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तृतीय खण्ड
१६१
प्रमोद - भावना है । गुणी के गुणों का अनुरागी होना स्वयं गुणी बनने का राजमार्ग है ।
उपर्युक्त दोनो भावनाओं के बारे में तनिक विशेष अवलोकन करें :
दूसरों का सुख देखकर अथवा दूसरों को अधिक सुखी देखकर मनुष्य के मन में ईर्ष्या या असूयाभाव उत्पन्न होता है, परन्तु व्यापक मैत्रीभाव उसके हृदय में यदि उत्पन्न हो तो वह दूसरे के सुख को देख कर उसे ( अर्थात् उसके सुख को ) अपने मित्र का अथवा अपने आत्मीय का समझता है जिससे उसकी ओर उसके मन में ईर्ष्या या असूया उत्पन्न न होकर वह मानसिक स्वस्थता का अनुभव करता है । इसीलिये सुखी पुरुष का सुख भी मैत्री - भावना का विषय बतलाया गया है । अर्थात् दूसरे के सुख की
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१. मैत्रीकरुणमुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त- प्रसादनम् । - पातंजल योगदर्शन पाद १, सूत्र ३३.
अर्थात् - मैत्री का विषय सुख, करुणा का विषय दुःख, मुदिता का ( प्रमोद का ) विषय पुण्य और उपेक्षा का विषय निष्पुण्यत्व है । इस प्रकार इन (मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा) भावनाओं के अनुशीलन से चित्त का प्रसाद सम्पादन किया जा सकता है ।
इसी विषय में महर्षि श्री उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' के सातवें अध्याय का छठा सूत्र है-
'मैत्री - प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थ्यानि सत्त्वं गुणाधिक-क्लिश्यमानाऽविनेयेषु ।” अर्थात् - प्राणीमात्र में मैत्री, गुण से बड़ों में प्रमोद, दुःखी जनों में करुणा और जड़ जैसे अपात्रों में माध्यस्थ्य भावना रखना ।
प्रस्तुत चार भावनाओं के बारे में आचार्य अमितगति का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है कि
"सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥ "
अर्थात् — हे प्रभो ! (१) प्राणियों पर मैत्री, (२) गुणी जनों पर प्रमोद, (३) दुःखी जीवों पर करुणा और (४) दुष्टवृत्तिवालों पर मध्यस्थभाव मेरा आत्मा प्राप्त करे ।
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