SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड १५१ अर्थात् वीतरागता को सिद्ध करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार जो कोई मनुष्य देवत्व प्राप्त करता है वह देव है । जो वीतराग है वह देव है । हमारा आदर्श इस देवत्व को प्रकट करने का है । इस देवत्व को प्रकट करने की साधना में जो सुयोग्यरूप से प्रयत्नशील है वह त्यागी, संयमी, अपरिग्रही सन्त गुरु है । वह हमें अपने आदर्श की पहचान कराता हैं, वीतरागता क्या है यह समझाता है और इस स्थिति पर पहुँचने के लिये संसारी जीवन में कौनसा मार्ग विधेय है, आचरणीय है यह योग्य रूप से बतलाता है । अशुद्ध दशा दूर करके शुद्ध दशा ( वीतरागता ) जिस मार्ग से उपलब्ध होती हो उस मार्ग का नाम है धर्म । धर्म अर्थात् कर्तव्य मार्ग पर चलना अर्थात् विकासगामिनी कर्तव्य - साधना । इस देव-गुरु-धर्म को (इन तीन तत्त्वों को) सच्चे अर्थ में पहचानना, उन पर सच्ची श्रद्धा रखना इसे समकित (सम्यक्त्व) कहते हैं । परन्तु यह ' व्यवहार - सम्यक्त्व' है, जबकि 'आत्मा ही उसके मूल स्वरूप में सत्तारूप से देव है और कर्मावरणों को विध्वस्त करके अपने मूल स्वरूप में पूर्ण प्रकट हो सकता है' ऐसी विमल श्रद्धा से समुज्ज्वल आत्मपरिणाम 'निश्चय - सम्यक्त्व' है । विविधता में एकता अथवा समानता देखना अर्थात् सब प्राणियों को मूल में रही हुई है । यह है 1 । मैत्री आदि चार भावनाएँ ऐसी दृष्टि प्रकट हुए बिना अपने आत्मरूप देखना यह वस्तु सम्यग्दृष्टि के सिद्ध होने पर आगे का मार्ग सुगम बन जाता इस प्रकार की आत्मदृष्टि में से उत्पन्न होती है। मनुष्य तत्त्वतः 'सम्यक्त्वी' नहीं बन सकता । जहाँ ऐसी दृष्टि होती है वहाँ झगडे-बखेडे, वैर - विरोध, छीना-झपटी, उच्च-नीच भाव, अहंकारवृत्ति आदि कालुष्य नहीं होता और जहाँ होता है वहाँ वह झगड़े- टण्टे आदि से कलुषित स्वार्थमय अन्धकार के मार्ग को भेद कर स्वार्थत्याग, परोपकार और सेवा का मार्ग प्रकाशित करती है । ऐसी दृष्टि सदसद्विवेक के विकास के बिना प्राप्त नहीं होती । व्यवहार-सम्यक्त्व में से प्रगति करता हुआ जीव निश्चय - सम्यक्त्व प्राप्त करता है । यह प्राप्त होते ही आत्मा की दृष्टि शुद्ध बनती है । उस समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy