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जैनदर्शन
ओर सुहृद्भाव रखना मैत्री - भावना है। प्रमोद - भावना के बारे में यह सूचित करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कोई मनुष्य धनवान, बलवान अथवा सत्ताशाली हो या भौतिक तौर पर यदि सुखी माना जाता हो तो इतने पर से ही उस पर प्रमुदित होना ऐसा कहने का आशय नहीं है, परन्तु यदि वह अपने धन का, बल का अथवा अधिक अधिकार का उपयोग दीन-दुःखी मनुष्यों को अच्छी दशा में लाने के लिये अथवा उनके दुःख दूर करने के लिये करता हो तो उस मनुष्य को गुणी समझ कर उसके गुण की ओर प्रमुदित होना योग्य है । मनुष्य भले ही निर्धन हो, परन्तु यदि वह प्रमाणिक रूप से उद्यम अथवा श्रम करके अपनी आजीविका चलाता हो और उसी में सन्तोष मानता हो तो उसके ऐसे सद्गुणों के लिये प्रमुदित होना उचित है । प्रमोद का विषय पुण्य कहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि यदि कोई अपनी पुण्यवत्ता का दुरुपयोग करे तब भी उस पर प्रमुदित होना । वस्तुतः प्रमोद का विषय पुण्यवत्ता यानी पुण्याचरणशीलता है ।
करुणा-भावना-
अब करुणा - भावना के बारे में देखें । पीडित को देख कर हृदय में यदि अनुकम्पाभाव बहने न लगे तो अहिंसा आदि व्रत टिक नहीं सकते । इसलिये करुणा - भावना की आवश्यकता है । इस भावना का विषय दु:खी जीव है । क्योंकि अनुग्रह अथवा सहायता की अपेक्षा दुःखी, दीन, अशक्त, अनाथ को ही होती है । प्रत्येक जीव के साथ आत्मीयता - बुद्धि हो तभी, इष्टजन को दुःखी देख कर जिस प्रकार एक तरह का कल्याणमय मृदु संवेदन हृदय में अभिव्याप्त हो जाता है उसी प्रकार, किसी को भी पीड़ित देखकर करुणा का पवित्र स्रोत बहने लगे, इस तरह इस भावना के मूल में आत्मीयता
बुद्धि रही हुई है । भवचक्र के दुःख में पड़े हुओं का उद्धार करने की भावना किसी सन्त के हृदय में उत्पन्न हो यह भी करुणा-भावना । ज्ञानी महात्मा और केवली भगवान् सर्वानुग्रहपरायण करुणाशील होते हैं । इसीलिए उनका 'परम कारुणिक' ऐसे विशेषण से उल्लेख किया जाता है ।
माध्यस्थ्य भावना
कभी-कभी अहिंसादि गुणों की रक्षा के लिए तटस्थता धारण करना
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