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________________ १५६ जैनदर्शन यन्त्र है जो सारभूत वस्तुओं को अपने उपयोग में लेकर और निरुपयोगीअशुचि वस्तुओं को बाहर फेंक कर अपने को (शरीर को) कार्यक्षम रखने का स्वतः सतत प्रयत्न करता रहता है । शरीर जबरदस्ती त्याग करने जैसी अथवा जैसे हो वैसे जल्दी नाश करने जैसी वस्तु नहीं है । शरीर को तो कार्यक्षम एवं नीरोग स्थिति में रखने की आवश्यकता है जिससे उसका प्रभाव मन पर पड़े और मन शरीरविषयक दुश्चिन्तन में से विमुक्त रहे । निःसन्देह, शरीर के भोगोपभोग के लिये अनावश्यक हिंसा न होनी चाहिए तथा झूठअनीति- - अन्याय का आचरण नहीं करना चाहिए— इतनी ही बात प्रस्तुत विषय में मुद्दे की और खास ध्यान में रखने योग्य तथा आचरण करने योग्य है । यह तो समझ में आ सके ऐसा है कि आत्मा अपने शरीर में ही रह कर अपनी ज्ञानशक्ति और कार्यशक्ति का उपयोग करके मोक्ष की साधना कर सकता है । आत्मा जब तक अन्तिम शरीर छोड़ कर मोक्ष प्राप्त नहीं करता तब तक उसे शरीर की आवश्यकता है और तब तक उसके साथ शरीर लगा ही रहने का । फिर भी अज्ञानवश शरीर का त्याग करने जैसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो वह आत्महत्या जैसी प्रवत्ति समझी जायगी । ऐसी प्रवृत्ति पापरूप मानी गई है । त्याग शरीर का नहीं, दुर्वृत्ति तथा दुष्प्रवृत्ति का करने का है । आत्महत्या और 'संलेखना' में अन्तर है । आत्महत्या कषाय के आवेग का परिणाम है, जबकि संलेखना त्याग एवं दया का परिणाम है । जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रही हो और अपने लिये दूसरों को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता हो वहाँ शरीरत्याग करने में दूसरों पर दया - भाव रहा है । कुछ लोग पानी में डूब मरने का, कोई पर्वत पर से गिर करके मरने का अथवा दूसरे प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु यह अन्धश्रद्धा की बात है । हाँ, कर्तव्य की वेदिका पर बलिदान देना सच्चा बलिदान है । जनरक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करना अथवा दूसरों की सेवा के लिये यदि अपना शरीर देना पड़े तो वह दे देना सच्चा बलिदान है, परन्तु अमुक जगह पर मरने से अथवा अमुक का नाम लेकर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिलता है इस प्रकार की अन्धश्रद्धा से प्रेरित होकर प्राणत्याग करना बुरा है । जैनधर्म ने उपवास के अतिरिक्त मृत्यु के अन्य उपायों की I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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