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________________ जैनदर्शन - अनेकान्त भी एकान्त नहीं है अर्थात् वह अनेकान्त भी है और एकान्त भी है । प्रमाणगोचर अनेकान्त है और नयगोचर एकान्त है । ३७२ इस पर से देखा जा सकता है कि नयवाद जब सापेक्ष एकान्तवाद होता है तब वह सम्यक् एकान्तवाद है । ऐसे एकान्तवादों का सुयोजित हार ही अनेकान्तवाद है । श्री सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क तृतीयकाण्ड की भद्दं मिच्छादंसणसमूहमइअस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ इस ६९वीं गाथा में जिनवचन को मिथ्यार्दशनों का समूहरूप बतलाया है । अर्थात् अनेकान्तपूत जिनवाणी, समन्वित बने हुए मिथ्यादर्शनों का समुच्चय है । मतबल कि जिसे मिथ्यादर्शन कहा जाता है उसके आंशिक ज्ञान में आंशिक सत्य समाविष्ट है । 'षड्दर्शन जिन अंग भणीजे' आनन्दघन का यह उद्गार भी इसी बात को सूचित करता है । अंशज्ञान को अंश सत्य मानने के बदले सम्पूर्ण सत्य मान लेना ही मिथ्यादर्शन है । हाथी के सुप्रसिद्ध उदाहरण पर विचार करने से देखा जा सकता है कि समूचे हाथी का ज्ञान होने पर ही एक हाथी पदार्थ पूर्ण रूप से ज्ञात हो सकता है, परन्तु यदि उसके एक-एक अवयव को हाथी समझ लिया जाय तो उससे समूचा हाथी समझ लिया ऐसा नहीं कहा जायगा, परन्तु हाथी के एक-एक अंश का ही ज्ञान हुआ है, ऐसा कहा जायगा । हाथी के एकएक अवयव को हाथी माननेवाले वे अन्धे कैसे पागल थे ? और इसीलिये हाथी के एक-एक अवयव को हाथी मानकर परस्पर झगड़ने लगे । एक ही तरफ की अधूरी बात को पकड़ कर और उसे पूर्ण सत्य मानकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु एवं तत्सापेक्ष बात को समझने का प्रयत्न नहीं करनेवाले तथा पूरा समझे बिना उसकी अवगणना करनेवाले आपस - आपस में कितना विरोध और झगडा-टण्य मचाते हैं यह हमारी आँखों के सामने हम प्रतिदिन देखते । अज्ञान का ( दुराग्रहयुक्त अधूरे ज्ञान का) काम ही लड़ने का है ! १. यह उदाहरण तित्थियसुत्त, उदान० वग्ग ६ में भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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