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जैनदर्शन आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें सविशेष प्रगति की होती है । अब तो उसके लिये धर्म की उत्तम भूमिका पर अर्थात् कल्याण-साधन के उच्च विकासगामी मार्ग पर प्रयाण करना ही अवशिष्ट रहता है जिससे वह भविष्य में वीतरागता प्राप्त कर सके अर्थात् स्वयं ही देव बन सके ।
'सम्यक्त्व' का विरोधी 'मिथ्यात्व' है । अतः यह स्पष्ट है कि मिथ्यात्व के हटने से ही सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है । इसलिये मिथ्यात्व किस-किस प्रकार का होता है यह भी तनिक देख लें । १. वस्तुगत मिथ्यात्व
शरीर को ही आत्मा मानना और इन दोनों के बीच की भिन्नता को स्वीकार न करना । २. ध्येयगत मिथ्यात्व- मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विपरीत बुद्धि : मोक्ष या वीतरागतारूप पूर्ण पावित्र्य को ध्येयरूप न मान कर शारीरिक अथवा भौतिक सुख को अन्तिम साध्य या जीवन का सर्वस्व मानना । ३. धर्मगत मिथ्यात्व
ध्येय तक पहुँचने के मार्ग के बारे में उलटी समझ । देहसुख या भौतिक वैभव के लिये अन्य प्राणियों के सुख दुःख की ओर सर्वथा असावधान रहकर अपनी भौतिक लालसा की पूर्ति के लिये हिंसा, अनीति, अन्याय के दारुण पाप करना; उन पापाचरणों को मिथ्यामार्ग (अधर्म) न समझना; दया-अनुकम्पा, नीति-न्याय, संयम-सदाचाररूप सद्गुणों को धर्म न मानना अथवा उनके विरोधी दुर्गुणों को-दोषों को धर्म समझना धर्मगत मिथ्यात्व है। ४. गुरुगत मिथ्यात्व
ध्येय की प्राप्ति के लिये अयोग्य उपदेशक को अर्थात् आसक्तिपूर्ण, दम्भी, अज्ञानी और विवेकहीन उपदेशक को गुरु मान लेना गुरुगत मिथ्यात्व है।
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