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पंचम खण्ड
३७१ ही अभिप्रेत हो तो वह 'विकलादेश' है ।
प्रमाण-ज्ञान का उल्लेख 'स्यात् (कथंचित्) सत्' अथवा 'स्यात् सदेव'-इस प्रकार से होता है । इसमें 'स्यात्' का प्रयोग इसलिये किया जाता है कि दूसरे भी धर्म सापेक्ष रुप से ध्वनित अथवा सूचित हों । 'स्यात्' शब्द जोड देने से वह कथन स्याद्वाद बनता है। नय का उल्लेख 'सत्'--इस प्रकार से होता है; क्योंकि वह स्वाभिमत धर्म का ही कथन करता है । स्वाभिमत धर्म से भिन्न धर्म की चर्चा में वह नहीं पड़ता । परन्तु यदि वह स्वाभिमत धर्म के निवेदन के साथ ही साथ इतर धर्म अथवा धर्मों का निषेध करे तो वह नय नहीं, किन्तु दुर्नय है । इसका उल्लेख 'सत्' ही है' ऐसा एकान्त (निरपेक्ष एकान्त) निर्धारणरूप है । नय ओर दुर्नय इन दोनों के बीच यही भेद है । यद्यपि इन दोनों के वाक्य में फ़र्क नहीं होता, फिर भी अभिप्राय में अवश्य फर्क होता है ।
जिस प्रकार धर्म का अवधारणरहित निर्देश नय है, जैसे कि सत्, उसी प्रकार एकान्त का अवधारण यदि सापेक्ष हो तो भी वह 'नय' है, जैसे कि 'स्यात् सदेव', अर्थात् अमुक अपेक्षा से सत् ही है । इस वाक्य में 'ही' का प्रयोग किया गया है, अतः सत्त्व (अस्तित्व) सावधारण है, परन्तु वह सापेक्ष है । यह सापेक्षता 'स्यात्' के प्रयोग से अथवा अध्याहार से जानी जा सकती है, अर्थात् उसी पीछे इस प्रकार का अभिप्राय होता है । इसी प्रकार 'घट अनित्य है'-यह अवधारणरहित धर्म-निर्देश जिस प्रकार नय है उसी प्रकार 'घट कथंचित् अनित्य ही है' ऐसा सावधारण निर्देश भी सापेक्ष होने से नय है-'नयास्तव स्यात्पदलाञ्चना इमे'—स्वामी समन्तभद्र । स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितानयात् ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र, १०३.
१. सदेव, सत्, स्यात् सविति त्रिधाऽर्थो
मीयेत दुर्नीति-नय-प्रमाणैः । -हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका श्लोक २८.
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