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________________ १४२ जैनदर्शन और भूख के कारण समाज की विपद्ग्रस्त स्थिति हो उस समय उस ओर दुर्लक्ष करके और धर्म का निमित्त आगे रखकर आडम्बर अथवा कीर्ति के लिये धनव्यय करनेवाले को उचित एवं सच्चे त्याग से मिलनेवाला आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल सकता । इसी प्रकार जुआ, सट्टा, कालाबाजार अथवा अन्य अन्यायी तरीकों से प्राप्त किए गए धन से की जानेवाली धार्मिक क्रियाएँ सच्चे धर्म को दूषित करती है । इतना ही नहीं, अन्याय से धन उपार्जन करके धार्मिक समझी जानेवाली क्रियाओं में उसे खर्चने से धर्म होता है-ऐसा लोगों में मिथ्या भ्रम उत्पन्न होता है जिससे अधर्म से भी धन पैदा करने की वृत्ति को उत्तेजन मिलता है । त्याग एक प्रकार का स्व-परहितकारक तप है । स्वाद जय के लिये अथवा अन्य कारण अनशनादि तप करनेवाले मनुष्य अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार पूर्वोक्त 'पुणिआ' श्रावक के उदाहरण के हार्द का जब अनुसरण करेंगें तब अन्य किसी भी उपाय से न हो सकनेवाली ऐसी शासन की प्रभावना होगी । किसी भी धर्म की कल्याणकारकता का नाप उस धर्म के अनुयायियों के बरताव पर सामान्यत: लगाया जाता है । विशेषतया, धर्म के हार्द से अनभिज्ञ जनसमूह हमेशा ऐसा ही करता है । परोपकार के लिये अपने धन का खर्च करना अथवा अपना द्रव्य देना दान है और स्वपरकल्याण के लिये प्राप्त अथवा अप्राप्त सुख, सुविधा या सम्पत्ति को छोड़ देना त्याग है । दान के चार प्रयोजन गिनाए जा सकते हैं १. दुरुपार्जन (अनीति की कमाई) आदि के पाप का थोड़ा प्रायश्चित्त होता है । २. उपभोग के बाद बची हुई सम्पत्ति का सदुपयोग होता है । ३. जन-सेवा के कार्य-शिक्षणालय, औषधालय, जीर्णोद्वार आदि किए जा सकते हैं। ४. सच्ची साधुता को अवलम्बन अथवा सहायता दी जा सकती है । जो न्याययुक्त धन्धे-रोजगार करके कमाते है और उदारता से दानपरायण भी रहते हैं वे भाग्यशाली दानी हैं, और जो त्यागी संयमपूत जीवन जीने के साथ अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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