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________________ तृतीय खण्ड प्रकीर्णक : इस तृतीय खण्ड में कुछ प्रकीर्ण किन्तु उपयोगी विचार उपस्थित करना चाहता हूँ ! (१) कल्याण के द्वार सब के लिये खुले हैं जिनेन्द्रदेव तात्त्विक दृष्टि से सब जीवों की समानता बतलाते हैं और इस सत्य का तनिक भी विस्मरण किए बिना संसारी अवस्था में योग्य व्यवहार चलाने का आदेश देते हैं । संसारी जीवों में यद्यपि शरीराकृति की अपेक्षा से, रूप, बल, धन, कुल-वंश, सत्ता, समृद्धि तथा ज्ञान- बुद्धि की अपेक्षा से विषमता देखी जाती है, परन्तु ये सब विषमताएँ आगन्तुक कारणों से अर्थात् शुभाशुभ कर्म के प्रभाव को लेकर होती है। जीवों के शुद्ध स्वभाव में ऐसी विषमताओं को स्थान नहीं है । अतः आगन्तुक कारणों से उत्पन्न विषमताओं के बारे में उच्च-नीच भावना रखकर यदि अच्छे भाग्यवाले अहंकारवश दुर्भाग्यवालों का तिरस्कार करें तो वह जीव में रहे हुए परमात्मतत्त्व का अपमान करने जैसा है । जिस प्रकार रोगादि दुःखों से आक्रान्त प्राणी अनुकम्पा तथा सद्भाव के अधिकारी हैं उसी प्रकार हीन दशा में आए हुए जीव भी अनुकम्पा तथा सद्भाव के अधिकारी हैं । वैदिक हिन्दूधर्म में प्रचलित वर्णाश्रम धर्म की, समाज-व्यवस्था के सुसंचालन के लिये तथा जीवनकलह और एक-दूसरे के साथ भीतर ही भीतर विघातक प्रतियोगिता न हो इसलिये गुण-कर्म के विभाग के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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