Book Title: Jain Darshan
Author(s): Nyayavijay, 
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन न्यायविशारद न्यायतीर्थ मुनिश्री न्यायविजयजी श्रुतनिधि शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर अहमदाबाद- ३८०००४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन लेखक न्यायविशारद, न्यायतीर्थ मुनिश्री न्यायविजयजी प्रकाशक श्रुतनिधि C/0. शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर "दर्शन" राणकपुर सोसायटी के सामने, शाहीबाग, अहमदाबाद-३८०००४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन मुनिश्री न्यायविजयजी प्रकाशक श्रुतनिधि C/o. शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर 'दर्शन' राणकपुर सोसायटी के सामने, शाहीबाग, अहमदाबाद-३८० ००४ PHONE : 079-2868739. FAX : 079-2862026 e-mail : sambodhi@sify.com Website : www.scerc.org श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटण, गुजरात. के द्वारा प्रकाशित तृतीय संस्करण का पुनर्मुद्रण वि. सं. २०५९, इस्वीसन् : २००३ प्रतियाँ : १००० मूल्य : २००/-रुपये मुद्रक नवप्रभात प्रिन्टिंग प्रेस अहमदाबाद-३८० ००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय न्यायविशारद, न्यायतीर्थ स्व. मुनि श्री न्यायविजयजी द्वारा लिखित पुस्तक 'जैन दर्शन' का परिवर्तित संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। कई साल पूर्व महाराजश्री ने यह कृति मूलरूप से गुजराती भाषा में लिखी थी, जिसके १३ संस्करण छपें । यह प्रस्तुत ग्रन्थ की महत्ता के द्योतक है । श्री हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटण (गुजरात) की ओर से हिन्दी में भी अद्यावधि ३ संस्करण प्रकाशित हो चूके है । तथापि वर्तमान में प्रस्तुत ग्रंथ की हिन्दी आवृत्ति अनुपलब्ध है। हिन्दी भाषी जैन एवं जिज्ञासुओं के लिए यह एक बहु मूल्य ग्रंथ है। जिसके पुनः प्रकाशन के लिए महत्तरा मृगावती श्रीजी म. सा. की विनीत एवं वात्सल्य हृदया शिष्या श्री सुव्रताश्रीजी ने हमें बार बार प्रेरणा की थी किन्तु संयोग वशात् ग्रंथ के प्रकाशन कार्य में विलंब होता रहा अंत में हेमचन्द्राचार्य जैन सभा पाट के प्रमुख श्री प्रतापभाई शेठ के साथ बात हुई और पुनः प्रकाशन की योजना बनाई उन्होंने तुरंत ही ग्रंथ के पुनः प्रकाशन की योजना संमति प्रदान की, जिससे यह ग्रंथ प्रकाशन करने में हमें सरल हई और आज यह कार्य संपन्न हो रहा है । इसके लिए हम श्री प्रतापभाई के अत्यंत आभारी हैं । प्रस्तुत ग्रंथ का अंग्रेजी संस्करण भी कुछ बरस पूर्व प्रकाशित हुआ और विद्वद्समाज में समाहत बना । अनुवाद की भाषा में बहुत मामूली परिवर्तन के अलावा उसे यथावत् रखा गया है। हिन्दी भाषी विशाल जनसमूह के लिए यह ग्रंथ जैन धर्म के बारे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आधिकारिक व अध्ययनपूर्ण जानकारी प्रदान करेगा वैसा हमारा विश्वास है। हम पूज्य आचार्य भगवंत, पूज्य मुनि भगवंत, ज्ञानभंडार, पुस्तकालय के संचालक व पुस्तक विक्रेताओं से नम्र निवेदन करेंगे कि प्रस्तुत ग्रंथ के प्रचार-प्रसार में हमें योगादन दें । हिन्दी भाषी नयी पीढ़ी तक जैन धर्म का ज्ञान पहुँचाना अति आवश्यक है तकनीकी विज्ञान का दौर अपनी चरम सीमा पर होते हुए भी, दृश्य-श्राव्य और वर्चुअल रियालिटी (आभासित वास्तविकता) से भरे इस युग में पुस्तक का महत्त्व अपनी जगह पर कायम है। धर्म-तत्त्वज्ञान, परंपरा व संस्कारों को समझने-स्वीकार ने के लिए पुस्तकों का अध्ययन अनिवार्य रहेगा । प्रकांड विद्वत्ताव प्रचंड प्रतिभा के धनी दिवंगत मुनिश्री की यह रचना वास्तव में कालजयी है । जैन संघ व समाज उनका ऋणी रहेगा । जितेन्द्र बी. शाह Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पदार्थ-तत्त्व का ज्ञान कराए वह दर्शन अथवा दर्शनशास्त्र, अर्थात् दर्शनशास्त्र का विषय पदार्थ-तत्त्व है और धर्मशास्त्र का विषय धर्म है । धर्म का अर्थ है आचरणीय मार्ग । इस प्रकार ये दोनों शास्त्र वस्तुतः पृथक्-पृथक होने पर भी दर्शनशास्त्र में धर्मशास्त्र के विषय का-धर्म का थोड़ा बहुत निरूपण आता ही है, यह दर्शनशास्त्र के अभ्यासी से अज्ञात नहीं है। इसका कारण यह है कि दर्शनशास्त्र के विषय का ज्ञान कर लेने मात्र से जीवन का अर्थ सिद्ध नहीं होता । दर्शनशास्त्र अथवा चाहे जिस विषय का ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी धर्म का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता रहती ही है, क्योंकि जीवन का कल्याण धर्म के पालन से होता है । अतः धर्म को उसके सच्चे रूप में समझना प्रत्येक व्यक्ति के लिये नितान्त आवश्यक है । धर्मशास्त्र के विषय (धर्म) का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन निःश्रेयस है, क्योंकि धर्म का सच्चा ज्ञान होने पर ही यथार्थ रूप से धर्म को आचरण में रखा जा सकता है और तभी निःश्रेयस की सिद्धि हो सकती है । परन्तु जब दर्शनशास्त्र के ज्ञान का प्रयोजन भी निःश्रेयस बतलाया जाता है, जैसा कि न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन आदि दर्शनशास्त्रों के प्रारम्भ में बतलाया गया हैं, तब इसका अर्थ यही है कि धर्मशास्त्र के ज्ञान के साथ दर्शनशास्त्र के ज्ञान का विशिष्ट सम्बन्ध है, जो पहले को सतेज बनाने में उपयोगी हो सकता है। पातञ्जल योगदर्शन को जिस प्रकार दर्शनशास्त्र कह सकते हैं उसी प्रकार धर्मशास्त्र भी कह सकते हैं, क्योंकि उसमें जिस तरह दार्शनिक तत्त्वज्ञान का वर्णन आता है उसी तरह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, तप, सन्तोष, स्वाध्याय, 'ईश्वरप्रणिधानाद् वा', 'यथाभिमतध्यानाद् वा' आदि धार्मिक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश भी बिखरा हुआ है । इसी प्रकार धर्मशास्त्र अथवा अध्यात्मशास्त्र के रूप में प्रसिद्ध ऐसे बहुत से ग्रन्थ हैं जो दार्शनिक चर्चाओं से परिपूर्ण होने से दार्शनिकता-मिश्र कहे जा सकते हैं । श्रीहरिभद्रसूरि का 'धम्मसंगहणी' ग्रन्थ अपने नाम से धर्म का संग्रह सूचित करता है, फिर भी वह अधिकांशतः दार्शनिक चर्चाओं से ही भरा है । उनका 'योगबिन्दु' योगविषयक होने पर भी दार्शनिक विचारों से पूर्ण हैं । वस्तुतः धार्मिक और दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक और दार्शनिक विषय परस्पर इतने घनिष्ठ सम्बन्ध वाले हैं कि एक के ग्रन्थ में दूसरे का प्रवाह सहजरूप से अथवा अनिवार्यरूप से आ ही जाता है। प्रस्तुत पुस्तक के 'जैनदर्शन' नाम में जो 'दर्शन' शब्द है वह दार्शनिक तत्त्वज्ञान का सूचक दर्शन शब्द नहीं है, परन्तु धर्मसम्प्रदाय का सूचक 'दर्शन' शब्द है । अतः इस समूचे नाम का अर्थात् 'जैनदर्शन' का अर्थ होता है जैनधर्मसम्प्रदाय की, उसके धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों की, जानकारी कराने वाला । सम्यग् रूप से पवित्र ज्ञान-सम्पत्ति अथवा शुद्ध विचारधारा प्रदान करने वाली परम्परा को सम्प्रदाय [सम्प्र दाय अर्थात् सम्यग् रूप से प्रदान करने वाला] कहते हैं । इस (सच्चे) अर्थ में दुनिया में सम्प्रदाय एक ही हो ऐसा मान लेने का नहीं है । और शुद्ध ज्ञानमार्ग बतलाने वाले सम्प्रदाय जितने अधिक जगत् को मिले जगत् का उतना अधिक सद्भाग्य समझाना चाहिए । एक से अधिक दीपक जले तो उतना अधिक प्रकाश मिलेगा । परन्तु जब संकीर्ण दृष्टि तथा संकुचित वृत्तिवाले सम्प्रदाय मतान्धता अथवा मतावेश के वशीभूत होकर, रागद्वेष के कालुष्य के आवेश में पागल होकर परस्पर लडते हैं, भिड पड़ते हैं तब वे सम्प्रदाय सम्प्रदाय न रहकर सम्प्रदाह [सम्+प्र+दाह अर्थात् खूब जलानेवाले] बन जाते हैं । विश्व में कोई 'सम्प्रदाय' न रहे इसका इतना दुःख नहीं है, परन्तु 'सम्प्रदाह' तो हरगिज़ नहीं चाहिए । और गम्भीर रूप से विचार करनेवाला तो बिना किसी झिझक के यह कह सकता है कि सब धर्म-सम्प्रदायों के पास से दूसरा कुछ ज्ञान मिले या न मिले, सिर्फ सत्य, अहिंसा, मैत्री, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोपकार, संयम-इतना ही बोध-पाठ अच्छी तरह से मिले तो ऐहिक एवं पारलौकिक सुख के लिये तथा जीवनकल्याण के लिये वह पर्याप्त है । परन्तु जनता के बौद्धिक विकास अथवा ज्ञानविनोद के लिये उन्हें दूसरा कुछ यदि देना हो तो परस्पर झगड़े बिना ही सभ्यता से, मध्यस्थता से, उच्च वात्सल्यभाव से दें। वैदिक एवं श्रमण संस्कृति महावीर और बुद्ध के समय में परस्पर खूब संघर्ष में आई और इन महापुरुषों को उनके प्रखर तपोबल ने अच्छी जय भी दिलाई । बड़े-बड़े वैदिक विद्वानों में से कई ने महावीर के शासन को अपनाया, तो कई ने बुद्ध के शासन को अपनाया । श्रमणसंस्कृति के धुरन्धरों में महावीर और बुद्ध के अतिरिक्त पाँच दूसरे भी थे । इनमें से गोशालक का नाम साहित्य के पन्नों पर अधिक चढ़ा है । इसके नियतिवाद यद भाव्यं तद भविष्यति'-जो होने का है वह होगा] का नाद आज भी कितने ही भारतीयों के हृदय में गूंज रहा है । महावीर के क्रान्तिकारक उपदेश का संक्षिप्त सार इस पुस्तक के १९ वें पृष्ठ से पाठक देख सकते हैं । इस वीतराग सन्त की सम्भावित कार्यरेखा का संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है लोगों में प्रचलित अन्धविश्वास को हटाना, हिंसा का वातावरण मिटाना, अहिंसा-मैत्रीभाव का प्रचार करना, विवेकबुद्धि को उद्घाटित करके धर्म एवं दर्शनों के बारे में समन्वयदृष्टि प्रस्तुत करना और सबसे बड़ी बात तो यह कि मनुष्यों को यह बतलाना कि तुम्हारा सुख तुम्हारी मुट्ठी में है, धन-वैभव मेंपरिग्रह में यदि असली सुख देखने का प्रयत्न करोगे तो असफल रहोगे, असली सुख तो स्वयं हमारे भीतर ही है । जनता में सत्य का अधिक प्रचार और प्रसार हो इसलिये इस सन्त ने विद्वद्भाषा समझी जानेवाली संस्कृत का त्याग करके लोक (प्राकृत) भाषा में अपनी उपदेश-गंगा बहाई । [बुद्ध ने भी यही मार्ग लिया था । दोनों की भाषा एवं भाव दोनों में साम्य है । प्राचीन बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में समान रूपरंग का, समान कल्याणसंस्कृति का १. बाकी के चार थे--पूरणकाश्यप, अजितकेशकम्बली, पकुधकात्यायन और संजय बेलट्ठीपुत्त । इनके तथा गोशालक के पन्थ नामशेष हो गए हैं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश हम देख सकते हैं ।] महावीर ने खूब बलपूर्वक कहा हैं कि मनुष्य अपना भला, अपना आत्महित, अपना जीवनशोधन जितना अधिक साधता है उतना ही अधिक वह दूसरे का भला-दूसरे का हित कर सकता है । आगमों में उपलब्ध होनेवाली इनकी वाणी के उत्तमोत्तम झरनों के कुछ अमृतबिन्दु नमूने के तौर पर आगे (इस प्रस्तावना के बाद) दिए हैं । इन पर से पाठक को इस संत की विकासगामी और क्रान्तिकारी प्रकृति का कुछ ख्याल आ सकेगा । __ईस्वी सन् पूर्व ५९९ वर्ष में जन्मे हुए और ७२ वर्ष की आयु वाले प्रभु महावीर से पूर्व जिन पार्श्व हुए हैं । वे भी ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में इतिहासप्रसिद्ध हैं । इन पार्श्व के निर्वाण के २५० वर्ष पश्चात् महावीर का निर्वाण हुआ। इस पर से समझ में आ सकता है कि महावीर ने ढाई हजार वर्ष पूर्व होनेवाले तीर्थंकर महावीर ने किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की १. Let him that would move the world, first move himself.' Socrates. २. प्रसिद्ध भारतीयसाहित्यविद् डॉ. गेरिनो (Dr. Guerinot) लिखते हैं कि There can no longer be any doubt that Pārshva was a historical personage. According to Jaina Tradition he must have lived a hundred years and died 250 years before Mahāvīra. His period of activity, therefore, corresponds to the 8th century B. C. The parents of Mahāvīra were followers of the religion of Pārshva... There have appeared 24 prophets of Jainism. They are ordinarily called Tirthankaras. With the 23rd Pārshvanātha we enter into the region of history and reality.) [Introduction to his Essay on Jaina Bibliography.] अर्थात्---यह नि:सन्देह बात है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष थे। जैनपरम्परा के अनुसार उनका आयुष्य सौ वर्ष का था और उनका निर्वाण महावीर से (महावीर के निर्वाण से) ढाई सौ वर्ष पहले हुआ था । इस प्रकार उनका (पार्श्वनाथ का) जीवनकाल ईस्वी सन् पूर्व की आठवीं शताब्दी है । महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के धर्म के अनुयायी थे । जैनधर्म में जिन्हें तीर्थंकर कहते हैं वैसे परमात्मा २४ हुए हैं । २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय से वास्तविक ऐतिहासिक युग में हमारा प्रवेश होता है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, किन्तु उनके पूर्ववर्ती पार्श्वनाथ आदि केवलज्ञानी महापुरुषों ने ( तीर्थंकरों ने) जिस धर्ममार्ग का प्रकाशन किया है उसी धर्ममार्ग को पुनः प्रकाश में लाकर विकसित रूप से उन्होंने जनवर्ग के सम्मुख उपस्थित किया है । यह धर्म-सम्प्रदाय संकुचित चौके में सीमित सम्प्रदाय नहीं है, किन्तु इसके वास्तविक तत्त्वाभ्यास पर से ज्ञात हो सकता है कि यह तो मानवमात्र केप्राणीमात्र के हितसाधन या कल्याणसाधन का मार्गदर्शक [पवित्र ज्ञानसम्पत्ति अथवा विचारधारा का सम्प्रदाता] सम्प्रदाय है । विद्वन्मूर्धन्य ब्राह्मण में से श्रमण होनेवाले तथा निर्ग्रन्थमार्ग का स्वीकार करनेवाले महान् जैनाचार्य श्रीहरिभद्र जब 'यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः' (कपिल, बुद्ध आदि महात्मा संसाररूपी व्याधि के लिये महान् वैद्य थे) ऐसी उदार एवं उज्ज्वल वाणी का उच्चारण और समर्थन करते हैं तब हम क्षणभर के लिये स्तब्ध हो जाते हैं कि ऐसी वाणी के उद्गार के समय इस आत्मा में कितनी शान्ति होगी ! सम्प्रदाय - व्यवहार में प्रवर्तमान होने पर भी और दार्शनिक वाद-चर्चा में जबरदस्त भाग लेने पर भी इस आत्मा में इतनी प्रशमवृत्ति तथा लोकमैत्री को जगानेवाला और उसे वीतरागता की ओर ले जानेवाला जो कोई दृष्टिसंस्कार होगा वह वस्तुतः वन्दनार्ह है । जैनधर्म का साहित्य बहुत विशाल है । वह प्रत्येक विषय के ग्रन्थों से समृद्ध है। जैनों के संस्कृत - साहित्य की महत्ता बतलाते हुए जर्मन विद्वान् डॉ० हर्टल ने लिखा है कि 'Now what would Sanskrita Poetry be without the large Sanskrita literature of the Jainas! The more I learn to know it, the more my admiration rises.'-—Jainashasana Vol. I, No. 21. अर्थात्—जैनों के महान् संस्कृत - साहित्य को यदि अलग कर दिया जाय तो संस्कृत - कविता की क्या दशा होगी ? इस विषय में मुझे जैसेजैसे अधिक जानकारी मिलती जाती है वैसे-वैसे मेरे आनन्दयुक्त आश्चर्य में अभिवृद्धि होती जाती है । जैनधर्म के अनुयायियों में मुख्य दो भेद पड़े हुए हैं : श्वेताम्बर और Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दिगम्बर । क्रियाकाण्ड और आचारव्यवहार विषयक मतभेदों को एक ओर रखने पर इन दोनों परम्पराओं का धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य प्रायः पूर्णत: समान है । जैनदर्शन के बारे में स्वर्गीय जर्मन विद्वान् डॉ० हर्मन जेकोबी ने कहा है कि 'In conclusion let me assert my conviction that Jainism is an original system, quite distinct and independent from all others and that, therefore, it is of great importance for the study of philosophical thought and religious life in ancient India.' (Read in the Congress of the History of Religions.) अर्थात् — अन्त में मुझे अपना निश्चय सूचित करने दो कि जैनधर्म एक मौलिक धर्म है, दूसरे सब धर्मों से पृथक् और स्वतन्त्र है तथा प्राचीन भारत के तत्त्वज्ञान एवं धार्मिक जीवन के अभ्यास के लिये वह अत्यन्त महत्त्व का है । १. 'शेषं श्वेताम्बरैस्तुल्यमाचारे दैवते गुरौ । श्वेताम्बरप्रणीतानि तर्कशास्त्राणि मन्वते ॥ स्याद्वादविद्याविद्योतत् प्रायः साधर्मिका अमी ॥' -- षड्दर्शनसमुच्चय, राजशेखरसूरि इसका भावार्थ यह है कि 'स्त्री को मुक्ति नहीं मिलती' 'देहधारी केवलज्ञानी भोजन नहीं करता' इत्यादि बातों के तथा वस्त्र न पहनना' इत्यादि साधु के आचार-व्यवहार के अतिरिक्त बाकी प्राय: सब दिगम्बर श्वेतांबर सम्प्रदाय में समान हैं। एक-दूसरे के तर्कशास्त्रों को वे मान्य रखते हैं । जैनधर्म के मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद का वे दोनों एक जैसे उत्साह से समर्थन करते हैं । इससे वे परस्पर साधर्मिक हैं । [दोनों में महाविद्वान् और पूजनीय पुरुष हुए हैं, दोनों का साहित्य विशाल एवं समृद्ध है, दोनों सहोदर की भाँति असाधारण प्रेम से मिलजुलकर रहें ऐसी सब वस्तु विद्यमान है, फिर भी बहुत दुःख की बात है कि ये बहुत जुदाई रखते हैं। दोनों यदि मिलकर रहें तो ये अपने संयुक्त बल से महावीर देव के पवित्र शासन की उन्नति बहुत अच्छी कर सकते हैं । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के उपदेशरूप आगमों में कर्मविचार, गुणस्थानविचार, जीवों की गति-आगति आदि बातों का विचार, लोक की व्यवस्था तथा रचना का विचार, जड परमाणु पुद्गलों की वर्गणा तथा पुद्गलस्कन्धों का विचार, षड्द्रव्य तथा नौ तत्त्वों का विचार-इन सब विचारों का व्यवस्थित निरूपण देखने पर ऐसा कहा जा सकता है कि जैन तत्त्व-विचारधारा भगवान् महावीर से पहले की कितनी ही पीढ़ियों की ज्ञान-साधना का फल है । यह विचारधारा उपनिषदों आदि से भिन्न, स्वतन्त्र तथा मौलिक है । प्राकृतभाषा के साहित्य के बारे में डॉ० हर्मन जेकोबी ने जो कुछ कहा है वह भी ज्ञातव्य है । वे कहते हैं कि 'Had there not been Jaina Books belonging to the Prakrita literature, we should not be able now to form an idea of what Prakrita literature was, which once was the rival of Sanskrita literature and certainly more popular than Sanskrita literature... We are much indebted to the Jainas for all the glimpses we get of the popular Prakrita literature.' अर्थात्-प्राकृतसाहित्यविषयक जैन ग्रन्थ यदि न होते तो प्राकृत साहित्य क्या है इसका ख्याल हमें न आता । प्राकृत साहित्य एक समय संस्कृत साहित्य का प्रतिस्पर्धी साहित्य था और सचमुच ही संस्कृत साहित्य की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय था । लोकप्रिय प्राकृत साहित्य की जो झलक हमें मिलती है उसके लिये हम जैनों के बहुत ऋणी हैं । डॉ० बार्नेट कहते हैं कि 'Some day, when the whole of the Jaina Scriptures will have been critically edited and their contents lexically tabulated, together with their ancient glosses, they will throw many lights on the dark places of ancient and modern Indian languages and literature.' ___अर्थात्-किसी दिन जब समग्र जैनशास्त्र उनकी प्राचीन टीकाओं के साथ यथास्थित आलोचना-विवेचना के साथ सम्पादित होंगे और उन सबके Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय शब्दकोष की पद्धति की तरह व्यवस्थित रूप से रखे जायेंगे तब वे (शास्त्र) प्राचीन एवं अर्वाचीन भारतीय भाषाओं तथा साहित्य के अन्धेरे प्रदेशों पर बहुत प्रकाश डालेंगे ।। इटालियन विद्वान् डॉ० एल. पी. टेसीटोरी ने अपने व्याख्यान में जैनदर्शन की श्रेष्ठता बतलाते हुए कहा था कि जैनदर्शन बहुत ऊँची कोटि का है । इसके मुख्य तत्त्व विज्ञानशास्त्र के आधार पर रचे हुए हैं—ऐसा मेरा अनुमान ही नहीं, पूर्ण अनुभव है। ज्यों-ज्यों पदार्थविज्ञान आगे बढ़ता जाता है, जैनधर्म के सिद्धान्तों को पुष्ट करता केवल जैन संस्कृत-प्राकृत वाङ्मय ही नहीं, जैन शिलालेख आदि भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। भारतीय इतिहास की खोज और उसके संशोधन में इन लेखों का गौरवपूर्ण स्थान है । डॉ० गेरिनो अपने ‘Jaina Inscriptions and Indian History' नामक लेख में लिखते हैं कि 'These notes are short.' But they are sufficient, I believe, to show how many historical documents are contained in the Jaina inscriptions. A systematic study of these inscriptions as well as of the Jaina profane literature, will largely contribute to the knowledge of Indian History.' अर्थात्-मैं समझता हूँ कि ये संक्षिप्त नोट्स यह बतलाने के लिये पर्याप्त हैं कि जैन लेखों में (शिला आदि पर उत्कीर्ण लेखों में) ऐतिहासिक ज्ञान और वृत्तान्त कितने अधिक भरे हुए हैं । इन लेखों का तथा जैनों के लौकिक-व्यावहारिक साहित्य का सुव्यवस्थित अभ्यास यदि किया जाय तो वह भारतीय इतिहास के ज्ञान में बहुत बड़ा हिस्सा प्रदान करेगा । अस्तु । जैन साहित्य अन्धेरे में पड़ा हुआ होने से और प्रकाश में आनेवाले या आए हुए ग्रन्थों का जैसा चाहिए वैसा प्रचार न होने से बडे-बडे विद्वान भी जैनधर्म के तत्त्वों से अपरिचित अथवा अल्पपरिचित दिखाई देते हैं । इसके अतिरिक्त ऐसा भी देखा जाता है कि अपने अनुचित पक्षमोह में फँसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए कुछ लोग अपनी संकुचित दृष्टि के परिणामस्वरूप, दूसरों के तत्त्वग्रन्थों का अवलोकन करने की उदारवृत्ति उनमें न होने से, जैन-ग्रन्थों के तत्त्वबोधक पठन-पाठन से वंचित रह जाते हैं । परन्तु मैं कह सकता हूँ कि भारतीय दर्शन एवं साहित्य का अभ्यास जैनदर्शन के और जैन-साहित्य के अभ्यास के बिना बहुत अपूर्ण रहने का, और तटस्थभाव से यह भी कहा जा सकता है कि जैनधर्म के तात्त्विक ग्रन्थों का अध्ययन ज्ञानवर्धक होने के साथ ही आत्मशान्ति का मार्ग खोजने में उपयोगी हो सके ऐसा है । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर किसी की मालिकी-हक की मुहर नहीं लगी है, इसका किसी ने ठेका नहीं ले रखा है। कोई भी व्यक्ति चिन्तन-मनन द्वारा किसी भी समाज के कहे जानेवाले तत्त्वज्ञान के क्षेत्र को अपना बना सकता है । कुल-धर्म के तत्त्वज्ञान का सम्मान करना और अन्य तत्त्वज्ञान के क्षेत्र पर दृष्टिक्षेप भी न करना यह उदारवृत्ति नहीं कहीं जा सकती । ज्ञान के विकास और सत्य की उपलब्धि का आधार 'सच्चा सो मेरा' इस भावना पर और तदनुसार विशाल स्वाध्याय पर अवलम्बित है । सत्य सर्वत्र अनियन्त्रित और निराबाधरूप से व्यापक है । सत्य किसका ? जो उसे पाए उसका । जो जो वाङ्मय सत्यपूत होता है वह संसारभर की सम्पत्ति है । उसका उपयोग करने के लिये जगत् का कोई भी मनुष्य हकदार है । -न्यायविजय Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के उपदेश-वचन सच्चा यज्ञ सुसंवुडा पंचहिं संवरेहिं इह जीविअं अणवकंखमाणा । वोसट्टकाया सुई-चत्तदेहा महाजयं जयइ जण्णसिडें ॥ -उत्तराध्ययन १२, ४२. -अहिंसा आदि पाँच यमों से संवृत, वैषयिक जीवन की आकांक्षा नहीं रखनेवाले, शरीर ऊपर की मोह-ममता से रहित तथा कल्याणरूप सत्कर्मों में शरीर का समर्पण करनेवाले सच्चारित्रशाली ऐसा सच्चरितरूप विजयकारक श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुआ सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसंती होमं हुणामि इसिणं पसत्थं ॥ -उत्तराध्ययन १२, ४४. -तप ज्योति (अग्नि) है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मनवचन काय की प्रवृत्ति कलछुल है और अपने कर्मों को (पापों को) जलाना है । यही यज्ञ हैं, जो पवित्र संयमरूप होने से शान्तिदायक तथा सुखकारक है और जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है । सच्चा ब्राह्मण जहा पउमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं बूम माहणं ॥ -उत्तराध्ययन २५, २६. -जिस प्रकार पानी में पैदा हुआ कमल पानी से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामवृत्ति से [वैषयिक वाचना से] लिप्त नहीं होता उसे हम Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण कहते हैं । जायरूवं जहा मटठं निद्धन्तमलपावगं । रागदोसभयाईअं तं वयं बूम माहणं ॥ __-उत्तराध्ययन २५, २१. -जो राग-द्वेष भय आदि से मुक्त होकर सुतप्त विशुद्ध सुवर्ण की भाँति निर्मल-उज्ज्वल है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । स्नान धम्मे हरए बंभे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहिं सिण्णाओ विमलो विसुद्धो सुसीतिभूओ पजहामि दोसं ॥ - -उत्तराध्ययन १२, ४६. -धर्म हृद (जलाशय) है और ब्रह्मचर्य निर्मल एवं प्रसन्न शान्तितीर्थ है । उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध होता है । दान जो सहस्स सहस्साणं मासे मासे गवं दए । तस्सवि संजमो सेओ अदितस्सवि किंचण ॥ -उत्तराध्ययन ९, ४०. -प्रतिमास दस लाख गायों का दान करना उससे भी किसी (बाह्य) वस्तु का दान न करनेवाले मनुष्य का भी-संयम श्रेय है । युद्ध जो सहस्स सहस्साण संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥ -उत्तराध्ययन ९, ३४. १. बौद्ध धम्मपद ग्रन्थ के सहस्सवग्ग में चौथी गाथा इसी प्रकार की है। उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक गाथाएँ धम्मपद में थोड़े परिवर्तन के साथ मिलती हैं । दूसरे भी जैन आगमों के वचन समान रूप से धम्मपद में मिलते हैं । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -हज़ारों दुर्जय संग्रामों को जीतनेवाले की अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतनेवाला बड़ा है । सब प्रकार के बाह्य विजयों की अपेक्षा आत्मजय श्रेष्ठ है। अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पणामेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥ -उत्तराध्ययन ९, ३५. अपने आप के (आत्मा के) साथ युद्ध कर । बाह्य युद्ध करने से क्या ? अपने आपको-आत्मा को जीतने से परम सुख प्राप्त होता है । ‘से असई उच्चागोए, असई नीआगोए, नो हीणे, नो अईरिते, x x x को गोयावाई ? को माणावई ?" -आचारांगसूत्र २-३-७७. -जीव अनेक बार उच्च गोत्र में, अनेक बार नीच गोत्र में गया है । अत: उच्च कौन और नीच कौन ? कौन गोत्रवादी ? और कौन अभिमानवादी (गोत्र पर घमण्ड रखने वाला ? ___ 'जहा पुण्णस्स कत्थई तहा तुच्छस्स कत्थई; जहा तुच्छस्स कत्थई तहा पुण्णस्स कत्थई ।' -आचारांगसूत्र २-६-१०१. -सन्त अथवा सुज्ञ पुरुष पुण्यशाली के (धनाढ्य अथवा धराधीश जैसे के) आगे जैसा वाणीव्यवहार करता है वैसा ही दीन-हीन-ग़रीब के आगे वाणीव्यवहार करता है; और जैसा दीन-हीन-गरीब के आगे वाणीव्यवहार करता है वैसा ही पुण्यशाली के आगे वाणीव्यवहार करता है । 'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तड् ।' -आचारांगसूत्र ३-३-११८. __-मनुष्यो ! सत्य को समझो । सत्य की आज्ञा पर चलनेवाला मेधावी मृत्यु को तैर जाता है। 'सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । - -आचारांगसूत्र ३-४-१२३. -प्रमादी को सर्वत्र भय है, अप्रमत्त को कहीं भी भय नहीं है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ का उपदेशसार सभी महापुरुष सत्यशोधक तथा सत्यग्राहक होते हैं, फिर भी उन सबकी सत्य की खोज एव उसके निरूपण की पद्धति एक जैसी नहीं होती । बुद्ध की जो निरूपणशैली है उसकी अपेक्षा महावीर की निरूपणशैली भिन्न है । महावीर की इस विशिष्ट शैली का नाम है 'अनेकान्तवाद' । वस्तु का पूर्णरूप से यथार्थ दर्शन होना कठिन है । जिन्हें वह होता है उनके लिये १. बुद्धदेव की प्रकृति तत्कालीन परस्पर विरोधी वादों से अलिप्त रहने की थी । इसलिये वे तत्कालीन दार्शनिक प्रश्नों को, जो उनके सम्मुख उपस्थित होते थे, एक तरह से अस्पृश्य [ अव्याकृत अर्थात् जिनका खुलासा अथवा निरूपण न किया जा सके ऐसे ] कह देते । दृष्टान्त के तौर पर, जीव को नित्य भी वे यहीं कह सकते थे और यदि अनित्य कहें तो चार्वाक जैसे भौतिकवादिसम्मत 'उच्छेदवाद' गर्दन पर सवार हो जाय । अतः ऐसे प्रश्नों को वे 'अव्याकृत कहकर जन्म-मरण के उच्छेद की बात को अपने उपदेश का विषय बतलाते थे । इसके विपरीत, महावीर देव की प्रकृति सभी विरोधी वादों को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखने की थी। वे ऐसे प्रश्नों का हल सापेक्षरूप से करते थे । उदाहरणार्थ, वे जीव को नित्य और अनित्य, लोक को शाश्वत और अशाश्वत, जीव एवं शरीर को भिन्न और अभिन्न- इस तरह भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से जताकर उसका समर्थन करते थे । ऐसे प्रामाणिक (तथाकथित) विरोधों का वे युक्तिपुरस्सर समाधान करते थे। ऐसे अनेक प्रश्नों के सापेक्षरूप से महावीर द्वारा किए गए समाधान आज भी उनके मूल आगमों में मिलते हैं, जो उस महापुरुष की व्यापक प्रतिभा के द्योतक हैं । बुद्ध की दृष्टि समन्वयात्मक नहीं थी ऐसा नहीं है । वे भी 'विभज्यवाद' के नाम से अनेकान्तवादी थे--अमुक अंश में । 'सिंह' सेनापति ने जब उनसे पूछा कि लोग आपको अक्रियावादी कहते हैं, तो यह क्या ठीक ? तब उन्होंने कहा था कि शुभक्रिया करने का उपदेश देता हूँ अतः क्रियावादी हूँ और अकुशल-क्रिया न करने का उपदेश देता हूँ अतः अक्रियावादी हूँ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी उसका उसी रूप में शब्द द्वारा ठीक-ठीक कथन करना कठिन ही है । देश, काल, परिस्थिति, भाषा, शैली आदि के भेद के कारण उन सबके कथन में कुछ-न-कुछ भिन्नता, विरुद्धता दिखाई दे यह अनिवार्य है । १८ पूर्णदर्शी महापुरुषों की बात जाने दें और लौकिक जगत् की बात करें तो लौकिक मनुष्यों में भी अनेक सत्यप्रिय यथार्थवादी होते हैं; परन्तु वे अपूर्णदर्शी होते हैं और अपने अपूर्ण दर्शन को दूसरों के समक्ष उपस्थित करने की भी उनमें अपूर्णता होती है । अतः सत्यप्रिय मनुष्यों की समझ में भी कभी-कभी परस्पर भिन्नता आ जाती है और संस्कारभेद उसमें और अधिक पारस्परिक टक्कर पैदा कर देता है । इस तरह, पूर्णदर्शी तथा अपूर्णदर्शी सभी सत्यवादियों के द्वारा अन्त में भेद और विरोध की सामग्री स्वतः प्रस्तुत हो जाती है, अथवा दूसरे लोग उनके पास से अथवा उनके द्वारा ऐसी सामग्री पैदा कर लेते है । यह वस्तुस्थिति देखकर तत्त्वद्रष्टा महावीर ने विचार किया कि कोई ऐसा मार्ग निकालना चाहिए जिससे कि वस्तु का पूर्ण अथवा अपूर्ण सत्यदर्शन करनेवाले के साथ अन्याय न होने पाए। दूसरे का दर्शन अपूर्ण और हमारे अपने दर्शन के विरुद्ध होने पर भी यदि सत्य हो, और इसी प्रकार, हमारा अपना दर्शन अपूर्ण और दूसरे से विरुद्ध होने पर भी यदि सत्य हो तो इन दोनों को न्याय मिले ऐसा मार्ग निकालना चाहिए । इसी मार्ग का नाम अनेकान्तदृष्टि है । इस कुंजी से उस सन्तपुरुष ने वैयक्तिक और सामूहिक जीवन की व्यावहारिक एवं पारमार्थिक समस्याओं के ताले खोल दिए । उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार के निर्माण करने के समय इस अनेकान्तदृष्टि को, नीचे की शर्तों के साथ, प्रकाश में रखा और उसके अनुसरण का उपदेश दिया (१) राग-द्वेष की वृत्ति के वश न होकर सात्त्विक माध्यस्थ्य रखना । (२) जबतक माध्यस्थ्य का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना । (३) जैसे हमारे अपने पक्ष पर वैसे दूसरों के विरोधी लगनेवाले पक्ष Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर भी आदरपूर्वक विचार करना और जैसे विरोधी पक्ष पर वैसे खुद अपने पक्ष पर भी तीव्र समालोचक दृष्टि रखना । (४) अपने तथा दूसरों के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक मालूम हों, फिर वे चाहे विरोधी ही क्यों न प्रतीत होते हों, उन सबका विवेकबुद्धि से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और जैसे-जैसे अनुभव बढ़ता जाय वैसे-वैसे पहले के समन्वय में जहाँ भूल मालूम पड़ती हो वहाँ मिथ्याभिमान का त्याग करके सुधार करना और इस तरह आगे बढ़ना । अनेकान्तदृष्टि में से नयवाद और सप्तभंगीवाद फलित हुए । विचार की जितनी पद्धतियाँ उस समय प्रचलित थीं उनको नयवाद में स्थान मिला और किसी एक ही वस्तु के बारे में प्रचलित विरोधी कथन अथवा विचारों को सप्तभंगीवाद में स्थान मिला। अपना भला हो—इस बात की कोशिश मनुष्य जीवन के अन्तिम क्षण तक करता रहता है । सतत परोपकारनिरत महात्माओं की भी इच्छा परोपकारव्यापार द्वारा अपने परमात्मतत्त्व को प्रकट करने की ही रहती है । परोपकारव्यापार में आत्म-कल्याण की सहज भावना का स्थान प्रमुखरूप से होता है । स्थिरचेता शान्त प्रज्ञावान् योगी भी इसी विचार से अपनी साधना में संलग्न रहते हैं कि इस जन्म में न सही, तो अगले जन्म में कभी परमात्मभाव को प्राप्त कर ही लेंगे । __शरीर के नाश के पश्चात् यदि चेतन का अस्तित्व न माना जाय तो व्यक्ति का उद्देश कितना संकुचित बन जाता है ? और कार्यक्षेत्र भी कितना अल्प रह जाता है ? 'इस जन्म में नहीं तो भावी जन्म में भी मेरा लक्ष्य मैं सिद्ध करूँगा'-यह भावना मानव-हृदय में जितना बल प्रकट कर सकती है उतना बल दूसरा कोई प्रकट नहीं कर सकता । यह सब ध्यान में लेने पर नित्य सनातन स्वतन्त्र चेतन तत्त्व का अस्तित्व प्रतीत हो सकता है । यह (चेतन-आत्मा) जानबूझ कर अथवा अनजाने में जो अच्छा-बुरा कर्म करती है उसका फल उसे मिलता है और कर्मबन्ध के कारण उसे पुनर्जन्म के चक्कर में घूमना पड़ता है । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्री हरिभद्राचार्य योगबिन्दु में कहते हैं कि दैवं नामेह तत्त्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् । तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः || ३१९॥ शुभ - अशुभ कर्म ही दैव है और अपना उद्यम ही पुरुषकार (पुरुषार्थ) है । व्यापारमात्रात् फलदं निष्फलं महतोऽपि च । अतो यत् कर्म तद् दैवं चित्रं ज्ञेयं हिताहितम् ॥ ३२२|| -- जो कर्म अल्प उद्यम करने पर भी फलदायक होता है और महान् उद्यम करने पर भी निष्फल जाता है, उस कर्म को दव कहते हैं और वह शुभ - अशुभरूप से नानाविध है । एवं पुरुषकारस्तु व्यापारबहुलस्तथा । फलहेतुर्नियोगेन ज्ञेयो जन्मान्तरेऽपि हि ॥ ३२३ ॥ अन्योन्यसंश्रयावेवं द्वावप्येतौ विचक्षणः ॥ ३२४॥ इसी प्रकार पुरुषार्थ प्रचुरप्रयत्नरूप है और यह आगामी जन्म में भी अवश्य फलदायक होता है । ये (कर्म और पुरुषार्थ ) दोनों परस्पर आश्रित हैं । इसके बाद ३२६ वें श्लोक में वे बतलाते हैं कि कर्म जीव के प्रयत्न के बिना फलसाधक नहीं होता । दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते । दैवेन चेषोऽपीत्येत × × × ॥३२७॥ पुरुषार्थ से दुर्बल दैव का नाश होता है और प्रबल दैव से पुरुषार्थ का नाश होता है । जो बलवत्तर होता है उससे दूसरे का नाश होता है । मनुष्य की मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति अथवा बरताव के कटु फल उसे वैसी प्रवृत्ति अथवा बरताव के कारण चखने पड़ते हैं । अपनी भोगासक्ति, दुर्व्यसनिता अथवा प्रमादशीलता से जो शारीरिक आदि दुर्दशा अपने पर या दूसरे पर आ पड़ती है वह उस भोगासक्ति आदि के कारण है ऐसा मानना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोग्य तथा शास्त्रानुमोदित है । अतएव किसी मनुष्य को, जिस व्यक्ति की बे-वकूफ़ी, अन्याय अथवा घातक दुष्टता से, दुःख और आफत सहन करने पड़ें उसमें उस व्यक्ति की बे-वकूफ़ी अथवा दुष्टता बराबर जवाब-देह है और उस दुष्कृत्य के लिये वह बराबर अपराधी है-ऐसा कर्मशास्त्र का निवेदन है । ___ इसी प्रकार कर्मशास्त्र अपनी अथवा दूसरे की खराब परिस्थिति को दूर करने के लिये यथोचित प्रयत्न करने की भी उद्घोषणा करता है। उसका यह उद्घोष अपने लिये स्वहित और दूसरे के लिये कर्तव्यरूप दयाधर्म के पालन का उद्घोष है । घर में आग लगने पर उसे बुझाने के बदले यदि कोई मनुष्य बैठा-बैठा प्रार्थना करे कि 'हे भगवन्, बरसात भेजना !' तो यह कैसा कहा जायगा ? क्या भगवन् को भी ऐसी बात पसन्द आयगी ? God helps those who help themselves. अर्थात् ईश्वर उन्हें मदद करता है जो अपने आपको मदद करते हैं । दीन-हीन दःखी-दलित को और बदमाश, गुण्डे, लुटेरे अथवा हत्या करनेवाले के शिकँजे में फंसे हुए को उनके कर्म पर छोड देना—ऐसा नृशंसतापूर्ण तो कोई कर्मशास्त्र कहता ही नहीं । ऐसों को शान्ति देने का, उनके कष्ट दूर करने का अथवा उन्हें आफ़त से बचा लेने का प्रयत्न करने का ही कर्मशास्त्र का आदेश है और यह धर्मशास्त्रप्ररूपित धर्म हैं । ऊपर से नीचे गिरने-पड़ने के कारण जिसके हाथ-पैर आदि टूट गए हों अथवा चोट लगी हो, शस्त्रघात से घायल, सांप आदि से काटे हुए अथवा बीमार-ऐसे अपने स्वजन अथवा मित्र को स्वस्थ करने के लिये हम फौरन प्रयत्न करते हैं न ? वहाँ पर हम क्या उसके पूर्वकर्म को देखने बैठते हैं ? नहीं । इसी प्रकार दारिद्रय, रुग्णता, अनाथता, निराधारता के दुःख में अथवा पीडित, ताडित, पतित, दलित, शोषित दशा में पड़े हुओं का उद्धार करने का प्रयत्न करना वस्तुतः आवश्यक पुण्यरूप कर्तव्य है और ऐसे दःखार्तों की ओर उपेक्षा धारण करना-शक्ति होने पर भी लापरवाह स्वभाव के कारण अथवा ऐसा समझकर कि वह अपने पूर्वकर्मों के कारण दुःखी-हैं-पाप है । दुःख और आफ़त में फँसे हुए का उद्धार करने का यथायोग्य प्रयत्न यदि किया जाय तो [कर्मशास्त्र के नियम के अनुसार उसके इन दुःखद कर्मों Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पर प्रहार पड़ने के परिणामस्वरूप] उसे इस दुःख में से मुक्त किया जा सकता हैं, अथवा कम से कम उसकी दुःखमात्रा को तो शक्ति-अनुसार अवश्य कम किया जा सकता है । यह स्पष्ट पुण्यकर्म है, पवित्र धर्माचरण है। मानवधर्म के इस पवित्र तत्त्व को ख़याल में रखकर उस पर यथाशक्ति अमल करने में ही धर्म है, धर्म का आराधन है, वैयक्तिक तथा सामुदायिक कल्याण है। सचमुच ही नहीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते । दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक् ॥ [महाभारत, आदिपर्व, अ. ८७. १२] -ऐसा वशीकरण तीनों जगत् में दूसरा कोई नहीं है : प्राणियों पर दया, मैत्री, दान और मधुर वाणी । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम me * * * * विषय प्रथम खण्ड : तत्त्वविचार उपक्रम जगत् क्या वस्तु है ? जिन और जैन शब्द की व्याख्या नव तत्त्वों के नाम १. जीव ५. पुण्य-पाप २. अजीव ६. आस्रव ३. पुद्गल ७. संवर ४. अस्तिकाय ८. बन्ध आठ कर्म १. ज्ञानावरण कर्म ५. आयुष्य कर्म २. दर्शनावरण कर्म ६. नाम ३. वेदनीय कर्म ७. गोत्र ४. मोहनीय कर्म ८. अन्तराय चतुर्विध बन्ध १. प्रकृतिबन्ध ३. अनुभाव बन्ध २. स्थिति बन्ध ४. प्रदेश बन्ध बन्ध के हेतु १. मिथ्यात्व ४. कषाय २. अविरति ५. योग ३. प्रमाद * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * २३-२४ * * * * Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-२६ ३७ ० निर्जरा १. सकामनिर्जरा २६ २. अकाम निर्जरा मोक्ष मोक्ष का शाश्वतत्व सब कर्मों का क्षय हो सकता है केवलज्ञान की सिद्धि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है ईश्वरपूजन की आवश्यकता द्वितीय खण्ड : मोक्षमार्ग मोक्षमार्ग का निरूपण -सम्यग्ज्ञान -सम्यक्चारित्र साधुधर्म गृहस्थधर्म १. स्थूल प्राणातिपातविरमण २. स्थूल मृषावादविरमण ३. स्थूल अदत्तादानविरमण ४. स्थूल मैथुनविरमण ५. स्थूल परिग्रहपरिमाण ६. दिग्व्रत भोगोपभोगपरिमाण अनर्थदण्डविरमण -~-पापोपदेश न देना -हिंसोपकरण न देना -दुर्ध्यान न करना -प्रमादाचरण न करना ९. सामायिकव्रत १०. देशावकाशिकव्रत ११. पौषधव्रत Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. अतिथिसंविभाग सम्यक्त्व १. देवतत्त्व २. गुरुतत्त्व ३. धर्मतत्त्व ज्ञान के भेद गुणश्रेणी अथवा गुणस्थान १. मिथ्यात्व गुणस्थान ६७ २. सासादन गुणस्थान ६८ ३. मिश्र गुणस्थान ६९ ४. अविरति गुणस्थान ७० ५. देशविरति गुणस्थान ७० ६. प्रमत्त गुणस्थान ७१ ७. अप्रमत्त गुणस्थान ७१ अध्यात्म भावना १. अनित्य भावना २. अशरण भावना ३. संसार भावना ४. एकत्व भावना ५. अन्यत्व भावना ८८ ६. अशुचि भावना ८८ बन्ध-मोक्ष जैन-जैनेतर दृष्टि से आत्मा कर्म की विशेषता १. पुण्यानुबन्धी पुण्य १०० २. पापानुबन्धी पुण्य १०० जैन आचार ६५-७८ ८.अपूर्वकरण ९.अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवली १४. अयोगिकेवली ७८-८३ ८४-९० ७. आस्रव भावना ८. संवर भावना ९. निर्जरा भावना १०. लोक भावना ११. बोधिदुर्लभत्व भावना ९० १२. धर्मस्वाख्यातत्व भावना ९० ९१-९६ ९६-१०० ९९-१०५ ३. पुण्यानुबन्धी पाप १०१ ४. पापानुबन्धी पाप १०१ १०५-१२० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. साधुओं का आचार २. गृहस्थों का आचार - अहिंसा के बारे में -सत्य के बारे में - अचौर्य के बारे में - दुर्व्यसनरूप व्यवसाय - परिग्रहपरिमाण के बारे में - भोगोपभोगपरिमाण व्रत का सम्बन्ध - अनर्थदण्ड : दुर्ध्यान - अनर्थदण्ड : प्रमादचर्या - सामायिक षट्कर्म १. देवपूजा २. गुरु की उपासना ३. स्वाध्याय ध्यान १. आर्त-ध्यान २. रौद्र - ध्यान दान रात्रिभोजननिषेध भक्ष्याभक्ष्यविवेक आरोग्य व्यसनरूप निन्द्य कार्य १२१ १२५ १२६ १३४ १३५ २६ ४. संयम ५. ३. ४. १. कल्याण के द्वार सबके लिये खुले हैं २. देव-गुरु-धर्म तप - बाह्य तप -आभ्यन्तर तप धर्म- ध्यान शुक्ल - ध्यान तृतीय खण्ड : प्रकीर्णक ३. भगवान् की मूर्ति ४. जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार १०६ १०९ ११० ११२ ११४ ११६ ११६ ११७ ११९ ११९ १२० १२१-१३४ १२६ १२७ १३२ १३३ १३४-१३७ १३५ १३५ १३८ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १५० १५३ १५४ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ १६४ १६७ ५. शरीर का उपयोग १५५ ६.अनुकम्पा और दान १५७ ७.मैत्री आदि चार भावनाएँ १५८-१६३ १. मैत्री भावना १६० ३. करुणा भावना १६२ २. प्रमोद भावना १६० ४. माध्यस्थ्य भावना १६२ ८.विश्वप्रेम और मनशुद्धि ९.अन्तर्युद्ध १०. राग और वीतरागता १६८ ११. ईश्वरकृपा १७१ १२. अनशनव्रत लिए हुए व्यक्ति के बारे में १७४ १३. व्यापक हितभावना १७५ १४. सरल मार्ग १७६ १५. आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन १७६-२०४ -दो प्रकार का उपयोग : विशेष और सामान्य १७७ --विशेष उपयोग अर्थात् ज्ञान के पाँच भेद १७९ -मतिज्ञान के चार भेद : अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा १७९ -चार प्रकार की बुद्धि : औत्पत्तिकी; वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी १८० -सामान्य उपयोग अर्थात् दर्शन के चार भेद १८७ -औपशमिक भाव –क्षायिक भाव –क्षायोपशमिक भाव १९२ -औदयिक भाव १९३ -----पारिणामिक भाव १९४ १६. लेश्या २०५ १७. कार्यकारणसम्बध २१० १८.नियतिवाद १९. जाति-कुलमद २०.ज्ञान-भक्ति-कर्म १९१ २२८ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ २३५ २४३ २५० २५३ २५६ २७३ २७५ २७९ २८३-२८६ २८५ २१. श्रद्धा २२. शास्त्र २३. वैराग्य २४. मुक्ति चतुर्थ खण्ड : कर्मविचार निश्चय और व्यवहार, व्यष्टि और समष्टि आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से कर्म के सिद्धान्त पर विचार आयुष्य कर्म के बारे में कर्म : केवल संस्कार नहीं, द्रव्यभूत वस्तु भी कर्मबंध के प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदों का _ विशेष विवरण कर्म की दस अवस्थाएँ १. बन्ध २८३ ७.संक्रमण २-३. उद्वर्तना-अपवर्तना २८३ ८.निधत्ति ४. सत्ता ९.निकाचना ५. उदय २८४ १०. उपशमन ६. उदीरणा २८५ 'मैं' अनुभूति का आधार : आत्मा प्राणिगत वैषम्य का कारण : कर्म आत्मा और कर्म का परस्पर प्रभाव देव या स्वर्गगति 'अकस्मात्' पर विचार शुभ-अशुभ अध्यवसाय से शुभ-अशुभ कर्मबन्ध सामुदायिक कर्म परलोक की विशिष्ट विवेचना पंचम खण्ड : न्यायपरिभाषा प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद २८६ २८६ २८४ २८६ २८७ २८७ २८७ २८८ २९४ ३०० ३०४ ३०६ ३०९ ३०९ ३१०-३१६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ३११ ३१५ ३१८ ३३६-३४८ ३३८ ३३८ ३३९ ३४० ३४३ ३४४ ३४५ ३४६ ३४९ १-२. स्मरण और प्रत्यभिज्ञान ३-४. तर्क और अनुमान ५. आगम स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद सप्तभंगी प्रथम भंग : अस्ति द्वितीय भंग : नास्ति तृतीय भंग : अस्ति-नास्ति चतुर्थ भंग : अवक्तव्य पंचम भंग : अस्ति-अवक्तव्य षष्ठ भंग : नास्ति-अवक्तव्य सप्तम भंग : अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य -व्यावहारिक उदाहरण नय -प्रमाण और नय -नय के दो भेद : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के सात भेद : १. नैगम ३५८ ५. शब्द २. संग्रह ३६० ६. समभिरूढ ३. व्यवहार ३६१ ७. एवम्भूत ४. ऋजुसूत्र ३६१ - नयाभास नय और अनेकान्त हाथी के दृष्टान्त द्वारा नय-अनेकान्त का स्पष्टीकरण अनेकान्त के दृष्टिकोण द्वारा कतिपय दार्शनिक विवादों का समन्वय १. ईश्वरकर्तृत्व ९.दिगम्बर और अकर्तृत्ववाद ३७४ श्वेताम्बरवाद २. द्वैताद्वैतवाद ३७६ १०. मूर्तिवाद ३. एकानेकात्मवाद ३७६ ११. क्रियावाद ३५० ३५७ ३५८-३६९ ३६२ ३६४ ३६४ ३६८ ३६९ ३७२ ३७४ ३७८ ३७९ ३८० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 निक्षेप ४०६ ४. अवतारवाद ३७७ १२. काल-स्वभाव-पूर्वकर्म५. कर्तृत्ववाद ३७७ उद्यम-नियतिवाद ३८३ ६. साकार-निराकारवाद ३७७ १३. ज्ञान-क्रियावाद ३९३ ७. आत्मविभुत्ववाद ३७८ १४. निश्चय-व्यवहारदृष्टि ३९४ ८. शून्य और क्षणिकवाद ३७९ १५. उत्सर्ग-अपवाद ३९९ ४०४ षष्ठ खण्ड : जैनदर्शन की असाम्प्रदायिकता और उदारता ईश्वरकर्तृत्ववाद-प्रकृतिवाद-क्षणिकवादविज्ञानवाद-शून्यवाद-अद्वैतवाद आदि वादों की प्रामाणिकता । अन्य दर्शनों के महर्षियों का आदरपूर्वक उल्लेख ४१० मार्ग भिन्न होने पर भी परमात्मदशा की प्राप्ति ४१४ महावीर के शासन की तीन विशेषताएँ : अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह ४१६ महावीर की क्रान्तिकारिता ४१८-४२१ -स्त्री-पुरुषसमानता ४१८ -गुणकर्म पर वर्णव्यवस्था का आधार -बाह्य वेश या आचार नहीं, किन्तु अन्तःशुद्धि ही जीवन का सर्वस्व ४२१ उपसंहार ४२४ ४१९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम : जगत् क्या है ?, इसका स्वरूप कैसा है ?, यह किन तत्त्वों का बना है ? – इन प्रश्नों पर विचार करने पर यह जगत् केवल दो ही तत्त्वजड़ एवं चैतन्यरूप प्रतीत होता है । इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त विश्व में तीसरा कोई तत्त्व नहीं है । समग्र विश्व के सारे पदार्थ इन दो तत्त्वों में ही समाविष्ट हो जाते हैं । सामान्यतः इन दो मूलभूत पदार्थों के लिये 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग होता है । प्रथम खण्ड जिसमें चैतन्य नहीं है— अनुभूति नहीं है वह जड़ है । इससे विपरीत चैतन्यस्वरूप-संवेदनशील आत्मा है । आत्मा, जीव, चेतन ये सब एक ही अर्थ के द्योतक पर्यायवाची शब्द हैं । आत्मा का मुख्य लक्षण ज्ञानशक्ति है जैन शास्त्रकारों ने चेतन एवं जड़ अथवा जीव एवं अजीव इन दो तत्त्वों पर आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष प्रकाश डालने के लिये इन्हीं के अवान्तर भेदरूप में अन्य तत्त्वों को अलग करके समझाया है और उनका विशद प्रतिपादन किया है । सामान्यतः नौ तत्त्वों पर जैन दर्शन का विकास हुआ है । जिन और जैन : 'जिन' शब्द पर से 'जैन' शब्द निष्पन्न हुआ है । राग- ग-द्वेषादि सम्पूर्ण दोषों से रहित परमात्मा का सर्वसाधारण नाम 'जिन' है। 'जीतना' अर्थवाले 'जि' धातु से बना हुआ 'जिन' नाम राग-द्वेषादि समग्र दोषों को जीतने वाले परमात्माओं को यथार्थ रूप से लागू होता हैं । अर्हन्, वीतराग, परमेष्ठी आदि 'जिन' के पर्यायवाची शब्द हैं । 'जिन' के भक्त जैन और जिनप्रतिपादित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जैनदर्शन धर्म 'जैन-धर्म' कहलाता है । जैन धर्म का आर्हत-धर्म, अनेकान्तदर्शन, निर्ग्रन्थशासन, वीतरागमार्ग आदि अनेक नामों से व्यवहार होता है । तीर्थङ्कर : जिस जन्म में आत्मस्वरूप को विकसित करने का अभ्यास पराकाष्ठा पर पहुँचता है और सभी आवरण विध्वस्त हो जाने के कारण जिनका चैतन्यविकास पूर्ण रूप से सिद्ध हुआ है वे उस भव में परमात्मा कहे जाते हैं । जैन शास्त्रों में ऐसे परमात्माओं के दो विभाग किए गए हैं। पहले विभाग में तीर्थङ्कर आते हैं । वे जन्म से ही विशिष्ट ज्ञानवान् और लोकोत्तरसौभाग्यसम्पन्न होते हैं । तीर्थंकरों के बारे में अनेक विशेषताओं का उल्लेख मिलता है । राज्य नहीं मिलने पर भी भविष्य में जिसे राज्य मिलने वाला है, वैसे राजकुमार को राजा कहा जाता है उसी प्रकार तीर्थंकर भी बाल्यावस्था से ही केवलज्ञानधारी नहीं होते और इसीलिये उस वक्त उनमें वास्तविक तीर्थंकरत्व नहीं होता, फिर भी उसी जीवन में वे तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं, इसलिये वे 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं । वे जब गृहवास का त्याग करके चारित्रमार्ग अंगीकार करते हैं और योगसाधना की पूर्णता पर पहुँचने पर सम्पूर्ण 'घाती' कर्मावरणों का क्षय हो जाने के कारण जब उनमें केवलज्ञान प्रगट होता है तब वे 'तीर्थ' की स्थापना करते हैं । 'तीर्थ' शब्द का अर्थ साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ है । तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर उनके साक्षात् मुख्य शिष्य, जो 'गणधर' कहे जाते हैं, शास्त्रों की रचना करते हैं । वे शास्त्र बारह विभागों में विभक्त होते हैं। उन्हीं को 'द्वादशाङ्गी' कहते हैं । द्वादशांगी का अर्थ है बारह अंगों का समूह । 'अंग' इन बारह विभागों-सूत्रों में से प्रत्येक के लिये प्रयुक्त होने वाला एक पारिभाषिक नाम है । 'तीर्थ' शब्द से यह द्वादशांगी भी ली जाती है । इस प्रकार तीर्थ की स्थापना करने वाले एवं उक्त चतुर्विध संघ के स्थापक तथा द्वादशांगी के प्रयोजक होने से वे तीर्थंकर कहलाते हैं । 1 इस तरह की विशेषताओं से रहित केवलज्ञानधारी वीतराग परमात्मा, तीर्थंकरों के विभाग से अलग पड़ते हैं । अतः वे सामान्यकेवली कहे जाते हैं । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड वैदिक परम्परा के धर्मशास्त्रों में जिस प्रकार काल के कृतयुग आदि चार विभाग किए गए हैं उसी प्रकार जैन शास्त्रों में काल के विभागरूप से छह आरों का उल्लेख है । तीर्थंकर तीसरे-चौथे आरे में होते हैं । जो तीर्थंकर अथवा केवलज्ञानी आयुष्य पूर्ण होने पर मुक्त हो जाते हैं वे पुनः संसार में नहीं आतें । इस पर से यह समझना है कि जो जो जीव इस विश्व में तीर्थङ्कर होते हैं वे किसी परमात्मा के अवताररूप नहीं होते, किन्तु सब तीर्थङ्कर पृथक्-पृथक् आत्मा हैं । मुक्त होने के पश्चात् संसार में पुनः अवतार लेने की बात जैन सिद्धान्त को मान्य नहीं है ।। जैन शास्त्रों का प्रतिपाद्य विषय नौ तत्त्व है-यह ऊपर कहा गया हैं । ये नौ तत्त्व हैं—१. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. बन्ध, ८. निर्जरा और ९. मोक्ष । जीव : जिस प्रकार दूसरे पदार्थ प्रत्यक्ष दिखते हैं उस प्रकार जीव प्रत्यक्ष नहीं दिखता, परन्तु वह स्वानुभव-प्रमाण से जाना जा सकता है । 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा संवेदन शरीर को नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो पृथ्वी आदि पञ्चभूतों का बना हुआ है । यदि शरीर को आत्मा माना जाय तो मृत शरीर में भी ज्ञान का प्रकाश क्यों न माना जाय ? मृत शरीर को भी सजीव शरीर क्यों न कहा जाय ? परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि इच्छा, १. जैन शास्त्रों में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के नाम से काल के दो मुख्य विभाग किए गये हैं । इन उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी में जिनकी संख्या ही गिनी न जा सके उतने-असंख्येय वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । उत्सर्पिणी काल में रूप, रस, गन्ध, शरीर, आयुष्य, बल आदि वैभव क्रमशः बढ़ते जाते हैं, जब कि अवसर्पिणी काल में वे सब घटते जाते हैं । प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के छह विभाग किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक विभाग को आरा (संस्कृत शब्द 'अर') कहा जाता है । उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी की काल-चक्र के एक पहिए के रूप में कल्पना करें तो इनके बारह विभागों को 'आरा' कह सकते हैं । एक के छह आरे पूर्ण होने पर दूसरे के आरों का आरम्भ होता है । इस समय भारतवर्ष आदि क्षेत्रों में अवसर्पिणी का पाँचवाँ आरा चल रहा है । इसे 'कलियुग' भी कह सकते हैं । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैनदर्शन अनुभूति आदि गुण मृतक के शरीर में नहीं होतें । इस से सिद्ध होता है कि इन गुणों का उपादान शरीर नहीं, किन्तु कोई दूसरा ही तत्त्व हैं और उसी का नाम आत्मा है । शरीर पृथ्वी आदि भूतसमूह का बना हुआ होने के कारण भौतिक है अर्थात् वह जड़ है; और जिस प्रकार भौतिक घट, पट आदि जड़ पदार्थों में ज्ञान, इच्छा आदि धर्मों का अस्तित्व नहीं हैं उसी प्रकार जड़ शरीर भी ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का उपादानरूप आधार नहीं हो सकता । शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं, परन्तु इन इन्द्रियों को साधन बनाने वाली आत्मा इन इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा आत्मा रूप, रस आदि जानता है । वह चक्षु से रूप देखता है, जीभ से रस ग्रहण करता है, नाक से गन्ध लेता है, कान से शब्द सुनता है, त्वचा (चमड़ी) से स्पर्श करता है । उदाहरणार्थ, जिस प्रकार चाकू से कलम बनाई जाती है, परन्तु चाकू और बनाने वाला दोनों भिन्न हैं; हँसिये से घास आदि काटा जाता है परन्तु हँसिया और काटने वाला दोनों भिन्न हैं; दीपक से देखा जाता है परन्तु दीपक और देखने वाला दोनों जुदा-जुदा हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से रूप, रस आदि विषय ग्रहण किए जाते हैं, परन्तु इन्द्रियग्राम और विषयों को ग्रहण करने वाला दोनों भिन्न ही हैं । साधक को साधन की अपेक्षा होती है, परन्तु इससे साधक और साधन ये दोनों एक नहीं हो सकते । इन्द्रियाँ आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराने में साधनभूत हैं । अतः साधनभूत इन्द्रियाँ और उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाली आत्मा दोनों एक नहीं हो सकती । मृत शरीर में इन्द्रियों का अस्तित्व होने पर भी मृतक को उनसे किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता — इसका क्या कारण है ? इस पर से यही प्रतीत होता है कि इन्द्रियाँ और उनसे ज्ञान प्राप्त करने वाली आत्मा दोनों पृथक् ही हैं । इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इन्द्रियों को यदि आत्मा माना जाय तो एक शरीर में पाँच आत्मा माननी पड़ेगी और यह अघटित ही हैं । दूसरी दृष्टि से देखें तो जिस मनुष्य की आँख नष्ट हो गई है उसे १. पृथ्वी, जल, तेज और वायु । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड भी पहले अर्थात् आँख के अस्तित्वकाल में देखे हुए पदार्थों का स्मरण होता है । किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मानने पर यह सम्भव नहीं हो सकता । इन्द्रियों से आत्मा को पृथक् मानने पर ही यह घट सकता है, क्योंकि आँख से देखी हुई वस्तु का स्मरण आँख के अभाव में न तो आँख से हो सकता है और न ही दूसरी इन्द्रियों से । दूसरी इन्द्रियों से स्मरण न होने में कारण यह है कि जिस प्रकार एक मनुष्य के द्वारा देखी हुई वस्तु का स्मरण दूसरा नहीं कर सकता उसी प्रकार आँख से देखे हुए पदार्थ का स्मरण दूसरी इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता । एक का अनुभव दूसरे को स्मरण करने में कारणभूत नहीं हो सकता-यह समझी जा सके वैसी सुगम बात है। इससे यही फलित होता है कि आँख से देखी हुई वस्तुओं का, आँख के नष्ट होने पर भी, स्मरण करने वाली जो शक्ति है वह चैतन्यस्वरप आत्मा ही है । आत्मा ने चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा जिन वस्तुओं को पहले देखा था उन्हीं वस्तुओं का चक्षुरिन्द्रिय के अभाव में भी पूर्व अनुभव से उत्पन्न संस्कार के उद्बोधन के द्वारा वह स्मरण कर सकती है । इस प्रकार अनुभव एवं स्मरण के (जो अनुभव करता है वही स्मरण करता है-इस प्रकार के) घनिष्ठ सम्बन्ध से भी स्वतंत्र चैतन्यत्वरूप आत्मा सिद्ध होती है । 'अमुक वस्तु देखने के पश्चात् मैंने उसका स्पर्श किया, तदनन्तर मैंने वह सूंघी, फिर चखी'-ऐसा अनुभव मनुष्य को हुआ करता है । इस अनुभव के ऊपर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला भिन्न नहीं, किन्तु एक ही है । परन्तु वह एक कौन है ? वह आँख नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य केवल देखने का ही है, छूने आदि का नहीं । वह स्पर्शन-इन्द्रिय (त्वचा) भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य सिर्फ छूने का ही है, देखने आदि का नहीं । इसी प्रकार वह नाक अथवा जीभ भी नहीं हो सकती, क्योंकि नाक का कार्य केवल सूंघने का और जीभ का कार्य केवल चखने का ही है । इससे यह नि:शंक सिद्ध होता है कि वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला जो एक है वह इन्द्रियों से भिन्न आत्मा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन 1 आत्मा में कृष्ण, श्वेत, पीत आदि कोई वर्ण नहीं है, अतः वह दूसरी वस्तुओं की भाँति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती । प्रत्यक्ष न होने के कारण वह कुछ है ही नहीं, ऐसा नहीं माना जा सकता । परमाणु भी चर्मचक्षु से नहीं दिखते, फिर भी अनुमान प्रमाण से उनका अस्तित्व माना जाता है । स्थूल कार्य की निष्पत्ति के लिये सूक्ष्म — परम सूक्ष्म अणुओं के अस्तित्व की सिद्धि अनुमान प्रमाण पर ही अवलम्बित है । परमाणु मूर्त रूपी होने पर भी यदि प्रत्यक्ष - गम्य नहीं हैं तो फिर अमूर्त अरूपी आत्मा कैसे प्रत्यक्ष दिख सकती है ? ऐसा होने पर भी यह एक समझने की बात है कि संसार में कोई सुखी तो कोई दुःखी, कोई विद्वान् तो कोई मूर्ख, कोई सेठ तो कोई नौकर—इस प्रकार की अनन्त विचित्रताएँ दृष्टिगोचर होती हैं यह तो प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है कि बिना कारण ये विलक्षणताएँ सम्भव नहीं हो सकतीं । शतशः प्रयत्न करने पर बुद्धिशाली मनुष्य को इष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती, जब कि दूसरे मनुष्य को बिना प्रयत्न के ही अभीष्ट लाभ मिल जाता है । ऐसी अनेकानेक घटनाएँ हमारी दृष्टि के सामने ही होती हैं। एक ही स्त्री की कुक्षि से साथ ही उत्पन्न युगल में से दोनों प्राणी एकजैसे नहीं होते । उनकी जीवनचर्या एक दूसरे की अपेक्षा अत्यन्त भिन्न होती है । तो प्रश्न यह होता है कि इन सब विचित्रताओं का कारण क्या है ? ऐसा नहीं हो सकता कि ये सब घटनाएँ अनियमित हों । इनका कोई न कोई नियामक - प्रयोजक होना चाहिए । इस पर से तत्त्वज्ञ महात्माओं ने कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है; और कर्म के अस्तित्व के आधार पर आत्मा स्वतः सिद्ध होती हैं, क्योंकि आत्मा को सुख - दुःख देने वाला कर्मपुञ्ज आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त है और इसीके कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है । कर्म एवं आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक की सिद्धि के लिये कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता । जैसा शुभ अथवा अशुभ कार्य जीव करता है वैसा ही परलोक (पुनर्जन्म) उसे मिलता है । जिस प्रकार की शुभ अथवा अशुभ क्रिया की जाती है उसी प्रकार की 'वासना' आत्मा में स्थापित हो जाती है । यह वासना विभिन्न प्रकार के परमाणुसमूहों का एक समुच्चय ही है । इसीको दूसरे शब्द में 'कर्म' कहते हैं । इस प्रकार के नये नये कर्म आत्मा के साथ बँधते रहते हैं और पुराने कर्म अपना समय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड पूर्ण होने पर झड़ते जाते हैं । शुभ अथवा अशुभ क्रिया द्वारा बाँधनेवाले शुभ अथवा अशुभ कर्म परलोक तक, अरे ! अनेकानेक जन्मों तक फल दिए बिना ही आत्मा के साथ संयुक्त रहते हैं और फल-विपाक के उदय के समय अच्छे या बूरे फलों का अनुभव आत्मा को कराते हैं । फल-विपाक के उपभोग की जब तक अवधि होती है तब तक आत्मा उस फल का अनुभव करती है और अनुभव हो जाने के पश्चात् वह कर्म आत्मा पर से झड़ जाता है। इस पर से यही फलित होता है कि वर्तमान जीवन और परलोक की गति इस 'कर्म' के बल पर अवलम्बित है। उपर्युक्त युक्ति-प्रमाणों के द्वारा तथा 'मैं सुखी हूँ,' 'मैं दुःखी हूँ' ऐसी शरीरिक नहीं, इन्द्रियजन्य नहीं, किन्तु हृदय के अन्तस्तम प्रदेश में अर्थात् अन्तरात्मा में सुस्पष्ट अनुभूतिजन्य संवेदना, जो कि प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है, उसके द्वारा भी शरीर एवं इन्द्रियों से भिन्न स्वतंत्र आत्मतत्त्व सिद्ध होता है। संसार में जीव अनन्त है : ____ यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस संसार में विद्यमान जीवराशि में से कर्म क्षय करके जीव मुक्ति में गए हैं, जाते हैं और जाएँगे, इस प्रकार प्रतिक्षण संसार में से जीव कम होते जा रहे हैं, इसी स्थिति में भविष्य में कोई समय ऐसा क्यों नहीं आ सकता जब यह संसार जीवों से रिक्त हो जाय ? इस प्रश्न के समाधान का विचार करने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसार जीवों से रहित हो जाय यह किसी भी शास्त्र को मान्य नहीं है। हमारी विचारदृष्टि में भी यह बात नहीं आती । दूसरी ओर मुक्ति में से जीव संसार में वापिस लौटे यह बात भी मानी जा सके वैसी नहीं है; क्योंकि यह तो सब कोई मानते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष मिलता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसके कारण संसार में जन्म लेना पड़ता है वह कर्म-सम्बन्ध किसी भी रूप में जब मुक्त जीवों के साथ नहीं होता तो फिर वे संसार में वापिस कैसे आ सकते हैं ? यदि Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन मोक्ष में से वापिस लौटना माना जाय तो फिर मोक्ष का महत्त्व ही लुप्त हो जायगा । जहाँ से पुनः पतन का प्रसंग उपस्थित हो उसे मोक्ष ही नहीं कह सकते । अतएव प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक प्रतीत होता है कि संसार जीवों से शून्य नहीं होता और मोक्ष में से जीव वापिस लौटते भी नहीं-इन दो सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचने पाए । शास्त्र कहते हैं कि जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने जीव संसार में से अवश्य कम होते जाते हैं; फिर भी जीवराशि अनन्त होने के कारण संसार जीवों से शून्य हो ही नहीं सकता । संसारवर्ती जीवराशि में नए जीवों का समावेश सर्वथा न होने पर भी और संसार में से जीवों की निरन्तर कमी होती रहने पर किसी भी समय जीवों का अन्त न आए इतने अनन्त जीव समझने चाहिए । इस प्रकार की 'अनन्त' शब्द की व्याख्या शास्त्र करते हैं । सूक्ष्म में सूक्ष्म (अविभाज्य) काल को जैन शास्त्रों में 'समय' कहते हैं । समय इतना सूक्ष्म काल है कि एक सेकन्ड में वे कितने बीत जाते हैं यह हम जान ही नहीं सकते । ऐसे समग्र भूत-भविष्य काल के समय अनन्तानन्त हैं, इसी प्रकार संसारवर्ती जीव भी अनन्तानन्त हैं जिनकी किसी भी काल में समाप्ति होने की संभावना ही नहीं हैं। [प्रस्तुत दृष्टान्त से जीवों की अनन्तता की कुछ कल्पना आ सकती है ।] जीव के विभाग : सामान्यतः जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । संसार में भ्रमण करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं । संसार शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'सृ' धातु से बना है । 'सृ' धातु का अर्थ गमन, भ्रमण होता है। 'सम्' उपसर्ग उसी अर्थ को पुष्ट करने वाला है। अतः 'संसार' शब्द का अर्थ हुआ भ्रमण । ८४ लाख जीवयोनियों में अथवा चार गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है और परिभ्रमण करने वाला जीव संसारी कहलाता है। दूसरी तरह से संसार शब्द का अर्थ ८४ लाख जीवयोनि अथवा चार गति भी हो सकता है । शरीर का नाम भी संसार है । इस प्रकार वे आबद्ध जीव संसारी कहे जाते हैं । १. देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड आत्मा की कर्मबद्ध अवस्था ही 'संसार' शब्द का मूलभूत अर्थ है । इस पर से संसारी जीव का यह लक्षण बराबर समझ में आ सकता है । संसारी जीवों के अनेक प्रकार से भेद किए जा सकते हैं । परन्तु मुख्य दो भेद हैं- स्थावर एवं त्रस । दुःख दूर करने की तथा सुख प्राप्त करने की प्रतिवृत्तिचेष्टा - गतिचेष्टा जहाँ पर नहीं है वे स्थावर और जहाँ पर है वे त्रस | पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पाँच का स्थावर में समावेश होता है । ये पृथ्वीकाय आदि पाँच एक स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रियवाले होने के कारण एकेन्द्रिय कहलाते हैं । इनके भी दो भेद हैं— सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म तेजकाय, सूक्ष्म वायुकाय और सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । ये अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अपनी चक्षु से हम इन्हें देख नहीं सकतें । बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर तेजकाय, बादर वायुकाय तथा बादर वनस्पतिकाय प्रत्यक्ष देखने में आते हैं । घर्षण, छेदन आदि प्रहार जिस पर न हुआ हो वैसी मिट्टी, पत्थर आदि पृथ्वी जिन जीवों के, शरीरों के पिण्ड हैं उन जीवों को बादर पृथ्वीकाय समझना । जिस जल को अग्नि आदि से आघात न पहुँचा हो अथवा अन्य किसी वस्तु के मिश्रण का जिस पर प्रभाव न पड़ा हो वैसा जल-कुआं, नदी, तालाब आदिकालीन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर जलकाय जीव हैं । इसी प्रकार दीपक, अग्नि, बिजली आदि जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर तेजस्काय जीव हैं । अनुभूयमान वायु जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर वायुकाय हैं । और वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, कन्द आदि बादर वनस्पतिकायर हैं । ९ १. 'स्थूल' अर्थवाची 'बादर' शब्द जैनशास्त्र का एक सांकेतिक शब्द है । २. सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा वनस्पति में जीव के अस्तित्व को विश्व के सम्मुख सिद्ध कर दिखाया है । यहाँ पर प्रसंगतः इतना लिखना उपयोगी प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण अवकाशआकाश सूक्ष्म जीवों से व्याप्त है ऐसा आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है । यह बात जैनदर्शन के मन्तव्य से मिलती है। वैज्ञानिकों ने यह भी शोध की है कि सब से छोटा प्राणी थेक्सस नाम का है । ये जन्तु एक सूई के अग्रभाग पर एक लाख जितने हों तब भी आराम से बैठ सकते हैं । ऐसे निरूपण सूक्ष्म जीवों का वर्णन करनेवाले जैन शास्त्रों के मन्तव्यों के अनुरूप समझे जा सकते हैं । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन उपर्युक्त सचेतन पृथ्वी को छेदन-भेदन आदि आघात लगने से उन में रहे हुए जीव उनमें से च्युत हो जाते हैं और इस प्रकार वह पृथ्वी अचेतन (अचित्त) बन जाती है । इसी प्रकार पानी गरम करने से अथवा उसमें शक्कर आदि पदार्थों का मिश्रण करने से वह पानी अचेतन हो जाता है। इसी प्रकार वनस्पति भी अचेतन बन सकती है । दो इन्द्रियाँ-त्वचा और जीभ जिन्हें होती हैं वे द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं । कृमि, केंचुआ, जोंक, शंख आदि का द्वीन्द्रिय में समावेश होता है । जूं, खटमल, चींटी, इन्द्रगोप आदि त्वचा, जीभ, नाक इन तीन इन्द्रियों वाले होने के कारण त्रीन्द्रिय कहे जाते हैं । त्वचा, जीभ, नाक और आँख इन चार इन्द्रियोंवाले मक्खी, मच्छर, भौरे, टिड्डी, बिच्छू आदि चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं । त्वचा, जीभ, नाक, आँख और कान इन पाँच इन्द्रियों वाले जीव पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं । पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं—(१) मनुष्य, (२) पशु, पक्षी, मत्स्य, सर्प, नकुल आदि तिर्यंच, (३) स्वर्ग में रहनेवाले देवता, तथा (४) नरक में रहनेवाले नारक । त्रस में इन द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता हैं। इस प्रकार स्थावर एवं उस में सम्पूर्ण संसारी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। अब बचे मुक्त जीव । उनका वर्णन मोक्षतत्त्व के प्रकरण में किया जायगा । १. 'स्थावर' एवं 'स' इन दो भेदों में 'स्थावर' का अर्थ स्थितिशील और 'त्रस' का अर्थ हेतुपूर्वक गति करनेवाला ऐसा होता है । सूक्ष्म द्वीन्द्रिय जीव भी हेतुपूर्वक गति करता है, अत: उसका भी बस में ही समावेश होता है । पृथ्वी, जल और वनस्पति ये तीनों स्थावर (स्थितिशील) होने के कारण 'स्थावर' कहलाते हैं । तेजस्काय और वायुकाय जीवों में यद्यपि गतिमत्ता देखी जाती है, फिर भी उनकी गति हेतुपूर्वक नहीं है। उनके शरीर की इस प्रकार की स्वाभाविक वृत्ति है । अतएव उन्हें त्रस में न गिन कर स्थावर में गिना है । फिर भी उनकी स्वाभाविक गति की अपेक्षा से उन्हें बस में गिनने की भी एक परम्परा है । परन्तु इस स्वाभाविक गति की अपेक्षा से उनका त्रस में समावेश करने पर भी वस्तुत: उनकी स्थावर में ही गिनती होती है, क्योंकि दुःख त्यागने की और सुख प्राप्त करने की गतिप्रवृत्ति जहाँ स्पष्ट प्रतीत होती हो वहीं पर, त्रस-नामकर्म का और जहाँ पर वह प्रतीत न होती हो वहाँ स्थावर-नामकर्म का उदय माना जाता है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड ११ अजीव : चैतन्यरहित-जड़ पदार्थों को अजीव कहते हैं । जैन शास्त्रों में अजीव के पाँच भेद किए गए हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । यहाँ पर धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व पुण्य और पापरूप समझने के नहीं हैं, किन्तु इन नामों के ये दो भिन्न ही पदार्थ हैं । ये पदार्थ (द्रव्य) आकाश की भाँति सम्पूर्ण लोक में व्यापक हैं, और अरूपी हैं । इन दो पदार्थों का उल्लेख किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है । जैन शास्त्रों में ही इनका प्रतिपादन है । जिस प्रकार अवकाश देखने के कारण आकाश का अस्तित्व सब विद्वान् मानते हैं उसी प्रकार ये दो पदार्थ भी जैन शास्त्रों में सहेतुक माने गये है। धर्म (द्रव्य) : गमन करनेवाले प्रणियों को तथा गति करनेवाली जड़ वस्तुओं को उनकी गति में सहायता करनेवाला 'धर्म' पदार्थ है । पानी में तैरने में मछलियाँ को जिस प्रकार सहायता करनेवाला पानी है उसी प्रकार जड़ पदार्थों की तथा जीवों की गति में सहायकरूप से 'धर्म' नामक पदार्थ माना गया है । जिस प्रकार अवकाश प्राप्त करने में आकाश सहायक माना जाता है उसी प्रकार गति में सहायकरूप से 'धर्म' तत्त्व माना जाता है । अधर्म (द्रव्य) : . जिस प्रकार श्रान्त पथिक को विश्राम लेने में वृक्ष की छाया निमित्तभूत होती है उसी प्रकार 'अधर्म' पदार्थ का उपयोग स्थिति करनेवाले जीवों एवं जड़ पदार्थों को उनकी स्थिति में सहायक होना है । गति करने में सहायक जिस प्रकार से 'धर्म' तत्त्व मानना पडता है उसी प्रकार स्थिति में सहायक 'अधर्म' तत्त्व भी मानना पड़ता है । हलन-चलन तथा स्थिति में स्वतंत्र कर्ता स्वयं जीव एवं अजीव पदार्थ ही हैं, अपने ही व्यापार से वे हलन-चलन करते हैं अथवा स्थिर होते हैं, परन्तु इसमें सहायक रूप से किसी शक्ति की अपेक्षा होनी चाहिए ऐसा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनदर्शन मानने तक तो आधुनिक वैज्ञानिक भी आए हैं । जैन शास्त्रकारों ने इस सम्बन्ध में 'धर्म' तथा 'अधर्म' ऐसे दो तत्त्वों का प्रतिपादन किया है-जड़ एवं जीव पदार्थों के प्रेरक के रूप में नहीं किन्तु उदासीनभाव से (संयुक्तभाव से) सहायक के रूप में । आकाश : आकाश पदार्थ प्रसिद्ध है । दिशा का समावेश भी आकाश में हो जाता है । लोक से सम्बन्धित आकाश को लोकाकाश और अलोक से सम्बन्धित आकाश को अलोकाकाश कहते हैं । लोक एवं अलोक के इस विभाजन में यदि कोई विशिष्ट कारण हो तो वह उपर्युक्त 'धर्म' और 'अधर्म' पदार्थ ही है। ऊपर, नीचे और चारों और जहाँ तक धर्म और अधर्म पदार्थ स्थित है वहाँ तक के प्रदेश को 'लोक' संज्ञा दी गई है । लोक के बाहर का प्रदेश 'अलोक' कहलाता है । इन दो पदार्थों के सहयोग से ही लोक में जीव एवं पुद्गल पदार्थों की क्रिया हो रही है । अलोक में ये दो पदार्थ न होने के कारण वहाँ एक भी अणु अथवा एक भी जीव नहीं है और लोक में से कोई भी अणु अथवा जीव अलोक में जा नहीं सकता, क्योंकि अलोक में 'धर्म' और 'अधर्म' पदार्थ नहीं है । तब प्रश्न होता है, तो फिर अलोक में क्या है ? इसका उत्तर यही है कि वहाँ कुछ भी नहीं है । वह केवल आकाशरूप ही है । जिस आकाश के किसी भी प्रदेश में परमाण, जीव अथवा अन्य कोई वस्तु न हो ऐसा शुद्ध मात्र आकाश ही अलोक है । आकाश द्रव्य विस्तार में अनन्त है अर्थात् उसका कहीं अन्त ही नहीं है । ऊपर कहा उस भाँति 'धर्म' तथा 'अधर्म' पदार्थों के द्वारा लोक एवं अलोक का विभाग सिद्ध होने में एक दूसरा प्रमाण भी समझ में आ सके ऐसा है । जैनशास्त्रों का सिद्धांत है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होते ही मुक्त जीव ऊर्ध्व-ऊपर की ओर गति करता है । इसके बारे में तूंबे का उदाहरण दिया जाता है । मिट्टी से लिपटकर पानी में डाला हुआ तूंबा मिट्टी दूर होने पर जिस प्रकार पानी के ऊपर एकदम आ जाता है, उसी प्रकार आत्मा के ऊपर लगा हुआ कर्मरूपी सम्पूर्ण मैल दूर होते ही वह विदेह मुक्त आत्मा स्वतः स्वभावतः ऊर्ध्व गति करती है—ऊपर की ओर जाती है । परन्तु वह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड ऊर्ध्वगति कहाँ तक होती रहेगी ? कहाँ जाकर वह ठहरेगी ?-यह विशेष रूप से विचारणीय प्रश्न हैं । इस प्रश्न का निर्णय 'धर्म' एवं 'अधर्म' पदार्थ द्वारा लोक एवं अलोक का विभाग माने बिना किसी प्रकार से हो नहीं सकता । इस लोक-अलोक के विभाग को यदि मान्य रखें तो प्रश्न सुलझ सकता है, क्योंकि उस समय ऐसी स्पष्टता की जा सकता है कि गति करने में सहायक 'धर्म' पदार्थ ऊपर जहाँ तक है वहीं तक-लोक के उस अग्रभाग तक कर्मरहित आत्मा पहँच कर वहाँ ठहर जाती है। वहाँ उसकी गति रूक जाती है और वहीं पर टिक जाती है—स्थिर हो जाती है । वहाँ से आगे अलोक में 'धर्म' पदार्थ का अभाव होने के कारण गति नहीं हो सकती । यदि 'धर्म-अधर्म पदार्थ और उनसे निष्पन्न लोक-अलोक का विभाग न हो तो कर्मरहित मुक्त आत्मा ऊपर जा कर कहाँ रुकेगी ? और कहाँ पर वह टिकेगी ?—यह समस्या सुलझ नहीं सकती । पुद्गल : परमाणु से लेकर स्थूल-अतिस्थूल-महास्थूल सभी रूपी पदार्थ 'पुद्गल' कहे जाते हैं । 'पूर' और 'गलू' इन दोनों धातुओं के संयोग से 'पुद्गल' शब्द बना है । 'पू' का अर्थ संश्लेष-मिलन और 'गलू' का अर्थ झड जाना—अलग होना होता है । यह बात हमारे अपने शरीर में तथा दूसरी प्रत्येक वस्तु में प्रत्यक्ष अनुभूत होती है । अर्थात् अणुसंघात रूप छोटेबड़े प्रत्येक पदार्थ में परमाणुओं का बढ़ना-घटना हुआ करता है। परमाणुओं का संश्लेषण-विश्लेषण प्रत्येक मूर्त वस्तु में हुआ करता है । एक परमाणु भी दूसरे के साथ संयुक्त अथवा उससे वियुक्त हुआ करता हैं । इस प्रकार परमाणु में भी 'पुद्गल' संज्ञा अर्थयुक्त सिद्ध हो सकती है । पुद्गल का मूल तत्त्व परमाणु है । परमाणु के पारस्परिक संश्लेष से बननेवाला पदार्थ स्कन्ध कहा जाता है । स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण---इन चारों से युक्त होना पुद्गल का स्वरूप है । यही इसका मूर्तत्व है । मूर्तत्व अर्थात् वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-इन सबका सामुदायिक परिणमन । मूर्त को रूपी भी कहते हैं, परन्तु Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन इस रूपी (मूर्त के पर्याय शब्द 'रूपी') का अर्थ केवल वर्णयुक्त नहीं, किन्तु वर्णादिसमुदायरूप होता है । इस पर से इतना तो सहज ही समझा जा सकता है कि पुद्गल के अतिरिक्त दूसरे तमाम द्रव्यों को जो अरूपी कहा गया है उसका यह अर्थ नहीं है कि उनका कोई स्वरूप ही नहीं है । यदि उनका कोई स्वरूप ही न हो तो वे खरविषाण की भाँति असत् ही सिद्ध होंगे । अवश्य उनका प्रत्येक का निश्चित स्वरूप है ही; किन्तु उनमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श गुणों का अभाव होने के कारण (इस अभाव के अर्थ में) वे अरूपी कहे गए हैं । स्पर्श आठ प्रकार का है-कठिन और मृदु, गुरु तथा लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध (चिकना) व रूक्ष (लूखा) । रस पाँच प्रकार का है-कडुआ, तीखा, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठ । गन्ध दो प्रकार की है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण के पाँच भेद हैं-काला, पीला, हरा, लाल और सफेद । इस प्रकार स्पर्श आदि के कुल बीस भेद होते हैं । परन्तु तरतमभाव की अपेक्षा से उनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं । वह इस तरह जो जो वस्तु मृदु होती है उन सबके मृदुत्व में कुछ-न-कुछ तारतम्य तो होता ही है । इस वजह से सामान्यतः मृदुत्व एक होने पर भी तारतम्य १. स्वादुरम्लोऽथ लवणः कटुकस्तिक्त एव च । कषायश्चेति षट्कोऽयं रसानां संग्रहः स्मृतः ॥ ___ -चरकसंहिता अ० १, श्लो० ६५. चरकसंहिता के उपर्युक्त श्लोक में मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीखा और कसैला इस तरह छह प्रकार के रस बतलाए गए हैं । लोकव्यवहार में भी षड्रस प्रसिद्ध हैं । तो फिर प्रश्न होता है कि शास्त्र में रस के पाँच ही भेद क्यों गिनाए हैं ? उनमें एक अधिक लवणरस का निर्देश क्यों नहीं किया गया ? इसके उत्तर में तत्त्वार्थसूत्र पर की सिद्धसेन गणि की वृत्ति (पंचम अध्याय के २३वें सूत्र की वृत्ति) में तथा हरिभद्राचार्य के 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ पर की गुणरत्नसूरि की वृत्ति (श्लोक ४९ की वृत्ति) में लिखा है कि "लवणो मधुरान्तर्गत इत्येके । संसर्गज इत्यपरे ।" अर्थात् लवण रस का मधुर रस में कोई अन्तर्भाव करते हैं तो कोई उसे संसर्गजन्य कहते हैं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड १५ के अनुसार उसके संख्यात, असंख्यात और अनन्त तक भेद हो सकते हैं । इसी प्रकार कठिन आदि अन्य स्पर्श तथा रसादि पर्यायों के बारे में समझना । शब्द प्रकाश, धूप, छाया व अन्धकार भी पुद्गल ही हैं । काल : काल को सभी जानते हैं । नई वस्तु पुरानी होती है, पुरानी जीर्ण होती है और जीर्ण नष्ट हो जाती है । बालक युवा होता है, युवा वृद्ध होता है और वृद्ध मृत्यु प्राप्त करता है । भविष्य में होनेवाली वस्तु किसी समय वर्तमान में आती है और वर्तमानकालीन वस्तु भूतकाल के प्रवाह में प्रवाहित हो जाती है । यह सब काल की वजह से हैं। नए नए रूपान्तर, भिन्नभिन्न वर्तन-परिवर्तन, विभिन्न परिणाम काल पर अवलम्बित हैं । प्रदेश : उपर्युक्त धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल ये चार अजीव पदार्थ तथा आत्मा अनेक प्रदेशवाले हैं । प्रदेश का अर्थ है परम सूक्ष्म ( सबसे अन्तिम - अविभाज्य) अंश घट, पट आदि पुद्गल पदार्थों के अंतिम अविभाज्य सूक्ष्म अंश परमाणु हैं यह तो हर कोई समझते हैं । ये परमाणु जब तक संयुक्त होते हैं - अवयवी के साथ सम्बद्ध होते हैं तब तक उनका 'प्रदेश' के नाम से व्यवहार होता है और अवयवी से अलग हो जाने पर वे ही 'परमाणु' नाम से व्यवहृत होते हैं । परन्तु धर्म, अधर्म, आकाश और आत्मा के प्रदेश तो विलक्षण प्रकार के हैं । वे प्रदेश परस्पर अत्यन्त घनरूप - - पूर्ण एकतावाही हैं । जिस प्रकार घड़े के प्रदेश - सूक्ष्म अंश घड़े से अलग हो सकते हैं उस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और आत्मा के प्रदेश एक-दूसरे से अलग हो ही नहीं सकते । वे एक - द्रव्यात्मक, अखण्ड, ऐक्यरूप तत्त्व हैं । अस्तिकाय : आत्मा, धर्म और अधर्म इन तीन के असंख्यात' प्रदेश हैं । आकाश १. जिसकी संख्या की गिनती ही न हो सके वह असंख्यात - ऐसा सामान्य अर्थ समझने के अतिरिक्त जैनशास्त्रों में उल्लिखित विशेष अर्थ भी जानना चाहिए । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन अनन्तप्रदेशवाला है । लोकसम्बन्धी आकाश असंख्यातप्रदेशवाला और अलोकसम्बन्धी आकाश अनन्तप्रदेशवाला है । पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेश होते हैं । इस प्रकार प्रदेशसमूहात्मक होने के कारण ये पाँच 'अस्तिकाय' कहलाते हैं । ' अस्तिकाय' शब्द का अर्थ 'अस्ति' अर्थात् प्रदेश और 'काय' अर्थात् समूह, अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक होता है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के साथ अस्तिकाय शब्द लगाकर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय — इस प्रकार से भी इन द्रव्यों का नामनिर्देश होता है । १६ धर्म, अधर्म एवं आकाश एक-एक व्यक्तिरूप हैं । जीव अनन्त हैं । जितने जीव उतने वे पृथक् व्यक्तिरूप हैं । पुद्गल द्रव्य अनेक व्यक्तिरूप है । पुद्गल परमाणु अनन्त हैं । काल को अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बीता हुआ समय नष्ट हो गया हैं और भविष्य का समय इस समय असत् है, जबकि चालु समय अर्थात् वर्तमान क्षण ही सद्भूत काल है । मुहूर्त, दिवस, रात्रि, महीना, वर्ष आदि रूप से काल के जो विभाग किए गए हैं वे सब विभाग असद्भूत क्षणों को बुद्धि में एकत्रित करके किए गए हैं । अतः काल क्षणमात्र का होने से उसके साथ प्रदेशसमूहसूचक 'अस्तिकाय' शब्द संगत नहीं हो सकता । उपर्युक्त पाँच अस्तिकाय और काल ये जैनदर्शनसम्मत षड् (छह) द्रव्य हैं । पुण्य-पाप : यदि तत्त्वतः सब जीव समान हैं तो फिर उनमें परस्पर इतनी विषमता क्यों ? कालभेद से भी एक ही जीव में दिखाई देनेवाली विषमता का क्या कारण है ? इस प्रश्न के उत्तर में से ही कर्मविद्या प्रगट होती है । तीनों काल की जीवनयात्रा की पारस्परिक संगति कर्मवाद पर ही अवलम्बित है । यही पुनर्जन्मवाद का आधार है । आत्मवादी सभी परम्पराओं ने पुनर्जन्म के कारणरूप में कर्मतत्त्व को मान्य रखा है । शुभ कर्म 'पुण्य' और अशुभ कर्म 'पाप' कहलाता है । आरोग्य, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड १७ सम्पत्ति, रूप, कीर्ति, सुकुटुम्ब - परिवार, दीर्घ आयुष्य आदि सुख के साधन जिन कर्मों के कारण उपलब्ध होते हैं वे शुभ कर्म 'पुण्य' कहलाते हैं और इनसे विपरीत अर्थात् दुःख की सामग्री के कारणभूत अशुभ कर्म 'पाप' कहलाते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —— इन आठ कर्मों का उल्लेख आगे आयेगा । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार कर्म अशुभ होने के कारण पापकर्म हैं, क्योंकि ज्ञानावरण ज्ञानशक्ति को दबाता हैं, दर्शनावरण दर्शनशक्ति का अवरोधक है, मोहनीय कर्म मोह उत्पन्न करता है अर्थात् यह कर्म तत्त्वश्रद्धान तथा संयम में बाधक होता है, और अन्तराय कर्म इष्टसाधन में विघ्न उपस्थित करता है । इन चार कर्मों के अतिरिक्त शुभ तथा अशुभ इन दो प्रकार के नाम कर्म की अशुभ - प्रकृतियाँ, आयुष्य कर्म में से नारक आयुष्य, गोत्रकर्म की नीचगोत्र प्रकृति और वेदनीयकर्म का असातावेदनीय भेद इतने - कर्मों के -- भेद अशुभ होने के कारण पापकर्म हैं । वेदनीय कर्म का सातावेदनीय भेद, नाम कर्म की शुभ प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और देव आयु, मनुष्य आयु तथा तिर्यंच आयु — इतने कर्म पुण्य कर्म हैं । आस्रव : जिन कारणों से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है वे कारण 'आस्रव' कहलाते हैं । जिन व्यापारों से — जिन प्रवृत्तियों से कर्म के 1 पुद्गल १. यह तो सब जानते ही हैं कि कर्म की पुण्य प्रकृतियों को पुण्य कहा जाता है, परन्तु विशेष ज्ञातव्य तो यह है कि कर्म की निर्जरा अथवा कर्म के लाघव (दुर्बल अथवा पतला होना) को भी पुण्य कहा गया है । श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के १०७ वें श्लोक की वृत्ति में लिखते हैं कि " निर्जरा सैव रूपं यस्य तस्मात् 'पुण्याद्' इति पुण्यं न प्रकृतिरूपं किन्तु कर्मलाघवरूपं, तस्मात् । " इसके बाद के १०८वें श्लोक की वृत्ति में भी वे इसी प्रकार लिखते हैं कि"पुण्यतः - कर्मलाघवलक्षणात्, शुभकर्मोदयलक्षणाच्च ।" इन दोनों उल्लेखों का अर्थ ऊपर आ गया है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन आकृष्ट हों-आत्मा की ओर आकृष्ट हों वे व्यापार — वे प्रवृत्तियाँ 'आस्रव' कहलाती हैं । जिस अध्यवसाय से कर्मप्रवाह (कार्मिक पुद्गलप्रवाह) आत्मा में प्रविष्ट हो वह अध्यवसाय 'आस्रव' कहलाता है। ऐसा कार्य जिससे आत्मा कर्मों से बद्ध हो वह 'आस्रव' है । मन, वचन और शरीर के व्यापार यदि शुभ हों तो शुभ कर्म और अशुभ हों तो अशुभ कर्म का बन्ध होता है । अतएव मन, वचन एवं शरीर के व्यापार आस्रव हैं । मन के व्यापार दुष्ट चिन्तन अथवा शुभ चिन्तन, वचन के व्यापार दुष्ट भाषण अथवा शुभ भाषण और शरीर के व्यापार हिंसा, असत्य, चोरी आदि दुराचरण अथवा जीवदया, ईश्वरपूजन, दान आदि सदाचरण हैं । १८ पुण्यकर्म एवं पापकर्म के बंधने में मुख्य कारण मनोव्यापार हैं, जबकि वचनव्यापार और शारीरिक प्रवृत्ति तो मनोयोग के सहकारी अथवा पोषक रूप से कर्मबन्ध के हेतु होते हैं । संवर : I I मनोयोग, वचनोयोग तथा शरीरयोग रूपी आस्रव से आकृष्ट हो कर बंधनवाले कर्मों को रोकनेवाला आत्मा का निर्मल भाव — परिणाम 'संवर' कहलाता है । 'संवर' शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'सम्' पूर्वक 'वृ' धातु का अर्थ रोकना, ठहराना होता है । कर्म बँधता रुक जाय वह 'संवर' है । जिस उज्ज्वल आत्मपरिणाम से कर्म बँधता रुक जाय वह उज्ज्वल परिणाम 'संवर' है । इस प्रकार 'रुकना' और 'जिससे रुके' ये दोनों संवर कहलाते हैं । 'स्रव्' धातु का अर्थ बहना, टपकना होता हैं । अतः 'आस्रव' का अर्थ कर्मपुद्गलों का आत्मा में बहना अथवा बहने के द्वार ऐसा होता है । कर्मपुद्गलों के इस बहाव की रुकावट को 'संवर' कहते हैं । जैसे-जैसे आत्मदशा उन्नत होती जाती है वैसे-वैसे कर्मबन्ध कम होते जाते हैं । आस्रव का निरोध जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे गुण-स्थान की भूमिका भी उन्नत और उन्नततर होती जाती है । 1 बन्ध : कर्म का आत्मा के साथ दूध और पानी की भाँति सम्बन्ध होने का Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड १९ नाम 'बन्ध' है । कर्म कहीं से लेने नहीं जाने पड़ते । इस प्रकार के पुद्गल द्रव्य सारे लोक में दबा दबाकर भरे हैं । इन्हें जैनशास्त्रकार 'कर्म-वर्गणा' कहते हैं । ये द्रव्य मोहरूप (राग-द्वेष - मोहरूप) चिकनाहट के कारण आत्मा के साथ चिपकते हैं । यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि विशुद्ध आत्मा में मोह अथवा राग द्वेष की चिकनाहट कैसे उत्पन्न हो सकती है ? इसके समाधान के लिए सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है । आत्मा में रागद्वेषरूपी चिकनाहट अमुक समय में उत्पन्न हुई हो ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर आत्मा में रागद्वेष की चिकनाहट जिस समय उत्पन्न हुई उससे पहले वह शुद्ध स्वरूपवाला सिद्ध होता है और शुद्ध स्वरूपवाले आत्मा में रागद्वेष के परिणाम उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं हैं ! शुद्धस्वरूप आत्मा में भी यदि रागद्वेष के परिणाम का प्रारम्भ माना जाय तो फिर मुक्त आत्माओं में—पूर्ण शुद्ध आत्माओं में भी पुनः रागद्वेष के परिणाम क्यों न पैदा हों ? यदि ऐसा मानें कि भूतकाल में पहले कभी आत्मा पूर्ण शुद्ध थी और पीछे से उसमें रागद्वेष का प्रादुर्भाव हुआ तो फिर भविष्य में मुक्त अवस्था की शुद्ध स्थिति पर पहुँचने के बाद भी पुनः रागद्वेष के प्रादुर्भाव की खडी होनेवाली आपत्ति किस प्रकार दूर की जा सकेगी ? इस पर से यह सिद्ध होता है कि आत्मा में रागद्वेष का परिणाम अमुक समय से प्रारम्भ नहीं हुआ है, किन्तु वह अनादि हैं । जिस प्रकार अनादिकाल से मिट्टी के साथ मिले हुए सुवर्ण का उज्ज्वल दीप्तिमान स्वभाव ढँका हुआ है उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध चैतन्य स्वरूप भी अनादिसंयुक्त कर्मप्रवाह के आवरण से ढँका हुआ है । जिस प्रकार मलिन दर्पण को माँजने से वह उज्ज्वल हो जाता है और चमकने लगता है। उसी प्रकार आत्मा पर का कर्म-मल धुल जाने से दूर हो जाने से आत्मा उज्ज्वल बनती है और अपने विशुद्ध स्वरूप में प्रकाशमान होती हैं । इस पर से हम देख सकते हैं कि 'पहले आत्मा और बाद में कर्म का 'सम्बन्ध' ऐसा मानना शक्य नहीं है । 'कर्म पहले और बाद में आत्मा' ऐसा तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा कहने में आत्मा उत्पन्न होने वाली Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन और इसीलिये विनाशी सिद्ध होगी । इसके अतिरिक्त आत्मा के अभाव में 'कर्म' वस्तु ही नहीं घट सकती । इस प्रकार जब ये दोनों पक्ष घट नहीं सकते तब आत्मा और कर्म ये दोनों हमेशा से साथ ही हैं, अर्थात् इन दोनों का अनादि सम्बन्ध है—यही तीसरा पक्ष है अर्थात् सिद्ध होता है । जैन शास्त्रों में कर्म के मुख्य आठ भेद कहे गए हैं--१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय । आत्मा वस्तुतः परमज्योतिः स्वरूप, शुद्ध सच्चिदानन्दमय है, परन्तु उपर्युक्त कर्मों के आवरण से उसका मूलस्वरूप आच्छादित है । इसी कारण वह संसार में परिभ्रमण करती है, और इसी कारण भवचक्र की अनेकानेक विडम्बनाएँ उसे लगी हुई हैं । अब हम आठ कर्मों का स्वरूप संक्षेप में देखें । १. ज्ञानावरण कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आच्छादित करता है । जैसे-जैसे इस कर्म का जोर बढ़ता जाता है वैसे-वैसे यह ज्ञानशक्ति को अधिकाधिक दबाता है । बुद्धि का अधिकाधिक विकास होने का मुख्य कारण इस कर्म का शिथिल होना है। विश्व में दृश्यमान बौद्धिक विभिन्नता का कारण इस कर्म की भिन्न-भिन्न अवस्था है । इस कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर केवलज्ञान (पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान) प्रकट होता है । २. दर्शनावरण कर्म दर्शनशक्ति को आवृत करता है । ज्ञान और दर्शन में विशेष भेद नहीं है। प्रारम्भ में होने वाले सामान्य आकार के ज्ञान को 'दर्शन' कहते हैं। किसी मनुष्य या वस्तु के दृष्टिगोचर होने पर पहले उसका सामान्य प्रकार से जो भान होता है वह दर्शन है और पीछे उसका विशेष प्रकार से बोध होना वह ज्ञान है । निद्रा, अन्धत्व, बधिरत्व आदि इस कर्म के फल हैं । ३. वेदनीय कर्म का कार्य सुख-दुःख का अनुभव करवाना है । सुख का अनुभव करवानेवाले को सातावेदनीय और दुःख का अनुभव करवानेवाले को असातावेदनीय कर्म कहते हैं । ४. मोहनीय कर्म मोह उत्पन्न करता है । स्त्री पर मोह, पुत्र पर मोह, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड मित्र पर मोह, अच्छी-अच्छी लगनेवाली वस्तुओं पर मोह — यह सब मोहनीय कर्म का परिणाम है । मोह में अन्ध व्यक्ति को कर्तव्य - अकर्तव्य का भान नहीं रहता । जिस प्रकार एक शराबी वस्तु को वास्तविक रूप में समझ नहीं सकता और उन्मत्त होकर उत्पथगामी बनता है उसी प्रकार मोहान्ध जीव तत्त्व को तत्त्वदृष्टि से समझ नहीं सकता और अज्ञान तथा झूठी समझ में गोतें लगाता रहता है । मोह की लीला अपार है । उसके चित्र-विचित्र अनन्त उदाहरण संसार में सर्वत्र दिखाई देते हैं । आठों कर्मों में यह कर्म आत्मस्वरूप को हानि पहुँचाने में सबसे अधिक और मुख्य हिस्सा रखता है । इस कर्म के दो भेद हैं (१) तत्त्वदृष्टि को आवृत्त करनेवाला 'दर्शनमोहनीय' और (२) चारित्र का अवरोधक 'चारित्रमोहनीय' । ५. आयुष्य कर्म के चार भेद हैं- (१) देवता का आयुष्य, (२) मनुष्य का आयुष्य, (३) तिर्यंच का आयुष्य और (४) नारक जीवों का आयुष्य । जिस प्रकार पैरों में जंजीर पड़ी हो तब तक मनुष्य बन्धन से छूट नहीं सकता उसी प्रकार देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों के जीव जब तक आयुष्य पूर्ण न हो तब तक वहाँ से छूट नहीं सकते । ६. नाम कर्म के अनेक भेद - प्रभेद हैं परन्तु संक्षेप में अच्छा या बुरा शरीर, अच्छा या बुरा रूप, सुस्वर अथवा दुःस्वर, यश अथवा अपयश आदि अनेक बातें इस कर्म पर अवलम्बित हैं । भिन्न-भिन्न एकेन्द्रियादि जाति और मनुष्यादि गति आदि नामकर्म के विपाक हैं । जिस प्रकार एक चित्रकार भिन्नभिन्न प्रकार के अच्छे-बुरे चित्र बनाता है उसी प्रकार प्राणियों के विविध देहाकारों, रूपाकारों तथा रचनाकारों का निर्माण करनेवाला यह कर्म है । शुभ नामकर्म के उदय से शरीर आदि अच्छे मिलते हैं और अशुभ नामकर्म के उदय से खराब । २१ ७. गोत्र कर्म के दो भेद हैं— उच्च गोत्र और नीच गोत्र । प्रशस्त अथवा गर्हित स्थान में, संस्कारी अथवा असंस्कारी कुटुम्ब में जन्म होना इस कर्म का परिणाम है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन ८. अन्तराय कर्म का कार्य विघ्न उपस्थित करने का है । सुविधा हो और धर्म की सूझ भी हो फिर भी मनुष्य दान न दे सके-यह इस कर्म का असर है । वैराग्य अथवा त्यागवृत्ति न होने पर भी मनुष्य अपने धन का उपभोग न कर सके-यह इस कर्म का प्रभाव है । अनेक प्रकार के बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने पर भी व्यापार-रोजगार में सफलता न मिले अथवा हानि उठानी पड़े-यह इस कर्म का कार्य है । शरीर पुष्ट होने पर भी कोई उद्यमशील न हो यह इस कर्म का परिणाम है । इस प्रकार कर्मविषयक यह संक्षिप्त वर्णन हुआ । जिस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं, कर्म भी उसी प्रकार के चिकने बँधते हैं और फल भी वैसा ही भोगना पड़ता है। कर्म के बन्ध के समय ही उसकी स्थिति अर्थात् कर्म कितने समय तक जीव के साथ बद्ध रहेगा-यह कालमर्यादा भी निश्चित हो जाती है। कर्म का बन्ध होने के बाद तुरंत ही वह उदय में आता है ऐसा नहीं समझना । जिस प्रकार बीज बोने के बाद तुरंत ही उसका फल नहीं मिलता उसी प्रकार कर्म बँधने के पश्चात् अमुक समय व्यतीत होने पर ही उदय में आता है । उदय में आने के बाद भी इसका कोई नियम नहीं है कि कर्म कब तक भोगना पड़ेगा, क्योंकि पहले (कर्मबन्ध के समय) बँधे हुए स्थिति-काल में भी आत्मपरिणाम के अनुसार परिवर्तन हो सकता है । कर्म का बन्धन एक ही प्रकार का नहीं होता । कोई कर्म गाढ बाँधता है तो कोई अतिगाढ, कोई मध्यम प्रकार का तो कोई शिथिल प्रकार का । जिन कर्मों का बन्ध अतिगाढ होता है उन्हें जैन शास्त्रों में 'निकाचित कर्म' कहते हैं । इस दर्जे का कर्म प्रायः अवश्य भोगना पड़ता है। दूसरे कर्म भावना एवं साधना के पर्याप्त बल से बिना भोगे भी छूट सकते हैं । यहाँ पर हम 'आस्रव' से उत्पन्न 'बन्ध के बारे में कुछ अधिक स्पष्ट और विस्तार से विचार करें । पुद्गल की वर्गणाएँ (समूह) अनेक हैं। उनमें से जिस वर्गणा में कर्मरूप में परिणत होने की योग्यता होती है उसी को ग्रहण करके जीव उसे अपने सम्पूर्ण प्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से मिला लेता है । अर्थात् जीव Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड २३ स्वभाव से अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्म से आबद्ध होने की वजह से वह मूर्त जैसा हो गया है, अतः वह मूर्त्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । मन, वचन और काय के व्यापारों को 'आस्रव' कहते हैं । इस प्रकार के आस्रव से कर्मपुद्गल आकर्षित होकर, जिस प्रकार हवा से उडकर भीगे चमडे पर पड़ी हुई धूल उसके साथ चिपक जाती है उसी प्रकार, कषाय के कारण आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं—नीरक्षीरवत् आत्मा के साथ घुलमिल जाते हैं । इसीको-ऐसे घनिष्ठ सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं । जिस समय कर्मपुद्गल जीव-द्वारा गृहीत होकर कर्मरूप में परिणत होते हैं उस समय उनमें चार अंशों का निर्माण होता है । वे ही अंश बन्ध के भेद हैं और वे भेद हैं--प्रकृति, स्थिति, अनुभाव तथा प्रदेश ।। कर्मरूप से परिणत पुद्गलों में प्रकृति अर्थात् स्वभाव के बँधने को 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं; जैसे कि ज्ञान को ढंकने का स्वभाव, सुख-दुःख अनुभव कराने का स्वभाव इत्यादि । इस प्रकार प्राणी पर होने वाले असंख्य असरों को पैदा करनेवाले स्वभाव असंख्य होने पर भी संक्षेप में उनका वर्गीकरण करके उन सबको आठ भागों में विभक्त किया गया है और इसी कारण कर्म की संख्या आठ कही गई है; जैसे कि ज्ञान को आवृत करने के स्वभाववाला कर्मपुद्गल 'ज्ञानावरण कर्म' है, सुख-दुःख अनुभव करवाने के स्वभाववाला कर्म पुद्गल 'वेदनीय कर्म' है । प्रकृति अर्थात् स्वभाव बंधने के साथ ही साथ कर्मपुद्गल जीव के साथ कब तक चिपके रहेंगे इसकी काल मर्यादा भी बँध जाती है । इस काल--मर्यादा के निर्माण को 'स्थिति-बन्ध' कहते हैं । प्रकृति के बन्ध अर्थात् स्वभाव के निर्माण के साथ ही उसमें तीव्र अथवा अतितीव्र, मन्द अथवा मध्यम रूप से फल चखाने की शक्ति भी निर्मित हो जाती है । इस प्रकार की शक्ति अथवा विशेषता को 'अनुभानबन्ध' कहते हैं । जीव के साथ न्यूनाधिक मात्रा में कर्म पुद्गल के समूह का बँधना 'प्रदेश-बन्ध' है । जीव के द्वारा ग्रहण किए जाने के पश्चात् भिन्न-भिन्न स्वभाव Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनदर्शन में परिणत होने वाला कर्म पुद्गलों का समूह अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अमुक अमुक परिमाण में विभक्त हो जाता है । बन्ध के इन चारों प्रकारों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग (मन-वचन-काय के व्यापार) के कारण होते हैं, क्योंकि अकषायी आत्मा को भी उसके केवल 'योग' के कारण ही कर्म का बँध होता है, परन्तु वह क्षणिक होता है । स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध कषाय के कारण होते हैं इस प्रकार कषाय एवं योग ये दो कर्मबन्ध के हेतु हैं । I I विशेष ब्योरे से विचार करने पर कर्मबन्ध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये हैं । आत्मा के विषय में अश्रद्धा, अथवा आत्मभावना के अभाव को 'मिथ्यात्व' कहते हैं । हिंसादि दोषों से विरत न होना और भोगों में आसक्ति होना इसे 'अविरति' कहते हैं । 'प्रमाद' यानी आत्मा का विस्मरण अर्थात् कुशल कार्यो में आदर न रखना, कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति में सावधान न रहना । क्रोध, लोभ आदि विकार 'कषाय' हैं और मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं । जिस प्रकार नहर आदि के खुले रहने पर तालाब में पानी बह कर आता है और उन द्वारों को बन्द कर देने पर पानी आना रुक जाता है, अथवा जलयान में छिद्रों द्वारा पानी भीतर आता है और उन छिद्रों को बन्द कर देने से पानी का भीतर आना रुक जाता है उसी प्रकार मनोवाक्कायकर्मरूपी आस्रव-द्वारों से कर्मद्रव्य आकृष्ट होकर आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, परन्तु यदि वे मार्ग (कर्मप्रवेश के मार्ग) बन्द कर दिए जायँ तो कर्मद्रव्य का आना बन्द हो जाता है । जिस प्रकार खिडकी आदि बन्द कर देने पर घर में रखे हुए कपड़े आदि पदार्थों पर धूल नहीं जमने पाती उसी प्रकार मनोवाक्कायकर्मरूपी आस्रव-द्वार जब बन्द हो जाते हैं तब आत्मा के साथ कर्म बिलकुल नहीं चिपकते । ऐसी स्थिति जीवन्मुक्त के निर्वाणकाल के अन्तिम क्षण में प्राप्त होती है। निर्वाण से पूर्व शरीर का सम्बन्ध होने से मन-वचन-काय के योग विद्यमान होते हैं, जिससे उन 'योग' रूपी आस्रव के द्वारा उस जीवन्मुक्त एवं अकषायी आत्मा के साथ कर्मद्रव्य का किंचित् सम्बन्ध होता है । परन्तु वे कर्मद्रव्य निष्कषाय एवं प्रमादरहित केवल 'योग' द्वारा आकृष्ट होने के कारण, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ बिलकुल सूखी लकडी पर पड़ी हुई धूल की तरह, लगते ही क्षणमात्र में झड जाते हैं । मन-वचन-काय के योग यदि कषाय आदि से दूषित हों तो कर्मद्रव्य आत्मा के साथ चिपक जाते हैं, अन्यथा नहीं । प्रथम खण्ड इस प्रकार कषाय एवं योग ये दो ही यद्यपि कर्मबन्ध के हेतु हैं, फिर भी आध्यात्मिक विकास की उच्चावच भूमिकारूप गुणस्थानों में बँधनेवाली कर्म - प्रकृतियों के तरतमभाव का कारण विशेष स्पष्टरूप से जताने के लिये मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग ये चार बन्धहेतु भी कहे गए हैं । जिस गुणस्थान में इन चार में से जितने अधिक बन्ध - हेतु, उस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का उतना अधिक बन्ध और जिस गुणस्थान में बन्ध-हेतु वहाँ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी कम । इन चार के साथ 'प्रमाद' को जोड़ देने पर बन्ध के हेतु पाँच होते हैं, परन्तु असंयम - रूप प्रमाद का समावेश यदि अविरति अथवा कषाय में किया जाय तो बन्ध के उपर्युक्त चार हेतु गिनाए जा सकते हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्व और अविरति इन दोनों का स्वरूप कषाय से अलग मानने पर कषाय एवं योग ये दो ही मुख्यतया बन्धहेतु समझे जा सकते हैं । कम, इन कर्मबन्ध के हेतुओं का निरोध उनके विरोधी गुणों के उत्कर्ष से ही शक्य है । 'मिथ्यात्व' का निरोध सम्यग्दर्शन से अर्थात् आत्मा की सच्ची ज्ञानदृष्टि से, 'अविरति' का विरति से अर्थात् पापाचरण से विरत होने से, 'प्रमाद' का अप्रमादभाव से अर्थात् कर्तव्यसाधन में जागरूकता से, और क्रोध - माया-लोभरूपी 'कषायों' का अनुक्रम से क्षमा- मृदुता - ऋजुता - सन्तोष से होता है । मन-वचन-काय के व्यापाररूप योग मन-वचन-काय के सदुपयोग तथा संयम - संस्कार से शुभ एवं निर्मल बनते हैं और उनके निरोध के समय उनका निरोध होता है । इस प्रकार कर्मबन्ध के हेतुओं को रोकने का नाम 'संवर' है और बँधे हुए कर्मों के अंशतः नाश का नाम है — निर्जरा । यह निर्जरा दो प्रकार से होती है । उच्च आशय से किए जानेवाले तप से आत्मस्पर्शी उत्कट साधना से कर्म का जो क्षय होता है वह पहले Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनदर्शन प्रकार की निर्जरा है और उपभोग के अनन्तर कर्म जो स्वतः झड जाते हैं वह दूसरे प्रकार की निर्जरा है । पहले प्रकार की निर्जरा सकामनिर्जरा कहलाती है, जब कि दूसरे प्रकार की अकाम-निर्जरा । जिस प्रकार वृक्ष के फल वृक्ष के ऊपर समय आने पर स्वत: पक जाते हैं और अन्य उपायों से भी उन्हें पकाया जाता है उसी प्रकार कर्म भी समय आने पर स्वतः पक कर अर्थात् उनका उपभोग हो जाने के बाद झड जाते हैं और तप-साधन के बल से भी उन्हें (कर्मों को) पका कर क्षीण किया जाता है । बँधे हुए कर्मों को अपने तपसाधन के बल से यदि आत्मा झटक देना चाहे तो वे झटकाए जा सकते हैं, अन्यथा समय पूरा होने पर अपना फल चखा कर अर्थात् उनका उपभोग होने के पश्चात् स्वतः झड जाना तो उनका स्वभाव ही है । परन्तु इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इनके भुगतने में यदि काषायिक आवेश, अशान्ति अथवा दुर्ध्यान हो जाय तो इनसे पुनः कर्म का बन्ध होता है । इस प्रकार कर्मबन्ध की एक लम्बी-- अनन्त परम्परा चल सकती है । कर्म का फल यदि आत्मशान्ति से सहन किया जाय और पुनः कर्मबन्ध के पाश बँधने न पाए ऐसे शमभाव और समभाव से जीवनयात्रा चलती रहे (इस प्रकार की आध्यात्मिकता का विकास होता रहे तो) सब कर्मों और सब दुःखों से मुक्त ऐसी मोक्षावस्था प्राप्त की जा सकती है। ऊपर कहा जा चुका है कि 'संवर' का अर्थ है 'आस्रव' को अर्थात् कर्मबन्ध के व्यापार को रोकनेवाला आत्मा का शुद्ध भावपरिणाम । यह संवर 'गुप्ति' आदि साधनों से साध्य है । मन-वचन-काय के सम्यग् निग्रहरूप 'गुप्ति', विवेकशील प्रवृत्तिरूप 'समिति', क्षमा-मृदुता-ऋजुता शौच-सत्यसंयम-तप-त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्य रूप धर्म, 'भावना' अर्थात् वस्तुस्थिति के कल्याणप्रेरक चिन्तन, शान्तभावयुक्त सहिष्णुता रूप 'परीषहजय' और समभावपरिणतिरूप 'सामायिक' आदि चारित्र-इतनी बातों से 'संवर' (कर्म १. भूख-प्यास, ठंडी-गरमी, मान-अपमान, रोग-पीड़ा, आदि को शान्तभाव से सहना, प्रलोभन के समय लुब्ध न होना, बुद्धि अथवा विद्वत्ता का घमण्ड न करना, बुद्धिमान्य के कारण उद्विग्न न होना इत्यादि 'परीषहजय' हैं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड २७ बन्ध का निरोध) साध्य है । और, 'निर्जरा' तप से साध्य है । अन्तर्मुख बाह्यतप से और 'प्रायश्चित्त' (दोषशोधन की क्रिया), "विनय', 'वैयावृत्त्य' (सेवा-भक्ति), 'स्वाध्याय', 'व्युत्सर्ग' (ममत्व एवं काषायिक विकारों को हटाना) तथा मानसिक एकाग्रतारूप 'ध्यान'—इस प्रकार के आभ्यन्तर तप से निर्जरा होती है । तप से जिस प्रकार निर्जरा होती है उसी प्रकार उससे संवर भी होता है । इसी प्रकार संवरसाधन के उपर्युक्त 'गुप्ति' आदि भेद भी तपोगर्भित होने से 'निर्जरा' के साधक होते हैं । यह तो ऊपर कहा जा चुका है कि अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्म पक कर झड जाते हैं, किन्तु इस प्रकार की 'निर्जरा' का क्रम तो सम्पूर्ण संसार (भवचक्र) के समग्र जीवों में सतत चालू है, परन्तु कल्याणी 'निर्जरा' तो वही है जो पुण्य भाव के सहयोग से सम्पन्न हो । संवर एवं निर्जरा जब अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचते हैं तब मोक्ष प्राप्त होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, 'मोहनीय तथा अन्तराय ये चार कर्म 'घाती कर्म' कहलाते हैं, क्योंकि वे आत्मा के केवलज्ञान आदि निजस्वरूपात्मक मुख्य गुणों का घात करनेवाले (उन गुणों के आवारक) हैं । इन चार घाती कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है । इस ज्ञान के प्रकट होने के साथ ही आत्मा पूर्णद्रष्टा-पूर्णज्ञानी बनती है । बाद में वह आयुष्य पूर्ण होने के समय अवशिष्ट चार कर्म, जो 'अघाती' अथवा 'भवोपग्राही' कहलाते हैं, उनका क्षय करती है और उसी क्षण सीधा ऊर्ध्वगमन करती हुई वह क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग पर अवस्थित हो जाती है । इस अवस्था को कहते हैंमोक्ष : बन्धहेतुओं के अभाव तथा निर्जरा से कर्म का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है । मोक्ष अर्थात् सभी कर्मों का क्षय । समग्र कर्मों का क्षय होने १. घाती से विपरीत अघाती । २. 'भव' अर्थात् संसार अथवा शरीर, उसे टिकानेवाला-~यह 'भवोपग्राही' शब्द का अर्थ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन पर ऊर्ध्वगमन करना यह आत्मा का स्वभाव है यह बात तूम्बे का दृष्टान्त देकर पहले कही जा चुकी है । वहाँ यह भी कहा जा चुका है कि ऊर्ध्वगमन करती हुई आत्मा लोक के अग्रभाग में पहुँच कर रुक जाती है और वहीं स्थिर हो जाती है, वहाँ से वह आगे गमन नहीं कर सकती, क्योंकि लोक के अग्रभाग से आगे गति करने में सहायभूत 'धर्मास्तिकाय' पदार्थ वहाँ पर नहीं है । और आत्मा में गुरुत्व तथा कोई कर्मजन्य प्रेरणा के न होने से वहाँ से वापिस नीचे अथवा तिरछा तो वह जा ही नहीं सकती । उपर्युक्त मुक्तावस्था में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से शरीर, इन्द्रिय एवं मन का वहाँ सर्वथा अभाव ही हो जाता है । इससे जो सुख निर्बन्धन, निरूपाधि, मुक्त आत्मा अनुभव करता है वह अनिर्वाच्य, अनुपमेय है। इस स्वभावसिद्ध परमसुख के आगे समग्र त्रिलोक का विषयक आनन्द कुछ भी बिसात में नहीं । बहुत से लोक शंका करते हैं कि मोक्ष में शरीर नहीं है; बाग-बगीचे, मोटर-गाडी, स्त्री-पुत्रादि, आमोद-प्रमोद के साधन नहीं है तो फिर वहाँ सुख क्या हो सकता है ? परन्तु यह क्यों भुलाया जाता है कि आत्मा की दुर्गति का एकमात्र कारण विषयवासना ही है । विषयवासना का दुःख ही संसार का दुःख है। माल-मलीदा उड़ाने में जो आनन्द प्रतीत होता है उसका कारण सिर्फ भूख की पीड़ा ही है । पेट भरा हो तो अमृततुल्य भोजन भी अच्छा नहीं लगता । सर्दी की पीडा दूर करने के लिए जो वस्त्र पहने जाते हैं वे ही वस्त्र ग्रीष्म की उष्णता में पहनने अच्छे नहीं लगते । बहुत बैठे रहनेवाले को चलने-फिरने का मन होता है और बहुत चलने-फिरने वाले को बैठने का, आराम लेने का मन होता है । कामभोग प्रारम्भ में जितने अच्छे लगते है उतने ही अन्त में वे प्रतिकूल प्रतीत होते हैं । संसार की यह सब स्थिति कैसी है ? जो सुख के साधन समझे जाते हैं वे सिर्फ क्षणिक शान्ति के अतिरिक्त दूसरा कौनसा सुख देनेवाले हैं ? पका हुआ फोड़ा जब फूट जाता है तब 'ओह्' करके जिस सुख का अनुभव होता है वह क्या वस्तुतः सुख है ? नहीं, वह तो मात्र वेदना की शान्ति है । विषयानुषंग में भी जो सुख दिखता है वह वेदना की Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड २९ शान्ति के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है । और वह शान्ति भी कितने समय की ? क्षणभर में तो वह विलीन हो जाती है और पुनः अशान्ति का झंझावात पैदा हो जाता है । वह अल्पकालीन शान्ति भी कुछ ठोस नहीं होती, खोखली और ग्लानियुक्त होती है । संसार में रागद्वेष की विडम्बना और काम-क्रोध का सन्ताप क्या कुछ कम है ? रोग-शोक के आक्रमण क्या थोड़े हैं ? यह सब परिस्थिति क्या सुखरूप है ? शान्ति अथवा तृप्ति की मात्रा की अपेक्षा अशान्ति अथवा अतृप्ति की मात्रा क्या कितनी ही गुनी अधिक नहीं है ? जिसे खुजली आती हो उसे ही खुलजाने में कुछ आनन्द मालूम होता है, दूसरे को उस ओर रुचि ही कैसे हो सकती है ? इसी प्रकार जो लोग मोहवासना में निरत हैं उन्हीं को मोह - चेष्टा अच्छी लगेगी, दूसरों की (विरक्त अथवा मुक्तात्माओं को) वह कैसे अच्छी लगेगी ? वैषयिक मोहवृत्ति, वस्तुतः, खुजली की भाँति प्रारम्भ में कुछ आनन्ददायी परन्तु पीछे से परिताप पैदा करनेवाली होती है । जिन की मोहरूपी खुजली सर्वथा शान्त हो गई है ऐसे मुक्त परमात्मा अपने निर्मल चिद्रूप में सदानन्दित हैं । इस प्रकार का— आत्मजीवन की पूर्ण निर्मल दशा का जो सुख है वही पारमार्थिक सुख है 1 ऐसे परमशुद्ध परमज्योति, परमानन्द परमात्माओं के लिए शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरञ्जन, परब्रह्म आदि नाम शास्त्रकारों ने रखे हैं । १. तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि । क्षुधार्तः सन् शालीन् कवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतमाश्लिष्यति वधूं प्रतीकारं व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥ - महात्मा भर्तृहरि-वैराग्यशतक । अर्थात् — प्यास से मुँह सूखने पर मनुष्य मीठा पानी पीता है, भूख लगने पर शाक आदि के साथ भात खाता है और कामाग्नि प्रज्वलित होने पर स्त्रीसंग करता है । इस प्रकार व्याधि (कष्ट) का जो प्रतीकार है उसे वह सुख समझता है किन्तु यह उसकी भ्रान्ति ही है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन मोक्ष की प्राप्ति मानव शरीर द्वारा ही होती है । देव स्वर्गीय स्वभावानुसार विरतिरहित होते हैं, अत: वे देवगति में से मुक्ति का परमधाम प्राप्त नहीं कर सकते । जो मोक्ष के योग्य होता है वह भव्य कहलाता है । अभव्य दशावाला मोक्ष के योग्य नहीं होता । जैन-शास्त्र के अनुसार ईश्वर का लक्षण है-"परिक्षीण सकलकर्मा ईश्वरः"-अर्थात् जिसके सम्पूर्ण कर्मों का निर्मूल क्षय हुआ है वह ईश्वर है । पूर्वोक्त मुक्तावस्था जिन्होंने प्राप्त की है उन परमात्माओं से ईश्वर भिन्न प्रकार का नहीं है । ईश्वरत्व का लक्षण और मुक्ति का लक्षण एक ही है । मुक्ति प्राप्त करना ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । 'ईश्वर' शब्द का अर्थ 'समर्थ' होता है । अतः अपने ज्ञानादि पूर्ण शुद्ध स्वरूप में पूर्ण समर्थ होनेवाले के लिये 'ईश्वर' शब्द बराबर लागू हो सकता है। जैन शास्त्र कहते हैं कि मोक्षप्राप्ति के कारणभूत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अभ्यास बढ़ता-बढ़ता जब पूर्ण स्थिति पर पहुँच जाता है तब आवरण-बन्ध सर्वथा दूर हो जाता है और आत्मा का ज्ञान आदि सम्पूर्ण स्वरूप पूर्णरूप से प्रकाशित होता है । इस स्थिति पर पहुँचना ही ईश्वरत्व' है । कोई भी आत्मा अपने स्वरूपविकास के अभ्यास में आगे बढ़े, परमात्मस्थिति पर पहुँचने का यथायोग्य प्रयत्न करे तो वह जरूर ईश्वर हो सकती है ऐसा जैन-शास्त्रों का सिद्धान्त है । ईश्वर कोई एक ही व्यक्ति है ऐसा जैन सिद्धान्त नहीं है । ऐसा होने पर भी परमात्मस्थिति पर पहुँचे हुए सब सिद्ध एक-जैसे निराकार होने के कारण, दीप-ज्योति की भाँति परस्पर मिल जाने से, समष्टिरूप से-समुच्चय से उन सबका 'एक' शब्द से कथंचित् व्यवहार हो सकता है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों का अथवा भिन्न-भिन्न कओं का इकट्ठा किया हुआ पानी एक-दूसरे में मिल जाता है-उनमें किसी १. सामान्य केवलज्ञानियों की अपेक्षा तीर्थंकर पुण्यप्रकृतियों के महत्तर प्रभाव के कारण तथा धर्म के एक महान् प्रभावशाली प्रकाशक की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि पर हैं, परन्तु आत्मविकास इन दोनों का एक-जैसा ही है । निरावरणदशा से प्रादुर्भूत ज्ञानपूर्णता अथवा परमात्मदशा इन दोनों प्रकार के केवलियों में सर्वथा समान होती है । अतः ये दोनों (तीर्थंकर और सामान्यकेवली) परमात्मा हैं । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड प्रकार का भेदभाव नहीं रहता और एकरूप से उनका व्यवहार होता है, उसी प्रकार प्रकृत में भी भिन्न-भिन्न जलों की भाँति एक-दूसरे में मिले हए सिद्धों के बारे में 'एक ईश्वर' अथवा 'एक भगवान्' का व्यवहार होना भी असंगत अथवा अघटित नहीं है । मोक्ष का शाश्वतत्व : यहाँ एक आशंका हो सकती है और वह यह कि 'जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है उस वस्तु का विनाश भी होता है'-इस नियम के अनुसार मोक्ष की भी उत्पत्ति होने से उसका भी अन्त होना चाहिए । इस प्रकार मोक्ष शाश्वत सिद्ध नहीं हो सकता है । इसके समाधान में यह जानना चाहिए कि मोक्ष कोई उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है । केवल कर्म-बन्ध से छुट जाना अथवा आत्मा पर से कर्मों का हट जाना ही आत्मा का मोक्ष है । इससे आत्मा में कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती जिससे उसके अन्त की कल्पना करनी पड़े । जिस प्रकार बादल हट जाने से जाज्वल्यमान सूर्य प्रकाशित होता है उसी प्रकार कर्म के आवरण हट जाने से आत्मा के सब गुण प्रकाशित होते हैं, अथवा ऐसा कहो कि आत्मा अपने मूल ज्योतिर्मय चित्स्वरूप में पूर्ण प्रकाशित होता है। इसी का नाम है मोक्ष । कहिए, इसमें क्या उत्पन्न हुआ ? सर्वथा निर्मल मुक्त आत्मा पुनः कर्म से बद्ध नहीं होती और इस कारण उसका संसार में पुनरावर्तन' भी नहीं होता । महर्षि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥ अर्थात् - जिस प्रकार बीज सर्वथा जल जाने पर उसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता । १. "न स पुनरावर्तते, न पुनरावर्तते ।'—छान्दोग्योपनिषद् । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन संसार का सम्बन्ध कर्मसम्बन्ध के अधीन है और कर्म का सम्बन्ध राग-द्वेष मोह की चिकनाहट के अधीन है । जो पूर्ण निर्मल हुए हैं, जो कर्म के लेप से सर्वथा रहित हो गए हैं उनमें राग-द्वेष की चिकनाहट हो ही कैसे ? और इसीलिये उनके साथ कर्म के पुनः सम्बन्ध की कल्पना भी कैसी ? अतएव संचारचक्र में उनका पुनः अवतरण असम्भव है । सब कर्मों का क्षय हो सकता है । यहाँ पर एक ऐसा प्रश्न होता है कि 'आत्मा के साथ कर्म का संयोग जब अनादि हैं तब अनादि कर्म का नाश कैसे हो सकता है ?, क्योंकि ऐसा नियम है कि अनादि वस्तु का नाश नहीं होता । इस प्रश्न के समाधान में यह समझने का है कि आत्मा के साथ नएँ नएँ कर्म बँधते जाते हैं और पुराने झडते जाते हैं । इस स्थिति में कोई भी कर्मपुद्गल - आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त नहीं है, किन्तु भिन्न-भिन्न कर्मों के संयोग का प्रवाह अनादिकाल से बहता आया है । यद्यपि सदैव संसारी आत्मा के साथ भिन्नभिन्न कर्म-पुद्गलों का संयोग सतत होता रहता है, अतएव कर्मबन्ध का प्रवाह अनादि है, फिर भी प्रत्येक कर्म पुद्गल - व्यक्ति का संयोग आदिमान् है । कर्म बँधा, अतः वह कर्मबन्ध सादि हुआ और सादि हुआ इसलिये वह कर्म कभी न कभी जीव पर से दूर तो होने का ही । अतएव व्यक्तिरूप से कोई भी कर्मपुद्गल आत्मा के साथ शाश्वतरूप से संयुक्त नहीं रहता । तो फिर शुक्लध्यान के पूर्ण बल से नए कर्मों का बन्ध रूक जाने के साथ ही पुराने कर्म यदि झड़ जायँ तो क्या यह शक्य नहीं है ? इस प्रकार सब कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो सकती है । - आत्मा कर्म - रहित हो सकती है । ३२ इसके अतिरिक्त संसार के मनुष्यों की ओर दृष्टिक्षेप करने पर ज्ञात होता है कि किसी मनुष्य में राग-द्वेष की मात्रा अधिक होती है तो किसी में कम । इतना ही नहीं एक ही मनुष्य में भी रागद्वेष का उपचय - अपचय होता है । तब, यह तो सहजरूप से समझा जा सकता है कि राग-द्वेष की इस प्रकार की कमी - बेशी विना कारण सम्भव नहीं । इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि कमी-बेशी वाली वस्तु जिस हेतु से घटती है उस हेतु का यदि पूर्ण बल मिले तो उसका सर्वथा नाश ही हो। जिस प्रकार पोष महीने की प्रबल Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड ३३ ठंडी बाल-सूर्य के मन्द मन्द ताप से घटती-घटती अधिक ताप पड़ने पर बिलकुल उड़ जाती है उसी प्रकार कमी- बेशी वाले रागद्वेष दोष जिस कारण से कम होते हैं वह कारण यदि पूर्णरूप से सिद्ध हो तो वे दोष समूल नष्ट हों इसमें क्या अयुक्त है ? रागद्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं और आगे बढ़कर आत्मा जब श्रेष्ठ समाधियोग पर पहुँचती है तब राग-द्वेष का पूर्ण क्षय होता है । इस प्रकार राग-द्वेष का क्षय होने पर निरावरणदशा आत्मा को प्राप्त होती है । इस दशा की प्राप्ति होते ही केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होता है; क्योंकि राग- द्वेष का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों कर्मों का क्षय हो जाता है । सम्पूर्ण संसाररूपी महल केवल दो ही स्तम्भों पर टिका हुआ है और वे हैं राग-द्वेष । मोहनीय कर्म का ( मोह का ) सर्वस्व राग-द्वेष है । ताड वृक्ष के सिर पर सूई लगा देने से जिस प्रकार सारा ताड़ वृक्ष सूख जाता है उसी प्रकार सब कर्मों के मूलरूप राग-द्वेष पर प्रहार करने से, उनका उच्छेद करने से सारा कर्म-वृक्ष सूख जाता है— नष्ट हो जाता है । केवलज्ञान की सिद्धि : राग-द्वेष के क्षय से (मोहनीय कर्म के क्षय के बाद तत्क्षण ही शेष तीन' घाती' कर्मों का क्षय हो जाने से ) प्रादुर्भूत केवलज्ञान के सम्बन्ध में जो स्पष्टीकरण किया जाता है वह इस प्रकार है । ज्ञान की मात्रा मनुष्यों में न्यूनाधिक देखी जाती है । यह क्या सूचित करती है ? यही कि आवरण जितनी मात्रा में हटता जाता उतनी मात्रा में ज्ञान भी वैसे-वैसे अधिकाधिक प्रकाशित होता है । और वह आवरण यदि सर्वथा हट जाय तो पूर्ण ज्ञान प्रकट हो सकता है । यह बात एक दृष्टान्त से समझायी जाती है । वह दृष्टान्त इस प्रकार है । छोटी बड़ी वस्तुओं में जो लम्बाई चौड़ाई एक की अपेक्षा दूसरी में अधिक-अधिक दिखती है उस बढ़ती लम्बाई-चौड़ाई का पूर्ण प्रकर्ष जिस प्रकार आकाश में होता है उसी प्रकार ज्ञान की मात्रा भी बढ़ती बढ़ती किसी पुरुष - विशेष में पूर्ण कला पर पहुँच सकती है । ज्ञान के वर्धमान प्रकर्ष की पूर्णता जिसमें प्रकट होती है वह (पूर्ण ज्ञान - प्रकाश प्राप्त करने वाला) सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहलाता है और उसका जो ज्ञान Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनदर्शन वह केवलज्ञान । जब आत्मा का राग-द्वेषरूपी मालिन्य पूर्णतया दूर हो सकता है और जब वह पूर्ण शुद्धि प्राप्त कर सकता है तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञान-प्रकाश भी, जिसे केवलज्ञान कहते हैं; उसे प्राप्त हो सकता ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है : जैनधर्म का एक सिद्धान्त यह है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है । जैन शास्त्रों का ऐसा कथन है कि कर्मबल से घूमते हुए संसारचक्र में निर्लेप, परम वीतराग और परम कृतार्थ ऐसे ईश्वर का कर्तृत्व कैसे सम्भव हो सकता है ? चेतन-अचेतनरूप अखिल जगत् प्रकृतिनियम से ही संचालित है । प्रत्येक प्राणी के सुख-दुख अपने-अपने कर्म-संस्कार के ऊपर अवलम्बित हैं । पूर्ण शुद्ध वीतराग ईश्वर न तो किसी पर प्रसन्न होता है और न किसी पर अप्रसन्न । ऐसा होना वीतरागस्वरूप निरंजन परमेश्वर में शक्य नहीं । ईश्वरपूजन की आवश्यकता : ईश्वर जगत्-कर्ता नहीं है' इस सिद्धान्त के अनुसंधान में यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि, तो फिर ईश्वरपूजन करने से क्या लाभ ? ईश्वर जब वीतराग है, वह तुष्ट अथवा रूष्ट नहीं होता तब उसके पूजन का क्या उपयोग ? परन्तु जैनशास्त्रकारों का ऐसा कहना है कि ईश्वर की उपासना ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए नहीं, किन्तु अपने हृदय की, अपने चित्त की शुद्धि करने के लिए है। सभी दुःखों के उत्पादक राग-द्वेष को दूर करने के लिए रागद्वेषरहित परमात्मा का अवलम्बन लेना परम उपयोगी एवं आवश्यक है । मोहवासना से भरी हुई आत्मा स्फटिक जैसी है अर्थात् स्फटिक के पास जिस रंग का फूल रखा जायगा वैसा रंग स्फटिक अपने में धारण कर लेता है, ठीक वैसे ही राग-द्वेष के जैसे संयोग आत्मा को मिलते हैं वैसे ही संस्कार आत्मा में शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं । अतः अच्छा, पवित्र संसर्ग प्राप्त करने की और वैसे संसर्ग में रहने की विशेष आवश्यकता समझी जा सकती हैं। वीतरागदेव का स्वरूप परम निर्मल और शान्तमय है । रागद्वेष का रंग किंवा उनका तनिक सा भी प्रभाव उसके स्वरूप में बिलकुल नहीं है । अत: उसका Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड आलम्बन लेने से, उसका ध्यान करने से आत्मा में वीतरागभाव का संचार होता है । सब कोई समझ सकते हैं कि एक रूपवती रमणी के संसर्ग से एक विलक्षण प्रकार का भाव उत्पन्न होता है, पुत्र को देखने से अथवा मित्र को मिलने से स्नेह जागृति होती है और एक प्रसन्नात्मा मुनि के दर्शन से हृदय में शान्तिपूर्ण आह्लाद का अनुभव होता है । सज्जन की संगति सुसंस्कार और दुर्जन की संगति कुसंस्कार का वातावरण पैदा करती है । इसीलिए कहा जाता है कि 'जैसी संगत वैसी रंगत' । तब वीतरागदेव आत्मा की सत्संग कितना कल्याणकारक सिद्ध हो सकता है इसकी तो कल्पना ही करनी रही । वीतरागदेव की संगत उसका भजन, स्तवन या स्मरण करना है । इससे (इसके सबल अभ्यास के परिणामस्वरूप) आत्मा में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि रागद्वेष की वृत्तियाँ शान्त होने लगती है । यह ईश्वरपूजन का मुख्य और तात्त्विक फल है ।। पूज्य परमात्मा पूजक की ओर से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता ! पूज्य परमात्मा का पूजक की ओर से कुछ भी उपकार नहीं होता । पूज्य परमात्मा को पूजक के पास से कुछ भी नहीं चाहिए । पूजक सिर्फ अपने आत्मा के उपकार के लिये पूज्य परमात्मा की पूजा करता है और उसके (परमात्मा के) आलम्बन से-उसके तरफ की एकाग्र भावना के बल से वह स्वयं अपना फल प्राप्त कर सकता है । अग्नि के पास जानेवाले मनुष्य की सर्दी अग्नि के सान्निध्य से जिस प्रकार स्वतः उड़ जाती है, अग्नि किसी को वह फल लेने के लिये अपने पास नहीं बुलाती और प्रसन्न होकर किसी को भी वह फल देती भी नहीं, इसी प्रकार वीतराग परमेश्वर के प्रणिधान से रागादिदोषरूप सर्दी स्वतः भागने लगती है और आत्मविकास का फल मिलता जाता है। परमात्मा के सद्गुणों के स्मरण से भावना विकसित होती जाती है, चित्त का शोधन होने लगता है और आत्मविकास बढ़ता जाता है । इस प्रकार परमात्मा की उपासना का यह फल उपासक स्वयं अपने आध्यात्मिक प्रयत्न से ही प्राप्त करता है । यह सही है कि वेश्या का संग करनेवाले मनुष्य की दुर्गति होती है, परन्तु यह दुर्गति देनेवाला कौन ? ---यह विचारने जैसा है । वेश्या को Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनदर्शन दुर्गति देनेवाली मानना यह उचित नहीं: क्योंकि एक तो वेश्या को दुर्गति का ख्याल ही नहीं है और इसके अतिरिक्त कोई किसी को दुर्गति में ले जाने के लिए समर्थ भी नहीं है । तब दुर्गति में ले जानेवाली वस्तु मन की मलिनता के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं यह बात निःसंकोच गले से नीचे उतरे ऐसी है । इस पर से यह सिद्धान्त स्थिर हो सकता है कि सुख - दुःख के कारणभूत कर्म का आधार मन की वृत्तियाँ हैं और उन वृत्तियों को शुभ बनाने का, उसके द्वारा आत्मविकास साधने का तथा सुख-शान्ति प्राप्त करने का प्रशस्त साधन भगवद्-उपासना है । भगवद्-उपासना से वृत्तियाँ शुभ होती हैं, आगे बढ़कर शुद्ध होती हैं । इस प्रकार वह (भगवद्-उपासना) कल्याणसाधन का मार्ग बनती है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड मोक्षमार्ग : नौ तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन पूरा हुआ । इनमें मुख्य तत्त्व जीव और अजीव इस तरह दो ही हैं । आस्रव जीव का कर्म-बन्धक अध्यवसाय है, बन्ध जीव और अजीव (कर्म पुदगल) का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है, संवर और निर्जरा (उच्च कोटि की ) आत्मा की उज्ज्वल दशा है और मोक्ष आत्मा की पूर्ण शुद्धता का नाम है । इस प्रकार आस्रवादि पाँचों तत्त्व जीव-अजीव में ही समाविष्ट हो जाते हैं । पुण्य-पाप आत्मसम्बद्ध कर्मपुद्गल हैं । पुण्यपाप का यदि बन्ध-तत्त्व में अन्तर्भाव करें तो सात तत्त्व होते हैं । जिस प्रकार नौ तत्त्वों की परम्परा है उसी प्रकार सात तत्त्वों की भी परम्परा है । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं जबकि संवर और निर्जरा मोक्ष के । सत्पुण्यरूप शुभ आस्रव मोक्षप्राप्ति के साधन जुटानेवाला होने से प्रशस्त है, अतएव उसे 'धर्म'२ भी कहा जा सकता है। मोक्षार्थी के आत्मविकास के मार्ग में इन १. श्री उमास्वातिवाचकविरचित तत्त्वार्थसूत्र में सात पदार्थों का निर्देश है । २. "धर्मः शुश्रावे संवरे (निर्जरायां) चाऽन्तर्भवति ।" -श्री हेमचन्द्राचार्य, योगशास्त्र के दूसरे प्रकाश के दूसरे श्लोक की वृत्ति । "सामान्येन तावद्धर्मस्य त्रीण्येव रूपाणि द्रष्टव्यानि भवन्ति । तद्यथा-कारण, स्वभावः कार्य च । तत्र सदनुष्ठान धर्मस्य कारणम् । स्वभावः पुनर्द्विविध:-साश्रवोऽनावश्च । तत्र साश्रवो जीवे परमाणूपचयरूपः, अनावस्तु पूर्वोपचितकर्म-परमाणुविलयमात्रलक्षणः । xxx कार्य पुनर्धर्मस्य यावन्तो जीवगता: सुन्दरविशेषाः ।" -उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव, मुद्रित पुस्तक पत्र ७२ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनदर्शन नौ वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त उपयोगी होने से ये 'तत्त्व' कहे गए हैं। इन तत्त्वों में आए हुए जीव एवं अजीव (जड़) तत्त्व द्वारा निखिल विश्व के अखिल पदार्थों का निर्देश करके जीव का मुख्य साध्य मोक्ष सूचित किया और उसके बाधक-साधक मार्ग दिखलाए । बाधक में बन्ध और बन्ध का कारण आस्रव, साधक में संवर तथा निर्जरा बताए गये । नौ तत्त्वों के प्रकरण में आत्मा, पुण्य-पाप, परलोक, मोक्ष और ईश्वर सम्बन्धी जैन विचारों का दिग्दर्शन किया गया है । कल्याणसाधन का मार्ग आत्मा, परमात्मा, पुण्य-पाप और पुनर्जन्म पर श्रद्धा रखने से सरल बनता है । एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण मानने से नहीं चलता । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर तत्त्वशोधन का कार्य शक्य नहीं है । केवल प्रत्यक्षप्रमाणवादी को भी धूम के दर्शन से अग्नि होने का अनुमान स्वीकारना पड़ता है । नहीं दिखने से वस्तु का अभाव मानना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता । बहुत सी वस्तुओं का अस्तित्व होने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं, इससे उनका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता । आकाश में उडता हुआ पक्षी इतना ऊँचा गया कि वह आँखो से ओझल हो गया, इससे उस पक्षी का अभाव सिद्ध नहीं होता । हमारे पूर्वज हमें नहीं दिखते, अतः वे नहीं थे ऐसा कहने का साहस कोई नहीं कर सकता । दूध में मिलाया गया पानी नहीं दिखाई देता इससे उसका अभाव नहीं माना जा सकता । सूर्य के प्रकाश में तारें नहीं दिखते, अत: वे नहीं हैं ऐसा कहने का कोई साहस नहीं कर सकता । इस पर से ऐसा समझा जा सकता है कि इस विश्व में जिस प्रकार इन्द्रियगोचर पदार्थ हैं उसी प्रकार इन्द्रियातीत (अतीन्द्रिय) पदार्थों का भी अस्तित्व है। जिस बात का अपने को अनुभव हुआ हो उसे मानना और दूसरे के अनुभव की बात को इस पाठ का अर्थ इस प्रकार है :सामान्यतः धर्म के तीन रूप हैं-कारण, स्वभाव, और कार्य । इन में से सदनुष्ठान यह धर्म का कारण है। स्वभाव दो प्रकार का है : आश्रवरूप और अनाश्रवरूप । जीव में होनेवाले शुभ कर्मपरमाणुओं के उपचय को आश्रवरूप स्वभाव और पूर्वोपाजित कर्मपरमाणुओं के झड जाने को अनाश्रवरूप स्वभाव कहते हैं । xxx और जीव में जो विशेष सुन्दरताएँ हैं वह धर्म का कार्य है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड __३९ अविचारपूर्वक मिथ्या कह देना उचित नहीं । जिस मनुष्य ने लंदन, पेरिस, बर्लिन अथवा न्यूयोर्क जैसे शहर नहीं देखे वह, उन शहरों के वैभव का अनुभव करके आए हुए अन्य किसी निष्पक्ष सज्जन के मुख से उन शहरों के वैभव का वर्णन सुन कर उसे अपने से अप्रत्यक्ष होने के कारण, यदि असत्य मानने के लिए तैयार हो जाय तो वह जिस प्रकार अघटित है उसी प्रकार हम साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अनुभवज्ञान में आगे बढ़े हुए महापुरुषों के सिद्धान्तों की 'नहीं दिखते' या 'नहीं जान पड़ते' - इसी एक मात्र हेतु से अवगणना करना अथवा उन्हें झूठा कह देना यह भी अयुक्त है । इस पर से यही फलित होता है कि पुण्यपाप की प्रत्यक्ष दृश्यमान लीलाओं को ध्यान में लेकर, जगत् की विचित्रता और मोहवासना की विषमता को समझ कर, काम-क्रोधादि विकार दोषों को दूर करने के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील होना चाहिए; आत्मकल्याण का श्रेष्ठ आदर्श लक्ष में रख कर जीवनशोधन के सच्चे पथ पर अपना प्रवास सदा व्यवस्थित रूप से चालू रखना चाहिए । चाहे धीरे-धीरे ही सही परन्तु मार्ग पर सच्चे मार्ग पर चलनेवाला प्राणी दुःखी नहीं होता, क्रमशः आगे बढ़ता जाता है और अन्त में अपने साध्य तक पहुँच जाता है । मोक्ष अर्थात् आत्मा का पूर्णविकासरूप साध्य प्रत्येक साधु अथवा गृहस्थ को अपनी दृष्टिसम्मुख रखना चाहिए और इस साध्य को सिद्ध करने वाला मार्ग भी जानना चाहिए । दुराग्रह का त्याग करके और गुणानुरागी बन कर शास्त्रों का मर्म ढूँढना चाहिए । शुद्ध जिज्ञासाबुद्धि और आत्मकल्याण की सच्ची उत्कंठा से यदि शास्त्रों का अवलोकन किया जाय तो उनमें से मोक्ष प्राप्त करने का निष्कलंक, मार्ग जाना जा सकता है। जानने के पश्चात् आचरण में रखने की आवश्यकता है । क्रियाशून्य ज्ञान अर्थात् जो ज्ञान आचरण में नहीं रखा जाता वह फलदायक नहीं हो सकता, यह बात प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है । पानी में तैरने की क्रिया जानने पर भी यदि वह क्रिया करने में न आए-हाथ पैर पटके न जायँ तो पानी में तैरा नहीं जा सकता । ठीक उसी प्रकार भवसागर से पार होने का उपाय जानने पर भी यदि उस उपाय को आचरण में न रखें तो भवसागर कैसे पार किया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्रकारों ने 'सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इस सूत्र से सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया (आचरण) दोनों के सहयोग से ही मोक्ष की साधना शक्य है-ऐसा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन कहा है । गन्तव्य स्थल के मार्ग की जानकारी हो अथवा अमुक औषध की रोगघ्नता का निश्चय हो, परन्तु यदि उस मार्ग पर न चलें अथवा उस औषध का सेवन न करें तो इष्ट सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? ज्ञान एवं श्रद्धा की नींव डाल करके ही यदि मनुष्य रुक जाय और चारित्र-मंदिर की रचना न करे (अर्थात् आचरण में न रखे) तो कल्याणमंदिर कैसे प्राप्त कर सकता है ? सम्यग् ज्ञान : __ आत्मतत्त्व को अथवा वास्तविक कल्याण साधन के मार्ग को पहचानना ही सम्यक् ज्ञान (Right Knowledge) है । आत्मा को जानने के लिए उसके साथ सम्बद्ध जड़ (कर्म) द्रव्यों के आवरणों को जानना भी आवश्यक है । इन्हें बराबर जाने बिना एक तो आत्मा की यथायोग्य स्थिति समझ में नहीं आ सकती और दूसरे आत्मकल्याण की साधना का मार्ग भी सरल नहीं बनता । वस्तुतः आत्मज्ञान, आत्मदृष्टि एवं आत्मभावना के बिना जगत् की सम्पूर्ण विद्वत्ता नि:सार और निरर्थक है । संसार के सब क्लेश मात्र आत्मा की अज्ञानता पर अवलम्बित हैं । इस अज्ञानता को दूर करने का साधन आत्मबोध के अभ्यास के अतिरिक्त दूसरा क्या हो सकता है ? आत्माभिमुख होना ही अखिल आध्यात्मिक वाङ्गमय का एकमात्र रहस्यभूत तात्पर्य है । सम्यक् चारित्र : __ तत्त्वज्ञान (तत्त्वस्वरूप जानने) का फल पापकर्मों से दूर रहना है । यही सम्यक् (Right conduct) है । अपने जीवन को पाप के संयोग से दूर रख कर निर्मल बनाना और यथाशक्ति परहित साधनपरायण रहना यही 'सम्यक् चारित्र' शब्द का वास्तविक अर्थ है । इस विषय में शास्त्र में उल्लिखित सदुपदेश का अनुसरण उपयोगी होता है। १. "आत्मा वा अरे ! द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः । आत्मनो वा अरे ! दर्शनेन, श्रवणेन, मत्या, विज्ञानेन इदं सर्वं विदितं भवति ।" -~-बृहदारण्यकोपनिषद् Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ४१ सामान्यतः चारित्र के दो विभाग किये गये हैं-साधुओं का चारित्र और गृहस्थों का चारित्र । साधुओं के चारित्र को 'साधुधर्म और गृहस्थों के चारित्र को 'गृहस्थधर्म' कहते हैं । इन दोनों प्रकार के धर्मों के बारे में जैनशास्त्रों में काफी अच्छा विवेचन किया गया है । साधु-धर्म : “सानोति स्वपरहितकार्याणीति साधुः" अर्थात् स्वहित और परहित के कार्य जो साधे वह साधु । संसार के कंचनकामिनी आदि सब प्रकार के भोगोपभोगों का त्याग कर, गृह-कुटुम्ब-परिवार के दुनियाई सम्बन्ध से सर्वथा विमुक्त होकर आत्मकल्याण की उच्च भूमि पर आरूढ़ होने की परम पवित्र आकांक्षा से जो असंगव्रत ग्रहण किया जाता है वह साधुधर्म है । राग-- द्वेष की वृत्तियों को दबाना-उन्हें जीतना ही साधु के धर्मव्यापार का मुख्य विषय है । प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण', मैथुनविरमण और परिग्रहविरमण ये साधुओं के पाँच महाव्रत हैं । इन पाँच महाव्रतों का पालन ही साधु-जीवन की साधना है । मनोगुप्त', वचनगुप्तरे, और कायगुप्त होना साधु जीवन का प्रधान लक्षण है । साधुधर्म विश्वबन्धुत्व का व्रत है । जिसका फल जन्म-जरा-मृत्यु, आधि-व्याधि-उपाधि आदि सब दुःखों से रहित और परमानन्दस्वरूप मोक्ष हो वह साधुधर्म कितना उज्ज्वल, कितना विकट होना चाहिए, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है। जब संसार की विचित्रता (भवचक्र की निस्सारता) का यथार्थ भान हुआ हो, उस पर से तात्त्विक वैराग्य उत्पन्न हुआ हो और मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा जागरित हुई हो ऐसा मुनिधर्म, तभी प्राप्त हो सकता है-तभी उसका पालन किया जा सकता है । जो साधुधर्म के अधिकारी नहीं हैं वे गृहस्थधर्म का पालन करने से अपना जीवन कृतार्थ कर सकते हैं । धनोपार्जन में प्रामाणिकता तथा व्यवहार में नीति एवं सच्चाई गृहस्थधर्म के योग्य होने में प्राथमिक आवश्यकता १. नहीं दी हुई वस्तु न लेना । २-३-४. मन, वचन रखनेवाला । और शरीर को सुयोग्य संयम में Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनदर्शन रखते हैं । धर्मभावना को सतेज रखने के लिये सत्संग के श्रेयस्कर मार्ग का आलम्बन लेकर आत्मभान के बल पर निर्भयता गुण का सम्पादन करना और समुचित संयम के पालन में जाग्रत रहना गृहस्थ के लिये नितान्त आवश्यक है । गृहस्थधर्म : जैनशास्त्रों में गृहस्थधर्म का दूसरा नाम 'श्रावकधर्म' कहा है । गृहस्थधर्म का पालन करनेवाला पुरुष' श्रावक' शब्द और स्त्री श्राविका ' कहलाती है । 'श्रावक' शब्द श्रवण अर्थवाले 'श्रु' धातु पर से बना है। श्रवण करे अर्थात् आत्मकल्याण के मार्ग को रसपूर्वक सुने वह 'श्रावक' अथवा 'श्राविका' । श्रावक के अर्थ 'उपासक' शब्द भी प्रयुक्त होता है । गृहस्थधर्म में बारह व्रतों का निरूपण किया गया है । वे बारह व्रत इस प्रकार हैं : १ स्थूल प्राणातिपात विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान विरमण, ४. स्थूल मैथुनविरमण, ५. परिग्रहपरिमाण, ६. दिग्वत, ७. भोगोपभोगपरिमाण, ८. अनर्थदण्डविरति, ९. सामायिक, १०. देशावकाशिक, ११. पौषध, और १२. अतिथिसंविभाग । इनमें प्रारम्भ के पाँच मर्यादित होने के कारण 'अणुव्रत' कहलाते हैं । मर्यादितता सूचित करने के लिये उनके साथ 'स्थूल' शब्द लगाया गया है । १. स्थूल प्राणातिपातविरमण : प्राणातिपात का अर्थ है प्राणों का अतिपात अर्थात् प्राणी के प्राण लेना । इससे विरत होने का नाम है प्राणातिपातविरमण । प्राणातिपात अथवा हिंसा स्वयं करने से, दूसरे से कराने से और उसका अनुमोदन करने से (इस प्रकार करना, कराना और अनुमोदन - इन तीन प्रकारों से) होती है । इसी प्रकार मृषावाद आदि भी इन तीन प्रकारों से होते है । दूसरे के आरम्भ समारम्भ से बनी हुई वस्तु के भोगोपभोग में भी उस आरम्भ समारम्भ का अनुमोदन रहा ही है भोगोपभोग आरम्भ - समारम्भ का प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप से थोड़ा या बहुत अवश्य उत्तेजक होता है । अतः भोगोपभोग करनेवाले को आरम्भजन्य दोष तो लगता ही है । पुण्य अथवा पाप कार्य करने वाला मनुष्य स्वयं तो उसके I 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड परिणामरूप पुण्य अथवा पापकर्म बाँधता ही है परन्तु उसे उस कार्य में प्रवृत्त करनेवाला भी बाँधता है । और उस कार्य का अनुमोदन करनेवाला भी बाँधता है । अलबत्ता, पुण्य अथवा पाप कार्य करनेवाले की अपनी मनोवृत्ति उस कार्य को करानेवाले अथवा उसका अनुमोदन करनेवाले की अपेक्षा अधिक सबल हो सकती है, परन्तु यह एकान्त नहीं है । विवश होकर जिसे कार्य करना पड़ता है उसके मन के अध्यवसाय की अपेक्षा करानेवाले के अध्यवसाय अधिक तीव्र हो सकते हैं । उदाहरणार्थ, किसी मनुष्य को पुलिस द्वारा पिटवानेवाले अफसर की मानसिक रौद्रता, विवश बनकर पीटनेवाले पुलिस की अपेक्षा अधिक उग्र होती है । इसी प्रकार प्रचाररसिक अनुमोदक के मन के अध्यवसाय करने-करानेवाले के अध्यवसाय की अपेक्षा कदाचित् अधिक तीव्र हो सकते हैं। किसका अध्यवसाय अधिक तीव्र है यह अपूर्ण मानव जान नहीं सकता । सिद्धान्त की बात इतनी ही है कि इन तीनों में से जिसके जैसे अध्यवसाय होते हैं उसे वैसे ही कर्म का बन्ध होता है । मन-वचन-काय (३), पाँच इन्द्रियाँ (८), आयुष्य (९), तथा श्वासोच्छ्वास (१०) ये कुल १० प्राण हैं । दूसरे के या अपने इनमें से किसी एक अथवा एकाधिक प्राण को प्रमाद अथवा दुर्बुद्धि से आघात पहुँचाना अथवा उसका नाश करना हिंसा है । इस पर से यह समझा जा सकता है कि प्रमाद से अथवा दुर्बुद्धि या द्वेष से किसी को बुरा लगाना, किसी का अपमान करना, किसी की निन्दा करना, किसी की चुगली खाना, किसी को सन्तप्त करना, किसी को कष्ट देना-संक्षेप में किसी का बुरा करना या किसी का मन दुखाना हिंसा है । इतना ही नहीं, दूसरे के प्राणों को आघात पहुँचाने की अथवा दूसरे का बुरा करने की स्थूल क्रिया न हो तब भी दूसरे का बुरा सोचनेमात्र से भी हिंसा का दोष लगता है। झूठ, चोरी, बेईमानी, धूर्तता और क्रोध, लोभ, छल, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष आदि विकार भरपूर हिंसारूप होने से पाप हैं । वस्तुतः अहिंसा की उपासना इन दोषों को तथा मन के दुश्चिन्तन को दूर करके चित्तशोधन के व्यापार में उद्यत रहने में है । "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा"-हिंसा के इस लक्षणसूत्र से यह १. महर्षिउमास्वाति-रचित तत्त्वार्थसूत्र अ. ७. सू ८. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनदर्शन बतलाया गया है कि प्रमत्तयोग से—प्रमाद से अर्थात् राग-द्वेष की वृत्ति से प्राणी के प्राणों का विनाश करना हिंसा है । और अपनी असावधानता के कारण प्राणी के प्राण की हिंसा हो तो वह भी प्रमत्तयोग वाली हिंसा ही है । प्रमत्तदशा भावहिंसा है और प्राणी के प्राणों का विनाश द्रव्य-हिंसा (प्रमत्तयोग) स्वयं दोषरूप (पापरूप) हिंसा है, जबकि द्रव्य-हिंसा भाव-हिंसा के साथ मिलकर पापरूप हिंसा बनती है । हिंसा का सर्वथा त्याग गृहस्थावस्था में शक्य न होने से गृहस्थ के लिये उसका त्याग मर्यादित करके दिखलाया गया है । वह मर्यादा 'निरपराध स्थूल (स) जीवों को संकल्प से न मारूं? 'इस प्रकार की बतलाई गई है । इस बात का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये स्थावर जीव स्वाभाविक भोगोपभोगरूप हैं तथा जीवनचर्या में उनका उपयोग सतत अपेक्षित है, अत: गृहस्थ के अहिंसाव्रत में उनकी हिंसा के त्याग का समावेश न करके 'स्थूल (त्रस-द्वीन्द्रियादि) जीवों का वध न करूँ' इस प्रकार से इस व्रत की मर्यादा अंकित की गई है । परन्तु घर-मकान, खेती बाडी-कुआँ तालाब आदि आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में कीड़े-मकोड़े आदि स्थूल (बस) जीवों की भी हिंसा का सम्भव रहता ही है । अतः 'स्थूल जीवों की हत्या न करूँ--इतने से न चलने के कारण इस व्रत में 'संकल्प से' (अर्थात् जानबूझकर) का समावेश किया गया है । इस प्रकार 'स्थल जीवों की जानबूझकर हत्या न करूँ' इस प्रकार का यह व्रत हुआ । ऐसा होने से आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में जो स्थूल जीवों की हिंसा होती है वह जानबूझकर यदि न हो तो वह हिंसा इस व्रत में बाधक नहीं होती । इतना होने पर भी एक प्रश्न तो रहा ही कि विकट परिस्थिति के समय यदि अपराधी का वध करना पड़े तो उसका क्या ? इसलिये इसकी भी छूट का समावेश करने के लिये इस व्रत के उल्लेख में 'निरपराध' शब्द रखकर 'अपराधी के अतिरिक्त दूसरे स्थूल जीवों कि जानबूझकर हिंसा न करूं १. पङ्गकुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥ -आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-१९. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड इस तरह व्रत का स्वरूप पूर्ण किया गया है । इस पर से यही फलित होता है कि स्थूल हिंसा चार प्रकार की है(१) संकल्पी, (२) आरम्भी, (३) उद्योगी और (४) विरोधी । किसी निरपराध प्राणी की जानबूझकर हिंसा करना 'संकल्पी' हिंसा है, घर, दूकान, खेत आदि के आरम्भ-समारम्भ में रसोई आदि प्रवृत्तियों में यत्नाचार (सावधानी) रखने पर भी त्रस जीवों की जो हिंसा होती है वह 'आरम्भी' हिंसा है। द्रव्योपार्जन में इस प्रकार की जो हिंसा होती है वह 'उद्योगी' हिंसा है। दुष्ट नराधम के हमले से बचने के लिये तथा स्व-पर की रक्षा के लिये उसका जो वध किया जाता है वह 'विरोधी' हिंसा है । इन चार प्रकार की हिंसाओं में से संकल्पी हिंसा तो गृहस्थी के लिये सर्वथा वर्ण्य है । अवशिष्ट तीन में से आरम्भी और उद्योगी तो स्वाभाविक रूप से गृहस्थ के साथ संबंध रखती हैं और अन्तिम विरोधी हिंसा का भी कभी-कभी उसे आश्रय लेना पड़ता है । आरम्भी और संकल्पी हिंसा में यही अन्तर है कि आरम्भी हिंसा में गृहनिर्माण, रसोई, खेतीबाड़ी आदि कार्यों की प्रधानता होती है । इन कार्यों के करने में यद्यपि जीव अवश्य मरते हैं, परन्तु इनमें जीवों की सीधी हिंसा नहीं होती अर्थात् जानबूझकर इनमें जीवों की हिंसा नहीं की जाती, किन्तु कार्यप्रवृत्ति के अनुसन्धान में जीवों की हिंसा हो पाती है । परन्तु संकल्पी हिंसा में जीववध की मुख्यता होती है । इसमें खास तौर पर जानबूझकर जीववध की प्रवृत्ति की जाती है । जीवहिंसा के संकल्प से अर्थात् जानबूझकर की जानेवाली हिंसा 'संकल्पी हिंसा' है । विकट परिस्थिति में विरोधी का जो वध करना पड़ता है उसमें यद्यपि विरोधी के वध का संकल्प तो होता ही है, परन्तु वह न्याय्य एवं सकारण होने से उसका निर्देश 'विरोधी हिंसा' के पृथक नाम से किया गया है और इसीलिये गृहस्थ के अहिंसा व्रत में इस विरोधी हिंसा का त्याग नहीं लिया गया । इरादा न होने पर भी अज्ञातरूप से-असावधानी से हिंसा न करने के स्थान में यदि हिंसा हो जाय तो वह प्रामादिक हिंसा है, अतः उसका भी वर्जनीय कक्षा में समावेश होता है, यह समझ लेना चाहिए । उपर्युक्त अहिंसा की मर्यादा के निर्देशवाक्य में रखे हुए 'निरपराध' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन शब्द की उपयोगिता के बारे में कुछ विशेष कहना प्रासंगिक है । आततायी नराधम का, उसकी ओर से होनेवाले अनीति, अत्याचार अथवा उत्पीडन का, अहिंसा की रीति से शक्य न हो तो दूसरे प्रकार से योग्य सामना अथवा प्रतीकार करने से गृहस्थधर्म को आँच नहीं आती; बल्कि उस समय ऐसा करना उसके लिये न्यायधर्म्य - कर्तव्य हो जाता है। ऐसे विकट संकट के समय यदि साधु भी लोकहित के लिये योग्य कदम उठाए तो वह मुनासिव समझा जायगा । विश्व सर्वत्र जीवों से खचाखच भरा हुआ है, प्रवृत्तिमात्र में जीवहिंसा है, फिर भी योग्य सावधानता (यत्नाचार) रखकर प्रवृत्ति करनेवाला अहिंसकबुद्धि मनुष्य, प्रवृत्तिक्रिया में अनिवार्य रूप से हिंसा होने पर भी हिंसा के दोष से मुक्त रहता है; जबकि प्रमादी मनुष्य की प्रमादयुक्त प्रवृत्ति में कदाचित् हिंसा (स्थूल हिंसा) न होने पर भी प्रमाद के कारण उसे हिंसा का दोष लगता ही है । प्रवृत्तिमात्र में हिंसा होने के कारण ही शायद निवृत्ति पर अधिक भार दिया गया है । इसके पीछे का तात्पर्य यही प्रतीत होता है कि प्रवृत्तिमात्र में हिंसा होने के कारण प्रवृत्ति जिनती कम होगी उतनी हिंसा भी कम ही होगी । परन्तु इस तरह हिंसा कम हो इस लिये कर्तव्यरूप प्रवृत्ति का अथवा लोककल्याण की प्रवृत्ति का संकोच कैसे किया जा सकता है ? हिंसा के डर से ऐसी प्रवृत्ति कम नहीं की जा सकती । विवेकपूर्वक यत्नाचार से ऐसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो देहयात्रासुलभ सहज-साधारण जीवहिंसा होने पर भी उस हिंसा का दोष नगण्य है, बल्कि प्रशस्त कर्तव्यपालन के पुण्यप्रवाह में ऐसा तनिक सा दोष कहीं विलीन हो जाता है । और निवृत्ति लेने मात्र से अहिंसा की साधना हो जायगी ऐसा कहाँ निश्चित है ? निवृत्ति लेने से मन शान्त हो जायगा ऐसा कोई नियम नहीं है । शारीरिक स्थिरता के समय भी मन तो अस्थिर-चंचल बना रहता है । एक ओर शारीरिक संयम प्रबल होने पर भी दूसरी ओर मन की रौद्रता घोर नरक के कर्म का उपार्जन कर सकती है । (इस विषय में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आदि के शास्त्रोक्त उदाहरण प्रसिद्ध हैं ।) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ द्वितीय खण्ड और भोजन-पान आदि की प्रवृत्ति यदि चालू रखी जा सकती हो तो अपनी योग्य जिम्मेदारी एवं लोकहित की प्रवृत्ति क्योंकर बन्द हो जाय ? बन्ध-मोक्ष का आधार मन के भाव पर है । मन का अच्छा भाव वचन एवं काय को शुभ की ओर प्रवृत्त करता है । अतः मन को सतत जाग्रत रखना यही एक महत्त्व की बात है । समाज के धारण--पोषण एवं सुख-समृद्धि के लिये आवश्यक हों ऐसी अनेक प्रवृत्तियाँ समाज की व्यक्तियों को करनी पड़ती है और इरादा न होने पर भी ऐसी प्रवृत्तियों में जीवहिंसा (द्रव्यहिंसा) हो ही जाती है, ऐसी स्थिति में सामाजिक सौख्य के लिये ऐसी प्रवृत्तियाँ चलानी पड़े तो वे कैसे चलाई जायँ ? इसका स्पष्टीकरण धर्मशास्त्रानुसार इस प्रकार किया जा सकता है कि जिसका निवारण हो सकता हो ऐसी जीवहिंसा न होने पाए—इस बात की योग्य सावधानता रखकर यदि प्रवृत्ति की जाय तो उसमें हिंसा हो जाने पर भी उस प्रकार की हिंसा पापरूप हिंसा नहीं कही जा सकती । परन्तु ऐसी प्रवृत्ति, जीवहिंसा के निवारण के लिये आवश्यक ऐसी उचित सावधानता के विना ही यदि की जाय तो असावधानता रखने के कारण वह हिंसादोष से दूषित होती है । योग्य सावधानता किसे कहना? यह बात तो उस व्यक्ति के स्थितिसंयोगों पर आधार रखती है । यह तो स्पष्ट ही है कि एक सन्तपुरुष अपने आश्रम अथवा निवासस्थान में रह कर जितनी सावधानता रख सकता है उतनी सावधानता एक किसान खेती करते समय नहीं रख सकता । यह तो सब मानते हैं कि खेती करते समय अनेक छोटे बड़े जीवजन्तुओं की हिंसा हो जाती है फिर भी खेती के उत्पन्न के अभाव में होनेवाली अतिविपुल एवं अतिदारुण हिंसा की घोर आपत्ति को रोकने के लिये खेती अवश्यकर्तव्य १. भगवान् महावीर के 'आनन्द' आदि बारह व्रतधारी श्रावकों ने परिग्रहपरिमाण व्रत में पाँच सौ हल और पाँच सौ छकडे देशान्तर के लिये तथा पाँच सौ छकडे खेत वगैरह से धर, कोठार आदि स्थानों पर घास, धान्य, लकडी आदि लाने के लिये छूटे रखे थे; तथा दस हजार गायों का एक व्रज, ऐसे व्रज किसी श्रावक ने चार, किसी ने छह तो किसी ने आठ रखे थे। इसके बारे में विशेष जानने के लिये देखो 'उवासगदसा' सूत्र। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैनदर्शन बन जाती है । ऐसे कार्य में होनेवाली हिंसा अल्प होने के कारण क्षन्तव्य है । इसमें हिंसा होने पर भी उसके साथ यदि लोकोपकार की भावना भी हो तो वह पुण्य एवं प्रशस्त कार्यरूप बन जाती है । (हिंसा की तरतमता की बात जानने के लिये देखे : तृतीय खण्ड का चतुर्थ लेख 1) यद्यपि स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों की हिंसा का वर्जन शक्य न होने से इस व्रत में उसका समावेश नहीं किया गया है फिर भी इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ तक हो सके वहाँ तक उनकी व्यर्थ हिंसा न हो । इसके अतिरिक्त अपराधी के बारे में भी विचारदृष्टि रखने की है। साँप, बिच्छू आदि के काटने से उन्हें अपराधी समझकर मार डालना अनुचित है । हृदय में दयाभाव पूरेपूरा होना चाहिए और सर्वत्र विवेक-बुद्धि से लाभालाभ का विचार करके उचित प्रवृत्ति करनी चाहिए । हमें यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि प्राणीमात्र के प्रति सद्भाव रखना मानवता का मुख्य तत्त्व है और यही अहिंसा का हार्द है । २. स्थूल मृषावादविरमण : सूक्ष्म असत्य भी नहीं बोलने की प्रतिज्ञा का पालन न कर सकनेवाले गृहस्थ के लिये स्थूल असत्यों का त्याग करना यह दूसरा अणुव्रत है । वर-कन्यादि मनुष्य के सम्बन्ध में, गाय-भैंस - घोड़ा - बैल आदि पशुओं के सम्बन्ध में, घर-मकान-खेत-बाग-बगीचे आदि भूमि के सम्बन्ध में असत्य नहीं बोलने का, दूसरे की धरोहर गबन नहीं करने का, झूठी गवाही नहीं देने का तथा झूठे दस्तावेज आदि लेख नहीं लिखने का यह व्रत है । धन्धेरोजगार में दगाबाजी करनेवाला तथा प्रलोभनवश झूठी गप्पें फैलानेवाला अपने व्रत अथवा धार्मिक क्रियाकाण्ड को दूषित करता है । ऐसा करनेवाला स्वयं तो जनता की दृष्टि में तिरस्कृत होता ही है, साथ ही वह धर्म की तथा अपने धार्मिक क्रिया-काण्ड की भी हँसी करता है— यह बात इस व्रत के व्रती १. कन्यागो भूम्यलीकानि न्यासापहरण तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयत् ॥ - आ. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-५४. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड को ध्यान में रखने की है । यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि विश्वासघात, झूठी सलाह तथा झूठा दोषारोपण महापाप है। थोड़े में, मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि अर्थोपार्जन के उपायों का रहस्य न्याय (नैतिकता) में है । इसी सुख-शान्ति, मानसिक स्वास्थ्य तथा परलोकहित का मूल रहा हुआ है । ३. स्थूल अदत्तादानविरमण : __ सूक्ष्म भी चोरी न करने के नियम का पालन न कर सकनेवाले गृहस्थ के लिये सूक्ष्म चोरी के त्याग का यह व्रत' है । चुराने की बुद्धि से दूसरे की वस्तु उठा लेना चोरी है । डकैती, ताला तोड़कर ले जाना, जेब काटना, महसूल में चोरी करना, कम देना, अधिक लेना तथा राज्य की ओर से दण्डित होना पड़े अथवा लोगों की निगाह में अपमानित होना पड़े ऐसी चोरी न करने का यह व्रत है । रास्ते में पड़ा हुआ किसी का द्रव्य ले लेना, जमीन में गाडा हुआ किसी का धन निकाल लेना, किसी की धरोहर को हडप कर जाना, किसी की वस्तु चुरा लेना-इन सबका इस व्रत में अच्छी तरह त्याग किया जाता है। किसी के लेख को चोरी से अपने नाम पर छपवाना, दूसरे के पैसे से कोई अच्छा कार्य करके उसे अपने नाम से जाहिर करना-ऐसी सब प्रकार की चोरी त्याज्य है । किसी के बालक का अथवा किसी मनुष्य का अपहरण करना बहुत अधम प्रकार की चोरी है। किसी की कन्या अथवा स्त्री का अपहरण करना भयंकर बदमाशी से भरी हई चोरी है। चोर को छुपाना अथवा चोरी का माल रखना यह चोरी के माल में मुँह डालना है । वस्तुत: यह चोरी ही है और इसीलिये यह त्याज्य है । दिखने में भले चोरी हो, परन्तु उससे मनुष्य झूठा और अप्रामाणिक होकर जननिन्द्य बनता है, और अपने व्रत की हँसी कराता है तथा दूसरों की धर्मश्रद्धा घटाने में स्वयं निमित्तभूत बनता है-यह बात इस व्रत के धारण करनेवाले को विशेष रूप से लक्ष में रखनी चाहिए । १. पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । __ अदत्त नाददीत स्वं परकीयं क्वचित् सुधीः । -आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-६६ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनदर्शन ४. स्थूल मैथुनविरमण : परस्त्री का त्याग करना इस व्रत का अर्थ है । वेश्या, विधवा और कमारी की संगति का त्याग भी इस व्रत में आ जाता है । अपनी पत्नी की मर्यादित संगति' के अतिरिक्त प्रत्येक प्रकार की कामचेष्टा हेय' है । इसी १. मर्यादित संगति का अर्थ है-सामान्यतः वीर्यरक्षण का ध्येय रख कर प्रजोत्पत्ति की इच्छा से और इसी उद्देश को सम्मुख रखकर स्त्री-पुरुष के बीच होनेवाला शारीरिक संसर्ग । वीर्य का उपयोग केवल प्रजोत्पति में ही सीमित नहीं है, परन्तु मनोबल एवं शरीरबल बढ़ाने में, संकल्पशक्ति दृढ़ करने में, आरोग्य की सुरक्षा में इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति करने में भी वीर्य का उपयोग असाधारणरूप से अपेक्षित है । कामरस में अन्ध बन कर अतिशय विषयसेवन करने से शरीर एवं मन की शक्तियों का विनाश होता है तथा भौतिक सुख एवं प्रजोत्पत्ति के लिये भी भनुष्य अयोग्य बन जाता है । अतिविषयसेवन संकल्पबल को, जो किसी भी कार्य के लिये और मोक्ष के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है, नष्टप्राय कर देता है और मनुष्य को अवनति के गहरे गड्ढे में ढकेल देता है । वीर्य में सर्जनशक्ति है और उसका उपयोग प्रजोत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य उच्च कार्यों में भी हो सकता है यह खास ध्यान में रखने योग्य है। जो लोग साहित्य एवं विभिन्न शास्त्रों के अभ्यास में, अभिनव साहित्य के निर्माण में ज्ञान-विज्ञान की खोज में अथवा लोकोपयोगी सेवाकार्यों में सतत रत रहते हैं अथवा उच्च आदर्श के ध्यान में निमग्न रह कर उस आदर्श तक पहुँचने के मार्ग की विचारणा करने में तथा तदनुसार आचरण करने में सदा तल्लीन रहते हैं उन्हें विषयसेवन का विचार करने का अवकाश ही नहीं मिलता और जो ऐसे होते हैं वे ही महानुभाव सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं। किसी भी शक्ति को (वासना भी एक शक्ति है) अंकुश में रखना हो तो उसे दबाने का प्रयत्न करना यह उसका रामबाण उपाय नहीं है । दबी हुई कमानी की तरह वह फिर दुगुनी ताकत से उछलती है । अत: उसका वास्तविक एवं समुचित उपाय तो उसे अन्य उपयोगी कार्य में लगाने में है । जिस प्रकार नदी की बाढ़ का पानी नुकसान पहुँचाए उससे पहले ही यदि नहर आदि खोद कर उसे दूसरी ओर ले जाया जाय तो वह नुकसान करने के बदले उलटा उपयोगी हो जाता है उसी प्रकार वासना का नियन्त्रण करके उसे यदि उपयोगी कार्य में लगाया जाय तो वह भी कल्याणकारी हो सकती है । परन्तु यदि वह दूसरी ओर न लगाई जाय तो उसकी बाढ़ में बह जाने की पूरी सम्भावना रहती है । २. षण्ढत्वमिन्द्रयच्छेदं वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सुधीः । भवेत् स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥ -आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-७६. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५. परिग्रहपरिमाण : इच्छा अपरिमित है, उसे नियमन में रखने का यह व्रत है । धनधान्य, सोना-चाँदी, जमीन-जायदाद, पशु-पक्षी आदि बाह्य पदार्थों का परिग्रह द्रव्यपरिग्रह और उन पदार्थों पर की मूर्च्छा अथात् मोहममत्व भावपरिग्रह कहलाता है । दोषरूप एवं बन्धनरूप इस भावपरिग्रह को शिथिल करने के लिये द्रव्यपरिग्रह का समुचित परिमाण करना आवश्यक है । जब एक मनुष्य अपनी अथवा अपने अधिकार की वस्तुओं में से कुछ अपने, अपने कुटुम्बीजनों के तथा आश्रितों के भोगोपभोग के लिये रखता है तब वह उन वस्तुओं की अपेक्षा से परिग्रही - भावपरिग्रही है, परन्तु उन वस्तुओं के सिवाय की जो अन्य वस्तुएँ वह दूसरों के उपयोग के लिए अलग रखता है और जब कभी दूसरे किसी को आवश्यकता होने पर उन्हें भोगोपभोग के लिये देता रहता है तब उन वस्तुओं के बारे में उसे परिग्रही (भावपरिग्रही) न मानकर एक ट्रस्टी ही समझना चाहिए । क्योंकि उन वस्तुओं के ऊपर उसे मोहममत्व नहीं होता, वह तो दूसरों के उपकार के लिये ही उन वस्तुओं को रखता है और स्वयं तो एक प्रामाणिक संरक्षक जैसा ही बना रहता है । कोई मनुष्य निर्धन अथवा दरिद्र क्यों न हो परन्तु उसके मन में यदि राग - रँग मनाने के आशय से अधिक मात्रा में धन एकत्रित करने की इच्छातृष्णा प्रज्वलित हो तो वह परिग्रही ( भावपरिग्रही ) है । द्रव्य - परिग्रह का अतिसंग्रह पाप है और वैसी इच्छा रखना भी पाप ही है। जीवन की सामान्य आवश्यकता एवं सुख-सुविधा के लिये आवश्यक द्रव्य - परिग्रह पर की ममता की गणना यद्यपि भाव - परिग्रह में होती है तो भी वैसी ममता गृहस्थाश्रम की परिस्थिति के साथ अनिवार्यरूपेण संयुक्त होने से तथा अनर्थदण्डरूप न होने से पापरूप गिनने योग्य नहीं है । ५१ जीवन की सामान्य आवश्यकता तथा सामान्य सुख-सुविधा का अर्थ है अतिधनिक नहीं और अतिदरिद्र भी नहीं ऐसा मध्यम स्थिति का मनुष्य जिन आवश्यकताओं का और सुख-सुविधा का शान्तिपूर्वक उपभोग कर सके वैसी आवश्यकता और सुख-सुविधा । ऐसी मध्यमस्थिति में आत्मविकास तथा आत्मकल्याण के लिये अनुकूल परिस्थिति सामान्यतः मिल सकती है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनदर्शन ऐसे सन्तोषी सज्जन को सौभाग्यवश यदि अधिक धन मिले तो भी उसका उपयोग वह अपने परिग्रह की अभिवृद्धि में न करके लोक-कल्याण के कार्यों में ही करेगा। जीवननिर्वाह के योग्य साधन जो प्राप्त कर चुका है और जिसे कमाने की चिन्ता नहीं है उसे धन्धे-रोजगार से छुट्टी मिल जाने पर अकर्मण्य न बनना चाहिए । अकर्मण्यता जीवन के लिये अत्यन्त हानिकारक है, अतः उसे अपनी शक्ति के अनुसार लोकसेवा में लग जाना चाहिए । ऐसा उद्यमी जीवन उसके लिये बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से कल्याणकारी तथा अपने और दूसरों के लिये हितावह सिद्ध होगा । जीवन-निर्वाह की चिन्ता न होने पर भी यदि वह अपना धन्धा-रोजगार चालू रखना चाहता हो तो प्रामाणिक रूप से व्यापार करके जो कुछ कमाए वह निश्चित किए हुए परिग्रहपरिमाण से तनिक भी अधिक न रखकर लोकहित के कार्यों में खर्च करे । अपने आप को एक अलग और स्वतन्त्र व्यक्ति न समझकर समाज के एक घटक अथवा अंश के रूप में ही अपने आप को समझना चाहिए और इसी दृष्टि से स्वपरहित के सत्कार्य करने चाहिए । परिग्रह का ममत्वभाव कम होते ही लोभवृत्ति पर कार्यसाधक अंकुश आ जाता है और द्रव्योपार्जन के कारण होनेवाली हिंसा आदि पापवृत्तियों का रस तीव्र न बनकर निर्मल होने लगता है। परिग्रह का परिमाण न करने से लोभ-तृष्णा का दबाव बढ़ने लगता है और इस तरह विशेष आरम्भ-समारम्भ एवं कषायों में बहने से आत्मा की अधोगति होती है । इसीलिये इस व्रत की आवश्यकता है । तृष्णा का यदि समुचित नियन्त्रण हो तो परिग्रह की उपाधि कम हो सकती है। यह उपाधि जितनी कम होती है उतनी अधिक आत्मा में शान्ति स्थापित होती है और परोपकार, सेवा, स्वाध्याय तथा भगवत्स्मरण का अधिकाधिक लाभ लिया जा सकता है । इस प्रकार धर्मसाधन द्वारा आत्मा की कल्याण सिद्धि होती है। १. असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात् परिग्रहनियन्त्रणम् ॥ -आ. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-१०६. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५३ परिग्रहपरिमाण यदि सामाजिक दृष्टि और सामाजिक सिद्धान्त बन जाय तो साम्यवाद बनाय समाजवाद का विवाद सरलता से शान्त हो सकता है । वस्तुतः यह धर्मव्रत अच्छी से अच्छी समाजव्यवस्था का सर्जन करनेवाला व्रत भी है । ६. दिग्व्रत : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ये चार दिशाएँ; ईशान, आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य ये चार विदिशाएँ तथा मस्तक के ऊपर की ऊर्ध्व दिशा और पैरों के नीचे की अधोदिशा इस प्रकार कुल दस दिशाएँ हैं । भिन्न-भिन्न प्रवृत्तिविषयक कार्यक्षेत्र को सीमित बनाने के लिये दिशाओं की मर्यादा बाँधना इस व्रत का अर्थ है । इस दिग्व्रत से मर्यादित क्षेत्र में जाने-आने की, व्यापार-धंधा करने की, ब्याह - शादी करने कराने की तथा मर्यादित क्षेत्र में उत्पन्न एवं पैदा की गई वस्तुओं के उपयोग आदि की प्रवृत्तियाँ नियमित हो जाती है । तृष्णा को अनियन्त्रित रूप से बढ़ती हुई रोकने का, व्रत का अभाव होने पर मर्यादित क्षेत्र से बाहर होनेवाली - फैलानेवाली हिंसादि प्रवृत्तियों से बचने का तथा पड़ौसी - धर्म के पालन को पुष्ट करने का इस व्रत का उद्देश है । वस्तुतः मनुष्य के बहुत से झंझट, बहुत से टण्टे-फिसाद इससे कम हो जाते हैं और विश्राम एवं शान्ति मिलने के साथ ही साथ जीवन का विकास साधने के लिये आवश्यक ऐसा अवकाश भी प्राप्त होता है । ७. भोगोपभोगपरिमाण : एक ही बार जिनका उपयोग किया जाता है वे पदार्थ 'भोग' कहलाते हैं; जैसे कि अन्न, जल आदि । बार-बार उपयोग में आनेवाले वस्त्रादि पदार्थों को 'उपभोग' कहते हैं । इनका परिमाण करना आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग से विरत होना इस व्रत का तात्पर्य है । इस व्रत से तृष्णा-लोलुपता पर कैसा अंकुश रहता है । यह तो इस व्रत के अनुभव पर से ही ज्ञात हो सकता है जिनकी बिलकुल आवश्यकता ही नहीं है प्रत्युत जीवन के लिये जो हानिकारक तथा आत्मा की दुर्गति करनेवाली है । वैसी मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य और अपेय वस्तुओं का, निषेध इस व्रत में आ जाय यह -- Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनदर्शन स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार जिनमें बहुत अधर्म की संभावना हो वैसी अभोग्य अथवा अनुपभोग्य वस्तुओं का भी त्याग इस व्रत में आ जाता है, यह ख्याल में रखने योग्य है । शान्ति के पथ पर अग्रसर होने की अभिलाषा से ऐसा त्यागमार्ग ग्रहण किया जाता है, अत: पापमय अधम व्यापार-धन्धों का भी इस व्रत में त्याग किया जाता है । पुण्य-पाप का विवेक करनेवाले मनुष्य को यदि हानिकारक मार्गों में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो वह कम हानिकारक मार्ग ही ग्रहण करेगा ।। मनुष्य की इच्छाओं पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है, इसी कारण इतनी बेकारी, इतनी विकट महंगाई और इतना दारुण दुःख-दारिद्र्य देश में फैला हुआ है । जहाँ एक ओर धन का ढेर व्यर्थ ही एकत्रित हो रहा है और उद्भट भोगविलास में तथा अपने वैभव के प्रदर्शन में धनी लोग निरर्थक ही अपरिमित व्यय कर रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर सामान्य जनता के विशाल प्रदेश में दरिद्रता की भयंकर आँधी छाई हुई है । इस घोर विषमता में जनता का शोषण होने से स्वतंत्र देश भी बरबाद हो जाता है । भोगोपभोग में उचित समता और संयमभाव यदि मनुष्य रखे तो जीवननिर्वाह के मार्ग की सब प्रकार की विषमता दूर हो जाय और एक प्रकार की विराट् समानता उत्पन्न होने से सबके जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव हो । जनता सुखी बने और मानवता के पथ पर गतिमान् हो यही उद्देश इस व्रत के पीछे है । इसका झुकाव स्पष्टरूप से आध्यात्मिक कल्याण की ओर है । ८. अनर्थदण्डविरमण : __ 'अनर्थ' का अर्थ है निरर्थक और 'दण्ड' का अर्थ है-पाप । इस प्रकार 'अनर्थदण्ड' का अर्थ हुआ निरर्थक (निष्प्रयोजन) पापाचरण । इसका त्याग अनर्थदण्डविरमण है । गृहस्थजीवन के साथ उद्योगी एवं आरम्भी हिंसा तो लगी हुई है, विरोधी-हिंसा भी उसे कभी-कभी करनी पड़ती है । कुटुम्ब के निर्वाह के लिये धनोपार्जन का कोई व्यवसाय और उचित परिग्रह भी उसके लिये आवश्यक है । इस प्रकार गृहस्थजीवन अत्यधिक आरम्भ से भरा हुआ है। फिर भी उपर्युक्त अणुव्रतों तथा दूसरे उपकारक व्रतों का पालन ही उसके लिये तरणोपाय है। गृहस्थजीवन के मार्ग में जो विविध आरम्भ-समारम्भ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५५ अनिवार्यरूप से लगे हुए हैं, जिन्हें करना उसके लिये कर्त्तव्यरूप है अथवा जो करने आवश्यक हो जाते हैं, उनके बारे में पूरा ध्यान रखकर शास्त्रकारों ने इस व्रत से विवेकशाली सूचना करते हुए कहा है कि व्यर्थ पाप न करो । बस, इस व्रत का यही तात्पर्य है । परन्तु व्यर्थ पाप किसे कहते हैं ? इसकी स्पष्टता करना बहुत कठिन है । व्यर्थ ही किए गए अपने पाप को सहेतुक बताना क्या कुछ मुश्किल है ? प्रमादी एवं संघर्षपूर्ण जीवनयात्रा में इसका स्पष्ट विवेचन कैसे किया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्रकारों ने स्थूल सूचनाओं द्वारा इस बारे में कुछ स्पष्टता करने का प्रयत्न किया है : वे कहते हैं ( १ ) पापोपदेश न देना दुर्व्यसन में फँसा हुआ मनुष्य अपने दुर्व्यसन की तलब यदि दूसरे को लगाने का प्रयत्न करे तो वह अनर्थदण्ड पापोपदेश होगा । यदि मनुष्य अपना दुर्व्यसन छोड़ न सके तो भी उसकी प्रशंसा न करके उसे उसकी निन्दा ही करनी चाहिए । प्रशंसा करके पापाचरण का उपदेश देना, प्रचार करना यह अनर्थदण्ड अनर्थकारक है । परन्तु रसोई कैसे बनानी ?, खेती कैसे करनी ? गृहरचना कैसे करनी ? इत्यादि जीवनोपयोगी बातें दूसरों को सिखलानी पड़ती हैं और ऐसी बातें उदार हृदय से किसी भी जिज्ञासु को सिखलाने-समझाने में अनर्थदण्ड नहीं है । "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" ( उदारचरित मनुष्य के लिये जगत् कुटुम्बसदृश है ) अर्थात् किसी भी मनुष्य को उसकी भलाई के लिये भली बुद्धि से सांसारिक अथवा व्यावहारिक उपयोगी विषयों की समझ देना अनर्थदण्ड नहीं है । दूसरे की पापारम्भपूर्ण प्रवृत्ति में व्यर्थ ही अपनी चतुराई दिखलाना, निरर्थक उपदेश देना अथवा पंचायत करने के लिये निकल पड़ना बेशक अनर्थदण्ड ही है । (२) हिंसोपकरण न देना इसका अभिप्राय यह कि चाकू, छुरी अथवा आग आदि दूसरे को पेन्सिल बनाने, शाक काटने अथवा रसोई बनाने के लिये देना अनर्थदण्ड नहीं है, परन्तु इनका दुरुपयोग करने के लिये देना अनर्थदण्ड है । सम्बन्धियों Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन को ही देना और दूसरों को न देना वस्तुतः संकुचित मनोदशा का सूचक है। किसी पराए मनुष्य की रोटी बनाने के लिये आग न देना यह वस्तुतः चित्त की कठोरता ही है । उपर्युक्त श्लोकार्ध 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' ध्यान में रखने योग्य है । भलाई के लिये पारस्परिक व्यवहार का क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है । किसी निरपराधी प्राणी के ऊपर कोई अन्यायपूर्ण आक्रमण करे और उस निरपराधी को बचाने के लिये यदि अपना शस्त्र देना पडे तो वह अनर्थदण्ड नहीं है । परन्तु किसी आक्रमक को केवल हिंसा के लिये ही हिंसा का उपकरण देना अनर्थदण्ड है । (३) दुर्ध्यान न करना दूसरे का बुरा करने का विचार, अनीति-अन्याय का विचार, निरर्थक मोह-रस में अपने मन को बहकने देना तथा व्यर्थ दुःखाक्रन्दन के विचार करते रहना अनर्थदण्ड ही है । अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट की अप्राप्ति तथा रोगविषयक व्यर्थ चिन्ताज्वाला दुर्व्यानरूप होने से अनर्थदण्ड है । व्यापाररोजगार और गृहस्थाश्रम की व्यवस्था के यथोचित विचार अनर्थदण्ड में नहीं आतें । राम जैसे न्यायी के जय और रावण जैसे अन्यायी के पराजय के बारे में विचार करना दुर्ध्यानरूप अनर्थदण्ड नहीं है, क्योंकि न्याय के रक्षण एवं अन्याय के विनाश का विचार, जनहित के लिये उपयोगी है, अत: उसका आकलन अनर्थदण्ड में नहीं होता । इसी प्रकार व्याधि को दूर करने का और आरोग्य की साधना का योग्य विचार अनर्थदण्ड में नहीं आता तथा इष्टप्राप्ति अथवा अनिष्टपरिहार की उचित विचारणा अनर्थदण्ड में नहीं आती। (४) प्रमादचर्या निरर्थक जमीन खोदना या कुरेदना, व्यर्थ आग सुलगाना आदि प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । रास्ते में खडे हुए किसी जानवर को बिना कारण दण्डे से फटकारना बेवकूफी ही है। ऐसे बहुत से अनर्थदण्ड के पाप मनुष्य करता है, परन्तु सावधानीपूर्वक इनसे विरत होना चाहिए । अहिंसा के अणुव्रत में 'स्थावर' जीवों की हिंसा का त्याग यद्यपि नहीं आता; फिर भी जिसका समावेश अनर्थदण्ड में होता है, उनकी निरर्थक हिंसा, न करने का इस व्रत Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५७ का आदेश है । इसी प्रकार साधारण कक्षा के असत्य आदि, जिनका निषेध ऊपर कहे हुए स्थूल मृषावादविरमण आदि व्रतों में नहीं आता, उनका भी निरर्थक आचरण न करने का इस व्रत का आदेश है । दूसरे को दु:खकारक हँसी-मजाक, निन्दा चुगली करने का इस व्रत में निषेध हैं । मोहवर्धक खेलतमाशें देखना आदि प्रमादाचरणों का यथाशक्ति त्याग इस व्रत में आ जाता है । परन्तु वायु सेवन के लिये बाहर घूमने जाना तथा आरोग्य के लिये उपकारक योग्य व्यायाम आदि प्रवृत्तियाँ, योग्य भोजन - पान की भाँति शरीर एवं मन के लिये उपकारक तथा स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होने से, अनर्थदण्ड में नहीं आती । सफाई - स्वच्छता रखना और बीमारी में योग्य चिकित्सा कराना उसका तथा निष्पाप मनोविनोद एवं आमोदप्रमोद के लिये योग्य मर्यादा में और उचित प्रमाण में यदि कोई कार्य किया जाय तो उसका समावेश अनर्थदण्ड में नहीं होता । गन्दगी करके अथवा स्वयं गन्दा रहकर निरर्थक जीवोत्पत्ति बढ़ाना वस्तुतः जीवहिंसा का मार्ग ही खोल देना है । इस स्थान पर यह सूचित कर देना उचित प्रतीत होता है कि शाकाहार से जीवननिर्वाह हो सकने पर भी स्वाद के लिये अथवा शरीर की पुष्टि के लिये मांसाहार करना न केवल अनर्थदण्ड ही है, अपितु उसका समावेश संकल्पी - हिंसा में होता है जो कि गृहस्थ के लिये सर्वथा वर्ज्य ही है । ९. सामायिक व्रत : राग-द्वेषरहित शान्त स्थिति में दो घड़ी अर्थात ४८ मिनट तक एक आसन पर बैठे रहने का नाम 'सामायिक' है । इतने समय में आत्म-तत्त्व की विचारणा, जीवन - शोधन का पर्यालोचन, जीवनविकासक धर्मशास्त्रों का परिशीलन, आध्यात्मिक स्वाध्याय अथवा परमात्मा का प्रणिधान, जो अपने को पसन्द हो, किया जाता है । १०. देशावकाशिक व्रत : छठे व्रत में ग्रहण किए गए दिशा के नियम का एक दिन के लिये अथवा अधिक समय के लिये संक्षेप करना और इसी भाँति दूसरे व्रतों में Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैनदर्शन रही हुई - रखी गई छूट का संक्षेप करना इस व्रत का अर्थ है । इसमें विरति की अभिवृद्धि का मुख्य तात्पर्य है । ११. पौषध व्रत : धर्म का पोषण करनेवाला होने से यह व्रत 'पौषध' व्रत कहलाता है । उपवास का एकाशन करके चार अथवा आठ प्रहर के लिये अथवा इससे अधिक समय तक साधुजीवन की भाँति धर्मपरायण रहने का नाम पोषध व्रत है । सब प्रकार की सांसारिक उपाधियों से दूर हट कर सर्वविरति (साधु) धर्म की वानगी का मधुर रसास्वाद लेने के लिये यह पौषध व्रत है । इसमें सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ यथाविधि धर्मक्रिया की जाती है और क्रियाविधि से बचा हुआ समय स्वाध्याय अथवा आत्महित की ज्ञानगोष्ठी में व्यतीत किया जाता है । १२. अतिथि संविभाग : आत्मा की उच्च प्रकार की उन्नति की साधना के लिये जिन्होंने गृहवास का त्याग करके विरतिपरायण संन्यास का मार्ग स्वीकार किया है उन अतिथि अर्थात् मुमुक्ष मुनिमहात्माओं की तथा परोपकारपरायण लोकसेवक सज्जनों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और दीन-दु:खियों को योग्य सहायता करना इस व्रत का तात्पर्य है । इन बारह व्रतों में प्रारम्भ के पाँच व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं, क्योंकि साधु - जीवन के महाव्रतों के आगे ये व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं । इनके बाद के तीन व्रत 'गुणव्रत' कहलाते हैं, क्योंकि ये तीन व्रत अणुव्रतों के गुणरूप अर्थात् उपकारक हैं— पोषक हैं । इनके बाद के अवशिष्ट चार व्रत 'शिक्षाव्रत' कहलाते हैं । शिक्षाव्रत का अर्थ है अभ्यास करने का व्रत | इन व्रतों के विषय में उपयोगी विचार आगे दूसरे खण्ड के 'गृहस्थों का आचार' शीर्षक लेख में प्रकट किये गए हैं । बारह व्रत ग्रहण करने का सामर्थ्य यदि न हो तो जितने शक्य हों उतने व्रत लिये जा सकते हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड सम्यक्त्व : अब हम धर्मसिद्धि के मूलाधाररूप 'सम्यक्त्व' को देखें । सम्यक्त्व का अर्थ है विचारपूत आत्मश्रद्धा । सम्यक्त्व का शब्दार्थ है सम्यक्पना अथवा अच्छाई । परन्तु प्रस्तुत में अच्छाई क्या है ? सच्चाई अथवा निर्मलता । किसकी सच्चाई अथवा निर्मलता ? दृष्टि की । अतः यहाँ पर 'सम्यक्त्व' शब्द दृष्टि की सच्चाई अथवा दृष्टि की निर्मलता में रूढ़ है, अर्थात् सच्ची अथवा निर्मल तत्त्वदृष्टि को 'सम्यक्त्व' कहते हैं । तत्त्वदृष्टि का क्या अर्थ है ? यह भी यहाँ पर स्पष्ट करना आवश्यक है । तत्त्वदृष्टि अर्थात् आत्मकल्याण की तत्त्वविषयक दृष्टि । यह दृष्टि जब सच्ची अथवा निर्मल बनती है तब उसे 'सम्यक्त्व' कहते हैं । इस कल्याणी दृष्टि के संगम से धर्मान्धता, मत-दुराग्रह तथा संकुचित साम्प्रदायिकता दूर हो जाती है और काषायिक भावावेश ठण्डा पड़ जाता है । सम्यग्दृष्टि शुद्ध जिज्ञासुता को प्रकट करती है और इसके प्रकाश में वस्तु एकांगी नहीं किन्तु अनेकांगी प्रतीत होती है । इससे समन्वयदृष्टि खिलती है जिसके परिणामस्वरूप आत्मा का विवेकपूत समभाव विकासगामी बनता है । सम्यक्त्व का दूसरा नाम 'सम्यग्दर्शन' है । यह भी इसी अर्थ का द्योतक है। इन दोनों शब्दों का सुगम अर्थ सच्ची श्रद्धा होता है । सच्ची श्रद्धा का अर्थ अन्ध-श्रद्धा नहीं किन्तु विवेकपूत श्रद्धा होता है। अन्ध-श्रद्धा अन्धी अर्थात् विचाररहित-कार्यकारणभाव के नियम की समझ से शून्य होती है, जबकी विवेकपूत श्रद्धा में कार्यकारणभाव के याथार्थ्य का भान होता है । इस युक्तिक्षम एवं न्यायपूत श्रद्धा में बुद्धिविरुद्ध तत्त्व न तो स्थान ही ले पाता और न ही टिकने पाता है। ऐसी श्रद्धा एक प्रकार का विशिष्ट बल रखनेवाली दृष्टि है । कर्तव्य-अकर्तव्य अथवा हेयोपादेय-विषयक विवेकदृष्टि का सामर्थ्य, जो कि कल्याण-साधन के सन्मार्ग में निश्चल श्रद्धारूप-अटल विश्वासरूप है, प्रकट होते ही थोड़ा सा भी ज्ञान, अल्प भी श्रुत, साधारण बुद्धि अथवा परिमित अभ्यास 'सम्यग्ज्ञान' बन जाता है । इस पर से समझ में आ सकता है कि विवेकदृष्टिरूप तत्त्व-श्रद्धा ही 'सम्यक्त्व' अथवा 'सम्यग्दर्शन' है जिसके सम्यक्पने पर ज्ञान का सम्यक्पना अवलम्बित है । ज्ञान से वस्तु का बोध Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन होता है, उसमें विवेकदृष्टि पावित्र्य लाती है और इन दोनों के-सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान आधार पर चारित्र (सच्चे चारित्र) का निर्माण होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही बात महर्षि उमास्वातिरचित तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' में निर्दिष्ट है । ऊपर के उल्लेख से यह समझ में आ सकता है कि सम्यग्दर्शन (सम्यग्दृष्टि) चारित्र की मूलभूत एवं मजबूत नींव है, क्योंकि अच्छी अथवा सच्ची दृष्टि के ऊपर ही अच्छी अथवा सच्ची जीवनचर्या के निर्माण का आधार है । इसीलिये कहा है 'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि ।' ज्ञान किंवा बुद्धि का विकास चाहे जितना अधिक क्यों न हो परन्तु यदि दृष्टि खराब हो तो उस ज्ञान अथवा बुद्धि का दुरुपयोग ही होने का, परन्तु यदि दृष्टि शुभ हो तो थोड़े भी ज्ञान का सदुपयोग ही होगा । ज्ञान के उपयोग को प्रेरित करनेवाली वस्तु दृष्टि ही है । अतः उसकी अच्छाई अथवा बुराई ही मुख्य मुद्दे का प्रश्न है । दृष्टि अप्रशस्त होने पर ज्ञान एवं आचरण दोनों अप्रशस्त बन जाते हैं और उसके प्रशस्त होने पर (अर्थात् सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन होने पर) ज्ञान एवं चारित्र दोनों प्रशस्त बन जाते हैं । इसीलिये दृष्टि का प्राथम्य और प्राधान्य है। यही कारण है कि उपर्युक्त आर्षसूत्र में जिन तीन को मोक्ष का मार्ग कहा है उनमें 'सम्यग्दर्शन' को सर्वप्रथम रखा गया है । जिससे यही सूचित होता है कि दर्शन (दृष्टि) के अच्छे होने पर ही ज्ञान एवं चारित्र का अच्छा होना अवलम्बित है । सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व शास्त्राभ्यास से ही उपलब्ध होता है ऐसी बात नहीं है । किसी भी देश अथवा जाति का अथवा स्थूल बुद्धि का निरक्षर मनुष्य' भी यदि मृदु और ऋजु आत्मा हो तो वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है । कोई कोई सज्जन तो परोपदेशादि बाह्य निमित्त के बिना ही आत्मस्वभावतः उसे प्राप्त करते हैं-उनकी ऐसी आत्मिक योग्यता होने से अथवा यों कहिए कि उनको आन्तरिक विचारदृष्टि के बल से; जबकि दूसरे १. कोई तिर्यंच योनि का भाग्यशाली पशु भी इसे प्राप्त करता है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ऐसे होते हैं जिनके मानस परोपदेशादि बाह्य निमित्त के संयोग से जागरित हो कर उसे प्राप्त करते हैं । सम्यक्त्व की व्यावहारिक परिभाषा इस प्रकार की गई है “या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मं च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥" अर्थात् देव में शुद्ध प्रकार की देवबुद्धि, गुरु में शुद्ध प्रकार की गुरुबुद्धि और धर्म में शुद्ध प्रकार की धर्मबुद्धि होना-इसका नाम सम्यक्त्व है। यहाँ पर देव गुरु-धर्म तत्त्व भी तनिक देख लें । देवतत्त्व : देव कहो अथवा परमात्मा कहो, एक ही बात है । परमात्मा अर्थात् ईश्वर का लक्षण पहले कहा जा चुका है । श्री हेमचन्द्राचार्य देव का वर्णनलक्षण इस प्रकार करते हैं । "सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः२ ॥" अर्थात् सर्वज्ञ, राग-द्वेषादि समस्त दोषों से निर्मुक्त, त्रैलोक्यपूजित और यथास्थित तत्त्वों के उपदेशक को 'देव' कहते हैं । गुरुतत्त्व : "महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥" अर्थात् अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों के धारक, धैर्य गुण से विभूषित, १. आ. हेमचन्द्र का योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लोक २. २-३ आ. हेमचन्द्र का योगशास्त्र, प्रकाश २. श्लोक ४, ८. ४. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन ६२ भिक्षा - माधुकरीवृत्ति से जीवनयापन करनेवाले, समभावशील और यथार्थ धर्म के उपदेशक सन्त पुरुष 'गुरु' कहे गए हैं । धर्मतत्त्व : " पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलोभता ॥' ( हारिभद्र - अष्टक १३, श्लोक ० २) अर्थात् सब धर्मवालों के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच बातें पवित्र सिद्धान्तरूप हैं - सर्वमान्य हैं । धर्म शब्द का अर्थ "दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । धत्ते चैतान् शुभस्थाने तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥" इस वाक्य से यह बतलाया है कि प्राणियों को दुर्गति में पड़ने से जो बचाए वह धर्म है । जीवन को अधोगति में से ऊपर उठाए - ऊपर चढाए वह धर्म है । यह आत्मा का स्वानुभवगम्य उज्ज्वल गुण है । क्लिष्ट कर्म के संस्कार दूर होने से राग-द्वेष की वृत्तियाँ नरम पड़ने पर अन्तःकरण की जो शुद्धि होती है वही वास्तविक धर्म है । यही जीवन की उज्ज्वलता है । दया, मैत्री, परोपकार, सत्य, संयम, त्याग आदि सद्गुण आन्तरिक उज्ज्वल जीवन की शुभ प्रभा है । ऐसे प्रभाशाली जीवन को ही धार्मिक जीवन कहतें है । I ज्ञान के भेद : ऊपर कहा जा चुका है कि दर्शनमोह का आवरण शिथिल अथवा क्षीण होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और उसके प्राकट्य के साथ ही ज्ञान में सम्यक्त्व (अच्छाई अथवा सच्चाई) आ जाता है । सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का संपूर्ण साहचर्य है । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल ये ज्ञान के पाँच भेद हैं । मनोयुक्त इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । आँख से देखा जाता है, जीभ से चखा जाता है, नाक से सूँघा जाता I Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ६३ है, कान से सुना जाता है, और चमडी से स्पर्श किया जाता है ये सब मतिज्ञान है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान भी मतिज्ञान हैं । शब्द द्वारा या संकेत द्वारा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियाधीन होने के कारण यद्यपि परोक्ष हैं, फिर भी इन्द्रियों के द्वारा होनेवाले रूपावलोकन, रसास्वादन आदि ज्ञान व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष भी हैं । अतः उन्हें 'सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष' कहते हैं । जिस प्रकार ये रूपावलोकन, रसास्वादन आदि ज्ञान इन्द्रिय- सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष हैं उसी प्रकार सुखादि संवेदन मानस सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष हैं । यहाँ पर प्रसंगोपात्त इन्द्रियविषयक जैन - कथन भी तनिक देख लें । इन्द्रियाँ पाँच हैं : स्पर्शन (त्वचा), रसन ( जीभ), घ्राण (नाक), चक्षु और श्रोत्र । इनके स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये क्रमशः विषय हैं । ये स्पर्शादि प्रत्येक मूर्त अर्थात पौद्गलिक द्रव्य में रहनेवाले उसके अंश हैं, अविभाज्य पर्याय हैं और ये सब पौद्गलिक द्रव्य के सब भागों में एक साथ रहते हैं । इन्द्रियों की शक्ति भिन्न-भिन्न है । वह चाहे जितनी पटु क्यों न हो फिर भी अपने ग्राह्य विषय के अतिरिक्त अन्य विषय को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । इसीलिये पाँचें इन्द्रियों के पाँचें विषय पृथक् पृथक् हैंनियत हैं । जिस प्रकार इन्द्रियों के उपर्युक्त पाँच विषय हैं उसी प्रकार मन का विषय विचार है । बाह्य इन्द्रियाँ केवल मूर्त पदार्थों को ही ग्रहण करती हैं और वह भी आंशिक रूप से; जबकि मन, जो आन्तर इन्द्रिय होने के कारण अन्तःकरण कहलाता है, मूर्त-अमूर्त सब पदार्थों को उनके अनेक रूपों के साथ ग्रहण करता है । यह भूत भविष्य - वर्तमान तीनों को ग्रहण करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि मन का कार्य विचार करने का है । इन्द्रियों के द्वारा गृहीत अथवा अगृहीत विषयों का अपने विकास अथवा योग्यता के अनुसार वह विचार कर सकता है। अतः मन का विषय विचार है स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों से तो सिर्फ मतिज्ञान ही होता है, जबकि मन से तो मति और श्रुत दोनों होते हैं - प्रथम सामान्य भूमिका का मतिज्ञान होता है, बाद में विचारात्मक विशेषतायुक्त श्रुतज्ञान होता है । इन दोनों में भी मति की Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनदर्शन अपेक्षा श्रुत ही प्रधान है । अतएव मन का विषय श्रुत कहा गया है'श्रुतमनिन्द्रियस्य' (तत्त्वार्थसूत्र २, २२) ये पाँचो ही इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं : द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं : निर्वत्ति और उपकरण । शरीरगत इन्द्रियों की आकृतियाँ, जो पुद्गलस्कन्धों की विशिष्ट रचनाएँ हैं, 'निवृत्ति' इन्द्रिय हैं । पुद्गल-स्कन्धों की बाह्य रचना को बाह्य निर्वृत्ति इन्द्रिय कहते हैं । बाह्य निर्वृत्ति-इन्द्रिय को यदि खड्ग की उपमा दें तो आभ्यन्तर निर्वृत्तिइन्द्रिय को उसकी धार कह सकते हैं । इस धार की विषयग्रहण में साधनभूत शक्ति को 'उपकरण' इन्द्रिय कहते हैं । भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की है : लब्धि और उपयोग । ज्ञान के प्रकारभूत मतिज्ञान आदि के आवारक कर्मों के क्षयोपशम (कर्मों का एक प्रकार का नरम होना क्षयोपशम है) को 'लब्धि' इन्द्रिय कहते हैं । यह क्षयोपशम एक प्रकार का आत्मिक परिणाम अथवा आत्मिक शक्ति है । इस लब्धि तथा निर्वृत्ति और उपकरण इन तीनों के समवाय से रूप आदि विषयों का सामान्य अथवा विशेषरूप से बोध होना उपयोग-इन्द्रिय है । इस प्रकार पाँचो ही इन्द्रियाँ निवृत्ति, उपकरण, लब्धि और उपयोग के भेद से चार-चार प्रकार की हुईं । इसका अर्थ यह हुआ कि इन चारों प्रकार की समष्टि को ही स्पर्शन आदि एक एक पूर्ण इन्द्रिय कह सकते हैं । इस समष्टि में जितनी न्यूनता उतनी ही इन्द्रियों की अपूर्णता । उपयोग यद्यपि ज्ञानरूप है फिर भी निर्वृत्ति, उपकरण एवं लब्धि इन तीनों की समष्टि का कार्य होने से उपचारवश अर्थात् कार्य में कारण का आरोप करके उसे भी इन्द्रिय कहा है । 'उपयोग' की अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति में यदि 'लब्धि' आन्तरिक साधनशक्ति है तो 'निर्वृत्ति' और 'उपकरण', जो कि पुद्गलमय द्रव्येन्द्रिय हैं, बाह्य साधन हैं । आन्तरिक साधनशक्तिरूप 'लब्धि' का उपयोग ज्ञान अथवा बोध होना है, अत: उसके लिये 'उपयोग' संज्ञा बराबर घट सकती है । . ज्ञान के पाँच भेदों में से मति और श्रुत के बारे में देखा । अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान स्पष्ट प्रत्यक्ष हैं-ये व्यावहारिक नहीं किन्तु पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये इन्द्रिय की अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मिक शक्ति Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड से ही उत्पन्न होते हैं । अवधिज्ञान की अवधि एक प्रकार की नहीं, असंख्येय प्रकार की है । अवधिज्ञान अपनी अवधि में आए हुए रूपी पदार्थों का, फिर वे चाहें आवृत हों या दूर हों, साक्षात्कार करता है । मन:पर्याय ज्ञान दूसरों के मन का (मनोद्रव्य का ) स्पष्ट प्रत्यक्ष करता है । दूसरा मनुष्य क्या सोच रहा है यह मन:पर्यायज्ञान जान सकता है । 'केवलज्ञान' पूर्ण ज्ञान है । कैवल्य की भूमिका पर पहुँचने के लिये वहाँ किस प्रकार पहुँचा जा सकता है यह हमें समझना चाहिए । यह आरोहण आत्मा का क्रमिक विकास है । यह गुणस्थान का विषय है। अतः उस ओर भी तनिक दृष्टिपात कर लें । गुणश्रेणी अथवा गुणस्थान : जैन शास्रों में चौदह श्रेणियाँ बतलाई हैं । ये श्रेणियाँ गुणस्थान की हैं । गुणस्थान अर्थात् गुण की अवस्था । आत्मा के गुणों का विकास यथायोग्य क्रमशः चौदह श्रेणियों में होता है । पहली श्रेणी के जीवों की अपेक्षया दूसरी-तीसरी श्रेणी के जीव आत्मगुण के सम्पादन में आगे बढ़े हुए होते हैं और उनकी अपेक्षया चौथी श्रेणी के जीव अधिक उन्नत अवस्था पर होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर श्रेणी के जीव पूर्व-पूर्व श्रेणी के जीवों की अपेक्षया अधिक उन्नत पर पहुँचे हुए होते हैं-एक अपवाद के सिवाय । सब प्राणी प्रथम (प्राथमिक अवस्था में) तो पहली श्रेणी में ही होते हैं परन्तु उनमें से आत्मबल का विकास करके जो आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं वे उत्तरोत्तर श्रेणियों में से योग्य क्रम से गुजरने के बाद बारहवीं श्रेणी में निरावरण बनकर तेरहवीं श्रेणी में जीवन्मुक्त परमात्मा बनते हैं और मृत्यु के समय चौदहवीं श्रेणी में आकर तुरन्त ही परम निर्वाणधाम में पहुँच जाते हैं । मन्द प्रयत्नवालों को बीच की श्रेणियों में अधिक रुकना पड़ता है, अनेक बार चढ़ना उतरना पड़ता है, जिससे बारहवीं श्रेणी पर अथवा उस श्रेणी की ओर जानेवाले मार्ग पर पहुँचने में उन्हें अधिक समय लगता है। कोई प्रबल पुरुषार्थी महान् साधक तीव्र वेग से काम लेते हुए बीच की श्रेणियों में अधिक समय न रुक कर शीघ्र ही बारहवीं श्रेणी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैनदर्शन पर पहुँच जाता है और तत्क्षणात् तेरहवीं श्रेणी में आकर केवलज्ञानी होता है । यद्यपि यह विषय सूक्ष्म है तथापि उसे समझने में ध्यान दिया जाय तो अवश्य रोचक प्रतीत होगा । यह आत्मा की उत्क्रान्ति की विवेचना है । मोक्षरूपी प्रासाद पर पहुँचने के लिये यह चौदह सोपान वाली सीढी है । पहले सोपान से जीव चढने लगते हैं, कोई आहिस्ते से तो कोई जल्दी से और यथाशक्ति आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं । कोई चढ़ते-चढ़ते ध्यान न रखने के कारण नीचे गिर जाते हैं । और गिरते गिरते पहले सोपान पर भी जा गिरते हैं । ग्यारहवें सोपान तक पहुँचे हुए जीव को भी मोह का धक्का लगने से नीचे गिरना पड़ता है । इसीलिये ऊपर चढनेवाले जीव तनिक भी प्रमाद न करें इस बात की बार-बार चेतावनी आध्यात्मिक-शास्त्रों ने दी है। बारहवें सोपान पर पहुँचने के बाद गिरने का किसी प्रकार का भय नहीं रहता । आठवें-नवें सोपान पर मोह का क्षय प्रारम्भ हुआ कि फिर गिरने का भय सर्वथा दूर हो जाता है । [ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे हुए जीव को भी नीचे गिरना पड़ता है इसका कारण यह है कि उसने मोह का क्षय नहीं किन्तु उपशम किया होता है। परन्तु आठवें-नवें गुणस्थान में मोह के उपशम के बदले क्षय की प्रक्रिया यदि शुरू हो जाय तो फिर नीचे गिरना असम्भव हो जाता है ।] 'गुणस्थान' शब्द में आए हुए 'गुण' शब्द का अर्थ आत्मविकास का अंश ऐसा होता है" । जैसे-जैसे आत्मविकास के अंश बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे गुणस्थानों का उत्कर्ष माना गया है । यों तो गुणस्थान असंख्यात हैं, क्योंकि आत्मा की इस प्रकार की जितनी परिणतियाँ है । उतने उसके गुणस्थान है । जिस प्रकार नदी के प्रवाह को कोस, मील आदि कल्पित नाम से विभक्त करने पर भी उससे प्रवाह में न तो कोई अमिट रेखा ही बन जाती है और न उस प्रवाह में किसी प्रकार का विच्छेद ही पड़ता है । १. उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्याय में भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधन करके उनके मिस से सब जीवों को 'समय गोयम ! मा पमायए' (गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न कर) इस प्रकार का सुन्दर उपदेश दिया है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ६७ ताकि एक भाग दूसरे से अलग हो जाय, उसी प्रकार गुणस्थानों की भी बात है । एक गुणस्थान के साथ दूसरे गुणस्थान की सीमा इस प्रकार संयुक्त है कि वह एक प्रवाह जैसा बन गया है । ऐसा होने पर भी वर्णन की सुविधा के लिये गुणस्थान चौदह भागों में विभक्त किये गए हैं। दिशा का निर्देश इसी प्रकार किया जा सकता है । इन चौदह गुणश्रेणियों के नाम इस प्रकार हैं— (१) मिथ्यादृष्टि, (२) सास्वादन, (३) मिश्र, (४) अविरतिसम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति, (६) प्रमत्त, (७) अप्रमत्त, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसम्पराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिकेवली और (१४) अयोगिकेवली । (१) मिथ्यात्व गुणस्थान - प्राणी में जब आत्मकल्याण के साधनमार्ग की सच्ची दृष्टि न हो, उलटी ही समझ हो अथवा अज्ञान किंवा भ्रम हो तब वह इस श्रेणी में विद्यमान होता है । छोटे-छोटे कीड़ों से लेकर बड़े-बड़े पण्डित, तपस्वी और राजा-महाराजा आदि तक भी इस श्रेणी में हो सकते हैं; क्योंकि वास्तविक आत्मदृष्टि अथवा आत्मभावना का न होना ही मिथ्यात्व है, जिसके होने पर उनकी दूसरी उन्नति का कुछ भी मूल्य नहीं होता । सत्पुरुष को असत्पुरुष और असत्पुरुष को सत्पुरुष, कल्याण को अकल्याण और अकल्याण को कल्याण, सन्मार्ग को उन्मार्ग और उन्मार्ग को सन्मार्ग — ऐसी औंधी समझ तथा झूठे रीतरस्म और अंधविश्वासों को मानना भी मिथ्यात्व है । संक्षेप में, आत्मकल्याण के साधन मार्ग में कर्तव्यअकर्तव्यविषयक विवेक का अभाव 'मिथ्यात्व' है । श्री हरिभद्राचार्य ने अपने 'योगदृष्टिसमुच्चय' नामक ग्रन्थ में मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन योग की आठ दृष्टिओं का निरूपण किया है । इनमें से पहली मैत्रीलक्षणा 'मित्रा' दृष्टि है जिसमें चित्त की मृदुता, अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याणसाधन की स्पृहा जैसे प्राथमिक सद्गुण प्रकट होते हैं । आचार्य महाराज कहते हैं कि इस दृष्टि की उपलब्धि होने में ही प्रथम गुणस्थान की प्राप्ति होती है । इस प्रकार प्रथम Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैनदर्शन गुणस्थान की कल्याणकारक सद्गुणों के प्रकटीकरण की प्राथमिक भूमिकारूप होने पर भी उसका 'मिथ्यात्व' के नाम से जो निर्देश किया है इसका कारण यह है कि इस भूमिका में यथार्थ 'सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हुआ होता । इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की भूमि पर पहुँचने के मार्गरूप सद्गुण प्रकट होते हैं, जिससे इस अवस्था का 'मिथ्यात्व' तीव्र नहीं होता । फिर भी मन्दरूप से 'मिथ्यात्व' विद्यमान होने से इस प्रथम गुणस्थान को मिथ्यात्व कहा गया है; और साथ ही, सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों के प्रकटीकरण की यह प्रथम भूमिका होने से इसे 'गुणस्थान' भी कहा है। आचार्य हेमचन्द योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश के १६वें श्लोक की वृत्ति में 'गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया' इस वचन से स्पष्ट कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि को जो 'गुणस्थान' कहा गया है वह भद्रता आदि गुणों के आधार पर (इन गुणों की अपेक्षा से) कहा गया है । इस प्रथम "मित्रा' दृष्टि तक भी जो नहीं पहुँचे हैं उन छोटे-बड़े सब अधःस्थित जीवों की भी गणना शास्त्रों ने मिथ्यात्व गुणस्थान में की है । इन सबकी मिथ्यात्व भूमिका को 'गुणस्थान' के नाम से निर्दिष्ट करने का कारण यह है कि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि को मनुष्य, पश. पक्षी आदि रूप से जानता है और मानता भी है, इस प्रकार की अनेक वस्तुओं के बारे में उसे यथार्थ बुद्धि होती है । इसके अतिरिक्त शास्त्र यह भी कारण बतलाते हैं कि सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म जीवों में भी जीवस्वभावरूप चेतनाशक्ति, फिर वह चाहे अत्यन्त अल्प मात्रा में ही क्यों न हो, अवश्य होती है । अन्य कारण यह भी बतलाया जा सकता है कि जिस अधःस्थिति में से ऊपर उठने का है उस अध:स्थिति का, वहाँ से ऊपर उठने की शक्यता अथवा सम्भव की दृष्टि से [वह स्वयं भले ही गुणस्थान न हो, परन्तु गुण के लिये होनेवाला उत्थान तो वहीं से होता है इस दृष्टि से] 'गुणस्थान' के नाम से निर्देश किया गया है । (२) सासादन' गुणस्थान सम्यग्दर्शन से गिरने की अवस्था का नाम १. 'अनन्तानुबन्धी' (अतितीब्र) क्रोधादि कषाय सम्यग्दृष्टि को शिथिल करनेवाले (आवारक) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् भी यदि क्रोधादि परम तीव्र ('अनन्तानुबन्धी') कषायों का उदय हो तो सम्यक्त्व से गिरना ही होता है । यह गुणस्थान ऐसी गिरने की अवस्थारूप है—सम्यग्दर्शन से अज्ञान-मोह में अथवा मिथ्यात्व में गिरनेरूप है । जब गिरने ही लगे तब गिरने में कितनी देर ? इसीलिये यह गुणस्थान क्षणमात्र का है । 'उपशम' सम्यक्त्व से गिरनेवाले के लिये ही यह गुणस्थान है। (३) मिश्र गुणस्थान-सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मिश्रणरुप आत्मा के विचित्र अध्यवसाय का नाम मिश्र गुणस्थान है। जब किसी जीव को सत्य का दर्शन होता है तब वह आश्चर्यचकित सा रह जाता है । उसके पुराने संस्कार उसे पीछे की ओर घसीटते हैं और सत्य का दर्शन उसे आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता है । ऐसी दोलायमान अवस्था कुछ समय के लिये ही होती है। बाद में या तो वह मिथ्यात्व में जा गिरता है अथवा सत्त्व को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान में 'अनन्तानुबन्धी' कषाय न होने के कारण उपर्युक्त दोनों गुणस्थानों की अपेक्षा यह गुणस्थान ऊँचा है । परन्तु इसमें विवेक की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व का मिश्रण होता है अर्थात् सन्मार्ग के बारे में श्रद्धा भी नहीं और अश्रद्धा भी नहीं ऐसी डाँवाडोल स्थिति होती है अथवा सत् और असत् दोनों ओर झुकनेवाली या दोनों के बारे में मिश्रित जैसी श्रद्धा होती है। होने से 'आ-सादन' कहलाते हैं । उनसे युक्त वह “सासादन' । “सीदन्ति मम गात्राणि" आदि प्रयोगों के अनुसार 'सद्' धातु का अर्थ शिथिल होना-ढीला पड़ना होता है । 'सादन' यह इस धातु का प्रेरक कृदन्त रूप है । अत: 'सादन' अर्थात् शिथिल करना अथवा शिथिल करनेवाला । 'सादन' के आगे लगा हुआ 'आ' उपसर्ग इसी अर्थ की वृद्धि सूचित करता है । इस प्रकार 'आ सादन' से अर्थात् गिरानेवाले से अर्थात् सम्यक्त्व को गलानेवाले क्रोधादि कषाय से युक्त वह (स+आसादन) सासादन । मतलब कि 'सासादन' गुणस्थानभूमि तीव्र क्रोधादिकषायोदयरूप होने से पतन करानेवाली है—सम्यग्दृष्टि को रफादफा करनेवाली है । इस गुणस्थान का 'सास्वादन' ऐसा भी एक दूसरा नाम है । इसका अर्थ है आस्वादयुक्त अर्थात् वमन किए जानेवाले सम्यक्त्व के आस्वाद से युक्त । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैनदर्शन (४) अविरतिसम्यग्दृष्टि—विरति बिना के सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) को अविरतिसम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यक्त्व के स्पर्श के साथ ही भवभ्रमण के काल की मर्यादा नियत हो जाती है । अतः आत्मविकास की मूल आधारभूमि यह गुणस्थान है। इस प्रसंग पर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के बीच का अन्तर भी जरा देख लें । मिथ्यादृष्टि में धार्मिक भावना नहीं होती । सब प्राणियों के साथ एकता अथवा समानता का अनुभव करने की सवृत्ति से वह शून्य होता है । दूसरे के साथ का उसका सम्बन्ध स्वार्थ का अथवा बदला लेने का ही होता है । सम्यग्दृष्टि धार्मिक-भावनाशील और आत्मादृष्टियुक्त होता है । आत्मकल्याण की दिशा में वह यथाशक्ति प्रवृत्त रहता है । जैसी मेरा आत्मा है, वैसी ही दूसरे की भी है--ऐसी उसकी श्रद्धा होती है । आसक्तिवश अपने स्वार्थसाधन के लिये यदि वह दूसरे के हित का अवरोध करने का दुष्कृत्य शायद करे तो भी यह अनुचित है ऐसा उसकी अन्तरात्मा में चुभा करता है । इसके लिये उसे पश्चात्ताप भी होता है । काम-क्रोधादि दोष और पापाचरण कम हों ऐसी उसकी मनोभावना होने से तदनुसार वह यथाशक्ति अपना बरताव रखता है । इससे विपरीत धार्मिक दृष्टि से जो पाप समझा जाता है उसे मिथ्यादृष्टि पाप ही नहीं समझता । भौतिक सुख की प्राप्ति के पीछे वह मस्त हो जाता है और इसके लिये उचित-अनुचित कोई भी मार्ग ग्रहण करने में उसे पापपुण्य का भेद ग्राह्य नहीं होता । वह पापमार्ग को पापमार्ग न समझ कर 'इसमें क्या ?' ऐसी स्वाभाविकता से उसे ग्रहण करता है । मिथ्यादृष्टि यदि किसी का भला करता हो तो वह स्वार्थ, पक्षपात अथवा कृतज्ञता के कारण ही करता है; जबकि सम्यग्दृष्टि इनके अतिरिक्त स्वार्पणभावना के सात्त्विक तेज से भी सम्पन्न होता है । उसमें अनुकम्पा एवं बन्धुभाव की व्यापक वृत्ति होती है । (५) देशविरति-सम्यग्दृष्टिपूर्वक गृहस्थ-धर्म के व्रतों का यथायोग्य पालन करना 'देशविरति' है । 'देशविरति' शब्द का अर्थ है सर्वथा नहीं किन्तु देशतः अर्थात् अंशतः निश्चितरूप से पापयोग से विरत होना । देशविरति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ द्वितीय खण्ड अर्थात् मर्यादित विरति । (६) प्रमत्तगुणस्थान--महाव्रतधारी साधुजीवन का यह गुणस्थान है। परन्तु यहाँ सर्वविरति होने पर भी प्रमादभाव रहता है । कभी-कभी कर्तव्यकार्य उपस्थित होने पर भी आलस्य आदि के कारण जो अनादर बुद्धि उत्पन्न होती वह प्रमाद है। परन्तु जिस प्रकार उचित मात्रा में उचित भोजन लेना प्रमाद में नहीं गिना जाता तथा उचित निद्रा लेने से उसकी गणना प्रमाद में नहीं होती, उसी प्रकार कषाय यदि मन्द हो तो उसकी गणना यहाँ पर प्रमाद में नहीं की गई है । कषाय जब तीव्र रूप धारण करें तभी उन्हें यहाँ प्रमादरूप से गिना गया है । क्योंकि वैसे तो कषायोदय अगले सातवें गुणस्थानों से उत्तरोत्तर मन्द ही होता जाता है, इसलिये वह प्रमाद नहीं कहा जाता । (७) अप्रमत्तगुणस्थान-प्रमादरहित मुनिवर का यह सातवाँ गुणस्थान है । संयमी मनुष्य बहुत बार प्रमत्त एवं अप्रमत्त अवस्था में झूलता रहता है । कर्तव्य में उत्साह और सावधानी कायम बनी रहे यह अप्रमत्त अवस्था है । इस अवस्था से चलित होने पर थोडे समय में पुनः प्रमत्तता आ जाती है । (८) अपूर्वकरण'— चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय करने का अपूर्व (इससे पहले अनुपलब्ध ) अध्यवसाय (आत्मिक उत्थानकाल का विशिष्ट भावोत्कर्ष) इस गुणस्थान में प्राप्त होता है । चारित्रमोहनीय का उपशम अथवा क्षय यहाँ से (यहाँ की सबल भूमिका पर अवस्थित अगले गुणस्थान से) प्रारम्भ होता है। (९) अनिवृत्तिकरण--अपूर्व प्रकार का यह भावोत्कर्ष आगे के आत्मोत्कर्ष के लिये साधकतम होता है । ये दोनों-आठवाँ और नवाँ गुणस्थान आत्मिकभाव की निर्मलता की तरतम अवस्था के निर्देशरूप है । १. 'करण अर्थात् अध्यवसाय-आत्मपरिणाम अथवा क्रिया । २. प्रथम गुणस्थान में प्रवर्तमान 'अपूर्वकरण' और 'अनिवृत्तिकरण' सम्यक्त्व के साथ सम्बन्ध रखते हैं और गुणस्थानरूप ये 'अपूर्वकरण' और 'अनिवृत्तिकरण' उत्कृष्ट चारित्र के साथ सम्बन्ध रखते हैं । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन (१०) सूक्ष्मसम्पराय'-मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होतेहोते जब सम्पूर्ण (सपरिवार-क्रोधादि-कषायरूप) मोहनीय कर्म उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है और सिर्फ एकमात्र लोभ का सूक्ष्म अंश अवशिष्ट रहता है तब उस स्थिति के गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय है । (११) उपशान्तमोह—जिसने कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम ही (क्षय नहीं) करना शुरू किया है उसके सम्पूर्ण मोह का उपशम होना 'उपशान्तमोह' गुणस्थान है। (१२) क्षीणमोह—जिसने कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करना शुरु किया है उसके सम्पूर्ण मोह के क्षीण हो जाने का नाम 'क्षीणमोह' गुणस्थान है। ऊपर का ग्याहरवाँ और यह-~-दोनों पूर्ण समभाव के गुणस्थान हैं । फिर भी इन दोनों में फर्क है और वह यह कि उपशान्त-मोह के आत्मभाव की अपेक्षा क्षीणमोह का आत्मभाव अत्यन्त उत्कृष्ट होता है । इसी कारण उपशान्त-मोह का समभाव स्थायी रहने नहीं पाता, जबकि क्षीणमोह का समभाव पूर्णतया स्थायी होता है । यहाँ पर उपशम एवं क्षय का भेद समझना उचित होगा । सामान्यतः इनका भेद इस प्रकार समझाया जाता है कि पानी डालकर आग बुझा देने का नाम 'क्षय' है और राख डालकर उसे ढंक देने का नाम 'उपशम' है । भले ही मोह का सम्पूर्ण उपशम हुआ हो, परन्तु उसका पुनः प्रादुर्भाव हुए बिना नहीं रहता । जिस प्रकार पानी में का कचरा नीचे बैठ जाने पर पानी स्वच्छ दिखता है उसी प्रकार मोह के रज-कण-मोह का सम्पूर्ण पुंज उदय में आने से रुक कर आत्म-प्रदेश में जब अन्तर्निगूढरूप से सर्वथा स्थिर हो जाता है तब आत्म-प्रदेशों स्वच्छ से बन जाते हैं । परन्तु यह स्वच्छता कितने समय की ? पानी के नीचे बैठा हुआ कचरा तनिक हलन-चलन से जिस प्रकार पानी में फैल जाता है उसी प्रकार उपशान्त हुआ मोहपंज थोडी देर में ही पुनः उदय में आता है, जिसके फलस्वरूप जैसे गुण श्रेणियों चढ़ना हुआ था वैसे ही नीचे गिरना पड़ता है । मोहशमन के साधक को पुनः गिरना ही १. 'सम्पराय' अर्थात् कषाय । यहाँ पर लोभ समझना । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ७३ पड़ता है, जबकि मोहक्षय का साधक एकदम केवलज्ञान ही प्राप्त करता है, क्योंकि मोह का क्षय होने के बाद उसका पुनः प्रादुर्भाव नहीं होता । बारहवें गुणस्थान में आत्मा चित्तयोग की पराकाष्ठा रूप शुक्लसमाधि पर आरूढ़ होकर सम्पूर्ण मोहावरण, सम्पूर्ण ज्ञानावरण, सम्पूर्ण दर्शनावरण और सम्पूर्ण अन्तरायचक्र का विध्वंस करके केवलज्ञान प्राप्त करता है और केवलज्ञान प्राप्त होते ही — (१३) सयोगकेवली गुणस्थान का आरम्भ होता है । इस गुणस्थान के नाम में जो 'सयोग शब्द रखा है उसका अर्थ 'योगवाला' होता है । योगवाला अर्थात् शरीर आदि के व्यापारवाला । केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भी शरीरधारी के गमनागमन, बोलने आदि के व्यापार रहते ही हैं । देहादि की क्रिया रहने से शरीरधारी केवली सयोगकेवली कहलाता है । इस विवेचन के सन्दर्भ में गुणस्थानसमारोहसम्बन्धी महत्त्व की प्रक्रिया पर तनिक दृष्टिपात कर लेना यहाँ प्रासंगिक होगा । सातवे गुणस्थान पर पहुँचे हुए प्रगतिशील वीर्यवान साधक की आन्तरिक साधना अत्यन्त सूक्ष्म बनकर प्रखर प्रगति करने लगती है और क्षणभर में विरामभूमि पर पहुँच जाती है । यह कैसे होता है यह जरा देखें । I सब कर्मों का सरदार मोहनीय कर्म है । इसके दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय - इस प्रकार के दो भेदों का उल्लेख पहले किया जा चुका है और वहाँ यह भी बतलाया है कि 'दर्शन' का अर्थ है दृष्टि अर्थात् तात्त्विक बोध अथवा कल्याणभूत तत्त्वश्रद्धा । इसे जो रोके वह दर्शनमोहनीय और चारित्र को जो रोके वह चारित्रमोहनीय । जिस जीव का जिस अन्तर्मुहूर्त में दर्शनमोहनीय के अर्थात् मिथ्यात्व के पुद्गलों का उदय उतने समय तक के लिये रुक जाय उस जीव का वह अन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वसम्पन्न बनता है और वह सम्यक्त्व उपशम - सम्यक्त्व कहलाता है । सम्यक्त्व के प्रकाश में जीव इस सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त — जितने काल के पश्चात् उदय में आनेवाले दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्वमोहनीय) के पुद्गलों का संशोधन करने का कार्य करता है । ऐसा करते हुए जितने पुद्गलों का मालिन्य दूर होकर वे शुद्ध Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन बनते हैं उतने पुद्गलों के पुंज को सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं । और इसके ( मिथ्यात्व मोहनीय के) पुद्गलों का जो भाग शुद्धाशुद्ध अर्थात् मिश्र अवस्था में रहता है वह पुंज मिश्र - मोहनीय' कहलता है और जो भाग वैसे का वैसा अशुद्ध रहता है वह पुंज 'मिथ्यात्वमोहनीय' कहलाता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय तथा मिथ्यात्वमोहनीयर इस तरह तीन भेद (तीन भाग) होते हैं । उपशमसम्यक्त्व का काल पूर्ण होने पर इन तीन भागों या तीन पुंजो में से जिसका उदय होता है उसके अनुसार आत्मा की परिस्थिति हो जाती है । अर्थात् सम्यक्त्वमोहनीय पुंज का उदय होने पर आत्मा 'क्षयोपशम-सम्यक्त्व' का धारक बनता है, क्योंकि इन निर्मल पुद्गलों का उदय निर्मल काँच की भाँति तत्त्व की सम्यक् प्रतीति में बाधक नहीं होता । और यदि मिश्रमोहनीय पुद्गलपुंज का उदय हो तो जीव की तत्त्व श्रद्धा मिश्र अथवा दोलायमान जैसी बन जाती है; और मिथ्यात्वमोहनीय पुद्गल-पुंज का उदय होने पर जीव पुनः मिथ्यात्व से अवरुद्ध हो जाता है | ७४ दर्शनमोहनीय के इन तीन पुंजों तथा अनन्तानुबन्धी चार कषायों के उपशम से प्रकट होनेवाला 'उपशमसम्यक्त्व उपशम श्रेणी की अवस्था में प्राप्त होता है । उपशम- सम्यक्त्व और क्षयोपशम- सम्यक्त्व में फर्क यह है कि उपशम- सम्यक्त्व में मिथ्यात्व के अथवा दर्शनमोहनीय के किसी भी पुद्गल का विपाकोदय अथवा प्रदेशोदय- कोई उदय नहीं होता, जबकि क्षयोपशम दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् - इस प्रकार व्युत्पादित 'दर्शनमोहनीय' शब्द में 'मोहनीय' शब्द का आकुल व्याकुल करनेवाला अर्थात् रोकनेवाला ऐसा अर्थ होता है; अर्थात् दर्शन को रोकनेवाला वह 'दर्शनमोहनीय' । परन्तु उसके अवान्तर भेदरूप सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय तथा मिथ्यात्वमोहनीय का अर्थ क्रमशः सम्यक्त्व को रोकनेवाला, मिश्र को रोकनेवाला और मिथ्यात्व को रोकनेवाला ऐसा नहीं करने का, परन्तु सम्यक्त्वमेव मोहनीयं सम्यक्त्वमोहनीयम् मिश्रमेव मोहनीयं मिश्रमोहनीयम्, मिथ्यात्वमेव मोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयम् अर्थात् सम्यक्त्वरूप मोहनीय, मिश्ररूप मोहनीय तथा मिथ्यात्वरूप मोहनीय — इस प्रकार करने का है । २- ३. फलप्रद उदय वह विपाकोदय और जिस उदय से आत्मा पर असर न हो वह प्रदेशोदय । १. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ७५ सम्यक्त्व तो मिथ्यात्वमोहनीय के उदयगत (प्रदेशोदयगत) पुद्गलों का क्षय और उदय में नहीं आए हुए पुद्गलों का उपशम इस तरह क्षय और उपशम दोनोवाला होता है ओर इसीलिये वह 'क्षयोपशम-सम्यक्त्व' कहलाता है । इसके अतिरिक्त वह सम्यक्त्व-मोहनीय के पुद्गलों का विपाकोदय-रूप भी है । इस प्रकार, पुद्गलाश्रयी क्षयोपशम-सम्यक्त्व की अपेक्षा शुद्धआत्मपरिणामस्वरूप उपशमसम्यक्त्व श्रेष्ठतर है इसकी अपेक्षा भी श्रेष्ठतर (सर्वश्रेष्ठ) 'क्षायिकसम्यक्त्व' है; क्योंकि यह मिथ्यात्व-मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय इस तरह त्रिविध दर्शनमोहनीय तथा अनन्तानुबन्धी चार कषाय इन सात के क्षय से प्राप्त होता है । क्षयसाध्य होने से वह 'क्षायिक' कहलाता है । इस प्रकार सम्यक्त्व मुख्यतया तीन प्रकार का । अब चारित्र-मोहनीय के भेद देखें । वे पचीस हैं और इस प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार आत्मा को कष्ट देनेवाले होने से 'कषाय' कहलाते हैं । इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ऐसे चार-चार भेद हैं । अनन्तदुःखरूप मिध्यात्व के उद्भावक अतितीव्र कषाय 'अनन्तानुबन्धी' कहलाते हैं । अ-- प्रत्याख्यान-अल्पप्रत्याख्यान अर्थात् देशविरति के अवरोधक कषाय 'अप्रत्याख्यानावरण' हैं । प्रत्याख्यान' अर्थात् सर्वविरति को रोकनेवाले कषाय 'प्रत्याख्यानावरण' हैं और वीतराग (यथाख्यात) चारित्र के बाधक कषाय "संज्वलन' कहलाते हैं । इस पर से यह समझा जा सकता है कि 'अनन्तानुबन्धी' कषाय के दूर होने पर चतुर्थगुणस्थानकरूप सम्यक्त्व, दूसरे 'अप्रत्याख्यानावरण' कषाय के हटने पर देशविरति, तीसरे 'प्रत्याख्यानावरण' के नष्ट होने पर सर्वविरति और चौथे 'संज्वलन' कषाय के निरस्त होने पर वीतराग (यथाख्यात) चारित्र प्राप्तक होता है। इस प्रकार कषाय के सोलह भेद हुए । इनके सहचारी दूसरे नौ गिनाए गए हैं। इन्हें 'नोकषाय' कहते हैं । वे है---हास्य, रति (अनुराग, प्रीति), अरति (अप्रीति, उद्वेग), भय, शोक, जुगुप्सा (धृणा) और पुरुषवेद, १. यहाँ पर 'अ' का अर्थ अल्प है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन स्त्रीवेद, तथा नपुंसकवेद । इस प्रकार चारित्रमोहनीय के इन (१६ + ९) पचीस भेदों के साथ दर्शनमोहनीय के पूर्वोक्त तीन भेद मिलाने पर कुल अट्ठाईस भेद मोहनीय कर्म के हुए। इनमें से तीन प्रकार के दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन सात के उपशम से 'उपशम- सम्यक्त्व' अथवा क्षय से 'क्षायिक सम्यक्त्व' जिसने प्राप्त किया है वह आठवें, नवें इन दो गुणस्थानों में मोहनीय, की अवशिष्ट इक्कीस प्रकृतियों में से एक लोभ को छोड़कर शेष बीस प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता है : और दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ रह जाने के कारण वह साधक यदि उपशम- श्रेणीवाला हो तो उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश का उपशम कर के ग्यारहवें उपशान्तमोह नामक गुणस्थान पर पहुँचता है, जबकि क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ साधक उस सूक्ष्मीभूत लोभांश का क्षय करता है । इस सूक्ष्मीभूत लोभांश का क्षय होते ही सम्पूर्ण मोह का नाश पूर्ण होता है । यह बारहवें गुणस्थान की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई सिद्धि है और यह सिद्धि तत्काल ही केवलज्ञान की सिद्धि प्रकट करती है । ७६ पहले कहे हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच कर्म-बन्ध के हेतुओं में से जब आगे आगे का बन्धहेतु हो तब उसके पीछे के सब बन्धहेतु अवश्य होने के, परन्तु पीछे का बन्ध हेतु होने पर आगे का हो भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता । जैसे कि जहाँ मिथ्यात्व हो वहाँ अविरति आदि सब बन्धहेतु होने के ही, परन्तु जहाँ अविरति हो वहाँ मिथ्यात्व होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । वह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । पहले गुणस्थान में अविरति और मिथ्यात्व दोनों ही है परन्तु दूसरे तीसरे चौथे गुणस्थान में अविरति तो है किन्तु मिध्यात्व नहीं है । इसी प्रकार जहाँ कषाय होता है वहाँ योग तो होता ही है, परन्तु सदेह केवली के योग (शरीरादि की क्रिया) निष्कषाय होते हैं । ये सब बन्धहेतु साधक की साधना का जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे-वैसे क्रमशः हटते जाते हैं। जैसे कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय रुक जाता है अर्थात् यह मिथ्यात्व का संवर हुआ इसी प्रकार विरति का गुणस्थान प्राप्त होते ही अविरति रुक जाती है, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ७७ यह अविरति का संवर; अप्रमत्त (सातवाँ) गुणस्थान होते ही प्रमाद रुक जाता है, यह प्रमाद का संवर; उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह दशा आने पर कषाय रुक जाते हैं, यह कषायों का संवर; और अन्त में मृत्यु के समय अयोगी दशा में योग का निरोध होता है यह योग का संवर है ।। मोह का सम्पूर्ण विलय होते ही कर्म का बन्ध सर्वथा रुक जाता है अर्थात् 'संवर' पूर्णतया सिद्ध होता है । (एकमात्र सातावेदनीय कर्म का क्षणिक बन्ध किस गिनती में ?) जीवन्मुक्त (सयोगकेवली) की यह दशा है । इस प्रकार मोक्ष अथवा सिद्धत्व, पूर्ण संवर और देह-मुक्त होते समय पूरी होने वाली निर्जरा इन दोनों के बल से प्राप्त होता है । सर्वकर्मक्षयात्मक मोक्ष की प्राप्ति से पूर्व अंशतः कर्मक्षयरूप निर्जरा का बढ़ता जाना आवश्यक है । यद्यपि सब संसारी आत्माओं में कर्मनिर्जरा का क्रम चालु ही रहता है, परन्तु आत्म-कल्याणरूप कर्म निर्जरा तो जब जीव मोक्षाभिमुख होता है तभी होती है । वास्तविक मोक्षाभिमुखता का प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से होता है और वह मोक्ष-साधन-विकास बढ़ता बढ़ता 'जिन' अवस्था पर परिपूर्ण होता है । सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से लेकर 'जिन' अवस्था तक की अन्तर्विकास की गति के स्थूलरूप से दस विभाग किए गए हैं । इनमें उत्तरोत्तर परिणाम की विशुद्धि बढ़ती जाती है । परिणाम की विशुद्धि जितनी अधिक उतनी ही कर्मनिर्जरा अधिक, अर्थात् पूर्व-पूर्व अवस्था की अपेक्षा ही उत्तर-उत्तर अवस्था में परिणाम की विशुद्धि की अधिकता के कारण असंख्यातगुनी कर्मनिर्जरा बढ़ती जाती है । इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अन्त में जिन (सर्वज्ञ) अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है । वे दश अवस्थाएँ इस प्रकार हैं । (१) मिथ्यात्व के हटने से सम्यक्त्व प्रकट होता है वह सम्यग्दृष्टि, (२) जिसमें देशविरति प्रकट हो वह उपासक, (३) जिसमें सर्वविरति प्रकट हो वह विरत, (४) जिसमें अनन्तानुबन्धी कषायों का विलय करने जितनी विशुद्धि प्रकट हो वह अनन्तवियोजक, (५) जिसमें दर्शनमोह का क्षय करने की विशुद्धि प्रकट हो वह दर्शन-मोह-क्षपक, (६) जिस अवस्था में चारित्रमोह की प्रकृतियों का उपशम प्रवर्तमान हो वह उपशमक, (७) जिस अवस्था में Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन वह उपशम पूर्ण हो वह उपशान्त, (८) जिस अवस्था में चारित्रमोह की प्रकृतियों का क्षय हो रहा हो वह क्षपक, (९) जिस अवस्था में वह क्षय पूर्ण सिद्ध हो वह क्षीणमोह, और (१०) जिसमें जिनत्व (सर्वज्ञत्व) प्रकट हो वह जिन । ७८ जिन - केवली परमात्मा आयुष्यक के अन्त के समय [मरण के समय] अपने शरीरादि के सब व्यापारों का निरोध करते हैं, उस निरोध की पूर्ण अवस्था का गुण स्थान है— (१४) अयोगिकेवली । अयोगी का अर्थ है देहादि के सब व्यापारों से रहित — सब प्रकार की क्रियाओं से विरत । केवली अयोगी होते ही उसका शरीर छूट जाता है और वह परम - आत्मा अमूर्त, अरूपी, केवलज्योति: स्वरूप ऐसा परम कैवल्यधाम प्राप्त करता है । इस प्रसंग में अध्यात्मदृष्टि के बारे में भी थोडा विचार कर लें । अध्यात्म : संसार की गति गहन है । विश्व में सुखी जीवों की अपेक्षा दुःखी जीवों का क्षेत्र बहुत विशाल है । आधि-व्याधि - उपाधि तथा शोक - सन्ताप से समस्त जगत् सन्तप्त है । सुख के अनेकानेक साधन उपस्थित होने पर भी मोह एवं सन्ताप की पीडा मिट नहीं सकती । धन आदि मिलने पर भी दुःख का संयोग दूर नहीं हो सकता । वस्तुतः दुःख के मूल काम-क्रोध-लोभअभिमान - ईर्ष्या-द्वेष आदि मानसिक विकार —— दोषों में रहे है । मोहवासना की दुनिया ही दुःखित संसार है । I सुख - दुःख का सम्पूर्ण आधार मनोवृत्ति पर है । बड़ा भारी धनाढ्य पुरुष भी लोभ के चक्र में फँसने से अथवा स्वभाव के कार्पण्य-दोष के कारण दुःखी रहा करता है, जबकि निर्धन मनुष्य विवेकबुद्धि से सम्पादित सन्तोष - वृत्ति के प्रभाव से मन में उद्धेग नहीं रखता, जिससे वह सुखी रहता है । सुख - दुःख की भावना के प्रवाह मनोवृत्ति के विचित्र चक्रभ्रमण के अनुसार बदलते रहते हैं । मन की इस विचित्र चंचल स्थिति में ही दुःख Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ द्वितीय खण्ड के मूल रहे हुए है । निःसन्देह, शरीरयात्रा' के लिये अन्न, जल तो चाहिए ही; जीवनयात्रा के अथवा सुख-शान्ति के लिये इस तरह बाह्य पदार्थ अवश्य अपेक्षित हैं, तथापि इनकी (इन पदार्थों अथवा साधनों की) कमी में भी तात्त्विक (सच्ची) समझ और तज्जन्य सन्तोष-लक्ष्मी जिसने प्राप्त की है वह सत्त्वशाली मनुष्य अपने चित्त अथवा आत्मा को स्वस्थ रख सकता है और अपने अन्तर्विकास को मन्द नहीं होने देता ।। सामान्यतः इस जीवन में और इस दुनिया में ही सुखी हुआ जा सकता है, सुखी रहा जा सकता है-यदि हम हमारे पास जो कुछ हो उसी से सन्तुष्ट रहें और आवश्यक पदार्थ न्यायमार्ग से प्राप्त करें अथवा प्राप्त करने का श्रम करें तथा भौतिक-विलास की आकांक्षा न रखकर मानसिक सुख की सँभाल रखने का दृष्टिबिन्दु धारण करें । सारांश यह है कि, आत्मा का अथवा निर्दोष जीवन की प्रसन्नता का सुख ही सच्चा सुख है, फिर वह मनुष्य १. छद्मस्थमुनि ऋषभदेव का चिन्तन प्रदीपा इव तैलेन पादपा इव वारिणा । आहारेणेव वर्तन्ते शरीराणि शरीरिणाम् ॥२३९॥ अद्यापि यदि वाऽऽहारमतिक्रान्तदिनेष्विव । न गृह्णाम्यभिग्रहाय किन्तूत्तिष्ठे पुनर्यदि ॥२४१॥ अमी सहस्राश्चत्वार इवाऽभोजनपीडिताः । तदा भङ्गं ग्रहीष्यन्ति भाविनो मुनयोऽपरे ॥२४२ ॥ स्वामी मनसिकृत्यैवं भिक्षार्थं चलितस्ततः ॥ ---हेम-त्रिषष्टि. पर्व १, सर्ग ३. अर्थात्-तेल से दीपक और पानी से वृक्ष की भाँति शरीरधारियों के शरीर आहार से हि टिकते हैं। आज वर्षादिन पर्यन्त भोजन के बिना जिस तरह चलाया उसी तरह अब भी यदि मैं आहार ग्रहण न करूँ और अभिग्रहनिष्ठ बना रहूँ तो उन चार हजार मुनियों की जो दशा हुई, अर्थात् भूख से पीड़ित होकर जिस प्रकार वे व्रतभग्न हुए उसी प्रकार भविष्य के मुनि भी भोजन न मिलने से भूख से पीड़ित होकर व्रतभग्न होंगे । ऐसा विचार करके ऋषभदेव भिक्षा के लिये चल पड़े । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन चाहे गरीब हो अथवा पैसेवाला हो, शहर में रहता हो या गाँव में रहता हो । ___ वस्तुतः 'मन जीता उसने सब जीता' यह पूर्ण सत्य है । जो मनका विजेता है वही विश्वविजेता है । राग-द्वेष-मोह मनोवृत्ति के ही परिणाम हैं । इन तीन के ऊपर सम्पूर्ण संसार-चक्र घूमता है । इस त्रिदोष को दूर करने के लिये अध्यात्मशास्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई वैद्यक ग्रन्थ नहीं है । परन्तु इस बात का स्वयं अनुभव होना कि 'एक प्रकार से मैं रोगी हूँ' बहुत कठिन है। जहाँ संसार के मोहतरंग मन पर टकराते हों, विषय-रति रूपी बिजली की चमक आँख को चकाचौंध करती हों तथा तृष्णा के प्रबल प्रपात में आत्मा अस्वस्थ दशा का अनुभव करता हो वहाँ अपना गुप्त 'रोग' समझना बहुत कठिन है । ऐसी स्थितिवाले अजीव एकदम अधःस्थिति पर होते हैं । इस स्थिति से ऊपर उठे हुए जीव, जो अपने आप को त्रिदोषाक्रान्त-त्रिदोष से उत्पन्न उग्र ताप १. तत्त्ववेत्ता मिल्टन कहता है कि “A mind can make heaven of hell and hell of heaven”. अर्थात् मन नरक को स्वर्ग और स्वर्ग को नरक बना सकता है । “We may be unhappy even while sitting on a mountain of gold and happy even without a pie in our pocket. I think that true happiness comes when we are neither rich nor poor, but just able to meet our requirements and reasonable comforts of life. The struggle of existence kills the joy of life. Easy life makes life dull and inactive. I think, true happiness consists in working for needs but never in becoming greedy." अर्थात् यह सम्भव है कि सोने के पर्वत पर बैठने पर भी हम सुखी न हो सकेंदुःखी हों, और हमारी जेब में एक पाई भी न हो उस समय भी हम सुखी हों । मैं समझता हूँ कि सच्चा सुख न तो धनी अवस्था में है और न गरीब अवस्था में, परन्तु हमारी आवश्यकताएँ और समुचित सुख-सुविधाएँ प्राप्त करने के लिये ठीकठीक समर्थ होने में है । जीवन के अस्तित्व की जद्दोजहद जीवन के आनन्द को नष्ट कर देती है और आरामतलब जीवन जीवन को आलसी-जड़-अकर्मण्य बना देता है । मैं समझता हूँ कि सच्चा सुख अपनी आवश्यकताओं के लिये कार्य करने मेंश्रम करने में समाया है, न कि लोभी होने में । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ द्वितीय खण्ड में फँसे हुए समझते हैं और उस योग के प्रतिकार की शोध करने को उत्सुक हैं, उनके लिये आध्यात्मिक औषध के प्रकाशन उपयोगी है । अध्यात्म शब्द 'अधि' और 'आत्मा' इन दो शब्दों से समास से बना है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को लक्ष में रखकर उसके अनुसार बरतना - आत्मविकास की कल्याणमयी दिशा में विहरना ही अध्यात्म अथवा आध्यात्मिक जीवन है । संसार के जड़ एवं चेतन तत्त्व जो एक-दूसरे के स्वरूप को जाने बिना नहीं जाने जा सकते, उनका यथायोग्य निरूपण अध्यात्म के विषय में किया जाता है । आत्मा क्या वस्तु है ?, आत्मा को सुख - दुःख का अनुभव कैसे होता है ?, आत्मा को सुख - दुःख का अनुभव करने में किसी अन्य तत्त्व का संसर्ग कारणभूत है ?, कर्म का संसर्ग आत्मा को किस प्रकार हो सकता है ?, यह संसर्ग सादि है या अनादि ?, यदि अनादि है तो उसका उच्छेद कैसे हो सकता है ?, कर्म का स्वरूप कैसा है ?, कर्म के भेदानुभेद कौनकौन से हैं ?, कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता किस प्रकार नियमबद्ध हैं ?, इस समय आत्मा किस दशा में है ?, वह अपनी मूल स्थिति को पा सकता है या नहीं और पा सकता है तो किस तरह ? इन सब बातों की विचारणा अध्यात्मशास्त्र में अच्छी तरह से की जाती है । इसके अतिरिक्त अध्यात्म के विषय में मुख्यतया संसार ( भवचक्र) की निस्सारता और निर्गुणता का, राग-द्वेष मोहरूपी दोषों के कारण भवाटवी में जो भ्रमण करने और क्लेश सहने पड़ते हैं उनका यथातथा चित्रण किया जाता है । भिन्न-भिन्न प्रकार से भावनाओं को समझाकर मोहममता का निरोध करना ही अध्यात्मशास्त्र का प्रधान लक्ष होता है और उसका सम्पूर्ण उपदेश इसी लक्ष की ओर पूर्ण बल से कहता है । दुराग्रह का त्याग, अद्वेषभाव, तत्त्वशुश्रूषा, सन्त-समागम, सत्पुरुषों की प्रतिपत्ति, तत्त्व श्रवण, कल्याणभावना, मिथ्यादृष्टि का निरास, सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, क्रोध - मान-माया - लोभरूप कषायों का नाश, इन्द्रियों पर संयम, मनःशुद्धि, ममता का त्याग, समता का प्रादुर्भाव, चित्त की स्थिरता, आत्मस्वरूप Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव, मोहादि आवरणों का क्षय और अन्त में केवल ज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति - इस प्रकार मूल से लेकर क्रमशः होने वाली आत्मोन्नति का वर्णन अध्यात्मशास्त्र में किया जाता I 'अध्यात्म' कहो अथवा 'योग' कहो एक ही बात है । 'योग' शब्द जोडना अर्थत्राले 'युज' धातु से बना है । कल्याणकारक धर्मसाधना अथवा मुक्तिसाधन का व्यापार, जो मुक्ति के साथ जोड़नेवाला होने से 'योग' कहलाता है । वही अध्यात्म है । ८२ मोह - दशा आत्मा का गम्भीर रोग है । कर्मबन्ध की परम्परा अथवा भवभ्रमण इसी के कारण होता है । क्रोधादि इसी [ मोह ] के रूपान्तर हैं । इनके विरुद्ध आध्यात्मिक साधनों का दिग्दर्शन इस प्रकार है क्रोध का निरोध क्षमा से होता है, मान मृदुता से शान्त होता है, माया ऋजुता से हटती है, लोभ पर सन्तोष से विजय प्राप्त किया जाता है । इन कषायों का पराभव इन्द्रियजय पर अवलम्बित है । इन्द्रियजय चित्तशुद्धि से शक्य है । चित्तशुद्धि' रागद्वेषरूपी मैल को दूर करने से होती है । इसे दूर करने का कार्य समतारूपी जल से होता है । समता ममता के त्याग से प्रकट होती है । ममता को दूर करने के लिये 'अनित्यं' (संसारे भवति सकलं यन्नयनगम' (संसार में जो कुछ दिखता है वह सब अनित्य है ) — ऐसी अनित्यभावना तथा दूसरी अशरण आदि भावनाओं का पोषण उपर्युक्त है । इन भावनाओं का बल जैसे जैसे प्रखर होता है वैसे वैसे ममत्वरूपी अन्धकार क्षीण होता जाता है और उसके अनुसार समता की ज्योति प्रकट होती जाती है । इस समता की पराकाष्ठा के परिणास्वरूप चित्त की एकाग्रता सिद्ध होती है और इसके फलस्वरूप आत्मा ध्यान अथवा समाधियोग की भूमिका पर पहुँच जाता है । ध्यान की भूमिका में आने के बाद भी यदि सिद्धि-लब्धि प्राप्त होने पर उनमें फँस जाय अथवा मन-मुटाई या पूजा - गौरव का मोह पैदा १. " असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ " -- भगवद्गीता ६, ३५. अर्थात् — सत्कर्मों के अभ्यास और वैराग्यभाव से चित्त का निरोध होता है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ द्वितीय खण्ड हो तो अध:पतन होने में देर नहीं लगती । अतः ज्ञानी-ध्यानी-योगी को अपने मोहविदारण के कार्य में अखण्ड धैर्य के साथ पूर्ण सावधान रहना चाहिए, ऐसा शास्त्रकारों का उपदेश है । वीतरागता के चरम शिखर पर जब वह पहुँचता है तब पूर्ण कृतार्थ (कृतकृत्य) हो जाता है । उस समय उस आत्मा में पूर्ण परमात्मभाव प्रकट होता है । ऐसा उत्तीर्ण आत्मा ही भगवान् अथवा परमात्मा है । जब तक शरीर होता है तब तक वह साकार परमात्मा है और बाद में निराकार । जब आत्मा मूढदृष्टिवाला होता है तब 'बहिरात्मा', अन्तर्दृष्टिवाला होता है तब 'अन्तरात्मा' और निरावरण दशा पर पहुँचकर पूर्णप्रकाश बनता है तब 'परमात्मा' कहा जाता है । बहिरात्मा, भद्रात्मा, अन्तरात्मा', सदात्मा', महात्मा', योगात्मा और परमात्मा-इस प्रकार से भी आत्मा का विकासक्रम बताया जा सकता है । _ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' यह महात्मा पतञ्जलि का योग के सम्बन्ध में प्रथम सूत्रपात है । चित्तवृत्ति के निरोध का अर्थ है जहाँ-तहाँ भटकती हुई चित्तवृत्तियों को कुशल भावना में लगाना, शुभ चिन्तन में प्रवृत्त एवं व्याप्त करना ! इसी को योग कहते हैं । योग का यह अर्थ प्रथम आवश्यक पाठरूप से समझने योग्य और अभ्यसनीय है । चित्तवृत्ति में शुभता का जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे वैसे उसकी शुद्धता एवं स्थैर्य सधने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप एकाग्रता की भूमिका पर वह आ सकता है । मलिन विचारों को उठने न देकर सद्विचारों में ही चित्त को रममाण रखने का अखण्ड प्रयत्न ही योगसाधन का प्राथमिक और अत्यावश्यक मार्ग है । इसके लिये सत्यनिष्ठा सर्वप्रथम चाहिए और चाहिए दृढ निश्चय, भगवत्स्मरण एवं सत्कर्मशीलता । मोक्ष की साधना नए आते हुए कर्मों का रोकना और पहले के बँधे १. सम्यग्दृष्टि प्राप्त करे तब । २. सदाचरणसम्पन्न । ३. चारित्र की महान् भूमिका पर पहुँचा हुआ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन ८४ हुए कर्मों को क्षीण करना- इन दो ही क्रियाओं पर अवलम्बित है । इनमें से पहली को संवर तथा दूसरी को निर्जरा कहते हैं यह हम पहले देख चुके हैं । इन दोनों उपायों की सिद्धि के लिये सद्विचारणा, सदाचार, शम, संयम, तप, त्याग और आध्यात्मिक स्वाध्याय, तथा दोषास्पद मार्ग से दूर रहनायही अध्यात्मशास्त्र में उल्लिखित तथा प्रतिपादित साधनप्रणाली है । आत्मा में अनन्त शक्तियाँ है । अध्यात्म साधन के मार्ग से उन्हें विकसित किया जा सकता है । आवरणों के दूर होने से आत्मा की जो शक्तियाँ प्रकट होती है उनका वर्णन ही नहीं किया जा सकता । आत्मा की दिव्य चेतनशक्ति के आगे भौतिक विज्ञान के चमत्कार कुछ भी बिसात नहीं रखते । जड़वाद का उत्कर्ष और उससे उपलब्ध उन्नति सापाय, सपरिताप, सभय और विनश्वर हैं, जबकि विशुद्ध आत्मम-शक्ति का प्रकाश कल्याणरूप प्रकाश एवं निर्मल आनन्द का स्रोत है । यही अखण्ड और अक्षय सुख है । आध्यात्मिक यात्रा ही इसकी प्राप्ति का मार्ग है । विद्या और विज्ञान धर्मसम्पन्न होने पर ही सुख एवं अभ्युदय के सर्जक होते हैं, जबकि धर्मविरुद्ध होने पर वे दुःखरूप एवं अनर्थकारक बनते हैं ! भावना : मोह - ममत्व को नरम करने में भावनाओं का बल बहुत कार्य करता है यह ऊपर कहा गया है। जैन ग्रन्थों में इस बारे में ऐसी बारहं भावनाओं का जिन्हें अनुप्रेक्षा भी कहते हैं, उपदेश दिया गया है । १. स्वामी शंकराचार्य भी साधनपञ्चकस्तोत्र में ऐसा ही कहते हैं"प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिष्यतां । प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥" अर्थात् —— पहले के बँधे हुए कर्मों को ज्ञान-शक्ति से नष्ट करो, नएँ कर्मों से न बँध तथा प्रारब्ध ( उदयगत) कर्म (समभाव से) भोगो और इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करो । जैनदर्शन में कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। इनमें क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं । जैनेतर दर्शनों में बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण', सत्कर्म (सत्तागत कर्म) को 'संचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध' कहते हैं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ८५ (१) अनित्य भावना-सब विनाशी है ऐसा विचार करना अनित्यभावना है । अनासक्ति के लिये यह भावना अत्यन्त उपयोगी है । 'संसार की जिन वस्तुओं के लिये हम अन्याय करते हैं वे साथ में आने वाली नहीं है । यह जीवन ही क्षणभंगुर है, फिर इसके लिये अन्याय अथवा अधर्म का आचरण करना उचित है क्या ? प्रकृति के ऊपर कुछ अंशों में शायद हम विजय प्राप्त कर सकें, दूसरे मनुष्यों अथवा राष्ट्रमण्डल पर भी प्रभुत्व जमा लें, किन्तु मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते । मृत्यु हमारे सब विजयों को हमसे छीन लेती है । जिन्दगी 'चार दिन की चाँदनी' है, इसे पापाचरण से काली क्यों करें ? काली करेंगे तो 'फिर अन्धेरी रात !' एक दिन यह शरीर मिट्टी में मिल जायगा, फिर दूसरों के सिर पर इसे क्यों नचाएँ ? विनश्वर जिन्दगी के लिये अनीति-अन्याय के, परद्रोह के दुष्कर्म करना और बाद में उसके परिणामस्वरूप घोर अधोगति में गिरना यह तो मूर्खता की ही बात होगी, समझदारी की नहीं—इस प्रकार की भावना हमें न्यायमार्ग से च्युत नहीं होने देती । यही इस भावना की उपयोगिता है । जिस प्रकार सम्पत्ति चली जाती है उसी प्रकार विपत्ति भी चली जाती है, यह बात ध्यान पर रहे तो विपत्ति एवं इष्ट-वियोग के समय धैर्य धारण किया जा सकता है यह भी इस भावना की उपयोगिता है। बाकी, इस भावना का उपयोग अकर्मण्य बनने में नहीं करना चाहिये । यह तो उसका दुरुपयोग ही होगा । परहित के सत्कार्य में यथाशक्ति प्रवृत्तिशील रहने में ही अनित्य-भावना बराबर पची मानी जा सकती है, क्योंकि 'अनित्य समझकर 'नित्य' की प्राप्ति के आकांक्षी को स्वपरहितसाधन के सन्मार्ग पर चलना ही रहा ।। भले ही सुखोपभोग की भौतिक वस्तुएँ अनित्य और दुःखमिश्रित हो, फिर भी जबतक जीवन है तबतक ऐसी जीवनोपयोगी वस्तुओं को पाना आवश्यक होता है । उनके बिना चल ही नहीं सकता । इसीलिये ऐसी वस्तुएँ न्यायपूर्वक उपार्जित या प्राप्त करनी चाहिए और उनका उपभोग आसक्तिरहित होकर करना चाहिए-ऐसा उपदेश देना ही इस भावना का उद्देश है । आत्महत्या तो निषिद्ध ही है । (२) अशरण-भावना-'मैं राजा हूँ, महाराजा हूँ, जनता का अथवा जगत Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैनदर्शन का रक्षक हूँ, मैं बड़ा धनी या सेठ हूँ, सबल हूँ, मेरा सहायकमण्डल अथवा अनुयायी-वर्ग विशाल है, मेरा कोई क्या कर सकता है ?'- इस प्रकार अहंकार मनुष्य में न आवे इसीलिये अशरण-भावना है। मनुष्य का इस प्रकार का मद या घमण्ड व्यर्थ है, क्योंकि न तो वह मृत्यु के अनिवार्य चंगुल से छूट सकता है । भीषण रोगों के दुःख उसे अकेले को सहने पड़ते हैं । उस समय उसका दुःख कोई पुरुष अथवा प्रियतम व्यक्ति कम नहीं कर सकता । यह अशरणता क्या कम है ? ऐसी भावना का उपयोग अहंकार का त्याग करने में करने का है । दया, परोपकार के सत्कर्म छोड़कर निपट स्वार्थी बन जाना अशरण भावना नहीं है । यद्यपि हम असाध्य स्थिति में से किसी की रक्षा नहीं कर सकते, फिर भी रक्षा करने का यथाशक्ति प्रयत्न करके सहानुभूति तो प्रदर्शित कर सकते हैं और दूसरों की भलाई में, दूसरे के हित-साधन में कमोबेश अवश्य उपयोगी हो सकते है। इस भावना का मुख्य लक्ष्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी दूसरे की शरण की लालच न रखकर (केवल परमात्मा की ही शरण स्वीकार कर) स्वावलम्बी बनना चाहिए, परोपकार-दया-संयम जैसे सद्गुणरूपी धर्म की शरण स्वीकारनी चाहिए और अच्छे-अच्छे काम करने पर भी, अच्छे गुणों तथा विशिष्ट शक्तियों के होने पर भी अभिमानी न होकर मृदु तथा नम्र बनना चाहिए । (३) संसार-भावना- धनी और निर्धन सब कोई संसार में दःखी हैं ऐसा चिन्तन संसार-भावना है। यह इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य संसार के क्षुद्र प्रलोभनों में फंस कर कर्तव्यच्युत न हो । दूर से देखने पर भले ही दूसरे लोग सुखी दिखाई देते हों, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि जो सुखी प्रतीत होता है वह अपने आपको सुखी नहीं मानता । अपने पास सुख की सामग्री पर्याप्त मात्रा में होने पर भी मनुष्य उससे सन्तुष्ट नहीं होता । दूसरों की अधिक सम्पत्ति देखकर उसके मन में असन्तोष की आग जलने लगती है । लोभ-तृष्णा के बढ़ते हुए वेग से अधिकाधिक प्रेरित होकर वह परिग्रह के पाप को बढ़ाने में और उससे सम्बद्ध दूसरे अनेक पापों की पुष्टि में ही व्यस्त रहता है । यदि वह ऐसा समझ ले कि इतना पाप करने के बाद भी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड मुझे जो मिलेगा उसमें भी मैं दुःखी ही रहूँगा तो वह पापाचरण में उद्यत होगा ही नहीं । इस भावना के बारे में यह सोचना उपयोगी होगा कि संसार में दुःख बहुत हैं, प्राकृतिक दुःख भी बहुत है, चाहे जितने प्रयत्न किये जाएँ दुःख पूर्णरूप से दूर नहीं हो सकते, फिर भी ऐसी हालत में भी एक-दूसरे के साथ अन्याय करके और स्वार्थान्ध बन कर, एक-दूसरे की ओर लापरवाह रहकर दुःखों में हम जो अभिवृद्धि करते हैं वह क्या उचित हैं ? यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि संसार में बहुत से दुःख तो हमारे अपने दोषों के कारण हम उत्पन्न करते हैं और बढ़ाते हैं । मानवता के सद्गुणों का विकास करके और व्यापकरूप से मैत्री भाव की ज्योत जला कर, शक्य इतने उतने दुःख दूर करने का प्रयत्न हमें करना चाहिए । यही इस भावना का तात्पर्य हैं । (४) एकत्व-भावना-मनुष्य अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, हर हालत में उसका कोई साथी नहीं है ऐसा विचारणा एकत्वभावना है । स्वावलम्बन एवं अनासक्तभाव को पुष्ट करने में यह भावना उपयोगी है । परन्तु साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यह विश्व जिस सहयोगवृत्ति पर टिका हुआ है उसका इस भावना से खण्डन नहीं होता । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम अपनी भलाई के लिये दूसरों की सहायता चाहते है उसी प्रकार दूसरे भी अपनी भलाई के लिये हमारी सहायता की अपेक्षा रखे यह स्पष्ट ही है । दूसरे की भलाई करने की योग्यता जितनी हममें होगी उसी पर इस बात का आधार है कि हम दूसरों से कितनी मात्रा में लाभ उठा सकते हैं । नानाविध सम्बन्धों का लाभ उठाने में मनुष्य की अपनी योग्यता ही उसे काम आने की। श्री एक मात्र योग्यता ही वरण करती है। अत: Deserve, then desire अर्थात् सर्वप्रथम स्वयं योग्य बनना ही इस एकत्व-भावना का अभिप्राय है । यही एकत्व अर्थात् एक तत्त्व अनेक प्रकार के सहयोग, अनेकों की मैत्री, अनेकों की सेवा के लाभ के लिये उपयोगी है । एकत्व का यह अर्थ नहीं कि व्यक्त किंवा अव्यक्तरूप से तो हम दूसरों का लाभ उठाएँ और जब उसका बदला Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैनदर्शन चुकाने का समय आए तब हम कहते फिरें कि 'मैं किसी का नहीं हूँ, मेरा कोई नहीं है, संसार तो झूठा है ।' यह तो एक प्रकार की धूर्तविद्या ही है । एकत्व की भावना ऐसी स्वार्थान्धता के लिये नहीं है, किन्तु स्वावलम्बी और योग्य बनने के लिये है और असहाय दशा में दुखार्त न होकर 'प्रत्येक प्राणी अकेला है'-ऐसा समझ करके आत्मबल को जगा कर समाधान पैदा करने के लिये है, धैर्य धारण करने के लिये है । दूसरी तरह से देखें तो एकत्व का अर्थ है एकता-ऐक्य अर्थात् मानव-समाज का पारस्परिक मैत्रीपूत संगठन । इसके महत्त्वपूर्ण बल से जगत् में सुख-शान्ति की सिद्धि के साथ ही आध्यात्मिक कुशल भी सिद्ध किया जा सकता है । इस तरह की भावना वह एकत्व-भावना । (५) अन्यत्व-भावना-मैं शरीर से भिन्न हूँ, ऐसी अन्यत्व-भावना के बल से शारीरिक सुख-दुःख हमें क्षुब्ध नहीं कर सकते । प्रायः शारीरिक सुख-दुःख के विचार में मनुष्य की सब शक्ति नष्ट हो जाती है । 'मैं कौन हूँ' यह यदि समझ में आ जाय तो इस पवित्र ज्ञान के आलोक में मनुष्य आत्मा से भिन्न ऐसे शरीर के मोह में न पड़े, पड़ता हो तो रुक जाय और पड़ना ही बन्द कर दे । वह इन्द्रियों का दास होगा नहीं और इस प्रकार वैषयिक मोहाक्रमण से उत्पन्न होनेवाले दुःखों से बच जाय । 'मैं', के सम्यक् अनुभव के विकास में जैसे जैसे वह प्रगति करता जाता है वैसे वैसे सच्चे सुख की उसकी अनुभूति बढ़ती जाती है । सुख भौतिक साधनों पर ही अवलम्बित नहीं है, उसके उद्गम का सच्चा स्थान तो आत्मा है, मन है । अतः उसका निर्मलीकरण जितना अधिक होता है उतना ही स्वास्थ्य एवं सुख-शान्ति उच्च श्रेणी के प्रकट होते हैं । (६) अशुचि-भावना-शरीर की अशुचिता का विचार करना अशुचि-भावना है। इससे दो लाभ है : एक तो यह कि इससे कुल एवं जातिपांति का मद तथा छुआछूत का ढोंग दूर होता है । अशुचिभावना यह बताती है कि शरीर जैसे अशुचि पदार्थ में शुचिता-अशुचिता की कल्पना करना ही मुर्खता है। शरीर में तो सबके अशुचि ही है। दूसरा लाभ यह है कि शरीर को अशुचि समझने से शारीरिक भोगों पर की आसक्ति कम होती है। इस Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ८९ प्रकार शारीरिक अहंकार और आसक्ति को कम करने के लिये इस भावना का उपयोग करना चाहिए । परन्तु इसका अर्थ यही नहीं है कि अशुचिभावना के नाम स्वच्छता के बारे में भी लापरवाही रखी जाय । शरीर अशुचि है, फिर भी उसके बारे में लापरवाही नहीं रखनी चाहिए । उसकी सुयोग्य सँभाल रखकर (इस सँभाल में समुचित संयम भी विशेषरूप से आ जाता है) अच्छे शुभ कार्यों में उसका उपयोग करने का है । केवल दुष्कृत्य में उसे न लगाकर सत्कृत्य में ही उसे प्रवृत्त रखना चाहिए । इस तरह उसका सदुपयोग सुख-कारक तथा कल्याणकारक बनता है क्रमशः मोक्ष-साधन के विशिष्ट मार्ग पर चढ़ाता है तथा उस प्रवास को गतिशील बनाने में सहायक होता है। इसीलिये कहा गया है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर धर्म का प्रथम साधन है । वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शरीर एक ऐसा कारखाना है जो खाएपिए हुए द्रव्यों में से असारभूत तत्त्वों को बाहर निकालकर सारभूत तत्त्वों का संग्रह करता है । इस प्रकार अशुचि तत्त्वों का दूर करके योग्य तत्त्वों का संग्राहक होने से कौन कह सकता है कि वह जीवन साधना में उपयोगी साधन नहीं है ? कल्याण-भावना को भूलकर जब मनुष्य शरीर को केवल विषय-भोगों का साधन बनाता है तभी वह वस्तुतः अशुचि है । ऐसी अशुचिता न रखनी चाहिए । यही अशुचि-भावना का ध्यान में रखने योग्य मुद्दा है अर्थात् आत्मतत्त्व की उपेक्षा करके शरीर पर जो मोहासक्ति रखी जाती है उसे दूर करना ही अशुचि-भावना का उद्देश है । मनुष्य समुचित संयम रखकर सत्कर्मशील और परोपकार-परायण बने तो उसका शरीर 'नापाक' न समझा जाकर आत्मकल्याण के शुचिपथ पर ले जानेवाला बनता है। और इसी कारण से वह इतना अधिक शुचि समझा जाता है कि उसके अंगभूत पैर को कल्याणाभिलाषी लोग भक्तिभाव से छू कर वन्दन करते हैं, उस चरणस्पर्श को पावित्र्य का स्पर्श मानते हैं । (७) आस्रव-भावना-दुःख अथवा कर्मबन्ध के कारणों पर अथवा वैषयिक भोगों पर के राग में से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों पर विचार करना आस्रव-भावना है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन (८) संवर-भावना-दुःख अथवा कर्मबन्ध के कारणों को आने न देने का अथवा उन्हें रोकने का विचार करना संवर-भावना है । दुर्वृत्ति के द्वार बन्द करने के लिये सद्वृत्ति के गुणों का चिन्तन करना संवरभावना है। (९) निर्जरा-भावना--दुःख-दुर्गति की जड़ को उखाड डालने, उपस्थित दुःख को मानसिक समाधान के साथ सहन करने अथवा दुःखावह वासना का नाश करने के बारे में विचार करना निर्जराभावना है। ___ (१०) लोक-भावना—विश्व बहुत बड़ा है, उसमें हमारा मूल्य एक अणु-तुल्य है, तो फिर किस बात का हम घमण्ड कर सकते हैं ? ऐसा नम्रताप्रेरक विचार लोक-भावना है । विश्व की विशालता एवं विचित्रता का विचार करने से जो एक प्रकार का कुतूहल तथा हर्ष उत्पन्न होता है और जीवन के क्षुद्र स्वार्थों पर एक प्रकार का उपेक्षाभाव पैदा होकर जो पाप करने का उत्साह मन्द हो जाता है यही इस भावना का बडा लाभ है । यह भावना विनयादि गुणों को प्रकट करने में उपयोगी हो सकती है । __ (११) बोधिदुर्लभत्व-भावना-संसार में सब लाभ सुलभ है, परन्तु सत्य की प्राप्ति दुर्लभ है । मनुष्य-जन्म, सुशिक्षण एवं सुसंगति आदि दुर्लभ तो हैं ही, परन्तु ये सब मिलने पर भी मनुष्य अहंकारूपी पिशाच के अधीन होकर इन सबसे होनेवाले लाभ खो देता है । धर्म एवं सम्प्रदाय के वेश में हम अहंकार के पुजारी बनते हैं, जिससे विशुद्ध सत्य की उपलब्धि नहीं हो पाती । इस प्रकार 'बोधि' अर्थात् विशुद्ध सत्य की उपलब्धि के विषय में विचार करना बोधिदुर्लभत्व भावना है। (१२) धर्मस्वाख्यातत्व-भावना-धर्म का कथन किस प्रकार किया जाय जिससे वह 'स्वख्यात' अर्थात् अच्छी तरह से कहा हुआ समझा जायइस बात का विचार करना 'धर्मस्वाख्यातत्त्व-भावना' है । धर्म सबके लिये हितकारी होना चाहिए, उसमें सबका समान अधिकार होना चाहिए और भिन्नभिन्न और ऊपर-ऊपर से देखने पर विरोधी मालूम होनेवाले धर्म के उपदेशों के बीच सुसंगति स्थापित कर सके ऐसी समन्वयबुद्धि होनी चाहिए । जहाँकहीं सद्गुण दिखाई दे वहाँ से उसे ग्रहण करने की उदारता होनी चाहिए । