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पंचम खण्ड
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द्वारा उस अर्थ का कथन करना चाहिए, दूसरे समय नहीं । इस कल्पना के अनुसार राजचिन्हों से शोभित होने की योग्यता होना अथवा मनुष्य-रक्षण का उत्तरदायित्व रखना इतना ही राजा अथवा नृप कहलाने के लिये पर्याप्त नहीं है, किन्तु इससे आगे बढ़कर जब वस्तुतः राजचिन्हों से शोभित हो तभी और तब तक ही 'राजा' कहा जा सकता है । इसी प्रकार वस्तुतः मनुष्यों का जब रक्षण करता हो तभी और तब तक के लिये ही 'नृप कहा जा सकता है । इसी प्रकार वस्तुतः मनुष्यों का जब रक्षण करता हो तभी और तब तक के लिये ही 'नृप कहा जा सकता है; अर्थात् तभी उस व्यक्ति के बारे में 'राजा' अथवा नृप' शब्द का प्रयोग वास्तविक है । इसी प्रकार जब कोई वस्तुतः सेवाकार्य में लगा हो तभी और तब तक के लिये ही वह 'सेवक' नाम से व्यवहृत हो सकता है । इस प्रकार जब वास्तविक कार्य हो रहा हो तभी उसके योग्य विशेषण अथवा विशेष्य नाम का प्रयोग किया जा सकता है ऐसा इस नय का अभिप्राय है ।
'समभिरुढ नय' शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ बतलाता है, परन्तु जब एक योद्धा युद्ध न कर रहा हो अर्थात् युद्धकार्य में प्रवर्तमान न हो, लडाई का प्रसंग न होने से अपने घर में निश्चिन्ततापूर्वक रहता हो तब उसके लिये 'योद्धा' शब्द का प्रयोग करने के सामने उसे विरोध नही है; परन्तु 'एवम्भूत नय उसका विरोध करेगा । वह कहेगा कि जब योद्धा युद्ध की प्रवृत्ति में प्रवर्तमान हो - लड़ाई लड़ रहा हो तभी उसे योद्धा' कह सकते हैं । इसी प्रकार जब पुजारी पूजा की क्रिया में प्रवर्तमान हो तभी और उस समय तक के लिये ही उसे पुजारी कहा जा सकता है । कोई भी शब्द क्रिया का अर्थ बतलाता ही है । अतः जिस शब्द की व्युत्पत्ति में से जिस क्रिया का भाव प्रगट होता हो उस क्रिया में उस शब्द का अर्थ (उस शब्द का वाच्य पदार्थ) जब प्रवर्तमान हो तभी उसे उस शब्द द्वारा कह सकते हैं । प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी- घातु पर से निष्पन्न हुआ है, अतः उसका किसी-न-किसी क्रिया के साथ सम्बन्ध है ही । शब्द में से सूचित होनेवाली क्रिया उसके वाच्यार्थभूत पदार्थ में कभी किसी समय देखने के बाद 'समभिरूढ नय' चाहे जब उस अर्थ (वस्तु) में उस शब्द का प्रयोग करेगा, फिर भले ही वह क्रिया
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