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________________ १४३ द्वितीय खण्ड भूमिका के अनुसार परोपकारपरायण रहते हैं वे महाभाग्यशाली त्यागी है । इस प्रकार षट्कर्म संक्षेप में हमने देखे । भक्ष्याभक्ष्य का विचार जैन आचार-ग्रन्थों में बहुत किया गया है । उनका रात्रिभोजननिषेध भी प्रसिद्ध है । रात्रिभोजन-निषेध : इस बात का तो प्रत्येक को अनुभव है कि सन्ध्या होते ही अनेक जीव, बहुत बडे प्रमाण में सूक्ष्म जन्तु उडने लगते हैं । रात्रि में दिये के आगे असंख्य जीव उडते अथवा घूमते नजर आते हैं । इसके अतिरिक्त हमारे शरीर पर भी रात पड़ते ही अनेक जीव बैठने लगते हैं और मुँह पर आकर ये गिरते हैं । खुले रहे हुए दिये में अनेक जीव पड़े मालूम होते हैं । ऐसी स्थिति में वे भोजन पर भी बैठते हों यह असम्भव नहीं। अतः रात्रिभोजन में जीवों की विराधना का दोष लगता है। अमुक प्रकार के जहरीले जन्तु भोजन के साथ पेट में जाने पर तत्काल अथवा विलम्ब से रोग उत्पन्न करते हैं । भोजन में यदि जूं आ जाय तो जलोदर होता है, मकड़ी आ जाय तो कुष्ठ रोग होता है, कीड़ी के आने से बुद्धि का हास होता है, मक्खी आने से कैं होती है और काँटा अथवा लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा जैसा आने से गले में पीड़ा होती है, और किसी समय जहरीला जीव खाने में आ जाय तो मृत्यु भी हो सकती है। रात्रि में रसोई पकाने और खाना खाने की अनेक ऐसी घटनाएँ हमारे सुनने में आती हैं जिनमें सर्पादि के गिरने से मनुष्यों की मृत्यु तक हुई है । सायंकाल अर्थात् सूर्यास्त से पूर्व किया गया भोजन रात में सोने के समय तक बहुत कुछ जठरानल की ज्वाला पर चढ जाने से निद्रा में अस्वास्थ्यकारक १. मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥ कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः । विलग्नश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ -हेमचन्द्र, योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लो० ५०-१-२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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