SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड ५. देवगत मिथ्यात्व — परम आदर्शरूप अनुकरणीय व्यक्ति के सम्बन्ध में उलटी समझ अर्थात् वीतराग परमात्मा को देवरूप न मानकर सराग व्यक्ति को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है । इस प्रकार का मिथ्यात्वभाव जीवनविकास का अवरोध है । १५३ (३) भगवान् की मूर्ति — जिस प्रकार भगवान् के नाम द्वारा भगवत्स्मरण होता है उसी प्रकार भगवान् की मूर्ति अथवा उनकी तसवीर द्वारा भी भगवत्स्मरण होता है । सामान्यतः मूर्ति अथवा तसवीर नाम से भी अधिक स्मृतिप्रेरक हो सकती है । जिन्हें अपने लिये मूर्ति की उपयोगिता लगती हो उन्हें, जिन्हें भगवत्स्मरण अथवा भगवद्भक्ति में भगवान् की मूर्ति का सहारा उपयोगी हो अथवा उपयोगी मालूम होता हो उन्हें वह सहारा सहर्ष लेने देना चाहिए और शुभ हेतु के लिये लिया जानेवाला ऐसा सहारा प्रशंसनीय मानना चाहिए । इसी प्रकार जो मूर्ति का अवलम्बन लिए बिना भगवद्भक्ति कर सकते हों अथवा स्वयं कर सकते हैं ऐसा मानते हों और इस कारण वैसा सहारा न लेते हों उन पर नुकतायीनी नहीं करनी चाहिए । अपने कषायों के उपशमन के लाभ के लिए भगवान् की मूर्ति का सहारा लेनेवाला, भगवान् की मूर्ति का सहारा न लेने के कारण दूसरे की निन्दा करे अथवा उसके साथ कषायभाव में उतरे तो वह अपने ध्येय से च्युत हुआ समझा जायगा । इस प्रकार किसी साधन का [बाह्य साधन का] अवलम्बन लेने- न - लेने की बात को पकड़कर संकुचित गुटबन्दी करना अथवा उसे पुष्ट करना योग्य नहीं है । जिसे मूर्ति के अवलम्बन की आवश्यकता प्रतीत न होती हो उसे भी मानवसमाज की - मूर्ति का अवलम्बन लेने की —- रुचि को ध्यान में रख कर इस रुचि को सन्तुष्ट करने के लिये कल्याणसाधन की दृष्टि से निमित्त एक विशिष्ट संस्कृति के धामरूप ऐतिहासिक एवं पवित्र देवालयों की ओर सम्मानवृत्ति रखनी चाहिए, और महात्मा पुरुषों के चित्र, मूर्ति या तसवीर की ओर जैसी सहज सम्मानवृत्ति होती है वैसी सहज सम्मान वृत्ति भगवान् की मूर्ति की ओर भी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy