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तृतीय खण्ड
१६३
उपयोगी होता है । अतः माध्यस्थ्य - भावना की भी आवश्यकता है । 'माध्यस्थ्य' अर्थात् तटस्थता अथवा उपेक्षा । जड़बुद्धि, अथवा उपयोगी और हितकारी उपदेश ग्रहण करने की पात्रता जिसमें बिल्कुल न हो ऐसे किसी व्यक्ति को सुधारने का परिणाम अन्ततः जब शून्य में आए तब ऐसे व्यक्ति की ओर तटस्थभाव अथवा उपेक्षावृत्ति रखने में ही श्रेय है । इसलिये इस भावना का विषय अविनेय ( अयोग्य) पात्र है । प्रत्येक प्राणी के साथ आत्मीयता - बुद्धि हो तो तभी अविनेय (दुर्मति, दुष्ट अथवा मुर्ख) मनुष्य की ओर क्रूरता; द्वेष या क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न न हो कर उसकी ओर शुद्ध तटस्थभाव रह सकता है, जैसा कि वैसा ही किसी अपने इष्टजन के बारे में रहता है ।
इन भावनाओं में जिस प्रकार दुःखी जन करुणा का विषय है उसी प्रकार दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भी दया का भावदया का विषय है । ऐसों की ओर उत्पन्न होनेवाली अथवा रखी जानेवाली माध्यस्थ्यभावना भावदयागर्भित होती है । छोटे बच्चे, आत्मीय स्नेही स्वजन अथवा किसी प्रेमीजन की ओर से होनेवाले अनादर अथवा अपमान से जिस प्रकार हमारे मन में स्वमानभंग की कल्पना उत्पन्न नहीं होती उसी प्रकार मैत्री आदि भावनाओं के सबल संस्कार से परिष्कृत तथा प्रकाशित चित्तवाले सुज्ञ महानुभाव के मन में दूसरों के द्वारा किए गये अनादर अथवा अपमान से स्वमानभंग होने की कल्पना उत्पन्न नहीं होती । विश्वबन्धुत्व की भावना में रममाण सज्जन के लिये यदि गुणी मनुष्य प्रमोद का विषय है तो दुर्मति, दुष्ट मनुष्य भावदयागर्भित माध्यस्थ्य-भावना का विषय है । आचार्य हेमचन्द्र अपने योगशास्त्र के प्रारम्भ के मंगलाचरण में कहते हैं कि :
कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः । ईषद्बाष्पार्द्रयोर्भद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः ! ॥३॥
अर्थात् — अपराधी मनुष्य के ऊपर भी प्रभु महावीर के नेत्र दया से तनिक नीचे झुकी हुई पूतलीवाले तथा करुणावश आए हुए किंचित् आँसुओं से आर्द्र हो गये ।
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