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पंचम खण्ड
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ऐसे स्याद्वाद के निश्चयद्योतक 'एव' कार से युक्त वाक्यों का-अमुक अपेक्षा से घट सत् ही है, अमुक अपेक्षा से घट असत् ही है और अमुक अपेक्षा से घट अनित्य ही है और अमुक अपेक्षा से घट नित्य ही है-ऐसा निश्चयात्मक अर्थ समझने का है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'शायद' अथवा ऐसे ही किसी संशयदर्शक शब्द से करने का नहीं है । निश्चयरूप में संशयसूचक शब्द का काम ही क्या ? घट को घटरूप से जानना जितना निश्चयरूप है उतना ही निश्चयरूप घट को भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से अनित्य
और नित्य समझना भी है । इस पर से स्याद्वाद को अव्यवस्थित अथवा अस्थिर सिद्धान्त भी नहीं कह सकते ।
१. दर्शनशास्त्र के विशाल अभ्यासी को विदित है कि भारतीय प्राचीन अन्यान्य दर्शनों ने
भी अनेकान्तदृष्टि का अनुसरण किया है। पृथ्वी को परमाणुरूप से नित्य और कार्यरूप से अनित्य माननेवाले तथा द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि धर्मों का सामान्य-विशेष रूप से स्वीकार करनेवाले नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शन ने स्याद्वाददृष्टि ग्रहण की है और
इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः ।। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥
___-हेमचन्द्र, वीतरागस्तोत्र । अर्थात्-सत्त्व, रज और तम इन परस्पर विरुद्ध तीन गुणों से युक्त प्रकृति के स्वीकार में सांख्यदर्शन ने स्याद्वाद को मान्य रखा है । तथा
'एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ।' पातंजल योगदर्शन के तृतीय पाद के इस १३वें सूत्र से एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न धर्मों, लक्षणों और अवस्थाओं के परिणामों की सूचना करता हुआ योगदर्शन स्याद्वाद का ही चित्र उपस्थित करता है । तथा ।
जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् ।। भट्टो वाऽपि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥४९॥
-यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद्, प्रथम अधिकार । अर्थात्-जाति और व्यक्ति उभयरूप से वस्तु को अनुभवोचित कहनेवाले कुमारिल भट्ट अथवा मुरारि मिश्र स्याद्वाद का ही आदर करते हैं । ५२२-३वें पन्ने में कुमारिल भट्ट का अनेकान्तदर्शन बतलाया है । तथा
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