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पंचम खण्ड
३२९ परिणमनरूप हैं । एक साथ अनेक वस्तुओं के अनेक परिणमन हो सकते हैं परन्तु उनका काल एक नहीं हो सकता, क्योंकि उनके परिणमन पृथक् पृथक् हैं । घड़ी, घण्टा, मिनट, आदि में भी काल का व्यवहार होता है परन्तु यह स्व-काल नही है । व्यवहार चलाने के लिए घड़ी, घण्टा आदि की कल्पना की गई है।
वस्तु के गुण-शक्ति-परिणाम को 'भाव' कहते हैं । प्रत्येक वस्तु का 'भाव' [स्व-भाव] जुदा-जुदा होता है । एकाधिक वस्तुएँ बिल्कुल समान हो तो उनके स्व-भाव परस्पर समान या सदृश कहे जा सकते हैं, किन्तु एक नहीं कहे जा सकते; क्योंकि एक द्रव्य की गुणव्यक्ति दूसरे में नहीं होती।
इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से 'सत्' (अस्ति) है और वही वस्तु पर-द्रव्य, पर क्षेत्र, परकाल और पर-भाव की अपेक्षा से असत्(नास्ति) है। इस तरह वस्तु अथवा व्यक्ति की 'क्या है' और 'क्या नहीं है। इस प्रकार जब दोनों तरीकों से जाँच की जाती है तब उसका स्वरूप बराबर निर्णीत हो सकता है ! अतः वस्तु सत्-असत् उभयात्मक सिद्ध होती है ।
___घट यदि-स्वरूप (अपने रूप) से भी सत् न हो तो वह सर्वथा असत् बन जायगा और स्व-रूप (अपने स्वरूप) के अतिरिक्त दूसरे के (पट आदि चीजों के) स्वरूप से भी सत् हो तो घट-पटदि सब सर्वद्रव्यरूप बन जाएँगे । इसी प्रकार चेतन आत्मा अपने स्वरूप से सत् है, परन्तु यदि अचेतन द्रव्यरूए से भी सत् बनने लगे तो ? तब तो चेतन आत्मा का विशिष्ट स्वरूप ही रहने न पाए। यहाँ पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी द्रव्यादि स्वरूप ही उसका विशिष्ट स्वरूप है । सर्वथा समान वस्तुओं में भी प्रत्येक वस्तु-व्यक्ति का अपनाअपना व्यक्तित्व, अपना-अपना विशिष्ट स्वरूप भिन्न-भिन्न ही होता है। इस प्रकार अपने विशिष्ट स्वरूप से ही प्रत्येक वस्तु सत् और पर-रूप से असत् है । इस तरह अमुक अपेक्षा से सत्त्व और अमुक अपेक्षा से असत्त्व ये दोनों धर्म चेतन-अचेतन प्रत्येक वस्तु में प्राप्त होते हैं ।
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