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ये तथा ऐसी अन्य विशेषताएँ धर्म की स्वाख्यातता हैं । हमें यह समझना चाहिये कि धार्मिक संकुचितता और झुठे अहंकार से धार्मिक सत्य का अपमान होता है तथा एक दूसरे की तरफ अभाव अनादर, द्वेष और धिक्कार की कलुषित वृत्तियाँ जमने और बढ़ने लगती हैं। जिससे सब प्राणियों का कल्याण सिद्ध हो सकता है ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न धर्म का उपदेश सत्पुरुषों ने दिया है वह कितना बड़ा सद्भाग्य है-ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्व भावना है । भावनाका दूसरा नाम अनुप्रेक्षा है जिसका अर्थ होता है गहन चिन्तन । यदि चिन्तन तात्त्विक और गहरा हो तो उससे राग-द्वेष की वृत्ति उत्पन्न होने से रुक जाती है । अतएव ऐसे चिन्तन का संवर के (कर्मबन्धनिरोध के) उपायरूप से उल्लेख किया गया है । बन्ध-मोक्ष : 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः' (मैत्र्युपनिषद) यह सुप्रसिद्ध वचन सूचित करता है कि मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण है । और यह बात है भी सत्य । इसका तात्पर्य यही है कि मन की शुभ वृत्ति से शुभ कर्म और अशुभ वृत्ति से अशुभ कर्म का बन्ध होता है । परन्तु यदि क्रिया प्रवृत्ति के पीछे मन की वीतराग स्थिति अथवा विशुद्ध निष्कषाय वात्सल्यभाव हो तो ऐसे श्रेष्ठ शुद्ध शुभ्र मन से कर्मबन्ध नहीं होता, अपितु पराकाष्ठा पर पहुँची हुई मन की शुद्धता से मोक्ष प्रकट होता है । इसीलिये उपर्युक्त श्लोकार्ध में मन को मोक्ष का कारण कहा है। १. समग्र भावनाओं का साररूप उद्गार मनो वचो मे चरितं च सन्ततं पवित्रतावाहि यदा भविष्यति । तदा भविष्यामि यथार्थमुन्नतः कृतार्थजन्मा परमप्रसादभाक् ॥ -लेखक अर्थात्-जब मेरे मन, वचन और आचरण निरन्तर पवित्रता के धारक बन जाएँगे तभी मेरी सच्ची उन्नति होगी, तभी मेरा जन्म कृतार्थ होगा और तभी मैं अखण्ड प्रसाद का अनुभव करूँगा। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैनदर्शन इस पर से ज्ञात हो सका है कि क्रिया-प्रवृत्ति होने से ही कर्म का बन्ध हो जाता है ऐसा एकान्त नियम समझ लेने का नहीं है । क्रिया-प्रवृत्ति यदि रागद्वेषरहित हो तो वह कर्मबन्धक नहीं होती । केवली भगवान् सांसारिक मनुष्य की भाँति ही चलते फिरते हैं, बोलते हैं तथा अन्यान्य प्रवृत्ति करते हैं फिर भी उन्हें [सातावेदनीय कर्म के क्षणिक मात्र बन्ध की गिनती न होने से] कर्मबन्ध नहीं होता; क्योंकि वे वीतराग हैं । जो सच्चा वीतराग होता है वह विश्ववत्सल होता है, जगन्मित्र होता है, सब प्राणियों की ओर उसका वीतराग वात्सल्य बहता ही रहता है । केवली ऐसे ही होते हैं । वे निष्क्रिय नहीं होते, किन्तु उज्ज्वलप्रवृत्तिपरायण होते हैं । विश्वहित की उनकी प्रवृत्ति वीतरागभाव से युक्त (निष्कषाय वात्सल्यभाव से युक्त) होने से कर्मबन्धक नहीं होती। ___ यह बात सही है कि अनासक्त किंवा वीतरागभाव से विशुद्ध वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कार्य करना बहुत ऊँची स्थिति है और यह भी सच है कि साधारण विकास तक पहुँचे हुए मनुष्यों को यह भूमिका दुर्गम प्रतीत हो, फिर भी इस दुर्गम आदर्श को सुगम करने की दिशा में आहिस्ता आहिस्ता भी प्रयत्न तो करना ही रहा ।। शुभ कर्मबन्ध के पीछे जो शुभ वृत्ति-प्रवृत्ति होती है उसमें राग होता ही है और राग के प्रतिपक्षी द्वेष की भी प्रायः (दूसरे पक्ष में) सम्भावना है । राग का आवरण जहाँ होता है वहाँ स्वार्थ, पक्षपात, दूसरे की हित की ओर उपेक्षाभाव-ऐसा कूडा-करकट थोडा-बहुत प्रायः लगा होता है । अतः वह स्थिति कर्मबन्धक होती है और अपने स्वभाव के अनुसार होती है । ऐसा होने पर भी ध्यान में रखना चाहिए कि स्वपरहित के सत्कार्य करने के पीछे यदि शुभयोगरूप शुभ आस्रव हो तो वह भी आत्मा के लिये हितावह है । सत्कर्मों से बँधनेवाला सत्पुण्यरूप कर्म कल्याण के साधन जुटानेवाला होने से उसे प्रशस्त कोटि का, प्रशंसास्पद समझना चाहिए । सुयोग शरीरादि साधन और श्रेय साधक सत्संग जैसे शुभ संयोग प्राप्त करानेवाला [सत्पुण्यरुप] कर्म कितना महत्त्वशाली होगा? 'तीर्थंकर नाम कर्म जैसा महान और उच्चतम कोटि का कर्म आत्मा के जिस आस्रवरूप परिणाम से बँधता Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड है वह क्या कर्म स्तुतिपात्र होगा ? समग्र संसारी जीवनयात्रा में यद्यपि कर्मबन्ध के व्यापार और कर्मबन्ध का क्रम तो चालू ही रहता है फिर भी कम से कम इतना ख्याल तो विवेकी को अवश्य रखना चाहिए कि कलुषित अथवा पापरूपकर्म का बन्ध न हो । बाकी, सत्कर्म द्वारा सत्पुण्य का बन्ध हो तो उससे डरने या घबराने की आवश्यकता नहीं । सामान्यतः लोग ऐसा समझ बैठे हैं कि अमुक कार्य न करने से, प्रवृत्तिमात्र का त्याग कर देने से हमें पुण्य-पाप की छूत नहीं लगेगी। उनका ऐसा ख्याल होता है कि शुभ (हितकारक) कार्य करने से पुण्य-कर्म का बन्ध होता है और यह बन्ध सोने की शृंखला जैसा है, और इसी प्रकार अशुभ (अहितकर) कार्य करने से पापकर्म बँधता है और यह लोहे की शृंखला जैसा है : अर्थात् शुभ या अशुभ कार्य करने से कर्मबन्ध तो होता ही है और आत्मा की मुक्ति तो कर्मरूपी जंजीर के बन्धन से मुक्त होने पर होती है, इसके सिवाय नहीं । इस प्रकार के ख्याल से वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जरूरी प्रवृत्तियों के अतिरिक्त दूसरी सब प्रवृत्तियाँ छोड़ देते हैं और अकर्मण्य बन कर मोक्ष की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं परन्तु आलस्यमय १. श्री यशोविजयजी उपाध्याय प्रथम द्वात्रिंशिका के १७वें श्लोक में कहते हैं नैवं यत् पुण्यबन्धोऽपि धर्महेतुः शुभोदयः । वह्निर्दाह्यं विनाश्येव नश्वरत्वात् स्वतो मतः ॥ अर्थात्-पुण्यबन्ध (शुभ पुण्यबन्ध) भी शुभ उदयवाला और धर्म का कारण है । यह मुक्ति या निर्जरा का विरोधी नहीं है। जिस तरह आग ईंधनादि को जलाकर स्वयं शान्त हो जाती है उसी तरह शुभ पुण्य पाप का नाश करके स्वयमेव क्षीण हो जाता है । इसी द्वात्रिंशिका के २२वें श्लोक की टीका में वे कहते हैं कि शुभ पुण्य मोक्षमार्ग-विहार में बाधक नहीं होता । अतएव ऐसे पुण्य से मुक्ति की सुलभता होती है ऐसा समझना चाहिए । पुण्यात्मा शुभ पुण्य के उदय से प्राप्त भोगों में आसक्त नहीं होता किन्तु वह स्वस्थ रहता है, धर्मविहारी रहता है, राजयोगी बना रहता है और वह पवित्रबुद्धि जाग्रत मुमुक्षु अवसर आने पर मोक्षसाधन के महान् मार्ग पर चढ़ जाता है तथा उत्तरोत्तर प्रगति करता है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैनदर्शन जीवन शैतान के प्रवेश के लिये दरवाजे खोल देता है । प्रत्येक मनुष्य कुछन-कुछ प्रवृत्ति अवश्य करता है । कर्म किए बिना उससे रहा ही नहीं जा सकता । किसी समय बाह्य रूप से भले ही वह निष्क्रिय सा दीखे फिर भी उसका मन तो अपना कार्य करता ही रहता है । चञ्चल मन का यह स्वभाव ही है । अतः कर्म मात्र से छुटकारा ले लेने का बाह्य दिखावा केवल दम्भ ही बन जाता है । अशुभ प्रवृत्ति तो छोड़ ही देने की है, परन्तु ऐसा कब हो सकता है ? जब मन को शुभ प्रवृत्ति में रोका जाय तब । जिस प्रकार पैर में चभे हए काँटे को निकालने के लिये हम सूई का उपयोग करते हैं उसी प्रकार अशुभ प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के लिये शुभ प्रवृत्तियों का आश्रय लेने की आवश्यकता है । काँटा निकालने के बाद काँटे को तो फेंक देते हैं परन्तु सुई को भविष्य के उपयोग के लिये सँभालकर रख देते हैं उसी प्रकार अशुभ प्रवृत्ति की ओर मन की वृत्ति जब तक सर्वथा नष्ट न हो तब तक शुभ प्रवृत्तियाँ त्याज्य नहीं होती ।। शुभ प्रवृत्ति के बन्धन से छुटकारा पाने के लिये उसका त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वैसी प्रवृत्ति के पीछे रहे हुए आशय को शुभ में से शुद्ध रूप में परिणत किया जाय । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन कार्य है परन्तु मुक्ति जैसी दुष्प्राप्य वस्तु प्राप्त करने के लिये उसका मार्ग भी कठिन ही होगा । प्रस्तुत में कहने का अभिप्राय यह है कि प्रवृत्ति छोड़ने से नहीं छूटती । जब उसकी आवश्यकता नहीं रहती तब वह स्वतः स्वाभाविकरूप से ही छूट जाती है । परन्तु जब तक जीवनप्रवाह स्वभावतः प्रवृत्तिगामी है तब तक मनुष्य को असत्प्रवृत्ति का त्याग करके सत्प्रवृत्तिशील बनना चाहिए । असमय में किए हुए प्रवृत्तित्याग में कर्तव्यपालन के स्वाभाविक एवं सुसंगत मार्ग से मनुष्य च्युत हो जाता है । उसमें विकास-साधन की अनुकूलता नहीं है, जीवन की विडम्बना मात्र है। एक प्रवृत्ति में से दूसरी प्रवृत्ति में चले जाना भी प्रायः निवृत्ति का Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड काम करता है । इस प्रकार की प्रवृत्तिधारा जीवन को आनन्दमय स्थिति में रख सकती है। अलबत्ता, प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति का क्षेत्र अपनी-अपनी योग्यता एवं रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। किन्तु यह स्पष्ट ही है कि मानसिक या बौद्धिक कार्यकर्ता के लिए भी समुचित शारीरिक श्रम उसके जीवन के उल्लास के लिये अपेक्षित ही है । मुक्ति अथवा कल्याण का मार्ग एकान्त निवृत्ति अथवा एकान्त प्रवृत्ति नहीं है । निवृत्ति उसका योग्य समय आने पर स्वत: उपास्य बन जाती है । प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों परस्पर एक-दूसरे के साथ संगत होकर जीवन में रहें तभी सच्चे जीवन का विकास हो सकता है । सकता है । निवृत्ति-प्रवृत्ति में चैतन्य लाने के लिये है। जिस प्रकार एक प्रवासी विश्राम लेने के लिये किसी स्थान पर बैठता है और आराम लेने के पश्चात् पुन: चल पड़ता है उसी प्रकार विश्रान्तिरूप योग्य निवृत्ति का अवलम्बन प्रवृत्ति को सतेज और प्राणमय बनाने के लिये है । अथवा जिस प्रकार ऊँचा मकान बनाने के लिये नींव गहरी डालनी पड़ती है उसी प्रकार ऊँची प्रवृत्ति की साधना के लिये निवृत्ति लेनी पड़ती है । इस प्रकार समुचित निवृत्ति द्वारा पोषित और संवर्धित विवेव प्रवृत्ति, सत्कर्मशीलता, स्व-परहितकर कार्यपरायणता अथवा अनासक्त कर्मयोग स्थायी, स्वस्थ एवं मधुर आनन्द का झरना बन जाता है । ऐसा झरना चाहे जैसी उन्नत कल्पना के आधार पर खडी की गई निवृत्ति [निरुद्देश और अकर्मण्यतारूप निवृत्ति] नहीं बन सकती । पहले कहा जा चुका है कि अहिंसा का अर्थ हिंसा न करना, पापाचरण न करना ऐसा केवल निषेधात्मक (निवृत्तिररूप) नहीं है, परन्तु प्राणीदया, भूतवात्सल्य, परोपकारिता और सदाचरणरूप विधेयात्मक (प्रवृत्तिरूप) भी उसका अर्थ है । जिस प्रकार एक ढाल के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार धर्म के दो पहलू हैं : एक प्रवृत्ति और दूसरी निवृत्ति-अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति । इस तरह धर्म प्रवृत्ति-निवृत्ति-उभयात्मक है । हमें यह जानना चाहिए कि चारित्र के दो अंग है : जीवन में रहे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैनदर्शन हुए अथवा आनेवाले दोषों को दूर करना यह पहला अंग है । दूसरा अंग आत्मा के सद्गुणों का उत्कर्ष करना है । इन दोनों अंगों के लिये किये जानेवाले सम्यक् पुरुषार्थ में ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की कृतार्थता है। ये दोनों अंग एक-दूसरे के साथ इस तरह से संयुक्त हैं कि पहले के बिना दूसरा शक्य ही नहीं है और दूसरे के बिना पहला ध्येयशून्य हो जाने के कारण निरर्थक जैसा लगता है । अतः प्रथम अंग में ही चारित्र की पूर्णता न मानकर उसके उत्तरार्ध अथवा उसके साध्यरूप दूसरे अंग का भी विकास करना चाहिए । इस प्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों के समुचित साहचर्य में ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि है । जैन-जैनेतर दृष्टि से आत्मा : अध्यात्म का विषय आत्मा का विषय है, अतः उसमें आत्मस्वरूप की मीमांसा मुख्यरूप से होती है । भिन्न-भिन्न दृष्टियों से आत्मस्वरूप का विचार करने पर उसके बारे में उत्पन्न होनेवाली शंकाएँ दूर हो जाती हैं और आत्मा की सच्ची पहचान हो जाने से उस पर अध्यात्म की नींव रखी जा सकती है । यद्यपि यह विषय अत्यन्त विस्तृत है फिर भी इसके बारे में एक दो बातें जरा देख लें । कई दार्शनिक' आत्मा को केवल शरीर में ही स्थित न मान कर उसे विभु (शरीर के बाहर भी सर्वव्यापक) मानते हैं । अर्थात् प्रत्येक शरीर की प्रत्येक आत्मा सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है—ऐसा उनका मन्तव्य है । इसके अतिरिक्त उनका ऐसा भी मानना है कि ज्ञान आत्मा का अपना वास्तविक स्वरूप नहीं है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय एवं मन के सम्बन्ध से आगन्तुक [उत्पन्न होने वाले] आत्मा का अवास्तविक धर्म है । इन दोनों सिद्धान्तों में जैन-दार्शनिक अलग पड़ते हैं । पहली बात अर्थात् आत्मा की व्यापकता के बारे में उनका मानना है कि प्रत्येक शरीर १. नैयायिक, वैशेषिक तथा सांख्य । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ९७ का भिन्न-भिन्न आत्मा उस शरीर में ही व्याप्त हो कर रहा है । शरीर के बाहर उस आत्मा का अस्तित्व नहीं है । उनका कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का अनुभव केवल शरीर में ही होने के कारण उन गुणों का अधिष्ठाता आत्मा भी केवल शरीर में ही होना चाहिए । दूसरी बात के सम्बन्ध में जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि ज्ञान आत्मा का वास्तविक धर्म है, आत्मा का असल स्वरूप है । आत्मा स्वभावतः ज्ञानमय है । अतः इस मान्यता के अनुसार शरीर, इन्द्रिय एवं मन का सम्बन्ध छुट जाने के बाद मुक्त अवस्था में भी आत्मा का स्वभावसिद्ध ज्ञानस्वरूप अवस्थित ही रहता है । अर्थात् आत्मा अपने सच्चे स्वरूप में ज्ञानमय होने के कारण मुक्त अवस्था में उसका निवारण ज्ञान' पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है; जबकि ज्ञान को आत्मा का वास्तविक धर्म नहीं मानने वालों के मत के अनुसार मुक्तिअवस्था में आत्मा ज्ञानशून्य मानना पड़ता है । आत्मा के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों की अपेक्षा जैनों के भिन्न सिद्धान्त इस प्रकार बतलाए गए हैं "चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता, स्वदेह परिमाणः, प्रति १. जिस वस्तु के गुण जहाँ दिखते हों वहीं वह वस्तु होनी चाहिए । घट का रूप जहाँ दिखता हो वहीं घट हो सकता है । जिस स्थान पर घट का रूप दिखता हो उस स्थान से भिन्न स्थान में उस रूपवाला घट कैसे हो सकता है ? यही बात श्री हेमचन्द्राचार्य अपनी द्वात्रिंशिका में 'यत्रैव यो दृष्टिगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत्' इन शब्दों से कहकर आत्मा के ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का शरीर में ही अनुभव होने के कारण उन गुणों का स्वामी आत्मा भी शरीर में ही रहा सिद्ध होता है, न कि शरीर के बाहर-ऐसे जैन सिद्धान्त का समर्थन करते हैं । २. बादलों में छुपे हुए सूर्य का चकाचौंध करनेवाला प्रकाश भी बादलों के कारण मन्द हो जाता है और वही मन्द प्रकाश सच्छिद्र परदेवाले अथवा आवरणयुक्त घर में अधिक मन्द हो जाता है, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सूर्य जाज्वल्यमान प्रकाशवाला नहीं है । इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानप्रकाश या वास्तविक सच्चिदानन्द स्वरूप का भी शरीर-इन्द्रिय-मन के बन्धन से अथवा कर्मसमूह के आवरण से यदि पूर्णरूप से अनुभव न हो, मन्द अनुभव हो, विकारयुक्त अनुभव हो तो इससे यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ क्षेत्रं भिन्न: पौद्गलिकादृष्टिवांश्चाऽयम् ||" इस सूत्र में आत्मा को प्रथम विशेषण 'चैतन्यस्वरूपवाला' दिया गया है, अर्थात् ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। इससे पहले कहे अनुसार ज्ञान को आत्मा का स्वरूप न माननेवाले नैयायिक आदि दार्शनिक जुदा पड़ते हैं । 'परिणामी ' [ नई-नई योनियों में भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण करने के कारण, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भी परिवर्तनशील होने के कारण परिणामस्वभाववाला'], 'कर्ता' और 'साक्षात् भोक्ता' इन तीनों विशेषणों से, आत्मा को कमलपत्र की भाँति निर्लेप — सर्वथा परिणामरहित, क्रियारहित माननेवाले और उसे साक्षात् भोक्ता न माननेवाले सांख्य अलग पड़ते हैं । नैयायिक आदि भी आत्मा को परिणामी न मानकर कूटस्थ — नित्य मानते हैं । ' मात्र शरीर में ही व्याप्त' इस अर्थवाले 'स्वदेहपरिमाण' इस विशेषण से, आत्मा को सर्वत्र व्याप्त माननेवाले वैशेषिक- नैयायिक-सांख्य अलग पड़ते हैं । 'प्रत्येक शरीर में भिन्न आत्मा' इस अर्थवाले 'प्रतिक्षेत्र' भिन्न' विशेषण से, एक ही आत्मा मानने वाले अद्वैतवादी वेदान्ती अलग पड़ते हैं । और अन्तिम विशेषण से पौद्गलिकद्रव्यरूप अदृष्टवाला आत्मा कहने से कर्म को अर्थात् धर्म-अधर्म को आत्मा का विशेषण गुण माननेवाले नैयायिक - वैशेषिक और कर्म को तथाविध परमाणु द्रव्यों का समूहरूप नहीं माननेवाले वेदान्ती आदि अलग पड़ते हैं । जैनदर्शन 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' इस वाक्य का वास्तविक अर्थ तो यह है कि जगत् में दृश्यमान सब भौतिक पदार्थ विनाशी हैं, अतः उन्हें मिथ्या अर्थात् असार समझना चाहिए; केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही आराध्य है, उसी की आराधना करना यही सत्य है । उक्त वाक्य का यह अर्थ अथवा उसमें से निष्पन्न यह उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अनादि मोहवासना के भीषण सन्ताप को शान्त करने के लिये ऐसा उपदेश देना प्राचीन महर्षि आवश्यक १. वादिदेवसूरिकृत 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक न्यायग्रन्थ के सातवें परिच्छेद का ५६ वाँ सूत्र ! २. क्षेत्र अर्थात् शरीर । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ९९ I समझते थे । जगत् के पदार्थ शृङ्ग की भाँति सर्वथा असत् हैं ऐसा अर्थ उक्त वाक्य का करना ठीक नहीं, परन्तु जगत् मिथ्या है अर्थात् असार है—यही अर्थ यथार्थ और सबके अनुभव में आ सके ऐसा है । दृश्यमान बाह्य पदार्थों की नि:सारता का वर्णन करते हुए जैन महात्माओं ने भी उन्हें 'मिथ्या' कहने में कुछ भी बाकी नहीं रखा, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दुनिया में ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ ही नहीं है । संसार का सब प्रपंच भंगुर और विनश्वर होने से असार है अथवा उस पर का मोह असार है - इस सत्य पर विशेष रूप से भार देने के लिये 'मिथ्या' विशेषण है । परन्तु इससे सर्वानुभवसिद्ध जगत् को खरविषाणवत् सर्वथा असत् नहीं समझना चाहिए । दुनिया में दिखाई देनेवाले भौतिक पदार्थ सद्भूत पदार्थ है । वे दिखते हैं यह झूठी ही प्रतीति है ऐसा नहीं है । जब और जहाँ रस्सी सर्परूप से ज्ञात हो तब और वहाँ सर्प असत् है, अतः उसे समझना भ्रम है, परन्तु सच्चा सर्प सत्सर्प है, अतः उसे सर्प समझना भ्रम नहीं है, यह सच्ची समझ है । कर्म की विशेषता : अध्यात्म का विषय आत्मा और कर्म से सम्बन्ध रखनेवाले विस्तृत विवेचनों से परिपूर्ण है । अब तक आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में हमने किंचित् अवलोकन किया । अब कर्म की विशेषता के बारे में भी थोड़ा देख लें । जड़ पुद्गल द्रव्य में भी अनन्त शक्ति है । पुद्गलरूप 'कर्म' जड़ होने पर भी आत्मा के साथ अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होने के कारण और इन दोनों शक्तियों के संयुक्त प्रभाव के परिणामस्वरूप आत्मा पर अपना जबरदस्त प्रभाव डालता है अथवा जबरदस्त प्रभाव डालने का सामर्थ्य रखता है । जिस प्रकार अच्छी-बुरी वस्तुएँ शरीर में जा कर अच्छा-बुरा प्रभाव डालती है उसी प्रकार अच्छे-बुरे कर्मों से (विचार - वाणी वर्तन से ) खास तरह के १. सब असत् अर्थात् मृगजल की भाँति मिथ्या हो तो बन्ध-मोक्ष का, सुख-दुःख का, सौजन्य - दौर्जन्यका अथवा सत्कर्म-असत्कर्म का भेद - जैसा कुछ रहेगा ही नहीं । तब तो सत्यभूत सिद्धान्त के अथवा सन्मार्ग के उपदेश की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । कोई कर्तव्य ही नहीं रहेगा और कोई सवाल भी नहीं रहेगा । अब असत् होने पर असत्-वाद भी क्या असत् नहीं ठहरेगा ? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनदर्शन 1 'संस्कार' आत्मा में जम जाते हैं, जो खास तरह के भौतिक अणुसंघात के संयोगरूप होते हैं । ये ही शुभाशुभ कर्म हैं जो आत्मा को शुभाशुभ फल चखाते हैं । प्राणियों में, मनुष्यों में दिखाई देने वाली नानाविध विचित्रताएँ इन शुभाशुभ कर्मों पर आश्रित हैं । I संसार में दूसरे जीवों की अपेक्षा मनुष्य की ओर हमारी नजर जल्दी जाती है और मानवजाति का हमें सदैव परिचय है इससे उसके बारे में मनन करने पर कितने ही आध्यात्मिक विषयों में विशेष खुलासा हो सकता है । : एक सदाचार-सम्पन्न जगत् में मनुष्य दो प्रकार के मालूम पड़ते हैं और दूसरे उनसे विपरीत । इन दोनों प्रकार के मनुष्यों को भी दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं—सुखी और दुःखी । इस प्रकार मनुष्यों के कुल चार विभाग हुएँ : १. सदाचारी सुखी, २. दुराचारी सुखी, ३. सदाचारी दुःखी और ४. दुराचारी दुःखी । ऐसे चारों प्रकार के मनुष्य हमें इस धरातल पर दृष्टिगोचर होते हैं । यह स्पष्ट है कि ऐसी विचित्र स्थिति होने में पुण्य-पाप की विचित्रता कारणरूप है । अतः इन चार प्रकार के मनुष्यों को लेकर पुण्य और पाप के सामान्यतः दो-दो प्रकार बतलाए गए हैं और वे इस प्रकार हैं : १. पुण्यानुबन्धी पुण्य, २. पापानुबन्धी पुण्य, ३. पुण्यानुबन्धी पाप और ४. पापानुबन्धी पाप । पुण्यानुबन्धी पुण्य- जन्मान्तर के जिस पुण्य के उदय के सुखोपभोग करने पर भी धर्मसाधन में अभिरुचि रहे, पुण्य कार्य करने में प्रमोद हो और सदाचारी जीवन व्यतीत किया जाय ऐसे पुण्य को 'पुण्यानुबन्धी पुण्य' कहते हैं। क्योंकि ऐसा पुण्य (पुण्योदय) वर्तमान जीवन में सुख देने के साथ ही साथ जीवन को शुभ अर्थात् पुण्यशाली बनाने में भी सहायक होता है । 'पुण्य का अनुबन्धी' अर्थात् परलोकसाधक पुण्यसाधना के साथ सम्बन्ध रखनेवाला (भविष्य के अच्छे परलोक की पुण्य क्रिया में बाधक न होनेवाला अनुकूल रहनेवाला) जो पुण्य ( पुण्योदय) वह पुण्यानुबन्धी पुण्य है । यह पवित्र पुण्य है । पापानुबन्धी पुण्य—— जन्मान्तर के जिस पुण्य के उदय से सुख तो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १०१ मिले परन्तु साथ ही पापासक्ति भी रहे—ऐसे पुण्य को 'पापानुबन्धी पुण्य' कहते हैं । क्योंकि यह पुण्य (पुण्योदय) वर्तमान जीवन में सुख देने के साथ ही साथ जीवन को पतित करने में सहायभूत होता है । पाप का अनुबन्धी अर्थात् पारलौकिक दुर्गति के उत्पादक पापाचरण के साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो पुण्य (पुण्योदय) वह पापानुबन्धी पुण्य है । इसके योग से मनुष्य सुख के साधन प्राप्त करता है, परन्तु साथ ही भावी परलोक को बिगाडनेवाला दुष्कृत्यों में आसक्त रहता है । यह नापाक पुण्य है । पुण्यानुबन्धी पाप-जन्मान्तर के जिस पाप के उदय से दरिद्रता आदि दुःख सहने पर भी पापाचार का सेवन न किया जाय और पुण्यमार्गरूप धर्मसाधन में उद्यत रहा जाय ऐसे पाप को 'पुण्यानुबन्धी पाप कहते हैं । क्योंकि यह पाप (पापोदय) वर्तमान जीवन में दुःखदायी होने पर भी जीवन को पापी बनाने में निमित्तभूत नहीं होता । 'पुण्य का अनुबन्धी' अर्थात् परलोकसाधक पुण्यसाधना के साथ प्रतिकूल न होनेरूप सम्बन्ध रखनेवाला . जो पाप (पापोदय) वह पुण्यानुबन्धी पाप है । यह भविष्य के अच्छे परलोक के लिये की जानेवाली पुण्य-क्रिया में बाधक नहीं होता। पापानुबन्धी पाप-जन्मान्तरसंचित जिस पाप के उदय से दरिद्रता आदि दुःख सहन करने पर पाप करनेकी बुद्धि दूर न हो और अधर्म के कार्य करने में तत्परता रहे ऐसे पाप को 'पापानुबन्धी पाप' कहते हैं । क्योंकि यह पाप (पापोदय) वर्तमान जीवन में दुःख देने के साथ ही जीवन को अधम बनाने में भी सहायक होता है । 'पाप का अनुबन्धी' अर्थात् पारलौकिक दुर्गति के उत्पादक पापाचरण के साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो पाप (पापोदय) वह पापानुबन्धी पाप है । १. इन पुण्यानुबन्धी पुण्य आदि चार प्रकारों के बारे में आचार्य हरिभद्र ने अपने अष्टकप्रकरण नामक ग्रन्थ के २४वें अष्टक में जो कुछ कहा है उसका उल्लेख यहाँ पर करना योग्य होगा । वे कहते हैं कि "गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः । याति यद्वत् सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥१॥ —जिस प्रकार कोई मनुष्य अच्छे घर में से अधिक अच्छे घर में (रहने के लिये) जाय Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनदर्शन उसी प्रकार प्राणी सद्धर्म के प्रभाव से अच्छे भव में से अधिक अच्छे भव में जाता यह सद्धर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पुण्य के सुख सम्पत्तिरूप फल भोगने के समय का है । यह पुण्य (पुण्योदय) पुण्यानुबन्धी पुण्य है; क्योंकि यह सद्धर्म के आचरण के (पुण्य के आचरण के) साथ संयुक्त है । गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादितरन्नरः याति यद्वदसद्धर्मात् तद्वदेव भवाद्भवम् ॥२॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य अच्छे घर में से खराब घर में (रहने) जाता है उसी प्रकार प्राणी अधर्म के योग से अच्छे भव में से बुरे भव में जाता है। यह अधर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित विचित्र पुण्य के श्रीमत्त्वादिरूप फल भोगने के समय का है । यह पुण्य (पुण्योदय) पापानुबन्धी पुण्य है, क्योंकि यह पापाचरण से संयुक्त है। गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादधिकं नरः । याति यद्वन्महापापात् तद्वदेव भवाद्भवम् ॥३॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य खराब घर में से अधिक खराब घर में (रहने) जाय उसी प्रकार प्राणी महापाप के योग से खराब भव में से अधिक खराब भव में जाता है। यह अधर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पाप के दरिद्रता आदि दुःखरूप फल भोगने के समय का है । यह पाप (पापोदय) पापानुबन्धी पाप है, क्योंकि यह पापाचरण से संयुक्त है। गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादिनरन्नरः । याति यद्वत् सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥४॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य खराब घर में से अच्छे घर में (रहने के लिये) जाय उसी प्रकार प्राणी सद्धर्म के प्रभाव से खराब भव में से अच्छे भव में जाता है । यह सद्धर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पाप के दारिद्र्य आदि दुःखरूप फल भोगने के समय का है । यह पाप (पापोदय) पुण्यानुबन्धी पाप है क्योंकि यह सद्धर्माचरण से (पुण्याचरण से) संयुक्त है। इन चार श्लोकों के बाद पाँचवें श्लोक में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि यह सब जान कर मनुष्य को पुण्यानुबन्धी पुण्य का आचरण करना चाहिए जिससे अक्षय्य सकल सम्पत्ति प्राप्त हो । इसके बाद छठे श्लोक में वे कहते हैं कि रागादि क्लेशों से रहित Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १०३ संक्षेप में पूर्वजन्म के जिस पुण्य के फल (अच्छे फल) का उपभोग करते समय नया पुण्य उपार्जन किया जाय उसका नाम 'पुण्यानुबन्धी पुण्य' है । पूर्वजन्म के जिस पाप के फल (बुरे फल) का उपभोग करते समय शान्ति, समता, पश्चात्ताप एवं सत्कर्म द्वारा पुण्य उपार्जित किया जाय उसे 'पुण्यानुबन्धी पाप' कहते हैं । पूर्वजन्म के जिस पुण्य के फल का उपभोग करते समय मत्त - प्रमत्त होकर जो नये-नये पाप किए जाते हैं, उसका नाम 'पापानुबन्धी पुण्य' है । और पूर्वजन्म के जिस पाप के फल का उपभोग करते समय नया पाप उपार्जन किया जाय उसे 'पापानुबन्धी पाप' कहते हैं । I संसार में जो मनुष्य - नरनारी सुखी हैं और धर्म्य जीवन बिताते हैं उन्हें पुण्यानुबन्धी पुण्यवाला समझना । सुखसामग्री उपलब्ध होने पर भी जो पापाचरण में आसक्त हैं उन्हें पापानुबन्धी पुण्यवाले जानना । दरिद्रतादि कष्ट की हालत में होने पर भी जो पुण्य - पथ पर विहरते हैं वे पुण्यानुबन्धी पापवाले चित्त - रत्न प्राणी का आन्तरिक धन है । यह धन जिसका चुरा जाता है उसे अनेक विपत्तियाँ घेर लेती हैं । इसके बाद आठवें श्लोक में वे कहते हैं कि भूतदया, सदाचारिता, और शमभाव तथा ये पुण्यानुबन्धी पुण्य प्राप्त करने के मार्ग हैं । महात्मा बुद्ध एक बार जब जेतवन में विहर रहे थे, उस समय एक राजा ने उन्हें पूछामहाराज ! आप कहते हैं कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं । यह किस तरह ? समझाईए । ' उन्होंने जवाब में कहा— -- मनुष्य चार प्रकार के हैं एक तिमिर में से तिमिर की ओर जानेवाले, दूसरे तिमिर में से ज्योति की ओर जानेवाले, तीसरे ज्योति में से तिमिर की तरफ जानेवाले और चौथे ज्योति में से ज्योति की तरफ़ जानेवाले । जो चाण्डाल, निषाद आदि दीन-हीन कुल में जन्मे हैं और सारी ज़िन्दगी दुष्कृत्यों में व्यतीत करते हैं वे तिमिर में से तिमिर की ओर जा रहे हैं । दूसरे जो दीन-हीन कुल में पैदा होने पर भी मनसा, वचसा, कर्मणा सत्कर्म करते रहते हैं, वे तिमिर में से ज्योति की ओर जा रहे हैं। तीसरे जो उच्च गिने जानेवाले कुल में जन्मे हैं। और सुखी हैं, किन्तु दुष्कर्मपरायण रहते हैं, वे ज्योति में से तिमिर में जा रहे हैं । और, चौथे जो प्रशस्त कुल में जन्मे हैं, सुखी हैं और साथ ही सदा सदाचरणपरायण हैं वे ज्योति में से ज्योति में जा रहे हैं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनदर्शन हैं और दरिद्र-दुःखी होने पर भी पापपरायण हैं वे पापानुबन्धी पापवाले हैं । विश्वासघात, हत्या, चोरी-डकैती, दगा आदि से पैसे वाले बन कर बडे-बडे बंगलों में भोगविलास करनेवाले कुछ मनुष्यों को देख कर अदूरदृष्टि मनुष्य कहने लगते हैं कि 'देखो भाई, पाप करनेवाले कैसी मौज उड़ाते हैं और धार्मिक के घर में तो चूहे चौकड़ी भरते हैं । अब कहाँ रहा धर्म कर्म ?, परन्तु यह कथन कितना अज्ञानपूर्ण है यह तो उपर्युक्त कर्मविषयक विवेचन पर विचार करने से अवगत हो सकता है । इस जीवन में अनेकानेक पाप करने पर भी पूर्वोपार्जित पुण्यबल का प्रभाव जब तक रहता है तब तक सुखोपभोग शक्य है; परन्तु यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि प्रकृति का राज्य यह कोई 'पोपाबाई' का राज्य नहीं है कि किया-कराया सारा पाप निष्फल ही हो । प्रकृति का साम्राज्य सुनियमित है। उसके सूक्ष्म तत्त्व अगम्य हैं । मोह के अन्धकार में भटकता हुआ प्राणी चाहे जैसी कल्पनाएँ कर के अपने आपको निर्भय क्यों न समझे अथवा निर्भय रहना चाहे, परन्तु यह निश्चित है कि प्रकृति के अटल शासन में से कोई भी अपराधी न तो अब तक छिटक सका है न छिटक सकेगा । साथ ही, यह अवश्य ख्याल रखना चाहिए कि इस जीवन में किए हुए उग्र पापों का फल इस जीवन में भुगतना पड़ता है । १. सत्यमत्युग्रपापानां फलमत्रैव लभ्यते--इस प्रकार का वचन आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र प्रकाश २, श्लोक ३० पर की कथा में मगधेश्वर श्रेणिक राजा के पुत्ररत्न अभयकुमार के मुख से कहलाते हैं । उग्र पाप की भाँति उग्र पुण्य का फल भी इस जन्म में मिल सकता है। "जं जेण कर्य कम्मं अनभवे इह भवे सत्तेणं । तं तेण वेइअव्वं निमित्तमित्तं परो होइ ॥" यह शास्त्र-गाथा कहती है कि बँधा हुआ कर्म भुगतना पड़ता है, चाहे वह अन्य भव में बाँधा हो अथवा इस भव में । इस कर्म की वेदना का प्रयोजक प्राणी तो निमित्तमात्र है। इस उल्लेख पर से विदित होता है कि इस भव के कर्म का उदय इस भव में भी हो सकता है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १०५ पुण्य पाप की विवेचना के अवसर पर सुख और उससे सम्बद्ध धन के विषय में कुछ स्पष्टता करना उचित है । धन के प्राचुर्य से सुख नहीं नापा जा सकता । यह नाप गलत नाप है । धन का अतिसंग्रह न केवल पाप ही है, वह अतिदुःखदायी चिन्ताओं को उत्पन्न करके मन की शान्ति भी हर लेता है । अतः उसका सुख परिभाषा में कैसे समावेश हो सकता है ? मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ पूर्ण हों, उसे निवासस्थान आदि मिले और वह भी न्यायमार्ग से तथा जो उपलब्ध हो उसमें वह सन्तुष्ट रहे और यदि न्यायमार्ग द्वारा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो तो सेवा - परोपकार करने की वृत्ति रहे तो उसे सुख कह सकते हैं । क्योंकि ऐसा करने से वह चित्त की शान्ति को न खोकर मन में एक प्रकार का आनन्द अनुभव करता है । अवश्य, धन जीवननिर्वाह का साधन होने से सुख - सामग्री की प्राप्ति में उपयोगी है, परन्तु वह न्यायोपार्जित होना चाहिए और अपनी तथा अपने कुटुम्ब की उचित जरुरतों की पूर्ति के बाद यदि बचे तो परोपकार में उसका व्यय करना चाहिए— इतनी उपयोगिता के अतिरिक्त उसकी अधिक प्रतिष्ठा करना ठीक नहीं और आध्यात्मिक दृष्टि से तो वह अनुचित ही है । जीवन - विकास की साधना अथवा धर्म की उपासना का सम्बन्ध परिग्रह के साथ नहीं किन्तु अपरिग्रह अथवा परिग्रहपरिमाण के साथ है । केवल धन को पुण्य का चिह्न नहीं समझना चाहिए । अन्यायोपार्जित धन दौर्भाग्य का सूचक है । पुण्य का सूचक और सुखदायक धन न्यायोपार्जित धन है । धनवान की अपेक्षा सद्गुणी का स्थान कहीं ऊँचा है इस प्रकार के दृष्टिसंस्कार का समाज में प्रसार होना आवश्यक । परिमित परिग्रह के सुसंस्कार समाजव्यापी होने पर समाज की सुखशान्ति एवं नैतिक प्रभा खिल उठेगी । 1 अब, आचार-व्यवहार की शुद्धि आवश्यक होने से इस विषय में भी तनिक दृष्टिक्षेप करके इस दूसरे खण्ड को पूर्ण करें । जैन आचार : साधुधर्म एवं गृहस्थधर्म का सामान्य दिग्दर्शन पहले किया जा चुका Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनदर्शन है, फिर भी यहाँ पर आचार के विषय में कुछ विशेष बातें लिखना आवश्यक प्रतीत होता है । प्रथम साधुधर्म से सम्बन्ध रखनेवाले आचार को संक्षेप में देखें । साधुओं का आचार : जैन-आचार शास्त्रों में साधु के लिये रेलगाड़ी, मोटर, एरोप्लेन, सायकल, ट्राम, बस, इक्का, गाड़ी, घोड़ा, ऊँट आदि किसी भी वाहन पर सवारी करना निषिद्ध है । साधु को पाद-विहार करने की तथा उबालकर गरम किया हुआ पानी पीने की आज्ञा है ।। जैन साधु को आग जलाने का, आग सेकने का अथवा आग से रसोई करने का अधिकार नहीं है । भिक्षा-माधुरी-वृत्ति करने का उन्हें आदेश है । गृहस्थों को किसी प्रकार की तकलीफ अथवा संकोच न हो उस भाँति भिन्न-भिन्न घरों में से वे भिक्षा लेते हैं । साधु के लिये विशेष रसोई बनाना और वैसी रसोई लेना शास्त्रानुकूल नहीं है । इसमें से यही उद्देश १. यदि मार्ग में नदी आए और दूसरा स्थल-मार्ग वहाँ न हो तो उसे नाव में बैठने की आज्ञा है। महाभारत, मनुस्मृति आदि वैदिक हिन्दुधर्म के ग्रन्थों में भी संन्यासियों के लिये ऐसा आदेश है । ३. पाश्चात्य विद्यासम्पन्न डॉक्टर भी स्वास्थ्य के लिये गरम किया हुआ जल पीना हितावह बतलाते हैं । प्लेग, कोलेरा आदि रोगों में खूब उबाला हुआ पानी पीने को वे कहते हैं । वैज्ञानिकों की शोध के अनुसार पानी में ऐसे अनेक सूक्ष्म जीव होते हैं जिन्हें हम आँखों से देख नहीं सकते, किन्तु सूक्ष्मदर्शक यन्त्र (Microscope) से वे दिखाई देते हैं। पानी में होनेवाले पोरे (पूतर) आदि जीव पानी पीने के साथ शरीर में प्रविष्ट हो कर भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न करते हैं । किसी स्थान का खराब पानी भी यदि उबाल कर पिया जाय तो वह शरीर को हानि नहीं पहुँचाता । साधु भ्रमणशील होता है अतः उसे भिन्न-भिन्न स्थलों का भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी पीना पड़ता है। इसीलिये उष्ण (उबाले हुए) पानी का विधान उसके स्वास्थ्य के लिये भी हितकर है । ४. अनग्निरनिकेतः स्यात्--मनुस्मृति अ. ६. श्लो, ८३. ५. चरेन्माधुकरीवृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि । -अविस्मृति. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १०७ स्पष्टतया फलित होता है कि साधुसंस्था समाज पर बोझरूप न हो और साधुजनों में रसलुब्धता उत्पन्न न हो । साधु का धर्म सर्वथा अकिञ्चन-अपरिग्रही रहने का है, अर्थात् वह पैसा नहीं रख सकता, द्रव्य के सम्बन्ध से वह सर्वथा मुक्त होना चाहिए । यहाँ तक कि उसके भोजन के पात्र भी धातु के' नहीं होने चाहिए । काष्ठ, मिट्टी अथवा तूम्बे के पात्र ही साधु के लिये उपयोगी हैं । वर्षा ऋतु में साधु एक स्थान पर रहता है । साधु से स्त्री का स्पर्श तक नहीं हो सकता । संक्षेप में सांसारिक सर्व प्रपंचों से निर्मुक्त होकर सदा अध्यात्मरति १. अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युनिव्रणानि च । अलाबु दारुपात्रं मृन्मयं वैदलं तथा । एतानि यतिपात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ -मनुस्मृति अ. ६, श्लो. ५३-५४ अर्थात्-धातु सिवाय के तथा छिद्ररहित पात्र साधु के योग्य है । तुम्बे, काष्ठ, मिट्टी तथा बांस के पात्र संन्यासियों के लिये मनु ने कहे हैं । २. साधु की विरक्ति दशा के सम्बन्ध में मनुस्मृति के छठे अध्याय में सुन्दर उपदेश मिलता है"अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन । न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥४७॥ क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । xxx ॥४८॥ भैक्षे प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सज्जति ॥५५|| अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासंगाद् विनिर्गतः ॥५७॥ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । अहिंसया च भूतानामृतत्वाय कल्पते" ॥६०॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनदर्शन परायण रहना यही साधु का धर्म है । आत्मकल्याण के साधन में सतत निरत रहकर निःस्वार्थभाव से अपने जीवन को परकल्याण के लिये उपयोगी बनाना, जनता का सच्चा सन्मार्गदर्शक होना—यही साधु-जीवन है । साधु-जीवन वस्तुतः विश्वबन्धुत्व का जीवन है, अहंकार, घमण्ड, क्रोध, रोष, दम्भ-वक्रता और मोह-ममता तथा मान-सत्कार की लिप्सा जैसे दूषण दूर होकर निर्मल बना हुआ उज्ज्वल जीवन है । साधु अर्थात् सच्चा त्यागी । साधु अर्थात् जिसमें ज्ञान एवं चारित्र का सुभग संयोग सिद्ध हुआ हो ऐसा तेजस्वी मनुष्य । आसक्ति के वश न होकर गृहस्थों के पास से जो जीवन की आवश्यक वस्तुएँ निर्दोषरूप से तथा सहज एवं सरलता से मिले उसी में सन्तोष रखनेवाला वह होता है । संयम में वह सदा जाग्रत होता है, शम-दम की उसकी साधना उच्च श्रेणी की होती है और ज्ञानलोक के सच्चे प्रकाश से वह प्रकाशमान होता है । त्यागी अपने लिये कम से कम-आवश्यक हो उतनी ही-सविधा की अपेक्षा रखता है और वह पूर्ण होने पर उसमें सम्पूर्ण सन्तोष एवं सात्त्विक आनन्द का अनुभव करता है, परन्तु किसी समय यदि पूर्ण न हो तो उद्विग्न नहीं होता । अमुक प्रकार का खाना-पीना मिले तो अच्छा, अमुक प्रकार के अथवा अमुक स्थान के बने हुए वस्त्र मिलें तो अच्छा, अमुक प्रकार निवासभवन तथा अन्य चीजें मिले तो अच्छा-इस प्रकार का मोह उसे नहीं होता । जिस समय जो वस्तु सरल एवं सहजभाव से प्राप्त हो उस समय उसका स्वीकार करके वह सन्तुष्ट रहता है । इस प्रकार का त्याग सच्चे वैराग्य में से ही उत्पन्न होता है। बिना वैराग्य का त्याग सच्चा त्याग नहीं, किन्तु त्याग की विडम्बना है; क्योंकि ऐसी स्थिति में जिसका बाहर से त्याग किया अर्थात्---निन्दा-अपमान सहे परन्तु किसी का अपमान न करे, इस देह के लिये किसी के साथ वैर न करे, क्रोध करनेवाले के ऊपर क्रोध न करे, आक्रोश करनेवाले का कुशल चाहे । भिक्षा के लोभ में आसक्त यति विषयों में डूब जाता है । लाभ होने पर प्रसन्न न हो और अलाभ होने पर खिन्न न हो । केवल प्राणरक्षा के लिये भोजन करे। आसक्ति से दूर रहे । इन्द्रियों के निरोध से, राग-द्वेष के विदारण से और प्राणीमात्र पर अहिंसा-वृत्ति धारण करने से मोक्ष के योग्य हुआ जाता है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ द्वितीय खण्ड होता है उसके लिये मन तो उत्कण्ठित ही रहता है । वैराग्य के बिना त्याग अधिक टिक नहीं सकता । बाह्य वेष, एक ओर तो स्वेच्छापूर्वक स्वीकृत संन्यासमार्ग के योग्य जीवन जीने की तरफ लक्ष खींचता है, तो दूसरी ओर दोषयुक्त आन्तरिक जीवन छुपाकर दम्भ करने में भी कारणभूत हो सकता है । जीवन की सच्ची जानकारी प्राप्त किए बिना बाह्य वेष की तरफ उपेक्षावृत्ति रखने से सच्चे सन्तपुरुष का अनादर या अपमान हो जाने का बड़ा भय रहता है, इसी प्रकार बाह्य वेष पर अन्धश्रद्धा रखने से ठगे जाने का भी बडा भय है। अतः यथार्थ निर्णय पर आने के लिये बाह्य वेष एवं आन्तरिक जीवन इन दोनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है और इसीलिये इस बारे में विवेक तथा धैर्य की आवश्यकता है, एकदम पूर्वग्रह बाँध लेने में खतरा है। साधुजीवन का उद्देश अपने उपदेश एवं आचरण द्वारा, जिसकी जैसी योग्यता हो उस प्रकार से, लोगों को गृहस्थधर्म अथवा साधुधर्म के क्षेत्र में मार्गदर्शक होने का है। धर्म के विषय में महत्त्व की बात कौन सी है और गौण बात कौन सी इसका उसमें विवेक होना आवश्यक है । अहिंसा आदि पाँच व्रत मुख्य महत्त्व के विषय हैं, जबकि बाह्य क्रियाकाण्ड की परम्परागत बातें उतनी महत्त्व की नहीं है; फिर भी उनके बारे में 'यही सर्वस्व है' इस प्रकार की प्ररूपणा करके समाज में यदि कोई साधु अथवा धर्माचार्य कलह उत्पन्न करता हो अथवा समाज को विभक्त करता हो तो वह अपने वास्तविक धर्म से च्युत होता है । साधु तो समग्र समाज में शान्ति फैले ऐसी भावना तथा प्रवृत्तिवाला होता है, प्रशान्त एवं सत्त्वपूर्ण वर्चस् संपन्न होता है । दार्शनिक मान्यताओं की उसकी चर्चा भी गम्भीर और सौम्यभाव से परिपूर्ण तथा समन्वयदृष्टि से सुशोभित होती है जिससे किसी के मन में अशान्त तथा समाज में झगडा टण्य उत्पन्न ही न हो। गृहस्थों का आचार : गृहस्थों का सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण सद्गुण यह है कि उसे अपना व्यवहार नैतिक (न्याययुक्त) रखना चाहिए । सच्चाई अथवा व्यवस्थित Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनदर्शन प्रामाणिकता तथा नेकी के समुचित कक्षा पर उसका जीवनव्यवहार चलना चाहिए । यहाँ पर इस बारे में कुछ विशेष अवबोधन करना योग्य है । अहिंसा के बारे में : पहली बात अहिंसाविषयक है । अनिवार्यरूप से जीवन के साथ लगी हुई हिंसा किए बिना तो हमारा चारा ही नहीं है । परन्तु हिंसा को जीवन का नियम न बनाकर कम से कम हिंसा से किस तरह निर्वाह किया जाय ऐसे मार्गों की खोज की ओर प्रयत्नशील रहना चाहिए । 'अविकसित जीवों की अपेक्षा विकसित जीवों को यथाशक्य बचाओ और अविकसित जीवों की कम से कम हिंसा हो इस प्रकार जीवन व्यवस्था रखो' यही सन्तों का उपदेश है । इस दृष्टि से मांसाहार, शिकार, संहार अथवा हिंसा निषिद्ध माने गए हैं । विरोधी पर आवेशवश उबलने लगना और उसके साथ टण्टे-फिसाद में उतरना इसमें (हिंसा में ) कौन सी शूरता है ? शूरता तो है अहिंसा मेंविरोधी के ऊपर अपने मन को क्रूद्ध अथवा क्रुर न होने देकर अपने विवेकपूत सत्त्वबल से उसे शान्तवृत्ति में, योग्य संयम रखने में । इस प्रकार शरीर बल अथवा भौतिक बल, जिसे पशुबल भी कहते हैं, उसकी अपेक्षा उपर्युक्त मनोबल किंवा आत्मबल, जो कि अहिंसारूप है, कहीं अधिक उन्नत है। यह बल मानव-समाज में जितना खिले उतना ही उसका आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भौतिक विकास शक्य है । विवेकबुद्धि तथा सत्त्वशक्ति के प्रकाशरूप अहिंसा के बल से ही मानवजगत् मैत्री और सौहार्द, बल और शक्ति तथा आनन्द और आह्लाद से समृद्ध होकर स्वर्गलोकतुल्य हो सकता है । कहने का अभिप्राय यह है कि अहिंसा एक आध्यात्मिक बल है । यह उच्च प्रकार की क्षात्रवृत्ति-वीरवृत्ति की अपेक्षा रखती है । अपनी स्वेच्छा से स्वार्थत्याग अथवा आवश्यकता पड़ने पर अपना बलिदान देकर भी हिंसा का विरोध करना और अहिंसा को जीवित रखना यह एक अत्यन्त उच्च कोटि की क्षात्रवृत्ति-वीरवृत्ति है । परन्तु दुःख सहन करने के समय डर कर भाग जाना और सिर्फ मुँह से हिंसा का विरोध करना यह कोई अहिंसा का पालन Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १११ EEEEEE नहीं है । लड लेने की हिम्मत और शक्ति होने पर भी ऐसा कोई प्रसंग उपस्थित होने पर जो मनुष्य अपने आवेश को संयम में रखकर हिंसा नहीं करता उसी की गिनती अहिंसक में हो सकती है । साहसहीन और दुर्बल मनुष्य यदि अहिंसक होने का दावा करे तो वह गलत है क्योंकि उस मनुष्य में हिम्मत नहीं है, सामना करने का बल नहीं है, अतः वह (बाह्य) हिंसा नहीं करता, परन्तु कायर एवं दुर्बल होने के कारण सामना करने का वीरतापूर्ण कार्य करने में अशक्त होने पर भी उसके निर्बल मन में तो ऐसे अवसर पर हिंसाग्नि जलती ही होती है, रोष एवं क्रोध की ज्वाला तो धधकती ही रहती है । निर्बल मनुष्य का निर्बल मन 'कमजोर और गुस्सा बहुत' इस लोकोक्ति के अनुसार तुच्छ कारण उपस्थित होने पर भी हिंसावृत्ति से जबतब आकुलित हो उठता है, बात-बात में वह निरर्थक आवेशवश दहक उठता है । अहिंसा की सिद्धि के लिये सच्ची समझ के अतिरिक्त बल और हिम्मत भी चाहिए तथा इसके लिए शारीरिक बल सम्पादित करना चाहिए । बल अर्थात् शारीरिक शक्ति का कितना मूल्य है ? आततायी, आक्रमक एवं दुष्ट शत्रुओं के फन्दे में फंसे हुए लोगों को, उन दुष्टों का वीरतापूर्ण सामना करके उनके फंदे में से बचा लेने में शारीरिक शक्ति का कितना उपयोग हो सकता है ? वस्तुतः शारीरिक शक्ति जिस प्रकार समय आने पर दुष्ट की दुष्टता का दमन करने में उपयोगी होती है उसी प्रकार दुष्ट द्वारा पीड़ित जनता का उद्धार करने में भी आशीर्वाद-रूप होती है । जनरक्षारूप अहिंसा के लिये शारीरिक बल जैसे उपयोगी है वैसे चित्त की स्वस्थतारूप आभ्यन्तर अहिंसा के लिये भी वह उतना ही आवश्यक है । अहिंसा का उपदेश दिया है क्षत्रियों ने और उसे ग्रहण भी कर सकते हैं क्षात्रवृत्ति के बहादुर ही । सचमुच उत्कर्ष अथवा उत्क्रान्ति क्षात्रवृत्ति पर ही आश्रित है । यही लौकिक या आध्यात्मिक अभ्युदय साध सकती है । जहाँ कायरता अथवा भयभीतता हो वहाँ अहिंसा की साधना शक्य नहीं है । निर्बलता अथवा बुजदिली जीवन का बड़े से बड़ा रोग है । 'वीरभोग्या वसुन्धरा' यह कथन वर्तमानयुगीन विचारसरणी के योग्य हो या न हो परन्तु 'अहिंसा बलवत्साध्या [अहिंसा बलवान् से ही साध्य है] यह तो Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन त्रिकालाबाधित सनातन सत्य है । विवेकशाली वीर ही अहिंसा का पालक हो सकता है । अर्हन्त उच्च श्रेणी के क्षात्रधर्मी होते हैं और विवेकशाली क्षात्रधर्मी ही उनका उपासक अथवा अनुयायी हो सकता है । कायर लोग भी अपनी कायरता झटक कर उनके उपासक हो सकते हैं । ११२ जिस प्रकार मारने आदि कृत्यों द्वारा हिंसा होती है उसी प्रकार शक्ति होने पर भी हिंसा की रोक-थाम में अपना सहयोग न देना, चुपचाप बैठे रहना भी हिंसा है । यदि कोई मनुष्य डूबता हो और अपने को तैरना आता हो तो भी उसे बचाने का प्रयत्न करने के बदले देखते रहना यह भी हिंसा है । कोई मनुष्य भूख से पीड़ित हो रहा हो और अपनी शक्ति होने पर भी उसे खाना न देना हिंसा है । ऐसी सब प्रकार की हिंसा निष्ठुर लापरवाही में से 'मुझे क्या ? मैं ऐसे झंझट में क्यों पडुं ? मैं क्यों यह सहन करूँ ?'इस प्रकार की निष्ठुर उदासीनवृत्ति में से उत्पन्न होती है । निष्ठुरता अधर्म है और 'दया धर्म का मूल है' । अपने सुख, आराम और लाभ के लिये दूसरे के सुख, आराम और हित की ओर दुर्लक्ष करना- - असावधान रहना भी हिंसा है । दूसरे मनुष्य के श्रम का अनुचित लाभ उठाना भी हिंसा है । वास्तविक घटना हमें ज्ञात हो तथा वैसी गवाही देने से निर्दोष मनुष्य के बचने की सम्भावना भी हो तो भी उसके न्याय लाभ में गवाही देने से इनकार करके उसे अन्याय का शिकार होने देना मृषावाद ही है और साथ ही हिंसा भी I है । मेरे घर का कूडा-करकट पड़ौसी के घर के आगे यदि मैं डाल दूँ अथवा मेरे घर में से निकला हुआ बिच्छू या प्लेग का चूहा पड़ौसी के घर के आगे यदि मैं फेंक दूँ और इस प्रकार पड़ौसी को भय में डालूँ या तकलीफ पहुँचाऊँ तो वह भी हिंसा है । सत्य के बारे में : जो वस्तु जैसी हो अथवा जैसी हुई हो वैसा कहना इसे सामान्यतः सत्य कहा जाता है और वास्तविकता की दृष्टि से वह है भी सत्य, परन्तु धार्मिक दृष्टि से उसे सत्य कहा भी जा सकता है और नहीं भी कहा जा सकता । यदि वह वस्तुतः यथार्थ हो और साथ ही जनकल्याणकारी न हो तो वह नि:सन्देह सत्य है । परन्तु यदि वह हकीकत की दृष्टि से सत्य होने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ११३ पर भी अकल्याणकारी हो तो उसे असत्य ही समझना चाहिए । यदि कोई दुष्ट बदमास किसी सुकुमार स्त्री के पीछे पड़ा हो अथवा कोई शिकारी किसी मृग का पीछा पकड़ रहा हो और वह कहाँ पर छिपा है इसकी हमें जानकारी हो, फिर भी उस गुण्डे अथवा शिकारी के पूछने पर उसका ठिकाना न बताकर चुप रहना अथवा दूसरा रास्ता दिखाना और इस तरह निर्दोष की रक्षा करना हमारे लिये धर्म है। फिसाद करने पर तुले हुए गुण्डे किसी मकानवाले पूछे कि इस मकान में अमुक मनुष्य है ? अब, मकान में छुपे हुए अथवा स्त्री के बुर्के मे छुपे हुए उस मनुष्य को यदि वह दिखला दे तो तुरन्त ही उस निरपराध मनुष्य का सफाया हो जाय । ऐसी स्थिति में उस मकानवाले को बिना किसी प्रकार की झिझक के असत्य बोलना पड़ता है कि वह मनुष्य यहाँ नहीं है । इस प्रकार का उत्तर देना उस समय कर्तव्य एवं धर्म है । हकीकत की दृष्टि से जो यथार्थ हो परन्तु यदि वह अहितकारी हो तो उसकी गणना सत्य में नहीं होती । सत्य बोलने - न-बोलने के बारे में बहुत विवेक एवं सतर्कता की आवश्यकता है । रोगी अथवा पागल जैसौं के साथ उनके हित के लिये यदि असत्य बोलना पड़े तो वह निःस्वार्थ तथा सिर्फ उनके हितसाधन के लिये बोला गया होने से अनुचित नहीं है । अपना न्यायसंगत रहस्य छुपाने जैसा हो और उसे छुपाने के लिये मौन रखने से यदि न चले और असत्य बोलना पड़े तो वह अनुचित नहीं है 1 १. सद्भयो हितं सत्यम् — प्राणी के लिये हितकर हो वह सत्य । उक्तेऽनृते भवद् यत्र प्राणिनां प्राणरक्षणम् । अनृतं तत्र सत्यं स्यात् सत्यमप्यनृतं भवेत् ॥ महाभारत अर्थात् — असत्य बोलने पर यदि प्राणियों की रक्षा होती हो तो उस समय वह असत्य सत्य है और यदि उस समय सत्य बोला जाय तो वह असत्य है । ( इस प्रकार सत्य भी असत्य बनता है और असत्य भी सत्य 1) "तुसिणीओ उवेहेज्जा, जाणं वा नो जाणं ति वएज्जा अर्थात् — मौन रहे अथवा जानने पर भी 'नहीं जानता' ऐसा कहे । - आचाराङ्ग २. ३. ३. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन अन्याय्य अथवा अनुचित प्रतिज्ञा का भंग करने में असत्य दोष नहीं है । उदाहरणार्थ, कोई मनुष्य ऐसी प्रतिज्ञा करे कि 'मेरा लड़का यदि स्वस्थ हो जायगा तो मैं देवी को एक बकरा चढाउँगा' परन्तु बाद में समझ आने पर कि पशुहत्या तो घोर पाप है और देवी के आगे तो यह अत्यन्त निन्दनीय पाप है, वह अपनी प्रतिज्ञा का भंग करे तो अनुचित नहीं । उसे ऐसी प्रतिज्ञा तोड़नी ही चाहिए । अधर्ममय प्रतिज्ञा के पालन में पाप है, जबकि उसे तोड़ने में कल्याण है । I ११४ उपर्युक्त आपवादिक असत्य यदि बोलने पड़े तो बोलने के बाद इस तरह का असत्य बोलने का प्रसंग उपस्थित हुआ इसलिये अन्तःकरण में प्रायश्चित्तरूप आलोचना करना योग्य है, क्योंकि ऐसी आलोचना ऊर्ध्वारोहण की भावना को विकसित रखने में उपयोगी है । बालक अथवा दूसरों के साथ मृदु एवं निर्दोष हास्यविनोद में किसी को खेद न हो उस तरह, क्षणभर जैसातैसा बोला जाता है वह असत्य दोषरूप नहीं है । शिष्टाचार के नाते मर्यादित असत्य बोलना पड़े तो वह भी क्षन्तव्य है । तिरस्कारवृत्ति से अन्धे को अन्धा, काने को काना, मूर्ख को मूर्ख कहना असत्य है । दुर्भाव से या मिथ्या आवेशवश कटु शब्द बोलना, गाली देना, क्रूर हँसी करना यह सब असत्य में समाविष्ट है । अचौर्य के बारे में : कोई मनुष्य दूसरे की चोरी करता हुआ मालूम होता हो, परन्तु उसे रोकने में अथवा गृहस्वामी का ध्यान उस ओर आकर्षित करने में उपेक्षा १. वाणी - व्यवहार की सामान्य पद्धति का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में कहा है— सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ॥ १३८ ॥ अर्थात्— 1- सत्य और वह भी प्रिय बोलना । अप्रिय सत्य न बोलना तथा प्रिय होने पर भी असत्य न बोलना । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ११५ दिखाकर चुप रहना - ऐसी लापरवाही अथवा कायरता बहुत ही खराब है । स्वयं चोरी न करनेवाला भी इस तरह यदि चोरी होने दे तो उसे चोरी होने देने रूप चोरी का पाप लगता है । धन्धे - रोजगार में अनीति करना, कूट-कपट से किसी का धन हड़पना, इधर-उधर का समझाकर किसी को ठगना, विश्वास में लेकर किसी को नुकसान में उतार देना, चालाकी से किसी का कुछ ले लेना अथवा बिगाडना,-अन्याय से - अनुचित रूप से किसी को हैरान करना, निर्दोष को सताना इस प्रकार का सब अपकृत्य पापाचरण है । -- किसी को चोरी के कार्य में प्रेरित करना, उसमें सम्मत होना, चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु लेना, प्रजाहित के लिये बनाए हुए कायदे-कानून का भंग करना, न्यूनाधिक नाप-तौल के वजन आदि रखना, कम देना - अधिक लेना, वस्तु में मिलावट करना, असली माल के बदले नकली माल देना - ये सब चोरीरूप दुष्कृत्य है । किसी मनुष्य की लाचारी का अनुचित लाभ उठाकर उसके पास से अधिक ले लेना, कोई मनुष्य भूल से अधिक दे गया हो तो रख लेना चोरी है । संक्षेप में, अन्याय से नीतिविरुद्ध दूसरे की चीज ले लेना चोरी है । उद्योगपति तथा धनिकों की संग्रहवृत्ति एवं शोषणवृत्ति के दुष्परिणामरूप —— उसके खराब प्रत्याघातरूप ठगाई, डकैती, गुण्डापन, कालाबाजार आदि निकृष्ट एवं अधम तत्त्व पैदा होते हैं और उनका प्रचार होता है । बेकारी के कारण मनुष्य चोरी के मार्ग पर जा गिरता है । द्रव्य - लोलुपता का दुष्ट आवेग मनुष्य से अनीति एवं परद्रोह के पाप करवाता है 1 तथा अपने बडप्पन का प्रदर्शन करने के लिये मनुष्य धनलुब्ध बनकर लुच्चाई और दगाखोरी का रास्ता पकड़ता है । फिजुलखर्ची तथा दुर्व्यसन के पाप के कारण मनुष्य चोरी व ठगाई करने लगता है । बुरे संग और बुरे असर से वह चोरी और अनाचार सीखता है । समुचित परिग्रह में सन्तोष, सादा और संयमी जीवन तथा व्यापक बन्धुभाव के सद्गुणों से समाज की नैतिक भूमिका जब उन्नत होगी तभी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनदर्शन जहाँ-तहाँ फैले हुए अनीति, चोरी, ठगाई और शैतानियत के पाप स्वतः बिखरने लगेंगे । दुर्व्यसनरूप व्यवसाय : जुआ अथवा सट्टा न तो प्रामाणिक व्यवसाय है और न उद्यमशील रोजगार । छल-बल भरे हुए इस धन्धे से दूसरे कितने ही साफ हो जाते हैं तब एक को धन मिलता है । इसी तरह बहुतों को संकट में डालकर बिना किसी प्रकार के श्रम के ऐसे धन्धों से धन एकत्रित करके उसमें से थोडा धर्मार्थ दान देने से शायद जिसे दिया गया हो उसका तो कुछ भला हो परन्तु उस दान से उस दाता का उन सैकड़ों मनुष्यों के हृदय जलाने का पाप कैसे धुल सकता है ? हाँ, धुल सकता है—इस प्रकार का सब धन लोकोपयोगी प्रवृत्तियों में अर्पण करके पश्चात्तापपूर्वक ऐसे कलुषित धन्धे छोड़ दिए जायँ तो । अन्यायोपार्जित धन' से बेसमझ समाज में मिलनेवाली प्रतिष्ठा और आदरसत्कार का मूल्य आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ भी नहीं है । इस तरह मिलनेवाली प्रतिष्ठा अथवा आदर-सत्कार के लिये अभिमान लेना तो और भी विशेष पाप में पड़ने जैसा है । परिग्रहपरिमाण के बारे में : परिग्रहपरिमाण व्रत का इसलिये उपदेश दिया गया है कि लोभ का आक्रमण मन्द हो, नीति का धोरण अखण्डित रहे और पूंजीपति अपने अधिक धन का समाज के हितसाधन में उपयोग करे । इस प्रकार के उपयोग से ही पूंजीपति दरिद्र एवं बेकार लोगों की विरोधवृत्ति का योग्य प्रतीकार कर सकते हैं। वे अपने अनावश्यक मौजमजाह तथा दूसरी तरह से होनेवाले दुर्व्यय १. अन्यायोपार्जित धन का दान कैसा है यह नीचे का प्राचीन श्लोक स्पष्ट करता है अन्यायोपात्तवित्तस्य दानमत्यन्तदोषकृत् । धेनुं निहत्य तन्मांसाङ्क्षाणामिव तर्पणम् ॥ अर्थात्-अन्यायोपार्जित द्रव्य का दान अत्यन्त दोषकारी है । वह तो गाय को मारकर उसके मांस से कौओं का तर्पण करने जैसा है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ११७ का त्याग करके तथा अपनी आवश्यकताओं को उचित रूप से मर्यादित करके अपने अधिक धन का उपयोग समाज के हित-साधन में करें । इसी में उनका तथा समाज का कल्याण हैं । परिग्रहपरिमाण व्रत लेने के पीछे उसका उद्देश परिग्रह का परिमाण अर्थात् उसकी मर्यादा बाँधने का है, परिग्रह बढ़ाने में अथवा संग्रहवृत्ति को अमर्याद रखने में उसका उपयोग करने का नहीं है । यदि कोई साधारण स्थिति का मनुष्य परिग्रहपरिमाण व्रत लेने की इच्छा प्रदर्शित करके ऐसा कहे कि 'एक मन हीरे, दो मन मोती, दस लाख रुपए, तीन हजार के बरतन, दस हजार के फर्नीचर रखने के लिये परिग्रहपरिमाण का व्रत दो' तो ऐसा मनुष्य वस्तुतः परिग्रहपरिमाण व्रत की हँसी ही उड़ाता है और ऐसा व्रत देनेवाला अविवेकी ही समझा जायगा, क्योंकि ऐसा व्रत लेनेवाले का उद्देश स्पष्टतः अपनी अमर्याद संग्रहवृत्ति के पोषण का ही है, न कि समाज के व्यक्तियों में जो विषमता है उसे दूर करने का अथवा सन्तोषवृत्ति धारण करने का । भोगोपभोगपरिमाण व्रत का सम्बन्ध : १. जो पदार्थ भोग अथवा उपभोग में आते हैं उनका परिमाण बाँधने के साथ है, तथा २. जिन व्यवसायों में उन पदार्थों की उत्पत्ति होती हो उन व्यवसायों के साथ है । जिन व्यवसायों में बहुत बडी मात्रा में हिंसा होने की सम्भावना हो वैसे मिल आदि यान्त्रिक उद्योग तथा ऐसे इतर व्यवसायों के दोष से मुक्त होने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है कि वे धन्धे किए ही न जायँ अथवा कराए न जाय, बल्कि ऐसे धन्धों से उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं का उपभोग भी नहीं करना चाहिए । ऐसी वस्तुओं का उपभोग करने पर भी यदि हम ऐसा मान लें कि 'हम ऐसे धन्धे न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों से करवाते हैं, जिससे हमें उनका दोष लगे, तो यह एक स्पष्ट आत्मवंचना ही है । मांसाहारी मनुष्य यदि ऐसी दलील करे कि जिस प्राणी का मांस मैंने I Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनदर्शन खाया है उस प्राणी की हिंसा न तो मैंने की है और न करवाई है, अतः प्राणीवध का दोष मुझे नहीं लगता तो इस दलील को कोई उपयुक्त नहीं मानेगा । वह यदि अपनी दलील की पुष्टि में यों कहने लगे कि मांस सचित्त होगा तो उसकी सचित्तता का दोष मुझे लगेगा परन्तु प्राणीवध का दोष मुझे नहीं लग सकता और यदि कदाचित् वह उचित्त होगा तो सचित्तता का दोष भी मुझे नहीं लगेगा तो इस प्रकार का उसका अपने कार्य का समर्थन किसी काम का नहीं है । उसे प्राणीवध का पाप लगने का ही । आचार्य हेमचन्द्र कहते है कि प्राणी का घातक तो घातक है ही, परन्तु उसका मांस बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला तथा खानेवाला-ये सब लोग भी घातक हैं । आगे २३वें श्लोक में 'न वधको भक्षकं विना' इन शब्दों से इसी बात को पुष्ट करते हुए वे कहते हैं कि खानेवाले के होने पर ही वध करनेवाले होते हैं, यदि खानेवाले न हो तो कोई वध करनेवाला भी नहीं होगा, अत: सच्चा घातक तो खानेवाला है। श्री हेमचन्द्राचार्य के ये वचन ध्यान में रखने योग्य हैं । यदि मुझे मिल में उत्पन्न वस्त्र पहनने हों, यदि मुझे पशु-हिंसा से बनी हुई चमड़े की वस्तुओं का उपयोग करना हों, यदि मुझे चतुरिन्द्रिय जीवों का नाश करके बनाए गए रेशम के कपड़े पहनने हों अथवा रेशमी चीजें रखनी हों, यदि मुझे पञ्चेन्द्रिय मछलियों का नाश करके प्राप्त किए गए मोती के आभूषण पहनने हों और इसी प्रकार उग्र हिंसा से उत्पन्न दूसरे पदार्थों का उपभोग यदि मुझे करना हो तो उनमें रहे हुए जीव की हिंसा के दोष में भी मुझे साझीदार होना ही पड़ेगा । किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पूर्व कल्याणार्थी मनुष्य को यह विचारना चाहिए कि यह वस्तु अल्पारम्भी या महारम्भी ? अल्पारम्भी वस्तु से वह अपना निर्वाह करे, परन्तु महारम्भी वस्तु का उपयोग न करे । भोगो १. हन्ता पलस्य विक्रेता संस्कर्ता भक्षकस्तथा । क्रताऽनुमन्ता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥ योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लोक २०. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ११९ पभोग के परिणाम किंवा उससे समुचित नियमन के बिना अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मयर्य एवं अपरिग्रह व्रत का पालन शक्य नहीं है; क्योंकि भोगोपभोग में लुब्ध मनुष्य को अपनी अमर्याद भोगोपभोगतृष्णा को सन्तुष्ट करने के लिये उद्दाम हिंसा का आश्रय लेना ही पड़ता है। असत्य, अन्याय, शोषण आदि पाप भोगोपभोग की उच्छृखल तृष्णा में से उत्पन्न होते हैं और इस बहकी हुई तृष्णा को सन्तुष्ट करने के लिये परिग्रह बढ़ाने में उसे व्यस्त रहना पड़ता है। सभी पाप भोगोपभोग की दुर्दान्त तृष्णा में से पैदा होते हैं। भोग-लालसा का समुचित नियमन वस्तुत: मनोबल का कार्य है ऐसा मनोबली धीर मनुष्य अनेक पापों से बच सकता है तथा उसका अपना जीवनकल्याण अतिसरलता से सिद्ध हो सकता है । संक्षेप में, इस व्रत का सारांश एक ही वाक्य में इस प्रकार कहा जा सकता है। जिसमें बहुत ही अधर्म की सम्भावना हो ऐसे व्यवसायों के त्याग के साथ ही साथ उस प्रकार के भोजनपान, वस्त्र-आभूषण आदि का त्याग करके कम अधर्मवाली वस्तुओं का भी भोग के लिये परिमाण बाँधना भोगोपभोग परिमाण व्रत है । अनर्थदण्ड दुर्ध्यान-वध-बन्धन-ताडन-पीडनरूप-प्राणी-हिंसाविषयक विचार, झूठ-चोरी-अनीति-अन्याय-विषयक विचार, निषिद्ध कामविलास के भोग का विचार और चाहे जिस तरीके से धन का संग्रह करके उसे सुरक्षित रखने का मोहोन्मत्त विचार रौद्र ध्यान है । इसी प्रकार हिंसादि पापों से मिली हुई सिद्धियों के विचारों में आनन्द की अनुभूति भी रौद्र ध्यान है। रौद्र ध्यान प्रबल दुर्ध्यान है, अतः उसमें दुर्ध्यान रूप अनर्थदण्ड का पाप रहा हुआ है । अनर्थदण्ड : प्रमादचर्या-अल्प-आरम्भ (अल्प हिंसा) से उत्पन्न वस्तुओं से व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताएँ यदि बिना किसी विशेष तकलीफ के पूर्ण हो सकती हों तो भी महान आरम्भ (महाहिंसा) से उत्पन्न वस्तुओं का उपयोग करना इसमें प्रमादचर्यारूप अनर्थदण्ड का दोष रहा । अपने व्यक्तिगत सुख-सुभीते की पूर्ति के लिये यदि शक्ति और Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनदर्शन होशियारी तथा समय हो तो भी स्वयं श्रम न करके दूसरे नौकर, आश्रित आदि पर उसका भार डालकर स्वयं अकर्मण्य बने रहना यह भी प्रमादचर्यारूप अनर्थदण्ड है । सामायिक का उद्देश समभाव, समता एवं शमभाव विकसित करने में है । (क) समभाव । १. धर्म-समभाव | २. जातपाँत-समभाव । ३. नरनारी - समभाव । (ख) समता १. प्रत्येक जीव को आत्मरूप समझना । २. सम-विषम प्रसंग उपस्थित होने पर मन की स्थिरता कायम रखना, उसे विचलित न होने देना । (ग) शम कषायों को दबाना या उन्हें शिथिल करना । व्रतों के बारे में शास्त्र कहते हैं कि अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का व्रती ( सच्चा व्रती ) होने के लिये सर्वप्रथम निःशल्य (शल्यरहित) होने की आवश्यकता है । शल्य संक्षेप में तीन हैं— १. दम्भ, दिखावा अथवा ठगने की वृत्ति, २. भोगों की लालसा, और ३. सत्य पर अश्रद्धा अथवा असत्य का आग्रह | जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में शल्य अर्थात् काँटा अथवा वैसी कोई तीक्ष्ण वस्तु चुभ जाय और जब तक दूर न हो तब तक वह शरीर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १२१ एवं मन को व्यग्र बना कर आत्मा को अस्वस्थ कर देती है उसी प्रकार ये तीन शल्य या मानसिक दोष भी मन एवं शरीर को कुतरकर आत्मा को अस्वस्थ बना देते हैं । जब तक ये शल्य दूर न हो तब तक व्रतपालन में स्थिरता नहीं आती । अतः इन दोषों का त्याग व्रती बनने की पहली शर्त है । अब इस प्रसंग पर गृहस्थ के षट्कर्म भी देख लें । षट्कर्म : देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानंचेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥ अर्थात् — देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थ के षट् (छह ) कर्म हैं । यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये छह कर्म नित्यकर्म होनेसे प्रतिदिन आचरणीय हैं । देवपूजा – अर्थात् देव का — परमात्मा का भक्तिपूर्ण स्मरण, स्तवन, प्रार्थना । यह आन्तरिक दोषों को दूर करने का, विचारों को सुधारने का, भावना के अभ्यास एवं संवर्धन का तथा आत्मशक्ति को जागरित एवं विकसित करने का श्रेष्ठ मार्ग है । पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद बतलाए गए हैं । भगवत् - स्मरण अर्थात् भगवान् के साथ तादात्म्य साधने के आन्तरिक प्रयत्न को भावपूजा कहते हैं । इस वास्तविक पूजा का मार्ग सरल बन सके ऐसी (आन्तरिक) ऊर्मि जगाने के कार्य में भक्ति का बाह्य उपचार काम में आ सकता है, अतः इस उपचार को द्रव्यपूजा कहते हैं । 'द्रव्यपूजा' शब्द में आए हुए द्रव्य शब्द का अर्थ निमित्तभूत अथवा सहायभूत होता है । भावपूजा के लिये सहायभूत होनेवाली बाह्य प्रक्रिया द्रव्यपूजा है । भक्तजन, जो सीधा पूजा ( भावपूजा) पर नहीं पहुँच सकता वह इस प्रक्रिया का विवेकयुक्त आश्रय लेकर भावपूजा का लाभ प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है । भावपूजा का सामर्थ्य भावना में परिवर्तन करता है, सद्गुणों की तथा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनदर्शन सत्कार्यों की भावना को प्रबुद्ध करके चित्त को सद्वृत्तिशाली बनाता है । भावपूजा का ओजस् जैसे-जैसे खिलता जाता है वैसे-वैसे चित्त की कल्याणकामना विशेष और विशेष मात्रा में विकस्वर होती जाती है । इस प्रकार यह परम श्रेयःसाधक बनती है। श्री हरिभद्राचार्य अपने 'अष्टकप्रकरण' नामक ग्रन्थ के तीसरे अष्टक में कहते हैं अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलोभता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ।। एभिर्देवाधिदेवाय बहुमानपुरस्सरा ।। दीयते पालनाद् या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥ अर्थात्-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निर्लोभता, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान ये आठ प्रशस्त एवं पवित्र पुष्प हैं । इन गुणों का पालन करने से ये 'पुष्प' देवाधिदेव को चढाए हैं ऐसा माना जा सकता है । इस प्रकार इन पुष्पों को चढाना (इस प्रकार की 'पुष्पपूजा') शुद्ध-पूजा है । यहाँ पर यह जान लेना चाहिए कि इस प्रकार की 'शुद्ध' पूजा के लिये ही भावपूजा है और भाव-पूजा के लिये अनुकूल मानसिक वातावरण के सर्जन के लिये जो उपचारविधि की जाती है वह द्रव्य-पूजा है । वह भाव-पूजा के हेतु उपचारविधि होने से 'उपचार-पूजा' भी कही जा सकती है। इस पर से यह समझा जा सकता है कि उपचार (द्रव्य) पूजा में इतिश्री न मानकर अथवा उसे मुख्य या प्रधान न समझकर उसका आवश्यकतानुसार विवेकयुक्त उपयोग करके साध्यक्रिया में यथाशक्ति उद्यत रहना चाहिए । उपर्युक्त कथनानुसार द्रव्य-पूजा भाव-पूजा के लिये वातावरण उपस्थित करने में निमित्तभूत होती है, परन्तु यदि वास्तविक भाव-पूजा न हो १. स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥ गीता अ० १८, श्लो० ४६. अर्थात्-मनुष्य अपने कार्यों से अर्थात् कर्तव्यपालन के रूप में उस(प्रभु)की पूजा करके सिद्धि प्राप्त करता है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १२३ तो अकेली द्रव्य-पूजा से योग्य सफलता नहीं मिल सकती । द्रव्य-पूजा प्रभु के प्रतीक की हो सकती हैं, परन्तु भाव- पूजा तो मूर्ति जिसका प्रतीक है उस प्रभु की होती है । भाव का सम्बन्ध प्रभु के गुणों के साथ है, । द्रव्यपूजा थोड़े से समय में पूर्ण हो जाती है, जबकि भाव- पूजा-प्रभुगुणशक्तिभगवद्गुणप्रणिधान के लिये स्थान अथवा काल की कोई मर्यादा नहीं है । उसका तो चाहे जिस स्थान में और चाहे जिस समय लाभ लिया जा सकता है । लौकिक कार्य-व्यवहार के समय भी भक्तजन के हृदय में भक्तिरस बहता ही रहता है, उस समय भी वह इस प्रकार के रसोल्लास के रूप में भगवान् की भाव- पूजा कर ही रहा है । सांसारिक काम-धन्धे करते समय भी जिसकी नीतिमत्ता और सत्य - निष्ठा अबाधिरूप से चालु रहती है वह समय भी उन सद्गुणों के रूप में भगवत्-पूजा ही कर रहा है, भक्तिरस स्मृति पर सदा बहता रहे और उसके फलस्वरूप जीवन का पावित्र्य निरन्तर ज्वलन्त यही सच्चे भक्त की स्थिति होती है । भगवद्भक्त मनुष्य कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करनेवाले, विश्वतत्त्वों के ज्ञाता, परमतत्त्व के प्रकाशक और मोक्षमार्ग पर ले जानेवाले वीतरागदेव को उनके (उनके जैसे) गुण प्राप्त हों (अपने आत्मा में प्रकट हो ) इसलिये वन्दन करता है, और जब तक वैसी ( वीतरागता की पूर्ण उज्ज्वल) स्थिति प्राप्त न हो तब तक वह ऐसी प्रार्थना करता रहता है कि 'भवे भवे सदा सदा सतत वीतरागदेव में — उनके सद्गुणों में मेरी भक्ति कायम रहे जिससे किसी भी समय मैं दुर्गुणों में फँसने न पाऊँ, क्योंकि तीनों जगत् में और तीनों काल में भव- भ्रमण से अथवा दुःखचक्र से रक्षण करनेवाला यदि कोई है तो वह एकमात्र वीतरागता का अवलम्बन ही है । वीतराग-तत्त्व को अन्तिम ध्येय के रूप में मान्य रखने की आवश्यकता इसलिये है कि वीतराग परमात्मा के स्मरण में सतत निरत रहनेवाला योगी वीतरागता को प्राप्त करता है, जबकि सराग व्यक्ति को अन्तिम ध्येय के रूप में स्वीकार करके उसका ध्यान करनेवाला अपनी सरागता का पोषण करता है और इस प्रकार अपने भव-बन्धन को अधिक कडा बनाता है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन यह सही है कि वीतरागता पर पहुँचने की लम्बी यात्रा में कितने ही साधनों की आवश्यकता होती है और उन्हें अवान्तर साध्य के रूप में बीच-बीच में स्वीकारने की और न्यायमार्ग से प्राप्त करने की आवश्यकता रहती है जिससे कि 'यात्रा' सफल हो; परन्तु यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिए कि अन्ततः वे साधन हैं, न कि अन्तिम साध्य । यदि कोई मनुष्य वीतरागता का अन्तिम आदर्श चूक जाय और जिस का केवल साधन के रूप में ही उपयोग है उसे अन्तिम सत्य - अन्तिम साध्य के रूप में प्रतिष्ठित करके उसके पीछे लग जाय तो वैसा करनेवाला मनुष्य मरा ही पड़ा है । उसका किसी भी तरह निस्तार नहीं हो सकता, फिर वह चाहे जितने हाथ-पैर क्यों न पटके, चाहे जितना द्रव्य क्यों न खर्चे ? १२४ भाव - पूजा दुष्प्रकृति, खराब स्वभाव और खराब आदत अथवा अपलक्षणों को दूर कर के आत्मविकासरूप सद्गुणों को अपने जीवन मेंजीवनव्यवहार में - आचरण में प्रकट करने की भावना विकसित करने में है । भाव को विकसित करके सदाचारी बनने की ओर प्रेरित करना ही भावपूजा का मुख्य एवं सच्चा तात्पर्य है इसी में उसका साफल्य है । जैन परमात्मव्यक्ति के नहीं किन्तु उसके गुणों के पूजकर हैं । परमात्मा में होने योग्य गुण जिस-जिस आत्मा में प्रकट हुए होते हैं उन सबको जैन एकसमानरूप से परमात्मा मानते हैं । इसलिये परमात्मा के गुण ही जैनों का आदर्श है । जैनों के परम पवित्र 'नमोक्कार' अर्थात् 'नमस्कार' (नवकार) १. प्रत्येक साध्य साधनयोग के अनुसार क्रमशः सधता है । वस्त्र तैयार करने में रूई, सूत आदि अवान्तर कितने ही कार्य सिद्ध करने पड़ते हैं, तब ( साधनयोग के क्रम के अनुसार) कहीं जाकर वस्त्र तैयार होता है । २. गुणवान् व्यक्ति भी पूजा जाता है, परन्तु व्यक्ति के रूप में नहीं किन्तु उसके गुणों द्वारा । गुणी के पूजन द्वारा गुणों का पूजन किया जाता है । गुणों का पूजन गुणी के पूजन द्वारा बलाढ्य होता है । गुणों के पूजनरूप से गुणी का जो पूजन किया जाता है वह पूजक में गुणभावना को प्रदीप्त करता है । हक़ीक़त ऐसी है कि गुणों द्वारा गुणी पूजा जाता है और गुणी द्वारा गुण पूजे जाते हैं । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १२५ मन्त्र में पहला पद नमो अरिहन्ताणं है, उसमें किसी व्यक्ति - परमात्मा का नामनिर्देश नहीं है, उसमें तो राग-द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का जिस किसी ने नाश किया हो उसे उन सबको सामान्यरूप से नमस्कार किया गया है। I गुरु की उपासना : गुरु अर्थात् सामान्य आप्तजन । श्री हरिभद्राचार्य अपने योगबिन्दु में लिखते हैं कि " मातापिताकलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥११०॥ इस श्लोक में गुरुओं का वर्ग बतलाते हुए वे कहते हैं कि मातापिता, विद्यागुरु, ज्ञाति- कुटुम्ब में के बड़े, श्रुतशीलवृद्ध और धर्मप्रकाशक सन्त ये गुरु हैं । इन गुरुओं की ओर यथोचितरूप से विनयशील रहना और उन्हें योग्य सहायता करना गुरु - उपास्ति है इसके द्वारा उनके पास से जीवन - विकासक ज्ञान - संस्कार प्राप्त करने में उद्यत रहना चाहिए । माता - पिता का का गुरुत्व सर्वश्रेष्ठ होनेसे 'माता-पित्रोश्च पूजकः' (माता-पिता का पूजक) सर्वप्रथम बनने का शास्त्र में विधान है । १. इस मन्त्र में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच पदों का निर्देश करके नमस्कार किया गया है। इन पाँचों पदों का निर्देश गुणवाचक है। इसमें किसी व्यक्तिविशेष का उल्लेख नहीं है । इसी प्रकार 'अरिहन्ते सरणं पवज्जामि' इत्यादि चतुः शरण के तथा मंगलचतुष्टय के जो चार कल्याणभूत पाठ हैं उनमें भी अरिहन्त, सिद्ध, साधु एवं केवलप्रज्ञप्त धर्म इन चार का निर्देश गुणवाचक है, व्यक्तिवाचक नहीं । २. तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ — गीता अ. ४, श्लो. ३४. अर्थात् - ज्ञानी सद्गुरु को प्रणाम करके पूछ करके और उसकी सेवा करके ज्ञान प्राप्त कर । तत्त्वद्रष्टा ज्ञानी तब तुझे ज्ञान का उपदेश देगा । ३. “मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव ! " - तैत्तिरीयोपनिषद् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनदर्शन स्वाध्याय : 'स्व' एवं 'अध्याय' इन दो शब्दों के समास से स्वाध्याय शब्द बना है। इसका अर्थ होता है स्व का-आत्मा का-अपने जीवन का अध्ययन । जीवनप्रेरक सदुपदेश का वाचन-श्रवण-विचारणा वह स्वाध्याय । यह चित्त को स्वस्थ रखने में उपयोगी होता है और जहाँ-तहाँ भटकनेवाले मन को 'भीतर' झाँकने के लिये प्रेरित करता है । इसके परिणामस्वरूप प्रगति एवं प्रकाश का मार्ग सरल बनता है । स्वाध्याय' एक तप है और इसे तप के (उच्च कक्षा के तप के) भेदों में एक भेदरूप से शामिल करके जैनधर्म ने तप की व्यापकता एवं प्रत्यक्ष फलप्रदता का सुन्दर प्रदर्शन किया है । संयम : इन्द्रियों पर अंकुश, मन पर अंकुश, वाणी एवं विचारों पर अंकुश, रसेन्द्रिय पर अंकुश, काम-क्रोध-लोभ पर अंकुश इसी का नाम संयम । जीवनयात्रा को सुखी, शान्त एवं आनन्दित रखने के लिये संयम की कितनी आवश्यकता है ? प्रमादभाव और संकल्प का दौर्बल्य जीवन के बड़े से बड़े रोग है । इन रोगों के कारण गिरता हुआ मनुष्य अन्ततः बहुत बुरी दशा में जा गिरता है । संयम तो मानसिक सुख का स्रोत है । शारीरिक अथवा भौतिक सुख का स्वाद भी संयम द्वारा ही मिल सकता है । बौद्ध धर्म का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'धम्मपद' कहता है कि १. स्वाध्यायान्न प्रमदितव्यम् । —तैत्तिरीयोपनिषद् २. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥ —गीता अ. १६, श्लोक. २१. ३. न गंगा यमुना चापि सरयू वा सरस्वती । निन्नगा वा चिरवती मही चापि महानदी । सक्कुणंति विसोधेतुं तं मलं इघ पाणिनं । विसोधयति सत्तान यं वे सीलजलं मलं ॥ विशुद्धिमग्ग अर्थात्-गंगा, यमुना, सरयू, सरस्वती आदि नदियाँ प्राणियों के उस मैल को धो नहीं सकतीं जिसे सदाचरणरूप जल धो सकता है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयन्ति ये पमत्ता मता यथा ॥ अर्थात्—अप्रमाद अमृतपद है, जबकि प्रमाद मृत्यु धाम है । अप्रमादी मरता नहीं है ( उसका भौतिक शरीर नष्ट होने पर भी वह नहीं मरता, क्योंकि वह सत्कर्मों का जो प्रकाश फैला गया है उसके आलोक से वह सदा प्रकाशमान ही रहता है), जबकि प्रमादी मनुष्य जीता हुआ भी मरा पड़ा है । १२७ मनुष्य के पास यदि कोई आदर्श हो तभी संयमशील रह सकता है । परन्तु ऐसे आदर्श के साथ ही सर्जन का आनन्द मिले ऐसा कोई कार्यक्षेत्र' यदि उसके पास न हो तो संयम दुष्कर हो जाता है। मनुष्य शील का मूल्य जानता हो और शील के महत्त्व से वह प्रभावित हो तो संयममय जीवन जीया जा सकता है । संयम के लिये वातावरण की आवश्यकता है । वातावरण यदि संयमपोषक न हो तो गृहस्थ एवं संन्यासी दोनों के लिये संयम कठिन हो जाता है । संक्षेप में, संयम के पीछे भावना, सर्जन का आनन्द, I शीलनिष्ठा एवं वातावरण हों तो ये सब उसे उपयोगी तथा सहायक होते हैं । तप : उपवासादि तप का महत्त्व और गौरव उसके पीछे रहे हुए किसी उदात्त हेतु एवं भावशुद्धि पर अवलम्बित है । इसी तत्त्व पर उसे तपरूप से प्रतिष्ठा मिल सकती है । लोकसेवा के लिये अथवा अनीति - अन्याय के आवरणों से आवृत सत्य अथवा सत्य वस्तु को प्रकाश में लाने के लिये शुद्ध आध्यात्मिक प्रयास के रूप में महामना विशेषज्ञ अनशनादि तप का आश्रय लेते हैं । इनके पीछे रहे हुए पवित्र - प्रशस्त आशय के कारण तथा उज्ज्वल चित्तवृत्ति से सुशोभित होने के कारण अनशनादि तप लोकवन्द्य एवं श्रेयस्कर बनते हैं । योग, ध्यान, चित्तशुद्धि अथवा इन्द्रियसंयम के आशय से अशन का त्याग किया जाय, अन्तर्मुख होने की अथवा आत्मशान्ति प्राप्त करने की उच्च भावना से, सच्चिन्तन या स्वाध्याय अथवा अन्य किसी सत्कार्य या कल्याणलाभ के लिये अशन ( खानपान) की उपाधि से दूर रहा जाय १. All you lies in creation. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनदर्शन तो ऐसा अनशन श्रेयस्कर तप है । जिन सज्जनों ने विद्याव्यासंग में निरत रह कर प्रशस्य शास्त्रों की रचना की है उनका विद्याव्यासंग में निरत रहकर प्रशस्य शास्त्रों की रचना की है उनका विद्याव्यासंग, शास्त्र-स्वाध्याय और ग्रन्थनिर्माण यह सब श्रेष्ठ तप है । कोई एक महान् कार्य हाथ में लेकर उसे पूर्ण करने के लिये सर्वप्रथम विचारणा करना, साधन एवं सहायक जुटाने, आयोजना करके उसे कार्यान्वित करना और यह सब करते-करते भूख, प्यास, श्रम एवं परिश्रम तथा कष्ट आदि भूल कर एकाग्रता से काम के पीछे लग जाना—यह समग्र व्यापार और व्यवहार तप है । लोगों के लिये पानी आदि का प्रबन्ध और तदर्थ प्रयत्न तप है । इसी प्रकार आत्मशोधन के प्रयास अथवा पवित्र कार्य में लगन तप है । परोपकारवृत्ति तप है । सत्यवादी का सत्यवाद, ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य, सेवक की सेवा, योगी का योग, ध्यानी का ध्यान, भक्त की भक्ति, विद्यार्थी का विद्याभ्यास, विद्वान् का विद्याव्यासंग, अध्यापक की अध्यापकता, उपदेशक की उपदेशकता, लोकहितैषी की लोकहितसाधना ये सब निष्ठापूत होने पर तप है । इतना ही नहीं, प्रामाणिकतापूर्वक स्वकर्मनिष्ठा भी तप है । तप का सौंदर्य तो उसके पीछे रहे हुए विशिष्ट प्रकार के उल्लास और आनन्द में है । योग्यरूप से किया जानेवाला प्रमाणोचित उपवास शारीरिक आरोग्य के लिये लाभदायी है । सुज्ञबुद्धि मनुष्य को उसके आध्यात्मिक लाभ के (मानसिक विशोधन के) कार्य में भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है । इससे सहिष्णुता का अभ्यास होता है । 'उपवास 'शब्द में 'उप' का अर्थ समीप 'वास' का अर्थ बसना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि 'आत्मा के समीप अर्थात् आत्मा की शुद्ध स्थिति में बसना ।' जितने अंश में यह अर्थ सधे उतने अंश में उपवास तप है । 'आयम्बिल' से' रसलोलुपता पर अंकुश लाने १. 'आयम्बिल' एक बार भोजन करने का व्रत है, परन्तु उस भोजन में दूध, दही, तेल, घी, गुड, चीनी और मिर्च आदि मसाले तथा हरे अथवा सूखे शाक-तरकारी, फल आदि सबका त्याग होता है । गेहूँ, बजरी, मूंग, उडद, चना, चावल आदि अनाज में से बनाए दाल, भात, रोटी आदि लिये जाते हैं । धानी, चना, मुरमुरा भी लिया जाता है और निमक, सोंठ, काली मिर्च का भी उपयोग किया जाता है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १२९ का प्रयोजन साधने का है । स्वास्थ्य के समीकरण में भी वह उपयोगी हो सकता है । एकाशन से भोजन का झंझट एक बार में ही निबट जाता है और तबियत हलकी होने के साथ ही कार्य-प्रवृत्ति के लिये अधिक अवकाश मिलता है । बाह्य - तप बाह्य होने कारण उस ओर लोगों का ध्यान जल्दी आकर्षित होता है, इसके पालन में विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं होती, यश एवं प्रशंसा भी शीघ्र मिलने लगते हैं, अतः इसका जल्दी प्रचार होता है । इसकी उपयोगिता तथा मर्यादा का भी ख्याल लोगों में नहीं रहता । बाह्य तप की विशेष उपयोगिता तो इसमें थी कि लोग अपने स्वास्थ्य को सम्भालें और अवसर आने पर कष्ट का सामना कर सकें इसलिये कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करते रहें । परन्तु इन दोनों बातों का विचार नहीं किया जाता । ये दोनो बातें सधती भी नहीं । भगवान् महावीर की बाह्य तपश्चर्या लोगों के ध्यान पर आती है, परन्तु हमें यह समझना चाहिए कि बाह्य तप की अपेक्षा अन्तरङ्ग तप उस महर्षि में अधिक था— अत्यन्त अधिक था । उस ओर हमारा ध्यान सर्वप्रथम जाना चाहिए और हमारा लक्ष्य भी वही होना चाहिये । भगवान् महावीर की बाह्य तपश्चर्या, पूर्वभव में किए गए दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप उनके चित्त में पड़े हुए संस्कारदोषों (कर्म-दोषों ) को प्रायश्चित्त द्वारा पकड़-पकड़ कर उनका नाश करने के लिये थी । इसी प्रकार उस समय आहार के लिये तथा यज्ञों में जो अतिप्रचुर पशुहिंसा होती थी उसके विरुद्ध लोकहृदय में पुण्यप्रकोप जागरित कर हिंसा के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा करके उसका प्रचार करने की जो प्रखर भावना उस परम कारुणिक पुरुष में रममाण थी उसे मूर्तरूप देने के लिये भी [ उनकी बाह्य तपश्चर्या ] थी । उस समय जो लड़ाइयाँ होती थीं उनमें पराजित राज्य के स्त्री-पुरुषों को कैद करके गुलामों की भाँति बेचने रखीदने की प्रथा थी, ऐसी प्रथा के विरुद्ध लोगों में घृणा उत्पन्न हो और ऐसी प्रथा को निर्मूल करने के लिये वे प्रवृत्त हों ऐसी-ऐसी लोकहितावह पुण्य भावनाएँ भी इस कल्याणमूर्ति पुरुष के तप के चारों ओर फैली हुई होना बहुत सम्भव है । इस सत्पुरुष के पूर्वभव के जीवनचरित के अवलोकन पर से ऐसी कल्पनाएँ स्फुरित होती हैं । संन्यस्त Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनदर्शन महावीर केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व चतुर्ज्ञान के धारक थे और उनकी ख्याति उस समय भी (अन्य सम्प्रदायों की विशाल जनता में तथा उन लोगों के लोकमान्य धर्मनायकों में भी) एक दीर्घतपस्वी के रूप में फैली हुई थी, ऐसे भगवान् महावीर अपनी दीर्घ तपश्चर्या सिर्फ शरीरकष्ट के लिये ही करें यह नहीं माना जा सकता । वस्तुत: इस महान् विश्ववत्सल की महान् तपश्चर्या के पीछे कल्याणसाधना का विशाल दृष्टिबन्दु था—ऐसा उनके जीवनचरित के अध्ययन से प्रकट होता है । महावीर प्रभु का भीषण अभिग्रह और उसके साथ चन्दनबाला की गुलामी में से मुक्ति की विशिष्ट घटना का सम्बन्ध इस पर से महावीर के व्यापक तेजस्वी तप का ख्याल आ सकता है । अन्तरंग-तप के बिना बाह्य-तप का मूल्य नहीं है । मुख्य तप और श्रेष्ठ-तप आभ्यन्तर-तप है । उसके साथ बाह्य-तप जितने अंश में अनुकूल हो, जितनी मात्रा में उपकारक हो, उतने अंश में, उतनी मात्रा में वह सार्थक है । परन्तु चित्तशोधन, जीवनविकास अथवा आरोग्यलाभ किसी में भी यदि वह उपकारक न हो तो ऐसा अज्ञान तप निरर्थक है । बाह्य-तप करनेवाले को सतत ध्यान में रखना चाहिए कि वह दूसरे पर भाररूप न हो । प्रसंगवश यह याद कराना उपयोगी होगा कि आरोग्य के लिये, पेट में पड़ा हुआ अन्न पच कर शरीर में रसरूप से परिणत हो यह आवश्यक है। पाचनशक्ति का नाश होने पर सभी प्राण नाश के मार्ग पर प्रयाण करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं, । रोग मनुष्य के मन पर खराब प्रभाव डालते हैं और आत्मध्यान में अथवा धर्मसाधन में विघ्नररूप भी होते हैं । अतः यह प्रथम आवश्यक है कि शरीर नीरोग रहे । इसलिये बाह्य-तप इस तरह न करना चाहिए जिससे शरीर में रोग उत्पन्न हो और इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ) कार्यक्षम न रहे । उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज अपने 'ज्ञानसार' अष्टक के तपोऽष्टक में कहते हैं कि तदेवं हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड अर्थात् — तप ऐसा करना चाहिए जिसमें दुर्ध्यान न हो, मन-वचनकाय का बल नष्ट न हो और इन्द्रियों में क्षीणता न आए । इस बारे में नीचे का श्लोक स्पष्ट मार्गदर्शन कराता है कायो न केवलमयं परितापनीयो मिष्ट रसैर्बहुविधैर्न च लालनीयः । चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेन वश्यानि येन च तदाचरितं जिनानाम् ॥ अर्थात् — यह शरीर केवल तपाने के लिये भी नहीं है तथा नानाविध मिष्ट रसों से लालन-पालन करने योग्य भी नहीं है, किन्तु मन और इन्द्रियाँ उत्पथगामी न हों और वश में रहे इस प्रकार से बरतने का है । यह जिनभक्त श्लोककार वस्तुतः दोनों अन्तों के मार्ग लेने को कहता है । १३१ भगवद्गीता जीवन के व्यापक धोरण का निर्देश करती हुई कहती युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तास्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥ बीच का (मध्यम) अर्थात् -- जिसका आहार-विहार, जिसका उद्योग या श्रमकार्य और जिसका सोना- जगना नियमित और सप्रमाण है उसे दुःखविनाशक योग प्राप्त होता है । सारांश यह कि रोगनिवारण के लिये, अभ्यास के लिये जिससे भविष्य में अवसर आने पर सेवा का अथवा कष्ट सहन का कार्य किया जा सके अथवा अपने पर जिसका सद्भाव हो उसने यदि कोई दुश्चरित किया हो तो उसके निवारण के लिये, परहित (सेवाकार्य ) के लिये, विद्याभ्यास, पठन-पाठन, वाचन-लेखन या चिन्तन के लिये अवकाश मिले इसलिये अथवा आत्मशुद्धि के कार्य के लिये बाह्य तप कर्तव्य है । वासनाओं को क्षीण करने में उपयोगी जरूरी आध्यात्मिक बल प्राप्त Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनदर्शन करने के लिये शरीर, इन्द्रिय और मन को जिस-जिस आँच से पकाया जाता है वह सब तप है । और यह बात अच्छी तरह से कही जा चुकी है कि बाह्य-तप का महत्त्व आभ्यन्तर तप की पुष्टि के लिये उपयोगी होने में ही माना गया है, अर्थात् बाह्य-तप आभ्यन्तर तप के पास पहुँचने में सहायक होना चाहिए ऐसा शास्त्रकारों का उपदेश है । बाह्य एवं आभ्यन्तर तप के इस वर्गीकरण में समग्र स्थूल तथा सूक्ष्म धार्मिक नियमों का समावेश हो जाता है । बाह्य-तप : बाह्य-तप के छह भेद हैं : १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. वृत्तिसंक्षेप, ४. रस-त्याग, ५. कायक्लेश और ६. विविक्तशय्यासनसंलीनता । १. अशन का त्याग अर्थात् उपवास अनशन है । २. क्षुधा की अपेक्षा कम आहार लेना अवमौदर्य अथवा ऊनोदरिता है। ३. विविध वस्तुओं की ओर रहनेवाली लालच को कम करना वृत्तिसंक्षेप है । ४. घी, दूध, मक्खन, शहद आदि का तथा शराब आदि हानिकारक रसों का त्याग रसत्याग है । रसत्याग के पीछे रसस्वाद रस-लोलुपता पर विजय प्राप्त करने का उद्देश है। रसलुब्ध न हुआ जाय, रस के आस्वाद में आहार की मात्रा अव्यवस्थित न होने पाए तथा रस के बिना भी चलाने का अभ्यास हो सके ऐसा आशय रसत्याग के पीछे रहा है इसलिये शराब तो त्याज्य है ही, परन्तु घी, दूध जैसे शरीर-पोषक निर्दोष पदार्थ भी अपनी जीवनचर्या को अच्छी और विकसित बनाने की दृष्टि से सप्रमाण लिए जायँ वहीं तक वे हितावह हैं । ५. सर्दी में, गरमी में अथवा विविध आसन आदि से शरीर को कसना कायक्लेश है। किसी समय कोई शारीरिक कष्ट आ पड़े तो उस समय मनुष्य उसे सहन कर सके-समभाव रख सके इस दृष्टि से इस तप का विधान है । बाकी, शरीर को सिर्फ दुःख देने के लिये अथवा दूसरों पर प्रभाव डालने के लिये, दूसरों को चकित करने के लिये अथवा दूसरे की दया उत्तेजित करके कुछ प्राप्त करने की इच्छा से यदि कायक्लेश किया जाय अथवा दूसरों पर अनुचित दबावरूप हो तो वह अज्ञान-चेष्टा है । जितने अंश में वह चित्तशुद्धि करने में अर्थात् आसक्ति, दोष तथा कषाय-विकारों को दूर करने Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १३३ में उपकारक होता है उतने ही अंश में वह सार्थक है, तप है । अतः अमुक कायक्लेश के सहने में जीवनशुद्धि अथवा आत्महित का लाभ होना सम्भव है या नहीं यह विचारना आवश्यक है । ६. बाधारहित एकान्त स्थान में आत्मलाभ के लिये रहना विविक्तशय्यासनसंलीनता है । आभ्यन्तर तप : श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के ९१वें श्लोक की वृत्ति में कहते हैं कि "निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः ।" अर्थात् कर्मों की निर्जरा करने के लिये बाह्य तप की अपेक्षा अभ्यन्तर तप श्रेष्ठ है ।। अभ्यन्तर तप के भी छह भेद -१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वेयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान । १. लिए हुए व्रत में होनेवाले प्रमादजन्य दोषों का जिससे शोधन किया जाय वह प्रायश्चित्त है । २. ज्ञान आदि सद्गुणों के बारे में बहुमान रखना विनय है । ३. योग्य साधन प्रस्तुत करके अथवा अपने आपको काम में लगा कर सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्त्य' है । ४. ज्ञानप्राप्ति के लिए विविध प्रकार का अभ्यास करना स्वाध्याय है । अहंत्व और ममत्व का त्याग करना व्युत्सर्ग है । ६. चित्त के विक्षेप दूर कर के उसकी एकाग्रता सिद्ध करना ध्यान है । इसमें विनय ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, और उपचारविनय इस तरह चार प्रकार का है । ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास चालु रखना यह ज्ञान का सच्चा विनय है । तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन से चलित न होना, उसमें आनेवाली शंकाओं का यथाशक्ति संशोधन करके निःशंकता लाना यह दर्शनविनय है । चारित्र में चित्त का समाधान रखना १. जैन-धर्म दूसरे की सेवा करने को भी तप मानता है और तप के विशिष्ट भेदों की परिगणना में उसका समावेश करता है । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनदर्शन चारित्रविनय है । किसी भी सद्गुण के कारण जो व्यक्ति अपने से श्रेष्ठ हो उसका योग्य विनय करना-उसकी ओर समुचित आदरभाव रखना उपचारविनय है । विनय गर्व तथा दूसरों की ओर होनेवाली तिरस्कारवृत्ति के त्याग का सूचन करता है। उच्च अथवा नीच माने जानेवाले की तरफ भी मैत्रीपूत सभ्यता रखनी चाहिये । विनय यानी मृदु-नम्र व्यवहार । ध्यान : मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है । आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इस प्रकार ध्यान के चार भेद हैं। इनमें से धर्म और शुक्ल ध्यान कल्याणकारक तथा मोक्षसाधक होने से तप के भेदरूप हैं। आर्त एवं रौद्र ध्यान दुर्ध्यान हैं, दुर्गतिकारक हैं, अतः त्याज्य हैं । यहाँ इन चार ध्यानों को हम संक्षेप में देखें । १. आत-ध्यान : आर्तध्यान दुःखमय चिन्तनरूप है । अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर उससे छुटकारा पाने के लिए जो उत्कट चिन्ता की जाती है वह प्रथम आर्तध्यान है । बीमारी या दुःख आने पर उसे दूर करने की व्यग्रतापूर्ण चिन्ता-सतत चिन्ता दूसरा आर्तध्यान है । प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए जो उत्कट चिन्ता की जाती है वह तीसरा आर्तध्यान है । अप्राप्ति के लिए संकल्प करना अथवा व्याकुल होना चौथा आर्तध्यान है । 'अति' अर्थात् पीडा या दुःख, तत्सम्बन्धी ध्यान वह आर्तध्यान, अथवा आर्त का—पीडित का अपना ध्यान वह आर्तध्यान अर्थात् दुःख से विह्वल या तृष्णापीड़ित होना वह आर्तध्यान । दुःख की उत्पत्ति के मुख्य चार कारण है : अनिष्ट वस्तु का संयोग, प्रतिकूल वेदना, इष्ट वस्तु वियोग और भोग की लालसा । इन कारणों पर से आर्तध्यान के चार भेद किए गए हैं : १. अनिष्टसंयोग आर्तध्यान, २. रोगचिन्ता आर्तध्यान, ३. इष्टवियोग आर्तध्यान, और ४. अप्राप्त भोग प्राप्त करने का तीव्र संकल्प वह निदान-आर्त्तध्यान । [निदान अर्थात् संकल्प] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड २. रौद्र - ध्यान : रौद्र अर्थात् क्रूर अथवा कठोर, ऐसे चित्त अथवा जीव का ध्यान वह रौद्रध्यान । हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षण के लिए जो क्रूरतापूर्ण चिन्तन किया जाता है वह रौद्रध्यान । इस पर से हिंसानुबन्धी, अनृतानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी- इस प्रकार रौद्रध्यान के चार भेद किए गए हैं जो क्रमशः हिंसामय चिन्तारूप, असत्यमय चिन्तारूप, चौर्यमय चिन्तारूप और विषयसंरक्षणचिन्तारूप हैं । पाप में अथवा पाप से उपलब्ध लाभों में आनन्दरूप-उल्लासरूप वृत्ति रौद्रध्यान है । अतः उपर्युक्त हिंसानुबन्धी आदि चार भेद अनुक्रम से हिंसानन्द, अनृतानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द रूप हैं । ( कुशीलानन्द का समावेश परिग्रहानन्द में किया जा सकता है और महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का निर्देश जिस प्रकार अलग किया गया उस प्रकार यह अलग भी गिना जा सकता है 1) ३. धर्म - ध्यान : यह आत्मकल्याणरूप ध्यान है । जो कुछ एकाग्रभूत सच्चिन्तन (धर्मरूप चिन्तन, कल्याणरूप चिन्तन) हो वह धर्मध्यान है । उदाहरणार्थ, (१) वीतराग महापुरुष की क्या आज्ञा है ? वह कैसी होनी चाहिए ? इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा की खोज के लिए मनोयोग देना 'आज्ञाविचय' धर्मध्यान है । (२) रागादि दोषों के स्वरूप की और उन दोषों से हम किस प्रकार दूर हो सकते हैं इसकी विचारणा में जो मनोयोग दिया जाता है वह 'अपायविचय' धर्मध्यान है । (४) लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग देना 'लोकसंस्थानविचय' धर्मध्यान है । ४. शुक्ल - ध्यान : यह बहुत उच्च भूमिका का मोहनीय कर्म की उपशान्त अथवा क्षीण होनेवाली अवस्था का अतिसूक्ष्म ध्यान है । इसके स्वरूप का ख्याल पढ़ने से अथवा सुनने मात्र से आना कठिन है । ध्याता जब परमाणु आदि जड़ १३५ १. शुक्लध्यान के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के ११वें प्रकाश के ११वें श्लोक की वृत्ति में । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनदर्शन अथवा आत्मरूप चेतन ऐसे एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का विविध दृष्टि-बिन्दुओं से भेदप्रधान चिन्तन करता है एक 'योग' पर से दूसरे ‘योग अथवा शब्द पर से अर्थ पर और अर्थ पर से शब्द पर जाकर चिन्तनपरायण बनता है तब वैसे ध्यान को 'पृथक्त्ववितर्क सविचार' नाम का शुक्ल-ध्यान कहते हैं । इस नाम का अर्थ इस प्रकार है : "पृथक्त्व' यानी भेद, और भेदप्रधान वितर्क (चिन्तन) वह पृथक्त्ववितर्क । यह एक 'योग पर से दूसरे 'योग' पर अथवा शब्द पर से अर्थ (द्रव्य) पर और अर्थ पर से शब्द पर-इस प्रकार विचरणशील होने से 'सविचार' कहलाता है [यहाँ पर 'विचार' का अर्थ विचरण है । इस प्रकार यह ध्यान विचरणशील होने पर भी एकद्रव्यविषयक होने से मनःस्थैर्यरूप है । जब यह भेदप्रधान मिट कर अभेदप्रधान चिन्तनरूप बनता है और वह भी एक ही पर्याय पर, तब वह ‘एकत्ववितर्क' कहलाता है। यह उपर्युक्त ध्यान की भाँति विचरणशील न होने से 'अविचार' (विचरणरहित) कहलाता है । पहली श्रेणी के शुक्लध्यान की अपेक्षा यह दूसरी श्रेणी का शुक्लध्यान अतिप्रखर है, क्योंकि शब्द, अर्थ और योगों में विचरणशील न होकर किसी एक ही पर्याय पर पूर्णरूप से यह अटल रहता है । प्रथम शुक्लध्यान का अभ्यास दृढ होने के बाद ही इस दूसरे शुक्ल ध्यान के लिये समर्थ हुआ जा सकता है । जिस प्रकार सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त सर्प आदि के विष को यदि प्रथम संहननवाले को शुक्लध्यान का अधिकार है तो आज के सेवार्तसंहननवालों को शुक्ल ध्यान का उपदेश क्यों दिया जाता है ? ऐसा प्रश्न पूछकर स्वयं उसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यद्यपि वर्तमानयुगीन मनुष्यों को शुक्ल-ध्यान का अधिकार नहीं है, फिर भी सम्प्रदाय (इस विषय का ज्ञानसम्प्रदाय टूटने न पाए इसलिये इसका उपदेश दिया जाता है । योगशास्त्र की समाप्ति करते हुए आचार्य महाराज मोक्षोऽस्तु माऽस्तु यदि वा परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु । यस्मिन्निखिलसुखानि प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव ॥ इस अन्तिम श्लोक (बारहवें प्रकाश के ५१वें श्लोक) से कहते हैं कि मोक्ष हो या न हो, परन्तु चित्त की स्थिर दशा में उस परमानन्द का संवेदन होता है जिसके आगे समग्र सुख मानो कुछ भी नहीं है ऐसा प्रतीत होता है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ द्वितीय खण्ड मन्त्रादि उपायों द्वारा दंश के स्थान पर एकत्रित किया जाता है उसी प्रकार समस्त विश्व के पदार्थों में भ्रमणशील अस्थिर मन को ध्यान द्वारा किसी एक अणुपर्याय पर लाकर स्थिर किया जाता है । यह स्थिरता सुदृढ होने पर (पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचने पर) मन पूर्णरूप से शान्त हो जाता है । जिस प्रकार ईंधन शेष न रहने पर अथवा ईंधन का सम्बन्ध समाप्त हो जाने पर आग स्वयमेव बुझ जाती हैं उसी प्रकार मन उपर्युक्त क्रम से एक अणु पर पूर्णरूप से स्थिर होते ही उसका चाञ्चल्य सर्वथा दूर कर होकर वह पूर्ण शान्त बन जाता है । इसके परिणामस्वरूप मोहावरण का संयोग सर्वथा नष्ट हो जाने से सम्पूर्ण ज्ञानदर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म हट जाते हैं जिससे केवलज्ञानरे (सर्वज्ञाता) प्रकट होता है । इस तरह शुक्ल-ध्यान के दूसरे भेद के बल पर तत्काल सार्वज्ञ्य प्रकट होता है । केवली भगवान् अपने निर्वाण के समय योगनिरोध के कार्यक्रम में जब सूक्ष्म शरीर-योग का अवलम्बन लेकर मन एवं वचन के सूक्ष्म योग का निरोध करते हैं तब उस अवस्था को 'सूक्ष्मक्रिय' ध्यान कहते हैं । यह अवस्था ध्यान (चिन्तन) रूप अवस्था नहीं है, फिर भी इस अवस्था को जो 'ध्यान' कहा है वह एक रूढि है । इसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि मन की स्थिरता जिस प्रकार 'ध्यान' है उसी प्रकार शरीर की स्थिरता भी ध्यान' कही जा सकती है। इस अवस्था में श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म शरीरक्रिया ही अवशिष्ट रहने से इसे 'सूक्ष्मक्रिय' कहते हैं । यह क्रिया भी जब बन्द हो जाती है और आत्मप्रदेशों की सम्पूर्ण निष्कम्पता प्राप्त होती है तब उस अवस्था को 'समुच्छिन्नक्रिय' ध्यान कहते हैं । इस क्षणभर १. त्रिजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः । विषमिव सर्वाङ्गगतं मन्त्रबलान्मान्त्रिको दंशे ॥१९॥ अपसारितेन्धनभरः शेषस्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः । तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् ॥२०॥ –हेमचन्द्र, योगशास्त्र प्रकाश ११॥ २. ग्यारहवें गुणस्थान में होनेवाले दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान में होनेवाला शुक्लध्यान अत्यधिक प्रखर होता है । वस्तुतः बारहवें गुणस्थान में मनःस्थैर्यरूप शुक्लध्यान की पूर्णता होती है । इसीलिये वह तत्काल ही केवलज्ञान प्रकट करती है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनदर्शन की अवस्था में आत्मा कर्ममुक्त और देहमुक्त होकर ऊर्ध्व गमन करता हुआ क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग पर पहुँच जाता है और वहीं स्थिर होता है । ध्यान का विवेचन पूर्ण हुआ और इसके साथ ही षट् कर्मगत पाँचवें कर्म तप का विवेचन भी पूर्ण हुआ । अब — दान : दान न्यायपूत द्रव्य का योग्य स्थान एवं योग्य पात्र में कर्तव्य है । दान जितने प्रमाण में किया जाता है उतने प्रमाण में वह त्याग है । त्यागी बनकर शुद्ध परोपकारपरायण बनना दान की पराकाष्ठा है । त्यागी मनुष्य अपने निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कर के, किसी प्रकार की संग्रह करने की बुद्धि रखे बिना अपनी समग्र शक्ति जीवन के उच्च आशय के पीछे लगाकर स्वपरहित के कार्य में संलग्न रहता है । वह समाज के पास से कम से कम लेकर अधिक से अधिक समाज को एक या दूसरे रूप में देता है ऐसे त्यागी मनुष्य के पास जो नहीं होता उसका दान तो वह दे ही नहीं सकता, परन्तु वह अपनी साधना और विकसनशील शक्तियों का लाभ जब जनता को निर्मल वात्सल्य भाव से देता है तब किसी धनिक- महाधनिक के असंख्य धन दान की अपेक्षा इस त्यागी का दान कहीं अधिक श्रेष्ठ है । महावीर, बुद्ध और ऐसे दूसरे तेजस्वी त्यागी इतने महान् दाता हैं कि धन का बड़े से बड़ा दान करनेवाले दुनिया के बड़े-बड़े श्रीसम्पन्न पुरुषों की अपेक्षा वे कहीं अधिक ऊँचे हैं । समझदार धनी अपने धन का दान प्रायश्चित्त के रूप में देता है, अपना कर्तव्य तथा स्वपरकल्याण का मार्ग समझकर देता है । बड़ाई के लिये दिया जानेवाला दान बड़ाई में उड़ जाता है । जिस प्रकार धन अथवा वस्तु का दान होता है उसी प्रकार वचन से किसी को अच्छा मार्ग बताना, अच्छा परामर्श देना तथा वचन द्वारा किसी का भला करना, किसी का हित साधना भी दान है । शिष्टमिष्ट वाणीव्यवहार मिष्ट दान है । इसी प्रकार अपने शरीर से किसी का भला करना, किसी के हित के काम में सक्रिय सहायक होना भी दान है । इस तरह दान-धर्म का पालन अनेक प्रकार से किया जा सकता है । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १३९ कौनसा दान बड़ा है ? इसका सादा जवाब यही है कि जिस समय जिसकी आवश्यकता हो उसी का दान बड़ा । जैसे कि प्यासे के लिये पानी का दान बड़ा, रोगी के लिये औषध का दान बड़ा, भूखे के लिये भोजन का दान बड़ा, वस्त्रहीन के लिये वस्त्र का दान बड़ा, निरक्षर के लिये अभयदान बड़ा । जिस समय जिसकी आवश्यकता पहली उसका दान पहला करना चाहिए । ___ दान अर्थात् अर्पण उसके कर्ता एवं स्वीकार करनेवाले दोनों का उपकारक होना चाहिए । अर्पण करनेवाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर की उसकी ममता दूर होती है और इस तरह उसका सन्तोष तथा समभाव बढ़ता है। स्वीकार करनेवाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उसकी जीवनयात्रा में सहायता मिलती है और इसके परिणामस्वरूप उसके सद्गुण खिलते हैं । शक्ति का उपयोग धन कमाने में करना और बाद में धन का दान करना इसकी अपेक्षा सीधा शक्ति का दान कैसा ? 'सीधा शक्ति का दान' का अर्थ है नि:स्वार्थ सेवाभावी जीवन धारण करना । इस प्रकार का जीवन त्यागी जीवन बन जाता है । नीति के मार्ग पर चल कर और श्रमयुक्त जीवन जी कर सद्विचार अथवा पवित्र और उपयोगी ज्ञान का दान करना, दूसरों का सत्कार्य-परायण बनने के लिये यथाशक्ति प्रेरक होना-इनका अर्थदान की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्व है । धन की अपेक्षा विद्या एवं ज्ञानसंस्कार का स्थान बहुत ऊँचा है, अतः इनका दान धनदान की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा है। ऐसे श्रेष्ठ दान का लाभ पहुँचाने के कार्य में उपयोगी होने में ही धनयोग की प्रशस्यता है । इस तारतम्य की ओर ध्यान देना जरूरी है । सेवा' दान की श्रेष्ठ स्थिति है । 'अद्वेटा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एवं 1. "The service of the poor is the service of God.” अर्थात्-दीन दुःखियों की सेवा ईश्वर की सेवा है। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर अपने मुख्य शिष्य गौतम इन्द्रभूति को सम्बोधन करके कहते हैं कि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनदर्शन च' अर्थात् द्वेषवृत्ति से रहित, सर्व जीवों की ओर मैत्रीभाव रखनेवाला तथा करुणापूर्ण मानस स्वयमेव दान- भावना का बहता झरना है। ऐसा मानस वाणी एवं शरीर द्वारा यथाशक्ति दानधर्म के प्रवाह को सतत प्रवाहित रखता है । दान चाहे शरीरश्रम से दिया गया हो अथवा मानसिक श्रम से दिया गया हो, शिक्षण संस्कार अथवा सहानुभूति के रूप में दिया गया हो या धन अथवा अन्य उपयोगी वस्तु का किया गया हो, उसका समावेश त्याग में होता है यह ऊपर कहा ही जा चुका है । त्याग के तीन उद्देश शक्य हैं (१) संयममूलक त्याग अर्थात् जो संयम में समाविष्ट होनेवाले पाँच व्रतों के पालन में उपकारक हो । व्यर्थ मौजमजा की चीजें जो सात्त्विक अथवा निर्दोष आनन्द देने के बदले शरीर के लिये हानिकार हों, मन को बिगाडने वाली हों, धन की निरर्थक बरबादी करनेवाली हों और तृष्णा एवं आसक्ति को बढानेवाली हों उनका त्याग संयममूलक त्याग है। ___ महारम्भ से मिलों में बने हुए आकर्षक तथा बारीक वस्त्रों के बदले अल्पारम्भ से बने हुए हाथकताई और हाथ बुनाई की खादी जैसे वस्त्र का उपयोग करने में, पञ्चेन्द्रिय मछलियों को चीर कर निकाले गए मोती के आभूषण तथा चतुरिन्द्रिय कीडों का नाश करके बनाए गए रेशमी वस्त्रों का उपयोग न करने में, "गोयमा ! जे गिलाणं पडिचर से मं दंसणेण पडिवज्जइ । जे मं दंसणेणं पडिवज्जइ से गिलाणं पडिचरइ ॥" अर्थात्-हे गौतम ! जो बीमार-दुखियों की सेवा करता है वह दर्शन (सम्यग्दर्शन) द्वारा मेरी उपासना करता है और जो दर्शन (सम्यग्दर्शन) द्वारा मेरी उपासना करता है वह बीमार-दुखियों की सेवा करता है । “They asked a great one, How many ways are there to God ? He said : There are as many ways as there are atoms in the universe, but the best and shortest is service.” अर्थात्-लोगों ने किसी सन्त से पूछा : 'ईश्वरप्राप्ति के कितने मार्ग है ?" सन्त ने कहा : जगत् में जितने अणु हैं उतने, परन्तु सबसे अच्छा और सबसे छोटा मार्ग सेवा है।" Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १४१ पशुओं का वध करके बनाए गए चमडे के जुते आदि पदार्थों के उपयोग का त्याग करके स्वाभाविक रूप से मरे हुए पशुओं के चमडे की बनी हुई वस्तुओं के उपयोग में, शृंगारप्रेरक नाटक, सिनेमा आदि देखना बन्द कर देने में, पुरुषों को गहने की आवश्यकता नहीं है और स्त्रियों को भी सौभाग्यदर्शक आभूषणों के अतिरिक्त दूसरे गहनों की आवश्यकता नहीं है, फिर भी धनिकता का प्रदर्शन करने के लिये अथवा दूसरों को चौंधियाने के लिये गहनों का जो ठाठ किया जाता है उसे त्यागने में, पफ-पावडर और लिपस्टिक आदि कृत्रिम प्रसाधनों द्वारा लोगों को आकर्षित करने में जो विलासप्रियता का परिचय दिया जाता है उसका त्याग करके सच्ची शोभा शीलपालन में रही हुई है ऐसा समझकर तदनुकूल बरतने में, केवल स्वाद के लिये 'कोल्ड ड्रिंक'-शीतल पेय नाम से प्रचलित पेयों का पीना त्यागने में, संयममूलक त्याग रहा हुआ है । (२) प्रेममूलक त्याग—अपने पास न होने पर भी प्राप्त हो सके ऐसी वस्तुएँ, तंगी के समय दूसरों की वास्तविक आवश्यकताएँ पूर्ण करने की दृष्टि से स्वयं संकोच करके अथवा स्वयं असुविधा सहकर दूसरों की सुविधा के लिये, लेने से इनकार करना और उनका उपयोग अथवा उपभोग करना छोड़ देना प्रेममूलक त्याग है । उदाहरणार्थ, चावल खानेवाली जनता की सुविधा के लिये दूसरे अनाज पर जीवननिर्वाह कर सकने वाले लोग यदि चावल का राशन छोड़ दें तो वह प्रेममूलक त्याग होगा । (३) दानमूलक त्याग में 'पुणिआ' श्रावक का उदाहरण दिया जा सकता है । वह रूई में से पूनियाँ बनाकर दो मनुष्य के निर्वाह जितना कमाता था, फिर भी वह स्वयं तथा उसकी पत्नी अनुक्रम से दिन एक दिन भूखे रहकर प्रतिदिन एक अतिथि को अपने घर खिलाते थे ।। परन्तु पाँच रुपए की नोट का त्याग करने के लिये कोई उसे फाड़ डाले तो क्या वह त्याग समझा जायगा ? अवश्य नहीं । यह तो केवल स्वच्छन्दता और मूर्खता ही समझी जायगी, क्योंकि इससे किसी को उतने पैसों का लाभ तो न हुआ, केवल उसका नाश हुआ । इसी भाँति जब बेकारी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनदर्शन और भूख के कारण समाज की विपद्ग्रस्त स्थिति हो उस समय उस ओर दुर्लक्ष करके और धर्म का निमित्त आगे रखकर आडम्बर अथवा कीर्ति के लिये धनव्यय करनेवाले को उचित एवं सच्चे त्याग से मिलनेवाला आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल सकता । इसी प्रकार जुआ, सट्टा, कालाबाजार अथवा अन्य अन्यायी तरीकों से प्राप्त किए गए धन से की जानेवाली धार्मिक क्रियाएँ सच्चे धर्म को दूषित करती है । इतना ही नहीं, अन्याय से धन उपार्जन करके धार्मिक समझी जानेवाली क्रियाओं में उसे खर्चने से धर्म होता है-ऐसा लोगों में मिथ्या भ्रम उत्पन्न होता है जिससे अधर्म से भी धन पैदा करने की वृत्ति को उत्तेजन मिलता है । त्याग एक प्रकार का स्व-परहितकारक तप है । स्वाद जय के लिये अथवा अन्य कारण अनशनादि तप करनेवाले मनुष्य अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार पूर्वोक्त 'पुणिआ' श्रावक के उदाहरण के हार्द का जब अनुसरण करेंगें तब अन्य किसी भी उपाय से न हो सकनेवाली ऐसी शासन की प्रभावना होगी । किसी भी धर्म की कल्याणकारकता का नाप उस धर्म के अनुयायियों के बरताव पर सामान्यत: लगाया जाता है । विशेषतया, धर्म के हार्द से अनभिज्ञ जनसमूह हमेशा ऐसा ही करता है । परोपकार के लिये अपने धन का खर्च करना अथवा अपना द्रव्य देना दान है और स्वपरकल्याण के लिये प्राप्त अथवा अप्राप्त सुख, सुविधा या सम्पत्ति को छोड़ देना त्याग है । दान के चार प्रयोजन गिनाए जा सकते हैं १. दुरुपार्जन (अनीति की कमाई) आदि के पाप का थोड़ा प्रायश्चित्त होता है । २. उपभोग के बाद बची हुई सम्पत्ति का सदुपयोग होता है । ३. जन-सेवा के कार्य-शिक्षणालय, औषधालय, जीर्णोद्वार आदि किए जा सकते हैं। ४. सच्ची साधुता को अवलम्बन अथवा सहायता दी जा सकती है । जो न्याययुक्त धन्धे-रोजगार करके कमाते है और उदारता से दानपरायण भी रहते हैं वे भाग्यशाली दानी हैं, और जो त्यागी संयमपूत जीवन जीने के साथ अपनी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ द्वितीय खण्ड भूमिका के अनुसार परोपकारपरायण रहते हैं वे महाभाग्यशाली त्यागी है । इस प्रकार षट्कर्म संक्षेप में हमने देखे । भक्ष्याभक्ष्य का विचार जैन आचार-ग्रन्थों में बहुत किया गया है । उनका रात्रिभोजननिषेध भी प्रसिद्ध है । रात्रिभोजन-निषेध : इस बात का तो प्रत्येक को अनुभव है कि सन्ध्या होते ही अनेक जीव, बहुत बडे प्रमाण में सूक्ष्म जन्तु उडने लगते हैं । रात्रि में दिये के आगे असंख्य जीव उडते अथवा घूमते नजर आते हैं । इसके अतिरिक्त हमारे शरीर पर भी रात पड़ते ही अनेक जीव बैठने लगते हैं और मुँह पर आकर ये गिरते हैं । खुले रहे हुए दिये में अनेक जीव पड़े मालूम होते हैं । ऐसी स्थिति में वे भोजन पर भी बैठते हों यह असम्भव नहीं। अतः रात्रिभोजन में जीवों की विराधना का दोष लगता है। अमुक प्रकार के जहरीले जन्तु भोजन के साथ पेट में जाने पर तत्काल अथवा विलम्ब से रोग उत्पन्न करते हैं । भोजन में यदि जूं आ जाय तो जलोदर होता है, मकड़ी आ जाय तो कुष्ठ रोग होता है, कीड़ी के आने से बुद्धि का हास होता है, मक्खी आने से कैं होती है और काँटा अथवा लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा जैसा आने से गले में पीड़ा होती है, और किसी समय जहरीला जीव खाने में आ जाय तो मृत्यु भी हो सकती है। रात्रि में रसोई पकाने और खाना खाने की अनेक ऐसी घटनाएँ हमारे सुनने में आती हैं जिनमें सर्पादि के गिरने से मनुष्यों की मृत्यु तक हुई है । सायंकाल अर्थात् सूर्यास्त से पूर्व किया गया भोजन रात में सोने के समय तक बहुत कुछ जठरानल की ज्वाला पर चढ जाने से निद्रा में अस्वास्थ्यकारक १. मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥ कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः । विलग्नश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ -हेमचन्द्र, योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लो० ५०-१-२. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनदर्शन 1 नहीं होता; परन्तु रात में खा कर थोड़ी देर में ही सो जाने से, आवश्यक भ्रमण आदि न होने कारण, पेट में तुरन्त ही डाला हुआ अन्न निद्रा में कभी-कभी खराब असर उत्पन्न करता है । भोजन के पश्चात् थोड़ा-थोड़ा पानी पीने का वैद्यक नियम('मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ) है । रात में भोजन करने से इस नियम का पालन नहीं हो सकता जिसके परिणामस्वरूप अजीर्ण होने की सम्भावना रहती है और अजीर्ण तो रोगों का मूल है : अजीर्णप्रभवा रोगाः । संक्षेप में बिजली अथवा चन्द्र का प्रकाश चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, सूर्य के प्रकाश की तुलना में नहीं आ सकता इसलिये भोजन के लिये इतर प्रकाशों की अपेक्षा सूर्यप्रकाश ही अधिक पसन्द करने योग्य है और आरोग्य की दृष्टि से सर्वप्रथम स्वीकारने योग्य है । शान्तिलाभ की दृष्टि से भी, दिन की सब प्रवृत्तियों के साथ भोजन की प्रवृत्ति समाप्त करके सन्तोष के साथ रात्रि में जठर को विश्रान्ति देना योग्य प्रतीत होता है । इससे नींद अच्छी आती है और ब्रह्मचर्य के पालन में भी सहायता मिलती है । यह आरोग्यलाभ की स्पष्ट बात है । दिवाभोजन और रात्रिभोजन इन दोनों में से सन्तोष एवं शान्ति की दृष्टि से पसन्दगी करनी हो तो विचारकुशल बुद्धि दिवाभोजन की ओर ही झुकेगी ऐसा आज तक के महान् सन्तों के जीवनइतिहास पर से ज्ञात होता हैं । यह सही है कि रात्रिभोजन के त्याग के फायदे, जो सादी बुद्धि से भी समझे जा सकते हैं; रात्रिभोजन का त्याग न करनेवाला गँवाता है; परन्तु जीवन - कलह के इस जमाने में जो लोग आजीविका की प्राप्ति के लिए ऐसी व्यावसायिक प्रवृत्ति में पड़े हों कि रात्रिभोजन का त्याग न कर सकते हों उनकी ऐसी प्रवृत्ति परिस्थितिवश लाचारी से होती है, अतः क्षन्तव्य है, क्योंकि उसमें सांकल्पिक हिंसा या अनर्थदण्ड के दोष का अभाव हैं । भक्ष्याभक्ष्यविवेक : शरीरशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, चिकित्साशास्त्र और आहारशास्त्र के बारे में विज्ञान ने अब तक जो प्रयोग तथा आविष्कार करके प्रकाश डाला है उस प्रकाश की उपकारक दिशा की ओर दुर्लक्ष करना अथवा आँखे बन्द कर देना जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक समझे जानेवाले धर्म के लिये योग्य नहीं है । शरीर आत्मविकास Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड १४५ का और अन्ततः मोक्ष का भी आद्य साधन होने से उसकी कार्यक्षमता सुरक्षित रहे और वह स्वस्थ रहे यह अनिवार्यरूपेण आवश्यक है । रुग्ण होने के पश्चात् शरीर की चिकित्सा और उपचार कराने बैठना इसकी अपेक्षा रोग का आक्रमण ही न हो और आरोग्य बना रहे ऐसी आहार-विहार विषयक दिनचर्या रखना अधिक उत्तम है । इसके लिये पथ्यापथ्य का विचार करके, शरीर में प्रतिदिन जो क्षति होती है उसकी जिस प्रकार के भोजनपान से पूर्ति होने और शारीरिक स्वास्थ्य के लिये आवश्यक रस मिलते रहे ऐसे आहार -पान का विवेकपूर्वक चुनाव करना चाहिए | सामान्यतः ऐसा कह सकते हैं कि जिस खाने पीने में चलने-फिरने - वाले प्राणियों का वध किया गया हो, जो नशा उत्पन्न करके बेहोश अथवा कर्तव्यच्युत बनाए, जो आरोग्य के लिये हानिकर हो, जिसके गुणदोष से हम अज्ञात हों, जो जीभ को रसस्वाद देने के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का लाभ करनेवाला न हो, जो अनावश्यक होने पर भी उपयोग करने पर व्यसनरूप बन जाता हो, जो शरीर में रससमृद्धि बढ़ाने के बदले केवल ज्ञानतन्तुओं और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली मानसिक वृत्तियों को उत्तेजित करके अन्त में थकान व निर्बलता लाए और शरीर को बरबाद करे ऐसे भोजन-पान का त्याग ही इष्ट है । इसी प्रकार चलते-फिरते प्राणियों का वध करके उनमें से जो बनाई गई दवाओं का शरीर पुष्टि के लिये अथवा रोगनिवारण के लिये उपयोग करना धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है, क्योंकि इससे प्राणीवध की प्रवृत्ति को उत्तेजन मिलता है । मांसाहार अत्यन्त कुत्सित एवं गर्ह्य है और हिंसा का उग्र रूप होने से त्याज्य ही है । वनस्पति में यद्यपि सुसूक्ष्म प्राणीतत्त्व (Life) है, फिर भी उसके बिना देहधारी जीव जी नहीं सकते; इसके अतिरिक्त यह प्राकृतिक आहार भी है जिसमें किसी प्रकार की मलिन वस्तु ( रक्त आदि) नहीं है । अतः ऐसा स्वाभाविक और पवित्र आहार करने पर मनुष्य दूषित नहीं होता — अपराधी नहीं ठहरता । स्थावर एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति) के भोगोपभोग की प्रकृति ने स्वयं छूट दी है । यह प्राकृतिक और पवित्र (Natural as well as unsullied) भोगोपभोग है । इससे आगे नहीं बढ़ना चाहिए । आरोग्य : आरोग्य के लिए योग्य और मर्यादित आहार, स्वच्छ जल, खुली हवा, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनदर्शन सूर्य की धूप, स्वच्छता, उचित शरीरश्रम, उचित आराम तथा निद्रा आवश्यक हैं । समुचित संयम तो आवश्यक है ही । इन बातों की अवगणना अनारोग्य को आमन्त्रित करती है। व्यसनरूप निन्द्य कार्य : जीवन के लिये आवश्यक न होने पर भी जो निन्द्य कार्य ऐसी आदतरूप बन जाय कि उसके अभाव में बेचैनी मालूम होने लगे वह दुर्व्यसन' है । यदि दुर्व्यसनरूप निन्द्य वस्तु का सेवन एक बार भी हो जाय तो अन्त:करण खिन्न होना चाहिए--इतना अधिक खिन्न होना चाहिए कि पुनः उसका सम्पर्क न होने पाए उतना जाग्रत रहे । जैन उपदेश में स्वच्छता, शुद्धता और समुचित शौच व पवित्रता का विधान है । जूठन की ओर असावधानता रखना धर्मदृष्टि से भी दोषावह है और आरोग्य की दृष्टि भी हानिकर है । रसायनशास्त्र से ज्ञात होता है कि अधिक समय तक मल-मूत्र रहने से उनमें से फैलनेवाले रोगमय जन्तुओं के संक्रमण के कारण अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । अतः खुली जगह में किसी को बाधक न हो इस तरह मल-मूत्र आदि के त्याग का जैन उपदेश अतिप्राचीन है। स्वच्छता और सफाई आवश्यक है, आरोग्य के लिये हितकर है और मानसिक उल्लास में सहायक होती है । अन्त में, सब शास्त्रों के निष्कर्षरूप यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सद्वर्तन और सदाचरण, संयम और विवेक, भ्रातृभाव और मैत्रीभाव, सहिष्णुता और नम्रता, गम्भीरता और धीरता, वीरता, क्षमा, उदारता और त्याग ये मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति हैं । इन सद्गुणों की विकास-क्रिया में मनुष्य का चारित्र सम्पन्न होता है । इन्हीं में पुरुषार्थ की सिद्धि है । शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उत्कर्ष साधने का यह सन्मार्ग है । यही कल्याणमय जीवन है । यही मोक्षमार्ग है । १. द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या पापद्धिचौर्ये परदारसेवा । एतानि सप्त व्यसनानि लोकेतत्सवितुर्दुर्गतिमावहन्ति ॥ इस श्लोक में सात दुर्व्यसन गिनाए हैं : जूआ, मांस, शराब, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्रीगमन । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड प्रकीर्णक : इस तृतीय खण्ड में कुछ प्रकीर्ण किन्तु उपयोगी विचार उपस्थित करना चाहता हूँ ! (१) कल्याण के द्वार सब के लिये खुले हैं जिनेन्द्रदेव तात्त्विक दृष्टि से सब जीवों की समानता बतलाते हैं और इस सत्य का तनिक भी विस्मरण किए बिना संसारी अवस्था में योग्य व्यवहार चलाने का आदेश देते हैं । संसारी जीवों में यद्यपि शरीराकृति की अपेक्षा से, रूप, बल, धन, कुल-वंश, सत्ता, समृद्धि तथा ज्ञान- बुद्धि की अपेक्षा से विषमता देखी जाती है, परन्तु ये सब विषमताएँ आगन्तुक कारणों से अर्थात् शुभाशुभ कर्म के प्रभाव को लेकर होती है। जीवों के शुद्ध स्वभाव में ऐसी विषमताओं को स्थान नहीं है । अतः आगन्तुक कारणों से उत्पन्न विषमताओं के बारे में उच्च-नीच भावना रखकर यदि अच्छे भाग्यवाले अहंकारवश दुर्भाग्यवालों का तिरस्कार करें तो वह जीव में रहे हुए परमात्मतत्त्व का अपमान करने जैसा है । जिस प्रकार रोगादि दुःखों से आक्रान्त प्राणी अनुकम्पा तथा सद्भाव के अधिकारी हैं उसी प्रकार हीन दशा में आए हुए जीव भी अनुकम्पा तथा सद्भाव के अधिकारी हैं । वैदिक हिन्दूधर्म में प्रचलित वर्णाश्रम धर्म की, समाज-व्यवस्था के सुसंचालन के लिये तथा जीवनकलह और एक-दूसरे के साथ भीतर ही भीतर विघातक प्रतियोगिता न हो इसलिये गुण-कर्म के विभाग के आधार पर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनदर्शन प्ररूपणा की गई थी; किन्तु इसमें जब उच्च-नीचभाव घुसा, गुण-कर्म के स्थान पर जन्म को प्राधान्य दिया गया और अपने आपको श्रेष्ठ माननेवाला सत्ताशील वर्ग दलितों का शोषण करने लगा, तब जिनेन्द्रदेव ने वर्ग के कारण किए गए भेदों की अवगणना करके सब मनुष्यों के लिये, फिर वह चाहे किसी भी योनि में क्यों न उत्पन्न हुआ हो-जन्म से भले ही वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या चाण्डाल हो, पतित और दुराचारी हो—सब किसी के लिये किसी प्रकार का भेदभाव रखे बिना विश्वव्यापक प्रेम और अनन्त कारुण्य-भाव से धर्म के द्वार खोल दिए हैं । ऐसा होने पर भी धर्म की प्राप्ति में अथवा धर्म-प्राप्ति के निमित्तों का आश्रय लेने में यदि किसी पर प्रतिबन्ध लगाए जाएँ अथवा बाधा डाली जाय तो वह परमकारुणिक श्री जिनेश्वरदेव के शासन के विरुद्ध है । जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश के सुननेवालों का वर्णन करते हुए श्री हेमचन्द्राचार्य त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित के प्रथम पर्व के तीसरे सर्ग में कहते हैं नियन्त्रणा तत्र नैव विकथा न च काचन ॥४७४॥ अर्थात्-जिन भगवान् की व्याख्यान-सभा में किसी प्रकार की नियन्त्रणा (प्रतिबन्ध) न थी । जैन दर्शन के अनुसार कोई भी मनुष्य चाहे वह गृहस्थ हो अथवा साधु-संन्यासी, चाहे उसकी दार्शनिक मान्यताएँ एवं क्रियाकाण्ड जैन सम्प्रदाय के अनुसार हों अथवा अन्य किसी सम्प्रदाय के अनुसार, मुक्ति प्राप्त कर सकता है । शर्त केवल एक ही है कि उसमें वीतरागता होनी चाहिए । इसीलिये कहा है कि सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा लहए मुक्खं न संदेहो ॥ [आचार्य हरिभद्र] अर्थात्-श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या और कोई अन्य, यदि वह समभाव से युक्त हो तो अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है । जैनागम कैवल्य-प्राप्ति के लिये किसी वेषविशेष को निहत नहीं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १४९ मानता' । उसका स्पष्ट उद्घोष है कि मनुष्य चाहे गृहस्थ स्थिति में (गृहस्थलिङ्ग में) हो अथवा साधु-संन्यासी की स्थिति में ( साधुलिङ्ग में) हो, पुरुष हो या स्त्री हो, स्वसम्प्रदाय के वेष में (स्वलिङ्ग में) हो अथवा अन्य सम्प्रदाय के वेष में (अन्य-लिङ्ग में) हो— किसी भी हालत में हो, किन्तु यदि वह वीतरागता प्राप्त करे तो अवश्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है । वीतरागता मानसिक अथवा आन्तरिक धर्म है और जब सच्ची वीतरागता प्रकट होती है तब उसका प्रभाव विचार, वाणी और व्यवहार में पड़ता है । वीतरागता के लिये संन्यास मार्ग को यदि सरल एवं राजमार्ग मान लें तब भी ऐसा एकान्त नहीं है कि उसके बिना वीतरागता की साधना शक्य न हो अथवा वह प्राप्त न हो सके । उपर्युक्त आगमपाठ से (गृहस्थलिंग से भी सिद्ध हो सकने के उल्लेख से) यह बात सिद्ध होती है । इसी प्रकार जैनदर्शनसम्मत दार्शनिक मान्यताओं को मान्य रखे बिना तथा जैनदर्शन में प्रमाणित क्रियाकाण्ड के अनुसार आचरण किए बिना वीतरागता आ नहीं सकती ऐसा भी नहीं है । यह उक्त आगम-पाठ से (अन्यलिङ्ग से भी सिद्ध हो सकने के उल्लेख से ) सिद्ध है । यहाँ पर इतना कह देना आवश्यक 1 I १. "मोक्षप्राप्तिं न वेषप्राधान्य, किन्तु समभाव एव निर्वृतिहेतुः ।" (सम्बोधसतति की दूसरी गाथा पर की गुणविनय वाचक की टीका) अह भवे पइण्णा उ मोक्खसब्भूअसाहो । नाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए ॥ —— उत्तराध्ययन अ. २३, गाथा ३३. इस गाथा की भावविजयगणिकृत टीका में टीकाकार लिखते हैं कि "ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनम् न तु लिङ्गम् । श्रूयते हि भरतादीनां लिङ्गं विनापि केवलोत्पत्तिः । इति तत्त्वतो लिङ्गस्याऽकिंचित्करत्वान्न तदभेदो विदुषां विप्रत्ययहेतुः । " २. इत्थिलिंगसिद्धा, पुरिसलिंगसिद्धा, सलिंगसिद्धा, अन्नलिंगसिद्धा, गिहिलिंगसिद्धा । - प्रज्ञापनासूत्र, प्रथम प्रज्ञापनापद, सिद्धप्रज्ञापनापद केवलज्ञान की प्राप्ति मोक्ष ही है । देहधारी का यह मोक्ष जीवन्मुक्ति कहलाता है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनदर्शन प्रतीत होता है कि जैन-धर्म की दार्शनिक मान्यताओं और उसके क्रियाकाण्डों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो वीतरागता की प्राप्ति में बाधक हो । इस के विपरीत, इसके दार्शनिक मन्तव्य तथा आयोजित क्रियाकाण्ड वास्तविक धर्माचरण में सविशेष उपकारक तथा सहायक हो सके ऐसे हैं । यदि जैनदर्शन के मन्तव्यों का सदुपयोग किया जाय और सदाचार प्रेरक क्रियाकाण्ड यदि समझ कर, उनकी रचना के पीछे रहा हुआ उद्देश बराबर जान कर किए जाये तो धर्म और मोक्ष दोनों पुरुषार्थ सिद्ध करने में सहायक हो सकते हैं । सदाचार-सच्चरितता ही धर्म की नींव है । इसके बिना कोई भी दार्शनिक मान्यता अथवा बाह्य क्रियाकाण्ड उसे पार उतारने में समर्थ नहीं है । सम्प्रदाय दुनिया में रहेगें । उनका नाश शक्य नहीं और नाश हो ऐसा चाहने की आवश्यकता भी नहीं । जिस किसी सम्प्रदाय का मनुष्य अपने सम्प्रदाय में रह कर यदि सन्मार्ग पर चले तो अपना उद्धार कर सकता है । सम्प्रदाय में रहना खराब नहीं है परन्तु साम्प्रदायिकता (साम्प्रदायिक संकुचितता) खराब है । अपने सम्प्रदाय पर के व्यामोह, कदाग्रह और दुरभिनिवेश के कारण दूसरे सम्प्रदायों को मिथ्या मानना अथवा उन्हें बुर कहना-ऐसी धर्मान्धता वैयक्तिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकर है । अपने सम्प्रदाय में रह कर भी बाहर के विचार-प्रवाहों के लिये अपनी विचारबुद्धि के द्वार सर्वदा खुले रहने चाहिए । मध्यस्थ बुद्धि से विचार करने पर जो कोई विचारधारा योग्य एवं जीवन के लिये हितावह प्रतीत हो उसे ग्रहण करने की उदारता रखनी चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि किसी भी सम्प्रदाय का मनुष्य अपने सम्प्रदाय में रह कर सबके साथ बन्धुभाव एवं मैत्री रखे और सदाचार के विशद मार्ग पर चले तो उसका कल्याण निश्चित है । (२) देव-गुरु-धर्म : शरीर में रही हुई आत्मा तात्त्विक दृष्टि से—उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से परमात्मा है—देव है, परन्तु कर्मावरणों से आवृत होने से अशुद्धभाव में विद्यमान है जिससे भवचक्र में परिभ्रमण करता है । वह अपनी अशुद्धता को हट कर अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकाशित हो सकता है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १५१ अर्थात् वीतरागता को सिद्ध करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार जो कोई मनुष्य देवत्व प्राप्त करता है वह देव है । जो वीतराग है वह देव है । हमारा आदर्श इस देवत्व को प्रकट करने का है । इस देवत्व को प्रकट करने की साधना में जो सुयोग्यरूप से प्रयत्नशील है वह त्यागी, संयमी, अपरिग्रही सन्त गुरु है । वह हमें अपने आदर्श की पहचान कराता हैं, वीतरागता क्या है यह समझाता है और इस स्थिति पर पहुँचने के लिये संसारी जीवन में कौनसा मार्ग विधेय है, आचरणीय है यह योग्य रूप से बतलाता है । अशुद्ध दशा दूर करके शुद्ध दशा ( वीतरागता ) जिस मार्ग से उपलब्ध होती हो उस मार्ग का नाम है धर्म । धर्म अर्थात् कर्तव्य मार्ग पर चलना अर्थात् विकासगामिनी कर्तव्य - साधना । इस देव-गुरु-धर्म को (इन तीन तत्त्वों को) सच्चे अर्थ में पहचानना, उन पर सच्ची श्रद्धा रखना इसे समकित (सम्यक्त्व) कहते हैं । परन्तु यह ' व्यवहार - सम्यक्त्व' है, जबकि 'आत्मा ही उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से देव है और कर्मावरणों को विध्वस्त करके अपने मूल स्वरूप में पूर्ण प्रकट हो सकता है' ऐसी विमल श्रद्धा से समुज्ज्वल आत्मपरिणाम 'निश्चय - सम्यक्त्व' है । विविधता में एकता अथवा समानता देखना अर्थात् सब प्राणियों को मूल में रही हुई है । यह है 1 । मैत्री आदि चार भावनाएँ ऐसी दृष्टि प्रकट हुए बिना अपने आत्मरूप देखना यह वस्तु सम्यग्दृष्टि के सिद्ध होने पर आगे का मार्ग सुगम बन जाता इस प्रकार की आत्मदृष्टि में से उत्पन्न होती है। मनुष्य तत्त्वतः 'सम्यक्त्वी' नहीं बन सकता । जहाँ ऐसी दृष्टि होती है वहाँ झगडे-बखेडे, वैर - विरोध, छीना-झपटी, उच्च-नीच भाव, अहंकारवृत्ति आदि कालुष्य नहीं होता और जहाँ होता है वहाँ वह झगड़े- टण्टे आदि से कलुषित स्वार्थमय अन्धकार के मार्ग को भेद कर स्वार्थत्याग, परोपकार और सेवा का मार्ग प्रकाशित करती है । ऐसी दृष्टि सदसद्विवेक के विकास के बिना प्राप्त नहीं होती । व्यवहार-सम्यक्त्व में से प्रगति करता हुआ जीव निश्चय - सम्यक्त्व प्राप्त करता है । यह प्राप्त होते ही आत्मा की दृष्टि शुद्ध बनती है । उस समय Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनदर्शन आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें सविशेष प्रगति की होती है । अब तो उसके लिये धर्म की उत्तम भूमिका पर अर्थात् कल्याण-साधन के उच्च विकासगामी मार्ग पर प्रयाण करना ही अवशिष्ट रहता है जिससे वह भविष्य में वीतरागता प्राप्त कर सके अर्थात् स्वयं ही देव बन सके । 'सम्यक्त्व' का विरोधी 'मिथ्यात्व' है । अतः यह स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के हटने से ही सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है । इसलिये मिथ्यात्व किस-किस प्रकार का होता है यह भी तनिक देख लें । १. वस्तुगत मिथ्यात्व शरीर को ही आत्मा मानना और इन दोनों के बीच की भिन्नता को स्वीकार न करना । २. ध्येयगत मिथ्यात्व- मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विपरीत बुद्धि : मोक्ष या वीतरागतारूप पूर्ण पावित्र्य को ध्येयरूप न मान कर शारीरिक अथवा भौतिक सुख को अन्तिम साध्य या जीवन का सर्वस्व मानना । ३. धर्मगत मिथ्यात्व ध्येय तक पहुँचने के मार्ग के बारे में उलटी समझ । देहसुख या भौतिक वैभव के लिये अन्य प्राणियों के सुख दुःख की ओर सर्वथा असावधान रहकर अपनी भौतिक लालसा की पूर्ति के लिये हिंसा, अनीति, अन्याय के दारुण पाप करना; उन पापाचरणों को मिथ्यामार्ग (अधर्म) न समझना; दया-अनुकम्पा, नीति-न्याय, संयम-सदाचाररूप सद्गुणों को धर्म न मानना अथवा उनके विरोधी दुर्गुणों को-दोषों को धर्म समझना धर्मगत मिथ्यात्व है। ४. गुरुगत मिथ्यात्व ध्येय की प्राप्ति के लिये अयोग्य उपदेशक को अर्थात् आसक्तिपूर्ण, दम्भी, अज्ञानी और विवेकहीन उपदेशक को गुरु मान लेना गुरुगत मिथ्यात्व है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ५. देवगत मिथ्यात्व — परम आदर्शरूप अनुकरणीय व्यक्ति के सम्बन्ध में उलटी समझ अर्थात् वीतराग परमात्मा को देवरूप न मानकर सराग व्यक्ति को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है । इस प्रकार का मिथ्यात्वभाव जीवनविकास का अवरोध है । १५३ (३) भगवान् की मूर्ति — जिस प्रकार भगवान् के नाम द्वारा भगवत्स्मरण होता है उसी प्रकार भगवान् की मूर्ति अथवा उनकी तसवीर द्वारा भी भगवत्स्मरण होता है । सामान्यतः मूर्ति अथवा तसवीर नाम से भी अधिक स्मृतिप्रेरक हो सकती है । जिन्हें अपने लिये मूर्ति की उपयोगिता लगती हो उन्हें, जिन्हें भगवत्स्मरण अथवा भगवद्भक्ति में भगवान् की मूर्ति का सहारा उपयोगी हो अथवा उपयोगी मालूम होता हो उन्हें वह सहारा सहर्ष लेने देना चाहिए और शुभ हेतु के लिये लिया जानेवाला ऐसा सहारा प्रशंसनीय मानना चाहिए । इसी प्रकार जो मूर्ति का अवलम्बन लिए बिना भगवद्भक्ति कर सकते हों अथवा स्वयं कर सकते हैं ऐसा मानते हों और इस कारण वैसा सहारा न लेते हों उन पर नुकतायीनी नहीं करनी चाहिए । अपने कषायों के उपशमन के लाभ के लिए भगवान् की मूर्ति का सहारा लेनेवाला, भगवान् की मूर्ति का सहारा न लेने के कारण दूसरे की निन्दा करे अथवा उसके साथ कषायभाव में उतरे तो वह अपने ध्येय से च्युत हुआ समझा जायगा । इस प्रकार किसी साधन का [बाह्य साधन का] अवलम्बन लेने- न - लेने की बात को पकड़कर संकुचित गुटबन्दी करना अथवा उसे पुष्ट करना योग्य नहीं है । जिसे मूर्ति के अवलम्बन की आवश्यकता प्रतीत न होती हो उसे भी मानवसमाज की - मूर्ति का अवलम्बन लेने की —- रुचि को ध्यान में रख कर इस रुचि को सन्तुष्ट करने के लिये कल्याणसाधन की दृष्टि से निमित्त एक विशिष्ट संस्कृति के धामरूप ऐतिहासिक एवं पवित्र देवालयों की ओर सम्मानवृत्ति रखनी चाहिए, और महात्मा पुरुषों के चित्र, मूर्ति या तसवीर की ओर जैसी सहज सम्मानवृत्ति होती है वैसी सहज सम्मान वृत्ति भगवान् की मूर्ति की ओर भी 1 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनदर्शन उसे होनी चाहिए । हाँ, इतना सही है कि वीतराग भगवान की मूर्ति में वीतरागता का प्रदर्शन होना चाहिए । राग-द्वेषरहित, अहिंसा-संयम-तप-त्याग के सद्गुणों के पूर्ण उत्कर्ष से प्रकाशित वीतराग भगवान की ध्यानस्थ मूर्ति में वीतरागता के साथ असंगत हो, वीतराग मुनि के लिये अयोग्य हो ऐसा दिखावा नहीं लाना चाहिए । (४) जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार हिंसा के बिना जीवन अशक्य है इस बात का स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं है, परन्तु इसके साथ ही कम से कम हिंसा से अच्छे से अच्छा-श्रेष्ठ जीवन जीने का नियम मनुष्य को पालना चाहिए । परन्तु कम से कम हिंसा किसे कहना ?--यह प्रश्न बहुतों का होता है । किसी सम्प्रदाय के अनुयायी ऐसा मानते हैं कि 'बडे और स्थूलकाय प्राणी का वध करने से बहुत से मनुष्यों का बहुत दिनों तक निर्वाह हो सकता है, जबकि वनस्पति में रहे हुए असंख्य जीवों को मारने पर भी एक मनुष्य का एक दिन का भी निर्वाह नहीं होता । इसीलिये बहुत से जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक बड़े प्राणी को मारने में कम हिंसा है ।' ऐसे मन्तव्य वाले मनुष्य जीवों की संख्या के नाश पर से हिंसा की तरतमता का अन्दाज लगाते हैं । परन्तु यह बात ठिक नहीं । जैनदृष्टि जीवों की संख्या पर से नहीं किन्तु हिंस्य जीव के चैतन्यविकास पर से हिंसा की तरतमता का प्रतिपादन करती है। अल्प विकासवाले अनेक जीवों की हिंसा की अपेक्षा अधिक विकासवाले एक जीव की हिंसा में अधिक दोष रहा हआ है। ऐसा जैनधर्म का मन्तव्य है। इसीलिये वह वनस्पतिकाय को आहार के लिये योग्य मानता है, क्योंकि वनस्पति के जीव कम से कम इन्द्रियवाले अर्थात् एक इन्द्रियवाले माने जाते हैं और इनसे आगे के उत्तरोत्तर अधिक इन्द्रियवाले जीवों को आहार के लिये वह निषिद्ध बतलाता है । यही कारण है कि पानी में जलकाय के संख्यातीत जीव होने पर भी उनकी—इतने अधिक जीवों की विराधना [हिंसा] करके भी हिंसा होने पर भी एक प्यासे मनुष्य अथवा पशु को पानी पिलाने में अनुकम्पा है, दया है, पुण्य है, धर्म है-ऐसा सब कोई मानते हैं । इसका कारण यही है कि जलकाय के जीवों का समूह एक मनुष्य अथवा पशु की अपेक्षा बहुत Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १५५ अल्प चैतन्यविकासवाला होता है । इस पर से ज्ञात होगा कि मनुष्यसृष्टि के बलिदान पर तिर्यंचसष्टि के जीवों को बचाना जैन धर्म को मान्य नहीं है। परन्तु कोई व्यक्ति, जहाँ तक उसका अपना सम्बन्ध है वहाँ तक, स्वयं अपना बलिदान देने जैसी अपनी अहिंसा वृत्ति को यदि जागरित करे तो उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, जैसे कि भगवान् श्री शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में शरणागत कबूतर को तथा राजा दिलीप ने गाय को बचाने के लिये अपने शरीर का बलिदान देने की तत्परता दिखलाई थी । परन्तु निरर्थक हिंसा के समय फूल की एक पत्ती को भी दुःखित करने जितनी हिंसा की जैनधर्म में मना है। वनस्पति जीवों के दो भेद हैं—प्रत्येक और साधारण । एक शरीर में एक जीव हो वह 'प्रत्येक' और एक शरीर में अनन्त जीव हों वह 'साधारण वनस्पति है । कन्द-मूल आदि साधारण [स्थूल साधारण] हैं । इन्हें अनन्तकाय भी--कहते हैं । 'साधारण' की अपेक्षा 'प्रत्येक' की चैतन्यमात्रा अत्यधिक विकसित होती है । (५) शरीर का उपयोग __ शरीर अस्थि, मांस, रक्त, चर्बी आदि का बना हुआ पूतला है और मल-मूत्रादि अशुचि से भरा हुआ है-इस प्रकार का विवेचन शरीर की ओर वैराग्य उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से देखने पर शरीर तो जिसका बनता हो उसका बने । दूसरी वस्तुओं से बनाने पर वह नहीं बन सकता । हमारी अपेक्षा प्रकृति कहीं अधिक कुशल और समर्थ है । शरीर में जो अशचि उत्पन्न होती है वह तो शरीर के निर्वाह एवं स्थैर्य के लिये जानेवाले आहार आदि में शरीरोपयोगी वस्तुओं के साथ-साथ जो निरुपयोगी पदार्थ मिश्रित होते हैं उसके कारण है । शरीर एक ऐसा अद्भुत १. 'सूक्ष्म साधारण' जीवों और सूक्ष्म पृथ्वी-जल-तेज-वायु के जीवों में सम्पूर्ण लोकाकाश ठूस दूंसकर भरा है। ये परम सूक्ष्म जीव संघर्षव्यवहार में बिलकुल नहीं आते । 'साधारण' को 'निगोद' भी कहते हैं । अतः 'सूक्ष्म साधारण' को सूक्ष्म निगोद और 'स्थूल साधारण' को स्थूल निगोद (बादर निगोद) कहते हैं । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनदर्शन यन्त्र है जो सारभूत वस्तुओं को अपने उपयोग में लेकर और निरुपयोगीअशुचि वस्तुओं को बाहर फेंक कर अपने को (शरीर को) कार्यक्षम रखने का स्वतः सतत प्रयत्न करता रहता है । शरीर जबरदस्ती त्याग करने जैसी अथवा जैसे हो वैसे जल्दी नाश करने जैसी वस्तु नहीं है । शरीर को तो कार्यक्षम एवं नीरोग स्थिति में रखने की आवश्यकता है जिससे उसका प्रभाव मन पर पड़े और मन शरीरविषयक दुश्चिन्तन में से विमुक्त रहे । निःसन्देह, शरीर के भोगोपभोग के लिये अनावश्यक हिंसा न होनी चाहिए तथा झूठअनीति- - अन्याय का आचरण नहीं करना चाहिए— इतनी ही बात प्रस्तुत विषय में मुद्दे की और खास ध्यान में रखने योग्य तथा आचरण करने योग्य है । यह तो समझ में आ सके ऐसा है कि आत्मा अपने शरीर में ही रह कर अपनी ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति का उपयोग करके मोक्ष की साधना कर सकता है । आत्मा जब तक अन्तिम शरीर छोड़ कर मोक्ष प्राप्त नहीं करता तब तक उसे शरीर की आवश्यकता है और तब तक उसके साथ शरीर लगा ही रहने का । फिर भी अज्ञानवश शरीर का त्याग करने जैसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो वह आत्महत्या जैसी प्रवत्ति समझी जायगी । ऐसी प्रवृत्ति पापरूप मानी गई है । त्याग शरीर का नहीं, दुर्वृत्ति तथा दुष्प्रवृत्ति का करने का है । आत्महत्या और 'संलेखना' में अन्तर है । आत्महत्या कषाय के आवेग का परिणाम है, जबकि संलेखना त्याग एवं दया का परिणाम है । जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रही हो और अपने लिये दूसरों को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता हो वहाँ शरीरत्याग करने में दूसरों पर दया - भाव रहा है । कुछ लोग पानी में डूब मरने का, कोई पर्वत पर से गिर करके मरने का अथवा दूसरे प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु यह अन्धश्रद्धा की बात है । हाँ, कर्तव्य की वेदिका पर बलिदान देना सच्चा बलिदान है । जनरक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करना अथवा दूसरों की सेवा के लिये यदि अपना शरीर देना पड़े तो वह दे देना सच्चा बलिदान है, परन्तु अमुक जगह पर मरने से अथवा अमुक का नाम लेकर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिलता है इस प्रकार की अन्धश्रद्धा से प्रेरित होकर प्राणत्याग करना बुरा है । जैनधर्म ने उपवास के अतिरिक्त मृत्यु के अन्य उपायों की I Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ तृतीय खण्ड मना की है। यह एक प्रकार का प्रशस्य संशोधन है । जब किसी असाध्य बीमारी में असह्य कष्ट हो रहा हो और दूसरों से खूब सेवाशुश्रूषा करानी पड़े तब उपवास करके शरीर त्याग करना उचित समझा जा सकता है । उपवासचर्या भी एकदम नहीं परन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन पर, बाद में छाछ आदि किसी पेय वस्तु पर उसके पश्चात् शुद्ध जल पर रहकर- इस प्रकार आगे बढते हुए उपवास पर आना चाहिए । इस प्रक्रिया में कितने ही दिन, महीने, और शायद अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । एकदम प्राणत्याग करने में जो स्वपर को संक्लेश होता है वह इस प्रक्रिया में नहीं होता । और यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय बन सकती है अर्थात् इस प्रकार की प्रक्रिया से कभी-कभी बिमारी में से स्वस्थ भी हुआ जा सकता है । इस प्रकार की प्रक्रिया से बीमारी दूर हो जाने पर संलेखना बन्द कर देनी चाहिए । उपवास-चिकित्सा एवं संलेखना में अन्तर है । चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और तदर्थ प्रवृत्ति होती है, परन्तु संलेखना तो तभी की जाती जब जीवन की कोई आशा ही न हो और न उसके लिये किसी प्रकार का प्रयत्न हो । परन्तु उपर्युक्त संलेखना की प्रक्रिया से यदि शरीर अच्छा हो जाय तो फिर जबरदस्ती से प्राणत्याग करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि संलेखना की प्रक्रिया आत्महत्या नहीं किन्तु मृत्यु के सम्मुख वीरतापूर्वक आत्मसमर्पण की प्रक्रिया है । इससे मनुष्य शान्ति एवं आनन्द से अपने प्राणों का त्याग करता है । मृत्यु से पूर्व उससे जो कुछ करना चाहिए वह सब वह कर लेता है । परन्तु मृत्यु यदि टल जाय तो उसे जबरदस्ती नहीं बुलानी चाहिए । (६) अनुकम्पा और दान दया धर्म का मूल है । योग्य दान दयाधर्म का क्रियात्मक पालन है, फिर चाहे वह मानसिक, वाचिक अथवा साम्पत्तिक शक्ति का क्यों न हों । यदि हमारी दया से कोई भी व्यक्ति जीवित रहेगा तो जबतक वह जिएगा तबतक जो जो हिंसादि दोषों से युक्त अथवा जो जो अपकृत्य वह करेगा उसका उत्तरदायित्व भी हम पर आयगा -ऐसा लोगों में भ्रम उत्पन्न करना तथा दया एवं दान के शुभ प्रवाह को सूखा डालने का प्रयत्न करना Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनदर्शन घोर पाप है । अमुक व्यक्ति भविष्य में कैसा आचरण करेगा यह हम नहीं जानते, फिर भी इस प्रकार के ज्ञान के अभाव में वह अच्छी तरह नहीं बरतेगा और, उसका आचरण सदोष ही होगा इस प्रकार का पूर्वग्रह धारण करके दया करने से दूर रहना- इसमें सचमुच घोर अज्ञान रहा हुआ है । सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने में स्वतन्त्र है और यदि उसका बरताव खराव हो अर्थात् हमारी दयोपचार की सहायता से मरने से बचा हुआ मनुष्य यदि दुष्ट आचरण करे तो उसने अपनी स्वतन्त्रता का दरुपयोग किया इतना ही कहा जा सकता है । परन्तु उसके दोष का भागी उसे दुःख में सहायता करके उसका जीवन बढ़ने में सहायक होनेवाला, उसे बचानेवाला अथवा उसे आराम पहुँचानेवाला मनुष्य नहीं हो सकता । शुद्ध अनुकम्पाभाव से की हुई दया अथवा दी हुई शान्ति का लाभ प्राप्त करके स्वस्थ हो के मनुष्य पीछे से चाहे जिस प्रकार से बरते उसके साथ दया करने वाले उस मनुष्य को कुछ कभी लेना देना नहीं है । उसे तो केवल अपनी शुद्ध अनुकम्पा का पुण्य फल ही मिलता है । परन्तु यदि कोई लुटेरा लूटने के लिए, डाका डालने के लिये जाता हो और यह बात हम जानते भी हों तब भी रास्ते में यदि हम अपने यहाँ आश्रय दें, उसे खिलाएँ- पिलाएँ तो उसे लूटने या डाका डालने में जो पाप वह करेगा उसके साझी हम भी होंगे । (७) मैत्री आदि चार भावनाएँ 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम्' अर्थात् समान आचार और समान आदतवालों में परस्पर मित्रता होती है अथवा हो सकती है । इस उक्ति के अनुसार, सब जीव - निकृष्ट श्रेणी के शरीरधारियों से लेकर अत्यन्त उच्च कक्षा के शरीरधारियों तक के सब संसारवर्ती जीव स्वरूप से अर्थात् अपने सत्तागत मूल रुप से सर्वथा एक समान होने से अर्थात् इस प्रकार की मौलिक पूर्ण समानता होने से सब प्राणियों में पस्पर मैत्री होने की उर्मिल कल्पना उठ सकती है, परन्तु तिर्यगयोनि के प्राणियों में अज्ञानता, और विवेक का अभाव होने से इस प्रकार का व्यापक मैत्रीभाव यदि न हो अथवा न सधे तो यह समझा जा सकता है, किन्तु मनुष्यों में समझ और बुद्धि विशेष मात्रा में होने से उनमें मैत्रीभाव की सिद्धि सम्भाव्य है । फिर भी ऐसा न होकर उसकी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १५९ जगह पशुसृष्टियोग्य ईर्ष्या, द्वेष क्रूरता, वैरविरोध और स्वार्थान्धता प्रकाण्ड घटाटोप मानवजाति में फैला हुआ दृष्टिगोचर होता है । इस पर से यही फलित होता है कि ऐसे मनुष्य पाशविक वासनामय आवरण के भिन्न-भिन्न परदों को चीरकर ऊँचे नहीं आए हैं । किन्तु विवेकबुद्धि मनुष्य के चित्त के निकट कोई वस्तु है, अत: यदि वह शान्त और स्थिर होकर विवेकयुक्त विचार करे तो सब प्राणी समान हैं यह बात उसकी समझ में झट आ जाय ऐसी है, जिससे इसके अनुसंधान में सब प्राणियों की ओर उसके चित्त में मैत्रीभाव उत्पन्न होने की बहुत शक्यता रहती है । वेदान्त दर्शन सब जीवों को ब्रह्म की चिनगारीरूप मानता है और जैन, वैशेषिक, सांख्य, योग आदि दर्शनकार सब जीवों को पृथक् पृथक् स्वतन्त्र और अखण्ड द्रव्य मानने के साथ ही साथ वे सब मौलिक रूप से समान हैं ऐसा मानते हैं । इस प्रकार सब आर्य दर्शनकार 'सब जीव मूलतः एक समान तेजः स्वरूप हैं' ऐसा प्रतिपादन करके उसके फलितार्थरूप 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' अर्थात् किसी की ओर द्वेषवृत्ति न रखकर प्राणीमात्र की ओर मैत्रीभाव रखने की तथा दीनदुखियों की ओर दयालु बनने की घोषणा करते हैं । ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध आदि दोष, दूसरे का अपकार और सामाजिक अशान्ति पैदा करने के साथ ही साथ अपने आत्मा की भी दुःखद हिंसारूप है । अतएव इन दोषों को दूर करने के लिये आर्य सन्त महात्मा प्रबल अनुरोध करते है ।। जैन एवं पातंजल आदि दर्शन आत्मौपम्य की भावना के आधार और इस भावना को विकसित करने की दृष्टि से मैत्री आदि (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ्य) चार भावनाएँ बतलाते हैं। इनके अनुशीलन के आधार पर जीवन की उत्तरोत्तर विकासभूमि पर आरोहण करना सुगम बनता है । ये चार भावनाएँ इस प्रकार है : १. काम एवं क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ -भगवद्गीता अ. ३, श्लो. ३७. अर्थात्-रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला यह काम, यह क्रोध सर्वभक्षी, सर्वघाती महाराक्षस है । इसे तु अपना वैरी समझ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनदर्शन मैत्री भावना प्राणीमात्र में मैत्रीवृत्ति रखना उसका विकास करना मैत्री-भावना है। ऐसी वृत्ति के विकास पर ही प्रत्येक प्राणी के साथ अहिंसक और सत्यवादी रहा जा सकता है। मैत्री अर्थात् अन्य आत्माओं में अन्य आत्माओं के साथ आत्मीयता की भावना । ऐसी भावना होने पर दूसरों को दुःख देने की अथवा दूसरों का अहित करने की वृत्ति पैदा होने नहीं पाती; इतना ही नहीं, दूसरों का भला करने की ही वृत्ति सदा जागरित रहती है । इस भावना का विषय प्राणीमात्र है। प्रमोद-भावना मनुष्य बाह्य सम्पत्ति के बारे में दूसरे को अपने से बढ़ा हुआ देखकर ईर्ष्या करने लगता है, परन्तु उसकी वह सम्पन्नता उसने यदि अपने सद्गुणों से अथवा शुभकर्मजन्य पुण्य के परिणामस्वरूप प्राप्त की हो और उसका उपयोग वह शुभ कार्य में करता हो तो उसकी ईर्ष्या करने के बदले उसके शुभ-पुण्य कार्यों का तथा गुणो का अनुमोदन करके हमें प्रसन्न होना चाहिए । अनीति, अन्यायाचरण के विरुद्ध असन्तोष अथवा पुण्यप्रकोप प्रकट करना उचित है । परन्तु सिर्फ अपने से दूसरा बड़ा है इस कारण उस पर द्वेष अथवा ईर्ष्या करना गलत है । ईर्ष्यालु मनुष्य अपने दुःख से दुःखित होता है और साथ ही दूसरों के सुख से दु:खी होकर दुगुना दुःखानुभव करता है । जब तक ईर्ष्या जैसे दोष दूर न हों तब तक सत्य, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । अतः ईर्ष्या जैसे दोषों के विरुद्ध प्रमोदवृत्ति विकसित करनी आवश्यक है । जो अपने से गुण में अधिक है उस पर प्रमुदित होना, उसका आदर करना प्रमोद भावना है । इस भावना का विषय अपने से गुण में अधिक ऐसा मनुष्य है । अपने इष्टजन की अभिवृद्धि देखकर जिस प्रकार आनन्द होता है उसी प्रकार प्राणीमात्र की ओर जब आत्मीयता का भाव उत्पन्न हुआ हो तभी किसी भी गुणाधिक को देखकर प्रमोद उत्पन्न हो सकता है । अत: इस भावना के मूल में आत्मीयता की बुद्धि रही हुई है ।। सामान्यतः किसी भी गुणी के गुण की ओर प्रमोद (प्रसन्नता) होना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १६१ प्रमोद - भावना है । गुणी के गुणों का अनुरागी होना स्वयं गुणी बनने का राजमार्ग है । उपर्युक्त दोनो भावनाओं के बारे में तनिक विशेष अवलोकन करें : दूसरों का सुख देखकर अथवा दूसरों को अधिक सुखी देखकर मनुष्य के मन में ईर्ष्या या असूयाभाव उत्पन्न होता है, परन्तु व्यापक मैत्रीभाव उसके हृदय में यदि उत्पन्न हो तो वह दूसरे के सुख को देख कर उसे ( अर्थात् उसके सुख को ) अपने मित्र का अथवा अपने आत्मीय का समझता है जिससे उसकी ओर उसके मन में ईर्ष्या या असूया उत्पन्न न होकर वह मानसिक स्वस्थता का अनुभव करता है । इसीलिये सुखी पुरुष का सुख भी मैत्री - भावना का विषय बतलाया गया है । अर्थात् दूसरे के सुख की 1 १. मैत्रीकरुणमुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त- प्रसादनम् । - पातंजल योगदर्शन पाद १, सूत्र ३३. अर्थात् - मैत्री का विषय सुख, करुणा का विषय दुःख, मुदिता का ( प्रमोद का ) विषय पुण्य और उपेक्षा का विषय निष्पुण्यत्व है । इस प्रकार इन (मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा) भावनाओं के अनुशीलन से चित्त का प्रसाद सम्पादन किया जा सकता है । इसी विषय में महर्षि श्री उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' के सातवें अध्याय का छठा सूत्र है- 'मैत्री - प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थ्यानि सत्त्वं गुणाधिक-क्लिश्यमानाऽविनेयेषु ।” अर्थात् - प्राणीमात्र में मैत्री, गुण से बड़ों में प्रमोद, दुःखी जनों में करुणा और जड़ जैसे अपात्रों में माध्यस्थ्य भावना रखना । प्रस्तुत चार भावनाओं के बारे में आचार्य अमितगति का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है कि "सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥ " अर्थात् — हे प्रभो ! (१) प्राणियों पर मैत्री, (२) गुणी जनों पर प्रमोद, (३) दुःखी जीवों पर करुणा और (४) दुष्टवृत्तिवालों पर मध्यस्थभाव मेरा आत्मा प्राप्त करे । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनदर्शन ओर सुहृद्भाव रखना मैत्री - भावना है। प्रमोद - भावना के बारे में यह सूचित करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कोई मनुष्य धनवान, बलवान अथवा सत्ताशाली हो या भौतिक तौर पर यदि सुखी माना जाता हो तो इतने पर से ही उस पर प्रमुदित होना ऐसा कहने का आशय नहीं है, परन्तु यदि वह अपने धन का, बल का अथवा अधिक अधिकार का उपयोग दीन-दुःखी मनुष्यों को अच्छी दशा में लाने के लिये अथवा उनके दुःख दूर करने के लिये करता हो तो उस मनुष्य को गुणी समझ कर उसके गुण की ओर प्रमुदित होना योग्य है । मनुष्य भले ही निर्धन हो, परन्तु यदि वह प्रमाणिक रूप से उद्यम अथवा श्रम करके अपनी आजीविका चलाता हो और उसी में सन्तोष मानता हो तो उसके ऐसे सद्गुणों के लिये प्रमुदित होना उचित है । प्रमोद का विषय पुण्य कहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि यदि कोई अपनी पुण्यवत्ता का दुरुपयोग करे तब भी उस पर प्रमुदित होना । वस्तुतः प्रमोद का विषय पुण्यवत्ता यानी पुण्याचरणशीलता है । करुणा-भावना- अब करुणा - भावना के बारे में देखें । पीडित को देख कर हृदय में यदि अनुकम्पाभाव बहने न लगे तो अहिंसा आदि व्रत टिक नहीं सकते । इसलिये करुणा - भावना की आवश्यकता है । इस भावना का विषय दु:खी जीव है । क्योंकि अनुग्रह अथवा सहायता की अपेक्षा दुःखी, दीन, अशक्त, अनाथ को ही होती है । प्रत्येक जीव के साथ आत्मीयता - बुद्धि हो तभी, इष्टजन को दुःखी देख कर जिस प्रकार एक तरह का कल्याणमय मृदु संवेदन हृदय में अभिव्याप्त हो जाता है उसी प्रकार, किसी को भी पीड़ित देखकर करुणा का पवित्र स्रोत बहने लगे, इस तरह इस भावना के मूल में आत्मीयता बुद्धि रही हुई है । भवचक्र के दुःख में पड़े हुओं का उद्धार करने की भावना किसी सन्त के हृदय में उत्पन्न हो यह भी करुणा-भावना । ज्ञानी महात्मा और केवली भगवान् सर्वानुग्रहपरायण करुणाशील होते हैं । इसीलिए उनका 'परम कारुणिक' ऐसे विशेषण से उल्लेख किया जाता है । माध्यस्थ्य भावना कभी-कभी अहिंसादि गुणों की रक्षा के लिए तटस्थता धारण करना Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १६३ उपयोगी होता है । अतः माध्यस्थ्य - भावना की भी आवश्यकता है । 'माध्यस्थ्य' अर्थात् तटस्थता अथवा उपेक्षा । जड़बुद्धि, अथवा उपयोगी और हितकारी उपदेश ग्रहण करने की पात्रता जिसमें बिल्कुल न हो ऐसे किसी व्यक्ति को सुधारने का परिणाम अन्ततः जब शून्य में आए तब ऐसे व्यक्ति की ओर तटस्थभाव अथवा उपेक्षावृत्ति रखने में ही श्रेय है । इसलिये इस भावना का विषय अविनेय ( अयोग्य) पात्र है । प्रत्येक प्राणी के साथ आत्मीयता - बुद्धि हो तो तभी अविनेय (दुर्मति, दुष्ट अथवा मुर्ख) मनुष्य की ओर क्रूरता; द्वेष या क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न न हो कर उसकी ओर शुद्ध तटस्थभाव रह सकता है, जैसा कि वैसा ही किसी अपने इष्टजन के बारे में रहता है । इन भावनाओं में जिस प्रकार दुःखी जन करुणा का विषय है उसी प्रकार दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भी दया का भावदया का विषय है । ऐसों की ओर उत्पन्न होनेवाली अथवा रखी जानेवाली माध्यस्थ्यभावना भावदयागर्भित होती है । छोटे बच्चे, आत्मीय स्नेही स्वजन अथवा किसी प्रेमीजन की ओर से होनेवाले अनादर अथवा अपमान से जिस प्रकार हमारे मन में स्वमानभंग की कल्पना उत्पन्न नहीं होती उसी प्रकार मैत्री आदि भावनाओं के सबल संस्कार से परिष्कृत तथा प्रकाशित चित्तवाले सुज्ञ महानुभाव के मन में दूसरों के द्वारा किए गये अनादर अथवा अपमान से स्वमानभंग होने की कल्पना उत्पन्न नहीं होती । विश्वबन्धुत्व की भावना में रममाण सज्जन के लिये यदि गुणी मनुष्य प्रमोद का विषय है तो दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भावदयागर्भित माध्यस्थ्य-भावना का विषय है । आचार्य हेमचन्द्र अपने योगशास्त्र के प्रारम्भ के मंगलाचरण में कहते हैं कि : कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः । ईषद्बाष्पार्द्रयोर्भद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः ! ॥३॥ अर्थात् — अपराधी मनुष्य के ऊपर भी प्रभु महावीर के नेत्र दया से तनिक नीचे झुकी हुई पूतलीवाले तथा करुणावश आए हुए किंचित् आँसुओं से आर्द्र हो गये । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ( ४ ) विश्वप्रेम और मनशुद्धि प्रेम - शुद्ध प्रेम (व्यापक मैत्री) के सद्गुण सब प्राणियों के हित की दृष्टि से कार्य करता है और ऐसा वत्सलमना मनुष्य अपना हित साधता है तो वह विश्व के एक घटक - विश्व के एक अंगभूत अवयव के रूप में ही । उसका अपना हित परहित का विरोधी नहीं होता । ( यहाँ पर हित तीनों प्रकार का हित अर्थात् भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक हित लेना है ।) व्यापक प्रेमभाव से किया गया कोई भी कार्य 'स्व' और 'पर' के लिये हितकारक होता है और कल्याणकर बनता है । जैनदर्शन : शुद्ध प्रेम (अहिंसा) के दो स्वरूप हैं निषेधात्मक और विधेयात्मक । निषेधात्मक प्रेम जहाँ तक हो सके वहाँ तक किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट अथवा हानि न पहुँचाने में चरितार्थ होता है । इस प्रकार का प्रेम विश्व के बहुत से प्राणियों में व्याप्त होकर रहता है । विधेयात्मक प्रेम अन्य प्राणियों की सेवा अथवा परोपकार की प्रवृत्ति में परिणत होता है । ऐसा प्रेम भावना में भले विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों में व्यास होकर रहना चाहता हो, परन्तु व्यवहार में तो वह व्यक्ति की शक्ति-मर्यादा में रहकर ही चरितार्थ होता है । किसी सज्जन का प्रेम विश्वव्यापी हो तो भी उसकी अभिव्यक्ति तो उस सज्जन महानुभाव की अपनी शक्ति के अनुसार मर्यादित क्षेत्र में हो सकती है । इससे वह विश्वप्रेम नहीं मिट जाता, क्योंकि वह व्यापक हित करने में अशक्त हो तो भी व्यापकहित भावना तो उसके हृदय में प्रदीप्त रहती ही है । इस प्रेम के प्रयोग के क्रम के बारे में सामान्यतः ऐसा कह सकते हैं कि इस प्रेम को कार्यरूप में परिणत करने के समय इसका प्रारम्भ कुटुम्ब से होता है और यह इष्ट भी है; परन्तु यदि शक्ति हो तो वह नहीं रूकना चाहिये और शक्ति की अभिवृद्धि के साथ उसके प्रयोग का क्षेत्र भी बढ़ाना चाहिए -- "Charity begins at home, but it does not end there.” अर्थात् दान का प्रारम्भ घर से होता है, परन्तु उसका अन्त वहीं नहीं होता । कुटुम्ब - प्रेम, ग्राम- प्रेम, राष्ट्र- प्रेम और विश्व-प्रेम- ये सब उत्तरोत्तर विकसनशील प्रेम के दृष्टान्त हैं । परन्तु कभी - कभी ऐसे आपवादिक प्रसंग Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १६५ उपस्थित हो जाते हैं जब कुटुम्ब अथवा गाँव की उपेक्षा करके देश अथवा राष्ट्र के कार्य को उठा लेना पड़ता है । यह बात खास ध्यान में रखने योग्य है कि उपर्युक्त कुटुम्ब - प्रेम आदि प्रेम के कारण अन्य कुटुम्ब, अन्य ग्राम, अन्य देश अथवा अन्य राष्ट्र को यदि नुकसान पहुँचाया जाय अथवा उसका अनुचितरूप से शोषण किया जाय तो वह शुद्ध प्रेम मिटकर कलुषित राग बन जाता है जो सर्वथा त्याज्य है । कुछ लोग प्रेम के निषेधात्मक स्वरूप से ही सन्तुष्ट रह कर उसके विधेयात्मक स्वरूप की ओर उदासीनता रखते हैं और इसी में कृतकृत्यता मानकर अथवा मनाकर अकर्मण्य बने रहते हैं । परन्तु इस प्रकार का प्रेम अपूर्ण ही समझना चाहिए । अपनी जीवनचर्या के लिये प्राणी सृष्टि के पास से हम जो लेते हैं उसका ऋण हम पर चढ़ता है, अतः हमें यह ऋण चुकाना है और प्राणीसमाज के लिए हितकारक प्रवृत्ति करके परोपकार तथा सेवामार्ग से ही हम वह ऋण चुका सकते हैं । जो अन्तर्जाग्रत दशा के चारित्रशाली सन्त निःसंग दशा में रहकर उच्च आध्यात्मिक विकास की अपनी साधना में निमग्न रहते हैं उन सच्चे त्यागी आत्मपरायण महानुभावों का समाज के लिये किञ्चिन्मात्र भी उपाधिरूप बोझरूप न होना बहुत बड़ी बात है । सच्चे सन्त पुरुष तो समाज के पास से जो लेते हैं उससे कहीं अधिक वे समाज को देते हैं । इसलिये समाज उनका सदा ही ऋणी रहता है; और ऐसे ही मनुष्यों को अपनी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये समाज से कहने का नैतिक अधिकार प्राप्त होता है । समाज उन्हें चाहे जितना दे, फिर भी वह सदा कम ही रहने का । विश्व- प्रेम आध्यात्मिक प्रेम है और वह आध्यात्मिक जीवन के विकास पर अवलम्बित है । जैसे-जैसे चित्तशुद्धि होती है वैसे-वैसे आत्मौपम्य की दृष्टि विकसित होती जाती है और वैसे-वैसे प्राणीवात्सल्य विमल और विशाल बनता जाता है । वैर - विरोध, अभिमान तथा राग - रोष का दूर होना T Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनदर्शन ही मन का निर्मलीकरण है । इन दोषों के दूर होने में ही चित्त की प्रसन्नत्ता है । आसक्ति तथा कषायों का कमजोर होना अथवा कमजोर होते जाना ही मन की शोधन क्रिया है । जैसे जैसे कषाय कमजोर होते जाते हैं वैसे-वैसे मन का दुश्चिन्तन भी कम होता जाता है और वैसे-वैसे वह शुभ-चिन्तनपरायण बनता है । अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होने पर भी यदि मन क्षुब्ध न हो, अपनी समतुला न खोए, राग-द्वेष-मोह के वश न हो तब वह चित्त के निर्मलीकरण की साधना समझी जाती है । जब यह साधना सतत जाग्रत रहकर दृढतम अवस्था पर पहुँचती है तब स्थितप्रज्ञ और वीतराग दशा प्राप्त होती है । । प्रलोभक अथवा क्षोभक घटना के समय सांसारिक घटनाओं की तथा विषय-भोगों की चमक-दमक की क्षणभंगुरता का विचार करके तथा मोहवासना से उत्पन्न होनेवाला रस परिणाम में सन्तापरूप है यह ध्यान में रखकर और संयोग-वियोग, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख आदि प्रसंग संसारी जीवन के साथ अनिवार्यरूप से सम्बद्ध हैं ऐसा समझ कर मन की स्वस्थता सुरक्षित रखनी चाहिए। मानसिक शुद्धि आहिस्ता-आहिस्ता सिद्ध होती है । इन्द्रियों के समुचित संयम से मनशुद्धि का मार्ग सरल होता है । मन की चंचल स्थिति तो प्रायः लम्बे समय और लम्बा 'प्रवास' करने के बाद दूर होती है । अतः इसके चांचल्य की चमक से न घबराकर उस पर योग्यरूप से सतर्क रहने के साथ ही साथ इन्द्रियों पर अखन्ड नियन्त्रण रखना चाहिए । जितेन्द्रियत्व प्रतिष्ठित होने पर मनःसंयम पूर्णरूप से प्रकाशमान होने लगेगा और इसी में से पूर्णशुद्धि एवं दिव्य प्रकाश प्रकट होंगे । १. भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में उल्लेख हैं कि तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥१॥ अर्थात्-सब इन्द्रियों को संयम में रखकर और समाहित हो कर मनुष्य भगवत्परायण रहे । जिसने अपनी इन्द्रियाँ वश में की हैं वह स्थितप्रज्ञ होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय होने से स्थितप्रज्ञ हुआ जा सकता है । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ तृतीय खण्ड (९) अन्तर्युद्ध मानसिक मन्दता की क्या बात करनी ? बहुत से मनुष्य ऐसे कमजोर मन के होते हैं कि ये स्वयं ही अपना पतन करानेवाले प्रलोभन के संसर्ग के स्वप्न देखते रहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये इधर-उधर के मिथ्या प्रयत्न करते हैं । ____बाहर की परिस्थिति मनुष्य के पतन के लिये कारण-भूत होती है, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि जिस प्रकार वातावरण में रहे हए रोग के जन्तु दुर्बल जीवन शक्तिवाले मनुष्य पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त करते हैं और समर्थ प्राणशक्तिवाले पर उसका प्रभाव बिलकुल नहीं पड़ता, उसी प्रकार बाहर से प्रलोभन, बासना से भरे हुए दुर्बल मन के मनुष्य का अध:पतन करते हैं, न कि सत्त्वपूर्ण मन के मनुष्य का । मनुष्य अपनी दुर्बलताओं के लिये परिस्थिति को दोष देता है और ऐसा मनाता है कि 'क्या करूँ ? लालच सामने आई', इसलिये मैं टिक न सका ।' परन्तु परिस्थिति को दोष देने की अपेक्षा अपनी मानसिक निर्बलता का दोष निकालना ही अधिक सङ्गत और यथार्थ है । मनुष्य का मन लालच की खोज में रहता है, उसमें उसे रस पड़ता है, अतः लालच सामने आते ही वह गिरता है या स्वयं हर्षावेश से उसका स्वागत करता है ! अतएव विकास की इच्छा रखनेवाले मनुष्य को चाहिए कि अपनी निर्बलता समझ करके अपने समग्र दोषों का उत्तरदायित्व अपने पर लेकर उन्हें दूर करने के लिये कटिबद्ध हो । सत्त्वशील मनोबल के आगे बाहर का भौतिक बल किस बिसात में ? सामान्यतः बाहर की प्रलोभक परिस्थितियों से दूर रहने में ही सुरक्षितता है, परन्तु इसमें भी (दूर रहने में अथवा दूर हट जाने में भी ) मनोबल की आवश्यकता पड़ेगी । इतना भी मनोबल जिसमें न हो वह तो कदम-कदम पर मरने का । प्रलोभनों के सामने टिक रहने की शक्ति प्राप्त करने का राजमार्ग प्रलोभक परिस्थितियों से हो सके वहाँ तक दूर रहने में और इस प्रकार दूर रह कर मनोबल को विकसित करने में है । ऐसी शक्ति Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन सर्वप्रथम कल्पना में सिद्ध करने की होती है । इसी प्रकार प्रारम्भ करना इष्ट है और सुरक्षा भी इसमें है । तालीम ले रहा हो उस हालत में अर्थात् साधक दशा में सिद्धि का अभिमान करनेवाला व्यक्ति अपने अध:पतन को आमन्त्रित करता है । अविचारी साहस करने में खतरा है, और प्रलोभनों से दूर रह कर प्राप्त की हुई सिद्धि भ्रामक न हो यह भी देखने का है । विद्वान् हों फिर भी प्रलोभन के सम्मुख अचल-भाव से टिक रहने में सच्ची कसौटी है । इसलिये समय-समय पर अपनी मोह-वासना का संशोधन और निरीक्षण एकदम बारीकी के साथ करते रहना जरूरी है । बाह्य परिस्थिति की ओर मनुष्य को असावधान न रहना चाहिए । क्या कोई जान-बुझकर रोग के कीटाणुओं का भक्षण करता है अथवा उनके पास जाता है ? परन्तु बाह्य परिस्थिति पर मनुष्य का अधिकार बहुत कम होता है और किस समय मनुष्य कहाँ जाकर पड़ेगा इसकी खबर किसी को नहीं होती । अतः प्रलोभनों से बचने के लिये मनुष्य को प्रतिक्षण सतर्क, जाग्रत और शक्तिशाली बने रहने की आवश्यकता है। हमेशा अपने मन को स्वच्छ, वासना अथवा मालिन्य से रहित और धैर्यपूर्ण रखना यही पतन से वचने का सच्चा मार्ग है । ऐसा होने पर ही प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति के समय मन पतित अथवा पराजित न होकर स्थिर एवं तेजस्वी रह सकेगा । __ अच्छे अच्छे मनुष्यों के मन प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति उपस्थित होने पर विचलित हो जाते हैं । ऐसे समय सुज्ञ मनुष्य को अपने मन के साथ युद्ध करना पड़ता है । इस में-ऐसे आन्तर विग्रह में महामना महानुभाव मानव खिल उठता है, खिलता जाता है कि किसी भी लालच के सामने वह अविचल खडा रहकर विजेता के आनन्द का संवेदन कर सकता है। (१०) राग और वीतरागता संसारवर्ती जीव के लिये अतिनिबिड बन्धन यदि कोई हो तो वह वस्तुतः रागद्वेष का है । इनमें भी राग मुख्य है । द्वेष के मूल में भी राग Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १६९ ही है । प्रत्येक दोष के मूल में राग का बल काम करता है । राग जड़ एवं चेतन दोनो प्रकार के पदार्थों के बारे में होता है । जैसे मनुष्यादि चेतन प्राणियों पर वैसे घड़ी, फाउण्टेन पेन, स्टेशनरी, फर्नीचर, वस्त्र - आभूषण आदि अच्छी लगने वाली चीजों पर भी राग-भाव फैला हुआ है, जबकि द्वेष तो सामान्यतः सचेतन प्राणी के बारे में ही होता है । 'जड़ वस्तु उसका विषय नहीं है । खम्भे के साथ टकराने पर यदि लग जाय तो खम्भे की ओर द्वेष - जैसा विकार उत्पन्न होता है, परन्तु वास्तविक रूप में वह द्वेष नहीं है, वह तो मोह का ( अज्ञान का, बेवकूफी का) पागल आवेश मात्र है । राग मोह का प्रबलतम रूप है और समग्र संसारचक्र में उसका निर्द्वन्द्व साम्राज्य फैला हुवा है । सब दोष उसके साथ चिपके हुए हैं और उसके हटते ही सब दोष तितर-बितर हो जाते हैं। इसीलिये वीतराग शब्द में केवल एक 'राग' शब्द ही रख कर राग के अभाव की सूचना के बल पर ही दूसरे सभी दोषों का अभाव भी सूचित हो जाता है । सचेतनप्राणी विषयक राग धार्मिक, साम्प्रदायिक और लौकिक इस तरह तीन प्रकार का है। ज्ञानी, महात्मा, सन्त, सत्पुरुष, सद्गुरु के ऊपर कल्याणी भक्ति का राग तथा सद्गुणों के कारण उत्पन्न होनेवाला पवित्र धार्मिक राग है । यह भक्तिरूप होने से कल्याण - रूप है । महर्षि गौतम इन्द्रभूति का भगवान् महावीर पर ऐसा ही धार्मिक अनुराग था । अपने सम्प्रदाय पर का संकुचित राग साम्प्रदायिकराग' है और यह त्याज्य है । १. इस बारे में हरिभद्राचार्य के 'अष्टकप्रकरण' ग्रन्थ के प्रथम अष्टक के प्रथम श्लोक के तृतीय पाद 'न च द्वेषोऽपि सत्त्वेषु' पर श्री जिनेश्वरसूरिकृत टीका देखो । २. कामरागस्नेहरागावीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥ - हेमचन्द्र, वीतरागस्तोत्र । अर्थात् — कामराग और स्नेहराग का निवारण सुकर है, परन्तु अतिपापी दृष्टिराग का उच्छेदन तो पण्डित और साधु-सन्तों के लिये भी दुष्कर है । [दृष्टिराग अर्थात् संकुचित साम्प्रदायिक राग ] इस श्लोक में कामराग, स्नेहराग और दृष्टिराग ये तीन राग बतलाए हैं । पवित्र भक्तिरूप या धार्मिक राग का स्त्रेहराग के सुपवित्र विभाग में समावेश हो सकता है । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनदर्शन स्वजन-कुटुम्ब, सगे-सम्बन्धी तथा मित्रादि की तरफ जो रागभाव होता है वह लौकिक-राग है । इस लौकिक-राग के भी दो भेद किए जा सकते हैं : स्नेहरूप और स्मरवासनारूप । स्नेहरूप राग यदि कलुषित न हो और निर्मल हो तो वह आदरणीय है । स्मरवासनारूप राग भी निषिद्ध और अनिषिद्ध ऐसा दो प्रकार का गिनाया जा सकता है : स्वपत्नी अथवा स्वपति-विषयक औचित्ययुक्त अनिषिद्ध, और परस्त्री आदि निषिद्धस्थान-विषयक निषिद्ध । हमें यह जान लेना चाहिए कि व्यक्तिविषयक राग की अपेक्षा उसके गुणों का राग उत्तम है, फिर चाहे ऐसे व्यक्ति की ओर राग-बुद्धि उसके सद्गुणों के कारण ही क्यों न उत्पन्न हुई हो ? यह बात सच है कि ऐसे व्यक्ति की ओर होनेवाला रागभाव आत्मा के ऊर्वीकरण में बहुत अंशों में सहायभूत होता है, परन्तु ऐसा राग उस व्यक्ति का वियोग होने पर निराधारता की भावना पैदा करके रुदन कराता है और अन्तिम विकास का अवरोधक बनता है । इस बारे में महर्षि गौतम इन्द्रभूति का उदाहरण स्पष्ट है ।। वीतरागता अर्थात् राग और द्वेष का आत्यन्तिक अभाव । इसमें रागद्वेषजन्य सभी वृत्तियों का अभाव सूचित हो जाता है । वीतरागता विश्वबन्धुत्व, विश्वप्रेम अथवा विश्ववात्सल्य की विरोधी नहीं है । जितने अंशों में राग-द्वेष कम होते जाते हैं उतने अंशों में प्राणीवात्सल्य का विकास होता जाता है और जब वीतरागता पूर्णरूप से प्रकट होती है तब यह वात्सल्यभाव भी पूर्णरूप से विकसित हो कर समग्र लोक के प्राणियों में अभिव्याप्त हो जाता है । जहाँ निर्धान्त ज्ञान देदीप्यमान हो रहा हो, जहाँ संकुचित स्वार्थ और पौद्गलिक सुखोपभोग में आसक्ति न हो, जहाँ कषायादि दोष न हो, जहाँ शुभ कर्मों से प्राप्त विशेषताओं के कारण गर्व अथवा अहंकार न हो, जहाँ पक्षपात अथवा अन्यायवृत्ति न हो, जहाँ उच्च नीच भाव न हो और जहाँ पूर्ण समदर्शिता तथा सर्वप्राणीहितपरायणता हो वहाँ वीतरागता है । वह विश्वक्षेमंकर, पूर्णपवित्र पूर्णज्योति जीवन का नाम है ।। जिस राग के पक्ष में द्वेष, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष हों अथवा जो राग साक्षात् या परम्परा से द्वेषादि दोषों के साथ सम्बद्ध हो वह कलुषित राग है । जगत् इस कलुषित राग के जुल्मी आक्रमण से व्यथित है । परन्तु यह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १७१ राग द्वेष, स्वार्थ और मूढ़ता आदि मैल से जितना दूर होता जाता है उतना ही वह निर्मल बनने लगता है । इस निर्मलता के कारण वह (राग) निर्मल वात्सल्य अथवा निर्मल प्रेमभाव जैसे सु-नाम से व्यवहृत होता है । विधेयात्मक अहिंसारूप शुद्ध वात्सल्यभाव प्राणीवर्ग में जितना व्यापक बनता है, आत्मा उतनी ही महान् बनती है । 'सम्यक्त्व' के निर्मल पुद्गल विशीर्ण होने पर जिस प्रकार श्रेष्ठतम (आत्मिक ) सम्यक्त्व प्रकट होता है उसी प्रकार अत्युन्नत भूमिका पर आरूढ होने पर राग के निर्मल पुद्गल भी जब बिखर जाते हैं तब पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त होती है और तब परमविशुद्ध आत्मिक वात्सल्य (Divine or spiritual love), जो कि अहिंसा की परम ज्योति है, सर्वभूतव्यापी बनता है और इसका सद्व्यवहार वीतराग प्रभु जबतक इस जगत में (शरीरधारी अवस्था में) रहते हैं तब तक करते हैं । इसलिये वे लोकबन्धु, जगन्मित्र, विश्ववत्सल कहलाते हैं । इसी रूप में उनकी स्तुति-प्रार्थना की जाती है । (११) ईश्वरकृपा स्वास्थ्य अच्छा रहे, बुद्धि अच्छी रहे, विचार - व्यवहार अच्छे रहे, सुखशान्ति बनी रहे तो यह सब ईश्वर की कृपा से है ऐसा लोगों में बोला जाता है । जैन भी बोलते हैं । और यह कुछ अनुचित भी नहीं है । इस प्रकार के सुष्ठु वाणी - व्यवहार में अत्यन्त मृदुता रही हुई है । स्मृतिपूर्वक बोले जानेवाले ऐसे वचनों से हम अहङ्काररहित हो सकते हैं । इससे ईश्वर की तरफ हमारी न्रमता तथा भक्तिभाव पुष्ट होते हैं । और उसके चरणों में बैठ जाने जितना प्रेम उमडने लगता है । दूसरी ओर तार्किक बुद्धिवाद से देखने पर प्रतीत होता है कि कल्याणमय ईश्वर ऐसा वीतराग और समत्वधारक है, ऐसा निरंजन और निर्लेप है कि किसी का बुरा भला करने के प्रपंच में वह पड़ता ही नहीं है । प्रत्येक प्राणी का बुरा-भला उसके अपने कर्मों से होता है । और प्रत्येक व्यक्ति को अपना भला अपने ही प्रयत्नों से करने का है । ईश्वर की 'कृपा' तो, सब जीव अच्छे और सुखी रहे सद्बुद्धि, सद्विचारवान् और सद्व्यवहारवाले बनें और रहें, ऐसी निरन्तर होती है । सब पर उसकी कृपा ही होती है यह सिद्ध Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनदर्शन बात है । अतः यदि केवल उसकी कृपा के ही कारण सुखशान्ति मिलती हो और सदाचारी बन जाता हो तो उसकी कृपा सब पर एक समान होने से सबके सब एक ही साथ सदाचारी और सुखी बन जाने चाहिए । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । अतः हमें समझना चाहिए कि इस की सर्वव्यापी, सर्वसाधारण स्वभावभूत कृपा अथवा प्रसन्नता सब पर समान होने पर भी प्राणियों के सुख-दुःख, उन्नति-अवनति अथवा कल्याण-अकल्याण का आधार अपने कर्म-आचरण पर ही है । हमारा पतन करानेवाला हमारा दुराचरण ही है और हमारा सदाचरण ही हमारा तारक है । अतः सदाचारी बनने के लिये ईश्वर कृपा की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है । उसकी कृपा तो है ही-नित्य-निरन्तर ही उसके कृपारूपी अमृत की वृष्टि हो रही है । यदि हम सदाचारी बनें तो सुखी हुए ही हैं । सदाचरण की साधना के समय पूर्वकृत दुष्कृत के कारण, संभव है, दुःख, तकलीफ सहनी पड़े; परन्तु इस सनातन सन्मार्ग में यदि हम निश्चल रहें तो उत्तरोत्तर विकसित होते-होते अन्ततः पूर्ण उज्ज्वल बनकर सब दुःखों से विमुक्त हो सकते हैं और पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकते हैं । दुनिया में दुष्ट, अधम मनुष्य दुष्ट, अधम कार्य करते हैं इसका क्या कारण है ? क्या यह कारण है कि उन पर ईश्वर की कृपा नहीं है ? नहीं, उसकी तो सब पर, ऊपर कहा उस तरह, सब अच्छे और सुखी बनें ऐसी कृपा है ही । ऐसा होने पर भी जगत् कितना कलुषित प्रतीत होता है ? अच्छों की अपेक्षा बुरे, सुखी की अपेक्षा दुःखी और बुद्धिशाली की अपेक्षा ज्ञानहीन प्राणियों की संख्या विश्व में बहुत अधिक हैं । सच तो यह है कि दुनिया की बातों में उसकी (उस अलख निरंजन ईश्वर की) कृपा अथवा अकृपा जैसा कुछ भी नहीं है । वह तो स्वमग्न है, निर्लेप और तटस्थ है । उसकी ओर का अपना भक्तिभाव और उस भक्तिभाव द्वारा सच्चरितता की साधन—इसी को यदि हम उसकी कृपा समझ लें तो तार्किक बुद्धि भी विरोध न कर सके ऐसा जीवनहित का सम्पूर्ण मुद्दा इसमें आ जाता है । ___ जो कुछ अच्छा होता है वह पुण्य से और जो बुरा होता है वह पाप से-ऐसा आर्य संस्कृति के तत्त्वज्ञान का प्रचलित सिद्धान्त है, अतः यह बात Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १७३ सही है कि सुख-सुविधा मिले, अथवा कुछ अच्छा हो अथवा अनिष्ट अकस्मात की झडप में से अपना इष्ट जन अथवा स्वयं हम बच जाएँ तो यह पुण्योदय से और असुविधा अथवा संकट उपस्थित हो अथवा खराब दुःखजनक परिस्थिति में फँस जाना पड़े तो वह पाप के उदय से होता है, परन्तु प्रश्न होगा कि यह पुण्य और पाप आए कहाँ से ? इसके उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि सत्कृत्य करने से अथवा अमुक अंश में शुभ मार्ग पर चलने से पुण्य आया और अशुभ कार्य अथवा पापाचार से पाप आया । ठीक, तब यह प्रश्न होता है कि शुभाशुभ मार्ग की सनातन समझ मूल में जगत पर कहाँ से उतरती रही ? इसका उत्तर यह है कि यह समझ मूल में महान् ज्ञानी पुरुषों से उतरती आई है । तब इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि ज्ञानी प्रभु की शिक्षा के अनुसार चलने से पुण्य उपार्जित होता है और उस पुण्य द्वारा जो सुख प्राप्त होता है उस सुख के देनेवाले मूल कारणरूप ज्ञानी भगवान् समझे जा सकते हैं । इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् की कल्याणमयी हितशिक्षा को न मान कर दुष्कर्म के मार्ग पर चलने से पाप का बन्ध होता है और इसके परिणामस्वरूप जो दुःखी होना पड़ता है यह भी ज्ञानी भगवान की शिक्षा न मानने का परिणाम कहा जा सकता है। दुनिया के व्यवहार में हम देखते ही हैं कि जिससे जिसके परामर्श से लाभ अथवा सुख मिलता है वह उसे अपना उपकारी मानता है- मुझे वह लाभ अथवा सुख देनेवाले वह है ऐसा वह मनुष्य मानता है । इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् के उपदेश के अनुसार चलनेवाला मनुष्य सुख प्राप्त करता है इसलिये उस सुख के कारणभूत ज्ञानी भगवान् उपकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि उनके सदुपदेश के अनुसार चलने से ही उसे सुख मिला है । इसी दृष्टि से परमात्मा ईश्वर सुखदायक अथवा मुक्तिदायक समझा जाता है । इतना ही नहीं, ईश्वर के कर्तृत्व का वाद भी इस दृष्टि के अनुसार और इतने अंश में घटाया जा सकता है । इस पर से, किसी आपत्ति में बच जाने पर अथवा इष्ट-लाभ प्राप्त होने पर भगवान् का जो उपकार माना जाता है अथवा उसकी कृपा को जो अंजलि दी जाती है वह युक्त है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ (१२) 'अनशन' व्रत लिए हुए व्यक्ति के बारे में I जनों में तथा अन्य सम्प्रदायों में 'अनशन' तप में कोई-कोई पानी पीने का भी त्याग करते हैं । कभी-कभी ऐसे त्याग वाले को पानी की खूब प्यास लगती है जिससे वह बहुत ही बेचैन हो जाता है । उस समय उसे उसके व्रत की याद दिलाने पर भी पानी पीने की उस की तीव्र इच्छा बनी ही रहती है । ऐसे अवसर पर जब वह आतुरतापूर्वक पानी माँग रहा हो तब, उस 'व्रती' को दुर्ध्यान न हो जाय और उसकी मौत न बिगड़े इसलिये उसे पानी पिला कर तृप्त करना ही धर्म हो जाता है। उसे पानी न देना और प्यासा रख कर तड़पते रहने देना अक्षम्य और भयंकर अपराध है — भीषण मानवहत्या है । जैन धर्म द्रव्य-क्षेत्र - काल - भाव (अर्थात् परिस्थिति) का विचार कर के काम करने का आदेश करता है । जैनदर्शन इस बारे में यदि कोई प्रश्न करे कि उस का क्या ? इसका उत्तर तो यही है कि इसका विचार व्रतधारी को स्वयं करने का है । हमें उसके बारे में आज्ञा करने का अथवा जबरदस्ती से व्रत का पालन कराने का अधिकार नहीं है । हम तो केवल उसे उसके व्रत का स्मरण करा सकते हैं । बाद में किस प्रकार बरतना इसके लिये वह स्वतन्त्र है । यह ध्यान में रखना चाहिए कि पानी देनेवाला व्रती को नहीं परन्तु व्रत से गिरे हुए और पानी के लिये करुण प्रयत्न करनेवाले तथा पानी न मिलने से व्रत भंग की अपेक्षा भी अधिक पापरूप दुर्ध्यान में पड़े हुए व्यक्ति को उसके माँगने से पानी देना है अतः पानी देने वाले व्रती के व्रतभंग के दोष के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है । इसके विपरीत; उसे पानी पिलाना अनुकम्पारूप धर्म होने से उस धर्म का आचरण करनेवाला वस्तुतः पुण्य कार्य ही करता है । इससे, 'पानी - पानी' चिल्लानेवाला, पानी के बिना मछली की भाँति तडफड़ाने वाला वह पानी मिलने से दुर्ध्यान एवं संक्लेशों से बच जाता है और इस तरह उस समय उसकी बिगड़ती मौत रुक जाती है । पानी देने पर व्रतभंग की आपत्ति मानने का कोई भी कारण नहीं है, परन्तु बहुत बड़ी और भयानक आपत्ति तो उसे पानी न देने में है, क्योंकि उस दशा में वह करुण (आर्त्त और दारुण) ( रौद्र) दुर्ध्यान से ग्रस्त होता है । उस समय उसकी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १७५ माँग के अनुसार पानी अथवा भोजन देने से उसे शान्ति मिलती है । संभव है, उस शान्ति में से वह पुनः धर्मजागृति प्राप्त करे । 'अनशन' ही नहीं, उपवासादि व्रत पालने का उत्तर दायित्व भी समाधिभाव (शान्ति) रहे वहीं तक है । शान्ति अथवा मनोभाव नष्ट होने के बाद उस व्रत का बन्धन नहीं रहता । इसीलिये तो उपवासादि के पच्चक्खाणों में (प्रतिज्ञा सूत्र में ) 'सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं' पाठ रखा हुआ है । (१३) व्यापक हितभावना मनुष्य सामाजिक प्राणी है; समुदाय में एक-दूसरे के साहचर्य और सहयोग पर रहनेवाला, जीनेवाला प्राणी है । एक व्यक्ति के जीवन और संवर्धन के पीछे असंख्य प्राणियों का प्रवृत्ति, परिश्रम, कष्टसहन और बलिदान रहे हुए हैं । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पर प्राणीसमाज का ऋण चढ़ा हुआ है । अतः उसे केवल अपने ही हित की दृष्टि से नहीं, किन्तु सब के हित की दृष्टि से अपने ध्येय का विचार करना चाहिये । उसकी कार्य-प्रवृत्ति किसी के लिये अहितकर न हो इसका ख्याल उसे सदैव रखना चाहिए । उसका मानस लोकबन्धुता के विशद भाव से रँगा हुआ होना चाहिए । 'मैं तो समाज से भिन्न और अलग ही व्यक्ति हूँ' — इस प्रकार मानकर बरतना यह समाज के ऋण का इनकार कर के दिवाला निकालने जैसा है । अपने आपको समाज का एक अंश या घटक मान कर तथा समाजहित के विरुद्ध अकेले मेरा हित होना असम्भव है ऐसा समझ कर उसे अपने हृदय में समाजहित की भावना का प्रवाह बहता रखना चाहिए । धर्म और जीवन को अलग नहीं कर सकते । धर्म जीवन में, दूसरों के साथ व्यवहार में ओतप्रोत बन जाना चाहिए । यदि धर्म को जीवन एवं व्यावहारिक बरताव से अलग कर दिया जाय तो वह धर्म न रह कर व्यर्थ बन जायगा । ‘निश्चयदृष्टि' (मूल आदर्श) पर लक्ष रख कर तदनुकूल अथवा कम से कम उसके विरुद्ध नहीं ऐसा सद्-व्यवहार रखने में ही धर्म का पालन है । जहाँ व्यवहार में नीति और न्याय की उपेक्षा की जाय वहाँ धर्म नहीं होता । लोकबन्धुभाव अहिंसा की ज्योतरूप होने से धर्म का प्राण है । इससे I Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जीवन आलोकित हो इसी में जीवन का श्रेष्ठतम सौन्दर्य है । (१४) सरल मार्ग——- जगत् अनेक दुःखों से आक्रान्त है । दुःख अपनी भूल का परिणाम है । मनुष्य धर्म का अर्थात् कर्त्तव्यमार्ग का पालन न करने की भूल करता है । और इसीलिए वह दु:खी होता है । शास्त्रकारों ने यमनियम आदि बतलाकर मनुष्य को उसका कर्त्तव्यमार्ग बता दिया है । इस पर चलने से उसका कल्याण होता है । लोभवृत्ति और उपाधि कम कर के समुचित संयम के द्वारा जीवन को सुखशान्तिपूर्ण बनाना ही व्रतों का उद्देश है । मानवसमाज परस्पर हिल-मिलकर सुख-शान्ति से रहे और जीवनविकास की ओर गतिशील हो यही धर्ममार्ग का प्रयोजन है । सत्य, अहिंसा, संयम, सन्तोष, मैत्री, सेवा इन सद्गुणों की साधना ही मनुष्य मात्र का धर्ममार्ग है । जैनदर्शन यह समझा जा सकता है कि जिस समय जो ग्राह्य वस्तु मिले उसका प्रसन्नतापूर्वक उपभोग करके सन्तोष मानना इसमें कुछ बेजा नहीं है, परन्तु वह वस्तु अच्छी लगने से बार-बार मिले ऐसी इच्छा होना और उसके अभाव में अथवा वियोग में मन में बेचैनी रहना अथवा अस्वस्थता का अनुभव करना आसक्ति अथवा तृष्णा है । इसके परिणामस्वरूप जीवन अस्वस्थ बन जाता है । इस आसक्ति के वश में न होने का जो धैर्य वह है अनासक्ति मार्ग । सामान्यतः मनुष्य अपने आरोग्य और अपनी चित्तशुद्धि को हानि न पहुँचे उस तरह और स्वादेन्द्रिय के वश हुए बिना न्यायसम्पन्न योग रसास्वाद कर सकता है और निर्दोष एवं न्याय्य भौतिक आनन्द ले सकता है । इस प्रकार की दृष्टिवाला सज्जन स्वादेन्द्रिय का दास नहीं होगा और जीवनविकास के अपने मध्यम मार्ग पर सरलता से मृदु प्रगति करता जायगा । (१५) आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन जीव का लक्षणचेतना है । चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति । ऐसी शक्ति जीव के अतिरिक्त अन्य किसी रूपी अथवा अरूपी द्रव्य में नहीं है । चेतनस्वरूप-ज्ञानस्वरूप जीव अपनी चेतनाशक्ति द्वारा जानता है, वस्तु का ज्ञान कर सकता । जीव इतर पदार्थों का ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १७७ वह अपने आप का भी ज्ञान कर सकता है । इसीलिये वह स्वपरप्रकाशक कहलाता है । सब प्रकार का (यथार्थ अथवा अयथार्थ) ज्ञान स्वप्रकाशक' (स्वसंवेदन रूप अथवा स्वसंविदित) है अर्थात् वह स्वयं अपने आपको प्रकाशित करता है । परन्तु यथार्थज्ञान स्वप्रकाशक और अर्थप्रकाशक इस प्रकार दोनों स्वरूपवाला होने से स्वपरप्रकाशक (स्वपरव्यवसायी) समझा जाता है। प्रदीप की भाँति ज्ञान भी स्वयं प्रकाशरूप होकर ही अर्थ को प्रकाशित करता है । जो ज्ञान अयथार्थ (सन्दिग्ध अथवा भ्रान्त) है वह परप्रकाशक नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट ही है । विश्व में जितने पदार्थ हैं वे सब सामान्य तथा विशेष स्वभाववाले हैं । जब चेतना पदार्थ के विशेष स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यतः पदार्थ के सामान्य स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणाम को 'दर्शन कहते हैं । और जब चेतना पदार्थ के सामान्य स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यरूप से पदार्थ के विशेष स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को 'ज्ञान' कहते हैं । चेतना का, योग्य निमित्त के योग से जानने की क्रिया में परिणमन होने का नाम 'उपयोग' है । इस पर से ज्ञात होगा कि उपयोग दो विभागों में विभक्त है : सामान्य उपयोग और विशेष उपयोग । जो बोधग्राह्य वस्तु को सामान्यरूप से १. "स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि संशयादौ वर्तते । न हि काचित् ज्ञानमात्रा सास्ति या न स्वसंविदिता नाम ।" –हेमचन्द्राचार्य की प्रमाणमीमांसा के तीसरे सूत्र की वृत्ति । २. "ज्ञानं प्रकाशमानमेव अर्थं प्रकाशयति, प्रकाशकत्वात, प्रदीपवत् ।" -उक्त तृतीय सूत्र पर की अवतरणिका में । अर्थात्-जिस प्रकार प्रदीप को अपने प्रकाशन के लिये दूसरी वस्तु की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाशरूप है, और ऐसा होने से ही वह अर्थ को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी स्वप्रकाशक होकर ही परप्रकाश करता है । जो स्वयंप्रकाशरूप न हो वह परप्रकाशक नहीं हो सकता (अर्थप्रकाश नहीं कर सकता) । अतः घट आदि पदार्थ का ज्ञान अर्थप्रकाश करता है इसलिये स्वप्रकाश भी है । इस तरह ज्ञान को स्वसंविदित (स्वप्रकाशरूप) सिद्ध किया जाता है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनदर्शन जाने वह सामान्य उपयोग और जो बोधग्राह्य वस्तु को विशेषरूप से जाने वह विशेष उपयोग है । विशेष उपयोग को साकार उपयोग और सामान्य उपयोग को निराकार उपयोग कहते हैं । साकार और निराकार शब्दों में आए हुए 'आकार' शब्द का अर्थ 'विशेष' समझने का है । 'निराकार' उपयोग का अर्थ है आकार अर्थात् विशेष का ग्रहण जिसमें नहीं है ऐसा उपयोग अर्थात् सामान्यग्रहणात्मक उपयोग निराकार उपयोग है । सामान्य उपयोग को 'दर्शन' और विशेष उपयोग को 'ज्ञान' कहते हैं । __ 'दर्शन' का लक्ष सामान्य की ओर होने से उससे एकता अथवा समानता का भान उत्पन्न होता है, जबकि ज्ञान का लक्ष विशेषता की ओर होने के कारण उससे विशेषरूपता का—भिन्नता का भान होता है । प्रथम दर्शन और बाद में ज्ञान ऐसा क्रम लगभग सर्वसाधारण समझा जाता है। प्रथम यदि दर्शन न हो तो ज्ञान हो ही कैसे ? दर्शन और ज्ञान का भेद समझने के लिये यहाँ पर एक स्थूल दृष्टान्त देना उपयोगी होगा । गायों के समूह को दूर से देखने पर हमें प्रारम्भ में 'ये सब गायें हैं' ऐसा सामान्यतः भान होता है । ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रहे हुए सामान्य तत्त्व की ओर ध्यान देते हैं । गायों का समूह समीप आने पर उनके रंग, सींग, कद, आदि में रही हुई विशेषताओं की ओर यदि हम लक्ष दें तो एक गाय से दूसरी गाय में रही हुई भिन्नता हमारी समझ में आती है। ऐसे समय हम मुख्यतः गायों में रही हुई विशेषताओं की ओर ध्यान देते हैं । दर्शन एवं ज्ञान में तात्त्विक भेद नहीं है । दोनों बोधरूप ही हैं । भेद केवल विषय की सीमा को लेकर ही है। अत: ज्ञान को विशाल अर्थ में यदि हम लें तो उसमें दर्शन' का समावेश हो जाता है । लगभग सभी दर्शन ऐसा मानते हैं कि ज्ञानव्यापार के उत्पत्तिक्रम में सर्वप्रथम ऐसे बोध का स्थान अनिवार्य रूप से आता है जो ग्राह्य विषय के १. दर्शन को सामान्य अवबोध, सामान्य उपयोग, निराकार उपयोग अथवा निर्विकल्पक ज्ञान भी कहते हैं और ज्ञान को विशेष अवबोध, विशेष उपयोग, साकार उपयोग अथवा सविकल्प ज्ञान भी कहते हैं । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १७९ सत्तामात्र स्वरूप का ग्राहक हो और जिसमें कोई भी अंश विशेषण-विशेष्यरूप से भासि न हो । लोक-व्यवहार का सम्पूर्ण आधार 'ज्ञान' पर है । यही कारण है कि ज्ञान का आवारक 'ज्ञानावरणीय' कर्म पूर्वोक्त आठ कर्मों में प्रथम रखा है । ज्ञान के सम्बन्ध में पहले थोड़ा निरूपण किया गया है । उसमें ज्ञान के 'मति' आदि पाँच भेद बतलाए हैं । यहाँ पर हम इनके बारे में तनिक ब्योरे से देखें । मति और श्रुत ज्ञान मन तथा इन्द्रियों द्वारा होते हैं । मत से युक्त चक्षु इन्द्रियों से रूप आदि विषयों का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह (सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष) मति ज्ञान है और मन से सुखादि का जो संवेदन होता है वह मानस (सांव्यावहारिक) प्रत्यक्ष मतिज्ञान है । इस प्रकार मतिज्ञान का एक विभाग प्रत्यक्ष (सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष) रूप है और मन से तर्कवितर्क-विचार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि जो होता है वह परोक्ष मतिज्ञान है । प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ऐसे चार भेद हैं । प्रथम निर्विकल्परूप अव्यक्त 'दर्शन' के बाद अवग्रह होता है। सामान्यतः रूप, स्पर्श आदि का प्रतिभास अवग्रह है । अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है वह 'ईहा' है । किसी दृश्य आकृति का चक्षु द्वारा, किसी शब्द का श्रवणेन्द्रिय द्वारा, किसी स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा प्रतिभास (अवग्रहरूप प्रतिभास) होने के पश्चात् विशेष चिह्न ज्ञान होने पर 'यह वृक्ष ही होना चाहिए, मनुष्य नहीं' अथवा 'यह मनुष्य बंगाली' होना चाहिए, पंजाबी नहीं अथवा 'यह शंख का शब्द होना चाहिए, शृंग का नहीं, अथवा 'वह १. "अवग्रहेण विषयीकृतो योऽर्थोऽवान्तर मनुष्यत्वादिजातिविशेषलक्षणः, तस्य 'विशेषः' कर्णाटलाटादिभेदः, तस्य आकाङक्षणं 'भवितव्यताप्रत्ययरूपतया ग्रहणाभि मुख्यमीहा ।" -रत्नाकरावतारिका, २-८, "यथा पुरुष इत्यवगृहीते तस्य भाषावयोरूपादिविशेषैराकाङ्क्षणमीहा ।" -तत्त्वार्थराजवार्तिक १-५-१२. २. "अवग्रहगृहीतस्य शब्दादेरर्थस्य शब्दः 'किमयं शाङ्खः शा) वा इति संशये सति 'माधुर्यादयः शाङ्घधर्मा एवोपलभ्यन्ते, न कार्कश्यादयः शाङ्गधर्माः' इत्यन्वयव्यतिरेक-रूपविशेषपर्यालोचनरूपा मतेश्चेष्टा 'ईहा'।"-प्रमाणीमीमांसा, १-१-२७. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनदर्शन रस्सी का स्पर्श होना चाहिए, सर्प का नहीं' इस प्रकार की निर्णयाभिमुखी जो विचारणा-सम्भावना होती है वह ईहा' है। ईहा के बाद 'यह वृक्ष ही है,' 'यह बंगाली ही है, 'यह शंख का ही शब्द है,' 'यह रस्सी का ही स्पर्श है'--इस प्रकार का निर्णय होना 'अवाय' है । और अवाय से निर्णीत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण हो सके ऐसा संस्कार वाला ज्ञान 'धारणा' है । इसे 'संस्कार' भी कहते हैं । अर्थात् 'अवाय' रूप निश्चय कुछ समय के बाद लुप्त हो जाने पर भी ऐसा 'संस्कार' रखता जाता है जिससे आगे जाकर उस निश्चित विषय का स्मरण हो आता है । इस अवायरूप निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मरण-यह सब मतिव्यापार 'धारणा' है । परन्तु इस समग्र मतिव्यापार में 'संस्कार' प्रत्यक्ष मतिज्ञान है. जबकि 'स्मरण' परोक्ष मतिज्ञान है । इस प्रकार 'अवग्रह' आदि चार ज्ञानों का उत्पत्ति क्रम है । शास्त्र में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और परिणामिकी इस प्रकार चार तरह की बुद्धि का वर्णन आता है और उनका मतिज्ञानरूप से उल्लेख किया है । किसी विकट उलझन को सुलझाने के समय उसे सुलझा सके ऐसी सहज बुद्धि यदि तुरन्त उत्पन्न हो तो वह औत्पत्तिकी बुद्धि है । इसे प्रत्युपन्नमति भी कह सकते हैं । विनय अर्थात् शिक्षण द्वारा विकसित बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है, शिल्प एवं कर्म द्वारा संस्कृत बुद्धि कर्मजा बुद्धि है और लम्बे अनुभव से परिपक्व हुई बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि है । इन चार प्रकारों की बुद्धि का जिक्र 'नन्दिसूत्र' में उदाहरणों के संक्षिप्त नामों के साथ आता है और वे उदाहरण उस सूत्र की टीका में श्री मलयगिरि ने संक्षेप में दिए हैं। इनमें से कुछ बहुत मनोरंजक हैं । यहाँ पर तो विषय का तनिक ख्याल आ सके इस दृष्टि से दो-एक उदाहरण उस टीका में से देते हैं । औत्पत्तिकी बुद्धि पर टीकाकार ने आज भी सामान्य जनता में अतिप्रसिद्ध ऐसा एक उदाहरण दिया है । जैसे कि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १८१ एक पुरुष की दो विधवा स्त्रियों के बीच पुत्र के लिये झगडा हुआ । दोनों कहने लगीं, यह मेरा पुत्र है । न्यायाधीश ने आज्ञा दी, पुत्र के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा दोनो स्त्रियों को बाँट दो । जो नकली माता थी वह तो इस फैसले पर कुछ भी न बोली, परन्तु जो असली माता थी उसका हृदय काँप उठा और प्रेम के आवेश में उसने कहा : ठीक है, यह मेरा पुत्र नहीं है । यह पुत्र उसे दे दो। इस पर से वास्तविक माता का पता चल गया । यह न्यायाधीश की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है। वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण—एक वृद्धा ने दो ज्योतिषियों से पूछा कि देशान्तर से मेरा पुत्र कब आयेगा ? ऐसा पूछते समय वृद्धा के सिर पर रखा हुआ घड़ा नीचे गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया । इस पर से उन दो ज्योतिषियों में से एक ने कहा : माँजी, तुम्हारा लड़का, जैसे यह घट नष्ट हुआ वैसे मर गया है । तब दूसरे ने उसे रोक कर कहा : माँजी, तुम्हारा पुत्र घर पर आ गया है । तुम घर पर जाओ । वृद्धा घर गई और पुत्र को देखकर आनन्दित हुई । यह ज्योतिषी की वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण है । उसने ऐसे विचार से-ऐसी तर्क शक्ति से इस प्रकार का भविष्य कथन किया कि जैसे वृद्धा का घड़ा, प्रश्न पूछते समय ही, अपनी जननी मिट्टी में मिल गया वैसे वृद्धा का पुत्र भी अभी ही उसे मिलना चाहिये । कर्मजा बुद्धि के उदाहरणों में शिल्प एवं कर्म (कला) में प्रवीणतासूचक उदाहण दिए हैं । परिणामिकी बुद्धि के उदाहरणों में से एक उदाहरण इस प्रकार है परस्त्री का त्यागी एक श्रावक एक बार अपनी पत्नी की सखी को देखकर उस पर मोहित हो गया । मोह से पीडित अपने पति को देखकर पत्नी ने कहा : 'तुम दुःखी न हो । तुम्हारी इच्छा मैं पूर्ण कर दूंगी' । इसके बाद रात पड़ने पर अपनी सखी के वस्त्राभरण धारण करके सखीरूप से अपने पति से वह एकान्त में मिली । उसके साथ संग करने के बाद उस पुरुष को अपने व्रतभंग के लिये दुःख हुआ । पत्नी ने जब सच्ची बात कही Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन तब उसका दुःख कुछ हलका हुआ और गुरु के पास जाकर मन में दुष्ट संकल्प करने से जो व्रतभंग हुआ था उसके लिये प्रायश्चित्त किया । यह श्राविका की पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण है । १८२ इस प्रकार हमने मतिज्ञान देखा । अब श्रुतज्ञान को देखें । श्रुतज्ञान अर्थात् श्रुत यानी सुने हुए का ज्ञान । इसका एक अर्थ होता है शास्त्र - आगम का ज्ञान । सामान्यतः किसी भी विषय के शास्त्र अथवा ग्रन्थ से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । सदुपयोग अथवा दुरुपयोग किसी भी शास्त्र अथवा ज्ञान का हो सकता है । मोक्ष में उपयोगी होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है । अधिकारी यदि योग्य और मुमुक्षु हो तो लौकिक समझे जानेवाले शास्त्र को भी वह मोक्ष के लिये उपयोगी बना सकता है और अधिकारी योग्य न हो तो आध्यात्मिक श्रेणी के शास्त्र भी उसके पतन में निमित्त हो सकते हैं । फिर भी विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से शास्त्र अवश्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं । I व्यापक रूप से विचार करने पर श्रुतज्ञान का अर्थ शब्दजन्य ज्ञान अथवा संकेतजन्य ज्ञान होता है । शब्द सुन करके अथवा लिखा हुआ पढकर के जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है ही, परन्तु संकेत द्वारा होनेवाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान कहलाता है । जैसे कि, किसी के हाथ के इशारे से अथवा किसी के खाँसने से जो समझ में आता है वह श्रुतज्ञान है । यदि कोई अपने मुँह के आगे हाथ रखे तो उस संकेत से जो खाने का अर्थ समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है । ऊपर उठे हुए अक्षरों पर हाथ फिराने से एक अन्धा जो पढ़ता है - समझता है वह श्रुतज्ञान है । तार के 'कट्- कट्' शब्दों पर से जो समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है । आमने-सामने दो मनुष्य एक-दूसरे की संज्ञाओं से जो कुछ समझते हैं वह श्रुतज्ञान है। खांसी आदि से, अन्धेरे में कोई मनुष्य है ऐसा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । एक गूंगा आदमी दूसरों के हाथ की चेष्टाओं को अथवा संकेत से अथवा गूंगे के संकेत आदि से दूसरा जो समझता है वह श्रुतज्ञान है । इसी प्रकार एक बहरे को दूसरे की हाथ की संज्ञाओं से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । पाँचों इन्द्रियों में स्वस्थ पुरुषों में भी बहुत बार वाणीप्रयोग न करके मुँह, हाथ, मस्तक आदि की संज्ञाओं Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १८३ से-चेष्टाओं से एक-दूसरे को समझा देने का अथवा उत्तर दे देने का प्रचार है । इससे जो बोध होता है वह श्रुतज्ञान है । शब्द सुनकर जिस प्रकार अर्थ की उपस्थिति होती है उसी प्रकार संकेत से भी अर्थ की उपस्थिति होती है । जिस तरीके शब्द द्वारा ज्ञान उत्पन्न होना है उसी तरीके से संकेत द्वारा भी ज्ञान पैदा होता है । अतः संकेतजन्य ज्ञान शब्दबोध जैसा है और इसीलिये वह श्रुतज्ञान है। शब्द का सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादिरूप मतिज्ञान है, परन्तु उससे बोध (शब्दबोध) होना श्रुतज्ञान है । चेष्टा, संकेत अथवा संज्ञा का देखना चाक्षुष अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे अर्थ की उपस्थिति होना—अर्थ का बोध होना श्रुतज्ञान है । इसी प्रकार संकेत का श्रवण श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे शब्दबोध जैसा अर्थबोध होना श्रुतज्ञान है । मति और श्रुत में भेद क्या है ? -इसके बारे में विशेषावश्यकभाष्य के टीकाकार कहते हैं कि 'इन्द्रिय और मन द्वारा उत्पन्न होनेवाला सब प्रकार का ज्ञान 'मतिज्ञान' ही है सिर्फ परोपदेश और आगम-वचन से पैदा होने पर वह 'श्रुत' कहलाता है, जो (इस प्रकार की विशेषतावाला) मतिज्ञान का एक विशिष्ट भेद' ही है। सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि मति और श्रुत में क्रमशः बुद्धि और विद्वत्ता जैसा भेद है । मतिज्ञानी को बुद्धिमान् और श्रुतज्ञानी को विद्वान् कह सकते हैं । विद्वान् की मति श्रुत से रँगी हुई होती है । इस प्रकार ये दोनों एकरस बन जाते हैं । मतिज्ञान निमित्त के योग से स्वयं उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, अर्थात् उसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती, जबकि श्रुतज्ञान परोपदेश से (आगम १. "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तद्वारेण उपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव । केवलं परोपदेशाद्, आगमवचनाच्च भवन् विशिष्टः कश्चिन्मतिभेद एव श्रुतं, नाऽन्यत् ।" -मलधारिरचित विशेषावश्यकभाष्य-टीका गाथा ८६. "न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् "। -सिद्धसेन दिवाकर, निश्चयद्वात्रिंशिका श्लोक १२. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनदर्शन अथवा शास्त्रवचन भी परोपदेश ही है) पैदा होता है और उसमें, पहले कहा उस तरह, शब्द एवं अर्थ के संकेत की आवश्यकता है । मतिज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु को दूसरे से कहने के लिये जब हम मन ही मन उस ज्ञान को भाषा के रूप में परिणत करते हैं तब भाषा के रूप में परिणत होने के कारण वह 'श्रुतज्ञान' नहि हो जाता उस समय भी वह तो 'मतिज्ञान' ही कहलाता है; 'श्रुतज्ञान' तो भाषा द्वारा पैदा होने से ही होता है । मतिज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है और श्रुतज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है। श्रुतज्ञान से ज्ञात पदार्थ पर विशेष विचार-विशेष चिन्तन-विशेष ऊहापोह बुद्धिरूप है और बुद्धि 'मतिज्ञान' है । वैनयिकी बुद्धि, जिसका पहले उल्लेख हो चुका है, विशेष विचाररूप है और मतिज्ञान है । इस प्रकार मतिज्ञान की व्यापकता होने पर भी उसकी संस्कारिता, पुष्टिमत्ता और बलवत्ता का आधार श्रुतज्ञान है । प्रगति और उन्नति के मार्ग पर वह हमें आरूढ़ करता है । पूर्वजों एवं साथियों के अनुभव का लाभ यदि हमें न मिले तो हमारी अवस्था पशुओं की अपेक्षा भी अधम हो जाय । इसलिये श्रुतज्ञान का क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल है । यद्यपि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान खड़ा नहीं हो सकता किन्तु श्रुतज्ञान के बिना मतिज्ञान पशु से अधिक उन्नत श्रेणी पर नहीं ले जा सकता । इस प्रकार मति और श्रुत दोनों एकदूसरे में ओतप्रोत होने पर भी दोनों के बीच का भेद समझा जाता है । मति और श्रुत संसार के समग्र प्राणियों में-सूक्ष्म जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सब जीवों में है । शास्त्र के आधार पर मति और श्रुत का विषय सब द्रव्य हैं, अर्थात् रूपी एवं अरूपी सब द्रव्यों का मति और श्रुत द्वारा विचार किया जा सकता है और वे जाने जा सकते हैं । परन्तु ये दोनों ज्ञान किसी भी द्रव्य के परिमित ही पर्याय जानते हैं। इतना अवश्य है कि मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुत का पर्यायग्राहित्व अधिक है। मतिज्ञान इन्द्रियजन्य है और साथ ही मनोजन्य भी है । मन स्वानुभूत अथवा शास्त्रश्रुत सब मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है । अतः मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से समग्र द्रव्य मतिज्ञान के विषय कहे जा सकते हैं। मानसिक चिन्तन जब शब्दोल्लेखसहित होता है तब श्रुतज्ञान है और जब Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड शब्दोल्लेखरहित होता है तब मतिज्ञान' है । शास्त्रदृष्टि से मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान इन्द्रिय मनोजनित होने के कारण — साक्षात् आत्मा द्वारा न होकर अन्य निमित्तों के बल पर उत्पन्न होने से परोक्ष कहलाते हैं । इनमें नेत्र आदि इन्द्रियों से होनेवाले रूप आदि विषयों के ज्ञान भी आ जाते हैं । फिर भी नेत्रादि - इन्द्रियजन्य रूपादि विषयक ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष गिने जाते हैं, अतः शास्त्र को भी उन्हें प्रत्यक्ष मानना पड़ा है । पारमार्थिक दृष्टि से ये ज्ञान परोक्ष होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उन्हें सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है । : शास्त्रानुसार पारमार्थिक ( वास्तविक ) प्रत्यक्ष तीन प्रकार के हैं अवधि, मनःपर्याय और केवल । ये तीनों इन्द्रिय एवं मन किसी की भी अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मशक्ति से प्रकट होते हैं । अतः ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं । १८५ अवधि का विषय रूपी (मूर्त) द्रव्य है अर्थात् अवधिज्ञान रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है । अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं । ऐसा उच्च कोटि का भी अवधिज्ञान होता है जो मनोद्रव्य को ग्रहण कर सकता है और कार्मिक द्रव्यों को भी जान सकता है । I मन: पर्यायज्ञान भी रूपी द्रव्यों को ही ग्रहण करनेवाला ज्ञान है । परन्तु रूपी द्रव्य दूसरा कोई नहीं, केवल मनोद्रव्य (मनरूप से परिणत पुद्गल) ही है । कहने का अभिप्राय यह है कि मनः पर्यायज्ञान मनुष्यलोक में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्य को ग्रहण करता है । इस कारण मन: पर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग कहा है । १. शब्दोल्लेख का अर्थ है व्यवहारकाल में शब्दशक्ति के ग्रहण से उत्पन्न होना । अर्थात् श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेतस्मरण और श्रुतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है । ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में शब्दस्फूर्ति होने पर भी वे ज्ञान इस प्रकार के शब्दोल्लेखवाले नहीं है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनदर्शन मन:पर्यायज्ञान से दूसरे के मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा हो उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता, परन्तु विचार करते समय मन की (मनोद्रव्य की) जो आकृतियाँ बनती हैं उन आकृतियों का ही साक्षात्कार होता है । चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान तो पीछे से अनुमान द्वारा होता है । जिस प्रकार हम पुस्तक आदि में छपी हुई लिपि को प्रत्यक्ष देखते हैं उसी प्रकार मनः पर्यायज्ञान मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों को प्रत्यक्ष देखता है । इस आकृतियों का साक्षात्कार ही मन:पर्याय की साक्षात्क्रिया है । परन्तु लिपिदर्शन पर से (लिपि पढ़कर) हमें जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु शब्दबोध (श्रुतज्ञान) है उसी प्रकार मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों के दर्शन (साक्षात्कार) से जो चिन्त्यमान वस्तुओं का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमानज्ञान है और वह मन:पर्याय की सीमा की बाहर का है । अवधि और मन:पर्याय के बीच विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय द्वारा भेद बतलाया जाता है ।। अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अधिक स्पष्टरूप से जानता है । यह हुआ विशुद्धिकृत भेद । कोई अवधिज्ञान अत्यन्त अल्प सीमा का स्पर्श करता है तो कोई उससे कुछ अधिक सीमा का । यह तारतम्य असंख्य प्रकार का है । इससे अवधिज्ञान के असंख्य भेद होते हैं। उच्चतम अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोक का (समग्र लोक के सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों का) स्पर्श करता है-उसे जानता है, जबकि मन:पर्यायज्ञान का विषय क्षेत्र ही है । यह हुआ क्षेत्रकृत भेद । अवधिज्ञान का स्वामी मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक चारों गति के जीव हो सकते हैं, जबकि मन:पर्यायज्ञान का स्वामी केवल सर्वविरत मनुष्य ही हो सकता है । यह हुआ स्वामीकृत भेद । अवधि का विषय उत्कृष्ट रूप से सम्पूर्ण रूपी द्रव्य हैं, जबकि मनःपर्यायज्ञान का विषय उसका अनन्तवाँ भाग है, अर्थात् केवल मनोद्रव्य है । यह हुआ विषयकृत भेद । मनःपर्यायज्ञान का विषय अल्प होने पर भी अवधि ज्ञान की अपेक्षा वह विशुद्धतर माना गया है । इसका कारण स्पष्ट है । विशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय में रही हुई न्यूनाधिक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १८७ सूक्ष्मताओं को जानने में है । जैसे कि, दो मनुष्यों में एक ऐसा है जो अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा एक ही शास्त्र को जानता है । अब, यदि एक ही शास्त्र को जाननेवाला अपने शास्त्र-विषय को उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य की अपेक्षा अधिक गहराई से, अधिक सूक्ष्मता से जानता हो तो उसका उस विषय का ज्ञान उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध कहलायेगा, उच्चतर समझा जायेगा । इसी प्रकार विषय अल्प होने पर भी सूक्ष्मताओं को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशेष रूप से जाननेवाला मन:पर्याय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्धतर समझा जाता है । अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष की श्रेणी के हैं। इनमें अन्तिम ज्ञान सर्ववित् (रूपी, अरूपी सर्वविषयग्राही) है, अतः वह सकल प्रत्यक्ष कहलाता है, जबकि पहले के दो (अवधि और मन:पर्याय) अपूर्ण प्रत्यक्ष होने के कारण विकलप्रत्यक्ष कहे गए हैं। अब 'ज्ञान' से पूर्व अल्प समय के लिये चमकनेवाले 'दर्शन' को देखें । इसके चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। चक्षुद्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन और चक्षु के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों तथा मन द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुर्दर्शन है । अवधिज्ञान से पहले होनेवाला अवधिदर्शन और केवलज्ञान का पूर्ववर्ती केवलदर्शन है । मनःपर्याय ज्ञान के पहले 'दर्शन' नहीं माना' गया । इस बारे में ऐसी कल्पना होती है कि अवधिज्ञान का जो प्रकार मनोद्रव्य का स्पर्श करता है वही विशेष सूक्ष्म होने पर 'मन:पर्यायज्ञान' होता है । अतः इसके पूर्वगामी दर्शन के रूप में अवधिदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन की खोज करने की आवश्यकता नहीं है । महान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपनी 'निश्चयद्वात्रिंशिका' अवधिज्ञान असंख्य भेदवाला होने से मनःपर्याय ज्ञान को उसका एक भेदरूप मान कर उसी में (अवधिज्ञान में) उसे अन्तर्गत करते हैं । १. "मनःपर्यायज्ञानं पटुक्षयोपशमप्रभवत्वाद् विशेषमेव गृह्णद् उत्पद्यते, न सामान्यम्, अतो ज्ञानरूपमेवेदम्, न पुनरिह दर्शनमस्ति ।" -मलधारिकृत विशेषावश्यक-टीका गाथा ८१४. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन दर्शन से होनेवाला सामान्य बोध इतना अधिक सामान्य स्थिति का हैं कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग् दृष्टि के दर्शन में कुछ फर्क नहीं पड़ता । १८८ सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुत एवं अवधि सम्यग्ज्ञानरूप और मिथ्यादृष्टि के वे मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञानरूप माने गए हैं । इस बात पर थोड़ा दृष्टिपात करें । न्यायशास्त्र में विषय के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमाण कहा गया है । इस प्रकार का सम्यग् - असम्यग्ज्ञान का विभाग जैन अध्यात्मशास्त्र को मान्य है ही; परन्तु सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान - इस प्रकार के निरूपण के पीछे जैनदर्शन की एक खास दृष्टि है । और वह यह है कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्कर्ष हो वह सम्यग्ज्ञान और जिस ज्ञान से आध्यात्मिक पतन हो वह मिथ्याज्ञान | सम्यग्दृष्टि जीव को भी संयम हो सकता है, भ्रम हो सकता है, अधूरी समझ हो सकती है, फिर भी वह कदाग्रहरहित और सत्यगवेषक होने से विशेषदर्शी सुज्ञ के अवलम्बन से अपनी भूल सुधारने के लिये तत्पर रहता है और सुधार भी लेता है । वह अपने ज्ञान का उपयोग मुख्यतः विषयवासना के पोषण में न करके आध्यात्मिक विकास के साधन में ही करता है । सम्यग्दृष्टि रहित जीव की स्थिति इससे विपरीत होती है । उसे सामग्री की बहुलता के कारण निश्चयात्मक और स्पष्ट ज्ञान हो सकता है । भूल मालूम होने पर भी उसे सुधारने के लिये वह तैयार नहीं होता । झूठ को भी सच मानने- मनवाने का वह प्रयत्न करता है, सच्ची बात जानने पर भी कदाग्रहादि दोष के कारण, उसे स्वीकारने में हिचकता है । अभिमान के कारण, जो पकडा हो वह चाहे मिथ्या हो, चाहे वह गलत तरीके का हो परन्तु उसे वह छोड़ता नहीं है । अहंकार के आवेश में विशेषदर्शी विज्ञ के विचारों को भी वह तुच्छ मानने लगता है । वह आत्मिकदृष्टि अथवा आत्मभावना से शून्य होता है | अतः अपने ज्ञान का उपयोग वह आध्यात्मिक हितसाधन में न करके सांसारिक भोग-वासना के पोषण में उसे सन्तुष्ट करने में ही करता है । भौतिक उन्नति प्राप्त करने में ही उसके ज्ञान की इतिश्री होती है । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १८९ कहने का अभिप्राय यह है कि जो मुमुक्षु आत्मा होते हैं वे समभाव के अभ्यासी और आत्मविवेकसम्पन्न होते हैं । इससे वे अपने ज्ञान का उपयोग समभाव की पुष्टि में करते हैं, न कि सांसारिक वासना की पुष्टि में । इस कारण लौकिक दृष्टि से उनका ज्ञान चाहे-जितना अल्प क्यों न हों, फिर भी वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; क्योंकि वह उन्हें सन्मार्ग पर ले जाता है । इसके विपरीत संसार वासना के रस में लोलुप आत्माओं का ज्ञान चाहे-जितना विशाल और स्पष्ट क्यों न हो; वह समभाव का उद्भावक न होने से और संसारवासना का पोषक होने के कारण ज्ञान न कहा जाकर अज्ञान कहलाता है । क्योंकि उनका वह ज्ञान उन्हें वास्तविक कुशलमार्ग पर ले जाने के बदले दुर्गति के मार्ग पर ले जाता है । संसारवासना के पोषण में उपयुक्त ज्ञान कुशलमार्गी कैसे कहा जा सकता है ? वह तो उन्मार्गी ही कहलायेगा । इससे ऐसा ज्ञान मिथ्या-ज्ञान-अज्ञान कहलाए यह स्पष्ट है । वस्तुस्थिति ऐसी है कि प्राप्त किए हुए ज्ञान का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी । प्राप्त किए हुए ज्ञान के बारे में सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है । सम्यक्त्वी अपने ज्ञान का सदुपयोग करने की ओर वृत्ति रखेगा । और यदि आवेश अथवा स्वार्थवश उसका दुरुपयोग हो जाय तो उससे उसका अन्तःकरण खटकेगा, खिन्न होगा; जबकि मिथ्यात्वी भौतिक विषयानन्द का उपासक होने के कारण अपने ज्ञान का वह अपने संकुचित स्वार्थ के लिये चाहे किसी प्रकार से उपयोग करेगा । उससे यदि कोई दुष्कृत्य अथवा पापाचरण हो जाय तो उसे उसके लिये कुछ दुःख नहीं होगा, उलटा उसमें वह आनन्द मानेगा । सम्यक्त्वी मनुष्य सत् को सत् और असत् को असत् समझता है, अतः उससे यदि कोई पापाचरण हो जाय तो उसके लिये उसे दु:ख होता है। वह कल्याणबुद्धि और श्रेयार्थी आत्मा होने से कल्याण के, आत्मोद्धार के मार्ग पर चलता है, जबकि मिथ्यात्वी को पुण्य-पाप का भेद मान्य न होने से ऊपर ऊपर से 'साहुकार' जैसा क्यों न बरतता हो, प्रामाणिक क्यों न दिखता हो, फिर भी उसकी मनोदशा मिथ्यादृष्टि से दूषित होती है । और उसकी ऐसी स्थिति जबतक चालू रहे तबतक उसके निस्तार का कोई मार्ग नहीं है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन इस प्रकार जैन दर्शन ने अध्यात्मदृष्टि को सम्मुख रखकर ही ज्ञान का सम्यग्-असम्यग् रूप से विभाजन किया है । १९० जीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बतलाने के लिये 'भाव' का निरूपण किया जाता है । 'भाव' अर्थात् अवस्था । भाव पाँच प्रकार के हैं : औपशमिक भाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव और पारिणामिक भाव । अब इन्हें देखना शुरू करें । आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख पहले हो चुका है : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन कर्मों का स्वरूप पुनः यहाँ पर याद करके आगे चलें । ज्ञान के बारे में आगे किए गए विवेचन पर से देखा जा सकता है कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद होने से उनके आवारक कर्म भी पाँच प्रकार के होंगे । अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञाना-वरण— इस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद होते हैं । मनुष्यों (प्राणियों ) में बुद्धि का जो कमोवेश विकास देखा जाता है वह इस ज्ञानावरण कर्म के कमोवेश क्षयोपशन (शिथिलीभाव) के कारण है। दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिर्दर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार भेद होने से उनके आवारक कर्म भी चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूप से चार प्रकार के हैं । निद्रा- पंचक का भी दर्शनावरणीय में समावेश किया गया है । वेदनीय कर्म के सातवेदनीय और असातावेदनीय ऐसे दो भेद बतलाए हैं । मोहनीय कर्म के दो भेद बताए हैंदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय कर्म के स्वरूप का उल्लेख पहले किया जा चुका है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यशक्ति में विघ्न उपस्थित करनेवाले अन्तराय कर्म के १. निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि इस प्रकार निद्रा पाँच प्रकार की बतलाई है । निद्रा के गाम्भीर्य की तरतमता को लक्ष में रखकर ये भेद किये गए हैं । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १९१ दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पाँच भेद किए गए हैं। मनुष्यों में (प्राणियों में) जो कमोबेश कार्यशक्ति देखी जाती है उसका कारण अन्तराय कर्म का न्यूनाधिक क्षयोपशम(शिथिलीभाव) है । दानान्तराय आदि का प्रभाव संसार में देखा जाता है और उनके क्षयोपशम से उपलब्ध दानादि सिद्धियाँ भी देखी जाती हैं। अब हम आत्मा के उपर्युक्त पाँच भाव देखेंऔपशमिक भाव मोहनीय कर्म के उपशम से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे औपशमिक भाव कहते हैं। मोहनीय के एक भेद दर्शनमोहनीय के उपशम से एक प्रकार का जो सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) प्राप्त होता है और मोहनीय के दूसरे भेद चारित्र मोहनीय के उपशम से एक प्रकार जो चारित्र प्राप्त होता है वे दोनों औपशमिक भाव के कहलाते हैं । उपशम से प्रकट होनेवाले सम्यक्त्व और चारित्र क्रमशः औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र कहलाते हैं । इस प्रकार औपशमिक भाव दो हुए १. सम्यक्त्व और २. चारित्र । क्षायिक भाव कर्म के क्षय से होनेवाली अवस्था क्षायिक भाव हैं । क्षायिक भाव में (केवल) ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान, (केवल) दर्शनावरण के क्षय से उत्पन्न केवलदर्शन, मोहनीय कर्म के एक भेद दर्शनमोहनीय के क्षय से सम्पादित सम्यक्त्व और मोहनीय के दूसरे भेद चारित्रमोहनीय के क्षय से सम्पादित चारित्र तथा अन्तराय कर्म के क्षय से सिद्ध पाँच दान-लाभ-भोगउपभोग-वीर्य लब्धियाँ इस प्रकार कुल नौ लिए जाते हैं। इसमें केवल घाती कर्मों के क्षय से साधित क्षायिक भाव लिए हैं, क्योंकि, यह निरूपण सिर्फ भवस्थदशा को लक्ष में रखकर ही किया गया है । बाकी क्षय तो सम्पूर्ण कर्मों का होता है । इस प्रकार क्षायिक भाव नौ हुए Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैनदर्शन १. केवलज्ञान, २. केवलदर्शन, ३ सम्यक्त्व, ४. चारित्र और ५-९ दानादि पाँच लब्धियाँ । क्षायोपशमिक भाव घाती कर्मों के 'क्षयोपशम' (एक प्रकार के शिथिलीभाव) से प्राप्त होनेवाली अवस्था क्षायोपशमिक भाव कहलाती है। ज्ञानावरण कर्म के प्रारम्भ के चार भेदों के क्षयोपशम से सम्पादित मतिज्ञान तथा मतिकुज्ञान, श्रुतज्ञान तथा श्रुतकुज्ञान, अवधिज्ञान तथा विभंगज्ञान और मनःपर्यायज्ञान-इस प्रकार सात भेद, दर्शनावरण के क्षयोपशम से साधित चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-ये तीन भेद, मोहनीय कर्म के एक भेद दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक्त्व और दूसरे भेद चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त देशविरतिरूप अथवा सर्वविरतिरूप चारित्र-इस प्रकार मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से साधित तीन भेद तथा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से उपलभ्य दानादि पाँच लब्धियाँ--इस प्रकार कुल मिला कर (७+३+३+५) अठारह भेद क्षायोपशमिक भाव के गिनाए गए हैं। ऊपर के वक्तव्य से देखा जा सकता है कि सम्यक्त्व और चारित्र तीन प्रकार का है : औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । क्योंकि मोहनीय के उपशम, क्षयोपशम और क्षय तीनों होते हैं अतः इन तीनों से साध्य सम्यक्त्व और चारित्र भी तीन प्रकार का है । अन्तराय कर्म के क्षयोपशम और क्षय ये दो ही होते हैं, अत: दानादि पाँच लब्धियाँ क्षायोपशमिक तथा क्षायिक इन दो ही भावों में आती हैं । ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम तथा क्षय ये दो ही होने से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन क्षायोपमिक भाव तथा क्षायिक भाव इन दो भावों में आते हैं और असम्यग्ज्ञान (मतिरूप, श्रुतरूप तथा विभंगरूप) केवल क्षायोपशमिक भाव में ही आते हैं । क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद इस प्रकार हैं १. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यायज्ञान, ५. मतिअसम्यग्ज्ञान, ६. श्रुत-असम्यग्ज्ञान, ७. विभंगज्ञान, ८. चक्षुदर्शन, ९. अचक्षुदर्शन, १०. अवधिदर्शन, ११. सम्यक्त्व, १२ देशविरति, १३. सर्वविरति Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड और १४ - १८ दानादि पाँच लब्धियाँ । औदयिक भाव कर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली स्थिति को औदयिक भाव कहते हैं । समग्र संसारी जीवों की कर्मों के उदय से जो जो स्थिति - अवस्था होती है अथवा जो जो अवस्था वे प्राप्त करते हैं वे सब स्थितियाँ - अवस्थाएँ औदयिक भाव में आती हैं । इस प्रकार जीव का औदयिक भाव अनन्त अवस्थाओं की अपेक्षा से अनन्त प्रकार का हो सकता है, परन्तु यहाँ पर तो प्रमुख भावों का निर्देश करके इक्कीस औदयिक भाव गिनाए गए हैं और वे हैं १९३ अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, छह लेश्या ( कृष्ण-नील- कापोत- पीत-पद्म- शुक्ल), चार कषाय (क्रोध-मान- माया- -लोभ), चार गति (देव-मनुष्य तिर्यंच - नरक गति), तीन वेद (पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद) और मिथ्यात्व । उपर्युक्त अवस्थाओं में से कौनसी अवस्था किस किस कर्म के उदय से होती हैं यह भी यहाँ देख लें । अज्ञान (मिथ्यादर्शन) मिथ्यात्व के उदय से होता है । बुद्धिमान्द्यरूप अज्ञान ज्ञानावरण के उदय से होता है । असिद्धत्व आठों प्रकार के कर्मों के उदय से होता है । असंयम अर्थात् अविरति अप्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय से होती है । 'लेश्या' मनोयोग का परिणाम है, मनोयोग मनः पर्याप्ति के कारण है और मनः पर्याप्ति 'नामकर्म' का एक भेद है, अतः 'लेश्या' का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है । कषाय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । गति-गतिनाम कर्म के कारण होती है । पुरुषादि वेद-वेदमोहनीय के उदय का परिणाम है । मिथ्यात्व मिथ्यात्वमोहनीय के उदय का प्रभाव है । I इस तालिका के अतिरिक्त दर्शनावरणजन्य निद्रापंचक, वेदनीयकर्म से उत्पन्न सुख-दुःख, मोहनीयजन्य हास्यादि छह, आयुष्यकर्म के चार आयुष्य, नामकर्म की प्रकृति - परम्परा, गोत्रकर्मोदयजन्य उच्च-नीचगोत्र – ये सब औदयिक भाव में समझने, क्योंकि किसी भी कर्म के उदय का परिणाम औदयिक भाव में आता है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन इन निद्रापंचक आदि भावों का उपर्युक्त इक्कीस में शास्त्रों ने समावेश किया है और अन्य भिन्न भिन्न तरीकों से भी उनका समावेश किया जा सकता है। १९४ इक्कीस औदयिक भाव ये हैं १. अज्ञान, २. असिद्धत्व, ३. असंयम, ४-९. छह लेश्या, १०- १३. चार कषाय, १४-१७. चार गति, १८ - २०. तीन वेद और २१. मिथ्यात्व । पारिणामिक भाव आत्मरूप जीवत्व तथा आत्मा की विशेष स्थितिरूप भव्यत्व और अभव्यत्व इस प्रकार कुल तीन पारिणामिक भाव कहे गये हैं । तीन पारिणामिक भाव १. जीवत्व, २. भव्यत्व और ३. अभव्यत्व । इस प्रकार उपर्युक्त उल्लेखानुसार औपशमिक भाव के क्षायिक भाव के क्षायोपशमिक भाव के औदयिक भाव के पारिणामिक भाव के २ भेद ९ भेद १८ भेद २१ भेद ३ भेद हमने देख लिए । अब ये मुख्य-मुख्य भाव कितने-कितने कहाँकहाँ प्राप्त होते हैं इसका भी तनिक अवलोकन कर लें । क्षायिक और पारिणामिक ये दो ही भाव सिद्ध आत्मा में होते हैंज्ञानादि क्षायिक भाव और जीवत्व पारिणामिक भाव । क्षायिक - औदयिक-पारिणामिक यह त्रिकसंयोग ही (तीन ही भाव) भवस्थ केवली में होता है । उनमें ज्ञानादि क्षायिक भाव हैं, मनुष्यगति और लेश्या औदयिक भाव हैं तथा पारिणामिक भाव जीवत्व है । 1 क्षायोपशमिक-औदयिक - पारिणामिक ये तीन भाव केवल छद्मस्थ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १९५ जीवों में ही होते हैं और वह भी सब छद्मस्थ जीवों में । क्योंकि सब छद्मस्थ प्राणियों में क्षायोपशमिक तथा औदयिक भाव होते ही हैं । भावेन्द्रिय अथवा मति श्रुत (सत् या असत्) ये क्षायोपशमिक भाव और गति, लेश्या आदि औदयिक भाव समग्र छद्मस्थ जीवों में रहते हैं । यह त्रिकसंयोग ही (तीन ही भाव ) जिस प्रकार सब गतियों के समग्र मिथ्यात्वी जीवों में होता है उसी प्रकार सब गतियों के सब क्षायोपशमिक सम्यक्त्वधारक जीवों में भी होता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक चारित्र – उभय के धारक तिर्यंच' और मनुष्यों में भी यह त्रिकसंयोग ही (ये तीन नहीं भाव) होता है । इन तीनों भावों के अतिरिक्त अन्य भी भाव किसी छद्मस्थ में हो सकते हैं । जैसे कि, औपशमिक सम्यक्त्व धारक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र उभय के धारक को प्रस्तुत त्रिकसंयोग के अतिरिक्त औपशमिक भाव भी होता है । जो उपशम श्रेणी बिना के क्षायिक सम्यक्त्व धारक छद्मस्थ हैं तथा जो क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों के धारक छद्मस्थ हैं उन्हें प्रस्तुत त्रिकसंयोग के अतिरिक्त क्षायिक भाव भी होता है । औपशमिक सम्यक्त्व चारों गतियों के प्राणियों में शक्य है, जबकि औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र उभय के धारक तो केवल मनुष्य ही होते हैं । इस प्रकार के दोनों वर्गों में औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये चार ही भाव हो सकते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व भी चारों गतियों में सम्भव है । अतः देव, नरक और तिर्यंच इन तीन गतियों के क्षायिकसम्यक्त्वधारियों में तथा उपशमश्रेणी बिना के अथवा ग्यारहवें गुणस्थान सिवाय के क्षायिकसम्यक्त्वी छद्मस्थ मनुष्यों में तथा क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र उभय के धारक छद्मस्थों में क्षायिक, क्षायोपश्मिक, औदयिक और पारिणामिक ये चार ही भाव होते हैं । औपशमिक - क्षायिक- क्षायोपशमिक-औदयिक-पारिणामिक ये पाँच भाव एक जीव में प्राप्त हो सकते हैं। जो जीव क्षायिक सम्यक्त्वी होने के १. संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में 'देशविरति' (पञ्चम) गुणस्थान तक का और देवों व नारकों में चतुर्थ गुणस्थान तक का ही सम्भव है । २. नवें - दसवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र न मानने की दृष्टि से । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैनदर्शन साथ ही साथ उपशमश्रेणी वर्ती (एकादशगुणस्थानवर्ती') होता है उसमें ये पाँच भाव एक साथ होते हैं । ___ कर्म का यथासम्भव उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम द्रव्यक्षेत्रकाल-भाव और भाव के कारण होता है । ___ इस बारे में प्रथम असातावेदनीय कर्म के उदय का विचार करें । असातावेदनीय कर्म सर्प, विष, कण्टक, खराब अशन-पान आदि द्रव्य के कारण, खराब घर, मकान, स्थान अथवा कारावास जैसे क्षेत्र के कारण. अशान्तिकारक अथवा रोगिष्ठ ऋतु जैसे काल के कारण, प्रकृति, चिन्तार्त स्वभाव, वार्धक्य अथवा रोग जैसे भाव के कारण तथा तिर्यंच अथवा दद्धि मनुष्य आदि गतिरूप भव के कारण उदय में आता है । अब इसी कर्म के क्षय का विचार करें । इसका क्षय सद्गुरुचरणादिरूप द्रव्य के कारण, पवित्र तीर्थादिरूप क्षेत्र के कारण, अनुकूल समयरूप काल के कारण सम्यग्-ज्ञान चारित्ररूप भाव के कारण और योग्य मानवजन्मरूप भव के कारण होता है । मिथ्यात्वमोहनीय कर्म को लेकर सोचें । इस कर्म का उदय अज्ञानी, दुर्मति, दुर्जनरूप द्रव्य के आश्रय से, संस्कारहीन क्षेत्र के आश्रय से, कुवातावरण से दूषित अथवा कुसमयरूप काल के आश्रय से, असदुपदेश अथवा दुःसंग जैसे भाव के आश्रय से और असंस्कारी जन्मरूप भाव के आश्रय से होता है। इस कर्म के क्षय-क्षयोपशम-उपशम उत्तम संयोगरूप द्रव्य के आश्रय से, संस्कारसम्पन्न क्षेत्र के आश्रय से, अनुकूल समयरूप काल के आश्रय से, सम्यग्ज्ञान-सदाचरणरूप भाव के आश्रय से तथा योग्य जन्मरूप भाव के आश्रय से होते हैं । उदय और क्षय सभी कर्मों का होता है । क्षयोपशम केवल घाती १. ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानवाले को ही वस्तुत: औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है इस दृष्टि से । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १९७ कर्मों का और उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है । (क्योंकि घाती कर्म के क्षयोपशम से (उसकी मात्रा के अनुसार) गुण प्रकट होते हैं । अघाती कर्म किसी गुण को दबाता नहीं, अतः उसका क्षयोपशम नहीं होता । ) आठ प्रकार के कर्मों में से प्रत्येक कर्म के उदय से होने वाले परिणाम के बारे में पहले उल्लेख किया जा चुका है। अब उपशम और क्षयोपशम को देखें । भस्माच्छादित अग्नि की भाँति कर्म की सर्वथा (निश्चित समय तक) अनुदयावस्था [प्रदेश से भी उदय का अभाव] को उपशम कहते हैं । मोहनीय कर्म के दो भेदों में से दर्शनमोह के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्रमोह के उपशम से औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है । घाती कर्मों में से ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम' से सत् या १. क्षयोपशम शब्द में क्षय और उपशम ये दो शब्द हैं । 'क्षय' अर्थात् उदयप्राप्त कर्मदलिकों का क्षय तो सब प्रकार के क्षयोपशम में होता ही है, परन्तु (क्षयोपशम के सम्बद्ध) उपशम दो प्रकार का होता है । एक तो मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायरूप सर्वघाती* प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय का और दूसरा मतिज्ञानावरण आदि ★ अनन्तानुबन्धी चार कषाय सम्यक्त्व का, अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय देशविरति का और प्रत्याख्यानावरण चार कषाय सर्वविरति का सर्वथा घात करते हैं । इसी तरह मिथ्यात्व सम्यक्त्व का सर्वथा घात करता है । अतः ये बारह कषाय और मिथ्यात्व सर्वघाती हैं । चार संज्वलन कषाय चारित्रलब्धि का देश से (अंशतः) घात करते हैं, अतः वे देशघाती हैं । केवलज्ञान-दर्शनावरण सर्वघाती है, परन्तु उनका क्षय ही होता है, 'क्षयोपशम' नाम का शिथिलीभाव नहीं होता ।। केवलज्ञान-दर्शनावरण के सिवाय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय के संज्वलन कषाय तथा नोकषाय और पाँच अन्तराय इतने देशघाती कर्म हैं । निद्रा की गिनती सर्वघाती में की गई है। कर्म की फलप्रद शक्ति को 'रस कहते हैं। उसकी तीव्रता मन्दता की तरतमता बहुविध है। स्वाघात्य गुण का सर्वथा घात करनेवाली कर्मप्रकृतियाँ सर्वघाती और देशतः (अंशतः) घात करनेवाली देशघाती कहलाती हैं। सर्वघाती कर्म का रस सर्वघाती ही होता है, जबकि देशघाती कर्म का रस कोई तो सर्वघाती होता है और कोई देशघाती । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैनदर्शन असत् ज्ञान और दर्शन ( क्षयोपशम के बलानुसार ) प्रकट होते हैं । इन दोनों देशघाती प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय का । उपर्युक्त मिथ्यात्वादि सर्वघाती प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय जो उपशम होता है वह उस कर्म के विपाकोदय के निरोधरूप होता है । अर्थात् सत्तागत इन कर्मों को इतना दुर्बल बना दिया जाता है कि स्वरूपतः अर्थात् अपना असली शक्ति के अनुसार फल न दे सके ऐसा वह उपशम होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसे क्षयोपशम में उस कर्म का प्रदेशोदय ही होता है, विपाकोदय नहीं । अर्थात् इन सर्वघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम तभी शक्य है जब उसमें प्रदेशोदय ही हो । परन्तु मतिज्ञानावरण आदि देशघाती कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम ऐसा होता है कि उसमें इन कर्मों के मन्दरसयुक्त अमुक दलिकों का विपाकोदय भी साथ ही होता है, फिर भी विपाकोदयवाले कर्मदलिक अल्परसयुक्त होने के कारण स्वाघात्य गुणों का घात नहीं कर सकते । विपाकोदयप्राप्त कर्मदलिकों की रसशक्ति जितनी मन्द होती है उसके प्रमाण में मतिज्ञानादि गुणों का आविर्भाव होता है । जीव में अनादिकाल से रहे हुए मति, श्रुत आदि के आवरणभूत कर्मों का क्षयोपशम भी अनादि काल से बहता हुआ चला आ रहा है । और उसमें उन देशघाती कर्मों के देशघाती रस का ही उदय हो सकता है, न कि सर्वघाती रस का उदय; क्योंकि देशघाती कर्म के विपाकोदय से मिश्रित क्षयोपशम के समय उस कर्म का सर्वघातिरसयुक्त कोई भी दलिक उदयमान नहीं होता । परन्तु चक्षुर्दर्शनावरण, अवधिज्ञानावरण, जैसे आवरण जब तक सर्वघाती रस से उदयमान होते हैं तब तक उनका क्षयोपशम नहीं हो सकता तथा उनसे आवृत गुण भी प्रकट नहीं हो सकते । परन्तु जब इन आवरणों का सर्वघाती रस देशघाती रस बन जाता है तब इन कर्मों का क्षयोपशम होता है । परन्तु ऊपर कहा उस तरह, देशघाती कर्मों का क्षयोपशम उन कर्मों के देशघातिरसयुक्त दलिकों के विपाकोदय से मिश्रित ही होते हैं, किन्तु विपाकोदय प्राप्त दलिक अल्प रसवाले होने से स्वघात्य गुणों का घात नहीं कर सकते । क्षयोपशम शब्द में आए हुए उपशम शब्द का जो अर्थ हमने देखा उसकी अपेक्षा औपशमिक के उपशम का अर्थ अधिक विशाल है, अर्थात् क्षयोपशम के उपशम का अर्थ है विपाकोदयसम्बन्धी योग्यता का अभाव अथवा तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन अर्थात् मन्दविपाकोदय । परन्तु औपशमिक के उपशम का अर्थ है प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का ( उदयमात्र का) अभाव; क्योंकि क्षयोपशम में कर्म का क्षय जारी रहता है जो कम से कम, प्रदेशोदय के सिवाय बन ही नहीं सकता । परन्तु उपशम में यह बात नहीं है । जिस समय से कर्म का उपशम होता है उस समय से ही उसका क्षय उतने काल के लिये रुक जाता है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड १९९ कर्मों का क्षयोपशम छोटे जीव-जन्तु में भी होता है, क्योंकि उसमें भी अल्प, अल्पतर या अल्पतम ज्ञानमात्रा अवश्य होती है । जीव का स्वरूप चेतना है, अतः कोई भी जीव ज्ञानशून्य हो ही नहीं सकता । सूक्ष्मतम जीव का घनघोर ज्ञानावरण भी अत्यल्प, अतिसूक्ष्म छिद्र में से तो खुला होता है - खुलारहता है । अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से अर्थात् दान - लाभ- भोग-उपभोग- वीर्य इन पाँच के प्रतिबंधक अन्तरायों में से जिस अन्तराय का जितना क्षयोपशम होता है उसके अनुसार उस आवरण से आवृत दानकारिता, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य प्राप्त होते हैं । मोहनीय कर्म के दो भेदों में से दर्शनमोह के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और चारित्रमोह के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक चारित्र प्राप्त होता है । सम्यक्त्व की विरोधी मिथ्यात्ववृत्तियाँ कैसी होती है उसे शास्त्रकार पाँच भेदों द्वारा स्पष्ट करते हैं । वे इस प्रकार हैं (१) आभिग्रहिक मिथ्यात्व अर्थात् तत्त्व की परीक्षा किए बिना किसी एक सिद्धान्त का पक्षपाती बनकर दूसरे सिद्धान्त का खण्डन करना । सम्यक्त्वी कभी अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता । अतएव जो व्यक्ति तत्त्वपरीक्षापूर्वक किसी एक पक्ष को मान्य रखकर इतर पक्ष का खण्डन करता है वह आभिग्रहिक मिथ्यात्वी नहीं कहा जा सकता । जो कुलाचार मात्र से अपने आपको जैन (सम्यक्त्वी) मानकर तत्त्वपरीक्षा नहीं करता, सदसद्विवेकभाव नहीं रखता, निर्विवेकरूप से 'लकीर का फकीर जैसा है वह भले ही नाम से 'जैन' कहलाए, परन्तु वस्तुतः वह 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' है ! 'माषतुष मुनि आदि की तरह तत्त्वपरीक्षा करने में स्वयं असमर्थ मनुष्य भी यदि गीतार्थ ( यथार्थ परीक्षाबुद्धिवाले बहुश्रुत) के आश्रय में रहे तो उसकी गणना इस प्रकार के मिथ्यात्वियों में नहीं होती, क्योंकि गीतार्थ के आश्रय में रहने से मिथ्या पक्षपात का सम्भव नहीं रहता । (२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व का अर्थ है गुण-दोष की परीक्षा किए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० बिना सब पक्ष समान हैं ऐसा मानना । यह मिथ्यात्व मन्दबुद्धि और परीक्षा करने में असमर्थ ऐसे साधारण मनुष्यों में पाया जाता है। ऐसे मनुष्य प्रायः समझे बिना ही ऐसा बोलते है । (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व अर्थात् अपना पक्ष असत्य है ऐसा जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दुरभिनिवेश ( दुराग्रह) रखना । जैनदर्शन जो दुराग्रही न होकर शुद्ध सत्यजिज्ञासु तथा यथार्थ कल्याणकामी है उसकी भी श्रद्धा अपनी बुद्धिमत्ता या विचार - कुशलता के अभाव में अथवा मार्गदर्शक या गुरु की भूल-चूक के कारण विपरीत हो जाती है, फिर भी वह 'आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी' नहीं है, क्योंकि वह उक्त सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण उसकी उपर्युक्त कारणों से विपरीत बनी हुई श्रद्धा उसके सम्यक्त्व की अवरोधक नहीं होती' और यथार्थ मार्गदर्शक मिल जाने पर उसकी श्रद्धा यथार्थ बन जाती है । श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहुत कुछ कहा है, फिर भी उन्हें आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी नहीं कह सकते; क्योंकि उन्होनें अविच्छिन्न प्रावचनिक परम्परा के आधार पर शास्त्र के तात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने - अपने पक्ष का समर्थन किया है, नहीं कि किसी पक्षपात से । इससे विपरीत 'जमालि' आदि ने शास्त्र के तात्पर्य को अपने पक्ष से प्रतिकूल जानकर भी अपने पक्ष का समर्थन किया है । अतः वे 'आभिनिवेशिक कहलाए हैं । १. यह बात 'कम्मपयडि' के उपशमनाधिकार की २४वीं गाथा का 'सद्दहई असब्भावं अजाणमाणो गुरुनियोगा' यह उत्तरार्ध स्पष्ट रूप से सूचित करता है । इस पर की टीका में उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं कि अभिनिवेशरहित मनुष्य मिथ्यादृष्टि के आश्रय से असद्भूत अर्थ में श्रद्धा रखे तो वह उसके स्वाभाविक पारमर्षमार्गश्रद्धान में बाधाकारक नहीं होता अर्थात् उसके सम्यक्त्व को बाधा नहीं आती । परन्तु अभिनिवेशी मनुष्य, स्वपक्ष में हो या परपक्ष में, मिथ्यात्ववाला है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २०१ ४. सांशयिक मिथ्यात्व का अर्थ है देव आदि कल्याणभूत तत्त्वों में सन्देहशील बनना । सूक्ष्म विषयों में उच्चकोटि के साधुओं को भी संशय होता है, परन्तु वह मिथ्यात्वरूप नहीं है; क्योंकि अन्त में तो महान् ज्ञानी सत्पुरुष ही प्रमाणरूप होने से ऐसे सूक्ष्म विषयों के प्रश्न उन पर डाल देने से आध्यात्मिक शान्ति में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती । (५) अनाभोग-मिथ्यात्व का अर्थ है विचार एवं विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह की प्रगाढतम अवस्था । यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय क्षुद्रतम जन्तुओं में तथा विमूढ जीवों में होता है । इस प्रकार का मिथ्यात्व दूर होने पर प्राप्त होनेवाला सम्यक्त्व औपशमिक, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक होता है । और इनका स्वरूप हम पहले देख चुके हैं । इन तीनों में औपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण ही होता है । भव्यात्मा को मुक्ति की प्राप्ति तक अधिक से अधिक पाँच बार उपशम-सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है । सबसे पहले अनादिमिध्यादृष्टि को अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व के उपशमन से वह प्राप्त होता है । इसके बाद उपशम श्रेणी भवान्त तक अधिक से अधिक चार बार प्राप्त होने से उस समय चार बार उपशम- सम्यक्त्व प्राप्त होता हैं । [ यह उपशम श्रेणी अर्थात् अनन्तानुबन्धी चार कषाय और त्रिविध दर्शनमोहनीय - इन सात के उपशम की क्रिया ।] