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जैनदर्शन द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव-से विचार करने पर घट (और सब पदार्थ) अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सत् है और दूसरों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असत् है । जैसे कि काशी में, शीतकाल में उत्पन्न मिट्टी का काला घड़ा द्रव्य से मिट्टी का है अर्थात् मृत्तिकारूप है, परन्तु जलादिरूप नहीं है; क्षेत्र से काशी में बना हुआ है, दूसरे क्षेत्र का नहीं है; काल की अपेक्षा से शीतकाल में बना हुआ है, परन्तु दूसरी ऋतु का नहीं है; भाव की अपेक्षा से श्याम वर्ण का है, अन्य वर्ण का नहीं है ।
विशेषरूप से देखने पर स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव से द्रव्य सत् है और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से असत् है । सो इस तरह
ज्ञानादिगुणरूप जीव अपने जीवद्रव्यरूप से 'है' (अस्ति), जडद्रव्य के रूप के रूप से 'नहीं है' (नास्ति) । इसी प्रकार घट, अपने घटरूप से है, कपड़े के रूप से नहीं है । हरएक वस्तु स्वद्रव्यरूप से है परद्रव्यरूप से नही है।
द्रव्य के प्रदेशों (परमाणु जैसे अंशों) को 'क्षेत्र कहते हैं । घट के अवयव घट का क्षेत्र है। यद्यपि व्यवहार में आधार की जगह को क्षेत्र कहते हैं, किन्तु वह वास्तविक क्षेत्र नहीं है । जैसे 'दावात में स्याही है' । यहाँ पर व्यवहार से स्याही का क्षेत्र दावात कहा जाता है, लेकिन वास्तव में स्याही
और दावात का क्षेत्र जुदा-जुदा है । यदि दावात कांच का है तो जिस जगह कांच है उस जगह स्याही नहीं है और जिस जगह स्याही है उस जगह कांच नहीं है । यद्यपि कांच ने स्याही को चारों ओर से घेर रखा है, फिर भी दोनों अपनी-अपनी जगह पर हैं । स्याही के प्रदेश-अवयव ही उसका [स्याही का] क्षेत्र है । जीव और आकाश एक ही जगह रहते हैं, परन्तु दोनों का क्षेत्र एक नहीं है । जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र है और आकाश के प्रदेश आकाश का क्षेत्र है ।
वस्तु के परिणमन को 'काल' कहते हैं । जिस द्रव्य का जो परिणमन है वही उसका काल है । प्रातः, सन्ध्या आदि काल भी वस्तुओं के
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