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जैनदर्शन
घोर पाप है । अमुक व्यक्ति भविष्य में कैसा आचरण करेगा यह हम नहीं जानते, फिर भी इस प्रकार के ज्ञान के अभाव में वह अच्छी तरह नहीं बरतेगा और, उसका आचरण सदोष ही होगा इस प्रकार का पूर्वग्रह धारण करके दया करने से दूर रहना- इसमें सचमुच घोर अज्ञान रहा हुआ है । सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने में स्वतन्त्र है और यदि उसका बरताव खराव हो अर्थात् हमारी दयोपचार की सहायता से मरने से बचा हुआ मनुष्य यदि दुष्ट आचरण करे तो उसने अपनी स्वतन्त्रता का दरुपयोग किया इतना ही कहा जा सकता है । परन्तु उसके दोष का भागी उसे दुःख में सहायता करके उसका जीवन बढ़ने में सहायक होनेवाला, उसे बचानेवाला अथवा उसे आराम पहुँचानेवाला मनुष्य नहीं हो सकता । शुद्ध अनुकम्पाभाव से की हुई दया अथवा दी हुई शान्ति का लाभ प्राप्त करके स्वस्थ हो के मनुष्य पीछे से चाहे जिस प्रकार से बरते उसके साथ दया करने वाले उस मनुष्य को कुछ कभी लेना देना नहीं है । उसे तो केवल अपनी शुद्ध अनुकम्पा का पुण्य फल ही मिलता है । परन्तु यदि कोई लुटेरा लूटने के लिए, डाका डालने के लिये जाता हो और यह बात हम जानते भी हों तब भी रास्ते में यदि हम अपने यहाँ आश्रय दें, उसे खिलाएँ- पिलाएँ तो उसे लूटने या डाका डालने में जो पाप वह करेगा उसके साझी हम भी होंगे ।
(७) मैत्री आदि चार भावनाएँ
'समानशीलव्यसनेषु सख्यम्' अर्थात् समान आचार और समान आदतवालों में परस्पर मित्रता होती है अथवा हो सकती है । इस उक्ति के अनुसार, सब जीव - निकृष्ट श्रेणी के शरीरधारियों से लेकर अत्यन्त उच्च कक्षा के शरीरधारियों तक के सब संसारवर्ती जीव स्वरूप से अर्थात् अपने सत्तागत मूल रुप से सर्वथा एक समान होने से अर्थात् इस प्रकार की मौलिक पूर्ण समानता होने से सब प्राणियों में पस्पर मैत्री होने की उर्मिल कल्पना उठ सकती है, परन्तु तिर्यगयोनि के प्राणियों में अज्ञानता, और विवेक का अभाव होने से इस प्रकार का व्यापक मैत्रीभाव यदि न हो अथवा न सधे तो यह समझा जा सकता है, किन्तु मनुष्यों में समझ और बुद्धि विशेष मात्रा में होने से उनमें मैत्रीभाव की सिद्धि सम्भाव्य है । फिर भी ऐसा न होकर उसकी
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