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________________ १५० जैनदर्शन प्रतीत होता है कि जैन-धर्म की दार्शनिक मान्यताओं और उसके क्रियाकाण्डों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो वीतरागता की प्राप्ति में बाधक हो । इस के विपरीत, इसके दार्शनिक मन्तव्य तथा आयोजित क्रियाकाण्ड वास्तविक धर्माचरण में सविशेष उपकारक तथा सहायक हो सके ऐसे हैं । यदि जैनदर्शन के मन्तव्यों का सदुपयोग किया जाय और सदाचार प्रेरक क्रियाकाण्ड यदि समझ कर, उनकी रचना के पीछे रहा हुआ उद्देश बराबर जान कर किए जाये तो धर्म और मोक्ष दोनों पुरुषार्थ सिद्ध करने में सहायक हो सकते हैं । सदाचार-सच्चरितता ही धर्म की नींव है । इसके बिना कोई भी दार्शनिक मान्यता अथवा बाह्य क्रियाकाण्ड उसे पार उतारने में समर्थ नहीं है । सम्प्रदाय दुनिया में रहेगें । उनका नाश शक्य नहीं और नाश हो ऐसा चाहने की आवश्यकता भी नहीं । जिस किसी सम्प्रदाय का मनुष्य अपने सम्प्रदाय में रह कर यदि सन्मार्ग पर चले तो अपना उद्धार कर सकता है । सम्प्रदाय में रहना खराब नहीं है परन्तु साम्प्रदायिकता (साम्प्रदायिक संकुचितता) खराब है । अपने सम्प्रदाय पर के व्यामोह, कदाग्रह और दुरभिनिवेश के कारण दूसरे सम्प्रदायों को मिथ्या मानना अथवा उन्हें बुर कहना-ऐसी धर्मान्धता वैयक्तिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकर है । अपने सम्प्रदाय में रह कर भी बाहर के विचार-प्रवाहों के लिये अपनी विचारबुद्धि के द्वार सर्वदा खुले रहने चाहिए । मध्यस्थ बुद्धि से विचार करने पर जो कोई विचारधारा योग्य एवं जीवन के लिये हितावह प्रतीत हो उसे ग्रहण करने की उदारता रखनी चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि किसी भी सम्प्रदाय का मनुष्य अपने सम्प्रदाय में रह कर सबके साथ बन्धुभाव एवं मैत्री रखे और सदाचार के विशद मार्ग पर चले तो उसका कल्याण निश्चित है । (२) देव-गुरु-धर्म : शरीर में रही हुई आत्मा तात्त्विक दृष्टि से—उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से परमात्मा है—देव है, परन्तु कर्मावरणों से आवृत होने से अशुद्धभाव में विद्यमान है जिससे भवचक्र में परिभ्रमण करता है । वह अपनी अशुद्धता को हट कर अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकाशित हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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