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________________ तृतीय खण्ड १५९ जगह पशुसृष्टियोग्य ईर्ष्या, द्वेष क्रूरता, वैरविरोध और स्वार्थान्धता प्रकाण्ड घटाटोप मानवजाति में फैला हुआ दृष्टिगोचर होता है । इस पर से यही फलित होता है कि ऐसे मनुष्य पाशविक वासनामय आवरण के भिन्न-भिन्न परदों को चीरकर ऊँचे नहीं आए हैं । किन्तु विवेकबुद्धि मनुष्य के चित्त के निकट कोई वस्तु है, अत: यदि वह शान्त और स्थिर होकर विवेकयुक्त विचार करे तो सब प्राणी समान हैं यह बात उसकी समझ में झट आ जाय ऐसी है, जिससे इसके अनुसंधान में सब प्राणियों की ओर उसके चित्त में मैत्रीभाव उत्पन्न होने की बहुत शक्यता रहती है । वेदान्त दर्शन सब जीवों को ब्रह्म की चिनगारीरूप मानता है और जैन, वैशेषिक, सांख्य, योग आदि दर्शनकार सब जीवों को पृथक् पृथक् स्वतन्त्र और अखण्ड द्रव्य मानने के साथ ही साथ वे सब मौलिक रूप से समान हैं ऐसा मानते हैं । इस प्रकार सब आर्य दर्शनकार 'सब जीव मूलतः एक समान तेजः स्वरूप हैं' ऐसा प्रतिपादन करके उसके फलितार्थरूप 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' अर्थात् किसी की ओर द्वेषवृत्ति न रखकर प्राणीमात्र की ओर मैत्रीभाव रखने की तथा दीनदुखियों की ओर दयालु बनने की घोषणा करते हैं । ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध आदि दोष, दूसरे का अपकार और सामाजिक अशान्ति पैदा करने के साथ ही साथ अपने आत्मा की भी दुःखद हिंसारूप है । अतएव इन दोषों को दूर करने के लिये आर्य सन्त महात्मा प्रबल अनुरोध करते है ।। जैन एवं पातंजल आदि दर्शन आत्मौपम्य की भावना के आधार और इस भावना को विकसित करने की दृष्टि से मैत्री आदि (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ्य) चार भावनाएँ बतलाते हैं। इनके अनुशीलन के आधार पर जीवन की उत्तरोत्तर विकासभूमि पर आरोहण करना सुगम बनता है । ये चार भावनाएँ इस प्रकार है : १. काम एवं क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ -भगवद्गीता अ. ३, श्लो. ३७. अर्थात्-रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला यह काम, यह क्रोध सर्वभक्षी, सर्वघाती महाराक्षस है । इसे तु अपना वैरी समझ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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