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तृतीय खण्ड
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मानता' । उसका स्पष्ट उद्घोष है कि मनुष्य चाहे गृहस्थ स्थिति में (गृहस्थलिङ्ग में) हो अथवा साधु-संन्यासी की स्थिति में ( साधुलिङ्ग में) हो, पुरुष हो या स्त्री हो, स्वसम्प्रदाय के वेष में (स्वलिङ्ग में) हो अथवा अन्य सम्प्रदाय के वेष में (अन्य-लिङ्ग में) हो— किसी भी हालत में हो, किन्तु यदि वह वीतरागता प्राप्त करे तो अवश्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
वीतरागता मानसिक अथवा आन्तरिक धर्म है और जब सच्ची वीतरागता प्रकट होती है तब उसका प्रभाव विचार, वाणी और व्यवहार में पड़ता है । वीतरागता के लिये संन्यास मार्ग को यदि सरल एवं राजमार्ग मान लें तब भी ऐसा एकान्त नहीं है कि उसके बिना वीतरागता की साधना शक्य न हो अथवा वह प्राप्त न हो सके । उपर्युक्त आगमपाठ से (गृहस्थलिंग से भी सिद्ध हो सकने के उल्लेख से) यह बात सिद्ध होती है । इसी प्रकार जैनदर्शनसम्मत दार्शनिक मान्यताओं को मान्य रखे बिना तथा जैनदर्शन में प्रमाणित क्रियाकाण्ड के अनुसार आचरण किए बिना वीतरागता आ नहीं सकती ऐसा भी नहीं है । यह उक्त आगम-पाठ से (अन्यलिङ्ग से भी सिद्ध हो सकने के उल्लेख से ) सिद्ध है । यहाँ पर इतना कह देना आवश्यक
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१. "मोक्षप्राप्तिं न वेषप्राधान्य,
किन्तु समभाव एव निर्वृतिहेतुः ।"
(सम्बोधसतति की दूसरी गाथा पर की गुणविनय वाचक की टीका)
अह भवे पइण्णा उ मोक्खसब्भूअसाहो ।
नाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए ॥
—— उत्तराध्ययन अ. २३, गाथा ३३. इस गाथा की भावविजयगणिकृत टीका में टीकाकार लिखते हैं कि "ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनम् न तु लिङ्गम् । श्रूयते हि भरतादीनां लिङ्गं विनापि केवलोत्पत्तिः । इति तत्त्वतो लिङ्गस्याऽकिंचित्करत्वान्न तदभेदो विदुषां विप्रत्ययहेतुः । "
२. इत्थिलिंगसिद्धा, पुरिसलिंगसिद्धा, सलिंगसिद्धा, अन्नलिंगसिद्धा, गिहिलिंगसिद्धा । - प्रज्ञापनासूत्र, प्रथम प्रज्ञापनापद, सिद्धप्रज्ञापनापद
केवलज्ञान की प्राप्ति मोक्ष ही है । देहधारी का यह मोक्ष जीवन्मुक्ति कहलाता है ।
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