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जैनदर्शन
सूर्य की धूप, स्वच्छता, उचित शरीरश्रम, उचित आराम तथा निद्रा आवश्यक हैं । समुचित संयम तो आवश्यक है ही । इन बातों की अवगणना अनारोग्य को आमन्त्रित करती है। व्यसनरूप निन्द्य कार्य :
जीवन के लिये आवश्यक न होने पर भी जो निन्द्य कार्य ऐसी आदतरूप बन जाय कि उसके अभाव में बेचैनी मालूम होने लगे वह दुर्व्यसन' है । यदि दुर्व्यसनरूप निन्द्य वस्तु का सेवन एक बार भी हो जाय तो अन्त:करण खिन्न होना चाहिए--इतना अधिक खिन्न होना चाहिए कि पुनः उसका सम्पर्क न होने पाए उतना जाग्रत रहे ।
जैन उपदेश में स्वच्छता, शुद्धता और समुचित शौच व पवित्रता का विधान है । जूठन की ओर असावधानता रखना धर्मदृष्टि से भी दोषावह है
और आरोग्य की दृष्टि भी हानिकर है । रसायनशास्त्र से ज्ञात होता है कि अधिक समय तक मल-मूत्र रहने से उनमें से फैलनेवाले रोगमय जन्तुओं के संक्रमण के कारण अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । अतः खुली जगह में किसी को बाधक न हो इस तरह मल-मूत्र आदि के त्याग का जैन उपदेश अतिप्राचीन है। स्वच्छता और सफाई आवश्यक है, आरोग्य के लिये हितकर है और मानसिक उल्लास में सहायक होती है ।
अन्त में, सब शास्त्रों के निष्कर्षरूप यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सद्वर्तन और सदाचरण, संयम और विवेक, भ्रातृभाव और मैत्रीभाव, सहिष्णुता और नम्रता, गम्भीरता और धीरता, वीरता, क्षमा, उदारता और त्याग ये मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति हैं । इन सद्गुणों की विकास-क्रिया में मनुष्य का चारित्र सम्पन्न होता है । इन्हीं में पुरुषार्थ की सिद्धि है । शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उत्कर्ष साधने का यह सन्मार्ग है । यही कल्याणमय जीवन है । यही मोक्षमार्ग है ।
१. द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या पापद्धिचौर्ये परदारसेवा ।
एतानि सप्त व्यसनानि लोकेतत्सवितुर्दुर्गतिमावहन्ति ॥ इस श्लोक में सात दुर्व्यसन गिनाए हैं : जूआ, मांस, शराब, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्रीगमन ।
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