःखमिति मे वर्तते मतिः / भक्ष्यक्रिया तत्र न तद्गरीयः / / 84 दुष्कृती ब्राह्मणं सन्तं यस्त्वामहमुपालभे // 77 __श्वपच उवाच / विश्वामित्र उवाच / योष हेतुस्तव खादनस्य पिबन्त्येवोदकं गावो मण्डूकेषु रुवत्स्वपि / न ते वेदः कारणं नान्यधर्मः। ... न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः // 78 | तस्मादभक्ष्ये भक्षणाद्वा द्विजेन्द्र श्वपच उवाच / दोषं न पश्यामि यथेदमात्थ // 85 सुहृद्भूत्वानुशास्मि त्वा कृपा हि त्वयि मे द्विज / विश्वामित्र उवाच / तदेवं श्रेय आधत्स्व मा लोभाच्छानमादिथाः // 79 | . न पातकं भक्षणमस्य दृष्ट. विश्वामित्र उवाच / ___ सुरां पीत्वा पततीतीह शब्दः / सुहृन्मे त्वं सुखेप्सुश्चेदापदो मां समुद्धर / अन्योन्यकर्माणि तथा तथैव जानेऽहं धर्मतोऽऽत्मानं श्वानीमुत्सृज जाघनीम् // न लेशमात्रेण कृत्यं हिनस्ति // 86 श्वपच उवाच / / श्वपच उवाच / नैवोत्सहे भवते दातुमेतां अस्थानतो हीनतः कुत्सिताद्वा नोपेक्षितं ह्रियमाणं स्वमन्नम् / तं विद्वांसं बाधते साधुवृत्तम् / उभौ स्यावः स्वमलेनावलिप्तौ स्थानं पुनर्यो लभते निषङ्गादाताहं च त्वं च विप्र प्रतीच्छन् // 81 त्तेनापि दण्डः सहितव्य एव // 87 विश्वामित्र उवाच / भीष्म उवाच / अद्याहमेतद्वृजिनं कर्म कृत्वा एवमुक्त्वा निववृते मातङ्गः कौशिकं तदा / जीवंश्चरिष्यामि महापवित्रम् / विश्वामित्रो जहारैव कृतबुद्धिः श्वजाघनीम् // 88 प्रपूतात्मा धर्ममेवाभिपत्स्ये ततो जग्राह पञ्चाङ्गी जीवितार्थी महामुनिः / यदेतयोगुरु तद्वै ब्रवीहि // 82 सदारस्तामुपाकृत्य वने यातो महामुनिः // 89 श्वपच उवाच / एतस्मिन्नेव काले तु प्रववर्षाथ वासवः। आत्मैव साक्षी किल लोककृत्ये संजीवयन्प्रजाः सर्वा जनयामास चौषधीः / / 90 ___ त्वमेव जानासि यदत्र दुष्टम् / विश्वामित्रोऽपि भगवांस्तपसा दग्धकिल्बिषः / यो ह्याद्रियेद्भक्ष्यमिति श्वमांसं कालेन महता सिद्धिमवाप परमाद्भुताम् // 91 मन्ये न तस्यास्ति विवर्जनीयम् // 83 एवं विद्वानदीनात्मा व्यसनस्थो जिजीविषुः / विश्वामित्र उवाच / सर्वोपायैरुपायज्ञो दीनमात्मानमुद्धरेत् // 92 उपादाने खादने वास्य दोषः एतां बुद्धिं समास्थाय जीवितव्यं सदा भवेत् / 52182 - Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 139. 93] शान्तिपर्व [12. 140. 25 जीवन्पुण्यमवाप्नोति नरो भद्राणि पश्यति // 93 आजिजीविषवो विद्यां यशस्कामाः समन्ततः। तस्मात्कौन्तेय विदुषा धर्माधर्मविनिश्चये / ते सर्वे नरपापिष्ठा धर्मस्य परिपन्थिनः // 12 बुद्धिमास्थाय लोकेऽस्मिन्वर्तितव्यं यतात्मना // 94 अपक्कमतयो मन्दा न जानन्ति यथातथम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सदा ह्यशास्त्रकुशलाः सर्वत्रापरिनिष्ठिताः // 13 एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 139 // परिमुष्णन्ति शास्त्राणि शास्त्रदोषानुदर्शिनः / / विज्ञानमथ विद्यानां न सम्यगिति वर्तते // 14 युधिष्ठिर उवाच / निन्दया परविद्यानां स्वां विद्यां ख्यापयन्ति ये / यदिदं घोरमुरिष्टमश्रद्धेयमिवानृतम् / / वागत्रा वाक्छुरीमत्त्वा दुग्धविद्याफला इव / अस्ति स्विहस्युमर्यादा यामहं परिवर्जये // 1 तान्विद्यावणिजो विद्धि राक्षसानिव भारत // 15 संमुह्यामि विषीदामि धर्मो मे शिथिलीकृतः / | व्याजेन कृत्स्नो विदितो धर्मस्ते परिहास्यते / उद्यमं नाधिगच्छामि कुतश्चित्परिचिन्तयन् // 2 न धर्मवचनं वाचा न बुद्ध्या चेति नः श्रुतम् // 16 भीष्म उवाच / इति बाईस्पतं ज्ञानं प्रोवाच मघवा स्वयम् / नैतच्छुद्धागमादेव तव धर्मानुशासनम् / न त्वेव वचनं किंचिदनिमित्तादिहोच्यते // 17 प्रज्ञासमवतारोऽयं कविभिः संभृतं मधु // 3 स्वविनीतेन शास्त्रेण व्यवस्यन्ति तथापरे / बह्वयः प्रतिविधातव्याः प्रज्ञा राज्ञा ततस्ततः / लोकयात्रामिहैके तु धर्ममाहुर्मनीषिणः // 18 नैकशाखेन धर्मेण यात्रैषा संप्रवर्तते // 4 समुद्दिष्टं सतां धर्म स्वयमहेन्न पण्डितः / बुद्धिसंजननं राज्ञां धर्ममाचरतां सदा। अमर्षाच्छास्त्रसंमोहादविज्ञानाच्च भारत // 19 जयो भवति कौरव्य तदा तद्विद्धि मे वचः // 5 शास्त्रं प्राज्ञस्य वदतः समूहे यात्यदर्शनम् / बुद्धिश्रेष्ठा हि राजानो जयन्ति विजयैषिणः / आगतागमया बुद्धया वचनेन प्रशस्यते // 20 धर्मः प्रतिविधातव्यो बुद्ध्या राज्ञा ततस्ततः / / 6 अज्ञानाज्ज्ञानहेतुत्वाद्वचनं साधु मन्यते / नैकशाखेन धर्मेणं राज्ञां धर्मो विधीयते। अनपाहतमेवेदं नेदं शास्त्रमपार्थकम् // 21 दुर्बलस्य कुतः प्रज्ञा पुरस्तादनुदाहृता // 7 दैतेयानुशनाः प्राह संशयच्छेदने पुरा / अद्वैधज्ञः पथि द्वैधे संशयं प्राप्तुमर्हति। ज्ञानमव्यपदेश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत् // 22 बुद्धिद्वैधं वेदितव्यं पुरस्तादेव भारत / / 8 तेन त्वं छिन्नमूलेन के तोषयितुमर्हसि / पार्श्वतःकरणं प्रज्ञा विषूची त्वापगा इव / अतथ्यविहितं यो वा नेदं वाक्यमुपाभुयात् // 23 जनस्तूच्चारितं धर्म विजानात्यन्यथान्यथा // 9 उपायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे न त्ववेक्षसे / सम्यग्विज्ञानिनः केचिन्मिथ्याविज्ञानिनोऽपरे। अङ्गेमामन्ववेक्षस्व राजनीति बुभूषितुम् / तद्वै यथातथं बुवा ज्ञानमाददते सताम् // 10 यया प्रमुच्यते त्वन्यो यदर्थं च प्रमोदते // 24 परिमुष्णन्ति शास्त्राणि धर्मस्य परिपन्थिनः / अजोऽश्वः क्षत्रमित्येतत्सदृशं ब्रह्मणा कृतम् / वैषम्यमर्थविद्यानां नैरर्थ्याख्यापयन्ति ते // 11 / तस्मादभीक्ष्णभूतानां यात्रा काचित्प्रसिध्यति // 25 -2183 - Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 140. 26] महाभारते [ 12. 141. 18 यस्त्ववध्यवधे दोषः स वध्यस्यावधे स्मृतः। 141 एषैव खलु मर्यादा यामयं परिवर्जयेत् // 26 युधिष्ठिर उवाच / तस्मात्तीक्ष्णः प्रजा राजा स्वधर्मे स्थापयेदुत / पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / अन्योन्यं भक्षयन्तो हि प्रचरेयुर्वृका इव / / 27 / शरणं पालयानस्य यो धर्मस्तं वदस्व मे // 1. यस्य दस्युगणा राष्ट्रे ध्वाङ्गा मत्स्याञ्जलादिव / भीष्म उवाच / विहरन्ति परस्वानि स वै क्षत्रियपांसनः / / 28 महान्धर्मो महाराज शरणागतपालने। कुलीनान्सचिवान्कृत्वा वेदविद्यासमन्वितान् / अर्हः प्रष्टुं भवांश्चैव प्रश्नं भरतसत्तम // 2 . प्रशाधि पृथिवीं राजन्प्रजा धर्मेण पालयन् / / 29 नृगप्रभृतयो राजनराजानः शरणागतान् / विहीनजमकर्माणं यः प्रगृह्णाति भूमिपः / परिपाल्य महाराज संसिद्धिं परमां गताः // 3 उभयस्याविशेषज्ञस्तद्वै क्षत्रं नपुंसकम् // 30 श्रूयते हि कपोतेन शत्रुः शरणमागतः / .. नैवोग्रं नैव चानुग्रं धर्मेणेह प्रशस्यते / पूजितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैनिमश्रितः // 4 उभयं न व्यतिक्रामदुरो भूत्वा मृदुर्भव // 31 युधिष्ठिर उवाच / कष्टः क्षत्रियधर्मोऽयं सौहृदं त्वयि यस्थितम् / कथं कपोतेन पुरा शत्रुः शरणमागतः / उग्रे कर्मणि सृष्टोऽसि तस्माद्राज्यं प्रशाधि वै // 32 स्वमांस जितः कां च गतिं लेभे स भारत // 5 अशिष्टनिग्रहो नित्यं शिष्टस्य परिपालनम् / भीष्म उवाच / इति शक्रोऽब्रवीद्धीमानापत्सु भरतर्षभ / / 33 शृणु राजन्कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम् / युधिष्ठिर उवाच / नृपतेर्मुचुकुन्दस्य कथितां भार्गवेण ह // 6 इममर्थ पुरा पार्थ मुचुकुन्दो नराधिप / अस्ति स्विहस्युमर्यादा यामन्यो नातिलङ्घयेत् / पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह // 34 भार्गवं परिपप्रच्छ प्रणतो भरतर्षभ // 7 तस्मै शुश्रूषमाणाय भार्गवोऽकथयत्कथाम् / भीष्म उवाच / इयं यथा कपोतेन सिद्धिः प्राप्ता नराधिप // 8 ब्राह्मणानेव सेवेत विद्यावृद्धास्तपस्विनः / धर्मनिश्चयसंयुक्तां कामार्थसहितां कथाम् / श्रुतचारित्रवृत्ताढ्यान्पवित्रं ह्येतदुत्तमम् // 35 शृणुष्वावहितो राजन्गदतो मे महाभुज // 9 या देवतासु वृत्तिस्ते सास्तु विप्रेषु सर्वदा / कश्चित्क्षुद्रसमाचारः पृथिव्यां कालसंमतः / क्रुद्धैर्हि विप्रैः कर्माणि कृतानि बहुधा नृप // 36 चचार पृथिवीं पापो घोरः शकुनिलुब्धकः // 10 तेषां प्रीत्या यशो मुख्यमप्रीत्या तु विपर्ययः / / काकोल इव कृष्णाङ्गो रूक्षः पापसमाहितः / प्रीत्या ह्यमृतवद्विप्राः क्रुद्धाश्चैव यथा विषम् // 37 यवमध्यः कृशग्रीवो ह्रस्वपादो महाहनुः // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नैव तस्य सुहृत्कश्चिन्न संबन्धी न बान्धवः / चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 140 // स हि तैः संपरित्यक्तस्तेन घोरेण कर्मणा // 12 स वै क्षारकमादाय द्विजान्हत्वा. वने सदा / -2184 - Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 141. 13 ] शान्तिपर्व [12. 142. 13 उरणमा चकार विक्रयं तेषां पतंगानां नराधिप // 13 दुःखेन महताविष्टस्ततः सुष्वाप पक्षिहा // 27 एवं तु वर्तमानस्य तस्य वृत्ति दुरात्मनः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अगमत्सुमहान्कालो न चाधर्ममबुध्यत // 14 एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 141 // तस्य भार्यासहायस्य रममाणस्य शाश्वतम् / दैवयोगविमूढस्य नान्या वृत्तिररोचत / / 15 भीष्म उवाच / ततः कदाचित्तस्याथ वनस्थस्य समुद्गतः / अथ वृक्षस्य शाखायां विहंगः ससुहृज्जनः / पातयन्निव वृक्षांस्तान्सुमहान्यातसंभ्रमः / / 16 दीर्घकालोषितो राजंस्तत्र चित्रतनूरहः // 1 मेघसंकुलमाकाशं विद्युन्मण्डलमण्डितम् / तस्य काल्यं गता भार्या चरितुं नाभ्यवर्तत / संछन्नं सुमुहूर्तेन नौस्थानेनेव सागरः / / 17 प्राप्तां च रजनीं दृष्ट्वा स पक्षी पर्यतप्यत // 2 वारिधारासमूहैश्च संप्रहृष्टः शतक्रतुः / वातवर्ष महच्चासीन्न चागच्छति मे प्रिया / क्षणेन पूरयामास सलिलेन वसुंधराम् // 18 किं नु तत्कारणं येन साद्यापि न निवर्तते // 3 अपि स्वस्ति भवेत्तस्याः प्रियाया मम कानने / ततो धाराकुले लोके संभ्रमन्नष्टचेतनः / शीतार्तस्तद्वनं सर्वमाकुलेनन्तिरात्मना // 19 तया विरहितं हीदं शून्यमद्य गृहं मम // 4 यदि सा रत्तनेत्रान्ता चित्राङ्गी मधुरस्वरा / नैव निम्नं स्थलं वापि सोऽविन्दत विहंगहा / अद्य नाभ्येति मे कान्ता न कार्य जीवितेन मे // 5 पूरितो हि जलौधेन मार्गस्तस्य वनस्य वै // 20 पतिधर्मरता साध्वी प्राणेभ्योऽपि गरीयसी / पक्षिणो वातवेगेन हता लीनास्तदाभवन् / सा हि श्रान्तं क्षुधा च जानीते मां तपस्विनी // 6 मृगाः सिंहा वराहाश्च स्थलान्याश्रित्य तस्थिरे॥२१ अनुरक्ता हिता चैव स्निग्धा चैव पतिव्रता / महता वातवर्षेण त्रासितास्ते वनौकसः / यस्य वै तादृशी भार्या धन्यः स मनुजो भुवि // 7 भयार्ताश्व क्षुधार्ताश्च बभ्रमुः सहिता वने // 22 भार्या हि परमो नाथः पुरुषस्येह पठ्यते / स तु शीतहतैर्गात्रैर्जगामैव न तस्थिवान् / / असहायस्य लोकेऽस्मिल्लोकयात्रासहायिनी // 8 सोऽपश्यद्वनषण्डेपु मेघनीलं वनस्पतिम् // 23 तथा रोगाभिभूतस्य नित्यं कृच्छ्रगतस्य च / साराढ्यं कुमुदाकारमाकाशं निर्मलं च ह / नास्ति भार्यासमं किंचिन्नरस्यार्तस्य भेषजम् // 9 मेधैर्मुक्तं नभो दृष्ट्वा लुब्धकः शीतविह्वलः / / 24 नास्ति भार्यासमो बन्धुर्नास्ति भार्यासमा गतिः / दिशोऽवलोकयामास वेलां चैव दुरात्मवान् / नास्ति भार्यासमो लोके सहायो धर्मसाधनः // 10 दूरे ग्रामनिवेशश्च तस्माद्देशादिति प्रभो। एवं विलपतस्तस्य द्विजस्यार्तस्य तत्र वै। कृतबुद्धिर्वने तस्मिन्वस्तुं तां रजनीं तदा // 25 गृहीता शकुननेन भार्या शुश्राव भारतीम् // 11 तोऽञ्जलिं प्रयतः कृत्वा वाक्यमाह वनस्पतिम् / न सा स्त्रीत्यभिभाषा स्याद्यस्या भर्ता न तुष्यति / शरणं यामि यान्यस्मिन्देवतानीह भारत // 26 अग्निसाक्षिकमप्येतद्भर्ता हि शरणं स्त्रियः // 12 स शिलायां शिरः कृत्वा पर्णान्यास्तीर्य भूतले। | इति संचिन्त्य दुःखार्ता भर्तारं दुःखितं तदा / म.भा. 274 -2185 - Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 142. 13 ] महाभारते [12. 142. 42 कपोती लुब्धकेनाथ यत्ता वचनमब्रवीत् // 13 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शकुनेलुब्धकोऽब्रवीत् / हन्त वक्ष्यामि ते श्रेयः श्रुत्वा च कुरु तत्तथा / बाधते खलु मा शीतं हिमत्राणं विधीयताम् // 28 शरणागतसंत्राता भव कान्त विशेषतः // 14 एवमुक्तस्ततः पक्षी पर्णान्यास्तीर्य भूतले / एष शाकुनिकः शेते तव वासं समाश्रितः। यथाशुष्काणि यत्नेन ज्वलनार्थं द्रुतं ययौ // 29 शीतार्तश्च क्षुधार्तश्च पूजामस्मै प्रयोजय // 15 स गत्वाङ्गारकर्मान्तं गृहीत्वाग्निमथागमत् / यो हि कश्चिहिजं हन्याद्गां वा लोकस्य मातरम् / ततः शुष्केषु पर्णेषु पावकं सोऽभ्यदीदिपत् / / 30 शरणागतं च यो हन्यात्तुल्यं तेषां च पातकम् // 16 सुसंदीप्तं महत्कृत्या तमाह शरणागतम् / यास्माकं विहिता वृत्तिः कापोती जातिधर्मतः / / प्रतापय सुविस्रब्धं स्वगात्राण्यकुतोभयः / / 31 सा न्याय्यात्मवतां नित्यं त्वद्विधेनाभिवर्तितुम् / / 17 स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा लुब्धो गात्राण्यतापयत् / यस्तु धर्म यथाशक्ति गृहस्थो ह्यनुवर्तते / अग्निप्रत्यागतप्राणस्ततः प्राह विहंगमम् // 32 स प्रेत्य लभते लोकानक्षयानिति शुश्रुम // 18 दत्तमाहारमिच्छामि त्वया क्षुद्वाधते हि माम् / स त्वं संतानवानद्य पुत्रवानपि च द्विज। तद्वचः स प्रतिश्रुत्य वाक्यमाह विहंगमः // 33 तत्स्वदेहे दयां त्यक्त्वा धर्मार्थों परिगृह्य वै।। न मेऽस्ति विभवो येन नाशयामि तव क्षुधाम् / पूजामस्मै प्रयुञ्ज त्वं प्रीयेतास्य मनो यथा // 19 उत्पन्नेन हि जीवामो वयं नित्यं वनौकसः // 34 इति सा शकुनी वाक्यं क्षारकस्था तपस्विनी। संचयो नास्ति चास्माकं मुनीनामिव कानने / अतिदुःखान्विता प्रोच्य भर्तारं समुदैक्षत / / 20 इत्युक्त्वा स तदा तत्र विवर्णवदनोऽभवत् // 35 स पन्या वचनं श्रुत्वा धर्मयुक्तिसमन्वितम् / / कथं न खलु कर्तव्यमिति चिन्तापरः सदा / हर्षेण महता युक्तो बाष्पव्याकुललोचनः // 21 बभूव भरतश्रेष्ठ गर्हयन्वृत्तिमात्मनः // 36 तं वै शाकुनिकं दृष्ट्वा विधिदृष्टेन कर्मणा। मुहूर्ताल्लब्धसंज्ञस्तु स पक्षी पक्षिघातकम् / पूजयामास यत्नेन स पक्षी पक्षिजीविनम् // 22 उवाच तर्पयिष्ये त्वां मुहूर्त प्रतिपालय // 37 उवाच च स्वागतं ते ब्रूहि किं करवाण्यहम्। इत्युक्त्वा शुष्कपर्णैः स संप्रज्वाल्य हुताशनम् / संतापश्च न कर्तव्यः स्वगृहे वर्तते भवान् // 23 हर्षेण महता युक्तः कपोतः पुनरब्रवीत् // 38 तद्भवीतु भवान्क्षिप्रं किं करोमि किमिच्छसि / देवानां च मुनीनां च पितॄणां च महात्मनाम् / प्रणयेन ब्रवीमि त्वां त्वं हि नः शरणागतः // 24 श्रुतपूर्वो मया धर्मो महानतिथिपूजने // 39 शरणागतस्य कर्तव्यमातिथ्यमिह यत्नतः। कुरुष्वानुग्रहं मेऽद्य सत्यमेतद्ब्रवीमि ते / पञ्चयज्ञप्रवृत्तेन गृहस्थेन विशेषतः // 25 निश्चिता खलु मे बुद्धिरतिथिप्रतिपूजने // 40 पश्चयज्ञांस्तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमी। ततः सत्यप्रतिज्ञो वै स पक्षी प्रहसन्निव / तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः // 26 / तमग्निं त्रिः परिक्रम्य प्रविवेश महीपते // 41 तद्भहि त्वं सुविस्रब्धो यत्त्वं वाचा वदिष्यसि / / अग्निमध्यं प्रविष्टं तं लुब्धो दृष्ट्वाथ पक्षिणम् / तत्करिष्याम्यहं सर्वं मा त्वं शोके मनः कृथाः।।२७ / चिन्तयामास मनसा किमिदं नु कृतं मया // 4 - 2186 - Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 142. 43 ] शान्तिपर्व [ 12. 144. 12 अहो मम नृशंसस्य गर्हितस्य स्वकर्मणा / तांश्च बद्धान्कपोतान्स संप्रमुच्योत्ससर्ज ह // 10 अधर्मः सुमहान्घोरो भविष्यति न संशयः // 43 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एवं बहुविधं भूरि विललाप स लुब्धकः। त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 143 // गर्हयन्स्वानि कर्माणि द्विजं दृष्ट्वा तथागतम् // 44 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भीष्म उवाच / द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 142 // ततो गते शाकुनिके कपोती प्राह दुःखिता। संस्मृत्य भर्तारमथो रुदती शोकमूछिता // 1 भीष्म उवाच / नाहं ते विप्रियं कान्त कदाचिदपि संस्मरे / ततस्तं लुब्धकः पश्यन्कृपयाभिपरिप्लुतः / सर्वा वै विधवा नारी बहुपुत्रापि खेचर / कपोतमग्नौ पतितं वाक्यं पुनरुवाच ह // 1 शोच्या भवति बन्धूनां पतिहीना मनस्विनी // 2 किमीदृशं नृशंसेन मया कृतमबुद्धिना। लालिताहं त्वया नित्यं बहुमानाच्च सान्त्विता / भविष्यति हि मे नित्यं पातकं हृदि जीवतः // 2 वचनैर्मधुरैः स्निग्धैरसकृत्सुमनोहरैः // 3 स विनिन्दन्नथात्मानं पुनः पुनरुवाच ह / कन्दरेषु च शैलानां नदीनां निर्झरेषु च / धिङ्मामस्तु सुदुर्बुद्धिं सदा निकृतिनिश्चयम् / द्रुमाग्रेषु च रम्येषु रमिताहं त्वया प्रिय // 4 शुभं कर्म परित्यज्य योऽहं शकुनिलुब्धकः // 3 आकाशगमने चैव सुखिताहं त्वया सुखम् / नृशंसस्य ममाद्यायं प्रत्यादेशो न संशयः / विहृतास्मि त्वया कान्त तन्मे नाद्यास्ति किंचन // 5 दत्तः स्वमांसं ददता कपोतेन महात्मना // 4 मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः / सोऽहं त्यक्ष्ये प्रियान्प्राणान्पुत्रदारं विसृज्य च। अमितस्य तु दातारं भर्तारं का न पूजयेत्॥ 6 उपदिष्टो हि मे धर्मः कपोतेनातिधर्मिणा // 5 / नास्ति भर्तृसमो नाथो न च भर्तृसमं सुखम् / 'अद्य प्रभृति देहं स्वं सर्वभोगैर्विवर्जितम् / विसृज्य धनसर्वस्वं अर्ता वै शरणं स्त्रियाः // 7 यथा स्वल्पं जलं ग्रीष्मे शोषयिष्याम्यहं तथा // 6 न कार्यमिह मे नाथ जीवितेन त्वया विना / क्षुत्पिपासातपसहः कृशो धमनिसंततः / पतिहीनापि का नारी सती जीवितुमुत्सहेत् // 8 उपवासैर्बहुविधैश्चरिष्ये पारलौकिकम् // 7 एवं विलप्य बहुधा करुगं सा सुदुःखिता। अहो देहप्रदानेन दर्शितातिथिपूजना। पतिव्रता संप्रदीप्तं प्रविवेश हुताशनम् // 9 तस्माद्धर्म चरिष्यामि धर्मो हि परमा गतिः / ततश्चित्राम्बरधरं भर्तारं सान्वपश्यत / दृष्टो हि धर्मो धर्मिष्ठेर्यादृशो विहगोत्तमे // 8 विमानस्थं सुकृतिभिः पूज्यमानं महात्मभिः // 10 एवमुक्त्वा विनिश्चित्य रौद्रकर्मा स लुब्धकः। चित्रमाल्याम्बरधरं सर्वाभरणभूषितम् / महाप्रस्थानमाश्रित्य प्रययौ संशितव्रतः // 9 विमानशतकोटीभिरावृतं पुण्यकीर्तिभिः // 11 ततो यष्टिं शलाकाश्च क्षारकं पञ्जरं तथा / ततः स्वर्गगतः पक्षी भार्यया सह संगतः / -2187 - Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 144. 12] महाभारते [12. 146. 6 कर्मणा पूजितस्तेन रेमे तत्र स भार्यया // 12 / ततः स्वर्गस्थमात्मानं सोऽपश्यद्विगतज्वरः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यक्षगन्धर्वसिद्धानां मध्ये भ्राजन्तमिन्द्रवत् // 13 चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 144 // एवं खलु कपोतश्च कपोती च पतिव्रता / 145 लुब्धकेन सह स्वर्गं गताः पुण्येन कर्मणा // 14 भीष्म उवाच / यापि चैवंविधा नारी भर्तारमनुवर्तते / विमानस्थौ तु तौ राजल्लुब्धको वै ददर्श ह। विराजते हि सा क्षिप्रं कपोतीव दिवि स्थिता॥१५ दृष्ट्वा तौ दंपती दुःखादचिन्तयत सद्गतिम् // 1 एवमेतत्पुरा वृत्तं लुब्धकस्य महात्मनः / कीदृशेनेह तपसा गच्छेयं परमां गतिम् / / कपोतस्य च धर्मिष्टा गतिः पुण्येन कर्मणा // 16 इति बुद्धया विनिश्चित्य गमनायोपचक्रमे // 2 यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चेदं परिकीर्तयेत् / महाप्रस्थानमाश्रित्य लुब्धकः पक्षिजीवनः / नाशुभं विद्यते तस्य मनसापि प्रमाद्यतः // . 17 निश्चेष्टो मारुताहारो निर्ममः स्वर्गकाझ्या // 3 युधिष्ठिर महानेष धर्मो धर्मभृतां वर / ततोऽपश्यत्सुविस्तीर्ण हृद्यं पद्मविभूषितम् / / गोनेष्वपि भवेदस्मिन्निष्कृतिः पापकर्मणः / नानाद्विजगणाकीणं सरः शीतजलं शुभम् // 4 निष्कृतिन भवेत्तस्मिन्यो हन्याच्छरणागतम् // 18 पिपासार्तोऽपि तदृष्ट्वा तृप्तः स्यान्नात्र संशयः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि . पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 145 // उपवासकृशोऽत्यर्थं स तु पार्थिव लुब्धकः // 5 उपसर्पत संहृष्टः श्वापदाध्युषितं वनम् / / युधिष्ठिर उवाच / महान्तं निश्चयं कृत्वा लुब्धकः प्रविवेश ह। प्रविशन्नेव च वनं निगृहीतः स कण्टकैः // 6 अबुद्धिपूर्वं यः पापं कुर्याद्भरतसत्तम / स कण्टकविभुमाङ्गो लोहितार्दीकृतच्छविः / मुच्यते स कथं तस्मादेनसस्तद्वदस्व मे // 1 बभ्राम तस्मिन्विजने नानामृगसमाकुले // 7 भीष्म उवाच / ततो द्रुमाणां महतां पवनेन वने तदा / अत्र ते वर्णयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / उदतिष्ठत संघर्षात्सुमहान्हव्यवाहनः // 8 // इन्द्रोतः शौनको विप्रो यदाह जनमेजयम् / / 2 तद्वनं वृक्षसंकीर्ण लताविटपसंकुलम् / आसीद्राजा महावीर्यः पारिक्षिजनमेजयः / ददाह पावकः क्रुद्धो युगान्ताग्निसमप्रभः // 9 अबुद्धिपूर्वं ब्रह्महत्या तमागच्छन्महीपतिम् // 3 सज्वालैः पवनोद्धतैर्विस्फुलिङ्गैः समन्वितः / तं ब्राह्मणाः सर्व एव तत्यजुः सपुरोहिताः / ददाह तद्वनं घोरं मृगपक्षिसमाकुलम् // 10 जगाम स वनं राजा दह्यमानो दिवानिशम् // 4 ततः स देहमोक्षार्थ संप्रहृष्टेन चेतसा / स प्रजाभिः परित्यक्तश्चकार कुशलं महत् / अभ्यधावत संवृद्धं पावकं लुब्धकस्तदा // 11 अतिवेलं तपस्तेपे दह्यमानः स मन्युना // 5 ततस्तेनाग्निना दग्धो लुब्धको नष्टकिल्विषः / / तत्रेतिहासं वक्ष्यामि धर्मस्यास्योपबृंहणम् / जगाम परमां सिद्धिं तदा भरतसत्तम / / 12 / दह्यमानः पापकृत्या जगाम जनमेजयः // 6 -2188 - Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 146.7] शान्तिपर्व [ 12. 147. 15 वरिष्यमाण इन्द्रोतं शौनकं संशितव्रतम् / धिक्कार्य मा धिक्कुरुते तस्मात्त्वाहं प्रसादये / समासाद्योपजग्राह पादयोः परिपीडयन् / / 7 सर्वं हीदं स्वकृतं मे ज्वलाम्यग्नाविवाहितः // 2 ततो भीतो महाप्राज्ञो जगहें सुभृशं तदा। स्वकर्माण्यभिसंधाय नाभिनन्दन्ति मे मनः / कर्ता पापस्य महतो भ्रूणहा किमिहागतः // 8 प्राप्तं नूनं मया घोरं भयं वैवस्वतादपि // 3 किं तवास्मासु कर्तव्यं मा मा स्प्राक्षीः कथंचन / तत्तु शल्यमनिहत्य कथं शक्ष्यामि जीवितुम् / गच्छ गच्छ न ते स्थानं प्रीणात्यस्मानिह ध्रुवम् // 9 सर्वमन्यून्विनीय त्वमभि मा वद शौनक // 4 रुधिरस्येव ते गन्धः शवस्येव च दर्शनम् / .. महानसं ब्राह्मणानां भविष्याम्यर्थवान्पुनः / अशिवः शिवसंकाशो मृतो जीवन्निवाटसि / / 10 अस्तु शेषं कुलस्यास्य मा पराभूदिदं कुलम् // 5 अन्तर्मृत्युरशुद्धात्मा पापमेवानुचिन्तयन् / / न हि नो ब्रह्मशप्तानां शेषो भवितुमर्हति / प्रबुध्यसे प्रस्वपिषि वर्तसे चरसे सुखी // 11 श्रुतीरलभमानानां संविदं वेदनिश्चयात् // 6 मोघं ते जीवितं राजन्परिक्लिष्टं च जीवसि / / निर्विद्यमानः सुभृशं भूयो वक्ष्यामि सांप्रतम् / पापायेव च सृष्टोऽसि कर्मणे ह यवीयसे // 12 भूयश्चैवाभिनङ्कन्ति निर्धर्मा निर्जपा इव // 7 बहु कल्याणमिच्छन्त ईहन्वे पितरः सुतान् / अर्वाक्च प्रतितिष्ठन्ति पुलिन्दशबरा इव / तपसा देवतेज्याभिर्वन्दनेन तितिक्षया // 13 न ह्ययज्ञा अमुं लोकं प्राप्नुवन्ति कथंचन // 8 पितृवंशमिमं पश्य त्वत्कृते नरकं गतम् / अविज्ञायैव मे प्रज्ञा बालस्येव सुपण्डितः / निरर्थाः सर्व एवैषामाशाबन्धास्त्वदाश्रयाः / / 14 ब्रह्मन्पितेव पुत्रेभ्यः प्रति मां वाञ्छ शौनक // 9 यान्पूजयन्तो विन्दन्ति स्वर्गमायुर्यशः सुखम् / शौनक उवाच / तेषु ते सततं द्वेषो ब्राह्मणेषु निरर्थकः // 15 / किमाश्चर्यं यतः प्राज्ञो बहु कुर्याद्धि सांप्रतम् / इमं लोकं विमुच्य त्वमवाङ्मूर्धा पतिष्यसि / | इति वै पण्डितो भूत्वा भूतानां नोपतप्यति // 10 अशाश्वतीः शाश्वतीश्च समाः पापेन कर्मणा // 16 प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोच्यः शोचते जनान् / अद्यमानो जन्तुगृधैः शितिकण्ठैरयोमुखैः / जगतीस्थानिवाद्रिस्थः प्रज्ञया प्रतिपश्यति // 11 ततोऽपि पुनरावृत्तः पापयोनि गमिष्यसि / / 17 न चोपलभते तत्र न च कार्याणि पश्यति / यदिदं मन्यसे राजन्नायमस्ति परः कुतः। निर्विग्णात्मा परोक्षो वा धिकृतः सर्वसाधुषु // 12 पतिस्मारयितारस्त्वां यमदूता यमक्षये // 18 विदित्वोभयतो वीर्य माहात्म्यं वेद आगमे / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कुरुष्वेह महाशान्ति ब्रह्मा शरणमस्तु ते // 13 षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 146 // तद्वै पारत्रिकं चारु ब्राह्मणानामकुप्यताम् / अथ चेत्तप्यसे पापैर्धर्म चेदनुपश्यसि // 14 भीष्म उवाच / जनमेजय उवाच / एवमुक्तः प्रत्युवाच तं मुनि जनमेजयः / अनुतप्ये च पापेन न चाधर्मं चराम्यहम् / ह्यं भवान्गहयति निन्द्यं निन्दति मा भवान् // 1 | बुभूषु भजमानं च प्रतिवाञ्छामि शौनक / / 15 -2189 -- Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 147. 16 ] महाभारते [ 12. 148. 19 शौनक उवाच। एतदेव हि कार्पण्यं समग्रमसमीक्षितम् / छित्त्वा स्तम्भं च मानं च प्रीतिमिच्छामि ते नृप।। तस्मात्समीक्षयैव स्याद्भवेत्तस्मिंस्ततो गुणः // 5 सर्वभूतहिते तिष्ठ धर्म चैव प्रतिस्मर // 16 यज्ञो दानं दया वेदाः सत्यं च पृथिवीपते / न भयान्न च कार्पण्यान्न लोभात्त्वामुपाह्वये / पश्चैतानि पवित्राणि षष्ठं सुचरितं तपः // 6. तां मे देवा गिरं सत्यां शृण्वन्तु ब्राह्मणैः सह॥१७ तदेव राज्ञां परमं पवित्रं जनमेजय।। सोऽहं न केनचिच्चार्थी त्वां च धर्ममुपाह्वये / / तेन सम्यग्गृहीतेन श्रेयांसं धर्ममाप्स्यसि // क्रोशतां सर्वभूतानामहो धिगिति कुर्वताम् // 18 पुण्यदेशाभिगमनं पवित्रं परमं स्मृतम् / वक्ष्यन्ति मामधर्मज्ञा वक्ष्यन्त्यसुहृदो जनाः। / अपि ह्युदाहरन्तीमा गाथा गीता ययातिना // 8. वाचस्ताः सुहृदः श्रुत्वा संज्वरिष्यन्ति मे भृशम् // 19 यो मर्त्यः प्रतिपद्येत आयुर्जीवेत वा पुनः। .. केचिदेव महाप्राज्ञाः परिज्ञास्यन्ति कार्यताम् / यज्ञमेकान्ततः कृत्वा तत्संन्यस्य तपश्चरेत् // 9 जानीहि मे कृतं तात ब्राह्मणान्प्रति भारत // 20 / पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं सरस्वत्यां पृथूदकम् / यथा ते मत्कृते क्षेमं लभेरंस्तत्तथा कुरु / यत्रावगाह्य पीत्वा वा नैवं श्वोमरणं तपेत् // 10 प्रतिजानीहि चाद्रोहं ब्राह्मणानां नराधिप // 21 महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे / जनमेजय उवाच / कालोदं त्वेव गन्तासि लब्धायुर्जीविते पुनः // 11 नैव वाचा न मनसा न पुनर्जातु कर्मणा / सरस्वतीदृषद्वत्यौ सेवमानोऽनुसंचरेः / द्रोग्धास्मि ब्राह्मणान्विन चरणावेव ते स्पृशे // 22 स्वाध्यायशीलः स्थानेषु सर्वेषु समुपस्पृशेः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि त्यागधर्म पवित्राणां संन्यासं परमब्रवीत्। सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 147 // अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथाः सत्यवता कृताः // 13 यथा कुमारः सत्यो वै न पुण्यो न च पापकृत् / शौनक उवाच / न ह्यस्ति सर्वभूतेषु दुःखमस्मिन्कुतः सुखम् // 14 तस्मात्तेऽहं प्रवक्ष्यामि धर्ममावृत्तचेतसे / एवं प्रकृतिभूतानां सर्वसंसर्गयायिनाम् / श्रीमान्महाबलस्तुष्टो यस्त्वं धर्ममवेक्षसे / त्यजतां जीवितं प्रायो विवृते पुण्यपातके / / 15 पुरस्तादारुणो भूत्वा सुचित्रतरमेव तत् // 1 यत्त्वेव राज्ञो ज्यायो वै कार्याणां तद्वदामि ते / अनुगृहन्ति भूतानि स्वेन वृत्तेन पार्थिव / बलेन संविभागैश्च जय स्वर्गं पुनीष्व च // 16 कृत्स्ने नूनं सदसती इति लोको व्यवस्यति / यस्यैवं बलमोजश्च स धर्मस्य प्रभुनरः / यत्र त्वं तादृशो भूत्वा धर्ममद्यानुपश्यसि // 2 ब्राह्मणानां सुखार्थं त्वं पर्येहि पृथिवीमिमाम् // 17 हित्वा सुरुचिरं भक्ष्यं भोगांश्च तप आस्थितः। यथैवैनान्पुरा:प्सीस्तथैवैनान्प्रसादय / इत्येतदपि भूतानामद्भुतं जनमेजय // 3 अपि धिविक्रयमाणोऽपि त्यज्यमानोऽप्यनेकधा॥ यो दुर्बलो भवेदाता कृपणो वा तपोधनः / / आत्मनो दर्शनं विद्वन्नाहन्तास्मीति मा क्रुधः / अनाश्चयं तदित्याहु तिदूरे हि वर्तते // 4 घटमानः स्वकार्येषु कुरु नैःश्रेयसं परम् // 19 -2190 - Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 148. 20] शान्तिपर्व [12. 149.5 हिमाग्निघोरसदृशो राजा भवति कश्चन / ___ स तत्पापं नुदते पुण्यशीलो लाङ्गलाशनिकल्पो वा भवत्यन्यः परंतप // 20 वासो यथा मलिनं क्षारयुक्त्या / / 30 न निःशेषेण मन्तव्यमचिकित्स्येन वा पुनः। पापं कृत्वा न मन्येत नाहमस्मीति पूरुषः / न जातु नाहमस्मीति प्रसक्तव्यमसाधुषु // 21 चिकीर्षेदेव कल्याणं श्रधानोऽनसूयकः // 31 विकर्मणा तप्यमानः पादात्पापस्य मुच्यते / छिद्राणि वसनस्येव साधुना विवृणोति यः। नैतत्कार्य पुनरिति द्वितीयात्परिमुच्यते / यः पापं पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते // 32 चरिष्ये धर्ममेवेति तृतीयात्परिमुच्यते // 22 यथादित्यः पुनरुद्यस्तमः सर्वं व्यपोहति / कल्याणमनुमन्तव्यं पुरुषेण बुभूषता। कल्याणमाचरन्नेवं सर्वं पापं व्यपोहति // 33 ये सुगन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ते। भीष्म उवाच। ये दुर्गन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ते // 23 एवमुक्त्वा स राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम् / तपश्चर्यापरः सद्यः पापाद्धि परिमुच्यते / याजयामास विधिवद्वाजिमेधेन शौनकः // 34 संवत्सरमुपास्याग्निमभिशस्तः प्रमुच्यते / ततः स राजा व्यपनीतकल्मषः त्रीणि वर्षाण्युपास्याग्निं भ्रूणहा विप्रमुच्यते // 24 __ श्रिया युतः प्रज्वलिताग्निरूपया / यावतः प्राणिनो हन्यात्तज्जातीयान्स्वभावतः / विवेश राज्यं स्वममित्रकर्शनो प्रमीयमाणानुन्मोच्य भ्रूणहा विप्रमुच्यते // 25 दिवं यथा पूर्णवपुर्निशाकरः // 35 अपि वाप्सु निमज्जेत त्रिर्जपन्नघमर्षणम् / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथाश्वमेधावभृथस्तथा तन्मनुरब्रवीत् // 26 / अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 18 // क्षिप्रं प्रणुदते पापं सत्कारं लभते तथा / अपि चैनं प्रसीदन्ति भूतानि जडमूकवत् / / 27 बृहस्पतिं देवगुरुं सुरासुराः भीष्म उवाच / समेत्य सर्वे नृपतेऽन्वयुञ्जन् / शृणु पार्थ यथावृत्तमितिहासं पुरातनम् / धर्मे फलं वेत्थ कृते महर्षे गृध्रजम्बुकसंवादं यो वृत्तो वैदिशे पुरा // 1 तथेतरस्मिन्नरके पापलोके / / 28 दुःखिताः केचिदादाय बालमप्राप्तयौवनम् / उभे तु यस्य सुकृते भवेतां कुलसर्वस्वभूतं वै रुदन्तः शोकविह्वलाः // 2 किं स्वित्तयोस्तत्र जयोत्तरं स्यात् / बालं मृतं गृहीत्वाथ श्मशानाभिमुखाः स्थिताः / आचक्ष्व नः कर्मफलं महर्षे अङ्केनाकं च संक्रम्य रुरुदुर्भूतले तदा // 3 कथं पापं नुदते पुण्यशीलः / / 29 तेषां रुदितशब्देन गृध्रोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् / बृहस्पतिरुवाच / एकात्मकमिमं लोके त्यक्त्वा गच्छत माचिरम् // 4 कृत्वा पापं पूर्वमबुद्धिपूर्व इह पुंसां सहस्राणि स्त्रीसहस्राणि चैव हि / / पुण्यानि यः कुरुते बुद्धिपूर्वम् / समानीतानि कालेन किं ते वै जात्वबान्धवाः॥५ -2191 - Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 149. 6] महाभारते [12. 149. 34 संपश्यत जगत्सर्व सुखदुःखैरधिष्ठितम् / अपश्यतां प्रियान्पुत्रान्नैषां शोकोऽनुतिष्ठति / संयोगो विप्रयोगश्च पर्यायेणोपलभ्यते // 6 न च पुष्णन्ति संवृद्धास्ते मातापितरौ कचित् // 21 गृहीत्वा ये च गच्छन्ति येऽनुयान्ति च तान्मृतान् / मानुषाणां कुतः स्नेहो येषां शोको भविष्यति / तेऽप्यायुषः प्रमाणेन स्वेन गच्छन्ति जन्तवः // 7 इमं कुलकरं पुत्रं कथं त्यक्त्वा गमिष्यथ // 22 अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन्गृध्रगोमायुसंकुले / चिरं मुञ्चत बाष्पं च चिरं स्नेहेन पश्यत / कङ्कालबहुले घोरे सर्वप्राणिभयंकरे // 8 एवंविधानि हीष्टानि दुस्त्यजानि विशेषतः // 23 न पुनर्जीवितः कश्चित्कालधर्ममुपागतः / क्षीणस्याथाभियुक्तस्य श्मशानाभिमुखस्य च / प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिनां गतिरीदृशी // 9 बान्धवा यत्र तिष्ठन्ति तत्रान्यो नावतिष्ठते // 24 सर्वेण खलु मर्तव्यं मर्त्यलोके प्रसूयता। सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वः स्नेहं च विन्दति। कृतान्तविहिते मार्गे को मृतं जीवयिष्यति // 10 तिर्यग्योनिष्वपि सतां स्नेहं पश्यत यादृशम् // 25 कर्मान्तविहिते लोके चास्तं गच्छति भास्करे। त्यक्त्वा कथं गच्छथेमं षद्मलोलायताक्षकम् / गम्यतां स्वमधिष्ठानं सुतस्नेहं विसृज्य वै // 11 यथा नवोद्वाहकृतं स्नानमाल्यविभूषितम् // 26 ततो गृध्रवचः श्रुत्वा विक्रोशन्तस्तदा नृप। भीष्म उवाच / बान्धवास्तेऽभ्यगच्छन्त पुत्रमुत्सृज्य भूतले // 12 जम्बुकस्य वचः श्रुत्वा कृपणं परिदेवतः / विनिश्चित्याथ च ततः संत्यजन्तः स्वमात्मजम् / न्यवर्तन्त तदा सर्वे शवार्थं ते स्म मानुषाः // 27 निराशा जीविते तस्य मार्गमारुह्य धिष्ठिताः // 13 गृध्र उवाच / ध्वाङ्काभ्रसमवर्णस्तु बिलान्निःसृत्य जम्बुकः।। अहो धिक्सुनृशंसेन जम्बुकेनाल्पमेधसा। गच्छमानान्स्म तानाह निघृणाः खलु मानवाः // 14 क्षुद्रेणोक्ता हीनसत्त्वा मानुषाः किं निवर्तथ / / 28 आदित्योऽयं स्थितो मूढाः स्नेहं कुरुत मा भयम्। पश्चभूतपरित्यक्तं शून्यं काष्ठत्वमागतम् / बहुरूपो मुहूर्तश्च जीवेतापि कदाचन // 15 कस्माच्छोचथ निश्चेष्टमात्मानं किं न शोचथ // 29 यूयं भूमौ विनिक्षिप्य पुत्रस्नेहविनाकृताः। तपः कुरुत वै तीव्र मुच्यध्वं येन किल्बिषात् / श्मशाने पुत्रमुत्सृज्य कस्माद्गच्छथ निघृणाः॥१६ तपसा लभ्यते सर्व विलापः किं करिष्यति // 30 न वोऽस्त्यस्मिन्सुते स्नेहो बाले मधुरभाषिणि / अनिष्टानि च भाग्यानि जानीत सह मूर्तिभिः / यस्य भाषितमात्रेण प्रसादमुपगच्छथ // 17 येन गच्छति लोकोऽयं दत्त्वा शोकमनन्तकम् // 31 न पश्यथ सुतस्नेहं यादृशः पशुपक्षिणाम् / धनं गाश्च सुवर्णं च मणिरत्नमथापि च / न येषां धारयित्वा तान्कश्चिदस्ति फलागमः / / 18 अपत्यं च तपोमूलं तपोयोगाच्च लभ्यते // 32 चतुष्पात्पक्षिकीटानां प्राणिनां स्नेहसङ्गिनाम् / / यथाकृता च भूतेषु प्राप्यते सुखदुःखता। परलोकगतिस्थानां मुनियज्ञक्रिया इव / / 19 गृहीत्वा जायते जन्तुर्दुःखानि च सुखानि च // 33 तेषां पुत्राभिरामाणामिह लोके परत्र च। न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा / न गुणो दृश्यते कश्चित्प्रजाः संधारयन्ति च // 20 मार्गेणान्येन गच्छन्ति त्यक्त्वा सुकृतदुष्कृते // 34 -2192 - Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 149. 35 ] शान्तिपर्व [ 12. 149. 63 धर्म चरत यत्नेन तथाधर्मान्निवर्तत / ततो नेष्यथ वा पुत्रमिहस्था वा भविष्यथ // 49 वर्तध्वं च यथाकालं दैवतेषु द्विजेषु च // 35 गृध्र उवाच / शोकं त्यजत दैन्यं च सुतस्नेहान्निवर्तत / अद्य वर्षसहस्रं मे साग्रं जातस्य मानुषाः / त्यज्यतामयमाकाशे ततः शीघ्रं निवर्तत // 36 न च पश्यामि जीवन्तं मृतं स्त्रीपुनपुंसकम् // 50 यत्करोति शुभं कर्म तथाधर्म सुदारुणम्। मृता गर्भेषु जायन्ते म्रियन्ते जातमात्रकाः / तत्कतैव समश्नाति बान्धवानां किमत्र हि // 37 विक्रमन्तो म्रियन्ते च यौवनस्थास्तथापरे // 51 इह त्यक्त्वा न तिष्ठन्ति बान्धवा बान्धवं प्रियम् / अनित्यानीह भाग्यानि चतुष्पात्पक्षिणामपि / स्नेहमुत्सृज्य गच्छन्ति बाष्पपूर्णाविलेक्षणाः / / 38 जङ्गमाजङ्गमानां चाप्यायुरप्रेऽवतिष्ठते // 52 प्राज्ञो वा यदि वा मूर्खः सधनो निर्धनोऽपि वा। इष्टदारवियुक्ताश्च पुत्रशोकान्वितास्तथा / सर्वः कालवशं याति शुभाशुभसमन्वितः / / 39 दह्यमानाः स्म शोकेन गृहं गच्छन्ति नित्यदा // 53 किं करिष्यथ शोचित्वा मृतं किमनुशोचथ / अनिष्टानां सहस्राणि तथेष्टानां शतानि च। सर्वस्य हि प्रभुः कालो धर्मतः समदर्शनः // 40 उत्सृज्येह प्रयाता वै बान्धवा भृशदुःखिताः॥५४ यौवनस्थांश्च बालांश्च वृद्धान्गर्भगतानपि / त्यज्यतामेष निस्तेजाः शून्यः काष्ठत्वमागतः / सर्वानाविशते मृत्युरेवंभूतमिदं जगत् // 41 अन्यदेहविषक्तो हि शावं काष्ठमुपासते // 55 - जम्बुक उवाच / भ्रान्तजीवस्य वै बाष्पं कस्माद्धित्वा न गच्छथ / अहो मन्दीकृतः स्नेहो गृध्रेणेहाल्पमेधसा। निरर्थको ह्ययं स्नेहो निरर्थश्च परिग्रहः // 56 पुत्रस्नेहाभिभूतानां युष्माकं शोचतां भृशम् // 42 न चक्षुर्त्यां न कर्णाभ्यां संशृणोति समीक्षते / समैः सम्यक्प्रयुक्तैश्च वचनैः प्रश्रयोत्तरैः। तस्मादेनं समुत्सृज्य स्वगृहान्गच्छताशु वै // 57 यद्गच्छथ जलस्थायं स्नेहमुत्सृज्य दुस्त्यजम् // 43 मोक्षधर्माश्रितैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिरनिष्ठुरैः / अहो. पुत्रवियोगेन मृतशून्योपसेवनात् / मयोक्ता गच्छत क्षिप्रं स्वं स्वमेव निवेशनम् // 58 क्रोशतां वै भृशं दुःखं विवत्सानां गवामिव // 44 प्रज्ञाविज्ञानयुक्तेन बुद्धिसंज्ञाप्रदायिना / अद्य शोकं विजानामि मानुषाणां महीतले / / वचनं श्राविता रूक्षं मानुषाः संनिवर्तत // 59 स्नेहं हि करुणं दृष्ट्वा ममाप्यश्रूण्यथागमन् // 45 जम्बुक उवाच। यत्नो हि सततं कार्यः कृतो दैवेन सिध्यति / इमं कनकवर्णाभं भूषणैः समलंकृतम् / दैवं पुरुषकारश्च कृतान्तेनोपपद्यते // 46 गृध्रवाक्यात्कथं पुत्रं त्यजध्वं पितृपिण्डदम्॥ 60 अनिर्वेदः सदा कार्यो निर्वेदाद्धि कुतः सुखम् / / न स्नेहस्य विरोधोऽस्ति विलापरुदितस्य वै / प्रयत्नात्प्राप्यते ह्यर्थः कस्माद्गच्छथ निर्दयाः॥४७ मृतस्यास्य परित्यागात्तापो वो भविता ध्रुवम् // 61 आत्ममांसोपवृत्तं च शरीरार्धमयीं तनुम् / | श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः / पितॄणां वंशकर्तारं वने त्यक्त्वा व यास्यथ / / 48 / / जीवितो धर्ममासाद्य रामात्सत्यपराक्रमात् / / 62 अथ वास्तं गते सूर्ये संध्याकाल उपस्थिते / तथा श्वेतस्य राजर्षे लो दिष्टान्तमागतः / म. भा. 275 -2193 - Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 149. 63 ] महाभारते [12. 149. 90 श्वोऽभूते धर्मनित्येन मृतः संजीवितः पुनः // 63 जीवतो ये न पश्यन्ति तेषां धर्मविपर्ययः // 77 तथा कश्चिद्भवेत्सिद्धो मुनिर्वा देवतापि वा। यो न पश्यति चक्षुभ्यां नेङ्गते च कथंचन / . कृपणानामनुक्रोशं कुर्याद्वो रुदतामिह // 64 तस्य निष्ठावसानान्ते रुदन्तः किं करिष्यथ // 78 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच / इत्युक्ताः संन्यवर्तन्त शोकार्ताः पुत्रवत्सलाः / इत्युक्तास्तं सुतं त्यक्त्वा भूमौ शोकपरिप्लुताः / अङ्के शिरः समाधाय रुरुदुर्बहुविस्तरम् // 65 दह्यमानाः सुतस्नेहात्प्रत्ययुर्बान्धवा गृहान् // 79 गृध्र उवाच / जम्बुक उवाच / अश्रुपातपरिक्लिन्नः पाणिस्पर्शनपीडितः / दारुणो मर्त्यलोकोऽयं सर्वप्राणिविनाशनः / धर्मराजप्रयोगाच्च दीर्घा निद्रां प्रवेशितः // 66 इष्टबन्धुवियोगश्च तथैवाल्पं जीवितम् // 80 तपसापि हि संयुक्तो न काले नोपहन्यते। बह्वलीकमसत्यं च प्रतिवादाप्रियंवदम् / . सर्वस्नेहावसानं तदिदं तत्प्रेतपत्तनम् // 67 इमं प्रेक्ष्य पुनर्भावं दुःखशोकाभिवर्धनम् // 81 बालवृद्धसहस्राणि सदा संत्यज्य बान्धवाः / न मे मानुषलोकोऽयं मुहूर्तमपि रोचते / दिनानि चैव रात्रीश्च दुःखं तिष्ठन्ति भूतले // 68 अहो धिग्गृध्रवाक्येन संनिवर्तथ मानुषाः // 82 अलं निर्बन्धमागम्य शोकस्य परिवारणम् / प्रदीप्ताः पुत्रशोकेन यथैवाबुद्धयस्तथा / अप्रत्ययं कुतो ह्यस्य पुनरयेह जीवितम् // 69 कथं गच्छथ सस्नेहाः सुतस्नेहं विसृज्य च / नैष जम्बुकवाक्येन पुनः प्राप्स्यति जीवितम् / श्रुत्वा गृध्रस्य वचनं पापस्येहाकृतात्मनः // 83 मृतस्योत्सृष्टदेहस्य पुनर्देहो न विद्यते // 70 सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् / / न वै मूर्तिप्रदानेन न जम्बूकशतैरपि। सुखदुःखान्विते लोके नेहास्त्येकमनन्तकम् / / 84 शक्यो जीवयितुं ह्येष बालो वर्षशतैरपि // 71 इमं क्षितितले न्यस्य बालं रूपसमन्वितम् / अपि रुद्रः कुमारो वा ब्रह्मा वा विष्णुरेव वा / कुलशोकाकरं मूढाः पुत्रं त्यक्त्वा क यास्यथ // 85 वरमस्मै प्रयच्छेयुस्ततो जीवेदयं शिशुः // 72 रूपयौवनसंपन्नं द्योतमानमिव श्रिया। न च बाष्पविमोक्षेण न चाश्वासकृतेन वै। जीवन्तमेव पश्यामि मनसा नात्र संशयः // 86 न दीर्घरुदितेनेह पुनर्जीवो भविष्यति // 73 विनाशश्चाप्यनोऽस्य सुखं प्राप्स्यथ मानुषाः / अहं च क्रोष्टुकश्चैव यूयं चैवास्य बान्धवाः / पुत्रशोकाग्निदग्धानां मृतमप्यद्य वः क्षमम् // 87 धर्माधर्मों गृहीत्वेह सर्वे वर्तामहेऽध्वनि // 74 दुःखसंभावनां कृत्वा धारयित्वा स्वयं सुखम् / अप्रियं परुषं चापि परद्रोहं परस्त्रियम् / / त्यक्त्वा गमिष्यथ वाद्य समुत्सृज्याल्पबुद्धिवत् // 88 अधर्ममनृतं चैव दूरात्प्राज्ञो निवर्तयेत् // 75 भीष्म उवाच / सत्यं धर्मं शुभं न्याय्यं प्राणिनां महतीं दयाम् / तथा धर्मविरोधेन प्रियमिथ्याभिध्यायिना / अजिह्मत्वमशाठ्यं च यत्नतः परिमार्गत // 76 श्मशानवासिना नित्यं रात्रिं मृगयता तदा // 89 मातरं पितरं चैव बान्धवान्सुहृदस्तथा। ततो मध्यस्थतां नीता वचनैरमृतोपमैः / -2194 - Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 149. 90] शान्तिपर्व [12. 149. 117 जम्बुकेन स्वकार्यार्थं बान्धवास्तस्य धिष्ठिताः // 90 / स्वकार्यदक्षिणी राजन्गृध्रो जम्बुक एव च / गृध्र उवाच / क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ शास्त्रमालम्ब्य जल्पतः॥१०३ तयोविज्ञानविदुषोर्द्वयोर्जम्बुकपत्रिणोः / अयं प्रेतसमाकीर्णो यक्षराक्षससेवितः / वाक्यैरमृतकल्पैर्हि प्रातिष्ठन्त व्रजन्ति च // 104 दारुणः काननोद्देशः कौशिकैरभिनादितः // 91 शोकदैन्यसमाविष्टा रुदन्तस्तस्थिरे तदा / भीमः सुघोरश्च तथा नीलमेघसमप्रभः / स्वकार्यकुशलाभ्यां ते संभ्राम्यन्ते ह नैपुणात् // 105 अस्मिशवं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत // 92 तथा तयोविवदतोर्विज्ञानविदुषोयोः / भानुर्यावन्न यात्यस्तं यावच्च विमला दिशः / बान्धवानां स्थितानां च उपातिष्ठत शंकरः॥१०६ तावदेनं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत // 93 ततस्तानाह मनुजान्वरदोऽस्मीति शूलभृत् / नदन्ति परुषं श्येनाः शिवाः क्रोशन्ति दारुणाः / ते प्रत्यूचुरिदं वाक्यं दुःखिताः प्रणताः स्थिताः॥ मृगेन्द्राः प्रतिनन्दन्ति रविरस्तं च गच्छति // 94 एकपुत्रविहीनानां सर्वेषां जीवितार्थिनाम् / चिताधूमेन नीलेन संरज्यन्ते च पादपाः / पुत्रस्य नो जीवदानाजीवितं दातुमर्हसि // 108 श्मशाने च निराहाराः प्रतिनन्दन्ति देहिनः // 95 एवमुक्तः स भगवान्वारिपूर्णेन पाणिना / सर्वे विक्रान्तवीर्याश्च अस्मिन्देशे सुदारुणाः। जीवं तस्मै कुमाराय प्रादाद्वर्षशताय वै // 109 युष्मान्प्रधर्षयिष्यन्ति विकृता मांसभोजनाः // 96 तथा गोमायुगृध्राभ्यामददक्षुद्विनाशनम् / दूराच्चायं वनोद्देशो भयमत्र भविष्यति / वरं पिनाकी भगवान्सर्वभूतहिते रतः // 110 त्यजतां काष्ठभूतोऽयं मृष्यतां जाम्बुकं वचः // 97 ततः प्रणम्य तं देवं श्रेयोहर्षसमन्विताः / यदि जम्बुकवाक्यानि निष्फलान्यनृतानि च। कृतकृत्याः सुखं हृष्टाः प्रातिष्ठन्त तदा विभो॥१११ श्रोष्यथ भ्रष्टविज्ञानास्ततः सर्वे विनङ्ख्यथ // 98 अनिदेन दीर्पण निश्चयेन ध्रुवेण च / ... जम्बुक उवाच / देवदेवप्रसादाच्च क्षिप्रं फलमवाप्यते // 112 स्थीयतां नेह भेतव्यं यावत्तपति भास्करः / पश्य देवस्य संयोगं बान्धवानां च निश्चयम् / यावदस्मिन्सुतस्नेहादनिर्वेदेन वर्तत // 99 कृपणानां हि रुदतां कृतमथुप्रमार्जनम् // 113 स्वैरं रुदत विस्रब्धाः स्वैरं स्नेहेन पश्यत / पश्य चाल्पेन कालेन निश्चयान्वेषणेन च / स्थीयतां यावदादित्यः किं वः क्रव्यादभाषितैः॥१०० प्रसादं शंकरात्प्राप्य दुःखिताः सुखमाप्नुवन् // 114 यदि गृध्रस्य वाक्यानि तीब्राणि रभसानि च / ते विस्मिताः प्रहृष्टाश्च पुत्रसंजीवनात्पुनः / गृहीत मोहितात्मानः सुतो वो न भविष्यति // 101 बभूवुर्भरतश्रेष्ठ प्रसादाच्छंकरस्य वै // 115 ततस्ते त्वरिता राजश्रुत्वां शोकमघोद्भवम् / भीष्म उवाच / विविशुः पुत्रमादाय नगरं हृष्टमानसाः / गृध्रोऽनस्तमिते त्याह गतेऽस्तमिति जम्बुकः। एषा बुद्धिः समस्तानां चातुर्वर्ण्य निदर्शिता // 116 मृतस्य तं परिजनमूचतुस्तौ क्षुधान्वितौ // 102 / धर्मार्थमोक्षसंयुक्तमितिहासमिमं शुभम् / -2195 - Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 149. 117] महाभारते [12. 150. 27 श्रुत्वा मनुष्यः सततमिह प्रेत्य च मोदते // 117 तस्माद्बहलशाखोऽसि पर्णवान्पुष्पवानपि // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इदं च रमणीयं ते प्रतिभाति वनस्पते / एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 149 // यदिमे विहगास्तात रमन्ते मुदितास्त्वयि / / 14 एषां पृथक्समस्तानां श्रूयते मधुरः स्वरः। भीष्म उवाच / पुष्पसंमोदने काले वाशतां सुमनोहरम् // 15 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तथेमे मुदिता नागाः स्वयूथकुलशोभिनः। . संवादं भरतश्रेष्ठ शल्मलेः पवनस्य च // 1 धर्मास्त्विां समासाद्य सुखं विन्दन्ति शल्मले॥१६ हिमवन्तं समासाद्य महानासीद्वनस्पतिः / तथैव मृगजातीभिरन्याभिरुपशोभसे / वर्षपूगाभिसंवृद्धः शाखास्कन्धपलाशवान् // 2 तथा सार्थाधिवासैश्च शोभसे मेरुवद्रुम // 17 तत्र स्म मत्ता मातङ्गा धर्मार्ताः श्रमकर्शिताः / ब्राह्मणैश्च तपःसिद्वैस्तापसैः श्रमणैरपि / विश्रमन्ति महाबाहो तथान्या मृगजातयः // 3 त्रिविष्टपसमं मन्ये तवायतनमेव ह // 18 नल्वमात्रपरीणाहो घनच्छायो वनस्पतिः / बन्धुत्वादथ वा सख्याच्छल्मले नात्र संशयः / शुकशारिकसंघुष्टः फलवान्पुष्पवानपि // 4 पालयत्येव सततं भीमः सर्वत्रगोऽनिलः // 19 सार्थिका वणिजश्चापि तापसाश्च वनौकसः। न्यग्भावं परमं वायोः शल्मले त्वमुपागतः / वसन्ति वासान्मार्गस्थाः सुरम्ये तरुसत्तमे // 5 तवाहमस्मीति सदा येन रक्षति मारुतः // 20 तस्य ता विपुलाः शाखा दृष्ट्वा स्कन्धांश्च सर्वतः / न तं पश्याम्यहं वृक्षं पर्वतं वापि तं दृढम् / अभिगम्याब्रवीदेनं नारदो भरतर्षभ // 6 यो न वायुबलाद्भमः पृथिव्यामिति मे मतिः // 21 अहो नु रमणीयस्त्वमहो चासि मनोरमः / त्वं पुनः कारणैनूनं शल्मले रक्ष्यसे सदा / प्रीयामहे त्वया नित्यं तरुप्रवर शल्मले // 7 // वायुना सपरीवारस्तेन तिष्ठस्यसंशयम् // 22 सदैव शकुनास्तात मृगाश्चाधस्तथा गजाः / शल्मलिरुवाच / वसन्ति तव संहृष्टा मनोहरतरास्तथा // 8 न मे वायुः सखा ब्रह्मन्न बन्धुर्न च मे सुहृत् / तव शाखा महाशाख स्कन्धं च विपुलं तथा / परमेष्ठी तथा नैव येन रक्षति मानिलः // 23 न वै प्रभग्नान्पश्यामि मारुतेन कथंचन // 9 मम तेजोबलं वायोर्भीममपि हि नारद / किं नु ते मारुतस्तात प्रीतिमानथ वा सुहृत् / कलामष्टादशी प्राणैन मे प्राप्नोति मारुतः // 24 त्वां रक्षति सदा येन वनेऽस्मिन्पवनो ध्रुवम् // 10 आगच्छन्परमो वायुर्मया विष्टम्भितो बलात् / विवान्हि पवनः स्थानाक्षानुच्चावचानपि / रुजन्दुमान्पर्वतांश्च यच्चान्यदपि किंचन // 25 पर्वतानां च शिखराण्याचालयति वेगवान् // 11 / स मया बहुशो भग्नः प्रभञ्जन्वै प्रभञ्जनः / शोषयत्येव पातालं विवान्गन्धवहः शुचिः / तस्मान्न विभ्ये देवर्षे क्रुद्धादपि समीरणात् // 26 हृदांश्च सरितश्चैव सागरांश्च तथैव ह // 12 नारद उवाच / त्वां संरक्षेत पवनः सखित्वेन न संशयः। | शल्मले विपरीतं ते दर्शनं नात्र संशयः / -2196 - Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 150. 27 ] शान्तिपर्व [ 12. 151. 19 न हि वायोर्बलेनास्ति भूतं तुल्यबलं कचित् // 27 वरिष्ठं च गरिष्टं च क्रोधे वैवस्वतं यथा // 4 इन्द्रो यमो वैश्रवणो वरुणश्च जलेश्वरः / एवं तु वचनं श्रुत्वा नारदस्य समीरणः / न तेऽपि तुल्या मरुतः किं पुनस्त्वं वनस्पते // 28 शल्मलिं तमुपागम्य क्रुद्धो वचनमब्रवीत् // 5 यद्धि किंचिदिह प्राणि शल्मले चेष्टते भुवि / शल्मले नारदे यत्तत्त्वयोक्तं मद्विगर्हणम् / सर्वत्र भगवान्वायुश्चेष्टाप्राणकरः प्रभुः // 29 अहं वायुः प्रभावं ते दर्शयाम्यात्मनो बलम् // 6 एष चेष्टयते सम्यक्प्राणिनः सम्यगायतः। नाहं त्वा नाभिजानामि विदितश्चासि मे द्रुम / असम्यगायतो भूयश्चेष्टते विकृतो नृषु // 30 पितामहः प्रजासतें त्वयि विश्रान्तवान्प्रभुः // . स त्वमेवंविधं वायुं सर्वसत्त्वभृतां वरम् / तस्य विश्रमणादेव प्रसादो यः कृतस्तव / न पूजयसि पूज्यं तं किमन्यगुद्धिलाघवात् // 31 रक्ष्यसे तेन दुर्बुद्धे नात्मवीर्याद्रुमाधम // 8 असारश्वासि दुर्बुद्धे केवलं बहु भाषसे / यन्मा त्वमवजानीषे यथान्यं प्राकृतं तथा / फोधादिभिरवच्छन्नो मिथ्या वदसि शल्मले // 32 दर्शयाम्येष आत्मानं यथा मामवभोत्स्यसे // 9 मम रोषः समुत्पन्नस्त्वय्येवं संप्रभाषति / एवमुक्तस्ततः प्राह शल्मलिः प्रहसन्निव / जवीम्येष स्वयं वायोस्तव दुर्भाषितं बहु // 33 / पवन त्वं वने क्रुद्धो दर्शयात्मानमात्मना // 10 चन्दनैः स्पन्दनैः शालैः सरलैर्देवदारुभिः / मयि वै त्यज्यतां क्रोधः किं मे क्रुद्धः करिष्यसि। वेतसैबन्धनैश्चापि ये चान्ये बलवत्तराः // 34 न ते बिभेमि पवन यद्यपि त्वं स्वयंप्रभुः // 11 तैश्चापि नैवं दुर्बुद्धे क्षिप्तो वायुः कृतात्मभिः / इत्येवमुक्तः पवनः श्व इत्येवाब्रवीद्वचः / ते हि जानन्ति वायोश्च बलमात्मन एव च // 35 दर्शयिष्यामि ते तेजस्ततो रात्रिरुपागमत् // 12 तस्मात्ते वै नमस्यन्ति श्वसनं द्रुमसत्तमाः। अथ निश्चित्य मनसा शल्मलितकारितम् / त्वं तु मोहान्न जानीषे वायोर्बलमनन्तकम् // 36 पश्यमानस्तदात्मानमसमं मातरिश्वनः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नारदे यन्मया प्रोक्तं पवनं प्रति तन्मृषा। पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 150 // असमर्थो ह्यहं वायोर्वलेन बलवान्हि सः // 14 151 मारुतो बलवान्नित्यं यथैनं नारदोऽब्रवीत् / भीष्म उवाच / अहं हि दुर्बलोऽन्येभ्यो वृक्षेभ्यो नात्र संशयः॥१५ एवमुक्त्वा तु राजेन्द्र शल्मलिं ब्रह्मवित्तमः / किं तु बुद्ध्या समो नास्ति मम कश्चिद्वनस्पतिः / नारदः पवने सर्व शल्मलेर्वाक्यमब्रवीत् // 1 तदहं बुद्धिमास्थाय भयं मोक्ष्ये समीरणात् // 16 हिमवत्पृष्ठजः कश्चिच्छल्मलिः परिवारवान् / यदि तां बुद्धिमास्थाय चरेयुः पर्णिनो वने / वृहन्मूलो बृहच्छाखः स त्वां वायोऽवमन्यते // 2 अरिष्टाः स्युः सदा ऋद्धात्पवनान्नात्र संशयः // 17 बहून्याक्षेपयुक्तानि त्वामाह वचनानि सः। तेऽत्र बाला न जानन्ति यथा नैनान्समीरणः / न युक्तानि मया वायो तानि वक्तुं त्वयि प्रभो // 3. समीरयेत संक्रुद्धो यथा जानाम्यहं तथा // 18 जानामि त्वामहं वायो सर्वप्राणभृतां वरम् / ततो निश्चित्य मनसा शल्मलिः क्षुभितस्तत्तदा / -2197 - Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 151. 19 ] महाभारते [12. 152. 11 % 3D शाखाः स्कन्धान्प्रशाखाश्च स्वयमेव व्यशातयत्॥१९ / चरता बलमास्थाय पाकशासनिना मृधे // 33' स परित्यज्य शाखाश्च पत्राणि कुसुमानि च / उक्तास्ते राजधर्माश्च आपद्धर्माश्च भारत / प्रभाते वायुमायान्तं प्रत्यक्षत वनस्पतिः // 20 विस्तरेण महाराज किं भूयः प्रब्रवीमि ते // 34 ततः क्रुद्धः श्वसन्वायुः पातयन्वै महाद्रुमान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आजगामाथ तं देशं स्थितो यत्र स शल्मलिः॥२१ ___ एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 151 // तं हीनपणं पतिताप्रशाखं विशीर्णपुष्पं प्रसमीक्ष्य वायुः / युधिष्ठिर उवाच / उवाच वाक्यं स्मयमान एनं पापस्य यदधिष्ठानं यतः पापं प्रवर्तते / मुदा युतं शल्मलिं रुग्णशाखम् // 22 . एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तत्त्वेन भरतर्षभ // 1 अहमप्येवमेव त्वां कुर्वाणः शल्मले रुषा / ___ भीष्म उवाच / .. आत्मना यत्कृतं कृत्स्नं शाखानामपकर्षणम् // 23 पापस्य यदधिष्ठानं तच्छृणुष्व नराधिप / हीनपुष्पानशाखस्त्वं शीर्णाङ्करपलाशवान् / एको लोभो महाग्राहो लोभात्पापं प्रवर्तते // 2 आत्मदुर्मत्रितेनेह मद्वीर्यवशगोऽभवः // 24 अतः पापमधर्मश्च तथा दुःखमनुत्तमम् / एतच्छ्रुत्वा वचो वायोः शल्मलि/डितस्तदा। निकृत्या मूलमेतद्धि येन पापकृतो जनाः // 3 अतप्यत वचः स्मृत्वा नारदो यत्तदाब्रवीत् // 25 | लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रवर्तते। एवं यो राजशार्दूल दुर्बलः सन्बलीयसा। लोभान्मोहश्च माया च मानस्तम्भः परासुता // 1 वैरमासज्जते बालस्तप्यते शल्मलिर्यथा // 26 अक्षमा ह्रीपरित्यागः श्रीनाशो धर्मसंक्षयः / तस्माद्वैरं न कुर्वीत दुर्बलो बलवत्तरैः। अभिध्याप्रज्ञता चैव सर्व लोभात्प्रवर्तते // 5. शोचेद्धि वैरं कुर्वाणो यथा वै शल्मलिस्तथा // 27 अन्यायश्चावितर्कश्च विकर्मसु च याः क्रियाः। न हि वैरं महात्मानो विवृण्वन्त्यपकारिषु / कूटविद्यादयश्चैव रूपैश्वर्यमदस्तथा // 6 शनैः शनैर्महाराज दर्शयन्ति स्म ते बलम् // 28 सर्वभूतेष्वविश्वासः सर्वभूतेष्वनार्जवम् / वैरं न कुर्वीत नरो दुर्बुद्धिबुद्धिजीविना / सर्वभूतेष्वभिद्रोहः सर्वभूतेष्वयुक्तता। बुद्धिर्बुद्धिमतो याति तूलेष्विव हुताशनः // 29 हरणं परवित्तानां परदाराभिमर्शनम् // 7 न हि बुद्धथा समं किंचिद्विद्यते पुरुषे नृप। वाग्वेगो मानसो वेगो निन्दावेगस्तथैव च / तथा बलेन राजेन्द्र न समोऽस्तीति चिन्तयेत्॥३० उपस्थोदरयोर्वेगो मृत्युवेगश्च दारुणः // 8 तस्मारक्षमेत बालाय जडाय बधिराय च / ईर्ष्यावेगश्च बलवान्मिथ्यावेगश्च दुस्त्यजः / बलाधिकाय राजेन्द्र तदृष्टं त्वयि शत्रुहन् // 31 / रसवेगश्च दुर्वारः श्रोत्रवेगश्च दुःसहः // 9 अक्षौहिण्यो दशैका च सप्त चैव महाद्युते / कुत्सा विकत्था मात्सर्यं पापं दुष्करकारिता / बलेन न समा राजन्नर्जुनस्य महात्मनः // 32 साहसानां च सर्वेषामकार्याणां क्रियास्तथा // 10 हतास्ताश्चैव भग्नाश्च पाण्डवेन यशस्विना। | जातौ बाल्येऽथ कौमारे यौवने चापि मानवः / -2198 - Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 152. 11] शान्तिपर्व [12. 153.2 न संत्यजत्यात्मकर्म यन्न जीयति जीर्यतः // 11 / न ते चालयितुं शक्या धर्मव्यापारपारगाः // 24 यो न पूरयितुं शक्यो लोभः प्राप्त्या कुरूद्वह। / न तेषां भिद्यते वृत्तं यत्पुरा साधुभिः कृतम् / नित्यं गम्भीरतोयाभिरापगाभिरिवोदधिः / न त्रासिनो न चपला न रौद्राः सत्पथे स्थिताः॥२५ न प्रहृष्यति लाभैर्यो यश्च कामैन तृप्यति // 12 / ते सेव्याः साधुभिर्नित्यं येष्वहिंसा प्रतिष्ठिता / यो न देवैर्न गन्धर्वैर्नासुरैर्न महोरगैः / / कामक्रोधव्यपेता ये निर्ममा निरहंकृताः / ज्ञायते नृप तत्त्वेन सर्वैर्भूतगणैस्तथा / सुव्रताः स्थिरमर्यादास्तानुपास्स्व च पृच्छ च // 26 स लोभः सह मोहेन विजेतव्यो जितात्मना // 13 न गवार्थ यशोथ वा धर्मस्तेषां युधिष्ठिर / दम्भो द्रोहश्च निन्दा च पैशुन्यं मत्सरस्तथा।। अवश्यकार्य इत्येव शरीरस्य क्रियास्तथा // 27 भवन्त्येतानि कौरव्य लुब्धानामकृतात्मनाम् // 14 न भयं क्रोधचापल्यं न शोकस्तेषु विद्यते / सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्ति बहुश्रुताः / न धर्मध्वजिनश्चैव न गुह्यं किंचिदास्थिताः // 28 छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्तीहाल्पबुद्धयः // 15 येष्वलोभस्तथामोहो ये च सत्यार्जवे रताः / द्वेषक्रोधप्रसक्ताश्च शिष्टाचारबहिष्कृताः / तेषु कौन्तेय रज्येथा येष्वतन्द्रीकृतं मनः // 29 अन्तःक्षुरा वाङ्मधुराः कूपाश्छन्नास्तृणैरिव / ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च / धर्मवैतंसिकाः क्षुद्रा मुष्णन्ति ध्वजिनो जगत् // 16 निर्ममा निरहंकाराः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः // 30 कुर्वते च बहून्मार्गास्तांस्तान्हेतुबलाश्रिताः / लाभालाभौ सुखदुःखे च तात सर्व मार्ग विलुम्पन्ति लोभाज्ञानेषु निष्ठिताः // 17 __ प्रियाप्रिये मरणं जीवितं च। धर्मस्याह्रियमाणस्य लोभग्रस्तैर्दुरात्मभिः / समानि येषां स्थिरविक्रमाणां या या विक्रियते संस्था ततः साभिप्रपद्यते // 18 बुद्धात्मनां सत्त्वमवस्थितानाम् // 31 दर्पः क्रोधो मदः स्वप्नो हर्षः शोकोऽतिमानिता। सुखप्रियैस्तान्सुमहाप्रतापातत एव हि कौरव्य दृश्यन्ते लुब्धबुद्धिषु / न्यत्तोऽप्रमत्तश्च समर्थयेथाः / एतानशिष्टान्बुध्यस्व नित्यं लोभसमन्वितान् // 19 दैवात्सर्वे गुणवन्तो भवन्ति शिष्टांस्तु परिपृच्छेथा यान्वक्ष्यामि शुचिव्रतान् / शुभाशुभा वाक्प्रलापा यथैव // 32 येषु वृत्तिभयं नास्ति परलोकभयं न च / 20 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नामिषेषु प्रसङ्गोऽस्ति न प्रियेष्वप्रियेषु च।। द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 152 // शिष्टाचारः प्रियो येषु दमो येषु प्रतिष्ठितः // 21 153 सुखं दुःखं परं येषां सत्यं येषां परायणम् / युधिष्ठिर उवाच / दातारो न गृहीतारो दयावन्तस्तथैव च / / 22 अनर्थानामधिष्टानमुक्तो लोभः पितामह / पितृदेवातिथेयाश्च नित्योद्युक्तास्तथैव च / अज्ञानमपि वै तात श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः // 1 सर्वोपकारिणो धीराः सर्वधर्मानुपालकाः // 23 __भीष्म उवाच / सर्वभूतहिताश्चैव सर्वदेयाश्च भारत / करोति पापं योऽज्ञानान्नात्मनो वेत्ति च क्षमम् / - 2199 - Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 153. 2] महाभारते [12. 154. 14 प्रद्वेष्टि साधुवृत्तांश्च स लोकस्यैति वाच्यताम् // 2 अज्ञानान्निरयं याति तथाज्ञानेन दुर्गतिम् / युधिष्ठिर उवाच / अज्ञानात्लेशमाप्नोति तथापत्सु निमज्जति // 3 स्वाध्यायकृतयत्नस्य ब्राह्मणस्य पितामह / युधिष्ठिर उवाच / धर्मकामस्य धर्मात्मन्किं नु श्रेय इहोच्यते // 1 अज्ञानस्य प्रवृत्तिं च स्थानं वृद्धि क्षयोदयौ / बहुधादर्शने लोके श्रेयो यदिह मन्यसे। . मूलं योगं गतिं कालं कारणं हेतुमेव च // 4 अस्मिल्लोके परे चैव तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन यथावदिह पार्थिव / महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत / अज्ञानप्रभवं हीदं यहुःखमुपलभ्यते // 5 किं स्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं मतम् // 3 धर्मस्य महतो राजन्बहुशाखस्य तत्त्वतः / भीष्म उवाच। यन्मूलं परमं तात तत्सर्वं ब्रह्मतन्द्रितः // .4 रागो द्वेषस्तथा मोहो हर्षः शोकोऽभिमानिता। भीष्म उवाच / कामः क्रोधश्च दर्पश्च तन्द्रीरालस्यमेव च // 6 हन्त ते कथयिष्यामि येन श्रेयः प्रपत्स्यसे / इच्छा द्वेषस्तथा तापः परवृद्धथुपतापिता / पीत्वामृतमिव प्राज्ञो ज्ञानतृप्तो भविष्यसि // 5 अज्ञानमेतन्निर्दिष्टं पापानां चैव याः क्रियाः // 7 धर्मस्य विधयो नैके ते ते प्रोक्ता महर्षिभिः / एतया या प्रवृत्तिश्च वृद्ध्यादीन्यांश्च पृच्छसि / स्वं स्वं विज्ञानमाश्रित्य दमस्तेषां परायणम् // 6 विस्तरेण महाबाहो शृणु तच्च विशां पते // 8 दमं निःश्रेयसं प्राहुद्धा निश्चयदर्शिनः / उभावेतौ समफलौ समदोषौ च भारत / ब्राह्मणस्य विशेषेण दमो धर्मः सनातनः // 7 अज्ञानं चातिलोभश्चाप्येकं जानीहि पार्थिव // 9 नादान्तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपलभ्यते / लोभप्रभवमज्ञानं वृद्धं भूयः प्रवर्धते / दमो दानं तथा यज्ञानधीतं चातिवर्तते // 8 स्थाने स्थानं क्षये झैण्यमुपैति विविधां गतिम्॥१० दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं च दमः परम् / मूलं लोभस्य महतः कालात्मगतिरेव च / विपाप्मा तेजसा युक्तः पुरुषो विन्दते महत् // 9 छिन्नेऽच्छिन्ने तथा लोभे कारणं काल एव हि // 11 दमेन सदृशं धर्म नान्यं लोकेषु शुश्रुम / तस्याज्ञानात्तु लोभो हि लोभादज्ञानमेव च। दमो हि परमो लोके प्रशस्तः सर्मधर्मिणाम् // 10 सर्वे दोषास्तथा लोभात्तस्माल्लोमं विवर्जयेत् // 12 प्रेत्य चापि मनुष्येन्द्र परमं विन्दते सुखम् / जनको युवनाश्वश्च वृषादर्भिः प्रसेनजित् / दमेन हि समायुक्तो महान्तं धर्ममनुते // 11 लोभक्षयादिवं प्राप्तास्तथैवान्ये जनाधिपाः // 13 सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते / प्रत्यक्षं तु कुरुश्रेष्ठ त्यज लोभमिहात्मना / सुखं पर्येति लोकांश्च मनश्चास्य प्रसीदति // 12 त्यक्त्वा लोभं सुखं लोके प्रेत्य चानुचरिष्यसि॥१४ अदान्तः पुरुषः क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अनर्थांश्च बहूनन्यान्प्रसृजत्यात्मदोषजान् // 13 त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 153 // आश्रमेषु चतुर्बाहुर्दममेवोत्तमं व्रतम् / -2200 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 154. 14] शान्तिपर्व [12. 155.3 -- - तस्य लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः // 14 लोकास्तेजोमयास्तस्य कल्पन्ते शाश्वतीः समाः॥२९ क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् / संन्यस्य सर्वकर्माणि संन्यस्य विधिवत्तपः / इन्द्रियावजयो दाक्ष्यं मार्दवं हीरचापलम् // 15 संन्यस्य विविधा विद्याः सर्वं संन्यस्य चैव ह॥३० अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः प्रियवादिता / कामेषु चाप्यनावृत्तः प्रसन्नात्मात्मविच्छुचिः / अविवित्सानसूया चाप्येषां समुदयो दमः // 16 प्राप्येह लोके सत्कार स्वर्ग समभिपद्यते // 31 गुरुपूजा च कौरव्य दया भूतेष्वपैशुनम् / यच्च पैतामहं स्थानं ब्रह्मराशिसमुद्भवम् / जनवादोऽमृषावादः स्तुतिनिन्दाविवर्जनम् // 17 गुहायां पिहितं नित्यं तद्दमेनाभिपद्यते // 32 कामः क्रोधश्च लोभश्च दर्पः स्तम्भो विकत्थनम् / ज्ञानारामस्य बुद्धस्य सर्वभूताविरोधिनः / मोह ईविमानश्चेत्येतद्दान्तो न सेवते // 18 नावृत्तिभयमस्तीह परलोके भयं कुतः // 33 अनिन्दितो ह्यकामात्माथाल्पेच्छोऽथानसूयकः / एक एव दमे दोषो द्वितीयो नोपपद्यते / समुद्रकल्पः स नरो न कदाचन पूर्यते / / 19 यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः // 34 अहं त्वयि मम त्वं च मयि ते तेषु चाप्यहम् / एतस्य तु महाप्राज्ञ दोषस्य सुमहान्गुणः / पूर्वसंबन्धिसंयोगान्नैतद्दान्तो निषेवते // 20 क्षमायां विपुला लोकाः सुलभा हि सहिष्णुना // सर्वा ग्राम्यास्तथारण्या याश्च लोके प्रवृत्तयः। दान्तस्य किमरण्येन तथादान्तस्य भारत / निन्दां चैव प्रशंसां च यो नाश्रयति मुच्यते // 21 / यत्रैव हि वसेदान्तस्तदरण्यं स आश्रमः // 36 मैत्रोऽथ शीलसंपन्नः सुसहायपरश्च यः / वैशंपायन उवाच। मुक्तश्च विविधैः सङ्गैस्तस्य प्रेत्य महत्फलम् // 22 एतद्भीष्मस्य वचनं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः / सुवृत्तः शीलसंपन्नः प्रसन्नात्मात्मविद्बुधः।। अमृतेनेव संतृप्तः प्रहृष्टः समपद्यत // 37 प्राप्येह लोके सत्कारं सुगति प्रतिपद्यते // 23 पुनश्च परिपप्रच्छ भीष्मं धर्मभृतां वरम् / कर्म यच्छुभमेवेह सद्भिराचरितं च यत् / तपः प्रति स चोवाच तस्मै सर्व कुरूद्वह // 38 तदेव ज्ञानयुक्तस्य मुनेधर्मो न हीयते // 24 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निष्क्रम्य वनमास्थाय ज्ञानयुक्तो जितेन्द्रियः / चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 154 // कालाकाङ्क्षी चरन्नेवं ब्रह्मभूयाय कल्पते // 25 अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः / भीष्म उवाच। तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन // 26 / सर्वमेतत्तपोमूलं कवयः परिचक्षते / अवाचिनोति कर्माणि न च संप्रचिनोति ह / न ह्यतप्ततपा मूढः क्रियाफलमवाप्यते // 1 समः सर्वेषु भूतेषु मैत्रायणगतिश्चरेत् // 27 प्रजापतिरिदं सर्वं तपसैवासृजत्प्रभुः / शकुनीनामिवाकाशे जले वारिचरस्य वा। तथैव वेदानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे // 2 यथा गतिर्न दृश्येत तथा तस्य न संशयः // 28 / तपसो ह्यानुपूर्येण फलमूलानिलाशनाः / गृहानुत्सृज्य यो राजन्मोक्षमेवाभिपद्यते / त्रील्लोकांस्तपसा सिद्धाः पश्यन्ति सुसमाहिताः॥३ म.भा. 276 -2201 - Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 155. 4] महाभारते [ 12. 156. 18 औषधान्यगदादीनि तिस्रो विद्याश्च संस्कृताः।। अविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत // 3 तपसैव हि सिध्यन्ति तपो मूलं हि साधनम् // 4 सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः / यदुरापं दुराम्नायं दुराधर्षं दुरुत्सहम् / सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः // 4 सर्व तत्तपसा शक्यं तपो हि दुरतिक्रमम् // 5 सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रह्म सनातनम् / सुरापोऽसंमतादायी भ्रूणहा गुरुतल्पगः / सत्यं यज्ञः परः प्रोक्तः सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् // 5 तपसैव सुतप्तेन नरः पापाद्विमुच्यते // 6 आचारानिह सत्यस्य यथावदनुपूर्वशः / तपसो बहुरूपस्य तैस्तैारैः प्रवर्ततः / लक्षणं च प्रवक्ष्यामि सत्यस्येह यथाक्रमम् // 6 . निवृत्त्या वर्तमानस्य तपो नानशनात्परम् // 7 प्राप्यते ह यथा सत्यं तच्च श्रोतुं त्वमर्हसि / अहिंसा सत्यवचनं दानमिन्द्रियनिग्रहः / सत्यं त्रयोदशविधं सर्वलोकेष भारत // 7 एतेभ्यो हि महाराज तपो नानशनात्परम् // 8 सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः / . . न दुष्करतरं दानान्नातिमातरमाश्रमः / अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता // 8 त्रैविद्येभ्यः परं नास्ति संन्यासः परमं तपः // 9 त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा / इन्द्रियाणीह रक्षन्ति धनधान्याभिगुप्तये / अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश // 9 तस्मादर्थे च धर्मे च तपो नानशनात्परम् // 10 सत्यं नामाव्ययं नित्यमविकारि तथैव च। . ऋषयः पितरो देवा मनुष्या मृगसत्तमाः / / सर्वधर्माविरुद्धं च योगेनैतदवाप्यते // 10 . यानि चान्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च // 11 आत्मनीष्टे तथानिष्टे रिपौ च समता तथा / तपःपरायणाः सर्वे सिध्यन्ति तपसा च ते।। इच्छाद्वेषक्षयं प्राप्य कामक्रोधक्षयं तथा // 11 इत्येवं तपसा देवा महत्त्वं चाप्यवाप्नुवन् // 12 दमो नान्यस्पृहा नित्यं धैर्य गाम्भीर्यमेव च / इमानीष्टविभागानि फलानि तपसा सदा / अभयं क्रोधशमनं ज्ञानेनैतदवाप्यते // 12 तपसा शक्यते प्राप्तुं देवत्वमपि निश्चयात् // 13 अमात्सर्य बुधाः प्राहुर्दानं धर्मे च संयमम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अवस्थितेन नित्यं च सत्येनामत्सरी भवेत् // 13 पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 155 // अक्षमायाः क्षमायाश्च प्रियाणीहाप्रियाणि च / क्षमते सर्वतः साधुः साध्वाप्नोति च सत्यवान् // 14 युधिष्ठिर उवाच / कल्याणं कुरुते गाढं ह्रीमान्न श्लाघते क्वचित् / सत्यं धर्मे प्रशंसन्ति विप्रर्षिपितृदेवताः / प्रशान्तवाङमना नित्यं ह्रीस्तु धर्मादवाप्यते // 15 सत्यमिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 धर्मार्थहेतोः क्षमते तितिक्षा क्षान्तिरुच्यते / सत्यं किंलक्षणं राजन्कथं वा तदवाप्यते / लोकसंग्रहणार्थं तु सा तु धैर्येण लभ्यते // 16 सत्यं प्राप्य भवेत्किं च कथं चैव तदुच्यते // 2 त्यागः स्नेहस्य यस्त्यागो विषयाणां तथैव च। भीष्म उवाच / रागद्वेषप्रहीणस्य त्यागो भवति नान्यथा // 17 चातुर्वर्ण्यस्य धर्माणां संकरो न प्रशस्यते। / आर्यता नाम भूतानां यः करोति प्रयत्नतः / -2202 - Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 156. 18] शान्तिपर्व [12. 157. 18 शुभं कर्म निराकारो वीतरागत्वमेव च // 18 एते प्रमत्तं पुरुषमप्रमत्ता नुदन्ति हि / धृतिर्नाम सुखे दुःखे यथा नाप्नोति विक्रियाम् / वृका इव विलुम्पन्ति दृष्ट्वैव पुरुषतरान् // 4 तां भजेत सदा प्राज्ञो य इच्छेद्भूतिमात्मनः // 19 एभ्यः प्रवर्तते दुःखमेभ्यः पापं प्रवर्तते / सर्वथा क्षमिणा भाव्यं तथा सत्यपरेण च / इति मो विजानीयात्सततं भरतर्षभ // 5 वीतहर्षभयक्रोधो धृतिमाप्नोति पण्डितः // 20 / एतेषामुदयं स्थानं क्षयं च पुरुषोत्तम / अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। हन्त ते वर्तयिष्यामि तन्मे निगदतः शृणु // 6 अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः // 21 लोभाक्रोधः प्रभवति परदोषैरुदीर्यते। एते त्रयोदशाकाराः पृथक्सत्यैकलक्षणाः / / क्षमया तिष्ठते राजश्रीमांश्च विनिवर्तते // 7 भजन्ते सत्यमेवेह बृंहयन्ति च भारत // 22 संकल्पाज्जायते कामः सेव्यमानो विवर्धते / नान्तः शक्यो गुणानां हि वक्तुं सत्यस्य भारत / अवद्यदर्शनाद्येति तत्त्वज्ञानाञ्च धीमताम् // 8 अतः सत्यं प्रशंसन्ति विप्राः सपितृदेवताः // 23 विरुद्धानि हि शास्त्राणि पश्यन्तीहाल्पबुद्धयः / नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम् / / विवित्सा जायते तत्र तत्त्वज्ञानान्निवर्तते // 9 स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात्सत्यं न लोपयेत् // 24 प्रीते शोकः प्रभवति वियोगात्तस्य देहिनः / उपैति सत्याहानं हि तथा यज्ञाः सदक्षिणाः। यदा निरर्थकं वेत्ति तदा सद्यः प्रणश्यति // 10 व्रताग्निहोत्रं वेदाश्च ये चान्ये धर्मनिश्चयाः॥२५ परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते / अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् / दयया सर्वभूतानां निर्वेदात्सा निवर्तते // 11 अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेवातिरिच्यते // 26 सत्त्वत्यागात्तु मात्सर्यमहितानि च सेवते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एतत्तु क्षीयते तात साधूनामुपसेवनात् // 12 षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 156 // कुलाज्ज्ञानात्तथैश्वर्यान्मदो भवति देहिनाम् / एभिरेव तु विज्ञातैर्मदः सद्यः प्रणश्यति // 13 ईर्ष्या कामात्प्रभवति संघर्षाच्चैव भारत / युधिष्ठिर उवाच / इतरेषां तु मानां प्रज्ञया सा प्रणश्यति // 14 यतः प्रभवति क्रोधः कामश्च भरतर्षभ / विभ्रमाल्लोकबाह्यानां द्वेष्यैर्वाक्यैरसंगतैः / शोकमोहौ विवित्सा च परासुत्वं तथा मदः॥१ कुत्सा संजायते राजन्नुपेक्षाभिः प्रशाम्यति // 15 लोभो मात्सर्यभीp च कुत्सासूया कृपा तथा / प्रतिकर्तुमशक्याय बलस्थायापकारिणे / एतत्सर्वं महाप्राज्ञ याथातथ्येन मे वद // 2 असूया जायते तीव्रा कारुण्याद्विनिवर्तते // 16 कृपणान्सततं दृष्ट्वा ततः संजायते कृपा / भीष्म उवाच / धर्मनिष्ठां यदा वेति तदा शाम्यति सा कृपा // 17 त्रयोदशैतेऽतिबलाः शत्रवः प्राणिनां स्मृताः / एतान्येव जितान्याहुः प्रशमाञ्च त्रयोदश / उपासते महाराज समस्ताः पुरुषानिह // 3 | एते हि धार्तराष्ट्राणां सर्वे दोषास्त्रयोदश / -2203 - Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 157. 18] महाभारते [12. 159. 12 त्वया सर्वात्मना नित्यं विजिता जेष्यसे च तान्॥१८ एष ते भरतश्रेष्ठ नृशंसः परिकीर्तितः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सदा विवर्जनीयो वै पुरुषेण बुभूषता // 13 सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 157 // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि 158 अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 158 // युधिष्ठिर उवाच / आनृशंस्यं विजानामि दर्शनेन सतां सदा। भीष्म उवाच / नृशंसान्न विजानामि तेषां कर्म च भारत // 1 - कृतार्थो यक्ष्यमाणश्च सर्ववेदान्तगश्च यः। . कण्टकान्कूपमग्निं च वर्जयन्ति यथा नराः / / आचार्यपितृभार्याथं स्वाध्यायार्थमथापि वा // 1 तथा नृशंसकर्माणं वर्जयन्ति नरा नरम् // 2 एते वै साधवो दृष्टा ब्राह्मणा धर्मभिक्षवः। नृशंसो ह्यधमो नित्यं प्रेत्य चेह च भारत / अश्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्याविशेषतः // 2 तस्माद्भवीहि कौरव्य तस्य धर्मविनिश्चयम् // 3 अन्यत्र दक्षिणा या तु देया भरतसत्तम / भीष्म उवाच / अन्येभ्यो हि बहिर्वेद्यां नाकृतान्नं विधीयते // स्पृहास्यान्तर्हिता चैव विदितार्था च कर्मणा।। सर्वरत्नानि राजा च यथार्ह प्रतिपादयेत् / आक्रोष्टा क्रुश्यते चैव बन्धिता बध्यते च यः // 4 / ब्राह्मणाश्चैव यज्ञाश्च सहान्नाः सहदक्षिणाः // 4 दत्तानुकीर्तिर्विषमः क्षुद्रो नैकृतिकः शठः। यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये / / असंभोगी च मानी च तथा सङ्गी विकत्थनः // 5 अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति // 5 सर्वातिशङ्की परुषो बालिशः कृपणस्तथा / यज्ञश्चेत्प्रतिविद्धः स्यादङ्गेनैकेन यज्वनः / वर्गप्रशंसी सततमाश्रमद्वेषसंकरी // 6 ब्राह्मणस्य विशेषेण धार्मिके सति राजनि // 6 हिंसाविहारी सततमविशेषगुणागुणः / यो वैश्यः स्याद्वहुपशु नक्रतुरसोमपः / बह्वलीको मनस्वी च लुब्धोऽत्यर्थं नृशंसकृत् // 7 कुटुम्बात्तस्य तद्र्व्यं यज्ञार्थं पार्थिवो हरेत् // 7 धर्मशीलं गुणोपेतं पाप इत्यवगच्छति / आहरेद्वेश्मतः किंचित्कामं शूद्रस्य द्रव्यतः / आत्मशीलानुमानेन न विश्वसिति कस्यचित् // 8 / न हि वेश्मनि शूद्रस्य कश्चिदस्ति परिग्रहः // 8 परेषां यत्र दोषः स्यात्तद्गुह्यं संप्रकाशयेत् / योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः / समानेष्वेव दोषेषु वृत्त्यर्थमुपघातयेत् // 9 तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन् // 9 तथोपकारिणं चैव मन्यते वश्चितं परम् / अदातृभ्यो हरेन्नित्यं व्याख्याप्य नृपतिः प्रभो। दत्त्वापि च धनं काले संतपत्युपकारिणे // 10 तथा ह्याचरतो धर्मो नृपतेः स्यादथाखिलः // 10 भक्ष्यं भोज्यमथो लेह्यं यच्चान्यत्साधु भोजनम् / तथैव सप्तमे भक्ते भक्तानि षडनश्नता / प्रेक्षमाणेषु योऽश्नीयान्नृशंस इति तं विदुः // 11 अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हीनकर्मणः / ब्राह्मणेभ्यः प्रदायाग्रं यः सुहृद्भिः सहाभुते / खलाक्षेत्रात्तथागाराद्यतो वाप्युपपद्यते // 11 स प्रेत्य लभते स्वर्गमिह चानन्त्यमश्नुते // 12 / आख्यातव्यं नृपस्यैतत्पृच्छतोऽपृच्छतोऽपि वा। -2204 - Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 159. 12] शान्तिपर्व [ 12. 159. 38 न तस्मै धारयेदण्डं राजा धर्मेण धर्मवित् // 12 / अनार्यां शयने बिभ्रदुज्झन्बिभ्रश्च यो द्विजाम् / क्षत्रियस्य हि बालिश्याब्राह्मणः क्लिश्यते क्षुधा। अब्राह्मणो मन्यमानस्तृणेष्वासीत पृष्ठतः / श्रुतशीले समाज्ञाय वृत्तिमस्य प्रकल्पयेत् / तथा स शुध्यते राजशृणु चात्र वचो मम // 26 अथैनं परिरक्षेत पिता पुत्रमिवौरसम् // 13 यदेकरात्रेण करोति पापं इष्टिं वैश्वानरी नित्यं निर्वपेदब्दपर्यये / कृष्णं वर्ण ब्राह्मणः सेवमानः / अविकल्पः पुराधर्मो धर्मवादैस्तु केवलम् // 14 स्थानासनाभ्यां विचरन्त्रती संविश्वैस्तु देवैः साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः / स्त्रिभिवषैः शमयेदात्मपापम् // 27 आपत्सु मरणाद्भीतैर्लिङ्गप्रतिनिधिः कृतः // 15 न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते। . ___ न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले / न सांपरायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् // 16 न गुर्वर्थे नात्मनो जीवितार्थे न ब्राह्मणान्वेदयेत कश्चिद्राजनि मानवः / पश्चानृतान्याहुरपातकानि // 28 अवीर्यो वेदनाद्विद्यात्सुवीर्यो वीर्यवत्तरम् / / 17 श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाचरेत् / तस्माद्राज्ञा सदा तेजो दुःसहं ब्रह्मवादिनाम् / / सुवर्णमपि चामेध्यादाददीतेति धारणा // 29 मन्ता शास्ता विधाता च ब्राह्मणो देव उच्यते / स्त्रीरत्नं दुष्कुलाचापि विषादप्यमृतं पिबेत् / तस्मिन्नाकुशलं ब्रयान्न शुक्तामीरयेद्गिरम् // 18 अदुष्टा हि स्त्रियो रत्नमाप इत्येव धर्मतः // 30 क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरत्यापदमात्मनः / गोब्राह्मणहितार्थं च वर्णानां संकरेषु च / धनेन वैश्यः शूद्रश्च मत्रैोमैश्च वै द्विजः // 19 गृह्णीयात्तु धनुर्वैश्यः परित्राणाय चात्मनः // 31 न वै कन्या न युवति मत्रो न च बालिशः / सुरापानं ब्रह्महत्या गुरुतल्पमथापि वा। परिवेष्टाग्निहोत्रस्य भवेन्नासंस्कृतस्तथा / अनिर्देश्यानि मन्यन्ते प्राणान्तानीति धारणा // 32 नरके निपतन्त्येते जुह्वानाः स च यस्य तत् // 20 सुवर्णहरणं स्तैन्यं विप्रासङ्गश्च पातकम् / प्राजापत्यमदत्त्वाश्वमग्याधेयस्य दक्षिणाम् / विहरन्मद्यपानं चाप्यगम्यागमनं तथा // 33 अनाहिताग्निरिति स प्रोच्यते धर्मदर्शिभिः // 21 पतितैः संप्रयोगाच्च ब्राह्मणैर्योनितस्तथा / पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।। अचिरेण महाराज तादृशो वै भवत्युत // 34 अनाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्न यजेत कथंचन // 22 संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् / प्रजाः पशृंश्च स्वर्ग च हन्ति यज्ञो ह्यदक्षिणः / याजनाध्यापनाद्यौनान्न तु यानासनाशनात् // 35 इन्द्रियाणि यशः कीर्तिमायुश्चास्योपकृन्तति // 23 एतानि च ततोऽन्यानि निर्देश्यानीति धारणा। उदक्या ह्यासते ये च ये च केचिदनग्नयः / / निर्देश्यकेन विधिना कालेनाव्यसनी भवेत् // 36 फुलं चाश्रोत्रियं येषां सर्वे ते शद्रधर्मिणः // 24 अन्नं तिर्यक होतव्यं प्रेतकर्मण्यपातिते / उदपानोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः / त्रिषु त्वेतेषु पूर्वेषु न कुर्वीत विचारणाम् // 37 उषित्वा द्वादश समाः शूद्रकर्मेह गच्छति // 25 / अमात्यान्वा गुरून्वापि जह्याद्धर्मेण धार्मिकः / -2205 - Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 159. 38] महाभारते [12. 159. 64 प्रायश्चित्तमकुर्वाणै तै रर्हति संविदम् / / 38 / ऊर्च त्रिभ्योऽथ वर्षेभ्यो यजेताग्निष्टुता परम् / अधर्मकारी धर्मेण तपसा हन्ति किल्बिषम् / ऋषभैकसहस्रं गा दत्त्वा शुभमवाप्नुयात् // 51 ब्रुवन्स्तेन इति स्तेनं तावत्प्राप्नोति किल्बिषम् / वैश्यं हत्वा तु वर्षे द्वे ऋषभैकशताश्च गाः / अस्तेनं स्तेन इत्युक्त्वा द्विगुणं पापमाप्नुयात् // 39 शूद्रं हत्वाब्दमेबैकमृषभैकादशाश्व गाः // 52 त्रिभागं ब्रह्महत्यायाः कन्या प्राप्नोति दुष्यती। श्वबर्बरखरान्हत्वा शौद्रमेव व्रतं चरेत् / यस्तु दूषयिता तस्याः शेवं प्राप्नोति किल्बिषम्॥४० मार्जारचाषमण्डूकान्काकं भासं च मूषकम् // 53 ब्राह्मणायावगूर्येह स्पृष्ट्वा गुरुतरं भवेत् / उक्तः पशुसमो धर्मो राजन्प्राणिनिपातनात् / वर्षाणां हि शतं पापः प्रतिष्ठां नाधिगच्छति // 41 प्रायश्चित्तान्यथान्यानि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः / / 54 सहस्रं त्वेव वर्षाणां निपात्य नरके वसेत् / तल्पे चान्यस्य चौर्ये च पृथक्संवत्सरं चरेत् / तस्मान्नैवावगूर्याद्धि नैव जातु निपातयेत् // 42 त्रीणि श्रोत्रियभार्यायां परदारे तु द्वे स्मृते // 55 शोणितं यावतः पासून्संगृह्णीयाहिजक्षतात् / काले चतुर्थे भुञ्जानो ब्रह्मचारी व्रती भवेत् / तावतीः स सभा राजन्नरके परिवर्तते // 43 स्थानासनाभ्यां विहरेत्रिरह्नोऽभ्युदियादपः / भ्रूणहावमध्ये तु शुध्यते शस्त्रपातितः / एवमेव निराचान्तो यश्चाग्नीनपविध्यति // 56 आत्मानं जुहुयाद्वह्नौ समिद्धे तेन शुध्यति // 44 त्यजत्यकारणे यश्च पितरं मातरं तथा / सुरापो वारुणीमुष्णां पीत्वा पापाद्विमुच्यते / पतितः स्यात्स कौरव्य तथा धर्मेषु निश्चयः // 57 तया स काये निर्दग्धे मृत्युना प्रेत्य शुध्यति / ग्रासाच्छादनमत्यर्थं दद्यादिति निदर्शनम् / लोकांश्च लभते विप्रो नान्यथा लभते हि सः॥४५ भार्यायां व्यभिचारिण्यां निरुद्धायां विशेषतः। गुरुतल्पमधिष्ठाय दुरात्मा पापचेतनः। यत्पुंसां परदारेषु तच्चैनां चारयेद्रतम् // 58 सूमी ज्वलन्तीमाश्लिष्य मृत्युना स विशुध्यति // 46 श्रेयांसं शयने हित्वा या पापीयांसमृच्छति / अथ वा शिश्नवृषणावादायाञ्जलिना स्वयम् / श्वभिस्तां खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंवृते // 59 नैर्ऋती दिशमास्थाय निपतेत्स त्वजिह्मगः // 47 पुमांसं बन्धयेत्प्राज्ञः शयने तप्त आयसे / ब्राह्मणार्थेऽपि वा प्राणान्संत्यजेत्तेन शुध्यति / अप्यादधीत दारूणि तत्र दह्येत पापकृत् // 60 अश्वमेधेन वापीष्वा गोमेधेनापि वा पुनः / एष दण्डो महाराज स्त्रीणां भर्तृव्यतिक्रमे / अग्निष्टोमेन वा सम्यगिह प्रेत्य च पूयते // 48 संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो भवेत् // 61 तथैव द्वादश समाः कपाली ब्रह्महा भवेत् / द्वे तस्य त्रीणि वर्षाणि चत्वारि सहसेविनः / ब्रह्मचारी भवेद्भक्षं स्वकर्मोदाहरन्मुनिः // 49 कुचरः पञ्च वर्षाणि चरेद्रेक्षं मुनिव्रतः // 62 एवं वा तपसा युक्तो ब्रह्महा सवनी भवेत् / परिवित्तिः परिवेत्ता यया च परिविद्यते / एवं वा गर्भमज्ञाता चात्रेयीं योऽभिगच्छति।। पाणिग्राहश्च धर्मेण सर्व ते पतिताः स्मृताः // 63 द्विगुणा ब्रह्महत्या वै आत्रेयीव्यसने भवेत् / / 50 चरेयुः सर्व एवैते वीरहा यगतं चरेत् / सुरापो नियताहारो ब्रह्मचारी क्षमाचरः। चान्द्रायणं चरेन्मासं कृच्छ्रे वा पापशुद्धये // 66 -2206 - Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 159. 65 ] शान्तिपर्व [12. 160. 19 परिवेत्ता प्रयच्छेत परिवित्ताय तां स्नुषाम् / एकः खड्गधरो वीरः समर्थः प्रतिबाधितुम् // 4 ज्येष्ठेन त्वभ्यनुज्ञातो यवीयान्प्रत्यनन्तरम् / अत्र मे संशयश्चैव कौतुहलमतीव च / एनसो मोक्षमाप्नोति सा च तौ चैव धर्मतः // 65 किं स्वित्प्रहरणं श्रेष्ठं सर्वयुद्धेषु पार्थिव // 5 अमानुषीषु गोवर्जमनावृष्टिन दुष्यति / कथं चोत्पादितः खड्गः कस्यार्थाय च केन वा / अधिष्ठातारमत्तारं पशूनां पुरुष विदुः // 66 पूर्वाचायं च खड्गस्य प्रब्रूहि प्रपितामह // 6 परिधायोर्ध्ववालं तु पात्रमादाय मृन्मयम् / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्य धीमतः / चरेत्सप्त गृहान्भैक्षं स्वकर्म परिकीर्तयन् // 67 सर्वकौशलसंयुक्तं सूक्ष्मचित्रार्थवच्छुभम् // 7 तत्रैव लब्धभोजी स्याहादशाहात्स शुध्यति / / ततस्तस्योत्तरं वाक्यं स्वरवर्णोपपादितम् / चरेत्संवत्सरं चापि तद्रुतं यन्निराकृति // 68. शिक्षान्यायोपसंपन्नं द्रोणशिष्याय पृच्छते // 8 भवेत्तु मानुषेष्वेवं प्रायश्चित्तमनुत्तमम् / उवाच सर्वधर्मज्ञो धनुर्वेदस्य पारगः / दानं वादानसक्तेषु सर्वमेव प्रकल्पयेत् शरतल्पगतो भीष्मो नकुलाय महात्मने // 9 अनास्तिकेषु गोमात्रं प्राणमेकं प्रचक्षते // 69 तत्त्वं शृणुष्व माद्रेय यदेतत्परिपृच्छसि / श्ववराहमनुष्याणां कुक्कुटस्य खरस्य च / प्रबोधितोऽस्मि भवता धातुमानिव पर्वतः // 10 मांसं मूत्रपुरीषं च प्राश्य संस्कारमर्हति // 70 सलिलैकार्णवं तात पुरा सर्वमभूदिदम् / ब्राह्मणस्य सुरापस्य गन्धमाघ्राय सोमपः / निष्प्रकम्पमनाकाशमनिर्देश्यमहीतलम् // 11 अपरूयहं पिबेदुष्णारूयहमुष्णं पयः पिबेत् / तमःसंवृतमस्पर्शमतिगम्भीरदर्शनम् / व्यहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेश्यहम् // 71 निःशब्द चाप्रमेयं च तत्र जज्ञे पितामहः // 12 एवमेतत्समुद्दिष्टं प्रायश्चित्तं सनातनम् / सोऽसृजद्वायुमग्निं च भास्करं चापि वीर्यवान् / ब्राह्मणस्य विशेषेण तत्त्वज्ञानेन जायते // 72 __ आकाशमसृजच्चोर्ध्वमधो भूमिं च नैर्ऋतिम् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नभः सचन्द्रतारं च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा / एकोनषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 159 // संवत्सरानहोरात्रानृतूनथ लवान्क्षणान् // 14 160 ततः शरीरं लोकस्थं स्थापयित्वा पितामहः / वैशंपायन उवाच / जनयामास भगवान्पुत्रानुत्तमतेजसः // 15 कथान्तरमथासाद्य खड्गयुद्धविशारदः / मरीचिमृषिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं ऋतुम् / नकुलः शरतल्पस्थमिदमाह पितामहम् // 1 वसिष्ठाङ्गिरसौ चोभौ रुद्रं च प्रभुमीश्वरम् // 16 धनुः प्रहरणं श्रेष्ठमिति वादः पितामह / प्राचेतसस्तथा दक्षः कन्याः षष्टिमजीजनत् / मतस्तु मम धर्मज्ञ खड्ग. एव सुसंशितः // 2 ता वै ब्रह्मर्षयः सर्वाः प्रजार्थं प्रतिपेदिरे // 17 विशीर्ण कार्मुके राजन्प्रक्षीणेषु च वाजिषु / ताभ्यो विश्वानि भूतानि देवाः पितृगणास्तथा / खड्नेन शक्यते युद्धे साध्वात्मा परिरक्षितुम् // 3 गन्धर्वाप्सरसश्चैव रक्षांसि विविधानि च // 18 शरासनधरांश्चैव गदाशक्तिधरांस्तथा / पतत्रिमृगमीनाश्च प्लवंगाश्च महोरगाः / - 2207 - Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 160. 19 ] महाभारते [12. 160. 47 नानाकृतिबलाश्चान्ये जलक्षितिविचारिणः // 19 / विधिना कल्पदृष्टेन यथोक्तेनोपपादितम् // 33 औद्भिदाः स्वेदजाश्चैव अण्डजाश्च जरायुजाः / ऋषिभिर्यज्ञपटुभिर्यथावत्कर्मकर्तृभिः / जज्ञे तात तथा सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् // 20 मरुद्भिः परिसंस्तीणं दीप्यमानैश्च पावकैः // 34 भूतसर्गमिमं कृत्वा सर्वलोकपितामहः / काश्चनैर्यज्ञभाण्डैश्च भ्राजिष्णुभिरलंकृतम् / शाश्वतं वेदपठितं धर्म च युयुजे पुनः // 21 वृतं देवगणैश्चैव प्रबभौ यज्ञमण्डलम् // 35 तस्मिन्धर्मे स्थिता देवाः सहाचार्यपुरोहिताः / तथा ब्रह्मर्षिभिश्चैव सदस्यैरुपशोभितम् / भादित्या वसवो रुद्राः ससाध्या मरुदश्विनः / / 22 तत्र घोरतमं वृत्तमृषीणां मे परिश्रुतम् // 36 भृग्वव्यङ्गिरसः सिद्धाः काश्यपश्च तपोधनः। चन्द्रमा विमलं व्योम यथाभ्युदिततारकम् / वसिष्ठगौतमागस्त्यास्तथा नारदपर्वतौ // 23 विदार्याग्नि तथा भूतमुत्थितं श्रूयते ततः // 37 ऋषयो वालखिल्याश्च प्रभासाः सिकतास्तथा। नीलोत्पलसवर्णाभं तीक्ष्णदंष्ट्र कृशोदरम् / घृताचाः सोमवायव्या वैखानसमरीचिपाः // 24 प्रांशु दुर्दर्शनं चैवाप्यतितेज़स्तथैव च // 38 अकृष्टाश्चैव हंसाश्च ऋषयोऽथाग्नियोनिजाः। तस्मिन्नत्पतमाने च प्रचचाल वसुंधरा / वानप्रस्थाः पृश्नयश्च स्थिता ब्रह्मानुशासने // 25 तत्रोर्मिकलिलावर्तश्चक्षुभे च महार्णवः // 39 दानवेन्द्रास्त्वतिक्रम्य तत्पितामहशासनम् / पेतुरुल्का महोत्पाताः शाखाश्च मुमुचुर्द्वमाः / धर्मस्यापचयं चक्रुः क्रोधलोभसमन्विताः // 26 अप्रसन्ना दिशः सर्वाः पवनश्चाशिवो ववौ। हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षो विरोचनः / मुहुर्मुहुश्च भूतानि प्राव्यथन्त भयात्तथा // 40 शम्बरो विप्रचित्तिश्च प्रह्लादो नमुचिर्बलिः // 27 ततः सुतुमुलं दृष्ट्वा तदद्भुतमुपस्थितम् / एते चान्ये च बहवः सगणा दैत्यदानवाः / महर्षिसुरगन्धर्वानुवाचेदं पितामहः // 41 धर्मसेतुमतिक्रम्य रेमिरेऽधर्मनिश्चयाः // 28 मयैतञ्चिन्तितं भूतमसि मैष वीर्यवान् / सर्वे स्म तुल्यजातीया यथा देवास्तथा वयम् / रक्षणार्थाय लोकस्य वधाय च सुरद्विषाम् // 42 इत्येवं हेतुमास्थाय स्पर्धमानाः सुरर्षिभिः // 29 ततस्तद्रूपमुत्सृज्य बभौ निस्त्रिंश एव सः / न प्रियं नाप्यनुक्रोशं चक्रुभूतेषु भारत / विमलस्तीक्ष्णधारश्च कालान्तक इवोद्यतः // 43 त्रीनुपायानतिक्रम्य दण्डेन रुरुधुः प्रजाः / ततस्तं शितिकण्ठाय रुद्रायर्षभकेतवे / न जग्मुः संविदं तैश्च दर्पादसुरसत्तमाः॥ 30 ब्रह्मा ददावसिं दीप्तमधर्मप्रतिवारणम् // 44 अथ वै भगवान्ब्रह्मा ब्रह्मर्षिभिरुपस्थितः / ततः स भगवान्रुद्रो ब्रह्मर्षिगणसंस्तुतः / तदा हिमवतः पृष्ठे सुरम्ये पद्मतारके // 31 / / प्रगृह्यासिममेयात्मा रूपमन्यचकार ह // 45 शतयोजनविस्तारे मणिमुक्ताचयाचिते / चतुर्बाहुः स्पृशन्मूद्म भूस्थितोऽपि नभस्तलम् / तस्मिन्गिरिवरे पुत्र पुष्पितद्रुमकानने / ऊर्ध्वदृष्टिर्महालिङ्गो मुखाज्वालाः समुत्सृजन / तस्थौ स विबुधश्रेष्ठो ब्रह्मा लोकार्थसिद्धये // 32 विकुर्वन्बहुधा वर्णान्नीलपाण्डुरलोहितान् // 46 ततो वर्षसहस्रान्ते वितानमकरोत्प्रभुः / बिभ्रत्कृष्णाजिनं वासो हेमप्रवरतारकम् / -2208 - Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 160. 47] शान्तिपर्व [ 12. 160.76 नेत्रं चैकं ललाटेन भास्करप्रतिमं महत् / रक्तार्द्रवसना श्यामा नारीव मदविह्वला // 61 शुशुभाते च विमले द्वे नेत्रे कृष्णपिङ्गले // 47 स रुद्रो दानवान्हत्वा कृत्वा धर्मोत्तरं जगत् / ततो देवो महादेवः शूलपाणिभंगाक्षिहा / रौद्रं रूपं विहायाशु चक्रे रूपं शिवं शिवः // 62 संप्रगृह्य तु निस्त्रिंशं कालार्कानलसंनिभम् // 48 ततो महर्षयः सर्वे सर्वे देवगणास्तथा / त्रिकूटं चर्म चोद्यम्य सविद्युतमिवाम्बुदम् / / . जयेनाद्भुतकल्पेन देवदेवमथार्चयन् // 63 चचार विविधान्मार्गान्महाबलपराक्रमः / ततः स भगवान्रुद्रो दानवक्षतजोक्षितम् / विधुन्वन्नसिमाकाशे दानवान्तचिकीर्पया // 49 असिं धर्मस्य गोप्तारं ददौ सत्कृत्य विष्णवे // 64 तस्य नादं विनदतो महाहासं च मुश्चतः / विष्णुर्मरीचये प्रादान्मरीचिर्भगवांश्च तम् / बभौ प्रतिभयं रूपं तदा रुद्रस्य भारत // 50 महर्षिभ्यो ददौ खड्नमृषयो वासवाय तु // 65 तद्रूपधारिणं रुद्रं रौद्रकर्म चिकीर्षवः / महेन्द्रो लोकपालेभ्यो लोकपालास्तु पुत्रक। निशम्य दानवाः सर्वे हृष्टाः समभिदुद्रुवुः // 51 मनवे सूर्यपुत्राय ददुः खड्गं सुविस्तरम् // 66 अश्मभिश्चाप्यवर्षन्त प्रदीप्तैश्च तथोल्मुकैः / ऊचुश्चैनं तथैवाद्यं मानुषाणां त्वमीश्वरः / घोरैः प्रहरणैश्चान्यैः शितधारैरयोमुखैः // 52 असिना धर्मगर्भेण पालयस्व प्रजा इति // 67 ततस्तहानवानीकं संप्रणेतारमच्युतम् / धर्मसेतुमतिक्रान्ताः सूक्ष्मस्थूलार्थकारणात् / रुद्रखड्गबलोद्भूतं प्रचचाल मुमोह च // 53 विभज्य दण्डं रक्ष्याः स्युर्धर्मतो न यदृच्छया // 68 चित्रं शीघ्रतरत्वाच्च चरन्तमसिधारिणम् / दुर्वाचा निग्रहो दण्डो हिरण्यबहुलस्तथा / तमेकमसुराः सर्वे सहस्रमिति मेनिरे // 54 व्यङ्गनं च शरीरस्य वधो वानल्पकारणात् // 69 छिन्दन्भिन्दब्रुजन्कृन्तन्दारयन्प्रमथन्नपि / असेरेतानि रूपाणि दुर्वाचादीनि निर्दिशेत् / अचरदैत्यसंघेषु रुद्रोऽग्निरिव कक्षगः // 55 असेरेव प्रमाणानि परिमाणव्यतिक्रमात् // 70 असिवेगप्ररुग्णास्ते छिन्नबाहूरुवक्षसः / अधिसृज्याथ पुत्रं स्वं प्रजानामधिपं ततः / संप्रकृत्तोत्तमाङ्गाश्च पेतुरुवा॒ महासुराः // 56 मनुः प्रजानां रक्षार्थ क्षुपाय प्रददावसिम् // 71 अपरे दानवा भग्ना रुद्रघातावपीडिताः / क्षुपाज्जग्राह चेक्ष्वाकुरिक्ष्वाकोश्च पुरूरवाः / अन्योन्यमभिनदन्तो दिशः संप्रतिपेदिरे // 57 आयुश्च तस्माल्लेभे तं नहुषश्च ततो भुवि // 72 भूमि केचित्प्रविविशुः पर्वतानपरे तथा / ययातिनहुषाच्चापि पूरुस्तस्माञ्च लब्धवान् / अपरे जग्मुराकाशमपरेऽम्भः समाविशन् // 58 आमूर्तरयसस्तस्मात्ततो भूमिशयो नृपः // 73 तस्मिन्महति संवृत्ते समरे भृशदारुणे। भरतश्चापि दौःषन्तिर्लेभे भूमिशयादसिम् / प्रभी भूमिः प्रतिभया तदा रुधिरकर्दमा // 59 तस्माच्च लेभे धर्मज्ञो राजन्नैडबिडस्तथा // 74 दानवानां शरीरैश्च महद्भिः शोणितोक्षितैः / / ततश्चैडबिडाल्लेभे धुन्धुमारो जनेश्वरः / समाकीर्णा महाबाहो शैलैरिव सकिंशुकैः // 60 / धुन्धुमाराच्च काम्बोजो मुचुकुन्दस्ततोऽलभत्॥७५ रुधिरेण परिक्लिन्ना प्रबभौ वसुधा तदा। मुचुकुन्दान्मरुत्तश्च मरुत्तादपि रैवतः / मा. 277 -2209 - Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 160.76] महाभारते [ 12. 161. 16 रैवतायुवनाश्वश्च युवनाश्वात्ततो रघुः // 76 धर्मे चार्धे च कामे च लोकवृत्तिः समाहिता / इक्ष्वाकुवंशजस्तस्माद्धरिणाश्वः प्रतापवान् / तेषां गरीयान्कतमो मध्यमः को लघुश्च कः // 2 हरिणाश्वादसि लेभे शुनकः शुनकादपि // 77 कस्मिंश्चात्मा नियन्तव्यस्त्रिवर्गविजयाय वै। उशीनरो वै धर्मात्मा तस्माद्भोजाः सयादवाः / संतुष्टा नैष्ठिकं वाक्यं यथावद्वक्तुमर्हथ // 3 यदुभ्यश्च शिबिर्लेभे शिबेश्चापि प्रतर्दनः // 78 ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः प्रथमं प्रतिभानवान् / .. प्रतर्दनादष्टकश्च रुशदश्वोऽष्टकादपि / जगाद विदुरो वाक्यं धर्मशास्त्रमनुस्मरन् // .4 रुशदश्वाद्भरद्वाजो द्रोणस्तस्मात्कृपस्ततः / बाहुश्रुत्यं तपस्त्यागः श्रद्धा यज्ञक्रिया क्षमा। ततस्त्वं भ्रातृभिः सार्धं परमासिमवाप्तवान् / / 79 भावशुद्धिर्दया सत्यं संयमश्चात्मसंपदः // 5 कृत्तिकाश्चास्य नक्षत्रमसेरग्निश्च दैवतम् / एतदेवाभिपद्यस्व मा ते भूचलितं मनः / / रोहिण्यो गोत्रमस्याथ रुद्रश्च गुरुरुत्तमः // 80 एतन्मूलौ हि धर्मार्थावेतदेकपदं हितम् // 6 असेरष्टौ च नामानि रहस्यानि निबोध मे। धर्मेणैवर्षयस्तीर्णा धर्मे लोकाः प्रतिष्ठिताः / पाण्डवेय सदा यानि कीर्तयल्लभते जयम् // 81 धर्मेण देवा दिविगा धर्मे चार्थः समाहितः // 7 असिर्विशसनः खड्गस्तीक्ष्णवां दुरासदः। धर्मो राजन्गुणश्रेष्ठो मध्यमो ह्यर्थ उच्यते / श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्मपालस्तथैव च // 82 कामो यवीयानिति च प्रवदन्ति मनीषिणः / अग्र्यः प्रहरणानां च खड्गो माद्रवतीसुत / तस्माद्धर्मप्रधानेन भवितव्यं यतात्मना / / 8 महेश्वरप्रणीतश्च पुराणे निश्चयं गतः // 83 समाप्तवचने तस्मिन्नर्थशास्त्रविशारदः। पृथुस्तूत्पादयामास धनुराद्यमरिंदम / पार्थो वाक्यार्थतत्त्वज्ञो जगौ वाक्यमतन्द्रितः // 9 तेनेयं पृथिवी पूर्व वैन्येन परिरक्षिता // 84 कर्मभूमिरियं राजन्निह वार्ता प्रशस्यते / तदेतदाएं माद्रेय प्रमाणं कर्तुमर्हसि। कृषिवाणिज्यगोरक्ष्यं शिल्पानि विविधानि च // 10 असेश्च पूजा कर्तव्या सदा युद्धविशारदैः // 85 | अर्थ इत्येव सर्वेषां कर्मणामव्यतिक्रमः / इत्येष प्रथमः कल्पो व्याख्यातस्ते सुविस्तरः / न ऋतेऽर्थेन वर्तेते धर्मकामाविति श्रुतिः // 11 असेरुत्पत्तिसंसर्गो यथावद्भरतर्षभ // 86 . विजयी ह्यर्थवान्धर्ममाराधयितुमुत्तमम् / सर्वथैतदिह श्रुत्वा खड्गसाधनमुत्तमम् / कामं च चरितुं शक्तो दुष्प्रापमकृतात्मभिः // 12 लभते पुरुषः कीर्ति प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते // 87 अर्थस्यावयवावेतौ धर्मकामाविति श्रुतिः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अर्थसिद्धया हि निर्वृत्तावुभावेतौ भविष्यतः // 13 षष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 160 // उद्भूतार्थं हि पुरुषं विशिष्टतरयोनयः / ब्रह्माणमिव भूतानि सततं पर्युपासते // 14 वैशंपायन उवाच / जटाजिनधरा दान्ताः पङ्कदिग्धा जितेन्द्रियाः। इत्युक्तवति भीष्मे तु तूष्णीभूते युधिष्ठिरः / मुण्डा निस्तन्तवश्वापि वसन्त्यार्थिनः पृथक् // 15 पप्रच्छावसरं गत्वा भ्रातृन्विदुरपञ्चमान् // 1 / काषायवसनाश्चान्ये श्मश्रुला हीसुसंवृताः / -2210 - Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 161. 16] शान्तिपर्व [12. 161. 40 विद्वांसश्चैव शान्ताश्च मुक्ताः सर्वपरिग्रहैः // 16 वणिजः कर्षका गोपाः कारवः शिल्पिनस्तथा / अार्थिनः सन्ति केचिदपरे स्वर्गकाङ्क्षिणः / दैवकर्मकृतश्चैव युक्ताः कामेन कर्मसु // 31 कुलप्रत्यागमाश्चैके स्वं स्वं मार्गमनुष्ठिताः // 17 समुद्रं चाविशन्त्यन्ये नराः कामेन संयुताः / आस्तिका नास्तिकाश्चैव नियताः संयमे परे / कामो हि विविधाकारः सर्व कामेन संततम् // 32 अप्रज्ञानं तमोभूतं प्रज्ञानं तु प्रकाशता // 18 नास्ति नासीन्नाभविष्यद्भूतं कामात्मकात्परम् / भृत्यान्भोगैर्द्विषो दण्डैर्यो योजयति सोऽर्थवान् / एतत्सारं महाराज धर्मार्थावत्र संश्रितौ // 33 एतन्मतिमतां श्रेष्ठ मतं मम यथातथम् / नवनीतं यथा दध्नस्तथा कामोऽर्थधर्मतः / अनयोस्तु निबोध त्वं वचनं वाक्यकण्ठयोः // 19 श्रेयस्तै च पिण्याकाद्धृतं श्रेय उदश्वितः // 34 ततो धर्मार्थकुशलौ माद्रीपुत्रावनन्तरम् / . श्रेयः पुण्यफलं काष्ठात्कामो धर्मार्थयोर्वरः।। नकुलः सहदेवश्च वाक्यं जगदतुः परम् // 20 पुष्पतो मध्विव रसः कामात्संजायते सुखम् // 35 आसीनश्च शयानश्च विचरन्नपि च स्थितः।। सुचारुवेषाभिरलंकृताभिअर्थयोगं दृढं कुर्याद्योगैरुच्चावचैरपि // 21 मदोत्कटाभिः प्रियवादिनीभिः / अस्मिंस्तु वै सुसंवृत्ते दुर्लभे परमप्रिये / रमस्व योषाभिरुपेत्य कामं इह कामानवाप्नोति प्रत्यक्षं नात्र संशयः // 22 कामो हि राजंस्तरसाभिपाती // 36 योऽर्थो धर्मेण संयुक्तो धर्मो यश्चार्थसंयुतः / बुद्धिर्ममैषा परिषत्स्थितस्य मध्विवामृतसंयुक्तं तस्मादेतौ मताविह // 23 ___ मा भूद्विचारस्तव धर्मपुत्र / अनर्थस्य न कामोऽस्ति तथार्थोऽधर्मिणः कुतः / स्यात्संहितं सद्भिरफल्गुसारं तस्मादुद्विजते लोको धर्मार्थाद्यो बहिष्कृतः॥२४ __ समेत्य वाक्यं परमानृशंस्यम् // 37 तस्माद्धर्मप्रधानेन साध्योऽर्थः संयतात्मना / धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या विश्वस्तेषु च भूतेषु कल्पते सर्व एव हि // 25 ___ यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः। . धर्म समाचरेत्पूर्व तथार्थं धर्मसंयुतम् / द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं ततः कामं चरेत्पश्चासिद्धार्थस्य हि तत्फलम् // 26 ___ स उत्तमो यो निरतस्त्रिवर्गे // 38 विरेमतुस्तु तद्वाक्यमुक्त्वा तावश्विनोः सुतौ / प्राज्ञः सुहृच्चन्दनसारलिप्तो भीमसेनस्तदा वाक्यमिदं वक्तुं प्रचक्रमे // 27 विचित्रमाल्याभरणैरुपेतः। नाकामः कामयत्यर्थं नाकामो धर्ममिच्छति / ततो वचः संग्रहविग्रहेण नाकामः कामयानोऽस्ति तस्मात्कामो विशिष्यते // प्रोक्त्वा यवीयान्विरराम भीमः // 39 कामेन युक्ता ऋषयस्तपस्येव समाहिताः / ततो मुहूर्तादथ धर्मराजो पलाशफलमूलाशा वायुभक्षाः सुसंयताः॥ 29 वाक्यानि तेषामनुचिन्त्य सम्यक् / वेदोपवादेष्वपरे युक्ताः स्वाध्यायपारगाः / उवाच वाचावितथं स्मयन्वै श्राद्धयज्ञक्रियायां च तथा दानप्रतिग्रहे // 30 बहुश्रुतो धर्मभृतां वरिष्ठः // 40 - 2211 - Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 161. 41] महाभारते [ 12. 162. 10 निःसंशयं निश्चितधर्मशास्त्राः सुचारुवर्णाक्षरशब्दभूषितां सर्वे भवन्तो विदितप्रमाणाः। ___ मनोनुगां निर्धतवाक्यकण्टकाम् / विज्ञातुकामस्य ममेह वाक्य निशम्य तां पार्थिव पार्थभाषितां ___ मुक्तं यद्वै नैष्ठिकं तच्छ्रुतं मे। गिरं नरेन्द्राः प्रशशंसुरेव ते / इह त्ववश्यं गदतो ममापि पुनश्च पप्रच्छ सरिद्वरासुतं __ वाक्यं निबोधध्वमनन्यभावाः॥४१ ततः परं धर्ममहीनसत्त्वः // 48 यो वै न पापो निरतो न पुण्ये इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नार्थे न धर्मे मनुजो न कामे। एकषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // १६१॥विमुक्तदोषः समलोष्टकाञ्चनः स मुच्यते दुःखसुखार्थसिद्धेः // 42 युधिष्ठिर उवाच / भूतानि जातीमरणान्वितानि पितामह महाप्राज्ञ कुरूणां कीर्तिवर्धन / जराविकारैश्च समन्वितानि / प्रश्नं कंचित्प्रवक्ष्यामि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 1 भूयश्च तैस्तैः प्रतिबोधितानि कीदृशा मानवा सौम्याः कैः प्रीतिः परमा भवेत्। मोक्षं प्रशंसन्ति न तं च विद्मः // 43 आयत्यां च तदात्वे च के क्षमास्तान्वदस्व मे // 2 स्नेहे नबद्धस्य न सन्ति तानी न हि तत्र धनं स्फीतं न च संबन्धिबान्धवाः। ___ त्येवं स्वयंभूर्भगवानुवाच / तिष्ठन्ति यत्र सुहृदस्तिष्ठन्तीति मतिर्मम // 3 बुधाश्च निर्वाणपरा वदन्ति दुर्लभो हि सुहृच्छ्रोता दुर्लभश्च हितः सुहृत् / तस्मान्न कुर्यात्प्रियमप्रियं च // 44 एतद्धर्मभृतां श्रेष्ठ सर्वं ब्याख्यातुमर्हसि // 4 एतत्प्रधानं न तु कामकारो भीष्म उवाच / यथा नियुक्तोऽस्मि तथा चरामि / संधेयान्पुरुषान्राजन्नसंधेयांश्च तत्त्वतः / भूतानि सर्वाणि विधिनियुङ्क्ते वदतो मे निबोध त्वं निखिलेन युधिष्ठिर // 5 विधिर्बलीयानिति वित्त सर्वे // 45 लुब्धः क्रूरस्त्यक्तधर्मा निकृतः शठ एव च / न कर्मणाप्नोत्यनवाप्यमर्थं क्षुद्रः पापसमाचारः सर्वशङ्की तथालसः // 6 यद्भावि सर्व भवतीति वित्त / दीर्घसूत्रोऽनृजुः कष्टो गुरुदारप्रधर्षकः / त्रिवर्गहीनोऽपि हि विन्दतेऽर्थ व्यसने यः परित्यागी दुरात्मा निरपत्रपः // 7 तस्मादिदं लोकहिताय गुह्यम् // 46 सर्वतः पापदर्शी च नास्तिको वेदनिन्दकः / ततस्तदग्र्यं वचनं मनोनुगं संप्रकीर्णेन्द्रियो लोके यः कामनिरतश्चरेत् // 8 समस्तमाज्ञाय ततोऽतिहेतुमत् / असत्यो लोकविद्विष्टः समये चानवस्थितः / तदा प्रणेदुश्च जहर्षिरे च ते पिशुनोऽथाकृतप्रज्ञो मत्सरी पापनिश्चयः // 9 कुरुप्रवीराय च चक्रुरञ्जलीन् // 47 | दुःशीलोऽथाकृतात्मा च नृशंसः कितवस्तथा। -2212 - Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 162. 10] शान्तिपर्व [12. 162.37 मिरर्थकृती नित्यमिच्छत्यर्थपरश्च यः // 10 तस्य विस्तीर्यते राष्ट्रं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव // 24 वहतश्च यथाशक्ति यो न तुष्यति मन्दधीः / शास्त्रनित्या जितक्रोधा बलवन्तो रणप्रियाः / अमित्रमिव यो भुङ्क्ते सदा मित्रं नरर्षभ // 11 क्षान्ताः शीलगुणोपेताः संधेयाः पुरुषोत्तमाः॥२५ अस्थानक्रोधनो यश्च अकस्माच्च विरज्यते। ये च दोषसमायुक्ता नराः प्रोक्ता मयानघ / सुहृदश्चैव कल्याणानाशु त्यजति किल्बिषी // 12 / तेषामप्यधमो राजन्कृतघ्नो मित्रघातकः / अल्पेऽप्यपकृते मूढस्तथाज्ञानात्कृतेऽपि च / त्यक्तव्यः स दुराचारः सर्वेषामिति निश्चयः // 26 कार्योपसेवी मित्रेषु मित्रद्वेषी नराधिप // 13 युधिष्ठिर उवाच / शत्रुमित्रमुखो यश्च जिह्मप्रेक्षी विलोभनः / विस्तरेणार्थसंबन्धं श्रोतुमिच्छामि पार्थिव / न रज्यति च कल्याणे यस्त्यजेत्तादृशं नरम् // 14 मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यः प्रोक्तस्तं च मे वद // 27 पानपो द्वेषणः करो निघृणः परुषस्तथा / ___ भीष्म उवाच / परोपतापी मित्रधुक्तथा प्राणिवधे रतः // 15 हन्त ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / कृतघ्नश्चाधमो लोके न संधेयः कथंचन / उदीच्यां दिशि यद्वृत्तं म्लेच्छेषु मनुजाधिप // 28 छिद्रान्वेषी न संधेयः संधेयानपि मे शृणु // 16 ब्राह्मणो मध्यदेशीयः कृष्णाङ्गो ब्रह्मवर्जितः / कुलीना वाक्यसंपन्ना ज्ञानविज्ञानकोविदाः।। ग्रामं प्रेक्ष्य जनाकीणं प्राविशद्भक्षकाया // 29 मित्रज्ञाश्च कृतज्ञाश्च सर्वज्ञाः शोकवर्जिताः // 17 तत्र दस्युर्धनयुतः सर्ववर्णविशेषवित् / माधुर्यगुणसंपन्नाः सत्यसंधा जितेन्द्रियाः। ब्रह्मण्यः सत्यसंधश्च दाने च निरतोऽभवत् // 30 व्यायामशीलाः सततं भृतपुत्राः कुलोद्गताः // 18 तस्य क्षयमुपागम्य ततो भिक्षामयाचत / रूपवन्तो गुणोपेतास्तथालुब्धा जितश्रमाः / प्रतिश्रयं च वासार्थं भिक्षां चैवाथ वार्षिकीम् // दोषैर्वियुक्ताः प्रथितैस्ते ग्राह्याः पार्थिवेन ह // 19 प्रादात्तस्मै स विप्राय वस्त्रं च सदृशं नवम् / यथाशक्तिसमाचाराः सन्तस्तुष्यन्ति हि प्रभो। नारीं चापि वयोपेतां भर्ता विरहितां तदा // 32 नास्थाने क्रोधवन्तश्च न चाकस्माद्विरागिणः // 20 एतत्संप्राप्य हृष्टात्मा दस्योः सर्वं द्विजस्तदा / विरक्ताश्च न रुष्यन्ति मनसाप्यर्थकोविदाः / तस्मिन्गृहवरे राजस्तया रेमे स गौतमः // 33 आत्मानं पीडयित्वापि सुहृत्कार्यपरायणाः / कुटुम्बार्थेषु दस्योः स साहाय्यं चाप्यथाकरोत् / न विरज्यन्ति मित्रेभ्यो वासो रक्तमिवाविकम् // 21 तत्रावसत्सोऽथ वर्षाः समृद्धे शबरालये। दोषांश्च लोभमोहादीनर्थेषु युवतिष्वथ / बाणवेध्ये परं यत्नमकरोच्चैव गौतमः // 34 न दर्शयन्ति सुहृदां विश्वस्ता बन्धुवत्सलाः // 22 वक्राङ्गांस्तु स नित्यं वै सर्वतो बाणगोचरे / लोष्टकाञ्चनतुल्यार्थाः सुहृत्स्वशठबुद्धयः / जघान गौतमो राजन्यथा दस्युगणस्तथा / / 35 ये चरन्त्यनभीमाना निसृष्टार्थविभूषणाः / हिंसापरो घृणाहीनः सदा प्राणिवधे रतः / संगृह्णन्तः परिजनं स्वाम्यर्थपरमाः सदा // 23 गौतमः संनिकर्षेण दस्युभिः समतामियात् / / 36 ईदृशैः पुरुषश्रेष्ठैः संधिं यः कुरुते नृपः / | तथा तु वसतस्तस्य दस्युग्रामे सुखं तदा / -2213 - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 162. 37] महाभारते [ 12. 163. 13 अगच्छन्बहवो मासा निघ्नतः पक्षिणो बहून् // 37 163 ततः कदाचिदपरो द्विजस्तं देशमागमत् / भीष्म उवाच / जटी चीराजिनधरः स्वाध्यायपरमः शुचिः॥ 38 तस्यां निशायां व्युष्टायां गते तस्मिन्द्विजोत्तमे / विनीतो नियताहारो ब्रह्मण्यो वेदपारगः। निष्क्रम्य गौतमोऽगच्छत्समुद्रं प्रति भारत // 1. सब्रह्मचारी तद्देश्यः सखा तस्यैव सुप्रियम् / सामुद्रकान्स वणिजस्ततोऽपश्यस्थितान्पथि। तं दस्युग्राममगमद्यत्रासौ गौतमोऽभवत् // 39 स तेन सार्थेन सह प्रययौ सागरं प्रति // 2 स तु विप्रगृहान्वेषी शूद्रान्नपरिवर्जकः / स तु सार्थो महाराज कस्मिंश्चिगिरिगह्वरे। प्रामे दस्युजनाकीणे व्यचरत्सर्वतोदिशम् // 40 मत्तेन द्विरदेनाथ निहतः प्रायशोऽभवत् // 3 ततः स गौतमगृहं प्रविवेश द्विजोत्तमः / स कथंचित्ततस्तस्मात्सार्थान्मुक्तो द्विजस्तदा। गौतमश्चापि संप्राप्तस्तावन्योन्येन संगतौ // 41 कांदिग्भूतो जीवितार्थी प्रदुद्रावोत्तरां दिशम् // 4 वक्राङ्गभारहस्तं तं धनुष्पाणिं कृतागसम् / स सर्वतः परिभ्रष्टः सार्थादेशात्तथार्थतः / रुधिरेणावसिक्ताङ्गं गृहद्वारमुपागतम् // 42 एकाकी व्यद्रवत्तत्र वने किंपुरुषो यथा // 5 तं दृष्ट्वा पुरुषादाभमपध्वस्तं क्षयागतम् / स पन्थानमथासाद्य समुद्राभिसरं तदा। अभिज्ञाय द्विजो व्रीडामगमद्वाक्यमाह च // 43 आससाद वनं रम्यं महत्पुष्पितपादपम् // 6 किमिदं कुरुषे मौढ्याद्विप्रस्त्वं हि कुलोद्गतः। सर्वर्तुकैराम्रवनैः पुष्पितैरुपशोभितम् / मध्यदेशपरिज्ञातो दस्युभावं गतः कथम् // 44 नन्दनोद्देशसदृशं यक्षकिंनरसेवितम् // 7 पूर्वान्स्मर द्विजाग्र्यांस्तान्प्रख्यातान्वेदपारगात् / शालतालधवाश्वत्थत्वचागुरुवनैस्तथा / येषां वंशेऽभिजातस्त्वमीदृशः कुलपांसनः // 45 चन्दनस्य च मुख्यस्य पादपैरुपशोभितम् / अवबुध्यात्मनात्मानं सत्यं शीलं श्रुतं दमम् / गिरिप्रस्थेषु रम्येषु शुभेषु सुसुगन्धिषु // 8 अनुक्रोशं च संस्मृत्य त्यज वासमिमं द्विज // 46 समन्ततो द्विजश्रेष्ठा वल्गु कूजन्ति तत्र वै / एवमुक्तः स सुहृदा तदा तेन हितैषिणा / मनुष्यवदनास्त्वन्ये भारुण्डा इति विश्रुताः / प्रत्युवाच ततो राजन्विनिश्चित्य तदार्तवत् // 47 भूलिङ्गशकुनाश्चान्ये समुद्रं सर्वतोऽभवन् // 9 अधनोऽस्मि द्विजश्रेष्ठ न च वेदविदप्यहम् / स तान्यतिमनोज्ञानि विहंगाभिरुतानि वै / वृत्त्यर्थमिह संप्राप्तं विद्धि मां द्विजसत्तम / / 48 शृण्वन्सुरमणीयानि विप्रोऽगच्छत गौतमः // 15 स्वदर्शनात्तु विप्रर्षे कृतार्थ वेद्यहं द्विज / ततोऽपश्यत्सुरम्ये स सुवर्णसिकताचिते। आत्मानं सह यास्यावः श्वो वसायेह शर्वरीम्॥४९ / देशभागे समे चित्रे स्वर्गोदेशसमप्रभे // 11 श्रिया जुष्टं महावृक्षं न्यग्रोधं परिमण्डलम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्विषष्टयधिकशततमोऽध्यायः॥ 12 // शाखाभिरनुरूपाभिभूषितं छत्रसंनिभम् // 12 तस्य मूलं सुसंसिक्तं वरचन्दनवारिणा / दिव्यपुष्पान्वितं श्रीमत्पितामहसदोपमम् // 13 -2214 - Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 163. 14] शान्तिपर्व [12. 164. 15 तं दृष्ट्वा गौतमः प्रीतो मुनिकान्तमनुत्तमम् / राजधर्मोवाच / मेध्यं सुरगृहप्रख्यं पुष्पितैः पादपैर्वृतम् / भोः कश्यपस्य पुत्रोऽहं माता दाक्षायणी च मे / तमागम्य मुदा युक्तस्तस्याधस्तादुपाविशत् // 14 अतिथिस्त्वं गुणोपेतः स्वागतं ते द्विजर्षभ // 2 तत्रासीनस्य कौरव्य गौतमस्य सुखः शिवः / भीष्म उवाच / पुष्पाणि समुपस्पृश्य प्रववावनिलः शुचिः / तस्मै दत्त्वा स सत्कारं विधिदृष्टेन कर्मणा / हादयन्सर्वगात्राणि गौतमस्य तदा नृप // 15 शालपुष्पमयीं दिव्यां बृसी समुपकल्पयत् // 3 स तु विप्रः परिश्रान्तः स्पृष्टः पुण्येन वायुना / भगीरथरथाक्रान्तान्देशान्गङ्गानिषेवितान् / सुखमासाद्य सुष्वाप भास्करश्चास्तमभ्यगात् // 16 ये चरन्ति महामीनास्तांश्च तस्यान्वकल्पयत् // 4 ततोऽस्तं भास्करे याते संध्याकाल उपस्थिते / / वहिं चापि सुसंदीप्तं मीनांश्चैव सुपीवरान् / आजगाम खभवनं ब्रह्मलोकात्खगोत्तमः // 17 स गौतमायातिथये न्यवेदयत काश्यपः // 5 नाडीजङ्घ इति ख्यातो दयितो ब्रह्मणः सखा / भुक्तवन्तं च तं विप्रं प्रीतात्मानं महामनाः / बकराजो महाप्राज्ञः कश्यपस्यात्मसंभवः // 18 क्लमापनयनाथं स पक्षाभ्यामभ्यवीजयत् // 6 राजधर्मेति विख्यातो बभूवाप्रतिमो भुवि / / ततो बिश्रान्तमासीनं गोत्रप्रश्नमपृच्छत / देवकन्यासुतः श्रीमान्विद्वान्देवपतिप्रभः // 19 / सोऽब्रवीद्गीतमोऽस्मीति ब्राह्म नान्यदुदाहरत् / / 7 मृष्टहाटकसंछन्नो भूषणैरर्कसंनिभैः। तस्मै पर्णमयं दिव्यं दिव्यपुष्पाधिवासितम् / भूषितः सर्वगात्रेषु देवगर्भः श्रिया ज्वलन् / 20 गन्धाढ्यं शयनं प्रादात्स शिश्ये तत्र वै सुखम् // 8 तमागतं द्विजं दृष्ट्वा विस्मितो गौतमोऽभवत् / / अथोपविष्टं शयने गौतमं बकराद तदा। क्षुत्पिपासापरीतात्मा हिंसार्थी चाप्यवैक्षत // 21 पप्रच्छ काश्यपो वाग्मी किमागमनकारणम् // 9 राजधर्मोवाच / ततोऽब्रवीद्गौतमस्तं दरिद्रोऽहं महामते / खागतं भवते विप्र दिष्ट्या प्राप्तोऽसि रे गृहम् / समुद्रगमनाकाङ्क्षी द्रव्यार्थमिति भारत // 10 अस्तं च सविता यातः संध्येयं समुपस्थिता // 22 तं काश्यपोऽब्रवीत्प्रीतो नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि / मम स्वं निलयं प्राप्तः प्रियातिथिरनिन्दितः / कृतकार्यो द्विजश्रेष्ठ सद्रव्यो यास्यसे गृहान् // 11 पूजितो यास्यसि प्रातर्विधिदृष्टेन कर्मणा // 23 चतुर्विधा ह्यर्थगतिबृहस्पतिमतं यथा / पारंपर्य तथा दैवं कर्म मित्रमिति प्रभो // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रादुर्भूतोऽस्मि ते मित्रं सुहृत्त्वं च मम त्वयि / ___त्रिषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 163 // सोऽहं तथा यतिष्यामि भविष्यसि यथार्थवान्॥१३ 164 ततः प्रभातसमये सुखं पृष्ट्वाब्रवीदिदम् / भीष्म उवाच / गच्छ सौम्य पथानेन कृतकृत्यो भविष्यसि // 14 गिरं तां मधुरां श्रुत्वा गौतमो विस्मितस्तदा।। इतस्त्रियोजनं गत्वा राक्षसाधिपतिर्महान् / कौतूहलान्वितो राजनराजधर्माणमैक्षत // 1 विरूपाक्ष इति ख्यातः सखा मम महाबलः // 15 -2215 - Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 164. 16 ] महाभारते [ 12. 165. 18 तं गच्छ द्विजमुख्य त्वं मम वाक्यप्रचोदितः / / ब्रह्मवर्चसहीनस्य स्वाध्यायविरतस्य च।। कामानभीप्सितांस्तुभ्यं दाता नास्त्यत्र संशयः॥१६ गोत्रमात्रविदो राजा निवासं समपृच्छत // 3 इत्युक्तः प्रययौ राजन्गौतमो विगतक्लमः / क ते निवासः कल्याण किंगोत्रा ब्राह्मणी च ते / फलान्यमृतकल्पानि भक्षयन्स्म यथेष्टतः / / 17 तत्त्वं ब्रूहि न भीः कार्या विश्रमस्व यथासुखम् // 4 चन्दनागुरुमुख्यानि त्वक्पत्राणां वनानि च / गौतम उवाच / तस्मिन्पथि महाराज सेवमानो द्रुतं ययौ // 18 मध्यदेशप्रसूतोऽहं वासो मे शबरालये। / / ततो मेरुवनं नाम नगरं शैलतोरणम् / शूद्रा पुनर्भूर्भार्या मे सत्यमेतद्रवीमि ते // 5. शैलप्राकारवप्रं च शैलयत्रार्गलं तथा // 19 भीष्म उवाच / विदितश्चाभवत्तस्य राक्षसेन्द्रस्य धीमतः। ततो राजा विममृशे क्वथं कार्यमिदं भवेत् / प्रहितः सुहृदा राजन्प्रीयता वै प्रियातिथिः // 20 कथं वा सुकृतं मे स्यादिति बुद्धयान्वचिन्तयत् // 6 ततः स राक्षसेन्द्रः स्वान्प्रेष्यानाह युधिष्ठिर / अयं वै जननाद्विप्रः सुहृत्तस्य महात्मनः / गौतमो नगरद्वाराच्छीघ्रमानीयतामिति / / 21 संप्रेषितश्च तेनायं काश्यपेन ममान्तिकम् // 7 ततः पुरवरात्तस्मात्पुरुषाः श्वेतवेष्टनाः / तस्य प्रियं करिष्यामि स हि मामाश्रितः सदा। गौतमेत्यभिभाषन्तः पुरद्वारमुपागमन् // 22 भ्राता मे बान्धवश्चासौ सखा च हृदयंगमः // .8 ते तमूचुर्महाराज प्रेष्या रक्षःपतेर्द्विजम् / कार्त्तिक्यामद्य भोक्तारः सहस्रं मे द्विजोत्तमाः / त्वरस्व तूर्णमागच्छ राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति // 23 तत्रायमपि भोक्ता वै देयमस्मै च मे धनम् // 9 राक्षसाधिपतिर्वीरो विरूपाक्ष इति श्रुतः / ततः सहस्रं विप्राणां विदुषां समलंकृतम् / स त्वां त्वरति वै द्रष्टुं तरिक्षप्रं संविधीयताम् / / 24 स्नातानामनुसंप्राप्तमहतक्षौमवाससाम् // 10 ततः स प्राद्रवद्विप्रो विस्मयाद्विगतक्कमः / तानागतान्द्विजश्रेष्ठान्विरूपाक्षो विशां पते / गौतमो नगरद्धिं तां पश्यन्परमविस्मितः // 25 यथार्ह प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा // 11 तैरेव सहितो राज्ञो वेश्म तूर्णमुपाद्रवत् / बृस्यस्तेषां तु संन्यस्ता राक्षसेन्द्रस्य शासनात् / दर्शनं राक्षसेन्द्रस्य वाङ्खमाणो द्विजस्तदा // 26 भूमौ वरकुथास्तीर्णाः प्रेष्यभरतसत्तम // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तासु ते पूजिता राज्ञा निषण्णा द्विजसत्तमाः / चतुःषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 16 // व्यराजन्त महाराज नक्षत्रपतयो यथा // 13 ततो जाम्बूनदाः पात्रीर्वाता विमलाः शुभाः / भीष्म उवाच / वरान्नपूर्णा विप्रेभ्यः प्रादान्मधुघृताप्लुताः // 14 ततः स विदितो राज्ञः प्रविश्य गृहमुत्तमम् / तस्य नित्यं तथाषाढ्यां माध्यां च बहवो द्विजाः / पूजितो राक्षसेन्द्रेण निषसादासनोत्तमे // 1 ईप्सितं भोजनवरं लभन्ते सत्कृतं सदा // 15 पृष्टश्च गोत्रचरणं स्याध्यायं ब्रह्मचारिकम् / विशेषतस्तु कार्तिक्यां द्विजेभ्यः संप्रयच्छति / न तत्र व्याजहारान्यद्गोत्रमात्राहते द्विजः // 2 | शरद्र्यपाये रत्नानि पौर्णमास्यामिति श्रुतिः // 16 -2216 - Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 165. 17] शान्तिपर्व [12. 166. 11 166 सुषणं रजतं चैव मणीनथ च मौक्तिकम् / अयं बकपतिः पार्श्वे मांसराशिः स्थितो मम / वज्रान्महाधनांश्चैव वैडूर्या जिनराङ्कवान् // 17 इमं हत्वा गृहीत्वा च यास्येऽहं समभिद्रुतम् // 31 रत्नराशीन्विनिक्षिप्य दक्षिणार्थे स जारत / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ततः प्राह द्विजश्रेष्ठान्विरूपाक्षो महायशाः // 18 पञ्चषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 165 // गृहीत रत्नान्येतानि यथोत्साहं यथेष्टतः / येषु येषु च भाण्डेषु भुक्तं वो द्विजसत्तमाः / तान्येवादाय गच्छध्वं स्ववेश्मानीति भारत // 19 भीष्म उवाच / इत्युक्तवचने तस्मिन्राक्षसेन्द्रे महात्मनि / अथ तत्र महार्चिष्माननलो वातसारथिः / यथेष्टं तानि रत्नानि जगृहुर्ब्राह्मणर्षभाः // 20 तस्याविदूरे रक्षार्थ खगेन्द्रेण कृतोऽभवत् // 1 ततो महास्ते सर्वै रत्नैरभ्यर्चिताः शुभैः / / स चापि पार्श्वे सुष्वाप विश्वस्तो बकराट् तदा / ब्राह्मणा मृष्टवसनाः सुप्रीताः स्म तदाभवन् // 21 कृतघ्नस्तु स दुष्टात्मा तं जिघांसुरजागरत् // 2 ततस्तान्राक्षसेन्द्रश्च द्विजानाह पुनर्वचः / ततोऽलातेन दीप्तेन विश्वस्तं निजघान तम् / नानादिगागतानराजनराक्षसान्प्रतिषिध्य वै // 22 / निहत्य च मुदा युक्तः सोऽनुबन्धं न दृष्टवान् // 3 अधकदिवसं विप्रा न वोऽस्तीह भयं कचित् / / स तं विपक्षरोमाणं कृत्वाग्नावपचत्तदा / राक्षसेभ्यः प्रमोदध्वमिष्टतो यात माचिरम् // 23 तं गृहीत्वा सुवर्णं च ययौ द्रुततरं द्विजः॥४ ततः प्रदुद्रुवुः सर्वे विप्रसंघाः समन्ततः / ततोऽन्यस्मिन्गते चाह्नि विरूपाक्षोऽब्रवीत्सुतम् / गौतमोऽपि सुवर्णस्य भारमादाय सत्वरः / / 24 न प्रेक्षे राजधर्माणमद्य पुत्र खगोत्तमम् // 5 कृच्छ्रात्समुद्वहन्वीर न्यग्रोधं समुपागमत् / स पूर्वसंध्यां ब्रह्माणं वन्दितुं याति सर्वदा / न्यषीदच्च परिश्रान्तः क्लान्तश्च क्षुधितश्च ह // 25 मां चादृष्ट्वा कदाचित्स न गच्छति गृहान्खगः // 6 ततस्तमभ्यगाद्राजनराजधर्मा खगोत्तमः / उभे द्विरात्रं संध्ये वै नाभ्यगात्स ममालयम् / स्वागतेनाभ्यनन्दच्च गौतमं मित्रवत्सलः // 26 / तस्मान्न शुध्यते भावो मम स ज्ञायतां सुहृत् // 7 तस्य पक्षाप्रविक्षेपैः क्लमं व्यपनयत्खगः / स्वाध्यायेन वियुक्तो हि ब्रह्मवर्चसवर्जितः / पूजां चाप्यकरोद्धीमान्भोजनं चाप्यकल्पयत् // 27 तं गतस्तत्र मे शङ्का हन्यात्तं स द्विजाधमः // 8 स भुक्तवान्सुविश्रान्तो गौतमोऽचिन्तयत्तदा / दुराचारस्तु दुर्बुद्धिरिङ्गितैर्लक्षितो मया। हाटकस्याभिरूपस्य भारोऽयं सुमहान्मया। निष्क्रियो दारुणाकारः कृष्णो दस्युरिवाधमः // 9 गृहीतो लोभमोहाद्वै दूरं च गमनं मम / / 28 / गौतमः स गतस्तत्र तेनोद्विग्नं मनो मम / न चास्ति पथि भोक्तव्यं प्राणसंधारणं मम / पुत्र शीघ्रमितो गत्वा राजधर्मनिवेशनम् / किं कृत्वा धारयेयं वै प्राणानित्यभ्यचिन्तयत् // 29 / ज्ञायतां स विशुद्धात्मा यदि जीवति माचिरम् // 10 ततः स पथि भोक्तव्यं प्रेक्षमाणो न किंचन / | स एवमुक्तस्त्वरितो रक्षोभिः सहितो ययौ।। कृतघ्नः पुरुषव्याघ्र मनसेदमचिन्तयत् // 30 न्यग्रोधं तत्र चापश्यत्कङ्कालं राजधर्मणः // 11 म.भा. 278 -2217 - Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 166. 12] महाभारते [ 12. 167. 11 स रुदन्नगमत्पुत्रो राक्षसेन्द्रस्य धीमतः / मित्रद्रोही नृशंसश्च कृतघ्नश्च नराधमः / त्वरमाणः परं शक्त्या गौतमग्रहणाय वै // 12 / क्रव्यादैःकृमिभिश्चान्यैर्न भुज्यन्ते हि तादृशः // 25 ततोऽविदूरे जगृहुगौतमं राक्षसास्तदा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मशरीरं च पक्षास्थिचरणोज्झितम् // 13 षट्पष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 166 // तमादायाथ रक्षांसि द्रुतं मेरुद्रजं ययुः / 167 राज्ञश्च दर्शयामासुः शरीरं राजधर्मणः / भीष्म उवाच / कृतघ्नं पुरुषं तं च गौतमं पापचेतसम् // 14 रुरोद राजा तं दृष्ट्वा सामात्यः सपुरोहितः / ततश्चितां बकपतेः कारयामास राक्षसः / आर्तनादश्च सुमहानभूत्तस्य निवेशने // 15 रत्नैर्गन्धैश्च बहुभिर्वस्त्रैश्च समलंकृताम् // 1 तत्र प्रज्वाल्य नृपते बकराज प्रतापवान् / सस्त्रीकुमारं च पुरं बभूवास्वस्थमानसम् / प्रेतकार्याणि विधिवद्राक्षसेन्द्रश्चकार ह // 2 अथाब्रवीनृपः पुत्रं पापोऽयं वध्यतामिति // 16 तस्मिन्कालेऽथ सुरभिर्देवी दाक्षायणी शुभा। अस्य मांसैरिमे सर्वे विहरन्तु यथेष्टतः / उपरिष्टात्ततस्तस्य सा बभूव पयस्विनी // 3 पापचारः पापकर्मा पापात्मा पापनिश्चयः / तस्या वक्त्राच्युतः फेनः क्षीरमिश्रस्तदानघ / हन्तव्योऽयं मम मतिर्भवद्भिरिति राक्षसाः // 17 सोऽपतद्वै ततस्तस्यां चितायां राजधर्मणः // 4 इत्युक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसा घोरविक्रमाः / ततः संजीवितस्तेन बकराजस्तदानघ / नैच्छन्त तं भक्षयितुं पापकर्मायमित्युत // 18 उत्पत्य च समेयाय विरूपाक्षं बकाधिपः / / 5 दस्यूनां दीयतामेष साध्वद्य पुरुषाधमः / ततोऽभ्ययाद्देवराजो विरूपाक्षपुरं तदा। इत्यूचुस्तं महाराज राक्षसेन्द्रं निशाचराः // 19 / / प्राह चेदं विरूपाक्षं दिष्ट्यायं जीवतीत्युत // 6 शिरोभिश्च गता भूमिमूचू रक्षोगणाधिपम् / श्रावयामास चेन्द्रस्तं विरूपाक्षं पुरातनम् / न दातुमर्हसि त्वं नो भक्षणायास्य किल्बिषम् // 20 यथा शापः पुरा दत्तो ब्रह्मणा राजधर्मणः / / 7 एवमस्त्विति तानाह राक्षसेन्द्रो निशाचरान् / यदा बकपती राजन्ब्रह्माणं नोपसर्पति / ततो रोषादिदं प्राह बकेन्द्राय पितामहः / / 8 दस्यूनां दीयतामेष कृतघ्नोऽद्यैव राक्षसाः // 21 यस्मान्मूढो मम सदो नागतोऽसौ बकाधमः / इत्युक्ते तस्य ते दासाः शूलमुद्गरपाणयः / तस्माद्वधं स दुष्टात्मा नचिरात्समवाप्स्यति // 9 छित्त्वा तं खण्डशः पापं दस्युभ्यः प्रददुस्तदा // 22 तदायं तस्य वचनान्निहतो गौतमेन वै / / दस्यवश्चापि नैच्छन्त तमत्तुं पापकारिणम् / तेनैवामृतसिक्तश्च पुनः संजीवितो बकः // 10 क्रव्यादा अपि राजेन्द्र कृतन्नं नोपभुञ्जते // 23 / राजधर्मा ततः प्राह प्रणिपत्य पुरंदरम् / ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चोरे भग्नव्रते तथा / यदि तेऽनुग्रहकृता मयि बुद्धिः पुरंदर / निष्कृतिर्विहिता राजन्कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः // 24 / सखायं मे सुदयितं गौतमं जीवयेत्युत // 11 --2218 - Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 167. 121 शान्तिपर्व - [12. 168. 10 तस्य वाक्यं समाज्ञाय वासवः पुरुषर्षभ / / युधिष्ठिरः प्रीतमना बभूव जनमेजय // 24 संजीवयित्वा सख्ये वै प्रादात्तं गौतमं तदा // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सभाण्डोपस्करं राजंस्तमासाद्य बकाधिपः / सप्तषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 167 // संपरिष्वज्य सुहृदं प्रीत्या परमया युतः // 13 // समाप्तमापद्धर्मपर्व // अथ तं पापकर्माणं राजधर्मा बकाधिपः / 168 विसर्जयित्वा सधनं प्रविवेश स्वमालयम् // 14 युधिष्ठिर उवाच / यथोचितं च स बको ययौ ब्रह्मसदस्तदा। . धर्माः पितामहेनोक्ता राजधर्माश्रिताः शुभाः। ब्रह्मा च तं महात्मानमातिथ्येनाभ्यपूजयत् // 15 धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि पार्थिव // 1 गौतमश्चापि संप्राप्य पुनस्तं शबरालयम् / भीष्म उवाच। शूद्रायां जनयामास पुत्रान्दुष्कृतकारिणः // 16 सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलं तपः / शापश्च सुमहांस्तस्य दत्तः सुरगणैस्तदा। बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया // 2 कुक्षौ पुनभ्यां भार्यायां जनयित्वा चिरात्सुतान् / यस्मिन्यस्मिंस्तु विनये यो यो याति विनिश्चयम् / निरयं प्राप्स्यति महत्कृतघ्नोऽयमिति प्रभो // 17 स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम // 3 एतत्प्राह पुरा सर्वं नारदो मम भारत / यथा यथा च पर्येति लोकतन्त्रमसारवत् / संस्मृत्य चापि सुमहदाख्यानं पुरुषर्षभ / तथा तथा विरागोऽत्र जायते नात्र संशयः // 4 मयापि भवते सर्वं यथावदुपवर्णितम् // 28 एवं व्यवसिते लोके बहुदोषे युधिष्ठिर / कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम् / आत्ममोक्षनिमित्तं वै यतेत मतिमान्नरः / / 5 अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः // 19 युधिष्ठिर उवाच / मित्रद्रोहो न कर्तव्यः पुरुषेण विशेषतः / नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते / मित्रध्रुङिरयं घोरमनन्तं प्रतिपद्यते // 20 यया बुद्ध्या नुदेच्छोकं तन्मे ब्रूहि पितामह // 6 कृतज्ञेन सदा भाव्यं मित्रकामेन चानघ / भीष्म उवाच / मित्रात्प्रभवते सत्यं मित्रात्प्रभवते बलम् / नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते / सत्कारैरुत्तमर्मित्रं पूजयेत विचक्षणः / / 21 अहो दुःखमिति ध्यायशोकस्यापचितिं चरेत् // 7 परित्याज्यो बुधैः पापः कृतघ्नो निरपत्रपः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / मित्रद्रोही कुलाङ्गारः पापकर्मा नराधमः / / 22 यथा सेनजितं विप्रः कश्चिदित्यब्रवीद्वचः // 8 एष धर्मभृतां श्रेष्ठ प्रोक्तः पापो मया तव / / पुत्रशोकाभिसंतप्तं राजानं शोकविह्वलम् / मित्रद्रोही कृतघ्नो वै किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 23 | विषण्णवदनं दृष्ट्वा विप्रो वचनमब्रवीत् // 9 वैशंपायन उवाच। किं नु खल्वसि मूढस्त्वं शोच्यः किमनुशोचसि / एतच्छ्रुत्वा तदा वाक्यं भीष्मेणोक्तं महात्मना। यदा त्वामपि शोचन्तः शोच्या यास्यन्ति तां गतिम् // -2219 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 168. 11] महाभारते [ 12. 168. 39 त्वं चैवाहं च ये चान्ये त्वां राजन्पर्युपासते। ते नराः सुखमेधन्ते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः // 24 सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम् // 11 / अन्त्येषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे। सेनजिदुवाच / अन्त्यप्राप्तिं सुखामाहुर्दुःखमन्तरमन्तयोः // 25 / का बुद्धिः किं तपो विप्र कः समाधिस्तपोधन / ये तु बुद्धिसुखं प्राप्ता द्वंद्वातीता विमत्सराः। किं ज्ञानं किं श्रुतं वा ते यत्प्राप्य न विषीदसि॥१२ तान्नैवार्था न चाना व्यथयन्ति कदाचन // 26 ब्राह्मण उवाच / अथ ये बुद्धिमप्राप्ता व्यतिक्रान्ताश्च मूढताम् / पश्य भूतानि दुःखेन व्यतिषक्तानि सर्वशः। तेऽतिवेलं प्रहृष्यन्ति संतापमुपयान्ति च // 27 आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम // 13 / / नित्यप्रमुदिता मूढा दिवि देवगणा इव। . यथा मम तथान्येषामिति बुद्ध्या न मे व्यथा। अवलेपेन महता परिदृब्धा विचेतसः / / 28 एतां बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे // 14 सुखं दुःखान्तमालस्यं दुःखं दाक्ष्यं सुखोदयम् / यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ / भूतिश्चैव श्रिया साधं दक्षे वसति नालसे // 29 समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः // 15 सुखं वा यदि वा दुःखं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम्। एवं पुत्राश्च पौत्राश्च ज्ञातयो बान्धवास्तथा। प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः / / 30 तेषु स्नेहो न कर्तव्यो विप्रयोगो हि तैर्भुवम् // 16 शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च / अदर्शनादापतितः पुनश्वादर्शनं गतः / दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 31 न त्वासौ वेद न त्वं तं कः सन्कमनुशोचसि // 17 बुद्धिमन्तं कृतप्रज्ञं शुश्रुषुमनसूयकम् / तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम् / दान्तं जितेन्द्रियं चापि शोको न स्पृशते नरम् // 32 सुखात्संजायते दुःखमेवमेतत्पुनः पुनः / एतां बुद्धिं समास्थाय गुप्तचित्तश्चरेद्बुधः / सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् // 18 उदयास्तमयज्ञं हि न शोकः स्प्रष्टुमर्हति // 33 सुखात्त्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम् / / यन्निमित्तं भवेच्छोकनासो वा दुःखमेव वा। न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम् // 19 आयासो वा यतोमूलस्तदेकाङ्गमपि त्यजेत् // 34 नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः / / यद्यत्त्यजति कामानां तत्सुखस्याभिपूर्यते / न च प्रज्ञालमर्थानां न सुखानामलं धनम् // 20 कामानुसारी पुरुषः कामाननु विनश्यति // 35 न बुद्धिर्धनलाभाय न जाड्यमसमृद्धये / यञ्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् / लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः // 21 तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम् // 36 बुद्धिमन्तं च मूढं च शूरं भीरं जडं कविम् / पूर्वदेहकृतं कर्म शुभं वा यदि वाशुभम् / दुर्बलं बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम् // 22 प्राज्ञं मूढं तथा शूरं भजते यादृशं कृतम् // 37 धेनुर्वत्सस्य गोपस्य स्वामिनस्तस्करस्य च / एवमेव किलैतानि प्रियाण्येवाप्रियाणि च / पयः पिबति यस्तस्या घेनुस्तस्येति निश्चयः // 23 / जीवेषु परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च // 38 ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः। तदेवं बुद्धिमास्थाय सुखं जीवेद्गुणान्वितः / -2220 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 168. 39 ] शान्तिपर्व [ 12. 169.7 मीष्म उवाच / सर्वान्कामा गुप्सेत सङ्गान्कुर्वीत पृष्ठतः / भीष्म उवाच / वृत्त एष हृदि प्रौढो मृत्युरेष मनोमयः // 39 एतैश्चान्यैश्च विप्रस्य हेतुमद्भिः प्रभाषितैः / यदा संहरते कामान्कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः / पर्यवस्थापितो राजा सेनजिन्मुमुदे सुखम् // 53 तदात्मज्योतिरात्मा च आत्मन्येव प्रसीदति // 40 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम् / अष्टषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 168 // तदेव परितापार्थं सर्व संपद्यते तदा // 41 169 न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति / यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा // 42 युधिष्ठिर उवाच / उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ भयाभये / अतिक्रामति कालेऽस्मिन्सर्वभूतक्षयावहे / प्रियाप्रिये परित्यज्य प्रशान्तात्मा भविष्यति / / 43 / किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 यदा न कुरुते धीरः सर्वभूतेषु पापकम् / कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // 44 - अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः / पितुः पुत्रेण संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर // 2 योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् // द्विजातेः कस्यचित्पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै / अत्र पिङ्गलया गीता गाथाः श्रूयन्ति पार्थिव / बभूव पुत्रो मेधावी मेधावी नाम नामतः // 3 यथा सा कृच्छ्रकालेऽपि लेभे धर्म सनातनम् // 46 सोऽब्रवीत्पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम् / संकेते पिङ्गला वेश्या कान्तेनासीद्विनाकृता। मोक्षधर्मार्थकुशलो लोकतत्त्वविचक्षणः // 4 अथ कृच्छ्रगता शान्तां बुद्धिमास्थापयत्तदा // 47 धीरः किं स्वित्तात कुर्यात्प्रजानपिङ्गलोवाच / क्षिप्रं ह्यायुधंश्यते मानवानाम् / पितस्तदाचक्ष्व यथार्थयोगं उन्मत्ताहमनुन्मत्तं कान्तमन्ववसं चिरम् / ___ममानुपूर्व्या येन धर्म चरेयम् // 5 अन्तिके रमणं सन्तं नैनमध्यगमं पुरा / / 48 पितोवाच / एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम् / का हि कान्तमिहायान्तमयं कान्तेति मंस्यते // 49 वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र अकामाः कामरूपेण धूर्ता नरकरूपिणः / पुत्रानिच्छेत्पावनार्थं पितृणाम् / न पुनर्वश्चयिष्यन्ति प्रतिबुद्धास्मि जागृमि // 50 अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो अनर्थोऽपि भवत्यर्थो दैवात्पूर्वकृतेन वा / वनं प्रविश्याथ मुनिळूभूषेत् // 6 संबुद्धाहं निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया // 51 पुत्र उवाच / सुखं निराशः स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम् / एवमभ्याहते लोके समन्तात्परिवारिते / आशामनाशां कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला॥ / अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे // 7 - 2221 - Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 169.8] महाभारते [12. 169. 35 पितोवाच। क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति // 20 कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः / मृत्युर्जरा च व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम् / अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम् // 8 अनुषक्तं यदा देहे किं स्वस्थ इव तिष्ठसि // 21 पुत्र उवाच। जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चान्वेति देहिनम् / मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः / अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्गमाः // 22 अहोरात्राः पतन्त्येते ननु कस्मान्न बुध्यसे // 9 मृत्योर्वा गृहमेवैतद्या ग्रामे वसतो रतिः। यदाहमेतज्जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह / देवानामेष वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः // 23 सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन् // 10 निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः। . राव्या राज्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा / छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः // गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा / न हिंसयति यः प्राणान्मनोवाकायहेतुभिः / तदेव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद्विचक्षणः // 11 जीवितार्थापनयनैः कर्मभिर्न स बध्यते // 25 अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम् / न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित्प्रबाधते / शष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्रगतमानसम् / ऋते सत्यमसंत्याज्यं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम् // 26 वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति / / 12 तस्मात्सत्यव्रताचारः सत्ययोगपरायणः / अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वा कालोऽत्यगादयम् / सत्यारामः समो दान्तः सत्येनैवान्तकं जयेत् // 25 अकृतेष्वेव कार्येषु मृत्युः संप्रकर्षति // 13 अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् / श्वःकार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराह्निकम् / मृत्युमापद्यते मोहात्सत्येनापद्यतेऽमृतम् // 28 न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम् / सोऽहं ह्यहिंस्रः सत्यार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः / को हि जानाति कस्याद्य मृत्युसेना निवेक्ष्यते॥१४ समदुःखसुखः क्षेमी मृत्युं हास्याम्यमर्त्यवत् // 29 युवैव धर्मशीलः स्यादनिमित्तं हि जीवितम् / / शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः / कृते धर्मे भवेत्कीर्तिरिह प्रेत्य च वै सुखम् // 15 वाङ्मनःकर्मयज्ञश्च भविष्याम्युद्गायने // 30 मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः / पशुयज्ञैः कथं हिंढर्मादृशो यष्टुमर्हति / कृत्वा कार्यमकार्य वा पुष्टिमेषां प्रयच्छति // 16 अन्तवद्भिरुत प्राज्ञः क्षत्रयज्ञैः पिशाचवत् // 31 तं पुत्रपशुसंमत्तं व्यासक्तमनसं नरम् / यस्य वाङ्मनसी स्यातां सम्यक्प्रणिहिते सदा / सुप्तं व्याघ्र महोघो वा मृत्युरादाय गच्छति // 17 तपस्त्यागश्च योगश्च स वै सर्वमवाप्नुयात् // 32 संचिन्वानकमेवैकं कामानामवितृप्तकम् / नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं बलम् / व्याघ्रः पशुमिवादाय मृत्युरादाय गच्छति // 18 . नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥३३ इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत्कृताकृतम् / आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि वा / एवमीहासुखासक्तं कृतान्तः कुरुते वशे // 19 आत्मन्येव भविष्यामि न मां तारयति प्रजा // 34 कृतानां फलमप्राप्तं कर्मणां फलसङ्गिनम् / नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं . - 2222 - Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 169. 35] शान्तिपर्व [ 12. 170. 22 यथैकता समता सत्यता च / आकिंचन्यं सुखं लोके पथ्यं शिवमनामयम् / शीले स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं / अनमित्रमथो ह्येतहुर्लभं सुलभं सताम् // 8 ततस्ततश्वोपरमः क्रियाभ्यः // 35 अकिंचनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वशः / किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते अवेक्षमाणस्वीलोकान्न तुल्यमुपलक्षये // 9 किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यति / आकिंचन्यं च राज्यं च तुलया समतोलयम् / आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं अत्यरिच्यत दारिद्रयं राज्यादपि गुणाधिकम् // 10 पितामहस्ते क गतः पिता च / / 36 आकिंचन्ये च राज्ये च विशेषः सुमहानयम् / भीष्म उवाच / नित्योद्विग्नो हि धनवान्मृत्योरास्यगतो यथा // 11 पुत्रस्यैतद्वचः श्रुत्वा तथाकार्षीत्पिता नृप। . नैवास्यामिर्न चादित्यो न मृत्युनं च दस्यवः / तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः // 37 प्रभवन्ति धनज्यानिनिर्मुक्तस्य निराशिषः // 12 तं वै सदा कामचरमनुपस्तीर्णशायिनम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 169 // बाहूपधानं शाम्यन्तं प्रशंसन्ति दिवौकसः // 13 धनवान्क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्टचेतनः / 170. तिर्यगीक्षः शुष्कमुखः पापको भृकुटीमुखः // 14 युधिष्ठिर उवाच। निर्दशंश्चाधरोष्ठं च क्रुद्धो दारुणभाषिता। . धनिनो वाधना ये च वर्तयन्ति स्वतन्त्रिणः / कस्तमिच्छेत्परिद्रष्टुं दातुमिच्छति चेन्महीम् // 15 सुखदुःखागमस्तेषां कः कथं वा पितामह / / 1 श्रिया ह्यभीक्ष्णं संवासो मोहयत्यविचक्षणम् / भीष्म उवाच / सा तस्य चित्तं हरति शारदाभ्रमिवानिलः // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अथैनं रूपमानश्च धनमानश्च विन्दति / शम्याकेन विमुक्तेन गीतं शान्तिगतेन ह // 2 अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः / अब्रवीन्मां पुरा कश्चिद्राह्मणस्त्यागमास्थितः। इत्येभिः कारणैस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रसिच्यते // 17 क्लिश्यमानः कुदारेण कुचैलेन बुभुक्षया // 3 स प्रसिक्तमना भोगाविसृज्य पितृसंचितान् / उत्पन्नमिह लोके वै जन्मप्रभृति मानवम् / परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते // 18 विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च // 4 तमतिक्रान्तमर्यादमाददानं ततस्ततः / तयोरेकतरे मार्गे यद्येनमभिसंनयेत् / प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः // 19 न सुखं प्राप्य संहृष्येन्न दुःखं प्राप्य संज्वरेत् // 5 एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम् / न वै चरसि यच्छ्रेय आत्मनो वा यदीहसे। विविधान्युपवर्तन्ते गात्रसंस्पर्शजानि च // 20 अकामात्मापि हि सदा धुरमुद्यम्य चैव हि // 6 / तेषां परमदुःखानां बुद्धया भैषज्यमाचरेत् / अकिंचनः परिपतन्सुखमास्वादयिष्यसि / लोकधर्म समाज्ञाय ध्रुवाणामध्रुवैः सह // 21 अकिंचनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव हि // 7 नात्यक्त्वा सुखमाप्नोति नात्यक्त्वा विन्दते परम् / -2223 - Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 170. 22] महाभारते [12. 171. 26 नात्यक्त्वा चाभयः शेते त्यक्त्वा सर्वं सुखी भव // | मणी वोष्ट्रस्य लम्बेते प्रियौ वत्सतरौ मम / / इत्येतद्धास्तिनपुरे ब्राह्मणेनोपवर्णितम् / शुद्धं हि दैवमेवेदमतो नैवास्ति पौरुषम् // 12 शम्याकेन पुरा मह्यं तस्मात्त्यागः परो मतः // 23 यदि वाप्युपपद्येत पौरुषं नाम कर्हिचित् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अन्विष्यमाणं तदपि दैवमेवावतिष्ठते // 13 सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 17 // तस्मान्निर्वेद एवेह गन्तव्यः सुखमीप्सता। 171 सुखं स्वपिति निर्विण्णो निराशश्चार्थसाधने // 14 युधिष्ठिर उवाच / अहो सम्यक्शुकेनोक्तं सर्वतः परिमुच्यता। ईहमानः समारम्भान्यदि नासादयेद्धनम् / प्रतिष्ठता महारण्यं जनकस्य निवेशनात् // 15 धनतृष्णाभिभूतश्च किं कुर्वन्सुखमाप्नुयात् // 1 यः कामान्प्राप्नुयात्सर्वान्यश्चैनान्केवलांस्त्यजेत् / भीष्म उवाच / प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते // 16 सर्वसाम्यमनायासः सत्यवाक्यं च भारत। नान्तं सर्वविवित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन / निर्वेदश्चाविवित्सा च यस्य स्यात्स सुखी नरः // 2 शरीरे जीविते चैव तृष्णा मन्दस्य वर्धते // 17 एतान्येव पदान्याहुः पञ्च वृद्धाः प्रशान्तये / निवर्तस्व विवित्साभ्यः शाम्य निर्विद्य मामक / एष स्वर्गश्च धर्मश्च सुखं चानुत्तमं सताम् // 3 असकृञ्चासि निकृतो न च निर्विद्यसे तनो // 18 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यदि नाहं विनाश्यस्ते यद्येवं रमसे मया / निर्वेदान्मङ्किना गीतं तन्निबोध युधिष्ठिर // 4 मा मां योजय लोभेन वृथा त्वं वित्तकामुक // 19 ईहमानो धनं मङ्किर्भग्नेहश्च पुनः पुनः / संचितं संचितं द्रव्यं नष्टं तव पुनः पुनः / केनचिद्धनशेषेण क्रीतवान्दम्यगोयुगम् // 5 कदा विमोक्ष्यसे मूढ धनेहां धनकामुक // 20 सुसंबद्धौ तु तौ दम्यौ दमनायाभिनिःसूतौ। अहो नु मम बालिश्यं योऽहं क्रीडनकस्तव / आसीनमुष्टं मध्येन सहमैवाभ्यधावताम् // 6 किं नैव जातु पुरुषः परेषां प्रेष्यतामियात् // 21 तयोः संप्राप्तयोरुष्ट्रः स्कन्धदेशममर्षणः / न. पूर्वे नापरे जातु कामानामन्तमाप्नुवन् / उत्थायोत्क्षिप्य तौ दम्यौ प्रससार महाजवः // 7 त्यक्त्वा सर्वसमारम्भान्प्रतिबुद्धोऽस्मि जागृमि // 22 ह्रियमाणौ तु तो दम्यौ तेनोष्ट्रेण प्रमाथिना / नूनं ते हृदयं काम वज्रसारमयं दृढम् / म्रियमाणौ च संप्रेक्ष्य मङ्किस्तत्राब्रवीदिदम् // 8 यदनर्थशताविष्टं शतधा न विदीर्यते // 23 न चैवाविहितं शक्यं दक्षेणापीहितुं धनम् / त्यजामि काम त्वां चैव यच्च किंचित्प्रियं तव / युक्तेन श्रद्धया सम्यगीहां समनुतिष्ठता // 9 तवाहं सुखमन्विच्छन्नात्मन्युपलभे सुखम् // 24 कृतस्य पूर्व चानथैर्युक्तस्याप्यनुतिष्ठतः। काम जानामि ते मूलं संकल्पात्किल जायसे / इमं पश्यत संगत्या मम दैवमुपप्लवम् / / 10 न त्वां संकल्पयिष्यामि समूलो न भविष्यसि // 25 उद्यम्योद्यम्य मे दम्यौ विषमेणेव गच्छति / ईहा धनस्य न सुखा लब्ध्वा चिन्ता च भूयसी। उरिक्षप्य काकतालीयमुन्माथेनेव जम्बुकः // 11 लब्धनाशो यथा मृत्युर्लब्धं भवति वा न वा // 26 - 2224 - Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 171. 27 ] शान्तिपर्व [12. 171. 56 परेत्य यो न लभते ततो दुःखतरं नु किम् / परित्यजामि काम त्वां हित्वा सर्वमनोगतीः / न च तुष्यति लब्धेन भूय एव च मार्गति // 27 | न त्वं मया पुनः काम नस्योतेनेव रंस्यते // 42 अनुतर्षुल एवार्थः स्वादु गाङ्गमिवोदकम् / क्षमिष्येऽक्षममाणानां न हिंसिष्ये च हिंसितः / महिलापनमेतत्तु प्रतिबुद्धोऽस्मि संत्यज // 28 द्वेष्यमुक्तः प्रियं वक्ष्याम्यनादृत्य तदप्रियम् // 43 य इमं मामकं देहं भूतग्रामः समाश्रितः / तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं यथालब्धेन वर्तयन् / स यात्वितो यथाकामं वसतां वा यथासुखम् // 29 न सकामं करिष्यामि त्वामहं शत्रुमात्मनः // 44 न युष्माखिह में प्रीतिः कामलोभानुसारिषु / निर्वेदं निवृतिं तृप्तिं शान्ति सत्यं दमं क्षमाम् / तस्मादुत्सृज्य सर्वान्वः सत्यमेवाश्रयाम्यहम् // 30 सर्वभूतदयां चैव विद्धि मां शरणागतम् // 45 सर्वभूतान्यहं देहे पश्यन्मनसि चात्मनः / तस्मात्कामश्च लोभश्च तृष्णा कार्पण्यमेव च / योगे बुद्धिं श्रुते सत्त्वं मनो ब्रह्मणि धारयन् // 31 त्यजन्तु मां प्रतिष्ठन्तं सत्त्वस्थो ह्यस्मि सांप्रतम् // 46 विहरिष्याम्यनासक्तः सुखी लोकान्निरामयः / प्रहाय कामं लोभं च क्रोधं पारुष्यमेव च / यथा मा त्वं पुनर्नैवं दुःखेषु प्रणिधास्यसि // 32 नाद्य लोभवशं प्राप्तो दुःखं प्राप्स्याम्यनात्मवान् // त्वया हि मे प्रणुन्नस्य गतिरन्या न विद्यते / यद्यत्त्यजति कामानां तत्सुखस्याभिपूर्यते।। तृष्णाशोकश्रमाणां हि त्वं काम प्रभवः सदा // 33 कामस्य वशगो नित्यं दुःखमेव प्रपद्यते // 48 धननाशोऽधिकं दुःखं मन्ये सर्वमहत्तरम् / कामान्व्युदस्य धुनुते यत्किंचित्पुरुषो रजः / ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते मित्राणि च धनच्युतम् // 34 कामक्रोधोद्भवं दुःखमहीररतिरेव च // 49 अवज्ञानसहौस्तु दोषाः कष्टतराधने / एष ब्रह्मप्रविष्टोऽहं ग्रीष्मे शीतमिव ह्रदम् / धने सुखकला या च सापि दुःखैर्विधीयते // 35 शाम्यामि परिनिर्वामि सुखमासे च केवलम् // 50 धनमस्येति पुरुषं पुरा निन्नन्ति दस्यवः / यञ्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् / क्लिश्यन्ति विविधैर्दण्डैर्नित्यमुद्वेजयन्ति च // 36 तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम् // 51 मन्दलोलुपता दुःखमिति बुद्धं चिरान्मया। आत्मना सप्तमं कामं हत्वा शत्रुमिवोत्तमम् / यद्यदालम्बसे काम तत्तदेवानुरुध्यसे // 37 प्राप्यावध्यं ब्रह्मपुरं राजेव स्यामहं सुखी // 52 अतत्त्वज्ञोऽसि बालश्च दुस्तोषोऽपूरणोऽनलः / एतां बुद्धिं समास्थाय मङ्किनिर्वेदमागतः / नैव त्वं वेत्थ सुलभं नैव त्वं वेत्थ दुर्लभम् // 38 सर्वान्कामान्परित्यज्य प्राप्य ब्रह्म महत्सुखम् // 53 पातालमिव दुष्पूरो मां दुःखैर्योक्तुमिच्छसि / / दम्यनाशकृते मङ्किरमरत्वं किलागमत् / नाहमद्य समावेष्टुं शक्यः काम पुनस्त्वया // 39 अच्छिनत्काममूलं स तेन प्राप महत्सुखम् // 54 निर्वेदमहमासाद्य द्रव्यनाशाद्यदृच्छया। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / निर्वृतिं परमां प्राप्य नाद्य कामान्विचिन्तये // 40 गीतं विदेहराजेन जनकेन प्रशाम्यता // 55 अतिक्लेशान्सहामीह नाहं बुध्याम्यबुद्धिमान् / अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन / निकृतो धननाशेन शये सर्वाङ्गविज्वरः // 41 / मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन // 56 म. भा. 279 - 2225 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 171. 57] महाभारते [12. 172. 22 172 अत्रैवोदाहरन्तीमं बोध्यस्य पदसंचयम् / इन्द्रियार्थाननात्य मुक्तश्चरसि साक्षिवत् // 7 निर्वेदं प्रति विन्यस्तं प्रतिबोध युधिष्ठिर // 57 का नु प्रज्ञा श्रुतं वा किं वृत्तिर्वा का नु ते मुने। बोध्यं दान्तमृर्षि राजा नहुषः पर्यपृच्छत / क्षिप्रमाचक्ष्व मे ब्रह्मश्रेयो यविह मन्यसे // 8 निर्वेदाच्छान्तिमापन्नं शान्तं प्रज्ञानतर्पितम् // 58 अनुयुक्तः स मेधावी लोकधर्मविधानवित् / उपदेशं महाप्राज्ञ शमस्योपदिशस्व मे। उवाच श्लक्ष्णया वाचा प्रहादमनपार्थया // 9 का बुद्धिं समनुध्याय शान्तश्चरसि निर्वृतः // 59 पश्यन्प्रहाद भूतानामुत्पत्तिमनिमित्ततः। बोध्य उवाच / हासं वृद्धि विनाशं च न प्रहृष्ये न च व्यथे // 10 उपदेशेन वर्तामि नानुशास्मीह कंचन / स्वभावादेव संदृश्य वर्तमानाः प्रवृत्तयः / लक्षणं तस्य वक्ष्येऽहं तत्स्वयं प्रविमृश्यताम् // 60 स्वभावनिरताः सर्वाः परितप्ये न केनचित् // 11 पिङ्गला कुररः सर्पः सारङ्गान्वेषणं वने / पश्यन्प्रहाद संयोगान्विप्रयोगपरायणान् / .' इषुकारः कुमारी च षडेते गुरवो मम // 61 संचयांश्च विनाशान्तान्न क्वचिद्विदधे मनः // 12 अन्तवन्ति च भूतानि गुणयुक्तानि पश्यतः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ___एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 171 // उत्पत्तिनिधनज्ञस्य किं कार्यमवशिष्यते // 13 जलजानामपि ह्यन्तं पर्यायेणोपलक्षये / महतामपि कायानां सूक्ष्माणां च महोदधौ // 14 युधिष्ठिर उवाच। जङ्गमस्थावराणां च भूतानामसुराधिप / केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वीतशोकश्चरेन्महीम् / पार्थिवानामपि व्यक्तं मृत्यु पश्यामि सर्वशः // 15 किं च कुर्वन्नरो लोके प्राप्नोति परमां गतिम् // 1 अन्तरिक्षचराणां च दानवोत्तम पक्षिणाम् / भीष्म उवाच / उत्तिष्ठति यथाकालं मृत्युबलवतामपि / / 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / दिवि संचरमाणानि ह्रस्वानि च महान्ति च / प्रहादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च // 2 ज्योतींषि च यथाकालं पतमानानि लक्षये // 17 परन्तं ब्राह्मणं कंचित्कल्यचित्तमनामयम् / इति भूतानि संपश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना / पप्रच्छ राजन्प्रहादो बुद्धिमान्प्राज्ञसंमतः // 3 सर्वसामान्यतो विद्वान्कृतकृत्यः सुखं स्वपे // 18 स्वस्थः शक्तो मृदुर्दान्तो निर्विवित्सोऽनसूयकः / सुमहान्तमपि प्रासं असे लब्धं यदृच्छया। सुवाग्बहुमतो लोके प्राज्ञश्वरति बालवत् // 4 शये पुनरभुञ्जानो दिवसानि बहून्यपि // 19 नैव प्रार्थयसे लाभं नालाभेष्वनुशोचसि / आस्रवत्यपि मामन्नं पुनर्बहुगुणं बहु / नित्यतृप्त इव ब्रह्मन्न किंचिदवमन्यसे // 5 पुनरल्पगुणं स्तोकं पुनर्नैवोपपद्यते // 20 स्रोतसा द्वियमाणासु प्रजास्वविमना इव / / कणान्कदाचियादामि पिण्याकमपि च असे / धर्मकामार्थकार्येषु कूटस्थ इव लक्ष्यसे // 6 भक्षये शालिमांसानि भक्षांश्चोच्चावचान्पुनः // 21 नानुतिष्ठसि धर्मार्थो न कामे चापि वर्तसे। शये कदाचित्पर्यङ्के भूमावपि पुनः शये / 2226 - Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 172. 22 ] शान्तिपर्व [ 12. 172. 37 प्रासादेऽपि च मे शय्या कदाचिदुपपद्यते // 22 धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः / धारयामि च चीराणि शाणीं क्षौमाजिनानि च / उपगतफलभोगिनो निशाम्य महार्हाणि च वासांसि धारयाम्यहमेकदा // 23 व्रतमिदमाजगरं शुचिश्वरामि // 31 न संनिपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया / अनियतशयनासनः प्रकृत्या प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुध्ये सुदुर्लभम् // 24 दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः / अचलमनिधनं शिवं विशोकं अपगतफलसंचयः प्रहृष्टो शुचिमतुलं विदुषां मते निविष्टम् / व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 32 अनभिमतमसेवितं च मूढ़ अभिगतमसुखार्थमीहनाथैव्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 25 . ___ रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थः / अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मा तृषितमनियतं मनो नियन्तुं त्परिमितसंसरणः परावरज्ञः / व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 33 विगतभयकषायलोभमोहो न हृदयमनुरुध्यते मनो वा व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 26 . प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च / अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं तदुभयमुपलक्षयन्निवाई विधिपरिणामविभक्तदेशकालम् / व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 34 हृदयसुखमसेवितं कदय बहु कथितमिदं हि बुद्धिमद्भिः व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 27 कविभिरभिप्रथयद्भिरात्मकीर्तिम् / इदमिदमिति तृष्णयाभिभूतं इदमिदमिति तत्र तत्र तत्तजनमनवाप्तधनं विषीदमानम् / स्वपरमतैर्गहनं प्रतर्कयद्भिः // 35 निपुणमनुनिशाम्य तत्त्वबुद्ध्या तदहमनुनिशाम्य विप्रया व्रतमिदमाजगरं शुचिश्वरामि // 28 पृथगभिपन्नमिहाबुधैर्मनुष्यैः। बहुविधमनुदृश्य चार्थहेतोः अनवसितमनन्तदोषपारं कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयन्तम् / नृषु विहरामि विनीतरोषतृष्णः // 36 उपशमरुचिरात्मवान्प्रशान्तो भीष्म उवाच / व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 29 अजगरचरितं व्रतं महात्मा सुखमसुखमनर्थमर्थलाभ ___ य इह नरोऽनुचरेद्विनीतरागः / रतिमरतिं मरणं च जीवितं च / अपगतभयमन्युलोभमोहः विधिनियतमवेक्ष्य तत्त्वतोऽहं ___स खलु सुखी विहरेदिमं विहारम् // 37 व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि // 30 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अपगतभयरागमोहदुर्पो त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 172 // - 2227 - Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 173. 1] महाभारते [ 12. 173. 29 173 चेलमन्नं सुखं शय्यां निवातं चोपभुञ्जते // 14 युधिष्ठिर उवाच / अधिष्ठाय च गां लोके भुञ्जते वाहयन्ति च / / बान्धवाः कर्म वित्तं वा प्रज्ञा वेह पितामह / उपायैर्बहुभिश्चैव वश्यानात्मनि कुर्वते // 15 नरस्य का प्रतिष्ठा स्यादेतत्पृष्टो वदस्व मे // 1 ये खल्वजिह्वाः कृपणा अल्पप्राणा अपाणयः / भीष्म उवाच / सहन्ते तानि दुःखानि दिष्ट्या त्वं न तथा मुने // 16 प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः / दिष्ट्या त्वं न सृगालो वै न कृमिर्न च मूषकः। प्रज्ञा नैःश्रेयसी लोके प्रज्ञा स्वर्गो मतः सताम् // 2 न सर्पो न च मण्डूको न चान्यः पापयोनिजः॥१७ प्रज्ञया प्रापितार्थो हि बलिरैश्वर्यसंक्षये। एतावतापि लाभेन तोष्टुमर्हसि काश्यप। प्रह्लादो नमुचिर्मङ्किस्तस्याः किं विद्यते परम् // 3 किं पुनर्योऽसि सत्त्वानां सर्वेषां ब्राह्मणोत्तमः // 18 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / इमे मां कृमयोऽदन्ति तेषामुद्धरणाय मे / / इन्द्रकाश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर // 4 नास्ति शक्तिरपाणित्वात्पश्यावस्थामिमां मम // 19 वैश्यः कश्चिदृषि तात काश्यपं संशितव्रतम् / अकार्यमिति चैवेमं नात्मानं संत्यजाम्यहम् / रथेन पातयामास श्रीमान्दृप्तस्तपस्विनम् // 5 नेतः पापीयसी योनि पतेयमपरामिति // 20 आर्तः स पतितः क्रुद्धरत्यक्त्वात्मानमथाब्रवीत् / मध्ये वै पापयोनीनां साईली यामहं गतः / मरिष्याम्यधनस्येह जीवितार्थो न विद्यते // 6 पापीयस्यो बहतरा इतोऽन्याः पापयोनयः // 21 तथा मुमूर्षमासीनमकूजन्तमचेतसम् / जात्यैवैके सुखतराः सन्त्यन्ये भृशदुःखिताः / इन्द्रः सृगालरूपेण बभाषे क्रुद्धमानसम् // 7 नैकान्तसुखमेवेह क्वचित्पश्यामि कस्यचित् // 22 मनुष्ययोनिनिच्छन्ति सर्वभूताति सर्वशः / मनुष्या ह्याट्यतां प्राप्य राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम् / मनुष्यत्वे च विप्रत्वं सर्व एवाभिनन्दति // 8 राज्यादेवत्वमिच्छन्ति देवत्वादिन्द्रतामपि // 23 मनुष्यो ब्राह्मणश्चासि श्रोत्रियश्चासि काश्यप / भवेस्त्वं यद्यपि त्वाठ्यो न राजा न च दैवतम् / सुदुर्लभमवाप्यैतददोषान्मर्तुमिच्छसि // 9 देवत्वं प्राप्य चेन्द्रत्वं नैव तुष्येस्तथा सति // 24 सर्वे लाभाः साभिमाना इति सत्या बत श्रुतिः / न तृप्तिः प्रियलाभेऽस्ति तृष्णा नाद्भिः प्रशाम्यति / संतोषणीयरूपोऽसि लोभाद्यदभिमन्यसे // 10 संप्रज्वलति सा भूयः समिद्भिरिवः पावकः // 25 अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः / अस्त्वेव त्वयि शोको वै हर्षश्चास्ति तथा त्वयि / पाणिमद्भयः स्पृहास्माकं यथा तव धनस्य वै॥११ सुखदुःखे तथा चोभे तत्र का परिदेवना // 26 न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते / परिच्छिद्यैव कामानां सर्वेषां चैव कर्मणाम् / अपाणित्वाद्वयं ब्रह्मन्कण्टकान्नोद्धरामहे // 12 मूलं रुन्धीन्द्रियग्रामं शकुन्तानिव पञ्जरे // 27 अथ येषां पुनः पाणी देवदत्तौ दशाङ्गुली / न खल्वप्यरसज्ञस्य कामः वचन जायते / उद्धरन्ति कृमीनङ्गाद्दशमानान्कषन्ति च / / 13 संस्पर्शादर्शनाद्वापि श्रवणाद्वापि जायते // 28 हिमवर्षातपानां च परित्राणानि कुर्वते / न त्वं स्मरसि वारुण्या लढाकानां च पक्षिणाम् / -2228 - Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 173. 29 ] शान्तिपर्व [ 12. 174. 4 ताभ्यां चाभ्यधिको भक्ष्यो न कश्चिद्विद्यते कचित् // संपतन्त्यासुरी योनि यज्ञप्रसववर्जिताम् // 44 यानि चान्यानि दूरेषु भक्ष्यभोज्यानि काश्यप / अहमासं पण्डितको हैतुको वेदनिन्दकः / येषामभुक्तपूर्व ते तेषामस्मृतिरेव च // 30 आन्वीक्षिकी तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् // 45 अप्राशनमसंस्पर्शमसंदर्शनमेव च / हेतुवादान्प्रवदिता वक्ता संसत्सु हेतुमत् / पुरुषस्यैष नियमो मन्ये श्रेयो न संशयः // 31 आक्रोष्टा चाभिवक्ता च ब्रह्मयज्ञेषु वै द्विजान् // 46 पाणिमन्तो धनैयुक्ता बलवन्तो न संशयः / नास्तिकः सर्वशङ्की च मूर्खः पण्डितमानिकः / मनुष्या मानुषैरेव दासत्वमुपपादिताः // 32 तस्येयं फलनिर्वृत्तिः सृगालत्वं मम द्विज // 47 वधबन्धपरिक्लेशैः क्लिश्यन्ते च पुनः पुनः / अपि जातु तथा तत्स्यादहोरात्रशतैरपि / ते खल्वपि रमन्ते च मोदन्ते च हसन्ति च // 33 यदहं मानुषी योनि सृगालः प्राप्नुयां पुनः // 48 अपरे बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः / संतुष्टश्चाप्रमत्तश्च यज्ञदानतपोरतिः / जुगुप्सितां सुकृपणां पापां वृत्तिमुपासते // 34 ज्ञेयज्ञाता भवेयं वै वर्ग्यवर्जयिता तथा // 49 उत्सहन्ते च ते वृत्तिमन्यामप्युपसेवितुम् / ततः स मुनिरुत्थाय काश्यपस्तमुवाच ह / वकर्मणा तु नियतं भवितव्यं तु तत्तथा // 35 अहो बतासि कुशलो बुद्धिमानिति विस्मितः // 50 न पुल्कसो न चण्डाल आत्मानं त्यक्तुमिच्छति / समवैक्षत तं विप्रो ज्ञानदीपेण चक्षुषा / असंतुष्टः स्वया योन्या मायां पश्यस्व यादृशीम् / / ददर्श चैनं देवानामिद्रं देवं शचीपतिम् // 51 . दृष्ट्वा कुणीन्पक्षहतान्मनुष्यानामयाविनः / / ततः संपूजयामास काश्यपो हरिवाहनम् / सुसंपूर्णः स्वया योन्या लब्धलाभोऽसि काश्यप / / अनुज्ञातश्च तेनाथ प्रविवेश स्वमाश्रमम् // 52 यदि ब्राह्मण देहस्ते निरातङ्को निरामयः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अङ्गानि च समग्राणि न च लोकेषु धिकृतः // 38 त्रिसप्तत्यधिकशतततमोऽयायः // 173 // न केनचित्प्रवादेन सत्येनैवापहारिणा / . 174 धर्मायोत्तिष्ठ विप्रर्षे नात्मानं त्यक्तुमर्हसि // 39 यदि ब्रह्मशृणोष्येतच्छ्रद्दधासि च मे वचः / युधिष्ठिर उवाच। वेदोक्तस्य च धर्मस्य फलं मुख्यमवाप्स्यसि // 40 यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा तपस्तप्तं तथैव च / स्वाध्यायमग्निसंस्कारमप्रमत्तोऽनुपालय / गुरूणां चापि शुश्रूषा तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 . सत्यं दमं च दानं च स्पर्धिष्ठा मा च केनचित् / / भीष्म उवाच / ये केचन स्वध्ययनाः प्राप्ता यजनयाजनम् / आत्मनानर्थयुक्तेन पापे निविशते मनः। कथं ते जातु शोचेायेयुर्वाप्यशोभनम् // 42 स कर्म कलुषं कृत्वा क्लेशे महति धीयते // 2 : इच्छन्तस्ते विहाराय सुखं महदवाप्नुयुः / दुर्भिक्षादेव दुर्भिक्षं क्लेशात्क्लेशं भयाद्भयम् / उत जाताः सुनक्षत्रे सुतीर्थाः सुमुहूर्तजाः // 43 मृतेभ्यः प्रमृतं यान्ति दरिद्राः पापकारिणः // 3 नक्षत्रेष्वासुरेष्वन्ये दुस्तीर्था दुर्मुहूर्तजाः। उत्सवादुत्सवं यान्ति स्वर्गात्स्वर्ग सुखासुखम् / . -2229 - / Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 174. 4] महाभारते [12. 175. 11 श्रदधानाश्च दान्ताश्च धनाढ्याः शुभकारिणः // 4 | पदं यथा न दृश्येत तथा ज्ञानविदां गतिः // 19 व्यालकुञ्जरदुर्गेषु सर्पचोरभयेषु च। अलमन्यैरुपालम्भैः कीर्तितैश्च व्यतिक्रमः / हस्तावापेन गच्छन्ति नास्तिकाः किमतः परम् // 5 / पेशलं चानुरूपं च कर्तव्यं हितमात्मनः // 20 प्रियदेवातिथेयाश्च वदान्याः प्रियसाधवः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि क्षेम्यमात्मवतां मार्गमास्थिता हस्तदक्षिणम् // 6 चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 174 // पुलाका इव धान्येषु पुत्तिका इव पक्षिषु / 175 तद्विधास्ते मनुष्येषु येषां धर्मो न कारणम् // 7 युधिष्ठिर उवाच / सुशीघ्रमपि धावन्तं विधानमनुधावति / शेते सह शयानेन येन येन यथा कृतम् // 8 कुतः सृष्टमिदं विश्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् / उपतिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमनुगच्छति / प्रलये च कमभ्येति तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 . करोति कुर्वतः कर्म छायेवानुविधीयते // 9 ससागरः सगगनः सशैलः सबलाहकः / येन येन यथा यद्यत्पुरा कर्म समाचितम् / सभूमिः साग्निपवनो लोकोऽयं केन निर्मितः // 2 तत्तदेव नरो भुङ्क्ते नित्यं विहितमात्मनः // 10 कथं सृष्टानि भूतानि कथं वर्णविभक्तयः / स्वकर्मफलविक्षिप्तं विधानपरिरक्षितम् / शौचाशौचं कथं तेषां धर्माधर्मावथो कथम् // 3 भूतप्राममिमं कालः समन्तात्परिकर्षति // 11 कीदृशो जीवतां जीवः क वा गच्छन्ति ये मृताः। अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च / अस्माल्लोकादमुं लोकं सर्व शंसतु नो भवान् // 4 स्वकालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् // 12 भीष्म उवाच / समानश्चावमानश्च लाभालाभौ क्षयोदयौ / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्रवृत्ता विनिवर्तन्ते विधानान्ते पुनः पुनः // 13 भृगुणाभिहितं श्रेष्ठं भरद्वाजाय पृच्छते // 5 आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम् / कैलासशिखरे दृष्ट्वा दीप्यमानमिवौजसा। गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम् / / 14 भृगु महर्षिमासीनं भरद्वाजोऽन्वपृच्छत // 6 बालो युवा च वृद्धश्च यत्करोति शुभाशुभम् / ससागरः सगगनः सशैलः सबलाहकः / तस्यां तस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि // 15 सभूमिः साग्निपवनो लोकोऽयं केन निर्मितः // 7 यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् / कथं सृष्टानि भूतानि कथं वर्णविभक्तयः / तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति // 16 शौचाशौचं कथं तेषां धर्माधर्मावथो कथम् // 8 समुन्नमग्रतो वस्त्रं पश्चाच्छुध्यति कर्मणा / कीदृशो जीवतां जीवः क वा गच्छन्ति ये मृताः। उपवासैः प्रतप्तानां दीर्घ सुखमनन्तकम् // 17 परलोकमिमं चापि सर्वं शंसतु नो भवान् // 9 दीर्घकालेन तपसा सेवितेन तपोवने / एवं स भगवान्पृष्टो भरद्वाजेन संशयम् / धर्मनिर्धूतपापानां संसिध्यन्ते मनोरथाः // 18 महर्षिब्रह्मसंकाशः सर्व तस्मै ततोऽब्रवीत् // 10 शकुनीनामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके / मानसो नाम विख्यातः श्रुतपूर्वो महर्षिभिः / -2230 - Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 175. 11] शान्तिपर्व [12. 175. 37 अनादिनिधनो देवस्तथाभेद्योऽजरामरः // 11 / ते चाप्यन्तं न पश्यन्ति नभसः प्रथितौजसः / अव्यक्त इति विख्यातः शाश्वतोऽथाक्षरोऽव्ययः / दुर्गमत्वादनन्तत्वादिति मे विद्धि मानद // 25 यतः सृष्टानि भूतानि जायन्ते च म्रियन्ति च // 12 उपरिष्टोपरिष्टात्तु प्रज्वलद्भिः स्वयंप्रभैः / सोऽसजत्प्रथमं देवो महान्तं नाम नामतः / / निरुद्धमेतदाकाशमप्रमेयं सुरैरपि // 26 आकाशमिति विख्यातं सर्वभूतधरः प्रभुः // 13 पृथिव्यन्ते समुद्रास्तु समुद्रान्ते तमः स्मृतम् / आकाशादभवद्वारि सलिलादग्निमारुतौ / तमसोऽन्ते जलं प्राहुर्जलस्यान्तेऽग्निरेव च // 27 अग्निमारुतसंयोगात्ततः समभवन्मही // 14 रसातलान्ते सलिलं जलान्ते पन्नगाधिपः / ततस्तेजोमयं दिव्यं पद्मं सृष्टं स्वयंभुवा / तदन्ते पुनराकाशमाकाशान्ते पुनर्जलम् // 28 तस्मात्पद्मात्समभवद्ब्रह्मा वेदमयो निधिः // 15 एवमन्तं भगवतः प्रमाणं सलिलस्य च / अहंकार इति ख्यातः सर्वभूतात्मभूतकृत्।। अग्निमारुततोयेभ्यो दुज्ञेयं दैवतैरपि / / 29 ब्रह्मा वै सुमहातेजा य एते पञ्च धातवः / / 16 अग्निमारुततोयानां वर्णाः क्षितितलस्य च / शैलास्तस्यास्थिसंज्ञास्तु मेदो मांसं च मेदिनी। आकाशसरशा ह्येते भिद्यन्ते तत्त्वदर्शनात् // 30 समुद्रास्तस्य रुधिरमाकाशमुदरं तथा // 17 पठन्ति चैव मुनयः शास्त्रेषु विविधेषु च / पवनश्चैव निःश्वासस्तेजोऽनिर्निम्नगाः सिराः / त्रैलोक्ये सागरे चैव प्रमाणं विहितं यथा / अग्नीषोमौ तु चन्द्रार्को नयने तस्य विश्रुते // 18 अदृश्याय त्वगम्याय कः प्रमाणमुदाहरेत् // 31 नभश्चोय शिरस्तस्य क्षितिः पादौ दिशो भुजौ। सिद्धानां देवतानां च यदा परिमिता गतिः / दुर्विज्ञेयो ह्यनन्तत्वात्सिद्धैरपि न संशयः // 19 तदा गौणमनन्तस्य नामानन्तेति विश्रुतम् / स एव भगवान्विष्णुरनन्त इति विश्रुतः। नामधेयानुरूपस्य मानसस्य महात्मनः // 32 सर्वभूतात्मभूतस्थो दुर्विज्ञेयोऽकृतात्मभिः // 20 यदा तु दिव्यं तद्रूपं हसते वर्धते पुनः / अहंकारस्य यः स्रष्टा सर्वभूतभवाय वै। कोऽन्यस्तद्वेदितुं शक्तो योऽपि स्यात्तद्विधोऽपरः॥३३ यतः समभवद्विश्वं पृष्टोऽहं यदिह त्वया // 21 ततः पुष्करतः सृष्टः सर्वज्ञो मूर्तिमान्प्रभुः। भरद्वाज उवाच / ब्रह्मा धर्ममयः पूर्वः प्रजापतिरनुत्तमः // 34 गगनस्य दिशां चैव भूतलस्यानिलस्य च / भरद्वाज उवाच / कान्यत्र परिमाणानि संशयं छिन्धि मेऽर्थतः / / 22 पुष्कराद्यदि संभूतो ज्येष्ठं भवति पुष्करम् / भृगुरुवाच / ब्रह्माणं पूर्वजं चाह भवान्संदेह एव मे // 35 अनन्तमेतदाकाशं सिद्धचारणसेवितम् / भृगुरुवाच / रम्यं नानाश्रयाकीर्णं यस्यान्तो नाधिगम्यते // 23 . मानसस्येह या मूर्ति ब्रह्मत्वं समुपागता। ऊवं गतेरधस्तात्तु चन्द्रादित्यौ न दृश्यतः। तस्यासनविधानार्थं पृथिवी पद्ममुच्यते // 36 तत्र देवाः स्वयं दीप्ता भास्वराश्चाग्निवर्चसः / / 24 / कर्णिका तस्य पद्मस्य मेरुर्गगनमुच्छ्रितः / - 2231 - Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 175. 37] महाभारते [12. 177.8 तस्य मध्ये स्थितो लोकान्सृजते जगतः प्रभुः // 37 तच्चाम्भसा पूर्यमाणं सशब्दं कुरुतेऽनिलः // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तथा सलिलसंरुद्धे नभसोऽन्ते निरन्तरे। पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 175 // भित्त्वार्णवतलं वायुः समुत्पतति घोषवान् // 12 176 स एष चरते वायुरर्णवोत्पीडसंभवः / भरद्वाज उवाच / आकाशस्थानमासाद्य प्रशान्ति नाधिगच्छति // 13 प्रजाविसर्ग विविधं कथं स सृजते प्रभुः। तस्मिन्वाय्वम्बुसंघर्षे दीप्ततेजा महाबलः / मेरुमध्ये स्थितो ब्रह्मा तद्रूहि द्विजसत्तम // 1 प्रादुर्भवत्यूर्ध्वशिखः कृत्वा वितिमिरं नभः // 14 अग्निः पवनसंयुक्तः खात्समुत्पतते जलम् / भृगुरुवाच। सोऽग्निर्मारुतसंयोगाद्धनत्वमुपपद्यते // 15 प्रजाविसर्ग विविधं मानसो मनसासृजत् / तस्याकाशे निपतितः स्नेहस्तिष्ठति योऽपरः / संधुक्षणार्थं भूतानां सृष्टं प्रथमतो जलम् // 2 स संघातत्वमापन्नो भूमित्वमुपगच्छति // 16 यत्प्राणाः सर्वभूतानां वर्धन्ते येन च प्रजाः / रसानां सर्वगन्धानां स्नेहानां प्राणिनां तथा। परित्यक्ताश्च नश्यन्ति तेनेदं सर्वमावृतम् / / 3 भूमिर्यानिरिह ज्ञेया यस्यां सर्वं प्रसूयते // 17 पृथिवी पर्वता मेघा मूर्तिमन्तश्च ये परे / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्व तद्वारुणं ज्ञेयमापस्तस्तम्भिरे पुनः // 4 षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 176 // भरद्वाज उवाच। 177 कथं सलिलमुत्पन्नं कथं चैवाग्निमारुतौ। भरद्वाज उवाच / कथं च मेदिनी सृष्टेत्यत्र मे संशयो महान् // 5 एते ते धातवः पञ्च ब्रह्मा यानसृजत्पुरा। / भृगुरुवाच। आवृता यैरिमे लोका महाभूताभिसंज्ञितैः // 1 ब्रह्मकल्पे पुरा ब्रह्मन्ब्रह्मर्षीणां समागमे / यदासृजत्सहस्राणि भूतानां स महामतिः / लोकसंभवसंदेहः समुत्पन्नो महात्मनाम् // 6 पश्चानामेव भूतत्वं कथं समुपपद्यते // 2 तेऽतिष्ठन्ध्यानमालम्ब्य मौनमास्थाय निश्चलाः / . भृगुरुवाच / त्यक्ताहाराः पवनपा दिव्यं वर्षशतं द्विजाः // 7 अमितानां महाशब्दो यान्ति भूतानि संभवम् / तेषां धर्ममयी वाणी सर्वेषां श्रोत्रमागमत् / / ततस्तेषां महाभूतशब्दोऽयमुपपद्यते // 3 दिव्या सरस्वती तत्र संबभूव नभस्तलात् // 8 चेष्टा वायुः खमाकाशमूष्माग्निः सलिलं द्रवः / पुरा स्तिमितनिःशब्दमाकाशमचलोपमम् / पृथिवी चात्र संघात: शरीरं पाश्चभौतिकम् // 4 नष्टचन्द्रार्कपवनं प्रसुप्तमिव संबभौ // 9 इत्येते पञ्चभिभूतैर्युक्तं स्थावरजङ्गमम् / ततः सलिलमुत्पन्नं तमसीवापरं तमः / श्रोत्रं घ्राणं रसः स्पर्शो दृष्टिश्चेन्द्रियसंज्ञिताः // 5 तस्माञ्च सलिलोत्पीडादुदतिष्ठत मारुतः // 10 भरद्वाज उवाच / यथा भाजनमच्छिद्रं निःशब्दमिव लक्ष्यते। / पञ्चभिर्यदि भूतैस्तु युक्ताः स्थावरजङ्गमाः / -2232 - Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 177. 6] शान्तिपर्व [12. 177.34 स्थावराणां न दृश्यन्ते शरीरे पश्च धातवः // 6 तेजोऽग्निश्च तथा क्रोधश्चक्षुरूष्मा तथैव च / अनूष्मणामचेष्टानां घनानां चैव तत्त्वतः / अग्निर्जरयते चापि पञ्चाग्नेयाः शरीरिणः // 21 वृक्षाणां नोपलभ्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः // 7 श्रोत्रं घ्राणमथास्यं च हृदयं कोष्टमेव च / न शृण्वन्ति न पश्यन्ति न गन्धरसवेदिनः। आकाशात्प्राणिनामेते शरीरे पञ्च धातवः // 22 न च स्पर्श विजानन्ति ते कथं पाञ्चभौतिकाः // 8 श्लेष्मा पित्तमथ स्वेदो वसा शोणितमेव च / अद्रवत्वादनमित्वादभौमत्वादवायुतः / इत्यापः पञ्चधा देहे भवन्ति प्राणिनां सदा // 23 आकाशस्याप्रमेयत्वावृक्षाणां नास्ति भौतिकम् // 9 प्राणात्प्रणीयते प्राणी व्यानाद्व्यायच्छते तथा / भृगुरुवाच। . गच्छत्यपानोऽवाक्चैव समानो हृद्यवस्थितः // 24 घनानामपि वृक्षाणामाकाशोऽस्ति न संशयः / उदानादुच्छसिति च प्रतिभेदाच्च भाषते / तेषां पुष्पफले व्यक्तिनित्यं समुपलभ्यते // 10 इत्येते वायवः पञ्च चेष्टयन्तीह देहिनम् // 25 ऊष्मतो ग्लानपर्णानां त्वक्फलं पुष्पमेव च / भूमेर्गन्धगुणान्वेत्ति रसं चाद्भयः शरीरवान् / म्लायते चैव शीतेन स्पर्शस्नात्र विद्यते // 11 ज्योतिः पश्यति चक्षुभ्यां स्पर्श वेत्ति च वायुना // वावग्यशनिनिष्पेषैः फलपुष्पं विशीयते।। तस्य गन्धस्य वक्ष्यामि विस्तराभिहितान्गुणान् / श्रोत्रेण गृह्यते शब्दस्तस्माच्छृण्वन्ति पादपाः // 12 इष्टश्चानिष्टगन्धश्च मधुरः कटुरेव च // 27 वल्ली वेष्टयते वृक्षं सर्वतश्चैव गच्छति / निर्हारी संहतः स्निग्धो रूक्षो विशद एव च / न ह्यदृष्टश्च मार्गोऽस्ति तस्मात्पश्यन्ति पादपाः॥१३ एवं नवविधो ज्ञेयः पार्थिवो गन्धविस्तरः // 28 पुण्यापुण्यैस्तथा गन्धैधूपैश्च विविधैरपि / शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसश्चापां गुणाः स्मृताः / अरोगाः पुष्पिताः सन्ति तस्माजिन्नन्ति पादपाः॥ रसज्ञानं तु वक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु // 29 पादैः सलिलपानं च व्याधीनामपि दर्शनम् / रसो बहुविधः प्रोक्तः सूरिभिः प्रथितात्मभिः / व्याधिप्रतिक्रियत्वाञ्च विद्यते रसनं द्रुमे // 15 मधुरो लवणस्तिक्तः कषायोऽम्लः कटुस्तथा / वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोचं जलमाददेत् / एष षड्विधविस्तारो रसो वारिमयः स्मृतः // 30 तथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः // 16 शब्दः स्पर्शश्च रूपं च त्रिगुणं ज्योतिरुच्यते / प्रहणात्सुखदुःखस्य छिन्नस्य च विरोहणात् / ज्योतिः पश्यति रूपाणि रूपं च बहुधा स्मृतम् // जीवं पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते // 17 ह्रस्वो दीर्घस्तथा स्थूलश्चतुरस्रोऽणु वृत्तवान् / तेन तज्जलमादत्तं जरयत्यग्निमारुतौ। शुक्लः कृष्णस्तथा रक्तो नीलः पीतोऽरुणस्तथा / आहारपरिणामाच्च स्नेहो वृद्धिश्च जायते // 18 . एवं द्वादशविस्तारो ज्योतीरूपगुणः स्मृतः // 32 जङ्गमानां च सर्वेषां शरीरे पञ्च धातवः / शब्दस्पर्शी तु विज्ञेयौ द्विगुणो वायुरुच्यते / प्रत्येकशः प्रभिद्यन्ते यैः शरीरं विचेष्टते // 19 / वायव्यस्तु गुणः स्पर्शः स्पर्शश्च बहुधा स्मृतः // 33 त्वक्च मांसं तथास्थीनि मज्जा स्नायु च पश्चमम्।। कठिनश्चिकणः श्लक्ष्णः पिच्छलो मृदुदारुणः / इत्येतदिह संख्यातं शरीरे पृथिवीमयम् // 20 / उष्णः शीतः सुखो दुःखः स्निग्धो विशद एव च। म.भा. 280 - 2233 - Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 177. 34] महाभारते [12. 179.8 एवं द्वादशविस्तारो वायव्यो गुण उच्यते // 34 संधिष्वपि च सर्वेषु संनिविष्टस्तथानिलः / तत्रैकगुणमाकाशं शब्द इत्येव तस्मृतम् / शरीरेषु मनुष्याणां व्यान इत्युपदिश्यते // 8 तस्य शब्दस्य वक्ष्यामि विस्तरं विविधात्मकम् // 35 धातुष्वग्निस्तु विततः समानेन समीरितः / षड्ज ऋषभगान्धारौ मध्यमः पञ्चमस्तथा / रसान्धातूंश्च दोषांश्च वर्तयन्नवतिष्ठति // 9 धैवतश्चापि विज्ञेयस्तथा चापि निषादकः // 36 अपानप्राणयोर्मध्ये प्राणापानसमाहितः / एष सप्तविधः प्रोक्तो गुण आकाशलक्षणः। समन्वितः स्वधिष्ठानः सम्यक्पचति पावकः // 10 त्रैस्वर्येण तु सर्वत्र स्थितोऽपि पटहादिषु // 37 आस्यं हि पायुसंयुक्तमन्ते स्याद्गुदसंज्ञितम् / आकाशजं शब्दमाहुरेभिर्वायुगुणैः सह / स्रोतस्तस्मात्प्रजायन्ते सर्वस्रोतांसि देहिनाम् // 11 अव्याहतैश्चेतयते न वेत्ति विषमागतैः // 38 प्राणानां संनिपाताच्च संनिपातः प्रजायते / आप्यायन्ते च ते नित्यं धातवस्तैस्तु धातुभिः / ऊष्मा चाग्निरिति शेयो योऽन्नं पचति देहिनाम् // आपोऽनिर्मारुतश्चैव नित्यं जाग्रति देहिषु // 39 अग्निवेगवहः प्राणो गुदान्ते प्रतिहन्यते / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स ऊर्ध्वमागम्य पुनः समुत्क्षिपति पावकम् // 15 सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 177 // पक्काशयस्त्वधो नाभेरूद्धमामाशयः स्थितः / 178 नाभिमध्ये शरीरस्य सर्वे प्राणाः समाहिताः // 11 भरद्वाज उवाच / प्रसृता हृदयात्सर्वे तिर्यगूलमधस्तथा। . पार्थिवं धातुमाश्रित्य शारीरोऽग्निः कथं भवेत् / वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दश प्राणप्रचोदिताः // 15 अवकाशविशेषेण कथं वर्तयतेऽनिलः // 1 एष मार्गोऽथ योगानं येन गच्छन्ति तत्पदम् / भृगुरुवाच / जितक्लमासना धीरा मूर्धन्यात्मानमादधुः // 16 वायोर्गतिमहं ब्रह्मन्कीर्तयिष्यामि तेऽनघ / एवं सर्वेषु विहितः प्राणापानेषु देहिनाम् / प्राणिनामनिलो देहान्यथा चेष्टयते बली // 2 तस्मिन्स्थितो नित्यमग्निः स्थाल्यामिव समाहितः।।१० श्रितो मूर्धानमग्निस्तु शरीरं परिपालयन् / . इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्राणो मूर्धनि चाग्नौ च वर्तमानो विचेष्टते // 3 भष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 178 // स जन्तुः सर्वभूतात्मा पुरुषः स सनातनः / 179 मनो बुद्धिरहंकारो भूतानि विषयाश्च सः // 4 भरद्वाज उवाच। एवं त्विह स सर्वत्र प्राणेन परिपाल्यते। यदि प्राणायते वायुर्वायुरेव विचेष्टते / पृष्ठतश्च समानेन खां स्वां गतिमुपाश्रितः // 5 श्वसित्याभाषते चैव तस्माज्जीवो निरर्थकः // 1 वस्तिमूलं गुदं चैव पावकं च समाश्रितः / यद्यूष्मभाव आग्नेयो वह्निना पच्यते यदि / वहन्मूत्रं पुरीषं चाप्यपानः परिवर्तते // 6 अग्निर्जरयते चैव तस्माज्जीवो निरर्थकः // 2 प्रयत्ने कर्मणि बले य एकत्रिषु वर्तते / जन्तोः प्रमीयमाणस्य जीवो नैवोपलभ्यते / उदान इति तं प्राहुरध्यात्मविदुषो जनाः // 7 / वायुरेव जहात्येनमूष्मभावश्च नश्यति // 3 - 2234 - Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 179. 4 ] शान्तिपर्व [12. 180. 14 यदि वातोपमो जीवः संश्लेषो यदि वायुना / न शरीराश्रितो जीवस्तस्मिन्नष्टे प्रणश्यति / वायुमण्डलवदृश्यो गच्छेत्सह मरुद्गणैः // 4 यथा समित्सु दग्धासु न प्रणश्यति पावकः // 2 श्लेषो यदि च वातेन यदि तस्मात्प्रणश्यति / भरद्वाज उवाच / महार्णवविमुक्तत्वादन्यत्सलिलभाजनम् // 5 अमेर्यथा तथा तस्य यदि नाशो न विद्यते / कूपे वा सलिलं दद्यात्प्रदीपं वा हुताशने / इन्धनस्योपयोगान्ते न चाग्निर्नोपलभ्यते // 3 प्रक्षिप्तं नश्यति क्षिप्रं यथा नश्यत्यसौ तथा // 6 / नश्यतीत्येव जानामि शान्तमग्निमनिन्धनम् / पञ्चसाधारणे ह्यस्मिञ्शरीरे जीवितं कुतः। गतिर्यस्य प्रमाणं वा संस्थानं वा न दृश्यते // 4 येषामन्यतरत्यागाच्चतुर्णां नास्ति संग्रहः // 7 .. भृगुरुवाच। नश्यन्त्यापो ह्यनाहाराद्वायुरुच्छासनिग्रहात् / नश्यते कोष्ठभेदात्खमग्निर्नश्यत्यभोजनात् // 8 समिधामुपयोगान्ते सन्नेवाग्निर्न दृश्यते / व्याधिव्रणपरिक्लेशैर्मेदिनी चैव शीर्यते / आकाशानुगतत्वाद्धि दुर्ग्रहः स निराश्रयः // 5 पीडितेऽन्यतरे ह्येषां संघातो याति पश्चधा // 9 तथा शरीरसंत्यागे जीवो ह्याकाशवस्थितः / तस्मिन्पश्चत्वमापन्ने जीवः किमनुधावति / न गृह्यते सुसूक्ष्मत्वाद्यथा ज्योतिर्न संशयः // 6 किं वेदयति वा जीवः किं शृणोति ब्रवीति वा // 10 प्राणान्धारयते ह्यग्निः स जीव उपधार्यताम् / एषा गौः परलोकस्थं तारयिष्यति मामिति / वायुसंधारणो ह्यग्निर्नश्यत्युच्चासनिग्रहात् // 7 यो दत्त्वा म्रियते जन्तुः सा गौः कं तारयिष्यति // तस्मिन्नष्टे शरीराग्नौ शरीरं तदचेतनम् / पतितं याति भूमित्वमयनं तस्य हि क्षितिः // 8 गौश्च प्रतिग्रहीता च दाता चैव समं यदा / इहैव विलयं यान्ति कुतस्तेषां समागमः // 12 जङ्गमानां हि सर्वेषां स्थावराणां तथैव च / आकाशं पवनोऽभ्येति ज्योतिस्तमनुगच्छति / विहगैरुपयुक्तस्य शैलाग्रात्पतितस्य वा। अग्निना चोपयुक्तस्य कुतः संजीवनं पुनः // 13 तत्र त्रयाणामेकत्वं इयं भूमौ प्रतिष्ठितम् // 9 यत्र खं तत्र पवनस्तत्राग्निर्यत्र मारुतः / छिन्नस्य यदि वृक्षस्य न मूलं प्रतिरोहति / बीजान्यस्य प्रवर्तन्ते मृतः क्व पुनरेष्यति // 14 अमूर्तयस्ते विज्ञेया आपो मूर्तास्तथा क्षितिः॥१० बीजमात्रं पुरा सृष्टं यदेतत्परिवर्तते / भरद्वाज उवाच / मृता मृताः प्रणश्यन्ति बीजाद्वीजं प्रवर्तते // 15 यद्यग्निमारुतौ भूमिः खमापश्च शरीरिषु / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि जीवः किंलक्षणस्तत्रेत्येतदाचक्ष्व मेऽनघ // 11 एकोनाशीतित्यधिकशततमोऽध्यायः // 169 // पश्चात्मके पश्चरतौ पञ्चविज्ञानसंयुते / शरीरे प्राणिनां जीवं ज्ञातुमिच्छामि यादृशम् // 12 भृगुरुवाच / मांसशोणितसंघाते मेदःस्नायवस्थिसंचये / न प्रणाशोऽस्ति जीवानां दत्तस्य च कृतस्य च / भिद्यमाने शरीरे तु जीवो नैवोपलभ्यते // 13 याति देहान्तरं प्राणी शरीरं तु विशीर्यते // 1 / यद्यजीवं शरीरं तु पञ्चभूतसमन्वितम् / -2235 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 180. 14 ] महाभारते [12. 181.1 शारीरे मानसे दुःखे कस्तां वेदयते रुजम् // 14 ____न जीवनाशोऽस्ति हि देहभेदे शृणोति कथितं जीवः कर्णाभ्यां न शृणोति तत् / मिथ्यैतदाहुर्मत इत्यबुद्धाः। महर्षे मनसि व्यग्रे तस्माजीवो निरर्थकः // 15 जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति सर्व पश्यति यदृश्यं मनोयुक्तेन चक्षुषा। ___ दशार्धतैवास्य शरीरभेदः // 26 मनसि व्याकुले तद्धि पश्यन्नपि न पश्यति // 16 / एवं सर्वेषु भूतेषु गूढश्चरति संवृतः / न पश्यति न च ब्रूते न शृणोति न जिघ्रति / दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया तत्त्वदर्शिमिः // न च स्पर्शरसौ वेत्ति निद्रावशगतः पुनः // 17 तं पूर्वापररात्रेषु युञ्जानः सततं बुधः / हृष्यति ऋध्यति च कः शोचत्युद्विजते च कः / लघ्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि // 28 इच्छति ध्यायति द्वेष्टि वाचमीरयते च कः // 18 चित्तस्य हि प्रसादेन हित्वा कर्म शुभाशुभम् / भृगुरुवाच / प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमक्षयमश्नुते // 29 न पञ्चसाधारणमत्र किंचि मानसोऽग्निः शरीरेषु जीव इत्यभिधीयते / ___ च्छरीरमेको वहतेऽन्तरात्मा। सृष्टिः प्रजापतेरेषा भूताध्यात्मविनिश्चये // 30 स वेत्ति गन्धांश्च रसाश्रुति च इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स्पर्श च रूपं च गुणाश्च येऽन्ये // 19 अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 180 // पश्चात्मके पश्चगुणप्रदर्शी . स सर्वगात्रानुगतोऽन्तरात्मा / भृगुरुवाच / स वेत्ति दुःखानि सुखानि चात्र असृजब्राह्मणानेव पूर्वं ब्रह्मा प्रजापतिः / ___ तद्विप्रयोगात्तु न वेत्ति देहः॥ 20 आत्मतेजोभिनिवृत्तान्भास्कराग्निसमप्रभान् // 1 यदा न रूपं न स्पर्शो नोष्मभावश्च पावके / ततः सत्यं च धर्मं च तपो ब्रह्म च शाश्वतम् / तदा शान्ते शरीराग्नौ देहं त्यक्त्वा स नश्यति // आचारं चैव शौचं च स्वर्गाय विदधे प्रभुः // 2 अम्मयं सर्वमेवेदमापो मूर्तिः शरीरिणाम् / / देवदानवगन्धर्वदैत्यासुरमहोरगाः। तत्रात्मा मानसो ब्रह्मा सर्वभूतेषु लोककृत् // 22 यक्षराक्षसनागाश्च पिशाचा मनुजास्तथा // 3 आत्मानं तं विजानीहि सर्वलोकहितात्मकम् / ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम / तस्मिन्यः संश्रितो देहे ह्यब्बिन्दुरिव पुष्करे // 23 / ये चान्ये भूतसंघानां संघास्तांश्चापि निर्ममे // 1 क्षेत्रमं तं विजानीहि नित्यं लोकहितात्मकम् / ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां तु लोहितः / तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि जीवगुणानिमान् // 24 / वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा // 5 सचेतनं जीवगुणं वदन्ति भरद्वाज उवाच / स चेष्टते चेष्टयते च सर्वम् / चातुर्वर्ण्यस्य वर्णेन यदि वर्णो विभज्यते / ततः परं क्षेत्रविदं वदन्ति सर्वेषां खलु वर्णानां दृश्यते वर्णसंकरः // 6 प्रावर्तयद्यो भुवनानि सप्त // 25 कामः क्रोधो भयं लोभः शोकश्चिन्ता क्षुधा श्रमः / -2236 - Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 181.7] शान्तिपर्व [12. 182. 14 सर्वेषां नः प्रभवति कस्माद्वर्णो विभज्यते // 7 182 वेदमूत्रपुरीषाणि श्रेष्मा पित्तं सशोणितम् / भरद्वाज उवाच / तनुः क्षरति सर्वेषां कस्माद्वर्णो विभज्यते // 8 ब्राह्मणः केन भवति क्षत्रियो वा द्विजोत्तम / जङ्गमानामसंख्येयाः स्थावराणां च जातयः / वैश्य शूद्रश्च विप्रर्षे तद्रूहि वदतां वर // 1 तेषां विविधवर्णानां कुतो वर्णविनिश्चयः // 9 भृगुरुवाच / भृगुरुवाच / जातकर्मादिभिर्यस्तु संस्कारैः संस्कृतः शुचिः / न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत् / वेदाध्ययनसंपन्नः षट्सु कर्मस्ववस्थितः // 2 ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् // 10 शौचाचारस्थितः सम्यग्विघसाशी गुरुप्रियः / कामभोगप्रियास्तीक्ष्णाः क्रोधनाः प्रियसाहसाः / नित्यव्रती सत्यपरः स वै ब्राह्मण उच्यते // 3 त्यक्तस्वधर्मा रक्ताङ्गास्ते द्विजाः क्षत्रतां गताः // 11 सत्यं दानं दमोऽद्रोह आनृशंस्यं क्षमा घृणा / गोषु वृत्ति समाधाय पीताः कृष्युपजीविनः / / तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः // 4 स्वधर्म नानुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यतां गताः // 12 क्षत्र सेवते कर्म वेदाध्ययनसंमतः / हिंसानृतप्रिया लुब्धाः सर्वकर्मोपजीविनः। दानादानरतियश्च स वै क्षत्रिय उच्यते // 5 कृष्णाः शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजाः शद्रतां गताः // 13 कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यो विशत्यनिशं शुचिः / इत्येतैः कर्मभिर्व्यस्ता द्विजा वर्णान्तरं गताः / वेदाध्ययनसंपन्नः स वैश्य इति संज्ञितः // 6 धर्मो यज्ञक्रिया चैषां नित्यं न प्रतिषिध्यते // 14 सर्वभक्षरतिनित्यं सर्वकर्मकरोऽशुचिः / वर्णाश्चत्वार एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती / त्यक्तवेदस्त्वनाचारः स वै शूद्र इति स्मृतः // 7 विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभात्त्वज्ञानतां गताः // 15 शुद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे चैतन्न विद्यते / ब्राह्मणा धर्मतत्रस्थास्तपस्तेषां न नश्यति / न वै शूद्रो भवेच्छद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः // 8 ब्रह्म धारयतां नित्यं व्रतानि नियमांस्तथा // 16 सर्वोपायैस्तु लोभस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः / ब्रह्म चैतत्पुरा सृष्टं ये न जानन्त्यतद्विदः / एतत्पवित्रं ज्ञातव्यं तथा चैवात्मसंयमः // 9 तेषां बहुविधास्त्वन्यास्तत्र तत्र हि जातयः / / 17 नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेत मत्सरात् / पिशाचा राक्षसाः प्रेता बहुधा म्लेच्छजातयः / विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः // 10 प्रनष्टज्ञानविज्ञानाः स्वच्छन्दाचारचेष्टिताः // 18 यस्य सर्वे समारम्भा निराशीबन्धनास्त्विह / प्रजा ब्राह्मणसंस्काराः स्वधर्मकृतनिश्चयाः। त्यागे यस्य हुतं सर्वं स त्यागी स च बुद्धिमान्॥११ ऋषिभिः स्वेन तपसा सृज्यन्ते चापरे परैः॥ 19 अहिंस्रः सर्वभूतानां मैत्रायणगतश्चरेत् / आदिदेवसमुद्भूता ब्रह्ममूलाक्षयाव्यया / अविस्रम्भे न गन्तव्यं विस्रम्भे धारयेन्मनः॥१२ सा सृष्टिर्मानसी नाम धर्मतन्त्रपरायणा // 20 परिग्रहान्परित्यज्य भवेद्बुद्ध्या जितेन्द्रियः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अशोकं स्थानमातिष्ठदिह चामुत्र चाभयम् // 13 तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना / - 2237 - . एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 181 // Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 182. 14 ] महाभारते [12. 183. 11 अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना // 14 ____ तत्खलु द्विविधं सुखमुच्यते शारीरं मानस इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्थितिः / च / 1 / इह खल्वमुष्मिश्च लोके सर्वारम्भप्रवृत्तयः अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् / / 15 / सुखार्था अभिधीयन्ते / 2 / न ह्यतस्त्रिवर्गफलं विमनः प्राणे निगृह्णीयात्प्राणं ब्रह्मणि धारयेत् / शिष्टतरमस्ति / 3 / स एष काम्यो गुणविशेषो निर्वाणादेव निर्वाणो न च किंचिद्विचिन्तयेत् / / धर्मार्थयोरारम्भस्तद्वेतुरस्योत्पत्तिः सुखप्रयोजना।। सुखं वै ब्राह्मणो ब्रह्म स वै तेनाधिगच्छति // 16 शौचेन सततं युक्तस्तथाचारसमन्वितः / भरद्वाज उवाच / सानुक्रोशश्च भूतेषु तद्विजातिषु लक्षणम् // 17 यदेतद्भवताभिहितं सुखानां परमाः स्त्रिय इति इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तन्न गृह्णीमः / 1 / न ह्येषामृषीणां महति स्थिताद्वयशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 182 // नामप्राप्य एष गुणविशेषो न चैनमभिलषन्ति / 2 / 983 श्रूयते च भगवांस्त्रिलोककृद्ब्रह्मा प्रभुरेकाकी तिभृगुरुवाच / ष्ठति / 3 / ब्रह्मचारी न कामसुखेष्वात्मानमवदसत्यं ब्रह्म तपः सत्यं सत्यं सृजति च प्रजाः / धाति / 4 / अपि च भगवान्विश्वेश्वर उमापतिः सत्येन धार्यते लोकः स्वर्ग सत्येन गच्छति // 1 काममभिवर्तमानमनङ्गत्वेन शममनयत् / 5 / अनृतं तमसो रूपं तमसा नीयते ह्यधः। तस्माद्भमो न महात्मभिरयं प्रतिगृहीतो न त्वेष तमोप्रस्ता न पश्यन्ति प्रकाशं तमसावृतम् // 2 तावद्विशिष्टो गुण इति नैतद्भगवतः प्रत्येति / 6 / स्वर्गः प्रकाश इत्याहुनरकं तम एव च। भगवता तूक्तं सुखानां परमा स्त्रिय इति / / . सत्यानृतात्तदुभयं प्राप्यते जगतीचरैः // 3 लोकप्रवादोऽपि च भवति द्विविधः फलोदयः तत्र त्वेवंविधा वृत्तिर्लोके सत्यानृता भवेत् / सुकृतात्सुखमवाप्यते दुष्कृताहुःखमिति / / अत्रोधर्माधर्मी प्रकाशश्च तमो दुःखं सुखं तथा // 4 च्यताम् / 9 // 10 तत्र यत्सत्यं स धर्मो यो धर्मः स प्रकाशो यः भृगुरुवाच / प्रकाशस्तत्सुखमिति / 1 / तत्र यदनृतं सोऽधर्मो ___ अनृतात्खलु तमः प्रादुर्भूतं तमोग्रस्ता अधर्मयोऽधर्मस्तत्तमो यत्तमस्तदुःखमिति / 2 // 5 मेवानुवर्तन्ते न धर्मम् / 1 / क्रोधलोभमोहमानाअत्रोच्यते / नृतादिमिरवच्छन्ना न खल्वस्मिल्लोके न चामुत्र शारीरैर्मानसैर्दुःखैः सुखैश्चाप्यसुखोदयैः / सुखमाप्नुवन्ति / 2 / विविधव्याधिगणोपतापैरवलोकसृष्टिं प्रपश्यन्तो न मुह्यन्ति विचक्षणाः // 6 . कीर्यन्ते / 3 / वधबन्धरोगपरिक्लेशादिभिश्च क्षुत्पितत्र दुःखविमोक्षार्थ प्रयतेत विचक्षणः / | पासाश्रमकृतैरुपतापैरुपतप्यन्ते / 4 / चण्डवातासुखं ह्यनित्यं भूतानामिहलोके परत्र च // 7 त्युष्णातिशीतकृतैश्च प्रतिभयैः शारीरैर्दुःखैरुपराहुग्रस्तस्य सोमस्य यथा ज्योत्स्ना न भासते।। | तप्यन्ते / 5 / बन्धुधनविनाशविप्रयोगकृतैश्च मानसैः तथा तमोभिभूतानां भूतानां भ्रश्यते सुखम् // 8 | शोकेरभिभूयन्ते जरामृत्युकृतैश्चान्यैरिति / 6 // 11 -2238 - Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 188. 12] शान्तिपर्व [12. 184. 10 यस्त्वेतैः शारीरैर्मानसैर्दुःखैन स्पृश्यते स सुखं / तेषां धर्मफलावाप्तिोऽन्यथा स विमुह्यति // 6 वेद / 1 / न चैते दोषाः स्वर्ग प्रादुर्भवन्ति / 2 / भरद्वाज उवाच / तत्र भवति खलु / 3 // 12 यदेतच्चातुराश्रम्यं ब्रह्मर्षिविहितं पुरा। सुसुस्वः पवनः स्वर्गे गन्धश्च सुरभिस्तथा / तेषां स्वे स्वे य आचारास्तान्मे वक्तुमिहार्हसि // 7 क्षुत्पिपासाश्रमो नास्ति न जरा न च पापकम् // 13 भृगुरुवाच / नित्यमेव सुखं स्वर्गे सुखं दुःखमिहोभयम् / पूर्वमेव भगवता लोकहितमनुतिष्ठता धर्मसंरक्षनरके दुःखमेवाहुः समं तु परमं पदम् // 14 णार्थमाश्रमाश्चत्वारोऽभिनिर्दिष्टाः / 1 / तत्र गुरुपृथिवी सर्वभूतानां जनित्री तद्विधाः स्त्रियः / कुलवासमेव तावत्प्रथममाश्रममुदाहरन्ति / 2 / सपुमान्प्रजापतिस्तत्र शुक्रं तेजोमयं विदुः // 15 म्यगत्र शौचसंस्कारविनयनियमप्रणीतो विनीतात्मा इत्येतल्लोकनिर्माणं ब्रह्मणा विहितं पुरा / उभे संध्ये भास्कराग्निदैवतान्युपस्थाय विहाय तन्द्राप्रजा विपरिवर्तन्ते स्वैः स्वैः कर्मभिरावृताः // 16 / लस्ये गुरोरभिवादनवेदाभ्यासश्रवणपवित्रीकृतान्तइति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि रात्मा त्रिषवणमुपस्पृश्य ब्रह्मचर्याग्निपरिचरणगुरुत्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 183 // शुश्रूषानित्यो भैक्षादिसर्वनिवेदितान्तरात्मा गुरु वचननिर्देशानुष्ठानाप्रतिकूलो गुरुप्रसादलब्धस्वाभरद्वाज उवाच / ध्यायतत्परः स्यात् / 3 / / 8 दानस्य किं फलं प्राहुर्धर्मस्य चरितस्य च। ___ भवति चात्र श्लोकः। तपसश्च सुतप्तस्य स्वाध्यायस्य हुतस्य च // 1 गुरुं यस्तु समाराध्य द्विजो वेदमवाप्नुयात् / भृगुरुवाच / तस्य स्वर्गफलावाप्तिः सिध्यते चास्य मानसम् // 9 ___ गार्हस्थ्यं खलु द्वितीयमाश्रमं वदन्ति / / हुतेन शाम्यते पापं स्वाध्याये शान्तिरुत्तमा / दानेन भोग इत्याहुस्तपसा सर्वमाप्नुयात् / / 2 तस्य समुदाचारलक्षणं सर्वमनुव्याख्यास्यामः / 2 / समावृत्तानां सदाराणां सहधर्मचर्याफलार्थिनां दानं तु द्विविधं प्राहुः परत्रार्थमिहैव च / सद्भयो यद्दीयते किंचित्तत्परत्रोपतिष्ठति / / 3 गृहाश्रमो विधीयते / 3 / धर्मार्थकामावाप्तिर्वत्र त्रिवर्गसाधनमवेक्ष्यागर्हितेन कर्मणा धनान्यादाय असत्सु दीयते यत्तु तद्दानमिह भुज्यते / स्वाध्यायप्रकर्षांपलब्धेन ब्रह्मर्षिनिर्मितेन वा अद्रियादृशं दीयते दानं तादृशं फलमाप्यते // 4 सारगतेन वा हव्यनियमाभ्यासदैवतप्रसादोपलब्धेन भरद्वाज उवाच / वा धनेन गृहस्थो गार्हस्थ्यं प्रवर्तयेत् / 4 / तद्धि किं कस्य धर्मचरणं किं वा धर्मस्य लक्षणम् / सर्वाश्रमाणां मूलमुदाहरन्ति / 5 / गुरुकुलवासिनः धर्मः कतिविधो वापि तद्भवान्वक्तुमर्हति // 5 परिव्राजका ये चान्ये संकल्पितव्रतनियमधर्माभृगुरुवाच। नुष्ठायिनस्तेषामप्यत एव भिक्षाबलिसंविभागाः स्वधर्मचरणे युक्ता ये भवन्ति मनीषिणः / प्रवर्तन्ते / 6 // 10 - 2239 - Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 184. 11] महाभारते [ 12. 185.4 185 वानप्रस्थानां द्रव्योपस्कार इति प्रायशः खल्वेते साधवः साधुपथ्यदर्शनाः स्वाध्यायप्रसङ्गिनस्तीर्था भृगुरुवाच / भिगमनदेशदर्शनार्थं पृथिवीं पर्यटन्ति / 1 / तेषां वानप्रस्थाः खलु ऋषिधर्ममनुसरन्तः पुण्यानि प्रत्युत्थानाभिवादनानसूयावाक्प्रदानसौमुख्यशक्त्या- तीर्थानि नदीप्रस्रवणानि सुविविक्तेष्वरण्येषु मृगसनशयनाभ्यवहारसत्क्रियाश्चेति / 2 // 55 . महिषवराहसमरगजाकीर्णेषु तपस्यन्तोऽनुसंचरन्ति भवति चात्र श्लोकः। / 1 / त्यक्ताम्यवस्खाहारोपभोगा वन्यौषधिमूलफलअतिथिर्यस्व भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते / पर्णपरिमितविचित्रनियताहाराः स्थानासनिनो भूमिस दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति / / 12 पापाणसिकताशर्करावालुकाभस्मशायिनः काशकुशअपि चात्र यज्ञक्रियाभिर्देवताः प्रीयन्ते निवापेन चर्मवल्कलसंवृताङ्गाः केशश्मश्रुनखरोमधारिणो निपितरो वेदाभ्यासश्रवणधारणेन ऋषयः / 1 / अप यतकालोपस्पर्शना अस्कनहोमयलिकालानुष्ठायिनः त्योत्पादनेन प्रजापतिरिति / 2 // 13 समित्कुशकुसुमोपहारहोमार्जनलब्धविश्रामाः शीतो ष्णपवननिष्टप्तविभिन्नसर्वत्वचो विविधनियमयोगश्लोको चात्र भवतः / चर्याविहितधर्मानुष्ठानहृतमांसशोणितास्त्वगस्थिभूवत्सलाः सर्वभूतानां वाच्याः श्रोत्रसुखा गिरः। ता धृतिपराः सत्त्वयोगाच्छरीराण्युद्वहन्ति / 2 // 1 परिवादोपघातौ च पारुष्यं चात्र गर्हितम् // 14 यस्त्वेतां नियतश्चर्या ब्रह्मर्पिविहितां चरेत् / / अवज्ञानमहंकारो दम्भश्चैव विगर्हितः / स दहेदग्निवहोषाञ्जयेल्लोकांश्च दर्जयान // 2 अहिंसा सत्यमक्रोधः सर्वाश्रमगतं तपः // 15 ___ परिव्राजकानां पुनराचारस्तद्यथा / 1 / विमुअपि चात्र माल्याभरणवस्त्राभ्यङ्गगन्धोपभोग- च्याग्निधनकलनपरिबर्हसङ्गानात्मनः स्नेहपाशानवनृत्तगीतवादिश्रुतिसुखनयनाभिरामसंदर्शनानां प्रा- धूय परिजन्ति समलोष्टाश्मकाञ्चनास्त्रिवर्गप्रवृत्तेप्तिर्भक्ष्यभोज्यपेयलेयचोष्याणामभ्यवहार्याणां वि- प्यारम्भेष्वसक्तबुद्वयोऽरिमित्रोदासीनेषु तुल्यवृत्तयः विधानामुपभोगः स्वदारविहारसंतोष: कामसुखा- स्थावरजरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिजानां भूतानां वाङ्मवाप्तिरिति / / 16 नःकर्मभिरनभिद्रोहिणोऽनिकेताः पर्वतपुलिनवृक्षत्रिवर्गगुणनिवृत्तिर्यस्य नित्यं गृहाश्रमे / मूलदेवतायतनान्यनुचरन्तो वासार्थमुपेयुनगरं प्राम स सुखान्यनुभूयेह शिष्टानां गतिमाप्नुयात् // 17 वा नगरे पश्चरात्रिका प्रामैकरात्रिकाः / 2 / प्रविश्य उच्छवृत्तिर्गृहस्थो यः स्वधर्मचरणे रतः / च प्राणधारणमात्राथै द्विजातीनां भवनान्यसंकीर्णत्यक्तकामसुखारम्भस्तस्य स्वर्गो न दुर्लभः / / 18 कर्मणामुपतिष्ठेयुः पात्रपतितायाचितभैक्षाः काम क्रोधदर्पमोहलोभकार्पण्यदम्भपरिवादाभिमानहिंसाइति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निवृत्ता इति / 3 // 3 चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 184 // भवति चात्र श्लोकः / अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा चरति यो मुनिः / -2240 - Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 185. 4] शान्तिपर्व [ 12. 185.27 न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्ववित् / / 4 लोभश्वार्थकृतो नृणां येन मुह्यन्ति पण्डिताः॥१५ कृत्वाग्निहोत्रं स्वशरीरसंस्थं इह चिन्ता बहुविधा धर्माधर्मस्य कर्मणः / शारीरमग्निं स्वमुखे जुहोति / यस्तद्वेदोभयं प्राज्ञः पाप्मना न स लिप्यते // 16 यो भैक्षचर्योपगतैर्हविर्भि सोपधं निकृतिः स्तेयं परिवादोऽभ्यसूयता / श्चिताग्निनां स व्यतियाति लोकान् // 5 परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा // 17 मोक्षाश्रमं यः कुरुते यथोक्तं एतानासेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते / शुचिः सुसंकल्पितबुद्धियुक्तः / यस्त्वेतान्नाचरेद्विद्वांस्तपस्तस्याभिवर्धते // 18 अनिन्धनं ज्योतिरिव प्रशान्तं कर्मभूमिरियं लोक इह कृत्वा शुभाशुभम् / स ब्रह्मलोकं श्रयते द्विजातिः // 6 . शुभैः शुभमवाप्नोति कृत्वाशुभमतोऽन्यथा // 19 भरद्वाज उवाच / इह प्रजापतिः पूर्व देवाः सर्षिगणास्तथा। अस्माल्लोकात्परो लोकः श्रूयते नोपलभ्यते / इष्वेष्टतपसः पूता ब्रह्मलोकमुपाश्रिताः // 20 तमहं ज्ञातुमिच्छामि तद्भवान्वक्तुमर्हति // 7 उत्तरः पृथिवीभागः सर्वपुण्यतमः शुभः / भृगुरुवाच / इहत्यास्तत्र जायन्ते ये वै पुण्यकृतो जनाः / / 21 उत्तरे हिमवत्पार्श्वे पुण्ये सर्वगुणान्विते / असत्कर्माणि कुर्वन्तस्तिर्यग्योनिषु चापरे / पुण्यः क्षेभ्यश्च काम्यश्च स वरो लोक उच्यते // 8 क्षीणायुषस्तथैवान्ये नश्यन्ति पृथिवीतले // 22 तत्र ह्यपापकर्माणः शुचयोऽत्यन्तनिर्मलाः / अन्योन्यभक्षणे सक्ता लोभमोहसमन्विताः / लोभमोहपरित्यक्ता मानवा निरुपद्रवाः // 9 / इहैव परिवर्तन्ते न ते यान्त्युत्तरां दिशम् // 23 स स्वर्गसदृशो देशस्तत्र युक्ताः शुभा गुणाः। ये गुरूनुपसेवन्ते नियता ब्रह्मचारिणः / काले मृत्युः प्रभवति स्पृशन्ति व्याधयो न च // 10 पन्थानं सर्वलोकानां ते जानन्ति मनीषिणः // 24 न लोभः परदारेषु स्वदारनिरतो जनः / इत्युक्तोऽयं मया धर्मः संक्षेपाब्रह्मनिर्मितः / न चान्योन्यवधस्तत्र द्रव्येषु न च विस्मयः / धर्माधर्मो हि लोकस्य यो वै वेत्ति स बुद्धिमान् // परोक्षधर्मो नैवास्ति संदेहो नापि जायते // 11 भीष्म उवाच / कृतस्य तु फलं तत्र प्रत्यक्षमुपलभ्यते / इत्युक्तो भृगुणा राजन्भरद्वाजः प्रतापवात् / शय्यायानासनोपेताः प्रासादभवनाश्रयाः / भृगुं परमधर्मात्मा विस्मितः प्रत्यपूजयत् // 26 सर्वकामैर्वृताः केचिद्धमाभरणभूषिताः // 12 एष ते प्रभवो राजञ्जगतः संप्रकीर्तितः। प्राणधारणमात्रं तु केषांचिदुपपद्यते / / निखिलेन महाप्राज्ञ किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 27 श्रमेण महता केचित्कुर्वन्ति प्राणधारणम् // 13 इह धर्मपराः केचित्केचिन्नेकृतिका नराः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 185 // सुखिता दुःखिताः केचिन्निर्धना धनिनोऽपरे // 14 इह श्रमो भयं मोहः क्षुधा तीव्रा च जायते। म.भा. 281 -2241 - Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 186. 1] महाभारते [ 12. 186. 28 काम्यं कर्मफलं लब्ध्वा गुरूणामुपपादयेत् // 14 युधिष्ठिर उवाच / गुरुभ्य आसनं देयं कर्तव्यं चाभिवादनम् / आचारस्य विधिं तात प्रोच्यमानं त्वयानघ। / गुरूनभ्यर्च्य युज्यन्ते आयुषा यशसा श्रिया // 15 श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः // 1 नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं न च नग्नां परस्त्रियम् / ___ भीष्म उवाच / मैथुनं समये धयं गुह्यं चैव समाचरेत् / / 16 दुराचारा दुर्विचेष्टा दुष्प्रज्ञाः प्रियसाहसाः। तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः / असन्तो ह्यभिविख्याताः सन्तश्चाचारलक्षणाः // 2 सर्वमार्यकृतं शौचं वालसंस्पर्शनानि च // 17 पुरीषं यदि वा मूत्रं ये न कुर्वन्ति मानवाः। दर्शने दर्शने नित्यं सुखप्रश्नमुदाहरेत् / राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये च ते शुभाः॥३ सायं प्रातश्च विप्राणां प्रदिष्टमभिवादनम् / / 18 शौचमावश्यकं कृत्वा देवतानां च तर्पणम् / देवगोष्ठे गवां मध्ये ब्राह्मणानां क्रियापथे / धर्ममाहुर्मनुष्याणामुपस्पृश्य नदी तरेत् // 4 स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् // 19 सूर्य सदोपतिष्ठेत न स्वप्याद्भास्करोदये / पण्यानां शोभनं पण्यं कृषीणां बाद्यते कृषिः / सायं प्रातर्जपन्संध्यां तिष्ठेत्पूर्वी तथापराम् // 5 बहुकारं च सस्यानां वाह्ये वाह्य तथा गवाम् // 20 पश्चाो भोजनं कुर्यात्प्राङ्मुखो मौनमास्थितः / संपन्नं भोजने नित्यं पानीये तर्पणं तथा / न निन्देदन्नभक्ष्यांश्च स्वाद्वस्वादु च भक्षयेत् // 6 सुशृतं पायसे याद्यवाग्वां कृसरे तथा / / 21 नार्द्रपाणिः समुत्तिष्टेन्नार्द्रपादः स्वपेन्निशि। श्मश्रुकर्मणि संप्राप्ते क्षुते स्नानेऽथ भोजने / देवर्षिनारदप्रोक्तमेतदाचारलक्षणम् // 7 व्याधितानां च सर्वेषामायुष्यमभिनन्दनम् // 23 शुचिकाममनड्वाहं देवगोष्ठं चतुष्पथम् / प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत् / ब्राह्मणं धार्मिकं चैव नित्यं कुर्यात्प्रदक्षिणम् / / 8 / सुतस्त्रिया च शयनं सहभोज्यं च वर्जयेत् // 23 अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च। त्वंकारं नामधेयं च ज्येष्टानां परिवर्जयेत् / सामान्यं भोजनं भृत्यैः पुरुषस्य प्रशस्यते // 9 अवराणां समानानामुभयेषां न दुष्यति // 24 सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितम् / हृदयं पापवृत्तानां पापमाख्याति वैकृतम् / नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासी तथा भवेत् // 10 ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गृहमाना महाजने // 25 होमकाले तथा जुह्वन्नृतुकाले तथा व्रजन् / ज्ञानपूर्व कृतं पापं छादयन्त्यबहुश्रुताः / अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ब्रह्मचारी तथा भवेत् // 11 नैनं मनुष्याः पश्यन्ति पश्यन्ति त्रिदिवौकसः॥२॥ अमृतं ब्राह्मणोच्छिष्टं जनन्या हृदयं कृतम् / / उपासीत जनः सत्यं सत्यं सन्त उपासते // 12 धार्मिकेण कृतो धर्मः कर्तारमनुवर्तते // 27 यजुषा संस्कृतं मांसं निवृत्तो मांसभक्षणात् / पापं कृतं न स्मरतीह मूढो न भक्षयेद्वृथामांसं पृष्ठमांसं च वर्जयेत् // 13 विवर्तमानस्य तदेति कर्तुः / स्वदेशे परदेशे वा अतिथिं नोपवासयेत् / / राहुर्यथा चन्द्रमुपैति चापि . - 2242 - Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 186. 28 ] शान्तिपर्व [12. 187. 23 तथाबुधं पापमुपैति कर्म // 28 रूपं चक्षुस्तथा पक्तित्रिविधं तेज उच्यते / आशया संचितं द्रव्यं यत्काले नेह भुज्यते / रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः॥९ तदुधा न प्रशंसन्ति मरणं न प्रतीक्षते // 29 घेयं घ्राणं शरीरं च ते तु भूमिगुणास्त्रयः / मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः / महाभूतानि पश्चैव षष्ठं तु मन उच्यते // 10 तस्मात्सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत् // 30 इन्द्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत / एक एव चरेद्धर्म नास्ति धर्मे सहायता / सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः // 11 केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति // 31 / चक्षुरालोकनायैव संशयं कुरुते मनः / देवा योनिर्मनुष्याणां देवानाममृतं दिवि / बुद्धिरध्यवसायाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवस्थितः॥ 12 प्रेत्यभावे सुखं धर्माच्छश्वत्तैरुपभुज्यते // 32 ऊध्वं पादतलाभ्यां यदर्वागूवं च पश्यति / इति श्रीमहाभारते शान्ति पर्वणि एतेन सर्वमेवेदं विद्ध्यभिव्याप्तमन्तरम् // 13 षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 186 // पुरुषे चेन्द्रियाणीह वेदितव्यानि कृत्स्नशः / तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि भावांस्तदाश्रयान्॥१४ युधिष्ठिर उवाच / एतां बुद्धा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम् / अध्यात्म नाम यदिदं पुरुषस्येह चिन्यते / समवेक्ष्य शनेश्चैव लभते शममुत्तमम् // 15 यदध्यात्मं यतश्चैतत्तन्मे ब्रूह पितामह // 1 गुणान्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि / भीष्म उवाच। मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्धयभावे कुतो गुणाः॥१६ अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्छसि / इति तन्मयमेबैतत्सर्व स्थावरजङ्गमम् / तद्व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतरं सुखम् / / 2 प्रलीयते चोद्भवति तस्मानिर्दिश्यते तथा // 17 यज्ज्ञात्वा पुरुषो लोके प्रीतिं सौख्यं च विन्दति / येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते / फललाभश्च सद्यः स्यात्सर्वभूतहितं च तत् // 3 जिघ्रति घ्राणमित्याह रसं जानाति जिह्वया // 18 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् / / त्वचा स्पृशति च स्पर्शान्बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत् / महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ // 4 येन संकल्पयत्यर्थं किंचिद्भवति तन्मनः // 19 ततः सृष्टानि तत्रैव तानि यान्ति पुनः पुनः / अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगानि पञ्चधा / महाभूतानि भूतेषु सागरस्योर्मयो यथा / / 5 पञ्चेन्द्रियाणि यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति // 20 प्रसार्य च यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः / पुरुषाधिष्ठिता बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते। तद्वद्भूतानि भूतात्मा सृष्ट्वा संहरते पुनः // 6 कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदनुशोचति // 21 महाभूतानि पञ्चव सर्वभूतेषु भूतकृत् / न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते / अकरोत्तेषु वैषम्यं तत्तु जीवोऽनु पश्यति // 7 एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता // 22 शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम् / सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतान्नातिवर्तते / पायोस्त्वक्स्पर्शचेष्टाश्च वागित्येतच्चतुष्टयम् // 8 | सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् // 23 E2243 - Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 187. 24 ] महाभारते [12. 187.53 अतिभावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते / पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा / प्रवर्तमानं हि रजस्तद्भावमनुवर्तते // 24 यथा मत्स्यो जलं चैव संप्रयुक्तौ तथैव तौ // 39 इन्द्रियाणि हि सर्वाणि प्रदर्शयति सा सदा। न गुणा विदुरात्मानं स गुणान्वेत्ति सर्वशः / प्रीतिः सत्त्वं रजः शोकस्तमो मोहश्च ते त्रयः // 25 परिद्रष्टा गुणानां च संस्रष्टा मन्यते सदा // 40 ये ये च भावा लोकेऽस्मिन्सर्वेष्वेतेषु ते त्रिषु / इन्द्रियस्तु प्रदीपार्थं कृरुते बुद्धिसप्तमैः / इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत // 26 निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत् // 41 इन्द्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता। सृजते हि गुणान्सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति / सत्त्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा // 27 संप्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्भुवः / / 42 त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्त्वेषु दृश्यते / आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन / सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत // 28 सत्त्वं मनः संसृजति न गुणान्वै कदाचन // 43 सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः / रश्मीस्तेषां स मनसा यदा सम्यजियच्छति / तमोगुणेन संयुक्तौ भवतोऽव्यावहारिकौ // 29 तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव // 44 तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् / त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः / वर्तते सात्त्विको भाव इत्यवेक्षेत तत्तदा // 30 सर्वभूतात्मभूतः स्यात्स गच्छेत्परमां गतिम् // 45 अथ यहुःखसंयुक्तमतुष्टिकरमात्मनः / यथा वारिचरः पक्षी लिप्यमानो न लिप्यते / प्रवृत्तं रज इत्येव तन्नसंरभ्य चिन्तयेत // 31 एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते // 46 अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तमिव यद्भवेत् / एवंस्वभावमेवैतत्स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः / / अप्रतय॑मविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् // 32 अशोचन्नप्रहृष्यंश्च चरेद्विगतमत्सरः // 47 प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता / स्वभावसिद्ध्या संसिद्धान्स नित्यं सृजते गुणान् / कथंचिदभिवर्तन्त इत्येते सात्त्विका गुणाः // 33 ऊर्णनाभिर्यथा स्रष्टा विज्ञेयास्तन्तुवद्गुणाः // 48 अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाक्षमा / प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते निवृत्ति!पलभ्यते / लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः // 34 प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति / / 49 अभिमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता। एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे / कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः / / 35 उभयं संप्रधायैतदध्यवस्येद्यथामति // 50 दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् / इतीमं हृदयग्रन्थि बुद्धिभेदमयं दृढम् / मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च // 36 विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्छिन्नसंशयः // 51 सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः। मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णा नदी नराः। सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान् / / 37 अवगाह्य सुविद्वांसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा // 52 मशकोदुम्बरौ चापि संप्रयुक्तौ यथा सदा। महानदी हि पारशस्तप्यते न तरन्यथा / अन्योन्यमन्यौ च यथा संप्रयोगस्तथा तयोः // 38 / एवं ये विदुरध्यात्म कैवल्यं ज्ञानमुत्तमम् // 53 - 2244 - Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 187. 54 ] शान्तिपर्व [ 12. 188. 18 एतां बुद्धा नरः सर्वां भूतानामागति गतिम् / निर्द्वद्वा नित्यसत्त्वस्था विमुक्ता नित्यमाश्रिताः / अवेक्ष्य च शनैर्बुद्धथा लभते शं परं ततः // 54 असङ्गीन्यविवादीनि मनःशान्तिकराणि च // 4 त्रिवर्गो यस्य विदितः प्राग्ज्योतिः स विमुच्यते / तत्र स्वाध्यायसंश्लिष्टमेकाग्रं धारयेन्मनः / अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः // 55 पिण्डीकृत्येन्द्रियग्राममासीनः काष्ठवन्मुनिः // 5 न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियेषु विभागशः / शब्दं न विन्देच्छोत्रेण स्पर्श त्वचा न वेदयेत् / तत्र तत्र विसृष्टेषु दुर्जयेष्वकृतात्मभिः // 56 रूपं न चक्षुषा विद्याज्जिह्वया न रसांस्तथा // 6 एतद्बुद्धवा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धलक्षणम् / घेयाण्यपि च सर्वाणि जह्याद्धयानेन योगवित् / विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः // 57 पञ्चवर्गप्रमाथीनि नेच्छेच्चैतानि वीर्यवान् / / 7 न भवति विदुषां ततो भयं ततो मनसि संसज्य पञ्चवर्ग विचक्षणः / ___ यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत् / समादध्यान्मनो भ्रान्तमिन्द्रियैः सह पञ्चभिः // 8 न हि गतिरधिकास्ति कस्यचि विसंचारि निरालम्ब पञ्चद्वारं चलाचलम् / _त्सति हि गुणे प्रवदन्त्यतुल्यताम् // 58 पूर्वे ध्यानपथे धीरः समादध्यान्मनोऽन्तरम् // 9 . यत्करोत्यनभिसंधिपूर्वकं इन्द्रियाणि मनश्चैव यदा पिण्डीकरोत्ययम् / तञ्च निर्गुदति यत्पुरा कृतम् / एष ध्यानपथः पूर्वो मया समनुवर्णितः // 10 नाप्रियं तदुभयं कृतः प्रियं तस्य तत्पूर्वसंरुद्धं मनःषष्ठमनन्तरम् / तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः / / 59 स्फुरिष्यति समुद्धान्तं विद्युदम्बुधरे यथा // 11 लोक आतुरजनान्विराविण जलबिन्दुर्यथा लोलः पर्णस्थः सर्वतश्चलः / ___ स्तत्तदेव बहु पश्य शोचतः / एवमेवास्य तच्चित्तं भवति ध्यानवर्त्मनि // 12 तत्र पश्य कुशलानशोचतो समाहितं क्षणं किंचिद्धयानवर्त्मनि तिष्ठति / ये विदुस्तदुभयं पदं सदा // 60 पुनर्वायुपथं भ्रान्तं मनो भवति वायुवत् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अनिर्वेदो गतक्लेशो गततन्द्रीरमत्सरः।। सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 187 // समादध्यात्पुनश्चेतो ध्यानेन ध्यानयोगवित् // 14 188 विचारश्च वितर्कश्च विवेकश्चोपजायते / भीष्म उवाच / मुनेः समादधानस्य प्रथमं ध्यानमादितः // 15 हन्त वक्ष्यामि ते पार्थ ध्यानयोगं चतुर्विधम् / मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कारयेत् / यं ज्ञात्वा शाश्वती सिद्धिं गच्छन्ति परमर्षयः॥ 1 / न निर्वेदं मुनिर्गच्छेत्कुर्यादेवात्मनो हितम् // 16 यथा स्वनुष्ठितं ध्यानं तथा कुर्वन्ति योगिनः। पांसुभस्मकरीषाणां यथा वै राशयश्चिताः।। महर्षयो ज्ञानतृप्ता निर्वाणगतमानसाः // 2 सहसा वारिणा सिक्ता न यान्ति परिभावनाम्॥१७ नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ताः संसारदोषतः / किंचित्स्निग्धं यथा च स्याच्छुष्कचूर्णमभावितम् / जन्मदोषपरिक्षीणाः स्वभावे पर्यवस्थिताः // 3 क्रमशस्तु शनैर्गच्छेत्सर्वं तत्परिभावनम् // 18 .. -2245 - Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 188. 19] महाभारते [ 12. 189.21 एवमेवेन्द्रियग्रामं शनैः संपरिभावयेत् / सत्यमग्निपरीचारो विविक्तानां च सेवनम् / संहरेत्क्रमशश्चैव स सम्यक्प्रशमिष्यति // 19 ध्यानं तपो दमः क्षान्तिरनसूया मिताशनम् // 9 स्वयमेव मनश्चैव पञ्चवर्गश्च भारत / विषयप्रतिसंहारो मितजल्पस्तथा शमः / पूर्व ध्यानपथं प्राप्य नित्ययोगेन शाम्यति // 20 एष प्रवृत्तको धर्मो निवृत्तकमथो शृणु // 10 न तत्पुरुषकारेण न च देवेन केनचित् / यथा निवर्तते कर्म जपतो ब्रह्मचारिणः। सुखमेष्यति तत्तस्य यदेवं संयतात्मनः / / 21 एतत्सर्वमशेषेण यथोक्तं परिवर्जयेत् / सुखेन तेन संयुक्तो रस्यन्ते ध्यानकर्मणि / त्रिविधं मार्गमासाद्य व्यक्ताव्यक्तमनाश्रयम् // 11 गच्छन्ति योगिनो ह्येवं निर्वाणं तन्निरामयम् / / 22 कुशोच्चयनिषण्णः सन्कुशहस्तः कुशैः शिखी / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चीरैः परिवृतस्तस्मिन्मध्ये छन्नः कुशैस्तथा // 12 अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 188 // विषयेभ्यो नमस्कुर्याद्विषयान्न च भावयेत् / 189 साम्यमुत्पाद्य मनसो मनस्येव मनो दधत् // 13 युधिष्ठिर उवाच / तद्धिया ध्यायति ब्रह्म जपन्वै संहितां हिताम् / चातुराश्रम्यमुक्तं ते राजधर्मास्तथैव च / संन्यस्यत्यथ वा तां वै समाधौ पर्यवस्थितः // 11 नानाश्रयाश्च बहवः इतिहासाः पृथग्विधाः // 1 ध्यानमुत्पादयत्यत्र संहिताबलसंश्रयात् / श्रुतास्त्वत्तः कथाश्चैव धर्मयुक्ता महामते / शुद्धात्मा तपसा दान्तो निवृत्तद्वेषकामवान् // 15 संदेहोऽस्ति तु कश्चिन्मे तद्भवान्वक्तुमर्हति // 2 अरागमोहो निद्वंद्वो न शोचति न सज्जते / जापकानां फलावाप्तिं श्रोतुमिच्छामि भारत / / न कर्ताकरणीयानां न कार्याणामिति स्थितिः // 16 किं फलं जपतामुक्तं क वा तिष्ठन्ति जापकाः॥३ न चाहंकारयोगेन मनः प्रस्थापयेत्वचित् / जपस्य च विधिं कृत्स्नं वक्तुमर्हसि तेऽनघ / / न चात्मग्रहणे युक्तो नावमानी न चाक्रियः // 15 जापका इति किं चैतत्सांख्ययोगक्रियाविधिः // 4 ध्यानक्रियापरो युक्तो ध्यानवान्ध्याननिश्चयः / किं यज्ञविधिरेवैष किमेतज्जप्यमुच्यते / ध्याने समाधिमुत्पाद्य तदपि त्यजति क्रमात् // 18 एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सर्वज्ञो ह्यसि मे वद // 5 स वै तस्यामवस्थायाः सर्वत्यागकृतः सुखी / भीष्म उवाच / निरीहस्त्यजति प्राणान्ब्राह्मीं संश्रयते तनुम् // 19 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अथ वा नेच्छते तत्र ब्रह्मकायनिषेवणम् / यमस्य यत्पुरा वृत्तं कालस्य ब्राह्मणस्य च // 6 उत्क्रामति च मार्गस्थो नैव क्कचन जायते // 20 संन्यास एव वेदान्ते वर्तते जपनं प्रति / आत्मबुद्धिं समास्थाय शान्तीभूतो निरामयः / वेदवादाभिनिर्वृत्ता शान्तिर्ब्रह्मण्यवस्थितौ / अमृतं विरजःशुद्धमात्मानं प्रतिपद्यते // 21 मार्गों तावप्युभावेतौ संश्रितौ न च संश्रितौ // 7 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथा संश्रूयते राजकारणं चात्र वक्ष्यते / एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 189 // मनःसमाधिरत्रापि तथेन्द्रियजयः स्मृतः // 8 -2246 - Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 190. 1] शान्तिपर्व [12. 191. 11 प्रशस्तं जापकत्वं च दोषाश्चैते तदात्मकाः // 13 युधिष्ठिर उवाच। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि गतीनामुत्तमा प्राप्तिः कथिता जापकेष्विह / नवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 19 // एकैवैषा गतिस्तेषामुत यान्त्यपरामपि / / 1 191 भीष्म उवाच / युधिष्ठिर उवाच / शृणुष्वावहितो राजञ्जापकानां गतिं विभो / कीदृशो जापको याति निरयं वर्णयस्व मे / यथा गच्छन्ति निरयमनेकं पुरुषर्षभ // 2 कौतूहलं हि मे जातं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 1 यथोक्तमेतत्पूर्व यो नानुतिष्ठति जापकः / भीष्म उवाच / एकदेशक्रियश्चात्र निरयं स निगच्छति // 3 . धर्मस्यांशः प्रसूतोऽसि धर्मिष्ठोऽसि स्वभावतः / अवज्ञानेन कुरुते न तुष्यति ने शोचति / धर्ममूलाश्रयं वाक्यं शृणुष्वावहितोऽनघ // 2 ईदृशो जापको याति निरयं नात्र संशयः // 4 अमूनि यानि स्थानानि देवानां परमात्मनाम् / अहंकारकृतश्चैव सर्वे निरयगामिनः। . नानासंस्थानवर्णानि नानारूपफलानि च // 3 परावमानी पुरुषो भविता निरयोपगः // 5 दिव्यानि कामचारीणि विमानानि सभास्तथा / अभिध्यापूर्वकं जप्यं कुरुते यश्च मोहितः / आक्रीडा विविधा राजन्पद्मिन्यश्चामलोदकाः॥ 4 यत्राभिध्यां स कुरुते तं वै निरयमृच्छति // 6 चतुर्णा लोकपालानां शुक्रस्याथ बृहस्पतेः / अथैश्वर्यप्रवृत्तः सञ्जापकस्तत्र रज्यते / मरुतां विश्वदेवानां साध्यानामश्विनोरपि // 5 स एव निरयस्तस्य नासौ तस्मात्प्रमुच्यते / / 7 रुद्रादित्यवसूनां च तथान्येषां दिवौकसाम् / रागेण जापको जप्यं कुरुते तत्र मोहितः / / एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः // 6 यत्रास्य रागः पतति तत्र तत्रोपजायते // 8 अभयं चानिमित्तं च न च क्लेशभयावृतम् / दुर्बुद्धिरकृतप्रज्ञश्चले मनसि तिष्ठति / / द्वाभ्यां मुक्तं त्रिभिर्मुक्तमष्टाभित्रिभिरेव च // 7 चलामेव गतिं याति निरयं वाधिगच्छति // 9 चतुर्लक्षणवर्ज तु चतुष्कारणवर्जितम् / अकृतप्रज्ञको बालो मोहं गच्छति जापकः / अप्रहर्षमनानन्दमशोकं विगतक्लमम् // 8 स मोहान्निरयं याति तत्र गत्वानुशोचति / / 10 कालः संपच्यते तत्र न कालस्तत्र वै प्रभुः / दृढनाही करोमीति जप्यं जपति जापकः / स कालस्य प्रभू राजन्वर्गस्यापि तथेश्वरः // 9 न संपूर्णो न वा युक्तो निरयं सोऽधिगच्छति // 11 / आत्मकेवलतां प्राप्तस्तत्र गत्वा न शोचति / युधिष्ठिर उवाच / ईदृशं परमं स्थानं निरयास्ते च तादृशाः // 10 अनिमित्तं परं यत्तदव्यक्तं ब्रह्मणि स्थितम् / एते ते निरयाः प्रोक्ताः सर्व एव यथातथम् / सद्भूतो जापकः कस्मात्स शरीरमथाविशेत् / / 12 / तस्य स्थानवरस्येह सर्वे निरयसंज्ञिताः // 11 भीष्म उवाच / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि दुष्प्रज्ञानेन निरया बहवः समुदाहृताः / एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 191 // - 2247 - Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192.1] महाभारते [12. 192. 25 192 तत्तथेति ततो देवी मधुरं प्रत्यभाषत // 13 युधिष्ठिर उवाच / इदं चैवापरं प्राह देवी तत्प्रियकाम्यया / कालमृत्युयमानां च ब्राह्मणस्य च सत्तम / निरयं नैव यातासि यत्र याता द्विजर्षभाः // 14 विवादो व्याहृतः पूर्वं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 1 यास्यसि ब्रह्मणः स्थानमनिमित्तमनिन्दितम् / भीष्म उवाच / साधये भविता चैतद्यत्त्वयाहमिहार्थिता // 15 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / नियतो जप चैकाग्रो धर्मस्त्वां समुपैष्यति / इक्ष्वाकोः सूर्यपुत्रस्य यद्वृत्तं ब्राह्मणस्य च // 2 कालो मृत्युर्यमश्चैव समायास्यन्ति तेऽन्तिकम् / कालस्य मृत्योश्च तथा यद्वृत्तं तन्निबोध मे। भविता च विवादोऽत्र तव तेषां च धर्मतः॥ 16 यथा स तेषां संवादो यस्मिन्स्थानेऽपि चाभवत् // एवमुक्त्वा अगवती जगाम भवनं स्वकम् / ब्राह्मणो जापकः कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशाः / ब्राह्मणोऽपि जपन्नास्ते दिव्यं वर्षशतं तदा // 1. षडङ्गविन्महाप्राज्ञः पैप्पलादिः स कौशिकः // 4 समाप्ते नियमे तस्मिन्नथ विप्रस्य धीमतः। . तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडङ्गेषु तथैव च।। साक्षात्प्रीतस्तदा धर्मो दर्शयामास तं द्विजम् // 18 वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रयः / / 5 धर्म उवाच / सोऽन्त्यं ब्राह्म तपस्तेपे संहितां संयतो जपन् / द्विजाते पश्य मां धर्ममहं त्वां द्रष्टुमागतः / तस्य वर्षसहस्रं तु नियमेन तथा गतम् // 6 जप्यस्य च फलं यत्ते संप्राप्तं तच्च मे शृणु // 19 स देव्या दर्शितः साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल / जिता लोकास्त्वया सर्वे ये दिव्या ये च मानुषाः / जप्यमावर्तयंस्तूष्णीं न च तां किंचिदब्रवीत् / / 7 देवानां निरयान्साधो सर्वानुत्क्रम्य यास्यसि // 20 तस्यानुकम्पया देवी प्रीता समभवत्तदा / प्राणत्यागं कुरु मुने गच्छ लोकान्यथेप्सितान् / वेदमाता ततस्तस्य तजप्यं समपूजयत् // 8 त्यक्त्वात्मनः शरीरं च ततो लोकानवाप्स्यसि // 21 समाप्तजप्यस्तूत्थाय शिरसा पादयोस्तथा। ब्राह्मण उवाच / पपात देव्या धर्मात्मा वचनं चेदमब्रवीत् // 9 कृतं लोकैर्हि मे धर्म गच्छ च त्वं यथासुखम् / दिष्ट्या देवि प्रसन्ना त्वं दर्शनं चागता मम / / बहुदुःखसुखं देहं नोत्सृजेयमहं विभो // 22 यदि वापि प्रसन्नासि जप्ये मे रमतां मनः // 10 धर्म उवाच / सावित्र्युवाच। अवश्यं भोः शरीरं ते त्यक्तव्यं मुनिपुंगव / किं प्रार्थयसि विप्रर्षे किं चेष्टं करवाणि ते / स्वर्ग आरोह्यतां विप्र किं वा ते रोचतेऽनघ // 23 प्रवहि जपतां श्रेष्ठ सर्व तत्ते भविष्यति // 11 ब्राह्मण उवाच / भीष्म उवाच / न रोचये स्वर्गवासं विना देहादहं विभो। इत्युक्तः स तदा देव्या विप्रः प्रोवाच धर्मवित्। गच्छ धर्म न मे श्रद्धा स्वर्गं गन्तुं विनात्मना // 24 जप्यं प्रति ममेच्छेयं वर्धत्विति पुनः पुनः॥ 12 / धर्म उवाच / मनसश्च समाधिर्मे वर्धेताहरहः शुभे। अलं देहे मनः कृत्वा त्यक्त्वा देहं सुखी भव / -2248 - Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192. 25] शान्तिपर्व . [12. 192. 47 गच्छ लोकानरजसो यत्र गत्वा न शोचसि // 25 राजोवाच / ब्राह्मण उवाच / राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदि षर्मसंस्थितः / रमे जपन्महाभाग कृतं लोकैः सनातनैः / ददामि वसु किंचित्ते प्रार्थितं तद्वद्वस्व मे // 38 सशरीरेण गन्तव्यो मया स्वर्गो न वा विभो // 26 ब्राह्मण उवाच / धर्म उवाच / द्विविधा ब्राह्मणा राजन्धर्मश्च द्विविधः स्मृतः। यदि त्वं नेच्छसि त्यक्तुं शरीरं पश्य वै द्विज / प्रवृत्तश्च निवृत्तश्च निवृत्तोऽस्मि प्रतिग्रहात् // 39 एष कालस्तथा मृत्युर्यमश्च त्वामुपागताः // 27 तेभ्यः प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप / भीष्म उवाच। . अहं न प्रतिगृह्णामि किमिष्टं किं ददानि ते / अथ वैवस्वतः कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो। . ब्रूहि त्वं नृपतिश्रेष्ठ तपसा साधयामि किम् // 40 प्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदेमब्रुवन् // 28 राजोवाच / तपसोऽस्य सुतप्तस्य तथा सुचरितस्य च।। क्षत्रियोऽहं न जानामि देहीति वचनं कचित् / फलप्राप्तिस्तव श्रेष्ठा यमोऽहं त्वामुपब्रुवे // 29 / प्रयच्छ युद्धमित्येयं वादिनः स्मो द्विजोत्तम // 41 यथावदस्य जप्यस्य फलं प्राप्तस्त्वमुत्तमम् / ब्राह्मण उवाच / कालस्ते स्वर्गमारोढं कालोऽहं त्वामुपागतः // 30 | तुष्यसि त्वं स्वधर्मेण तथा तुष्टा वयं नृप / मृत्यु मा विद्धि धर्मज्ञ रूपिणं स्वयमागतम् / अन्योन्यस्योत्तरं नास्ति यदिष्टं तत्समाचर // 42 कालेन चोदितं विप्र त्वामितो नेतुमद्य वै // 31 राजोवाच / . ब्राह्मण उवाच / स्वशक्त्याहं ददानीति त्वया पूर्व प्रभाषितम् / खागतं सूर्यपुत्राय कालाय च महात्मने / याचे त्वां दीयतां मह्यं जप्यस्यास्य फलं द्विज // 43 मृत्यवे चाथ धर्माय किं कार्य करवाणि वः // 32 ब्राह्मण उवाच / ___.. भीष्म उवाच / युद्धं मम सदा वाणी याचतीति विकत्थसे। अयं पाद्यं च दत्त्वा स तेभ्यस्तत्र समागमे / न च युद्धं मया साधं किमर्थं याचसे पुनः // 44 अब्रवीत्परमप्रीतः स्वशक्त्या किं करोमि वः // 33 राजोवाच / तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागतः / वाग्वा ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रिया बाहुजीविनः / इक्ष्वाकुरगमत्तत्र समेता यत्र ते विभो // 34 वाग्युद्धं तदिदं तीव्र मम विप्र त्वया सह // 45 सर्वानेव तु राजर्षिः संपूज्याभिप्रणम्य च।। ब्राह्मण उवाच / कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्तमः / / 35 सैवाद्यापि प्रतिज्ञा मे स्वशक्त्या किं प्रदीयताम् / तस्मै सोऽथासनं दत्त्वा पाद्यमयं तथैव च।। | ब्रूहि दास्यामि राजेन्द्र विभवे सति माचिरम् // 46 अब्रवीद्राह्मणो वाक्यं कृत्वा कुशलसंविदम् // 36 - राजोवाच / खागतं ते महाराज बेहि यद्यदिहेच्छसि। यत्तद्वर्षशतं पूर्ण जप्यं वै जपता त्वया / स्वशक्त्था कि करोमीह तद्भवान्प्रब्रवीतु मे // 37 / फलं प्राप्तं तत्प्रयच्छ मम दित्सुर्भवान्यदि // 47 म.भा. 282 - 2249 - Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192. 48] महाभारते [12. 192.74 ब्राह्मण उवाच / कुत एवावरान्राजन्मृषावादपरायणः // 60 परमं गृह्यतां तस्य फलं यज्जपितं मया। न यज्ञाध्ययने दानं नियमास्तारयन्ति हि। . अर्धं त्वमविचारेण फलं तस्य समाप्नुहि // 48 तथा सत्यं परे लोके यथा वै पुरुषर्षभ / / 61 अथ वा सर्वमेवेह जप्यकं मामकं फलम् / तपांसि यानि चीर्णानि चरिष्यसि च यत्तपः / राजन्प्राप्नहि कामं त्वं यदि सर्वमिहेच्छसि // 49 समाः शतैः सहस्रैश्च तत्सत्यान्न विशिष्यते // 62 राजोवाच / सत्यमेकाक्षरं ब्रह्म सत्यमेकाक्षरं तपः / कृतं सर्वेण भद्रं ते जप्यं यद्याचितं मया। सत्यमेकाक्षरो यज्ञः सत्यमेकाक्षरं श्रुतम् // 63 स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि किं च तस्य फलं वद॥५० सत्यं वेदेषु जागर्ति फलं सत्ये परं स्मृतम् / ब्राह्मण उवाच / सत्याद्धर्मो दमश्चैव सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् // 64 फलप्राप्तिं न जानामि दत्तं यज्जपितं मया। सत्यं वेदास्तथाङ्गानि सत्यं यज्ञास्तथा विधिः / अयं धर्मश्च कालश्च यमो मृत्युश्च साक्षिणः // 51 व्रतचर्यास्तथा सत्यमोंकारः सत्यमेव च // 65 राजोवाच / प्राणिनां जननं सत्यं सत्यं संततिरेव च। अज्ञातमस्य धर्मस्य फलं मे किं करिष्यति / सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः // 66 प्राप्नोतु तत्फलं विप्रो नाहमिच्छे ससंशयम् // 52 सत्येन चाग्निर्दहति स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः / ब्राह्मण उवाच / सत्यं यज्ञस्तपो वेदाः स्तोभा मन्त्राः सरस्वती // 6 // नारदेऽपरवक्तव्यं दत्तं वाचा फलं मया / तुलामारोपितो धर्मः सत्यं चैवेति नः श्रुतम् / वाक्यं प्रमाणं राजर्षे ममापि तव चैव हि // 53 समां कक्षां धारयतो यतः सत्यं ततोऽधिकम् // 68 नाभिसंधिर्मया जप्ये कृतपूर्वः कथंचन / यतो धर्मस्ततः सत्यं सर्वं सत्येन वर्धते / जप्यस्य राजशार्दूल कथं ज्ञास्याम्यहं फलम् // 54 किमर्थमनृतं कर्म कर्तुं राजंस्त्वमिच्छसि // 69 ददस्वेति त्वया चोक्तं ददामीति तथा मया। सत्ये कुरु स्थिरं भावं.मा राजन्ननृतं कृथाः। न वाचं दूषयिष्यामि सत्यं रक्ष स्थिरो भव // 55 कस्मात्त्वमनृतं वाक्यं देहीति कुरुषेऽशुभम् // 70 अथैवं वदतो मेऽद्य वचनं न करिष्यसि / यदि जप्यफलं दत्तं मया नेषिष्यसे नृप। महानधर्मो भविता तव राजन्मृषाकृतः // 56 वधर्मेभ्यः परिभ्रष्टो लोकाननुचरिष्यसि // 71 न युक्तं तु मृषा वाणी त्वया वक्तुमरिंदम। संश्रुत्य यो न दित्सेत याचित्वा यश्च नेच्छति / तथा मयाप्यभ्यधिकं मृषा वक्तुं न शक्यते // 57 . उभावानृतिकावेतौ न मृषा कर्तुमर्हसि // 72 संश्रुतं च मया पूर्व ददानीत्यविचारितम् / राजोवाच / तद्गृहीष्वाविचारेण यदि सत्ये स्थितो भवान् // 58 योद्धव्यं रक्षितव्यं च क्षत्रधर्मः किल द्विज / इहागम्य हि मां राजञ्जाप्यं फलमयाचिथाः।। दातारः क्षत्रियाः प्रोक्ता गृह्णीयां भवतः कथम् // 73 तन्मन्निसृष्टं गृह्णीष्व भव सत्ये स्थिरोऽपि च // 59 ब्राह्मण उवाच / नायं लोकोऽस्ति न परो न च पूर्वान्स तारयेत् / न छन्दयामि ते राजन्नापि ते गृहमाव्रजम् / -2250 - Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192. 74 ] शान्तिपर्व [12. 192. 98 विकृत उवाच। इहागम्य तु याचित्वा न गृह्णीषे पुनः कथम् // 74 / तावुभौ भृशसंतप्तौ राजानमिदमूचतुः / धर्म उवाच / परीक्ष्यतां यथा स्याव नावामिह विगर्हितौ // 86 अतिवादोऽस्तु युवयोर्वित्तं मां धर्ममागतम् / विरूप उवाच / द्विजो दानफलैर्युक्तो राजा सत्यफलेन च // 75 धारयामि नरव्याघ्र विकृतस्येह गोः फलम् / स्वर्ग उवाच। ददतश्च न गृह्णाति विकृतो मे महीपते // 87 स्वर्ग मा विद्धिः राजेन्द्र रूपिणं स्वयमागतम् / अविवादोऽस्तु युवयोरुभौ तुल्यफलौ युवाम् // 76 न मे धारयते किंचिद्विरूपोऽयं नराधिप / राजोवाच / मिथ्या ब्रवीत्ययं हि त्वा मिथ्याभासं नराधिप // कृतं स्वर्गेण मे कार्य गच्छ स्वर्ग यथासुखम् / राजोवाच / विप्रो यदीच्छते दातुं प्रतीच्छ्तु स मे धनम् / / 77 विरूप किं धारयते भवानस्य वदस्व मे / ब्राह्मण उवाच / श्रुत्वा तथा करिष्यामीत्येवं मे धीयते मतिः // 89 वाक्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्तः प्रसारितः / विरूप उवाच। निवृत्तिलक्षणं धर्ममुपासे संहितां जपन् // 78 शृणुष्वावहितो राजन्यथैतद्धारयाम्यहम् / निवृत्तं मां चिरं राजन्वितं लोभयसे कथम् / विकृतस्यास्य राजर्षे निखिलेन नरर्षभ // 90 स्वेन कार्य करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप। अनेन धनप्राप्त्यर्थं शुभा दत्ता पुरानघ / तपःस्वाध्यायशीलोऽहं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात् // 79 धेनुर्विप्राय राजर्षे तपःस्वाध्यायशीलिने // 91 राजोवाच / तस्याश्चायं मया राजन्फलमभ्येत्य याचितः। यदि विप्र निसृष्टं ते जप्यस्य फलमुत्तमम् / विकृनेन च मे दत्तं विशुद्धनान्तरात्मना // 92 आवयोर्यत्फलं किंचित्सहितं नौ तदस्त्विह // 80 ततो मे सुकृतं कर्म कृतमात्मविशुद्धये / द्विजाः प्रतिग्रहे युक्ता दातारो राजवंशजाः। गावौ हि कपिले क्रीत्वा वत्सले बहुदोहने // 93 यदि धर्मः श्रुतो विप्र सहैव फलमस्तु नौ // 81 ते चोच्छवृत्तये राजन्मया समपवर्जिते। मा वा भूत्सहभोज्यं नौ मदीयं फलमाप्नुहि / यथाविधि यथाश्रद्धं तदस्याहं पुनः प्रभो // 94 प्रतीच्छ मत्कृतं धर्मं यदि ते मय्यनुग्रहः // 82 इहाद्य वै गृहीत्वा तत्प्रयच्छे द्विगुणं फलम् / भीष्म उवाच / एकस्याः पुरुषव्याघ्र कः शुद्धः कोऽत्र दोषवान् / / ततो विकृतचेष्टौ द्वौ पुरुषौ समुपस्थिता। एवं विवदमानौ स्वस्त्वामिहाभ्यागतौ नृप। गृहीत्वान्योन्यमावेष्ट्य कुचेलावूचतुर्वचः // 83 / / कुरु धर्ममधर्म वा विनये नौ समाधय // 96 न मे धारयसीत्येको धारयामीति चापरः। यदि नेच्छति मे दानं यथा दत्तमनेन वै। इहास्ति नौ विवादोऽयमयं राजानुशासकः // 84 / भवानत्र स्थिरो भूत्वा मार्गे स्थापयतु प्रभुः // 97 सत्यं ब्रवीम्यहमिदं न मे धारयते भवान् / राजोवाच / अनृतं वदसीह त्वमृणं ते धारयाम्यहम् // 85 / दीयमानं न गृह्णासि ऋणं कस्मात्त्वमद्य वै / - 2251 - Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192, 98] महाभारते [ 12. 192. 120 राजोवाच / यथैव तेऽभ्यनुज्ञातं तथा गृह्णीष्व माचिरम् // 98 ब्राह्मण उवाच / विकृत उवाच। गृहाण धारयेऽहं ते याचितं ते श्रुतं मया / दीयतामित्यनेनोक्तं ददानीति तथा मया। न चेद्रहीष्यसे राजशपिध्ये त्वां न संशयः।।१०९ नायं मे धारयत्यत्र गम्यतां यत्र वाञ्छति // 99 राजोवाच / धिप्राजधर्म यस्यायं कार्यस्येह विनिश्चयः। वदतोऽस्य न गृह्णासि विषमं प्रतिभाति मे। इत्यर्थ मे ग्रहीतव्यं कथं तुल्यं भवेदिति // 110 दण्ड्यो हि त्वं मम मतो नास्त्यत्र खलु संशयः / / एष पाणिरपूर्व भो निक्षेपार्थं प्रसारितः / यन्मे धारयसे विप्र तदिदानी प्रदीयताम् // 111 विकृत उवाच / ब्राह्मण उवाच / मयास्य दत्तं राजर्षे गृह्णीयां तत्कथं पुनः / संहिता जपता यावान्मया कश्चिद्गुणः कृतः। काममत्रापराधो मे दण्डमाज्ञापय प्रभो // 101 तत्सर्वं प्रतिगृह्णीष्व यदि किंचिदिहास्ति मे // 112 विरूप उवाच / राजोवाच / दीयमानं यदि मया नेषिष्यसि कथंचन / जलमेतन्निपतितं मम पाणौ द्विजोत्तम / नियंस्यति त्वा नृपतिरयं धर्मानुशासकः // 102 सममस्तु सहैवास्तु प्रतिगृहातु वै भवान् // 113 विकृत उवाच। विरूप उवाच / स्वं मया याचितेनेह दत्तं कथमिहाद्य तत् / / कामक्रोधौ विद्धि नौ त्वमावाभ्यां कारितो भवान् / गृह्णीयां गच्छतु भवानभ्यनुज्ञां ददानि ते // 103 समेति च यदुक्तं ते समा लोकास्तवास्य च // 114 ब्राह्मण उवाच / नायं धारयते किंचिजिज्ञासा त्वत्कृते कृता। श्रुतमेतत्त्वया राजन्ननयोः कथितं द्वयोः। कालो धर्मस्तथा मृत्युः कामक्रोधौ तथा युवाम् // प्रतिज्ञातं मया यत्ते तद्गृहाणाविचारितम् // 104 सर्वमन्योन्यनिकषे निघृष्टं पश्यतस्तव / राजोवाच / गच्छ लोकाञ्जितान्स्वेन कर्मणा यत्र वाञ्छसि // प्रस्तुतं सुमहत्कार्यमावयोगह्वरं यथा / भीष्म उवाच / जापकस्य दृढीकारः कथमेतद्भविष्यति // 105 जापकानां फलावाप्तिर्मया ते संप्रकीर्तिता / यदि तावन्न गृह्णामि ब्राह्मणेनापवर्जितम् / गतिः स्थानं च लोकाश्च जापकेन यथा जिताः।।११७ कथं न लिप्येयमहं दोषेण महताद्य वै // 106 प्रयाति संहिताध्यायी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम् / भीष्म उवाच / अथ वाग्निं समायाति सूर्यमाविशतेऽपि वा॥११८ तौ चोवाच स राजर्षिः कृतकार्यों गमिष्यथः / / स तैजसेन भावेन यदि तत्राभुते रतिम् / नेदानी मामिहासाद्य राजधर्मो भवेन्मृषा // 107 / गुणांस्तेषां समादत्त रागेण प्रतिमोहितः // 119 स्वधर्मः परिपाल्यश्च राज्ञामेष विनिश्चयः। एवं सोमे तथा वायौ भूम्याकाशशरीरगः / विप्रधर्मश्च सुगुरुमिनात्मानमाविशत् // 108 / सरागस्तत्र वसति गुणांस्तेषां समाचरन् // 120 - 2252 - Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 192. 121] शान्तिपर्व [12. 193. 18 अथ तत्र विरागी स गच्छति त्वथ संशयम् / श्रद्धा ते जपतो नित्यं भवितेति विशां पते // 6 परमव्ययमिच्छन्स तमेवाविशते पुनः // 121 राजोवाच / अमृताच्चामृतं प्राप्तः शीतीभूतो निरात्मवान् / / यद्येवमफला सिद्धिः श्रद्धा च जपितुं तव / ब्रह्मभूतः स निर्द्वद्वः सुखी शान्तो निरामयः // 122 गच्छ विप्र मया साधं जापकं फलमाप्नुहि // . ब्रह्मस्थानमनावर्तमेकमक्षरसंज्ञकम् / ब्राह्मण उवाच / अदुःखमजरं शान्तं स्थानं तत्प्रतिपद्यते // 123 कृतः प्रयत्नः सुमहान्सर्वेषां संनिधाविह। चतुर्भिर्लक्षणे-नं तथा षड्भिः सषोडशैः। सह तुल्यफलौ चावां गच्छावो यत्र नौ गतिः / / 8 पुरुष समतिक्रम्य आकाशं प्रतिपद्यते // 124 / भीष्म उवाच / अथ वेच्छति रागात्मा सर्वं तदधितिष्ठति / . व्यवसायं तयोस्तत्र विदित्वा त्रिदशेश्वरः / पञ्च प्रार्थयते तच्च मनसा प्रतिपद्यते // 125 सह देवैरुपययौ लोकपालैस्तथैव च // 9 अथ वा वीक्षते लोकान्सान्निरयसंस्थितान् / साध्या विश्वेऽथ मरुतो ज्योतींषि सुमहान्ति च / नेःस्पृहः सर्वतो मुक्तस्तत्रैव रमते सुखी // 126 नद्यः शैलाः समुद्राश्च तीर्थानि विविधानि च // 10 एवमेषा महाराज जापकस्य गतिर्यथा। तपांसि संयोगविधिर्वेदाः स्तोभाः सरस्वती / रतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।१२७ नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुर्हहा हुहुः // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि गन्धर्वश्चित्रसेनश्च परिवारगणैयुतः। द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 192 // नागाः सिद्धाश्च मुनयो देवदेवः प्रजापतिः / विष्णुः सहस्रशीर्षश्च देवोऽचिन्त्यः समागमत्॥१२ युधिष्ठिर उवाच / अवाद्यन्तान्तरिक्षे च भेर्यस्तूर्याणि चाभिभो। केमुत्तरं तदा तौ स्म चक्रतुस्तेन भाषिते / पुष्पवर्षाणि दिव्यानि तत्र तेषां महात्मनाम् / ब्राह्मणो वाथ वा राजा तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 ननृतुश्चाप्सरःसंघास्तत्र तत्र समन्ततः // 13 अथ वा तौ गतौ तत्र यदेतत्कीर्तितं त्वया / अथ स्वर्गस्तथा रूपी ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत् / संवादो वा तयोः कोऽभूत्किं वा तौ तत्र चक्रतुः // 2 संसिद्धस्त्वं महाभाग त्वं च सिद्धस्तथा नृप // 14 भीष्म उवाच / अथ तौ सहितौ राजन्नन्योन्येन विधानतः। . येत्येवं प्रतिश्रुत्य धर्म संपूज्य चाभिभो। विषयप्रतिसंहारमुभावेव प्रचक्रतुः // 15 घमं कालं च मृत्युं च स्वर्ग संपूज्य चार्हतः // 3 प्राणापानौ तथोदानं समानं व्यानमेव च। .. पूर्व ये चापरे तत्र समेता ब्राह्मणर्षभाः। एवं तान्मनसि स्थाप्य दधतुः प्राणयोर्मनः // 16 सर्वान्संपूज्य शिरसा राजानं सोऽब्रवीद्वचः // 4 उपस्थितकृतौ तत्र नासिकाग्रमधो भ्रुवौ। . फलेनानेन संयुक्तो राजर्षे गच्छ पुण्यताम् / कुङ्कुण्यां चैव मनसा शनैर्धारयतः स्म तौ // 17 भवता चाभ्यनुज्ञातो जपेयं भूय एव हि.॥ 5 / निश्चेष्टाभ्यां शरीराभ्यां स्थिरदृष्टी समाहितौ। परश्च मम पूर्वं हि देव्या दत्तो महाबल / जितासनौ तथाधाय मूर्धन्यात्मानमेव च // 18 - 2253 - Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 193. 19 ] महाभारते [12. 194.7 तालुदेशमथोद्दाल्य ब्राह्मणस्य महात्मनः / एतत्फलं जापकानां गतिश्चैव प्रकीर्तिता। ज्योतिर्जाला सुमहती जगाम त्रिदिवं तदा // 19 / यथाश्रुतं महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 32 हाहाकारस्ततो दिक्षु सर्वासु सुमहानभूत् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तज्योतिः स्तूयमानं स्म ब्रह्माणं प्राविशत्तदा // 20 त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 193 // ततः स्वागतमित्याह तत्तेजः स पितामहः / प्रादेशमात्रं पुरुषं प्रत्युद्गम्य विशां पते // 21 युधिष्ठिर उवाच / भूयश्चैवापरं प्राह वचनं मधुरं स्म सः / किं फलं ज्ञानयोगस्य वेदानां नियमस्य च / जापकैस्तुल्यफलता योगानां नात्र संशयः // 22 भूतात्मा वा कथं ज्ञेयस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 योगस्य तावदेतेभ्यः फलं प्रत्यक्षदर्शनम् / भीष्म उवाच। जापकानां विशिष्टं तु प्रत्युत्थानं समाधिकम् / / 23 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / . उष्यतां मयि चेत्युक्त्वाचेतयत्स ततः पुनः / मनोः प्रजापतेर्वादं महर्षेश्च बृहस्पतेः // 2 अथास्य प्रविवेशास्यं ब्राह्मणो विगतज्वरः // 24 प्रजापति श्रेष्ठतमं पृथिव्यां राजाप्येतेन विधिना भगवन्तं पितामहम् / देवर्षिसंघप्रवरो महर्षिः। यथैव द्विजशार्दूलस्तथैव प्राविशत्तदा // 25 बृहस्पतिः प्रश्नमिमं पुराणं स्वयंभुवमथो देवा अभिवाद्य ततोऽब्रुवन् / पप्रच्छ शिष्योऽथ गुरुं प्रणम्य // 3 जापकार्थमयं यत्नस्तदर्थं वयमागताः // 26 यत्कारणं मत्रविधिः प्रवृत्तो कृतपूजाविमौ तुल्यं त्वया तुल्यफलाविमौ / ज्ञाने फलं यत्प्रवदन्ति विप्राः / योगजापकयोदृष्टं फलं सुमहदद्य वै / यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं सर्वाल्लोकानतीत्यैतौ गच्छेतां यत्र वाञ्छितम् / / ___ तदुच्यतां मे भगवन्यथावत् // 4 ब्रह्मोवाच / यदर्थशास्त्रागममत्रविद्भिमहास्मृतिं पठेद्यस्तु तथैवानुस्मृतिं शुभाम् / . यज्ञैरनेकैर्वरगोप्रदानैः। तावप्येतेन विधिना गच्छेतां मत्सलोकताम्॥२८ फलं महद्भिर्यदुपास्यते च यश्च योगे भवेद्भक्तः सोऽपि नास्त्यत्र संशयः / - तकि कथं वा भविता क वा तत् // 5 विधिनानेन देहान्ते मम लोकानवाप्नुयात् / मही महीजाः पवनोऽन्तरिक्षं गम्यतां साधयिष्यामि यथास्थानानि सिद्धये // 29 ___ जलौकसश्चैव जलं दिवं च / भीष्म उवाच। दिवौकसश्चैव यतः प्रसूताइत्युक्त्वा स तदा देवस्तत्रैवान्तरधीयत / स्तदुच्यतां मे भगवन्पुराणम् // 6 आमत्र्य तं ततो देवा ययुः स्वं स्खं निवेशनम् // 30 / ज्ञानं यतः प्रार्थयते नरो वै ते च सर्वे महात्मानो धर्म सत्कृत्य तत्र वै / ततस्तदर्था भवति प्रवृत्तिः। पृष्ठतोऽनुययू राजन्सर्वे सुप्रीतमानसाः // 31 न चाप्यहं वेद परं पुराणं - 2254 - Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 194.7] शान्तिपर्व [12. 194.21 मिथ्याप्रवृत्तिं च कथं नु कुर्याम् // 7 सर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं ऋक्सामसंघांश्च यजूंषि चाहं ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जन्ति / छन्दांसि नक्षत्रगतिं निरुक्तम् / अज्ञानतस्तत्र पतन्ति मूढा अधीत्य च व्याकरणं सकल्पं ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम् // 14 शिक्षां च भूतप्रकृतिं न वेद्मि // 8 कृत्स्नस्तु मत्रो विधिवत्प्रयुक्तो स मे भवाञ्शंसतु सर्वमेत यज्ञा यथोक्तास्त्वथ दक्षिणाश्च / ज्ज्ञाने फलं कर्मणि वा यदस्ति / अन्नप्रदानं मनसः समाधिः यथा च देहाच्यवते शरीरी पश्चात्मकं कर्मफलं वदन्ति // 15 __पुनः शरीरं च यथाभ्युपैति // 9 गुणात्मकं कर्म वदन्ति वेदा____ मनुरुवाच / स्तस्मान्मत्रा मन्त्रमूलं हि कर्म / यद्यप्रियं यस्य सुखं तदाहु विधिविधेयं मनसोपपत्तिः स्तदेव दुःखं प्रवदन्त्यनिष्टम् / ___ फलस्य भोक्ता तु यथा शरीरी // 16 इष्टं च मे स्यादितरच्च न स्या शब्दाश्च रूपाणि रसाश्च पुण्याः देतत्कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः / स्पर्शाश्च गन्धाश्च शुभास्तथैव / इष्टं त्वनिष्टं च न मां भजेते नरो नसंस्थानगतः प्रभुः स्या___ त्येतत्कृते ज्ञानविधिः प्रवृत्तः // 10 देतत्फलं सिध्यति कर्मलोके // 17 कामात्मकाश्छन्दसि कर्मयोगा यद्यच्छरीरेण करोति कर्म एभिर्विमुक्तः परमभुवीत।। ___ शरीरयुक्तः समुपाभुते तत् / नानाविधे कर्मपथे सुखार्थी शरीरमेवायतनं सुखस्य नरः प्रवृत्तो न परं प्रयाति / दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम् // 18 परं हि तत्कर्मपथादपेतं वाचा तु यत्कर्म करोति किंचि___ निराशिषं ब्रह्मपरं ह्यवश्यम् // 11 द्वाचैव सर्व समुपाश्नुते तत् / प्रजाः सृष्टा मनसा कर्मणा च मनस्तु यत्कर्म करोति किंचि___ द्वावप्येतौ सत्पथौ लोकजुष्टौ / ___ न्मनःस्थ एवायमुपाश्नुते तत् // 19 दृष्ट्वा कर्म शाश्वतं चान्तवच्च यथागुणं कर्मगणं फलार्थी - मनस्त्यागः कारणं नान्यदस्ति // 12 करोत्ययं कर्मफले निविष्टः / स्वेनात्मना चक्षुरिव प्रणेता तथा तथायं गुणसंप्रयुक्तः निशात्यये तमसा संवृतात्मा शुभाशुभं कर्मफलं भुनक्ति // 20 ज्ञानं तु विज्ञानगुणेन युक्तं मत्स्यो यथा स्रोत इवाभिपाती कर्माशुभं पश्यति वर्जनीयम् // 13 / तथा कृतं पूर्वमुपैति कर्म। -2255 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 194. 21] महाभारते [ 12. 195. 11 शुभे त्वसौ तुष्यति दुष्कृते तु रूपाणि चक्षुर्न च तत्परं यन तुष्यते वै परमः शरीरी // 21 द्गृहन्यनध्यात्मविदो मनुष्याः॥४ यतो जगत्सर्वमिदं प्रसूतं. निवर्तयित्वा रसनं रसेभ्यो ज्ञात्वात्मवन्तो व्यतियान्ति यत्तत् / घ्राणं च गन्धाच्छ्रवणे च शब्दात् / यन्मत्रशब्दैरकृतप्रकाशं स्पर्शात्तनुं रूपगुणात्तु चक्षुतदुच्यमानं शृणु मे परं यत् // 22 स्ततः परं पश्यति स्वं स्वभावम् // 5 रसैर्वियुक्तं विविधैश्च गन्धै यतो गृहीत्वा हि करोति यच्च रशब्दमस्पर्शमरूपवच्च / यस्मिंश्च तामारभते प्रवृत्तिम् / भग्राह्यमव्यक्तमवर्णमेकं यस्मिंश्च यद्येन च यश्च कर्ता पञ्चप्रकारं ससृजे प्रजानाम् // 23 तत्कारणं तं समुपायमाहुः // 6 . . न स्त्री पुमान्वापि नपुंसकं च यच्चाभिभूः साधकं व्यापकं च न सन्न चासत्सदसच्च तन्न। यन्मत्रवच्छंस्यते चैव लोके। पश्यन्ति यद्ब्रह्मविदो मनुष्या यः सर्वहेतुः परमार्थकारी स्तदक्षरं न क्षरतीति विद्धि // 24 ___ तत्कारणं कार्यमतो यदन्यत् // 7. इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथा च कश्चित्सुकृतैर्मनुष्यः चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः / / 194 // शुभाशुभं प्राप्नुतेऽथाविरोधात् / 195 एवं शरीरेषु शुभाशुभेषु मनुरुवाच / स्वकर्मजैनिमिदं निबद्धम् // 8 अक्षरात्वं ततो वायुयोर्कोतिस्ततो जलम् / यथा प्रदीपः पुरतः प्रदीप्तः जलात्प्रसूता जगती जगत्यां जायते जगत् // 1 प्रकाशमन्यस्य करोति दीप्यन् / इमे शरीरैर्जलमेव गत्वा तथेह पञ्चेन्द्रियदीपवृक्षा जलाञ्च तेजः पवनोऽन्तरिक्षम् / ज्ञानप्रदीप्ताः परवन्त एव // 9 खाद्वै निवर्तन्ति नभाविनस्ते यथा हि राज्ञो बहवो ह्यमात्याः ये भाविनस्ते परमाप्नुवन्ति // 2 ___ पृथक्प्रमाणं प्रवदन्ति युक्ताः / नोष्णं न शीतं मृदु नापि तीक्ष्णं तद्वच्छरीरेषु भवन्ति पञ्च नाम्लं कषायं मधुरं न तिक्तम् / ज्ञानैकदेशः परमः स तेभ्यः // 10 न शब्दवन्नापि च गन्धवत्त यथार्चिषोऽनेः पवनस्य वेगा न्न रूपवत्तत्परमस्वभावम् // 3 मरीचयोऽर्कस्य नदीषु चापः। स्पर्श तनुर्वेद रसं तु जिह्वा गच्छन्ति चायान्ति च तन्यमानाघ्राणं च गन्धाश्रवणं च शब्दान् / स्तद्वच्छरीराणि शरीरिणां तु // 11 - 2256 - Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 195. 12] शान्तिपर्व [12. 196.2 यथा च कश्चित्परशुं गृहीत्वा - धूमं न पश्येज्वलनं च काष्ठे / तद्वच्छरीरोदरपाणिपादं छित्त्वा न पश्यन्ति ततो यदन्यत् // 12 तान्येव काष्ठानि यथा विमथ्य धूमं च पश्येज्वलनं च योगात् / तद्वत्सुबुद्धिः सममिन्द्रियत्वा दुधः परं पश्यति स्वं स्वभावम् / / 13 यथात्मनोऽङ्ग पतितं पृथिव्यां स्वप्नान्तरे पश्यति चात्मनोऽन्यत् / श्रोत्रादियुक्तः सुमनाः सुबुद्धि लिङ्गात्तथा गच्छति लिङ्गमन्यत् // 14 उत्पत्तिवृद्धिक्षयसंनिपातै र्न युज्यतेऽसौ परमः शरीरी। अनेन लिङ्गेन तु लिङ्गमन्य गच्छत्यदृष्टः प्रतिसंधियोगात् // 15 न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो __न चापि संस्पर्शमुपैति किंचित् / न चापि तैः साधयतेऽथ कार्य ले तं न पश्यन्ति स पश्यते तान् // 16 यथा प्रदीपे ज्वलतोऽनलस्य संतापजं रूपमुपैति किंचित् / न चान्तरं रूपगुणं बिभर्ति __ तथैव तदृश्यते रूपमस्य // 17 यथा मनुष्यः परिमुच्य काय- मदृश्यमन्यद्विशते शरीरम् / विसृज्य भूतेषु महत्सु देहं .. तदाश्रयं चैव बिभर्ति रूपम् // 18 खं वायुमग्निं सलिलं तथोर्वी . समन्ततोऽभ्याविशते शरीरी। म.भा. 283 -2257 नानाश्रयाः कर्मसु वर्तमानाः __ श्रोत्रादयः पञ्च गुणाश्रयन्ते // 19 श्रोत्रं खतो घ्राणमथो पृथिव्या स्तेजोमयं रूपमथो विपाकः / जलाश्रयः स्वेद उक्तो रसश्च वाय्वात्मकः स्पर्शकृतो गुणश्च // 20 महत्सु भूतेषु वसन्ति पञ्च पञ्चन्द्रियार्थाश्च तथेन्द्रियेषु। सर्वाणि चैतानि मनोनुगानि बुद्धिं मनोऽन्वेति मनः खभावम् // 21 शुभाशुभं कर्म कृतं यदस्य तदेव प्रत्याददते स्वदेहे। मनोऽनुवर्तन्ति परावराणि __ जलौकसः स्रोत इवानुकूलम् // 22 चलं यथा दृष्टिपथं परति सूक्ष्म महद्रूपमिवाभिपाति। स्वरूपमालोचयते च रूपं परं तथा बुद्धिपथं परैति // 23 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 195 // मनुरुवाच। यदिन्द्रियैस्तूपकृतान्पुरस्ता प्राप्तान्गुणान्संस्मरते चिराय / तेष्विन्द्रियेषूपहतेषु पश्चा त्स बुद्धिरूपः परमः स्वभावः // 1. यथेन्द्रियार्थान्युगपत्समस्ता नावेक्षते कृत्स्नमतुल्यकालम् / यथाबलं संचरते स विद्वां स्तस्मात्स एकः परमः शरीरी // 2 .. - Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 196.3] महाभारते [12. 197.5 रजस्तमः सत्त्वमथो तृतीयं क्षीणकोशो ह्यमावास्यां चन्द्रमा न प्रकाशते / गच्छत्यसौ ज्ञानगुणान्विरूपात्। तद्वन्मूर्तिवियुक्तः सशरीरी नोपलभ्यते // 16 तथेन्द्रियाण्याविशते शरीरी यथा कोशान्तरं प्राप्य चन्द्रमा भ्राजते पुनः / हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् // 3 तद्वल्लिङ्गान्तरं प्राप्य शरीरी भ्राजते पुनः // 17 न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो जन्मवृद्धिक्षयश्चास्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यते। न पश्यति स्पर्शनमिन्द्रियेन्द्रियम् / सा तु चन्द्रमसो व्यक्तिर्न तु तस्य शरीरिणः // 18 न श्रोत्रलिङ्गं श्रवणे निदर्शनं उत्पत्तिवृद्धिव्ययतो यथा स इति गृह्यते। . तथागतं पश्यति तद्विनश्यति // 4 चन्द्र एव त्वमावास्यां तथा भवति मूर्तिमान् // 19. श्रोत्रादीनि न पश्यन्ति स्वं स्वमात्मानमात्मना / नाभिसर्पद्विमुश्चद्वा शशिनं दृश्यते तमः / सर्वज्ञः सर्वदर्शी च क्षेत्रज्ञस्तानि पश्यति // 5 विसृजेश्वोपसर्पश्च तद्वत्पश्य शरीरिणम् // 20 यथा हिमवतः पार्श्व पृष्ठं चन्द्रमसो यथा / यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते / न दृष्टपूर्व मनुजैन च तन्नास्ति तावता // 6 तद्वच्छरीरसंयुक्तः शरीरीत्युपलभ्यते / / 21 तद्वद्भूतेषु भूतात्मा सूक्ष्मो ज्ञानात्मवानसौ / यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहु!पलभ्यते। अदृष्टपूर्वश्चक्षुभ्यां न चासौ नास्ति तावता // 7 तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते // 22 पश्यन्नपि यथा लक्ष्म जगत्सोमे न विन्दति / यथा चन्द्रो ह्यमावास्यां नक्षत्रैयुज्यते गतः / एवमस्ति न वेत्येतन्न च तन्न परायणम् // 8 दद्वच्छरीरनिर्मुक्तः फलैर्युज्यति कर्मणः // 23 रूपवन्तमरूपत्वादुदयास्तमये बुधाः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धिया समनुपश्यन्ति तद्गताः सवितुर्गतिम् // 9 षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 196 // तथा बुद्धिप्रदीपेन दूरस्थं सुविपश्चितः / 197 प्रत्यासन्नं निनीषन्ति ज्ञेयं ज्ञानाभिसंहितम् // 10 मनुरुवाच / न हि खल्वनुपायेन कश्चिदर्थोऽभिसिध्यति / यथा व्यक्तमिदं शेते स्वप्ने चरति चेतनम् / सूत्रजालैर्यथा मत्स्यान्बध्नन्ति जलजीविनः // 11 ज्ञानमिन्द्रियसंयुक्तं तद्वत्प्रेत्य भवाभवौ // 1 मृगैर्मुगाणां ग्रहणं पक्षिणां पक्षिभिर्यथा। यथाम्भसि प्रसन्ने तु रूपं पश्यति चक्षुषा / गजानां च गजैरेवं ज्ञेयं ज्ञानेन गृह्यते // 12 तद्वत्प्रसन्नेन्द्रियवाज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति // 2 अहिरेव ह्यहेः पादान्पश्यतीति निदर्शनम् / स एव लुलिते तस्मिन्यथा रूपं न पश्यति / तद्वन्मूर्तिषु मूर्तिस्थं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति // 13 तथेन्द्रियाकुलीभावे ज्ञेयं ज्ञाने न पश्यति // 3 नोत्सहन्ते यथा वेत्तुमिन्द्रियैरिन्द्रियाण्यपि। अबुद्धिरज्ञानकृता अबुद्ध्या दुष्यते मनः / तथैवेह परा बुद्धिः परं बुद्ध्या न पश्यति // 14 दुष्टस्य मनसः पञ्च संप्रदुष्यन्ति मानसाः // 4 यथा चन्द्रो ह्यमावास्यामलिङ्गत्वान्न दृश्यते / अज्ञानतृप्तो विषयेष्ववगाढो न दृश्यते / न च नाशोऽस्य भवति तथा विद्धि शरीरिणम् // / अदृष्ट्वैव तु पूतात्मा विषयेभ्यो निवर्तते // 5 -2258 - Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 197. 6] शान्तिपर्व [12. 198. 18 तर्षच्छेदो न भवति पुरुषस्येह कल्मषात् / न बुद्धिर्बुध्यतेऽब्यक्तं सूक्ष्मस्त्वेतानि पश्यति॥२० निवर्तते तथा तर्षः पापमन्तं गतं यथा // 6 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विषयेषु च संसर्गाच्छाश्वतस्य नसंश्रयात् / सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 197 // मनसा चान्यदाकाङ्क्षन्परं न प्रतिपद्यते // 7 198 ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः / मनुरुवाच / अथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि // 8 ज्ञानं ज्ञेयाभिनिवृत्तं विद्धि ज्ञानगुणं मनः / प्रसूतैरिन्द्रियैदुःखी तैरेव नियतैः सुखी / प्रज्ञाकरणसंयुक्तं ततो बुद्धिः प्रवर्तते // 1 तस्मादिन्द्रियरूपेभ्यो यच्छेदात्मानमात्मना // 9 यदा कर्मगुणोपेता बुद्धिर्मनसि वर्तते / इन्द्रियेभ्यो मनः पूर्व बुद्धिः परतरा ततः। तदा प्रज्ञायते ब्रह्म ध्यानयोगसमाधिना // 2 बुद्धेः परतरं ज्ञानं ज्ञानात्परतरं परम् // 10 सेयं गुणवती बुद्धिर्गुणेष्वेवाभिवर्तते / अव्यक्तात्प्रसृतं ज्ञानं ततो बुद्धिस्ततो मनः / अवताराभिनिःस्रोतं गिरेः शृङ्गादिवोदकम् // 3 मनः श्रोत्रादिभियुक्तं शब्दादीन्साधु पश्यति // 11 यदा निर्गुणमाप्नोति ध्यानं मनसि पूर्वजम् / यस्तांस्त्यजति शब्दादीन्सर्वाश्च व्यक्तयस्तथा / तदा प्रज्ञायते ब्रह्म निकष्यं निकषे यथा // 4 विमुश्चत्याकृतिग्रामांस्तान्मुक्त्वामृतमभुते / / 12 / मनस्त्वपहृतं बुद्धिमिन्द्रियार्थनिदर्शनम् / उद्यम्हि सविता यद्वत्सृजते रश्मिमण्डलम् / न समक्षं गुणावेक्षि निर्गुणस्य निदर्शनम् // 5 स एवास्तमुपागच्छंस्तदेवात्मनि यच्छति // 13 सर्वाण्येतानि संवार्य द्वाराणि मनसि स्थितः / अन्तरास्मा तथा देहमाविश्येन्द्रियरश्मिभिः। मनस्येकाग्रतां कृत्वा तत्परं प्रतिपद्यते // 6 प्राप्येन्द्रियगुणान्पश्च सोऽस्तमावृत्य गच्छति // 14 यथा महान्ति भूतानि निवर्तन्ते गुणक्षये / प्रणीतं कर्मणा मार्ग नीयमानः पुनः पुनः / तथेन्द्रियाण्युपादाय बुद्धिर्मनसि वर्तते // 7 प्राप्नोत्ययं कर्मफलं प्रवृद्धं धर्ममात्मवान् // 15 यदा मनसि सा बुद्धिर्वर्ततेऽन्तरचारिणी। व्यवसायगुणोपेता तदा संपद्यते मनः // 8 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः / गुणवद्भिर्गुणोपेतं यदा ध्यानगुणं मनः / रसव रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा विवर्तते // 16 तदा सर्वगुणान्हित्वा निर्गुणं प्रतिपद्यते // 9 बुद्धिः कर्मगुणींना यदा मनसि वर्तते / अव्यक्तस्येह विज्ञाने नास्ति तुल्यं निदर्शनम् / तदा संपद्यते ब्रह्म तत्रैव प्रलयं गतम् // 17 यत्र नास्ति पदन्यासः कस्तं विषयमाप्नुयात् // 10 अस्पर्शनमशृण्वानमनास्वादमदर्शनम् / तपसा चानुमानेन गुणैर्जात्या श्रुतेन च / अध्राणमवितर्कं च सत्त्वं प्रविशते परम् // 18 निनीषेत्तत्परं ब्रह्म विशुद्धनान्तरात्मना // 11 मनस्याकृतयो मग्ना मनस्त्वतिगतं मतिम् / गुणहीनो हि तं मार्ग बहिः समनुवर्तते / मतिस्त्वतिगता ज्ञानं ज्ञानं त्वभिगतं परम् // 19 / गुणाभावात्प्रकृत्या च निस्तक्यं ज्ञेयसंमितम् // 12 इन्द्रियैर्मनसः सिद्धिर्न बुद्धिं बुध्यते मनः। / नैर्गुण्याद्ब्रह्म चाप्नोति सगुणत्वान्निवर्तते / -2259 - Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 198. 13 ] महाभारते [ 12. 199. 23 गुणप्रसारिणी बुद्धि ताशन इवेन्धने // 13 क्षयान्ते तत्फलं दिव्यं ज्ञानं ज्ञेयप्रतिष्ठितम् // 8 यथा पञ्च विमुक्तानि इन्द्रियाणि स्वकर्मभिः / महद्धि परमं भूतं युक्ताः पश्यन्ति योगिनः। . तथा तत्परमं ब्रह्म विमुक्तं प्रकृतेः परम् // 14 अबुधास्तं न पश्यन्ति ह्यात्मस्था गुणबुद्धयः // 9 एवं प्रकृतितः सर्वे प्रभवन्ति शरीरिणः / पृथिवीरूपतो रूपमपामिह महत्तरम् / निवर्तन्ते निवृत्तौ च सर्ग नैवोपयान्ति च // 15 अद्भयो महत्तरं तेजस्तेजसः पवनो महान् // 10 पुरुषः प्रकृतिर्बुद्धिर्विशेषाश्चेन्द्रियाणि च।। पवनाच्च महद्व्योम तस्मात्परतरं मनः / . अहंकारोऽभिमानश्च संभूतो भूतसंज्ञकः // 16 मनसो महती बुद्धिर्बुद्धेः कालो महान्स्मृतः // 11 एकस्याद्या प्रवृत्तिस्तु प्रधानात्संप्रवर्तते / कालात्स भगवान्विष्णुर्यस्य सर्वमिदं जगत् / द्वितीया मिथुनव्यक्तिमविशेषान्नियच्छति // 17 नादिर्न मध्यं नैवान्तस्तस्य देवस्य विद्यते // 12 धर्मादुत्कृष्यते श्रेयस्तथाश्रेयोऽप्यधर्मतः / अनादित्वादमध्यत्वादनन्तत्वाच्च सोऽव्ययः / रागवान्प्रकृतिं ह्येति विरक्तो ज्ञानवान्भवेत् // 18 अत्येति सर्वदुःखानि दुःखं ह्यन्तवदुच्यते // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तद्ब्रह्म परमं प्रोक्तं तद्धाम परमं स्मृतम् / __ अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 198 // तद्गत्वा कालविषयाद्विमुक्ता मोक्षमाश्रिताः // 14 गुणैस्त्वेतैः प्रकाशन्ते निर्गुणत्वात्ततः परम् / मनुरुवाच / निवृत्तिलक्षणो धर्मस्तथानन्त्याय कल्पते // 15 यदा ते पञ्चभिः पञ्च विमुक्ता मनसा सह / ऋचो यजंषि सामानि शरीराणि व्यपाश्रिताः / अथ तद्रक्ष्यसे ब्रह्म मणौ सूत्रमिवार्पितम् // 1 जिह्वाग्रेषु प्रवर्तन्ते यत्नसाध्या विनाशिनः // 16 तदेव च यथा सूत्रं सुवर्णे वर्तते पुनः / न चैवमिष्यते ब्रह्म शरीराश्रयसंभवम् / मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृन्मये राजते तथा // 2 न यत्नसाध्यं तद्ब्रह्म नादिमध्यं न चान्तवत् // 17 तद्वद्गोषु मनुष्येषु तद्वद्धस्तिमृगादिषु / ऋचामादिस्तथा साम्नां यजुषामादिरुच्यते / तद्वत्कीटपतंगेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः / / 3 अन्तश्चादिमतां दृष्टो न चादिब्रह्मणः स्मृतः // 18 येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम् / अनादित्वादनन्तत्वात्तदनन्तमथाव्ययम् / तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते // 4 अव्ययत्वाच्च निद्वंद्वं द्वंद्वाभावात्ततः परम् / / 19 यथा ह्येकरसा भूमिरोषध्यात्मानुसारिणी। अदृष्टतोऽनुपायाच्चाप्यभिसंधेश्च कर्मणः / तथा कर्मानुगा बुद्धिरन्तरात्मानुदर्शिनी // 5 न तेन माः पश्यन्ति येन गच्छन्ति तत्परम्॥२० ज्ञानपूर्वोद्भवा लिप्सा लिप्सापूर्वाभिसंधिता / विषयेषु च संसर्गाच्छाश्वतस्य च दर्शनात् / अभिसंधिपूर्वकं कर्म कर्ममूलं ततः फलम् // 6 मनसा चान्यदाकाङ्क्षन्परं न प्रतिपद्यते // 21 फलं कर्मात्मकं विद्यात्कर्म ज्ञेयात्मकं तथा। गुणान्यदिह पश्यन्ति तदिच्छन्त्यपरे जनाः / ज्ञेयं ज्ञानात्मकं विद्याज्ज्ञानं सदसदात्मकम् // 7 | परं नैवाभिकाङ्क्षन्ति निर्गुणत्वाद्गुणार्थिनः // 22 ज्ञानानां च फलानां च ज्ञेयानां कर्मणां तथा। गुणैर्यस्त्ववरैर्युक्तः कथं विद्याद्गुणानिमान् / - 2260 - Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 199.23] शान्तिपर्व [12. 200. 11 अनुमानाद्धि गन्तव्यं गुणैरवयवैः सह // 23 स्वयंभुवं प्रभवनिधानमव्ययम् / यूक्ष्मेण मनसा विद्मो वाचा वक्तुं न शक्नुमः / सनातनं यदमृतमव्ययं पदं नो हि मनसा प्राचं दर्शनेन च दर्शनम् // 24 विचार्य तं शमममृतत्वमभुते // 32 गानेन निर्मलीकृत्य बुद्धिं बुद्धया तथा मनः।। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निसा चेन्द्रियग्राममनन्तं प्रतिपद्यते // 25 एकोनद्विशततमोऽध्यायः // 199 // बुद्धिप्रहीणों मनसासमृद्ध 200 स्तथा निराशीर्गुणतामुपैति / युधिष्ठिर उवाच / परं त्यजन्तीह विलोभ्यमाना पितामह महाप्राज्ञ पुण्डरीकाक्षमच्युतम् / हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् // 26 . कर्तारमकृतं विष्णुं भूतानां प्रभवाप्ययम् // 1 गुणादाने विप्रयोगे च तेषां नारायणं हृषीकेशं गोविन्दमपराजितम् / ___ मनः सदा बुद्धिपरावराभ्याम् / तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छामि केशवम् // 2 अनेनैव विधिना संप्रवृत्तो भीष्म उवाच / गुणादाने ब्रह्मशरीरमेति // 27 श्रुतोऽयमर्थो रामस्य जामदग्न्यस्य जल्पतः / अव्यक्तात्मा पुरुषोऽव्यक्तकर्मा नारदस्य च देवर्षेः कृष्णद्वैपायनस्य च // 3 सोऽव्यक्तत्वं गच्छति ह्यन्तकाले। असितो देवलस्तात वाल्मीकिश्च महातपाः / तैरेवायं चेन्द्रियैर्वर्घमानै मार्कण्डेयश्च गोविन्दे कथयत्यद्भुतं महत् // 4 गर्लायद्भिर्वा वर्तते कर्मरूपः // 28 केशवो भरतश्रेष्ठ भगवानीश्वरः प्रभुः / सर्वैरयं चेन्द्रियैः संप्रयुक्तो पुरुषः सर्वमित्येव श्रूयते बहुधा विभुः // 5 देहः प्राप्तः पञ्चभूताश्रयः स्यात् / किं तु यानि विदुलॊके ब्राह्मणाः शाङ्गधन्वनः / नासामर्थ्याद्गच्छति कर्मणेह माहात्म्यानि महाबाहो शृणु तानि युधिष्ठिर // 6 हीनस्तेन परमेणाव्ययेन // 29 यानि चाहुर्मनुष्येन्द्र ये पुराणविदो जनाः / पृथ्व्या नरः पश्यति नान्तमस्या अशेषेण हि गोविन्दे कीर्तयिष्यामि तान्यहम् // ह्यन्तश्चास्या भविता चेति विद्धि / महाभूतानि भूतात्मा महात्मा पुरुषोत्तमः / : परं नयन्तीह विलोभ्यमानं वायुर्योतिस्तथा चापः खं गां चैवान्वकल्पयत् // 8 यथा प्लवं वायुरिवार्णवस्थम् // 30 | स दृष्ट्वा पृथिवीं चैव सर्वभूतेश्वरः प्रभुः।। . दिवाकरो गुणमुपलभ्य निर्गुणो अप्स्वेव शयनं चक्रे महात्मा पुरुषोत्तमः // 9 . यथा भवेद्व्यपगतरश्मिमण्डलः / सर्वतेजोमयस्तस्मिञ्शयानः शयने शुभे / तथा ह्यसौ मुनिरिह निर्विशेषवा सोऽग्रजं सर्वभूतानां संकर्षणमचिन्तयत् // 10 न्स निर्गुणं प्रविशति ब्रह्म चाव्ययम् // 31 आश्रयं सर्वभूतानां मनसेति विशुश्रुम / अनागतिं सुकृतिमतां परां गतिं / स धारयति भूतात्मा उभे भूतभविष्यती // 11 : -2261 - Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 200. 12 ] महाभारते [ 12. 200. 41 ततस्तस्मिन्महाबाहो प्रादुर्भते महात्मनि / | तस्य विक्रमणादेव देवानां श्रीयंवर्धत / भास्करप्रतिमं दिव्यं नाभ्यां पद्ममजायत // 12 दानवाश्च पराभूता दैतेयी चासुरी प्रजा // 27 स तत्र भगवान्देवः पुष्करे भासयन्दिशः। विप्रचित्तिप्रधानांश्च दानवानसृजनुः / ब्रह्मा समभवत्तात सर्वभूतपितामहः // 13 दितिस्तु सर्वानसुरान्महासत्त्वान्व्यजायत // 28 तस्मिन्नपि महाबाहो प्रादुर्भूते महात्मनि / अहोरात्रं च कालं च यथतु मधुसूदनः / तमसः पूर्वजो जज्ञे मधुर्नाम महासुरः॥ 14 पूर्वाहं चापराहं च सर्वमेवान्वकल्पयत् // 29 तमुप्रमुप्रकर्माणमुग्रां बुद्धिं समास्थितम् / / बुद्ध्यापः सोऽसृजन्मेघांस्तथा स्थावरजङ्गमान् / ब्रह्मणोपचितिं कुर्वञ्जघान पुरुषोत्तमः // 15 पृथिवीं सोऽसृजद्विश्वां सहितां भूरितेजसा // 30 तस्य तात वधात्सर्वे देवदानवमानवाः। ततः कृष्णो महाबाहुः पुनरेव युधिष्ठिर / मधुसूदनमित्याहुर्वृषभं सर्वसात्वताम् / / 16 ब्राह्मणानां शतं श्रेष्ठं मुखांदसृजतः प्रभु // 31 ब्रह्मा तु ससृजे पुत्रान्मानसान्दक्षसप्तमान् / बाहुभ्यां क्षत्रियशतं वैश्यानामूरुतः शतम् / मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं ऋतुम् // 17 पद्भयां शूद्रशतं चैव केशवो भरतर्षभ // 32 . मरीचिः कश्यपं तात पुत्रं चासृजदग्रजम् / स एवं चतुरो वर्णान्समुत्पाद्य महायशाः / मानसं जनयामास तैजसं ब्रह्मसत्तमम् // 18 अध्यक्षं सर्वभूतानां धातारमकरोत्प्रभुः // 33 अङ्गुष्ठादसृजद्ब्रह्मा मरीचेरपि पूर्वजम् / यावद्यावदभूच्छ्रद्धा देहं धारयितुं नृणाम् / सोऽभवद्भरतश्रेष्ठ दक्षो नाम प्रजापतिः // 19 तावत्तावदजीवंस्ते नासीद्यमकृतं भयम् // 34 तस्य पूर्वमजायन्त दश तिस्रश्च भारत / न चैषां मैथुनो धर्मो बभूव भरतर्षभ। . प्रजापतेदेहितरस्तासां ज्येष्ठाभवहितिः॥ 20 संकल्पादेव चैतेषामपत्यमुदपद्यत // 35 सर्वधर्मविशेषज्ञः पुण्यकीर्तिर्महायशाः / तत्र त्रेतायुगे काले संकल्पाजायते प्रजा।। मारीचः कश्यपस्तात सर्वासामभवत्पतिः // 21 न ह्यभून्मैथुनो धर्मस्तेषामपि जनाधिप // 36 उत्पाद्य तु महाभागस्तासामवरजा दश / द्वापरे मैथुनो धर्मः प्रजानामभवन्नृप / ददौ धर्माय धर्मज्ञो दक्ष एव प्रजापतिः / / 22 तथा कलियुगे राजन्द्वंद्वमापेदिरे जनाः // 35 धर्मस्य वसवः पुत्रा रुद्राश्वामिततेजसः। एष भूतपतिस्तात स्वध्यक्षश्च प्रकीर्तितः / विश्वेदेवाश्च साध्याश्च मरुत्वन्तश्च भारत // 23 / निरध्यक्षांस्तु कौन्तेय कीर्तयिष्यामि तानपि // 38 अपरास्तु यवीयस्यस्ताभ्योऽन्याः सप्तविंशतिः / दक्षिणापथजन्मानः सर्वे तलवरान्ध्रकाः। सोमस्तासां महाभागः सर्वासामभवत्पतिः // 24 उत्साः पुलिन्दाः शबराश्चूचुपा मण्डपैः सह // 39 इतरास्तु व्यजायन्त गन्धर्वास्तुरगान्द्विजान् / उत्तरापथजन्मानः कीर्तयिष्यामि तानपि / गाश्च किंपुरुषान्मत्स्यानौद्भिदांश्च वनस्पतीन् // 25 यौनकाम्बोजगान्धाराः किराता बर्बरैः सह // 40 आदित्यानदितिर्जज्ञे देवश्रेष्ठान्महाबलान् / एते पापकृतस्तात चरन्ति पृथिवीमिमाम् / तेषां विष्णुर्वामनोऽभूगोविन्दश्वाभवत्प्रभुः // 26 / श्वकाकबलगृध्राणां सधर्माणे नराधिप // 41 -2262 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 200. 42] शान्तिपर्व [12. 201. 22 नैते कृतयुगे तात चरन्ति पृथिवीमिमाम् / अरिष्टनेमिरित्येकं कश्यपेत्यपरं विदुः // 8. त्रेताप्रभृति वर्तन्ते ते जना भरतर्षभ // 42 अङ्गश्चैवौरसः श्रीमानराजा भौमश्च वीर्यवान् / ततस्तस्मिन्महाघोरे संध्याकाले युगान्तिके / सहस्रं यश्च दिव्यानां युगानां पर्युपासिता // 9 राजानः समसज्जन्त समासाद्येतरेतरम् // 43 अर्यमा चैव भगवान्ये चान्ये तनया विभो। एवमेष कुरुश्रेष्ठ प्रादुर्भावो महात्मनः / एते प्रदेशाः कथिता भुवनानां प्रभावनाः // 10 देवदेवर्षिराचष्ट नारदः सर्वलोकदृक् // 44 शशबिन्दोश्च भार्याणां सहस्राणि दशाच्युत / नारदोऽप्यथ कृष्णस्य परं मेने नराधिप / एकैकस्यां सहस्रं तु तनयानामभूत्तदा // 11 शाश्वतत्वं महाबाहो वथावद्भरतर्षभ // 45 एवं शतसहस्राणां शतं तस्य महात्मनः / एवमेष महाबाहुः केशवः सत्यविक्रमः / पुत्राणां न च ते कंचिदिच्छन्त्यन्यं प्रजापतिम् // 12 अचिन्त्यः पुण्डरीकाक्षो नैष केवलमानुषः // 46 प्रजामाचक्षते विप्राः पौराणी शाशबिन्दवीम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ' स वृष्णिवंशप्रभवो महावंशः प्रजापतेः // 13 : द्विशततमोऽध्यायः // 20 // एते प्रजानां पतयः समुद्दिष्टा यशस्विनः / __201, अतः परं प्रवक्ष्यामि देवांत्रिभुवनेश्वरान् // 14 युधिष्ठिर उवाच / भगोंऽशश्चार्यमा चैव मित्रोऽथ वरुणस्तथा। के पूर्वमासन्पतयः प्रजानां भरतर्षभ / सविता चैव धाता च विवस्वांश्च महाबलः॥ 15 के चर्षयो महाभागा दिक्षु प्रत्येकशः स्मृताः // 1 / पूषा त्वष्टा तथैवेन्द्रो द्वादशो विष्णुरुच्यते / .. भीष्म उवाच / त एते द्वादशादित्याः कश्यपस्यात्मसंभवाः // 16 श्रूयतां भरतश्रेष्ठ यन्मा त्वं परिपृच्छसि / नासत्यश्चैव दस्रश्च स्मृतौ द्वावश्विनावपि / प्रजानां पतयो ये स्म दिक्षु प्रत्येकशः स्मृताः॥२ मार्ताण्डस्यात्मजावेतावष्टमस्य प्रजापतेः // 17 ; एकः स्वयंभूभगवानाद्यो ब्रह्मा सनातनः / त्वष्टुश्चैवात्मजः श्रीमान्विश्वरूपो महायशाः। ब्रह्मणः सप्त पुत्रा वै महात्मानः स्वयंभुवः // 3 अजैकपादहिर्बुध्न्यो विरूपाक्षोऽथ रैवतः // 18 मरीचिरञ्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / / हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः / वसिष्ठश्च महाभागः सदृशा वै स्वयंभुवा // 4 सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः / सप्त ब्रह्माण इत्येष पुराणे निश्चयो गतः / पूर्वमेव महाभागा वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः // 19 अत ऊवं प्रवक्ष्यामि सर्वानेव प्रजापतीन् // 5 एत एवंविधा देवा मनोरेव प्रजापतेः / अत्रिवंशसमुत्पन्नो ब्रह्मयोनिः सनातनः / ते च पूर्वे सुराश्चेति द्विविधाः पितरः स्मृताः॥२० प्राचीनबर्हिगवांस्तस्मात्प्राचेतसो दश // 6 शीलरूपरतास्त्वन्ये तथान्ये सिद्धसाध्ययोः / दशानां तनयस्त्वेको दक्षो नाम प्रजापतिः / ऋभवो मरुतश्चैव देवानां चोदिता गणाः // 21 तस्य द्वे नामनी लोके दक्षः क इति चोच्यते // 7 एवमेते समाम्नाता विश्वेदेवास्तथाश्विनौ / मरीचेः कश्यपः पुत्रस्तस्य द्वे नामनी श्रुते। आदित्याः क्षत्रियास्तेषां विशस्तु मरुतस्तथा // 22 - 2263 - Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 201. 23 ] महाभारते [12. 202. 18 अश्विनौ तु मतौ शूद्रौ तपस्युरो समाहितौ / 202 स्मृतास्त्वङ्गिरसो देवा ब्राह्मणा इति निश्चयः / युधिष्ठिर उवाच / इत्येतत्सर्वदेवानां चातुर्वर्ण्य प्रकीर्तितम् // 23 पितामह महाप्राज्ञ युधि सत्वपराक्रम / एतान्वै प्रातरुत्थाय देवान्यस्तु प्रकीर्तयेत् / श्रोतुमिच्छामि कात्स्न्येन कृष्णमव्ययमीश्वरम् // 1 खजादन्यकृताञ्चैव सर्वपापात्प्रमुच्यते // 24 यञ्चास्य तेजः सुमहद्यच्च कर्म पुरातनम् / यवक्रीतोऽथ रैभ्यश्च अर्वावसुपरावसू / तन्मे सर्वं यथातत्त्वं प्रबेहि भरतर्षभ // 2 औशिजश्चैव कक्षीवान्नलश्चाङ्गिरसः सुताः॥२५ तिर्यग्योनिगतं रूपं कथं धारितवान्हरिः। . ऋषेर्मेधातिथेः पुत्रः कण्वो बर्हिषदस्तथा / केन कार्यविसर्गेण तन्मे ब्रूहि पितामह // 3 . त्रैलोक्यभावनास्तात प्राच्यां सप्तर्षयस्तथा // 26 __ भीष्म उवाच / उन्मुचो विमुचश्चैव स्वस्त्यात्रेयश्च वीर्यवान् / पुराहं मृगयां यातो मार्कण्डेयाश्रमे स्थितः / प्रमुचश्चेष्मवाहश्च भगवांश्च दृढव्रतः // 27 तत्रापश्यं मुनिगणान्समासीनान्सहस्रशः // 4 मित्रावरुणयोः पुत्रस्तथागस्त्यः प्रतापवान् / ततस्ते मधुपर्केण पूजां चक्रुरथो मयि / एते ब्रह्मर्षयो नित्यमाश्रिता दक्षिणां दिशम् // 28 प्रतिगृह्य च तां पूजां प्रत्यनन्दमृषीनहम् // 5 रुषद्गुः कवषो धौम्यः परिव्याधश्च वीर्यवान् / / कथैषा कथिता तत्र कश्यपेन महर्षिणा। एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः // 29 मनःप्रहादिनी दिव्यां तामिहैकमनाः शृणु // 6 अत्रेः पुत्रश्च भगवांस्तथा सारस्वतः प्रभुः / पुरा दानवमुख्या हि क्रोधलोभसमन्विताः। एते नव महात्मानः पश्चिमामाश्रिता दिशम् // 30 बलेन मत्ताः शतशो नरकाद्या महासुराः // 7 // आत्रेयश्च वसिष्ठश्च कश्यपश्च महानृषिः / तथैव चान्ये बहवो दानवा युद्धदुर्मदाः।.. गौतमः सभरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ कौशिकः // 31 न सहन्ते स्म देवानां समृद्धि तामनुत्तमाम् // 8 तथैव पुत्रो भगवानृचीकस्य महात्मनः / दानवैरर्यमानास्तु देवा देवर्षयस्तथा / जमदग्निश्च सप्तैते उदीची दिशमाश्रिताः // 32 न शर्म लेभिरे राजन्विशमानास्ततस्ततः // 9 एते प्रतिदिशं सर्वे कीर्तितास्तिग्मतेजसः / / पृथिवीं चार्तरूपां ते समपश्यन्दिवौकसः / साक्षिभूता महात्मानो भुवनानां प्रभावनाः // 33 दानवैरभिसंकीणां घोररूपैर्महावलैः / एवमेते महात्मानः स्थिताः प्रत्येकशो दिशः। भारामिपकृष्टां च दुःखितां संनिमज्जतीम् // 10 एतेषां कीर्तनं कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते // 34 / अथादितेयाः संत्रस्ता ब्रह्माणमिदमब्रुवन् / यस्यां यस्यां दिशि ह्येते तां दिशं शरणं गतः। कथं शक्यामहे ब्रह्मन्दानवैरुपमर्दनम् // 11 मुच्यते सर्वपापेभ्यः स्वस्तिमांश्च गृहान्व्रजेत् // 35 स्वयंभूस्तानुवाचेदं निसृष्टोऽत्र विधिर्मया। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ते वरेणाभिसंमत्ता बलेन च मदेन च // 12 नावभोत्स्यन्ति संमूढा विष्णुमव्यक्तदर्शनम् / एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 201 // वराहरूपिणं देवमधृष्यममरैरपि // 13 - 2264 - Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 202. 14 ] शान्तिपर्व [12. 203.5 एष वेगेन गत्वा हि यत्र ते दानवाधमाः / एतस्मिन्नन्तरे विष्णुराह रूपमास्थितः। अन्तर्भूमिगता घोरा निवसन्ति सहस्रशः / उदतिष्ठन्महादेवः स्तूयमानो महर्षिभिः // 28 शमयिष्यति श्रुत्वा ते जहषुः सुरसत्तमाः // 14 पितामह उवाच / ततो विष्णुमहातेजा वाराहं रूपमाश्रितः / निहत्य दानवपतीन्महावा महाबलः / अन्तर्भूमिं संप्रविश्य जगाम दितिजान्प्रति // 15 एष देवो महायोगी भूतात्मा भूतभावनः // 29 दृष्ट्वा च सहिताः सर्वे दैत्याः सत्त्वममानुषम् / सर्वभूतेश्वरो योगी योनिरात्मा तथात्मनः / प्रसह्य सहसा सर्वे संतस्थुः कालमोहिताः // 16 स्थिरीभवत कृष्णोऽयं सर्वपापप्रणाशनः // 30 सर्वे च समभिद्रुत्य वराहं जगृहुः समम् / कृत्वा कर्मातिसाध्वेतदशक्यममितप्रभः / संक्रुद्धाश्च वराहं तं व्यकर्षन्त समन्ततः // 17 समायातः स्वमात्मानं महाभागो महाद्युतिः / दानवेन्द्रा महाकाया महावीर्या बलोच्छ्रिताः। पद्मनाभो महायोगी भूतात्मा भूतभावनः // 31 नाशक्नुवंश्च किंचित्ते तस्य कर्तुं तदा विभो // 18 न संतापो न भीः कार्या शोको वा सुरसत्तमाः। ततोऽगमन्विस्मयं ते दानवेन्द्रा भयात्तदा। विधिरेष प्रभावश्च कालः संक्षयकारकः / संशयं गतमात्मानं मेनिरे च सहस्रशः // 19 लोकान्धारयतानेन नादो मुक्तो महात्मना // 32 ततो देवादिदेवः स योगात्मा योगसारथिः / स एव हि महाभागः सर्वलोकनमस्कृतः / / योगमास्थाय भगवांस्तदा भरतसत्तम // 20 अच्युतः पुण्डरीकाक्षः सर्वभूतसमुद्भवः // 33 विननाद महानादं क्षोभयन्दैत्यदानवान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि संनादिता येन लोकाः सर्वाश्चैव दिशो दश // 21 / / -द्वयधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२०२॥ तेन संनादशब्देन लोकाः संक्षोभमागमन् / 203 संभ्रान्ताश्च दिशः सर्वा देवाः शक्रपुरोगमाः // 22 युधिष्ठिर उवाच / निर्विचेष्टं जगच्चापि बभूवातिभृशं तदा।। योगं मे परमं तात मोक्षस्य वद भारत / स्थावरं जङ्गमं चैव तेन नादेन मोहितम् // 23 तमहं तत्त्वतो ज्ञातुमिच्छामि वदतां वर // 1 ततस्ते दानवाः सर्वे तेन शब्देन भीषिताः / भीष्म उवाच / पेतुर्गतासवश्चैव विष्णुतेजोविमोहिताः // 24 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / रसातलगतांश्चैव वराहनिदशद्विषः / संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह // 2 खुरैः संदारयामास मांसमेदोस्थिसंचयम् // 25 / कश्चिद्ब्राह्मणमासीनमाचार्यमृषिसत्तमम् / नादेन तेन महता सनातन इति स्मृतः / शिष्यः परममेधावी श्रेयोर्थी सुसमाहितः / पद्मनाभो महायोगी भूताचार्यः स भूतराट् // 26 चरणावुपसंगृह्य स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत् // 3 ततो देवगणाः सर्वे पितामहमुपाब्रुवन् / उपासनात्प्रसन्नोऽसि यदि वै भगवन्मम / नादोऽयं कीदृशो देव नैनं विद्म वयं विभो। / संशयो मे महान्कश्चित्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 4 कोऽसौ हि कस्य वा नादो येन विह्वलितं जगत् // | कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत्सम्यग्ब्रूहि यत्परम् / म.भा. 284 -2265 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 203. 5] महाभारते [12. 203. 32 कथं च सर्वभूतेषु समेषु द्विजसत्तम / भार्गवो नीतिशास्त्रं च जगाद जगतो हितम् // 18 सम्यग्वृत्ता निवर्तन्ते विपरीताः क्षयोदयाः // 5 गान्धर्व नारदो वेदं भरद्वाजो धनुग्रहम् / वेदेषु चापि यद्वाक्यं लौकिकं व्यापकं च यत् / देवर्षिचरितं गार्यः कृष्णात्रेयश्चिकित्सितम् // 19 एतद्विद्वन्यथातत्त्वं सर्वं व्याख्यातुमर्हसि // 6 न्यायतत्राण्यनेकानि तैस्सैरुक्तानि वादिभिः / गुरुरुवाच / हेत्वागमसदाचारैर्यदुक्तं तदुपास्यते // 20 शृणु शिष्य महाप्राज्ञ ब्रह्मगुह्यमिदं परम् / अनाद्यं यत्परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः। अध्यात्म सर्वभूतानामागमानां च यद्वसु // 7 एकस्तद्वेद भगवान्धाता नारायणः प्रभुः / / 21 . वासुदेवः सर्वमिदं विश्वस्य ब्रह्मणो मुखम् / नारायणादृषिगणास्तथा मुख्याः सुरासुराः / सत्यं ज्ञानमथो यज्ञस्तितिक्षा दम आर्जवम् // 8 राजर्षयः पुराणाश्च परमं दुःखभेषजम् / / 22 पुरुषं सनातनं विष्णुं यत्तद्वेदविदो विदुः / पुरुषाधिष्ठितं भावं प्रकृतिः सूयते तदा / .. सर्गप्रलयकर्तारमव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् / हेतुयुक्तमतः सर्वं जगत्संपरिवर्तते // 23 तदिदं ब्रह्म वार्ष्णेयमितिहासं शृणुष्व मे // 9 दीपादन्ये यथा दीपाः प्रवर्तन्ते सहस्रशः / ब्राह्मणो ब्राह्मणैः श्राव्यो राजन्यः क्षत्रियैस्तथा। प्रकृतिः सुजते तद्वदानन्त्यान्नापचीयते // 24 माहात्म्यं देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः / अव्यक्तकर्मजा बुद्धिरहंकारं प्रसूयते / अर्हस्त्वमसि कल्याण वार्ष्णेयं शृणु यत्परम् // 10 आकाशं चाप्यहंकाराद्वायुराकाशसंभवः // 25 कालचक्रमनाद्यन्तं भावाभावस्वलक्षणम् / वायोस्तेजस्ततश्चापस्त्वद्भयो हि वसुधोद्गता / त्रैलोक्यं सर्वभूतेषु चक्रवत्परिवर्तते // 11 मूलप्रकृतयोऽष्टौ ता जगदेतास्ववस्थितम् // 26 यत्तदक्षरमव्यक्तममृतं ब्रह्म शाश्वतम् / ज्ञानेन्द्रियाण्यतः पञ्च पश्च कर्मेन्द्रियाण्यपि / वदन्ति पुरुषव्याघ्र केशवं पुरुषर्षभम् // 12 विषयाः पञ्च चैकं च विकारे षोडशं मनः // 27 पितॄन्देवानृषींश्चैव तथा वै यक्षदानवान् / श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणं पञ्चेन्द्रियाण्यपि / नागासुरमनुष्यांश्च सृजते परमोऽव्ययः // 13 पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाकर्मणामपि // 28 तथैव वेदशास्त्राणि लोकधर्माश्च शाश्वतान् / शब्दः स्पर्शोऽथ रूपं च रसो गन्धस्तथैव च / प्रलये प्रकृति प्राप्य युगादौ सृजते प्रभुः // 14 विज्ञेयं ब्यापकं चित्तं तेषु सर्वगतं मनः // 29 यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये / रसज्ञाने तु जिह्वयं व्याहृते वाक्तथैव च / दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्रह्माहरात्रिषु // 15 इन्द्रियैर्विविधैयुक्तं सर्वं व्यस्तं मनस्तथा // 30 अथ यद्यद्यदा भावि कालयोगाद्युगादिषु / विद्यात्तु षोडशैतानि दैवतानि विभागशः / तत्तदुत्पद्यते ज्ञानं लोकयात्राविधानजम् // 16 देहेषु ज्ञानकर्तारमुपासीनमुपासते // 31 युगान्तेऽन्तर्हितान्वेदान्सेतिहासान्महर्षयः / / तद्वत्सोमगुणा जिह्वा गन्धस्तु पृथिवीगुणः / लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा // 17 श्रोत्रं शब्दगुणं चैव चक्षुरग्नेर्गुणस्तथा। वेदविद्वेद भगवान्वेदाङ्गानि बृहस्पतिः / | स्पर्श वायुगुणं विद्यात्सर्वभूतेषु सर्वदा // 32 -2266 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 203. 33] शान्तिपर्व [12. 204. 15 मनः सत्त्वगुणं प्राहुः सत्त्वमव्यक्तजं तथा / यथाश्वत्थकणीकायामन्तर्भूतो महाद्रुमः। सर्वभूतात्मभूतस्थं तस्माद्बुध्येत बुद्धिमान् // 33 निष्पन्नो दृश्यते व्यक्तमव्यक्तात्संभवस्तथा // 2 एते भावा जगत्सर्वं वहन्ति सचराचरम् / अभिद्रवत्ययस्कान्तमयो निश्चेतनावुभौ / श्रिता विरजसं देवं यमाहुः परमं पदम् // 34 / स्वभावहेतुजा भावा यद्वदन्यदपीदृशम् // 3 नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैर्भावैः समन्वितम् / तद्वदव्यक्तजा भावाः कर्तुः कारणलक्षणाः / व्याप्य शेते महानात्मा तस्मात्पुरुष उच्यते॥३५ | अचेतनाश्वेतयितुः कारणादभिसंहिताः // 4 अजरः सोऽमरश्चैव व्यक्ताव्यक्तोपदेशवान् / / न भूः खं द्यौर्न भूतानि नर्षयो न सुरासुराः / व्यापकः सगुणः सूक्ष्मः सर्वभूतगुणाश्रयः // 36 नान्यदासीहते जीवमासेदुन तु संहितम् // 5 यथा दीपः प्रकाशात्मा ह्रस्वो वा यदि वा महान् / सर्वनीत्या सर्वगतं मनोहेतु सलक्षणम् / ज्ञानात्मानं तथा विद्यात्पुरुषं सर्वजन्तुषु // 37 अज्ञानकर्म निर्दिष्टमेतत्कारणलक्षणम् // 6 सोऽत्र वेदयते वेद्यं स शृणोति स पश्यति / तत्कारणैर्हि संयुक्त कार्यसंग्रहकारकम् / कारणं तस्य देहोऽयं स कर्ता सर्वकर्मणाम // 38 / येनैतद्वर्तते चक्रमनादिनिधनं महत् // 7 अग्निर्दारुगतो यद्वद्भिन्ने दारौ न दृश्यते / अव्यक्तनाभं व्यक्तारं विकारपरिमण्डलम् / तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवात्र दृश्यते // 39 क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं चक्रं स्निग्धाक्षं वर्तते ध्रुवम् // 8 नदीष्वापो यथा युक्ता यथा सूर्ये मरीचयः। . स्निग्धत्वात्तिलवत्सर्वं चक्रेऽस्मिन्पीड्यते जगत् / संतन्वाना यथा यान्ति तथा देहाः शरीरिणाम् / / तिलपीडैरिवाक्रम्य भोगैरज्ञानसंभवैः // 9 स्वप्नयोगे यथैवात्मा पश्चेन्द्रियसमागतः / कर्म तत्कुरुते तर्षादहंकारपरिग्रहम् / देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्रोपलभ्यते // 41 कार्यकारणसंयोगे स हेतुरुपपादितः // 10 कर्मणा व्याप्यते पूर्व कर्मणा चोपपद्यते / नात्येति कारणं कार्यं न कार्य कारणं तथा / कर्मणा नीयतेऽन्यत्र स्वकृतेन बलीयसा // 42 कार्याणां तूपकरणे कालो भवति हेतुमान् // 11 स तु देहाद्यथा देहं त्यक्त्वान्यं प्रतिपद्यते। हेतुयुक्ताः प्रकृतयो विकाराश्च परस्परम् / तथा तं संप्रवक्ष्यामि भूतग्राम स्वकर्मजम् // 43 अन्योन्यमभिवर्तन्ते पुरुषाधिष्ठिताः सदा // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सरजस्तामसैर्भावैच्युतो हेतुबलान्वितः / . व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 203 // क्षेत्रज्ञमेवानुयाति पांसुर्वातेरितो यथा। न च तैः स्पृश्यते भावो न ते तेन महात्मना // 13 204 सरजस्कोऽरजस्कश्च स वै वायुर्यथा भवेत् / गुरुरुवाच / तथैतदन्तरं विद्यात्क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्बुधः / चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च / / अभ्यासात्स तथा युक्तो न गच्छेत्प्रकृतिं पुनः॥१४ अव्यक्तप्रभवान्याहुरव्यक्तनिधनानि च / संदेहमेतमुत्पन्नमच्छिनद्भगवानृषिः / अव्यक्तनिधनं विद्यादव्यक्तात्मात्मकं मनः // 1 / तथा वार्ता समीक्षेत कृतलक्षणसंमिताम् // 15 - 2267 - Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 204. 16 ] महाभारते [ 12. 205. 26 बीजान्यम्युपदग्धानि न रोहन्ति यथा पुनः।। यद्वत्कान्तारमातिष्ठन्नौत्सुक्यं समनुव्रजेत् / ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशै त्मा संबध्यते पुनः // 16 श्रमादाहारमादद्यादस्वाद्वपि हि यापनम् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तद्वत्संसारकान्तारमातिष्ठश्रमतत्परः / चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः // 204 // यात्रार्थमद्यादाहारं व्याधितो भेषजं यथा // 14 205 सत्यशौचार्जवत्यागैर्यशसा विक्रमेण च / गुरुरुवाच / क्षान्त्या धृत्या च बुद्ध्या च मनसा तपसैव च // 15 प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो यथायमुपपद्यते / भावान्सर्वान्यथावृत्तान्संवसेत यथाक्रमम् / तेषां विज्ञाननिष्ठानामन्यत्तत्त्वं न रोचते // 1 शान्तिमिच्छन्नदीनात्मा संयच्छेदिन्द्रियाणि च // दुर्लभा वेदविद्वांसो वेदोक्तेषु व्यवस्थिताः। सत्त्वेन रजसा चैव तमसा चैव मोहिताः / प्रयोजनमतस्त्वत्र मार्गमिच्छन्ति संस्तुतम् // 2 चक्रवत्परिवर्तन्ते ह्यज्ञानाजन्तवो भृशम् // 17 सद्भिराचरितत्वात्तु वृत्तमेतदगर्हितम् / तस्मात्सम्यक्परीक्षेत दोषानज्ञानसंभवान् / इयं सा बुद्धिरन्येयं यया याति परां गतिम् // 3 अज्ञानप्रभवं नित्यमहंकारं परित्यजेत् // 18 शरीरवानुपादत्ते मोहात्सर्वपरिग्रहान् / महाभूतानीन्द्रियाणि गुणाः सत्त्वं रजस्तमः / कामक्रोधादिभिर्भावैर्युक्तो राजसतामसैः // 4 त्रैलोक्यं सेश्वरं सर्वमहंकारे प्रतिष्ठितम् // 19 नाशुद्धमाचरेत्तस्मादभीप्सन्देहयापनम् / यथेह नियतं कालो दर्शयत्यार्तवान्गुणान् / कर्मणो विवरं कुर्वन्न लोकानाप्नुयाच्छुभान् // 5 / तद्वद्भूतेष्वहंकारं विद्याद्भूतप्रवर्तकम् // 20 लोहयुक्तं यथा हेम विपक्कं न विराजते / संमोहकं तमो विद्याकृष्णमज्ञानसंभवम् / / तथापककषायाख्यं विज्ञानं न प्रकाशते // 6 प्रीतिदुःखनिबद्धांश्च समस्तांस्त्रीनथो गुणान् / यश्चाधर्म चरेन्मोहात्कामलोभावनु प्लवन् / सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च निबोध तान् // 21 धयं पन्थानमाक्रम्य सानुबन्धो विनश्यति // 7 प्रमोहो हर्षजः प्रीतिरसंदेहो धृतिः स्मृतिः / शब्दादीन्विषयांस्तस्मादसंरागादनुप्लवेत् / एतान्सत्त्वगुणान्विद्यादिमान्राजसतामसान् / / 22 क्रोधहर्षों विषादश्च जायन्ते हि परस्परम् // 8 कामक्रोधौ प्रमादश्च लोभमोहौ भयं क्लमः / पञ्चभूतात्मके देहे सत्त्वराजसतामसे / विषादशोकावरतिर्मानदर्पावनार्यता // 23 कमभिष्टुवते चायं कं वा क्रोशति किं वदेत् // 9 दोषाणामेवमादीनां परीक्ष्य गुरुलाघवम् / स्पर्शरूपरसायेषु सङ्गं गच्छन्ति बालिशाः / विमृशेदात्मसंस्थानामेकैकमनुसंततम् // 24 नावगच्छन्त्यविज्ञानादात्मजं पार्थिवं गुणम् // 10 शिष्य उवाच / मृन्मयं शरणं यद्वन्मृदैव परिलिप्यते / के दोषा मनसा त्यक्ताः के बुद्धया शिथिलीकृताः। पार्थिवोऽयं तथा देहो मृद्विकारैर्विलिप्यते // 11 | के पुनः पुनरायान्ति के मोहादफला इव // 25 मधु तैलं पयः सर्पिर्मासानि लवणं गुडः। केषां बलाबलं बुद्धया हेतुभिर्विमृशेद्बुधः।। धान्यानि फलमूलानि मृद्विकाराः सहाम्भसा // 12 / एतत्सर्व समाचक्ष्व यथा विद्यामहं प्रभो // 26 - 2268 - Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 205. 27 ] शान्तिपर्व [ 12. 206. 20 गुरुरुवाच / जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसंभवम् / दोषैर्मूलादवच्छिन्नविशुद्धात्मा विमुच्यते / पुरीषमूत्रविक्लेदशोणितप्रभवाविलम् // 6 बिनाशयति संभूतमयस्मयमयो यथा / तृष्णामिभूतस्तैर्बद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन् / तथाकृतात्मा सहजैर्दोषैर्नश्यति राजसैः // 27 संसारतत्रवाहिन्यस्तत्र बुध्येत योषितः // 7 राजसं तामसं चैव शुद्धात्माकर्मसंभवम् / प्रकृत्या क्षेत्रभूतास्ता नराः क्षेत्रज्ञलक्षणाः / तत्सर्व देहिनां बीजं सर्वमात्मवतः समम् / / 28 तस्मादेता विशेषेण नरोऽतीयुर्विपश्चितः // 8 तस्मादात्मवता वयं रजश्च तम एव च / कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान् / रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं सत्त्वं निर्मलतामियात् // 29 / रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातनी // 9 अथ वा मत्रवद्र्युमासादानां यजुष्कृतम् / तस्मात्तर्षात्मकाद्रागाद्वीजाज्जायन्ति जन्तवः / हेतुः स एवानादाने शुद्धधर्मानुपालने // 30 स्वदेहजानस्वसंज्ञान्यद्वदङ्गात्कृमींस्यजेत् / रजसा धर्मयुक्तानि कार्याण्यपि समाप्नुयात् / स्वसंज्ञानस्वजास्तद्वत्सुतसंज्ञान्कृमींस्त्यजेत् // 10 अर्थयुक्तानि चात्यर्थं कामान्सर्वांश्च सेवते // 31 शुक्रतो रसतश्चैव स्नेहाज्जायन्ति जन्तवः / तमसा लोभयुक्तानि क्रोधजानि च सेवते / स्वभावात्कर्मयोगाद्वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान् // 11 हिंसाविहाराभिरतस्तन्द्रीनिद्रासमन्वितः // 32 रजस्तमसि पर्यस्तं सत्त्वं तमसि संस्थितम् / सत्त्वस्थः सात्त्विकान्भावाशुद्धान्पश्यति संश्रितः / ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं बुद्धयहंकारलक्षणम् // 12 स देही विमलः श्रीमाञ्शुद्धो विद्यासमन्वितः॥३३ तद्बीजं देहिनामाहुस्तद्बीजं जीवसंज्ञितम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तकम् // 13 पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२०५॥ रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव / 206 कर्मगभैंर्गुणैर्देही गर्भे तदुपपद्यते // 14 गुरुरुवाच / कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद्यदिन्द्रियम् / रजसा साध्यते मोहस्तमसा च नरर्षभ / जायते तदहंकाराद्रागयुक्तेन चेतसा // 15 क्रोधलोभी भयं दर्प एतेषां साधनाच्छुचिः // 1 शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः / परमं परमात्मानं देवमक्षयमव्ययम् / रूपरागात्तथा चक्षुर्घाणं गन्धचिकीर्षया // 16 विष्णुमव्यक्तसंस्थानं विशन्ते देवसत्तमम् // 2 स्पर्शनेभ्यस्तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः / तस्य मायाविदग्धाङ्गा ज्ञानभ्रष्टा निराशिषः / व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापना // 17 मानवा ज्ञानसंमोहात्ततः कामं प्रयान्ति वै // 3 संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैब्रह्मणा वृतः / कामात्क्रोधमवाप्याथ लोभमोहौ च मानवाः।। दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः // 18 मानदादहकारमहंकारात्ततः क्रियाः // 4 दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते / क्रियाभिः स्नेहसंबम्धः स्नेहाच्छोकमनन्तरम् / त्यागात्तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते॥१९ सुखदुःखसमारम्भाजन्माजन्मकृतक्षणाः // 5 / इन्द्रियाणां रजस्येव प्रभवप्रलयावुभौ / -2269 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 206. 20] महाभारते [12. 207.27 परीक्ष्य संचरेद्विद्वान्यथावच्छात्रचक्षुषा // 20 / | कदाचिद्दर्शनादासां दुर्बलानाविशेद्रजः // 12 ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्युलम् / रागोत्पत्तौ चरेत्कृच्छ्रमह्ननिः प्रविशेदपः। ज्ञातैश्च कारणैर्देही न देहं पुनरर्हति // 21 मग्नः स्वप्ने च मनसा त्रिर्जपेदघमर्षणम् // 15 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पाप्मानं निर्दहेदेवमन्तर्भूतं रजोमयम् / षडधिकद्विशततमोऽध्यायः // 206 // ज्ञानयुक्तेन मनसा संततेन विचक्षणः // 14 207 कुणपामेध्यसंयुक्तं यद्वदच्छिद्रबन्धनम् / गुरुरुवाच / तद्वदेहगतं विद्यादात्मानं देहबन्धनम् // 15 अत्रोपायं प्रवक्ष्यामि यथावच्छास्त्रचक्षुषा / वातपित्तकफारक्तं त्वङ्मांसं स्नायुमस्थि च। : तद्विज्ञानाच्चरन्प्राज्ञः प्राप्नुयात्परमां गतिम् // 1 मज्जा चैव सिराजालैस्तर्पयन्ति रसा नृणाम् // 1 // सर्वेषामेव भूतानां पुरुषः श्रेष्ठ उच्यते / दश विद्याद्धमन्योऽत्र पश्चेन्द्रियगुणावहाः / पुरुषेभ्यो द्विजानाहुर्द्विजेभ्यो मन्त्रवादिनः // 2 याभिः सूक्ष्माः प्रतायन्ते धमन्योऽन्याः सहस्रशः। सर्वभूतविशिष्टास्ते सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः / एवमेताः सिरानद्यो रसोदा देहसागरम् / ब्राह्मणा वेदतत्त्वज्ञास्तत्त्वार्थगतिनिश्चयाः // 3 / / तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम // 18 नेत्रहीनो यथा ह्येकः कृच्छ्राणि लभतेऽध्वनि / मध्ये च हृदयस्यैका सिरा त्वत्र मनोवहा। ज्ञानहीनस्तथा लोके तस्माज्ज्ञानविदोऽधिकाः // 4 शुक्रं संकल्पजं नृणां सर्वगात्रैर्विमुञ्चति // 19 तांस्तानुपासते धर्मान्धर्मकामा यथागमम्।। सर्वगात्रप्रतायिन्यस्तस्या ह्यनुगताः सिराः / न त्वेषामर्थसामान्यमन्तरेण गुणानिमान् // 5 / नेत्रयोः प्रतिपद्यन्ते वहन्त्यस्तैजसं गुणम् // 20 वाग्देहमनसां शौचं क्षमा सत्यं धृतिः स्मृतिः / पयस्यन्तर्हितं सर्पिर्यद्वन्निर्मथ्यते खजैः / सर्वधर्मेषु धर्मज्ञा ज्ञापयन्ति गुणानिमान् // 6 शुक्र निर्मथ्यते तद्वदेहसंकल्पजैः खजैः // 21 यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम् / स्वप्नेऽप्येवं यथाभ्येति मनःसंकल्पजं रजः / परं तत्सर्वभूतेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम् // 7 शुक्रमस्पर्शजं देहात्सृजन्त्यस्य मनोवहा // 22 लिङ्गसंयोगहीनं यच्छरीरस्पर्शवर्जितम् / महर्षिभगवानत्रिर्वेद तच्छुक्रसंभवम् / श्रोत्रेण श्रवणं चैव चक्षुषा चैव दर्शनम् // 88 त्रिंबीजमिन्द्रदेवत्यं तस्मादिन्द्रियमुच्यते // 23 जिह्वया रसनं यच्च तदेव परिवर्जितम् / ये वै शुक्रगति विद्युभूतसंकरकारिकाम् / बुद्ध्या च व्यवसायेन ब्रह्मचर्यमकल्मषम् // 9 विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसंभवम् // 24 सम्यग्वृत्तिर्ब्रह्मलोकं प्राप्नुयान्मध्यमः सुरान् / / गुणानां साम्यमागम्य मनसैव मनोवहम् / : द्विजाग्र्यो जायते विद्वान्कन्यसी वृत्तिमास्थितः // 10 देहकर्म नुदन्प्राणानन्तकाले विमुच्यते // 25 / सुदुष्करं ब्रह्मचर्यमुपायं तत्र मे शृणु। भविता मनसो ज्ञानं मन एव प्रतायते। : संप्रवृत्तमुदीर्णं च निगृह्णीयाहिजो मनः // 11 ज्योतिष्मद्विरजो दिव्यमत्र सिद्धं महात्मनाम् // 26 योषितां न कथाः श्राव्या न निरीक्ष्या निरम्बराः। तस्मात्तदविघाताय कर्म कुर्यादकल्मषम् / / - 2270 - Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 207. 27] शान्तिपर्व [12. 208. 25 रजस्तमश्च हित्वेह न तिर्यग्गतिमाप्नुयात् // 27 वाक्प्रबुद्धो हि संरागाद्विरागाद्याहरेद्यदि / तरुणाधिगतं ज्ञानं जरादुर्बलतां गतम् / बुद्ध्या ह्यनिगृहीतेन मनसा कर्म तामसम् / परिपकबुद्धिः कालेन आदत्ते मानसं बलम् // 28 रजोभूतैर्हि करणैः कर्मणा प्रतिपद्यते // 11 मुदुर्गमिव पन्थानमतीत्य गुणबन्धनम् / स दुःखं प्राप्य लोकेऽस्मिन्नरकायोपपद्यते / पदा पश्येत्तदा दोषानतीत्यामृतमश्नुते // 29 तस्मान्मनोवाक्शरीरैराचरेद्वैयमात्मनः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रकीर्णमेषभारो हि यद्वद्धार्येत दस्युभिः / सप्ताधिकद्विशततमोऽध्यायः // 207 // प्रतिलोमां दिशं बुद्धा संसारमबुधास्तथा // 13 208 तानेव च यथा दस्यून्क्षिप्त्वा गच्छेच्छिवां दिशम् / गुरुवाच / तथा रजस्तमःकर्माण्युत्सृज्य प्राप्नुयात्सुखम् // 14 दुरन्तेष्विन्द्रियार्थेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः / निःसंदिग्धमनीहो वै मुक्तः सर्वपरिग्रहैः / ये त्वसक्ता महात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् // 1 विविक्तचारी लध्वाशी तपस्वी नियतेन्द्रियः // 15 जन्ममृत्युजरादुःखैयाधिभिर्मनसः क्लमैः / / ज्ञानदग्धपरिश्लेशः प्रयोगरतिरात्मवान् / रष्टेमं संततं लोकं घटेन्मोक्षाय बुद्धिमान् // 2 निष्प्रचारेण मनसा परं तदधिगच्छति // 16 . पाङ्मनोभ्यां शरीरेण शुचिः स्यादनहंकृतः / धृतिमानात्मवान्बुद्धिं निगृह्णीयादसंशयम् / प्रशान्तो ज्ञानवान्भिक्षुर्निरपेक्षश्चरेत्सुखम् // 3 मनो बुद्धया निगृह्णीयाद्विषयान्मनसात्मनः // 17 भथ वा मनसः सङ्गं पश्येद्भूतानुकम्पया। निगृहीतेन्द्रियस्यास्य कुर्वाणस्य मनो वशे। पत्राप्युपेक्षां कुर्वीत ज्ञात्वा कर्मफलं जगत् // 4 देवतास्ताः प्रकाशन्ते हृष्टा यान्ति तमीश्वरम् // 18 यत्कृतं प्राक्शुभं कर्म पापं वा तदुपाभुते / ताभिः संसक्तमनसो ब्रह्मवत्संप्रकाशते / तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद्वाग्बुद्धिकर्मभिः // 5 एतैश्चापगतैः सर्वैर्ब्रह्मभूयाय कल्पते // 19 अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम् / अथ वा न प्रवर्तेत योगतत्रैरुपक्रमेत् / क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् // 6 येन तन्त्रमयं तत्रं वृत्तिः स्यात्तत्तदाचरेत् // 20 यश्चैनं परमं धर्म सर्वभूतसुखावहम् / कणपिण्याककुल्माषशाकयावकसक्तवः / दुःखान्निःसरणं वेद स तत्त्वज्ञः सुखी भवेत् // 7 तथा मूलफलं भैक्षं पर्यायेणोपयोजयेत् // 21 तस्मात्समाहितं बुद्ध्या मनो भूतेषु धारयेत् / आहारं नियतं चैव देशे काले च सात्त्विकम् / नापध्यायेन स्पृहयेन्नाबद्धं चिन्तयेदसत् // 8 तत्परीक्ष्यानुवर्तेत यत्प्रवृत्त्यनुवर्तकम् // 22 अवाग्योगप्रयोगेण मनोझं संप्रवर्तते / प्रवृत्तं नोपरुन्धेत शनैरग्निमिवेन्धयेत् / विवक्षता वा सद्वाक्यं धर्म सूक्ष्ममवेक्षता। ज्ञानेन्धितं ततो ज्ञानमर्कवत्संप्रकाशते // 23 सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम् // 9 ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं त्रीलोकानधितिष्ठति / कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनाम् / विज्ञानानुगतं ज्ञानमज्ञानादपकृष्यते / / 24 ईगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा // 10 पृथक्त्वात्संप्रयोगाच्च नासयुर्वेद शाश्वतम् / .. -2271 - Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 208. 25] महाभारते [ 12.210. स तयोरपवर्गज्ञो वीतरागो विमुच्यते // 25 तत्तत्स्वप्नेऽप्युपरते मनोदृष्टिनिरीक्षते / / 12 वयोतीतो जरामृत्यू जित्वा ब्रह्म सनातनम् / व्यापकं सर्वभूतेषु वर्ततेऽप्रतिघं मनः / अमृतं तदवाप्नोति यत्तदक्षरमव्ययम् // 26 मनस्यन्तर्हितं द्वारं देहमास्थाय मानसम् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यत्तत्सदसव्यक्तं स्वपित्यस्मिन्निदर्शनम् / अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 208 // सर्वभूतात्मभूतस्थं तदध्यात्मगुणं विदुः॥ 14 209 लिप्सेत मनसा यश्च संकल्पादैश्वरं गुणम् / गुरुरुवाच / आत्मप्रभावात्तं विद्यात्सर्वा ह्मात्मनि देवताः // 15 निष्कल्मषं ब्रह्मचर्यमिच्छता चरितुं सदा / एवं हि तपसा युक्तमर्कवत्तमसः परम् / निद्रा सर्वात्मना त्याज्या खप्नदोषानवेक्षता // 1 त्रैलोक्यप्रकृतिर्देही तपसा तं महेश्वरम् // 16 खप्ने हि रजसा देही तमसा चाभिभूयते / तपो ह्यधिष्ठितं देवैस्तपोनमसुरैस्तमः / . देहान्तरमिवापन्नश्चरत्यपगतस्मृतिः // 2 एतद्देवासुरैर्गुप्तं तदाहुनिलक्षणम् // 17 . ज्ञानाभ्यासाजागरतो जिज्ञासार्थमनन्तरम् / सत्त्वं रजस्तमश्चेति देवासुरगुणान्विदुः। विज्ञानाभिनिवेशात्तु जागरत्यनिशं सदा // 3 सत्त्वं देवगुणं विद्यादितरावासुरौ गुणौ // 18 अत्राह को न्वयं भावः स्वप्ने विषयवानिव / ब्रह्म तत्परमं वेद्यममृतं ज्योतिरक्षरम् / प्रलीनैरिन्द्रियैदेही वर्तते देहवानिव / / 4 ये विदुर्भावितात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम् // 11 अत्रोच्यते यथा ह्येतद्वेद योगेश्वरो हरिः / हेतुमच्छक्यमाख्यातुमेतावज्ञानचक्षुषा / तथैतदुपपन्नाथ वर्णयन्ति महर्षयः / / 5 / / प्रत्याहारेण वा शक्यमव्यक्तं ब्रह्म वेदितुम् // 20 इन्द्रियाणां श्रमात्स्वप्नमाहुः सर्वगतं बुधाः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मनसस्तु प्रलीनत्वात्तत्तदाहुर्निदर्शनम् // 6 नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२०९॥ कार्यव्यासक्तमनसः संकल्पो जाग्रतो ह्यपि / यद्वन्मनोरथैश्वर्यं स्वप्ने तद्वन्मनोगतम् // 7 गुरुरुवाच। संसाराणामसंख्यानां कामात्मा तदवाप्नुयात् / न स वेद परं धर्म यो न वेद चतुष्टयम् / मनस्यन्तर्हितं सर्वं वेद सोत्तमपूरुषः // 8 व्यक्ताव्यक्ते च यत्तत्त्वं संप्राप्तं परमर्षिणा // 1 गुणानामपि यद्यत्तत्कर्म जानात्युपस्थितम् / व्यक्तं मृत्युमुखं विद्यादव्यक्तममृतं पदम् / तत्तच्छंसन्ति भूतानि मनो यद्भावितं यथा // 9 प्रवृत्तिलक्षणं धर्ममृषिर्नारायणोऽब्रवीत् // 2 ततस्तमुपवर्तन्ते गुणा राजसतामसाः। अत्रैवावस्थितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् / सात्त्विको वा यथायोगमानन्तर्यफलोदयः // 10 निवृत्तिलक्षणं धर्ममव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम् // 3 ततः पश्यत्यसंबद्धान्यातपित्तकफोत्तरान् / प्रवृत्तिलक्षणं धर्म प्रजापतिरथाब्रवीत् / रजस्तमोभवैर्भावैस्तदप्याहुर्दुरन्वयम् // 11 प्रवृत्तिः पुनरावृत्तिनिवृत्तिः परमा गतिः // 4 प्रसन्नैरिन्द्रियैर्यद्यत्संकल्पयति मानसम् / तां गतिं परमामेति निवृत्तिपरमो मुनिः। -2272 - 210 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 210. 5 ] शान्तिपर्व [12. 210. 33 ज्ञानतत्त्वपरो नित्यं शुभाशुभनिदर्शकः // 5 अन्तकाले वयोत्कर्षाच्छनैः कुर्यादनातुरः / तदेवमेतौ विज्ञेयावव्यक्तपुरुषावुभौ / एवं युक्तेन मनसा ज्ञानं तदुपपद्यते // 20 अव्यक्तपुरुषाभ्यां तु यत्स्यादन्यन्महत्तरम् // 6 रजसा चाप्ययं देही देहवाशब्दवच्चरेत् / तं विशेषमवेक्षेत विशेषेण विचक्षणः / कार्यैरव्याहतमतिर्वैराग्यात्प्रकृतौ स्थितः / अनाद्यन्तावुभावेतावलिङ्गौ चाप्युभावपि / / 7 आ देहादप्रमादाच्च देहान्ताद्विप्रमुच्यते // 21 उभौ नित्यौ सूक्ष्मतरौ महद्भयश्च महत्तरौ। हेतुयुक्तः सदोत्सर्गो भूतानां प्रलयस्तथा / सामान्यमेतदुभयोरेवं ह्यन्यद्विशेषणम् // 8 परप्रत्ययस तु नियतं नातिवर्तते // 22 प्रकृत्या सर्गधर्मिण्या तथा त्रिविधसत्त्वया। भवान्तप्रभवप्रज्ञा आसते ये विपर्ययम् / विपरीतमतो विद्यारक्षेत्रज्ञस्य च लक्षणम् // 9. धृत्या देहान्धारयन्तो बुद्धिसंक्षिप्तमानसाः / प्रकृतेश्च विकाराणां द्रष्टारमगुणान्वितम् / स्थानेभ्यो ध्वंसमानाश्च सूक्ष्मत्वात्तानुपासते॥२३ अग्राह्यौ पुरुषावेतावलिङ्गत्वादसंहितौ // 10 यथागमं च तत्सर्वं बुद्धथा तन्नैव बुध्यते / संयोगलक्षणोत्पत्तिः कर्मजा गृह्यते यया / देहान्तं कश्चिदन्वास्ते भावितात्मा निराश्रयः / करणैः कर्मनिवृत्तैः कर्ता यद्यद्विचेष्टते / युक्तो धारणया कश्चित्सत्ता केचिदुपासते // 24 कीयते शब्दसंज्ञाभिः कोऽहमेषोऽप्यसाविति॥११ अभ्यस्यन्ति परं देवं विद्युत्संशब्दिताक्षरम् / उष्णीषवान्यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः।। अन्तकाले ह्युपासन्नास्तपसा दग्धकिल्बिषाः // 25 संवृतोऽयं तथा देही सत्त्वराजसतामसैः / / 12 / सर्व एते महात्मानो गच्छन्ति परमां गतिम् / तस्माच्चतुष्टयं वेद्यमतैर्हेतुभिराचितम् / सूक्ष्मं विशेषणं तेषामवेक्षेच्छास्त्रचक्षुषा // 26 यथासंज्ञो ह्ययं सम्यगन्तकाले न मुह्यति // 13 देहं तु परमं विद्याद्विमुक्तमपरिग्रहम् / श्रियं दिव्यामभिप्रेप्सुब्रह्म वाङ्मनसा शुचिः / अन्तरिक्षादन्यतरं धारणासक्तमानसम् // 27 शारीरैर्नियमैरुप्रैश्चरेन्निष्कल्मषं तपः // 14 मर्त्यलोकाद्विमुच्यन्ते विद्यासंयुक्तमानसाः / त्रैलोक्यं तपसा व्याप्तमन्तभूतेन भास्वता। ब्रह्मभूता विरजसस्ततो यान्ति परां गतिम् // 28 सूर्यश्च चन्द्रमाश्चैव भासतस्तपसा दिवि // 15 कषायवर्जितं ज्ञानं येषामुत्पद्यतेऽचलम् / प्रतापस्तपसो ज्ञानं लोके संशब्दितं तपः / ते यान्ति परमाल्लोकान्विशुध्यन्तो यथाबलम् // 29 रजस्तमोघ्नं यत्कर्म तपसस्तत्स्वलक्षणम् // 16 भगवन्तमजं दिव्यं विष्णुमव्यक्तसंज्ञितम् / ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते। भावेन यान्ति शुद्धा ये ज्ञानतृप्ता निराशिषः // 30 वाङ्मनोनियमः साम्यं मानसं तप उच्यते // 17 ज्ञात्वात्मस्थं हरिं चैव निवर्तन्ते न तेऽव्ययाः / विधिज्ञेभ्यो द्विजातिभ्यो ग्राह्यमन्नं विशिष्यते। प्राप्य तत्परमं स्थानं मोदन्तेऽक्षरमव्ययम् // 31 आहारनियमेनास्य पाप्मा नश्यति राजसः // 18 / एतावदेतद्विज्ञानमेतदस्ति च नास्ति च / वैमनस्यं च विषये यान्त्यस्य करणानि च। तृष्णाबद्धं जगत्सर्वं चक्रवत्परिवर्तते // 32 तस्मात्तन्मात्रमादद्याद्यावदत्र प्रयोजनम् / / 19 / बिसतन्तुर्यथैवायमन्तस्थः सर्वतो बिसे। - 2273 - म.भा.२८५ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 210. 33] महाभारते [12. 211. 24 तृष्णातन्तुरनाद्यन्तस्तथा देहगतः सदा // 33 / आसुरेः प्रथमं शिष्यं यमाहुश्चिरजीविनम् / सूच्या सूत्रं यथा वस्त्रे संसारयति वायकः / पश्चस्रोतसि यः सत्रमास्ते वर्षसहस्रिकम् // 10 तद्वत्संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या निबध्यते // 34 तं समासीनमागम्य मण्डलं कापिलं महत् / विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम् / पुरुषावस्थमव्यक्तं परमार्थ निबोधयत् // 11 यो यथावद्विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते // 35 इष्टिसत्रेण संसिद्धो भूयश्च तपसा मुनिः / प्रकाशं भगवानेतदृषिर्नारायणोऽमृतम् / क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्व्यक्ति बुबुधे देवदर्शनः // 12 भूतानामनुकम्पार्थ जगाद जगतो हितम् // 36 यत्तदेकाक्षरं ब्रह्म नानारूपं प्रदृश्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आसुरिर्मण्डले तस्मिन्प्रतिपेदे तदव्ययम् / / 13. दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 210 // तस्य पश्चशिखः शिष्यो मानुष्या पयसा भृतः / __211 ब्राह्मणी कपिला नाम काचिदासीत्कुटुम्बिनी // 11 युधिष्ठिर उवाच / तस्याः पुत्रत्वमागम्य स्त्रियाः स पिबति स्तनौ। केन वृत्तेन वृत्तज्ञो जनको मिथिलाधिपः / ततः स कापिलेयत्वं लेभे बुद्धिं च नैष्ठिकीम् // 15 जगाम मोक्षं धर्मज्ञो भोगानुत्सृज्य मानुषान् // 1 एतन्मे भगवानाह कापिलेयाय संभवम् / भीष्म उवाच / तस्य तत्कापिलेयत्वं सर्ववित्त्वमनुत्तमम् // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सामान्यं कपिलो ज्ञात्वा धर्मज्ञानामनुत्तमम् / येन वृत्तेन वृत्तज्ञः स जगाम महत्सुखम् // 2 उपेत्य शतमाचार्यान्मोहयामास हेतुभिः // 10 जनको जनदेवस्तु मिथिलायां जनाधिपः / / जनकरत्वभिसंरक्तः कापिलेयानुदर्शनात् / और्ध्वदेहिकधर्माणामासीद्युक्तो विचिन्तने // 3 उत्सृज्य शतमाचार्यान्पृष्ठतोऽनुजगाम तम् / / 18 तस्य स्म शतमाचार्या वसन्ति सततं गृहे / तस्मै परमकल्याय प्रणताय च धर्मतः / दर्शयन्तः पृथग्धर्मान्नानापाषण्डवादिनः // 4 अब्रवीत्परमं मोक्षं यत्तत्सांख्यं विधीयते // 19 स तेषां प्रेत्यभावे च प्रेत्यजातौ विनिश्चये / जातिनिर्वेदमुक्त्वा हि कर्मनिर्वेदमब्रवीत् / आगमस्थः स भूयिष्ठमात्मतत्त्वे न तुष्यति // 5 कर्मनिर्वेदमुक्त्वा च सर्वनिर्वेदमब्रवीत् // 20 तत्र पञ्चशिखो नाम कापिलेयो महामुनिः।। यदर्थं कर्मसंसर्गः कर्मणां च फलोदयः / परिधावन्महीं कृत्स्ना जगाम मिथिलामपि // 6 तदनाश्वासिकं मोघं विनाशि चलमध्रुवम् // 21 सर्वसंन्यासधर्माणां तत्त्वज्ञानविनिश्चये / दृश्यमाने विनाशे च प्रत्यक्षे लोकसाक्षिके। सुपर्यवसितार्थश्च निद्वंद्वो नष्टसंशयः // 7 आगमात्परमस्तीति ब्रुवन्नपि पराजितः / / 22 ऋषीणामाहुरेकं यं कामादवसितं नृषु / अनात्मा ह्यात्मनो मृत्युः क्लेशो मृत्युर्जरामयः / शाश्वतं सुखमत्यन्तमन्विच्छन्स सुदुर्लभम् // 8 आत्मानं मन्यते मोहात्तदसम्यक्परं मतम् // 23 यमाहुः कपिलं सांख्याः परमर्षि प्रजापतिम् / अथ चेदेवमप्यस्ति यल्लोके नोपपद्यते / स मन्ये तेन रूपेण विस्णपयति हि स्वयम् // 9 अजरोऽयममृत्युश्च राजासौ मन्यते तथा // 24 -2274 - Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 211. 25 ] शान्तिपर्व [12. 211. 48 अस्ति नास्तीति चाप्येतत्तस्मिन्नसति लक्षणे / इन्द्रियाणि मनो वायुः शोणितं मांसमस्थि च / किमधिष्ठाय तद्यालोकयात्राविनिश्चयम् // 25 आनुपूर्व्या विनश्यन्ति स्खं धातुमुपयान्ति च // 40 प्रत्यक्षं ह्येतयोर्मूलं कृतान्तैतिह्ययोरपि / लोकयात्राविधानं च दानधर्मफलागमः / प्रत्यक्षो ह्यागमोऽभिन्नः कृतान्तो वा न किंचन // यदर्थं वेदशब्दाश्च व्यवहाराश्च लौकिकाः // 41 यत्र तत्रानुमानेऽस्ति कृतं भावयतेऽपि वा। इति सम्यङानस्येते बहवः सन्ति हेतवः / अन्यो जीवः शरीरस्य नास्तिकानां मते स्मृतः // 27 / एतदस्तीदमस्तीति न किंचित्प्रतिपद्यते // 42 रेतो वटकणीकायां घृतपाकाधिवासनम् / तेषां विमृशतामेवं तत्तत्समभिधावताम् / जातिस्मृतिरयस्कान्तः सूर्यकान्तोऽम्बुभक्षणम् // 28 क्वचिन्निविशते बुद्धिस्तत्र जीर्यति वृक्षवत् // 43 प्रेत्य भूतात्ययश्चैव देवताभ्युपयाचनम् / एवमर्थैरनथैश्च दुःखिताः सर्वजन्तवः / मृते कर्मनिवृत्तिश्च प्रमाणमिति निश्चयः // 29 / आगमैरपकृष्यन्ते हस्तिपैर्हस्तिनो यथा // 44 न त्वेते हेतवः सन्ति ये केचिन्मूर्तिसंस्थिताः / अर्थांस्तथात्यन्तसुखावहांश्च अमर्त्यस्य हि म]न सामान्यं नोपपद्यते // 30 ___लिप्सन्त एते बहवो विशुल्काः / अविद्याकर्मचेष्टानां केचिदाहुः पुनर्भवम् / महत्तरं दुःखमभिप्रपन्ना कारणं लोभमोहौ तु दोषाणां च निषेवणम् // 31 ___ हित्वामिषं मृत्युवशं प्रयान्ति // 45 अविद्यां क्षेत्रमाहुर्हि कर्म बीजं तथा कृतम् / विनाशिनो ह्यध्रुवजीवितस्य तृष्णासंजननं स्नेह एष तेषां पुनर्भवः // 32 किं बन्धुभिर्मित्रपरिग्रहैश्च / तस्मिन्व्यूढे च दग्धे च चित्ते मरणधर्मिणि। विहाय यो गच्छति सर्वमेव अन्योऽन्याज्जायते देहस्तमाहुः सत्त्वसंक्षयम् // 33 क्षणेन गत्वा न निवर्तते च // 46 यदा स रूपतश्चान्यो जातितः श्रुतितोऽर्थतः / भूव्योमतोयानलवायवो हि कथमस्मिन्स इत्येव संबन्धः स्यादसंहितः // 34 सदा शरीरं परिपालयन्ति। एवं सति च का प्रीतिर्दानविद्यातपोबलैः / इतीदमालक्ष्य कुतो रतिर्भवेयदन्याचरितं कर्म सर्वमन्यः प्रपद्यते // 35 द्विनाशिनो ह्यस्य न शर्म विद्यते // 47 यदा ह्ययमिहैवान्यैः प्राकृतैर्दुःखितो भवेत् / इदमनुपधि वाक्यमच्छलं सुखितैर्दुःखितैर्वापि दृश्योऽप्यस्य विनिर्णयः // 36 परमनिरामयमात्मसाक्षिकम् / तथा हि मुसलैहन्युः शरीरं तत्पुनर्भवेत् / नरपतिरमिवीक्ष्य विस्मितः पृथग्ज्ञानं यदन्यच्च येनैतन्नोपलभ्यते // 37 पुनरनुयोक्तुमिदं प्रचक्रमे // 48 ऋतुः संवत्सरस्तिथ्यः शीतोष्णे च प्रियाप्रिये / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथातीतानि पश्यन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः // 38 एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय // 211 // जरया हि परीतस्य मृत्युना वा विनाशिना / दुर्बलं दुर्बलं पूर्व गृहस्येव विनश्यति // 39 -2275 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 212. 1] महाभारते [12. 212. 28 212 इमं गुणसमाहारमात्मभावेन पश्यतः / भीष्म उवाच / असम्यग्दर्शनैर्दुःखमनन्तं नोपशाम्यति // 14 जनको जनदेवस्तु ज्ञापितः परमर्षिणा / अनात्मेति च यदृष्टं तेनाहं न ममेत्यपि / पुनरेवानुपप्रच्छ सांपराये भवाभवौ // 1 वर्तते किमधिष्ठाना प्रसक्ता दुःखसंततिः // 15 भगवन्यदिदं प्रेत्य संज्ञा भवति कस्यचित् / तत्र सम्यङ्मनो नाम त्यागशास्त्रमनुत्तमम् / एवं सति किमज्ञानं ज्ञानं वा किं करिष्यति // 2 शृणु यत्तव मोक्षाय भाष्यमाणं भविष्यति // 16 सर्वमुच्छेदनिष्ठं स्यात्पश्य चैतहिजोत्तम / त्याग एव हि सर्वेषामुक्तानामपि कर्मणाम् / अप्रमत्तः प्रमत्तो वा किं विशेषं करिष्यति // 3 नित्यं मिथ्याविनीतानां क्लेशो दुःखावहो मतः।।१० असंसर्गो हि भूतेषु संसर्गो वा विनाशिषु / द्रव्यत्यागे तु कर्माणि भोगत्यागे व्रतान्यपि / कस्मै क्रियेत कल्पेन निश्चयः कोऽत्र तत्त्वतः॥४ सुखत्यागे तपोयोगः सर्वत्यागे समापना // 18 तमसा हि प्रतिच्छन्नं विभ्रान्तमिव चातुरम् / / तस्य मार्गोऽयमद्वैधः सर्वत्यागस्य दर्शितः / पुनः प्रशमयन्वाक्यैः कविः पश्चशिखोऽब्रवीत् // 5 विप्रहाणाय दुःखस्य दुर्गतिद्यन्यथा भवेत् // 19 उच्छेदनिष्ठा नेहास्ति भावनिष्ठा न विद्यते / पञ्च ज्ञानेन्द्रियाण्युक्त्वा मनःषष्ठानि चेतसि / अयं ह्यपि समाहारः शरीरेन्द्रियचेतसाम् / मनःषष्ठानि वक्ष्यामि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि तु // 20 वर्तते पृथगन्योन्यमप्यपाश्रित्य कर्मसु // 6 हस्तौ कर्मेन्द्रियं ज्ञेयमथ पादौ गतीन्द्रियम् / धातवः पश्चशाखोऽयं खं वायुयॊतिरम्बु भूः। प्रजनानन्दयोः शेफो विसर्गे पायुरिन्द्रियम् // 21 ते स्वभावेन तिष्ठन्ति वियुज्यन्ते स्वभावतः // 7 वाक्तु शब्दविशेपार्थं गतिं पञ्चान्यितां विदुः। आकाशं वायुरूष्मा च स्नेहो यच्चापि पार्थिवम् / एवमेकादशैतानि बुद्ध्या त्ववसृजेन्मनः // 22 एष पञ्चसमाहारः शरीरमिति नैकधा। कर्णी शब्दश्च चित्तं च त्रयः श्रवणसंग्रहे / ज्ञानमूष्मा च वायुश्च त्रिविधः कर्मसंग्रहः // 8 तथा स्पर्श तथा रूपे तथैव रसगन्धयोः // 23 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः / एवं पञ्चत्रिका ह्येते गुणांस्तदुपलब्धये / प्राणापानौ विकारश्च धातवश्वात्र निःसृताः // 9 येन यस्त्रिविधो भावः पर्यायात्समुपस्थितः // 24 श्रवणं स्पर्शनं जिह्वा दृष्टि सा तथैव च। सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्चैव ते त्रयः / इन्द्रियाणीति पञ्चैते चित्तपूर्वंगमा गुणाः // 10 त्रिविधा वेदना येषु प्रसूता सर्वसाधना // 25 तत्र विज्ञानसंयुक्ता त्रिविधा वेदना ध्रुवा / प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता / सुखदुःखेति यामाहुरदुःखेत्यसुखेति च // 11 अकुतश्चित्कुतश्चिद्वा चित्ततः सात्त्विको गुणः // 26 शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च मूर्त्यथ / / अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाक्षमा / एते ह्यामरणात्पञ्च षड्गुणा ज्ञानसिद्धये // 12 लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुतः // 27 तेषु कर्मनिसर्गश्च सर्वतत्त्वार्थनिश्चयः / अविवेकस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता / तमाहुः परमं शुक्र बुद्धिरित्यव्ययं गहत् // 13 / कथंचिदपि वर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः // 28 - 2276 - Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 212. 29 ] शान्तिपर्व [ 12. 212. 50 तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् / वर्तते सात्त्विको भाव इत्यपेक्षेत तत्तथा // 29 यत्तु संतापसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः / प्रवृत्तं रज इत्येव ततस्तदभिचिन्तयेत् // 30 अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् / अप्रतय॑मविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् // 31 तद्धि श्रोत्राश्रयं भूतं शब्दः श्रोत्रं समाश्रितः / नोभयं शब्दविज्ञाने विज्ञानस्येतरस्य वा // 32 एवं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी / स्पर्शे रूपे रसे गन्धे तानि चेतो मनश्च तत् // 33 वकर्मयुगपद्भावो दशस्वेतेषु तिष्ठति / चित्तमेकादशं विद्धि बुद्धिादशमी भवेत् // 34 तेषामयुगपद्भावे उच्छेदो नास्ति तामसः / आस्थितो युगपद्भावे व्यवहारः स लौकिकः // 35 इन्द्रियाण्यवसृज्यापि दृष्ट्वा पूर्व श्रुतागमम् / चिन्तयन्नानुपर्येति त्रिभिरेवान्वितो गुणैः // 36 यत्तमोपहतं चित्तमाशु संचारमध्रुवम् / करोत्युपरमं काले तदाहुस्तामसं सुखम् // 37 यद्यदागमसंयुक्तं न कृत्स्नमुपशाम्यति / अथ तत्राप्युपादत्ते तमो व्यक्तमिवानृतम् // 38 एवमेष प्रसंख्यातः स्वकर्मप्रत्ययी गुणः / कथंचिद्वर्तते सम्यक्केषांचिद्वा न वर्तते / / 39 एवमाहुः समाहारं क्षेत्रमध्यात्मचिन्तकाः / स्थितो मनसि यो भावः सवै क्षेत्रज्ञ उच्यते // 40 एवं सति क उच्छेदः शाश्वतो वा कथं भवेत् / स्वभावाद्वर्तमानेषु सर्वभूतेषु हेतुतः // 41 यथार्णवगता नद्यो व्यक्ती हति नाम च / न च स्वतां नियच्छन्ति तादृशः सत्त्वसंक्षयः॥४२ एवं सति कुतः संज्ञा प्रेत्यभावे पुनर्भवेत् / प्रतिसंमिश्रिते जीवे गृह्यमाणे च मध्यतः // 43 - 2277 इमां तु यो वेद विमोक्षबुद्धि___मात्मानमन्विच्छति चाप्रमत्तः / न लिप्यते कर्मफलैरनिष्टैः ___ पत्रं बिसस्येव जलेन सिक्तम् // 44 दृढैश्च पाशैर्बहुभिर्विमुक्तः प्रजानिमित्तैरपि दैवतैश्च / यदा ह्यसौ सुखदुःखे जहाति ___ मुक्तस्तदायां गतिमेत्यलिङ्गः। श्रुतिप्रमाणागममङ्गलैश्च __ शेते जरामृत्युभयादतीतः // 45 क्षीणे च पुण्ये विगते च पापे ततोनिमित्ते च फले विनष्टे / अलेपमाकाशमलिङ्गमेव मास्थाय पश्यन्ति महद्ध्यसक्ताः // 46 यथोर्णनाभिः परिवर्तमान स्तन्तुक्षये तिष्ठति पात्यमानः / तथा विमुक्तः प्रजहाति दुःखं विध्वंसते लोष्ट इवाद्रिमर्छन् // 47 यथा रुरुः शृङ्गमथो पुराणं __ हित्वा त्वचं वाप्युरगो यथावत् / विहाय गच्छत्यनवेक्षमाण___ स्तथा विमुक्तो विजहाति दुःखम् // 48 द्रुमं यथा वाप्युदके पतन्त मुत्सृज्य पक्षी प्रपतत्यसक्तः। तथा ह्यसौ सुखदुःखे विहाय ___ मुक्तः पराद्धां गतिमेत्यलिङ्गः // 49 . अपि च भवति मैथिलेन गीतं नगरमुपाहितमग्निनाभिवीक्ष्य / न खलु मम तुषोऽपि दह्योऽत्र स्वयमिदमाह किल स्म भूमिपालः // 50 - Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 212. 51] महाभारते [12. 214.2 इदममृतपदं विदेहराजः अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता // 9 स्वयमिह पञ्चशिखेन भाष्यमाणः / अक्रोध आर्जवं नित्यं नातिवादो न मानिता। निखिलमभिसमीक्ष्य निश्चिता) गुरुपूजानसूया च दया भूतेष्वपैशुनम् // 10 परमसुखी विजहार वीतशोकः // // 51 जनवादमृषावादस्तुतिनिन्दाविवर्जनम् / इमं हि यः पठति विमोक्षनिश्चयं साधुकामश्चास्पृहयन्नायाति प्रत्ययं नृषु // 11 न हीयते सततमवेक्षते तथा / अवैरकृत्सूपचारः समो निन्दाप्रशंसयोः। . उपद्रवान्नानुभवत्यदुःखितः सुवृत्तः शीलसंपन्नः प्रसन्नात्मात्मवान्बुधः / प्रमुच्यते कपिलमिवैत्य मैथिलः // 52 प्राप्य लोके च सत्कारं स्वर्ग वै प्रेत्य गच्छति // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वभूतहिते युक्तो न स्मयाहृष्टि वै जनम् / द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 212 // महाहद इवाक्षोभ्य प्रज्ञातृप्तः प्रसीदति // 13 213 अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः / युधिष्ठिर उवाच। नमस्यः सर्वभूतानां दान्तो भवति ज्ञानवान् // 14 किं कुर्वन्सुखमाप्नोति किं कुर्वन्दुःखमाप्नुते / न हृष्यति महत्यर्थे व्यसने च न शोचति / किं कुर्वन्निर्भयो लोके सिद्धश्चरति भारत // 1 स वै परिमितप्रज्ञः स दान्तो द्विज उच्यते // 15 भीष्म उवाच / कर्मभिः श्रुतसंपन्नः सद्भिराचरितैः शुभैः / दममेव प्रशंसन्ति वृद्धाः श्रुतिसमाधयः। सदैव दमसंयुक्तस्तस्य भुङ्क्ते महत्फलम् // 16 सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणस्य विशेषतः // 2 अनसूया क्षमा शान्तिः संतोषः प्रियवादिता / नादान्तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपलभ्यते / सत्यं दानमनायासो नैष मार्गो दुरात्मनाम् // 17 क्रिया तपश्च वेदाश्च दमे सर्वं प्रतिष्ठितम् // 3 / कामक्रोधौ वशे कृत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः / दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं दम उच्यते / विक्रम्य घोरे तपसि ब्राह्मणः संशितव्रतः / विपाप्मा निर्भयो दान्तः पुरुषो विन्दते महत् // 4 / कालाकाङ्की चरेल्लोकान्निरपाय इवात्मवान // 18 सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सुखं लोके विपर्येति मनश्चास्य प्रसीदति // 5 त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 213 // तेजो दमेन ध्रियते न तत्तीक्ष्णोऽधिगच्छति। 214 अमित्रांश्च बहून्नित्यं पृथगात्मनि पश्यति // 6 युधिष्ठिर उवाच / क्रव्याद्भय इव भूतानामदान्तेभ्यः सदा भयम् / द्विजातयो व्रतोपेता यदिदं भुञ्जते हविः / तेषां विप्रतिषेधार्थ राजा सृष्टः स्वयंभुवा // 7 अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत्पितामह // 1 आश्रमेषु च सर्वेषु दम एव विशिष्यते। भीष्म उवाच / यच्च तेषु फलं धर्मे भूयो दान्ते तदुच्यते // 8 अवेदोक्तवतोपेता भुञ्जानाः कार्यकारिणः / तेषां लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः। / वेदोक्तेषु च भुञ्जाना व्रतलुप्ता युधिष्ठिर // 2 - 2278 - Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 214. 3] शान्तिपर्व [12. 215. 11 युधिष्ठिर उवाच। उपस्थिताश्चाप्सरोभिः परियान्ति दिवौकसः॥१५ यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः / देवताभिश्च ये साधं पितृभिश्चोपभुञ्जते / एतत्तपो महाराज उताहो किं तपो भवेत् // 3 रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा // 16 भीष्म उवाच / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मासपझोपवासेन मन्यन्ते यत्तपो जनाः / चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 214 // आत्मतत्रोपघातः स न तपस्तत्सतां मतम् / 215 त्यागश्च सन्नतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम् // 4 युधिष्ठिर उवाच / सदोपवासी च भवेद्ब्रह्मचारी सदैव च। यदिदं कर्म लोकेऽस्मिन्शुभं वा यदि वाशुभम् / मुनिश्च स्यात्सदा विप्रो दैवतं च सदा भजेत् // 5 पुरुष योजयत्येव फलयोगेन भारत // 1 कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च भारत / कर्ता स्वित्तस्य पुरुष उताहो नेति संशयः / अमांसाशी सदा च स्यात्पवित्रं च सदा जपेत् // 6 / एतदिच्छामि तत्त्वेन त्वत्तः श्रोतुं पितामह // 2 अमृताशी सदा च स्यान्न च स्याद्विषभोजनः / भीष्म उवाच / विघसाशी सदा च स्यात्मदा चैवातिथिप्रियः // 7 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / युधिष्ठिर उवाच। प्रह्लादस्य च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर // 3 कथं सदोपवासी स्याद्ब्रह्मचारी कथं भवेत् / असक्तं धूतपाप्मानं कुले जातं बहुश्रुतम् / विघसाशी कथं च स्यात्सदा चैवातिथिप्रियः / / 8 अस्तम्भमनहंकारं सत्त्वस्थं समये रतम् // 4 - भीष्म उवाच / तुल्यनिन्दास्तुति दान्तं शून्यागारनिवेशनम् / अन्तरा प्रातराशं च सायमाशं तथैव च / चराचराणां भूतानां विदितप्रभवाप्ययम् // 5 सदोपवासी च भवेद्यो न भुङ्क्ते कथंचन // 9 अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमप्रियेषु प्रियेषु च / भायां गच्छन्ब्रह्मचारी ऋतौ भवति ब्राह्मणः / काश्चने वाथ लोष्टे वा उभयोः समदर्शनम् // 6 ऋतवादी सदा च स्याज्ज्ञाननित्यश्च यो नरः॥१० आत्मनिःश्रेयसज्ञाने धीरं निश्चितनिश्चयम् / अभक्षयन्वृथामांसममांसाशी भवत्युत / परावरचं भूतानां सर्वज्ञं समदर्शनम् // 7 दाननित्यः पवित्रश्च अस्वप्नश्च दिवास्वपन् // 11 शक्रः प्रह्लादमासीनमेकान्ते संयतेन्द्रियम् / भृत्यातिथिषु यो भुङ्क्ते भुक्तवत्सु सदा स ह / बुभुत्समानस्तत्प्रज्ञामभिगम्येदमब्रवीत् // 8 अमृतं सकलं भुङ्क्त इति विद्धि युधिष्ठिर / / 12 यैः कैश्चित्संमतो लोके गुणैः स्यात्पुरुषो नृषु / अभुक्तवत्सु नाश्नानः सततं यस्तु वै द्विजः। भवत्यनपगान्सांस्तान्गुणालक्षयामहे // 9 अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत / / 13 अथ ते लक्ष्यते बुद्धिः समा बालजनैरिह / देवताभ्यः पितृभ्यश्च भृत्येभ्योऽतिथिमिः सह / / आत्मानं मन्यमानः सश्रेयः किमिह मन्यसे // 10 अवशिष्टं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम् / / 14 / बद्धः पाशैछ्युतः स्थानाद्विषतां वशमागतः / तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणा सह। श्रिया विहीनः प्रह्लाद शोचितव्ये न शोचसि // 11 - 2279 - Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 215. 12] महाभारते [12. 215. 37 प्रज्ञालाभात्तु दैतेय उताहो धृतिमत्तया / स्वभावभाविनो भावान्सर्वानेवेह निश्चये। प्रहाद स्वस्थरूपोऽसि पश्यन्व्यसनमात्मनः // 12 बुध्यमानस्य दर्पो वा मानो वा किं करिष्यति // 20 इति संचोदितस्तेन धीरो निश्चितनिश्चयः। वेद धर्मविधिं कृत्स्नं भूतानां चाप्यनित्यताम् / उवाच श्लक्ष्णया वाचा स्वां प्रज्ञामनुवर्णयन् // 13 तस्माच्छक न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् // 28. प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च भूतानां यो न बुध्यते / निर्ममो निरहंकारो निरीहो मुक्तबन्धनः / तस्य स्तम्भो भवेद्वाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः / / स्वस्थोऽव्यपेतः पश्यामि भूतानां प्रभवाप्ययौ॥२९ स्वभावात्संप्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तथैव च / कृतप्रज्ञस्य दान्तस्य वितृष्णस्य निराशिषः / सर्वे भावास्तथाभावाः पुरुषार्थो न विद्यते // 15 नायासो विद्यते शक्र पश्यतो लोकविद्यया // 30 पुरुषार्थस्य चाभावे नास्ति कश्चित्स्वकारकः / प्रकृतौ च विकारे च न मे प्रीतिन च द्विषे। / स्वयं तु कुर्वतस्तस्य जातु मानो भवेदिह // 16 / द्वेष्टारं न च पश्यामि यो ममाद्य ममायते // 31 यस्तु कर्तारमात्मानं मन्यते साध्वसाधुनोः। नोवं नावाङ तिर्यक्च न कचिच्छक कामये। तस्य दोषवती प्रज्ञा स्वमूर्त्यज्ञेति मे मतिः // 17 / न विज्ञाने न विज्ञेये नाज्ञाने शर्म विद्यते // 32 यदि स्यात्पुरुषः कर्ता शक्रात्मश्रेयसे ध्रुवम् / ___ शक्र उवाच / आरम्भास्तस्य सिध्येरन च जातु पराभवेत् // 18 येनैषा लभ्यते प्रज्ञा येन शान्तिरवाप्यते। अनिष्टस्य हि निवृत्तिरनिवृत्तिः प्रियस्य च / प्रब्रूहि तमुपायं मे सम्यक्प्रह्लाद पृच्छते // 33 लक्ष्यते यतमानानां पुरुषार्थस्ततः कुतः // 19 अनिष्टस्याभिनिवृत्तिमिष्टसंवृत्तिमेव च / प्रह्लाद उवाच / अप्रयत्नेन पश्यामः केषांचित्तत्स्वभावतः // 20 आर्जवेनाप्रमादेन प्रसादेनात्मवत्तया / प्रतिरूपधराः केचिदृश्यन्ते बुद्धिसत्तमाः / वृद्धशुश्रूषया शक्र पुरुषो लभते महत् // 34 विरूपेभ्योऽल्पबुद्धिभ्यो लिप्समाना धनागमम् / / स्वभावाल्लभते प्रज्ञां शान्तिमेति स्वभावतः / स्वभावप्रेरिताः सर्वे निविशन्ते गुणा यदा। स्वभावादेव तत्सर्वं यत्किंचिदनुपश्यसि // 35 शुभाशुभास्तदा तत्र तस्य किं मानकारणम् // 22 भीष्म उवाच / स्वभावादेव तत्सर्वमिति मे निश्चिता मतिः / इत्युक्तो दैत्यपतिना शक्रो विस्मयमागमत् / आत्मप्रतिष्ठिता प्रज्ञा मम नास्ति ततोऽन्यथा // 23 / प्रीतिमांश्च तदा राजस्तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् // 36 कर्मजं त्विह मन्येऽहं फलयोगं शुभाशुभम् / स तदाभ्यर्च्य दैत्येन्द्रं त्रैलोक्यपतिरीश्वरः / कर्मणां विषयं कृत्स्नमहं वक्ष्यामि तच्छृणु // 24 असुरेन्द्रमुपामत्र्य जगाम स्वं निवेशनम् // 37 यथा वेदयते कश्चिदोदनं वायसो वदन् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एवं सर्वाणि कर्माणि खभावस्यैव लक्षणम् // 25 पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्याय // 215 // विकारानेव यो वेद न वेद प्रकृतिं पराम् / तस्य स्तम्भो भवेद्वाल्यान्नास्ति स्तम्भोऽनुपश्यतः // -2280 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 216. 1] शान्तिपर्व [12. 216. 24 216 चचारैरावतस्कन्धमधिरुह्य श्रिया वृतः // 11 युधिष्ठिर उवाच / ततो ददर्श स बलिं खरवेषेण संवृतम् / यया बुद्धया महीपालो भ्रष्टश्रीविचरेन्महीम् / यथाख्यातं भगवता शून्यागारकृतालयम् // 12 कालदण्डविनिष्षिष्टस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 शक्र उवाच / भीष्म उवाच / खरयोनिमनुप्राप्तस्तुषभक्षोऽसि दानव / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / इयं ते योनिरधमा शोचस्याहो न शोचसि // 13 वासवस्य च संवादं बलेवैरोचनस्य च // 2 . अदृष्टं बत पश्यामि द्विषतां वशमागतम् / पितामहमुपागत्य प्रणिपत्य कृताञ्जलिः। श्रिया विहीनं मित्रैश्च भ्रष्टवीर्यपराक्रमम् // 14 सर्वानेवासुराञ्जित्वा बलिं पप्रच्छ वासवः // 3 यत्तद्यानसहस्रेण ज्ञातिभिः परिवारितः / यस्य स्म ददतो वित्तं न कदाचन हीयते / लोकान्प्रतापयन्सर्वान्यास्यस्मानवितर्कयन् // 15 तं बलि नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम् // 4 त्वन्मुखाश्चैव दैतेया व्यतिष्ठस्तव शासने / स एव ह्यस्तमयते स स्म विद्योतते दिशः / अकृष्टपच्या पृथिवी तवैश्वर्ये बभूव ह / स वर्षति स्म वर्षाणि यथाकालमतन्द्रितः / इदं च तेऽद्य व्यसनं शोचस्याहो न शोचसि॥१६ तं बलिं नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम् // 5 यदातिष्ठः समुद्रस्य पूर्वकूले विलेलिहन् / स वायुर्वरुणश्चैव स रविः स च चन्द्रमाः / / ज्ञातिभ्यो विभजन्वित्तं तदासीत्ते मनः कथम् // सोऽग्निस्तपति भूतानि पृथिवी च भवत्युत / यत्ते सहस्रसमिता ननृतुर्दैवयोषितः / तं बलिं नाधिगच्छामि ब्रह्मन्नाचक्ष्व मे बलिम् // 6 बहूनि वर्षपूगानि विहारे दीप्यतः श्रिया // 18 ब्रह्मोवाच / सर्वाः पुष्करमालिन्यः सर्वाः काञ्चनसप्रभाः। नैतत्ते साधु मघवन्यदेतदनुपृच्छसि। कथमद्य तदा चैव मनस्ते दानवेश्वर // 19 पृष्टस्तु नानृतं ब्रूयात्तस्माद्वक्ष्यामि ते बलिम् // 7 छत्रं तवासीत्सुमहत्सौवर्ण मणिभूषितम् / उष्टेषु यदि वा गोषु खरेष्वश्वेषु वा पुनः / ननृतुर्यत्र गन्धर्वाः षट्सहस्राणि सप्तधा // 20 वरिष्ठो भविता जन्तुः शून्यागारे शचीपते // 8 यूपस्तवासीत्सुमहान्यजतः सर्वकाञ्चनः / शक्र उवाच / यत्राददः सहस्राणामयुतानि गवां दश // 21 यदि स्म बलिना ब्रह्मशून्यागारे समेयिवान् / यदा तु पृथिवीं सर्वां यजमानोऽनुपर्ययाः। हन्यामेनं न वा हन्यां तद्ब्रह्मन्ननुशाधि माम् // 9 शम्याक्षेपेण विधिना तदासीत्किं नु ते हृदि // 22 ब्रह्मोवाच / न ते पश्यामि भृङ्गारं न छत्रं व्यजनं न च / मा स्म शक्र बलिं हिंसीन बलिर्वधमर्हति / ब्रह्मदत्तां च ते मालां न पश्याम्यसुराधिप // 23 न्यायांस्तु शक्र प्रष्टव्यस्त्वया वासव काम्यया॥१० बलिरुवाच / भीष्म उवाच / न त्वं पश्यसि भृङ्गारं न छत्रं व्यजनं न च / एवमुक्तो भगवता महेन्द्रः पृथिवीं तदा / ब्रह्मदत्तां च मे मालां न त्वं द्रक्ष्यसि वासव // 24 म,भा, 286 -2281 - Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 216. 25] महाभारते [12. 217. 24 गुहायां निहितानि त्वं मम रत्नानि पृच्छसि / / नैतत्सम्यग्विजानन्तो नरा मुह्यन्ति वज्रभृत् // 9 यदा मे भविता कालस्तदा त्वं तानि द्रक्ष्यसि // 25 ये त्वेवं नाभिजानन्ति रजोमोहपरायणाः / न त्वेतदनुरूपं ते यशसो वा कुलस्य वा। | ते कृच्छं प्राप्य सीदन्ति बुद्धिर्येषां प्रणश्यति॥१० समृद्धार्थोऽसमृद्धार्थं यन्मां कत्थितुमिच्छसि // 26 बुद्धिलाभे हि पुरुषः सर्वं नुदति किल्बिषम् / न हि दुःखेषु शोचन्ति न प्रहृष्यन्ति चर्द्धिषु / विपाप्मा लभते सत्यं सत्त्वस्थः संप्रसीदति // 11 कृतप्रज्ञा ज्ञानतृप्ताः क्षान्ताः सन्तो मनीषिणः // 27 ततस्तु ये निवर्तन्ते जायन्ते वा पुनः पुनः / त्वं तु प्राकृतया बुद्धया पुरंदर विकत्थसे / कृपणाः परितप्यन्ते तेऽनथैः परिचोदिताः // 12 यदाहमिव भावी त्वं तदा नैवं वदिष्यसि // 28 अर्थसिद्धिमनथं च जीवितं मरणं तथा। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सुखदुःखफलं चैव न द्वेष्मि न च कामये // 13 षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 216 // हतं हन्ति हतो ह्येव यो नरो हन्ति कंचन / 217 उभौ तौ न विजानीतो यश्च हन्ति हतश्च यः॥१४ भीष्म उवाच / हत्वा जित्वा च मघवन्यः कश्चित्पुरुषायते / पुनरेव तु तं शक्रः प्रहसन्निदमब्रवीत् / अकर्ता ह्येव भवति कर्ता त्वेव करोति तत् // 15 निःश्वसन्तं यथा नागं प्रव्याहाराय भारत // 1 को हि लोकस्य कुरुते विनाशप्रभवावुभौ। यत्तद्यानसहस्रेण ज्ञातिभिः परिवारितः / कृतं हि तत्कृतेनैव कर्ता तस्यापि चापरः / / 16 लोकान्प्रतायन्सर्वान्यास्यस्मानवितर्कयन् / / 2 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् / दृष्ट्वा सुकृपणां चेमामवस्थामात्मनो बले / एतद्योनीनि भूतानि तंत्र का परिदेवना // 17 ज्ञातिमित्रपरित्यक्तः शोचस्याहो न शोचसि // 3 महाविद्योऽल्पविद्यश्च बलवान्दुर्बलश्च यः। प्रीतिं प्राप्यातुलां पूर्व लोकांश्चात्मवशे स्थितान् / दर्शनीयो विरूपश्च सुभगो दुर्भगश्च यः // 18 विनिपातमिमं चाद्य शोचस्याहो न शोचसि // 4 सर्व कालः समादत्ते गम्भीरः स्वेन तेजसा / बलिरुवाच / तस्मिन्कालवशं प्राप्ते का व्यथा मे विजानतः // 19 अनित्यमुपलक्ष्येदं कालपर्यायमात्मनः / दग्धमेवानुदहति हतमेवानुहन्ति च।। तस्माच्छक न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् // 5 नश्यते नष्टमेवाग्रे लब्धव्यं लभते नरः // 20 अन्तवन्त इमे देहा भूतानाममराधिप / नास्य द्वीपः कुतः पारं नावारः संप्रदृश्यते / तेन शक न शोचामि नापराधादिदं मम // 6 नान्तमस्य प्रपश्यामि विधेर्दिव्यस्य चिन्तयन् // 21 जीवितं च शरीरं च प्रेत्य वै सह जायते / यदि मे पश्यतः कालो भूतानि न विनाशयेत् / उभे सह विवर्धते उभे सह विनश्यतः // 7 स्यान्मे हर्षश्च दर्पश्च क्रोधश्चैव शचीपते // 22 तदीदृशमिदं भावमवशः प्राप्य केवलम् / तुषभक्षं तु मां ज्ञात्वा प्रविविक्तजने गृहे। यद्येवमभिजानामि का व्यथा मे विजानतः // 8 बिभ्रतं गार्दभं रूपमादिश्य परिगर्हसे / / 23 भूतानां निधनं निष्ठा स्रोतसामिव सागरः। इच्छन्नहं विकुर्यां हि रूपाणि बहुधात्मनः / --2282 - Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 217. 24 ] शान्तिपर्व [12. 217.53 विभीषणानि यानीक्ष्य पलायेथास्त्वमेव मे // 24 / कालः स्थापयते सर्व कालः पचति वै तथा // 39 कालः सर्व समादत्ते कालः सर्व प्रयच्छति। मां चेदभ्यागतः कालो दानवेश्वरमूर्जितम् / कालेन विधृतं सर्वं मा कृथाः शक्र पौरुषम् // 25 गर्जन्तं प्रतपन्तं च कमन्यं नागमिष्यति // 40 पुरा सर्व प्रव्यथते मयि क्रुद्धे पुरंदर / द्वादशानां हि भवतामादित्यानां महात्मनाम् / अवैमि त्वस्य लोकस्य धर्मं शक्र सनातनम् // 26 तेजांस्येकेन सर्वेषां देवराज हृतानि मे // 41 त्वमप्येवमपेक्षस्व मात्मना विस्मयं गमः / अहमेवोद्वहाम्यापो विसृजामि च वासव / प्रभवश्व प्रभावश्च नात्मसंस्थः कदाचन // 27 तपामि चैव त्रैलोक्यं विद्योताम्यहमेव च // 42 कौमारमेव ते चित्तं तथैवाद्य यथा पुरा / . संरक्षामि विलुम्पामि ददाम्यहमथाददे / समवेक्षस्व मघवन्बुद्धिं विन्दस्व नैष्ठिकीम् / / 28 संयच्छामि नियच्छामि लोकेषु प्रभुरीश्वरः॥ 43 देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः / तदद्य विनिवृत्तं मे प्रभुत्वममराधिप / आसन्सर्वे मम वशे तत्सर्वं वेत्थ वासव // 29 कालसैन्यावगाढस्य सर्वं न प्रतिभाति मे // 44 नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनो बलिः / नाहं कर्ता न चैव त्वं नान्यः कर्ता शचीपते / इति मामभ्यपद्यन्त बुद्धिमात्सर्यमोहिताः // 30 पर्यायेण हि भुज्यन्ते लोकाः शक्र यदृच्छया // 45 नाहं तदनुशोचामि नात्मभ्रंशं शचीपते / मासार्धमासवेश्मानमहोरात्राभिसंवृतम् / एवं मे निश्चिता बुद्धिः शास्तुस्तिष्ठाम्यहं वशे // 31 ऋतुद्वारं वर्षमुखमाहुर्वेदविदो जनाः // 46 दृश्यते हि कुले जातो दर्शनीयः प्रतापवान् / आहुः सर्वमिदं चिन्त्यं जनाः केचिन्मनीषया। दुःखं जीवन्सहामात्यो भवितव्यं हि तत्तथा // 32 अस्याः पश्चैव चिन्तायाः पर्येष्यामि च पञ्चधा // दौष्कुलेयस्तथा मूढो दुर्जातः शक्र दृश्यते / गम्भीरं गहनं ब्रह्म महत्तोयार्णवं यथा / सुखं जीवन्सहामात्यो भवितव्यं हि तत्तथा // 33 अनादिनिधनं चाहुरक्षरं परमेव च // 48 कल्याणी रूपसंपन्ना दुर्भगा शक्र दृश्यते / सत्त्वेषु लिङ्गमावेश्य नलिङ्गमपि तत्स्वयम् / अलक्षणा विरूपा च सुभगा शक दृश्यते // 34 मन्यन्ते ध्रुवमेवैनं ये नरास्तत्त्वदर्शिनः // 49 नैतदस्मत्कृतं शक्र नैतच्छक त्वया कृतम् / भूतानां तु विपर्यासं मन्यते गतवानिति / यत्त्वमेवंगतो वज्रिन्यद्वाप्येवंगता वयम् // 35 न ह्येतावद्भवेद्गम्यं न यस्मात्प्रकृतेः परः // 50 न कर्म तव नान्येषां कुतो मम शतक्रतो / गतिं हि सर्वभूतानामगत्वा व गमिष्यसि / ऋद्धिर्वाप्यथ वा नर्द्धिः पर्यायकृतमेव तत् // 36 यो धावता न हातव्यस्तिष्ठन्नपि न हीयते / पश्यामि त्वा विराजन्तं देवराजमवस्थितम् / तमिन्द्रियाणि सर्वाणि नानुपश्यन्ति पञ्चधा // 51 श्रीमन्तं द्युतिमन्तं च गर्जन्तं च ममोपरि / / 37 / / आहुश्चैनं केचिदग्निं केचिदाहुः प्रजापतिम् / एतच्चैवं न चेत्कालो मामाक्रम्य स्थितो भवेत् / ऋतुमासार्धमासांश्च दिवसांस्तु क्षणांस्तथा // 52 पातयेयमहं त्वाद्य सवज्रमपि मुष्टिना // 38 पूर्वाह्नमपराहं च मध्याह्नमपि चापरे / न तु विक्रमकालोऽयं क्षमाकालोऽयमागतः। मुहूर्तमपि चैवाहुरेकं सन्तमनेकधा / - 2283 - Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 217. 53] महाभारते [ 12. 218. 17 तं कालमवजानीहि यस्य सर्वमिदं वशे // 53 | हित्वा दैत्येश्वरं सुभ्र तन्ममाचक्ष्व तत्त्वतः // 6 बहूनीन्द्रसहस्राणि समतीतानि वासव / श्रीरुवाच / बलवीर्योपपन्नानि यथैव त्वं शचीपते // 54 | न मा विरोचनो वेद न मा वैरोचनो बलिः। त्वामप्यतिबलं शक्रं देवराज बलोत्कटम् / आहुमा दुःसहेत्येवं विधित्सेति च मां विदुः॥७ प्राप्ते काले महावीर्यः कालः संशमयिष्यति // 55 भूतिर्लक्ष्मीति मामाहुः श्रीरित्येवं च वासव। य इदं सर्वमादत्ते तस्याच्छक स्थिरो भव / त्वं मां शक्र न जानीषे सर्वे देवा न मां विदुः॥८ मया त्वया च पूर्वैश्च न स शक्योऽतिवर्तितुम् // शक्र उवाच / / यामेतां प्राप्य जानीषे राजश्रियमनुत्तमाम् / / किमिदं त्वं मम कृते उताहो बलिनः कृते / स्थिता मयीति तन्मिथ्या नैषा ह्येकत्र तिष्ठति // 57 दुःसहे विजहास्येनं चिरसंवासिनी सती // 9 स्थिता हीन्द्रसहस्रेषु तद्विशिष्टतमेष्वियम् / श्रीरुवाच / - मां च लोला परित्यज्य त्वामगाद्विबुधाधिप // 58 | न धाता न विधाता मां विदधाति कथंचन / मैवं शक्र पुनः कार्षीः शान्तो भवितुमर्हसि / कालस्तु शक्र पर्यायान्मैनं शक्रावमन्यथाः // 10 त्वामप्येवंगतं त्यक्त्वा क्षिप्रमन्यं गमिष्यति // 59 शक्र उवाच / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कथं त्वया बलिस्त्यक्तः किमर्थं वा शिखण्डिनि / सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 217 // कथं च मां न जह्यास्त्वं तन्मे ब्रूहि शुचिस्मिते॥११ श्रीरुवाच। भीष्म उवाच / सत्ये स्थितारिम दाने च व्रते,तपसि चैव हि / शतक्रतुरथापश्यद्बलेर्दीप्तां महात्मनः / पराकमे च धर्मे च पराचीनस्ततो बलिः // 12 स्वरूपिणी शरीराद्धि तदा निष्क्रामतीं श्रियम् // 1 ब्रह्मण्योऽयं सदा भूत्वा सत्यवादी जितेन्द्रियः / तां दीप्तां प्रभया दृष्ट्वा भगवान्पाकशासनः / अभ्यसूयद्ब्राह्मणान्वै उच्छिष्टश्चास्पृशद्भूतम् // 13 विस्मयोत्फुल्लनयनो बलिं पप्रच्छ वासवः // 2 यज्ञशीलः पुरा भूत्वा मामेव यजतेत्ययम् / बले केयमपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी / प्रोवाच लोकान्मूढात्मा कालेनोपनिपीडितः // 14 त्वत्तः स्थिता सकेयूरा दीप्यमाना स्वतेजसा // 3 अपाकृता ततः शक्र त्वयि वत्स्यामि वासव / बलिरुवाच / अप्रमत्तेन धार्यास्मि तपसा विक्रमेण च // 15 न हीमामासुरी वेद्मि न दैवीं न च मानुषीम् / शक्र उवाच / त्वमेवैनां पृच्छ मा वा यथेष्टं कुरु वासव // 4 अस्ति देवमनुष्येषु सर्वभूतेषु वा पुमान् / शक्र उवाच / यस्त्वामेको विषहितुं शक्नुयात्कमलालये // 16 का त्वं बलेरपक्रान्ता रोचमाना शिखण्डिनी। श्रीरुवाच / अजानतो ममाचक्ष्व नामधेयं शुचिस्मिते // 5 | नैव देवो न गन्धर्वो नासुरो न च राक्षसः / का त्वं तिष्ठसि मायेव दीप्यमाना स्वतेजसा। यो मामेको विषहितुं शक्तः कश्चित्पुरंदर // 17 -2284 - 218 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 28. 18 शान्तिपर्व [12. 218. 38 शक्र उवाच। श्रीरुवाच / तिष्ठेया मयि नित्यं त्वं यथा तद्रूहि मे शुभे।। एष मे निहितः पादो योऽयं सत्सु प्रतिष्ठितः / तत्करिष्यामि ते वाक्यमृतं त्वं वक्तुमर्हसि / / 18 एवं विनिहितां शक्र भूतेषु परिधत्स्व माम् // 28 श्रीरुवाच / शक्र उवाच / स्यास्यामि नित्यं देवेन्द्र यथा त्वयि निबोध तत् / भूतानामिह वै यस्त्वा मया विनिहितां सतीम् / विधिना वेददृष्टेन चतुर्धा विभजस्व माम् // 19 उपहन्यात्स मे द्विष्यात्तथा शृण्वन्तु मे वचः॥२९ शक्र उवाच / भीष्म उवाच / अहं वै त्वा निधास्यामि यथाशक्ति यथाबलम् / ततस्त्यक्तः श्रिया राजा दैत्यानां बलिरब्रवीत् / न तु मेऽतिक्रमः स्याद्वै सदा लक्ष्मि तवान्ति के // यावत्पुरस्तात्प्रतपेत्तावद्वै दक्षिणां दिशम् // 30 भूमिरेव मनुष्येषु धारणी भूतभाविनी। पश्चिमां तावदेवापि तथोदीची दिवाकरः / सा ते पादं तितिक्षेत समर्था हीति मे मतिः // 21 तथा मध्यंदिने सूर्यो अस्तमेति यदा तदा / पुनर्देवासुरं युद्धं भावि जेतास्मि वस्तदा // 31 श्रीरुवाच / सर्वाल्लोकान्यदादित्य एकस्थस्तापयिष्यति / एष मे निहितः पादो योऽयं भूमौ प्रतिष्ठितः / तदा देवासुरे युद्धे जेताहं त्वां शतक्रतो // 32 द्वतीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु // 22 शक्र उवाच / शक्र उवाच। ब्रह्मणास्मि समादिष्टो न हन्तव्यो भवानिति / प्राप एव मनुष्येषु द्रवन्त्यः परिचारिकाः / तेन तेऽहं बले वनं न विमुश्वामि मूर्धनि // 33 रास्ते पादं तितिक्षन्तामलमापस्तितिक्षितुम् / / 23 यथेष्टं गच्छ दैत्येन्द्र स्वस्ति तेऽस्तु महासुर / श्रीरुवाच / आदित्यो नावतपिता कदाचिन्मध्यतः स्थितः // 34 एष मे निहितः पादो योऽयमप्सु प्रतिष्ठितः / स्थापितो ह्यस्य समयः पूर्वमेव स्वयंभुवा / तीयं शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु // 24 अजस्रं परियात्येष सत्येनावतपन्प्रजाः // 35 शक्र उवाच / अयनं तस्य षण्मासा उत्तरं दक्षिणं तथा। स्सिन्देवाश्च यज्ञाश्च यस्मिन्वेदाः प्रतिष्ठिताः / येन संयाति लोकेषु शीतोष्णे विसृजरविः // 36 तीयं पादमग्निस्ते सुधृतं धारयिष्यति // 25 __ भीष्म उवाच / श्रीरुवाच / एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत / एष मे निहितः पादो योऽयमग्नौ प्रतिष्ठितः / जगाम दक्षिणामाशामुदीची तु पुरंदरः // 37 पतुर्थ शक्र पादं मे तस्मात्सुनिहितं कुरु // 26 इत्येतदलिना गीतमनहंकारसंज्ञितम् / शक्र उवाच / वाक्यं श्रुत्वा सहस्राक्षः खमेवारुरुहे तदा // 38 1वै सन्तो मनुष्येषु ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि / ते पादं तितिक्षन्तामलं सन्तस्तितिक्षितुम् // 27 / अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 21 // - 2235 - Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 219. 1] महाभारते [12. 219.2 219 इति यस्य सदा भावो न स मुह्येत्कदाचन // / भीष्म उवाच / पर्यायैर्हन्यमानानामभियोक्ता न विद्यते / अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / / दुःखमेतत्तु यहेष्टा कर्ताहमिति मन्यते // 13 शतक्रतोश्च संवादं नमुचेश्च युधिष्ठिर // 1 ऋषींश्च देवांश्च महासुरांश्च श्रिया विहीनमासीनमक्षोभ्यमिव सागरम् / विद्यवृद्धांश्च वने मुनींश्च / / भवाभवज्ञं भूतानामित्युवाच पुरंदरः // 2 कान्नापदो नोपनमन्ति लोके बद्धः पाशैश्युतः स्थानाद्विषतां वशमागतः / परावरज्ञास्तु न संभ्रमन्ति // 14 श्रिया विहीनो नमुचे शोचस्याहो न शोचसि // 3 न पण्डितः क्रुध्यति नापि सज्जते नमुचिरुवाच / ___न चापि संसीदति न प्रहृष्यति / अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते / न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचति . अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति नास्ति शोके सहायता // 4 स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः // 15 तस्माच्छक न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत् / यमर्थसिद्धिः परमा न हर्षयेसंतापादश्यते रूपं धर्मश्चैव सुरेश्वर // 5 / त्तथैव काले व्यसनं न मोहयेत् / विनीय खलु तहुःखमागतां वैमनस्यजम् / सुखं च दुःखं च तथैव मध्यम ध्यातव्यं मनसा हृद्यं कल्याणं संविजानता // 6 निषेवते यः स धुरंधरो नरः // 16 यथा यथा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः / यां यामवस्थां पुरुषोऽधिगच्छेतदैवास्य प्रसीदन्ति सर्वार्था नात्र संशयः॥ 7 ___ त्तस्यां रमेतापरितप्यमानः / एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता एवं प्रवृद्धं प्रणुदेन्मनोज गर्भे शयानं पुरुष शास्ति शास्ता / ___ संतापमायासकरं शरीरात् // 17 तेनानुशिष्टः प्रवणादिवोदकं तत्सदः स परिषत्सभासदः ___ यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि // 8 ... प्राप्य यो न कुरुते सभाभयम् / भावाभावावभिजाननगरीयो धर्मतत्त्वमवगाह्य बुद्धिमाजानामि श्रेयो न तु तत्करोमि। ___ न्योऽभ्युपैति स पुमान्धुरंधरः // 18 आशासु धाः सुहृदां सुकुर्व प्राज्ञस्य कर्माणि दुरन्वयानि न्यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि // 9 न वै प्राज्ञो मुह्यति मोहकाले / यथा यथास्य प्राप्तव्यं प्राप्नोत्येव तथा तथा / स्थानाच्युतश्चेन्न मुमोह गौतमभवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथा तथा // 10 स्तावत्कृच्छ्रामापदं प्राप्य वृद्धः // 19 यत्र यत्रैव संयुङ्क्ते धाता गर्भ पुनः पुनः / न मत्रबलवीर्येण प्रज्ञया पौरुषेण वा।। तत्र तत्रैव वसति न यत्र स्वयमिच्छति // 11 अलभ्यं लभते मर्त्यस्तत्र का परिदेवना // 20 भावो योऽयमनुप्राप्तो भवितव्यमिदं मम / यदेवमनुजातस्य धातारो विदधुः पुरा / - 2286 - Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 219. 21] शान्तिपर्व [12. 220. 25 तदेवानुभविष्यामि किं मे मृत्युः करिष्यति // 21 / स कदाचित्समुद्रान्ते कस्मिंश्चिगिरिगह्वरे / लब्धव्यान्येव लभते गन्तव्यान्येव गच्छति / / बलिं वैरोचनि वज्री ददर्शोपससर्प च // 11 प्राप्तव्यान्येन प्राप्नोति दुःखानि च सुखानि च // तमैरावतमूर्धस्थं प्रेक्ष्य देवगणैर्वृतम् / एतद्विदित्वा कार्थेन यो न मुह्यति मानवः / सुरेन्द्रमिन्द्रं दैत्येन्द्रो न शुशोच न विव्यथे॥१२ कुशलः सुखदुःखेषु स वै सर्वधनेश्वरः // 23 दृष्ट्वा तमविकारस्थं तिष्ठन्तं निर्भयं बलिम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अधिरूढो द्विपश्रेष्ठमित्युवाच शतक्रतुः // 13 एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 219 // दैत्य न व्यथसे शौर्यादथ वा वृद्धसेवया / 220 तपसा भावितत्वाद्वा सर्वथैतत्सुदुष्करम् // 14 युधिष्ठिर उवाच / शत्रुभिर्वशमानीतो हीनः स्थानादनुत्तमात् / मनस्य व्यसने कृच्छ्रे किं श्रेयः पुरुषस्य हि / वैरोचने किमाश्रित्य शोचितव्ये न शोचसि // 15 बन्धुनाशे महीपाल राज्यनाशेऽपि वा पुनः // 1 श्रेष्ठयं प्राप्य स्वजातीनां भुक्त्वा भोगाननुत्तमान् / त्वं हि नः परमो वक्ता लोकेऽस्मिन्भरतर्षभ / हृतस्वबलराज्यस्त्वं ब्रूहि कस्मान्न शोचसि // 16 एतद्भवन्तं पृच्छामि तन्मे वक्तुमिहार्हसि // 2 ईश्वरो हि पुरा भूत्वा पितृपैतामहे पदे / __भीष्म उवाच / तत्त्वमद्य हृतं दृष्ट्वा सपत्नैः किं न शोचसि // 17 पुत्रदारैः सुखैश्चैव वियुक्तस्य धनेन च। बद्धश्च वारुणैः पाशैर्वत्रेण च समाहतः / मग्नस्य व्यसने कृच्छ्रे धृतिः श्रेयस्करी नृप // 3 हृतदारो हृतधनो ब्रूहि कस्मान्न शोचसि // 18 धैर्येण युक्तस्य सतः शरीरं न विशीर्यते / भ्रष्टश्रीविभवभ्रष्टो यन्न शोचसि दुष्करम् / आरोग्याच्च शरीरस्य स पुनर्विन्दते श्रियम् / / 4 त्रैलोक्यराज्यनाशे हि कोऽन्यो जीवितुमुत्सहेत् // यस्य राज्ञो नरास्तात सात्त्विकी बृत्तिमास्थिताः / एतच्चान्यच्च परुषं ब्रुवन्तं परिभूय तम् / तस्य स्थैर्य च धैर्य च व्यवसायश्च कर्मसु // 5 श्रुत्वा सुखमसंभ्रान्तो बलिवैरोचनोऽब्रवीत् // 20 अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / निगृहीते मयि भृशं शक्र किं कथितेन ते। बलिवासवसंवादं पुनरेव युधिष्ठिर // 6 वज्रमुद्यम्य तिष्ठन्तं पश्यामि त्वां पुरंदर // 21 . वृत्ते देवासुरे युद्धे दैत्यदानवसंक्षये। अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथंचिच्छक्ततां गतः / विष्णुकान्तेषु लोकेषु देवराजे शतक्रतौ // 7 कस्त्वदन्य इमा वाचः सुक्रूरा वक्तुमर्हति / / 22 इज्यमानेषु देवेषु चातुर्वर्ण्य व्यवस्थिते / यस्तु शत्रोर्वशस्थस्य शक्तोऽपि कुरुते दयाम् / समृध्यमाने त्रैलोक्ये प्रीतियुक्ते स्वयंभुवि // 88 हस्तप्राप्तस्य वीरस्य तं चैव पुरुषं विदुः // 23 रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यामपि चर्षिभिः / अनिश्चयो हि युद्धेषु द्वयोर्विवदमानयोः / गन्धर्भुजगेन्द्रैश्च सिद्धेश्चान्यैर्वृतः प्रभुः // 9 एकः प्राप्नोति विजयमेकश्चैव पराभवम् / / 24 चतुर्दन्तं सुदान्तं च वारणेन्द्रं श्रिया वृतम् / मा च ते भूत्स्वभावोऽयं मया दैवतपुंगव / आरुखैरावतं शक्रस्पैलोक्यमनुसंययौ // 10 ईश्वरः सर्वभूतानां विक्रमेण जितो बलात् // 25 -~2287 - Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 220. 26 ] महाभारते [ 12. 220.50 नैतदस्मत्कृतं शक नैतच्छक त्वया कृतम् / बहूनीन्द्रसहस्राणि दैतेयानां युगे युगे। यत्त्वमेवंगतो वञिन्यद्वाप्येवंगता वयम् / / 26 अभ्यतीतानि कालेन कालो हि दुरतिक्रमः // 4 // अहमासं यथाद्य त्वं भविता त्वं यथा वयम् / इदं तु लब्ध्वा त्वं स्थानमात्मानं बहु मन्यसे। मावमंस्था मया कर्म दुष्कृतं कृतमित्युत / / 27 सर्वभूतभवं देवं ब्रह्माणमिव शाश्वतम् // 42 सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणाधिगच्छति / न चेदमचलं स्थानमनन्तं वापि कस्यचित् / पर्यायेणासि शक्रत्वं प्राप्तः शक्र न कर्मणा / / 28 त्वं तु बालिशया बुद्धया ममेदमिति मन्यसे // 4 // कालः काले नयति मां त्वां च कालो नयत्ययम् / अविश्वास्ये विश्वसिषि मन्यसे चाध्रुवं ध्रुवम् / तेनाहं त्वं यथा नाद्य त्वं चापि न यथा वयम् // ममेयमिति मोहात्त्वं राजश्रियमभीप्ससि॥ 44 न मातृपितृशुश्रूषा न च दैवतपूजनम् / नेयं तव न चास्माकं न चान्येषां स्थिरा मता। नान्यो गुणसमाचारः पुरुषस्य सुखावहः // 30 अतिक्रम्य बहूनन्यांस्त्वयि तावदियं स्थिता // 4 न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बान्धवाः / कंचित्कालमियं स्थित्वा त्वयि वासव चञ्चला। शक्नुवन्ति परित्रातुं नरं कालेन पीडितम् // 31 गौर्निपानमिवोत्सृज्य पुनरन्यं गमिष्यति // 46 नागामिनमनथं हि प्रतिघातशतैरपि / राजलोका ह्यतिक्रान्ता यान्न संख्यातुमुत्सहे। शक्नुवन्ति प्रतिव्योढुमृते बुद्धिबलान्नराः // 32 त्वत्तो बहुतराश्चान्ये भविष्यन्ति पुरंदर // 47 पर्यायैर्हन्यमानानां परित्राता न विद्यते / सवृक्षौषधिरत्नेयं ससरित्पर्वताकरा। इदं तु दुःखं यच्छक कर्ताहमिति मन्यते // 33 तानिदानी न पश्यामि यैभुक्तेयं पुरा मही // 41 यदि कर्ता भवेत्कर्ता न क्रियेत कदाचन / पृथुरैलो मयो भौमो नरकः शम्बरस्तथा / यस्मात्तु क्रियते कर्ता तस्मात्कर्ताप्यनीश्वरः / / 34 अश्वग्रीवः पुलोमा च स्वर्भानुरमितध्वजः // 49 कालेन त्वाहमजयं कालेनाहं जितस्त्वया / प्रसादो नमुचिर्दक्षो विप्रचित्तिर्विरोचनः / गन्ता गतिमतां कालः कालः कलयति प्रजाः // 35 हीनिषेधः सुहोत्रश्च भूरिहा पुष्पवान्वृषः // 50 इन्द्र प्राकृतया बुद्ध्या प्रलपन्नावबुध्यसे / सत्येषुषभो राहुः कपिलाश्वो विरूपकः / / केचित्त्वां बहु मन्यन्ते श्रैष्ठ्यं प्राप्तं स्वकर्मणा // 36 बाणः कार्तस्वरो वह्निर्विश्वदंष्ट्रोऽथ नैर्ऋतः // 51 कथमस्मद्विधो नाम जानललोकप्रवृत्तयः / रित्थाइत्थौ वीरताम्री वराहाश्वो रुचिः प्रभुः। कालेनाभ्याहतः शोचेन्मुह्येद्वाप्यर्थसंभ्रमे // 37 विश्वजित्प्रतिशौरिश्च वृषाण्डो विष्करो मधुः // 52 नित्यं कालपरीतस्य मम वा मद्विधस्य वा। हिरण्यकशिपुश्चैव कैटभश्चैव दानवः / बुद्धिर्व्यसनमासाद्य भिन्ना नौरिव सीदति // 38 दैत्याश्च कालखञ्जाश्च सर्वे ते नैर्ऋतैः सह // 53 अहं च त्वं च ये चान्ये भविष्यन्ति सुराधिपाः / एते चान्ये च बहवः पूर्वे पूर्वतराश्च ये। ते सर्वे शक्र यास्यन्ति मार्गमिन्द्रशतैर्गतम् / / 39 / दैत्येन्द्रा दानवेन्द्राश्च यांश्चान्याननुशुश्रुम // 54 त्वामप्येवं सुदुर्घष ज्वलन्तं परया श्रिया / बहवः पूर्वदैत्येन्द्राः संत्यज्य पृथिवीं गताः / काले परिणते कालः कालयिष्यति मामिव // 48 / कालेनाभ्याहताः सर्वे कालो हि -बलवत्तरः // 55 -2288 - Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 220. 58 ] शान्तिपर्व [12. 220. 85 सर्वैः क्रतुशतैरिष्टं न त्वमेकः शतक्रतुः / अहमैन्द्राच्युतः स्थानात्त्वमिन्द्रः प्रकृतो दिवि / सर्वे धर्मपराश्चासन्सर्वे सततसत्रिणः // 56 सुचित्रे जीवलोकेऽस्मिन्नुपास्यः कालपर्ययात् // 71 अन्तरिक्षचराः सर्वे सर्वेऽभिमुखयोधिनः। किं हि कृत्वा त्वमिन्द्रोऽद्य किं हि कृत्वा च्युता वयम्। सर्वे संहननोपेताः सर्वे परिघबाहवः / / 57 कालः कर्ता विकर्ता च सर्वमन्यदकारणम् // 72 सर्वे मायाशतधराः सर्वे ते कामचारिणः / नाशं विनाशमैश्वर्यं सुखदुःखे भवाभवौ / सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्ते पराजिताः / / 58 विद्वान्प्राप्यैवमत्यर्थं न प्रहृष्येन च व्यथेत् // 73 सर्वे सत्यव्रतपराः सर्वे कामविहारिणः / . त्वमेव हीन्द्र वेत्थास्मान्वेदाहं त्वां च वासव / सर्वे वेदव्रतपराः सर्वे चासन्बहुश्रुताः // 59 विकत्थसे मां किं बद्धं कालेन निरपत्रप // 74 सर्वे संहतमैश्वर्यमीश्वराः प्रतिपेदिरे / त्वमेव हि पुरा वेत्थ यत्तदा पौरुषं मम / न चैश्वर्यमदस्तेषां भूतपूर्वी महात्मनाम् / / 60 समरेषु च विक्रान्तं पर्याप्तं तन्निदर्शनम् // 75 सर्वे यथार्थदातारः सर्वे विगतमत्सराः। आदित्याश्चैव रुद्राश्च साध्याश्च वसुभिः सह। सर्वे सर्वेषु भूतेषु यथावत्प्रतिपेदिरे // 61 / मया विनिर्जिताः सर्वे मरुतश्च शचीपते // 76 सर्वे दाक्षायणीपुत्राः प्राजापत्या महाबलाः। त्वमेव शक्र जानासि देवासुरसमागमे / ज्वलन्तः प्रतपन्तश्च कालेन प्रतिसंहृताः // 62 समेता विबुधा भन्मास्तरसा समरे मया // 77 त्वं चैवेमां यदा भुक्त्वा पृथिवीं त्यक्ष्यसे पुनः / पर्वताश्चासकृरिक्षप्ताः सवनाः सवनौकसः / न शक्ष्यसि तदा शक्र नियन्तुं शोकमात्मनः // 63 सटङ्कशिखरा घोराः समरे मूर्ध्नि ते मया // 78 मुखेच्छां कामभोगेषु मुश्चमं श्रीभवं मदम् / किं नु शक्यं मया कर्तुं यत्कालो दुरतिक्रमः / एवं स्वराज्यनाशे त्वं शोकं संप्रसहिष्यसि // 64 न हि त्वां नोत्सहे हन्तुं सवनमपि मुष्टिना // 79 शोककाले शुचो मा त्वं हर्षकाले च मा हृषः / न तु विक्रमकालोऽयं क्षमाकालोऽयमागतः / अतीतानागते हित्वा प्रत्युत्पन्नेन वर्तय // 65 / तेन त्वा मर्षये शक्र दुर्मर्षणतरस्त्वया // 80 मां चेदभ्यागतः कालः सदायुक्तमतन्द्रितम् / त्वं मा परिणते काले परीतं कालवह्निना / क्षमस्व नचिरादिन्द्र त्वामप्युपगमिष्यति // 66 नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे // 81 प्रासयन्निव देवेन्द्र वाग्भिस्तक्षसि मामिह / / अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य दुरतिक्रमः। संयते मयि नूनं त्वमात्मानं बहु मन्यसे // 67 बद्धा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा // 82 कालः प्रथममायान्मां पश्चात्त्वामनुधावति / / लाभालाभौ सुखं दुःखं कामक्रोधौ भवाभवौ / तेन गर्जसि देवेन्द्र पूर्व कालहते मयि // 68 वधो बन्धः प्रमोक्षश्च सर्व कालेन लभ्यते // 83 को हि स्थातुमलं लोके क्रुद्धस्य मम संयुगे। नाहं कर्ता न कर्ता त्वं कर्ता यस्तु सदा प्रभुः / कालस्तु बलवान्प्राप्तस्तेन तिष्ठसि वासव // 69 सोऽयं पचति कालो मां वृक्षे फलमिवागतम् // 84 यत्तद्वर्षसहस्रान्तं पूर्ण भवितुमर्हति / यान्येव पुरुषः कुर्वन्सुखैः कालेन युज्यते / यथा मे सर्वगात्राणि नस्वस्थानि हतौजसः॥७० / पुनस्तान्येव कुर्वाणो दुःखैः कालेन युज्यते // 85 म. भा. 287 - 2289 - Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 220. 86] महाभारते [12. 220. 115 न च कालेन कालज्ञः स्पृष्टः शोचितुमर्हति / उच्छ्राया विनिपातान्ता भावोऽभावस्थ एव च // तेन शक न शोचामि नास्ति शोके सहायता // 86 सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी / यदा हि शोचतां शोको व्यसनं नापकर्षति / अहमासं पुरा चेति मनसापि न बुध्यसे // 101 सामर्थ्य शोचतो नास्ति नाय शोचाम्यहं ततः।।८७ कालेनाक्रम्य लोकेऽस्मिन्पच्यमाने बलीयसा। एवमुक्तः सहस्राक्षो भगवान्पाकशासनः / अज्येष्ठमकनिष्ठं च क्षिप्यमाणो न बुध्यसे / / 10 / प्रतिसंहृत्य संरम्भमित्युवाच शतक्रतुः // 88 ईर्ष्याभिमानलोभेषु कामक्रोधभयेषु च / सवज्रमुद्यतं बाहुं दृष्ट्वा पाशांश्च वारुणान् / स्पृहामोहाभिमानेषु लोकः सक्तो विमुह्यति // 10 // कस्येह न व्यथेद्बुद्धिमृत्योरपि जिघांसतः // 89 भवांस्तु भावतत्त्वज्ञो विद्वाज्ञानतपोन्वितः / सा ते न व्यथते बुद्धिरचला तत्त्वदर्शिनी।। कालं पश्यति सुव्यक्तं पाणावामलकं यथा // 10 // ब्रुवन्न व्यथसे स त्वं वाक्यं सत्यपराक्रम // 90 कालचारित्रतत्त्वज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः / / को हि विश्वासमर्थेषु शरीरे वा शरीरभृत् / / वैरोचने कृतात्मासि स्पृहणीयो विजानताम् // 10 // कर्तुमुत्सहते लोके दृष्ट्वा संप्रस्थितं जगत् / / 91 सर्वलोको ह्ययं मन्ये बुद्ध्या परिगतस्त्वया। अहमप्येवमेवैनं लोकं जानाम्यशाश्वतम / विहरन्सर्वतोमुक्तो न कचित्परिपज्जसे // 106 कालाग्नावाहितं घोरे गुह्ये सततगेऽक्षरे / / 92 रजश्च हि तमश्च त्वा स्पृशतो न जितेन्द्रियम् / न चात्र परिहारोऽस्ति कालस्पृष्टस्य कस्यचित् / निष्प्रीति नष्टसंतापं त्वमात्मानमुपाससे // 107 सूक्ष्माणां महतां चैव भूतानां परिपच्यताम् // 93 सुहृदं सर्वभूतानां निवैरै शान्तमानसम् / अनीशस्याप्रमत्तस्य भूतानि पचतः सदा। दृष्ट्वा त्वां मम संजाता त्वय्यनुक्रोशिनी मतिः॥ अनिवृत्तस्य कालस्य क्षयं प्राप्तो न मुच्यते // 54 नाहमेतादृशं बुद्धं हन्तुमिच्छामि बन्धने। अप्रमत्तः प्रमत्तेषु कालो जागर्ति देहिषु / आनृशंस्यं परो धर्मो अनुक्रोशस्तथा त्वया // 10 प्रयत्नेनाप्यतिक्रान्तो दृष्टपूर्वो न केनचित् // 95 / / मोक्ष्यन्ते वारुणाः पाशास्तवेमे कालपर्ययात् / पुराणः शाश्वतो धर्मः सर्वप्राणभृतां समः। प्रजानामपचारेण स्वस्ति तेऽस्तु महासुर // 110 कालो न परिहार्यश्च न चास्यास्ति व्यतिक्रमः॥९६ / यदा श्वश्रू स्नुषा वृद्धां परिचारेण योक्ष्यते / अहोरात्रांश्च मासांश्च क्षणाकाष्ठाः कला लवान् / पुत्रश्च पितरं मोहात्प्रेषयिष्यति कर्मसु / / 111 संपिण्डयति नः कालो वृद्धि वाधुषिको यथा / 97 / ब्राह्मणैः कारयिष्यन्ति वृषलाः पादधावनम् / इदमद्य करिष्यामि श्वः कर्तास्मीति वादिनम् / शुद्राश्च ब्राह्मणी भार्यामुपयास्यन्ति निर्भयाः॥११२ कालो हरति संप्राप्तो नदीवेग इवोडुपम / / 98 / वियोनिषु च वीजानि भोक्ष्यन्ते पुरुषा यदा। इदानीं तावदेवासौ मया दृष्टः कथं मृतः। संकरं कांस्यभाण्डैश्च बलिं चापि कुपात्रकैः // 113 इति कालेन ह्रियतां प्रलापः श्रूयते नृणाम् // 99 / चातुर्वण्यं यदा कृत्स्नमुन्मर्यादं भविष्यति / नश्यन्त्यास्तथा भोगाः स्थानमैश्वर्यमेव च। एकैकस्ते तदा पाशः क्रमशः प्रतिमोक्ष्यते / / 114 अनित्यमध्रुवं सर्वं व्यवसायो हि दुष्करः / / अस्मत्तस्ते भयं नास्ति समयं प्रतिपालय / .-2290 -- Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 220. 115 ] शान्तिपर्व [12. 221. 20 सुखी भव निराबाधः स्वस्थचेता निरामयः॥११५ सहस्रनयनश्चापि वज्री शम्बरपाकहा। तमेवमुक्त्वा भगवाञ्-शतक्रतुः तस्या देवर्षिजुष्टायास्तीरमभ्याजगाम ह // 7 प्रतिप्रयातो गजराजवाहनः / तावाप्लुत्य यतात्मानौ कृतजप्यौ समासतुः / विजित्य सर्वानसुरान्सुराधिपो नद्याः पुलिनमासाद्य सूक्ष्मकाञ्चनवालुकम् // 8 __ ननन्द हर्षेण बभूव चैकराट् // 116 पुण्यकर्मभिराख्याता देवर्षिकथिताः कथाः / महर्षयस्तुष्टुवुरञ्जसा च तं चक्रतुस्तौ कथाशीलौ शुचिसंहृष्टमानसौ / ___ वृषाकपि सर्वचराचरेश्वरम् / पूर्ववृत्तव्यपेतानि कथयन्तौ समाहितौ // 9 हिमापहो हव्यमुदावहंस्त्वरं अथ भास्करमुद्यन्तं रश्मिजालपुरस्कृतम् / स्तथामृतं चार्पितमीश्वराय ह // 117 पूर्णमण्डलमालोक्य तावुत्थायोपतस्थतुः // 10 द्विजोत्तमैः सर्वगतैरभिष्टुतो अभितस्तूदयन्तं तमर्कमर्कमिवापरम् / विदीप्ततेजा गतमन्युरीश्वरः / आकाशे ददृशे ज्योतिरुद्यतार्चिःसमप्रभम् // 11 प्रशान्तचेता मुदितः स्वमालयं तयोः समीपं संप्राप्तं प्रत्यदृश्यत भारत / त्रिविष्टपं प्राप्य मुमोद वासवः // 118 तत्सुपर्णार्कचरितमास्थितं वैष्णवं पदम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भाभिरप्रतिम भाति त्रैलोक्यमवभासयत् // 12 विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 220 // दिव्याभिरूपशोभाभिरप्सरोभिः पुरस्कृताम् / 221 बृहतीमंशुमत्प्रख्यां बृहद्भानोरिवार्चिषम् // 13 युधिष्ठिर उवाच / नक्षत्रकल्पाभरणां ताराभक्तिसमस्रजम् / पूर्वरूपाणि मे राजन्पुरुषस्य भविष्यतः / श्रियं ददृशतुः पद्मां साक्षात्पद्मतलस्थिताम् // 14 पराभविष्यतश्चैव त्वं मे ब्रूहि पितामह // 1 सावरुह्य विमानाबादङ्गनानामनुत्तमा / भीष्म उवाच। अभ्यगच्छत्रिलोकेशं शक्रं चर्षि च नारदम् // 15 मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति / नारदानुगतः साक्षान्मघवांस्तामुपागमत् / भविष्यतश्च भद्रं ते तथैव नभविष्यतः // 2 कृताञ्जलिपुटो देवी निवेद्यात्मानमात्मना // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / चक्रे चानुपमा पूजां तम्याश्चापि स सर्ववित् / श्रिया शक्रस्य संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर / / 3 देवराजः श्रियं राजन्वाक्यं चेदमुवाच ह // 17 महतस्तपसो व्युष्ट्या पश्यल्लोको परावरौ। का त्वं केन च कार्येण संप्राप्ता चारुहासिनि। . सामान्यमृषिभिर्गत्वा ब्रह्मलोकनिवासिभिः // 4 कुतश्चागम्यते सुभ्र गन्तव्यं क च ते शुभे // 18 ब्रह्मैवामितदीप्तौजाः शान्तपाप्मा महातपाः / __ श्रीरुवाच / विचचार यथाकामं त्रिषु लोकेषु नारदः // 5 पुण्येषु त्रिषु लोकेषु सर्वे स्थावरजङ्गमाः / कदाचित्प्रातरुत्थाय पिस्पृक्षुः सलिलं शुचिः / ममात्मभावमिच्छन्तो यतन्ते परमात्मना / / 19 ध्रुवद्वारभवां गङ्गां जगामावततार च // 6 साहं वै पङ्कजे जाता सूर्यरश्मिविबोधिते। . --2231 - Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 221. 20] महाभारते [ 12. 221.49 भूत्यर्थं सर्वभूतानां पद्मा श्रीः पद्ममालिनी / / 20 / यथार्थमानार्थकरा हीनिषेधा यतव्रताः // 34 अहं लक्ष्मीरहं भूतिः श्रीश्चाहं बलसूदन / नित्यं पर्वसु सुस्नाताः स्वनुलिप्ताः स्खलंकृताः / अहं श्रद्धा च मेधा च सन्नतिर्विजितिः स्थितिः // | उपवासतपःशीलाः प्रतीता ब्रह्मवादिनः // 35 अहं धृतिरहं सिद्धिरहं त्विड्भूतिरेव च / नैनानभ्युदियात्सूर्यो न चाप्यासन्प्रगेनिशाः / अहं स्वाहा स्वधा चैव संस्तुतिर्नियतिः कृतिः // 22 / रात्रौ दधि च सक्तंश्च नित्यमेव व्यवर्जयन् // 3 // राज्ञां विजयमानानां सेनाग्रेषु ध्वजेषु च / काल्यं घृतं चान्ववेक्षन्प्रयता ब्रह्मचारिणः / निवासे धर्मशीलानां विषयेषु पुरेषु च // 23 मङ्गलानपि चापश्यन्ब्राह्मणांश्चाप्यपूजयन् // 30 जितकाशिनि शूरे च संग्रामेष्वनिवर्तिनि / सदा हि ददतां धर्मः सदा चाप्रतिगृहताम् / निवसामि मनुष्येन्द्रे सदैव बलसूदन // 24 अधं च रात्र्याः स्वपतां दिवा चास्वपतां तथा // 38 धर्मनित्ये महाबुद्धौ ब्रह्मण्ये सत्यवादिनि / कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम् / . प्रश्रिते दानशीले च सदैव निवसाम्यहम् // 25 दायं च संविभागं च नित्यमेवानुमोदताम् / / 39 असुरेष्ववसं पूर्व सत्यधर्मनिबन्धना / विषण्णं त्रस्तमुद्विग्नं भयार्त व्याधिपीडितम् / विपरीतांस्तु तान्बुद्धा त्वयि वासमरोचयम् / / 26 हृतस्वं व्यसनातं च नित्यमाश्वासयन्ति ते // 40 शक्र उवाच / धर्ममेवान्ववर्तन्त न हिंसन्ति परस्परम् / कथंवृत्तेषु दैत्येषु त्वमवात्सीर्वरानने / अनुकूलाश्च कार्येषु गुरुवृद्धोपसेविनः // 41 दृष्ट्वा च किमिहागास्त्वं हित्वा दैतेयदानवान् // 27 पितृदेवातिथींश्चैव यथावत्तेऽभ्यपूजयन् / श्रीरुवाच। अवशेषाणि चाश्नन्ति नित्यं सत्यतपोरताः // 42 स्वधर्ममनुतिष्ठत्सु धैर्यादचलितेषु च / नैकेऽनन्ति सुसंपन्नं न गच्छन्ति परस्त्रियम् / स्वर्गमार्गाभिरामेषु सत्त्वेषु निरता ह्यहम् // 28 सर्वभूतेष्ववर्तन्त यथात्मनि दयां प्रति // 43 दानाध्ययनयज्ञेज्या गुरुदैवतपूजनम् / नैवाकाशे न पशुषु नायोनौ न च पर्वसु / विप्राणामतिथीनां च तेषां नित्यमवर्तत // 29 इन्द्रियस्य विसर्ग तेऽरोचयन्त कदाचन // 44 सुसंमृष्टगृहाश्चासञ्जितस्त्रीका हुताग्नयः / नित्यं दानं तथा दाक्ष्यमार्जवं चैव नित्यदा / गुरुशुश्रूषवो दान्ता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः // 30 / उत्साहश्चानहंकारः परमं सौहृदं क्षमा // 45 श्रद्दधाना जितक्रोधा दानशीलानसूयकाः। सत्यं दानं तपः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा / भृतपुत्रा भृतामात्या भृतदारा ह्यनीर्षवः // 31 / / मित्रेषु चानभिद्रोहः सर्वं तेष्वभवत्प्रमो // 46 अमर्षणा न चान्योन्यं स्पृहयन्ति कदाचन / निद्रा तन्द्रीरसंप्रीतिरसूया चानवेक्षिता / न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः // 32 अरतिश्च विषादश्च न स्पृहा चाविशन्त तान् // 47 दातारः संगृहीतार आर्याः करुणवेदिनः। साहमेवंगुणेष्वेव दानवेष्ववसं पुरा। महाप्रसादा ऋजवो दृढभक्ता जितेन्द्रियाः // 33 प्रजासर्गमुपादाय नैकं युगविपर्ययम् // 48 संतुष्टभृत्यसचिवाः कृतज्ञाः प्रियवादिनः / ततः कालविपर्यासे तेषां गुणविपर्ययात् / .. -2292 - Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 221. 49] शान्तिपर्व [12. 221.78 अपश्यं विगतं धर्म कामक्रोधवशात्मनाम् // 49 आश्रमस्थान्विकर्मस्थाः प्रद्विषन्ति परस्परम् / सभासदां ते वृद्धानां सत्याः कथयतां कथाः / संकराश्चाप्यवर्तन्त न च शौचमवर्तत // 64 प्राहसन्नभ्यसूयंश्च सर्ववृद्धान्गुणावराः // 50 ये च वेदविदो विप्रा विस्पष्टमनृचश्च ये / यूनः सहसमासीनान्वृद्धानभिगतान्सतः / निरन्तरविशेषास्ते बहुमानावमानयोः // 65 नाभ्युत्थानाभिवादाभ्यां यथापूर्वमपूजयन् // 51 हावमाभरणं वेषं गतिं स्थितिमवेक्षितुम् / वर्तयन्त्येव पितरि पुत्राः प्रभवताऽऽत्मनः / असेवन्त भुजिष्या वै दुर्जनाचरितं विधिम् // 16 अमित्रभृत्यतां प्राप्य ख्यापयन्तोऽनपत्रपाः // 52 स्त्रियः पुरुषवेषेण पुंसः स्त्रीवेषधारिणः / तथा धर्मादपेतेन कर्मणा गर्हितेन ये। .. क्रीडारतिविहारेषु परां मुदमवाप्नुवन् // 67 महतः प्राप्नुवन्त्यर्थांस्तेष्वेषामभवत्पृहा // 53 प्रभवद्भिः पुरा दायानहेभ्यः प्रतिपादितान् / उषैश्चाप्यवदनरात्रौ नीचैस्ताग्निरज्वलत् / नाभ्यवर्तन्त नास्तिक्याद्वर्तन्तः संभवेष्वपि // 68 पुत्राः पितृनभ्यवदन्भार्याश्चाभ्यवदन्पतीन् // 54 मित्रेणाभ्यर्थितं मित्रमर्थे संशयिते क्वचित् / मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम् / वालकोट्यप्रमात्रेण स्वार्थेनाघ्नत तद्वसु // 69 गुरुवन्नाभ्यनन्दन्त कुमारान्नान्वपालयन् // 55 परस्वादानरुचयो विपण्यव्यवहारिणः / भिक्षा बलिमदत्त्वा च स्वयमन्नानि भुञ्जते / अदृश्यन्तार्यवर्णेषु शूद्राश्चापि तपोधनाः // 70 अनिष्ट्वा संविभज्याथ पितृदेवातिथीन्गुरून् // 56 अधीयन्तेऽव्रताः केचिद्वृथाव्रतमथापरे / न शौचमनुरुध्यन्त तेषां सूदजनास्तथा। अशुश्रूषुर्गुरोः शिष्यः कश्चिच्छिष्यसखो गुरुः // मनसा कर्मणा वाचा भक्तमासीदनावृतम् // 57 पिता चैव जनित्री च श्रान्तौ वृत्तोत्सवाविव / विप्रकीर्णानि धान्यानि काकमूषकभोजनम् / अप्रभुत्वे स्थितौ वृद्धावन्नं प्रार्थयतः सुतान् // 72 अपावृतं पयोऽतिष्ठदुच्छिष्टाश्चास्पृशन्घृतम् / / 58 तत्र वेदविदः प्राज्ञा गाम्भीर्ये सागरोपमाः। कुरालपाटीपटकं प्रकीर्णं कांस्यभाजनम् / कृष्यादिष्वभवन्सक्ता मूर्खाः श्राद्धान्यभुञ्जत // 73 द्रव्योपकरणं सर्व नान्ववैक्षत्कुटुम्बिनी / / 59 प्रातः प्रातश्च सुप्रश्नं कल्पनं प्रेषणक्रियाः। प्राकारागारविध्वंसान स्म ते प्रतिकुर्वते / शिष्यानुप्रहितास्तस्मिन्नकुर्वन्गुरवश्व ह // 74 नाद्रियन्ते पशून्बद्धा यवसेनोदकेन च // 60 श्वश्रूश्वशुरयोरग्रे वधूः प्रेष्यानशासत / बालानां प्रेक्षमाणानां स्वयं भक्षानभक्षयन् / अन्वशासञ्च भर्तारं समाहूयाभिजल्पती॥ 75 तथा भृत्यजनं सर्व पर्यश्नन्ति च दानवाः // 61 प्रयत्नेनापि चारक्षञ्चित्तं पुत्रस्य वै पिता / पायसं कृसरं मांसमपूपानथ शष्कुलीः / व्यभजंश्चापि संरम्भाद्दुःखवासं तथावसन् // 76 अपाचयनात्मनोऽर्थे वृथामांसान्यभक्षयन् // 62 अग्निदाहेन चोरैर्वा राजभिर्वा हृतं धनम् / उत्सूर्यशायिनश्वासन्सर्वे चासन्प्रगेनिशाः / दृष्ट्वा द्वेषात्प्राहसन्त सुहृत्संभाविता ह्यपि // 77 भवर्तन्कलहाश्चात्र दिवारानं गृहेगृहे // 63 कृतघ्ना नास्तिकाः पापा गुरुदाराभिमर्शिनः / अनार्याश्चार्यमासीनं पर्युपासन्न तत्र ह। | अभक्ष्यभक्षणरता निर्मर्यादा हतत्विषः // 78 - 2293 - Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 221. 79 ] महाभारते [ 12. 22263 तेष्वेवमादीनाचारानाचरत्सु विपर्यये। न धर्ममार्गाद्विचचाल कश्चन / नाहं देवेन्द्र वत्स्यामि दानवेष्विति मे मतिः // 79 अनेकरत्नाकरभूषणा च भूः तां मां स्वयमनुप्राप्तामभिनन्द शचीपते / सुघोषघोषा भुवनौकसां जये // 90 त्वयार्चितां मां देवेश पुरोधास्यन्ति देवताः // 80 क्रियाभिरामा मनुजा यशस्विनो यत्राहं तत्र मत्कान्ता मद्विशिष्टा मदर्पणाः / बभुः शुभे पुण्यकृतां पथि स्थिताः। सप्त देव्यो मयाष्टम्यो वासं चेष्यन्ति मेऽष्टधा॥८१ नरामराः किंनरयक्षराक्षसाः / आशा श्रद्धा धृतिः कान्तिर्विजितिः सन्नतिः क्षमा / समृद्धिमन्तः सुखिनो यशस्विनः // 91 अष्टमी वृत्तिरेतासां पुरोगा पाकशासन // 82 न जात्वकाले कुसुमं कुतः फलं ताश्चाहं चासुरांस्त्यक्त्वा युष्मद्विषयमागता / पपात वृक्षात्पवनेरितादपि / त्रिदशेषु निवत्स्यामो धर्मनिष्टान्तरात्मसु // 83 रसप्रदाः कामदुघाश्च धेनवो ___भीष्म उवाच / न दारुणा वाग्विचचार कस्यचित् // 1 इत्युक्तवचनां देवीमत्यर्थं तौ ननन्दतुः / इमां सपर्यां सह सर्वकामदैः नारदश्च त्रिलोकर्षिर्वृत्रहन्ता च वासवः // 84. श्रियाश्च शक्रप्रमुखैश्च दैवतैः / ततोऽनलसखो वायुः प्रववौ देववेश्मसु / पठन्ति ये विप्रसदः समागमे इष्टगन्धः सुखस्पर्शः सर्वेन्द्रियसुखावहः // 85 समृद्धकामाः श्रियमाप्नुवन्ति ते // 93; शुचौ चाभ्यर्चिते देशे त्रिदशाः प्रायशः स्थिताः / त्वया कुरूणां वर यत्प्रचोदितं लक्ष्म्या सहितमासीनं मघवन्तं दिदृक्षवः // 86 भवाभवस्येह परं निदर्शनम् / . ततो दिवं प्राप्य सहस्रलोचनः तदद्य सर्वं परिकीर्तितं मया श्रियोपपन्नः सुहृदा सुरर्षिणा / परीक्ष्य तत्त्वं परिगन्तुमर्हसि // 94 .. रथेन हर्यश्वयुजा सुरर्षभः इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ___सदः सुराणामभिसत्कृतो ययौ // 87 ___ एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 221 // अथेङ्गितं वज्रधरस्य नारदः 222 श्रियाश्च देव्या मनसा विचारयन् / युधिष्ठिर उवाच / श्रियै शशंसामरदृष्टपौरुषः किंशीलः किंसमाचारः किंविद्यः किंपरायणः / शिवेन तत्रागमनं महर्द्धिमत् // 88 प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्बुवम् // 1 :: ततोऽमृतं द्यौः प्रववर्ष भास्वती ___ भीष्म उवाच / पितामहस्यायतने स्वयंभुवः। मोक्षधर्मेषु नियतो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः। . - अनाहता दुन्दुभयश्च नेदिरे प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्बुवम् // 2 - तथा प्रसन्नाश्च दिशश्चकाशिरे // 89 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / / * यथतु सस्येषु ववर्ष वासवो जैगीषव्यस्य संवादमसितस्य च भारत // 3: -2294 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 222. 4] शान्तिपर्व [12. 223.4 जैगीषव्यं महाप्राज्ञं धर्माणामागतागमम् / आस्थितस्तमहं मार्गमसूयिष्यामि कं कथम् / / अध्यन्तमहृष्यन्तमसितो देवलोऽब्रवीत् // 4 / निन्द्यमानः प्रशस्तो वा हृष्येयं केन हेतुना // 18 न प्रीयसे वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यसि / / यद्यदिच्छन्ति तन्मार्गमभिगच्छन्ति मानवाः। का ते प्रज्ञा कुतश्चैषा किं चैतस्याः परायणम् // 5 / न मे निन्दाप्रशंसाभ्यां हासवृद्धी भविष्यतः॥१९ इति तेनानुयुक्तः स तमुवाच महातपाः / / अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य तत्त्ववित् / महद्वाक्यमसंदिग्धं पुष्कलार्थपदं शुचिः // 6 विषस्येवोद्विजेन्नित्यं संमानस्य विचक्षणः / / 20 या गतिर्या परा निष्ठा या शान्तिः पुण्यकर्मणाम्। अवज्ञातः सुखं शेते इह चामुत्र चोभयोः / तां तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छसि वै द्विज॥७ विमुक्तः सर्वपापेभ्यो योऽवमन्ता स बध्यते // 21 निन्दत्सु च समो नित्यं प्रशंसत्सु च देवल / / परां गतिं च ये केचित्प्रार्थयन्ति मनीषिणः / निळुवन्ति च ये तेषां समयं सुकृतं च ये // 8 / एतद्रूतं समाश्रित्य सुखमेधन्ति ते जनाः // 22 उक्ताश्च न विवक्षन्ति वक्तारमहिते रतम् / सर्वतश्च समाहृत्य ऋतून्सर्वाञ्जितेन्द्रियः / प्रतिहन्तुं न चेच्छन्ति हन्तारं वै मनीषिणः // 9 / प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेर्बुवम् // 23 नाप्राप्तमनुशोचन्ति प्राप्तकालानि कुर्वते। नास्य देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः / न चातीतानि शोचन्ति न चैनान्प्रतिजानते // 10 पदमन्ववरोहन्ति प्राप्तस्य परमां गतिम् // 24 संप्राप्तानां च पूज्यानां कामादर्थेषु देवल / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यथोपपत्ति कुर्वन्ति शक्तिमन्तः कृतव्रताः // 11 द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 222 // पकविद्या महाप्राज्ञा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः / 223 मनसा कर्मणा वाचा नापराध्यन्ति कस्यचित् // 12 युधिष्ठिर उवाच / अनीर्षवो न चान्योन्यं विहिंसन्ति कदाचन / प्रियः सर्वस्य लोकस्य सर्वसत्त्वाभिनन्दिता / न च जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः // 13 / गुणैः सर्वैरुपेतश्च को न्वस्ति भुवि मानवः // 1 निन्दाप्रशंसे चात्यर्थं न वदन्ति परस्य ये / भीष्म उवाच / न च निन्दाप्रशंसाभ्यां विक्रियन्ते कदाचन // 14 अत्र ते वर्तयिष्यामि पृच्छतो भरतर्षभ / सर्वतश्च प्रशान्ता ये सर्वभूतहिते रताः / उग्रसेनस्य संवादं नारदे केशवस्य च // 2 न क्रुध्यन्ति न हृष्यन्ति नापराध्यन्ति कस्यचित् / विमुच्य हृदयग्रन्थींश्चम्यन्ते यथासुखम् // 15 उग्रसेन उवाच। न येषां बान्धवाः सन्ति ये चान्येषां न बान्धवाः। पश्य संकल्पते लोको नारदस्य प्रकीर्तने / अमित्राश्च न सन्त्येषां ये चामित्रा न कस्यचित् // मन्ये स गुणसंपन्नो ब्रूहि तन्मम पृच्छतः // 3 य एवं कुर्वते माः सुखं जीवन्ति सर्वदा।। वासुदेव उवाच। धर्ममेवानुवर्तन्ते धर्मज्ञा द्विजसत्तम। कुकुराधिप यान्मन्ये शृणु तान्मे विवक्षतः / ये ह्यतो विच्युता मार्गाते हृष्यन्त्युद्विजन्ति च // | नारदस्य गुणान्साधून्संक्षेपेण नराधिप // 4 -2295 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 223. 5 ] महाभारते [ 12. 224.9 न चारित्रनिमित्तोऽस्याहंकारो देहपातनः / कृतश्रमः कृतप्रज्ञो न च तृप्तः समाधितः / अभिन्नश्रुतचारित्रस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 5 नियमस्थोऽप्रमत्तश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 20 तपस्वी नारदो बाढं वाचि नास्य व्यतिक्रमः / सापत्रपश्च युक्तश्च सुनेयः श्रेयसे परैः। कामाद्वा यदि वा लोभात्तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 6 अभेत्ता परगुह्यानां तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 21 अध्यात्मविधितत्त्वज्ञः क्षान्तः शक्तो जितेन्द्रियः / न हृष्यत्यर्थलाभेषु नालाभेषु व्यथत्यपि / ऋजुश्च सत्यवादी च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 7 स्थिरबुद्धिरसक्तात्मा तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 22 तेजसा यशसा बुद्ध्या नयेन विनयेन च। तं सर्वगुणसंपन्नं दक्षं शुचिमकातरम् / जन्मना तपसा वृद्धस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 8 कालज्ञं च नयज्ञं च कः प्रियं न करिष्यति // 23 सुखशीलः सुसंभोगः सुभोज्यः स्वादरः शुचिः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सुवाक्यश्चाप्यनीय॑श्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 9 प्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 223 // कल्याणं कुरुते बाढं पापमस्मिन्न विद्यते / 224 न प्रीयते परानथै स्तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 10 __युधिष्ठिर उवाच / वेदश्रुतिभिराख्यानरर्थानभिजिगीषते / आद्यन्तं सर्वभूतानां श्रोतुमिच्छामि कौरव / तितिक्षुरनवज्ञश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 11 ध्यानं कर्म च कालं च तथैवायुयुगे युगे // 1 समत्वाद्धि प्रियो नास्ति नाप्रियश्च कथंचन / लोकतत्त्वं च कार्येन भूतानामागतिं गतिम् / मनोनुकूलवादी च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 12 सर्गश्च निधनं चैव कुत एतत्प्रवर्तते // 2 बहुश्रुतश्चित्रकथः पण्डितोऽनलमोऽशठः। यदि तेऽनुग्रहे बुद्धिरस्मास्विह सतां वर / अदीनोऽक्रोधनोऽलुब्धस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः / / 13 एतद्भवन्तं पृच्छामि तद्भवान्प्रब्रवीतु मे // 3 नार्थे न धर्मे कामे वा भूतपूर्वोऽस्य विग्रहः / / पूर्व हि कथितं श्रुत्वा भृगुभाषितमुत्तमम् / दोषाश्चास्य समुच्छिन्नास्तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 14 भरद्वाजस्य विप्रर्षेस्ततो मे बुद्धिरुत्तमा // 4 रढभक्तिरनिन्द्यात्मा श्रुतवाननृशंसवान् / जाता परमधर्मिष्ठा दिव्यसंस्थानसंस्थिता / वीतसंमोहदोषश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 15 ततो भूयस्तु पृच्छामि तद्भवान्वक्तुमर्हति // 5 असक्तः सर्वसङ्गेषु सत्तात्मेव च लक्ष्यते / भीष्म उवाच / भदीर्घसंशयो वाग्मी तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 16 अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / समाधिर्नास्य मानार्थे नात्मानं स्तौति कर्हि चित् / जगौ यद्भगवान्व्यासः पुत्राय परिपृच्छते // 6 अनीयुदृढसंभाषस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः / / 17. अधीत्य वेदानखिलान्साङ्गोपनिषदस्तथा / लोकस्य विविधं वृत्तं प्रकृतेश्चाप्यकुत्सयन् / / अन्विच्छन्नैष्ठिकं कर्म धर्मनैपुणदर्शनात् // . संसर्गविद्याकुशलस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः / / 18 कृष्णद्वैपायनं व्यासं पुत्रो वैयासकिः शुकः / नासूयत्यागमं कंचित्स्वं तपो नोपजीवति / पप्रच्छ संदेहमिमं छिन्नधर्मार्थसंशयम् // 8 भवन्ध्यकालो वश्यात्मा तस्मात्सर्वत्र पूजितः // 19 / भूतप्रामस्य कर्तारं कालज्ञाने च निश्चयम् / --2296 - Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 224. 9] शान्तिपर्व [12. 224. 36 ब्राह्मणस्य च यत्कृत्यं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 9 एतद्ब्रह्मविदां तात विदितं ब्रह्म शाश्वतम् // 21 तस्मै प्रोवाच तत्सर्वं पिता पुत्राय पृच्छते / चतुष्पात्सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे / अतीतानागते विद्वान्सर्वज्ञः सर्वधर्मवित् // 10 नाधर्मेणागमः कश्चित्परस्तस्य प्रवर्तते // 22 भनाद्यन्तमजं दिव्यमजरं ध्रुवमव्ययम् / इतरेष्वागमाद्धर्मः पादशस्त्ववरोप्यते / अप्रतय॑मविज्ञेयं ब्रह्माग्रे समवर्तत // 11 चौरिकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते // 23 काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः / त्रिंशत्तु काष्ठा गणयेत्कलां ताम् / कृते त्रेतादिष्वेतेषां पादशो हसते वयः // 24 त्रिंशत्कलाश्चापि भवेन्मुहूर्तो वेदवादाश्चानुयुगं हसन्तीति च नः श्रुतम् / भागः कलाया दशमश्च यः स्यात् // 12 आयूंषि चाशिषश्चैव वेदस्यैव च यत्फलम् // 25 त्रिंशन्मुहूर्तश्च भवेदहश्च' अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे / रात्रिश्च संख्या मुनिभिः प्रणीता / अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्तिकृता इव // 26 मासः स्मृतो रात्र्यहनी च त्रिंश तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम् / त्संवत्सरो द्वादशमास उक्तः / द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेव कलौ युगे // 27 संवत्सरं द्वे अयने वदन्ति एतां द्वादशसाहस्री युगाख्यां कवयो विदुः / संख्याविदो दक्षिणमुत्तरं च // 13 सहस्रं परिवृत्तं तद्ब्राह्म दिवसमुच्यते // 28 अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषलौकिके / रात्रिस्तावत्तिथी ब्राह्मी तदादौ विश्वमीश्वरः। रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः // 14 प्रलयेऽध्यात्ममाविश्य सुप्त्वा सोऽन्ते विबुध्यते // पिज्ये राज्यहनी मास: प्रविभागस्तयोः पुनः।। सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः / कृष्णोऽहः कर्मचेष्टायां शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी // 15 रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥३० देवे रात्र्यहनी वर्ष प्रविभागस्तयोः पुनः / प्रतिबुद्धो विकुरुते ब्रह्माक्षय्यं क्षपाक्षये / अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यादक्षिणायनम् // 16 सुजते च महद्भुतं तस्माद्व्यक्तात्मकं मनः // 31 थे ते रात्र्यहनी पूर्व कीर्तिते दैवलौकिके / ब्रह्म तेजोमयं शुक्रं यस्य सर्वमिदं जगत् / तयोः संख्याय वर्षाग्रं ब्राह्मे वक्ष्याम्यहःक्षपे॥१७ एकस्य भूतं भूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम् // 32 तेषां संवत्सराग्राणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः / अहर्मुखे विबुद्धः सन्सृजते विद्यया जगत् / कृते त्रेतायुगे चैव द्वापरे च कलौ तथा // 18 / अग्र एव महाभूतमाशु व्यक्तात्मकं मनः // 33 चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम् / अभिभूयेह चार्चिष्मद्र्यसृजत्सप्त मानसान् / तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः // 19 दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् // 34 इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु / मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया। एकापायेन संयान्ति सहस्राणि शतानि च // 20 . आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दो गुणो मतः // 35 एतानि शाश्वताल्लोकान्धारयन्ति सनातनान्। / आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः / प. मा. 288 -2297 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 224. 