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________________ ३३३ पंचम खण्ड कहा जाता है । यह एक तरफ से देखनेवाली एकान्तदृष्टि से नही हो सकता, किन्तु अनेक तरफ से देखनेवाली अनेकान्तदृष्टि से ही हो सकता है I अनेकान्तदृष्टि वस्तु के अनेक धर्मों को देखती है, भिन्न-भिन्न अपेक्षा से वस्तु के सम्भावित अनेक धर्मों का वह अवलोकन कर सकती है और इससे अर्थात् वस्तु को अनेक दिशाओं से जाँचने से वस्तु के स्वरूप की यथायोग्य स्पष्टता हो सकती है । ऐसी दृष्टिवाला मनुष्य दूसरे मनुष्य का दृष्टिबिन्दु और उसकी अपेक्षादृष्टि समझ सकता है, उसकी वह परीक्षा कर सकता है और यदि वह अबाधित हो तो उसका समन्वय करने का वह प्रयत्न कर सकता है । विविध दृष्टिबन्दुओं द्वारा शक्य समन्वय करके भिन्न अथवा विरुद्ध दिखाई देनेवाले मतों का समुचित सामजस्य स्थापित करना यह अनेकान्तदृष्टि का स्वरूप है । इस पर से इस दृष्टि की व्यापकता, महत्ता और उपयोगिता समझी जा सकती है । इस उदार दृष्टि के पवित्र बल से ही मतसंघर्षजन्य कोलाहल शांत होकर मानवसमाज में परस्पर समभाव बढ़ता है । इस समभाव अथवा साम्य का प्रचार ही अनेकान्तवाद का उद्देश है । अतः इस सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि अनेकान्तवाद समन्वयवाद है और उसमें से उत्पन्न होनेवाला जो कल्याणभूत फल वह साम्यवाद अर्थात् समभाव है । इस समभाव में से व्यापक मैत्रीभाव फलित होने पर मनुष्य भूमि कल्याणभूमि बन सकती है । स्याद्वाद के बारे में कुछ लोगों का एसा कहना है कि वह निश्चयवाद नहीं है, किन्तु संशयवाद है; अर्थात् एक ही वस्तु को नित्य भी मानना और अनित्य भी मानना, अथवा एक ही वस्तु को सत् भी मानना और असत् मानना संशयवाद नहीं तो और क्या है ? परन्तु यह कथन अयुक्त है ऐसा अब तक के विवेचन पर से जाना जा सकता है । जो संशयवाद के स्वरूप को जानता है वह इस स्याद्वाद को संशयवाद कहने का साहस कभी नहीं १. गुजरात के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री आनन्दशंकर बापुभाई ध्रुव 'स्याद्वाद' सिद्वान्त के बारे में अपना अभिप्राय देते हुए कहते थे कि स्याद्वाद सिद्धान्त का अवलोकन करके उनका समन्वय करने के लिये स्थापित किया गया है । स्याद्वाद एकीकरण का दृष्टिबिन्दु हमारी समक्ष उपस्थित करता है । शंकराचार्य ने स्याद्वाद के ऊपर जो आक्षेप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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