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जीव को असंख्य बार प्राप्त हो सकता है कि इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ओर उत्कृष्ट स्थिति किंचित्-अधिक ६६ सागरोपम काल की है । क्षायिक सम्यक्त्व होने के बाद फिर नष्ट नहीं होता । संसारवास की अपेक्षा से इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ओर उत्कृष्ट स्थिति किंचित्अधिक ३३ सागरोपम काल की है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में सत्य की उपलब्धि होती है, सत्य पर अथवा मौलिक कल्याणभूत तत्त्वों पर दृढ श्रद्धा होती है, परन्तु साथ ही Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनदर्शन नाममोह जैसा थोडा कतवार भी रहता है । जैसे कि 'अन्य के बनाए हुए देवालयों के देवों की अपेक्षा अपने बनाए हुए देवालय के देव पर उसे अधिक पक्षपात' होता है,' 'देवों में से-देवाधिदेवों में से एक की अपेक्षा दूसरे पर अधिक पक्षपात होता है।' धर्म के बाह्य साधन अथवा प्रणालिका पर, धर्म के नाम पर, उसे मोह-ममता होती है। इतना ही नहीं, इसके लिये वह काषायिक आवेश में भी आ जाता है । नाममोह, कालमोह-प्राचीनता मोह, गुरुमोह, गच्छादिमोह आदि मोह के कतवार के सम्बन्ध से सम्यक्त्वसुलभ समभाव में थोड़ी सी खराबी आ जाने से यह सम्यक्त्व तनिक अशुद्ध बन जाता है । इस प्रकार का सम्यक्त्वी सूक्ष्म विषयक में सन्दिग्ध अथवा शंकाशील होने पर कभी-कभी विकल्पाकुल भी बन जाता है । औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में इस प्रकार की अशुद्धि नहीं होती । औपशमिक सम्यक्त्व थोड़े ही समय के लिये और क्षायिक सर्वदा के लिये होता है। शुद्ध आत्मा-परिणामरूप इन दो सम्यक्त्वों के बीच कालमर्यादा का बड़ा अन्तर है । अलबत्ता उपशम एवं क्षय के प्रभाव में भिन्नता होने से दोनों सम्यक्त्वों के बीच तत्त्वदर्शन के प्रकाश में उतना फर्क होगा ही । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में विद्यमान आत्मा मिथ्यात्व-मोहनीय और मिश्रमोहनीय इन दो पुंजों का क्षय करते हैं जब सम्यक्त्वमोहनीयरूप शुद्ध पुंज के अन्तिम पुद्गलों को वेदता है तब वह अवस्था है । इस अवस्था को 'वेदक' ऐसा नाम भी दिया गया है। यह अन्तिमपुद्गलवेदन समाप्त होने पर पुंजत्रय का पूरा नाश होने से 'क्षायिक' सम्यक्त्व प्रकट होता है । 'क्षायिक' सम्यक्त्व के प्रकटीकरण को उस प्रकार का क्षपकश्रेणी कहते हैं । इसी प्रकार समग्र दर्शन-मोहसप्तक का उपशमन, जिससे औपशमिक सम्यक्त्व प्रकट होता १. स्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। __ अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥ -गोम्मटसार, जीवकाण्ड-टीका । २. समेऽप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयम् । देवोऽस्मै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥ -गोम्मटसार, जीवकाण्ड-टीका । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २०३ है, उसे उस प्रकार की उपशम श्रेणी कहते हैं । चारित्रमोहनीय की उपशमनक्रिया की धारारूप उपशमश्रेणी अथवा चारित्रमोहनीय की क्षपणक्रिया की धारारूप क्षपकश्रेणी के लिये पूरी तैयारी आठवें गुणस्थान में करके नवें गुणस्थान में आत्मा उस मोह की उपशमन-क्रिया अथवा क्षपणक्रिया करना शुरू करता है । इसमें चारित्रमोहरूप क्रोधादि कषाय और उनके सहचारी तथा उनके पोषक हास्यादि नो-कषायों के उपशमन अथवा क्षपण का प्रारम्भ होता है । नवें और दसवें गुणस्थानों में उपशमक उपशमन का और क्षपक क्षपण का कार्य करता है । यह कार्य जब पूर्ण होने की अवस्था पर पहुँचता है तब दसवें गुणस्थान से आगे इन दोनों साधकों के मार्ग जुदे हो जाते हैं । उपशमक जिस ओर जाता है, जहाँ पहुँचता है वह 'उपशान्त' गुणस्थानक (११वाँ), और क्षपक जिस ओर जाता है, जहाँ पहुँचता है वह 'क्षीणमोह गुणस्थानक (१२वा) । 'क्षीणमोह' आत्मा पूर्ण कृतार्थ होकर पूर्ण आत्मा बनता है, परन्तु 'उपशान्तमोह' आत्मा का मोह उपशान्त ही होने से अर्थात् क्षीण न होने से पुनः अत्यन्त अल्प समय में उदय में आता है जिससे वह आत्मा जैसा चढ़ता था वैसा नीचे गिरता है । नीचे गिरता हुआ कोई आत्मा योग्य भूमि पर अपने को सम्भाल ले और अदम्य आत्मवीर्य प्रकट करके यदि वह पूर्ण उत्क्रान्तिरूप क्षपक श्रेणि का मार्ग ग्रहण करे तो वह तुरन्त ही केवली बन सकता है । अन्यथा यदि उसकी प्रमादवृत्ति बढ़ती जाय तो वह सम्यक्त्व का भी वमन करके पहली मिथ्यात्व की भूमि पर जा गिरता है । आठ कर्मों में से चार 'घाती' कर्मों का झुण्ड साथ ही नष्ट होता है और अवशिष्ट चार कर्म भी (मृत्यु के समय) साथ ही नष्ट होते हैं । आठों कर्मों के क्षय का फल इस प्रकार है ज्ञानावरण के क्षय का फल अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण के क्षय का फल अनन्त दर्शन, वेदनीय के क्षय का फल अनन्त सुख, मोहनीय के दो भेंदों में से दर्शनमोह के क्षय का फल परिपूर्ण सम्यक्त्व तथा चारित्रमोह के क्षय का फल परिपूर्ण चारित्र, आयुष्य कर्म के क्षय का फल अक्षय स्थिति, नाम तथा गोत्र इन दोनों कर्मों के क्षय का संयुक्त फल अमूर्त अनन्त आत्माओं की एकत्र अवगाहना और अन्तराय के क्षय का फल अनन्तवीर्य-इस प्रकार Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आठों कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले फल की श्रुति है । 1 इस सम्पूर्ण विवेचन का सारांश यह है कि सच्ची समझ और सच्चा आचरण इन दोनों पर ही कल्याणसिद्धि का दारोमदार है । इन दो भूमिकाओं में पहली को सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दृष्टि और दूसरी को चारित्र (सम्यक्चारित्र) कहते हैं । इनमें पहली भूमिका मोहनीय कर्म के जिस विभाग का विदारण करने से प्रकट होती है वह 'दर्शनमोह' है और मोहनीय कर्म के जिस विभाग को ध्वस्त करने से दूसरी भूमिका प्रकट होती है वह ' चारित्रमोह' । इस प्रकार जीवन के मूलभूत उच्च तत्त्व - सच्ची (कल्याणभूत) समझ और सच्चा आचरण मोहनीय कर्म के पराभव पर अवलम्बित हैं । अर्थात् मोहनीयकर्म का दृष्टि (दर्शन) का आवारक जो पहला 'दर्शनमोह' नाम का विभाग है वह जितने प्रमाण में हटता है उतने प्रमाण में दृष्टि खुलती है । और जब यह विभाग पूर्णरूप से टूट जाता है तब दृष्टि में पूर्णरूप से प्रकट होती है । दृष्टि के खुलने अथवा प्रकट होने के बाद भी चारित्र के अवरोधों को हटाने का अतिकठिन और प्रखरप्रयत्नसाध्य कार्य अवशिष्ट रहता है । परन्तु दृष्टि के खुल जाने पर यह कार्य जल्दी या देर से अवश्य सिद्ध होता है । मोहनीय कर्म का चारित्ररोधक दूसरा चारित्रमोह' नाम विभाग जितने प्रमाण में हटता है उतने प्रमाण में चारित्र प्रकट होता है और जब यह विभाग पूर्णरूप से हट जाता है तब पूर्ण चारित्र प्रकट होता है । इस प्रकार दर्शनमोह का पर्दा विशीर्ण होने के पश्चात् चारित्रमोह का विनाश होते सम्पूर्ण मोहनीय कर्म समाप्त हो जाता है और उसकी समाप्ति होते ही तुरन्त ही उसके 'सहयोगी दूसरे सभी 'घाती' (आत्मगुण का घात करनेवाले) कर्म नष्ट हो जाते है और आत्मा मुक्त बनता है- शारीरिक जीवन जब तक विद्यमान हो तब तक जीवन्मुक्त और बाद में विदेहमुक्त । जैनदर्शन संक्षेप में आत्मा-सम्बन्धी जब वास्तविक समझ प्रकट होती है तब ' दर्शनमोह' का आवरण दूर होता है जिससे 'सम्यक्त्व' अर्थात् सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है । सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है, और आगे बढ कर जब आचरण में से असंयम, मोह और कषाय का नाश होता है तब वह चारित्रमोह का नाश होने से उसका फलरूप सम्यकचारित्र प्रकट होता है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ तृतीय खण्ड इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और तदनुरूप सम्यक्चारित्र इन तीनों से मुक्ति प्राप्त होती है। (१६) लेश्या जैनशास्त्रों में निरूपित 'लेश्या' के विषय को देखें । बन्ध-मोक्ष का आधार मुख्यतया मन के भाव ऊपर रहता है, अत: अमुक क्रिया-प्रवृत्ति के बारे में मन के भाव-मन के अध्यवसाय कैसे रहते हैं इस ओर लक्ष देने की आवश्यकता है । मन के अध्यवसाय एक जैसे नहीं होते, नहीं रहते । वे बदलते रहते हैं । कभी काले-कलुषित होते हैं, कभी भूरे से होते हैं, कभी मिश्र, कभी अच्छे, कभी अधिक अच्छे और कभी उच्च श्रेणी के-उज्जवल होते हैं । यह हमारे अनुभव की बात है । मन के इन परिणामों अथवा भावों को 'लेश्या' कहते हैं । स्फटिक के समीप जिस रंग की वस्तु रखी जाय उसी रंग से युक्त स्फटिक देखा जाता है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के संयोग से मन के परिणाम (अध्यवसाय) बदला करते हैं । मनुष्य को जब क्रोध आता है तब उसके मनोगत क्रोध का प्रभाव उसके चेहरे पर कैसा दिखता है ? उस समय उसका चेहरा क्रोध से लाल और विकृत बन जाता है । क्रोध के अणुसंघात का मानसिक आन्दोलन जो उसके चेहरे पर घूम जाता है उसी की यह अभिव्यक्ति है। भिन्न अणुसंघात के योग से मन पर भिन्न-भिन्न प्रभाव अथवा मन के भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं । इसी का नाम लेश्या है। ऐसे अणुसंघात अथवा पुद्गल-द्रव्यों का वर्गीकरण छह प्रकार का किया गया है; जैसे कि कृष्ण वर्ण के, नील वर्ण के, कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के, पीत वर्ण के (उगते हुए सूर्य के वर्ण के), पद्म वर्ण के (स्वर्ण जैसे वर्ण के) तथा शुक्ल वर्ण के द्रव्य । ऐसे द्रव्यों में से जिस प्रकार के द्रव्य का सान्निध्य प्राप्त होता है उसी द्रव्य के अनुरूप रंगवाला मन का अध्यवसाय भी हो जाता है । इसी का नाम लेश्या । कहा है कि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकत्येव तत्रायं 'लेश्या' शब्दः प्रवर्तते || Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन अर्थात्— कृष्ण आदि वर्ण के द्रव्यों के सान्निध्य से जैसे स्फटिक में वैसे आत्मा में जो परिणाम पैदा होता है उसे 'लेश्या' कहते है । २०६ कृष्ण, नील, कापोत वर्ण के द्रव्य अशुभ है तथा तेज, पद्म और शुक्ल वर्ण के द्रव्य शुभ हैं। अशुभों में भी अशुभतम, अशुभतर और अशुभ तथा शुभों में शुभ, शुभतर और शुभतम इस प्रकार अनुक्रम से तारतम्य है । शुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाली मन के शुभ अध्यवसाय को शुभ लेश्या और अशुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाले मन के अशुभ अध्यवसाय को अशुभ लेश्या कहते हैं । कृष्णवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का अथवा आत्मा का जो काला अशुद्धतम परिणाम (अध्यवसाय) उत्पन्न होता है वह कृष्णलेश्या । नीलवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से उत्पन्न होनेवाला मन का नीलवर्ण जैसा अशुद्धतर परिणाम वह नीललेश्या । कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से मन का कापोतरंगजैसा अशुद्ध परिणाम वह कापोतलेश्या । तेजोवर्ण के ( उगते हुए सूर्य जैसे वर्ण के ) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का उस वर्ण जैसा जो शुद्ध परिणाम वह तेजोलेश्या । पद्म वर्ण के ( कनेर अथवा चम्पा के फूल जैसे रंग के) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का पद्म वर्ण-जैसा जो शुद्धतर परिणाम वह पद्मलेश्या । शुक्लवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का जो शुक्लरूप शुद्धतम परिणाम वह शुक्ललेश्या' । १. आधुनिक वैज्ञानिक खोज में भी यह ज्ञात हुआ है कि मन पर विचारों के जो आन्दोलन होते हैं वे भी रंगयुक्त होते हैं । उपर्युक्त, जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तरतमभाव का सूचक छह लेश्याओं का विचार जैनशास्त्रों में है, और आजीवकमत के नेता मंखलिपुत्त गोशालक के मन में कर्मों की शुद्धि - अशुद्धि को लेकर कृष्ण, नील आदि छह वर्णों के आधार पर कृष्ण, नील, लोहित, हादि, शुक्ल, परशुक्ल ऐसी मनुष्यों की छह अभिजातियाँ बतलाई गई है । [ बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय ] [ इस गोशालक ने श्री महावीर प्रभु की छद्मस्थ अवस्था में उनके शिष्य के रूप में उनका सहचार लगभग छह वर्ष तक रखा था ।] महाभारत के बारहवें शान्तिपर्व के २८६ वें अध्याय में Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २०७ ये द्रव्य (लेश्या - द्रव्य) मन-वचन- शरीररूप योगों के अन्तर्गत द्रव्य हैं । जिस तरह शरीरगत पित्त क्रोधोद्दीपक होता है और मद्य आदि पदार्थ ज्ञानावरण के उदय में तथा ब्राह्मी आदि पदार्थ उसके क्षयोपशम में हेतुभूत होते हैं— इस तरह योगान्तर्गत और बाह्य द्रव्य भी जैसे कर्म के उदयादि में हेतुभूत होते हैं वैसे योगान्तर्गत लेश्या - द्रव्य जब तक कषाय होते हैं तब तक उनके सहायक और पोषक बनते हैं । इस प्रकार लेश्या कषायोद्दीपक होने पर भी कषायरूप नहीं हैं, क्योंकि अकषायी केवलज्ञानी को भी लेश्याउत्तमोत्तम शुक्ललेश्या होती है । लेश्या मन-वचन- शरीर के योग के परिणामस्वरूप होने से जब तक वे योग रहते हैं तब तक विद्यमान रहती है । इसीलिये सयोग केवली को' भी वह होती है । और योग का सम्पूर्ण निरोध 1 षङ् जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥६॥ परं तु शुक्लं विमलं विशोक X Xx । इन वचनों से छह 'जीववर्ण' बतलाए हैं : कृष्ण, नील, रक्त, हारिद्र, शुक्ल और पद्मशुक्ल । महाभारत में जिन छह जीववर्णों का उल्लेख है वे ही छह वर्ण गोशालकमत में बतलाए गए हैं। पातंजल योगदर्शन के चौथे पाद के 'कर्म अशुक्लाकृष्णं योगिनः, त्रिविधमितरेषाम् ।' इस सातवें सूत्र में कृष्ण, शुक्लकृष्ण, शुक्ल और अशुक्लाकृष्ण इस प्रकार कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि - अशुद्धि का पृथक्करण किया है । १. भवस्थ केवलज्ञानी को लेश्या होती है । लेश्या होने से ही मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ हैं, धर्मप्रभावक और लोककल्याणकारक कार्यकलाप है, शुभ्र और तेजस्वी प्रवृत्तिमय उनका जीवन है । इस पर से जनसमूह के बीच विहरमाण केवली भगवान् की जीवनचर्या का ख्याल आ सकता है । सद्गुणी की ओर उन्हें प्रमोदभाव होता है, प्रसन्नता उत्पन्न होती है और दौर्जन्यपूर्ण व्यवहार करनेवाले शठ की ओर औदासीन्यभाव होता है । दूसरों को समझाने के लिये वे उनके साथ वार्तालाप करते हैं, लोगों का कलह-क्लेश दूर करने के लिये उन्हें समाधान का मार्ग दिखलाते हैं, किसी को आशीर्वाद कहलाते हैं, तो किसी को आश्वासन और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। लोकहित के लिये लोकहित के विरोधी अथवा भिन्नदृष्टिवालों के साथ उन्हें चर्चा भी करनी पड़ती है । इस प्रकार Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैनदर्शन होने पर अर्थात् 'अयोगी' अवस्था में [निर्वाण के समय] ही उसका अस्तित्व दूर होता है । शास्त्राधार के अनुसार (मन-वचन-काय के) योग से प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का कारण है और कषाय स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध का कारण है । लेश्या यद्यपि योगपरिणामरूप है फिर भी कषाय के साथ ऐसी ओतप्रोत हो जाती है कि वह भी अनुभावबन्ध के कारणरूप से गिनने में आती है । इतना ही नहीं, उपचार से तो वह कषायरूप भी समझी जाती है । लेश्या अर्थात् मानसिक अध्यवसाय को समझने के लिये शास्त्र में उल्लिखित एक दृष्टान्त इस प्रकार है छह मित्र जामुन खाने के लिये जामुन के पेड के पास गए । उस ऊपर-ऊपर से वे लौकिक पुरुष जैसे ही लगते हैं। इसीलिये अपरिचित मुमुक्षु साधु-सन्त तथा गौरवाह स्थविर श्रमण भी उन्हें केवली रूप से नहीं जान सकते, क्योंकि केवलित्व अथवा जिनत्वसूचक कोई विशिष्ट बाह्य चिह्न उन्हें नहीं होता अथवा अर्हत्-जिन होने पर प्रकट नहीं होता । जब उनके पास से विशिष्ट ज्ञानसम्पत्ति का परिचय होता है तब ज्ञानदृष्टिवाले सन्त उन्हें अर्हत् अथवा जिनरूप से पहचानने लगते हैं । सामान्य जनता में तो 'नगर में दो जिन-सर्वज्ञ आये हैं' इस प्रकार की बातें फैल सकती हैं-जिस प्रकार श्रावस्ती नगरी में भगवान् महावीरदेव तथा अपने आपको जिन तीर्थंकर कहलानेवाले आजीवकमतप्रस्थापक धर्माचार्य मंखलिपुत्त गोशालक दोनों का निवास था उस समय वहाँ की जनता में फैली थी । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के स्थविर श्रमण भगवान् महावीर के पास आते हैं, परन्तु उन्हें वन्दन किए बिना ही थोड़ी दूर पर खड़े रहकर प्रश्न पूछते हैं और जब उन स्थविरों को अपने प्रश्नों के उत्तर सन्तोषप्रद मिल जाते हैं तब वे भगवान् महावीर को सर्वज्ञरूप से पहचानने लगते हैं और इस तरह पहचान होने के पश्चात् भक्तिपूर्ण हो कर उन्हें विधिपूर्वक वन्दन करते हैं। इस बात का उल्लेख श्री भगवतीसूत्र के पाँचवे शतक के नवें उद्देश में है' । इसी प्रकार इस सूत्र के नवें शतक के बत्तीसवें उद्देश में भगवान पार्श्वनाथसन्तानीय 'गांगेय' नामक स्थविर श्रमण की बात आती है। . ★ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छन्ति, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी xxx । तप्पभिति ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति-सव्वन्नू, सव्वदरिसी, xxx वंदंति नमसंति ।' Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २०९ में एक ने कहा, "अरे यार ! मूल के साथ ही पेड़ को काट कर नीचे गिरा दो । बाद में आराम से जामुन खाने का मजा आयगा ।" [यह अध्यवसाय कृष्ण लेश्या है ।] दूसरे ने कहा, "नहीं भाई, पेड़ को क्यों काटना ? बड़ी-बड़ी शाखाओं को ही काट डालो ।" [यह अध्यवसाय नीललेश्या है ।] तीसरा बोला, "बडी शाखाएँ क्यों काटना ? जामुन तो इन छोटी-छोटी टहनियों पर हैं । इसलिये वे ही तो तोड़ो ।” [यह अध्यवसाय कापोतलेश्या है ।] चौथे ने कहा, 'तुम्हारा यह तरीका गलत है । सिर्फ फल के गुच्छों को ही तोड़ लो जिससे हमारा काम हो जायेगा ।" [यह अध्यवसाय तेजोलेश्या है ।] पाँचवे ने कहा, "तुम ठीक नहीं कहते । यदि हमें जामुन ही खाने हैं तो पेड़ पर से जमुन तोड़ लो ।" [यह अध्यवसाय पद्मलेश्या है ।] इस पर छठा मित्र बोला, "भाइयों, यह सब झंझट छोडो । यहाँ नीचे जमीन पर पके हुए जामुन पड़े हैं । इन्हीं को उठाओ ।" [यह अध्यवसाय शुक्ललेश्या है ।] कार्य तो एक ही है जामुन खाने का, परन्तु उसकी रीति-नीतिविषयक भावनाओं में जो भिन्नता हैं, अथवा जो भिन्न-भिन्न अध्यवसाय है वे ही भिन्नभिन्न लेश्याएँ हैं । द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या इस प्रकार लेश्या के दो भेद हैं । द्रव्य-लेश्या, ऊपर कहा उस तरह, पुद्गलविशेष रूप है । भावलेश्या संक्लेश और योग का अनुसरण करनेवाला आत्मा का परिणामविशेष है । संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम अथवा मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या असंख्य प्रकार की है, फिर भी संक्षेप में उसके उपर्युक्त छह विभाग शास्त्र में बतलाए हैं । पहली तीन लेश्याओं में अविवेक और अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक रहा हुआ है । प्रथम लेश्या में अविवेक और अन्तिम लेश्या में विवेक पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ होता है । पहली तीन लेश्याओं में अविवेक की मात्रा उत्तरोत्तर घटती जाती है, जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक की मात्रा उत्तरोत्तर बढती जाती है। पहली तीन लेश्याओं में निबिड़, पापरूप बन्धन क्रमशः होता जाता है, जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में पुण्यरूप कर्मबन्ध Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनदर्शन की अभिवृद्धि होती जाती है तथा पुण्यरूप निर्जरा का तत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। (१७) कार्यकारणसम्बन्ध : किसी भी कार्य की उत्पत्ति के साथ कारण के सम्बन्ध को कार्यकारणसम्बन्ध कहते हैं । इसे समझने के लिये घड़े का उदाहरण लें । न्यायशास्त्र का नियम है कि 'जानाति, इच्छति, ततो यतते' अर्थात् मनुष्य पहले जानता है, पीछे इच्छा करता है और उसके बाद उसके लिये प्रयत्न करता है । इस प्रकार घड़ा बनाने की जानकारी रखनेवाले कुंभार में घड़ा बनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा के बाद प्रवृत्ति होती है । घड़ा बनाने के लिए तैयार हुए कुम्भार की कल्पना में घड़े की अपनी पसन्दगी की आकृति अंकित होनी चाहिए, उसे जो कार्य उत्पन्न करने का है उसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया भी उसे ज्ञात होनी चाहिए । और उस कार्य का समुचित ख्याल भी उसे रहना चाहिए । अन्यथा एक के बदले दूसरा ही हो जाय-घड़े के बदले पुरवा बन जाय । इस घटोत्पत्ति के कार्य में कर्ता कुम्भार है; क्योंकि वह स्वाधीनतापूर्वक (Voluntarily) कारणों का अवलम्बन लेकर अपनी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मनोयोग द्वारा [इन इन्द्रियों तथा मनरूप स्वयंप्राप्त कारणों की सहायता से] क्रिया करके कार्य उत्पन्न करता है । कार्य के उत्पादन में कुंभार को कारणों की (बाह्य साधनों की) अपेक्षा रहती है; क्योंकि 'कारण के बिना कार्य नहीं होता ।' जब किसी कार्य को देखते हैं तब वह किस प्रकार बनने पाया इसकी खोज करने की तथा उसे समझने की आकांक्षा होती है; और जब हमारे मर्यादित अनुभव के अनुसार हमें उस कार्य के कारण की खबर नहीं पड़ती तब उसे चमत्कार कह कर सन्तोष मान लेते हैं अथवा कोई अदृष्ट कारण बताकर मन मना लेने का प्रयत्न करते हैं; किन्तु वह अदृष्ट क्या है और वह किस प्रकार कार्य करता है उसका तो हमें कुछ भी ख्याल नहीं होता और उसके बारे में गहरी जाँचपड़ताल करने के लिए असमर्थ होने से हम चुप्पी साध लेते हैं । यहाँ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २११ पर हमें यह कहना पड़ेगा कि आधुनिक विज्ञान ने चमत्काररूप मानी जानेवाली अनेक घटनाओं तथा कार्यों के कारणों की खोज करके युक्तियुक्त रूप से उन्हें समझाने में सफलता प्राप्त की है। और जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे अभी तक चमत्काररूप मानी जानेवाली अनेक घटनाओं का विशेष खुलासा मिलता जायगा । परन्तु जब मनुष्य को किसी घटना के कारणों की खोज में कुछ सन्तोषप्रद खुलासा नहीं मिलता तब उसे चमत्कार मानकर वह किसी साधुपुरुष की तथाकथित सिद्धि के साथ अथवा किसी मति आदि अद्भुतता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर देने को ललचाता है । इसमें बहुत अंशों में वहम का ही प्राधान्य होता है और ऐसे अनेकविध वहम लोगों में प्रचलित है—इसका स्वीकार किये बिना दूसरा चारा ही नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञान की भौतिक दिशा के साथ-साथ यदि आध्यात्मिक दिशा की ओर भी विशेष संशोधन हो तो बहुत सा सन्तोषप्रद खुलासा हो सकेगा । परन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वहम अथवा विभ्रम का वातावरण जब तक बना रहेगा तब तक आगे प्रगति होनी कठिन है। किसी घटना का कारण हमारी बुद्धि से अगम्य हो तो वैसा मानकर बैठे रहना उत्तम है, परन्तु उस घटना का सम्बन्ध चाहे-किसी के साथ केवल कल्पना द्वारा जोड़ देना अनुचित है, क्योंकि इसी से वहमों की परम्परा का उदय होता है। कुंभार जानता है कि घड़ा मिट्टी की खदान में से लाई हुई चिकनी मिट्टी का बनता है, इसलिये वैसी मिट्टी लाकर, उसे साफ कर उसमें पानी डालकर और बराबर गूंधकर मुलायम पिण्ड बनाता है । वह मिट्टी का पिण्ड का ही क्रिया के अन्त में घड़ा बनता है । इसीलिये मिट्टी को घड़े का उपादानकारण कहा जाता है । घड़े के लिए मिट्टी को जिस तरह उपादानकारण कहते हैं उसी तरह 'परिणामी कारण' के नामसे भी उसका व्यवहार होता है, क्योंकि स्वयं मिट्टी ही घटरूप से परिणत होती है । अवग्रह ईहारूप से, ईहा अवायरूप से, अवाय धारणारूप से और धारणा [संस्कार] स्मृतिरूप से परिणत होते हैं, इसलिए पूर्व-पूर्व उत्तर-उत्तर का परिणामी कारण है । अब, कुम्भार को घडा बनाने की क्रिया में साधन भी चाहिए । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनदर्शन इसलिये वह चक्र, दण्ड आदि भी इकट्ठे करता है । क्योंकि वह जानता है। कि दण्ड से चक्र को घुमा कर उसकी सहायता से यदि क्रिया की जाय तो कार्य बहुत सरलता से सम्पन्न होगा । अतः वह उनका उपयोग करता है । इस प्रकार कार्य की साधना में उपयोगी होनेवाले बाह्य साधन निमित्तकारण कहलाते हैं— जैसे कि दण्ड आदि । जो जिसमें पूरेपूरा उतर आए वह उसका उपादान - कारण है । मिट्टी घड़े में उतर आती है (घड़े के रूप में परिणत होती है), अतः मिट्टी घड़े का उपादानकारण है । तन्तु पट में समग्रभाव से आ जाते हैं (पटरूप से परिणत होते हैं ), अतः तन्तु पट का उपादानकारण हैं । सोना कटक, कुण्डल आदि में उतरता है ( कटकादि रुप से परिणत होता है), अतः सोना कटकादि का उपादानकारण है । और इस प्रकार उपादान को कार्य में परिणत करने में जो व्यापक रूप से आवश्यक साधन (उपकरण) होते हैं उन्हें 'निमित्तकारण' कहते हैं । ये निमित्तकारण कार्य की साधना में सीधे सक्रिय संयोग से सम्बद्ध होते हैं । इस प्रकार की निमित्तकारण की विशेषता है । घट के लिये दण्डादि निमित्तकारण ऐसे ही हैं 1 इस तरह घड़े की निष्पत्ति में कुम्भार मिट्टी उपादानकारण है और दण्ड आदि निमित्तकारण हैं । किसी भी कार्य की निष्पत्ति में ये तीन ( त्रिपुटी) मुख्य और प्रधान से आवश्यक हैं । कार्य-साधन की क्रिया के समय साधनों के साथ बैठने-उठने के लिये अनुकूल खुले आकाश (अवकाश) वाली जमीन के अपेक्षित होने से वे (जमीन, आकाश) अपेक्षाकारण हैं । आकाश को कहीं लेने जाना पड़ता है ? नहीं । वह सर्वत्र विद्यमान है । वह न हो तो कोई कार्य ही नहीं हो सकता, परन्तु वह न हो यह बात ही असम्भव है । अतः साक्षिभाव की अपेक्षा से वह भी अपेक्षाकारण माना जा सकता है। आकाश की भाँति जमीन सर्वत्र नहीं होती और आकाश की अपेक्षा वह अधिक सुविधारूप है, फिर भी उसकी सुलभता और कार्यसिद्धि के लिये उपयोगिता की मात्रा की अपेक्षासे वह भी अपेक्षाकारण मानी गई है । सब कार्यों में किसी भी तरह सहजभाव से उपस्थित अथवा विद्यमान रहकर साधारणतया जो सर्वसामान्य Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २१३ योग देनेवाला हो उसे 'अपेक्षाकारण' कहते हैं । इस प्रकार के कारण के निर्देश को सहजसिद्ध उपयोगी तत्त्व का अथवा अपेक्षित बाह्य सुविधा का निर्देश कह सकते हैं । अपेक्षाकारण भी निमित्तकारण ही कहा जा सकता है, क्योंकि निमित्तकारण के मुख्य दो भेद हैं : एक तो कार्यसिद्धि में व्यापक रूप से आवश्यक, सक्रिय सीधा योग देनेवाला और दूसरा आकाश आदि की भाँति केवल साक्षि - भाव से अथवा कर्त्ता आदि की सुविधा के रूप में जिसकी उपस्थिति आवश्यक हो वह । जिसके बिना चल सके फिर भी उसका योग यदि मिल जाय तो वह उस कार्य में कमीवेश उपयोगी हो सके ऐसा जो हो वह आगन्तुकनिमित्त कहा जा सकता है । कुम्भार को मिट्टी लाने में गदहा भी काम में आता है, फिर भी दण्डचक्र की श्रेणी का कारण (निमित्तकारण) वह नहीं गिना जा सकता । ऐसे पदार्थ कार्य की सिद्धि में उपयोगी होने पर भी उन्हें 'अन्यथासिद्ध" कहा है अथवा अधिक से अधिक आगन्तुककारण कह सकते हैं । कुम्भार दण्ड चक्र आदि साधनों द्वारा मिट्टीरूप उपादान में जब घड़ा बनाता है तब मिट्टी के पिण्ड में से एकदम घड़ा नहीं बन जाता । परन्तु क्रिया के समय उस पिण्ड में से एक के बाद दूसरी ऐसी अनेक आकृतियाँ उत्पन्न होती है । इन भिन्न-भिन्न आकृतियों अथवा स्थितियों में से गुजरने के बाद ही अन्त में घड़ा बनता है । घड़े के उत्पत्ति से पूर्व की इन भिन्नभिन्न स्थितियों में पूर्व की स्थिति बाद की स्थिति का कारण ( उपादान) है और बाद की स्थिति पूर्व की स्थिति का कार्य है । इस कार्यकारणपरम्परा की श्रृंखला पर से यह समझ में आ सकता है कि विकास क्रमिक होता है । घटरूप कार्य की ओर बहनेवाली अनेक स्थितियों में से गुजरने के बाद अन्त में घड़ा बनता है, अनेक स्थितियों में से व्यतीत होने के पश्चात् फूल १. न्याय-वैशेषिक दर्शन की प्रक्रिया के अनुसार गदहा, आकाश आदि को 'अन्यथासिद्ध' कहा गया है- " तृतीयं तु भवेद् व्योम x x x पञ्चमो रासभादिः स्यात् " [कारिकावली, २२] । इसके अनुसार कार्य सिद्धि में (कार्यसिद्धि से पूर्व ) जो साक्षात् व्यापारशील होकर व्यापक रूप से आवश्यक हो उसी की गणना 'कारण' की (निमित्तकारण की) कोटि में की जा सकती है । इसके अतिरिक्त दूसरे सब 'अन्यथा सिद्ध' हैं । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनदर्शन और फल तैयार होते हैं, इसी प्रकार जीवन - विकास भी विकासगामी अनेकानेक स्थितियों में से गुजरने के बाद सधता है । घड़े की उत्पत्ति से पूर्व मिट्टी के पिण्ड में से जो उत्तरोत्तर परिणाम होते जाते हैं, उनमें घड़े का स्वरूप उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकसित होता जाता है और अन्तिम परिणाम में जब घड़े की उत्पत्ति में रही हुई न्यूनतम कमी दूर हो जाती है तब चट घड़ा प्रकट होता है । इस प्रकार घड़े की उत्पत्ति से पूर्व क्रमशः होनेवाले भिन्न-भिन्न आकार - परिणामों की परम्परा घड़े की उत्पत्ति के लिये अत्यन्त आवश्यक है । यह कार्य की सिद्धि में असाधारण योग प्रदान करती है, अतः इसका निर्देश 'असाधारण कारण' के रूप से किया जाता है । इस असाधारण कारण का निर्देश कार्य सिद्धि की क्रमिक गति का ख्याल कराता है । - कार्यसिद्धि से पूर्व उत्तरोत्तर विकसनशील भिन्न-भिन्न परिणामधारा वस्तुतः उपादान की ही परिणामधारा है । उपादान की परिणामधारा का अन्तिम पक्व फल है कार्य । मिट्टी के पिण्ड की परिणामधारा का अन्तिम पक्व फल घड़ा इस पर से ज्ञात होगा की कार्य की सिद्धि के लिये कार्य एवं उसके उपाय का सम्यग्ज्ञान होना चाहिए तथा उस उपाय का यथार्थ रूप से प्रयोग करना भी आना चाहिए । अब आध्यात्मिक जीवनविकास के बारे में विचार करें । आध्यात्मिक जीवनविकास साधने का श्रेष्ठ सामर्थ्य मनुष्य में है, यह समझ कर इस साधना का अभिलाषी जो सज्जन इसके लिये तैयार होता है । उसका ध्येय सम्पूर्ण वीतरागता होता है । वीतरागता अर्थात् रागादि दोषों का विदारण । ज्ञानस्वरूप आत्मा में ज्ञान तो सत्तारूप से भरा पड़ा है, परन्तु सबसे बडी विकट - समस्या तो उसके आवारक आवरणों हटाने में है । यह एक अतिमहान् पुरुषार्थ का कार्यक्षेत्र होने से ज्ञानदृष्टि सम्पन्न पुरुषार्थपरायण मुमुक्षु ही इस कार्य को सिद्ध कर सकता है । सम्पूर्ण वीतरागता आने पर आत्मा परमात्मा बनता है । लगभग सभी दर्शनिक वीतरागता के तत्त्व को परमध्येयरूप से मान्य रखते है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध, वेदान्त ये सभी अपने अपने दर्शनशास्त्र के प्रणयन का परम और चरम उद्देश निःश्रेयस का अधिगम बतलाते हैं । हाँ, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २१५ इसके (निःश्रेयस के) स्वरूप के सम्बन्ध में अर्थात् वीतराग परम आत्मा की मरणोत्तर स्थिति-मोक्ष के स्वरूप के बारे में इन सबकी विचारदृष्टि भिन्न-भिन्न है । फिर भी इसकी प्राप्त के लिये वीतरागत्व की प्राप्ति की अनिवार्य आवश्यकता सब स्वीकार करते हैं तथा यही (वीतरागता) मुक्ति का वास्तविक स्वरूप है ऐसा वे प्रतिपादि भी करते हैं । वीतरागत्वरूप ध्येय की साधना के रूप में जिस क्रिया की उपयोगिता है वह है संयम । संयम अर्थात् हिंसादि दोषों को दूर करके अहिसा, सत्य आदि सद्गुणों को तथा काम, क्रोध, लोभ, अहंकार जैसी दुर्वृत्तियों को हटकर सात्विक शुद्ध रसवृत्ति और शम, सन्तोष, मृदुता, मैत्री आदि पवित्र भावों को विकसित करने में तत्पर रहना । इसी का नाम सदाचरण है । ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा चित्त के सुप्रशस्त योग से सम्पन्न साधक की संयम-साधना जैसे-जैसे खिलती जाती है वैसे-वैसे उसका आत्मा ऊपर चढता जाता है। जिस प्रकार मिट्टी में घड़ा शक्तिरूप विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा में परमात्मा शक्तिरूप से विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में परमात्मा है । मिट्टी को साधनप्रयोग द्वारा जिस प्रकार घड़े में परिवर्तित किया जाता है उसी प्रकार साधक अपने आत्मा को संयम-योग के साधन द्वारा परमात्मा में बदल देता है । परमात्मभाव को प्राप्त करने के लिये क्रमिक प्रयत्नों की-उत्तरोत्तर विकासगामी प्रयत्नों की परम्परा चलती है और तदनुसार उत्तरोत्तर विकास सधता जाता है । इस विकास-क्रम की धारा का नाम ही गुणस्थानकमारोह है और इसे हम पहले गुणस्थानों के विवरण में देख चुके हैं । संक्षेप में, मिथ्यादृष्टि निरस्त होने पर सम्यग्दृष्टि की उपलब्धि होना प्रथम और बुनियादी विकास हैं । इसके पश्चात् देशविरति (अर्थात् मर्यादित संयमी जीवन), सर्वविरति (व्यापक संयमी जीवन), अप्रमत्त महात्मजीवन और इसके बाद उच्च श्रेणी का योगी जीवन-इस प्रकार प्रगति-क्रम के पथ पर साधक जैसे-जैसे क्रमशः आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसका उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास होता जाता है । अन्ततः इन सब विकासों का पूर्णरूप Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन परमात्मभाव के प्रादुर्भाव में आता है । ये सब अवान्तर विकास पूर्णतारूप पूर्ण सिद्धि में पूर्ण होते हैं, अतः वे असाधारण कारण गिने जाते हैं । २१६ प्रत्येक कार्य की सिद्धि में निमित्तकारण का योग अवश्य अपेक्षित है । प्रस्तुत विषय में भी निमित्तकारणभूत सदेव, सद्गुरू तथा बाह्य क्रिया के अवलम्बन की आवश्यकता है । जिसने पूर्ण परमात्मापद प्राप्त किया है वह वीतरागदेव सदेव हैं । वह हमारा आदर्श और अनुकरणीय व्यक्ति है । उसकी वीतरागता के बारे में विचार करने पर, उसका चिन्तन-मनन करने पर हमें भी वीतरागता सिद्ध कर सकते हैं । ऐसा हमें प्रतीत होता है और वैसा विश्वास हम में पैदा होता है । रागी के संग से जिस प्रकार रागी बनते हैं उसी प्रकार वीतराग के संग से (अर्थात् उनके चिन्तन-मनन- प्रणिधान-ध्यान से) वीतराग हुआ जा सकता है - जैसे 'इलिका भ्रमरी जाता ध्यायन्ती भ्रमरी यथा' अर्थात् भ्रमरी ने जिसे काट लिया है ऐसा कीडा भ्रमरी का ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमरी बन जाता है । जिस प्रकार भेडों के समूह में पले हुए सिंह के बच्चे को सच्चे सिंह का स्वरूप देखने पर तथा उसकी गर्जना सूनने पर अपने सच्चे स्वरूप का भान होता है उसी प्रकार सदेव के स्वरूप का, हमारी कल्पना में भी, परिचय होने पर हमारा स्वरूप भी वस्तुतः सत्तारूप से वैसा ही है ऐसा भान हममें जागरित होता है । सद्गुरू अपने शास्त्राभ्यास तथा अनुभव से प्राप्त ज्ञान के आधार पर हमें हमारे ध्येय की पहचान कराते हैं और उस ध्येय पर पहुँचने का मार्ग हमारी योग्यता के अनुसार बतलाते हैं, जिससे हम जहाँ हों वहाँ से क्रमशः आगे प्रगति कर सकें । जो दम्भी, आडम्बरी, यशोलोलुप, ज्ञानदरिद्र और अविवेकी होता है वह तो गुरू (सद्गुरू) कहला ही नही सकता । धीर - गम्भीर, शान्त, समभावी, समदर्शी, तत्त्वज्ञ, उदारतत्त्वविवेचक और लोककल्याण की विशाल भावना से युक्त तथा सदाचरण की मूर्तिरूप पवित्र सन्त ही गुरू (सद्गुरू) है । वही 'स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः परान् ' है । ऐसा गुरू हमें अनुचित रूप से कुदान भरने को या दौड लगाने को नहीं कहेगा, परन्तु उचित रूप से प्रगति के पुण्य पथ पर आरोहण करने के लिये प्रेरित करेगा । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २१७ ___शरीरधारी कोई भी व्यक्ति मानसिक क्रिया की तो क्या बात, शारीरिक क्रिया के बिना भी नहीं रह सकता । धार्मिक प्रेरणा को जागरित करने के लिये सभी सम्प्रदायों में अपन-अपने ढंग से धार्मिक क्रियायों की आयोजना की गई है और उनका उद्देश जीवन को सदाचरणी बनाने का है । यह बात खूब ध्यान में रखने योग्य है कि धार्मिक मानी जानेवाली क्रिया सदाचार की दिशा की ओर ले जाय इसी में उसकी सच्ची सफलता है । भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाओं पर असहिष्णु बनना और झगडा करना हमारी अज्ञानदशा का सूचक है । हमें अत्यन्त दृढतापूर्वक यह समझ लेना चाहिए कि जिसमें भगवत्स्मरण हो, अपने पापों की आलोचना तथा गर्हणा हो और आत्मकल्याण साधने की पवित्र भावना हो—ऐसी कोई भी (किसी भी सम्प्रदाय अथवा मजहब की) क्रिया श्रेयस्कर है । आध्यात्मिक विकास के लिये मनुष्यभव, योग्य क्षेत्र शक्तिसम्पन्न शरीरसंगठन आदि सुविधाएँ अपेक्षित होने से वे अपेक्षाकारण कहे जा सकते हैं । वे सब योग्य साधन मिलने पर भी उनका सदुपयोग न करके मनुष्य अन्धकार में भटकते रहते हैं ! ये सब, निःसन्देह आत्मविकास की भावनावाले को आगे बढ़ने में बहुत सहायक होते हैं । निमित्तकारण का मुख्य और गौण अथवा प्रथम कक्षा का और उत्तर कक्षा का इस तरह दो विभागों में विभाजन करने पर सन्तसमागम, क्रियानुष्ठान आदि मुख्य अथवा प्रथम कक्षा के निमित्तकारण तथा मनुष्यशरीर आदि गौण अथवा अथवा उत्तर कक्षा के निमित्तकारण कहे जाते हैं । बोध लेने की दृष्टि से एक छोटा किस्सा भी यहाँ सुना दूँ ! मथुरा के दो अलमस्त चौबे मथुरा से गोकुल जाने के लिये रात के समय नाव में बैठे और खूब जोरों से उसे खेने लगे, परन्तु प्रभात होने पर देखा तो वे जहाँ से नाव में बैठे थे वहाँ से तनिक भी आगे नहीं बढ़े थे । उन्हें खूब आश्चर्य हुआ कि इतना अधिक परिश्रम करने के बाद भी ऐसा क्यों हुआ ? किसी ने जब उनका ध्यान रस्से की ओर आकर्षित किया तभी वे जान सके कि नाव को किनारे पर के पेड़ के साथ जिस रस्से बाँधा था वह रस्सा ही छोड़ना रह गया था ! इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और क्रोध, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनदर्शन लोभ आदि कषायदोषों के जिस विकट बन्धन से हम बद्ध हैं उस बन्धन को तोडे बिना अथवा उसे ढीला किए बिना दूसरा कोई मार्ग भवसागर से पार उतरने के लिये नहीं है यह एक ध्रुव सत्य है । अब प्रस्तुत लेख के साररूप से कारण-कलाप के नाम-निर्देश को पुनः देख लें । घट के बारे में कर्ता : कुंभार । कार्य : घट । क्रियाः हस्तकौशल से होने वाली क्रिया । उपादानकारण : मिट्टी । निमित्तकारण : दण्ड, चक आदि । असाधारणकारण : मिट्टी के पिण्ड में से घड़े के बनने तक में जो अवान्तर आकार [परिणाम] होते हैं वे सब । अपेक्षाकारण : जमीन, आकाश आदि । आध्यात्मिक विकास के बारे मेंकर्ता : आत्मा । कार्य : आत्मा का परमात्मभाव । क्रिया : सदाचरण । उपादानकारण : स्वयं आत्मा । निमित्तकारण : सद्देव, सद्गुरू, सक्रिया आदि का अवलम्बन । असाधारणकारण : अवान्तर विकासपरम्परा । अपेक्षाकारण : मानवभव, शरीरसामर्थ्य आदि । १८. नियतिवाद : नियतिवाद अर्थात् दैववाद अथवा भवितव्यतावाद । इसे भाग्यवाद भी कहते हैं । ज्ञानहीन कायर मनुष्य ऐसा समझता है कि मनुष्य के हाथ में है ही क्या ? जो कुछ भाग्य में बदा है अथवा पहले से नियति है वह होकर ही रहेगा । अत: कुछ करने की अथवा प्रयत्न करने की बात ही व्यर्थ है। धन-संचय करने के लिये पाप करनेवाले धनी लोग धृष्टतापूर्वक दैववाद को आगे करते हैं । ऐसे मनुष्य कहते हैं कि जो कुछ हो रहा है उसमें हमारा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २१९ क्या अपराध ? यह तो सब पहले से नियत ही था और जो नियत हो वह हजार प्रयत्न करके भी थोड़े ही बदला जा सकता है ? अतः जो कुछ हो रहा है उसका उत्तरदायित्व हम पर नहीं है । इस प्रकार यह नियतिवाद अथवा दैववाद जीवन-सुधार का शत्रु है । यह तो पापियों को अपना पाप छुपाने का, धनिकों को अपनी वैधानिकसफेद लूट छुपाने का और कायरों को अपनी कायरता छुपाने का सहारा है । दैववाद का सहारा लेने से शान्ति मिलती है ऐसा कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वह शान्ति नहीं है किन्तु जड़ता है, जीवन का पतन है । एक मनुष्य मर कर यदि पेड़ बने तो उसकी संवेदनशक्ति घट जायगी; उसे जीने-मरने की कर्तव्य-अकर्तव्य की कोई चिन्ता ही नहीं रहेगी । इससे क्या ऐसा कहा जा सकता है कि मनुष्य मर कर पेड़ हुआ इससे उसे बहुत शान्ति मिली ? ऐसी जड़ता को शान्ति कहा जा सकता है ? एक मनुष्य शराब के नशे में यदि चूर हो जाय तो उसकी जड़भाव-दशा को क्या शान्ति कह सकते है ? यदि मनुष्य अपना उत्तरदायित्व भूल जाय, अपने पापमय अथवा पतनमय जीवन में भी शान्ति या सन्तोष मानने लगे तो यह क्या उसके लिये अच्छी बात है ? नहीं, यह तो उसकी दुर्गति है । इस पर से यह स्पष्ट है कि दैववाद अथवा नियतिवाद का प्रचार जनता को अहितकर अथवा दुर्गतिकारक मार्ग की ओर ले जाता है । श्रमण भगवान महावीर के समय में श्रीमान् कुम्भार सद्दालपुत्त आजीवकमत के नेता मंखलिपुत्र गोशालक के नियतिवाद में मानता था । भगवान् महावीर ने उसे समझाने की दृष्टि से पुछा, "सद्दालपुत्र ! मिटी के ये सब बरतन तुम्हारे प्रयत्न से ही बने हैं या स्वत: बने हैं ? उसने कहा, "भगवान् सब पदार्थ नियतिस्वभाव हैं । अपने-अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं नियतिबल से बनते हैं । इसमें पुरुषप्रयत्न अथवा निमित्तप्रयोग क्या कर सकता है ?" इस पर भगवान् ने पूछा, "यदि कोई मनुष्य डण्डे से तुम्हारे १. 'उवासगदसाओ' सूत्र में भगवान् महावीर के दस श्रावकों का जीवनचरित दिया है । उन दस श्रावकों में एक सद्दालपुत्त नाम का कुंभार भी था । उसके चरित्र में से यह वृत्तान्त यहाँ दिया गया है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनदर्शन ये बरतन फोड डाले अथवा तुम्हारे पत्नी पर कोई बलात्कार करे तो सच कहो, सद्दालपुत्त ! इन कुकृत्यों का उत्तरदायित्व उस मनुष्यो पर डालोगे या उस पर न डाल कर नियति पर डालोगे और नियति पर डाल कर शान्त रहोगे ?" सद्दालपुत्त ने कहा, "उस समय मैं शान्त नहीं रह सकूँगा, भगवन् ! उस समय मनुष्य को बराबर पीटूंगा ।" महावीर ने कहा, "इसका अर्थ तो यह हुआ कि तुम उस मनुष्य को उसके कार्यों का उत्तरदायी मानते हो, परन्तु जब प्रत्येक कार्य नियतिबद्ध है, तो फिर उस मनुष्य को उसके कार्यों का उत्तरदायी क्यों मानना चाहिए ? क्या नियतिवाद का यह अर्थ है कि मनुष्य अपने पापों को नियतिवाद के नाम के नीचे ढंक दे और दूसरों के पापों का बदला लेने के लिये नियतिवाद को एक ओर हट दे ? सद्दालपुत्त, नियतिवाद के आधार पर क्या प्रगति हो सकेगी ? क्या जगत् की व्यवस्था बन सकेगी ?" श्री महावीर के समझाने से भद्रात्मा सद्दालपुत्त की आँखे खुल गईं । वह बोला, "मैं समझ गया, प्रभो ! कि नियतिवाद एक प्रकार का जड़ता का मार्ग है, दम्भ है, अपने पापमय और पतनमय जीवन के उत्तरदायित्व से बचने के लिये एक ओट है । यह तो बहुत बड़ी आत्मवंचना और परवंचना है, भगवान् ।" प्रभुने कहा, "आत्मवंना से अपनी आँखों में धूल डाली जा सकती है, सद्दालपुत्त ! और परवंचना से दूसरों की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, परन्तु जगत् की कार्यकारण की व्यवस्था की दृष्टि में धूल नहीं झोंकी जा सकती ।" नियतिवाद को भी स्थान है ही । विरोध केवल उसी एक को सर्वेसर्वा मानकर दूसरे कारणों को उडा देने के सामने है। किसी भी कार्य में काल, स्वभाव, उद्यम, पूर्वकर्म, नियति ये सब अपनी-अपनी योग्यतानुसार गौणमुख्य भाव से भाग लेते हैं । अतः इन सब कारणों का उनके स्थान एवं विशिष्टता के अनुसार स्वीकार करने में ही न्यायसिद्धता है । १. पाठक इस विषय का निरूपण पँचम खण्ड के 'स्याद्वाद' प्रकरण के अन्त में देखें। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क में कहते हैं— काली सहाव नियई पुव्वकय पुरिस कारणगंता । मिच्छत्तं ते चेव य समासओ होन्ति सम्मत्तं ॥ ३५३॥ अर्थात्-काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और ऊद्यम इनमें से किसी एक का एकान्त पक्षपात करने में मिथ्यात्व है और इन पाँचों का योग्यरूप से स्वीकार करने में सम्यक्त्व है । प्रस्तुत विषय में थोडा और विचार करें । सब द्रव्यों की अपनी मूल शक्तियाँ नियत हैं । जड़ द्रव्य चेतनरूप से और चेतन द्रव्य जड़रूप से परिणत नहीं होता । पुद्गल में पुद्गलसम्बन्धी परिणाम और जीव में जीवसम्बन्धी परिणाम यथासमय होते रहते हैं । द्रव्यमात्र की भिन्न-भिन्न परिणामधारा प्रतिसमय अविच्छिन्नभाव से बहती रहती है । अर्थात् प्रत्येक द्रव्य भिन्न-भिन्न पर्याय में प्रतिसमय परिणत हुआ करता है परन्तु द्रव्यमें अमुक समय पर अमुक ही परिणमन- अमुक ही पर्याय हो ऐसा नियत नहीं है । मिट्टी के पिण्ड में घड़ा, कुंडा, गगरी आदि अनेक पर्यायों को प्रकट करने की योग्यता है, परन्तु इनमें से जिसके लिये निमित्तयोग मिले उसी का उद्भव होता है । जिस समय मिट्टी के पिण्ड में से घड़ा बना उस समय ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उस पिण्ड में से घड़ा बनना नियत ही था । जिस प्रकार घड़े का निमित्त मिला घड़ा बना उसी प्रकार यदि गगरी का निमित्त मिला होता तो गगरी बनती । जिस पात्र का निमित्तयोग मिलता वह पात्र बनता । इस प्रकार कार्यकारणसम्बन्ध का बल निश्चित है । जैसीजैसी अविकल कारणसामग्री उपस्थित होती है वैसा-वैसा कार्य या परिणाम होता है । मनुष्य प्रयत्न के योग से कार्य बनता है और नैसर्गिक कारणसंयोग से भी कार्य बनता है । द्रव्य के परिणमन उपस्थित परिस्थिति या निमित्त के अनुसार होते हैं । पुद्गलपरमाणु घट बन जाते हैं, परन्तु वे सीधे तौर से नहीं बन सकते । जब पुद्गलपरमाणुओं को अनुकूल सामग्री मिलती है तब स्कन्ध बन कर वे मिट्टा के पिण्ड में परिवर्तित होते हैं और पीछे जब उस पिण्ड को घड़े में परिवर्तित करनेवाले साधन मिलते हैं तब वह घटका रूप २२१ - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनदर्शन धारण करता है । पुद्गल में जिस पौद्गलिक परिणाम की निकट--योग्यता होती है वह तदनुकूल निमित्त के संयोग से प्रकट होता है । रेती में काँच बनने की, कोयले में हीरा बनने की योग्यता (निकट-योग्यता) होने से प्रयत्न करने पर उनमें से वे प्रकट होते हैं । अशुचिरूप खाद को निमित्तयोग मिलता है तब वह कैसा रूप धारण करती है ! प्रयोगविशेष से विष अमत बनता है और अमृत विष । इस प्रकार अनेकानेक परिणामों में परिवर्तित होने की योग्यता द्रव्य में होने पर भी जैसा निमित्त मिलता है उसके अनुरूप परिणाम में वह द्रव्य परिवर्तित हो जाता है । मूर्ख लड़के पर सुयोग्य परिश्रम करने पर उसकी बुद्धि तथा ज्ञान का विकास हो सकता है । विष में अमृतत्त्व और अमृत में विषत्व योग्यता रूप से था ही, मूर्ख लड़के में गुप्त रूप से ज्ञान था ही, और वह कारणसमवधान से बाहर आया । इस प्रकार द्रव्य मेंउपादान में जो होता है अर्थात् जिस प्रकटनीय पर्याय की योग्यता होती है वह निमित्त मिलने पर बाहर आता है और जो न हो वह बाहर नहीं आता । रेती पुद्गल है और तेल भी पुद्गल है, परन्तु रेती में से तेल नहीं निकलता जिसमें जिस पर्यायकी प्रकट अथवा निकट योग्यता नहीं होती उसमें से वह पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकता । रेती के परमाणु जब विशिष्ट प्रकार के स्कन्ध बनें तभी उनमें से तेल निकल सकता है । द्रव्य में बहुत बहुत प्रकट होने की शक्यता अर्थात् प्रकटनीय अनेक पर्यायों के प्रादुर्भाव की सम्भावना है, फिर भी जिस परिणाम अथवा पर्याय के लिये निमित्त का योग मिलता है, वही प्रकट होता है । इस प्रकार द्रव्यनिष्ठ शक्तियाँ नियत है, परन्तु उन शक्तियाँ में से कौनसी कब प्रकट होगी यह नियत नहीं है । जिसके लिये निमित्त मिलेगा वह प्रकट होगी और जैसा निमित्त मिलेगा उसके अनुसार कार्य प्रकट होगा। सब कुछ नियत हो-पहले से ही निश्चितरूप से ठहरा हुआ हो तो प्रयत्न-क्रिया की कोई अपेक्षा ही नहीं रहने की और हिंसा-अहिंसा, पुण्यपाप सब खत्म हो जायगा । किसी मनुष्य को छुरा भोंक कर हत्या करनेवाले को हिंसा अथवा पाप नहीं लगेगा, क्योंकि हत्या करनेवाले का एसा भाव होने का ही था, मरनेवाले का इस प्रकार मरना निश्चित ही था, मरनेवाले के Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २२३ शरीरमें शस्त्र घुसने ही वाला था, यहसब नियत था, तब हत्या करनेवाला का क्या अपराध ? अग्नि की ज्वाला में फँसे हुए साधुपुरूष को आग बुझाकर योग्य उपचार कर के बचानेवाले को अथवा भूख से प्राणान्त स्थिति में आए हुए किसी महात्मा आदि को भोजन देकर बचानेवाले को पुण्य क्या मिलेगा ? क्योंकि बचानेवाले का उस स्थान में आना नियत था । अग्नि का शान्त हो जाना नियत था । महात्मा के मुख में भोजन पड़ना नियत था । यह सब नियत था फिर तथाकथित बचानेवाले ने नया क्या किया ? उफ ! कैसा भयंकर यह वाद ! इस नियतिवाद में भविष्यनिर्माण जैसा कुछ रहता है ? सारा भविष्य नियत होकर पड़ा हो वहाँ आगे का विचार अथवा योजना करने की बात ही नहीं रहती, फिर प्रयत्न करने की तो बात ही क्या ? सचमुच, प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ का उच्छेद करनेवाला कोई भी वाद मानवजाति के लिये घोर अन्धकाररूप है, भीषण शापरूप है । हमें यह समझना चाहिए कि निमित्त-कारण अपने स्थान में बलवान् है । द्रव्य में कार्य के उपादान में कार्य विद्यमान होता है, परन्तु वह विद्यमान होता है शक्तिरूप से-अव्यक्तरूप से । उसे व्यक्त (आविर्भूत) करने के लिये निमित्तयोग की सख्त जरूरत है । मन्दिरमूर्ति, शास्त्रवाचन, सन्त का समागम, उनके उपदेश का श्रवण तथा अनुकूल स्थान में निवास, अनुकूल भोजनपानइन सबकी उपयोगिता किसे मंजूर नहीं है ? यह सब उपयोगी है ऐसा मानकर उसका अमल करनेवाला निमित्तकारण की योग्य शक्ति को कबूल न करे तो वह बर्तन-विसंवादी वाग्व्यापार समझा जायगा । (१९) जाति-कुलमद : आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपः श्रुतैः । कुर्वत् मंद पुनस्तानि हीनानि लभते नरः ॥४-१३|| अर्थात् जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप तप और ज्ञान का मद Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन करनेवाले मनुष्य को इस मद के दुष्परिणामस्वरूप ये चीजें हीन कोटि की मिलती हैं । २२४ भौतिक सम्पत्ति विनाशशील है, अतः उस पर अभिमान करना समझदारी की कमी को सूचित करता है । विद्यासम्पत्ति अभिमान करने के लिये नहीं है, परन्तु विद्याहीनों की ओर अनुकम्पा - भाव रख कर उसे जीवन के कल्याण के लिये उन पर ज्ञान का प्रकाश डालने में उसकी सार्थकता है । कुल--जाति का गौरव अथवा उच्च समझे जाने वालों का उच्चत्व मानवता के सद्गुणों को अपनाने में और निम्नश्रेणी के गिने जानेवाले मनुष्यों के साथ आत्मीय भाव से बरतने में है, नहीं कि अपने बडप्पन का अभिमान करके और दूसरों को उनके कुल - जाति के कारण हीन समझकर उनके साथ हीनतायुक्त व्यवहार करने में । उच्चता अथवा नीचता, बडाई अथवा लघुता जन्म के कारण नहीं है । गुण-कर्मों से सम्पादित बडाई ही सच्ची बडाई है। जहाँ इस प्रकार की बडाई हो वहाँ अभिमान जैसे दोषों को अवकाश ही नहीं मिल सकता । सदगुणों का अभिमान भी सद्गुणों के लिये लाञ्छनरुप है । अभिमान प्रगति का अवरोधक है । वह जीवन की नैसर्गिक मधुरिमा को खट्टी बना देता है । अभिमान करने का कोई स्थान ही नहीं है । अपने को ऊँचा समझ कर घमंड़ करनेवाला अपने आपको ऊपर से नीचे गिराता है । उच्चता सद्गुणों और सत्कर्मों के संस्कार में है । जहाँ यह संस्कारिता प्रकाशित हो वहाँ ऊँचनीचता की भेददृष्टि होने नहीं पाती; वहाँ तो निम्न स्तर के मनुष्यों के साथ भी सहानुभूति और मैत्री का पवित्र प्रवाह बहता ही रहता है । उच्चता सद्गुणों - सत्कर्मों में और नीचता गुण-कर्म-हीनता में समझना यही सच्ची दृष्टि है । जन्म के कारण मनुष्य को उत्तम अथवा अधम मानना यह एक भ्रामक दृष्टि है । I समाज के धारण-पोषण के लिये समाज के व्यक्तियों को जो अनेकानेक व्यवसायिक प्रवृतियाँ करनी पड़ती हैं उनको स्थूलरूप से चार विभागों में बाँटा गया और उन चार प्रकार की व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनेवालों का अलग-अलग रुप से पहचानने के लिये अलग-अलग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम दिए गए । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २२५ जो मनुष्य मुख्यतया शास्त्राभ्यास करके तथा पठन-पाठन से लोगों में ज्ञानसंस्कार सींचने का व्यवसाय करने लगे उन्हें ब्राह्मण कहा गया । जो मुख्यतः अपने जीवन की भी परवा किए बिना आततायियों तथा दुष्ट आक्रमणकारों से प्रजा का रक्षण करने का तथा समाज में चलनेवाली दुष्प्रवृत्तियों को रोककर समाज को स्वस्थ रखने का व्यवसाय करने लगे वे क्षत्रिय कहलाए । जो लोग मुख्यतः खेती तथा अन्य व्यापार - रोजगार करके समाज के लिये आवश्यक वस्तुएँ हाजिर करने का व्यवसाय ले बैठे वे वैश्य कहलाए । और जो लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम करके समाज की दूसरे रुपसे सेवा करने लगे वे शुद्र कहलाए । इस पर से ज्ञात होगा कि ये चारों प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाज की सुख-सुविधा तथा सामाजिक विकास के लिये आवश्यक है । इनमें की एक भी प्रवृत्ति के बिना समाज टिक नहीं सकता और न अपना विकास अथवा उन्नति साध सकता है । अतः अमुक मनुष्य अमुक व्यवसाय करता है इसलिये वह ऊँचा है और अमुक मनुष्य दूसरा व्यवसाय करता है इसलिये वह नीचा है ऐसा न समझना चाहिए । केवल व्यवसाय के भेद पर दृष्टि रख कर ऊँच-नीच का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । उसके लिये तो दूसरी बातें ध्यान में लेने की है । मनुष्य चाहे जो हो और चाहे जो धन्धारोजगार करता हो, परन्तु वह गुण से उच्च ( सच्चरित) होना चाहिए | इतना ही नहीं, वह अपने कर्म से भी उच्च होना चाहिए । कर्म से उच्च अर्थात् अपना-अपना विशिष्ट व्यवसाय प्रामाणिकता - पूर्वक धर्मबुद्धि से तथा मन लगा कर योग्यरूप से करनेवाला । इस तरह मनुष्य यदि गुण एवं कर्म से उच्च हो तो वह उच्च है । ब्राह्मण का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि दुश्चरित हो अथवा अपने कर्तव्य के पालन में धूर्तता करे तो वह नीच है और शूद्र का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि सच्चरित हो और अपने कर्तव्य का बराबर पालन करता हो तो वह उच्च है । अतः जन्म के कारण से किसी को ऊँच-नीच नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः मनुष्य में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व तथा शूद्रत्व इन चारों तत्त्वों का सुभग संगम होना चाहिए, क्योंकि जीवनचर्या में स्वाध्याय या Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनदर्शन विद्योपासना, बलशूरता, कृषि आदि व्यापार-विकास एवं व्यावहारिक बुद्धि तथा सेवा-वृत्ति-इन चारों तत्त्वों की अमुक मात्रा में आवश्यकता है । इन चारों का समुचित मात्रा होने पर ही मनुष्यत्व-सम्पन्न होता है । और शरीर में मस्तक, हाथ, पेट व पैर इन अंगों में से किसे उच्च और किसे नीच कहें ? पर की क्या कम उपयोगिता है ? इसी प्रकार पैर के स्थान के शूद्र की उपयोगिता कम कैसी समझी जाय ? सब अंग यदि परस्पर मिलजुकर कार्य करे तो वे स्वयं तथा अवयवी शरीर जीवित और सुखी रह सकते हैं, और यदि एक दूसरे के साथ लड़ने-झगडने लगे अथवा ईर्ष्यावश रूठ बैठे तो उन सबके लिये मरने का समय आ जाय । ठीक इसी भाँति ब्राह्मणादि वर्ण परस्पर उदारता से, वात्सल्यभाव से हिल-मिलकर रहें तो इसमें उन सबका उदय-अभ्युदय है और झुठे अभिमानवश एक-दूसरे का तिरस्कार करने में इन सबका विनिपात है । थोडा और अधिक विचार करें । उच्चता और नीचता प्रकृतिधर्मकृत और मानव-समाज द्वारा कल्पित ऐसी दो प्रकार की गिनाई जा सकती है । इन दोनों में से सर्वप्रथम हमें दूसरे प्रकार की देखें । यह तो मानी जा सके ऐसी बात है कि दुःखजनक परिस्थिति में पैदा होना पापोदय का और सुखजनक परिस्थिति में पैदा होना पुण्योदय का परिणाम है । इस तरह यदि रोगी घर में, दुर्बुद्धि, अथवा मूर्ख परिवार में अथवा दरिद्र-कंगाल कुटुम्ब में पैदा होना पापकर्मों के उदय का परिणाम है, तो खराब राज्य अथवा खराब शासनवाले देश में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम समझा जा सकता है और इसी प्रकार खराब सामाजिक रचनावाले समाज में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम माना जा सकता है। रोगी वातावरणवाले घर में पैदा होकर मनुष्य कालक्रमेण अपने घर को सुधारे और आरोग्य के अनुकूल बनावे तब की बात तब, और इसी प्रकार कोई मनुष्य दरिद्र घर में पैदा होकर कालक्रमेण अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारे तब की बात तब, परन्तु जन्म के समय दुःखोत्पादक परिस्थिति में जन्म लेना और जब Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २२७ तक उस परिस्थिति में सुधार न हो तब तक योग्य पुरुषार्थ करने पर भी जो सहन करना पड़े वह पापोदय का ही परिणाम गिना जाय । यहाँ पर हमारा प्रश्न समाजरचना के बारे में है । खराब समाजरचनाओं में से एक रचना वर्णाश्रम- व्यवस्था की है । इस दूषित प्रणालिका के अनुसार समाज ने जन्म एवं कुछ धन्धे-रोजगारों के कारण अमुक वर्गों को उच्च और अमुक वर्गों को नीच मान लिया है। ऐसे दुषित रचनावाले समाज में अथवा देश में समाज द्वारा कल्पित नीचवर्गमें उत्पन्न होने से दुषित समाजरचना का बलि होना पड़ता है, अपने से उच्च माने जानेवाले वर्गों की ओर से हीनदृष्टि तथा घृणा और अपमान आदि का सन्ताप सहन करना पड़ता है । इस प्रकार का अन्याय क्लेश-सहन समाज द्वारा सर्जित, नहीं नहीं, कल्पित समाज-रचना के अभारी है । क्रान्तिकार वीरपुरुष पैदा होकर दूषित समाजरचना को सुधारने का प्रयत्न करे और उनके प्रयत्नों की परम्परा के परिणामस्वरूप समाजरचना में यदि सुधार हो और जन्म के तथा धन्धे-रोजगारों के कारण उँच-नीच मानने की दृष्टि में परिवर्तन हो तब वातावरण सुधर जाने पर समाज कल्पित जातिगत ऊँच-नीच के भेदों के बखेड़े सहन करने नहीं पड़ेंगे; परन्तु जब तक इस प्रकार की सुधारणा का योग्य प्रचार और प्रसार न हो तब तक तथाकथित नीच वर्ग में पैदा होनेवाले को योग्य पुरुषार्थ करने पर भी कष्ट सहन करना पड़े और वह क्लेश-सहन मूल में जिस कर्म पर आश्रित माना जाय उसे 'नीच-गोत्र' कर्म कहते हैं । ऊपर कहा वैसा यदि समाजिक रचना में सुधार हो, जन्म-जाति अथवा धन्धे-रोजगारों के आधार पर खड़ी की हुई ऊँच-नीच के भेदों की कल्पना नाबूद हो अर्थात् इस प्रकार की कल्पना के आधार पर कोई ऊँचनीच न समझा जाय ऐसा युग आए तब भी 'गोत्रकर्म का स्थान तो रहने का ही और वह ऊपर के प्रकार की नहीं तो दूसरे प्रकार की उच्च-नीचता का खुलासा बैठाने के लिये । संस्कारी, सदाचारी कुल-कुटुम्ब में पैदा होना अथवा असंस्कारी असभ्य और हीन आचारबाले कुटुम्ब में पैदा होना इसके मूल में कोइ 'कर्म' तो मानना ही पड़ेगा । अतः वह परिस्थिति गोत्र-कर्म पर अवलम्बत समझी जायगी--अनुक्रम से उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र कर्म Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनदर्शन पर । यह ऊँच-नीचता प्रकृतिधर्मकृत समझनी चाहिए । वस्तुतः आजकल की सामाजिक रचना में भी तथा-कथित नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य भी यदि सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ व्रताचरण-सम्पन्न हो तो उसके नीच-गोत्र का नहीं किन्तु उच्च-गोत्र का उदय है--ऐसा जैन कर्मशास्त्र कहते हैं । अर्थात् दृष्टि और आचरण के सुसंस्कारवाले को, फिर वह किसी भी जाति-कुल-वंश का क्यों न हो, जैनशास्त्र नीच-गोत्र का नहीं परन्तु उच्चगोत्र के उदयवाला मानता है । अरे ! चाण्डाल जाति के होने पर भी जो उत्तम चारित्रसम्पन्न बने हैं उनके लिये जैन आगमों ने पूजावाचक शब्दों का प्रयोग करके उनका अत्यन्त सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है । (२०) ज्ञान-भक्ति-कर्म : ईश्वरवाद की अर्थात् के ईश्वर के-भगवान् के अस्तित्व के सिद्धान्त की उपयोगिता अन्तःकरण को निर्मल बनाने में चारित्र-गठन में तथा जीवनविकासक प्रेरणा प्राप्त करके सन्मार्ग की ओर प्रगति करने में प्रतीत होती है । इसी प्रकार कर्मवाद अथवा भाग्यवाद की उपयोगिता सुख-दुःख के समय समता रखने में तथा सत्कार्य में समुद्यत रहने में प्रतीत होती है । शुद्ध ईश्वरवादी अथवा भगवदुपासक व्यक्ति प्रभु की ओर अपनी निर्मल भक्ति को विकसित करके अपने चरित्र को समुन्नत बनाएगा और इस तरह ईश्वरवाद उसके जीवन के लिये कल्याणकारक सिद्ध होगा । इसी प्रकार शुद्ध भाग्यवादी अर्थात् 'कर्म' के नियम को मानने वाला सुख के समय घमण्डी और दुःख के समय दीन-हीन-कायर नहीं बनेगा, परन्तु इन सब परिस्थितियों को कर्म का खेल समझ कर मन की समता (Balance of mind) सँभाल रखेगा, और सत्कर्म अथवा सत्पुरूषार्थ द्वारा दु:ख में से मार्ग निकाला जा सकता है तथा सन्मार्ग पर प्रगति करते रहने से अपने जीवन को अधिकाधिक सुखी बनाया जा सकता है-इस प्रकार की सुदृष्टि से अपने जीवन को समुन्नत बनाने में प्रयत्नशील रहेगा । कर्मवाद अथवा ईश्वरवाद जैसे महान् सिद्धान्तों का निष्क्रियता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वे निष्क्रियता का पाठ नहीं पढ़ाते, परन्तु कर्तव्यपरायण बनने की शिक्षा देते हैं । इतना ही नहीं, वे सच्चा कर्मण्य बनने के लिये योग्य 'मसाला' प्रस्तुत करते हैं । कर्मवाद के सिद्धान्त Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २२९ में सत्कर्म द्वारा सुभाग एवं महाभाग बनने की ध्वनि है और ईश्वरवाद के सिद्धान्त में सच्चरित बनने के लिये परमात्मा का अवलम्बन लेने की ध्वनि है अथवा सच्चरित द्वारा भगवत्प्राप्ति की अभिव्यंजना है । जीवन की ग्लानि दूर करने में, आत्मा को धीरज देने में, सन्तोष और शान्ति के प्रदान में तथा सदाचरण की प्रेरणा करने में ये दोनों सिद्धान्त बहुत समर्थ हैं । कर्म (भाग्य) भी मनुष्यों के (प्राणियों के) अपने प्रयत्न से ही उत्पन्न होनेवाली वस्तु है । अच्छे काम में मनुष्य अपने अच्छे कर्म (भाग्य) को और बुरे काम से अपने बुरे कर्म को पैदा करता है । अर्थात् अपने भाग्य (कर्म) का स्वयं निर्माण करके उसका शुभाशुभ परिणाम (कडुए मीठे फल) प्राप्त करना मनुष्य के अपने हाथ की बात है—Man is the architect of his fortune. इसीलिये सुख अथवा अभ्युदय चाहनेवाला मनुष्य उत्साहपूर्वक सदाचरणपरायण बनता है । सद्भाग्य से मिली हुई सम्पत्ति में यदि मनुष्य बहक जाय, घमण्डी बनकर मत्त-प्रमत्त-उन्मत्त बने तो भविष्य के लिये वह खराब कर्म बाँधता है और उसका वर्तमान सुखोपभोग उसके प्रवर्तमान कर्मोदय की अवधि तक ही सीमित रहता है । अतः कर्मवाद के साथ यह भी सुबोध गूंथा हुआ है कि जिस प्रकार दुःख समता से भोगना चाहिए उसी प्रकार शुभ कर्म के अच्छे फल भी समता से भोगने चाहिए । ____ ऊपर कहा उस तरह भाग्य (कर्म) वाद भी मनुष्य को सदाचरण की ओर प्रेरित करनेवाला वाद है, और सदाचरण की भावना ईश्वर का (परमात्मा का) अवलम्बन लेने से(ईश्वरनिष्ठा से) विकसित होती है। बाकी, सीधे तौर से हमारे कर्म (भाग्य) में परिवर्तन अथवा उसका नवविधान या विघातन कर सके ऐसा कोई ईश्वर अथवा भगवान् नहीं है । परन्तु उसका (भगवान् का) आश्रय लेने से जो धर्मभावना खिलती है, जो धर्म की साधना होती है वह अपनी मात्रा के अनुसार कर्म (भाग्य) पर भी प्रभाव डाल सकती है। इस तरह अशुभ भाग्य अथवा कर्म में परिवर्तन लाया जा सकता है-अशुभ कर्म को शुभ में बदलाया जा सकता है और उसे (अशुभ कर्म को ) प्रायः विनष्ट भी किया जा सकता है । हमें यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिए कि कोई कर्म अथवा भाग्य सदा के लिये नहीं टिकता । उस की मुद्दत पूर्ण होने पर Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनदर्शन उसका जब अन्त आता है तब उसका फलोदय समाप्त होता है । यही कारण है कि अच्छी स्थिति को सदा चालू रखने के लिये उसके साधनरूप शुभभाग्य के सर्जन में (यह सर्जन-क्रिया और कुछ नहीं, परन्तु सदाचरणमय जीवनचर्या होने से उसमें) सुज्ञ मनुष्य सदा तत्पर रहता है । ऐसा करके वह अपने आपको सदा सुखी बनाता है और साथ ही अपनी उन्नति तथा विकास करता जाता है। उत्तरोत्तर विकासनशील जीवन के शुभ प्रवाह में ऐसा महान् अपूर्व अवसर आता है जब आत्मविकास की पूर्णता पर पहुंचने की वह प्राप्ति करता है । कर्मवाद का सद्बोध आत्मसाधक मुमुक्षु को अपना बुरा करनेवाले मनुष्य के ऊपर क्षमाभाव रखने में भी उपयोगी होता है, और अपना बरा करनेवाले मनुष्य की बुराई का न्याय्य मार्ग से शक्य प्रतीकार करनेवाले को भी बराई करनेवाले मनुष्य के ऊपर वैरभाव न रखकर उसकी ओर क्षमाभाव रखने में सहायक होता है ।। 'मेरा विरोधी मेरे साथ जो दुर्व्यवहार करता है वह मेरे अपने कर्म के बल पर करता है । मेरा कर्म उसे हथियार बनाकर उसके द्वारा ऐसा कराता है । अतः उस मनुष्य के ऊपर क्रोध करना अनुचित है । क्रोध तो उस मनुष्य को निमित्त (हथियार)बनानेवाले मेरे अपने कर्म पर ही करना चाहिए'-ऐसी विचारधारा का आश्रय मुमुक्षु को सात्विक क्षमाशील बनने में तथा क्रोध-कषाय या झगड़े-फसाद के दुष्कर्मबन्धक कलुषित वातावरण से अपने मन को दूर रखने में सहायक हो सकता है । कर्म-तत्त्व का ज्ञाता यह बराबर समझता है कि दुर्जन के दौर्जन्य के पीछे उसका अज्ञान-रोग अथवा कषाय-रोग प्रेरक है । अतः उस मनुष्य की ओर वैरवृत्ति न रखकर वह जवरात अथवा रोगात मनुष्य की भाँति भावदया और क्षमाभाव का पात्र है ऐसा वह समझता है ।। कर्म का सिद्धान्त समझनेवाला नियतकालिक कर्म के नियत-कालिक फल पर मद या अहंकार न करे अथवा विषण्ण न हो । आया हुआ कष्ट अथवा संकट स्वयं अपने दुष्कर्म द्वारा ही उत्पन्न है, ऐसा समझकर वह Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २३१ समतापूर्वक सहन करें । इस प्रकार समभावपूर्वक सहन करने का सामर्थ्य, जीवन को अहंकार तथा ग्लानि से मुक्त रखने का बल कर्मनियम के तत्त्वज्ञान में से हि प्राप्त होता है । और भगवान् के आलम्बन का योग उसमें खूब शान्ति, सान्त्वन, आश्वासन और प्रेरणा प्रदान करता है । मनुष्य की स्तुति अथवा उसकी भक्ति के उपचारों से भगवान् यदि खुश होता हो तो स्तुति अथवा भक्ति न करनेवाले के ऊपर वह नाराज भी हो, परन्तु भगवान् (परमात्मा) ऐसी प्रकृति का नहीं होता । वह तो वीतराग है । उसे तो पूर्ण-पूर्णात्मा-पूर्णानन्द-विश्वम्भर कहते हैं । वह हमारी भक्ति के गाने-बजाने से, अलंकार-आभूषण चढाने से अथवा मिठाई की थालियाँ भोग चढ़ाने से प्रसन्न होता है ऐसा मानना वस्तुतः भगवान् की भगवत्ता के बारे में अपना अज्ञान सूचित करना है । मनुष्य का हृदय यदि कल्याणकामी हो, भगवद्भिमुख-भगवद्भक्त-भगवदेकशरण हो और भगवत्समरण से सत्त्वसंशद्ध तथा प्रसादपूर्ण बनता जाता हो तो उसकी यह सधती हुई उज्ज्वलता और निर्मलता ही किसी का न दिया हुआ और अपने ही सामर्थ्य से उपार्जितसम्पादित सहज पुरस्कार है । भगवत्स्मरण कोई साधारण मार्ग नहीं है। वह तो एक सबल साधन है । परमशुभ्र, परमदीप्र, परमोज्ज्वल परमतत्त्व के एकाग्र ध्यान का पक्व होता जा रहा बल ध्याता के हृदय के दरवाजे खोल देता है और उस पर एक ऐसी प्रतिक्रिया करता है जिससे उसकी मोहवासना पर जबरदस्त धक्का लगता है और ध्येयत्त्व की शुद्धता की रोशनी उस (ध्याता) पर फैलने लगती है । शुद्ध एवं उच्च विषय की भावना मन पर वैसी ही शुद्ध तथा उन्नत छया डालती है, जबकि अशुद्ध एवं निकृष्ट विषय की भावना का प्रभाव मन पर अशुद्ध एवं निकृष्टि पड़ता है । ध्यान का विषय जैसा हो मन पर उसका असर भी वैसा ही होता है । वीतराग परमात्मा के चिन्तन, स्मरण उपासन [इस प्रकार का परमात्मा के साथ का मानसिक सत्संग] मन के मोहरूपी कालुष्य का प्रक्षालन करने में खूब कार्यक्षम होते हैं । इस प्रकार की भगवदुपासना से चित्तशुद्धि, मानसिक विकास और प्रसन्नता का जो लाभ प्राप्त होता है वह भगवान् का दिया हुआ कहा जा सकता है, किन्तु केवल उपचार से । यदि भगवान् के हाथ में सीधे तौर से प्रकाश देने का होता Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २३२ जैनदर्शन तो किसी के अन्तःकरण में वह अन्धकार रहने न देता, अधम और दुराचारी सबको सद्बुद्धि सम्पन्न और सदाचारी बना देता, प्रत्येक प्राणी को उसकी निम्न भूमिका पर से उठा कर ऊपर की भूमिका पर चढा देता, सम्पूर्ण विश्व की आत्माओं को पूर्ण प्रकाशमय तथा आनन्दी बना देता । परन्तु यह सब तो हर प्राणी को स्वयं अपने सामर्थ्य से ही सिद्ध करने का है स्वयं अपने ही प्रयत्न से, अपने ही पुरूषार्थ से बनाने का है। दूसरा कोई (ईश्वर) भी इसे नही बना देता, नही साध देता । भगवान यदि प्रसन्न होता तो वह सिर्फ हमारे अच्छे गुण-कर्मों पर ही प्रसन्न हो सकता है, हमारी सच्चरितता अथवा सदाचरणशीलता पर ही प्रसन्न हो सकता है । इसके अतिरिक्त उसे प्रसन्न करने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है - नाऽन्यः पन्था विद्यते शिवाय । जिस प्रकार सूर्य प्रकाशित होता है परन्तु उसका प्रकाश लेना या नहीं यह मनुष्य की अपनी इच्छा की बात है, परन्तु लेनेवाले को लाभ है और न लेनेवाले का स्वास्थ्य बिगड जाता है । उसी प्रकार सन्त अथवा महान् आत्मा के सदुपदेश का जो प्रकाश लेगा उसका कल्याण होगा, वह उस पार उतर सकेगा और नहीं लेनेवाला अन्धकार में भटकता रहेगा । यद्यपि परमात्मा अथवा भगवान् नहीं दिखता, परन्तु उसके स्वरूप की अपने स्वच्छ अन्त:करण में यथार्थ रूप से कल्पना कर के उसके मानसिक सान्निध्य में रहने से मनुष्य की दृष्टि का शोधन होता है, उसे बल और प्रेरणा मिलते हैं । इस सान्निध्य का लाभ जैसे- जैसे अधिक लेने में आता है वैसे वैसे मन के भाव, उल्लास और शुद्धता बढ़ते जाते हैं । इस प्रकार उसका मोहावरण हटता जाता है, वासना झडती जाती है और उसका आत्मा सत्त्वसम्पन्न (अधिक से अधिक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र से सम्पन्न) होता जाता है । इस भाँति उच्च दशा पर आरूढ़ होकर आत्मा महात्मा की भूमिका में से आगे बढ़कर परमात्मपद की भूमिका में प्रविष्ट होता है । भगवद्भक्ति इस प्रकार विकास के पथ पर आरूढ़ होने में और आगे बढ़ने में उपयोगी होती है । इस तरह भगवद् विषयक और आत्मकल्याण साधने का सच्चा ज्ञान होना वह ज्ञान, भगवान् की शरण में जाकर भगवत्प्रज्ञप्त सन्मार्ग का पूजक Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड बनना वह भक्ति और उस सन्मार्ग पर चलना वह कर्म-इस भाँति ज्ञान-भक्तिकर्म का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है और वे परस्पर एकरस बनकर मुक्ति साधक एक परमतत्त्व बनते हैं। विशेषरूप से विचार करने पर ज्ञात हो सकता है कि भक्ति (भक्तिभाव) के साथ ज्ञान मिला हुआ है । जिसे हमारी भक्ति हमें अर्पित करना है उसे पहचाने बिना उस पर भक्तिभाव कैसे उत्पन्न हो सकता है ? भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान होने के बाद उसकी ओर जो सात्विक शुभ आकर्षण पैदा होता है उसी का नाम भक्तिभाव है । इस तरह भक्ति के पीछे भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान रहा हुआ है । और साथ ही साथ 'इस भक्तिपात्र के सत्संग से मेरा उद्धार हो सकेगा' ऐसा ज्ञान अथवा संवेदन भी रहा हुआ है । इस प्रकार भक्ति के मूल में ज्ञान रहा हुआ है । ज्ञान के बिना भक्ति क्या ? ज्ञान के आधार पर ही भक्ति उत्पन्न होती है । दूध में जो स्थान शक्कर का है वही स्थान ज्ञान में भक्ति का है । जिस प्रकार दूध में शक्कर मिलने पर वह एक मिष्ट पेय बन जाता है उसी प्रकार ज्ञान में भक्ति मिलने पर वह एक विशिष्ट ही प्रकार का तत्त्व बन जाता है। भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान होने के पश्चात् उसकी ओर, ऊपर कहा उस तरह, कल्याण रूप आकर्षण अथवा शुद्ध सात्त्विक भक्तिभाव जब पैदा होता है तब उस ज्ञान में भक्तिरस मिला ऐसा कहा जा सकता है । इस प्रकार ज्ञान में भक्ति मिलने पर वह एक सुन्दर मिश्रित रस बन जाता है । और यह समझ में आ सके ऐसा है कि जिसका जिसमें उन्नत भक्तिभाव होता है वह उसका अनुसरण करता है, वह उसमें तन्मय हो जाता है, उसकी आज्ञा के अधीन वह रहता है, उसके निर्दिष्ट मार्ग पर वह चलता है और अपने आपको-अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसको अर्पित कर देता है; और आगे बढ़कर भक्तजन अपने उपास्य जैसा ही बनने के लिये उत्कण्ठित हो जाता है, उसकी पदपंक्तियों का अनुसरण करके उसके जैसा बनने का सबल प्रयत्न करता है, उसके जैसा सदगुणी, उसके जैसा सच्चरित्री और उसके जैसा सत्कर्मा बनने के लिये उसके चरणो में अपना जीवन निछावर कर देता है । समर्पण केवलज्ञान से नहीं होता । ज्ञानसंयुक्त भक्ति के बल Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनदर्शन पर ही समर्पण की भावना और उसका उत्थान शक्य है । इस तरह ज्ञानसे यक्त भक्ति अथवा भक्ति से सुवासित ज्ञान कर्म का (चारित्र अथवा जीवनविधि का) निर्माता बनता है । इस प्रकार ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीनों मिलकर, एक-दूसरे में ओतप्रोत होकर, एकरस बनकर मोक्ष का-निःश्रेयस का-परमकल्याणपद का एक, अनन्य और असाधारण मार्ग बनता है । संसार में सबसे अधिक प्रेम-भाजन माता समझी जाती है । उसके आगे जिस प्रकार उसका बालक प्रेममस्त बनकर मातृवात्सल्य के मधुर आनन्द-रस का आस्वाद करता है उसी प्रकार भगवान् के आगे-भक्तजन भक्ति के आवेश में मुग्ध बनकर निर्मल भक्तिमय सात्विक प्रेमरस का उपभोग करता है । इस प्रकार अपने जीवन तथा आचरण को शुद्ध करने का मार्ग भी उसके लिये सरल बन जाता है । प्रभु का भक्त होकर यदि आचरण मलिन रखे तो यह कैसे संगत हो सकता है ? निर्मल आत्मा के साथ मलिन आत्मा का मिलाप होगा कैसे ? इस तरह की स्वामीसेवक की जोड़ ही नहीं बन पाती । भक्त को तो भक्ति के मार्ग द्वारा निर्मलचेता और सदाचरणी बनना ही होगा । तभी प्रभु के साथ उसका मेल जम सकता है । इस तरह भक्ति का पर्यवसान आचरण की-व्यवहार की-चारित्र की शुद्धि में ही आता है और आना चाहिए । तभी और वही भक्ति की सफलता है । और मैं तो यहाँ तक कह सकता हूँ कि एक बार यदि ईश्वरवाद असिद्ध रह जाये तो भी बुद्धिभावित--भावना में विराजित ईश्वर अथवा ईश्वरनिष्ठा हृदय को सान्त्वना और जीवन को गति देने में स्पष्ट उपयोगी है । अतः अनुभव से भी यह कहा जा सकता है कि ईश्वरवाद का अवलम्बन परमात्मा का आसरा जीवन के लिये सचमुच आश्वासक और प्रेरक है । १. जैनदर्शनप्रसिद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही ज्ञान-भक्ति-कर्म हैं । दर्शन का भक्ति से अथवा भक्ति का दर्शन से निर्देश किया जा सकता है । और चारित्र कहो या कर्म कहो एक ही बात है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २३५ (२१) श्रद्धा : किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये तीन बातों की आवश्यकता है : श्रद्धा, ज्ञान और क्रिया' । इन तीनों को जैनदर्शन में क्रमश: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहते हैं । ये तीन कार्यसिद्धि अथवा मोक्ष का मार्ग है । ये तीन मार्ग के भेद नहीं हैं, किन्तु मार्ग के अवयवअंश हैं । ये तीनों मिलकर एक मार्ग होता है । श्रद्धा का अर्थ है विवेकपूर्वक दृढ विश्वास । जानने को ज्ञान और तदनुसार आचरण को चारित्र कहते हैं ।। औषध की रोगविदारक शक्ति में भरोसा हो, उसका ज्ञान हो और उसका यथायोग्य सेवन किया जाय तो रोग दूर हो सकता है । इसी प्रकार दुःख से मुक्त होने के लिये अथवा सुख या मोक्ष प्राप्त करने के लिये उसके मार्ग के बारे में श्रद्धा, उसका ज्ञान और उस पर चलना(आचरण) आवश्यक है। इन तीनों के एकत्रित होने पर ही दुःख से मुक्ति अथवा सुख या मोक्ष प्राप्त हो सकता है । कहने का अभिप्राय यह है कि इष्टसिद्धि का साधनभूत उपाय अथवा मार्ग का सच्चा ज्ञान चाहिए, उसमें श्रद्धा चाहिए तथा उस साधनभूत उपाय के यथायोग्य प्रयोग करनेरूप अथवा उस मार्ग पर चलनेरूप आचरण होना चाहिए । ऊपर औषध का उदाहरण दिया है । उसके बारे में कोई ऐसा कह १. "The unity of heart, head and hand leads to liberation." अर्थात्---हृदय (जो श्रद्धा का प्रतीक है), मस्तिष्क (जो ज्ञान का प्रतीक है) और हाथ (जो क्रिया-प्रवृत्ति का प्रतीक है) इन तीनों के सुभग संयोग से मुक्ति मिलती है। यह अंग्रेजी वाक्य भी दर्शन [श्रद्धा], ज्ञान तथा चारित्र [आचरण] इन तीन के सहयोग से ही मुक्ति मिलती है इस आर्ष उपदेश को अथवा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस महर्षि उमास्वातिप्रणीत तत्त्वार्थसूत्र के आद्य सूत्र की बात को ही प्रकट करता है। महात्मा गाँधी के अन्यतम शिष्य सन्त विनोबा भावे का सूत्र है : श्रद्धा + प्रज्ञा + वीर्य -सत्य । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनदर्शन सकता है कि औषध का ज्ञान और उसका सेवन ये दो ही पर्याप्त हैं, अर्थात् सच्चे औषध का यथोचित सेवन ही कार्यकारी है, तो फिर वहाँ श्रद्धा के लिये कौन सा अवकाश है ? परन्तु हमें यह जान लेना चाहिए कि उसमे भी श्रद्धा की आवश्यकता है । औषध का तात्कालिक लाभ मालुम न होने पर मनुष्य अधीर होकर उसे छोड़ देने के लिये तैयार हो जाता है । वह ऐसा न करे और योग्य समय तक उसका सेवन जारी रखे इसके लिए श्रद्धा की भी उपयोगिता है। अनजान में भी यदि विषभक्षण किया जाय तो भी वह मारक होगा, इसी प्रकार अनजान में कोई अच्छी चीज ले ली जाय तो भी वह शरीर को लाभप्रद होगी, इसमें श्रद्धा-अश्रद्धा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; इसी प्रकार सच्चा औषध गुणकारक ही होगा, उसके साथ श्रद्धा अश्रद्धा का कुछ भी सरोकार नहीं है -यह बात मान ली जाय तो भी सुख अथवा कल्याण के मार्गरूप सत्य-संयम में तो श्रद्धा की आवश्यकता है ही । यदि श्रद्धा हो तो इस मार्ग में स्थिर रहा जा सकता है । अतः सुख अथवा कल्याण के मार्गरूप सत्य- संयम यदि श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण इन तीनों के विषय बने तभी सुखकारक अथवा कल्याणकारक होंगे, अन्यथा नहीं । वैज्ञानिक खोजों की प्रवृत्ति में जैसे-जैसे प्रयोग की सच्चाई का आभास मिलता जाता है वैसे वैसे श्रद्धा जमती जाती है। अतः श्रद्धा ज्ञानपूर्वक ही होती है, और ज्ञानपूर्वक होकर के ही वह सुस्थिर बन सकती है तथा सच्चे अर्थ में श्रद्धा कहला सकती है । मतलब कि श्रद्धा के पीछे ज्ञान-- भान होता ही है । ज्ञान-भान के आधार के बिना श्रद्धा क्या ? इस तरह श्रद्धा ज्ञानपूर्वक होती है और श्रद्धासम्पन्न ज्ञान का प्रयोग जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे ज्ञान का विकास होता जाता है, और ज्ञान के विकास पर श्रद्धा का भी विकास होता जाता है । इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरे के पोषक हैं ।। श्रद्धा एवं ज्ञान ये दोनों आचरण की अथवा कार्यप्रवृत्ति की नींव जैसे है । श्रद्धा एवं ज्ञान में जितना बल होता है उतना ही वह प्रवृत्ति में Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २३७ उतरता है और तदनुसार प्रवृत्ति का सामर्थ्य भी सतेज होता है । कार्य की साधना में उत्साह पैदा करनेवाली और उसे बढ़ानेवाली श्रद्धा ही है । ज्ञान के आधार पर किसी भी बात में प्रवृत्ति की जा सकती है परन्तु वह तभी जोरदार बनती है जब उसे श्रद्धा का सहयोग मिले । इतना अवश्य है कि कार्य करने की कुशलता का आधार ज्ञान पर है, ज्ञान जितना अधिक होगा काम भी उतना ही अच्छा बनाया जा सकेगा, परन्तु यदि श्रद्धा न हो तो वह कार्यप्रवृत्ति जोर नहीं पकड़ सकती, जबकि सुदूरवर्ती भी फल की सिद्धि में श्रद्धा होती है तब इसके (श्रद्धा के) बल पर तत्संबन्धी कार्यप्रवृत्ति में वेग आता है। कार्य में रसोत्पादक श्रद्धा है । और इसी के प्रभाव से कार्यपरायणता उत्साहयुक्त एवं सतेज बनी रहती है । शास्त्र में 'सम्यग्दर्शन' शब्द से भी श्रद्धा का निर्देश किया गया है। ज्ञान का कार्य वस्तु को ठीक-ठीक जान लेना है । परन्तु ज्ञान द्वारा जानी हुई वस्तु के बारे में जिस दृष्टि से कर्तव्य-अकर्तव्य का अथवा हेयउपादेय या विवेक प्रकट होता है वह सम्यग्दर्शन है । विवेकदृष्टि अथवा विवेकमूलक श्रद्धामयी दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है । श्रद्धा और अन्धविश्वास में जमीन-आसमान जितना अन्तर है । श्रद्धा विवेकपूत होती है, जबकि अन्धविश्वास 'अन्ध' शब्द से ही विवेकशून्यतावाला जाहिर होता है । विश्वास विवेकसूत होने पर 'श्रद्धा के सुनाम से अभिहित होता है । विवेकदृष्टि द्वारा वस्तु का विवेक किया जाता है और उस तरह बरतने के लिये श्रद्धा की आवश्यकता है । इस प्रकार विवेक और श्रद्धा का घनिष्ठ सम्बन्ध समझा जा सकता है । ज्ञान में जब श्रद्धा का रस मिलता है तब वे दोनों एक-रस हो जाते हैं । उस समय वैसा ज्ञान का एक विशिष्ट तत्त्व बन जाता है । जिस प्रकार दूध में शक्कर घुल जाती है उसी प्रकार ज्ञान में घुली हुई श्रद्धा यह ज्ञान का एक विशिष्ट बल है । इस प्रकार का ज्ञान कल्याण-साधन की मुख्य' १. Knowledge is the wing with which we fly to heaven .---- Shakespeare Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन २३८ आधारभूमि बनता है । इस तरह का ज्ञान सम्यग्दर्शन ही है अथवा इस तरह का ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है । दर्शन - ज्ञान - चरित्र इन तीन की (तीन के सहयोग की ) भाँति ही 'नाणकिरियाहि मोक्खो" आदि प्राचीन आर्षउल्लेखों से ज्ञान और क्रिया (क्रिया अर्थात् चारित्र) इन दो के सहयोग को भी मोक्ष का मार्ग बतलाया है । वहाँ पर दर्शन [श्रद्धान] का समावेश ज्ञान में किया है । " ज्ञानविशेष एवं सम्यक्त्वम्" [ज्ञानविशेष का ही नाम सम्यक्त्व है ] ऐसा पूर्व कालीन श्रुतधर ऋषियों का कथन है । श्रद्धा के बारे में तनिक अधिक स्पष्टीकरण करें । आत्मस्पर्शी तत्त्वश्रद्धा की वास्तविक श्रद्धा [ कल्याणी श्रद्धा ] समझने की है । जिन तत्त्वों पर की श्रद्धा आत्मजीवन में प्रेरणादायी आन्दोलन जगाए, दृष्टि में विकासगामी परिवर्तन करे वही मंगलरूप तत्त्वश्रद्धा है । इस तत्त्व श्रद्धा के विषयभूत तत्त्व हैं: आत्मा, पुण्यपाप, पुर्नजन्म, मोक्ष और मोक्ष का मार्ग । इन तत्त्वों की श्रद्धा - सच्ची समझ के साथ श्रद्धा दृढ़ विश्वास रूप श्रद्धा ही आध्यात्मिक जीवन में उपयोगी श्रद्धा है और इसी को सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व के लिये स्वर्ग-नरक के वैदिक, बौद्ध अथवा जैन वाङ्गमय में किये हुए वैविध्यपूर्ण पौराणिक वस्तुवर्णनों में आस्था होना अनिवार्य नहीं है । जिस मनुष्य को आत्मा में, आत्मा की सुगति दुर्गति में और आत्मा के पूर्ण विकास की शक्यता में श्रद्धा है वह सम्यक्त्वशाली है । ऐसी श्रद्धा जीवन के लिये अमृततुल्य होने से अमृतश्रद्धा है । वह जीवन के लिये जीवन-यात्रा के लिये बड़े से बड़ा आलम्बन है । सम्यक्त्व श्रद्धा में षडद्रव्यों पर की शर्त भी अनिवार्य नहीं है । जिसे 'धर्मास्तिकाय' आदि द्रव्यों की जानकारी नहीं है वह भी अपनी आत्मा की शुभ दृष्टि के [ कल्याणसाधनविषयक सम्यग्दृष्टि के] आधार पर सम्यक्त्वी है अथवा हो सकता है । 'अन्यलिंग' वालों को अथवा अन्य सम्प्रदाय - वालों १. विशेषावश्यकभाष्य की दूसरी गाथा । २. विशेषावश्यक भाष्य की ११७४वीं गाथा की वृत्ति में । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ तृतीय खण्ड को जैन-दर्शनसम्मत 'धर्मास्तिकाय' आदि पदार्थों की खबर न हो, फिर भी वे आत्मश्रद्धा की बलिष्ठ नींव पर सच्चारित्रशील बनकर और वीतरागता की दिशा में पूर्ण प्रगति करके ['अन्यलिंगसिद्धि' के सूत्रानुसार ] मुक्ति-केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । संवर', 'आस्त्रव', 'निर्जरा' आदि शब्द जिसने सुने ही नहीं हैं ऐसा मनुष्य भी यदि यह बराबर समझता हो कि हिंसा आदि मार्ग का अवलम्बन लेने से आत्मा का अहित होगा और अहिंसा-सत्य-संयम के मार्ग पर चलने से ही उसका हित होगा तो वह सम्यग्दृष्टि है । ऐसी. समझ ही सम्यग्दृष्टि की समझ है, ऐसी समझ ही सम्यग्दृष्टि का लक्षण है । हाँ इतना अवश्य है कि ऐसी समझ दृढ लक्षण है । हाँ, इतना अवश्य है कि ऐसी समझ दृढ विश्वासरूप होनी चाहिए, क्योंकि सम्यगदृष्टि रूप से मानी जाने वाली श्रद्धा में एक विशिष्ट प्रकार के विश्वास का भाव समाविष्ट है । शरीर के भीतर परन्तु शरीर से भिन्न और विलक्षण गुणवाला आत्मतत्त्व है और वह योग्य प्रक्रिया के द्वारा जन्म-मरण के चक्र में से मुक्त हो सकता है-ऐसी श्रद्धा रखने का नाम सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व है । और ऐसा नहीं है कि ऐसी श्रद्धा अथवा मान्यता कोई एक ही धर्म अथवा सम्प्रदायवाले रख सकते हों, दूसरे नहीं । कोई भी आत्मवादी, फिर वह चाहे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय का क्यों न हो, इस प्रकार की श्रद्धा रख सकता है और जो कोई इस श्रद्धा को आचरण में रखकर सम्यक्चारित्र द्वारा रागभाव व कषायभाव से मुक्त हो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है । आत्मतत्त्वविषयक तत्त्वज्ञान बहुत गहन है । अतः इसे न जानने वाला मनुष्य भी यदि सत्य, अहिंसा के सन्मार्ग में निष्ठा रखे तो वह सम्यक्त्व का १. उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं अन्यलिङ्गादिसिद्धानामाधारः समतैव हि । रत्नत्रयफलप्राप्तेर्यया स्याद् भावजैनता ॥२३॥ --अध्यात्मसार, समताधिकार । अर्थात्-'अन्यलिंग' आदि अवस्थाओं में सिद्ध होनेवालों का आधार समता-समभाव ही है । इस समता के बल पर रत्नत्रय की (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की) प्राप्ति होने सेवे भावजैन बनते हैं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनदर्शन धारण कहा जा सकता है । वस्तुतः सत्य, अहिंसा के सन्मार्ग पर की श्रद्धा ही आत्मतत्त्व की श्रद्धा है अथवा आत्मतत्त्व की यथास्थित श्रद्धा के साथ उसका निकटतम सम्बन्ध है । इस श्रद्धा में सात अथवा नौ तत्त्वों की श्रद्धा का सार आ जाता है । प्रत्येक प्राणी दुःख से दूर रहने की चेष्टा करता है और सुखी बनने की अभिलाषा रखता है । मैं सुखी बनूँ इस प्रकार की भावना सब जीवों में रहती है । ऐसी भावना में संविदित 'मैं' तत्त्व को कट्टर से कट्टर नास्तिक भी मानता है। _ 'आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न है' ऐसा अनुभव करने का शास्त्रों में लिखा है इसका अर्थ है स्व-परभेद-विज्ञान । यह स्व-परभेदविज्ञान समझदार नास्तिकों को भी होता है और वह इस तरह : 'मैं तत्त्व को ('मैं' से जिस किसी तत्त्व का संवेदन होता हो उसे) वे'स्व' और शरीर तथा दूसरे बाह्य पदाथों को 'पर' समझते हैं । इस तरह इस 'मैं' तत्त्व को मुख्य आधाररूप में स्थापित करके स्व-संविदित सुखदुःख की इष्टानिष्ट अनुभूति के प्रकाश में दूसरे प्राणियों के सुख-दुःख को समझकर उन्हें सुख सन्तोष देने में वे अपने कर्तव्य का पालन समझते हैं । इसी प्रकार दूसरों के साथ अनीति-अन्याय करने को वे अपकृत्य मानते हैं ऐसा नैतिक मार्ग स्व-पर के लिये आशीर्वादरूप है और इस तरह के सर्वोदय के मार्ग पर विचरण करनेवाला अपने जीवन को धन्य बना जाता है । बुद्धि स्वर्ग-नरक आदि परलोक मानने जितनी यदि तैयार न हो, तो भी धर्म की आवश्यकता और उपयोगिता है ही क्योंकि उसका परिणाम प्रत्यक्ष देखा जाता है। जिस प्रकार आहार-विहार का परिणाम शरीर पर स्पष्ट दिखाई देता है उसी प्रकार धर्मचर्या का परिणाम भी मन पर स्पष्ट दिखाई देता है । मन की कलुषित या विकृति दशा का संशोधन अथवा सत्य, संयम, अनुकम्पा आदि भव्य गुणों द्वारा जीवन का संस्करण ही वस्तुतः धर्म पदार्थ है । यह जीवन की स्वाभाविक वस्तु है, यह जीवन की सच्ची स्थिति है, यही सच्चा जीवन है । यह कुछ स्वर्ग-नरक आदि के दार्शनिक तत्त्वज्ञान पर अवलम्बित नहीं है । जीवन की इस सच्ची स्थिति में ही सुख की कुंजी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २४१ रही हुई है । इसके बिना सुख की खोज के सब प्रयत्न व्यर्थ है, और अन्ततः वे दुःख में हीं परिणत होनेवाला है ! जहाँ धर्म की भूख हो वहाँ धर्मशाला का प्रश्न गौण बन जाता है । धर्म की भूखवाला मनुष्य अपनी उस भूख को तृप्त करने के प्रयत्न में ही हमेशा तत्पर रहेगा । वह समझता है कि किसी भी 'शाला' में भूख की तृप्ति की जा सकती है, फिर 'शाला की बड़ाई' हांकने का क्या अर्थ है ? परन्तु मनुष्य को जब दूसरी बातों की तरह इस बात का भी अहंकार होने लगता है तब धर्मशाला के पीछे रहा हुआ धर्मसेवन का उद्देश्य वह भूल जाता है अथवा भुला देता है और धर्म का पूजक मिट कर धर्मशाला का पूजक बन जाता है । भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय पडौसी - जैसे हैं और यदि वे पडौसीधर्म को बराबर समझें तो उन सबके बीच कितना अच्छा मेल जोल हो सकता है ? अपनी 'शाला' की यदि कोई विशेषता हो अथवा उसमें विशेष सुविधा हो तो अपने पडौसियों को वह अवश्य समझायी जा सकती है, परन्तु वह नम्रतापूर्वक तथा उदार वात्सल्याव से । इतना ही नहीं, हम उन्हें उसका लाभ लेने की भी प्रेमभाव से सूचना कर सकते हैं । चाहे कोई 'धर्मशाला' अपनी किसी खास विशेषता के कारण बड़ी क्यों न समझी जाती हो, परन्तु उसके मुसाफिर को यदि भूख ही न हो अथवा वैसी भूख को तृप्त करने में वह सावधान न हो तो किसी भी शाला के निवासी रूप से अथवा किसी भी महाशाला के झण्डाधारी को मुहर लगाने से कोई कल्याण नहीं होने का, जबकि छोटीसी शाला का यात्री भी यदि अपनी भूख को यथावत् तृप्त करता होगा तो वहाँ पर अवश्य ही अपने जीवन का पोषण प्राप्त करेगा और अपना कल्याण साधेगा । वास्तविक धर्म या कल्याणमार्ग सच्चारित्र है । कल्याणसाधन के इस अमोघ साधन को बराबर समझना ही सम्यग्ज्ञान है और इस साधन में बराबर श्रद्धा या विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है तथा उसका सम्यक् पालन ही सम्यक चारित्र है । इस तरह सम्यग्दर्शन (श्रद्धा), सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का विषय सच्चारित्र है । [ यहाँ पर सम्यक्-चरित्र का विषय सच्चारित्र कहा, इसका अर्थ है कि आचरणपालन-आराधन का विषय Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सच्चारित्र है ।] श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के १०९ वें श्लोक की वृत्ति में 'श्रद्धा धर्माभिलाष:' इन शब्दों से श्रद्धा का अर्थ धर्म की अभिलाषा बतलाते हैं । धर्म अर्थात् कर्तव्यमार्ग, और इस मार्ग पर चलने की अभिलाषा ही धर्माभिलाषा है । इस अर्थ से यही सूचित होता है कि श्रद्धा अथवा सम्यक्त्व किसी एक सम्प्रदाय के चौके में ही सीमित हो ऐसा नहीं है । जैनदर्शन हमें यह समझना चाहिए कि धर्म का फल केवल पारलौकिक ही नहीं हैं । अनात्मवादी अथवा परलोक में अश्रद्धालु या सन्दिग्ध किन्तु समझदार मनुष्य धर्म अर्थात् न्याय-नीति के सन्मार्ग पर उत्साहपूर्वक चलता है, क्योंकि वह समझता है कि 'मानव समाज यदि न्यायसम्पन्न सौजन्य - भूमि पर विचरण करने लगे तो उसका ऐतिहासिक जीवन काफी स्वस्थ बन सकता है और यदि मरणोत्तर परलोक होगा तो वह भी ऐहिक जीवन के स्वच्छ एवं सुन्दर प्रवाह के कारण अच्छा और सुखाढ्य ही मिलने का ।' निःसन्देह, धर्म को ऐहिक - प्रत्यक्षफलदायक समझना यथार्थ ही नहीं, अपितु आवश्यक भी है । यदि मनुष्य यहाँ पर देव (दैविक गुणाढ्य ) बने तभी मर कर वह देव हो सकता है । यहाँ पर पशु जैसा जीवन जीने से ही मरणोत्तर पशुजीवन की (तिर्यंच) गति में और यहाँ पर घोरदुष्टतारूप नारकीय जीवन जीने के कारण ही मरणोत्तर नारकीय गति में जीव जाता है । इसी प्रकार इस देह में मानवता के योग्य सद्गुणों का विकास करनेवाला मरकर पुनः मानव जन्म लेता है । इस सबका फलितार्थ यही है कि अनीति-अन्याय-असंयमरूप दुश्चरित्र की हेयता में तथा नीति - न्याय - संयमरूप सच्चरित्र की उपादेयता में विशुद्ध समझ, विशुद्ध विश्वास होने का नाम ही सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व अथवा तत्त्वार्थ श्रद्धान है । इसके विस्तृत प्रचार के प्रभाव से मानव समाज में फैली हुई विलासलम्पटता, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, सत्ताअधिकारवाद, गुरुडमवाद के भयंकर झंझावात के अतिविषम आक्रमण पर संवर्धित अनीति अन्यायअत्याचार व शोषण की भयानक बदी और ऊँचनीचभाव के समाजशोषक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २४३ उन्मादक रोग नष्ट-भ्रष्ट होकर अहिंसा, सत्य, आवश्यक परिमित परिग्रह, समदृष्टि तथा प्राणिवात्सल्य के सर्वोदयसाधक सद्गुणों के आलोक से यह लोक आलोकित होकर स्वर्ग का भी स्वर्ग बन सकता है । शास्त्रों में विशुद्धतत्त्व श्रद्धानरूप अथवा सम्यगदृष्टिरूप सम्यक्त्व की पहचान के लिये पाँच लक्षण बतलाए हैं शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ - हेमचन्द्र, योगशास्त्र, २-१५ अर्थात् - शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यक्त्व की पहचान के पाँच लक्षण है । १. शम-क्रोध, लोभ आदि कषायदोषों को पतला करना तथा कामलालसा को अंकुश में [ समुचित संयम में] रखना । २. संवेग - आत्मकल्याण साधने की उत्कट आकांक्षा । ३. निर्वेद - पापाचरण, अनाचार, अपकृत्यों की ओर घृणाभाव । ४. अनुकम्पा - करूणा - दयावृत्ति | आस्तिक्य-सदाचरण में कल्याण है और दुराचरण में दुर्गति है ऐसी पक्की और सुदृढ़ श्रद्धा । (२२) शास्त्र - हमें यह समझ लेने की आवश्यकता है कि शास्त्र की उत्पत्ति अनुभव में से होती है, परन्तु शास्त्र से सीधा अनुभव नहीं मिलता । शास्त्रोपदेश के योग्य परिशीलन के पश्चात् भी मुमुक्षु जब अन्तर्योग की साधना का मार्ग ग्रहण करता है तब उसके विकास में से, शास्त्रों में से न मिल सके ऐसा अनुभव उसे प्राप्त होता है । इस प्रकार के उज्ज्वल अनुभव में से लोकप्रकाशरूप पवित्र शास्त्रों का सर्जन होता है । इस तरह अनुभव का स्थान बहुत ऊँचा है, शास्त्रग्रन्थ की भूमिका से भी उसका स्थान अत्युन्नत है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन दुनिया में शास्त्रों के प्रवाह कितनी भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में बन रहे हैं । इन शास्त्रों के प्रणेता ऋषियों की भूमिका समान नहीं थी । उन सबकी आन्तरिक निर्मलता तथा समताभाव एकसरीखे नहीं थे । शास्त्रविद्या के महारथी महापुरुष आचार्यों के बीच कितकितने और कैसे-कैसे मतभेद देखें जाते हैं ? और अपने मन्तव्य के बारे में समतुला न रहने पर मताग्रह के अतिरेक के प्रदर्शन में आवेशवश भी दिखाई देते हैं । ऋषि-मुनियों और . आचार्यों के परस्पर खण्डन - मण्डन से भरे हुए शास्त्र कहाँ कम है ? 1 २४४ कहने का अभिप्राय यह है कि शास्त्रमोह से शास्त्र का पूजक न बनकर अपने प्रज्ञारूप प्रदीप को साथ में रखकर के शास्त्रविहार करना चाहिए । इसी में उसका क्षेम है । प्रत्येक समझदार व्यक्ति के लिये शास्त्रजल अथवा उपदेश जल अपने स्वच्छ बुद्धिरूप वस्त्र से छानकर लेने में ही कुशलता है, इसी में उसकी बुद्धिमत्ता है । शास्त्ररूपी समुद्ध में से मोती तो 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ' । इस तरह शास्त्रों से काम लेने का है, परन्तु डूब मरने के लिये किसी एक शास्त्र को कुआँ बनाने की आवश्यकता नही है । आर्ष, पारमर्ष शास्त्रों में ज्ञानसम्पत्ति तथा पवित्र विचारसम्पत्ति बहुत भरी हुई है, किन्तु वे लम्बे भूतकाल के अनेक झंझावातों में से गुजर चुकें हैं यह बात भी शास्त्रों के अवलोकन के समय अपनी सहज एवं तटस्थ बुद्धि या प्रज्ञा के उपयोग को साथ रखने की आवश्यकता सूचित करती है । कोरे 'बाबा वाक्यं प्रमाणम्' से नहीं चल सकता । आजकल के प्रतिभाशाली प्राज्ञों के विचार यदि शास्त्र - परम्परा से विरुद्ध प्रतीत होते हों तो भी उनसे भडक कर उन विचारों को समतापूर्वक समझने का प्रयत्न करना चाहिए और यदि ठीक जँचे तो बतौर एक सत्यशोधक, उन विचारों को अपनी विचारनीधि में समाविष्ट कर लेना चाहिए। किसी के भी विचार जितने अंश में युक्त- उपयुक्त मालुम पड़ते हों उतने अंश में मूल्याङ्कन करना चाहिए । सत्यपूजा अथवा ज्ञानपूजा का यह प्रशस्त लक्षण है । सत्य के लिये शास्त्र है, न कि शास्त्र के लिये सत्य । जो सत्य है, जो विचारपूत अथवा बुद्धिपूत है, जो युक्तिसिद्ध और उपर्युक्त है उसे Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २४५ शास्त्र पलट नहीं सकता, और यदि उसे पलट देने का प्रयत्न करे तो वह स्वयं ही औंध जाय । खतरे में पड़ जाय । जो बुद्धि से अगम्य हो, जो बुद्धि की पहुँच से बाहर हो उसके सामने विरोध करने की शक्यता ही कहाँ है ? उसके बारे में सूझ न पड़े तो भी चुप्पी साधनी पड़ती है । परन्तु यदि कोई तत्त्व बुद्धिविरुद्ध हो अथवा लोकहित के विरुद्ध हो तो उसका, शास्त्र में उल्लेख होने मात्र से, स्वीकार नहीं किया जा सकता । 'बृहस्पतिस्मृति' में कहा है कि केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यों विनिर्णयः । युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ अर्थात् — केवल शास्त्र के आधार पर निर्णय नहीं करना चाहिए, क्योंकि युक्तिविरुद्ध विचार के अनुसरण से धर्म की हानि होती है । शास्त्रपरीक्षा के लिये कहा है यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षण - च्छेदन-ताप-ताडनैः । तथैव शास्त्रं विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलन तपो दयागुणैः ॥ अर्थात् — जिस प्रकार सोने की परीक्षा घर्षण, छेदन, तापन और ताड़न इस प्रकार चार तरह से होती हैं उसी प्रकार शास्त्र की परीक्षा श्रुत, शील, तप और दया (अहिंसा) इन चार गुणों से होती है । (१) जिसमें प्रत्यक्ष तथा बुद्धि से अविरुद्ध ( अबाधित ) ऐसा श्रेयोमूलक श्रुत (तत्त्वज्ञान) हो, (२) जिसमें सदाचार को मुख्य प्रतिष्ठा दी गई हो, (३) जिसमें जीवन के ऊर्ध्वकरण में सहायभूत तप का विधान किया गया हो और (४) जिसमें अहिंसादया का कर्तव्यरूप से विवेकपूर्ण निरूपण किया गया हो वह शास्त्र (आदरणीय शास्त्र ) है । ऐसे शास्त्र द्वारा प्रतिपादित स्वाध्याय - शील-तपअहिंसा का सन्मार्ग ही धर्म है वही कल्याणमार्ग है । यहाँ पर प्रसंगोपात्त यह सूचित करना आवश्यक है— प्रतीत होता है कि कुलाचार के तौर पर भी यदि अच्छा आचरण अथवा अच्छा कार्य होता हो तो वह प्रशंसनीय है, परन्तु समझ के साथ जो सत्कर्म होता है उसका मजा कुछ और ही होता है । कुलाचार से जो जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव है Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनदर्शन 1 उसकी उतनी महत्ता नहीं है, परन्तु जो समझ के साथ बुद्धिपूर्वक जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव है अर्थात् जैनत्व, बौद्धत्व अथवा वैष्णवत्व के उच्च एवं विशुद्ध आदर्श पर जो जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव है वही सच्चा जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव है । क्योंकि जो बुद्धिपूर्वक सन्मार्ग की दीक्षा ग्रहण करता है वह उस मार्ग की परम्परा में कूडा करकट — जैसा जो कुछ जमा होता है उसे दूर करने का विवेक भी दिखला सकता है । ऐसे विवेक से वह असत् तत्त्व को दूर करके अपने जीवन-विकास की साधना के साथ ही साथ सामान्य जनता के सम्मुख भी एक स्वच्छ ज्ञानमार्ग प्रस्तुत करता है । जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि यदि संकुचित मनोवृत्ति के हों तो एकदूसरे से अलग भिन्न-भिन्न मार्गगामी बनते हैं, परन्तु यदि विवेकदृष्टिसम्पन्न और सच्ची कल्याणकामनावाले हों तो भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक नाम रखते हुए भी वे वस्तुतः एक ही कल्याणमार्ग पर विचरनेवाले पथिक हैं ऐसे समभावी, शुद्ध जिज्ञासु, गुणपूजक सज्जन वस्तुतः एक ही मार्ग के सहप्रवासी हैं 'वैष्णव जन तो तेने कहीए जे पीड पराई जाणे रे' इस सुप्रसिद्ध भजन में बतलाए हुए नैतिक सद्गुण जिस प्रकार वैष्णव होने के लिये आवश्यक हैं उसी प्रकार बौद्ध अथवा जैन बनने के लिये भी आवश्यक हैं । इस सद्गुणों को धारण करना ही यदि वैष्णवत्व, बौद्धत्व अथवा जैनत्व हो तो वैष्णवत्व, बौद्धत्व अथवा जैनत्व कोई जुदी वस्तु नहीं रह जाती, किन्तु वह एक ही वस्तु बन जाती है: क्योंकि जिस प्रकार जल, पानी, वारि, वोटर नीर आदि शब्दों का एक ही अर्थ है, अतः जल, पानी, वारि, वोटर, नीर एक ही है, उसी प्रकार वैष्णवत्व, जैनत्व, बौद्धत्व इन सबका एक ही अर्थ है, ( और वह है उन गुणों को धारण करना), अतः जैन, बौद्ध, वैष्णव एक हीं हैं । [वैष्णव, जैन, बौद्धों की भाँति अन्य सम्प्रदायानुयायी धार्मिक भी समाविष्ट है ।] 1 1 १. इन शब्दों के शब्दार्थ का भी एक ही तात्पर्य है । इन्द्रियविजय का अभ्यास करनेवाला जैन, सद्बुद्धि के मार्ग पर विचरण करनेवाला बौद्ध और आत्ममैत्री द्वारा विश्व के समग्र प्राणियों के साथ जो व्याप्त [ सम्मिलित ] होकर रहे वह वैष्णव । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २४७ संसार में दार्शनिक (Philosophical or logical)मन्तव्य सर्वदा भिन्न भिन्न ही रहने के । इसी प्रकार क्रियाकाण्ड की प्रणालिकाएँ भी पृथक्-पृथक् ही रहने की । बौद्धिक क्षयोपशम की भिन्न-भिन्नता के कारण विद्वानों की दार्शनिक विचारधाराएँ एकदूसरे से अलग पड़ती हैं । दार्शनिक विचारधाराओं में से कोई युक्त, कोई अयुक्त, तो कोई युक्तायुक्त हो सकती है, परन्तु क्रियाकाण्ड की बात कुछ निराली है । भगवत्प्रार्थना अथवा आत्मभावना की क्रिया का बाह्यरूप शरीर के अंगोपांगों के साथ बाह्य उपकरणों के साथ तथा दिन-रात के एवं साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक अथवा वार्षिक रूप से पसन्द किए गए समय के साथ सम्बद्ध होकर वह क्रिया सहजरूप से भिन्न भिन्न देश-काल के रंग-ढंग के अनुसार, भिन्न भिन्न मनुष्यों एवं वर्ग की रुचि के अनुसार, हमेशा भिन्न-भिन्न प्रकार की ही रहने की । भिन्न-भिन्नता अथवा वैविध्य बाह्य क्रिया का नैसर्गिक स्वभाव है। यह बात बहुत ही सीधी-सादी है, फिर भी क्रियाभेद के ऊपर जो नाक-भौंह सिकोड कर लड़ने पर तुल जाते हैं वह उनकी भूल हैं। ___ यहाँ पर यह समझ लेने की आवश्यकता है कि दार्शनिक मन्तव्यों अथवा क्रियाकाण्डों की भिन्नता के कारण धर्म में भिन्नता नहीं आ सकती । हजारों मनुष्यों में दार्शनिक मान्यता अथवा क्रियाकाण्ड की पद्धति एक-दूसरे से भिन्न होने पर भी यदि वे सत्य-अहिंसारूप एक धर्म में मानने वाले हों तो वे सब एक धर्म के कहे जा सकते हैं । ____ यह बात स्पष्ट है कि धार्मिकता का नाप धर्म से (जीवन धर्म के निर्मल रंग से जितना रंगा हो उस पर से) होता है, न कि दार्शनिक पटुता अथवा क्रियाकाण्ड के बाह्य आचरण पर से । इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि जीवन का उद्धार एकमात्र धर्म से (अहिंसा सत्यरूप सद्धर्म के पालन से) ही शक्य है, कोरे दार्शनिक मन्तव्यों के स्वीकार से अथवा केवल क्रियाकाण्ड से नहीं । ऐसा होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार के दार्शनिक वादों में से कोई भी वाद यदि किसी मनुष्य की पवित्र धर्म-साधना में सहायक होता हो अथवा किसी पद्धति का क्रियाकाण्ड उसकी पवित्र धर्म-साधना में Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन प्रोत्साहक होता हो तो उस मनुष्य के लिये वे दोनों श्रेयस्कर हो सकते हैं । इस प्रकार धर्म मुख्य मुद्दे की चीज है, जबकि दार्शनिक मतवाद तथा क्रियाकाण्ड का सौष्ठव धर्मपालन में उपयोगी अथवा सहायक होने में ही है । जिसके पवित्र धर्मसाधन में जो तत्त्वज्ञान और जिस प्रकार का क्रियाकाण्ड सहायक हो वह उसके लिये अमृतरूप है । अत: दार्शनिक मन्तव्यों के भेदों अथवा क्रियाकाण्ड की भिन्न भिन्न पद्धियों के उपर से धर्म को भिन्न-भिन्न मान लेने की दृष्टि गलत है, इसलिये वह दूर करनी चाहिए और अहिंसा - सत्य के सन्मार्ग में धर्म माननेवाले सब, चाहे वे लाखों और करोडों हों, एक ही धर्म के हैं— साधार्मिक हैं ऐसा समझना चाहिए । २४८ जीवन का कल्याण शास्त्रज्ञान की विशालता अथवा अधिकता पर अवलम्बित नहीं है । जीवन का कल्याण तो तत्त्वभूत समझ पर दृढ़रूप से अमल करने में है । मोटी बुद्धि के मनुष्य भी अनीति - अन्याय तथा रागद्वेष न करने के उपदेश को जीवन में उतार कर झपाटे में तैर गए है, जबकि बडे-बडे पण्डित, शास्त्री अथवा दार्शनिक तत्त्वदृष्टि का स्पर्श करने में असमर्थ रहने के कारण भवसागर में गोते लगाते रहते हैं ! 'मेरा तो सच्चा' ऐसा नहीं, किन्तु 'सच्चा सो मेरा' ऐसे बोलने में बहुत से लोग चतुराई तो दिखलाते हैं परन्तु व्यवहार में वे पक्ष-मोह से आकृष्ट होकर सच्चा क्या है इसका विचार करने के लिये नहीं रुकते । वे तो 'अपना सो सच्चा और दूसरे का सब खोटा' ऐसे मनोबद्ध पूर्वग्रह से प्रेरित होकर दूसरे को मिथ्यात्वी, कुसंगी' नास्तिक, काफिर आदि कहने में तनिक भी संकोच नहीं रखते । परन्तु यह बडी नासमझी की बात है । जिसे हम अपना आप्तपुरुष मानते हों उसके बारे में श्रद्धाभाव रखें यह स्वाभाविक है, परन्तु वह श्रद्धा अन्धश्रद्धा न होनी चाहिए । वास्तविक आप्तपुरुष के बारे में भले ही श्रद्धा रखी गई हो परन्तु उस श्रद्धा की नींव में विवेक विचार न हो तो वह जागरित एवं अटल श्रद्धा नहीं होगी । जब उस श्रद्धा के पीछे विवेक विचार का बल होता है तभी वह सच्ची और पक्की श्रद्धा बनती है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २४९ हरिभद्राचार्य का 'युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः' [जिसका वचन युक्तियुक्त हो उसी को स्वीकार करना] वाक्य अथवा उसके जैसे दूसरे उद्गार मुंह से निकालने तो सरल हैं । परन्तु जब कोई अपनी परम्परा की युक्तिरहित बात को वैसी (युक्तिरहित) कहे तो क्रोध आ जाता है । और समतापूर्वक उस पर विचार नहीं किया जाता । इसी प्रकार अन्य परम्परा की युक्तियुक्त बात को स्वीकार करने में मन हिचकिचाता है । यदि हमारी ऐसी स्थिति हो तो हरिभद्राचार्य की उपर्युक्त उदार सूक्ति का हमने आदर अथवा उस पर अमल किया यह कैसे कहा जायगा ? आचार्य हरिभद्र एक विद्वान ब्राह्मण और दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । जैनधर्म स्वीकार करके वे जैनशासन के महान् प्रभावक आचार्य बने थे । उन्होनें पक्षपातो न वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ [लोकतत्त्वनिर्णय ३८] ऐसा कहकर स्पष्टरूप से उद्घोषित किया है कि यद्यपि मैं भगवान् महावीर का अनुयायी हूँ, फिर भी मुझे भगवान् महावीर की ओर न तो पक्षपात ही है और कपिल आदि अन्य सम्प्रदायों के पुरस्कर्ता महर्षियों की ओर न द्वेषभाव ही । अमुक वचन भगवान् महावीर का है इसी लिये तुम उसे मानो और अमुक वचन महर्षि कपिल आदि का है इसलिये उसे फेंक दो-ऐसा मेरा कहना नहीं है । वचन चाहे जिसका हो, वह किसका है यह बात तुम भुल जाओ, परन्तु उस पर तुम विचार करो, उसे बुद्धि की कसौटी पर कसो और वह युक्तिसंगत प्रतीत हो तभी उसका स्वीकार करो, ऐसा मेरा कहना है ।। इस महान् आचार्य के कहने का तात्पर्य यह है कि 'मेरा सो सच्चा' ऐसा पक्षपात अथवा पूर्वग्रह छोड़कर सुसंकृत एवं मध्यस्थ बुद्धि से परीक्षा करने पर 'जो सच्चा सो मेरा' ऐसा स्वीकार करने जितनी विशाल भावना विकसित करो, जिससे साम्प्रदायिक मूढ़ता दूर हो और हृदय विशाल, निष्पक्षपात एवं सत्यग्राही बने, अस्तु । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनदर्शन यहाँ पर हमें यह जान लेना उपयोगी होगा कि मानव-जीवन के सर्वांगीण विकास के लिये बुद्धि ( जो कि ज्ञान का स्थान है) और हृदय (जो कि श्रद्धा का स्थान है ) इन दोनों का सामञ्जस्य आवश्यक है । ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । बुद्धि यदि कर्तव्यमार्ग सूझाती है तो हृदय उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा करता है । हृदय के बिना बुद्धि निष्क्रिय है और बुद्धि के बिना हृदय दिग्भ्रान्त है । बुद्धि और हृदय इन दोनों के सुमेलसामञ्जस्य से ही जीवनयात्रा चल सकती है। चारित्रमार्ग में ज्ञान की अपूर्णता को श्रद्धा द्वारा पूर्ण करके आगे बढ़ा जा सकता है । जैसेजैसे अनुभवज्ञान का क्षेत्र बढ़ता जाता है वैसे-वैसे श्रद्धा का क्षेत्र कम होता जाता है—यद्यपि श्रद्धा की घनिष्ठता बढ़ती ही जाती है । और जब अनुभवज्ञान अपनी पूर्णता पर पहुँचता है तब श्रद्धा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोकर अनुभवज्ञान में विलीन हो जाती है । जब किसी भी वस्तु के अस्तित्व के बारे में अथवा किसी कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में सन्देह के लिये किंचित् भी अवकाश रहता हो तब श्रद्धा रखने-न-रखने का प्रश्न उपस्थित होता है, परन्तु जब उस बात का प्रत्यक्षरूप से अथवा प्रयोग द्वारा अनुभवज्ञान होता है तब श्रद्धा रखने - न-रखने का प्रश्न नहीं रहता । (२३) वैराग्य : संसार यह कुछ ईंट-पत्थर का मकान नहीं है । माता-पिता-बन्धु अथवा मित्र ये संसार नहीं है। वह बाग-बगीचे अथवा द्रव्य-सम्पत्तिरूप नहीं है । वह उद्योग अथवा प्रवृत्तिव्यापाररूप नहीं है । संसार इनमें से किसी में नहीं है । अतएव इन सबके त्याग से संसार का वास्तविक त्याग होता हो ऐसा समझना योग्य नहीं है । मनुष्य का वास्तविक संसार उसके हृदय मेंमन में है । ऐसे मन के साथ वह बस्ती में रहे अथवा जंगल में रहे-कहीं भी रहे उसका संसार उसके साथ ही होता है । वासना (मोह-वासना, क्लेशवासना) ही संसार है । इस वासना से जीव जबतक आक्रान्त होता है तबतक, फिर वह चाहे गृहस्थ-अवस्था में हो अथवा सन्यासी अवस्था में, वह Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ तृतीय खण्ड भवभ्रमण के फन्दे में फँसा हुआ है । मनुष्य स्थूल पदार्थों का त्याग करके चाहे उन सबसे दूर-सुदूर चला जाय, उन सबसे भले वह भाग खड़ा हो, परन्तु अपने चित्त से वह कैसे दूर जा सकता है ? अपने चित्त से-वासनामय चित्त से वह भाग नहीं सकता । और जबतक वासनामय चित्त है तबतक उसके साथ संसार चिपका हुआ ही है । संसार की सच्ची रंगभूमि प्राणी के अन्तःप्रदेश में है । बाहर तो केवल उसके आन्तरिक भावों का स्थूल प्रकटीकरण ही है। अनीति-अन्याय तथा स्वार्थान्धता आदि दोषों का धाम राग है, अतः उसे दूर करने पर जो वैराग्यभाव प्राप्त होता है वह मनुष्य को उदार, सत्याचरणी, विवेकदृष्टि और वत्सल (स्नेहार्द्र) प्रकृति का बनाता है । रागवासना जैसे-जैसे हटती जाती है और उसके परिणामस्वरूप वैराग्य का सात्त्विक भाव जैसे जैसे खिलता जाता है वैसे वैसे मनुष्य त्यागी और परोपकारपरायण बनता है, वैसे-वैसे उसकी लोक-बन्धुता की भावना विकसित होती जाती है । त्याग और परोपकारभाव उसके स्वभाव बन जाते हैं और इन्हीं में वह आनन्दित रहता है । वैराग्य में [शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से] रागवासना को दूर करने का ही मुख्य भाव है। अत्यन्त कठिन और प्रखर प्रयत्नों से साध्य यह वैराग्य उतनी ही स्थिर और ज्वलन्त विवेकदृष्टि पर अवलम्बित है । इस दृष्टि में यदि तनिक भी मन्दता आई तो तुरन्त ही वैराग्य दूध की भाँति फट जायगा । जाज्वल्यमान विवेकदृष्टि पर चमकता हुआ वैराग्य मानवसमूह के बीच, बागबगीचे और मकानों में तथा भोजन-पान के अवसर पर सदा अबाधित रहता है । अर्थात् मकान में रहने पर, भोजन-पान लेने पर और मानवसमूह के बीच रहने पर भी उसका वैराग्य अक्षण्ण बना रहता है, जबकि ऊपर-ऊपर से बड़ा त्यागी-तपस्वी दिखाई देनेवाला वनवासी अथवा संन्यासी मोहवासनाओं में लिप्त हो सकता है । सच्ची वैराग्यदृष्टि प्राप्त होने पर उपलब्ध सुख-सामग्री १. वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां ग्रहेषु पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनदर्शन में उलझानेवाली आसक्ति से हम बच सकते हैं । राग में बद्ध होकर एक स्थान पर चिपके रहना, उन्नति तथा विकास के मार्ग पर प्रकृति के महानियम के अनुसार आगे और आगे न बढ़ कर एक ही प्रदेश में अथवा एक ही पदार्थ में व्यामोह - वश लिपटे रहना निःसन्देह वैराग्य के विरुद्ध है । व्यामोहवश को हटा करके ऊपर उठने में वैराग्य है । विश्व के वातावरण को अमृतमय अथवा I विषाक्त बनाना हमारी अपनी दृष्टि कला पर अवलम्बित है । विष वस्तुतः मनुष्य के विकृत मानस में है और इसी कारण वह अपने चारों ओर विष ही देखता है और विष ही फैलाता है । मधुर एवं प्रसन्न मन (विचार दृष्टि सर्वत्र अमृत की वृष्टि करता है, उसे सर्वत्र अमृत ही अमृत की ही अनुभूति होती है । आत्मकल्याणरूप उन्नतिमार्ग में पदे पदे आनन्द ही आनन्द, रस ही रस भरा है । ऊर्ध्वगामी आत्मा अपने उन्नत विहार में उस रस और आनन्द में मस्त रहकर उन्नति के समुन्नत शिखर पर, परमपद की स्थिति पर पहुँच जाती है । रस के मोह-राग में लिपट जाना पामरता है, परन्तु जो रस का स्वामी बनकर निर्बन्धभाव से रस का उपभोग करता है, जिसे भौतिक रस की अपेक्षा आत्मविकास के सन्मार्ग में उपलब्ध होनेवाले आनन्दरस की चोट लग गई है वही सच्चा मर्द है । एसा वीर मनुष्य सांसारिक धरातल से बहुत ऊपर उठा हुआ होता है । वह अपने सच्चे सात्त्विक समुन्नत वैराग्यरस में अनुपम आनन्द लूटता है और विश्व के अन्धकार पीड़ित मनुष्यों के लिये तूफानों के बीच एक प्रकाशस्तम्भ जैसा बन जाता है । उपर्युक्त विवेचन से यह सहज ही समझा जा सकता है कि वैराग्य का उपदेश मनुष्यों को आलसी और निष्क्रिय नहीं बनाता अथवा निष्क्रिय बनने के लिये नहीं कहता । वह तो उसे अहिंसा एवं सत्य के पाठ सिखाता है । इस प्रकार के शिक्षण द्वारा वह उसे प्रामाणिक, सत्यवादी, परोपकारशील तथा सेवाभावी बनाता है । परोपकार अथवा सेवाभाव की इतिश्री वाणी में ही नहीं होती । सन्तजन भी अपने शरीर द्वारा भी उसका आनन्द लूटने में सदा उद्यत रहते हैं । सच्ची दृष्टि खुल जाने पर महाभाग्यशाली को समझ में आता है कि सब जीव एक हैं अर्थात् एकरूप हैं । ऐसी दिव्यदृष्टि १. 'एगे आया' – ठाणांग, सूत्र दूसरा । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २५३ उपलब्ध होने पर वह दूसरे को सुखी देखकर प्रमुदित होता है और दूसरे को दुःखी देखकर उसका हृदय करुणा से आर्द्र हो जाता है । इस तरह वह समग्र आत्माओं के साथ अभेदानुभव करता है । यह अभेदभावना जब परम उन्नत अवस्था पर पहुँचती है तब आत्मा विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच कर अपना मूल (परमात्म) स्वरूप प्राप्त करता है । (२४) मुक्ति : संसारी (कर्मावृत) जीव जब तक संसार में (कर्मावृत दशा में ) है तबतक वह अकेला नहीं है । शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि इन सबसे-अपने इस परिवार से वह सतत घिरा हुआ है । अतः यह स्पष्ट है कि इन सब अंगो के विकास में जीव का-जीव के जीवन का विकास है । इन सब के आरोग्यसम्पन्न होने में जीवन की आरोग्यसम्पन्नता है । इन सब की हीनता अथवा अल्पता में जीवन की भी हीनता अथवा अल्पता है । अतः इन सब विकृतियों से अर्थात् बुरी आदत, बुरा झुकाव, बुराविचार, रोग, निर्बलता, भीरुता, आलस, जड़ता, हृदय की कठोरता, विलासिता, कार्पण्य, अभिमान, लोभ-लालच, दम्भ, वहम, गुलामी आदि विकारों से मुक्त होना सर्वप्रथम आवश्यक है । यह प्राथमिक मुक्ति की साधना है। [अंगविकलता की यदि अनिवार्य हालत हो तो उस बात को न लेकर] शरीर, हृदय, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को उनके दोषों से मुक्त करने का यथाशक्य प्रयत्न करना वस्तुतः मुक्ति का ही प्रयत्न है । यह प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की मुक्ति सच्चे ज्ञान-शिक्षण के प्रभाव से मिलती है; अथवा जो ज्ञान, शिक्षण इस प्रकार की मुक्ति की साधना में उपयोगी होता है वही वास्तविक ज्ञान है, वही वास्तविक शिक्षण है । 'सा विद्या या विमुक्तये'-यह प्राचीन आर्ष सूत्र कहता है कि वही विद्या है जो बन्धनों से मुक्त करे; अर्थात् जो आर्थिक, सामाजिक राजकीय, तथा बौद्धिक दासता में से छुडाकर मनुष्य को बलवान्, विवेकी, प्रवृत्तिशील, परोपकारपरायण तथा सद्गुणी बनाए वही विद्या है । इस प्रकार की मुक्ति का सम्बन्ध अन्तिम आध्यात्मिक मुक्ति के साथ है । जो शिक्षण विचारों को सुधारने में सहायक न हो, जो इन्द्रिय एवं मन को बस में रखना न सिखलाए, जो निर्भयता एवं स्वाश्रय के पाठ न पढ़ाए, जो निर्वाह Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनदर्शन का मार्ग उन्मुक्त न करे, जो स्वातन्त्रय की भावना प्रदीप्त न करे, जो इस भावना को प्रज्वलित रखने में प्रेरक न बने उस शिक्षण में चाहे जितनी जानकारी क्यों न भरी हो, परन्तु वस्तुतः वह अर्थसाधक शिक्षण नहीं है । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की मुक्ति जो प्रदान करे अथवा उस प्रकार की मुक्ति के मार्ग की ओर जो ले जाय वही वास्तविक शिक्षण है । ऐसे उज्ज्वल शिक्षण के द्वारा जो जीवनविकास सधता है वही जीवनमुक्ति की साधना है, जो अन्ततः परममुक्ति की समर्पक होती है । मुक्ति के अनुसन्धान में कुछ और भी देखें । कल्याणसाधना की पूरी सफलता तभी है जब मनुष्य सर्वज्ञता प्राप्त करे । सर्वज्ञता क्या है ? अनन्तकाल की सब वस्तुओं की सब अवस्थाओं का एक साथ प्रत्यक्ष करना यह सर्वज्ञता की प्रचलित परिभाषा है । इसका आधार लेकर मनुष्य सोचने लगता है कि भविष्य की सारी घटनाएँ तो सर्वज्ञ के ज्ञान में पहले से निश्चित है, इसलिये मैं प्रयत्न करके भी उन्हें बदल नहीं सकता । इस प्रकार वह एकान्त दैववादी और अकर्मण्य बन जाता है। यह जीवन की बड़ी से बड़ी विफलता है । 'काल' आदि द्रव्यों और वस्तुगत पर्यायों को अनन्त मानकर भी उनका इस तरह की सर्वज्ञता से अन्त भी मान लेना यह अद्भूत सी बात कई तार्किक मेधावियों को हृदयङ्गम नहीं होती । विश्वकल्याण के प्रत्येक कर्तव्य का पूर्ण प्रत्यक्ष-ज्ञान, जिसका उत्तुङ्ग शिखर प्रखर प्रयत्नशाली प्राणवान् महात्मा ही पा सकता है, कोई कम सर्वज्ञता नहीं है। मनुष्य का परम और चरम ध्येय सुख है, पर वह सुख या आनन्द तबतक पूरा प्राप्त नहीं होता जबतक मुक्ति नहीं मिल जाती । दर्शन, स्पर्शन आदि का काम-सुख जीवन में प्रचलित ही है और देहयात्रा में अनिवार्य भी है, फिर भी वह सुख अधूरा है। उसे मुक्ति-सुख से ही पूरा किया जा सकता है । मुक्तिसुख सुख का भीतरी स्त्रोत है जो बाहर के दु:ख के समय भी बहता रहता है और बाहर के दुःख की ज्वाला को बुझाता रहता है । बाहर के सुख Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड २५५ में - काम- सुख में तृष्णा का दाह हो सकता है, तुलनात्मक दृष्टि से न्यूनता की वेदना हो सकती है, पर मुक्तिप्राप्त मनुष्य न तृष्णा का शिकार होता है, न तरतमता से पैदा होनेवाले दैन्य या अहंकार का । वह अन्तर्द्रष्टा महावीर तो खिलाड़ी की तरह जीवन के सारे खेल खेलता है । मुक्ति तो इसी जीवन में मिलनेवाला आत्मा का परमोत्कर्ष है । मरने के बाद जो मुक्ति की प्राप्त मानी जाती है वह तो इस जीवन्त देह में सिद्ध की गई मुक्ति की पुनरुक्ति मात्र है । सत्यमय जीवन से प्राप्त होनेवाली ऐहिक मुक्ति है— अखंड आनन्द का अन्तःस्त्रोत, जो सदा और सतत बहता रहता है, न अमीरी से सूखने पाता है और न गरीबी से । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड कर्मविचार [१] प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने कृत्यों के लिये उत्तरदायी है, परन्तु समाज के सामुदायिक कृत्यों का परिणाम भी समाज को-समाज के सब व्यक्तियों को भोगना पड़ता है, अरे ! भविष्य के वंशजों को भोगना पड़ता है । उदाहरणार्थ, हमारे पूर्वजों की पारस्परिक फूट के कारण भारत पराधीन हुआ जिसका फल उनके वंशजों को हमें भोगना पड़ा । और अब राजकीय स्वातन्त्र्य-स्वराज्य मिलने पर भि रिश्वत, काला बाजार आदि अनेक देशद्रोही प्रवृत्तियों का बाजार खूब गरम है जिससे देश की निर्दोष जनता आर्थिक शिकंजे में फँसकर खूब तकलीफ उठा रही है। 