36] महाभारते [ 12. 224. 15 बलवाञ्जायते वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः // 36 पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः। / वायोरपि विकुर्वाणाज्ज्योतिर्भूतं तमोनुदम् / त्रय एतेऽपृथग्भूता नविवेकं तु केचन // 515 रोचिष्णु जायते तत्र तद्रूपगुणमुच्यते // 37 एवमेतच्च नैवं च यद्भूतं सृजते जगत् / / ज्योतिषोऽपि विकुर्वाणाद्भवन्त्यापो रसात्मिकाः / कर्मस्था विषमं युः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः // 51 अद्भयो गन्धगुणा भूमिः पूर्वेषा सष्टिरुच्यते // 38 तपो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं दमः शमः। : गुणाः पूर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम् / तेन सर्वानवाप्नोति यान्कामान्मनसेच्छति // 5 // तेषां यावत्तिथं यद्यत्तत्तत्तावद्गुणं स्मृतम् // 39 तपसा तदवाप्नोति यद्भूतं सृजते जगत् / उपलभ्याप्सु चेद्गन्धं केचिद्रूयुरनैपुणात् / स तद्भुतश्च सर्वेषां भूतानां भवति प्रभुः // 54 पृथिव्यामेव तं विद्यादापो वायुं च संश्रितम् // 40 ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम् / एते तु सप्त पुरुषा नानावीर्याः पृथक्पृथक् / अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा // 55 नाशक्नुवन्प्रजाः स्रष्टुमसमागम्य सर्वतः // 41 ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु सृष्टयः / ते समेत्य महात्मानमन्योन्यमभिसंश्रिताः। शर्वर्यन्तेषु जातानां तान्येवैभ्यो ददाति सः // 5 // शरीराश्रयणं प्राप्तास्ततः पुरुष उच्यते / / 42 नामभेदस्तपःकर्मयज्ञाख्या लोकसिद्धयः / श्रयणाच्छरीरं भवति मूर्तिमत्षोडशात्मकम् / आत्मसिद्धिस्तु वेदेषु प्रोच्यते दशभिः क्रमैः // 5 // तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मणा // 43 यदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददृष्टिभिः। . सर्वभूतानि चादाय तपसश्चरणाय च / तदन्तेषु यथायुक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते // 58 . आदिकर्ता महाभूतं तमेवाहुः प्रजापतिम् // 44 कर्मजोऽयं पृथग्भावो द्वंद्वयुक्तो वियोगिनः।। स वै सृजति भूतानि स एव पुरुषः परः। आत्मसिद्धिस्तु विज्ञाता जहाति प्रायशो बलम् // ' अजो जनयते ब्रह्मा देवर्षिपितृमानवान् // 45 द्वे ब्रह्मणी बेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्। . लोकान्नदीः समुद्रांश्च दिशः शैलान्वनस्पतीन् / शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति // 6. नरनिररक्षांसि वयःपशुमृगोरगान् / आरम्भयज्ञाः क्षत्रस्य हविर्यज्ञा विशस्तथा।। अव्ययं च व्ययं चैव द्वयं स्थावरजङ्गमम् // 46 परिचारयज्ञाः शूद्रास्तु तपोयज्ञा द्विजातयः // 6 तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे। त्रेतायुगे विधिस्त्वेषां यज्ञानां न कृते युगे। / तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः / / 47 द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा / / हिंस्राहिंस्र मृदुकरे धर्माधर्मे ऋतानृते / अपृथग्धर्मिणो मां ऋक्सामानि यजूंषि च / अतो यन्मन्यते धाता तस्मात्तत्तस्य रोचते / / 48 काम्यां पुष्टिं पृथग्दृष्ट्वा तपोभिस्तप एव च॥॥ महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु / त्रेतायां तु समस्तास्ते प्रादुरासन्महाबलाः / / विनियोगं च भूतानां धातैव विदधात्युत // 49 संयन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः // 6 केचित्पुरुषकारं तु प्राहुः कर्मविदो जनाः / / त्रेतायां संहता ह्येते यज्ञा वर्णास्तथैव च / दैवमित्यपरे विप्राः स्वभावं भूतचिन्तकाः // 50 / संरोधादायुषस्त्येते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे // 65 - 2298 - Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 224. 66 ] शान्तिपर्व [12. 225. 16 रश्यन्ते नापि दृश्यन्ते वेदाः कलियुगेऽखिलाः / आपस्ततः प्रतिष्ठन्ति ऊर्मिमत्यो महास्वनाः / उत्सीदन्ते सयज्ञाश्च केवला धर्मसेतवः // 66 / / सर्वमेवेदमापूर्य तिष्ठन्ति च चरन्ति च // 4 कृते युगे यस्तु धर्मो ब्राह्मणेषु प्रदृश्यते / अपामपि गुणांस्तात ज्योतिराददते यदा। आत्मवत्सु तपोवत्सु श्रुतवत्सु प्रतिष्ठितः // 67 आपस्तदा आत्तगुणा ज्योतिष्युपरमन्ति च // 5 अधर्मव्रतसंयोगं यथाधर्म युगे युगे। यदादित्यं स्थितं मध्ये गृहन्ति शिखिनोऽर्चिषः / विक्रियन्ते स्वधर्मस्था वेदवादा यथायुगम् // 68 सर्वमेवेदमर्चिभिः पूर्ण जाज्वल्यते नमः // 6 यथा विश्वानि भूतानि वृष्ट्या भूयांसि प्रावृषि। ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुराददते यदा। सज्यन्ते जङ्गमस्थानि तथा धर्मा युगे युगे॥ 69 प्रशाम्यति तदा ज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान् // 7 यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये। ततस्तु मूलमासाद्य वायुः संभवमात्मनः / दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्रह्माहरात्रिषु // 70 अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्च दोधवीति दिशो दश // 8 विहितं कालनानात्वमनादिनिधनं तथा। वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं प्रसते यदा / कीर्तितं यत्पुरस्तात्ते तत्सूते चात्ति च प्रजाः // 71 प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नानदत् // 9 दधाति प्रभवे स्थानं भूतानां संयमो यमः। आकाशस्य गुणं शब्दमभिव्यक्तात्मकं मनः / स्वभावेनैव वर्तन्ते द्वंद्वयुक्तानि भूरिशः // 72 मनसो व्यक्तमव्यक्तं ब्राह्मः स प्रतिसंचरः॥ 10 सर्गः कालः क्रिया वेदाः कर्ता कार्य क्रिया फलम् / तदात्मगुणमाविश्य मनो ग्रसति चन्द्रमाः / प्रोक्तं ते पुत्र सर्व वै यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 73 मनस्युपरतेऽध्यात्मा चन्द्रमस्यवतिष्ठते // 11 प्रत्याहारं तु वक्ष्यामि शर्वर्यादो गतेऽहनि। तं तु कालेन महता संकल्पः कुरुते वशे / यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वमीश्वरः॥ 74 चित्तं प्रसति संकल्पस्तच्च ज्ञानमनुत्तमम् // 12 दिवि सूर्यास्तथा सप्त दहन्ति शिखिनोऽर्चिषा / कालो गिरति विज्ञानं कालो बलमिति श्रुतिः / सर्वमेतत्तदार्चिभिः पूर्ण जाज्वल्यते जगत् // 75 बलं कालो प्रसति तु तं विद्वान्कुरुते वशे // 13 इति श्रीमहाभारतें शान्तिपर्वणि आकाशस्य तदा घोषं तं विद्वान्कुरुतेऽऽत्मनि / __चतुर्विशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 224 // तव्यक्तं परं ब्रह्म तच्छाश्वतमनुत्तमम् / 225 एवं सर्वाणि भूतानि ब्रह्मैव प्रतिसंचरः // 14 व्यास उवाच / यथावत्कीर्तितं सम्यगेवमेतदसंशयम / पृथिव्यां यानि भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च / बोध्य विद्यामयं दृष्ट्वा योगिभिः परमात्मभिः // 15 तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च // 1 एवं विस्तारसंक्षेपौ ब्रह्माव्यक्ते पुनः पुनः / ततः प्रलीने सर्वस्मिन्स्थावरे जङ्गमे तथा।। युगसाहस्रयोरादावह्नो रात्र्यास्तथैव च // 16 अकाष्ठा निस्तृणा भूमिदृश्यते कूर्मपृष्ठवत् // 2 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पञ्चवित्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 225 // आत्तगन्धा तदा भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते // 3 - 2299 - Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 226. 1] महाभारते [12. 226.20 226 अर्हतामनुरूपाणां नादेयं ह्यस्ति किंचन / व्यास उवाच। उच्चैःश्रवसमप्यश्वं प्रापणीयं सतां विदुः // 15 भूतग्रामे नियुक्तं यत्तदेतत्कीर्तितं मया / अनुनीय तथा काव्यः सत्यसंधो महाव्रतः / ब्राह्मणस्य तु यत्कृत्यं तत्ते वक्ष्यामि पृच्छते // 1 स्वैः प्रागैाह्मणप्राणान्परित्राय दिवं गतः // 16 जातकर्मप्रभृत्यस्य कर्मणां दक्षिणावताम् / रन्तिदेवश्च सांकृत्यो वसिष्ठाय महात्मने / क्रिया स्यादा समावृत्तेराचार्ये वेदपारगे // 2 अपः प्रदाय शीतोष्णा नाकपृष्ठे महीयते // 10 अधीत्य वेदानखिलान्गुरुशुश्रूषणे रतः / आत्रेयश्चन्द्रदमयोरर्हतोर्विविधं धनम् / गुरूणामनृणो भूत्वा समावर्तेत यज्ञवित् // 3 दत्त्वा लोकान्ययौ धीमाननन्तान्स महीपतिः॥१८ आचार्येणाभ्यनुज्ञातश्चतुर्णामेकमाश्रमम् / शिबिरौशीनरोऽङ्गानि सुतं च प्रियमौरसम् / आ विमोक्षाच्छरीरस्य सोऽनुतिष्ठेद्यथाविधि // 4 ब्राह्मणार्थमुपाकृत्य नाकपृष्ठमितो गतः / / 19. . प्रजासर्गेण दारैश्च ब्रह्मचर्येण वा पुनः / प्रतर्दनः काशिपतिः प्रदाय नयने स्वके / वने गुरुसकाशे वा यतिधर्मेण वा पुनः // 5 ब्राह्मणायातुलां कीर्तिमिह चामुत्र चाश्नुते // 20 गृहस्थस्त्वेव सर्वेषां चतुर्णा मूलमुच्यते / दिव्यं मृष्टशलाकं तु सौवर्णं परमर्द्धिमत् / तत्र पक्ककषायो हि दान्तः सर्वत्र सिध्यति // 6 छत्रं देवावृधो दत्त्वा सराष्ट्रोऽभ्यपतद्दिवम् // 21 प्रजावाञ्श्रोत्रियो यज्वा मुक्तो दिव्यैत्रिभिऋणैः / सांकृतिश्च तथात्रेयः शिष्येभ्यो ब्रह्म निर्गुणम्। : अथान्यानाश्रमान्पश्चात्पूतो गच्छति कर्मभिः / / 7 उपदिश्य महातेजा गतो लोकाननुत्तमाम् // 22 यत्पृथिव्यां पुण्यतमं विद्यास्थानं तदावसेत्। अम्बरीषो गवां दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यः प्रतापवान् / यतेत तस्मिन्प्रामाण्यं गन्तुं यशसि चोत्तमे // 8 अर्बुदानि दशैकं च सराष्ट्रोऽभ्यपतद्दिवम् / / 23 तपसा वा सुमहता विद्यानां पारणेन वा। सावित्री कुण्डले दिव्ये शरीरं जनमेजयः। इज्यया वा प्रदानैर्वा विप्राणां वर्धते यशः // 9 ब्राह्मणार्थे परित्यज्य जग्मतुर्लोकमुत्तमम् // 24 यावदस्य भवत्यस्मिल्लोके कीर्तिर्यशस्करी / सर्वरत्नं वृषादर्भो युवनाश्वः प्रियाः स्त्रियः। तावस्पुण्यकृताल्लोकाननन्तान्पुरुषोऽश्नुते // 10 रम्यमावसथं चैव दत्त्वामुं लोकमास्थितः // 25 अध्यापयेदधीयीत याजयेत यजेत च / निमी राष्ट्रं च वैदेहो जामदग्न्यो वसुंधराम् / न वृथा प्रतिगृह्णीयान्न च दद्यात्कथंचन // 11 ब्राह्मणेभ्यो ददौ चापि गयश्चोवीं सपत्तनाम् // 26 याज्यतः शिष्यतो वापि कन्यया वा धनं महत् / अवर्षति च पर्जन्ये सर्वभूतानि चासकृत् / यद्यागच्छेद्यजेद्दद्यान्नकोऽश्नीयात्कथंचन // 12 वसिष्ठो जीवयामास प्रजापतिरिव प्रजाः // 27 गृहमावसतो ह्यस्य नान्यत्तीर्थं प्रतिग्रहात् / करंधमस्य पुत्रस्तु मरुत्तो नृपतिस्तथा। देवर्षिपितृगुर्वथं वृद्धातुरबुभुक्षताम् // 13 कन्यामङ्गिरसे दत्त्वा दिवमाशु जगाम ह // 28 अन्तर्हिताभितप्तानां यथाशक्ति बुभषताम् / ब्रह्मदत्तश्च पाश्चाल्यो राजा बुद्धिमतां वरः / द्रव्याणामतिशक्त्यापि देयमेषां कृतादपि // 14 / / निधि शङ्ख द्विजाग्रेभ्यो दत्त्वा लोकानवाप्तवान् // =2300 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 226. 30] शान्तिपर्व [ 12. 227. 19 राजा मित्रसहश्चापि वसिष्ठाय महात्मने। तिष्ठत्येतेषु गृहवान्षट्सु कर्मसु स द्विजः / मदयन्तीं प्रियां दत्त्वा तया सह दिवं गतः // 30 / पञ्चभिः सततं यज्ञैः श्रद्दधानो यजेत च // 5 सहस्रजिच्च राजर्षिः प्राणानिष्टान्महायशाः / धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् / ब्राह्मणार्थे परित्यज्य गतो लोकाननुत्तमान् // 31 वीतहर्षभयक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति // 6 सर्वकामैश्च संपूर्ण दत्त्वा वेश्म हिरण्मयम् / दानमध्ययनं यज्ञस्तपो हीरार्जवं दमः / मुद्गलाय गतः स्वर्ग शतद्युम्नो महीपतिः // 32 एतैर्वर्धयते तेजः पाप्मानं चापकर्षति // 7 नाम्ना च द्युतिमान्नाम शाल्वराजः प्रतापवान् / धूतपाप्मा तु मेधावी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / दत्त्वा राज्यमृचीकाय गतो लोकाननुत्तमान् / / 33 कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद्ब्रह्मणः पदम् // 8 मदिराश्वश्च राजर्षिर्दत्त्वा कन्यां सुमध्यमाम् / अग्नींश्च ब्राह्मणांश्चाद्देवताः प्रणमेत च / हिरण्यहस्ताय गतो लोकान्देवैरभिष्टुतान् // 34 वर्जयेद्रुषतीं वाचं हिंसां चाधर्मसंहिताम् // 9 लोमपादश्च राजर्षिः शान्तां दत्त्वा सुतां प्रभुः / एषा पूर्वतरा वृत्तिाह्मणस्य विधीयते / ऋश्यशृङ्गाय विपुलैः सर्वकामैरयुज्यत // 35 ज्ञानागमेन कर्माणि कुर्वन्कर्मसु सिध्यति // 10 दत्त्वा शतसहस्रं तु गवां राजा प्रसेनजित् / पश्चेन्द्रियजलां घोरां लोभकूलां सुदुस्तराम् / सवत्सानां महातेजा गतो लोकाननुत्तमान् // 36 मन्युपङ्कामनाधृष्यां नदी तरति बुद्धिमान् // 11 एते चान्ये च बहवो दानेन तपसा च ह / काममन्यूद्धतं यत्स्यान्नित्यमत्यन्तमोहितम् / महात्मानो गताः स्वर्ग शिष्टात्मानो जितेन्द्रियाः / / महता विधिदृष्टेन बलेनाप्रतिघातिना / तेषां प्रतिष्ठिता कीर्तिर्यावस्थास्यति मेदिनी / स्वभावस्रोतसा वृत्तमुह्यते सततं जगत् // 12 दानयज्ञप्रजासगैरेते हि दिवमाप्नुवन् // 38 / कालोदकेन महता वर्षावर्तेन संततम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मासोर्मिणर्तुवेगेन पक्षोलपतृणेन च // 13 षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 226 // निमेषोन्मेषफेनेन अहोरात्रजवेन च / 227 कामग्राहेण घोरेण वेदयज्ञप्लवेन च // 14 धर्मद्वीपेन भूतानां चार्थकामरवेण च / त्रयीविद्यामवेक्षेत वेदेषूक्तामथाङ्गतः / ऋतसोपानतीरेण विहिंसातरुवाहिना // 15 ऋक्सामवर्णाक्षरतो यजुषोऽथर्वणस्तथा // 1 युगह्रदौघमध्येन ब्रह्मप्रायभवेन च / वेदवादेषु कुशला ह्यध्यात्मकुशलाश्च ये। धात्रा सृष्टानि भूतानि कृष्यन्ते यमसादनम् // 16 सत्त्ववन्तो महाभागाः पश्यन्ति प्रभवाप्ययौ // 2 एतत्प्रज्ञामयै/रा निस्तरन्ति मनीषिणः / एवं धर्मेण वर्तेत क्रियाः शिष्टवदाचरेत् / प्लवैरप्लववन्तो हि किं करिष्यन्त्यचेतसः // 17 संरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत वै द्विजः // 3 उपपन्नं हि यत्प्राज्ञो निस्तरेन्नेतरो जनः / सद्भप आगतविज्ञानः शिष्टः शास्त्रविचक्षणः / दूरतो गुणदोषो हि प्राज्ञः सर्वत्र पश्यति // 18 खधर्मेण क्रिया लोके कुर्वाणः सत्यसंगरः॥४ | संशयात्मा स कामात्मा चलचित्तोऽल्पचेतनः / -2301 - व्यास उवाच / Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 227. 19 ] महाभारते [12. 228.18 228 भप्राज्ञो न तरत्येव यो ह्यास्ते न स गच्छति // 19 अप्लवो हि महादोषमुह्यमानोऽधिगच्छति / व्यास उवाच / कामप्राहगृहीतस्य ज्ञानमप्यस्य न प्लवः // 20 अथ चेद्रोचयेदेतद्रुह्येत मनसा तथा / तस्मादुन्मजनस्यार्धे प्रयतेत विचक्षणः / उन्मजंश्च निमज्जंश्च ज्ञानवान्प्लववान्भवेत् // 1 एतदुन्मज्जनं तस्य यदयं ब्राह्मणो भवेत् // 21 प्रज्ञया निर्मितैरास्तारयन्त्यनुधान्प्लवैः / त्र्यवदाते कुले जातनिसंदेहस्त्रिकर्मकृत् / नाबुधास्तारयन्त्यन्यानात्मानं वा कथंचन // 2 तस्मादुन्मज्जनस्तिष्ठेन्निस्तरेत्प्रज्ञया यथा // 22 छिन्नदोषो मुनिर्योगान्युक्तो युञ्जीत द्वादश / संस्कृतस्य च दान्तस्य नियतस्य कृतात्मनः / दश कर्मसुखानानुपायापायनिर्भयः // 3 प्राजस्यानन्तरा सिद्धिरिह लोके परत्र च // 23 चक्षुराचारवित्प्राज्ञो मनसा दर्शनेन च / वर्तते तेषु गृहवानक्रुध्यन्ननसूयकः / यच्छेद्वाङ्मनसी बुद्ध्या य इच्छेज्ज्ञानमुत्तमम् / पञ्चभिः सततं यज्ञैर्विघसाशी यजेत च // 24 ज्ञानेन यच्छेदात्मानं य इच्छेच्छान्तिमात्मनः॥१ सतां वृत्तेन वर्तेत क्रियाः शिष्टवदाचरेत्। एतेषां चेदनुद्रष्टा पुरुषोऽपि सुदारुणः / असंरोधेन धर्मस्य वृत्ति लिप्सेदगर्हिताम् / / 25 यदि वा सर्ववेदज्ञो यदि वाप्यनृचोऽजपः // 5 श्रुतिविज्ञानतत्त्वज्ञः शिष्टाचारो विचक्षणः / यदि वा धार्मिको यज्वा यदि वा पापकृत्तमः / स्वधर्मेण क्रियावांश्च कर्मणा सोऽप्यसंकरः // 26 यदि वा पुरुषव्याघ्रो यदि वा क्लैब्यधारिता // 6 क्रियावाञ्श्रद्दधानश्च दाता प्राज्ञोऽनसूयकः। तरत्येव महादुर्ग जरामरणसागरम् / धर्माधर्मविशेषज्ञः सर्वं तरति दुस्तरम् / / 27 एवं ह्यतेन योगेन युञ्जानोऽप्येकमन्ततः। धृतिमानप्रमत्तश्च दान्तो धर्मविदात्मवान् / अपि जिज्ञासमानो हि शब्दब्रह्मातिवर्तते // 7 वीतहर्षभयक्रोधो ब्राह्मणो नावसीदति / / 28 धर्मोपस्थो ह्रीवरूथ उपायापायकूबरः / एषा पूर्वतरा वृत्तिाह्मणस्य विधीयते / अपानाक्षः प्राणयुगः प्रज्ञायुर्जीवबन्धनः // 8 ज्ञानवित्त्वेन कर्माणि कुर्वन्सर्वत्र सिध्यति // 29 चेतनाबन्धुरश्चारुराचारग्रहनेमिवान् / अधर्म धर्मकामो हि करोतीहाविचक्षणः / दर्शनस्पर्शनवहो घ्राणश्रवणवाहनः // 9 धर्म चाधर्मसंकाशं शोचन्निव करोति सः // 30 प्रज्ञानाभिः सर्वतत्रप्रतोदो ज्ञानसारथिः / धर्म करोमीति करोत्यधर्म क्षेत्रज्ञाधिष्ठितो धीरः श्रद्धादमपुरःसरः // 10 ___ मधर्मकामश्च करोति धर्मम् / त्यागवानुगः क्षेभ्यः शौचगो ध्यानगोचरः।। उभे बालः कर्मणी न प्रजान जीवयुक्तो रथो दिव्यो ब्रह्मलोके विराजते // 11 न्स जायते म्रियते चापि देही / / 31 अथ संत्वरमाणस्य रथमेतं युयुक्षतः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अक्षरं गन्तुमनसो विधिं वक्ष्यामि शीघ्रगम् // 12 सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 227 // सप्त यो धारणाः कृत्स्ना वाग्यतः प्रतिपद्यते। पृष्ठतः पार्श्वतश्चान्या यावत्यस्ताः प्रधारणाः // 13 -2302 - Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 228. 14] शान्तिपर्व [ 12. 229. 1 क्रमशः पार्थिवं यच्च वायव्यं खं तथा पयः / पञ्चविंशतितत्त्वानि तुल्यान्युभयतः समम् / ज्योतिषो यत्तदैश्वर्यमहंकारस्य बुद्धितः / / 14 योगे सांख्येऽपि च तथा विशेषांस्तत्र मे शृणु। भव्यक्तस्य तथैश्वर्यं क्रमशः प्रतिपद्यते / प्रोक्तं तद्व्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत् / विक्रमाश्चापि यस्यैते तथा युङ्क्ते स योगतः // 15 / जीर्यते म्रियते चैव चतुर्भिर्लक्षणैर्युतम् // 29 अथास्य योगयुक्तस्य सिद्धिमात्मनि पश्यतः / विपरीतमतो यत्तु तदव्यक्तमुदाहृतम् / निर्मध्यमानः सूक्ष्मत्वाद्रूपाणीमानि दर्शयेत् // 16 द्वावात्मानौ च वेदेषु सिद्धान्तेष्वप्युदाहृतौ // 30 शैशिरस्तु यथा धूमः सूक्ष्मः संश्रयते नमः / चतुर्लक्षणजं त्वन्यं चतुर्वर्गं प्रचक्षते / तथा देहाद्विमुक्तस्य पूर्वरूपं भवत्युत // 17 व्यक्तमव्यक्तजं चैव तथा बुद्धेमथेतरत् / / अथ धूमस्य विरमे द्वितीयं रूपदर्शनम् / सत्त्वं क्षेत्रज्ञ इत्येतहयमप्यनुदर्शितम् // 31 : मलरूपमिवाकाशे तत्रैवात्मनि पश्यति // 18 द्वावात्मानौ च वेदेषु विषयेषु च रज्यतः / अपां व्यतिक्रमे चापि वह्निरूपं प्रकाशते / विषयात्प्रतिसंहारः सांख्यानां सिद्धिलक्षणम् // 32 तस्मिन्नुपरते चास्य पीतवस्त्रवदिष्यते / निर्ममश्चानहकारो निद्वंद्वश्छिन्नसंशयः / वर्णारूपसवणं च तस्य रूपं प्रकाशते // 19 नैव क्रुध्यति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः // 33 भथ श्वेतां गतिं गत्वा वायव्यं सूक्ष्ममप्यजः / आक्रुष्टस्ताडितश्चैव मैत्रेण ध्याति नाशुभम् / .. माझं चेतसः सौक्ष्म्यमव्यक्तं ब्रह्मणोऽस्य वै // 20 वाग्दण्डकर्ममनसां त्रयाणां च निवर्तकः // 34 एतेष्वपि हि जातेषु फलजातानि मे शृणु। समः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते / जातस्य पार्थिवैश्वर्ये सष्टिरिष्टा विधीयते // 21 नैवेच्छति न चानिच्छो यात्रामात्रव्यवस्थितः // 35 प्रजापतिरिवाक्षोभ्यः शरीरात्सृजति प्रजाः / अलोलुपोऽव्यथो दान्तो न कृती न निराकृतिः / भङ्गल्यङ्गुष्ठमात्रेण हस्तपादेन वा तथा // 22 नास्येन्द्रियमनेकाग्रं नातिक्षिप्तमनोरथः / पृथिवीं कम्पयत्येको गुणो वायोरिति स्मृतः / अहिंस्रः सर्वभूतानामीटक्सांख्यो विमुच्यते॥३६ भाकाशभूतश्चाकाशे सवर्णत्वात्प्रणश्यति // 23 / अथ योगाद्विमुच्यन्ते कारणैर्निबोध मे। वर्णतो गृह्यते चापि कामात्पिबति चाशयान् / योगैश्वर्यमतिक्रान्तो योऽतिक्रामति मुच्यते // 3. न चास्य तेजसा रूपं दृश्यते शाम्यते तथा // 24 / इत्येषा भावजा बुद्धिः कथिता ते न संशयः / अहंकारस्य विजितेः पञ्चैते स्युर्वशानुगाः / एवं भवति निद्वंद्वो ब्रह्माणं चाधिगच्छति // 38 पण्णामात्मनि बुद्धौ च जितायां प्रभवत्यथ // 25 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निर्दोषा प्रतिभा घेनं कृत्स्ना समभिवर्तते / अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 228 // तथैव व्यक्तमात्मानमव्यक्तं प्रतिपद्यते // 26 229 यतो निःसरते लोको भवति व्यक्तसंज्ञकः / व्यांस उवाच / तत्राव्यक्तमयीं व्याख्यां शृणु त्वं विस्तरेण मे। | अथ ज्ञानप्लवं धीरो गृहीत्वा शान्निमास्थितः / तथा व्यक्तमयीं चैव संख्यां पूर्व निबोध मे // 27 | उन्मजंश्च निमजंश्च ज्ञानमेवाभिसंश्रयेत् // 1. - 2303 - Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 229. 2] महाभारते [ 12. 230.8 शुक उवाच / मध्यमानि द्वयान्याहुर्धर्मज्ञानीतराणि च। किं तज्ज्ञानमयो विद्या यया निस्तरति द्वयम् / धर्मज्ञानि विशिष्टानि कार्याकार्योपधारणात् // 1 // प्रबृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तिरिति चैव हि // 2 धर्मज्ञानि द्वयान्याहुर्वेदज्ञानीतराणि च / व्यास उवाच / वेदज्ञानि विशिष्टानि वेदो ह्येषु प्रतिष्ठितः // 10 यस्तु पश्येत्स्वभावेन विना भावमचेतनः। वेदज्ञानि द्वयान्याहुः प्रवक्तृणीतराणि च। पुष्यते च पुनः सर्वान्प्रज्ञया मुक्तहेतुकः // 3 प्रवक्तृणि विशिष्टानि सर्वधर्मोपधारणात् // 18 येषां चैकान्तभावेन स्वभावः कारणं मतम् / विज्ञायन्ते हि यैर्वेदाः सर्वधर्मक्रियाफलाः। पूत्वा तृणबुसीकां वै ते लभन्ते न किंचन / / 4 / सयज्ञाः सखिला वेदाः प्रवक्तभ्यो विनिःसृताः / / मे चैनं पक्षमाश्रित्य वर्तयन्त्यल्पचेतसः / प्रवक्तृणि द्वयान्याहुरात्मज्ञानीतराणि च / स्वभावं कारणं ज्ञात्वा न श्रेयः प्राप्नुवन्ति ते // 5 आत्मज्ञानि विशिष्टानि जन्माजन्मोपधारणात॥२० स्वभावो हि विनाशाय मोहकर्ममनोभवः / धर्मद्वयं हि यो वेद स सर्वः सर्वधर्मवित् / निरुक्तमेतयोरेतत्स्वभावपरभावयोः॥६ स त्यागी सत्यसंकल्पः स तु क्षान्तः स ईश्वरः // कृष्यादीनि हि कर्माणि सस्यसंहरणानि च / धर्मज्ञानप्रतिष्ठं हि तं देवा ब्राह्मणं विदुः। प्रज्ञावद्भिः प्रक्लप्तानि यानासनगृहाणि च // 7 शब्दब्रह्मणि निष्णातं परे च कृतनिश्चयम् // 23 आक्रीडानां गृहाणां च गदानामगदस्य च। . अन्तःस्थं च बहिष्ठं च येऽऽधियज्ञाधिदैवतम् / प्रज्ञावन्तः प्रवक्तारो ज्ञानवद्भिरनुष्ठिताः / / 8 जानन्ति तान्नमस्यामस्ते देवास्तात ते द्विजाः // 25 प्रज्ञा संयोजयत्यथैः प्रज्ञा श्रेयोऽधिगच्छति / तेषु विश्वमिदं भूतं साग्रं च जगदाहितम् / .. राजानो भुञ्जते राज्यं प्रज्ञया तुल्यलक्षणाः // 9 तेषां माहात्म्यभावस्य सदृशं नास्ति किंचन // 21 पारावयं तु भूतानां ज्ञानेनैवोपलभ्यते / आदि ते निधनं चैव कर्म चातीत्य सर्वशः / विद्यया तात सृष्टानां विद्यैव परमा गतिः // 10 चतुर्विधस्य भूतस्य सर्वस्येशाः स्वयंभुवः // 25 भूतानां जन्म सर्वेषां विविधानां चतुर्विधम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि जराय्वण्डमथोद्भदं स्वेदं चाप्युपलक्षयेत् // 11 एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 229 / स्थावरेभ्यो विशिष्टानि जङ्गमान्युपलक्षयेत् / 230 उपपन्नं हि यच्चेष्टा विशिष्येत विशिष्ययोः // 12 व्यास उवाच। आहुर्दिबहुपादानि जङ्गमानि द्वयानि च। एषा पूर्वतरा वृत्तिाह्मणस्य विधीयते / बहुपान्यो विशिष्टानि द्विपादानि बहून्यपि // 13 ज्ञानवानेव कर्माणि कुर्वन्सर्वत्र सिध्यति // 1 द्विपदानि द्वयान्याहुः पार्थिवानीतराणि च / तत्र चेन्न भवेदेवं संशयः कर्मनिश्चये / पार्थिवानि विशिष्टानि तानि ह्यन्नानि भुञ्जते // 14 / किं नु कर्म स्वभावोऽयं ज्ञानं कर्मेति वा पुनः / / पार्थिवानि द्वयान्याहुर्मध्यमान्युत्तमानि च।। तत्र चेह विवित्सा स्याज्ज्ञानं चेत्पुरुषं प्रति / मध्यमानि विशिष्टानि जातिधर्मोपधारणात् // 15 / उपपत्त्युपलब्धिभ्यां वर्णयिष्यामि तच्छृणु // 3 -2304 - Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 280. 4] शान्तिपर्व [12. 231.9 पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः / विसृतं कालनानात्वमनादिनिधनं च यत् / देवमेके प्रशंसन्ति स्वभावं चापरे जनाः / / 4 | कीर्तितं तत्पुरस्तान्मे यतः संयान्ति यान्ति च॥१९ पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः / धातेदं प्रभवस्थानं भूतानां संयमो यमः। त्रयमेतत्पृथग्भूतमविवेकं तु केचन // 5 स्वभावेन प्रवर्तन्ते द्वंद्वसृष्टानि भूरिशः // 20 एवमेतन्न चाप्येवमुभे चापि न चाप्युभे / सर्गः कालो धृतिर्वेदाः कर्ता कार्य क्रिया फलम् / कर्मस्था विषमं ब्रूयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः // 6 / एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 21 त्रेतायां चापरे चैव कलिजाश्च ससंशयाः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तपस्विनः प्रशान्ताश्च सत्त्वस्थाश्च कृते युगे // 7 त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 230 // अपृथग्दर्शिनः सर्वे ऋक्सामसु यजुःषु च। . 231 कामद्वेषौ पृथग्दृष्ट्वा तपः कृत उपासते // 8 भीष्म उवाच / तपोधर्मेण संयुक्तस्तपोनित्यः सुसंशितः / इत्युक्तोऽभिप्रशस्यैतत्परमर्षेस्तु शासनम् / तेन सर्वानवाप्नोति कामान्यान्मनसेच्छति // 9 मोक्षधर्मार्थसंयुक्तमिदं प्रष्टुं प्रचक्रमे // 1 तपसा तदवाप्नोति यद्भूत्वा सृजते जगत् / तद्भूतश्च ततः सर्वो भूतानां भवति प्रभुः // 10 शुक उवाच / तदुक्तं वेदवादेषु गहनं वेददर्शिभिः / प्रजापाश्रोत्रियो यज्वा वृद्धः प्रज्ञोऽनसूयकः / वेदान्तेषु पुनर्व्यक्तं क्रमयोगेन लक्ष्यते // 11 अनागतमनैतिचं कथं ब्रह्माधिगच्छति // 2 भारम्भयज्ञाः क्षत्रस्य हविर्यज्ञा विशः स्मृताः / तपसा ब्रह्मचर्येण सर्वत्यागेन मेधया / परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञा द्विजातयः // 12 सांख्ये वा यदि वा योगे एतत्पृष्टोऽभिधत्स्व मे // 3 परिनिष्ठितकार्यो हि स्वाध्यायेन द्विजो भवेत् / मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं समवाप्यते। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते // 13 येनोपायेन पुरुषैस्तञ्च व्याख्यातुमर्हसि // 4 त्रेतादौ सकला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा / _ व्यास उवाच। संरोधादायुषस्त्वेते व्यस्यन्ते द्वापरे युगे // 14 नान्यत्र विद्यातपसोर्नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् / द्वापरे विप्लवं यान्ति वेदाः कलियुगे तथा / नान्यत्र सर्वसंत्यागात्सिद्धि विन्दति कश्चन // 5 दृश्यन्ते नापि दृश्यन्ते कलेरन्ते पुनः पुनः // 15 महाभूतानि सर्वाणि पूर्वसृष्टिः स्वयंभुवः / उत्सीदन्ति स्वधर्माश्च तत्राधर्मेण पीडिताः / भूयिष्ठं प्राणभृद्रामे निविष्टानि शरीरिषु // 6 गवां भूमेश्च ये चापामोषधीनां च ये रसाः // 16 / भूमेर्देहो जलात्सारो ज्योतिषश्चक्षुषी स्मृते / अधर्मान्तर्हिता वेदा वेदधर्मास्तथाश्रयाः / प्राणापानाश्रयो वायुः खेष्वाकाशं शरीरिणाम् // 7 विक्रियन्ते स्वधर्मस्थाः स्थावराणि चराणि च // 17 / क्रान्ते विष्णुर्बले शक्रः कोष्ठेऽग्निर्भुक्तमर्छति / यथा सर्वाणि भूतानि वृष्टिभ मानि वर्षति / कर्णयोः प्रदिशः श्रोत्रे जिह्वायां वाक्सरस्वती // 8 सृजते सर्वतोऽङ्गानि तथा वेदा युगे युगे // 18 कर्णौ त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी / म. भा. 289 -2305 - Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 231. 9] महाभारते [12. 232.2 दर्शनानीन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये // 9 यथा गतिर्न दृश्येत तथैव सुमहात्मनः // 24 शब्दं स्पर्श तथा रूपं रसं गन्धं च पञ्चमम् / कालः पचति भूतानि सर्वाण्येवात्मनात्मनि / " इन्द्रियाणि पृथक्त्वर्थान्मनसो दर्शयन्त्युत // 10 यस्मिंस्तु पच्यते कालस्तं न वेदेह कश्चन // 25 इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते वश्यान्यन्तेव वाजिनः / / न तदूर्ध्वं न तिर्यक्च नाधो न च तिरः पुनः / / मनश्चापि सदा युङ्क्ते भूतात्मा हृदयाश्रितः / / 11 न मध्ये प्रतिगृह्णीते नैव कश्चित्कुतश्चन // 26 इन्द्रियाणां तथैवेषां सर्वेषामीश्वरं मनः / सर्वेऽन्तःस्था इमे लोका बाह्यमेषां न किंचन / नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मनसस्तथा // 12 यः सहस्रं समागच्छेद्यथा बाणो गुणच्युतः // 2 // इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः / नैवान्तं कारणस्येयाद्यद्यपि स्यान्मनोजवः / : / प्राणापानौ च जीवश्च नित्यं देहेषु देहिनाम् // 13 तस्मात्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नास्ति स्थलतरं ततः // 24 आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य गुणशब्दो न चेतना / सर्वतःपाणिपादान्तं सर्वतोक्षिशिरोमुखम् / / सत्त्वं हि तेजः सृजति न गुणान्वै कदाचन // 14 सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति / / 29 एवं सप्तदशं देहे वृतं षोडशभिर्गुणैः। तदेवाणोरणुतरं तन्महङ्ग्यो महत्तरम्। मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि // 15 / तदन्तः सर्वभूतानां ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते // 30 न ह्ययं चक्षुषा दृश्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः / अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः / / मनसा संप्रदीप्तेन महानात्मा प्रकाशते // 16 क्षरः सर्वेषु भूतेषु दिव्यं ह्यमृतमक्षरम् // 31 / अशब्दस्पर्शरूपं तदरसागन्धमव्ययम् / नवद्वारं पुरं गत्वा हसो हि नियतो वशी। अशरीरं शरीरे वे निरीक्षेत निरिन्द्रियम् // 17 ईशः सर्वस्य भूतस्य स्थावरस्य चरस्य च // 32 अव्यक्तं व्यक्तदेहेषु मत्र्येष्वमरमाश्रितम् / हानिभङ्गविकल्पानां नवानां संश्रयेण च / योऽनुपश्यति स प्रेत्य कल्पते ब्रह्मभूयसे // 18 शरीराणामजस्याहुहंसत्वं पारदर्शिनः / / 33 / विद्याभिजनसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि / / हंसोक्तं चाक्षरं चैव कूटस्थं यत्तदक्षरम / शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः // 19 तद्विद्वानक्षरं प्राप्य जहाति प्राणजन्मनी // 34 न हि सर्वेषु भूतेषु जङ्गमेषु ध्रुवेषु च / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि वसत्येको महानात्मा येन सर्वमिदं ततम् // 20 - एकत्रिंशदाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 231 // सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि / 232 यदा पश्यति भूतात्मा ब्रह्म संपद्यते तदा // 21 व्यास उवाच / यावानात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि / पृच्छतस्तव सत्पुत्र यथावदिह तत्त्वतः / य एवं सततं वेद सोऽमृतत्वाय कल्पते // 22 सांख्यन्यायेन संयुक्तं यदेतत्कीर्तितं मया // 1 सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतहितस्य च / योगकृत्यं तु ते कृत्स्नं वर्तयिष्यामि तच्छृणु / देवापि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः // 23 / एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणां च सर्वशः / शकुनीनामिवाकाशे जले वारिचरस्य वा। आत्मनो ध्यायिनस्तात ज्ञानमेतदनुत्तमम् / / 2 -2306 - Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 232. 3] शान्तिपर्व [ 12. 232. 31 तदेतदुपशान्तेन दान्तेनाध्यात्मशीलिना / यदैतान्यवतिष्ठन्ते मनःषष्ठानि चात्मनि / आत्मारामेण बुद्धेन बोद्धव्यं शुचिकर्मणा // 3 प्रसीदन्ति च संस्थाय तदा ब्रह्म प्रकाशते // 17 योगदोषान्समुच्छिद्य पश्च यान्कवयो विदुः / विधूम इव दीप्ताचिरादित्य इव दीप्तिमान् / कामं क्रोधं च लोभं च भयं स्वप्नं च पश्चमम् // 4 / वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे पश्यत्यात्मानमात्मना / क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात् / सर्वं च तत्र सर्वत्र व्यापकत्वाच्च दृश्यते // 18 सत्त्वसंसेवनाद्वीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति / / 5 तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः / धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा। धृतिमन्तो महाप्राज्ञाः सर्वभूतहिते रताः // 19 चक्षुः श्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च कर्मणा // 6 एवं परिमितं कालमाचरन्संशितव्रतः / अप्रमादाद्भयं जह्याल्लोभं प्राज्ञोपसेवनान् / आसीनो हि रहस्येको गच्छेदक्षरसात्म्यताम् // 20 एवमेतान्योगदोषाञ्जयेन्नित्यमतन्द्रितः // 7 प्रमोहो भ्रम आवर्तो घ्राणश्रवणदर्शने // अग्नीश्च ब्राह्मणांश्चाद्देवताः प्रणमेत च / अद्भुतानि रसस्पर्शे शीतोष्णे मारुताकृतिः // 21 वर्जयेद्रुषितां वाचं हिंसायुक्ता मनोनुगाम् / / 8 प्रतिभामुपसर्गाश्चाप्युपसंगृह्य योगतः / ब्रह्म तेजोमयं शुक्रं यस्य सर्वमिदं रसः / तांस्तत्त्वविदनादृत्य स्वात्मनैव निवर्तयेत् // 22 एकस्य भूतं भूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम् // 9 कुर्यात्परिचयं योगे त्रैकाल्यं नियतो मुनिः / ध्यानमध्ययनं दानं सत्यं हीराजवं क्षमा / गिरिशृङ्गे तथा चैत्ये वृक्षाग्रेषु च योजयेत् // 23 शौचमाहारसंशुद्धिरिन्द्रियाणां च निग्रहः // 10 संनियम्येन्द्रियग्रामं गोष्ठे भाण्डमना इव / एतैर्विवर्धते तेजः पाप्मानं चापकर्षति / एकाग्रश्चिन्तयेन्नित्यं योगान्नोद्वेजयेन्मनः // 24 सिध्यन्ति चास्य सर्वार्था विज्ञानं च प्रवर्तते // 11 येनोपायेन शक्येत संनियन्तुं चलं मनः / समः सर्वेषु भूतेषु लब्धालब्धेन वर्तयन् / तं तं युक्तो निषेवेत न चैव विचलेत्ततः // 25 धुतपाप्मा तु तेजस्वी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / शून्या गिरिगुहाश्चैव देवतायतनानि च / कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद्ब्रह्मणः पदम् / / 12 शून्यागाराणि चैकाग्रो निवासार्थमुपक्रमेत् // 26 मनसश्चेन्द्रियाणां च कृत्वैकाग्र्यं समाहितः / नाभिष्वजेत्परं वाचा कर्मणा मनसापि वा। प्रापात्रापररात्रेषु धारयेन्मन आत्मना // 13 उपेक्षको यताहारो लब्धालब्धे समो भवेत् // 27 जन्तोः पञ्चन्द्रियस्यास्य यदेकं छिद्रमिन्द्रियम् / यश्चैनमभिनन्देत यश्चैनमपवादयेत् / ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् // 14 / समस्तयोश्चाप्युभयो भिध्यायेच्छुभाशुभम् // 28 मनस्तु पूर्वमादद्यात्कुमीनानिव मत्स्यहा / न प्रहृष्येत लाभेषु नालाभेषु च चिन्तयेत् / ततः श्रोत्रं ततश्चक्षुर्जिह्वां घ्राणं च योगवित् // 15 समः सर्वेषु भूतेषु सधर्मा मातरिश्वनः // 29 तत एतानि संयम्य मनसि स्थापयेद्यतिः। एवं सर्वात्मनः साधोः सर्वत्र समदर्शिनः / यथैवापोह्य संकल्पान्मनो ह्यात्मनि धारयेत् // 16 षण्मासान्नित्ययुक्तस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते // 30 पश्च ज्ञानेन संधाय मनसि स्थापयेद्यतिः। | वेदनार्ताः प्रजा दृष्ट्वा समलोष्टाश्मकाञ्चनः / - 2307 - Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 232. 31] महाभारते [12. 233. 20 एतस्मिन्निरतो मार्गे विरमेन्न विमोहितः / / 31 कर्मणा जायते प्रेत्य मूर्तिमान्षोडशात्मकः / अपि वर्णावकृष्टस्तु नारी वा धर्मकाशिणी / विद्यया जायते नित्यमव्ययो ह्यव्ययात्मकः // 8 तावप्येतेन मार्गेण गच्छेतां परमां गतिम् // 32 कर्म त्वेके प्रशंसन्ति स्वल्पबुद्धितरा नराः / अजं पुराणमजरं सनातनं तेन ते देहजालानि रमयन्त उपासते // 9 यदिन्द्रियैरुपलभते नरोऽचलः / ये तु बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिनः / अणोरणीयो महतो महत्तरं न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिबन्निव // 10 तदात्मना पश्यति युक्त आत्मवान् // 33 कर्मणः फलमाप्नोति सुखदुःखे भवाभवौ। इदं महर्षेर्वचनं महात्मनो विद्यया तदवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति // 11 यथावदुक्तं मनसानुदृश्य च / यत्र गत्वा न म्रियते यत्र गत्वा न जायते / अवेक्ष्य चेयात्परमेष्ठिसात्म्यतां न जीयते यत्र गत्वा यत्र गत्वा न वर्धते // 12 प्रयान्ति यां भूतगतिं मनीषिणः // 34 यत्र तद्ब्रह्म परममव्यक्तमजरं ध्रुवम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अव्याहतमनायासममृतं चावियोगि च // 13 . द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 232 // द्वंद्वैर्यत्र न बाध्यन्ते मानसेन च कर्मणा / 233 समाः सर्वत्र मैत्राश्च सर्वभूतहिते रताः // 14 शुक उवाच / विद्यामयोऽन्यः पुरुषस्तात कर्ममयोऽपरः / यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च। विद्धि चन्द्रमसं दर्श सूक्ष्मया कलया स्थितम् // कां दिशं विद्यया यान्ति कां च गच्छन्ति कर्मणा // तदेतदृषिणा प्रोक्तं विस्तरेणानुमीयते / एतद्वै श्रोतुमिच्छामि तद्भवान्प्रब्रवीतु मे / नवजं शशिनं दृष्ट्वा वक्रं तन्तुमिवाम्बरे // 16 एतत्त्वन्योन्यवरूप्ये वर्तते प्रतिकूलतः // 2 एकादशविकारात्मा कलासंभारसंभृतः / भीष्म उवाच / मूर्तिमानिति तं विद्धि तात कर्मगुणात्मकम् // 15 इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं पराशरसुतः सुतम् / देवो यः संश्रितस्तस्मिन्नबिन्दुरिव पुष्करे / कर्मविद्यामयावेतौ व्याख्यास्यामि क्षराक्षरौ // 3 क्षेत्रमं तं विजानीयान्नित्यं त्यागजितात्मकम् // 18 यां दिशं विद्यया यान्ति यां च गच्छन्ति कर्मणा / तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि जीवगुणानिमान् / शृणुष्वैकमनाः पुत्र गह्वरं ह्येतदन्तरम् // 4 जीवमात्मगुणं विद्यादात्मानं परमात्मनः // 19 अस्ति धर्म इति प्रोक्तं नास्तीत्यत्रैव यो वदेत् / सचेतनं जीवगुणं वदन्ति तस्य पक्षस्य सदृशमिदं मम भवेदथ // 5 स चेष्टते चेष्टयते च सर्वम् / द्वाविमावथ पन्थानौ यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः / ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तौ च सुभाषितः // 6 प्रावर्तयद्यो भुवनानि सप्त / / 20 कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः // 7 त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 233 // - 2308 - Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 234. 1] शान्तिपर्व [12. 234.28 234 यथोक्तकारिणः सर्वे गच्छन्ति परमां गतिम् // 13 शुक उवाच / एको य आश्रमानेताननुतिष्ठेद्यथाविधि / क्षरात्प्रभृति यः सर्गः सगुणानीन्द्रियाणि च / अकामद्वेषसंयुक्तः स परत्र महीयते // 14 बुद्ध्यैश्वर्याभिसर्गाथं यद्ध्यानं चात्मनः शुभम् // 1 चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता / भूय एव तु लोकेऽस्मिन्सद्वृत्तिं वृत्तिहैतुकीम् / एतामाश्रित्य निःश्रेणी ब्रह्मलोके महीयते // 15 यया सन्तः प्रवर्तन्ते तदिच्छाम्यनुवर्णितम् // 2 आयुषस्तु चतुर्भागं ब्रह्मचार्यनसूयकः / वेदे वचनमुक्तं तु कुरु कर्म त्यजेति च / गुरौ वा गुरुपुत्रे वा वसेद्धर्मार्थकोविदः // 16 कथमेतद्विजानीयां तच्च व्याख्यातुमर्हसि // 3 कर्मातिरेकेण गुरोरध्येतव्यं बुभूषता / लोकवृत्तान्ततत्त्वज्ञः पूतोऽहं गुरुशासनात् / .. दक्षिणो नापवादी स्यादाहूतो गुरुमाश्रयेत् // 1. कृत्वा बुद्धिं वियुक्तात्मा त्यक्ष्याम्यात्मानमव्यथः॥४ जघन्यशायी पूर्व स्यादुत्थायी गुरुवेश्मनि / व्यास उवाच / यच्च शिष्येण कर्तव्यं कार्य दासेन वा पुनः // 18 यैषा वै विहिता वृत्तिः पुरस्ताद्ब्रह्मणा स्वयम् / कृतमित्येव तत्सर्वं कृत्वा तिष्ठेत पार्श्वतः / एषा पूर्वतरैः सद्भिराचीर्णा परमर्षिभिः // 5 किंकरः सर्वकारी च सर्वकर्मसु कोविदः // 19 ब्रह्मचर्येण वै लोकाञ्जयन्ति परमर्षयः / शुचिर्दक्षो गुणोपेतो यादिषुरिवात्वरः / आत्मनश्च हृदि श्रेयस्त्वन्विच्छ मनसात्मनि // 6 चक्षुषा गुरुमव्यग्रो निरीक्षेत जितेन्द्रियः // 20 वने मूलफलाशी च तप्यन्सुविपुलं तपः / नाभुक्तवति चाश्नीयादपीतवति नो पिबेत् / पुण्यायतनचारी च भूतानामविहिंसकः // 7 न तिष्ठति तथासीत नासुप्ते प्रस्वपेत च // 21 विधूमे सन्नमुसले वानप्रस्थप्रतिश्रये / उत्तानाभ्यां च पाणिभ्यां पादावस्य मृदु स्पृशेत् / काले प्राप्ते चरन्भैक्षं कल्पते ब्रह्मभूयसे / 8 दक्षिणं दक्षिणेनैव सव्यं सव्येन पीडयेत् // 22 निःस्तुतिर्निनमस्कारः परित्यज्य शुभाशुभे। अभिवाद्य गुरुं ब्रूयाधीष्व भगवन्निति / अरण्ये विचरैकाकी येन केनचिदाशितः // 9 इदं करिष्ये भगवन्निदं चापि कृतं मया // 23 शुक उवाच / इति सर्वमनुज्ञाप्य निवेद्य गुरवे धनम् / यदिदं वेदवचनं लोकवादे विरुध्यते।। कुर्यात्कृत्वा च तत्सर्वमाख्येयं गुरवे पुनः // 24 प्रमाणे चाप्रमाणे च विरुद्ध शास्त्रता कुतः // 10 यांस्तु गन्धारसान्वापि ब्रह्मचारी न सेवते / इत्येतच्छ्रोतुमिच्छामि भगवान्प्रब्रवीतु मे / सेवेत तान्समावृत्त इति धर्मेषु निश्चयः // 25 कर्मणामविरोधेन कथमेतत्प्रवर्तते / / 11 ये केचिद्विस्तरेणोक्ता नियमा ब्रह्मचारिणः / भीष्म उवाच / तान्सर्वाननुगृह्णीयाद्भवेश्चानपगो गुरोः // 26 इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं गन्धवत्याः सुतः सुतम् / स एवं गुरवे प्रीतिमुपहृत्य यथाबलम् / ऋषिस्तत्पूजयन्वाक्यं पुत्रस्यामिततेजसः // 12 / आश्रमेष्वाश्रमेष्वेवं शिष्यो वर्तेत कर्मणा // 27 गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। / वेदव्रतोपवासेन चतुर्थे चायुषो गते। -2309 - Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 234. 28 ] महाभारते [12. 235. 25 गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावर्तेद्यथाविधि // 28 अमृतं यज्ञशेषं स्वाद्भोजनं हविषा समम् / धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनुत्पाद्य धर्मतः / भृत्यशेषं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम् // 1 द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधिव्रती भवेत् // 29 स्वदारनिरतो दान्तो ह्यनसूयुर्जितेन्द्रियः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः // 12 चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 234 // वृद्धबालातुरैवैद्यैर्जातिसंबन्धिबान्धवैः। मातापितृभ्यां जामीभिर्धात्रा पुत्रेण भार्यया॥ 11 व्यास उवाच / दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत् / द्वितीयमायुषो भागं गृहमेधी गृहे वसेत् / एतान्विमुच्य संवादान्सर्वपापैः प्रमुच्यते // 14 धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनुत्पाद्य सुव्रतः // 1 एतैर्जितैस्तु जयति सर्वाल्लोकान्न संशयः / गृहस्थवृत्तयश्चैव चतस्रः कविभिः स्मृताः / आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्ये पिता प्रभुः // 1 // कुसूलधान्यः प्रथमः कुम्भीधान्यस्त्वनन्तरम् // 2 अतिथिस्त्विन्द्रलोकेशो देवलोकस्य चविजः / अश्वस्तनोऽथ कापोतीमाश्रितो वृत्तिमाहरेत् / जामयोऽप्सरसां लोके वैश्वदेवे तु ज्ञातयः // 16 तेषां परः परो ज्यायान्धर्मतो लोकजित्तमः // 3 संबन्धिबान्धवा दिक्षु पृथिव्यां मातृमातुलौ / षट्कर्मा वर्तयत्येकस्त्रिभिरन्यः प्रवर्तते / वृद्धबालातुरकशास्त्वाकाशे प्रभविष्णवः // 17 द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रे व्यवस्थितः / भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्रः स्वका तनुः गृहमेधिव्रतान्यत्र महान्तीह प्रचक्षते // 4 छाया स्वा दासवर्गस्तु दुहिता कृपणं परम् // 15 नात्मार्थ पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत्पशून् / तम्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेन्नित्यमसंज्वरः / प्राणी वा यदि वाप्राणी संस्कारं यजुषार्हति // 5 गृहधर्मरतो विद्वान्धर्मनित्यो जितक्लमः // 19 न दिवा प्रवपेज्जातु न पूर्वापररात्रयोः / न चार्थबद्धः कर्माणि धर्म वा कंचिदाचरेत् / न भुञ्जीतान्तराकाले नानृतावाह्वये स्त्रियम् // 6 गृहस्थवृत्तयस्तिस्रस्तासां निःश्रेयसं परम् / / 20 नास्यानश्नन्वसेद्विप्रो गृहे कश्चिदपूजितः।। परस्परं तथैवाहुश्चातुराश्रम्यमेव तत् / तथास्यातिथयः पूज्या हव्यकव्यवहाः सदा // 7 ये चोक्ता नियमास्तेषां सर्व कार्य बुभूषता // 21 वेदविद्याव्रतस्नाताः श्रोत्रिया वेदपारगाः / कुम्भीधान्यैरुञ्छशिलैः कापोतीं चास्थितैस्तथा / स्वधर्मजीविनो दान्ताः क्रियावन्तस्तपस्विनः / यस्मिंश्चैते वसन्त्यर्हास्तद्राष्ट्रमभिवर्धते // 22 तेषां हव्यं च कव्यं चाप्यहणार्थं विधीयते // 8 दश पूर्वान्दश परान्पुनाति च पितामहान् / न खरैः संप्रयातस्य स्यधर्माज्ञानकस्य च / गृहस्थवृत्तयस्त्वेता वर्तयेद्यो गतव्यथः // 23 अपविद्धाग्निहोत्रस्य गुरोर्वालीककारिणः // 9 स चक्रचरलोकानां सदृशीं प्राप्नुयाद्गतिम् / संविभागोऽत्र भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते / यतेन्द्रियाणामथ वा गतिरेषा विधीयते // 24 तथैषापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना // 10 स्वर्गलोको गृहस्थानामुदारमनसां हितः / विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं चामृतभोजनः। स्वर्गो विमानसंयुक्तो वेददृष्टः सुपुष्पितः // 25 . -2310 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 235. 26 ] शान्तिपर्व [12. 236. 23 236 स्वर्गलोके गृहस्थानां प्रतिष्ठा नियतात्मनाम् / . अभ्रावकाशा वर्षासु हेमन्ते जलसंश्रयाः। ब्रह्मणा विहिता श्रेणिरेषा यस्मात्प्रमुच्यते / ग्रीष्मे च पश्चतपसः शश्वच्च मितभोजनाः॥१० द्वितीय क्रमशः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते / / 26 भूमौ विपरिवर्तन्ते तिष्ठेद्वा प्रपदैरपि / अतः परं परममुदारमाश्रमं स्थानासनैवर्तयन्ति सवनेष्वभिषिञ्चते // 11 तृतीयमाहुस्त्यजतां कलेवरम् / दन्तोलूखलिनः केचिदश्मकुट्टास्तथापरे / वनौकसां गृहपतिनामनुत्तमं शुक्लपक्षे पिबन्त्येके यवागू कथितां सकृत् // 12 शृणुष्वैतक्लिष्टशरीरकारिणाम् // 27 कृष्णपक्षे पिबन्त्येके भुञ्जते च यथाक्रमम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि . मूलैरेके फलैरेके पुष्पैरेके दृढव्रताः // 13 पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 235 // वर्तयन्ति यथान्यायं वैखानसमतं श्रिताः / एताश्चान्याश्च विविधा दीक्षास्तेषां मनीषिणाम् // भीष्म उवाच / चतुर्थश्चौपनिषदो धर्मः साधारणः स्मृतः / प्रोक्ता गृहस्थवृत्तिस्ते विहिता या मनीषिणाम् / वानप्रस्थो गृहस्थश्च ततोऽन्यः संप्रवर्तते // 15 तदनन्तरमुक्तं यत्तन्निबोध युधिष्ठिर / / 1 अस्मिन्नेव युगे तात विप्रैः सर्वार्थदर्शिभिः / क्रमशस्त्ववधूयनां तृतीयां वृत्तिमुत्तमाम् / अगस्त्यः सप्त ऋषयो मधुच्छन्दोऽघमर्षणः // 16 संयोगव्रतखिन्नानां वानप्रस्थाश्रमौकसाम् // 2 सांकृतिः सुदिवा तण्डिर्थवान्नोऽथ कृतश्रमः / श्रूयतां पार्थ भद्रं ते सर्वलोकाश्रयात्मनाम् / अहोवीर्यस्तथा काव्यस्ताण्ड्यो मेधातिथिर्बुधः॥१७ प्रेक्षापूर्व प्रवृत्तानां पुण्यदेशनिवासिनाम् / / 3 शलो वाकश्च निर्वाकः शून्यपालः कृतश्रमः / - व्यास उवाच / एवंधर्मसु विद्वांसस्ततः स्वर्गमुपागमन् // 18 गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः / तात प्रत्यक्षधर्माणस्तथा यायावरा गणाः / अपत्यस्यैव चापत्यं वनमेव तदाश्रयेत् // 4 ऋषीणामुग्रतपसां धर्मनैपुणदर्शिनाम् // 19 तृतीयमायुषो भागं वानप्रस्थाश्रमे वसेत् / अवाच्यापरिमेयाश्च ब्राह्मणा वनमाश्रिताः। तानेवाग्नीन्परिचरेद्यजमानो दिवौकसः // 5 वैखानसा वालखिल्याः सिकताश्च तथापरे // 20 नियतो नियताहारः षष्ठभक्तोऽप्रमादवान् / कर्मभिस्ते निरानन्दा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः / तदग्निहोत्रं ता गावो यज्ञाङ्गानि च सर्वशः // 6 गताः प्रत्यक्षधर्माणस्ते सर्वे वनमाश्रिताः / अकृष्टं वै व्रीहियवं नीवारं विघसानि च / अनक्षत्रा अनाधृष्या दृश्यन्ते ज्योतिषां गणाः॥२१ हवींषि संप्रयच्छेत मखेष्वत्रापि पञ्चसु / / 7 जरया च परिङ्नो व्याधिना च प्रपीडितः / वानप्रस्थाश्रमेऽप्येताश्चतस्रो वृत्तयः स्मृताः / चतुर्थे चायुषः शेषे वानप्रस्थाश्रमं त्यजेत् / सद्यःप्रक्षालकाः केचित्केचिन्मासिकसंचयाः // 8 / सद्यस्कारां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् / / 22 वार्षिकं संचयं केचित्केचिहादशवार्षिकम् / आत्मयाजी सोऽऽत्मरतिरात्मक्रीडात्मसंश्रयः / कुर्वन्यतिथिपूजार्थं यज्ञतत्रार्थसिद्धये // 9 आत्मन्यग्नीन्समारोप्य त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहान् // 23 -2311 - Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 236. 24] महाभारते [12. 237. 18 सद्यस्क्रांश्च यजेद्यज्ञानिष्टीश्चैवेह सर्वदा / प्रव्रजेच्च परं स्थानं परिव्रज्यामनुत्तमाम् // 3 सदैव याजिनां यज्ञादात्मनीज्या निवर्तते // 24 तद्भवानेवमभ्यस्य वर्ततां श्रूयतां तथा / त्रींश्चैवानीन्यजेत्सम्यगात्मन्येवात्ममोक्षणात् / एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान् // 4 प्राणेभ्यो यजुषा पञ्च षट् प्राश्नीयादकुत्सयन् / / 25 एकश्चरति यः पश्यन्न जहाति न हीयते / केशलोमनखान्वाप्य वानप्रस्थो मुनिस्ततः / अनग्निरनिकेतः स्याद्राममन्नार्थमाश्रयेत् // 5 आश्रमादाश्रमं सद्यः पूतो गच्छति कर्मभिः // 26 अश्वस्तनविधानः स्यान्मुनिर्भावसमन्वितः / अभयं सर्वभूतेभ्यो यो दत्त्वा प्रव्रजेहिजः / लध्वाशी नियताहारः सकृदन्ननिषेविता // 6 लोकास्तेजोमयास्तस्य प्रेत्य चानन्त्यमश्रुते // 27 कपालं वृक्षमूलानि कुचेलमसहायता / सुशीलवृत्तो व्यपनीतकल्मषो उपेक्षा सर्वभूतानामेतावद्भिक्षुलक्षणम् // 7 न चेह नामुत्र च कर्तुमीहते / यस्मिन्वाचः प्रविशन्ति कृपे प्राप्ताः शिला इव / अरोषमोहो गतसंधिविग्रहो न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् // 8 भवेदुदासीनवदात्मविन्नरः // 28 नैव पश्येन्न शृणुयादवाच्यं जातु कस्यचित् / यमेषु चैवात्मगतेषु न व्यथे ब्राह्मणानां विशेषेण नैव ब्रूयात्कथंचन // 9 ___ स्वशास्त्रसूत्राहुतिमन्त्रविक्रमः / यद्ब्राह्मणस्य कुशलं तदेव सततं वदेत् / भवेद्यथेष्टा गतिरात्मयाजिनो तूष्णीमासीत निन्दायां कुर्वन्भेषजमात्मनः // 10 न संशयो धर्मपरे जितेन्द्रिये // 29 येन पूर्णमिवाकाशं भवत्येकेन सर्वदा। ततः परं श्रेष्ठमतीव सद्गुणै शून्यं येन जनाकीर्णं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 1 // रधिष्ठितं त्रीनधिवृत्तमुत्तमम् / येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः / चतुर्थमुक्तं परमाश्रमं शृणु यत्रक्कचनशायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 12 प्रकीर्त्यमानं परमं परायणम् // 30 अहेरिव गणाद्भीतः सौहित्यान्नरकादिव / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कुणपादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 13 षत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 236 // न क्रुध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः / 237 सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 14 शुक उवाच / नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् / वर्तमानस्तथैवात्र वानप्रस्थाश्रमे यथा / कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा // 15 योक्तव्योऽऽत्मा यथा शक्त्या परं वै काश्ता पदम् // 1 अनभ्याहतचित्तः स्यादनभ्याहतवाक्तथा। व्यास उवाच / निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो निरमित्रस्य किं भयम् // 1 // प्राप्य संस्कारमेताभ्यामाश्रमाभ्यां ततः परम् / / अभयं सर्वभूतेभ्यो भूतानामभयं यतः / यत्कार्य परमार्थाथं तदिहैकमनाः शृणु // 2 तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन // 17 कषायं पाचयित्वा तु श्रेणिस्थानेषु च त्रिषु। यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम् / --2312 - Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 287. 18 ] शान्तिपर्व [12. 237. 36 सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे // 11 / ये विद्युरग्र्यं परमार्थतां च / एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते / ते सर्वलोकेषु महीयमाना अमृतः स नित्यं वसति योऽहिंसां प्रतिपद्यते // 1.9 देवाः समर्थाः सुकृतं व्रजन्ति // 29 अहिंसकः समः सत्यो धृतिमानियतेन्द्रियः / वेदांश्च वेद्यं च विधिं च कृत्स्नशरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् // 20 __ मथो निरुक्तं परमार्थतां च / एवं प्रज्ञानतृप्तस्य निर्भयस्य मनीषिणः। सर्व शरीरात्मनि यः प्रवेद न मृत्युरतिगो भावः स मृत्युमधिगच्छति // 21 __ तस्मै स्म देवाः स्पृहयन्ति नित्यम् // 30 विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवस्थितम् / भूमावसक्तं दिवि चाप्रमेयं अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 22 हिरण्मयं योऽण्डजमण्डमध्ये / जीवितं यस्य धर्मार्थ धर्मोऽरत्यर्थमेव च। पतत्रिणं पक्षिणमन्तरिक्षे अहोरात्राश्च पुण्यार्थ तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥२३ ___ यो वेद भोग्यात्मनि दीप्तरश्मिः // 31 निराशिषमनारम्भं निनमस्कारमस्तुतिम् / आवर्तमानमजरं विवर्तनं अक्षीण क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 24 षण्णेमिकं द्वादशारं सुपर्व / सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते यस्येदमास्ये परियाति विश्वं - सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ति / ___ तत्कालचक्र निहितं गुहायाम् // 32 तेषां भयोत्पादनजातखेदः यः संप्रसादं जगतः शरीरं कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः // 25 ___ सर्वान्स लोकानधिगच्छतीह / दानं हि भूताभयदक्षिणायाः तस्मिन्हुतं तर्पयतीह देवांसर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह / स्ते वै तृप्तास्तर्पयन्त्यास्यमस्य // 33 तीक्ष्णां तनुं यः प्रथमं जहाति तेजोमयो नित्यतनुः पुराणो सोऽनन्तमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः // 26 लोकाननन्तानभयानुपैति / उत्तान आस्येन हविर्जुहोति भूतानि यस्मान्न त्रसन्ते कदाचिलोकस्य नाभिर्जगतः प्रतिष्ठा / त्स भूतेभ्यो न त्रसते कदाचित् // 34 तस्याङ्गमङ्गानि कृताकृतं च अगर्हणीयो न च गर्हतेऽन्यावैश्वानरः सर्वमेव प्रपेदे // 27 न्स वै विप्रः परमात्मानमीक्षेत् / प्रादेशमात्रे हृदि निश्रितं य दिनीतमोहो व्यपनीतकल्मषो __तस्मिन्प्राणानात्मयाजी जुहोति / न चेह नामुत्र च योऽर्थमृच्छति // 35 तस्याग्निहोत्रं हुतमात्मसंस्थं अरोषमोहः समलोष्टकाश्चनः सर्वेषु लोकेषु सदैवतेषु // 28 प्रहीणशोको गतसंधिविग्रहः। दैवं त्रिधातुं त्रिवृतं सुपर्ण अपेतनिन्दास्तुतिरप्रियाप्रियम. भा. 290 -2313 - Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 237. 36] महाभारते [12. 239.4 श्वरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः / / 36 आत्मप्रत्ययिकं शास्त्रमिदं पुत्रानुशासनम् // 13 : इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्माख्यानेषु सर्वेषु सत्याख्यानेषु यद्वसु। : सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 237 // दशेदमृक्सहस्राणि निर्मथ्यामृतमुद्धृतम् // 14 238 नवनीतं यथा दनः काष्ठादग्नियथैव च। व्यास उवाच / तथैव विदुषां ज्ञानं पुत्रहेतोः समुद्धृतम्। प्रकृतेस्तु विकारा ये क्षेत्रज्ञस्तैः परिश्रितः / / स्नातकानामिदं शास्त्रं वाच्यं पुत्रानुशासनम् // 15 ते चैनं न प्रजानन्ति स तु जानाति तानपि // 1 तदिदं नाप्रशान्ताय नादान्तायातपस्विने। तैश्चैष कुरुते कार्य मनःपष्टैरिहेन्द्रियैः / नावेदविदुषे वाच्यं तथा नानुगताय च // 16 : सुदान्तैरिव संयन्ता दृढैः परमवाजिभिः // 2 नासूयकायानृजवे न चानिर्दिष्टकारिणे / इन्द्रियेभ्यः परा ह्या अर्थेभ्यः परमं मनः / न तर्कशास्त्रदग्धाय तथैव पिशुनाय च // . 17 मनसस्तु परा बुद्धिबुद्धरात्मा महान्परः / / 3 / / श्लाघते श्लाघनीयाय प्रशान्ताय तपस्विने। महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्परतोऽमृतम् / इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च।। अमृतान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः // 4 रहस्यधर्म वक्तव्यं नान्यस्मै तु कथंचन // 18 : एवं सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते / यद्यप्यस्य महीं दद्याद्रत्नपूर्णा मिमां नरः / दृश्यते त्वत्र्यया बुद्धथा सूक्ष्मया तत्त्वदर्शिभिः / इदमेव ततः श्रेय इति मन्येत तत्त्ववित् // 19 अन्तरात्मनि संलीय मनःषष्ठानि मेधया। अतो गुह्यतरार्थं तदध्यात्ममतिमानुषम् / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च बहु चिन्त्यमचिन्तयन् // 6 यत्तन्महर्षिभिदृष्टं वेदान्तेषु च गीयते। ध्यानोपरमणं कृत्या विद्यासंपादितं मनः / तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि / / 20 अनीश्वरः प्रशान्तात्मा ततोऽर्छत्यमृतं पदम् // 7 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इन्द्रियाणां तु सर्वेषां वश्यात्मा चलितस्मृतिः / अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 238 // आत्मनः संप्रदानेन मो मृत्युमुपाश्नुते // 8 239 हित्वा तु सर्वसंकल्पान्सत्त्वे चित्तं निवेशयेत् / शुक उवाच / सत्त्वे चित्तं समावेश्य ततः कालंजरो भवेत् // 9 अध्यात्म विस्तरेणेह पुनरेव वदस्व मे / चित्तप्रसादेन यति हाति हि शुभाशुभम् / यदध्यात्म यथा चेदं भगवन्नृषिसत्तम / / 1 प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमानन्त्यमनुते // 10 व्यास उवाच / लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत् / अध्यात्मं यदिदं तात पुरुषस्येह विद्यते / निवाते वा यथा दीपो दीप्यमानो न कम्पते // 11 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि तस्य व्याख्यामिमां शृणु // 2 एवं पूर्वापरे रात्रे युञ्जन्नास्मानमात्मना / भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाशमेव च / सत्त्वाहारविशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि // 12 / महाभूतानि भूतानां सागरस्योर्मयो यथा // 3 रहस्यं सर्ववेदानामनैतिह्यमनागमम् / प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः / -2314 - Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 239. 4] शान्तिपर्व [ 12. 240.6 तद्वन्महान्ति भूतानि यवीयःसु विकुर्वते // 4' एतस्मिन्नेव कृत्ये वै वर्तते बुद्धिरुत्तमा // 18 इति तन्मयमेवेदं सर्वं स्थावरजङ्गमम् / गुणान्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि / सर्गे च प्रलये चैव तस्मान्निर्दिश्यते तथा // 5 मनःषष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः // 19 महाभूतानि पश्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत् / तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत् / अकरोत्तात वैषम्यं यस्मिन्यदनुपश्यति // 6 प्रशान्तमिव संशुद्धं सत्त्वं तदुपधारयेत् // 20 शुक उवाच / यत्तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् / अकरोद्यच्छरीरेषु कथं तदुपलक्षयेत् / रजः प्रवर्तकं तत्स्यात्सततं हारि देहिनाम् // 21 इन्द्रियाणि गुणाः केचित्कथं तानुपलक्षयेत् // 7 यत्तु संमोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत् / व्यास उवाच / अप्रतय॑मविज्ञेयं तमस्तदुपधार्यताम् // 22 एतत्ते वर्तयिष्यामि यथावदिह दर्शनम् / प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः साम्यं स्वस्थात्मचित्तता / शृणु तत्त्वमिहैकाग्रो यथातत्त्वं यथा च तत् // 8 अकस्माद्यदि वा कस्माद्वर्तते सात्त्विको गुणः // 23 शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसंभवम् / अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाक्षमा / प्राणश्चेष्टा तथा स्पर्श एते वायुगुणास्त्रयः // 9 लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेत्वहेतुतः // 24 रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिधा ज्योतिर्विधीयते / तथा मोहः प्रमादश्च तन्द्री निद्राप्रबोधिता / रसोऽथ रसनं स्नेहो गुणास्त्वेते त्रयोऽम्भसाम्॥१० कथंचिदभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः // 25 प्रेयं घ्राणं शरीरं च भूमेरेते गुणास्त्रयः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एतावानिन्द्रियग्रामो व्याख्यातः पाश्चभौतिकः // 11 एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्याय // 239 // वायोः स्पर्शो रसोऽद्भयश्च ज्योतिषो रूपमुच्यते / 240 आकाशप्रभवः शब्दो गन्धो भूमिगुणः स्मृतः॥१२ व्यास उवाच / मनो बुद्भिश्च भावश्च त्रय एतेऽऽत्मयोनिजाः / मनः प्रसृजते भावं बुद्धिरध्यवसायिनी / न गुणानतिवर्तन्ते गुणेभ्यः परमा मताः॥ 13 हृदयं प्रियाप्रिये वेद त्रिविधा कर्मचोदना // 1 इन्द्रियाणि नरे पश्च षष्ठं तु मन उच्यते / इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः / सप्तमी बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रमं पुनरष्टमम् // 14 मनसस्तु परा बुद्धिबुद्धेरात्मा परो मतः // 2 चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः / बुद्धिरात्मा मनुष्यस्य बुद्धिरेवात्मनोऽऽत्मिका / बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते // 15 यदा विकुरुते भावं तदा भवति सा मनः // 3 रजस्तमश्च सत्त्वं च त्रय एते स्वयोनिजाः / इन्द्रियाणां पृथग्भावाद्बुद्धिर्विक्रियते ह्यणु / समाः सर्वेषु भूतेषु तद्गुणेषूपलक्षयेत् / / 16 शृण्वती भवति श्रोत्रं स्पृशती स्पर्श उच्यते // 4 यथा कूर्म इहाङ्गानि प्रसार्य विनियच्छति। पश्यन्ती भवते दृष्टी रसती रसनं भवेत् / एवमेवेन्द्रियग्रामं बुद्धिः सृष्ट्वा नियच्छति // 17 / जिघ्रती भवति घ्राणं बुद्धिर्विक्रियते पृथक् // 5 यदूर्ध्वं पादतलयोरवाड्यभ्रंश्च पश्यति / / इन्द्रियाणीति तान्याहुस्तेष्वदृश्याधितिष्ठति / -2315 - Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 240. 6] महामारते [ 12. 241. 10 तिष्ठती पुरुष बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते // 6 सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः // 19 कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचते / सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान् / . न सुखेन न दुःखेन कदाचिदिह युज्यते // 7 पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ संप्रयुक्तौ च सर्वदा // 20 सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते / / यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः सन्संप्रयुक्तौ तथैव तो। सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् // 8 मशकोदुम्बरौ चापि संप्रयुक्तौ यथा सह // 21 यदा प्रार्थयते किंचित्तदा भवति सा मनः।। इषीका वा यथा मुझे पृथक्च सह चैव च / अधिष्ठानानि वै बुद्ध्या पृथगेतानि संस्मरेत् / तथैव सहितावेतावन्योन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ / / 22 इन्द्रियाण्येव मेध्यानि विजेतव्यानि कृत्स्नशः // 9 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वाण्येवानुपूर्येण यद्यन्नानुविधीयते / चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 240 // अविभागगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते / 241 प्रवर्तमानं तु रजः सत्त्वमप्यनुवर्तते // 10 __ व्यास उवाच / ये चैव भावा वर्तन्ते सर्व एष्वेव ते त्रिषु / सृजते तु गुणान्सत्त्वं क्षेत्रज्ञस्त्वनुतिष्ठति / अन्वर्थाः संप्रवर्तन्ते रथनेमिमरा इव // 11 गुणान्विक्रियतः सर्वानुदासीनवदीश्वरः // 1 प्रदीपार्थ नरः कुर्यादिन्द्रियैबुद्धिसत्तमैः / स्वभावयुक्तं तत्सर्वं यदिमान्सृजते गुणान् / निश्चरद्भिर्यथायोगमुदासीनैर्यदृच्छया // 12 ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं सृजते तन्तुवद्गुणान् // 2 एवंस्वभावमेवेदमिति विद्वान्न मुह्यति / / प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिोंपलभ्यते / अशोचन्नप्रहृष्यंश्च नित्यं विगतमत्सरः॥ 13 एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे // 3 न ह्यात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैः कामगोचरैः / उभयं संप्रधायैतदध्यवस्येद्यथामति / प्रवर्तमानैरनये दुर्धरैरकृतात्मभिः // 14 अनेनैव विधानेन भवेद्गर्भशयो महान् // 4 तेषां तु मनसा रश्मीन्यदा सम्यङियच्छति / अनादिनिधनं नित्यमासाद्य विचरेन्नरः / तदा प्रकाशते ह्यात्मा घटे दीप इव ज्वलन् / अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च नित्यं विगतमत्सरः / / 5 सर्वेषामेव भूतानां तमस्यपगते यथा // 15 इत्येवं हृदयग्रन्थि बुद्धिचिन्तामयं दृढम् / यथा वारिचरः पक्षी न लिप्यति जले चरन् / अतीत्य सुखमासीत अशोचंश्छिन्नसंशयः // 6 एवमेव कृतप्रज्ञो न दोषैर्विषयांश्चरन् / तप्येयुः प्रच्युताः पृथ्व्या यथा पूर्णा नदी नराः / असज्जमानः सर्वेषु न कथंचन लिप्यते // 16 अवगाढा ह्यविद्वांसो विद्धि लोकमिमं तथा / त्यक्त्वा पूर्वकृतं कर्म रतिर्यस्य सदात्मनि / न तु ताम्यति वै विद्वान्स्थले चरति तत्त्ववित् / सर्वभूतात्मभूतस्य गुणमार्गेष्वसज्जतः // 17 एवं यो बिन्दतेऽऽत्मानं केवलं ज्ञानमात्मनः // 8 सत्त्वमात्मा प्रसवति गुणान्वापि कदा च न / एवं बुद्धा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम् / न गुणा विदुरात्मानं गुणान्वेद स सर्वदा // 18 समवेक्ष्य शनैः सम्यग्लभते शममुत्तमम् // 9 परिद्रष्टा गुणानां स स्रष्टा चैव यथातथम् / एतद्वै जन्मसामर्थ्य ब्राह्मणस्य विशेषतः / -2316 - Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 241. 10] शान्तिपर्व [12. 242. 20 आत्मज्ञानं शमश्चैव पर्याप्तं तत्परायणम् // 10 गोचरेभ्यो निवृत्तानि यदा स्थास्यन्ति वेश्मनि / रतदुदा भवेद्रुद्धः किमन्यदुद्धलक्षणम् / तदा त्वमात्मनात्मानं परं द्रक्ष्यसि शाश्वतम् // 6 विज्ञायैतद्विमुच्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः // 11 सर्वात्मानं महात्मानं बिधूममिव पावकम् / न भवति बिदुषां महद्भयं तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः // ___ यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत् / यथा पुष्पफलोपेतो बहुशाखो महाद्रुमः / न हि गतिरधिकास्ति कस्यचि आत्मनो नाभिजानीते क मे पुष्पं क मे फलम्॥ द्भवति हि या विदुषः सनातनी // 12 एवमात्मा न जानीते व गमिष्ये कुतो न्वहम् / लोकमातुरमसूयते जन अन्यो ह्यत्रान्तरात्मास्ति यः सर्वमनुपश्यति // 9 स्तत्तदेव च निरीक्ष्य शोचते। ज्ञानदीपेन दीप्तेन पश्यत्यात्मानमात्मना / तत्र पश्य कुशलानशोचतो दृष्ट्वा त्वमात्मनात्मानं निरात्मा भव सर्ववित् // 10 ये बिदुस्तदुभयं कृताकृतम् // 13 विमुक्तः सर्वपापेभ्यो मुक्तत्वच इवोरगः / यत्करोत्यनभिसंधिपूर्वकं परां बुद्धिमवाप्येह विपाप्मा विगतज्वरः // 11 __तञ्च निर्गुदति यत्पुरा कृतम् / सर्वतःस्रोतसं घोरां नदी लोकप्रवाहिनीम् / न प्रियं तदुभयं न चाप्रियं पश्चेन्द्रियग्राहवती मनःसंकल्परोधसम् // 12 तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः // 14 लोभमोहतृणच्छन्नां कामक्रोधसरीसपाम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सत्यतीर्थानृतक्षोभां क्रोधपङ्कां सरिद्वराम् // 13 एकचत्वारिंशदधिकद्विततमोऽध्यायः // 241 // अव्यक्तप्रभवां शीघ्रां दुस्तरामकृतात्ममिः / 242 प्रतरस्व नदी बुद्धथा कामग्राहसमाकुलाम् // 14 शुक उवाच / संसारसागरगमां योनिपातालदुस्तराम् / यस्माद्धर्मात्परो धर्मो विद्यते नेह कश्चन / आत्मजन्मोद्भवां तात जिह्वावर्ता दुरासदाम् // 15 यो विशिष्टश्च धर्मेभ्यस्तं भवान्प्रब्रवीतु मे // 1 यां तरन्ति कृतप्रज्ञा धृतिमन्तो मनीषिणः / व्यास उवाच। तां तीर्णः सर्वतोमुक्तो विपूतात्मात्मविच्छुचिः॥१६ धर्म ते संप्रवक्ष्यामि पुराणमृषिसंस्तुतम् / उत्तमां बुद्धिमास्थाय ब्रह्मभूयं गमिष्यसि / विशिष्टं सर्वधर्मेभ्यस्तमिहैकमनाः शृणु // 2 संतीर्णः सर्वसंक्लेशान्प्रसन्नात्मा विकल्मषः // 1. इन्द्रियाणि प्रमाथीनि बुद्ध्या संयम्य यत्नतः / भूमिष्ठानीव भूतानि पर्वतस्थो निशामय / सर्वतो निष्पतिष्णूनि पिता बालानिवात्मजान् // 3 अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च ननृशंसमतिस्तथा। मनसश्चेन्द्रियाणां च बैकाग्र्यं परमं तपः / ततो द्रक्ष्यसि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ // 18 तळ्यायः सर्वधर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्यते // 4 एवं वै सर्वधर्मेभ्यो विशिष्टं मेनिरे बुधाः / तानि सर्वाणि संधाय मनःषष्ठानि मेधया। धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठ मुनयस्तत्त्वदर्शिनः // 19 आत्मतृप्त इवासीत बहु चिन्त्यमचिन्तयन् // 5 | आत्मनोऽव्ययिनो ज्ञात्वा इदं पुत्रानुशासनम् / - 2817 - Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 242. 20 ] महाभारते [ 12. 243. 20 प्रयताय प्रवक्तव्यं हितायानुगताय च // 20 कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // 6 . आत्मज्ञानमिदं गुह्यं सर्वगुह्यतमं महत् / कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम् / अब्रुवं यदहं तात आत्मसाक्षिकमञ्जसा / / 21 कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते // 7 // नैव स्त्री न पुमानेतन्नैव चेदं नपुंसकम् / / कामतो मुच्यमानस्तु धूम्राभ्रादिव चन्द्रमाः / अदुःखमसुखं ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकम् / / 22 विरजाः कालमाकाङ्कन्धीरो धैर्येण वर्तते // 8 नैतज्ज्ञात्वा पुमान्त्री वा पुनभवमवाप्नुयात् / आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठ अभवप्रतिपत्त्यर्थमेतद्वर्त्म विधीयते // 23 __समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् / यथा मतानि सर्वाणि न चैतानि यथा तथा / स कामकान्तो न तु कामकामः कथितानि मया पुत्र भवन्ति न भवन्ति च // 24 __स वै लोकात्स्वर्गमुपैति देही // 9 तत्प्रीतियुक्तेन गुणान्वितेन वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः / . __पुत्रेण सत्युत्रगुणान्वितेन / दमस्योपनिषद्दानं दानस्योपनिषत्तपः // 10 पृष्टो हीदं प्रीतिमता हितार्थं तपसोपनिषत्त्यागस्त्यागस्योपनिषत्सुखम् / ब्रूयात्सुतस्येह यदुक्तमेतत् / / 25 सुखस्योपनिषत्स्वर्गः स्वर्गस्योपनिषच्छमः // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि क्लेदनं शोकमनसोः संतापं तृष्णया सह / द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 242 // सत्त्वमिच्छसि संतोषाच्छान्तिलक्षणमुत्तमम् // 12 243 विशोको निर्ममः शान्तः प्रसन्नात्मात्मवित्तमः / व्यास उवाच / षभिलक्षणवानेतैः समग्रः पुनरेष्यति // 13 गन्धारसान्नानुसन्ध्यात्सुखं वा षभिः सत्त्वगुणोपेतैः प्राज्ञैरधिकमत्रिभिः / नालंकारांश्चाप्नुयात्तस्य तस्य / ये विदुः प्रेत्य चात्मानमिहस्थांस्तांस्तथा विदुः॥१४ मानं च कीर्तिं च यशश्च नेच्छे अकृत्रिममसंहार्य प्राकृतं निरुपस्कृतम् / त्स वै प्रचारः पश्यतो ब्राह्मणस्य // 1 अध्यात्मं सुकृतप्रज्ञः सुखमव्ययमभुते // 15 सर्वान्वेदानधीयीत शुश्रूषुब्रह्मचर्यवान् / निष्प्रचारं मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वतः / ऋचो यजूंषि सामानि न तेन न स ब्राह्मणः // 2 यामयं लभते तुष्टिं सा न शक्यमतोऽन्यथा // 16 ज्ञातिवत्सर्वभूतानां सर्ववित्सर्ववेदवित् / येन तृप्यत्यभुञ्जानो येन तुष्यत्यवित्तवान् / नाकामो म्रियते जातु न तेन न च ब्राह्मणः // 3 येनास्नेहो बलं धत्ते यस्तं वेद स वेदवित् // 1 // इष्टीश्च विविधाः प्राप्य क्रतूंश्चैवातदक्षिणान् / संगोप्य ह्यात्मनो द्वाराण्यपिधाय विचिन्तयन् / नैव प्राप्नोति ब्राह्मण्यमभिध्यानात्कथंचन // 4 यो ह्यास्ते ब्राह्मणः शिष्टः स आत्मरतिरुच्यते // 18 यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति / समाहितं परे तत्त्वे क्षीणकाममवस्थितम् / यदा नेच्छति न दृष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा / / 5 / सर्वतः सुखमन्वेति वपुश्चान्द्रमसं यथा // 19 यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् / / सविशेषाणि भूतानि गुणांश्चाभजतो मुनेः। -2318 - Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 243. 20] शान्तिपर्व [12. 245. 10 सुखेनापोह्यते दुःखं भास्करेण तमो यथा / / 20 एकादशोऽन्तरात्मा च सर्वतः पर उच्यते // 10 मतिक्रान्तकर्माणमतिक्रान्तगुणक्षयम् / व्यवसायात्मिका बुद्धिर्मनोव्याकरणात्मकम् / बाह्मणं विषयाश्लिष्टं जरामृत्यू न विन्दतः / / 21 कर्मानुमानाद्विज्ञेयः स जीवः क्षेत्रसंज्ञकः // 11 म यदा सर्वतो मुक्तः समः पर्यवतिष्ठते / एभिः कालाष्टमैधियः सर्वैः सर्वमन्वितम् / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च शरीरस्थोऽतिवर्तते // 22 / पश्यत्यकलुषं प्राज्ञः स मोहं नानुवर्तते // 12 कारणं परमं प्राप्य अतिक्रान्तस्य कार्यताम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पुनरावर्तनं नास्ति संप्राप्तस्य परात्परम् / / 23 . चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 244 // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि 245 त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 243 // व्यास उवाच / 244 शरीराद्विप्रमुक्तं हि सूक्ष्मभूतं शरीरिणम् / व्यास उवाच / कर्मभिः परिपश्यन्ति शास्त्रोक्तैः शास्त्रचेतसः॥ 1 द्वानि मोक्षजिज्ञासुरर्थधर्मावनुष्ठितः। . यथा मरीच्यः सहिताश्चरन्ति वक्त्रा गुणवता शिष्यः श्राव्यः पूर्वमिदं महत् // 1 ___ गच्छन्ति तिष्ठन्ति च दृश्यमानाः / आकाशं मारुतो ज्योतिरापः पृथ्वी च पञ्चमी / देहैविमुक्ता विचरन्ति लोकांभावावौ च कालश्च सर्वभूतेषु पञ्चसु // 2 स्तथैव सत्त्वान्यतिमानुषाणि // 2 अन्तरात्मकमाकाशं तन्मयं श्रोत्रमिन्द्रियम् / प्रतिरूपं यथैवाप्सु तापः सूर्यस्य लक्ष्यते / तस्य शब्दं गुणं विद्यान्मूर्तिशास्त्रविधानवित् // 3 सत्त्ववांस्तु तथा सत्त्वं प्रतिरूपं प्रपश्यति // 3 चरणं मारुतात्मेति प्राणापानौ च तन्मयौ। तानि सूक्ष्माणि सत्त्वस्था विमुक्तानि शरीरतः / स्पर्शनं चेन्द्रियं विद्यात्तथा स्पर्श च तन्मयम् // 4 स्वेन तत्त्वेन तत्त्वज्ञाः पश्यन्ति नियतेन्द्रियाः॥४ ततः पाकः. प्रकाशश्च ज्योतिश्चक्षुश्च तन्मयम् / स्वपतां जाग्रतां चैव सर्वेषामात्मचिन्तितम् / तस्य रूपं गुणं विद्यात्तमोऽन्यवसितात्मकम् / / 5 प्रधानद्वैधयुक्तानां जहतां कर्मजं रजः / / 5 प्रक्लेदः क्षुद्रता स्नेह इत्यापो ह्युपदिश्यते।। यथाहनि तथा रात्रौ यथा रात्रौ तथाहनि / रसनं चेन्द्रियं जिह्वा रसश्चापां गुणो मतः / / 6 / / वशे तिष्ठति सत्त्वात्मा सततं योगयोगिनाम् // 6 संघातः पार्थिवो धातुरस्थिदन्तनखानि च / तेषां नित्यं सदानित्यो भूतात्मा सततं गुणैः / स्मनु लोम च केशाश्च सिराः स्नायु च चर्म च // सप्तभिस्त्वन्वितः सूक्ष्मैश्चरिष्णुरजरामरः // 7. इन्द्रिय घ्राणसंज्ञानं नासिकेत्यभिधीयते / मनोबुद्धिपराभूतः स्वदेहपरदेहवित् / / गन्धश्चैवेन्द्रियार्थोऽयं विज्ञेयः पृथिवीमयः // 8 स्वप्नेष्वपि भवत्येष विज्ञाता सुखदुःखयोः // 8 उत्तरेषु गुणाः सन्ति सर्वे सर्वेषु चोत्तराः / तत्रापि लभते दुःखं तत्रापि लभते सुखम् / पञ्चानां भूतसंघानां संतति मुनयो विदुः // 9 क्रोधलोभौ तु तत्रापि कृत्वा व्यसनमर्छति // 9 मनो नवममेषां तु बुद्धिस्तु दशमी स्मृता। प्रीणितश्चापि भवति महतोऽर्थानवाप्य च। . - 2319 - Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 245. 10] महाभारते [12. 247.1 करोति पुण्यं तत्रापि जाग्रन्निव च पश्यति // 10 तत्र बुद्धः शरीरस्थं मनो नामार्थचिन्तकम् // 1 तमेवमतितेजोंशं भूतात्मानं हृदि स्थितम् / इन्द्रियाणि जनाः पौरास्तदर्थं तु परा कृतिः। तमोरजोभ्यामाविष्टा नानुपश्यन्ति मूर्तिषु // 11 // तत्र द्वौ दारुणौ दोषौ तमो नाम रजस्तथा // 1 शास्त्रयोगपरा भूत्वा स्वमात्मानं परीप्सवः / यदर्थमुपजीवन्ति पौराः सहपुरेश्वराः / अनुच्छासान्यमूर्तीनि यानि वज्रोपमान्यपि / / 12 अद्वारेण तमेवार्थ द्वौ दोषावुपजीवतः // 11 पृथग्भूतेषु सृष्टेषु चतुर्वाश्रमकर्मसु। तत्र बुद्धिर्हि दुर्धर्षा मनः साधर्म्यमुच्यते। समाधौ योगमेवैतच्छाण्डिल्यः शममब्रवीत् // 13 पौराश्चापि मनस्रस्तास्तेषामपि चला स्थितिः॥ 1 विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं च महेश्वरम् / यदर्थं बुद्धिरध्यास्ते न सोऽर्थः परिषीदति / प्रधानविनियोगस्थः परं ब्रह्माधिगच्छति // 14 यदर्थं पृथगध्यास्ते मनस्तत्परिषीदति // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पृथग्भूतं यदा बुद्ध्या मनो भवति केवलम् / पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 245 // तत्रैनं विवृतं शून्यं रजः पर्यवतिष्ठते // 14 246 तन्मनः कुरुते सख्यं रजसा सह संगतम् / व्यास उवाच / तं चादाय जनं पौरं रजसे संप्रयच्छति // 1 // हृदि कामद्रुमश्चित्रो मोहसंचयसंभवः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि क्रोधमानमहास्कन्धो विवित्सापरिमोचनः // 1 षट्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 25 // तस्य चाज्ञानमाधारः प्रमादः परिषेचनम् / 247 सोऽभ्यसूयापलाशो हि पुरादुष्कृतसारवान् // 2 भीष्म उवाच / संमोहचिन्ताविटपः शोकशाखो भयंकरः / भूतानां गुणसंख्यानं भूयः पुत्र निशामय / मोहनीभिः पिपासाभिलताभिः परिवेष्टितः // 3 द्वैपायनमुखाद्भष्टं श्लाघया परयानघ // 1 / रुपासते महावृक्षं सुलुब्धास्तं फलेप्सवः / / दीप्तानलनिभः प्राह भगवान्धूम्रवर्चसे। पायासैः संयतः पाशैः फलानि परिवेष्टयन् // 4 ततोऽहमपि वक्ष्यामि भूयः पुत्र निदर्शनम् / / / / यस्तान्पाशान्वशे कृत्वा तं वृक्षमपकर्षति / भूमेः स्थैर्य पृथुत्वं च काठिन्यं प्रसवात्मता। गतः स दुःखयोरन्तं यतमानस्तयोर्द्वयोः / / 5 गन्धो गुरुत्वं शक्तिश्च संघातः स्थापना धृतिः / / संरोहत्यकृतप्रसः संतापेन हि पादपम् / अपां शैत्यं रसः क्लेदो द्रवत्वं स्नेहसौम्यता / स तमेव ततो हन्ति विषं ग्रस्तमिवातुरम् / / 6 जिह्वा विष्यन्दिनी चैव भौमाप्यास्रवणं तथा // तस्यानुशयमूलस्य मूलमुद्भियते बलात् / अग्नैर्दुर्धषता तेजस्तापः पाकः प्रकाशनम् / त्यागाप्रमादाकृतिना साम्येन परमासिना // 7 शौचं रागो लघुस्तैक्ष्ण्यं दशमं चोर्ध्वभागिता // 5 एवं यो वेद कामस्य केवलं परिकर्षणम् / वायोरनियमः स्पर्शो वादस्थानं स्वतन्त्रता। वधं वै कामशास्त्रस्य स दुःखान्यतिवर्तते // 8 बलं शैघ्यं च मोहश्च चेष्टा कर्मकृता भवः / / / शरीरं पुरमित्याहुः स्वामिनी बुद्धिरिष्यते / / आकाशस्य गुणः शब्दो व्यापित्वं छिद्रतापि च / -2320 - Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 247. 7] शान्तिपर्व [12. 248. 18 अनाश्रयमनालम्बमव्यक्तमविकारिता // 7 मृता इति च शब्दोऽयं वर्तत्येषु गतासुषु // 4 अप्रतीघातता चैव भूतत्वं विकृतानि च। इमे मृता नृपतयः प्रायशो भीमविक्रमाः। गुणाः पश्चाशतं प्रोक्ताः पञ्चभूतात्मभाविताः // 8 तत्र मे संशयो जातः कुतः संज्ञा मृता इति // 5 चलोपपत्तिय॑क्तिश्च विसर्गः कल्पना क्षमा। कस्य मृत्युः कुतो मृत्युः केन मृत्युरिह प्रजाः। सदसच्चाशुता चैव मनसो नव वै गुणाः // 9 हरत्यमरसंकाश तन्मे ब्रूहि पितामह // 6 इष्टानिष्टविकल्पश्च व्यवसायः समाधिता। भीष्म उवाच / संशयः प्रतिपत्तिश्च बुद्धौ पञ्चेह ये गुणाः // 10 पुरा कृतयुगे तात राजासीदविकम्पकः / युधिष्ठिर उवाच / स शत्रुवशमापन्नः संग्रामे क्षीणवाहनः // 7 कथं पञ्चगुणा बुद्धिः कथं पञ्चेन्द्रिया गुणाः। तस्य पुत्रो हरि म नारायणसमो बले। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सूक्ष्मज्ञानं पितामह // 11 स शत्रुभिर्हतः संख्ये सबलः सपदानुगः // 8 भीष्म उवाच। स राजा शत्रुवशगः पुत्रशोकसमन्वितः / आहुः षष्टिं भूतगुणान्वै यदृच्छयाशान्तिपरो ददर्श भुवि नारदम् // 9 __ भूतविशिष्टा नित्यविषक्ताः। स तस्मै सर्वमाचष्ट यथा वृत्तं जनेश्वरः / भूतविषक्ताश्चाक्षरसृष्टाः शत्रुभिर्ग्रहणं संख्ये पुत्रस्य मरणं तथा // 10 .: पुत्र न नित्यं तदिह वदन्ति / / 12 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदोऽथ तपोधनः / तत्पुत्र चिन्ताकलितं यदुक्त आख्यानमिदमाचष्ट पुत्रशोकापहं तदा // 11 मनागतं वै तव संप्रतीह / राजशृणु समाख्यानमद्येदं बहुविस्तरम् / भूतार्थतत्त्वं तदवाप्य सर्व यथा वृत्तं श्रुतं चैव मयापि वसुधाधिप // 12 भूतप्रभावाद्भव शान्तबुद्धिः / / 13 प्रजाः सृष्ट्वा महातेजाः प्रजासर्ग पितामहः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अतीव वृद्धा बहुला नामृष्यत पुनः प्रजाः॥ 13 सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 247 // न ह्यन्तरमभूत्किंचित्कचिज्जन्तुभिरच्युत / निरुच्छ्रासमिवोन्नद्धं त्रैलोक्यमभवन्नप // 14 युधिष्ठिर उवाच / तस्य चिन्ता समुत्पन्ना संहारं प्रति भूपते / य इमे पृथिवीपालाः शेरते पृथिवीतले / चिन्तयन्नाध्यगच्छच्च संहारे हेतुकारणम् // 15 पृतनामध्य एते हि गतसत्त्वा महाबलाः // 1 तस्य रोषान्महाराज खेभ्योऽग्निरुदतिष्ठत / एकैकशो भीमबला नागायुतबलास्तथा / तेन सर्वा दिशो राजन्ददाह स पितामहः / / 16 एते हि निहताः संख्ये तुल्यतेजोबलैनरैः // 2 ततो दिवं भुवं खं च जगच्च सचराचरम् / नैषां पश्यामि हन्तारं प्राणिनां संयुगे पुरा। ददाह पावको राजन्भगवत्कोपसंभवः // 17 विक्रमेणोपसंपन्नास्तेजोवलसमन्विताः // 3 तत्रादह्यन्त भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च / अथ चेमे महाप्राज्ञ शेरते हि गतासवः / महता कोपवेगेन कुपिते प्रपितामहे // 18 म.भा. 291 - 2321 - Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 248. 19 ] महाभारते [12. 249. 22 ततो हरिजटः स्थाणुर्वेदाध्वरपतिः शिवः / उपायमन्यं संपश्य प्रजानां हितकाम्यया। जगाद शरणं देवो ब्रह्माणं परवीरहा / / 19 यथेमे जन्तवः सर्वे निवर्तेरन्परंतप // 10 तस्मिन्नभिगते स्थाणौ प्रजानां हितकाम्यया / अभावमभिगच्छेयुरुत्सन्नप्रजनाः प्रजाः / अब्रवीद्वरदो देवो ज्वलन्निव तदा शिवम् // 20 अधिदैवनियुक्तोऽस्मि त्वया लोकेष्विहेश्वर // 15 करवाण्यद्य कं कामं वरा.ऽसि मतो मम। त्वद्भवं हि जगन्नाथ जगत्स्थावरजङ्गमम् / कर्ता ह्यस्मि प्रियं शंभो तव यद्धृदि वर्तते / / 21 प्रसाद्य त्वां महादेव याचाम्यावृत्तिजाः प्रजाः॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नारद उवाच / अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 248 // श्रुत्वा तु वचनं देवः स्थाणोर्नियतवाङ्मनाः।। 249 तेजस्तत्स्वं निजग्राह पुनरेवान्तरात्मना // 13 / स्थाणुरुवाच / ततोऽग्निमुपसंगृह्य भगवाल्लोकपूजितः / प्रजासर्गनिमित्तं मे कार्यवत्तामिमां प्रभो। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कल्पयामास वै प्रभुः // 15 विद्धि सृष्टास्त्वया हीमा मा कुप्यासां पितामह // 1 उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तदा / तव तेजोग्निना देव प्रजा दह्यन्ति सर्वशः / प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यः खेभ्यो नारी महात्मनः // 15 ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं मा कुप्यासां जगत्प्रभो // 2 कृष्णा रक्ताम्बरधरा रक्तनेत्रतलान्तरा / प्रजापतिरुवाच। दिव्यकुण्डलसंपन्ना दिव्याभरणभूपिता // 16 न कुप्ये न च मे कामो न भवेरन्प्रजा इति / सा विनिःसृत्य वै खेभ्यो दक्षिणामाश्रिता दिशम् / लाघवार्थ धरण्यास्तु ततः संहार इष्यते // 3 ददृशातेऽथ तौ कन्यां देवौ विश्वेश्वरावुभौ // 17 इयं हि मां सदा देवी भारार्ता समचोदयत् / तामाहूय तदा देवो लोकानामादिरीश्वरः / संहारार्थं महादेव भारेणाप्सु निमज्जति / / 4 मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति // 18 यदाहं नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन् / त्वं हि संहारबुद्ध्या मे चिन्तिता रुषितेन च / संहारमासां वृद्धानां ततो मां क्रोध आविशत् // 5 तस्मात्संहर सर्वास्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः // 19 स्थाणुरुवाच / अविशेषेण चैव त्वं प्रजाः संहर भामिनि / संहारान्तं प्रसीदस्व मा क्रुधस्त्रिदशेश्वर / मम त्वं हि नियोगेन श्रेयः परमवाप्स्यसि // 20 मा प्रजाः स्थावरं चैव जङ्गमं च विनीनशः // 6 एवमुक्ता तु सा देवी मृत्युः कमलमालिनी।। पल्बलानि च सर्वाणि सर्वं चैव तृणोलपम् / प्रदध्यौ दुःखिता बाला साश्रुपातमतीव हि // 21 स्थावरं जङ्गमं चैव भूतग्रामं चतुर्विधम् // 7 पाणिभ्यां चैव जग्राह तान्यश्रणि जनेश्वरः। तदेतद्भस्मसाद्भूतं जगत्सर्वमुपप्लुतम् / मानवानां हितार्थाय ययाचे पुनरेव च // 22 प्रसीद भगवन्साधो वर एष वृतो मया // 8 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नष्टा न पुनरेष्यन्ति प्रजा ह्येताः कथंचन / एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 249 // तस्मान्निवर्त्यतामेतत्तेजः स्वेनैव तेजसा // 9 -2322 - Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 250. 1] शान्तिपर्व [12. 250. 27 250 स्मयमानश्च लोकेशो लोकान्सर्वानवैक्षत // 13 नारद उवाच / निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते। सा कन्यापजगामास्य समीपादिति नः श्रुतम् // 14 विनीय दुःखमबला सा त्वतीवायतेक्षणा। अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा / उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता तदा // 1 त्वरमाणेव राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्ययात् // 15 त्वया सृष्टा कथं नारी मादृशी वदतां वर / सा तत्र परमं देवी तपोऽचरत दुश्चरम् / रौद्रकर्माभिजायेत सर्वप्राणिभयंकरी // 2 समा ह्येकपदे तस्थौ दश पद्मानि पञ्च च // 16 विभेम्यहमधर्मस्य धर्नामादिश कर्म मे / तां तथा कुर्वतीं तत्र तपः परमदुश्चरम् / त्वं मां भीतामवेक्षस्व शिवनेश्वर चक्षुषा // 3 पुनरेव महातेजा ब्रह्मा वचनमब्रवीत् // 17 वालान्वृद्धान्वयःस्थांश्च न हरेयमनागसः / कुरुष्व मे वचो मृत्यो तदनादृत्य सत्वरा / प्राणिनः प्राणिनामीश नमस्तेऽभिप्रसीद मे // 4 तथैवैकपदे तात पुनरन्यानि सप्त सा // 18 प्रियान्पुत्रान्वयस्यांश्च भ्रातॄन्माः पितॄनपि / तस्थौ पद्मानि षट् चैव पञ्च द्वे चैव मानद / अपध्यास्यन्ति यद्देव मृतांस्तेषां विभेम्यहम् // 5 भूयः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा // 19 कृपणाश्रुपरिक्लेदो दहेन्मां शाश्वतीः समाः / पुनर्गत्वा ततो राजन्मौनमातिष्ठदुत्तमम् / तेभ्योऽहं बलवद्भगीता शरणं त्वामुपागता // 6 अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च पार्थिव // 20 यमस्य भवने देव यात्यन्ते पापकर्मिणः / ततो जगाम सा कन्या कौशिकी भरतर्षभ / प्रसादये त्वा वरद प्रसादं कुरु मे प्रभो // 7 तत्र वायुजलाहारा चचार नियम पुनः // 21 एतमिच्छाम्यह कामं त्वत्तो लोकपितामह / ततो ययौ महाभागा गङ्गां मेरुं च केवलम् / इच्छेयं त्वत्प्रसादाच्च तपस्तप्तुं सुरेश्वर // 8 तस्थौ दार्विव निश्चेष्टा भूतानां हितकाम्यया // 22 ... पितामह उवाच। ततो हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः समीजिरे / मृत्यो संकल्पिता मे त्वं प्रजासंहारहेतुना / तत्राङ्गुष्ठेन राजेन्द्र निखर्वमपरं ततः / गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा च विचारय॥ 9 तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास यत्नतः // 23 एतदेवमवश्यं हि भविता नैतदन्यथा / ततस्तामब्रवीत्तत्र लोकानां प्रभवाप्ययः / क्रियतामनवद्याङ्गि यथोक्तं मद्वचोऽनघे // 10 किमिदं वर्तते पुत्रि क्रियतां तद्वचो मम // 24 नारद उवाच / ततोऽब्रवीत्पुनर्मृत्युभगवन्तं पितामहम् / एवमुक्ता महाबाहो मृत्युः परपुरंजय / न हरेयं प्रजा देव पुनस्त्वाहं प्रसादये / / 25 न व्याजहार तस्थौ च प्रह्वा भगवदुन्मुखी // 11 ताम वर्मभयत्रस्तां पुनरेव च याचतीम् / पुनः पुनरथोक्ता सा गतसत्त्वेव भामिनी। तदाब्रवीदेवदेवो निगृह्येदं वचस्ततः // 26 तूष्णीमासीत्ततो देवो देवानामीश्वरेश्वरः // 12 अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संयच्छेमाः प्रजाः शुभे / प्रससाद किल ब्रह्मा खयमेवात्मनात्मवान् / | मया युक्तं मृषा भद्रे भविता नेह किंचन // 27 - 2323 - Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 250. 28 ] महाभारते [12. 251.. धर्मः सनातनश्च त्वामिहैवानुप्रवेक्ष्यते / सर्वे देवाः प्राणिनां प्राणनान्ते अहं च विबुधाश्चैव त्वद्धिते निरताः सदा / / 28 गत्वा वृत्ताः संनिवृत्तास्तथैव / इममन्यं च ते कामं ददामि मनसेप्सितम् / एवं सर्वे मानवाः प्राणनान्ते न त्वा दोषेण यास्यन्ति व्याधिसंपीडिताः प्रजाः / / ___ गत्वावृत्ता देववद्राजसिंह / / 38 पुरुषेषु च रूपेण पुरुषस्त्वं भविष्यसि / वायुीमो भीमनादो महौजाः स्त्रीषु स्त्रीरूपिणी चैव तृतीयेषु नपुंसकम् / / 30 सर्वेषां च प्राणिनां प्राणभूतः / सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरुवाच ह। नानावृत्तिर्देहिनां देहभेदे पुनरेब महात्मानं नेति देवेशमव्ययम् / / 31 तस्माद्वायुर्देवदेवो विशिष्टः // 39. तामब्रवीत्तदा देवो मृत्यो संहर मानवान् / / सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टाः अधर्मस्ते न भविता तथा ध्यास्याम्यहं शुभे // 32 सर्वे मर्त्या देवसंज्ञाविशिष्टाः / यानश्रुबिन्दून्पतितानपश्यं तस्मात्पुत्रं मा शुचो राजसिंह ___ ये पाणिभ्यां धारितास्ते पुरस्तात् / पुत्रः स्वर्ग प्राप्य ते मोदते ह // 40 ते व्याधयो मानवान्घोररूपाः एवं मृत्युर्देवसृष्टा प्रजानां प्राप्ते काले पीडयिष्यन्ति मृत्यो॥ 33 प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत् / सर्वेषां त्वं प्राणिनामन्तकाले तस्याश्चैव व्याधयस्तेऽश्रुपाताः ___ कामक्रोधौ सहितौ योजयेथाः / प्राप्ते काले संहरन्तीह जन्तून् // 41 एवं धर्मस्त्वामुपैष्यत्यमेयो इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ___ न चाधर्म लप्स्यसे तुल्यवृत्तिः // 34 पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 250 // एवं धर्म पालयिष्यस्यथोक्तं . 251 __न चात्मानं मजयिष्यस्यधर्मे / युधिष्ठिर उवाच / तस्मात्कामं रोचयाभ्यागतं त्वं इमे वै मानवाः सर्वे धर्म प्रति विशङ्किताः / संयोज्याथो संहरस्वेह जन्तून् // 35 कोऽयं धर्मः कुतो धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह // सा वै तदा मृत्युसंज्ञापदेशा धर्मो न्वयमिहार्थः किममुत्रार्थोऽपि वा भवेत् / च्छापाद्भीता बाढमित्यत्रवीत्तम् / उभयार्थोऽपि वा धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 अथो प्राणान्प्राणिनामन्तकाले भीष्म उवाच / कामक्रोधौ प्राप्य निर्मोह्य हन्ति // 36 सदाचारः स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम् / मृत्योर्ये ते व्याधयश्चाश्रुपाता चतुर्थमर्थमित्याहुः कवयो धर्मलक्षणम् // 3 मनुष्याणां रुज्यते यैः शरीरम् / अपि ह्युक्तानि कर्माणि व्यवस्यन्त्युत्तरावरे / सर्वेषां वै प्राणिनां प्राणनान्ते लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः / तस्माच्छोकं मा कृथा बुध्य बुद्ध्या // 37 / उभयत्र सुखोदकं इह चैव परत्र च // 4 -2324 - Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 251. 5] शान्तिपर्व [ 12. 252.5 अलब्ध्वा निपुणं धर्म पापः पापे प्रसज्जति / यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः / न च पापकृतः पापान्मुच्यन्ते केचिदापदि // 5 न तत्परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः // 19 अपापवादी भवति यदा भवति धर्मवित् / योऽन्यस्य स्यादुपपतिः स कं किं वक्तुमर्हति / धर्मस्य निष्ठा स्वाचारस्तमेवाश्रित्य भोत्स्यसे // 6 यदन्यस्तस्य तत्कुर्यान्न मृष्येदिति मे मतिः // 20 यदाधर्मसमाविष्टो धनं गृह्णाति तस्करः / जीवितुं यः स्वयं चेच्छेत्कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् / रमते निर्हरस्तेनः परवित्तमराजके // 7 यद्यदात्मन इच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् // 21 यदास्य तद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति / / अतिरिक्तैः संविभजेद्भोगैरन्यानकिंचनान् / तदा तेषां स्पृह्यते ये वै तुष्टाः खकैर्धनैः // 8 एतस्मात्कारणाद्धात्रा कुसीदं संप्रवर्तितम् // 22 अभीतः शुचिरभ्येति राजद्वारमशङ्कितः / .. यस्मिंस्तु देवाः समये संतिष्ठेरंस्तथा भवेत् / न हि दुश्चरितं किंचिदन्तरात्मनि पश्यति / / 9 अथ चेल्लाभसमये स्थितिधर्मेऽपि शोभना // 23 सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम् / सर्व प्रियाभ्युपगतं धर्ममाहुर्मनीषिणः / सत्येन विधृतं सर्वं सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् // 10 पश्यैतं लक्षणोद्देशं धर्माधर्म युधिष्ठिर // 24 अपि पापकृतो रौद्राः सत्यं कृत्वा पृथक्पृथक् / लोकसंग्रहसंयुक्तं विधात्रा विहितं पुरा / अद्रोहमविसंवादं प्रवर्तन्ते तदाश्रयाः / सूक्ष्मधर्मार्थनियतं सतां चरितमुत्तमम् // 25, ते चेन्मिथोऽधृतिं कुर्युविनश्येयुरसंशयम् // 11 धर्मलक्षणमाख्यातमेतत्ते कुरुसत्तम / न हर्तव्यं परधनमिति धर्मः सनातनः / तस्मादनार्जवे बुद्धिर्न कार्या ते कथंचन // 26 मन्यन्ते बलवन्तस्तं दुर्बलैः संग्रवर्तितम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यदा नियतिदौर्बल्यमथैषामेव रोचते // 12 एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः / / 251 // न ह्यत्यन्तं बलयुता भवन्ति सुखिनोऽपि वा। 252 तस्मादनार्जवे बुद्धिन कार्या ते कथंचन / / 13 असाधुभ्योऽस्य न भयं न चोरेभ्यो न राजतः / युधिष्ठिर उवाच। न किंचित्कस्यचित्कुर्वन्निर्भयः शुचिरावसेत् // 14 सूक्ष्मं साधु समादिष्टं भवता धर्मलक्षणम् / सर्वतः शङ्कते स्तेनो मृगो ग्राममिवेयिवान् / प्रतिभा त्वस्ति मे काचित्तां ब्रूयामनुमानतः // 1 बहुधाचरितं पापमन्यत्रैवानुपश्यति // 15 भूयांसो हृदये ये मे प्रश्नास्ते व्याहृतास्त्वया / मुदितः शुचिरभ्येति सर्वतो निर्भयः सदा / इममन्यं प्रवक्ष्यामि न राजन्विग्रहादिव // 2 न हि दुश्चरितं किंचिदात्मनोऽन्येषु पश्यति // 16 इमानि हि प्रापयन्ति सृजन्त्युत्तारयन्ति च / दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतैः। न धर्मः परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम् // 3 तं मन्यन्ते धनयुताः कृपणैः संप्रवर्तितम् // 17 अन्यो धर्मः समस्थस्य विषमस्थस्य चापरः / यदा नियतिकार्पण्यमथैषामेव रोचते / आपदस्तु कथं शक्याः परिपाठेन वेदितुम् // 4 न ह्यत्यन्तं धनवन्तो भवन्ति सुखिनोऽपि वा॥१८ / सदाचारो मतो धर्मः सन्तस्त्वाचारलक्षणाः / -2325 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 252.5] महाभारते [12. 253. 12 253 साध्यासाध्यं कथं शक्यं सदाचारो ह्यलक्षणम् // 5 / तेनाचारेण पूर्वेण संस्था भवति शाश्वती // 20 दृश्यते धर्मरूपेण अधर्म प्राकृतश्चरन् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्मं चाधर्मरूपेण कश्चिदप्राकृतश्चरन् // 6 द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः / / 252 // पुनरस्य प्रमाणं हि निर्दिष्टं शास्त्रकोविदैः। वेदवादाश्चानुयुगं ह्रसन्तीति ह नः श्रुतम् / / 7 भीष्म उवाच / अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्तिकृता इव / / 8 तुलाधारस्य वाक्यानि धर्मे जाजलिना सह // 1 आम्नायवचनं सत्यमित्ययं लोकसंग्रहः / वने वनचरः कश्चिज्जाजलि म वै द्विजः / आम्नायेभ्यः परं वेदाः प्रसृता विश्वतोमुखाः // 9 सागरोद्देशमागम्य तपस्तेपे महातपाः // 2 ते चेत्सर्वे प्रमाणं वै प्रमाणं तन्न विद्यते / नियतो नियताहारश्चीराजिनजटाधरः / / / प्रमाणे चाप्रमाणे च विरुद्धे शास्त्रता कुतः // 10 मलपङ्कधरो धीमान्बहून्वर्षगणान्मुनिः // 3 धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः / स कदाचिन्महातेजा जलवासो महीपते / या या विक्रियते संस्था ततः सापि प्रणश्यति॥११ चचार लोकान्विप्रर्षिः प्रेक्षमाणो मनोजवः // 4 विद्म चैवं न वा विद्म शक्यं वा वेदितुं न वा / स चिन्तयामास मुनिर्जलमध्ये कदाचन / अणीयान्क्षुरधाराया गरीयान्पर्वतादपि // 12 विप्रेक्ष्य सागरान्तां वै महीं सवनकाननाम् // 5 गन्धर्वनगराकारः प्रथमं संप्रदृश्यते / न मया सदृशोऽस्तीह लोके स्थावरजङ्गमे / अन्वीक्ष्यमाणः कविभिः पुनर्गच्छत्यदर्शनम् // 13 अप्सु वैहायसं गच्छेन्मया योऽन्यः सहेति वै // 6 निपानानीव गोभ्याशे क्षेत्रे कुल्येव भारत / / स दृश्यमानो रक्षोभिर्जलमध्येऽवदत्ततः / स्मृतोऽपि शाश्वतो धर्मो विग्रहीणो न दृश्यते॥१४ अब्रुवंश्च पिशाचास्तं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि // 7 कामादन्ये क्षयादन्ये कारणैरपरैस्तथा। तुलाधारो वणिग्धर्मा वाराणस्यां महायशाः / असन्तो हि वृथाचारं भजन्ते बहवोऽपरे // 15 / सोऽप्येवं नार्हते वक्तुं यथा त्वं द्विजसत्तम // 8 धर्मो भवति स क्षिप्रं विलीनस्त्वेव साधुषु / इत्युक्तो जाजलिर्भूतैः प्रत्युवाच महातपाः / अन्ये तानाहुरुन्मत्तानपि चावहसन्त्युत / / 16 / पश्येयं तमहं प्राज्ञं तुलाधारं यशस्विनम् // 9 महाजना ह्युपावृत्ता राजधर्म समाश्रिताः / इति ब्रुवाणं तमृषि रक्षास्युद्धृत्य सागरात् / न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः संप्रदृश्यते // 17 अब्रुवनाच्छ पन्थानमास्थायेमं द्विजोत्तम // 10 तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरं बाधते पुनः / इत्युक्तो जाजलिर्भूतैर्जगाम विमनास्तदा / दृश्यते चैव स पुनस्तुल्यरूपो यदृच्छया // 18 - वाराणस्यां तुलाधारं समासाद्याब्रवीद्वचः // 11 येनैवान्यः प्रभवति सोऽपरानपि बाधते / युधिष्ठिर उवाच / आचाराणामनैकाग्र्यं सर्वेषामेव लक्षयेत् // 19 किं कृतं सुकृतं कर्म तात जाजलिना पुरा। चिराभिपन्नः कविभिः पूर्वं धर्म उदाहृतः / / येन सिद्धि परां प्राप्तस्तन्नो व्याख्यातुमर्हसि // 12 - 2326 - Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 253. 13 ] शान्तिपर्व [12. 253. 42 भीष्म उवाच / व्यवर्धन्त च तत्रैव न चाकम्पत जाजलिः // 27 अतीव तपसा युक्तो घोरेण स बभूव ह / स रक्षमाणस्त्वण्डानि कुलिङ्गानां यतव्रतः। - नद्युपस्पर्शनरतः सायं प्रातर्महातपाः / / 13 तथैव तस्थौ धर्मात्मा निर्विचेष्टः समाहितः / / 28 अग्नीपरिचरन्सम्यक्स्वाध्यायपरमो द्विजः / ततस्तु कालसमये बभूवुस्तेऽथ पक्षिणः / वानप्रस्थविधानज्ञो जाजलिवलितः श्रिया // 14 बुबुधे तांश्च स मुनिर्जातपक्षाशकुन्तकान् // 29 सत्ये तपसि तिष्ठन्स न च धर्ममवैक्षत / / ततः कदाचित्तास्तत्र पश्यन्पक्षीन्यतव्रतः / वर्षाखाकाशशायी स हेमन्ते जलसंश्रयः // 15 / बभूव परमप्रीतस्तदा मतिमतां वरः / / 30 वातातपसहो ग्रीष्मे न च धर्ममविन्दत / तथा तानभिसंवृद्धान्दृष्ट्वा चाप्नुवतां मुदम् / दुःखशय्याश्च विविधा भूमौ च परिवर्तनम् // 16 / | शकुनौ निर्भयौ तत्र ऊषतुश्चात्मजैः सह / / 31 ततः कदाचित्स मुनिर्वर्षास्वाकाशमास्थितः / जातपक्षांश्च सोऽपश्यदुड्डीनान्पुनरागतान् / अन्तरिक्षाजलं मूर्धा प्रत्यगृह्णान्मुहुर्मुहुः // 17 सायं सायं द्विजान्विप्रो न चाकम्पत जाजलिः॥ अथ तस्य जटाः क्लिन्ना बभूवुर्ग्रथिताः प्रभो। कदाचित्पुनरभ्येत्य पुनर्गच्छन्ति संततम् / अरण्यगमनान्नित्यं मलिनो मलसंयुताः / / 18 त्यक्ता मातृपितृभ्यां ते न चाकम्पत जाजलिः॥३३ स कदाचिन्निराहारो वायुभक्षो महातपाः / अथ ते दिवसं चारी गत्वा सायं पुनर्नृप / तस्थौ काष्ठवदव्यग्रो न चचाल च कर्हि चित् // 19 उपावर्तन्त तत्रैव निवासार्थ शकुन्तकाः / / 34 . तस्य स्म स्थाणुभूतस्य निर्विचेष्टस्य भारत / कदाचिद्दिवसान्पश्च समुत्पत्य विहंगमाः / फुलिङ्गशकुनौ राजन्नीडं शिरसि चक्रतुः // 20 षष्ठेऽहनि समाजग्भुन चाकम्पत जाजलिः // 35 स तौ दयावान्विप्रर्षिरुपप्रैक्षत दंपती / क्रमेण च पुनः सर्वे दिवसानि बहून्यपि / कुर्वाणं नीडकं तत्र जटासु तृणतन्तुभिः // 21 नोपावर्तन्त शकुना जातप्राणाः स्म ते यदा // 36 यदा स न चलत्येव स्थाणुभूतो महातपाः / कदाचिन्मासमात्रेण समुत्पत्य विहंगमाः / ततस्तौ परिविश्वस्तौ सुखं तत्रोषतुस्तदा // 22 नैयागच्छंस्ततो राजन्प्रातिष्ठत स जाजलिः // 37 अतीतास्वथ वर्षासु शरत्काल उपस्थिते। ततस्तेषु प्रलीनेषु जाजलिर्जातविस्मयः / प्राजापत्येन विधिना विश्वासात्काममोहितौ // 23 सिद्धोऽस्मीति मतिं चक्रे ततस्तं मान आविशत् / / तत्रापातयतां राजशिरस्यण्डानि खेचरौ / स तथा निर्गतान्दृष्ट्वा शकुन्तानियतव्रतः / धान्यबुध्यत तेजस्वी स विप्रः संशितव्रतः / / 24 संभावितात्मा संभाव्य भृशं प्रीतस्तदाभवत् // 39 बुद्धा च स महातेजा न चचालैव जाजलिः / स नद्यां समुपस्पृश्य तर्पयित्वा हुताशनम् / धर्मे धृतमना नित्यं नाधर्म स त्वरोचयत् // 25 / उदयन्तमथादित्यमभ्यगच्छन्महातपाः // 40 अहन्यहनि चागम्य ततस्तौ तस्य मूर्धनि / संभाव्य चटकान्मूनि जाजलिर्जपतां वरः / पाश्वासितौ वै वसतः संप्रहृष्टौ तदा विभो // 26 - आस्फोटयत्तदाकाशे धर्मः प्राप्तो मयेति वै // 41 खण्डेभ्यस्त्वथ पुष्टेभ्यः प्रजायन्त शकुन्तकाः। अथान्तरिक्षे वागासीत्तां स शुश्राव जाजलिः / - 2327 - Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 253. 42 ] महाभारते [ 12. 254. 17 धर्मेण न समस्त्वं वै तुलाधारस्य जाजले // 42 एतदाचक्ष्व मे सर्व निखिलेन महामते // 3 वाराणस्यां महाप्राज्ञस्तुलाधारः प्रतिष्ठितः / एवमुक्तस्तुलाधारो ब्राह्मणेन यशस्विना / सोऽप्येवं नाहते वक्तुं यथा त्वं भाषसे द्विज // 43 / उवाच धर्मसूक्ष्माणि वैश्यो धर्मार्थतत्त्ववित् / सोऽमर्षवशमापन्नस्तुलाधारदिद्वक्षया / जाजलिं कष्टतपसं ज्ञानतृप्तस्तदा नृप // 4 पृथिवीमचरद्राजन्यत्रसायंगृहो मुनिः / / 44 वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम् / कालेन महतागच्छत्स तु वाराणसी पुरीम् / सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः // 5 विक्रीणन्तं च पण्यानि तुलाधारं ददर्श सः // 45 अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः / सोऽपि दृष्ट्वैव तं विश्रमायान्तं भाण्डजीवनः / या वृत्तिः स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले॥ समुत्थाय सुसंहृष्टः स्वागतेनाभ्यपूजयत् // 46 परिच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम् / तुलाधार उवाच / अलक्तं पद्मकं तुङ्ग गन्धांश्वोच्चावचांस्तथा / / 7 आयानेवासि विदितो मम ब्रह्मन्न संशयः / रसांश्च तांस्तान्वित मद्यवर्जानहं बहून् / ब्रवीमि यत्तु वचनं तच्छृणुष्व द्विजोत्तम // 47 क्रीत्वा वै प्रतिविक्रीणे परहस्तादमायया // 8 सागरानूपमाश्रित्य तपस्तप्तं त्वया महत् / सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः। न च धर्मस्य संज्ञां त्वं पुरा वेत्थ कथंचन // 48 कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले // 1 ततः सिद्धस्य तपसा तव विप्र शकुन्तकाः / नाहं परेषां कर्माणि प्रशंसामि शपामि वा / क्षिप्रं शिरस्यजायन्त ते च संभावितास्त्वया / / 45 आकाशस्येव विप्रर्प पश्यल्लोकस्य चित्रताम् // 1 जातपक्षा यदा ते च गताश्चारीमितस्ततः / नानुरुध्ये विरुध्ये वा न द्वेष्मि न च कामये। मन्यमानस्ततो धर्मं चटकप्रभवं द्विज / समोऽस्मि सर्वभूतेषु पश्य मे जाजले व्रतम् // 1 खे वाचं त्वमथाश्रीषीर्मा प्रति द्विजसत्तम // 50 इष्टानिष्टविमुक्तस्य प्रीतिरागबहिष्कृतः। अमर्षवशमापन्नस्ततः प्राप्तो भवानिह / तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले // 15 करवाणि प्रियं किं ते तद्रूहि द्विजसत्तम / / 51 इति मां त्वं विजानीहि सर्वलोकस्य जाजले। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि समं मतिमतां श्रेष्ठ समलोष्टाश्मकाञ्चनम् // 1 // त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 253 // यथान्धबधिरोन्मत्ता उच्छ्वासपरमाः सदा। 254 देवैरपिहितद्वाराः सोपमा पश्यतो मम // 14 भीष्म उवाच / यथा वृद्धातुरकृशा निःस्पृहा विषयान्प्रति / इत्युक्तः स तदा तेन तुलाधारेण धीमता। तथार्थकामभोगेषु ममापि विगता स्पृहा // 15 प्रोवाच वचनं धीमाञ्जाजलिर्जपतां वरः // 1 यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति / विक्रीणानः सर्वरसान्सर्वगन्धांश्च वाणिज / यदा नेच्छति न द्वेष्टि तदा सिध्यति वै द्विजः / वनस्पतीनोषधीश्च तेषां मूलफलानि च // 2 यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् / अध्यगा नैष्ठिकी बुद्धि कुतस्त्वामिदमागतम् / / कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // 17 - 2328 - Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 254. 18] शान्तिपर्व [ 12. 254. 45 न भूतो न भविष्यश्च न च धर्मोऽस्ति कश्चन / न स धर्ममवाप्नोति इह लोके परत्र च // 31 योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम // 18 सर्वभूतात्मभूतस्य सम्यग्भूतानि पश्यतः / यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव। देवापि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः // 32 वाक्क्रूराद्दण्डपारुष्यात्स प्राप्नोति महद्भयम् // 19 दानं भूताभयस्याहुः सर्वदानेभ्य उत्तमम् / यथावद्वर्तमानानां वृद्धानां पुत्रपौत्रिणाम् / ब्रवीमि ते सत्यमिदं श्रद्दधस्व च जाजले // 33 अनुवर्तामहे वृत्तमहिंस्राणां महात्मनाम् // 20 स एव सुभगो भूत्वा पुनर्भवति दुर्भगः / प्रनष्टः शाश्वतो धर्मः सदाचारेण मोहितः / व्यापत्तिं कर्मणां दृष्ट्वा जुगुप्सन्ति जनाः सदा॥३४ तेन वैद्यस्तपस्वी वा बलवान्वा विमोह्यते // 21 अकारणो हि नेहास्ति धर्मः सूक्ष्मोऽपि जाजले / आचाराजाजले प्राज्ञः क्षिप्रं धर्ममवाप्नुयात् / भूतभव्यार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम् // 35 एवं यः साधुभिर्दान्तश्चरेदद्रोहचेतसा // 22 सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञातुं शक्यते बहुनिह्नवः / नद्यां यथा चेह काष्टमुह्यमानं यदृच्छया। उपलभ्यान्तरा चान्यानाचारानवबुध्यते // 36 यदृच्छयैव काष्ठेन संधिं गच्छेत केनचित् // 23 ये च छिन्दन्ति वृषणान्ये च भिन्दन्ति नस्तकान् / तत्रापराणि दारूणि संसृज्यन्ते ततस्ततः / वहन्ति महतो भारान्बध्नन्ति दमयन्ति च // 37 तृणकाष्ठकरीपाणि कदाचिन्नसमीक्षया / हत्वा सत्त्वानि खादन्ति तान्कथं न विगर्हसे। एवमेवायमाचारः प्रादुर्भूतो यतस्ततः / / 24 मानुषा मानुषानेव दासभोगेन भुञ्जते // 38 यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन / वधबन्धविरोधेन कारयन्ति दिवानिशम् / अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने / / 25 आत्मना चापि जानासि यदुःखं वधताडने // 39 यस्मादुद्विजते विद्वन्सर्वलोको वृकादिव / पश्चेन्द्रियेषु भूतेषु सर्वं वसति दैवतम् / क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचराः // 26 / आदित्यश्चन्द्रमा वायुब्रह्मा प्राणः ऋतुर्यमः॥४० सहायवान्द्रव्यवान्यः सुभगोऽन्योऽपरस्तथा / तानि जीवानि विक्रीय का मृतेषु विचारणा / ततस्तानेव कवयः शास्त्रेषु प्रवदन्त्युत / का तैले का घृतें ब्रह्मन्मधुन्यप्स्वौषधेषु वा // 41 कीर्त्यर्थमल्पहृल्लेखाः पटवः कृत्स्ननिर्णयाः // 27 अदंशमशके देशे सुखं संवर्धितान्पशून् / तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यैः प्रज्ञाश्रितैस्तथा। तांश्च मातुः प्रियाञ्जानन्नाक्रम्य बहुधा नराः / प्राप्नोत्यभयदानस्य यद्यत्फलमिहाभुते // // 28 बहुदंशकुशान्देशान्नयन्ति बहुकर्दमान् // 42 लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम् / वाहसंपीडिता धुर्याः सीदन्त्यविधिनापरे। स सर्वयज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् / न मन्ये भ्रूणहत्यापि विशिष्टा तेन कर्मणा // 43 न भूतानामहिंसाया ज्यायान्धर्मोऽस्ति कश्चन॥२९ कृषि साध्विति मन्यन्ते सा च वृत्तिः सुदारुणा / यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन / भूमि भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम् / सोऽभयं सर्वभूतेभ्यः संप्राप्नोति महामुने // 30 तथैवानडुहो युक्तान्समवेक्षस्व जाजले // 44 यस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव / अन्या इति गवां नाम क एनान्हन्तुमर्हति / म.भा. 292 -2329 - - अध्या Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 254. 45] महाभारते [12. 255. 10 महच्चकाराकुशलं पृषध्रो गालभन्निव // 45 नमो ब्राह्मणयज्ञाय ये च यज्ञविदो जनाः।। ऋषयो यतयो हतन्नहुपे प्रत्यवेदयन् / .. स्वयज्ञं ब्राह्मणा हित्वा क्षात्रं यज्ञमिहास्थिताः॥ गां मातरं चाप्यवधीवृषभं च प्रजापतिम् / लुब्धैर्वित्तपरैर्ब्रह्मनास्तिकैः संप्रवर्तितम्। / अकार्य नहुषाकालिप्स्यामस्त्वस्कृते भयम् // 46 वेदवादानविज्ञाय सत्याभासमिवानृतम् // 6 // शतं चैकं च रोगाणां सर्वभूतेष्वपातयत्। इयं देयमिदं देयमिति नान्तं चिकीर्षति / / ऋषयस्ते महाभागाः प्रजास्वेव हि जाजले। अतः स्तैन्यं प्रभवति विकर्माणि च जाजले / भ्रणहं नहुषं त्वाहुन ते होष्यामहे हविः // 47 तदेव सुकृतं हव्यं येन तुष्यन्ति देवताः // 7 इत्युक्त्वा ते महात्मानः सर्वे तत्त्वार्थदर्शिनः / नमस्कारेण हविषा स्वाध्यायैरौषधैस्तथा / ऋषयो यतयः शान्तास्तरसा प्रत्यवेदयन् // 48 पूजा स्याद्देवतानां हि यथा शास्त्रनिदर्शनम् // 8 ईदृशानशिवान्घोरानाचारानिह जाजले। इष्टापूर्तादसाधूनां विषमा जायते प्रजा। केवलाचरितत्वात्तु निपुणान्नावबुध्यसे // 49 लुब्धेभ्यो जायते लुब्धः समेभ्यो जायते समः // कारणाद्धर्ममन्विच्छन्न लोकचरितं चरेत् / / यजमानो यथात्मानमृत्विजश्च तथा प्रजाः / यो हन्याद्यश्च मां स्तौति तत्रापि शृणु जाजले // यज्ञात्प्रजा प्रभवति नभसोऽम्भ इवामलम् // 1 // समौ तावपि मे स्यातां न हि मे स्तः प्रियाप्रिये। अग्नी प्रास्ताहुतिर्ब्रह्मन्नादित्यमुपतिष्ठति / एतदीदृशकं धर्म प्रशंसन्ति मनीषिणः // 51 आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेरन्नं ततः प्रजाः // 11 उपपत्त्या हि संपन्नो यतिभिश्चैव सेव्यते / तस्मात्स्वनुष्ठितात्पूर्वे सर्वान्कामांश्च लेभिरे / सततं धर्मशीलैश्च नैपुण्येनोपलक्षितः // 52 अकृष्टपच्या पृथिवी आशीर्भिर्वीरुधोऽभवन् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न ते यज्ञेष्वात्मसु वा फलं पश्यन्ति किंचन // 12 चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 254 // शङ्कमानाः फलं यज्ञे ये यजेरन्कथंचन / 255 जायन्तेऽसाधवो धूर्ता लुब्धा वित्तप्रयोजनाः // 1 // जाजलिरुवाच / स स्म पापकृतां लोकांन्गच्छेदशुभकर्मणा / यथा प्रवर्तितो धर्मस्तुलां धारयता त्वया / प्रमाणमप्रमाणेन यः कुर्यादशुभं नरः / स्वर्गद्वारं च वृत्तिं च भूतानामवरोत्स्यते // 1 / / पापात्मा सोऽकृतप्रज्ञः सदैवेह द्विजोत्तम // 14 कृष्या ह्यन्नं प्रभवति ततस्त्वमपि जीवसि / कर्तव्यमितिकर्तव्यं वेत्ति यो ब्राह्मणोभयम् / पशुभिश्चौषधीभिश्च मा जीवन्ति वाणिज // 2 ब्रह्मैव वर्तते लोके नैति कर्तव्यतां पुनः // 15 यतो यज्ञः प्रभवति नास्तिक्यमपि जल्पसि। विगुणं च पुनः कर्म ज्याय इत्यनुशुश्रुम / न हि वर्तेदयं लोको वार्तामुत्सृज्य केवलम् // 3 सर्वभूतोपघातश्च फलभावे च संयमः // 56 तुलाधार उवाच / सत्ययज्ञा दमयज्ञा अलब्धाश्चात्मतृप्नयः / वक्ष्यामि जाजले वृत्तिं नास्मि ब्राह्मण नास्तिकः / उत्पन्नात्यागिनः सर्वे जना आसन्नमत्सराः // 17 न च यज्ञं विनिन्दामि यज्ञवित्तु सुदुर्लभः // 4 क्षेत्रक्षेत्रज्ञतत्त्वज्ञाः स्वयज्ञपरिनिष्ठिताः / -2330 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 255. 18 ] शान्तिपर्व [12. 256. 1 ब्राह्म वेदमधीयन्तस्तोषयन्त्यमरानपि / / 18 / अक्षीणं क्षीणकर्माणं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 33 अखिलं दैवतं सर्वं ब्रह्म ब्राह्मणसंश्रितम् / नाश्रावयन्न च यजन्न ददद्ब्राह्मणेषु च / तृप्यन्ति तृप्यतो देवास्तृप्तास्तृप्तस्य जाजले // 19 ग्राम्यां वृत्तिं लिप्समानः कां गतिं याति जाजले / यथा सर्वरसैस्तृप्तो नाभिनन्दति किंचन / इदं तु दैवतं कृत्वा यथा यज्ञमवाप्नुयात् // 34 तथा प्रज्ञानतृप्तस्य नित्यं तृप्तिः सुखोदया // 20 जाजलिरुवाच। धर्मारामा धर्मसुखाः कृत्स्नव्यवसितास्तथा। न वै मुनीनां शृणुमः स्म तत्त्वं अस्ति नस्तत्त्वतो भूय इति प्रज्ञागवेषिणः // 21. __पृच्छामि त्वा वाणिज कष्टमेतत् / ज्ञानविज्ञानिनः केचित्परं पारं तितीर्षवः / पूर्वे पूर्वे चास्य नावेक्षमाणा अतीव तत्सदा पुण्यं पुण्याभिजनसंहितम् / / 22 नातः परं तमृषयः स्थापयन्ति // 35 यत्र गत्वा न शोचन्ति न च्यवन्ति व्यथन्ति च / अस्मिन्नेवात्मतीर्थे न पशवः प्राप्नुयुः सुखम् / ते तु तद्ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः // 23 अथ स्वकर्मणा केन वाणिज प्राप्नुयात्सुखम् / नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनैः / / शंस मे तन्महाप्राज्ञ भृशं वै श्रद्दधामि ते // 36 सतां वानुवर्तन्ते यथाबलमहिंसया // 24 तुलाधार उवाच / वनस्पतीनोषधीश्च फलमूलं च ते विदुः। उत यज्ञा उतायज्ञा मखं नार्हन्ति ते क्वचित् / न चैतानृविजो लुब्धा याजयन्ति धनार्थिनः // 25 आज्येन पयसा दध्ना पूर्णाहुत्या विशेषतः / स्वमेव चार्थं कुर्वाणा यज्ञं चक्रुः पुनर्द्विजाः। वालैः शृङ्गेण पादेन संभवत्येव गौमुखम् // 37 परिनिष्ठितकर्माणः प्रजानुग्रहकाम्यया // 26 पत्नी चानेन विधिना प्रकरोति नियोजयन् / प्रापयेयुः प्रजाः स्वर्गं स्वधर्मचरणेन वै। पुरोडाशो हि सर्वेषां पशूनां मेध्य उच्यते // 38 इति मे वर्तते बुद्धिः समा सर्वत्र जाजले // 27 सर्वा नद्यः सरस्वत्यः सर्वे पुण्याः शिलोच्चयाः / प्रयुञ्जन्ते यानि यज्ञे सदा प्राज्ञा द्विजर्षभ / जाजले तीर्थमात्मैव मा स्म देशातिथिभव // 39 तेन ते देवयानेन पथा यान्ति महामुने // 28 एतानीदृशकान्धर्मानाचरन्निह जाजले / आवृत्तिस्तत्र चैकस्य नास्त्यावृत्तिर्मनीषिणाम् / कारणैर्धर्ममन्विच्छन्न लोकानाप्नुते शुभान् // 40 उभौ तौ देवयानेन गच्छतो जाजले पथा // 29 भीष्म उवाच / स्वयं चैषामनडुहो युज्यन्ति च वहन्ति च। एतानीदृशकान्धर्मास्तुलाधारः प्रशंसति / खयमस्राश्च दुह्यन्ते मनःसंकल्पसिद्धिभिः // 30 उपपत्त्या हि संपन्नान्नित्यं सद्भिनिषेवितान् // 41 खयं यूपानुपादाय यजन्ते स्वाप्तदक्षिणैः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यस्तथाभावितात्मा स्यात्स गामालब्धुमर्हति // 31 पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 255 // ओषधीभिस्तथा ब्रह्मन्यजेरंस्ते नतादृशा। 256 बुद्धित्यागं पुरस्कृत्य तादृशं प्रब्रवीमि ते // 32 तुलाधार उवाच। नेराशिषमनारम्भ निर्नमस्कारमस्तुतिम् / / सद्भिर्वा यदि वासद्भिरयं पन्थाः समाश्रितः / -2331 - Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 256. 1] महाभारते [ 12. 257.5 प्रत्यक्षं क्रियतां साधु ततो ज्ञास्यसि तद्यथा // 1 / वयं जिज्ञासमानास्त्वा संप्राप्ता धर्मदर्शनात् // 15 एते शकुन्ता बहवः समन्ताद्विचरन्ति हि / स्पर्धा जहि महाप्राज्ञ ततः प्राप्स्यसि यत्परम् / तवोत्तमाङ्गे संभूताः श्येनाश्चान्याश्च जातयः // 2 श्रद्धावाञ्श्रद्दधानश्च धर्माश्चैवेह वाणिजः / आह्वयैनान्महाब्रह्मन्विशमानांस्ततस्ततः / स्ववर्त्मनि स्थितश्चैव गरीयानेष जाजले // 16 . पश्येमान्हस्तपादेषु श्लिष्टान्देहे च सर्वशः // 3 एवं बहुमतार्थं च तुलाधारेण भाषितम् / संभावयन्ति पितरं त्वया संभाविताः खगाः। सम्यक्चैवमुपालब्धो धर्मश्चोक्तः सनातनः // 10 असंशयं पिता च त्वं पुत्रानाह्वय जाजले // 4 तस्य विख्यातवीर्यस्य श्रुत्वा वाक्यानि स द्विजः / भीष्म उवाच / तुलाधारस्य कौन्तेय शान्तिमेवान्वपद्यत // 18 ततो जाजलिना तेन समाहूताः पतत्रिणः / ततोऽचिरेण कालेन तुलाधारः स एव च / वाचमुच्चारयन्दिव्यां धर्मस्य वचनात्किल // 5 दिवं गत्वा महाप्राज्ञौ विहरेतां यथासुखम् / अहिंसादिकृतं कर्म इह चैव परत्र च। स्वं स्वं स्थानमुपागम्य स्वकर्मफलनिर्जितम् // 19 स्पर्धा निहन्ति वै ब्रह्मन्साहता हन्ति तं नरम् // 6 समानां श्रद्दधानानां संयतानां सुचेतसाम् / श्रद्धावृद्धं वाङ्मनसी न यज्ञस्त्रातुमर्हति / कुर्वतां यज्ञ इत्येव न यज्ञो जातु नेष्यते // 20 अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः // 7 श्रद्धा वै सात्त्विकी देवी सूर्यस्य दुहिता नृप। शुचेरश्रद्दधानस्य श्रद्दधानस्य चाशुचेः / सावित्री प्रसवित्री च जीवविश्वासिनी तथा // 21 देवाश्चित्तममन्यन्त सदृशं यज्ञकर्मणि // 8 वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च भारत / श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वाधुषेः / यथौपम्योपदेशेन किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 22 मीमांसित्वोभयं देवाः सममन्नमकल्पयन् // 9 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रजापतिस्तानुवाच विषमं कृतमित्युत / षटपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 256 // श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत् / 257 भोज्यमन्नं वदान्यस्य कदर्यस्य न वाधुषेः // 10 भीष्म उवाच / अश्रद्दधान एवैको देवानां नाहते हविः। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तस्यैवान्नं न भोक्तव्यमिति धर्मविदो विदुः // 11 प्रजानामनुकम्पार्थ गीतं राज्ञा विचख्नुना // 1 अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पापप्रमोचनी / छिन्नस्थूणं वृषं दृष्ट्वा विरावं च गवां भृशम् / जहाति पापं श्रद्धावान्सो जीर्णामिव त्वचम् // 12 गोग्रहे यज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः स पार्थिवः // 2 ज्यायसी या पवित्राणां निवृत्तिः श्रद्धया सह / स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम् / निवृत्तशीलदोषो यः श्रद्धावान्पूत एव सः // 13 हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषानुकल्पिता // 3 किं तस्य तपसा कार्य किं वृत्तेन किमात्मना / / अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढैर्नास्तिकैनरैः / श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१४ संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिसा समनुकीर्तिता // 4 इति धर्मः समाख्यातः सद्भिर्धर्मार्थदर्शिभिः। सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् / -2332 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12.257.5] शान्तिपर्व [ 12. 258. 17 कामरागाद्विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून्नराः // 5 चिरकारेस्तु यत्पूर्व वृत्तमाङ्गिरसे कुले // 2 तस्मात्प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता। चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक / अहिंसैव हि सर्वेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता // 6 चिरकारी हि मेधावी नापराध्यति कर्मसु // 3 उपोष्य संशितो भूत्वा हित्वा वेदकृताः श्रुतीः / चिरकारी महाप्राज्ञो गौतमस्याभवत्सुतः / आचारः इत्यनाचाराः कृपणाः फलहेतवः // 7 चिरं हि सर्वकार्याणि समेक्षावान्प्रपद्यते // 4 यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः / / चिरं संचिन्तयन्नांश्चिरं जाग्रच्चिरं स्वपन् / वृथा मांसानि खादन्ति नैष धर्मः प्रशस्यते // 8 चिरकार्याभिसंपत्तेश्चिरकारी तथोच्यते // 5 मांसं मधु सुरा मत्स्या आसवं कृसरौदनम् / अलसग्रहणं प्राप्तो दुर्मेधावी तथोच्यते / धूर्तेः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद्वेदेषु कल्पितम् / / 9 . बुद्धिलाघवयुक्तेन जनेनादीर्घदर्शिना // 6 कामान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रवर्तितम् / व्यभिचारे तु कस्मिंश्चिद्व्यतिक्रम्यापरान्सुतान् / विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः।। पित्रोक्तः कुपितेनाथ जहीमां जननीमिति // 7 पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम् / / 10 स तथेति चिरेणोक्त्वा स्वभावाच्चिरकारिकः / यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः / विमृश्य चिरकारित्वाच्चिन्तयामास वै चिरम् // 8 यच्चापि किंचित्कर्तव्यमन्यच्चोझैः सुसंस्कृतम् / पितुराज्ञां कथं कुर्यां न हन्यां मातरं कथम् / महासत्त्वैः शुद्धभावैः सर्व देवार्हमेव तत् // 11 कथं धर्मच्छले नास्मिन्निमज्जेयमसाधुवत् // 9 युधिष्ठिर उवाच / पितुराज्ञा परो धर्मः स्वधर्मो मातृरक्षणम् / शरीरमापदश्चापि विवदन्त्यविहिंसतः / अस्वतत्रं च पुत्रत्वं किं नु मां नात्र पीडयेत् // 10 कथं यात्रा शरीरस्य निरारम्भस्य सेत्स्यति // 12 स्त्रियं हत्वा मातरं च को हि जातु सुखी भवेत् / . भीष्म उवाच। पितरं चाप्यवज्ञाय कः प्रतिष्ठामवाप्नुयात् // 11 अनवज्ञा पितुर्युक्ता धारणं मातृरक्षणम् / यथा शरीरं न ग्लायेन्नेयान्मृत्युवशं यथा। तथा कर्मसु वर्तेत समर्थो धर्ममाचरेत् // 13 युक्तक्षमावुभावेतौ नातिवर्तेतमां कथम् // 12 पिता ह्यात्मानमाधत्ते जायायां जज्ञियामिति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि शीलचारित्रगोत्रस्य धारणार्थ कुलस्य च // 13 सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 257 / / सोऽहमात्मा स्वयं पित्रा पुत्रत्वे प्रकृतः पुनः / विज्ञानं मे कथं न स्याद्बुबुधे चात्मसंभवम् // 14 युधिष्ठिर उवाच / जातकर्मणि यत्प्राह पिता यच्चोपकर्मणि / कथं कार्य परीक्षेत शीघ्रं वाथ चिरेण वा। पर्याप्तः स दृढीकारः पितुर्गौरवनिश्चये // 15 सर्वथा कार्यदुर्गेऽरिमन्भवान्नः परमो गुरुः // 1 गुरुरग्र्यः परो धर्मः पोषणाध्ययनाद्धितः / भीष्म उवाच / पिता यदाह धर्मः स वेदेष्वपि सुनिश्चितः // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्रीतिमात्रं पितुः पुत्रः सर्वं पुत्रस्य वै पिता। - 2333 - Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 258. 17] महाभारते [ 12. 258. 46 शरीरादीनि देयानि पिता त्वेकः प्रयच्छति // 17 - दंपत्योः प्राणसंश्लेष योऽभिसंधिः कृतः किल / तस्मात्पितुर्वचः कार्य न विचार्यं कथंचन / तं माता वा पिता वेद भूतार्थो मातरि स्थितः // 32 पातकान्यपि पूयन्ते पितुर्वचनकारिणः // 18 माता जानाति यद्गोत्रं माता जानाति यस्य सः। भोगे भाग्ये प्रसवने सर्वलोकनिदर्शने / मातुर्भरणमात्रेण प्रीतिः स्नेहः पितुः प्रजाः // 3 // भर्ना चैव समायोगे सीमन्तोन्नयने तथा // 19 पाणिबन्धं स्वयं कृत्वा सहधर्ममुपेत्य च। . पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता परमकं तपः। यदि याप्यन्ति पुरुषाः स्त्रियो नाहन्ति याप्यताम् // पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः / / 20 भरणाद्धि स्त्रियो भर्ता पात्याञ्चैव स्त्रियाः पतिः / आशिषस्ता भजन्त्येनं पुरुषं प्राह याः पिता। गुणस्यास्य निवृत्तौ तु न भर्ता न पतिः पतिः // 35 निष्कृतिः सर्वपापानां पिता यदभिनन्दति / / 21 एवं स्त्री नापरानोति नर एआप्यराध्यति / मुच्यते बन्धनात्पुष्पं फलं वृन्तात्प्रमुच्यते / / व्युच्चरंश्च महादोषं नर एवापराध्यति // 36 क्लिश्यन्नपि सुतस्नेहै: पिता स्नेहं न मुञ्चति // 22 स्त्रिया हि परमो भर्ता दैवतं परमं स्मृतम् / एतद्विचिन्तितं तावत्पुत्रस्य पितृगौरवम् / तस्यात्मना तु सदृशमात्मानं परमं ददौ। . पिता ह्यल्पतरं स्थानं चिन्तयिष्यामि मातरम् // 23 सर्वकार्यापराध्यत्वान्नापराध्यन्ति चाङ्गनाः / / 37 यो ह्ययं मयि संघातो मत्यत्वे पाश्चभौतिकः / यश्चनोक्तो हि निर्देशः स्त्रिया मैथुनतृप्तये / अस्य मे जननी हेतुः पावकस्य यथारणिः / तस्य स्मारयतो व्यक्तमधर्मो नात्र संशयः // 38 माता देहारणिः पुंसां सर्वस्थार्तस्य निवृतिः / / 24 / यावन्नारी मातरं च गौरवे चाधिके स्थिताम् / न च शोचति नाप्येनं स्थाविर्यमएकर्षति / अवध्यां तु विजानीयुः पशवोऽप्यविचक्षणाः // 39 श्रिया हीनोऽपि यो गेहे अम्बेति प्रतिपद्यते // 25 / देवतानां समावायमेकस्थं पितरं विदुः / पुत्रपौत्रसमाकीर्णो जननीं यः समाश्रितः / मानां देवतानां च स्नेहादभ्येति मातरम् // 40 अपि वर्षशतस्यान्ते स द्विहायनवञ्चरेत् / / 26 / एवं विमृशतस्तस्य चिरकारितया बहु / समर्थ वासमर्थं वा कृशं वाप्यकृशं तथा। दीर्घः कालो व्यतिक्रान्तस्ततस्तस्यागमत्पिता / / 41 रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः // 27 मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः / तदा स वृद्धो भवति यदा भवति दुःखितः।। विमृश्य तेन कालेन पत्न्याः संस्थाव्यतिक्रमम् // तदा शून्यं जगत्तस्य यदा मात्रा वियुज्यते / / 28 / सोऽब्रवीदुःखसंतप्तो भृशमणि वर्तयन् / नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः / श्रुतधैर्यप्रसादेन पश्चात्तापमुपागतः // 43 नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा // 29 आश्रमं मम संप्रातत्रिलोकेशः पुरंदरः / कुक्षिसंधारणाद्धात्री जननाजननी स्मृता। अतिथिव्रतमास्थाय ब्राह्मणं रूपमास्थितः // 44 अङ्गानां वर्धनादम्बा वीरसूत्वेन वीरसूः // 30 समया सान्त्यितो वाग्भिः खागतेनाभिपूजितः / शिशो शुश्रूषणाच्छुभूर्माता देहमनन्तरम्। अध्यं पाद्यं च न्यायेन तयाभिप्रतिपादितः // 45 चेतनावानरो हन्याद्यस्य नासुपिरं शिरः // 31 - परवत्यस्मि चाप्युक्तः प्रणयिष्ये नयेन च / -2334 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 258. 46] शान्तिपर्व [ 12. 258.75 अत्र चाकुशले जाते स्त्रियो नास्ति व्यतिक्रमः।।