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द्वितीय खण्ड
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का और अन्ततः मोक्ष का भी आद्य साधन होने से उसकी कार्यक्षमता सुरक्षित रहे और वह स्वस्थ रहे यह अनिवार्यरूपेण आवश्यक है । रुग्ण होने के पश्चात् शरीर की चिकित्सा और उपचार कराने बैठना इसकी अपेक्षा रोग का आक्रमण ही न हो और आरोग्य बना रहे ऐसी आहार-विहार विषयक दिनचर्या रखना अधिक उत्तम है । इसके लिये पथ्यापथ्य का विचार करके, शरीर में प्रतिदिन जो क्षति होती है उसकी जिस प्रकार के भोजनपान से पूर्ति होने और शारीरिक स्वास्थ्य के लिये आवश्यक रस मिलते रहे ऐसे आहार -पान का विवेकपूर्वक चुनाव करना चाहिए | सामान्यतः ऐसा कह सकते हैं कि जिस खाने पीने में चलने-फिरने - वाले प्राणियों का वध किया गया हो, जो नशा उत्पन्न करके बेहोश अथवा कर्तव्यच्युत बनाए, जो आरोग्य के लिये हानिकर हो, जिसके गुणदोष से हम अज्ञात हों, जो जीभ को रसस्वाद देने के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का लाभ करनेवाला न हो, जो अनावश्यक होने पर भी उपयोग करने पर व्यसनरूप बन जाता हो, जो शरीर में रससमृद्धि बढ़ाने के बदले केवल ज्ञानतन्तुओं और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली मानसिक वृत्तियों को उत्तेजित करके अन्त में थकान व निर्बलता लाए और शरीर को बरबाद करे ऐसे भोजन-पान का त्याग ही इष्ट है । इसी प्रकार चलते-फिरते प्राणियों का वध करके उनमें से जो बनाई गई दवाओं का शरीर पुष्टि के लिये अथवा रोगनिवारण के लिये उपयोग करना धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है, क्योंकि इससे प्राणीवध की प्रवृत्ति को उत्तेजन मिलता है । मांसाहार अत्यन्त कुत्सित एवं गर्ह्य है और हिंसा का उग्र रूप होने से त्याज्य ही है ।
वनस्पति में यद्यपि सुसूक्ष्म प्राणीतत्त्व (Life) है, फिर भी उसके बिना देहधारी जीव जी नहीं सकते; इसके अतिरिक्त यह प्राकृतिक आहार भी है जिसमें किसी प्रकार की मलिन वस्तु ( रक्त आदि) नहीं है । अतः ऐसा स्वाभाविक और पवित्र आहार करने पर मनुष्य दूषित नहीं होता — अपराधी नहीं ठहरता । स्थावर एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति) के भोगोपभोग की प्रकृति ने स्वयं छूट दी है । यह प्राकृतिक और पवित्र (Natural as well as unsullied) भोगोपभोग है । इससे आगे नहीं बढ़ना चाहिए ।
आरोग्य :
आरोग्य के लिए योग्य और मर्यादित आहार, स्वच्छ जल, खुली हवा,
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