________________
१४८
जैनदर्शन
प्ररूपणा की गई थी; किन्तु इसमें जब उच्च-नीचभाव घुसा, गुण-कर्म के स्थान पर जन्म को प्राधान्य दिया गया और अपने आपको श्रेष्ठ माननेवाला सत्ताशील वर्ग दलितों का शोषण करने लगा, तब जिनेन्द्रदेव ने वर्ग के कारण किए गए भेदों की अवगणना करके सब मनुष्यों के लिये, फिर वह चाहे किसी भी योनि में क्यों न उत्पन्न हुआ हो-जन्म से भले ही वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र या चाण्डाल हो, पतित और दुराचारी हो—सब किसी के लिये किसी प्रकार का भेदभाव रखे बिना विश्वव्यापक प्रेम और अनन्त कारुण्य-भाव से धर्म के द्वार खोल दिए हैं । ऐसा होने पर भी धर्म की प्राप्ति में अथवा धर्म-प्राप्ति के निमित्तों का आश्रय लेने में यदि किसी पर प्रतिबन्ध लगाए जाएँ अथवा बाधा डाली जाय तो वह परमकारुणिक श्री जिनेश्वरदेव के शासन के विरुद्ध है । जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश के सुननेवालों का वर्णन करते हुए श्री हेमचन्द्राचार्य त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित के प्रथम पर्व के तीसरे सर्ग में कहते हैं
नियन्त्रणा तत्र नैव विकथा न च काचन ॥४७४॥ अर्थात्-जिन भगवान् की व्याख्यान-सभा में किसी प्रकार की नियन्त्रणा (प्रतिबन्ध) न थी ।
जैन दर्शन के अनुसार कोई भी मनुष्य चाहे वह गृहस्थ हो अथवा साधु-संन्यासी, चाहे उसकी दार्शनिक मान्यताएँ एवं क्रियाकाण्ड जैन सम्प्रदाय के अनुसार हों अथवा अन्य किसी सम्प्रदाय के अनुसार, मुक्ति प्राप्त कर सकता है । शर्त केवल एक ही है कि उसमें वीतरागता होनी चाहिए । इसीलिये कहा है कि
सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा लहए मुक्खं न संदेहो ॥
[आचार्य हरिभद्र] अर्थात्-श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या और कोई अन्य, यदि वह समभाव से युक्त हो तो अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है ।
जैनागम कैवल्य-प्राप्ति के लिये किसी वेषविशेष को निहत नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org