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जैनदर्शन धर्मयुक्त जीव का अखण्डरूप से बोध होता है । इसमें जीव के सब धर्म एक (अभिन्न) रूप से गृहीत होते हैं, अत: गौण मुख्यभाव की विवक्षा इसमें अन्तर्लीन हो जाती है । विकलादेश (नयवाक्य) वस्तु के एक धर्म का मुख्यतया कथन करता है। जैसे कि,'चेतन जीव' अथवा 'ज्ञाता जीव' कहने से जीव के चैतन्य अथवा ज्ञान गुण का मुख्य रूप से बोध होता है और शेष धर्म गौणभाव से उसमें अन्तर्गत रहते हैं ।
इस तरह देखा गया कि वाक्य के दो भेद होते हैं : प्रमाणवाक्य और नयवाक्य । वस्तु को सामान्यतः पूर्ण रुप से विषय करनेवाले 'प्रमाण' के वाक्य को प्रमाणवाक्य कहते हैं और वस्तु को अंशरूप से ग्रहण करनेवाले 'नय' के वाक्य को नयवाक्य कहते हैं । इन दो वाक्यों के बीच का अन्तर शब्दों से नही, किन्तु भावों से मालूम होता है । जब हम किसी शब्द द्वारा सामान्यतः पूर्ण वस्तु का कथन करते हैं तब उसे प्रमाणवाक्य कहते हैं और जब हम शब्द द्वारा वस्तु के किसी एक धर्म को कहते हैं अथवा किसी एक धर्म-मुखेन वस्तु का उल्लेख करते हैं तब उसे नयवाक्य कहते हैं । नयवाक्य अर्थात् विकलादेश वस्तु का उसके किसी एक धर्म द्वारा कथन करता है और प्रमाणवाक्य अर्थात् सकलादेश वस्तु को उसके किसी एक धर्म द्वारा उपस्थित न करके सामान्यतः समुच्च्य रुप से समुची वस्तु को उपस्थित करता है ।
इसे जरा उदाहरण के साथ देखें । 'संसार के वैभव अथवा सांसारिक पदार्थ विद्युत् की भाँति क्षणिक है'-इस वाक्य में विद्युत् शब्द का निर्देश, विद्युत् शब्द का अर्थ 'खूब चमकदार' ऐसा होने पर भी उस चमकीलेपन की दृष्टि से नहीं है किन्तु चमकनेवाली उस समूची वस्तु का यहाँ निर्देश है। इस उदाहण से 'सकलादेश' का ख्याल आ सकता है । किसी लड़की की चमकदार कान्ति अथवा उसकी अतिचपलता के कारण हम उसके बारे में ऐसा कहते हैं कि 'यह लड़की क्या है ? मानो बिजली है ।' यहाँ पर बिजली शब्द का निर्देश उस (बिजली) वस्तु के सौन्दर्यसहित चपलतारूप धर्म द्वारा किया गया है । इस पर से 'विकलादेश' का भी ख्याल आ सकता है । इसी प्रकार 'जीव' शब्द से जानना, देखना आदि धर्मयुक्त सामान्य जीव पदार्थ का बोध होना 'सकलादेश' है और जब उससे केवल 'जीवन' धर्म
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