SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ जैनदर्शन 1 नहीं होता; परन्तु रात में खा कर थोड़ी देर में ही सो जाने से, आवश्यक भ्रमण आदि न होने कारण, पेट में तुरन्त ही डाला हुआ अन्न निद्रा में कभी-कभी खराब असर उत्पन्न करता है । भोजन के पश्चात् थोड़ा-थोड़ा पानी पीने का वैद्यक नियम('मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ) है । रात में भोजन करने से इस नियम का पालन नहीं हो सकता जिसके परिणामस्वरूप अजीर्ण होने की सम्भावना रहती है और अजीर्ण तो रोगों का मूल है : अजीर्णप्रभवा रोगाः । संक्षेप में बिजली अथवा चन्द्र का प्रकाश चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, सूर्य के प्रकाश की तुलना में नहीं आ सकता इसलिये भोजन के लिये इतर प्रकाशों की अपेक्षा सूर्यप्रकाश ही अधिक पसन्द करने योग्य है और आरोग्य की दृष्टि से सर्वप्रथम स्वीकारने योग्य है । शान्तिलाभ की दृष्टि से भी, दिन की सब प्रवृत्तियों के साथ भोजन की प्रवृत्ति समाप्त करके सन्तोष के साथ रात्रि में जठर को विश्रान्ति देना योग्य प्रतीत होता है । इससे नींद अच्छी आती है और ब्रह्मचर्य के पालन में भी सहायता मिलती है । यह आरोग्यलाभ की स्पष्ट बात है । दिवाभोजन और रात्रिभोजन इन दोनों में से सन्तोष एवं शान्ति की दृष्टि से पसन्दगी करनी हो तो विचारकुशल बुद्धि दिवाभोजन की ओर ही झुकेगी ऐसा आज तक के महान् सन्तों के जीवनइतिहास पर से ज्ञात होता हैं । यह सही है कि रात्रिभोजन के त्याग के फायदे, जो सादी बुद्धि से भी समझे जा सकते हैं; रात्रिभोजन का त्याग न करनेवाला गँवाता है; परन्तु जीवन - कलह के इस जमाने में जो लोग आजीविका की प्राप्ति के लिए ऐसी व्यावसायिक प्रवृत्ति में पड़े हों कि रात्रिभोजन का त्याग न कर सकते हों उनकी ऐसी प्रवृत्ति परिस्थितिवश लाचारी से होती है, अतः क्षन्तव्य है, क्योंकि उसमें सांकल्पिक हिंसा या अनर्थदण्ड के दोष का अभाव हैं । भक्ष्याभक्ष्यविवेक : शरीरशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, चिकित्साशास्त्र और आहारशास्त्र के बारे में विज्ञान ने अब तक जो प्रयोग तथा आविष्कार करके प्रकाश डाला है उस प्रकाश की उपकारक दिशा की ओर दुर्लक्ष करना अथवा आँखे बन्द कर देना जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक समझे जानेवाले धर्म के लिये योग्य नहीं है । शरीर आत्मविकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy