SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ जैनदर्शन उस वस्तु में उस समय वर्तमान न भी हो; परन्तु 'एवम्भूत' नय वह क्रिया उस पदार्थ में जब प्रवर्तमान हो और जब तक प्रवर्तमान रहे तभी और तब तक ही उस शब्द का उस अर्थ में प्रयोग करेगा । शब्द- सूचित क्रिया के अभाव में उस शब्द को उस पदार्थ के लिये अप्रयोज्य कहेगा । इस नय के मन्तव्य के अनुसार प्रत्येक शब्द क्रिया शब्द है । सातों नयों को हमने संक्षेप में देख लिया । नैगम का विषय सत्असत् दोनों हैं, क्योंकि ये दोनों संकल्प-कल्पना के विषय हैं। इसकी अपेक्षा केवल सत् को ही विषय करनेवाला संग्रहनय अल्पविषयवाला है । संग्रह के विशेष ही व्यवहार के विषय हैं । व्यवहार की अपेक्षा ऋजुसूत्र सूक्ष्म है और ऋजुसूत्र की अपेक्षा तीनों शब्दनय उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषयग्राही होते जाते हैं । इस तरह नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं । प्रारम्भ के तीन 'स्थूल' होने से अधिक सामान्यग्राही हैं और ऋजुसूत्र भूत-भविष्य का इनकार करके मात्र वर्तमान का ग्राहक होने से स्पष्टरूप से विशेषगामी है । इसके बाद के तीन नय भी सूक्ष्म होते जाते हैं, अतः वे अधिक विशेषगामी हैं । सामान्य और विशेष दोनों एकवस्तु के अविभाज्य अंश हैं और परस्पर सुसम्बद्ध हैं, अतः सभी नय सामान्य विशेष उभयगामी कहे जा सकते हैं । फिर भी विशेषगामी की अपेक्षा जो जितना अधिक सामान्यगामी होता है वह 'द्रव्यार्थिक नय' में गिना जाता है और सामान्यगामी की अपेक्षा जो जितना अधिक विशेषगामी होता है वह 'पर्यायार्थिक' गिना जाता है; क्योंकि प्राधान्येन व्यपदेशा १. व्यवहार में भी देखा जाता है कि कोई सरकारी कर्मचारी जबतक अपने कर्तव्य (Duty) पर होता है तबतक उसके साथ यदि कोई दुर्व्यवहार करे तो सरकार उसका पक्ष लेती है, परन्तु दूसरे समय साधारण प्रजा की तरह उसका विचार किया जाता है । सरकार इस तरह का अपने कर्मचारी के साथ जो व्यवहार करती है वह 'एवम्भूत' नय की विचारसरणी है। 'मैं गवर्नर से नहीं मिला था, किन्तु अपने मित्र से मिला था', 'मैं राजा नहीं हूँ, केवल अतिथि हूँ,' आदि वचनप्रयोगों में 'एवम्भूत' नय की झलक मिलती है । २. काल आदि के भेद के कारण अर्थ का भेद मानने से 'शब्द' नय ऋजुसूत्र की अपेक्षा सूक्ष्म है और शब्द नय की अपेक्षा इसके बाद के दो नयों की उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्मता स्पष्ट है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy