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जैनदर्शन अनुसरण करके उन्हे उनके रखे हुए नामों से बुलाए बिना दूसरा चारा ही नहीं है।
'शब्द' नय एक अर्थ (वस्तु) को कहनेवाले अनेक भिन्न-भिन्न शब्दों (पर्यायवाची शब्दों) से किसी भी शब्द का, उस अर्थ का बतलाने के लिये प्रयोग करना अयोग्य नहीं मानता; परन्तु ऊपर कहा उस तरह काल, लिंग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है।
(६) समभिरुढ-इस नय की दृष्टि में प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्नभिन्न है । 'शब्द' नय ने काल, लिंग आदि भेद से अर्थ का भेद तो माना, परन्तु काल आदि का भेद न होने पर पर्यायवाची शब्दों में [इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों में] अर्थभेद मान्य नहीं रखा है, तब यह नय (समभिरूढ नय) शब्द के भेद से ही अर्थभेद मानता है । शब्द भिन्न तो अर्थ भिन्न ऐसा इसका मत है । इससे राजा, नृप, भूपति आदि एकार्थवाची माने जानेवाले पर्यायशब्दों का भी उनकी व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ है ऐसा यह नय मानता है । यह कहता है कि राजचिह्नों से जो शोभित हो वह 'राजा', मनुष्यों को जो रक्षण करे वह 'नृप' और पृथ्वी का पालन-पोषण करे वह 'भूपति' । राजचिह्नों से शोभित होना, मनुष्यों का रक्षण करना और पृथ्वी का पालन-पोषण करना-इन सबका आधार एक ही व्यक्ति होने से इन अर्थों के सूचक राजा, नृप और भूपति शब्द पर्यायवाची हो गए हैं, परन्तु वस्तुतः उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है ऐसे मन्तव्य का यह नय, ऊपर कहा उस तरह, भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों के भी उनकी भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है। प्रत्येक शब्द असल में तो पृथक् अर्थ बतलानेवाला होता है, परन्तु कालान्तर में व्यक्ति और समूहों में प्रयुक्त होते रहने से पर्यायवाची बन गए हैं । 'समभिरूढ़' नय उनके पर्यायवाचित्व को मान्य न रखकर प्रत्येक शब्द का मूल अर्थ पकड़ता है-ऊपर देखा उस तरह ।
(७) एवंभूत-यह नय कहता कि यदि व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद माना जाय तो ऐसा भी मानना चाहिए कि जिस समय व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ घटित होता हो तभी उस शब्द का वह अर्थ मानना चाहिए और तभी उस शब्द
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