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________________ ३६७ पंचम खण्ड भवन्ति । अर्थात् प्राधान्य को-मुख्यता को लक्ष में रखकर कथन किया जाता है। नय प्रमाणसिद्ध द्रव्य-पर्यायरूप अनेकधर्मात्मक पदार्थ को विभक्त करके प्रवृत्त होते हैं । नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायर्थिक ये दो मुख्य भेद हैं जिनमें सात नय अन्तर्भूत होते हैं—प्रथम के तीन द्रव्यार्थिक में और अवशिष्ट चार पर्यायार्थिक में ।। द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नय के विषयभूत भेद को गौण करके अपने विषयभूत अभेद का ही व्यवहार करता है । जैसे कि, द्रव्यार्थिक नय से (द्रव्य-सामान्य के अभिप्राय से) यदि ऐसा कहा जाय कि 'सुवर्ण लाओ' तो लानेवाला सुवर्ण के कटक, कुण्डल, कडा आदि में से कोई भी गहना मँगानेवाले के सम्मुख उपस्थित करे तो सुवर्ण मँगानेवाले की आज्ञा का उसने पालन किया समझा जायगा; क्योंकि कटक, कुण्डल, कडा आदि में से कोई भी आभूषण सुवर्ण ही है । उनमें से किसी एक को उपस्थित करने से आज्ञानुसार सुवर्ण ही लाया गया है ऐसा समझा जायगा । पर्यायार्थिक नय द्रव्यार्थिक नय के विषयभूत अभेद को गौण करके अपने विषयभूत भेद का ही व्यवहार करता है। जैसे कि, पर्यायार्थिक नय से (पर्याय के अभिप्राय से) यदि ऐसा कहा गया हो 'कुण्डल लाओ' तो लानेवाला कटक, कड़ा आदि दूसरा कोई आभूषण न लाकर केवल कुण्डल ही कि लाएगा; क्योंकि कटक, कुण्डल, कड़ा, कण्ठी आदि सब सुवर्ण के आभूषणों में सुवर्ण एक होने पर भी सुवर्ण के ये सब पर्याय एक दूसरे से भिन्न है । अतः यदि सुवर्ण का कोई खास पर्याय मँगाया हो तो उसी को उपस्थित करने से आज्ञा का पालन किया गया समझा जायगा। __इस पर से ज्ञात होगा कि द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से सुवर्ण एक है और पर्यायार्थिक नय के अभिप्राय से अनेक । सुवर्ण के भिन्न-भिन्न पर्यायों में सुवर्ण सामान्य एक है, परन्तु उसके पर्याय भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार के एक-अनेक को लेकर सप्तभंगी बनती है । इस तरह एकत्वअनेकत्व अन्यत्र सब जगह पर घटा सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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