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जैनदर्शन मैत्री भावना
प्राणीमात्र में मैत्रीवृत्ति रखना उसका विकास करना मैत्री-भावना है। ऐसी वृत्ति के विकास पर ही प्रत्येक प्राणी के साथ अहिंसक और सत्यवादी रहा जा सकता है। मैत्री अर्थात् अन्य आत्माओं में अन्य आत्माओं के साथ आत्मीयता की भावना । ऐसी भावना होने पर दूसरों को दुःख देने की अथवा दूसरों का अहित करने की वृत्ति पैदा होने नहीं पाती; इतना ही नहीं, दूसरों का भला करने की ही वृत्ति सदा जागरित रहती है । इस भावना का विषय प्राणीमात्र है। प्रमोद-भावना
मनुष्य बाह्य सम्पत्ति के बारे में दूसरे को अपने से बढ़ा हुआ देखकर ईर्ष्या करने लगता है, परन्तु उसकी वह सम्पन्नता उसने यदि अपने सद्गुणों से अथवा शुभकर्मजन्य पुण्य के परिणामस्वरूप प्राप्त की हो और उसका उपयोग वह शुभ कार्य में करता हो तो उसकी ईर्ष्या करने के बदले उसके शुभ-पुण्य कार्यों का तथा गुणो का अनुमोदन करके हमें प्रसन्न होना चाहिए । अनीति, अन्यायाचरण के विरुद्ध असन्तोष अथवा पुण्यप्रकोप प्रकट करना उचित है । परन्तु सिर्फ अपने से दूसरा बड़ा है इस कारण उस पर द्वेष अथवा ईर्ष्या करना गलत है । ईर्ष्यालु मनुष्य अपने दुःख से दुःखित होता है और साथ ही दूसरों के सुख से दु:खी होकर दुगुना दुःखानुभव करता है । जब तक ईर्ष्या जैसे दोष दूर न हों तब तक सत्य, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । अतः ईर्ष्या जैसे दोषों के विरुद्ध प्रमोदवृत्ति विकसित करनी आवश्यक है । जो अपने से गुण में अधिक है उस पर प्रमुदित होना, उसका आदर करना प्रमोद भावना है । इस भावना का विषय अपने से गुण में अधिक ऐसा मनुष्य है । अपने इष्टजन की अभिवृद्धि देखकर जिस प्रकार आनन्द होता है उसी प्रकार प्राणीमात्र की ओर जब आत्मीयता का भाव उत्पन्न हुआ हो तभी किसी भी गुणाधिक को देखकर प्रमोद उत्पन्न हो सकता है । अत: इस भावना के मूल में आत्मीयता की बुद्धि रही हुई है ।।
सामान्यतः किसी भी गुणी के गुण की ओर प्रमोद (प्रसन्नता) होना
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