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पंचम खण्ड
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इसी प्रकार आत्मा का सदा सहभावी स्वरूप चेतना 'गुण' है और उसके ज्ञान 'दर्शन' जैसे विविध उपयोग 'पर्याय' हैं, अथवा सामान्यतः ज्ञान 'गुण' है और उसके विशेष 'पर्याय' है' ।
प्रत्येक द्रव्य में शक्तिरूप से अनन्त गुण हैं और वे आश्रयभूत द्रव्य से तथा परस्पर एक दूसरे से अविभाज्य हैं । प्रत्येक गुण - शक्ति के भिन्न-भिन्न समय में होनेवाले (त्रैकालिक) पर्याय अनन्त हैं । द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियाँ उत्पन्न तथा नष्ट नहीं होती । अतः द्रव्य और उसकी शक्तियाँ नित्य अर्थात् अनादि - अनन्त हैं, जबकि उनके सब पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होने के कारण अनित्य हैं—सादि सान्त हैं, परन्तु व्यक्तिशः, न कि प्रवाह की अपेक्षा से । प्रवाह को अपेक्षा से तो वे भी अनादि-अनन्त हैं । द्रव्य में अनन्त शक्ति होने से तज्जन्य पर्याय-प्रवाह भी अनन्त ही एक साथ चालू रहता है । भिन्नभिन्न-शक्तिजन्य भिन्न-भिन्न पर्याय एक ही समय में एक द्रव्य में मिलते हैं, परन्तु एकशक्तिजन्य भिन्न-भिन्न समयभावी सजातीय पर्याय एक द्रव्य में एक ही समय में नहीं होते । इस तरह एक पुद्गल द्रव्य में रूप, गन्ध आदि भिन्न-भिन्न शक्तियों के भिन्न-भिन्न पर्याय एक ही समय में होते हैं, परन्तु एक रूप-शक्ति के नील, पीत आदि विविध पर्याय एक ही समय में नहीं होते । इसी प्रकार आत्मा में चेतना, सुख, वीर्य आदि शक्तियों के भिन्न-भिन्न विविध पर्याय एक ही समय में नहीं होते हैं, परन्तु एक चेतनाशक्ति के विविध उपयोग — पर्याय तथा दूसरी शक्तियों के दूसरे विविध पर्याय एक समय में नहीं होते; क्योंकि प्रत्येक शक्ति का एक द्रव्य में एक समय में एक ही पर्याय व्यक्त होता है ।
'स्याद्वाद शब्द 'स्यात्' और 'वाद इन दो से बना है । 'स्यात्' अर्थात् अमुक अपेक्षा से - अमुक दृष्टिकोण से । वह (स्यात्) यहाँ पर अव्यय है और अनेकान्त का सूचक है । अत: अनेकान्तरूप से कथन यह अर्थ स्याद्वाद
१. गुणः सहभावी धर्मः Xx पर्यायस्तु क्रमभावी ।'
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वादिदेवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोक अ० ५, सू० ७-८.
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