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जैनदर्शन सप्तभङ्गी
हम ऊपर देख चुके हैं कि स्याद्वाद अथवा अनेकान्तदर्शन एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टि से अस्तित्वनास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों का समन्वय करता है । इस पर से समझा जा सकता है कि वस्तुस्वरूप जिस प्रकार का हो उस तरह उसकी विवेचना करनी चाहिए ।
अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः । बुवाणो ब्रह्म वेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥५०॥
--यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद्, प्रथम अधिकार । अर्थात्-ब्रह्म को व्यवहार से बद्ध और परमार्थ से अबद्ध माननेवाला वेदान्ती स्याद्वाद को मान्य रखता है। सादे उदाहरण लेकर भी देखें
कस्यचिद् गुणकृद् दुग्धं दोषकारि च कस्यचित् । एकस्यापि दशाभेदे स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥ एकोऽर्थ उपयोगी चानुपयोगी च जायते । अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥ एकमेव भवेद् वस्तु हानिकृल्लाभकारि च । अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते ॥
-लेखक न्यायविजय. अर्थात्-दूध किसी को गुणकारी तो किसी को दोषकारी होता है। इतना ही नहीं, एक ही मनुष्य को एक समय या एक अवस्था में गुणकारी तो दूसरे समय या दूसरी अवस्था में दोषकारी होता है । एक ही पदार्थ एक ही मनुष्य को एक समय उपयोगी होता है और दूसरे समय अनुपयोगी होता है। एक ही वस्तु एक ही मनुष्य को एक अवस्था में लाभकर होती है तो दूसरी अवस्था में हानिकर होती है । स्याद्वाद के ये सब सरल निदर्शन हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि दूध गुणकर है अथवा हानिकर ? किसी के ऐसे प्रश्न का उत्तर 'गुणकर है' ऐसा एकान्तर रूप से कैसे दिया जा सकता है ? और 'हानिकर' है ऐसा भी एकान्तरूप से नहीं दिया जा सकता । अतः अनेक अपेक्षाओं को ख्याल में रखकर 'गुणकारी भी है और हानिकर भी है' इस तरह कहना योग्य समझा जायगा । हाँ, निश्चित अवस्था अथवा अवसर को लक्ष में रख कर कहना हो तो उस अवस्था अथवा अवसर के अनुरूप जैसा हो वैसा करना चाहिए ।
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