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जैनदर्शन
स्याद्वाद के एक ओर उदाहरण को देखें । वस्तुमात्र में समान धर्म और विशेष धर्म रहे हुए हैं । भिन्न-भिन्न घोड़ों में 'घोड़ा' 'घोड़ा' ऐसी जो एकाकार (एक जैसी) बुद्धि उत्पन्न होती है वही सूचित करती है कि सब घोड़ों में समान धर्म-सामान्य तत्त्व-समानता-एकरूपता है । परन्तु अनेक घोड़ों में से अपना घोड़ा अथवा अमुक घोड़ा जो पहचान लिया जाता है इस पर से सभी घोड़े एक दूसरे से विशेषता भिन्नता-पृथक्तावाले भी सिद्ध होते हैं । इस तरह सभी वस्तुएँ सामान्य-विशेष स्वरूपवाली समझी जा सकती है । वस्तु का यह सामान्य--विशेष स्वरूप परस्पर सापेक्ष है । इस तरह प्रत्येक वस्तु को सामान्य-विशेष उभयरूप समझना अनेकान्तदर्शन है ।
सामान्य दो प्रकार है : तिर्यक्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य । भिन्नभिन्न अश्वों में 'अश्व' 'अश्व' ऐसी जो एकाकार प्रतीति होती है वह अश्वत्व रूप धर्म को लेकर यह अश्वत्व, जो कि सब अश्वों का एक सामान्य स्वरूप है, 'तिर्यक्सामान्य' है । और एक ही व्यक्ति अथवा पदार्थ में निरन्तर परिवर्तमान पर्यायों में जो सामान्य तत्त्व अनुगत (अनुस्यूत) होता है वह 'ऊर्ध्वतासामान्य' है; जैसे कि सुवर्ण के बने हुए कटक, कुण्डल, कंकण आदि भिन्न-भिन्न आकार के पदार्थों में अनुगत सुवर्ण 'उर्ध्वतासामान्य' है । इसी प्रकार एक ही मनुष्य-व्यक्ति बालक, कुमार, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थाओं में से गुजरता है, फिर भी हमें वह व्यक्ति वही का है ऐसा जो सामान्य तत्त्व का भान होता है वह ऊर्ध्वतासामान्य है।
विशेष दो प्रकार का है : गुण और पर्याय । इसके बारे में भी जरा विस्तार से देखें
कोई पुद्गल रूप [रूप, रस, गन्ध, स्पर्श] के बिना कभी भी नहीं होता । रूप पुद्गल के साथ सदा सहभावी है । परन्तु सामान्यतः रूप पुद्गल के साथ सदा सहभावी होने पर भी नील, पीत आदि विषे वर्ण आदि पुद्गल के साथ सदा सहभावी नहीं हैं । नील, पीत आदि पर्याय-परिणाम बदलते रहते हैं । अतः जो सहभावी है उन्हें 'गुण' और जो क्रमभावी (परिवर्तनशील) हैं उन्हें 'पर्याय' कहते हैं ।
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