'जो जैसी करनी करे सो वैसा फल पाए' यह कर्मवाद का सनातन नियम है। कर्मवाद के ज्ञान का सच्चा उपयोग किसी भी कार्य के प्रारम्भ के समय करने का है । अच्छे काम का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा-यह नियम यदि बराबर ध्यान में रखा जाय तो मनुष्य अशुभ कार्य करने से डरे, उससे हिचकियाए और सत्कार्य करने की ओर ही प्रोत्साहित रहे । पहले किए हुए दुष्कृत्यों का जब कटुफल चखने का समय आए तब विचार करने के लिये अथवा रोने-धोने के लिये बैठना निरर्थक है । यह तो "फिर पछताए क्या होता है जब चिडीया चुग गई खेत' जैसा है। परन्तु इस कटु अनुभव के पश्चात् यदि पश्चाताप की भावना हो, और उसमें से भविष्य के लिये शिक्षा ग्रहण करके तदनुसार चलने की तत्परता हो तो अवश्य वह कल्याणकारी हो सकता है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ चतुर्थ खण्ड परन्तु सच्ची बात तो यह है कि सर्प, विष आदि की भयानकता तथा उनकी दुःखकारकता में हमें जितना विश्वास है उतना दुष्कृत्य की भयानकता में नहीं है । उतना विश्वास अनीति-अन्यायरूप पापाचरणों की भयानकता एवं दुःखकारकता में उत्पन्न होना चाहिए । ऐसा विश्वास जब उत्पन्न हो तभी कर्मवाद में यथार्थ श्रद्धा पैदा हुई है, ऐसा समझा जायगा ।। 'कर्मवाद का सिद्धान्त सच्चा है'—ऐसा मुँह से बोलना तो ठीक है, परन्तु समय पर इस नियम का जानबूझकर अनादर करना वस्तुतः कर्मवाद पर की अश्रद्धा सूचित करता है, अथवा भविष्य में मिलनेवाले कटु फल की अपेक्षा तात्कालिक भौतिक लाभ विशेष अच्छा लगता है ऐसा प्रकट करता है । किसी समय परिस्थितिवशात् लाचारी से अथवा किसी के अनिवार्य दबाव के कारण कर्मवाद के नियम की यदि उपेक्षा करने के लिये विवश होना पड़े तो उस समय भी कर्मबन्ध होता ही है, परन्तु उसके स्थिति और रस अल्प होते हैं ।। [२] उदय में आए हुए कर्म को समतापूर्वक-समभाव से भोग लेने में ही बुद्धिमता है । इस तरह उन्हें भोग लेने से वे कर्म समाप्त हो जाते हैं और नये दुःखद कर्मों का बन्ध नहीं होता । परन्तु जब कर्म के सुखभोगरूप फल का आसक्तिपूर्वक उपभोग किया जाता है और दुःखभोगरूप फल दुर्ध्यान से सहे जाते हैं तब दूसरे नये कर्मों का बन्ध होता है । अतः सुखभोग के उदयकाल में सुखभोग में लिप्त न रह कर अर्थात् अनासक्तभाव से समभाव पूर्वक उदय में आए हुए इन कर्मों का सुखोपभोग कर लेने से तथा दु:खद स्थिति के समय हिम्मत से मन में शान्ति रख कर दुःख को (उदय में आए हुए असातकर्म को) सह लेने से वह (उदयागत) कर्म इस तरह क्षीण हो जाता है कि उसके अनुसंधान में नये अशुभ कर्म. नहीं बँधने पाते । कर्मयोग से भोगसामग्री उपस्थित होने पर भी उसमें आसक्त होना या न होना, अथवा मोहविकार के वश होना या न होना यह आत्मा के अपने सामर्थ्य की बात है । 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनदर्शन धीराः ।' अर्थात् जो विकार की सामग्री उपस्थित होने पर भी विकार के वश नहीं होते वे ही धीर हैं । षड्रस से युक्त भोजन जीभ पर बलात्कार करके जबरदस्ती मुँह में नहीं घुसता । श्रुति-मनोहर राग हमारे कानों में जबरदस्ती घुस कर हमें लुब्ध नहीं करता । इसी प्रकार इन्द्रियों के सब विषय आत्मा की अनिच्छा होने पर जबरदस्ती उसे भोग में नहीं खींचते । इन्द्रियों के विषय में जबरदस्ती कर के नहीं लिपटते, तो भी उनके भोग (स्थूल भोगोपभोग) सामान्यतः देहधारी जीवनयात्रा के साथ अनिवार्यरूपेण संयुक्त हैं । ऐसा होने पर भी ध्यान में रखने योग्य बात तो यह है कि जबतक स्वयं आत्मा लुब्ध न हो तब तक स्थूल भोग में विलासवृत्ति का उदय बलवान नहीं हो सकता । और उस विलासवृत्ति में लुब्ध होना या नहीं यह आत्मा की अपनी शक्ति की बात है । मतलब यह कि कर्मोदय में रसवृत्ति रखना और ज्ञानबल से रसवृत्ति दूर करना--यही कर्मोदयजन्य विकार को पराजित करने का उपाय है। भोग की सामग्री उपस्थित होने पर भी यदि मनुष्य अपने आन्तरिक सामर्थ्य के बल पर दृढनिश्चयी होकर अपने आसन पर से चलित न हो तो भोगसामग्री अपने आप उससे लिपटेगी क्या ? कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपने दृढ मनोबल का उपयोग करके भोग में अपने आपको जोड़ने से दूर रह सकता है । परन्तु यदि वह धीरज खो बैठे तो भोग में फिसला ही समझो ! ऐसी स्थिति में इसका दोष कर्म के मत्थे मढ़ने की अपेक्षा अपनी आत्मिक निर्बलता के ऊपर डालना ही अधिक औचित्ययुक्त और संगत है। अनेक ज्ञानीजनों के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि भोजनपानादि का उपभोग करने पर भी उन सबमें वे जाग्रत-अनासक्तभाव से विचरण करते हैं जिससे कर्म-बन्ध के बाधाकारक संयोगों से विमुक्त रहते हैं । न्याययुक्त, औचित्ययुक्त उपयोगी भोग यदि समतापूर्वक किया जाय, जाग्रत रह कर किया जाय तो उसमें कुछ डरने-जैसा नहीं है यह हम ध्यान में रखें । १. कालिदास के 'कुमारसम्भव' के प्रथम सर्ग के उपान्त्य श्लोक का उत्तरार्ध । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २५९ __[३] समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपना भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक हित साधने की स्वाधीनता होनी चाहिए, परन्तु इसके साथ ही उसे सामाजिक नीति-न्याय के नियमों के बन्धन भी मान्य रखने चाहिए । जो सामाजिक रूढियाँ न्याय एवं नीति के अनुकूल हों उनका पालन सामाजिक सुव्यवस्था के लिये आवश्यक है । परन्तु जो सामाजिक रूढियाँ अज्ञानजनित एवं विवेकहीन हों, अपने उत्पत्तिकाल में चाहे जिस परिस्थिति में उत्पन्न हुई हों पर वर्तमान काल में अनुपयोगी, असंगत एवं हानिकारक हों-कुरूढियों में गिनी जा सके ऐसी हों, और जिन रूढियों को निकाल देने से सामाजिक व्यक्तियों के सुख में अभिवृद्धि होती हो अथवा कुछ दुःख तो कम होते ही हों, फिर भी ऐसी कुरूढियों से अज्ञान अथवा दुराग्रहवश समाज यदि जोंक की तरह चिपका रहे तो उससे उस समाज के व्यक्तियों को दुःख उठाना पड़ता है । उस समय जिन्हें ऐसा दुःख उठाना पड़ता है उन्हे कोई कहे कि यह दुःख तो कुरूढियों के कारण नहीं किन्तु पूर्वकृत कर्म के कारण हैं, अतः ऐसा दुःख सिर झुकाकर सह लेना चाहिए, तो ऐसा कथन उन्हें अफीम देकर उसके नशे में सुला देने जैसा है। ऐसी परिस्थिति में प्रत्यक्ष दोष इन कुरूढियों का है । जिस प्रकार काँट चभने से होनेवाली वेदना काँटे के कारण होती है उसी प्रकार कुरूढि के आक्रमण से होने वाली पीडा और दुःख कुरूढि के कारण हैं, और इस तरह के दुःख के उत्तरदायी इन कुरूढियों के प्रचारक एवं पोषक ही हैं अतः संगठनशक्ति के न्यायपूत आन्दोलन से ऐसे लोगों का सामना करके कुरूढि के दुःखद तथा अवनतिकारक वातावरण को मिय देना चाहिए । ऐसा होने से पूर्वकर्म जनित कुरूढिरूप हथियार का बल विनष्ट हो जायगा। जो बात कुरूढियों को लागू होती है वही बात दरिद्रों का शोषण करनेवाले पूँजीवाद तथा दुर्बल जातियों का शोषण करने वाले साम्राज्यवाद को भी लागू होती है । इसी प्रकार अत्याचारियों की ओर से निर्दोषों के ऊपर गुजारे जानेवाले अत्याचारों को तथा सत्ताधीश वर्ग की ओर से दलितों को मानवोचित सुविधा प्रदान न करके उन्हें दबाए रखने के प्रयत्नों को भी लागू होती है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनदर्शन [४] संसारवर्ती जीव की किसी भी जीवनघटना के पीछे सामान्यतः पूर्वकर्म का कारण रहा हुआ है । अतः जब कोई भौतिक, शारीरिक या आर्थिक आपत्ति आए तब उसके पीछे पूर्वकर्म का बल कार्य करता ही है । ऐसा होने पर भी इस प्रकार की आपत्ति को जानबूझ कर लानेवाला मनुष्य ऐसी आपत्ति लाने के अपने अपराध से बच नहीं सकता । ऐसे अपराध के लिये उसे वहाँ पर सजा मिले या न मिले, परन्तु प्रकृति की (कार्मिक शासन की) सजा से वह बच नहीं सकता । किसी मनुष्य की हत्या में उस मरनेवाले का अथवा किसी को लूट लेने में उस लुटे जानेवाले का पूर्वकृत कर्म तो काम करता ही है, तो भी हत्या करनेवाला अथवा लूटनेवाला हत्या अथवा लूट के अपराध के लिये निःशंक उत्तरदायी है। ऐसे अपराधी जिस प्रकार यहाँ पर दण्ड के पात्र हैं उसी प्रकार कुदरत (कर्म) की सजा भी उन्हें मिलती है । ऐसे खूनी अथवा लुटेरे मरनेवाले या लुटे जानेवाले के भाग्य का कारण दिखाकर अपनी सफाई नहीं दे सकते । धार्मिक सिद्धान्त की दृष्टि से अथवा न्यायशास्त्र के कानून की दृष्टि से भी इस तरह उनका बचाव नहीं हो सकता । इस प्रकार मरनेवाले अथवा लुटे जाने वाले के भाग्य का कारण दिखाना कितना ही वास्तविक क्यों न हो फिर भी इन खूनी और लुटेरे के पक्ष में तो ऐसा कहना वस्तुतः पूरा--औद्वत्य ही है। ऐसी उद्दण्डता कुछ काम नहीं आती और उन्हें कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है ! यहाँ पर हमें यह समझ लेना भी उपयुक्त होगा कि अपराध अपराध में फर्क होता है । जो अपराध तुच्छ एवं सामान्य प्रकार का हो अथवा जिसके विरुद्ध योग्य प्रतीकार की शक्यता न हो उस अपराध के बारे में मन में वैरवृत्ति प्रज्वलित रखने से कोई लाभ नहीं है । पुराने वैरभाव को निरर्थक याद करके विरोधवृत्ति अथवा कषायभाव का विष पुनः जगाने में कोई सार नहीं है । इस लिये विवेकबुद्धि को जागरित करके उस अपराधी की और वैरवृत्ति न रखकर उस समय कर्मसंस्कार के बल का (कर्मवाद के सिद्धान्त का ) विचार करना उपयुक्त है । ऐसे समय इस प्रकार का विचार करके समभाव धारण करना उपयोगी और हितावह है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २६१ परन्तु यदि कोई तुम्हें मारने के लिये आए और तुम उसका प्रतीकार करो तो तुम वैरभाव रखते हो ऐसा कोई नहीं कहेगा । दिए हुए पैसे वापिस न मिलने पर यदि तुम दावा करो तो तुमने वैर लिया ऐसा कोई नही कह सकता । कोई तुम्हारी चीज उठाकर ले जाय और उसकी रक्षा के लिये तुम प्रयत्न करो तो तुम उसके विरुद्ध वैरभाव रखते हो ऐसा कौन कह सकता है ? ऐसे अवसरों पर तुम शेठ, चोर, ठग, झुठे, लुच्चे, अथवा गुण्डे का योग्य सामना करो तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है--धर्मशास्त्र की दृष्टि से भी । कर्म के उदय में तथा कर्म के उदय को दुर्बल बनाने में भी योग्य उद्यम को अवकाश है, ऐसा कर्मशास्त्र मानता है । जीवनयात्रा में योग्य उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है ऐसा वह असन्दिग्धरूप से मानता है और जोरों से इसका समर्थन भी करता है । गई हुई-खोई हुई वस्तु प्राप्त करने में उद्यम उपयोगी हो सकता है । बीमार पड़ने पर हम दवाई करते ही है। हम सब सुख एवं सुख के साधन प्राप्त करने के लिये तथा दुःख एवं दुःख के मार्ग से दूर रहने के लिये अथवा आए हुए दुःख को दूर करने के लिये सर्वदा प्रयत्न करते ही रहते हैं । समग्र विश्व की ऐसी ही प्रवृत्ति है । स्वरक्षा, पररक्षा, न्याय की प्रतिष्ठा के लिये योग्य प्रतीकार के कार्य वैरवृत्ति से किए जाते हैं, ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता । श्रीरामचन्द्रजी द्वारा रावण का किया गया सामना न्याय था । कोई डाकू चीज तुम्हारी कोई चीज उठा जाय और तुम कायर बन कर बैठे रहो, उसकी ओर आँखें फाडकर देखते रहो, मन ही मन जलते रहो तो यह बुजदिली है । अवश्य, तत्कालीन परिस्थिति का नाप निकालना आवश्यक है और तदनुसार उचित प्रयत्न करना ही योग्य समझा जायेगा । क्योंकि-- 'अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभाति लोके । अर्थात्-थोड़े के लिये बहुत खोने की इच्छा रखने वाला मनुष्य विचारमूढ ही है। १. कालिदास के रघुवंश के दूसरे सर्ग के ४७वें श्लोक का उत्तरार्ध-स्थानपूर्ति के लिये अन्तिम दो अक्षर दूसरे रखकर तथा 'सि' के स्थान पर 'ति' लगाकर । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनदर्शन [५] भाग्य अज्ञेय होने से मनुष्य के हाथ में तो उद्यम करना ही बाकी रहता है । जिस प्रकार खोदने पर जमीन में यदि पानी हो तो निकलता है, उसी प्रकार यदि भाग्य में हो तो उद्यम द्वारा उपलब्ध होता है । सद्बुद्धि की पवित्र रोशनी से युक्त प्रयत्नशीलता मनुष्य की वर्तमान दुर्दशा को नष्ट कर उसके लिये सुख के द्वार खोल देती है । इसी तरह वह अशुभ कर्मों के भावि आक्रमणों पर भी बराबर प्रत्याक्रमण का कार्य कर सकती है। यह उद्यम की महिमा है । मतलब यह है कि कर्मवाद के नाम पर निर्बल या निराश न होकर और आत्मा के सामर्थ्य की सर्वोपरि महत्ता को ध्यान में रख कर मनुष्य को यथाशक्य पुरुषार्थशील बनना चाहिए । आया हुआ दुःख किसी तरह दूर न हो और वह भोगना ही पड़े तो कायरता के साथ रोते-रोते भोग कर नए अशुभ कर्मो का उपार्जन करना इसकी अपेक्षा प्रशस्त समभाव से ही सह लेने में मनुष्य की सच्ची समझदारी और मर्दानगी है । ऐसे समय में मन को स्वस्थ रखने का बल कर्मवाद देता है; क्योंकि वह सूचित करता है कि अवश्यम्भावी कर्म किसी को नहीं छोड़ता । बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उसके फलविपाक में से छूट नहीं सका है। हमें यह जान लेना चाहिए कि दुःख और कष्ट स्वतः नहीं आते । हमारे बोए हुए ही वे उगते हैं । अतः उन्हें दूर करने का यथाशक्य प्रयत्न करने पर भी जितनी मात्रा में वे सहने पड़े, बराबर शूरतापूर्वक (आध्यात्मिक वीरता के साथ) हम-सह लें। इस प्रकार कष्ट सहन करने से नए दुःखद कर्म नहीं बँध पाते । और साथ ही उतना बोझ कम हो जाता है । जीवन प्रवाह शुभ एवं निष्पाप रुप से बहता रखने से नए अशुभ कर्म बंधने नहीं पाते । इसका परिणाम यह होता है कि जीवनप्रवाह उत्तरोत्तर सुखी एवं उज्ज्वल होता जाता है । यह तो स्पष्ट ही है कि अनीति, विश्वासघात अथवा दुराचरण से खराब कर्म बँधने का (बुरे भाग्य के निर्माण का) और सच्चाई, सेवा, संयम के सद्गुणों के पालन से शुभ कर्म बँधने का (सद्भाग्य के निर्माण का) सिद्धान्त' (अर्थात् कर्मवाद्) मनुष्य को १. पूर्वजन्म में किए हुए कर्मों का फलोपभोग जिस प्रकार हम इस जन्म में करते हैं उसी प्रकार इस जन्म में किए हुए कर्म भी इसी जन्म में फल दे सकते हैं । यह Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २६३ सदाचारी बनने के लिये प्रेरित करता है । यह सदाचार की भावना लोकव्यवस्था तथा समाज-जीवन के स्वास्थ्य के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है । [६] मनुष्य जब रोगी होता है, पैसा गँवाता है अथवा दूसरी ऐसी किसी आपत्ति में फँसता है तब वह अपने कर्म को दोष देता है । पूर्वजन्म के कर्म के सीधे प्रभाव के कारण ही यदि ऐसी स्थिति पैदा हुई हो तो इस तरह कहना उचित है । परन्तु ऐसे समय भी उस कष्ट के निवारण के लिये योग्य प्रयत्न तो करना ही चाहिए और वैसा करने पर भी यदि वह विपत्ति दूर न हो तो फिर मनुष्य के लिये यही उचित है कि बिना दुर्ध्यान किए हिम्मत और धीरज के साथ वह उस दुःख को सह ले । विपत्ति के समय उसे दूर करने के लिये यदि यथायोग्य प्रयत्न न किया जाये और ऐसी स्थिति में जो दुःख सहन करना पड़े तो उसके लिये मनुष्य का प्रमाद अथवा उसकी अकर्मण्यता उत्तरदायी हैं । इसके लिये केवल अपने पूर्वकर्मों को दोष देकर बैठे रहना समझदारी का काम नहीं समझा जायगा । इस जन्म के हमारे कार्यों अथवा आचरणों के कारण यदि हम पर शारीरिक, आर्थिक अथवा किसी दूसरे प्रकार की आपत्ति आए तो उस समय सबको अपने 'पूर्वकर्म को दोष देना तो आता है, परन्तु जिन कृत्यों के कारण अथवा जिस प्रकार के बरताव के परिणामस्वरूप हमें ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है उन कृत्यों और वैसे कार्यों अथवा वर्तन-व्यवहार के लिये वास्तविक रूप से पश्चाताप करके उन्हें पुनः न करने का निश्चय करना चाहिए । आहार-विहार में असावधान अथवा बात भगवतीसूत्र के अधोलिखित उल्लेख पर से ज्ञात होती है। 'परलोअकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति, इहलोअकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति ।' योगदर्शन का 'क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।' यह (२-१२) सूत्र भी यही बात कहता है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनदर्शन अनियमित बन करके, अपथ्य का सेवन करके शरीर को लम्बे समय तक भूखा रखकर अथवा शरीर के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व भोजन द्वारा न लेकर आरोग्य खोना और शक्तिहीन बनना, जुआ अथवा सट्टे के दुर्व्यसन में फँसकर पैसे बरबाद करके दरिद्र बनना, भोगविलासिता के कारण अथवा कुरूढिवश आमदनी की अपेक्षा खर्च अधिक करके कर्जदार बनना, आलस अथवा सुखचैन में पड़कर अपनी पढ़ाई-लिखाई को बराबर पक्का न करके परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना, शारीरिक रोग की कुशल वैद्य अथवा डाक्टर के पास चिकित्सा न करा के भूत-प्रेत आदि के वहम में पड़कर रोगी का जीवन भय में डाल देना और फिर इन सब का दोष सिर्फ 'पूर्वकर्म' के मत्थे मढ देना वस्तुतः बौद्धिक जड़ता ही सूचित करता है । इस प्रकार के दोषों का आरोपण अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहार अथवा अपनी विचारहीनता पर करना चाहिए और उसमें से योग्य बोध लेना चाहिए । कर्म के सुगुप्त एवं अगोचर 'कारखाने' की सुगूढ क्रिया की हमें कुछ भी जानकारी नहीं है, अतः हमारे हाथों में केवल विवेकयुक्तक उद्यम करना ही रहता है । फिर चाहे वह उद्यम अपने ऊपर अथवा दूसरे किसी के ऊपर आई हुई आपत्ति दूर करने के लिये हो अथवा वैयक्ति या सामाजिक उन्नति सिद्ध करने के लिये हो । ऐसे उद्यम का फल दिखाई देने पर मनुष्य को न तो फूलना चाहिए और न दिखाई देने पर नहीं उद्विग्न ही होना चाहिए । इस तरह उद्यम करने में हम कर्म के नियम का उल्लंघन करते हों ऐसा नहीं है, परन्तु उसके कायदे-कानून का सन्मान करके आपत्ति हटाने का और उन्नति साधने का हम लाभ उठाना चाहते हैं । जिस तरह नदी की बाढ़ से गाँव डूबते हों तो नहरें आदि खुदवाकर पानी को दूसरे रास्ते से ले जाने की योजना करने में प्रकृति के किसी नियम का भंग नहीं होता, अपितु गाँव की रक्षा के लिये उद्यम करके प्रकृति के ही नियम का लाभ उठाते हैं, उसी प्रकार आपत्ति दूर करने के लिये अथवा उत्कर्ष साधने के लिये उद्यम करके, कर्म १. अपनी शक्ति के अनुसार किसी उदात्त हेतु के लिये प्रसन्नतापूर्वक यदि उपवास किया जाय अथवा किसी दुर्दान्त रोग को दूर करने के लिये निष्णात के परामर्श के अनुसार अमुक समय के लिये विधिपूर्वक अशनत्याग किया जाय तो वह दूसरी बात है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २६५ के नियम को मान देते हुए, हम शक्य उतना लाभ उठाना चाहते हैं । किसी असहाय अथवा निराधार मनुष्य पर यदि कोई विपत्ति आ पड़े अथवा उस पर अन्याय गुजरता हो तो उस समय उसके पूर्वभव का दोष न निकाल कर उसको सहायता के लिये अविलम्ब दौड जाना ही मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। किसी को दुःख से आक्रान्त देख कर उसका उद्धार करने का प्रयल न करके उसे उसके भाग्य पर छोड़ देना वस्तुतः निर्दयता है, पाप है । धर्मशास्त्र अथवा कर्मशास्त्र की उद्घोषणा है कि कर्मवाद के आधार पर हाथ जोड़ कर बैठे रहने के बदले कर्म को-कर्म के प्रभाव को विध्वस्त करने के लिये यत्नशील होना चाहिए । जब से मनुष्य गर्भ में आता है, जन्म लेता है तब से लेकर जीवनपर्यन्त वह दूसरे के सहयोग एवं सहाय पर ही जीता है । इस तरह मानवजाति एक कुटुम्ब-परिवार जैसी है । अतः परस्पर मानवीय स्नेह के साथ मिल-जुलकर रहने में और एक-दूसरे को मदद करने में ही उसकी सुख-शान्ति रही हुई है । इसी में उसका उदय एवं विकास है । निपट स्वार्थी बन कर और अपना जो हो उसे पकड़ कर बैठे रहना, दूसरों की ओर दुर्लक्ष करना, निष्ठुरता रखना-यह आध्यात्मिक शासन में अपराध है। जन्मान्तरवाद अथवा कर्मवाट् वस्तुतः निरूधमवाद अथवा आलस्यवाद नहीं है, किन्तु वह तो योग्य पुरुषार्थ, उद्यम और प्रगतिगामी प्रयत्न करने का निर्देश करनेवाला उपयोगी वाद है । वह तो स्पष्ट कहता है कि योग्य पुरुषार्थ के द्वारा कर्म के आवरणों को हरा कर मनुष्य को आगे प्रगति करनी चाहिए और प्रगति की दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते पूर्ण मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । कर्मवाद के 'कर्म' का कार्यक्षेत्र तो जन्मान्तर का अनुसन्धान करना है, परन्तु यदि वह सुधरा हुआ न हो तो उसे सुधारने के लिये उद्यम करने का तथा अनिष्ट कर्म या अनिष्ट कर्मोदय में परिवर्तन लाने का मनुष्य के हाथ में अवकाश भी है, ऐसा कर्मशास्त्र का कथन है ! यह हमें ध्यान में रखना चाहिए कि जीव अपनी क्रियाद्वारा कर्म का बन्ध करता है और अपनी क्रिया से ही उस बन्ध को भी तोड़ सकता है । सभी पूर्व कर्म अभेद्य नहीं होतें । बहुत से कर्म योग्य प्रयत्नों द्वारा भेद्य भी Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनदर्शन होते हैं । अरे, शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि 'निकाचित' कर्म का भी भेद हो सकता है, हाँ वह पवित्रतापूर्ण अत्युत्कट आत्मसाधना से ही शक्य है । कहने का अभिप्राय यह है कि कर्म के भरोसे में रहकर अकर्मण्य बने रहना ठीक नहीं है । हाँ, योग्य प्रयत्न भी जब सफल न हो अथवा प्रयत्न करने की योग्य भूमिका ही न मिले उस समय और उस दशा में कर्म को अभेद्य, दुर्दान्त अथवा दुर्घट समझा जा सकता है । और ऐसी स्थिति में चित्त को प्रशान्त रखने जितना धैर्य धारण करके प्रतिकूल परिस्थिति को सहन कर ही लेना चाहिए । अपने कृत्य का कैसा परिणाम अपने शरीर या मन पर अथवा दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों पर होगा इसका विचार किये बिना अर्थात् परीक्षित या सम्भाव्य कार्यकारणभाव के सम्बन्ध की अवगणना करके अन्धश्रद्धा, गतानुगतिकता, अज्ञानता अथवा लोभ-लालच से की हुई प्रवृत्ति का अभिलषित परिणाम न आने पर अथवा कुछ अनिष्ट दुष्परिणाम आने पर मनुष्य को चाहिए कि उसके लिये वह अपने अज्ञान, अविवेकभाव अथवा अपनी लोभवृत्ति को दोष दे । सम्भाव्य-असम्भाव्य अच्छे-बुरे परिणाम को समझने की बुद्धिरूप विवेक कार्यकारण के सम्बन्ध का विचार किए बिना कुछ काम नहीं करता और जहाँ विवेकबुद्धि का अभाव होता है वहाँ अन्धश्रद्धा, गतानुगतिकता, अज्ञानता या लोभ-लालच अपना अड्डा जमाते ही है । समझने पर भी लोभ आदि दोषवश मनुष्य अनुचित कार्य करता है, परन्तु इसके दुष्परिणाम का भोग उसे होना ही पड़ता है । १. निकाचित (अभेद्य) समझा जानेवाला कर्म भी किस तरह टूट सकता है इसके बारे में उपाध्याय श्री यशोविजयजी अपनी २६वीं द्वात्रिंशिका में कहते हैं कि निकाचितानामपि यः कर्मणां तपसा क्षयः । सोऽभिप्रेत्योत्तमं योगमपूर्वकरणोदयम् ॥२४॥ अर्थात्-निकाचित कर्म का भी तप द्वारा जो क्षय कहा गया है वह उच्च श्रेणी केउच्च भूमिका के योग को लक्ष में रखकर कहा गया है । बाह्य तप अथवा वैसे जिस किसी तप के लिये यह बात नहीं है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २६७ [७] लोग कहते हैं कि दान, पूजा, सेवा आदि कार्य करने से पुण्य प्राप्त होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने से अथवा उसकी इच्छा विरुद्ध कार्य करने से पाप बँधता है । परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी ऐसी बाह्य क्रिया नहीं है । क्योंकि किसी को कष्ट पर पहुँचाने पर भी अथवा किसी की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने पर भी मनुष्य पुण्य का उपार्जन कर सकता है और दान-पूजादि करने पर भी वह पुण्योपार्जन न करके पाप का उपार्जन कर सकता है। एक परोपकारी चिकित्सक जब किसी पर शस्त्रक्रिया करता है तब उस रोगी को अवश्य कष्ट होता है, हितैषी माता-पिता बेसमझ बालक को पढाने के लिये जब उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रयत्न करते हैं तब उसके लड़के को दुःख जैसा लगता है; परन्तु इतने मात्र से वह चिकित्सक अनुचित कार्य करनेवाला नहीं समझा जाता अथवा उस लड़के के माता-पिता दोषी नहीं समझे जाते । इसके विपरीत, जब कोई मनुष्य भोले-भाले लोगों को ठगने के इरादे से अथवा कोई तुच्छ आशय से दान-पूजन आदि क्रिया करता है तब वह पुण्य के बदले पाप ही बाँधता है । अतः पुण्य-पाप के उपार्जन की सच्ची कसौटी केवल ऊपर ऊपर की क्रिया नहीं है, उसकी यथार्थ कसौटी तो कर्ता का आशय है । शुभ आशय से जो कार्य किया जाता है वह पुण्य का निमित्त और बुरे आशय से जो कार्य किया जाता है वह पाप का निमित्त होता है । पाप-पुण्य की इस कसौटी को सब मान्य रखते हैं, क्योंकि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' यह सिद्धान्त सर्वमान्य है । परन्तु शुभ आशय होने पर भी विचारमूढ मनुष्य की प्रवृति मूर्खतापूर्ण, अनिष्टरूप तथा पापबन्धक हो सकती है । अत: शुभ आशय से किए जानेवाले कार्य में भी सावधानता और विवेकबुद्धि की विशेष आवश्यकता है। उपयोग में [अप्रमत्तभाव में] धर्म माना गया है और 'विवेको दशमोनिधिः' है । इसमें यदि कमी हो तो लाभ के बदले हानि की सम्भावना है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनदर्शन [८] कर्म के सामान्यतः दो अर्थ होते हैं : एक तो है कोई काम (कर्मकम्म-काम), क्रिया अथवा प्रवृत्ति और दूसरा अर्थ है जीव की क्रिया प्रवृत्ति द्वारा कर्मवर्गणा के जो पुद्गल आकृष्ट होकर उसके साथ चिपक जाते उन पुद्गलों को भी कर्म कहते हैं । जो किया जात है वह कर्म । यह कर्म शब्द की व्युत्पत्ति कर्म शब्द के इन दोनो अर्थों में घटती है । वैसे तो 'कर्मवर्गणा' के पुद्गल लोकाकाश में सर्वत्र भरे हुए हैं, परन्तु पुद्गल जीव की क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर जब जीव के साथ चिपक जातें हैंजीव के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं तभी वे 'कर्म' संज्ञा से अभिहित होते हैं । इस तरह जीव के साथ बद्ध कार्मिक (कर्मरूप से परिणत )पुद्गलों को 'कर्म' कहा जाता है । इसके बारे में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जाता है कि जीवबद्ध कार्मिक पुद्गलों को 'द्रव्यकर्म' कहते हैं और जीव के रागद्वेषात्मक परिणाम को (भावकर्म) जोव (विभाव दशा में) भावकर्म का कर्ता है, इसी तरह द्रव्यकर्म का भी वह कर्ता है । बीज से अंकुर और अंकुर से पुनः बीज की भाँति भाषकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से पुनः भावकर्म इस प्रकार इन दोनों का परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध है' । [९] कर्म-पुद्गल सर्वप्रथम आकर्षित होते हैं और बाद में उनका बन्ध होता है । कर्म- पुद्गलों को आकर्षित करने का कार्य 'योग' (मन-वचन-. १. जैनेतर दर्शनो में माथा, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्द 'कर्म' के स्थान में व्यवहत हैं । पाया, अविद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्तदर्शन में मिलते हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसकदर्शन का है । 'वासना' बौद्धदर्शन में प्रसिद्ध है। योगदर्शन में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है ! 'आशय' शब्द योग और सांख्यदर्शन में तथा धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार शब्द न्याय-वैशेषिकदर्शन में प्रचलित हैं। दैव, भाग्य, पुण्य-पाए आदि अनेक शब्द ऐसे हैं जो सब दर्शनशास्त्रों में तथा सामान्य जनता में प्रचलित हैं । जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म को मानते हैं वे सब कर्म के सिद्धान्त को मान्य रखते हैं । पुनर्जन्म की उत्पत्ति भी इसी से शक्य है जिस पर आत्मा की अमरता टिकी हुई है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २६९ शरीर की क्रिया) करता है, अतः उसे 'आस्रव' कहते हैं । उन कर्म - पुद्गलों को आत्मा के साथ चिपका देने का कार्य मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय करते हैं, अतः वे बन्ध के हेतु कहे जाते हैं । इस बन्ध के कार्य में मिथ्यात्व आदि चार के साथ 'योग' तो होता ही है । इसलिये तत्त्वार्थसूत्र के अष्टम अद्याय के आदिम सूत्र में बन्ध के पाँच हेतु गिनाए गए हैं और इसी ग्रन्थ के छठे अध्याय के प्रारम्भ के सूत्र में 'योग' को ही आस्रव कहा है, मिथ्यात्वादि चार को नहीं । इस पर से ज्ञात होता है कि 'योग' आस्त्रव और बन्ध दोनों का हेतु है । इसी प्रकार बन्ध के हेतु मिथ्यात्वादि चार की गणना आस्त्रव मे भी की जा सकती है और वह इस प्रकार- शास्त्रों में आठ कर्म और उनकी अवान्तर प्रकृतियों के पृथक् पृथक् आस्त्रव बतलाए हैं, उनमें मिथ्यात्व, अविरति कषाय, प्रमाद आदि दोषरूप भिन्न-भिन्न वृत्ति प्रवृत्तियाँ उस उस कर्म के आस्त्रवरूप हैं ऐसा बतलाया है । कर्मपुद्गलों को आकर्षित करनेवाला 'योग' जब मिथ्यात्वादि दोषों से दूषित होता है तब वैसे 'योग' से आकृष्ट कर्म - पुद्गल मिथ्यात्वादि दोषयुक्त योग द्वारा आकर्षित होने से मिथ्यात्वादि को भी 'आस्रव' कह सकते हैं, अर्थात् बन्ध के हेतुभूत मिथ्यात्वादि की गणना आस्त्रव में भी की जा सकती है । इस अवलोकन पर से देखा जा सकता कि 'योग' कर्मपुद्गलों को आकर्षित करता है, अतः वह 'आस्रव' रूप से तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही उसकी गणना बन्ध-हेतुओं में की गई है अतः वह बन्धहेतु भी है 1 कार्मिक - पुद्गलों को आकर्षित करनेवाले 'योग' मिथ्यात्वादि चिपके हुए हैं, अतः वे आस्त्रव हैं, क्योंकि प्रायः मिथ्यात्व कषाय आदि से युक्त 'योग' कर्म-वर्गणा को आत्मा की ओर आकृष्ट किए रहता है, अन्यथा नहीं । अतः ये मिथ्यात्व आदि भी आस्त्रव हैं । और वे बन्ध- हेतु तो है ही । इसका अर्थ यह हुआ कि 'योग' आस्रव और बन्ध हेतु दोनों हैं और बन्ध--हेतु मिथ्यात्व आदि ' आस्त्रव भी हैं । इस पर से हम देख सकते हैं कि कर्मों को खींचने का और उन्हें आत्मा के साथ चिपका देने का कार्य एक ही 'टोली' करती है । इस प्रकार आस्त्रव और बन्ध का अभेद बतलाया जाता Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैनदर्शन है । अब कैसा काम करने से कौन से कर्म का बन्ध होता है यह देखें। ज्ञानी व्यक्ति का अनादर, उसकी ओर प्रतिकूलआचरण, अवज्ञा, कृतघ्न व्यवहार, ज्ञान के साधन पुस्तकादि की ओर असावधानी-अवज्ञा, विद्याभ्यासी के विद्याभ्यास में विघ्न डालना, ज्ञान अथवा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी चित्त की कलुषितता के कारण दूसरे को देने से इनकार करना, झूठे बहाने बताकर ना करना-ऐसे ऐसे बरताव से तथा आलस्य, प्रमाद, मिथ्या उपदेश से ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता है । १. देखो आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश का ७८वाँ श्लोक कषाया विषया योगाः प्रमादाविरति तथा । मिथ्यात्वमातरौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥ अर्थात्-कषाय, विषय, योग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त व रौद्र ध्यान अशुभ कर्म के हेतु (आस्रव) हैं । इस श्लोक पर की अपनी टीका में वे स्वयं आस्रव-बन्ध के बारे में प्रश्नोत्तरपूर्वक चर्चा करते हैं । प्रश्न इस प्रकार का हैइन (कषायादि) को बन्ध का हेतु कहा गया है, तो फिर आस्रव की भावना में इन बन्धहेतुओं के कथन का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न और इसके उत्तर की चर्चावाला मूल लेख ही यहाँ पर हम उद्धृत करते "नन्वेते बन्धं प्रति हेतुत्वेनोक्ताः, यद् वाचकमुख्या:-"मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इति । तत् किमावभावनायां बन्धहेतूनामेतेषामभिधानम् ? सत्यम्, आश्रवभावनेव बन्धभावनापि न महद्भिर्भावनात्वेनोक्ता, आश्रवभावनयैव गतार्थत्वात् । आश्रवेण ह्युपात्ताः कर्मपुद्गला आत्मना सम्बध्यमाना बन्ध इत्यभिधीयते । यदाह-सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते, स बन्ध;' इति । ततश्च बन्धास्रवयोर्भेदो न विवक्षितः । ननु कर्मपुद्गलः सह नीरक्षीरन्यायेनाऽऽत्मनः सम्बन्धो बन्ध उच्यते तत्कथमास्रव एव बन्धः ? युक्तमेतत्, तथाप्यास्रवेणानुपात्तानां कर्मपुद्गलानां कथं बन्धः स्यात् ? इत्यतोऽपि कर्म-पुद्गलाऽऽदानहेतावास्रवे बन्धहेतूनामभिधानमदुष्टम् । ननु तथापि बन्धहेतूनां पाठो. निरर्थकः । नैवम्, बन्धास्रवयो रेकत्वेनोक्त त्वाद् आस्रवहेतुनामेवाऽयं पाठ इति सर्वमवदातम् ।" Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड २७१ और दर्शन, दर्शनवान् तथा दर्शन के साधन के साथ इसी प्रकार के बरताव से दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है । अनुकम्पा, सेवा, क्षमा, दया दान, संयम से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है । बाल - तप से भी उसके प्रमाण के अनुसार सातावेदनीय का बन्ध होता है । दूसरे का वध करने से अथवा दूसरे को शोक - सन्ताप - दुःख देने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है । स्वयं भी शोक सन्ताप- दुःखग्रस्त रहने से अथवा दुर्ध्यान से दूषित आत्महत्या करने से भी इस कर्म का बन्ध होता है । असन्मार्ग का उपदेश, सन्मार्ग का अपलाप और सन्त साधु - सज्जन एवं कल्याणसाधन के मार्गों की ओर प्रतिकूल बरताव करने से दर्शन - मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । कषायोदयजन्य तीव्र अशुभ परिणाम से चारित्रमोहनीय कर्म बँधा है। महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध व रौद्रपरिणाम से नारक आयुष्य का बन्ध होता है । मायावी भाव से तिर्यंच आयुष्य का बन्ध होता है । अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह और मृदुता ऋजुता के गुणों से मनुष्य आयुष्य का बन्ध होता है । संयम यदि मध्यम कक्षा का अथवा रागयुक्त हो, तपस्विता यदि बाल-कक्षा की हो तो उस के प्रमाण में देव (स्वर्ग) का आयुष्य बँधता है । तप - संयम की साधना के अनुसार देवायुष्य का बन्ध होता है । ऋजुता, मृदुता, सच्चाई और मैत्री-मिलाप करा देने के प्रयत्न सेइस प्रकार के सौजन्य से शुभ नामकर्म का बन्ध होता है । और इससे विरुद्ध दुर्जनता धारण करने से, कुटिलता, शठता, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनदर्शन लुच्चाई, ठगाई, विश्वासघात आदि से अशुभ नामकर्म का बन्ध होता है । गुणग्राहिता, निरभिमानता, विनीतता आदि गुणों से उच्च गोत्र कर्म का बन्ध होता है । परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों का आच्छादन और सम्भव असम्भव दोषों का उदघाटन, अपने दोषों का आच्छादान और अविद्यमान गुणों का उद्घाटन तथा जाति - कुलादि के अभिमान से नीच गोत्रकर्म का बन्ध होता है । किसी को दान करने में किसी के लाभ में अथवा भोगोपभोग आदि में बाधा उपस्थित करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है । कर्म - प्रकृतियों के इन आस्त्रवों का ( बन्धहेतुओं का ) यह स्थूल उल्लेख मात्र दिशासूचक है। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अमुक कर्मप्रकृति के जो आस्त्रव कहे हैं, वे उस प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी कर्मप्रकृति के बन्धक हो सकते हैं या नहीं ? यदि इसका उत्तर 'हाँ' है तो प्रत्येक प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्त्रवों का कथन निरर्थक है, और यदि इसका उत्तर 'ना' है अर्थात् एक प्रकृति के गिनाए गए आस्त्रव उसी प्रकृति के बन्धक हैं, दूसरी प्रकृतियों के नहीं, तो शास्त्र का विरोध आता है । शास्त्र का सिद्धान्त है कि सामान्यतः आयुष्य कर्म को छोड़कर अन्य सातों कर्म -- प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता हैं । इस नियम के अनुसार जब ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता हो तब वेदनीय आदि छह प्रकृतियों का भी बन्ध होता है, ऐसा मानना पड़ेगा । आस्त्रव तो एक एक कर्म प्रकृति का एक समय में एक होता है और बन्ध तो उस प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी अविरोधी प्रकृतियों का भी उस समय होता है । अतः अमुक आस्त्रव अमुक कर्म प्रकृति का ही बन्धक हैं इस प्रकार का निरूपण शास्त्रनियम से बाधित होता है । इसलिये प्रत्येक प्रत्येक प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्त्रवों का जो वर्गीकरण किया है उसका क्या अभिप्राय है ? इसका खुलासा तो यही है कि प्रत्येक प्रकृति के गिनाए गए उपर्युक्त Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २७३ आस्त्रव उस उस कर्म के प्रकृति के अनुभाव (रस) बन्ध में ही निमित्त हैं और शास्त्रों में एक साथ अनेक कर्मप्रकृतियों के बन्ध का जो उल्लेख है वह प्रदेश- -बन्ध की अपेक्षा से है । इस प्रकार दोनों में किसी प्रकार की असंगतता नहीं रहती । आस्त्रवों का विभाग अनुभाव की दृष्टि से किया गया है ऐसा उपर्युक्त उल्लेख भी मुख्यता की अपेक्षा से समझने का है; अर्थात् जिस प्रकृति के जो आस्त्रव गिनाए हैं उन आस्त्रवों के सेवन के समय उस कर्मप्रकृति का अनुभावबन्ध मुख्यरूप से होता है और उस समय बँधनेवाली इतर प्रकृतियों के अनुभाव का बन्ध गौणरूप से होता है । यह तो कैसे हो सकता है कि एक समय में एक ही कर्मप्रकृति का अनुभाव-बन्ध तो हो और दूसरी प्रकृतियों का न हो ? क्योकि जिस समय जितनी कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध योग द्वारा होता है उस समय कषाय द्वारा उतनी ही कर्म - प्रकृतियों का अनुभावबन्ध भी होता है । अतः मुख्य रूप से होनेवाले अनुभावबन्ध की अपेक्षा से प्रस्तुत आस्त्रव विभाग का समर्थन शक्य मालूम होता है । शुभअशुभ कर्मबन्ध के सदाचार - अनाचाररूप मार्गों का नामनिर्देश करके कर्म प्रकृतियों का बन्ध बताने से प्राणी को स्पष्ट समझ में आ जाय और सदाचार को ग्रहण करने का तथा दुराचार को त्यागने का भाव उनमें जगे यही प्रयोजन आस्त्रव - विभाग के विवेचन के पीछे है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है । [१०] ( आयुष्य कर्म के बारे में ) आयुष्य कर्म के चार विभाग पहले बतलाए जा चुके हैं : देव का आयुष्य, मनुष्य का आयुष्य, तिर्यंच का आयुष्य और नारक का आयुष्य । जिस प्रकार घड़ी को चाबी देने के बाद, यदि बीच में कोई विघ्न उपस्थित न हो तो, नियत समय तक चलने के बाद स्वतः बन्द हो जाती है उसी प्रकार आयुष्य कर्म द्वारा इस जीव का मनुष्य, तिर्यंच आदि भवों में स्थूल शरीर के साथ का सम्बन्ध यदि बीच में कोई विघ्न उपस्थित न हो तो नियत काल तक जारी रहता है और कालमर्यादा पूर्ण होने पर जीव Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनदर्शन उस शरीर में क्षणभर भी नहीं रहता । जब यह शरीररूपी घड़ी विष, भय, शस्त्राघात, संक्लेश-वेदना आदि के कारण नियत समय से पहले ही बिगड़ जाती है तब इस प्रकार के आघात - प्रहार के मृत्युरूप परिणाम को 'अकाल मरण' कहते हैं । एक तरफ से क्रमशः जलनेवाली रस्सी को जलने में देर लगती है, परन्तु उसकी गेंडुली बना कर यदि उसे आग लगाई जाय तो वह शीघ्र जल जाती है; भीगे कपड़े की तरह लगाकर यदि सूखने के लिये रखा जाय तो उसे सूखने में देर लगेगी, परन्तु उसे फैलाकर यदि सुखाया जाय तो वह जल्दी ही सूख जायगा । इसी प्रकार यदि आयुष्य-दल क्रमशः भुगता जाय तो अपने समय पर वह पूर्ण होगा परन्तु शस्त्र; जल, विष, अग्नि आदि किसी उपद्रव से यदि यह समूचा दल एक साथ ही भुगत लिया जाय तो तुरन्त ही मृत्यु होती है । सत्तर वर्ष के आयुष्य के दल क्रमशः भुगतने पर सत्तर वर्ष पर मृत्यु होती है, इन दलों का क्रमशः उपभोग होने के बाद पचीस वर्ष की आयु में यदि कोई घातक दुर्घटना हो अथवा कोई विघातक प्रयोग किया जाय और इससे अवशिष्ट ४५ वर्ष के आयुष्यदल एक साथ ही दो चार मिनट में अथवा दो-चार घड़ी अथवा दो-चार प्रहर जैसे अल्प समय में भुगत लिये जाएँ तो उसी समय मृत्यु होती है । एक हजार रुपयों की पूँजी में से यदि प्रतिदिन एक-एक रुपया खर्च किया जाय तो वह पूंजी हजार दिन तक चलेगी, परन्तु एक ही दिन में अथवा एक ही घंटे में वह पूँजी या बाकी बची हुई रकम खर्च कर दी जाय तो निर्धनता तुरन्त ही आ जायगी । पूर्वजन्म में यदि आयुष्य का बन्ध शिथिल हुआ हो तो किसी घातक उपद्रव का निमित्त मिलने पर उसकी बन्धकाल की कालमर्यादा कम हो जाती है और अपनी नियत काल - मर्यादा पूर्ण होने से पूर्व ही जल्दी ही वह भुगता जा कर खत्म हो जाता है । परन्तु यदि उसका (आयुष्य का) गाढ़ बन्ध हुआ हो तो विनाशक निमित्त मिलने पर भी बन्ध-काल की काल - मर्यादा कम नहीं होती, अर्थात् अपनी नियत कालमर्यादा से पहले आयुष्य समाप्त नहीं होता । इस पर से आयुष्य के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय ऐसे दो भेद होते हैं । निमित्त मिलने पर जो आयुष्य शीघ्र भुगत लिया जाता है वह Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २७५ अपवर्तनीय कहलाता है; अर्थात् घातक उपद्रव के कारण अवशिष्ट आयुष्य, जो अनेक वर्षों तक भुगतने योग्य था, उसे अत्यन्त अल्प समय में भुगत लेना आयुष्य का अपवर्तन है, और इस तरह जिस आयुष्य का अपवर्तन होता है उसे 'अपवर्तनीय कहते हैं । इस अपवर्तन का ही दूसरा नाम 'अकाल मृत्यु' है । और जो आयुष्य किसी भी निमित्त के कारण से समेट न जाकर अपनी नियत काल - मर्यादा तक बराबर भुगता जाता है वह 'अनपवर्तनीय कहलाता है । जीव शाश्वत, सनातन, नित्य तत्त्व है । उसका न तो जन्म[ उत्पत्ति ] है और न मृत्यु [विनाश ] । ऐसा होने पर भी सकर्मक दशा में किसी भी योनि में स्थूल शरीर धारण करके प्रकट होने को हम 'जन्म' और उसके स्थूल शरीर के साथ के वियोग को 'मृत्यु' कहते हैं । उपर कहां उस तरह अकाल मृत्यु द्वारा आयुष्य के नियत काल में कमी तो हो सकती है, परन्तु किसी भी प्रकार का प्रयत्न करने पर भी नियत आयुष्य-काल में अभिवृद्धि नहीं होती । मोहनीय कर्म के नेतृत्व के नीचे इस भव में ही आगामी भव के आयुष्य का बन्ध हो जाता है । अतः जब तक मोहनीय कर्म का प्रभाव चालु रहता है तब तक इस प्रकार की भवोभव की शृंखला लम्बी होती जाती है- भवभ्रमण चालु ही रहता है । [ ११ ] जैन दर्शन में 'कर्म' क्रिया-प्रवृत्ति का संस्कार मात्र नहीं है, वह द्रव्यभूत वस्तु है । पहले अनेक बार कहा जा चुका है कि जीव की क्रियाप्रवृत्ति [शारीरिक, वाचिक, मानसिक], जिसे योग कहते हैं, उससे कर्म के पुद्गल आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और कषाय ( राग-द्वेष) के बल से आत्मा के साथ चिपक जाते हैं। जीव में राग-द्वेष की वासना अनादिकाल से है और शरीर-धारण भी अनादि काल से है; अर्थात् अनादिकाल से कर्म के आकर्षण एवं बन्धन के चक्र में फँसा हुआ है । इस चक्र का नाम ही संसारचक्र है । इस तरह कर्म के सम्बन्ध से जीव संसार की विविध योनियों में (गतियों में) परिभ्रमण कर रहा है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनदर्शन कर्म के सम्पूर्ण बन्धनों से जब वह छूट जाता है तब वह 'मुक्त' कहलाता है । इस प्रकार की मुक्ति अन्तिम और पूर्ण मुक्ति है । कर्मदल के अनन्त विस्तार में मोह का-राग-द्वेष-मोह का काम, क्रोध, मद, माया, लोभरूप का गिरोह का प्रमुख और अग्रिम आधिपत्य है । भवचक्र का मुख्य आधार इन पर है। ये सब दोषों के नायक हैं । सम्पूर्ण कर्मतन्त्र के ऊपर इनका अप्रगामी प्रभुत्व और नेतृत्व है । यदि इनसे मुक्त हुआ जाय तो समग्र कर्मचक्र के फंदे से मुक्ति मिली ही समझो । इसीलिये कहा है कि 'कषाय-मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषायों से मुक्त होने में ही मुक्ति है । संसार के नानाविध प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है । उसके पास विवेक और बुद्धि हैं । वह जब अपनी विवेक-बुद्धि का सदुपयोग करता है और सदाचरण के सन्मार्ग पर चलता है तब उसके कर्मबन्ध के बलों की कटुता कम होती है और मिष्टता में अभिवृद्धि होती है । जीव का अपना चैतन्यबल जब विशिष्ट रूप से पुरूषार्थशील बनता है तब उसके पुराने बँधे हुए कर्म झडने लगते हैं और साथ ही साथ नए कर्मों का चिपकना उत्तरोत्तर कम होता जाता है । जीव की यह परिस्थिति उसकी मोक्ष तरफ की प्रगति है । संसारवर्ती जीव क्रियारहित नहीं होता । दूसरी कोई नहीं तो मानसिक क्रिया तो होती ही रहती है । अतः किसी भी प्रवृत्ति अथवा क्रिया के कारण उसे कर्म का बँध होने का ही । परन्तु जो व्यक्ति विवेकबुद्धि के साथ सदाचरण के उज्जवल मार्ग पर चलता है ऊसे क्रियासुलभ कर्मबन्ध से डरने की आवश्यकता ही नहीं है,क्योंकि उसकी इस प्रकार की विकासगामी जीवनचर्या के समय जो कर्म बँधेगे वे कटुफलदायक नहीं होने के । शुभ जीवनचर्या के समय अधिकांशत: सत्कर्मों का (पुण्य कर्मों का) ही संचय होने का और साथ ही उच्चनिर्जरा रूप पुण्य भी संचित होता । जीवन की यह प्रक्रिया सुखदायक और साथ ही आत्मकल्याण की साधना में उपकारक भी है । मनुष्य का कार्य तो बस इतना ही है कि वह अपनी बुद्धि को शुद्ध रखे और सत्कर्मपरायण रह कर आत्म-कल्याण के सन्मार्ग से चलित न हो । इतना वह ध्यान में रखे तो बस है । इसमें समग्र दुःखों और तज्जनक कर्मों Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ चतुर्थ खण्ड का औषध सम्पूर्णतया समाया हुआ है ।। जिस प्रकार पवन से धूल उड कर किसी स्थान पर गिरे और यदि वहाँ चिकनी वस्तु पडी हो तो उससे वह चिपक जाती है उसी प्रकार जीव की मनो-वाक्-काय की प्रवृत्ति(योग) रूपी पवन से कार्मिक पुद्गल जीव पर गिरते हैं और कषाय के कारण उसके साथ चिपक जाते हैं । कषाय का नाश होने पर भी जब तक 'योग' रहते हैं तब तक कर्मपुद्गल 'योग' से आकृष्ट होकर जीव के साथ लगते हैं तो सही, परन्तु टिकते नहीं । जीव को छूकर तुरन्त ही झड जाते हैं । यहाँ पर ऐसा प्रश्न हो सकता है कि जीव तो अमूर्त है, तो फिर उसके साथ मूर्त कर्मपुद्गलों का बन्ध कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर तो यही है कि, यद्यपि जीव स्वरूप से (अपने मूल स्वरूप से) अमूर्त है फिर भी अनादि-कालीन राग-द्वेष मोह की वासना से, जो उसके वास्तविक शुद्ध स्वरूप के साथ सर्वथा असंगत है, वासित होने के कारण और इसीलिये उसके साथ कार्मिक पुद्गल निरन्तर जुडते रहने से वह स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त जैसा बन गया है-अनादिकाल से उसकी मूर्त जैसी स्थिति हो गई है। यह शरीरधारण, भवभ्रमण, सुख-दुःख तथा वासनामय जीवनप्रवाह-ये सब जीव के हैं । शरीरधारक जीव है, भवभ्रमण करनेवाला जीव है, सुख-दुःख का वेदक जीव है, वासना से वासित जीव है । यह सब-यह सब झमेलायह सब झंझट अकारण तो कैसे हो सकता है ? अतः उसकी इस परिस्थिति का कारण भी उसके साथ ही सम्बद्ध हो यह सहज ही समझा जा सकता है, और उसकी यह परिस्थिति अनादिकालीन होने से उसका कारणयोग भी उसके साथ अनादिकालीन होना चाहिए यह स्पष्ट है । यह कारणयोग मोह, अविद्या, माया, वासना, कर्म जो कुछ कहो वह उसके साथ अनादिकाल से संयुक्त होने के कारण ऊपर कहा उस तरह, अमूर्त होने पर भी वह सर्वदा से मूर्त जैसा है । और इसी कारण निरन्तर कर्मो के बन्ध व उदय आदि के झंझट में वह फँसा हुआ रहता है तथा भवकान्तर में भटकता फिरता है । चेतनाशक्ति-ज्ञानशक्ति अमूर्त है, फिर भी मदिरा आदि से उस पर आवरण आ जाता है, इसी प्रकार आत्मा अमूर्त होने पर भी उसकी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैनदर्शन आवरणयुक्त दशा उत्पन्न हो सकती है । जिस प्रकार बोया हुआ बीज तुरन्त ही न उग कर समय आने पर ही उगता है, पी हुई शराब तुरन्त ही नशा उत्पन्न न करके अमुक प्रकार की उसकी परिणति होने के बाद ही उसका नशा चढता है, उसी प्रकार जीव की क्रियाप्रवृत्ति द्वारा उसे जो कर्म का बन्ध होता है वह अमुक समय बीतने के बाद ही अपना फल दिखाता है । फल दिखाने का समय जब तक न आए तब तक वह कर्म जीव के साथ सत्ता रूप से अन्तर्निहित रहता है । कर्म उदय में आया इसका अर्थ यह है कि वह अपना फल चखाने के लिये तैयार हुआ । प्रत्येक कर्म-कर्म तभी कहा जाता है जब वह जीव के साथ बँधे-उसके साथ संयुक्त हो, और जब उसका बन्ध हुआ तब, यह निश्चित है कि, उसे कभी न कभी हटना ही पड़ेगा । विपाकोदय में आकर अर्थात् प्रगटरूप से उदय में आकर और अपना फल जीव को चखा कर कोई भी कर्म नष्ट हो जाता है—जीव पर से झड जाता है । परन्तु कर्म की एक ऐसी भी अवस्था होती है या हो सकती है जब वह उदय में आकर के भी फल चखाए बिना ही नष्ट हो जाय । ऐसे फलदानरहित उदय को 'प्रदेशोदय कहते हैं । कर्मों के सुमहान् विस्तार को विपाकोदय के द्वारा यदि जीव भुगतने बैठे तो मोक्ष की प्राप्ति अशक्य ही बन जाय । साधक की साधना के बल के प्रताप से बहुत से कर्मपुंज इस तरह(प्रदेशोदय से) नष्ट होते हैं । अन्ततः इस तरह कर्म का बडा गोदाम खाली होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । १. प्रत्येक कर्म अवश्य भोगना पड़ता है-यह नियम बराबर है, परन्तु यह नियम प्रदेशानुभव की अपेक्षा से है, अनुभव (रस) की अपेक्षा से नहीं । प्रत्येक कर्म का रसोदय अथवा विपाकोदय भोगना ही पड़े ऐसा कोई नियम नहीं है । अध्यवसायविशेष से विपाकानुभव किए बिना ही प्रदेशानुभव द्वारा कर्म झड़ जाते हैं । 'प्रसन्नचन्द्र' आदि महापुरुषों ने जो नरकयोग्य कर्म बाँधे थे उन कर्म के अनुभाव (रस) को उन्होंने शुभ अध्यवसाय के बल से नष्ट कर दिया था और उनके नीरस प्रदेशों का ही उन्होंने अनुभव किया था । यही कारण है कि नरक के योग्य कर्म का बँध करने पर भी उन्हें नरक के दुःख सहने नहीं पड़े, क्योंकि विपाकानुभव होने पर भी सुख-दुःख का वेदन होता है । (देखो विशेषावश्यकभाष्य गाथा २०४९ की वृत्ति) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्डक बन्द चतुर्थ खण्ड २७९ प्रथम खण्ड के 'बन्ध' शीर्षक के नीचे किए गए विवेचन में कर्मबन्ध के प्रकृति, स्थिति आदि जो चार भेद बतलाए हैं उन्हें समझाने के लिये मोदक का दृष्टान्त दिया जाता है । जिस प्रकार वायुनाशक वस्तुओं से बना हुआ मोदक वायु को शान्त करता है, पित्तनाशक चीजों से बना हुआ मोदक पित्तशामक होता है और कफनाशक वस्तुओं का बना हुआ मोदक कफ का उपशामक होता है, कोई मोदक चार दिन तक खराब नहीं होता तो कोई आठ दिन तक; किसी मोदक में कटुता कम होती है तो किसी में अधिक; तथा कोई मोदक पावभर का होता है तो कोई आधे सेर का, अर्थात् भिन्न-भिन्न मोदकों का पौद्गलिक परिमाण कमावेश होता है; इसी प्रकार कर्मों में भी ऊपर कहा उस तरह, किसी का स्वभाव ज्ञान को तथा किसी का दर्शन को आवृत करने का होता है तो किसी का सुख-दुःख का अनुभव कराने का होता है । इसी प्रकार कर्मों की जीव के साथ चिपके रहने की कालमर्यादा भी अलग-अलग होती है । शुभाशुभ (मधुर अथवा कटु) फल देने की शक्तिरूप रस भी किसी कर्म में तीव्र तो किसी में मन्द होता है [तीव्र मन्दता में भी नानाविध तारतम्य होता है] और भिन्न-भिन्न कर्मों के परमाणुसमूह भी न्यूनाधिक होते हैं । विपाकोदय से ही कर्म झाडे जा सकते हैं, दूसरी तरह नहीं-ऐसा नियम यदि माना जाय तो किसी भी जीव को मोक्ष नहीं मिल सकेगा, क्योंकि उसी भव में युक्त होनेवाले जीव को भी सत्ता में तो असंख्येयभवोपार्जित कर्म होते हैं और वे कर्म नानाविध अध्यवसायों द्वारा बँधे हुए होने से नरकादि अनेक गतियों के कारण होते हैं । अतः यदि वे सब कर्म विपाकोदय द्वारा ही विनष्ट करने के हों तो उस एक और अन्तिम भव में नानाविध भवों का अनुभव करना पड़ेगा। परन्तु यह तो असम्भव हैं, क्योंकि एक मनुष्यभव में नारक आदि अनेक अन्य भवों का अनुभव नहीं हो सकता । अब यदि वह नाना गतियों के कारणभूत कर्म की नाना गतियों में जाकर क्रमशः विपाकरूप से अनुभव करने लगे तो पुनः नाना गतियों के कारणभूत कर्म का बन्ध होने का और पुनः नाना भवों में भ्रमण होने का, और फिर नाना गतियों के कारणभूत कर्म बँधने के । इस प्रकार कर्मबन्ध और भवभ्रमण की परम्परा निरन्तर चलती रहेगी और उसका अन्त कहीं पर भी नहीं आयगा । इस प्रकार मोक्ष-वस्तु अशक्य ही बन जायगी । (देखो विशेषावश्यकभाष्य गाथा २०५२-५३ की वृत्ति) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैनदर्शन इन चार प्रकार के बन्धों में पहला और अन्तिम ये दो बन्ध 'योग' के कारण होते हैं, क्योंकि योग के तरतमभाव के ऊपर ही प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध की तरतमता अवलम्बित है । मतलब यह कि जीव की ओर आकर्षित होनेवाले कर्मपुद्गलों में भिन्न भिन्न स्वभाव का निर्माण होना तथा इन पुद्गलों की संख्या में न्यूनाधिकता होना ये दो काम (पहला प्रकृतिबन्ध और दूसरा प्रदेशबन्ध) 'योग' पर निर्भर है । और कर्म के स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध कषाय पर आश्रित हैं । इसके बारे में आगे के पृष्ठों में स्पष्टीकरण किया जायगा । अनुभावबन्ध को रसबन्ध भी कहते हैं । [अनुभाव के स्थान पर 'अनुभाग' शब्द भी प्रचलित है ।] रस तीव्र और मन्द इस तरह दो प्रकार का है । इन दोनों प्रकारों के रसबन्ध शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों में निष्पन्न होते हैं । अशुभ प्रकृति के अनुभाव(रस) की उपमा नीम के जैसे कडुए रस के साथ दी जाती है, अर्थात् जैसे नीम का रस कडुआ होता है वैसे अशुभ प्रकृति का रस भी बुरा- दुःखरूप होता है; और शुभ प्रकृति के रस की उपमा गन्ने के रस के साथ दी जाती है, अर्थात् गन्ने का रस जैसे मीठा होता है वैसे ही शुभ प्रकृति का रस मीठासुखदायक होता है। कषाय की तीव्रता के समय शुभ अथवा अशुभ कोई भी कर्मप्रकृति जो बंधती है उसका स्थितिबन्ध भी अधिक होगा और कषाय की मन्दता के समय शुभ अथवा अशुभ कोई भी कर्मप्रकृति जो बंधती है उसका स्थितिबन्ध कम होगा; अर्थात् सब कर्मों के स्थितिबन्ध की न्यूनाधिकता कषाय की न्यूनाधिक मात्रा पर अवलम्बित है। कषाय जितना तीव्र, किसी भी शुभअशुभ प्रकृति का स्थितिबन्ध भी उतना ही अधिक बंधता है और कषाय जितना मंद, किसी भी शुभ-अशुभ कर्मप्रकृति का स्थितिबन्ध उतना ही कम बंधता है । सब कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अशुभ ही होता है । परन्तु अनुभाव की (रस की) बात इससे भिन्न प्रकार की है । वह इस प्रकार : कषाय की तीव्रता के समय अशुभ कर्मप्रकृति का रस अधिक बंधता है । और शुभ कर्मप्रकृति का कम; और कषाय की मन्दता के समय Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ चतुर्थ खण्ड शुभ कर्मप्रकृति का रस अधिक बंधता है और अशुभ कर्मप्रकृति का रस मन्द । कषाय जितना तीव्र, अशुभ कर्मप्रकृति का रसबन्ध भी उतना ही अधिक बंधता है और शुभ कर्मप्रकृति का रसबन्ध उतना ही कम बँधता है; और कषाय जितना मन्द, शुभ प्रकृति का रसबन्ध भी उतना ही अधिक तथा अशुभ कर्मप्रकृति रसबन्ध उतना ही कम बँधता है । मतलब कि तीव्र कषाय से अशुभ कर्मप्रकृति में तीव्र रस और शुभ कर्मप्रकृति में मन्द रस आता है । इसके विपरीत जब कषाय मन्द होते हैं तब शुभ कर्मप्रकृति में तीव्र रस और अशुभ कर्मप्रकृति में मन्दरस आता है । शुभ कर्म का उत्कृष्ट रसबन्ध शुभ है। जब जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है तब उसी समय (ग्रहण होते ही) उन कार्मिक पुद्गलों में विचित्र प्रकार का जोश आ जाता है और जीव के कषायरूप परिणामों का निमित्त पा कर उनमें अनन्तगुना रस उत्पन्न हो जाता है । यही रस जीव के गुणों का घात आदि करता है । जीव को भाँति-भाँति के फल चखाने का काम यह रस ही करता है। जीव की बडी से बडी उपाधि यह रस ही है । शुभ रस से सुख मिलता है और अशुभ रस से दुःखः । जिस प्रकार सूखा घास नीरस होता है, परन्तु गाय, भैंस, बकरी आदि के पेट में जाकर वह धरूप रस में परिणत होता है तथा उस रस में (दूध में) चिकनाहट (कमोवेश) मालूम होती है अर्थात् सूखा घास खा करके भैंस ............ १. परन्तु सुखोपभोग में अनासक्तभाव रखना बहुत कठिन जानकर वैरागी भर्तृहरि अपने वैराग्यशतक में कह गए हैं कि 'विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।' अर्थात्-पुण्य का विपाक, विचार करने पर, मुझे भय उत्पन्न करता है । श्लोक के इस दूसरे वरण के बाद उत्तरार्ध में वे कहते हैं कि ___'महद्भिः पुण्यौधैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया ।। महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ॥' अर्थात्-महान् पुण्यसमूहों के द्वारा चिरकाल से मिले हुए विषयभोग विषयी मनुष्यों को दुःख देने के लिये ही मानो फैलते जाते हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनदर्शन गाढ़ा दूध देती है और उसमें चिकनाहट भी अधिक होती है, गाय का दूध कम गाढा और कम चिकना होता है और बकरी का दूध तो उससे भी कम गाढ़ और कम चिकना होता है--इस तरह एक ही प्रकार का घास भिन्नभिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न दूधरूप रस में परिणत होता है; उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्मवर्गणा के पुद्गल भिन्न-भिन्न जीवों के भिन्न भिन्न कषायरूप परिणामों का निमित्त पा कर भिन्न-भिन्न रसवाले बनते हैं । इसका नाम रसबन्ध अथवा अनुभावबन्ध अथवा अनुभाग बन्ध है । जिस प्रकार अनेक प्रकार के दूध में से किसी में अधिक शक्ति होती है और किसी में कम, उसी प्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्मप्रकृतियों का अनुभाव(रस) तीव्र भी होता है और मन्द भी होता है । महर्षि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय का तीसरा-चौथा सूत्र है; 'शुभः पुण्यस्य', 'अशुभः पापस्य' अर्थात् कायिक, वाचिक, और मानसिक क्रियारूप योग यदि शुभ हों तो शुभ कर्म अर्थात् पुण्य कर्म का और यदि अशुभ हों तो अशुभ कर्म अर्थात् पाप कर्म का बन्ध होता है । परन्तु शुभ योग के समय भी पापप्रकृतियाँ का और अशुभ योग के समय भी पुण्यप्रकृतियों का भी बन्ध होता है ऐसा कर्मशास्त्रों में उल्लेख है । अतः उपर्युक्त दो सूत्रों का तात्पर्य यह बताया जाता है कि शुभ योग की सबलता के समय (जब संक्लेश-कषायपरिणाम मन्द होते है) पुण्यप्रकृतियों के अनुभाव (रस) की मात्रा अधिक बँधती है और पापप्रकृतियों के अनुभाव की मात्रा कम । इसके विपरीत अशुभ योग की प्रबलता के समय (जब संक्लेशकषायपरिणाम तीव्र होते हैं) पापप्रकृतियों का अनुभावबन्ध अधिक और पुण्यप्रकृतियों का अनुभावबन्ध अल्प होता है । इस तरह, शुभ योग के कारण पुण्य कर्म के रस की और अशुभ योग के कारण पाप कर्म के रस की जो अधिक मात्रा होती है उसे मुख्य समझकर उपर्युक्त सूत्रों में शुभ योग को पुण्य का और अशुभ योग को पाप बन्ध का कारण कहा है । इस प्रकार उक्त सूत्रों का विधान अनुभाव-बन्ध की अधिक मात्रा की अपेक्षा से समझने का है । यहाँ पर शुभयोगकालीन पापकर्म के रस की और अशुभयोगकालीन पुण्यकर्म के रस की हीनमात्रा विवक्षित नहीं है । इस प्रकार प्रधानता को Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ चतुर्थ खण्ड लक्ष में रख कर यह कहा गया है 'प्राधान्येन हि व्यपदेशा भवन्ति ।' ___ कर्मों की मुख्य दस अवस्थाएँ इस प्रकार बतलाई गई हैं (१) बन्ध-कर्मयोग्य वर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा का नीरक्षीर की भाँति अथवा लोहा और तदन्त अग्नि की भाँति एक-दूसरे में मिल जाना यह बन्ध कहा जाता है । कर्म के इन सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धों का जो ग्रहण होता है वह आत्मा के समग्र प्रदेशों द्वारा होता है, न कि किसी एक ही दिशा में रहे हुए आत्मा के प्रदेशों द्वारा । सब संसारी जीवों को एकजैसा कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि सब का मानसिक-वाचिक-शारीरिक योग (व्यापार) समान नहीं होता । इसीलिये योग के तरतमभाव के अनुसार प्रदेशबन्ध में ही तरतमभाव आता है। प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कन्ध आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों के साथ बँधते हैं । जीव जिस क्षेत्र में रहता है उसी क्षेत्र में विद्यमान कर्मवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध बँधते हैं, न कि बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलस्कन्ध । आत्मा के साथ बँधनेवाला प्रत्येक कर्मस्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओं का बना हुआ होता है । कर्म की पहली अवस्था बन्ध है । इसके बिना दूसरी कोई भी अवस्था शक्य नहीं है । बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इस प्रकार ये चार भेद पीछे हम देख चुके हैं । (२-३) उद्वर्तना, अपवर्तना- कर्म के स्थिति एवं रस की अभिवृद्धि को उद्वर्तना और उनके कम होने को अपवर्तना कहते हैं । अशुभ कर्म का बन्ध होने के बाद यदि जीव पीछे अच्छे अर्थात् शुभ कार्य करे तो पहले के बँधे हुए बुरे कर्म की स्थिति एवं रस कम हो सकते हैं । इस पर से यही बोधपाठ मिलता है कि यदि किसी मनुष्य ने अज्ञान अथवा मोहवश दुर्व्यवहार करके अपना जीवन कलुषित बनाया हो, परन्तु समझ में आने के बाद अपना चारित्र सुधारकर वह यदि सदाचारी और सत्कर्मा बने तो उसके सच्चरित के पवित्र भावोल्लास के बल से उसके पहले बुरे कर्मों की स्थिति तथा कटुता में कमी अवश्य हो सकती है । गिरा हुआ अवश्य ऊपर उठ सकता है । घोर नरक में ले जानेवाले कर्मदलिक का जिन्होंने बन्ध किया Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैनदर्शन है ऐसे महापापी भी जब वापस लौटे हैं, जग गए हैं और अपने अविचलित आत्मबल से कल्याण पथ पर आरूढ हुए हैं तब उनके उस तपोबल के प्रभाव से घोरातिघोर कर्म विध्वस्त हो गए हैं और वे महात्मा बनकर परमात्मपद प्राप्त करने में समर्थ हुए हैं । आत्मा प्रमाद-निद्रा में पड़ी हुई होने पर भी वह सोए हुए सिंह जैसी है। वह जब जगती है -वस्तुतः अपनी निद्रा को त्याग कर खडी होती है और अपने आत्मवीर्य को प्रकट करती है तब उतरोत्तर प्रखर होनेवाले उसके महान् आत्मबल के आगे महामारक मोहमातङ्ग पराजित हो जाता है और अन्त में पूर्णरूप से हत-प्रहत होकर विनष्ट हो जाता है। यह देखा हमने अपवर्तन के बारे में । इसी प्रकार उद्वर्तना के बारे में भी समझा जा सकता है। जैसे कि, किसी जीव ने अल्प स्थिति के अशुभ कर्म का यदि बन्ध किया हो परन्तु बाद में वह और अधिक बुरे काम करे तथा उसके आत्मपरिणाम अधिक कलुषित बनें तो पहले बँधे हुए उसके अशुभ कर्म की स्थिति एवं रस, उसके बुरे भावों के प्रभावों से बढ़ सकते हैं । इसी प्रकार अशुभ परिणामों के बल से शुभ कर्मों के स्थिति एवं रस कम हो सकते हैं । इस अपवर्तना-उद्वर्तना के कारण कोई कर्म जल्दी से फल देता है तो कोई देर से । कोई कर्म मन्दफलदायी होता है तो कोई तीव्रफलदायी। (४) सत्ता -कर्म का बन्ध होने के बाद तुरन्त ही वह फल न देकर कुछ समय तक सत्ता रूप से रहता है- यह बात पहले कही जा चुकी है । जितने समय तक वह सत्तारूप से रहता है उतने समय को 'अबाधाकाल' कहते हैं । यह काल स्वाभाविक क्रम से अथवा अपवर्तना द्वारा शीघ्र पूरा होने पर कर्म अपना फल देने के लिये तत्पर होता है । इसे कर्म का (५) उदय कहते हैं । कर्म का नियत समय पर फल देने के लिये १. ब्रह्म-स्त्री-भ्रूण-गो-घातपातकानरकातिथेः ॥ दृढप्रहारिप्रभृतेर्योगो हस्तावलम्बनम् ॥ हेमचन्द्र, योगशास्त्र १, १२. २. अर्थात्--ब्राह्मण, स्त्री, भ्रूण और गाय इन सबकी हत्या करने से नरक के अतिथि बने हुए दृढ़प्रहारी और उसके जैसे अन्य महापापी भी योग की शरण लेकर पार उतर गए हैं। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २८५ तत्पर होना वह उदय है और नियत समय से पूर्व ही फल देने के लिये तत्पर होना उसे----- (६) उदीरणा कहते हैं । 'अबाधाकाल' पूर्ण होने पर उदय में आए हुए कर्म का नियतकालीन क्रमिक उदय वह उदय है और उस उदयमान कर्म के जो दलिक पीछे से उदय में आने वाले हैं उन्हें विशेष प्रयत्न से खींचकर उदय प्राप्त दलिकों के साथ मिला देने और भोगने को 'उदीरणा' कहते हैं। जिस प्रकार आम की मौसम में आम को जल्दी पकाने के लिये पेड़ पर से तोड़ कर घास आदि में दबा देते हैं जिससे वह पेड की अपेक्षा जल्दी ही पक जाय, इसी प्रकार कर्म का विपाक कभी-कभी नियत समय से पूर्व भी हो सकता है । इसे उदीरणा कहते हैं । इसके लिये 'अपवर्तना' क्रिया द्वारा प्रथम कर्म की स्थिति कम कर दी जाती है । स्थिति कम हो जाने पर कर्म नियत समय से पूर्व उदय में आ जाता है । जब कोई मनुष्य आयुष्य पूर्णरूप से भुगतने से पूर्व ही असमय में मर जाता है तब वैसी मृत्यु को लोक 'अकालमृत्यु' कहते हैं । ऐसा होने का कारण आयुष्य कर्म की उदीरणा हो जाना ही है, और उदीरणा अपवर्तना से होती है । अमुक अपवाद के सिवाय कर्मों के उदय और उदीरणा सर्वदा चालू रहते हैं । उदित कर्म की ही (उदित कर्मवर्ग के अनुदित कर्मपुद्गलों की ही) उदीरणा होती है और उदय होने पर उदीरणा प्रायः अवश्य होती है ।। (७) संक्रमण-एक कर्मप्रकृति के अन्य सजातीय कर्म-प्रकृतिरूप हो जाने को 'संक्रमण' क्रिया कहते हैं । संक्रमण कर्म के मूल भेदों में नहीं होता, अर्थात् पहले गिनाए गए कर्मों के मूल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, आदि आठ भेदों मे से एक कर्म अन्यकर्मरूप से नहीं हो सकता, किन्तु एक कर्म के अवान्तर भेदों में से कोई एक भेद स्वसजातीय अन्य भेदरूप बन सकता है; जैसे कि सातवेदनीय असातावेदनीय और असातावेदनीय सातवेदनीयरूप १. कर्म बद्ध होने के पश्चात् जितने समय तक बाधा (उपाधि) नहीं पहुँचाता अर्थात् उदय में नहीं आता-शुभाशुभ फल चखाने के लिये तत्पर नहीं होता इतने समय को 'अबाधाकाल' कहते हैं । जिस कर्म का जितना अबाधाकाल हो वह पूर्ण होने के बाद ही वह कर्म अपना फल देना शुरू करता है । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैनदर्शन बन सकता है । यद्यपि संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में ही हो सकता है, किन्तु इसमें भी अपवाद है; जैसे कि आयुष्य कर्म के चार प्रकारों का परस्पर संक्रमण नहीं होता । नरकादि के आयुष्यों में से जिस आयुष्य का बन्ध किया हो वह उससे भिन्न गति के आयुष्य रूप से नहीं बन सकता। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म और चारित्रमोहनीय कर्म एक-दूसरे में संक्रान्त नहीं हो सकते। (८) निधत्ति- यह कर्मबन्ध की ऐसी कठोर अवस्था है जो उदीरणा, तथा संक्रमण की पहुंच से बाहर है। परन्तु इस अवस्थ में उद्धर्तन-अपवर्तन हो सकते हैं। - (९) निकाचना-यह कर्म की कठोर से कठोर अवस्था है । इसमें उदीरणा, संक्रमण, उद्धर्तन या अपवर्तन कोई भी क्रिया नहीं चल सकती । यह निकाचित कर्म, जब उसका समय पकने पर उदय में आता है तब, प्रायः अवश्य भोगना पड़ता है । (१०) उपशमन-अर्थात् उदित कर्म को उपशान्त करना । कर्म कोउदित कर्म को भस्मच्छन अग्नि की भाँति यदि दबा दिया जाय तो वह उपशम है। [१२] __ कोई यह कहे कि 'आत्मा कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । वह तो पंच भूतों के मिश्रण से पैदा होनेवाली एक शक्ति है । अलग-अलग भूतों में जो गुण दिखाई नहीं देता वह उनके मिश्रण में दिखाई देता है। जैसे मद्य में जो मादकता है वह मद्य के पृथक्-पृथक् घटकों में कहाँ है ?' तो उसका यह कहना ठीक नहीं है । मद्य के पृथक्-पृथक् अंगो में भी मादकता है, पर वह अल्प है। भोजन का भी नशा होता है, निद्रा भी एक नशा है, पर अल्प है । शराब जैसे मिश्रण से उत्तेजित नशा होता है । असत् का उत्पाद नहीं होता, यह मूल सिद्धान्त है । जब प्रत्येक भूत में चेतना है ही नहीं तब उनके मिश्रण से चेतनरूप आत्मतत्त्व कैसे पैदा हो सकता है ? जब कोई द्रव्य पैदा नहीं होता तब कोई गुण भी पैदा नहीं होता, क्योंकि गुणों का Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २८७ समुदाय ही तो द्रव्य है । गुणों के पर्याय बदल सकते हैं, बदलते है, पर नया गुण नहीं आता । कोई भी भूत द्रव्य क्या कभी यह अनुभव कर सकता है कि 'मैं हूँ' ? इस अनुभव के टुकड़े-टुकड़े क्या हो सकते हैं ? अर्थात् 'मैं हूँ' इस अनुभव का एक टुकड़ा पृथ्वी अनुभव करे, एक टुकड़ा जल अनुभव करे, एक टुकड़ा अग्नि, वायु, आकाश अनुभव करे इस तरह अनुभव के टुकड़े क्या सम्भव हैं ? नहीं । तो यह सिद्ध हुआ कि 'मैं हूँ' यह अनुभव कोई एक द्रव्य ही करता है । तब पाँच भूतों में से वह कौनसा एक भूत है जो अनुभव करता है कि 'मैं हूँ' ? कहना पड़ेगा कि कोई नहीं अतः यह सिद्ध होता है कि भूतों से अतिरिक्त कोई द्रव्य ऐसा है जो यह अनुभव करता है । जब मैं हूँ' ऐसा अनुभव करनेवाला एक स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध होता है तब उसका न तो उत्पाद हो सकता है न नाश; क्योंकि असत् से सत् बन नहीं सकता और सत् का नाश नहीं हो सकता । इस स्वतन्त्र द्रव्य का नाम ही आत्मा या जीव है । हम देखते हैं कि सब प्राणी एक जैसे नहीं हैं । इस विषमता का कारण तो कोई होना ही चाहिए । अपने मूल रूप में सब जीव समान हैं, इसलिये जीव से भिन्न कोई पदार्थ मिले बिना उनमें विषमता नहीं आ सकती । अतः जीव से भिन्न जो पदार्थ जीव के साथ लगा हुआ है वही बन्धनरूप 'कर्म' है । इस तरह निश्चित तर्क पर आश्रित अनुमान से आत्मसंयुक्त बंधनरूप 'कर्म' का होना सिद्ध होता है । आत्मा अमूर्त है, इसलिये उस पर मूर्त 'कर्म' का क्या प्रभाव पड़ा, क्या नहीं पड़ा यह दिख नहीं सकता, किन्तु अमूर्त के गुणों का हमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो है ही । उन गुणों पर भौतिक (कर्म) के प्रभाव का पता यदि लग जाय तब यह समझने में कोई बाधा नहीं रहेगी कि मूर्त द्रव्य का अमूर्त के गुणों पर प्रभाव पड़ता है । मद्यपान से अमूर्त चेतना पर प्रभाव पड़ता है यह स्पष्ट है । इसी तरह क्रोध तथा स्मृति आदि जो अमूर्त आत्मा के गुण या पर्याय हैं उन पर मूर्त द्रव्य का असर पड़ता है । किसी मूर्त पदार्थ को देखकर स्मृति पैदा हो जाती है या क्रोध आदि भाव पैदा हो जाते हैं I Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनदर्शन इससे सिद्ध होता है कि आत्मिक गुणों पर भौतिक पदार्थ प्रभाव डालते हैं । तब 'कर्म' भी आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हैं यह सिद्ध होता है । यह संसारवर्ती जीव अपने कर्म के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों में जाता है-भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है । जैसे एक मनुष्य जीर्ण मकान को छोड़कर अच्छे मकान में रहने जाता है अथवा अच्छे मकान को छोड़कर उसे खराब मकान में रहने के लिये जाना पड़ता है, उसी तरह जीव अच्छे कर्म के अनुसार अच्छी गति में जाता है और बुरे कर्म के अनुसार उसे बुरी गति में जाना पड़ता है। इसलिये, जैसे जौ के बीज से चावल पैदा नहीं हो सकता वैसे मनुष्य की आत्मा पशु या पशु की आत्मा मनुष्य कैसे हो सकता हैं यह प्रश्न या तर्क भी निरस्त हो जाता है । जैसे जो से चावल पैदा नहीं होता वैसे मनुष्य से पशु पैदा नहीं होता, किन्तु मनुष्य की आत्मा मनुष्यशरीर से निकलकर पशुगति में जाय-पशुयोनि में जन्म ले-पशु बने इसमें क्या आपत्ति है ? एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करना क्या है, मानो एक कोट को उतार कर दूसरा पहनना। जौ (अनाज) भी अपना जौपन छोड़कर मिट्टी जैसे विभिन्न रूपान्तर प्राप्त करता है तब वह किसी भी धान्य के रूप में परिणत हो सकता है । देव या स्वर्ग गति कहाँ है इसके बारे में जरा जान लें । मान लीजिए कि किसी मनुष्य ने ऊँचे से ऊँचे भोगों का त्याग कर दिया, इस लोक में जो भी समृद्धि मिल सकती है वह उसने लोक-कल्याण में लगा दी, तब उसका बढा हुआ फल यहाँ तो मिल नहीं सकता, क्योंकि यहाँ मिलने लायक ऊँची से ऊँची सम्पत्ति का तो उसने त्याग कर दिया है । अतः उससे ज्यादा फल मिलने के लिये तो कोई दूसरा लोक ही होना चाहिए । जो ऐसा लोक होगा वही देवगति है । बीज की अपेक्षा वृक्ष महान ही होता है। जो पुण्य-फल यहाँ मिल नहीं सकता उसके लिये जैसे स्वर्ग की जरूरत है, उसी तरह जो पाप-फल यहाँ मिल नहीं सकता उसके लिये नरक की जरूरत है । इस प्रकार नरक गति के लिये भी कहा जा सकता है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २८९ अशुभ परिणति नरक का दुर्गति का मार्ग है और शुभ परिणति स्वर्ग या सद्गति का मार्ग है, किन्तु मोक्ष का मार्ग शुद्ध परिणति है । शुभ परिणति में शुभ भावना और दूसरों की भलाई तो होती है पर उसमें मोह रहता है और किसी-न-किसी तरह की स्वार्थवासना रहती है, जबकि शुद्ध परिणति में केवल विश्वहित की दृष्टि से कर्तव्यभावना रहती है, विकासगामी निर्मोहिता से समुन्नत विश्ववात्सल्य रहता है । इसलिये आत्मा की वैसी निर्मल शुभ्र अवस्था सीधी मोक्षप्रद बनती है । शुभ और शुद्ध परिणति के कार्यों में बाहर की दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता, किन्तु उसके मूल में आशा और निःस्पृहता का, भौतिक स्पृहा और विशुद्ध आत्मनिष्ठा का बडा ही अन्तर रहता है । आशा - स्पृहा - लालसामूलक शुभ परिणति से किया जानेवाला कार्य यदि शुद्ध परिणति से किया जाय तो वीतरागता के कारण कोई अनिष्ट प्रतिक्रिया नहीं होती उससे अनन्त शान्ति प्राप्त होती है । जीव का प्रत्येक जन्म उसके पूर्वजन्म की अपेक्षा से पुनर्जन्म ही है । उसका कोई जन्म ऐसा नहीं है जिसके पहले जन्म न हो । उसके जन्मों की ( भिन्न-भिन्न देह के धारण की) परम्परा सर्वदा से अर्थात् अनादिकाल से चली आ रही है ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । आत्मा के भूतकाल के किसी जन्म को सर्वप्रथम जन्म मान लें तो ऐसा मानना पड़ेगा कि आत्मा उस जन्म तक 'अजन्मा' था और बाद में उसका सर्वप्रथम और नया जन्म शुरू हुआ । ऐसा माना जाय तो अजन्मा अर्थात् शुद्ध आत्मा के लिये भी कभी जन्म धारण करना सम्भवित हो सकता है ऐसा मानना पड़ेगा और यदि ऐसा मानना पड़े तो भविष्य में, मुक्ति प्राप्त करने के बाद भी, किसी समय पुनः जन्म के पाश में फँसने की सम्भावना रहेगी । इससे पूर्ण स्थिर एवं पूर्ण मुक्ति का अस्तित्व ही उड़ जायेगा । आत्मा अमुक समय तक बिना जन्म की (बिना शरीरधारण किये) रहकर पुनः कभी जन्म धारण करती है ऐसा मानना युक्ति-युक्त नहीं है । देहधारण की परम्परा यदि चले तो वह अखण्ड रूप से ही चले -बीच में कभी भी टूटे बिना अविच्छिन्न रूप से ही चले और एक बार यदि देह का संसर्ग छूट जाय तो वह सर्वदा के लिये छूट जाय । इस तरह मानना ही संगत प्रतीत होता है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन एक ही माता-पिता के सन्तानों में अंतर दिखाई देता है । इतना ही नहीं, एक साथ जन्मे हुए युगल में भी अंतर दिखाई देता है । माता-पिता आदि की ठीक-ठीक देखभाल होने पर भी उनके शिक्षण, संस्कार, बुद्धि, अनुभव, व्यवहार आदि में फर्क मालूम होता है । यह फर्क रज- वीर्य और वातावरण की विभिन्नता के कारण है, ऐसा कहना पर्याप्त नहीं है । पूर्वजन्म के संस्कारों के परिणाम को भी वहाँ स्थान है, ऐसा मानना युक्त मालूम होता है । ऐहिक कारण अवश्य अपना प्रभाव डालते हैं, परन्तु इतने से ही विचारणा नहीं रुक जाती । इन कारणों के पीछे भी किसी न किसी निगूढ हेतु का संचार होना चाहिए ऐसी कल्पना होती है । अतः मूल कारणों की खोज के लिये वर्तमान जीवन की परिस्थिति से आगे बढ़ना पड़ेगा । २९० संसार में ऐसे भी मनुष्य दिखाई देते हैं जो अनीति, अनाचार के कार्य करने पर भी धनी और सुखी हैं, जबकि नीति और धर्म के मार्ग पर चलनेवालों में कुछ लोग दरिद्र एवं दुःखी दिखाई पड़ते हैं । ऐसा होने का क्या कारण है ? जैसा कार्य वैसा फल कहाँ रहा ? इसका खुलासा वर्तमान जन्म के साथ पूर्वजन्म के अनुसन्धान का विचार करने पर हो सकता है । पूर्वजन्म के कर्म - संस्कार के अनुसार वर्तमान जीवन का निर्माण होता है और विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं । इसी तरह वर्तमान जीवन के अनुसार भावी जीवन की निष्पत्ति होती है; अर्थात् पूर्वजन्म के कर्म - संस्कारों का परिणाम वर्तमान जीवन में प्रकट होता है और वर्तमान जीवन के कर्म-संस्कारों का परिणाम भावि जीवन में प्रकट होता है । क्या ऐसा नहीं होता है कि कितने ही बदमाश, डाकू, और खूनी और अपराध करने के बाद इस तरह छुप जाते हैं कि वे अपने अपराध के दण्ड से बच जाते हैं, जबकि दूसरे निरपराधियों को अपराध न करने पर भी अपराध का भयङ्कर दण्ड सहन करना पड़ता है ? यह कितना अन्याय है ? ' जैसा बोओगे वैसा काटोगे' का नियम कहाँ रहा ? परन्तु यह सब गुत्थी पुनर्जन्म अथवा पूर्वजन्म के सिद्धान्त के आगे सुलझ जाती है । पूर्वजन्म में किए हुए विभिन्न और विचित्र कर्मों के विभिन्न और विचित्र परिणाम वर्तमान जन्म में उपस्थित होते हैं । परन्तु इस पर से ऐसा समझने का नहीं है कि अनीति, अन्याय Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २९१ अथवा अत्याचार करके एकत्रित किए हुए धन के बल पर भोगविलास करने वाले को उस तरह भोगविलास करने का नैतिक अथवा धार्मिक दृष्टि से कोई अधिकार प्राप्त होता है । ऐसे लोगों ने प्रायः अपना धन सीधे तौर पर से अथवा परोक्षरूप से गरीब और श्रमिकों के पास से छल - बल द्वारा ठगकर अथवा लूटकर प्राप्त किया होता है । जहाँ ऐसा हो वहाँ कोई भी सुराज्य अथवा जागरुक समाज ऐसी परिस्थिति लम्बे समय तक नहीं निभाह सकता । और यदि निभा भी ले तो प्रथम दोष उस राज्य का और दूसरा दोष उस सोते हुए समाज का है । समाज का अर्थोत्पादन और उसका योग्य विभाजन हो यह राज्य और समाज को देखने का है । कोई भी धर्म, समाज में प्रवर्तित ऐसी अराजकता का अनुमोदन करके उसे टिकाने का प्रयत्न नहीं कर सकता और वैसे धन का धर्मप्रभावना करने की इच्छा से धार्मिक समझे जानेवाले कार्य में उपयोग करने-कराने से उसे न्यायोपार्जित प्रशस्त धन के रूप से प्रतिष्ठा नहीं दे सकता । यदि दे तो वह धर्म अनीति, अनाचरण का पोषक बन जायगा गृहस्थाश्रमी का प्रथम सद्गुण न्याय से धनोपार्जन करने का है । न्याय से कमाना और उसमें से जितना बन सके उतना धार्मिक कार्य में खर्च करना यही प्रशस्त और पुण्य मार्ग है । धार्मिक कार्य में व्यय करने के लिये अथवा धर्म-प्रभावना की इच्छा से वैसे बडे कार्य करने के लिये अच्छे-बुरे किसी भी मार्ग से धन एकत्रित करना अनुचित है, श्रेयस्कर नहीं है । शास्त्रकारों का यह स्पष्ट उपदेश है कि धर्म के लिये धन की इच्छा करना इसकी अपेक्षा तो वैसी इच्छा न करना ही अधिक उत्तम है । कीचड में पैर डालकर फिर धोना इसकी अपेक्षा तो कीचड में पैर न डालना ही अच्छा है । इस पर से यह समझना सुगम है कि धर्मिक कार्य यदि न्यायो 1 १. धर्मार्थे यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ - महाभारत वनपर्व ३ अध्याय २, श्लोक ४९. इस श्लोक का दूसरा चरण 'तस्यानीहा गरीयसी' ऐसा भी मिलता है । आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में यह श्लोक श्रद्धेयतापूर्वक उद्धृत किया हुआ दिखाई देता है । जैन साहित्य में यह श्लोक ठीक ठीक प्रचलित है Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन २९२ पाजित द्रव्य से किए जायँ तो धर्म की पवित्रता सुरक्षित रह सकती है । धर्म की महिमा को बढाने का यही अच्छा और सच्चा मार्ग है । बाह्याडम्बर के लिये धर्म की पवित्रता को खतरे में नहीं डालना चाहिए। नीति से यदि धन इकट्ठा किया जाय और ऐसे न्यायपूत धन का धार्मिक कार्य में उपयोग किया जाय तो उसका प्रभाव समाज और सामान्य जनता पर बहुत अच्छा पड़ेगा । अब मूल बात पर आएँ । ऊपर कहा उस तरह परिस्थिति में पोषित और संवर्धित व्यक्तियों में भी एक की बुद्धि और स्मरणशक्ति प्रखर होती है, जबकि दूसरे की मन्द । दोनों के विचार - वर्तन में भी विभिन्नता होती है । साधन, सुविधा और श्रम समान होने पर भी एक विद्या अथवा कला जल्दी सीख लेता है, जबकि दूसरा उसमें पिछड जाता है । समान अभ्यास वाले समान परिस्थिति में बढे हुए मनुष्यों में से एक की वक्तृत्व, कवित्व अथवा संगीत कला जैसी शक्तियाँ खिलती हैं, जबकि दूसरा जन्मभर वंचित ही रहता है, अथवा पहले के विकास की तुलना में बहुत मन्द रह जाता है। छहसात वर्ष का बालक अपनी संगीतकला से सहृदय जनता को मुग्ध करता है, छोटासा बालक गणित में अपनी कुशलता दिखाता है । नाट्यरचना जैसी साक्षरता प्राप्त करता है ! क्या यह सब पूर्वजन्म की संस्कारशक्ति की स्फुरणा के बिना शक्य है ? ऐसे भी अनेक उदाहरण हमारे सम्मुख उपस्थित हैं जिनमें माता-पिता की अपेक्षा उनके बालक की योग्यता सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है । अशिक्षित माता-पिता का पुत्र शिक्षित, विद्वान और महाविद्वान् बनता है I इसका कारण केवल उसके चारों ओर की परिस्थिति में ही विद्यमान नहीं है । यदि ऐसा कहा जाय कि यह परिणाम तो बालक के अद्भुत ज्ञानतंतुओं का है, तो यह प्रश्न होता हे कि बालक का शरीर तो उसके माता-पिता के शुक्रशोणित से बना है, तो फिर उनमें (माता-पिता में) अविद्यमान ज्ञानतन्तु बालक के मस्तिष्क में आए कहाँ से ? कहीं कहीं माता-पिता के जैसी ही ज्ञानशक्ति बालक में भी दिखाई देती है । इस पर भी यह प्रश्न होता है कि ऐसा सुयोग मिला कैसे ? और इसका क्या कारण कि किसी माता-पिता Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २९३ की योग्यता अत्यन्त उच्च कक्षा की होती है, जबकि उन्हीं का बालक उनके अनेक प्रयत्नों के बावजूद साधारण बुद्धि का अथवा गँवार ही रह जाता है ? ऐसे अनेक उदाहरण हमें विचार करने के लिये प्रेरित करते हैं । बड़ी सावधानी से चलने वाले मनुष्य के सिर पर ऊपर से अचानक इँट या पत्थर गिरे और उससे गहरी चोट लगे तो ऐसी तकलीफ होने में उस मनुष्य का क्या कुछ गुनाह था ? नहीं । तो फिर अपराध के बिना यह कष्ट क्यों ? एक मनुष्य ने मूर्खतावश शंका से उत्तेजित होकर दूसरे मनुष्य के पेट में छुरा भोंक दिया और इससे वह मर गया तो इसमें उस मरने वाले का कौन सा अपराध था ? उस मरने वाले को यदि वस्तुतः निर्दोष और सज्जन मान लें तो इस प्राणान्तक प्रहार का भोग उसे क्यों बनना पड़ा ? परन्तु यदि पूर्वकर्म के अनुसंधान का विचार किया जाय तो ऐसी बातों का खुलासा हो सकता है । गर्भ से लेकर जन्म तक बालक को जो कष्ट सहने पड़ते हैं वे सब क्या बालक की अपनी करनी के परिणाम हैं, अथवा उसके माता-पिता की करनी के परिणाम हैं ? उन कष्टों को बालक की इस जन्म की करनी का परिणाम नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा-बुरा कोई भी कार्य नहीं किया है । और माता-पिता की करनी का परिणाम यदि कहा जाय तो वह भी युक्त नहीं है; क्योंकि माता-पिता अच्छा या बुरा कार्य करें तो उसका परिणाम विना कारण बालक को क्यों भुगतना पड़े ? और बालक जो कुछ सुख - दुःख का अनुभव करता है वह ऐसे ही बिना कारण ही करता है ऐसा तो माना नहीं जा सकता; क्योंकि कारण के बिना कार्य का होना असम्भव है । इन सब उदारहणों पर से मालूम हो सकता है कि इस जन्म में दिखाई देती बहुविध विलक्षणताओं का मूल केवल वर्तमान जीवन में नहीं है; न तो वह सिर्फ माता-पिता के संस्कार का ही परिणाम है और न केवल बाह्य परिस्थिति का ही परिणाम । अतः आत्मा का अस्तित्व गर्भारम्भ के समय से पूर्व भी था ऐसा मानना ही उपयुक्त है । इसी का नाम पूर्वजन्म है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैनदर्शन उस जन्म में इच्छा प्रवृत्ति द्वारा जिन कर्म-संस्कारों का संयम हुआ हो उन्हीं के आधार पर वर्तमान जन्म और तद्गत विशेषताओं का खुलासा हो सकता है । जिस युक्ति से पहले का एक जन्म सिद्ध हुआ उसी युक्ति के बल पर उससे आगे का और उससे भी आगे का इस प्रकार अनेक [अनन्त] जन्म सिद्ध हो सकते हैं । और इसी तरह आत्मा का [मोहावृत आत्मा का] भावि जन्म भी सिद्ध हो सकता है। जन्म लेते ही अशिक्षित बालक स्तनपान में स्वयं प्रवृत्त होता है । इस पर से पूर्वभव के चैतन्य की अनुवृत्ति का अनुमान शक्य बतलाया गया पूर्वजन्म यदि हो तो वह याद क्यों नहीं आता ?- ऐसा प्रश्न प्रायः किया जाता है । परन्तु इस पर पूछ जा सकता है कि इस जीवन में बनी हुई सब घटनाएँ क्या हमें याद आती है ? नहीं । बहुत सी बातें हम भूल जाते हैं । अरे, सुबह का खाया हुआ शाम को याद नहीं रहता ! तो फिर पूर्वजन्म की बात ही क्या करना ? जन्मक्रान्ति, शरीरक्रान्ति और इन्द्रियक्रान्ति- इस प्रकार समूची जिन्दगी ही जहाँ बदल जाती हो वहाँ पर फिर पूर्वजन्म का स्मरण कैसे शक्य है ? फिर भी किसी-किसी महानुभाव को आज भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आता है। प्रतिष्ठित समाचारपत्रों में ऐसी अनेक घटनाओं का ब्योरेवार वर्णन प्रकट भी हुआ है । जातिस्मरण की ये घटनाएँ मनुष्यको को पुनर्जन्म के बारे में विचार करने के लिये प्रेरित करती हैं । पुनर्जन्म मानने पर ही मनुष्य के कृत्यों का उत्तरदायित्व सुरक्षित रहता है । सुजन महानुभाव पर भी कभी घोर आपत्ति आती है और अपराध के बिना भी दण्ड भुगतना पड़ता है । परन्तु उस समय उसकी मानसिक शांति में पुनर्जन्म का सिद्धांत बहुत उपकारक होता है । वर्तमान जीवन की सत्कृतियों का अनुसन्धान यदि आगे न हो तो मनुष्य हताश हो जाय, विपत्ति के समय उसके चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई दे ! हमारे अपने जीवन में 'अकस्मात्' घटनाएँ कुछ कम नहीं घटतीं । उन्हें अकस्मात् (अ-कस्मात् अर्थात् किसी सचेतन के बुद्धिपूर्वक प्रयत्न का Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २९५ संबंध न होने से ) भले कहा जाय, परन्तु वे निर्मूल हो ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । उनका कोई-न-कोई मूल -कारण तो होना ही चाहिए । अकस्मात् भी कस्मात्-किससे--क्यों ? इस दुर्गम और अज्ञेय वस्तु की खोज का विचार करने पर अदृष्ट(कर्म) के नियम तक पहुंचना पड़ता है । संसार में कोई मनुष्य यदि ऐसा विचार करे कि आत्मा आदि कुछ भी नहीं है, जितने दिन मैं इस जीवन में अमन-चैन से गुजारूँ उतने ही दिन मेरे हैं, इस जिंदगी की समाप्ति के बाद मेरा यह देह पंचभूतों में मिल जायगा और 'मैं' जैसा कोई व्यवहार नहीं रहेगा तो फिर मैं जीवदया पालूँ या जीवहिंसा करूँ, सत्य बोलूँ या झूठ बोलूँ, संयमित रहूँ या उच्छंल बनूँ अथवा मन में जो आए वैसा करूँ तो इसमें हर्ज क्या है ? क्योंकि मेरे किए कर्मों का दण्ड अथवा पुरस्कार मुझे देनेवाला कोई है ही नहीं । परन्तु ऐसा विचार सर्वथा भ्रान्त है । इस जीवन में यदि कोई अनीति-अनाचार, चोरी-डकैती अथवा किसी की हत्या आदि करके मालदार हो जाय और गुलछर्रे उडाए तो उसके इन दुष्कृत्यों के उत्तरदायित्व से वह दूर नहीं हो सकता, उसका उत्तरदायित्व नष्ट नहीं हो जाता । सज्जनों की दुःखी दशा और दुर्जनों की सुखी दशा के पीछे ऐहिक परिस्थिति के अतिरिक्त यदि कोई 'अदृष्ट कारण न हो और उनकी वैसी दशा का हिसाब यहीं पर चुकता हो जाता हो, उसका अनुसन्धान आगे न चलता हो तो आध्यात्मिक जगत् में अथवा सृष्टि की व्यवस्था में यह कम अन्धेर नहीं समझा जायगा । कर्म का नियम एक ऐसा सुनिश्चित एवं न्याय्य विश्वशासन है कि वह प्राणीमात्र के कार्य का योग्य उत्तर देता है । इसीलिये मानवसमाज को अच्छा बनाने में कर्मवाद का शासन, जो कि पुनर्जन्मवाद का स्त्रष्टा भी है; अत्यन्त उपयोगी है । इस शासन का एकमेव तात्पर्य खराब काम छोड़कर अच्छे काम करने में ही रहा हुआ है। इसी के परिणामस्वरूप उत्तरोत्तर विकास साधकर पूर्णता के शिखर पर पहुंचा जा सकता है ।। ____ जन्मान्तरवाद के सिद्धान्त से परोपकार-भावना पुष्ट होती है और कर्तव्यपालन में तत्परता आती है । परोपकार अथवा कर्तव्यपालन के लौकिक Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैनदर्शन फल प्रत्यक्ष हैं, फिर भी यदि जिन्दगी के दुःखों का अन्त न आए तो भी इससे जन्मान्तरवादी हताश नहीं होता । आगामी जीवन की श्रद्धा उसे कर्तव्यमार्ग पर स्थिर रखती है । वह समझता है कि 'कर्तव्यपालन कभी निष्फल नहीं जाता; वर्तमान जीवन में नहीं तो आगामी जन्म में उसका फल मिलेगा ही । इस प्रकार परलोक के श्रेष्ठ लाभ की भावना से मनुष्य सत्कर्म में प्रवृत्त रहता है । उसे मृत्यु का भय भी नहीं रहता, क्योंकि आत्मा को नित्य और अमर समझनेवाला मनुष्य मृत्यु को शरीर-परिवर्तन के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं समझता । वह तो मृत्यु को एक कोट उतारकर दूसरा कोट पहनने जैसा मानता है, और सत्कर्मशाली के लिये वह प्रगतिमार्ग का द्वार है ऐसा वह समझता है । इस प्रकार मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने से और जीवनप्रवाह निरन्तर अखण्डित रूप से बहता हुआ, अनन्त और सदा सत् है ऐसा समझने से जीवन को उत्तरोत्तर अधिक विकसित बनाने की विवेकसुलभ भावना के बल पर उसकी कर्तव्यनिष्ठा विशेष बलवती बनती है। आत्मा की नित्यता समझनेवाला ऐसा भी समझता है कि 'दूसरे का बुरा करना वस्तुतः स्वयं अपना बुरा करने जैसा है । वैर से वैर बढता है । किए कर्मों के बन्ध अनेक जन्मों तक जीव के साथ लगे रहते हैं और अपना फल कभी-कभी तो लम्बे अर्से तक चखाते हैं ।' इस तरह समझनेवाला आत्मवादी मनुष्य सब जीवों को अपने आत्मा के सामने समझकर सब के साथ मैत्रीभाव रखता है । मैत्री के प्रकाश में उसका राग-द्वेष का अन्धकार कम होता जाता है । इस प्रकार उसके समभाव का संवर्धन होता है और उसका विश्वप्रेम विश्ववात्सल्य प्रतिदिन विकसित होता जाता है । देश, जाति,वर्ण अथवा सम्प्रदाय के भेदों के बीच भी उसका दृष्टिसाम्य (दृष्टि में समभाव) अबाधित ही रहता है । वह समझता है कि 'मरने के बाद आगमी जन्म में मैं कहाँ, किस भूमि पर, किस वर्ण में, किस जाति में, किस सम्प्रदाय में, किस वर्ग में और किस स्थिति में पैदा होऊंगा इसके बारे में क्या कहा जा सकता है ? अतः किसी देश, जाति, वर्ण अथवा सम्प्रदाय के तथा गरीब अथवा निम्न पंक्ति के समझे जनेवाले मनुष्य के साथ असद्भाव रखना, उसे तुच्छ समझना, उसकी ओर तुच्छ दृष्टि से देखना अथवा मद-अभिमान या द्वेष करना उचित नहीं है।' इस प्रकार आत्मवाद के सिद्धान्त से निष्पन्न होनेवाले Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २९७ उच्च दृष्टिसंस्कार के परिणामस्वरूप आत्मवादी अथवा परलोकवादी सज्जन किसी भी प्राणी के साथ विषमभाव न रखकर 'पण्डिताः समदर्शिन: ' के महान् वाक्यार्थ को अपने जीवन का ध्येय बनाता है और ऐसा करके परहित के साधन के साथ आत्महित के साधन को गूंथने के कार्य में यत्नशील बनता है । अनेक तार्किक मनुष्य ईश्वर अथवा आत्मा के अस्तित्व के बारे में सन्देह रखते हैं, परन्तु जब उनके ऊपर कोई महान् विपत्ति आती है अथवा वे किसी दारुण व्याधि के शिकार बनते हैं तब उनके हृदय का तार्किक आवेश मन्द पड़ जाता है और उनका मन ईश्वर को ( किसी अज्ञेय अलक्ष्य चेतनाशक्ति को ) याद करने में लीन हो जाता है । वे उसकी ओर झुकते हैं, उसका स्मरण करते हैं और उसको अपनी दुर्बलता, असहायता एवं पापपरायणता बार-बार जता कर अपनी सम्पूर्ण दीनता प्रकट करते हैं तथा उत्कण्ठित हृदय के भक्तिपूर्ण भाव से उसकी शरण चाहते हैं । मनुष्य की मानसिक कट्टरता और नास्तिकता चाहे जितनी प्रबल क्यों न हो, परन्तु दुःख के समय उसमें अवश्य फर्क पड़ता है । घोर विपत्ति के समय उसकी सारी उच्छृंखलता हवा हो जाती है । और उसमें भी मरण की नौबत ! यह तो गम्भीर से गम्भीर परिस्थिति है । उस समय तो कट्टर से कट्टर नास्तिक भी एकदम ढीला हो जाता है । उसकी नास्तिकता मोम की तरह पिघल जाती है और दुःख के पंजे में से छूटने के लिये किसे प्रार्थना करना, किस की शरण में जाना इसी की खोज में उसकी आँखें घूमती रहती है 1 I आत्मा का पुनर्जन्म और परमात्मा का अस्तित्व यदि न माना जाय, पुण्य-पाप को कल्पनासम्भूत एवं मिथ्या समझ लिया जाय तो आध्यात्मिक जगत् में अथवा सृष्टि की व्यवस्था में जीवनगति के एक श्रेष्ठ आधार से वंचित होना पड़े । सात्त्विक उत्कर्ष का यात्री अपनी अनुभूति को उद्बोधन करके कहता है कि 'आत्मा नहीं है, भगवान् नहीं हैं' —— ऐसा विचार करने के साथ ही हृदय की सब प्रसन्नता लुट जाती है और नैराश्य का घोर अन्धकार उस पर छा जाता है । आत्मा, कर्म (पुण्य-पाप), पुनर्जन्म, मोक्ष, और परमात्मा - यह पंचक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैनदर्शन ऐसा है कि एक के मानने पर बाकी के सब उसके साथ आ जाते हैं, अर्थात् एक का स्वीकार करने पर पाँचो का स्वीकार हो जाता है और एक को स्वीकृत न किया जाय तो पाँचों ही अस्वीकृत हो जाते हैं । आत्मा का स्वीकार किया तो पुनर्जन्म का स्वीकार हो ही गया । इसके साथ पाप पुण्यरूप कर्म भी आ गए । आत्मा की पूर्ण शद्धि ही मोक्ष है, अतः मोक्ष का स्वीकार भी आत्मा के साथ ही हो जाता है । और मोक्ष ही ईश्वरत्व है अर्थात् परम शुद्ध मुक्त आत्मा ही परमात्मा है और वही ईश्वर है । अत: ईश्वरवाद भी आत्मवाद में ही आ जाता है ।। ईश्वर की सिद्धि के लिये लम्बे पारायण की आवश्यकता नहीं है । थोड़े में ही वह समझा जा सकता है । जगत् में जिस प्रकार मलिन दर्पण का अस्तित्व है उसी प्रकार शुद्ध दर्पण का भी अस्तित्व है, अथवा जिस प्रकार मलिन सुवर्ण का अस्तित्व है उसी प्रकार शुद्ध सुवर्ण का भी अस्तित्व है ही । इस प्रकार यदि अशुद्ध आत्मा का अस्तित्व है तो शुद्ध (पूर्ण शुद्ध) आत्मा की विद्यमानता भी न्यायसंगत है । जिस तरह मलिन दर्पण पर से शुद्ध स्वच्छ दर्पण का अथवा मलिन सुवर्ण पर से शुद्ध सुवर्ण का अस्तित्व ध्यान में आता है (और अपनी आँखों से देखा भी जा सकता है), उसी तरह अशुद्ध आत्मा पर से शुद्ध (पूर्ण शुद्ध) आत्मा के अस्तित्व की बात भी हृदय में उतर सकती है । अशुद्ध वस्तु शुद्ध हो सकती है तो अशुद्ध आत्मा भी शुद्ध बन सकता है । जीवों की अंशतः शुद्धि देखी जाती है तो उनकी पूर्ण शुद्धि भी सम्भव है और जहाँ वह सिद्ध हुई है वही परमात्मा है, और जो उसे सिद्ध करेगा वह परमात्मा होगा । परमात्म-पद की प्राप्ति ही ईश्वरत्व का प्रकटीकरण है। यही ईश्वरपद है । [१३] यह जगत् किसी समय नया बना हो ऐसा नहीं है । वह हमेशा से है । हाँ, इसमें परिवर्तन होता रहता है । अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनमें मनुष्य आदि प्राणीवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा होती है और अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनेमें किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती । वे जड़ तत्त्वों के विविध संयोगों से प्राकृतिक प्रयोगों से बनते रहते हैं । उदाहरणार्थ, मिट्टी, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २९९ पत्थर आदि पदार्थों के एकत्रित होने से छोटे-बड़े टीले अथवा पहाड़ आदि का बनना, यहाँ-वहाँ के जलप्रवाह के मिलने से उनका नदी रूप से बहना, वन का वनराजि से हरा-भरा हो जाना, भाप का पानी के रूप में बरसना और फिर पानी की भाप हो जाना ।। यह बात पहले अच्छी तरह से कही गई है कि 'कर्म' जड होने पर भी जीव के चेतन के वशिष्ठ संसर्ग से उसमें एक ऐसी शक्ति पैदा होती है जिससे वह अपना अच्छा-बुरा फल नियत समय पर जीव को चखाता है । जीव मात्र चेतन है और इस चेतन के सम्बन्ध के बिना जड़ कर्म फल देने में समर्थ नहीं होते । चेतन जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसकी बुद्धि होती है । इसी से बुरे कर्म के बुरे फल की इच्छा न होने पर भी वह ऐसा काम कर बैठता है जिससे उसे अपने कर्म के अनुसार फल मिल जाता है । कर्म का करना एक बात है और फल न चाहना दूसरी बात है । किए हुए कर्म का फल न चाहने मात्र से वह फल मिलना रुक नहीं जाता । सामग्री एकत्रित होने पर कार्य स्वतः होने लगता है । दृष्टान्त के तौर पर, यदि एक मनुष्य धूप में घूमें, गरम चीजें खाए और ऐसा चाहे कि मुझे प्यास न लगे तो क्या प्यास लगे बिना रहेगी ? तात्पर्य यह है कि जीव के अध्यवसाय के अनुसार विचित्र द्रव्य के संयोगरूप 'संस्कार' उसमें पड़ते हैं । इसी को कर्मबन्ध कहते है और यह (कर्मबन्ध) ही चेतन जीव के संसर्ग से सबल हो जाने के कारण अपना फल जीव पर प्रगट करता है । इस प्रकार कर्म से प्रेरित होकर जीव कर्म के फल भुगतता है । कर्मवादी जनों का ऐसा मन्तव्य होने से जीव को उसके कर्मों का फल भुगतने में ईश्वर प्रेरणा मानने की उन्हें आवश्यकता नहीं रहती । सांख्य और मीमांसक भी ईश्वर १. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते । -भगवद्गीता, अ, ५, श्लो. १४. अर्थात्--ईश्वर लोगों का कर्तृत्व नहीं करता, उनसे कर्म नहीं कराता अथवा उनके कर्मों का सर्जन नहीं करता, तथा जीवों के कर्मों के साथ फल का सम्बन्ध स्थापित नहीं करता अर्थात् जीवों के कर्मों को फल देने के लिये प्रेरित नहीं करता अथवा जीवों Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनदर्शन की प्रेरकता में नहीं मानते । श्रमण-संस्कृति तो उसे मानती ही नहीं । मन-वचन-काय के शुभ-अशुभ कार्यों से शुभाशुभ कर्म उपार्जित होते हैं-कर्म के इस सामान्य और सुप्रसिद्ध नियम को ध्यान में रख कर मनुष्य यदि स्वयं अच्छे कार्य करे, कराए और अच्छे कर्म का अनुमोदक बने तो अपना भविष्य अच्छा और सुखकर बना सकता है । इसके विपरीत-दूसरे की निन्दा करने वाला, कटु एवं क्रूर मजाक उड़ानेवाला कटु एवं और बीभत्स शब्द बोलनेवाला तथा असत्यभाषी' मनुष्य अपने इस वाणी-पाप के कारण मूक गूंगा होता है । मानसिक शक्ति का दुरुपयोग करनेवाला पगल होता है । हाथ का दुरुपयोग करने वाला अपाहिज होता है। पग का दुरुपयोग करनेवाला लंगडा होता है। व्यभिचारी पुरुष नपुंसक होता है । अतः सर्वाङ्ग-सुखी होने की इच्छावाले को मनसा, वाचा, कर्मणा सत्कार्य करते रहना चाहिए । दान में यदि कीर्ति की कामना हो तो दान का आनन्द उड़ जाता के कर्मों का फल वह स्वयं नहीं देता किन्तु यह सब स्वभाव से होता है । स्वभाव से अर्थात् अपनी वृत्ति से या अपनी प्रकृति से अर्थात् जीव की वृत्ति से अथवा जीव और कर्म को प्रकृति से । १. मन्मनत्वं काहलत्वं मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्याऽसत्यफल कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥५३॥ ___ -हेमचन्द्र योगशास्त्र, २ रा प्रकाश । अर्थात्-मृषावाद के पाप के कारण मूंगापन, गूंगापन तथा मुख के रोग प्राप्त होते है। इसी श्लोक की वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र ने नीचे का श्लोक उद्धृत किया है । मका जडाश्च विकला वाग्हीना वाग्जुगुप्सिताः । पूतिगन्धमुखाश्चैव जायन्तेऽनृतभाषिणः ॥ २. नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे । भवेन्नराणां स्त्रीणां चाऽन्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥१०३॥ ___ -हेमचन्द्र, योगशास्त्र २ रा प्रकाश । अर्थात् —व्यभिचार के पाप से भवान्तर में नपुंसकत्व, तिर्यग्योनि में जन्म और दौर्भाग्य प्राप्त होता है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड ३०१ है । सार्वजनिक उपयोग के लिये अपने बंगले का दान देनेवाला उस बँगले पर खास अपने नाम का शिलालेख लगाए तो इससे कीर्ति-मोह के परिणामस्वरूप ऐसा भी हो सकता है कि वह दाता बाद के किसी जन्म में बँगलेवाले किसी धनिक के घर जन्म ले, परन्तु कार्य चिन्ता का भार उसके मन पर इतना अधिक रहे कि उस बँगले में रहने का आनन्द ही उसे न मिल सके । कभी-कभी देखा जाता है कि मनुष्य निरपराध होने पर भी किसी भयंकर आपत्ति में फँस जाता है और साथ ही उसमें से बाल-बाल बच भी जाता है । इसका कारण यह है कि जिस मनुष्य ने इस जन्म में या पूर्वजन्म में जिस तरह का अपराध किया ही नहीं उसका उस दण्ड देने के लिये कोई भी व्यक्ति या सरकार समर्थ नहीं है, क्योंकि कर्म का समर्थ सिद्धान्त उसका रक्षण करता है। नहीं किए हुए अपराध के लिये जब किसी को अपराधी प्रमाणित करके दण्ड दिया जाता है तब ऐसे दण्ड का कारण यह हो सकता है कि उस मनुष्य ने उस प्रकार का अपराध इसी जन्म में पहले कभी किया होगा अथवा पिछले किसी जन्म में वैसा अपराध किया होगा, परन्तु युक्ति प्रयुक्ति द्वारा अपने अपराध को उसने छुपा रखा होगा । परन्तु कर्म के नियम ने उसकी खबर ली । इसलिये वह कर्म देर से ही सही, किन्तु इस तरह अपना फल उसे चखाने के लिये तैयार हुआ । कर्म का नियम क्रिया-प्रतिक्रिया (क्रिया की प्रतिक्रिया) का नियम है । दूसरे को किया गया अन्याय किसी-न-किसी रूप में वापस मिलता ही है। अच्छी क्रिया का अच्छा और खराब क्रिया का खराब परिणाम अचूक मिलता है । हिंसक, विश्वासघातक, पापी, अधर्मी मनुष्य सुखी तथा अच्छे और धर्मी मनुष्य दुःखी दिखाई देता है इसके बारे में हमें यह समझना चाहिए कि एक मनुष्य के पास पहले के उपार्जित-इकट्ठे किए हुए गेहूँ पड़े हैं जिससे वह वर्तमान में कोदों का धान बोने पर भी वर्तमान में पूर्वोपार्जित गेहूँ का Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैनदर्शन उपभोग कर सकता है । परन्तु बाद में जब गेहूँ समाप्त हो जाएगे तब वर्तमान में बोया हुआ कोदों का धान ही खाने का उसके नसीब में आयगा । इसी प्रकार आज का पापाचरण करनेवाला मनुष्य पूर्व के विचित्र पुण्य-कर्म से उपार्जित धन अथवा सुख-सुविधा का वर्तमान में उपभोग कर सकता है, परन्तु बाद में (उपभोग का समय पूर्ण होने पर ) उसके वर्तमान के पापाचरण खराब फल लिए हुए उसके सम्मुख खड़े होंगे ही । इसी प्रकार दूसरे किसी के पास पूर्व के उपाजित-संगृहित कोदों का धान पड़ा हो और इस समय वह गेहूँ बो रहा हो, तो वर्तमान में कोदों के धान से वह चला लेगा, परन्तु बाद में [वह समाप्त होने पर ] वर्तमान में बोए हुए गेहूँ उसे मिलेंगे ही । इसी तरह आज का पुण्याचरणवाला मनुष्य भी पूर्व दुष्कृत से उपाजित दुःख वर्तमान में भले ही सहे, परन्तु उसका कठिन काल समाप्त होते ही उसके वर्तमानकालीन पुण्याचरण अपने मीठे फल के साथ उसके सम्मुख उपस्थित होंगे ही । मनुष्य का वर्तमान जीवन पुण्याचरण अथवा पापाचरणयुक्त भले हो, परन्तु पहले की उसकी खेती का फल उसे मिले बिना कैसे रह सकता है ? ___यदि वर्तमान जीवन पुण्याचरणमय हो और पूर्व की बुरी खेती के खराब फल उसके साथ युक्त हों तब, तथा वर्तमान जीवन पापाचारयुक्त हो और पहले की अच्छी खेती के मीठे फल उसके साथ जुड जाय तब सामान्य जनता को वह आश्चर्यरूप प्रतीत होता है, परन्तु इसमें आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है । कर्म का नियम अटल और व्यवस्थित है । अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा-यह उसका अबाधित शासन है । यह एक प्राकृतिक नियम है । यह क्रिया-प्रतिक्रिया का स्वाभाविक सिद्धान्त है। अमुक संयोग अथवा अमुक परिस्थिति का अमुक परिणाम अवश्यम्भावी है और उसमें किसी तरह अन्यथा होता ही नहीं, इसका नाम प्राकृतिक नियम है । जैसी परिस्थिति वैसा परिणाम--इसी को प्राकृतिक नियम कहते हैं । यह नियम हमें अमुक करने की या अमुक न करने की आज्ञा नहीं करता, परन्तु यदि तुम्हें अमुक परिणाम चाहिए तो अमुक कार्य करो ऐसा कहता है । गेहूँ बोने से गेहूँ मिलते हैं और काँटे बोने से काँटे मिलते हैं Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड ३०३ इस प्रकार प्रकृति हमें कहती है । परन्तु इन दोनों में से क्या बोना इसकी आज्ञा हमें प्रकृति नहीं करती । हमें जो पसन्द हो वह हम बो सकते हैं, क्योंकि चुनाव करने का स्वातन्त्र्य प्रकृति ने हमें पहले से दे रखा है । परन्तु बोने के बाद एक के बदले दूसरा मिले ऐसी आशा रखना व्यर्थ है, क्योंकि प्रकृति का नियम अटल है । गेहूँ बोए हों तो गेहूँ और काँटे बोए हों तो कांटे मिलेंगे । इसमें दूसरी बात ही नहीं हो सकती । इस तरह सत्कृत्य के सुख-शान्ति अभ्युदय, विकास जैसे अच्छे फल मिलते हैं और दुष्कृत्य के अशान्ति, दुखः, अवनति, पराभव, शोक - सन्ताप जैसे खराब फल मिलते हैं । कर्म का यह अचल नियम है । पोषक, हानिकर, अथवा प्राणहारक जैसा आहार लें उसका वैसा प्रभाव लेनेवाले पर पड़ेगा ही । इसी प्रकार जिस तरह का आचरण हम करेंगे उस तरह का सूक्ष्म प्रभाव अवश्य हम पर पड़ेगा । 1 जो मनुष्य अपने बालकों की ओर लापरवाह रहता है वह भविष्य के लिये वन्ध्यत्व का कर्म बाँधता है । जो अपने को मिले हुए धन का बिना विचार किए दुरुपयोग करता है अथवा फिजुलखर्जी करता है वह भविष्य के लिये दरिद्रता को आमंत्रित करता है । जो स्त्री-पुरुष अपने पति अथवा पत्नी के प्रेम की अवगणना करते हैं वे भविष्य के लिये वैधव्य अथवा वैधुर्य के बीज बोते हैं । जो मनुष्य अपने उच्चाधिकार का दुरुपयोग करता है वह भविष्य के लिये किसी के दास होने की तैयारी करता है । जो मनुष्य अपने अवकाश का दुरुपयोग करता है वह भविष्य के लिये संकटाकीर्ण जीवन की सृष्टि करता है । जो अपने को मिली हुई परिस्थिति और साधनों का सदुपयोग करता है उसे भविष्य में अधिक अच्छी परिस्थिति तथा अधिक अच्छे साधन उपलब्ध होते हैं । जो अपने साधन और परिस्थिति के अनुसार यथाशक्य लोकसेवा करता है उसे भविष्य में अधिक अच्छे साधन और अधिक अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होती है । जो अपने को मिले हुए अधिकार का सदुपयोग करता है वह भविष्य में विशेष अधिक अधिकार प्राप्त करता है । जो ईर्ष्याभाव रखे बिना तथा स्वामित्व का अधिकार अथवा किसी भी प्रकार की शर्त रखे बिना दूसरे को चाहता है वह भविष्य में अनेक लोगों का प्रेमभाजन बनता है । जो अपने धन का उपयोग जनता की गरीबी I Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनदर्शन कम करने में करता है वह भविष्य में सेवाभावी धनाढ्य होता है । अप्रामाणिक रूप से व्यवहार करनेवाला, छलप्रपंच से, विश्वासघात से, दूसरे को कलेजा चीरकर पैसा इकट्ठा करनेवाला मनुष्य भविष्य के लिये विनाश को आमंत्रित करता है । अपने ही लिये जीनेवाले मनुष्य को भविष्य में सब कोई त्याग करते हैं । सारांश यह है कि मिले हुए साधन और परिस्थिति का दुरुपयोग न हो और उसका सदुपयोग ही हो ऐसी सावधानी प्रत्येक मनुष्य को सर्वदा रखनी चाहिए - स्वपर के हित के लिये, इहलोक - परलोक के सुख के लिये । जिस प्रकार वैयक्तिक कर्मों में से कुटुम्ब - कुटुम्ब के बीच के अच्छाबुरे कौटुम्बिक कर्म का प्रारम्भ होता है, उसी प्रकार जब एक गाँव अपने आसपास के गाँवों के लिये दुःखरुप होता है, आसपास के गाँवों की खेती को नुकसान पहुँचाता है, उनके पशुओं की चोरी करता है और दूसरे गाँवों के खर्च पर अपना स्वार्थ साधता है तब वह गाँव दूसरे गाँवों के साथ का खराब कर्म बाँधता है । इसी प्रकार एक देश में बसनेवाली विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों तथा वर्गों आदि के अच्छे-बुरे रीतरिवाज, अच्छी-बुरी मान्यताएँ, अच्छे-बुरे धन्धे तथा स्वार्थी अथवा परमार्थी जीवन से समग्र देश के कर्म का निर्माण होता है और उसकी पापमात्रा के आधिक्य के परिणामस्वरूप भूकम्प, अवृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल तथा महामारी, विषूचिका जैसे रोग देश में बार-बार फलते हैं अथवा आन्तरिक संघर्ष पैदा होता है । इसी प्रकार एक देश दूसरे देश के साथ जब अच्छा या बुरा सम्बन्ध रखता है तब उसके परिणामस्वरूप वह अच्छा या बुरा कर्मसम्बन्ध बाँधता है । इसे अन्तर्राष्ट्रीय कर्मबन्ध कहते हैं, और इस कर्मबन्ध के अनुसार फल भोगे जाते हैं । सामुदायिक दुष्कर्म के कटु फल समुदायव्यापी बनते हैं । ऐसे समय में भी जो विशिष्ट पुण्यशाली होता है वह बाल-बाल बच जाता है । किसी भी समाज में सभी मनुष्य अन्यायी, विश्वासघाती अथवा अत्याचारी नहीं होते, फिर भी जो थोडे बहुत होते हैं उनके किये हुए दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप कभी-कभी सारे समाज को हैरान होना पड़ता है इसका क्या कारण है ? इसके बारे में विचार करने पर मालूम होता है कि जिस समाज में अन्यायी अथवा अत्याचारी मनुष्य, समाज अथवा राज्य की ओर Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड ३०५ से किसी भी प्रकार की रोकथाम के बिना निरंकुशरूप से अपना दुष्कृत्य जारी रख सकते हैं और जिस समाज के समझदार और अग्रणी माने जानेवाले लोग नैतिक हिम्मत दिखला कर समाज अथवा राज्य के सामने उनका भण्डाफोड करने के बदले अथवा उनकी रोकथाम का प्रयत्न करने के बदले नीचा मुँह करके उन्हें निभा लेते हैं और इस तरह परोक्षरूप से उनका अनुमोदन —— जैसा करते हैं उस समाज को अपने वैसे दोषों के कारण दुःख सहन करना पड़े यह स्पष्ट है । सामुदायिक कर्म व्यक्तियों के कर्मों में से उत्पन्न होते हैं, अतः समग्र सुधारों की कुंजी व्यक्ति की सुधारणा में रही हुई हैं । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को कर्म के नियमबल का विचार करके मनसा, वचसा, कर्मणा अच्छे होने के लिये और अच्छा कार्य करने के लिये प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है । इसी में व्यक्ति की और समुदाय की, समाज की और देश की समृद्धि और सुख-शान्ति रही हुई है । मनुष्यों में यदि नैतिकता और बन्धुभाव हो तो व्यक्ति, समाज तथा देश अनेकविध तकलीफों से बच जाएँ और उनकी जीवनयात्रा सुखी तथा विकासगामी बने । उद्यम से उदय में आए कर्मों में भी परिवर्तन अथवा शैथिल्य लाया जा सकता है । यह बात अन्धे, अपाहिज-लंगडे, मूकबधिर के लिये शालाएँ स्थापित करके उन्हें जो स्वाश्रयी बनाया जाता है उस पर से देखी जा सकती है । इस प्रकार अनेक देशों ने महान् पुरुषार्थ कर के अपनी प्रजा के कठिन प्रारब्ध की कठोरता को कम किया है । व्यक्ति भी सच्चा और उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन जी करके अपने 'प्रारब्ध' को सुधार सकता है । वैयक्तिक विकास और समूहगत सार्वजनिक विकास भी 'प्रारब्ध' कर्म को शिथिल कर सकता है, उसकी कठोरता को कम कर सकता है और उस कर्म के पार होकर आगे बढ सकता है । 'Fate is the friend of the good, the guide of the wise, the tyrant of the foolish, the enemy of the bad .' W.R. Alger Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनदर्शन यह सूक्ति कहती है कि नसीब सज्जनों का मित्र है, विवेकबुद्धिवालों का मार्गदर्शक है, मूल् का अत्याचारी स्वामी है और दुर्जनों का दुश्मन है । [१४] -परलोक की विशिष्ट विवेचनासामान्यतः 'परलोक' शब्द से 'मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाली गति' ऐसा अर्थ समझा जाता है, और उसे सुधारने के लिये हमें कहा जाता है । परन्तु जिस गति में हमें भविष्य में जन्म लेने का है उस गति का समाज यदि सुधरा हुआ न हो तो उस समाज में भविष्य में जन्म लेकर, हम चाहे जैसे हों फिर भी सुखी नहीं हो सकते । देवगति और नरकगति के लोगों के साथ हम तनिक भी सम्पर्क इस जन्म में स्थापित नहीं कर सकते । अतः यदि हम कुछ सुधार का कार्य करना चाहें तो मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के बीच रहकर उनके बारे में ही कर सकते हैं । इस सुधारणा का लाभ हमें इस जन्म में तो मिलेगा ही, परन्तु साथ ही भविष्य के जन्म के समय (मनुष्य अथवा पशुलोक में पुनर्जन्म होने पर ) भी मिल सकता है । अतः जहाँ तक हमारा अपना सम्बन्ध है वहाँ तक 'परलोक' शब्द का ऐसा विशिष्ट अर्थ भी करना चाहिए जिससे मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के साथ के हमारे कर्तव्यों का हमें भान हो और वैसे कर्तव्यों का पालन करके हम इस लोक के साथ-साथ हमारे परलोक (मृत्यु के बाद के जीवन) को भी सुधार सकें । इस दृष्टि को सम्मुख रखकर नीचे की विचारणा प्रस्तुत की जाती है । परलोक अर्थात् दूसरे लोग-हमारे-खुद के सिवाय दूसरे लोग । परलोक का सुधार अर्थात् दूसरे लोगों का सुधार । हमारे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख परिचित और नित्य सम्पर्क में आनेवाले दो लोक तो स्पष्ट हैं : मनुष्यसमाज और पशुसमाज । इन दो समाजों को सुधारने के प्रयत्न को परलोक की सुधारणा का प्रयत्न कह सकते हैं । प्रत्येक मनुष्य यदि दृढ़रूप से ऐसा समझने लगे कि हमारा दृश्यमान परलोक यह मनुष्यसमाज और पशुसमाज है और परलोक की सुधारणा का अर्थ इस मानवसमाज और Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ चतुर्थ खण्ड पशुसमाज को सुधारने का होता है, तो मानवसमाज का चित्र ही बदल जाय और पशुसमाज की ओर भी सद्भावना जाग्रत हो उठे जिससे उनके लिये खाने-पीने, रहने आदि का सुयोग्य प्रबन्ध किया जा सके । मानवसमाज के सुखसाधन में पशुसमाज का हिस्सा क्या कम है ? अमेरिका आदि देशों की गोशालाएँ कितनी स्वच्छ और व्यवस्थित होती है ! ‘मनुष्य मरकर कहाँ जन्म लेगा वह निश्चित नहीं है । अतः उसे वह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि मानवसमाज और पशुसमाज नानाविध बुराईयों और बीमारियों के कारण दुर्गतिरूप होगा तो मरकर उसमें जन्म लेनेवाला वह (मनुष्य)भी दुर्गति में पड़ेगा । इसलिये लोकहित और स्वहित दोनों दृष्टिओं से अपना आचरण और व्यवहार इतने अच्छे रखने की आवश्यकता उपस्थित होती है जिससे कि इन दोनों का समाज के ऊपर बुरा प्रभाव पड़ने के बदले अच्छा प्रभाव पड़ता रहे । नगरपालिका (Municipality) जिस प्रकार नगर के सब नागरिकों के लिये सुख की वस्तु बनती है उसी प्रकार हमारे मनुष्य तथा पशु संसाररूपी नगर की म्युनिसिपलिटी उस नगर के सब नागरिकों के सुख की वस्तु बन सकती है । अतः इन दोनों वर्गों को सुधारने के लिये यदि प्रयत्न किया जायतत्परता रखी जाय तो वह वस्तुतः हमारे अपने परलोक को सुधारने का प्रयत्न होगा । दूसरा एक परलोक है मनुष्यों की प्रजा-सन्तति । मानव-शरीर द्वारा होनेवाले सत्कर्म अथवा दुष्कर्म के जीवित संस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आते हैं । मनुष्य में यदि कोढ़, क्षय, प्रमेह, केन्सर जैसे संक्रामक रोग हों तो उसका फल उसकी सन्तति को भुगतना पड़ता है । मनुष्य के अनाचार, शराबखोरी आदि दुर्व्यसनों के कारण होनेवाले पापसंस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आएंगे और वे मानवजाति की घोर दुर्दशा करेंगे । अतः परलोक को सुधारने का अर्थ है संतति को सुधारना, और सन्तति को सुधारने का अर्थ है अपने आपको सुधारना । जिस प्रकार मनुष्य का पुनर्जन्म रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में होता है उसी प्रकार विचारों द्वारा मनुष्य का पुनर्जन्म उसके शिष्यों में तथा आसपास Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैनदर्शन के मनुष्यों में होता है। हमारे जैसे आचार-विचार होंगे उनका वैसा ही प्रभाव शिष्यों तथा निकटवर्ती लोगों पर पड़ेगा । मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है कि जान में अथवा अनजान में उसका प्रभाव दूसरों पर और दूसरों का प्रभाव उस पर पड़ने का ही । मनुष्य के ऊपर अपने आपको सुधारने का अथवा बिगाडने का उत्तरदायित्व तो है ही, परन्तु साथ ही साथ मानवसमाज के उत्थान अथवा पतन में भी उसका हिस्सा साक्षात् अथवा परम्परया ही है । रक्तवीर्यजन्य सन्तति अपने पुरुषार्थ द्वारा पितृजन्य कुसंस्कारों से शायद मुक्त हो सके, परन्तु यदि विचारसन्तति में विष का संचार हो तो उसे पुनः स्वस्थ करना प्रायः दुष्कर ही हो जाता है । आज के प्रत्येक व्यक्ति की नजर इस नई पीढ़ी पर लगी हुई है । कोई इसे मजहब की शराब पिला रहा है तो कोई हिन्दुत्व की, कोई जाति की तो कोई कुल-परम्परा की । न मालूम कित-कितने प्रकार की विचार-धाराओं की चित्र-विचित्र शराब मनुष्यों की दुर्बुद्धि ने तैयार की है ? और अपने वर्ग की उच्चता, अपने अधिकार के स्थायित्व तथा स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिये धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि अनेकविध सुन्दर व मोहक पात्रों में भर-भर कर भोलाभाली नूतन पीढी को पिला कर उसे स्वरूपच्युत किया जाता है । वे इसके नसे में चूर होकर और मनुष्य की समानता के अधिकार को भूलकर अपने भाईयों के साथ क्रूर एवं नृशंसतापूर्ण व्यवहार करने में झिझकते नहीं हैं । आज के ऐसे विचित्र और कलुषित युग में जहाँ मनुष्य की यह दशा है वहाँ पशुरक्षा तथा पशुसुधार ही बात क्या करना ? जीवनशक्ति के वास्तविक तत्त्व का यथार्थ ज्ञान ही ऐसी उज्ज्वल ज्योत है जो इस सारे कालुष्य-अन्धकार को दूर कर पवित्र प्रकाश फैला सकती है । निःसन्देह, यह प्रकाश उसके धारक को सर्वमङ्गलरूप मार्ग पर चढा देता है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड न्यायपरिभाषा : प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्-जिसके द्वारा वस्तु का यथार्थ बोध होता हो उसे 'प्रमाण' कहते हैं । सत्य ज्ञान होने पर सन्देह, भ्रम व मूढ़ता दूर होते हैं और वस्तु का स्वरूप यथार्थ रूप से ज्ञात होता है, अत: वह (ज्ञान) प्रमाण समझा जाता है । 'प्रमाण' के आधार पर वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने पर यदि वह वस्तु इष्ट हो तो उसे प्राप्त करने के लिये, अनिष्ट हो तो उसे छोड़ने के लिये मनुष्य तत्पर बनता है । प्रमाण के दो भेद हैं: प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद सांव्यवहारिक (लौकिक) और पारमार्थिक का विवेचन तृतीय खण्ड के १५वें लेख में आ गया है । इद्रियों से प्रत्यक्ष होने में वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होता है या नहीं इस विषय में जानने योग्य बात इस प्रकार है - जीभ से रस चखा जाता है; यहाँ जीभ और रस का संयोग बराबर होता है। त्वचा से स्पर्श किया जाता है; यहाँ त्वचा और स्पृश्य वस्तु का संयोग स्पष्ट है । नाक से गन्ध ग्रहण की जाती है; यहाँ गन्धयुक्त द्रव्य का नाक के साथ अवश्य सम्बन्ध होता है । दूर से गन्ध आने में भी दूर से आनेवाले गन्धयुक्त सूक्ष्म द्रव्य नाक साथ अवश्य संयुक्त होते हैं । और दूर से अथवा समीप से आनेवाले शब्द जब कान के साथ टकराते हैं तभी कान से सुना जाता है । जैनों के मन्तव्य के अनुसार शब्द भाषा-वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध है, अर्थात् शब्द द्रव्य है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन इस प्रकार जीभ, त्वचा, नाक और कान — ये चार इन्द्रियाँ वस्तु के साथ संयुक्त होकर अपने विषय को ग्रहण करती हैं । परन्तु चक्षु से दिखनेवाली समीपस्थ अथवा दूरस्थ वस्तु चक्षु के पास नहीं आती यह स्पष्ट है, वह तो अपने स्थान पर ही रहती है, अतः चक्षुइन्द्रिय के साथ संयुक्त हुए बिना ही उस वस्तु का प्रत्यक्ष होता है । इसीलिये जैन न्यायशास्त्र में उसे (चक्षु को) 'अप्राप्यकारी' कहा है । 'अप्राप्य' अर्थात् प्राप्ति ( संयोग ) किए बिना ही 'कारी' अर्थात् विषय को ग्रहण करनेवाली । अवशिष्ट चार इन्द्रियाँ 'प्राप्यकारी' कहलाती है । मन भी चक्षु की भाँति 'अप्राप्यकारी' है । परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद किए गए हैं : स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । स्मरण और प्रत्यभिज्ञान : अनुभूत वस्तु की याद आने को 'स्मरण' कहते हैं । गुम हुई वस्तु जब हाथ में आती है तब 'यह वही है' इस प्रकार का जो ज्ञान होता है वह 'प्रत्यभिज्ञान' है । पहले देखा हुआ मनुष्य जब पुनः मिलता है तब 'यह वही चन्द्रकान्त है' ऐसा जो प्रतिभान होता है वह प्रत्यभिज्ञान है । ३१० स्मरण होने में पहले अनुभव ही कारण है, जबकि प्रत्यभिज्ञान होने में अनुभव और स्मरण दोनों अपेक्षित हैं । स्मरण में 'वह घड़ी' ऐसी स्फुरणा होती है, जबकि प्रत्यभिज्ञान में 'यह वही घड़ी' ऐसा प्रतिभास होता है । इस पर से इन दोनों की भिन्नता समझी जा सकती है । गुम हुई वस्तु को देखने से अथवा पहले देखे हुए मनुष्य को पुनः देखने से 'यह वही' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है उसमें 'वही' भाग स्मरणरूप है और 'यह' भाग उपस्थित वस्तु अथवा मनुष्य का दर्शनरूप अनुभव है । इस तरह अनुभव और स्मरण इन दोनों के सहयोग से उत्पन्न 'यह वही' इस प्रकार का संकलित ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है । १. वस्तु पर पड़नेवाले प्रकाश की किरणें जब आँख पर गिरती हैं तब वस्तु का दर्शन होता है, ऐसा वैज्ञानिक मन्तव्य है । तो भी यह तो स्पष्ट है कि चक्षु - इन्द्रिय वस्तु का परस्पर साक्षात् संयोग नहीं होता । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३११ इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान को एकत्व - प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । 'रोज़ गाय के जैसा होता है' ऐसा जानने के बाद रोज़ को देखने पर 'रोज़ गाय के जैसा होता है' ऐसा जाना हुआ याद आने पर 'गाय के जैसा रोज़ है ' इस प्रकार इन दोनों का (गाय और रोज़ का ) जो सादृश्य प्रतीत होता है वह सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार 'गाय से भैंस विलक्षण है' इस तरह इन दोनों का (गाय और भैंस का ) जो वैलक्षण्य-वैसदृश्य प्रतीत होता है वह वैसदृश्य - प्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्यभिज्ञान के दूसरे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं । तर्क और अनुमान : अनुमान में व्याप्तिज्ञान की आवश्यकता है ।' व्याप्ति' अर्थात् अविनाभावसम्बन्ध अथवा नियत - साहचर्य । जिसके बिना जो न रहता हो उसके साथ का उसका उस प्रकार का सम्बन्ध अविनाभाव सम्बन्ध है । अग्नि के बिना धूम नहीं रहता, इस प्रकार का अग्नि के साथ धूम का सम्बन्ध है । अतः यह सम्बन्ध अविनाभाव सम्बन्ध है। धूम का अग्नि के साथ का । यह अविनाभाव - सम्बन्धरूप 'व्याप्ति' धूम में होने से धूम व्याप्य (अग्नि का व्याप्य) कहलाता है, क्योंकि अग्नि द्वारा धूम व्याप्त है, और अग्नि धूम को व्याप्त करके रहती है अतः वह व्यापक (धूम का व्यापक) कहलाती है । इस प्रकार व्यापक के साथ का व्याप्य का सम्बन्ध अर्थात् व्यापक की ओर से व्याप्य में जो व्याप्तता होती है उसे व्यापित कहते हैं । व्याप्य से व्यापक की सिद्धि ( अनुमान) होने से व्यापक को 'साध्य' कहते हैं और यह सिद्धि (अनुमान) व्याप्य द्वारा होती है अतः उसे ( व्याप्य को) . 'साधन' अथवा 'हेतु' कहते हैं । व्याप्ति का निर्णय करने में अन्वय- व्यतिरेक की योजना उपयोगी है । 