SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ जैनदर्शन कर सकता । रात में काली रस्सी पर दृष्टि पड़ने पर 'यह सर्प है या रस्सी' ऐसा सन्देह होता है । दूर से पेड़ के तने को देखने पर 'यह पेड़ होगा या मनुष्य' ऐसा सन्देह पैदा होता है । इस प्रकार के सन्देह के अनेक उदाहरण प्रसिद्ध हैं । उक्तसंशय में सर्प और रस्सी, अथवा तना या मनुष्य इन दोनों वस्तुओं में से एक भी वस्तु निश्चित नहीं होती । एक से अधिक वस्तुओं की ओर दोलायमान बुद्धि जब किसी एक वस्तु को निश्चयात्मक रूप से समझने में असमर्थ होती है तब संशय होता है । संशय का ऐसा स्वरूप स्याद्वाद में नहीं बतलाया जा सकता । स्याद्वाद तो एक वस्तु को भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से देखने को, अनेकांगी अवलोकन द्वारा निर्णय करने को कहता है । विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से देखने पर समझ में आता है कि एक ही वस्तु अमुक अपेक्षा से 'अस्ति' है यह निश्चित बात है और दूसरी दृष्टि द्वारा 'नास्ति' है यह भी निश्चित बात है । इसी भाँति एक ही दृष्टि से नित्य रूप से भी निस्चित है और दूसरी दृष्टि से अनित्य रूप से भी निश्चित है । इस तरह एक ही पदार्थ में भिन्न-भिन्न अपेक्षादृष्टि से भिन्न-भिन्न धर्म ( विरुद्ध जैसे प्रतीत होनेवाले धर्म भी ) यदि संगत प्रतीत होते हों तो उनके प्रामाणिक स्वीकार को, जिसे स्याद्वाद कहते हैं, संशयवाद नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः स्याद्वाद संशयवाद नहीं, किन्तु सापेक्ष निश्चयवाद है । 'स्यादस्त्येव घटः', 'स्यान्नास्त्येव घटः ' 1 ' स्यान्नित्य एव घट:', 'स्यादनित्य एव घटः' । I किया है उसका मूल रहस्य के साथ सम्बन्ध नहीं हैं । यह निश्चित है कि विविध दृष्टिबिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किए बिना कोई भी वस्तु पूर्णरूप से समझ में नहीं आ सकती । इसलिये स्याद्वाद का सिद्धान्त उपयोगी एवं सार्थक है । महावीर के सिद्धान्त में बताए गये स्याद्वाद को कुछ लोग संशयवाद कहते हैं, परन्तु मैं यह नहीं मानता । स्यादवाद संशयवाद नहीं है, वह तो वस्तुदर्शन की व्यापक कला हमें सिखाता है । [यह उल्लेख 'जैनेतर दृष्टिए जैन' नामक गुजराती पुस्तक में प्रगट हुआ है ।] काशी के स्वर्गगत महामहोपाध्याय श्रीराममिश्र शास्त्री ने अपने 'सुजन - सम्मेलन' नामक व्याख्यान में स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद की युक्तियुक्तता और उपयोगिता उपपत्तिपुरःस्सर बतलाई है । उनका यह व्याख्यान स्वतन्त्र पुस्तिका रूप से भी प्रगट हुआ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy