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________________ १५७ तृतीय खण्ड मना की है। यह एक प्रकार का प्रशस्य संशोधन है । जब किसी असाध्य बीमारी में असह्य कष्ट हो रहा हो और दूसरों से खूब सेवाशुश्रूषा करानी पड़े तब उपवास करके शरीर त्याग करना उचित समझा जा सकता है । उपवासचर्या भी एकदम नहीं परन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन पर, बाद में छाछ आदि किसी पेय वस्तु पर उसके पश्चात् शुद्ध जल पर रहकर- इस प्रकार आगे बढते हुए उपवास पर आना चाहिए । इस प्रक्रिया में कितने ही दिन, महीने, और शायद अनेक वर्ष भी लग सकते हैं । एकदम प्राणत्याग करने में जो स्वपर को संक्लेश होता है वह इस प्रक्रिया में नहीं होता । और यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय बन सकती है अर्थात् इस प्रकार की प्रक्रिया से कभी-कभी बिमारी में से स्वस्थ भी हुआ जा सकता है । इस प्रकार की प्रक्रिया से बीमारी दूर हो जाने पर संलेखना बन्द कर देनी चाहिए । उपवास-चिकित्सा एवं संलेखना में अन्तर है । चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और तदर्थ प्रवृत्ति होती है, परन्तु संलेखना तो तभी की जाती जब जीवन की कोई आशा ही न हो और न उसके लिये किसी प्रकार का प्रयत्न हो । परन्तु उपर्युक्त संलेखना की प्रक्रिया से यदि शरीर अच्छा हो जाय तो फिर जबरदस्ती से प्राणत्याग करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि संलेखना की प्रक्रिया आत्महत्या नहीं किन्तु मृत्यु के सम्मुख वीरतापूर्वक आत्मसमर्पण की प्रक्रिया है । इससे मनुष्य शान्ति एवं आनन्द से अपने प्राणों का त्याग करता है । मृत्यु से पूर्व उससे जो कुछ करना चाहिए वह सब वह कर लेता है । परन्तु मृत्यु यदि टल जाय तो उसे जबरदस्ती नहीं बुलानी चाहिए । (६) अनुकम्पा और दान दया धर्म का मूल है । योग्य दान दयाधर्म का क्रियात्मक पालन है, फिर चाहे वह मानसिक, वाचिक अथवा साम्पत्तिक शक्ति का क्यों न हों । यदि हमारी दया से कोई भी व्यक्ति जीवित रहेगा तो जबतक वह जिएगा तबतक जो जो हिंसादि दोषों से युक्त अथवा जो जो अपकृत्य वह करेगा उसका उत्तरदायित्व भी हम पर आयगा -ऐसा लोगों में भ्रम उत्पन्न करना तथा दया एवं दान के शुभ प्रवाह को सूखा डालने का प्रयत्न करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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