४६ | शस्त्रग्रहणचापल्यं संवृणोति भयादिति // 61 एवं न स्त्री न चैवाहं नाध्वगस्त्रिदशेश्वरः / ततः पित्रा चिरं स्तुत्वा चिरं चाघ्राय मूर्धनि / अपराध्यति धर्मस्य प्रमादस्त्वपराध्यति / / 47 चिरं दोभ्यां परिष्वज्य चिरं जीवेत्युदाहृतः // 62 ईर्ष्याजं व्यसनं प्राहुस्तेन चैवोर्ध्वरेतसः / एवं स गौतमः पुत्रं प्रीतिहर्षसमन्वितः / ईjया त्वहमाक्षिप्तो मग्नो दुष्कृतसागरे // 48 अभिनन्द्य महाप्राज्ञ इदं वचनमब्रवीत् // 63 हत्वा साध्वी च नारी च व्यसनित्याच शासिताम् / चिरकारिक भद्रं ते चिरकारी चिरं भव / भर्तव्यत्वेन भायां च को नु मां तारयिष्यति॥४९ चिरायमाणे त्वयि च चिरमस्मि सुदुःखितः // 64 अन्तरेण मयाज्ञप्तश्चिरकारी [दारधीः / गाथाश्चाप्यब्रवीद्विद्वान्गौतमो मुनिसत्तमः। यद्यद्य चिरकारी स्यात्स मां त्रायेत पातकात् // 50 चिरकारिषु धीरेषु गुणोद्देशसमाश्रयात् // 65 चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक / चिरेण मित्रं बनीयाञ्चिरेण च कृतं त्यजेत् / यद्यद्य चिरकारी त्वं ततोऽसि चिरकारिकः // 51 चिरेण हि कृतं मित्रं चिरं धारणमर्हति // 66 त्राहि मां मातरं चैव तपो यच्चार्जितं मया। आत्मानं पातकेभ्यश्च भवाद्य चिरकारिकः / / 52 रागे दर्षे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि / सहजं चिरकारित्वं चिरप्राज्ञतया तव / अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते // 67 सफलं तत्तवाद्यास्तु भवाद्य चिरकारिकः // 53 बन्धूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च / चिरमाशंसितो मात्रा चिरं गर्भेण धारितः / अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते // 68 सफलं चिरकारित्वं कुरु त्वं चिरकारिक / / 54 एवं स गौतमस्तस्य प्रीतः पुत्रस्य भारत / चिरायते च संतापाचिरं स्वपिति वारितः। कर्मणा तेन कौरव्य चिरकारितया तया // 69 आवयोश्चिरसंतापादवेक्ष्य चिरकारिक // 55 एवं सर्वेषु कार्येषु विमृश्य पुरुषस्ततः / एवं स दुःखितो राजन्महर्षिगौतमस्तदा / चिरेण निश्चयं कृत्वा चिरं न परितप्यते // 70 चिरकारिं ददर्शाथ पुत्र स्थितमथान्तिके // 56 चिरं धारयते रोषं चिरं कर्म नियच्छति / चिरकारी तु पितरं दृष्ट्वा परमदुःखितः / पश्चात्तापकरं कर्म न किंचिदुपपद्यते // 71 शस्त्रं त्यक्त्वा ततो मूर्धा प्रसादायोपचक्रमे / / 57 चिरं वृद्धानुपासीत विरमन्वास्य पूजयेत् / गौतमस्तु सुतं दृष्ट्वा शिरसा पतितं भुवि / चिरं धर्मानिषेवेत कुर्याच्चान्वेषणं चिरम् / / 72 पत्नी चैव निराकारां परामभ्यगमन्मुदम् / / 58 चिरमन्वास्य विदुषश्चिरं शिष्टान्निषेव्य च / न हि सा तेन संभेदं पत्नी नीता महात्मना। विजने चाश्रमस्थेन पुत्रश्चापि समाहितः // 59 चिरं विनीय चात्मानं चिरं यात्यनवज्ञताम् // 73 हन्यात्त्वनपवादेन शस्त्रपाणौ सुते स्थिते / ब्रुवतश्च परस्यापि वाक्यं धर्मोपसंहितम् / विनीतं प्रश्नयित्वा च व्यवस्येदात्मकर्मसु / / 60 / चिरं पृच्छेच्चिरं याच्चिरं न परिभूयते // 74 बुद्धिश्वासीत्सुतं दृष्ट्वा पितुश्चरणयोनतम् / उपास्य बहुलास्तस्मिन्नाश्रमे सुमहातपाः / -2335 - Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 258. 75 ] महाभारते [ 12. 259. 24 समाः स्वगं गतो विप्रः पुत्रेण सहितस्तदा // 75 असाधुश्चैव पुरुषो लभते शीलमेकदा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि साधोश्चापि ह्यसाधुभ्यो जायतेऽशोभना प्रजा॥ अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 258 // न मूलघातः कर्तव्यो नैष धर्मः सनातनः / 259 अपि खल्ववधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते // 12 युधिष्ठिर उवाच / उद्वेजनेन बन्धेन विरूपकरणेन च / कथं राजा प्रजा रक्षेन च किंचित्प्रतापयेत् / वधदण्डेन ते क्लेश्या न पुरोऽहितसंपदा // 13 / पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 यदा पुरोहितं वा ते पर्येयुः शरणैषिणः। भीष्म उवाच। करिष्यामः पुनर्ब्रह्मन्न पापमिति वादिनः // 14 तदा विसर्गमर्हाः स्युरितीदं नृपशासनम् / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / बिभ्रद्दण्डाजिनं मुण्डो ब्राह्मणोऽर्हति वासनम्॥१५ धुमत्सेनस्य संवादं राज्ञा सत्यवता सह // 2 गरीयांसो गरीयांसमपराधे पुनः पुनः / अव्याहृतं व्याजहार सत्यवानिति नः श्रुतम् / तथा विसर्गमर्हन्ति न यथा प्रथमे तथा // 16 वधाय नीयमानेषु पितुरेवानुशासनात् / / 3 धुमत्सेन उवाच / अधर्मतां याति धर्मो यात्यधर्मश्च धर्मताम् / यत्र यत्रैव शक्येरन्संयन्तुं समये प्रजाः / वधो नाम भवेद्धर्मो नैतद्भवितुमर्हति // 4 स तावत्प्रोच्यते धर्मो यावन्न प्रतिलञ्जयते // 10 घुमत्सेन उवाच / अहन्यमानेषु पुनः सर्वमेव पराभवेत् / अथ चेदवधो धर्मो धर्मः को जातुचिद्भवेत् / पूर्वे पूर्वतरे चैव सुशास्या अभवञ्जनाः // 18 दस्यवश्वेन्न हन्येरन्सत्यवन्संकरो भवेत् / / 5 मृदवः सत्यभूयिष्ठा अल्पद्रोहाल्पमन्यवः। . ममेदमिति नास्यैतत्प्रवर्तेत कलौ युगे / पुरा धिग्दण्ड एवासीद्वाग्दण्डस्तदनन्तरम् // 19 लोकयात्रा न चैव स्यादथ चेद्वेत्थ शंस नः // 6 आसीदादानदण्डोऽपि वधदण्डोऽद्य वर्तते / सत्यवानुवाच / वधेनापि न शक्यन्ते नियन्तुमपरे जनाः // 20 सर्व एव त्रयो वर्णाः कार्या ब्राह्मणबन्धनाः / / नैव दस्युर्मनुष्याणां न देवानामिति श्रुतिः / धर्मपाशनिबद्धानामल्पो व्यपचरिष्यति // 7 न गन्धर्वपितृणां च कः कस्येह न कश्चन // 21 यो यस्तेषामपचरेत्तमाचक्षीत वै द्विजः / पद्मं श्मशानादादत्ते पिशाचाच्चापि दैवतम् / अयं मे न शृणोतीति तस्मिन्राजा प्रधारयेत् // 8 / तेषु यः समयं कुर्यादज्ञेषु हतबुद्धिषु // 22 / तत्त्वाभेदेन यच्छास्त्रं तत्कार्यं नान्यथा वधः / __सत्यवानुवाच। असमीक्ष्यैव कर्माणि नीतिशास्त्रं यथाविधि // 9 / तान्न शक्नोषि चेत्साधून्परित्रातुमहिंसया। दस्यून्हिनस्ति वै राजा भूयसो वाप्यनागसः / कस्यचिद्भूतभव्यस्य लाभेनान्तं तथा कुरु // 23 भार्या माता पिता पुत्रो हन्यते पुरुषे हते / धुमत्सेन उवाच / परेणापकृते राजा तस्मात्सम्यक्प्रधारयेत् // 10 / राजानो लोकयात्राथं तप्यन्ते परमं तपः / -2336 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 259. 24 ] शान्तिपर्व [12. 260. 15 अपत्रपन्ति ताहरभ्यस्तथावृत्ता भवन्ति च // 24 यः स्यादुभयभाग्धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 वित्रास्यमाना सुकृतो न कामानन्ति दुष्कृतीन् / गार्हस्थ्यस्य च धर्मस्य त्यागधर्मस्य चोभयोः / सुकृतेनैव राजानो भूयिष्ठं शासते प्रजाः // 25 अदूरसंप्रस्थितयोः किं स्विच्छ्रेयः पितामह // 2 श्रेयसः श्रेयसीमेवं वृत्तिं लोकोऽनुवर्तते / / भीष्म उवाच / सदैव हि गुरोर्वृत्तमनुवर्तन्ति मानवाः // 26 उभी धर्मों महाभागावुभौ परमदुश्चरौ। आत्मानमसमाधाय समाधित्सति यः परान् / उभौ महाफलौ तात सद्भिराचरितावुभौ // 3 विषयेष्विन्द्रियवशं मानवाः प्रहसन्ति तम् // 27 / अत्र ते वर्तयिष्यामि प्रामाण्यमुभयास्तयाः। यो राज्ञो दम्भमोहेन किंचित्कुर्यादसांप्रतम् / शृणुष्वैकमनाः पार्थ छिन्नधर्मार्थसंशयम् // 4 सर्वोपायनियम्यः स तथा पापान्निवर्तते // 28. अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / आत्मैवादौ नियन्तव्यो दुष्कृतं संनियच्छता / कपिलस्य गोश्च संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर // 5 इण्डयेच्च महादण्डैरपि बन्धूननन्तरान् // 29 आम्नायमनुपश्यन्हि पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् / यत्र वै पापकृत्क्लेश्यो न महदुःखमर्छति / . नहुषः पूर्वमालेभे त्वष्टुर्गा मिति नः श्रुतम् // 6 वर्धन्ते तत्र पापानि धर्मो हसति च ध्रुवम् / तां नियुक्तामदीनात्मा सत्त्वस्थः समये रतः / इति कारुण्यशीलस्तु विद्वान्दै ब्राह्मणोऽन्वशात् / / 30 ज्ञानवान्नियताहारो ददर्श कपिलस्तदा / / 7 इति चैवानुशिष्टोऽस्मि पूर्वैस्तात पितामहैः / स बुद्धिमुत्तमा प्राप्तो नैष्ठिकीमकुतोभयाम् / आश्वासयद्भिः सुभृशमनुक्रोशात्तथैव च / / 31 स्मरामि शिथिलं सत्यं वेदा इत्यब्रवीत्सकृत् // 8 एतत्प्रथमकल्पेन राजा कृतयुगेऽभजत् / तां गामृषिः स्यूमरश्मिः प्रविश्य यतिमब्रवीत् / पादोनेनापि धर्मेण गच्छेत्रेतायुगे तथा / हंहो वेदा यदि मता धर्माः केनापरे मताः // 9 द्वापरे तु द्विपादेन पादेन त्वपरे युगे // 32 तपस्विनो धृतिमतः श्रुतिविज्ञानचक्षुषः / तथा कलियुगे प्राप्ते राज्ञां दुश्चरितेन ह / सर्वमाष हि मन्यन्ते व्याहृतं विदितात्मनः // 10 भवेत्कालविशेषेण कला धर्मस्य षोडशी // 33 तस्यैवं गततृष्णस्य विज्वरस्य निराशिषः। अथ प्रथमकल्पेन सत्यवन्संकरो भवेत् / का विवक्षास्ति वेदेषु निरारम्भस्य सर्वशः // 11 प्रायुः शक्तिं च कालं च निर्दिश्य तप आदिशेत् // | ___ कपिल उवाच। सत्याय हि यथा नेह जह्याद्धर्मफलं महत् / नाहं वेदान्विनिन्दामि न विवक्षामि कर्हि चित् / भूतानामनुकम्पार्थं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् // 35 पृथगाश्रमिणां कर्माण्येकार्थानीतिः नः श्रुतम् // 12 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि गच्छत्येव परित्यागी वानप्रस्थश्च गच्छति / / एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 259 // | गृहस्थो ब्रह्मचारी च उभौ तावपि गच्छतः // 13 260 देवयाना हि पन्थानश्चत्वारः शाश्वता मताः / युधिष्ठिर उवाच। तेषां ज्यायःकनीयस्त्वं फलेषूक्तं बलाबलम् // 14 विरोधेन भूतानां त्यागः बागुण्यकारकः / एवं विदित्वा सर्वार्थानारभेदिति वैदिकम् / भा. 293 -2337 - Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारते [12. 261.2 नारभेदिति चान्यत्र नैष्ठिकी श्रूयते श्रुतिः // 15 अनारम्भे ह्यदोषः स्यादारम्भेऽदोष उत्तमः। एवं पूर्वे पूर्वतराः प्रवृत्ताश्चैव मानवाः // 29 एवं स्थितस्य शास्त्रस्य दुर्विज्ञेयं बलाबलम् // 16 न हिनस्ति ह्यारभते नाभिद्रुह्यति किंचन। . यद्यत्र किंचित्प्रत्यक्षमहिंसायाः परं मतम् / यज्ञो यष्टव्य इत्येव यो यजत्यफलेप्सया // 30 ऋते त्वागमशास्त्रेभ्यो ब्रूहि तद्यदि पश्यसि // 17 यज्ञाङ्गान्यपि चैतानि यथोक्तानि नसंशयः / स्यूमरश्मिरुवाच / विधिना विधियुक्तानि तारयन्ति परस्परम् // 31 स्वर्गकामो यजेतेति सततं श्रूयते श्रुतिः। आम्नायमाष पश्यामि यस्मिन्वेदाः प्रतिष्ठिताः / फलं प्रकल्प्य पूर्व हि ततो यज्ञः प्रतायते // 18 तं विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ब्राह्मणस्यानुदर्शनात् // 32 अजश्चाश्वश्च मेषश्च गौश्च पक्षिगणाश्च ये। ब्राह्मणप्रभवो यज्ञो ब्राह्मणार्पण एव च / प्राम्यारण्या ओषधयः प्राणस्यान्नमिति श्रुतिः // 19 अनु यझं जगत्सर्व यज्ञश्चानु जगत्सदा.॥ 33 तथैवान्नं ह्यहरहः सायं प्रातर्निरुप्यते / ओमिति ब्रह्मणो योनिनमः स्वाहा स्वधा वषट् / पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः / / 20 यस्यैतानि प्रयुज्यन्ते यथाशक्ति कृतान्यपि // 34 एतानि सह यज्ञेन प्रजापतिरकल्पयत् / न तस्य त्रिषु लोकेषु परलोकभयं विदुः। तेन प्रजापतिर्देवान्यज्ञेनायजत प्रभुः // 21 इति वेदा वदन्तीह सिद्धाश्च परमर्षयः // 35 ते स्मान्योन्यंचराः सर्वे प्राणिनः सप्त सप्त च। ऋचो यजूंषि सामानि स्तोभाश्च विधिचोदिताः। यज्ञेषूपाकृतं विश्वं प्राहुरुत्तमसंज्ञितम् / / 22 वस्मिन्नेतानि सर्वाणि बहिरेव स वै द्विजः // 3 // एतश्चैवाभ्यनुज्ञातं पूर्वैः पूर्वतरैस्तथा / अग्याधेये यद्भवति यच्च सोमे सुते द्विज। . को जातु न विचिन्वीत विद्वान्स्वां शक्तिमात्मनः॥ यञ्चेतरैर्महायज्ञैर्वेद तद्भगवान्स्वतः // 37 . पशवश्च मनुष्याश्च द्रुमाश्चौषधिभिः सह / तस्माद्ब्रह्मन्यजेतैव याजयेच्चाविचारयन् / स्वर्गमेवाभिकाङ्क्षन्ते न च स्वर्गस्वृते मखम् / / 24 यजतः स्वर्गविधिना प्रेत्य स्वर्गफलं महत् // 38 ओषध्यः पशवो वृक्षा वीरुदाज्यं पयो दधि। नायं लोकोऽत्ययज्ञानां परश्चेति विनिश्चयः / हविर्भूमिर्दिशः श्रद्धा कालश्चैतानि द्वादश // 25 वेदवादविदश्चैव प्रमाणमुभयं तदा // 39 ऋजो यजूंषि सामानि यजमानश्च षोडशः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अग्निज्ञेयो गृहपतिः स सप्तदश उच्यते / षष्टयधिकद्विशलतमोऽध्यायः // 260 // अङ्गान्येतानि यज्ञस्य यज्ञो मूलमितिः श्रुतिः // 26 261 आज्येन पयसा दध्ना शकृतामिक्षया त्वचा। कपिल उवाच / वालैः शृङ्गेण पादेन संभवत्येव गौमखम् // 27 / एतावदनुपश्यन्तो यतयो यान्ति मार्गगाः / एवं प्रत्येकशः सवं यद्यदस्य विधीयते / नैषां सर्वेषु लोकेषु कश्चिदस्ति ब्यतिक्रमः // 1 यझं वहन्ति संभूय सहत्विग्भिः सदक्षिणैः / निहूँद्वा निनमस्कारा निराशीबन्धना बुधाः। संहत्यैतानि सर्वाणि यज्ञं निवर्तयन्त्युत / 8 विमुक्ताः सर्वपापेभ्यश्चरन्ति शुचयोऽमलाः // 2 -- 2338 - Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 281. 3} . शान्तिपर्व [12. 261. 25 अपवर्गेऽथ संत्यागे बुद्धौ च कृतनिश्चयाः / | वेदवादापरिज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् // 16 प्रमिष्ठा ब्रह्मभूताश्च ब्रह्मण्येव कृतालयाः // 3 न वै पापैर्हियते कृष्यते वा विशोका नष्टरजसस्तेषां लोकाः सनातनाः / / ____ यो ब्राह्मणो यजते वेदशावैः / तेषां गतिं परां प्राप्य गार्हस्थ्ये किं प्रयोजनम् // 4 / ऊवं यशः पशुभिः सार्धमेति स्यूमरश्मिरुवाच / _____ संतर्पितस्तर्पयते च कामैः // 17 यद्येषा परमा निष्ठा यद्येषा परमा गतिः। | न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया / गृहस्थानव्यपाश्रित्य नाश्रमोऽन्यः प्रवर्तते // 5. महत्प्राप्नोति पुरुषो ब्रह्म ब्रह्मणि विन्दति // 18 यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः / कपिल उवाच / एवं गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्त इतरेऽऽश्रमाः // 6 दर्श च पौर्णमासं च अग्निहोत्रं च धीमताम् / गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः / चातुर्मास्यानि चैवासंस्तेषु यज्ञः सनातनः // 19 गाईस्थ्यमस्य धर्मस्य मूलं यत्किचिदेजते // 7 अनारम्भाः सुधृतयः शुचयो ब्रह्मसंश्रिताः / प्रजनाद्ध्यभिनिर्वृत्ताः सर्वे प्राणभृतो मुने।। ब्रह्मणैव स्म ते देवांस्तर्पयन्त्यमृतैषिणः // 2. प्रजनं चाप्युतान्यत्र न कथंचन विद्यते // 8 सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः / पास्ताः स्युबहिरोषध्यो बबरण्यास्तथा द्विज / / देवापि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः // 21 ओषधिभ्यो बहिर्यस्मात्प्राणी कश्चिन्न विद्यते / / चतुरिं पुरुषं चतुर्मुखं कस्यैषा वाग्भवेत्सत्या मोक्षो नास्ति गृहादिति // 9 चतुर्धा चैनमुपयाति निन्दा / अश्रधानैरप्राज्ञैः सूक्ष्मदर्शनवर्जितैः / बाहुभ्यां वाच उदरादुपस्थानिराशैरलसैः श्रान्तैस्तप्यमानैः स्वकर्मभिः। __ तेषां द्वारं द्वारपालो बुभूषेत् // 22 प्रमस्योपरमो दृष्टः प्रव्रज्या नाम पण्डितैः // 10 नार्दीव्येन्नाददीतान्यवित्तं त्रैलोक्यस्यैव हेतुर्हि मर्यादा शाश्वती ध्रुवा। न वायोनीयस्य शृतं प्रगृह्येत् / ब्राह्मणो नाम भगवाञ्जन्मप्रभृति पूज्यते // 11 क्रुद्धो न चैव प्रहरेत धीमांप्राग्गर्भाधानान्मत्रा हि प्रवर्तन्ते द्विजातिषु। ___ स्तथास्य तत्पाणिपादं सुगुप्तम् // 23 अविश्रम्भेषु वर्तन्ते विश्रम्भेष्वप्यसंशयम् // 12 नाक्रोशमर्छन्न मृषा वदेच्च दाहः पुनः संश्रयणे संस्थिते पात्रभोजनम् / न पैशुनं जनवादं च कुर्यात् / हानं गवां पशूनां वा पिण्डानां चाप्सु मज्जनम् // सत्यव्रतो मितभाषोऽप्रमत्तभर्चिष्मन्तो बर्हिषदः क्रव्यादाः पितरः स्मृताः / स्तथास्य वाग्द्वारमथो सुगुप्तम् // 24 मृतस्याप्यनुमन्यन्ते मत्रा मत्राश्च कारणम् / / 14 नानाशनः स्यान्न महाशनः स्याएवं क्रोशत्सु वेदेषु कुतो मोक्षोऽस्ति कस्यचित् / दलोलुपः साधुभिरागतः स्यात् / ऋणवन्तो यदा माः पितृदेवद्विजातिषु // 15 यात्रार्थमाहारमिहाददीत श्रिया विहीनैरलसैः पण्डितैरपलापितम् / तथास्य स्याज्जाठरी द्वारगुप्तिः // 25 -2339 - Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 261 26] महाभारते * [12. 261. 50 न वीरपत्नी विहरेत नारी श्रेयस्कामः प्रत्यवोचमार्जवान्न विवक्षया / ___ न चापि नारीमनृतावाह्वयीत / इमं च संशयं घोरं भगवान्प्रब्रवीतु मे // 38 भार्याव्रतं ह्यात्मनि धारयीत प्रत्यक्षमिह पश्यन्तो भवन्तः सत्पथे स्थिताः।। तथास्योपस्थद्वारगुप्तिभवेत // 26 किमत्र प्रत्यक्षतमं भवन्तो यदुपासते।। द्वाराणि यस्य सर्वाणि सुगुप्तानि मनीषिणः। अन्यत्र तर्कशास्त्रेभ्य आगमाच्च यथागमम् // 39 उपस्थमुदरं बाहू वाक्चतुर्थी स वै द्विजः // 27 आगमो वेदवादस्तु तर्कशास्त्राणि चागमः / मोघान्यगुप्तद्वारस्य सर्वाण्येव भवन्त्युत / यथागममुपासीत आगमस्तत्र सिध्यति / किं तस्य तपसा कार्य किं यज्ञेन किमात्मना // 28 सिद्धिः प्रत्यक्षरूपा च दृश्यत्यागमनिश्चयात् // 40 अनुत्तरीयवसनमनुपस्तीर्णशायिनम् / / नौ वीव निबद्धा हि स्रोतसा सनिबन्धना। बाहूपधानं शाम्यन्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / 29 द्वियमाणा कथं विप्र कबींस्तारयिष्यति। द्वंद्वारामेषु सर्वेषु य एको रमते मुनिः। एतद्भवीतु भगवानुपपन्नोऽस्म्यधीहि भोः // 41 परेषामननुध्यायंसं देवा ब्राह्मणं विदुः // 30 नैव त्यागी न संतुष्टो नाशोको न निरामयः। येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या। न निर्विवित्सो नावृत्तो नापवृत्तोऽस्ति कश्चन // 42 गतिज्ञः सर्वभूतानां तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / 31 भवन्तोऽपि च हृष्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्। अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु // 43 सर्वभूतात्मभूतो यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 32 एवं चतुर्णा वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु / नान्तरेणानुजानन्ति वेदानां यत्क्रियाफलम् / / एकमालम्बमानानां निर्णये किं निरामयम् // 44 अनुज्ञाय च तत्सर्वमन्यद्रोचयतेऽफलम् / / 33 कपिल उवाच / फलवन्ति च कर्माणि व्युष्टिमन्ति ध्रुवाणि च / यद्यदाचरते शास्त्रमथ सर्वप्रवृत्तिषु / विगुणानि च पश्यन्ति तथा कान्तिकानि च / / 34 यस्य यत्र ह्यनुष्ठानं तत्र तत्र निरामयम् // 45 गुणाश्चात्र सुदुर्जया ज्ञाताश्चापि सुदुष्कराः / सर्वं पावयते ज्ञानं यो ज्ञानं ह्यनुवर्तते / अनुष्ठिताश्चान्तवन्त इति त्वमनुपश्यसि // 35 ज्ञानादपेत्य या वृत्तिः सा विनाशयति प्रजाः // 46 स्यूमरश्मिरुवाच / भवन्तो ज्ञानिनो नित्यं सर्वतश्च निरागमाः / यथा च वेदप्रामाण्यं त्यागश्च सफलो यथा। ऐकात्म्यं नाम कश्चिद्धि कदाचिदभिपद्यते // 4 // तौ पन्थानावुभौ व्यक्तौ भगवंस्तद्रवीहि मे // 36 शास्त्रं ह्यबुवा तत्त्वेन केचिद्वादबला जनाः / कपिल उवाच / कामद्वेषाभिभूतत्वादहंकारवशं गताः // 48 प्रत्यक्षमिह पश्यन्ति भवन्तः सत्पथे स्थिताः / याथातथ्यमविज्ञाय शास्त्राणां शास्त्रदस्यवः / प्रत्यक्षं तु किमत्रास्ति यद्भवन्त उपासते // 37 ब्रह्मस्तेना निरारम्भा अपक्कमतयोऽशिवाः // 49 स्यूमरश्मिरुवाच / वैगुण्यमेव पश्यन्ति न गुणाननुयुञ्जते / स्यूमरश्मिरहं ब्रह्मञ्जिज्ञासार्थमिहागतः / तेषां तमःशरीराणां तम एव परायणम् // 50 -2340 - Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 261. 51] शान्तिपर्व [12. 262. 18 यो यथाप्रकृतिर्जन्तुः प्रकृतेः स्याद्वशानुगः / 262 तस्य द्वेषश्च कामश्च क्रोधो दम्भोऽनृतं मदः। कपिल उवाच / नित्यमेवाभिवर्तन्ते गुणाः प्रकृतिसंभवाः / / 51 वेदाः प्रमाणं लोकानां न वेदाः पृष्ठतःकृताः / एतद्बुद्ध्यानुपश्यन्तः संत्यजेयुः शुभाशुभम् / द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् / परां गतिमभीप्सन्तो यतयः संयमे रताः / / 52 शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति // 1 स्यूमरश्मिरुवाच / शरीरमेतत्कुरुते यद्वेदे कुरुते तनुम् / सर्वमेतन्मया ब्रह्मशास्त्रतः परिकीर्तितम् / / कृतशुद्धशरीरो हि पात्रं भवति ब्राह्मणः // 2 न ह्यविज्ञाय शास्त्रार्थ प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः / / 53 आनन्त्यमनुयुङ्क्ते यः कर्मणा तद्ब्रवीमि ते / यः कश्चिन्न्याय्य आचारः सर्वं शास्त्रमिति श्रुतिः / निरागममनैतिचं प्रत्यक्षं लोकसाक्षिकम् // 3 यदन्याय्यमशास्त्रं तदित्येषा श्रूयते श्रुतिः // 54 धर्म इत्येव ये यज्ञान्वितन्वन्ति निराशिषः / न प्रवृत्तिर्ऋते शास्त्रात्काचिदस्तीति निश्चयः / उत्पन्नत्यागिनोऽलुब्धाः कृपासूयाविवर्जिताः / यदन्यद्वेदवादेभ्यस्तदशास्त्रमिति श्रुतिः // 55 धनानामेष वै पन्थास्तीर्थेषु प्रतिपादनम् // 4 शास्त्रादपेतं पश्यन्ति बहवो व्यक्तमानिनः / अनाश्रिताः पापकृत्याः कदाचित्कर्मयोनितः / शास्त्रदोषान्न पश्यन्ति इह चामुत्र चापरे / मनःसंकल्पसंसिद्धा विशुद्धज्ञाननिश्चयाः // 5 * अविज्ञानहतप्रज्ञा हीनप्रज्ञास्तमोवृताः // 56 अक्रुध्यन्तोऽनसूयन्तो निरहंकारमत्सराः / शक्यं त्वेकेन मुक्तेन कृतकृत्येन सर्वशः / ज्ञाननिष्ठास्त्रिशुक्लाश्च सर्वभूतहिते रताः // 6 पिण्डमानं व्यपाश्रित्य चरितुं सर्वतोदिशम् / आसन्गृहस्था भूयिष्ठमव्युत्क्रान्ताः स्वकर्मसु / वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभाषितुम् // 57 राजानश्च तथा युक्ता ब्राह्मणाश्च यथाविधि // 7 इदं तु दुष्करं कर्म कुटुम्बमभिसंश्रितम् / समा ह्यार्जवसंपन्नाः संतुष्टा ज्ञाननिश्चयाः / दानमध्ययनं यज्ञः प्रजासंतानमार्जवम् / / 58 प्रत्यक्षधर्माः शुचयः श्रद्दधानाः परावरे / / 8 यद्येतदेवं कृत्वापि न विमोक्षोऽस्ति कस्यचित् / पुरस्ताद्भावितात्मानो यथावच्चरितव्रताः / धिक्कारं च कार्य च श्रमश्चायं निरर्थकः // 59 चरन्ति धर्मं कृच्छ्रेऽपि दुर्गे चैवाधिसंहताः // 9 नास्तिक्यमन्यथा च स्याद्वेदानां पृष्ठतःक्रिया। संहत्य धर्म चरतां पुरासीत्सुखमेव तत् / एतस्यानन्त्यमिच्छामि भगव-श्रोतुमञ्जसा // 60 तेषां नासीद्विधातव्यं प्रायश्चित्तं कदाचन // 10 तथ्यं वदस्व मे ब्रह्मन्नुपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः। सत्यं हि धर्ममास्थाय दुराधर्षतमा मताः / यथा ते विदितो मोक्षस्तथेच्छाम्युपशिक्षितुम् // 61 न मात्रामनुरुध्यन्ते न धर्मच्छलमन्ततः // 11 य एव प्रथमः कल्पस्तमेवाभ्याचरन्सह / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अस्यां स्थितौ स्थितानां हि प्रायश्चित्तं न विद्यते / एकषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 261 // दुर्बलात्मन उत्पन्नं प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः // 12 यत एवंविधा विप्राः पुराणा यज्ञवाहनाः। -2341 - Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 262. 13] महाभारते [12. 282.40 विद्यवृद्धाः शुचयो वृत्तवन्तो यशस्विनः / चतुर्थ औपनिषदो धर्मः साधारणः स्मृतः // 20 यजन्तोऽहरहर्यनिराशीबन्धना बुधाः // 13 स सिद्धैः साध्यते नित्यं ब्राह्मणैर्नियतात्ममिः / तेषां यज्ञाश्च वेदाश्च कर्माणि च यथागमम्।। संतोषमूलस्त्यागात्मा ज्ञानाधिष्ठानमुच्यते // 28 भागमाश्च यथाकालं संकल्पाश्च यथावतम् // 14 अपवर्गगतिर्नित्यो यतिधर्मः सनातनः। भपेतकामक्रोधानां प्रकृत्या संशितात्मनाम् / साधारणः केवलो वा यथाबलमुपास्यते // 29 ऋजूनां शमनित्यानां स्थितानां स्वेषु कर्मसु / गच्छतो गच्छतः क्षेमं दुर्बलोऽत्रावसीदति / सर्वमानन्त्यमेवासीदितिः न शाश्वती श्रुतिः / / 15 ब्रह्मणः पदमन्विच्छन्संसारान्मुच्यते शुचिः // 30 तेषामदीनसत्त्वानां दुश्चराचारकर्मणाम् / स्यूमरश्मिरुवाच। स्वकर्मभिः संवृतानां तपो घोरत्वमागतम् // 16 ये भुञ्जते ये ददते यजन्तेऽधीयते च ये। तं सदाचारमाश्चर्य पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् / मात्राभिर्धर्मलब्धाभिर्ये वा त्यागं समाश्रिताः॥३१ अशक्नुवद्भिश्चरितुं किंचिद्धर्मषु सूचितम् // 17 एतेषां प्रेत्यभावे तु कतमः स्वर्गजित्तमः / निरापद्धर्म आचारस्त्वप्रमादोऽपराभवः / / एतदाचक्ष्व मे ब्रह्मन्यथातथ्येन पृच्छतः // 32 सर्ववर्णेषु यत्तेषु नासीत्कश्चिद्व्यतिक्रमः // 18 कपिल उवाच / धर्ममेकं चतुष्पादमाश्रितास्ते नरर्षभाः / परिप्रहाः शुभाः सर्वे गुणतोऽभ्युदयाश्च ये। . तं सन्तो विधिवत्प्राप्य गच्छन्ति परमां गतिम् // न तु त्यागसुखं प्राप्ता एतत्त्वमपि पश्यसि // 3 // गृहेभ्य एव निष्कम्य वनमन्ये समाश्रिताः / * स्यूमरश्मिरुवाच / गृहमेवाभिसंश्रित्य ततोऽन्ये ब्रह्मचारिणः / / 20 भवन्तो ज्ञाननिष्ठा वै गृहस्थाः कर्मनिश्चयाः / धर्ममेतं चतुष्पादमाश्रमं ब्राह्मणा विदुः / आश्रमाणां च सर्वेषां निष्ठायामैक्यमुच्यते // 34 आनन्त्यं ब्रह्मणः स्थानं ब्राह्मणा नाम निश्चयः॥ / एकत्वे च पृथक्त्वे च विशेषो नान्य उच्यते / अत एवंविधा विप्राः पुराणा धर्मचारिणः / तद्यथावद्यथान्यायं भगवान्प्रब्रवीतु मे // 35 त एते दिवि दृश्यन्ते ज्योतिर्भूता द्विजातयः // 22 कपिल उवाच / नक्षत्राणीव विष्ण्येषु बहवस्तारकागणाः / शरीरपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः / आनन्त्यमुपसंप्राप्ताः संतोषादिति वैदिकम् / / 23 पक्के कपाये वमनै रसज्ञाने न तिष्ठति // 36 यद्यागच्छन्ति संसारं पुनयोनिषु तादृशाः / आनृशंस्यं क्षमा शान्तिरहिंसा सत्यमार्जवम् / न लिप्यन्ते पापकृत्यैः कदाचित्कर्मयोनितः / / 24 अद्रोहो नाभिमानश्च हीस्तितिक्षा शमस्तथा // 37 एवं युक्तो ब्राह्मणः स्यादन्यो ब्राह्मणको भवेत् / पन्थानो ब्रह्मणस्त्वो एतैः प्राप्नोति यत्परम् / कर्मैव पुरुषस्याह शुभं वा यदि वाशुभम् // 25 तद्विद्वाननुबुध्येत मनसा कर्मनिश्चयम् // 38 एवं पक्ककषायाणामानन्त्येन श्रुतेन च / यां विप्राः सर्वतः शान्ता विशुद्धा ज्ञाननिश्चयाः। सर्वमानन्त्यमेवासीदेवं नः शाश्वती श्रुतिः // 26 / गतिं गच्छन्ति संतुष्टास्तामाहुः परमां गतिम् // 39 तेषामपेततृष्णानां निर्गिक्तानां शुभात्मनाम् / / वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थिति / -2342 - Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 262. 40 ] शान्तिपर्व [12. 263. 19 एवं वेदविदित्याहुरतोऽन्यो वातरेटकः / / 40 अथ सौम्येन वपुषा देवानुचरमन्तिके / सर्व विदुर्वेदविदो वेदे सर्व प्रतिष्ठितम् / प्रत्यपश्यन्जलधरं कुण्डधारमवस्थितम् // 6 वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद्यदस्ति च नास्ति च // 41 दृष्ट्वैव तं महात्मानं तस्य भक्तिरजायत / एपैव निष्ठा सर्वस्य यद्यदस्ति च नास्ति च / अयं मे धास्यति श्रेयो वपुरेतद्धि तादृशम् // 7 एतदन्तं च मध्यं च सञ्चासश्च विजानतः // 42 संनिकृष्टश्च देवस्य न चान्यैर्मानुषैवृतः / समस्तत्याग इत्येव शम इत्येव निष्ठितः / एष मे दास्यति धनं प्रभूतं शीघ्रमेव च // 8 संतोष इत्यत्र शुभमपवर्गे प्रतिष्ठितम् / / 43 ततो धूपैश्च गन्धैश्च माल्यैरुच्चावचैरपि / प्रतं सत्यं विदितं वेदितव्यं . बलिभिर्विविधैश्चापि पूजयामास तं द्विजः // 9 सर्वस्यात्मा जङ्गमं स्थावरं / . ततः स्वल्पेन कालेन तुष्टो जलधरस्तदा / सर्व सुखं यच्छिवमुत्तमं च तस्योपकारे नियतामिमां वाचमुवाच ह // 10 ब्रह्माव्यक्तं प्रभवश्चाव्ययश्च // 44 ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चोरे भग्नवते तथा / तेजः क्षमा शान्तिरनामयं शुभं निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः॥११ तथाविधं व्योम सनातनं ध्रुवम् / आशायास्तनयोऽधर्मः क्रोधोऽसूयासुतः स्मृतः / एतैः शब्दैर्गम्यते बुद्धिनेत्रै पुत्रो लोभो निकृत्यास्तु कृतघ्नो नार्हति प्रजाम् / / . स्तस्मै नमो ब्रह्मणे ब्राह्मणाय / / 45 ततः स ब्राह्मणः स्वप्ने कुण्डधारस्य तेजसा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अपश्यत्सर्वभूतानि कुशेषु शयितस्तदा // 13 द्विषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 262 // 263 शमेन तपसा चैव भक्त्या च निरुपस्कृतः / युधिष्ठिर उवाच / शुद्धात्मा ब्राह्मणो रात्रौ निदर्शनमपश्यत // 14 धर्ममथं च कामं च वेदाः शंसन्ति भारत / मणिभद्रं स तत्रस्थं देवतानां महाद्युतिम् / कस्य लाभो विशिष्टोऽत्र तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अपश्यत महात्मानं व्यादिशन्तं युधिष्ठिर // 15 भीष्म उवाच / तत्र देवाः प्रयच्छन्ति राज्यानि च धनानि च / अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् / शुभैः कर्मभिरारब्धाः प्रच्छिदन्त्यशुभेषु च // 16 कुण्डधारेण यत्प्रीत्या भक्तायोपकृतं पुरा // 2 पश्यतामथ यक्षाणां कुण्डधारो महाद्युतिः / भधनो ब्राह्मणः कश्चित्कामाद्धर्ममवैक्षत / निष्पत्य पतितो भूमौ देवानां भरतर्षभ // 17 यज्ञार्थं स ततोऽर्थार्थी तपोऽतप्यत दारुणम् // 3 ततस्तु देववचनान्मणिभद्रो महायशाः / स निश्चयमथो कृत्वा पूजयामास देवताः / उवाच पतितं भूमौ कुण्डधार किमिष्यते // 18 भक्त्या न चैवाध्यगच्छद्धनं संपूज्य देवताः // 4 कुण्डधार उवाच / ततश्चिन्तां पुनः प्राप्तः कतमदैवतं नु तत् / यदि प्रसन्ना देवा मे भक्तोऽयं ब्राह्मणो मम / यन्मे द्रुतं प्रसीदेत मानुषैरजडीकृतम् / / 5 / अस्यानुग्रहमिच्छामि कृतं किंचित्सुखोदयम् // 19 -- 2343 -- Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 263. 20] महाभारते [12. 283.44 . भीष्म उवाच / ब्राह्मण उवाच / ततस्तं मणिभद्रस्तु पुनर्वचनमब्रवीत् / अयं न सुकृतं वेत्ति को न्वन्यो वेत्स्यते कृतम् / देवानामेव वचनात्कुण्डधारं महाद्युतिम् / / 20 गच्छामि वनमेवाहं वरं धर्मेण जीवितुम् // 31 उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते कृतकार्यः सुखी भव / भीष्म उवाच / यावद्धनं प्रार्थयते ब्राह्मणोऽयं सखा तव / निर्वेदादेवतानां च प्रसादात्स द्विजोत्तमः। देवानां शासनात्तावदसंख्येयं ददाम्यहम् // 21 वनं प्रविश्य सुमहत्तप आरब्धवांस्तदा // 32 . विचार्य कुण्डधारस्तु मानुषं चलमध्रुवम् / देवतातिथिशेषेण फलमूलाशनो द्विजः / तपसे मतिमाधत्त ब्राह्मणस्य यशस्विनः / / 22 धर्मे चापि महाराज रतिरस्याभ्यजायत // 33 कुण्डधार उवाच / त्यक्त्वा मूलफलं सर्व पहारोऽभवहिजः।। नाहं धनानि याचामि ब्राह्मणाय धनप्रद / पणं त्यक्त्वा जलाहारस्तदासी हिजसत्तमः // 34. अन्यमेवाहमिच्छामि भक्तायानुग्रहं कृतम् // 23 वायुभक्षस्ततः पश्चादहून्वर्षगणानभूत् / पृथिवीं रत्नपूर्णा वा महद्वा धनसंचयम् / न चास्य क्षीयते प्राणस्तदद्भुतमिवाभवत् // 35 भक्ताय नाहमिच्छामि भवेदेष तु धार्मिकः // 24 धर्मे च श्रद्दधानस्य तपस्युग्रे च वर्ततः। . धर्मेऽस्य रमतां बुद्धिर्धर्म चैवोपजीवतु / कालेन महता तस्य दिव्या दृष्टिरजायत // 36 धर्मप्रधानो भवतु ममैषोऽनुग्रहो मतः / / 25 तस्य बुद्धिः प्रादुरासीद्यदि दद्यां महद्धनम् / मणिभद्र उवाच / तुष्टः कस्मैचिदेवाहं न मिथ्या वाग्भवेन्मम / / 37 ततः प्रहृष्टवदनो भूय आरब्धवांस्तपः / यदा धर्मफलं राज्यं सुखानि विविधानि च / भूयश्चाचिन्तयत्सिद्धो यत्परं सोऽभ्यपद्यत / / 38 फलान्येवायमनातु कायक्लेशविवर्जितः // 26 यदि दद्यामहं राज्यं तुष्टो वै यस्य कस्यचित् / भीष्म उवाच / स भवेदचिराद्राजा न मिथ्या वाग्भवेन्मम // 39 ततस्तदेव बहुशः कुण्डधारो महायशाः / तस्य साक्षात्कुण्डधारो दर्शयामास भारत / अभ्यासमकरोद्धर्मे ततस्तुष्टास्य देवताः / / 27 ब्राह्मणस्य तपोयोगात्सौहृदेनाभिचोदितः // 40 मणिभद्र उवाच / समागम्य स तेनाथ पूजां चक्रे यथाविधि / प्रीतास्ते देवताः सर्वा द्विजस्यास्य तथैव च / ब्राह्मणः कुण्डधारस्य विस्मितश्चाभवन्नप // 41 भविष्यत्येष धर्मात्मा धर्मे चाधास्यते मतिः // 28 ततोऽब्रवीत्कुण्डधारो दिव्यं ते चक्षुरुत्तमम् / भीष्म उवाच / पश्य राज्ञां गतिं विप्र लोकांश्चावेक्ष चक्षुषा // 42 ततः प्रीतो जलधरः कृतकार्यो युधिष्ठिर।। ततो राज्ञां सहस्राणि मग्नानि निरये तदा। ईप्सितं मनसो लब्ध्वा वरमन्यैः सुदुर्लभम् // 29 / दूरादपश्यविप्रः स दिव्ययुक्तेन चक्षुषा // 43 ततोऽपश्यत चीराणि सूक्ष्माणि द्विजसत्तमः / / कुण्डधार उवाच / पार्श्वतोऽभ्यागतो न्यस्तान्यथ निर्वेदमागतः // 30 / मां पूजयित्वा भावेन यदि त्वं दुःखमाप्नुयाः / -2344 - Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 263. 44 ] शान्तिपर्व [12. 264. 13 कृतं मया भवेतिक ते कश्च तेऽनुग्रहो भवेत् // 44 264 पश्य पश्य च भूयस्त्वं कामानिच्छेत्कथं नरः / युधिष्ठिर उवाच। स्वर्गद्वारं हि संरुद्धं मानुषेषु विशेषतः // 45 बहूनां यज्ञतपसामेकार्थानां पितामह / भीष्म उवाच / धर्मार्थं न सुखार्थार्थं कथं यज्ञः समाहितः // 1 ततोऽपश्यत्स कामं च क्रोधं लोभं भयं मदम् / भीष्म उवाच।। निद्रां तन्द्री तथालस्यमावृत्य पुरुषास्थितान् / / 46 अत्र ते वर्तयिष्यामि नारदेनानुकीर्तितम् / उञ्छवृत्तेः पुरावृत्तं यज्ञार्थे ब्राह्मणस्य ह // 2 कुण्डधार उवाच / राष्ट्र धर्मोत्तरे श्रेष्ठे विदर्भेष्वभवहिजः। एतैर्लोकाः सुसंरुद्धा देवानां मानुषाद्भयम् / उच्छवृत्तिऋषिः कश्चिद्यज्ञे यज्ञं समादधे // 3 तथैव देववचनाद्विघ्नं कुर्वन्ति सर्वशः / / 47 श्यामाकमशनं तत्र सूर्यपत्नी सुवर्चला / न देवैरननुज्ञातः कश्चिद्भवति धार्मिकः / तिक्तं च विरसं शाकं तपसा स्वादुतां गतम् // 4 एष शक्तोऽसि तपसा राज्यं दातुं धनानि च // 48 उपगम्य वने पृथ्वी सर्वभूताविहिंसया। भीष्म उवाच / अपि मूलफलैरिज्यो यज्ञः स्वयः परंतप // 5 ततः पपात शिरसा ब्राह्मणस्तोयधारिणे / तस्य भार्या व्रतकृशा शुचिः पुष्करचारिणी। उवाच चैनं धर्मात्मा महान्मेऽनुग्रहः कृतः // 49 यज्ञपत्नीत्वमानीता सत्येनानुविधीयते / कामलोभानुबन्धेन पुरा ते यदसूयितम् / सा तु शापपरित्रस्ता न स्वभावानुवर्तिनी // 6 मया स्नेहमविज्ञाय तत्र मे क्षन्तुमर्हसि // 50 मयूरजीर्णपर्णानां वस्त्रं तस्याश्च पर्णिनाम् / क्षान्तमेव मयेत्युक्त्वा कुण्डधारो द्विजर्षभम् / अकामायाः कृतं तत्र यज्ञे होत्रानुमार्गतः // 7 संपरिष्वज्य बाहुभ्यां तत्रैवान्तरधीयत // 51 शुक्रस्य पुनराजातिरपध्यानादधर्मवित् / ततः सर्वानिमाललोकान्ब्राह्मणोऽनुचचार ह / तस्मिन्वने समीपस्थो मृगोऽभूत्सहचारिकः / कुण्डधारप्रसादेन तपसा योजितः पुरा // 52 वचोभिरब्रवीत्सत्यं त्वया दुष्कृतकं कृतम् // 8 विहायसा च गमनं तथा संकल्पितार्थता / यदि मनाङ्गहीनोऽयं यज्ञो भवति वैकृतः / धर्माच्छक्त्या तथा योगाद्या चैव परमा गतिः॥५३ मां भोः प्रक्षिप होत्रे त्वं गच्छ स्वर्गमतन्द्रितः // 9 देवता ब्राह्मणाः सन्तो यक्षा मानुषचारणाः / / ततस्तु यज्ञे सावित्री साक्षात्तं संन्यमन्त्रयत् / धार्मिकान्पूजयन्तीह न धनाढ्यान्न कामिनः // 54 निमन्त्रयन्ती प्रत्युक्ता न हन्यां सहवासिनम् // 10 सुप्रसन्ना हि ते देवा यत्ते धर्मे रता मतिः।। एवमुक्ता निवृत्ता सा प्रविष्टा यज्ञपावकम् / धने सुखकला काचिद्धर्मे तु परमं सुखम् / / 55 किं नु दुश्चरितं यज्ञे दिदृक्षुः सा रसातलम् // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सा तु बद्धाञ्जलिं सत्यमयाचद्धरिणं पुनः / विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 263 // सत्येन संपरिष्वज्य संदिष्टो गम्यतामिति // 12 ततः स हरिणो गत्वा पदान्यष्टौ न्यवर्तत / म.भा. 294 -2345 - Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 264. 13] महाभारते [12. 265.1 साधु हिंसय मां सत्य हतो यास्यामि सद्गतिम् // व्याजेन चरतो धर्ममर्थव्याजोऽपि रोचते। पश्य ह्यप्सरसो दिव्या मया दत्तेन चक्षुषा। व्याजेन सिध्यमानेषु धनेषु कुरुनन्दन // 7 विमानानि विचित्राणि गन्धर्वाणां महात्मनाम् // 14 तत्रैव कुरुते बुद्धिं ततः पापं चिकीर्षति / ततः सुरुचिरं दृष्ट्वा स्पृहालग्नेन चक्षुषा / सुहृद्भिर्वार्यमाणोऽपि पण्डितैश्चापि भारत / / 8 मृगमालोक्य हिंसायां स्वर्गवासं समर्थयत् // 15 उत्तरं न्यायसंबद्धं ब्रवीति विधियोजितम् / स तु धर्मो मृगो भूत्वा बहुवर्षोषितो वने। अधर्मस्त्रिविधस्तस्य वर्धते रागमोहजः // 9 तस्य निष्कृतिमाधत्त न ह्यसौ यज्ञसंविधिः / / 16 पापं चिन्तयते चैव प्रब्रवीति करोति च। तस्य तेन तु भावेन मृगहिंसात्मनस्तदा / तस्याधर्मप्रवृत्तस्य दोषान्पश्यन्ति साधवः / / 10 तपो महत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिसा न यज्ञिया // 17 एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः / ततस्तं भगवान्धर्मो यज्ञं याजयत स्वयम् / स नेह सुखमाप्नोति कुत एव परत्र वै // . 11 समाधानं च भार्याया लेभे स तपसा परम् // 18 एवं भवति पापात्मा धर्मात्मानं तु मे शृणु। अहिंसा सकलो धर्मो हिंसा यज्ञेऽसमाहिता। यथा कुशलधर्मा स कुशलं प्रतिपद्यते // 12 सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि यो धर्मः सत्यवादिनाम् / / य एतान्प्रज्ञया दोषान्पूर्वमेवानुपश्यति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कुशलः सुखदुःखानां साधूंश्चाप्युपसेवते / / 13 चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्याय // 264 // तस्य साधुसमाचारादभ्यासाच्चैव वर्धते / . प्रज्ञा धर्मे च रमते धर्म चैवोपजीवति // 14 युधिष्ठिर उवाच। सोऽथ धर्मादवाप्तेषु धमेषु कुरुते मनः / / कथं भवति पापात्मा कथं धर्म करोति वा। तस्यैव सिञ्चते मूलं गुणान्पश्यति यत्र वै // 15 केन निर्वेदमादत्ते मोक्षं वा केन गच्छति // 1 धर्मात्मा भवति ह्येवं मित्रं च लभते शुभम् / भीष्म उवाच / स मित्रधनलाभात्तु प्रेत्य चेह च नन्दति // 16 विदिताः सर्वधर्मास्ते स्थित्यर्थमनुपृच्छसि / शब्दे स्पर्श तथा रूपे रसे गन्धे च भारत / शृणु मोक्षं सनिर्वेदं पापं धर्म च मूलतः // 2 प्रभुत्वं लभते जन्तुर्धर्मस्यैतत्फलं विदुः // 17 विज्ञानार्थ हि पश्चानामिच्छा पूर्व प्रवर्तते / स धर्मस्य फलं लब्ध्वा न तृप्यति युधिष्ठिर / प्राप्य ताञ्जायते कामो द्वेषो वा भरतर्षभ / / 3 अतृप्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा / / 18 ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते पुनः / प्रज्ञाचक्षुर्यदा कामे दोपमेवानुपश्यति / इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च चिकीर्षति // 4 विरज्यते तदा कामान्न च धर्म विमुश्चति / / 19 ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम् / सर्वत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्षयात्मकम् / ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम् // 5 ततो मोक्षाय यतते नानुपायादुपायतः / / 20 लोभमोहाभिभूतस्य रागद्वेषान्वितस्य च / शनैर्निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च / न धर्मे जायते बुद्धिाजाद्धर्मं करोति च // 6 धर्मात्मा चैव भवति मोक्षं च लभते परम् // 21 -2346 - Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 265. 22] शान्तिपर्व [12. 267.4 एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि / - मौनेन बहुभाष्यं चे शौर्येण च भयं जयेत् // 11 पापं धर्म तथा मोक्षं निर्वेदं चैव भारत // 22 यच्छेद्वाङ्मनसी बुद्ध्या तां यच्छेज्ज्ञानचक्षुषा / तस्माद्धर्मे प्रवर्तेथाः सर्वावस्थं युधिष्ठिर / ज्ञानमात्मा महान्यच्छेत्तं यच्छेच्छान्तिरात्मनः॥ धर्मे स्थितानां कौन्तेय सिद्धिर्भवति शाश्वती // 23 तदेतदुपशान्तेन बोद्धव्यं शुचिकर्मणा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि योगदोषासमुच्छिद्य पञ्च यान्कवयो विदुः // 13 पञ्चषष्ट धिकद्विशततमोऽध्यायः // 265 // काम क्रोधं च लोभं च भयं स्वप्नं च पञ्चमम् / परित्यज्य निषेवेत तथेमान्योगसाधनान् // 14 युधिष्ठिर उवाच / ध्यानमध्ययनं दानं सत्यं हीरार्जवं क्षमा / मोक्षः पितामहेनोक्त उपायान्नानुपायतः / शौचमाहारतः शुद्धिरिन्द्रियाणां च संयमः // 15 तमुपायं यथान्यायं श्रोतुमिच्छामि भारत // 1 / एतैर्विवर्धते तेजः पाप्मानमपहन्ति च / भीष्म उवाच / सिध्यन्ति चास्य संकल्पा विज्ञानं च प्रवर्तते // 16 त्वय्येवैतन्महाप्राज्ञ युक्तं निपुणदर्शनम् / धूतपापः स तेजस्वी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / यदुपायेन सर्वार्थान्नित्यं मृगयसेऽनघ // 2 कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद्ब्रह्मणः पदम् // 10 करणे घटस्य या बुद्धिर्घटोत्पत्तौ न सानघ / अमूढत्वमसङ्गित्वं कामक्रोधविवर्जनम् / एवं धर्माभ्युपायेषु नान्यद्धर्मेषु कारणम् // 3 अदैन्यमनुदीर्णत्वमनुद्वेगो व्यवस्थितिः // 18 पूर्वे समुद्रे यः पन्था न च गच्छति पश्चिमम् / एष मार्गो हि मोक्षस्य प्रसन्नो विमलः शुचिः। एकः पन्था हि मोक्षस्य तन्मे विस्तरतः शृणु // 4 तथा वाक्कायमनसां नियमः कामतोऽन्यथा // 19 क्षमया क्रोधमुच्छिन्द्यात्कामं संकल्पवर्जनात् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सत्त्वसंसेवनाद्धीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति // 5 षट्पष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 266 // अप्रमादाद्भयं रक्षेच्छासं क्षेत्रज्ञशीलनात् / 267 इच्छां द्वेषं च कामं च धैर्येण विनिवर्तयेत् // 6 . भीष्म उवाच / भ्रमं प्रमोहमावर्तमभ्यासाद्विनिवर्तयेत् / अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / निद्रां च प्रतिभां चैव ज्ञानाभ्यासेन तत्त्ववित् // 7 नारदस्य च संवादं देवलस्यासितस्य च // 1 उपद्रवांस्तथा रोगान्हितजीर्णमिताशनात् / आसीनं देवलं वृद्धं बुवा बुद्धिमतां वरः / लोभं मोहं च संतोषाद्विषयांस्तत्त्वदर्शनात् // 8 नारदः परिपप्रच्छ भूतानां प्रभवाप्ययम् // 2 अनुक्रोशादधर्म च जयेद्धर्ममुपेक्षया। कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन्स्थावरजङ्गमम् / आयत्या च जयेदाशामर्थं सङ्गविवर्जनात् // 9 | प्रलये च कमभ्येति तद्भवान्प्रब्रवीतु मे // 3 अनित्यत्वेन च स्नेहं क्षुधं योगेन पण्डितः / असित उवाच / कारुण्येनात्मनो मानं तृष्णां च परितोषतः // 10 / येभ्यः सृजति भूतानि कालो भावप्रचोदितः / उत्थानेन जयेत्तन्द्री वितर्क निश्चयाजयेत् / महाभूतानि पञ्चेति तान्याहुभूतचिन्तकाः॥ 4 - 2347 - Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 267. 5] महाभारते [12. 267. 38 तेभ्यः सृजति भूतानि काल आत्मप्रचोदितः / इति संशब्द्यमानानि शृणु कर्मेन्द्रियाण्यपि // 19 एतेभ्यो यः परं ब्रूयादसद्भूयादसंशयम् // 5 जल्पनाभ्यव्यवहारार्थं मुखमिन्द्रियमुच्यते / विद्धि नारद पश्चैताशाश्वतानचलान्ध्रुवान् / गमनेन्द्रियं तथा पादौ कर्मणः करणे करौ // 20 महतस्तेजसो राशीन्कालषष्ठान्स्वभावतः // 6 पायूपस्थौ विसर्गार्थमिन्द्रिये तुल्यकर्मणी / आपश्चैवान्तरिक्षं च पृथिवी वायुपावको / विसर्गे च पुरीषस्य विसर्गे चाभिकामिके // 21 असिद्धिः परमेतेभ्यो भूतेभ्यो मुक्तसंशयम् / / 7 / बलं षष्ठं षडेतानि वाचा सम्यग्यथागमम् / / नोपपत्त्या न वा युक्त्या त्वसद्भूयादसंशयम् / / ज्ञानचेष्टेन्द्रियगुणाः सर्वे संशब्दिता मया // 22 वेत्थ तानभिनिवृत्तान्षडेते यस्य राशयः // 8 इन्द्रियाणां स्वकर्मभ्यः श्रमादुपरमो यदा। पश्चैव तानि कालश्च भावाभावौ च केवलौ। भवतीन्द्रियसंन्यासादथ स्वपिति वै नरः // 23 अष्टौ भूतानि भूतानां शाश्वतानि भवाप्ययौ // 9 इन्द्रियाणां व्युपरमे मनोऽनुपरतं यदि। .. अभावाद्भावितेष्वेव तेभ्यश्च प्रभवन्त्यपि। सेवते विषयानेव तद्विद्यास्वप्नदर्शनम् // 24 विनष्टोऽपि च तान्येव जन्तुर्भवति पञ्चधा // 10 सात्त्विकाश्चैव ये भावास्तथा राजसतामसाः / तस्य भूमिमयो देहः श्रोत्रमाकाशसंभवम् / कर्मयुक्तान्प्रशंसन्ति सात्त्विकानितरांस्तथा // 25 सूर्यश्चक्षुरसुर्वायुरद्भयस्तु खलु शोणितम् // 11 / आनन्दः कर्मणां सिद्धिः प्रतिपत्तिः परा गतिः / चक्षुषी नासिकाकर्णौ त्वग्जिह्वेति च पञ्चमी। सात्त्विकस्य निमित्तानि भावान्संश्रयते स्मृतिः॥ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थानां ज्ञानानि कवयो विदुः॥१२ जन्तुष्वेकतमेष्वेवं भावा ये विधिमास्थिताः / दर्शनं श्रवणं घ्राणं स्पर्शनं रसनं तथा / भावयोरीप्सितं नित्यं प्रत्यक्षगमनं द्वयोः // 27 उपपत्त्या गुणान्विद्धि पञ्च पञ्चसु पश्चधा // 13 इन्द्रियाणि च भावाश्च गुणाः सप्तदश स्मृताः। रूपं गन्धो रसः स्पर्शः शब्दश्चैवाथ तद्गुणाः। तेषामष्टादशो देही यः शरीरे स शाश्वतः / / 28 इन्द्रियैरुपलभ्यन्ते पञ्चधा पञ्च पश्चभिः // 14 अथ वा सशरीरास्ते गुणाः सर्वे शरीरिणाम् / रूपं गन्धं रसं स्पर्श शब्दं चैतांस्तु तद्गुणान् / संश्रितास्तद्वियोगे हि सशरीरा न सन्ति ते॥२९ इन्द्रियाणि न बुध्यन्ते क्षेत्रज्ञस्तैस्तु बुध्यते // 15 अथ वा संनिपातोऽयं शरीरं पाश्चभौतिकम् / चित्तमिन्द्रियसंघातात्परं तस्मात्परं मनः / एकश्च दश चाष्टौ च गुणाः सह शरीरिणाम् / मनसस्तु परा बुद्धिः क्षेत्रज्ञो बुद्धितः परः // 16 ऊष्मणा सह विंशो वा संघातः पाश्चभौतिकः // 30 पूर्वं चेतयते जन्तुरिन्द्रियैर्विषयान्पृथक् / महान्संधारयत्येतच्छरीरं वायुना सह / विचार्य मनसा पश्चादथ बुद्ध्या व्यवस्यति / तस्यास्य भावयुक्तस्य निमित्तं देहभेदने // 31 इन्द्रियैरुपलब्धार्थान्सर्वान्यस्त्वध्यवस्यति // 17 यथैवोत्पद्यते किंचित्पश्चत्वं गच्छते तथा / चित्तमिन्द्रियसंघातं मनो बुद्धिं तथाष्टमीम् / पुण्यपापविनाशान्ते पुण्यपापसमीरितम् / अष्टौ ज्ञानेन्द्रियाण्याहुरेतान्यध्यात्मचिन्तकाः॥१८ / देहं विशति कालेन ततोऽयं कर्मसंभवम् // 32 पाणिपादं च पायुश्च मेहनं पञ्चमं मुखम् / / हित्वा हित्वा ह्ययं प्रैति देहादेहं कृताश्रयः / -2348 - Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 267. 33 ] शान्तिपर्व [12. 289.6 268 कालसंचोदितः क्षेत्री विशीर्णाद्वा गृहाद्गृहम् // 33 / / किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम् / तत्र नैवानुतप्यन्ते प्राज्ञा निश्चितनिश्चयाः। तदेव परितापाय नाशे संपद्यते पुनः // 8 कृपणास्त्वनुतप्यन्ते जनाः संबन्धिमानिनः // 34 न कामाननुरुध्येत दुःखं कामेषु वै रतिः / न ह्ययं कस्यचित्कश्चिन्नास्य कश्चन विद्यते / प्राप्यार्थमुपयुञ्जीत धर्मे कामं विवर्जयेत् // 9 भवत्येको ह्ययं नित्यं शरीरे सुखदुःखभाक् // 35 विद्वान्सर्वेषु भूतेषु व्याघ्रमांसोपमो भवेत् / नैव संजायते जन्तुर्न च जातु विपद्यते / कृतकृत्यो विशुद्धात्मा सर्वं त्यजति वै सह // 10 याति देहमयं भुक्त्वा कदाचित्परमां गतिम् // 36 उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ प्रियाप्रिये / पुण्यपापमयं देहं क्षपयन्कर्मसंचयात् / भयाभये च संत्यज्य संप्रशान्तो निरामयः // 11 क्षीणदेहः पुनर्देही ब्रह्मत्वमुपगच्छति // 37 या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। पुण्यपापक्षयार्थं च सांख्यं ज्ञानं विधीयते / योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् // तत्क्षये ह्यस्य पश्यन्ति ब्रह्मभावे परां गतिम् // 38 चारित्रमात्मनः पश्यंश्चन्द्रशुद्धमनामयम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धर्मात्मा लभते कीर्ति प्रेत्य चेह यथासुखम् // 13 सप्तषष्टयधिकशततमोऽध्यायः॥ 267 / / राज्ञस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतिमानभवहिजः / पूजयित्वा च तद्वाक्यं माण्डव्यो मोहमाश्रितः॥१४ युधिष्ठिर उवाच / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भ्रातरः पितरः पुत्रा ज्ञातयः सुहृदस्तथा / अष्टषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 268 // अर्थहेतोहताः क्रूरैरस्माभिः पापबुद्धिभिः // 1 269 येयमर्थोद्भवा तृष्णा कथमेतां पितामह / युधिष्ठिर उवाच / निवर्तयेम पापं हि तृष्णया कारिता वयम् // 2 किंशीलः किंसमाचारः किंविद्यः किंपरायणः / .. भीष्म उवाच / प्राप्नोति ब्रह्मणः स्थानं यत्परं प्रकृतेध्रुवम् // 1 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भीष्म उवाच / गीतं विदेहराजेन माण्डव्यायानुपृच्छते // 3 मोक्षधर्मेषु निरतो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / सुसुखं बत जीवामि यस्य मे नास्ति किंचन। प्राप्नोति परमं स्थानं यत्परं प्रकृतेध्रुवम् // 2 मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन // 4 स्वगृहादभिनिःसृत्य लाभालाभे समो मुनिः / अर्थाः खलु समृद्धा हि बाढं दुःखं विजानताम् / समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत् / / 3 असमृद्धास्त्वपि सदा मोहयन्त्यविचक्षणान् // 5 न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेदपि / यञ्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् / / न प्रत्यक्षं परोक्षं वा दूषणं व्याहरेत्वचित् // 4 कृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम् // 6 न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणगतिश्चरेत् / यथैव शृङ्गं गोः काले वर्धमानस्य वर्धते / नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् // 5 श्थैव तृष्णा वित्तेन वर्धमानेन वर्धते // 7 अतिवादास्तितिक्षेत नाभिमन्येत्कथंचन / - 2349 - Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 269. 8 ] महाभारते [12. 270. 12 क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयादाक्रुष्टः कुशलं वदेत् // 6- लोकास्तेजोमयास्तस्य तथानन्त्याय कल्पते // 20 प्रदक्षिणं प्रसव्यं च ग्राममध्ये न चाचरेत। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भैक्षचर्यामनापन्नो न गच्छेत्पूर्वकेतितः // 7 एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 269 // अवकीर्णः सुगुप्तश्च न वाचा ह्यप्रियं वदेत् / 270 मृदुः स्यादप्रतिको विस्रब्धः स्यादरोषणः // 8 युधिष्ठिर उवाच / विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने। धन्या धन्या इति जनाः सर्वेऽस्मान्प्रवदन्त्युतं / अतीते पात्रसंचारे भिक्षां लिप्सेत वै मुनिः // 9 न दुःखिततरः कश्चित्पुमानस्माभिरस्ति ह // 1 अनुयात्रिकमर्थस्य मात्रालाभेष्वनादृतः। लोकसंभावितैर्दुःखं यत्प्राप्तं कुरुसत्तम / अलाभे न विहन्येत लाभश्चैनं न हर्षयेत् // 10 प्राप्य जातिं मनुष्येषु देवैरपि पितामह // 2 लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः। कदा वयं करिष्यामः संन्यासं दुःखसंज्ञकम् / अभिपूजितलाभं हि जुगुप्सेतैव तादृशः / / 11 / दुःखमेतच्छरीराणां धारणं कुरुसत्तम // 3 न चान्नदोषान्निन्देत न गुणानभिपूजयेत् / विमुक्ताः सप्तदशभिर्हेतुभूतैश्च पञ्चभिः / शय्यासने विविक्ते च नित्यमेवाभिपूजयेत् // 12 इन्द्रियार्थैर्गुणैश्चैव अष्टाभिः प्रपितामह // 4 शून्यागारं वृक्षमूलमरण्यमथ वा गुहाम् / न गच्छन्ति पुनर्भावं मुनयः संशितव्रताः / अज्ञातचर्यां गत्वान्यां ततोऽन्यत्रेव संविशेत् // 13 कदा वयं भविष्यामो राज्यं हित्वा परंतप // 5 अनुरोधविरोधाभ्यां समः स्यादचलो ध्रुवः / भीष्म उवाच / सुकृतं दुष्कृतं चोभे नानुरुध्येत कर्मणि // 14 नास्त्यनन्तं महाराज सर्वं संख्यानगोचरम् / वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं पुनर्भावोऽपि संख्यातो नास्ति किंचिदिहाचलम् // विवित्सावेगमुदरोपस्थवेगम् / न चापि गम्यते राजनैष दोषः प्रसङ्गतः / एतान्वेगान्विनयेद्वै तपस्वी उद्योगादेव धर्मज्ञ कालेनैव गमिष्यथ // 7 निन्दा चास्य हृदयं नोपहन्यात् / / 15 ईशोऽयं सततं देही नृपते पुण्यपापयोः / मध्यस्थ एव तिष्ठत प्रशंसानिन्दयोः समः / तत एव समुत्थेन तमसा रुध्यतेऽपि च // 8 एतत्पवित्रं परमं परिव्राजक आश्रमे // 16 यथाञ्जनमयो वायुः पुनर्मानःशिलं रजः / महात्मा सुव्रतो दान्तः सर्वत्रैवानपाश्रितः / अनुप्रविश्य तद्वर्णो दृश्यते रञ्जयन्दिशः // 9 अपूर्वचारकः सौम्यो अनिकेतः समाहितः // 17 | तथा कर्मफलैर्देही रञ्जितस्तमसावृतः। वानप्रस्थगृहस्थानां न संसृज्येत कर्हिचित् / विवर्णो वर्णमाश्रित्य देहेषु परिवर्तते // 10 अज्ञातलिप्सां लिप्सेत न चैनं हर्ष आविशेत् // ज्ञानेन हि यदा जन्तुरज्ञानप्रभवं तमः / विजानतां मोक्ष एष श्रमः स्यादविजानताम् / व्यपोहति तदा ब्रह्म प्रकाशेत सनातनम् // 11 मोक्षयानमिदं कृत्स्नं विदुषां हारितोऽब्रवीत् // 19 ___अयत्नसाध्यं मुनयो वदन्ति अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा यः प्रव्रजेद्गृहात्। / ये चापि मुक्तास्त उपासितव्याः / -2350 - Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 270. 12] शान्तिपर्व [12. 271.2 त्वया च लोकेन च सामरेण गन्धानादाय भूतानां रसांश्च विविधानपि / तस्मान्न शाम्यन्ति महर्षिसंघाः // 12 अवधं त्रीन्समाक्रम्य लोकान्वै स्वेन तेजसा // 25 अस्मिन्नर्थे पुरा गीतं शृणुष्वैकमना नृप / ज्वालामालापरिक्षिप्तो वैहायसचरस्तथा / यथा दैत्येन वृत्रेण भ्रष्टैश्वर्येण चेष्टितम् / / 13 अजेयः सर्वभूतानामासं नित्यमपेतभीः / / 26 निर्जितेनासहायेन हृतराज्येन भारत / ऐश्वर्यं तपसा प्राप्तं भ्रष्टं तच्च स्वकर्मभिः / अशोचता शत्रुमध्ये बुद्धिमास्थाय केवलाम् // 14 धृतिमास्थाय भगवन्न शोचामि ततस्त्वहम् // 27 भ्रष्टैश्वर्य पुरा वृत्रमुशना वाक्यमब्रवीत् / युयुत्सता महेन्द्रेण पुरा साधं महात्मना / कञ्चित्पराजितस्याद्य न व्यथा तेऽस्ति दानव // 15 / ततो मे भगवान्दृष्टो हरिर्नारायणः प्रभुः // 28 वृत्र उवाच / वैकुण्ठः पुरुषो विष्णुः शुक्लोऽनन्तः सनातनः / सत्येन तपसा चैव विदित्वा संक्षयं ह्यहम् / मुञ्जकेशो हरिश्मश्रुः सर्वभूतपितामहः // 29 न शोचामि न हृष्यामि भूतानामागतिं गतिम् / / नूनं तु तस्य तपसः सावशेष ममास्ति वै / कालसंचोदिता जीवा मज्जन्ति नरकेऽवशाः / / यदहं प्रष्टुमिच्छामि भवन्तं कर्मणः फलम् // 30 परिदृष्टानि सर्वाणि दिव्यान्याहुर्मनीषिणः // 17 ऐश्वर्यं वै महद्ब्रह्मन्कस्मिन्वर्णे प्रतिष्ठितम् / क्षपयित्वा तु तं कालं गणितं कालचोदिताः / / निवर्तते चापि पुनः कथमैश्वर्यमुत्तमम् / / 31 सावशेषेण कालेन संभवन्ति पुनः पुनः / / 18 क्वस्माद्भूतानि जीवन्ति प्रवर्तन्तेऽथ वा पुनः / तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च। किं वा फलं परं प्राप्य जीवस्तिष्ठति शाश्वतः // 32 निर्गच्छन्त्यवशा जीवाः कालबन्धनबन्धनाः // 19 / केन वा कर्मणा शक्यमथ ज्ञानेन केन वा। एवं संसरमाणानि जीवान्यहमदृष्टवान् / ब्रह्मर्षे तत्फलं प्राप्तुं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 33 यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम् // 20 इतीदमुक्तः स मुनिस्तदानीं तिर्यग्गच्छन्ति नरकं मानुष्यं दैवमेव च / ___ प्रत्याह यत्तच्छृणु राजसिंह / सुखदुःखे प्रियद्वेष्ये चरित्वा पूर्वमेव च // 21 मयोच्यमानं पुरुषर्षभ त्वकृतान्तविधिसंयुक्तं सर्वलोकः प्रपद्यते / मनन्यचित्तः सह सोदरीयैः // 34 गतं गच्छन्ति चाध्वानं सर्वभूतानि सर्वदा / / 22 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भीष्म उवाच / सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 27 // कालसंख्यानसंख्यातं सृष्टिस्थितिपरायणम् / 271 तं भाषमाणं भगवानुशना प्रत्यभाषत / उशनोवाच / भीमान्दुष्टप्रलापांस्त्वं तात. कस्मात्प्रभाषसे / / 23 / नमस्तस्मै भगवते देवाय प्रभविष्णवे / वृत्र उवाच / यस्य पृथ्वीतलं तात साकाशं बाहुगोचरम् // 1 प्रत्यक्षमेतद्भवतस्तथान्येषां मनीषिणाम् / मूर्धा यस्य त्वनन्तं च स्थानं दानवसत्तम / मया यज्जयलुब्धेन पुरा तप्तं महत्तपः // 24 तस्याहं ते प्रवक्ष्यामि विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् // 2 - 2351 - Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 271. 3] महाभारते [12. 271. 30 भीष्म उवाच / . कर्मणा स्वेन रक्तानि विरक्तानि च दानव / तयोः संवदतोरेवमाजगाम महामुनिः / यथा कर्मविशेषांश्च प्राप्नुवन्ति तथा शृणु // 17 सनत्कुमारो धर्मात्मा संशयच्छेदनाय वै // 3 यथा च संप्रवर्तन्ते यस्मिस्तिष्ठन्ति वा विभो। स पूजितोऽसुरेन्द्रेण मुनिनोशनसा तथा / तत्तेऽनुपूर्व्या व्याख्यास्ये तदिहैकमनाः शृणु // 18 निषसादासने राजन्महार्हे मुनिपुंगवः // 4 अनादिनिधनः श्रीमान्हरिर्नारायणः प्रभुः / तमासीनं महाप्राज्ञमुशना वाक्यमब्रवीत् / स वै सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च // 19 ब्रह्मस्मै दानवेन्द्राय विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् // 5 एष सर्वेषु भूतेषु क्षरश्चाक्षर एव च / सनत्कुमारस्तु ततः श्रुत्वा प्राह वचोऽर्थवत् / एकादशविकारात्मा जगत्पिबति रश्मिभिः // 20 विष्णोर्माहात्म्यसंयुक्तं दानवेन्द्राय धीमते // 6 पादौ तस्य महीं विद्धि मूर्धानं दिवमेव च / शृणु सर्वमिदं दैत्य विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् / बावस्तु दिशो दैत्य श्रोत्रमाकाशमेव च // .2.1 विष्णौ जगत्स्थितं सर्वमिति विद्धि परंतप // 7 तस्य तेजोमयः सूर्यो मनश्चन्द्रमसि स्थितम् / सृजत्येष महाबाहो भूतग्रामं चराचरम् / बुद्धिर्ज्ञानगता नित्यं रसस्त्वप्सु प्रवर्तते // 22 एष चाक्षिपते काले काले विसृजते पुनः / भ्रुवोरनन्तरास्तस्य ग्रहा दानवसत्तम / अस्मिन्गच्छन्ति विलयमस्माच्च प्रभवन्त्युत / / 8 नक्षत्रचक्र नेत्राभ्यां पादयोभूश्च दानव // 23 . नैष दानवता शक्यस्तपसा नैव चेज्यया / रजस्तमश्च सत्त्वं च विद्धि नारायणात्मकम् / . संप्राप्तुमिन्द्रियाणां तु संयमेनैव शक्यते // 9 / सोऽऽश्रमाणां मुखं तात कर्मणस्तत्फलं विदुः॥२४ बाह्ये चाभ्यन्तरे चैव कर्मणा मनसि स्थितः। अकर्मणः फलं चैव स एव परमव्ययः / निर्मलीकुरुते बुद्ध्या सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते / / 10 छन्दांसि तस्य रोमाणि अक्षरं च सरस्वती // 25 यथा हिरण्यकर्ता वै रूपमग्नौ विशोधयेत् / बह्वाश्रयो बहुमुखो धर्मो हृदि समाश्रितः / बहुशोऽतिप्रयत्नेन महतात्मकृतेन ह // 11 स ब्रह्मपरमो धर्मस्तपश्च सदसच्च सः // 26 तद्ववातिशतैर्जीवः शुध्यतेऽल्पेन कर्मणा / श्रुतिशास्त्रग्रहोपेतः षोडशविक्क्रतुश्च सः / यत्नेन महता चैवाप्येकजातौ विशुध्यते / / 12 / पितामहश्च विष्णुश्च सोऽश्विनौ स पुरंदरः // 20 लीलयाल्पं यथा गात्रात्प्रमृज्यादात्मनो रजः। मित्रश्चं वरुणश्चैव यमोऽथ धनदस्तथा / बहु यत्नेन महता दोषनिर्हरणं तथा // 13 ते पृथग्दर्शनास्तस्य संविदन्ति तथैकताम् / यथा चाल्पेन माल्येन वासितं तिलसर्षपम् / एकस्य विद्धि देवस्य सर्वं जगदिदं वशे // 28 न मुञ्चति स्वकं गन्धं तद्वत्सूक्ष्मस्य दर्शनम् / / 14 नानाभूतस्य दैत्येन्द्र तस्यैकत्वं वदत्ययम् / तदेव बहुभिर्माल्यैर्वास्यमानं पुनः पुनः / जन्तुः पश्यति ज्ञानेन ततः सत्त्वं प्रकाशते // 29 विमुञ्चति स्वकं गन्धं माल्यगन्धेऽवतिष्ठति / / 15 संहारविक्षेपसहस्रकोटीएवं जातिशतैर्युक्तो गुणैरेव प्रसङ्गिषु / स्तिष्ठन्ति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये / बुद्धथा निवर्तते दोषो यत्नेनाभ्यासजेन वै / / 16 प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं. -2352 - Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 271. 30] शान्तिपर्व [12. 271. 45 वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य // 30 वाप्यः पुनर्योजनविस्तृतास्ताः क्रोशं च गम्भीरतयावगाढाः / आयामतः पञ्चशताश्च सर्वाः प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः // 31 वाप्या जलं क्षिप्यति वालकोट्या त्वह्ना सकृच्चाप्यथ न द्वितीयम् / तासां क्षये विद्धि कृतं विसर्ग . संहारमेकं च तथा प्रजानाम् // 32 षड्जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् / रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् // 33 परं तु शुक्लं विमलं विशोकं गतक्लमं सिध्यति दानवेन्द्र। गत्वा तु योनिप्रभवानि दैत्य सहस्रशः सिद्धिमुपैति जीवः // 34 गतिं च यां दर्शनमाह देवो गत्वा शुभं दर्शनमेव चाह / गतिः पुनर्वर्णकृता प्रजानां वर्णस्तथा कालकृतोऽसुरेन्द्र // 35 शतं सहस्राणि चतुर्दशेह . परा गतिर्जीवगुणस्य दैत्य / आरोहणं तत्कृतमेव विद्धि स्थानं तथा निःसरणं च तेषाम् // 36 कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकृष्टा स मज्जते नरके पच्यमानः / स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य प्रजाविसर्गान्सुबहून्वदन्ति // 37 शतं सहस्राणि ततश्चरित्वा म.भा. 295 -2353 प्राप्नोति वर्ण हरितं तु पश्चात् / स चैव तस्मिन्निवसत्यनीशो युगक्षये तमसा संवृतात्मा // 38 स वै यदा सत्त्वगुणेन युक्त स्तमो व्यपोहन्घटते स्वबुद्धया स लोहितं वर्णमुपैति नीलो मनुष्यलोके परिवर्तते च // 39 स तत्र संहारविसर्गमेव ___ स्वकर्मजैर्बन्धनैः क्लिश्यमानः / ततः स हारिद्रमुपैति वर्ण ___ संहारविक्षेपशते व्यतीते // 40 हारिद्रवर्णस्तु प्रजाविसर्गा न्सहस्रशस्तिष्ठति संचरन्वै / अविप्रमुक्तो निरये च दैत्य ततः सहस्राणि दशापराणि // 41 गतीः सहस्राणि च पञ्च तस्य चत्वारि संवर्तकृतानि चैव / विमुक्तमेनं निरयाञ्च विद्धि सर्वेषु चान्येषु च संभवेषु / / 42 स देवलोके विहरत्यभीक्ष्णं ततश्युतो मानुषतामुपैति / संहारविक्षेपशतानि चाष्टौ मर्येषु तिष्ठनमृतत्वमेति // 43 सोऽस्मादथ भ्रश्यति कालयोगा स्कृष्णे तले तिष्ठति सर्वकष्टे / यथा त्वयं सिध्यति जीवलोक स्तत्तेऽभिधास्याम्यसुरप्रवीर // 44 दैवानि स व्यूहशतानि सप्त ___ रक्तो हरिद्रोऽथ तथैव शुक्लः। संश्रित्य संधावति शुक्लमेत- Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 271. 45 ] महाभारते [ 12. 271. 58 मष्टापरानय॑तमान्स लोकान् // 15 सर्वापदा ये सदृशा मनुष्याः // 52 अष्टौ च षष्टिं च शतानि यानि ये तु च्युताः सिद्धलोकात्क्रमेण . मनोविरुद्धानि महाद्युतीनाम् / तेषां गतिं यान्ति तथानुपूर्व्या / शुक्लस्य वर्णस्य परा गतिर्या जीवाः परे तलवेषरूपा त्रीण्येव रुद्धानि महानुभाव // 46 __ विधि स्वकं यान्ति विपर्ययेण // 53 संहारविक्षेपमनिष्टमेकं स यावदेवास्ति सशेषभुक्ते चत्वारि चान्यानि वसत्यनीशः। प्रजाश्च देव्यौ च तथैव शुक्ले / षष्ठस्य वर्णस्य परा गतिर्या तावत्तदा तेषु विशुद्धभावः सिद्धा विशिष्टस्य गतक्लमस्य // 47 संयम्य पश्चेन्द्रियरूपमेतत् // 54 सप्तोत्तरं तेषु वसत्यनीशः शुद्धां गतिं तां परमां परैति संहारविक्षेपशतं सशेषम् / शुद्धेन नित्यं मनसा विचिन्वन् / तस्मादुपावृत्य मनुष्यलोके ततोऽव्ययं स्थानमुपैति ब्रह्म ततो महान्मानुषतामुपैति // 48 दुष्प्रापमभ्येति स शाश्वतं वै। ... तस्मादुपावृत्य ततः क्रमेण इत्येतदाख्यातमहीनसत्त्व सोऽने स्म संतिष्ठति भूतसर्गम्। नारायणस्येह बलं मया ते // 55 / स सप्तकृत्वश्च परैति लोका वृत्र उवाच / न्संहारविक्षेपकृतप्रवासः // 49 सप्तैव संहारमुपप्लवानि एवं गते मे न विषादोऽस्ति कश्चि त्सम्यक्च पश्यामि वचस्तवैतत् / संभाव्य संतिष्ठति सिद्धलोके / ततोऽव्ययं स्थानमनन्तमेति श्रुत्वा च ते वाचमदीनसत्त्व देवस्य विष्मोरथ ब्रह्मणश्च / विकल्मषोऽस्म्यद्य तथा विपाप्मा // 56 शेषस्य चैवाथ नरस्य चैव प्रवृत्तमेतद्भगवन्महर्षे देवस्य विष्णोः परमस्य चैव // 50 * महाद्युतेश्चक्रमनन्तवीर्यम् / संहारकाले परिदग्धकाया विष्णोरनन्तस्य सनातनं तब्रह्माणमायान्ति सदा प्रजा हि / स्थानं सर्गा यत्र सर्वे प्रवृत्ताः / चेष्टात्मनो देवगणाश्च सर्वे स वै महात्मा पुरुषोत्तमो वै ये ब्रह्मलोकादमराः स्म तेऽपि // 51 तस्मिञ्जगत्सर्वमिदं प्रतिष्ठितम् // 57 प्रजाविसगं तु सशेषकालं भीष्म उवाच / ___ स्थानानि स्वान्येव सरन्ति जीवाः / एवमुक्त्वा स कौन्तेय वृत्रः प्राणानवासृजत् / निःशेषाणां तत्पदं यान्ति चान्ते योजयित्वा तथात्मानं परं स्थानमवाप्तवान् // 58 -2354 - Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 271. 59 ] शान्तिपर्व [12. 272. 12 युधिष्ठिर उवाच / मा वो भयं भुद्विमलाः स्थ सर्वे // 69 अयं स भगवान्देवः पितामह जनार्दनः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सनत्कुमारो वृत्राय यत्तदाख्यातवान्पुरा // 59 एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 271 // भीष्म उवाच / ૨૭ર मूलस्थायी स भगवान्स्वेनानन्तेन तेजसा / युधिष्ठिर उवाच / तत्स्थः सृजति तान्भावान्नानारूपान्महातपाः // 60 / अहो धर्मिष्ठता तात वृत्रस्यामिततेजसः / तुरीयार्धेन तस्येमं विद्धि केशवमच्युतम् / यस्य विज्ञानमतुलं विष्णोभक्तिश्च तादृशी // 1 तुरीयार्धेन लोकांस्त्रीभावयत्येष बुद्धिमान् // 61 दुर्विज्ञेयमिदं तात विष्णोरमिततेजसः / अर्वाक्स्थितस्तु यः स्थायी कल्पान्ते परिवर्तते। कथं वा राजशार्दूल पदं तज्ज्ञातवानसौ // 2 स शेते भगवानप्सु योऽसावतिबलः प्रभुः / भवता कथितं ह्येतच्छ्रद्दधे चाहमच्युत / तान्विधाता प्रसन्नात्मा लोकांश्चरति शाश्वतान् // 62 भूयस्तु मे समुत्पन्ना बुद्धिरव्यक्तदर्शनात् // 3 . सर्वाण्यशून्यानि करोत्यनन्तः कथं विनिहतो वृत्रः शक्रेण भरतर्षभ / सनत्कुमारः संचरते च लोकान् / धर्मिष्ठो विष्णुभक्तश्च तत्त्वज्ञश्च पदान्वये // 4 न चानिरुद्धः सृजते महात्मा एतन्मे संशयं ब्रूहि पृच्छतो भरतर्षभ / तत्स्थं जगत्सर्वमिदं विचित्रम् // 63 वृत्रस्तु राजशार्दूल यथा शक्रेण निर्जितः // 5 युधिष्ठिर उवाच / यथा चैवाभवयुद्धं तच्चाचक्ष्व पितामह / वृत्रेण परमार्थज्ञ दृष्टा मन्येऽऽत्मनो गतिः / विस्तरेण महाबाहो परं कौतूहलं हि मे // 6 शुभा तस्मात्स सुखितो न शोचति पितामह // 64 शुक्लः शुक्लाभिजातीयः साध्यो नावर्ततेऽनघ / रथेनेन्द्रः प्रयातो वै साधं सुरगणैः पुरा / तिर्यग्गतेश्च निर्मुक्तो निरयाच पितामह // 65 ददर्शाथाप्रतो वृत्रं विष्ठितं पर्वतोपमम् // 7 हारिद्रवर्णे रक्ते वा वर्तमानस्तु पार्थिव / योजनानां शतान्यूज़ पञ्चोच्छ्रितमरिंदम / तिर्यगेवानुपश्येत कर्मभिस्तामसैर्वृतः / / 66 शतानि विस्तरेणाथ त्रीण्येवाभ्यधिकानि तु // 8 वयं तु भृशमापन्ना रक्ताः कष्टमुखेऽसुखे / तत्प्रेक्ष्य तादृशं रूपं त्रैलोक्येनापि दुर्जयम् / कां गतिं प्रतिपत्स्यामो नीलां कृष्णाधमामथ // 67 वृत्रस्य देवाः संत्रस्ता न शान्तिमुपलेभिरे // 9 भीष्म उवाच / शक्रस्य तु तदा राजन्नूरुस्तम्भो व्यजायत / शुद्धाभिजनसंपन्नाः पाण्डवाः संशितव्रताः / भयात्रस्य सहसा दृष्ट्वा तद्रूपमुत्तमम् // 10 विहृत्य देवलोकेषु पुनर्मानुष्यमेष्यथ / / 68 ततो नादः समभवद्वादित्राणां च निस्वनः। प्रजाविसर्ग च सुखेन काले देवासुराणां सर्वेषां तस्मिन्युद्ध उपस्थिते // 11 प्रत्येत्य देवेषु सुखानि भुक्त्वा / अथ त्रस्य कौरव्य दृष्ट्वा शक्रमुपस्थितम् / / सुखेन संयास्यथ सिद्धसंख्या / न संभ्रमो न भीः काचिदास्था वा समजायत // 12 -2355 भीष्म उवाच। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 272. 13] महाभारते [12. 272.39 ततः समभवद्युद्धं त्रैलोक्यस्य भयंकरम् / भीष्म उवाच / शक्रस्य च सुरेन्द्रस्य वृत्रस्य च महात्मनः / / 13 / / एवं संबोध्यमानस्य वसिष्ठेन महात्मना / असिभिः पट्टिशैः शूलैः शक्तितोमरमुद्रैः। अतीव वासवस्यासीद्वलमुत्तमतेजसः // 27 शिलाभिर्विविधाभिश्च कार्मुकैश्च महास्वनैः // 14 ततो बुद्धिमुपागम्य भगवान्पाकशासनः / अस्त्रैश्च विविधैर्दिव्यैः पावकोल्काभिरेव च / योगेन महता युक्तस्तां मायां व्यपकर्षत // 28 देवासुरैस्ततः सैन्यैः सर्वमासीत्समाकुलम् // 15 ततोऽङ्गिरःसुतः श्रीमांस्ते चैव परमर्षयः / / पितामहपुरोगाश्च सर्वे देवगणास्तथा / दृष्ट्वा वृत्रस्य विक्रान्तमुपगम्य महेश्वरम / / ऋषयश्च महाभागास्ताद्धं द्रष्टुमागमन् // 16 ऊचुर्वृत्रविनाशार्थ लोकानां हितकाम्यया // 29 विमानायैर्महाराज सिद्धाश्च भरतर्षभ। ततो भगवतस्तेजो ज्वरो भूत्वा जगत्पतेः / गन्धर्वाश्च विमानाग्र्यैरप्सरोभिः समागमन् // 17 समाविशन्महारौद्रं वृत्रं दैत्यवरं तदा // 30. ततोऽन्तरिक्षमावृत्य वृत्रो धर्मभृतां वरः / विष्णुश्च भगवान्देवः सर्वलोकाभिपूजितः / अश्मवर्षेण देवेन्द्र पर्वतात्समवाकिरत् // 18 ऐन्द्रं समाविशद्वनं लोकसंरक्षणे रतः // 31 ततो देवगणाः क्रुद्धाः सर्वतः शस्त्रवृष्टिभिः / ततो बृहस्पति(मानुपागम्य शतक्रतुम् / अश्मवर्षमपोहन्त वृत्रप्रेरितमाहवे // 19 वसिष्ठश्च महातेजाः सर्वे च परमर्षयः // 32 वृत्रश्च कुरुशार्दूल महामायो महाबलः / ते समासाद्य वरदं वासवं लोकपूजितम् / मोहयामास देवेन्द्रं मायायुद्धेन सर्वतः // 20 ऊचुरेकाग्रमनसो जहि वृत्रमिति प्रभो // 33 तस्य वृत्रादितस्याथ मोह आसीच्छतक्रतोः / महेश्वर उवाच। रथंतरेण तं तत्र वसिष्ठः समबोधयत् // 21 एष वृत्रो महाशक्र बलेन महता वृतः। वसिष्ठ उवाच / विश्वात्मा सर्वगश्चैव बहुमायश्च विश्रुतः // 34 तदेनमसुरश्रेष्ठं त्रैलोक्येनापि दुर्जयम् / देवश्रेष्ठोऽसि देवेन्द्र सुरारिविनिबर्हण / जहि त्वं योगमास्थाय मावसंस्थाः सुरेश्वर // 35 त्रैलोक्यबलसंयुक्तः कस्माच्छक विषीदसि // 22 अनेन हि तपस्तप्तं बलार्थममराधिप। एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवश्चैव जगत्प्रभुः / / षष्टिं वर्षसहस्राणि ब्रह्मा चास्मै वरं ददौ // 36 सोमश्च भगवान्देवः सर्वे च परमर्षयः // 23 महत्त्वं योगिनां चैव महामायत्वमेव च / मा कार्षीः कश्मलं शक्र कश्चिदेवेतरो यथा। महाबलत्वं च तथा तेजश्चाग्र्यं सुरेश्वर // 37 आया युद्धे मतिं कृत्वा जहि शत्रु सुरेश्वर // 24 एतद्वै मामकं तेजः समाविशति वासव / एष लोकगुरुरुयक्षः सर्वलोकनमस्कृतः / वृत्रमेनं त्वमप्येवं जहि वत्रेण दानवम् // 38 निरीक्षते त्वां भगवांस्त्यज मोहं सुरेश्वर // 25 शक्र उवाच / एते ब्रह्मर्षयश्चैव बृहस्पतिपुरोगमाः / भगवंस्त्वत्प्रसादेन दितिजं सुदुरासदम् / स्तवेन शक्र दिव्येन स्तुवन्ति त्वां जयाय वै // 26 / वज्रेण निहनिष्यामि पश्यतस्ते सुरर्षभ // 39 -2356 - Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 272. 40] शान्तिपर्व [ 12. 278.21 भीष्म उवाच / स वनः सुमहातेजाः कालाग्निसदृशोपमः / आविश्यमाने दैत्ये तु ज्वरेणाथ महासुरे। क्षिप्रमेव महाकायं वृत्रं दैत्यमपातयत् / / . देवतानामृषीणां च हर्षान्नादो महानभूत् // 40 ततो नादः समभवत्पुनरेव समन्ततः / ततो दुन्दुभयश्चैव शङ्खाश्च सुमहास्वनाः / वृत्रं विनिहतं दृष्ट्वा देवानां भरतर्षभ // 8 मुरजा डिण्डिमाश्चैव प्रावाद्यन्त सहस्रशः / / 41 वृत्रं तु हत्वा भगवान्दानवारिर्महायशाः / असुराणां तु सर्वेषां स्मृतिलोपोऽभवन्महान् / वत्रेण विष्णुयुक्तेन दिवमेव समाविशत् // 9 प्रज्ञानाशश्च बलवान्क्षणेन समपद्यत // 42 अथ वृत्रस्य कौरव्य शरीरादभिनिःसता। तमाविष्टमथो ज्ञात्वा ऋषयो देवतास्तथा। ब्रह्महत्या महाघोरा रौद्रा लोकभयावहा // 1. स्तुवन्तः शक्रमीशानं तथा प्राचोदयन्नपि // 43 करालवदना भीमा विकृता कृष्णपिङ्गला / रथस्थस्य हि शक्रस्य युद्धकाले महात्मनः / प्रकीर्णमूर्धजा चैव घोरनेत्रा च भारत // 11 ऋषिभिः स्तूयमानस्य रूपमासीत्सुदुद्देशम् // 44 कपालमालिनी चैव कृशा च भरतर्षभ / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि रुधिरार्द्रा च धर्मज्ञ चीरवस्त्रनिवासिनी // 12 द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 272 / साभिनिष्क्रम्य राजेन्द्र तादृग्रूपा भयावहा / 273 वञिणं मृगयामास तदा भरतसत्तम / / 13 भीष्म उवाच / कस्यचित्त्वथ कालस्य वृत्रहा कुरुनन्दन / वृत्रस्य तु महाराज ज्वराविष्टस्य सर्वशः / स्वर्गायाभिमुखः प्रायाल्लोकानां हितकाम्यया // 14 अभवन्यानि लिङ्गानि शरीरे तानि मे शृणु // 1 बिसान्निःसरमाणं तु दृष्ट्वा शक्रं महौजसम् / ज्वलितास्योऽभवद्बोरो वैवयं चागमत्परम् / कण्ठे जग्राह देवेन्द्रं सुलग्ना चाभवत्तदा // 15 गात्रकम्पश्च सुमहाश्वासश्चाप्यभवन्महान् / स हि तस्मिन्समुत्पन्ने ब्रह्महत्याकृते भये। रोमहर्षश्च तीव्रोऽभूनिःश्वासश्च महान्नृप // 2 नलिन्यां विसमध्यस्थो बभूवाब्दगणान्बहून् // 16 शिवा चाशिवसंकाशा तस्य वक्त्रात्सुदारुणा / अनुसृत्य तु यत्नात्स तया वै ब्रह्महत्यया। निष्पपात महाघोरा स्मृतिः सा तस्य भारत / तदा गृहीतः कौरव्य निश्चेष्टः समपद्यत // 17 उल्काश्च ज्वलितास्तस्य दीनाः पार्श्व प्रपेदिरे // 3 तस्या व्यपोहने शक्रः परं यत्नं चकार ह / गृध्रकङ्कवडाश्चैव वाचोऽमुश्चन्सुदारुणाः / न चाशकत्तां देवेन्द्रो ब्रह्महत्यां व्यपोहितुम् // 18 वृत्रस्योपरि संहृष्टाश्चक्रवत्परिबभ्रमुः // 4 गृहीत एव तु तया देवेन्द्रो भरतर्षभ / ततस्तं रथमास्थाय देवाप्यायितमाहवे / पितामहमुपागम्य शिरसा प्रत्यपूजयत् // 19 वनोद्यतकरः शक्रस्तं दैत्यं प्रत्यवैक्षत // 5 ज्ञात्वा गृहीतं शक्रं तु द्विजप्रवरहत्यया / अमानुषमथो नादं स मुमोच महासुरः / ब्रह्मा संचिन्तयामास तदा भरतसत्तम / / 20 व्यज़म्भत च राजेन्द्र तीव्रज्वरसमन्वितः / तामुवाच महाबाहो ब्रह्महत्यां पितामहः / अथास्य जृम्भतः शक्रस्ततो वज्रमवासृजत् // 6 / स्वरेण मधुरेणाथ सान्त्वयन्निव भारत // 21 - 2357 -- Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 273. 22 ] महाभारते [ 12. 273. 48 भीष्म उवाच / मुच्यतां त्रिदशेन्द्रोऽयं मत्प्रियं कुरु भामिनि / ततो वृक्षौषधितृणं समाहूय पितामहः / वहि किं ते करोम्यद्य कामं कं त्वमिहेच्छसि // 22 / इममर्थ महाराज वक्तुं समुपचक्रमे // 34 . ब्रह्महत्योवाच / ततो वृक्षौषधितृणं तथैवोक्तं यथातथम् / त्रिलोकपूजिते देवे प्रीते त्रैलोक्यकर्तरि / व्यथितं वह्रिवद्राजन्ब्रह्माणमिदमब्रवीत् // 35 कृतमेवेह मन्येऽहं निवासं तु विधत्स्व मे // 23 / अस्माकं ब्रह्महत्यातो कोऽन्तो लोकपितामह। त्वया कृतेयं मर्यादा लोकसंरक्षणार्थिना। स्वभावनिहतानस्मान्न पुनर्हन्तुमर्हसि // 36 . स्थापना वै सुमहती त्वया देव प्रवर्तिता / / 24 / वयमग्निं तथा शीतं वर्ष च पवनेरितम् / प्रीते तु त्वयि धर्मज्ञ सर्वलोकेश्वरे प्रभो / सहामः सततं देव तथा छेदनभेदनम् / / 3. शक्रादपगमिष्यामि निवासं तु विधत्स्व मे / / 25 ब्रह्महत्यामिमामद्य भवतः शासनाद्वयम् / ग्रहीष्यामस्त्रिलोकेश मोक्षं चिन्तयतां भवान् // 38 तथेति तां प्राह तदा ब्रह्महत्यां पितामहः। ब्रह्मोवाच / उपायतः स शक्रस्य ब्रह्महत्यां व्यपोहत // 26 / पर्वकाले तु संप्राप्ते यो वै छेदनभेदनम् / ततः स्वयंभुवा ध्यातस्तत्र वह्निर्महात्मना। करिष्यति नरो मोहात्तमेषानुगमिष्यति // 39 ब्रह्माणमुपसंगम्य ततो वचनमब्रवीत् / / 2. भीष्म उवाच / प्राप्तोऽस्मि भगवन्देव त्वत्सकाशमरिंदम / ततो वृक्षौषधितृणमेवमुक्तं महात्मना / यत्कर्तव्यं मया देव तद्भवान्वक्तुमर्हति / / 28 ब्रह्माणमभिसंपूज्य जगामाशु यथागतम् // 40 ब्रह्मोवाच / आहूयाप्सरसो देवस्ततो लोकपितामहः / बहुधा विभजिष्यामि ब्रह्महत्यामिमामहम् / वाचा मधुरया प्राह सान्त्वयन्निव भारत // 41 शक्रस्याद्य विमोक्षार्थ चतुर्भागं प्रतीच्छ मे // 29 इयमिन्द्रादनुप्राप्ता ब्रह्महत्या वराङ्गनाः / अग्निरुवाच / चतुर्थमस्या भागं हि मयोक्ताः संप्रतीच्छत // 42 मम मोक्षस्य कोऽन्तो वै ब्रह्मन्ध्यायस्व वै प्रभो / . अप्सरस ऊचुः / एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वतो लोकपूजित // 30 ग्रहणे कृतबुद्धीनां देवेश तव शासनात् / ब्रह्मोवाच / मोक्षं समयतोऽस्माकं चिन्तयस्व पितामह // 43 यस्त्वां ज्वलन्तमासाद्य स्वयं वै मानवः कचित् / ब्रह्मोवाच / बीजौषधिरसैर्वते॒ न यक्ष्यति तमोवृतः // 31 रजस्वलासु नारीषु यो वै मैथुनमाचरेत् / तमेषा यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति / तमेषा यास्यति क्षिप्रं व्येतु वो मानसो ज्वरः // 44 ब्रह्महत्या हव्यवाह व्येतु ते मानसो ज्वरः // 32 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच। तथेति हृष्टमनस उक्त्वाथाप्सरसां गणाः / इत्युक्तः प्रतिजग्राह तद्वचो हव्यकव्यभुक् / / स्वानि स्थानानि संप्राप्य रेमिरे भरतर्षभ // 45 पितामहस्य भगवांस्तथा च तदभूत्प्रभो // 33 / ततत्रिलोककृद्देवः पुनरेव महातपाः / -2358 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 278. 46 ] शान्तिपर्व [12. 274.7 अपः संचिन्तयामास ध्यातास्ताश्चाप्यथागमन् // 46 | इमे हि भूतले देवाः प्रथिताः कुरुनन्दन // 59 तास्तु सर्वाः समागम्य ब्रह्माणममितौजसम् / एवं शक्रेण कौरव्य बुद्धिसौक्ष्म्यान्महासुरः / इदमचुर्वचो राजन्प्रणिपत्य पितामहम् // 47 उपायपूर्व निहतो वृत्रोऽथामिततेजसा // 60 इमाः स्म देव संप्राप्तास्त्वत्सकाशमरिंदम / एवं त्वमपि कौरव्य पृथिव्यामपराजितः / शासनात्तव देवेश समाज्ञापय नो विभो / / 48 भविष्यसि यथा देवः शतक्रतुरमित्रहा // 61 ब्रह्मोवाच / ये तु शक्रकथां दिव्यामिमां पर्वसु पर्वसु / इयं वृत्रादनुप्राप्ता पुरुहूतं महाभया। विप्रमध्ये पठिष्यन्ति न ते प्राप्स्यन्ति किल्बिषम् // ब्रह्महत्या चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छत // 49 . इत्येतद्वृत्रमाश्रित्य शक्रस्यात्यद्भुतं महत् / आप ऊचुः। कथितं कर्म ते तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 63 एवं भवतु लोकेश यथा वदसि नः प्रभो। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षं समयतोऽस्माकं संचिन्तयितुमर्हसि // 50 त्रिसप्तत्यधिकद्विशतततमोऽध्यायः // 273 // वं हि देवेश सर्वस्य जगतः परमो गुरुः / ___274 कोऽन्यः प्रसादो हि भवेद्यः कृच्छ्रान्नः समुद्धरेत् // युधिष्ठिर उवाच। ब्रह्मोवाच / पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / अल्पा इति मतिं कृत्वा यो नरो बुद्धिमोहितः / अस्ति वत्रवधादेव विवक्षा मम जायते // 1 श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि युष्मासु प्रतिमोक्ष्यति // 52 ज्वरेण मोहितो वृत्रः कथितस्ते जनाधिप / तमेषा यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति / निहतो वासवेनेह वजेणेति ममानघ // 2 तथा वो भविता मोक्ष इति सत्यं ब्रवीमि वः // कथमेष महाप्राज्ञ ज्वरः प्रादुरभूत्कुतः / भीष्म उवाच / ज्वरोत्पत्तिं निपुणतः श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो // 3 ततो विमुच्य देवेन्द्रं ब्रह्महत्या युधिष्ठिर / यथानिसृष्टं तं देशमगच्छदेवशासनात् / / 54 भीष्म उवाच / एवं शक्रेण संप्राप्ता ब्रह्महत्या जनाधिप / शृणु राजश्वरस्येह संभवं लोकविश्रुतम् / पितामहमनुज्ञाप्य सोऽश्वमेधमकल्पयत् // 55 विस्तरं चास्य वक्ष्यामि यादृशं चैव भारत // 4 श्रूयते हि महाराज संप्राप्ता वासवेन वै / पुरा मेरोमहाराज शृङ्गं त्रैलोक्यविश्रुतम् / ब्रह्महत्या ततः शुद्धि हयमेधेन लब्धवान् // 56 ज्योतिष्कं नाम सावित्रं सर्वरत्नविभूषितम् / समवाप्य श्रियं देवो हत्वारीश्च सहस्रशः / अप्रमेयमनाधृष्यं सर्वलोकेषु भारत / / 5 प्रहर्षमतुलं लेभे वासवः पृथिवीपते / / 57 तत्र देवो गिरितटे हेमधातुविभूषिते / वृत्रस्य रुधिराचैव खुखुण्डाः पार्थ जज्ञिरे। पर्यङ्क इव विभ्राजन्नुपविष्टो बभूव ह // 6 द्विजातिभिरभक्ष्यास्ते दीक्षितैश्च तपोधनैः / / 58 / शैलराजसुता चास्य नित्यं पार्श्वे स्थिता बभौ / सर्वावस्थं त्वमप्येषां द्विजातीनां प्रियं कुरु। तथा देवा महात्मानो वसवश्च महौजसः॥ 7 -2359 - Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 274.8] महाभारते [12. 274.84 तथैव च महात्मानावश्विनौ भिषजां वरौ। महेश्वर उवाच / तथा वैश्रवणो राजा गुह्यकैरभिसंवृतः // 8 दक्षो नाम महाभागे प्रजानां पतिरुत्तमः / यक्षाणामधिपः श्रीमान्कैलासनिलयः प्रभुः / हयमेधेन यजते तत्र यान्ति दिवौकसः // 23 अङ्गिरःप्रमुखाश्चैव तथा देवर्षयोऽपरे // 9 उमा उवाच / विश्वावसुश्च गन्धर्वस्तथा नारदपर्वतौ। यज्ञमेतं महाभाग किमर्थं नाभिगच्छसि। अप्सरोगणसंघाश्च समाजग्मुरनेकशः // 10 / केन वा प्रतिषेधेन गमनं ते न विद्यते // 24 ववौ शिवः सुखो वायु नागन्धवहः शुचिः / महेश्वर उवाच। सर्वतुकुसुमोपेताः पुष्पवन्तो महाद्रुमाः // 11 सुरैरेव महाभागे सर्वमेतदनुष्ठितम् / तथा विद्याधराश्चैव सिद्धाश्चैव तपोधनाः / यज्ञेषु सर्वेषु मम न भाग उपकल्पितः // 25 महादेवं पशुपतिं पर्युपासन्त भारत // 12 पूर्वोपायोपपन्नेन मार्गेण वरवर्णिनि। .. भूतानि च महाराज नानारूपधराण्यथ / न मे सुराः प्रयच्छन्ति भागं यज्ञस्य धर्मतः॥२॥ राक्षसाश्च महारौद्राः पिशाचाश्च महाबलाः // 13 उमा उवाच / बहुरूपधरा हृष्टा नानाप्रहरणोद्यताः / भगवन्सर्वभूतेषु प्रभावाभ्यधिको गुणैः / देवस्यानुचरास्तत्र तस्थिरे चानलोपमाः // 14 अजेयश्चाप्रधृष्यश्च तेजसा यशसा श्रिया // 27 नन्दी च भगवांस्तत्र देवस्यानुमते स्थितः / / अनेन ते महाभाग प्रतिषेधेन भागतः। प्रगृह्य ज्वलितं शूलं दीप्यमानं स्वतेजसा / / 15 अतीव दुःखमुत्पन्नं वेपथुश्च ममानघ // 28 गङ्गा च सरितां श्रेष्ठा सर्वतीर्थजलोद्भवा / भीष्म उवाच / पर्युपासत तं देवं रूपिणी कुरुनन्दन / / 16 एवमुक्त्वा तु सा देवी देवं पशुपति पतिम् / . एवं स भगवांस्तत्र पूज्यमानः सुरर्षिभिः / तूष्णीभूताभवद्राजन्दह्यमानेन चेतसा // 29 देवैश्च सुमहाभागैर्महादेवो व्यतिष्ठत // 17 अथ देव्या मतं ज्ञात्वा हृद्गतं यञ्चिकीर्षितम् / कस्यचित्त्वथ कालस्य दक्षो नाम प्रजापतिः / स समाज्ञापयामास तिष्ठ त्वमिति नन्दिनम् // 30 पूर्वोक्तेन विधानेन यक्ष्यमाणोऽन्वपद्यत // 18 ततो योगबलं कृत्वा सर्वयोगेश्वरेश्वरः / ततस्तस्य मखं देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः / तं यज्ञं सुमहातेजा भीमैरनुचरैस्तदा / गमनाय समागम्य बुद्धिमापेदिरे तदा // 19 / सहसा घातयामास देवदेवः पिनाकधृक् / / 31 ते विमानैर्महात्मानो ज्वलितैलनप्रभाः / केचिन्नादानमुश्चन्त केशिद्धासांश्च चक्रिरे / देवस्यानुमतेऽगच्छन्गङ्गाद्वारमिति श्रुतिः // 20 / रुधिरेणापरे राजंस्तत्राग्निं समवाकिरन् // 32 प्रस्थिता देवता दृष्ट्वा शैलराजसुता तदा / केचियूपान्समुत्पाट्य बभ्रमुर्विकृताननाः / उवाच वचनं साध्वी देवं पशुपति पतिम् // 21 आस्यैरन्ये चाग्रसन्त तथैव परिचारकान् // 33 भगवन्क नु यान्त्येते देवाः शक्रपुरोगमाः / ततः स यज्ञो नृपते वध्यमानः समन्ततः / ब्रूहि तत्त्वेन तत्त्वज्ञ संशयो मे महानयम् / / 22 आस्थाय मृगरूपं वै खमेवाभ्यपतत्तदा // 34 - 2360 - Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 274. 35 ] शान्तिपर्व [12. 274. 60 तं तु यज्ञं तथारूपं गच्छन्तमुपलभ्य सः / शीर्षाभितापो नागानां पर्वतानां शिलाजतुः / धनुरादाय बाणं च तदान्वसरत प्रभुः // 35 अपां तु नीलिकां विद्यान्निर्मोकं भुजगेषु च // 50 ततस्तस्य सुरेशस्य क्रोधादमिततेजसः / खोरकः सौरभेयाणामूषरं पृथिवीतले / ललाटात्प्रसृतो घोरः स्वेदबिन्दुर्बभूव ह // 36 / पशूनामपि धर्मज्ञ दृष्टिप्रत्यवरोधनम् // 51 तस्मिन्पतितमात्रे तु स्वेदबिन्दौ तथा भुवि / रन्ध्रागतमथाश्वानां शिखोज्दश्च बर्हिणाम् / प्रादुर्बभूव सुमहानग्निः कालानलोपमः // 37 नेत्ररोगः कोकिलानां ज्वरः प्रोक्तो महात्मना // 52 तत्र चाजायत तदा पुरुषः पुरुषर्षभ / अब्जानां पित्तभेदश्च सर्वेषामिति नः श्रुतम् / हस्वोऽतिमात्ररक्ताक्षो हरिश्मश्रुर्विभीषणः // 38 शुकानामपि सर्वेषां हिक्किका प्रोच्यते ज्वरः॥५३ ऊर्ध्वकेशोऽतिलोमाङ्गः श्येनोलूकस्तथैव च। शार्दूलेष्वथ धर्मज्ञ श्रमो ज्वर इहोच्यते / करालः कृष्णवर्णश्च रक्तवासास्तथैव च // 39 मानुषेषु तु धर्मज्ञ ज्वरो नामैष विश्रुतः / तं यज्ञं स महासत्त्वोऽदहत्कशमिवानलः / मरणे जन्मनि तथा मध्ये चाविशते नरम् // 54 देवाश्चाप्यद्रवन्सर्वे ततो भीता दिशो दश / / 40 एतन्माहेश्वरं तेजो ज्वरो नाम सुदारुणः / तेन तस्मिन्विचरता पुरुषेण विशां पते / नमस्यश्चैव मान्यश्च सर्वप्राणिभिरीश्वरः // 55 पृथिवी व्यचलद्राजन्नतीव भरतर्षभ / / 41 अनेन हि समाविष्टो वृत्रो धर्मभृतां वरः / हाहाभूते प्रवृत्ते तु नादे लोकभयंकरे / व्यज़म्भत ततः शक्रस्तस्मै वनमवासृजत् // 56 पितामहो महादेवं दर्शयन्प्रत्यभाषत // 42 प्रविश्य वस्रो वृत्रं तु दारयामास भारत / भवतोऽपि सुराः सर्वे भागं दास्यन्ति वै प्रभो। दारितश्च स वज्रेण महायोगी महासुरः / क्रियतां प्रतिसंहारः सर्वदेवेश्वर त्वया // 43 जगाम परमं स्थानं विष्णोरमिततेजसः // 57 इमा हि देवताः सर्वा ऋषयश्च परंतप / विष्णुभक्त्या हि तेनेदं जगद्व्याप्तमभूत्पुरा / तव क्रोधान्महादेव न शान्तिमुपलेभिरे // 44 तस्माच्च निहतो युद्धे विष्णोः स्थानमवाप्तवान् // 58 यश्चैष पुरुषो जातः स्वेदात्ते विबुधोत्तम। इत्येष वृत्रमाश्रित्य ज्वरस्य महतो मया / ज्वरो नामैष धर्मज्ञ लोकेषु प्रचरिष्यति // 45 विस्तरः कथितः पुत्र किमन्यत्प्रब्रवीमि ते // 59 एकीभूतस्य न ह्यस्य धारणे तेजसः प्रभो। इमां ज्वरोत्पत्तिमदीनमानसः समर्था सकला पृथ्वी बहुधा सृज्यतामयम् // 46 पठेत्सदा यः सुसमाहितो नरः। इत्युक्तो ब्रह्मणा देवो भागे चापि प्रकल्पिते / विमुक्तरोगः स सुखी मुदा युतो भगवन्तं तथेत्याह ब्रह्माणममितौजसम् // 47 लभेत कामान्स यथामनीषितान // 60 परां च प्रीतिमगमदुत्स्मयंश्च पिनाकधृक् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अवाप च तदा भागं यथोक्तं ब्रह्मणा भवः // 48 चतुःसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 274 // ज्वरं च सर्वधर्मज्ञो बहुधा व्यसृजत्तदा / शान्त्यर्थं सर्वभूतानां शृणु तच्चापि पुत्रक // 49 म. भा. 296 - 2361 - Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 275. 1] महाभारते [12. 275.21 275 प्रज्ञामूलो हीन्द्रियाणां प्रसादः। युधिष्ठिर उवाच। मुह्यन्ति शोचन्ति यदेन्द्रियाणि शोकाहुःखाच्च मृत्योश्च त्रस्यन्ति प्राणिनः सदा / प्रज्ञालाभो नास्ति मूढेन्द्रियस्य // 11 उभयं मे यथा न स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 मूढस्य दर्पः स पुनर्मोह एव भीष्म उवाच मूढस्य नायं न परोऽस्ति लोकः / / न ह्येव दुःखानि सदा भवन्ति अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सुखस्य वा नित्यशो लाभ एव // 12 नारदस्य च संवादं समङ्गस्य च भारत // 2 भावात्मकं संपरिवर्तमानं नारद उवाच। न मादृशः संज्वरं जातु कुर्यात् / उरसेव प्रणमसे बाहुभ्यां तरसीव च / इष्टान्भोगान्नानुरुध्येत्सुखं वा संप्रहृष्टमना नित्यं विशोक इव लक्ष्यसे // 3 न चिन्तयेदुःखमभ्यागतं वा // 13 उद्वेगं नेह ते किंचित्सुसूक्ष्ममपि लक्षये। समाहितो न स्पृहयेत्परेषां नित्यतृप्त इव स्वस्थो बालवच्च विचेष्टसे // 4 नानागतं नाभिनन्देत लाभम् / न चापि हृष्येद्विपुलेऽर्थलाभे समङ्ग उवाच / तथार्थनाशे च न वै विषीदेत् // 14 भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्व सत्त्वेषु मानद / न बान्धवा न च वित्तं न कौली तेषां तत्त्वानि जानामि ततो न विमना ह्यहम् // 5 __न च श्रुतं न च मश्रा न वीर्यम् / उपक्रमानहं वेद पुनरेव फलोदयान् / दुःखात्रातुं सर्व एवोत्सहन्ते लोके फलानि चित्राणि ततो न विमना ह्यहम् // 6 परत्र शीले न तु यान्ति शान्तिम् // 15 अगाधाश्चाप्रतिष्ठाश्च गतिमन्तश्च नारद / नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नायोगाद्विद्यते सुखम् / / अन्धा जडाश्च जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः॥७ धृतिश्च दुःखत्यागश्चाप्युभयं न सुखोदयम् // 16 विहितेनैव जीवन्ति अरोगाङ्गा दिवौकसः / प्रियं हि हर्षजननं हर्ष उत्सेकवर्धनः / बलवन्तोऽबलाश्चैव तद्वदस्मान्सभाजय // 8 उत्सेको नरकायैव तस्मात्तं संत्यजाम्यहम् // 17 सहस्रिणश्च जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा। एताशोकभयोत्सेकान्मोहनान्सुखदुःखयोः / शाकेन चान्ये जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः // 9 | पश्यामि साक्षिवल्लोके देहस्यास्य विचेष्टनात् // 18 यदा न शोचेमहि किं नु न स्या अर्थकामौ परित्यज्य विशोको विगतज्वरः / द्धर्मेण वा नारद कर्मणा वा। तृष्णामोहौ तु संत्यज्य चरामि पृथिवीमिमाम् // 19 कृतान्तवश्यानि यदा सुखानि न मृत्यतो न चाधर्मान्न लोभान कतश्चन / __दुःखानि वा यन्न विवर्धयन्ति // 10 पीतामृतस्येवात्यन्तमिह चामुत्र वा भयम् // 20 यस्मै प्रज्ञां कथयन्ते मनुष्याः एतद्ब्रह्मन्विजानामि महत्कृत्वा तपोऽव्ययम् / -2362 - Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 275. 21] शान्तिपर्व [ 12. 276. 26 तेन नारद संप्राप्तो न मां शोकः प्रबाधते // 21 | तान्सर्वाननुपश्य त्वं समाश्रित्यैव गालव // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तेषां तेषां तथा हि त्वमाश्रमाणां ततस्ततः / पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 275 // नानारूपगुणोदेशं पश्य विप्रस्थितं पृथक् / 276 नयन्ति चैव ते सम्यगभिप्रेतमसंशयम् // 13 युधिष्ठिर उवाच / ऋजु पश्यंस्तथा सम्यगाश्रमाणां परां गतिम् / अतत्त्वज्ञस्य शास्त्राणां सततं संशयात्मनः / यत्तु निःश्रेयसं सम्यक्तच्चैवासंशयात्मकम् // 14 अकृतव्यवसायस्य श्रेयो ब्रूहि पितामह // 1 . अनुग्रहं च मित्राणाममित्राणां च निग्रहम् / भीष्म उवाच / संप्रहं च त्रिवर्गस्य श्रेय आहुर्मनीषिणः // 15 गुरुपूजा च सततं वृद्धानां पर्युपासनम् / / निवृत्तिः कर्मणः पापात्सततं पुण्यशीलता / श्रवणं चैव विद्यानां कूटस्थं श्रेय उच्यते // 2 सद्भिश्च समुदाचारः श्रेय एतदसंशयम् // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / मार्दवं सर्वभूतेषु व्यवहारेषु चार्जवम् / गालवस्य च संवादं देवर्षे रदस्य च // 3 वाक्चैव मधुरा प्रोक्ता श्रेय एतदसंशयम् // 17 वीतमोहक्लमं विप्रं ज्ञानतृप्तं जितेन्द्रियम् / देवताभ्यः पितृभ्यश्च संविभागोऽतिथिष्वपि। . श्रेयस्कामं जितात्मानं नारदं गालवोऽब्रवीत् // 4 असंत्यागश्च भृत्यानां श्रेय एतदसंशयम् // 18. यैः कैश्चित्संमतो लोके गुणैस्तु पुरुषो नृषु / सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम् / भवत्यनफ्गान्सांस्तान्गुणाल्लक्षयाम्यहम् // 5 यद्भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं ब्रवीम्यहम् // 19 . भवानेवंविधोऽस्माकं संशयं छेत्तुमर्हति / अहंकारस्य च त्यागः प्रणयस्य च निग्रहः / अमूढश्चिरमूढानां लोकतत्त्वमजानताम् // 6 संतोषश्चैकचर्या च कूटस्थं श्रेय उच्यते // 20 ज्ञाने ह्येवं प्रवृत्तिः स्यात्कार्याकार्ये विजानतः। धर्मेण वेदाध्ययनं वेदाङ्गानां तथैव च। यत्कार्य न व्यवस्यामस्तद्भवान्वक्तुमर्हति // 7 विद्यार्थानां च जिज्ञासा श्रेय एतदसंशयम् // 21 भगवन्नाश्रमाः सर्वे पृथगाचारदर्शिनः / शब्दरूपरसस्पर्शान्सह गन्धेन केवलान् / इदं श्रेय इदं श्रेय इति नानाप्रधाविताः // 8 नात्यर्थमुपसेवेत श्रेयसोऽर्थी परंतप // 22 तांस्तु विप्रस्थितान्दृष्ट्वा शास्त्रैः शास्त्राभिनन्दिनः / नक्तंचर्या दिवास्वप्नमालस्यं पैशुनं मदम् / स्वशास्त्रैः परितुष्टांश्च श्रेयो नोपलभामहे // 9 अतियोगमयोगं च श्रेयसोऽर्थी परित्यजेत् // 23 शास्त्रं यदि भवेदेकं व्यक्तं श्रेयो भवेत्तदा / कर्मोत्कर्ष न मार्गेत परेषां परिनिन्दया। . शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुह्यं प्रवेशितम् // 10 स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्ष पृथग्जनात् // 24 / एतस्मात्कारणाच्छ्रेयः कलिलं प्रतिभाति माम् / निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसंभाविनो नराः / / प्रवीतु भगवांस्तन्मे उपसन्नोऽस्म्यधीहि भोः // 11 / दोषैरन्यान्गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात् // 25 नारद उवाच / अनुच्यमानाश्च पुनस्ते मन्यन्ते महाजनात् / आश्रमास्तात चत्वारो यथासंकल्पिताः पृथक् / | गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः // 26 - 2363 - Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 276. 27] महाभारते [ 12. 276. 56 अब्रुवन्कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन् / आकाशस्था ध्रुवं यत्र दोषं ब्रूयुर्विपश्चिताम् / विपश्चिद्गुणसंपन्नः प्राप्नोत्येव महद्यशः // 27 आत्मपूजामिकामा वै को वसेत्तत्र पण्डितः // 42 अनुवन्वाति सुरभिर्गन्धः सुमनसां शुचिः / यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रायशो धर्मसेतवः / तथैवाव्याहरन्भाति विमलो भानुरम्बरे // 28 प्रदीप्तमिव शैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत् // 43 एवमादीनि चान्यानि परित्यक्तानि मेधया। यत्र धर्ममनाशङ्काश्चरेयुतिमत्सराः / ज्वलन्ति यशसा लोके यानि न व्याहरन्ति च // चरेत्तत्र वसेञ्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु // 44 न लोके दीप्यते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया। धर्ममर्थनिमित्तं तु चरेयुर्यत्र मानवाः / अपि चापिहितः श्वभ्रे कृतविद्यः प्रकाशते // 30 न ताननुवसेज्जातु ते हि पापकृतो जनाः // 45 असन्नुच्चैरपि प्रोक्तः शब्दः समुपशाम्यति / कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः / दीप्यते त्वेव लोकेषु शनैरपि सुभाषितम् // 31 व्यवधावेत्ततस्तूणं ससर्पाच्छरणादिव // 46 मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु / येन खदां समारूढः कर्मणानुशयी भवेत् / दर्शयत्यन्तरात्मानं दिवा रूपमिवांशुमान् // 32 आदितस्तन्न कर्तव्यमिच्छता भवमात्मनः // 47 एतस्मात्कारणात्प्रज्ञां मृगयन्ते पृथग्विधाम् / यत्र राजा च राज्ञश्च पुरुषाः प्रत्यनन्तराः / प्रज्ञालाभो हि भूतानामुत्तमः प्रतिभाति माम् // 33 कुटुम्बिनामग्रभुजस्त्यजेत्तद्राष्ट्रमात्मवान् // 48 नापृष्टः कस्यचिद्यान्न चान्यायेन पृच्छतः / श्रोत्रियास्त्वपभोक्तारो धर्मनित्याः सनातनाः / ज्ञानवानपि मेधावी जडवल्लोकमाचरेत् // 34 याजनाध्यापने युक्ता यत्र तद्राष्ट्रमावसेत् // 49 ततो वासं परीक्षेत धर्मनित्येषु साधुषु / स्वाहास्वधावषट्कारा यत्र सम्यगनुष्ठिताः / मनुष्येषु वदान्येषु स्वधर्मनिरतेषु च // 35 अजस्रं चैव वर्तन्ते वसेत्तत्राविचारयन् / / 50 चतुर्णा यत्र वर्णानां धर्मव्यतिकरो भवेत् / अशुचीन्यत्र पश्येत ब्राह्मणान्वृत्तिकर्शितान् / न तत्र वासं कुर्वीत श्रेयोर्थी वै कथंचन // 36 त्यजेत्तद्राष्ट्रमासन्नमुपसृष्टमिवामिषम् // 51 निरारम्भोऽप्ययमिह यथालब्धोपजीवनः / प्रीयमाणा नरा यत्र प्रयच्छेयुरयाचिताः / पुण्यं पुण्येषु विमलं पापं पापेषु चाप्नुयात् // 37 स्वस्थचित्तो वसेत्तत्र कृतकृत्य इवात्मवान् // 52 अपामग्नेस्तथेन्दोश्च स्पर्श वेदयते यथा / दण्डो यत्राविनीतेषु सत्कारश्च कृतात्मसु / तथा पश्यामहे स्पर्शमुभयोः पापपुण्ययोः // 38 / चरेत्तत्र वसेञ्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु / / 53 अपश्यन्तोऽन्नविषयं भुञ्जते बिघसाशिनः।। उपसृष्टेष्वदान्तेषु दुराचारेष्वसाधुषु / भुञ्जानं चान्नविषयान्विषयं विद्धि कर्मणाम् / / 39 अविनीतेषु लुब्धेषु सुमहद्दण्डधारणम् // 54 यत्रागमयमानानामसत्कारेण पृच्छताम् / यत्र राजा धर्मनित्यो राज्यं वै पर्युपासिता। प्रब्रूयाद्ब्रह्मणो धर्म त्यजेत्तं देशमात्मवान् // 40 अपास्य कामान्कामेशो वसेत्तत्राविचारयन् // 55 शिष्योपाध्यायिका वृत्तिर्यत्र स्यात्सुसमाहिता। तथाशीला हि राजानः सर्वान्विषयवासिनः / यथावच्छास्त्रसंपन्ना कस्तं देशं परित्यजेत् // 41 / श्रेयसा योजयन्त्याशु श्रेयसि प्रत्युपस्थिते // 56 -2364 - Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 278. 57] शान्तिपर्व [12. 277. 24 पृच्छतस्ते मया तात श्रेय एतदुदाहृतम् / सापत्यो निरपत्यो वा मुक्तश्चर यथासुखम् / न हि शक्यं प्रधानेन श्रेयः संख्यातुमात्मनः // 57 इन्द्रियैरिन्द्रियार्थांस्त्वमनुभूय यथाविधि // 10 एवं प्रवर्तमानस्य वृत्तिं प्रणिहितात्मनः / कृतकौतूहलस्तेषु मुक्तश्चर यथासुखम् / तपसवेह बहुलं श्रेयो व्यक्तं भविष्यति // 58 उपपत्त्योपलब्धेषु लाभेषु च समो भव // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एष तावत्समासेन तव संकीर्तितो मया। षट्सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 276 // मोक्षार्थो विस्तरेणापि भूयो वक्ष्यामि तच्छृणु // 277 मुक्ता वीतभया लोके चरन्ति सुखिनो नराः / युधिष्ठिर उवाच / सक्तभावा विनश्यन्ति नरास्तत्र न संशयः // 13 कथं नु मुक्तः पृथिवीं चरेदस्मद्विधो नृपः / . आहारसंचयाश्चैव तथा कीटपिपीलिकाः / नित्यं कैश्च गुणैर्युक्तः सङ्गपाशाद्विमुच्यते // 1 असक्ताः सुखिनो लोके सक्ताश्चैव विनाशिनः॥ स्वजने न च ते चिन्ता कर्तव्या मोक्षबुद्धिना। भीष्म उवाच / अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् / इमे मया विनाभूता भविष्यन्ति कथं त्विति // 15 स्वयमुत्पद्यते जन्तुः स्वयमेव विवर्धते / अरिष्टनेमिना प्रोक्तं सगरायानुपृच्छते // 2 सुखदुःखे तथा मृत्युं स्वयमेवाधिगच्छति // 16 सगर उवाच / भोजनाच्छादने चैव मात्रा पित्रा च संग्रहम् / किं श्रेयः परमं ब्रह्मन्कृत्वेह सुखमभुते / स्वकृतेनाधिगच्छन्ति लोके नास्त्यकृतं पुरा // 17 कथं न शोचेन्न क्षुभ्येदेतदिच्छामि वेदितुम् // 3 धात्रा विहितभक्ष्याणि सर्वभूतानि मेदिनीम् / भीष्म उवाच। लोके विपरिधावन्ति रक्षितानि स्वकर्मभिः // 18 एवमुक्तस्तदा तायः सर्वशास्त्रविशारदः / स्वयं मृत्पिण्डभूतस्य परतत्रस्य सर्वदा / विबुध्य संपदं चाग्र्यां सद्वाक्यमिदमब्रवीत् // 4 को हेतुः स्वजनं पोष्टुं रक्षितुं वादृढात्मनः // 19 सुखं मोक्षसुखं लोके न च लोकोऽवगच्छति / खजनं हि यदा मृत्युर्हन्त्येव तव पश्यतः / प्रसक्तः पुत्रपशुषु धनधान्यसमाकुलः // 5 कृतेऽपि यत्ने महति तत्र बोद्धव्यमात्मना // 20 सक्तबुद्धिरशान्तात्मा न स शक्यश्चिकित्सितुम् / जीवन्तमपि चैवैनं भरणे रक्षणे तथा / स्नेहपाशसितो मूढो न स मोक्षाय कल्पते // 6 असमाप्ते परित्यज्य पश्चादपि मरिष्यसि // 21 स्नेहजानिह ते पाशान्वक्ष्यामि शृणु तान्मम / / यदा मृतश्च स्वजनं न ज्ञास्यसि कथंचन / सकर्णकेन शिरसा शक्याश्छेत्तुं विजानता // 7 सुखितं दुःखितं वापि ननु बोद्धव्यमात्मना // 22 संभाव्य पुत्रान्कालेन यौवनस्थान्निवेश्य च / मृते वा त्वयि जीवे वा यदि भोक्ष्यति वै जनः / समर्थाञ्जीवने ज्ञात्वा मुक्तश्वर यथासुखम् // 8 स्वकृतं ननु बुद्धवं कर्तव्यं हितमात्मनः // 23 भायां पुत्रवती वृद्धां लालितां पुत्रवत्सलाम् / एवं विजानल्लोकेऽस्मिन्कः कस्येत्यभिनिश्चितः / मात्वा प्रजहि काले त्वं परार्थमनुदृश्य च // 9 / मोक्षे निवेशय मनो भूयश्चाप्युपधारय // 24 -2365 - Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12.277. 25] महाभारते [ 12.278.5 क्षुत्पिपासादयो भावा जिता यस्येह देहिनः / / पुंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोपरमं तथा। क्रोधो लोभस्तथा मोहः सत्त्ववान्मुक्त एव सः // बाधिर्य प्राणमन्दत्वं यः पश्यति स मुच्यते // 40 इते पाने तथा स्त्रीषु मृगयायां च यो नरः।। गतानृषींस्तथा देवानसुरांश्च तथा गतान् / न प्रमाद्यति संमोहात्सततं मुक्त एव सः // 26 लोकादस्मात्परं लोकं यः पश्यति स मुच्यते // 41 दिवसे दिवसे नाम रात्रौ रात्रौ सदा सदा। .. प्रभावैरन्वितास्तैस्तैः पार्थिवेन्द्राः सहस्रशः / भोक्तव्यमिति यः खिन्नो दोषबुद्धिः स उच्यते॥२७ ये गताः पृथिवीं त्यक्त्वा इति ज्ञात्वा विमुच्यते॥ आत्मभावं तथा स्त्रीषु मुक्तमेव पुनः पुनः। अर्थांश्च दुर्लभाल्लोके केशांश्च सुलभांस्तथा। यः पश्यति सदा युक्तो यथावन्मुक्त एव सः // 28 दुःखं चैव कुटुम्बार्थे यः पश्यति स मुच्यते // 43 संभवं च विनाशं च भूतानां चेष्टितं तथा / अपत्यानां च वैगुण्यं जनं विगुणमेव च / यस्तत्त्वतो विजानाति लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः।।२९ पश्यन्भूयिष्ठशो लोके को मोक्षं नाभिपूजयेत्॥४४ प्रस्थं वाहसहस्रेषु यात्राथं चैव कोटिषु / शास्त्राल्लोकाच यो बुद्धः सर्वं पश्यति मानवः। प्रासादे मश्चकस्थानं यः पश्यति स मुच्यते // 30 असारमिव मानुष्यं सर्वथा मुक्त एव सः // 45 मृत्युनाभ्याहतं लोकं व्याधिभिश्चोपपीडितम् / एतच्छ्रुत्वा मम वचो भवांश्चरतु मुक्तवत् / .. अवृत्तिकर्शितं चैव यः पश्यति स मुच्यते / / 31 गार्हस्थ्ये यदि ते मोक्षे कृता बुद्धिरविक्कवा // 46 यः पश्यति सुखी तुष्टो नपश्यंश्च विहन्यते / तत्तस्य वचनं श्रुत्वा सम्यक्स पृथिवीपतिः।। यश्चाप्यल्पेन संतुष्टो लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः॥३२ मोक्षजैश्च गुणैर्युक्तः पालयामास च प्रजाः // 47 अग्नीषोमाविदं सर्वमिति यश्चानुपश्यति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न च संस्पृश्यते भावरद्भुतैर्मुक्त एव सः॥ 33 / सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 277 // पर्यकशय्या भूमिश्च समाने यस्य देहिनः / 278 शालयश्च कदन्नं च यस्य स्यान्मुक्त एव सः॥३४ युधिष्ठिर उवाच / क्षौमं च कुशचीरं च कौशेयं वल्कलानि च / तिष्ठते मे सदा तात कौतूहलमिदं हृदि। .. आविकं चर्म च समं यस्य स्यान्मुक्त एव सः॥ 35 तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तः कुरुपितामह // 1 पञ्चभूतसमद्भुतं लोकं यश्चानुपश्यति / कथं देवर्षिरुशना सदा काव्यो महामतिः / तथा च वर्तते दृष्ट्वा लोकेऽस्मिन्मुक्त एव सः // 36 असुराणां प्रियकरः सुराणामप्रिये रतः // 2 सुखदुःखे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ। वर्धयामास तेजश्च किमर्थममितौजसाम् / . इच्छाद्वेषौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव सः // 37 नित्यं वैरनिबद्धाश्च दानवाः सुरसत्तमैः // 3 रक्तमूत्रपुरीषाणां दोषाणां संचयं तथा / कथं चाप्युशना प्राप शुक्रत्वममरद्युतिः / शरीरं दोषबहुलं दृष्ट्वा चेदं विमुच्यते // 38 ऋद्धिं च स कथं प्राप्तः सर्वमेतद्भवीहि मे // 4 वलीपलितसंयोगं कार्यं वैवर्ण्यमेव च / न याति च स तेजस्वी मध्येन नभसः कथम् / कुब्जभावं च जरया यः पश्यति स मुच्यते // 39 / एतदिच्छामि विज्ञातुं निखिलेन पितामह // 5 . - 2366 - Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 278. 6] शान्तिपर्व [ 12. 278. 33 भीष्म उवाच / आस्यं विवृत्य ककुदी पाणिं संप्राक्षिपच्छनैः // 19 शृणु राजन्नवहितः सर्वमेतद्यथातथम् / स तु प्रविष्ट उशना कोष्ठं माहेश्वरं प्रभुः। यथामति यथा चैतच्छ्रुतपूर्व मयानघ // 6 व्यचरचापि तत्रासौ महात्मा भृगुनन्दनः // 20 एष भार्गवदायादो मुनिः सत्यो दृढव्रतः / युधिष्ठिर उवाच। असुराणां प्रियकरो निमित्ते करुणात्मके // 7 किमर्थं व्यचरद्राजन्नुशना तस्य धीमतः / इन्द्रोऽथ धनदो राजा यक्षरक्षोधिपः स च / जठरे देवदेवस्य किं चाकार्षीन्महाद्युतिः // 21 प्रभविष्णुश्च कोशस्य जगतश्च तथा प्रभुः / / 8 ___भीष्म उवाच / तस्यात्मानमथाविश्य योगसिद्धो महामुनिः / / पुरा सोऽन्तर्जलगतः स्थाणुभूतो महाव्रतः / रुदा धनपतिं देवं योगेन हृतवान्वसु / / 9 वर्षाणामभवद्राजन्प्रयुतान्यर्बुदानि च // 22 हते धने ततः शर्म न लेमे धनदस्तथा / उदतिष्ठत्तपस्तप्त्वा दुश्चरं स महाहदात् / भापनमन्युः संविमः सोऽभ्यगात्सुरसत्तमम् // 10 ततो देवातिदेवस्तं ब्रह्मा समुपसर्पत // 23 निवेदयामास तदा शिवायामिततेजसे / तपोवृद्धिमपृच्छच्च कुशलं चैनमव्ययम् / देवश्रेष्ठाय रुद्राय सौम्याय बहुरूपिणे // 11 तपः सुचीर्णमिति च प्रोवाच वृषभध्वजः // 24 कुबेर उवाच। तत्संयोगेन वृद्धिं चाप्यपश्यत्स तु शंकरः / योगात्मकेनोशनसा रुद्धा मम हृतं वसु। महामतिरचिन्त्यात्मा सत्यधर्मरतः सदा // 25 योगेनात्मगतिं कृत्वा निःसृतश्च महातपाः / / 12 / स तेनाढ्यो महायोगी तपसा च धनेन च / .. भीष्म उवाच / व्यराजत महाराज त्रिषु लोकेषु वीर्यवान् // 26 एतच्छ्रुत्वा ततः क्रुद्धो महायोगी महेश्वरः / ततः पिनाकी योगात्मा ध्यानयोगं समाविशत् / संरक्तनयनो राजशूलमादाय तस्थिवान् / / 13 उशना तु समुद्विग्नो निलिल्ये जठरे ततः // 27 कासौ कासाविति प्राह गृहीत्वा परमायुधम् / तुष्टाव च महायोगी देवं तत्रस्थ एव च। उशना दूरतस्तस्य बभौ ज्ञात्वा चिकीर्षितम् / / 14 निःसारं काडमाणस्तु तेजसा प्रत्यहन्यत // 28 स महायोगिनो बुद्धा तं रोषं वै महात्मनः / उशना तु तदोवाच जठरस्थो महामुनिः / गतिमागमनं वेत्ति स्थानं वेत्ति ततः प्रभुः // 15 प्रसादं मे कुरुष्वेति पुनः पुनररिंदम // 29 चिन्त्योग्रेण तपसा महात्मानं महेश्वरम् / तमुवाच महादेवो गच्छ शिश्नेन मोक्षणम् / शना योगसिद्धात्मा शूलाग्रे प्रत्यदृश्यत // 16 इति स्रोतांसि सर्वाणि रुद्धा त्रिदशपुंगवः // 30 ज्ञातरूपः स तदा तपःसिद्धेन धन्विना / अपश्यमानः स द्वारं सर्वतःपिहितो मुनिः / रात्वा शूलं च देवेशः पाणिना समनामयत् // 17 पर्यक्रामरह्यमान इतश्चेतश्च तेजसा // 31 नतेनाथ शूलेन पाणिनामिततेजसा। स विनिष्क्रम्य शिश्नेन शुक्रत्वमभिपेदिवान् / नाकमिति चोवाच शूलमुग्रायुधः प्रभुः // 18 / कार्येण तेन नभसो नागच्छत च मध्यतः // 32 आणिमध्यगतं दृष्ट्वा भार्गवं तमुमापतिः / निष्क्रान्तमथ तं दृष्ट्वा ज्वलन्तमिव तेजसा / - 2367 - Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 278. 33] महाभारते [12. 279.20 भवो रोषसमाविष्टः शूलोद्यतकरः स्थितः // 33 तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः // 6 न्यवारयत तं देवी क्रुद्धं पशुपतिं पतिम् / / प्रतिपद्य नरो धर्म स्वर्गलोके महीयते / पुत्रत्वमगमद्देव्या वारिते शंकरे च सः // 34 धर्मात्मकः कर्मविधिदेहिनां नृपसत्तम / देव्युवाच। तस्मिन्नाश्रमिणः सन्तः स्वकर्माणीह कुर्वते // . हिंसनीयस्त्वया नैष मम पुत्रत्वमागतः / चतुर्विधा हि लोकस्य यात्रा तात विधीयते। . न हि देवोदरात्कश्चिन्निःसृतो नाशमर्छति // 35 मा यत्रावतिष्ठन्ते सा च कामात्प्रवर्तते // 8 भीष्म उवाच / सुकृतासुकृतं कर्म निषेव्य विविधैः क्रमैः। . दशार्धप्रविभक्तानां भूतानां बहुधा गतिः // 9 ततः प्रीतोऽभवदेव्याः प्रहसंश्चेदमब्रवीत् / सौवर्ण राजतं वापि यथा भाडं निषिच्यते / गच्छत्वेष यथाकाममिति राजन्पुनः पुनः / / 36 तथा निषिच्यते जन्तुः पूर्वकर्मवशानुगः // . 10 ततः प्रणम्य वरदं देवं देवीमुमां तथा / नाबीजाज्जायते किंचिन्नाकृत्वा सुखमेधते / उशना प्राप तद्धीमान्गतिमिष्टां महामुनिः // 37 सुकृती विन्दति सुखं प्राप्य देहक्षयं नरः // 11 एतत्ते कथितं तात भार्गवस्य महात्मनः / दैवं तात न पश्यामि नास्ति देवस्य साधनम। चरितं भरतश्रेष्ठ यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 38 स्वभावतो हि संसिद्धा देवगन्धर्वदानवाः // 12. इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रेत्य जातिकृतं कर्म न स्मरन्ति सदा जनाः / अष्टसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 278 // ते वै तस्य फलप्राप्तौ कर्म चापि चतुर्विधम् // 1 // 279 लोकयात्राश्रयश्चैव शब्दो वेदाश्रयः कृतः / युधिष्ठिर उवाच / शान्त्यर्थं मनसस्तात नैतद्वृद्धानुशासनम् // 14 अतः परं महाबाहो यच्छ्रेयस्तद्वदस्व मे / चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम् / न तृप्याम्यमृतस्येव वचसस्ते पितामह // 1 कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते // 15 किं कर्म पुरुषः कृत्वा शुभं पुरुषसत्तम / निरन्तरं च मिश्रं च फलते कर्म पार्थिव / श्रेयः परमवाप्नोति प्रेत्य चेह च तद्वद // 2 कल्याणं यदि वा पापं न तु नाशोऽस्य विद्यते॥१६ भीष्म उवाच / कदाचित्सुकृतं तात कूटस्थमिव तिष्ठति / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा पूर्व महायशाः / मज्जमानस्य संसारे यावदुःखाद्विमुच्यते // 17 पराशरं महात्मानं पप्रच्छ जनको नृपः / / 3 ततो दुःखक्षयं कृत्वा सुकृतं कर्म सेवते / / किं श्रेयः सर्वभूतानामस्मिल्लोके परत्र च / सुकृतक्षयादुष्कृतं च तद्विद्धि मनुजाधिप // 18 यद्भवेत्प्रतिपत्तव्यं तद्भवान्प्रब्रवीतु मे // 4 दमः क्षमा धृतिस्तेजः संतोषः सत्यवादिता। ततः स तपसा युक्तः सर्वधर्मविधानवित् / हीरहिंसाव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः // 19 नृपायानुग्रहमना मुनिर्वाक्यमथाब्रवीत् // 5 दुष्कृते सुकृते वापि न जन्तुरयतो भवेत् / धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च / नित्यं मनःसमाधाने प्रयतेत विचक्षणः // 20 - 2368 - Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 279. 21] शान्तिपर्व [12. 280. 21 [12. नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं वापि सेवते / तस्मात्पापं न सेवेत कर्म दुःखफलोदयम् // 6 करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते // 21 पापानुबन्धं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्। सुखदुःखे समाधाय पुमानन्येन गच्छति / न तत्सेवेत मेधावी शुचिः कुसलिलं यथा // 7 अन्येनैव जनः सर्वः संगतो यश्च पार्थिव // 22 किंकष्टमनुपश्यामि फलं पापस्य कर्मणः / परेषां यदसूयेत न तत्कुर्यात्स्वयं नरः। प्रत्यापन्नस्य हि सतो नात्मा तावद्विरोचते // 8 यो ह्यसूयुस्तथायुक्तः सोऽवहासं नियच्छति / / 23 प्रत्यापत्तिश्च यस्येह बालिशस्य न जायते / भीरू राजन्यो ब्राह्मणः सर्वभक्षो तस्यापि सुमहांस्तापः प्रस्थितस्योपजायते // 9 ___ वैश्योऽनीहावान्हीनवर्णोऽलसश्च / विरक्तं शोध्यते वस्त्रं न तु कृष्णोपसंहितम् / विद्वांश्चाशीलो वृत्तहीनः कुलीनः प्रयत्नेन मनुष्येन्द्र पापमेवं निबोध मे // 10 सत्याग्रष्टो ब्राह्मणः स्त्री च दुष्टा // 24 स्वयं कृत्वा तु यः पापं शुभमेवानुतिष्ठति / रागी मुक्तः पचमानोऽऽत्महेतो प्रायश्चित्तं नरः कर्तुमुभयं सोऽभुते पृथक् // 11 ___o वक्ता नृपहीनं च राष्ट्रम् / अज्ञानात्तु कृतां हिंसामहिंसा व्यपकर्षति / एते सर्वे शोच्यतां यान्ति राज ब्राह्मणाः शास्त्रनिर्देशादित्याहुब्रह्मवादिनः // 12 न्यश्चायुक्तः स्नेहहीनः प्रजासु // 25 तथा कामकृतं चास्य विहिंसैवापकर्षति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इत्याहुर्धर्मशास्त्रज्ञा ब्राह्मणा वेदपारगाः // 13 एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 279 // अहं तु तावत्पश्यामि कर्म यद्वर्तते कृतम् / 280 गुणयुक्तं प्रकाशं च पापेनानुपसंहितम् // 14 पराशर उवाच / यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम् / मनोरथरथं प्राप्य इन्द्रियार्थहयं नरः / बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह // 15 रश्मिभिर्ज्ञानसंभूतैर्यो गच्छति स बुद्धिमान् // 1 भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्बणम् / सेवाश्रितेन मनसा वृत्तिहीनस्य शस्यते / अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुग्रेण कर्मणा // 16 द्विजातिहस्तान्निवृत्ता न तु तुल्यात्परस्परम् // 2 कृतानि यानि कर्माणि दैवतैर्मुनिभिस्तथा / आयुर्नसुलभं लब्ध्वा नावकर्षद्विशां पते / नाचरेत्तानि धर्मात्मा श्रुत्वा चापि न कुत्सयेत् // उत्कर्षार्थं प्रयतते नरः पुण्येन कर्मणा // 3 संचिन्त्य मनसा राजन्विदित्वा शक्तिमात्मनः / वर्णेभ्योऽपि परिभ्रष्टः स वै संमानमर्हति / करोति यः शुभं कर्म स वै भद्राणि पश्यति // 18 न तु यः सत्क्रियां प्राप्य राजसं कर्म सेवते // 4 नवे कपाले सलिलं संन्यस्तं हीयते यथा / वर्णोत्कर्षमवाप्नोति नरः पुण्येन कर्मणा / नवेतरे तथाभावं प्राप्नोति सुखभावितम् // 19 दुर्लभं तमलब्धा हि हन्यात्पापेन कर्मणा // 5 सतोयेऽन्यत्तु यत्तोयं तस्मिन्नेव प्रसिच्यते / अज्ञानाद्धि कृतं पापं तपसैवाभिनिर्णदेत् / वृद्धे वृद्धिमवाप्नोति सलिले सलिलं यथा // 20 पापं हि कर्म फलति पापमेव स्वयं कृतम् / एवं कर्माणि यानीह बुद्धियुक्तानि भूपते / म, भा, 297 -2369 - Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 280. 21] महाभारते [12. 281. 28 नसमानीह हीनानि तानि पुण्यतमान्यपि // 21 ऋणवाञ्जायते मर्त्यस्तस्मादनृणतां व्रजेत् // 9 राज्ञा जेतव्याः सायुधाश्चोन्नताश्च स्वाध्यायेन महर्षिभ्यो देवेभ्यो यज्ञकर्मणा। ___ सम्यकर्तव्यं पालनं च प्रजानाम् / पितृभ्यः श्राद्धदानेन नृणामभ्यर्चनेन च // 10 अग्निश्चयो बहुभिश्चापि यज्ञै वाचः शेषावहार्येण पालनेनात्मनोऽपि च। ... रन्ते मध्ये वा वनमाश्रित्य स्थेयम् // 22 यथावत्यवर्गस्य चिकीर्षेद्धर्ममादितः // 11 दमान्वितः पुरुषो धर्मशीलो प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विवर्जिताः / __ भूतानि चात्मानमिवानुपश्येत् / सम्यग्घुत्वा हुतवहं मुनयः सिद्धिमागताः // 12 गरीयसः पूजयेदात्मशक्त्या विश्वामित्रस्य पुत्रत्वमृचीकतनयोऽगमत् / सत्येन शीलेन सुखं नरेन्द्र // 23 ऋग्भिः स्तुत्वा महाभागो देवान्वै यक्षभागिनः / / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि गतः शुक्रत्वमुशना देवदेवप्रसादनात् / .. अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२८॥ देवी स्तुत्वा तु गगने मोदते तेजसा वृतः // 14 असितो देवलश्चैव तथा नारदपर्वतौ / पराशर उवाच / कक्षीवाञ्जामदग्यश्च रामस्ताण्ड्यस्तथांशुमान् // 15 कः कस्य चोपकुरुते कश्च कस्मै प्रयच्छति। वसिष्ठो जमदग्निश्च विश्वामित्रोऽत्रिरेव च। . प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना // 1 भरद्वाजो हरिश्मश्रुः कुण्डधारः श्रुतश्रवाः // 16 गौरवेण परित्यक्तं निःस्नेहं परिवर्जयेत् / एते महर्षयः स्तुत्वा विष्णुमृग्भिः समाहिताः। सोदयं भ्रातरमपि किमुतान्यं पृथग्जनम् // 2 लेमिरे तपसा सिद्धि प्रसादात्तस्य धीमतः / / 17 विशिष्टस्य विशिष्टाच्च तुल्यौ दानप्रतिग्रहौ / अनश्चिाहतां प्राप्ताः सन्तः स्तुत्वा तमेव ह / तयोः पुण्यतरं दानं तहिजस्य प्रयच्छतः // 3 न तु वृद्धिमिहान्विच्छेत्कर्म कृत्वा जुगुप्सितम्॥ न्यायागतं धनं वर्णैायेनैव विवर्धितम् / येऽर्था धर्मेण ते सत्या येऽधर्मेण धिगस्तु तान् / संरक्ष्यं यत्नमास्थाय धर्मार्थमिति निश्चयः // 4 धर्म वै शाश्वतं लोके न जह्याद्धनकाझ्या // 19 न धर्मार्थी नृशंसेन कर्मणा धनमर्जयेत् / आहिताग्निहि धर्मात्मा यः स पुण्यकृदुत्तमः / शक्तितः सर्वकार्याणि कुर्यान्नर्द्धिमनुस्मरेत् // 5 वेदा हि सर्वे राजेन्द्र स्थितास्त्रिष्वग्निषु प्रभो // 20 अपो हि प्रयतः शीतास्तापिता ज्वलनेन वा / स चाप्यन्याहितो विप्रः क्रिया यस्य न हीयते / शक्तितोऽतिथये दत्त्वा क्षुधार्तायाश्नुते फलम् // 6 श्रेयो ह्यनाहिताग्नित्वमग्निहोत्रं न निष्क्रियम् // 21 रन्तिदेवेन लोकेष्टा सिद्धिः प्राप्ता महात्मना / अग्निरात्मा च माता च पिता जनयिता तथा। फलपत्रैरथो मूलमुनीनर्चितवानसौ // 7 | गुरुश्च नरशार्दूल परिचर्या यथातथम् // 22 तैरेव फलपत्रैश्च स माठरमतोषयत् / मान त्यक्त्वा यो नरो वृद्धसेवी तस्माल्लेभे परं स्थानं शैब्योऽपि पृथिवीपतिः // 8 विद्वान्क्लीबः पश्यति प्रीतियोगात् / देवतातिथिभृत्येभ्यः पितृभ्योऽथात्मनस्तथा। दाक्ष्येणाहीनो धर्मयुक्तो नदान्तो . -2370 - Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 281. 23 ] शान्तिपर्व [ 12. 283. 4 लोकेऽस्मिन्वै पूज्यते सद्भिरायः // 23 सुखेन तासां राजेन्द्र मोदन्ते दिवि देवताः // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तस्माद्यो रक्षति नृपः स धर्मेणामिपूज्यते / एकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 281 // अधीते चापि यो विप्रो वैश्यो यश्चार्जने रतः॥१४ 282 यश्च शुश्रूषते शूद्रः सततं नियतेन्द्रियः / पराशर उवाच / अतोऽन्यथा मनुष्येन्द्र स्वधर्मात्परिहीयते // 15 वृत्तिः सकाशाद्वर्णेभ्यस्त्रिभ्यो हीनस्य शोभना / प्राणसंतापनिर्दिष्टाः काकिण्योऽपि महाफलाः। प्रीत्योपनीता निर्दिष्टा धर्मिष्ठान्कुरुते सदा // 1 न्यायेनोपार्जिता दत्ताः किमुतान्याः सहस्रशः॥१६ वृत्तिश्चेन्नास्ति शूद्रस्य पितृपैतामही ध्रुवा / सत्कृत्य तु द्विजातिभ्यो यो ददाति नराधिप / न वृत्ति परतो मार्गेच्छुश्रूषां तु प्रयोजयेत् // 2 यादृशं तादृशं नित्यमभाति फलमूर्जितम् // 17 सद्भिस्तु सह संसर्गः शोभते धर्मदर्शिभिः / अभिगम्य दत्तं तुष्ट्या तद्धन्यमाहुरभिष्टुतम् / नेत्यं सर्वास्ववस्थासु नासद्भिरिति मे मतिः // 3 याचितेन तु यहत्तं तदाहुर्मध्यमं बुधाः // 18 पथोदयगिरौ द्रव्यं संनिकर्षेण दीप्यते। अवज्ञया दीयते यत्तथैवाश्रद्धयापि च / तथा सत्संनिकर्षेण हीनवर्णोऽपि दीप्यते // 4 तदाहुरधमं दानं मुनयः सत्यवादिनः // 19 पादृशेन हि वर्णेन भाव्यते शुक्लमम्बरम् / अतिक्रमे मजमानो विविधेन नरः सदा / तादृशं कुरुते रूपमेतदेवमवैहि मे // 5 तथा प्रयत्नं कुर्वीत यथा मुच्येत संशयात् // 20 उस्माद्गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कदाचन / दमेन शोभते विप्रः क्षत्रियो विजयेन तु / अनित्यमिह मानां जीवितं हि चलाचलम् // 6 धनेन वैश्यः शूद्रस्तु नित्यं दाक्ष्येण शोभते // 21 मुखे वा यदि वा दुःखे वर्तमानो विचक्षणः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पचिनोति शुभान्येव स भद्राणीह पश्यति // 7 द्वयशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२८२॥ धर्मादपेतं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम् / 283 तत्सेवेत मेधावी न तद्धितमिहोच्यते // 8 पराशर उवाच / गो हत्वा गोसहस्राणि नृपो दद्यादरक्षिता / प्रतिग्रहागता विप्रे क्षत्रिये शस्त्रनिर्जिताः / स शब्दमात्रफलभायाजा भवति तस्करः // 9 वैश्ये न्यायार्जिताश्चैव शूद्रे शुश्रूषयार्जिताः / स्वयंभूरसृजच्चाग्रे धातारं लोकपूजितम् / स्वल्पाप्यर्थाः प्रशस्यन्ते धर्मस्याथै महाफलाः // 1 घातासृजत्पुत्रमेकं प्रजानां धारणे रतम् // 10 नित्यं त्रयाणां वर्णानां शूद्रः शुश्रूषुरुच्यते / उमर्चयित्वा वैश्यस्तु कुर्यादत्यर्थमृद्धिमत् / क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतति द्विजः / रक्षितव्यं तु राजन्यरुपयोज्यं द्विजातिभिः // 11 / शूद्रकर्मा यदा तु स्यात्तदा पतति वै द्विजः // 2 अजिझैरशठक्रोधैर्हव्यकव्यप्रयोक्तृभिः। वाणिज्यं पाशुपाल्यं च तथा शिल्पोपजीवनम् / दैनिर्मार्जनं कार्यमेवं धर्मो न नश्यति // 12 शूद्रस्यापि विधीयन्ते यदा वृत्तिर्न जायते // 3 अप्रनष्टे ततो धर्मे भवन्ति सुखिताः प्रजाः। रङ्गावतरणं चैव तथा रूपोपजीवनम् / -2371 - Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 283. 4] महाभारते [ 12. 284.2 मद्यमांसोपजीव्यं च विक्रयो लोहचर्मणोः // 4 . राजानः क्षत्रियाश्चैव मण्डलेषु पृथक्पृथक् // 1' अपूर्विणा न कर्तव्यं कर्म लोके विगर्हितम् / महाकुलेषु ये जाता वृत्ताः पूर्वतराश्च ये। कृतपूर्विणस्तु त्यजतो महान्धर्म इति श्रुतिः // 5 तेषामथासुरो भावो हृदयान्नापसर्पति // 20 संसिद्धः पुरुषो लोके यदाचरति पापकम् / / तस्मात्तेनैव भावेन सानुषङ्गेन पार्थिवाः / मदेनाभिप्लुतमनास्तच्च नग्राह्यमुच्यते // 6 आसुराण्येव कर्माणि न्यषेवन्भीमविक्रमाः // 21 श्रूयन्ते हि पुराणे वै प्रजा धिग्दण्डशासनाः / प्रत्यतिष्ठंश्च तेष्वेव तान्येव स्थापयन्ति च। दान्ता धर्मप्रधानाश्च न्यायधर्मानुवर्तकाः // 7 भजन्ते तानि चाद्यापि ये बालिशतमा नराः // 22 धर्म एव सदा नृणामिह राजन्प्रशस्यते / / तस्मादहं ब्रवीमि त्वां राजन्संचिन्त्य शास्त्रतः। धर्मवृद्धा गुणानेव सेवन्ते हि नरा भुवि // 8 / संसिद्धाधिगमं कुर्यात्कर्म हिंसात्मकं त्यजेत् // 21 तं धर्ममसुरास्तात नामृष्यन्त जनाधिप / न संकरेण द्रविणं विचिन्वीत विचक्षणः / . . विवर्धमानाः क्रमशस्तत्र तेऽन्वाविशन्प्रजाः // 9 धर्मार्थं न्यायमुत्सृज्य न तत्कल्याणमुच्यते // 24 तेषां दर्पः समभवत्प्रजानां धर्मनाशनः / स त्वमेवंविधो दान्तः क्षत्रियः प्रियबान्धवः / दात्मनां ततः क्रोधः पुनस्तेषामजायत // 10 प्रजा भृत्यांश्च पुत्रांश्च स्वधर्मेणानुपालय // 25 ततः क्रोधाभिभूतानां वृत्तं लज्जासमन्वितम् / इष्टानिष्टसमायोगो वैरं सौहार्दमेव च। . हीश्चैवाप्यनशद्राजंस्ततो मोहो व्यजायत // 11 अथ जातिसहस्राणि बहूनि परिवर्तते // 26 : ततो मोहपरीतास्ते नापश्यन्त यथा पुरा / तस्माद्गुणेषु रज्येथा मा दोषेषु कदाचन / परस्परावमर्दैन वर्तयन्ति यथासुखम् // 12 निर्गुणो यो हि दुर्बुद्धिरात्मनः सोऽरिरुच्यते // 2 // तान्प्राप्य तु स धिग्दण्डो नकारणमतोऽभवत् / मानुषेषु महाराज धर्माधर्मों प्रवर्ततः। ततोऽभ्यगच्छन्देवांश्च ब्राह्मणांश्चावमन्य ह // 13 न तथान्येषु भूतेषु मनुष्यरहितेष्विह // 28 एतस्मिन्नेव काले तु देवा देववरं शिवम् / / धर्मशीलो नरो विद्वानीहकोऽनीहकोऽपि वा। अगच्छशरणं वीरं बहुरूपं गणाधिपम् / / 14 आत्मभूतः सदा लोके चरेद्भूतान्यहिंसयन् // 29 तेन स्म ते गगनगाः सपुराः पातिताः क्षितौ / यदा व्यपेतहल्लेखं मनो भवति तस्य वै / तित्रोऽप्येकेन बाणेन देवाप्यायिततेजसा / / 15 नानृतं चैव भवति तदा कल्याणमृच्छति // 30 तेषामधिपतिस्त्वासीद्भीमो भीमपराक्रमः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि देवतानां भयकरः स हतः शूलपाणिना // 16 त्र्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 283 // तस्मिन्हतेऽथ स्वं भावं प्रत्यपद्यन्त मानवाः / 284 प्रावर्तन्त च वेदा वै शास्त्राणि च यथा पुरा // 17 पराशर उवाच / ततोऽभ्यषिश्चराज्येन देवानां दिवि वासवम्। एष धर्मविधिस्तात गृहस्थस्य प्रकीर्तितः / सप्तर्षयश्चान्वयुञ्जन्नराणां दण्डधारणे // 18 तपोविधिं तु वक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु // 1 सप्तर्षीणामथोवं च विपृथु म पार्थिवः। | प्रायेण हि गृहस्थस्य ममत्वं नाम.जायते / - 2372 - Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 284. 2] शान्तिपर्व [12. 284. 32 %3 सङ्गागतं नरश्रेष्ठ भावैस्तामसराजसैः // 2 संसिद्धास्तपसा तात ये चान्ये स्वर्गवासिनः // 1. गृहाण्याश्रित्य गावश्च क्षेत्राणि च धनानि च / ये चादौ ब्रह्मणा सृष्टा ब्राह्मणास्तपसा पुरा / दाराः पुत्राश्च भृत्याश्च भवन्तीह नरस्य वै // 3 ते भावयन्तः पृथिवीं विचरन्ति दिवं तथा // 18 एवं तस्य प्रवृत्तस्य नित्यमेवानुपश्यतः / मर्त्यलोके च राजानो ये चान्ये गृहमेधिनः / रागद्वेषौ विवर्धते ह्यनित्यत्वमपश्यतः // 4 महाकुलेषु दृश्यन्ते तत्सर्व तपसः फलम् // 19 रागद्वेषाभिभूतं च नरं द्रव्यवशानुगम् / कौशिकानि च वस्त्राणि शुभान्याभरणानि च। मोहजाता रतिर्नाम समुपैति नराधिप / 5 वाहनासनयानानि सर्व तत्तपसः फलम् // 20 कृतार्थो भोगतो भूत्वा स वै रतिपरायणः / / मनोनुकूलाः प्रमदा रूपवत्यः सहस्रशः / लाभं ग्राम्यसुखादन्यं रतितो नानुपश्यति // 6 वासः प्रासादपृष्ठे च तत्सर्वं तपसः फलम् // 21 ततो लोभाभिभूतात्मा सङ्गाद्वर्धयते जनम् / शयनानि च मुख्यानि भोज्यानि विविधानि च / पुष्ट्यर्थ चैव तस्येह जनस्यार्थं चिकीर्षति // 7 अभिप्रेतानि सर्वाणि भवन्ति कृतकर्मणाम् // 22 स जाननपि चाकार्यमर्थार्थ सेवते नरः / नाप्राप्यं तपसा किंचित्रैलोक्येऽस्मिन्परंतप / बालस्नेहपरीतात्मा तत्क्षयाच्चानुतप्यते // 8 उपभोगपरित्यागः फलान्यकृतकर्मणाम् / / 23 ततो मानेन संपन्नो रक्षन्नात्मपराजयम् / सुखितो दुःखितो वापि नरो लोभं परित्यजेत् / करोति येन भोगी स्यामिति तस्माद्विनश्यति // 9 अवेक्ष्य मनसा शास्त्रं बुद्ध्या च नृपसत्तम // 24 तपो हि बुद्धियुक्तानां शाश्वतं ब्रह्मदर्शनम् / असंतोषोऽसुखायैव लोभादिन्द्रियविभ्रमः / अन्विच्छतां शुभं कर्म नराणां त्यजतां सुखम् / / 10 ततोऽस्य नश्यति प्रज्ञा विद्येवाभ्यासवर्जिता // 25 स्नेहायतननाशाच्च धननाशाच्च पार्थिव / नष्टप्रज्ञो यदा भवति तदा न्यायं न पश्यति / आधिव्याधिप्रतापाच्च निर्वेदमुपगच्छति // 11 / / तस्मात्सुखक्षये प्राप्ते पुमानुग्रं तपश्चरेत् // 26 निर्वदादात्मसंबोधः संबोधाच्छास्त्रदर्शनम् / यदिष्टं तत्सुखं प्राहुर्दृष्यं दुःखमिहोच्यते / शास्त्रार्थदर्शनाद्राजस्तप एवानुपश्यति // 12 कृताकृतस्य तपसः फलं पश्यस्व यादृशम् // 27 दुर्लभो हि मनुष्येन्द्र नरः प्रत्यवमर्शवान् / नित्यं भद्राणि पश्यन्ति विषयांश्चोपभुञ्जते / / यो वै प्रियसुखे क्षीणे तपः कर्तुं व्यवस्यति // 13 प्राकाश्यं चैव गच्छन्ति कृत्वा निष्कल्मषं तपः / / तपः सर्वगतं तात हीनस्यापि विधीयते / अप्रियाण्यवमानांश्च दुःखं बहुविधात्मत। जितेन्द्रियस्य दान्तस्य स्वर्गमार्गप्रदेशकम् // 14 / / फलार्थी सत्पथत्यक्तः प्राप्नोति विषयात्मकम् // 29 प्रजापतिः प्रजाः पूर्वमसृजत्तपसा विभुः / धर्मे तपसि दाने च विचिकित्सास्य जायते / कचित्कचिद्रूतपरो व्रतान्यास्थाय पार्थिव // 15 स कृत्वा पापकान्येव निरयं प्रतिपद्यते // 30 आदित्या वसवो रुद्रास्तथैवाग्यश्विमारुताः। सुखे तु वर्तमानो वै दुःखे वापि नरोत्तम / विश्वेदेवास्तथा साध्याः पितरोऽथ मरुद्गणाः / / 16 स्ववृत्ताद्यो न चलति शास्त्रचक्षुः स मानवः // 31 यक्षराक्षसगन्धर्वाः सिद्धाश्चान्ये दिवौकसः। / इषुप्रपातमात्रं हि स्पर्शयोगे रतिः स्मृता / - 2373 - Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 284_32] . महाभारते [ 12. 285. 19 रसने दर्शने घ्राणे श्रवणे च विशां पते // 32 मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः / ततोऽस्य जायते तीव्रा वेदना तत्क्षयात्पुनः / ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः // 6 बुधा येन प्रशंसन्ति मोक्षं सुखमनुत्तमम् // 33 चतुर्णामेव वर्णानामागमः पुरुषर्षभ / ततः फलार्थ चरति भवन्ति ज्यायसो गुणाः / अतोऽन्ये त्वतिरिक्ता ये ते वै संकरजाः स्मृताः // 7 धर्मवृत्त्या च सततं कामार्थाभ्यां न हीयते // 34 क्षत्रजातिरथाम्बष्ठा उग्रा वैदेहकास्तथा / अप्रयत्नागताः सेव्या गृहस्थैर्विषयाः सदा / श्वपाकाः पुल्कसाः स्तेना निषादाः सूतमागधाः॥८ . प्रयत्नेनोपगम्यश्च स्वधर्म इति मे मतिः // 35 / आयोगाः करणा व्रात्याश्चण्डालाश्च नराधिप / मानिनां कुलजातानां नित्यं शास्त्रार्थचक्षुषाम् / एते चतुर्यो वर्णेभ्यो जायन्ते वै परस्परम // 9 धर्मक्रियावियुक्तानामशक्त्या संवृतात्मनाम् // 36 जनक उवाच / क्रियमाणं यदा कर्म नाशं गच्छति मानुषम् / / ब्रह्मणैकेन जातानां नानात्वं गोत्रतः कथम् / तेषां नान्यदृते लोके तपसः कर्म विद्यते // 37 / बहूनीह हि लोके वै गोत्राणि मुनिसत्तम // 10 सर्वात्मना तु कुर्वीत गृहस्थः कर्मनिश्चयम् / यत्र तत्र कथं जाताः स्वयोनि मुनयो गताः / दाक्ष्येण हव्यकव्याथ स्वधर्म विचरेन्नृप // 38 / शूद्रयोनौ समुत्पन्ना वियोनौ च तथापरे // 11 यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् / पराशर उवाच / एंवमाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् // 39 राजन्नतद्भवेद्बाह्यमपकृष्टेन जन्मना। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम् // 12 चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 284 // उत्पाद्य पुत्रान्मुनयो नृपते यत्र तत्र ह / 285 स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः // 13 जनक उवाच / पितामहश्च मे पूर्वमृश्यशृङ्गश्च काश्यपः / वर्णो विशेषवर्णानां महर्षे केन जायते / वटस्ताण्ड्यः कृपश्चैव कक्षीवान्कमठादयः // 14 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तद्रूहि वदतां वर // 1 यवक्रीतश्च नृपते द्रोणश्च वदतां वरः / यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः / आयर्मतङ्गो दत्तश्च द्रुपदो मत्स्य एव च // 15 कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः // 2 एते स्वां प्रकृति प्राप्ता वैदेह तपसोऽऽश्रयात् / पराशर उवाच / प्रतिष्ठिता वेदविदो दमे तपसि चैव हि // 16 एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः। मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव / ' तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः // 3 अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च // 17 सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः / कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव / अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते // 4 नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम् // 18 वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। जनक उवाच / सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥ 5 / विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम / -2374 - Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 285. 19 ] शान्तिपर्व [12. 286. 1 तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि // 19 / संदेहो मे समुत्पन्नस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 31 पराशर उवाच / पराशर उवाच / प्रतिग्रहो याजनं च तथैवाध्यापनं नृप / असंशयं महाराज उभयं दोषकारकम् / विशेषधर्मो विप्राणां रक्षा क्षत्रस्य शोभना / / 20 कर्म चैव हि जातिश्च विशेषं तु निशामय // 32 कृषिश्च पाशुपाल्यं च वाणिज्यं च विशामपि / जात्या च कर्मणा चैव दुष्टं कर्म निषेवते / द्विजानां परिचर्या च शूद्रकर्म नराधिप // 21 जात्या दुष्टश्च यः पापं न करोति स पूरुषः // 33 विशेषधर्मा नृपते वर्णानां परिकीर्तिताः। . जात्या प्रधानं पुरुषं कुर्वाणं कर्म धिकृतम् / धर्मान्साधारणांस्तात विस्तरेण शृणुष्व मे // 22 / कर्म तझ्षयत्येनं तस्मात्कर्म नशोभनम् // 34 आनृशंस्यमहिंसा चाप्रमादः संविभागिता। जनक उवाच / श्राद्धकर्मातिथेयं च सत्यमक्रोध एव च // 23 कानि कर्माणि धाणि लोकेऽस्मिन्द्विजसत्तम / स्वेषु दारेषु संतोषः शौचं नित्यानसूयता। न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा // 35 आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप // 24 पराशर उवाच / ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातयः। शृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि / अत्र तेषामधीकारो धर्मेषु द्विपदां वर // 25 यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा // 36 विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ति नृपते त्रयः / संन्यस्याग्नीनुपासीनाः पश्यन्ति विगतज्वराः / उन्नमन्ति यथासन्तमाश्रित्येह स्वकर्मसु // 26 नैःश्रेयसं धर्मपथं समारुह्य यथाक्रमम् // 37 न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो प्रश्रिता विनयोपेता दमनित्याः सुसंशिताः / न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा / प्रयान्ति स्थानमजरं सर्वकर्मविवर्जिताः // 38 श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते सर्वे वर्णा धर्मकार्याणि सम्यन'चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम् // 27 कृत्वा राजन्सत्यवाक्यानि चोक्त्वा / वैदेहकं शूद्रमुदाहरन्ति त्यक्त्वाधर्म दारुणं जीवलोके ___द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः / यान्ति स्वर्ग नात्र कार्यो विचारः // 39 अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विश्वस्य विष्णुं जगतः प्रधानम् // 28 पञ्चाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 285 // सतां वृत्तमनुष्ठाय निहीना उज्जिहीर्षवः / मनवजं न दुष्यन्ति कुर्वाणाः पौष्टिकीः क्रियाः // पराशर उवाच / यथा यथा हि सद्वृत्तमालम्बन्तीतरे जनाः / पिता सखायो गुरवः स्त्रियश्च तथा तथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च शेरते // 30 ____न निर्गुणा नाम भवन्ति लोके / जनक उवाच / अनन्यभक्ताः प्रियवादिनश्च किं कर्म दूषयत्येनमथ जातिर्महामुने / हिताश्च वश्याश्च तथैव राजन् // 1 -- 2375 - 286 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 286. 2] महाभारते [12. 286. 27 पिता परं दैवतं मानवानां सिरास्नायवस्थिसंघातं बीभत्सामेध्यसंकुलम् / मातुर्विशिष्टं पितरं वदन्ति भूतानामिन्द्रियाणां च गुणानां च समागमम् // 14 ज्ञानस्य लाभं परमं वदन्ति त्वगन्तं देहमित्याहुर्विद्वांसोऽध्यात्मचिन्तकाः / जितेन्द्रियार्थाः परमाप्नुवन्ति // 2 गुणैरपि परिक्षीणं शरीरं मर्त्यतां गतम् // 15 .. रणाजिरे यत्र शराग्निसंस्तरे शरीरिणा परित्यक्तं निश्चेष्टं गतचेतनम् / ___ नृपात्मजो घातमवाप्य दह्यते / भूतैः प्रकृतिमापन्नैस्ततो भूमौ निमज्जति // 16 प्रयाति लोकानमरैः सुदुर्लभा भावितं कर्मयोगेन जायते तत्र तत्र ह। निषेवते स्वर्गफलं यथासुखम् // 3 इदं शरीरं वैदेह म्रियते यत्र तत्र ह / श्रान्तं भीतं भ्रष्टशस्त्रं रुदन्तं तत्स्वभावोऽपरो दृष्टो विसर्गः कर्मणस्तथा // 17 ___ पराङ्मुखं परिबर्दैश्च हीनम् / न जायते तु नृपते कंचित्कालमयं पुनः / / / अनुद्यतं रोगिणं याचमानं परिभ्रमति भूतात्मा द्यामिवाम्बुधरो महान् // 18 __ न वै हिंस्याद्वालवृद्धौ च राजन् // 4 स पुनर्जायते राजन्प्राप्येहायतनं नृप / परिबहैंः सुसंपन्नमुद्यतं तुल्यतां गतम् / मनसः परमो ह्यात्मा इन्द्रियेभ्यः परं मनः // 19 अतिक्रमेत नृपतिः संग्रामे क्षत्रियात्मजम् / / 5 द्विविधानां च भूतानां जङ्गमाः परमा नृप।' तुल्यादिह वधः श्रेयान्विशिष्टाञ्चेति निश्चयः / जङ्गमानामपि तथा द्विपदाः परमा मताः। : निहीनात्कातराच्चैव नृपाणां गर्हितो वधः // 6 द्विपदानामपि तथा द्विजा वै परमा स्मृताः // 20 पापात्पापसमाचारान्निहीनाञ्च नराधिप / द्विजानामपि राजेन्द्र प्रज्ञावन्तः परा मताः / पाप एव वधः प्रोक्तो नरकायेति निश्चयः // 7 प्राज्ञानामात्मसंबुद्धाः संबुद्धानाममानिनः // 21 न कश्चित्राति वै राजन्दिष्टान्तवशमागतम् / जातमन्वेति मरणं नृणामिति विनिश्चयः। सावशेषायुषं चापि कश्चिदेवापकर्षति / / 8 अन्तवन्ति हि कर्माणि सेवन्ते गुणतः प्रजाः // 22 स्निग्धैश्च क्रियमाणानि कर्माणीह निवर्तयेत् / आपन्ने तूत्तरां काष्ठां सूर्ये यो निधनं व्रजेत् / हिंसात्मकानि कर्माणि नायुरिच्छेत्परायुषा / / 9 नक्षत्रे च मुहूर्ते च पुण्ये राजन्स पुण्यकृत् // 23 गृहस्थानां तु सर्वेषां विनाशमभिकाङ्ताम् / अयोजयित्वा क्लेशेन जनं प्लाव्य च दुष्कृतम् / निधनं शोभनं तात पुलिनेषु क्रियावताम् / / 10 मृत्युनाप्राकृतेनेह कर्म कृत्यात्मशक्तितः // 24 आयुषि क्षयमापन्ने पञ्चत्वमुपगच्छति / विषमुद्वन्धनं दाहो दस्युहस्तात्तथा वधः / नाकारणात्तद्भवति कारणैरुपपादितम् / / 11 दंष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च प्राकृतो वध उच्यते // 25 तथा शरीरं भवति देहायेनोपपादितम् / न चैभिः पुण्यकर्माणो युज्यन्ते नाभिसंधिजैः / अध्वानं गतकश्चायं प्राप्तश्चायं गृहाद्गृहम् // 12 एवंविधैश्च बहुभिरपरैः प्राकृतैरपि // 26 द्वितीयं कारणं तत्र नान्यत्किंचन विद्यते।। ऊर्ध्वं हित्वा प्रतिष्ठन्ते प्राणाः पुण्यकृतां नृप / तदेहं देहिनां युक्तं मोक्षभूतेषु वर्तते // 13 मध्यतो मध्यपुण्यानामधो दुष्कृतकर्मणाम् // 2 - 2376 - Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 286. 28 ] शान्तिपर्व [12. 287.7 एकः शत्रुन द्वितीयोऽस्ति शत्रु यानेन वै प्रापणं च श्मशाने रज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् / शौचेन नूनं विधिना चैव दाहः // 38 येनावृतः कुरुते संप्रयुक्तो इष्टिः पुष्टिर्यजनं याजनं च घोराणि कर्माणि सुदारुणानि // 28 दानं पुण्यानां कर्मणां च प्रयोगः / प्रबोधनार्थं श्रुतिधर्मयुक्तं शक्त्या पित्र्यं यच्च किंचित्प्रशस्तं वृद्धानुपास्यं च भवेत यस्य सर्वाण्यात्मार्थे मानवो यः करोति // 39 प्रयत्नसाध्यो हि स राजपुत्र धर्मशास्त्राणि वेदाश्च षडङ्गानि नराधिप / प्रज्ञाशरेणोन्मथितः परैति // 29 श्रेयसोऽर्थे विधीयन्ते नरस्याक्लिष्टकर्मणः // 40 अधीत्य वेदांस्तपसा ब्रह्मचारी भीष्म उवाच / यज्ञाशक्त्या संनिसृज्येह पश्च / एतद्वै सर्वमाख्यातं मुनिना सुमहात्मना / वनं गच्छेत्पुरुषो धर्मकामः विदेहराजाय पुरा श्रेयसोऽर्थे नराधिप / 41 श्रेयश्चित्वा स्थापयित्वा स्ववंशम् // 30 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि उपभोगैरपि त्यक्तं नात्मानमवसादयेत् / षडशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 286 // चण्डालत्वेऽपि मानुष्यं सर्वथा तात दुर्लभम् // 31 287 इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते / भीष्म उवाच / आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभिः शुभलक्षणैः // 32 कथं न विप्रणश्येम योनितोऽस्या इति प्रभो। पुनरेव तु पप्रच्छ जनको मिथिलाधिपः / कुर्वन्ति धर्म मनुजाः श्रुतिप्रामाण्यदर्शनात् // 33 पराशरं महात्मानं धर्मे परमनिश्चयम् // 1 यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुष्यमिह वै नरः। किं श्रेयः का गतिब्रह्मन्किं कृतं न विनश्यति / धर्मावमन्ता कामात्मा भवेत्स खलु वश्चयते // 34 क गतो न निवर्तेत तन्मे ब्रूहि महामुने // 2 यस्तु प्रीतिपुरोगेण चक्षुषा तात पश्यति / पराशर उवाच / दीपोपमानि भूतानि यावदचिर्न नश्यति // 35 असङ्गः श्रेयसो मूलं ज्ञानं ज्ञानगतिः पुरा। सान्त्वेनानुप्रदानेन प्रियवादेन चाप्युत / चीणं तपो न प्रणश्येद्वापः क्षेत्रे न नश्यति // 3 समदुःखसुखो भूत्वा स परत्र महीयते // 36 छित्त्वाधर्ममयं पाशं यदा धर्मेऽभिरज्यते / दानं त्यागः शोभना मूर्तिरद्भयो दत्त्वाभयकृतं दानं तदा सिद्धिमवाप्नुयात् // 4 भूयः प्लाव्यं तपसा वै शरीरम् / यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च / सरस्वतीनैमिषपुष्करेषु अभयं सर्वभूतेभ्यस्तहानमतिवर्तते // 5 __ ये चाप्यन्ये पुण्यदेशाः पृथिव्याम् // 37 वसन्विषयमध्येऽपि न वसत्येव बुद्धिमान् / गृहेषु येषामसवः पतन्ति संवसत्येव दुर्बुद्धिरसत्सु विषयेष्वपि // 6 तेषामथो निहरणं प्रशस्तम् / नाधर्मः श्लिष्यते प्राज्ञमापः पुष्करपर्णवत् / म. भा. 298 -2377 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 287.7] महाभारते [12. 287. 38 अप्राज्ञमधिकं पापं श्लिष्यते जतु काष्ठवत् // 7 यथान्धः स्वगृहे युक्तो ह्यभ्यासादेव गच्छति / नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति / तथा युक्तेन मनसा प्राज्ञो गच्छति तां गतिम् // कर्ता खलु यथाकालं तत्सर्वमभिपद्यते / मरणं जन्मनि प्रोक्तं जन्म वै मरणाश्रितम् / न भिद्यन्ते कृतात्मान आत्मप्रत्ययदर्शिनः // 8 अविद्वान्मोक्षधर्मेषु बद्धो भ्रमति चक्रवत् // 19 बुद्धिकर्मेन्द्रियाणां हि प्रमत्तो यो न बुध्यते / यथा मृणालोऽनुगतमाशु मुश्चति कर्दमम् / . शुभाशुभेषु सक्तात्मा प्राप्नोति सुमहद्भयम् // 9 तथात्मा पुरुषस्येह मनसा परिमुच्यते / वीतरागो जितक्रोधः सम्यग्भवति यः सदा / मनः प्रणयतेऽऽत्मानं स एनमभियुञ्जति // 20 विषये वर्तमानोऽपि न स पापेन युज्यते // 10 परार्थे वर्तमानस्तु स्वकार्य योऽभिमन्यते / मर्यादायां धर्मसेतुर्निबद्धो नैव सीदति / इन्द्रियार्थेषु सक्तः सन्स्वकार्यात्परिहीयते // 21 पुष्टस्रोत इवायत्तः स्फीतो भवति संचयः॥ 11 अधस्तिर्यग्गतिं चैव स्वर्गे चैव परां गतिम् / यथा भानुगतं तेजो मणिः शुद्धः समाधिना / प्राप्नोति स्वकृतैरात्मा प्राज्ञस्येहेतरस्य च // 22 आदत्ते राजशार्दूल तथा योगः प्रवर्तते // 12 मृन्मये भाजने पके यथा वै न्यस्यते द्रवः। . यथा तिलानामिह पुष्पसंश्रया तथा शरीरं तपसा तप्तं विषयमश्नुते // 23 त्पृथक्पृथग्याति गुणोऽतिसौम्यताम् / विषयानभुते यस्तु न स भोक्ष्यत्यसंशयम् / तथा नराणां भुवि भावितात्मनां यस्तु भोगांस्त्यजेदात्मा स वै भोक्तुं व्यवस्यति // यथाश्रयं सत्त्वगुणः प्रवर्तते // 13 नीहारेण हि संवीतः शिनोदरपरायणः।। जहाति दारानिहते न संपदः जात्यन्ध इव पन्थानमावृतात्मा न बुध्यते // 25 सदश्वयानं विविधाश्च याः क्रियाः / वणिग्यथा समुद्राद्वै यथार्थ लभते धनम् / त्रिविष्टपे जातमतिर्यदा नर तथा मार्णवे जन्तोः कर्मविज्ञानतो गतिम् // 2 // स्तदास्य बुद्धिर्विषयेषु भिद्यते // 14 अहोरात्रमये लोके जरारूपेण संचरन् / / प्रसक्तबुद्धिर्विषयेषु यो नरो मृत्युर्मसति भूतानि पवनं पन्नगो यथा // 27 यो बुध्यते ह्यात्महितं कदाचन / स्वयं कृतानि कर्माणि जातो जन्तुः प्रपद्यते / स सर्वभावानुगतेन चेतसा नाकृतं लभते कश्चित्किचिदत्र प्रियाप्रियम् // 2 नृपामिषेणेव झषो विकृष्यते // 15 शयानं यान्तमासीनं प्रवृत्तं विषयेषु च / संघातवान्मर्त्यलोकः परस्परमपाश्रितः / शुभाशुभानि कर्माणि प्रपद्यन्ते नरं सदा // 29 कदलीगर्भनिःसारो नौरिवाप्सु निमज्जति / / 16 न ह्यन्यत्तीरमासाद्य पुनस्ततुं व्यवस्यति / न धर्मकालः पुरुषस्य निश्चितो दुर्लभो दृश्यते ह्यस्य विनिपातो महार्णवे // 30 न चापि मृत्युः पुरुषं प्रतीक्षते / यथा भारावसक्ता हि नौमहाम्भसि तन्तुना। क्रिया हि धर्मस्य सदैव शोभना तथा मनोऽभियोगाद्वै शरीरं प्रतिकर्षति / / 31 यदा नरो मृत्युमुखेऽभिवर्तते // 17 यथा समुद्रमभितः संस्यूताः सरितोऽपराः / -2378 - Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 287. 32] शान्तिपर्व [12. 288.7 तथाद्या प्रकृतिर्योगादभिसंस्यूयते सदा // 32 शुभाशुभेनात्मकृतेन कर्मणा // 44 स्नेहपाशैर्बहुविधैरासक्तमनसो नराः / भीष्म उवाच / प्रकृतिस्था विषीदन्ति जले सैकतवेश्मवत् / / 33 इत्युक्तो जनको राजन्यथातथ्यं मनीषिणा। शरीरगृहसंस्थस्य शौचतीर्थस्य देहिनः / श्रुत्वा धर्मविदां श्रेष्ठः परां मुदमवाप ह // 45 बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च // 34 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि विस्तराः केशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः। सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 287 / / परार्थ विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः // 35 288 संकल्पजो मित्रवर्गो ज्ञातयः कारणात्मकाः / युधिष्ठिर उवाच / भार्या दासाश्च पुत्राश्च स्वमर्थमनुयुञ्जते // 36 सत्यं क्षमा दमं प्रज्ञा प्रशंसन्ति पितामह / न माता न पिता किंचित्कस्यचित्प्रतिपद्यते / विद्वांसो मनुजा लोके कथमेतन्मतं तव // 1 दानपथ्योदनो जन्तुः स्वकर्मफलमभुते // 30 भीष्म उवाच / माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या मित्रजनस्तथा / अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / अष्टापदपदस्थाने त्वक्षमुद्रेव न्यस्यते // 38 साध्यानामिह संवाद हंसस्य च युधिष्ठिर // 2 सर्वाणि कर्माणि पुरा कृतानि हंसो भूत्वाथ सौवर्णस्त्वजो नित्यः प्रजापतिः / शुभाशुभान्यात्मनो यान्ति जन्तोः / स वै पर्येति लोकांनीनथ साध्यानुपागमत् // 3 उपस्थितं कर्मफलं विदित्वा बुद्धिं तथा चोदयतेऽन्तरात्मा / / 39 साध्या ऊचुः। व्यवसायं समाश्रित्य सहायान्योऽधिगच्छति / शकुने वयं स्म देवा वै साध्यास्त्वामनुयुज्महे / न तस्य कश्चिदारम्भः कदाचिदवसीदति // 40 पृच्छामस्त्वां मोक्षधर्म भवांश्च किल मोक्षवित् // 4 अद्वैधमनसं युक्तं शूरं धीरं विपश्चितम् / श्रुतोऽसि नः पण्डितो धीरवादी न श्रीः संत्यजते नित्यमादित्यमिव रश्मयः // 41 ___ साधुशब्दः पतते ते पतत्रिन् / आस्तिक्यव्यवसायाभ्यामुपायाद्विस्मयाद्धिया। किं मन्यसे श्रेष्ठतमं द्विज त्वं यमारभत्यनिन्द्यात्मा न सोऽर्थः परिसीदति // 42 ___ कस्मिन्मनस्ते रमते महात्मन् // 5 सर्वः स्वानि शुभाशुभानि नियतं कर्माणि जन्तुः स्वयं तन्नः कार्य पक्षिवर प्रशाधि गर्भात्संप्रतिपद्यते तदुभयं यत्तेन पूर्वं कृतम् / / ___ यत्कार्याणां मन्यसे श्रेष्ठमेकम् / मृत्युश्चापरिहारवान्समगतिः कालेन विच्छेदिता यत्कृत्वा वै पुरुषः सर्वबन्धैदारोश्चर्णमिवाश्मसारविहितं कर्मान्तिक प्रापयेत् // विमुच्यते विहगेन्द्रेह शीघ्रम् // 6 स्वरूपतामात्मकृतं च विस्तरं ___हंस उवाच / कुलान्वयं द्रव्यसमृद्धिसंचयम् / इदं कार्यममृताशाः शृणोमि नरो हि सर्वो लभते यथाकृतं ___ तपो दमः सत्यमात्माभिगुप्तिः / - 2379 - Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 288.7] महाभारते [12. 288. 25 ग्रन्थीन्विमुच्य हृदयस्य सर्वा अमानुषान्मानुषो वै विशिष्टप्रियाप्रिये स्वं वशमानयीत // 7 स्तथाज्ञानाज्ज्ञानवान्दै प्रधानः // 15 नारंतुदः स्यान्न नृशंसवादी आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः / न हीनतः परमभ्याददीत / आक्रोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति // 1 // ययास्य वाचा पर उद्विजेत यो नात्युक्तः प्राह रूक्षं प्रियं वा न तां वद्रुशती पापलोक्याम् // 8 ___ यो वा हतो न प्रतिहन्ति धैर्यात् / वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति पापं च यो नेच्छति तस्य हन्तुयैराहतः शोचति रात्र्यहानि / स्तस्मै देवाः स्पृह्यन्ते सदैव // 17 परस्य नामर्मसु ते पतन्ति पापीयसः क्षमेतैव श्रेयसः सदृशस्य च। तान्पण्डितो नावसजेत्परेषु // 9 विमानितो हतोऽऽक्रुष्ट एवं सिद्धिं गमिष्यति // 18 परश्चेदेनमतिवादबाणै सदाहमार्यान्निभृतोऽप्युपासे भृशं विध्येच्छम एवेह कार्यः / न मे विवित्सा न च मेऽस्ति रोषः / संरोष्यमाणः प्रतिमृष्यते यः न चाप्यहं लिप्समानः परैमि __स आदत्ते सुकृतं वै परस्य // 10 ____ न चैव किंचिद्विषमेण यामि / / 19 क्षेपाभिमानादभिषङ्गव्यलीकं नाहं शप्तः प्रतिशपामि किंचिनिगृह्णाति ज्वलितं यश्च मन्युम् / हमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि। अदुष्टचेता मुदितोऽनसूयुः गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि स आदत्ते सुकृतं वै परेषाम् // 11 न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् // 20 आक्रुश्यमानो न वदामि किंचि विमुच्यमानः पापेभ्यो घनेभ्य इव चन्द्रमाः। रक्षमाम्ययं ताड्यमानश्च नित्यम् / विरजाः कालमाकाङ्कन्धीरो धैर्येण सिध्यति // 21 श्रेष्ठं ह्येतत्क्षममप्याहुराः यः सर्वेषां भवति ह्यर्चनीय सत्यं तथैवार्जवमानृशंस्यम् // 12 उत्सेचने स्तम्भ इवाभिजातः / वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः / यस्मै वाचं सुप्रशस्तां वदन्ति दमस्योपनिषन्मोक्ष एतत्सर्वानुशासनम् // 13 स वै देवान्गच्छति संयतात्मा // 22 वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं न तथा वक्तुमिच्छन्ति कल्याणान्पुरुषे गुणान् / विवित्सावेगमुदरोपस्थवेगम्। यथैषां वक्तुमिच्छन्ति नैर्गुण्यमनुयुञ्जकाः // 23 एतान्वेगान्यो विषहत्युदीर्णा यस्य वाङ्मनसी गुप्ते सम्यक्प्रणिहिते सदा। स्तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनि च // 14 / वेदास्तपश्च त्यागश्च स इदं सर्वमाप्नुयात् // 24 अक्रोधनः क्रुध्यतां वै विशिष्ट आक्रोशनावमानाभ्यामबुधाद्वर्धते बुधः / स्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः / तस्मान्न वर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत् / / 25 -2380 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 288. 26 ] शान्तिपर्व [12. 288. 43 अमृतस्येव संतृप्येदवमानस्य वै द्विजः। अपेतदोषानिति तान्विदित्वा सुखं ह्यवमतः शेते योऽवमन्ता स नश्यति // 26 / दूराद्देवाः संपरिवर्जयन्ति // 36 यत्क्रोधनो यजते यद्ददाति न वै देवा हीनसत्त्वेन तोष्याः तद्वा तपस्तप्यति यज्जुहोति / सर्वाशिना दुष्कृतकर्मणा वा। वैवस्वतस्तद्धरतेऽस्य सर्व सत्यव्रता ये तु नराः कृतज्ञा मोघः श्रमो भवति क्रोधनस्य // 27 धर्मे रतास्तैः सह संभजन्ते // 37 चत्वारि यस्य द्वाराणि सुगुप्तान्यमरोत्तमाः। अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः उपस्थमुदरं हस्तौ वाक्चतुर्थी स धर्मवित् / / 28 सत्यं वदेव्याहृतं तहितीयम् / सत्यं दम ह्यार्जवमानृशंस्यं / धर्म वदेव्याहृतं तत्तृतीयं धृति तितिक्षामभिसेवमानः / प्रियं वदेव्याहृतं तच्चतुर्थम् // 38 स्वाध्यायनित्योऽस्पृहयन्परेषा साध्या ऊचुः। मेकान्तशील्यूर्ध्वगतिर्भवेत्सः // 29 केनायमावृतो लोकः केन वा न प्रकाशते / सर्वानेताननुचरन्वत्सवञ्चतुरः स्तनान् / / केन त्यजति मित्राणि केन स्वगं न गच्छति // 39 न पावनतमं किंचित्सत्यादध्यगमं कचित् // 30 हंस उवाच / आचक्षेऽहं मनुष्येभ्यो देवेभ्यः प्रतिसंचरन् / अज्ञानेवावृतो लोको मात्सर्यान्न प्रकाशते / सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव // 31 लोभात्त्यजति मित्राणि सङ्गात्स्वर्ग न गच्छति // यादृशैः संनिवसति यादृशांश्चोपसेवते / साध्या ऊचुः। पादगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरुषः // 32 कः स्विदेको रमते ब्राह्मणानां यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं . तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव / कः स्विदेको बहुभिर्जोषमास्ते / वासो यथा रङ्गवशं प्रयाति कः स्विदेको बलवान्दुर्बलोऽपि तथा स तेषां वशमभ्युपैति // 33 कः विदेषां कलहं नान्ववैति // 41 सदा देवाः साधुभिः संवदन्ते हंस उवाच। न मानुषं विषयं यान्ति द्रष्टुम् / प्राज्ञ एको रमते ब्राह्मणानां नेन्दुः समः स्यादसमो हि वायु प्राज्ञ एको बहुभिर्बोषमास्ते / - रुच्चावचं विषयं यः स वेद // 34 प्राज्ञ एको बलवान्दुर्बलोऽपि अदुष्टं वर्तमाने तु हृदयान्तरपूरुषे / प्राज्ञ एषां कलहं नान्ववैति // 42 तेनैव देवाः प्रीयन्ते सतां मार्गस्थितेन वै // 35 साध्या ऊचुः / शिश्नोदरे येऽभिरताः सदैव किं ब्राह्मणानां देवत्वं किं च साधुत्वमुच्यते / स्तेना नरा वाक्परुषाश्च नित्यम् / असाधुत्वं च किं तेषां किमेषां मानुषं मतम्॥ 43 - 2381 - Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 288. 44 ] महाभारते [12. 289. 23 हंस उवाच / युधिष्ठिर उवाच / स्वाध्याय एषां देवत्वं व्रतं साधुत्वमुच्यते / यदि तुल्यं व्रतं शौचं दया चात्र पितामह / असाधुत्वं परीवादो मृत्युर्मानुषमुच्यते // 44 | तुल्यं न दर्शनं कस्मात्तन्मे ब्रूहि पितामह // 10 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच / संवाद इत्ययं श्रेष्ठः साध्यानां परिकीर्तितः / रागं मोहं तथा स्नेहं कामं क्रोधं च केवलम् / क्षेत्रं वै कर्मणां योनिः सद्भावः सत्यमुच्यते / / 45 योगाच्छित्त्वादितो दोषान्पश्चैतान्प्राप्नुवन्ति तत् // यथा चानिमिषाः स्थूला जालं छित्त्वा पुनर्जलम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भष्टाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 288 // प्राप्नुवन्ति तथा योगास्तत्पदं वीतकल्मषाः // 12 289 तथैव वागुरां छित्त्वा बलवन्तो यथा मृगाः। प्राप्नुयुर्विमलं मार्ग विमुक्ताः सर्वबन्धनैः // 13 युधिष्ठिर उवाच / लोभजानि तथा राजन्बन्धनानि बलान्विताः / सांख्ये योगे च मे तात विशेषं वक्तुमर्हसि / छित्त्वा योगाः परं मागं गच्छन्ति विमलाः शिवम्॥ तव सर्वज्ञ सर्व हि विदितं कुरुसत्तम / / 1 अबलाश्च मृगा राजन्वागुरासु तथापरे। भीष्म उवाच। विनश्यन्ति न संदेहस्तद्वद्योगबलाहते // 15 सांख्याः सांख्यं प्रशंसन्ति योगा योगं द्विजातयः / बलहीनाश्च कौन्तेय यथा जालगता झषाः / वदन्ति कारणैः श्रेष्ठयं स्वपक्षोद्भावनाय वै // 2 अन्तं गच्छन्ति राजेन्द्र तथा योगाः सुदुर्बलाः // अनीश्वरः कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्शन। यथा च शकुनाः सूक्ष्माः प्राप्य जालमरिंदम / वदन्ति कारणैः श्रेष्ठयं योगाः सम्यङ्मनीषिणः।। 3 तत्र सक्ता विपद्यन्ते मुच्यन्ते च बलान्विताः // 17 वदन्ति कारणं चेदं सांख्याः सम्यग्विजातयः / कर्मजैर्बन्धनैर्बद्वास्तद्वद्योगाः परंतप / विज्ञायेह गतीः सर्वा विरक्तो विषयेषु यः // 4 अबला वै विनश्यन्ति मुच्यन्ते च बलान्विताः / / ऊर्ध्वं स देहात्सुव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा / अल्पकश्च यथा राजन्वह्निः शाम्यति दुर्बलः / एतदाहुमहाप्राज्ञाः सांख्यं वै मोक्षदर्शनम् / 5 आक्रान्त इन्धनैः स्थूलैस्तद्वद्योगोऽबलः प्रभो // 19 स्वपक्षे कारणं ग्राह्यं समर्थं वचनं हितम् / स एव च यदा राजन्वह्निर्जातबलः पुनः / शिष्टानां हि मतं ग्राह्यं त्वद्विधैः शिष्टसंमतैः // 6 समीरणयुतः कृत्स्ना दहेक्षिप्रं महीमपि // 20 प्रत्यक्षहेतवो योगाः सांख्याः शास्त्रविनिश्चयाः / तद्वज्जातबलो योगी दीप्ततेजा महाबलः / उभे चैते मते तत्त्वे मम तात युधिष्ठिर // 7 अन्तकाल इवादित्यः कृत्स्नं संशोषयेज्जगत् // 21 उभे चैते मते ज्ञाने नृपते शिष्टसंमते / दुर्बलश्च यथा राजन्स्रोतसा ह्रियते नरः / अनुष्ठिते यथाशास्त्रं नयेतां परमां गतिम् // 8 बलहीनस्तथा योगो विषयैर्व्हियतेऽवशः // 22 तुल्यं शौचं तयोर्युक्तं दया भूतेषु चानघ। तदेव च यथा स्रोतो विष्टम्भयति वारणः / व्रतानां धारणं तुल्यं दशनं न समं तयोः // 9 / तद्वद्योगबलं लब्ध्वा व्यूहते विषयान्बहून् // 23 -2382 - Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 289. 24 ] शान्तिपर्व [12. 289. 52 विशन्ति चावशाः पार्थ योगा योगबलान्विताः। / नाभ्यां कण्ठे च शीर्षे च हृदि वक्षसि पार्श्वयोः / प्रजापतीनृषीन्देवान्महाभूतानि चेश्वराः // 24 दर्शने स्पर्शने चापि घ्राणे चामितविक्रम // 39 न यमो नान्तकः क्रुद्धो न मृत्युीमविक्रमः / स्थानेष्वेतेषु यो योगी महाव्रतसमाहितः / ईशते नृपते सर्वे योगस्यामिततेजसः / / 25 आत्मना सूक्ष्ममात्मानं युङ्क्ते सम्यग्विशां पते॥४० आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ / स शीघ्रममलप्रज्ञः कर्म दग्ध्वा शुभाशुभम् / योगः कुर्याद्वलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्महीं चरेत् / / 26 उत्तमं योगमास्थाय यदीच्छति विमुच्यते // 41 प्राप्नुयाद्विषयांश्चैव पुनश्चोमं तपश्चरेत् / युधिष्ठिर उवाच। संक्षिपेच पुनः पार्थ सूर्यस्तेजोगुणानिव // 27 आहारान्कीदृशान्कृत्वा कानि जित्वा च भारत / बलस्थस्य हि योगस्य बन्धनेशस्य पार्थिव / . योगी बलमवाप्नोति तद्भवान्वक्तुमर्हति // 42 विमोक्षप्रभविष्णुत्वमुपपन्नमसंशयम् // 28 भीष्म उवाच / बलानि योगे प्रोक्तानि मयैतानि विशां पते / कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भक्षणे / निदर्शनार्थं सूक्ष्माणि वक्ष्यामि च पुनस्तव / / 29 / स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात् // 43 आत्मनश्च समाधाने धारणां प्रति चाभिभो।। भुञ्जानो यावकं रूक्षं दीर्घकालमरिंदम / निदर्शनानि सूक्ष्माणि शृणु मे भरतर्षभ / 30 एकारामो विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् // 44 अप्रमत्तो यथा धन्वी लक्ष्यं हन्ति समाहितः।। पक्षान्मासानृतूंश्चित्रान्संचरंश्च गुहास्तथा / युक्तः सम्यक्तथा योगी मोक्षं प्राप्नोत्यसंशयम् // 31 अपः पीत्वा पयोमिश्रा योगी बलमवाप्नुयात् // 45 स्नेहपूर्णे यथा पात्रे मन आधाय निश्चलम् / अखण्डमपि वा मासं सततं मनुजेश्वर / पुरुषो यत्त आरोहेत्सोपानं युक्तमानसः // 32 उपोष्य सम्यक्शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् // 46 युक्त्वा तथायमात्मानं योगः पार्थिव निश्चलम् / कामं जित्वा तथा क्रोधं शीतोष्णे वर्षमेव च / करोत्यमलमात्मानं भास्करोपमदर्शनम् // 33 भयं निद्रां तथा श्वासं पौरुषं विषयांस्तथा // 47 यथा च नावं कौन्तेय कर्णधारः समाहितः / अरतिं दुर्जयां चैव घोरां तृष्णां च पार्थिव / महार्णवगतां शीघ्रं नयेत्पार्थिव पत्तनम् // 34 स्पर्शान्सांस्तथा तन्द्रीं दुर्जयां नृपसत्तम / / 48 तद्वदात्मसमाधानं युक्त्वा योगेन तत्त्ववित् / दीपयन्ति महात्मानः सूक्ष्ममात्मानमात्मना / दुर्गमं स्थानमाप्नोति हित्वा देहमिमं नृप / / 35 वीतरागा महाप्राज्ञा ध्यानाध्ययनसंपदा / / 49 सारथिश्च यथा युक्त्या सदश्वान्सुसमाहितः / दुर्गस्त्वेष मतः पन्था ब्राह्मणानां विपश्चिताम् / देशमिष्टं नयत्याशु धन्विनं पुरुषर्षभ // 36 न कश्चिद्रजति ह्यस्मिन्क्षेमेण भरतर्षभ / 50 तथैव नृपते योगी धारणासु समाहितः / यथा कश्चिद्वनं घोरं बहुसर्पसरीसृपम् / प्राप्नोत्याशु परं स्थानं लक्षं मुक्त इवाशुगः // 37 श्वभ्रवत्तोयहीनं च दुर्गमं बहुकण्टकम् // 51 आवेश्यात्मनि चात्मानं योगी तिष्ठति योऽचलः / अभक्तमटवीप्रायं दावदग्धमहीरहम् / पापं हन्तेव मीनानां पदमाप्नोति सोऽजरम् / / 38 - पन्थानं तस्कराकीर्णं क्षेमेणाभिपतेावा // 52 - 2383 - Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 289. 53] महाभारते [12. 290. 18 योगमार्ग तथासाद्य यः कश्चिद्भजते द्विजः / नारायणात्मा कुरुते महात्मा / / 62 क्षेमेणोपरमेन्मार्गाद्वहुदोषो हि स स्मृतः / / 53 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सुस्थेयं क्षुरधारासु निशितासु महीपते / एकोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 289 // धारणासु तु योगस्य दुःस्थेयमकृतात्मभिः / / 54 290 विपन्ना धारणास्तात नयन्ति नशुभां गतिम् / युधिष्ठिर उवाच / नेतृहीना यथा नावः पुरुषानर्णवे नृप // 55 सम्यक्त्वयायं नृपते वर्णितः शिष्टसंमतः। यस्तु तिष्ठति कौन्तेय धारणासु यथाविधि / योगमार्गो यथान्यायं शिष्यायेह हितैषिणा // 1 मरणं जन्म दुःखं च सुखं च स विमुञ्चति / / 56 सांख्ये त्विदानी कात्स्न्येन विधिं प्रवहि पृच्छते नानाशास्त्रेषु निष्पन्नं योगेष्विदमुदाहृतम् / त्रिषु लोकेषु यज्ज्ञानं सर्वं तद्विदितं हि ते // 2 परं योगं तु यत्कृत्स्नं निश्चितं तहि जातिषु // 57 भीष्म उवाच। / शृणु मे त्वमिदं शुद्धं सांख्यानां विदितात्मनाम् परं हि तद्ब्रह्म महन्महात्म विहितं यतिभिर्बुद्धैः कपिलादिभिरीश्वरैः // 3 __ ब्रह्माणमीशं वरदं च विष्णुम् / यस्मिन्न विभ्रमाः केचिदृश्यन्ते मनुजर्षभ / भवं च धर्म च षडाननं च गुणाश्च यस्मिन्बहवो दोषहानिश्च केवला // 4 __ षड्ब्रह्मपुत्रांश्च महानुभावान् / / 58 ज्ञानेन परिसंख्याय सदोषान्विषयानप। . तमश्च कष्टं सुमहद्रजश्च मानुषान्दुर्जयान्कृत्स्नान्पैशाचान्विषयांस्तथा // 5 सत्त्वं च शुद्धं प्रकृतिं परां च / राक्षसान्विषयाज्ञात्वा यक्षाणां विषयांस्तथा / सिद्धिं च देवीं वरुणस्य पत्नी विषयानौरगाज्ञात्वा गान्धर्वविषयांस्तथा // 6 तेजश्च कृत्स्नं सुमहच्च धैर्यम् // 59 पितॄणां विषयाज्ञात्वा तिर्यक्षु चरतां नृप। ताराधिपं वै विमलं सतारं सुपर्णविषयाज्ञात्वा मरुतां विषयांस्तथा // 7 विश्वांश्च देवानुरगान्पितॄश्च / राजर्षिविषयाज्ञात्वा ब्रह्मर्षिविषयांस्तथा / शैलांश्च कृत्स्नानुदधींश्च धोरा आसुरान्विषयाञात्वा वैश्वदेवांस्तथैव च // 8 नदीश्च सर्वाः सवनान्घनांश्च // 60 देवर्षि विषयाज्ञात्वा योगानामपि चेश्वरान् / नागान्नगान्यक्षगणान्दिशश्च विषयांश्च प्रजेशानां ब्रह्मणो विषयांस्तथा // 9 गन्धर्वसंधान्पुरुषान्स्त्रियश्च / आयुषश्च परं कालं लोके विज्ञाय तत्त्वतः / परस्परं प्राप्य महान्महात्मा सुखस्य च परं तत्त्वं विज्ञाय वदतां वर // 10 विशेत योगी नचिराद्विमुक्तः // 61 प्राप्ते काले च यदुःखं पततां विषयैषिणाम् / कथा च येयं नृपते प्रसक्ता तिर्यक्च पततां दुःखं पततां नरके च यत् // 11 देवे महावीर्यमतौ शुभेयम् / खर्गस्य च गुणान्कृत्स्नान्दोषान्सांश्च भारत / योगान्स सर्वानभिभूय मा वेदवादे च ये दोषा गुणा ये चापि वैदिकाः // 12 -2384 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 290. 13 ] शान्तिपर्व [12.290. 42 ज्ञानयोगे च ये दोषा गुणा योगे च ये नृप / / प्रजापतीनृषींश्चैव मार्गाश्च सुबहून्वरान् / सांख्यज्ञाने च ये दोषास्तथैव च गुणा नृप / / 13 सप्तर्षीश्च बहूज्ञात्वा राजर्षीश्च परंतप // 28 सत्त्वं दशगुणं ज्ञात्वा रजो नवगुणं तथा / सुरषीन्महतश्चान्यान्महर्षीन्सूर्यसंनिभान् / तमश्चाष्टगुणं ज्ञात्वा बुद्धिं सप्तगुणां तथा // 14 ऐश्वर्याच्याविताज्ञात्वा कालेन महता नृप // 29 षड्गुणं च नभो ज्ञात्वा मनः पञ्चगुणं तथा।। महतां भूतसंघानां श्रुत्वा नाशं च पार्थिव / बुद्धिं चतुर्गुणां ज्ञात्वा तमश्च त्रिगुणं महत् / / 15 गतिं चाप्यशुभां ज्ञात्वा नृपते पापकर्मणाम् // 30 द्विगुणं च रजो ज्ञात्वा सत्त्वमेकगुणं पुनः। . वैतरण्यां च यदुःखं पतितानां यमक्षये / मार्ग विज्ञाय तत्त्वेन प्रलये प्रेक्षणं तथा // 16 योनीषु च विचित्रासु संसारानशुभांस्तथा // 31 ज्ञानविज्ञानसंपन्नाः कारणैर्भाविताः शुभैः / / जठरे चाशुभे वासं शोणितोदकभाजने / प्राप्नुवन्ति शुभं मोक्षं सूक्ष्मा इव नभः परम् / / 17 श्लेष्ममूत्रपूरीषे च तीव्रगन्धसमन्विते // 32 रूपेण दृष्टिं संयुक्तां घ्राणं गन्धगुणेन च / शुक्रशोणितसंघाते मज्जास्नायुपरिग्रहे / शब्दे सक्तं तथा श्रोत्रं जिह्वां रसगुणेषु च // 18 / सिराशतसमाकीर्णे नवद्वारे पुरेऽशुचौ // 33 तनुं स्पर्श तथा सक्तां वायु नभसि चाश्रितम् / विज्ञायाहितमात्मानं योगांश्च विविधान्नृप / मोहं तमसि संसक्तं लोभमर्थेषु संश्रितम् / / 19 तामसानां च जन्तूनां रमणीयावृतात्मनाम् // 34 विष्णुं क्रान्ते बले शक्र कोष्ठे सक्तं तथानलम् / सात्त्विकानां च जन्तूनां कुत्सितं भरतर्षभ / अप्सु देवीं तथा सक्तामपस्तेजसि चाश्रिताः // 20 गर्हितं महतामर्थे सांख्यानां विदितात्मनाम् // 35 तेजो वायौ तु संसक्तं वायु नभसि चाश्रितम् / उपप्लवांस्तथा घोराशशिनस्तेजसस्तथा / नभो महति संयुक्तं महदद्रौच संश्रितम // 21 ताराणां पतनं दृष्ट्वा नक्षत्राणां च पर्ययम् // 36 बुद्धि तमसि संसक्तां तमो रजसि चाश्रितम् / द्वंद्वानां विप्रयोगं च विज्ञाय कृपणं नृप / रजः सत्त्वे तथा सक्तं सत्त्वं सक्तं तथात्मनि // 22 / अन्योन्यभक्षणं दृष्ट्वा भूतानामपि चाशुभम् // 37 सक्तमात्मानमीशे च देवे नारायणे तथा / बाल्ये मोहं च विज्ञाय क्षयं देहस्य चाशुभम् / देवं मोक्षे च संसक्तं मोक्षं सक्तं तु न कचित् // रागे मोहे च संप्राप्ते कचित्सत्त्वं समाश्रितम् // 38 ज्ञात्वा सत्त्वयुतं देहं वृतं षोडशभिर्गुणैः / सहस्रेषु नरः कश्चिन्मोक्षबुद्धिं समाश्रितः / स्वभावं चेतनां चैव ज्ञात्वा वै देहमाश्रिते // 24 दुर्लभत्वं च मोक्षस्य विज्ञाय श्रुतिपूर्वकम् // 39 मध्यस्थमेकमात्मानं पापं यस्मिन्न विद्यते। बहुमानमलब्धेषु लब्धे मध्यस्थतां पुनः / द्वितीयं कर्म विज्ञाय नृपते विषयैषिणाम् // 25 विषयाणां च दौरात्म्यं विज्ञाय नृपते पुनः॥४० इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च सर्वानात्मनि संश्रितान् / गतासूनां च कौन्तेय देहान्दृष्ट्वा तथाशुभान् / प्राणापानौ समानं च व्यानोदानौ च तत्त्वतः // वासं कुलेषु जन्तूनां दुःखं विज्ञाय भारत // 41 अवाक्चैवानिलं ज्ञात्वा प्रवहं चानिलं पुनः / ब्रह्मनानां गतिं ज्ञात्वा पतितानां सुदारुणाम् / सप्त वातांस्तथा शेषान्सप्तधा विधिवत्पुनः // 27 / सुरापाने च सक्तानां ब्राह्मणानां दुरात्मनाम् / म. भा. 299 - 2385 - Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 290. 42] महाभारते [12. 290. 69 गुरुदारप्रसक्तानां गतिं विज्ञाय चाशुभाम् // 42 गुणान्गुणशतैर्ज्ञात्वा दोषान्दोषशतैरपि / जननीषु च वर्तन्ते ये न सम्यग्युधिष्टिर / हेतून्हेतुशतैश्चित्रश्चित्रान्विज्ञाय तत्त्वतः // 56 सदेवकेषु लोकेषु ये न वर्तन्ति मानवाः // 43 अपां फेनोपमं लोकं विष्णोर्मायाशतैर्वृतम् / तेन ज्ञानेन विज्ञाय गतिं चाशुभकर्मणाम् / चित्तभित्तिप्रतीकाशं नलसारमनर्थकम् // 57 तिर्यग्योनिगतानां च विज्ञाय गतयः पृथक् // 44 तमः श्वभ्रनिभं दृष्ट्वा वर्षबुद्बुदसंनिभम् / वेदवादास्तथा चित्रानृतूनां पर्ययांस्तथा। नाशप्रायं सुखाद्धीनं नाशोत्तरमभावगम् / क्षयं संवत्सराणां च मासानां प्रक्षयं तथा // 45 रजस्तमसि संमग्नं पङ्के द्विपमिवावशम् / / 58 . पक्षक्षयं तथा दृष्ट्वा दिवसानां च संक्षयम् / सांख्या राजन्महाप्राज्ञास्त्यक्त्वा देहं प्रजाकृतम् / क्षयं वृद्धिं च चन्द्रस्य दृष्ट्वा प्रत्यक्षतस्तथा // 46 ज्ञानज्ञेयेन सांख्येन व्यापिना महता नृप / / 59 वृद्धिं दृष्ट्वा समुद्राणां क्षयं तेषां तथा पुनः / राजसानशुभान्गन्धांस्तामसांश्च तथाविधान् / . क्षयं धनानां च तथा पुनर्वृद्धिं तथैव च // 47 पुण्यांश्च सात्त्विकान्गन्धान्स्पर्शजान्देहसंश्रितान् / संयोगानां क्षयं दृष्ट्वा युगानां च विशेषतः / छित्त्वाशु ज्ञानशस्त्रेण तपोदण्डेन भारत // 60 क्षयं च दृष्ट्वा शैलानां क्षयं च सरितां तथा // 48 | ततो दुःखोदकं घोरं चिन्ताशोकमहाह्रदम् / वर्णानां च क्षयं दृष्ट्वा क्षयान्तं च पुनः पुनः। व्याधिमृत्युमहाग्राहं महाभयमहोरगम् // 61 / जरामृत्युं तथा जन्म दृष्ट्वा दुःखानि चैव ह // 49 / तमाकूर्म रजोमीनं प्रज्ञया संतरन्युत। देहदोषांस्तथा ज्ञात्वा तेषां दुःखं च तत्त्वतः / स्नेहपकं जरादुर्ग स्पर्शद्वीपमरिंदम // 62 / देहविक्लवतां चैव सम्यग्विज्ञाय भारत // // 50 कर्मागाधं सत्यतीरं स्थितव्रतमिदं नृप। आत्मदोषांश्च विज्ञाय सर्वानात्मनि संश्रितान् / हिंसाशीघ्रमहावेगं नानारसमहाकरम् // 63 स्वदेहादुत्थितान्गन्धांस्तथा विज्ञाय चाशुभान् // नानाप्रीतिमहारत्नं दुःखज्वरसमीरणम् / युधिष्ठिर उवाच / शोकतृष्णामहावतं तीक्ष्णव्याधिमहागजम् / / 64 कान्स्वगात्रोद्भवान्दोषान्पश्यस्यमितविक्रम / अस्थिसंघातसंघाटं श्लेष्मफेनमरिंदम / एतन्मे संशयं कृत्स्नं वक्तुमर्हसि तत्त्वतः / / 52 दानमुक्ताकरं भीमं शोणितहदविद्रुमम् // 65 भीष्म उवाच / हसितोत्क्रुष्टनिर्घोषं नानाज्ञानसुदुस्तरम् / पश्च दोषान्प्रभो देहे प्रवदन्ति मनीषिणः / रोदनाश्रुमलक्षारं सङ्गत्यागपरायणम् // 66 मार्गज्ञाः कापिलाः सांख्याः शृणु तानरिसूदन // 53 पुनराजन्मलोकौघं पुत्रवान्धवपत्तनम् / कामक्रोधौ भयं निद्रा पञ्चमः श्वास उच्यते / अहिंसासत्यमर्यादं प्राणत्यागमहोर्मिणम् // 67 एते दोषाः शरीरेषु दृश्यन्ते सर्वदेहिनाम् / / 54 वेदान्तगमनद्वीपं सर्वभूतदयोदधिम् / छिन्दन्ति क्षमया क्रोधं कामं संकल्पवर्जनात् / / मोक्षदुष्पापविषयं वडवामुखसागरम् // 68 सत्त्वसंशीलनान्निद्रामप्रमादाद्भयं तथा। तरन्ति मुनयः सिद्धा ज्ञानयोगेन भारत / छिन्दन्ति पञ्चमं श्वासं लध्वाहारतया नृप // 55 / तीर्वा च दुस्तरं जन्म विशन्ति विमलं नभः॥६९ -2386 - Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 290. 70] शान्तिपर्व [12. 290. 96 ततस्तान्सुकृतीन्सांख्यान्सूर्यो वहति रश्मिभिः। आत्मना विप्रहीणानि काष्ठकुड्यसमानि तु / पद्मतन्तुवदाविश्य प्रवहन्विषयान्नृप // 70 विनश्यन्ति न संदेहः फेना इव महार्णवे // 82 तत्र तान्प्रवहो वायुः प्रतिगृह्णाति भारत / इन्द्रियैः सह सुप्तस्य देहिनः शत्रुतापन / वीतरागान्यतीन्सिद्धान्वीर्ययुक्तांस्तपोधनान् // 71 / / सूक्ष्मश्चरति सर्वत्र नभसीव समीरणः // 83 सूक्ष्मः शीतः सुगन्धी च सुखस्पर्शश्व भारत / / स पश्यति यथान्यायं स्पर्शान्स्पृशति चाभिभो। सप्तानां मरुतां श्रेष्ठो लोकान्गच्छति यः शुभान् / बुध्यमानो थथापूर्वमखिलेनेह भारत // 84 स तान्वहति कौन्तेय नभसः परमां गतिम् / / 72 इन्द्रियाणीह सर्वाणि स्वे स्वे स्थाने यथाविधि / नभो वहति लोकेश रजसः परमां गतिम् / अनीशत्वात्प्रलीयन्ते सर्पा हतविषा इव // 85 रजो वहति राजेन्द्र सत्त्वस्य परमां गतिम् / / 73 इन्द्रियाणां तु सर्वेषां स्वस्थानेष्वेव सर्वशः / सत्त्वं वहति शुद्धात्मन्परं नारायणं प्रभुम् / आक्रम्य गतयः सूक्ष्माश्चरत्यात्मा न संशयः // 86 प्रभुर्वहति शुद्धात्मा परमात्मानमात्मना / / 74 सत्त्वस्य च गुणान्कृत्स्नारजसश्च गुणान्पुनः / परमात्मानमासाद्य तद्भूतायतनामलाः / गुणांश्च तमसः सर्वान्गुणान्बुद्धेश्च भारत // 87 अमृतत्वाय कल्पन्ते न निवर्तन्ति चामिभो। गुणांश्च मनसस्तद्वन्नभसश्च गुणांस्तथा। परमा सा गतिः पार्थ निद्वंद्वानां महात्मनाम् / / 75 गुणान्वायोश्च धर्मात्मस्तेजसश्च गुणान्पुनः // 88 . युधिष्ठिर उवाच / अपां गुणांस्तथा पार्थ पार्थिवांश्च गुणानपि / स्थानमुत्तममासाद्य भगवन्तं स्थिरव्रताः / सर्वात्मना गुणैाप्य क्षेत्रज्ञः स युधिष्ठिर // 89 आजन्ममरणं वा ते स्मरन्त्युत न वानघ / 76 आत्मा च याति क्षेत्रज्ञं कर्मणी च शुभाशुभे / यदत्र तथ्यं तन्मे त्वं यथावद्वक्तुमर्हसि / / शिष्या इव महात्मानमिन्द्रियाणि च तं विभो // 90 त्वदृते मानवं नान्यं प्रष्टुमर्हामि कौरव // 77 प्रकृतिं चाप्यतिक्रम्य गच्छत्यात्मानमव्ययम् / मोक्षदोषो महानेष प्राप्य सिद्धिं गतानुषीन् / परं नारायणात्मानं निद्वं प्रकृतेः परम् // 91 यदि तत्रैव विज्ञाने वर्तन्ते यतयः परे // 78 विमुक्तः पुण्यपापेभ्यः प्रविष्टस्तमनामयम् / प्रवृत्तिलक्षणं धर्म पश्यामि परमं नृप / परमात्मानमगुणं न निवर्तति भारत // 92 मग्नस्य हि परे ज्ञाने किं नु दुःखतरं भवेत् // 79 शिष्टं त्वत्र मनस्तात इन्द्रियाणि च भारत / भीष्म उवाच। आगच्छन्ति यथाकालं गुरोः संदेशकारिणः // 93 यथान्यायं त्वया तात प्रश्नः पृष्टः सुसंकटः। शक्यं चाल्पेन कालेन शान्ति प्राप्तं गुणार्थिना। बुद्धानामपि संमोहः प्रश्नेऽस्मिन्भरतर्षभ। एवं युक्तेन कौन्तेय युक्तज्ञानेन मोक्षिणा // 94 अत्रापि तत्त्वं परमं शृणु सम्यङ्मयेरितम् // 80 / सांख्या राजन्महाप्राज्ञा गच्छन्ति परमां गतिम् / बुद्धिश्च परमा यत्र कापिलानां महात्मनाम् / ज्ञानेनानेन कौन्तेय तुल्यं ज्ञानं न विद्यते // 95 इन्द्रियाण्यपि बुध्यन्ते स्वदेहं देहिनो नृप / अत्र ते संशयो मा भूज्ज्ञानं सांख्यं परं मतम् / कारणान्यात्मनस्तानि सूक्ष्मः पश्यति तैस्तु सः॥ अक्षरं ध्रुवमव्यक्तं पूर्व ब्रह्म सनातनम् // 96 -2387 - Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 290. 97 ] महाभारते [ 12. 291.6 अनादिमध्यनिधनं निद्वंद्वं कर्तृ शाश्वतम् / ततोऽधिकं तेऽभिरता महाहे कूटस्थं चैव नित्यं च यद्वदन्ति शमात्मकाः।। 97 ___ सांख्ये द्विजाः पार्थिव शिष्टजुष्टे // 10 // यतः सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः / तेषां न तिर्यग्गमनं हि दृष्टं यच्च शंसन्ति शास्त्रेषु वदन्ति परमर्षयः // 98 ___ नावाग्गतिः पापकृतां निवासः। सर्वे विप्राश्च देवाश्च तथागमविदो जनाः। न चाबुधानामपि ते द्विजातयो ब्रह्मण्यं परमं देवमनन्तं परतोऽच्युतम् / / 99 ये ज्ञानमेतन्नृपतेऽनुरक्ताः // 108 . प्रार्थयन्तश्च तं विप्रा वदन्ति गुणबुद्धयः / सांख्यं विशालं परमं पुराणं सम्यग्युक्तास्तथा योगाः सांख्याश्वामितदर्शनाः॥ ___ महार्णवं विमलमुदारकान्तम् / / अमूर्तेस्तस्य कौन्तेय सांख्यं मूर्तिरिति श्रुतिः / कृत्स्नं च सांख्यं नृपते महात्मा अभिज्ञानानि तस्याहुर्मतं हि भरतर्षभ / / 101 _ नारायणो धारयतेऽप्रमेयम् / / 109 द्विविधानीह भूतानि पृथिव्यां पृथिवीपते / एतन्मयोक्तं नरदेव तत्त्वं जगमागमसंज्ञानि जङ्गमं तु विशिष्यते / / 102 नारायणो विश्वमिदं पुराणम् / ज्ञानं महद्यद्धि महत्सु राज स सर्गकाले च करोति सर्ग __ न्वेदेषु सांख्येषु तथैव योगे। संहारकाले च तदत्ति भूयः // 110 यच्चापि दृष्टं विविधं पुराणं इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सांख्यागतं तन्निखिलं नरेन्द्र // 103 नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 290 / यञ्चेतिहासेषु महत्सु दृष्टं ____291 यच्चार्थशास्त्रे नृप शिष्टजुष्टे / . युधिष्ठिर उवाच। ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचि किं तदक्षरमित्युक्तं यस्मान्नावर्तते पुनः / त्सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् // 104 किं च तत्क्षरमित्युक्तं यस्मादावर्तते पुनः // 1 शमश्च दृष्टः परमं बलं च अक्षरक्षरयोयक्तिमिच्छाम्यरिनिषूदन / .. ज्ञानं च सूक्ष्मं च यथावदुक्तम् / उपलब्धं महाबाहो तत्त्वेन कुरुनन्दन // 2 तपांसि सूक्ष्माणि सुखानि चैव त्वं हिं ज्ञाननिधिविरुच्यसे वेदपारगैः / सांख्ये यथावद्विहितानि राजन् // 105 ऋषिभिश्च महाभागयतिभिश्च महात्मभिः // 3 विपर्यये तस्य हि पार्थ देवा शेषमल्पं दिनानां ते दक्षिणायनभास्करे / न्गच्छन्ति सांख्याः सततं सुखेन / आवृत्ते भगवत्यर्के गन्तासि परमां गतिम् / / 4 तांश्चानुसंचार्य ततः कृतार्थाः त्वयि प्रतिगते श्रेयः कुतः श्रोष्यामहे वयम् / __पतन्ति विप्रेषु यतेषु भूयः // 106 कुरुवंशप्रदीपस्त्वं ज्ञानद्रव्येण दीप्यसे / 5 हित्वा च देहं प्रविशन्ति मोक्षं | तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि त्वत्तः कुरुकुलोद्वह। दिवौकसो द्यामिव पार्थ सांख्याः। न तृप्यामीह राजेन्द्र शृण्वन्नमृतमीदृशम् // 6 -2388 - Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 291. 7] शान्तिपर्व [12. 291. 34 भीष्म उवाच / एष वै विक्रियापन्नः सृजत्यात्मानमात्मना / अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / अहंकारं महातेजाः प्रजापतिमहं कृतम् // 20 वसिष्ठस्य च संवादं करालजनकस्य च / / 7 अव्यक्ताव्यक्तमुत्पन्नं विद्यासर्ग वदन्ति तम् / वसिष्ठं श्रेष्ठमासीनमृषीणां भास्करद्युतिम् / महान्तं चाप्यहंकारमविद्यासर्गमेव च // 21 पप्रच्छ जनको राजा ज्ञानं नैःश्रेयसं परम् / / 8 अविधिश्च विधिश्चैव समुत्पन्नौ तथैकतः / परमध्यात्मकुशलमध्यात्मगतिनिश्चयम् / विद्याविद्येति विख्याते श्रुतिशास्त्रार्थचिन्तकैः // 22 मैत्रावरुणिमासीनमभिवाद्य कृताञ्जलिः / / 9 भूतसर्गमहंकारात्तृतीयं विद्धि पार्थिव / स्वक्षरं प्रश्रितं वाक्यं मधुरं चाप्यनुल्बणम् / अहंकारेषु भूतेषु चतुर्थं विद्धि वैकृतम् // 23 पप्रच्छर्षिवरं राजा करालजनकः पुरा / / 10 वायुयॊतिरथाकाशमापोऽथ पृथिवी तथा। भगवश्रोतुमिच्छामि परं ब्रह्म सनातनम् / शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च // 24 यस्मान्न पुनरावृत्तिमाप्नुवन्ति मनीषिणः // 11 एवं युगपदुत्पन्नं दशवर्गमसंशयम् / यञ्च तत्क्षरमित्युक्तं यत्रदं क्षरते जगत् / पञ्चमं विद्धि राजेन्द्र भौतिकं सर्गमर्थवत् // 25 यञ्चाक्षरमिति प्रोक्तं शिवं क्षेम्यमनामयम् / / 12 श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणमेव च पश्चमम् / वसिष्ठ उवाच / वाक्च हस्तौ च पादौ च पायुर्मेद्रं तथैव च // 26 श्रूयतां पृथिवीपाल क्षरतीदं यथा जगत् / बुद्धीन्द्रियाणि चैतानि तथा कर्मेन्द्रियाणि च / यन्न क्षरति पूर्वेण यावत्कालेन चाप्यथ / / 13 संभूतानीह युगपन्मनसा सह पार्थिव // 27 युगं द्वादशसाहस्रं कल्पं विद्धि चतुर्गुणम् / एषा तत्त्वचतुर्विंशा सर्वाकृतिषु वर्तते / दशकल्पशतावृत्तं तदहाह्ममुच्यते / यां ज्ञात्वा नाभिशोचन्ति ब्राह्मणास्तत्त्वदर्शिनः॥२८ रात्रिश्चैतावती राजन्यस्यान्ते प्रतिबुध्यते // 14 एतदेहं समाख्यातं त्रैलोक्ये सर्वदेहिषु / सृजत्यनन्तकर्माणं महान्तं भूतमग्रजम् / वेदितव्यं नरश्रेष्ठ सदेवनरदानवे // 29 मूर्तिमन्तममूर्तात्मा विश्वं शंभुः स्वयंभुवः / सयक्षभूतगन्धर्वे सकिंनरमहोरगे। अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानं ज्योतिरव्ययम् // 15 सचारणपिशाचे वै सदेवर्षिनिशाचरे // 30 सर्वतःपाणिपादान्तं सर्वतोक्षिशिरोमुखम् / सदंशकीटमशके सपूतिकृमिमूषके / सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति // 16 शुनि श्वपाके वैणेये सचण्डाले सपुल्कसे // 31 हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरिति स्मृतः / हस्त्यश्वखरशार्दूले सवृक्षे गवि चैव ह / महानिति च योगेषु विरिश्च इति चाप्युत // 17 / यच्च मूर्तिमयं किंचित्सर्वत्रैतन्निदर्शनम् // 32 सांख्ये च पठ्यते शास्त्रे नामभिर्बहुधात्मकः। जले भुवि तथाकाशे नान्यत्रेति विनिश्चयः / विचित्ररूपो विश्वात्मा एकाक्षर इति स्मृतः // 18 / स्थानं देहवतामस्ति इत्येवमनुशुश्रुम // 33 वृतं नैकात्मकं येन कृत्स्नं त्रैलोक्यमात्मना। कृत्स्नमेतावतस्तात क्षरते व्यक्तसंज्ञकम् / तथैव बहुरूपत्वाद्विश्वरूप इति स्मृतः // 19 | अहन्यहनि भूतात्मा ततः क्षर इति स्मृतः // 34 -2389 - Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 291. 35 ] महाभारते [12. 292. 14 एतदक्षरमित्युक्तं क्षरतीदं यथा जगत् / 292 जगन्मोहात्मकं प्राहुरव्यक्तं व्यक्तसंज्ञकम् // 35 वसिष्ठ उवाच / महांश्चैवाप्रजो नित्यमेतत्क्षरनिदर्शनम् / एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धमनुवर्तते / कथितं ते महाराज यस्मान्नावर्तते पुनः // 36 देहाद्देहसहस्राणि तथा समभिपद्यते // 1 पञ्चविंशतिमो विष्णुर्निस्तत्त्वस्तत्त्वसंज्ञकः / तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद्देवतास्वपि / तत्त्वसंश्रयणादेतत्तत्त्वमाहुर्मनीषिणः // 37 उपपद्यति संयोगाद्गुणैः सह गुणक्षयात् // 2 यदमूर्त्यसृजव्यक्तं तत्तन्मूर्त्यधितिष्ठति / मानुषत्वाद्दिवं याति दिवो मानुष्यमेव च / चतुर्विंशतिमो व्यक्तो ह्यमूर्तः पञ्चविंशकः / / 38 मानुष्यान्निरयस्थानमानन्त्यं प्रतिपद्यते // 3 स एव हृदि सर्वासु मूर्तिष्वातिष्ठतेऽऽत्मवान् / / कोशकारो यथात्मानं कीटः समनुरुन्धति / चेतयंश्चेतनो नित्यः सर्वमूर्तिरमूर्तिमान् / / 39 सूत्रतन्तुगुणैर्नित्यं तथायमगुणों गुणैः // 4 सर्गप्रलयधर्मिण्या असर्गप्रलयात्मकः / द्वंद्वमेति च निद्वंद्वस्तासु तास्विह योनिषु / गोचरे वर्तते नित्यं निर्गुणो गुणसंज्ञकः // 40 शीर्षरोगेऽक्षिरोगे च दन्तशूले गलग्रहे // 5 एवमेष महानात्मा सर्गप्रलयकोविदः। जलोदरेऽर्शसां रोगे ज्वरगण्डविषूचिके / विकुर्वाणः प्रकृतिमानभिमन्यत्यबुद्धिमान् // 41 श्वित्रे कुष्ठेऽग्निदाहे च सिध्मापस्मारयोरपि // 6 तमःसत्त्वरजोयुक्तस्तासु तास्विह योनिषु / यानि चान्यानि द्वंद्वानि प्राकृतानि शरीरिषु / लीयतेऽप्रतिबुद्धत्वादबुद्धजनसेवनात् / / 42 उत्पद्यन्ते विचित्राणि तान्येषोऽप्यभिमन्यते / सहवासो निवासात्मा नान्योऽहमिति मन्यते। अभिमन्यत्यभीमानात्तथैव सुकृतान्यपि // 7 योऽहं सोहऽमिति ह्युक्त्वा गुणाननु निवर्तते // 43 एकवासाश्च दुर्वासाः शायी नित्यमधस्तथा / तमसा तामसान्भावान्विविधान्प्रतिपद्यते / मण्डूकशायी च तथा वीरासनगतस्तथा // 8 रजसा राजसांश्चैव सात्त्विकान्सत्त्वसंश्रयात् // 44 चीरधारणमाकाशे शयनं स्थानमेव च / शुक्ललोहितकृष्णानि रूपाण्येतानि त्रीणि तु। इष्टकाप्रस्तरे चैव कण्टकप्रस्तरे तथा // 9 सर्वाण्येतानि रूपाणि जानीहि प्राकृतानि वै // 45 भस्मप्रस्तरशायी च भमिशय्यानलेपनः / तामसा निरयं यान्ति राजसा मानुषांस्तथा। वीरस्थानाम्बुपके च शयनं फलकेषु च // 10 सात्त्विका देवलोकाय गच्छन्ति सुखभागिनः॥४६ विविधासु च शय्यासु फलगृद्ध्यान्वितोऽफलः / निष्कैवल्येन पापेन तिर्यग्योनिमवाप्नुयात् / मुञ्जमेखलनग्नत्वं क्षौमकृष्णाजिनानि च // 11 पुण्यपापेन मानुष्यं पुण्येनैकेन देवताः / / 47 शाणीवालपरीधानो व्याघ्रचर्मपरिच्छदः / एवमव्यक्तविषयं क्षरमाहुर्मनीषिणः / सिंहचर्मपरीधानः पट्टवासास्तथैव च // 12 पञ्चविंशतिमो योऽयं ज्ञानादेव प्रवर्तते // 48 कीटकावसनश्चैव चीरवासास्तथैव च / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि वस्त्राणि चान्यानि बहून्यभिमन्यत्यबुद्धिमान् // 13 एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 291 // भोजनानि विचित्राणि रत्नानि विविधानि च / -2890 - Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 292. 14 ] शान्तिपर्व [12. 292. 42 एकवस्त्रान्तराशित्वमेककालिकभोजनम् // 14 एवमेषोऽसकृत्सर्वं क्रीडार्थमभिमन्यते // 28 चतुर्थाष्टमकालश्च षष्ठकालिक एव च / आत्मरूपगुणानेतान्विविधान्हृदयप्रियान् / षडात्रभोजनश्चैव तथैवाष्टाहभोजनः // 15 एवमेव विकुर्वाणः सर्गप्रलयकर्मणी // 29 सप्तरात्रदशाहारो द्वादशाहार एव च / क्रियाक्रियापथे रक्तस्त्रिगुणस्त्रिगुणातिगः / मासोपवासी मूलाशी फलाहारस्तथैव च // 16 क्रियाक्रियापथोपेतस्तथा तदिति मन्यते // 30 वायुभक्षोऽम्बुपिण्याकगोमयादन एव च / एवं द्वंद्वान्यथैतानि वर्तन्ते मम नित्यशः / गोमूत्रभोजनश्चैव शाकपुष्पाद एव च // 17 ममैवैतानि जायन्ते बाधन्ते तानि मामिति // 31 शैवालभोजनश्चैव तथाचामेन वर्तयन् / निस्तर्तव्यान्यथैतानि सर्वाणीति नराधिप / वर्तयशीर्णपणैश्च प्रकीर्णफलभोजनः // 18 . मन्यतेऽयं ह्यबुद्धित्वात्तथैव सुकृतान्यपि // 32 विविधानि च कृच्छ्राणि सेवते सुखकाड्डया। भोक्तव्यानि मयैतानि देवलोकगतेन वै / चान्द्रायणानि विधिवल्लिङ्गानि विविधानि च / / 19 इहैव चैनं भोक्ष्यामि शुभाशुभफलोदयम् // 33 चातुराश्रम्यपन्थानमाश्रयत्याश्रमानपि / सुखमेव च कर्तव्यं सकृत्कृत्वा सुखं मम / उपासीनश्च पाषण्डान्गुहाः शैलांस्तथैव च / / 20 / यावदन्तं च मे सौख्यं जात्यां जात्यां भविष्यति // 34 विविक्ताश्च शिलाछायास्तथा प्रस्रवणानि च। / भविष्यति च मे दुःखं कृतेनेहाप्यनन्तकम् / विविधानि च जप्यानि विविधानि व्रतानि च // महदुःखं हि मानुष्यं निरये चापि मन्जनम् // 35 नियमान्सुविचित्रांश्च विविधानि तपांसि च / निरयाच्चापि मानुष्यं कालेनैष्याम्यहं पुनः / यज्ञांश्च विविधाकारान्विधींश्च विविधांस्तथा // 22 मनुष्यत्वाच्च देवत्वं देवत्वात्पौरुषं पुनः / वणिक्पथं द्विजक्षत्रं वैश्यशद्रं तथैव च / मनुष्यत्वाच्च निरयं पर्यायेणोपगच्छति // 36 दानं च विविधाकारं दीनान्धकृपणेष्वपि // 23 य एवं वेत्ति वै नित्यं निरात्मात्मगुणैर्वृतः / अभिमन्यत्यसंबोधात्तथैव विविधान्गुणान् / तेन देवमनुष्येषु निरये चोपपद्यते // 37 सत्त्वं रजस्तमश्चैव धर्मार्थो काम एव च। ममत्वेनावृतो नित्यं तत्रैव परिवर्तते / प्रकृत्यात्मानमेवात्मा एवं प्रविभजत्युत // 24 सर्गकोटिसहस्राणि मरणान्तासु मूर्तिषु // 38 खधाकारवषट्कारौ स्वाहाकारनमस्क्रियाः / य एवं कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम् / याजनाध्यापनं दानं तथैवाहुः प्रतिग्रहम् / स एव फलमनाति त्रिषु लोकेषु मूर्तिमान् // 39 यजनाध्ययने चैव यच्चान्यदपि किंचन // 25 प्रकृतिः कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम् / जन्ममृत्युविवादे च तथा विशसनेऽपि च / / | प्रकृतिश्च तदनाति त्रिषु लोकेषु कामगा // 40 शुभाशुभमयं सर्वमेतदाहुः क्रियापथम् // 26 तिर्यग्योनौ मनुष्यत्वे देवलोके तथैव च / प्रकृतिः कुरुते देवी महाप्रलयमेव च / त्रीणि स्थानानि चैतानि जानीयात्प्राकृतानि ह // 41 दिवसान्ते गुणानेतानभ्येत्यैकोवतिष्ठति / / 27 / अलिङ्गां प्रकृतिं त्वाहुर्लिङ्गैरनुमिमीमहे / / रश्मिजालमिवादित्यस्तत्कालेन नियच्छति / / तथैव पौरुष लिङ्गमनुमानाद्धि पश्यति / / 42 -2391 - Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 292. 43 ] महाभारते [12. 293.21 स लिङ्गान्तरमासाद्य प्राकृतं लिङ्गमत्रणम् / व्रणद्वाराण्यधिष्ठाय कर्माण्यात्मनि मन्यते / / 43 / श्रोत्रादीनि तु सर्वाणि पश्च कर्मेन्द्रियाणि च / वागादीनि प्रवर्तन्ते गुणेष्वेव गुणैः सह / अहमेतानि वै कुर्वन्ममैतानीन्द्रियाणि च / / 44 निरिन्द्रियोऽभिमन्येत व्रणवानस्मि निर्ऋणः / अलिङ्गो लिङ्गमात्मानमकालः कालमात्मनः / / 45 असत्त्वं सत्त्वमात्मानमतत्त्वं तत्त्वमात्मनः / अमृत्युर्मृत्युमात्मानमचरश्चरमात्मनः / / 46 अक्षेत्रः क्षेत्रमात्मानमसर्गः सर्गमात्मनः / अतपास्तप आत्मानमगतिगतिमात्मनः / / 47 अभवो भवमात्मानमभयो भयमात्मनः / अक्षरः क्षरमात्मानमबुद्धिस्त्वभिमन्यते / / 48 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 292 // ___293 वसिष्ठ उवाच / एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धजनसेवनात् / सर्गकोटिसहस्राणि पतनान्तानि गच्छति // 1 धाम्ना धामसहस्राणि मरणान्तानि गच्छति / तिर्यग्योनौ मनुष्यत्वे देवलोके तथैव च // 2 चन्द्रमा इव कोशानां पुनस्तत्र सहस्रशः / लीयतेऽप्रतिबुद्धत्वादेवमेष ह्यबुद्धिमान् // 3 कलाः पञ्चदशा योनिस्तद्धाम इति पठ्यते / नित्यमेतद्विजानीहि सोमः षोडशमी कला // 4 कलायां जायतेऽजस्रं पुनः पुनरबुद्धिमान् / धाम तस्योपयुञ्जन्ति भूय एव तु जायते / / 5 षोडशी तु कला सूक्ष्मा स सोम उपधार्यताम् / न तूपयुज्यते देवैर्देवानुपयुनक्ति सा // 6 एवं तां क्षपयित्वा हि जायते नृपसत्तम / सा ह्यस्य प्रकृति दृष्टा तत्क्षयान्मोक्ष उच्यते // . तदेवं षोडशकलं देहमव्यक्तसंज्ञकम् / ममायमिति मन्वानस्तत्रैव परिवर्तते // 8 पञ्चविंशस्तथैवात्मा तस्यैवा प्रतिबोधनात् / विमलस्य विशुद्धस्य शुद्वानिलनिषेवणात् // 9 अशुद्ध एव शुद्धात्मा तादृग्भवति पार्थिव / अबुद्धसेवनाच्चापि बुद्धोऽप्यबुधतां व्रजेत् // 10 तथैवाप्रतिबुद्धोऽपि ज्ञेयो नृपतिसत्तम। प्रकृतेत्रिगुणायास्तु सेवनात्प्राकृतो भवेत् // 11 करालजनक उवाच / / अक्षरक्षरयोरेष द्वयोः संबन्ध इष्यते / स्त्रीपुंसोर्वापि भगवन्संबन्धस्तद्वदुच्यते // 12 ऋते न पुरुषेणेह स्त्री गर्भ धारयत्युत / ऋते स्त्रियं न पुरुषो रूपं निवर्तयेत्तथा // 13 अन्योन्यस्याभिसंबन्धादन्योन्यगुणसंश्रयात् / रूपं निवर्तयत्येतदेवं सर्वासु योनिषु // 14 रत्यर्थमभिसंरोधादन्योन्यगुणसंश्रयात् / ऋतौ निर्वर्तते रूपं तद्वक्ष्यामि निदर्शनम् // 15 ये गुणाः पुरुषस्येह ये च मातृगुणास्तथा। अस्थि स्नायु च मज्जा च जानीमः पितृतो द्विज // त्वङ्मांसं शोणितं चैव मातृजान्यपि शुश्रुम / एवमेतहिजश्रेष्ठ वेदशास्त्रेषु पठ्यते // 17 प्रमाणं यच्च वेदोक्तं शास्त्रोक्तं यच्च पठ्यते / वेदशास्त्रप्रमाणं च प्रमाणं तत्सनातनम् / / 18 एवमेवाभिसंबद्धौ नित्यं प्रकृतिपूरुषौ / पश्यामि भगवंस्तस्मान्मोक्षधर्मो न विद्यते // 19 अथ वानन्तरकृतं किंचिदेव निदर्शनम् / तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन प्रत्यक्षो ह्यसि सर्वथा // 20 मोक्षकामा वयं चापि काङ्घामो यदनामयम् / अदेहमजरं दिव्यमतीन्द्रियमनीश्वरम् // 21 - 2392 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 293. 22 ] शान्तिपर्व [12. 293. 50 वसिष्ठ उवाच / नैव पुमान्पुमांश्चैव स लिङ्गीत्यभिधीयते // 36 . यदेतदुक्तं भवता वेदशास्त्रनिदर्शनम् / अलिङ्गा प्रकृतिर्लिङ्गैरुपलभ्यति सात्मजैः / एवमेतद्यथा चैतन्न गृह्णाति तथा भवान् // 22 यथा पुष्पफलैर्नित्यमृतवो मूर्तयस्तथा // 37 धार्यते हि त्वया ग्रन्थ उभयोर्वेदशास्त्रयोः / एवमप्यनुमानेन ह्यलिङ्गमुपलभ्यते / न तु ग्रन्थस्य तत्त्वज्ञो यथावत्त्वं नरेश्वर // 23 पञ्चविंशतिमस्तात लिङ्गेष्वनियतात्मकः // 38 यो हि वेदे च शास्त्रे च ग्रन्थधारणतत्परः।। अनादिनिधनोऽनन्तः सर्वदर्शी निरामयः / न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा // 24 केवलं त्वभिमानित्वाद्गुणेष्वगुण उच्यते // 39 भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थं न वेत्ति यः। / गुणा गुणवतः सन्ति निर्गुणस्य कुतो गुणाः / यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा // 25 प्रन्थस्यार्थं च पृष्टः संस्तादृशो वक्तुमर्हति / तस्मादेवं विजानन्ति ये जना गुणदर्शिनः // 40 यथा तत्त्वाभिगमनादर्थं तस्य स विन्दति // 26 यदा त्वेष गुणान्सर्वान्प्राकृतानभिमन्यते / यस्तु संसत्सु कथयेग्रन्थार्थं स्थूलबुद्धिमान् / तदा स गुणवानेव परमेणानुपश्यति // 41 स कथं मन्दविज्ञानो ग्रन्थं वक्ष्यति निर्णयात् / / 27 यत्तद्बुद्धेः परं प्राहुः सांख्या योगाश्च सर्वशः / निर्णयं चापि छिद्रात्मा न तं वक्ष्यति तत्त्वतः / बुध्यमानं महाप्राज्ञमबुद्धपरिवर्जनात् // 42 सोपहासात्मतामेति यस्माञ्चैवात्मवानपि // 28 अप्रबुद्धमथाव्यक्तं सगुणं प्राहुरीश्वरम् / तस्मात्त्वं शृणु राजेन्द्र यथैतदनुदृश्यते। निर्गुणं चेश्वरं नित्यमधिष्ठातारमेव च // 43 याथातथ्येन सांख्येषु योगेषु च महात्मसु // 29 प्रकृतेश्च गुणानां च पञ्चविंशतिकं बुधाः / यदेव योगाः पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते / सांख्ययोगे च कुशला बुध्यन्ते परमैषिणः // 44 एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स बुद्धिमान् // | यदा प्रबुद्धास्त्वव्यक्तमवस्थाजन्मभीरवः / त्वङ्मांसं रुधिरं मेदः पित्तं मज्जास्थि स्नायु च / बुध्यमानं प्रबुध्यन्ति गमयन्ति समं तदा // 45 एतदैन्द्रियकं तात यद्भवानिदमाह वै // 31 एतन्निदर्शनं सम्यगसम्यगनुदर्शनम् / द्रव्याद्रव्यस्य निष्पत्तिरिन्द्रियादिन्द्रियं तथा। बुध्यमानाप्रबुद्धाभ्यां पृथक्पृथगरिंदम // 46 देहादेहमवाप्नोति बीजाद्वीजं तथैव च // 32 परस्परेणैतदुक्तं क्षराक्षरनिदर्शनम् / निरिन्द्रियस्याबीजस्य निद्रव्यस्यास्य देहिनः।। एकत्वमक्षरं प्राहुर्नानात्वं क्षरमुच्यते // 47 कथं गुणा भविष्यन्ति निर्गुणत्वान्महात्मनः // 33 गुणा गुणेषु जायन्ते तत्रैव निविशन्ति च / पञ्चविंशतिनिष्ठोऽयं यदासम्यक्प्रवर्तते / एवं गुणाः प्रकृतितो जायन्ते च न सन्ति च // 34 एकत्वं दर्शनं चास्य नानात्वं चाप्यदर्शनम् // 48 त्वङ्मांसं रुधिरं मेदः पित्तं मजास्थि स्नायु च / तत्त्वनिस्तत्त्वयोरेतत्पृथगेव निदर्शनम् / अष्टौ तान्यथ शुक्रेण जानीहि प्राकृतानि वै // 35 / पञ्चविंशतिसगं तु तत्त्वमाहुर्मनीषिणः // 49 पुमांश्चैवापुमांश्चैव त्रैलिङ्गयं प्राकृतं स्मृतम् / / | निस्तत्त्वं पञ्चविंशस्य परमाहुर्निदर्शनम् / म.भा. 300 -2393 - Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 293. 50] महाभारते [12. 294. 27 वर्गस्य वर्गमाचारं तत्त्वं तत्त्वात्सनातनात् // 50 विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पूर्वरात्रे परे चैव धारयेत मनोऽऽत्मनि // 13 बिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 293 // स्थिरीकृत्येन्द्रियग्रामं मनसा मिथिलेश्वर / 294 मनो बुद्ध्या स्थिरं कृत्वा पाषाण इव निश्चलः // 14 करालजनक उवाच / स्थाणुवच्चाप्यकम्पः स्यागिरिवञ्चापि निश्चलः / नानात्वैकत्वमित्युक्तं त्वयैतदृषिसत्तम / बुधा विधिविधानज्ञास्तदा युक्तं प्रचक्षते // 15 पश्यामि चाभिसंदिग्धमेतयोर्चे निदर्शनम् // 1 न शृणोति न चाघ्राति न रस्यति न पश्यति / तथाप्रबुद्धबुद्धाभ्यां बुध्यमानस्य चानघ / न च स्पर्श विजानाति न संकल्पयते मनः // 16 स्थूलबुद्ध्या न पश्यामि तत्त्वमेतन्न संशयः॥२ न चाभिमन्यते किंचिन्न च बुध्यति काष्ठवत् / अक्षरक्षरयोरुक्तं त्वया यदपि कारणम् / तदा प्रकृतिमापन्नं युक्तमाहुर्मनीषिणः // 17 तदप्यस्थिरबुद्धित्वात्प्रनष्टमिव मेऽनघ / 3 निवाते च यथा दीप्यन्दीपस्तद्वत्स दृश्यते / तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि नानात्वैकत्वदर्शनम् / निरिङ्गश्चाचलश्चोय न तिर्यग्गतिमाप्नुयात् / / 18 बुद्धमप्रतिबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः // 4 तदा तमनुपश्येत यस्मिन्दृष्टे तु कथ्यते। विद्याविद्ये च भगवन्नक्षरं क्षरमेव च / / हृदयस्थोऽन्तरात्मेति ज्ञेयो ज्ञस्तात मद्विधैः // 19 सांख्यं योगं च कास्न्येन पृथक्चैवापृथक्च ह॥५ विधूम इव सप्ताचिरादित्य इव रश्मिमान् / वसिष्ठ उवाच। वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे दृश्यतेऽऽत्मा तथात्मनि // 20 हन्त ते संप्रवक्ष्यामि यदेतदनुपृच्छसि / यं पश्यन्ति महात्मानो धृतिमन्तो मनीषिणः / योगकृत्यं महाराज पृथगेव शृणुष्व मे // 6 ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ह्ययोनिममृतात्मकम् // 21 योगकृत्यं तु योगानां ध्यानमेव परं बलम् / तदेवाहुरणुभ्योऽणु तन्महद्भयो महत्तरम् / तच्चापि द्विविधं ध्यानमाहुर्वेदविदो जनाः // 7 तदन्तः सर्वभूतेषु ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते // 22 एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च / / बुद्धिद्रव्येण दृश्येत मनोदीपेन लोककृत् / प्राणायामस्तु सगुणो निर्गुणो मनसस्तथा // 8 महतस्तमसस्तात पारे तिष्ठन्नतामसः // 23 मूत्रोत्सर्गे पुरीषे च भोजने च नराधिप / स तमोनुद इत्युक्तस्तत्त्वज्ञैर्वेदपारगैः / त्रिकालं नाभियुञ्जीत शेषं युञ्जीत तत्परः // 9 विमलो वितमस्कश्च निर्लिङ्गोऽलिङ्गसंज्ञितः // 24 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो निवर्त्य मनसा मुनिः योगमेतद्धि योगानां मन्ये योगस्य लक्षणम् / दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विंशात्परं ततः // 10 एवं पश्यं प्रपश्यन्ति आत्मानमजरं परम् // 25 तं चोदनाभिर्मतिमानात्मानं चोदयेदथ / योगदर्शनमेतावदुक्तं ते तत्त्वतो मया / तिष्ठन्तमजरं तं तु यत्तदुक्तं मनीषिभिः // 11 सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानिदर्शनम् // 26 तैश्चात्मा सततं ज्ञेय इत्येवमनुशुश्रुम / अव्यक्तमाहुः प्रकृतिं परां प्रकृतिवादिनः / द्रव्यं ह्यहीनमनसो नान्यथेति विनिश्चयः // 12 / तस्मान्महत्समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम // 27 -2394 - Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 294. 28 ] शान्तिपर्व [12. 295.5 अहंकारस्तु महतस्तृतीयमितिः नः श्रुतम् / तत्त्वानि च चतुर्विंशत्परिसंख्याय तत्त्वतः / पश्च भूतान्यहंकारादाहुः सांख्यानुदर्शिनः // 28 सांख्याः सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्वः पञ्चविंशकः // एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकाराश्चापि षोडश / पञ्चविंशोऽप्रबुद्धात्मा बुध्यमान इति स्मृतः।। पश्व चैव विशेषा वै तथा पश्चेन्द्रियाणि च // 29 यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवलः // 43 एतावदेव तत्त्वानां सांख्यमाहुर्मनीषिणः / सम्यग्दर्शनमेतावद्भाषितं तव तत्त्वतः / सांख्ये विधिविधानज्ञा नित्यं सांख्यपथे रताः // एवमेतद्विजानन्तः साम्यता प्रतियान्त्युत // 44 यस्माद्यदभिजायेत तत्तत्रैव प्रलीयते / सम्यङिदर्शनं नाम प्रत्यक्षं प्रकृतेस्तथा। लीयन्ते प्रतिलोमानि सृज्यन्ते चान्तरात्मना // 31 गुणतत्त्वान्यथैतानि निर्गुणोऽन्यस्तथा भवेत् // 45 अनुलोमेन जायन्ते लीयन्ते प्रतिलोमतः। / न त्वेवं वर्तमानानामावृत्तिर्विद्यते पुनः / गुणा गुणेषु सततं सागरस्योर्मयो यथा // 32 विद्यतेऽक्षरभावत्वादपरस्परमव्ययम् // 46 सर्गप्रलय एतावान्प्रकृतेर्नृपसत्तम / / पश्येरन्नेकमतयो न सम्यक्तेषु दर्शनम् / एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च यदासजत् / तेऽव्यक्तं प्रतिपद्यन्ते पुनः पुनररिंदम // 47 एवमेव च राजेन्द्र विज्ञेयं ज्ञेयचिन्तकैः // 33 सर्वमेतद्विजानन्तो न सर्वस्य प्रबोधनात् / अधिष्ठातारमव्यक्तमस्याप्येतन्निदर्शनम् / व्यक्तीभूता भविष्यन्ति व्यक्तस्य वशवर्तिनः // 48 एकत्वं च बहुत्वं च प्रकृतेरनु तत्त्ववान् / सर्वमव्यक्तमित्युक्तमसर्वः पञ्चविंशकः / एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च प्रवर्तनात् // 34 य एनमभिजानन्ति न भयं तेषु विद्यते // 49 बहुधात्मा प्रकुर्वीत प्रकृतिं प्रसवात्मिकाम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तच्च क्षेत्रं महानात्मा पञ्चविंशोऽधितिष्ठति // 35 चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 294 // अधिष्ठातेति राजेन्द्र प्रोच्यते यतिसत्तमैः।। 295 अधिष्ठानादधिष्ठाता क्षेत्राणामिति नः श्रुतम् // 36 वसिष्ठ उवाच / क्षेत्रं जानाति चाव्यक्त क्षेत्रज्ञ इति चोच्यते।। सांख्यदर्शनमेतावदुक्तं ते नृपसत्तम / अव्यक्तिके पुरे शेते पुरुषश्चेति कथ्यते // 37 विद्याविधे त्विदानी मे त्वं निबोधानुपूर्वशः // 1 अन्यदेव च क्षेत्रं स्यादन्यः क्षेत्रज्ञ उच्यते / अविद्यामाहुरव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै / क्षेत्रमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञाता वै पञ्चविंशकः // 38 सर्गप्रलयनिर्मुक्तं विद्यां वै पञ्चविंशकम् // 2 अन्यदेव च ज्ञानं स्यादन्यज्ज्ञेयं तदुच्यते / परस्परमविद्यां वै तन्निबोधानुपूर्वशः / ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः // 39 यथोक्तमृषिभिस्तात सांख्यस्यास्य निदर्शनम् // 3 अव्यक्त क्षेत्रमित्युक्तं तथा सत्त्वं तथेश्वरम् / कर्मेन्द्रियाणां सर्वेषां विद्या बुद्धीन्द्रियं स्मृतम् / अनीश्वरमतत्त्वं च तत्त्वं तत्पश्चविंशकम् // 40 | बुद्धीन्द्रियाणां च तथा विशेषा इति नः श्रुतम् // 4 सांख्यदर्शनमेतावत्परिसंख्यानदर्शनम् / विशेषाणां मनस्तेषां विद्यामाहुर्मनीषिणः / सांख्यं प्रकुरुते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते // 41 मनसः पञ्च भूतानि विद्या इत्यभिचक्षते // 5 -2395 - Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 295. 6] महाभारते [ 12. 295. 35 अहंकारस्तु भूतानां पश्चानां नात्र संशयः। तदेषोऽन्यत्वतामेति न च मिश्रत्वमाव्रजेत् / अहंकारस्य च तथा बुद्धिविद्या नरेश्वर // 6 प्रकृत्या चैव राजेन्द्र नमिश्रोऽन्यश्च दृश्यते // 21 बुद्धेः प्रकृतिरव्यक्तं तत्त्वानां परमेश्वरम् / यदा तु गुणजालं तत्प्राकृतं विजुगुप्सते / विद्या ज्ञेया नरश्रेष्ठ विधिश्च परमः स्मृतः // 7 पश्यते चापरं पश्यं तदा पश्यन्न संज्वरेत् // 22 अव्यक्तस्य परं प्राहुर्विद्यां वै पश्चविंशकम् / किं मया कृतमेतावद्योऽहं कालमिमं जनम् / सर्वस्य सर्वमित्युक्तं ज्ञेयं ज्ञानस्य पार्थिव // 8 मत्स्यो जालं ह्यविज्ञानादनुवर्तितवांस्तथा // 23 ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयं वै पञ्चविंशकम् / अहमेव हि संमोहादन्यमन्यं जनाजनम् / तथैव ज्ञानमव्यक्तं विज्ञाता पञ्चविंशकः // 9 मत्स्यो यथोदकज्ञानादनुवर्तितवानिह // 24 . विद्याविद्यार्थतत्त्वेन मयोक्तं ते विशेषतः।। मत्स्योऽन्यत्वं यथाज्ञानादुदक्वान्नाभिमन्यते / अक्षरं च क्षरं चैव यदुक्तं तन्निबोध मे // 10 आत्मानं तद्वदज्ञानादन्यत्वं चैव वेदयहम् // 25 उभावेतौ क्षरावुक्तावुभावेतौ च नश्वरौ / ममास्तु धिगबुद्धस्य योऽहं मग्नमिमं पुनः / कारणं तु प्रवक्ष्यामि यथा ख्यातौ तु तत्त्वतः // 11 अनुवर्तितवान्मोहादन्यमन्यं जनाजनम् / / 26 अनादिनिधनावेतावुभावेवेश्वरौ मतौ। अयमत्र भवेद्वन्धुरनेन सह मोक्षणम् / तत्त्वसंज्ञावुभावेतौ प्रोच्येते ज्ञानचिन्तकैः // 12 साम्यमेकत्वमायातो यादृशस्तादृशस्त्वहम् // 27 सर्गप्रलयधर्मित्वादव्यक्तं प्राहुरक्षरम् / तुल्यतामिह पश्यामि सदृशोऽहमनेन वै / तदेतद्गुणसर्गाय विकुर्वाणं पुनः पुनः // 13 अयं हि विमलो व्यक्तमहमीदृशकस्तथा // 28 गुणानां महदादीनामुत्पद्यति परस्परम् / योऽहमज्ञानसंमोहादज्ञया संप्रवृत्तवान् / अधिष्ठानारक्षेत्रमाहुरेतत्तत्पश्चविंशकम् // 14 ससङ्गयाहं निःसङ्गः स्थितः कालमिमं त्वहम् // 29 यदा तु गुणजालं तदव्यक्तात्मनि संक्षिपेत् / अनयाहं वशीभूतः कालमेतं न बुद्धवान् / तदा सह गुणैस्तैस्तु पश्चविंशो विलीयते // 15 उच्चमध्यमनीचानां तामहं कथमावसे // 30 / गुणा गुणेषु लीयन्ते तदैका प्रकृतिर्भवेत् / समानयानया चेह सहवासमहं कथम् / क्षेत्रज्ञोऽपि यदा तात तत्क्षेत्रे संप्रलीयते // 16 गच्छाम्यबुद्धभावत्वादेषेदानी स्थिरो भवे // 31 तदाक्षरत्वं प्रकृतिर्गच्छते गुणसंज्ञिता। सहवासं न यास्यामि कालमेतद्धि वचनात् / निर्गुणत्वं च वैदेह गुणेषु प्रतिवर्तनात् // 17 वश्चितोऽस्म्यनया यद्धि निर्विकारो विकारया // 32 एवमेव च क्षेत्रज्ञः क्षेत्रज्ञानपरिक्षये / न चायमपराधोऽस्या अपराधो ह्ययं मम / प्रकृत्या निर्गुणस्त्वेष इत्येवमनुशुश्रुम // 18 योऽहमत्राभवं सक्तः पराङ्मखमुपस्थितः // 33 क्षरो भवत्येष यदा तदा गुणवतीमथ / ततोऽस्मि बहुरूपासु स्थितो मूर्तिध्वमूर्तिमान् / प्रकृतिं त्वभिजानाति निर्गुणत्वं तथात्मनः / / 19 अमूर्तश्चापि मूर्तात्मा ममत्वेन प्रधर्षितः // 34 तदा विशुद्धो भवति प्रकृतेः परिवर्जनात् / प्रकृतेरनयत्वेन तासु तास्विह योनिषु / अन्योऽहमन्येयमिति यदा बुध्यति बुद्धिमान्॥२० / निर्ममस्य ममत्वेन किं कृतं तासु तासु च / -2396 - Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 295. 35] शान्तिपर्व [12. 296. 14 296 योनीषु वर्तमानेन नष्टसंज्ञेन चेतसा // 35 न ममात्रानया कार्यमहंकारकृतात्मया। वसिष्ठ उवाच / आत्मानं बहुधा कृत्वा येयं भूयो युनक्ति माम् / अप्रबुद्धमथाव्यक्तमिमं गुणविधिं शृणु / इदानीमेष बुद्धोऽस्मि निर्ममो निरहंकृतः // 36 | गुणान्धारयते ह्येषा सृजत्याक्षिपते तथा // 1 ममत्वमनया नित्यमहंकारकृतात्मकम् / अजस्रं त्विह क्रीडार्थं विकुर्वन्ती नराधिप / अपेत्याहमिमां हित्वा संश्रयिष्ये निरामयम् // 37 आत्मानं बहुधा कृत्वा तान्येव च विचक्षते // 2 अनेन साम्यं यास्यामि नानयाहमचेतसा / एतदेवं विकुर्वाणां बुध्यमानो न बुध्यते / क्षमं मम सहानेन नैकत्वमनया सह / अव्यक्तबोधनाच्चैव बुध्यमानं वदन्त्यपि // 3 एवं परमसंबोधात्पश्चविंशोऽनुबुद्धवान् / / 38. न त्वेव बुध्यतेऽव्यक्तं सगुणं वाथ निर्गुणम् / अक्षरत्वं नियच्छेत त्यक्त्वा क्षरमनामयम् / कदाचित्त्वेव खल्वेतदाहुरप्रतिबुद्धकम् // 4 अव्यक्तं व्यक्तधर्माणं सगुणं निर्गुणं तथा / बुध्यते यदि वाव्यक्तमेतद्वै पञ्चविंशकम् / निर्गुणं प्रथमं दृष्ट्वा तादृग्भवति मैथिल // 39 बुध्यमानो भवत्येष सङ्गात्मक इति श्रुतिः // 5 अक्षरक्षरयोरेतदुक्तं तव निदर्शनम् / अनेनाप्रतिबुद्धेति वदन्त्यव्यक्तमच्युतम् / मयेह ज्ञानसंपन्नं यथाश्रुतिनिदर्शनात् // 40 अव्यक्तबोधनाच्चैव बुध्यमानं वदन्त्युत // 6 निःसंदिग्धं च सूक्ष्मं च विबुद्ध विमलं तथा। पञ्चविंशं महात्मानं न चासावपि बुध्यते / प्रवक्ष्यामि तु ते भूयस्तन्निबोध यथाश्रुतम् // 41 षड्विंशं विमलं बुद्धमप्रमेयं सनातनम् // 7 सांख्ययोगौ मया प्रोक्तौ शास्त्रद्वयनिदर्शनात् / / सततं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च बुध्यते / यदेव शास्त्रं सांख्योक्तं योगदर्शनमेव तत् // 42 दृश्यादृश्ये ह्यनुगतमुभावेव महाद्युती // 8 प्रबोधनकरं ज्ञानं सांख्यानामवनीपते / अव्यक्तं न तु तद्ब्रह्म बुध्यते तात केवलम् / विस्पष्टं प्रोच्यते तत्र शिष्याणां हितकाम्यया॥४३ केवलं पञ्चविंशं च चतुर्विंशं न पश्यति // 9 बृहच्चैव हि तच्छास्त्रमित्याहुः कुशला जनाः / बुध्यमानो यदात्मानमन्योऽहमिति मन्यते / अस्मिंश्च शास्त्रे योगानां पुनर्दधि पुनः शरः // 44 तदा प्रकृतिमानेष भवत्यव्यक्तलोचनः // 10 पञ्चविंशात्परं तत्त्वं न पश्यति नराधिप / बुध्यते च परां बुद्धिं विशुद्धाममलां यदा। सांख्यानां तु परं तत्र यथावदनुवर्णितम् // 45 षड्विंशो राजशार्दूल तदा बुद्धत्वमाव्रजेत् // 11 बुद्धमप्रतिबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः / ततस्त्यजति सोऽव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मिणम् / बुध्यमानं च बुद्धं च प्राहुर्योगनिदर्शनम् // 46 निर्गुणः प्रकृतिं वेद गुणयुक्तामचेतनाम् // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ततः केवलधर्मासौ भवत्यव्यक्तदर्शनात् / पञ्चनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 295 // केवलेन समागम्य विमुक्तोऽऽत्मानमाप्नुयात् // 13 एतत्तत्तत्त्वमित्याहुर्निस्तत्त्वमजरामरम् / तत्त्वसंश्रयणादेतत्तत्त्ववन्न च मानद / -2397 - Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 296. 14 ] महाभारते [12. 296. 360 पञ्चविंशतितत्त्वानि प्रवदन्ति मनीषिणः // 14 विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना // 28 न चैष तत्त्ववांस्तात निस्तत्त्वस्त्वेष बुद्धिमान् / केवलात्मा तथा चैव केवलेन समेत्य वै / एष मुश्चति तत्त्वं हि क्षिप्रं बुद्धस्य लक्षणम् // 15 स्वतन्त्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतन्त्रत्वमवाप्नते // 29 षड्विंशोऽहमिति प्राज्ञो गृह्यमाणोऽजरामरः / एतावदेतत्कथितं मया ते केवलेन बलेनैव समतां यात्यसंशयम् // 16 तथ्यं महाराज यथार्थतत्त्वम् / षड्विंशेन प्रबुद्धन बुध्यमानोऽप्यबुद्धिमान् / अमत्सरत्वं प्रतिगृह्य चार्थ एतन्नानात्वमित्युक्तं सांख्यश्रुतिनिदर्शनात् // 17 सनातनं ब्रह्म विशुद्धमाद्यम् // 30 चेतनेन समेतस्य पञ्चविंशतिकस्य च / न वेदनिष्ठस्य जनस्य राजएकत्वं वै भवत्यस्य यदा बुद्ध्या न बुध्यते // 18 ___ प्रदेयमेतत्परमं त्वया भवेत् / बुध्यमानोऽप्रबुद्धेन समतां याति मैथिल। विवित्समानाय विबोधकारक सङ्गधर्मा भवत्येष निःसङ्गात्मा नराधिप // 19 प्रबोधहेतोः प्रणतस्य शासनम् // 31 निःसङ्गात्मानमासाद्य षड्विंशकमजं विदुः।। न देयमेतच्च तथानृतात्मने विभुस्त्यजति चाव्यक्तं यदा त्वेतद्विबुध्यते / शठाय क्लीबाय न जिह्मबुद्धये। चतुर्विंशमगाधं च षड्विंशस्य प्रबोधनात् // 20 न पण्डितज्ञानपरोपतापिने एष ह्यप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ / देयं त्वयेदं विनिबोध यादृशे // 32 प्रोक्तो बुद्धश्च तत्त्वेन यथाश्रुतिनिदर्शनात् / श्रद्धान्वितायाथ गुणान्विताय नानात्वैकत्वमेतावद्रष्टव्यं शास्त्रदृष्टिभिः // 21 परापवादाद्विरताय नित्यम् / मशकोदुम्बरे यद्वदन्यत्वं तद्वदेतयोः / विशुद्धयोगाय बुधाय चैव मत्स्योऽम्भसि यथा तद्वदन्यत्वमुपलभ्यते // 22 क्रियावतेऽथ क्षमिणे हिताय // 33 एवमेवावगन्तव्यं नानात्वैकत्वमेतयोः / विविक्तशीलाय विधिप्रियाय एतद्विमोक्ष इत्युक्तमव्यक्तज्ञानसंहितम् / / 23 . विवादहीनाय बहुश्रुताय / पञ्चविंशतिकस्यास्य योऽयं देहेषु वर्तते / विजानते चैव न चाहितक्षमे एष मोक्षयितव्येति प्राहुरव्यक्तगोचरात् // 24 - दमे च शक्ताय शमे च देहिनाम् // 34 सोऽयमेवं विमुच्येत नान्यथेति विनिश्चयः / एतैर्गुणैर्हीनतमे न देयपरेण परधर्मा च भवत्येष समेत्य वै // 25 मेतत्परं ब्रह्म विशुद्धमाहुः। विशुद्धधर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान् / न श्रेयसा योक्ष्यति तादृशे कृतं विमुक्तधर्मा मुक्तेन समेत्य पुरुषर्षभ // 26 धर्मप्रवक्तारमपात्रदानात् // 35 नियोगधर्मिणा चैव नियोगात्मा भवत्यपि / पृथ्वीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णा विमोक्षिणा विमोक्षश्च समेत्येह तथा भवेत् // 27 ____ दद्यान्नदेयं त्विदमव्रताय / शुचिकर्मा शुचिश्चैव भवत्यमितदीप्तिमान् / जितेन्द्रियायैतदसंशयं ते . -2398 - Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 296. 36] शान्तिपर्व [ 12. 297.9 भवेत्प्रदेयं परमं नरेन्द्र // 36. अविज्ञानाच्च मूढात्मा पुनः पुनरुपद्रवन् / कराल मा ते भयमस्तु किंचि प्रेत्य जातिसहस्राणि मरणान्तान्युपाश्रुते // 47 देतच्छ्रुतं ब्रह्म परं त्वयाद्य / देवलोकं तथा तिर्यङ्मानुष्यमपि चाभुते / यथावदुक्तं परमं पवित्रं यदि शुध्यति कालेन तस्मादज्ञानसागरात् // 48 निःशोकमत्यन्तमनादिमध्यम् // 37 अज्ञानसागरो घोरो ह्यव्यक्तोऽगाध उच्यते / अगाधजन्मामरणं च राज अहन्यहनि मज्जन्ति यत्र भूतानि भारत // 49 निरामयं वीतभयं शिवं च / यस्मादगाधादव्यक्तादुत्तीर्णस्त्वं सनातनात् / समीक्ष्य मोहं त्यज चाद्य सर्व तस्मात्त्वं विरजाश्चैव वितमस्कश्च पार्थिव // 50 ज्ञानस्य तत्त्वार्थमिदं विदित्वा // 38 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अवाप्तमेतद्धि पुरा सनातना षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 296 // द्धिरण्यगर्भाद्गदतो नराधिप / 297 प्रसाद्य यत्नेन तमुग्रतेजसं भीष्म उवाच / सनातनं ब्रह्म यथाद्य वै त्वया // 39 मृगयां विचरन्कश्चिद्विजने जनकात्मजः / पृष्टस्त्वया चास्मि यथा नरेन्द्र वने ददर्श विप्रेन्द्रमृर्षि वंशधरं भृगोः // 1 तथा मयेदं त्वयि चोक्तमद्य / तमासीनमुपासीनः प्रणम्य शिरसा मुनिम् / तथावाप्तं ब्रह्मणो मे नरेन्द्र पश्चादनुमतस्तेन पप्रच्छ वसुमानिदम् // 2 महज्ज्ञानं मोक्षविदां पुराणम् // 40 भगवन्किमिदं श्रेयः प्रेत्य वापीह वा भवेत् / - भीष्म उवाच / . पुरुषस्याध्रुवे देहे कामस्य वशवर्तिनः // 3 एतदुक्तं परं ब्रह्म यस्मान्नावर्तते पुनः / सत्कृत्य परिपृष्टः सन्सुमहात्मा महातपाः / पञ्चविंशो महाराज परमर्षिनिदर्शनात् // 41 निजगाद ततस्तस्मै श्रेयस्करमिदं वचः // 4 पुनरावृत्तिमाप्नोति परं ज्ञानमवाप्य च / मनसोऽप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वाञ्छसि / नावबुध्यति तत्त्वेन बुध्यमानोऽजरामरः // 42 भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः // 5 एतन्निःश्रेयसकरं ज्ञानानां ते परं मया / धर्मः सतां हितः पुंसां धर्मश्चैवाश्रयः सताम् / कथितं तत्त्वतस्तात श्रुत्वा देवर्षितो नृप // 43 धर्माल्लोकात्रयस्तात प्रवृत्ताः सचराचराः // 6 हिरण्यगर्भादृषिणा वसिष्ठेन महात्मना / स्वादुकामुक कामानां वैतृष्ण्यं किं न गच्छसि / वसिष्ठादृषिशार्दूलान्नारदोऽवाप्तवानिदम् // 44 मधु पश्यसि दुर्बुद्धे प्रपातं नानुपश्यसि // 7 नारदाद्विदितं मह्यमेतद्ब्रह्म सनातनम् / यथा ज्ञाने परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना। मा शुचः कौरवेन्द्र त्वं श्रुत्वैतत्परमं पदम् // 45 / तथा धर्मे परिचयः कर्तव्यस्तत्फलार्थिना // 8 येन क्षराक्षरे वित्ते न भयं तस्य विद्यते / असता धर्मकामेन विशुद्ध कर्म दुष्करम् / विद्यते तु भयं तस्य यो नैतद्वेत्ति पार्थिव // 46 / सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम् // 9 - 2399 - Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 297. 10] महाभारते [12. 298. 11 वने ग्राम्यसुखाचारो यथा ग्राम्यस्तथैव सः। स तु स्वभावसंपन्नस्तच्छ्रुत्वा मुनिभाषितम् / ग्रामे वनसुखाचारो यथा वनचरस्तथा // 10 विनिवर्त्य मनः कामाद्धर्मे बुद्धिं चकार ह // 25 मनोवाकर्मके धर्मे कुरु श्रद्धां समाहितः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निवृत्तौ वा प्रवृत्तौ वा संप्रधार्य गुणागुणान् // 11 सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 297 // नित्यं च बहु दातव्यं साधुभ्यश्चानसूयता। ___ 298 प्रार्थितं व्रतशौचाभ्यां सत्कृतं देशकालयोः // 12 युधिष्ठिर उवाच। शुभेन विधिना लब्धमयि प्रतिपादयेत् / धर्माधर्मविमुक्तं यद्विमुक्तं सर्वसंश्रयात् / क्रोधमुत्सृज्य दत्त्वा च नानुतप्येन्न कीर्तयेत् // 13 जन्ममृत्युविमुक्तं च विमुक्तं पुण्यपापयोः॥ 1 अनृशंसः शुचिन्तिः सत्यवागार्जवे स्थितः / यच्छिवं नित्यमभयं नित्यं चाक्षरमव्ययम् / योनिकर्मविशुद्धश्च पात्रं स्याद्वेदविहिजः // 14 शुचि नित्यमनायासं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 2 सत्कृता चैकपत्नी च जात्या योनिरिहेष्यते / ऋग्यजुःसामगो विद्वान्षदर्मा पात्रमुच्यते // 15 भीष्म उवाच / स एव धर्मः सोऽधर्मस्तं तं प्रतिनरं भवेत् / अत्र ते वर्तयिष्येऽहमितिहासं पुरातनम् / पात्रकर्मविशेषेण देशकालाववेक्ष्य च // 16 याज्ञवल्क्यस्य संवादं जनकस्य च भारत // 3 लीलयाल्पं यथा गात्रात्प्रमृज्याद्रजसः पुमान् / याज्ञवल्क्यमृषिश्रेष्ठं दैवरातिर्महायशाः / बहुयत्नेन महता पापनिहरणं तथा // 17 पप्रच्छ जनको राजा प्रश्नं प्रश्नविदां वरः // 4 विरिक्तस्य यथा सम्यग्घृतं भवति भेषजम् / कतीन्द्रियाणि विप्रर्षे कति प्रकृतयः स्मृताः / तथा निर्दृतदोषस्य प्रेत्यधर्मः सुखावहः / / 18 किमव्यक्तं परं ब्रह्म तस्माच्च परतस्तु किम् // 5 मानसं सर्वभूतेषु वर्तते वै शुभाशुभे / प्रभवं चाप्ययं चैव कालसंख्यां तथैव च / अशुभेभ्यः समाक्षिप्य शुभेष्वेवावतारयेत् // 19 वक्तुमर्हसि विप्रेन्द्र त्वदनुग्रहकाटिणः // 6 सर्वं सर्वेण सर्वत्र क्रियमाणं च पूजय / अज्ञानात्परिपृच्छामि त्वं हि ज्ञानमयो निधिः / स्वधर्मे यत्र रागस्ते कामं धर्मो विधीयताम् // 20 तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वमेतदसंशयम् // 7 अधृतात्मन्धृतौ तिष्ठ दुर्बुद्वे बुद्धिमान्भव / - याज्ञवल्क्य उवाच / अप्रशान्त प्रशाम्य त्वमप्राज्ञ प्राज्ञवच्चर / / 21 श्रूयतामवनीपाल यदेतदनुपृच्छसि / तेजसा शक्यते प्राप्तुमुपायसहचारिणा / योगानां परमं ज्ञानं सांख्यानां च विशेषतः // 8 इह च प्रेत्य च श्रेयस्तस्य मूलं धृतिः परा // 22 न तवावि दितं किंचिन्मां तु जिज्ञासते भवान् / राजर्षिरधृतिः स्वर्गात्पतितो हि महाभिषः / पृष्टेन चापि वक्तव्यमेष धर्मः सनातनः // 9 ययातिः क्षीणपुण्यश्च धृत्या लोकानवाप्तवान् / / 23 / अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्ता विकाराश्चापि षोडश / तपस्विनां धर्मवतां विदुषां चोपसेवनात् / अथ सप्त तु व्यक्तानि प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः // 10 प्राप्स्यसे विपुलां बुद्धि तथा श्रेयोऽभिपत्स्यसे / / 24 / अव्यक्तं च महांश्चैव तथाहकार एव च / - 2400 - Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 298. 11] शान्तिपर्व [12. 299. 11 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् // 11 महात्मभिरनुप्रोक्तां कालसंख्यां निबोध मे // 26 एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकारानपि मे शृणु। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पञ्चमम् // अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 298 // शब्दस्पर्शी च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च / वाक्च हस्तो च पादौ च पायुमेंहें तथैव च // 13 याज्ञवल्क्य उवाच / एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु / अव्यक्तस्य नरश्रेष्ठ कालसंख्यां निबोध मे / बुद्धीन्द्रियाण्यथैतानि सविशेषाणि मैथिल // 14 पञ्च कल्पसहस्राणि द्विगुणान्यहरुच्यते // 1 मनः षोडशकं प्राहुरध्यात्मगतिचिन्तकाः / रात्रिरेतावती चास्य प्रतिबुद्धो नराधिप / त्वं चैवान्ये च विद्वांसस्तत्त्वबुद्धिविशारदाः // 15 सृजत्योषधिमेवाग्रे जीवनं सर्वदेहिनाम् // 2 अव्यक्ताञ्च महानात्मा समुत्पद्यति पार्थिव / ततो ब्रह्माणमसृजद्धैरण्याण्डसमुद्भवम् / प्रथमं सर्गमित्येतदाहुः प्राधानिकं बुधाः // 16 सा मूर्तिः सर्वभूतानामित्येवमनुशुश्रुम // 3 महतश्चाप्यहंकार उत्पद्यति नराधिप / संवत्सरमुषित्वाण्डे निष्क्रम्य च महामुनिः / द्वितीयं सर्गमित्याहुरेतद्बुद्ध्यात्मकं स्मृतम् // 17 संदधेऽधं महीं कृत्स्नां दिवमधू प्रजापतिः // 4 अहंकाराच्च संभूतं मनो भूतगुणात्मकम् / द्यावापृथिव्योरित्येष राजन्वेदेषु पठ्यते / तृतीयः सर्ग इत्येष आहंकारिक उच्यते // 18 तयोः शकलयोर्मध्यमाकाशमकरोत्प्रभुः // 5 मनसस्तु समुद्भूता महाभूता नराधिप / एतस्यापि च संख्यानं वेदवेदाङ्गपारगैः / चतुर्थ सर्गमित्येतन्मानसं परिचक्षते / / 19 दश कल्पसहस्राणि पादोनान्यहरुच्यते / शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च / रात्रिमेतावतीं चास्य प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः // 6 पश्चमं सर्गमित्याहुभौतिक भूतचिन्तकाः // 20 सृजत्यहंकारमृषिर्भूतं दिव्यात्मकं तथा / श्रोत्रं त्वक्चैव चक्षुश्च जिह्वा घ्राणं च पश्चमम् / चतुरश्चापरान्पुत्रान्देहात्पूर्व महानृषिः / सर्ग तु षष्ठमित्याहुवहुचिन्तात्मकं स्मृतम् // 21 ते वै पितृभ्यः पितरः श्रूयन्ते राजसत्तम // 7 अधः श्रोत्रेन्द्रियग्राम उत्पद्यति नराधिप / देवाः पितृणां च सुता देवैर्लोकाः समावृताः / सप्तमं सर्गमित्याहुरेतदैन्द्रियकं स्मृतम् // 22 चराचरा नरश्रेष्ठ इत्येवमनुशुश्रुम // 8 ऊर्ध्वस्रोतस्तथा तिर्यगुत्पद्यति नराधिप / परमेष्ठी त्वहंकारोऽसृजद्भूतानि पञ्चधा / अष्टमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं बुधाः // 23 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् // 9 तिर्यक्स्रोतस्त्वधःस्रोत उत्पद्यति नराधिप / एतस्यापि निशामाहुस्तृतीयमिह कुर्वतः / नवमं सर्गमित्याहुरेतदार्जवकं बुधाः // 24 पञ्च कल्पसहस्राणि तावदेवाहरुच्यते // 10 एतानि नव सर्गाणि तत्त्वानि च नराधिप / शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः / चतुर्विंशतिरुक्तानि यथाश्रुतिनिदर्शनात / / 25 एते विशेषा राजेन्द्र महाभूतेषु पञ्चसु / अत ऊधं महाराज गुणस्यैतस्य तत्त्वतः / यैराविष्टानि भूतानि अहन्यहनि पार्थिव // 11 म, भा. 01 -2401 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 299. 12] महाभारते [12. 301.1 अन्योन्यं स्पृहयन्त्येते अन्योन्यस्य हिते रताः। / एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणुजङ्गमम् / अन्योन्यमभिमन्यन्ते अन्योन्यस्पर्धिनस्तथा // 12 कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः // 6 ते वध्यमाना अन्योन्यं गुणैर्हारिभिरव्ययाः / जगद्दग्ध्वामितबलः केवलं जगतीं ततः / इहैव परिवर्तन्ते तिर्यग्योनिप्रवेशिनः // 13 अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूर्यत समन्ततः // . त्रीणि कल्पसहस्राणि एतेषामहरुच्यते / ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम् / रात्रिरेतावती चैव मनसश्च नराधिप // 14 विनष्टेऽम्भसि राजेन्द्र जाज्वलीत्यनलो महान् // 8 मनश्चरति राजेन्द्र चरितं सर्वमिन्द्रियैः / तमप्रमेयोऽतिबलं ज्वलमानं विभावसुम् / न चेन्द्रियाणि पश्यन्ति मन एवात्र पश्यति // 15 ऊष्माणं सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा // 9 . चक्षुः पश्यति रूपाणि मनसा तु न चक्षुषा / भक्षयामास बलवान्वायुरष्टात्मको बली / मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति / विचरन्नमितप्राणस्तियगूर्ध्वमधस्तथा // 10 तथेन्द्रियाणि सर्वाणि पश्यन्तीत्यभिचक्षते // 16 तमप्रतिबलं भीममाकाशं प्रसतेऽऽत्मना / मनस्युपरते राजनिन्द्रियोपरमो भवेत् / आकाशमप्यतिनदन्मनों ग्रसति चारिकम् // 11 न चेन्द्रियव्युपरमे मनस्युपरमो भवेत् / मनो ग्रसति सर्वात्मा सोऽहंकारः प्रजापतिः / एवं मनःप्रधानानि इन्द्रियाणि विभावयेत् // 17 अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित् // 12 इन्द्रियाणां हि सर्वेषामीश्वरं मन उच्यते / तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शंभुः प्रजापतिः / एतद्विशन्ति भूतानि सर्वाणीह महायशाः // 18 अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः॥१३ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वतःपाणिपादान्तः सर्वतोक्षिशिरोमुखः / नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 299 // सर्वतःश्रुतिमाल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति // 14 हृदयं सर्वभूतानां पर्वणोऽङ्गुष्ठमात्रकः / याज्ञवल्क्य उवाच / अनुप्रसत्यनन्तं हि महात्मा विश्वमीश्वरः // 15 तत्त्वानां सर्गसंख्या च कालसंख्या तथैव च / ततः समभवत्सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम् / मया प्रोक्तानुपूर्येण संहारमपि मे शृणु // 1 भूतभव्यमनुष्याणां स्रष्टारमनघं तथा // 16 यथा संहरते जन्तून्ससर्ज च पुनः पुनः / एषोऽप्ययस्ते राजेन्द्र यथावत्परिभाषितः / अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च // 2 अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं च श्रूयताम् // 17 अहःक्षयमथो बुद्धा निशि स्वप्नमनास्तथा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चोदयामास भगवानव्यक्तोऽहंकृतं नरम् // 3 विशततमोऽध्यायः // 30 // ततः शतसहस्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः / कृत्वा द्वादशधात्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत् // 4 याज्ञवल्क्ष उवाच / चतुर्विधं प्रजाजालं निर्दहत्याशु तेजसा। पादावध्यात्मभित्याहुना॑ह्मणास्तत्त्वदर्शिनः / जराय्वण्डस्वेदजातमुद्भिज्जं च नराधिप / / 5 / गन्तव्यमधिभूतं च विष्णुस्तत्राधिदैवतम् // 1 -2402 - 300 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 301. 2] शान्तिपर्व [12. 302.1 पायुरध्यात्ममित्याहुर्यथातत्त्वार्थदर्शिनः / सत्त्वमानन्द उद्रेकः प्रीतिः प्राकाश्यमेव च / विसर्गमधिभूतं च मित्रस्तत्राधिदैवतम् // 2 सुखं शुद्धित्वमारोग्यं संतोषः श्रद्दधानता // 17 उपस्थोऽध्यात्म मित्याहुर्यथायोगनिदर्शनम् / अकार्पण्यमसंरम्भः क्षमा धृतिरहिंसता। अधिभूतं तथानन्दो दैवतं च प्रजापतिः // 3 समता सत्यमानृण्यं मार्दवं हीरचापलम् // 18 हस्तावध्यात्ममित्याहुर्यथासांख्यनिदर्शनम् / शौचमार्जवमाचारमलौल्यं हृद्यसंभ्रमः / कर्तव्यमधिभूतं तु इन्द्रस्तत्राधिदैवतम् / / 4 इष्टानिष्टवियोगानां कृतानामविकत्थनम् // 19 वागध्यात्ममिति प्राहुर्यथाश्रुतिनिदर्शनम् / / दानेन चानुग्रहणमस्पृहार्थे परार्थता / वक्तव्यमधिभूतं तु वह्निस्तत्राधिदैवतम् // 5 सर्वभूतदया चैव सत्त्वस्यैते गुणाः स्मृताः // 20 चक्षुरध्यात्ममित्याहुर्यथाश्रुतिनिदर्शनम् / . रजोगुणानां संघातो रूपमैश्वर्यविग्रहे। रूपमत्राधिभूतं तु सूर्यस्तत्राधिदैवतम् // 6 अत्याशित्वमकारुण्यं सुखदुःखोपसेवनम् // 21 श्रोत्रमव्यात्ममित्याहुर्यथाश्रुतिनिदर्शनम् / परापवादेषु रतिर्विवादानां च सेवनम् / शब्दस्तत्राधिभूतं तु दिशस्तत्राधिदैवतम् // 7 अहंकारस्त्वसत्कारश्चिन्ता वैरोपसेवनम् // 22 जिह्वामध्यात्ममित्याहुर्यथातत्त्वनिदर्शनम् / परितापोऽपहरणं वीनाशोऽनार्जवं तथा / रस एवाधिभूतं तु आपस्तत्राधिदैवतम् // 8 भेदः परुषता चैव कामक्रोधौ मदस्तथा / घाणमध्यात्ममित्य हुर्य वाश्रुतिनिदर्शनम् / दो द्वेषोऽतिवादश्च एते प्रोक्ता रजोगुणाः // 23 गन्ध एवाधिभूतं तु पृथिवी चाधिदैवतम् // 9 तामसानां तु संघातं प्रवक्ष्याम्युपधार्यताम् / त्वगध्यात्ममिति प्राहुस्तत्त्वबुद्धिविशारदाः। मोहोऽप्रकाशस्तामिस्रमन्धतामिस्रसंज्ञितम् // 24 स्पर्श एवाधिभूतं तु पवनश्वाधिदैवतम् // 10 / मरणं चान्धतामिस्रं तामिस्रं क्रोध उच्यते / मनोऽध्यात्ममिति प्राहुर्यथाश्रुतिनिदर्शनम् / तमसो लक्षणानीह भक्षाणामभिरोचनम् // 25 मन्तव्यमधिभूतं तु चन्द्रमाश्चाधिदैवतम् // 11 भोजनानामपर्याप्तिस्तथा पेयेष्वतृप्तता / अहंकारिकमध्यात्ममाहुस्तत्त्वनिदर्शनम् / गन्धवासो विहारेषु शयनेष्वासनेषु च // 26 अभिमानोऽधिभूतं तु भवस्तत्राधिदेवतम् // 12 दिवास्वप्ने विवादे च प्रमादेषु च वै रतिः / बुद्धिरध्यात्ममित्याहुर्यथावेदनिदर्शनम् / नृत्यवादित्रगीतानामज्ञानाच्छ्रधानता। बोद्धव्यमधिभूतं तु क्षेत्रज्ञोऽत्राधिदैवतम् // 13 द्वेषो धर्मविशेषाणामेते वै तामसा गुणाः // 27 एषा ते व्यक्ततो राजन्विभूतिरनुवर्णिता। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आदौ मध्ये तथा चान्ते यथातत्त्वेन तत्त्ववित् / / एकाधिकत्रिंशततमोऽध्यायः॥३०१॥ प्रकृतिगुणान्विकुरुते स्वच्छन्देनात्मकाम्यया / क्रीडार्थ तु महाराज शतशोऽथ सहस्रशः // 15 / याज्ञवल्क्य उवाच / यथा दीपसहस्राणि दीपान्माः प्रकुर्वते। | एते प्रधानस्य गुणास्त्रयः पुरुषसत्तम / प्रकृतिस्तथा विकुरुते पुरुषस्य गुणान्बहून् // 16 / कृत्स्नस्य चैव जगतस्तिष्ठन्त्यनपगाः सदा // 1 -2403 3D Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 302. 2] महाभारते [ 12. 303. 11 शतधा सहस्रधा चैव तथा शतसहस्रधा। तथैवोत्क्रमणस्थानं देहिनोऽपि वियुज्यतः // 16 कोटिशश्च करोत्येष प्रत्यगात्मानमात्मना / 2 कालेन यद्धि प्राप्नोति स्थानं तद्रूहि मे द्विज / सात्त्विकस्योत्तमं स्थानं राजसस्येह मध्यमम् / सांख्यज्ञानं च तत्त्वेन पृथग्योगं तथैव च // 17 तामसस्याधमं स्थानं प्राहुरध्यात्मचिन्तकाः // 3 अरिष्टानि च तत्त्वेन वक्तुमर्हसि सत्तम। केवलेनेह पुण्येन गतिमूर्खामवाप्नुयात् / विदितं सर्वमेतत्ते पाणावामलकं यथा // 18. पुण्यपापेन मानुष्यमधर्मेणाप्यधोगतिम् // 4 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्वंद्वमेषां त्रयाणां तु संनिपातं च तत्त्वतः / द्वयधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 302 // सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च शृणुष्व मे / / 5 303 सत्त्वस्य तु रजो दृष्टं रजसश्च तमस्तथा / याज्ञवल्क्य उवाच / तमसश्च तथा सत्त्वं सत्त्वस्याव्यक्तमेव च // 6 न शक्यो निर्गुणस्तात गुणीकर्तुं विशां पते / अव्यक्तसत्त्वसंयुक्तो देवलोकमवाप्नुयात् / गुणवांश्चाप्यगुणवान्यथातत्त्वं निबोध मे // 1 रजःसत्त्वसमायुक्तो मनुष्येषूपपद्यते // 7 गुणैर्हि गुणवानेव निर्गुणश्चागुणस्तथा / रजस्तमोभ्यां संयुक्तस्तियग्योनिषु जायते / प्राहुरेवं महात्मानो मुनयस्तत्त्वदर्शिनः // 2 रजस्तामससत्त्वैश्च युक्तो मानुष्यमाप्नुयात् / / 8 गुणस्वभावस्त्वव्यक्तो गुणानेवाभिवर्तते / पुण्यपापवियुक्तानां स्थानमाहुर्मनीषिणाम् / उपयुङ्क्ते च तानेव स चैवाज्ञः स्वभावतः / / 3 शाश्वतं चाव्ययं चैव अक्षरं चाभयं च यत् // 9 अव्यक्तस्तु न जानीते पुरुषो ज्ञः स्वभावतः / ज्ञानिनां संभवं श्रेष्ठं स्थानमव्रणमच्युतम् / न मत्तः परमस्तीति नित्यमेवाभिमन्यते // 4 अतीन्द्रियमबीजं च जन्ममृत्युतमोनुदम् // 10 अनेन कारणेनैतदब्यक्तं स्यादचेतनम् / अव्यक्तस्थं परं यत्तत्पृष्टस्तेऽहं नराधिप / नित्यत्वादक्षरत्वाच्च क्षराणां तत्त्वतोऽन्यथा // 5 स एष प्रकृतिस्थो हि तस्थुरित्यभिधीयते // 11 यदाज्ञानेन कुर्वीत गुणसर्ग पुनः पुनः / अचेतनश्चैष मतः प्रकृतिस्थश्च पार्थिव / यदात्मानं न जानीते तदाव्यक्तमिहोच्यते // 6 एतेनाधिष्ठितश्चैव सृजते संहरत्यपि // 12 कर्तृत्वाच्चापि तत्त्वानां तत्त्वधर्मी तथोच्यते / जनक उवाच / कर्तृत्वाच्चैव योनीनां योनिधर्मा तथोच्यते // 7 अनादिनिधनावेतावुभावेव महामुने / कर्तृत्वात्प्रकृतीनां तु तथा प्रकृतिधर्मिता / अमूर्तिमन्तावचलावप्रकम्प्यौ च निव्रणौ // 13 कर्तृत्वाच्चापि बीजानां बीजधर्मी तथोच्यते // 8 अग्राह्यावृषिशार्दूल कथमेको ह्यचेतनः / / गुणानां प्रसवत्वाच्च तथा प्रसवधर्मवान् / चेतनावांस्तथा चैकः क्षेत्रज्ञ इति भाषितः // 14 कर्तृत्वात्प्रलयानां च तथा प्रलयधर्मिता // 9 त्वं हि विप्रेन्द्र कात्स्न्येन मोक्षधर्ममुपाससे / बीजत्वात्प्रकृतित्वाच्च प्रलयत्वात्तथैव च / साकल्यं मोक्षधर्मस्य श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः / / 15 उपेक्षकत्वादन्यवादभिमानाञ्च केवलम् // 10 अस्तित्वं केवलत्वं च विनाभावं तथैव च। मन्यन्ते यतयः शुद्धा अध्यात्मविगतज्वराः / -2404 - Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 303. 11] शान्तिपर्व [12. 304. 18 अनित्यं नित्यमव्यक्तमेवमेतद्धि शुश्रुम // 11 वयं तु राजन्पश्याम एकमेव तु निश्चयात् // 3 अव्यक्तैकत्वमित्याहु नात्वं पुरुषस्तथा। यदेव योगाः पश्यन्ति तत्सांख्यैरपि दृश्यते / सर्वभूतदयावन्तः केवलं ज्ञानमास्थिताः // 12 एकं सांख्यं च योगं यः पश्यति स तत्त्ववित्॥४ अन्यः स पुरुषोऽव्यक्तस्त्वध्रुवो ध्रुवसंज्ञकः / रुद्रप्रधानानपरान्विद्धि योगान्परंतप / यथा मुञ्ज इषीकायास्तथैवैतद्धि जायते // 13 तेनैव चाथ देहेन विचरन्ति दिशो दश // 5 अन्यं च मशकं विद्यादन्यच्चोदुम्बरं तथा / यावद्धि प्रलयस्तात सूक्ष्मेणाष्टगुणेन वै / न चोदुम्बरसंयोगैर्मशकस्तत्र लिप्यते / / 14 / / योगेन लोकान्विचरन्सुखं संन्यस्य चानघ // 6 अन्य एव तथा मत्स्यस्तथान्यदुदकं स्मृतम् / वेदेषु चाष्टगुणितं योगमाहुर्मनीषिणः / न चोदकस्य स्पर्शन मत्स्यो लिप्यति सर्वशः // 15 सूक्ष्ममष्टगुणं प्राहुर्नेतरं नृपसत्तम / 7 अन्यो ह्यग्निरुखाप्यन्या नित्यमेवमवैहि भोः। द्विगुणं योगकृत्यं तु योगानां प्राहुरुत्तमम् / न चोपलिप्यते सोऽग्निरुखासंस्पर्शनेन वै // 16 / सगुणं निर्गुणं चैव यथाशास्त्रनिदर्शनम् // 8 पुष्करं त्वन्यदेवात्र तथान्यदुदकं स्मृतम् / धारणा चैव मनसः प्राणायामश्च पार्थिव / न चोदकस्य स्पर्शेन लिप्यते तत्र पुष्करम् / / 17 / प्राणायामो हि सगुणो निर्गुणं धारणं मनः // 9 एतेषां सह संवासं विवासं चैव नित्यशः / यत्र दृश्येत मुश्चन्वै प्राणान्मैथिलसत्तम / यथा तथैनं पश्यन्ति न नित्यं प्राकृता जनाः // 18 वाताधिक्यं भवत्येव तस्माद्धि न समाचरेत् // 10 ये त्वन्यथैव पश्यन्ति न सम्यक्तेषु दर्शनम् / / निशायाः प्रथमे यामे चोदना द्वादश स्मृताः / ते व्यक्तं निरयं घोरं प्रविशन्ति पुनः पुनः॥ 19 मध्ये सुप्त्वा परे यामे द्वादशैव तु चोदनाः // 11 सांख्यदर्शनमेतत्ते परिसंख्यातमुत्तमम् / तदेवमुपशान्तेन दान्तेनैकान्तशीलिना / एवं हि परिसंख्याय सांख्याः केवलतां गताः // 20 आत्मारामेण बुद्धेन योक्तव्योऽऽत्मा न संशयः // ये त्वन्ये तत्त्वकुशलास्तेषामेतन्निदर्शनम् / पञ्चानामिन्द्रियाणां तु दोषानाक्षिप्य पञ्चधा / अतः परं प्रवक्ष्यामि योगानामपि दर्शनम् / / 21 शब्द स्पर्श तथा रूपं रसं गन्धं तथैव च // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रतिभामपवर्ग च प्रतिसंहृत्य मैथिल / ध्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 303 // इन्द्रियग्राममखिलं मनस्यभिनिवेश्य ह // 14 304 मनस्तथैवाहंकारे प्रतिष्ठाप्य नराधिप / याज्ञवल्क्य उवाच / अहंकारं तथा बुद्धौ बुद्धिं च प्रकृतावपि // 15 सांख्यज्ञानं मया प्रोक्तं योगज्ञानं निबोध मे। एवं हि परिसंख्याय ततो ध्यायेत केवलम् / यथाश्रुतं यथादृष्टं तत्त्वेन नृपसत्तम // 1 विरजस्कमलं नित्यमनन्तं शुद्धमत्रणम् // 16 नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम् / तस्थुषं पुरुषं सत्त्वमभेद्यमजरामरम् / तावुभावेकचौ तु उभावनिधनौ स्मृतौ / / 2 शाश्वतं चाव्ययं चैव ईशानं ब्रह्म चाव्ययम् // 17 पृथक्पृथक्तु पश्यन्ति येऽल्पबुद्धिरता नराः। / युक्तस्य तु महाराज लक्षणान्युपधारयेत् / -2405 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 304. 18 ] महाभारते [ 12. 305. 18 लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत् // 18 - बाहुभ्यामिन्द्रमित्याहुरुरसा रुद्रमेव च // 4 निवाते तु यथा दीपो ज्वलेत्स्नेहसमन्वितः। ग्रीवायास्तमृषिश्रेष्ठं नरमाप्नोत्यनुत्तमम् / निश्चलोर्ध्वशिखस्तद्वद्युक्तमाहुर्मनीषिणः // 19 विश्वेदेवान्मुखेनाथ दिशः श्रोत्रेण चाप्नुयात् // 5 पाषाण इव मेघोत्थैर्यथा विन्दुभिराहतः / घ्राणेन गन्धवहनं नेत्राभ्यां सूर्यमेव च / नालं चालयितुं शक्यस्तथा युक्तस्य लक्षणम् // 20 भ्रूभ्यां चैवाश्विनौ देवौ ललाटेन पितृनथ // 6 शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैर्विविधैर्गीतवादितैः / ब्रह्माणमाप्नोति विभुं मूर्धा देवाग्रजं तथा। क्रियमाणैर्न कम्पेत युक्तस्यैतन्निदर्शनम् // 21 एतान्युत्क्रमणस्थानान्युक्तानि मिथिलेश्वर // . तैलपात्रं यथा पूर्ण कराभ्यां गृह्य पूरुषः / अरिष्टानि तु वक्ष्यामि विहितानि मनीषिभिः / सोपानमारुहेद्धीतस्तय॑मानोऽसिपाणिभिः // 22 संवत्सरवियोगस्य संभवेयुः शरीरिणः // 8 संयतात्मा भयात्तेषां न पात्राद्विन्दुमुत्सृजेत् / योऽरुन्धतीं न पश्येत दृष्टपूर्वां कदाचन / तथैवोत्तरमाणस्य एकाग्रमनसस्तथा // 23 तथैव ध्रुवमित्याहुः पूर्णेन्दुं दीपमेव च / स्थिरत्वादिन्द्रियाणां तु निश्चलत्वात्तथैव च / खण्डाभासं दक्षिणतस्तेऽपि संवत्सरायुषः॥ 9 एवं युक्तस्य तु मुनेर्लक्षणान्युपधारयेत् / / 24 परचक्षुषि चात्मानं ये न पश्यन्ति पार्थिव / स युक्तः पश्यति ब्रह्म यत्तत्परममव्ययम् / आत्मच्छायाकृतीभूतं तेऽपि संवत्सरायुषः॥ 10 महतस्तमसो मध्ये स्थितं ज्वलनसंनिभम् // 25 अतिद्युतिरतिप्रज्ञा अप्रज्ञा चाद्युतिस्तथा / एतेन केवलं याति त्यक्त्वा देहमसाक्षिकम् / / प्रकृतेर्विक्रियापत्तिः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् // 11 कालेन महता राजश्रुतिरेषा सनातनी // 26 देवतान्यवजानाति ब्राह्मणैश्च विरुध्यते / एतद्धि योगं योगानां किमन्यद्योगलक्षणम् / कृष्णश्यावच्छविच्छायः षण्मासान्मृत्युलक्षणम् // विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः // 27 शीर्णनाभि यथा चक्रं छिद्रं सोमं प्रपश्यति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तथैव च सहस्रांशु सप्तरात्रेण मृत्युभाक् // 13 चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 304 // शवगन्धमुपाघ्राति सुरभिं प्राप्य यो नरः / 305 देवतायतनस्थस्तु पात्रेण स मृत्युभाक् // 14 याज्ञवल्क्य उवाच / कर्णनासावनमनं दन्तदृष्टिविरागिता / तथैवोत्क्रममाणं तु शृणुष्वावहितो नृप / संज्ञालोपो निरूष्मत्वं सद्योमृत्युनिदर्शनम् // 15 पद्भयामुत्क्रममाणस्य वैष्णवं स्थानमुच्यते // 1 / अकस्माच्च वेद्यस्य वाममक्षि नराधिप / जवाभ्यां तु वसून्देवानाप्नुयादिति न श्रुतम् / मूर्धतश्चोत्पतेद्धूमः सद्योमृत्युनिदर्शनम् // 16 जानुभ्यां च महाभागान्देवान्साध्यानवाप्नुयात् // 2 / एतावन्ति त्वरिष्टानि विदित्वा मानवोऽऽत्मवान् / पायुनोत्क्रममाणस्तु मैत्रं स्थानमवाप्नुयात् / निशि चाहनि चात्मानं योजयेत्परमात्मनि // 17 पृथिवीं जघनेनाथ ऊरुभ्यां तु प्रजापतिम् // 3 / प्रतीक्षमाणस्तत्कालं यत्कालं प्रति तद्भवेत् / पार्श्वभ्यां मरुतो देवान्नासाभ्यामिन्दुमेव च। / अथास्य नेष्टं मरणं स्थातुमिच्छेदिमां क्रियाम् // 18 -2406 Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 305. 19 ] शान्तिपर्व [12. 306. 25 सर्वगन्धारसांश्चैव धारयेत समाहितः / कृत्स्नं शतपथं चैव प्रणेष्यसि द्विजर्षभ / तथा हि मृत्युं जयति तत्परेणान्तरात्मना // 19 | तस्यान्ते चापुनर्भावे बुद्धिस्तव भविष्यति // 11 ससांख्यधारणं चैव विदित्वा मनुजर्षभ / प्राप्स्यसे च यदिष्टं तत्सांख्ययोगेप्सितं पदम् / जयेच्च मृत्युं योगेन तत्परेणान्तरात्मना // 20 एतावदुक्त्वा भगवानस्तमेवाभ्यवर्तत // 12 गच्छेत्प्राप्याक्षयं कृत्स्नमजन्म शिवमव्ययम् / ततोऽनुव्याहृतं श्रुत्वा गते देवे विभावसौ। शाश्वतं स्थानमचलं दुष्प्रापमकृतात्मभिः // 21 गृहमागत्य संहृष्टोऽचिन्तयं वै सरस्वतीम् // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ततः प्रवृत्तातिशुभा स्वरव्यञ्जनभूषिता / पञ्चाधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥३०५॥ ॐकारमादितः कृत्वा मम देवी सरस्वती // 14 ततोऽहमध्यं विधिवत्सरस्वत्यै न्यवेदयम् / याज्ञवल्क्य उवाच / तपतां च वरिष्ठाय निषण्णस्तत्परायणः // 15 अव्यक्तस्थं परं यत्तत्पृष्टस्तेऽहं नराधिप / ततः शतपथं कृत्स्नं सरहस्यं ससंग्रहम् / परं गुह्यमिमं प्रश्नं शृणुप्वावहितो नृप // 1 चक्रे सपरिशेषं च हर्षेण परमेण ह // 16 यथार्षेणेह विधिना चरतावमतेन ह / कृत्वा चाध्ययनं तेषां शिष्याणां शतमुत्तमम् / मयादित्यादवाप्तानि यजूंषि मिथिलाधिप / 2 विप्रियार्थ सशिष्यस्य मातुलस्य महात्मनः // 17 महता तपसा देवस्तपिष्ठः सेवितो मया / ततः सशिष्येण मया सूर्येणेव गभस्तिभिः / प्रीतेन चाहं विभुना सूर्येणोक्तस्तदानघ // 3 / व्याप्तो यज्ञो महाराज पितुस्तव महात्मनः // 18 चरं वृणीष्व विप्रर्षे यदिष्टं ते सुदुर्लभम् / मिषतो देवलस्यापि ततोऽधं हृतवानहम् / तत्ते दास्यामि प्रीतात्मा मत्प्रसादो हि दुर्लभः // 4 स्ववेददक्षिणायाथ विमर्दे मातुलेन ह // 19 ततः प्रणम्य शिरसा मयोक्तस्तपतां वरः / सुमन्तुनाथ पैलेन तथा जैमिनिना च वै / यजूंषि नोपयुक्तानि क्षिप्रमिच्छामि वेदितुम् // 5 पित्रा ते मुनिभिश्चैव ततोऽहमनुमानितः // 20 ततो मां भगवानाह वितरिष्यामि ते द्विज / दश पञ्च च प्राप्तानि यजूंष्यन्मियानघ / सरस्वतीह वाग्भूता शरीरं ते प्रवेक्ष्यति / / 6 तथैव लोमहर्षाच्च पुराणमवधारितम् / / 21 ततो मामाह भगवानास्यं स्वं विवृतं कुरु / बीजमेतत्पुरस्कृत्य देवीं चैव सरस्वतीम् / विवृतं च ततो मेऽऽस्यं प्रविष्टा च सरस्वती // 7 सूर्यस्य चानुभावेन प्रवृत्तोऽहं नराधिप // 22 ततो विदह्यमानोऽहं प्रविष्टोऽम्भस्तदानघ / कर्तुं शतपथं वेदमपूर्व कारितं च मे / अविज्ञानादमर्षाच्च भास्करस्य महात्मनः // 8 यथाभिलषितं मार्ग तथा तच्चोपपादितम् // 23 ततो विदह्यमानं मामुवाच भगवान्रविः / शिष्याणामखिलं कृत्स्नमनुज्ञातं ससंग्रहम् / मुहूर्त सह्यतां दाहस्ततः शीतीभविष्यसि // 9 - सर्वे च शिष्याः शुचयो गताः परमहर्षिताः // 24 शीतीभूतं च मां दृष्ट्वा भगवानाह भास्करः / शाखाः पञ्चदशेमास्तु विद्या भास्करदर्शिताः / प्रतिष्ठास्यति ते वेदः सोत्तरः सखिलो द्विज // 10 / प्रतिष्ठाप्य यथाकामं वेद्यं तदनुचिन्तयम् // 25 -2407 -- Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 306. 26 ] महाभारते [ 12. 306.54 किमत्र ब्रह्मण्यमृतं किं च वेद्यमनुत्तमम् / कस्तपा अतपाः प्रोक्तः कोऽसौ पुरुष उच्यते / चिन्तये तत्र चागत्य गन्धर्वो मामपृच्छत // 26 तपाः प्रकृतिरित्याहुरतपा निष्कलः स्मृतः // 40 विश्वावसुस्ततो राजन्वेदान्तज्ञानकोविदः / तथैवावेद्यमव्यक्तं वेद्यः पुरुष उच्यते / चतुर्विंशतिकान्प्रश्नान्पृष्ट्वा वेदस्य पार्थिव / चलाचलमिति प्रोक्तं त्वया तदपि मे शृणु // 41 पञ्चविंशतिमं प्रश्नं पप्रच्छान्वीक्षिकी तथा // 27 चलां तु प्रकृति प्राहुः कारणं क्षेपसर्गयोः / विश्वाविश्वं तथाश्वाश्वं मित्रं वरुणमेव च।। अक्षेपसर्गयोःकर्ता निश्चलः पुरुषः स्मृतः // 42 ज्ञानं ज्ञेयं तथाज्ञो ज्ञः कस्तपा अतपास्तथा / अजावुभावप्रजौ च अक्षयौ चाप्युभावपि / सूर्यादः सूर्य इति च विद्याविद्ये तथैव च // 28 / अजौ नित्यावुभौ प्राहुरध्यात्मगतिनिश्चयाः // 43 वेद्यावेद्यं तथा राजन्नचलं चलमेव च / अक्षयत्वात्प्रजनने अजमत्राहुरव्ययम् / अपूर्वमक्षयं क्षय्यमेतत्प्रश्नमनुमत्तमम् // 29 अक्षयं पुरुषं प्राहुः क्षयो ह्यस्य न विद्यते // 44 अथोक्तश्च मया राजनराजा गन्धर्वसत्तमः / गुणक्षयत्वात्प्रकृतिः कर्तृत्वादक्षयं बुधाः / पृष्टवाननुपूर्वेण प्रश्नमुत्तममर्थवत् // 30 एषा तेऽऽन्वीक्षिकी विद्या चतुर्थी सांपरायिकी // मुहूर्त मृष्यतां तावद्यावदेनं विचिन्तये / विद्योपेतं धनं कृत्वा कर्मणा नित्यकर्मणि / बाढमित्येव कृत्वा स तूष्णीं गन्धर्व आस्थितः / / एकान्तदर्शना वेदाः सर्वे विश्वावसो स्मृताः // 46 ततोऽन्वचिन्तयमहं भूयो देवी सरस्वतीम् / जायन्ते च म्रियन्ते च यस्मिन्नते यतच्युताः / मनसा स च मे प्रश्नो दध्नो घृतमिवोद्धृतम् // 32 वेदार्थं ये न जानन्ति वेद्यं गन्धर्वसत्तम / / 47 तत्रोपनिषदं चैव परिशेषं च पार्थिव / साङ्गोपाङ्गानपि यदि पञ्च वेदानधीयते / मनामि मनसा तात दृष्ट्वा चान्वीक्षिकी पराम॥३३ वेदवेद्यं न जानीते वेदभारवहो हि सः // 48 चतुर्थी राजशार्दूल विद्यैषा सांपरायिकी। यो घृतार्थी खरीक्षीरं मथेद्गन्धर्वसत्तम / पुदीरिता मया तुभ्यं पञ्चविंशेऽधि धिष्ठिता // 34 विष्ठां तत्रानुपश्येत न मण्डं नापि वा घृतम् / / 49 अथोक्तस्तु मया राजनराजा विश्वावसुस्तदा / तथा वेद्यमवेद्यं च वेदविद्यो न विन्दति / श्रूयतां यद्भवानस्मान्त्रग्नं संपृष्टवानिह // 35 स केवलं मूढमतिनिभारवहः स्मृतः // 50 विश्वाविश्वेति यदिदं गन्धर्वेन्द्रानुपृच्छसि / द्रष्टव्यौ नित्यमेवैतौ तत्परेणान्तरात्मना / विश्वाव्यक्तं परं विद्याद्भूतभव्यभयंकरम् // 36 यथास्य जन्मनिधने न भवेतां पुनः पुनः / / 51 त्रिगुणं गुणकर्तृत्वादविश्वो निष्कलस्तथा / अजस्रं जन्मनिधनं चिन्तयित्वा त्रयीमिमाम् / अश्वस्तथैव मिथुनमेवमेवानुदृश्यते // 37 परित्यज्य क्षयमिह अक्षयं धर्ममास्थितः // 52 अव्यक्तं प्रकृतिं प्राहुः पुरुषेति च निर्गुणम् / / यदा तु पश्यतेऽत्यन्तमहन्यहनि काश्यप / तथैव मित्रं पुरुषं वरुणं प्रकृति तथा / / 38 तदा स केवलीभूतः षड्विंशमनुपश्यति // 53 ज्ञानं तु प्रकृति प्राहुज्ञेयं निष्कलमेव च।। अन्यश्च शश्वदव्यक्तस्तथान्यः पञ्चविंशकः / अज्ञश्च ज्ञश्च पुरुषस्तस्मानिष्कल उच्यते / / 39 तस्य द्वावनुपश्येत तमेकमिति साधवः // 54 -~2408 - Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 55 ] शान्तिपर्व [12. 306. 80 तेनैतन्नाभिजानन्ति पञ्चविंशकमच्युतम् / अनेनाप्रतिबोधेन प्रधानं प्रवदन्ति तम् / जन्ममृत्युभयाद्योगाः सांख्याश्च परमैषिणः // 55 सांख्ययोगाश्च तत्त्वज्ञा यथाश्रुतिनिदर्शनात् // 69 विश्वावसुरुवाच / पश्यंस्तथैवापश्यंश्च पश्यत्यन्यस्तथानघ / पश्चविंशं यदेतत्ते प्रोक्तं ब्राह्मणसत्तम / षड्विंशः पञ्चविंशं च चतुर्विंशं च पश्यति / तथा तन्न तथा वेति तद्भवान्वक्तुमर्हति // 56 न तु पश्यति पश्यंस्तु यश्चैनमनुपश्यति // 70 जैगीषव्यस्यासितस्य देवलस्य च मे श्रुतम् / पश्चविंशोऽभिमन्येत नान्योऽस्ति परमो मम / पराशरस्य विप्रर्वार्षगण्यस्य धीमतः / / 57 न चतुर्विशकोऽग्राह्यो मनुजैर्ज्ञानदर्शिभिः // 71 भिक्षोः पञ्चशिखस्याथ कपिलस्य शुकस्य च / मत्स्येवोदकमन्वेति प्रवर्तति प्रवर्तनात् / गौतमस्याटिषेणस्य गर्गस्य च महात्मनः // 58 यथैव बुध्यते मत्स्यस्तथैषोऽप्यनुबुध्यते / नारदस्यासुरेश्चैव पुलस्त्यस्य च धीमतः। सस्नेहः सहवासाच्च साभिमानश्च नित्यशः // 72 सनत्कुमारस्य ततः शुक्रस्य च महात्मनः // 59 स निमज्जति कालस्य यदैकत्वं न बुध्यते / कश्यपस्य पितुश्चैव पूर्वमेव मया श्रुतम् / उन्मज्जति हि कालस्य ममत्वेनाभिसंवृतः // 73 तदनन्तरं च रुद्रस्य विश्वरूपस्य धीमतः // 60 यदा तु मन्यतेऽन्योऽहमन्य एष इति द्विजः। दैवतेभ्यः पितृभ्यश्च दैत्येभ्यश्च ततस्ततः / तदा स केवलीभूतः षड्विंशमनुपश्यति // 74 प्राप्तमेतन्मया कृत्स्नं वेद्यं नित्यं वदन्त्युत / / 61 अन्यश्च राजन्नवरस्तथान्यः पञ्चविंशकः / तस्मात्तद्वै भवबुद्ध्या श्रोतुमिच्छामि ब्राह्मण / / तत्स्थत्वादनुपश्यन्ति एक एवेति साधवः // 75 भवान्प्रबहः शास्त्राणां प्रगल्भश्चातिबुद्धिमान् // 62 तेनैतन्नाभिनन्दन्ति पञ्चविंशकमच्युतम् / .. न तवाविदितं किंचिद्भवाश्रुतिनिधिः स्मृतः।। जन्ममृत्युभयाद्भीता योगाः सांख्याश्च काश्यप / कथ्यते देवलोके च पितृलोके च ब्राह्मण // 63 षड्विंशमनुपश्यन्ति शुचयस्तत्परायणाः // 76 ब्रह्मलोकगताश्चैव कथयन्ति महर्षयः। यदा स केवलीभूतः षड्विंशमनुपश्यति / तिश्च तपतां शश्वदादित्यस्तव भाषते // 64 तदा स सर्वविद्विद्वान्न पुनर्जन्म विन्दति // 77 तांख्यज्ञानं त्वया ब्रह्मन्नवाप्तं कृत्स्नमेव च / एवमप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ / थैव योगज्ञानं च याज्ञवल्क्य विशेषतः // 65 | बुद्धश्वोक्तो यथातत्त्वं मया श्रुतिनिदर्शनात् // 78 निःसंदिग्धं प्रबुद्धस्त्वं बुध्यमानश्चराचरम् / पश्यापश्यं योऽनुपश्येत्क्षेमं तत्त्वं च काश्यप / श्रोतुमिच्छामि तज्ज्ञानं घृतं मण्डमयं यथा // 66 केवलाकेवलं चाद्यं पञ्चविंशात्परं च यत् // 79 ___ याज्ञवल्क्य उवाच / विश्वावसुरुवाच / कृत्स्नधारिणमेव त्वां मन्ये गन्धर्वसत्तम / तथ्यं शुभं चैतदुक्तं त्वया भोः जिज्ञाससि च मां राजस्तन्निबोध यथाश्रुतम् // 67 सम्यक्क्षेमं देवताद्यं यथावत् / अबुध्यमानां प्रकृतिं बुध्यते पञ्चविंशकः / स्वस्त्यक्षयं भवतश्चास्तु नित्यं न तु बुध्यति गन्धर्व प्रकृतिः पञ्चविंशकम् // 68 / बुद्ध्या सदा बुद्धियुक्तं नमस्ते // 80 म. भा. 302 -2409 - Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 306. 81] महाभारते [12. 306.99 याज्ञवल्क्य उवाच। तां तां राजस्ते यथा यान्त्यभावम् / एवमुक्त्वा संप्रयातो दिवं स तथा वर्णा ज्ञानहीनाः पतन्ते विभ्राजन्वै श्रीमता दर्शनेन / ____घोरादज्ञानात्प्राकृतं योनिजालम् // 88 तुष्टश्च तुष्ट्या परयाभिनन्द्य तस्माज्ज्ञानं सर्वतो मार्गितव्यं प्रदक्षिणं मम कृत्वा महात्मा // 81 ___सर्वत्रस्थं चैतदुक्तं मया ते / ब्रह्मादीनां खेचराणां क्षितौ च तस्थौ ब्रह्मा तस्थिवांश्चापरो यये चाधस्तात्संवसन्ते नरेन्द्र। __स्तस्मै नित्यं मोक्षमाहुर्द्विजेन्द्राः // 89 तत्रैव तद्दर्शनं दर्शयन्वै यत्ते पृष्टं तन्मया चोपदिष्टं सम्यक्क्षेम्यं ये पथं संश्रिता वै // 82 ___ याथातथ्यं तद्विशोको भवस्व / सांख्याः सर्वे सांख्यधर्मे रताश्च राजन्गच्छस्वैतदर्थस्य पारं तद्वद्योगा योगधर्मे रताश्च। सम्क्क्प्रोक्तं स्वस्ति तेऽस्त्वत्र नित्यम् // 90 ये चाप्यन्ये मोक्षकामा मनुष्या भीष्म उवाच / स्तेषामेतद्दर्शनं ज्ञानदृष्टम् // 83 स एवमनुशास्तस्तु याज्ञवल्क्येन धीमता / ज्ञानान्मोक्षो जायते पूरुषाणां प्रीतिमानभवद्राजा मिधिलाधिपतिस्तदा // 91 नास्यज्ञानादेवमाहुर्नरेन्द्र / गते मुनिवरे तस्मिन्कृते चापि प्रदक्षिणे। तस्माज्ज्ञानं तत्त्वतोऽन्वेषितव्यं दैवरातिर्नरपतिरासीनस्तत्र मोक्षवित् // 92 येनात्मानं मोक्षयेजन्ममृत्योः // 84 गोकोटि स्पर्शयामास हिरण्यस्य तथैव च / प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात्क्षत्रियाद्वा रत्नाञ्जलिमथैकं च ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा // 93 वैश्याच्छूद्रादपि नीचादभीक्ष्णम् / विदेहराज्यं च तथा प्रतिष्ठाप्य सुतस्य वै / श्रद्धातव्यं श्रद्दधानेन नित्यं यतिधर्ममुपासंश्चाप्यवसन्मिथिलाधिपः // 94 न अद्धिनं जन्ममृत्यू विशेताम् // 85 सांख्यज्ञानमधीयानो योगशास्त्रं च कृत्स्नशः / सर्वे वर्णा ब्राह्मणा ब्रह्मजाश्च धर्माधर्मौ च राजेन्द्र प्राकृतं परिगर्हयन् // 95 सर्वे नित्यं व्याहरन्ते च ब्रह्म। अनन्तमिति कृत्वा स नित्यं केवलमेव च / तत्त्वं शास्त्रं ब्रह्मबुद्ध्या ब्रबीमि धर्माधर्मी पुण्यपापे सत्यासत्ये तथैव च // 96 ___ सर्व विश्वं ब्रह्म चैतत्समस्तम् // 86 जन्ममृत्यू च राजेन्द्र प्राकृतं तदचिन्तयत् / ब्रह्मास्यतो ब्राह्मणाः संप्रसूता ब्रह्माव्यक्तस्य कर्मेदमिति नित्यं नराधिप // 97 बाहुभ्यां वै क्षत्रियाः संप्रसूताः / पश्यन्ति योगाः सांख्याश्च स्वशास्त्रकृतलक्षणाः / नाभ्यां वैश्याः पादतश्चापि शूद्राः इष्टानिष्टवियुक्तं हि तस्थौ ब्रह्म परात्परम् / सर्वे वर्णा नान्यथा वेदितव्याः // 87 नित्यं तमाहुर्विद्वांसः शुचिस्तस्माच्छुचिर्भव // 98 अज्ञानतः कर्मयोनि भजन्ते दीयते यच्च लभते दत्तं यच्चानुमन्यते / -2410 - Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 306. 99 ] शान्तिपर्व [ 12. 307. 13 ददाति च नरश्रेष्ठ प्रतिगृह्णाति यच्च ह / 307 ददात्यव्यक्तमेवैतत्प्रतिगृह्णाति तच्च वै // 99 युधिष्ठिर उवाच / आत्मा ह्येवात्मनो ह्येकः कोऽन्यस्त्वत्तोऽधिको भवेत्। ऐश्वर्य वा महत्प्राप्य धनं वा भरतर्षभ / एवं मन्यस्व सततमन्यथा मा विचिन्तय // 100 दीर्घमायुरवाप्याथ कथं मृत्युमतिक्रमेत् // 1 यस्याव्यक्तं न बिदितं सगुणं निर्गुणं पुनः / तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा / तेन तीर्थानि यज्ञाश्च सेवितव्याविपश्चिता // 101 रसायनप्रयोगैर्वा कैनोपैति जरान्तकौ // 2 न स्वाध्यायैस्तपोभिर्वा यज्ञैर्वा कुरुनन्दन / __ भीष्म उवाच / लभतेऽव्यक्तसंस्थानं ज्ञात्वाव्यक्तं महीपते // 102 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तथैव महतः स्थानमाहंकारिकमेव च। . भिक्षोः पश्चशिखस्येह संवादं जनकस्य च // 3 अहंकारात्परं चापि स्थानानि समवाप्नुयात् // 103 वैदेहो जनको राजा महर्षि वेदवित्तमम् / ये त्वव्यक्तात्परं नित्यं जानते शास्त्रतत्पराः / पर्यपृच्छत्पश्चशिखं छिन्नधर्मार्थसंशयम् // 4 जन्ममृत्युवियुक्तं च वियुक्तं सदसच्च यत् // 104 केन वृत्तेन भगवन्नतिकामेजरान्तकौ / एतन्मयाप्तं जनकात्पुरस्ता तपसा वाथ बुद्ध्या वा कर्मणा वा श्रुतेन वा // 5 त्तेनापि चाप्तं नृप याज्ञवल्क्यात् / एवमुक्तः स वैदेहं प्रत्युवाच परोक्षवित् / ज्ञानं विशिष्टं न तथा हि यज्ञा निवृत्तिनॆतयोरस्ति नानिवृत्तिः कथंचन // 6 ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञैः // 105 न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपाः / दुर्ग जन्म निधनं चापि राज सोऽयं प्रपद्यतेऽध्वानं चिराय ध्रुवमध्रुवः // 7 न भूतिकं ज्ञानविदो वदन्ति / सर्वभूतसमुच्छेदः स्रोतसेवोह्यते सदा / यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्ऋतैश्च उह्यमानं निमज्जन्तमप्लवे कालसागरे / दिवं समासाद्य पतन्ति भूमौ // 106 जरामृत्युमहाग्राहे न कश्चिदभिपद्यते // 8 तस्यादुपासस्व परं महच्छुचि नैवास्य भविता कश्चिन्नासौ भवति कस्यचित् / ___शिवं विमोक्षं विमलं पवित्रम् / पथि संगतमेवेदं दारैरन्यैश्च बन्धुभिः / क्षेत्रज्ञवित्पार्थिव ज्ञानयज्ञ नायमत्यन्तसंवासो लब्धपूर्वो हि केनचित् // 9 मुपास्य वै तत्त्वमृषिभविष्यसि // 107 क्षिप्यन्ते तेन तेनैव निष्टनन्तः पुनः पुनः / उपनिषदमुपाकरोत्तदा वै कालेन जाता जाता हि वायुनेवाभ्रसंचयाः॥ 10 जनकनृपस्य पुरा हि याज्ञवल्क्यः / जरामृत्यू हि भूतानां खादितारौ वृकाविव / यदुपगणितशाश्वताव्ययं त बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि // 11 च्छुभममृतत्वमशोकमृच्छतीति // 108 एवंभूतेषु भूतेषु नित्यभूताध्रुवेषु च / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कथं हृष्येत जातेषु मृतेषु च कथं ज्वरेत् // 12 'षडधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 306 // / कुतोऽहमागतः कोऽस्मि क गमिष्यामि कस्य वा। -2411 - Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 307. 13 ] महाभारते [12. 308. 26 कस्मिन्स्थितः क भविता कस्मात्किमनुशोचसि // सा प्राप्य मिथिलां रम्यां समृद्धजनसंकुलाम् / द्रष्टा स्वर्गस्य न ह्यस्ति तथैव नरकस्य च। भैक्षचर्यापदेशेन ददर्श मिथिलेश्वरम् / / 12 आगमांस्त्वनतिक्रम्य दद्याच्चैव यजेत च // 14 राजा तस्याः परं दृष्ट्वा सौकुमार्य वपुस्तथा / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि केयं कस्य कुतो वेति बभूवागतविस्मयः // 13 सप्ताधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 30 // ततोऽस्याः स्वागतं कृत्वा व्यादिश्य च वरासनम् / 308 पूजितां पादशौचेन वरान्नेनाप्यतर्पयत् // 14 युधिष्ठिर उवाच / अथ भुक्तवती प्रीता राजानं मअिभिवृतम् / / अपरित्यज्य गार्हस्थ्यं कुरुराजर्षिसत्तम / सर्वभाष्यविदां मध्ये चोदयामास भिक्षुकी // 15 कः प्राप्तो विनयं बुद्ध्या मोक्षतत्त्वं वदस्व मे // 1 सुलभा त्वस्य धर्मेषु मुक्तो नेति ससंशया। संन्यस्यते यथात्मायं संन्यस्तात्मा यथा च यः / सत्त्वं सत्त्वेन योगज्ञा प्रविवेश महीपते // .16 परं मोक्षस्य यच्चापि तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्य रश्मीन्संयोज्य रश्मिभिः / भीष्म उवाच / सा स्म संचोदयिष्यन्तं योगबन्धैर्बबन्ध ह // 10 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / जनकोऽप्युत्स्मयनराजा भावमस्या विशेषयन् / जनकस्य च संवाद सुलभायाश्च भारत // 3 प्रतिजग्राह भावेन भावमस्या नृपोत्तमः // 18 संन्यासफलिकः कश्चिद्वभूव नृपतिः पुरा / तदेकस्मिन्नधिष्ठाने संवादः श्रूयतामयम्। . मैथिलो जनको नाम धर्मध्वज इति श्रुतः // 4 छत्रादिषु विमुक्तस्य मुक्तायाश्च त्रिदण्डके // 19 स वेदे मोक्षशास्त्रे च स्वे च शास्त्रे कृतागमः / भगवत्याः क चर्येयं कृता क च गमिष्यसि / इन्द्रियाणि समाधाय शशास वसुधामिमाम् // 5 कस्य च त्वं कुतो वेति पप्रच्छैनां महीपतिः॥२० तस्य वेदविदः प्राज्ञाः श्रुत्वा तां साधुवृत्तताम् / श्रुते वयसि जातौ च सद्भावो नाधिगम्यते। लोकेषु स्पृहयन्त्यन्ये पुरुषाः पुरुषेश्वर // 6 एष्वर्थेषुत्तरं तस्मात्प्रवेद्यं सत्समागमे // 21 अथ धर्मयुगे तस्मिन्योगधर्ममनुष्ठिता / छत्रादिषु विशेषेषु मुक्तं मां विद्धि सर्वशः / महीमनुचचारैका सुलभा नाम भिक्षुकी // 7 स त्वां संमन्तुमिच्छामि मानार्हासि मता हि मे। तया जगदिदं सर्वमटत्या मिथिलेश्वरः / यस्माञ्चैतन्मया प्राप्तं ज्ञानं वैशेषिकं पुरा / तत्र तत्र श्रुतो मोक्षे कथ्यमानस्त्रिदण्डिभिः / / 8 यस्य नान्यः प्रवक्तास्ति मोक्षे तमपि मे शृणु // 23 सा सुसूक्ष्मां कथां श्रुत्वा तथ्यं नेति ससंशया। पाराशर्यसगोत्रस्य वृद्धस्य सुमहात्मनः / दर्शने जातसंकल्पा जनकस्य बभूव ह // 9 भिक्षोः पञ्चशिखस्याहं शिष्यः परमसंमतः // 24 ततः सा विप्रहायाथ पूर्वरूपं हि योगतः / सांख्यज्ञाने तथा योगे महीपालविधौ तथा। अबिभ्रदनवद्याङ्गी रूपमन्यदनुत्तमम् // 10 त्रिविधे मोक्षधर्गेऽस्मिन्गताध्वा छिन्नसंशयः // 25 चक्षुर्निमेषमात्रेण लध्वस्त्रगतिगामिनी / स यथाशास्त्रदृष्टेन मार्गेणेह परिव्रजन् / विदेहानां पुरीं सुधूर्जगाम कमलेक्षणा // 11 / वार्षिकांश्चतुरो मासान्पुरा मयि सुखोषितः / / 26 - 2412 - Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 27 ] शान्तिपर्व [12. 308. 56 तेनाहं सांख्यमुख्येन सुदृष्टार्थेन तत्त्वतः / त्रिदण्डादिषु यद्यस्ति मोक्षो ज्ञानेन केनचित् / श्रावितत्रिविधं मोक्षं न च राज्याद्विचालितः // 2. छत्रादिषु कथं न स्यात्तुल्यहेतौ परिग्रहे // 42 सोऽहं तामखिलां वृत्तिं त्रिविधां मोक्षसंहिताम् / येन येन हि यस्यार्थः कारणेनेह कस्यचित् / मुक्तरागश्चराम्येकः पदे परमके स्थितः // 28 तत्तदालम्बते द्रव्यं सर्वः स्वे स्वे परिग्रहे // 43 वैराग्यं पुनरेतस्य मोक्षस्य परमो विधिः। दोषदर्शी तु गार्हस्थ्ये यो व्रजत्याश्रमान्तरम् / ज्ञानादेव च वैराग्यं जायते येन मुच्यते // 29 / उत्सजन्परिगृहंश्च सोऽपि सङ्गान्न मुच्यते // 44 ज्ञानेन कुरुते यत्नं यत्नेन प्राप्यते महत् / आधिपत्ये तथा तुल्ये निग्रहानुग्रहात्मनि / महहंद्वप्रमोक्षाय सा सिद्धिर्या वयोतिगा / / 30 राजर्षिभिक्षुकाचार्या मुच्यन्ते केन हेतुना // 45 सेयं परमिका बुद्धिः प्राप्ता निद्वंद्वता मया। . अथ सत्याधिपत्येऽपि ज्ञानेनैवेह केवलम् / इहैव गतमोहेन चरता मुक्तसङ्गिना // 31 मुच्यन्ते किं न मुच्यन्ते पदे परमके स्थिताः॥४६ यथा क्षेत्रं मृदूभूतमद्भिराप्लावितं तथा / काषायधारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धः कमण्डलुः / जनयत्यङ्करं कर्म नृणां तद्वत्पुनर्भवम् // 32 लिङ्गान्यत्यर्थमेतानि न मोक्षायेति मे मतिः॥४० यथा चोत्तापितं बीजं कपाले यत्र तत्र वा। यदि सत्यपि लिङ्गेऽस्मिज्ञानमेवात्र कारणम् / प्राप्याप्यकुरहेतुत्वमबीजत्वान्न जायते // 33 निर्मोक्षायेह दुःखस्य लिङ्गमानं निरर्थकम् // 48 तद्वद्भगवता तेन शिखाप्रोक्तेन भिक्षुणा / अथ वा दुःखशैथिल्यं वीक्ष्य लिङ्गे कृता मतिः / ज्ञानं कृतमबीजं मे विषयेषु न जायते // 34 किं तदेवार्थसामान्यं छत्रादिषु न लक्ष्यते // 49 नाभिषजति कस्मिंश्चिमानर्थे न परिग्रहे। आकिंचन्ये न मोक्षोऽस्ति कैंचन्ये नास्ति बन्धनम् / नाभिरज्यति चैतेषु व्यर्थत्वाद्रागदोषयोः // 35 कैंचन्ये चेतरे चैव जन्तुर्ज्ञानेन मुच्यते // 50 यश्च मे दक्षिणं बाहूं चन्दनेन समुक्षयेत् / तस्माद्धर्मार्थकामेषु तथा राज्यपरिग्रहे / सव्यं वास्या च यस्तक्षेत्समावेतावुभौ मम // 36 बन्धनायतनेष्वेषु विद्धयबन्धे पदे स्थितम् // 51 सुखी सोऽहमवाप्तार्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः / / राज्यैश्वर्यमयः पाशः स्नेहायतनबन्धनः / मुक्तसङ्गः स्थितो राज्ये विशिष्टोऽन्यैत्रिदण्डिभिः॥ मोक्षाश्मनिशितेनेह छिन्नम्त्यागासिना मया // 52 मोक्षे च त्रिविधा निष्ठा दृष्टा पूर्वमहर्षिभिः।। सोऽहमेवंगतो मुक्तो जातास्थस्त्वयि भिक्षुकि / ज्ञानं लोकोत्तरं यच्च सर्वत्यागश्च कर्मणाम् // 38 अयथार्थो हि ते वर्णो वक्ष्यामि शृणु तन्मम // 53 ज्ञाननिष्ठां वदन्त्येके मोक्षशास्त्रविदो जनाः। .. सौकुमार्य तथा रूपं वपुरग्र्यं तथा वयः / कर्मनिष्ठां तथैवान्ये यतयः सूक्ष्मदर्शिनः // 39 तवैतानि समस्तानि नियमश्चेति संशयः // 54 प्रहायोभयमप्येतज्ज्ञानं कर्म च केवलम् / यच्चाप्यननुरूपं ते लिङ्गस्यास्य विचेष्टितम् / तृतीयेयं समाख्याता निष्ठा तेन महात्मना // 40 मुक्तोऽयं स्यान्न वेत्यस्माद्धर्षितो मत्परिग्रहः // 55 यमे च नियमे चैव द्वेषे कामे परिग्रहे / न च कामसमायुक्ते मुक्तेऽप्यस्ति त्रिदण्डकम् / / माने दम्भे तथा स्नेहे सदृशास्ते कुटुम्बिभिः॥ / न रक्ष्यते त्वया चेदं न मुक्तस्यास्ति गोपना // 56 -2413 - Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 57 ] महाभारते [12. 308. 86 मत्पक्षसंश्रयाच्चायं शृणु यस्ते व्यतिक्रमः / तत्त्वं सत्रप्रतिच्छन्ना मयि नार्हसि गुहितुम् // 4 // आश्रयन्त्याः स्वभावेन मम पूर्वपरिग्रहम् // 57 न राजानं मृषा गच्छेन्न द्विजातिं कथंचन / प्रवेशस्ते कृतः केन मम राष्ट्रे पुरे तथा / न स्त्रियं स्त्रीगुणोपेतां हन्युह्येते मृषागताः // 72 कस्य वा संनिसर्गात्त्वं प्रविष्टा हृदयं मम // 58 राज्ञां हि बलमैश्वर्यं ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम् / वर्णप्रवरमुख्यासि ब्राह्मणी क्षत्रियो ह्यहम् / / रूपयौवनसौभाग्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम् // 73 नावयोरेकयोगोऽस्ति मा कृथा वर्णसंकरम् / / 59 अत एतैबलैरेते बलिनः स्वार्थमिच्छता। वर्तसे मोक्षधर्मेषु गार्हस्थ्ये त्वहमाश्रमे / आर्जवेनाभिगन्तव्या विनाशाय ह्यनार्जवम् / / 74 अयं चापि सुकष्टस्ते द्वितीयोऽऽश्रमसंकरः / / 60 सा त्वं जातिं श्रुतं वृत्तं भावं प्रकृतिमात्मनः / सगोत्रां वासगोत्रां वा न वेद त्वां न वेत्थ माम् / कृत्यमागमने चैव वक्तुमर्हसि तत्त्वतः // 75 सगोत्रमाविशन्त्यास्ते तृतीयो गोत्रसंकरः // 61 इत्येतैरसुखैर्वाक्यैरयुक्तैरसमञ्जसैः। .. अथ जीवति ते भर्ता प्रोषितोऽप्यथ वा कचित् / प्रत्यादिष्टा नरेन्द्रेण सुलभा न व्यकम्पत // 76 अगम्या परभार्येति चतुर्थो धर्मसंकरः // 62 उक्तवाक्ये तु नृपतौ सुलभा चारुदर्शना / सा त्वमेतान्यकार्याणि कार्यापेक्षा व्यवस्यसि / ततश्चारुतरं वाक्यं प्रचक्रामाथ भाषितुम् // 77 अविज्ञानेन वा युक्ता मिथ्याज्ञानेन वा पुनः // 63 नवभिनवभिश्चैव दोषैर्वाग्बुद्धिदूषणैः / अथ वापि स्वतत्रासि स्वदोषेणेह केनचित् / / अपेतमुपपन्नार्थमष्टादशगुणान्वितम् // 78 यदि किंचिच्छ्रुतं तेऽस्ति सर्वं कृतमनर्थकम् // 64 सौक्ष्म्यं संख्याक्रमौ चोभी निर्णयः सप्रयोजनः / इदमन्यत्तृतीयं ते भावस्पर्शविघातकम् / पश्चैतान्यर्थजातानि वाक्यमित्युच्यते नृप // 79 दुष्टाया लक्ष्यते लिङ्गं प्रवक्तव्यं प्रकाशितम् // 65 / एषामेकैकशोऽर्थानां सौक्षम्यादीनां सुलक्षणम् / न मय्येवाभिसंधिस्ते जयैषिण्या जये कृतः। शृणु संसार्यमाणानां पदार्थैः पदवाक्यतः // 80 येयं मत्परिषत्कृत्स्ना जेतुमिच्छसि तामपि // 66 ज्ञानं ज्ञेयेषु भिन्नेषु यथाभेदेन वर्तते / तथा ह्येवं पुनश्च त्वं दृष्टिं स्वां प्रतिमुञ्चसि / / तत्रातिशयिनी बुद्धिस्तत्सौक्ष्म्यमिति वर्तते // 81 मत्पक्षप्रतिघाताय स्वपक्षोद्भावनाय च / / 67 दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागशः / सा स्वेनामर्षजेन त्वमृद्धिमोहेन मोहिता / कंचिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् // 82 भूयः सृजसि योगास्त्रं विषामृतमिवैकधा / / 68 इदं पूर्वमिदं पश्चाद्वक्तव्यं यद्विवक्षितम् / इच्छतोर्हि द्वयोर्लाभः स्त्रीपुंसोरमृतोपमः। क्रमयोगं तमप्याहुर्वाक्यं वाक्यविदो जनाः // 83 अलाभश्चाप्यरक्तस्य सोऽत्र दोषो विषोपमः // 69 धर्मार्थकाममोक्षेषु प्रतिज्ञाय विशेषतः / मा स्पाक्षीः साधु जानीष्व स्वशास्त्रमनुपालय / / इदं तदिति वाक्यान्ते प्रोच्यते स विनिर्णयः // 84 कृतेयं हि विजिज्ञासा मुक्तो नेति त्वया मम / इच्छाद्वेषभवैदुःखैः प्रकर्षो यत्र जायते / एतत्सर्वं प्रतिच्छन्नं मयि नार्हसि गुहितुम् // 70 तत्र या नृपते वृत्तिस्तत्प्रयोजनमिष्यते // 85 सा यदि त्वं स्वकार्येण यद्यन्यस्य महीपतेः। तान्येतानि यथोक्तानि सौम्यादीनि जनाधिप / -2414 - Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 86 ] शान्तिपर्व [12. 308. 115 एकार्थसमवेतानि वाक्यं मम निशामय / / 86 / / बाह्यानन्यानपेक्षन्ते गुणांस्तानपि मे शृणु। उपेतार्थमभिन्नार्थं नापवृत्तं न चाधिकम् / रूपं चक्षुः प्रकाशश्च दर्शने हेतवस्त्रयः / नाश्लक्ष्णं न च संदिग्धं वक्ष्यामि परमं तव // 87 यथैवात्र तथान्येषु ज्ञानज्ञेयेषु हेतवः // 101 न गुर्वक्षरसंबद्धं पराङ्मुखमुखं न च / ज्ञानज्ञेयान्तरे तस्मिन्मनो नामापरो गुणः / नानृतं न त्रिवर्गेण विरुद्धं नाप्यसंस्कृतम् / / 88 विचारयति येनायं निश्चये साध्वसाधुनी // 102 न न्यूनं कष्टशब्दं वा व्युत्क्रमाभिहितं न च / द्वादशस्त्वपरस्तत्र बुद्धिर्नाम गुणः स्मृतः / न शेषं नानुकल्पेन निष्कारणमहेतुकम् / / 89. येन संशयपूर्वेषु बोद्धव्येषु व्यवस्यति // 103 कामात्क्रोधाद्भयाल्लोभादैन्यादानार्यकात्तथा।। अथ द्वादशके तस्मिन्सत्त्वं नामापरो गुणः / हीतोऽनुक्रोशतो मानान्न वक्ष्यामि कथंचन // 90 महासत्त्वोऽल्पसत्त्वो वा जन्तुर्येनानुमीयते // 104 वक्ता श्रोता च वाक्यं च यदा त्वविकलं नृप। क्षेत्रज्ञ इति चाप्यन्यो गुणस्तत्र चतुर्दशः / सममेति विवक्षायां तदा सोऽर्थः प्रकाशते // 91 ममायमिति येनायं मन्यते न च मन्यते // 105 वक्तव्ये तु यदा वक्ता श्रोतारमवमन्यते। अथ पञ्चदशो राजन्गुणस्तत्रापरः स्मृतः / वार्थमाह परार्थ वा तदा वाक्यं न रोहति // 92 पृथक्कलासमूहस्य सामग्र्यं तदिहोच्यते // 106 अथ यः स्वार्थमुत्सृज्य परार्थं प्राह मानवः। गुणस्त्वेवापरस्तत्र संघात इति षोडशः / विशङ्का जायते तस्मिन्वाक्यं तदपि दोषवत् // 93 आकृतिय॑क्तिरित्येतौ गुणौ यस्मिन्समाश्रितौ // यस्तु वक्ता द्वयोरर्थमविरुद्धं प्रभाषते / सुखदुःखे जरामृत्यू लाभालाभौ प्रियाप्रिये / . श्रोतुश्चैवात्मनश्चैव स वक्ता नेतरो नृप // 94 इति चैकोनविंशोऽयं द्वंद्वयोग इति स्मृतः // 108 तदर्थवदिदं वाक्यमुपेतं वाक्यसंपदा / ऊर्ध्वमेकोनविंशत्याः कालो नामापरो गुणः / अविक्षिप्तमना राजन्नेकानः श्रोतुमर्हसि // 95 इतीमं विद्धि विंशत्या भूतानां प्रभवाप्ययम् // 109 कासि कस्य कुतो वेति त्वयाहमभिचोदिता। विंशकश्चैष संघातो महाभूतानि पञ्च च / तत्रोत्तरमिदं वाक्यं राजन्नेकमनाः शृणु // 96 सदसद्भावयोगौ च गुणावन्यौ प्रकाशकौ / / 110 यथा जतु च काष्ठं च पांसवश्वोदबिन्दुभिः / इत्येवं विंशतिश्चैव गुणाः सप्त च ये स्मृताः / सुश्लिष्टानि तथा राजन्प्राणिनामिह संभवः // 97 विधिः शुक्रं बलं चेति त्रय एते गुणाः परे॥१११ शब्दः स्पर्शो रसो रूपं गन्धः पञ्चेन्द्रियाणि च / एकविंशश्च दश च कलाः संख्यानतः स्मृताः / पृथगात्मा दशात्मानः संश्लिष्टा जतुकाष्ठवत् / / 98 समग्रा यत्र वर्तन्ते तच्छरीरमिति स्मृतम्।। 112 न चैषां चोदना काचिदस्तीत्येष विनिश्चयः / / अव्यक्तं प्रकृतिं त्वासां कलानां कश्चिदिच्छति / एकैकस्येह विज्ञानं नास्त्यात्मनि तथा परे // 99 व्यक्तं चासां तथैवान्यः स्थूलदर्शी प्रपश्यति॥११३ न वेद चक्षुश्चक्षुष्ट्वं श्रोत्रं नात्मनि वर्तते / अव्यक्तं यदि वा व्यक्तं द्वयीमथ चतुष्टयीम् / तथैव व्यभिचारेण न वर्तन्ते परस्परम् / प्रकृतिं सर्वभूतानां पश्यन्त्यध्यात्मचिन्तकाः॥११४ संश्लिष्टा नाभिजायन्ते यथाप इह पांसवः // 100 / सेयं प्रकृतिरव्यक्ता कलाभिर्व्यक्ततां गता / - 2415 -- Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 115 ] महाभारते [12. 308. 144 अहं च त्वं च राजेन्द्र ये चाप्यन्ये शरीरिणः / / सजवान्यस्त्रिवर्गे च किं तस्मिन्मुक्तलक्षणम् // 129 बिन्दुन्यासादयोऽवस्थाः शुक्रशोणितसंभवाः / प्रिये चैवाप्रिये चैव दुर्बले बलवत्यपि / यासामेव निपातेन कललं नाम जायते // 116 यस्य नास्ति समं चक्षुः किं तस्मिन्मुक्तलक्षणम् // कललादर्बुदोत्पत्तिः पेशी चाप्यर्बुदोद्भवा / तदमुक्तस्य ते मोक्षे योऽभिमानो भवेन्नृप। पेश्यास्त्वङ्गाभिनिवृत्तिनखरोमाणि चाङ्गतः // 117 सुहृद्भिः स निवार्यस्ते विचित्तस्येव भेषजैः // 131 संपूर्णे नवमे मासे जन्तोर्जातस्य भैथिल / तानि तान्यनुसंदृश्य सङ्गस्थानान्यरिंदम। जायते नामरूपत्वं स्त्री पुमान्वेति लिङ्गतः // 118 आत्मनात्मनि संपश्येत्किं तस्मिन्मुक्तलक्षणम् // जातमात्रं तु तद्रूपं दृष्ट्वा ताम्रनखामुलि / इमान्यन्यानि सूक्ष्माणि मोक्षमाश्रित्य कानिचित् / कौमाररूपमापन्नं रूपतो नोपलभ्यते // 119 चतुरङ्गप्रवृत्तानि सङ्गस्थानानि मे शृणु // 133 कौमाराद्यौवनं चापि स्थावियं चापि यौवनात् / य इमां पृथिवीं कृत्स्नामेकच्छत्रां प्रशास्तिः ह / भनेन क्रमयोगेन पूर्व पूर्व न लभ्यते // 120 एकमेव स वै राजा पुरमध्यावसत्युत // 134 कलानां पृथगर्थानां प्रतिभेदः क्षणे क्षणे। तत्पुरे चैकमेवास्य गृहं यदधितिष्ठति / वर्तते सर्वभूतेषु सौक्ष्म्यात्तु न विभाव्यते // 121 गृहे शयनमप्येकं निशायां यत्र लीयते // 135 न चैषामप्ययो राजलक्ष्यते प्रभवो न च। शय्याधं तस्य चाप्यत्र स्त्रीपूर्वमधितिष्ठति / भवस्थायामवस्थायां दीपस्येवार्चिषो गतिः // 122 तदनेन प्रसङ्गेन फलेनैवेह युज्यते // 136 . तस्याप्येवंप्रभावस्य सदश्वस्येव धावतः / एवमेवोपभोगेषु भोजनाच्छादनेषु च / अजस्रं सर्वलोकस्य कः कुतो वा न वा कुतः // गुणेषु परिमेयेषु निग्रहानुग्रहौ प्रति // 137 कस्येदं कस्य वा नेदं कुतो वेदं न वा कुतः / परतत्रः सदा राजा स्वल्पे सोऽपि प्रसज्जते। ... संवन्धः कोऽस्ति भूतानां स्थैरप्यवयवैरिह // 124 संधिविग्रहयोगे च कुतो राज्ञः स्वतन्त्रता // 138 यथादित्यान्मणेश्चैव वीरुद्भपश्चैव पावकः / मीषु क्रीडाविहारेषु नित्यमस्यास्वत प्रता / भवत्येवं समुदयात्कलानामपि जन्तवः // 125 मधे चामात्यसमिती कुत एव स्वतत्रता // 139 आत्मन्येवात्मनात्मानं यथा त्वमनुपश्यसि / यदा त्वाज्ञापयत्यन्यांस्तदास्योक्ता स्वतन्त्रता / एवमेवात्मनात्मानमन्यस्मिन्कि न पश्यसि / अवशः कार्यते तत्र तस्मिंस्तस्मिन्गुणे स्थितः॥१४० यद्यात्मनि परस्मिंश्च समतामध्यवस्यसि // 126 स्वप्नुकामो न लभते स्वप्तुं कार्यार्थिभिर्जनैः / भथ मां कासि कस्येति किमर्थमनुपृच्छसि। शयने चाप्यनुज्ञातः सुप्त उत्थाप्यतेऽवशः // 141 इदं मे स्यादिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य मैथिल / नाह्यालभ पिव प्राश जुहुध्यन्नीन्यजेति च / कासि कस्य कुतो वेति वचने किं प्रयोजनम् // वदस्व शृणु चापीति विवशः कार्यते परैः // 142 रिपौ मित्रेऽथ मध्यस्थे विजये संधिविग्रहे / अभिगम्याभिगम्यैनं याचन्ते सततं नराः / कृतवान्यो महीपाल किं तस्मिन्मुक्तलक्षणम्॥१२८ / न चाप्युत्सहते दातुं वित्तरक्षी महाजनात् // 143 त्रिवर्गे सप्तधा व्यक्तं यो न वेदेह कर्मसु / दाने कोशक्षयो ह्यस्य वैरं चाप्यप्रयच्छतः / -2416 - Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 144] शान्तिपर्व [12. 308. 174 क्षणेनास्योपवर्तन्ते दोषा वैराग्यकारकाः // 144 राज्येऽसति कुतो धर्मो धर्मेऽसति कुतः परम् // प्राज्ञाशूरांस्तथैवाढ्यानेकस्थानेऽपि शङ्कते। योऽप्यत्र परमो धर्मः पवित्रं राजराज्ययोः / भयमप्यभये राज्ञो यैश्च नित्यमुपास्यते // 145 पृथिवी दक्षिणा यस्य सोऽश्वमेधो न विद्यते // 160 यदा चैते प्रदुष्यन्ति राजन्ये कीर्तिता मया। साहमेतानि कर्माणि राज्यदुःखानि मैथिल / तदैवास्य भयं तेभ्यो जायते पश्य यादृशम् // 146 समर्था शतशो वक्तुमथ वापि सहस्रशः // 161 सर्वः स्वे स्वे गृहे राजा सर्वः स्वे स्वे गृहे गृही। खदेहे नाभिषङ्गो मे कुतः परपरिग्रहे / निग्रहानुग्रहौ कुर्वस्तुल्यो जनक राजभिः // 147 न मामेवंविधां मुक्तामीदृशं वक्तुमर्हसि // 162 पुत्रा दारास्तथैवात्मा कोशो मित्राणि संचयः / / ननु नाम त्वया मोक्षः कृत्स्नः पञ्चशिखाच्छ्रुतः / परैः साधारणा ह्येते तैस्तैरेवास्य हेतुमिः // 148 सोपायः सोपनिषदः सोपासनः सनिश्चयः // 163 हतो देशः पुरं दग्धं प्रधानः कुञ्जरो मृतः / तस्य ते मुक्तसङ्गस्य पाशानाक्रम्य तिष्ठतः / लोकसाधारणेष्वेषु मिथ्याज्ञानेन तप्यते // 149 छत्रादिषु विशेषेषु कथं सङ्गः पुनर्नुप // 164 अमुक्तो मानसैदुःखैरिच्छाद्वेषप्रियोद्भवैः। . श्रुतं ते न श्रुतं मन्ये मिथ्या वापि श्रुतं श्रुतम् / शिरोरोगादिभी रोगैस्तथैव विनिपातिभिः॥ 150 अथ वा श्रुतसकाशं श्रुतमन्यच्छ्रतं त्वया // 165 द्वंद्वैस्तैस्तैरुपहतः सर्वतः परिशङ्कितः / अथापीमासु संज्ञासु लौकिकीषु प्रतिष्ठसि / बहुप्रत्यर्थिकं राज्यमुपास्ते गणयन्निशाः // 151 अभिषङ्गावरोधाभ्यां बद्धस्त्वं प्राकृतो यथा // 166 तदल्पसुखमत्यर्थ बहुदुःखमसारवत् / सत्त्वेनानुप्रवेशो हि योऽयं त्वयि कृतो मया / को राज्यमभिपद्येत प्राप्य चोपशमं लभेत् // 152 किं तवापकृतं तत्र यदि मुक्तोऽसि सर्वतः॥१६७ ममेदमिति यच्चेदं पुरं राष्ट्रं च मन्यसे / नियमो ह्येष धर्मेषु यतीनां शून्यवासिता। बलं कोशममात्यांश्च कस्यैतानि न वा नृप // 153 शून्यमावासयन्त्या च मया किं कस्य दूषितम् // मित्रामात्यं पुरं राष्ट्रं दण्डः कोशो महीपतिः / न पाणिभ्यां न बाहुभ्यां पादोरुभ्यां न चानघ / सप्ताङ्गचक्रसंघातो राज्यमित्युच्यते नृप // 154 न गात्रावयवैरन्यैः स्पृशामि त्वा नराधिप // 169 सप्ताङ्गस्यास्य राज्यस्य त्रिदण्डस्येव तिष्ठतः / कुले महति जातेन ह्रीमता दीर्घदर्शिना / अन्योन्यगुणयुक्तस्य कः केन गुणतोऽधिकः // 155 नैतत्सदसि वक्तव्यं सद्वासद्वा मिथः कृतम्॥१७० तेषु तेषु हि कालेषु तत्तदङ्गं विशिष्यते / ब्राह्मणा गुरवश्चेमे तथामात्या गुरूत्तमाः / येन यत्सिध्यते कार्य तत्प्राधान्याय कल्पते // 156 त्वं चाथ गुरुरप्येषामेवमन्योन्यगौरवम् // 171 सप्ताङ्गश्चापि संघातस्त्रयश्चान्ये नृपोत्तम / तदेवमनुसंदृश्य वाच्यावाच्यं परीक्षता / संभूय दशवर्गोऽयं भुङ्क्ते राज्यं हि राजवत् // 157 स्त्रीपुंसोः समवायोऽयं त्वया वाच्यो न संसदि // यश्च राजा महोत्साहः क्षत्रधर्मरतो भवेत् / यथा पुष्करपर्णस्थं जलं तत्पर्णसंस्थितम् / स तुष्येद्दशभागेन ततस्त्वन्यो दशावरैः // 158 तिष्ठत्यस्पृशती तद्वत्त्वयि वत्स्यामि मैथिल // 173 नास्त्यसाधारणो राजा नास्ति राज्यमराजकम् / / यदि वाप्यस्पृशन्त्या मे स्पर्श जानामि कंचन / म, भा. 303 -2417 - Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 308. 174] महाभारते [ 12. 309. 10 ज्ञानं कृतमबीजं ते कथं तेनेह भिक्षुणा // 174 तथा हि त्वच्छरीरेऽस्मिन्निमां वत्स्यामि शर्वरीम् / न गार्हस्थ्याच्युतश्च त्वं मोक्षं नावाप्य दुर्विदम् / साहमासनदानेन वागातिथ्येन चार्चिता। . उभयोरन्तराले च वर्तसे मोक्षवातिकः / / 175 सुप्ता सुशरणा प्रीता श्वो गमिष्यामि मैथिल।१९० न हि मुक्तस्य मुक्तेन ज्ञस्यैकत्वपृथक्त्वयोः / इत्येतानि स वाक्यानि हेतुमन्त्यर्थवन्ति च / भावाभावसमायोगे जायते वर्णसंकरः // 176 श्रुत्वा नाधिजगौ राजा किंचिदन्यदतः परम् // 191 वर्णाश्रमपृथक्त्वे च दृष्टार्थस्यापृथक्त्विनः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नान्यदन्यदिति ज्ञात्वा नान्यदन्यत्प्रवर्तते // 177 अष्टाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 308 // पाणी कुण्डं तथा कुण्डे पयः पयसि मक्षिकाः / ___309 आश्रिताश्रययोगेन पृथक्त्वेनाश्रया वयम् // 178 युधिष्ठिर उवाच। न तु कुण्डे पयोभावः पयश्चापि न मक्षिकाः। - कथं निर्वेदमापन्नः शुको वैयासकिः पुरा। स्वयमेवाश्रयन्त्येते भावा न तु पराश्रयम् // 179 / एतदिच्छामि कौरव्य श्रोतुं कौतूहलं हि मे // 1 पृथक्त्वादाश्रमाणां च वर्णान्यत्वे तथैव च / भीष्म उवाच / परस्परपृथक्त्वाच्च कथं ते वर्णसंकरः // 180 प्राकृतेन सुवृत्तेन चरन्तमकुतोभयम् / नास्मि वर्णोत्तमा जात्या न वैश्या नावरा तथा। अध्याप्य कृत्स्नं स्वाध्यायमन्वशाद्वै पिता सुतम् // तव राजन्सवर्णास्मि शुद्धयोनिरविप्लुता // 181 धर्म पुत्र निषेवस्त्र सुतीक्ष्णौ हि हिमातपौ। प्रधानो नाम राजर्षिय॑क्तं ते श्रोत्रमागतः / क्षुत्पिपासे च वायुं च जय नित्यं जितेन्द्रियः // 3 कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभा नाम विद्धि माम् / / सत्यमार्जवमक्रोधमनसूयां दमं तपः / द्रोणश्च शतशृङ्गश्च वक्रद्वारश्च पर्वतः / अहिंसां चानृशंस्यं च विधिवत्परिपालय // 4 मम सत्रेषु पूर्वेषां चिता मघवता सह // 183 सत्ये तिष्ठ रतो धर्मे हित्वा सर्वमनाजवम् / साहं तस्मिन्कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे / देवतातिथिशेषेण यात्रां प्राणस्य संश्रय // 5 विनीता मोक्षधर्मषु चराम्येका मुनिव्रतम् / / 184 फेनपात्रोपमे देहे जीवे शकुनिवस्थिते / नास्मि सत्रप्रतिच्छन्ना न परस्वाभिमानिनी / अनित्ये प्रियसंवासे कथं स्वपिषि पुत्रक // 6 न धर्मसंकरकरी स्वधर्मेऽस्मि धृतव्रता / / 185 अप्रमत्तेषु जाग्रत्सु नित्ययुक्तेषु शत्रुषु / नास्थिरा स्वप्रतिज्ञायां नासमीक्ष्यप्रवादिनी / अन्तरं लिप्समानेषु बालस्त्वं नावबुध्यसे // 7 नासमीक्ष्यागता चाहं त्वत्सकाशं जनाधिप // 186 / / गण्यमानेषु वर्षेषु क्षीयमाणे तथायुषि / मोक्षे ते भावितां बुद्धिं श्रुत्वाहं कुशलैषिणी। जीविते शिष्यमाणे च किमुत्थाय न धावसि // 8 तव मोक्षस्य चाप्यस्य जिज्ञासार्थमिहागता॥१८७ ऐहलौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् / न वर्गस्था ब्रवीम्येतत्स्वपक्षपरपक्षयोः / पारलौकिककायेषु प्रसुप्ता भृशनास्तिकाः / / 9 मुक्तो न मुच्यते यश्च शान्तो यश्च न शाम्यति // धर्माय येऽभ्यसूयन्ति बुद्धिमोहान्विता नराः / यथा शून्ये पुरागारे भिक्षुरेका निशां वसेत् / / अपथा गच्छतां तेषामनुयातापि पीड्यते // 10 -2418 --- Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 309. 11] शान्तिपर्व [12. 309. 31 ये तु तुष्टाः सुनियताः सत्यागमपरायणाः / ऋत्वास्यः समबलशुक्लकृष्णनेत्रो धयं पन्थानमारूढास्तानुपास्स्व च पृच्छ च // 11 ___ मांसाङ्गो द्रवति वयोहयो नराणाम् // 24 उपधार्य मतं तेषां वृद्धानां धर्मदर्शिनाम् / तं दृष्ट्वा प्रसृतमजस्रमुग्रवेगं नियच्छ परया बुद्ध्या चित्तमुत्पथगामि वै // 12 गच्छन्तं सततमिहाव्यपेक्षमाणम् / अद्यकालिकया बुद्ध्या दूरे श्व इति निर्भयाः / / चक्षुस्ते यदि न परप्रणेतृनेयं सर्वभक्षा न पश्यन्ति कर्मभूमि विचेतसः // 13 धर्मे ते भवतु मनः परं निशम्य // 25 धर्मनिःश्रेणिमास्थाय किंचित्किचित्समारह / येऽमी तु प्रचलितधर्मकामवृत्ताः कोशकारवदात्मानं वेष्टयन्नावबुध्यसे // 14 / क्रोशन्तः सततमनिष्टसंप्रयोगाः / नास्तिकं भिन्नमर्यादं कूलपातमिवास्थिरम् / . क्लिश्यन्ते परिगतवेदनाशरीरा वामतः कुरु विस्रब्धो नरं वेणुमिवोद्धतम् // 15 बह्वीभिः सुभृशमधर्मवासनामिः // 26 कामं क्रोधं च मृत्युं च पञ्चेन्द्रियजलां नदीम् / राजा धर्मपरः सदा शुभगोप्ता नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर // 16 __समीक्ष्य सुकृतिनां दधाति लोकान् / मृत्युनाभ्याहते लोके जरया परिपीडिते / बहुविधमपि चरतः प्रदिशति अमोघासु पतन्तीषु धर्मयानेन संतर // 17 __ सुखमनुपगतं निरवद्यम् // 27 तिष्ठन्तं च शयानं च मृत्युरन्वेषते यदा। श्वानो भीषणायोमुखानि वयांसि निर्वृतिं लभसे कस्मादकस्मान्मृत्युनाशितः // 18 वडगृध्रकुलपक्षिणां च संघाः / संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् / नरां कदने रुधिरपा गुरुवचनवृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादाय गच्छति // 19 नुदमुपरतं विशसन्ति // 28 क्रमशः संचितशिखो धर्मबुद्धिमयो महान् / मर्यादा नियताः स्वयंभुवा य इहेमाः अन्धकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन धार्यताम् // 20 __ प्रमिनत्ति दशगुणा मनोनुगत्वात् / संपतन्देहजालानि कदाचिदिह मानुषे / / निवसति भृशमसुखं पितृविषय- . ब्राह्मण्यं लभते जन्तुस्तत्पुत्र परिपालय // 21 विपिनमवगाह्य स पापः // 29 ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं न कामार्थाय जायते / यो लुब्धः सुभृशं प्रियानृतश्च मनुष्यः इह क्लेशाय तपसे प्रेत्य त्वनुपमं सुखम् // 22 __ सततनिकृतिवञ्चनारतिः स्यात् / ब्राह्मण्यं बहुभिरवाप्यते तपोभि उपनिधिभिरसुखकृत्स परमनिरयगो - स्तल्लब्ध्वा न परिपणेन हेडितव्यम् / __ भृशमसुखमनुभवति दुष्कृतकर्मा // 30 स्वाध्याये तपसि दमे च नित्ययुक्तः उष्णां वैतरणी महानदीक्षेमार्थी कुशलपरः सदा यतस्व // 23 ___ मवगाढोऽसिपत्रवनभिन्नगात्रः / अव्यक्तप्रकृतिरयं कलाशरीरः परशुवनशयो निपतितो सूक्ष्मात्मा क्षणत्रुटिशो निमेषरोमा / वसति च महानिरये भृशातः // 31 -2419 - Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 309. 32] महाभारते [12. 309.81 महापदानि कत्थसे न चाप्यवेक्षसे परम् / परत्र येन जीव्यते तदेव पुत्र दीयताम् / चिरस्य मृत्युकारिकामनागतां न बुध्यसे // 32 धनं यदक्षयं ध्रुवं समर्जयस्व तत्स्वयम् // 47 प्रयास्यतां किमास्यते समुत्थितं महद्भयम् / न यावदेव पच्यते महाजनस्य यावकम् / अतिप्रमाथि दारुणं सुखस्य संविधीयताम् // 33 / अपक्क एव यावके पुरा प्रणीयसे त्वर // 48 पुरा मृतः प्रणीयसे यमस्य मृत्युशासनात् / न मातृपितृबान्धवा न संस्तुतः प्रियो जनः / तदन्तिकाय दारुणैः प्रयत्नमाजवे कुरु // 34 अनुव्रजन्ति संकटे व्रजन्तमेकपातिनम् // 49 पुरा समूलबान्धवं प्रभुईरत्यदुःखवित् / यदेव कर्म केवलं स्वयं कृतं शुभाशुभम् / तवेह जीवितं यमो न चास्ति तस्य वारकः // 35 तदेव तस्य यौतकं भवत्यमुत्र गच्छतः // 50 पुरा विवाति मारुतो यमस्य यः पुरःसरः।। हिरण्यरत्नसंचयाः शुभाशुभेन संचिताः / पुरैक एव नीयसे कुरुष्व सांपरायिकम् // 36 न तस्य देहसंक्षये भवन्ति कार्यसाधकाः // 51 पुरा सहिक एव ते प्रवाति मारुतोऽन्तकः / परत्रगामिकस्य ते कृताकृतस्य कर्मणः / पुरा च विभ्रमन्ति ते दिशो महाभयागमे // 37 | न साक्षिरात्मना समो नृणामिहास्ति कश्चन // 52 स्मृतिश्च संनिरुध्यते पुरा तवेह पुत्रक / मनुष्यदेहशून्यकं भवत्यमुत्र गच्छतः / समाकुलस्य गच्छतः समाधिमुत्तमं कुरु // 38 प्रपश्य बुद्धिचक्षुषा प्रहश्यते हि सर्वतः // 53 कृताकृते शुभाशुभे प्रमादकर्मविप्लुते / इहानिसूर्यवायवः शरीरमाश्रितात्रयः / स्मरन्पुरा न तप्यसे निधत्स्व केवलं निघिम् // 39 त एव तस्य साक्षिणो भवन्ति धर्मदर्शिनः // 54 पुरा जरा कलेवरं विजर्जरीकरोति ते। यथानिशेषु सर्वतःस्पृशत्सु सर्वदारिषु / बलाङ्गरूपहारिणी निधत्स्व केवलं निधिम् // 40 प्रकाशगूढवृत्तिषु स्वधर्ममेव पालय / / 55 पुरा शरीरमन्तको भिनत्ति रोगसायकैः / अनेकपारिपन्थि के विरूपरोद्ररक्षिते / प्रसह्य जीवितक्षये तपो महत्समाचर // 41 स्वमेव कर्म रक्ष्यतां स्वकर्म तत्र गच्छति // 56 पुरा वृका भयंकरा मनुष्यदेहगोचराः। न. तत्र संविभज्यते स्वकर्मणा परस्परम् / अभिद्रवन्ति सर्वतो यतस्व पुण्यशीलने // 42 यथाकृतं स्वकर्मजं तदेव भुज्यते फलम् // 57 पुरान्धकारमेककोऽनुपश्यसि त्वरस्व वै। यथाप्सरोगणाः फलं सुखं महर्षिभिः सह / पुरा हिरण्मयान्नगान्निरीक्षसेऽद्रिमूर्धनि / / 43 तथाप्नुवन्ति कर्मतो विमानकामगामिनः // 58 पुरा कुसंगतानि ते सुहृन्मुखाश्च शत्रवः / यथेह यत्कृतं शुभं विपाप्मभिः कृतात्मभिः / विचालयन्ति दर्शनाद्धटस्व पुत्र यत्परम् // 44 तदाप्नुवन्ति मानवास्तथा विशुद्धयोनयः / / 59 धनस्य यस्य राजतो भयं न चास्ति चौरतः / प्रजापतेः सलोकतां बृहस्पतेः शतक्रतोः / मृतं च यन्न मुश्चति समर्जयस्व तद्धनम् // 45 ब्रजन्ति ते परां गतिं गृहस्थधर्मसेतुभिः // 60 न तत्र संविभज्यते स्वकर्मभिः परस्परम् / सहस्रशोऽप्यनेकशः प्रवक्तुमुत्सहामहे / यदेव यस्य यौतकं तदेव तत्र सोऽश्नुते // 46 / अबुद्धिमोहनं पुनः प्रभुर्विना न यावकम् / / 61 - 2420 - Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 309. 62 ] शान्तिपर्व [12. 309. 88 गता द्विरष्टवर्षता ध्रुवोऽसि पश्चविंशकः / अथेमं दर्शनोपायं सम्यग्यो वेत्ति मानवः / कुरुष्व धर्मसंचयं वयो हि तेऽतिवर्तते // 62 सम्यक्स धर्म कृत्वेह परत्र सुखमेधते // 76 पुरा करोति सोऽन्तकः प्रमादगोमुखं दमम् / न देहभेदे मरणं विजानतां यथागृहीतमुत्थितं त्वरस्व धर्मपालने // 63 __न च प्रणाशः स्वनुपालिते पथि / यदा त्वमेव पृष्ठतस्त्वमग्रतो गमिष्यसि / धर्म हि यो वर्धयते स पण्डितो सथा गतिं गमिष्यतः किमात्मना परेण वा // 64 ___य एव धर्माच्च्यवते स मुह्यति // 77 यदेकपातिनां सतां भवत्यमुत्र गच्छताम् / प्रयुक्तयोः कर्मपथि स्वकर्मणोः भयेषु सांपरायिकं निधत्स्व तं महानिधिम् // 65 __फलं प्रयोक्ता लभते यथाविधि / सकूलमूलबान्धवं प्रभुईरत्यसङ्गवान् / निहीनकर्मा निरयं प्रपद्यते न सन्ति यस्य वारकाः कुरुष्व धर्मसंनिधिम् // 66 त्रिविष्टपं गच्छति धर्मपारगः // 78 इदं निदर्शनं मया तवेह पुत्र संमतम् / सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् / स्वदर्शनानुमानतः प्रवर्णितं कुरुष्व तत् / / 67 तथात्मानं समादध्याश्येत न पुनर्यथा // 79 दधाति यः स्वकर्मणा धनानि यस्य कस्यचित् / यस्य नोत्क्रामति मतिः स्वर्गमार्गानुसारिणी / अबुद्धिमोहजैर्गुणैः शतैक एव युज्यते // 68 तमाहुः पुण्यकर्माणमशोच्यं मित्रबान्धवैः // 80 श्रुतं समर्थमस्तु ते प्रकुर्वतः शुभाः क्रियाः / यस्य नोपहता बुद्धिर्निश्चयेष्ववलम्बते / तदेव तत्र दर्शनं कृतज्ञमर्थसंहितम् // 69 स्वर्गे कृतावकाशस्य तस्य नास्ति महद्भयम् // 81 निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः / तपोवनेषु ये जातास्तत्रैव निधनं गताः।। छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः // तेषामल्पतरो धर्मः कामभोगमजानताम् // 82 किं ते धनेन किं बन्धुभिस्ते यस्तु भोगान्परित्यज्य शरीरेण तपश्चरेत् / किं ते पुत्रैः पुत्रक यो मरिष्यसि / न तेन किंचिन्नप्राप्तं तन्मे बहुमतं फलम् // 83 - आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च / - - पितामहास्ते व गताश्च सर्वे / / 71 अनागतान्यतीतानि कस्य ते कस्य वा वयम् // 84 श्वःकार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराह्निकम् / / न तेषां भवता कार्य न कार्यं तव तैरपि / को हि तद्वेद कस्याद्य मृत्युसेना निवेक्ष्यते // 72 / स्वकृतैस्तानि यातानि भवांश्चैव गमिष्यति // 85 अनुगम्य श्मशानान्तं निवर्तन्तीह बान्धवाः / / इह लोके हि धनिनः परोऽपि स्वजनायते / अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुषं ज्ञातयः सुहृदस्तथा // 73 स्वजनस्तु दरिद्राणां जीवतामेव नश्यति // 86 नास्तिकान्निरनुक्रोशानरान्पापमतौ स्थितान् / संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः / वामतः कुरु विश्रब्धं परं प्रेप्सुरतन्द्रितः // 74 तत: क्लेशमवाप्नोति परत्रेह तथैव च // 87 एवमभ्याहते लोके कालेनोपनिपीडिते / पश्य त्वं छिद्रभूतं हि जीवलोकं स्वकर्मणा / सुमहद्वैर्यमालम्ब्य धर्म सर्वात्मना कुरु / / 75 / तत्कुरुष्व तथा पुत्र कृत्स्नं यत्समुदाहृतम् // 88 -2421 - Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 309. 89] महाभारते [12. 310. 22 तदेतत्संप्रदृश्यैव कर्मभूमिं प्रविश्य ताम् / तदिन्द्रियाणि संयम्य तपो भवति नान्यथा // 7 शुभान्याचरितव्यानि परलोकमभीप्सता // 89 इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम् / मासर्तुसंज्ञापरिवर्तकेन / संनियम्य तु तान्येव सिद्धि प्राप्नोति मानवः // 8 सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन / अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च / स्वकर्मनिष्टाफलसाक्षिकेण योगस्य कलया तात न तुल्यं विद्यते फलम् // 9 भूतानि कालः पचति प्रसह्य // 90 अत्र ते वर्तयिष्यामि जन्मयोगफलं यथा / धनेन किं यन्न ददाति नानुते शुकस्याग्र्यां गतिं चैव दुर्विदामकृतात्मभिः // 10 बलेन किं येन रिपून्न बाधते / मेरुशृङ्गे किल पुरा कर्णिकारवनायुते / श्रुतेन किं येन न धर्ममाचरे विजहार महादेवो भीमैर्भूतगणैर्वृतः // 11 किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी॥९१ शैलराजसुता चैव देवी तत्राभवत्पुरा। . इदं द्वैपायनवचो हितमुक्तं निशम्य तु / तत्र दिव्यं तपस्तेपे कृष्णद्वैपायनः प्रभुः // 12 शुको गतः परित्यज्य पितरं मोक्षदेशिकम् // 92 योगेनात्मानमाविश्य योगधर्मपरायणः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि धारयन्स तपस्तेपे पुत्रार्थ कुरुसत्तम / / 13 नवाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 309 // अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य चाभिभो / 310 वीर्येण संमितः पुत्रो मम भूयादिति स्म ह // 14 युधिष्ठिर उवाच। संकल्पेनाथ सोऽनेन दुष्प्रापेणाकृतात्मभिः / कथं व्यासस्य धर्मात्मा शुको जज्ञे महातपाः / वरयामास देवेशमास्थितस्तप उत्तमम् // 15 सिद्धिं च परमां प्राप्तस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अतिष्ठन्मारुताहारः शतं किल समाः प्रभुः / कस्यां चोत्पादयामास शुकं व्यासस्तपोधनः / आराधयन्महादेवं बहुरूपमुमापतिम् // 16 न ह्यस्य जननीं विद्म जन्म चाय्यं महात्मनः // 2 तत्र ब्रह्मर्षयश्चैव सर्वे देवर्षयस्तथा / कथं च बालस्य सतः सूक्ष्मज्ञाने गता मतिः। लोकपालाश्च लोकेशं साध्याश्च वसुभिः सह // 17 यथा नान्यस्य लोकेऽस्मिन्द्वितीयस्येह कस्यचित् / / आदित्याश्चैव रुद्राश्च दिवाकरनिशाकरौ / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महायुते / मरुतो मारुतश्चैव सागराः सरितस्तथा // 18 न हि मे तृप्तिरस्तीह शृण्वतोऽमृतमुत्तमम // 4 अश्विनौ देवगन्धर्वास्तथा नारदपर्वतौ / माहात्म्यमात्मयोगं च विज्ञानं च शुकस्य ह / विश्वावसुश्च गन्धर्वः सिद्धाश्चाप्सरसां गणाः॥१९ यथावदानुपूर्येण तन्मे ब्रूहि पितामह / / 5 / तत्र रुद्रो महादेवः कर्णिकारमयी शुभाम् / भीष्म उवाच / धारयाणः स्रजं भाति ज्योत्स्नामिव निशाकरः // 20 न हायनैर्न पलितैन वित्तेन न बन्धुभिः / तस्मिन्दिव्ये वने रम्ये देवदेवर्षिसंकुले। ऋषयश्चकिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् // 6- आस्थितः परमं योगमृषिः पुत्रार्थमुद्यतः // 21 तपोमूलमिदं सर्व यन्मां पृच्छसि पाण्डव / / न चास्य हीयते वर्णो न ग्लानिरुपजायते / -2422 - Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 310.22] शान्तिपर्व [12. 311. 20 त्रयाणामपि लोकानां तदद्भुतमिवाभवत् / / 22 / न शशाक नियन्तुं तव्यासः प्रविसृतं मनः / जटाश्च तेजसा तस्य वैश्वानरशिखोपमाः / भावित्वाच्चैव भावस्य घृताच्या वपुषा हृतः॥ 6 प्रज्वलन्त्यः स्म दृश्यन्ते युक्तस्यामिततेजसः॥२३ यत्नान्नियच्छतस्तस्य मुनेरग्निचिकीर्षया / मार्कण्डेयो हि भगवानेतदाख्यातवान्मम / अरण्यामेव सहसा तस्य शुक्रमवापतत् // 7 स देवचरितानीह कथयामास से सदा // 24 सोऽविशङ्केन मनसा तथैव द्विजसत्तमः / ता एताद्यापि कृष्णस्य तपसा तेन दीपिताः / अरणीं ममन्थ ब्रह्मर्षिस्तस्यां जज्ञे शुको नृप // 8 अग्निवर्णा जटास्तात प्रकाशन्ते महात्मनः / / 25 शुक्रे निर्मथ्यमाने तु शुको जज्ञे महातपाः / एवंविधेन तपसा तस्य भक्त्या च भारत / परमर्षिर्महायोगी अरणीगर्भसंभवः // 9 महेश्वरः प्रसन्नात्मा चकार मनसा मतिम् // 26 यथाध्वरे समिद्धोऽग्नि ति हव्यमुपात्तवान् / उवाच चैनं भगवांरूयम्बकः प्रहसन्निव / तथारूपः शुको जज्ञे प्रज्वलन्निव तेजसा // 10 एवंविधस्ते तनयो द्वैपायन भविष्यति // 27 बिभ्रपितुश्च कौरव्य रूपवर्णमनुत्तमम् / यथा ह्यग्निर्यथा वायुर्यथा भूमिर्यथा जलम् / / बभौ तदा भावितात्मा विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् / यथा च खं तथा शुद्धो भविष्यति सुतो महान् // तं गङ्गा सरितां श्रेष्ठा मेरुपृष्ठे जनेश्वर / तद्भावभावी तद्बुद्धिस्तदात्मा तदपाश्रयः / स्वरूपिणी तदाभ्येत्य स्नापयामास वारिणा // 12 तेजसावृत्य लोकांस्त्रीन्यशः प्राप्स्यति केवलम् // 29 अन्तरिक्षाच्च कौरव्य दण्डः कृष्णाजिनं च ह / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पपात भुवि राजेन्द्र शुकस्यार्थे महात्मनः / / 13 दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 31 // जेगीयन्ते स्म गन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः / देवदुन्दुभयश्चैव प्रावाद्यन्त महास्वनाः // 14 भीष्म उवाच / विश्वावसुश्च गन्धर्वस्तथा तुम्बुरुनारदौ / स लब्ध्वा परमं देवाद्वरं सत्यवतीसुतः। हाहाहूहू च गन्धर्वी तुष्टुवुः शुकसंभवम् // 15 अरणी त्वथ संगृह्य ममन्थाग्निचिकीर्षया // 1 तत्र शक्रपुरोगाश्च लोकपालाः समागताः / अथ रूपं परं राजन्बिभ्रती स्वेन तेजसा। देवा देवर्षयश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽपि च // 16 घृताची नामाप्सरसमपश्यद्भगवानृषिः // 2 दिव्यानि सर्वपुष्पाणि प्रववर्षात्र मारुतः / ऋषिरप्सरसं दृष्ट्वा सहसा काममोहितः / जङ्गमं स्यावरं चैव प्रहृष्टमभवज्जगत् // 17 अभवद्भगवान्व्यासो वने तस्मिन्युधिष्ठिर // 3 तं महात्मा स्वयं प्रीत्या देव्या सह महाद्युतिः / सा च कृत्वा तदा व्यासं कामसंविग्नमानसम् / जातमात्रं मुनेः पुत्रं विधिनोपानयत्तदा // 18 शुकी भूत्वा महाराज घृताची समुपागमत् // 4 तस्य देवेश्वरः शक्रो दिव्यमद्भुतदर्शनम् / स तामप्सरसं दृष्ट्वा रूपेणान्येन संवृताम् / ददौ कमण्डलुं प्रीत्या देववासांसि चाभिभो॥१९ शरीरजेनानुगतः सर्वगात्रातिगेन ह // 5 हंसाश्च शतपत्राश्च सारसाश्च सहस्रशः / स तु धैर्येण महता निगृह्णन्हृच्छयं मुनिः। / प्रदक्षिणमवर्तन्त शुकाश्चाषाश्च भारत // 20 - 2423 - Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 311. 21] महाभारते [12. 312. 21 आरणेयस्तथा दिव्यं प्राप्य जन्म महाद्युतिः / पितुर्नियोगादगमन्मैथिलं जनकं नृपम् / तत्रैवोवास मेधावी व्रतचारी समाहितः // 21 प्रष्टुं धर्मस्य निष्ठां वै मोक्षस्य च परायणम् / / 7 उत्पन्नमात्रं तं वेदाः सरहस्याः ससंग्रहाः / उक्तश्च मानुषेण त्वं पथा गच्छेत्यविस्मितः / उपतस्थुमहाराज यथास्य पितरं तथा // 22 न प्रभावेण गन्तव्यमन्तरिक्षचरेण वै // 8 बृहस्पतिं तु वद्रे स वेदवेदाङ्गभाष्यवित् / आर्जवेणैव गन्तव्यं न सुखान्वेषिणा पथा। उपाध्यायं महाराज धर्ममेवानुचिन्तयन् // 23 नान्वेष्टव्या विशेषास्तु विशेषा हि प्रसङ्गिनः // 9 सोऽधीत्य वेदानखिलान्सरहस्यान्ससंग्रहान् / अहंकारो न कर्तव्यो याज्ये तस्मिन्नराधिपे / इतिहासं च कात्स्न्येन राजशास्त्राणि चाभिभो // 24 स्थातव्यं च वशे तस्य स ते छेत्स्यति संशयम् // गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावृत्तो महामुनिः / / स धर्मकुशलो राजा मोक्षशास्त्रविशारदः। उग्रं तपः समारेभे ब्रह्मचारी समाहितः // 25 याज्यो मम स यद्भयात्तत्कार्यमविशङ्कया // 11 देवतानामृषीणां च बाल्येऽपि स महातपाः / एवमुक्तः स धर्मात्मा जगाम मिथिलां मुनिः / संमत्रणीयो मान्यश्च ज्ञानेन तपसा तथा / / 26 पद्भ्यां शक्तोऽन्तरिक्षेण क्रान्तुं भूमि ससागराम् / न त्वस्य रमते बुद्धिराश्रमेषु नराधिप / स गिरीश्चाप्यतिक्रम्य नदीस्ती. सरांसि च / त्रिषु गार्हस्थ्यमूलेषु मोक्षधर्मानुदर्शिनः / / 27 बहुव्यालमृगाकीर्णा विविधाश्चाटवीस्तथा // 13 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मेरोहरेश्च द्वे वर्षे वर्ष हैमवतं तथा / एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 311 // क्रमेणैव व्यतिक्रम्य भारतं वर्षमासदत् // 14 312 स देशान्विविधान्पश्यंश्चीनहूणनिषेवितान्। भीष्म उवाच / आर्यावर्तमिमं देशमाजगाम महामुनिः // 15 स मोक्षमनुचिन्त्यैव शुकः पितरमभ्यगात् / पितुर्वचनमाज्ञाय तमेवार्थ विचिन्तयन् / प्राहाभिवाद्य च गुरुं श्रेयोर्थी विनयान्वितः / / 1 अध्वानं सोऽतिचक्राम खेऽचरः खे चरन्निव / / 16 मोक्षधर्मेषु कुशलो भगवान्प्रब्रवीतु मे। पत्तनानि च रम्याणि स्फीतानि नगराणि च / यथा मे मनसः शान्तिः परमा संभवेत्पभो / / 2 रत्नानि च विचित्राणि शुकः पश्यन्न पश्यति // 18 श्रुत्वा पुत्रस्य वचनं परमर्षिरुवाच तम् / उद्यानानि च रम्याणि तथैवायतनानि च / अधीष्व पुत्र मोक्षं वै धर्मांश्च विविधानपि / / 3 पुण्यानि चैव तीर्थानि सोऽतिक्रम्य तथाध्वनः // पितुर्नियोगाजग्राह शुको ब्रह्मविदां वरः / सोऽचिरेणैव कालेन विदेहानाससाद ह। योगशास्त्रं च निखिलं कापिलं चैव भारत // 4 रक्षितान्धर्मराजेन जनकेन महात्मना // 19 स तं ब्राहृया श्रिया युक्तं ब्रह्मतुल्यपराक्रमम् / तत्र सामान्बहून्पश्यन्बह्वन्नरसभोजनान् / . मेने पुत्रं यदा व्यासो मोक्षविद्याविशारदम् / / 5 पल्लीघोषान्समृद्धांश्च बहुगोकुलसंकुलान् // 20 उवाच गच्छेति तदा जनकं मिथिलेश्वरम् / स्फीतांश्च शालियवसैहंससारससेवितान् / स ते वक्ष्यति मोक्षार्थ निखिलेन विशेषतः // 6 / पद्मिनीभिश्च शतशः श्रीमतीभिरलंकृतान् // 21 -2424 - Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 312. 22 ] शान्तिपर्व [12. 313. 3 स विदेहानतिक्रम्य समृद्धजनसेवितान् / कामोपचारकुशला भावज्ञाः सर्वकोविदाः / मिथिलोपवनं रम्यमाससाद महर्द्धिमत् // 22 परं पञ्चाशतो नार्यो वारमुख्याः समाद्रवन् // 37 हस्त्यश्वरथसंकीर्णं नरनारीसमाकुलम् / पाद्यादीनि प्रतिग्राह्य पूजया परयाय॑ च / पश्यन्नपश्यन्निव तत्समतिकामदच्युतः // 23 देशकालोपपन्नेन साध्वन्नेनाप्यतर्पयन् // 38 . मनसा तं वहन्भारं तमेवार्थं विचिन्तयन् / तस्य भुक्तवतस्तात तदन्तःपुरकाननम् / आत्मारामः प्रसन्नात्मा मिथिलामाससाद ह // 24 सुरम्यं दर्शयामासुरेकैकश्येन भारत // 39 तस्या द्वारं समासाद्य द्वारपालैर्निवारितः / क्रीडन्त्यश्च हसन्त्यश्व गायन्त्यश्चैव ताः शुकम् / स्थितो ध्यानपरो मुक्तो विदितः प्रविवेश ह / / 25 उदारसत्त्वं सत्त्वज्ञाः सर्वाः पर्यचरंस्तदा // 40 स राजमार्गमासाद्य समृद्धजनसंकुलम् / आरणेयस्तु शुद्धात्मा त्रिसंदेहस्त्रिकर्मकृत् / पार्थिवक्षयमासाद्य निःशङ्कः प्रविवेश ह // 26 वश्येन्द्रियो जितक्रोधो न हृष्यति न कुप्यति // तत्रापि द्वारपालास्तमुग्रवाचो न्यषेधयन् / तस्मै शय्यासनं दिव्यं वराह रत्नभूषितम् / तथैव च शुकस्तत्र निर्मन्युः समतिष्ठत // 27 स्पास्तरणसंस्तीर्णं ददुस्ताः परमस्त्रियः // 42 न चातपाध्वसंतप्तः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः / पादशौचं तु कृत्वैव शुकः संध्यामुपास्य च / प्रताम्यति ग्लायति वा नापैति च तथातपात् // 28 / निषसादासने पुण्ये तमेवार्थ विचिन्तयन् // 43 तेषां तु द्वारपालानामेकः शोकसमन्वितः। पूर्वरात्रे तु तत्रासौ भूत्वा ध्यानपरायणः / मध्यंगतमिवादित्यं दृष्ट्वा शुकमवस्थितम् / / 29 मध्यरात्रे यथान्यायं निद्रामाहारयत्प्रभुः // 44 पूजयित्वा यथान्यायमभिवाद्य कृताञ्जलिः। ततो मुहूर्तादुत्थाय कृत्वा शौचमनन्तरम् / प्रावेशयत्ततः कक्ष्यां द्वितीयां राजवेश्मनः // 30 / स्त्रीभिः परिवृतो धीमान्ध्यानमेवान्वपद्यत // 45 तत्रासीनः शुकस्तात मोक्षमेवानुचिन्तयन् / अनेन विधिना काणिस्तदहःशेषमच्युतः / छायायामातपे चैव समदर्शी महाद्युतिः / / 31 / तां च रात्रिं नृपकुले वर्तयामास भारत // 46 तं मुहूर्तादिवागम्य राज्ञो मन्त्री कृताञ्जलिः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि प्रावेशयत्ततः कक्ष्यां तृतीयां राजवेश्मनः // 32 द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 312 // तत्रान्तःपुरसंबद्धं महच्चैत्ररथोपमम् / 313 सुविभक्तजलाक्रीडं रम्यं पुष्पितपादपम् // 33 भीष्म उवाच / तदर्शयित्वा स शुकं मत्री काननमुत्तमम् / ततः स राजा जनको मन्त्रिभिः सह भारत / अर्हमासनमादिश्य निश्चक्राम ततः पुनः // 34 पुरः पुरोहितं कृत्वा सर्वाण्यन्तःपुराणि च // 1 तं चारुवेषाः सुश्रोण्यस्तरुण्यः प्रियदर्शनाः / आसनं च पुरस्कृत्य रत्नानि विविधानि च / सूक्ष्मरक्ताम्बरधरास्तप्तकाश्चनभूषणाः // 35 शिरसा चाय॑मादाय गुरुपुत्रं समभ्यगात् // 2 संलापोल्लापकुशला नृत्तगीतविशारदाः / स तदासनमादाय बहुरत्नविभूषितम् / / स्मितपूर्वाभिभाषिण्यो रूपेणाप्सरसां समाः // 36 / स्पर्ध्यास्तरणसंकीणं सर्वतोभद्रमृद्धिमत् // 3 घ,भा,३०४ -2425 - Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 313. 4] महाभारते [ 12. 313. 31 पुरोधसा संगृहीतं हस्तेनालभ्य पार्थिवः / अनसूयुर्यथान्यायमाहिताग्निस्तथैव च // 17 प्रददौ गुरुपुत्राय शुकाय परमार्चितम् // 4 उत्पाद्य पुत्रपौत्रं तु वन्याश्रमपदे वसेत् / तत्रोपविष्टं तं काणि शास्त्रतः प्रत्यपूजयत् / तानेवाग्नीन्यथाशास्त्रमर्चयन्नतिथिप्रियः // 18 पाद्यं निवेद्य प्रथममयं गां च न्यवेदयत् / स वनेऽग्नीन्यथान्यायमात्मन्यारोप्य धर्मवित् / स च तां मत्रवत्पूजां प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि // 5 निद्वंद्वो वीतरागात्मा ब्रह्माश्रमपदे वसेत् // 19 प्रतिगृह्य च तां पूजां जनकाहिजसत्तमः। शुक उवाच / गां चैव समनुज्ञाय राजानमनमान्य च // 6 उत्पन्ने ज्ञानविज्ञाने प्रत्यक्षे हृदि शाश्वते / पर्यपृच्छन्महातेजा राज्ञः कुशलमव्ययम् / किमवश्यं निवस्तव्यमाश्रमेषु वनेषु च // 20 अनामयं च राजेन्द्र शुकः सानुचरस्य ह // 7 एतद्भवन्तं पृच्छामि तद्भवान्वक्तुमर्हति / अनुज्ञातः स तेनाथ निषसाद सहानुगः / यथावेदार्थतत्त्वेन ब्रूहि मे त्वं जनाधिप // 21 उदारसत्त्वाभिजनो भूमौ राजा कृताञ्जलिः / / 8 जनक उवाच। कुशलं चाव्ययं चैव पृष्ट्वा वैयासकिं नृपः / न विना ज्ञानविज्ञानं मोक्षस्याधिगमो भवेत् / किमागमनमित्येव पर्यपृच्छत पार्थिवः // 9 न विना गुरुसंबन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः // 22 शुक उवाच / आचार्यः प्लाविता तस्य ज्ञानं प्लव इहोच्यते। पित्राहमुक्तो भद्रं ते मोक्षधर्मार्थकोविदः / विज्ञाय कृतकृत्यस्तु तीर्णस्तदुभयं त्यजेत् // 25 विदेहराजो याज्यो मे जनको नाम विश्रुतः // 1. अनुच्छेदाय लोकानामनुच्छेदाय कर्मणाम् / तत्र गच्छस्व वै तूर्णं यदि ते हृदि संशयः / पूर्वैराचरितो धर्मश्चातुराश्रम्यसंकथः // 24 प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा स ते छेत्स्यति संशयम् / / अनेन क्रमयोगेन बहुजातिषु कर्मणा / सोऽहं पितुर्नियोगात्त्वामुपप्रष्टुमिहागतः / कृत्वा शुभाशुभं कर्म मोक्षो नामेह लभ्यते // 25 तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ यथावद्वक्तुमर्हसि // 12 भावितैः कारणैश्चायं बहुसंसारयोनिषु / किं कार्य ब्राह्मणेनेह मोक्षार्थश्च किमात्मकः / आसादयति शुद्धात्मा मोक्षं वै प्रथमाश्रमे // 26 कथं च मोक्षः कर्तव्यो ज्ञानेन तपसापि वा // 13 तमासाद्य तु मुक्तस्य दृष्टार्थस्य विपश्चितः / नक उवाच / त्रिध्वाश्रमेषु को न्वर्थो भवेत्परमभीप्सतः // 27 यत्कार्यं ब्राह्मणेनेह जन्मप्रभृति तच्छृणु / राजसांस्तामसांश्चैव नित्यं दोषान्विवर्जयेत् / कृतोपनयनस्तात भवेद्वेदपरायणः // 14 सात्त्विकं मार्गमास्थाय पश्येदात्मानमात्मना // 28 तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण चाभिभो / सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि / देवतानां पितृणां चाप्यनृणश्वानसूयकः // 15 संपश्यन्नोपलिप्येत जले वारिचरो यथा // 29 वेदानधीत्य नियतो दक्षिणामपवय॑ च / पक्षीव प्लवनादूर्ध्वममुत्रानन्त्यमश्रुते / अभ्यनुज्ञामथ प्राप्य समावर्तेत वै द्विजः // 16 / विहाय देहं निर्मुक्तो निद्वः प्रशमं गतः // 30 समावृत्तस्तु गार्हस्थ्ये सदारो नियतो वसेत् / / अत्र गाथाः पुरा गीताः शृणु राज्ञा ययातिना / -2426 - Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 313. 31 शान्तिपर्व [ 12. 314. 7 धार्यन्ते या द्विजैस्तात मोक्षशास्त्रविशारदैः॥३१ / विमुच्य हृदयग्रन्थीनासादयति तां गतिम् // 46 ज्योतिरात्मनि नान्यत्र रतं तत्रैव चैव तत् / भवांश्चोत्पन्नविज्ञानः स्थिरबुद्धिरलोलुपः। स्वयं च शक्यं तद्रष्टुं सुसमाहितचेतसा // 32 व्यवसायाहते ब्रह्मन्नासादयति तत्परम् // 47 न बिभेति परो यस्मान्न बिभेति पराच यः / / नास्ति ते सुखदुःखेषु विशेषो नास्ति लोलुपा / यश्च नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा // 33 नौत्सुक्यं नृत्तगीतेषु न राग उपजायते // 48 यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम् / न बन्धुषु निबन्धस्ते न भयेष्वस्ति ते भयम् / कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा // 34 पश्यामि त्वां महाभाग तुल्यलोष्टाश्मकाञ्चनम् // संयोज्य तपसात्मानमीणूंमुत्सृज्य मोहिनीम् / अहं च त्वानुपश्यामि ये चाप्यन्ये मनीषिणः / त्यक्त्वा कामं च लोभं च ततो ब्रह्मत्वमभुते // 35 आस्थितं परमं मार्गमक्षयं तमनामयम् // 50 यदा श्रव्ये च दृश्ये च सर्वभूतेषु चाप्ययम्।। यत्फलं ब्राह्मणस्येह मोक्षार्थश्च यदात्मकः / समो भवति निद्वंद्वो ब्रह्म संपद्यते तदा // 36 तस्मिन्वै वर्तसे विप्र किमन्यत्परिपृच्छसि // 51 यदा स्तुतिं च निन्दां च समत्वेनैव पश्यति / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि काञ्चनं चायसं चैव सुखदुःखे तथैव च // 37 त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 313 // शीतमुष्णं तथैवार्थमनथं प्रियमप्रियम्। 314 जीवितं मरणं चैव ब्रह्म संपद्यते तदा // 38 भीष्म उवाच / प्रसार्येह यथाङ्गानि कूर्म संहरते पुनः / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं कृतात्मा कृतनिश्चयः / तथेन्द्रियाणि मनसा संयन्तव्यानि भिक्षुणा // 39 / आत्मनात्मानमास्थाय दृष्ट्वा चात्मानमात्मना // 1 तमःपरिगतं वेश्म यथा दीपेन दृश्यते। कृतकार्यः सुखी शान्तस्तूष्णीं प्रायादुदङ्मुखः / तथा बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम् // 40 शैशिरं गिरिमुद्दिश्य सधर्मा मातरिश्वनः // 2 एतत्सर्व प्रपश्यामि त्वयि बुद्धिमतां वर। एतस्मिन्नेव काले तु देवर्षि रदस्तदा / यच्चान्यदपि वेत्तव्यं तत्त्वतो वेद तद्भवान् // 41 हिमवन्तमियादृष्टुं सिद्धचारणसेवितम् // 3 ब्रह्मर्षे विदितश्चासि विषयान्तमुपागतः / तमप्सरोगणाकीणं गीतस्वननिनादितम् / गुरोस्तव प्रसादेन तव चैवोपशिक्षया // 42 किंनराणां समूहैश्च भृङ्गराजैस्तथैव च // 4 तस्यैव च प्रसादेन प्रादुर्भूतं महामुने / मद्गुभिः खञ्जरीटैश्च विचित्रैर्जीवजीवकैः / ज्ञानं दिव्यं ममापीदं तेनासि विदितो मम // 43 चित्रवर्णैर्मयूरैश्च केकाशतविराजितैः। अधिकं तव विज्ञानमधिका च गतिस्तव / राजहंससमूहैश्च हृष्टैः परभृतैस्तथा // 5 अधिकं च तवैश्वयं तच त्वं नावबुध्यसे // 44 पक्षिराजो गरुत्मांश्च यं नित्यमधिगच्छति / बाल्याद्वा संशयाद्वापि भयाद्वाप्यविमोक्षजात् / चत्वारो लोकपालाश्च देवाः सर्षिगणास्तथा / उत्पन्ने चापि विज्ञाने नाधिगच्छति तां गतिम् // यत्र नित्यं समायान्ति लोकस्य हितकाम्यया // 6 व्यवसायेन शुद्धेन मद्विधैश्छिन्नसंशयः। विष्णुना यत्र पुत्रार्थे तपस्तप्तं महात्मना / - 2427 - Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 314.7] महाभारते [ 12. 314. 360 यत्रैव च कुमारेण बाल्ये क्षिप्ता दिवौकसः // 7 सर्वविघ्नान्प्रशमयन्महादेवस्य धीमतः // 21 शक्तियस्ता क्षितितले त्रैलोक्यमवमन्य वै / दिव्यं वर्षसहस्रं हि पादेनैकेन तिष्ठतः / यत्रोवाच जगत्स्कन्दः क्षिपन्वाक्यमिदं तदा // 8 देवान्संतापयंस्तत्र महादेवो धृतव्रतः / / 22 योऽन्योऽस्ति मत्तोऽभ्यधिको विप्रा यस्याधिक प्रियाः ऐन्द्री तु दिशमास्थाय शैलराजस्य धीमतः। यो ब्रह्मण्यो द्वितीयोऽस्ति त्रिषु लोकेषु वीर्यवान् // विविक्ते पर्वततटे पाराशर्यो महातपाः / सोऽभ्युद्धरत्विमां शक्तिमथ वा कम्पयत्विति / वेदानध्यापयामास व्यासः शिष्यान्महातपाः // 23 तच्छ्रुत्वा व्यथिता लोकाः क इमामुद्धरेदिति // 10 सुमन्तुं च महाभागं वैशंपायनमेव च। अथ देवगणं सर्व संभ्रान्तेन्द्रियमानसम् / जैमिनि च महाप्राज्ञं पैलं चापि तपस्विनम् // 24 अपश्यद्भगवान्विष्णुः क्षिप्तं सासुरराक्षसम् / एभिः शिष्यैः परिवृतो व्यास आस्ते महातपाः / किं न्वत्र सुकृतं कार्य भवेदिति विचिन्तयन् // 11 तत्राश्रमपदं पुण्यं ददर्श पितुरुत्तमम् / .. स नामृष्यत तं क्षेपमवैक्षत च पावकिम् / आरणेयो विशद्धात्मा नभसीव दिवाकरः // 25 स प्रहस्य विशुद्धात्मा शक्ति प्रज्वलितां तदा / अथ व्यासः परिक्षिप्तं ज्वलन्तमिव पावकम् / कम्पयामास सव्येन पाणिना पुरुषोत्तमः // 12 ददर्श सुतमायान्तं दिवाकरसमप्रभम् / / 26 शक्त्यां तु कम्पमानायां विष्णुना बलिना तदा। असजमानं वृक्षेषु शैलेषु विषमेषु च। मेदिनी कम्पिता सर्वा सशैलवनकानना // 13 योगयुक्तं महात्मानं यथा बाणं गुणच्युतम् // 27 शक्तेनापि समुद्धर्तुं कम्पिता सा न तूद्धृता। सोऽभिगम्य पितुः पादावगृह्णादरणीसुतः / रक्षता स्कन्दराजस्य धर्षणां प्रभविष्णुना // 14 यथोपजोषं तैश्चापि समागच्छन्महामुनिः // 28 तां कम्पयित्वा भगवान्प्रह्लादमिदमब्रवीत् / ततो निवेदयामास पित्रे सर्वमशेषतः / पश्य वीर्य कुमारस्य नैतदन्यः करिष्यति / / 15 शुको जनकराजेन संवादं प्रीतमानसः // 29 सोऽमृष्यमाणस्तद्वाक्यं समुद्धरणनिश्चितः / एवमध्यापयशिष्यान्व्यासः पुत्रं च वीर्यवान् / जग्राह तां तस्य शक्तिं न चैनामप्यकम्पयत् // 16 उवास हिमवत्पृष्ठे पाराशर्यो महामुनिः // 30 नादं महान्तं मुक्त्वा स मूर्च्छितो गिरिमूर्धनि / ततः कदाचिच्छिष्यास्तं परिवार्यावतस्थिरे / विह्वलः प्रापतद्भूमौ हिरण्यकशिपोः सुतः // 17 वेदाध्ययनसंपन्नाः शान्तात्मानो जितेन्द्रियाः // 31 यत्रोत्तरां दिशं गत्वा शैलराजस्य पार्श्वतः / वेदेषु निष्ठां संप्राप्य साङ्गेष्वतितपस्विनः / तपोऽतप्यत दुर्धर्षस्तात नित्यं वृषध्वजः // 18 अथोचुस्ते तदा व्यासं शिष्याः प्राञ्जलयो गुरुम् // पावकेन परिक्षिप्तो दीप्यता तस्य चाश्रमः / महता श्रेयसा युक्ता यशसा च स्म वर्धिताः। आदित्यबन्धनं नाम दुर्धर्षमकृतात्मभिः // 19 एक विदानीमिच्छामो गुरुणानुग्रहं कृतम् // 33 न तत्र शक्यते गन्तुं यक्षराक्षसदानवैः / इति तेषां वचः श्रुत्वा ब्रह्मर्षिस्तानुवाच ह / दशयोजनविस्तारमग्निज्वालासमावृतम् / / 20 उच्यतामिति तद्वत्सा यद्रः कार्य प्रियं मया // 34 भगवान्पावकस्तत्र स्वयं तिष्ठति वीर्यवान् / एतद्वाक्यं गुरोः श्रुत्वा शिष्यास्ते .हृष्टमानसाः / -2428 - Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 314. 35] शान्तिपर्व [ 12. 315. 13 पुनः प्राञ्जलयो भूत्वा प्रणम्य शिरसा गुरुम् / / 35 / उपकुर्याच्च शिष्याणामेतच्च हृदि वो भवेत् // 49 ऊचुस्ते सहिता राजन्निदं वचनमुत्तमम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि यदि प्रीत उपाध्यायो धन्याः स्मो मुनिसत्तम / 36 चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥३१४ // काङ्खामस्तु वयं सर्वे वरं दत्तं महर्षिणा / षष्ठः शिष्यो न ते ख्यातिं गच्छेदत्र प्रसीद नः // भीष्म उवाच / चत्वारस्ते वयं शिष्या गुरुपुत्रश्च पञ्चमः / एतच्छ्रुत्वा गुरोर्वाक्यं व्यासशिष्या महौजसः / इह वेदाः प्रतिष्ठेरन्नेष नः काङ्कितो वरः // 38 अन्योन्यं हृष्टमनसः परिषस्वजिरे तदा // 1 शिष्याणां वचनं श्रुत्वा व्यासो वेदार्थतत्त्ववित् / उक्ताः स्मो यद्भगवता तदात्वायतिसंहितम् / तन्नो मनसि संरूढं करिष्यामस्तथा च तत् // 2 पराशरात्मजो धीमान्परलोकार्थचिन्तकः / अन्योन्यं च सभाज्यैवं सुप्रीतमनसः पुनः / उवाच शिष्यान्धर्मात्मा धयं नैःश्रेयसं वचः // 39 विज्ञापयन्ति स्म गुरुं पुनर्वाक्यविशारदाः // 3 ब्राह्मणाय सदा देयं ब्रह्म शुश्रूषवे भवेत् / शैलादस्मान्महीं गन्तुं काङ्कितं नो महामुने / ब्रह्मलोके निवासं यो ध्रुवं समभिकाङ्क्षति // 40 वेदाननेकधा कर्तुं यदि ते रुचितं विभो // 4 भवन्तो बहुलाः सन्तु वेदो विस्तार्यतामयम् / शिष्याणां वचनं श्रुत्वा पराशरसुतः प्रभुः / नाशिष्ये संप्रदातव्यो नाव्रते नाकृतात्मनि // 41 प्रत्युवाच ततो वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम् // 5 एते शिष्यगुणाः सर्वे विज्ञातव्या यथार्थतः / क्षितिं वा देवलोकं वा गम्यतां यदि रोचते / नापरीक्षितचारित्रे विद्या देया कथंचन // 42 अप्रमादश्च वः कार्यो ब्रह्म हि प्रचुरच्छलम् // 6 यथा हि कनकं शुद्धं तापच्छेदनिघर्षणैः / तेऽनुज्ञातास्ततः सर्ते गुरुणा सत्यवादिना / परीक्षेत तथा शिष्यानीक्षेत्कुलगुणादिभिः // 43 जग्मुः प्रदक्षिणं कृत्वा व्यासं मूर्धाभिवाद्य च // 7 न नियोज्याश्च वः शिष्या अनियोगे महाभये / अवतीर्य महीं तेऽथ चातुर्होत्रमकल्पयन् / यथामति यथापाठं तथा विद्या फलिष्यति // 44 संयाजयन्तो विप्रांश्च राजन्यांश्च विशस्तथा // 8 सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु / / पूज्यमाना द्विजैनित्यं मोदमाना गृहे रताः / श्रावयेच्चतुरो वर्णान्कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः // 45 याजनाध्यापनरताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः // 9 वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्य महत्स्मृतम् / अवतीर्णेषु शिष्येषु व्यासः पुत्रसहायवान् / स्तुत्यर्थमिह देवानां वेदाः सृष्टाः स्वयंभुवा // 46 / तूष्णीं ध्यानपरो धीमानेकान्ते समुपाविशत् // 10 यो निर्वदेत संमोहाब्राह्मणं वेदपारगम् / / तं ददर्शाश्रमपदे नारदः सुमहातपाः / सोऽपध्यानाद्राह्मणस्य पराभूयादसंशयम् / / 47 / / अथैनमब्रवीत्काले मधुराक्षरया गिरा // 11 यथाधर्मेण विब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति / भो भो महर्षे वासिष्ठ ब्रह्मघोषो न वर्तते / तयोरन्यतरः प्रति विद्वेषं वाधिगच्छति // 48 एको ध्यानपरस्तूष्णीं किमास्से चिन्तयन्निव // 12 एतद्वः सर्वमाख्यातं स्वाध्यायस्य विधि प्रति / ब्रह्मघोषैर्विरहितः पर्वतोऽयं न शोभते। -2429 - Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 315. 13 ] महाभारते [ 12. 315. 42 रजसा तमसा चैव सोमः सोपप्लवो यथा // 13 अनध्यायनिमित्तेऽस्मिन्निदं वचनमब्रवीत् // 2 // न भ्राजते यथापूर्वं निषादानामिवालयः / दिव्यं ते चक्षुरुत्पन्नं स्वस्थं ते निर्मल मनः। देवर्षिगणजुष्टोऽपि वेदध्वनिनिराकृतः // 14 तमसा रजसा चापि त्यक्तः सत्त्वे व्यवस्थितः // 28 ऋषयश्च हि देवाश्च गन्धर्वाश्च महौजसः। आदर्श स्वामिव छायां पश्यस्यात्मानमात्मना। विमुक्ता ब्रह्मघोषेण न भ्राजन्ते यथा पुरा // 15 न्यस्यात्मनि स्वयं वेदान्बुद्ध्या समनुचिन्तय // 29 नारदस्य वचः श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / देवयानचरो विष्णोः पितृयानश्च तामसः / महर्षे यत्त्वया प्रोक्तं वेदवादविचक्षण // 16 द्वावेतौ प्रेत्य पन्थानौ दिवं चाधश्च गच्छतः॥३० एतन्मनोनुकूलं मे भवानर्हति भाषितुम् / पृथिव्यामन्तरिक्षे च यत्र संवान्ति वायवः / सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वत्र च कुतूहली // 17 सप्तैते वायुमार्गा वै तान्निबोधानुपूर्वशः // 31 त्रिषु लोकेषु यद्वृत्तं सर्व तव मते स्थितम् / तत्र देवगणाः साध्याः समभूवन्महाबलाः / . . तदाज्ञापय विप्रर्षे ब्रूहि किं करवाणि ते // 18 तेषामप्यभवत्पुत्रः समानो नाम दुर्जयः // 32 यन्मया समनुष्ठेयं ब्रह्मर्षे तदुदाहर / उदानस्तस्य पुत्रोऽभूद्यानस्तस्याभवत्सुतः। वियुक्तस्येह शिष्यर्मे नातिहृष्टमिदं मनः // 19 अपानश्च ततो ज्ञेयः प्राणश्चापि ततः परम् // 33 नारद उवाच / अनपत्योऽभवत्प्राणो दुर्धर्षः शत्रुतापनः / अनाम्नायमला वेदा ब्राह्मणस्याव्रतं मलम् / पृथक्कर्माणि तेषां तु प्रवक्ष्यामि यथातथम् // 31 मलं पृथिव्या वाहीकाः स्त्रीणां कौतूहलं मलम् / / प्राणिनां सर्वतो वायुश्चेष्टा वर्तयते पृथक् / अधीयतां भवान्वेदान्साधं पुत्रेण धीमता / प्राणनाञ्चैव भूतानां प्राण इत्यभिधीयते // 35 विधुन्वन्ब्रह्मघोषेण रक्षोभयकृतं तमः // 21 प्रेरयत्यभ्रसंघातान्धूमजांश्चोष्मजांश्च यः / भीष्म उवाच / प्रथमः प्रथमे मार्गे प्रवहो नाम सोऽनिलः // 36 नारदस्य वचः श्रुत्वा व्यासः परमधर्मवित् / अम्बरे स्नेहमभ्रेभ्यस्तडिद्भयश्चोत्तमद्युतिः / तथेत्युवाच संहृष्टो वेदाभ्यासे दृढव्रतः / / 22 आवहो नाम संवाति द्वितीयः श्वसनो नदन // 37 शुकेन सह पुत्रेण वेदाभ्यासमथाकरोत् / उदयं ज्योतिषां शश्वत्सोमादीनां करोति यः / स्वरेणोच्चैः स शैक्षेण लोकानापूरयन्निव // 23 अन्तर्देहेषु चोदानं यं वदन्ति महर्षयः // 38 तयोरभ्यसतोरेवं नानाधर्मप्रवादिनोः / यश्चतुर्थ्यः समुद्रेभ्यो वायुर्धारयते जलम् / वातोऽतिमात्रं प्रववौ समुद्रानिलवेजितः / / 24 उद्धृत्याददते चापो जीमूतेभ्योऽम्बरेऽनिलः // 39 ततोऽनध्याय इति तं व्यासः पुत्रमवारयत् / योऽद्भिः संयोज्य जीमूतान्पर्जन्याय प्रयच्छति / शुको वारितमात्रस्तु कौतूहलसमन्वितः // 25 उद्वहो नाम वर्षिष्ठस्तृतीयः स सदागतिः // 40 अपृच्छत्पितरं ब्रह्मन्कुतो वायुरभूदयम् / समुह्यमाना बहुधा येन नीलाः पृथग्घनाः / आख्यातुमर्हति भवान्वायोः सर्वं विचेष्टितम् // 26 / वर्षमोक्षकृतारम्भास्ते भवन्ति घनाघनाः // 41 शुकस्यैतद्वचः श्रुत्वा व्यासः परमविस्मितः। / संहता येन चाविद्धा भवन्ति नदत्यं नदाः। -2430 - Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 315. 42] शान्तिपर्व [ 12. 316. 12 रक्षणार्थाय संभूता मेघत्वमुपयान्ति च // 42 उक्त्वा पुत्रमधीष्वेति व्योमगङ्गामयात्तदा // 57 योऽसौ वहति देवानां विमानानि विहायसा। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि चतुर्थः संवहो नाम वायुः स गिरिमर्दनः // 43 पञ्चदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 315 // येन वेगवता रुग्णा रूक्षेणारुजता रसान् / 316 वायुना विहता मेघा न भवन्ति बलाहकाः // 44 भीष्म उवाच। दारुणोत्षातसंचारो नभसः स्तनयित्नुमान् / एतस्मिन्नन्तरे शून्ये नारदः समुपागमत् / पञ्चमः स महावेगो विवहो नाम मारुतः // 45 शुकं स्वाध्यायनिरतं वेदार्थान्वक्तुमीप्सितान् // 1 यस्मिन्पारिप्लवे दिव्या वहन्त्यापो विहायसा। देवर्षि तु शुको दृष्ट्वा नारदं समुपस्थितम् / पुण्यं चाकाशगङ्गायास्तोयं विष्टभ्य तिष्ठति // 46 अर्घ्यपूर्वेण विधिना वेदोक्तेनाभ्यपूजयत् // 2 दूरात्प्रतिहतो यस्मिन्नेकरश्मिर्दिवाकरः / नारदोऽथाब्रवीत्प्रीतो ब्रूहि ब्रह्मविदां वर / योनिरंशुसहस्रस्य येन भाति वसुंधरा / / 47 केन त्वां श्रेयसा तात योजयामीति हृष्टवत् // 3 यस्मादाप्यायते सोमो निधिर्दिव्योऽमृतस्य च / नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः प्रोवाच भारत / षष्ठः परिवहो नाम स वायुर्जवतां वरः // 48 अस्मिल्लोके हितं यत्स्यात्तेन मां योक्तुमर्हसि // 4 सर्वप्राणभृतां प्राणान्योऽन्तकाले निरस्यति / नारद उवाच / यस्य वानुवर्तेते मृत्युवैवस्वतावुभौ // 49 तत्त्वं जिज्ञासतां पूर्वमृषीणां भावितात्मनाम् / सम्यगन्वीक्षतां बुद्धया शान्तयाध्यात्मनित्यया। सनत्कुमारो भगवानिदं वचनमब्रवीत् // 5 ज्यानाभ्यासाभिरामाणां योऽमृतत्वाय कल्पते // 50 नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं तपः / यं समासाद्य वेगेन दिशामन्तं प्रपेदिरे। नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् // 6 दक्षस्य दश पुत्राणां सहस्राणि प्रजापतेः // 51 / निवृत्तिः कर्मणः पापात्सततं पुण्यशीलता / येन सष्टः पराभूतो यात्येव न निवर्तते / सद्वृत्तिः समुदाचारः श्रेय एतदनुत्तमम् / / . रावहो नाम परो वायुः स दुरतिक्रमः // 52 मानुष्यमसुखं प्राप्य यः सज्जति स मुह्यति / रखमेतेऽदितेः पुत्रा मारुताः परमाद्भुताः / नालं स दुःखमोक्षाय सङ्गो वै दुःखलक्षणम् // 8 अनारमन्तः संवान्ति सर्वगाः सर्वधारिणः // 53 सक्तस्य बुद्धिश्चलति मोहजालविवर्धिनी / एतत्तु महदाश्चयं यदयं पर्वतोत्तमः / मोहजालवृतो दुःखमिह चामुत्र चाभुते // 9 कम्पितः सहसा तेन वायुनाभिप्रवायता // 54 / सर्वोपायेन कामस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः / विष्णोनिःश्वासवातोऽयं यदा वेगसमीरितः / कार्यः श्रेयोर्थिना तौ हि श्रेयोघातार्थमुद्यतौ // 10 सहसोदीयते तात जगत्प्रव्यथते तदा // 55 / / नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेत मत्सरात् / तस्माद्ब्रह्मविदो ब्रह्म नाधीयन्तेऽतिवायति / विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः // 11 वायोर्वायुभयं ह्युक्तं ब्रह्म तत्पीडितं भवेत् // 56 / आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् / एतावदुक्त्वा वचनं पराशरसुतः प्रभुः / आत्मज्ञानं परं ज्ञानं न सत्याद्विद्यते परम् // 12 - 2431 - Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 316. 13 ] महाभारते [ 12. 316. 49 सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं भवेत् / / संवेष्ट्यमानं बहुभिर्माहतन्तुभिरात्मजैः / यद्भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं मतं मम / / 13 कोशकारवदात्मानं वेष्टयन्नावबुध्यसे // 28 : सर्वारम्भफलत्यागी निराशीनिष्परिग्रहः / अलं परिग्रहेणेह दोषवान्हि परिग्रहः / येन सर्व परित्यक्तं स विद्वान्स च पण्डितः / / 14 / / कृमिर्हि कोशकारस्तु बध्यते स्वपरिग्रहात् // 29 इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेभ्यश्चरत्यात्मवशैरिह / पुत्रदारकुटुम्बेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः। असज्जमानः शान्तात्मा निर्विकारः समाहितः॥१५ सरःपङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव // 30 आत्मभूतैरतद्भूतः सह चैव विनैव च / महाजालसमाकृष्टान्स्थले मत्स्यानिवोद्धृतान् / स विमुक्तः परं श्रेयो नचिरेणाधिगच्छति // 16 स्नेहजालसमाकृष्टान्पश्य जन्तून्सुदुःखितात् // 31 अदर्शनमसंस्पर्शस्तथासंभाषणं सदा / कुटुम्बं पुत्रदारं च शरीरं द्रव्यसंचयाः / यस्य भूतैः सह मुने स श्रेयो विन्दते परम् // 17 पारक्यमध्रुवं सर्वं किं स्वं सुकृतदुष्कृतम् // 32 न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणमतश्चरेत् / यदा सर्व परित्यज्य गन्तव्यमवशेन ते / नेदं जन्म समासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् // 18 / अनर्थे किं प्रसक्तस्त्वं स्वमर्थं नानुतिष्ठसि // 33 आकिंचन्यं सुसंतोषो निराशीष्टमचापलम् / / अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदैशिकम् / एतदाहुः परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः // 19 तमःकान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसि // 34 परिग्रहं परित्यज्य भव तात जितेन्द्रियः / न हि त्वा प्रस्थितं कश्चित्पृष्ठतोऽनुगमिष्यति / अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाभयम् // 20 सुकृतं दुष्कृतं च त्वा यास्यन्तमनुयास्यति // 35 निरामिषा न शोचन्ति त्यजेहामिपमात्मनः / / विद्या कर्म च शौर्यं च ज्ञानं च बहुविस्तरम् / परित्यज्यामिषं सौम्य दुःखतापाद्विमोक्ष्यसे / 21 अर्थार्थमनुसार्यन्ते सिद्धार्थस्तु विमुच्यते // 36 तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना। निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः / अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना // 22 छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः॥ गुणसङ्गेष्वनासक्त एकचर्यारतः सदा / रूपकूलां मनःस्रोतां स्पर्शद्वीपां रसावहाम् / ब्राह्मणे नचिरादेव सुखमायात्यनुत्तमम् // 23 गन्धपङ्का शब्दजलां स्वर्गमार्गदुरावहाम् // 38 द्वंद्वारामेषु भूतेषु य एको रमते मुनिः / क्षमारित्रां सत्यमयीं धर्मस्थैर्यवटाकराम् / विद्धि प्रज्ञानतृप्तं तं ज्ञानतृप्तो न शोचति // 24 त्यागवाताध्वगां शीघ्रां बुद्धिनावा नदी तरेत् // 39 शुभैर्लभति देवत्वं व्यामिश्रैजन्म मानुषम् / / त्यज धर्ममधर्म च उभे सत्यानृते त्यज / अशुभैश्चाप्यधोजन्म कर्मभिर्लभतेऽवशः // 25 उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज // 40 तत्र मृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः। त्यज धर्ममसंकल्पादधर्म चाप्यहिंसया / संसारे पच्यते जन्तुस्तत्कथं नावबुध्यसे / / 26 उभे सत्यानृते बुद्ध्या बुद्धिं परमनिश्चयात् // 41 अहिते हितसंज्ञस्त्वमध्रुवे ध्रुवसंज्ञकः / अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं मांसशोणितलेपनम् / अनर्थे चार्थसंज्ञस्त्वं किमर्थं नावबुध्यसे // 27 / चौवनद्धं दुर्गन्धि पूर्ण मूत्रपुरीषयोः // 42 -2432 - Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 316. 43] शान्तिपर्व [12. 317. 11 जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् / परिभ्रमति संसारं चक्रवद्वहुवेदनः // 57 रजस्वलमनित्यं च भूतावासं समुत्सृज // 43 स त्वं निवृत्तबन्धस्तु निवृत्तश्चापि कर्मतः / इदं विश्वं जगत्सर्वमजगञ्चापि यद्भवेत् / सर्ववित्सर्वजित्सिद्धो भव भावविवर्जितः // 58 महाभूतात्मकं सर्व महद्यत्परमाणु यत् // 44 संयमेन नवं बन्धं निवर्त्य तपसो बलात् / इन्द्रियाणि च पश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा। संप्राप्ता बहवः सिद्धिमप्यबाधां सुखोदयाम् // 59 इत्येष सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः // 45 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वैरिहेन्द्रियार्थैश्च व्यक्ताव्यक्तैर्हि संहितः / षोडशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 31 // पञ्चविंशक इत्येष व्यक्ताव्यक्तमयो गुणः // 46 एतैः सर्वैः समायुक्तः पुमानित्यभिधीयते / . नारद उवाच / त्रिवर्गोऽत्र सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा // 47 अशोकं शोकनाशार्थ शास्त्रं शान्तिकरं शिवम् / य इदं वेद तत्त्वेन स वेद प्रभवाप्ययौ / निशम्य लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते // 1 पाराशर्येह बोद्धव्यं ज्ञानानां यच्च किंचन // 48 / शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च / इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्वयक्तमिति स्थितिः / दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 2 अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् // 49 तस्मादनिष्टनाशार्थमितिहासं निवोध मे / इन्द्रियैर्नियतैदेही धाराभिरिव तर्प्यते / तिष्ठते चेद्वशे बुद्धिर्लभते शोकनाशनम् // 3 लोके विततमात्मानं लोकं चात्मनि पश्यति // 50 अनिष्टसंप्रयोगाश्च विप्रयोगाप्रियस्य च / परावरदृशः शक्तिर्ज्ञानवेलां न पश्यति / मनुष्या मानसैदुःखैयुज्यन्ते अल्पबुद्धयः // 4 पश्यतः सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा // 51 द्रव्येषु समतीतेषु ये गुणास्तान चिन्तयेत् / ब्रह्मभूतस्य संयोगो नाशुभेनोपपद्यते / ताननाद्रियमाणस्य स्नेहबन्धः प्रमुच्यते // 5 ज्ञानेन विविधान्क्लेशानतिवृत्तस्य मोहजान् / दोषदी भवेत्तत्र यत्र रागः प्रवर्तते / लोके बुद्धिप्रकाशेन लोकमार्गो न रिष्यते // 52 अनिष्टवद्धितं पश्येत्तथा क्षिप्रं विरज्यते // 6 अनादिनिधनं जन्तुमात्मनि स्थितमव्ययम् / / नार्थो न धर्मो न यशो योऽतीतमनुशोचति / अकारममूर्त च भगवानाह तीर्थवित् // 53 अप्यभावेन युज्येत तश्चास्य न निवर्तते // 7 यो जन्तुः स्वकृतैस्तैस्तैः कर्मभिनित्यदुःखितः / गुणैर्भूतानि युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च। स दुःखप्रतिघातार्थ हन्ति जन्तूननेकधा // 54 सर्वाणि नैतदेकस्य शोकस्थानं हि विद्यते // 8 ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यन्नवं बहु / मृतं वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति / तप्यतेऽथ पुनस्तेन भुक्त्वापथ्यमिवातुरः // 55 दुःखेन लभते दुःखं द्वावनौँ प्रपद्यते // 9 // अजस्रमेव मोहा” दुःखेषु सुखसंज्ञितः / नाश्रु कुर्वन्ति ये बुद्ध्या दृष्ट्वा लोकेषु संततिम् / बध्यते मध्यते चैव कर्मभिर्मन्थवत्सदा // 56 सम्यक्प्रपश्यतः सर्वं नाश्रुकर्मोपपद्यते // 10 ततो निवृत्तो बन्धात्स्वात्कर्मणामुदयादिह / दुःखोपघाते शारीरे मानसे वाप्युपस्थिते / म. भा. 305 -2433 - Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 317. 11] महाभारते [ 12. 318.9 यस्मिन्न शक्यते कर्तुं यत्नस्तन्नानुचिन्तयेत् // 11 नोपभोगात्परं किंचिद्धनिनो वाधनस्य वा // 26 भैषज्यमेतदुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत् / प्राक्संप्रयोगाद्भूतानां नास्ति दुःखमनामयम् / चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते // 12 विप्रयोगात्तु सर्वस्य न शोचेत्प्रकृतिस्थितः // 27 प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः / धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा / एतद्विज्ञानसामध्यं न बालैः समतामियात् // 13 / चक्षुःश्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च विद्यया // 28 अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः / प्रणयं प्रतिसंहृत्य संस्तुतेष्वितरेषु च / आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः // 14 विचरेदसमुन्नद्धः स सुखी स च पण्डितः // 29 न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति / अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः / अशोचन्प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम् // 15 आत्मनैव सहायेन यश्चरेत्स सुखी भवेत् // 30 सुखावहुतरं दुःखं जीविते नात्र संशयः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स्निग्धत्वं चेन्द्रियार्थेषु मोहान्मरणमप्रियम् // 16 सप्तदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 317 // परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नरः / अभ्येति ब्रह्म सोऽत्यन्तं न तं शोचन्ति पण्डिताः॥ नारद उवाच / दुःखमर्था हि त्यज्यन्ते पालने न च ते सुखाः। / सुखदुःखविपर्यासो यदा समुपपद्यते / दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाशमेषां न चिन्तयेत् // 18 नैनं प्रज्ञा सुनीतं वा त्रायते नापि पौरुषम् // 1 अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकी नराः / / स्वभावाद्यत्नमातिष्ठेद्यत्नवान्नावसीदति / अतृप्ता यान्ति विध्वंसं संतोषं यान्ति पण्डिताः॥ जरामरणरोगेभ्यः प्रियमात्मानमुद्धरेत् // 2 सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः / रुजन्ति हि शरीराणि रोगाः शारीरमानसाः / संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्॥२० सायका इव तीक्ष्णाग्राः प्रयुक्ता दृढधन्विभिः // अन्तो नास्ति पिपासायास्तुष्टिस्तु परमं सुखम् / / ब्याधितस्य विवित्साभित्रस्यतो जीवितैषिणः / तस्मात्संतोषमेवेहं धनं पश्यन्ति पण्डिताः // 21 अवशस्य विनाशाय शरीरमपकृष्यते // 4 निमेषमात्रमपि हि वयो गच्छन्न तिष्ठति / स्रवन्ति न निवर्तन्ते स्रोतांसि सरितामिव / स्वशरीरेष्वनित्येषु नित्यं किमनुचिन्तयेत् // 22 आयुरादाय मानां राज्यहानि पुनः पुनः॥ 5 भूतेष्वभावं संचिन्त्य ये बुद्ध्वा तमसः परम् / व्यत्ययो ह्ययमत्यन्तं पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः / न शोचन्ति गताध्वानः पश्यन्तः परमां गतिम् / / जातं मयं जरयति निमेषं नावतिष्ठते // 6 संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम् / सुखदुःखानि भूतानामजरो जरयन्नसौ। व्याघ्रः पशुमिवासाद्य मृत्युरादाय गच्छति // 24 आदित्यो ह्यस्तमभ्येति पुनः पुनरुदेति च // 7 अथाप्युपायं संपश्येहुःखस्य परिमोक्षणे / अदृष्टपूर्वानादाय भावानपरिशङ्कितान् / अशोचन्नारभेतैव युक्तश्चाव्यसनी भवेत् // 25 इष्टानिष्टान्मनुष्याणामस्तं गच्छन्ति रात्रयः // 8 शब्दे स्पर्शे च रूपे च गन्धेषु च रसेषु च। यो यमिच्छेद्यथाकामं कामामं तत्तदाप्नुयात् / -2434 - Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 318. 9] शान्तिपर्व [12. 318. 39 यदि स्यान्नपराधीनं पुरुषस्य क्रियाफलम् // 9 तस्मिन्नेवोदरे गर्भः किं नान्नमिव जीर्यते // 24 संयताश्च हि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः / गर्भमूत्रपुरीषाणां स्वभावनियता गतिः। दृश्यन्ते निष्फलाः सन्तः प्रहीणाश्च स्वकर्मभिः // | धारणे वा विसर्गे वा न कर्तुर्विद्यते वशः // 25 अपरे बालिशाः सन्तो निर्गुणाः पुरुषाधमाः। स्रवन्ति ह्युदराद्गर्भा जायमानास्तथापरे / आशीर्भिरप्यसंयुक्ता दृश्यन्ते सर्वकामिनः॥ 11 आगमेन सहान्येषां विनाश उपपद्यते // 26 भूतानामपरः कश्चिद्धिसायां सततोत्थितः / एतस्माद्योनिसंबन्धाद्यो जीवन्परिमुच्यते / वञ्चनायां च लोकस्य स सुखेष्वेव जीर्यते // 12 / प्रजां च लभते कांचित्पुनद्वंद्वेषु मज्जति // 27 अचेष्टमानमासीनं श्री: कंचिदुपतिष्ठति। . शतस्य सहजातस्य सप्तमी दशमी दशाम् / कश्चित्कर्मानुसत्यान्यो न प्राप्यमधिगच्छति // 13 प्राप्नुवन्ति ततः पञ्च न भवन्ति शतायुषः // 28 अपराधं समाचक्ष्व पुरुषस्य स्वभावतः / नाभ्युत्थाने मनुष्याणां योगाः स्युर्नात्र संशयः / शुक्रमन्यत्र संभूतं पुनरन्यत्र गच्छति // 14 व्याधिभिश्च विमथ्यन्ते व्यालैः क्षुद्रमृगा इव // 29 तस्य योनौ प्रसक्तस्य गर्भो भवति वा न वा। व्याधिभिर्भक्ष्यमाणानां त्यजतां विपुलं धनम् / आम्रपुष्पोपमा यस्य निवृत्तिरुपलभ्यते // 15 वेदनां नापकर्षन्ति यतमानाश्चिकित्सकाः // 30 केषांचित्पुत्रकामानामनुसंतानमिच्छताम् / ते चापि निपुणा वैद्याः कुशलाः संभृतौषधाः / सिद्धौ प्रयतमानानां नैवाण्डमुपजायते // 16 व्याधिभिः परिकृष्यन्ते मृगा व्याधैरिवार्दिताः॥३१ गर्भाच्चोद्विजमानानां क्रुद्धादाशीविषादिव / ते पिबन्तः कषायांश्च सपीषि विविधानि च / आयुष्माञ्जायते पुत्रः कथं प्रेतः पितैव सः // 17 / दृश्यन्ते जरया भग्ना नागा नागैरिवोत्तमैः // 32 देवानिष्ट्वा तषस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः। के वा भुवि चिकित्सन्ते रोगार्तान्मृगपक्षिणः / दश मासान्परिधृता जायन्ते कुलपांसनाः // 18 श्वापदानि दरिद्रांश्च प्रायो नार्ता भवन्ति ते॥३३ अपरे धनधान्यानि भोगांश्च पितृसंचितान् / घोरानपि दुराधर्षान्नृपतीनुग्रतेजसः / विपुलानभिजायन्ते लब्धास्तैरेव मङ्गलैः // 19 आक्रम्य रोग आदत्ते पशून्पशुपचो यथा // 34 अन्योन्यं समभिप्रेत्य मैथुनस्य समागमे। इति लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम् / उपद्रव इवाविष्टो योनि गर्भः प्रपद्यते // 20 स्रोतसा सहसा क्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा // 35 शीण परशरीरेण निच्छवीकं शरीरिणम् / न धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसा तथा / प्राणिनां प्राणसंरोधे मांसश्लेष्मविचेष्टितम् // 21 / स्वभावा व्यतिवर्तन्ते ये नियुक्ताः शरीरिषु // 36 निर्दग्धं परदेहेन परदेहं चलाचलम् / न म्रियेरन्न जीर्येरन्सर्वे स्युः सर्वकामिकाः। विनश्यन्तं विनाशान्ते नावि नावमिवाहितम् // 22 नाप्रियं प्रतिपश्येयुरुत्थानस्य फलं प्रति // 37 संगत्या जठरे न्यस्तं रेतोबिन्दुमचेतनम् / उपर्युपरि लोकस्य सर्वो भवितुमिच्छति / केन यत्नेन जीवन्तं गर्भ त्वमिह पश्यसि // 23 / यतते च यथाशक्ति न च तद्वर्तते तथा // 38 अन्नपानानि जीर्यन्ते यत्र भक्षाश्च भक्षिताः। / ऐश्वर्यमदमत्तांश्च मत्तान्मद्यमदेन च / -2435 - Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 318. 39 ] महाभारते [ 12. 319.1 अप्रमत्ताः शठाः क्रूरा विक्रान्ताः पर्युपासते // 39 / न ह्येष क्षयमाप्नोति सोमः सुरगुणैर्यथा / छेशाः प्रतिनिवर्तन्ते केषांचिदसमीक्षिताः। कम्पितः पतते भूमिं पुनश्चैवाधिरोहति / स्वं स्वं च पुनरन्येषां न किंचिदभिगम्यते // 40 क्षीयते हि सदा सोमः पुनश्चैवाभिपूर्यते / / 54 महच्च फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसंधिषु / रविस्तु संतापयति लोकान्रश्मिभिरुल्बणैः / वहन्ति शिबिकामन्ये यात्यन्ये शिबिकागताः // सर्वतस्तेज आदत्ते नित्यमक्षयमण्डलः // 55 सर्वेषामृद्धिकामानामन्ये रथपुरःसराः / अतो मे रोचते गन्तुमादित्यं दीप्ततेजसम् / मनुजाश्च शतस्त्रीकाः शतशो विधवाः स्त्रियः // 42 अत्र वत्स्यामि दुर्धर्षो निःसङ्गेनान्तरात्मना // 56 द्वंद्वारामेषु भूतेषु गच्छन्त्येकैकशो नराः / सूर्यस्य सदने चाहं निक्षिप्येदं कलेवरम् / इदमन्यत्परं पश्य मात्र मोहं करिष्यसि // 43 ऋषिभिः सह यास्यामि सौरं तेजोऽतिदुःसहम् // त्यज धर्ममधर्म च उभे सत्यानृते त्यज / आपृच्छामि नगान्नागान्गिरीनुवी दिशो दिवम् / उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज // 44 देवदानवगन्धर्वान्पिशाचोरगराक्षसान् // 58 एतत्ते परमं गुह्यमाख्यातमृषिसत्तम / लोकेषु सर्वभूतानि प्रवेक्ष्यामि नसंशयः / येन देवाः परित्यज्य मर्त्यलोकं दिवं गताः // 45 पश्यन्तु योगवीर्य मे सर्वे देवाः सहर्षिभिः // 59 भीष्म उवाच / अथानुज्ञाप्य तमृर्षि नारदं लोकविश्रुतम् / नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः परमबुद्धिमान् / तस्मादनुज्ञां संप्राप्य जगाम पितरं प्रति // 60 संचिन्त्य मनसा धीरो निश्चयं नाध्यगच्छत / / 46 सोऽभिवाद्य महात्मानमूर्षि द्वैपायनं मुनिम् / पुत्रदारैर्महान्क्लेशो विद्याम्नाये महाश्रमः। शुकः प्रदक्षिणीकृत्य कृष्णमापृष्टवान्मुनिः / / 61 किं नु स्याच्छाश्वतं स्थानमल्पक्लेशं महोदयम् // 47 श्रुत्वा ऋषिस्तद्वचनं शुकस्य ततो मुहूर्त संचिन्त्य निश्चितां गतिमात्मनः / ___ प्रीतो महात्मा पुनराह चैनम् / परावरज्ञो धर्मस्य परां नैःश्रेयसी गतिम् // 48 भो भोः पुत्र स्थीयतां तावदद्य कथं त्वमसंक्लिष्टो गच्छेयं परमां गतिम् / ____ यावच्चक्षुः प्रीणयामि त्वदर्थम् // 62 नावर्तेयं यथा भूयो योनिसंसारसागरे // 49 / निरपेक्षः शुको भूत्वा निःस्नेहो मुक्तबन्धनः / परं भावं हि काङ्गामि यत्र नावर्तते पुनः। मोक्षमेवानुसंचिन्त्य गमनाय मनो दधे / सर्वसङ्गान्परित्यज्य निश्चितां मनसो गतिम् // 50 पितरं संपरित्यज्य जगाम द्विजसत्तमः / / 63 तत्र यास्यामि यत्रात्मा शमं मेऽधिगमिष्यति। / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अक्षयश्चाव्ययश्चैव यत्र स्थास्यामि शाश्वतः // 51 / अष्टादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 318 // न तु योगमृते शक्या प्राप्तुं सा परमा गतिः / अवबन्धो हि मुक्तस्य कर्मभिर्नोपपद्यते // 52 भीष्म उवाच / तस्माद्योगं समास्थाय त्यक्त्वा गृहकलेवरम् / गिरिपृष्ठं समारुह्य सुतो व्यासस्य भारत / वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम् // 53 | समे देशे विविक्ते च निःशलाक उपाविशत् // 1 - 2436 - Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 319. 2] शान्तिपर्व [12. 319. 29 धारयामास चात्मानं यथाशास्त्रं महामुनिः / ततः परमधीरात्मा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / पादात्प्रभृतिगात्रेषु क्रमेण क्रमयोगवित् // 2 भास्कर समुदीक्षन्स प्राङ्मुखो वाग्यतोऽगमत् / ततः स प्राङ्मुखो विद्वानादित्ये नचिरोदिते / शब्देनाकाशमखिलं पूरयन्निव सर्वतः // 17 पाणिपादं समाधाय विनीतवदुपाविशत् // 3 तमापतन्तं सहसा दृष्ट्वा सर्वाप्सरोगणाः / न तत्र पक्षिसंघातो न शब्दो नापि दर्शनम् / संभ्रान्तमनसो राजन्नासन्परमविस्मिताः / यत्र वैयासकि/मान्योक्तुं समुपचक्रमे // 4 पञ्चचूडाप्रभृतयो भृशमुत्फुल्ललोचनाः // 18 स ददर्श तदात्मानं सर्वसङ्गविनिःसृतम् / / दैवतं कतमं ह्येतदुत्तमां गतिमास्थितम् / प्रजहास ततो हासं शुकः संप्रेक्ष्य भास्करम् // 5 सुनिश्चितमिहायाति विमुक्तमिव निःस्पृहम् // 19 स पुनर्योगमास्थाय मोक्षमार्गोपलब्धये। . ततः समतिचक्राम मलयं नाम पर्वतम् / महायोगीश्वरो भूत्वा सोऽत्यकामद्विहायसम् // 6 उर्वशी पूर्वचित्तिश्च यं नित्यमुपसेवते / ततः प्रदक्षिणं कृत्वा देवर्षि नारदं तदा। ते स्म ब्रह्मर्षिपुत्रस्य विस्मयं ययतुः परम् // 20 निवेदयामास तदा स्वं योगं परमर्षये // 7 अहो बुद्धिसमाधानं वेदाभ्यासरते द्विजे / दृष्टो मार्गः प्रवृत्तोऽस्मि स्वस्ति तेऽस्तु तपोधन / अचिरेणैव कालेन नभश्चरति चन्द्रवत् / त्वत्प्रसादाद्गमिष्यामि गतिमिष्टां महाद्युते // 8 पितृशुश्रूषया सिद्धि संप्राप्तोऽयमनुत्तमाम् // 21 नारदेनाभ्यनुज्ञातस्ततो द्वैपायनात्मजः / पितृभक्तो दृढतपाः पितुः सुदयितः सुतः। अभिवाद्य पुनर्योगमास्थायाकाशमाविशत् // 9 कैलासपृष्ठादुत्पत्य स पपात दिवं तदा / अनन्यमनसा तेन कथं पित्रा विवर्जितः // 22 अन्तरिक्षचरः श्रीमान्व्यासपुत्रः सुनिश्चितः // 10 उर्वश्या वचनं श्रुत्वा शुकः परमधर्मवित् / तमुद्यन्तं द्विज श्रेष्ठं वैनतेयसमद्युतिम् / उदैक्षत दिशः सर्वा वचने गतमानसः // 23 ददृशुः सर्वभूतानि मनोमारुतरंहसम् // 11 सोऽन्तरिक्षं महीं चैव सशैलवनकाननाम् / व्यवसायेन लोकांस्त्रीन्सर्वान्सोऽथ विचिन्तयन् / आलोकयामास तदा सरांसि सरितस्तथा // 24 आस्थितो दिव्यमध्वानं पावकार्कसमप्रभः // 12 ततो द्वैपायनसुतं बहुमानपुरःसरम् / तमेकमनसं यान्तमव्यग्रमकुतोभयम् / कृताञ्जलिपुटाः सर्वा निरीक्षन्ते स्म देवताः // 25 ददृशुः सर्वभूतानि जङ्गमानीतराणि च // 13 अब्रवीत्तास्तदा वाक्यं शुकः परमधर्मवित् / यथाशक्ति यथान्यायं पूजयांचक्रिरे तदा। पिता यद्यनुगच्छेन्मां क्रोशमानः शुकेति वै // 26 पुष्पवर्षैश्च दिव्यैस्तमवचक्रुर्दिवौकसः // 14 ततः प्रतिवचो देयं सर्वैरेव समाहितः / तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे गन्धर्वाप्सरसां गणाः / एतन्मे स्नेहतः सर्वे वचनं कर्तुमर्हथ // 27 ऋषयश्चैव संसिद्धाः परं विस्मयमागताः // 15 शुकस्य वचनं श्रुत्वा दिशः सवनकाननाः / अन्तरिक्षचरः कोऽयं तपसा सिद्धिमागतः / / समुद्राः सरितः शैलाः प्रत्यूचुस्तं समन्ततः // 28 अधःकायोर्ध्ववक्त्रश्च नेत्रैः समभिवाह्यते // 16 / यथाज्ञापयसे विप्र बाढमेवं भविष्यति / -2497 - Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 319. 29 ] महाभारते [ 12. 320. 27 ऋषेाहरतो वाक्यं प्रतिवक्ष्यामहे वयम् / / 29 - दृष्ट्वा शुकमतिक्रान्तं पर्वतं च द्विधाकृतम् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि साधु साध्विति तत्रासीन्नादः सर्वत्र भारत // 13 एकोनविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 319 // स पूज्यमानो देवैश्च गन्धर्वैर्ऋषिभिस्तथा / 320 यक्षराक्षससंधैश्च विद्याधरगणैस्तथा // 14 भीष्म उवाच / दिव्यैः पुष्पैः समाकीर्णमन्तरिक्षं समन्ततः। ' इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्मर्षिः सुमहातपाः / आसीत्किल महाराज शुकाभिपतने तदा // 15 प्रातिष्ठत शुकः सिद्धिं हित्वा लोकांश्चतुर्विधान् // 1 ततो मन्दाकिनी रम्यामुपरिष्टादभिव्रजन् / तमो ह्यष्टविधं हित्वा जहौ पश्चविधं रजः। शुको ददर्श धर्मात्मा पुष्पितद्रुमकाननाम् // 16 ततः सत्त्वं जहौ धीमांस्तदद्भुतमिवाभवत् // 2 तस्यां क्रीडन्त्यभिरताः स्नान्ति चैवाप्सरोगणाः / ततस्तस्मिन्पदे नित्ये निर्गुणे लिङ्गवर्जिते / शून्याकारं निराकाराः शुकं दृष्ट्वा विवाससः // 17 ब्रह्मणि प्रत्यतिष्ठत्स विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् // 3 तं प्रक्रमन्तमाज्ञाय पिता स्नेहसमन्वितः / उल्कापाता दिशां दाहा भूमिकम्पास्तथैव च / उत्तमा गतिमास्थाय पृष्ठतोऽनुससार ह // 18 प्रादुर्भूताः क्षणे तस्मिंस्तदद्भुतमिवाभवत् // 4 शुकस्तु मारुतादूर्ध्वं गतिं कृत्वान्तरिक्षगाम् / द्रुमाः शाखाश्च मुमुचुः शिखराणि च पर्वताः / दर्शयित्वा प्रभावं स्वं सर्वभूतोऽभवत्तदा // 19 निर्घातशब्दैश्च गिरिहिमवान्दीर्यतीव ह // 5 महायोगगतिं त्वय्यां व्यासोत्थाय महातपाः / न बभासे सहस्रांशुन जज्वाल च पावकः / निमेषान्तरमात्रेण शुकाभिपतनं ययौ // 20 हृदाश्च सरितश्चैव चुक्षुभुः सागरास्तथा // 6 स ददर्श द्विधा कृत्वा पर्वताग्रं शुकं गतम् / ववर्ष वासवस्तोयं रसवञ्च सुगन्धि च / शशंसुर्ऋषयस्तस्मै कर्म पुत्रस्य तत्तदा / / 21 ववौ समीरणश्चापि दिव्यगन्धवहः शुचिः // 7 ततः शुकेति दीर्पण शैक्षणाक्रन्दितस्तदा / स शृङ्गेऽप्रतिमे दिव्ये हिमवन्मेरुसंभवे / स्वयं पित्रा स्वरेणोच्चैत्रीलँलोकाननुनाद्य वै // 22 संश्लिष्टे श्वेतपीते द्वे रुक्मरूप्यमये शुभे / / 8 शुकः सर्वगतो भूत्वा सर्वात्मा सर्वतोमुखः / शतयोजनविस्तारे तिर्यगूवं च भारत / प्रत्यभाषत धर्मात्मा भोःशब्देनानुनादयन् // 23 उदीची दिशमाश्रित्य रुचिरे संददर्श ह // 9 तत एकाक्षरं नादं भो इत्येव समीरयन् / सोऽविशङ्केन मनसा तथैवाभ्यपतच्छुकः / प्रत्याहरज्जगत्सर्वमुच्चैः स्थावरजङ्गमम् / / 24 ततः पर्वतशृङ्गे द्वे सहसैव द्विधाकृते / ततः प्रभृति चाद्यापि शब्दानुच्चारितान्पृथक् / अदृश्येतां महाराज तदद्भुतमिवाभवत् // 10 गिरिगह्वरपृष्ठेषु व्याजहार शुकं प्रति // 25 . ततः पर्वतशृङ्गाभ्यां सहसैव विनिःसृतः / अन्तर्हितः प्रभावं तु दर्शयित्वा शुकस्तदा / न च प्रतिजघानास्य स गतिं पर्वतोत्तमः // 11 गुणान्संत्यज्य शब्दादीन्पदमध्यगमत्परम् // 26 ततो महानभूच्छब्दो दिवि सर्वदिवौकसाम् / / महिमानं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्यामिततेजसः / गन्धर्वाणामृषीणां च ये च शैलनिवासिनः / / 12 / निषसाद गिरिप्रस्थे पुत्रमेवानुचिन्तयन् // 27 -2438 - Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 320. 28 ] शान्तिपर्व [12. 321. 14 ततो मन्दाकिनीतीरे क्रीडन्तोऽप्सरसां गणाः / 321 आसाद्य तमृर्षि सर्वाः संभ्रान्ता गतचेतसः // 28 युधिष्ठिर उवाच। जले निलिल्यिरे काश्चित्काश्चिद्गुल्मान्प्रपेदिरे।। गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः / वसनान्याददुः काश्चिदृष्ट्वा तं मुनिसत्तमम् // 29 य इच्छेत्सिद्धिमास्थातुं देवतां कां यजेत सः॥१ तां मुक्ततां तु विज्ञाय मुनिः पुत्रस्य वै तदा।। कुतो ह्यस्य ध्रुवः स्वर्गः कुतो निःश्रेयसं परम् / सक्ततामात्मनश्चैव प्रीतोऽभूद्रीडितश्च ह // 30 विधिना केन जुहुयादेवं पित्र्यं तथैव च // 2 तं देवगन्धर्ववृतो महर्षिगणपूजितः / मुक्तश्च कां गतिं गच्छेन्मोक्षश्चैव किमात्मकः / पिनाकहस्तो भगवानभ्यागच्छत शंकरः // 31 स्वर्गतश्चैव किं कुर्याद्येन न च्यवते दिवः // 3 तमुवाच महादेवः सान्त्वपूर्वमिदं वचः। .. देवतानां च को देवः पितॄणां च तथा पिता / पुत्रशोकाभिसंतप्तं कृष्णद्वैपायनं तदा // 32 तस्मात्परतरं यच्च तन्मे ब्रूहि पितामह // 4 अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य चैव ह। भीष्म उवाच / वीर्येण सदृशः पुत्रस्त्वया मत्तः पुरा वृतः // 33 / गूढं मां प्रश्नवित्प्रश्नं पृच्छसे त्वमिहानघ / स तथालक्षणो जातस्तपसा तव संभृतः। न ह्येष तर्कया शक्यो वक्तुं वर्षशतैरपि // 5 मम चैव प्रभावेन ब्रह्मतेजोमयः शुचिः // 34 ऋते देवप्रसादाद्वा राजज्ञानागमेन वा / स गति परमां प्राप्तो दुष्प्रापामजितेन्द्रियैः / गहनं ह्येतदाख्यानं व्याख्यातव्यं तवारिहन् // 6 देवतैरपि विप्रर्षे तं त्वं किमनुशोचसि // 35 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यावत्स्थास्यन्ति गिरयो यावत्स्थास्यन्ति सागराः / नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च // 7 तावत्तवाक्षया कीर्तिः सपुत्रस्य भविष्यति // 36 नारायणो हि विश्वात्मा चतुर्मूर्तिः सनातनः / छायां स्वपुत्रसहशी सर्वतोऽनपगां सदा। धर्मात्मजः संबभूव पितैवं मेऽभ्यभाषत // 8 द्रक्ष्यसे त्वं च लोकेऽस्मिन्मत्प्रसादान्महामुने // 37 कृते युगे महाराज पुरा स्वायंभुवेऽन्तरे। सोऽनुनीतो भगवता स्वयं रुद्रेण भारत। नरो नारायणश्चैव हरिः कृष्णस्तथैव च // 9 छायां पश्यन्समावृत्तः स मुनिः परया मुदा // 38 तेभ्यो नारायणनरौ तपस्तेपतुरव्ययौ। इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ / बदर्याश्रममासाद्य शकटे कनकामये // 10 विस्तरेण मयाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 39 अष्टचक्रं हि तद्यानं भूतयुक्तं मनोरमम् / एतदाचष्ट मे राजन्देवर्षिर्नारदः पुरा। तत्राद्यौ लोकनाथौ तौ कृशौ धमनिसंततौ // 11 व्यासश्चैव महायोगी संजल्पेषु पदे पदे // 40 तपसा तेजसा चैव दुर्निरीक्षौ सुरैरपि / इतिहासमिमं पुण्यं मोक्षधर्मार्थसंहितम् / यस्य प्रसादं कुर्वाते स देवो द्रष्टुमर्हति // 12 धारयेद्यः शमपरः स गच्छेत्परमां गतिम् / / 41 नूनं तयोरनुमते हृदि हृच्छयचोदितः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि महामेरोगिरेः शृङ्गात्प्रच्युतो गन्धमादनम् / / 13 विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 320 // नारदः सुमहद्भूतं लोकान्सर्वानचीचरत् / -2439 - Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 321. 14 ] महाभारते [12. 321.41 तं देशमगमद्राजन्बदर्याश्रममाशुगः // 14 तव भक्तिमतो ब्रह्मन्वक्ष्यामि तु यथातथम् // 27 तयोराह्निकवेलायां तस्य कौतूहलं त्वभूत् / यत्तत्सूक्ष्ममविज्ञेयमव्यक्तमचलं ध्रुवम् / इदं तदास्पदं कृत्स्नं यस्मिल्लोकाः प्रतिष्ठिताः।।१५ इन्द्रियैरिन्द्रियार्थश्च सर्वभूतैश्च वर्जितम् // 28 सदेवासुरगन्धर्वाः सर्षिकिंनरलेलिहाः / स ह्यन्तरात्मा भूतानां क्षेत्रज्ञश्चेति कथ्यते / एका मूर्तिरियं पूर्व जाता भूयश्चतुर्विधा // 16 त्रिगुणव्यतिरिक्तोऽसौ पुरुषश्चेति कल्पितः / / धर्मस्य कुलसंतानो महानेभिर्विवर्धितः / तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम // 29 अहो ह्यनुग्रहीतोऽद्य धर्म एभिः सुरैरिह / अव्यक्ता व्यक्तभावस्था या सा प्रकृतिरव्यया। नरनारायणाभ्यां च कृष्णेन हरिणा तथा // 17 तां योनिमावयोर्विद्धि योऽसौ सदसदात्मकः / तत्र कृष्णो हरिश्चैव कस्मिंश्चित्कारणान्तरे। आवाभ्यां पूज्यतेऽसौ हि दैवे पित्र्ये च कल्पिते / स्थितौ धर्मोत्तरी ह्येतौ तथा तपसि धिष्ठितौ // 18 नास्ति तस्मात्परोऽन्यो हि पिता देवोऽथ वा द्विजः। एतौ हि परमं धाम कानयोराह्निकक्रिया / आत्मा हि नौ स विज्ञेयस्ततस्तं पूजयावहे // 31 पितरौ सर्वभूतानां दैवतं च यशस्विनौ / तेनैषा प्रथिता ब्रह्मन्मर्यादा लोकभाविनी / कां देवतां नु यजतः पितृन्वा कान्महामती॥ 19 दैवं पित्र्यं च कर्तव्यमिति तस्यानुशासनम् // 32 इति संचिन्त्य मनसा भक्त्या नारायणस्य ह। ब्रह्मा स्थाणुर्मनुर्दक्षो भृगुर्धर्मस्तपो दमः / सहसा प्रादुरभवत्समीपे देवयोस्तदा // 20 मरीचिरङ्गिरात्रिश्च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः // 33 कृते दैवे च पित्र्ये च ततस्ताभ्यां निरीक्षितः / वसिष्ठः परमेष्ठी च विवस्वान्सोम एव च / पूजितश्चैव विधिना यथाप्रोक्तेन शास्त्रतः / / 21 कर्दमश्चापि यः प्रोक्तः क्रोधो विक्रीत एव च // 34 तं दृष्ट्वा महदाश्चर्यमपूर्वं विधिविस्तरम् / एकविंशतिरुत्पन्नास्ते प्रजापतयः स्मृताः / उपोपविष्टः सुप्रीतो नारदो भगवानृषिः / / 22 तस्य देवस्य मर्यादां पूजयन्ति सनातनीम् // 35 नारायणं संनिरीक्ष्य प्रसन्नेनान्तरात्मना / दैवं पित्र्यं च सततं तस्य विज्ञाय तत्त्वतः / नमस्कृत्वा महादेवमिदं वचनमब्रवीत् // 23 आत्मप्राप्तानि च ततो जानन्ति द्विजसत्तमाः।।३६ वेदेषु सपुराणेषु साङ्गोपाङ्गेषु गीयसे / स्वर्गस्था अपि ये केचित्तं नमस्यन्ति देहिनः / त्वमजः शाश्वतो धाता मतोऽमृतमनुत्तमम् / ते तत्प्रसादाच्छन्ति तेनादिष्टफलां गतिम् // 37 प्रतिष्ठितं भूतभव्यं त्वयि सर्वमिदं जगत् // 24 ये हीनाः सप्तदशभिर्गुणैः कर्मभिरेव च / चत्वारो ह्याश्रमा देव सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः / कलाः पञ्चदश त्यक्त्वा ते मुक्ता इति निश्चयः // यजन्ते त्वामहरहर्नानामूर्तिसमास्थितम् // 25 मुक्तानां तु गतिर्ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः / पिता माता च सर्वस्य जगतः शाश्वतो गुरुः / स हि सर्वगतश्चैव निर्गुणश्चैव कथ्यते // 39 कं त्वद्य यजसे देवं पितरं कं न विद्महे // 26 दृश्यते ज्ञानयोगेन आवां च प्रसूतौ ततः / श्रीभगवानुवाच / एवं ज्ञात्वा तमात्मानं पूजयावः सनातनम् // 40 अवाच्यमेतद्वक्तव्यमात्मगुह्यं सनातनम् / / तं वेदाश्चाश्रमाश्चैव नानातनुसम्पस्थिताः / - 2440 - Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 321. 41 ] शान्तिपर्व [12. 322. 14 भक्त्या संपूजयन्त्याचं गतिं चैपां ददाति सः॥४१ संपूजयित्वात्मविधिक्रियाभिः // 5 ये तु तद्भाविता लोके एकान्तित्वं समास्थिताः / ततो विसृष्टः परमेष्ठिपुत्रः एतदभ्यधिकं तेषां यत्ते तं प्रविशन्त्युत // 426 सोऽभ्यर्चयित्वा तमृर्षि पुराणम् / इति. गुह्यसमुद्देशस्तव नारद कीर्तितः। . . खमुत्पपातोत्तमवेगयुक्तभक्त्या प्रेम्णा च विप्रर्षे अस्मद्भक्त्या च ते श्रुतः॥ .... स्ततोऽधिमेरौ सहसा निलिल्ये // 6 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तत्रावतस्थे च मुनिर्मुहूर्तएकविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 321 // . . मेकान्तमासाद्य गिरेः स शृङ्गे / . . 322 . . आलोकयन्नुत्तरपश्चिमेन भीष्म उवाच / - ददर्श चात्यद्भुतरूपयुक्तम् // 7 स एवमुक्तो द्विपदां वरिष्ठो . .... क्षीरोदधेरुत्तरतो हि द्वीपः नारायणेनोत्तमपुरुषेण। श्वेतः स नाना प्रथितो विशालः / जगाद वाक्यं द्विपदां वरिष्ठं . ... मेरोः'सहजैः स हि योजनानां ___ नारायणं लोकहिताधिवासम् // 1 ___ द्वात्रिंशतोवं कविभिनिरुक्तः // 8 यदर्थमात्मप्रभवेह जन्म अतीन्द्रियाश्चानशनाश्च तत्र तवोत्तमं धर्मगृहे चतुर्धा / निष्पन्दहीनाः सुसुगन्धिनश्च / तत्साध्यतां लोकहितार्थमद्य श्वेताः पुमांसो गतसर्वपापा__गच्छामि द्रष्टुं प्रकृतिं तवाद्याम् // 2 श्चक्षुर्मुषः पापकृतां नराणाम् // 9 वेदाः स्वधीता मम लोकनाथ वास्थिकायाः सममानोन्माना ___तप्तं तपो नानृतमुक्तपूर्वम् / दिव्यान्वयरूपाः शुभसारोपेताः। पूजां गुरूणां सततं करोमि . छत्राकृतिशीर्षा मेघौघनिनादाः __परस्य गुह्यं न च भिन्नपूर्वम् // 3 __ सत्पुष्करचतुष्का राजीवशतपादाः // 10 गुप्तानि चत्वारि यथागमं मे षष्ट्या दन्तैर्युक्ताः शुक्लैरष्टाभिदंष्ट्राभिर्ये / शत्रौ च मित्रे च समोऽस्मि नित्यम् / जिह्वाभिर्ये विष्वग्वक्त्रं लेलिह्यन्ते सूर्यप्रख्यम्॥११ तं चादिदेवं सततं प्रपन्न भक्त्या देवं विश्वोत्पन्नं यस्मात्सर्वे लोकाः सूताः / एकान्तभावेन वृणोम्यजस्रम् / वेदा धर्मा मुनयः शान्ता देवाः सर्वे तस्य विसर्गाः॥ एभिर्विशेषैः परिशुद्धसत्त्वः युधिष्ठिर उवाच / कस्मान्न पश्येयमनन्तमीशम् // 4 अतीन्द्रिया निराहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः / तत्पारमेष्ठयस्य वचो निशम्य कथं ते पुरुषा जाताः का तेषां गतिरुत्तमा // 13 नारायणः सात्वतधर्मगोप्ता / ये विमुक्ता भवन्तीह नरा भरतसत्तम / गच्छेति तं नारदमुक्तवान्स तेषां लक्षणमेतद्धि यच्छ्रेतद्वीपवासिनाम् // 14 म. भा. 306 -2441 - Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 322. 15 ] महाभारते [12. 322.48 तस्मान्मे संशयं छिन्धि परं कौतूहलं हि मे। / एताभिर्धार्यते लोकस्ताभ्यः शास्त्रं विनिःसृतम् // त्वं हि सर्वकथारामस्त्वां चैवोपाश्रिता वयम् // 15 एकाग्रमनसो दान्ता मुनयः संयमे रताः / भीष्म उवाच / इदं श्रेय इदं ब्रह्म इदं हितमनुत्तमम् / विस्तीर्णैषा कथा राजश्रुता मे पितृसंनिधौ / लोकान्संचिन्त्य मनसा ततः शास्त्रं प्रचक्रिरे // 29 सैषा तव हि वक्तव्या कथासारो हि स स्मृतः // तत्र धर्मार्थकामा हि मोक्षः पश्चाच्च कीर्तितः / राजोपरिचरो नाम बभूवाधिपतिर्भुवः / मर्यादा विविधाश्चैव दिवि भूमौ च संस्थिताः / आखण्डलसखः ख्यातो भक्तो नारायणं हरिम् // आराध्य तपसा देवं हरिं नारायणं प्रभुम् / धार्मिको नित्यभक्तश्च पितृन्नित्यमतन्द्रितः / दिव्यं वर्षसहस्रं वै सर्वे ते ऋषिभिः सह // 31 साम्राज्यं तेन संप्राप्तं नारायणवरात्पुरा // 18 नारायणानुशास्ता हि तदा देवी सरस्वती / सात्वतं विधिमास्थाय प्राक्सूर्यमुखनिःसृतम् / विवेश तानपीन्सर्वाल्लोकानां हितकाम्यया // 32 पूजयामास देवेशं तच्छेषेण पितामहान् // 19 ततः प्रवर्तिता सम्यक्तपोविद्भिर्द्विजातिभिः / पितृशेषेण विप्रांश्च संविभज्याश्रितांश्च सः। शब्दे चार्थे च हेतौ च एषा प्रथमसर्गजा // 33 शेषान्नभुक्सत्यपरः सर्वभूतेष्वहिंसकः। आदावेव हि तच्छास्त्रमोंकारस्वरभूषितम् / सर्वभावेन भक्तः स देवदेवं जनार्दनम् // 20 ऋषिभिर्भावितं तत्र यत्र कारुणिको ह्यसौ // 34 तस्य नारायणे भक्तिं वहतोऽमित्रकर्शन / ततः प्रसन्नो भगवाननिर्दिष्टशरीरगः / एकशय्यासनं शक्रो दत्तवान्देवराटस्वयम् // 21 ऋषीनुवाच तान्सर्वानदृश्यः पुरुषोत्तमः // 35 आत्मा राज्यं धनं चैव कलत्रं वाहनानि च / कृतं शतसहस्रं हि श्लोकानामिदमुत्तमम् / एतद्भगवते सर्वमिति तत्प्रेक्षितं सदा // 22 / लोकतन्त्रस्य कृत्स्नस्य यस्माद्धर्मः प्रवर्तते // 36 काम्यनैमित्तिकाजलं यज्ञियाः परमक्रियाः / प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च योनिरेतद्भविष्यति / सर्वाः सात्वतमास्थाय विधिं चक्रे समाहितः // 23 ऋग्यजुःसामभिर्जुष्टमथर्वाङ्गिरसैस्तथा // 37 पञ्चरात्रविदो मुख्यास्तस्य गेहे महात्मनः। तथा प्रमाणं हि मया कृतो ब्रह्मा प्रसादजः / प्रायणं भगवत्प्रोक्तं भुञ्जते चाप्रभोजनम् // 24 रुद्रश्च क्रोधजो विप्रा यूयं प्रकृतयस्तथा // 38 तस्य प्रशासतो राज्यं धर्मेणामित्रघातिनः / सूर्याचन्द्रमसौ वायुभूमिरापोऽग्निरेव च / नानृता वाक्समभवन्मनो दुष्टं न चाभवत् / सर्वे च नक्षत्रगणा यच्च भूताभिशब्दितम् // 39 न च कायेन कृतवान्स पापं परमण्वपि / / 25 अधिकारेषु वर्तन्ते यथास्वं ब्रह्मवादिनः / ये हि ते मुनयः ख्याताः सप्त चित्रशिखण्डिनः / सर्वे प्रमाणं हि यथा तथैतच्छास्त्रमुत्तमम् // 40 तैरेकमतिभिर्भूत्वा यत्प्रोक्तं शास्त्रमुत्तमम् // 26 भविष्यति प्रमाणं वै एतन्मदनुशासनम् / मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। अस्मात्प्रवक्ष्यते धर्मान्मनुः स्वायंभुवः स्वयम् // 41 वसिष्ठश्च महातेजा एते चित्रशिखण्डिनः // 27 उशना बृहस्पतिश्चैव यदोत्पन्नौ भविष्यतः / सप्त प्रकृतयो ह्येतास्तथा स्वायंभुवोऽष्टमः। तदा प्रवक्ष्यतः शास्त्रं युष्मन्मतिभिरुद्धृतम् // 42 --2442 - Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 822. 43] शान्तिपर्व [12. 323. 17 स्वायंभुवेषु धर्मेषु शास्त्रे चोशनसा कृते / स राजा भावितः पूर्व दैवेन विधिना वसुः / बृहस्पतिमते चैव लोकेषु प्रविचारिते // 43 पालयामास पृथिवीं दिवमाखण्डलो यथा // 4 युष्मत्कृतमिदं शास्त्रं प्रजापालो वसुस्ततः / तस्य यज्ञो महानासीदश्वमेधो महात्मनः / बृहस्पतिसकाशाद्वै प्राप्स्यते द्विजसत्तमाः // 44 बृहस्पतिरुपाध्यायस्तत्र होता बभूव ह // 5 स हि मद्भावितो राजा मद्भक्तश्च भविष्यति / प्रजापतिसुताश्चात्र सदस्यास्त्वभवंस्त्रयः। तेन शास्त्रेण लोकेषु क्रियाः सर्वाः करिष्यति // 45 एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः // 6 एतद्धि सर्वशास्त्राणां शास्त्रमुत्तमसंज्ञितम् / धनुषाक्षोऽथ रैभ्यश्च अर्वावसुपरावसू / एतदर्थ्य च धयं च यशस्यं चैतदुत्तमम् // 46 ऋषिर्मेधातिथिश्चैव ताण्ड्यश्चैव महानृषिः // . अस्य प्रवर्तनाच्चैव प्रजावन्तो भविष्यथ। .. ऋषिः शक्तिर्महाभागस्तथा वेदशिराश्च यः / स च राजा श्रिया युक्तो भविष्यति महान्वसुः॥ / कपिलश्च ऋषिश्रेष्ठः शालिहोत्रपितामहः // 8 संस्थिते तु नृपे तस्मिशास्त्रमेतत्सनातनम् / आद्यः कठस्तैत्तिरिश्व वैशंपायनपूर्वजः।। अन्तर्धास्यति तत्सत्यमेतद्वः कथितं मया // 48 कण्वोऽथ देवहोत्रश्च एते षोडश कीर्तिताः / एतावदुक्त्वा वचनमदृश्यः पुरुषोत्तमः / / संभृताः सर्वसंभारास्तस्मिन्राजन्महाक्रतौ // 9 विसृज्य तानृषीन्सर्वान्कामपि प्रस्थितो दिशम् // 49 न तत्र पशुघातोऽभूत्स राजैवं स्थितोऽभवत् / ततस्ते लोकपितरः सर्वलोकार्थचिन्तकाः / अहिंस्रः शुचिरक्षुद्रो निराशीः कर्मसंस्तुतः / प्रावर्तयन्त तच्छास्त्रं धर्मयोनि सनातनम् // 50 आरण्यकपदोद्गीता भागास्तत्रोपकल्पिताः // 10 उत्पन्नेऽऽङ्गिरसे चैव युगे प्रथमकल्पिते / प्रीतस्ततोऽस्य भगवान्देवदेवः पुरातनः / साङ्गोपनिषदं शास्त्रं स्थापयित्वा बृहस्पतौ // 51 साक्षात्तं दर्शयामास सोऽदृश्योऽन्येन केनचित् // जग्मुर्यथेप्सितं देशं तपसे कृतनिश्चयाः / स्वयं भागमुपाघ्राय पुरोडाशं गृहीतवान् / धारणात्सर्वलोकानां सर्वधर्मप्रवर्तकाः // 52 अदृश्येन हृतो भागो देवेन हरिमेधसा // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि बृहस्पतिस्ततः क्रुद्धः सुवमुद्यम्य वेगितः। द्वाविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 322 // आकाशं प्रवः पातै रोषादश्रूण्यवर्तयत् // 13 323 उवाच चोपरिचरं मया भागोऽयमुद्यतः / भीष्म उवाच / ग्राह्यः स्वयं हि देवेन मत्प्रत्यक्षं न संशयः // 14. ततोऽतीते महाकल्पे उत्पन्नेऽङ्गिरसः सुते / उद्यता यज्ञभागा हि साक्षात्प्राज्ञाः सुरैरिह / बभूवुनिता देवा जाते देवपुरोहिते // 1 किमर्थमिह न प्राप्तो दर्शनं स हरिर्विभुः // 15 बृहद्ब्रह्म महच्चेति शब्दाः पर्यायवाचकाः। ततः स तं समुद्भूतं भूमिपालो महान्वसुः / एभिः समन्वितो राजन्गुणैर्विद्वान्बृहस्पतिः // 2 / प्रसादयामास मुनि सदस्यास्ते च सर्वशः // 16 तस्य शिष्यो बभूवाग्र्यो राजोपरिचरो वसुः / / ऊचुश्चैनमसंभ्रान्ता न रोपं कर्तुमर्हसि / / अधीतवांस्तदा शास्त्रं सम्यक्चित्रशिखण्डिजम् // 3 नैष धर्मः कृतयुगे यस्त्वं रोषमचीकृथाः // 17 -2448 Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 323. 18 ] महाभारते [12. 328. 45 अरोषणो ह्यसौ देवो यस्य भागोऽयमुद्यतः / श्वेतांश्चन्द्रप्रतीकाशान्सर्वलक्षणलक्षितान् // 31 न स शक्यस्त्वया द्रष्टुमस्माभिर्वा बृहस्पते / नित्याञ्जलिकृतान्ब्रह्म जपतः प्रागुदङ्मुखान् / यस्य प्रसादं कुरुते स वै तं द्रष्टुमर्हति // 18 मानसो नाम स जपो जप्यते तैर्महात्मभिः / एकतद्वितत्रिता ऊचुः। तेनैकाप्रमनस्त्वेन प्रीतो भवति वै हरिः // 32 . वयं हि ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः परिकीर्तिताः। या भवेन्मुनिशार्दूल भाः सूर्यस्य युगक्षये। गता निःश्रेयसाथ हि कदाचिदिशमुत्तराम् // 19 एकैकस्य प्रभा ताहक्साभवन्मानवस्य ह / / 35 तत्वा वर्षसहस्राणि चत्वारि तप उत्तमम् / तेजोनिवासः स द्वीप इति वै मेनिरे वयम् / एकपादस्थिताः सम्यक्काष्ठभूताः समाहिताः // 20 न तत्राभ्यधिकः कश्चित्सर्वे ते समतेजसः // 34 मेरोरुत्तरभागे तु क्षीरोदस्यानुकूलतः / अथ सूर्यसहस्रस्य प्रभां युगपदुत्थिताम् / स देशो यत्र नस्तप्तं तपः परमदारुणम् / सहसा दृष्टवन्तः स्म पुनरेव बृहस्पते // 35. . कथं पश्येमहि वयं देवं नारायणं त्विति // 21 सहिताश्चाभ्यधावन्त ततस्ते मानवा द्रुतम् / ततो व्रतस्यावभृथे वागुवाचाशरीरिणी / कृताञ्जलिपुटा हृष्टा नम इत्येव वादिनः // 36 सुतप्तं वस्तपो विप्राः प्रसन्नेनान्तरात्मना // 22 ततोऽभिवदतां तेषामश्रौष्म विपुलं ध्वनिम् / यूयं जिज्ञासवो भक्ताः कथं द्रक्ष्यथ तं प्रभुम् / . बलिः किलोपहियते तस्य देवम्य तैनरैः // 37 क्षीरोदधेरुत्तरतः श्वेतद्वीपो महाप्रभः // 23 वयं तु तेजसा तस्य सहसा हृतचेतसः।। तत्र नारायणपरा मानवाश्चन्द्रवर्चसः / न किंचिदपि पश्यामो हतदृष्टिबलेन्द्रियाः // 38 एकान्तभावोपगतास्ते भक्ताः पुरुषोत्तमम् // 24 एकस्तु शब्दोऽविरतः श्रुतोऽस्माभिरुदीरितः / ते सहस्रार्चिषं देवं प्रविशन्ति सनातनम् / जितं ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन // 39 अतीन्द्रिया निराहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः // नमस्तेऽस्तु हृषीकेश महापुरुषपूर्वज / एकान्तिनस्ते पुरुषाः श्वेतद्वीपनिवासिनः / इति शब्दः श्रुतोऽस्माभिः शिक्षाक्षरसमीरितः॥४० गच्छध्वं तत्र मुनयस्तत्रात्मा मे प्रकाशितः // 26 एतस्मिन्नन्तरे वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः / अथ श्रुत्वा वयं सर्वे वाचं तामशरीरिणीम् / दिव्यान्युवाह पुष्पाणि कर्मण्याश्चौषधीस्तथा // 41 यथाख्यातेन मार्गेण तं देशं प्रतिपेदिरे // 27 तैरिष्टः पश्चकाल हरिरेकान्तिभिर्नरैः / प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं तच्चित्तास्तदिदृक्षवः / नूनं तत्रागतो देवो यथा तैर्वागुदीरिता / ततो नो दृष्टिविषयस्तदा प्रतिहतोऽभवत् // 28 वयं त्वेनं न पश्यामो मोहितास्तस्य मायया // 42 न च पश्याम पुरुषं तत्तेजोहृतदर्शनाः / मारुते संनिवृत्ते च बला च प्रतिपादिते / ततो नः प्रादुरभवद्विज्ञानं देवयोगजम् // 29 चिन्ताव्याकुलितात्मानो जाताः स्मोऽङ्गिरसां वर // न किलातप्ततपसा शक्यते द्रष्टमञ्जसा। मानवानां सहस्रेषु तेषु वै शुद्धयोनिषु / ततः पुनर्वर्षशतं तप्त्वा तात्कालिकं महत् // 30 अस्मान्न कश्चिन्मनसा चक्षुषा वाप्यपूजयत् // 44 व्रतावसाने सुशुभानरान्ददृशिरे वयम् / | तेऽपि स्वस्था मुनिगणा एकभावमनुव्रताः / E2444 - Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 323. 45] शान्तिपर्व [12. 324. 10 नास्मासु दधिरे भावं ब्रह्मभावमनुष्ठिताः // 45 परां गतिमनुप्राप्य इति नैष्ठिकमञ्जसा // 5.. ततोऽस्मान्सुपरिश्रान्तांस्तपसा चापि कर्शितान् / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि उवाच स्वस्थं किमपि भूतं तत्राशरीरकम् // 46 प्रयोविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 323 // दृष्टा वः पुरुषाः श्वेताः सर्वेन्द्रियविवर्जिताः / ૩ર૪ दृष्टो भवति देवेश एभिर्दृष्टैर्द्विजोत्तमाः // 47 युधिष्ठिर उवाच / गच्छध्वं मुनयः सर्वे यथागतमितोऽचिरात् / / यदा भक्तो भगवत आसीद्राजा महावसुः / न स शक्यो अभक्तेन द्रष्टुं देवः कथंचन // 48 किमर्थं स परिभ्रष्टो विवेश विवरं भुवः // 1 कामं कालेन महता एकान्तित्वं समागतैः / - भीष्म उवाच / शक्यो द्रष्टुं स भगवान्प्रभामण्डलदुर्दशः // 49 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / महत्कार्य तु कर्तव्यं युष्माभिर्द्विजसत्तमाः। ऋषीणां चैव संवादं त्रिदशानां च भारत // 2 इतः कृतयुगेऽतीते विपर्यासं गतेऽपि च // 50 अजेन यष्टव्यमिति देवाः प्राहुर्द्विजोत्तमान् / वैवस्वतेऽन्तरे विप्राः प्राप्ते त्रेतायुगे ततः / स च च्छागो ह्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरिति स्थितिः॥ सुराणां कार्यसिद्ध्यर्थं सहाया वै भविष्यथ // 51 ऋषय ऊचुः। ततस्तदद्भुतं वाक्यं निशम्यैवं स्म सोमप / बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। तस्य प्रसादात्प्राप्ताः स्मो देशमीप्सितमञ्जसा // 52 अजसंज्ञानि बीजानि छागं न घन्तुमर्हथ // 4 , एवं सुतपसा चैव हव्यकव्यैस्तथैव च / नैष धर्मः सतां देवा यत्र वध्येत वै पक्षुः। देवोऽस्माभिर्न दृष्टः स कथं त्वं द्रष्टुमर्हसि / इदं कृतयुगं श्रेष्ठं कथं वध्येत वै पशुः // 5 नारायणो महद्भूतं विश्वसुग्घव्यकव्यभुक् // 53 ___ भीष्म उवाच / भीष्म उवाच / तेषां संवदतामेवमृषीणां विबुधैः सह / मार्गागतो नृपश्रेष्ठस्तं देशं प्राप्तवान्वसुः / एवमेकतवाक्येन द्वितत्रितमतेन च / अन्तरिक्षचरः श्रीमान्समप्रबलवाहनः // 6 अनुनीतः सदस्यैश्च बृहस्पतिरुदारधीः / तं दृष्ट्वा सहसायान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम् / समानीय ततो यज्ञं दैवतं समपूजयत् // 54 ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम् // . समाप्तयज्ञो राजापि प्रजाः पालितवान्वसुः।। यज्वा दानपतिः श्रेष्ठः सर्वभूतहितप्रियः / ब्रह्मशापादिवो भ्रष्टः प्रविवेश महीं ततः // 55 . कथं स्विदन्यथा ब्रूयाद्वाक्यमेष महान्वसुः // 8 अन्तर्भूमिगतश्चैव सततं धर्मवत्सलः / एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा। नारायणपरो भूत्वा नारायणपदं जगौ॥ 56 अपृच्छन्सहसाभ्येत्य वसुं राजानमन्तिकात् // 9 तस्यैव च प्रसादेन पुनरेवोत्थितस्तु सः / भो राजन्केन यष्टव्यमजेनाहो स्विदौषधैः / महीतलाद्गतः स्थानं ब्रह्मणः समनन्तरम् / एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः // 10 -2445 - Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 324. 11] महामारते [12. 324. 38 स तान्कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः। यज्ञेषु सुहुतां विप्रैर्वसोर्धारां महात्मभिः // 23 कस्य वः को मतः पक्षो ब्रूत सत्यं समागताः॥ 11 प्राप्स्यसेऽस्मदनुध्यानान्मा च त्वां ग्लानिरास्पृशेत् / ऋषय ऊचुः। न क्षुत्पिपासे राजेन्द्र भूमेश्छिद्रे भविष्यतः // 2 // धान्यैर्यष्टब्यमित्येष पक्षोऽस्माकं नराधिप / वसोर्धारानुपीतत्वात्तेजसाप्यायितेन च / देवानां तु पशुः पक्षो मतो राजन्वदस्व नः // 12 स देवोऽस्मद्वरात्प्रीतो ब्रह्मलोकं हि नेष्यति // 25 भीष्म उवाच / एवं दत्त्वा वरं राज्ञे सर्वे तत्र दिवौकसः। देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात् / गताः स्वभवनं देवा ऋषयश्च तपोधनाः // 26 छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं वचस्तदा // 13 चक्रे च सततं पूजां विष्वक्सेनाय भारत / कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः / जप्यं जगौ च सततं नारायणमुखोद्गतम् // 27 ऊचुर्वसु विमानस्थं देवपक्षार्थवादिनम् // 14 तत्रापि पञ्चभिर्यज्ञैः पश्चकालानरिंदम। .. सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात्तस्माद्दिवः पत। अयजद्धार सुरपतिं भूमेर्विवरगोऽपि सन् // 28 अद्यप्रभृति ते राजन्नाकाशे विहता गतिः / ततोऽस्य तुष्टो भगवान्भक्त्या नारायणो हरिः / अस्मच्छापाभिघातेन महीं भित्त्वा प्रवेक्ष्यसि // अनन्यभक्तस्य सतस्तत्परस्य जितात्मनः // 29 ततस्तस्मिन्मुहूर्तेऽथ राजोपरिचरस्तदा / वरदो भगवान्विष्णुः समीपस्थं द्विजोत्तमम् / अधो वै संबभूवाशु भूमेर्विवरगो नृपः / गरुत्मन्तं महावेगमाबभाषे स्मयन्निव // 30 स्मृतिस्त्वेनं न प्रजहौ तदा नारायणाज्ञया / / 16 / द्विजोत्तम महाभाग गम्यतां वचनान्मम / देवास्तु सहिताः सर्वे वसोः शापविमोक्षणम् / सम्राडाजा वसुर्नाम धर्मात्मा मां समाश्रितः॥३१ चिन्तयामासुरव्यमाः सुकृतं हि नृपस्य तत् / / 17 ब्राह्मणानां प्रकोपेन प्रविष्टो वसुधातलम् / अनेनास्मत्कृते राज्ञा शापः प्राप्तो महात्मना / मानितास्ते तु विप्रेन्द्रास्त्वं तु गच्छ द्विजोत्तम॥३२ अस्य प्रतिप्रियं कार्य सहितै! दिवौकसः // 18 भूमेर्विवरसंगुप्तं गरुडेह ममाज्ञया / इति बुद्धथा व्यवस्याशु गत्वा निश्चयमीश्वराः।। अधश्चरं नृपश्रेष्ठं खेचरं कुरु माचिरम् // 33 ऊचुस्तं हृष्टमनसो राजोपरिचरं तदा // 19 गरुत्मानथ विक्षिप्य पक्षौ मारुतवेगवान् / ब्रह्मण्यदेवं त्वं भक्तः सुरासुरगुरुं हरिम् / विवेश विवरं भूमेर्यत्रास्ते वाग्यतो वसुः // 34 कामं स तव तुष्टात्मा कुर्याच्छापविमोक्षणम् // 20 / तत एनं समुत्क्षिप्य सहसा विनतासुतः / मानना तु द्विजातीनां कर्तव्या वै महात्मनाम् / उत्पपात नभस्तूर्णं तत्र चैनममुञ्चत // 35 अवश्यं तपसा तेषां फलितव्यं नृपोत्तम // 21 तस्मिन्मुहूर्ते संजज्ञे राजोपरिचरः पुनः / यतस्त्वं सहसा भ्रष्ट आकाशान्मेदिनीतलम् / सशरीरो गतश्चैव ब्रह्मलोकं नृपोत्तमः // 36 एकं त्वनुग्रहं तुभ्यं दद्मो वै नृपसत्तम // 22 / एवं तेनापि कौन्तेय वाग्दोषाद्देवताज्ञया / यावत्त्वं शापदोषेण कालमासिष्यसेऽनघ / / प्राप्ता गतिरयज्वारे द्विजशापान्महात्मना / 30 भूमेर्विवरगो भूत्वा तावन्तं कालमाप्स्यसि। / केवलं पुरुषस्तेन सेवितो हरिरीश्वरः / -2446 - Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 824. 38 ] शान्तिपर्व [12. 325.4 ततः शीघ्रं जहौ शापं ब्रह्मलोकमवाप च // 38 / 35 / चतुर्महाराजिक / 36 / आभासुर / 30 / एतत्ते सर्वमाख्यातं ते भूता मानवा यथा। महाभासुर / 38 / सप्तमहाभासुर / 39 / याम्य नारदोऽपि यथा श्वेतं द्वीपं स गतवानृषिः। तत्ते सर्व प्रवक्ष्यामि शृणुष्वैकमना नृप // 39 महायाम्य / 41 / संज्ञासंज्ञ / 42 / तुषित इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि / 43 / महातुषित / 44 / प्रतर्दन / 45 / परिचतुर्विशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 32 // निर्मित / 46 / वशवर्तिन् / 47 / अपरिनिर्मित 325 / 48 / यज्ञ / 49 / महायज्ञ / 50 // भीष्म उवाच। ___ यज्ञसंभव / 51 / यज्ञयोने / 52 / यज्ञगर्भ प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं नारदो भगवानृषिः / / 53 / यज्ञहृदय / 54 / यज्ञस्तुत / 55 / बझददर्श तानेव नराश्वेतांश्चन्द्रप्रभाशुभान् // 1 भागहर / 56 / पश्चयज्ञधर / 57 / पञ्चकालकारीपूजयामास शिरसा मनसा तैश्च पूजितः। गते / 58 / पञ्चरात्रिक / 59 / वैकुण्ठः। 6 // दिक्षुर्जप्यपरमः सर्वकृच्छ्रधरः स्थितः // 2 ___ अपराजित / 61 / मानसिक / 12 / परमभूत्वैकाप्रमना विप्र ऊर्ध्वबाहुमहामुनिः / / खामिन् / 63 / सुस्मात / 64 / हंस / 65 / परमस्तोत्रं जगौ स विश्वाय निर्गुणाय महात्मने // 3 | हंस / 66 / परमयाज्ञिक / 67 / सांस्ययोग नारद उवाच। / 60 / अमृतेशय / 69 / हिरण्येशय / 70 / / नमस्ते देवदेव / 1 / निष्क्रिय। 2 / निर्गुण।३।। वेदेशय / 71 / कुशेशय / 72 / ब्रह्मेशय लोकसाक्षिन् / / क्षेत्रज्ञ / 5 / अनन्त / 6 / 73 / पद्मशय / 74 / विश्वेश्वर / 75 / त्वं [=116] / पुरुष / / महापुरुष / 8 / त्रिगुण जगदन्वयः / 76 / त्वं जगत्प्रकृतिः। 77 / तवामि१९। प्रथान / 10 // राख्यम् / 74 / वडवामुखोऽग्निः / 79 / त्वमाहुति: अमृत / 11 / व्योम। / 12 / सनातन / 13 / / 8 // सदसव्यक्ताव्यक्त / 14 / ऋतधामन् / 15 / ___ त्वं सारथिः / 81 / त्वं वषट्कारः / 42 / पूर्वादिदेव / 16 / वसुप्रद / 17 / प्रजापते / 18 / त्वमोंकारः / 83 / त्वं मनः / 84 / त्वं चन्द्रमा सुप्रजापते / 19 / वनस्पते / 20 // / 85 / त्वं चक्षुराद्यम् / 86 / वं सूर्यः / 47 / ___महाप्रजापते / 21 / ऊर्जस्पते / 22 / वाच- त्वं दिशां गजः / 88 / दिग्भानो / 89 / हयशिरः स्पते / 23 / मनस्पते / 24 / जगत्पते / 25 / / 90 // दिवस्पते / 26 / मरुत्पते / 27 / सलिलपते / 28 / प्रथमत्रिसौपर्ण / 91 / पञ्चाग्ने / 92 / त्रिणापृथिवीपते / 29 / दिक्पते / 30 // चिकेत / 93 / षडङ्गविधान / 94 / प्राग्ज्योतिष पूर्वनिवास / 31 / ब्रह्मपुरोहित / 32 / ब्रह्म- / 95 / ज्येष्ठसामग / 96 / सामिकव्रतधर / 97 / कायिक / 33 / महाकायिक / 34 / महाराजिक | अथर्वशिरः / 98 / पञ्चमहाकल्प / 99 / फेन -2447 - Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 325. 4] महाभारते [12. 326.0 पाचार्य / 100 // मायाधर / 155 / चित्रशिखण्डिन् / 156 / कावालखिल्य / 101 / वैखानस / 102 / अभग्न- प्रद / 157 [ = 135 ] / पुरोडाशभागहर। 15 // थोग / 103 / अभनपरिसंख्यान / 104 / युगादे गताध्वन् / 159 / छिन्नतृष्ण / 160 // / 105 / युगमध्य / 106 / युगनिधन। 107 / __ छिन्नसंशय / 161 / सर्वतोनिवृत्त / 16 / बाखण्डल / 108 / प्राचीनगर्भ / 109 / कौशिक ब्राह्मणरूप / 163 / ब्राह्मणप्रिय / 164 / विश्वमूर्ते / 110 // / 165 / महामूर्ते / 166 / बान्धव / 167 // पुरुष्टुत / 111 / पुरुहूत / 112 / विश्वरूप भक्तवत्सल / 168 / ब्रह्मण्यदेव / 169 / भक्तोऽहं / 113 / अनन्तगते / 114 / अनन्तभोग। 115 / त्वां दिदृक्षुः / 170 / एकान्तदर्शनाय नमो नमः अनन्त / 116 [ = 6 ] / अनादे / 117 / / 171 // 4 भमध्य / 118 / अव्यक्तमध्य / 119 / अव्यक्त- इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि निधन / 120 // पञ्चविंत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 325 // ' 326 व्रतावास / 121 / समुद्राधिवास / 122 / भीष्म उवाच / यशोवास / 123 / तपोवास / 124 / लक्ष्म्यावास एवं स्तुतः स भगवान्गुस्तिथ्यैश्च नामभिः। / / 125 / विद्यावास / 126 / कीावास / 127 // श्रीवास / 128 / सर्वावास / 129 / वासुदेव तं मुनिं दर्शयामास नारदं विश्वरूपधृक् // 1 किंचिच्चन्द्रविशुद्धात्मा किंचिञ्चन्द्राद्विशेषवान् / / 130 // कृशानुवर्णः किंचिच्च किंचिद्धिष्ण्याकृतिः प्रभुः // 2 सर्वच्छन्दक। 131 / हरिहय / 132 / हरिमेध शुकपत्रवर्णः किंचिच्च किंचित्स्फटिकसप्रभः / / / 133 / महायज्ञभागहर / 134 / वरप्रद / 135 नीलाञ्जनचयप्रख्यो जातरूपप्रभः कचित् // 3 [ = 157 ] / यमनियममहानियमकृच्छ्रातिकृच्छ्र प्रवालाङ्करवर्णश्च श्वेतवर्णः क्वचिद्धभौ / महाकृच्छ्रसर्वकृच्छ्रनियमधर / 136 / निवृत्तिधर्म कचित्सुवर्णवर्णाभो वैडूर्यसदृशः कचित् // 4 प्रवचनगते / 137 / प्रवृत्तवेदक्रिय / 138 / अज नीलवैडूर्यसदृश इन्द्रनीलनिभः कचित् / / 139 / सर्वगते / 140 // मयूरग्रीववर्णाभो मुक्ताहारनिभः कचित् // 5.. सर्वदर्शिन् / 141 / अग्राह्य / 142 / अचल एतान्वर्णान्बहुविधारूपे बिभ्रत्सनातनः / / 143 / महाविभूते / 144 / माहात्म्यशरीर सहस्रनयनः श्रीमान्शतशीर्षः सहस्रपात् // 6 / 145 / पवित्र / 146 / महापवित्र / 147 / सहस्रोदरबाहुश्च अव्यक्त इति च कचित् / ' हिरण्मय / 148 / बृहत् / 149 / अप्रतक्य ॐकारमुद्गिरन्वक्त्रात्सावित्री च तदन्वयाम् // 7 शेषेभ्यश्चैव वक्त्रेभ्यश्चतुर्वेदोद्गतं वसु / अविज्ञेय / 151 / ब्रह्माय / 152 / प्रजा- आरण्यकं जगी देवो हरिनारायणो वशी // 8 सर्गकर / 153 / प्रजानिधनकर / 154 / महा- वेदी कमण्डलु दर्भान्मणिरूपानथोपलान् / -2448 - Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 326.9] शान्तिपर्व [12. 326. 38 अजिनं दण्डकाष्ठं च ज्वलितं च हुताशनम् / अजो नित्यः शाश्वतश्च निर्गुणो निष्कलस्तथा॥२२ धारयामास देवेशो हस्तैर्यज्ञपतिस्तदा // 9 द्विादशेभ्यस्तत्त्वेभ्यः ख्यातो यः पञ्चविंशकः / तं प्रसन्नं प्रसन्नात्मा नारदो द्विजसत्तमः / पुरुषो निष्क्रियश्चैव ज्ञानदृश्यश्च कथ्यते // 23 वाग्यतः प्रयतो भूत्वा ववन्दे परमेश्वरम् / यं प्रविश्य भवन्तीह मुक्ता वै द्विजसत्तम / तमुवाच नतं मूर्धा देवानामादिरव्ययः // 10 स वासुदेवो विज्ञेयः परमात्मा सनातनः // 24 एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः / पश्य देवस्य माहात्म्यं महिमानं च नारद / इमं देशमनुप्राप्ता मम दर्शनलालसाः // 11 शुभाशुभैः कर्मभिर्यो न लिप्यति कदाचन // 25 न च मां ते ददृशिरे न च द्रक्ष्यति कश्चन / सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणानेतान्प्रचक्षते। ऋते ह्ये कान्तिकश्रेष्ठात्त्वं चैवैकान्तिको मतः॥ 12 एते सर्वशरीरेषु तिष्ठन्ति विचरन्ति च // 26 ममैतास्तनवः श्रेष्ठा जाता धर्मगृहे द्विज / एतान्गुणांस्तु क्षेत्रज्ञो भुङ्क्ते नैमिः स भुज्यते / तास्त्वं भजस्व सततं साधयस्व यथागतम् / / 13 निर्गुणो गुणभुक्चैव गुणस्रष्टा गुणाधिकः // 27 वृणीष्व च वरं विप्र मत्तस्त्वं यमिहेच्छसि / जगत्प्रतिष्ठा देवर्षे पृथिव्यप्सु प्रलीयते।। प्रसन्नोऽहं तवाद्येह विश्वमूर्तिरिहाव्ययः // 14 ज्योतिष्यापः प्रलीयन्ते ज्योतिर्वायौ प्रलीयते // 28 नारद उवाच। खे वायुः प्रलयं याति मनस्याकाशमेव च / अद्य मे तपसो देव यमस्य नियमस्य च।। मनो हि परमं भूतं तदव्यक्ते प्रलीयते // 29 सद्यः फलमवाप्तं वै दृष्टो यद्भगवन्मया // 15 अव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निष्क्रिये संप्रलीयते / वर एष ममात्यन्तं दृष्टस्त्वं यत्सनातनः / नास्ति तस्मात्परतरं पुरुषाद्वै सनातनात् // 30 भगवान्विश्वदृक्सिहः सर्वमूर्तिमहाप्रभुः // 16 नित्यं हि नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम् / भीष्म उवाच / ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् / : एवं संदर्शयित्वा तु नारदं परमेष्ठिजम् / सर्वभूतात्मभूतो हि वासुदेवो महाबलः // 31 उवाच वचनं भूयो गच्छ नारद माचिरम् // 17 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् / इमे ह्यनिन्द्रियाहारा मद्भक्ताश्चन्द्रवर्चसः / ते समेता महात्मानः शरीरमिति संज्ञितम् // 32 एकापाश्चिन्तयेयुमा नैषां विघ्नो भवेदिति // 18 तदाविशति यो ब्रह्मन्नदृश्यो लघुविक्रमः / सिद्धाश्चैते महाभागाः पुरा ह्येकान्तिनोऽभवन् / उत्पन्न एव भवति शरीरं चेष्टयन्प्रभुः / / 33 तमोरजोविनिर्मुक्ता मां प्रवेक्ष्यन्त्यसंशयम // 19 न विना धातुसंघातं शरीरं भवति क्वचित् / न दृश्यश्चक्षुषा योऽसौ न स्पृश्यः स्पर्शनेन च / न च जीवं विना ब्रह्मन्धातवश्चेष्टयन्त्युत // 34 न घेयश्चैव गन्धेन रसेन च विवर्जितः // 20 / स जीवः परिसंख्यातः शेषः संकर्षणः प्रभुः। सत्त्वं रजस्तमश्चैव न गुणास्तं भजन्ति वै / / तस्मात्सनत्कुमारत्वं यो लभेत स्वकर्मणा // 35 // यश्च सर्वगतः साक्षी लोकस्यात्मेति कथ्यते // 21 - यस्मिंश्च सर्वभूतानि प्रलयं यान्ति संक्षये / भूतग्रामशरीरेषु नश्यत्सु न विनश्यति / / स मनः सर्वभूतानां प्रद्युम्नः परिपठ्यते // 36 म, भा. 307 - 2449 - Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 326. 37 ] महाभारते [12. 326.84 तस्मात्प्रसूतो यः कर्ता कार्य कारणमेव च। / सर्वान्प्रजापतीन्पश्य पश्य सप्त ऋषीनपि / यस्मात्सर्वं प्रभवति जगत्स्थावरजङ्गमम् / वेदान्यज्ञांश्च शतशः पश्यामृतमथौषधीः // 50 सोऽनिरुद्धः स ईशानो व्यक्तिः सा सर्वकर्मसु // तपांसि नियमांश्चैव यमानपि पृथग्विधान् / यो वासुदेवो भगवान्क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः / तथाष्टगुणमैश्वर्यमेकस्थं पश्य मूर्तिमत् // 51 ज्ञेयः स एव भगवाञ्जीवः संकर्षणः प्रभुः // 38 श्रियं लक्ष्मी च कीर्ति च पृथिवीं च ककुद्मिनीम् / संकर्षणाच्च प्रद्युम्नो मनोभूतः स उच्यते / वेदानां मातरं पश्य मत्स्थां देवीं सरस्वतीम् // 52 प्रद्युम्नाद्योऽनिरुद्धस्तु सोऽहंकारो महेश्वरः // 39 ध्रुवं च ज्योतिषां श्रेष्ठं पश्य नारद खेचरम् / मत्तः सर्व संभवति जगत्स्थावरजङ्गमम् / / अम्भोधरान्समुद्रांश्च सरांसि सरितस्तथा // 53 अक्षरं च क्षरं चैव सच्चासञ्चैव नारद // 40 मूर्तिमन्तः पितृगणांश्चतुरः पश्य सत्तम / मां प्रविश्य भवन्तीह मुक्ता भक्तास्तु ये मम / / त्रींश्चैवेमान्गुणान्पश्य मत्स्थान्मूर्तिविवर्जितान् // 54 अहं हि पुरुषो ज्ञेयो निष्क्रियः पञ्चविंशकः // 41 देवकार्यादपि मुने पितृकार्य विशिष्यते / निर्गुणो निष्कलश्चैव निद्वंद्वो निष्परिग्रहः / / देवानां च पितॄणां च पिता ह्येकोऽहमादितः // 55 एतत्त्वया न विज्ञेयं रूपवानिति दृश्यते।। अहं हयशिरो भूत्वा समुद्रे पश्चिमोत्तरे / इच्छन्मुहूर्तान्नश्येयमीशोऽहं जगतो गुरुः // 42 पिबामि सुहुतं हव्यं कव्यं च श्रद्धयान्वितम् // 56 माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद / मया सृष्टः पुरा ब्रह्मा मद्यज्ञमयजत्स्वयम्। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि / ततस्तस्मै वरान्प्रीतो ददाबहमनुत्तमान् / / 57 मयैतत्कथितं सम्यक्तव मूर्तिचतुष्टयम् // 43 मत्पुत्रत्वं च कल्पादौ लोकाध्यक्षत्वमेव च। सिद्धा ह्येते महाभागा नरा ह्येकान्तिनोऽभवन् / अहंकारकृतं चैव नाम पर्यायवाचकम // 58 तमोरजोभ्यां निर्मुक्ताः प्रवेक्ष्यन्ति च मां मुने / त्वया कृतां च मर्यादा नातिक्राम्यति कश्चन / अहं कर्ता च कार्य च कारणं चापि नारद / त्वं चैव वरदो ब्रह्मन्वरेप्सूनां भविष्यसि // 59 अहं हि जीवसंज्ञो वै मयि जीवः समाहितः / सुरासुरगणानां च ऋषीणां च तपोधन / मैवं ते बुद्धिरत्राभूदृष्टो जीवो मयेति च // 45 पितृणां च महाभाग सततं संशितव्रत / अहं सर्वत्रगो ब्रह्मन्भूतग्रामान्तरात्मकः / विविधानां च भूतानां त्वमुपास्यो भविष्यसि // 60 भूतग्रामशरीरेषु नश्यत्सु न नशाम्यहम् // 46 / प्रादुर्भावगतश्चाहं सुरकार्येषु नित्यदा। हिरण्यगर्भो लोकादिश्चतुर्वक्त्रो निरुक्तगः / अनुशास्यस्त्वया ब्रह्मनियोज्यश्च सुतो यथा // 61 ब्रह्मा सनातनो देवो मम बह्वर्थचिन्तकः / / 47 एतांश्चान्यांश्च रुचिरान्ब्रह्मणेऽमिततेजसे / पश्यैकादश मे रुद्रान्दक्षिणं पार्श्वमास्थितान् / अहं दत्त्वा वरान्त्रीतो निवृत्तिपरभोऽभवम् // 62 द्वादशैव तथादित्यान्वामं पार्श्व समास्थितान् // 48 निर्वाणं सर्वधर्माणां निवृत्तिः परमा स्मृता / अग्रतश्चैव मे पश्य वसूनष्टौ सुरोत्तमान् / तस्मान्निवृत्तिमापन्नश्चरेत्सर्वाङ्गनिर्वृतः // 63 नासत्यं चैव दस्रं च भिषजौ पश्य पृष्ठतः // 49 / विद्यासहायवन्तं मामादित्यस्थं सनातनम् / - 2450 - Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 326. 64 ] शान्तिपर्व [12. 326.91 कपिलं प्राहुराचार्याः सांख्यनिश्चितनिश्चयाः॥ 