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________________ पंचम खण्ड ३६९ वह द्रव्य - पर्याय के सम्बन्ध का स्थायी द्रव्य का सर्वथा अपलाप करे तब ऋजुसूत्रनयाभास बन जाता है । बौद्धदर्शन प्रतिक्षण विनश्वर पर्यायों को ही वास्तविक माननेवाला दर्शन है । उसके मत में इन पर्यायों के आधारभूत त्रिकालस्थायी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है । अतः ऐसा दर्शन ऋजुसूत्रनयाभास के उदाहरण के रूप में दिया जाता है । काल, लिंग आदि के भेद से शब्द के अर्थभेद का एकान्तरूप से समर्थन करनेवाला नय शब्दाभास है । भूतकाल में प्रयुक्त और वर्तमानकाल में प्रयुक्त राजगृह शब्द एकान्तरूप से सर्वथा भिन्न राजगृह को सूचित करते हैं— ऐसा मानना यह शब्दाभास का उदाहरण है । पर्यायवाची शब्दों का सर्वथा भिन्न-भिन्न ही अर्थ मानने का एकान्त आग्रह रखना समभिरूढनयाभास है । एवंभूत नय का मन्तव्य ऐसा है कि शब्द में सूचित होनेवाली क्रिया में उस शब्द से वाच्य पदार्थ जब परिणत हो तब वह शब्द उस अर्थ का वाचक है, परन्तु इस मन्तव्य को एकान्तरूप से पकडे रखे, राजा सोया हो तब राजा अथवा नृप नहीं कहा जा सकता — ऐसा यदि एकान्त विधान करे तो वह एवम्भूतनयाभास है । अबतक के विवेचन पर से हम जान सके हैं कि अनेकान्तदृष्टि एकवस्तु में विविध धर्मों का समूह देखता है और स्याद्वाद उनका निरूपण करता है; जबकि नय, उन धर्मों में से किसी एक धर्म का विचाररूप है और उस धर्म का मुख्यरूप से कथन अथवा व्यवहार करता है । स्याद्वाद सकलादेश कहलाता है, क्योंकि वह एक धर्म द्वारा समूची एक वस्तु को 'सकल' (अखण्ड) रूप से ग्रहण करता है, जबकि नय विकलादेश है, क्योंकि वह वस्तु का विकलरूप से अर्थात् अंशतः [ वस्तु के एक देश का - एक धर्म का ] कथन करता है । स्याद्वाद अर्थात् सकलादेश अथवा प्रमाणवाक्य अनेकान्तात्मक ( अनेकधर्मात्मक) वस्तु का निर्देश करता है । जैसे कि, जीव कहने से ज्ञानदर्शनादि असाधारण गुणयुक्त, सत्त्व - प्रमेयत्वादि साधारण गुणयुक्त और अमूर्तत्व, असंख्येयप्रदेशित्व आदि साधारण - असाधारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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