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जैनदर्शन
सूक्ष्मता से देखें तो मुख्यत: दो प्रकार की ही दृष्टियाँ काम करती है : अभेददृष्टि और भेददृष्टि। द्रव्यार्थिक नय अभेददृष्टि पर और पर्यायार्थिक नय भेददृष्टि पर अवलम्बित है । नैगम आदि नय इन दो मूलभूत अभेदग्राही
और भेदग्राही नयों का ही विस्तार है । सिद्धसेन दिवाकर ने अभेदसंकल्पी नैगम को संग्रह में और भेदसंकल्पी नैगम को व्यवहार में समाविष्ट करके नैगम को पृथक् नय नहीं माना है । उनके अभिप्राय के अनुसार संग्रहादि छह नय हैं ।
अब नयाभास (दुर्नय) भी देख लें
धर्म-धर्मी, गुण-गुणी आदि का एकान्त भेद माननेवाला मत-केवल भेद का स्वीकार करके अभेद का तिरस्कार करनेवाला मत नैगमाभास है । इसके उदाहरण में नैयायिक-वैशेषिक दर्शन रखे जाते हैं ।
संग्रहनय के परसंग्रह और अपरसंग्रह दो भेद हैं । समग्र विश्व सत्रूप से एक हैं-इस तरह मात्र सत् को ही शुद्ध द्रव्य माननेवाला परसंग्रह सब विशेषों की ओर उदासीन रहता है । परन्तु उदासीन न रहकर यदि विशेषों का इनकार करे तो वह परसंग्रहभास बन जाता है।
____ जीव, पुद्गल, काल आदि द्रव्यों को द्रव्यस्वरूप से एक माननेवाला अपरसंग्रह उनके विशेषों की ओर उपेक्षा-भाव रखता है । परन्तु ऐसा न करके यदि वह उन विशेषों का इनकार करे तो वह अपरसंग्रहभास बन जाता है । इस संग्रहाभास के उदाहरण के तौर पर सांख्यदर्शन तथा अद्वैत वेदान्तदर्शन रखे जाते हैं ।
संग्रह के विषयभूत सत्-तत्त्व का-जो सत् वह द्रव्य अथवा पर्याय, जो द्रव्य वह जीवादि अनेक प्रकार, जो जीव वह संसारी और मुक्त इत्यादिरूप से विभाजन-विश्लेषण (विभागशः विवेचन) करनेवाला व्यवहार नय है। परन्तु जब वह द्रव्य-पर्याय की व्यवस्था को अपारमार्थिक कह डालेकेवल भेदगामी बनकर अभेद का तिरस्कार करे तब वह व्यवहाराभास बनता है । इस व्यवहाराभास का उदाहरण चार्वाक दर्शन हैं ।
ऋजुसूत्र केवल वर्तमानकालीन पर्याय को मान्य रखता है, परन्तु जब
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