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( ४ ) विश्वप्रेम और मनशुद्धि
प्रेम - शुद्ध प्रेम (व्यापक मैत्री) के सद्गुण सब प्राणियों के हित की दृष्टि से कार्य करता है और ऐसा वत्सलमना मनुष्य अपना हित साधता है तो वह विश्व के एक घटक - विश्व के एक अंगभूत अवयव के रूप में ही । उसका अपना हित परहित का विरोधी नहीं होता । ( यहाँ पर हित तीनों प्रकार का हित अर्थात् भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक हित लेना है ।) व्यापक प्रेमभाव से किया गया कोई भी कार्य 'स्व' और 'पर' के लिये हितकारक होता है और कल्याणकर बनता है ।
जैनदर्शन
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शुद्ध प्रेम (अहिंसा) के दो स्वरूप हैं निषेधात्मक और विधेयात्मक । निषेधात्मक प्रेम जहाँ तक हो सके वहाँ तक किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट अथवा हानि न पहुँचाने में चरितार्थ होता है । इस प्रकार का प्रेम विश्व के बहुत से प्राणियों में व्याप्त होकर रहता है । विधेयात्मक प्रेम अन्य प्राणियों की सेवा अथवा परोपकार की प्रवृत्ति में परिणत होता है । ऐसा प्रेम भावना में भले विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों में व्यास होकर रहना चाहता हो, परन्तु व्यवहार में तो वह व्यक्ति की शक्ति-मर्यादा में रहकर ही चरितार्थ होता है । किसी सज्जन का प्रेम विश्वव्यापी हो तो भी उसकी अभिव्यक्ति तो उस सज्जन महानुभाव की अपनी शक्ति के अनुसार मर्यादित क्षेत्र में हो सकती है । इससे वह विश्वप्रेम नहीं मिट जाता, क्योंकि वह व्यापक हित करने में अशक्त हो तो भी व्यापकहित भावना तो उसके हृदय में प्रदीप्त रहती ही है ।
इस प्रेम के प्रयोग के क्रम के बारे में सामान्यतः ऐसा कह सकते हैं कि इस प्रेम को कार्यरूप में परिणत करने के समय इसका प्रारम्भ कुटुम्ब से होता है और यह इष्ट भी है; परन्तु यदि शक्ति हो तो वह नहीं रूकना चाहिये और शक्ति की अभिवृद्धि के साथ उसके प्रयोग का क्षेत्र भी बढ़ाना चाहिए -- "Charity begins at home, but it does not end there.” अर्थात् दान का प्रारम्भ घर से होता है, परन्तु उसका अन्त वहीं नहीं होता । कुटुम्ब - प्रेम, ग्राम- प्रेम, राष्ट्र- प्रेम और विश्व-प्रेम- ये सब उत्तरोत्तर विकसनशील प्रेम के दृष्टान्त हैं । परन्तु कभी - कभी ऐसे आपवादिक प्रसंग
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