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पंचम खण्ड
३३७ . वस्तुस्वरूप की जिज्ञासावाले किसी ने प्रश्न पूछा कि 'घड़ा अनित्य है ?' तो इसके उत्तर में यदि ऐसा ही कहा जाय कि 'हाँ, घड़ा अनित्य ही है', तो यह कथन या तो यथार्थ नहीं है या फिर अपूर्ण है; क्योंकि यह कथन यदि सम्पूर्ण विचारदृष्टि के परिणामस्वरूप कहा गया हो तो वह यथार्थ नहीं है । क्योंकि घड़ा (कोई भी वस्तु) सम्पूर्ण दृष्टि से विचार करने पर अनित्य होने के साथ ही साथ नित्य भी सिद्ध होता है । और यदि यह कथन अमुक दृष्टि से कहा गया हो तो इस वाक्य में 'यह कथन अमुक दृष्टि से है' ऐसा सूचन करनेवाला कोई शब्द रखना चाहिए । इसके बिना यह उत्तर अधूरा सा लगेगा । इस पर से समझा जा सकता है कि यदि वस्तु का कोई भी धर्म बतलाना हो तो इस तरह बतलाना चाहिए जिससे दूसरा धर्म अथवा उसका प्रतिपक्ष धर्म, जो उसमें सम्भव हो उसका अस्तित्व उस वस्तु में से हटने न पाए। मतलब कि किसी भी वस्तु को जब हम नित्य बतला रहे हों तब उसमें एसा कोई शब्द रखना चाहिए जिससे उस वस्तु में रहे हुए अनित्य धर्म का अभाव सूचित न होने पाए । इसी तरह किसी भी वस्तु को अनित्य बतलाते समय उसमें ऐसा कोई शब्द रखना चाहिए जिससे उस वस्तु में रहे हुए नित्यत्वधर्म का अभाव सूचित न हो । इसी तरह वस्तु को सत्, असत् आदि रूप से बतलाते समय भी समझना। ऐसा शब्द संस्कृत भाषा में 'स्यात्' है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ उपर्युक्त तरीके से 'अमुक अपेक्षा से' होता है । 'स्यात्' शब्द अथवा उसी अर्थवाला संस्कृत भाषा का 'कथंचित्' शब्द अथवा 'अमुक अपेक्षा से'—इस तरह की आयोजना करके 'स्याद अनित्य एव घटः' [अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है] ऐसा कथन करने से घट में अपेक्षान्तर से प्राप्त होनेवाले नित्यत्वधर्म को बाध नहीं आता ।
यह तात्त्विक निरूपण है । व्यवहार में ऐसे शब्द का प्रयोग होता भी नहीं और किया भी नहीं जा सकता । व्यवहार तो 'नयवाद है । वह तो जिस प्रकार होता हो उसी प्रकार होगा । जो बात विवक्षित हो उसी के निर्देश, उल्लेख अथवा वाणीप्रयोग से बात की जायगी । यह तो सिर्फ वस्तुस्वरूप की तात्त्विक दृष्टि व्युत्पन्न के ख्याल में लाई जाती है ।
हम किसी भी प्रश्न के उत्तर में या तो 'हाँ' (हकारात्मक) कहते
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