'अन्वय' अर्थात् साध्य के होने पर ही साधन का होना (अर्थात् साधन के होने पर साध्य का अवश्य होना) और 'व्यतिरेक' अर्थात् १. अविनाभाव शब्द का पदच्छेद इस प्रकार है : अ + विना + भाव अर्थात् 'बिना' यानी साध्य के बिना और 'अ' तथा 'भाव' यानी अभाव अर्थात् न होना— साधन का । मतलब कि साध्य के बिना साधन का न होना । इस तरह अबिनाभाव सम्बन्ध साधन का अथवा हेतु का एक मात्र असाधारण लक्षण बनता है । - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन ३१२ साध्य के न होने पर साधन का अवश्य न होना । अग्नि होने पर धूम का होना ( अर्थात् धूम होने पर अग्नि का अवश्य होना) — यह हुआ धूम में अन्वय, और अग्नि न होने पर ही धूम होता ही नहीं यह हुआ धूम में व्यतिरेक । इस प्रकार अग्नि की तरफ का अन्वय और व्यतिरेक दोनों धूम में होने से धूम में अग्नि की तरफ की व्याप्ति रही हुई समझी जा सकती है, क्योंकि धूम अग्नि का पूर्णरूप से अनुगामी है धूम अग्नि से व्याप्य है, परन्तु अग्नि धूम से व्याप्य नहीं है; क्योंकि जहाँ धूम होता है वहाँ पर निरपवादरूप से अग्नि होती ही है, परन्तु जहाँ अग्नि होती है वहाँ सर्वत्र धूम हो ही ऐसा नहीं है । धूम वहाँ पर हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । अतः धूम से अग्नि का अनुमान हो सकता है, परन्तु अग्नि से धूम का अनुमान नहीं हो सकता । जहाँ साध्य और साधन दोनों एक-दूसरे को समानरूप से व्याप्त होकर रहते हों वहाँ की व्याप्ति समव्याप्ति कहलाती है । जैसे कि रूप से रस का और रस से रूप का अनुमान किया जा सकता है । उपर्युक्त व्याप्ति का निर्णय तर्क द्वारा होता है । उदाहरणार्थ, धूम अग्नि के बिना नहीं होता, जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ वहाँ सर्वत्र अग्नि है, ऐसा कोई धूमवान् प्रदेश नहीं है जहाँ अग्नि न हो - इस प्रकार का धूम का अग्नि के साथ का नियत साहचर्य, जिसे व्याप्ति कहते हैं, तर्क द्वारा सिद्ध होता है । दो वस्तुएँ अनेक स्थानों पर साथ ही दिखाई दें अथवा क्रमभावी दिखाई दें इससे उनका परस्पर व्याप्तिनियम ( सहभाव अथवा क्रमभावरूप अविनाभाव सम्बन्ध) सिद्ध नहीं हो सकता । किन्तु इन दोनों को अलग होने में अथवा नियतरूप से क्रमभावी न मानने में क्या विरोध है ? इसका पर्यालोचन करने पर विरोध सिद्ध होता हो तो - अर्थात् उक्त प्रकार का सम्बन्ध निःशंक एवं निरपवाद प्रतीत होता हो तभी इन दोनों का व्याप्तिनियम सिद्ध हो सकता है । इस तरह इस नियम की परीक्षा करने का जो अध्यवसाय है उसे तर्क कहते हैं । जैसे कि, धूम तथा अग्नि के बारे में ऐसा तर्क किया जा सकता है कि 'यदि अग्नि के बिना भी धूम होता हो तो वह अग्नि का कार्य नहीं हो सकेगा, अतः इन दोनों की जो पारस्परिक कार्यकारणता है वह टिक नहीं - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३१३ सकेगी और ऐसा होने पर धूम की अपेक्षावाला अग्नि की जो खोज अवश्य करता है वह नहीं करेगा ।' इस प्रकार तर्क-व्यापार से इन दोनों की व्याप्ति निश्चित होती है, और व्याप्ति के ज्ञान से अनुमान का निर्माण होता है । धूमगत उस व्याप्ति-नियम का जब तक ज्ञान न हो तबतक धूम देखने पर भी अग्नि का अनुमान नहीं हो सकता यह स्पष्ट है । जिस मनुष्य को धूमगत उस व्याप्तिनियम का ज्ञान है वह धूम देख कर उस स्थान पर अग्नि का अनुमान कर सकता है । इस पर से स्पष्ट होता है कि अनुमान के लिये व्याप्तिनिश्चय की आवश्यकता है और व्याप्तिनिश्चय तर्काधीन है । साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्-अर्थात् साधन से-हेतु से साध्य के (परोक्ष साध्य के) ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं । मतलब कि साधन की उपलब्धि होने पर तथा साध्य के साथ की साधनगत व्याप्ति का स्मरण होने पर साध्य का अनुमान होता है । दृष्टान्त के तौर पर, जिसने धूम और अग्नि का विशिष्ट सम्बन्ध जान लिया है अर्थात् अग्नि के साथ की व्याति धूम में है यह जो समझा है वह मनुष्य किसी स्थान पर धूम देखकर और तद्गत(धूमगत) व्याप्ति का(अग्नि के साथ की व्याप्ति का) स्मरण करके उस स्थान पर अग्नि होने का अनुमान करता है। इस तरह, अनुमान होने में साधन की (हेतु की) उपलब्धि और साधन में रही हुई साध्य के साथ की व्याप्ति का स्मरण ये दोनो अपेक्षित है । यहाँ पर अनुमानप्रयोग के थोड़े उदाहरण भी देख लें । (१) अमुक प्रदेश अग्निवाला हैं, धम होने से (२) शब्द अनित्य है, उत्पन्न होने से । (३) यह वृक्ष है, नीम होने से, (४) रोहिणी का उदय होगा, कृत्तिका का उदय हुआ है इसलिये (५) भरणी का उदय हो चुका है, कृत्तिका का उदय होने से । (६) अमुक फल रूपवान् है, रसवान् होने से; अथवा रसवान् है, रूपवान् होने से । इनमें पहला हेतु कार्यरूप है, क्योंकि धूम अग्नि का कार्य है । दूसरा और तीसरा स्वभावरूप है । चौथा हेतु पूर्वचर है, क्योंकि कृत्तिका नक्षत्र रोहिणि का पूर्ववर्ती है । पाँचवाँ उत्तरचर है, क्योंकि कृत्तिका भरणी से उत्तरवर्ती है । और छठा सहचर हेतु है, क्योंकि रूप और रस का साहचर्य है । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन इस पर से देखा जा सकता है कि हेतु किस-किस प्रकार के हो सकते हैं और यह भी देखा जा सकता है कि हेतु साध्य की उपस्थिति के समय उपस्थित होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । उगी हुई कृत्तिका उगनेवाली रोहिणी का तथा उग चुकी भरणी का अनुमान करा सकती है । अतः कहने का अभिप्राय यह है कि हेतु और साध्य चाहे एकसमयवर्ती हों या भिन्नसमयवर्ती हों तथा एकस्थान वर्ती हों या भिन्नस्थानवर्ती हों, सिर्फ उनका विशिष्ट सम्बन्ध ही अपेक्षित है और यह सम्बन्ध निश्चित एवं व्यवस्थित होना चाहिए । हेतु होने के लिये समसमयवर्ती अथवा समस्थानवर्ती होने का नियम नहीं है । एकमात्र अविनाभाव का तत्त्व ही उसमें अपेक्षित है । उदित, कृत्तिका उगनेवाली रोहिणी का अथवा उग चुकी भरणी का अनुमापक बनती है वह उन दोनों के परस्पर के नियत सम्बन्ध के कारण ही - क्रमभाविता के नियत सम्बन्ध के कारण ही और यह सम्बन्ध अविनाभावरूप है । ३१४ यह तो स्पष्ट है कि हेतु जिसका विरोधी हो उसके अभाव का वह अनुमान कराए । किसी मनुष्य के विशिष्ट प्रकार के मुखविकार पर से उसमें क्रोधोपशम न होने का अनुमान हो सकता है । यहाँ पर मुखविकाररूप हेतु क्रोधोपशमन का विरोधी होने से अथवा क्रोधोपशम के विरोधी ऐसे क्रोध का परिणाम होने से क्रोधोपशमन के अभाव का अनुमापक होता है । किसी मनुष्य में आरोग्य के अनुरूप चेष्टा दिखाई न देने से उनके शरीर में किसी व्याधि के अस्तित्व का ही अनुमान होता है । आरोग्य के अनुरूप चेष्टा जहाँ दिखाई न दे वहाँ आरोग्य के अभाव का अर्थात् व्याधि के अस्तित्त्व का ही अनुमान हो सकता है । नमूने के तौर पर इतना लिखना यहाँ पर बस होगा । दूसरे के समझाए बिना ही अपनी बुद्धि से हेतु द्वारा जो अनुमान किया जाता है उसे 'स्वार्थानुमान कहते हैं । दूसरे को समझाने के लिये अनुमानप्रयोग किया जाता है । जैसे कि, यहाँ अग्नि है । क्योंकि धूम दिखाई देता है । जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि नियमेन होती है, जैसे कि सरसोईघर में । यहाँ पर भी धूम दिखाई दे रहा है । अतः यहाँ पर अग्नि अवश्य है । इस प्रकार दूसरे को समझाने के लिये जो वाक्यप्रयोग किया 1 1 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३१५ जाता है उसे 'परार्थानुमान' कहते हैं । प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन—ये पाँच प्रकार के शब्दप्रयोग प्रायः परार्थानुमान में किए जाते हैं । 'यह प्रदेश अग्निवाला है' यह 'प्रतिज्ञा' वाक्य है । 'क्योंकि धूम दिखाई देता है' यह 'हेतु' वाक्य है । व्याप्तिपूर्वक रसोईघर का दृष्टान्त देना 'उदाहरण' वाक्य है । 'उस तरह यहाँ भी धूम दिखाई दे रहा है' इस प्रकार उपनय का अवतरण 'उपनय' वाक्य है । और अन्त में 'अतः यहाँ पर अग्नि अवश्य है' ऐसा निर्णय करना 'निगमन' वाक्य है । इस तरह की अनुमानप्रणाली होती है । साथ का जो हेतु मिथ्या हो अर्थात् जिसमें साध्य के अविनाभावसम्बन्ध घटित न होता हो उसे 'हेत्वाभास' कहते हैं निर्णयात्मक अनुमान करने में मिथ्या प्रमाणित होता है । 1 । हेत्वाभाव आगम : आप्त (प्रामाणिक) मनुष्य के वचनादि से जो ज्ञान होता है वह 'आगम' अथवा 'शब्द' प्रमाण कहा जाता है । जो प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से विरुद्ध न हो, जो आत्मविकास और उसके मार्ग पर सच्चा प्रकाश डालता हो ऐसा जो शुद्ध तत्त्वप्ररुपक वचन होता है वही वस्तुतः 'आगम' शास्त्र है । सद्बुद्धि से यथार्थ उपदेश देनेवाले को आप्त कहते हैं । ऐसे 'आप्त के कथन को 'आगम' कहते हैं । सर्वोत्कृष्ट आप्त तो वह है जिसके रागद्वेष आदि दोष क्षीण हो गए हैं और जिसने अपने पूर्ण निर्मल ज्ञान से उच्च और पवित्र उपदेश दिया है । आगम - शास्त्र में प्रकाशित गम्भीर तत्त्वज्ञान पर मध्यस्थ एवं सूक्ष्म बुद्धि से विचार न किया जाय तो अर्थ का अनर्थ होने की पूर्ण सम्भावना रहती है । दुराग्रह का त्याग, मध्यस्थवृत्ति, स्थिर सूक्ष्म दृष्टि तथा शुद्ध जिज्ञासाभाव - इतने साधन प्राप्त हुए हों तो आगमिक तत्त्वों की गहराई में भी निर्भिकता से सफलतापूर्वक विचरण किया जा सकता है । कभी-कभी ऊपर-ऊपर से विचार करने पर बहुत से महर्षियों के Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैनदर्शन विचारों में विरोध मालूम पड़ता है । परन्तु उन विचारों पर सुयोग्य समन्वयदृष्टि रखकर भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेवाले विचारों में भी रहा हुआ साम्य देखा जा सकता है । प्रमाण का विवेचन संक्षेप में हो गया । वस्तु का स्वरूप समझने में यदि भूल या भ्रम हो अर्थात् उसका यथास्थित स्वरूप समझने के बदले उलय स्वरूप समझ लिया जाय तो उस वस्तु के बारे में जो प्रवृत्ति होती है वह न तो उपयुक्त ही होती है और न सफल ही होती है । रस्सी को यदि सर्प समझ लिया जाय तो इस भ्रम से, कोई भी वास्तविक कारण न होने पर भी, भयवश शरीर कांपने लगता है । मृगजल को सच्चा जल मानकर प्यास बुझाने की इच्छा से उसके पीछे दौड़ा जाय तो ऐसा प्रयत्न निष्फल ही जायगा और अन्त में निराशा ही मिलेगी । भ्रमवश मित्र को शत्रु अथवा शत्रु को मित्र मान लिया जाय तो उनके साथ जो प्रवृत्ति होती है वह उपयुक्त न होकर विपरीत ही होती है। ये सब भ्रमजन्य प्रवृत्ति के उदाहरण हैं । भ्रम अर्थात् उलटी समझ, अतः इसका ज्ञान में- यथार्थ ज्ञान में समावेश नहीं होता । तृतीय खण्ड के १५ वें लेख में यह बताया गया है कि मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल इन पाँच ज्ञानों में से अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष ) है, जबकि मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष हैं । श्रुतज्ञान, परोक्ष प्रमाण के एक भेद 'आगम' का निर्देशक है । मतिज्ञान का एक विभाग, जो इन्द्रिय द्वारा होनेवाले रूपदर्शनादि ज्ञानों का है, वह (इन्द्रियरूप परनिमित्त से उत्पन्न होता है, अतः वस्तुतः परोक्ष होने पर भी) 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' कहलाता है । और स्मरण तर्क, अनुमान आदिरूप मतिज्ञान का दूसरा विभाग तो 'परोक्ष प्रमाण' में ही अन्तर्भूत है । इस प्रकार मति श्रुतादिरूप ज्ञानपंचक के प्राचीन विभाग के साथ प्रत्यक्ष परोक्षरूप दो प्रकार के प्रमाणोंवाले विभाग का सामञ्जस्य स्थापित हो जाता है । १. अनुयोगद्वार सूत्र (पत्र २११ ) में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रकार चार प्रमाणों का उल्लेख है । वहाँ इन प्रमाणों की विचारणा न्याय (गौतम) दर्शन की प्रमाण - विचारणा जैसी देखने में आती है । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३१७ स्थानाङ्गसूत्र के ४थे स्थान के ३रे उद्देश में उपर्युक्त चार प्रमाणों का उल्लेख है, किन्तु इसी सूत्र के दूसरे स्थान के प्रथम उद्देश में प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों का भी उल्लेख है जो नन्दीसूत्र में तो है ही । भगवतीसूत्र (शतक ५, उद्देश ३) में उक्त चार प्रमाणों का उल्लेख अनुयोगद्वार की गवाही देकर किया गया है। 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' ऐसा प्रत्यक्ष का विशिष्ट प्रकार सबसे पहले श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य में देखा जाता है, परन्तु वह नन्दीसूत्र के आधार पर किया गया मालूम होता है; क्योंकि नन्दीसूत्र में इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में रखा है। इन सब पर से यही निष्कर्ष निकलता है कि ज्ञानपँचक की विवेचना आगमकाल की विवेचना है और प्रत्यक्षादिरूप से प्रमाणविभाग की विवेचना बाद के तार्किक युग के संस्कारवाली विवेचना है । आगमों की संकलना* के समय प्रमाणद्वय और प्रमाणचतुष्टयवाले दोनों विभाग, ऊपर कहा उस तरह स्थानांग एवं भगवतीसूत्र में प्रविष्ट हो गए । फिर भी जैनाचार्यों का खास झुकाव तो प्रमाणद्वय के विभाग की ओर ही रहा है । इसका कारण यह है कि प्रमाणचतुष्ट्यवाला विभाग वस्तुतः न्यायदर्शन का ही है । इसीलिये उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य [१, ६] में उसे 'नयवादान्तरेण' कहा है, जबकि प्रमाणद्वयवाला विभाग तो जैनाचार्यों का स्वोपज्ञ है और तत्त्वार्थसूत्र आदि में गृहीत होकर यह जैन-प्रक्रिया में प्रतिष्ठित हुआ है । यही विभाग नन्दीसूत्र में है, किन्तु नन्दी की विशेषता यह है कि उसने प्रत्यक्ष प्रमाण में उसके एक विभागरूप अवधि आदि नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के अतिरिक्त इन्द्रियप्रत्यक्ष को भी लिया है। परन्तु उसने वह लिया है अपने पूर्ववर्ती 'अनुयोगद्वार' सूत्र के आधार पर । क्योंकि अनुयोगद्वार सूत्र में प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-आगम इन चार प्रमाणों का निर्देश करके प्रत्यक्ष प्रमाण के इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद बतलाए हैं । इसी (अनुयोगद्वार तथा नन्दी) के आधार पर इन्द्रियजन्य ज्ञान को, जिसे लोग प्रत्यक्ष कहते हैं और मानते हैं, 'सांव्यवहारिक' प्रत्यक्ष नाम देनेवाले सबसे पहले जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है । उन्होंने ऐसा करके उक्त सूत्रों का संवाद भी स्थापित किया है और लोकमत का संग्रह भी किया है । इसके बाद अकलंकदेव ने इसी प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के इन दो भेदों को प्रतिष्ठित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने परोक्ष प्रमाण का स्मृति-प्रत्यभगवतीसूत्र में उसके बहुत पीछे के बने हुए सूत्र रायपसेणइअ, उववाइअ, पनवणा, नन्दी, जीवाभिगम और अनुयोगद्वार के नाम लेकर उनकी गवाही जो दी गई है वह आगमों की संकलना के समय की योजना है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैनदर्शन अब हम जैन शास्त्रों में प्रतिपादित एक विश्वव्यापी और विश्वोपयोगी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को देखें स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद : किसी वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दु से अवलोकन करना अथवा कथन करना यह स्याद्वाद का अर्थ है । इसे अनेकान्तवाद भी कहते हैं । एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत होनेवाले भिन्न-भिन्न और विरुद्ध दिखाई देनेवाले धर्मों के प्रामाणिक स्वीकार को स्याद्वाद कहते हैं । जिस प्रकार एक ही पुरुष में पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा, मामा-भानजा, श्वसुर - दामाद आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले व्यवहार, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध की भिन्नभिन्न अपेक्षा से संगत होने के कारण, माने जाते हैं, उसी प्रकार एक ही वस्तु में, स्पष्टीकरण के लिये एक विशेष वस्तु को लेकर कहें तो एक घट में नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूप से भासित होनेवाले धर्म यदि भिन्नभिन्न अपेक्षादृष्टि से संगत होते हों तो उनका स्वीकार किया जा सकता है । इस तरह, एक वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत हो सकें ऐसे भिन्नभिन्न धर्मों के समन्वय करने को स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद कहते हैं । एक ही पुरुष अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, अपने भतीजे और भानजे की अपेक्षा से चाचा और मामा तथा अपने चाचा और मामा की अपेक्षा से भतीजा और भानजा, अपने श्वसूर की अपेक्षा से दामाद और अपने दामाद की अपेक्षा से श्वसुर बनता है और इस प्रकार इन सम्बन्धों को एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न सम्बन्धों की भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से स्वीकार करने के लिये सब तैयार हैं, इसी प्रकार नित्यत्व भिज्ञा- तर्क- अनुमान-आगम रूप से जो विभागीकरण किया है यह उनका बुद्धिकौशल है, जो आज तक समग्र जैनाचार्यों को सादर स्वीकृत है । सिद्धसेन दिवाकर का 'न्यायावतार' तार्किक संस्कार से बलाढ्य बनते जाते वातावरण की उपज है । 'न्यायावतार' में आया हुआ 'न्याय' शब्द मुख्यतः अनुमान का सूचक है; क्योंकि अनुमान के अवतरण ने उस द्वात्रिंशिकात्मक छोटे से ग्रन्थ में बहुत अधिक जगह रोकी है । इस न्यायावतार में प्रत्यक्ष - अनुमान-आगम इन तीन प्रमाणों की चर्चा आती हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३१९ 2 और अनित्यत्व आदि विरुद्ध दिखाई देनेवाले धर्म भी एक वस्तु में भिन्नभिन्न अपेक्षादृष्टि से विचार करने पर, यदि सम्भव और संगत प्रतीत होते हों तो उन्हें क्यों न स्वीकार किया जाय ? हमें यह पहले जानना चाहिए कि 'घट' क्या वस्तु है ? एक ही मिट्टी में से घड़ा, कुंडा आदि अनेक पात्र बनते हैं । फिर भी घड़े को तोड़कर उसकी ही मिट्टी में से बनाए हुए कुंडे को कोई घड़ा कहेगा ? नहीं । क्यों नहीं ? मिट्टी तो वही है । परन्तु नहीं, आकार बदल जाने से उसे घड़ा नहीं कह सकते । अच्छा, तो फिर यही सिद्ध हुआ कि घड़ा मिट्टी का अमुक आकार विशेष (एक विशेष पर्याय ) है । परन्तु इसके साथ ही हमें ध्यान रखना चाहिए कि वह आकारविशेष मिट्टी से सर्वथा भिन्न भी नहीं है । उस आकार में परिवर्तित मिट्टी ही जब घड़ा, कुंडा इत्यादि नामों से व्यवहृत होती है तो फिर घड़े के आकार और मिट्टी इन दोनों को भिन्न कैसे माना जा सकता है ? इस पर से तो यही सिद्ध होता है कि घड़े का आकार और मिट्टी ये दोनों घड़े के स्वरूप है । अब इन दोनों स्वरूपों में विनाशी स्वरूप कौनसा है और ध्रुव स्वरूप कौनसा यह देखें । यह तो हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि घड़े का आकार ( पर्याय) विनाशी है । अतः घड़े का स्वरूप तो, जो कि घड़े का आकारविशेष है, विनाशी ठहरा । घड़े का दूसरा स्वरूप जो मिट्टी है वह कैसा है ? वह विनाशी नहीं है । क्योंकि मिट्टी के वे आकार-परिणामपर्याय बदला करते हैं, परन्तु मिट्टी तो वही की वही रहती है, यह हमारी अनुभवसिद्ध बात है । इस तरह घड़े का एक विनाशी और एक ध्रुव ऐसे दो स्वरूप देखे जा सकते हैं । इस पर से यही मानना पड़ेगा कि विनाशी स्वरूप से घड़ा अनित्य है और ध्रुव स्वरूप से घड़ा नित्य है । इस प्रकार एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से नित्यभाव और अनित्यभाव के दर्शन को अनेकादर्शन कहते हैं । विशेष स्पष्टता के लिये इस पर कुछ अधिक दृष्टिपात करें । सब पदार्थों में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश लगे हुए हैं । दृष्टान्त के तौर पर सोने १. 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत्' - तत्त्वार्थसूत्र ५, २९. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनदर्शन की एक कण्ठी को लें । सोने की कण्ठी को तोड़ कर कडा बनाया । उस समय कण्ठे का नाश हुआ और कडे की उत्पत्ति हुई, यह हम स्पष्ट देखते हैं । परन्तु कण्ठी को तोड़कर, कण्ठे में जो सोना था उसी सोने का बनाया हुआ कड़ा सर्वथा नया ही उत्पन्न हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता । कड़े को सर्वथा नवीन तो तभी माना जा सकता है जब उसमें कण्ठी की कोई भी वस्तु न आए । परन्तु जब कण्ठी का सभी का सभी सोना कड़े में आया है, सिर्फ कण्ठी का आकार ही बदला है, तो फिर कड़े को सर्वथा नवीन उत्पन्न कैसे माना जा सकता है ? इसी प्रकार कण्ठी का सर्वथा विनाश भी नहीं माना जा सकता । क्योंकि सर्वथा विनाश तो तभी माना जाय जब कण्ठी की कोई यदि भी वस्तु विनाश से न बची हो । परन्तु जब कण्ठी का समूचा सोना जैसे का तैसा कड़े में आया है तो फिर कण्ठे को सर्वथा विनष्ट कैसे कहा जा सकता है ? इस पर से यह बात अच्छी से ध्यान में आ सकती है कि कण्ठी का नाश कण्ठे के आकार (कण्ठा के पर्याय) के नाश तक ही मर्यादित है, यही तो कण्ठा का नाश है और कड़े की उत्पत्ति कड़े की उत्पत्ति कड़े के आकार (पर्याय) की उत्पत्ति तक ही सीमित है और यही तो कड़े की उत्पत्ति है, जबकि इन दोनों कण्ठी और कड़े का सुर्वण तो एक ही है । अतः कण्ठी और कड़ा ये एक ही सुवर्ण के आकारभेदों के (पर्यायभेदों के) अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस पर से कोई भी कह सकता है कि कण्ठी को तोड़कर बनाए हुए कड़े में, कड़े के आकार की उत्पत्ति, कण्ठी-रूप आकार का विनाश तथा सुवर्ण की स्थिति-इस प्रकार उत्पत्ति विनाश और स्थिति (ध्रुवत्व) इन तीनों का बराबर अनुभव होता है । जहाँ दृष्टि डालो वहाँ ऐसे उदाहरण उपस्थिति है ही। जब घर गिर पड़ता है तब यह घर जिन वस्तुओं का बना था वे वस्तुएँ सर्वथा नष्ट नहीं होती । वे सब पदार्थ रूपान्तर से-स्थूल अथवा सूक्ष्म रूप से, अन्तत: परमाणु रूप से तो अवश्य जगत् में रहते हैं । इस पर से तत्त्वदृष्ट्या उस घर का सर्वांशतः विनाश घट नहीं सकता । कोई भी स्थूल वस्तु जब बिखर जाती है तब उसके अणु अथवा अणुसंघात स्वतन्त्ररूप से अथवा दूसरी वस्तुओं के साथ मिलकर नया परिवर्तन खड़ा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३२१ करते हैं । संसार के पदार्थ संसार में ही स्थूल अथवा सूक्ष्म रूप से इतस्ततः विचरण करते हैं । और उनके नए-नए रूपान्तर होते रहते हैं । दीपक बुझ गया इसका अर्थ यह नहीं समझने का कि दीपक का सर्वथा नाश हो गया । दीपक के परमाणुसमुह कायम है । जिस परमाणुसंघात से दीपक जला था वही परमाणुसंधात रूपान्तरित हो जाने से दीपक रूप से नहीं दीखता और इसीलिये अन्धकार का अनुभव होता है । सूर्य की गर्मी से पानी सूख जाता है, इससे पानी का अत्यन्त अभाव नहीं हो जाता । वह पानी रूपान्तर से बराबर कायम ही है । जब एक वस्तु के स्थूल रूप का नाश हो जाता है तब वह वस्तु सूक्ष्म अवस्था में अथवा अन्य रूप में परिणत हो जाती है, जिससे पहले देखे हुए उसके रूप में वह न दिखे यह सम्भव है । कोई मूल वस्तु नई उत्पन्न नहीं होती और किसी मूल वस्तु का सर्वथा नाश भी नहीं होता, यह अटल सिद्धान्त है । कहा है"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ॥" -भगवद्गीता २, १६ अर्थात्-असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का नाश नहीं होता । उत्पत्ति और नाश पर्यायों का होता है। दूध का बना हुआ दहीं नया उत्पन्न नहीं हुआ है; दूध का ही परिणाम दहीं है । यह गोरस दूध रूप से नष्ट होकर दहीं रूप से उत्पन्न हुआ है, अतः ये दोनों गोरस ही है । इस प्रकार सर्वत्र समझ लेने का है कि मूल तत्त्व तो वैसे के वैसे ही रहते है और उनमें जो अनेकानेक परिवर्तन रूपान्तर होते रहते हैं अर्थात् १. पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥६०॥ -श्री समन्तभद्राचार्य, आप्तमीमांसा । उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपि कः ? । -उपाध्याय यशोविजययी, अध्यात्मोपनिषद्, १-४४. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैनदर्शन पूर्व परिणाम का नाश और दूसरे परिणाम का प्रादुर्भाव होता रहता है वह विनाश और उत्पाद है । इस पर से सब पदार्थ उत्पाद, विनाश और स्थिति (ध्रुवत्व) स्वभाव के ठहरते हैं । जिसका उत्पाद, और विनाश होता है उसे जैन शास्त्रों में 'पर्याय कहते हैं और जो मूल वस्तु स्थायी रहती है उसे 'द्रव्य' कहते हैं । द्रव्य की उपेक्षा से (मूल वस्तुतत्त्व से) प्रत्येक पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । इस तरह प्रत्येक वस्तु का एकान्त नित्य नहीं, एकान्त अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य रूप से अवलोकन अथवा निरूपण करना 'स्याद्वाद' है । हेमचन्द्राचार्य अपने 'वीतरागस्तोत्र' के आठवें प्रकाश में कहते हैंआत्मन्येकान्त नित्ये स्यान्न भोग: सुख-दुःखयोः । एकान्तानित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदुःखयो ॥२॥ पुण्यपापे बन्धमोक्षौ न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ नाऽनित्यकान्तदर्शने ॥३॥ अर्थात् — आत्मा को एकान्त नित्य ( नित्य नहीं किन्तु एकान्त नित्य ) मानें तो इसका अर्थ यह होगा कि आत्मा में किसी प्रकार का अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता, कोई परिणाम अथवा परिवर्तन नहीं होता; अर्थात् आत्मा सर्वथा कूटस्थनित्य है ऐसा मानना पड़ेगा । और यदि ऐसा मान लिया जाय तो सुख-दुःख आदि की भिन्न भिन्न समयभावी भिन्न भिन्न अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होगी। आत्मा को नित्य मान करके भी यदि परिणामी ( भिन्न-भिन्न परिणामों में परिणमन करनेवाला) माना जाय तभी, निरन्तर उत्पद्यमान और विनशनशील समग्र पर्यायों (परिणामों) में वह स्थायीस्थिर स्थितिशील होने से, उसमें भिन्न भिन्न समय की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ-भिन्न-भिन्न समय के भिन्न भिन्न परिवर्तन घट सकते हैं और भिन्न भिन्न समय में उसके किए हुए सत्कर्म - दुष्कर्म के अच्छे-बुरे फल, चाहे जितने समय के बाद अथवा जन्मों पश्चात् भी उसे मिल सकते हैं । १. महात्मा बुद्ध के पैर में एक बार चलते चलते काँटा चुभ गया । उस समय उन्होनें अपने भिक्षुओं से कहा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३२३ कूटस्थनित्य मानने पर तो किसी प्रकार का अवस्थान्तर स्थित्यन्तर या भिन्न भिन्न वृत्ति प्रवृत्तियाँ और सुख-दुःख आदि की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ घट ही नहीं सकतीं । चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही नहीं, किन्तु प्रत्येक अचेतन जड़ पदार्थ में भी प्रतिक्षण होनेवाले अन्यान्य परिणामों का प्रवाह सतत चालू ही रहता है । वस्तुमात्र परिवर्तनशील है । हर क्षण उसके पर्याय बदला करते हैं । जिस प्रकार आत्मा को एकान्त नित्य मानने में ऊपर की बातें संगत नहीं होती उसी प्रकार आत्मा को एकान्त अनित्य [ सर्वथा - क्षणिक ] मानने में भी वे ही आपत्तियाँ खड़ी होती हैं । वस्तु के सतत निरन्तर परिवर्तमान पर्यायोंविवर्तों-परिणामो परिवर्तनी में अनुस्यूत एक स्थायी द्रव्य मानना न्यायप्राप्त है । आत्मा भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भिन्न भिन्न पर्यायों में निरन्तर परिणत होता रहता है, फिर भी उन सब अवस्थाओं में स्वयं आत्मरूप से नित्य अखण्ड रहता है । उदाहरणार्थ, कोई पुस्तक, वस्त्र या छाता मैला हो अथवा उस पर छींटे पड़े अथवा दाग लगे अथवा उसे रंगा जाय तो जिस प्रकार वह पुस्तक, वस्त्र या छाता वह व्यक्ति-मिट नहीं जाता उसी प्रकार आत्मा की अवस्था में —— उसके भावों में परिवर्तन होता है उससे वह आत्मा (वह व्यक्ति) मिट नहीं जाता। जिस प्रकार मनुष्य के अथवा हाथी, घोड़े के शरीर में परिवर्तन होने पर भी वह मनुष्य अथवा हाथी या घोड़ा ( वह व्यक्ति) मिट नहीं जाता परन्तु वह मनुष्य ही अथवा हाथी, घोड़ा ही दुबला-मोटा हुआ है या दूसरे रूप से उसमें परिवर्तन हुआ है ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार आत्मा में भिन्न भिन्न परिणाम होते रहने से आत्मा आत्मरूप से मिट नहीं इत एकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ! || ३६१ ॥ - आ० हरिभद्र का शास्त्रवार्त्तासमुच्चय. अर्थात् — हे भिक्षुओ ! इस भव से इक्यानवे भव में मैंने एक पुरुष का शक्ति के द्वारा वध किया था । इसके फलस्वरूप मेरे पैर में काँटा चुभा है । १. कूटस्थ अर्थात् कूट यानी पर्वत के शिखर की भाँति अथवा लोहे के घन की तरह स्थिर | किसी तत्त्व को सर्वथा अपरिणामी और निर्विकार बतलाने के लिये 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग किया जाता है । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनदर्शन जाता । ये सब में परिवर्तन, परिणाम अथवा पर्याय आत्मा के ही होने से उन सब में आत्मा आत्मारूप से अखण्ड बना रहता है । सुवर्ण का धुंधला पड़ना अथवा उजला होना-ऐसे सामान्य परिवर्तन की बात तो दूर रही, परन्तु कुण्डल, कण्ठी, कड़ा, करधनी आदि उसके भिन्न-भिन्न रूपान्तर भी उसी(सुवर्ण) के ही हैं । उसके इन सब रूपान्तरों में, उसके इन सब भिन्नभिन्न आकाररूप पर्यायों में वह बराबर अनुस्यूत(अनुगत) रहता है। इसी प्रकार आत्मा के एक ही जन्म की नहीं, अपितु भिन्न भिन्न जन्मों की विविध अवस्थाओं में भी आत्मा व्यक्तिरूप से अखण्ड बना रहता है । और ऐसा होने पर ही उसके एक जन्म में किए हुए सुकृत-दुष्कृत के अच्छे-बुरे फल समय आने पर उसी जन्म में अथवा दूसरे जन्म में अथवा बहुत जन्मों के बाद किसी भी भव में उसे मिल सकते हैं, तभी उसके कृत्यों का उत्तरदायित्व स्थिर रह सकता है और तभी उसका क्रमिक (जन्म-जन्मान्तरों में क्रमशः होनेवाला) विकास संचित हो सकता है तथा उसकी अनेक जन्मों में क्रमशः होनेवाली साधना के बढ़ते जाते उत्कर्ष के संचय के समुच्चितपरिणामस्वरूप किसी जन्म में वह कल्याण की उन्नत भूमि पर आरूढ़ हो सकता है । किन्तु आत्मा को सदा स्थायी, एक, नित्य, अखण्ड द्रव्य मानने के बदले केवल क्षणक्षण के पर्याय ही मानें तो ऐसा होगा कि एक क्षण के पर्याय ने जो कार्य किया था उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को ही मिलेगा, अर्थात् जिसने किया था उसे नहीं मिलने का और जिसने नहीं किया था उसे मिलने का ! यह कितनी विसंगति है ! इन दोषों को ‘कृतनाश' और 'अकृतागम' कहा जाता है । (कृतनाश का अर्थ है जिसने जो किया हो उसका फल उसे न मिलना और 'अकृतागम' का अर्थ है जिसने जो किया नहीं है उसका फल उसे मिलना ।) इस तरह एकान्त क्षणिकवाद में भी सुख-दुःखभोग, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष की उपपत्ति अशक्य बन जाती है । मतलब कि चेतन आत्मत्त्व यद्यपि नित्य है फिर भी उसे एकान्त नित्य न मानकर, परिणामी होने से उसे उस रूप से अनित्य भी मानना चाहिए । इसी प्रकार घट जैसे स्पष्ट अनित्य दिखाई देनेवाले अचेतन जड़ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३२५ पदार्थों के मृत्तिका आदि मूल द्रव्य स्थायी हैं इसलिये मूल द्रव्य की अपेक्षा से उन्हें नित्य भी मानना चाहिए । इस तरह नित्यानित्यवाद' युक्तियुक्त है । इस बारे में श्री हेमचन्द्राचार्य उपर्युक्त श्लोकों के अनुसंधान में व्यावहारिक दृष्टान्त देते हुए कहते है कि गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे ॥६॥ अर्थात्-गुड कफ करनेवाला है और सोंठ पित्तजनक, परन्तु इन दोनों के योग्य मिश्रण में ये दोष नहीं रहते । (इसी प्रकार एकान्त नित्यवाद अथवा एकान्त अनित्यवाद सदोष हैं, परन्तु नित्यानित्यवाद निर्दोष है ।) सत् के स्वरूप के बारे में भिन्न भिन्न दर्शनों के भिन्न भिन्न मन्तव्य हैं । वेदान्तदर्शन पूर्ण सत्रूप ब्रह्म को केवल ध्रुव (नित्य) ही मानता है । बौद्धदर्शन सत् पदार्थ को सर्वथा (निरन्वय) क्षणिक (मात्र उत्पाद-विनाशशील) मानता है । सांख्यदर्शन चेतनतत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव(कूटस्थ नित्य) और प्रकृतितत्त्वरूप सत् को परिणामीनित्य (नित्यानित्य) मानता है । नयायिकवैशेषिक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आत्मा आदि कतिपय सत् पदाथों १. 'जीवा णं भंते ! किं सासया, असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चई xx ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया ।' --भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देश २. इस पाठ में भिन्न-भिन्न नय की अपेक्षा से जीव का शाश्वतत्व और अशाश्वतत्व दोनों बतलाया है। स्यातामत्यन्तनाशेऽस्य कृतनाशाऽकृतागमौ । न त्ववस्थान्तरप्राप्तौ लोके बालयुवादिवत् ॥२३॥ तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः । पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवेत् ॥२८॥ इत्यादि श्लोक महान् मीमांसक कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक (आत्म०) में हैं और वे आत्मा का नित्यानित्यरूप से प्रतिपादन करते हैं । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनदर्शन को कूटस्थनित्य और घट, पट आदि सत् पदार्थों को मात्र अनित्य (मात्र उत्पाद-विनाशशील) मानते हैं । परन्तु जैनदर्शन का मन्तव्य ऐसा है कि चेतन या जड़, मूर्त या अमूर्त, स्थूल या सूक्ष्म सब सत् कहे जानेवाले पदार्थ उत्पाद, नाश और ध्रौव्य इस प्रकार त्रयात्मक हैं । ऊपर हम कह चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु में एक अंश ऐसा है जो सदा शाश्वत रहता है और दूसरा अंश अशाश्वत । शाश्वत अंश की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक (स्थिर) है और अशाश्वत अंश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक (अस्थिर) कहलाता है। इन दो अंशों में से किसी एक अंश में से किसी एक ही अंश की ओर दृष्टि जाने से वस्तु केवल अस्थिररूप अथवा स्थिररूप प्रतीत होती है, परन्तु दोनों अंशें की ओर दृष्टि डालने से वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है । अतः इन दोनों दृष्टियों के अनुसार ही जैनदर्शन सत्-वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस प्रकार त्र्यात्मक बतलाता है—एक (अस्थिरगोचर) दृष्टि के हिसाब से उत्पाद-नाशरूप और दूसरी (स्थिरगोचर) दृष्टि के हिसाब से ध्रौव्यरूप । यदि सब पदार्थ केवल क्षणिक ही हों तो प्रत्येक क्षण में नया-नया पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने से तथा उनका कोई स्थायी (अनुस्यूत) आधार न होने से उस क्षणिक परिणामपरम्परा में सजातीयता का अनुभव कभी भी शक्य नहीं होगा । अर्थात् पहले कभी देखी हुई वस्तु को पुनः देखने पर 'यह वही वस्तु है' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है वह किसी भी तरह शक्य नहीं होगा, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के लिये उसकी विषयभूत वस्तु और द्रष्टा दोनों का स्थिरत्व आवश्यक है । एकान्त क्षणिकवाद में स्मृति ही नहीं बन सकती, क्योंकि जिस क्षणपर्याय ने अनुभव किया वह तो निरन्वय नष्ट हो गया । अतः उसके द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण दूसरा क्षणपर्याय किस तरह कर सकता है ? अनुभव करनेवाला एक और स्मरण करनेवाला दूसरा ऐसा नहीं हो सकता । स्मृति और प्रत्यभिज्ञान अशक्य बनने से जगत् के परस्पर के लेन-देन के व्यवहारों की ही नहीं, जीवन के समग्र व्यवहारों की उपपत्ति दुर्घट हो जायगी । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३२७ इसी प्रकार जड़ अथवा तत्त्व चेतन सिर्फ निविकार हो तो इन दोनों तत्त्वों के मिश्रणरूप जगत् में प्रतिक्षण मालूम होती रहती विविधता, रूपान्तरदशा कभी भी उत्पन्न नहीं होगी । इसीलिये परिणामी-नित्यतावाद को जैनदर्शन युक्तिसंगत मानता है । वस्तु का सदसद्वाद भी स्याद्वाद है । वस्तु 'सत्' कहलाती है वह किस कारण ? यह विचारना चाहिए । अपने ही गुणों से-अपने ही धर्मों से प्रत्येक वस्तु सत् हो सकती है, दूसरों के गुणों से नहीं । धनवान् अपने धन से धनी है, दूसरों के धन से नहीं । पिता अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है, दूसरों के पुत्र की अपेक्षा से नहीं । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने गुणों की अपेक्षा से-अपने धर्मों की अपेक्षा से सत् है, दूसरों के गुणधर्मों की अपेक्षा से नहीं । दूसरी वस्तु के गुणों से-धर्मों से (दूसरे के स्वरूप से) यदि वस्तु 'सत्' नहीं हो सकती तो फिर कैसी हो सकती है ? असत् । इस तरह अपेक्षादृष्टि से सत् को असत् भी समझा जा सकता है । लेखन अथवा वक्तृत्वशक्ति जिसके पास नहीं है वह ऐसा कहता है कि 'मैं लेखक नहीं हूँ' अथवा मैं वक्ता नहीं हूँ' अथवा कोई ऐसा कहता है कि मैं वक्ता तो हूँ, परन्तु लेखक नहीं हूँ।' ऐसे शब्द-प्रयोगों में 'मैं' भी कहा जाता है और साथ ही 'नहीं हूँ' भी कहा जाता है; अथवा 'मैं' अमुक हूँ' भी कहा जाता है और साथ ही 'मैं' अमुक नहीं हूँ' भी कहा जाता है । और यह युक्त ही है । क्योंकि 'मैं' स्वयं सत् होने पर भी मुझमें लेखन अथवा वक्तृत्वशक्ति न होने के कारण उस शक्तिरूप से 'मैं नहीं हूँ' अर्थात् 'मैं' लेखक अथवा वक्तारूप से नहीं हूँ'; अथवा मैं वक्ता हूँ', किन्तु मुझमें लेखनशक्ति न होने से उस शक्तिरूप से 'मैं नहीं हूँ' अर्थात् 'मैं लेखकरूप से नहीं हूँ' इस प्रकार के सर्वसुगम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि सत् भी अपने में जो सत् नहीं है उसकी अपेक्षा से असत् भी हो सकता है । इस तरह भिन्न-भिन्न दृष्टिबन्दुओं की अपेक्षा से एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्त्व का स्याद्वाद घट सकता है । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैनदर्शन द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव-से विचार करने पर घट (और सब पदार्थ) अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सत् है और दूसरों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असत् है । जैसे कि काशी में, शीतकाल में उत्पन्न मिट्टी का काला घड़ा द्रव्य से मिट्टी का है अर्थात् मृत्तिकारूप है, परन्तु जलादिरूप नहीं है; क्षेत्र से काशी में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का नहीं है; काल की अपेक्षा से शीतकाल में बना हुआ है, परन्तु दूसरी ऋतु का नहीं है; भाव की अपेक्षा से श्याम वर्ण का है, अन्य वर्ण का नहीं है । विशेषरूप से देखने पर स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से द्रव्य सत् है और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से असत् है । सो इस तरह ज्ञानादिगुणरूप जीव अपने जीवद्रव्यरूप से 'है' (अस्ति), जडद्रव्य के रूप के रूप से 'नहीं है' (नास्ति) । इसी प्रकार घट, अपने घटरूप से है, कपड़े के रूप से नहीं है । हरएक वस्तु स्वद्रव्यरूप से है परद्रव्यरूप से नही है। द्रव्य के प्रदेशों (परमाणु जैसे अंशों) को 'क्षेत्र कहते हैं । घट के अवयव घट का क्षेत्र है। यद्यपि व्यवहार में आधार की जगह को क्षेत्र कहते हैं, किन्तु वह वास्तविक क्षेत्र नहीं है । जैसे 'दावात में स्याही है' । यहाँ पर व्यवहार से स्याही का क्षेत्र दावात कहा जाता है, लेकिन वास्तव में स्याही और दावात का क्षेत्र जुदा-जुदा है । यदि दावात कांच का है तो जिस जगह कांच है उस जगह स्याही नहीं है और जिस जगह स्याही है उस जगह कांच नहीं है । यद्यपि कांच ने स्याही को चारों ओर से घेर रखा है, फिर भी दोनों अपनी-अपनी जगह पर हैं । स्याही के प्रदेश-अवयव ही उसका [स्याही का] क्षेत्र है । जीव और आकाश एक ही जगह रहते हैं, परन्तु दोनों का क्षेत्र एक नहीं है । जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र है और आकाश के प्रदेश आकाश का क्षेत्र है । वस्तु के परिणमन को 'काल' कहते हैं । जिस द्रव्य का जो परिणमन है वही उसका काल है । प्रातः, सन्ध्या आदि काल भी वस्तुओं के Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३२९ परिणमनरूप हैं । एक साथ अनेक वस्तुओं के अनेक परिणमन हो सकते हैं परन्तु उनका काल एक नहीं हो सकता, क्योंकि उनके परिणमन पृथक् पृथक् हैं । घड़ी, घण्टा, मिनट, आदि में भी काल का व्यवहार होता है परन्तु यह स्व-काल नही है । व्यवहार चलाने के लिए घड़ी, घण्टा आदि की कल्पना की गई है। वस्तु के गुण-शक्ति-परिणाम को 'भाव' कहते हैं । प्रत्येक वस्तु का 'भाव' [स्व-भाव] जुदा-जुदा होता है । एकाधिक वस्तुएँ बिल्कुल समान हो तो उनके स्व-भाव परस्पर समान या सदृश कहे जा सकते हैं, किन्तु एक नहीं कहे जा सकते; क्योंकि एक द्रव्य की गुणव्यक्ति दूसरे में नहीं होती। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से 'सत्' (अस्ति) है और वही वस्तु पर-द्रव्य, पर क्षेत्र, परकाल और पर-भाव की अपेक्षा से असत्(नास्ति) है। इस तरह वस्तु अथवा व्यक्ति की 'क्या है' और 'क्या नहीं है। इस प्रकार जब दोनों तरीकों से जाँच की जाती है तब उसका स्वरूप बराबर निर्णीत हो सकता है ! अतः वस्तु सत्-असत् उभयात्मक सिद्ध होती है । ___घट यदि-स्वरूप (अपने रूप) से भी सत् न हो तो वह सर्वथा असत् बन जायगा और स्व-रूप (अपने स्वरूप) के अतिरिक्त दूसरे के (पट आदि चीजों के) स्वरूप से भी सत् हो तो घट-पटदि सब सर्वद्रव्यरूप बन जाएँगे । इसी प्रकार चेतन आत्मा अपने स्वरूप से सत् है, परन्तु यदि अचेतन द्रव्यरूए से भी सत् बनने लगे तो ? तब तो चेतन आत्मा का विशिष्ट स्वरूप ही रहने न पाए। यहाँ पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी द्रव्यादि स्वरूप ही उसका विशिष्ट स्वरूप है । सर्वथा समान वस्तुओं में भी प्रत्येक वस्तु-व्यक्ति का अपनाअपना व्यक्तित्व, अपना-अपना विशिष्ट स्वरूप भिन्न-भिन्न ही होता है। इस प्रकार अपने विशिष्ट स्वरूप से ही प्रत्येक वस्तु सत् और पर-रूप से असत् है । इस तरह अमुक अपेक्षा से सत्त्व और अमुक अपेक्षा से असत्त्व ये दोनों धर्म चेतन-अचेतन प्रत्येक वस्तु में प्राप्त होते हैं । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनदर्शन स्याद्वाद के एक ओर उदाहरण को देखें । वस्तुमात्र में समान धर्म और विशेष धर्म रहे हुए हैं । भिन्न-भिन्न घोड़ों में 'घोड़ा' 'घोड़ा' ऐसी जो एकाकार (एक जैसी) बुद्धि उत्पन्न होती है वही सूचित करती है कि सब घोड़ों में समान धर्म-सामान्य तत्त्व-समानता-एकरूपता है । परन्तु अनेक घोड़ों में से अपना घोड़ा अथवा अमुक घोड़ा जो पहचान लिया जाता है इस पर से सभी घोड़े एक दूसरे से विशेषता भिन्नता-पृथक्तावाले भी सिद्ध होते हैं । इस तरह सभी वस्तुएँ सामान्य-विशेष स्वरूपवाली समझी जा सकती है । वस्तु का यह सामान्य--विशेष स्वरूप परस्पर सापेक्ष है । इस तरह प्रत्येक वस्तु को सामान्य-विशेष उभयरूप समझना अनेकान्तदर्शन है । सामान्य दो प्रकार है : तिर्यक्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य । भिन्नभिन्न अश्वों में 'अश्व' 'अश्व' ऐसी जो एकाकार प्रतीति होती है वह अश्वत्व रूप धर्म को लेकर यह अश्वत्व, जो कि सब अश्वों का एक सामान्य स्वरूप है, 'तिर्यक्सामान्य' है । और एक ही व्यक्ति अथवा पदार्थ में निरन्तर परिवर्तमान पर्यायों में जो सामान्य तत्त्व अनुगत (अनुस्यूत) होता है वह 'ऊर्ध्वतासामान्य' है; जैसे कि सुवर्ण के बने हुए कटक, कुण्डल, कंकण आदि भिन्न-भिन्न आकार के पदार्थों में अनुगत सुवर्ण 'उर्ध्वतासामान्य' है । इसी प्रकार एक ही मनुष्य-व्यक्ति बालक, कुमार, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थाओं में से गुजरता है, फिर भी हमें वह व्यक्ति वही का है ऐसा जो सामान्य तत्त्व का भान होता है वह ऊर्ध्वतासामान्य है। विशेष दो प्रकार का है : गुण और पर्याय । इसके बारे में भी जरा विस्तार से देखें कोई पुद्गल रूप [रूप, रस, गन्ध, स्पर्श] के बिना कभी भी नहीं होता । रूप पुद्गल के साथ सदा सहभावी है । परन्तु सामान्यतः रूप पुद्गल के साथ सदा सहभावी होने पर भी नील, पीत आदि विषे वर्ण आदि पुद्गल के साथ सदा सहभावी नहीं हैं । नील, पीत आदि पर्याय-परिणाम बदलते रहते हैं । अतः जो सहभावी है उन्हें 'गुण' और जो क्रमभावी (परिवर्तनशील) हैं उन्हें 'पर्याय' कहते हैं । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३३१ इसी प्रकार आत्मा का सदा सहभावी स्वरूप चेतना 'गुण' है और उसके ज्ञान 'दर्शन' जैसे विविध उपयोग 'पर्याय' हैं, अथवा सामान्यतः ज्ञान 'गुण' है और उसके विशेष 'पर्याय' है' । प्रत्येक द्रव्य में शक्तिरूप से अनन्त गुण हैं और वे आश्रयभूत द्रव्य से तथा परस्पर एक दूसरे से अविभाज्य हैं । प्रत्येक गुण - शक्ति के भिन्न-भिन्न समय में होनेवाले (त्रैकालिक) पर्याय अनन्त हैं । द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियाँ उत्पन्न तथा नष्ट नहीं होती । अतः द्रव्य और उसकी शक्तियाँ नित्य अर्थात् अनादि - अनन्त हैं, जबकि उनके सब पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होने के कारण अनित्य हैं—सादि सान्त हैं, परन्तु व्यक्तिशः, न कि प्रवाह की अपेक्षा से । प्रवाह को अपेक्षा से तो वे भी अनादि-अनन्त हैं । द्रव्य में अनन्त शक्ति होने से तज्जन्य पर्याय-प्रवाह भी अनन्त ही एक साथ चालू रहता है । भिन्नभिन्न-शक्तिजन्य भिन्न-भिन्न पर्याय एक ही समय में एक द्रव्य में मिलते हैं, परन्तु एकशक्तिजन्य भिन्न-भिन्न समयभावी सजातीय पर्याय एक द्रव्य में एक ही समय में नहीं होते । इस तरह एक पुद्गल द्रव्य में रूप, गन्ध आदि भिन्न-भिन्न शक्तियों के भिन्न-भिन्न पर्याय एक ही समय में होते हैं, परन्तु एक रूप-शक्ति के नील, पीत आदि विविध पर्याय एक ही समय में नहीं होते । इसी प्रकार आत्मा में चेतना, सुख, वीर्य आदि शक्तियों के भिन्न-भिन्न विविध पर्याय एक ही समय में नहीं होते हैं, परन्तु एक चेतनाशक्ति के विविध उपयोग — पर्याय तथा दूसरी शक्तियों के दूसरे विविध पर्याय एक समय में नहीं होते; क्योंकि प्रत्येक शक्ति का एक द्रव्य में एक समय में एक ही पर्याय व्यक्त होता है । 'स्याद्वाद शब्द 'स्यात्' और 'वाद इन दो से बना है । 'स्यात्' अर्थात् अमुक अपेक्षा से - अमुक दृष्टिकोण से । वह (स्यात्) यहाँ पर अव्यय है और अनेकान्त का सूचक है । अत: अनेकान्तरूप से कथन यह अर्थ स्याद्वाद १. गुणः सहभावी धर्मः Xx पर्यायस्तु क्रमभावी ।' वादिदेवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोक अ० ५, सू० ७-८. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनदर्शन का हुआ । इसीलिये 'स्याद्वाद' का दूसरा नाम 'अनेकान्तवाद" भी है । 'अनेकान्त' शब्द में 'अनेक' और 'अन्त' ऐसे दो शब्द हैं । इनमें से 'अन्त' का अर्थ यहाँ पर धर्म, दृष्टि, दिशा, अपेक्षा- ऐसा करने का है । इस पर अनेकान्तवाद का अर्थ अनेक दृष्टियों से, विविध दिशाओं से, भिन्न-भिन्न अपेक्षा से (वस्तु का) अवलोकन अथवा कथन करना होता है । इस तरह 'स्याद्वाद' और अनेकान्तवाद' ये दोनों शब्द एकार्थक हैं । इस प्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ अथवा उसका रहस्य उसके नाम पर से ही झलक रहा है । एक ही दृष्टि से, एक ही पहलु से वस्तु को देखना इसे एकान्तदृष्टि कहते हैं । और इसलिये यह अपूर्ण दृष्टि है; जबकि अनेक दिशाओं से, भिन्नभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से वस्तु का अवलोकन करनेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है । अतः वह विशाल और व्यापक दृष्टि है । इससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है । जिस प्रकार हाथी के सिर्फ एक-एक अवयव का ही स्पर्श करने से हाथी का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं हो सकता, उसी प्रकार वस्तु के सिर्फ एक-एक अंश का ही स्पर्श करने से उसका यथार्थ स्वरूप अवगत नहीं हो सकता । हाथी का स्वरूप जानने के लिये उसके मुख्य-मुख्य सभी अंशों का स्पर्श करना आवश्यक है । उसी प्रकार वस्तु की तत्त्वतः पहचान के लिये उसके सम्भवित एवं शक्य सभी स्वरूप जानने चाहिए । एक ओर चाँदी और दूसरी ओर सोने से मढी हुई ढ़ाल को चाँदीवाली दिशा की ओर से देखनेवाला चाँदी की और सोनेवाली दिशा की ओर से देखनेवाला सोने की यदि कहें तो वह पूर्ण सत्य नहीं है, किन्तु यथास्थित रूप से अंशत: चाँदी की और अंशत: सोने की कहने में ही पूर्ण सत्य है, उसी तरह वस्तु का स्वरूप जैसा हो वैसा समझना और कहना यह यथार्थ ज्ञान और यथार्थ कथन १. 'स्यात्' इत्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् । ततः स्याद्वाद : ' - अनेकान्तवादः, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । हेमचन्द्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, दूसरा सूत्र. अर्थात्–'स्यात्' यह अव्यय है और वह अनेकान्त अर्थ का द्योतक है । अतः स्याद्वाद यानी अनेकान्तवाद अर्थात् नित्य- अनित्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तु का स्वीकार । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ पंचम खण्ड कहा जाता है । यह एक तरफ से देखनेवाली एकान्तदृष्टि से नही हो सकता, किन्तु अनेक तरफ से देखनेवाली अनेकान्तदृष्टि से ही हो सकता है I अनेकान्तदृष्टि वस्तु के अनेक धर्मों को देखती है, भिन्न-भिन्न अपेक्षा से वस्तु के सम्भावित अनेक धर्मों का वह अवलोकन कर सकती है और इससे अर्थात् वस्तु को अनेक दिशाओं से जाँचने से वस्तु के स्वरूप की यथायोग्य स्पष्टता हो सकती है । ऐसी दृष्टिवाला मनुष्य दूसरे मनुष्य का दृष्टिबिन्दु और उसकी अपेक्षादृष्टि समझ सकता है, उसकी वह परीक्षा कर सकता है और यदि वह अबाधित हो तो उसका समन्वय करने का वह प्रयत्न कर सकता है । विविध दृष्टिबन्दुओं द्वारा शक्य समन्वय करके भिन्न अथवा विरुद्ध दिखाई देनेवाले मतों का समुचित सामजस्य स्थापित करना यह अनेकान्तदृष्टि का स्वरूप है । इस पर से इस दृष्टि की व्यापकता, महत्ता और उपयोगिता समझी जा सकती है । इस उदार दृष्टि के पवित्र बल से ही मतसंघर्षजन्य कोलाहल शांत होकर मानवसमाज में परस्पर समभाव बढ़ता है । इस समभाव अथवा साम्य का प्रचार ही अनेकान्तवाद का उद्देश है । अतः इस सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि अनेकान्तवाद समन्वयवाद है और उसमें से उत्पन्न होनेवाला जो कल्याणभूत फल वह साम्यवाद अर्थात् समभाव है । इस समभाव में से व्यापक मैत्रीभाव फलित होने पर मनुष्य भूमि कल्याणभूमि बन सकती है । स्याद्वाद के बारे में कुछ लोगों का एसा कहना है कि वह निश्चयवाद नहीं है, किन्तु संशयवाद है; अर्थात् एक ही वस्तु को नित्य भी मानना और अनित्य भी मानना, अथवा एक ही वस्तु को सत् भी मानना और असत् मानना संशयवाद नहीं तो और क्या है ? परन्तु यह कथन अयुक्त है ऐसा अब तक के विवेचन पर से जाना जा सकता है । जो संशयवाद के स्वरूप को जानता है वह इस स्याद्वाद को संशयवाद कहने का साहस कभी नहीं १. गुजरात के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री आनन्दशंकर बापुभाई ध्रुव 'स्याद्वाद' सिद्वान्त के बारे में अपना अभिप्राय देते हुए कहते थे कि स्याद्वाद सिद्धान्त का अवलोकन करके उनका समन्वय करने के लिये स्थापित किया गया है । स्याद्वाद एकीकरण का दृष्टिबिन्दु हमारी समक्ष उपस्थित करता है । शंकराचार्य ने स्याद्वाद के ऊपर जो आक्षेप Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैनदर्शन कर सकता । रात में काली रस्सी पर दृष्टि पड़ने पर 'यह सर्प है या रस्सी' ऐसा सन्देह होता है । दूर से पेड़ के तने को देखने पर 'यह पेड़ होगा या मनुष्य' ऐसा सन्देह पैदा होता है । इस प्रकार के सन्देह के अनेक उदाहरण प्रसिद्ध हैं । उक्तसंशय में सर्प और रस्सी, अथवा तना या मनुष्य इन दोनों वस्तुओं में से एक भी वस्तु निश्चित नहीं होती । एक से अधिक वस्तुओं की ओर दोलायमान बुद्धि जब किसी एक वस्तु को निश्चयात्मक रूप से समझने में असमर्थ होती है तब संशय होता है । संशय का ऐसा स्वरूप स्याद्वाद में नहीं बतलाया जा सकता । स्याद्वाद तो एक वस्तु को भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से देखने को, अनेकांगी अवलोकन द्वारा निर्णय करने को कहता है । विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से देखने पर समझ में आता है कि एक ही वस्तु अमुक अपेक्षा से 'अस्ति' है यह निश्चित बात है और दूसरी दृष्टि द्वारा 'नास्ति' है यह भी निश्चित बात है । इसी भाँति एक ही दृष्टि से नित्य रूप से भी निस्चित है और दूसरी दृष्टि से अनित्य रूप से भी निश्चित है । इस तरह एक ही पदार्थ में भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से भिन्न-भिन्न धर्म ( विरुद्ध जैसे प्रतीत होनेवाले धर्म भी ) यदि संगत प्रतीत होते हों तो उनके प्रामाणिक स्वीकार को, जिसे स्याद्वाद कहते हैं, संशयवाद नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः स्याद्वाद संशयवाद नहीं, किन्तु सापेक्ष निश्चयवाद है । 'स्यादस्त्येव घटः', 'स्यान्नास्त्येव घटः ' 1 ' स्यान्नित्य एव घट:', 'स्यादनित्य एव घटः' । I किया है उसका मूल रहस्य के साथ सम्बन्ध नहीं हैं । यह निश्चित है कि विविध दृष्टिबिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किए बिना कोई भी वस्तु पूर्णरूप से समझ में नहीं आ सकती । इसलिये स्याद्वाद का सिद्धान्त उपयोगी एवं सार्थक है । महावीर के सिद्धान्त में बताए गये स्याद्वाद को कुछ लोग संशयवाद कहते हैं, परन्तु मैं यह नहीं मानता । स्यादवाद संशयवाद नहीं है, वह तो वस्तुदर्शन की व्यापक कला हमें सिखाता है । [यह उल्लेख 'जैनेतर दृष्टिए जैन' नामक गुजराती पुस्तक में प्रगट हुआ है ।] काशी के स्वर्गगत महामहोपाध्याय श्रीराममिश्र शास्त्री ने अपने 'सुजन - सम्मेलन' नामक व्याख्यान में स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद की युक्तियुक्तता और उपयोगिता उपपत्तिपुरःस्सर बतलाई है । उनका यह व्याख्यान स्वतन्त्र पुस्तिका रूप से भी प्रगट हुआ हैं । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३३५ ऐसे स्याद्वाद के निश्चयद्योतक 'एव' कार से युक्त वाक्यों का-अमुक अपेक्षा से घट सत् ही है, अमुक अपेक्षा से घट असत् ही है और अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है और अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है-ऐसा निश्चयात्मक अर्थ समझने का है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'शायद' अथवा ऐसे ही किसी संशयदर्शक शब्द से करने का नहीं है । निश्चयरूप में संशयसूचक शब्द का काम ही क्या ? घट को घटरूप से जानना जितना निश्चयरूप है उतना ही निश्चयरूप घट को भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से अनित्य और नित्य समझना भी है । इस पर से स्याद्वाद को अव्यवस्थित अथवा अस्थिर सिद्धान्त भी नहीं कह सकते । १. दर्शनशास्त्र के विशाल अभ्यासी को विदित है कि भारतीय प्राचीन अन्यान्य दर्शनों ने भी अनेकान्तदृष्टि का अनुसरण किया है। पृथ्वी को परमाणुरूप से नित्य और कार्यरूप से अनित्य माननेवाले तथा द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि धर्मों का सामान्य-विशेष रूप से स्वीकार करनेवाले नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन ने स्याद्वाददृष्टि ग्रहण की है और इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः ।। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ___-हेमचन्द्र, वीतरागस्तोत्र । अर्थात्-सत्त्व, रज और तम इन परस्पर विरुद्ध तीन गुणों से युक्त प्रकृति के स्वीकार में सांख्यदर्शन ने स्याद्वाद को मान्य रखा है । तथा 'एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ।' पातंजल योगदर्शन के तृतीय पाद के इस १३वें सूत्र से एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न धर्मों, लक्षणों और अवस्थाओं के परिणामों की सूचना करता हुआ योगदर्शन स्याद्वाद का ही चित्र उपस्थित करता है । तथा । जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् ।। भट्टो वाऽपि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४९॥ -यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद्, प्रथम अधिकार । अर्थात्-जाति और व्यक्ति उभयरूप से वस्तु को अनुभवोचित कहनेवाले कुमारिल भट्ट अथवा मुरारि मिश्र स्याद्वाद का ही आदर करते हैं । ५२२-३वें पन्ने में कुमारिल भट्ट का अनेकान्तदर्शन बतलाया है । तथा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन सप्तभङ्गी हम ऊपर देख चुके हैं कि स्याद्वाद अथवा अनेकान्तदर्शन एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टि से अस्तित्वनास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों का समन्वय करता है । इस पर से समझा जा सकता है कि वस्तुस्वरूप जिस प्रकार का हो उस तरह उसकी विवेचना करनी चाहिए । अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः । बुवाणो ब्रह्म वेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥५०॥ --यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद्, प्रथम अधिकार । अर्थात्-ब्रह्म को व्यवहार से बद्ध और परमार्थ से अबद्ध माननेवाला वेदान्ती स्याद्वाद को मान्य रखता है। सादे उदाहरण लेकर भी देखें कस्यचिद् गुणकृद् दुग्धं दोषकारि च कस्यचित् । एकस्यापि दशाभेदे स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥ एकोऽर्थ उपयोगी चानुपयोगी च जायते । अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥ एकमेव भवेद् वस्तु हानिकृल्लाभकारि च । अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥ -लेखक न्यायविजय. अर्थात्-दूध किसी को गुणकारी तो किसी को दोषकारी होता है। इतना ही नहीं, एक ही मनुष्य को एक समय या एक अवस्था में गुणकारी तो दूसरे समय या दूसरी अवस्था में दोषकारी होता है । एक ही पदार्थ एक ही मनुष्य को एक समय उपयोगी होता है और दूसरे समय अनुपयोगी होता है। एक ही वस्तु एक ही मनुष्य को एक अवस्था में लाभकर होती है तो दूसरी अवस्था में हानिकर होती है । स्याद्वाद के ये सब सरल निदर्शन हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि दूध गुणकर है अथवा हानिकर ? किसी के ऐसे प्रश्न का उत्तर 'गुणकर है' ऐसा एकान्तर रूप से कैसे दिया जा सकता है ? और 'हानिकर' है ऐसा भी एकान्तरूप से नहीं दिया जा सकता । अतः अनेक अपेक्षाओं को ख्याल में रखकर 'गुणकारी भी है और हानिकर भी है' इस तरह कहना योग्य समझा जायगा । हाँ, निश्चित अवस्था अथवा अवसर को लक्ष में रख कर कहना हो तो उस अवस्था अथवा अवसर के अनुरूप जैसा हो वैसा करना चाहिए । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३३७ . वस्तुस्वरूप की जिज्ञासावाले किसी ने प्रश्न पूछा कि 'घड़ा अनित्य है ?' तो इसके उत्तर में यदि ऐसा ही कहा जाय कि 'हाँ, घड़ा अनित्य ही है', तो यह कथन या तो यथार्थ नहीं है या फिर अपूर्ण है; क्योंकि यह कथन यदि सम्पूर्ण विचारदृष्टि के परिणामस्वरूप कहा गया हो तो वह यथार्थ नहीं है । क्योंकि घड़ा (कोई भी वस्तु) सम्पूर्ण दृष्टि से विचार करने पर अनित्य होने के साथ ही साथ नित्य भी सिद्ध होता है । और यदि यह कथन अमुक दृष्टि से कहा गया हो तो इस वाक्य में 'यह कथन अमुक दृष्टि से है' ऐसा सूचन करनेवाला कोई शब्द रखना चाहिए । इसके बिना यह उत्तर अधूरा सा लगेगा । इस पर से समझा जा सकता है कि यदि वस्तु का कोई भी धर्म बतलाना हो तो इस तरह बतलाना चाहिए जिससे दूसरा धर्म अथवा उसका प्रतिपक्ष धर्म, जो उसमें सम्भव हो उसका अस्तित्व उस वस्तु में से हटने न पाए। मतलब कि किसी भी वस्तु को जब हम नित्य बतला रहे हों तब उसमें एसा कोई शब्द रखना चाहिए जिससे उस वस्तु में रहे हुए अनित्य धर्म का अभाव सूचित न होने पाए । इसी तरह किसी भी वस्तु को अनित्य बतलाते समय उसमें ऐसा कोई शब्द रखना चाहिए जिससे उस वस्तु में रहे हुए नित्यत्वधर्म का अभाव सूचित न हो । इसी तरह वस्तु को सत्, असत् आदि रूप से बतलाते समय भी समझना। ऐसा शब्द संस्कृत भाषा में 'स्यात्' है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ उपर्युक्त तरीके से 'अमुक अपेक्षा से' होता है । 'स्यात्' शब्द अथवा उसी अर्थवाला संस्कृत भाषा का 'कथंचित्' शब्द अथवा 'अमुक अपेक्षा से'—इस तरह की आयोजना करके 'स्याद अनित्य एव घटः' [अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है] ऐसा कथन करने से घट में अपेक्षान्तर से प्राप्त होनेवाले नित्यत्वधर्म को बाध नहीं आता । यह तात्त्विक निरूपण है । व्यवहार में ऐसे शब्द का प्रयोग होता भी नहीं और किया भी नहीं जा सकता । व्यवहार तो 'नयवाद है । वह तो जिस प्रकार होता हो उसी प्रकार होगा । जो बात विवक्षित हो उसी के निर्देश, उल्लेख अथवा वाणीप्रयोग से बात की जायगी । यह तो सिर्फ वस्तुस्वरूप की तात्त्विक दृष्टि व्युत्पन्न के ख्याल में लाई जाती है । हम किसी भी प्रश्न के उत्तर में या तो 'हाँ' (हकारात्मक) कहते Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जैनदर्शन हैं या 'ना' (नकारात्मक) कहते हैं । अतः इस हाँ और ना को लेकर सप्तभंगी की योजना हुई है। उत्तर देने के जितने तरीके हैं उन्हें 'भंग' कहते हैं । ऐसे तरीके सात हो सकते हैं । अतः सात अंगों या प्रकारों के समूह को 'सप्तभंगी' कहते हैं । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार कहना हो तो ऐसा कह सकते हैं कि प्रश्न के अनुरूप एक वस्तु में एक-एक धर्मविषयक विधि और निषेध की विरोध रहित कल्पना सप्तभंगी है। प्रश्न सात प्रकार के हो सकते हैं । अतः सप्तभंगी कही गई है । सात प्रकार के प्रश्नों का कारण सात प्रकार की जिज्ञासा है, सात प्रकार की जिज्ञासा का कारण सात प्रकार का संशय है और सात प्रकार के संशय का कारण यह है कि उसके विषयभूत वस्तु के धर्म सात प्रकार के हैं । इस पर से ज्ञात होता है कि सप्तभंगी के सात भंग केवल शाब्दिक कल्पना ही नहीं है, परन्तु वस्तु के धर्म पर वे अवलम्बित हैं । अतः प्रत्येक भंग का स्वरूप वस्तु के धर्म के साथ सम्बद्ध है यह ख्याल में रखना चाहिए । सात भंग इस प्रकार हैं - (१) अस्ति (है), (२) नास्ति (नहीं है), (३) अस्ति, नास्ति ( है, नहीं है), (४) अवक्तव्य (कहा नहीं जा सकता), (५) अस्ति, अवक्तव्य (६) नास्ति, अवक्तव्य और (७) अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य । इन सात भंगों के साथ 'कथंचित् तो लगा ही है । शास्त्रीय पद्वति के अनुसार सात भंग इस प्रकार हैं : प्रथम भंग-प्रथम भंग से वस्तु 'क्या है' यह बतलाया जाता है । वह इस प्रकार है वस्तु अस्ति (भावात्मक) ही है, परन्तु कथंचित् अर्थात् अमुक अपेक्षा से, अर्थात् स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से । द्वितीय भंग-दूसरे भंग से वस्तु 'क्या नहीं है' यह बतलाया जाता है । वह इस तरह Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३३९ वस्तु नास्ति (अभावात्मक) ही है, परन्तु कथंचित् अर्थात् अमुक अपेक्षा से, अर्थात् पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से । हम पहले बतला चुके हैं कि वस्तु में यदि स्व-द्रव्यादि की अपेक्षा से अस्तित्व मानने में न आए तो वस्तु निःस्वरूप हो जायगी । इसी तरह यदि पर-द्रव्यादि की अपेक्षा से नास्तित्व मानने में न आए तो वस्तुसांकर्य हो जायगा; क्योंकि घट में पटरूप से यदि नास्तित्व न हो तो घट और पट एक ही हो जायँ-एक वस्तु सर्वात्मक बन जाय । ऊपर ऊपर से देखने पर ऐसा मालूम हो सकता है कि स्व-सत्त्व ही पर-असत्त्व है, परन्तु ऐसा नहीं है । ये दोनों भिन्न भिन्न हैं । जिस तरह स्व-रूपेण सत्त्व की अनुभूति होती है उसी तरह पर रूपेण असत्व भी स्वतन्त्ररूप से अनुभूत होता है । इन दोनों भंगो से भिन्न भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है । इन दोनों भंगों से भिन्न भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है। इन दो भंगो में से एक भंग का प्रयोग करने पर दूसरे 'भंग से पैदा होनेवाला ज्ञान नहीं होता। जैसे कि 'अमुक मनुष्य बाज़ार में नहीं है' ऐसा कहने पर यह मालूम नहीं हो सकता कि वह मनुष्य अमुक स्थान पर है। बाजार में न होने पर भी वह कहाँ है इस बात की जिज्ञासा तो बनी ही रहती है। इसीलिये 'अस्ति' भंग की आवश्यकता है । व्यवहार में 'अस्ति भंग का प्रयोग करने पर भी 'नास्ति' भंग के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती ही है । 'मेरे हाथ में रूपया है' ऐसा कहना एक बातं है और 'मेरे हाथ में अशरफी नहीं है' ऐसा कहना दूसरी बात है। इस तरह दोनों भंगों का प्रयोग आवश्यक है । तृतीय भंग-तीसरे भंग से वस्तु 'क्या' है और क्या नहीं है' यह क्रमशः बतलाया जाता है । अर्थात् वस्तु में अस्ति एवं नास्ति दोनों साक्षेप धर्मों का क्रमशः कथन करना तीसरा भंग है। उपर्युक्त (अस्ति और नास्ति) दो भंग मिलकर तीसरा भंग होता है, फिर भी इसका कार्य उपर्युक्त दोनों भंगों से जुदा है । जो काम इस अस्तिनास्ति उभयात्मक तीसरे भंग से होता है वह न तो केवल 'अस्ति' ही कर Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनदर्शन सकता और न केवल 'नास्ति' ही कर सकता है । असंयुक्त उत्तर दूसरी ही बात है । यद्यपि एक और दो मिलकर तीन होते हैं, फिर भी तीन की संख्या एक और दो से भिन्न मानी गई है । चतुर्थ भंग — वस्तु अवक्तव्य है । यह तो सहज ही समझ में आ सके ऐसा है कि वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता की दृष्टि से तो वस्तु अवक्तव्य ही है । परन्तु सप्तभंगी — सातों भंग वस्तु के एक-एक धर्म को लेकर चलनेवाले भंग हैं । अतः 'अवक्तव्य' भंग वस्तु के अस्तित्वादि एक-एक धर्म को लेकर घटाने का है । सत्-असत् (अस्तिनास्ति ) ऐसे विरोधी धर्मयुगलों की विचारणा करने पर वस्तु सदसद् उभयात्मक है, नित्य - अनित्य उभयात्मक है - ऐसा जब कह सकते हैं, इस प्रकार जब वस्तु वक्तव्य हो सकती है तब वह अवक्तव्य कैसे कही जा सकती है ? अस्तित्व - नास्तित्व आदि विरोधी धर्मयुगल एक साथ — युगपत् वचन द्वारा नहीं कहे जा सकते, इस कारण से वस्तु अवक्तव्य बतलाई जाय, परन्तु दो धर्मों की तो बात ही क्या ? एक अस्तित्व शब्द भी एक साथ नहीं बोला जा सकता । वह भी 'अ', 'स्', 'त्', 'इ' इस प्रकार क्रम से ही वर्णोच्चार द्वारा बोला जाता है । तो इससे 'अस्तित्व' अथवा 'नास्तित्व' भी क्या अवक्तव्य बन जाय ? और इस तरह एक धर्म भी यदि अवक्तव्य बन जाय तो वस्तु सर्वथा अवक्तव्य ही बनी रहे । जिस तरह वस्तु का केवल अस्तित्व धर्म बतलाया जा सकता है उसी तरह अस्तित्व - नास्तित्व, दोनों धर्म भी यदि बतलाए जा सकते हों तो फिर वस्तु 'अवक्तव्य' कैसे हो सकती है ? वस्तु का अपना 'सत्त्व' इतना अधिक गहरा है, इतना अधिक बृहत्महत् है तथा उसका 'असत्त्व' भी अन्य समग्र द्रव्यों से व्यावृत्तत्वरूप होने के कारण अतिगम्भीर, बृहत् महत् है कि उसका यथावत् निरूपण अशक्य है । इसी प्रकार नित्यत्व - अनित्यत्व आदि के बारे में भी समझा जा सकता है । वस्तु का 'अवक्तव्य' प्रकार इस तरह विचारा जा सकता है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३४१ बाकी तो वस्तु में जितने धर्म हैं उतने तो शब्द भी नहीं है, और वे सब धर्म हमें ज्ञात भी नहीं होतें । परमज्ञानी' भी उनके ज्ञान में आनेवाले सब धर्म भाषा के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते । इसीलिये वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही रहती है । इसके बारे में तनिक विशेष देखें वस्तु में अपने आप में रहनेवाले धर्म वे 'अस्ति' धर्म और परवस्तुओं में के धर्मों का अभाव वे 'नास्ति धर्म । इस प्रकार अस्ति-धर्म और नास्तिधर्म प्रत्येक वस्तु में हैं । इन दोनों प्रकारों के धर्म अनन्त हैं । इसीलिये प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है । हम जब वस्तु का वर्णन करने बैठते हैं तब उस वस्तु के कुछ अस्ति धर्मों का उल्लेख करके उसका वर्णन कर सकते हैं ।-[प्रथम भंग] । अथवा तो उस वस्तु के कुछ नास्ति धर्मों का कथन करके कर सकते हैं -[दूसरा भंग] । अथवा उस वस्तु के कुछ अस्ति धर्मों और कुछ नास्ति धर्मों का कथन करके कर सकते हैं-[तीसरा भंग] । परन्तु चाहे जिस तरीके से वर्णन क्यों न करें, वह वर्णन आंशिक ही होने का, सम्पूर्ण नहीं। क्योंकि अस्ति धर्म और नास्ति धर्म अनन्त होने १. पन्नवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पन्नवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिबद्धो ॥ ___ -बृहत्कल्पसूत्र, गा. ९६३. अर्थात् - कहे जा सके ऐसे पदार्थ, कहे न जा सके ऐसे पदार्थों के अनन्तवें भाग जितने हैं, और उन कहे जा सके ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग श्रुतनिबद्ध है । मतलब यह है कि वक्तव्य और अवक्तव्य दोनों प्रकार के पदार्थ अनन्त हैं। अलबत्ता, वक्तव्यों की अपेक्षा अवक्तव्य अनन्तगुण अधिक हैं । वक्तव्य बातें भी सब नहीं कही जा सकतीं । मान लीजिए कि सौ बातें बताने जैसी (बताई जा सके ऐसी) हैं, मगर उनमें से बहुत ही अल्प शास्त्र में निबद्ध की जा सकती हैं। बाकी की अकथयितव्य कोटि में ही पड़ी रहती हैं । तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ स्वयं भी जितना जानते हैं, समझते हैं उतना सब भाषा में कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकते । और जितना वे कहते हैं उतना सब कोई भी जिज्ञासु श्रोता अपने मन में बराबर अवधारण नहीं कर सकता; और श्रोता ने अपने मन में जितना अवधारण किया होता है उतना सब दूसरे को न समझा सकता है, न कह सकता है और न बराबर शब्दों में उतार ही सकता है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जैनदर्शन से उनमें से जिन धर्मों का वर्णन अशक्य है वे तो वाणी के द्वारा कहे ही नहीं जा सकते । अत: वे अवक्तव्य ही रहने के । इस तरह वस्तु अंशत: अवक्तव्य भी कही जा सकती है-[चतुर्थ भंग] । सारांश यह कि वस्तु का वर्णन यदि उसके केवल अस्ति धर्मों को लेकर किया जाय तो भी थोडे ही अस्ति-धर्मों का कथन हो सकेगा और अवशिष्ट सभी धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे--[पंचम भंग] सारांश यह कि वस्तु का वर्णन यदि उसके केवल अस्ति धर्मों को लेक किया जाय तो भी थोड़े ही अस्ति-धर्मों का कथन हो सकेगा और अवशिष्ट सभी धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे-[पंचम भंग] । वस्तु का वर्णन यदि उसके नास्ति-धर्मों को लेकर किया जाय तो भी वह अमुक ही नास्तिधर्मों का हो सकेगा, बाकी के सब नास्ति धर्म अवक्तव्य ही रहने के षष्ट भंग] । यदि वस्तु के अस्ति धर्म और नास्ति धर्म दोनों प्रकार के धर्मों को लेकर वस्तु का वर्णन किया जाय तो भी उसके कुछ ही अस्ति-धर्म और नास्ति-धर्म कहे जा सकेंगे, बाकी के सभी अस्ति धर्म और नास्ति-धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे--[सप्तम भंग] । इस प्रकार चाहे जिस तरीके से वस्तु का वर्णन क्यों न किया जाय, फिर भी वह कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो सकेगा, सदा अपूर्ण ही रहने का । वस्तु स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का दिखने से उपनिषदों ने वस्तु को अनिर्वचनीय कह दिया है । अनिर्वचनीय कहो या अवक्तव्य एक ही बात है । ऋग्वेद का 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।' [१. १६४. ४६] यह सूत्र कहता है कि एक ही सत् का विद्वान् कई तरह से वर्णन करते हैं । इस वैदिक वाक्य में मानवस्वभाव की उस विशेषता का हमें दर्शन मिलता है जो समन्वयशीलता कही जाती है । यही समन्वयशीलता जैनदर्शनसम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है । वस्तु के जो धर्म हमें अज्ञात हैं उन्हें तो भाषा में उतारने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वे तो अवक्तव्य ही रहने के । परन्तु कुछ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३४३ धर्म ऐसे भी होते हैं जिनका हम अनुभव तो करते हैं, किन्तु भाषा की अपूर्णता के कारण योग्य शब्दों में उन्हें उतार नहीं सकते । उदाहरणार्थ, मीठा कैसा है ?, घी का स्वाद कैसा है ?, कैसी वेदना होती है ? - इनका यथोचित उत्तर तो अनुभव करने से ही मिल सकता है, शब्द द्वारा नहीं बताया जा सकता । गुड, शहद और शक्कर के मीठेपन में जो फर्क है वह क्या शब्दों से व्यक्त हो सकता है ? इसीलिये भी वस्तु अवक्तव्य है । चौथे भंग में, घट वक्तव्य होने पर भी किसी अपेक्षा से वह 'अवक्तव्य' भी बतलाया जाता है । इन चार भंगों पर से अवशिष्ट तीन भंग निष्पन्न होते है, और वे इस प्रकार है :-- वस्तु कथंचित् अवक्तव्य होने पर भी दूसरी दृष्टि से कथंचित् वक्तव्य भी है– [ देखो १-२-३ भंग] अतः जब हम वस्तु की अवक्तव्यता के साथ उसकी वक्तव्यता भी किसी रूप में कहना चाहते हैं तब वक्तव्यरूप तीनों भंग (अस्ति, नास्ति और अस्ति नास्ति ) अवक्तव्य के साथ मिल जाते हैं । अवक्तव्य के साथ 'अस्ति' के मिलने पर 'अस्ति अवक्तव्य' नाम का पंचम भंग बनता है; अर्थात् घट अमुक अपेक्षा से 'अवक्तव्य' होने के साथ 'अस्ति है । यह हुआ पांचवाँ भंग । अवक्तव्य के साथ 'नास्ति' लगाने से 'नास्ति अवक्तव्य' नाम का छठा भंग बनता है; अर्थात् घट अमुक अपेक्षा से 'अवक्तव्य' होने के साथ 'नास्ति है । यह हुआ छठा भंग । अवक्तव्य के साथ 'अस्ति नास्ति' मिलने पर 'अस्ति नास्ति अवक्तव्य' नाम का सप्तम भंग बनता है; अर्थात् घट अमुक अपेक्षा से 'अवक्तव्य' होने के साथ 'अस्ति नास्ति' है । यह हुआ सातवाँ भंग । १. वस्तुगत अस्तित्व और नास्तित्व जैसे विरोधी धर्मयुगल मुख्यतः एकसाथ ( युगपत् ) नहीं कहे जा सकते, अतः वस्तु अवक्तव्य है— इस तरह चतुर्थ अवक्तव्य भंग न्यायग्रन्थों में बतलाया है । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैनदर्शन वस्तु के अनेक धर्म हैं, अतः वह अनेकान्त अर्थात् अनेकधर्मात्मक कहलाती है । किसी मकान की चारों दिशाओं से यदि उसके चार फोटो लिये जायँ तो वे सब एक-जैसे नहीं होंगे, फिर भी वे एक ही मकान के हैं और एक ही मकान के कहलाएँगे । इसी प्रकार वस्तु भी अनेक दृष्टिओं से देखने पर अनेक प्रकार की मालूम होती है । यही कारण है कि वाक्यप्रयोग भी नानाविध बनते हैं । जब हम एक मनुष्य को किसी दूसरे समय उन्नत स्थित में आया हुआ देखते हैं तब हम ऐसा कहते हैं कि 'यह अब वह नहीं रहा । बड़ा कलाकार अथवा विद्वान् हो गया है।' इस प्रकार भिन्न-भिन्न बातों को (अवस्था अथवा धर्म को उनकी विद्यमानता अथवा अविद्यमानता को) लक्ष में रखकर भिन्न भिन्न वाक्यप्रयोग किए जाते हैं और उनमें किसी को विरोध प्रतीत नहीं होता । आम का फल कद्दू की अपेक्षा छोटा और बेर की अपेक्षा बडा होता है। इस तरह एक ही वस्तु एक साथ ही छेटी और बड़ी भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से-कही जाती है और इसमें किसी को भी किसी प्रकार की बाधा अथवा विरोध मालूम नहीं होता । ठीक यही बात अनेकान्त के बारे में भी है कि एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से 'है' और 'नहीं' है, कहा जा सकता है। किन धर्मों में परस्पर विरोध है यह हम पहले से नहीं जान सकते । परन्तु जब हमें यह बात मालूम होती है कि अमुक दो धर्म एक समय में एक स्थान पर नहीं रह सकते तभी उनका परम्पर विरोध जानने में और मानने में आता है । परन्तु यदि दो धर्म एक वस्तु में साथ रह सकते हों तो फिर उनका विरोध कैसा? स्वरूप की अथवा स्व-द्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'अस्ति' और इसी अपेक्षा से 'नास्ति' यदि माना जाय तो निःसन्देह विरोध की बात होगी । परन्तु स्वरूप से अथवा स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'अस्ति' और पर-रूप से अथवा परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'नास्ति' ऐसा यदि माना जाय तो फिर विरोध को अवकाश ही कहाँ है ? इस तरह 'अस्ति', 'नास्ति' दोनों को एक वस्तु में अपेक्षाभेद से मानने में विरोध है ही नहीं । और विरोध न होने से ही अनेकान्त के ऊपर किए गए विरोधमूलक आक्षेपों के लिये कोई अवकाश ही नहीं रहता। . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३४५ विचार करने पर देखा जा सकता है कि सप्तभंगी में मूल भंग तो तीन ही हैं : अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य । अवशिष्ट चार भंग तो इन तीन के ही संयोग से बने हैं । सप्तभंगी की विवेचना भगवतीसूत्र [१२,१०.४६९] में भी पाई जाती है । किसी भी प्रश्न का उत्तर देते समय इन सात भंगों में से किसीन-किसी एक भंग का उपयोग करना पड़ता है । प्रस्तुत विषय को सुगमतापूर्वक समझने के लिये हम यहाँ पर एक स्थूल और व्यावहारिक उदाहरण लेकर देखें | किसी मरणासन्न रोगी के बारे में पूछा जाय कि उसकी हालत कैसी है ? तो उसके जवाब में वैद्य अधोलिखित सात उत्तरों में से कोई एक उत्तर देगा (१) अच्छी हालत है । (अस्ति ) (२) अच्छी हालत नहीं है । ( नास्ति ) (३) कल से तो अच्छी है (अस्ति), परन्तु इतनी अच्छी नहीं है कि आशा रखी जा सके (नास्ति) । ( अस्ति, नास्ति) (४) अच्छी या बुरी कुछ नहीं कहा जा सकता । (अवक्तव्य) (५) कल से तो अच्छी है (अस्ति), फिर भी कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा ? (अवक्तव्य) । (अस्ति- अवक्तव्य ) (६) कल से तो अच्छी नहीं है सकता कि क्या होगा ? (अवक्तव्य ) (नास्ति), फिर भी कहा नहीं जा | ( नास्ति - अवक्तव्य) (७) वैसे तो अच्छी नहीं है ( नास्ति, परन्तु कल की अपेक्षा तो अच्छी है (अस्ति), तो भी कहा नहीं जा सकता कि क्या होगा ? अवक्तव्य ) | ( अस्ति नास्ति - अवक्तव्य ) । इस सामान्य व्यावहारिक उदाहरण पर से सप्तभंगी का विशद ख्याल आ सकता है । इस तरह सप्तभंगी व्यावहारिक बनती है और घटना, परिस्थिति एवं सिद्धान्त का समुचित विश्लेषण कर सकती है । इस पर से हम यह देख सके हैं कि ये सात भंग ( वचनप्रयोग ) भिन्न भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनदर्शन बातें बतलाते हैं और इसीलिये इनमें एक-दूसरे से कुछ न कुछ विशेषता है । धार्मिक अथवा आचारसम्बन्धी प्रश्नो के बारे में भी सप्तभंगी का उपयोग किया जा सकता है जैसे कि (१) हिंसा पाप है [यदि प्रमत्तभाव से की ही तो] । (अस्ति) (२) हिंसा पाप नहीं है। मनुष्यों के ऊपर-निरपराध जनता के ऊपर भयंकर कूरतापूर्ण व्यवहार करनेवाले आततायी नराधम का वध यदि करना पड़े तो वह कर्तव्यरूप हिंसा होने से पाप नहीं है। (नास्ति) (३) बिना कारण निरपराधी की संकल्पिक हिंसा पाप है, परन्तु यत्नाचारपूर्वक की जानेवाली सप्रयोजन प्रवृत्ति में होनेवाली हिंसा (द्रव्यहिंसा) पापरूप नहीं है । नीतिभंग-रूप-अन्याय्य हिंसा पाप है, परन्तु कर्तव्यरूप हो तो पाप नहीं है ! (अस्ति-नास्ति) (४) परिस्थिति का विचार किये बिना यह निश्चित् नहीं कहा जा सकता कि हिंसा पाप है या नहीं । (अवक्तव्य) १. शास्त्रों में ग्लान, बीमार, अशक्त, साधु आदि की परिचर्या के निमित्त तथा उस उस प्रकार के देश-काल को लक्ष में रख कर अत्यन्त आपवादिक रूप से, छहों काय के जीवों की जिसमें हिंसा हो वैसी वैद्यकीय चिकित्सा आदि के बारे में विधान है। मुनि के लिये नदी को पार करने जैसी जीवविराधनारूप अनेक बातों की आज्ञा है । श्री हरिभद्राचार्य 'दशवैकालिक' सूत्र के पहले अध्ययन की ४५वी नियुक्ति-गाथा की टीका में निम्न गाथाएँ उद्धृत करते हैं : उच्चालिअम्मि पाए इरिआसमिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ न य तस्स तणिमित्तो बंधो सहमो वि देसिओ समये । जम्ह सो अपमत्तो सा य पमाओ ति निहिट्ठा ॥ अर्थात्-~-अप्रमत्तभावपूर्वक चलनेवाले से यदि किसी द्वीन्द्रियादि जीव को हिंसा हो जाय तो उससे सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं होता ऐसा शास्त्र में कहा है; क्योंकि वह अप्रमत्त है और प्रभादभाव को ही हिंसा कहा है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३४७ (५) हिंसा पाप है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (अस्ति-अवक्तव्य) (६) ऊपर कहा उस तरह अपवादिकप्रसंगरूप हिंसा पाप नहीं है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (नास्ति-अवक्तव्य) (७) हिंसा पाप है, परन्तु ऐसे भी प्रसंग उपस्थित होते हैं जबकि हिंसा पाप नहीं समझी जाती। ऐसा होने पर भी सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य) सत्य के बारे में देखें(१) सत्य धर्म है । (अस्ति) (२) सत्य धर्म नहीं है, क्योंकि पशु के पीछे पड़े हुए पशुघातक शिकारी के आगे अथवा युवति के पीछे पड़े हुए गुण्डे के आगे यदि सच्ची बात कह दी जाय तो ऐसा सत्य बोलना पाप है । (नास्ति) १. इस बारे में १७९वें पृष्ठ के टिप्पण में 'आचारांग' सूत्र का पाठ दिया है। महाभारत के कर्णपर्व के ७२वें अध्याय में ३३वाँ श्लोक है । भवेत् सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत् ॥ यत्राऽनृतं भवेत् सत्यं सत्यं चाऽप्यनृतं भवेत् ॥ अर्थात्-कभी कभी सत्य बोलने जैसा नहीं होता और झूठ बोलने योग्य होता है । इस तरह झूठ सत्य बनता है और सत्य झूठ बनता है । इस श्लोक के अनुसंधान में 'कौशिक' तापस की कथा दी गई है। उसके सच सच कह देने पर मनुष्यों की क्रूर हत्या हुई थी और तथाकथित उस सत्य के परिणामस्वरूप उसे नरक में जाना पड़ा था । हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के द्वितीय प्रकाश के -- न सत्यमपि भाषेत परपीडाकरं वचः । लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् कौशिको नरकं गतः ॥ इस ६१वें श्लोक में सत्य भी परपीडाकर हो तो न बोलना चाहिए इस विधान की पुष्टि में उसी महाभारत के 'कोशिक' तापस का उदाहरण देते हैं । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन (३) कल्याणसाधक सत्य धर्म है और ऊपर कहा उस तरह कल्याणबाधक सत्य धर्म नहीं है । ( अस्ति-नास्ति) ३४८ (४) परिस्थिति का विचार किए बिना सत्यवचन धर्म है या नहीं यह कहा नहीं जा सकता । (अवक्तव्य) (५) सत्य वचन धर्म है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । ( अस्ति- अवक्तव्य) (६) सत्यवचन धर्म नहीं है (ऊपर जो टिप्पण लिखा है उसके अनुसार), फिर भी सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (नास्ति- अवक्तव्य) (७) सत्यवचन धर्म तो है ही, परन्तु ऐसे भी अवसर आते हैं जबकि सत्यवचन धर्म नहीं होता; ऐसा होने पर भी सदा सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । ( अस्ति नास्ति - अवक्तव्य) इस तरह यदि आचरणशास्त्र के नियम सप्तभंगी के रूप में विश्व के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ तो सब सम्प्रदायों को एक-दूसरे के समीप आने में कितनी सहायता मिल सकती है । कौन-सा नियम किस परिस्थिति में अस्तिरूप और किस परिस्थिति में नास्तिरूप इसका पता लग जाने से हम वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप नियमों का चुनाव कर सकते हैं । यह बात वैयक्तिक जीवन और सामाजिक दृष्टि से कितनी हितकर है ! अवश्य, विवेकदृष्टि के बिना सप्तभंगी की आयोजना अशक्य है और यदि हो तो उसमें कुछ भी सार नहीं होगा, प्रत्युत वह आयोजना विषमिश्रित जैसी भयंकर हो जायगी । घटत्व-पटत्वादि में तो सप्तभंगी का उपयोग बहुत हुआ है, परन्तु ऊपर के विवेचन से देखा जा सकता है कि सप्तभंगी के मूल में जीवन को अमृतमय बनाने का उद्देश होना चाहिए । वह यदि आचारव्यापी हो तभी 'जीवित अनेकान्त' कहा जा सकता है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड नय : अब नय के बारे में देखें । 'प्रमाण' अर्थात् ज्ञान और 'नय' भी ज्ञान (विचारात्मक ज्ञान ) ही है । अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ॥ २९॥ - सिद्धसेन, न्यायवतार. अर्थात् अनेकधर्मात्मक वस्तु अंशसहित वस्तु नय का विषय है । ३४९ प्रमाण का विषय है और एक वस्तु जब अखण्डितरूप से भासित होती है तब वह अनेकधर्मात्मक विषय कहलाती है, परन्तु उसी वस्तु में से जब एक अंश अलग होकर प्राधानरूप से भासित होता है तब वह एक अंशविशिष्ट विषय कहलाती है । इस बात को एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करें। जब आँख के सामने कोई एक घोड़ा आता है तब अमुक आकार, अमुक रंग और अमुक कद आदि उसकी विशेषताएँ प्रधानरूप से भासित होती हैं, परन्तु उस समय इन विशेषताओं की प्रधानता होने पर भी अभिन्नरूप से अन्य विशेषताओं के साथ समूचा घोड़ा ही चाक्षुष ज्ञान का विषय बनता है । उस समय उसकी अमुक विशेषताएँ दूसरी विशेषताओं से अलग होकर भासित नहीं हती तथा घोडेरूप अखण्ड पदार्थ में से आकार आदि उसकी विशेषताएँ भी सर्वथा भिन्न भासित नहीं होती। सिर्फ अमुक विशेषताओं द्वारा वह समूचा घोड़ा ही अखण्डरूप से भासित होता है— आँख का विषय बनता है । यही प्रमाण का विषय होने की रीत है । प्रमाण के विषयभूत घोड़े का ज्ञान जब दूसरे को शब्द द्वारा कराना होता है तब उस घोड़े की अमुक विशेषताओं को दूसरी विशेषताओं से बुद्धि द्वारा अलग करके वक्ता कहता है कि 'यह घोड़ा लाल है, ऊँचा है अथवा अमुक आकार - प्रकार का है।' उस समय वक्ता के बौद्धिक व्यापार में अथवा श्रोता की ज्ञानक्रिया में घोड़ा भासमान होने पर भी वह गौण होता है और उसकी विशेषताएँ, जो इतर विशेषताओं से अलग करके कही जाती हैं, वे ही मुख्य होती है । इसीलिये उस समय ज्ञान का विषय बननेवाला Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैनदर्शन घोड़ा अमुक अंश विशिष्ट विष बनता है । यही नय का विषय होने की पद्धति है । इन्द्रियों की सहायता से अथवा सहायता के बिना उत्पन्न ज्ञान जब किसी वस्तु को यथार्थरूप से प्रकाशित करता है तब उसे प्रमाण कहते हैं, और प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु को शब्द द्वारा दूसरे को बतलाने के लिये उस वस्तु के बारे में अंश अंश का स्पर्श करनेवाली जो मानसिक विचार क्रिया होती है वह 'नय' है अर्थात् शब्द में उतरनेवाली अथवा उतारने योग्य जो ज्ञानक्रिया वह 'नय' और उसक पुरोगामी चेतनाव्यापार वह 'प्रमाण' । नय प्रमाणभूत ज्ञान का अंशभूत ज्ञान है । प्रमाण के व्यापार में से ही नय के व्यापार के प्रवाह प्रकट होते हैं । ऊपर कहा उस तरह, प्रमाणदृष्टि वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करती है और वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म को विषय करनेवाली मुख्य दृष्टि नयदृष्टि है । एक वस्तु को कोई व्यक्ति एक दृष्टि से देखता अथवा समझता है तो उसी वस्तु को दूसरा व्यक्ति दूसरी दृष्टि से देखता अथवा समझता है । इससे एक वस्तु के बारे में अलग-अलग मनुष्यों का अलग-अलग अभिप्राय बँधता है । 'क' एक वस्तु को जिस तरह से समझा हो उसकी खबर उसी वस्तु को दूसरी तरह से समझनेवाले 'ख' को न भी हो और इसी प्रकार से 'ख' की समझ का ज्ञान 'क' को बिल्कुल न हो । परन्तु यदि इन दोनों को एकदूसरे की भिन्न-भिन्न प्रकार की समझ मालूम पड़े तो उनकी (उन दोनों की) अधूरी समझ पूर्ण हो सकती है-यदि वे वस्तुतः जिज्ञासु हों तो । ज्ञान और क्रिया इन दोनों में से किसी एक की ही उपयोगिता की समझ जिसे हो अथवा द्वैत-अद्वैत जैसे विरोधी दिखाई देनेवाले सिद्धान्तों में से किसी एक ही सिद्धान्त की जिसे समझ हो, वह यदि दूसरी बात की ओर भी अपनी विचारदृष्टि लगाये और उसके दृष्टिबन्दु को भी योग्यरूप से समझे तो दूसरी बात को भी वह मानने लगेगा ही। जिस तरह 'प्रमाण' शुद्ध ज्ञान है उसी तरह 'नय' भी शुद्ध ज्ञान है । फिर भी इन दोनों में अन्तर इतना ही है कि एक शुद्ध ज्ञान अखण्डवस्तुस्पर्शी Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ पंचम खण्ड है, जबकि दूसरा वस्तु के अंश को ग्रहण करता है । परन्तु मर्यादा का तारतम्य होने पर भी ये दोनों ज्ञान है शुद्ध । प्रमाणरुप शुद्ध ज्ञान का उपयोग 'नय' द्वारा होता है, क्योंकि प्रमाणरूप शुद्ध ज्ञान को जब हम दूसरे के आगे प्रकट करते हैं तब वह एक खास मर्यादा में आ जाने से 'नय बन जाता है । वस्तु के एक अंश का स्पर्श करनेवाली एक नयदृष्टि को उसी वस्तु के दूसरे अंश का ज्ञान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । यदि हो तो भी अपने विषय का स्पर्श करने की— अपने ही विषय को ग्रहण करने की उसकी मर्यादा है । और व्यवहार मार्ग ऐसा ही होता है । ज्ञान की महत्ता और उपयोगिता जब बतलानी हो तब ज्ञान के महत्त्व का अथवा उसकी उपयोगिता का जो वर्णन किया जाता है वह ज्ञानदृष्टिरूप ज्ञाननय के काण है । उस समय क्रिया के औचित्य का ज्ञान होने पर भी ज्ञाननय प्रसंग के अनुरूप ज्ञान की ही महत्ता बतलाता है । और ऐसा करने में वह कुछ अनुचित कार्य नहीं करता । हाँ, वह अनुचित करता हुआ तभी कहा जायगा जब अपनी बात कहने की धुन में क्रिया की उपयोगिता का अपलाप करने लगे । वस्तुतः अनेकान्तदृष्टि (स्याद्वाद की न्यायदृष्टि) का विकास करना आवश्यक है । इसी के बल पर वस्तु की भिन्न-भिन्न बाते - वस्तु के भिन्नभिन्न धर्म अथवा अंश अवगत हो सकते हैं । और ऐसा होना आवश्यक भी है; क्योंकि तभी [ दूसरी तरफ का ज्ञान हो तभी ] व्यवहार में वस्तु के किसी अंश अथवा धर्म का यथासमय उचित उपयोग शक्य हो सकता है और तभी दूसरे के इस प्रकार के उचित उपयोग का सम्मान किया जा सकता है । इससे दूसरी ओर के विचार के साथ जो अज्ञानमूलक संघर्ष होता है वह नहीं होगा । समन्वयदृष्टि द्वारा सम्भावित अन्य पहलुओं का योग्य सामंजस्य स्थापित करने का कौशल प्राप्त होने से भिन्न-भिन्न प्रकार के अथवा भिन्न भिन्न पहलुओं के विचार रखनेवालों के बीच समझपूर्वक ऐकमत्य स्थापित करना प्रायः शक्य होता है । इसके परिणामस्वरूप सौमनस्य साधने का मार्ग सुगम बनता है । इस तरह अनेकान्तवाद का प्रस्थान भिन्न-भिन्न दृष्टिओं के सुसंगत समन्वय की दिशा में है, न कि अप्रमाणिक विरोध में । एक ही वस्तु के बारे में भिन्न-भिन्न दृष्टि के कारण उत्पन्न होनेवाले Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैनदर्शन भिन्न-भिन्न यथार्थ अभिप्राय या विचार 'नय' कहे जाते हैं । एक ही मनुष्य को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से चाचा-भतीजा, मामा-भानजा, पुत्र-पिता, श्वसुर-जामाता आदि जो माना जाता है इससे-इस सादे व्यावहारिक दृष्टान्त से 'नय' का ख्याल आ सकता है । वस्तु में एक धर्म नहीं है, अनेक धर्म हैं । अतएव वस्तुगत भिन्न-भिन्न धर्मों के बारे में जितने-जितने अभिप्राय उतने 'नय' है । जगत् के विचारों के आदान-प्रदान का सब व्यवहार 'नय' है। अनेकान्तदृष्टि से वस्तु उसके व्यापक स्वरूप में है यानी वह कैसे धर्मों का भण्डार है यह समझ में आता है और व्यवहार के समय उनमें से किसी एक समयोचित धर्म का उपयोग किया जाता है। यही नय का प्रदेश है। अब नयदृष्टि के कुछ उदाहरण देखें । एक ही घट वस्तु मूल द्रव्य अर्थात् मिट्टी की अपेक्षा से विनाशी नहीं है अर्थात् नित्य है, किन्तु उसके आकारादि पर्याय (परिणाम) की दृष्टि से विनाशी है । इस तरह एक दृष्टि से घट को नित्य मानना और दूसरी दृष्टि से अनित्य मानना—ये दोनों नय हैं' ।। इसमें सन्देह नहीं है कि आत्मा नित्य है, क्योंकि उसका नाश नहीं होता । परन्तु उसके संसारी जीवन में सर्वदा और सतत परिवर्तन हुआ करता है । आत्मा किसी समय पशुजीवन प्राप्त करता है, किसी समय मनुष्य अवस्था में आता है तो किसी समय देवभूमि का भोक्ता बनता है और कभी नरक आदि दुर्गति में जा गिरता है, यह कितना परिवर्तन ! एक ही आत्मा की ये कैसी विलक्षण अवस्थाएँ ! यह सब क्या सूचित करता है ? निःसन्देह आत्मा की परिवर्तनशीलता ही । उसके एक ही शरीर की यात्रा भी क्या कुछ कम परिवर्तनशील है ? विचार, वेदना, भावना आदि और हर्ष, विषाद आदि अवस्थाओं के उसके आन्तरिक परिवर्तन भी सतत चालू ही है । इस तरह १. “Nothing extinguishes, and even those things which seem to us to perish, are, in truth, but changed." अर्थात्-किसी पदार्थ का नाश नहीं होता । जो पदार्थ नष्ट होते हुए हमें दीखते हैं वे भी वस्तुतः सिर्फ परिवर्तित होते हैं । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३५३ देहधारी आत्मा सतत परिवर्तन के चक्र में घूमता रहता है । इस परिवर्तनशीलता के कारण नित्यद्रव्यररूप आत्मा को कथंचित् अनित्य भी माना जा सकता है । अतएव आत्मा को एकान्त नित्य नहीं, एकान्त अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य मानना प्राप्त होता है । ऐसी दशा में जिस दृष्टि से आत्मा नित्य है वह और जिस दृष्टि से आत्मा अनित्य है वह दोनों दृष्टियाँ नय कहलाती है । यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मा कहने पर मुख्यतः द्रव्य ध्वनित होता है और घटे कहने पर मुख्यतः पर्याय ध्वनित होता है। अतः आत्मा कहने से मुख्यतः पर्याय ध्वनित होता है । अतः आत्मा कहने से मुख्य रूप से नित्य तत्त्व का बोध होता है और घट कहने पर, इससे विपरीत, मुख्य रूप से अनित्य अर्थ का बोध होता है । आत्मा मूल द्रव्य होने से नित्य ही है और घट पुद्गल का पर्याय होने से अनित्य ही है । शरीर से आत्मा भिन्न ही है यह बात स्पष्ट और निःसन्देह है। परन्तु इसमें इतना ध्यान रखना चाहिए कि दही में जिस प्रकार मक्खन व्याप्त होकर रहा है । उसी प्रकार शरीर में आत्मा व्याप्त होकर रहा है । इस पर से यह स्पष्ट है कि मटके और उसमें रहे हुए लड्डु की भाँति शरीर और आत्मा भिन्न सिद्ध नहीं होते और इसीलिये शरीर के किसी भाग में चोट लगने पर तुरन्त ही आत्मा को दुःख होने लगता है। शरीर एवं आत्म का ऐसा गाढ़-अत्यन्त गाढ़ सम्बन्ध होने से जैनशास्त्रकार कहते हैं कि आत्मा शरीर से वस्तुतः भिन्न होने पर भी उसे शरीर से सर्वथा भिन्न न मानना चाहिए, क्योंकि यदि वैसा माना जाय तो सर्वथा भिन्न दो मनुष्यों के शरीर में से किसी एक के शरीर पर आघात लगने से जिस प्रकार दूसरे को दुःख नहीं होता उसी प्रकार शरीर पर आघात लगने पर आत्मा को दु:ख का अनुभव नहीं होगा । परन्तु वह होता है सही। अतः आत्मा और शरीर का किसी अंश में अभेद भी मानना चाहिए । अर्थात् शरीर एवं आत्मा वस्तुतः सर्वथा भिन्न होने पर भी इन दोनों का संयोग इतना घनिष्ठ है कि इस संयोग की दृष्टि से उन्हें कथंचित् अभिन्न भी कह सकते हैं । इस स्थिति में जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न हैं वह और जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर का अभेद माना जाता है वह Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनदर्शन दोनों दृष्टियाँ नय कहलाती है । जो अभिप्राय ज्ञान से सिद्धि बतलाता है वह 'ज्ञाननय' और जो अभिप्राय क्रिया से सिद्धि बतलाता है वह 'क्रियानय' । ये दोनों अभिप्राय नय हैं । अभिप्राय बतानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र अथवा सिद्धान्त इन सबको नय कह सकते हैं । अपनी-अपनी मर्यादा में रहनेवाले ये नय माननीय हैं और यदि वे एक-दूसरे को झूठा सिद्ध करने का प्रयत्न करें तो वे अमान्य हैं । उदाहरण के तौर पर ज्ञान से भी सिद्धि बतलाई जाती है । ये दोनों अभिप्राय अथवा विचार अपनी-अपनी सीमा में सच्चे हैं । पन्तु यदि एकदूसरे को झूठा सिद्ध करने का प्रयत्न करें तो वे दोनों मिथ्या सिद्ध होंगे । भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्द पर निर्मित भिन्न-भिन्न अभिप्राय, जिसे नय कहते हैं, अपने प्रदेश अथवा विषय की सीमा तक सत्य हैं । 'नय' वस्तु के अंश का ग्राहक होने से आंशिक ज्ञान है । अतएव वह आंशिक अथवा आपेक्षिक सत्य है । एक अपेक्षा पर अवलम्बित अपने आंशिक ज्ञान को सम्पूर्ण सत्य मानकर दूसरी अपेक्षा पर अवलम्बित दूसरे के आंशिक ज्ञान को, दूसरी ओर का विचार किए बिना, असत्य कहना वस्तुतः दुराग्रह है । इस प्रकार का दुराग्रह मानवसमाज के लिये हानिकर है, फिर वह दुराग्रह चाहे आर्थिक सामाजिक, राजकीय अथवा धार्मिक विषय का क्यों न हो । किसी भी विषय में किसी एक दृष्टिबिन्दु से होनेवाले सापेक्ष ज्ञान को पूर्ण ज्ञान न मानकर उस विषय का यथाशक्य अन्यान्य दृष्टिबिन्दुओं से अवलोकन किये जाने पर उन सब दृष्टिबिन्दुओं के समन्वय से जो बोध होता है उसे पूर्ण सत्य ज्ञान समझना चाहिए । एक दूसरे की विचारदृष्टि को यथास्थित रूप से समझने का यत्न न करने के कारण और अभिमान एवं घमण्ड के कारण सामान्य मनुष्य तथा तार्किक पण्डित भी चिरकाल से एक-दूसरे के साथ लड़ते आए हैं । धर्माचार्यों ने भी यदि एक-दूसरे के दृष्टिबिन्दुओं का को शान्तभाव से समझने का प्रयत्न किया होता तो अवश्य ही एक-दूजे के दृष्टिबिन्दुओं का तथा तत्सापेक्ष समझ का सीधा और उपयोगी अर्थ ग्रहण करके वे जनता में सुन्दर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ पंचम खण्ड और सुरभित वातावरण उत्पन्न कर सके होते और इसके परिणामस्वरूप समग्र जनसमूह के बीच मधुर मैत्रीभाव आज हमें देखने को मिलता । परन्तु दुनिया का भाग्य इतना प्रबल नहीं होगा ! एक ही वस्तु के बारे में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेकर भिन्न-भिन्न विचारसरणियों का निर्माण होता है । ये विचारसरणियाँ नय हैं । संस्कारी अथवा व्यापक (अनेकान्त) दृष्टि इन भिन्न-भिन्न विचारों के पीछे रहे हुए उनके आधारभूत जो भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दु हैं उनकी जाँच करती है और ऐसा करके न्याय सामंजस्य स्थापित करती है । अतः नयवाद की विशाल विचाारसरणी समन्वय करने का मार्ग है । जिस प्रकार समुद्र का बिन्दु समुद्र भी नहीं कहा जाता और असमुद्र (समुद्रबाह्य) भी नहीं कहा जाता, किन्तु समुद्र का एक अंश कहा जाता है; अंगुली का एक पोर अंगुली भी नहीं कहा जाता और अंगुली नहीं है ऐसा भी नहीं कहा जाता फिर भी अंगुली का अंश तो है ही, उसी प्रकार 'नय' भी प्रमाण का अंश है । किसी भी विषय के बारे में अंश-अंश से विचार उत्पन्न होता है और ऐसा होकर के ही अन्ततः वह विशालता अथवा समग्रता में परिणत होता है । किसी विषय के समुचे ज्ञान का उपयोग व्यवहार में अंश-अंश से ही होने का । इसलिये समग्रविचारात्मक श्रुत से अंशविचारात्मक नय का निरूपण पृथक्प से करना प्राप्त होता है । नयवाद अर्थात् अनेकांगलक्षी विचारबुद्धि विरोधी दिखाई देनेवाले विचारों के वास्तविक अविरोध का मूल खोजती है और ऐसा करके उन विचारों का समन्वय करती है । उदाहरणार्थ, आत्मा एक है और अनेक हैंइस प्रकार उभयतया उपलब्ध होनेवाले विरुद्धाभास कथनों की संगति किस तरह हो सकती है, इसकी खोज करके नयवाद ने इस तरह समन्वय किया है कि व्यक्तिरूप से आत्मा अनेक हैं और शुद्ध चैतन्यरूप से एक है । ऐसा समन्वय कर के नयवाद परस्पर विरोधी दिखाई देनेवाले वाक्यों का अविरोध [एकवाक्यता] सिद्ध करता है । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनदर्शन इस तरह आत्मा आदि तत्त्वों के विषय में अपने अपने दर्शनसम्प्रदाय के अनुसार जब भिन्न-भिन्न विचारों का [आत्मा नित्य है या अनित्य इत्यादि प्रकार के] संघर्षण होता है और वे विवाद एवं वैषम्य उपस्थित करते हैं तब ऐसी दशा में युक्तिपूर्ण समन्वयवाद ही अनेक दृष्टिबिन्दुओं को समझाकर इस संघर्ष को दूर कर सकता है और पारस्परिक विवाद एवं विरोध को मिटाकर समाधान करा सकता है। इस समन्वयवाद का नाम ही नयवाद है, जो विविध विचारों की संगमन-कला है। यह सापेक्ष विचारदृष्टि होने से अपेक्षावाद भी कहा जा सकता है । सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि जितने प्रकार के वचन हैं उतने प्रकार के नय है । इस पर से दो बातें मालूम होती है । एक तो यह कि नय अनगिनत है और दूसरी यह कि नय का वचन के साथ बहुत अधिक सम्बन्ध है। प्रत्येक नय वचन द्वारा प्रकट किया जा सकता है अतः नय को उपचार से वचनात्मक भी कह सकते है । इस तरह नय दो प्रकार का कहा जा सकता है : भावनय और द्रव्यनय । ज्ञानात्मक नय भावनय है और वचनात्मक नय द्रव्यनय है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्रीविद्यानन्दिस्वामी कहते हैं कि सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने । स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिता:२ ॥ अर्थात्-सब नय अपने को बोधकरूप होने पर ज्ञाननय हैं और दूसरे को बोधकरूप होने पर शब्दनय हैं । १. जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥ -सन्मतितर्क ३-४७. अर्थात्-जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने परसमय (मतान्तर) हैं । २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथमाध्याय के ३३वें सूत्र के वार्तिक में ९६वा श्लोक । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३५७ नयों का निरूपण अर्थात् विचारों का वर्गीकरण । नयवाद यानी विचारों की मीमांसा । नय सैंकड़ों हैं । अभिप्राय अथवा वचनप्रयोग जब गिनती से बाहर हैं तब उनसे भिन्न न होने के कारण नयों की भी गणना नहीं की जा सकती । फिर भी मौलिक रूप से नयों के दो भेद किए गए हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थि क । मूल पदार्थ को 'द्रव्य' कहते है, जैसे कि घड़े की मिट्टी । मूल द्रव्य के परिणाम को 'पर्याय' कहते हैं । मिट्टी अथवा किसी भी मूल द्रव्य के ऊपर जो परिवर्तन होते रहते हैं उन सबको पर्याय समझना । वस्तु के स्थूल परिवर्तन रूप स्थूल पर्याय तो मालूम होते हैं, परन्तु प्रतिक्षण सूक्ष्म-सुसूक्ष्म-परमसूक्ष्म परिवर्तन होते रहते हैं । वे सूक्ष्म पर्याय तो अगम्य ही हैं, तथापि निश्चितरूप से प्रतीतिगोचर हो सकते हैं । 'द्रव्यार्थिक नय' अर्थात् मूल द्रव्य पर (सामान्य स्थिर तत्त्व पर) लक्ष देनेवाला अभिप्राय, और 'पर्यायार्थिक नय' अर्थात् वस्तु के पर्यायापरिवर्तन की ओर लक्ष देनेवाला अभिप्राय । द्रव्यार्थिक नय समग्र पदार्थों को नित्य मानता है, जैसे कि घडा मूल द्रव्य-मृत्तिकारूप से नित्य है । पर्यायार्थिक नय सम्पूर्ण पदार्थों को अनित्य मानता है । क्योंकि सब पदार्थों में परिवर्तन (रूपान्तर) होता रहता है । अतः इस दृष्टि से वह वस्तुमात्र की अनित्यता का द्योतक है । सामान्यतत्त्वगामिनी विचारदृष्टि 'द्रव्यार्थिक नय' और विशेषांशगामिनी विचारदृष्टि 'पर्यायर्थिक नय' है। __ मनुष्य की बुद्धि जब सामान्य-अंशगामी होती है तब उसका वह विचार 'द्रव्यार्थिक नय है और जब विशेषअंशगामी होती है तब उसका वह विचार 'पर्यायार्थिक नय' है । द्रव्यदृष्टि में विशेष अथवा पर्यायदृष्टि में द्रव्य न आता हो ऐसा तो नहीं है, परन्तु यह दृष्टिविभाग गौणमुख्यभाव की अपेक्षा से समझना चाहिए । इन दो दृष्टियों का कुछ ख्याल नीचे के दृष्टान्त से आ सकेगा । समद्र की ओर दृष्टिपात करने पर जब पानी का रंग, गहराई, विस्तार अथवा सीमा आदि उसकी किसी विशेषता की ओर ध्यान न जाकर केवल पानी की ओर ही ध्यान जाता है तब उसे पानी का सामान्य विचार कह सकते Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन ३५८ हैं । यही है पानी के बारे में 'द्रव्याथिकनय' । इससे विपरीत जब उपर्युक्त विशेषताओं की ओर ध्यान जाता है तब वह विचार पानी की विशेषताओं का होने से उसे पानीविषयक 'पर्यायार्थिक नय' कह सकते हैं । इस उदारहण से ज्ञात हो सकता है कि सब भौतिक पदार्थों के बारे में सामान्यगामी और विशेषगामी विचार उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों काल के अपार विस्तार पर फैले हुए किसी एक ही आत्मा आदि वस्तु के बारे में भी सामान्यगामी और विशेषगामी विचार उत्पन्न हो सकते हैं । काल एवं अवस्थाभेद के विवर्तों की ओर लक्ष न देकर यदि केवल शुद्ध चेतना की ओर लक्ष दिया जाय तो वह आत्मा का द्रव्यार्थिक नय कहा जायगा और उस चेतना की देश - कालादि - कृत विविध दशाओं की ओर यदि लक्ष दिया जाय तो वह आत्मा का पर्यायार्थिक नय कहा जायगा । पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होता । द्रव्य - पर्याय का सम्बन्ध भिन्नाभिन्न है । द्रव्य का पर्यायव्यक्ति के साथ का सम्बन्ध भिन्न होने पर भी पर्यायप्रवाह की अपेक्षा से अभिन्न भी है । अब अधिक विवेचना के लिये नय के सात प्रकार बतलाए जाते हैं । वे ये हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत | (१) नैगम - निगम अर्थात् कल्पना । इससे होनेवाला व्यवहार ' नैगम' कहलाता है । इसके मुख्य तीन भेद हैं : संकल्पनैगम, अंशनैगम और आरोपनैगम । (क) संकल्पनैगम — एक मनुष्य बम्बई जाने के लिये तैयार होकर खड़ा है । उस समय उसका कोई मित्र वहाँ आकर पूछता है कि 'क्या करते हो ? तब वह उत्तर देता है कि 'बम्बई जाता हूँ ।' अथवा एक मनुष्य ने चोरी करने का संकल्प किया, तो उसने चोरी की है ऐसा धर्मशास्त्र कहेगा । इस नय के हिसाब से 'क्रियामाणं कृतम्'किया जाता काम किया हुआ कहलाता है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३५९ (ख) अंशनैगम-एक पुरुष की धोती अथवा एक स्त्री की साड़ी पर एकाध चिनगारी गिरने से उसके किञ्चित् जल जाने पर वह पुरुष अथवा स्त्री एकदम चौंककर बोल उठते हैं कि 'मेरी धोती जल गई' मेरी साड़ी जल गई' । इसी प्रकार कुर्सी का एक पैर टूट जाने पर 'कुर्सी टूट गई' ऐसा कहा जाता है। (ग) आरोप नैगम-'आज दीवाली के दिन महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ' अथवा आज चैत्र शुक्लत्रयोदशी के दिन महावीर स्वामी ने जन्म लिया'-इस प्रकार कहने में वर्तमान के उपर भूतकाल का आरोप किया जाता है। चावल पकने आए हों तब चावल पक गए अथवा बिस्तर बिछाया जा रहा हो तब बिछा दिया—ऐसा कहा जाता है। इसमें भूतकाल के ऊपर भविष्य का आरोप है । यह कालारोप है । दूसरे भी अनेकविध आरोप हैं । आरोपनैगम में अन्तर्भूत होनेवाला उपचारनैगम इस तरह है 'महाकवि कालिदास भारत का शेक्सपियर है ।' सुखदुःख में सहायक होनेवाले मित्र के बारे में कहना कि 'वह तो मेरा दाँया हाथ है ।' अपनी प्रिय पुत्री के बारे में कहना कि 'वह तो मेरी आँख की पुतली है ।' सुन्दर स्त्री के बारे में कहना कि 'यह तो मूर्तिमान् सौन्दर्य है ।' _ 'त्वं जीवितं त्वमसि में हृदयं द्वितीयं त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमङ्गे ।' [तू मेरा जीवन है, मेरा दूसरा हृदय है, मेरे नेत्रों की चन्द्रिका है, मेरे अंग में अमृतरूप है।] ये सब उपचार नैगम के उदाहरण हैं। इस प्रकार विविध लोकरूढि एवं लौकिक संस्कार के अनुसरण में से उत्पन्न होनेवाले विचार तथा वाग्व्यापार नैगमनय की कोटि में रखे जाते हैं। नैगमनय धर्म तथा धर्मों में से किसी एक को गौण रुप से और Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनदर्शन दूसरे को मुख्यरूप से ग्रहण करता है । जैस कि, जीव के स्वरूप का निरूपण करते समय उसके ज्ञानादि गुण गौन होते है और ज्ञानादि गुणों के निरूपण के समय जीव गौण होता है। गण-गणी, क्रिया-क्रियावान, अवयवअवयवी तथा जाति-जातिमान् के बीच के तादात्म्य (अभेद) को यह नय ग्रहण नहीं करता । इन सबके बीच अर्थात् गुण और गुणी आदि के बीच यह तो भेद ही देखता है । इन गुण-गुणी आदि में से एक की मुख्य रूप से तो दूसरे की गौण रूप से कल्पना करने की इस नय की सरणी है । (२) संग्रह-सामान्य तत्त्व का अवलम्बन लेकर अनेक वस्तुओं को समुच्च्यरूप से-एक रूप से ग्रहण करना यह संग्रहनय कहलाता है । जड़ एवं चेतनरूप अनेक व्यक्तियों में रहे हुए सतरूप 'सामान्य' तत्त्व के ऊपर दृष्टि रखकर और दूसरे विषयों को लक्ष में न लेते हुए इन सब विविध व्यक्तियों को एकरूप समझकर ऐसा कहना कि सत् रूप विश्व एक है' [क्योंकि सत्तारहित एक भी वस्तु नहीं है] संग्रहनय की दृष्टि है । 'एक आत्मा है' इस प्रकार के कथन से वस्तुतः सब का एक आत्मा सिद्ध नहीं होता । प्रत्येक शरीर में आत्मा भिन्न-भिन्न है। फिर भी सब आत्माओ में रहे हुए सामान्य चैतन्य-तत्त्व का आश्रय लेकर 'एक आत्मा हैंऐसा कथन होता है। यह संग्रहनय की दृष्टि है । इसका लौकिक उदाहरण भी लिया जा सकता है कि कपड़े के विविध प्रकार और व्यक्तियों को लक्ष में न रखकर और केवल कपड़ेपने के सामान्य तत्त्व को दृष्टि-समक्ष रखकर विचार करना कि यहाँ एकमात्र वस्त्र ही है यह संग्रहनय का उदाहरण है। संग्रहनय सामान्य तत्त्व का अवलम्बन लेता है, अत: सामान्य जितना विशाल होगा उतना ही संग्रहनय भी विशाल होगा और सामान्य जितना अल्प उतना ही संग्रहनय भी अल्प होगा । परन्तु जो विचार सामान्य तत्त्व का आश्रय लेकर विविध वस्तुओं के एकीकरण की ओर प्रवृत्त होते हैं वे सब संग्रहनय की श्रेणी में रखे जा सकते हैं । १. 'व्यवस्थातो नाना' यह वैशेषिकदर्शन के तृतीय अध्याय का उपान्त्य सूत्र अनेक जीववाद का सिद्धान्त उपस्थित करता है । २. ठाणांग का दूसरा सूत्र । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३६१ (३) व्यवहार—सामान्यरूप से निर्दिष्ट वस्तु ब्योरे से नहीं समझी जा सकती । अतः उसकी विशेष समझ देने के लिये विशेषरूप से उसके भेदप्रभेद करके उसका पृथक्करण करने वाला विचार 'व्यवहारनय' कहलाता है । सामान्यरूप से 'कपड़ा' कह देने मात्र से उसके विशेष प्रकारों की खबर नहीं पड़ती । अतः उसके विशेष प्रकारों को बतलाने के लिये जो भेद किए जाते हैं वे 'व्यवहार' नय में आते हैं । इस दृष्टान्त पर से समझा जा सकता है कि सतरूप वस्तु का जड़ और चेतन रूप से दो भेद करना इन दो भेदों का भी भेदबहुल विस्तृत विवेचन करना यह व्यवहारनय की प्रवृत्ति है । 'आत्मा एक है' ऐसा संग्रहनय ने कहा, परन्तु उसके भेद तथा अवान्तर भेद करके इन सबका विशेष विवेचन करना यह व्यवहारनय की पद्धति है । संक्षेप में, एकीकरणरूप बुद्धिव्यापार 'संग्रह' पृथक्करणरूप बुद्धिव्यापार 'व्यवहार' है । (४) ऋजुसूत्र — वस्तु के सिर्फ वर्तमान पर्याय की ओर यह नय ध्यान आकर्षित करता है। जो विचार भूत और भविष्य काल को एक ओर रखकर केवल वर्तमान का स्पर्श करता है वह 'ऋजुसूत्र' नय है । इस नय की दृष्टि से वर्तमान समृद्धि सुख का साधन होने से उसे समृद्धि कह सकते हैं, परन्तु भूतकालीन समृद्धि का स्मरण अथवा भावि समृद्धि की कल्पना वर्तमानकाल में सुख-सुविधा देनेवाली न होने के कारण उसे समृद्धि नहीं कहा जा सकता । जो पुत्र वर्तमान में उपयोगी हो वही इस नय की अपेक्षा से पुत्र है । बाकी भूतकाल का अथवा भविष्य में होनेवाला पुत्र, जो इस समय नहीं है इसे नय की दृष्टि से पुत्र नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार सुख - दुःख की वर्तमान अवस्था ही इसे मान्य है । वर्तमान में जो उपस्थित हो वही सही, ऐसा यह नय मानता है । कोई गृहस्थ यदि साधुधर्म की शुभ मनोवृत्तिवाला हो तो उसे यह नय साधु न कहकर अव्रती ही कहेगा । सामायिक में बैठा हुआ मनुष्य यदि बुरे विचार करता हो तो इस नय के हिसाब से वह खड्डे में गिरा कहा जायगा । सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र इस तरह ऋजुसूत्र के दो भेद किए गए हैं। एक 'समय' मात्र के वर्तमान पर्याय को ग्रहण करनेवाला सूक्ष्म - ऋजुसूत्र और अनेक समय के वर्तमान Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनदर्शन पर्याय को ग्रहण करनेवाला स्थूल-ऋजुसूत्र कहलाता है । सौ वर्ष का मनुष्य पर्याय स्थूल ऋजुसूत्र का उदाहरण हैं । ये चार अर्थनय कहलाते हैं, क्योंकि ये वस्तु का विचार करते हैं । अब अर्थ के अनुरूप उचित शब्दप्रयोग को माननेवाले अवशिष्ट तीन शब्दनयों को देखें (५) शब्द-यह नय पर्यायवाची शब्दों को पदार्थवाची मानता है; परन्तु काल, लिंग आदि का यदि उनमें भेद हो तो इस भेद के कारण एकार्थवाची शब्दों में भी यह अर्थभेद मानता है । लेखक के समय में 'राजगृह' नगर विद्यमान होने पर भी प्राचीन समय का राजगृह भिन्न प्रकार का होने से और उसी का वर्णन उसे अभीष्ट होने से वह 'राजगृह नगर था' ऐसा प्रयोग करता है । इस प्रकार कालभेद से अर्थभेद का व्यवहार इस नय के कारण होता है। इसकी तनिक ब्योरे से विवेचना करें जो शब्द जिस अर्थ (वस्तु) का वाचक अथवा सूचक होता है उस अर्थ को-वस्तु को सूचित करने के लिये उसी शब्द का प्रयोग करने का 'शब्द' नय ध्यान रखता है, फिर वह वस्तु चाहे कोई व्यक्ति (प्राणी अथवा पदार्थ), हो गुण हो, क्रिया हो अथवा सम्बन्ध हो । प्राणियों में यदि नर अथवा नारी का भेद (लिंगभेद) हो तो उसे दिखलाने के लिये प्रस्तुतः नय भिन्नभिन्न शब्दों का प्रयोग करेगा-जैसे कि पुरुष-स्त्री, गर्दभ-गर्दभी, कुत्ता-कुत्ती, मोर-मोरनी, पुत्र-पुत्री आदि । एक दूसरे की तुलना में यदि एक बड़ा हो और एक छोट हो तो इस परिमाण भेद को सूचित करने के लिये यह नय भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग करेगा-जैसे कि लोटा-लोटी, कुआँ-कुई पहाड़पहाड़ी, प्याला-प्याली आदि । एक ही मनुष्य भिन्न-भिन्न मनुष्यों के सम्बन्ध से यदि भिन्न-प्रकार का नाता रखता हो तो उस मनुष्य के सम्बन्ध में बोलते समय प्रत्येक नाता अलग अलग दिखलाने के लिये भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जायगा-जैसे कि चाचा, भतीजा, पिता, पुत्र, श्वशुर, दामाद आदि । (ये सब सापेक्ष सम्बन्ध के उदाहरण है ।) यदि कोई क्रिया भूतकाल Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३६३ में हुई हो तो भूतकाल का, वर्तमान में होती हो तो वर्तमान काल का और भविष्य में होनेवाली हो तो भविष्यकाल का प्रयोग करने की यह नय सावधानी रखता है । यह नय वस्तु यदि एक होगी तो एकवचन का और अनेक होगी तो बहुवचन का प्रयोग करेगा । [ संस्कृत भाषा में दो के लिये द्विवचन का और दो से अधिक के लिये बहुवचन का प्रयोग करेगा ।] वस्तु का क्रिया के साथ जिस प्रकार का ( कर्ता, कर्म, करण, समप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप) कारक - सम्बन्ध होगा उसी के अनुरूप विभक्तियुक्त शब्द प्रयोग करेगा। 'राजा का पुत्र' इसमें राजा के साथ पुत्र का स्वजन - सम्बन्ध, 'राजा का महल' इसमें राजा का महल के साथ स्वामित्व का सम्बन्ध, मिट्टी का घड़ा' इसमें उपादान के साथ का कार्य का सम्बन्ध, 'मेरा हाथ' आदि में तथा 'कुर्सी का पैर आदि में अवयव अवयवी का सम्बन्ध दिखलाया जाता है । ये सब सम्बन्ध छठ्ठी विभक्ति द्वारा बतलाए जाते हैं । 4 यहाँ पर प्रसंगवश यह सूचित कर देना उपयुक्त होगा कि जिस समय जो नय उपयोगी हो उस समय उस नय का प्राधान्य स्वीकार करना ही चाहिए । व्यवहारनय के समय यदि संग्रहनय का प्रयोग करें तो पत्नी, माता, बहन, सेठ, नौकर आदि के बीच भेद ही नहीं रहेगा और अनेक प्रकार का घोटाला होने लगेगा । संग्रहनय के स्थान पर केवल व्यवहारनय का उपयोग किया जाय तो सर्वत्र भिन्नता ही भिन्नता प्रतीत होगी और प्रेमभावना का नाश होकर छीनाझपटी को उत्तेजन मिलेगा । जहाँ शब्द नय की उपयोगिता है वहाँ पर नैगम नय का प्रयोग करने पर जिसमें साधुत्व के लक्ष्ण नहीं है और जो केवल बाह्य साधु-वेषधारी है उसे नैगमनयवाला साधु कहेगा ऐसे अवसर पर मुख्यता शब्द नय की है । अतः किस अवसर पर किस नय का उपयोग उचित होगा इसका विवेकपूर्वक विचार करने की आवश्यकता प्रत्येक अवसर पर होगी ही । किसी बदसूरत पुरुष का नाम सुन्दरलाल और किसी दरिद्र स्त्री का नाम लक्ष्मी रखा गया हो तो भी नैगमनयवाला स्वाभाविकतया उनको उन्हीं नामों से बुलाएगा और शब्दनयवाले को उस तरह बुलाना भले ही अच्छा न लगता हो तो भी ऐसे अवसर पर नैगमनय की मुख्यता होने से नैगमनय का Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैनदर्शन अनुसरण करके उन्हे उनके रखे हुए नामों से बुलाए बिना दूसरा चारा ही नहीं है। 'शब्द' नय एक अर्थ (वस्तु) को कहनेवाले अनेक भिन्न-भिन्न शब्दों (पर्यायवाची शब्दों) से किसी भी शब्द का, उस अर्थ का बतलाने के लिये प्रयोग करना अयोग्य नहीं मानता; परन्तु ऊपर कहा उस तरह काल, लिंग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है। (६) समभिरुढ-इस नय की दृष्टि में प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्नभिन्न है । 'शब्द' नय ने काल, लिंग आदि भेद से अर्थ का भेद तो माना, परन्तु काल आदि का भेद न होने पर पर्यायवाची शब्दों में [इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों में] अर्थभेद मान्य नहीं रखा है, तब यह नय (समभिरूढ नय) शब्द के भेद से ही अर्थभेद मानता है । शब्द भिन्न तो अर्थ भिन्न ऐसा इसका मत है । इससे राजा, नृप, भूपति आदि एकार्थवाची माने जानेवाले पर्यायशब्दों का भी उनकी व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ है ऐसा यह नय मानता है । यह कहता है कि राजचिह्नों से जो शोभित हो वह 'राजा', मनुष्यों को जो रक्षण करे वह 'नृप' और पृथ्वी का पालन-पोषण करे वह 'भूपति' । राजचिह्नों से शोभित होना, मनुष्यों का रक्षण करना और पृथ्वी का पालन-पोषण करना-इन सबका आधार एक ही व्यक्ति होने से इन अर्थों के सूचक राजा, नृप और भूपति शब्द पर्यायवाची हो गए हैं, परन्तु वस्तुतः उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है ऐसे मन्तव्य का यह नय, ऊपर कहा उस तरह, भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों के भी उनकी भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है। प्रत्येक शब्द असल में तो पृथक् अर्थ बतलानेवाला होता है, परन्तु कालान्तर में व्यक्ति और समूहों में प्रयुक्त होते रहने से पर्यायवाची बन गए हैं । 'समभिरूढ़' नय उनके पर्यायवाचित्व को मान्य न रखकर प्रत्येक शब्द का मूल अर्थ पकड़ता है-ऊपर देखा उस तरह । (७) एवंभूत-यह नय कहता कि यदि व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद माना जाय तो ऐसा भी मानना चाहिए कि जिस समय व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ घटित होता हो तभी उस शब्द का वह अर्थ मानना चाहिए और तभी उस शब्द Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३६५ द्वारा उस अर्थ का कथन करना चाहिए, दूसरे समय नहीं । इस कल्पना के अनुसार राजचिन्हों से शोभित होने की योग्यता होना अथवा मनुष्य-रक्षण का उत्तरदायित्व रखना इतना ही राजा अथवा नृप कहलाने के लिये पर्याप्त नहीं है, किन्तु इससे आगे बढ़कर जब वस्तुतः राजचिन्हों से शोभित हो तभी और तब तक ही 'राजा' कहा जा सकता है । इसी प्रकार वस्तुतः मनुष्यों का जब रक्षण करता हो तभी और तब तक के लिये ही 'नृप कहा जा सकता है । इसी प्रकार वस्तुतः मनुष्यों का जब रक्षण करता हो तभी और तब तक के लिये ही 'नृप कहा जा सकता है; अर्थात् तभी उस व्यक्ति के बारे में 'राजा' अथवा नृप' शब्द का प्रयोग वास्तविक है । इसी प्रकार जब कोई वस्तुतः सेवाकार्य में लगा हो तभी और तब तक के लिये ही वह 'सेवक' नाम से व्यवहृत हो सकता है । इस प्रकार जब वास्तविक कार्य हो रहा हो तभी उसके योग्य विशेषण अथवा विशेष्य नाम का प्रयोग किया जा सकता है ऐसा इस नय का अभिप्राय है । 'समभिरुढ नय' शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ बतलाता है, परन्तु जब एक योद्धा युद्ध न कर रहा हो अर्थात् युद्धकार्य में प्रवर्तमान न हो, लडाई का प्रसंग न होने से अपने घर में निश्चिन्ततापूर्वक रहता हो तब उसके लिये 'योद्धा' शब्द का प्रयोग करने के सामने उसे विरोध नही है; परन्तु 'एवम्भूत नय उसका विरोध करेगा । वह कहेगा कि जब योद्धा युद्ध की प्रवृत्ति में प्रवर्तमान हो - लड़ाई लड़ रहा हो तभी उसे योद्धा' कह सकते हैं । इसी प्रकार जब पुजारी पूजा की क्रिया में प्रवर्तमान हो तभी और उस समय तक के लिये ही उसे पुजारी कहा जा सकता है । कोई भी शब्द क्रिया का अर्थ बतलाता ही है । अतः जिस शब्द की व्युत्पत्ति में से जिस क्रिया का भाव प्रगट होता हो उस क्रिया में उस शब्द का अर्थ (उस शब्द का वाच्य पदार्थ) जब प्रवर्तमान हो तभी उसे उस शब्द द्वारा कह सकते हैं । प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी- घातु पर से निष्पन्न हुआ है, अतः उसका किसी-न-किसी क्रिया के साथ सम्बन्ध है ही । शब्द में से सूचित होनेवाली क्रिया उसके वाच्यार्थभूत पदार्थ में कभी किसी समय देखने के बाद 'समभिरूढ नय' चाहे जब उस अर्थ (वस्तु) में उस शब्द का प्रयोग करेगा, फिर भले ही वह क्रिया Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनदर्शन उस वस्तु में उस समय वर्तमान न भी हो; परन्तु 'एवम्भूत' नय वह क्रिया उस पदार्थ में जब प्रवर्तमान हो और जब तक प्रवर्तमान रहे तभी और तब तक ही उस शब्द का उस अर्थ में प्रयोग करेगा । शब्द- सूचित क्रिया के अभाव में उस शब्द को उस पदार्थ के लिये अप्रयोज्य कहेगा । इस नय के मन्तव्य के अनुसार प्रत्येक शब्द क्रिया शब्द है । सातों नयों को हमने संक्षेप में देख लिया । नैगम का विषय सत्असत् दोनों हैं, क्योंकि ये दोनों संकल्प-कल्पना के विषय हैं। इसकी अपेक्षा केवल सत् को ही विषय करनेवाला संग्रहनय अल्पविषयवाला है । संग्रह के विशेष ही व्यवहार के विषय हैं । व्यवहार की अपेक्षा ऋजुसूत्र सूक्ष्म है और ऋजुसूत्र की अपेक्षा तीनों शब्दनय उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषयग्राही होते जाते हैं । इस तरह नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं । प्रारम्भ के तीन 'स्थूल' होने से अधिक सामान्यग्राही हैं और ऋजुसूत्र भूत-भविष्य का इनकार करके मात्र वर्तमान का ग्राहक होने से स्पष्टरूप से विशेषगामी है । इसके बाद के तीन नय भी सूक्ष्म होते जाते हैं, अतः वे अधिक विशेषगामी हैं । सामान्य और विशेष दोनों एकवस्तु के अविभाज्य अंश हैं और परस्पर सुसम्बद्ध हैं, अतः सभी नय सामान्य विशेष उभयगामी कहे जा सकते हैं । फिर भी विशेषगामी की अपेक्षा जो जितना अधिक सामान्यगामी होता है वह 'द्रव्यार्थिक नय' में गिना जाता है और सामान्यगामी की अपेक्षा जो जितना अधिक विशेषगामी होता है वह 'पर्यायार्थिक' गिना जाता है; क्योंकि प्राधान्येन व्यपदेशा १. व्यवहार में भी देखा जाता है कि कोई सरकारी कर्मचारी जबतक अपने कर्तव्य (Duty) पर होता है तबतक उसके साथ यदि कोई दुर्व्यवहार करे तो सरकार उसका पक्ष लेती है, परन्तु दूसरे समय साधारण प्रजा की तरह उसका विचार किया जाता है । सरकार इस तरह का अपने कर्मचारी के साथ जो व्यवहार करती है वह 'एवम्भूत' नय की विचारसरणी है। 