64 क्षत्रं चोत्सादयिष्यामि समृद्धबलवाहनम् // 77 हिरण्यगर्भो भगवानेष छन्दसि सुष्टुतः। संधौ तु समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च / सोऽहं योगगतिर्ब्रह्मन्योगशास्त्रेषु शब्दितः // 65 रामो दाशरथिर्भूत्वा भविष्यामि जगत्पतिः // 78 एषोऽहं व्यक्तिमागम्य तिष्ठामि दिवि शाश्वतः / / त्रितोपघाताद्वैरूप्यमेकतोऽथ द्वितस्तथा / ततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः। प्राप्स्यतो वानरत्वं हि प्रजापतिसुतावृषी // 79 कृत्वात्मस्थानि भूतानि स्थावराणि चराणि च // 66 / तयोर्ये त्वन्वये जाता भविष्यन्ति वनौकसः / एकाकी विद्यया सार्धं विहरिष्ये द्विजोत्तम / ते सहाया भविष्यन्ति सुरकार्ये मम द्विज // 80 ततो भूयो जगत्सवं करिष्यामीह विद्यया // 67 ततो रक्षःपतिं घोरं पुलस्त्यकुलपांसनम् / अस्मन्मूर्तिश्चतुर्थी या सासृजच्छेषमव्ययम् / हनिष्ये रावणं संख्ये सगणं लोककण्टकम् // 81 स हि संकर्षणः प्रोक्तः प्रद्युम्नं सोऽप्यजीजनत् / / द्वापरस्य कलेश्चैव संधौ पर्यवसानिके / प्रद्युम्नादनिरुद्धोऽहं सर्गो मम पुनः पुनः / प्रादुर्भावः कंसहेतोर्मथुरायां भविष्यति // 82 अनिरुद्धात्तथा ब्रह्मा तत्रादिकमलोद्भवः / / 69 / तत्राहं दानवान्हत्वा सुबहून्देवकण्टकान् / ब्रह्मणः सर्वभूतानि चराणि स्थावराणि च / कुशस्थली करिष्यामि निवासं द्वारकां पुरीम् // 83 एतां सृष्टिं विजानीहि कल्पादिषु पुनः पुनः // 70 वसानस्तत्र वै पुर्यामदितेर्विप्रियंकरम् / यथा सूर्यस्य गगनादुदयास्तमयाविह / हनिष्ये नरकं भौमं मुरं पीठं च दानवम् // 84 नष्टी पुनर्बलात्काल आनयत्यमितद्युतिः / प्राग्ज्योतिषपुरं रम्यं नानाधनसमन्वितम् / तथा बलादहं पृथ्वी सर्वभूतहिताय वै / / 71 कुशस्थली नयिष्यामि हत्वा वै दानवोत्तमान् // 85 सत्त्वैराकान्तसर्वाङ्गां नष्टां सागरमेखलाम् / / शंकरं च महासेनं बाणप्रियहितैषिणम् / आनयिष्यामि स्वं स्थानं वाराहं रूपमास्थितः // 72 पराजेष्याम्यथोद्युक्तौ देवलोकनमस्कृतौ // 86 हिरण्याक्षं हनिष्यामि दैतेयं बलगर्वितम् / | ततः सुतं बलेर्जित्वा बाणं बाहुसहस्रिणम् / / नारसिंहं वपुः कृत्वा हिरण्यकशिपुं पुनः / विनाशयिष्यामि ततः सर्वान्सौभनिवासिनः // 87 सुरकार्ये हनिष्यामि यज्ञघ्नं दितिनन्दनम् // 73 यः कालयवनः ख्यातो गर्गतेजोभिसंवृतः।। विरोचनस्य बलवान्बलिः पुत्रो महासुरः / / भविष्यति वधस्तस्य मत्त एव द्विजोत्तम // 88 भविष्यति स शक्रं च स्वराज्याच्यावयिष्यति // जरासंधश्च बलवान्सर्वराजविरोधकः / त्रैलोक्येऽपहृते तेन विमुखे च शचीपतौ / भविष्यत्यसुरः स्फीतो भूमिपालो गिरिव्रजे / अदित्यां द्वादशः पुत्रः संभविष्यामि कश्यपात् / / मम बुद्धिपरिस्पन्दाद्वधस्तस्य भविष्यति // 89 ततो राज्यं प्रदास्यामि शक्रायामिततेजसे / समागतेषु बलिषु पृथिव्यां सर्वराजसु / देवताः स्थापयिष्यामि स्वेषु स्थानेषु नारद / वासविः सुसहायो वै मम ह्येको भविष्यति // 90 बलिं चैव करिष्यामि पातालतलवासिनम् // 76 एवं लोका वदिष्यन्ति नरनारायणावृषी। त्रेतायुगे भविष्यामि रामो भृगुकुलोद्वहः। | उद्युक्तौ दहतः क्षत्रं लोक्ककार्यार्थमीश्वरौ // 91 -2451 - Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 326. 92 ] महाभारते [ 12. 326. 118 कृत्वा भारावतरणं वसुधाया यथेप्सितम् / समतीतानि राजेन्द्र सर्गाश्च प्रलयाश्च ह // 104 सर्वसात्वतमुख्यानां द्वारकायाश्च सत्तम / सर्गस्यादौ स्मृतो ब्रह्मा प्रजासर्गकरः प्रभुः / करिष्ये प्रलयं घोरमात्मज्ञातिविनाशनम् // 92 जानाति देवप्रवरं भूयश्चातोऽधिकं नृप / कर्माण्यपरिमेयानि चतुर्मूर्तिधरो ह्यहम् / परमात्मानमीशानमात्मनः प्रभवं तथा // 105 कृत्वा लोकान्गमिष्यामि स्वानहं ब्रह्मसत्कृतान् / / ये त्वन्ये ब्रह्मसदने सिद्धसंघाः समागताः / हंसो हयशिराश्चैव प्रादुर्भावा द्विजोत्तम / तेभ्यस्तच्छ्रावयामास पुराणं वेदसंमितम् // 106 यदा वेदश्रुतिर्नष्टा मया प्रत्याहृता तदा / तेषां सकाशात्सूर्यश्च श्रुत्वा वै भावितात्मनाम् / / सवेदाः सश्रुतीकाश्च कृताः पूर्वं कृते युगे // 94 / आत्मानुगामिनां ब्रह्म श्रावयामास भारत / / 100 अतिक्रान्ताः पुराणेषु श्रुतास्ते यदि वा क्वचित् / षट्षष्टिर्हि सहस्राणि ऋषीणां भावितात्मनाम् / अतिक्रान्ताश्च बहवः प्रादुर्भावा ममोत्तमाः।। सूर्यस्य तपतो लोकानानिर्मिता ये पुरःसराः / / / लोककार्याणि कृत्वा च पुनः स्वां प्रकृतिं गताः // तेषामकथयत्सूर्यः सर्वेषां भावितात्मनाम् // 108 न ह्येतद्ब्रह्मणा प्राप्तमीदृशं मम दर्शनम् / सूर्यानुगामिभिस्तात ऋषिभिस्तैर्महात्मभिः / यत्त्वया प्राप्तमद्येह एकान्तगतबुद्धिना // 96 मेरौ समागता देवाः श्राविताश्चेदमुत्तमम् // 109 एतत्ते सर्वमाख्यातं ब्रह्मन्भक्तिमतो मया। देवानां तु सकाशाद्वै ततः श्रुत्वासितो द्विजः / पुराणं च भविष्यं च सरहस्यं च सत्तम // 97 श्रावयामास राजेन्द्र पितॄणां मुनिसृत्तमः // 110 एवं स भगवान्देवो विश्वमूर्तिधरोऽव्ययः / मम चापि पिता तात कथयामास शंतनुः / एतावदुक्त्वा वचनं तत्रैवान्तरधीयत // 98 ततो मर्यंतच्छ्रुत्वा च कीर्तितं तव भारत // 111 नारदोऽपि महातेजाः प्राप्यानुग्रहमीप्सितम् / सुरैर्वा मुनिभिर्वापि पुराणं यैरिदं श्रुतम् / नरनारायणौ द्रष्टुं प्राद्रवद्वदराश्रमम् // 99. सर्वे ते परमात्मानं पूजयन्ति पुनः पुनः // 112 इदं महोपनिषदं चतुर्वेदसमन्वितम्। इदमाख्यानमार्षेयं पारंपर्यागतं. नृप / सांख्ययोगकृतं तेन पश्चरात्रानुशब्दितम् // 100 नावासुदेवभक्ताय त्वया देयं कथंचन / / 113 नारायणमुखोद्गीतं नारदोऽश्रावयत्पुनः / मत्तोऽन्यानि च ते राजन्नपाख्यानशतानि वै / ब्रह्मणः सदने तात यथा दृष्टं यथा श्रुतम् // 101 यानि श्रुतानि धाणि तेषां सारोऽयमुद्धृतः // युधिष्ठिर उवाच / सुरासुरैर्यथा राजन्निर्मथ्यामृतमुद्धृतम् / एतदाश्चर्यभूतं हि माहात्म्यं तस्य धीमतः / / एवमेतत्पुरा विप्रैः कथामृतमिहोद्धृतम् // 115 किं ब्रह्मा न विजानीते यतः शुश्राव नारदात् // . यश्चेदं पठते नित्यं यश्चेदं शृणुयान्नरः / पितामहो हि भगवांस्तस्मादेवादनन्तरः / एकान्तभावोपगत एकान्ते सुसमाहितः / / 116 कथं स न विजानीयात्प्रभावममितौजसः // 103 / प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं भूत्वा चन्द्रप्रभो नरः / भीष्म उवाच / स सहस्रार्चिषं देवं प्रविशेन्नात्र संशयः // 110 महाकल्पसहस्राणि महाकल्पशतानि च / मुच्येदार्तस्तथा रोगाच्छ्रुत्वेमामादितः कथाम् / -2452 - Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 828. 118 ] शान्तिपर्व [12. 321. 19 जिज्ञासुर्लभते कामान्भक्तो भक्तगतिं व्रजेत् // 118 ते सहस्रार्चिषं देवं प्रविशन्तीति शुश्रुमः // 6 त्वयापि सततं राजन्नभ्यर्च्यः पुरुषोत्तमः / अहो हि दुरनुष्ठेयो मोक्षधर्मः सनातनः / स हि माता पिता चैव कृत्स्नस्य जगतो गुरुः // यं हित्वा देवताः सर्वा हव्यकव्यभुजोऽभवन् // . ब्रह्मण्यदेवो भगवान्प्रीयतां ते सनातनः। . किं नु ब्रह्मा च रुद्रश्च शक्रश्च बलभित्प्रभुः / युधिष्ठिर महाबाहो महाबाहुर्जनार्दनः // 120 सूर्यस्ताराधिपो वायुरग्निवरुण एव च / वैशंपायन उवाच। आकाशं जगती चैव ये च शेषा दिवौकसः // 8 श्रुत्वैतदाख्यानवरं धर्मराड्जनमेजय। प्रलयं न विजानन्ति आत्मनः परिनिर्मितम् / भ्रातरश्चास्य ते सर्वे नारायणपराभवन् / / 121 ततस्ते नास्थिता मार्ग ध्रुवमक्षयमव्ययम् // 9' जितं भगवता तेन पुरुषेणेति भारत / स्मृत्वा कालपरीमाणं प्रवृत्तिं ये समास्थिताः / नित्यं जप्यपरा भूत्वा सरस्वतीमुदीरयन् // 122 दोषः कालपरीमाणे महानेष क्रियावताम् // 10 यो ह्यस्माकं गुरुः श्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनो मुनिः / एतन्मे संशयं विप्र हृदि शल्यमिवार्पितम् / स जगौ परमं जप्यं नारायणमुदीरयन् // 123 | छिन्धीतिहासकथनात्परं कौतूहलं हि मे // 11 गत्वान्तरिक्षात्सततं क्षीरोदममृताशयम् / कथं भागहराः प्रोक्ता देवताः क्रतुषु द्विज / पूजयित्वा च देवेशं पुनरायात्स्वमाश्रमम् / / 124 किमर्थं चाध्वरे ब्रह्मन्निज्यन्ते त्रिदिवौकसः // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि ये च भागं प्रगृह्णन्ति यज्ञेषु द्विजसत्तम / षड्विंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥ 326 // ते यजन्तो महायज्ञैः कस्य भागं ददन्ति वै // 13 - 327 वैशंपायन उवाच / जनमेजय उवाच / अहो गूढतमः प्रश्नस्त्वया पृष्टो जनेश्वर / . कथं स भगवान्देवो यज्ञेष्वग्रहरः प्रभुः। नातप्ततपसा ह्येष नावेदविदुषा तथा। यज्ञधारी च सततं वेदवेदाङ्गवित्तथा // 1 नापुराणविदा चापि शक्यो व्याहर्तुमञ्जसा // 14 निवृत्तं चास्थितो धर्म क्षेमी भागवतप्रियः / हन्त ते कथयिष्यामि यन्मे पृष्टः पुरा गुरुः / प्रवृत्तिधर्मान्विदधे स एव भगवान्प्रभुः // 2 कृष्णद्वैपायनो व्यासो वेदव्यासो महानृषिः // 15 कथं प्रवृत्तिधर्मेषु भागार्हा देवताः कृताः। सुमन्तु मिनिश्चैव पैलश्च सुदृढव्रतः / कथं निवृत्तिधर्माश्च कृता व्यावृत्तबुद्धयः // 3 अहं चतुर्थः शिष्यो वै पञ्चमश्च शुकः स्मृतः // 16 एतं नः संशयं विप्र छिन्धि गुह्यं सनातनम् / एतान्समागतान्सर्वान्पश्च शिष्यान्दमान्वितान् / त्वया नारायणकथा श्रुता वै धर्मसंहिता // 4 शौचाचारसमायुक्ताञ्जितक्रोधाञ्जितेन्द्रियान् / / 17 इमे सब्रह्मका लोकाः ससुरासुरमानवाः / वेदानध्यापयामास महाभारतपश्चमान् / क्रियास्वभ्युदयोक्तासु सक्ता दृश्यन्ति सर्वशः / मेरौ गिरिवरे रम्ये सिद्धचारणसेविते // 18 मोक्षश्चोक्तस्त्वया ब्रह्मन्निर्वाणं परमं सुखम् // 5 तेषामभ्यस्यतां वेदान्कदाचित्संशयोऽभवत् / ये च मुक्ता भवन्तीह पुण्यपापविवर्जिताः।। एष वै यस्त्वया पृष्टस्तेन तेषां प्रकीर्तितः। -2453 - Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 327. 19] महाभारते [12. 327.49 ततः श्रुतो मया चापि तवाख्येयोऽद्य भारत // 19 / उत्पन्ना लोकसिद्ध्यर्थं ब्रह्माणं समुपस्थिताः // 32 शिष्याणां वचनं श्रुत्वा सर्वाज्ञानतमोनुदः / वयं हि सृष्टा भगवंस्त्वया वै प्रभविष्णुना। पराशरसुतः श्रीमान्व्यासो वाक्यमुवाच ह // 20 येन यस्मिन्नधीकारे वर्तितव्यं पितामह // 33 मया हि सुमहत्तप्तं तपः परमदारुणम् / योऽसौ त्वया विनिर्दिष्टो अधिकारोऽर्थचिन्तकः / भूतं भव्यं भविष्यच्च जानीयामिति सत्तमाः / / परिपाल्यः कथं तेन सोऽधिकारोऽधिकारिणा // 34 तस्य मे तप्ततपसो निगृहीतेन्द्रियस्य च / प्रदिशस्व बलं तस्य योऽधिकारार्थचिन्तकः। नारायणप्रसादेन क्षीरोदस्यानुकूलतः / / 22 एवमुक्तो महादेवो देवांस्तानिदमब्रवीत् // 35 त्रैकालिकमिदं ज्ञानं प्रादुर्भूतं यथेप्सितम् / साध्वहं ज्ञापितो देवा युष्माभिर्भद्रमस्तु वः। तच्छृणुध्वं यथाज्ञानं वक्ष्ये संशयमुत्तमम् / ममाप्येषा समुत्पन्ना चिन्ता या भवतां मता // 36 यथा वृत्तं हि कल्पादौ दृष्टं मे ज्ञानचक्षुषा / / 23 लोकतन्त्रस्य कृत्स्नस्य कथं कार्यः परिग्रहः / . . परमात्मेति यं प्राहुः सांख्ययोगविदो जनाः / कथं बलक्षयो न स्यायुष्माकं ह्यात्मनश्च मे // 37 महापुरुषसंज्ञां स लभते स्वेन कर्मणा // 24 / / इतः सर्वेऽपि गच्छामः शरणं लोकसाक्षिणम् / तस्मात्प्रसूतमव्यक्तं प्रधानं तद्विदबंधाः। महापुरुषमव्यक्तं स नो वक्ष्यति यद्धितम् // 38 अव्यक्ताव्यक्तमुत्पन्नं लोकसृष्ट्यर्थमीश्वरात् / / 25 ततस्ते ब्रह्मणा सार्धमृषयो बिबुधास्तथा / अनिरुद्धो हि लोकेषु महानात्मेति कथ्यते / क्षीरोदस्योत्तरं कूलं जग्मुर्लोकहितार्थिनः // 39 . योऽसौ व्यक्तत्वमापन्नो निर्ममे च पितामहम् / ते तपः समुपातिष्ठन्ब्रह्मोक्तं वेदकल्पितम् / / सोऽहंकार इति प्रोक्तः सर्वतेजोमयो हि सः॥२६ स महानियमो नाम तपश्चर्या सुदारुणा // 40 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् / ऊर्ध्वं दृष्टिर्बाहवश्च एकाग्रं च मनोऽभवत् / अहंकारप्रसूतानि महाभूतानि भारत / / 27 एकपादस्थिताः सम्यक्काष्ठभूताः समाहिताः // 41 महाभूतानि सृष्ट्वाथ तद्गुणान्निर्ममे पुनः / दिव्यं वर्षसहस्रं ते तपस्तत्वा तदुत्तमम् / भूतेभ्यश्चैव निष्पन्ना मूर्तिमन्तोऽष्ट ताशृणु // 28 शुश्रुवुर्मधुरां वाणी वेदवेदाङ्गभूषिताम् // 42 मरीचिरनिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / भो भोः सब्रह्मका देवा ऋषयश्च तपोधनाः / वसिष्ठश्च महात्मा वै मनुः स्वायंभुवस्तथा / स्वागतेनाय॑ वः सर्वाश्रावये वाक्यमुत्तमम् // ज्ञेयाः प्रकृतयोऽष्टौ ता यासु लोकाः प्रतिष्ठिताः // विज्ञातं वो मया कार्यं तच्च लोकहितं महत् / वेदान्वेदाङ्गसंयुक्तान्यज्ञान्यज्ञाङ्गसंयुतान् / प्रवृत्तियुक्तं कर्तव्यं युष्मत्प्राणोपबृंहणम् // 44 निर्ममे लोकसिद्ध्यर्थं ब्रह्मा लोकपितामहः / / सुतप्तं वस्तपो देवा ममाराधनकाम्यया / अष्टाभ्यः प्रकृतिभ्यश्च जातं विश्वमिदं जगत् // 30 भोक्ष्यथास्य महासत्त्वास्तपसः फलमुत्तमम् // 45 रुद्रो रोषात्मको जातो दशान्यान्सोऽसृजत्स्वयम् / एष ब्रह्मा लोकगुरुः सर्वलोकपितामहः / एकादशैते रुद्रास्तु विकाराः पुरुषाः स्मृताः // 31 यूयं च विबुधश्रेष्ठा मां यजध्वं समाहिताः // 46 ते रुद्राः प्रकृतिश्चैव सर्वे चैव सुरर्षयः / सर्वे भागान्कल्पयध्वं यज्ञेषु मम नित्यशः / -2454 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 327. 47] 'शान्तिपर्व [12. 327.78 - - तथा श्रेयो विधास्यामि यथाधीकारमीश्वराः // 47 चिन्तयध्वं लोकहितं यथाधीकारमीश्वराः // 60 श्रुत्वैतद्देवदेवस्व वाक्यं हृष्टतनूरुहाः / मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / ततस्ते विबुधाः सर्वे ब्रह्मा ते च महर्षयः // 48 वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि वै // 61 वेददृष्टेन विधिना वैष्णवं ऋतुमाहरन् / एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः / तस्मिन्सने तदा ब्रह्मा स्वयं भागमकल्पयत् / प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्येन कल्पिताः // 62 देवा देवर्षयश्चैव सर्वे भागानकल्पयन् // 49 अयं क्रियावतां पन्था व्यक्तीभूतः सनातनः / ते कार्तयुगधर्माणो भागाः परमसत्कृताः / / अनिरुद्ध इति प्रोक्तो लोकसर्गकरः प्रभुः // 63 प्रापुरादित्यवर्णं तं पुरुषं तमसः परम् / सनः सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दनः / बृहन्तं सर्वगं देवमीशानं वरदं प्रभुम् // 50 सनत्कुमारः कपिलः सप्तमश्च सनातनः // 64 ततोऽथ वरदो देवस्तान्सर्वानमरान्स्थितान् / सप्तैते मानसाः प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणः सुताः / अशरीरो बभाषेदं वाक्यं खस्थो महेश्वरः // 51 स्वयमागतविज्ञाना निवृत्तं धर्ममास्थिताः // 65 येन यः कल्पितो भागः स तथा समुपागतः / एते योगविदो मुख्याः सांख्यधर्मविदस्तथा / प्रीतोऽहं प्रदिशाम्यद्य फलमावृत्तिलक्षणम् // 52 आचार्या मोक्षशास्त्रे च मोक्षधर्मप्रवर्तकाः // 66 एतद्वो लक्षणं देवा मत्प्रसादसमुद्भवम् / यतोऽहं प्रसृतः पूर्वमव्यक्तात्रिगुणो महान् / यूयं यज्ञैरिज्यमानाः समाप्तवरदक्षिणैः / तस्मात्परतरो योऽसौ क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः / युगे युगे भविष्यध्वं प्रवृत्तिफलभोगिनः // 53 / / सोऽहं क्रियावतां पन्थाः पुनरावृत्तिदुर्लभः // 67 . यज्ञैर्ये चापि यक्ष्यन्ति सर्वलोकेषु वै सुराः। यो यथा निर्मितो जन्तुर्यस्मिन्यस्मिंश्च कर्मणि / कल्पयिष्यन्ति वो भागांस्ते नरा वेदकल्पितान् // प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा तत्फलं सोऽश्रुतेऽवशः // 68 यो मे यथा कल्पितवान्भागमस्मिन्महाक्रतौ / एष लोकगुरुर्ब्रह्मा जगदादिकरः प्रभुः / स तथा यज्ञभागार्हो वेदसूत्रे मया कृतः // 55 एष माता पिता चैव युष्माकं च पितामहः / यूयं लोकान्धारयध्वं यज्ञभागफलोदिताः / मयानुशिष्टो भविता सर्वभूतवरप्रदः // 69 सर्वार्थचिन्तका लोके यथाधीकारनिर्मिताः // 56 अस्य चैवानुजो रुद्रो ललाटाद्यः समुत्थितः / याः क्रियाः प्रचरिष्यन्ति प्रवृत्तिफलसत्कृताः / / ब्रह्मानुशिष्टो भविता सर्वत्रसवरप्रदः // 70 ताभिराप्यायितबला लोकान्वै धारयिष्यथ // 57 / गच्छध्वं स्वानधीकारांश्चिन्तयध्वं यथाविधि / यूयं हि भाविता लोके सर्वयज्ञेषु मानवैः। प्रवर्तन्तां क्रियाः सर्वाः सर्वलोकेषु माचिरम् // 71 मां ततो भावयिष्यध्वमेषा वो भावना मम // 58 प्रदृश्यन्तां च कर्माणि प्राणिनां गतयस्तथा / इत्यर्थ निर्मिता वेदा यज्ञाश्चौषधिभिः सह / परिनिर्मितकालानि आयूंषि च सुरोत्तमाः // 72 एभिः सम्यक्प्रयुक्तैर्हि प्रीयन्ते देवताः क्षितौ // 59 / इदं कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्तते / निर्माणमेतद्युष्माकं प्रवृत्तिगुणकल्पितम् / अहिंस्या यज्ञपशवो युगेऽस्मिन्नतदन्यथा / मया कृतं सुरश्रेष्ठा यावत्कल्पक्षयादिति / चतुष्पात्सकलो धर्मो भविष्यत्यत्र वै सुराः // 73 - 2455 - Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 327. 74] महाभारते [ 12. 327.99 ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति / एवमुक्त्वा हयशिरास्तत्रैवान्तरधीयत / प्रोक्षिता यत्र पशवो वधं प्राप्स्यन्ति वै मखे। तेनानुशिष्टो ब्रह्मापि स्वं लोकमचिराद्गतः // 86 तत्र पादचतुर्थो वै धर्मस्य न भविष्यति // 74 एवमेष महाभागः पद्मनाभः सनातनः / ततो वै द्वापरं नाम मिश्रः कालो भविष्यति / यज्ञेष्वग्रहरः प्रोक्तो यज्ञधारी च नित्यदा // 87 द्विपादहीनो धर्मश्च युगे तस्मिन्भविष्यति // 75 निवृत्तिं चास्थितो धर्म गतिमक्षयधर्मिणाम् / ततस्तिष्येऽथ संप्राप्ते युगे कलिपुरस्कृते। प्रवृत्तिधर्मान्विदधे कृत्वा लोकस्य चित्रताम् // 88 एकपादस्थितो धर्मो यत्र तत्र भविष्यति // 76 स आदिः स मध्यः स चान्तः प्रजानां देवा ऊचुः। स धाता स धेयः स कर्ता स कार्यम। एकपादस्थिते धर्मे यत्रक्कचनगामिनि / युगान्ते स सुप्तः सुसंक्षिप्य लोकाकथं कर्तव्यमस्माभिर्भगवंस्तद्वदस्व नः // 77 न्युगादौ प्रबुद्धो जगद्धथुत्ससर्ज // 89. श्रीभगवानुवाच / तस्मै नमध्वं देवाय निर्गुणाय गुणात्मने / यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च तपः सत्यं दमस्तथा / अजाय विश्वरूपाय धान्ने सर्वदिवौकसाम् // 90 अहिंसाधर्मसंयुक्ताः प्रचरेयुः सुरोत्तमाः / महाभूताधिपतये रुद्राणां पतये तथा।.. स वै देशः सेवितव्यो मा वोऽधर्मः पदा स्पृशेत् // आदित्यपतये चैव वसूनां पतये तथा // 91 व्यास उवाच / अश्विभ्यां पतये चैव मरुतां पतये तथा / तेऽनुशिष्टा भगवता देवाः सर्षिगणास्तथा। वेदयज्ञाधिपतये वेदाङ्गपतयेऽपि च // 92 नमस्कृत्वा भगवते जग्मुर्देशान्यथेप्सितान् // 79 समुद्रवासिने नित्यं हरये मुलकेशिने। गतेषु त्रिदिवौकःसु ब्रह्मेकः पर्यवस्थितः / / शान्तये सर्वभूतानां मोक्षधर्मानुभाषिणे // 93 दिदृक्षुर्भगवन्तं तमनिरुद्धतनौ स्थितम् // 80 तपसां तेजसां चैव पतये यशसोऽपि च / तं देवो दर्शयामास कृत्वा हयशिरो महत् / वाचश्च पतये नित्यं सरितां पतये तथा // 94 साङ्गानावर्तयन्वेदान्कमण्डलुगणित्रधृक् // 81 कपर्दिने वराहाय एकशृङ्गाय धीमते / ततोऽश्वशिरसं दृष्ट्वा तं देवममितौजसम् / विवस्वतेऽश्वशिरसे चतुर्मूर्तिधृते सदा // 95 लोककर्ता प्रभुब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया // 82 गुह्याय ज्ञानदृश्याय अक्षराय क्षराय च। मूर्धा प्रणम्य वरदं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः / एष देवः संचरति सर्वत्रगतिरव्ययः // 96 स परिष्वज्य देवेन वचनं श्रावितस्तदा / / 83 / एवमेतत्पुरा दृष्टं मया वै ज्ञानचक्षुषा / लोककार्यगती: सर्वास्त्वं चिन्तय यथाविधि / कथितं तच्च वः सर्वं मया पृष्टेन तत्त्वतः // 97 धाता त्वं सर्वभूतानां त्वं प्रभुर्जगतो गुरुः / क्रियतां मद्वचः शिष्याः सेव्यतां हरिरीश्वरः / त्वय्यावेशितभारोऽहं धृतिं प्राप्स्याम्यथाञ्जसा // गीयतां वेदशब्दैश्च पूज्यतां च यथाविधि // 98 यदा च सुरकार्य ते अविषा भविष्यति / वैशंपायन उवाच। प्रादुर्भावं गमिष्यामि तदात्मज्ञानदेशिकः // 85 / इत्युक्तास्तु वयं तेन वेदव्यासेन धीमता / -2456 - Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 327. 99 ] शान्तिपर्व [ 12. 328. 14 सर्वे शिष्याः सुतश्चास्य शुकः परमधर्मवित् // 99 वैशंपायन उवाच। स चास्माकमुपाध्यायः सहास्माभिर्विशां पते / शृणु राजन्यथाचष्ट फल्गुनस्य हरिर्विभुः / चतुर्वेदोद्गताभिश्च ऋम्भिस्तमभितुष्टुवे // 100 प्रसन्नात्मात्मनो नाम्नां निरुक्तं गुणकर्मजम् // 3 एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। नामभिः कीर्तितैस्तस्य केशवस्य महात्मनः / एवं मेऽकथयद्राजन्पुरा द्वैपायनो गुरुः // 101 पृष्टवान्केशवं राजन्फल्गुनः परवीरहा // 4 यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चेदं परिकीर्तयेत् / अर्जुन उवाच / नमो भगवते कृत्वा समाहितमना नरः // 102 भगवन्भूतभव्येश सर्वभूतसगव्यय / भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपसमन्वितः / लोकधाम जगन्नाथ लोकानामभयप्रद // 5 आतुरो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् // यानि नामानि ते देव कीर्तितानि महर्षिभिः / कामकामी लभेत्कामं दीर्घमायुरवाप्नुयात् / वेदेषु सपुराणेषु यानि गुह्यानि कर्मभिः // 6 ब्राह्मणः सर्ववेदी स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् / तेषां निरुक्तं त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि केशव / वैश्यो विपुललाभः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् // न ह्यन्यो वर्तयेन्नाम्नां निरुक्तं त्वामृते प्रभो // 7 अपुत्रो लभते पुत्रं कन्या चैवेप्सितं पतिम् / लमगर्भा विमुच्येत गर्भिणी जनयेत्सुतम् / ___ श्रीभगवानुवाच / वन्ध्या प्रसवमाप्नोति पुत्रपौत्रसमृद्धिमत् // 105 ऋग्वेदे सयजुर्वेदे तथैवाथर्वसामसु / क्षेमेण गच्छेदध्वानमिदं यः पठते पथि / पुराणे सोपनिषदे तथैव ज्योतिषेऽर्जुन // 8 यो यं कामं कामयते स तमाप्नोति च ध्रुवम् // सांख्ये च योगशास्त्रे च आयुर्वेदे तथैव च / इदं महर्षेर्वचनं विनिश्चितं बहूनि मम नामानि कीर्तितानि महर्षिभिः // 9 __महात्मनः पुरुषवरस्य कीर्तनम् / गौणानि तत्र नामानि कर्मजानि च कानिचित् / समागमं चर्षिदिवौकसामिमं निरुक्तं कर्मजानां च शृणुष्व प्रयतोऽनघ / निशम्य भक्ताः सुसुखं लभन्ते // 107 कथ्यमानं मया तात त्वं हि मेऽधं स्मृतः पुरा // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नमोऽतियशसे तस्मै देहिनां परमात्मने / सप्तविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 327 // नारायणाय विश्वाय निर्गुणाय गुणात्मने // 11 . 328 यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रश्च क्रोधसंभवः / योऽसौ योनिर्हि सर्वस्य स्थावरस्य चरस्य च // 12 जनमेजय उवाच / अष्टादशगुणं यत्तत्सत्त्वं सत्त्ववतां वर / अस्तौषीधैरिमं व्यासः सशिष्यो मधुसूदनम् / प्रकृतिः सा परा मह्यं रोदसी योगधारिणी / नामभिर्विविधैरेषां निरुक्तं भगवन्मम // 1 // ऋता सत्यामराजय्या लोकानामात्मसंज्ञिता // 13 वक्तुमर्हसि शुश्रूषोः प्रजापतिपतेहरेः / तस्मात्सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः / श्रुत्वा भवेयं यत्पूतः शरच्चन्द्र इवामलः // 2 | ततो यज्ञश्च यष्टा च पुराणः पुरुषो विराट् / म. भा. 308 -2457 - Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 328. 14 ] महाभारते [12. 328. 40 अनिरुद्ध इति प्रोक्तो लोकानां प्रभवाप्ययः // 14 अर्चयन्ति सुरश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम् // 27 ब्राह्मे रात्रिक्षये प्राप्ते तस्य ह्यमिततेजसः / भविष्यतां वर्ततां च भूतानां चैव भारत / प्रसादात्प्रादुरभवत्पमं पद्मनिभेक्षण। सर्वेषामग्रणीर्विष्णुः सेव्यः पूज्यश्च नित्यशः // 28 तत्र ब्रह्मा समभवत्स तस्यैव प्रसादजः // 15 नमस्व हव्यदं विष्णुं तथा शरणदं नम / अह्नः क्षये ललाटाच्च सुतो देवस्य वै तथा / वरदं नमस्व कौन्तेय हव्यकव्यभुजं नम // 29 क्रोधाविष्टस्य संजज्ञे रुद्रः संहारकारकः // 16 चतुर्विधा मम जना भक्ता एवं हि ते श्रुतम् / एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोधजौ स्मृतौ। तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः। तदादेशितपन्थानौ सृष्टिसंहारकारको / अहमेव गतिस्तेषां निराशीःकर्मकारिणाम् // 30 निमित्तमात्रं तावत्र सर्वप्राणिवरप्रदौ // 17 ये च शिष्टानयो भक्ताः फलकामा हि ते मताः। कपर्दी जटिलो मुण्डः श्मशानगृहसेवकः / सर्वे च्यवनधर्माणः प्रतिबुद्धस्तु श्रेष्ठभाक् // 31. उप्रव्रतधरो रुद्रो योगी त्रिपुरदारुणः // 18 ब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः / दक्षक्रतुहरश्चैव भगनेत्रहरस्तथा / प्रबुद्धवर्याः सेवन्ते मामेवैष्यन्ति यत्परम् / नारायणात्मको ज्ञेयः पाण्डवेय युगे युगे // 19 भक्तं प्रति विशेषस्ते एष पार्थानुकीर्तितः // 32 तस्मिन्हि पूज्यमाने वै देवदेव महेश्वरे / त्वं चैवाहं च कौन्तेय नरनारायणौ स्मृतौ / संपूजितो भवेत्पार्थ देवो नारायणः प्रभुः // 20 भारावतरणार्थं हि प्रविष्टौ मानुषीं तनुम् // 33 अहमात्मा हि लोकानां विश्वानां पाण्डुनन्दन / जानाम्यध्यात्मयोगांश्च योऽहं यस्माञ्च भारत। तस्मादात्मानमेवाग्रे रुद्रं संपूजयाम्यहम् // 21 निवृत्तिलक्षणो धर्मस्तथाभ्युदयिकोऽपि च // 34 यद्यहं नार्चयेयं वै ईशानं वरदं शिवम् / नराणामयनं ख्यातमहमेकः सनातनः / आत्मानं नार्चयेत्कश्चिदिति मे भावितं मनः / आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः / मया प्रमाणं हि कृतं लोकः समनुवर्तते // 22 अयनं मम तत्पूर्वमतो नारायणो ह्यहम् // 35 प्रमाणानि हि पूज्यानि ततस्तं पूजयाम्यहम् / छादयामि जगद्विश्वं भूत्वा सूर्य इवांशुभिः / यस्तं वेत्ति स मां वेत्ति योऽनु तं स हि मामनु / सर्वभूताधिवासश्च वासुदेवस्ततो ह्यहम् // 36 रुद्रो नारायणश्चैव सत्त्वमेकं द्विधाकृतम् / गतिश्च सर्वभूतानां प्रजानां चापि भारत / लोके चरति कौन्तेय व्यक्तिस्थं सर्वकर्मसु // 24 व्याप्ता मे रोदसी पार्थ कान्तिश्चाभ्यधिका मम // न हि मे केनचिद्देयो वरः पाण्डवनन्दन / अधिभूतानि चान्तेऽहं तदिच्छंश्चास्मि भारत। इति संचिन्त्य मनसा पुराणं विश्वमीश्वरम् / क्रमणाच्चाप्यहं पार्थ विष्णुरित्यभिसंज्ञितः // 38 पुत्रार्थमाराधितवानात्मानमहमात्मना // 25 दमात्सिद्धिं परीप्सन्तो मां जनाः कामयन्ति हि। न हि विष्णुः प्रणमति कस्मैचिद्विबुधाय तु। दिवं चोवीं च मध्यं च तस्माद्दामोदरो ह्यहम् // 39 ऋत आत्मानमेवेति ततो रुद्रं भजाम्यहम् // 26 / पृश्निरित्युच्यते चान्नं वेदा आपोऽमृतं तथा / सब्रह्मकाः सरुद्राश्च सेन्द्रा देवाः सहर्षिभिः। / ममैतानि सदा गर्भे पृश्निगर्भस्ततो ह्यहम् // 40 -2458 - Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 328. 41] शान्तिपर्व [12. 329.5 ऋषयः प्राहुरेवं मां त्रितकूपाभिपातितम् / योनित्वाच्च परस्परं महयन्तो लोकान्धारयत इति पृश्निगर्भ त्रितं पाहीत्येकतद्वितपातितम् // 41 ततः स ब्रह्मणः पुत्र आद्यो ऋषिवरत्रितः। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि उत्ततारोदपानाद्वै पृश्निगर्भानुकीर्तनात् / / 42 भष्टाविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 28 // सूर्यस्य तपतो लोकानग्नेः सोमस्य चाप्युत / अंशवो ये प्रकाशन्ते मम ते केशसंज्ञिताः / अर्जुन उवाच। सर्वज्ञाः केशवं तस्मान्मामाहुर्द्विजसत्तमाः // 43 / अग्नीषोमौकथं पूर्वमेकयोनी प्रवर्तितौ / स्वपल्यामाहितो गर्भ उतथ्येन महात्मना / एष मे संशयो जातस्तं छिन्धि मधुसूदन // 1 उतथ्येऽन्तर्हिते चैव कदाचिद्देवमायया / श्रीभगवानुवाच / बृहस्पतिरथाविन्दत्तां पत्नीं तस्य भारत // 44 / हन्त ते वर्तयिष्यामि पुराणं पाण्डुनन्दन / ततो वै तमृषिश्रेष्ठं मैथुनोपगतं तथा / आत्मतेजोद्भवं पार्थ शृणुष्वैकमना मम // 2 उवाच गर्भः कौन्तेय पश्चभूतसमन्वितः // 45 ___ संप्रक्षालनकालेऽतिक्रान्ते चतुर्थे युगसहस्रान्ते पूर्वागतोऽहं वरद नाहस्यम्बां प्रबाधितुम्। / 1 / अव्यक्ते सर्वभूतप्रलये स्थावरजङ्गमे / 2 / एतद्वृहस्पतिः श्रुत्वा चुक्रोध च शशाप च // 46 | ज्योतिर्धरणिवायुरहितेऽन्धे तमसि जलैकार्णवे लोके मैथुनोपगतो यस्मात्त्वयाहं विनिवारितः। / 3 / तम इत्येवाभिभूतेऽसंज्ञकेऽद्वितीये प्रतिष्ठिते तस्मादन्धो जास्यसि त्वं मच्छापान्नात्र संशयः // / 4 / नैव रात्र्यां न दिवसे न सति नासति न स शापादृषिमुख्यस्य दीर्घ तम उपेयिवान् / व्यक्ते नाव्यक्ते व्यवस्थिते / 5 / एतस्यामवस्थायां स हि दीर्घतमा नाम नाम्ना मासीदृषिः पुरा // नारायणगुणाश्रयादक्षयादजरादनिन्द्रियादग्राह्यादसंवेदानवाप्य चतुरः साङ्गोपाङ्गासनातनान् / भवात्सत्यादहिंस्राल्ललामाद्विविधप्रवृत्तिविशेषात् / / अक्षयादजरामरादमूर्तितः सर्वव्यापिनः सर्वकर्तुः प्रयोजयामास तदा नाम गुह्यमिदं मम // 49 शाश्वतात्तमसः पुरुषः प्रादुर्भूतो हरिरव्ययः / 7 // 3 आनुपूर्येण विधिना केशवेति पुनः पुनः / स चक्षुष्मान्समभवद्गौतमश्चाभवत्पुनः // 50 निदर्शनमपि ह्यत्र भवति / 1 / नासीदहो न एवं हि वरदं नाम केशवेति ममार्जुन। रात्रिरासीत् / 2 / न सदासीन्नासदासीत् / / / देवानामथ सर्वेषामृषीणां च महात्मनाम् // 51 तम एव पुरस्तादभवद्विश्वरूपम् / 4 / सा विश्वस्य जननीत्येवमस्यार्थोऽनुभाष्यते / 5 // 4 अग्निः सोमेन संयुक्त एकयोनि मुखं कृतम् / / अग्नीषोमात्मकं तस्माज्जगत्कृत्स्नं चराचरम् // 52 ___तस्येदानीं तमःसंभवस्य पुरुषस्य पद्मयोने ब्रह्मणः प्रादुर्भाषे स पुरुषः प्रजाः सिसक्षमाणो अपि हि पुराणे भवति / 1 / एकयोन्यात्मका- | नेत्राभ्यामग्नीषोमौ ससर्ज / 1 / ततो भूतसर्गे वग्नीषोमौ / 2 / देवाश्चाग्निमुखा इति / 3 / एक- | प्रवृत्ते प्रजाक्रमवशाद्ब्रह्मक्षत्रमुपातिष्ठत् / 2 / यः - 2459 - Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 329. 5] महाभारते [ 12. 329. 16 सोमस्तद्ब्रह्म यद्ब्रह्म ते ब्राह्मणाः / 3 / योऽग्निस्तत्क्षत्रं | नास्ति सत्यात्परो धर्मो नास्ति मातृसमो गुरुः / क्षत्राद्ब्रह्म बलवत्तरम् / 4 / कस्मादिति लोकप्रत्यक्ष- - ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति प्रेत्य चेह च भूतये // 11 गुणमेतत्तद्यथा / 5 / ब्राह्मणेभ्यः परं भूतं नोत्पन्न- नैषामुक्षा वर्धते नोत वाहा पूर्वम् / 6 / दीप्यमानेऽग्नौ जुहोतीति कृत्वा ___न गर्गरो मथ्यते संप्रदाने / ब्रवीमि / 7 / भूतसर्गः कृतो ब्रह्मणा भूतानि च अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति प्रतिष्ठाप्य त्रैलोक्यं धार्यत इति / 8 // 5 येषां राष्ट्र ब्राह्मणा वृत्तिहीनाः // 12 मत्रवादोऽपि हि भवति / 1 / त्वमग्ने यज्ञानां वेदपुराणेतिहासप्रामाण्यान्नारायणमुखोद्गताः होता विश्वेषाम् / 2 / हितो देवेभिर्मानुषे जने सर्वात्मानः सर्वकर्तारः सर्वभावनाश्च ब्राह्मणाः।१। इति / 3 / निदर्शनं चात्र भवति / 4 / विश्वेषा- वाक्समकालं हि तस्य देवस्य वरप्रदस्य ब्राह्मणाः मग्ने यज्ञानां होतेति / 5 / हितो देवैर्मानुषैर्जगत प्रथमं प्रादुर्भूता ब्राह्मणेभ्यश्च शेषा वर्णाः प्रादुइति / 6 / अग्निहि यज्ञानां होता कर्ता / 7 / भूताः / 2 / इत्थं च सुरासुरविशिष्टा ब्राह्मणा यदा स चाग्निब्रह्म / 8 // 6 मया ब्रह्मभूतेन पुरा स्वयमेवोत्पादिताः सुरासुरन ह्यते मन्त्राद्धवनमस्ति / 1 / न विना पुरुषं महर्षयो भूतविशेषाः स्थापिता निगृहीताश्च / 3 तपः संभवति / 2 / हविर्मत्राणां संपूजा विद्यते // 13 देवमनुष्याणामनेन त्वं होतेति नियुक्तः / 3 / ये ____ अहल्याधर्षणनिमित्तं हि गौतमाद्धरिश्मश्रुताच मानुषा होत्राधिकारास्ते च / / ब्राह्मणस्य हि मिन्द्रः प्राप्तः / 1 / कौशिकनिमित्तं चेन्द्रो मुष्कयाजनं विधीयते क्षत्रवैश्ययोजिात्योः। 5 / तस्मा- वियोग मेषवृषणत्वं चावाप / 2 / अश्विनोहप्रतिब्राह्मणा ह्यग्निभूता यज्ञानुद्वहन्ति / 6 / यज्ञा षेधोद्यतवज्रस्य पुरंदरस्य च्यवनेन स्तम्भितो बाहुः देवांस्तर्पयन्ति देवाः पृथिवीं भावयन्ति / 7 // 7 / 3 / क्रतुवधप्राप्तमन्युना च दक्षेण भूयस्तपसा शतपथे हि ब्राह्मणं भवति / 1 / अग्नौ समिद्धे चात्मानं संयोज्य नेत्राकृतिरन्या ललाटे रुद्रस्योस जुहोति यो विद्वान्ब्राह्मणमुखे दानाहुतिं जुहोति त्पादिता / 4 // 14 / 2 / एवमप्यग्निभूता ब्राह्मणा विद्वांसोऽग्निं भाव- त्रिपुरवधार्थं दीक्षामभ्युपगतस्य रुद्रस्योशनसा यन्ति / 3 / अग्निर्विष्णुः सर्वभूतान्यनुप्रविश्य शिरसो जटा उत्कृत्य प्रयुक्ताः / 1 / ततः प्रादुप्राणान्धारयति / 4 / अपि चात्र सनत्कुमारगीताः भूता भुजगाः / 2 / तैरस्य भुजगैः पीड्यमानः श्लोका भवन्ति / 5 // 8 कण्ठो नीलतामुपनीतः / 3 / पूर्वे च मन्वन्तरे विश्वं ब्रह्मासृजत्पूर्व सर्वादिर्निरवस्करम् / स्वायंभुवे नारायणहस्तबन्धग्रहणान्नीलकण्ठमेव वा ब्रह्मघोषैर्दिवं तिष्ठन्त्यमरा ब्रह्मयोनयः // 9 / 4 // 15 ब्राह्मणानां मतिर्वाक्यं कर्म श्रद्धा तपांसि च / ___ अमृतोत्पादने पुरश्चरणतामुपगतस्याङ्गिरसो बृहधारयन्ति महीं द्यां च शैत्याद्वार्यमृतं यथा // 10 / स्पतेरुपस्पृशतो न प्रसादं गतवत्यः किलापः / / -2460 - Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 329. 18] शान्तिपर्व [ 12. 329.27 अथ बृहस्पतिरपां चुक्रोध / 2 / यस्मान्ममोप- गतमिति / 4 // 21 स्पृशतः कलुषीभूता न प्रसादमुपगतास्तस्मादद्य- तास्त्वाष्ट्र उवाच / 1 / क गमिष्यथ आस्यतां प्रभृति झषमकरमत्स्यकच्छपजन्तुसंकीर्णाः कलुषी तावन्मया सह श्रेयो भविष्यतीति / 2 / तास्तमभवतेति / 3 / तदाप्रभृत्यापो यादोभिः संकीर्णाः ब्रुवन् / 3 / वयं देवस्त्रियोऽप्सरस इन्द्रं वरदं पुरा संवृत्ताः / 4 // 16 प्रभविष्णुं वृणीमह इति / 4 // 22 विश्वरूपो वै त्वाष्ट्रः पुरोहितो देवानामासीत्स्व- ___ अथ ता विश्वरूपोऽब्रवीदद्यैव सेन्द्रा देवा न स्रीयोऽसुराणाम् / 1 / स प्रत्यक्षं देवेभ्यो भागम- भविष्यन्तीति / 1 / ततो मत्राञ्जजाप / 2 / तैददत्परोक्षमसुरेभ्यः / 2 // 17 . मत्रैः प्रावर्धत त्रिशिराः / 3 / एकेनास्येन सर्वअथ हिरण्यकशिपुं पुरस्कृत्य विश्वरूपमातरं स्व- लोकेषु द्विजैः क्रियावद्भिर्यज्ञेषु सुहृतं सोमं पपावेसारमसुरा वरमयाचन्त / 1 / हे स्वसरयं ते पुत्र- केनाप एकेन सेन्द्रान्देवान् / 4 / अथेन्द्रस्तं विस्त्वाष्ट्रो विश्वरूपत्रिशिरा देवानां पुरोहितः प्रत्यक्षं वर्धमानं सोमपानाप्यायितसर्वगात्रं दृष्ट्वा चिन्तादेवेभ्यो भागमददत्परोक्षमस्माकम् / 2 / ततो मापेदे / 5 // 23 देवा वर्धन्ते वयं क्षीयामः / 3 / तदेनं त्वं वार- देवाश्च ते सहेन्द्रेण ब्रह्माणमभिजग्मुरूचुश्च / 1 / यितुमर्हसि तथा यथास्मान्भजेदिति / 4 // 18 / विश्वरूपेण सर्वयज्ञेषु सुहुतः सोमः पीयते / 2 / अथ विश्वरूपं नन्दनवनमुपगतं मातोवाच / 1 / / वयमभागाः संवृताः / 3 / असुरपक्षो वर्धते वयं पुत्र किं परपक्षवर्धनस्त्वं मातुलपक्षं नाशयसि / 2 / क्षीयामः / 4 / तदर्हसि नो विधातुं श्रेयो यदननाई स्येवं कर्तुमिति / 3 / स विश्वरूपो मातुर्वाक्य- न्तरमिति / 5 // 24 मनतिक्रमणीयमिति मत्वा संपूज्य हिरण्यकशिपु- ___ तान्ब्रह्मोवाच ऋषिर्भार्गवस्तपस्तप्यते दधीचः मगात् / 4 // 19 / 1 / स याच्यतां वरं यथा कलेवरं जह्यात् / / हैरण्यगर्भाच्च वसिष्ठाद्धिरण्यकशिपुः शापं प्राप्त- तस्यास्थिभिर्वनं क्रियतामिति / 3 // 25 वान् / 1 / यस्मात्त्वयान्यो वृतो होता तस्माद- देवास्तत्रागच्छन्यत्र दधीचो भगवानृषिस्तपस्तेपे समाप्तयज्ञस्त्वमपूर्वात्सत्त्वजाताद्वधं प्राप्स्यसीति / 1 / सेन्द्रा देवास्तमभिगम्योचुर्भगवंस्तपसः कुशल।२। तच्छापदानाद्धिरण्यकशिपुः प्राप्तवान्वधम् मविघ्नं चेति / 2 / तान्दधीच उवाच स्वागतं / 3 // 20 भवद्भयः किं क्रियताम् / 3 / यद्वक्ष्यथ तत्करि· विश्वरूपो मातृपक्षवर्धनोऽत्यर्थं तपस्यभवत् / 1 / प्यामीति / 4 / ते तमब्रुव-शरीरपरित्यागं लोकतस्य व्रतभङ्गार्थमिन्द्रो बह्वीः श्रीमत्योऽप्सरसो नि- हितार्थं भगवान्कर्तुमर्हतीति / 5 / अथ दधीचस्तयुयोज / 2 / ताश्च दृष्ट्वा मनः क्षुभितं तस्याभव- थैवाविमनाः सुखदुःखसमो महायोगी आत्मानं तासु चाप्सरःसु नचिरादेव सक्तोऽभवत् / 3 / समाधाय शरीरपरित्यागं चकार / 6 // 26 सक्तं चैनं ज्ञात्वाप्सरस ऊचुर्गच्छामहे वयं यथा- ] तस्य परमात्मन्यवसृते तान्यस्थीनि धाता संगृह्य -2461 Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 329. 27 ] महाभारते [ 12. 329. 36 वज्रमकरोत् / / तेन वप्रेणाभेद्येनाप्रधृष्येण अस्ति मम किंचिद्रतमपर्यवसितम् / 5 / तस्यावभृये ब्रह्मास्थिसंभूतेन विष्णुप्रविष्टेनेन्द्रो विश्वरूपं जघान त्वामुपगमिष्यामि कैश्चिदेवाहोभिरिति / / / स / 2 / शिरसां चास्य छेदनमकरोत् / 3 / तस्माद- शच्यैवमभिहितो नहुषो जगाम / 7 // 32 नन्तरं विश्वरूपगात्रमथनसंभवं त्वष्ट्रोत्पादितमेवारिं ____ अथ शची दुःखशोकार्ता भर्तृदर्शनलालसा वृत्रमिन्द्रो जघान / 4 // 27 नहुषभयगृहीता बृहस्पतिमुपागच्छत् / 1 / स च तस्यां द्वैधीभूतायां ब्रह्मवध्यायां भयादिन्द्रो तामभिगतां दृष्ट्वैव ध्यानं प्रविश्य भर्तृकार्यतत्परा देवराज्यं परित्यज्य अप्सु संभवां शीतला मानस- ज्ञात्वा बृहस्पतिरुवाच / 2 / अनेनैव व्रतेन तपसा सरोगतां नलिनी प्रपेदे / 1 / तत्र चैश्वर्ययोगा- | चान्विता देवीं वरदामुपश्रुतिमाह्वय / 3 / सा दणुमात्रो भूत्वा बिसग्रन्थि प्रविवेश / 2 // 28 / / तवेन्द्रं दर्शयिष्यतीति / 4 // 33 अथ ब्रह्मवध्याभयप्रनष्टे त्रैलोक्यनाथे शचीपतौ साथ महानियममास्थिता देवीं वरदामुपश्रुति जगदनीश्वरं बभूव / 1 / देवारजस्तमश्चाविवेश मन्त्रैराह्वयत् / 1 / सोपश्रुतिः शचीसमीपमगात् / 2 / मत्रा न प्रावर्तन्त / 3 / महर्षीणां रक्षांसि / 2 / उवाच चैनामियमस्मि त्वयोपहतोपस्थिता प्रादुरभवन् / 4 / ब्रह्म चोत्सादनं जगाम / 5 / / 3 / किं ते प्रियं करवाणीति / 4 / तां मूर्धा अनिन्द्राश्चाबला लोकाः सुप्रधृष्या बभूवुः / 6 // 29 प्रणम्योवाच शची भगवत्यर्हसि मे भर्तारं दर्श___ अथ देवा ऋषयश्चायुषः पुत्रं नहुषं नाम देव यितुं त्वं सत्या मता चेति / 5 / सैनां मानस राजत्वेऽभिषिषिचुः / 1 / नहुषः पञ्चभिः शतै सरोऽनयत् / 6 / तत्रेन्द्रं बिसप्रन्थिगतमदर्शयत् ज्योतिषां ललाटे ज्वलद्भिः सर्वतेजोहरैत्रिविष्टपं / 7 // 34 पालयांबभूव / 2 / अथ लोकाः प्रकृतिमापेदिरे ____ तामिन्द्रः पत्नी कृशां ग्लानां च दृष्ट्वा चिन्तयांस्वस्थाश्च बभूवुः / 3 // 30 बभूव / 1 / अहो मम महद्दुःखमिदमद्योपगतम् अथोवाच नहुषः / 1 / सर्व मां शक्रोपभुक्त- / 2 / नष्टं हि मामियमन्विष्योपागमदुःखातेति मुपस्थितमृते शचीमिति / 2 / स एवमुक्त्वा / 3 / तामिन्द्र उवाच कथं वर्तयसीति / 4 / सा शचीसमीपमगमदुवाच चैनाम् / 3 / सुभगेऽह- तमुवाच / 5 / नहुषो मामाह्वयति / 6 / कालमिन्द्रो देवानां भजस्व मामिति / 4 / तं शची श्वास्य मया कृत इति / 7 // 35 प्रत्युवाच / 5 / प्रकृत्या त्वं धर्मवत्सलः सोमवंशो तामिन्द्र उवाच / 1 / गच्छ / 2 / नहुषस्त्वया द्भवश्व / 6 / नार्हसि परपत्नीधर्षणं कर्तुमिति वाच्योऽपूर्वेण मामृषियुक्तेन यानेन त्वमधिरूढ / 7 // 31 उद्वहस्व / 3 / इन्द्रस्य हि महान्ति वाहनानि तामथोवाच नहुषः / / / ऐन्द्रं पदमध्यास्यते मनसः प्रियाण्यधिरूढानि मया / 4 / त्वमन्येनोमया / 2 / अहमिन्द्रस्य राज्यरत्नहरो नात्राधर्मः पयातुमर्हसीति / 5 / सैवमुक्ता हृष्टा जगाम।। कश्चित्त्वमिन्द्रभुक्तेति / 3 / सा तमुवाच / 4 / / इन्द्रोऽपि बिसग्रन्थिमेवाविवेश भूयः / 7 // 36 -2462 - Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 329. 37] शान्तिपर्व - [12. 329.46 अथेन्द्राणीमभ्यागतां दृष्ट्वोवाच नहुषः पूर्णः स | स्पृशंस्त्रीन्क्रमान्क्रमता विष्णुनाभ्यासादितः / 1 / काल इति / 1 / तं शच्यब्रवीच्छक्रेण यथोक्तम् स भरद्वाजेन ससलिलेन पाणिनोरसि ताडितः स।२। स महर्षियुक्तं वाहनमधिरूढः शचीसमीप- लक्षणोरस्कः संवृत्तः / 2 // 42 मुपागच्छत् / 3 // 37 भृगुणा महर्षिणा शप्तोऽग्निः सर्वभक्षत्वमुपनीतः अथ मैत्रावरुणिः कुम्भयोनिरगस्त्यो महर्षीन्वि / 1 // 43 क्रियमाणांस्तान्नहुषेणापश्यत् / 1 / पद्भयां च तेना अदितिर्वै देवानामन्नमपचदेतद्भुक्त्वासुरान्हनिस्पृश्यत / 2 / ततः स नहुषमब्रवीदकार्यप्रवृत्त पाप ध्यन्तीति / 1 / तत्र बुधो व्रतचर्यासमाप्तावागच्छत् पतस्व महीम् / 3 / सो भव यावद्भूमिर्गिरयश्च / 2 / अदितिं चावोचद्भिक्षा देहीति / 3 / तत्र तिष्ठेयुस्तावदिति / 4 / स महर्षिवाक्यसमकालमेव देवैः पूर्वमेतत्प्राश्यं नान्येनेत्यदितिर्भिक्षां नादात् तस्माद्यानादवापतत् / 5 // 38 / 4 / अथ भिक्षाप्रत्याख्यानरुषितेन बुधेन ब्रह्मअथानिन्द्रं पुनस्त्रैलोक्यमभवत् / 1 / ततो देवा भूतेन विवस्वतो द्वितीये जन्मन्यण्डसंज्ञितस्याण्डं ऋषयश्च भगवन्तं विष्णुं शरणमिन्द्रार्थेऽभिजग्मुः मारितमदित्याः / 5 / स मार्तण्डो विवस्वानभव। 2 / ऊचुश्चैनं भगवन्निद्रं ब्रह्मवध्याभिभूतं त्रातु च्छ्राद्धदेवः / 6 // 44 महसीति / 3 / ततः स वरदस्ताननवीदश्वमेधं यज्ञं __ दक्षस्य वै दुहितरः षष्टिरासन् / 1 / ताभ्यः वैष्णवं शक्रोऽभियजतु / 4 / ततः स्वं स्थानं कश्यपाय त्रयोदश प्रादाहश धर्माय दश मनवे प्राप्स्यतीति / 5 // 39 सप्तविंशतिमिन्दवे / 2 / तासु तुल्यासु नक्षत्राख्यां ततो देवा ऋषयश्चेन्द्रं नापश्यन्यदा तदा शची गतासु सोमो रोहिण्यामभ्यधिकां प्रीतिमकरोत् मूचुर्गच्छ सुभगे इन्द्रमानयस्वेति / 1 / सा पुन / 3 / ततस्ताः शेषाः पल्य ईर्ष्यावत्यः पितुः स्तत्सरः समभ्यगच्छत् / 2 / इन्द्रश्च तस्मात्सरसः समीपं गत्वेममर्थं शशंसुः / 4 / भगवन्नस्मासु समुत्थाय बृहस्पतिमभिजगाम / 3 / बृहस्पतिश्चा-. तुल्यप्रभावासु सोमो रोहिणीमधिकं भजतीति / 5 / श्वमेधं महाक्रतुं शक्रायाहरत् / 4 / ततः कृष्ण सोऽब्रवीद्यक्ष्मैनमावेक्ष्यतीति / 6 // 45 सारङ्गं मेध्यमश्वमुत्सृज्य वाहनं तमेव कृत्वा इन्द्रं दक्षशापात्सोमं राजानं यक्ष्माविवेश / 1 / स मरुत्पतिं बृहस्पतिः स्वस्थानं प्रापयामास / 5 // 40 यक्ष्मणाविष्टो दक्षमगमत् / 2 / दक्षश्चैनमब्रवीन ततः स देवराड्देवैर्ऋषिभिः स्तूयमाननिविष्ट- समं वर्तस इति / 3 / तत्रर्षयः सोममब्रुवन्क्षीयसे पस्थो निष्कल्मषो बभूव / 1 / ब्रह्मवध्यां चतुर्यु यक्ष्मणा / 4 / पश्चिमस्यां दिशि समुद्रे हिरण्यस्थानेषु वनिताग्निवनस्पतिगोषु व्यभजत् / 2 / एव- सरस्तीर्थम् / 5 / तत्र गत्वात्मानमभिषेचयस्वेति मिन्द्रो ब्रह्मतेजःप्रभावोपबृंहितः शत्रुवधं कृत्वा स्व / 6 / अथागच्छत्सोमस्तत्र हिरण्यसरस्तीर्थम् / 7 / स्थान प्रापितः / 3 // 41 | गत्वा चात्मनः स्नपनमकरोत् / 8 / स्नात्वा चाआकाशगङ्गागतश्च पुरा भरद्वाजो महर्षिरुपा- | त्मानं पाप्मनो मोक्षयामास / 9 / तत्र चावभा -2463 - Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 329. 46] महाभारते [ 12. 330. 10 सितस्तीर्थे यदा सोमस्तदाप्रभृति तीर्थं तत्प्रभास- मृषिवचनम् / 5 // 49 मिति नाम्ना ख्यातं बभूव / 10 / तच्छापादद्यापि ___ तदेवंविधं माहात्म्यं ब्राह्मणानाम् / 1 / क्षत्रमपि क्षीयते सोमोऽमावास्यान्तरस्थः / 11 / पौर्णमासी शाश्वतीमव्ययां पृथिवीं पत्नीमभिगम्य बुभुजे।। मात्रेऽधिष्ठितो मेघलेखाप्रतिच्छन्नं वपुर्दर्शयति तदेतद्ब्रह्माग्नीषोमीयम् / 3 / तेन जगद्धार्यते। 4 / 12 / मेघसदृशं वर्णमगमत्तदस्य शशलक्ष्म // 50 विमलमभवत् / 13 // 46 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स्थूलशिरा महर्षिर्मेरोः प्रागुत्तरे दिग्भागे तप- एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 329 // स्तेपे / 1 / तस्य तपस्तप्यमानस्य सर्वगन्धवहः 330 शुचिर्वायुर्विवायमानः शरीरमस्पृशत् / 2 / स तपसा श्रीभगवानुवाच / .. तापितशरीरः कृशो वायुनोपवीज्यमानो हृदयपरितोषमगमत् / 3 / तत्र तस्यानिलव्यजनकृतपरि सूर्याचन्द्रमसौ शश्वत्केशैर्मे अंशुसंज्ञितैः / बोधयंस्तापयंश्चैव जगदुत्तिष्ठतः पृथक् // 1 तोषस्य सद्यो वनस्पतयः पुष्पशोभा न दर्शितवन्त बोधनात्तापनाच्चैव जगतो हर्षणं भवेत् / .. इति स एताशशाप न सर्वकालं पुष्पवन्तो भवि अग्नीषोमकृतैरेभिः कर्मभिः पाण्डुनन्दन / व्यथेति / 4 // 47 हृषीकेशोऽहमीशानो वरदो लोकभावनः // 2 नारायणो लोकहितार्थं वडवामुखो नाम महर्षिः इडोपहूतयोगेन हरे भागं क्रतुष्वहम् / पुराभवत् / 1 / तस्य मेरौ तपस्तप्यतः समुद्र वर्णश्च मे हरिश्रेष्ठस्तस्माद्धरिहं स्मृतः // 3 आहूतो नागतः / 2 / तेनामर्षितेनात्मगात्रोष्मणा धाम सारो हि लोकानामृतं चैव विचारितम् / समुद्रः स्तिमितजलः कृतः / 3 / स्वेदप्रस्यन्दन- ऋतधामा ततो विप्रैः सत्यश्चाहं प्रकीर्तितः // 4 सदृशश्चास्य लवणभावो जनितः / 4 / उक्तश्चापेयो नष्टां च धरणी पूर्वमविन्दं वै गुहागताम् / भविष्यसि / 5 / एतच्च ते तोयं वडवामुखसंज्ञितेन गोविन्द इति मां देवा वाग्भिः समभितुष्टुवुः // 5 पीयमानं मधुरं भविष्यति / 6 / तदेतदद्यापि शिपिविष्टेति चाख्यायां हीनरोमा च यो भवेत् / वडवामुखसंज्ञितेनानुवर्तिना तोयं सामुद्रं पीयते तेनाविष्टं हि यत्किचिच्छिपिविष्टं हि तत्स्मृतम् // 6 / 7 // 48 यास्को मामृषिरव्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान् / हिमवतो गिरेर्दुहितरमुमां रुद्रश्चकमे / / शिपिविष्ट इति ह्यस्माद्गुह्यनामधरो ह्यहम् // 7 भृगुरपि च महर्षिर्हिमवन्तमागम्याब्रवीत्कन्यामुमां स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्को ऋषिरुदारधीः / मे देहीति / 2 / तमब्रवीद्धिमवानभिलषितो वरो / मत्प्रसादादधो नष्टं निरुक्तमभिजग्मिवान् // 8 रुद्र इति / 3 / तमब्रवीगुर्यस्मात्त्वयाहं कन्या- न हि जातो न जायेऽहं न जनिष्ये कदाचन / वरणकृतभावः प्रत्याख्यातस्तस्मान्न रत्नानां भवा- क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां तस्मादहमजः स्मृतः // 9 भाजनं भविष्यतीति / 4 / अद्यप्रभृत्येतदवस्थित- नोक्तपूर्वं मया क्षुद्रमश्लीलं वा कदाचन / -2464 - Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 330. 10] शान्तिपर्व [12. 330. 38 ऋता ब्रह्मसुता सा मे सत्या देवी सरस्वती // 10 कदाचिद्विदन्ते सुराश्चासुराश्च / . सबसचैव कौन्तेय मय्यावेशितमात्मनि / / अनाद्यो ह्यमध्यस्तथा चाप्यनन्तः पौष्करे ब्रह्मसदने सत्यं मामृषयो विदुः // 11 प्रगीतोऽहमीशो विभुलॊकसाक्षी // 25 सत्वान्न घ्युतपूर्वोऽहं सत्त्वं वै विद्धि मत्कृतम् / शुचीनि श्रवणीयानि शृणोमीह धनंजय / जन्मनीहाभवत्सत्त्वं पौर्विकं मे धनंजय // 12 / न च पापानि गृहामि ततोऽहं वै शुचिश्रवाः // 26 विराशी:कर्मसंयुक्तं सात्वतं मां प्रकल्पय / एकशृङ्गः पुरा भूत्वा वराहो दिव्यदर्शनः / सात्वतज्ञानदृष्टोऽहं सात्वतः सात्वतां पतिः॥ 13 इमामुद्धृतवान्भूमिमेकशृङ्गस्ततो यहम् // 27 कृषामि मेदिनी पार्थ भूत्वा कार्णायसो महान् / तथैवासं त्रिककुदो वाराह रूपमास्थितः / कृष्णो वर्णश्च मे यस्मात्तस्मात्कृष्णोऽहमर्जुन॥१४ त्रिककुत्तेन विख्यातः शरीरस्य तु मापनात् // 28 मया संश्लेषिता भूमिरद्भिर्योम च वायुना। पिरिन इति यः प्रोक्तः कपिलवानचिन्तकैः। वायुश्च तेजमा साधं वैकुण्ठत्वं ततो मम // 15 म प्रजापतिरेवाहं चेतनात्सर्वलोककृत् // 29 निर्वाणं परमं सौख्यं धर्मोऽसौ पर उच्यते। विद्यासहायवन्तं मामादित्यस्थं सनातनम् / तस्मान्न व्युतपूर्वोऽहमच्युतस्तेन कर्मणा // 16 कपिलं प्राहुराचार्याः सांख्या निश्चितनिश्चयाः // पृथिवीनभसी चोभे विभुते विश्वलौकिके। हिरण्यगर्भो द्युतिमानेष यश्छन्दसि स्तुतः / तयोः संधारणार्थ हि मामधोक्षजमञ्जसा // 17 योगैः संपूज्यते नित्यं स एवाहं विभुः स्मृतः॥३१ निरुक्तं वेदविदुषो ये च शब्दार्थचिन्तकाः / एकविंशतिशाखं च ऋग्वेदं मां प्रचक्षते / से मां गायन्ति प्राग्वंशे अधोक्षज इति स्थितिः // सहस्रशाख यत्साम ये वै वेदविदो जनाः / शब्द एकमतैरेष व्याहृतः परमर्षिभिः / गायन्त्यारण्यके विप्रा मद्भक्तास्तेऽपि दुर्लभाः॥३२ नान्यो अधोक्षजो लोके ऋते नारायणं प्रभुम् // 19 षट्पञ्चाशतमष्टौ च सप्तत्रिंशतमित्युत / घृतं ममार्चिपो लोके जन्तूनां प्राणधारणम् / यस्मिशाखा यजुर्वेदे सोऽहमाध्वर्यवे स्मृतः // 33 भूतार्चिरहमव्यप्रैर्वेदः परिकीर्तितः // 20 पवकल्पमथर्वाणं कृत्यामिः परिबृंहितम् / प्रयो हि धातवः ख्याताः कर्मजा इति घ स्मृताः / कल्पयन्ति हि मां विप्रा अथर्वाणविदस्तथा // 34 पित्तं श्लेष्मा च वायुश्च एष संघात उच्यते // 21 शाखाभेदाश्च ये केचिद्याश्च शाखासु गीतयः / स्तैश्च धार्यते जन्तुरेतैः क्षीणैश्च श्रीयते / स्वरवर्णसमुच्चाराः सर्वास्तान्विद्धि मत्कृतान् // 35 आयुर्वेदविदस्तस्मात्रिधातुं मां प्रचक्षते // 22 बत्तद्धयशिरः पार्थ समुदेति वरप्रदम् / मुषो हि भगवान्धर्मः ख्यातो लोकेषु भारत / सोऽहमेवोत्तरे भागे क्रमाक्षरविभागवित् // 36 नैघण्टुकपदाख्यातं विद्धि मां वृषमुत्तमम् // 23 रामादेशितमार्गेण मत्प्रसादान्महात्मना / कपिर्वराहः श्रेष्ठश्च धर्मश्च वृष उच्यते / पाश्चालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद्भूतात्सनातनात् / तस्मादृषाकपि प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः / / 24 बाभ्रव्यगोत्रः स बभौ प्रथमः क्रमपारगः // 37 न चादिं न मध्यं तथा नैव चान्तं नारायणाद्वरं लब्ध्वा प्राप्य योगमनुत्तमम् / म. भा. 309 -2465 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 830. 38] महाभारते [12. 830. 68 क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः // 38 श्रीभगवानुवाच / कण्डरीकोऽथ राजा च ब्रह्मदत्तः प्रतापवान् / तयोः संलमयोयुद्धे रुद्रनारायणात्मनोः / जातीमरणजं दुःखं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः।। उद्विग्नाः सहसा कृत्स्ना लोकाः सर्वेऽभवंस्तदा // 51 सप्तजातिषु मुख्यत्वाद्योगानां संपदं गतः // 39 नागृह्णात्पावकः शुभ्रं मखेषु सुहुतं हविः / पुराहमात्मजः पार्थः प्रथितः कारणान्तरे। वेदा न प्रतिभान्ति स्म ऋषीणां भावितात्मनाम् // धर्मस्य कुरुशार्दूल ततोऽहं धर्मजः स्मृतः // 40 देवारजस्तमश्चैव समाविविशतुस्तदा। नरनारायणौ पूर्व तपस्तेपतुरव्ययम् / वसुधा संचकम्पेऽथ नभश्च विपफाल ह // 53 धर्मयानं समारूढौ पर्वते गन्धमादने // 41 निष्प्रभाणि च तेजांसि ब्रह्मा चैवासनाच्युतः / तत्कालसमयं चैव दक्षयज्ञो बभूव ह / अगाच्छोषं समुद्रश्च हिमवांश्च व्यशीर्यत // 54 न चैवाकल्पयद्भागं दक्षो रुद्रस्य भारत // 42 तस्मिन्नेवं समुत्पन्ने निमित्त पाण्डुनन्दन। .. ततो दधीचिवचनाद्दक्षयज्ञमपाहरत् / ब्रह्मा वृतो देवगणैर्ऋषिभिश्च महात्मभिः / ससर्ज शूलं क्रोधेन प्रज्वलन्तं मुहुर्मुहुः // 43 आजगामाशु तं देशं यत्र युद्धमवर्तत // 55 तच्छूलं भस्मसात्कृत्वा दक्षयज्ञं सविस्तरम् / साञ्जलिप्रग्रहो भूत्वा चतुर्वक्त्रो निरुक्तगः / .. आवयोः सहसागच्छद्वदर्याश्रममन्तिकात् / उवाच वचनं रुद्रं लोकानामस्तु वै शिवम् / वेगेन महता पार्थ पतन्नारायणोरसि // 44 न्यस्यायुधानि विश्वेश जगतो हितकाम्यया // 56 ततः स्वतेजसाविष्टाः केशा नारायणस्य ह / यदक्षरमथाव्यक्तमीशं लोकस्य भावनम् / बभूवुर्मुञ्जवर्णास्तु ततोऽहं मुञ्जकेशवान् // 45 कूटस्थं कर्तृनिद्वंद्वमकर्तेति च यं विदुः / / 57 तच्च शूलं विनिर्धूतं हुंकारेण महात्मना / व्यक्तिभावगतस्यास्य एका मूर्तिरियं शिवा। जगाम शंकरकरं नारायणसमाहतम् // 46 नरो नारायणश्चैव जाती धर्मकुलोद्वहौ // 58 अथ रुद्र उपाधावत्तावृषी तपसान्वितौ / तपसा महता युक्तौ देवश्रेष्ठौ महाव्रतौ / तत एनं समुद्भूतं कण्ठे जग्राह पाणिना / अहं प्रसादजस्तस्य कस्मिंश्चित्कारणान्तरे। नारायणः स विश्वात्मा तेनास्य शितिकण्ठता // 47 त्वं चैव क्रोधजस्तात पूर्वसर्गे सनातनः // 59 अथ रुद्रविघातार्थमिषीकां जगृहे नरः। मया च साधं वरदं विबुधैश्च महर्षिभिः / मत्रैश्च संयुयोजाशु सोऽभवत्परशुर्महान् // 48 प्रसादयाशु लोकानां शान्तिर्भवतु माचिरम् // 60 क्षिप्तश्च सहसा रुद्रे खण्डनं प्राप्तवास्तदा।। ब्रह्मणा त्वेवमुक्तस्तु रुद्रः क्रोधाग्निमुत्सृजन् / ततोऽहं खण्डपरशुः स्मृतः परशुखण्डनात् // 49 प्रसादयामास ततो देवं नारायणं प्रभुम् / शरणं च जगामाद्यं वरेण्यं वरदं हरिम् // 61 अर्जुन उवाच / ततोऽथ वरदो देवो जितक्रोधो जितेन्द्रियः / अस्मिन्युद्धे तु वार्ष्णेय त्रैलोक्यमथने तदा। प्रीतिमानभवत्तत्र रुद्रेण सह संगतः // 62 जयं कः प्राप्तवास्तत्र शंसैतन्मे जनार्दन // 50 / ऋषिभिर्ब्रह्मणा चैव विबुधैश्च सुपूजितः -2466 - Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 330. 63] शान्तिपर्व [12. 331. 17 उवाच देवमीशानमीशः स जगतो हरिः / / 63 समुद्धृतमिदं ब्रह्मन्कथामृतमनुत्तमम् / यस्त्वां वेत्ति स मां वेत्ति यस्त्वामनु स मामनु। / तपोनिधे त्वयोक्तं हि नारायणकथाश्रयम् // 4 नावयोरन्तरं किंचिन्मा ते भूद्बुद्धिरन्यथा // 64 . स हीशो भगवान्देवः सर्वभूतात्मभावनः / अद्य प्रभृति श्रीवत्सः शूलाङ्कोऽयं भवत्वयम् / अहो नारायणं तेजो दुर्दर्श द्विजसत्तम // 5 मम पाण्यङ्कितश्चापि श्रीकण्ठस्त्वं भविष्यसि // 65 | यत्राविशन्ति कल्पान्ते सर्वे ब्रह्मादयः सुराः / एवं लक्षणमुत्पाद्य परस्परकृतं तदा / ऋषयश्च सगन्धर्वा यच्च किंचिञ्चराचरम् / सख्यं चैवातुलं कृत्वा रुद्रेण सहितावृषी। न ततोऽस्ति परं मन्ये पावनं दिवि चेह च // 6 तपस्तेपतुरव्यग्रौ विसृज्य त्रिदिवौकसः॥ 66 / / सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् / एष ते कथितः पार्थ नारायणजयो मृधे / न तथा फलदं चापि नारायणकथा यथा // 7 नामानि चैव गुह्यानि निरुक्तानि च भारत / सर्वथा पाविताः स्मेह श्रुत्वेमामादितः कथाम् / ऋषिभिः कथितानीह यानि संकीर्तितानि ते // 67 हरेर्विश्वेश्वरस्येह सर्वपापप्रणाशनीम् // 8 एवं बहुविधै रूपैश्वरामीह वसुंधराम् / न चित्रं कृतवांस्तत्र यदार्यो मे धनंजयः / ब्रह्मलोकं च कौन्तेय गोलोकं च सनातनम्।। वासुदेवसहायो यः प्राप्तवाञ्जयमुत्तमम् // 9 मया त्वं रक्षितो युद्धे महान्तं प्राप्तवाञ्जयम् // 68 न चास्य किंचिदप्राप्यं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु / यस्तु ते सोऽप्रतो याति युद्धे संप्रत्युपस्थिते / त्रैलोक्यनाथो विष्णुः स यस्यासीत्साह्यकृत्सखा / तं विद्धि रुद्रं कौन्तेय देवदेवं कपर्दिनम् // 69 धन्याश्च सर्व एवासन्ब्रह्मस्ते मम पूर्वकाः / कालः स एव कथितः क्रोधजेति मया तव / हिताय श्रेयसे चैव येषामासीजनार्दनः // 11 निहतांस्तेन वै पूर्व हतवानसि वै रिपून // 70 तपसापि न दृश्यो हि भगवाल्लोकपूजितः / अप्रमेयप्रभावं तं देवदेवमुमापतिम् / यं दृष्टवन्तस्ते साक्षाच्छ्रीवत्साकविभूषणम् // 12 नमस्व देवं प्रयतो विश्वेशं हरमव्ययम् // 71 तेभ्यो धन्यतरश्चैव नारदः परमेष्ठिजः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न चाल्पतेजसमृर्षि वेद्मि नारदमव्ययम् / विंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 330 // श्वेतद्वीपं समासाद्य येन दृष्टः स्वयं हरिः // 13 331 देवप्रसादानुगतं व्यक्तं तत्तस्य दर्शनम् / जनमेजय उवाच / यहृष्टवांस्तदा देवमनिरुद्धतनौ स्थितम् // 14 ब्रह्मन्सुमहदाख्यानं भवता परिकीर्तितम् / बदरीमाश्रमं यत्तु नारदः प्राद्रवत्पुनः / यच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे विस्मयं परमं गताः // 1 नरनारायणौ द्रष्टुं किं नु तत्कारणं मुने // 15 इदं शतसहस्राद्धि भारताख्यानविस्तरात् / श्वेतद्वीपान्निवृत्तश्च नारदः परमेष्ठिजः / आमथ्य मतिमन्थेन ज्ञानोदधिमनुत्तमम् // 2 बदरीमाश्रमं प्राप्य समागम्य च तावृषी // 16 नवनीतं यथा दध्नो मलयाच्चन्दनं यथा / कियन्तं कालमवसत्काः कथाः पृष्टवांश्च सः। आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा // 3 | श्वेतद्वीपादुपावृत्ते तस्मिन्वा सुमहात्मनि // 17 -2467 - Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 331. 18] महाभारते [ 12. 381." % किमव्रता महात्मानौ नरनारायणावृषी / ऋषी शमदमोपेतौ कृत्वा पूर्वाहिकं विधिम् // 31 तदेतन्मे यथातत्त्वं सर्वमाख्यातुमर्हसि // 18 पश्चान्नारदमव्यप्रौ पाद्यार्थ्याभ्यां प्रपूज्य च / वैशंपायन उवाच / / पीठयोश्चोपविष्टौ तौ कृतातिध्याहिको नृप // 3 // नमो भगवते तस्मै व्यासायामिततेजसे / तेषु तत्रोपविष्टेषु स देशोऽभिव्यराजत। यस्म प्रसादाद्वक्ष्यामि नारायणकथामिमाम् // 19 भाज्याहुतिमहाज्वालैयज्ञवाटोऽग्निभिर्यथा // 33 प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं दृष्ट्वा च हरिमव्ययम् / अथ नारायणस्तत्र नारदं वाक्यमब्रवीत् / निवृत्तो नारदो राजस्तरसा मेरुमागमत् / सुखोपविष्टं विश्रान्तं कृतातिध्यं सुखस्थितम् // 3 // हृदयेनोद्वहन्भारं यदुक्तं परमात्मना // 20 अपीदानी स भगवान्परमात्मा सनातनः / पश्चादस्याभवद्राजन्नात्मनः साध्वसं महत् / श्वेतद्वीपे त्वया दृष्ट आवयोः प्रकृतिः परा // 3 // बद्गत्वा दूरमध्वानं क्षेमी पुनरिहागतः // 21 नारद उवाच। . .. ततो मेरोः प्रचक्राम पर्वतं गन्धमादनम्। दृष्टो मे पुरुषः श्रीमान्विश्वरूपधरोऽव्ययः / निपपात च खात्तर्ण विशाला बदरीमनु // 22 सर्वे हि लोकास्तत्रस्थास्तथा देवाः सहर्षिभिः / ततः स दरशे देवी पुराणावृषिसत्तमौ / अद्यापि चैनं पश्यामि युवां पश्यन्सनातनौ // 3 // तपश्चरन्तौ सुमहदात्मनिष्ठौ महाव्रतौ // 23 / यैर्लक्षणैरुपेतः स हरिरव्यक्तरूपधृक् / . तेजसाभ्यधिको सूर्यात्सर्वलोकविरोचनात् / तैर्लक्षणैरुपेतौ हि व्यक्तरूपधरौ युवाम् // 30 श्रीवत्सलक्षणौ पूज्यौ जटामण्डलधारिणौ // 24 दृष्टौ मया युवां तत्र तस्य देवस्य पार्श्वतः / जालपादभुजौ तौ तु पादयोश्चक्रलक्षणौ / इह चैवागतोऽस्म्यद्य विसष्ठः परमात्मना // 38 ब्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ तथा मुष्कचतुष्किणौ // 25 को हि नाम भवेत्तस्य तेजसा यशसा श्रिया। पष्टिदन्तावष्टदंष्ट्रौ मेघौघसदृशस्वनौ / सदृशस्त्रिषु लोकेषु ऋते धर्मात्मजौ युवाम् // 39 स्वास्यौ प्रथललाटौ च सुहन सुभ्रुनासिकौ // 26 तेन मे कथितं पूर्व नाम क्षेत्रज्ञसंज्ञितम् / भातपत्रेण सदृशे शिरसी देवयोस्तयोः / प्रादुर्भावाश्च कथिता भविष्यन्ति हि ये यथा // एवं लक्षणसंपन्नौ महापुरुषसंज्ञितौ // 27 तत्र ये पुरुषाः श्वेताः पश्चेन्द्रियविवर्जिताः / तौ दृष्ट्वा नारदो हृष्टस्ताभ्यां च प्रतिपूजितः / प्रतिबुद्धाश्च ते सर्वे भक्ताश्च पुरुषोत्तमम् // 41 स्वागतेनामिभाष्याथ पृष्टश्चानामयं तदा // 28 तेऽर्चयन्ति सदा देवं तैः साधं रमते च मः। बभूवान्तर्गतमतिर्निरीक्ष्य पुरुषोत्तमौ / प्रियभक्तो हि भगवान्परमात्मा द्विजप्रियः // 42 सदोगतास्तत्र ये वै सर्वभूतनमस्कृताः // 29 रमते सोऽय॑मानो हि सदा भागवतप्रियः / श्वेतद्वीपे मया दृष्टास्तादृशावृषिसत्तमौ / विश्वभुक्सर्वगो देवो बान्धवो भक्तवत्सलः / इति संचिन्त्य मनसा कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम् / म कर्ता कारणं चैव कार्य चातिबलद्युतिः // 43 उपोपविविशे तत्र पीठे कुशमये शुभे // 30 तपसा योज्य सोऽऽत्मानं श्वेतद्वीपात्परं हि यत् / ततस्तौ तपसां वासौ यशसां तेजसामपि / / तेज इत्यभिविख्यातं स्वयंभासावभासितम् // 44 - 2468 - Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 381. 45] शान्तिपर्व [12.332. 18 शान्तिः मा त्रिषु लोकेषु सिद्धानां भावितात्मनाम्।। न तत्संप्राप्नुते कश्चिदृते ह्यावां द्विजोत्तम // 1 एतया शुभया बुद्ध्या नैष्ठिकं व्रतमास्थितः // 45 या हि सूर्यसहस्रस्य समस्तस्य भवेरपुतिः। न तत्र सूर्यस्तपति न सोमोऽभिविराजते / स्थानस्य मा भवेत्तस्य स्वयं तेन विराजता // 5 न वायुर्वाति देवेशे तपश्चरति दुश्चरम् // 46 तस्मादुत्तिष्ठते विप्र देवाद्विश्वभुवः पवेः / बेदीमष्टतलोत्सेधां भूमावास्थाय विश्वभुक् / क्षमा क्षमावतां श्रेष्ठ यया भूमिस्तु युज्यते // एकपादस्थितो देव ऊर्ध्वबाहुरुदङ्मुखः / तस्माच्चोत्तिष्ठते देवात्सर्वभूतहितो रसः। साझानावर्तयन्वेदास्तपस्तेपे सुदुश्वरम् // 47 आपो येन हि युज्यन्ते द्रवत्वं प्राप्नुवन्ति // . पद्रमा ऋषयश्चैव स्वयं पशुपतिश्च यत् / / तस्मादेव समुद्भूतं तेजो रूपगुणात्मकम् / शेषाश्च विबुधश्रेष्ठा दैत्यदानवराक्षसाः // 48 येन स्म युज्यते सूर्यस्ततो लोकान्विराजते // 8 नागाः सुपर्णा गन्धर्वाः सिद्धा राजर्षयश्च ये। तस्माद्देवात्समुद्भूतः स्पर्शस्तु पुरुषोत्तमात् / इन्यं कव्यं च सततं विधिपूर्व प्रयुञ्जते / येन स्म युज्यते वायुस्ततो लोकान्विवात्यमौ // कृत्यं तत्तस्य देवस्य चरणावुपतिष्ठति // 49 तस्माञ्चोत्तिष्ठते शब्दः सर्वलोकेश्वरात्प्रभोः / याः क्रियाः संप्रयुक्तास्तु एकान्तगतबुद्धिभिः / आकाशं युज्यते येन ततस्तिष्ठत्यसंवृतम् // 1. ताः सर्वाः शिरसा देवः प्रतिगृह्णाति वै स्वयम् // तस्माञ्चोत्तिष्ठते देवात्सर्वभूतगतं मनः / न सस्यान्यः प्रियतरः प्रतिबुद्धैर्महात्मभिः / चन्द्रमा येन संयुक्तः प्रकाशगुणधारणः // 11 विद्यते त्रिषु लोकेषु ततोऽस्म्यैकान्तिकं गतः / षड्भूतोत्पादकं नाम तत्स्थानं वेदसंशितम् / इह चैवागतस्तेन विसृष्टः परमात्मना // 51 विद्यासहायो यत्रास्ते भगवान्हव्यकव्यभुक् / / 12 एवं मे भगवान्देवः स्वयमाख्यातवान्हरिः / ये हि निष्कल्मषा लोके पुण्यपापविवर्जिताः / आसिष्ये तत्परो भूत्वा युवाभ्यां मह नित्यशः // तेषां वै क्षेममध्वानं गच्छतां द्विजसत्तम / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्वलोकतमोहन्ता आदित्यो द्वारमुच्यते // 13 एकत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 11 // आदित्यदग्धसर्वाङ्गा अदृश्याः केनचित्वचित् / . 332 परमाणुभूता भूत्वा तु तं देवं प्रविशन्स्युत // 14 नरनारायणावूचतुः। तस्मादपि विनिर्मुक्ता अनिरुद्धतनौ स्थिताः / धन्योऽस्यनुगृहीतोऽस्मि यत्ते दृष्टः स्वयं प्रभुः / मनोभूतास्ततो भूयः प्रद्युम्नं प्रविशन्त्युत // 15 न हि तं दृष्टवान्कश्चित्पनयोनिरपि स्वयम् // 1 प्रद्युम्नाच्चापि निर्मुक्ता जीवं संकर्षणं तथा / अव्यक्तयोनिर्भगवान्दुर्दर्शः पुरुषोत्तमः / विशन्ति विप्रप्रवराः सांख्या भागवतैः सह // 16 नारदैतद्धि से सत्यं वचनं समुदाहृतम् // 2 ततस्वैगुण्यहीनास्ते परमात्मानमञ्जसा / नास्य भक्तैः प्रियतरो लोके कश्चन विद्यते / प्रविशन्ति द्विजश्रेष्ठ क्षेत्रक्षं निर्गुणात्मकम् / ततः स्वयं दर्शितवान्स्वमात्मानं द्विजोत्तम // 3 सर्वावासं वासुदेवं क्षेत्रज्ञं विद्धि तत्त्वतः // 17 तपो हि तप्यतस्तस्य यत्स्थानं परमात्मनः / समाहितमनस्काश्च नियताः संयतेन्द्रियाः / -2469 - Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 332. 18] महाभारते [12. 333. 11 एकान्तभावोपगता वासुदेवं विशन्ति ते // 18 दैवतं च परो यज्ञः परमात्मा सनातनः॥ 4 आवामपि च धर्मस्य गृहे जातौ द्विजोत्तम / ततस्तद्भावितो नित्यं यजे वैकुण्ठमव्ययम् / रम्यां विशालामाश्रित्य तप उग्रं समास्थितौ // 19 तस्माच्च प्रसृतः पूर्वं ब्रह्मा लोकपितामहः // 5 ये तु तस्यैव देवस्य प्रादुर्भावाः सुरप्रियाः / मम वै पितरं प्रीतः परमेष्ठयप्यजीजनत् / भविष्यन्ति त्रिलोकस्थास्तेषां स्वस्तीत्यतो द्विज // 20 अहं संकल्पजस्तस्य पुत्रः प्रथमकल्पितः // 6 विधिना स्वेन युक्ताभ्यां यथापूर्वं द्विजोत्तम / यजाम्यहं पितॄन्साधो नारायणविधौ कृते / आस्थिताभ्यां सर्वकृच्छं व्रतं सम्यक्तदुत्तमम् / / 21 एवं स एव भगवान्पिता माता पितामहः / आवाभ्यामपि दृष्टस्त्वं श्वेतद्वीपे तपोधन / इज्यते पितृयज्ञेषु मया नित्यं जगत्पतिः // 7 समागतो भगवता संजल्पं कृतवान्यथा // 22 श्रुतिश्चाप्यपरा देव पुत्रान्हि पितरोऽयजन् / सर्व हि नौ संविदितं त्रैलोक्ये सचराचरे। वेदश्रुतिः प्रनष्टा च पुनरध्यापिता सुतैः। .. यद्भविष्यति वृत्तं वा वर्तते वा शुभाशुभम् // 23 ततस्ते मत्रदाः पुत्राः पितृत्वमुपपेदिरे // 8 वैशंपायन उवाच नूनं पुरैतद्विदितं युवयोर्भावितात्मनोः। . एतच्छ्रुत्वा तयोर्वाक्यं तपस्युरोऽभ्यवर्तत / पुत्राश्च पितरश्चैव परस्परमपूजयन् // 9 .. नारदः प्राञ्जलिर्भूत्वा नारायणपरायणः // 24 त्रीन्पिण्डान्न्यस्य वै पृथ्व्यां पूर्व दत्त्वा कुशानिति / जजाप विधिवन्मत्रान्नारायणगतान्बहून् / कथं तु पिण्डसंज्ञां ते पितरो लेमिरे पुरा // 10 दिव्यं वर्षसहस्रं हि नरनारायणाश्रमे // 25 नरनारायणावूचतुः। अवसत्स महातेजा नारदो भगवानृषिः / इमां हि धरणीं पूर्व नष्टां सागरमेखलाम् / तमेवाभ्यर्चयन्देवं नरनारायणौ च तौ // 26 गोविन्द उज्जहाराशु वाराहं रूपमाश्रितः // 11 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि स्थापयित्वा तु धरणी स्वे स्थाने पुरुषोत्तमः / द्वात्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 332 // जलकर्दमलिप्ताङ्गो लोककार्यार्थमुद्यतः // 12 प्राप्ते चाह्निककाले स मध्यंदिनगते रवौ / वैशंपायन उवाच। दंष्ट्राविलग्नान्मृत्पिण्डान्विधूय सहसा प्रभुः / कस्यचित्त्वथ कालस्य नारदः परमेष्ठिजः / स्थापयामास वै पृथ्व्यां कुशानास्तीर्य नारद // 13 दैवं कृत्वा यथान्यायं पित्र्यं चक्रे ततः परम् // 1 स तेष्वात्मानमुद्दिश्य पित्र्यं चक्रे यथाविधि / ततस्तं वचनं प्राह ज्येष्ठो धर्मात्मजः प्रभुः।। संकल्पयित्वा त्रीपिण्डान्स्वेनैव विधिना प्रभुः // क इज्यते द्विजश्रेष्ठ दैवे पित्र्ये च कल्पिते // 2 आत्मगात्रोष्मसंभूतैः स्नेहगभ॑स्तिलैरपि / त्वया मतिमतां श्रेष्ठ तन्मे शंस यथागमम् / प्रोक्ष्यापवर्ग देवेशः प्राङ्मुखः कृतवान्स्वयम् // 15 किमेतक्रियते कर्म फलं चास्य किमिष्यते // 3 मर्यादास्थापनार्थ च ततो वचनमुक्तवान् / नारद उवाच / अहं हि पितरः स्रष्टुमुद्यतो लोककृत्स्वयम् // 16 त्वयैतत्कथितं पूर्व देवं कर्तव्यमित्यपि / तस्य चिन्तयतः सद्यः पितृकार्यविधिं परम् / . -2470 - Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 838. 17 ] शान्तिपर्व [12. 334. 14 दंष्ट्राभ्यां प्रविनिर्धूता ममैते दक्षिणां दिशम् / तस्मिन्नेवाश्रमे रम्ये तेपतुस्तप उत्तमम् // 3 आश्रिता धरणी पिण्डास्तस्मात्पितर एव ते // 17 त्वमप्यमितविक्रान्तः पाण्डवानां कुलोद्वहः / त्रयो मूर्तिविहीना वै पिण्डमूर्तिधरास्त्विमे। पावितात्माध संवृत्तः श्रुत्वेमामादितः कथाम् // 4 भवन्तु पितरो लोके मया सृष्टाः सनातनाः॥ 18 नैव तस्य परो लोको नायं पार्थिवसत्तम / पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः / कर्मणा मनसा वाचा यो द्विष्याद्विष्णुमव्ययम् // 5 अहमेवात्र विज्ञेयस्त्रिषु पिण्डेषु संस्थितः // 19 / मज्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः / नास्ति मत्तोऽधिकः कश्चित्को वाभ्यर्यो मया स्वयम् यो द्विष्याद्विबुधश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम् / / 6 को वा मम पिता लोके अहमेव पितामहः // 20 कथं नाम भवेहेष्य आत्मा लोकस्य कस्यचित् / पितामहपिता चैव अहमेवात्र कारणम् / . आत्मा हि पुरुषव्याघ्र ज्ञेयो विष्णुरिति स्थितिः // इत्येवमुक्त्वा वचनं देवदेवो वृषाकपिः // 21 . य एष गुरुरस्माकमृषिर्गन्धवतीसुतः / वराहपर्वते विप्र दत्त्वा पिण्डान्सविस्तरान् / तेनैतत्कथितं तात माहात्म्यं परमात्मनः / आत्मानं पूजयित्वैव तत्रैवादर्शनं गतः // 22 तस्माच्छ्रुतं मया चेदं कथितं च तवानघ // 8 एतदर्थं शुभमते पितरः पिण्डसंज्ञिताः / कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम् / लभन्ते सततं पूजां वृषाकपिवचो यथा // 23 को ह्यन्यः पुरुषव्याघ्र महाभारतकृद्भवेत् / ये यजन्ति पितॄन्देवान्गुरूंश्चैवातिथींस्तथा / धर्मान्नानाविधांश्चैव को ब्रूयात्तमृते प्रभुम् // 9 गाश्चैव द्विजमुख्यांश्च पृथिवीं मातरं तथा / वर्ततां ते महायज्ञो यथा संकल्पितस्त्वया / कर्मणा मनसा वाचा विष्णुमेव यजन्ति ते // 24 / संकल्पिताश्वमेधस्त्वं श्रुतधर्मश्च तत्त्वतः // 1. अन्तर्गतः स भगवान्सर्वसत्त्वशरीरगः। एतत्तु महदाख्यानं श्रुत्वा पारिक्षितो नृपः / समः सर्वेषु भूतेषु ईश्वरः सुखदुःखयोः / ततो यज्ञसमाप्त्यर्थं क्रियाः सर्वाः समारभत् // 11 महान्महात्मा सर्वात्मा नारायण इति श्रुतः // 25 नारायणीयमाख्यानमेतत्ते कथितं मया / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नारदेन पुरा राजन्गुरवे मे निवेदितम् / प्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः / / 333 // / ऋषीणां पाण्डवानां च शृण्वतोः कृष्णभीष्मयोः / 334 स हि परमगुरुर्भुवनपतिवैशंपायन उवाच / र्धरणिधरः शमनियमनिधिः / भुत्वैतन्नारदो वाक्यं नरनारायणेरितम् / श्रुतिविनयनिधिजिपरमहितअत्यन्तभक्तिमान्देवे एकान्तित्वमुपेयिवान् // 1 __ स्तव भवतु गतिर्हरिरमरहितः // 13 प्रोष्य वर्षसहस्रं तु नरनारायणाश्रमे / तपसां निधिः सुमहतां महतो श्रुत्वा भगवदाख्यानं दृष्ट्वा च हरिमव्ययम् / __ यशसश्च भाजनमरिष्टकहा / हिमवन्तं जगामाशु यत्रास्य स्वक आश्रमः / / 2 एकान्तिनं शरणदोऽभयदो गतिदोऽस्तु वः तावपि ख्याततपसौ नरनारायणावृषी / ___ स मखभागहरस्त्रिगुणातिगः // 14 -2471 Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 334. 15 ] महाभारते [12. 335. 18 चतुष्पञ्चधरः पूर्ते पाविताः स्म त्वया ब्रह्मन्पुण्यां कथयता कथाम् // 6 टयोश्च फलभागहरः। वैशंपायन उवाच / विदधाति नित्यमजितोऽतिबलो कथयिष्यामि ते सर्व पुराणं वेदसंमितम् / गतिमात्मगां सुकृतिनामृषिणाम् / / 15 जगौ यद्भगवान्व्यासो राज्ञो धर्मसुतस्य वै / / 7. वं लोकसाक्षिणमजं पुरुष श्रुत्वाश्वशिरसो मूर्ति देवस्य हरिमेधसः। . रविवर्णमीश्वरगतिं बहुशः / उत्पन्नसंशयो राजा तमेव समचोदयत् // 8 . प्रणमध्वमेकमतयो यतयः युधिष्ठिर उवाच / मलिलोद्भवोऽपि तमृषि प्रणतः // 16 सहि लोकयोनिरमृतस्य पदं यत्तदर्शितवान्ब्रह्मा देवं यशिरोधरम् / सूक्ष्म पुराणमचलं परमम् / किमर्थ तत्समभवद्वपुर्देवोपकल्पितम् // 9 . . त्यांख्ययोगिभिरुदारधृतं व्यास उवाच / बुद्ध्या यतात्मभिर्विदितं सततम् // 17 यत्किचिदिह लोके वै देहबद्धं विशां पते / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सर्व पञ्चभिराविष्टं भूतैरीश्वरबुद्धिजैः // 10 चतुरिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 33 // ईश्वरो हि जगत्स्रष्टा प्रभुर्नारायणो विराट् / भूतान्तरात्मा वरदः सगुणो निर्गुणोऽपि च / : जनमेजय उवाच / भूतप्रलयमव्यक्तं शृणुष्व नृपसत्तम // 11 तं भगवतस्तस्य माहात्म्यं परमात्मनः / धरण्यामथ लीनायामप्सु चैकार्णवे पुरा / जन्म धर्मगृहे चैव नरनारायणात्मकम् / ज्योतिर्भूते जले चापि लीने ज्योतिषि चानि / महावराहस्रष्टा च पिण्डोत्पत्तिः पुरातनी // 1 वायौ चाकाशसंलीने आकाशे च मनोनुगे। प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च यो यथा परिकल्पितः / व्यक्ते मनसि संलीने व्यक्ते घाव्यक्ततां गते // 13 म तथा न भुतो ब्रह्मन्कथ्यमानस्त्वयानघ / 2 भव्यक्ते पुरुष याते पुंसि सर्वगतेऽपि / मञ्च तत्कथितं पूर्व त्वया इयशिरो महत् / तम एवाभवत्सर्व न प्राज्ञायत फिंचन // 14 हव्यकव्यभुजो विष्णोरुदक्पूर्व महोदधौ / तमसो ब्रह्म संभूतं तमोमूलमृतात्मकम् / वर रष्टं भगवता ब्रह्मणा परमेष्ठिना // 3 तद्विश्वभावसंबान्तं पौरुषी तनुमास्थितम् // 15 * तदुत्पादितं पूर्व हरिणा लोकधारिणा / मोऽनिरुद्ध इति प्रोक्तस्तत्प्रधानं प्रचक्षते / रूपं प्रभावमहतामपूर्व धीमतां वर // 4 तदव्यक्तमिति ज्ञेयं त्रिगुणं नृपसत्तम // 16 दृष्ट्वा हि विबुधश्रेष्ठमपूर्वममितौजसम् / विद्यासहायवान्देवो विष्वक्सेनो हरिः प्रभुः / तदश्वशिरसं पुण्यं ब्रह्मा किमकरोन्मुने // 5 अप्स्वेव शयनं चक्रे निद्रायोगमुपागतः / एसनः संशयं ब्रह्मन्पुराणज्ञानसंभवम् / जगतश्चिन्तयन्सष्टि चित्रां बहुगुणोद्भषाम् // 17 कथयस्वोत्तममते महापुरुषनिर्मितम् / तस्य चिन्तयतः सृष्टिं महानात्मगुणः स्मृतः / -2472 Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 385. 18] शान्तिपर्व [12. 335.46 अहंकारस्ततो जातो ब्रह्मा शुभचतुर्मुखः। वेदास्तानानयेन्नष्टान्कस्य चाहं प्रियो भवे // 32 हिरण्यगर्भो भगवान्सर्वलोकपितामहः // 18 इत्येवं भाषमाणस्य ब्रह्मणो नृपसत्तम / पद्मेऽनिरुद्धात्संभूतस्तदा पद्मनिभेक्षणः / / हरेः स्तोत्रार्थमुद्भूता बुद्धिर्बुद्धिमतां वर / सहस्रपत्रे द्युतिमानुपविष्टः सनातनः // 19 ततो जगौ परं जप्यं साञ्जलिप्रग्रहः प्रभुः / / 33 ददृशेऽद्भुतसंकाशे लोकानापोमयान्प्रभुः / नमस्ते ब्रह्महृदय नमस्ते मम पूर्वज / सत्त्वस्थः परमेष्ठी स ततो भूतगणान्सृजत् // 20 लोकाद्य भुवनश्रेष्ठ सांख्ययोगनिधे विभो // 34 पूर्वमेव च पद्मस्य पत्रे सूर्यांशुसप्रभे। व्यक्ताव्यक्तकराचिन्त्य क्षेमं पन्थानमास्थित / नारायणकृतौ बिन्दू अपामास्तां गुणोत्तरौ // 21 / विश्वभुक्सर्वभूतानामन्तरात्मन्नयोनिज // 35 तावपश्यत्स भगवाननादिनिधनोऽच्युतः / . अहं प्रसादजस्तुभ्यं लोकधाम्ने स्वयंभुवे / एकस्तत्राभवद्विन्दुर्मध्वाभो रुचिरप्रभः // 22 त्वत्तो मे मानसं जन्म प्रथमं द्विजपूजितम् // 36 स तामसो मधुतिस्तदा नारायणाज्ञया। चाक्षुषं वै द्वितीयं मे जन्म चासीत्पुरातनम् / कठिनस्त्वपरो बिन्दुः कैटभो राजसस्तु सः // 23 त्वत्प्रसादाच्च मे जन्म तृतीयं वाचिकं महत् // 37 तावभ्यधावतां श्रेष्ठौ तमोरजगुणान्वितौ / त्वत्तः श्रवण चापि चतुर्थं जन्म मे विभो / बलवन्तौ गदाहस्तौ पद्मनालानुसारिणौ // 24 नासिक्यं चापि मे जन्म त्वत्तः पश्चममुच्यते // ददृशातेऽरविन्दस्थं ब्रह्माणममितप्रभम् / अण्डजं चापि मे जन्म त्वत्तः षष्ठं विनिर्मितम् / सृजन्तं प्रथमं वेदांश्चतुरश्चारुविग्रहान् // 25 | इदं च सप्तमं जन्म पद्मजं मेऽमितप्रभ // 39 ततो विग्रहवन्तौ तौ वेदान्दृष्ट्वासुरोत्तमौ / सर्गे सर्गे ह्यहं पुत्रस्तव त्रिगुणवर्जितः।। सहसा जगृहतुर्वेदान्ब्रह्मणः पश्यतस्तदा // 26 प्रथितः पुण्डरीकाक्ष प्रधानगुणकल्पितः // 40 अथ तौ दानवश्रेष्ठौ वेदान्गृह्य सनातनान् / त्यमीश्वरस्वभावश्च स्वयंभूः पुरुषोत्तमः / रसां विविशतुस्तूर्णमुदक्पूर्वे महोदधौ / / 27 त्वया विनिर्मितोऽहं वै वेदचक्षुर्वयोतिगः // 41 ततो हतेषु वेदेषु ब्रह्मा कश्मलमाविशत् / ते मे वेदा हृताश्चक्षुरन्धो जातोऽस्मि जागृहि / ततो पचनमीशानं प्राह वेदैविनाकृतः // 28 ददस्य चक्षुषी मह्यं प्रियोऽहं ते प्रियोऽसि मे // 42 वेदा मे परमं चक्षुर्वेदा मे परमं बलम् / एवं स्तुतः स भगवान्पुरुषः सर्वतोमुखः / वेदा मे परमं धाम वेदा मे ब्रह्म चोत्तमम् / / 29 जहौ निद्रामथ तदा वेदकार्यार्थमुद्यतः / मम वेदा हताः सर्वे दानवाभ्यां बलादितः / ऐश्वरेण प्रयोगेण द्वितीयां तनुमास्थितः // 43 अन्धकारा हि मे लोका जाता वेदैर्विनाकृताः। सुनासिकेन कायेन भूत्वा चन्द्रप्रभस्तदा। वेदानृते हि किं कुर्या लोकान्वै स्रष्टुमुद्यतः // 30 कृत्वा हयशिरः शुभ्रं वेदानामालयं प्रभुः // 44 अहो बत महहुःखं वेदनाशनजं मम / तस्य मूर्धा समभवद्दयौः सनक्षत्रतारका / प्राप्तं दुनोति हृदयं तीव्रशोकाय रन्धयन् // 31 केशाश्चास्याभवन्दीर्घा रवेरंशुसमप्रभाः // 45 को हि शोकार्णवे मग्नं मामितोऽद्य समुद्धरेत् / / कर्णावाकाशपाताले ललाटं भूतधारिणी / म. भा. 310 - 2473 - Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 335. 46] महाभारते [12. 385.74 गङ्गा सरस्वती पुण्या ध्रुवावास्तां महानदी // 46 - तं दृष्ट्वा दानवेन्द्रौ तौ महाहासममुश्चताम् // 59 चक्षुषी सोमसूर्यौ ते नासा संध्या पुनः स्मृता। ऊचतुश्च समाविष्टौ रजसा तमसा च तौ / ॐकारस्त्वथ संस्कारो विद्युजिह्वा च निर्मिता // 47 अयं स पुरुषः श्वेतः शेते निद्रामुपागतः // 60 दन्ताश्च पितरो राजन्सोमपा इति विश्रुताः। अनेन नूनं वेदानां कृतमाहरणं रसात् / गोलोको ब्रह्मलोकश्च ओष्ठावास्तां महात्मनः / कस्यैष को नु खल्वेष किं च स्वपिति भोगवान् / / ग्रीवा चास्याभवद्राजन्कालरात्रिर्गुणोत्तरा // 48 इत्युच्चारितवाक्यौ तौ बोधयामासतुर्हरिम् / एतद्धयशिरः कृत्वा नानामूर्तिभिरावृतम् / युद्धार्थिनौ तु विज्ञाय विबुद्धः पुरुषोत्तमः // 62 अन्तर्दधे स विश्वेशो विवेश च रसां प्रभुः // 49 निरीक्ष्य चासुरेन्द्रौ तौ ततो युद्धे मनो दधे / रसां पुनः प्रविष्टश्च योगं परममास्थितः / अथ युद्धं समभवत्तयोर्नारायणस्य च // 63 शैक्षं स्वरं समास्थाय ओमिति प्रासृजत्स्वरम् // 50 / रजस्तमोविष्टतनू तावुभौ मधुकैटभौ। ' स स्वरः सानुनादी च सर्वगः स्निग्ध एव च / ब्रह्मणोपचितिं कुर्वञ्जघान मधुसूदनः // 64 बभूवान्तर्महीभूतः सर्वभूतगुणोदितः // 51 ततस्तयोर्वधेनाशु वेदापहरणेन च / ततस्तावसुरौ कृत्वा वेदान्समयबन्धनान् / शोकापनयनं चक्रे ब्रह्मणः पुरुषोत्तमः // 65 रसातले विनिक्षिप्य यतः शब्दस्ततो द्रुतौ // 52 ततः परिवृतो ब्रह्मा हतारिर्वेदसत्कृतः / एतस्मिन्नन्तरे राजन्देवो यशिरोधरः। निर्ममे स तदा लोकान्कृत्स्नान्स्थावरजङ्गमान् // 66 जग्राह वेदानखिलानरसातलगतान्हरिः। दत्त्वा पितामहायाग्रयां बुद्धिं लोकविसर्गिकीम् / प्रादाच्च ब्रह्मणे भूयस्ततः स्वां प्रकृतिं गतः // 53 तत्रैवान्तर्दधे देवो यत एवागतो हरिः // 67 स्थापयित्वा हयशिर उदक्पूर्व महोदधौ / तौ दानवौ हरिहत्वा कृत्वा हयशिरस्तनुम् / वेदानामालयश्चापि बभूवाश्वशिरास्ततः // 54 पुनः प्रवृत्तिधर्मार्थं तामेव विदधे तनुम् // 68 अथ किंचिदपश्यन्तौ दानवौ मधुकैटभौ।। एवमेष महाभागो बभूवाश्वशिरा हरिः। पुनराजग्मतुस्तत्र वेगितौ पश्यतां च तौ / पौराणमेतदाख्यातं रूपं वरदमैश्वरम् // 69 यत्र वेदा विनिक्षिप्तास्तत्स्थानं शून्यमेव च // 55 / यो ह्येतद्ब्राह्मणो नित्यं शृणुयाद्धारयेत वा। तत उत्तममास्थाय वेगं बलवतां वरौ / न तस्याध्ययनं नाशमुपगच्छेत्कदाचन // 70 पुनरुत्तस्थतुः शीघ्रं रसानामालयात्तदा / आराध्य तपसोग्रेण देवं हयशिरोधरम् / ददृशाते च पुरुषं तमेवादिकरं प्रभुम् // 56 पाञ्चालेन क्रमः प्राप्तो रामेण पथि देशिते / / 71 श्वेतं चन्द्रविशुद्धाभमनिरुद्धतनौ स्थितम् / एतद्धयशिरो राजन्नाख्यानं तव कीर्तितम् / भूयोऽप्यमितविक्रान्तं निद्रायोगमुपागतम् // 57 पुराणं वेदसमितं यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 72 आत्मप्रमाणरचिते अपामुपरि कल्पिते। यां यामिच्छेत्तनुं देवः कर्तुं कार्यविधौ कचित् / शयने नागभोगाढये ज्वालामालासमावृते // 58 तां तां कुर्याद्विकुर्वाणः स्वयमात्मानमात्मना / / 73 निष्कल्मषेण सत्त्वेन संपन्नं रुचिरप्रभम् / / एष वेदनिधिः श्रीमानेष वै तपसो निधिः / -2474 - Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 335. 74] शान्तिपर्व [12. 386. 10 336 एष योगश्च सांख्यं च ब्रह्म चायं हरिर्विभुः॥७४ कालो यथावृतुसंप्रयुक्तः // 88 नारायणपरा वेदा यज्ञा नारायणात्मकाः / नैवास्य विन्दन्ति गतिं महात्मनो तपो नारायणपरं नारायणपरा गतिः / / 75 ___ न चागतिं कश्चिदिहानुपश्यति / नारायणपरं सत्यमृतं नारायणात्मकम् / ज्ञानात्मकाः संयमिनो महर्षयः नारायणपरो धर्मः पुनरावृत्तिदुर्लभः / / 76 पश्यन्ति नित्यं पुरुष गुणाधिकम् // 89 प्रवृत्तिलक्षणश्चैव धर्मो नारायणात्मकः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि नारायणात्मको गन्धो भूमौ श्रेष्ठतमः स्मृतः // 77 / पञ्चत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥ 335 // अपां चैव गुणो राजन्रसो नारायणात्मकः / ज्योतिषां च गुणो रूपं स्मृतं नारायणात्मकम् // 78 जनमेजय उवाच / नारायणात्मकश्चापि स्पर्शो वायुगुणः स्मृतः / अहो ह्येकान्तिनः सन्त्रिीणाति भगवान्हरिः / नारायणात्मकश्चापि शब्द आकाशसंभवः // 79 / विधिप्रयुक्तां पूजां च गृह्णाति भगवान्स्वयम् // 1 मनश्चापि ततो भूतमव्यक्तगुणलक्षणम् / ये तु दग्धेन्धना लोके पुण्यपापविवर्जिताः / नारायणपरः कालो ज्योतिषामयनं च यत् // 80 | तेषां त्वयामिनिर्दिष्टा पारंपर्यागता गतिः // 2 नारायणपरा कीर्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च देवताः / चतुर्थ्यां चैव ते गत्यां गच्छन्ति पुरुषोत्तमम् / नारायणपरं सांख्यं योगो नारायणात्मकः / / 81 एकान्तिनस्तु पुरुषा गच्छन्ति परमं पदम् // 3 कारणं पुरुषो येषां प्रधानं चापि कारणम् / नूनमेकान्तधर्मोऽयं श्रेष्ठो नारायणप्रियः / स्वभावश्चैव कर्माणि दैवं येषां च कारणम् / / 82 अगत्वा गतयस्तिस्रो यद्गच्छन्त्यव्ययं हरिम् // 4 पञ्चकारणसंख्यातो निष्ठा सर्वत्र वै हरिः / सहोपनिषदान्वेदान्ये विप्राः सम्यगास्थिताः / तत्त्वं जिज्ञासमानानां हेतुभिः सर्वतोमुखैः / / 83 पठन्ति विधिमास्थाय ये चापि यतिधर्मिणः // 5 तत्त्वमेको महायोगी हरिर्नारायणः प्रभुः। तेभ्यो विशिष्टां जानामि गतिमेकान्तिनां नृणाम् / सब्रह्मकानां लोकानामृषीणां च महात्मनाम् // 84 केनैष धर्मः कथितो देवेन ऋषिणापि वा // 6 सांख्यानां योगिनां चापि यतीनामात्मवेदिनाम् / एकान्तिनां च का चर्या कदा चोत्पादिता विभो। मनीषितं विजानाति केशवो न तु तस्य ते // 85 / एतन्मे संशयं छिन्धि परं कौतूहलं हि मे // 7 ये केचित्सर्वलोकेषु दैवं पित्र्यं च कुर्वते। वैशंपायन उवाच / / दानानि च प्रयच्छन्ति तप्यन्ति च तपो महत्॥ 86 / समुपोढेष्वनीकेषु कुरुपाण्डवयोर्मधे / सर्वेषामाश्रयो विष्णुरैश्वरं विधिमास्थितः / अर्जुने विमनस्के च गीता भगवता स्वयम् // 8 सर्वभूतकृतावासो वासुदेवेति चोच्यते // 87 आगतिश्च गतिश्चैव पूर्व ते कथिता मया। अयं हि नित्यः परमो महर्षि गहनो ह्येष धर्मो वै दुर्विज्ञेयोऽकृतात्मभिः // 9 महाविभूतिर्गुणवान्निर्गुणाख्यः / संमितः सामवेदेन पुरैवादियुगे कृतः / गुणैश्च संयोगमुपैति शीघ्र धार्यते स्वयमीशेन राजन्नारायणेन ह // 10 -2475 - . Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 336. 11] महाभारते [ 12. 336. 36 एतमर्थ महाराज पृष्टः पार्थेन नारदः / जगत्स्रष्टुमना देवो हरिनारायणः स्वयम् / ऋषिमध्ये महाभागः शृण्वतोः कृष्णभीष्मयोः॥ चिन्तयामास पुरुषं जगत्सर्गकर प्रभुः // 24 गुरुणा च ममाप्येष कथितो नृपसत्तम / अथ चिन्तयतस्तस्य कर्णाभ्यां पुरुषः सूतः / यथा तु कथितस्तत्र नारदेन तथा शृणु // 12 प्रजासर्गकरो ब्रह्मा तमुवाच जगत्पतिः // 25 यदासीन्मानसं जन्म नारायणमुखोद्गतम् / सूज प्रजाः पुत्र सर्वा मुखतः पादतस्तथा / ब्रह्मणः पृथिवीपाल तदा नारायणः स्वयम् / श्रेयस्तव विधास्यामि बलं तेजश्च सुव्रत // 2 // तेन धर्मेण कृतवान्दैवं पित्र्यं च भारत // 13 धर्मं च मत्तो गृहीष्व सात्वतं नाम नामतः।। फेनपा ऋषयश्चैव तं धर्म प्रतिपेदिरे / तेन सर्व कृतयुगं स्थापयस्व यथाविधि // 27 वैखानसाः फेनपेभ्यो धर्ममेतं प्रपेदिरे / ततो ब्रह्मा नमश्चक्रे देवाय हरिमेधसे / वैखानसेभ्यः सोमस्तु ततः सोऽन्तर्दधे पुनः॥१४ धर्म चायं स जग्राह सरहस्यं ससंग्रहम् / .. यदासीच्चाक्षुषं जन्म द्वितीयं ब्रह्मणो नृप। आरण्यकेन सहितं नारायणमुखोद्गतम् // 28 तदा पितामहात्सोमादेतं धर्ममजानत / उपदिश्य ततो धर्म ब्रह्मणेऽमिततेजसे / नारायणात्मकं राजन्रुद्राय प्रददौ च सः // 15 / तं कार्तयुगधर्माणं निराशीःकर्मसंज्ञितम् / .. ततो योगस्थितो रुद्रः पुरा कृतयुगे नृप। जगाम तमसः पारं यत्राव्यक्तं व्यवस्थितम् // 29 वालखिल्यानृषीन्सन्धिर्ममेतमपाठयत् / ततोऽथ वरदो देवो ब्रह्मलोकपितामहः। अन्तर्दघे ततो भूयस्तस्य देवस्य मायया // 16 असृजत्स तदा लोकान्कृत्स्नान्स्थावरजङ्गमान् // 30 तृतीयं ब्रह्मणो जन्म यदासीद्वाचिकं महत् / ततः प्रावर्तत तदा आदौ कृतयुगं शुभम्। तत्रैष धर्मः संभूतः स्वयं नारायणान्नृप // 17 ततो हि सात्वतो धर्मो व्याप्य लोकानवस्थितः // सुपर्णो नाम तमृषिः प्राप्तवान्पुरुषोत्तमात् / तेनैवायेन धर्मेण ब्रह्मा लोकविसर्गकृत् / तपसा वै सुतप्तेन दमेन नियमेन च // 18 पूजयामास देवेशं हरि नारायणं प्रभुम् // 32 त्रिः परिक्रान्तवानेतत्सुपर्णो धर्ममुत्तमम् / धर्मप्रतिष्ठाहेतोश्च मनुं स्वारोचिषं ततः / यस्मात्तस्माद्तं ह्येतत्रिसौपर्णमिहोच्यते // 19 अध्यापयामास तदा लोकानां हितकाम्यया // 3 // ऋग्वेदपाठपठितं ब्रतमेतद्धि दुश्चरम् / ततः स्वारोचिषः पुत्रं स्वयं शङ्खपदं नृप / सुपर्णाच्चाप्यधिगतो धर्म एष सनातनः // 20 अध्यापयत्पुराव्यग्रः सर्वलोकपतिर्विभुः // 34 वायुना द्विपदां श्रेष्ठ प्रथितो जगदायुषा। ततः शङ्खपदश्चापि पुत्रमात्मजमौरसम् / वायोः सकाशात्प्राप्तश्च ऋषिभिर्विघसाशिभिः // दिशापालं सुधर्माणमध्यापयत भारत / तेभ्यो महोदधिश्चैनं प्राप्तवान्धर्ममुत्तमम् / ततः सोऽन्तर्दधे भूयः प्राप्ते त्रेतायुगे पुनः // 35 ततः सोऽन्तर्दधे भूयो नारायणसमाहितः // 22 नासिक्यजन्मनि पुरा ब्रह्मणः पार्थिवोत्तम / यदा भूयः श्रवणजा सृष्टिरासीन्महात्मनः / / धर्ममेतं स्वयं देवो हरिनारायणः प्रभुः / ब्रह्मणः पुरुषव्याघ्र तत्र कीर्तयतः शृणु // 23 / उज्जगारारविन्दाक्षो ब्रह्मणः पश्यतस्तदा-॥ 36. -2476 - Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 336. 37] शान्तिपर्व [12. 336.-64 सनत्कुमारो भगवांस्ततः प्राधीतवान्नृप। दुर्विज्ञेयो दुष्करश्च सात्वतैर्धार्यते सदा // 51 सनत्कुमारादपि च वीरणो वै प्रजापतिः। धर्मज्ञानेन चैतेन सुप्रयुक्तेन कर्मणा / कृतादौ कुरुशार्दूल धर्ममेतमधीतवान् // 3. अहिंसाधर्मयुक्तेन प्रीयते हरिरीश्वरः // 52 वीरणश्चाप्यधीत्यैनं रोच्याय मनवे दौ।। एकव्यूहविभागो वा कचिहिव्यूहसमितः / रौच्यः पुत्राय शुद्धाय सुव्रताय सुमेधसे // 38 त्रिव्यूहश्चापि संख्यातश्चतुर्ग्रहश्च दृश्यते // 13 कृक्षिनाम्नेऽथ प्रददौ दिशां पालाय धर्मिणे / हरिरेव हि क्षेत्रज्ञो निर्ममो निष्कलस्तथा / ततः सोऽन्तर्दधे भूयो नारायणमुखोद्गतः // 39 जीवश्च सर्वभूतेषु पञ्चभूतगुणातिगः // 54 अण्डजे जन्मनि पुनर्ब्रह्मणे हरियोनये / मनश्च प्रथितं राजन्पञ्चेन्द्रियसमीरणम् / एष धर्मः समुद्भूतो नारायणमुखात्पुनः // 40 एष लोकनिधि/मानेष लोकविसर्गकृत् // 55 गृहीतो ब्रह्मणा राजन्प्रयुक्तश्च यथाविधि / भकर्ता चैव कर्ता च कार्य कारणमेव / अध्यापिताश्च मुनयो नाम्ना बर्हिषदो नृप // 41 / यथेच्छति तथा राजन्क्रीडते पुरुषोऽव्ययः // 56 बर्हिषद्भयश्च संक्रान्तः सामवेदान्तगं द्विजम् / एष एकान्तिधर्मस्ते कीर्तितो नृपसत्तम / ज्येष्ठं नाम्नाभिविख्यातं ज्येष्टसामव्रतो हरिः // 42 मया गुरुप्रसादेन दुर्विज्ञेयोऽकृतात्मभिः। ज्येष्ठाच्चाप्यनुसंक्रान्तो राजानमविकम्पनम् / एकान्तिनो हि पुरुषा दुर्लभा बहवो नृप // 5. अन्तर्दधे ततो राजन्नेष धर्मः प्रभोईरेः // 43 यद्येकान्तिभिराकीणं जगत्स्यात्कुरुनन्दन / यदिदं सप्तमं जन्म पद्मजं ब्रह्मणो नृप। अहिंसकैरात्मविद्भिः सर्वभूतहिते रतैः / तत्रैष धर्मः कथितः स्वयं नारायणेन हि // 44 भवेत्कृतयुगप्राप्तिराशी:कर्मविवर्जितैः // 58 पितामहाय शुद्धाय युगादौ लोकधारिणे / एवं स भगवान्व्यासो गुरुर्मम विशां पते / पितामहश्च दक्षाय धर्ममेतं पुरा ददौ // 45 कथयामास धर्मज्ञो धर्मराशे द्विजोत्तमः // 59 ततो. ज्येष्ठे तु दौहित्रे प्रादादक्षो नृपोत्तम / / ऋषीणां संनिधौ राजशृण्वतोः कृष्णमीष्मयोः / आदित्ये सवितुज्येष्ठे विवस्वाञ्जगृहे ततः // 46 तस्याप्यकथयत्पूर्व नारदः सुमहातपाः // 6. त्रेतायुगादौ च पुनर्विवस्वान्मनवे ददौ / .. देवं परमकं ब्रह्म श्वेतं चन्द्राभमच्युतम् / मनुश्च लोकभूत्यर्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ // 47 यत्र चैकान्तिनो यान्ति नारायणपरायणाः // 61 इक्ष्वाकुणा च कथितो ब्याप्य लोकानवस्थितः / जनमेजय उवाच / गमिष्यति क्षयान्ते च पुनारायणं नृप // 48 एवं बहुविधं धर्म प्रतिबुद्धैर्निषेवितम् / प्रतिनां चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम / न कुर्वन्ति कथं विप्रा अन्ये नानावते स्थिताः // 62 कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः // 49 वैशंपायन उवाच / नारदेन तु संप्राप्तः सरहस्यः ससंग्रहः / तिस्रः प्रकृतयो राजन्देहबन्धेषु निर्मिसाः / एष धर्मो जगन्नाथात्साक्षान्नारायणान्नप // 50 सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत // 63 एवमेष महान्धर्म आद्यो राजन्सनातनः / देहबन्धेषु पुरुषः श्रेष्ठः कुरुकुलोद्वह / -24773 Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 336. 64 ] महाभारते [ 12. 387.5 सात्त्विकः पुरुषव्याघ्र भवेन्मोक्षार्थनिश्चितः // 64 | इमे तथा ज्ञानमहाजलौघा अत्रापि स विजानाति पुरुषं ब्रह्मवर्तिनम् / नारायणं वै पुनराविशन्ति // 77 नारायणपरो मोक्षस्ततो वै सात्त्विकः स्मृतः // 65 एष ते कथितो धर्मः सात्वतो यदुबान्धव / मनीषितं च प्राप्नोति चिन्तयन्पुरुषोत्तमम् / कुरुष्वैनं यथान्यायं यदि शक्नोषि भारत // 78 .. एकान्तभक्तिः सततं नारायणपरायणः // 66 एवं हि सुमहाभागो नारदो गुरवे मम / मनीषिणो हि ये केचिद्यतयो मोक्षकाङ्क्षिणः / श्वेतानां यतिनामाह एकान्तगतिमव्ययाम् // 79 तेषां वै छिन्नतृष्णानां योगक्षेमवहो हरिः // 67 / व्यासश्चाकथयत्प्रीत्या धर्मपुत्राय धीमते।। जायमानं हि पुरुषं यं पश्येन्मधुसूदनः / स एवायं मया तुभ्यमाख्यातः प्रसतो गुरोः // 80 सात्त्विकस्तु स विज्ञेयो भवेन्मोक्षे च निश्चितः // / इत्थं हि दुश्चरो धर्म एष पार्थिवसत्तम / सांख्ययोगेन तुल्यो हि धर्म एकान्तसेवितः / यथैव स्वं तथैवान्ये न भजन्ति विमोहिताः // 81 नारायणात्मके मोक्षे ततो यान्ति परां गतिम् // 69 | कृष्ण एव हि लोकानां भावनो मोहनस्तथा / नारायणेन दृष्टश्च प्रतिबुद्धो भवेत्पुमान्। संहारकारकश्चैव कारणं च विशां पते // 82 एवमात्मेच्छया राजन्प्रतिबुद्धो न जायते // 70 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजसी तामसी चैव व्यामिश्रे प्रकृती स्मृते / षत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥ 336 // तदात्मकं हि पुरुषं जायमानं विशां पते / 337 प्रवृत्तिलक्षणैर्युक्तं नावेक्षति हरिः स्वयम् // 71 जनमेजय उवाच / पश्यत्येनं जायमानं ब्रह्मा लोकपितामहः / साख्यं योगं पञ्चरात्रं वेदारण्यकमेव च / रजसा तमसा चैव मानुषं समभिप्लुतम् // 72 ज्ञानान्येतानि ब्रह्मर्षे लोकेषु प्रचरन्ति ह // 1 कामं देवाश्च ऋषयः सत्त्वस्था नृपसत्तम / किमेतान्येकनिष्ठानि पृथतिष्ठानि वा मुने। हीनाः सत्त्वेन सूक्ष्मेण ततो वैकारिकाः स्मृताः // प्रवहि वै मया पृष्टः प्रवृत्तिं च यथाक्रमम् // 2 जनमेजय उवाच / . वैशंपायन उवाच / कथं वैकारिको गच्छेत्पुरुषः पुरुषोत्तमम् // 74 जज्ञे बहुशं परमत्युदारं वैशंपायन उवाच / ___ यं द्वीपमध्ये सुतमात्मवन्तम् / सुसूक्ष्मसत्त्वसंयुक्तं संयुक्तं त्रिभिरक्षरैः / पराशराद्गन्धवती महर्षि पुरुषः पुरुषं गच्छेन्निष्क्रियः पञ्चविंशकम् // 75 तस्मै नमोऽज्ञानतमोनुदाय // 3 एवमेकं सांख्ययोगं वेदारण्यकमेव च। पितामहाद्यं प्रवदन्ति षष्ठं परस्पराङ्गान्येतानि पञ्चरात्रं च कथ्यते / महर्षिमार्षेयविभूतियुक्तम् / एष एकान्तिनां धर्मो नारायणपरात्मकः // 76 नारायणस्यांशजमेकपुत्रं यथा समुद्रात्प्रसता जलौघा द्वैपायनं वेदमहानिधानम् // 4 स्तमेव राजन्पुनराविशन्ति / तमादिकालेषु महाविभूति-2478 - Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 337.5] शान्तिपर्व [12. 837. 32 नारायणो ब्रह्ममहानिधानम् / ततः स प्रादुरभवदथैनं वाक्यमब्रवीत् // 18 ससर्ज पुत्रार्थमुदारतेजा मम त्वं नामितो जातः प्रजासर्गकरः प्रभुः / व्यासं महात्मानमजः पुराणः // 5 सज प्रजास्त्वं विविधा ब्रह्मन्सजडपण्डिताः // 19 जनमेजय उवाच / स एवमुक्तो विमुखश्चिन्ताव्याकुलमानसः / त्वयैव कथितः पूर्व संभवो द्विजसत्तम / प्रणम्य वरदं देवमुवाच हरिमीश्वरम् // 20 वसिष्ठस्य सुतः शक्तिः शक्तेः पुत्रः पराशरः // 6 का शक्तिर्मम देवेश प्रजाः स्रष्टुं नमोऽस्तु ते। पराशरस्य दायादः कृष्णद्वैपायनो मुनिः / अप्रज्ञावानहं देव विधत्स्व यदनन्तरम् // 21 भूयो नारायणसुतं स्वमेवैनं प्रभाषसे // 7 स एवमुक्तो भगवान्भूत्वाथान्तर्हितस्ततः / किमतः पूर्व जन्म व्यासस्यामिततेजसः।। चिन्तयामास देवेशो बुद्धि बुद्धिमतां वरः // 22 कथयस्वोत्तममते जन्म नारायणोद्भवम् // 8 स्वरूपिणी ततो बुद्धिरुपतस्थे हरिं प्रभुम् / वैशंपायन उवाच / योगेन चैनां निर्योगः स्वयं नियुयुजे तदा // 23 वेदार्थान्वेत्तुकामस्य धर्मिष्ठस्य तपोनिधेः / स तामैश्वर्ययोगस्थां बुद्धिं शक्तिमती सतीम् / गुरोर्मे ज्ञाननिष्ठस्य हिमवत्पाद आसतः॥९ उवाच वचनं देवो बुद्धिं वै प्रभुरव्ययः // 24 कृत्वा भारतमाख्यानं तप:श्रान्तस्य धीमतः / ब्रह्माणं प्रविशस्वेति लोकसृष्ट्यर्थसिद्धये / शुश्रूषां तत्परा राजन्कृतवन्तो वयं तदा // 10 ततस्तमीश्वरादिष्टा बुद्धिः क्षिप्रं विवेश सा // 25 सुमन्तुजैमिनिश्चैव पैलश्च सुदृढव्रतः / अथैनं बुद्धिसंयुक्तं पुनः स ददृशे हरिः / अहं चतुर्थः शिष्यो वै शुको व्यासात्मजस्तथा // भूयश्चैनं वचः प्राह सृजेमा विविधाः प्रजाः // 26 एभिः परिवृतो व्यासः शिष्यैः पञ्चभिरुत्तमैः / एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत / शुशुभे हिमवत्पादे भूतैर्भूतपतिर्यथा // 12 प्राप चैव मुहूर्तेन स्वस्थानं देवसंज्ञितम् // 20 वेदानावर्तयन्साङ्गान्भारतार्थांश्च सर्वशः। तां चैव प्रकृति प्राप्य एकीभावगतोऽभवत् / तमेकमनसं दान्तं युक्ता वयमुपास्महे // 13 अथास्य बुद्धिरभवत्पुनरन्या तदा किल // 28 कथान्तरेऽथ कस्मिंश्चित्पृष्टोऽस्माभिर्द्विजोत्तमः / सृष्टा इमाः प्रजाः सर्वा ब्रह्मणा परमेष्ठिना / वेदार्थान्भारतार्थाश्च जन्म नारायणात्तथा // 14 दैत्यदानवगन्धर्वरक्षोगणसमाकुलाः / स पूर्वमुक्त्वा वेदार्थान्भारतार्थांश्च तत्त्ववित् / जाता हीयं वसुमती भाराकान्ता तपस्विनी // 29 नारायणादिदं जन्म व्याहर्तुमुपचक्रमे // 15 बहवो बलिनः पृथ्व्यां दैत्यदानवराक्षसाः / शृणुध्वमाख्यानवरमेतदारेयमुत्तमम् / भविष्यन्ति तपोयुक्ता वरान्प्राप्स्यन्ति चोत्तमान् // आदिकालोद्भवं विप्रास्तपसाधिगतं मया // 16 अवश्यमेव तैः सर्वैर्वरदानेन दर्पितैः / प्राप्ते प्रजाविसगै वै सप्तमे पद्मसंभवे / बाधितव्याः सुरगणा ऋषयश्च तपोधनाः / नारायणो महायोगी शुभाशुभविवर्जितः // 17 / तत्र न्याय्यमिदं कर्तुं भारावतरणं मया // 31 ससृजे नामितः पुत्रं ब्रह्माणममितप्रभम् / अथ नानासमुद्भूतैर्वसुधायां यथाक्रमम् / -2479 Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 337. 32 ] महाभारते [ 12. 337. 56 निग्रहेण च पापानां साधूनां प्रग्रहेण च // 32 / वीतरागश्च पुत्रस्ते परमात्मा भविष्यति / इमां तपस्विनी सत्यां धारयिष्यामि मेदिनीम् / महेश्वरप्रसादेन नैतद्वचनमन्यथा // 46 मया ह्येषा हि ध्रियते पातालस्थेन भोगिना // 33 यं मानसं वै प्रवदन्ति पुत्रं मया धृता धारयति जगद्धि सचराचरम् / ___ पितामहस्योत्तमबुद्धियुक्तम् / तस्मात्पृथ्व्याः परित्राणं करिष्ये संभवं गतः // 34 वसिष्ठमग्र्यं तपसो निधान एवं म चिन्तयित्वा तु भगवान्मधुसूदनः / ___ यश्चापि सूर्य व्यतिरिच्य भाति // 47 रूपाण्यनेकान्यसजत्प्रादुर्भावभवाय सः // 35 तस्यान्वये चापि ततो महर्षिः वाराहं नारसिंहं च वामनं मानुषं तथा / ___ पराशरो नाम महाप्रभावः / एमिर्मया निहन्तव्या दुर्विनीताः सुरारयः // 36 पिता स ते वेदनिधिर्वरिष्ठो भय भूयो जगत्स्रष्टा भोःशब्देनानुनादयन् / ___ महातपा वै तपसो निवासः। .. सरस्वतीमुञ्चचार तत्र सारस्वतोऽभवत् // 37 कानीनगर्भः पितृकन्यकायां भपान्तरतमा नाम सुतो वाक्संभवो विभोः / तस्मादृषेस्त्वं भविता च पुत्रः / / 48 भूतभव्यभविष्यज्ञः सत्यवादी दृढव्रतः // 38 भूतभव्यभविष्याणां छिन्नसर्वार्थसंशयः / ... तमुवाच नतं मूर्धा देवानामादिरव्ययः / ते ह्यतिक्रान्तकाः पूर्व सहस्रयुगपर्ययाः // 49 बेदाख्याने श्रुतिः कार्या त्वया मतिमतां वर / तांश्च सर्वान्मयोद्दिष्टान्द्रक्ष्यसे तपसान्वितः। : तस्मात्कुरु यथाज्ञप्तं मयैतद्वचनं मुने // 39 पुनर्द्रक्ष्यसि चानेकसहस्रयुगपर्ययान् // 50 तेन भिन्नास्तदा वेदा मनोः स्वायंभुवेऽन्तरे / अनादिनिधनं लोके चक्रहस्तं च मां मुने। ततस्तुतोष भगवान्हरिस्तेनास्य कर्मणा / अनुध्यानान्मम मुने नैतद्वचनमन्यथा / / 51 तपसा च सुतप्तेन यमेन नियमेन च // 40 शनैश्चरः सूर्यपुत्रो भविष्यति मनुर्महाम् / श्रीभगवानुवाच / तस्मिन्मन्वन्तरे चैव सप्तर्षिगणपूर्वकः / मन्वन्तरेषु पुत्र त्वमेवं लोकप्रवर्तकः / त्वमेव भविता वत्स मत्प्रसादान्न संशयः / / 52 भविष्यस्यचलो ब्रह्मन्नप्रधृष्यश्च नित्यशः / / 41 व्यास उवाच / पुनस्तिष्ये च संप्राप्ते कुरवो नाम भारताः। एवं सारस्वतमृषिमपान्तरतमं सदा / भविष्यन्ति महात्मानो राजानः प्रथिता भुवि // उक्त्वा वचनमीशानः साधयस्वेत्यथाब्रवीत् // 53 तेषां स्वत्तः प्रसूतानां कुलभेदो भविष्यति / सोऽहं तस्य प्रसादेन देवस्य हरिमेधसः / परस्परविनाशार्थ त्वामृते द्विजसत्तम // 43 अपान्तरतमा नाम ततो जातोऽऽज्ञया हरेः / तत्राप्यनेकधा वेदान्भेत्स्यसे तपसान्वितः / पुनश्च जातो विख्यातो वसिष्ठकुलनन्दनः // 54 कृष्णे युगे च संप्राप्ते कृष्णवर्णो भविष्यसि // 44 / तदेत्कथितं जन्म मया पूर्वकमात्मनः / धर्माणां विविधानां च कर्ता ज्ञानकरस्तथा।। नारायणप्रसादेन तथा नारायणांशजम् // 55 भविष्यसि तपोयुक्तो न च रागाद्विमोक्ष्यसे // 45 / मया हि सुमहत्तप्तं तपः परमदारुणम् / -2480 - Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 337. 56 ] शान्तिपर्व [12. 338 11 पुरा मतिमतां श्रेष्ठाः परमेण समाधिना / / 56 तस्मादृषेस्तद्भवतीति विद्याएतद्वंः कथितं सर्वं यन्मां पृच्छथ पुत्रकाः / / _ दिव्यन्तरिक्षे भुवि चाप्सु चापि // 69 पूर्वजन्म भविष्यं च भक्तानां स्नेहतो मया // 57 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि वैशंपायन उवाच / __सप्तत्रिंशदधिकत्रिशतततमोऽध्यायः // 337 // एष ते कथितः पूर्व संभवोऽस्मद्गुरोर्नृप / 338 व्यासस्याक्लिष्टमनसो यथा पृष्टः पुनः शृणु // 58 जनमेजय उवाच / सांख्यं योगं पञ्चरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा। बहवः पुरुषा ब्रह्मन्नुताहो एक एव तु / ज्ञानान्येतानि राजर्षे विद्धि नानामतानि वै // 59 को ह्यत्र पुरुषः श्रेष्ठः को वा योनिरिहोच्यते // 1 सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षिः स उच्यते। . वैशंपायन उवाच / हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नान्यः पुरातनः // 60 बहवः पुरुषा लोके सांख्ययोगविचारिणाम् / अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते / नैतदिच्छन्ति पुरुषमेकं कुरुकुलोद्वह // 2 प्राचीनगर्ने तमृषि प्रवदन्तीह केचन // 61 बहूनां पुरुषाणां च यथैका योनिरुच्यते / उमापतिर्भूतपतिः श्रीकण्ठो ब्रह्मणः सुतः / तथा तं पुरुषं विश्वं व्याख्यास्यामि गुणाधिकम् // उक्तवानिदमव्यग्रो ज्ञानं पाशुपतं शिवः // 62 नमस्कृत्वा तु गुरवे व्यासायामिततेजसे / पञ्चरात्रस्य कृत्स्य वेत्ता तु भगवान्स्वयम। तपोयुक्ताय दान्ताय वन्द्याय परमर्षये // 4 सर्वेषु च नृपश्रेष्ठ ज्ञानेष्वेतेषु दृश्यते // 63 इदं पुरुषसूक्तं हि सर्ववेदेषु पार्थिव / यथागमं यथाज्ञानं निष्ठा नारायणः प्रभुः / ऋतं सत्यं च विख्यातमृषिसिंहेन चिन्तितम् // 5 न चैनमेवं जानन्ति तमोभूता विशां पते // 64 उत्सर्गेणापवादेन ऋषिभिः कपिलादिभिः / तमेव शास्त्रकर्तारं प्रवदन्ति मनीषिणः / अध्यात्मचिन्तामाश्रित्य शास्त्राण्युक्तानि भारत // 6 निष्ठां नारायणमृर्षि नान्योऽस्तीति च बादिनः // समासतस्तु यद्व्यासः पुरुषैकत्वमुक्तवान् / निःसंशयेषु सर्वेषु नित्यं वसति वै हरिः / तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि प्रसादादमितौजसः // 7 ससंशयान्हेतुबलान्नाध्यावसति माधवः // 66 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / पश्चरात्रविदो ये तु यथाक्रमपरा नृप / ब्रह्मणा सह संवादं त्र्यम्बकस्य विशां पते // 8 एकान्तभावोपगतास्ते हरिं प्रविशन्ति वै // 67 क्षीरोदस्य समुद्रस्य मध्ये हाटकसप्रभः / सांख्यं च योगं च सनातने द्वे वैजयन्त इति ख्यातः पर्वतप्रवरो नृप // 9 वेदाश्च सर्वे निखिलेन राजन् / तत्राध्यात्मगतिं देव एकाकी प्रविचिन्तयन् / सर्वैः समस्तैऋषिभिर्निरुक्तो वैराजसदने नित्यं वैजयन्तं निषेवते // 10 नारायणो विश्वमिदं पुराणम् / / 68 अथ तत्रासतस्तस्य चतुर्वक्त्रस्य धीमतः। शुभाशुभं कर्म समीरितं य ललाटप्रभवः पुत्रः शिव आगाद्यदृच्छया / त्प्रवर्तते सर्वलोकेषु किंचित् / आकाशेनैव योगीशः पुरा त्रिनयनः प्रभुः // 11 . म. भा. 311 - 2481 - Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 338. 12 ] महाभारते [12. 339. 10 ततः खान्निपपाताशु धरणीधरमूर्धनि / एवमेतदतिक्रान्तं द्रष्टव्यं नैवमित्यपि / अग्रतश्चाभवत्प्रीतो ववन्दे चापि पादयोः // 12 आधारं तु प्रवक्ष्यामि एकस्य पुरुषस्य ते // 24 तं पादयोर्निपतितं दृष्ट्वा सव्येन पाणिना। बहूनां पुरुषाणां स यथैका योनिरुच्यते / उत्थापयामास तदा प्रभुरेकः प्रजापतिः // 13 तथा तं पुरुषं विश्वं परमं सुमहत्तमम् / उवाच चैनं भगवांश्चिरस्यागतमात्मजम् / निर्गुणं निर्गुणा भूत्वा प्रविशन्ति सनातनम् // 25 स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मेऽन्तिकम् // इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि कञ्चित्ते कुशलं पुत्र स्वाध्यायस्तपसोः सदा। ___ अष्टात्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 338 // नित्यमुग्रतपास्त्वं हि ततः पृच्छामि ते पुनः // 15 339 रुद्र उवाच / ब्रह्मोवाच / . . त्वत्प्रसादेन भगवन्स्वाध्यायतपसोर्मम / कुशलं चाव्ययं चैव सर्वस्य जगतस्तथा // 16 शृणु पुत्र यथा ह्येष पुरुषः शाश्वतोऽव्ययः। चिरदृष्टो हि भगवान्वैराजसदने मया / अक्षयश्चाप्रमेयश्च सर्वगश्च निरुच्यते // 1. ततोऽहं पर्वतं प्राप्तस्त्विमं त्वत्पादसेवितम् // 17 न स शक्यस्त्वया द्रष्टुं मयान्यैर्वापि सत्तम / कौतूहलं चापि हि मे एकान्तगमनेन ते / सगुणो निर्गुणो विश्वो ज्ञानदृश्यो ह्यसौ स्मृतः // नैतत्कारणमल्पं हि भविष्यति पितामह // 18 अशरीरः शरीरेषु सर्वेषु निवसत्यसौ। किं नु तत्सदनं श्रेष्ठं क्षुत्पिपासाविवर्जितम् / / वसन्नपि शरीरेषु न स लिप्यति कर्मभिः // 3 सुरासुरैरध्युषितमृषिभिश्वामितप्रभैः // 19 ममान्तरात्मा तव च ये चान्ये देहसंज्ञिताः / गन्धर्वैरप्सरोभिश्च सततं संनिषेवितम् / सर्वेषां साक्षिभूतोऽसौ न प्राह्यः केनचित्क्वचित् // उत्सृज्येमं गिरिवरमेकाकी प्राप्तवानसि // 20 विश्वमूर्धा विश्वभुजो विश्वपादाक्षिनासिकः / ब्रह्मोवाच / एकश्चरति क्षेत्रेषु स्वैरचारी यथासुखम् // 5 . क्षेत्राणि हि शरीराणि वीजानि च शुभाशुभे / वैजयन्तो गिरिवरः सततं सेव्यते मया। अत्रैकाग्रेण मनसा पुरुषश्चिन्त्यते विराट् // 21 तानि वेत्ति स योगात्मा ततः क्षेत्रज्ञ उच्यते // 6 नागतिर्न गतिस्तस्य ज्ञेया भूतेन केनचित् / रुद्र उवाच / सांख्येन विधिना चैव योगेन च यथाक्रमम् // 7 बहवः पुरुषा ब्रह्मस्त्वया सृष्टाः स्वयंभुवा / चिन्तयामि गतिं चास्य न गति वेद्मि चोत्तमाम् / सृज्यन्ते चापरे ब्रह्मन्स चैकः पुरुषो विराट् // 22 यथाज्ञानं तु वक्ष्यामि पुरुषं तं सनातनम् // 8 को ह्यसौ चिन्त्यते ब्रह्मस्त्वया वै पुरुषोत्तमः। तस्यैकत्वं महत्त्वं हि स चैकः पुरुषः स्मृतः / एतन्मे संशयं ब्रूहि महत्कौतूहलं हि मे // 23 / महापुरुषशब्दं स बिभत्र्येकः सनातनः॥ 9 ब्रह्मोवाच। ___एको हुताशो बहुधा समिध्यते बहवः पुरुषाः पुत्र ये त्वया समुदाहृताः / ___एकः सूर्यस्तपसां योनिरेका / / -2482 - सान। Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 339. 10 ] शान्तिपर्व [12. 340.8 एको वायुर्बहुधा वाति लोके अहं ब्रह्मा आद्य ईशः प्रजानां महोदधिश्चाम्भसां योनिरेकः / ___ तस्माज्जातस्त्वं च मत्तः प्रसूतः / / पुरुषश्चैको निर्गुणो विश्वरूप मत्तो जगज्जङ्गमं स्थावरं च स्तं निर्गुणं पुरुषं चाविशन्ति / / 10 / ___ सर्वे वेदाः सरहस्या हि पुत्र // 19 हित्वा गुणमयं सर्व कर्म हित्वा शुभाशुभम् / / चतुर्विभक्तः पुरुषः स क्रीडति यथेच्छति / उभे सत्यानृते त्यक्त्वा एवं भवति निर्गुणः // 11 एवं स एव भगवाज्ञानेन प्रतिबोधितः // 20 अचिन्त्यं चापि तं ज्ञात्वा भावसूक्ष्मं चतुष्टयम् / एतत्ते कथितं पुत्र यथावदनुपृच्छतः / विचरेद्यो यतिर्यत्तः स गच्छेत्पुरुषं प्रभुम् // 12 सांख्यज्ञाने तथा योगे यथावदनुवर्णितम् // 21 एवं हि परमात्मानं केचिदिच्छन्ति पण्डिताः।। इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकात्मानं तथात्मानमपरेऽध्यात्मचिन्तकाः // 13 एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥१३९॥ तत्र यः परमात्मा हि स नित्यं निर्गुणः स्मृतः / 340 स हि नारायणो ज्ञेयः सर्वात्मा पुरुषो हि सः / युधिष्ठिर उवाच / न लिप्यते फलैश्चापि पद्मपत्रमिवाम्भसा // 14 कर्मात्मा त्वपरो योऽसौ मोक्षबन्धैः स युज्यते / धर्माः पितामहेनोक्ता मोक्षधर्माश्रिताः शुभाः। ससप्तदशकेनापि राशिना युज्यते हि सः। धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि मे भवान् // 1 एवं बहुविधः प्रोक्तः पुरुषस्ते यथाक्रमम् // 15 भीष्म उवाच / यत्तत्कृत्स्न लोकतन्त्रस्य धाम सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलोदयः / वेद्यं परं बोधनीयं सबोद्ध बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफळा क्रिया // 2 मन्ता मन्तव्यं प्राशिता प्राशितव्यं यस्मिन्यस्मिस्तु विषये यो यो याति विनिश्चयम् / ध्राता ऽयं स्पर्शिता स्पर्शनीयम् // 16 स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम // 3 द्रष्टा द्रष्टव्यं श्राविता श्रावणीयं अपि च त्वं नरव्याघ्र श्रोतुमर्हसि मे कथाम् / ' ज्ञाता ज्ञेयं सगुणं निर्गुणं च / पुरा शक्रस्य कथितां नारदेन सुरर्षिणा / / 4 यद्वै प्रोक्तं गुणसाम्यं प्रधानं सुरर्षिारदो राजन्सिद्धस्त्रैलोक्यसंमतः / ___ नित्यं चैतच्छाश्वतं चाव्ययं च // 17 पर्येति क्रमशो लोकान्वायुरव्याहतो यथा // 5 यद्वै सूते धातुराचं निधानं स कदाचिन्महेष्वास देवराजालयं गतः / __तद्वै विप्राः प्रवदन्तेऽनिरुद्धम् / सत्कृतश्च महेन्द्रेण प्रत्यासन्नगतोऽभवत् // 6 यद्वै लोके वैदिकं कर्म साधु तं कृतक्षणमासीनं पर्यपृच्छच्छचीपतिः / ___ आशीर्युक्तं तद्धि तस्योपभोज्यम् // 18 ब्रह्मर्षे किंचिदाश्चर्यमस्ति दृष्टं स्वयानघ / / 7 देवाः सर्वे मुनयः साधु दान्ता यथा त्वमपि विप्रर्षे त्रैलोक्यं सचराचरम् / / * स्तं प्राग्यज्ञैर्यज्ञभागं यजन्ते / जातकौतूहलो नित्यं सिद्धश्वरसि साक्षिवत् // 8 -2483 - Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 340. 9] महाभारते [ 12. 342. 11 न ह्यस्यविदितं लोके देवर्षे तव किंचन / 342 श्रुतं वाप्यनुभूतं वा दृष्टं वा कथयस्व मे // 9 ब्राह्मण उवाच। तस्मै राजन्सुरेन्द्राय नारदो वदतां वरः। समुत्पन्नाभिधानोऽस्मि वाड्माधुर्येण तेऽनघ / आसीनायोपपन्नाय प्रोक्तवान्विपुलां कथाम् // 10 मित्रतामभिपन्नस्त्वां किंचिद्वक्ष्यामि तच्छृणु।। 1 यथा येन च कल्पेन स तस्मै द्विजसत्तमः / गृहस्थधर्म विप्रेन्द्र कृत्वा पुत्रगतं त्वहम् / / कथां कथितवान्पृष्टस्तथा त्वमपि मे शृणु // 11 धर्म परमकं कुर्यां को हि मार्गो भवेहिज // 2 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि अहमात्मानमात्मस्थमेक एवात्मनि स्थितः / चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 340 // कर्तुं काङ्खामि नेच्छामि बद्धः साधारणैर्गुणैः // 3 341 यावदेवानतीतं मे वयः पुत्रफलाश्रितम। .. भीष्म उवाच। तावदिच्छामि पाथेयमादातुं पारलौकिकम् // 4 आसीत्किल कुरुश्रेष्ठ महापद्मे पुरोत्तमे / अस्मिन्हि लोकसंताने परं पारमभीप्सतः / / गङ्गाया दक्षिणे तीरे कश्चिद्विप्रः समाहितः // 1 उत्पन्ना मे मतिरियं कुतो धर्ममयः प्लवः / / 5 सौम्यः सोमान्वये वेदे गताध्वा छिन्नसंशयः / समुह्यमानानि निशम्य लोके धर्मनित्यो जितक्रोधो नित्यतृप्तो जितेन्द्रियः // 2 ___ निर्यात्यमानानि च सात्त्विकानि / अहिंसानिरतो नित्यं सत्यः सज्जनसंमतः। दृष्ट्वा च धर्मध्वजकेतुमालां न्यायप्राप्तेन वित्तेन स्वेन शीलेन चान्वितः / / 3 ___ प्रकीर्यमाणामुपरि प्रजानाम् // 6 ज्ञातिसंबन्धिविपुले मित्रापाश्रयसंमते / न मे मनो रज्यति भोगकाले कुले महति विख्याते विशिष्टां वृत्तिमास्थितः // 4 ___ दृष्ट्वा यतीन्द्रार्थयतः परत्र। स पुत्रान्बहुलान्दृष्ट्वा विपुले कर्मणि स्थितः / तेनातिथे बुद्धिवलाश्रयेण कुलधर्माश्रितो राजन्धर्मचर्यापरोऽभवत् // 5 धर्मार्थतत्त्वे विनियुद्ध मां त्वम् // 7 ततः स धर्म वेदोक्तं यथाशास्त्रोक्तमेव च / शिष्टाचीणं च धर्म च त्रिविधं चिन्त्य चेतसा // 6 भीष्म उवाच। किं नु मे स्याच्छुभं कृत्वा किं क्षमं किं परायणम् / सोऽतिथिर्वचनं तस्य श्रुत्वा धर्माभिलाषिणः / इत्येवं खिद्यते नित्यं न च याति विनिश्चयम् / 7 . प्रोवाच वचनं श्क्ष्णं प्राज्ञो मधुरया गिरा / / 8 तस्यैवं खिद्यमानस्य धर्म परममास्थितः / अहमप्यत्र मुह्यामि ममाप्येष मनोरथः। / कदाचिदतिथिः प्राप्तो ब्राह्मणः सुसमाहितः॥ 8 न च संनिश्चयं यामि बहुद्वारे त्रिविष्टपे // 9 स तस्मै सक्रियां चक्रे क्रियायुक्तेन हेतुना / केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद्यज्ञफलं द्विजाः / विश्रान्तं चैनमासीनमिदं वचनमब्रवीत् // 9 वानप्रस्थाश्रम केचिद्गार्हस्थ्यं केचिदाश्रिताः // 10 राजधर्माश्रयं केचित्केचिदात्मफलाश्रयम् / . इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 341 // गुरुचर्याश्रयं केचित्केचिद्वाक्यं यमाश्रयम् // 11 -2484 - Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 342. 12] शान्तिपर्व [12. 344.1 मातरं पितरं केचिच्छुश्रूषन्तो दिवं गताः। गुणैरनवमैर्युक्तः समस्तैरामिकामिकैः // 8 अहिंसया परे स्वर्ग सत्येन च तथा परे // 12 प्रकृत्या नित्यसलिलो नित्यमध्ययने रतः। आहवेऽभिमुखा केचिनिहताः स्विद्दिवं गताः। तपोदमाभ्यां संयुक्तो वृत्तेनानवरेण च // 9 केचिदुञ्छव्रतैः सिद्धाः स्वर्गमार्गसमाश्रिताः // 13 यज्वा दानरुचिः क्षान्तो वृत्ते च परमे स्थितः / केचिदध्ययने युक्ता वेदव्रतपराः शुभाः / सत्यवागनसूयुश्च शीलवानभिसंश्रितः॥ 10 बुद्धिमन्तो गताः स्वर्गं तुष्टात्मानो जितेन्द्रियाः॥१४ शेषान्नभोक्ता वचनानुकूलो आर्जवेनापरे युक्ता निहतानार्जवर्जनैः / ___हितार्जवोत्कृष्टकृताकृतज्ञः। ऋजवो नाकपृष्ठे वै शुद्धात्मानः प्रतिष्ठिताः // 15 अवैरकृद्भूतहिते नियुक्तो एवं बहुविधैर्लोके धर्मद्वारैरनावृतैः / गङ्गाहदाम्भोऽभिजनोपपन्नः // 11 ममापि मतिराविना मेघलेखेव वायुना // 16 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 343 // द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥३४२॥ ब्राह्मण उवाच / ' अतिथिरुवाच / अतिभारोद्यतस्यैव भारापनयनं महत् / उपदेशं तु ते विप्र करिष्येऽहं यथागमम् / पराश्वासकरं वाक्यमिदं मे भवतः श्रुतम् // 1 गुरुणा मे यथाख्यातमर्थतस्तच्च मे शृणु // 1 अध्वक्लान्तस्य शयनं स्थानक्लान्तस्य चासनम् / यत्र पूर्वाभिसर्गेण धर्मचक्र प्रवर्तितम् / तृषितस्य च पानीयं क्षुधार्तस्य च भोजनम् // 2 नैमिषे गोमतीतीरे तत्र नागाह्वयं पुरम् // 2 ईप्सितस्येव संप्राप्तिरन्नस्य समयेऽतिथेः / समलिंदशैस्तत्र इष्टमासीहिजर्षभ / एषितस्यात्मनः काले वृद्धस्येव सुतो यथा // 3 योन्द्रातिक्रमं चक्रे मान्धाता राजसत्तमः // 3 मनसा चिन्तितस्येव प्रीतिस्निग्धस्य दर्शनम् / कृताधिवासो धर्मात्मा तत्र चक्षुःश्रवा महान् / प्रह्लादयति मां वाक्यं भवता यदुदीरितम् // 4 पद्मनाभो महाभागः पद्म इत्येव विश्रुतः // 4 दत्तचक्षुरिवाकाशे पश्यामि विमृशामि च। स वाचा कर्मणा चैव मनसा च द्विजर्षभ / प्रज्ञानवचनाद्योऽयमुपदेशो हि मे कृतः / प्रसादयति भूतानि त्रिविधे वर्त्मनि स्थितः // 5 बाढमेवं करिष्यामि यथा मां भाषते भवान् // 5 साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनेति चतुर्विधम् / इहेमां रजनी साधो निवसस्व मया सह / विषमस्थं जनं स्वं च चक्षुर्ध्यानेन रक्षति / / 6 प्रभाते यास्यति भवान्पर्याश्वस्तः सुखोषितः / तमभिक्रम्य विधिना प्रष्टुमर्हसि काङ्क्षितम् / असौ हि भगवान्सूर्यो मन्दरश्मिरवाङ्मुखः // 6 स ते परमकं धर्म नमिथ्या दर्शयिष्यति // 7 भीष्म उवाच / स हि सर्वातिथि गो बुद्धिशास्त्रविशारदः। ततस्तेन कृतातिथ्यः सोऽतिथिः शत्रुसूदन / - 2485 - Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 344.7] महाभारते [ 12. 346. 5 . उवास किल तां रात्रि सह तेन द्विजेन वै // 7 नागभार्योवाच / तत्तञ्च धर्मसंयुक्तं तयोः कथयतोस्तदा / आर्य सूर्यरथं वोढुं गतोऽसौ मासचारिकः / व्यतीता सा निशा कृत्स्ना सुखेन दिवसोपमा // 8 सप्ताष्टभिर्दिनैर्विप्र दर्शयिष्यत्यसंशयम् // 8 ततः प्रभातसमये सोऽतिथिस्तेन पूजितः / एतद्विदितमार्यस्य विवासकरणं मम / ब्राह्मणेन यथाशक्त्या स्वकार्यमभिकाङ्क्षता // 9 भर्तुभवतु किं चान्यत्क्रियतां तद्वदस्व मे // 9. ततः स विप्रः कृतधर्मनिश्चयः ब्राह्मण उवाच / कृताभ्यनुज्ञः स्वजनेन धर्मवित् / अनेन निश्चयेनाहं साध्वि संप्राप्तवानिह / यथोपदिष्टं भुजगेन्द्रसंश्रयं प्रतीक्षन्नागमं देवि वत्स्याम्यस्मिन्महावने // 10 जगाम काले सुकृतैकनिश्चयः // 10 संप्राप्तस्यैव चाव्यप्रमावेद्योऽहमिहागतः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि / ममाभिगमनं प्राप्तो वाच्यश्च वचनं त्वया // 11 चतुश्चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 344 // अहमप्यत्र वत्स्यामि गोमत्याः पुलिने शुभे / कालं परिमिताहारो यथोक्तं परिपालयन् // 12 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच। . ततः स विप्रस्तां नागी समाधाय पुनः पुनः। . स वनानि विचित्राणि तीर्थानि च सरांसि च / तदेव पुलिनं नद्याः प्रययौ ब्राह्मणर्षभः॥ 13 अभिगच्छन्क्रमेण स्म कंचिन्मुनिमुपस्थितः // 1 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि तं स तेन यथोद्दिष्टं नागं विप्रेण ब्राह्मणः / | पञ्चचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 345 // पर्यपृच्छद्यथान्यायं श्रुत्वैव च जगाम सः // 2 346 सोऽमिगम्य यथाख्यातं नागायतनमर्थवित् / भीष्म उवाच / प्रोक्तवानहमस्मीति भोःशब्दालंकृतं वचः // 3 अथ तेन नरश्रेष्ठ ब्राह्मणेन तपस्विना। ततस्तस्य वचः श्रुत्वा रूपिणी धर्मवत्सला। निराहारेण वसता दुःखितास्ते भुजंगमाः // 1 दर्शयामास तं विप्रं नागपत्नी पतिव्रता // 4 सा तस्मै विधिवत्पूजां चक्रे धर्मपरायणा / सर्वे संभूय सहितास्तस्य नागस्य बान्धवाः / भ्रातरस्तनया भार्या ययुस्तं ब्राह्मणं प्रति // 2 स्वागतेनागतं कृत्वा किं करोमीति चात्रवीत् // 5 तेऽपश्यन्पुलिने तं वै विविक्ते नियतव्रतम् / ब्राह्मण उवाच / समासीनं निराहारं द्विजं जप्यपरायणम् // 3 विश्रान्तोऽभ्यर्चितश्चास्मि भवत्या श्लक्ष्णया गिरा।। ते सर्वे समभिक्रम्य विप्रमभ्यर्च्य चासकृत् / द्रष्टुमिच्छामि भवति तं देवं नागमुत्तमम् // 6 ऊचुर्वाक्यमसंदिग्धमातिथेयस्य बान्धवाः // 4 एतद्धि परमं कार्यमेतन्मे फलमीप्सितम् / / षष्ठो हि दिवसस्तेऽद्य प्राप्तस्येह तपोधन / अनेनार्थेन चास्म्यद्य संप्राप्तः पन्नगालयम् // 7 / न चाभिलषसे किंचिदाहारं धर्मवत्सल // 5. -2486 - Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 346. 6] शान्तिपर्व [ 12. 347. 16 अस्मानभिगतश्चासि वयं च त्वामुपस्थिताः / | मद्वियोगेन सुश्रोणि वियुक्ता धर्मसेतुना // 4 कार्य चातिथ्यमस्माभिर्वयं सर्वे कुटुम्बिनः // 6 नागभार्योवाच / मूलं फलं वा पणं वा पयो वा द्विजसत्तम / शिष्याणां गुरुशुश्रूषा विप्राणां वेदपारणम् / आहारहेतोरनं वा भोक्तुमर्हसि ब्राह्मण // 7 भृत्यानां स्वामिवचनं राज्ञां लोकानुपालनम् / / 5 त्यक्ताहारेण भवता वने निवसता सता। . सर्वभूतपरित्राणं क्षत्रधर्म इहोच्यते / बालवृद्धमिदं सर्व पीड्यते धर्मसंकटात् // 8 वैश्यानां यज्ञसंवृत्तिरातिथेयसमन्विता // 6 न हि नो भ्रूणहा कश्चिद्राजापथ्योऽनृतोऽपि वा। विप्रक्षत्रियवैश्यानां शुश्रूषा शूद्रकर्म तत् / पूर्वाशी वा कुले ह्यस्मिन्देवतातिथिबन्धुषु // 9 गृहस्थधर्मो नागेन्द्र सर्वभूतहितैषिता॥ 7 ब्राह्मण उवाच / नियताहारता नित्यं व्रतचर्या यथाक्रमम् / उपदेशेन युष्माकमाहारोऽयं मया वृतः / धर्मो हि धर्मसंबन्धादिन्द्रियाणां विशेषणम् // 8 द्विरूनं दशरात्रं वै नागस्यागमनं प्रति // 10 अहं कस्य कुतो वाहं कः को मे ह भवेदिति / यद्यष्टरात्रे निर्याते नागमिष्यति पन्नगः / प्रयोजनमतिर्नित्यमेवं मोक्षाश्रमी भवेत् // 9 तदाहारं करिष्यामि तन्निमित्तमिदं व्रतम् // 11 पतिव्रतात्वं भार्यायाः परमो धर्म उच्यते / कर्तव्यो न च संतापो गम्यतां च यथागतम् / तवोपदेशान्नागेन्द्र तञ्च तत्त्वेन वेनि वै // 10 तन्निमित्तं व्रतं मह्यं नैतनेत्तुमिहार्हथ / / 12 साहं धर्म विजानन्ती धर्मनित्ये त्वयि स्थिते। भीष्म उवाच / सत्पथं कथमुत्सृज्य यास्यामि विषमे पथि // 11 तेन ते समनुज्ञाता ब्राह्मणेन भुजंगमाः / देवतानां महाभाग धर्मचर्या न हीयते / स्वमेव भवनं जग्मुरकृतार्था नरर्षभ // 13 अतिथीनां च सत्कारे नित्ययुक्तास्म्यतन्द्रिता // 12 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सप्ताष्टदिवसास्त्वद्य विप्रस्येहागतस्य वै / षट्चत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 346 // स च कार्य न मे ख्याति दर्शनं तव काङ्क्षति / / 13 गोमत्यास्त्वेष पुलिने त्वद्दर्शनसमुत्सुकः / . 347 भीष्म उवाच / आसीनोऽऽवर्तयन्ब्रह्म ब्राह्मणः संशितव्रतः // 14 अहं त्वनेन नागेन्द्र सामपूर्व समाहिता / अथ काले बहुतिथे पूर्णे प्राप्तो भुजंगमः / .. प्रस्थाप्यो मत्सकाशं स संप्राप्तो भुजगोत्तमः // 15 दत्ताभ्यनुज्ञः स्वं वेश्म कृतकर्मा विवस्वतः // 1 एतच्छ्रुत्वा महाप्राज्ञ तत्र गन्तुं त्वमर्हसि / तं भार्या समभिक्रामत्पादशौचादिभिर्गुणैः / दातुमर्हसि वा तस्य दर्शनं दर्शनश्रवः / / 16 उपपन्नां च तां साध्वीं पन्नगः पर्यपृच्छत // 2 अपि त्वमसि कल्याणि देवतातिथिपूजने। * इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 347 // पूर्वमुक्तेन विधिना युक्ता युक्तेन मत्समम् // 3 न खल्वस्यकृतार्थेन स्त्रीबुद्ध्या मार्दवीकृता / -2487 - Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 348. 1] महाभारते [12. 349. 5 348 रोषः संकल्पजः साध्वि दग्धो वाचाग्निना त्वया // नाग उवाच / न च रोषादहं साध्वि पश्येयमधिकं तमः / अथ ब्राह्मणरूपेण कं तं समनुपश्यसि / यस्य वक्तव्यतां यान्ति विशेषेण भुजंगमाः // 14 दोषस्य हि वशं गत्वा दशग्रीवः प्रतापवान् / मानुषं केवलं विप्रं देवं वाथ शुचिस्मिते // 1 को हि मां मानुषः शक्तो द्रष्टुकामो यशस्विनि / तथा शक्रप्रतिस्पर्धी हतो रामेण संयुगे // 15 संदर्शनरुचिर्वाक्यमाज्ञापूर्व वदिष्यति // 2 अन्तःपुरगतं वत्सं श्रुत्वा रामेण निर्दृतम् / / सुरासुरगणानां च देवर्षीणां च भामिनि / धर्षणाद्रोषसंविग्नाः कार्तवीर्यसुता हताः // 16 : ननु नागा महावीर्याः सौरसेयास्तरस्विनः // 3 जामदग्न्येन रामेण सहस्रनयनोपमः / वन्दनीयाश्च वरदा वयमप्यनुयायिनः / संयुगे निहतो रोषात्कार्तवीर्यो महाबलः // 17 तदेष तपसां शत्रः श्रेयसश्च निपातनः / .. मनुष्याणां विशेषेण धनाध्यक्षा इति श्रुतिः // 4 निगृहीतो मया रोषः श्रुत्वैव वचनं तव // 18 नागभार्योवाच / आत्मानं च विशेषेण प्रशंसाम्यनपायिनि / आर्जवेनाभिजानामि नासौ देवोऽनिलाशन / यस्य मे त्वं विशालाक्षि भार्या सर्वगुणान्विता / / एकं त्वस्य विजानामि भक्तिमानतिरोषणः // 5 एष तत्रैव गच्छामि यत्र तिष्ठत्यसौ द्विजः।। स हि कार्यान्तराकाङ्क्षी जलेप्सुः स्तोकको यथा। सर्वथा चोक्तवान्वाक्यं नाकृतार्थः प्रयास्यति // 20 वर्ष वर्षप्रियः पक्षी दर्शनं तव काङ्क्षति // 6 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि न हि त्वा दैवतं किंचिद्विविग्नं प्रतिपालयेत् / अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥ 348 // तुल्ये ह्यभिजने जातो न कश्चित्पर्युपासते // 7 तद्रोषं सहजं त्यक्त्वा त्वमेनं द्रष्टुमर्हसि / आशाछेदेन तस्याद्य नात्मानं दग्धुमर्हसि // 8 भीष्म उवाच / आशया त्वभिपन्नानामकृत्वाश्रुप्रमार्जनम् / स पन्नगपतिस्तत्र प्रययौ ब्राह्मणं प्रति / राजा वा राजपुत्रो वा भ्रूणहत्यैव युज्यते // 9 तमेव मनसा ध्यायन्कार्यवत्तां विचारयन् // 1 मौनाज्जानफलावाप्तिर्दानेन च यशो महत् / तमभिक्रम्य नागेन्द्रो मतिमान्स नरेश्वर / वाग्मित्वं सत्यवाक्येन परत्र च महीयते // 10 प्रोवाच मधुरं वाक्यं प्रकृत्या धर्मवत्सलः // 2 भूमिप्रदानेन गतिं लभत्याश्रमसंमिताम् / भो भो क्षाम्याभिभाषे त्वां न रोषं कर्तुमर्हसि / नष्टस्यार्थस्य संप्राप्तिं कृत्वा फलमुपाभुते // 11 इह त्वमभिसंप्राप्तः कस्यार्थे किं प्रयोजनम् // 3 अभिप्रेतामसंक्लिष्टां कृत्वाकामवती क्रियाम् / आभिमुख्यादभिक्रम्य स्नेहापृच्छामि ते द्विज / न याति निरयं कश्चिदिति धर्मविदो विदुः // 12 विविक्ते गोमतीतीरे किं वा त्वं पर्युपाससे // 4 नाग उवाच / ब्राह्मण उवाच / अभिमानेन मानो मे जातिदोषेण वै महान् / / धर्मारण्यं हि मां विद्धि नागं द्रष्टुमिहागतम् / - 2488 - Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 349. 5] शान्तिपर्व [ 12. 350. 12 पद्मनाभं द्विजश्रेष्ठं तत्र मे कार्यमाहितम् / / 5 / 350 - तस्य चाहमसांनिध्यं श्रुतवानस्मि तं गतम् / ब्राह्मण उवाच / खजनं तं प्रतीक्षामि पर्जन्यमिव कर्षकः // 6 विवस्वतो गच्छति पर्ययेण तस्य चाक्लेशकरणं स्वस्तिकारसमाहितम् / वोढुं भवांस्तं रथमेकचक्रम् / वर्तयाम्ययुतं ब्रह्म योगयुक्तो निरामयः // 7 आश्चर्यभूतं यदि तत्र किंचिनाग उवाच / दृष्टं त्वया शंसितुमर्हसि त्वम् // 1 भहो कल्याणवृत्तस्त्वं साधु सज्जनवत्सलः / नाग उवाच / श्रवान्यस्त्वं महाभाग परं स्नेहेन पश्यसि // 8 यस्य रश्मिसहस्रेषु शाखाविव विहंगमाः / अहं स नागो विप्रर्षे यथा मां विन्दते भवान् / वसन्त्याश्रित्य मुनयः संसिद्धा दैवतैः सह // 2 माज्ञापय यथा स्वैरं किं करोमि प्रियं तव // 9 यतो वायुर्विनिःसत्य सूर्यरश्म्याश्रितो महान् / भयन्तं स्वजनादस्मि संप्राप्तं श्रुतवानिह / विज़म्भत्यम्बरे विप्र किमाश्चर्यतरं ततः // 3 अतस्त्वां स्वयमेवाहं द्रष्टुमभ्यागतो द्विज // 10 शुको नामासितः पादो यस्य वारिधरोऽम्बरे / संप्राप्तश्च भवानद्य कृतार्थः प्रतियास्यति / तोयं सृजति वर्षासु किमाश्चर्यमतः परम् // 4 विस्रब्धो मां द्विजश्रेष्ठ विषये योक्तुमर्हसि // 11 योऽष्टमासांस्तु शुचिना किरणेनोज्झितं पयः / वयं हि भवता सर्वे गुणक्रीता विशेषतः / पर्यादत्ते पुनः काले किमाश्चर्यमतः परम् / / 5 यस्त्वमात्महितं त्यक्त्वा मामेवेहानुरुध्यसे // 12 यस्य तेजोविशेषेषु नित्यमात्मा प्रतिष्ठितः। ब्राह्मण उवाच। यतो बीजं मही चेयं धार्यते सचराचरम् // 6 भागतोऽहं महाभाग तव दर्शनलालसः / यत्र देवो महाबाहुः शाश्वतः परमोऽक्षरः। कंचिदर्थमनर्थज्ञः प्रष्टुकामो भुजंगम // 13 अनादिनिधनो विप्र किमाश्चर्यमतः परम् // . अहमात्मानमात्मस्थो मार्गमाणोऽऽत्मनो हितम् / आश्चर्याणामिवाश्चर्यमिदमेकं तु मे शृणु। वासार्थिनं महाप्राज्ञ बलवन्तमुपास्मि ह॥१४ विमले यन्मया दृष्टमम्बरे सूर्यसंश्रयात् // 8 प्रकाशितस्त्वं स्वगुणैर्यशोगर्भगभस्तिभिः / पुरा मध्याह्नसमये लोकांस्तपति भास्करे / शशाङ्ककरसंस्पर्श बैरात्मप्रकाशितैः॥ 15 प्रत्यादित्यप्रतीकाशः सर्वतः प्रत्यदृश्यत // 9 तस्य मे प्रश्नमुत्पन्नं छिन्धि त्वमनिलाशन / स लोकांस्तेजसा सर्वान्खभासा निर्विभासयन् / पश्चात्कार्य वदिष्यामि श्रोतुमर्हति मे भवान् // 16 आदित्याभिमुखोऽभ्येति गगनं पाटयन्निव // 10 हुताहुतिरिव ज्योतिाप्य तेजोमरीचिमिः / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः॥३४९॥ अनिर्देश्येन रूपेण द्वितीय इव भास्करः // 11 तस्याभिगमनप्राप्ती हस्तो दत्तो विवस्वता। तेनापि दक्षिणो हस्तो दत्तः प्रत्यर्चनार्थिना // 12 म.भा. 312 -2489 - Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 350. 13 ] महाभारते [12. 363.3 ततो भित्त्वैव गगनं प्रविष्टो रविमण्डलम् / स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधो भुजगसत्तम / एकीभूतं च तत्तेजः क्षणेनादित्यतां गतम् // 13 स्मरणीयोऽस्मि भवता संप्रेषणनियोजनैः // 2 तत्र नः संशयो जातस्तयोस्तेजःसमागमे / नाग उवाच / अनयोः को भवेत्सूर्यो रथस्थो योऽयमागतः // 14 अनुक्त्वा मद्गतं कार्य केदानी प्रस्थितो भवान् / ते वयं जातसंदेहाः पर्यपृच्छामहे रविम् / उच्यतां द्विज यत्कार्य यदर्थ त्वमिहागतः // 3 क एष दिवमाक्रम्य गतः सूर्य इवापरः // 15 उक्तानुक्ते कृते कार्ये मामामय द्विजर्षभ / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मया प्रत्यभ्यनुज्ञातस्ततो यास्यसि ब्राह्मण // 4 . पञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 350 // न हि मां केवलं दृष्टा त्यक्त्वा प्रणयवानिह / 351 गन्तुमर्हसि विप्रर्षे वृक्षमूलगतो यथा // 5.. सूर्य उवाच। त्वयि चाहं द्विजश्रेष्ठ भवाम्मयि न संशयः / नैष देवोऽनिलसखो नासुरो न च पन्नगः / लोकोऽयं भवतः सर्वः का चिन्ता मयि तेऽनप // उञ्छवृत्तिव्रते सिद्धो मुनिरेष विवं गतः // 1 ब्रामण उवाच। एष मूलफलाहारः शीर्णपर्णाशनस्तथा। . एवमेतन्महाप्राज्ञ विज्ञातार्थ भुजंगम। अब्भक्षो वायुभक्षश्च आसीद्विप्रः समाहितः॥२ नातिरिक्तास्त्वया देवाः सर्वथैव यथातथम् // 7 ऋचश्चानेन विप्रेण संहितान्तरभिष्टुताः / स्वर्गद्वारकृतोद्योगो येनासौ त्रिदिवं गतः // 3 य एवाहं स एव त्वमेवमेतद्भुजंगम / अहं भवांश्च भूतानि सर्वे सर्वत्रगाः सदा // 8 असन्नधीरनाकाङ्की नित्यमुञ्छशिलाशनः / ' भासीत्तु मे भोगपते संशयः पुण्यसंचये। सर्वभूतहिते युक्त एष विप्रो भुजंगम / / 4 सोऽहमुन्छव्रतं साधो चरिष्याम्यर्थदर्शनम् // 9 न हि देवा न गन्धर्वा बासुरा न च पन्नगाः / एष मे निश्चयः माधो कृतः कारणवत्तरः / प्रभवन्तीह भूतानां प्राप्तानां परमां गतिम् // 5 भामयामि भद्रं ते कृतार्थोऽस्मि भुजंगम // 1. नाग उवाच। एतदेवंविधं दृष्टमाश्चर्य तत्र मे द्विज / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 352 // संसिद्धो मानुषः कायो योऽसौ सिद्धगतिं गतः / सूर्येण सहितो ब्रह्मन्पृथिवीं परिवर्तते // 6 353 इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि भीष्म उवाच / एकपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 351 // स धामण्योरगश्रेष्ठं ब्राह्मणः कृतनिश्चयः / . 352 दीक्षाकाही तदा राजश्च्यवनं भार्गवं श्रितः // 1 ब्राह्मण उवाच / स तेन कृतसंस्कारो धर्ममेवोपतस्थिवान् / आश्चर्य नात्र संदेहः सुप्रीतोऽस्मि भुजंगम।। तथैव च कथामेतां राजन्कथितवांस्तदा // 2 अन्वर्थोपगतैर्वाक्यैः पन्थानं चास्मि दर्शितः // 1 / भार्गवेणापि राजेन्द्र जनकस्य निवेशने / - 2490 - Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. 353. 3] सान्तिपर्व [12. 3539 कथैषा कथिता पुण्या नारदाय महात्मने // 3 नारदेनापि राजेन्द्र देवेन्द्रस्य निवेशने / कथिता भरतश्रेष्ठ पृष्टेनाकिष्टकर्मणा // 4 देवराजेन च पुरा कथैषा कथिता शुभा। समस्तेभ्यः प्रशस्तेभ्यो वसुभ्यो वसुधाधिप // 5 यदा च मम रामेण युद्धमासीत्सुदारुणम् / / वसुभिश्च तदा राजन्कथेयं कथिता मम // 6 पृष्ठमानाय तत्त्वेन मया तुभ्यं विशां पते। कोयं कविता पुण्या धा धर्मभृतां वर // 7. तदेष परमो धर्मो यन्मां पृच्छसि भारत / असन्नधीरनाकाली धर्मार्थकरणे नृप // 8 मच किल कृतनिश्चयो द्विजाग्र्यो भुजगपतिप्रतिदेशितार्थत्यः / यमनियमसमाहितो वनान्तं परिगणितोन्छशिलाशनः प्रविष्टः // 9 / इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि त्रिपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः // 353 / / // समाप्तं मोक्षधर्मपर्व॥ // समाप्तं शान्तिपर्व // - 2491 - Page #864 -------------------------------------------------------------------------- _