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जैनदर्शन
ही मन का निर्मलीकरण है । इन दोषों के दूर होने में ही चित्त की प्रसन्नत्ता है । आसक्ति तथा कषायों का कमजोर होना अथवा कमजोर होते जाना ही मन की शोधन क्रिया है । जैसे जैसे कषाय कमजोर होते जाते हैं वैसे-वैसे मन का दुश्चिन्तन भी कम होता जाता है और वैसे-वैसे वह शुभ-चिन्तनपरायण बनता है । अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होने पर भी यदि मन क्षुब्ध न हो, अपनी समतुला न खोए, राग-द्वेष-मोह के वश न हो तब वह चित्त के निर्मलीकरण की साधना समझी जाती है । जब यह साधना सतत जाग्रत रहकर दृढतम अवस्था पर पहुँचती है तब स्थितप्रज्ञ और वीतराग दशा प्राप्त होती है । । प्रलोभक अथवा क्षोभक घटना के समय सांसारिक घटनाओं की तथा विषय-भोगों की चमक-दमक की क्षणभंगुरता का विचार करके तथा मोहवासना से उत्पन्न होनेवाला रस परिणाम में सन्तापरूप है यह ध्यान में रखकर और संयोग-वियोग, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख आदि प्रसंग संसारी जीवन के साथ अनिवार्यरूप से सम्बद्ध हैं ऐसा समझ कर मन की स्वस्थता सुरक्षित रखनी चाहिए।
मानसिक शुद्धि आहिस्ता-आहिस्ता सिद्ध होती है । इन्द्रियों के समुचित संयम से मनशुद्धि का मार्ग सरल होता है । मन की चंचल स्थिति तो प्रायः लम्बे समय और लम्बा 'प्रवास' करने के बाद दूर होती है । अतः इसके चांचल्य की चमक से न घबराकर उस पर योग्यरूप से सतर्क रहने के साथ ही साथ इन्द्रियों पर अखन्ड नियन्त्रण रखना चाहिए । जितेन्द्रियत्व प्रतिष्ठित होने पर मनःसंयम पूर्णरूप से प्रकाशमान होने लगेगा और इसी में से पूर्णशुद्धि एवं दिव्य प्रकाश प्रकट होंगे ।
१. भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में उल्लेख हैं कि
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥१॥ अर्थात्-सब इन्द्रियों को संयम में रखकर और समाहित हो कर मनुष्य भगवत्परायण रहे । जिसने अपनी इन्द्रियाँ वश में की हैं वह स्थितप्रज्ञ होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय होने से स्थितप्रज्ञ हुआ जा सकता है ।
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