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तृतीय खण्ड
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अल्प चैतन्यविकासवाला होता है । इस पर से ज्ञात होगा कि मनुष्यसृष्टि के बलिदान पर तिर्यंचसष्टि के जीवों को बचाना जैन धर्म को मान्य नहीं है। परन्तु कोई व्यक्ति, जहाँ तक उसका अपना सम्बन्ध है वहाँ तक, स्वयं अपना बलिदान देने जैसी अपनी अहिंसा वृत्ति को यदि जागरित करे तो उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, जैसे कि भगवान् श्री शान्तिनाथ ने अपने पूर्वभव में शरणागत कबूतर को तथा राजा दिलीप ने गाय को बचाने के लिये अपने शरीर का बलिदान देने की तत्परता दिखलाई थी । परन्तु निरर्थक हिंसा के समय फूल की एक पत्ती को भी दुःखित करने जितनी हिंसा की जैनधर्म में मना है।
वनस्पति जीवों के दो भेद हैं—प्रत्येक और साधारण । एक शरीर में एक जीव हो वह 'प्रत्येक' और एक शरीर में अनन्त जीव हों वह 'साधारण वनस्पति है । कन्द-मूल आदि साधारण [स्थूल साधारण] हैं । इन्हें अनन्तकाय भी--कहते हैं । 'साधारण' की अपेक्षा 'प्रत्येक' की चैतन्यमात्रा अत्यधिक विकसित होती है । (५) शरीर का उपयोग
__ शरीर अस्थि, मांस, रक्त, चर्बी आदि का बना हुआ पूतला है और मल-मूत्रादि अशुचि से भरा हुआ है-इस प्रकार का विवेचन शरीर की ओर वैराग्य उत्पन्न करने के लिये किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु से देखने पर शरीर तो जिसका बनता हो उसका बने । दूसरी वस्तुओं से बनाने पर वह नहीं बन सकता । हमारी अपेक्षा प्रकृति कहीं अधिक कुशल और समर्थ है । शरीर में जो अशचि उत्पन्न होती है वह तो शरीर के निर्वाह एवं स्थैर्य के लिये जानेवाले आहार आदि में शरीरोपयोगी वस्तुओं के साथ-साथ जो निरुपयोगी पदार्थ मिश्रित होते हैं उसके कारण है । शरीर एक ऐसा अद्भुत
१. 'सूक्ष्म साधारण' जीवों और सूक्ष्म पृथ्वी-जल-तेज-वायु के जीवों में सम्पूर्ण
लोकाकाश ठूस दूंसकर भरा है। ये परम सूक्ष्म जीव संघर्षव्यवहार में बिलकुल नहीं आते । 'साधारण' को 'निगोद' भी कहते हैं । अतः 'सूक्ष्म साधारण' को सूक्ष्म निगोद और 'स्थूल साधारण' को स्थूल निगोद (बादर निगोद) कहते हैं ।
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