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________________ तृतीय खण्ड १६५ उपस्थित हो जाते हैं जब कुटुम्ब अथवा गाँव की उपेक्षा करके देश अथवा राष्ट्र के कार्य को उठा लेना पड़ता है । यह बात खास ध्यान में रखने योग्य है कि उपर्युक्त कुटुम्ब - प्रेम आदि प्रेम के कारण अन्य कुटुम्ब, अन्य ग्राम, अन्य देश अथवा अन्य राष्ट्र को यदि नुकसान पहुँचाया जाय अथवा उसका अनुचितरूप से शोषण किया जाय तो वह शुद्ध प्रेम मिटकर कलुषित राग बन जाता है जो सर्वथा त्याज्य है । कुछ लोग प्रेम के निषेधात्मक स्वरूप से ही सन्तुष्ट रह कर उसके विधेयात्मक स्वरूप की ओर उदासीनता रखते हैं और इसी में कृतकृत्यता मानकर अथवा मनाकर अकर्मण्य बने रहते हैं । परन्तु इस प्रकार का प्रेम अपूर्ण ही समझना चाहिए । अपनी जीवनचर्या के लिये प्राणी सृष्टि के पास से हम जो लेते हैं उसका ऋण हम पर चढ़ता है, अतः हमें यह ऋण चुकाना है और प्राणीसमाज के लिए हितकारक प्रवृत्ति करके परोपकार तथा सेवामार्ग से ही हम वह ऋण चुका सकते हैं । जो अन्तर्जाग्रत दशा के चारित्रशाली सन्त निःसंग दशा में रहकर उच्च आध्यात्मिक विकास की अपनी साधना में निमग्न रहते हैं उन सच्चे त्यागी आत्मपरायण महानुभावों का समाज के लिये किञ्चिन्मात्र भी उपाधिरूप बोझरूप न होना बहुत बड़ी बात है । सच्चे सन्त पुरुष तो समाज के पास से जो लेते हैं उससे कहीं अधिक वे समाज को देते हैं । इसलिये समाज उनका सदा ही ऋणी रहता है; और ऐसे ही मनुष्यों को अपनी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये समाज से कहने का नैतिक अधिकार प्राप्त होता है । समाज उन्हें चाहे जितना दे, फिर भी वह सदा कम ही रहने का । विश्व- प्रेम आध्यात्मिक प्रेम है और वह आध्यात्मिक जीवन के विकास पर अवलम्बित है । जैसे-जैसे चित्तशुद्धि होती है वैसे-वैसे आत्मौपम्य की दृष्टि विकसित होती जाती है और वैसे-वैसे प्राणीवात्सल्य विमल और विशाल बनता जाता है । वैर - विरोध, अभिमान तथा राग - रोष का दूर होना T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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