'मैं गवर्नर से नहीं मिला था, किन्तु अपने मित्र से मिला था', 'मैं राजा नहीं हूँ, केवल अतिथि हूँ,' आदि वचनप्रयोगों में 'एवम्भूत' नय की झलक मिलती है । २. काल आदि के भेद के कारण अर्थ का भेद मानने से 'शब्द' नय ऋजुसूत्र की अपेक्षा सूक्ष्म है और शब्द नय की अपेक्षा इसके बाद के दो नयों की उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्मता स्पष्ट है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ पंचम खण्ड भवन्ति । अर्थात् प्राधान्य को-मुख्यता को लक्ष में रखकर कथन किया जाता है। नय प्रमाणसिद्ध द्रव्य-पर्यायरूप अनेकधर्मात्मक पदार्थ को विभक्त करके प्रवृत्त होते हैं । नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायर्थिक ये दो मुख्य भेद हैं जिनमें सात नय अन्तर्भूत होते हैं—प्रथम के तीन द्रव्यार्थिक में और अवशिष्ट चार पर्यायार्थिक में ।। द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नय के विषयभूत भेद को गौण करके अपने विषयभूत अभेद का ही व्यवहार करता है । जैसे कि, द्रव्यार्थिक नय से (द्रव्य-सामान्य के अभिप्राय से) यदि ऐसा कहा जाय कि 'सुवर्ण लाओ' तो लानेवाला सुवर्ण के कटक, कुण्डल, कडा आदि में से कोई भी गहना मँगानेवाले के सम्मुख उपस्थित करे तो सुवर्ण मँगानेवाले की आज्ञा का उसने पालन किया समझा जायगा; क्योंकि कटक, कुण्डल, कडा आदि में से कोई भी आभूषण सुवर्ण ही है । उनमें से किसी एक को उपस्थित करने से आज्ञानुसार सुवर्ण ही लाया गया है ऐसा समझा जायगा । पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय के विषयभूत अभेद को गौण करके अपने विषयभूत भेद का ही व्यवहार करता है। जैसे कि, पर्यायार्थिक नय से (पर्याय के अभिप्राय से) यदि ऐसा कहा गया हो 'कुण्डल लाओ' तो लानेवाला कटक, कड़ा आदि दूसरा कोई आभूषण न लाकर केवल कुण्डल ही कि लाएगा; क्योंकि कटक, कुण्डल, कड़ा, कण्ठी आदि सब सुवर्ण के आभूषणों में सुवर्ण एक होने पर भी सुवर्ण के ये सब पर्याय एक दूसरे से भिन्न है । अतः यदि सुवर्ण का कोई खास पर्याय मँगाया हो तो उसी को उपस्थित करने से आज्ञा का पालन किया गया समझा जायगा। __इस पर से ज्ञात होगा कि द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से सुवर्ण एक है और पर्यायार्थिक नय के अभिप्राय से अनेक । सुवर्ण के भिन्न-भिन्न पर्यायों में सुवर्ण सामान्य एक है, परन्तु उसके पर्याय भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार के एक-अनेक को लेकर सप्तभंगी बनती है । इस तरह एकत्वअनेकत्व अन्यत्र सब जगह पर घटा सकते हैं । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैनदर्शन सूक्ष्मता से देखें तो मुख्यत: दो प्रकार की ही दृष्टियाँ काम करती है : अभेददृष्टि और भेददृष्टि। द्रव्यार्थिक नय अभेददृष्टि पर और पर्यायार्थिक नय भेददृष्टि पर अवलम्बित है । नैगम आदि नय इन दो मूलभूत अभेदग्राही और भेदग्राही नयों का ही विस्तार है । सिद्धसेन दिवाकर ने अभेदसंकल्पी नैगम को संग्रह में और भेदसंकल्पी नैगम को व्यवहार में समाविष्ट करके नैगम को पृथक् नय नहीं माना है । उनके अभिप्राय के अनुसार संग्रहादि छह नय हैं । अब नयाभास (दुर्नय) भी देख लें धर्म-धर्मी, गुण-गुणी आदि का एकान्त भेद माननेवाला मत-केवल भेद का स्वीकार करके अभेद का तिरस्कार करनेवाला मत नैगमाभास है । इसके उदाहरण में नैयायिक-वैशेषिक दर्शन रखे जाते हैं । संग्रहनय के परसंग्रह और अपरसंग्रह दो भेद हैं । समग्र विश्व सत्रूप से एक हैं-इस तरह मात्र सत् को ही शुद्ध द्रव्य माननेवाला परसंग्रह सब विशेषों की ओर उदासीन रहता है । परन्तु उदासीन न रहकर यदि विशेषों का इनकार करे तो वह परसंग्रहभास बन जाता है। ____ जीव, पुद्गल, काल आदि द्रव्यों को द्रव्यस्वरूप से एक माननेवाला अपरसंग्रह उनके विशेषों की ओर उपेक्षा-भाव रखता है । परन्तु ऐसा न करके यदि वह उन विशेषों का इनकार करे तो वह अपरसंग्रहभास बन जाता है । इस संग्रहाभास के उदाहरण के तौर पर सांख्यदर्शन तथा अद्वैत वेदान्तदर्शन रखे जाते हैं । संग्रह के विषयभूत सत्-तत्त्व का-जो सत् वह द्रव्य अथवा पर्याय, जो द्रव्य वह जीवादि अनेक प्रकार, जो जीव वह संसारी और मुक्त इत्यादिरूप से विभाजन-विश्लेषण (विभागशः विवेचन) करनेवाला व्यवहार नय है। परन्तु जब वह द्रव्य-पर्याय की व्यवस्था को अपारमार्थिक कह डालेकेवल भेदगामी बनकर अभेद का तिरस्कार करे तब वह व्यवहाराभास बनता है । इस व्यवहाराभास का उदाहरण चार्वाक दर्शन हैं । ऋजुसूत्र केवल वर्तमानकालीन पर्याय को मान्य रखता है, परन्तु जब Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३६९ वह द्रव्य - पर्याय के सम्बन्ध का स्थायी द्रव्य का सर्वथा अपलाप करे तब ऋजुसूत्रनयाभास बन जाता है । बौद्धदर्शन प्रतिक्षण विनश्वर पर्यायों को ही वास्तविक माननेवाला दर्शन है । उसके मत में इन पर्यायों के आधारभूत त्रिकालस्थायी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है । अतः ऐसा दर्शन ऋजुसूत्रनयाभास के उदाहरण के रूप में दिया जाता है । काल, लिंग आदि के भेद से शब्द के अर्थभेद का एकान्तरूप से समर्थन करनेवाला नय शब्दाभास है । भूतकाल में प्रयुक्त और वर्तमानकाल में प्रयुक्त राजगृह शब्द एकान्तरूप से सर्वथा भिन्न राजगृह को सूचित करते हैं— ऐसा मानना यह शब्दाभास का उदाहरण है । पर्यायवाची शब्दों का सर्वथा भिन्न-भिन्न ही अर्थ मानने का एकान्त आग्रह रखना समभिरूढनयाभास है । एवंभूत नय का मन्तव्य ऐसा है कि शब्द में सूचित होनेवाली क्रिया में उस शब्द से वाच्य पदार्थ जब परिणत हो तब वह शब्द उस अर्थ का वाचक है, परन्तु इस मन्तव्य को एकान्तरूप से पकडे रखे, राजा सोया हो तब राजा अथवा नृप नहीं कहा जा सकता — ऐसा यदि एकान्त विधान करे तो वह एवम्भूतनयाभास है । अबतक के विवेचन पर से हम जान सके हैं कि अनेकान्तदृष्टि एकवस्तु में विविध धर्मों का समूह देखता है और स्याद्वाद उनका निरूपण करता है; जबकि नय, उन धर्मों में से किसी एक धर्म का विचाररूप है और उस धर्म का मुख्यरूप से कथन अथवा व्यवहार करता है । स्याद्वाद सकलादेश कहलाता है, क्योंकि वह एक धर्म द्वारा समूची एक वस्तु को 'सकल' (अखण्ड) रूप से ग्रहण करता है, जबकि नय विकलादेश है, क्योंकि वह वस्तु का विकलरूप से अर्थात् अंशतः [ वस्तु के एक देश का - एक धर्म का ] कथन करता है । स्याद्वाद अर्थात् सकलादेश अथवा प्रमाणवाक्य अनेकान्तात्मक ( अनेकधर्मात्मक) वस्तु का निर्देश करता है । जैसे कि, जीव कहने से ज्ञानदर्शनादि असाधारण गुणयुक्त, सत्त्व - प्रमेयत्वादि साधारण गुणयुक्त और अमूर्तत्व, असंख्येयप्रदेशित्व आदि साधारण - असाधारण Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैनदर्शन धर्मयुक्त जीव का अखण्डरूप से बोध होता है । इसमें जीव के सब धर्म एक (अभिन्न) रूप से गृहीत होते हैं, अत: गौण मुख्यभाव की विवक्षा इसमें अन्तर्लीन हो जाती है । विकलादेश (नयवाक्य) वस्तु के एक धर्म का मुख्यतया कथन करता है। जैसे कि,'चेतन जीव' अथवा 'ज्ञाता जीव' कहने से जीव के चैतन्य अथवा ज्ञान गुण का मुख्य रूप से बोध होता है और शेष धर्म गौणभाव से उसमें अन्तर्गत रहते हैं । इस तरह देखा गया कि वाक्य के दो भेद होते हैं : प्रमाणवाक्य और नयवाक्य । वस्तु को सामान्यतः पूर्ण रुप से विषय करनेवाले 'प्रमाण' के वाक्य को प्रमाणवाक्य कहते हैं और वस्तु को अंशरूप से ग्रहण करनेवाले 'नय' के वाक्य को नयवाक्य कहते हैं । इन दो वाक्यों के बीच का अन्तर शब्दों से नही, किन्तु भावों से मालूम होता है । जब हम किसी शब्द द्वारा सामान्यतः पूर्ण वस्तु का कथन करते हैं तब उसे प्रमाणवाक्य कहते हैं और जब हम शब्द द्वारा वस्तु के किसी एक धर्म को कहते हैं अथवा किसी एक धर्म-मुखेन वस्तु का उल्लेख करते हैं तब उसे नयवाक्य कहते हैं । नयवाक्य अर्थात् विकलादेश वस्तु का उसके किसी एक धर्म द्वारा कथन करता है और प्रमाणवाक्य अर्थात् सकलादेश वस्तु को उसके किसी एक धर्म द्वारा उपस्थित न करके सामान्यतः समुच्च्य रुप से समुची वस्तु को उपस्थित करता है । इसे जरा उदाहरण के साथ देखें । 'संसार के वैभव अथवा सांसारिक पदार्थ विद्युत् की भाँति क्षणिक है'-इस वाक्य में विद्युत् शब्द का निर्देश, विद्युत् शब्द का अर्थ 'खूब चमकदार' ऐसा होने पर भी उस चमकीलेपन की दृष्टि से नहीं है किन्तु चमकनेवाली उस समूची वस्तु का यहाँ निर्देश है। इस उदाहण से 'सकलादेश' का ख्याल आ सकता है । किसी लड़की की चमकदार कान्ति अथवा उसकी अतिचपलता के कारण हम उसके बारे में ऐसा कहते हैं कि 'यह लड़की क्या है ? मानो बिजली है ।' यहाँ पर बिजली शब्द का निर्देश उस (बिजली) वस्तु के सौन्दर्यसहित चपलतारूप धर्म द्वारा किया गया है । इस पर से 'विकलादेश' का भी ख्याल आ सकता है । इसी प्रकार 'जीव' शब्द से जानना, देखना आदि धर्मयुक्त सामान्य जीव पदार्थ का बोध होना 'सकलादेश' है और जब उससे केवल 'जीवन' धर्म Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३७१ ही अभिप्रेत हो तो वह 'विकलादेश' है । प्रमाण-ज्ञान का उल्लेख 'स्यात् (कथंचित्) सत्' अथवा 'स्यात् सदेव'-इस प्रकार से होता है । इसमें 'स्यात्' का प्रयोग इसलिये किया जाता है कि दूसरे भी धर्म सापेक्ष रुप से ध्वनित अथवा सूचित हों । 'स्यात्' शब्द जोड देने से वह कथन स्याद्वाद बनता है। नय का उल्लेख 'सत्'--इस प्रकार से होता है; क्योंकि वह स्वाभिमत धर्म का ही कथन करता है । स्वाभिमत धर्म से भिन्न धर्म की चर्चा में वह नहीं पड़ता । परन्तु यदि वह स्वाभिमत धर्म के निवेदन के साथ ही साथ इतर धर्म अथवा धर्मों का निषेध करे तो वह नय नहीं, किन्तु दुर्नय है । इसका उल्लेख 'सत्' ही है' ऐसा एकान्त (निरपेक्ष एकान्त) निर्धारणरूप है । नय ओर दुर्नय इन दोनों के बीच यही भेद है । यद्यपि इन दोनों के वाक्य में फ़र्क नहीं होता, फिर भी अभिप्राय में अवश्य फर्क होता है । जिस प्रकार धर्म का अवधारणरहित निर्देश नय है, जैसे कि सत्, उसी प्रकार एकान्त का अवधारण यदि सापेक्ष हो तो भी वह 'नय' है, जैसे कि 'स्यात् सदेव', अर्थात् अमुक अपेक्षा से सत् ही है । इस वाक्य में 'ही' का प्रयोग किया गया है, अतः सत्त्व (अस्तित्व) सावधारण है, परन्तु वह सापेक्ष है । यह सापेक्षता 'स्यात्' के प्रयोग से अथवा अध्याहार से जानी जा सकती है, अर्थात् उसी पीछे इस प्रकार का अभिप्राय होता है । इसी प्रकार 'घट अनित्य है'-यह अवधारणरहित धर्म-निर्देश जिस प्रकार नय है उसी प्रकार 'घट कथंचित् अनित्य ही है' ऐसा सावधारण निर्देश भी सापेक्ष होने से नय है-'नयास्तव स्यात्पदलाञ्चना इमे'—स्वामी समन्तभद्र । स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितानयात् ॥ -स्वयम्भूस्तोत्र, १०३. १. सदेव, सत्, स्यात् सविति त्रिधाऽर्थो मीयेत दुर्नीति-नय-प्रमाणैः । -हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका श्लोक २८. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन - अनेकान्त भी एकान्त नहीं है अर्थात् वह अनेकान्त भी है और एकान्त भी है । प्रमाणगोचर अनेकान्त है और नयगोचर एकान्त है । ३७२ इस पर से देखा जा सकता है कि नयवाद जब सापेक्ष एकान्तवाद होता है तब वह सम्यक् एकान्तवाद है । ऐसे एकान्तवादों का सुयोजित हार ही अनेकान्तवाद है । श्री सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क तृतीयकाण्ड की भद्दं मिच्छादंसणसमूहमइअस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ इस ६९वीं गाथा में जिनवचन को मिथ्यार्दशनों का समूहरूप बतलाया है । अर्थात् अनेकान्तपूत जिनवाणी, समन्वित बने हुए मिथ्यादर्शनों का समुच्चय है । मतबल कि जिसे मिथ्यादर्शन कहा जाता है उसके आंशिक ज्ञान में आंशिक सत्य समाविष्ट है । 'षड्दर्शन जिन अंग भणीजे' आनन्दघन का यह उद्गार भी इसी बात को सूचित करता है । अंशज्ञान को अंश सत्य मानने के बदले सम्पूर्ण सत्य मान लेना ही मिथ्यादर्शन है । हाथी के सुप्रसिद्ध उदाहरण पर विचार करने से देखा जा सकता है कि समूचे हाथी का ज्ञान होने पर ही एक हाथी पदार्थ पूर्ण रूप से ज्ञात हो सकता है, परन्तु यदि उसके एक-एक अवयव को हाथी समझ लिया जाय तो उससे समूचा हाथी समझ लिया ऐसा नहीं कहा जायगा, परन्तु हाथी के एक-एक अंश का ही ज्ञान हुआ है, ऐसा कहा जायगा । हाथी के एकएक अवयव को हाथी माननेवाले वे अन्धे कैसे पागल थे ? और इसीलिये हाथी के एक-एक अवयव को हाथी मानकर परस्पर झगड़ने लगे । एक ही तरफ की अधूरी बात को पकड़ कर और उसे पूर्ण सत्य मानकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु एवं तत्सापेक्ष बात को समझने का प्रयत्न नहीं करनेवाले तथा पूरा समझे बिना उसकी अवगणना करनेवाले आपस - आपस में कितना विरोध और झगडा-टण्य मचाते हैं यह हमारी आँखों के सामने हम प्रतिदिन देखते । अज्ञान का ( दुराग्रहयुक्त अधूरे ज्ञान का) काम ही लड़ने का है ! १. यह उदाहरण तित्थियसुत्त, उदान० वग्ग ६ में भी है । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३७३ जिस प्रकार हाथी उसके एक-एक अवयव में नहीं, किन्तु उसके सभी अवयवों में समाविष्ट है, उसी प्रकार वस्तु उसके एक अंश में नहीं, किन्तु उसके सभी अंशों के समुच्चय में रही हुई है । अतः उसके सभी अंशों का ज्ञान होने पर ही वह पूर्ण रूप से ज्ञात समझी जायगी । इसका अर्थ यह हुआ कि हाथी के मुख्य-मुख्य सभी अवयवों में हाथी को समझना जिस तरह हाथी के बारे मे पूर्ण ज्ञान कहा जाता है उसी तरह वस्तु को उसके भिन्न-भिन्न स्वरूपों में जानना उस वस्तु के बारे में पूरी समझ कही जाती है । कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तु के एक-एक नहीं, किन्तु शक्य सभी अंशों के ज्ञान में वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान सन्निहित है । जड़ अथवा चेतन तत्त्व के अनेक अंशो को यदि बराबर समझा जाय तो दार्शनिकों में, हाथी के एकएक अंग को पकड़ कर लड़नेवाले उन लोगो की भाँति, क्या लड़ाई हो सकती है ? व्यवहार में समय एवं परिस्थिति के अनुसार कोई एक विचारमार्ग ग्रहण करना पड़ता है। व्यवहार में ऐसा ही होता है । नयदृष्टि व्यावहारिक उपयोग की वस्तु होने से जिस समय जो विचारदृष्टि योग्य अथवा अनुकूल प्रतीत होती हो उस समय वह दृष्टि (नयदृष्टि)अनेकान्तरत्न -कोष में से ग्रहण करनी होती है। 'स्याद्वाद' अथवा 'अनेकान्तवाद' एक ऐसी विशाल दृष्टिवाला वाद है, जो वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से-भिन्न-भिन्न दिशाओं से अवलोकन करता है । इस विशाल एवं व्यापक दृष्टि के अवलोकन से एकांगी दृष्टि के विचार संकुचित और अपूर्ण सिद्ध होते हैं, जबकि भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से संगत भिन्न-भिन्न (विरुद्ध दिखाई देनेवाले) विचार भी माला में मौक्तिकों की भाँति समन्वित हो जाते हैं । इसीलिये अनेकान्तवाद वस्तुतः समन्वयकला होने से समन्वयवाद है और इसका परिणाम अपूर्ण दृष्टिओं से पैदा होनेवाले कलह को शान्त करके साम्यवाद (समवाद-समभाव) के सर्जन में आता है; क्योंकि एक दृष्टि के आधार पर एकतरफ़ा अभिप्राय रखनेवाले को जब दूसरी दृष्टि का ख्याल आता है तब उसकी एकतरफ़ा ज़िद और अभिनिवेश दूर हो जाते हैं । अवश्य ही, एक-दूसरे के मानस को समाहित बनाकर परस्पर माधुर्यपूर्ण Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैनदर्शन बनाने में व्यापक ज्ञान की आवश्यकता है और यह तभी सम्भव है जब हमारी दृष्टि व्यापक हो । इसी व्यापक दृष्टि को जैनदर्शन में 'अनेकान्तदृष्टि' कहते हैं और यह वस्तुतः संस्कारी जीवन का एक समर्थ अंग है । यह दृष्टि व्यावहारिक भी है और आध्यात्मिक भी है । इसे व्यवहार-जगत् का विचक्षण पुरुष भी समझ सकता है और आध्यात्मिक मार्ग का प्रवासी भी समझ सकता है। इस विशाल दृष्टि के निर्मलजल से अन्तर्दृष्टि का प्रक्षालन होने पर रागद्वेष शान्त होने लगते हैं और इसके परिणामस्वरूप चित्त की अहिंसात्मक शद्धि होने पर आत्म-समाधि का मार्ग सुलभ बनता है। विशाल दृष्टि के योग से उदारभाव प्रकट होता है । यह एक-दो उदाहरण के साथ तनिक देखें । एक सम्प्रदाय कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर है तो दूसरा कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर नहीं है अथवा ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है । निस्सन्देह इन दोनों में से कोई एक असत्य है । परन्तु समझने की बात तो यह है कि इन दोनो वादों का लक्ष्य क्या है ? ईश्वरकर्तृत्ववादी कहता है कि यदि तुम पाप करोगे तो ईश्वर तुम्हें दण्ड देगा, नरक में भेजेगा और यदि पुण्य करोगे तो वह खुश होगा, तुम्हें सुख देगा, स्वर्ग में भेजेगा । ईश्वरकर्तृत्व का विरोध करनेवाले जैन आदि कहते हैं कि यदि तुम पाप करोगे तो अशुभ कर्म का बन्ध होगा, खाए हुए अपथ्य भोजन की भाँति इसका (अशुभ कर्म का) दुःखरूप फल तुम्हें मिलेगा, तुम्हें दुर्गति में जाना पड़ेगा; परन्तु यदि तुम पुण्य करोगे तो तुम्हें शुभ कर्म का उपार्जन होगा, खाए हुए पथ्य भोजन की तरह यह (शुभ कर्म) तुम्हें सुखदायी होगा । एक धर्म-सम्प्रदाय मनुष्यों को ईश्वरकर्तृत्ववादी बनाकर जो काम करना चाहता है वही काम दूसरा धर्म सम्प्रदाय उन्हें ईश्वरकर्तृत्वमत का विरोधी बनाकर कराना चाहता है । इसमें देखना तो यह चाहिए कि धर्म में (धर्म के मुद्दे में) भिन्नता आई ? नहीं । अच्छे काम का अच्छा और बुरे का बुरा परिणाम मिलने के बारे में सभी का एकमत ही है । तब भिन्नता फल की-मार्गसरणी की विचारणा में आई । यह भिन्नता ऐसे विशेष महत्त्व की क्यों गिनी जानी चाहिये कि विरोधजनक के रूप में परिणत हो ? विरोध तो वहाँ हो सकता है जहाँ दोनों के उद्देश Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३७५ 1 एक-दूसरे से विरुद्ध हों, परन्तु यहाँ पर तो दोनों का उद्देश एक ही है । ईश्वरकर्तृत्ववाद को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से अतथ्य मानें तो भी वह अधर्म (अधर्मप्रेरक) तो नहीं कहा जा सकता । बुद्धि की अपेक्षा जिनकी भावुकता सविशेष है उन्हें ईश्वरकर्तृत्ववाद अधिक प्रिय और उपयोगी लगता है । वे ऐसा विचारने लगते हैं कि ईश्वर के भरोसे सब कुछ छोड़ देने से निश्चिन्त हुआ जा सकता है । इसके फलस्वरूप कर्तृत्व का अहंकार उत्पन्न हीं होता और पुण्य पाप का विचार सतत बना रहता है । अधिक बुद्धिमान् गिने जानेवाले लोग ईश्वरकर्तृत्व तर्कसिद्ध न होने से उसे नहीं मानते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि ईश्वर को कर्ता न मानकर स्वावलम्बी बनना - आत्मबल एवं निज पुरुषार्थ को विकसित करने में जागरूक रहना आवश्यक है । ईश्वर को प्रसन्न करने की भोली भक्ति और कोशिश करने के बदले कर्तव्यसाधना में प्रगतिशील बनने के लिये प्रयत्नशील होना ही अधिक श्रेयस्कर है । उनका ऐसा मन्तव्य है कि हमारे पापों को क्षमा करनेवाला कोई नहीं है । अत: हमें स्वयं पापाचरण से डरते रहना चाहिए । इस पर से हम यह स्पष्ट देख सकता है कि जो इश्वरकर्तृत्व को मानते हैं वे उसे इसीलिये मानते हैं कि मनुष्य पाप न करे; और जो भी ईश्वरकर्तृत्व नहीं मानते उनकी मान्यता का सार भी यही है कि मनुष्य पाप न करें । दोनों का लक्ष्य एक है । प्राणी सदाचारी बनकर सुखी हो यही दोनों का उद्देश है । इसी प्रकार अद्वैतवाद, जिसका सिद्धान्त यह है कि जगत् का मूल तत्त्व एक ही है, कहता है कि द्वैतभावना संसार का कारण है अद्वैतभावनावाला ‘यह मेरा स्वार्थ और यह दूसरे का स्वार्थ' ऐसा संकुचित विचार नहीं रखता । वह तो जगत् के हित में अपना हित समझता है जिस वैयक्तिक स्वार्थ के लिये मनुष्य नानाविध पाप करते है वह वैयक्तिक स्वार्थ ही उसकी दृष्टि में नहीं रहेगा और इस तरह निष्पाप बनेगा । द्वैतवादी कहता है कि मूल तत्त्व दो हैं : मैं आत्मा हूँ और मेरे साथ लगा हुआ परतत्त्व जड़तत्त्व - पुद्गलतत्त्व मुझसे भिन्न है । 'मैं'; चेतनतत्त्व होने पर भी परतत्त्वजड़तत्त्व के सम्बन्ध के कारण दुर्वासनावश मूर्ख बनकर, अपने साधार्मिक Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैनदर्शन (समानधर्मी) अन्य चेतन तत्त्वों (जीवों) के साथ के व्यवहार में प्रामाणिक न रहकर अनीति-अन्यायमय बरताव रखता हूँ यह मेरे लिये योग्य नहीं है । मैं जड़ तत्त्व के कलुषित मोहात्मक बन्धन में गिरकर और उसकी गुलामी स्वीकार करके दुःखी होता हूँ औ दूसरे को दुःखी करता हूँ। अतः मोह के इस दुःखद बन्धन को मुझे तोड़ना चाहिए । इस तरह अद्वैत, द्वैत दोनों वादों में से एक-जैसा ही कल्याणरूप फलितार्थ निकलता है। अनेकान्त के बारे में अपनी 'अनेकान्तभूति' नाम की द्वात्रिंशिका में से कुछ श्लोक मैं यहाँ पर उदधृत करता हूँ द्वैताद्वैतावादद्वैतं यथार्थं जड़चेतनाभ्यामद्वैतमप्यात्मविकासदृष्ट्या । इत्थं द्वयं तत् पटु संगमय्य शान्तस्त्वया तारक ! तद्विरोधः ॥९॥ –जगत् जड़ और चेतन इस प्रकार दो तत्त्वरूप होने से द्वैतवाद यथार्थ है । इसी प्रकार आराध्य तत्त्व एकमात्र आत्मतत्व होने से उसके (आत्मा के) विकास-साधन की दृष्टि से [उसकी विकास-साधना पर वजन देने के लिये] अद्वैत वाद का निर्देश भी यथार्थ है । इस तरह इन दोनों की कुशल संगति करके हे तारक प्रभो ! तुमने इनका विरोध शान्त कर दिया है। एकानेकात्मवादएकात्मवादो हि समात्मवादः स सर्वभूतैः समभाववादः । इत्थं सुधीर्भावयति श्रितोऽपि नानात्मवादं परमार्थसिद्धम् ॥१०॥ -एकात्मवाद का हमें तनिक भी विरोध नहीं है, परन्तु आत्मा व्यक्तिशः नाना होने से 'एकात्मवाद' का अर्थ समानात्मवाद करना उचित है । [समानात्मवाद यानी सब आत्मा मूलरूप से एक ही-एक ही सरीखे स्वरूप के हैं ऐसा सिद्धान्त ।] यह वाद सब प्राणियों के साथ समभाव स्थापित करने का पाठ सिखाता है बुद्धिशाली पुरुष अनेकात्मवाद का (जीव भिन्न-भिन्न हैं Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ऊपर इस तत्व का ) सिद्धान्त जो कि यथार्थ है, उसका अनुगामी होने पर भी, कहा उस तरह एकात्मवाद की भावना को पुष्ट करता है । अवतारवाद मुक्तस्य भूयो नभवावतारो मुक्तिव्यवस्था न भवावतारे । उत्कृष्टजन्मान उदारकार्यैर्महावतारा उदिता महान्तः ॥ ११ ॥ - मुक्ति की प्राप्ति के पश्चात् मुक्त आत्मा का पुनः संसार में अवतरण नहीं होता । संसार में उसका पुनः अवतरण यदि माना जाय तो मुक्ति की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । अतः इस तरह का 'अवतारवाद' युक्तियुक्त नहीं है । महान् पुरुषों का जन्म महान् कार्य करने से महान् समझा जाता है । और इसीलिये, 'अवतार' का अर्थ जन्म होने से वे 'अवतारी' अथवा महान् अवतारी समझे जाते हैं 1 कर्तृत्ववाद सोपाधिरात्मा जगति प्रवृत्तोऽनुपाधिरात्मा न वहेदुपाधिम् । एवं हि कर्तृत्वमकर्तृतां चाश्रित्योद्भवन्तः कलहा व्यपेयुः १२ ॥ ३७७ — उपाधियुक्त आत्मा जगत् में प्रवृति करता है और उपाधिमुक्त शुद्ध (सच्चिदानन्दमय) आत्मा को --- परम आत्मा को उपाधि उठानी नहीं पड़ती । इस तरह कर्तत्व और अकर्तृत्ववाद के कारण होनेवाले कलह शान्त हो जाते हैं । साकार -- निराकारवाद साकारभावे सशरीरतायां निराकृतित्वे च विदेहतायम् । सङ्गच्छमाने परमेश्वरस्य विरोधभावोऽनवकाश एव ॥१३॥ - परमात्मा की शरीरधारी अवस्था में साकारता और विदेह दशा में निराकारता — इस तरह दोनों संगत होने से इनमें विरोध के लिये अवकाश नहीं है । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जैनदर्शन आत्मविभुत्ववादशरीरमानोऽस्ति शरीरधारी विभुः पुनर्ज्ञान विभुत्वयोगात् । इत्थं बुधोऽवैभव-वैभवस्य समन्वयं सत्कुरुते त्वदीयम् ॥१४॥ -शरीर धारी आत्मा स्वशरीप्रमाण है और जब वह व्यापक ज्ञानशक्ति के प्रकाश से प्रकाशित होता है तब इस ज्ञान की विभूता की दृष्टि से वह विभु भी है । इस तरह, तेरे बताए हुए विभुत्व एवं अविभुत्व के समन्वय का बुद्धिमान पुरुष आदर-सत्कार करते हैं । [जैन दृष्टि से आत्मा असंख्येयप्रदेशी होने से उसके प्रदेश किसी समय विशेष में सुविस्तृत होने पर सकललोकव्यापी बनते हैं । इस तरह भी आत्मा विभु (विभुत्वशक्ति का धारक) है । शून्य और क्षणिकवादजगत् समग्रं खलु सारहीनमिति प्रबुद्धा निजगाद शून्यम् । विनश्वरं च क्षणिकं तदेव ज्ञात्वाऽऽशय कः कुरूतां विरोधम् ? ॥१५॥ ___---'समग्र जगत् असार है' ऐसा समझनेवाले ने उसे 'शून्य' कहा और उसे विनश्वर (क्षणभंगुर) समझनेवाले ने 'क्षणिक' कहा । इस दृष्टि से 'शून्यवाद' और 'क्षणिकवाद' यदि समझा जाए तो इनका विरोध कौन कर सकता है ? दिगम्बर-श्वेताम्बरवादश्वेताम्बरा दिग्वसनाश्च हन्त ! कथं मिथः स्युः कलहायमानाः ? आश्रित्य नग्नेतरभावभूमि भवत्यनेकान्तधुरन्धरत्वे ॥१६॥ -श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों अनेकान्तवाद के धुरन्धर हैंअनेकान्तवाद का जोरदार प्रचार करनेवाले हैं, तो फिर नग्नता और अनग्नता के बारे में परस्पर कलह क्यों करते हैं ? कषायमुक्ताववगत्य मुक्तिं बुद्ध्वाऽप्यनासक्तिसमर्थयोगम् । ज्ञात्वा क्रमं साधनसंश्रयं च मुनेः सचेलत्वमपि प्रतीयात् ॥१७॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३७९ -कषाय (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह) से मुक्त होने में ही मुक्ति है ऐसा जाने, 'अनासक्ति' योग के सामर्थ्य का ख्याल आए और साधनविधि की क्रमिकता समझे तो मुनि की सचेलकता भी समझ में आ सकती किं मुक्तिसंसाधनयोगमार्गों वस्त्रं विनाऽऽविष्कुरुते न मुक्तिम् ? चेद् वीतरागत्वमुदेति पूर्ण नग्नोऽप्यनग्नोऽपि लभेत मुक्तिम् ॥१८॥ ____-मुक्तिलाभ में परम साधनभूत योगमार्ग वस्त्र न होने पर क्या प्रकट नहीं करता ? वस्त्र न होने पर मुक्तिको प्रकट होने से क्या वह रोकता है ? नहीं । मुख्य मुद्दे की बात तो यह है कि वीतरागता पूर्णरूप से प्रकट होने पर, नग्नावस्था में अथवा अनग्नावस्था में, अवश्य मुक्ति प्राप्ति होती है । मूर्तिवादसद्भावना जाग्रति मूर्तियोगाद्, उपासकास्तां तत आश्रयन्ति । योगाप्रमत्त-स्थिरमानसानामावश्यकः स्यानहि मूर्तियोगः ॥२२॥ - भगवान् की मूर्ति का आश्रय लेने से सद्भावना जागरित होती है । अतः उपासक उसका अवलम्बन लेते हैं । योग का अप्रमत्त अवस्था में स्थिरमना मनुष्यों के लिये मूर्तियोग आवश्यक नहीं है । सद्भावनोद्भावनसाधनानां मूर्त्यात्मकं खल्वधिकं य एकम् । श्रयेद् यथाशक्ति विवेकयुक्तं करोति नैवानुचितं स किञ्चित् ॥२३॥ सद्भावना को जागरित करने के साधनों में एक अधिक साधन मूर्तियोग भी है । उसका जो व्यक्ति यथाशक्ति विवेकयुक्त आश्रय लेता है वह क्या कुछ अनुचित करता है ? नहीं । कषायरोधाय हि मूर्तियोगः समाश्रयंस्तं तमनाश्रयद्भिः । सार्धं विरोधाचरणं धरेच्चेत् कुतस्तदा तस्य स सार्थकः स्यात् ? ॥२४॥ मूर्तियोग कषायों के उपशमन के लिये है, अतः उसका आश्रय लेनेवाला उसका अवलम्बन न लेनेवाले के साथ (उसका अवलम्बन न लेने के कारण) यदि विरोधभाव धारण करे तो उसका मूर्तियोग कैसे सार्थक हो Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जैनदर्शन सकता है । क्रियावादन कर्मकाण्डाश्रयदुर्ग्रहस्याऽनेकान्तदर्शी ददतेऽवकाशम् । सर्वाः क्रियाः शुद्धिभृतः सुयोगाः शुभावहाः, कोऽत्र सलां विरोधः ? ॥२५॥ -अनेकान्तदर्शी क्रियाकाण्ड के बारे में दुराग्रह अथवा हठ नहीं करता । कोई भी क्रिया यदि शुद्ध हो, उसमें मन-वचन-काय के योग यदि शुद्ध एवं शुभ रहते हों तो वह कल्याणकारक है। इसमें किस समझदार व्यक्ति का विरोध होगा ? दार्शनिक मत-मतान्तरों का विस्तार अत्यन्त विशाल एवं गम्भीर है । कोई आत्मवादी है तो कोई अनात्मवादी है । आत्मवादी में भी कोई एकात्मवादी है तो कोई नानात्मवादी है । इसी प्रकार ईश्वरवाद के मत में भी अनेक विभिन्नताएँ हैं । ये सब मन्तव्य एक-दूसरे के साथ टकराते रहते हैं—वाद विवाद के विषय बने रहते हैं ऐसा होने पर भी विश्व की दृष्टि के आगे एक तत्त्व सुनिश्चित है और वह है सब प्राणधारियों में---समग्र सजीव शरीरों में होनेवाला 'मैं' का संवेदन । इस सर्वानुभवसिद्ध और सर्वमान्य तत्त्व के आधार पर 'जीओ और जीने दो' का उपदेश सर्वग्राह्य बना है । कट्टर से कट्टर कही जानेवाली नास्तिक संस्था भी इस उपदेश को मान्य रखती है और इसे अपना कर्तव्य समझती है । इस उपदेश का विस्तार मानव-समाज में इतना फैला हुआ है कि दूसरे के हित का बलिदान करके अपना हित साधना अनीति है, दोष है, पाप है, ऐसा मनुष्य समझता है । वह यह बात भी समझता है कि 'मैं' का संवेदन सब प्राणियों में एक-जैसा होने से सब को परस्पर सद्भाव एवं मैत्रीपूर्वक रहना और बरतना चाहिए । इस तरह का बरताव रखने में ही सबका हित और सुख रहा हुआ है । संक्षेप में, 'मैं' के सर्वसामान्य तत्त्व के आधार पर समूचा नैतिकस्तर और सदाचार नीति व्यवस्थित हुई है । जो मनुष्य 'अखा कहे अन्धेरा कुआँ' के अनुसार दार्शनिक चर्चाओं तथा कल्पनाओं से घबराकर विषम झंझावात-से प्रतीत होनेवाले Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ पंचम खण्ड वादों से विरक्त हो गया है वह भी उपर्युक्त सर्वग्राह्य 'मैं' के तत्त्व पर प्रतिष्ठित सदाचार-नीति की (सत्य-शील-सदाचार की) उपासना द्वारा अपना कल्याण कर सकता है । वस्तुतः ऐसी उपासना के बल पर चित्तशुद्धि अधिकाधिक सधती और विकसित होती जाती है। विकसित होते-होते ऐसी उज्ज्वल बन जाती है कि अगोचर सत्य भी, जैसे होते हैं वैसे, उस महामानव की दृष्टि के सम्मुख स्पष्ट हो जाते हैं । इस पर से समझा जा सकता है कि अनात्मवादी भी यदि शुद्ध सदाचरणपरायाण होगा तो उसकी ऐसी साधना आत्मतत्त्व की साधनारूप ही समझी जायगी । उसकी यह साधना अनजान मे भी (आत्मतत्त्व के स्वतन्त्र अस्तित्त्व से अज्ञात होने पर भी) उसके आत्मा के शुद्धिकरण में ही पर्यवसित होने की । इसलिये ऐसा मनुष्य मान्यता की दृष्टि से अनात्मवादी कहलाने पर भी आचरण की दृष्टि से आत्मवादी है । इसके विपरीत, आत्मवादी का आचरण यदि आत्मा के लिये हितावह न हो-सदाचारपूत न हो तो वह भले ही मान्यता से आत्मवादी कहलाए, परन्तु वस्तुतः वह अनात्मवादी ही है । बोलने जितना ही वह आस्तिक है बाकी वह स्व-पर दोनों के लिये भयरूप ऐसा नास्तिक ही है। इसी प्रकार ईश्वरवाद के बारे में समझना चाहिए । ईश्वर अथवा परमात्मा सदाचारी बनने का, विचार-वाणी-व्यवहार को विशुद्ध रखने का आदेश देता है । अब, जो मनुष्य ईश्वरवाद में नहीं मानता फिर भी ईश्वर की इस आज्ञा का पालन करता है अर्थात् सदाचार के शुभ मार्ग पर चलता है वह क्या ईश्वरभक्त नहीं है ? वह मान्यता की दृष्टि से भले ही निरीश्वरवादी हो, परन्तु तत्त्वतः ईश्वरभक्त है, क्योंकि उसे ईश्वर के अस्तित्व की कल्पना न होने पर भी जिस मार्ग पर चलने का ईश्वर का आदेश है उसी मार्ग पर वह चलता है । विश्वम्भर भगवान् को पूजक के पास से क्या चाहिए ? कुछ नहीं; और यदि उसे कुछ चाहिए तो वह इतना हि कि मनुष्य मनुष्य बने । वह यदि पूजक को आज्ञा करे तो वह इतनी ही कि तू मनुष्य बन । जीवन में से दोषों एवं बुराईयों को दूर करके सद्गुणी बन । सदाचारी और सत्कर्मा बन । मनुष्य ऐसा जीवन जीए इसीलिये अद्वैतवाद ने जड़ तत्त्व के ऊपर का मोह झाडकर और आत्मदृष्टि को जागरित करके ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् आत्मनिष्ठ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जैनदर्शन आत्माराधक बनने का उपदेश दिया है । द्वैतवाद ने चेतन--तत्त्व के साथ ओतप्रोत हुए अचेतन तत्त्व (जड़-तत्त्व) को पहचान कर उसे अपने चित्स्वरूप में से हटाने का उपदेश दिया है, अर्थात् निर्मोह-दशा प्राप्त करके अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्रगट करना समझाया है । क्षणिकवाद ने समूचे सांसारिक विस्तार को क्षणिक (क्षणभंगूर) बताकर और 'क्षणिक' वस्तु के ऊपर मोह कैसा ?' ऐसा समझाकर मोह-वासना को हटाने के सदुपदेश में अपना योग प्रदान किया है । शून्यवाद ने विनशनशील जगत् का चित्र उपस्थित करके 'अन्ततः सब सूना-सूना हो जाता है' ऐसे सर्वस्पर्शी अनुभव के आधार पर, संसार की असारता के अर्थ में, दौर्जन्यप्रेरक दुःखद मोह को दूर करने के इरादे से शून्यवाद बतलाया है । ज्ञानवाद ने लाभप्रद वस्तु को हानिकर और हानिकर वस्तु को लाभप्रद, हित को अहित और अहित को हित, प्रिय को अप्रिय और अप्रिय को प्रिय समझ लेनेवाला मन किसे अज्ञात है ?—ऐसा सूचित करके अर्थात् वस्तुस्थिति चाहे जैसी हो परन्तु उसकी नानारंगी कल्पना ही चित्त को आवृत्त करके उसे नानारंगी बनाती है । ऐसी लोकप्रतीति को उपस्थित करके सत्य-शील-सदाचार से साध्य चित्तशुद्धि में से प्रकट होनेवाली विशुद्ध अनुभूति और परिणति पर जीवन-स्वास्थ्य का अवलम्बित होना प्रतिपादित किया है । जगत्कर्तृत्ववाद ने ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन करके और उसकी ओर भक्तिभाव प्रगट करने का उपदेश देकर उस भक्ति के अनुसंधान में उसके सच्चे फल स्वरूप सच्चारित्रशील बनने की उद्घोषणा की है। इस उद्घोषणा के पीछे अभिप्राय यही है कि सच्चारित्र के बिना भक्ति नहीं और भक्ति के बिना सच्चारित्र का विकास नहीं । ईश्वर को जगत्कर्ता न मानने वाले वाद ने स्वयं आत्मा को स्वयम्भू शक्तिशाली बताकर उस पर के कार्मिक आवरणों के आक्रमणों को दूर हटाने में अपने समर्थ आत्मबल का उपयोग करने की प्ररूपणा की है । इस तरह परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले पौराणिक वादों के पुरस्कर्ताओं ने अपने अपने वाद के पुरस्करण के मूल में जीवन को सद्गुणी, सदाचारी, सत्कर्मा बनाने का ही एकमात्र मुख्य ध्येय रखा है। इस ध्येय को कोई भी मतावलम्बी दार्शनिक अथवा वादी साध सकता है और ऐसा करके अपनी कल्याणसाधना के साथ ही साथ इस प्रत्यक्ष दृश्यमान विश्व को सुन्दर बनाने में अपना भरसक Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३८३ प्रशंसनीय सहयोग दे सकता है । और इससे अधिक सुन्दर दूसरा हो ही क्या सकता है ? अनेकान्त दृष्टि का एक और विषय-प्रदेश यहाँ उपस्थित किया जाता १. काल किए हुए शुभाशुभ कर्म तत्काल उदय में नहीं आते, किन्तु परिपक्व होने के पश्चात् उदय में आते हैं । अतः कर्म को भी अपना फल दिखाने में काल की अपेक्षा रहती है । कार्य सिद्धि के लिये अनुकूल उद्यम भी सफल होने के लिये थोडा-बहुत समय लेता ही है । आम बोने पर तुरन्त ही फल उत्पन्न नहीं होता। स्टीमर अथवा मोटर चलते ही, अथवा वायुयान उड़ते ही फौरन गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँच जाता । आम की गुठली में आम के पेड़ को उत्पन्न करने का स्वभाव है और उद्यम आदि की अनुकूलता भी है, फिर भी काल की मर्यादा जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक गुठली आम नहीं बन सकती । अतः स्वभाव को भी काल की अपेक्षा तो रहती है। शीतकाल में सर्दी पड़े, ग्रीष्म काल में गर्मी पड़े, वर्षा ऋतु में बरसात गिरे, वसंत ऋतु में वृक्ष नवपल्लवित हों, युवावस्था आने पुरुष को दाढी-मूंछ उगे-इस तरह अनेकानेक बातों पर से काल की निमित्त-कारणता का सामर्थ्य हम जान सकते हैं । काल जीवन की घटनाओं में महत्त्वपूर्ण हाथ बँटता है, यह कहे बिना हम रह नहीं सकते । २. स्वभाव चावल बोया हो तो चावल और गेहूँ बोया हो तो गेहूँ ही उत्पन्न होता है, यह महिमा स्वभाव की ही है। इसमें काल की मर्यादा को स्थान अवश्य है, परन्तु बीज के स्वभाव के अनुसार ही फल की सिद्धि होने की । आम की गुठली में आम बनने का स्वभाव है, इसीलिये आम की गुठली बोने पर उद्यम द्वारा कालमर्यादा के अनुसार भाग्यशाली आम प्राप्त कर सकता है । काल, उद्यम आदि होने पर भी स्वभावविरुद्ध कोई कार्य नहीं हो सकता । चेतन-अचेतन के स्वभाव के अनुसार कार्य बना करता है । निःसन्देह स्वभाव Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जैनदर्शन का एक जबरदस्त स्थान है । ३. पूर्वकर्म सुख-दुःख और उनसे सम्बद्ध विविध दशाएँ कर्म की विचित्रता पर अवलम्बित हैं । करने जाये सीधा और हो उलटा अथवा करें उलट और पड़े सीधा-इन सबके पीछे कर्म का सामर्थ्य है । आकस्मिक लाभ अथवा आकस्मिक हानि कार्मिक बल का अद्भूत निदर्शन है । संसारवर्ती सब जीव कर्म के बन्धनों से बद्ध होने के कारण तदनुसार भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का अनुभव उन्हें करना पड़ता है, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में से उन्हें गुजरना पड़ता है । कर्म के प्राबल्य से सब कोई परिचित है । क्ष्माभृदरङ्ककयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनिरूपयोः श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नीरोगार्तयोः । सौभाग्यासुभगत्वसङ्गमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् । -देवेन्द्रसूरिकृत प्रथम कर्मग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका में से उद्धृत । अर्थात् राजा और रंक, मेधावी और मूर्ख, खूबसूरत और बदसूरत, धनी और दरिद्र, बलवान् और निर्बल, स्वस्थ और रोगी तथा सौभाग्यवान् और दौर्भाग्यवान् में मनुष्यत्व समान होने पर भी इस तरह का जो नानाविध भेद देखा जाता है वह कर्म के कारण है । और जीव के बिना कर्म क्या ? इसलिये कर्म की सिद्धि के साथ ही आत्मा भी सिद्ध हो जाता है । इस पुस्तक के समूचे चतुर्थ खण्ड में कर्मविषयक विवेचन किया गया है । पुण्य-पापरूपकर्मसम्बन्धी विचार-धारा का वहाँ पर निरूपण किया गया है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से अपूर्ण है । वह चाहे-जितनी कुशलता अथवा सावधानी क्यों न रखे, परन्तु प्राकृतिक असावधानता और शरीरसुलभ चपलता थोड़ी बहुत उसमें रहने की ही । अतः वह अपनी अपूर्णता अथवा दुर्बलता का भोग कभी-कभी हो ही जाता है। अपनी ही अंगुली से अपनी आँख, अपने दाँतों से अपनी जीभ किसी समय अकस्मात् ऐसी दब जाती Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३८५ है अथवा कट जाती है कि उससे दुःख उठाना पड़ता है । असावधान रहने का दोष कोई न दिखला सके ऐसी हालत में भी अकस्मात् का शिकार वह हो जाता है । अमुक स्थान पर जाना अथवा होना और अनिष्ट दुर्घटना का शिकार बनना, अथवा समझदार होने पर भी उससे उलटी प्रवृत्ति का हो जानाऐसा बहुत बार होता है । वैयक्तिक अथवा सामूहिक चित्र-विचित्र घटनाएँ घटित होती है, जिन्हें हम 'दैवाधीन' कहते हैं। उन पर से कर्म के अस्तित्व का ख्याल आ सकता है । ४. उद्यम उद्यम का महत्त्व स्वीकार किए बिना चल नहीं सकता । केवल कर्म को ही प्रधान माननेवाले को भी जानना चाहिए कि कर्म को उत्पन्न करनेवाला कौन है ? जीव स्वयं । स्वयं जीव ही अपने व्यापार से कर्म बाँधता है, कर्मों के साथ वह बँधता है। कर्म के उदय में भी प्रवृत्ति-संयोग का सहयोग है । शुभ कर्म अशुभ कर्म के रूप में और अशुभ कर्म शुभ कर्म के रूप में परिवर्तित होता है-यह परिवर्तन जीव के प्रयत्न से ही होता है । जहाँ कर्म की गति नहीं है वहाँ पर उद्यम की विजयपताका फहराती है । कर्म का (अदृष्ट का ) कार्य जीव को भवचक्र में घुमाने का है, जबकि उद्यम-प्रयत्न- पुरुषार्थ कर्मों के विरुद्ध युद्ध करके और कर्म-सैन्य को ध्वस्त करके आत्मा को मुक्तिधाम पर ले जाता है । कैवल्य को प्रगट करने में कर्म का बल कारण नहीं है, परन्तु कर्मों का क्षय ही कर्मक्षय का साधक प्रयत्न ही एकमात्र मुख्य कारण है । इस प्रकार की उद्यम कीप्रयत्ल की-आत्मबल की असाधारण विशेषताओं को ध्यान में लेने पर कर्म' के महत्त्व की ओर एकान्त पक्षपात रखना अनुपयुक्त है । कर्म ('अदृष्ट' के अर्थ में )कर्म (क्रिया के अर्थ में) पर अवलम्बित है । अत: अच्छी-शुभ-प्रशस्त क्रिया (सत्कर्म) करने में, मनोवाक्काय-व्यापार को शुद्ध अथवा शुभ रखने में दृढ़संकल्पी बने रहना ही कर्मतन्त्र को सुधारने का और उसे विनष्ट करने का उपाय है-ऐसा ज्ञानी सन्तपुरुषों का उपदेश है । केवल कर्मवादी मनुष्य निरुत्साही-निरुद्यमी बनने के कारण सफलता से वंचित रहता है, अपने दारिद्र्य को झाड़ने में असमर्थ बनता है । लक्ष्मी Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ उद्योगी पुरुषसिंह का वरण करती है । यद्यपि पुरुषार्थ को काल, स्वभाव आदि की अपेक्षा रहती है, तो भी विजय दिलाने में वह अद्वितीय है । वर्तमान युग में रेलगाड़ी, मोटर, टेलीग्राफ, टेलीफोन, वायरलेस यंत्र, रेडियो, टेलीविजन, एरोप्लेन, अणुशक्ति, १. आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः । कर्माण्यारभमाण हि पुरुषं श्रीर्निषेवते ॥ - मनुस्मृति ९ - ३००. जैनदर्शन अर्थात् — मनुष्य पुनः पुनः कार्यपरायण बने । श्री कर्मवीर की ही सेवा करती है । जर्मन विद्वान् शोपनहावर कहता है कि 'Our happiness depends in a great degree upon what we are, upon our individuality.' अर्थात् — हमारा सुख अधिकांशतः हम जैसे हैं उस पर हमारे व्यक्तित्व के ऊपर अवलम्बित है । 'It is a prerogative of man to be, in a great degree, the creature of his own making.' -Burke. अर्थात् — अधिकांशतः अपने प्रयत्न के अनुसार बनने का विशेष अधिकार मनुष्य को मिला है । "The poorest have sometimes taken the highest places; nor have difficulties apparently the most insuperable proved obstacles in their way. Those very difficulties, in many instances, would even seem to have been their best helpers by evoking their powers of labour and endurance, and stimulating into life faculties which might otherwise. have lain dormant.' S. Smile's Self-Help. अर्थात् — अतिदरिद्र मनुष्यों ने भी कभी-कभी सर्वोन्नत स्थान प्राप्त किए हैं । अत्यन्त कठिन दिखाई देनेवाले संकट भी उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सके हैं। अनेक उदाहरणों में तो कठिन संकट उनके श्रम एवं सहनशक्ति को जागरित करके तथा शक्तियों को, जो अन्यथा उनके भीतर प्रसुप्त ही पड़ी रहतीं, उद्दीप्त करके उनके श्रेष्ठ सहायक भी बने हैं । 'Slumber not in the tents of your fathers. The world is advancing. Advance with it. ' Mazzini. - तेरे पूर्वजों के डेरे में पड़ा पड़ा मत सो । विश्व आगे बढ़ रहा है । इसके साथ तू भी आगे बढ़ | Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३८७ हाईड्रोजन शक्ति आदि नए-नए आविष्कार हुए है और दूसरे हो रहे हैं ये सब पुरुषार्थ के ज्वलन्त उदाहरण हैं । पुरुषार्थ दिखलाने वाली प्रजा अथवा व्यक्ति आगे बढ़ता है और उत्कर्ष तथा अभ्युदय को प्राप्त करता है । अकर्मण्य व्यक्ति अथवा प्रजा अपनी निःसत्त्वता के कारण पीछे रह जाती है और दूसरों की पराधीनता स्वीकार के उसे पददलित होना पड़ता है । यहाँ पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि उद्यम द्वारा प्राप्त सिद्धि का अपराध नहीं है; अपराध तो उनका दुरूपयोग करनेवाले का है । ५. नियति नियत अर्थात् भाविभाव अथवा भवितव्यता । जो अवश्य भवितव्य - भविष्य में जो अवश्य होनेवाला है वह अवश्य होता है, इस प्रकार नियति का अर्थ किया जा सकता है । अनुकूल परिस्थिति होने पर खेती पककर तैयार हुई, परन्तु पाला गिरने से अथवा टिड्डियों के आक्रमण से अथवा आकस्मिक उपद्रव से यदि खेती नष्ट हो जाय तो यह भवितव्यता ( नियति) का उदाहरण है । फलसिद्धि प्राप्त होने के समय ही बीमारी आ जाय अथवा दूसरा कोई आकस्मिक प्रबल विघ्न उपस्थिति हो जिससे फलसिद्धि रुक जाय तो यह 'नियति' का प्रभाव माना जाता है । सट्टा, लोटरी आदि में बिना परिश्रम के धनी बन जाने का कारण 'नियति' ही माना जाता है । जीव को लेकर विचार करें तो 'नियति' को एक प्रकार का अनिवार्य कर्म कह सकते हैं। इसे जैन परिभाषा में 'निकाचित' कर्म कहते हैं । जो कर्म प्रायः अभेद्य होने के कारण अवश्य (विपाकोदय रूप से ) सुख अथवा दुःख रूप से भुगतना पड़ता है उसे निकाचित कर्म कहते हैं । इस प्रकार के कर्म का फल नियत [ अवश्य भुगतना पड़े ऐसा ] होने से वह नियत अथवा भवितव्यता के नाम से पहचाना जाता है । इस तरह पाँचों कारणों की सत्ता हमने देखी । ये पाँचों ही अपनेअपने स्थान पर उपयोगी हैं । एक कारण को सर्वथा प्राधान्य देकर दूसरे को उड़ाया नहीं जा सकता अथवा सर्वथा गौण स्थान पर उसे हम रख नहीं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जैनदर्शन सकते । यदि कालवादी काल को ही प्राधान्य देकर दूसरों का यथायोग्य मूल्याङ्कन न करे तो उसकी यह भ्रान्ति है। इसी प्रकार स्वभाववादी, कर्मवादी, उद्यमवादी के बारे में भी समझ लेना चाहिए । पाँचो ही कारणों को यथोचित गौण-मुख्य भाव से मानने में ही सम्यगदृष्टि रही हुई है। इसके विपरीत, केवल एकान्तवाद की ओर जाना मिथ्यादृष्टि है। इन पाँचों कारणों के सहयोग के दृष्टान्त भी हमारे सम्मुख विद्यमान हैं । स्त्री से बालक उत्पन्न होने में ये पाँचों ही कारण देखे जाते हैं । यह तो स्पष्ट ही है कि काल (गर्भकाल) पूर्ण हुए बिना बालक उत्पन्न ही नहीं हो सकता । प्रसवस्वभाववाली स्त्री से ही बालक उत्पन्न होता है, अतः यहाँ पर स्वभाव भी कारणरूप से उपस्थित है । उद्यम तो वहाँ होता ही है । पूर्व कर्म की अथवा नियति की अनुकूलता होने पर ही यह वस्तु शक्य है । इस प्रकार प्रसूति में इन पाँचों ही कारणों का समवाय देखा जाता है । विद्याभ्यास में आगे बढ़कर उच्च श्रेणी का अभ्यास पूर्ण करने में भी इस कारण-सामग्री का सन्निध्य देखा जाता है । वहाँ काल की मर्यादा है, विकासगामी उद्यम है, शिक्षणयोग्य स्वभाव भी है और कर्म को अथवा नियति की अनुकूलता भी है। इन पाँचो कारणों की सर्वत्र प्रधानता हो ऐसा नहीं समझना चाहिए, परन्तु गौणरूप से अथवा मुख्यरूप से किसी भी कार्य की उत्पत्ति में--ये पाँच कारण अवश्य विद्यमान होते हैं । काल की मर्यादा उद्यम आदि से बदली जा सकती है । अन्न, फलादि के पकने में अमुक समय की मर्यादा खास निश्चित नहीं है । वृक्ष के फल पकने का समय भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न भिन्न होता है । दूसरे देशों में यंत्र के द्वारा खेती की उपज भारत की अपेक्षा जल्दी तैयार की जाती है। हाथ से बनाई जानेवाली वस्तु में अधिक समय लगता है, जबकि यंत्र द्वारा वही वस्तु थोड़े ही समय में तैयार की जा सकती है । पहले के जमाने में जब रेलगाड़ी नहीं थी तब अहमदाबाद से काशी पहुँचने में महीनों के महीने लग जाते थे; जबकि इस समय रेलगाड़ी से तीसरे दिन वहाँ पहुँचा जा सकता है, और वायुयान से तो सुदूर प्रदेश में भी कितनी जल्दी पहुँचा जा सकता है यह किसी से अज्ञात नहीं है। इस तरह काल की मर्यादा में भी उद्यम Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३८९ आदि द्वारा परिवर्तन की शक्यता प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । फिर भी सामान्यतः काल की थोड़ी बहुत मर्यादा तो प्रत्येक कार्य की सिद्धि में अवश्य रहती है । अत: काल स्वतन्त्र नहीं किन्तु उद्यम, स्वभाव आदि का अवलम्बन लेकर जहाँ तक वह कार्य साधक (कार्यसाधन में उपयोगी) होता है वहाँ तक उसकी महत्ता मानना न्याय है । काल की सहकारिता यदि ध्यान में ली जाय तो कार्य के आरम्भ से लेकर जबतक वह पूर्ण न हो तो तब तक मनुष्य धैर्य रखना सीखता है । यदि ऐसा न हो तो कार्य का प्रारम्भ करके तुरन्त ही अथवा आवश्यक समय से पूर्व-असमय में फल की इच्छा रखने से और फल की प्राप्ति दिखाई न देने पर मनुष्य निराश हो जाय और कार्यसाधन के उद्यम में ढीला पड़ जाय तो वह फल से वञ्चित ही रह जाय । काल की सहकारिता बराबर ध्यान में आ जाय तो मनुष्य ऐसा समझने लगता है कि समय पकने पर फल मिलेगा अर्थात् कालानुक्रम से कार्य सिद्ध होगा । इसका परिणाम यह आता है कि मनुष्य कार्य में उद्यमशील रहता है । जिस प्रकार काल की मर्यादा उल्लंघनीय है उस प्रकार स्वभाव की मर्यादा उल्लंघनीय नहीं है, फिर भी व्यवहार दृष्टि से स्वभाव का भी अतिक्रमण देखा जाता है । (व्यवहार में जिसे मनुष्य का स्वभाव कहते हैं वह वस्तुतः स्वभाव नहीं, परन्तु विभाव है, और इसीलिये उसमें परिवर्तन की शक्यता होती है ।) क्रोधी मनुष्य का क्रोधी स्वभाव शान्तात्मा सन्त के सत्संग से कम हो जा सकता है और सत्संग द्वारा प्राप्त उत्तम भावनाओं के सुंदृढ संस्कारबल से वह नष्ट भी हो जाता है । सत्संग के प्रभाव से दुर्जनप्रकृति भी सज्जन-प्रकृति में परिवर्तित हो जाती है | संसर्ग के अनुसार अच्छे खराब और खराब अच्छे हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न वस्तुओं का मिश्रण करने से उन वस्तुओं के मूल स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है और दूसरा ही स्वभाव उत्पन्न होता है । जैसे कि, पित्तस्वभाववाली सोंठ और कफस्वभाववाले गुड का मिश्रण करने पर उसमें कफ और पित्त के स्वभाव का दोष नहीं रहता । कर्म में-पूर्वोपार्जित कर्म में परिवर्तन होता है और हो सकता है । उसके स्थिति एवं रस में भी परिवर्तन शक्य है । कोई कर्म जल्दी भी उदय Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० जैनदर्शन में आता है । कर्म के उपशमन, उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण हो सकते हैं । आत्मबल के उत्कर्ष से कर्म को विपाकोदय से भुगते बिना ही नष्ट किया जा सकता है । कर्म द्वारा उपलब्ध शरीर, इन्द्रिय आदि का यदि योग्य रूप से विकास न किया जाय तो वे अविकसित एवं अशक्त रह जाएँगे । अतः कर्म द्वारा प्राप्त वस्तुओं के विकास का लाभ उद्यम पर अवलम्बित है । जो उत्तम शिक्षण प्राप्त करके अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, हृदय का योग्य विकास साधते है वे अपने इस प्रकार के प्रशस्त उद्यम एवं प्रयत्न से अपने १. कर्म की उपशमना यदि देश -उपशमना ( आंशिक उपशमना ) हो तो संक्रमण तथा उद्वर्तन - अपवर्तन क्रियाएँ (ऐसे उपशान्त कर्म पर) हो सकती हैं, किन्तु कर्म के निबिडीकरणरूप 'निधत्ति' एवं 'निकाचित' क्रिया की प्रवृत्ति वहाँ शक्य नहीं है । परन्तु जब उदय - उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन-अपवर्तन तथा निधत्ति-निकाचित रूप किसी भी क्रिया से प्रभावित न हो सके ऐसी भी कर्म की पूर्ण उपशमना (सर्व-उपशमना) होती है तब भी ऐसी 'उपशान्त' अवस्था अधिक समय तक नहीं टिकती । थोड़े ही समय में उपशान्त कर्म पुनः उदय में आता है जिससे वह उपशान्त आत्मा जैसे ऊपर चढ़ी थी वैसे ही नीचे गिरने लगती है । अन्ततः कर्म का क्षय ही पूर्ण श्रेयः साधक होता है । अकामनिर्जरा से कर्म के विपाक का उपभोग होने पर जो क्षय होता है उससे कर्म के क्षय के साथ ही साथ अन्यान्य कर्मों का बन्ध भी होता है । अतः इस प्रकार का क्षय (निर्जरा) दूर तक नहीं ले जा सकता; किन्तु पवित्र चारित्र तप के साधन से कर्मों को बलपूर्वक उदय में लाकर उनके विपाक - फल का अनुभव किये बिना ही उनको झटक दिया जाता है, इस तरह उनकी जो निर्जरा ( सकामनिर्जरा) की जाती है वही कैवल्यसाधक बनती है । आत्मसाधना का बल जितना उन्नत होता है उतने विशाल परिणाम में कर्मों की निर्जरा (क्षय) होती है । इस तरह कर्मों का झड़ना विपाकोदय से भी होता है और साधनप्रयत्न से भी होता है । साधन प्रयत्न से होनेवाली निर्जरा में केवल नीरस कर्मदलिकों का वेदन होता । इसे 'प्रदेशोदय' कहते हैं । 'संक्रमण' नाम की क्रिया पहले बतलाई है । उस क्रिया द्वारा उदय में न आये हुए कर्मों को उदय में आई हुई कर्म - प्रकृतियों के साथ संक्रमण करके, उनमें मिश्रित करके उदय में आई हुई कर्म - प्रकृतियों के फलविपाकरूप से उनका भोग किया जाता है । मुक्तिगामी आत्मा अपने आयुष्य के अन्तिम क्षण में इस तरह संक्रमण से भी कर्मों का वेदन करके तथा उन्हें झटक कर विदेह - मुक्ति प्राप्त करते हैं । इस तरह, कर्म - विदारण में संक्रमण - विधि भी एक है । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३९१ जीवन के हित-साधन के साथ साथ अपने आपको सुखसम्पन्न बनाते हैं । जिस प्रकार केवल भाग्य के ऊपर आधार रखनेवाला मनुष्य पुरुषार्थ के अभाव में अपने जीवन का विकास नहीं कर सकता है और अकर्मण्यता के कारण नि:सत्त्व बनकर अपनी जिन्दगी को किसी काम की नहीं रहने देता है उसी प्रकार जो लोग कर्म को-पूर्व कर्म को नहीं मानते वे भयंकर भ्रान्ति में गोते लगाते हैं । कर्मवाद की सिद्धि और उपयोगिता के बारे में पहले विवेचन किया जा चुका है। कर्मवाद की अवगणना करनेवाले मनुष्य को आत्मा जैसे विशिष्ट तत्त्व की प्रतीति न होने से विपत्ति के समय उसे सहने में वह समभाव नहीं रख सकता । प्राणीवात्सल्य का विशद भाव उसके लिये दुर्लभ हो जाने से सामान्य विरोध के समय भी वह आकुल-व्याकुल हो जाता है । ऐसे लोगों के लिये उदात्त शान्तभाव तथा प्रसन्नभाव दुर्लभ हो जाते हैं । कल्याणसाधन की मूल भूमिका-सच्ची भूमिका से वह अज्ञात होने से अपना सच्चा जीवनविकास साधना उसके लिये अशक्य और दुर्घट बन जाता है। 'नियति' का बल अदम्य है । आगे कहा उस तरह, अचानक लाभ देनेवाले अथवा अन्तराय डालनेवाले कर्म को 'नियति' कह सकते हैं । वह पुरुषार्थ के द्वारा अनिवार्य नहीं है । उसकी इस विशेषता-नियतता के कारण उसका पूर्वकर्म से पृथक् निर्देश किया गया होगा; क्योंकि दूसरे पूर्वकर्म तो पुरुषार्थ द्वारा हटाए भी जा सकते हैं । तृतीय खण्ड में बतलाया गया है उस तरह, हमें यह जान लेना चाहिए कि 'कर्म' के इस सुगूढ, अगम्य और अगोचर कारखाने में अनेक प्रकार के कर्म तैयार होते हैं । सभी कर्म 'निकाचित' (अनिवार्य) प्रकार के नहीं होते । ऐसे कर्म तो खजाने में बहुत थोड़े होते हैं । बहुत से कर्म और तज्जन्य विघ्न ऐसे होते हैं कि यदि सुयोग्य प्रयत्न किया जाय तो उनका छेदनभेदन हो सकता है। अतः यदि कोई कार्य सिद्ध न हो तो इससे ऐसा न मान लेना चाहिए कि यह कार्य मेरे नसीब में है ही नहीं । हमें हमारे कर्मों के आवरण और उनके प्रकारों की तनिक भी खबर नहीं है। इसलिये उद्यम करने पर भी यदि कार्य सिद्ध न होता हो तो उसे अनिवार्य कर्म से आवृत Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ जैनदर्शन क्यों मान लिया जाय? और ऐसा मानकर तथा हताश होकर कार्य प्रवृत्ति क्यों छोड़ दी जाय ? दृढ़ संकल्प के साथ यदि प्रामाणिक प्रयत्न हो तो वह सिद्धि को निकट लाता है। तेजस्वी तप के बल से अपना संकल्प पूर्ण होता है, अपनी आकांक्षा सफल होती है ।। ये काल आदि परस्पर सापेक्षरूप से एकत्रित होकर कार्य करते हैं, अतः इन्हे 'समवायी कारण' कहते हैं । आत्मा का मूल स्वभाव सच्चिदानन्दरूप होने से, कर्मों के बल पर प्राप्त मनुष्यत्वादि विशिष्ट सामग्री के सहयोग से, उपस्थित कर्मों के फलों को समभावपूर्वक भुगतने के साथ भवचक्र के मूलरूप तृष्णा के विदारण में प्रयत्नशील होने पर परम कल्याणरूप सिद्धि प्राप्त होती है । काल तो जब हम उत्साहित होकर प्रयत्नशील होगें तब हमें 'ना' नहीं कहेगा । इस प्रकार आत्मकल्याण-साधन में इन कारणों का योग देखा जा सकता है । वादभूमि के बखेडों की निन्दा करके उसके सौष्ठव पर प्रकाश डालनेवाला नीचे का उल्लेख कितना सुन्दर है-- Disagreement is refreshing when two men lovingly desire to compare their views to find out truth. Controversy is wretched when it is only an attempt to prove another wrong. --F. W. Robertson. अर्थात् मतभेद अथवा वादचर्चा उस समय सुन्दर लगती है जब सत्य की गवेषणा के लिये दो मनुष्य परस्पर मैत्रीभाव से अपने विचारों की तुलनात्मक आलोचना करना चाहते हैं, परन्तु मतभिन्नता या चर्चा जब दूसरे को झूठा सिद्ध करने प्रयत्नरूप होती है तब वह धिक्कारने योग्य होती है । अब ज्ञान-क्रिया का समन्वय देखें । किसी भी कार्य की, मोक्ष की भी सिद्धि ज्ञान और क्रिया इन दोनों पर अवलम्बित है । अकेला ज्ञान पंगु है और अकेली क्रिया अन्ध है । अतः क्रिया बिना के अकेले ज्ञान से अथवा ज्ञानरहित अकेली क्रिया से अभीष्ट Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३९३ परिणाम नहीं आता । उदाहरण के तौर पर विनाइन मलेरिया के बुखार का रामबाण औषध है ऐसा ज्ञान होने पर भी यदि वह औषधरूप से यथोचित मात्रा में न ली जाय अर्थात् उस औषध - ज्ञान को आचरण में न रखा जाय तो बुखार नहीं जा सकता । इसी प्रकार बुखार किससे जाता है इसका ज्ञान न होने पर कोई ऐसी-वैसी चीज दवाई के तौर पर ली जाय तो उससे भी बुखार नहीं जाता । इसी प्रकार आचरण में अनीति, अन्याय, दम्भ का जब तक त्याग नहीं किया जाता तब तक मोक्ष की दिशा में प्रगति नहीं हो सकती ऐसा ज्ञान होने के बावजूद यदि तदनुसार आचरण न किया जाय तो मोक्ष की ओर प्रगति अशक्य हैं । उलटा, जिस ओर जाना है उससे विपरीत दिशा की ओर ही गति होगी । कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञान को क्रिया में - आचरण में रखे बिना अकेला ज्ञान वन्ध्य है अर्थात् फलदायक नहीं होता । इसी प्रकार ज्ञान के सच्चे नेतृत्व के बिना अकेली क्रिया भी निष्फल ही जाती है । अथवा उसका परिणाम विपरीत आता है । I भोजन को देखने और उसकी प्रशंसा करने से भूखे मनुष्य की भूख दूर नहीं होती । उसे अपना हाथ चलाना पड़ेगा उसे खाने की क्रिया करनी होगी । इसी प्रकार महापुरुषों का उपदेश सुन लेने मात्र से काम नही चल सकता; उनके उपदेश सुन लेने मात्र से काम नहीं चल सकता; उनके उपदेश को बराबर समझकर उसे आचरण में रखना पड़ेगा । ईप्सित स्थान के मार्ग की जानकारी, परन्तु उस मार्ग पर चले नहीं तो उस स्थान पर कैसे पहुँचा जा सकता है ? और अज्ञानवश उलटे रास्ते पर चलने लगे तो ? गन्तव्य स्थान तो दूर ही रहेगा, ऊपर से इधर- ऊधर भटकने की तकलीफ पल्ले पड़ेगी । ज्ञान- क्रिया की सुसंगति के बारे में विशेषावश्यकभाष्य में कहा है कि ko kaya हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणो अंधओ ॥११५९॥ - विशेषावश्यकभाष्यगत आवश्यक नियुक्ति Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन अर्थात् — क्रिया बिना का ज्ञान मरा हुआ समझना । इसी प्रकार ज्ञानहीन क्रिया भी मृतप्राय ही समझना । उदाहरणर्थ, देखने पर भी लंगड़ा और दौड़ने पर भी अन्धा दोनों जलकर मर गये । इसी उदाहरण को नीचे की गाथा स्पष्ट करती है संजोगसिद्धीइ फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगु य वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ११६५॥ — विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यकनिर्युक्ति ३९४ अर्थात् — ज्ञान और क्रिया इन दोनों के संयोग से ही फलसिद्धि होती है । एक पहिए से रथ नहीं चलता । वन में दावानल लगने पर अन्धे और लंगड़े दोनों ने एक-दूसरे का सहयोग किया तो वे दोनों बचकर नगर में पहुँच सके । [ अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठा और लंगड़े के कहने के अनुसार अन्धा चला । इस तरह एक-दूसरे का सहयोग करने से वे दोनों बच गए । यदि उन दोनों ने एक-दूसरे के साथ सहयोग न किया होता तो वे दोनों आग में भस्मीभूत हो जाते । इस तरह पंगुसदृश ज्ञान और अन्ध समान क्रिया ये दोनों परस्पर मिलें- सुसंगत बनें तो सफलता प्राप्त की जा सकती है । परन्तु यदि ये दोनों अलग-अलग रहें- संयुक्त न हों तो ये दोनों हतप्राय हैं, सिद्धिदायक नहीं हो सकते ।] अब निश्चय - व्यवहारदृष्टि को देखें । जीव एवं पुद्गल उनके व्यावहारिक स्वरूप में दृष्टिगम्य हो सकते हैं । पुद्गल मूलस्वरूप में परमाणुस्वरूप है, फिर भी जब अनन्तानन्त परमाणु एकत्रित होकर स्कन्धरूप बनते हैं तब वे हमारे अनुभव में आते हैं । जीव भी अपने शुद्ध स्वरूप में इन्द्रियातीत होने से हमारे अनुभव में नहीं आ सकता, किन्तु व्यावहारिक रूप में विद्यमान जीव पुद्गल के साथ संयुक्त होने से हमारे अनुभव में आ सकता है । जीव अपने वर्तमान अशुद्ध (कार्मिकपुद्गलमिश्रित) रूप में से अशुद्धि को दूर करके शुद्ध स्वरूप प्राप्त करे - यही जीव का अन्तिम ध्येय माना गया है । यहाँ पर हम देख सकते हैं कि जो दृष्टि वस्तु के मूल स्वरूप का, वस्तु की तात्त्विक अथवा शुद्ध Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३९५ स्थिति का स्पर्श करती है उसे निश्चयदृष्टि अथवा निश्चयनय कहते हैं और जो दृष्टि वस्तु की व्यावहारिक अवस्था का अर्थात् अपनी मूलभूत न हो वैसी बाह्य अवस्था का स्पर्श करनेवाली है, वह व्यवहारदृष्टि अथवा व्यवहार नय है । जो दृष्टि जीव को उसके तात्त्विक शुद्ध-बुद्ध-निरंजन-निराकारसच्चिदानन्दरूप से जानती है वह निश्चयदृष्टि है और जो दृष्टि जीव को मोहवान्, अविद्यावान्, क्रोध-लोभादिरूपकालुष्यवान्, देहाध्यासी रूप से जानती है वह व्यवहारदृष्टि है । संक्षेप में, व्यवहारगामी (अर्थात् उपाधिविषयिणी) दृष्टि वह व्यवहारदृष्टि और मूलतत्त्व-स्पर्शी दृष्टि वह निश्चयदृष्टि । यह निश्चयदृष्टि सर्व प्राणियों में परम चैतन्य को देखती है, अतः यह विश्वप्रेमी है । निश्चयदृष्टि को हृदय में धारण करके अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति विशुद्ध मैत्रीभाव रखकर व्यवहार का व्यवहारिक जीवन का हमें पालन करने का है । इसी को ज्ञानी लोग कल्याण-विहार कहते हैं। निश्चयदृष्टि [तत्त्वस्पर्शी पवित्र ज्ञानदृष्टि] व्यवहार को उसमें आयी हुई या आने वाली अशुद्धियों को दूर करके शुद्ध बनाती है । जिस प्रकार समुद्र के बीच रात्रि के अन्धकार में मुसाफरी करने वाले जहाज को कप्तान दीपस्तम्भ के प्रकाश की सहायता से चट्टानों के साथ टकराने से बचाकर निर्भय रास्ते से ले जाता है, उसी प्रकार निश्चयदृष्टि मोहान्धकार को दूर करके और विवेकज्ञान को प्रकट करके स्वयं अपने आपके तथा दूसरे के साथ के निजव्यवहार को अशुद्ध या मलिन होने से बचाकर और शुद्ध मार्ग पर ले जाकर मोक्ष मार्ग को सीधा, सरल व निष्कण्टक बनाती है । संसारी अवस्था में स्व-परहित (भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक हित) के लिये किए जानेवाले व्यवहार-आचरण में से छुटकारा नहीं मिल सकता । वे कर्तव्यरूप से बजाने के होते हैं । शरीर है वहाँ तक व्यवहार भी है, किन्तु यदि वह निर्दोष, पवित्र और विशुद्ध प्रेमयुक्त हो तो मोक्षप्राप्ति में बाधक नहीं होता । यह पवित्र आत्मदृष्टिरूप निश्चयदृष्टि जिसके मनोमन्दिर में निरन्तर प्रकाशमान है उसके बाह्य जीवन पर, उसके मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यवहार पर इस दृष्टि का प्रकाश कैसा चमकता है, इसकी तो कल्पना ही Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ जैनदर्शन हो सकती है। ऐसा सज्जन अपनी पत्नी अथवा अपने पति, अपने लौकरचाकर अथवा सेठ, अपने ग्राहक अथवा अपने सगे-सम्बन्धी अथवा अपने सम्पर्क में आने वाले किसी भी मनुष्य के साथ नीति और वात्सल्य से सुवासित व्यवहार रखेगा । यहाँ पर हम खुद ही सोच सकते हैं कि ऐसा उमदा व्यवहार चित्त की उच्चता तथा उदात्तता कितनी सधी हो तब मूर्तिमन्त बन सकता है ! वस्तुतः यही सच्ची कल्याणयात्रा है । निश्चय एवं व्यवहार दोनों को समुचित तथा सुसंगत रखने का ज्ञानी महात्माओं का सदुपदेश यही आदेश करता है कि मनुष्य को अपना आन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार का जीवन उच्च तथा विशुद्ध रखना चाहिए । जैन 'आचारांग' के चतुर्थ अध्यय के दूसरे उद्देश के प्रारम्भ में अनेकान्तदृष्टि का उद्बोधन करने वाला सूत्र है कि 'जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा ।' अर्थात्---जो कर्मबन्ध के स्थान है वे कर्मनिर्जरा के स्थान बनते हैं और जो कर्मनिर्जरा के स्थान हैं वे कर्मबन्ध के स्थान बनते हैं । मतलब कि जो कार्य (प्रवृत्ति) अज्ञानी, अविवेकी के लिये कर्मबन्धक होता है वही कार्य (प्रवृत्ति) ज्ञानी के लिये कर्मनिर्जरारूप होता है । इसके विपरीत जो कार्य ज्ञानी के लिये कर्मनिर्जरा का कारण होता है वही अज्ञानी एवं अविवेकी के लिये कर्मबन्धक होता है । ज्ञानी जो कुछ प्रवृत्ति करता है वह प्राणीवर्ग के हित के लिये तथा उनके हित की बुद्धि से करता है । उसमें न तो अहंकारवृत्ति होती है और न उपकारबुद्धि अथवा यश या अन्य प्रकार के बदले की लालसा । वह खाता है, पीता है, सुख-सुविधा का उपभोग भी करता है तथा अपने आरोग्य की सुरक्षा भी करता है और यह सब वह इसलिये करता है कि उनसे उसकी अपनी आत्मसमाधि स्वस्थ रहे और साथ ही साथ अन्य प्राणियों का हित अधिक से अधिक साधा जा सके ऐसी अपनी मानसिक एवं शारीरिक कार्यक्षमता भी बनी रहे । परार्थ-साधना उसका स्वभाव बन जाता है और मनुष्य जब अपने स्वभाव के अनुसार बरताव करता है तब उसे किसी प्रकार Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ३९७ की कठिनाई महसूस नहीं होती । इतना ही नहीं, मैं ने खूब-खूब किया हैऐसा 'अहोभाव' भी उसके मन में नहीं आता । इसका परिणाम यह होता है कि ज्ञानी की कोई भी प्रवृत्ति उसके लिये बन्धनकारक नहीं होती । अज्ञानी की प्रवृत्ति प्राणिवर्ग के हित में ही क्यों न परिणत होती हो, फिर भी वैसी हितबुद्धि उसके मन में नहीं होती । उसकी प्रवृत्ति का पर्यवसान अपनी स्वार्थसाधना में ही होता है । खाना-पीना, सुख-विलास का उपभोग करना और बड़े-बड़े बँगले बनवाकर उनमें हर तरह के ऐशोआराम लूटना और इसके लिये अच्छे बरे किसी भी उपाय से धन के ढेर के ढेर लगा देनाऐसा उसकी बुद्धि और वृत्ति होती है । उसकी किसी प्रवृत्ति से यदि दूसरे का हित होता हो तो भी उस समय अहङ्कारवृत्ति, उपकारबुद्धि अथवा यश या दूसरे किसी बदले की लालसा बनी ही रहती है । अज्ञानी मनुष्य जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय, सेवा, सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजन अथवा गुरूसेवा आदि धार्मिक समझी जानेवाली प्रवृत्तियाँ करता है, फिर भी ऐसी प्रवृत्तियाँ में उसकी अहंवृत्ति (गर्व) सतत जागरित रहती है और मैं ने खूब अच्छा किया है ऐसे 'अहोभाव' से वह फूला नहीं समाता । इसीलिये अज्ञानी की प्रवृत्तियाँ और धार्मिक समझे जानेवाले आचरण भी उसके लिये बन्धनकारक होते हैं । ज्ञानी में परार्थसाधक बुद्धि और निरभिमानता मुख्यरूप से होती है, जबकि अज्ञानी में स्वार्थबुद्धि और अहंकारभाव मुख्यरूप से होता है। इस पर से प्रस्तुत विषय के बारे में समझा जा सकता है कि जो कार्य अथवा प्रवृत्ति उसके पीछे रहे हुए अज्ञान, मोह एवं कषाय के कारण दुष्कर्मबन्धक होती है, वही कार्य अथवा प्रवृत्ति उसके पीछे रही हई है विवेकदृष्टि तथा शुद्ध भावना के कारण श्रेयस्कर भी होती है । चीड़फाड़ के पीछे हत्या करनेवाले का आशय भिन्न होता है और कर्तव्यपालक डाक्टर का आशय भिन्न होता है। पहले का आशय क्रूर और हिंस्त्र होता है, जबकि दूसरे का आशय अन्य का भला करने का होता है । इस प्रकार एक ही क्रिया के लिये घोर पापरूप बनती है तो दूसरे के लिये पुण्यरूप । स्त्री के अंग का स्पर्श भक्ति, वात्सल्य अथवा अनुकम्पा से यदि किया जाय तो वह निर्दोष है और कामवासना से किया जाय तो सदोष है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जैनदर्शन मिष्टान्न खानेवाले दो मनुष्यों में से एक विषयासक्ति से खाता है और दूसरा जीवनसाधन के उदात्त हेतु को सम्मुख रखकर खाता है । इन दो मनुष्यों की भोजन की प्रवृत्ति एक जैसी—होने पर भी पहला अविवेकी है, अतः वह मोहराग के कारण कर्मबन्ध करता है, जबकी दूसरा विवेकी होने से अनासक्ति के तेजोबल के कारण खाते-खाते भी अपने आन्तरिक जीवन को ऊर्ध्वगामी रखता है । इसी प्रकार, दो मनुष्य पवित्र तीर्थभूमि की यात्रा के लिये जाते हैं। इनमें से एक सावधानी के साथ (उपयोग-यतनापूर्वक) तथा सद्विचार में विहरता है, जबकि दूसरा उपयोग रखे बिना प्रमत्तभाव से तथा मोहमाया के विचारों में घूमता फिरता है । इस तरह तीर्थयात्रा एक के लिये कर्मबन्धक होती है, जबकि दूसरे के लिये श्रेयस्कर सिद्ध होती है । देवमन्दिर में देवदर्शन करनेवाले सबके मनोभाव एक से नहीं होते । अतः जो पवित्र भावना से दर्शन करते हैं वे पुण्य का उपाजन करते हैं और मोहमायायुक्त विचार करने वाले अथवा मलिनवृत्ति रखने वाले पाप की गठरी बाँधकर देवमन्दिर में से निकलते हैं । इस प्रकार देवदर्शन एक के लिये श्रेयस्कर और दूसरे के लिये पापबन्धक बनता है । इस तरह, उपर्युक्त 'आचारांग' सूत्र के वचन का मर्म समझा जा सकता है । दूसरी तरह देखने पर ज्ञानी विवेकी मनुष्य सामान्य नियमरूप से विहित विधानों के साथ उपयुक्त विचार किये बिना चिपका नहीं रहता । वह तो किसी भी अवसर पर देश-कालादि की परिस्थिति का विचार करके अपने लिये क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इसका निर्णय करके उसके अनुसार व्यवहार करता है । इसके विपरीत अज्ञानी अविवेकी मनुष्य समयस्थिति का विचार किये बिना सामान्य नियमरूप से जो कर्तव्य-अकर्तव्य ठहराए गए हैं उनसे आँखे मूंद कर चिपका रहता है । इसका परिणाम यह होता है कि धर्म का आचरण करने की इच्छा होने पर भी वह अधर्म का आचरण कर बैठता है। अन्न-जल के त्यागी तपस्वी को पानी की सख्त प्यास लगी और पानी की पुकार करता हुआ बुरी तरह तडपने लगा । उस समय उसे पानी Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड न पिलाकर मरने देना यह कैसी धर्मबुद्धि ? रात्रि में चतुर्विध आहार [ खान-पान, पानी] का त्याग करने वाले मनुष्य के शरीर में किसी कारणवश प्राणान्तक सख्त गर्मी अथवा अन्य रोग व्याप्त हो जाय और उसकी बेहोश जैसी हालत हो जाय तब भी — ऐसी हालत में भी घृतादि खिलानेरूप योग्य औषधोपचार न करके उसे मरने देना यह कैसी धर्मबुद्धि ? इस प्रसंग पर एक किस्सा याद आता है । एक भले- भोले ग्रामीण ने शहर में से आए हुए एक सज्जन सेठ का खूब आतिथ्य किया: सर्दी की मौसम, पोस महीना, जमीन पर पानी छींटकर सेठ को खाने के लिये बिठाया । खाने में श्रीखण्ड - पूरी तथा बरफ का ठण्डा पानी और ऊपर से पंखे का मन्द मन्द शीतल पवन ! ग्रामीण शेठ से कहता है कि, आपके जैसे बड़े आदमी की सेवा मेरे जैसा क्या कर सकता है ? इस पर सेठ कहता है : भाई, तेरी भक्ति तो बहुत है, परन्तु मेरा जीव बहुत कठोर है कि किसी तरह निकलता ही नहीं ! [ इस उदाहरण पर से जाना जा सकता है कि अविवेकी भक्ति अकल्याणरूप होती है ।] अब उत्सर्ग-अपवाद के बारे में भी तनिक देखें । ३९९ उत्सर्ग - अपवाद की बात द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की ही दृष्टि है । यह दृष्टि वस्तु का सामायिक यथायोग्य दर्शन करने में जितनी उपयोगी है उतनी ही कृत्य, अकृत्य और उनके परिणाम का विचार करने में— कार्य की कर्तव्यता अथवा अकर्तव्यता का निर्णय करने में भी उपयोगी है । सामान्य स्थिति - संयोगों में वर्तनसम्बन्धी जो सर्वसाधारण नियम स्थापित किए गए हैं उन्हें उत्सर्गमार्ग कहते हैं और परिवर्तित स्थिति संयोगों में जो मार्ग ग्रहण किया जाता है उसे अपवादमार्ग कहते हैं । अमुक अवसर पर उत्सर्गमार्ग ग्रहण करना चाहिए अथवा अपवादमार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए इसका निर्णय करने में उस समय के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की विचारणा आवश्यक बनती है । 'द्रव्य' अर्थात् पात्र, 'क्षेत्र' Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैनदर्शन अर्थात् उस समय की स्थानविषयक अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता, 'काल' अर्थात् उस समय की ऋतु अथवा वातावरण की अनुकूलता या प्रतिकूलता और 'भाव' अर्थात् पात्र की वर्तमान कार्यक्षम स्थिति । इस द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव में समाए हुए अर्थ को संक्षेप में व्यक्त करने के लिये स्थिति संयोग अथवा परिस्थिति आदि जैसे दूसरे शब्दों का प्रयोग किया जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र ने सामान्य नियम के रूप से-उत्सर्गमार्ग के रूप से एक ओर, अमुक वस्तु करनी चाहिए अथवा अमुक तरह का बरताव रखना चाहिए और दूसरी ओर अमुक वस्तु न करनी चाहिए अथवा अमुक प्रकार का व्यवहार न करना चाहिए--ऐसा ठहराया हो, फिर भी ऐसा विधि अथवा निषेध वावय सर्वदा के लिये और सब परिस्थितियों में लागू पड़ता है। ऐसा समझना एकान्त है, अनुचित एवं भ्रान्त है । अमुक अवसर पर अमुक स्थान में अमुक बात करनी चाहिए या नहीं, वह योग्य है अथवा अयोग्य है, इसका निर्णय तत्कालीन परिस्थिति [उस समय के द्रव्या-क्षेत्र-काल-भाव] देखकर करना चाहिए । देश कालादि की परिस्थिति बदलने पर, जो बात सामान्य नियम रूप से कर्तव्य बतलाई गई हो वह परिविर्तित परिस्थिति में अकर्तव्य बन जाती है और जो बात अकर्तव्य बतलाई हो वह परिवर्तित परिस्थिति में कर्तव्यरूप बन जाती है । इसी का नाम अपवाद मार्ग है। इसमें नियम का भंग नहीं होता, परन्तु नियम से जो उद्देश सिद्ध करने का होता है वही उद्देश अथवा तत्सदृश दूसरा कोई उच्च उद्देश, परिवर्तित परिस्थिति में अपवादमार्ग का अवलम्बन लेकर, पूर्ण किया जाता है । अवश्य ही, नियम का मार्ग ग्रहण न करके अपवाद का आश्रय लेते समय अत्यन्त सतर्कता रखने की आवश्यकता है । जहाँ सच्चाई है और साथ ही सतर्कता है वहाँ अपवाद का आश्रय अघटितरूप से नहीं लिया जाता । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव या उत्सर्ग-अपवाद के बारे में नीचे का श्लोक द्रष्टव्य है Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ४०१ उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान प्रति । यस्यामकार्यं कार्यं स्यात् कर्म कार्यं च वर्जयेत् ॥१॥ --चरकसंहिता,अन्तिम सिद्धिस्थान, दूसरा अध्याय, श्लो. २६. अर्थात्--देश, काल और रोग के कारण ऐसी अवस्था उपस्थित होती है जबकि अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाने से त्याज्य हो जाता है । अपवाद औत्सर्गिक मार्ग का पोषक ही होता है, घातक नहीं, आपवादिक विधान की सहायता से ही औत्सर्गिक मार्ग विकास कर सकता है । ये दोनों मिल करके ही मूल ध्येय को सिद्ध कर सकते हैं । उदाहरणार्थ, भोजन-पान जीवन की रक्षा एवं पुष्टि के लिये ही है, परन्तु यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी तो भोजन-पान का त्याग ही जीवन को बचा लेता है । इस तरह, ऊपर-ऊपर से परस्पर विरूद्ध दिखाई देनेवाले भी जीवनव्यवहार जब एकलक्ष्यगामी होते हैं तब वे उत्सर्ग--अपवाद की कोटी में आते हैं । उत्सर्ग को यदि आत्मा कहें तो अपवाद को देह कहना चाहिए । इन दोनों का सम्मिलित उद्देश संवाटी जीवन जीना है ! उत्सर्ग एवं अपवाद इन दोनो मार्गों का लक्ष्य एक ही होता है । जिस कार्य के लिये उत्सर्ग का निर्देश किया जाता है उसी कार्य के लिये १. आ. हरिभद्र के सत्ताईसवें अष्टक के पाँचवें श्लोक की वृत्ति में जिनेश्वरसूरि ने यह श्लोक उद्धृत किया है और बृहत्कल्पसूत्र की टीका में चौथे भाग के ९३६वें पृष्ठ में मलयगिरि ने उद्धृत किया है । हेमचन्द्राचार्य की द्वात्रिंशिका के ११वें श्लोक पर की मल्लिषेणसूरि की 'स्याद्वादमञ्जरी' टीका में इस श्लोक को उद्धृत करके उसके आधार पर कहा गया है कि आयुर्वेद के अनुसार जिस रोग में जिस परिस्थिति के अनुसार जो वस्तु अपथ्य होती है वही वस्तु उसी रोग में दूसरी अवस्था के समय पथ्यरूप होती है । लङ्घन अमुक ज्वर में उपयोगी होता है, परन्तु क्षीण धातु की अवस्था में ज्वरात के लिये वह अयोग्य है । देश-कालादि की अपेक्षा से ज्वरग्रस्त के लिये भी दधिपान आदि सेव्य बनते हैं । अतः कहने का अभिप्राय यह है कि जिस अपथ्य का त्याग एक अवस्था में जिस रोग का शामक होता है वही अपथ्य भिन्न अवस्था में उसी रोग के शमन में अनुकूल हो सकता है । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जैनदर्शन कम्बत अपवाद का भी निर्देश किया जाता है; अर्थात् जिस हेतु को लक्ष में रखकर उत्सर्ग की प्रवृत्ति होती है उसी हेतु को लक्षमें रखकर अपवाद भी प्रवृत्त होता है । दृष्टान्त के तौर पर, जिस तरह मुनि के लिये विशुद्ध आहार ग्रहण करने का उत्सर्ग-विधान संयम के परिपालन के लिये है उसी प्रकार अन्यविध प्रसंग उपस्थित होने पर अर्थात् बीमारी आदि के समय दूसरा उपाय न हो तो अनेषणीय (मुनि के लिये बनाया हुआ होने से उपयोग में न आ सके ऐसा) आहार ग्रहण करने के अपवाद का विधान भी संयम के परिपालन के लिये ही है । इस तरह इन दोनों (उत्सर्ग एवं अपवाद) का हेतु एक ही है । श्री हेमचन्द्राचार्य अपने योगशास्त्र के तृतीय प्रकाश के ८७वें श्लोक की वृत्ति में लिखते हैं कि 'कम्बलस्य च वर्षासु बहिर्निर्गतानां तात्कालिकवृष्टावपकायरक्षणमुपयोगः । बाल-वृद्ध ग्लाननिमित्तं वर्षत्यपि जलधरे भिक्षायै नि:सरतां कम्बलावृतदेहानां न तथाविधाप्कायविराधना । उच्चार-प्रस्त्रवणादिपीडितानां कम्बलावृतदेहानां गच्छतामपि न तथाविधा विराधना ।' . अर्थात्-वर्षाऋतु में बाहर निकले हुए मुनियों के लिये तात्कालिक वृष्टि होने पर जलकाय के जीवों के रक्षण में कम्बल का उपयोग है । बरसते हुए बरसाद में भी बाल, बृद्ध और ग्लान के लिये, भिक्षार्थ निकले हुए मुनियों को, यदि उन्होंने अपने शरीर को कम्बल से बराबर लपेट रखा हो तो जलकाय के जीवों की उतनी विराधना नहीं होती । बारिश में पेशाब अथवा शौच आदि के लिये बाहर जाने पर यदि उनके शरीर कम्बल से आच्छदित हों तो उन्हें विराधना नहीं होती । [पेशाब अथवा शौच की हाजत रोकने का सख्त निषेध है : 'वच्चमुत्तं न धारये' दशवैकालिक, ५-१९.] इस तरह जहाँ एक ओर कच्चे पानी का स्पर्श भी मुनि के लिये निषिद्ध है वहाँ बरसते बरसात में उपर्युक्त प्रयोजन से बाहर जाने का विधान भी है-अपवादरूप से । [कम्बल का सिर्फ यही उपयोग मुनि के लिये Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ४०३ श्रीहेमचन्द्राचार्य ने ऊपर के पाठ में बतलाया है । इसके अतिरिक्त दूसरे उपयोग का उन्होनें कोई उल्लेख नहीं किया है । ] धर्म का अनुशासन सत्यवादी बनने का है । परन्तु किसी पशु की हिंसा के लिये उसके पीछे कोई शिकारी पड़ा हो और उसके पूछने पर जानकारी होने पर भी पशु की रक्षा के लिये निरुपाय होकर यदि अतथ्य बोलना पड़े तो वैसा बोलने का आपवादिक विधान भी उत्सर्ग-विधान की भाँति अहिंसा की साधना के लिये होने से कर्तव्यरूप' हो जाता है । इस तरह उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों का एक ही लक्ष्य है । इसी तरह स्त्री का स्पर्श साधु के लिये निषिद्ध होने पर भी यदि कोई स्त्री नदी, आग अथवा ऐसी कोई विकट आपत्ति में फँस गई हो तो उस समय उसे, उसका स्पर्श करके भी बचाने का धर्म साधु को भी प्राप्त होता है । साधु के लिये विहित स्त्रीस्पर्श — निषेध के पीछे ब्रह्मचर्य सुरक्षित रहे यह दृष्टि है, जो कि अहिंसा की एक प्रदेशभूमि है । इसी तरह ऐसा आपवादिक स्पर्श भी ब्रह्मचर्य की विशाल भूमिरूप अहिंसा के पोषण के लिये है । इस तरह स्पर्शनिषेध और स्पर्श दोनों का लक्ष्य एक ही है । जं दव्वखेत्तकालाइसंगयं भगवया अणुट्ठाणं । भणियं भावविसुद्धं निप्फज्जइ जह फलं तह उ ॥ ७७८ ॥ - हरिभद्रसूरि, उवएसपय. ( उपदेश पद) न वि किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वा वि जिणवर्रिदेहिं । एसा तेसिं आणा कज्जे सच्चेण होअव्वं ॥ ३३३० - बृहत्कल्प पृ. ९३६. अर्थात् — भगवान् ने मनोभाव को शुद्ध रखकर द्रव्य क्षेत्र - काल - भाव के अनुकूल कृत्य करने का आदेश दिया है । जिस तरह स्व- परकल्याणरूप फल निष्पन्न हो उसी तरह व्यवहार करने की उनकी आज्ञा है । १. 'यस्तु संयमगुप्त्यर्थे न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषाय ।' - 'सूत्रकृतांग' के ८वें अध्ययन की १९वीं गाथा की वृत्ति में । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैनदर्शन जिनेन्द्र भगवान् ने कोई कृत्य करने का एकान्तरूप से आदेश नहीं दिया है और न किसी बात का निषेध भी एकान्तरूप से किया है । भगवान् की आज्ञा तो इतनी ही है कि कार्य-प्रवृत्ति में सच्चाई से बरतना चाहिए । अनेकान्तवाद के बारे में अन्त में एक चेतावनी भी दे देनी उपयुक्त होगी : वस्तु को एक नहीं किन्तु अनेक पहलुओं से देखना, उसकी जाँच करना और संगत होनेवाले सब पहलूओं का परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना—यह अनेकान्तवाद का अर्थ है । परन्तु जो बात घटित न होती हो, असङ्गत हो वैसी बात को घटित अथवा संगत सिद्ध करना यह तो बालचेष्टा ही कही जायगी । इस तरह तो अनेकान्तवाद 'अन्धाधुन्धवाद' बन जाय । जिस समय जिस प्रवृत्ति के औचित्य के लिये विवेकदृष्टि का सहारा न हो और जिसे विवेक अयोग्य प्रमाणित करता हो उसके लिये अनेकान्त का अवलम्बन लेना अथवा उसे स्याद्वाद से संगत बनाने का प्रयत्न करनास्याद्वाद की आड में उसे उचित और आदरणीय ठहराना यह अनेकान्तवाद का दुरूपयोग करना है, उसका मजाक उडाने जैसा है । अनेकान्तवाद बिना पैदे का मुरादाबादी लोय नहीं है कि जिस तरफ चाहो उसे लुढका दो । वह तो असन्दिग्धरूप से न्याय्य समन्वयवाद है, यह हमें रखना चाहिए । निक्षेप ज्ञान का वाहन भाषा है । अमूर्त ज्ञान भाषा में अवतीर्ण होकर और इस तरह मूर्त बनकर व्यवहार्य होता है । भाषा शब्दात्मक है शब्द का सामान्य अर्थप्रयोग चार प्रकार का देखा जाता है । ये चार प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । उदाहरणार्थ 'राजा' शब्द को लें । किसी का नाम यदि राजा हो तो उसका इस नाम से व्यवहार होता है । वह नाममात्र के राजा होने के कारण 'नाम- राजा' है । अत: 'राजा शब्द का यह अर्थ नामनिक्षेप कहलाता है । राजा की मूर्ति, चित्र अथवा फोटो को भी राजा कहा जाता है—जिस तरह भगवान् की मूर्ति को भगवान् कहते हैं उस तरह । यह स्थापना Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ४०५ (फोटो, चित्र-मूर्ति) के रूप में राजा होने से 'स्थापना-राजा' है । 'राजा शब्द का यह अर्थ स्थापना-निक्षेप कहलाता है । मूल वस्तु का चित्र, मूर्ति आदि में आरोप करने को 'स्थापना-निक्षेप' कहते हैं । जो भूतकाल में राजा था अथवा जो भविष्य में राजा होनेवाला है उसे भी 'राजा' कहा जाता है । यह 'द्रव्य से अर्थात् पात्रता की अपेक्षा से राजा होने से 'द्रव्य-राजा' है । 'राजा' शब्द का यह अर्थ द्रव्य-निक्षेप कहलाता है । द्रव्य का अर्थ यहाँ पर 'पात्र' करना चाहिए । इसका मतलब यह है कि जो भूतकाल में राजा था अथवा जो भविष्य में राजा होनेवाला है वह राजत्व का 'पात्र' है; अर्थात् जिसमें वर्तमानकाल में राजत्व नहीं है, परन्तु भूतकाल में था अथवा भविष्य में आनेवाला है । जो राजत्व से राजमान (शोभित) हो वह राजा कहलाता हैयह तो स्पष्ट और सर्वविदित ही है । यह भाव से अर्थात् यथार्थरूप से राजा होने से 'भाव-राजा' है। 'राजा' शब्द का यह अर्थ भाव-निक्षेप कहलाता है । इस तरह नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव से शब्द का अर्थविभाग किया जाता है । भगवान् की भक्ति उसके नामस्मरण से, उसकी मूर्तिद्वारा अथवा गुरुभक्ति द्वारा की जाती है, क्योंकि सच्चे गुरू को द्रव्य-भगवान् कहा जा सकता है । इस प्रकार नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों निक्षेप भावनिक्षेप की ओर ले जाते हैं, साधक को प्रत्यक्ष भगवान् के सान्निध्य में उपस्थित करते हैं। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड जैनदर्शन की असाम्प्रदायिकता और उदारता जैन धर्म के सिद्धान्तों को स्फुट करने के लिये प्राचीन महान् जैन आचार्यों ने विशाल ग्रन्थराशि का निर्माण किया है । इसमें उन महापुरुषों ने मध्यस्थभाव से तत्त्व का निरूपण करते समय लोककल्याण की ओर मुख्य दृष्टि रखी है । मूल आगमों में तो समभाव के निर्मल एवं विशाल झरने बहते हुए हम देख सकते हैं, परन्तु पश्चात्कालीन समभावी महान् आचार्यों के रचे तक हुए महान् ग्रन्थ भी कम महत्त्व के नहीं हैं । इसके निदर्शन रूप से आचार्य हरिभद्र का 'शास्त्रवार्तासमुच्च्य' ग्रन्थ ले सकते हैं । इस तत्त्वपूर्ण सुन्दर ग्रन्थ में महान् ग्रन्थाकार इन साधुपुरुष के उमदा समभाव एवं वात्सल्य का जो दर्शन होता है उसका विशद आकलन करने का यह उपयुक्त स्थान नहीं है, फिर भी नमूने के तौर पर कुछ देख लें । उक्त ग्रन्थ के तृतीय स्तबक में जैनदर्शनसम्मत 'ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है' इस सिद्धान्त का युक्तिपुरस्सर समर्थन करने के बाद यह समभावसाधक और गुणपूजक आचार्य लिखते हैं कि :-- ततश्चेश्वरकतृत्ववादोऽयं युज्यते परम् । सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धयः ॥ १० ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४०७ ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुण भावतः ॥११॥ 'तदनासेवनादेव यत् संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्याऽपि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥१२॥ अर्थात्-ईश्वरकर्तृत्व का मत इस प्रकार की युक्ति से घट भी सकते हैं कि राग-द्वेष-मोहरहित पूर्ण वीतराग, पूर्णज्ञानी परमात्मा ही ईश्वर है और उसके कहे हुए कल्याण मार्ग का आराधन करने से मुक्ति प्राप्त होती है, अतः मुक्ति को देनेवाला ईश्वर है ऐसा उपचार से कहा जा सकता है । और उस परमात्मा द्वारा निदिष्ट सद्धर्म-मार्ग का आराधन न करने से जो भवभ्रमण करना पड़ता है वह भी ईश्वर का उपदेश न मानने का परिणाम है । १. जिसके परामर्श से हमें लाभ मिले उसे हमारे लाभरूपी उपकार का कर्ता हम कह सकते हैं, परन्तु जिसके परामर्शानुसार न चलने से अर्थात् उससे विरुद्ध चलने से यदि नुकसान हो तो उसे हम उस नुकसान का कर्ता नहीं कहते और न कह सकते हैं । व्यवहार में भी ऐसा नहीं कहा जाता । इसी प्रकार परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट सन्मार्ग पर चलने से मुक्ति का लाभ मिलता है, अत: इस लाभरूपी उपकार के कर्ता रूप से अथवा मुक्ति के दाता रूप से परमात्मा को माना जा सकता है। [अलबत्ता ऐसा मानना वस्तुतः औपचारिक व्यवहार है, फिर भी यह युक्तियुक्त एवं रम्य है। परन्तु उसके (परमात्मा के ) बताए हुए मार्ग पर न चलकर उससे विरुद्ध चलने से यदि भवभ्रमण का कष्ट उठाना पड़े तो उसका कर्ता उसे (परमात्मा को) मानना यह औपचारिक रूप से भी अघटित है। औपचारिक रूप से भी ऐसा वाणीव्यवहार कुछ अँचता नहीं । इसीलिये उपाध्याय श्री यशोविजयजी को इस बारे में उपर्युक्त १२वें श्लोक की टीका में कहना पड़ा है कि" 'अङ्गुल्यग्रे करिशतम्' इत्यादिवद् यथाकथञ्चिद् उपचारेण व्यवहारनिर्वाहात् ।" अर्थात्-'अंगुली के अग्र भाग पर सौ हाथी हैं। ऐसे लौकिक कथन के जैसे इस कथन को जिस किसी तरह औपचारिक रूप से निबाह लेना । जैनदृष्टि के अनुसार भवस्थ और भवातीत इस प्रकार दो श्रेणी के परमात्मा हैं । भवस्थ परमात्मा मन-वाणी-शरीर के धारक होने से चलना, फिरना, बोलना आदि प्रवृत्तियाँ करते हैं । वे कल्याणमार्ग के–मुक्तिमार्ग के योजक, उपदेशक और प्रचारक हैं तथा मुमुक्षु संघ के संगठनकर्ता है । भवातीत (सिद्ध) परमात्मा सम्पूर्णरूप से विदेह होने के कारण अपनी ज्ञान-ज्योति में ही रममाण रहते हैं । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन 'ईश्वर कर्ता' ऐसे वाक्य में कुछ लोगों का आदरभाव है, अतः उन्हें लक्ष में रखकर इस प्रकार की ईश्वरकर्तृत्व की देशना दी गई है, ऐसा आचार्य महाराज नीचे के श्लोक से कहते हैं— ४०८ कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यतः केषाञ्चिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥ १३ ॥ अब दूसरी तरह, उपचार के बिना ही ईश्वर को कर्ता बतलाते हैं- परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव वेश्वरः । स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ १४ ॥ अर्थात् — अथवा आत्मा ही ईश्वर है — ऐसा माना गया है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा (जीव) अपने सच्चे स्वरूप में परमैश्वर्ययुक्त है और आत्मा तो स्पष्ट रूप से कर्ता है ही । इस तरह ईश्वरकर्तृत्ववाद व्यवस्थित हो सकता है । ऊपर्युक्त पाँच श्लोकों के बाद इसी बात के अनुसन्धान में उपसंहार करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं कि शास्त्रकारा महात्मानः प्रायो वीतस्पृहा भवे । सत्त्वार्थसम्प्रवृत्ताश्च कथं तेऽयुक्तभाषिणः ? ॥१५॥ अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्यग् मृग्यो हितैषिणा । न्यायशास्त्राविरोधेन यथाऽऽह मनुरप्यदः ॥१६॥ अर्थात्—शास्त्र बनानेवाले ऋषि- महात्मा प्रायः निःस्पृह और लोकोपकारक वृत्तिवाले होते हैं, अतः वे अयुक्त भाषण कैसे कर सकते हैं ? इसलिये उनका अभिप्राय न्यायसंगत हो इस तरह खोजना चाहिए । इसके बाद के स्तबक में कपिल के प्रकृतिवाद की समीक्षा आती है । सांख्यमत के विद्वानों ने प्रकृतिवाद की जो विवेचना की है उसमें आनेवाले दोषों का उद्घाटन करके और प्रकृतिवाद का तात्पर्य बतलाकर अन्त में आचार्य महाराज कहते हैं कि Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४०९ एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥४४॥ अर्थात्---इस तरह (प्रकृतिवाद का जो रहस्य बतलाया है उस तरह) प्रकृतिवाद भी यथार्थ समझना । और, वह कपिल का उपदेश है, अतः सत्य है; क्योंकि वह दिव्य महामुनि थे । इसके बाद छठे स्तबक में क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की कडी आलोचना करके और इन वादों में आनेवाले अनेक दोषों को दिखलाकर अन्त में आचार्य महाराज वस्तुस्थिति का निर्देश करते हैं कि अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥५१॥ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसङ्गनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥५२॥ एवं च शून्यवादोऽपि सद्विनेयानुगुण्यतः । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना ॥५३॥ अर्थात्-मध्यस्थ पुरुषों का ऐसा कहना है कि 'सब क्षणिक है' ऐसा बुद्ध ने वास्तविकता की दृष्टि से नहीं कहा, किन्तु रोगोत्पादक विषयवासना को दूर करने के तथा वैराग्योत्पादक अनित्य-भावना को जागरित करने के उद्देश से कहा है । विज्ञानवाद भी बाह्य विषयासक्ति को दूर करने के उद्देश से योग्य शिष्यों अथवा श्रोताओं को लक्ष में रखकर कहा गया है । शून्यवाद भी योग्य शिष्यों को लक्ष में रखकर वैराग्य की पुष्टि के आशय १. द्रव्यरहित पर्याय नहीं है और पर्यायरहित द्रव्य नहीं है। प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तित होती रहती है, समूचा द्रव्य प्रतिक्षण बदलता रहता है यह बात जैनों को और करीबकरीब दूसरे सबको मान्य है और यह प्रतिगोचर भी है । अतः इस दृष्टि को सम्मुख रखकर महर्षि बुद्ध ने वस्तु को (समग्र जगत् को ) क्षणिक कहा हो यह बहुत सम्भव है । समग्र जगत्, जहाँ नज़र डालो वहाँ, बदलता ही दृष्टिगोचर होता है । अतः किसी भी तत्त्ववेत्ता, द्रष्टा अथवा ऋषि-मुनि के मुख से ऐसा अभिप्राय [सापेक्ष रूप से भी] प्रगट होना अत्यन्त स्वाभाविक है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैनदर्शन से कहा गया प्रतीत होता है । आगे जाकर वेदान्त के अद्वैतवाद की वेदान्तानुयायी विद्वानों ने जो विवेचना की है उसके अनुसार उस पर दोष बतलाकर आठवें स्तबक में आचार्य महाराज कहते हैं कि अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये । अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वतः ॥८॥ अर्थात्-अन्य महर्षि ऐसा कहते हैं कि अद्वैत का जो उपदेश दिया गया है वह अद्वैत की वास्तविकता बतलाने के लिये नहीं, किन्तु समभाव की प्राप्ति के उद्देश से दिया गया है । मतलब कि जगत् में जीव मोहाधीन होकर जो रागद्वेष, करते हैं वह सब अविद्या का ही विलास है ऐसा सूचित करके इन दोषों को रोकने के लिये, शत्रु,-मित्र को एक दृष्टि से देखने के लिये इस प्रकार की समभाव की सिद्धि के लिये 'आत्मैवेदं सर्वम्,' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' [सब कुछ आत्मा ही है । सब ब्रह्म ही है ।] इत्यादि अद्वैत-उपदेश दिया गया है । अद्वैतशास्त्र का उपदेश संसार-प्रपंच को असार मानकर सबको आत्मदृष्टि से देखने को कहता है । इस तरह अन्यान्य दर्शनों के सिद्धान्तों की तटस्थ दृष्टि से परीक्षा करने के साथ-साथ शुद्ध दृष्टि से उनका समन्वय करने का भी प्रयत्न करना वस्तुतः चित्तशुद्धि एवं निःसर्ग-वत्सल प्रकृति का प्रशंसनीय निदर्शन है । अन्य दर्शनों के धुरन्धरों का महर्षि, महामुनि, ज्ञानी, महामति और ऐसे ही दूसरे ऊँचे शब्दों द्वारा सम्मानपूर्वक अपने ग्रन्थों में उल्लेख करना, दूषित सिद्धान्तवालों के मत का खण्डन करते समय भी उनके लिये हलके शब्दों का व्यवहार न करना और सम्पूर्ण सभ्यता एवं शिष्टता के साथ प्रसन्नशैली से विरोधी को प्रबुद्ध करने की अपनी स्नेहाई वृत्ति को पुण्यतोया भागीरथी के निर्मल प्रवाह की भाँति सतत बहती रखना—यह जैन महर्षियों का महान् औदार्य है । धार्मिक अथवा दार्शनिक वादयुद्ध चलाते समय भी विरोधी दार्शनिकों के साथ अपना आत्मीयभाव (समभाव) स्वस्थ रहे यह कितना सात्त्विक हृदय ! Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४११ और भी देखो उदारता के मनोहर उद्गारश्रीमान् हेमचन्द्राचार्य का भवबीजांकुरजनना रागाद्यः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ यह श्लोक उन्होंने प्रभासपाटन में सोमनाथ महादेव की मूर्ति के सम्मुख स्तुति करते समय कहा था ऐसी परम्परा गत आख्यायिका है ।। यह स्तुतिश्लोक कहता है कि__ भव-संसार के कारणभूत राग-द्वेष आदि समग्र दोष जिसके क्षीण हो गये हैं वह चाहे ब्रह्मा, विष्णु, शंकर अथवा जिन हो उसे मेरा नमस्कार है । मूर्ति हमारे वीतरागता के उच्चतम आदर्श परमात्मा की वीतरागता का प्रतिभासक-प्रतीत है। इस प्रतीक द्वारा आदर्श (परमात्मा) की पूजा-भक्ति हो सकती है। जब द्रोणाचार्य ने भील एकलव्य को धनुर्विद्या सिखलाने का इनकार कर दिया तब उस एकलब्य ने, जैसा आया वैसा, द्रोणाचार्य का प्रतीक स्थापित करके और उसमें गुरुरूप से द्रोणाचार्य का आरोप करके श्रद्धापूर्वक धनुर्विद्या सीखनी शुरू की और अन्त में द्रोणाचार्य के अन्यतम एवं प्रियतम शिष्य अर्जुन से भी आगे बढ़ जाय ऐसी धनुर्विद्या उसने प्राप्त की । यह उदाहरण कितना सूचक है ।। आदर्श को किस नाम से पूजना इस बारे में भी प्रस्तुत श्लोक स्पष्ट प्रकाश डालता है। आदर्श का पूजन और भक्ति अमुक ही नाम से हो ऐसा कुछ नहीं है । चाहे जो नाम देकर और चाहे जिस नाम का उच्चारण करके आदर्श की पूजा हो सकती है। श्री यशोविजयजी महाराज भी परमात्मपच्चीसी में कहते हैं कि बुद्धो जिनो हृषीकेशः शम्भुर्ब्रह्मादिपुरुषः । इत्यादिनामभेदेऽपि नार्थतः स विभिद्यते ॥ अर्थात्-बुद्ध, जिन, हृषीकेश, शंभु, ब्रह्मा, आदिपुरुष आदि भिन्न Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैनदर्शन भिन्न नाम होने पर भी इन सबका अर्थ एक ही है । परमात्मा इन सब नामों से अभिहित होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि तुम चाहे जिस मूर्ति का और चाहे जिस नाम का अवलम्बन लो, किन्तु जिनकी पूजनीय मूर्ति का आकारप्रकार अथवा रचनाप्रकार भिन्न हो अथवा जो अपने आदर्श की पहचान के लिये भिन्न नाम का उपयोग करते हों उनके साथ आकार-प्रकार की अथवा नाम की भिन्नता की वजह से विरोध करने का अथवा झगड़ने का कोई कारण नहीं है । इतना ही नहीं, इन बातों को लेकर उनके साथ के हमारे मैत्रीपूर्ण व्यवहार में तनिक भी फर्क नहीं आना चाहिए । वीतरागता प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम साध्य होना चाहिए— इस मुख्य मुद्दे को भूले बिना जैनधर्म अन्य सम्प्रदायों की तात्त्विक मान्यता एवं आचार १. 'बुद्ध' अर्थात् जिसकी बुद्धि पूर्ण एवं शुद्ध हो अथवा परम तत्त्व का पूर्ण ज्ञाता । 'जिन' अर्थात् रागादि सब दोषों को जीतनेवाला । 'हृषीकेश' अर्थात् [ हृषीक का अर्थ है इन्द्रिय और ईश यानी स्वामी इस तरह ] इन्द्रियों का स्वामी अर्थात् पूर्ण जितेन्द्रिय । ‘शम्भु' अर्थात् परम सुख का उद्भवस्थान । 'ब्रह्मा' अर्थात् पवित्र ज्ञानमूर्ति । 'आदिपुरुष' अर्थात् सर्वोत्तम पुरुष । इसी प्रकार 'विष्णु' का अर्थ है अपने उच्च ज्ञान से विश्व को व्याप्त करनेवाला आत्मा । 'शंकर' अर्थात् सुखकारक अथवा सुखकारक मार्ग दिखलानेवाला । 'हरि और 'हर' अर्थात् प्राणियों के दुःखों को हरनेवाला । 'महादेव' अर्थात् पूर्ण प्रकाश से देदीप्यमान और 'अर्हन्' अर्थात् पूज्यता का परम धाम । रागादिजेता भगवान् ! जिनोऽसि बुद्धोऽसि बुद्धि परमामुपेतः । कैवल्यचिद्व्यापितयाऽसि विष्णुः शिवोऽसि कल्याणविभूतिपूर्णः ॥ (लेखक की अनेकान्तविभूति - द्वात्रिंशिका ) अर्थात् — हे प्रभो ! तू रागादि दोषों का जेता होने से जिन है, परम बुद्धि को प्राप्त होने से बुद्ध है, केवल्यज्ञान द्वारा व्यापक होने से विष्णु है और कल्याणविभूति से पूर्ण होने से शिव है । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४१३ पद्धति अथवा क्रियाकाण्ड की ओर आदरभाव रखता है । यह बात नीचे के श्लोक पर से स्पष्ट होती है— जितेन्द्रिया जितक्रोधा दान्तात्मानः शुभाशयाः । परमात्मगतिं यान्ति विभिन्नैरपि वर्त्मभिः ॥ यशोविजयजी, परमात्मपच्चीसी. अर्थात् — जितेन्द्रिय, क्रोधादिकषायरहित, शान्तमना, शुभ आशयवाले सज्जन भिन्न-भिन्न मार्गों से भी परमात्मदशा पर पहुँच सकते हैं । इस परम आदर्श का अनुयायी, फिर वह चाहे किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न हो, किसी भी नाम से पहचाना क्यो न जाता हो, तो भी यदि उसका आत्मा समभाव से भावित है तो वह अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । इस बात को नीचे का श्लोक भी उपस्थित करता है सेयंबरो य आसंबरो बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा लहइ मुक्खं न सन्देहो ॥२॥ - संबोहसत्तारि अर्थात् — श्वेताम्बर, दिगम्बर, बौद्ध अथवा अन्य कोई भी व्यक्ति यदि समभाव से भावित हो तो वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है । कोई भी मनुष्य चाहे जिस नाम से पहचाना जाय इसमें कोई हर्ज नहीं है, परन्तु यदि वह ऐसा मान बैठे कि दिगम्बरत्व में (नग्न रहने में) ही मुक्ति है अथवा श्वेताम्बरत्व में (श्वेत वस्त्र धारण करने में अथवा वस्त्र धारण में) ही मुक्ति है, अथवा तत्त्ववाद या तर्क वाद में मुक्ति है, अथवा अपने पक्ष की सेवा करने में (साम्प्रदायिक चौकापन्थी में) मुक्ति है, तो इस प्रकार की मान्यता भ्रामक और मिथ्या है । कषाय ( राग-द्वेष - मोह) से मुक्ति ही सच्ची (आध्यात्मिक) मुक्ति है । इस प्रकार उपदेश नीचे के श्लोक से मिलता है Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैनदर्शन नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥ -उपदेशतरंङ्गिणी में से उद्धृत. देशना (ज्ञानोपदेश अथवा धर्मोपदेश) कैसी देनी चाहिए इसके बारे में श्री हरिभद्रसूरि कहते हैं कि चित्रा तु देशना तेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, १३२. अर्थात्-इन (कपिल, बुद्ध आदि) महात्माओं की देशना (ज्ञानोपदेश अथवा धर्मोपदेश) भिन्न-भिन्न श्रेणी के शिष्यों की योग्यता के अनुसार भिन्नभिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि वे भवरोग के महान् वैद्य हैं । इसका तात्पर्य यह है कि श्रोताजनों के अधिकार के अनुसार, वे पचा सकें या आचार में रख सकें, वैसी देशना भिन्न-भिन्न मनुष्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि आध्यात्मिक उन्नति एकदम प्राप्त नहीं होती । वह तो क्रमिक ही होती है अर्थात् एक के बाद दूसरे सोपान पर चढ़कर आगे बढ़ा जा सकता है । छलांग लगाने पर तो पैर टूट जाने का भय रहता है और बहुतों के पैर टूटे भी हैं । जिस प्रकार एक कुशल वैद्य अपने बीमारों के भिन्न-भिन्न रोगों की परीक्षा करके उस रोग के अनुसार अलग-अलग दवाई देता है और भिन्न-भिन्न अनुमानों का तथा पथ्यापथ्य के बारे में सूचन करता है उसी प्रकार भव-रोग के महान् वैद्य भी अपने श्रोताओं की परीक्षा करके उनकी योग्यता और अधिकार के अनुसार उनके लिये उचित भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना देते हैं । इस श्लोक पर की स्वोपज्ञ टीका में हरिभद्राचार्य कहते हैं कि 'सर्वज्ञ कपिल, सुगत (बुद्ध) आदि की जो भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना है वह भिन्नभिन्न प्रकार के शिष्यों अथवा श्रोताओं को लक्ष में रख कर दी गई है, क्योंकि ये (कपिल, सुगत आदि) सर्वज्ञ महात्मा भवरोग के महान् वैद्य हैं । यही कारण है कि इन महात्माओं के बीच जो दार्शनिक तत्त्वभेद Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४१५ दिखाई देता है वह भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के कारण है। उनके बीच वास्तविक भेद कुछ भी नहीं है, क्योंकि भव-व्याधि के इन महान् वैद्यों ने प्राणियों का भवरोग जिससे दूर हो वैसा उपदेश दिया है । इस श्लोक के आगे-पीछेका हरिभद्र का वाणीप्रवाह द्रष्टव्य है । जैनधर्म की प्रकृति का परिचय करने पर मालूम हो सकता है कि वह वस्तुतः एक साम्प्रदायिक चौका नहीं है, वह तो जीवन है-जीवनविधि अथवा जीवनचर्या है । यद्यपि तीर्थंकरदेव ने चतुर्विध ( साधु-साध्वी- श्रावकश्राविकारूप) संघ की स्थापना की है और आचार-क्रिया की पद्धति भी प्रदर्शित की है, और व्यवहारमार्ग के लिये जनसमुदाय को मार्गदर्शन मिले इस कल्याणरूप हेतु से संघ का आयोजन तथा आचार-क्रिया की प्रणाली जनता के सम्मुख रखनी पड़ती है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि जो इस संघ में हो अथवा इसप्रकार की आचार-क्रिया की प्रणाली का अनुपालन करता हो वही जैन कहलाए । जो इस संघ का सदस्य न हो और तथोक्त क्रिया आदि का पालन न करता हो वह भी (वह चाहे जिस देश, जाति, कुल, वंश सम्प्रदाय का क्यों न हो) यदि सत्य-अहिंसा के सन्मार्ग पर चलता हो तो जैन है-अवश्य ही जैन है और वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है ऐसा जैनधर्म का कथन है, तीर्थंकरदेव और उनके शासन का कथन है। इस बात का विशद निरूपण इस पुस्तक में अन्यत्र हो गया है । १. हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय-यह योग्दर्शन का वर्गीकरण है । हेय दुःख है, इसका कारण [हेयहेतु] अविद्या है, दु:ख का समूल नाश हान है और उसका उपाय [हानोपाय] विवेकख्याति है । दुःख, दु:खसमुदय, दुःखनिरोध और मार्ग-यह बुद्ध का चतुर्ग्रह है । दुःख का कारण तृष्णा है । इसे 'दुःखसमुदाय' भी कहते हैं । दुःखनिरोध अर्थात् दुःख के नाश का 'मार्ग' तृष्णा का नाश है । जिस मार्ग से तृष्णा का नाश हो सकता है उस मार्ग को भी दुःखनाश का मार्ग कह सकते हैं । न्यायवैशेषिक दर्शन में संसार, मिथ्याज्ञान, तत्त्वज्ञान और अपवर्ग इस तरह तथा वेदान्तदर्शन में संसार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार इस प्रकार चतुर्वर्ग का निरूपण किया गया है। जैन-परिभाषा में 'बन्ध' हेय है। इस हेय का हेतु 'आस्रव' है । 'संवर', 'निर्जरा' और मोक्ष' ये हान हैं और मनोवाक्कायगुप्ति, सत्य, संयम, तप, त्याग आदि इस हान के उपाय हैं । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैनदर्शन जीवन के दो अंश है : विचार और आचार । इन दोनों को सुधारने के लिये दो औषधियाँ जिनेन्द्र भगवान् महावीर देव ने विश्व को प्रदान की है : अनेकान्तदृष्टि और अहिंसा । पहली [अनेकान्तदृष्टि] विचारदृष्टि को शुद्ध करके उसे सम्यगदृष्टि बनाती है और दूसरी [अहिंसा] आचार को शुद्ध एवं मैत्रीपूत बनाती है । श्री महावीर देव के शासन की विशेष ध्यान आकर्षित करनेवाली तीन विशेषताएँ हैं : अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह' । अनेकान्तदृष्टि का १. तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चाउज्जाम, (चातुर्याम) धर्म था । इसका उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक ग्रन्थों में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के २३वें अध्ययन की २३वी गाथा में आता है । इस चातुर्याम का अर्थ चार याम या यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह । इसका अर्थ यह हुआ कि जिनेन्द्र भगवान् पार्श्वनाथ की संस्था द्वारा स्वीकृत महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का अलग उल्लेख नहीं था । इसके बारे में ऐसा बतलाया जाता है कि वह (ब्रह्मचर्य) अपरिग्रह में अन्तर्गत थानो अपरिग्गहियाए इत्थीए जेण होई परिभोगो । ता तव्विरईए च्चिअ अबंभविरइ त्ति पण्णाणं ॥ अर्थात्-अपरिगृहीत स्त्री का भोग नहीं होता अर्थात् स्त्री के भोग में ही स्त्री परिगृहीत हो जाती है । अतः परिग्रह की विरति में अब्रह्मचर्य की विरति आ जाती है । इस बारे में तनिक अधिक विचार करने पर देखा जा सकता है कि प्राचीन समय में 'परिग्रह' शब्द का इतना विशाल अर्थ होता था अथवा वह शब्द ऐसा अनेकार्थक था कि उसमें पत्नी का समावेश भी हो जाता था । इतना ही नहीं, संस्कृत शब्दकोष तथा महाकवियों के काव्यों में भी 'परिग्रह' शब्द पत्नी के वाचकरूप से प्रयुक्त हुआ है । जैसे की - अमरकोष के नानार्थ वर्ग में'पत्नीपरिजनादानमूमशापाः परिग्रहाः' ॥२३७॥ 'परिग्रहः कलत्रे च xx '- अजय हैम अभिधानचिन्तामणि के तृतीय काण्ड में'xx जाया परिग्रहः' ॥२७६॥ हैम अनेकार्थसंग्रह के चतुर्थ काण्ड में'परिग्रहः परिजने पन्याम्' ॥३५३॥ कालिदास के रघुवंश में.. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४१७ विवेचन पहले किया जा चुका है । वहाँ यह कहा गया है कि मानव-समाज में परस्पर सौमनस्य स्थापित करने का मार्ग अनेकान्तदृष्टि के योग से सरल बनता है। अहिंसा से अनेकान्तदृष्टि स्फुरित होती है और अनेकान्तदृष्टि के योग से अहिंसा जागरित होती है। इस तरह इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं । हिंसा में असत्य, चोरी आदि सब दोषों और सब बुराइयों का समावेश हो जाता है । हिंसा, झुठ, चोरी शाठ्य, धूर्तता आदि सब दोष परिग्रह के आवेश में से ही उत्पन्न होते हैं । यही समाज में विषमता पैदा करता है और वर्गविग्रह जगाकर दंगे-फिसाद मचाता है । समग्र पापों, सब प्रकार की स्वच्छन्दता और विलासोन्मादों का मूल यही है । अहिंसा की साधना परिग्रह के समुचित नियन्त्रण के बिना अशक्य होने से परिग्रह का नियमन जीवन-हित की तथा समाज-हित की प्रथम भूमिका बनता है । इसीलिये गृहस्थवर्ग तथा समग्र-समाज के कल्याण के लिये इस महात्मा ने परिग्रहपरिणाम पर खास भार दिया है । इसके बिना वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख-शान्ति एवं मैत्रीभाव स्थापित नहीं हो सकता । इस तरह लोगों का व्यावहारिक जीवन उज्ज्वल तथा सुखशान्तिमय बने इस दिशा में इस सन्तपुरुष के उपदेश का प्रचार व्यापक बना है । आजकल साम्यवाद और समाजवाद "का त्वं शुभे ! कस्य परिग्रहो वा ?"- सर्ग १६, श्लोक ८ [तू कौन है ? किसकी पत्नी है ?] इस पर से देखा जा सकता है कि प्रभु पार्श्वनाथ की संस्था में स्वीकृत चार याम (महाव्रत) में से 'परिग्रहविरति' से द्रव्यादि और पत्नी (मैथुन) उभय का त्याग गृहीत होता था वह परिग्रह शब्द के द्रव्यादि और पत्नी ये दो अर्थ सीधे तौर पर होने से सीधे तौर पर गृहीत होता था । 'ठाणांग' सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश में (पत्र २०१ में ) भगवान् महावीर से पहले के समय में प्रचलित चार महाव्रतों का उल्लेख आता है । उसमें चौथे महाव्रत का निर्देश 'बहिद् धादाणाओ वेरमणं 'शब्द से किया गया है । इस शब्द में आए हुए 'बहिद्धादाण' का अर्थ टीकाकार अभयदेवसूरि ने दो तरह का किया है : (१) 'बहिद्धा' (बहिर्धा) अर्थात् मैथुन और 'आदाण' (आदान) अर्थात् परिग्रह । इस प्रकार ये दोनों 'बहिद्धादाण' शब्द से लिये हैं, और (२) दूसरी तरह के अर्थ में इस समूचे शब्द का अर्थ 'परिग्रह' बतलाया है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जैनदर्शन का आन्दोलन विश्वव्यापी हो गया है, परन्तु साम्यवाद के विशुद्ध स्वरूप का प्रचार परिग्रहपरिणाम और लोकमैत्री की समुन्नत उद्घोषणा करके आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ रूप से महावीर ने किया था, यह एक ऐतिहासिक सत्य है । इस तपोनिधि मुनीश्वर ने अपने समय में फैली हुई दास-दासी की कुप्रथा को दूर करने के लिये कठोर तपश्चर्या करके लोगों को समानता का पाठ सिखलाया है । धर्म के नाम पर और स्वर्गादि के प्रलोभन पर फैले हुए अज्ञान कर्मकाण्ड शास्त्रव्यामोह तथा ईश्वरविषयक भ्रामक विचारों के सामने सुसंगत तत्त्वज्ञान उपस्थित करके लोगों की विचार-सुधि को परिष्कृत किया है । इस अहिंसामूर्ति धर्माचार्य ने योगादि कर्मों में धर्म के नाम पर फैली हुई भयंकर पशु-हिंसा का सामना अपने तप एवं चारित्र के असाधारण बल द्वारा वात्सल्यपूर्ण प्रवचन और उपदेश द्वारा करके जबरदस्त क्रान्ति की है। इसके परिणामस्वरूप हिंसारूप रोग के फैलाव पर प्रहार हुआ है और अहिंसा की भावना का प्रचार हुआ है । इस दिशा में उनके समकालीन महर्षि बुद्ध का प्रचारकार्य भी अत्यन्त प्रशंसनीय है । वीरो यदाजायत, भारतस्य स्थितिर्विचित्रा समभूत तदानीम् । मूढक्रियाकाण्डविमोहजाले निबध्यमाना जनता यदाऽऽसीत् ॥२८॥ ~महावीर का जन्म हुआ उस समय भारतवर्ष की स्थिति विचित्र थी । उस समय जनता अज्ञान-कर्मकाण्ड के मोहजाल में फँसाई जा रही थी । 'धर्माग्रणीभि'च जनौ यदाऽन्धश्रद्धावटेऽभूत् परिपायमानः । उच्चब्रूवा नीचपदेऽवगम्य परान् यदानल्पमदूदवंश्च ॥२९॥ -और, जिस समय धर्म के 'ठेकेदार' लोगों को अन्धश्रद्धा के गड्ढे में पटक रहे थे, और जिस समय अपने आपको 'उच्च' माननेवाले दूसरों को 'नीच' समझकर बहुत सता रहे थे। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४१९ भगवान् महावीर ने लोगों से कहा किकम्मुणा बंभणो होई कम्मणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥३२॥ -उत्तराध्यनसूत्र, २५ वां अध्यन, अर्थात्-कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है । इस तरह महावीर (और बुद्ध) ने 'कर्मणा वर्णः' के सिद्धान्त पर ही जोर दिया है और यही सिद्धान्त उत्तम व्यवस्थापक है । इसे न मानने से और इसके स्थान पर 'जन्मना वर्णः' के अपसिद्धान्त को स्थापित कर देने से भारतीय जनता की दुर्दशा हुई है । उस समय उच्चनीचभाव की संकुचित वृत्ति इतनी कट्टर और कठोर रूप से फैली हुई थी कि बेचारे नीच और हलके गिने जाने वाले मनुष्यों यदाऽपजहुर्महिलाधिकारानन्यायतः पौरुषगर्वमत्ताः । धर्माय यज्ञादिषु भूरिहिंसा पापानलः प्रज्वलितो यदाऽऽसीत् ॥३०॥ -और, जिस समय पौरुष के मद से मत्त पुरुष अन्याय से स्त्रीजाति के अधिकार छीन रहे थे और जिस समय धर्म के नाम पर यज्ञादि से पशुवध का भयंकर पापानल फैला हुआ था । एतादृशे भारत-दौःस्थ्यकाले देवार्यदेवः स 'विदेह'-भूमौ । ख्याते पुरे 'क्षत्रियकुण्ड' नाम्नि प्राजायत क्षत्रियराजगेहे ॥३१॥ (चतुर्भिः कलापकम्) –भारत की ऐसी दुर्दशा के समय 'देवार्य' देव (वर्धमान अथवा महावीर) उस समय के प्रसिद्ध 'विदेह' की राजधानी 'वैशाली' नगरी के उपनगर क्षत्रियकुण्ड' नगर में क्षत्रिय राजा के राजमहल में अवतीर्ण हुए । -लेखक की 'वीरविभूति' काव्य में से Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैनदर्शन पर अतिनिघृण अत्याचार किये जाते थे । उनके लिये धर्म के द्वार बन्द कर दिए गए थे । इसके विरुद्ध इस महात्मा ने उच्चो गुणे कर्मणि यः स उच्चो नीचो गणे कर्मणि यः स नीचः । शूद्रोऽपि चेत् सच्चरितः स उच्चो द्विजोऽपि चेद् दुश्चरितः स नीचः ॥ ---जो गुण-कर्म में उच्च है वह उच्च है और जो गुण-कर्म में नीच है वह नीच है । तथाकथित शूद्र भी यदि सच्चरित हो तो वह उच्च है और ब्राह्मण यदि दुश्चरित हो तो वह नीच है। इस प्रकार उद्बोधन करके विचार एवं वर्तन के सुसंस्कार पर ही उच्चत्व की प्रतिष्ठा है ऐसा लोगों को समझाया । केवल वचन से ही न समझाकर दलित एवं अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों के लिये भी अपनी धर्मसंस्था के द्वार उन्होने खोल दिए । जैन-दीक्षा लेकर ऋषि-महर्षि-महात्मा बने हुए ऐसे मनुष्यों के चरित उत्तराध्ययन सूत्र के १२, १३वें अध्यन में आते हैं । उस समय स्त्री का स्थान कितना नीचा था और वैदिक धर्म की तत्कालीन प्रणालिका ने स्त्री का कितना तिरस्कार किया था यह हम उस समय के वैदिक धर्मशास्त्रों पर से जान सकते हैं । ऐसी हालत में अर्हन महावीर ने विश्व के समक्ष स्त्री को पुरुष की समकक्ष उद्घोषित किया और १. 'अथ हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां क्षोत्रप्रतिपूरणम्, उदाहरणे जिह्वाच्छेदो, धारणे शरीरभेदः ।' -गौतमधर्मसूत्र अर्थात्-वेद सुननेवाले शूद्र के कानों में सीसा और लाख भर देना, वह यदि वेद का उच्चारण करे तो जीभ काट डालना और याद कर ले तो उसका शरीर काट डालना। 'न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् ।। न चास्योपदिशेद् धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत् ॥' -वसिष्ठधर्मसूत्र अर्थात्-शूद्र को ज्ञान न देना, यज्ञ का बचा-खुचा न देना, यज्ञ का प्रसाद न देना और उसे धर्म को उपदेश तथा व्रत का आदेश न देना । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४२१ धार्मिक क्षेत्र में पुरूष के समतुल्य रखकर उसे संन्यास-दीक्षा लेने का अधिकार प्रदान किया' ।' श्रमण भगवान् महावीर का धर्मचक्र उस समय व्यापक रूप से क्रान्तिकारक बना था । उन्होनें जिस धर्ममार्ग का प्रकाशन अथवा विकास किया था उसे सच्चे रूप में हम मानवधर्म कह सकते हैं । यह मानवधर्म जगत् के सब प्राणियों के साथ न्याय एवं समदृष्टि रखता है । अतः विश्व का कोई भी मनुष्य अपने स्थिति-संयोगों के अनुसार इसका अनुसरण कर सकता है-~-इसका पालन कर सकता है । यह मार्ग जिन द्वारा प्रकाशित अथवा प्रचलित होने से ही 'जैन धर्म' कहलाता है' । बाकी इसकी वास्तविकता तथा व्यापकता को देखते हुए यह सर्वजनस्पर्शी और सर्वजनहितावह मार्गदर्शक धर्म होने के कारण इसे 'जैनधर्म' कहते हैं । विश्वबन्धु महावीर ने नामधारी अथवा ढ़ीलेढाले श्रमण, ब्राह्मण, मुनि, और तापस इन सब को खरी खरी सुनाई है । उत्तराध्यसूत्र के २५वें अध्यन में कहा है कि न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥३०॥ अर्थात्-सिर मुंडाने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, ऊँकार जाप अथवा आलाप मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर अथवा वल्कल धारण करने से कोई तापस नहीं बनता । किसी भी मनुष्य के आन्तरिक जीवन का योग्य परिचय प्राप्त किए बिना केवल बाह्य वेष, बाह्य दिखावा, बाह्यक्रिया अथवा बाह्य चेष्टाओं से आकृष्ट होकर उस मनुष्य में इन वेष आदि से सूचित गुण भी अवश्य हैं ऐसा बिना विचारे मान लेने में ठगाए जाने का जो भय है उसके सामने यह १. महावीर ने दासी बनी हुई राजकुमारी चन्दनबाला को संन्यासिनी बनाकर (सर्वविरति चारित्र की दीक्षा देकर) इस आर्य महिला से साध्वीसंस्था का प्रारम्भ किया था । २. और 'जिन' किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है; परन्तु किसी भी पूर्णद्रष्टा वीतराग ज्ञानी का नाम है । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैनदर्शन श्लोक लालबत्ती धरता है । इसके बाद का श्लोक जो इस बारे में विशद प्रकाश डालता है, यह है— समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥३१॥ अर्थात् — समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान (विवेकज्ञान) से मुनि होता है और तप से (विवेकयुक्त, निष्काम तथा स्वपरहितसाधक तप से) तापस होता है । [समता का अर्थ है सब प्राणियों की ओर समानता का भाव रखकर आत्मीयता धारण करना तथा सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय के प्रसंग उपस्थित होने पर मन की समतुला न खोकर उसे स्थिर रखना । और, ब्रह्मचर्य का अर्थ है पौद्गलिकसुखोपभोग में लुब्ध न होकर और मन का निरोध करके ब्रह्म में (परमात्मा में अथवा परमात्मपद पर पहुँचाने वाले कल्याणमार्ग में) विचरण करना — विहरण करना - रममाण होणा ।] अनुभव से ज्ञात होता है कि जैनदर्शन आध्यात्मिक दर्शन है । इसके दार्शनिक तत्त्वज्ञान का भी झुकाव सम्पूर्णतया आध्यात्मिक श्रेयश्चर्या की ओर है । इसके विविधविषयक समग्र वाङ्गमय का एकमात्र उद्देश वीतरागता की प्राप्ति के मार्ग पर चढाने का है; क्योंकि इसका स्पष्ट, भारपूर्वक तथा पुनः पुनः यही कहना है कि यथार्थ कल्याण की पूर्णता वीतरागता पर अवलम्बित है । इसकी मुख्य सीख यही है कि— जिस किसी तरह राग-द्वेष कम हों, नष्ट हों, उसी तरह बरतो ! उसी तरह प्रवृत्ति करो ! उसी तरह आचरण रखो ! १. किं बहुणा ? इह जह-जह रागद्दोसा लहु विलिज्जन्ति । तह तह पयट्टिअव्वं एसा आणा जिणिदाणं ॥ यशोविजयजीकृत अध्यात्ममतपरीक्षा की अन्तिम गाथा । दोसा जेण निरुब्भंति जेण खिज्जंति पुव्वकम्माई । सो सो मोक्खोवाओ रोगावत्थासु समणं व ॥ - बृहत्कल्प, पृ. ९३६, गा. ३३३१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ खण्ड ४२३ इसके समग्र वाङ्गमय का चरम और परम सार सूचित करने वाली यह सीख स्पष्टरूप से कहती है कि जिस किसी वाद से [द्वैत अथवा अद्वैत, ईश्वरकर्तृत्व अथवा प्राकृतिक कर्तृत्व आदि विभिन्न वादों में से जिस किसी एक वाद का अवलम्बन लेने से] और जिस किसी क्रियापद्धति अथवा आचारमार्ग से सच्चारित्र की साधना होती हो, सच्चारित्र की साधना में अनुकूलता प्रतीत होती हो और वीतरागता की ओर प्रगति हो सकती हो उस रीति से चारित्र की साधना करो और वीतरागता की दिशा में प्रगति करो'मित्ती मे सव्वभूएसु' को जीवनमंत्र बनाकर, अर्थात् सर्वभूतमैत्री के सद्गुण का विकास करते रहो । अर्थात्-जैसे रोगावस्था में जिस-जिस उपचार से शमन हो सके वे सभी उपचार रोग की शान्ति में उपायरूप हैं, उसी तरह मोक्षसाधना में जिस-जिस साधन से दोषों को रोका जा सकता हो और जिस-जिस साधन से पहले के कर्मों का क्षय किया जा सकता हो वे सभी साधन मोक्ष के उपाय हैं । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जैनदर्शन उपसंहार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष इन नौ तत्त्वों का; जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल इन छह द्रव्यों का तथा सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के सहयोगरूप मोक्षमार्ग, गुणस्थान, अध्यात्म, गृहस्थधर्म, न्याय, स्याद्वाद और नय इतनी मुख्य बातों का यथाशक्ति विवेचन इस पुस्तक में किया गया है । तृतीय खण्ड 'प्रकीर्णक' में और चतुर्थ खण्ड 'कर्मविचार' में विविध विचारधारा पाठकों के सम्मुख रखी गई है। अब मेरा कथन समाप्त होता है । अन्त में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि इस पुस्तक के पठन के परिणामस्वरूप पाठकों के मन में धर्म एवं तत्त्वज्ञान के बारे में अनेकानेक जिज्ञासाएँ जाग्रत हो जिससे वे महान् पुरुषों के महान् ग्रन्थों का अवलोकन करने के लिये उत्सुक बनें । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मतत्त्वालोकः महात्मविभूतिः जीवनामृतम् जीवनहितम् जीवनभूमि: अनेकांतविभूतिः दीनान्दनम् भक्तगीतम् विजयधर्मसूरि श्लोकाञ्जलिः महामानव - महावीर कल्याणभावना कल्याणमार्गमीमांसा वीरविभूति: जीवनपाठोपनिषद् भक्तभारती विद्यार्थीजीवनरश्मि आश्वासनम् आत्महितोपदेशः उपदेशसारः न्यायकुसुमांजलिः आत्मतत्त्वप्रकाश: आर्तनादः न्यायालंकारः कल्याणभारती अज्झत्ततत्तालोओ संस्कृत धर्मशिक्षा न्यायशिक्षा जैनसिद्धांत दिग्दर्शन प्राकृत कल्याणभावना कल्याणमार्गमीमांसा विद्यार्थिजीवनरश्मि ન્યાયવિશારદ-ન્યાયતીર્થ મુનિશ્રી ન્યાયવિજયજી મ.નું સાહિત્ય ગુજરાતી हिन्दी જૈનદર્શન કલ્યાણસાધનદિશા ધર્મની સમજ શ્રીકૃષ્ણ ગીતાના પ્રારંભ પર એક સમીક્ષમાણ દૃષ્ટિ ગીતાનું નિષ્કામ કર્મ પ્રકાશની હડફેટમાં અંધકાર તપોવનવિહાર સ્ત્રીજીવનની વિકાસદિશા વાણીવિહાર પવિત્ર સંદેશ ઉપદેશમૌક્તિકમાલા મહાવીરદેવનો ગૃહસ્થાશ્રમ (અનુવાદ) ઉપદેશસરિતા જીવનનું ઊર્ધ્વકરણ આત્મભાવદિગ્દર્શન ગાંધીજી ઉપદેશ સરિતા (અંગ્રેજી અનુવાદયુક્ત) English The Nectar of Life The Salutary Instruction The Devotional Song The Reflections on the Auspicious path The Good Contemplations A Ray to the Student Life The Homage to the Memory of the great saint Vijayadharma Suri A Cry before God The Auspicious Discourse Lord Mahavira Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारदाबहेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर ' दर्शन बंगलो', शाहीबाग, अहमदाबाद उपलब्ध प्रकाशन 1. Catalogue of the Manuscripts of Pātan Jain Bhandara Parts I, II, III, IV 2. Studies in Jaina Literature 3. Makaranda 4. Amrita 5. A History of The Canonical Literature 6. A Treasury of Jaina Tales 7. Nyāya and Jaina Epistomology 8. Nirgrantha Vol. II 9. Nirgrantha Vol. III 10. Dharma-beej 11. Concentration 12. धर्मरत्नकरण्डक 13. मूलशुद्धिप्रकरणम् - १/२ 14. मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र 15. पातञ्जल योगदर्शन तथा हारिभद्रीय योगविंशिका 16. श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनम् 17. श्रमण भगवान् महावीर 18. वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना उपदेशमाला 19. 20. उसाणिरुद्धं 21. चन्द्रलेखा विजय प्रकरण 22. कल्पान्तर्वाच्य 23. न्यायावतार सूत्र 24. नयकर्णिका 25. निर्ग्रन्थ सैतिहासिड तेज- समुय्यय भाग - १/२ 26. सुरतनां विनासयो 27. पाटानां विनासयो 28. भातनां विनासयो 29. शोधभोजनी पगहंडी 30. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( सभाष्य ) 31. 5वि समयसुन्दर : खेड अभ्यास 32. महावीर वाशी 33. सप्त 34. प्राचीन गुरातना सां. इतिहासनी साधनसामग्री 35. शब्दयर्या 36. समहावादनी चैत्यपरिपाटीमो 1600/680/ 600/ 600/ 250/ 200/ 200/ 200/ 300/ 100/ 30/ २५०/ ४५०/ १५०/ १२०/ १००/ २००/ १००/ १००/ ७०/ ५०/ ५०/ २५/ २५/ ८००/ २५०/ २५०/ 200/ १५०/ १५०/ १२५/ ७५/ हुहु/ ४०/ ४०/ 30/ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ODE