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जैनदर्शन
का हुआ । इसीलिये 'स्याद्वाद' का दूसरा नाम 'अनेकान्तवाद" भी है । 'अनेकान्त' शब्द में 'अनेक' और 'अन्त' ऐसे दो शब्द हैं । इनमें से 'अन्त' का अर्थ यहाँ पर धर्म, दृष्टि, दिशा, अपेक्षा- ऐसा करने का है । इस पर अनेकान्तवाद का अर्थ अनेक दृष्टियों से, विविध दिशाओं से, भिन्न-भिन्न अपेक्षा से (वस्तु का) अवलोकन अथवा कथन करना होता है । इस तरह 'स्याद्वाद' और अनेकान्तवाद' ये दोनों शब्द एकार्थक हैं । इस प्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ अथवा उसका रहस्य उसके नाम पर से ही झलक रहा है । एक ही दृष्टि से, एक ही पहलु से वस्तु को देखना इसे एकान्तदृष्टि कहते हैं । और इसलिये यह अपूर्ण दृष्टि है; जबकि अनेक दिशाओं से, भिन्नभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से वस्तु का अवलोकन करनेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है । अतः वह विशाल और व्यापक दृष्टि है । इससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है ।
जिस प्रकार हाथी के सिर्फ एक-एक अवयव का ही स्पर्श करने से हाथी का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं हो सकता, उसी प्रकार वस्तु के सिर्फ एक-एक अंश का ही स्पर्श करने से उसका यथार्थ स्वरूप अवगत नहीं हो सकता । हाथी का स्वरूप जानने के लिये उसके मुख्य-मुख्य सभी अंशों का स्पर्श करना आवश्यक है । उसी प्रकार वस्तु की तत्त्वतः पहचान के लिये उसके सम्भवित एवं शक्य सभी स्वरूप जानने चाहिए । एक ओर चाँदी और दूसरी ओर सोने से मढी हुई ढ़ाल को चाँदीवाली दिशा की ओर से देखनेवाला चाँदी की और सोनेवाली दिशा की ओर से देखनेवाला सोने की यदि कहें तो वह पूर्ण सत्य नहीं है, किन्तु यथास्थित रूप से अंशत: चाँदी की और अंशत: सोने की कहने में ही पूर्ण सत्य है, उसी तरह वस्तु का स्वरूप जैसा हो वैसा समझना और कहना यह यथार्थ ज्ञान और यथार्थ कथन
१. 'स्यात्' इत्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् । ततः स्याद्वाद : ' - अनेकान्तवादः, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् ।
हेमचन्द्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, दूसरा सूत्र. अर्थात्–'स्यात्' यह अव्यय है और वह अनेकान्त अर्थ का द्योतक है । अतः स्याद्वाद यानी अनेकान्तवाद अर्थात् नित्य- अनित्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तु का स्वीकार ।
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