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जैनदर्शन उसे होनी चाहिए । हाँ, इतना सही है कि वीतराग भगवान की मूर्ति में वीतरागता का प्रदर्शन होना चाहिए । राग-द्वेषरहित, अहिंसा-संयम-तप-त्याग के सद्गुणों के पूर्ण उत्कर्ष से प्रकाशित वीतराग भगवान की ध्यानस्थ मूर्ति में वीतरागता के साथ असंगत हो, वीतराग मुनि के लिये अयोग्य हो ऐसा दिखावा नहीं लाना चाहिए । (४) जीवननिर्वाह के लिये हिंसा की तरतमता का विचार
हिंसा के बिना जीवन अशक्य है इस बात का स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं है, परन्तु इसके साथ ही कम से कम हिंसा से अच्छे से अच्छा-श्रेष्ठ जीवन जीने का नियम मनुष्य को पालना चाहिए । परन्तु कम से कम हिंसा किसे कहना ?--यह प्रश्न बहुतों का होता है । किसी सम्प्रदाय के अनुयायी ऐसा मानते हैं कि 'बडे और स्थूलकाय प्राणी का वध करने से बहुत से मनुष्यों का बहुत दिनों तक निर्वाह हो सकता है, जबकि वनस्पति में रहे हुए असंख्य जीवों को मारने पर भी एक मनुष्य का एक दिन का भी निर्वाह नहीं होता । इसीलिये बहुत से जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक बड़े प्राणी को मारने में कम हिंसा है ।' ऐसे मन्तव्य वाले मनुष्य जीवों की संख्या के नाश पर से हिंसा की तरतमता का अन्दाज लगाते हैं । परन्तु यह बात ठिक नहीं । जैनदृष्टि जीवों की संख्या पर से नहीं किन्तु हिंस्य जीव के चैतन्यविकास पर से हिंसा की तरतमता का प्रतिपादन करती है। अल्प विकासवाले अनेक जीवों की हिंसा की अपेक्षा अधिक विकासवाले एक जीव की हिंसा में अधिक दोष रहा हआ है। ऐसा जैनधर्म का मन्तव्य है। इसीलिये वह वनस्पतिकाय को आहार के लिये योग्य मानता है, क्योंकि वनस्पति के जीव कम से कम इन्द्रियवाले अर्थात् एक इन्द्रियवाले माने जाते हैं और इनसे आगे के उत्तरोत्तर अधिक इन्द्रियवाले जीवों को आहार के लिये वह निषिद्ध बतलाता है । यही कारण है कि पानी में जलकाय के संख्यातीत जीव होने पर भी उनकी—इतने अधिक जीवों की विराधना [हिंसा] करके भी हिंसा होने पर भी एक प्यासे मनुष्य अथवा पशु को पानी पिलाने में अनुकम्पा है, दया है, पुण्य है, धर्म है-ऐसा सब कोई मानते हैं । इसका कारण यही है कि जलकाय के जीवों का समूह एक मनुष्य अथवा पशु की अपेक्षा बहुत
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